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<s>[INST]भारतीय मानसून सबसे जटिल भू-भौतिकीय घटनाओं में से एक बना हुआ है। इस कथन के आलोक में भारतीय मानसून के आरंभ की प्रक्रिया की व्याख्या कीजिये।[/INST]उत्तर :
दृष्टिकोण:
भारतीय मानसून की घटना का संक्षेप में वर्णन करते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये।
भारतीय मानसून की शुरुआत की प्रक्रिया बताइये।
उपयुक्त निष्कर्ष दीजिये।
परिचय
भारतीय मानसून को पवनों के मौसमी उलटफेर के रूप में वर्णित किया जा सकता है। भारतीय मानसूनी हवाएँ गर्मी के दौरान समुद्र से भूमि की ओर तथा सर्दियों के दौरान भूमि से समुद्र की ओर चलती है।
भारतीय मानसून की प्रक्रिया को दो चरणों में समझा जा सकता है, दक्षिण-पश्चिम मानसून की शुरुआत और मानसून का निवर्तन।
दक्षिण-पश्चिम मानसून की शुरुआत:
तापमान में अंतर: भूमि और पानी के ऊष्मण और शीतलन में अंतर भारत के भू-भाग पर कम दबाव और हिंद महासागर क्षेत्र पर उच्च दबाव बनाता है।
ITCZ का स्थानांतरण: इससे गंगा के मैदान पर गर्मियों में इंटर-ट्रॉपिकल कन्वर्जेंस ज़ोन (ITCZ) की स्थिति में बदलाव होता है। इस स्थिति में ITCZ को अक्सर मानसून द्रोणी कहा जाता है।
हवाओं का झुकना: दक्षिणी गोलार्द्ध की दक्षिण-पूर्वी व्यापारिक पवनें भूमध्य रेखा को पार करती हैं और कोरिओलिस बल के प्रभाव में दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्व दिशा में बहने लगती हैं।
जैसे ही ये पवनें गर्म हिंद महासागर की ओर बहती हैं, वे नमी ग्रहण करती हैं।
पश्चिमी जेट स्ट्रीम की वापसी: ITCZ की स्थिति में बदलाव का संबंध पश्चिम भारतीय मैदान व हिमालय के दक्षिण में पश्चिमी जेट स्ट्रीम की स्थिति में बदलाव की घटना से भी संबंधित है।
पूर्वी जेट स्ट्रीम की शुरुआत: पश्चिमी जेट स्ट्रीम के इस क्षेत्र से हटने के बाद ही पूर्वी जेट जेट स्ट्रीम (सोमाली जेट) 15°N अक्षांश में स्थापित हो जाती है।
इस जेट स्ट्रीम को भारत में मानसून के आगमन के लिये ज़िम्मेदार माना जाता है। जैसे ही ये पवनें भूमि के पास पहुँचती हैं, उनकी दक्षिण-पश्चिमी दिशा उत्तर पश्चिमी भारत पर कम उष्मीय दबाव द्वारा संशोधित हो जाती है।
मानसून को शाखाओं में विभाजित करना: मानसून का आगमन भारतीय भूभाग में दो शाखाओं से होता है:
अरब सागर शाखा: मानसूनी हवाएँ अरब सागर में उत्पन्न होती हैं।
बंगाल की खाड़ी की शाखा: म्याँमार के तट के साथ अराकान पहाड़ियाँइस शाखा के एक बड़े हिस्से को भारतीय उपमहाद्वीप की ओर भेजती है।
निष्कर्ष
इन दो शाखाओं के चलते ही एक शाखा अरब सागर की तरफ से मुंबई, गुजरात एवं राजस्थान होते हुए आगे बढ़ती है तो दूसरी शाखा बंगाल की खाड़ी से पश्चिम बंगाल, बिहार, पूर्वोत्तर होते हुए हिमालय से टकराकर गंगीय क्षेत्रों की ओर मुड़ जाती है और इस प्रकार जुलाई के पहले सप्ताह तक पूरे देश में अत्यधिक वर्षा होने लगती है।
यह भारत में एक बड़ी भूमिका निभाता है और इसमें सामाजिक तथा राजनीतिक के साथ ही आर्थिक निहितार्थ भी हैं।</s> |
<s>[INST]चुनाव प्रक्रिया में प्रौद्योगिकी के बढ़ते उपयोग ने साइबर सुरक्षा को एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा बना दिया है। विश्लेषण कीजिये।[/INST]प्रश्न का उत्तर जल्द ही प्रकाशित होगा।</s> |
<s>[INST]पश्चिमी विक्षोभ की व्याख्या करते हुए भारतीय मौसम प्रणालियों पर उसके प्रभाव का वर्णन कीजिये।[/INST]उत्तर :
दृष्टिकोण
पश्चिमी विक्षोभ को परिभाषित करके उत्तर की शुरुआत कीजिये।
भारतीय मौसम प्रणालियों पर पश्चिमी विक्षोभ के प्रभाव की चर्चा कीजिये।
उपयुक्त निष्कर्ष दीजिये।
परिचय
‘पश्चिमी विक्षोभ’ एक मौसमी परिघटना है जो पछुआ पवनों के ऊपरी वायु परिसंरचरण क्षेत्र में विकसित एक निम्न वायुदाब का क्षेत्र या गर्त है, जो हवा के तापमान, दाब एवं वायु संचार प्रणाली में परिवर्तन लाकर वर्षण की दशा उत्पन्न करता है।
ये हवाएँ राजस्थान, पंजाब और हरियाणा में तीव्र गति से बहती हैं। ये उप-हिमालयी पट्टी के आस-पास पूर्व की ओर मुड़ जाती हैं और सीधे अरुणाचल प्रदेश तक पहुँच जाती हैं। इससे गंगा के मैदानी इलाकों में हल्की वर्षा और हिमालयी पट्टी में हिमवर्षा होती है।
भारतीय मौसम प्रणालियों पर पश्चिमी विक्षोभ का प्रभाव:
पश्चिमी विक्षोभ भारत की कुल वार्षिक वर्षा के 5-10% हेतु उत्तरदायी होता है। यह उत्तर-पश्चिम भारत में सर्दियों में होने वाली वर्षा और प्री-मानसून सीजन की बारिश का कारण है।
पश्चिमी विक्षोभ आमतौर पर बादल वाली रात, उच्च तापमान और असामान्य बारिश से जुड़ा होता है।
गेहूँ सबसे महत्त्वपूर्ण फसलों में से एक है, जो भारत की खाद्य सुरक्षा को पूरा करने में मदद करती है। गेहूँ और अन्य रबी फसलों की वृद्धि में पश्चिमी विक्षोभ से होने वाली वर्षा का बहुत महत्त्व है।
हालाँकि मज़बूत पश्चिमी विक्षोभ से अत्यधिक वर्षा होती है जो फसल क्षति, भूस्खलन, बाढ़ और हिमस्खलन का कारण बन सकता है।
दूसरी ओर कमज़ोर पश्चिमी विक्षोभ से उत्तर भारत में फसल पैदावार में कमी और पानी से संबंधित समस्याएँ देखने को मिलती है।
ये हिमालय के ऊपरी क्षेत्र में हिमपात हेतु उत्तरदायी हैं जो भारत के सदाबहार नदियों की सततता एवं पर्यटन के दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण है।
यह शीतकाल में वर्षा कर भौम जल स्तर को ऊपर उठाने एवं जल संचयन को बढ़ावा देता है।
यह प्रवासी पक्षियों के लिये अनुकूल दशा प्रदान करता है।
यह संपूर्ण पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी की उत्पादकता व पोषण स्तर में वृद्धि लाता है।
निष्कर्ष
पश्चिमी विक्षोभ को आमतौर पर एक अनुकूल लाभकारी घटना के रूप में देखा जाता है। हालाँकि जलवायु परिवर्तन के चलते बादल फटने और ओलावृष्टि जैसी प्राकृतिक आपदाएँ उत्पन्न होती हैं।</s> |
<s>[INST]विश्व भर में महासागरीय धाराओं की उत्पत्ति के लिये उत्तरदायी प्रमुख कारकों पर चर्चा कीजिये।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण
महासागरीय धाराओं को परिभाषित करते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये।
महासागरों की उत्पत्ति के लिये ज़िम्मेदार प्रमुख कारकों पर चर्चा कीजिये।
उपयुक्त निष्कर्ष दीजिये।
परिचय
समुद्र में जल की निरंतर गति को ही महासागरीय धाराएँ कहते हैं जो समुद्र में निर्धारित मार्ग और नदियों के प्रकार का अनुसरण करती हैं। समुद्र में धाराओं की दो प्रणालियाँ संचालित होती हैं, पहली प्रणाली को सतही परिसंचरण कहते हैं जो समुद्र की ऊपरी परतों से संबंधित होता है और दूसरा गहरा संचरण होता है जो गहरे समुद्र तल से संबंधित होता है।
महासागरीय धाराएँ हवा, तापमान और लवण में अंतर, पानी के द्रव्यमान में घनत्व अंतर,गुरुत्वाकर्षण और भूकंप या तूफान जैसी घटनाओं के कारण उत्पन्न हो सकती हैं।
गुरुत्वाकर्षण: समुद्र में सतह की धाराएँ वैश्विक पवन प्रणालियों द्वारा संचालित होती हैं जो सूर्य से प्राप्त ऊर्जा द्वारा संचालित होती हैं। इसके अलावा, पृथ्वी के घूर्णन से उत्पन्न कोरिओलिस बल भी धाराओं को प्रभावित करता है।
भूमंडलीय पवनें:
धाराओं का सतही परिसंचरण, हवा की दिशा से निर्धारित होता है।
सतही हवा से चलने वाली धाराएँ लैंडफॉर्म के साथ मिलकर गहरी जल धाराएँ बनाते हुए अपवेलिंग धाराएँ उत्पन्न करती हैं।
घनत्व में अंतर: थर्मोहैलाइन परिसंचरण के रूप में ज्ञात प्रक्रिया के माध्यम से तापमान (थर्मो) और लवणता (हैलाइन) में अंतर के कारण पानी के द्रव्यमान में उत्पन्न घनत्व अंतर के चलते भी धाराएँ उत्पन्न होती हैं।
ये धाराएँ पानी के द्रव्यमान द्वारा पोषक तत्वों, ऑक्सीजन और ऊष्मा को भी गहरे समुद्र में ले जाती हैं।
समसामयिक घटनाएँ: विशाल तूफान और पानी के नीचे भूकंप जैसी भूगर्भीय घटनाएँ शक्तिशाली समुद्री धाराओं को भी गति प्रदान कर सकती हैं, जब वे उथले पानी और समुद्र तट पर पहुँचती हैं, तो अंतर्देशीय जल को बड़े पैमाने पर संचालित करती हैं।
भूकंप, पानी की संतृप्त तलछट के नीचे की ओर गति को और भी तेज कर सकते हैं, जिससे मज़बूत आविल धाराएँ उत्पन्न होती हैं।
स्थलाकृति: जब धाराएँ एक विस्तृत क्षेत्र से एक संकीर्ण क्षेत्र तक सीमित हो जाती हैं तो ये बहुत शक्तिशाली हो सकती हैं।
समुद्र तल पर एक रिज प्रणाली में संकीर्ण माध्यम में या एक सीवन के आसपास बहने वाले धाराएं आसपास के जल की तुलना में कहीं अधिक शक्तिशाली होती हैं।
यह जीवों के वितरण और इसके साथ-साथ जीवों का अध्ययन करने से संबंधित वैज्ञानिकों और उनके उपकरणों को प्रभावित करते हैं।
निष्कर्ष
महासागरीय धाराएँ वैश्विक कन्वेयर बेल्ट के रूप में कार्य करती हैं और इस प्रकार पृथ्वी के कई क्षेत्रों की जलवायु को निर्धारित करने में एक प्रमुख भूमिका निभाती हैं।</s> |
<s>[INST]कार्स्ट स्थलाकृति के अंतर्गत निर्मित विभिन्न प्रकार की भू-आकृतियों की व्याख्या कीजिये।[/INST]प्रश्न का उत्तर जल्द ही प्रकाशित होगा।</s> |
<s>[INST]‘ऊष्मा बजट’ क्या है और यह पृथ्वी के वातावरण में तापमान को किस प्रकार प्रभावित करता है?[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
पृथ्वी का ऊष्मा बजट क्या है, इसे परिभाषित करते हुए उत्तर की शुरुआत करें।
एक उपयुक्त आरेख के साथ ऊष्मा बजट पर चर्चा करें और बताएँ कि यह पृथ्वी के तापमान को कैसे प्रभावित करता है।
संक्षिप्त निष्कर्ष दें।
पृथ्वी एक निश्चित मात्रा में सूर्यातप (लघु तरंगें) प्राप्त करती है और स्थलीय विकिरण (दीर्घ तरंगों) के माध्यम से अंतरिक्ष में पुनः ऊष्मा छोड़ देती है।
ऊष्मा के इस प्रवाह के माध्यम से पृथ्वी अपने तापमान को संतुलित रखती है। इसी प्रक्रिया को पृथ्वी का ऊष्मा बजट कहा जाता है।
पृथ्वी का प्रत्येक भाग सूर्य से समान मात्रा में सूर्यातप प्राप्त नहीं करता है। ध्रुवीय क्षेत्रों की तुलना में भूमध्यरेखीय क्षेत्र अधिक सूर्यातप प्राप्त करते हैं। वायुमंडल और महासागरीय सतहें, संवहन, वर्षा, हवाओं और समुद्र के वाष्पीकरण इत्यादि के माध्यम से ऊष्मा बजट को असंतुलित नही होने देते हैं।
वातावरण एवं महासागरीय परिसंचरण की इस प्रक्रिया से निम्न तरीकों से पृथ्वी पर तापमान का संतुलन बना रहता है:
इसके ज़रिये जलवायु में ऊष्मा का न केवल भूमध्य रेखा से ध्रुवों की ओर, बल्कि पृथ्वी की सतह और निचले वातावरण से लेकर अंतरिक्ष तक सौर ताप का पुनर्वितरण होता है।
जब सौर ऊर्जा की आने वाली किरणें अंतरिक्ष में उत्सर्जित ऊष्मा द्वारा संतुलित होती हैं, तो पृथ्वी पर विकिरण का संतुलन बना रहता है एवं वैश्विक तापमान अपेक्षाकृत स्थिर होता है।
भूमध्य रेखा से 40° उत्तरी और दक्षिणी अक्षांशीय क्षेत्रों को प्रचुर मात्रा में सूर्य का प्रकाश प्राप्त होता है, अतः वे ऊर्जा अधिशेष क्षेत्र हैं। 40° उत्तर और दक्षिण अक्षांशों से परे के क्षेत्र सूर्य के प्रकाश से प्राप्त होने वाली ऊष्मा की तुलना में अधिक ऊष्मा उत्सर्जित करते हैं, अतः वे ऊर्जा की कमी वाले क्षेत्र हैं।
वायुमंडल (वायुमंडलीय पवनें) और महासागर (महासागरीय धाराएँ) उष्णकटिबंधीय (ऊर्जा अधिशेष क्षेत्र) से ध्रुवों (ऊर्जा की कमी वाले क्षेत्रों) की ओर अधिक ऊष्मा का स्थानांतरण करते हैं।
अधिकांश ऊष्मा का हस्तांतरण मध्य-अक्षांश यानी 30° से 50° [जेट स्ट्रीम और चक्रवात का अध्ययन करते समय] के मध्य होता है, अतः इस क्षेत्र में कई तूफान आते रहते हैं।
इस प्रकार निम्न अक्षांशों से अधिशेष ऊष्मा का स्थानांतरण उच्च अक्षांशों में ऊष्मा की कमी वाले क्षेत्रों में होते रहने से पृथ्वी की सतह पर ऊष्मा संतुलन बना रहता है।
निष्कर्ष
सूर्य उष्मा का अंतिम स्रोत है और पृथ्वी पर विभिन्न क्षेत्रों द्वारा सूर्य से प्राप्त ऊष्मा में अंतर सभी प्रकार के जलवायु विशेषताओं के पीछे अंतिम कारण है। इसलिये विभिन्न मौसमों जैसे- हवा प्रणाली, दबाव प्रणाली, वर्षा आदि को समझने के लिये विभिन्न मौसमों में तापमान के वितरण के पैटर्न को समझना आवश्यक है।</s> |
<s>[INST]राष्ट्र संघ की महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ और उपलब्धियाँ क्या थीं? इसकी विफलता के कारणों को भी बताइये।[/INST]प्रश्न का उत्तर जल्द ही प्रकाशित होगा।</s> |
<s>[INST]औद्योगीकरण के पूंजीवादी और समाजवादी पैटर्न का विकास किस कारण से हुआ? विवेचना कीजिये।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
संक्षिप्त रूप से पूंजीवाद और समाजवाद पर चर्चा करते हुए उत्तर की शुरुआत करें।
पूंजीवादी और समाजवादी पैटर्न का विकास के कारणों पर चर्चा करें।
संक्षिप्त निष्कर्ष दें।
पूंजीवाद को एक ऐसी आर्थिक प्रणाली के रूप में परिभाषित किया गया है, जिसमें उत्पादन, व्यापार और उद्योग के साधनों पर स्वामित्व एवं नियंत्रण निजी व्यक्तियों या निगमों द्वारा किया जाता है। इसके अलावा इसे मुक्त बाज़ार अर्थव्यवस्था के रूप में जाना जाता है।
समाजवादी अर्थव्यवस्था को एक ऐसी अर्थव्यवस्था के रूप में परिभाषित किया गया है, जिसमें संसाधनों का स्वामित्व, प्रबंधन और विनियमन राज्य द्वारा किया जाता है। इस तरह की अर्थव्यवस्था का आशय यह है कि संसाधनों पर सभी लोगों का समान अधिकार है, अत: प्रत्येक व्यक्ति को उत्पादन में हिस्सा मिलना चाहिये।
औद्योगीकरण का पूंजीवादी पैटर्न:
पूंजीवाद का उदय दुनिया के इतिहास में औद्योगीकरण के साथ हुआ, साथ ही नए आर्थिक संस्थान (जैसे- बैंकिंग, बीमा) और दुनिया को बदलने वाली नई तकनीक भी आई।
सत्रहवीं शताब्दी में यूरोप में पुनर्जागरण के परिणामस्वरूप, विज्ञान, दर्शन और व्यापार के तरीके उपयोगितावादी दृष्टिकोण से लागू किये जा रहे थे।
यूरोपीय देशों ने नए बाज़ारों की खोज की और औद्योगिक क्रांति (जिससे भारी मशीनरी का प्रयोग होने लगा एवं श्रम आधारित अर्थव्यवस्था कमज़ोर हुई) का नेतृत्व किया। औद्योगिक क्रांति के दौरान बड़े पैमाने पर उत्पादन किया गया।
हालाँकि उत्पादन के इस पूंजीवादी तरीके के कारण दुनिया भर में अलग-अलग वर्गों के बीच असमानता उत्पन्न हुई और साम्राज्यवादी व्यवस्था का विस्तार हुआ।
इसके कारण कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंजेल्स ने पूंजीवाद का विरोध शुरू कर दिया। हालाँकि वर्ष 1919 में रूसी क्रांति और तत्कालीन सोवियत संघ (अब रूस) की स्थापना के बाद समाजवाद अस्तित्व में आया।
औद्योगीकरण का समाजवादी पैटर्न
औद्योगीकरण का समाजवादी पैटर्न सहकारी उद्यम और सामुदायिक उद्यम के विभिन्न रूपों पर ज़ोर देता है, जिसमें जनता समग्र रूप से लाभान्वित होती है।
समाजवादी पैटर्न के कारण ट्रेड यूनियनों और लेबर सिंडिकेट की सहायता से या उनकी सहायता के बिना भी राजनीतिक दल मज़बूत हुए।
राज्य नियंत्रित अर्थव्यवस्था के साथ सरकारें मज़बूत हुईं। इन सरकारों ने जनकल्याण को लक्षित करते हुए अर्थव्यवस्था को नियोजित किया। इस तरह की परिपक्व अर्थव्यवस्था को नियोजित अर्थव्यवस्था कहा जाता था।
हालाँकि अधिकांश समाजवादियों को डर था कि इस तरह की अर्थव्यवस्था में शोषण के समाधान के बजाय राज्य प्रायोजित शोषण और अधिक बढ़ सकता है, साथ ही राज्य का अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण बढ़ सकता है।
निष्कर्ष
पूंजीवाद पूंजी को बढ़ावा देता है लेकिन इससे बुर्जुआ और सर्वहारा वर्ग के बीच खाई बढ़ती जाती है। समाजवाद अमीर और गरीब के बीच की खाई को पाटता है लेकिन यह लोगों की कड़ी मेहनत और प्रतिस्पर्धा की भावना को कम करता है, जिसके कारण देश का सकल घरेलू उत्पाद नीचे गिर सकता है और प्रति व्यक्ति आय कम हो सकती है। हर सिक्के के दो पहलू होते हैं, अतः यह कहना बहुत मुश्किल है कि कौन सा तरीका दूसरे से बेहतर को सकता है।</s> |
<s>[INST]बौद्ध धर्म और जैन धर्म के मूल सिद्धांतों के बीच समानताओं तथा असमानताओं पर चर्चा कीजिये।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण
दोनों धर्मों की उत्पत्ति का उल्लेख करते हुए उत्तर प्रारंभ करें।
बौद्ध धर्म और जैन धर्म के बीच समानता और असमानता पर चर्चा करें।
संक्षिप्त निष्कर्ष दें।
उत्तर: महावीर और बुद्ध ने क्रमशः जैन और बौद्ध धर्म की स्थापना की। बौद्ध धर्म की तरह जैन धर्म का उदय भी वैदिक धर्म में व्याप्त कर्मकांड की प्रतिक्रिया स्वरूप हुआ। यद्यपि दोनों धर्म समकालीन थे एवं आमतौर पर उनमें कई समानताएँ भी थीं किंतु उनकी कुछ अलग-अलग विशेषताएँ भी थीं।
समानताएँ
दोनों धर्म उपनिषदों और अन्य हिंदू धार्मिक संप्रदायों के दर्शन से प्रेरित थे। उदाहरणतः जीवन का अंतिम लक्ष्य मोक्ष है।
दोनों धर्मों ने सामाजिक रूप से वंचित और हाशिये पर रहने वाले वर्गों के प्रति सहानुभूति दिखाई और अपने साथ समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों को शामिल किया।
दोनों का मानना था कि निर्वाण या मोक्ष जन्म और मृत्यु की शाश्वत शृंखला से मुक्त होता है।
दोनों ने मोक्ष प्राप्ति के साधन के रूप में कर्मकांड या ईश्वर की आराधना और भक्ति के बजाय मज़बूत नैतिक सिद्धांतों पर ज़ोर दिया।
असमानताएँ
बौद्ध धर्म के विपरीत जैन धर्म इतिहास में कई तरह के परिवर्तनों का सामना करने के बावजूद भारत में बना रहा। ऐसा इसलिये हुआ क्योंकि जैन धार्मिक अनुशासन का सख्ती से पालन करते हैं। हालाँकि विदेशों में इसकी तुलना में बौद्ध धर्म उदार बना रहा और फलता-फूलता रहा।
जैन धर्म जीवन के प्रति अधिक समग्र दृष्टिकोण में विश्वास करता है। इसके अनुसार प्रकृति की हर जीवित और निर्जीव चीज़ की अपनी आत्मा होती है, जबकि बौद्ध धर्म ऐसा नहीं मानता है।
बौद्ध धर्म पुरुषों और महिलाओं के बीच भेदभाव नहीं करता है, लेकिन जैन धर्म के अनुसार गृहस्थ महिला और पुरुष मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकते हैं।
जैन शिक्षण का तत्त्व अहिंसा है जैसे- पशु बलि का विरोध करना। बौद्ध धर्म में अहिंसा की अवधारणा (अहिंसा) अलग है। बौद्ध धर्म के अनुसार, लोगों की आवश्यकता या पारंपरिक आहार के तौर पर जानवरों का मांस खाने की अनुमति दी गई थी।
निष्कर्ष
बौद्ध धर्म और जैन धर्म कभी-कभी एक समान माता-पिता के दो बच्चों के रूप में दिखाई पड़ते हैं किंतु उनमें बहुत कुछ अलग होता है। डब्ल्यू डब्ल्यू हंटर लिखते हैं “जैन धर्म अन्य संप्रदायों से उतना ही स्वतंत्र है, खासकर बौद्ध धर्म से, जितना कि किसी अन्य संप्रदाय से उम्मीद की जा सकती है।</s> |
<s>[INST]‘श्रेणी भूकंप’ (Earthquake Swarms) पद की व्याख्या कीजिये। ये आफ्टरशॉक् और फोरशॉक् से किस प्रकार अलग हैं।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
संक्षेप में भूकंप शब्द को परिभाषित करते हुए उत्तर की शुरुआत करें।
आफ्टरशॉक्स और फोरशॉक्स के बारे में चर्चा करें।
श्रेणी भूकंप की विशेषताओं पर चर्चा करें और उनकी तुलना आफ्टरशॉक्स और फोरशॉक्स से करें।
संक्षिप्त निष्कर्ष दें।
श्रेणी भूकंप छोटे भूकंपों का एक अनुक्रम है, जिसमें साफ तौर पर पहचाना जा सकने वाला विशेष मेनशॉक नहीं होता है। श्रेणी भूकंप कई सप्ताह तक रह सकते हैं और अपेक्षाकृत कम परिमाण में हज़ारों भूकंप उत्पन्न कर सकते हैं।
आफ्टरशॉक्स एवं फोरशॉक्स:
फोरशॉक्स वे भूकंप हैं, जो बड़े भूकंप से पहले एक ही स्थान पर आते हैं। एक फोरशॉक् भूकंप की पहचान तब तक नहीं की जा सकती है जब तक कि उस क्षेत्र में बड़ा भूकंप न आ जाए।
आफ्टरशॉक् एक मेनशॉक् या बड़े भूकंप के आने के बाद उसी स्थान पर छोटे-छोटे भूकंपीय झटके आते हैं।
जब भूकंप आता है, तो भूकंप के आसपास की स्थिति नाटकीय रूप से तनावग्रस्त क्षेत्र में बदल जाती है। पृथ्वी अपने संतुलन की अवस्था में वापस आना चाहती है और इसी कारण आफ्टरशॉक् की प्रक्रिया होती है।
आफ्टरशॉक्स समय के साथ कम होते जाते हैं, हालाँकि वे दिन, सप्ताह, महीने या यदि भूकंप काफी बड़ा रहा हो तो वर्षों तक जारी रह सकते हैं।
श्रेणी भूकंप की विशेषताएँ:
श्रेणी भूकंप कम परिमाण के भूकंपों की एक शृंखला है जो एक स्थानीय क्षेत्र में सप्ताह से लेकर महीनों तक की अवधि के दौरान देखे जाते हैं।
जब भूकंपीय ऊर्जा पृथ्वी के अंदर इकट्ठा हो जाती है और कुछ बिंदुओं से थोड़ी-थोड़ी मात्रा में निकलती है तो भूकंप की एक शृंखला का निर्माण होता है।
श्रेणी भूकंप काफी मात्रा में और कम परिमाण के साथ आते हैं जो उस "नियम" का पालन नहीं करते हैं जिसका पालन आफ्टरशॉक्स करते हैं। कभी-कभी यह गड़गड़ाहट या ध्वनि उत्सर्जन के साथ भी उत्पन्न होते हैं।
श्रेणी भूकंप ज्वालामुखियों में सक्रिय होते हैं, जिसके कारण ज्वालामुखी फटने के लिये तैयार रहते हैं, श्रेणी भूकंप पृथ्वी की सतह के नीचे पिघले हुए मैग्मा की मौजूदगी का संकेत हो सकते हैं। हालाँकि सभी श्रेणी भूकंप मैग्मा और ज्वालामुखी से जुड़े नहीं होते हैं, इसका कारण विवर्तनिक बल भी हो सकता है।
उदाहरण के लिये भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (जीएसआई) की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत के दक्कन पठार क्षेत्र में भूकंपीय तरंगों का अनुभव होने का कारण विवर्तनिक गतिविधियाँ हैं।
यह ऐसे मुख्य भूकंप का पूर्वाभास है जिसका परिमाण बहुत अधिक हो सकता है।
निष्कर्ष
भूकंपीय गतिविधियों को एक बड़े भूकंप एवं उसके बाद आफ्टरशॉक् के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है या श्रेणी भूकंप के रूप में। दोनों ही पृथ्वी की सतह के अंदर भूकंपीय गतिविधि को दर्शाते हैं।</s> |
<s>[INST]भारत के लिये पूर्वी घाट के घाट के महत्त्व को स्पष्ट कीजिये। इस क्षेत्र की जैव विविधता के संरक्षण हेतु कौन-से उपाय किये जा सकते हैं? (250 शब्द)[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
पूर्वी घाट के बारे में सामान्य जानकारी (जैसे स्थान, जैव विविधता) देते हुए भूमिका लिखें।
भारत के लिये पूर्वी घाट का महत्त्व स्पष्ट कीजिये।
पूर्वी घाटों के लिये बढ़ते खतरे और घटते वन आवरण एवं जैव विविधता के बारे में बताएँ।
जैव विविधता के संरक्षण हेतु उठाए जाने वाले कदमों के बारे में सुझाव दें।
संक्षेप में उचित निष्कर्ष दें।
पूर्वी घाट ओडिशा, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु में फैली हुई पहाड़ी शृंखलाएँ हैं, जहाँ का पारिस्थितिक तंत्र अद्वितीय है।
यह विविध प्रकार के स्थानिक वनस्पतियों और जीवों का घर है। बाघों और हाथियों सहित कई जानवर और लगभग 400 पक्षी प्रजातियाँ इन जंगलों में पाई जाती हैं। यहाँ 1,200 मिमी. से 1,500 मिमी. तक वार्षिक औसत वर्षा होती है।
महत्त्व
लगभग 75,000 वर्ग किलोमीटर में फैला पूर्वी घाट जैव विविधता को बढ़ावा देने और पेड़ों में बायोमास के भंडारण जैसी दोहरी भूमिका निभाता है।
पूर्वी घाट में कई बाँध हैं जैसे- कृष्णगिरि, सथानूर, शेनबागथोप्पु, करियालुर, गोमुकी, मृगांडा, चेंगम आदि जो जल प्रवाह को नियंत्रित करके सिंचाई और बाढ़ प्रबंधन में मदद करते हैं।
पेरियार फॉल्स, मेगाम फॉल्स, बेमन फॉल्स, किलियूर फॉल्स, होगनक्कल जैसे झरने पर्यटकों को आकर्षित करने के अलावा भूमि को उपजाऊ बनाते हैं।
क्षेत्र के वन संसाधन कार्बन सिंक के रूप में कार्य करते हैं।
पूर्वी घाट के लिये खतरा
पूर्वी घाट जलवायु परिवर्तन के रूप में एक गंभीर खतरे का सामना करते हैं। पिछली सदी में यह क्षेत्र 16% तक सिमट गया है और सिर्फ एक स्थान, पापिकोंडा नेशनल पार्क, पिछले बीस वर्षों में लगभग 650 वर्ग किमी. से कम हो गया है।
मानवीय गतिविधियों, जनसंख्या का दबाव, निरंतर विकास, जनता द्वारा उदासीनता, लोक सेवकों की लापरवाही आदि के कारण भी इन क्षेत्रों की जैव विविधता में अत्यधिक गिरावट और क्षति देखी जा रही है।
खनन, लॉगिंग, अवैध शिकार, जंगल की आग, वन उपज, दुर्लभ प्रजातियों, दुर्लभ वनस्पतियों और जीवों की तस्करी तथा निर्यात, वन भूमि का अतिक्रमण एवं अवसंरचना विकास, औद्योगीकरण इत्यादि इस क्षेत्र के लिये मुख्य खतरे हैं।
पूर्वी घाटों के संरक्षण हेतु उठाए जाने वाले कदम
अति दोहन का मुकाबला करने के लिये वन संसाधनों के सतत् उपयोग को बढ़ावा देना चाहिये।
पर्याप्त कृषि अभ्यास: सरकार को शिफ्टिंग कृषि के प्रभाव का मुकाबले के लिये एक जगह स्थिर होकर किये जाने वाली कृषि को प्रोत्साहित करना चाहिये क्योंकि स्थानांतरित कृषि के कारण पेड़ों की कटाई का प्रभाव सीधे वनों पर पड़ता है।
वनीकरण: वनीकरण राष्ट्रीय स्तर पर वृक्षावरण में सुधार, मानसून में सुधार, हवा की गुणवत्ता में सुधार और जैव विविधता की व्यापकता को बनाए रखने सहित कई लाभ प्रदान कर सकता है।
कृषि में स्वदेशी किस्मों की फसलों और उत्पादों को बढ़ावा: सरकार को इन क्षेत्रों के चारों ओर स्वदेशी पौधों और पेड़ों के उपयोग को बढ़ावा देने के लिये वित्त उपलब्ध कराना चाहिये।
स्थानीय भागीदारी: सभी हितधारकों विशेष रूप से जनता की भागीदारी द्वारा ठोस और मैक्रो-स्तरीय संरक्षण की आवश्यकता है। सभी नागरिक समूहों को एक नेटवर्क के अंतर्गत लाने और साथ कार्य करने से इस क्षेत्र की विविधता में अधिक सुधार आएगा।
इको-टूरिज़्म: इको-टूरिज़्म से स्थानीय लोगों को आजीविका प्राप्त होती है, उन्हें इसका हिस्सा बनाकर वन और इसकी जैव विविधता को पर्यावरण-पर्यटन प्रबंधन समिति के सदस्यों द्वारा संरक्षित किया जाना चाहिये।
समग्र संरक्षण: वन्यजीव गलियारों, विशेष पारिस्थितिक तंत्र और विशेष प्रजनन स्थलों, आंतरिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों, पवित्र उपवनों और सीमांत जंगलों आदि जैसे पारिस्थितिकी प्रणालियों का संरक्षण किया जाना भी बहुत महत्त्वपूर्ण है।
निष्कर्ष
यदि स्थानीय लोगों को शामिल करके इन क्षेत्रों के पर्यावरणीय विकास के लिये एक प्रभावी रणनीति विकसित की जाती है तो पूर्वी घाट की वनस्पतियों, जीवों और अन्य प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा की जा सकती है अन्यथा भविष्य में पूर्वी घाट और इसकी जैव विविधता नष्ट हो सकती है।</s> |
<s>[INST]डॉ. भीमराव अंबेडकर ने यह संभव बनाया कि लोग भारत में जातियों के बीच व्याप्त गहन असमानताओं को दूर करने के बारे में न केवल सोचें बल्कि इसकी शुरुआत भी करें। टिप्पणी कीजिये।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
बी.आर. अंबेडकर पर संक्षिप्त चर्चा करते हुए उत्तर की शुरुआत करें।
दलित चेतना को जगाने में अंबेडकर के योगदान पर चर्चा करें।
उचित निष्कर्ष दें।
स्वतंत्रता पूर्व युग में दलितों के उत्पीड़न का मुद्दा कई नेताओं ने उठाया, जैसे- ज्योतिबा फुले, ई.वी. रामासामी, किंतु भीम राव अंबेडकर के प्रयासों के कारण दलितों का मुद्दा एक देशव्यापी सामाजिक आंदोलन में परिवर्तित हो गया। उन्होंने न केवल भारत के कमज़ोर तबके के लोगों की आवाज़ बुलंद की बल्कि उन्हें एक राजनीतिक पहचान भी दी।
दलित चेतना को जगाने में अंबेडकर का योगदान:
दलित चेतना के जनक: दलित चेतना बढ़ाने में अंबेडकर का अत्यधिक राजनीतिक और साहित्यिक योगदान है, अत: उन्हें सार्वभौमिक रूप से दलित चेतना के जनक के रूप में स्वीकार किया जाता है।
अंबेडकर ने वर्ष 1930 के दशक के दौरान दलितों के अधिकारों के लिये आंदोलन चलाया।
उन्होंने सार्वजनिक पेयजल स्रोतों को सभी के लिये खोलने और सभी जातियों के लोगों को मंदिरों में प्रवेश के अधिकार की मांग की।
उन्होंने खुले तौर पर भेदभाव की वकालत करने वाले हिंदू शास्त्रों की निंदा की और नासिक के कालाराम मंदिर में प्रवेश करने के लिये प्रतीकात्मक प्रदर्शन किया।
दलितों के राजनीतिक अधिकार : उन्होंने दलित अधिकारों की रक्षा के लिये विभिन्न माध्यमों को अपनाया। जैसे- लंदन में गोलमेज सम्मेलन में वह दलितों के प्रतिनिधि थे, जहाँ उन्होंने दलितों के लिये एक अलग निर्वाचक मंडल की मांग की।
वर्ष 1932 में प्रांतीय विधानसभाओं में दलित वर्ग के लिये सीटों का आरक्षण सुनिश्चित करने हेतु डॉ. अंबेडकर और पंडित मदन मोहन मालवीय ने पूना समझौते पर हस्ताक्षर किये गए थे। उल्लेखनीय है कि मदन मोहन मालवीय ने इसे हिंदुओं और महात्मा गांधी की ओर से तथा अंबेडकर ने दलित वर्गों की ओर से इस समझौते पर हस्ताक्षर किये।
भारतीय संविधान की ड्राफ्ट समिति के अध्यक्ष होने के नाते डॉ. अंबेडकर ने सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक और राजनीतिक क्षेत्रों में दलितों के अधिकारों की रक्षा के लिये कुछ संवैधानिक प्रावधान किये, जैसे- सकारात्मक भेदभाव या वंचित वर्गों के लिये आरक्षण।
दलितों को राजनीतिक पहचान प्रदान करना: अंबेडकर के अनुसार, भारत के लिये जिस तरह से ब्रिटिश साम्राज्यवाद था उसी तरह दलितों के लिये हिंदू साम्राज्यवाद था। उन्होंने वर्ष 1936 में राष्ट्रवाद को दलितों की सामाजिक और राजनीतिक आकांक्षाओं से जोड़ा।
अंबेडकर ने इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी की स्थापना की जो बाद में अखिल भारतीय अनुसूचित जाति संघ में परिवर्तित हो गई।
उन्होंने दलित आंदोलन में दार्शनिक दृष्टि का अभाव देखा, इसलिये उन्होंने फ्राँसीसी क्रांति के विचारों- स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व के बारे में लिखा।
उन्होंने दलितों को बौद्ध धर्म अपनाने के लिये प्रोत्साहित किया ताकि वे स्वयं को हिंदू अधीनता से मुक्त कर सकें।
निष्कर्ष
भारत में दलित आंदोलन सामाजिक व्यवस्था में समानता एवं सकारात्मक बदलाव लाने के अंबेडकर के प्रयासों का परिणाम है।</s> |
<s>[INST]कोविड-19 महामारी ने भारत में वर्ग असमानताओं एवं गरीबी को गति दे दी है। टिप्पणी कीजिये।[/INST]प्रश्न का उत्तर जल्द ही प्रकाशित होगा।</s> |
<s>[INST]वर्तमान में लौह एवं इस्पात उद्योगों की कच्चे माल के स्रोत से दूर स्थिति का उदाहरणों सहित कारण बताइये। (150 शब्द) (UPSC GS-1 Mains 2020)[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
लौह और इस्पात उद्योग के प्रमुख स्थानीय कारकों पर संक्षेप में चर्चा करते हुए उत्तर शुरू करें।
कच्चे माल के स्रोत से दूरी जैसे लौह और इस्पात उद्योग के वर्तमान स्थानीय कारकों पर चर्चा करें।
उचित निष्कर्ष दें।
कच्चे माल और बिजली की उपलब्धता लौह एवं इस्पात उद्योग की स्थापना एवं विकास के प्रमुख घटक हैं। 19वीं एवं 20वीं शताब्दी की शुरुआत में प्रसंस्करण के दौरान वज़न की क्षति के कारण शुरुआती इस्पात प्लांट ज़्यादातर उन क्षेत्रों में स्थित थे जहाँ कोयला उपलब्ध था।
हालाँकि समय बीतने के साथ-साथ कच्चे माल की कमी, नई प्रौद्योगिकियों (जैसे बिजली भट्टियाँ) के उदय एवं ईंधन की बचत, परिवहन साधनों आदि ने कच्चे माल के स्रोत से दूर होने के बावजूद लौह और इस्पात उद्योग को बढ़ावा दिया।
कच्चे माल की उपलब्धता के अलावा पूंजी और बाज़ार की व्यवस्था भी लोहा और इस्पात उद्योग सहित उद्योगों के स्थानीयकरण के लिये महत्त्वपूर्ण कारक हैं।
बाज़ार आधारित उद्योग आमतौर पर उन देशों में पाए जाते हैं जहाँ कोयला और लौह अयस्क का भंडार दुर्लभ हो।
उदाहरण के लिये जापान में लौह अयस्क और कोयला दोनों की कमी है तथा लगभग सभी प्रकार के कच्चे माल का आयात विदेशों से किया जाता है। इस वजह से जापानी स्टील प्लांट ज़्यादातर बाज़ार आधारित हैं। ‘टोक्यो-योकोहामा’ और ओसाका - कोबे - हेमजी के लौह इस्पात क्षेत्र बाज़ार आधारित हैं।
परिवहन क्षेत्र लौह एवं इस्पात उद्योग की स्थापना का एक और नियंत्रित कारक है।
कुछ मामलों में मध्यवर्ती स्थानों को कच्चे माल एवं बाज़ार की पहुँच के संदर्भ में अलग-अलग फायदे प्राप्त होते हैं, विशेष तौर पर पोर्ट-आधारित प्लांट को।
उदाहरण के लिये आंध्र प्रदेश में विशाखापत्तनम का वाईजेग स्टील प्लांट पहला पोर्ट-आधारित प्लांट है, जिसका परिचालन वर्ष 1992 में शुरू किया गया था।
कच्चे माल के घटते भंडार के कारण कच्चे माल पर आधारित उद्योगों को अब नुकसान उठाना पड़ रहा है।
इसके अलावा कोयले के उपयोग में भारी कमी और ईंधन-आधारित अर्थव्यवस्था के विकास से उद्योग उन क्षेत्रों में आकर्षित हुए हैं जहाँ परिवहन सस्ता है।
उदाहरण के लिये उद्योगों का ऐसे स्थानों पर स्थानांतरित होना जहाँ सस्ता जल मार्ग या जहाँ परिवहन लागत कम होने या लोडिंग और अनलोडिंग सुविधाओं के चलते कच्चा माल काफी सस्ते दर पर उपलब्ध हो।
निष्कर्ष
आजकल इस्पात संयंत्रों के स्थानीयकरण में तीनों कारकों अर्थात् कोयला, लौह अयस्क और बाज़ार का समान महत्त्व है। हालाँकि किन्हीं दो भौगोलिक कारकों की उपलब्धता स्टील प्लांट साइट का निर्धारण करती है।</s> |
<s>[INST]हिमालय के हिमनदों के पिघलने का भारत के जल संसाधनों पर किस प्रकार दूरगामी प्रभाव होगा? (150 शब्द) (UPSC GS-1 Mains 2020)[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
हिमालय के महत्त्व पर संक्षेप में चर्चा करते हुए उत्तर की शुरुआत करें।
हिमालय के ग्लेशियरों के पिघलने का जल संसाधनों पर प्रभाव की चर्चा करें।
उचित निष्कर्ष दें।
हिमालय को तीसरा ध्रुव कहा जाता है। नदियों के लिये पानी का प्रमुख स्रोत होने के नाते ये ग्लेशियर दुनिया भर में एक-तिहाई आबादी के लिये जीवन रेखा हैं।
हालाँकि हिमालय के ग्लेशियरों के तेज़ी से पिघलने के कारण भारत के मौसम एवं जल संसाधन पर भारी दबाव पड़ रहा है।
हिमालय के ग्लेशियरों के पिघलने का प्रभाव:
बाढ़ और सूखे की बारंबारता: हिमालय के ग्लेशियर 10 मुख्य नदियों के माध्यम से दो अरब से अधिक लोगों को जीवन रेखा प्रदान करते हैं।
हिमालयी क्षेत्र में 8,790 ग्लेशियल झीलें हैं। अतः ग्लेशियरों के तेज़ी से पिघलने के कारण बाढ़ आ सकती है। उदाहरण के लिये वर्ष 2013 और 2021 में उत्तराखंड में आई भयानक बाढ़।
बड़े हिमनदों के पिघलने के परिणामस्वरूप नदियों में थोड़े समय के लिये जल प्रवाह में अधिक तेज़ी आ सकती है लेकिन उसके बाद प्रवाह कम होने लगेगा और सूखे की स्थिति पैदा होगी।
मानसून पर प्रभाव: हिमालय मानसून परिसंचरण में मौसमी बदलावों और भारत में वर्षा के वितरण पर एक महत्त्वपूर्ण प्रभाव डालता है। भारत में वार्षिक वर्षा के 70% का कारण दक्षिण-पश्चिम मानसून है।
आईपीसीसी के अनुमानों के अनुसार, ग्लेशियरों के पिघलने से ग्रीष्मकाल में निकट अवधि में 4-12% और लंबी अवधि में 4-25% तक वृद्धि की संभावना है।
मानसून के पैटर्न में बदलाव से तूफान की गंभीरता और आवृत्ति बढ़ेगी जो पहाड़ों की स्थिरता के लिये ख़तरनाक हो सकता है, साथ ही यह महत्त्वपूर्ण बुनियादी ढाँचे को नष्ट कर सकता है।
भारतीय नदियों का अस्थिर प्रवाह: हिमनदों के पिघलने से भारतीय नदियों की जल-धारा एवं प्रवाह अस्थिर हो सकता है।
गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी भारतीय नदियाँ आंशिक रूप से हिमनदों से और आंशिक रूप से मानसून से जल ग्रहण करती हैं। मानसून के प्रभावित होने क साथ ही यह कृषि में बाधा उत्पन्न करेगा जिसमें एक बड़ा हिस्सा जल संसाधनों का उपयोग में आता है।
निष्कर्ष
आईपीसीसी की हालिया रिपोर्ट के अनुसार, हिमालय के ग्लेशियर तेज़ी से पिघलने के कारण घटते जा रहे हैं, अगर ग्लोबल वार्मिंग को कम करने हेतु पर्याप्त कदम नहीं उठाए गए तो वर्ष 2100 तक हिंदू-कुश हिमालय के दो-तिहाई ग्लेशियरों के पिघलने की संभावना है।</s> |
<s>[INST]भारत में दशलक्षीय नगरों जिनमें हैदराबाद एवं पुणे जैसी स्मार्ट सिटीज़ भी सम्मिलित हैं, में व्यापक बाढ़ के कारण बताइये। स्थायी निराकरण के उपाय भी सुझाइये। (250 शब्द) (UPSC GS-1 Mains 2020)[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
बाढ़ की बारंबारता में वृद्धि के कारणों का संक्षेप में उल्लेख करते हुए उत्तर की शुरुआत करें।
शहरी क्षेत्र में बाढ़ की बढ़ती प्रायिकता के विभिन्न कारणों की चर्चा करें।
बाढ़ से निपटने के तरीकों की चर्चा करें।
उचित निष्कर्ष दें।
जैसे-जैसे जलवायु में परिवर्तन और चरम मौसमी घटनाओं में बढ़ोतरी होती जा रही है, शहरी क्षेत्र में बाढ़ आने की प्रायिकता बढ़ गई है। शहरी क्षेत्र में बाढ़ की स्थिति विशेषत: अनियोजित शहरीकरण के कारण उत्पन्न होती है।
शहरी क्षेत्र में बाढ़ की प्रायिकता बढ़ने का कारण:
अपर्याप्त जल निकासी प्रणाली:
हैदराबाद, मुंबई जैसे शहर एक सदी से अधिक पुरानी जल निकासी व्यवस्था पर निर्भर हैं, जो शहर के केवल एक छोटे भाग को ही कवर करती है।
पिछले 20 वर्षों में भारतीय शहरों का विस्तार अपने मूल क्षेत्र की तुलना में कई गुना हुआ है, जबकि उस अनुपात में जल निकासी प्रणाली की व्यवस्था हेतु प्रयास नहीं किया गया है।
शहरीकरण का हावी होना:
भारतीय शहरों में जल की समस्या में तेज़ी से होने वाली वृद्धि का कारण न केवल बढ़ते हुए निर्माण कार्य हैं, बल्कि इनमें उपयोग की जाने वाली सामग्रियों (कठोर और गैर-संरध्र निर्माण सामग्री जो मिट्टी को अपारगम्य बनाती है) की प्रकृति भी है।
इसके अलावा प्रॉपर्टी बिल्डर, संपत्ति मालिक और सार्वजनिक एजेंसियों द्वारा क्षेत्र को समतल करने तथा प्राकृतिक जल निकासी मार्गों में परिवर्तन करने जैसी घटनाओं के कारण अपूरणीय क्षति हुई है।
ईआईए का खराब कार्यान्वयन: पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (ईआईए) जैसे विनियामक तंत्रों में वर्षा जल संचयन, टिकाऊ शहरी जल निकासी व्यवस्था आदि के प्रावधानों का सही से कार्यान्वयन करने वाली एजेंसियों की स्थिति कमज़ोर बनी हुई है।
शहरी बाढ़ से बचाव हेतु उपाय
समग्र जुड़ाव:
शहरी बाढ़ की समस्या का समाधान का कार्य केवल नगर निगम अधिकारियों पर ही नहीं छोड़ देना चाहिये और न ही ऊर्जा एवं संसाधनों में उचित निवेश के बिना बाढ़ का प्रबंधन किया जा सकता है।
महानगर विकास प्राधिकरण, राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण, राज्य के राजस्व और सिंचाई विभाग के साथ-साथ नगर निगमों को भी इस तरह के काम में शामिल किया जाना चाहिये।
स्पंज शहर विकसित करना:
एक स्पंज शहर के विचार का उद्देश्य शहरों को और अधिक पारगम्य बनाना है ताकि वहाँ वर्षा जल को संरक्षित कर उसका उपयोग किया जा सके, साथ ही नई संरध्र निर्माण सामग्री और प्रौद्योगिकियों को प्रोत्साहित या अनिवार्य किया जाना चाहिये।
स्पंज शहरों में बायोस्वेल और रिटेंशन सिस्टम, सड़कों एवं फुटपाथ के लिये पारगम्य सामग्री, ड्रेनेज सिस्टम, जो कि वर्षा जल के बहाव में मदद करता है और इमारतों में ग्रीन रूफ जैसी तकनीकों का इस्तेमाल किया जा सकता है।
जल संवेदी शहरी डिज़ाइन:
ये विधियाँ स्थलाकृति, सतहों के प्रकार (पारगम्य या अभेद्य), प्राकृतिक जल निकासी और पर्यावरण पर बहुत कम प्रभाव छोड़ती हैं।
भेद्यता विश्लेषण और जोखिम मूल्यांकन को शहर के मास्टर प्लान का हिस्सा बनाना चाहिये।
वाटरशेड प्रबंधन और आपातकालीन जल निकासी योजना को नीति में स्पष्ट रूप से शामिल करना चाहिये।
अभिसरण दृष्टिकोण: इन सभी को कायाकल्प और शहरी परिवर्तन (एएमआरयूटी), राष्ट्रीय धरोहर शहर विकास और संवर्द्धन योजना (मानव संसाधन) एवं स्मार्ट सिटी मिशन की तर्ज पर प्रभावी ढंग से वितरित किया जा सकता है।
निष्कर्ष
अत्यधिक जल निकासी, अनियमित निर्माण, प्राकृतिक स्थलाकृति को लेकर गैर-ज़िम्मेदाराना व्यवहार एवं जल-भू-आकृति विज्ञान का आभाव आदि सभी शहरी बाढ़ को मानव निर्मित आपदा बनाते हैं।</s> |
<s>[INST]भारत में डिजिटल पहल ने किस प्रकार से देश की शिक्षा व्यवस्था के संचालन में योगदान किया है? विस्तृत उत्तर दीजिये। (250 शब्द) (UPSC GS-1 Mains 2020)[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
सवाल के संदर्भ में संक्षिप्त चर्चा करते हुए उत्तर की शुरुआत करें।
शिक्षा प्रणाली में डिजिटल पहल के सकारात्मक एवं नकारात्मक पक्ष पर चर्चा करें।
उचित निष्कर्ष दें।
कोविड-19 महामारी ने शिक्षा के पारंपरिक मॉडल (स्कूल, कॉलेज, कक्षा मॉडल) को संकट में डाल दिया है और इस स्थिति में ऑनलाइन शिक्षा एक नए विकल्प के तौर पर सामने आई है।
हालाँकि महामारी से पहले भी डिजिटल पहल ने शिक्षा को और अधिक समावेशी बनाने में मदद की है लेकिन ऑनलाइन शिक्षा की कई चुनौतियाँ भी हैं एवं इसमें सुधार की आवश्यकता है।
शिक्षा क्षेत्र में डिजिटल पहल के सकारात्मक पक्ष:
लचीलापन: यह कई तरह के पाठ्यक्रमों के साथ स्किल और तकनीकी ज्ञान हासिल करने के लिये एक बड़ा माध्यम है। उदाहरण के लिये ई-पाठशाला पढ़ाई के लिये ई-सामग्री प्रदान करती है। SWAYAM पोर्टल ऑनलाइन पाठ्यक्रमों के लिये एक एकीकृत मंच प्रदान करता है।
यह एक बहु-विषयक दृष्टिकोण विकसित करने में भी मदद करता है। इसके परिणामस्वरूप विभिन्न स्तरों और विषयों के लिये कार्यक्रमों के ऑनलाइन संस्करणों की पेशकश करने में विश्वविद्यालय और उच्च शिक्षा संस्थान बड़ी संख्या में आगे आ रहे हैं।
लागत प्रभावी: डिजिटल पहल, शिक्षा के पारंपरिक मॉडल की तुलना में कम निवेश द्वारा भी शिक्षा के उद्देश्यों की पूर्ति करने में सक्षम है।ऑनलाइन माध्यम में अध्ययन सामग्री एवं कम्यूटर शुल्क पर काफी कम खर्च आता है।
विशिष्टता: डिजिटल पहल द्वारा शिक्षा को ग्रामीण और देश के दूरस्थ क्षेत्रों तक एक साथ पहुँचाया जा सकता है। साथ ही ऑनलाइन शिक्षण छात्रों को ऐसे माहौल में कार्य करने की अनुमति देता है जो उन्हें उपयुक्त लगता है।
शिक्षा क्षेत्र में डिजिटल पहल का नुकसान
डिजिटल डिवाइड: ई-लर्निंग मध्यम और उच्च वर्ग के छात्रों के लिये एक विशेषाधिकार की तरह है, लेकिन यह निम्न-मध्यम वर्ग के छात्रों और गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों (बीपीएल) के लिये एक दिवास्वप्न की तरह है। गरीब छात्र, जिनकी ई-संसाधनों (कंप्यूटर, लैपटॉप, इंटरनेट कनेक्टिविटी) तक पहुँच नहीं है, घर से कक्षाओं का लाभ नहीं उठा पाएंगे।
अत: डिजिटल पहल शिक्षा में डिजिटल विभाजन को बढ़ाती है।
पारंपरिक कक्षाएँ एक सामाजिक संस्थान के रूप में: स्कूल और कॉलेज जैसे संस्थान सामाजिक संस्थान हैं, इसमें छात्र न केवल शैक्षणिक ज्ञान बल्कि कई सामाजिक कौशल भी सीखता है जो कि व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के लिये आवश्यक हैं।
शिक्षा का व्यावसायीकरण: ई-लर्निंग के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये कॉरपोरेट घरानों, प्रौद्योगिकी फर्मों और शैक्षणिक संस्थानों के साथ मिलकर काम करना होगा, जो शिक्षा के व्यावसायीकरण को बढ़ा सकते हैं और आर्थिक रूप से कमज़ोर पृष्ठभूमि के आत्म-निर्भर ट्यूटर्स और छात्रों को इससे बाहर कर सकते हैं।
निष्कर्ष
भारत में डिजिटल शिक्षा बहुत उपयोगी है किंतु यह अभी पूरी तरह से सफल नहीं है। इसलिये यह पता लगाने की ज़रूरत है कि क्या छात्रों के अधिकारों के साथ समझौता किया जा रहा है या उन्हें एक सार्थक शैक्षणिक पाठ्यक्रम विकल्प प्रदान किया जा रहा है।</s> |
<s>[INST]नदियों को आपस में जोड़ना सूखा, बाढ़ और बाधित जल-परिवहन जैसी बहु-आयामी अंतर्संबंधित समस्याओं का व्यवहार्य समाधान दे सकता है। आलोचनात्मक परिक्षण कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
उत्तर की शुरुआत नदियों को आपस में जोड़ने के उद्देश्य के बारे में संक्षेप में चर्चा करते हुए करें।
इसके सकारात्मक और संभावित नकारात्मक पहलू पर चर्चा करें।
उचित निष्कर्ष दें।
नदियों को आपस में जोड़ने का अर्थ है- अंतर-बेसिन जल अंतरण परियोजनाओं के माध्यम से जल 'अधिशेष' बेसिनों से ऐसे नदी बेसिन में जल को स्थानांतरित करना जहाँ जल की कमी हो अथवा सूखा हो।
भारत के उत्तरी मैदान में हिमालय से निकलने वाली बारहमासी नदियों में जल अधिशेष की स्थिति देखी जाती है, जबकि दक्षिणी और पश्चिमी भारत में आमतौर पर सूखा देखा जाता है, क्योंकि इन क्षेत्रों में मौसमी नदियाँ बहती हैं, जिनका जल स्तर काफी हद तक भारतीय मानसून पर निर्भर करता है।
नदियों को जोड़ने के संभावित लाभ
जलविद्युत उत्पादन: इससे अतिरिक्त जलविद्युत का उत्पादन होगा, जिससे भारत को पेरिस जलवायु समझौते के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को पूरा करने में मदद मिलेगी।
वर्ष-भर नेविगेशन: नदियों को जोड़ने से दक्षिणी भारत की नदियों के निम्न जल-स्तर में सुधार होगा और यह लगभग वर्ष-भर जल-मार्ग हेतु कनेक्टिविटी प्रदान करेगा। इस प्रकार परिवहन द्वारा प्रदूषण के स्तर में कमी आएगी और आर्थिक विकास में मदद मिलेगी।
सिंचाई लाभ: नदियों को जोड़ने से देश की कुल सिंचाई क्षमता में वृद्धि होगी क्योंकि इससे सतह के अपवाह को समुद्र में जाने से कुछ हद तक रोका जा सकेगा।
नदियों को आपस में जोड़ने के संभावित दुष्परिणाम:
मानसून के दौरान बारहमासी नदियों में जल स्तर में कमी: वर्षा के आँकड़ों के एक नए विश्लेषण के अनुसार,बारहमासी नदियों में मानसून के दौरान जल स्तर में अधिक कमी आती है, जबकि ऐसे नदी बेसिन, जिनका जल स्तर पहले से निम्न है, के जल स्तर में कमी आती है।
संघवाद का मुद्दा: नदी जोड़ो परियोजना में संघवाद की भावना को नज़रअंदाज़ किया जाता है।
ऐतिहासिक रूप से जल बँटवारे को लेकर राज्य सरकारें असंतुष्ट रही हैं। उदाहरण के लिये कावेरी, महादयी जैसी नदियों को लेकर विवाद।
पड़ोसी देशों के साथ तनाव: बांग्लादेश जैसे राज्य के निचले नदी बेसिन में स्थित होने के कारण उसके भारत की इंटरलिंकिंग परियोजना में शामिल होने की संभावना कम है।
इसके अलावा चूँकि चीन ऊपरी नदी बेसिन में स्थित है, इसलिये भारत को अपने नदी जोड़ो कार्यक्रम के लिये चीन पर दबाव बना पाने की संभावना कम है। यह अंततः उत्तर-पूर्व भारत में जीवन को प्रभावित करेगा।
उच्च पर्यावरणीय और आर्थिक लागत: नदी जोड़ो परियोजना की लागत बहुत अधिक है। इसके अलावा यह डेल्टा, मैंग्रोव की वृद्धि और जलीय जीवन जैसे कई पारिस्थितिक कारकों को नुकसान पहुँचाएगा।
निष्कर्ष
नदियों को आपस में जोड़ने के अपने सकारात्मक ओर नकारात्मक पहलू हैं लेकिन आर्थिक, राजनीतिक और पर्यावरणीय निहितार्थों को देखते हुए राष्ट्रीय स्तर पर इस परियोजना को पूरा करना एक बेहतर निर्णय नहीं हो सकता है। इसके बजाय नदियों के अंतर्संबंध को विकेंद्रीकृत तरीके से आगे बढ़ाया जा सकता है एवं बाढ़ और सूखे को कम करने के लिये वर्षा जल संचयन जैसे अधिक स्थायी तरीकों को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।</s> |
<s>[INST]परि-प्रशांत क्षेत्र के भू-भौतिकीय अभिलक्षणों का विवेचन कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
उत्तर की शुरुआत परि-प्रशांत क्षेत्र का संक्षिप्त परिचय देकर करें।
परि-प्रशांत क्षेत्र की मुख्य भू-भौतिकीय विशेषताओं का उल्लेख करें।
उचित निष्कर्ष दें।
परि-प्रशांत बेल्ट, जिसे 'द रिंग ऑफ फायर' भी कहा जाता है, सक्रिय ज्वालामुखियों और लगातार आने वाले भूकंपों के कारण निर्मित प्रशांत महासागर के चारों तरफ का क्षेत्र है।
स्थान विस्तार: प्रशांत महासागर के चारों ओर ज्वालामुखियों की एक निरंतर शृंखला है। यह शृंखला उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका के पश्चिमी तट से गुज़रती है एवं अल्यूशियन द्वीप से जापान के दक्षिण में, इंडोनेशिया से टोंगा द्वीप और न्यूज़ीलैंड तक फैली हुई है।
बनावट: ज्वालामुखियों की यह परि-प्रशांत शृंखला (जिसे अक्सर रिंग ऑफ फायर कहा जाता है) और इससे जुड़ी पर्वत शृंखलाएँ महाद्वीपों के नीचे महासागरीय लिथोस्फीयर और प्रशांत महासागर के परित: पाए जाने वाले द्वीपों में बार-बार होने वाले घर्षण के फलस्वरूप बनी हैं।
द रिंग ऑफ फायर प्लेट टेक्टोनिक्स (कन्वर्जेंट, डाइवर्जेंट प्लेट बाउंड्री, ट्रांसफॉर्म प्लेट बाउंड्री) का परिणाम है।
सर्वाधिक ज्वालामुखी तथा भूकंप वाला क्षेत्र : पृथ्वी पर लगभग 75% ज्वालामुखी (450 से अधिक ज्वालामुखी) रिंग ऑफ फायर में क्षेत्र में स्थित हैं तथा विश्व में सर्वाधिक भूकंप भी इसी क्षेत्र में आते हैं।
पृथ्वी के नब्बे प्रतिशत भूकंप इन्हीं क्षेत्रों में आते हैं, जिसमें ग्रह की सबसे विनाशकारी भूकंपीय घटनाएँ भी शामिल हैं।
परि-प्रशांत बेल्ट में स्थित प्रमुख ज्वालामुखी:
जापान का माउंट फू जी,
अमेरिका का अल्यूशियन द्वीप,
इंडोनेशिया में क्राकाटाओ द्वीप ज्वालामुखी आदि।
हॉट स्पॉट का गठन: रिंग ऑफ फायर हॉट स्पॉट के लिये उपयुक्त स्थान है, यह पृथ्वी के मेंटल में गहराई में स्थित है, जहाँ से पृथ्वी की परतों में ऊष्मा का निष्कासन होता है।
यह ऊष्मा मेंटल के ऊपरी परत में चट्टान के पिघलने में सहायता करती है। मैग्मा के रूप में जाना जाने वाला पिघला हुआ चट्टान दरार के माध्यम से पृथ्वी के ऊपरी परत (क्रस्ट) को धक्का देता है जिसके परिणामस्वरूप ज्वालामुखी का निर्माण होता है।
निष्कर्ष
परि-प्रशांत क्षेत्र में वैश्विक ज्वालामुखी विस्फोटों और भूकंप की घटनाओं का एक बड़ा प्रतिशत देखा जाता है, अत: यह पृथ्वी के अंदरूनी संरचना के अध्ययन हेतु महत्त्वपूर्ण है।</s> |
<s>[INST]मरुस्थलीकरण के प्रक्रम की जलवायविक सीमाएँ नहीं होती हैं। उदाहरणों सहित औचित्य सिद्ध कीजिये। (150 शब्द) (UPSC GS-1 Mains 2020)[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण
उत्तर की शुरुआत में मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया को समझाएँ
मरुस्थलीकरण को बढ़ावा देने वाले कारकों का विश्लेषण करें एवं बताएँ कि इसे कैसे जलवायविक सीमाओं द्वारा रोका नहीं जा सकता है।
उचित निष्कर्ष लिखें।
यूएन कन्वेंशन टू कॉम्बैट डेज़र्टिफिकेशन (UNCCD) के अनुसार, मरुस्थलीकरण का अर्थ शुष्क, अर्द्ध-शुष्क और शुष्क या कम आद्रता वाले क्षेत्रों में भूमि क्षरण है, जो जलवायु परिवर्तन और मानवीय गतिविधियों सहित विभिन्न कारकों की वजह से होता है। हालाँकि यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो जलवायु सीमाओं को लाँघती हुई दुनिया के रेगिस्तानों और उसके आसपास रहने वालों को प्रभावित करती है। मरुस्थलीकरण के कारण विश्व के लगभग दो अरब से अधिक लोगों की खाद्य सुरक्षा और आजीविका को खतरा है।
मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया को कई कारक प्रभावित करते हैं। मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया सिर्फ एक विशेष जलवायु सीमा, यानी शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं है। यह एक वैश्विक घटना है जिसे निम्नलिखित उदाहरणों द्वारा समझा जा सकता है।
जलवायु परिवर्तन: जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक मुद्दा है जो पिछली दो शताब्दियों में मानव जाति द्वारा किये गए विकास के लिये खतरा हो सकता है। जलवायु परिवर्तन का प्रभाव भी मरुस्थलीकरण को बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण कारक है।
जैसे-जैसे भूमि की सतह पृथ्वी की सतह की तुलना में अधिक तेज़ी से गर्म हो रही है, इसके परिणामस्वरूप वैश्विक तापमान बढ़ने के साथ भूमि की सतह की तुलना में समुद्र के तापमान में हल्की वृद्धि होती है।
इसके अलावा जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग में प्राकृतिक रूप से परिवर्तनशीलता भी दुनिया भर में वर्षा के पैटर्न को प्रभावित कर सकती है, जिससे मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया तेज़ होती है।
इसके साथ ही मानव गतिविधियों द्वारा उत्पन्न वार्मिंग भी इसमें योगदान देता है। मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया बाढ़, सूखा, भूस्खलन जैसी चरम मौसमी घटनाओं के कारण भी तेज़ होती है।
मृदा क्षरण: मरुस्थलीकरण की एक मुख्य प्रक्रिया मृदा क्षरण है। यह आमतौर पर प्राकृतिक कारणों से होता है। जैसे- हवा, बारिश और लहरों के माध्यम से। लेकिन जुताई, चराई, या वनों की कटाई सहित मानव निर्मित गतिविधियों के कारण यह प्रक्रिया तेज़ हो सकती है।
द वर्ल्ड एटलस ऑफ डेज़र्टिफिकेशन (2018) के अनुसार, भूमि क्षरण की वैश्विक सीमा निर्धारित करना संभव नहीं है।
इसके अलावा मिट्टी का कटाव एक वैश्विक घटना है जो दुनिया के लगभग सभी प्रमुख बायोम को प्रभावित करती है। उत्तर भारत में धूल भरी आँधी की घटनाएँ इसका प्रमाण है।
मृदा उर्वरता में कमी: मिट्टी की उर्वरता का ह्रास मरुस्थलीकरण का दूसरा रूप है। कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिये (चाहे वह एक विकसित या विकासशील देश हो) उर्वरकों के अति प्रयोगके कारण मिट्टी की उर्वरता कम हो रही है। इसकी वजह से मृदा का लवणीकरण और अम्लीकरण भी बढ़ रहा है।
शहरीकरण: कुछ रिपोर्टों के अनुसार, विश्व में शहरीकरण तीव्र गति से बढ़ रहा है। भारत में भी वर्ष 2050 तक लगभग 50% आबादी के शहरी क्षेत्रों में रहने की उम्मीद है।
जैसे-जैसे शहरीकरण बढ़ता है संसाधनों की मांग भी बढ़ती है। अधिक संसाधनों के उपभोग के कारण भूमि आसानी से मरुस्थल में परिवर्तित हो जाती है।
निष्कर्ष
उपर्युक्त तर्कों से देखा जा सकता है कि मरुस्थलीकरण और इसके प्रभाव किसी जलवायु सीमा तक सीमित नहीं हैं। इसीलिये यूएनसीसीडी मरुस्थलीकरण को वर्तमान समय की सबसे बड़ी पर्यावरणीय चुनौतियों में से एक के रूप में वर्णित करता है जिसे समग्र रूप से निपटना होगा।</s> |
<s>[INST]औद्योगिक क्रांति के दौरान मज़दूरों की विकट कार्य स्थितियों ने विशेष रूप से महिलाओं और बच्चों के संदर्भ में रोज़गार की भावना को नकार दिया। टिप्पणी। (150 शब्द)[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण
औद्योगिक क्रांति और उस समय काम करने की स्थिति के बारे में संक्षेप में बताएँ।
औद्योगिक क्रांति के दौरान काम करने की परिस्थितियों पर चर्चा कीजिये।
महिलाओं और बाल श्रमिकों से संबंधित मुद्दों पर प्रकाश डालिये।
उचित निष्कर्ष दीजिये।
1780 से 1850 के दशक के मध्य ब्रिटेन में उद्योग और अर्थव्यवस्था के परिवर्तन को पहली औद्योगिक क्रांति कहा जाता है। ब्रिटेन में इसके दूरगामी प्रभाव परिलक्षित हुए। बाद में, यूरोपीय देशों और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसी तरह के परिवर्तन हुए। इनमें से अधिकांश देशों में कुल मिलाकर श्रमिकों की स्थिति खराब थी। आज के विपरीत, औद्योगिक क्रांति के दौरान सभी श्रमिकों से घंटों काम कराया जाता था वरना उनकी नौकरी चली जाती थी।
औद्योगिक क्रांति के कारण महिलाओं और बच्चों को निरंतर पूरे साल काम मिलने लगा, जबकि खेतों में अल्पकालिक रोज़गार ही हुआ करता था। उनकी आय से उन्हें आर्थिक आत्मनिर्भरता प्राप्त हुई। हालाँकि, कारखानों और मिलों में खराब स्थितियों में काम करने के कारण उनमें आत्मविकास की संभावनाएँ शून्य रह गई। कारखानों और मिलों में कार्य करने की स्थिति अमानवीय थी। जैसे-
कार्य करने की नीरस और अमानवीय स्थिति: कारखानों में मज़दूरों के मस्तिष्क के विकास एवं अवकाश की कोई व्यवस्था नहीं थी। उनसे निरंतर एक ही तरह का कार्य करवाया जाता था। इसके अलावा, महिलाओं और बच्चों के लिए कठोर अनुशासन और सज़ा के सख्त प्रावधान थे।
सुरक्षा का अभाव: कपास की कताई जैसी मशीनों को बाल श्रमिकों द्वारा उपयोग किये जाने के हिसाब से बनाया जाता था, जिसमें वो अपनी छोटी उँगलियों से फुर्ती से कम कर सकते थे। बाल श्रमिकों को अधिकतर कपड़ा मिलों में नियोजित किया जाता था क्योंकि वे मशीनरी के बीच जाकर भी कार्य कर सकते थे। उस समय अस्थाई या स्थाई क्षति के मामलों में भी पर्याप्त क्षतिपूर्ति नहीं दिया जाता था।
काम के अत्यधिक घंटे और क्रूरता: रविवार को मशीनों को साफ करने सहित काम के लंबे घंटों के पश्चात उन्हें थोड़ी ताजी हवा खाने या व्यायाम करने की अनुमति दी जाती थी। कार्य करते समय की बच्चों के बल और उँगलियाँ मशीनों में फँस जाती थी। साथ ही कई बार वो काम की थकान से मशीनों में गिर पड़ते थे।
कमज़ोरों का शोषण: पुरुषों को कम मज़दूरी मिलने के कारण महिलाओं और बच्चों का कार्य करना भी आवश्यक था। जैसे-जैसे मशीनरी का उपयोग बढ़ता गया, श्रमिकों की जरूरत कम पड़ने लगी। उद्योगपति कार्य के लिए महिलाओं और बच्चों को अधिक वरीयता देते थे क्योंकि वो काम की खराब परिस्थितियों के बारे में कम जागरूक थे साथ ही, उन्हें पुरुषों की तुलना में वेतन भी कम देना पड़ता था।
खतरनाक खानों में कार्य: कोयले की खदानें कार्य करने के लिए खतरनाक स्थान थे। खदानों में विस्फोट हो सकते थे, और इसलिए मज़दूरों का चोटिल और ज़ख्मी होना आम था। कोयला खदानों के मालिकों ने कोयले के खदानों की गहराई तक पहुँचने के लिए बच्चों का इस्तेमाल किया। छोटे बच्चों कोयले के वैगन के रूप में दरवाजे खोलने या बंद करने का भी काम किया। इसके अलावा उन्होंने कोयला ढोने का भी काम किया।
कार्य करने के लिए न्यूनतम आयु पर कोई मानक नहीं: कारखाने के प्रबंधकों ने बाल श्रमिकों को भविष्य में कारखानों में काम के लिए महत्त्वपूर्ण माना क्योंकि उन्हें बचपन से कार्य करना सिखाया गया था। ब्रिटिश कारखाने के रिकॉर्ड से प्राप्त सबूतों से पता चलता है कि कारखाने के लगभग आधे श्रमिकों ने तब काम शुरू किया था जब वे दस साल से कम उम्र के थे और लगभग एक-चौथाई श्रमिकों ने तब कार्य करना शुरू किया जब वे 14 साल के थे।
कल्याणकारी उपायों का अभाव: सामाजिक सुरक्षा, बीमा, सुरक्षित कामकाजी परिस्थितियाँ और क्रेच जैसी सुविधाओं के अभाव से बच्चों और विशेष तौर पर महिला श्रमिकों अधिक परेशानी होती थी।
निष्कर्ष
इस प्रकार महिलाओं और बच्चों ने औद्योगिक क्रांति के दौरान कार्य करने से वित्तीय स्वतंत्रता और आर्थिक आत्मनिर्भरता में वृद्धि तो हुई किंतु जिन शर्तों पर यह मिला वो बेहद अमानवीय और अपमानजनक थीं।</s> |
<s>[INST]भारत में 'माइक्रो क्लाइमैटिक ज़ोन' के स्थानांतरित होने पर पड़ने वाले प्रभावों की चर्चा करते हुए इसे कम करने हेतु आवश्यक सुझाव दीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
भारत में माइक्रो क्लाइमेटिक ज़ोन के स्थानांतरण को संक्षेप में समझाएँ।
माइक्रो क्लाइमेटिक ज़ोन के स्थानांतरण के प्रभाव पर चर्चा करें।
इससे निपटने के लिये कुछ उपाय सुझाएँ।
किसी स्थान का माइक्रो क्लाइमेट वहाँ की जमीन, वनस्पति, मिट्टी, अक्षांश, ऊँचाई, और वातावरण की नमी, तापमान और हवाओं द्वारा परिभाषित किया जाता है। किसी स्थान का मौसम माइक्रो क्लाइमेटिक परिस्थितियों से भी प्रभावित होता है।
भारत के विभिन्न ज़िलों में माइक्रो क्लामेटिक ज़ोन स्थानांतरित हो रहे हैं। माइक्रो क्लाइमेट जोन में बदलाव का पूरे क्षेत्र पर भयंकर प्रभाव हो सकता है। उदाहरण के लिये- वार्षिक औसत तापमान में हर 2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि से कृषि उत्पादकता में 15-20% की कमी आएगी।
माइक्रो कलाइमेटिक ज़ोन में इस बदलाव के पीछे कुछ कारणों में भू-उपयोग पैटर्न, वनों की कटाई, मैंग्रोव पर अतिक्रमण, अतिक्रमण के कारण वेटलैंड्स और प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्रों का कम होना और शहरी ताप द्वीपों का बनना को ताप को स्थानीय रूप से बदलना है।
माइक्रो क्लाइमेटिक ज़ोन शिफ्टिंग का प्रभाव चरम घटनाओं की आवृत्ति, तीव्रता और अप्रत्याशितता में वृद्धि है। उदाहरण के तौर पर भारत ने वर्ष 1970 और वर्ष 2005 के मध्य 35 वर्षों में 250 चरम जलवायविक घटनाओं को देखा, तब से केवल 15 वर्षों में इस तरह की 310 घटनाओं को दर्ज किया गया।
वर्ष 2005 के बाद से माइक्रो क्लाइमेटिक ज़ोन में स्थानांतरण के कारण चरम घटनाओं में असामान्य रूप से वृद्धि के फलस्वरूप ये ज़िलों में संपत्ति, आजीविका और जीवन की हानि जैसे दुष्प्रभाव को झेल रहे हैं।
जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप चरम जलवायविक घटनाओं के कारण वर्ष 1999-2018 में दुनिया भर में 4,95,000 लोगों की मौतें हुईं। 12,000 से अधिक चरम जलवायविक घटनाओं के कारण इस अवधि के दौरान USD 3.54 ट्रिलियन (क्रय शक्ति समता या PPP के संदर्भ में) का नुकसान हुआ। वर्तमान में हो रहे भयावह जलवायु घटनाओं के कारण पिछले 100 वर्षों में तापमान में 0.6 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो गई है।
माइक्रो क्लाइमेटिक ज़ोन के स्थानांतरण के प्रभावों को कम करने के उपाय:
तटीय क्षेत्र, शहरी क्षेत्रों में तापमान, जल की कमी एवं जैव विविधता में आने वाले बदलाव जैसी महत्वपूर्ण विषयों का मानचित्रण करने हेतु एक जलवायु जोखिम मानचित्र को विकसित करने का प्रयास करना चाहिये।
आपात स्थिति में एक व्यवस्थित एवं निरंतर प्रतिक्रिया के लिये एक एकीकृत आपातकालीन निगरानी प्रणाली विकसित करना चाहिये।
सतत और पर्यावरण के अनुकूल शहरों का निर्माण। पर्यावरण के अनुकूल शहरों एवं स्मार्ट सिटी विकसित करने हेतु कानून का लागू करना चाहिये।
मुख्य जोखिम मूल्यांकन के अंतर्गत स्थानीय, क्षेत्रीय, मैक्रो और माइक्रो-क्लाइमेटिक स्तर सहित सभी स्तरों को शामिल करना चाहिये।
जोखिम मूल्यांकन प्रक्रिया में सभी हितधारकों की भागीदारी को बढ़ाएँ।
राष्ट्रीय स्तर और स्थानीय की योजनाओं में जोखिम मूल्यांकन को शामिल किया जाना चाहिये।
निष्कर्ष:
काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वाटर के अनुसार, भारत पहले से ही चरम जलवायु घटनाओं के मामले में वैश्विक रूप से 5वाँ सबसे कमज़ोर देश है, और यह दुनिया की बाढ़ राजधानी माना जाने लगा है।
इस प्रकार, भारत को सीईईवी द्वारा जारी की गई रिपोर्ट "चरम जलवायविक घटनाओं के लिये भारत को तैयार करना" का संज्ञान लेते हुए तत्काल कदम उठाने की आवश्यकता है, ताकि भारत माइक्रो क्लाइमेटिक ज़ोन शिफ्टिंग से सुभेद्यता को कम करने के लिये अच्छी तरह से तैयार हो।</s> |
<s>[INST]'महिला संगठनों में पुरुषों की भागीदारी बढ़ाने से उनमें लिये जाने वाले निर्णयों में तार्किक रूप से संतुलन स्थापित होगा तथा निर्णय पूर्वाग्रह से ग्रस्त नहीं होगें।' टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
भूमिका।
महिला संगठनों में पुरुषों की उपस्थिति बढ़ाने की आवश्यकता क्यों ?
निष्कर्ष।
समाज में महिलाओं के प्रति भेदभाव रोकने तथा उन्हें सशक्त बनाने के लिये अनेक सरकारी तथा गैर-सरकारी प्रयास किये जा रहे हैं। इन प्रयासों में महिला संगठनों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है, किंतु अधिकतर यह देखा जा जाता है कि महिला संगठनों की सदस्य ज्यादातर महिलाएं ही होती हैं। पुरुष सदस्य की संख्या होती भी है तो केवल नाममात्र की।
महिला संगठन समाज में व्याप्त लिंग-भेद को दूर करने के लिये संघर्षरत रहते हैं। किसी संगठन में केवल महिला सदस्यों का होना भी एक प्रकार का लिंग भेद ही है। अत: ऐसे संगठनों में पुरुषों को अनिवार्य रूप से शामिल किया जाना चाहिये। विशेषकर उन्हें जो महिला सशक्तीकरण के समर्थक हैं।
ऐसा माना जाता है कि पुरुषों की मानसिकता को एक पुरुष ही भली-भाँति समझ सकता है। अत: महिला संगठन में उचित संख्या में पुरुषों की उपस्थिति अनिवार्य है, क्योंकि पुरुष सदस्य महिलाओं से जुड़े विभिन्न मुद्दों को समाज के अन्य पुरुष सदस्यों के समक्ष बेहतर ढंग से प्रकट कर सकते हैं। इसके अलावा यह भी विचारणीय प्रश्न है कि महिलाओं के सशक्तीकरण के लिये संघर्ष करना केवल महिलाओं का काम ही नहीं है। पुरुषों को भी इसमें बराबर की भागीदारी निभानी होगी। अत: इसके लिये महिला संगठनों में पुरुषों की भूमिका और भी ज़रूरी हो जाती है।
कई बार इस संदर्भ में शिकायतें भी आती हैं कि महिलाओं ने दहेज, शारीरिक शोषण आदि के मामले में पुरुषों पर झूठा आरोप लगाया है जिसकी जाँच की मांग की जाती है एवं जाँच में महिला संगठनों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। अत: इन संगठनों में पुरुषों को शामिल करने से उनमें लिये जाने वाले निर्णयों में तार्किक रूप से संतुलन स्थापित होगा तथा निर्णय पूर्वाग्रह से ग्रस्त नहीं हांगे। अत: महिला संगठनों में पुरुषों की भागीदारी वांछनीय भी है और ज़रूरी भी।</s> |
<s>[INST]छोटा होने के बावजूद शेरशाह का शासनकाल इतिहास में अपने सुधारों की वज़ह से महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है? चर्चा करें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण-
शेरशाह के शासनकाल के विषय में संक्षिप्त उल्लेख
विभिन्न क्षेत्रों में किये गए सुधार
निष्कर्ष
शेरशाह सूरी को वास्तव में भारत के राष्ट्रीय नायकों में से एक माना जाता है। इसने अपने शासनकाल की पाँच वर्ष की छोटी सी अवधि (1540-1545) में अपने सुधारों के माध्यम से शासन के अधिकांश पहलुओं को स्पर्श किया।
शेरशाह के शासनकाल में विभिन्न क्षेत्रों में किये गए सुधार निम्नलिखित हैं-
शेरशाह ने साम्राज्य को 47 सरकारों में विभाजित किया गया था। प्रत्येक सरकार कई परगनाओं में विभाजित थी। कई प्रशासनिक इकाइयाँ भी थीं जिन्हें इक्ता कहा जाता था।
राज्य को औसत उत्पादन का एक-तिहाई हिस्सा प्राप्त होता था जिसका भुगतान नकद या फसल के रूप में किया जाता था। संपूर्ण खेती योग्य भूमि को अच्छी, मध्यम एवं खराब तीन वर्गों में वर्गीकृत किया गया था।
शेरशाह सूरी ने कलकत्ता से पेशावर के बीच पुराने राजमार्ग ग्रांट ट्रंक रोड को पुन: चालू करवाया। शेरशाह ने सोनारगाँव से सिंध, आगरा से बुरहानपुर, जोधपुर से चित्तौड़ और मुल्तान से लाहौर तक चार महत्त्वपूर्ण राजमार्गों के निर्माण द्वारा संचार व्यवस्था को सुदृढ़ किया।
शेरशाह के शासनकाल में न्याय व्यवस्था के तहत खुद अपने कबीले के लोगों, रिश्तेदारों एवं अन्य लोगों के बीच भेदभाव न करने और सत्ताधारी वर्ग तथा अन्य लोगों द्वारा किये जाने वाले अत्याचारों को रोकने पर विशेष बल दिया गया था।
पुलिस का पुनर्गठन किया जिसकी वजह से उसके शासन के दौरान अपराध कम होते थे। सैन्य प्रशासन का पुनर्गठन भी कुशलता से किया गया था।
शेरशाह के शासन के तहत भूमि राजस्व प्रशासन को अच्छी तरह से संगठित किया गया था और भूमि सर्वेक्षण ध्यानपूर्वक किया जाता था। उसके राजस्व सुधारों ने राज्य के राजस्व में वृद्धि की।
शेरशाह ने ‘दाम’ कहे जाने वाले चांदी के नए सिक्के जारी किये जो 1835 ई. तक प्रचलन में थे। शेरशाह ने ‘रुपए’ (मुद्रा) का प्रारंभ किया और एक व्यवस्थित डाक सेवा की शुरुआत की।
शेरशाह सूरी ने दिल्ली के निकट यमुना नदी के किनारे एक नया नगर बसाया था। वास्तुशिल्प के क्षेत्र में भी शेरशाह सूरी का उत्कृष्ट योगदान उसके द्वारा सादगी और लालित्य के मिश्रण से सासाराम, बिहार में बनाया गया स्वयं का मकबरा है।
शेरशाह द्वारा किये गए सुधार उसे एक बहादुर, बुद्धिमान, व्यवहार कुशल सैन्य प्रशासक, पैनी राजनीतिक परख एवं नगर प्रशासन में असाधारण कौशल और योग्यता रखने वाला व्यक्ति सिद्ध करते हैं।</s> |
<s>[INST]सरकार द्वारा जारी आँकड़ों के अनुसार देशभर में पानी की दैनिक खपत दोगुनी हो गई है। अगले कुछ वर्षों में हमें गंभीर जल संकट का सामना भी करना पड़ सकता है। वर्तमान में जलसंकट के कारणों की चर्चा करते समाधान के बिंदु सुझाएँ।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण-
भूमिका
भारत में जलसंकट की स्थिति
कारण
समाधान
भारत में उपलब्ध जल संसाधन विश्व का लगभग 4% है जबकि देश की जनसंख्या विश्व की कुल आबादी का लगभग 18% है। देश में उपलब्ध जल संसाधनों की गुणवत्ता में कमी और जनसंख्या में हुई तीव्र वृद्धि के कारण प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता में भारी गिरावट आई है। सरकार के आँकड़ों के अनुसार, वर्तमान में लोगों की दैनिक ज़रूरतों के लिये होने वाला भूमिगत जल का दोहन सामान्य औसत से 2.5 गुना अधिक है। एक अनुमान के अनुसार, वर्ष 2030 तक जल की मांग में 26% की वृद्धि देखी जा सकती है जबकि जल की उपलब्धता में 29% की कमी देखी जा सकती है। ऐसी स्थिति में उपलब्ध जल और मांग में 55% का अंतर देखा जा सकता है जो एक गंभीर चिंता का विषय है।
वर्ष 2019 में वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टिट्यूट के ‘एक्वाडक्ट वाटर रिस्क एटलस’ में भारत को ‘अत्यधिक उच्च’ जल संकट वाले देशों की सूची में 13वें स्थान पर रखा गया था। COVID-19 के कारण देश में लागू लॉकडाउन के बीच जहाँ देश में पानी की खपत में वृद्धि हुई है वहीं इस महामारी के कारण जल संरक्षण की योजनाओं का कार्यान्वयन भी बाधित हुआ है।
जल संकट के प्रमुख कारण:
वर्षा का असमान वितरण : देश में विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति के लिये आवश्यक जल में वर्षा से प्राप्त होने वाले जल की भूमिका बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। परंतु देश के सभी हिस्सों में वर्ष की मात्रा और अवधि में बड़ा अंतर देखने को मिलता है। साथ ही लगभग सभी भागों में वर्षा कुछ ही महीनों तक सीमित रहती है, जिसे हम मानसून के रूप में जानते हैं। ऐसे में वर्षभर जल की आवश्यकता के सापेक्ष वर्षा का सीमित और अनियमित होना एक बड़ी समस्या है।
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव: जलवायु परिवहन के कारण वर्षा की मात्र पर बहुत अधिक प्रभाव नहीं पड़ा है परंतु इसके कारण समय और भौगोलिक दृष्टि से वर्षा का वितरण प्रभावित हुआ है। उदाहरण के लिये- जलवायु परिवर्तन के कारण पहले यदि किसी क्षेत्र में एक माह में 400 मिमी. वर्ष होती थी वहाँ जलवायु परिवर्तन के कारण एक ही दिन में 400 मिमी. वर्षा हो जाती है और अगले 10 दिनों तक कोई वर्षा नहीं होती। इससे होने वाली तात्कालिक क्षति के अतिरिक्त जल संरक्षण की प्रक्रिया भी प्रभावित होती है।
प्राकृतिक संसाधनों का अनियंत्रित दोहन: 1960 के दशक में हरित क्रांति के तहत सिंचाई तकनीकों को नवीनीकृत करने पर विशेष ध्यान दिया गया और ग्रामीण क्षेत्रों तक सस्ती दरों पर विद्युत की पहुँच सुनिश्चित की गई, परंतु इससे कृषि उपज हेतु भूमिगत जल के अनियंत्रित को बढ़ावा मिला।
वर्तमान में दैनिक जीवन में जल की कुल मांग का 80-85% कृषि क्षेत्र में प्रयोग होता है। कृषि क्षेत्र में जल के प्रयोग के प्रति यह व्यवहार भविष्य में एक बड़े संकट का कारण बन सकता है।
कृषि भूमि और औद्योगिक इकाईयों के विस्तार के साथ आर्द्रभूमि की संख्या में कमी हुई है जिससे जल संरक्षण के प्राकृतिक तंत्र को काफी क्षति हुई है।
प्रदूषण: COVID-19 के प्रसार को रोकने हेतु देशभर में लागू लॉकडाउन के दौरान औद्योगिक प्रदूषण में भारी गिरावट हुई है और इसका प्रत्यक्ष प्रभाव देश के सभी भागों में देखने को मिला है।
अतिक्रमण: वर्ष 2015-16 में शहरी विकास मंत्रालय द्वारा लोकसभा की जल संरक्षण पर स्थायी समिति के समक्ष प्रस्तुत एक रिपोर्ट में देश के विभिन्न शहरी क्षेत्रों में जल संसाधनों के अतिक्रमण की जानकारी दी गई थी, इस रिपोर्ट के अनुसार देश के अधिकांश राज्यों में तालाबों और अन्य जल संसाधनों में अतिक्रमण के मामले देखे गए। लगभग सभी राज्यों में अतिक्रमण का कारण कृषि भूमि में विस्तार, बढ़ती जनसंख्या का दबाव और शहरीकरण ही थे।
समाधान:
वर्तमान में कृषि क्षेत्र जल का दोहन सबसे अधिक है ऐसे में यदि कृषि में 20-30% जल की बचत कर ली जाए तो यह जल संकट की वर्तमान चुनौती से निपटने में एक बड़ी सफलता होगी।
कृषि क्षेत्र में जल संरक्षण हेतु ड्रिप या स्प्रिंकलर सिंचाई तथा एग्रोफोरेस्ट्री जैसे प्रयासों को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।
प्राकृतिक जल संसाधनों के अतिक्रमण को रोक कर तथा ग्रीन कवर में वृद्धि अर्थात वनीकरण को बढ़ावा देकर भू-जल जल स्तर में सुधार किया जा सकता है।
लॉकडाउन के दौरान घरों में प्रयोग होने वाले जल में वृद्धि देखने को मिली है, ऐसे में घरों में जल के किफायती इस्तेमाल और घरों से निकलने वाले अपशिष्ट जल के पुनर्चक्रण/पुनर्प्रयोग को बढ़ावा देकर जल के दुरुपयोग को कुछ सीमा तक कम किया जा सकता है।
घरों और हाऊसिंग सोसायटियों के स्तर पर वर्षा के जल को संरक्षित कर जल संरक्षण को बढ़ावा देना।
औद्योगिक जल प्रदूषण हेतु कड़े कानूनों को लागू करने के साथ प्रदूषण नियंत्रण हेतु उद्योगों को ट्रीटमेंट प्लांट स्थापित करने पर प्रोत्साहन दिया जाना चाहिये।
जन जागरूकता अभियानों के माध्यम से जल संरक्षण के प्रति सामाजिक सहयोग को बढ़ाना।
निष्कर्षतः लॉकडाउन के कारण जहाँ घरेलू उपयोग के लिये जल की मांग बढ़ी हुई वहीं जल संरक्षण की कई योजनाओं में भी रुकावट आई है। पिछले कुछ वर्षों में भारतीय शहरों की आबादी में तीव्र वृद्धि देखने को मिली है ऐसे में भविष्य में शहरों में जल की मांग काफी बढ़ सकती है, अतः वर्तमान चुनौतियों से सीख लेते हुए हमें जल के सदुपयोग और संरक्षण पर विशेष ध्यान देना होगा।</s> |
<s>[INST]भारत देश की विविधता ही उसकी शक्ति है। इसे बनाए रखने में एक भारत श्रेष्ठ भारत, पहल किस प्रकार महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। चर्चा करें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण-
भूमिका
योजना के विभिन्न पक्ष पर प्रकाश डालें।
किस प्रकार विविधता में एकता व अखंडता बनाये रखने में सहायक
निष्कर्ष
भारत सरकार द्वारा विभिन्न राज्यों को सांस्कृतिक एकता के सूत्र में पिरोने के उद्देश्य से ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ अभियान शुरू किया गया। इस कार्यक्रम के तहत प्रत्येक वर्ष कोई एक राज्य अपनी संस्कृति एवं पर्यटन के प्रचार-प्रसार के लिये किसी अन्य राज्य को चुनेगा तथा दोनों राज्यों के मध्य विभिन्न माध्यमों द्वारा अंतःक्रिया बढ़ाई जाएगी।
सरकार की इस पहल का मूल उद्देश्य, देश में आंतरिक रूप से व्याप्त सांस्कृतिक अंतर को पाटकर विभिन्न राज्यों के लोगों के बीच आपसी अंतःक्रिया को बढ़ावा देना है, जो अंततः राष्ट्र की मजबूती व एकता का महत्त्वपूर्ण कारक बनेगी। साथ ही इससे भारतीय शासन व्यवस्था के संघात्मक ढाँचे को भी बल प्राप्त होगा। इससे आंतरिक संघर्षों को रोकने तथा देश में व्याप्त अंतर्विरोधी तत्त्वों के आपसी टकराव को रोकने में मदद मिलेगी।
भारतीय राष्ट्र संकल्पना एवं पश्चिमी विचारकों के विरोधी तर्क
भारत के लिये राष्ट्र की संकल्पना पश्चिमी राष्ट्र-राज्य की संकल्पना (एकसमान संस्कृति) से भिन्न सांस्कृतिक विविधता पर आधारित है। भारत में भाषा, धर्म, जाति, रीति-रिवाज, खान-पान और रहन-सहन सरीखे सांस्कृतिक तत्त्वों की इन्हीं विविधताओं को समन्वित करके एकता स्थापित हुई है।
ऐसे विचारकों का मानना है कि वर्तमान का भारत एक इकाई न होकर अलग-अलग राष्ट्रों का एक समूह है जो किसी तरह से एक बना हुआ है। इसमें न तो कोई साझापन है और न ही कोई राजनीतिक और सामाजिक चेतना ही है, जो एक राष्ट्र के रूप में इसकी पहचान बन सके।
पश्चिमी अनुभव इस धारणा पर आधारित रहे हैं कि राष्ट्र और सांस्कृतिक एकता परस्पर समानार्थी अवधारणाएँ हैं। ऐसा माना जाता है कि 1990 के दशक में यूगोस्लाविया तथा चेकोस्लोवाकिया का विघटन तथा ‘कोसोवो संकट’ नृजातीय एवं सांस्कृतिक विविधताओं की ही देन थे।
यही वजह है कि इस धारणा के समर्थक, विचारक भारत के सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभावों की ‘स्थानीय प्रकृति’ से चिंतित रहते हैं क्योंकि उनके विचार से सांस्कृतिक विविधता आधुनिक राष्ट्र-राज्य के निर्माण में बाधा उत्पन्न करती है।
भारतीय राष्ट्र संकल्पना की विशेषता- तमाम विविधताओं को समन्वित कर तथा उसे अपनी राष्ट्रीय पहचान बनाते हुए एक सफल राष्ट्र के रूप में स्थापित।वहीं एक नस्ल और भाषा आधारित होने के बावजूद यूरोपीय राष्ट्र-राज्यों में व्याप्त आपसी गतिरोध जैसे- स्कॉटलैंड की इंग्लैंड से अलग होने की मांग तथा कैटेलोनिया की स्पेन से अलग होने की मांग।
भारतीय राष्ट्र संकल्पना की समस्याएँ एवं उनसे निपटने के उपाय-
यद्यपि भारत विविधता के संदर्भ में अनोखा राष्ट्र है किंतु यहाँ धर्म, जाति, भाषा इत्यादि के नाम पर संघर्ष होते रहते हैं। आंध्र प्रदेश, हरियाणा, पंजाब इत्यादि राज्य जहाँ भाषायी आधार पर निर्मित हुए वहीं साम्प्रदायिकता की समस्या आज तक बनी हुई है।
जो भिन्नताएँ संघर्ष का कारण बनती हैं, उनके बीच समन्वय स्थापित कर राष्ट्रीय एकता स्थापित की जा सकती है। इसके लिये आवश्यक है कि लोग अपने से भिन्न संस्कृति को जानें-समझें जिससे किसी प्रकार का पूर्वाग्रह न बन सके।
साहित्य और सिनेमा जैसे परम्परागत साधन तथा फेसबुक, यू-ट्यूब जैसे आधुनिक साधनों के माध्यम से सांस्कृतिक विविधता का प्रसार किया जा सकता है।
वर्तमान समय छवि निर्माण का है, इस लिहाज से भी यह अभियान महत्त्वपूर्ण होगा क्योंकि भारत के पास नृत्य, संगीत से लेकर खान-पान तक इतनी विविधता है कि अगर इसे एक राष्ट्रीय पहचान के रूप में ढाल दिया जाए तो भारत इस संदर्भ में अपनी श्रेष्ठता सिद्ध कर सकता है।
‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ जैसे महत्त्वाकांक्षी कार्यक्रम की सफलता के लिये आवश्यक है कि राज्य एवं नागरिक दोनों अपनी भूमिका का बेहतर ढंग से निर्वाह करें।
निष्कर्षतः भारतीय समाज में विकास की अपार संभावना है क्योंकि अनेकता और विविधता विकास की ओर ले जाती है तथा जहाँ विविधता नहीं होती है अर्थात् एक जाति, एक धर्म व एक ही नस्ल; वे प्रायः विकास नहीं कर पाते हैं। इसलिये भारत देश की विविधता ही उसकी शक्ति है। जिसे बनाए रखना हम सबकी साझी ज़िम्मेदारी है।</s> |
<s>[INST]भारतीय अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी की स्थिति को स्पष्ट करें। इसे सुनिश्चित करने में आने वाली प्रमुख चुनौतियों की चर्चा करते हुए समाधान के विकल्पों पर प्रकाश डालें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण-
भूमिका
भारतीय अर्थव्यवस्था में महिला भागीदारी की स्थिति
चुनौतियां
समाधान
निष्कर्ष
पिछले दो दशकों में भारत में महिला अधिकारों की रक्षा हेतु कई बड़े प्रयास किये गए और इनके व्यापक सकारात्मक परिणाम भी देखने को मिले हैं, हालाँकि 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था के लक्ष्य की प्राप्ति के लिये भारत की अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भूमिका और इससे जुड़ी चुनौतियों की समीक्षा कर अपेक्षित नीतिगत सुधारों को अपनाना बहुत आवश्यक है।
भारतीय अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भूमिका:
हाल ही में जारी ‘आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (PLFS), 2018-19’ के अनुसार, कार्यक्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी में भारी गिरावट देखने को मिली है। वर्ष 2011-19 के बीच ग्रामीण क्षेत्रों में कार्यस्थलों पर महिलाओं की भागीदारी 35.8% से घटकर 26.4% ही रह गई।
वर्ष 2019 में ‘विश्व आर्थिक मंच’ (World Economic Forum- WEF) की ‘वैश्विक लैंगिक अंतराल रिपोर्ट’ में महिलाओं की आर्थिक भागीदारी और इसके लिये उपलब्ध अवसरों के संदर्भ में भारत एकमात्र ऐसा देश था जिसमें आर्थिक भागीदारी में लैंगिक अंतराल राजनीतिक लैंगिक अंतराल से अधिक पाया गया।
अक्तूबर 2020 में जारी आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (PLFS) रिपोर्ट के अनुसार, अक्तूबर-दिसंबर 2019 में महिला बेरोज़गारी की दर 9.8% रही जो वर्ष 2019 में जुलाई-सितंबर की तिमाही के आँकड़ों से अधिक है, गौरतलब है कि COVID-19 महामारी के बाद देशभर में बेरोज़गारी के आँकड़ों में व्यापक वृद्धि देखी गई।
इसके अलावा असंगठित क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी की स्थिति देखें तो कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी लगभग 60% है परंतु इनमें से अधिकांश भूमिहीन श्रमिक हैं जिन्हें स्वास्थ्य, सामाजिक या आर्थिक सुरक्षा से संबंधित कोई भी सुविधा नहीं प्राप्त होती है। वर्ष 2019 में मात्र 13% महिला किसानों के पास अपनी ज़मीन थी और वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, यह अनुपात मात्र 12.8% था। सेवा क्षेत्र में भी अधिकांश महिलाएँ कम आय वाली नौकरियों तक ही सीमित हैं।
कारण:
भारत में स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान और उससे पहले भी कई सामाजिक कार्यकर्त्ताओं द्वारा महिला अधिकारों के मुद्दों को बहुत ही प्रमुखता से आगे रखा गया है।
देश की स्वतंत्रता के बाद भी महिला अधिकारों और कार्यक्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी के संदर्भ में सामाजिक तथा राजनीतिक हस्तक्षेप जारी रहे हैं परंतु देश के विकास के साथ-साथ इस दिशा में अपेक्षित सुधार देखने को नहीं मिला है।
भारत में कार्यक्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी में कमी के कारणों को निम्नलिखित बिंदुओं के आधार पर समझा जा सकता है।
सामाजिक और धार्मिक पृष्ठभूमि: भारत में लगभग सभी धर्मों और वर्गों के लोगों में लंबे समय से समाज की मुख्यधारा में महिलाओं की सक्रिय भूमिका को लेकर अधिक स्वीकार्यता नहीं रही है। वर्तमान में भी देश के कई हिस्सों में महिलाओं को घरेलू कामकाज या अध्यापक अथवा नर्स आदि जैसी भूमिकाओं में ही कार्य करने को प्राथमिकता दी जाती है। सामाजिक दबाब और विरोध के भय से कुछ पारंपरिक क्षेत्रों को छोड़कर आमतौर पर अन्य क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी कम ही रही है। भारतीय समाज में व्याप्त इस भेदभाव की शुरुआत बच्चे के जन्म से ही हो जाती है।
उच्च शिक्षा और प्रशिक्षण के अवसरों की कमी: पिछले दो दशकों में देश में प्रारंभिक शिक्षा के मामले में व्याप्त लैंगिक असमानता को दूर करने में बड़ी सफलता प्राप्त हुई है, हालाँकि उच्च शिक्षा और पेशेवर प्रशिक्षण संबंधी कार्यक्रमों में महिलाओं की भागीदारी में कमी अभी भी बनी हुई है। प्रौद्योगिकी और तकनीकी से संबंधित पाठ्यक्रमों में नामांकित पुरुष छात्रों (71.1%) की तुलना में महिला छात्रों (28.9%) की भागीदारी काफी कम रही।
संसाधनों की कमी: कार्य क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी शिक्षा और रोज़गार के अवसरों की उपलब्धता के साथ आवश्यक संसाधनों की उपलब्धता पर भी निर्भर करती है। देश में अधिकांश ग्रामीण क्षेत्रों या छोटे शहरों में घर से कार्यस्थल की दूरी, 24 घंटे यातायात के सुरक्षित साधन, सार्वजनिक स्थलों पर प्रसाधन या अन्य आवश्यक संसाधनों का न होना और इनकी वहनीयता भी महिलाओं की भागीदारी में कमी का एक प्रमुख कारण है। इन संसाधनों की अनुपलब्धता का प्रभाव उनके स्वास्थ्य और कार्यक्षमता पर भी पड़ता है।
कार्यस्थलों पर भेदभाव और शोषण: कार्यस्थलों पर होने वाला भेदभाव महिलाओं के विकास में एक बड़ी बाधा रहा है, देश में सक्रिय सार्वजनिक (सेना, पुलिस आदि) और निजी क्षेत्र के अधिकांश संस्थानों में शीर्ष निर्णायक पदों पर महिला अधिकारियों की कमी इस भेदभाव का एक स्पष्ट प्रमाण है। कृषि क्षेत्र में महिलाओं की सक्रिय भूमिका अधिक होने के बावजूद भी समाज के साथ-साथ सरकार की योजनाओं में इसकी स्वीकार्यता की कमी दिखाई देती है। कार्यस्थलों पर भेदभाव और शोषण की घटनाएँ पीड़ित व्यक्ति के साथ आकांक्षी युवाओं के मनोबल को भी कमज़ोर करती हैं, हाल ही में सोशल मीडिया पर सक्रिय ‘मी टू अभियान’ (MeToo Movement) के तहत सामने आई महिलाओं के अनुभवों ने इस क्षेत्र में व्यापक सुधार की आवश्यकता को रेखांकित किया है।
नीतिगत असफलता: देश की अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी को प्रोत्साहित करने में सरकार की नीतियाँ अधिक सफल नहीं रही हैं। इसका एक कारण भारतीय राजनीति (लगभग 13% महिला सांसद, स्वतंत्र भारत में मात्र एक महिला प्रधानमंत्री) और नीति निर्माण संबंधी अन्य महत्त्वपूर्ण पदों पर महिलाओं के प्रतिनिधित्त्व में कमी को माना जा सकता है।
चुनौतियाँ:
भारतीय अर्थव्यवस्था निगरानी केंद्र द्वारा हाल ही में जारी आँकड़ों के अनुसार, COVID-19 महामारी से उत्पन्न चुनौतियों के कारण अप्रैल और मई माह में 39% कामकाजी महिलाओं को अपनी नौकरी गँवानी पड़ी।
राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण के अनुसार, पुरुषों की तुलना में भारतीय महिलाओं को बिना भुगतान के घरेलू कार्यों में योगदान देना पड़ता है।
COVID-19 के दौरान घरेलू हिंसा के मामलों में भारी वृद्धि देखी गई थी, साथ ही इस दौरान महिलाओं के लिये शिक्षा और रोज़गार की पहुँच बाधित हुई है जो पिछले कई वर्षों के दौरान इस क्षेत्र में हुए सुधार के प्रयासों पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है।
भारत में विभिन्न सार्वजनिक (शिक्षा मित्र, आशा कार्यकर्त्ता आदि) और निजी क्षेत्रों में कार्यरत महिलाओं को उनके कार्य के अनुरूप अपेक्षा के अनुरूप कम भुगतान दिया जाना एक बड़ी चुनौती है।
केंद्र सरकार द्वारा हाल ही में देश के श्रम कानूनों में बड़े बदलाव किये गए हैं हालाँकि इनमें देश की अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी को प्रोत्साहित करने, कार्यस्थलों पर महिला हितों की रक्षा आदि मुद्दों के संदर्भ में कोई विशेष सुधार नहीं किया गया है।
समाधान-
वर्तमान समय में देश की अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ाने के साथ, कार्यस्थलों पर व्याप्त भेदभाव और महिला सुरक्षा संबंधी चुनौतियों को दूर करने के लिये बहु-पक्षीय प्रयासों को अपनाया जाना चाहिये।
सरकार को असंगठित क्षेत्र में कार्य कर रही महिलाओं के लिये लक्षित योजनाओं (प्रशिक्षण, सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा आदि) के साथ अर्थव्यवस्था के सभी स्तरों पर महिलाओं की भागीदारी और उनके हितों की रक्षा सुनिश्चित करने से जुड़े प्रयासों पर विशेष ध्यान देना होगा।
कार्यस्थलों पर महिलाओं की भागीदारी को प्रोत्साहित करने के लिये यातायात साधनों की पहुँच में विस्तार के साथ सार्वजनिक स्थलों पर प्रसाधन केंद्रों आदि के तंत्र को मज़बूत करना बहुत ही आवश्यक है।
उपरोक्त के अतिरिक्त उच्च शिक्षा और पेशेवर प्रशिक्षणों में शामिल होने के लिये महिलाओं को सहयोग प्रदान करने के साथ ग्रामीण क्षेत्रों में उच्च शिक्षा की पहुँच को मज़बूत करने पर विशेष ध्यान देना होगा। इसके साथ ही नीति निर्माण और महत्त्वपूर्ण संसाधनों के शीर्ष तंत्र में महिला प्रतिनिधित्त्व को बढ़ाने हेतु विशेष प्रयास किये जाने चाहिये।</s> |
<s>[INST]क्या आप इस मत से सहमत है कि पूंजी की उपलब्धता एवं भौगोलिक कारकों ने ब्रिटेन को प्रथम औद्योगिक क्रांति का देश बना दिया? परीक्षण करें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण-
भूमिका
इंग्लैंड तथा अन्य देश
इंग्लैंड में ही क्रांति क्यों?
निष्कर्ष
18वीं सदी के उतरार्द्ध से लेकर 19वीं सदी के पूवार्द्ध तक ब्रिटेन में होने वाले आर्थिक एवं सामाजिक परिवर्तन को औद्योगिक क्रांति के नाम से जाना जाता है। ‘औद्योगिक क्रांति’ शब्द का सर्वप्रथम इस्तेमाल इतिहासकार ऑर्नाल्ड टायनबी द्वारा किया गया।
टायनबी के अनुसार इस क्रांति ने मानव जीवन को अत्यधिक तीव्र एवं गहरे रूप से प्रभावित किया था। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि इंग्लैंड औद्योगिक क्रांति का अग्रदूत बना हलांकि हॉलैंड, फ्रांस जैसे देश इंग्लैंड से भी ज्यादा संपन्न थे, जहाँ हॉलैंड भौगोलिक खोजों एवं व्यापार-वाणिज्य में अग्रणी था वहीं फ्रांस का उद्योग (रेशम, पटसन, कोयला, लोहा एवं जल शक्ति के प्रचुर साधन) एवं यहां की जनसंख्या इंग्लैंड से तीगुनी थी। फिर भी इसकी शुरूआत इंग्लैंड से हुयी इसके कई कारण थे -
अनुकूल राजनीतिक वातावरणः अन्य यूरोपीय देशों की अपेक्षा इंग्लैंड में राजनीतिक स्थायित्व अधिक था। जहां कि जनता को स्वच्छंद वातावरण के साथ-साथ राजनीतिक अधिकार भी दिये गये थे जिससे व्यापारिक गतिविधियों में वृद्धि हुयी जबकि इस समय यूरोप के अन्य देशों में सामंती व्यवस्था के साथ-साथ राजनीतिक अराजकता व्याप्त थी।
भौगोलिक स्थितिः इंग्लैंड चारों ओर समुद्र से घिरा हुआ देश है इससे व्यापारिक गतिविधियों में सुविधा प्राप्त हुयी अर्थात् वस्तुओं को एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाने में आसानी हुयी। साथ ही आंतरिक एवं बाह्य परिवहन ने औद्योगिक क्रांति के लिये उत्प्रेरक का कार्य किया। समुद्र से घिरे होने के कारण यहां की जलवायु नम थी जो कपड़ा उद्योग के लिये उपयुक्त था।
सुदृढ़ नौसेनिक शक्तिः ब्रिटेन ने एक शक्तिशाली जहाजरानी का विकास किया। समुद्र से घिरे होने के कारण अपने नौसैनिक बल पर विशाल औपनिवेशिक साम्राज्य स्थापित करने में सफल रहा। यूरोप के अन्य देशों की स्थिति ब्रिटेन जैसी नहीं थी। अतः युद्ध के समय भी ब्रिटेन का व्यापार जारी रहा।
प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरताः कोयला एवं लोहा खनिज औद्योगिक विकास के लिये आधारभूत तत्व माने जाते हैं जो इंग्लैंड में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थी। अतः इसने औद्योगिक क्रांति को गति प्रदान की।
कृषि क्रांतिः कृषि क्षेत्र में नवीन तकनीकी कृषि यंत्र एवं विधियों के कारण कृषि उत्पादन क्षेत्र में व्यापक परिवर्तन आया। इससे कृषि भू-स्वामी को अत्यधिक लाभ मिला इस अधिशेष पूंजी का उपयोग भू-स्वामियों ने औद्योगिक क्षेत्रों में निवेश पर किया। हलांकि इस कृषि क्रांति ने खेतिहर मजदूर को बेरोजगार बना दिया। फलतः ये मज़दूर रोज़गार की तलाश में शहर की ओर प्रवास करने लगे जिससे उद्योगों में कम मजदूरी पर श्रमिक कार्य करने के लिये तैयार हुये।
जनसंख्या वृद्धिः इंग्लैंड में जनसंख्या वृद्धि के कारण वस्तुओं की मांग बढ़ी जिससे कीमतों में भी उछाल आया फलतः उत्पादन में और वृद्धि की गयी। हालांकि जनसंख्या में वृद्धि यूरोप के अन्य देशों में भी हो रही थी परंतु इंग्लैंड ने जनसंख्या को वस्तुओं की पूर्ति में सक्षम बना तथा जनसंख्या (बढ़ी हुयी) को रोज़गार उपलब्ध कराये। अतः जनसंख्या एवं श्रम शक्ति ने औद्योगिक क्रांति को बढ़ावा दिया।
इंग्लैंड का औपनिवेशिक विस्तारः कच्चे माल की प्राप्ति एवं तैयार माल की बिक्री के लिये उपनिवेश एक अच्छा बाजार साबित हुआ। विस्तृत बाजार ने पूंजीपतियों को उद्योगों में पूंजी निवेश के लिये प्रोत्साहित किया जिससे औद्योगिक क्रांति की संभावनाओं को बल मिला।
पूंजी की उपलब्धताः किसी भी औद्योगिक विकास के लिये पूंजी एक आवश्यक कारक है। चूंकि इंग्लैंड ने भारत, अमेरिका तथा अन्य उपनिवेशों से खूब पूंजी का संचय किया था तथा व्यावसायिक क्रांति का सर्वाधिक लाभ इंग्लैंड को ही मिला था। साथ ही व्यापारिक बैंको ने भी पूंजी उपलब्ध कराने में मदद की थी। जहां अन्य यूरोपीय देशों में पूंजीपति वर्ग में अपनी पूंजी का प्रयोग भूमि खरीदने, भवन निर्माण एवं अपने शानों-शौकत में खर्च किया वहीं इंग्लैंड के पूंजीपतियों ने अपननी पूंजी का प्रयोग उद्योगों में निवेश के रूप में किया।
वैज्ञानिक प्रगति एवं नवीन अविष्कारः इंग्लैंड में अन्य यूरोपीय देशों की अपेक्षा वैज्ञानिक वातावरण एवं वैज्ञानिक विचारों का प्रभाव सर्वप्रथम पड़ा। जहां कपड़ा बुनने के लिये फ्लाइंग शटल तेजी से अथवा तीव्र गति से सूत कातने के लिये ‘स्पिनिंग जेनी का अविष्कार हुआ आगे चलकर वस्त्र उद्योग में ‘पावरलूम’ के विकास ने बढ़िया किस्म के कपड़ों को उत्पादित करने में मदद की वहीं स्टील उत्पादन हेतु नए यंत्र का अविष्कार हुआ नये-नये कोयला खदानों की खोज हुयी तथा 1815 में डेवी द्वारा सेफ्टी लैंप की खोज ने खानों के भीतर काम करने में सुगम बनाया।
वहीं कच्चे माल को कारखानों तक लाने तथा उत्पादित/तैयार माल को बाजार तक ले जाने के लिये परिवहन एवं सड़कों का निर्माण हुआ। साथ ही रेल लाइन बिछाने, स्वेज नहर का निर्माण कार्य पूरा होने (भूमध्य सागर एवं लाल सागर को जोड़ा गया जिससे यूरोप एवं भारत के बीच की दूरी एक तिहाई घट गयी) वाष्प इंजन का विकसित रूप तैयार किया गया।
इस प्रकार न केवल पूँजी उपलब्धता और भौगोलिक कारक अपितु उपर्युक्त सभी कारकों ने मिलकर इंग्लैंड को औद्योगिक क्रांति का अग्रदूत बना दिया।</s> |
<s>[INST]वाकर संचरण से आप क्या समझते हैं ? इस संचरण की क्रियाविधि को समझाते हुए इसके प्रभावों की चर्चा करें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
वाकर संचरण क्या है ?
क्रियाविधि
प्रभाव
वाकर संचरण (Walker Circulation) को ‘वाकर कोशिका’ भी कहते हैं। वाकर संचरण उष्णकटिबंधीय क्षेत्राें में क्षोभमंडलीय वायु संचरण है। इस क्षेत्र में विभिन्न अक्षांशों के मध्य चलने वाली हेडली कोशिका से भिन्न वाकर कोशिका विषुवत रेखा के निकट विशेष अक्षांशों का अनुसरण करती है। हेडली और ध्रुवीय कोशिका जैसे उत्तर-दक्षिण वायुमंडलीय परिसंचरण के अतिरिक्त मौसम को प्रभावित करने में सक्षम अन्य कमजोर पूर्व-पश्चिम संचलन भी होते हैं। भूमध्यरेखीय प्रशांत महासागर में अनुदैर्ध्य (पूर्व-पश्चिम) परिसंचरण को वाकर परिसंचरण के रूप में जाना जाता है।
वाकर परिसंचरण की क्रियाविधि-
वाकर परिसंचरण (संचरण) की उत्पत्ति दक्षिणी उष्णकटिबंधीय प्रशांत महासागर में पूर्व से पश्चिम की ओर होती है।
वस्तुत: वाकर कोशिका संवहनीय संचरण है जो मुख्यत: उष्णकटिबंधीय दक्षिणी प्रशांत महासागर पर भूमध्य रेखा के सहारे पूर्व से पश्चिम दिशा में दाब प्रवणता के कारण विकसित होती है।
सागरीय एवं स्थलीय सतह के तापमान में अंतर होना इसका मुख्य कारण है।
वाकर परिसंचरण पश्चिमी और पूर्वी उष्णकटिबंधीय प्रशांत महासागर के ऊपर सतही दाब और तापमान में अंतर का परिणाम है।
प्राय: उष्णकटिबंधीय पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र निम्न दाब प्रणाली युक्त एक उष्ण और आर्द्र क्षेत्र है, जबकि ठंडा और शुष्क पूर्वी प्रशांत क्षेत्र उच्च दाब प्रणाली के तहत होता है।
यह पूर्व से पश्चिम की ओर एक दाब प्रवणता बनाता है जिससे सतही पवनों का पूर्वी प्रशांत क्षेत्र के उच्च दाब क्षेत्र से पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र के निम्न दाब वाले क्षेत्र की ओर प्रवाह होता है।
ऊपरी वायुमंडल में हवाओं का पश्चिम से पूर्वी प्रवाह परिसंचरण को पूरा करता हैं।यह वाकर कोशिका की सामान्य दशा कहलाती है।
पूर्वी एशिया में पश्चिमी प्रशांत महासागर का गर्म पानी इसके ऊपर की हवा को गर्म करता है और इसे आर्द्रता की आपूर्ति करता है।
यह हवा ऊपर उठकर बादलों का निर्माण करती है और फिर प्रशांत क्षेत्र में पूर्व की ओर बहती है और वर्षा होती है। यह हवा दक्षिण अमेरिका के पश्चिमी तट पर आकर पश्चिमी प्रशांत महासागर में वापस समुद्र की सतह के साथ पश्चिम में लौट जाती है।
वाकर कोशिका का प्रभाव -
सामान्य वाकर कोशिका का प्रभाव
पूर्वी प्रशांत महासागर का पूर्वी भाग ठंडा एवं शुष्क हो जाता है, वहीं पश्चिमी भाग गर्म एवं आर्द्र होता है।
पश्चिमी भाग में गर्म वायु के कारण वाष्पीकरण में वृद्धि होती है जिससे यह क्षेत्र संवहनीय वर्षा प्राप्त करता है जबकि पूर्वी भाग में अपेक्षाकृत ठंडे एवं महासागरीय जल के उद्वेलन के कारण प्लवकों अर्थात् प्लैंकटन्स में वृद्धि होती है जिससे मत्स्यन को बढ़ावा मिलता है।
पश्चिमी भाग में अधिक आर्द्र पवनों के कारण संलग्न क्षेत्र में चक्रवातों की तीव्रता एवं बारंबारता में वृद्धि होती है, जबकि पूर्वी भाग में पवनों के अवरोहण के कारण प्रतिचक्रवातीय दशाएं उत्पन्न होती है।
विपरीत वाकर कोशिका का प्रभाव
पूर्वी भाग के गर्म होने से पेरू एवं इक्वाडोर से संलग्न प्रशांत महासागर में एलनीनो के समान परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं।
ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण-पूर्वी एशिया, पूर्वी अफ्रीका, उत्तर-पूर्वी दक्षिण अमेरिका आदि क्षेत्रों में सूखे की स्थितियाँ बन जाती है।
मेक्सिको की खाड़ी में हरिकेन चक्रवातों की तीव्रता में वृद्धि होती है।
इक्वाडोर एवं पेरू के तटीय क्षेत्रों में मत्स्यन में कमी आती है।
मज़बूत वाकर कोशिका का प्रभाव
व्यापारिक पवनों की अथिक तीव्रता के कारण पश्चिमी भाग में वर्षा की तीव्रता में वृद्धि होती है।
दक्षिण एशिया में मानसूनी पवनें अधिक प्रभावशाली होती है। भारतीय मानसून पर इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
पेरू एवं इक्वाडोर का तटीय मछली उद्योग और अधिक मज़बूत होता है।
दक्षिण चीन सागर के टाइफून और अधिक शक्तिशाली होते है।
सामान्य वाकर संचरण एवं विपरीत वाकर संचरण की क्रिया में दाब प्रवणता एवं पवन संचरण में उतार-चढ़ाव को जी.टी. वाकर ने दक्षिणी दोलन कहा। वास्तव में पश्चिमी एवं पूर्वी प्रशांत महासागर में तापमान एवं दाब के क्रमिक परिवर्तन की स्थिति ही दक्षिण-दोलन कहलाती है।</s> |
<s>[INST]“अमेरिका के स्वतंत्रता संग्राम ने यूरोप को और साथ में अमेरिका को भी रूपातंरित किया था।” टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण :
भूमिका
यूरोप में जो रुपांतरण के बिंदु
अमेरिका में बदलाव
निष्कर्ष
अमेरिकी क्रांति मानव सभ्यता के इतिहास के सबसे बड़े परिवर्तनों में से एक है जिसने मानव इतिहास की धारा को नए विचारों तथा मूल्यों द्वारा बदल दिया। अमेरिकी स्वतंत्रता का युद्ध हालाँकि 1775 ई. से 1783 तक लड़ा गया तथा युद्ध की समाप्ति 1783 की पेरिस संधि के साथ हुई थी। इसने अभिनव राजनीतिक परिवर्तनों की एक ऐसी शृंखला को जन्म दिया जिसका दायरा केवल अमेरिका तक सीमित न होकर वैश्विक बन गया।
इस क्रांति के कारण स्वतंत्र अमेरिका अस्तित्व में आया। इसने यूरोप में जो रूपांतरण किया उसे निम्न संदर्भो में देख सकते हैं-
ब्रिटेन- अमेरिकी क्रांति के प्रभाव के कारण ब्रिटेन में जार्ज तृतीय के शासन का अंत हो गया। संसद का प्रजा तंत्रीकरण करना आरंभ किया गया। राष्ट्रमंडल की स्थापना हुयी तथा वाणिज्यवादी सिद्धांत का त्याग कर मुक्त व्यापार की नीति को अपनाया गया।
फ्रांस- अमेरिकी क्रांति ने फ्रांस को गहरे रूप से प्रभावित किया। इस क्रांति ने फ्रांस में नयी चेतना उत्पन्न की और फ्रांस को क्रांति के लिये प्रेरित किया। फ्रांस की क्रांति का मुख्य नारा स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व की शासक कहीं-न-कहीं अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम में भी देखा जा सकता हैं।
उपनिवेशों पर प्रभाव- इसने उपनिवेशों को भी प्रभावित किया। इसके कारण जहाँ ब्रिटेन को ऑस्ट्रेलिया तथा न्यूजीलैंड जैसे नये उपनिवेश स्थापित करने पड़े वहीं पुराने उपनिवेशों पर पकड़ मजबूत करनी पड़ी। जहाँ भारत के संदर्भ में 1784 का पिट्रस इंडिया एक्ट लाया गया तथा कार्नवालिस के सुधारों को लाकर पकड़ मजबूत की तो वहीं आयरलैंड के संदर्भ मे ब्रिटिश सरकार ने आयरलैंड की संसद को विधि निर्माण का अधिकार प्रदान किया।
अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम ने कहीं-न-कहीं यूरोपीय मध्यमवर्ग को प्रभावित किया।
उपर्युक्त प्रभावों ने यूरोप में रूपांतरण किया तो वहीं अमेरिका भी इस स्वतंत्रता संग्राम से हुये रूपांतरण अछूता नहीं रहा जिसे हम निम्न बिंदुओं के माध्यम से देख सकते हैं-
अमेरिका को स्वतंत्रता प्राप्त हुयी और विभिन्न अमेरिकी बस्तियों ने मिलकर अपने आप को एक सशक्त राष्ट्र के रूप में स्थापित किया।
जब विश्व के समस्त देशों मे राजतंत्रात्मक शासन स्थापित था इस समय अमेरिका अपने को गणतंत्र घोषित कर प्रजातंत्र की स्थापना की।
यहाँ मुक्त अर्थव्यवस्था को बल प्रदान कर राजनीति में जनभागिदारी को प्रोत्साहन दिया गया।
अमेरिकी संविधान में संशोधन दर अंतःकरण की स्वतंत्रता को स्थापित किया गया तथा बिल ऑफ राईट्स लाकर मौलिक अधिकार प्रदान किया गया।
अमेरिका ने आधुनिक विश्व इतिहास में सर्वप्रथम धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की स्थापना कर चर्च से राज्य को अलग किया।
इस स्वतंत्रता संग्राम के परिणामस्वरूप ‘गुण एवं प्रतिभा’ पर आधारित नये कुलीन तंत्र का विकास हुआ।
सामाजिक रुपांतरण के रूप में देखा जाय तो उच्च वर्ग का निम्नवर्ग पर नियंत्रण कमजोर हुआ ।
इस प्रकार अमेरिका में बदलाव की बयार देखी गयी इस कारण अमेरिकी क्रांति का महत्व और बढ़ जाता है जिसमें-
अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम के बाद संघात्मक ढॉचे का विकास हुआ।
अमेरिका अब एक विशाल एवं शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में उभरकर विश्व के सामने आया, हालांकि शुरूआत में यूरोपीय शक्तियों ने इस नाकार दिया परंतु आगे चलकर कई ऐसे अवसर आये जिसमें मुनरो सिद्धांत, प्रथम विश्व युद्ध, द्वितीय विश्व युद्ध, शीत युद्ध एवं नाटो का गठन आदि के माध्यम से यूरोपीय राजनीति को गहरे रूप से प्रभावित किया।
वैचारिक स्तर पर अमेरिका अब यूरोप से आगे निकल गया था क्योंकि लिखित संविधान एवं गणतंत्र की घोषणा ने अमेरिका को प्रबुद्ध राजतंत्र से ऊपर उठा दिया था, और यही प्रबुद्ध राजतंत्र यूरोपीय राजनीति का प्रमुख मानदंड माना जाता था।
अमेरिकी संविधान ने जनसंप्रभुता की अवधारणा को अपनाकर सीमित मताधिकार प्रदान किया ।
अमेरिकी संविधान ने उपनिवेश विरोधी आंदोलन को प्रेरित करने में अहम भूमिका निभाई इसका मुख्य कारण अमेरिकी संविधान में स्पष्ट रूप से उपनिवेश विरोधी दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति हैं।
अतः कहा जा सकता है कि अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम विश्व के अन्य देशों के लिये प्रेरणा स्रोत बना जिसके प्रभाव से भारत भी अछूता नहीं रहा।</s> |
<s>[INST]भू-जल को भारत में पीने योग्य पानी का सबसे प्रमुख स्रोत माना जाता है। भारत में भू-जल की चिंताजनक स्थिति पर प्रकाश डालते हुए बताएं कि इस समस्या से निपटने में अटल भू-जल योजना किस प्रकार कारगर सिद्ध हो सकती है?[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण-
भूमिका
भारत में भू-जल की स्थिति
अटल भू-जल योजना
निष्कर्ष
भारत में जल उपलब्धता व उपयोग के कुछ तथ्यों पर विचार करें तो भारत में वैश्विक ताज़े जल स्रोत का मात्र 4 प्रतिशत मौजूद है जिससे वैश्विक जनसंख्या के 18 प्रतिशत हिस्से को जल उपलब्ध कराना होता है।
भूमिगत जल के प्रबंधन का कोई प्रभावी विनियमन मौजूद नहीं है। सिंचाई के लिये सस्ती अथवा निःशुल्क विद्युत आपूर्ति की नीति ने भू-जल के उपयोग के संबंध में एक अव्यवस्था को जन्म दिया है।
समग्र स्थिति यह है कि 256 ज़िलों के 1,592 प्रखंड भूजल के संकटपूर्ण अथवा अति-अवशोषित स्थिति में पहुँच गए हैं। पंजाब जैसे क्षेत्रों में भौम जल स्तर में प्रतिवर्ष 1 मीटर तक की कमी आ रही है और यह प्रक्रिया लगभग दो दशकों से जारी है। पंजाब के लगभग 80 प्रतिशत प्रखंड भूजल के संकटपूर्ण अथवा अति-अवशोषित स्थिति में पहुँच चुके हैं। यह परिदृश्य हमारी असावधानी और अदूरदर्शिता को प्रकट करता है, साथ ही इस तरह हम आने वाली पीढ़ियों के जल अधिकारों का भी हनन कर रहे हैं।
पारंपरिक रूप से लगभग सौ वर्ष पहले गन्ने की खेती के केंद्र पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार हुआ करते थे, जबकि धान की खेती मुख्यतः पूर्वी व दक्षिणी भारत में होती थी जहाँ पर्याप्त वर्षा होती थी और जल की प्रचुरता थी। नई प्रौद्योगिकी एवं वाणिज्यिक लाभ के चलते महाराष्ट्र जहाँ अपेक्षा कृत कम वर्षा होती है, जैसे स्थानों में भी वर्षा गहन खेती की जाने लगी है।
उपर्युक्त परिस्थितियों को देखते हुए जल शक्ति मंत्रालय के जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण विभाग ने अटल भू-जल योजना के माध्यम से देश में भू-जल संसाधनों की दीर्घकालीन निरंतरता सुनिश्चित करने के लिये एक अग्रणीय पहल की है, जिसमें विभिन्न भू-आकृतिक, जलवायु संबंधी, जल भू-वैज्ञानिक और सांस्कृतिक स्थिति के पहलुओं का प्रतिनिधित्व करने वाले 7 राज्यों में पहचान किये गए भू-जल की कमी वाले प्रखंडों में ‘टॉप-डाउन’ और ‘बॉटम अप’ का मिश्रण अपनाया गया है। अटल जल को भागीदारी भू-जल प्रबंधन तथा निरंतर भू-जल संसाधन प्रबंधन के लिये समुदाय स्तर पर व्यवहार्य परिवर्तन लाने के लिये संस्थागत ढाँचे को मजबूत बनाने के मुख्य उद्देश्य के साथ तैयार किया गया है।
अटल जल के दो प्रमुख घटक हैं–
संस्थागत मज़बूती और क्षमता निर्माण घटक:
राज्यों में स्थायी भू-जल प्रबंधन के लिये संस्थागत प्रबंधनों को मजबूत बनाने के लिये नेटवर्क निगरानी और क्षमता निर्माण में सुधार तथा जल उपयोगकर्त्ता समूहों को मजबूत बनाना। इसके अलावा डेटा विस्तार, जल सुरक्षा योजनाओं को तैयार करना, मौजूदा योजनाओं के समन्वय के माध्यम से प्रबंधन प्रयासों को लागू करना।
मांग पक्ष प्रबंधन प्रक्रियाओं को अपनाने के लिये राज्यों को प्रोत्साहन देने हेतु घटक-
विभिन्न स्तरों पर हितधारकों के क्षमता निर्माण तथा भू-जल निगरानी नेटवर्क में सुधार के लिये संस्थागत मज़बूती से भू-जल डेटा भंडारण, विनिमय, विश्लेषण और विस्तार को बढ़ावा देना।
उन्नत और वास्तविक जल प्रबंधन से संबंधित उन्नत डेटाबेस तथा पंचायत स्तर पर समुदायिक नेतृत्व के तहत जल सुरक्षा योजनाओं को तैयार करना।
भारत सरकार और राज्य सरकारों की विभिन्न मौजूदा और नई योजनाओं के समन्वय के माध्यम से जल सुरक्षा योजनाओं को लागू करना, ताकि सतत् भू-जल प्रबंधन के लिये निधियों के न्यायसंगत और प्रभावी उपयोग में मदद मिल सके।
सूक्ष्म सिंचाई, फसल विविधता, विद्युत फीडर विलगन आदि जैसे मांग पक्ष के उपायों पर ध्यान देते हुए उपलब्ध भू-जल संसाधनों का उचित उपयोग करना।
निष्कर्षतः गिरते जलस्तर को देखते हुए यह एक सराहनीय पहल है आवश्कता जान भागीदारी तथा प्रभावी कार्यान्वयन द्वारा इसे लागू कर सभी को लाभान्वित करने की है।</s> |
<s>[INST]क्या आप इस मत से सहमत हैं की ‘बिस्मार्क की विदेश नीति ने यूरोप में राजनीतिक गुटबंदी का एक ऐसा माहौल तैयार कर दिया जिसने प्रथम विश्व युद्ध को अवश्यंभावी बना दिया।’ टिप्पणी करें ।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण-
भूमिका
बिस्मार्क द्वारा की गयी संधियां प्रथम विश्व युद्ध के लिये कहां तक उत्तरदायी
निष्कर्ष
कूटनीति किसी भी युद्ध का कारण नहीं मानी जा सकती किंतु उसके कारण युद्ध के अनुकूल स्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है प्रथम विश्व युद्ध से पूर्व भी ऐसी स्थितियां उत्पन्न हो चुकीं थीं बिस्मार्क की कूटनीतिक संधियों के कारण एक ओरर त्रिगुट का निर्माण हुआ,तो दूसरी ओर आत्मरक्षा में त्रिराष्ट्र मैत्री स्थापित हुई उसने पूरे यूरोप को दो विरोधी गुटों में बाँट दिया, जिसके सदस्य संधियों के जाल में इस प्रकार जुड़े थे कि यदि उनमें से कोई युद्ध छेड़ देता, तो दूसरे अपने आप ही खिचें चले जाते।
जर्मनी के आस्ट्रिया के साथ तथा अस्ट्रिया के रूस के साथ अच्छे संबंध न होने के बावजूद ‘यूरोप में शांति’ एवं ‘समाजवादी आंदोलन के खतरे’ का हवाला देकर बिस्मार्क ने 1872 ई. में बर्लिन में जर्मनी, आस्ट्रिया, रूस के ‘तीन सम्राटों के संघ’ का निर्माण किया।
रूस-तुर्की युद्ध उपरांत हुई ‘सन स्टीफानो संधि’ में संशोधन हेतु बर्लिन में बुलाए गए सम्मेलन में बिस्मार्क ने सीधे तौर पर आस्ट्रिया के हितों को वरीयता दी। इससे रूस तो नाराज हो गया परंतु जर्मनी की आस्ट्रिया के साथ घनिष्ठता बढ़ गई। 1879 में जर्मनी और आस्ट्रिया के बीच एक रक्षात्मक संधि हुई, जिसके अंतर्गत यह तय हुआ कि युद्ध छिड़ने की स्थिति में दोनों देश एक-दूसरे की पूरी ताकत से सहायता करेंगे।
आस्ट्रिया और इटली की शत्रुता का इतिहास पुराना था। सदियों तक आस्ट्रिया ने ही इटली की राष्ट्रीय एकता को रोका था। किंतु, ‘ट्यूनिस’ मुद्दे पर इटली फ्राँस के खिलाफ हो गया था। इन परिस्थितियों में बिस्मार्क ने अपनी कूटनीतिक चतुराई से इटली को जर्मनी और आस्ट्रिया के साथ मिलकर एक ‘त्रिगुट’ के निर्माण के लिये राजी कर लिया। यह संधि भी सुरक्षात्मक संधि थी।
1887 में बिस्मार्क ने रूस के साथ ‘पुनराश्वासन संधि' की जिसका मुख्य लक्ष्य रूस का फ्राँस से घनिष्ठ संबंध स्थापित नहीं होने देना था। रूस में बिस्मार्क विरोधी लहर होने के बावजूद बिस्मार्क ने रूस के साथ मित्रवत संबंधों को पुनर्जीवित करने के आश्वासन के साथ यह संधि करने में सफलता पाई।
उल्लेखनीय है कि उस समय ब्रिटेन यूरोपीय राजनीति में अलगाव की राजनीति का अनुसरण कर रहा था। बिस्मार्क को अहसास था कि यदि ब्रिटेन की नौसेना की श्रेष्ठता को चुनौती न दी जाए तो वह किसी राष्ट्र का विरोधी नहीं होगा। अतएव, ब्रिटेन को खुश करने के लिये बिस्मार्क ने जर्मनी नौ-सेना को बढ़ाने के लिये कोई कदम नहीं उठाया। उसने औपनिवेशिक विस्तार भी इंग्लैण्ड की सदिच्छा प्राप्त करके ही किया।
इस गुटबंदी के कारण ही गुट के प्रत्येक सदस्य को ऐसी कार्यवाही भी करनी पड़ती थी, जिसमें उन्हें कोई लाभ नज़र नहीं आ रहा हो क्योंकि उन्हें अपने मित्र का समर्थन करना पड़ता था अतः उनकी कार्यवाही में भी सम्मिलित होना पड़ता था ब्रिटेन के विदेश मंत्रालय को भी यह विश्वास हो गया की ‘ट्रिपल एलायन्स’ के विरुद्ध ‘ट्रिपल ऐतांत’ को मज़बूत बनाने के लिये इंग्लैंड को रूस और फ्रांस का समर्थन करना चाहिए इस प्रकार कूटनीतिक संधियों, जिनकी शुरुआत बिस्मार्क ने की थी के कारण विश्व युद्ध आवश्यक हो गया। अतः बिस्मार्क की संधियां युद्ध का एकमात्र कारण तो नहीं मानी जा सकती किंतु एक महत्त्वपूर्ण कारण अवश्य थी।</s> |
<s>[INST]मानसिक स्वास्थ्य जीवन की गुणवत्ता का मुख्य निर्धारक होने के साथ सामाजिक स्थिरता का भी परिचायक होता है। पूर्वाग्रह तथा सामाजिक रूढ़िवादिता ने मानसिक स्वास्थ्य की समस्या को और जटिल बना दिया है। कथन का परीक्षण करें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण
• भूमिका
• मानसिक स्वास्थ्य - संक्षिप्त परिचय
• मानसिक स्वास्थ्य के प्रति समाज का दृष्टिकोण
• निष्कर्ष
हाल ही में केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो पूर्व के महानिदेशक और नगालैंड राज्य के पूर्व राज्यपाल अश्विनी कुमार ने अवसाद से ग्रसित होने के कारण आत्महत्या कर ली। ऐसा देखा गया है कि विगत कुछ वर्षों में मानसिक तनाव के कारण आत्महत्या या अन्य सामाजिक अपराधों की प्रवृत्ति में भी वृद्धि देखी गई है। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2020 तक भारत की लगभग 20 प्रतिशत आबादी मानसिक रोगों से पीड़ित होगी।
मानसिक विकार का एक महत्त्वपूर्ण कारक आनुवंशिक होता है। यह रोग उन लोगों में अधिक पाए जाते हैं, जिनके परिवार का कोई सदस्य इनसे पीड़ित होता है। ऐसे व्यक्ति के बच्चों में यह खतरा लगभग दोगुना हो जाता है। मनोवैज्ञानिक कारणों को भी आज इसकी मुख्य वजह मान जा रहा है। उदाहरण के लिये आपसी संबंधों में टकराहट, किसी निकटतम व्यक्ति की मृत्यु, सम्मान को ठेस, आर्थिक हानि, तलाक, परीक्षा में असफलता इत्यादि। इसके अलावा सहनशीलता का अभाव, बाल्यावस्था के अनुभव, खतरनाक किस्म के वीडियो गेम, तनावपूर्ण परिस्थितियाँ और इनका सामना करने की असमर्थता मानसिक विकार के लिये ज़िम्मेदार प्रमुख कारक माने जाते हैं।
मानसिक स्वास्थ्य और समाज :
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज में उसकी सक्रियता और स्थिति मानसिक स्वास्थ्य पर सबसे ज़्यादा निर्भर करती है। मानसिक स्वास्थ्य हमारे दैनिक जीवन का सक्रिय और स्थिर लक्षण भी है जो रोज़मर्रा के क्रिया-कलापों में परिलक्षित होता है। संक्षेप में कहें तो मानसिक स्वास्थ्य जीवन समायोजन की प्रक्रिया है जिसमें समझौता, सामंजस्य, विकास और निरंतरता समाहित है।
वस्तुतः मनुष्य जिस समाज में रहता हैं वहाँ सार्वजनिक और निजी दोनों स्तरों पर मानसिक बीमारी हमेशा से एक उपेक्षित मुद्दा रहा है। हमारे सामाजिक संबंध मानसिक स्वास्थ्य के मानक होतें हैं। संबंधों की गुणवत्ता हमारे मानसिक स्वास्थ्य का स्तर बताती है। इसके विषय में न केवल समाज का रवैया बेरूखा है बल्कि सरकार की दृष्टि में भी यह एक उपेक्षित विषय ही है। सबसे चिंताजनक बात यह है कि मानसिक विकार से पीड़ित व्यक्ति को पागल समझा जाता है और उस व्यक्ति को समाज में उपेक्षा भरी नज़रों से देखा जाने लगता है।
मानसिक विकार से पीड़ित व्यक्ति समाज व परिवार के उपेक्षापूर्ण बर्ताव के कारण अकेलेपन का भी शिकार हो जाता है। अकेलेपन के कारण वह अपने विचारों को दूसरे के साथ साझा नहीं कर पाता है, ऐसी स्थिति में वह व्यक्ति या तो स्वयं को हानि पँहुचाता है या अन्य लोगों को। यदि कोई व्यक्ति एक बार किसी मानसिक रोग से ग्रसित हो जाता है तो जीवन भर उसे इसी तमगे के साथ जीना पड़ता है। आज भी भारत में इस प्रकार के लोगों के लिये समाज की मुख्य धारा से जुड़ना काफी चुनौतीपूर्ण होता है।
वैश्विक महामारी COVID-19 के दौर में देश में मानसिक स्वास्थ्य से संबंधित समस्याओं में लगातार वृद्धि देखी जा रही है। ऐसे में आवश्यक है कि इससे निपटने के लिये क्षमताओं का विकास किया जाए और संसाधनों में वृद्धि की जाए क्योंकि दुनिया के सारे ध्वंस, निर्माण, संघर्ष, क्रांति और आंदोलन-अभियान मानव मस्तिष्क की ही उपज हैं। यह सब व्यक्ति ने ही, व्यक्तियों द्वारा, व्यक्तियों के लिए किए हैं। इसलिए समाज की प्राथमिक इकाई व्यक्ति और व्यक्ति का मस्तिष्क दोनों का स्वास्थ्य सृष्टि के स्वास्थ्य की तरह है जिस पर शेष सभी व्यवस्था निर्भर करती है। इसलिए मानसिक स्वास्थ्य किसी भी व्यक्ति, समूह, समाज या राष्ट्र के लिए चिंता का विषय होना ही चाहिए।</s> |
<s>[INST]राम मंदिर भूमि पूजन में प्रधानमंत्री की उपस्थिति ने धर्मनिरपेक्षता पर बहस को पुनर्जीवित कर दिया है। धर्मनिरपेक्षता से आप क्या समझते हैं? धर्मनिरपेक्षता के भारतीय व पश्चिमी मॉडल का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिये।[/INST]उत्तर :
भूमिका
• धर्मनिरपेक्षता क्या है?
• धर्मनिरपेक्षता के भारतीय व पश्चिमी मॉडल की तुलना
• आलोचनात्मक मूल्यांकन
• निष्कर्ष
धर्मनिरपेक्षता एक जटिल तथा गत्यात्मक अवधारणा है। इस अवधारणा का प्रयोग सर्वप्रथम यूरोप में किया गया। यह एक ऐसी विचारधारा है जिसमें धर्म और धर्म से संबंधित विचारों को इहलोक से संबंधित मामलों से जान बूझकर दूर रखा जाता है अर्थात् तटस्थ रखा जाता है। धर्मनिरपेक्षता राज्य द्वारा किसी विशेष धर्म को संरक्षण प्रदान करने से रोकती है।
धर्मनिरपेक्षता का अर्थ किसी के धर्म का विरोध करना नहीं है बल्कि सभी को अपने धार्मिक विश्वासों एवं मान्यताओं को पूरी आज़ादी से मानने की छूट देता है। धर्मनिरपेक्ष राज्य में उस व्यक्ति का भी सम्मान होता है जो किसी भी धर्म को नहीं मानता है।
धर्मनिरपेक्षता के संदर्भ में धर्म, व्यक्ति का नितांत निजी मामला है, जिसमे राज्य तब तक हस्तक्षेप नहीं करता जब तक कि विभिन्न धर्मों की मूल धारणाओं में आपस में टकराव की स्थिति उत्पन्न न हो।
निम्न बिंदुओं के अंतर्गत समझा जा सकता की भारतीय धर्मनिरपेक्षता पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता से बुनियादी रूप से भिन्न है -
पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता जहाँ धर्म एवं राज्य के बीच पूर्णत: अलगाव पर आधारित है, वहीं भारतीय संदर्भ में यह अंतर-धार्मिक समानता पर आधारित है।
पश्चिम में धर्मनिरपेक्षता का पूर्णत: नकारात्मक एवं अलगाववादी स्वरूप दृष्टिगोचर होता है, वहीं भारत में यह समग्र रूप से सभी धर्मों का सम्मान करने की संवैधानिक मान्यता पर आधारित है।
गौरतलब है कि भारतीय धर्मनिरपेक्षता ने अंतःधार्मिक और अंतर-धार्मिक वर्चस्व पर एक साथ ध्यान केंद्रित किया है। इसने हिंदुओं के अंदर दलितों और महिलाओं के उत्पीड़न और भारतीय मुसलमानों अथवा ईसाइयों के अंदर महिलाओं के प्रति भेदभाव तथा बहुसंख्यक समुदाय द्वारा अल्पसंख्यक धार्मिक समुदायों के अधिकारों पर उत्पन्न किये जा सकने वाले खतरों का विरोध किया है, जो इसे पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा से भिन्न बनाती है।
यदि पश्चिम में कोई धार्मिक संस्था किसी समुदाय या महिला के लिये कोई निर्देश देती है तो सरकार और न्यायालय उस मामले में हस्तक्षेप नहीं कर सकते हैं। जबकि भारत में मंदिरों, मस्जिदों में महिलाओं के प्रवेश जैसे मुद्दों पर राज्य और न्यायालय दखल दे सकते हैं।
भारतीय धर्मनिरपेक्षता में राज्य समर्थित धार्मिक सुधार की गुंजाइश भी होती है और अनुकूलता भी, जो पश्चिम में देखने को नहीं मिलती है। उदाहरण के लिये भारतीय संविधान ने अस्पृश्यता पर प्रतिबंध लगाया है, वहीं सरकार ने बाल विवाह के उन्मूलन हेतु अनेक कानून भी बनाए हैं।
भारतीय धर्मनिरपेक्षता की आलोचना के बिंदु-
कुछ आलोचकों का तर्क है कि धर्म निरपेक्षता धर्म विरोधी है, लेकिन भारतीय धर्म निरपेक्षता धर्म विरोधी नहीं है। इसमें सभी धर्मों को उचित सम्मान दिया गया है। उल्लेखनीय है कि धर्म निरपेक्षता संस्थाबद्ध धार्मिक वर्चस्व का विरोध तो करती है लेकिन यह धर्म विरोधी होने का पर्याय नहीं है।
धर्म निरपेक्षता के विषय में यह भी कहा जाता है कि यह पश्चिम से आयातित है, अर्थात इसाईयत से प्रेरित है, लेकिन यह सही आलोचना नहीं है। दरअसल भारत में धर्मनिरपेक्षता को प्राचीन काल से ही अपनी एक विशिष्ट पहचान रही है, यह कहीं से आयातित नहीं बल्कि मौलिक है।
यह आरोप लगाया जाता है कि भारत में धर्मनिरपेक्षता राज्य द्वारा संचालित होती है। अल्पसंख्यकों को शिकायत है कि राज्य को धर्म के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये। इसके अलावा आलोचकों द्वारा एक अन्य तर्क यह भी दिया जाता है कि धर्मनिरपेक्षता वोट बैंक की राजनीति को बढ़ावा देती है।
यूनिफॉर्म सिविल कोड धर्मनिरपेक्षता के समक्ष एक अन्य चुनौती पेश कर रही है दरअसल, यूनिफॉर्म सिविल कोड यानी समान नागरिक संहिता आज तक बहाल नहीं हो पाई है और एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के तौर पर यह देश की सबसे बड़ी चुनौती है।
निष्कर्षतः धर्मनिरपेक्षता संविधान के मूल ढाँचे का अभिन्न अंग है अत: सरकारों को चाहिये कि वे इसका संरक्षण सुनिश्चित करें।</s> |
<s>[INST]वाताग्र जनन की प्रक्रिया को स्पष्ट करें साथ ही इस प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले कारकों की चर्चा करते हुए, उष्ण कटिबंधीय चक्रवातों की उत्पत्ति पर प्रकाश डालें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण
• भूमिका
• वाताग्र जनन से आशय
• उष्ण कटिबंधीय चक्रवातों की उत्पत्ति
• निष्कर्ष
वाताग्र एक मौसमी तंत्र है। जब किसी प्रदेश में गर्म एवं ठंडी वायुराशियाँ विपरीत दिशा में प्रवाहित होती हुई एक-दूसरे से अभिसरण करती हैं, तो वे आपस में मिलने का प्रयास करती हैं। इनके बीच एक संक्रमण क्षेत्र निर्मित होता है, जिनमें दोनों वायुराशियों के गुण मौजूद होते हैं। इसी संक्रमण क्षेत्र को वाताग्र प्रदेश कहा जाता है। वाताग्र बनने की प्रक्रिया को वाताग्र जनन कहते हैं।
वताग्र को प्रभावित करने वाले कारक:
ताप एवं आर्द्रता जैसे भौगोलिक कारक वाताग्र जनन को प्रभावित करते हैं। ताप एवं आर्द्रता संबंधी दो अलग-अलग गुणों वाली वायुराशियों के मिलने से वाताग्र की उत्पत्ति होती है।
इसके अलावा गतिक कारक भी वाताग्र जनन हेतु आवश्यक हैं वस्तुतः विभिन्न वायुराशियों का अपने मूल स्थान से अन्य क्षेत्रों की ओर गतिशील होना आवश्यक है। ध्यातव्य है कि विषुवत रेखा पर भी व्यापारिक पवनों का अभिसरण होता है, परंतु स्वभाव में समानता होने के कारण वताग्रों की उत्पत्ति नहीं होती।
वायुराशियों का अभिसरण वताग्रजनन में सहायक तथा वायुराशियों का अपसरण वताग्र जनन में बाधक होता है।
उष्ण कटिबंधीय चक्रवात एक आक्रामक तूफान है जिनकी उत्पत्ति उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों के महासागरों पर होती है और ये तटीय क्षेत्रों की ओर गतिमान होतें हैं। अर्थात उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों के महासागरों में उत्पन्न तथा विकसित होने वाले चक्रवातों को ‘उष्ण कटिबंधीय चक्रवात’ कहते हैं।
ये चक्रवात अत्यधिक विनाशकारी वायुमंडलीय तूफान होते हैं, जिनकी उत्पत्ति कर्क एवं मकर रेखाओं के मध्य महासागरीय क्षेत्र में होती है, तत्पश्चात् इनका प्रवाह स्थलीय क्षेत्र की तरफ होता है।
एक विकसित उष्ण कटिबंधीय चक्रवात की विशेषता इसके केंद्र के चारों तरफ प्रबल सर्पिल पवनों का परिसंचरण है जिसे इसकी आँख (eye) कहा जाता है। इसका केंद्र(अक्षु) शांत होता है जहाँ पवनों का अवतलन होता है। अक्षु के चारों ओर वायु का प्रबल तथा वृत्ताकार रूप में आरोहण होता है। उल्लेखनीय है कि इसी क्षेत्र में पवनों का वेग अधिकतम होता है।
ये 5° से 30° उत्तर तथा 5° से 30° दक्षिणी अक्षांशों के बीच उत्पन्न होते हैं। उल्लेखनीय है कि भूमध्य रेखा के दोनों ओर 5° से 8° अक्षांशों वाले क्षेत्रों में न्यूनतम कोरिऑलिस बल के कारण इन चक्रवातों का प्राय: अभाव रहता है। ITCZ के प्रभाव से निम्न वायुदाब के केंद्र में विभिन्न क्षेत्रों से पवनें अभिसरित होती हैं तथा कोरिऑलिस बल के प्रभाव से वृत्ताकार मार्ग का अनुसरण करती हुई ऊपर उठती हैं। फलत: वृत्ताकार समदाब रेखाओं के सहारे उष्ण कटिबंधीय चक्रवात की उत्पत्ति होती है।
इसका व्यास बंगाल की खाड़ी, अरब सागर व हिंद महासागर पर 600 से 1200 किलोमीटर के मध्य होता है यह परिसंचरण प्रणाली धीमी गति से 300 से 500 किलोमीटर प्रतिदिन की दर से आगे बढ़ता है। ये चक्रवात तूफ़ान तरंग उत्पन्न करतें हैं और तटीय निम्न इलाकों को जलप्लावित कर देते हैं। ये तूफान स्थल पर धीरे-धीरे क्षीण होकर खत्म हो जातें हैं।</s> |
<s>[INST]भारत में विवाह की न्यूनतम आयु विशेषकर महिलाओं के लिये विवाह की न्यूनतम आयु सदैव एक विवादास्पद विषय रहा है, न्यूनतम आयु में परिवर्तन की आवश्यकता क्यों है? विवाह योग्य आयु निर्धारण से संबंधित चुनौतियों पर प्रकाश डालें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण-
• भूमिका
• न्यूनतम आयु में परिवर्तन की आवश्यकता क्यों है?
• चुनौतियां क्या हैं?
• निष्कर्ष
भारत में विवाह की न्यूनतम आयु खासकर महिलाओं के लिये विवाह की न्यूनतम आयु सदैव एक विवादास्पद विषय रहा है, और जब भी इस प्रकार के नियमों में परिवर्तन की बात की गई है तो सामाजिक और धार्मिक रुढ़िवादियों का कड़ा प्रतिरोध देखने को मिला है। उल्लेखनीय है कि महिलाओं के विवाह की उम्र को बढ़ाना महिला सशक्तीकरण और महिला शिक्षा की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम हो सकता है, हालाँकि यह भी आवश्यक है कि नियम बनाने के साथ-साथ उनके कार्यान्वयन पर भी ध्यान दिया जाए, क्योंकि भारत में पहले से ही महिलाओं के विवाह की न्यूनतम सीमा 18 वर्ष तय है, किंतु आँकड़े बताते हैं कि अधिकांश क्षेत्रों में इन नियमों का पालन नहीं हो रहा है।
न्यूनतम आयु में परिवर्तन की आवश्यकता क्यों?
यूनिसेफ के आधिकारिक आँकड़े बताते हैं कि विश्व भर में पाँच वर्ष से कम उम्र के सभी बच्चों में प्रत्येक पाँचवें बच्चे की मृत्यु भारत में होती है। इन आँकड़ों से पता चलता है कि भारत में शिशु मृत्यु दर काफी खतरनाक स्तर पर पहुँच गई है।
संयुक्त राष्ट्र के शिशु मृत्यु दर के अनुमान से संबंधित आँकड़ों के अनुसार, वर्ष 2018 में संपूर्ण भारत में कुल 721,000 शिशुओं की मृत्यु हुई थी, जिसका मतलब है कि इस अवधि में प्रति दिन औसतन 1,975 शिशुओं की मौत हुई थी।
वर्ष 2015-16 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार, 20-24 आयु वर्ग की महिलाओं में से 48 प्रतिशत का विवाह 20 वर्ष की उम्र में हो जाता है, इतनी छोटी सी उम्र में विवाह होने के पश्चात् गर्भावस्था में जटिलताओं और बाल देखभाल के बारे में जागरूकता की कमी के कारण मातृ और शिशु मृत्यु दर में वृद्धि देखने को मिलती है।
ध्यातव्य है कि भारत में वर्ष 2017 में गर्भावस्था और प्रसव से संबंधित जटिलताओं के कारण कुल 35000 महिलाओं की मृत्यु हुई थी।
भारत में जिस समय महिलाओं को उनके भविष्य और शिक्षा की ओर ध्यान देना चाहिये, उस समय उन्हें विवाह के बोझ से दबा दिया जाता है, 21वीं सदी में इस रुढ़िवादी प्रथा में बदलाव की आवश्यकता है, जो कि महिला सशक्तीकरण की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम साबित हो सकता है।
विशेषज्ञ मानते हैं कि महिलाओं के विवाह की न्यूनतम आयु को बढ़ाने से महिलाओं के पास शिक्षित होने, कॉलेजों में प्रवेश करने और उच्च शिक्षा प्राप्त करने हेतु अधिक समय होगा।
इस निर्णय से संपूर्ण भारतीय समाज खासतौर पर निम्न आर्थिक वर्ग पर इस निर्णय का खासा प्रभाव देखने को मिलेगा।
विवाह योग्य आयु से संबंधित चुनौतियाँ-
पुरुषों और महिलाओं के लिये विवाह की अलग-अलग आयु का प्रावधान कानूनी विमर्श का विषय बनता जा रहा है। इस प्रकार के कानून रीति-रिवाजों और धार्मिक प्रथाओं का एक कोडीकरण है जो पितृसत्ता में निहित हैं।
विवाह की अलग-अलग आयु, संविधान के अनुच्छेद 14 ( समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 21 (गरिमा के साथ जीवन जीने का अधिकार) का उल्लंघन करती है।
विधि आयोग ने वर्ष 2018 मे परिवार कानून में सुधार के एक परामर्श पत्र में तर्क दिया कि पति और पत्नी की अलग-अलग कानूनी आयु रूढ़िवादिता को बढ़ावा देती है।
विधि आयोग के अनुसार, पति और पत्नी की आयु में अंतर का कानून में कोई आधार नहीं है क्योंकि पति या पत्नी का विवाह में शामिल होने का तात्पर्य हर तरह से समान है और वैवाहिक जीवन में उनकी भागीदारी भी समान होती है।
महिला अधिकारों हेतु कार्यरत कार्यकर्ताओं ने भी तर्क दिया है कि समाज के लिये यह केवल एक रूढ़ि मात्र है कि एक समान आयु में महिलाएँ, पुरुषों की तुलना में अधिक परिपक्व होती हैं और इसलिये उन्हें कम आयु में विवाह की अनुमति दी जा सकती है।
महिलाओं के खिलाफ भेदभाव के उन्मूलन संबंधी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ भी ऐसे कानूनों को समाप्त करने का आह्वान करती हैं जो पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं में अलग भौतिक और बौद्धिक परिपक्वता संबंधी विचारों से घिरे हैं।
निष्कर्षतः निःसंदेह विवाह हेतु न्यूनतम आयु का निर्धारण या महिलाओं के विवाह की उम्र को बढ़ाना महिला सशक्तीकरण और महिला शिक्षा की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम हो सकता है।</s> |
<s>[INST]'जिस प्रकार की विविधता, कलात्मकता तथा गुणवत्ता हमें गुप्तकालीन सिक्कों में देखने को मिलती है बाद के कालों में उसका अभाव देखने को मिलता है।' स्पष्ट करें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
• भूमिका
• कथन के पक्ष में तर्क
• उदाहरण
• निष्कर्ष
सिक्कों में प्रयुक्त धातु, सिक्के का आकार तथा स्वरूप, सिक्कों की माप, निर्माण विधि सिक्काशास्त्रीय कला के विभिन्न पहलू हैं। चूँकि सिक्के किसी काल की आर्थिक स्थिति के साथ संस्कृतिक और राजनीतिक दशाओं के भी साक्षी होते हैं। अत: इतिहास लेखन में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है।
गुप्ताकालीन राजाओं ने सोने-चांदी-तांबे तथा अन्य धातुओं के विभिन्न आकार प्रकार के सिक्के चलाए जिनमें राजा-रानी प्रकार, धनुर्धर राजा तथा वीणावादन करते हुए राजा की आकृतियां अंकित कराई। इन सिक्कों पर हिंदू पौराण्कि पंरपरओं को भी दर्शाया गया। सिक्कों पर उत्कीर्ण किवदंतियाँ इस काल की कलात्मक उत्कृष्टता का उदाहरण हैं।
किंतु दूसरा पक्ष यह भी है कि गुप्तोत्तर काल में जहाँ एक ओर सिक्कों के उपयोग में कमी आई। वहीं इनमें नैतिकता तथा कलात्मकता का अभाव भी देखने को मिलता है। माप में भी गुप्तकालीन सिक्कों की अपेक्षा बाद के काल में सिक्कों में गिरावट देखने को मिलती है। मुद्राओं में निर्गत करने वाले राजाओं के नाम का भी उल्लेख नहीं मिलता हैं व्यापार में गिरावट के साथ ही निम्न कोटि की मिश्रधातु के बने सिक्कों का प्रचलन वदा।
निष्कर्षतः जिस प्रकार की विविधता कलात्मकता तथा गुणवत्ता हमें गुप्तकालीन सिक्कों में देखने को तथा गुणवत्ता हमें गुप्तकालीन सिक्कों में देखने को मिलती है बाद के कालों मे उसका अभाव देखने को मिलता है।</s> |
<s>[INST]सरकार द्वारा जारी आँकड़ों के अनुसार देशभर में लागू लॉकडाउन के कारण पानी की दैनिक खपत में दोगुनी वृद्धि देखने को मिली। अतः इस बात की आशंका भी बढ़ी है कि अगले कुछ वर्षों में हमें गंभीर जल संकट का सामना करना पड़ सकता है। वर्तमान में जल संकट के कारणों की चर्चा करते हुए उचित समाधान सुझाएँ।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण-
• भूमिका
• भारत में जलसंकट की स्थिति
• कारण
• समाधान
• निष्कर्ष
भारत में उपलब्ध जल संसाधन विश्व का लगभग 4% है जबकि देश की जनसंख्या विश्व की कुल आबादी का लगभग 18% है। देश में उपलब्ध जल संसाधनों की गुणवत्ता में कमी और जनसंख्या में हुई तीव्र वृद्धि के कारण प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता में भारी गिरावट आई है। सरकार के आँकड़ों के अनुसार, वर्तमान में लोगों की दैनिक ज़रूरतों के लिये होने वाला भूमिगत जल का दोहन सामान्य औसत से 2.5 गुना अधिक है। एक अनुमान के अनुसार, वर्ष 2030 तक जल की मांग में 26% की वृद्धि देखी जा सकती है जबकि जल की उपलब्धता में 29% की कमी देखी जा सकती है। ऐसी स्थिति में उपलब्ध जल और मांग में 55% का अंतर देखा जा सकता है जो एक गंभीर चिंता का विषय है।
वर्ष 2019 में वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टिट्यूट के ‘एक्वाडक्ट वाटर रिस्क एटलस’ में भारत को ‘अत्यधिक उच्च’ जल संकट वाले देशों की सूची में 13वें स्थान पर रखा गया था। COVID-19 के कारण देश में लागू लॉकडाउन के बीच जहाँ देश में पानी की खपत में वृद्धि हुई है वहीं इस महामारी के कारण जल संरक्षण की योजनाओं का कार्यान्वयन भी बाधित हुआ है।
जल संकट के प्रमुख कारण:
वर्षा का असमान वितरण : देश में विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति के लिये आवश्यक जल में वर्षा से प्राप्त होने वाले जल की भूमिका बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। परंतु देश के सभी हिस्सों में वर्षा की मात्रा और अवधि में बड़ा अंतर देखने को मिलता है। साथ ही लगभग सभी भागों में वर्षा कुछ ही महीनों तक सीमित रहती है, जिसे हम मानसून के रूप में जानते हैं। ऐसे में वर्षभर जल की आवश्यकता के सापेक्ष वर्षा का सीमित और अनियमित होना एक बड़ी समस्या है।
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव: जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा की मात्रा पर बहुत अधिक प्रभाव नहीं पड़ा है परंतु इसके कारण समय और भौगोलिक दृष्टि से वर्षा का वितरण प्रभावित हुआ है। इससे होने वाली तात्कालिक क्षति के अतिरिक्त जल संरक्षण की प्रक्रिया भी प्रभावित होती है।
प्राकृतिक संसाधनों का अनियंत्रित दोहन: 1960 के दशक में हरित क्रांति के तहत सिंचाई तकनीकों को नवीनीकृत करने पर विशेष ध्यान दिया गया और ग्रामीण क्षेत्रों तक सस्ती दरों पर विद्युत की पहुँच सुनिश्चित की गई, परंतु इससे कृषि उपज हेतु भूमिगत जल के अनियंत्रित उपयोग को बढ़ावा मिला। वर्तमान में दैनिक जीवन में जल की कुल मांग का 80-85% कृषि क्षेत्र में प्रयोग होता है। कृषि क्षेत्र में जल के प्रयोग के प्रति यह व्यवहार भविष्य में एक बड़े संकट का कारण बन सकता है।
कृषि भूमि और औद्योगिक इकाईयों के विस्तार के साथ आर्द्रभूमि की संख्या में कमी हुई है जिससे जल संरक्षण के प्राकृतिक तंत्र को काफी क्षति हुई है।
अतिक्रमण: वर्ष 2015-16 में शहरी विकास मंत्रालय द्वारा लोकसभा की जल संरक्षण पर स्थायी समिति के समक्ष प्रस्तुत एक रिपोर्ट में देश के विभिन्न शहरी क्षेत्रों में जल संसाधनों के अतिक्रमण की जानकारी दी गई थी, इस रिपोर्ट के अनुसार देश के अधिकांश राज्यों में तालाबों और अन्य जल संसाधनों में अतिक्रमण के मामले देखे गए। लगभग सभी राज्यों में अतिक्रमण का कारण कृषि भूमि में विस्तार, बढ़ती जनसंख्या का दबाव और शहरीकरण ही थे।
समाधान:
वर्तमान में कृषि क्षेत्र जल का दोहन सबसे अधिक है ऐसे में यदि कृषि में 20-30% जल की बचत कर ली जाए तो यह जल संकट की वर्तमान चुनौती से निपटने में एक बड़ी सफलता होगी।
कृषि क्षेत्र में जल संरक्षण हेतु ड्रिप या स्प्रिंकलर सिंचाई तथा एग्रोफोरेस्ट्री जैसे प्रयासों को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।
प्राकृतिक जल संसाधनों के अतिक्रमण को रोक कर तथा ग्रीन कवर में वृद्धि अर्थात वनीकरण को बढ़ावा देकर भू-जल जल स्तर में सुधार किया जा सकता है।
लॉकडाउन के दौरान घरों में प्रयोग होने वाले जल में वृद्धि देखने को मिली है, ऐसे में घरों में जल के किफायती इस्तेमाल और घरों से निकलने वाले अपशिष्ट जल के पुनर्चक्रण/पुनर्प्रयोग को बढ़ावा देकर जल के दुरुपयोग को कुछ सीमा तक कम किया जा सकता है।
घरों और हाऊसिंग सोसायटियों के स्तर पर वर्षा के जल को संरक्षित कर जल संरक्षण को बढ़ावा देना।
औद्योगिक जल प्रदूषण हेतु कड़े कानूनों को लागू करने के साथ प्रदूषण नियंत्रण हेतु उद्योगों को ट्रीटमेंट प्लांट स्थापित करने पर प्रोत्साहन दिया जाना चाहिये।
जन जागरूकता अभियानों के माध्यम से जल संरक्षण के प्रति सामाजिक सहयोग को बढ़ाना।
निष्कर्षतः लॉकडाउन के कारण जहाँ घरेलू उपयोग के लिये जल की मांग बढ़ी हुई वहीं जल संरक्षण की कई योजनाओं में भी रुकावट आई है। पिछले कुछ वर्षों में भारतीय शहरों की आबादी में तीव्र वृद्धि देखने को मिली है ऐसे में भविष्य में शहरों में जल की मांग काफी बढ़ सकती है, अतः वर्तमान चुनौतियों से सीख लेते हुए हमें जल के सदुपयोग और संरक्षण पर विशेष ध्यान देना होगा।</s> |
<s>[INST]'न केवल आक्रमण बल्कि भारत की उत्तर-पश्चिम सीमा पर मंगोलों की मौजूदगी भर ने दिल्ली सल्तनत को अनेक रूपों में गंभीरतापूर्वक प्रभावित किया।' चर्चा करें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण-
• दिल्ली सल्तनत पर मंगोल आक्रमण का संक्षिप्त उल्लेख।
• मंगोल आक्रमण के प्रभाव।
• निष्कर्ष।
मंगोल साम्राज्य 13वीं एवं 14वीं शताब्दियों के भारत एवं एशियाई महाद्वीप के दक्षिण-पूर्व भाग को छोड़कर मध्य-पूर्व एवं मध्य एशिया सेे लेकर पूर्वी यूरोप और चीन तक फैला हुआ था। यह साम्राज्य दिल्ली सल्तनत के अन्य किसी भी बाहरी या आंतरिक शत्रु से कहीं ज़्यादा शक्तिशाली, विनाशकारी एवं आक्रामक था। जिससे पड़ने वाले प्रभावों को निम्नलिखित बिंदुओ के अंतर्गत समझा जा सकता है-
मंगोलों के विरुद्ध संगठित एवं सफल प्रयास के रूप में खिलजी एवं तुगलक सुल्तानों ने धर्म एवं जाति के तत्त्वों से ऊपर उठकर योग्यता एवं वफादारी पर आधारित केन्द्रीकृत राज्य का ढाँचा स्थापित किया। अलाउद्दीन ने मंगोलों के आक्रमणों का सामना करने के लिये सीमावर्ती किलों एवं दिल्ली के किलों की मरम्मत, नए किलों का निर्माण और अन्य सैन्य एवं आर्थिक सुधार भी किये। मध्य-पूर्व के इस्लामी राज्यों में मंगोल आक्रमणों के परिणामस्वरूप बहुत से प्रतिष्ठित शास्त्रज्ञों, कवियों, इतिहासकारों, रहस्यवादियों, सूफी शेखों, धार्मिक नेताओं और अनेक प्रमुख परिवारों ने भागकर दिल्ली के सुल्तानों से पनाह एवं शाही संरक्षण मांगा। सूफी शेखों ने न केवल हिंदू दर्शन और धर्म का गहरा अध्ययन किया बल्कि हिंदुओं को इस्लाम के वास्तविक सिद्धांतों एवं पैगम्बर की शिक्षाओं से भी अवगत कराया।
भारतीय सुल्तानों ने सीमावर्ती जातियों को नियंत्रण में रखने या उनसे मित्रता के बराबर प्रयास किये क्योंकि ये जातियाँ न केवल उन्नत हथियार बनाने में निपुण थीं बल्कि मंगोलों की युद्ध संबंधी रणनीति एवं उनके तौर-तरीके से भी अच्छी तरह परिचित थीं। इसके अतिरिक्त इस्लामी जगत के पूर्वी भाग से देशांतरण करते हुए कारीगर और व्यापारी अपने शिल्प, तकनीक और कार्यप्रणालियों के साथ-साथ व्यक्तिगत संस्कृति, परंपरा और रीति-रिवाज़ भी लाए, जिसने भारतीय संस्कृति को कई दृष्टिकोणों से बड़े पैमाने पर समृद्ध बनाया।
मंगोल आक्रमणों के परिणामस्वरूप भारत में राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्रों में इजतिहाद विचारधारा का पदार्पण हुआ। इससे भारत में स्वतंत्र तर्कवाद की राजनीतिक विचारधाराओं के पनपने में सहायता मिली। उत्तर-पश्चिम भारत का क्षेत्र सामरिक एवं आर्थिक दोनों ही दृष्टिकोणों से अत्यंत महत्त्वपूर्ण था।
निष्कर्षतः न केवल आक्रमण बल्कि भारत की उत्तर-पश्चिम सीमा पर मंगोलों की मौजूदगी भर ने दिल्ली सल्तनत को अनेक रूपों में गंभीरतापूर्वक प्रभावित किया।</s> |
<s>[INST]आप इस मत से कहां तक सहमत हैं कि एक व्यक्तिगत ईश्वर के प्रति निष्ठा ही भक्ति आंदोलन का मूल थी। चर्चा करें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण-
• भूमिका
• व्यक्तिगत ईश्वर के प्रति निष्ठा से आशय
• अन्य पक्ष
मध्य काल में भक्ति आंदोलन की शुरुआत सर्वप्रथम दक्षिण के अलवार तथा नयनार संतों द्वारा की गई। बारहवीं शताब्दी के प्रारंभ में रामानंद द्वारा यह आंदोलन दक्षिण भारत से उत्तर भारत में लाया गया। इस आंदोलन को चैतन्य महाप्रभु, नामदेव, तुकाराम, जयदेव ने और अधिक मुखरता प्रदान की। भक्ति आंदोलन का उद्देश्य था- हिन्दू धर्म एवं समाज में सुधार तथा इस्लाम एवं हिन्दू धर्म में समन्वय स्थापित करना। अपने उद्देश्यों में यह आंदोलन काफी हद तक सफल रहा।
मध्यकालीन भारतीय हिंदू समाज के धार्मिक जीवन में भक्ति आंदोलन के रूप में महत्त्वपूर्ण चेतना व जागृति का विकास हुआ। भक्ति काल में प्रत्येक सामाजिक, धार्मिक सुधारक संत के द्वारा समाज में किसी विशेष भगवान के प्रति भक्ति या आस्था का प्रचार -प्रसार किया गया जो इसे भक्ति आंदोलन की महत्त्वपूर्ण विशेषता बनाता है। गौर से देखें तो यह भारत में बहुदेववाद की स्थापित पंरपरा से भिन्न था।
दक्षिण भारत के भक्ति आंदोलन से जुड़े संतों ने ईश्वर के प्रति व्यक्तिगत प्रेम और समर्पण को मोक्ष प्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ मार्ग बताया।दुसरी ओर महाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन को नामदेव व तुकाराम ने अधिक मुखर बनाया तथा 'हरि' के प्रति अदम्य प्रेम व समर्पण का उपदेश दिया। महाराष्ट्र में संत रामदास ने राम की पूजा को लोकप्रिय बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। भारत के हिंदी भाषी क्षेत्रों में भक्ति आंदोलन के प्रमुख संत रामानन्द थे जिन्होंने भगवान राम के स्वरूप में भक्ति भावना का प्रकटीकरण किया। रामानन्द ने बताया कि केवल राम के प्रति प्रेम व समर्पण के माध्यम से ही मुक्ति पाई जा सकती है।
तुलसीदास ने भगवान राम में आस्था प्रकट की तथा राम को निरपेक्ष सत्य (अंतिम सत्य) के रूप में स्थापित किया। मीराबाई कृष्ण भक्ति की साकार प्रतिमा मानी जाती थीं। संत सूरदास भी अपनी रचनाओं में कृष्ण के मोहक रूप तथा राधा की कथाओं का वर्णन करते थे। इसके अतिरिक्त चैतन्य महाप्रभु ने श्रीकृष्ण की आराधना से भगवान के प्रति अदम्य प्रेमभाव का प्रकटीकरण किया है।
अतः स्पष्ट है कि मध्यकालीन भारत का भक्ति आंदोलन किसी विशिष्ट या व्यक्तिगत ईश्वर के प्रति निष्ठा के प्रकटीकरण के संदर्भ में ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है किंतु इसका तात्पर्य यह बिल्कुल नहीं है कि इन संतों ने अन्य की उपेक्षा या आलोचना की। इन्होंने केवल अपने आराध्य के प्रति पूर्ण समर्पण की भावना को अभिव्यक्त किया। अतः यह किसी व्यक्तिगत ईश्वर को अपनाए जाने के अतिरिक्त अन्य आयामों को समेटे रखने वाला आंदोलन था।</s> |
<s>[INST]आप इस मत से कहाँ तक सहमत हैं कि पाल, प्रतिहार एवं राष्ट्रकूट यद्यपि एक बड़ा साम्राज्य स्थापित करने में सफल न हो सके किंतु तत्समय उत्पन्न परिस्थितियों से उपजे शून्य को भरने में अवश्य सफल हुए।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण-
• भूमिका
• पाल, प्रतिहार एवं राष्ट्रकूट की भूमिका के विभिन्न पक्ष
• निष्कर्ष
8वीं सदी के दौरान, कन्नौज पर नियंत्रण के लिए भारत के तीन प्रमुख साम्राज्यों जिनके नाम पाल, प्रतिहार और राष्ट्रकूट थे, के बीच संघर्ष हुआ। पालों का भारत के पूर्वी भागों पर शासन था जबकि प्रतिहार के नियंत्रण में पश्चिमी भारत का अवंती-जालौर क्षेत्र था। राष्ट्रकूटों ने भारत के डक्कन क्षेत्र पर शासन किया था। इन तीन राजवंशों के बीच कन्नौज पर नियंत्रण के लिए हुए संघर्ष को भारतीय इतिहास में त्रिपक्षीय संघर्ष के रूप में जाना जाता है।
पाल, प्रतिहार एवं राष्ट्रकूट शासकों की भूमिका का आलोचनात्मक विश्लेषण निम्नलिखित रूपों में वर्णित है-
हर्ष के बाद गुर्जर-प्रतिहारों ने उत्तरी भारत को राजनीतिक एकता प्रदान की और अरबों को सिंध से आगे बढ़ने से भी रोका। त्रिपक्षीय संघर्ष में सफलता के पश्चात् गुर्जर-प्रतिहार सर्वाधिक प्रभावशाली हो गए। पाल वंश के शासकों ने बंगाल को राजनीतिक एकता प्रदान करके सांस्कृतिक समुन्नति का मार्ग प्रशस्त किया और भारत की राजनीति में इसके महत्त्व को लगभग चार सौ वर्षों तक स्थापित करने में सफल रहे।
पाल वंश ने बंगाल में दशकों से चली आ रही मत्स्यन्याय एवं अराजकता को समाप्त कर एक सुदृढ़ राजशक्ति को कायम किया और इनका काल तीनों ही शक्तियों में से सबसे लंबे समय तक चला।
महाराष्ट्र-दक्कन में राष्ट्रकूट एक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक शक्ति थे जिनका सांस्कृतिक क्षेत्र में प्रमुख योगदान था। इन्होंने भी आरम्भ में अरबों का विरोध कर महत्ता हासिल की। यदि ये अपनी महत्त्वाकांक्षा को दक्षिण तक ही सीमित रखते तो एक शक्तिशाली राज्य का निर्माण कर सकते थे। लगभग एक सदी तक गंगा घाटी में स्थित कन्नौज नगर के ऊपर नियंत्रण को लेकर आपस में लड़ने के पश्चात् अंतत: नौवीं शताब्दी में गुर्जर-प्रतिहारों ने आधिपत्य स्थापित करने में सफलता पाई।
त्रिपक्षीय संघर्ष ने तीनों महाशक्तियों की स्थिति को कमज़ोर किया जिससे ये एक बड़ा साम्राज्य कायम नहीं कर सकीं और इसने तुर्कों को इन्हें सत्ता से बेदखल करने में सक्षम बनाया। तीनों महाशक्तियों की शक्ति लगभग समान थी जो मुख्यत: विशाल संगठित सेनाओं पर आधारित थी लेकिन कन्नौज के संघर्ष का लाभ उठाकर सामंतों ने अपने-आप को स्वतंत्र घोषित कर दिया, जिससे रही-सही एकता भी नष्ट हो गई।
उपरोक्त से स्पष्ट है कि यद्यपि त्रिपक्षीय संघर्ष की शक्तियाँ लगभग एक साथ अस्तित्व में आई धीरे - धीरे लुप्त हो गईं। तत्समय ये भारत में एक बड़ा साम्राज्य स्थापित करने में सफल नहीं हुईं लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि राजनीतिक शून्यता को काफी लम्बे समय तक भरने में कामयाब रहीं।</s> |
<s>[INST]एक भारत श्रेष्ठ भारत, राष्ट्रीय एकता की दिशा में एक मज़बूत पहल है। यह किस प्रकार देश में आंतरिक रूप से व्याप्त सांस्कृतिक अंतर को पाटकर विभिन्न राज्यों के लोगों के मध्य आपसी अंतःक्रिया को बढ़ावा देकर राष्ट्र की मज़बूती व एकता का महत्त्वपूर्ण कारक बन सकती है। चर्चा करें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण-
• भूमिका
• योजना के विभिन्न पक्ष
• किस प्रकार एकता व अखंडता बनाये रखने में सहायक
• निष्कर्ष
विभिन्न राज्यों को सांस्कृतिक एकता के सूत्र में पिरोने के उद्देश्य से ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ अभियान शुरू किया जाएगा। इस कार्यक्रम के तहत प्रत्येक वर्ष कोई एक राज्य अपनी संस्कृति एवं पर्यटन के प्रचार-प्रसार के लिये किसी अन्य राज्य को चुनेगा तथा दोनों राज्यों के मध्य विभिन्न माध्यमों द्वारा अंतःक्रिया बढ़ाई जाएगी।
सरकार की इस पहल का मूल उद्देश्य, देश में आंतरिक रूप से व्याप्त सांस्कृतिक अंतर को पाटकर विभिन्न राज्यों के लोगों के बीच आपसी अंतःक्रिया को बढ़ावा देना है, जो अंततः राष्ट्र की मजबूती व एकता का महत्त्वपूर्ण कारक बनेगी। साथ ही इससे भारतीय शासन व्यवस्था के संघात्मक ढाँचे को भी बल प्राप्त होगा। इससे आंतरिक संघर्षों को रोकने तथा देश में व्याप्त अंतर्विरोधी तत्त्वों के आपसी टकराव को रोकने में मदद मिलेगी।
भारतीय राष्ट्र संकल्पना एवं पश्चिमी विचारकों के विरोधी तर्क
भारत के लिये राष्ट्र की संकल्पना पश्चिमी राष्ट्र-राज्य की संकल्पना (एकसमान संस्कृति) से भिन्न सांस्कृतिक विविधता पर आधारित है। भारत में भाषा, धर्म, जाति, रीति-रिवाज, खान-पान और रहन-सहन सरीखे सांस्कृतिक तत्त्वों की इन्हीं विविधताओं को समन्वित करके एकता स्थापित हुई है।
ऐसे विचारकों का मानना है कि वर्तमान का भारत एक इकाई न होकर अलग-अलग राष्ट्रों का एक समूह है जो किसी तरह से एक बना हुआ है। इसमें न तो कोई साझापन है और न ही कोई राजनीतिक और सामाजिक चेतना ही है, जो एक राष्ट्र के रूप में इसकी पहचान बन सके।
पश्चिमी अनुभव इस धारणा पर आधारित रहे हैं कि राष्ट्र और सांस्कृतिक एकता परस्पर समानार्थी अवधारणाएँ हैं। ऐसा माना जाता है कि 1990 के दशक में यूगोस्लाविया तथा चेकोस्लोवाकिया का विघटन तथा ‘कोसोवो संकट’ नृजातीय एवं सांस्कृतिक विविधताओं की ही देन थे।
यही वजह है कि इस धारणा के समर्थक, विचारक भारत के सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभावों की ‘स्थानीय प्रकृति’ से चिंतित रहते हैं क्योंकि उनके विचार से सांस्कृतिक विविधता आधुनिक राष्ट्र-राज्य के निर्माण में बाधा उत्पन्न करती है।
भारतीय राष्ट्र संकल्पना की विशेषता- तमाम विविधताओं को समन्वित कर तथा उसे अपनी राष्ट्रीय पहचान बनाते हुए एक सफल राष्ट्र के रूप में स्थापित।वहीं एक नस्ल और भाषा आधारित होने के बावजूद यूरोपीय राष्ट्र-राज्यों में व्याप्त आपसी गतिरोध जैसे- स्कॉटलैंड की इंग्लैंड से अलग होने की मांग तथा कैटेलोनिया की स्पेन से अलग होने की मांग।
भारतीय राष्ट्र संकल्पना की समस्याएँ एवं उनसे निपटने के उपाय-
यद्यपि भारत विविधता के संदर्भ में अनोखा राष्ट्र है किंतु यहाँ धर्म, जाति, भाषा इत्यादि के नाम पर संघर्ष होते रहते हैं। आंध्र प्रदेश, हरियाणा, पंजाब इत्यादि राज्य जहाँ भाषायी आधार पर निर्मित हुए वहीं साम्प्रदायिकता की समस्या आज तक बनी हुई है।
जो भिन्नताएँ संघर्ष का कारण बनती हैं, उनके बीच समन्वय स्थापित कर राष्ट्रीय एकता स्थापित की जा सकती है। इसके लिये आवश्यक है कि लोग अपने से भिन्न संस्कृति को जानें-समझें जिससे किसी प्रकार का पूर्वाग्रह न बन सके।
साहित्य और सिनेमा जैसे परम्परागत साधन तथा फेसबुक, यू-ट्यूब जैसे आधुनिक साधनों के माध्यम से सांस्कृतिक विविधता का प्रसार किया जा सकता है।
वर्तमान समय छवि निर्माण का है, इस लिहाज से भी यह अभियान महत्त्वपूर्ण होगा क्योंकि भारत के पास नृत्य, संगीत से लेकर खान-पान तक इतनी विविधता है कि अगर इसे एक राष्ट्रीय पहचान के रूप में ढाल दिया जाए तो भारत इस संदर्भ में अपनी श्रेष्ठता सिद्ध कर सकता है।
‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ जैसे महत्त्वाकांक्षी कार्यक्रम की सफलता के लिये आवश्यक है कि राज्य एवं नागरिक दोनों अपनी भूमिका का बेहतर ढंग से निर्वाह करें।
निष्कर्षतः भारतीय समाज में विकास की अपार संभावना है क्योंकि अनेकता और विविधता विकास की ओर ले जाती है तथा जहाँ विविधता नहीं होती है अर्थात् एक जाति, एक धर्म व एक ही नस्ल; वे प्रायः विकास नहीं कर पाते हैं। इसलिये भारत देश की विविधता ही उसकी शक्ति है। जिसे बनाए रखना हम सबकी साझी ज़िम्मेदारी है।</s> |
<s>[INST]कठपुतली नृत्य को लोकनाट्य की ही एक शैली माना गया है।भारत में कठपुतली नृत्य के विकास पर प्रकाश डालते हुए इसकी विभिन्न शैलियों की चर्चा करें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण-
• भूमिका
• भारत में कठपुतली नृत्य का विकास
• इसकी विभिन्न शैलियां
भारत में कठपुतली अत्यंत प्राचीन नाटकीय खेल है जिसमें लकड़ी, धागे, प्लास्टिक या प्लास्टर ऑफ पेरिस की गुड़ियों द्वारा जीवन के प्रसंगों की अभिव्यक्ति तथा मंचन किया जाता है। ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में पाणिनी के अष्टाध्यायी में नटसूत्र में पुतला नामक नायक का उल्लेख मिलता है।
पुतली कला की प्राचीनता के संबंध में तमिल ग्रंथ ‘शिल्पादिकारम्’ में भी जानकारी मिलती है। चर्चित कथा ‘सिंहासन बत्तीसी’ में विक्रमादित्य के सिंहासन की बत्तीस पुतलियों का उल्लेख मिलता है।
शारीरिक एवं मानसिक रूप से विकलांग बच्चों को अपने शारीरिक एवं मानसिक विकास के लिये प्रेरित करने में पुतली कला का सफलता से उपयोग किया गया है। पुतली कला कई कलाओं का मिश्रण है, यथा-लेखन, नाट्य कला, चित्रकला, वेशभूषा, मूर्तिकला, काष्ठकला, वस्त्र-निर्माण कला, रूप-सज्जा, संगीत, नृत्य आदि। पहले अमर सिंह राठौड़, पृथ्वीराज, हीर-रांझा, लैला-मजनूं, शीरी-फरहाद की कथाएँ ही कठपुतली खेल में दिखाई जाती थीं, लेकिन अब सामाजिक विषयों के साथ-साथ हास्य-व्यंग्य तथा ज्ञान संबंधी अन्य मनोरंजक कार्यक्रम भी दिखाए जाने लगे हैं।
पुतलियों के निर्माण तथा उनके माध्यम से विचारों के संप्रेषण में जो आनंद मिलता है, वह बच्चों के व्यक्तित्व के चहुँमुखी विकास में सहायक होता है।
भारत में सभी प्रकार की पुतलियाँ पाई जाती हैं, यथा-धागा पुतली, छाया पुतली, छड़ पुतली, दस्ताना पुतली आदि।
भारत की कठपुतली कला शैलियाँ-
धागा पुतली- इसमें अनेक जोड़युक्त अंगों का धागों द्वारा संचालन किया जाता है, जिस कारण ये पुतलियाँ काफी लचीली होती हैं। राजस्थान, ओडिशा, कर्नाटक और तमिलनाडु में धागा पुतली कला पल्लवित हुई। राजस्थान की कठपुतली, ओडिशा की कुनदेई, कर्नाटक की गोम्बयेट्टा तथा तमिलनाडु की बोम्मालट्टा धागा पुतली कला के प्रमुख उदाहरण हैं।
छाया पुतली- छाया पुतलियाँ चपटी होती हैं और चमड़े से बनाई जाती हैं। इसमें पर्दे को पीछे से प्रदीप्त किया जाता है और पुतली का संचालन प्रकाश स्रोत तथा पर्दे के बीच से किया जाता है। ये छायाकृतियाँ रंगीन भी हो सकती हैं।
छाया पुतली की यह परंपरा ओडिशा, केरल, आंध्र, कर्नाटक, महाराष्ट्र और तमिलनाडु में प्रचलित है। तोगलु गोम्बयेट्टा (कर्नाटक), तोलु बोम्मालट्टा (आंध्र प्रदेश), रावण छाया (ओडिशा) आदि छाया पुतलियों के प्रसिद्ध उदाहरण हैं।
छड़ पुतली- छड़ पुतली वैसे तो दस्ताना पुतली का ही अगला चरण है, लेकिन यह उससे काफी बड़ी होती है तथा नीचे स्थित छड़ों (डंडे) पर आधारित रहती है और उन्हीं से संचालित होती है। पुतली कला का यह रूप वर्तमान समय में पश्चिम बंगाल तथा ओडिशा में पाया जाता है।
बंगाल का पुत्तल नाच, बिहार का यमपुरी आदि छड़ पुतली के उदाहरण हैं। ओडिशा की छड़ पुतलियाँ बहुत छोटी होती हैं।
जापान की ‘बनराकू’ की तरह पश्चिम बंगाल के नदिया ज़िले में आदमकद पुतलियाँ होती थीं, किंतु यह रूप अब विलुप्त हो गया है।
दस्ताना पुतली- इसे भुजा, कर या हथेली पुतली भी कहा जाता है। इसके संचालन हेतु पहली उँगली मस्तक पर रखी जाती है तथा मध्यमा और अंगूठा पुतली की दोनों भुजाओं में; इस प्रकार अंगूठे और दो उँगलियों की सहायता से दस्ताना पुतली सजीव हो उठती है।भारत में दस्ताना पुतली की परंपरा उत्तर प्रदेश, ओडिशा, पश्चिम बंगाल और केरल में लोकप्रिय है।
उपरोक्त के अतिरिक्त पावाकूथू कठपुतली केरल में पारंपरिक पुतली नाटकों को पावाकूथू कहा जाता है। इसका उद्भव 18वीं शताब्दी में वहाँ के प्रसिद्ध शास्त्रीय नृत्य नाटक कत्थकली के पुतली-नाटकों पर पड़ने वाले प्रभाव के कारण हुआ। केरल के ये पुतली-नाटक रामायण तथा महाभारत की कथाओं पर आधारित हैं।</s> |
<s>[INST]'पल्लव काल न सिर्फ स्थापत्य कला अपितु अन्य विलक्षण सांस्कृतिक उपलब्धियों के संदर्भ में प्रगति का काल रहा है।' विवेचना करें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण
• भूमिका
• पल्लव राजवंश के बारे में संक्षिप्त उल्लेख
• स्थापत्य के क्षेत्र में योगदान
• अन्य क्षेत्रों में योगदान
• निष्कर्ष लिखिये
पल्लवों ने प्रारंभिक पल्लव शासकों (250 ई.) से लेकर नौवीं शताब्दी के अपने पतन के अंतिम समय तक शासन किया। सातवाहनों के ध्वंसावशेषों पर निर्मित होने वाले पल्लव वंश की स्थापना सिंहविष्णु ने की थी। सातवाहन साम्राज्य के दक्षिण-पूर्वी भाग में शासन करने वाले पल्लवों की राजधानी कांचीपुरम थी। पल्लवों ने वास्तुकला के साथ-साथ संगीत, नृत्य एवं चित्रकला के क्षेत्र में भी प्रगति की, इस प्रकार पल्लव वास्तुकला का इतिहास में काफी महत्त्व है।
पल्लवकालीन स्थापत्य कला की विशेषताएँ:
रथ मंदिर का निर्माण पल्लवों की महत्त्वपूर्ण देन है। इसके अंतर्गत महाबलीपुरम में पाँच रथ मंदिरों का निर्माण किया गया था। ये रथ मंदिर शिव को समर्पित थे तथा इनका नामकरण पाँच पांडवों के आधार पर किया गया था।
पल्लवों की स्थापत्य कला में मंदिर निर्माण को प्रमुख स्थान दिया गया था। इस काल में चट्टानों को काटकर और नक्काशी के द्वारा गुफा और मंदिरों का निर्माण किया गया था।
रथ मंदिरों में सहदेव, धर्मराज और भीम रथ बहु-मंजिले हैं और इनके शिखर पिरामिड के समान है। द्रोपदी रथ लकड़ी के स्तंभों के सहारे झोपड़ीनुमा पत्थर की अनुकृति है। उल्लेखनीय है कि द्रोपदी रथ बाँस और छप्पर के आदिप्रारूप की भी अनुकृति प्रस्तुत करता है।
एकाश्मक मंदिर संरचना भी पल्लवकालीन स्थापत्य की प्रमुख विशेषता है। महाबलीपुरम का गणेश रथ एकाश्मक मंदिरों में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। तीन मंजिला गणेश रथ में बेहतरीन नक्काशी की झलक मिलती है।
राजसिम्ह द्वारा निर्मित कांचीपुरम के कैलाशनाथ मंदिर का पल्लव वंश के स्थापत्य में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस विशाल मंदिर की भव्यता काफी मनोरम है।
पल्लवों की अन्य सांस्कृतिक उपलब्धियाँ:
पल्लवों के काल में स्थापत्य के बाद साहित्य के क्षेत्र में काफी प्रगति देखने को मिलती है। पल्लव शासकों द्वारा संस्कृत भाषा को संरक्षण प्रदान किया गया था।
संकृत भाषा के प्रसिद्ध कवि व ‘किरातार्जुनीयम’ के रचयिता भारवि सिंहविष्णु के दरबार में रहते थे। इसके अतिरिक्त पल्लवकालीन रचनाकारों में दण्डिन प्रमुख थे, इन्होंने ‘दश्मुखचरित’ और ‘काव्यादर्श’ जैसी पुस्तकों की रचना की। पल्लव वंश के शासक महेन्द्रवर्मन स्वयं साहित्य की महान हस्तियों में से एक थे।
पल्लवों के शासन काल को धार्मिक पुनर्जीवन के काल के रूप में भी याद किया जाता है। इन्होंने दक्षिण भारत में आर्यीकरण को बढ़ावा देकर ब्राह्मण धर्म का प्रसार किया। इसके कारण ही कांची हिंदुओं के सात पवित्र शहरों के रूप में गिना जाने लगा।
यद्यपि पल्लव विष्णु एवं शिव के उपासक थे, किंतु उन्होंने अन्य पंथों के प्रति सहिष्णुता बनाए रखी।
मूर्तिकला के सन्दर्भ में भी पल्लव काल अत्यधिक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। महाबलीपुरम के सात विशालकाय पैगोडा के साथ महिषासुरमर्दिनी, गजलक्ष्मी, अर्जुन का तप आदि प्रतिमाओं को पल्लवों का संरक्षण प्राप्त हुआ।
यद्यपि पल्लवों की स्थापत्य शैली धार्मिक भावनाओं से प्रेरित प्रतीत होती है, फिर भी उनकी सांस्कृतिक उपलब्धि भारतीय इतिहास को गौरवान्वित करने के साथ अमूल्य धरोहर का एहसास देती है। पल्लव काल मंदिर निर्माण का एक महान युग था। पल्लवों ने बौद्ध चैत्य विहारों से विरासत में प्राप्त कला का विकास किया और नवीन शैली को जन्म दिया जिसका पूर्ण विकसित रूप पांड्य काल में देखने को मिला। पल्लव कला की विशेषताएँ भारत से बाहर दक्षिण-पूर्व एशिया तक भी पहुँचीं।</s> |
<s>[INST]भारत ने वैश्विक महामारी COVID-19 से उपजे संकट से कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट के मद्देनज़र वस्तुतः अपने सामरिक तेल भंडार में वृद्धि की है। भारत में सामरिक पेट्रोलियम भंडारों का संक्षिप्त परिचय देते हुए इसके महत्त्व तथा संबंधित समस्याओं पर प्रकाश डालें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
• भूमिका
• सामरिक पेट्रोलियम भंडार से तात्पर्य
• भारत की स्थिति
• महत्त्व
• संबंधित समस्याएं
भारत की ऊर्जा मुख्य रूप से जीवाश्म ईंधन पर निर्भर है। ईंधन का 80% आयात विशेषकर पश्चिम एशिया से किया जाता है। पश्चिम एशिया में संघर्ष की पृष्ठभूमि में आपूर्ति का संकट और चालू खाता घाटे की स्थिति बन सकती है।
पहली बार तेल के संकट के बाद सामरिक भंडार की इस अवधारणा को वर्ष 1973 में संयुक्त राज्य अमेरिका में लाया गया था। पृथ्वी की सतह के नीचे गहरी गुफाओं में भंडारण की अवधारणा को पारंपरिक रूप से एक ऊर्जा सुरक्षा उपाय के रूप में लाया गया है जो भविष्य में हमले या आक्रमण के कारण तेल की आपूर्ति में कमी आने पर सहायक हो सकती हैं। यह भूमिगत भंडारण, पेट्रोलियम उत्पादों के भंडारण की अब तक की सबसे अच्छी आर्थिक विधि है, क्योंकि भूमिगत सुविधा भूमि के बड़े स्तर की आवश्यकता को नियंत्रित करती है, कम वाष्पीकरण सुनिश्चित करती है, क्योंकि गुफाओं का निर्माण समुद्र तल से बहुत नीचे किया जाता है, इसलिये कच्चे तेल का निर्वहन जहाज़ो से करना आसान होता है।
भारत के सामरिक पेट्रोलियम भंडार की स्थिति-
भारत के सामरिक कच्चे तेल के भंडार वर्तमान में विशाखापत्तनम (आंध्र प्रदेश), मंगलौर (कर्नाटक) और पाडुर (कर्नाटक) में स्थित हैं। इनके अतिरिक्त चंदीखोल (ओडिशा) और पादुर (कर्नाटक) में दो अतिरिक्त सुविधाएँ स्थापित करने की घोषणा की थी।
वर्तमान में ‘सामरिक पेट्रोलियम भंडार कार्यक्रम’ के तहत भारत 87 दिनों तक आवश्यकता पूर्ति की भंडारण क्षमता रखता है। इसमें से लगभग 65 दिनों की आवश्यकता पूर्ति को तेल प्रसंस्करण इकाइयाँ जबकि शेष भंडार ‘भारतीय सामरिक पेट्रोलियम भंडार लिमिटेड’ द्वारा बनाए गए भूमिगत भंडार के रूप में अनुरक्षित किया जाता है।
महत्त्व:
कच्चे तेल के ऐसे भूमिगत भंडारण के कई लाभ हैं। पहला लाभ तो यह है कि किसी युद्ध या आपदा की स्थिति में देश की ऊर्जा सुरक्षा अचानक खतरे में नहीं पड़ती है। वर्ष 1991 में खाड़ी युद्ध के समय इस प्रकार के सामरिक पेट्रोलियम भंडार संयुक्त राज्य अमेरिका के लिये काफी लाभदायक सिद्ध हुए थे।
कच्चे तेल की कीमतें अचानक बहुत ज्यादा होने पर इस रिज़र्व स्टॉक के इस्तेमाल से देश में तेल की कीमतें काबू में रखी जा सकती हैं। इसके अलावा भूमिगत भंडारण कच्चे तेल को रखने का सबसे कम व्यय वाला तरीका है।
समस्याएँ
तेल भंडार में पारदर्शिता के अभाव के कारण तेल को समय पर उपयोग करने में अनेक अड़चनें हैं जिससे सामरिक पेट्रोलियम भंडार तेल की कीमत सामान्यत: बहुत अधिक रहती है। वास्तव में निजी रिफाइनरियों के पास पर्याप्त ‘सामरिक पेट्रोल भंडार’ होते हैं परंतु इनके द्वारा यह भंडारण किस रूप में (क्रूड या रिफाइंड) तथा कहाँ किया जाता है, इस संबंध में पूरी तरह पारदर्शिता का अभाव रहता है।
दूसरा मुद्दा रिफाइनरी की धारिता से संबंधित है। भारत में SPR तेल रिफाइनरियों, केंद्र सरकार, राज्य सरकारों के नियंत्रण में है। हालाँकि स्टॉक रखने वाली अधिकांश रिफाइनरी सार्वजनिक रूप से स्वामित्व वाली कंपनियां हैं।
उपरोक्त समस्याओं के मद्देनजर भारत के अन्य रणनीतिक भंडार जिसमें स्पष्ट प्रक्रियाओं, प्रोटोकॉल तथा आँकड़ों को जारी करने की आवश्यकता होती है, उसी सामरिक पेट्रोलियम भंडारण के लिये भी स्पष्ट सार्वजनिक तथा संसदीय जाँच की आवश्यकता होनी चाहिये।सामरिक पेट्रोलियम भंडार पर अलग-अलग इकाइयों का नियंत्रण होने के कारण, इन तेल भंडारों को समय पर उपयोग करने में बाधा उत्पन्न होती है इससे तेल की गतिशीलता प्रक्रिया काफी अस्पष्टता तथा जटिल बन जाती है। अत: सामरिक पेट्रोलियम भंडार के संबंध में विभिन्न इकाइयों की भूमिका और प्रक्रिया में स्पष्टता होनी चाहिये।</s> |
<s>[INST]'भारतीय संस्कृति व सभ्यता विश्व की सर्वाधिक प्राचीन एवं समृद्ध संस्कृति व सभ्यता है। आज भी यह अपने परंपरागत अस्तित्व के साथ अजर-अमर बनी हुई है।' विश्लेषण करें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण-
• भूमिका
• संस्कृति के विविध आयाम
• भारतीय संस्कृति की वर्तमान प्रसांगिकता
• महत्त्व
• निष्कर्ष
संस्कृति किसी भी देश, जाति और समुदाय की आत्मा होती है। संस्कृति से ही देश, जाति या समुदाय के उन समस्त संस्कारों का बोध होता है जिनके सहारे वह अपने आदर्शों, जीवन मूल्यों, आदि का निर्धारण करता है। अतः संस्कृति का साधारण अर्थ होता है-संस्कार, सुधार, परिष्कार, शुद्धि, सजावट आदि। संस्कृति का क्षेत्र सभ्यता से कहीं अधिक व्यापक और गहन होता है। सभ्यता का अनुकरण किया जा सकता है लेकिन संस्कृति का अनुकरण नहीं किया जा सकता है । सभ्यता वह है जो हम बनाते हैं तथा संस्कृति वह है जो हम हैं।
भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है। यह माना जाता है कि भारतीय संस्कृति यूनान, रोम, मिस्र, सुमेर और चीन की संस्कृतियों के समान ही प्राचीन है। कई भारतीय विद्वान तो भारतीय संस्कृति को विश्व की सर्वाधिक प्राचीन संस्कृति मानते हैं।
भारतीय संस्कृति का सर्वाधिक व्यवस्थित रूप हमें सर्वप्रथम वैदिक युग में प्राप्त होता है। वेद विश्व के प्राचीनतम ग्रंथ माने जाते हैं। प्रारंभ से ही भारतीय संस्कृति अत्यंत उदात्त, समन्वयवादी, सशक्त एवं जीवंत रही हैं, जिसमें जीवन के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण तथा आध्यात्मिक प्रवृत्ति का अद्भुत समन्वय पाया जाता है। भारतीय विचारक आदिकाल से ही संपूर्ण विश्व को एक परिवार के रूप में मानते रहे हैं इसका कारण उनका उदार दृष्टिकोण है।
हमारे विचारकों की ‘उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुंबकम’ के सिद्धांत में गहरी आस्था रही है। ववस्तुतः शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शक्तियों का विकास ही संस्कृति की कसौटी है। इस कसौटी पर भारतीय संस्कृति पूर्ण रूप से उतरती है। प्राचीन भारत में शारीरिक विकास के लिये व्यायाम, यम, नियम, प्राणायाम, आसन ब्रह्मचर्य आदि के द्वारा शरीर को पुष्ट किया जाता था । लोग दीर्घ जीवी होते थे।
आश्रम व्यवस्था का पालन करते हुए धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति भारतीय संस्कृति का मूल मंत्र रहा है।
प्राचीन भारत के धर्म, दर्शन, शास्त्र, विद्या, कला, साहित्य, राजनीति, समाजशास्त्र इत्यादि में भारतीय संस्कृति के सच्चे स्वरुप को देखा जा सकता है।
यह संस्कृति ऐसे सिद्धांतों पर आश्रित है जो प्राचीन होते हुए भी नये हैं। ये सिद्धांत किसी देश या जाति के लिये नहीं अपितु समस्त मानव जाति के कल्याण के लिये हैं। इस दृष्टि से भारतीय संस्कृति को सच्चे अर्थ में मानव संस्कृति कहा जा सकता है। मानवता के सिद्धांतों पर स्थित होने के कारण ही तमाम आघातों के बावजूद भी यह संस्कृति अपने अस्तित्व को सुरक्षित रख सकी है।
भारतीय संस्कृति का वर्तमान स्वरूप और महत्त्व:
भारतीय संस्कृति का नूतन आयाम ब्रिटिश साम्राज्य की नींव के साथ प्रारंभ हुआ। इस काल में सभ्यता ने संस्कृति को दबाने की चेष्टा की अतः संस्कृति का यथार्थ स्वरूप उभर नहीं सका। इस युग में सामाजिक आचार-विचार पर पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव पड़ा। संयुक्त कुटुंब प्रथा के स्थान पर परिवारों का पृथक्करण होने लगा। धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत ने धर्म को पीछे धकेल दिया। विज्ञान ने ज्ञान के अपेक्षित स्वरूप की अपेक्षा कर दी भौतिकवाद उभरकर सामने आया और भारतीयों का सांस्कृतिक दृष्टिकोण अपने मूल लक्ष्य से भटक गया।
आधुनिकतावाद की अवधारणा का समाज में आना आसान हो गया। वैश्वीकरण और आधुनिकरण के मध्य में गहरा संबंध है। जब भारतीय संस्कृति का स्वरूप आधुनिक हो गया तब निश्चित दिशा में होने वाले परिवर्तन भी दिखाई देने लगे।
बुद्धिवाद, विवेकीकरण और उपयोगितावाद आदि दर्शन का उदय संस्कृति का नया स्वरूप बन गया जिसमें प्रगति की आकांक्षा, विकास की आशा और परिवर्तन के अनुरूप अपने आपको ढालने का गुण होता है।
आधुनिकता की जड़ें यूरोपीय पुनर्जागरण से जुड़ी हैं। यूरोपीय पुनर्जागरण में नए-नए अन्वेषण और अविष्कार हुए, धर्म और दर्शन का नया संस्करण सामने आया।
कला और विज्ञान के नवीन साधना का श्रीगणेश हुआ, राजनीतिक तथा समाज व्यवस्था में मौलिक क्रांति का सूत्रपात हुआ। अतः इसके परिणामस्वरूप पश्चिमी यूरोप एवं एशिया (भारत) में एक नवीन चेतना का संचार हुआ।
प्रौद्योगिकी विकास, विवेकीकरण एक तर्मणा आदि द्वारा सभी क्षेत्रों में बुनियादी परिवर्तन हुए जिसके परिणामस्वरूप समाज की एक विशिष्ट स्थिति को प्रदर्शित करने वाली अवधारणा बनी।
महिला को उचित स्थान मिला। अर्थात् बदली हुई संस्कृति में महिलाओं के प्रति सोच बदली अब उसे सशक्तिकरण की ओर ले जाने के प्रयास किये जाने लगे। कई आंदोलन व चर्चाओं का सहारा लिया गया। इस प्रकार सांस्कृतिक, मानववादी व व्यक्तिवादी स्वरूप देखने को मिला।
मानव के विकासशील एवं सृजनात्मक स्वभाव पर बल देते हुए धर्म एवं तर्क, विज्ञान एवं धर्म का ही नहीं, वरन एवं प्राच्य एवं पाश्चात्य विचारधाराओं के समन्वय का प्रयास किया गया।
संस्कृति के नए स्वरूप में गाँवों की संस्कृति को छोड़कर शहरीकरण देखा गया। इस पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा। शहरीकरण से पलायन भी देखा गया। इस प्रकार लोग पुरानी संस्कृति को छोड़कर आधुनिक संस्कृति को अपनाने लगे ।
निष्कर्षतः भारत में कभी भी एक ही संस्कृति पूर्ण रूप से व्याप्त नहीं रही और न ही शायद किसी भी बड़े प्रदेश में कभी एक ही संस्कृति रही है। इस देश में आध्यात्मिक संस्कृति की प्रमुखता रही है। अतः संस्कृति में बदलाव निरंतर रहेगा।</s> |
<s>[INST]हाल ही में प्रधानमंत्री ने मध्य प्रदेश के रीवा में स्थापित 750 मेगावाट की ‘रीवा सौर परियोजना’ को राष्ट्र को समर्पित किया।भारत में सौर ऊर्जा की स्थिति को स्पष्ट करते हुए इससे होने वाले लाभ बताएं, क्या कारण है कि हम सौर ऊर्जा के क्षेत्र में अपेक्षित लक्ष्यों को प्राप्त करने में सफल नहीं हो पा रहे।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण
भूमिका
लाभ
चुनौतियां
निष्कर्ष
सूर्य से प्राप्त शक्ति को सौर ऊर्जा कहते हैं। इस ऊर्जा को ऊष्मा या विद्युत में बदलकर अन्य प्रयोगों में लाया जाता है। सूर्य से प्राप्त ऊर्जा को प्रयोग में लाने के लिये सोलर पैनलों की आवश्यकता होती है। इस परियोजना में एक सौर पार्क जिसका कुल क्षेत्रफल 1500 हेक्टेयर है, के अंदर स्थित 500 हेक्टेयर भूमि पर 250-250 मेगावाट की तीन सौर उत्पादन इकाइयाँ शामिल हैं। इस सौर पार्क के विकास के लिये भारत सरकार की ओर से ‘रीवा अल्ट्रा मेगा सोलर लिमिटेड’ को 138 करोड़ रुपए की वित्तीय मदद प्रदान की गई थी।
इस सौर पार्क को ‘रीवा अल्ट्रा मेगा सोलर लिमिटेड’ ने विकसित किया है जो ‘मध्य प्रदेश उर्जा विकास निगम लिमिटेड’ और केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र की इकाई ‘सोलर एनर्जी कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया’ की संयुक्त उद्यम कंपनी है। भारतीय भू-भाग पर पाँच हज़ार लाख किलोवाट घंटा प्रति वर्गमीटर के बराबर सौर ऊर्जा आती है। साफ धूप वाले दिनों में सौर ऊर्जा का औसत पाँच किलोवाट घंटा प्रति वर्गमीटर होता है। एक मेगावाट सौर ऊर्जा के उत्पादन के लिये लगभग तीन हेक्टेयर समतल भूमि की ज़रूरत होती है।
भारत में सौर ऊर्जा की स्थिति
भारत एक उष्ण-कटिबंधीय देश है। उष्ण- कटिबंधीय देश होने के कारण हमारे यहाँ वर्ष भर सौर विकिरण प्राप्त होती है, जिसमें सूर्य प्रकाश के लगभग 3000 घंटे शामिल हैं।
भारतीय भू-भाग पर पाँच हज़ार लाख किलोवाट घंटा प्रति वर्गमीटर के बराबर सौर ऊर्जा आती है।
भारत सरकार ने 2022 के अंत तक 175 गीगावाट नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता का लक्ष्य निर्धारित किया है। इसमें पवन ऊर्जा से 60 गीगावाट, सौर ऊर्जा से 100 गीगावाट, बायोमास ऊर्जा से 10 गीगावाट और लघु जलविद्युत परियोजनाओं से 5 गीगावॉट शामिल है।
सौर ऊर्जा उत्पादन में सर्वाधिक योगदान रूफटॉप सौर उर्जा (40%) और सोलर पार्क (40%) का है।
यह देश में बिजली उत्पादन की स्थापित क्षमता का 16% है। सरकार का लक्ष्य इसे बढ़ाकर स्थापित क्षमता का 60% करना है।
वर्ष 2035 तक देश में सौर ऊर्जा की मांग सात गुना तक बढ़ने की संभावना है।
यदि भारत में सौर ऊर्जा का इस्तेमाल बढ़ाया जा सकेगा तो इससे जीडीपी दर भी बढ़ेगी और भारत सुपरपावर बनने की राह पर भी आगे बढ़ सकेगा।
वर्ष 2040 तक भारत आबादी के मामले में चीन को पीछे छोड़ सकता है। भविष्य की इस मांग को सौर ऊर्जा से पूरा करने की दिशा में ठोस प्रयास होने चाहिये।
सौर ऊर्जा से होने वाले लाभ:
सौर ऊर्जा कभी खत्म न होने वाला संसाधन है और यह नवीकरणीय संसाधनों का सबसे बेहतर विकल्प है।
सौर ऊर्जा वातावरण के लिये भी लाभकारी है। जब इसे उपयोग किया जाता है, तो यह वातावरण में कार्बन-डाइऑक्साइड और अन्य हानिकारक गैसें नहीं छोड़ती, जिससे वातावरण प्रदूषित नहीं होता।
सौर ऊर्जा अनेक उद्देश्यों के लिये प्रयोग की जाती है, इनमें उष्णता, भोजन पकाने और विद्युत उत्पादन करने का काम शामिल है।
सौर ऊर्जा को प्राप्त करने के लिये विद्युत या गैस ग्रिड की आवश्यकता नहीं होती है। एक सौर ऊर्जा निकाय को कहीं भी स्थापित किया जा सकता है। सौर उर्जा के पैनलों (सौर ऊर्जा की प्लेट) को आसानी से घरों में कहीं पर भी रखा जा सकता है। इसलिये, ऊर्जा के अन्य स्रोतों की तुलना में यह काफी सस्ता भी है।
सौर ऊर्जा की राह में चुनौतियाँ
सौर ऊर्जा प्लेटों को स्थापित करने के लिये ज़मीन की उपलब्धता में कमी।
कुशल मानव संसाधनों का अभाव।
चीन से आयातित फोटोवोल्टेइक सेलों की कीमत कम तो उसकी गुणवत्ता भी कामचलाऊ है।
भारत में बने सोलर सेल (फोटोवोल्टेइक सेल) भी अन्य आयातित सोलर सेलों के मुकाबले कम दक्ष हैं।
अन्य उपकरणों के दाम भी बहुत अधिक।
विभिन्न नीतियाँ और नियम बनाने के बावजूद सोलर पैनल लगाने के खर्च में कमी नहीं।
गर्म और शुष्क क्षेत्रों के लिये गुणवत्तापूर्ण सौर पैनल बनाने की नीतियों का अभाव।
औसत लागत प्रति किलोवाट एक लाख रुपए से अधिक है।
आवासीय घरों में छतों पर सोलर पैनल लगाने पर आने वाला भारी खर्च सौर ऊर्जा परियोजनाओं की राह में बड़ी बाधा।
भारत में विगत एक दशक के दौरान बढ़ती आबादी, आधुनिक सेवाओं तक पहुँच, विद्युतीकरण की दर तेज होने और जीडीपी में वृद्धि की वजह से ऊर्जा की मांग तेज़ी से बढ़ी है और माना जाता है कि इसे पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों के बजाय सौर ऊर्जा के ज़रिये आसानी से पूरा किया जा सकता है। देश की ऊर्जा ज़रूरतों को पूरा करने के लिये न केवल बुनियादी ढाँचा मज़बूत करने की ज़रूरत है, बल्कि ऊर्जा के नए स्रोत तलाशना भी ज़रूरी है। ऐसे में, सौर ऊर्जा क्षेत्र भारत के ऊर्जा उत्पादन और मांगों के बीच की बढ़ती खाई को बहुत हद तक पाट सकता है।</s> |
<s>[INST]हाल ही में यह घोषणा की गई कि ‘सीबेड 2030 प्रोजेक्ट’ के अंतर्गत संपूर्ण विश्व के समुद्र तल के लगभग पांचवें हिस्से का मानचित्रण किया जा चुका है। समुद्री मानचित्रण के महत्त्व की चर्चा करते हुए संबंधित चुनौतियों पर प्रकाश डालें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण-
भूमिका
‘सीबेड 2030 प्रोजेक्ट’क्या है?
समुद्री मानचित्रण का महत्त्व
संबंधित चुनौतियां
निष्कर्ष
वर्ल्ड हाइड्रोग्राफी डे के अवसर पर जापान के ‘निप्पॉन फाउंडेशन’ तथा ‘जनरल बेथमीट्रिक चार्ट ऑफ द ओसियनस’ के सहयोग से संचालित ‘सीबेड 2030 प्रोजेक्ट’ के अंतर्गत संपूर्ण विश्व के समुद्र तल के लगभग पांचवें हिस्से का मानचित्रण किया जा चुका है।
‘सीबेड 2030' की घोषणा वर्ष 2017 में संयुक्त राष्ट्र महासागर सम्मेलन में की गई थी। परियोजना की वैश्विक पहल जापान के निप्पॉन फाउंडेशन तथा ‘जनरल बेथमीट्रिक चार्ट ऑफ द ओसियनस’ (GEBCO) के माध्यम से वर्ष 2017 में की गई। GEBCO को संपूर्ण विश्व के समुद्र तल के नक्शे तैयार करने के लिये अधिकृत किया गया है। इस परियोजना के द्वारा महासागर के विभिन्न हिस्सों से स्थित GEBCO ग्रिड के पाँच केंद्रों की सहायता से प्राप्त बाथमीट्रिक डेटा की सोर्सिंग एवं संकलन का कार्य किया जाता है।
समुद्री मानचित्रण का महत्त्व:
यह मानचित्रण समुद्र के संचलन, ज्वार एवं जैविक आकर्षण के केंद्र सहित कई प्राकृतिक घटनाओं को समझने में सहायक है। समुद्र के संचलन पैटर्न को समझने के साथ ही सीबेड का उद्देश्य संसाधन अन्वेषण (उदाहरण के लिये तेल, गैस और खनिज) को भी ठीक से समझना है।
इस मानचित्रण के माध्यम से नेविगेशन के लिये महत्त्वपूर्ण जानकारी, सुनामी की पूर्व सूचना, तेल एवं गैस क्षेत्रों की खोज, अपतटीय पवन टर्बाइन के निर्माण, मछली पकड़ने के संसाधन एवं केबल तथा पाइपलाइन बिछाने से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
आपदा स्थितियों का आकलन करने के लिये भी समुद्र तल का अध्ययन अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि वर्ष 2011 में जापान के तोहोकू में आए विनाशकारी भूकंप के पीछे के कारणों की पता लगाने में वैज्ञानिकों द्वारा समुद्र अध्ययन से प्राप्त डाटाओं का प्रयोग किया गया था ।
संपूर्ण वैश्विक महासागरीय तल का एक मानचित्र महासागरों, समुद्रों और समुद्री संसाधनों के संरक्षण एवं इनके निरंतर उपयोग के लिये संयुक्त राष्ट्र के सतत् विकास लक्ष्य को प्राप्त करने में सहायक होगा।
ये मानचित्र महत्वपूर्ण रूप से जलवायु परिवर्तन की बेहतर समझ विकसित करेंगे, क्योंकि घाटी और पानी के नीचे के ज्वालामुखी एवं सतह की विशेषताएँ समुद्री जल के ऊर्ध्वाधर मिश्रण एवं समुद्र की धाराओं जैसे घटना को प्रभावित करती हैं - जो गर्म और ठंडे पानी के कन्वेयर बेल्ट के रूप में कार्य करती हैं, जलवायु परिवर्तन ने इन धाराओं के प्रवाह को भी प्रभावित किया है।
ये समुद्री धाराएँ मौसम और जलवायु दशाओं को प्रभावित करती हैं। समुद्री धारााओं के बारे में प्राप्त अधिकाधिक जानकारी वैज्ञानिकों को भविष्य में जलवायु के व्यवहार का पूर्वानुमान लगाने वाले मॉडल विकसित करने में सहायक होगी , जिसमें समुद्र-स्तर की वृद्धि भी शामिल है।
इस परियोजना के माध्यम से विश्व को समुद्री संसाधनों के बारे में नीतिगत निर्णय लेने, महासागर की सही स्थिरता की जानकारी एवं वैज्ञानिक अनुसंधान से संबंधित गतिविधियों को नई दिशा मिलेगी।
महासागर तरंग ऊर्जा रूपांतरण के लिये महत्त्वपूर्ण हैं, जिसमें तरंगों की गति का प्रयोग करते हुए विद्युत ऊर्जा उत्पन्न की जा सकती है। जिसके परिणामस्वरूप तापीय ऊर्जा का उत्पादन कम करके सकारात्मक जलवायु कार्यवाई की जा सकती है।
राष्ट्र राज्यों की सुरक्षा और आर्थिक लाभ के लिये सीबेड मानचित्रण महत्त्वपूर्ण है।
संबंधित चुनौतियाँ:
डेटा साझा करने के लिये वैज्ञानिक और तकनीकी स्तर पर सहयोग के बाद भी, देश भू-राजनीतिक स्पैट में एक दूसरे के खिलाफ उस ज्ञान का उपयोग कर सकते हैं।
मोटे तौर पर राष्ट्रीय सुरक्षा चिंताओं या दक्षिण चीन सागर जैसे संवेदनशील भू-राजनीतिक तनाव वाले क्षेत्रों के कारण, सीबेड 2030 परियोजना के लिये रणनीतिक स्वामित्व डेटा देने के लिये कुछ देश अनिच्छुक हैं।
निष्कर्षतः सीबेड 2030 संयुक्त राष्ट्र के सतत् विकास लक्ष्य-14 “सतत् विकास के लिये महासागरों, समुद्रों और समुद्री संसाधनों के संरक्षण और निरंतर उपयोग” का समर्थन करता है। इसके अतिरिक्त महासागरों की साझी वैश्विक विरासत का संरक्षण किया जाना अति आवश्यक है।</s> |
<s>[INST]प्लेट विवर्तनिकी (प्लेट टेक्टॉनिक्स) की संकल्पना को स्पष्ट कीजिये। यह हिमालय और अप्लेशियन पर्वतों के विचलन की व्याख्या करने में किस प्रकार सहायक है?[/INST]उत्तर :
प्रश्न विच्छेद:
भूमिका
प्लेट विवर्तनिकी की संकल्पना
हिमालय और अप्लेशियन पर्वतों की उत्पत्ति में प्लेट विवर्तनिकी की भूमिका
निष्कर्ष
हल करने का दृष्टिकोण:
संक्षिप्त भूमिका लिखें।
प्लेट विवर्तनिकी से संबंधित भूगोलवेत्ताओं के नाम दें
प्लेट विवर्तनिकी की संकल्पना को स्पष्ट कीजिये।
शब्द सीमा कम करने के लिये चित्र/माइंड मैप का प्रयोग करें।
हिमालय और अप्लेशियन पर्वतों की उत्पत्ति में प्लेट विवर्तनिकी का सिद्धांत किस प्रकार सहायक है। विस्तारपूर्वक लिखिये
निष्कर्ष में प्लेट विवर्तनिकी का सिद्धांत अन्य दूसरी भौगोलिक घटनाओं के उल्लेख में कैसे सहायक है, लिखिये।
प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत का प्रतिपादन महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत, संवहन धारा सिद्धांत (Convection Current Theory) तथा सागर नितल प्रसरण सिद्धांत को आधार बनाकर किया गया। वर्ष 1967 में मैकेंजी एवं पार्कर ने प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत का सुझाव दिया। किंतु बाद में वर्ष 1968 में मॉर्गन ने इस सिद्धांत को रेखांकित किया।
प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत के अनुसार, पृथ्वी का स्थलमंडल अलग-अलग प्लेटों में विभाजित है ये प्लेटें एक दुर्बल परत के ऊपर तैर रही है जिसे एस्थेनोस्फीयर (मेंटल का ऊपरी हिस्सा) कहा जाता है। ये प्लेटें क्षैतिज रूप से कठोर इकाइयों के रूप में एस्थेनोस्फीयर पर संचलन करती हैं।
लिथोस्फीयर में क्रस्ट एवं ऊपरी मेंटल शामिल होता है जिसकी समुद्री भागों में मोटाई 5-100 किमी. के बीच और महाद्वीपीय क्षेत्रों में लगभग 200 किमी. होती है। लिथोस्फेरिक प्लेटें (टेक्टोनिक प्लेट) छोटी प्लेटों से बड़ी प्लेटों, महाद्वीपीय प्लेटों (अरेबियन प्लेट) से लेकर महासागरीय प्लेटों (प्रशांत प्लेट) की तरह होती हैं कभी-कभी ये महाद्वीपीय एवं महासागरीय प्लेटों (जैसे- इंडो-ऑस्ट्रेलियन प्लेट) दोनों का एक संयोजन होती हैं। इन प्लेटों का एक-दूसरे के सापेक्ष संचलन तीन प्रकार से होता है:
अपसारी संचलन- इसमें प्लेटों का संचलन एक दूसरे के विपरीत दिशा में होता है।
अभिसारी संचलन- इसके अंतर्गत प्लेटे एक-दूसरे की ओर गति करती है।
समानांतर संचलन- इसमें प्लेटे एक-दूसरे के समानांतर समान दिशा या विपरीत दिशा में संचलन करती है।
हिमालय और अप्लेशियन पर्वत की उत्पत्ति: प्लेट विवर्तनिकी सिंद्धात में वर्णित अभिसरण सीमा सिद्धांत द्वारा हिमालय एवं अप्लेशियन पर्वत श्रंखला के निर्माण को समझा जा सकता है। अभिसरण सीमा का निर्माण तब होता है जब दो प्लेटें एक दूसरे की ओर गति करती हैं। यह तीन प्रकार से हो सकता है: 1. महासागरीय और महाद्वीपीय प्लेट के बीच अभिसरण 2. दो महासागरीय प्लेटों के बीच अभिसरण 3. दो महाद्वीपीय प्लेटों के बीच अभिसरण।
अभिसरण की सीमा सर्वाधिक विनाशकारी होती है। हिमालय और अप्लेशियन का गठन एक महाद्वीपीय-महाद्वीपीय प्लेटों के मध्य अभिसरण से हुआ है। पहले चरण में दोनों महाद्वीपीय प्लेटों का सागरीय किनारा आपस में अभिसरित होता है तथा एक प्लेट का दूसरी प्लेट के नीचे क्षेपण होने से क्षेपित प्लेट के आंशिक गलन द्वारा मैग्मा का निर्माण होता है और यह मैग्मा ज्वालामुखी के रूप में बाहर निकलता है। हिमालय पर्वत के संदर्भ में ज्वालामुखी क्रिया नहीं होती क्योंकि इस प्लेट के हल्का होने के कारण इसका अधिक गहराई में क्षेपण नहीं हुआ है। दूसरे चरण में महासागरीय किनारा महाद्वीपीय प्लेट के नीचे पूर्णतः क्षेपित हो जाता हैं अर्थात् सागर का संकुचन होता है। अंत में अंतिम चरण में महाद्वीपीय प्लेट एक दूसरे से टकराती है तथा संपीडन के कारण उत्पन्न वलन प्रक्रिया द्वारा मोड़दार वलित पर्वत अर्थात् हिमालय तथा अप्लेशियन पर्वत की उत्पत्ति होती है।
इस प्रकार प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत न केवल हिमालय और अप्लेशियन पर्वत की उत्पत्ति को समझाने में सहायक है बल्कि इस सिद्धांत की सहायता से महासागरीय नितल, पैलोमैग्नेटिक चट्टानें, भूकंप एवं ज्वालामुखियों का वितरण, ट्रेंच पर गुरुत्वाकर्षण विसंगतियाँ आदि भौगोलिक विशेषताओं को भी समझा जा सकता है।</s> |
<s>[INST]वर्ण-व्यवस्था पर गांधी व अंबेडकर के मध्य क्या मतभेद थे। चर्चा करें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
भूमिका
समानता के बिंदु
मतभेद के बिंदु
निष्कर्ष
डा. अंबेडकर का योगदान केवल संविधान निर्माण तक ही नहीं सीमित था बल्कि सामाजिक व राजनैतिक स्तर पर भी उन्होंने अपना अमूल्य योगदान दिया। समाज में निचले पायदान पर खड़े व्यक्ति को सामाजिक स्तर पर बराबरी का दर्जा दिलाया तो वहीँ राजनैतिक स्तर पर दलितों, शोषितों व महिलाओं को बराबरी का दर्जा प्रदान करने हेतु विधि का निर्माण कर उसे संहिताबद्ध किया।
कुछ विद्वानों का ऐसा मानना था कि महात्मा गांधी व अंबेडकर की विचारधारा सर्वथा एक-दूसरे से भिन्न थी, परंतु यह पूर्णतः सत्य नहीं है। भीमराव अंबेडकर, महात्मा गांधी के प्रशंसक ही नहीं बल्कि अनुगामी भी थे। निश्चित ही दोनों के बीच कुछ विषयों पर मतभेद थे परंतु उनका उद्देश्य मानव मात्र का कल्याण करना ही था।
गांधी और अंबेडकर दोनों तात्कालिक सामाजिक स्थितियों व परिवेश से असंतुष्ट थे। दोनों समाज का नव निर्माण करना चाहते थे, परंतु इस संदर्भ में समस्या के कारण, स्वरुप व निदान के प्रति दोनों का दृष्टिकोण एवं कार्य-पद्धति अलग-अलग थी।
गांधी जी वर्ण-व्यवस्था के प्रबल समर्थक थे। उनका मानना था कि वर्ण-व्यवस्था समाज के लिये उपयोगी है, इससे श्रम-विभाजन एवं विशेषीकरण को बढ़ावा मिलता है। वहीँ अंबेडकर वर्ण-व्यवस्था के कट्टर आलोचक थे। अंबेडकर के अनुसार, वर्ण-व्यवस्था अवैज्ञानिक, अमानवीय, अलोकतांत्रिक, अनैतिक, अन्यायपूर्ण एवं शोषणकारी सामाजिक योजना है।
गांधी जी का मानना था कि छुआछूत का वर्ण-व्यवस्था से सीधा संबंध नहीं है। छुआछूत वर्ण-व्यवस्था की अनिवार्य विकृति न होकर वाह्य विकृति है, अतः छुआछूत समाप्त करने हेतु वर्ण-व्यवस्था में रचनात्मक सुधार की आवश्यकता है। वहीँ अंबेडकर के अनुसार, अश्पृश्यता या छुआछूत वर्ण-व्यवस्था का अनिवार्य परिणाम है। अतः बिना वर्ण-व्यवस्था का उन्मूलन किये छुआछूत को दूर नहीं किया जा सकता है।
गांधी जी छुआछूत को दूर करने के लिये आदर्शवादी व दीर्घकालिक उपायों की बात करते थे जबकि अंबेडकर छुआछूत को दूर करने के लिये व्यावहारिक, त्वरित एवं ठोस उपायों पर बल देते थे।
गांधी जी ने सवर्ण हिंदुओं के दृष्टिकोण में परिवर्तन कर अछूतों के प्रति भेदभाव को दूर करने के प्रयासों के हिमायती थे वहीँ अंबेडकर यह मानते थे कि हिंदू धर्म के अंतर्गत अछूतों का उद्धार नहीं हो सकता अतः धर्मान्तरण द्वारा ही दलितों का उद्धार संभव है।
गांधी जी के अनुसार हिंदू धर्मशास्त्र अश्पृश्यता का समर्थन नहीं करते जबकि अंबेडकर का मानना था कि हिंदू धर्मशास्त्र में ही अश्पृश्यता के बीज विद्यमान हैं।
निष्कर्षतः गाँधी और आंबेडकर के मध्य कुछ मतभेदों के बावजूद दोनों ही दलितों की स्थिति सुधारने के पक्षधर थे।</s> |
<s>[INST]तापमान के व्युत्क्रमण से आप क्या समझते हैं? तापमान व्युत्क्रमण के लिये आदर्श दशाओं पर प्रकाश डालते हुए बताये की यह किस प्रकार भारतीय जनजीवन को प्रभावित करता है?[/INST]उत्तर :
सामान्य परिस्थितियों में क्षोभमंडल में सतह से ऊपर की ओर जाने पर तापमान में कमी आती है जो 5º सेटीग्रेड प्रति किलोमीटर पर होती है। तापमान में होने वाली इस कमी को ‘सामान्य ताप ह्रास दर’ कहते हैं। परंतु जब विशेष परिस्थितियों में कालिक एवं स्थानीय रूप से क्षोभमंडल में ऊपर की ओर जाने पर तापमान में कमी के स्थान पर वृद्धि होती है तो इस स्थिति को तापमान व्युत्क्रमण/प्रतिलोमन कहते हैं।इस क्रिया के फलस्वरूप नीचे की वायु परत अपेक्षाकृत ठंडी तथा इसके ऊपर गर्म वायु की परत स्थापित हो जाती है।अधिक ऊँचाई पर होने वाला तापमान व्युत्क्रमण अपेक्षाकृत अधिक स्थाई होता है क्योंकि पार्थिव विकिरण द्वारा ऊपर की वायु को गर्म करने में अधिक समय लगता है। जबकि धरातलपर होने वाला तापमान व्युत्क्रमण अल्पकालिक होता है। तापीय व्युत्क्रमण के कारण वायुमंडल में स्थिरता आती है। तापीय व्युत्क्रमण ध्रुवीय प्रदेशों, मध्य अक्षांशों के हिमाच्छादित भागों तथा घाटियों में अधिक होता है।
तापमान व्युत्क्रमण के लिये आदर्श दशाएँ-
राते ठंडी तथा लंबी होनी चाहिये ताकि पार्थिव विकिरण की मात्रा सौर्य विकिरण से अधिक हो।
आकाश स्वच्छ एवं मेघरहित होना चाहिये जिससे कि पार्थिव विकिरण द्वारा ऊष्मा का ह्रास तीव्र दर से तथा बिना किसी रुकावट के हो सके।
सतह के समीप हवा शुष्क होनी चाहिये जिससे कि पार्थिव विकिरण का अवशोषण न हो अथवा न्यूनतम अवशोषण हो।
ज्ञात हो कि जलवाष्प युक्त आर्द्र हवा पार्थिव विकिरण का अधिक अवशोषण करती है।
वायुमंडल के शांत एवं स्थिर होने के साथ-साथ पवनों का संचार मंद होना चाहिये क्योंकि पवन संचरण अधिक होने के कारण तापमान की मिलावट एवं स्थानांतरण होने लगता है।
धरातल हिम आच्छादित होना चाहिये।
प्रभाव-
तापमान व्युत्क्रमण प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष रूप से मानवीय आर्थिक गतिविधियों को प्रभावित करता है।
ठंडी कोहरे की स्थिति उत्पन्न होती है इससे सामान्य जनजीवन के साथ-साथ आर्थिक गतिविधियाँ भी प्रभावित होती है।
वस्तुत: यह (कोहरा) दृश्यता को कम करता है जिसके कारण वायुयानों, जलयानों के साथ दुर्घटनाएँ घटने के साथ-साथ सड़क एवं रेल दुर्घटनाएँ भी होती है जिससे आर्थिक क्षति होती है।
इसके अलावा क्षेत्र विशेष में फसलों एवं फलों की खेती हेतु कोहरा लाभकारी भी होता है। यथा यमन की पहाड़ियों पर सूर्य की तेज़ धूप से कोहरा फसल का बचाव करता है।
यदि नीचे की ठंडी वायु का तापमान अधिक कम हो जाए तो पाले के कारण फसलों एवं फलों के बागानों को भारी नुकसान होता है जो आर्थिक रूप से हानिकारक है।
घाटियों में नीचे की ओर पाला पड़ना सामान्य बात है।
तापमान व्युत्क्रमण के कारण वायुमंडल में स्थिरता उत्पन्न होने से प्रतिचक्रवातीय दशाओं के कारण वर्षा की संभावना कम होती है।
उपरोक्त के अतिरिक्त हिमालयी क्षेत्र में घाटी तापमान व्युत्क्रमण के कारण सेब के बागानों को काफी नुकसान होता है जिससे आर्थिक क्षति भी होती है।</s> |
<s>[INST]पूना समझौते के प्रावधानों पर प्रकाश डालें इसने दलितों की स्थिति को किस प्रकार प्रभावित किया। चर्चा करें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
भूमिका
पूना समझौते के प्रावधान
दलितों पर प्रभाव
निष्कर्ष
24 सितंबर 1932 को डॉ॰ अंबेडकर तथा अन्य हिंदू नेताओं के प्रयत्न से सवर्ण हिंदुओं तथा दलितों के मध्य एक समझौता किया गया। इसे पूना समझौते के नाम से जाना जाता है। इस समझौते के अनुसार- दलित वर्ग के लिये पृथक निर्वाचक मंडल समाप्त कर दिया गया तथा व्यवस्थापिका सभा में अछूतों के स्थान हिंदू वर्ग के अंतर्गत ही सुरक्षित रखे गये। प्रांतीय विधानमंडलों में दलित वर्गों के लिये 147 सीटें आवंटित की गई जबकि सांप्रदायिक पंचाट में उन्हें 71 सीटें प्रदान करने का वचन दिया गया था। मद्रास में 30, बंगाल में 30 मध्य प्रांत एवं संयुक्त प्रांत में 20-20, बिहार एवं उड़ीसा में 18 बम्बई एवं सिंध में 15, पंजाब में 8 तथा असम में 7 स्थान दलितों के लिये सुरक्षित किये गए।
साथ ही यह वादा भी किया गया कि गैर-मुस्लिमों निर्वाचन क्षेत्रों को आवंटित सीटों का एक निश्चित प्रतिशत दलित वर्गों के लिये आरक्षित कर दिया जाएगा। केंद्रीय विधानमंडल में दलित वर्ग को प्रतिनिधित्व देने के लिये संयुक्त निर्वाचन की प्रक्रिया तथा प्रांतीय विधानमंडल में प्रतिनिधियों को निर्वाचित करने की व्यवस्था को मान्यता दी गई। दलित वर्ग को सार्वजनिक सेवाओं तथा स्थानीय संस्थाओं में उनकी शैक्षणिक योग्यता के आधार पर उचित प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था की गई। कांग्रेस ने स्वीकार किया कि दलित वर्गों को प्रशासनिक सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व प्रदान किया जाएगा।अंबेडकर के नेतृत्व में दलित वर्गों ने संयुक्त निर्वाचन क्षेत्र के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया।
वंचित वर्गों के लिये केंद्रीय एवं प्रांतीय विधानमंडलों में मताधिकार लोथियन समिति की रिपोर्ट में निर्दिष्ट व्यवस्था के अनुसार किया जाएगा। केंद्रीय विधानमंडल में, ब्रिटिश भारत के सामान्य निर्वाचक वर्ग के लिये प्रदत्त 18 प्रतिशत सीटें दलित वर्गों के लिये आरक्षित होंगी। किसी को भी स्थानीय निकाय के किसी चुनाव या लोक सेवाओं में नियुक्ति के संदर्भ में मात्र दलित वर्ग से संबद्ध होने के आधार पर अयोग्य नहीं ठहराया जाएगा।
प्रभाव-
पूना समझौते ने दलितों को राजनीतिक हथियार बना दिया। संयुक्त निर्वाचन में वास्तविक दलितों को हराकर हिंदू जाति के संगठनों का एजेंट बना दिया और केवल उन दलितों की चुनावी जीत को पक्का किया जो इन संगठनों के एजेंट या हथियार थे।
पूना समझौते ने दलितों के राजनीतिक, वैचारिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक अवनयन को बढ़ावा दिया और इस प्रकार ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था से लड़ने वाले दलितों के वास्तविक एवं स्वतंत्र नेतृत्व को बर्बाद कर दिया।
इसने हिंदू से पृथक एवं अलग दलित अस्तित्व को स्वीकार न करके उसे हिंदू सामाजिक व्यवस्था के एक हिस्से के रूप में रखा।
इस समझौते ने समानता-स्वतंत्रता-बंधुत्व-न्याय पर आधारित ‘आदर्श समाज’ के सामने बाधा खड़ी की।
दलित वर्ग को एक पृथक एवं भिन्न तत्व न मानकर इसने दलित एवं अन्य अल्पसंख्यकों के अधिकारों एवं सुरक्षा संबंधी रक्षोपायों को भारत के संविधान में स्पष्ट करने से रोक दिया।
सांप्रदायिक निर्णय द्वारा भारतीयों को विभाजित करने तथा पूना समझौते के द्वारा हिंदुओं से दलितों को पृथक करने की व्यवस्थाओं ने गांधी जी को आहत कर दिया। गांधी जी ने पूना समझौते के प्रावधानों को पूरी तरह पालन किये जाने का वचन दिया। अपने वचन को पूरा करने के उद्देश्य से गांधी जी ने अन्य कार्यों को छोड़कर पूर्णरूपेण ‘अश्पृश्यता निवारण अभियान’ में जुट गए।</s> |
<s>[INST]उत्तर मौर्यकाल में प्रदेश-पारीय एवं महाद्वीप-पारीय व्यापार का भारत के सामाजिक और प्राकृतिक जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा? (250 शब्द )[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
भूमिका
कथन के पक्ष में तर्क
उदाहरण
निष्कर्ष
उत्तर : मौर्योत्तर काल व्यापार वाणिज्य की पराकाष्ठा का काल माना जाता है, इस समय कृषि विकास को प्रोत्साहन मिलने के साथ ही विभिन्न शिल्पों के विकास तथा आंतरिक एवं बाह्य व्यापार को भी प्रोत्साहन मिला। व्यापारिक प्रोत्साहन के साथ अर्थव्यवस्था की बहुआयामी गतिविधियों को बल मिला। बाह्य व्यापार के साथ विभिन्न विदेशी समाज के मेल-जोल ने समग्र सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन की नवीन दिशा को विकसित किया।
मौर्योत्तर काल में कृषि विकास के परिणामस्वरूप एक समृद्ध वर्ग अस्तित्व में आया जिसने बहुमूल्य वस्तुओं की मांग को बढ़ा दिया। इसी के साथ कृषि में अधिशेष उत्पादन के परिणामस्वरूप अनाज के व्यापार को भी प्रोत्साहन मिला क्योंकि नगरीय क्षेत्रों में अनाज की व्यापक मांग थी।
मौर्योत्तर काल में रोमन साम्राज्य एवं शक साम्राज्य के अस्तित्त्व में आने के साथ विदेशी व्यापार को प्रोत्साहन मिला, दूसरे भारत ने पश्चिमी रोमन साम्राज्य एवं पूर्वी शक साम्राज्य के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाई। कुषाण शासकों के अंतर्गत रेशम मार्ग का एक भाग भारत के नियंत्रण में था जिसने भारतीय व्यापार को और अधिक बढ़ावा दिया।
रोमन साम्राज्य के साथ व्यापार भारत के लिये अत्यंत लाभदायक रहा क्योंकि इसके फलस्वरूप भारत में बड़ी मात्रा में सोना, चाँदी आने लगा। इस काल में भारत के व्यापारिक सहयोगी रोमन साम्राज्य, पश्चिम एशियाई क्षेत्र, मध्य एशियाई क्षेत्र, चीन तथा दक्षिण-पूर्ण एशियाई क्षेत्र थे। भारत एवं रोमन साम्राज्य के बीच व्यापार से रोम को जो आर्थिक एवं नैतिक घाटा हो रहा था उस विषय पर रोमन सीनेट में चिंता भी व्यक्त की गई थी।
मौर्योत्तर काल में व्यापारिक मार्गों का विकास उत्तरापथ एवं दक्षिणापथ के रूप में हो चुका था। उत्तरापथ इस काल में मध्य एशिया से सिल्क मार्ग से जुड़ जाता था और चीन से आरंभ होकर बैक्ट्रिया से इसकी एक शाखा तक्षशिला की ओर जाती थी। इस समय के विभिन्न बंदरगाहों जैसे- भड़ौच, सोपारा, बारवेरिकम, मुजरिस आदि का भी उल्लेख मिलता है जिनसे विभिन्न देशों के साथ व्यापार का विकास हुआ। इन्होंने भारत में व्यापारिक एकीकरण की स्थापना की।
मौर्योत्तर काल में आंतरिक एवं बाह्य व्यापार के साथ वैश्यों एवं शूद्रों की स्थिति में भी परिवर्तन आया। व्यापार एवं उद्योगों के विकास के साथ नगरीकरण की प्रगति से वैश्यों की आर्थिक संपन्नता और बढ़ गई। परिणामस्वरूप समाज में शिल्पियों एवं कारीगरों के रूप में शूद्रों का महत्त्व बढ़ गया जो धीरे-धीरे वैश्यों के समकक्ष आने लगे।
मौर्योत्तर काल में एक अन्य महत्त्वपूर्ण अभिलक्षण उभरकर सामने आया जिसमें निम्न वर्ण के लोगों ने उच्च वर्ण के विरुद्ध विद्रोह कर दिया क्योंकि वह आर्थिक समानता के कारण सामाजिक समानता का अधिकार चाहते थे परिणामस्वरूप वैश्यों ने कर देने से मना कर दिया और शूद्रों ने सेवा करने से। इस स्थिति से निपटने के लिये ब्राह्मणों ने शस्त्र धारण करना तथा राज्य करना धर्म सम्मत माना और ब्राह्मणों को भूमि अनुदान की परंपरा को शुरू किया गया तथा उच्च वर्णों की एकता पर बल दिया गया। इस प्रकार पुनः धार्मिक जटिलताओं को स्थापित किये जाने के प्रयास किये जाने लगे।
मौर्योत्तर काल में हुए सामाजिक परिवर्तनों के कारण बौद्ध धर्म को स्वदेशी समर्थन मुख्य रूप से वणिक समाज द्वारा मिला। इस काल के कई स्तूपों एवं विहारों के निर्माण का श्रेय व्यापारियों की दानशीलता को ही जाता है। व्यापार के माध्यम से बौद्ध धर्म पश्चिमी और मध्य एशिया, चीन तथा दक्षिण पूर्वी एशिया में पहुँचा। बौद्ध धर्म ने व्यापार वाणिज्य के प्रश्रय में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई तथा वैदिक धर्म में हीनता के बोध के कारण निम्न वर्ग का झुकाव भी बौद्ध धर्म की ओर बढ़ता चला गया।
विदेशी व्यापार के कारण भारत में विभिन्न मूर्ति कला की शैलियों का आर्विभाव हुआ जिसे गांधार कला एवं मथुरा कला शैली के रूप में देखा गया तथा धनी व्यापारियों द्वारा स्तूप एवं गुहा मंदिर जिन्हें चैत्यग्रह कहते हैं, का निर्माण करवाया गया। साथ ही कई स्थानों पर बौद्ध संघों का भी निर्माण कराया गया।
निष्कर्षतः कह सकते हैं कि मौर्योत्तर काल में आंतरिक एवं बाह्य व्यापार ने भारतीय अर्थव्यवस्था को उच्च आयाम प्रदान किया जिसके कारण सामाजिक उन्नत्ति एवं नगरीकरण की पराकाष्ठा स्थापित हुई, इसमें सामाजिक संघर्ष ने निम्न वर्ग की महत्त्वाकांक्षा को नवीन दिशा दी। इसने आर्थिक श्रेष्ठता के साथ सामाजिक श्रेष्ठता को नया आयाम दिया जो आज के आधुनिक समाज में परिलक्षित होता है। इसी के साथ-साथ सांस्कृतिक विकास को भी बढ़ावा मिला।</s> |
<s>[INST]भारत में क्षेत्रवाद का आधार विभिन्न प्रकार की विविधता है। स्वतंत्रता के पश्चात क्षेत्रवाद के कारण उभरने वाली समस्याओं का समाधान करने के लिए नियोजित प्रमुख साधन क्या हैं?[/INST]उत्तर :
हल करने दृष्टिकोण:
• भूमिका
• क्षेत्रवाद के कारण उभरने वाली समस्याएं
• समाधान
• निष्कर्ष
कोई भी व्यक्ति जहाँ जन्म लेता है और जहाँ अपना जीवन व्यतीत करता है, उस स्थान के प्रति उसका लगाव होता है। ऐसी स्थिति में उसके द्वारा अपने क्षेत्र-विशेष को आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक दृष्टि से सशक्त और उन्नत बनाना विकास प्रक्रिया का एक स्वाभाविक एवं अभिन्न अंग हो सकता है लेकिन जब यह भावना एवं लगाव अपने ही क्षेत्र विशेष तक सिमटकर अत्यंत संकीर्ण रूप धारण कर लेती है, तब क्षेत्रवाद की समस्या उत्पन्न होती है।
क्षेत्रवाद के उदय के कारण:
भाषायी आधार पर:
भाषायी आधार पर लोगों को एकीकृत करना या फिर किसी क्षेत्र का गठन करना क्षेत्रवाद को बढ़ावा देने वाले कारणों में से एक है।
भाषायी विवाद स्वतंत्रता से पूर्व भी प्रमुख राजनीतिक मुद्दा बना रहा है। 1अक्तूबर,1953 को भाषायी आधार पर पहले राज्य के रूप में आंध्रप्रदेश का गठन किया गया।भाषायी आधार पर राज्यों की मांग को पूरा करने के लिये वर्ष 1956 में ‘राज्य पुनर्गठन आयोग’ की स्थापना की गई।
धर्म के आधार पर:
धर्म को क्षेत्रवाद के प्रमुख कारणों में से एक माना जाता है।
विभिन्न राजनीतिक पार्टियों द्वारा धर्म का राजनीतिकरण कर लोगों से क्षेत्रीय विकास के वायदे किये जाते हैं जो कि देश की क्षेत्रीय अखंडता एवं संप्रभुता के लिये हानिकारक है।
धर्म के आधार पर क्षेत्रवाद को बढ़ावा देना लोगों के उन धार्मिक विश्वासों एवं मान्यताओं के साथ खिलवाड़ करना है जो संविधान द्वारा उन्हें मूल अधिकारों के रूप में प्रदान किये गए हैं।
आर्थिक असंतुलन के आधार पर:
असमान आर्थिक विकास क्षेत्रीय असमानताओं को बढ़ावा देने में सहायक होता है जो क्षेत्रवाद को भी प्रोत्साहित करता है।
देश में कई राज्यों के अंदर भी आर्थिक असंतुलन की स्थिति देखने को मिलती है, अर्थात् एक ही राज्य के दो क्षेत्रों में संसाधनों के वितरण में विषमता एक ऐसी स्थिति है जो राज्य की सीमा के अंदर ही असंतोष को जन्म देती है और इससे क्षेत्रवाद की समस्या उत्पन्न होती है।
राजनीति के आधार पर:
भारत में क्षेत्रवाद को बढ़ावा देने में राजनीति को भी एक महत्त्वपूर्ण कारण के रूप में देखा जाता है।
यदि राजनीतिक दृष्टि से देखा जाए, तो भारत में क्षेत्रवाद की समस्या को बल राजनीतिज्ञों द्वारा ही मिलता है।
क्षेत्रीय संस्कृति एवं नृजातीय पहचान के आधार पर:
विभिन्न जनजातियों द्वारा अपनी नृजातीय पहचान को सुरक्षित बनाए रखने का प्रयास करना भी क्षेत्रवाद को बढ़ावा देता है, जैसे- बोडोलैंड एवं झारखंड में जनजातीय आंदोलन।
वहीं अपनी पृथक धार्मिक पहचान को बनाने के लिये पृथक खालिस्तान की मांग जैसा देशव्यापी मुद्दा भी क्षेत्रवाद की भावना को बढ़ावा देता है।
क्षेत्रवाद से उत्पन्न चुनौतियाँ-
बार-बार नए राज्यों के गठन से देश की एकरूपता एवं अखंडता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
अब तक गठित नए राज्यों में एक भी ऐसा नया राज्य सामने नहीं आया है, जिसके गठन के बाद विकास दर में अभूतपूर्व वृद्धि दर्ज की गई हो।
क्षेत्रवाद के कारण केंद्र-राज्य संबंधों पर भी नकारात्मक प्रभाव देखने को मिलता है।
क्षेत्रवाद से गठबंधन की राजनीति को प्रोत्साहन मिलता है जिससे क्षेत्रों के विकास के लिये नीति-निर्माण या फिर इन नीतियों के क्रियान्वयन में दुविधा उत्पन्न होती है।
क्षेत्रवाद के परिणामस्वरूप अनेक क्षेत्रीय दलों का उदय हुआ है जिसके चलते प्रत्येक क्षेत्र के हित समूह अर्थात् नेता,उद्योगपति तथा राजनीतिज्ञ अपने-अपने क्षेत्रीय विकास को ही प्राथमिकता देते नज़र आते हैं।
क्षेत्रीय स्तर पर विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा क्षेत्रीय विकास के वायदे कर लोगों के धार्मिक विश्वास का प्रयोग वोट बैंक के तौर पर किया जाता है जिसके चलते देश में सांमप्रदायिकता एवं हिंसा का माहौल पैदा होता है।
क्षेत्रवाद के कारण देश में अलगाववाद की भावना को बढ़ावा मिलता है, समय- समय पर हमें इसके कुछ उदाहरण भी देखने को मिले हैं जैसे-असम में अल्फा गुट का गठन, मिज़ोरम में मिज़ो नेशनल फ्रंट की गतिविधियाँ इत्यादि क्षेत्रवाद एवं अलगाववाद की भावना से ही प्ररित हैं।
समाधान के बिंदु-
शिक्षा के माध्यम से एक राष्ट्रव्यापी दृष्टिकोण का विकास कर लोगों एवं आने वाली पीढ़ियों में क्षेत्रवाद के दुष्परिणामों के प्रति जागरूकता का विकास किया जा सकता है।
राज्यों को मिलकर एक-दूसरे के विकास में भागीदार के रूप में साथ आना होगा उदाहरण के तौर पर जिस प्रकार पंजाब, हरियाणा के थर्मल पाॅवर स्टेशनों को बिजली निर्माण के लिये ज़रूरी कोयले की आपूर्ति झारखंड, ओडिशा से होती है।
राज्यों की समस्या एवं ज़रूरतों को समझने के लिये नीति आयोग को और बहेतर तरीके से कार्य करने की आवश्यकता है।
अनुच्छेद-263 में वर्णित अंतर्राज्यीय परिषद जिनका गठन राज्यों के मध्य उत्पन्न विवादों के समाधान हेतु एक परामर्शकारी संस्था के तौर पर किया गया है, द्वारा दिये गए सुझावों पर राज्य सरकारों को ध्यान देने की आवश्यकता है।
सभी क्षेत्रों का समान विकास किया जाना चाहिये ताकि कोई भी राज्य स्वयं को विकास प्रक्रिया में अलग-थलग महसूस न करे।
संविधान में वर्णित क्षेत्रीय परिषदें जो कि सांविधिक निकाय हैं। इनका गठन देश के प्रत्येक हिस्से में राजनीतिक समन्वय स्थापित करने, विभाजन के बाद के प्रभावों को दूर करने एवं क्षेत्रवाद, भाषावाद को रोकने के उद्देश्य से किया गया था ताकि देश के समग्र विकास के साथ-साथ इसकी एकता एवं अखंडता को बनाए रखने हेतु ये परिषदे अपने सुझाव समय-समय पर प्रस्तुत कर सकें। इन परिषदों द्वारा दिये गए सुझावों पर त्वरित अमल करने की आवश्यकता है।
केंद्र सरकार द्वारा प्राकृतिक एवं खनिज संसाधनों का बँटवारा राज्यों की ज़रूरतों को ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिये।
केंद्र सरकार की वे सभी योजनाएँ जो आर्थिक एवं सामाजिक रूप से पिछड़े क्षेत्रों पर केंद्रित हैं, का क्रियान्वयन एवं उनकी निगरानी सही ढंग से होनी चाहिये।
निष्कर्षतः क्षेत्रवाद की विचारधारा को समझने के साथ-साथ हमें इस बात पर भी पुनर्विचार करने की आवश्यकता है कि हम सबसे पहले भारतीय हैं उसके बाद मराठी, गुजराती, पंजाबी इत्यादि हैं। हमें अपने व्यक्तिगत हितों को नज़रअंदाज़ करते हुए देश की संप्रभुता, एकता एवं अखंडता का सम्मान करना चाहिये।
वर्तमान परिदृश्य में हमें क्षेत्रवाद के स्वरूप को समझने की आवश्यकता है, यदि क्षेत्रवाद का स्वरूप विकास से जुड़ा है और यह लोगों को विकास के लिये प्रेरित करता है तो उचित है।</s> |
<s>[INST]शहरीकरण के अनेक लाभ होने के बावजूद इससे जुड़ी समस्याओं से इंकार नहीं किया जा सकता, संतुलित शहरीकरण के विकास हेतु सरकार द्वारा किये जा रहे प्रयासों पर प्रकाश डालें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
• भूमिका
• शहरीकरण के अनेक लाभ
• इससे जुड़ी समस्याओं सरकार द्वारा किये जा रहे प्रयास
• निष्कर्ष
विश्व की आधे से अधिक आबादी आज शहरों में निवास करती है। ये आबादी वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद में 80% का योगदान करती है और दो-तिहाई वैश्विक ऊर्जा का उपभोग करती है, दूसरी ओर 70% ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के लिये भी जिम्मेदार भी है। शहरीकरण के कारण आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा मिलता है।
शहरीकरण और शिक्षा के विकास के कारण जाति-प्रथा जैसी व्यवस्थाएँ अब ध्वस्त हो रही हैं। प्रति व्यक्ति आय में बढ़ोतरी के चलते लोगों रहन-सहन का स्तर बेहतर होता है। उत्पादकता को बढ़ाता है और विशेष रूप से मैन्युफैक्चरिंग और सेवाओं में रोजगार सृजन को प्रोत्साहित करता है।
इस प्रकार किसी भी देश में शहरों को विकास का इंजन माना जाता है तो सिक्के का दूसरा पहलू यह भी है कि इससे कई समस्याओं का भी जन्म होता है जैसे-
आज भारत के अधिकांश शहर अतिशहरीकरण के शिकार हैं। इस प्रकार कहा जा सकता है कि जब शहरी आबादी इतना बढ़ जाए की शहर अपने निवासियों को अच्छा जीवनशैली देने में असफल हो जाए तो वह स्थिति अतिशहरीकरण कहलाती हैं।
शहरी जनसंख्या में हो रही वृद्धि ने अनेक समस्याओं को जन्म दिया है जिसमें आवास की समस्या प्रमुख है। यह समस्या आवास की गुणवत्ता और मात्रा दोनों में देखने को मिलती है।
ग्रामीण क्षेत्रों से नगरों में आने वाले लोग अधिकतर गरीब होते हैं, उनके पास किसी भी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा का अभाव होता है।
शहरीकरण के परिणामस्वरूप बड़े परिवार छोटे परिवारों में विभक्त हो गए हैं। इसके अतिरिक्त परिवारों में विवाह-विच्छेद, विधवाओं का शोषण, वृद्धों के साथ दुर्व्यवहार की घटनाओं में वृद्धि हुई है।
ग्रामीण भारत गरीबी को छिपाने और उससे निपटने में ज़्यादा सक्षम है। जबकि शहरी भारत में ऐसा संभव नहीं हैं। शहरी गरीबी बढ़ती जा रही है, क्योंकि लोग रोज़गार की तलाश में अपना गाँव छोड़ रहे हैं।
शहरी केंद्रों में जनसंख्या के लगातार बढ़ते रहने एवं औद्योगीकरण के फलस्वरूप पर्यावरण प्रदूषण तथा अवनयन की कई समस्याएँ उत्पन्न हो गई हैं। महानगरों और शहरों में प्रदूषण का मुख्य कारण वाहनों एवं औद्योगिक संस्थानों द्वारा निकला विषैला रसायन है।
नृजातीय विविधता और सामुदायिक एकीकरण की समस्या- शहर की सामाजिक संरचना ऐसी होती है कि लोगों के एकीकृत होने की समस्या सदैव विद्यमान रहती है।
भारतीय शहरों में आर्थिक असमानता विकसित देशों की तुलना में अधिक है। महानगरों पर खर्च की गई आय ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में अधिक होती है। इस आर्थिक अंतर के परिणामस्वरूप ग्रामीण शहरों की ओर आकर्षित होते हैं।
भारत में पश्चिमी देशों की तुलना में शहर प्रवास की प्रवृत्ति पुरुषों में ज़्यादा है। जिसके कारण ग्रामीण क्षेत्रों में उत्पादक पुरुष जनसंख्या में कमी आ रही है।
शहरीकरण की समस्या से निपटने के लिये सरकार द्वारा किये जा रहे प्रयास
सरकार द्वारा शहरों के ठीक प्रकार से नियोजन के लिये स्मार्ट सिटी मिशन की अवधारणा को अपनाया गया है।
केंद्र सरकार ने मेट्रो, मोनोरेल और बस रैपिड टांजिट जैसे बड़े सार्वजनिक परिवहन गलियारों के पास बसनेे को बढ़ावा देने के लिये एक नीति तैयार की है, जिसका उद्देश्य शहरीकरण की चुनौतियों का निदान करना है।
देश के आधे से अधिक लोगों का जीवन खेती पर निर्भर है, इसलिये यह कल्पना करना बेमानी होगा कि गाँव के विकास के बिना देश का विकास किया जा सकता है। ग्रामीण विकास के ज़रिये ग्रामीण अर्थव्यवस्था के उत्थान के लिये सरकार ने इस बात को स्वीकार किया है कि आवास और बुनियादी सुविधाएँ आर्थिक विकास के मुख्य वाहक हैं।
प्रधानमंत्री आवास योजना (शहरी) के अंतर्गत अभिनव एवं आधुनिक निर्माण प्रौद्योगिकी के उपयोग की सुविधा प्रदान करने के लिये प्रौद्योगिकी सब-मिशन भी शुरू किया गया है।
जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन के अंतर्गत शहरों का कायाकल्प करने का प्रयास किया जा रहा है।
कायाकल्प और शहरी रूपान्तरण के लिये अटल मिशन यानी अमृत योजना के अंतर्गत शहरों की अवसंरचना को मज़बूत किया जा रहा है।
शहरीकरण से उपजी समस्याओं से निपटने हेतु आज आवश्यकता है संतुलित विकास की है इसके लिए ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार पैदा करने के साथ-साथ पलायन को कम करने के लिये ग्रामीण कृषि अर्थव्यवस्था का विविधीकरण करने की ज़रूरत है। इस संदर्भ में, मनरेगा ने गावों से शहरों की ओर पलायन कम करने में अहम भूमिका निभाई है।
PURA और श्यामा प्रसाद मुखर्जी रूर्बन मिशन जैसे कार्यक्रमों के ज़रिए ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी सुविधाओं का विकास पर ज़ोर देने की आवश्यकता है। साथ ही पर्यावरणीय रूप से धारणीय शहरीकरण का बेहतर प्रबंधन, ग्रीन पैचेज का विकास, आर्द्रभूमि, उचित अपशिष्ट प्रबंधन करने का प्रयास करना चाहिये।</s> |
<s>[INST]डा. अंबेडकर का योगदान केवल संविधान निर्माण तक ही सीमित नहीं था बल्कि सामाजिक व राजनैतिक स्तर पर भी उन्होंने अपना अमूल्य योगदान दिया। असमानता दूर करने के लिये अंबेडकर द्वारा प्रस्तुत के सुझावों की चर्चा करें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
• भूमिका
• असमानता दूर करने के लिये अंबेडकर द्वारा प्रस्तुत के सुझाव
• निष्कर्ष
डा. अंबेडकर ने समाज में निचले पायदान पर खड़े व्यक्ति को सामाजिक स्तर पर न सिर्फ बराबरी का दर्जा दिलाया बल्कि राजनैतिक स्तर पर दलितों, शोषितों व महिलाओं को बराबरी का दर्जा प्रदान करने हेतु विधि का निर्माण कर उसे संहिताबद्ध किया।अंबेडकर की प्रारंभिक शिक्षा बॉम्बे के एल्फिंस्टन स्कूल से हुई। इसके बाद बॉम्बे विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त की तत्पश्चात उच्चतर शिक्षा कोलंबिया विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से प्राप्त की। डा. अंबेडकर जीवन भर दलितों व शोषितों के अधिकारों की लड़ाई लड़ते रहे। वे ऐसा समतामूलक समाज स्थापित करना चाहते थे जिसमें किसी भी प्रकार के भेदभाव का कोई स्थान न हो।
असमानता दूर करने के लिये अंबेडकर के सुझाव निम्नलिखित थे-
डॉ. अंबेडकर मानते थे कि समाज के विभिन्न अल्पसंख्यक समुदायों का सरकार के विभिन्न अंगों में प्रतिनिधित्व होना चाहिये। उनके अनुसार अल्पसंख्यक समुदायों को अपना प्रतिनिधित्व ख़ुद करना चाहिये क्योंकि सिर्फ़ ‘मुद्दे का रखा जाना’ मायने नहीं रखता बल्कि उस मुद्दे का प्रतिनिधित्व स्वयं करना मायने रखता है।
स्वतंत्रता के पहले भारत की ज़्यादातर आबादी ग्रामीण थी, जहाँ आजीविका का मुख्य स्रोत कृषि थी। परंतु कृषि की ज़मीनों पर ज़मींदारों और कुछ उच्च जातियों का क़ब्ज़ा था। शेष ज़्यादातर जातियाँ भूमिहीन थीं और मज़दूरी का कार्य करती थीं। स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने देश से जमींदारी प्रथा का उन्मूलन करके भूमि सुधार लागू कर सहकारी खेती कराए जाने का वचन दिया परंतु राजनीतिक कारणों से स्वतंत्रता के बाद इसे लागू नहीं किया जा सका।
स्वतंत्रता से पूर्व गाँव की व्यवस्था जजमानी प्रथा से चलती थी, जिसमें एक जाति दूसरी जाति पर निर्भर होती थी। इस निर्भरता की वजह से ही सवर्ण जातियाँ दलित जातियों का विभिन्न प्रकार से शोषण करती थी। इस तरह के शोषण से निकलने के लिये ही अंबेडकर ने सेपरेट सेटलमेंट की मांग की।
अंबेडकर सरकार की सीमाओं से परिचित थे , जिसकी वजह से ही उन्होंने अपने समाज के नौकरीपेशा लोगों से कहा था कि शोषितों और वंचितों को ऊपर उठाने के लिये वे आर्थिक रूप से मदद करें, जिसे पे-बैक टू सोसायटी कहा गया।
डा. अंबेडकर ने छुआछूत के विरुद्ध संगठित प्रयास करते हुए वर्ष 1924 में बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना की। इसका प्रमुख उद्देश्य शिक्षा और सामाजिक-आर्थिक सुधार को बढ़ावा देने के साथ ही अछूत वर्ग के कल्याण की दिशा में कार्य करना था।
दलित अधिकारों की रक्षा के लिये उन्होंने मूकनायक, बहिष्कृत भारत, समता, प्रबुद्ध भारत और जनता जैसी प्रभावशाली पत्रिकाएँ निकालीं।</s> |
<s>[INST]प्रथम विश्व युद्ध के बाद सामाजिक संरचना में मौलिक परिवर्तन देखे गए, जिनमें से कला एवं साहित्य के क्षेत्र में हुए परिवर्तन उल्लेखनीय थे। स्पष्ट करें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण
• प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् हुए सामाजिक परिवर्तनों का संक्षिप्त परिचय दें।
• कला और साहित्य के क्षेत्र में हुए परिवर्तनों का विशेष उल्लेख करते हुए निष्कर्ष लिखें।
प्रथम विश्व युद्ध के परिणाम इतने व्यापक और प्रभावकारी थे कि इनके साथ ही एक युग का अंत हो गया। विश्व युद्ध के पश्चात् 19वीं शताब्दी की अनेक प्रवृत्तियाँ पुरानी पड़ गईं और मानव समाज उनसे आगे निकल गया था। राष्ट्रीयता की भावना क्षीण होने लगी थी और नवीन विचारधाराएँ सामाजिक संगठन को एक नए रूप में बांध रही थी। परिणामस्वरूप सामाजिक संरचना में मौलिक परिवर्तन दर्ज किये गए।
इन मौलिक परिवर्तनों को निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है-
प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् विदेशों में रह रहे अल्पसंख्यकों की समस्या के समाधान का प्रयत्न किया गया।
स्त्रियाँ कार्यालयों, कारखानों आदि में काम करने लगीं, जिससे उनकी स्थिति में सुधार हुआ।
नस्लों की समानता की भावना उत्कृष्ट हुई। इस विचार द्वारा विश्व में अंतर्राष्ट्रीयता की भावना को बल मिला।
धार्मिक सर्वोच्चता का स्थान राष्ट्रीय सर्वोच्चता ने ले लिया।
विज्ञान के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण उन्नति दर्ज़ की गई। साथ ही शिक्षा के प्रसार ने समाज को तार्किक बनाया।
सामाजिक संरचना में उपर्युक्त परिवर्तनाें के साथ कला और साहित्य के क्षेत्र में भी अद्वितीय परिवर्तन हुए। ये परिवर्तन निम्नलिखित है:
कला के क्षेत्र में-
संगीत के क्षेत्र में एडवर्ड मैकडोनल, रिचर्ड स्ट्रास, जासिकाल्यूज़ आदि संगीतकारों ने संगीत को नई दिशा दी।
वास्तुशिल्प का विकास इस काल की प्रमुख घटना है। अमेरिका, इंग्लैंड आदि स्थानों पर बने चर्च आधुनिकता का एहसास करवाते हैं।
चित्रकला को पाब्लो पिकासो, आनरे मातेस, ग्रांड वुड और जॉर्ज बिलोज आदि ख्याति प्राप्त कलाकारों ने आगे बढ़ाया।
साहित्य के क्षेत्र में-
इस काल का साहित्य 18वीं एवं 19वीं शताब्दी के साहित्य से भिन्न हो गया।
साहित्य की विषय-वस्तु उच्च और धनी मध्यम वर्ग के स्थान पर निम्न वर्ग हो गया।
ख्याति प्राप्त नाटककार जॉर्ज बनार्ड शॉ और ओ नील के नाम भी साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय हैं।
निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि प्रथम विश्व युद्ध के नकारात्मक परिणामों के साथ सामाजिक परिवर्तन के सकारात्मक पक्ष ने आने वाली पीढ़ियों को महत्त्वपूर्ण रूप से बदला। इस सकारात्मक पक्ष में कला और साहित्य में हुए परिवर्तन विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।</s> |
<s>[INST]‘मीमांसा दर्शन तर्कपूर्ण चिंतन, विवेचन तथा अनुप्रयोग की कला है।’ कथन को स्पष्ट करते हुए इस दर्शन के प्रमुख तत्त्वों की चर्चा करें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण
• मीमांसा दर्शन का संक्षिप्त परिचय।
• मीमांसा दर्शन के प्रमुख तत्त्वों को लिखते हुए निष्कर्ष लिखें।
भारत के छ: आस्तिक दर्शनों में मीमांसा दर्शन का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसके प्रवर्तक जैमिनी हैं। मीमांसा शब्द का वास्तविक अर्थ तर्क-पूर्ण चिंतन, विवेचन तथा अनुप्रयोग की कला है। यह विचार पद्धति वैदिक साहित्य के भाग रहे संहिता तथा ब्राह्मणों के विश्लेषण पर केंद्रित थी।
मीमांसा दर्शन के अनुसार वेदों में शाश्वत सत्य निहित है तथा यदि व्यक्ति को धार्मिक श्रेष्ठता, स्वर्ग और मुक्ति प्राप्त करनी है, तो उसे वेदों द्वारा नियत सभी कर्तव्य पूरे करने होंगे।
इस दर्शन के अनुसार मुक्ति अनुष्ठानों के निष्पादन से ही संभव है। साथ ही, मुक्ति के उद्देश्य से किये जा रहे अनुष्ठानों को पूर्णता से संपन्न करने के लिये उनमें निहित तर्क को समझना भी आवश्यक है।
मीमांसा दर्शन के अनुसार व्यक्ति के कर्म अपने गुण दोषों के लिये उत्तरदायी होेते हैं तथा गुणयुक्त कर्मों के प्रभाव की अवधि तक व्यक्ति स्वर्ग का आनंद प्राप्त कर सकता है, किंतु वे जन्म और मृत्यु से मुक्त नहीं होंगे। मुक्ति को प्राप्त करने के पश्चात् वे इस अनंत चक्र से छूट जाएंगे।
मीमांसा में महासृष्टि तथा खंडसृष्टि नाम से दो सृष्टियों का उल्लेख है, जबकि प्रलय, महाप्रलय और खंडप्रलय नाम से तीन प्रलयों का उल्लेख है। किसी स्थल विशेष का भूकंप आदि से विनाश होना खंडप्रलय तथा वहाँ नए जीवन का उदय खंडसृष्टि है। महासृष्टि में परमाणुओं से द्वयणुकादि द्वारा पंचमहाभूत पर्यंत नवग्रहादिकों की सृष्टि होती है।
विद्वानों ने अनुमान सिद्ध ईश्वर का निराकरण किया है तथा वेद सिद्ध ईश्वर को स्वीकार किया है।
पदार्थ विवेचना की चार कोटियाँ मानी गई हैं-
प्रमाण: जिसके विषय का निश्चयात्मक ज्ञान हो और विषय का निर्धारण हो।
प्रमेय: प्रमाण के द्वारा जिसका ज्ञान हो।
प्रमिती: प्रमाण के द्वारा जिस किसी भी विषय का निश्चयात्मक ज्ञान हो।
प्रमाता: जो प्रमाण के द्वारा प्रमेय ज्ञान को जानता है।
यद्यपि मीमांसा तर्क-पूर्ण चिंतन को प्रोत्साहित करती है परंतु साथ ही यह समाज में वर्ग विभेद को भी बढ़ावा देती है। चूँकि यह मुक्ति के लिये अनुष्ठानों को आवश्यक मानती है, जिसकी उचित समझ सामान्य लोगों को नहीं होती। अत: उन्हें पुरोहितों की सहायता लेनी पड़ती है, जो कि स्पष्ट रूप से ब्राह्मणाें के वर्चस्व को स्थापित करता है।</s> |
<s>[INST]हाल ही में देश में घटित होने वाली सभी प्राकृतिक आपदाओं में सबसे अधिक घटनाएँ बाढ़ की हैं। बाढ़ प्रबंधन हेतु सरकार द्वारा किये गए प्रयासों की चर्चा करें। बताएं कि इससे निपटने हेतु अन्य क्या व्यवहारिक उपाय किये जा सकते हैं।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
• भारत में बाढ़ की स्थिति
• सरकार के प्रयास
• अन्य उपाय
• निष्कर्ष
हाल ही में असम के लगभग 18 ज़िले बाढ़ की चपेट में आये जिससे भारी संख्या में जनधन की हानि हुई। दूसरी ओर दक्षिण भारत में बाढ़ नवंबर से जनवरी माह के बीच लौटते मानसून से होने वाली तीव्र वर्षा द्वारा आती है। इसके अलावा राजस्थान, गुजरात, हरियाणा और पंजाब आकस्मिक बाढ़ के कारण पिछले कुछ दशकों में जलमग्न होते रहे हैं।
रत में बाढ़ का मुख्य कारण मानसूनी वर्षा की तीव्रता तथा मानव कार्यकलापों द्वारा प्राकृतिक अपवाह तंत्र का अवरुद्ध होना है किंतु भारत की असम्मित भू-आकृतिक विशेषताएँ विभिन्न क्षेत्रों में बाढ़ की प्रकृति तथा तीव्रता के निर्धारण में अहम भूमिका निभाती हैं। बाढ़ के कारण समाज का सबसे गरीब तबका प्रभावित होता है। बाढ़ जान-माल की क्षति के साथ-साथ प्रकृति को भी हानि पहुँचती है। अतः सतत् विकास के नज़रिये से बाढ़ के आकलन की ज़रूरत है।
बाढ़ प्रबंधन हेतु सरकारी प्रयास-
राष्ट्रीय जल नीति, 2012
जहाँ संरचनात्मक एवं गैर-संरचनात्मक उपायों के माध्यम से बाढ़ एवं सूखे जैसी जल संबंधी आपदाओं को रोकने के लिये हर संभव प्रयास किया जाना चाहिये, वहीं बाढ़/सूखे से निपटने के लिये तंत्र सहित पूर्व तैयारी जैसे विकल्पों पर ज़ोर दिया जाना चाहिये। साथ ही प्राकृतिक जल निकास प्रणाली के पुनर्स्थापन पर भी अत्यधिक ज़ोर दिये जाने की आवश्यकता है।
नदी द्वारा किये गए भूमि कटाव जैसे स्थायी नुकसान को रोकने के लिये तटबंधों इत्यादि के निर्माण हेतु आयोजना, निष्पादन, निगरानी भू-आकृति विज्ञानीय अध्ययनों के आधार पर किया जाना चाहिये। चूँकि जलवायु परिवर्तन के कारण अत्यधिक तीव्र वर्षा होने तथा मृदा कटाव की संभावना बढ़ने से यह और भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण होता जा रहा है।
बाढ़ का सामना करने के लिये तैयार रहने हेतु बाढ़ पूर्वानुमान अति महत्त्वपूर्ण है तथा इसका देश भर में सघन विस्तार किया जाना चाहिये और वास्तविक समय आँकड़ा संग्रहण प्रणाली का उपयोग करते हुए आधुनिकीकरण किया जाना चाहिये।
जलाशयों के संचालन की प्रक्रिया को विकसित करने तथा इसका कार्यान्वयन इस प्रकार किया जाना चाहिये ताकि बारिश के मौसम के दौरान बाढ़ को सहन करने संबंधी क्षमता प्राप्त हो सके और अवसादन के असर को कम किया जा सके। ये प्रक्रियाएँ ठोस निर्णय सहयोग प्रणाली पर आधारित होनी चाहिये।
राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005
दिसंबर, 2005 को भारत सरकार द्वारा ‘आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005’ अधिनियमित किया गया, जिसके तहत ‘राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण’ एवं ‘राष्ट्रीय आपदा मोचन बल’ का गठन किया गया।
बाढ़ प्रबंधन और सीमा क्षेत्र कार्यक्रम
बाढ़ प्रबंधन और सीमा क्षेत्र कार्यक्रम प्रभावी बाढ़ प्रबंधन, भू-क्षरण पर नियंत्रण के साथ-साथ समुद्र तटीय क्षेत्रों के क्षरण की रोकथाम पर भी ध्यान केंद्रित करेगी।
यह प्रस्ताव देश में बाढ़ और भू-क्षरण से शहरों, गाँवों, औद्योगिक प्रतिष्ठानों, संचार नेटवर्क, कृषि क्षेत्रों, बुनियादी ढाँचों आदि को बचाने में मदद करेगा।
बाढ़ प्रबंधन कार्यक्रम तथा नदी प्रबंधन गतिविधियों और सीमावर्ती क्षेत्रों से संबंधित कार्य नामक दो स्कीमों के घटकों का आपस में विलय करके योजना तैयार की गई है।
जलग्रहण उपचार कार्यों से नदियों में गाद कम करने में सहायता मिलेगी।
बाढ़ प्रबंधन हेतु सुझाव
राज्य स्तर पर बाढ़ नियंत्रण एवं शमन के लिये प्रशिक्षण संस्थान स्थापित करना तथा स्थानीय स्तर पर लोगों को बाढ़ के समय किये जाने वाले उपायों के बारे में प्रशिक्षित करना।
संरचनात्मक उपाय जैसे कि तटबंध, कटाव रोकने के उपाय, जल निकास तंत्र का सुदृढ़ीकरण, तटीय सुरक्षा के लिये दीवार जैसे उपाय जो कि उस खास भू-आकृतिक क्षेत्र के लिये सर्वश्रेष्ठ हों।
गैर-संरचनागत उपाय, जैसे कि आश्रय गृहों का निर्माण, सार्वजनिक उपयोग की जगहों को बाढ़ सुरक्षित बनाना, अंतर्राज्यीय नदी बेसिन का प्रबंधन, बाढ़ के मैदानों का क्षेत्रीकरण इत्यादि।
बाढ़ की प्रकृति के अनुसार आपदा-मोचन बल को प्रशिक्षित करना तथा आवश्यकता पड़ने पर तुरंत तैनात करना।
विनिर्माण में संरचना के प्रारूप, स्थान, सामग्री और अनुमेय क्षति के प्रकार एवं आकार के विषय में उचित निर्णय लेना महत्त्वपूर्ण है ताकि प्रकृति को कम-से-कम नुकसान पहुँचे।
बांध प्रबंधन और समय पर लोगों को सचेत किये जाने में पर्याप्त सावधानी बरती जानी चाहिये।
पुनर्वनीकरण, जल निकास तंत्र में सुधार, वाटर-शेड प्रबंधन, मृदा संरक्षण जैसे उपाय।
वर्तमान परिदृश्य ऐसा है कि देश के कुछ हिस्से बाढ़ से घिरे हुए हैं तो कुछ अन्य हिस्से जल की अत्यंत कमी का सामना कर रहे हैं। ऐसे में नदी जोड़ों परियोजना एक व्यावहारिक समाधान प्रस्तुत कर सकती है।
उपरोक्त के अतिरिक्त अवसंरचनात्मक तैयारी, संस्थागत सतर्कता विकास जैसे- शहरी क्षेत्रों में हरित कवर व हरित पट्टी को बढ़ाना, करना, नागरिकों को बचाव का प्रशिक्षण देना आदि पर बल दिया जाना चाहिए साथ ही
ऐतिहासिक तथ्यों का संकलन पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए अर्थात अतीत की घटनाओं से सीखना और उसके आधार पर सुरक्षा के समुचित कदम उठाना, निजी क्षेत्र को इससे संबद्ध करना, लोगों की मानसिकता में सकारात्मक बदलाव लाने का प्रयास करना, शहरी लोगों के रहन-सहन की आदतें व उनकी जीवनशैली में सुधार संबंधी मानकों को अपनाना आदि बाढ़ प्रबंधन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।</s> |
<s>[INST]संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट के अनुसार,वर्ष 2050 तक भारत की आधी आबादी महानगरों व शहरों में निवास करने लगेगी। शहरीकरण से आप क्या समझते हैं? बढ़ते शहरीकरण के कारणों का विश्लेषण करें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
• शहरीकरण
• बढ़ते शहरीकरण के कारण
• निष्कर्ष
वर्तमान में दुनिया की आधी आबादी शहरों में रह रही है।
संयुक्त राष्ट्र संघतथा ऑक्सफोर्ड इकॉनोमिक के अध्ययन के मुताबिक वर्ष 2019 से लेकर वर्ष 2035 के बीच सबसे तेज़ी से बढ़ने वाले सभी शीर्ष दस शहर भारत के ही होंगे। वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में 53 ऐसे शहर हैं जिनकी आबादी 10 लाख से अधिक है। इसके अलावा देश की राजधानी दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, कोलकाता, बंगलूरू और हैदराबाद जैसे महानगर हैं जिनकी आबादी लगातार बढ़ रही है। लोग बेहतर भविष्य की तलाश में यहाँ पहुँचते और बसते रहते हैं।
शहरी क्षेत्रों के भौतिक विस्तार जैसे क्षेत्रफल, जनसंख्या जैसे कारकों का विस्तार शहरीकरण कहलाता है। शहरीकरण भारत समेत पूरी दुनिया में होने वाला एक वैश्विक परिवर्तन है। संयुक्त राष्ट्र संघ के मुताबिक़ ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों का शहरों में जाकर रहना और वहाँ काम करना भी 'शहरीकरण' है।
‘नवीन भारत '’ पहल को आगे बढ़ाने की दिशा में शहरी बुनियादी ढाँचों में सुधार के लिये शहरीकरण के प्रति समग्र दृष्टिकोण अपनाने की प्रक्रिया अपनाई जा रही है।
शहरी क्षेत्र के मानक के तौर पर यह माना जाता है कि भारतीय समाज में किसी क्षेत्र को शहरी क्षेत्र माने जाने के लिये आवश्यक है कि किसी मानव बस्ती की आबादी में 5000 या इससे अधिक व्यक्ति निवास करते हों। इस मानव आबादी में कम से कम 75% लोग गैर-कृषि व्यवसाय में संलग्न हों।
इसके अलावा कुछ अन्य विशेषताएँ मसलन उद्योग, बड़ी आवासी बस्तियाँ, बिजली और सार्वजनिक परिवहन जैसी व्यवस्था को शहर की परिभाषा के अंतर्गत माना जाता है।
संयुक्त राष्ट्र की एक नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार, वर्तमान में विश्व की आधी आबादी शहरों में रहने लगी है और वर्ष 2050 तक भारत की आधी आबादी महानगरों और शहरों में रहने लगेगी।
भारत में शहरीकरण तेज़ी से बढ़ रहा है और वैश्विक स्तर पर भी तब तक कुल आबादी का 70% हिस्सा शहरों में निवास करने लगेगा।
बढ़ते शहरीकरण का कारण
शहरीकरण के बढ़ने का एक प्रमुख कारण बेरोज़गारी है। शहरों में आने वाले लोगों में अधिक संख्या नौकरी की तलाश करने वालों की है, न कि बेहतर नौकरी पाने वालों की तथा बाहर से आने वालों में बेरोज़गारी की दर अपेक्षाकृत कम है।
गाँव से शहरों की ओर पलायन का मुख्य कारण वेतन-दर तो है ही इसके अलावा दो अन्य प्रमुख कारण है- जोत की कम भूमि और परिवार का बड़ा आकार, शहरी प्रवासन के लिये जाति-प्रथा भी एक महत्त्वपूर्ण कारक है।
द्वितीय विश्व युद्ध के परिणामस्वरूप शहरी क्षेत्रों में तीव्र गति से सरकारी सेवाओं में विस्तार हुआ, जो गाँव से शहरों की ओर प्रवासन में एक प्रमुख उत्प्रेरक बना।
औद्योगिक क्रांति के परिणामस्वरुप शहरी क्षेत्रों में भौतिक सुख-सुविधाओं में वृद्धि हुई।
शहरी क्षेत्रों में बेहतर बुनियादी सुविधाएँ जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य और परिवहन की सुगम व्यवस्था आदि।
कृषि में होने वाले नुकसान की वज़ह से लोग कृषि छोड़कर रोज़गार की तलाश में शहर आते हैं। कृषि मंत्रालय के मुताबिक़ खेती पर निर्भर लोगों में से 40 फीसदी लोग ऐसे हैं जिनको अगर विकल्प मिले तो वे तुरंत खेती छोड़ देंगे। क्योंकि खेती करने में धन की लागत बढ़ती जा रही है।
वर्ष 1990 के बाद निज़ी क्षेत्र का विकास हुआ। जिससे बड़े कारखाने व फ़ैक्टरियों का विकास शहरों तथा महानगरों में ही हुआ।
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में भारत के आर्थिक विकास के लिये शहरीकरण को लक्ष्य बनाया गया था।
निष्कर्षतः शहरी क्षेत्रों का सतत, संतुलित एवं समेकित विकास सरकार की मुख्य प्राथमिकता एवं शहरी विकास का एक केंद्रीय विषय है। जिस तरीके से देश में ‘शहरीकरण’ की प्रक्रिया का प्रबंधन होगा, उसी से यह निर्धारित होगा कि किस सीमा तक शहरी अवस्थांतर का लाभ उठाया जा सकता हैं।</s> |
<s>[INST]कई महत्त्वपूर्ण मोर्चों पर असफल रहनेे के बावजूद स्थायी बंदोबस्त एक प्रगतिशील व्यवस्था थी। टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण
• स्थायी बंदोबस्त का संक्षिप्त परिचय ।
• स्थायी बंदोबस्त व्यवस्था के नकारात्मक पक्ष।
• इस व्यवस्था के सकारात्मक पक्ष को बताते हुए निष्कर्ष।
भारत में ब्रिटिश राज के सफल होने के पीछे उनके द्वारा लागू की गई भू-राजस्व नीतियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। स्थायी रूप से राजस्व की प्राप्ति और भू-स्वामियों का निष्ठावान वर्ग आदि कारकों ने ही ब्रिटिश सत्ता को सुदृढ़ किया। स्थायी बंदोबस्त या इस्तमरारी व्यवस्था इन भू-राजस्व नीतियों में सबसे महत्त्वपूर्ण थी। यह एक दीर्घकालिक (सामान्यत: 10 वर्ष) व्यवस्था थी। इसमें लगान की दर ज़मींदारों और उनके उत्तराधिकारियों के लिये निश्चित कर दी गई, जो भविष्य में बदली नहीं जा सकती थी। ज़मीदारों को भूमि का स्वामी स्वीकार कर लिया गया और कृषक अब केवल किरायेदार मात्र रह गए।
स्थायी बंदोबस्त का शासन तथा जनता पर नकारात्मक और सकारात्मक दोनों प्रभाव पड़े। इन्हें निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है:
नकारात्मक प्रभाव:
शासन पर:
भू-राजस्व स्थायी होने से कंपनी को अधिक उत्पादन की स्थिति में भी निश्चित राजस्व ही प्राप्त होता था और अतिरिक्त आय को भू-स्वामी या बिचौलिये हड़प कर जाते थे।
कालांतर में यह स्थिति और भी विकराल हो गई। जब समय के साथ उत्पादन और वसूली तो बढ़ी किंतु कंपनी को इस बढ़े हुए उत्पादन का कोई लाभ नहीं प्राप्त हुआ।
जनता पर:
बहुत अधिक लगान एवं उसे निर्धारित समय पर न चुकाए जाने के कारण पुराने ज़मींदार भूमि से वंचित किये जाने लगे और किसान कर्ज़ में डूब गए।
बिचौलियों का भूमि संबंधी मामलों में प्रवेश हुआ, जिससे उपसामंतीकरण बढ़ा तथा उनके द्वारा कृषकों का शोषण बढ़ता गया।
अधिकांश ज़मींदार प्रवासी थे, जो दूरवर्ती शोषणकर्त्ता बन गए।
यद्यपि स्थायी बंदोबस्त या इस्तमरारी व्यवस्था के ब्रिटिश शासन एवं आम जनता पर नकरात्मक प्रभाव पड़े, तथापि इसके कुछ सकारात्मक पक्ष भी थे। जैसे-
वित्तीय दृष्टि से इसका प्रमुख लाभ यह था कि न्यून उत्पादन की दशा में भी कंपनी की आय घटती नहीं थी। इससे बचत की संभावना बढ़ी।
स्थायी प्रबंध हो जाने पर इस व्यवस्था में लगे हुए सरकारी कर्मचारियों की कुछ संख्या शासन संबंधी अन्य कार्यों को करने के लिये मुक्त हो गई।
कृषकों के लिये ऐसा माना गया कि इससे उत्पादन बढ़ेगा और अधिकाधिक भूमि जोती जाएगी।
ज़मींदारों को कृषि क्षेत्र में नए प्रयोग, उर्वरक का इस्तेमाल तथा फसल बदलने के तरीकों को अपनाने का मौका मिलेगा।
निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि स्थायी बंदोबस्त के जहाँ कुछ नकारात्मक पक्ष थे तो वहीं कुछ सकारात्मक पक्ष भी थे। फिर भी सामान्यत: यह व्यवस्था कंपनी हितैषी और कृषक विरोधी थी। इसने कृषकों के शोषण को बढ़ावा दिया। इस व्यवस्था से बंगाल के कृषकों की स्थिति खराब होती गई और स्थायी बंदोबस्त कृषकों के शोषण का साधन बन गया।</s> |
<s>[INST]‘सांप्रदायिकता भारत के राष्ट्रीय एकीकरण की दिशा में सबसे बड़ी बाधा है।’ कथन की विवेचना करें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
• भूमिका
• भारत में सांप्रदायिकता के कारण
• उपाय
• निष्कर्ष
सांप्रदायिकता एक विचारधारा है जिसके अनुसार कोई समाज भिन्न-भिन्न हितों से युक्त विभिन्न धार्मिक समुदायों में विभाजित होता है। अर्थात वह संकीर्ण मनोवृत्ति से है, जो धर्म और संप्रदाय के नाम पर पूरे समाज तथा राष्ट्र के व्यापक हितों के विरुद्ध व्यक्ति को केवल अपने व्यक्तिगत धर्म के हितों को प्रोत्साहित करने तथा उन्हें संरक्षण देने की भावना को महत्त्व देती है।
एक समुदाय या धर्म के लोगों द्वारा दूसरे समुदाय या धर्म के विरुद्ध किये गए शत्रुभाव को सांप्रदायकिता के रूप में अभिव्यक्त किया जाता है।यह एक ऐसी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करती है, जिसमें सांप्रदायिकता को आधार बनाकर राजनीतिक हितों की पूर्ति की जाती है और जिसमें सांप्रदायिक विचारधारा के विशेष परिणाम के रूप में सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएँ होती हैं।
सांप्रदायिकता में नकारात्मक एवं सकारात्मक दोनों ही पक्ष विद्यमान होते हैं।
सांप्रदायिकता का सकारात्मक पक्ष, किसी व्यक्ति द्वारा अपने समुदाय के उत्थान के लिये किये गए सामाजिक और आर्थिक प्रयासों को शामिल करता है। वहीं दूसरी तरफ इसके नकारात्मक पक्ष को एक विचारधारा के रूप में देखा जाता है जो अन्य समूहों से अलग एक धार्मिक पहचान पर ज़ोर देता है, जिसमें दूसरे समूहों के हितों को नज़रअंदाज़ कर पहले अपने स्वयं के हितों की पूर्ति करने की प्रवृत्ति देखी जाती है।
भारत में सांप्रदायिकता के कारण:
देश में फेक न्यूज़ के तीव्र प्रसार से सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने में सोशल मीडिया ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। सोशल मीडिया हिंसा के माध्यम से दंगों और हिंसा के ऑडियो-विज़ुअल का प्रसार काफी सुगम और तेज़ हो गया है। हिंसा से संबंधित ये अमानवीयता ग्राफिक चित्रण आम जनता में अन्य समुदायों के प्रति घृणा को और बढ़ा देते हैं।
पत्रकारिता की नैतिकता और तटस्थता का पालन करने के स्थान पर देश के अधिकांश मीडिया हाउस विशेष रूप से किसी-न-किसी राजनीतिक विचारधारा के प्रति झुके हुए दिखाई देते हैं, जो बदले में सामाजिक दरार को चौड़ा करता है।
वर्तमान समय में विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा अपने राजनीतिक लाभों की पूर्ति के लिये सांप्रदायिकता का सहारा लिया जाता है। एक प्रक्रिया के रूप में राजनीति का सांप्रदायीकरण भारत में सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने के साथ-साथ देश में सांप्रदायिक हिंसा की तीव्रता को बढ़ाता है।
भारतीय लोगों में आमतौर पर मूल्य-आधारित शिक्षा का अभाव देखा जाता है, जिसके कारण वे बिना सोचे-समझे किसी की भी बातों में आ जाते हैं और अंधानुकरण करते हैं।
विकास का असमान स्तर, वर्ग विभाजन, गरीबी और बेरोज़गारी आदि कारक सामान्य लोगों में असुरक्षा का भाव उत्पन्न करते हैं। असुरक्षा की भावना के चलते लोगों का सरकार पर विश्वास कम हो जाता है, परिणामस्वरूप अपनी ज़रूरतों/हितों को पूरा करने के लिये लोगों द्वारा विभिन्न राजनीतिक दलों, जिनका गठन सांप्रदायिक आधार पर हुआ है, का सहारा लिया जाता है।
दो समुदायों के बीच विश्वास और आपसी समझ की कमी या एक समुदाय द्वारा दूसरे समुदाय के सदस्यों का उत्पीड़न आदि के कारण उनमें भय, शंका और खतरे का भाव उत्पन्न होता है। इस मनोवैज्ञानिक भय के कारण लोगों के बीच विवाद, एक-दूसरे के प्रति नफरत, क्रोध और भय का माहौल पैदा होता है।
सांप्रदायिक हिंसा का प्रभाव-
सांप्रदायिक हिंसा के दौरान निर्दोष लोग अनियंत्रित परिस्थितियों में फँस जाते हैं, जिसके कारण व्यापक स्तर पर मानवाधिकारों का हनन होता है।
सांप्रदायिक हिंसा के कारण जानमाल का काफी अधिक नुकसान होता है।
सांप्रदायिक हिंसा वोट बैंक की राजनीति को बढ़ावा देती है और सामाजिक सामंजस्य प्रभावित होता है। यह दीर्घावधि में सांप्रदायिक सद्भाव को गंभीर नुकसान पहुँचाती है।
सांप्रदायिक हिंसा धर्मनिरपेक्षता और बंधुत्व जैसे संवैधानिक मूल्यों को प्रभावित करती है।
सांप्रदायिक हिंसा में पीड़ित परिवारों को इसका सबसे अधिक खामियाज़ा भुगतना पड़ता है, उन्हें अपना घर, प्रियजनों यहाँ तक कि जीविका के साधनों से भी हाथ धोना पड़ता है।
सांप्रदायिकता देश की आंतरिक सुरक्षा के लिये भी चुनौती प्रस्तुत करती है क्योंकि सांप्रदायिक हिंसा को भड़काने वाले एवं उससे पीड़ित होने वाले दोनों ही पक्षों में देश के ही नागरिक शामिल होते हैं।
उपाय-
सांप्रदायिक हिंसा को रोकने के लिये पुलिस को अच्छी तरह से सुसज्जित होने की आवश्यकता है। इस तरह की घटनाओं को रोकने हेतु स्थानीय खुफिया नेटवर्क को मज़बूत किया जा सकता है।
सांप्रदायिक हिंसा को रोकने के लिये शांति समितियों की स्थापना की जा सकती है जिसमें विभिन्न धार्मिक समुदायों से संबंधित व्यक्ति सद्भावना फैलाने और दंगा प्रभावित क्षेत्रों में भय तथा घृणा की भावनाओं को दूर करने के लिये एक साथ कार्य कर सकते हैं।
यह न केवल सांप्रदायिक तनाव बल्कि सांप्रदायिक दंगों को रोकने में भी मददगार साबित होगा।
देश के आम लोगों को मूल्य आधारित शिक्षा दी जानी चाहिये, ताकि वे आसानी से किसी की बातों में न आ सकें।
शांति, अहिंसा, करुणा, धर्मनिरपेक्षता और मानवतावाद के मूल्यों के साथ-साथ वैज्ञानिकता (एक मौलिक कर्त्तव्य के रूप में निहित) और तर्कसंगतता के आधार पर स्कूलों और कॉलेजों/विश्वविद्यालयों में बच्चों के उत्कृष्ट मूल्यों पर ध्यान केंद्रित करने, मूल्य-उन्मुख शिक्षा पर ज़ोर देने की आवश्यकता है जो सांप्रदायिक भावनाओं को रोकने में महत्त्वपूर्ण साबित हो सकते हैं।
मौजूदा आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार कर शीघ्र परीक्षणों और पीड़ितों को पर्याप्त मुआवज़ा प्रदान करने की व्यवस्था की जानी चाहिये।
भारत सरकार द्वारा सांप्रदायिक हिंसा को रोकने के लिये वैश्विक स्तर पर मलेशिया जैसे देशों में प्रचलित अभ्यासों का अनुसरण किया जा सकता है। सांप्रदायिक हिंसा को रोकने के लिये मज़बूत कानून की आवश्यकता होती है। अत: सांप्रदायिक हिंसा विधेयक, 2005 को मज़बूती के साथ लागू करने की आवश्यकता है।</s> |
<s>[INST]प्रथम विश्व युद्ध के उपरांत सामाजिक संरचना में मौलिक परिवर्तन दर्ज किये गए, जिनमें कला एवं साहित्य के क्षेत्र में हुए परिवर्तन उल्लेखनीय थे। स्पष्ट करें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण
• प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् हुए सामाजिक परिवर्तनों का संक्षिप्त परिचय दें।
• कला और साहित्य के क्षेत्र में हुए परिवर्तनों का विशेष उल्लेख करते हुए निष्कर्ष लिखें।
प्रथम विश्व युद्ध के परिणाम इतने व्यापक और प्रभावकारी थे कि इनके साथ ही एक युग का अंत हो गया। विश्व युद्ध के पश्चात् 19वीं शताब्दी की अनेक प्रवृत्तियाँ पुरानी पड़ गईं और मानव समाज उनसे आगे निकल गया था। राष्ट्रीयता की भावना क्षीण होने लगी थी और नवीन विचारधाराएँ सामाजिक संगठन को एक नए रूप में बांध रही थी। परिणामस्वरूप सामाजिक संरचना में मौलिक परिवर्तन दर्ज किये गए।
इन मौलिक परिवर्तनों को निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है-
प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् विदेशों में रह रहे अल्पसंख्यकों की समस्या के समाधान का प्रयत्न किया गया।
स्त्रियाँ कार्यालयों, कारखानों आदि में काम करने लगीं, जिससे उनकी स्थिति में सुधार हुआ।
नस्लों की समानता की भावना उत्कृष्ट हुई। इस विचार द्वारा विश्व में अंतर्राष्ट्रीयता की भावना को बल मिला।
धार्मिक सर्वोच्चता का स्थान राष्ट्रीय सर्वोच्चता ने ले लिया।
विज्ञान के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण उन्नति दर्ज़ की गई। साथ ही शिक्षा के प्रसार ने समाज को तार्किक बनाया।
सामाजिक संरचना में उपर्युक्त परिवर्तनाें के साथ कला और साहित्य के क्षेत्र में भी अद्वितीय परिवर्तन हुए। ये परिवर्तन निम्नलिखित है:
कला के क्षेत्र में:
संगीत के क्षेत्र में एडवर्ड मैकडोनल, रिचर्ड स्ट्रास, जासिकाल्यूज़ आदि संगीतकारों ने संगीत को नई दिशा दी।
वास्तुशिल्प का विकास इस काल की प्रमुख घटना है। अमेरिका, इंग्लैंड आदि स्थानों पर बने चर्च आधुनिकता का एहसास करवाते हैं।
चित्रकला को पाब्लो पिकासो, आनरे मातेस, ग्रांड वुड और जॉर्ज बिलोज आदि ख्याति प्राप्त कलाकारों ने आगे बढ़ाया।
साहित्य के क्षेत्र में:
इस काल का साहित्य 18वीं एवं 19वीं शताब्दी के साहित्य से भिन्न हो गया।
साहित्य की विषय-वस्तु उच्च और धनी मध्यम वर्ग के स्थान पर निम्न वर्ग हो गया।
ख्याति प्राप्त नाटककार जॉर्ज बनार्ड शॉ और ओ नील के नाम भी साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय हैं।
निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि प्रथम विश्व युद्ध के नकारात्मक परिणामों के साथ सामाजिक परिवर्तन के सकारात्मक पक्ष ने आने वाली पीढ़ियों को महत्त्वपूर्ण रूप से बदला। इस सकारात्मक पक्ष में कला और साहित्य में हुए परिवर्तन विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।</s> |
<s>[INST]अमेरिका की क्रांति उपनिवेशों और मातृ राज्य में मौलिक मतभेदों के कारण हुई। यद्यपि यह संग्राम आर्थिक हितों के संघर्ष के कारण उत्प्रेरित हुआ था, तथापि सामाजिक और राजनीतिक कारक भी समान रूप से उत्तरदायी थे। टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण
• अमेरिकी क्रांति का संक्षिप्त परिचय ।
• आर्थिक हित संघर्षों के बाद भी कैसे सामाजिक तथा राजनीतिक कारक निहित।
• निष्कर्ष लिखें।
अमेरिका की क्रांति उपनिवेशों और मातृ राज्य में मौलिक मतभेदों के कारण हुई। यद्यपि यह संग्राम आर्थिक हितों के संघर्ष के कारण उत्प्रेरित हुआ था, तथापि सामाजिक और राजनीतिक कारक भी समान रूप से उत्तरदायी थे। अभिवृत्ति और सिद्धांत का संघर्ष भी इन्हीं कारकों में से एक था। अमेरिकी उपनिवेश एवं इंग्लैंड की अभिवृत्तियों तथा सिद्धांतों में भिन्नता होना स्वाभाविक था। यहाँ यह धारणा कार्यरत थी कि एक पक्ष (ब्रिटिश संसद) मानता था कि कर लगाना उसका नैसर्गिक अधिकार है, जबकि दूसरा पक्ष (अमेरिकी उपनिवेशवासी) ऐसा मानने को तैयार नहीं था।
इस अंतर्विरोध को निम्नलिखित प्रकार से समझा जा सकता है:
इंग्लैंड की मान्यता के विपरीत अमेरिकी उपनिवेशवासी इंग्लिश संसद को निरंकुश नहीं मानते थे। उनकी धारणा थी कि संसद भी किसी मौलिक कानून से सीमित हो सकती है।
क्राउन जिस प्रकार इंग्लैंड का है, उसी प्रकार उपनिवेशों का भी है, किंतु संसद को उपनिवेशों पर कोई क्षेत्राधिकार प्राप्त नहीं है। जबकि ब्रिटिश अधिकारी यह मानते थे कि संसद की शाही सत्ता उपनिवेशों पर भी अधिकार रखती है।
इंग्लैंड को यह विश्वास था कि वह अपने उपनिवेशों को सुरक्षा प्रदान करता है।अतः उपनिवेशों को सुरक्षा हेतु किये गए व्यय का बोझ उठाना चाहिए।किंतु अमेरिकी उपनिवेशों का यह मानना था कि यदि क्राउन को किसी उपनिवेश से धन की आवश्यकता है, तो वह उस धन को अनुदान के रूप में मांग सकता है लेकिन संसद को यह अधिकार नहीं है कि स्टाम्प कानून या अन्य कानून या अन्य कानून बनाकर धन एकत्र करे।
उपनिवेशवासियों की सुरक्षा के लिये फौज रखना और चुंगी वसूली की प्रथा को दृढ़ बनाना आदि बातें लंदन में मंत्रिमंडल के लिये साधारण एवं तार्किक प्रतीत होती थी, किंतु इस सिद्धांत के विपरीत अमेरिकी उपनिवेशों की अभिवृत्ति भिन्न थी, वे इसे अतार्किक और अत्याचारपूर्ण मानते थे।
इसी का परिणाम था कि अमेरिकी समाज ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध खड़ा हुआ और इसने अमेरिकी क्रांति का मार्ग प्रशस्त किया।</s> |
<s>[INST]उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में संपन्न औद्योगिक क्रांति को संभव बनाने में वैज्ञानिक आविष्कारों एवं तकनीकी परिवर्तनों की भूमिका का परीक्षण करें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण
• औद्योगिक क्रांति का संक्षिप्त परिचय
• इन आविष्कारों ने किस प्रकार औद्योगिक क्रांति को सफल बनाया, विभिन्न दृष्टिकोणों से चर्चा करें।
• इन परिवर्तनों के कुछ नकारात्मक परिणामों का उल्लेख करते हुए निष्कर्ष लिखें।
अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में आर्थिक और तकनीकी क्षेत्र में परिवर्तन ने समाज की सोच में भी परिवर्तन किया। कारखाना पद्धति घरेलू उत्पादन प्रणाली को प्रतिस्थापित करने लगी। शक्ति चालित मशीनों का अधिकाधिक उपयोग प्रारंभ हुआ और आधुनिक व्यापार तंत्र का विकास हुआ। इसके फलस्वरूप व्यापार में अप्रत्याशित वृद्धि हुई। इन्हीं व्यापक परिवर्तनों को इंगित करने के लिये ‘औद्योगिक क्रांति’ शब्द का प्रयोग किया गया।
यद्यपि विज्ञान ने औद्योगिक क्रांति में कोई सीधी भूमिका नहीं निभाई, किंतु प्रौ़द्योगिकी ने यह भूमिका अवश्य अदा की। प्रौद्योगिकीय विकास विज्ञान पर ही निर्भर था। विज्ञान की बढ़ी हुई समझ ने ही कृषि, वस्त्र उद्योग, लौह एवं इस्पात उद्योग, परिवहन एवं संचार में सुधार आदि को संभव बनाया। इन सुधारों को निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है:
कृषि क्रांति के बिना औद्योगिक क्रांति संभव नहीं होती। ‘ड्रिल’ नामक यंत्र की खोज ने खेतों की बुवाई को आसान बनाया। पोटाश, नाइट्रोजन और फास्फोरस के प्रयोग ने कृषि उत्पादकता को बढ़ाया और कृषि को लाभ का कार्य बना दिया।
फ्लांइग शटल, वाटर प्रेम, म्यूल आदि अविष्कारों ने वस्त्र उद्योग को नवीन उँचाइयों पर पहुँचा दिया। कम समय और कम लागत में अधिक उत्पादन होने लगा।
पत्थर के कोयले (कोक) के प्रयोग ने लौह शुद्धिकरण तकनीक को आसान बनाया। इसके पश्चात् इस्पात के आविष्कार ने भारी उद्योगों को प्रगति दी। बड़ी-बड़ी मशीनों को इस्पात से बनाया जाना आसान हुआ।
बढ़े हुए उत्पादन एवं व्यापार ने परिवहन के साधनों में आवश्यक परिवर्तनों को उत्प्रेरित किया। सड़क एवं नहर निर्माण किया जाने लगा।
भाप इंजन और कालांतर में गैसोलीन (पेट्रोल) आधारित इंजन के विकास ने मोटर उद्योग की सफलता में उल्लेखनीय भूमिका निभाई। रबर के टायरों से यात्रा आरामदेह हो गई।
डाक-तार के विकास ने संचार के क्षेत्र में आमूल-चूल परिवर्तन किया।
निकर्षतः वैज्ञानिक तथा तकनीकी विकास ने औद्योगिक क्रांति को सफल बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।यद्यपि इससे प्रदूषण, अव्यवस्थित शहरी बस्तियां, श्रमिकों का शोषण, अमीर गरीब के मध्य विस्तृत अंतर आदि नकारात्मक कारक भी उत्पन्न हुए।फिर भी वैज्ञानिक अविष्कारों एवम तकनीकी परिवर्तनों ने 19वीं शताब्दी की शुरुआत में औद्योगिक क्रांति को सफल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।</s> |
<s>[INST]‘इटली एवं जर्मनी में फासिस्ट शक्तियों का उदय तत्कालीन परिस्थितियों की एक अपरिहार्य परिणति थी।’ विश्लेषण कीजिये।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण
• फासीवाद का संक्षिप्त परिचय
• फासीवाद के उदय की समकालीन परिस्थितियां क्या थी
• निष्कर्ष।
फासीवाद एक राजनीतिक विचारधारा है जिसका उदय मुसोलिनी द्वारा इटली को प्राचीन रोमन साम्राज्य की तरह पुन: महान बनाने की भूख के साथ हुआ। फासीवाद मुख्यत: अतिराष्ट्रवाद पर आधारित है, जिसका ध्यान लोगों को नियंत्रित करने के लिये सैन्य शक्ति के प्रयोग पर केंद्रित है। यह सैन्य आदर्शों पर आधारित है जिसमें साहस, आज्ञाकारिता, अनुशासन और शारीरिक दक्षता सम्मलित है।
1919 के पश्चात् इटली एवं जर्मनी में फासीवाद एवं नाजीवाद के उदय के अनेक कारणों को इंगित किया जा सकता है। जैसे- मुसोलिनी की व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाएँ एवं उसका करिश्माई व्यक्तित्व, पेरिस शांति वार्ता में दोनों देशों की माँंगों का सही प्रतिनिधित्व न होना आदि। किंतु समकालीन यूरोपीय एवं इटली-जर्मनी की परिस्थितियों ने फासिस्ट शक्तियों के उदय को संभव बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
इन परिस्थितियों को निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है:
प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् इटली की अर्थव्यवस्था लगभग चौपट हो गई थी। महँगाई और बेरोज़गारी की दर उच्च थी। ऐसे में मुसोलिनी के करिश्माई व्यक्तित्व ने उन्हें समस्याओं से बाहर निकलने की आशा दी।
प्रथम विश्व युद्ध के समय इटली को मित्र राष्ट्रों ने अपने पक्ष में करने के लिये अनेक वादे किये। किंतु पेरिस शांति सम्मेलन में इटली के साथ अलगावपूर्ण व्यवहार किया गया। इससे इटली स्वयं को ठगा महसूस करने लगा। फलस्वरूप फासिस्ट शक्ति को उत्प्रेरण मिला।
इटली निवासियों के असंतोष को दूर करने तथा साम्राज्य प्रसार के उद्देश्य को लेकर मुसोलिनी ने फासिस्ट दल के नेतृत्व में अधिनायकवादी सत्ता की स्थापना की।
राष्ट्र संघ की असफलता ने सामूहिक सुरक्षा प्रणाली को ठेस पहुँचाई। मुसोलिनी ने फासिस्ट दल के नेतृत्व में अबिसीनिया पर आक्रमण किया और राष्ट्रसंघ के आदेशों की अवहेलना की।
नि:शस्त्रीकरण के प्रयासों की विफलता ने फासिस्ट दल की शस्त्रीकरण की नीति को बढ़ावा दिया।
इंग्लैंड और फ्रांस की तुष्टीकरण की नीति ने फासिस्ट शक्ति को नाज़ी शक्ति के साथ आने का अवसर दिया।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि इटली एवं जर्मनी में फासिस्ट शक्तियों के उदय के लिये समकालीन यूरोपीय परिस्थितियाँ उत्तरदायी थीं और इन्हीं परिस्थितियों ने फासिस्ट शक्ति के उदय को अपरिहार्य बना दिया।</s> |
<s>[INST]भारत सरकार की नीति ‘सभी के लिये विद्युत’ का उद्देश्य 2020 तक प्रत्येक व्यक्ति तक सस्ती, टिकाऊ तथा नवीकरणीय ऊर्जा की पहुँच सुनिश्चित करना है। भारत में विद्युत क्षेत्र की समस्याओं पर प्रकाश डालते हुए ‘उदय योजना’ के प्रावधानों को स्पष्ट करें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
• भूमिका
• भारत में विद्युत क्षेत्र की समस्याएँ
• उदय योजना के प्रवधान
• निष्कर्ष
भारत सरकार की नीति ‘सभी के लिये विद्युत’ का उद्देश्य 2020 तक प्रत्येक व्यक्ति तक सस्ती टिकाऊ तथा नवीकरणीय ऊर्जा कीपहुँच सुनिश्चित करना है। इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये सरकार द्वारा ‘विद्युत अधिनियम एक्ट 2003 में कुछ संशोधनों की भी घोषणा की गई। इसके साथ ही एक राष्ट्रीय नवीकरणीय ऊर्जा नीति के विकास की भी बात कही गई।
भारत में विद्युत क्षेत्र की समस्याएँ निम्नवत हैं :
विद्युत क्षेत्र में पिछले कुछ वर्षों के दौरान क्षमता विकास के मामले में भारी वृद्धि देखी गई किंतु मांग तथा आपूर्ति के मध्य असंतुलन के कारण यह क्षेत्र सदैव ही तनाव में रहा है।
बिजली की कीमत के निर्धारण की दुविधा के कारण डिस्कॉम्स जितना अधिक बिजली वितरण उपलब्ध करते हैं उतना ही उनका घाटा बढ़ता जाता है।
अधिकांश ग्रामीण क्षेत्रों और कृषि कार्य में विद्युत आपूर्ति के लिये मीटर न होने के कारण ऐसे क्षेत्रों में विद्युत खपत के संदर्भ में विस्तृत आँकड़ों की अनुपलबधता एक बड़ी समस्या है।
बेहतर तकनीक एवं उपकरणों के नवीकरण के न होने के कारण उत्पादन केंद्रों से उपभोक्ताओं तक विद्युत वितरण के दौरान भारी मात्रा में ऊर्जा की हानि एक बड़ी समस्या है।
सरकार पर सब्सिडी के दबाव को कम करने के लिये क्रॉस सब्सिडी जैसी नीतियों को अपनाने से औद्योगिक क्षेत्र पर नकारात्मक परिणाम देखने को मिले हैं।
उपरोक्त समस्याओं को देखते हुए वर्ष 2015 में उज्ज्वल डिस्कॉन एरयोरेंस योजना अर्थात उदय योजना को लॉन्च किया गया था। जिसके प्रमुख प्रावधान निम्न प्रकार से है-
उदय की विद्युत वितरण कंपनियों की वित्तीय तथा परिचालन क्षमता में सुधार लाने के लिये शुरू किया गया था।
इस योजना में ब्याज भार, विद्युत की लागत, कुल तकनीकी तथा वाणिज्य नुकसान की हानि को कम करने का प्रावधान है। इसके परिणामस्वरूप डिस्कॉम लगातार 24 घंटे पर्याप्त और विश्वसनीय विद्युत की आपूर्ति करने में समर्थ हो जाएंगी।
इस योजना में राज्य सरकार को अपने ऋणों का स्वैच्छिक रूप से पुनगर्ठन करने लिये प्रोत्साहित करने हेतु प्रावधान है।
इस योजना के तहत सव्रप्रथम चार प्रमुख बिंदुओं पर कार्य किया जाएगा-
बिजली वितरण कंपनियों की परिचालन क्षमता में सुधार।
बिजली की लागत में कमी।
वितरण कंपनियों को ब्याज लागत में कमी।
राज्य वित्त आयोग के साथ समन्वय के माध्यम से बिजली वितरण कंपनियों पर वित्तीय अनुशासन लागू करना।
निष्कर्षत: विद्युत कंपिनयों में निहित कमजोरियों को इस योजना के माध्यम से न सिर्फ दूर करने का प्रयास किया जा रहा है अपितु भविष्य में इन्हें और अधिक सक्षम बनाकर भारत की विद्युत आपूर्ति संबंधी समस्याओं की दूर करने की दिशा में भी यह एक बेहतर प्रयास है।</s> |
<s>[INST]‘‘वि-औपनिवेशीकरण से पूर्व उपनिवेश एक आरोपित प्रक्रिया थी, लेकिन बाद के काल में ऐच्छिक रूप से उपनिवेशवाद को स्वीकार किया जाने लगा’’ टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
• भूमिका
• उपरोक्त कथन का विश्लेष्ण करते हुए बताएं की वि-औपनिवेशीकरण से पूर्व उपनिवेश एक आरोपित प्रक्रिया थी लेकिन बाद के काल इसे ऐच्छिक रूप से उपनिवेशवाद कहना कहाँ तक उचित है।
वि-औपनिवेशीकरण का आशय औपनिवेशिक स्वतंत्रता से है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद उपनिवेशवादी प्रवृत्ति पर रोक लगी और एशिया तथा अफ्रीका के साथ-साथ लैटिन अमेरिकी देश स्वतंत्र हुए। इन स्वतंत्र देशों में राष्ट्रवाद का उदय हुआ। स्थानीय संस्कृतियों का आपसी समर्थन औपनिवेशिक स्वायत्तता के लिये प्रयत्नशील हुआ तथा स्पष्ट रूप से वहाँ नवोदित राज्यों की उपस्थिति दर्ज हुई।
इन राष्ट्रों ने स्वतंत्रता अवश्य प्राप्त की किंतु अपने साम्राज्य को संचालित करने के लिये किसी प्रकार की नीति का विकल्प नहीं रखा। वहीं कारण था कि इन्होंने पूर्व औपनिवेशिक व्यवस्था के अनुरूप जिस संसदीय स्वरूप को स्वीकृत किया।
वह वहीं की परिस्थितियों के अनुकूल नहीं था। इस स्थिति में पुन: विरोध हुआ और विभिन्न देशों में लोकतंत्र के स्थान पर निरंकुश सैन्य तंत्र की स्थापना हुई। इस तानाशाही प्रवृत्ति में इस देशों के विकास की किसी भी संभावना को नहीं देखा जा सकता। यही कारण था कि पूंजीवादी राष्ट्रों के प्रति इन देशों का पुन: आग्रह बढ़ा और पुन: औपनिवेशिकता की ओर इनकी अर्थव्यवस्था बढ़ने लगी।
आरंभ में पूंजीवादी देशों ने इन्हें आर्थिक सहायता प्रदान की किंतु इस सहायता का उपयोग मानवीय तथा तकनीकी विकास के स्थान पर प्रशासकों द्वारा निजी उपयोग हेतु किया गया। वे निश्चित समय पर ऋण लौटाने में भी असमर्थ थे। अत: विभिन्न देशों ने अपनी नीतियों को इन पर पुन: लागू किया। यहाँ भले ही प्रत्यक्ष नियंत्रण नहीं था, परंतु अधिक नियंत्रण अवश्य स्थापित हो गया। इसी प्रकार का नियंत्रण स्वतंत्रता पूर्व निर्दिष्ट था किंतु तब इन देशों को प्रत्यक्ष विरोध का सामना करना पड़ता था लेकिन अब वैधानिक स्वीकार्यता के आधार पर आर्थिक नियंत्रण की स्वीकार कर लिया गया।
वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र संघ एवं अन्य अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा यहाँ विकास हेतु विभिन्न योजनाएँ संचालित की जा रही है। किंतु स्थानीय जन समर्थन के अभाव में यहाँ विकास कार्यों की गति शिथिल है। इसलिये मानव विकास सूचकांक, गरीबी, कुपाषण, स्वास्थ्य, शिक्षा, तकनीकी विकास आदि में ये देश अधिक पिछड़े हुए हैं।</s> |
<s>[INST]वर्तमान में एकल नवीकरणीय ऊर्जा प्रणाली के समक्ष आने वाली चुनौतियों की चर्चा करें। हाइब्रिड नवीकरणीय ऊर्जा प्रणाली से आप क्या समझते है? इससे होने वाले लाभों की चर्चा करें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
• भूमिका
• हाइब्रिड नवीकरणीय ऊर्जा प्रणाली का परिचय
• इससे होने वाले लाभ
एकल विकिरणीय ऊर्जा प्रणाली में ऐसी है जिसमें केवल एक नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत शामिल होता है। इस संबंधित चुनौतियां निम्नवत है:
एकल नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत से उत्पादित ऊर्जा के उपयोग ट्रांसमिशन लाइनों का उपयोग कम हो जाता है।
एकल नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन प्रणाली से ऊर्जा की लगातार आपूर्ति सुनिश्चित नहीं की जा सकती।
इसमें ऊर्जा का उत्पादन कुछ सीमित समय या कुछ घंटों के लिये ही होता है। जैसे-सोलर ऊर्जा का उत्पादन दिन के कुछ घंटों ही संभव है।
एकल नवीकरणीय ऊर्जा प्रणाली के स्रोत सतत् नहीं होते है। उदाहरण के लिये ये ऊर्जा का उत्पादन सूर्य के प्रकाश अथवा पवन प्रवाह की उपस्थिति में ही करते हैं।
हाइब्रिड ऊर्जा प्रणाली में दो या दो से अधिक नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत सम्मिलित होते है। उदाहरण के लिये हाइब्रिड ऊर्जा प्रणालियों में सम्मिलित होते हैं-
जल विद्युत - पवन ऊर्जा प्रणाली
बायोमास - पवन ईधन सेल,
फोटोवोल्टिक सेल आदि।
हाइब्रिड विकिरणीय ऊर्जा प्रणाली के लाभ निम्नवत हैं -
हाइब्रिड ऊर्जा प्रणाली एकल नवीकरणीय ऊर्जा प्रणालियों की चुनौतियों को दूर करते हुए उपभोक्ताओं को वैकल्पिक ऊर्जा समाधान प्रस्तुत करती है। विशेषज्ञों को अनुमान है कि पवन-सौर भंडारण हाइब्रिड प्रणाली वर्तमान में कोयला आधारित विद्युत संयंत्रों की तुलना में अगले 4 से 5 वर्षों में विश्वसनीय एवं लागत प्रभावी तथा चौबीस घंटे बिजली आपूर्ति सुनिश्चित कर सकती है। उदाहरण के लिये दिन में सौर ऊर्जा और रात में पवन ऊर्जा का उपयोग करके उपभोक्ताओं की सतत ऊर्जा की आपूर्ति सुनिश्चित की जा सकती है।
शून्य कार्बन उत्सर्जन के कारण यह प्रणाली पर्यावरण की दृष्टि से भी बेहतर है। इसके अलावा यह प्रणाली भारत की बढ़ती ऊर्जा आवश्यकताओं की पूर्ति में भी सहायक सिद्ध होगी।</s> |
<s>[INST]‘सोवियत संघ के विघटन के पश्चात् वैश्विक व्यवस्थाओं का झुकाव अमेरिका की ओर अधिक दिखाई देता है’ विश्लेषण करें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण :
• भूमिका
• सोवियत संघ के विघटन के पश्चात् वैश्विक व्यवस्थाओं का झुकाव अमेरिका की ओर कहाँ -कहाँ अधिक दिखाई देता है?
• निष्कर्ष
सोवियत संघ के विघटन के बाद वैश्विक स्तर पर अमेरिका ने अपनी नीतियों तथा विचारधारा का प्रचार-प्रसार शुरू किया। अमेरिका ने भले ही कभी प्रत्यक्ष रूप से साम्राज्यवाद का समर्थन नहीं किया किंतु अपनी व्यापारिक नीतियों के माध्यम से विभिन्न देशों में प्रभावकारी परिवर्तन किये। अमेरिकी सरकार ने विश्व स्तर पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष निवेश को बढ़ावा देकर विभिन्न अमेरिकी कंपनियों की इकाईयों को अन्य देशों में स्थापित किया। वित्तीय तथा बैंकिंग कंपनियों के साथ बीमा कंपनियों के निवेश को बढ़ावा दिया। इन नीतियों के शिकार विशेष कर पूर्वी एशियाई देश हुए।
अमेरिका ने अपनी नीतियों का निर्माण अपने हितों के अनुकूल किया। जिसका प्रारंभिक उद्देश्य साम्यवादी विचारधारा के समर्थित राष्ट्रों के प्रभावों को सीमित करना था। वहीं दूसरी ओर वह पूर्वी यूरोप के उन राष्ट्रों की विस्तारवादी विचारधारा पर भी वह अंकुश लगाना चाहता था जो विस्तारवादी नीति अपना रहे थे। यही कारण था कि उसने न सिर्फ गुप्त राजनीतिक संधियों बल्कि कूटनीतिक पहलों द्वारा रूस की साम्यवादी विचारधारा को अस्थिर करने का प्रयास किया। इसके अलावा अमेरिका के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती परमाणु शक्ति संपन्न देशों की शक्ति को नियंत्रित करने की भी थी। अत: शक्ति संतुलन की स्थिति में न सिर्फ उसने परमाणविक हथियारों का निर्माण किया, बल्कि अन्य देशों के परमाणविक कार्यक्रमों पर विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय संधियों तथा एजेंसियों के माध्यम से रोक लगाने का भी प्रयास किया।
अमेरिका का सबसे मजबूत पक्ष यह रहा कि विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय पहलों पर उसे अधिकाधिक देशों का सहयोग प्राप्त हुआ। धीरे-धीरे अमेरिका की हर नीति प्रत्येक देश के लिये बाध्यकारी हो गयी तथा अमेरिका अपनी आर्थिक मज़बूती के बल पर विभिन्न देशों की नीतियों को प्रभावित करने में भी सफल रहा।
उपरोक्त के अलावा विश्व की विभिन्न नियामक संस्थाओं में अमेरिकी हस्तक्षेप लगातार विद्यमान है। इसलिये वैश्विक स्तर पर होने वाले भू-मंडलीकरण या उत्पन्न अन्य प्रभावों को अमेरिकीकरण की भी संज्ञा दी जाती है।</s> |
<s>[INST]हाल ही में आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत कोयला क्षेत्र में किये गये प्रमुख सुधार क्या हैं? नये प्रस्तावित सुधारों को लागू करने में आने वाली चुनौतियाँ तथा उनसे संबंधित समाधानों की चर्चा करें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
• भूमिका
• प्रस्तावित सुधार
• चुनौतियाँ
• समाधान
• निष्कर्ष
हाल ही में केंद्र सरकार द्वारा आत्मनिर्भर भारत अभियान को ध्यान में रखते हुए, कोयला क्षेत्र में व्यावसायिक खनन को मंजूरी देने हेतु बनाई जाने वाली नीतियेां पर ज़ोर दिया गया साथ ही कोयले से गैस के निर्माण पर सरकार के द्वारा आर्थिक सहयोग की बात कही गई। सरकार द्वारा कोयले के आयात में कमी लाने तथा स्थानीय उत्पादन क्षमता में वृद्धि करने के साथ ही 50 हजार करोड़ रुपये की लागत से कोयला क्षेत्र में आधारभूत संरचना के विकास का लक्ष्य रखा गया है।
प्रस्तावित सुधार-
निजी क्षेत्र की भागीदारी को बढ़ाकर कोयला खनन क्षेत्र में प्रतियोगिता तथा पारदर्शिता में वृद्धि करना।
निजी कंपनियों के लिये खनन प्रक्रिया में भाग लेने के लिये नियमों में ढील के साथ कंपनियों को कोयले की खोज में शामिल करने हेतु अन्वेषण सह-उत्पादन के विकल्प की व्यवस्था।
निर्धारित समय से पहले खनन लक्ष्य प्राप्त करने वाली कंपनियों को राजस्व हिस्सेदारी में छूट के माध्यम सेप्रोत्साहन।
कोयला खनन क्षेत्र में ईज़ ऑफ डूइंग बिज़नेस को बढ़ावा देने के लिये खनन योजनाओं का सरलीकरण किया जाएगा।
गैर-विद्युत उपभोक्ताओं के लिये नीलामी के समय आरक्षित मूल्यों, ऋण की शर्तों में ढील देने जैसी सुविधाएँ देने का प्रस्ताव किया गया है।
चुनौतियाँ तथा समाधान के बिंदु-
संविधान की सातवीं अनुसूची में खनिज पदार्थों को समवर्ती सूची में रखा गया है, वर्तमान में प्रत्येक राज्य में कोयला उत्पादन तथा राजस्व निर्धारण हेतु भारी असमानता है। अत: प्रस्तावित सुधारों के बेहतर क्रियान्वयन हेतु अलग-अलग राज्यों के मानकों में समानता लाना आवश्यक है।
वर्ष 1973 में कोयला कंपनियों के राष्ट्रीयकरण का एक बड़ा कारण श्रमिक हित थे। अत: कोयला क्षेत्र में निजी कंपनियों को बढ़ावा देते हुए सरकार को श्रमिकों के हितों को प्राथमिकता देनी होगी।
कम लागत और उपलब्धता के हिसाब से कोयला भारत की वर्तमान ऊर्जा ज़रूरतों को पूरा करने का एक उपयुक्त विकल्प हो सकता किंतु यह पर्यावरण प्रदूषण का कारण भी है। ऐसे में यह पेरिस समझौते तथा सतत विकास लक्ष्यों के प्रति भारत की प्रतिबद्धता के विपरीत होगा।
हाल के वर्षों में विद्युत क्षेत्र की कंपनियोें के राजस्व में गिरावट एक चिंता का विषय बना हुआ था ,किंतु COVID–19 महामारी के कारण आने वाले दिनों में अन्य औद्योगिक क्षेत्रों में भी ऊर्जा की मांग में गिरावट आ सकती है, जो कोयला क्षेत्र में रूकावट का कारण भी बन सकती है।</s> |
<s>[INST]वैश्विक महामारी COVID-19 के कारण भारत में ‘रिवर्स माइग्रेशन’ की समस्या देखी गयी है यह सामान्य पलायन से किस तरह से भिन्न है? प्रवासी संकट से उत्पन्न चुनौतियों की चर्चा करते हुए स्पष्ट करें की इस प्रवासी संकट से निपटने में मनरेगा किस प्रकार से सहायक सिद्ध हो सकता है[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोणः
• भूमिका
• भारतीय अर्थव्यवस्था के समक्ष विद्यमान चुनौतियां।
• समस्या के समाधान में सरकार के द्वारा किये जा रहे प्रयास।
• निष्कर्ष।
वैश्विक महामारी COVID-19 के कारण जारी लॉकडाउन के दौरान श्रमिकों का पलायन भारी मात्रा में हुआ । लॉकडाउन के दौरान होने वाला पलायन सामान्य दिनों की अपेक्षा होने वाले पलायन से एकदम उलट है। सामान्य दिनों में हम देखते हैं की रोज़गार पाने व बेहतर जीवन जीने की आशा में गाँवों और कस्बों से महानगरों की ओर पलायन होता है परंतु इस समय महानगरों से गाँवों की ओर हो रहा पलायन चिंताज़नक स्थिति को उत्पन्न कर रहा है।
सामान्य शब्दों में कहें तो ‘रिवर्स माइग्रेशन’ से आशय ‘महानगरों और शहरों से गाँव एवं कस्बों की ओर होने वाले पलायन से है’। बड़ी संख्या में प्रवासी श्रमिकों का गाँव की ओर प्रवासन हो रहा है। जिसका कारण लॉकडाउन के बाद ही काम-धंधा बंद होना है। इस प्रवासी संकट से निपटने के लिये, सरकार ने आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत प्रोत्साहन पैकेज के हिस्से के रूप में मनरेगा के लिये 40,000 करोड़ रुपये का अतिरिक्त फंड आवंटित किया है।
चुनौतियाँ-
श्रमिकों के गाँवों की ओर प्रवासन से देश के बड़े औद्योगिक केंद्रों में चिंता व्याप्त है। वर्तमान में भले ही उद्योगों में काम कम हो गया है या रुक गया है परंतु लॉकडाउन समाप्त होते ही श्रमिकों की मांग में तीव्र वृद्धि होगी। श्रमिकों की पूर्ति न हो पाने से उत्पादन पर नकारात्मक असर पड़ेगा ।
पंजाब, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कृषि कार्य हेतु बड़े पैमाने पर श्रमिकों की आवश्यकता पड़ती है, गाँवों की ओर प्रवासन के कारण इन राज्यों की कृषि गतिविधियाँ बुरी तरह से प्रभावित हो गई हैं।
श्रमिकों के पलायन से रियल एस्टेट सेक्टर व्यापक रूप से प्रभावित हुआ है। भवनों का निर्माण कार्य रुक जाने से परियोजना की लागत बढ़ने की संभावना है। बड़ी संख्या में श्रमिकों के पलायन से महानगरों को प्राप्त होने वाला राजस्व भी नकारात्मक रूप से प्रभावित हो जाएगा।
गाँवों की ओर प्रवासन से अपेक्षाकृत पिछड़े राज्यों पर अत्यधिक आर्थिक दबाव पड़ रहा है। यह सर्वविदित है कि महानगरों में कार्य कर रहे श्रमिक अपने गृह राज्य में एक बड़ी राशि भेजते हैं, जिससे इन राज्यों को बड़ी आर्थिक सहायता प्राप्त होती थी।
बिहार, उत्तर प्रदेश, ओडिशा, राजस्थान, मध्य प्रदेश और झारखंड जैसे राज्य अपेक्षाकृत रूप से औद्योगीकरण में पिछड़े हुए हैं, प्रवासन के परिणामस्वरूप इन राज्यों में रोज़गार का संकट भीषण रूप ले रहा है।
रोज़गार के अभाव में इन राज्यों में सामाजिक अपराधों जैसे- लूट, डकैती, भिक्षावृत्ति और देह व्यापार की घटनाओं में वृद्धि हो सकती है, जिससे राज्य की कानून व्यवस्था और छवि दोनों खराब होने की आशंका है।
प्रवासी संकट से निपटने में मनरेगा की भूमिका को निम्न बिन्दुओं के तहत समझा जा सकता है-
पहले की रोज़गार गारंटी योजनाओं के विपरीत मनरेगा के तहत ग्रामीण परिवारों के व्यस्क युवाओं को रोज़गार का कानूनी अधिकार प्रदान किया गया है।
प्रावधान के मुताबिक, मनरेगा लाभार्थियों में एक-तिहाई महिलाओं का होना अनिवार्य है। साथ ही विकलांग एवं अकेली महिलाओं की भागीदारी को बढ़ाने का प्रावधान किया गया है।
मनरेगा कार्यक्रम के तहत प्रत्येक परिवार के अकुशल श्रम करने के इच्छुक वयस्क सदस्यों के लिये 100 दिन का गारंटीयुक्त रोज़गार, दैनिक बेरोज़गारी भत्ता और परिवहन भत्ता (5 किमी. से अधिक दूरी की दशा में) का प्रावधान किया गया है। सूखाग्रस्त क्षेत्रों और जनजातीय इलाकों में मनरेगा के तहत 150 दिनों के रोज़गार का प्रावधान है।
इस कार्यक्रम ने ग्रामीण गरीबी को कम करने के अपने उद्देश्य की पूर्ति करते हुए निश्चित ही ग्रामीण क्षेत्र के लाखों लोगों को गरीबी से बाहर निकालने में कामयाबी हासिल की है।
आजीविका और सामाजिक सुरक्षा की दृष्टि से मनरेगा ग्रामीण गरीब महिलाओं के सशक्तीकरण हेतु एक सशक्त साधन के रूप में सामने आया है। आँकड़ों के अनुसार, वित्तीय वर्ष 2015-16 में मनरेगा के माध्यम से उत्पन्न कुल रोज़गार में से 56 प्रतिशत महिलाओं की भागीदारी थी।
मनरेगा में कार्यरत व्यक्तियों के आयु-वार आँकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि वित्त वर्ष 2017-18 के बाद 18-30 वर्ष के आयु वर्ग के श्रमिकों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है।
मनरेगा ने आजीविका के अवसरों के सृजन के माध्यम से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के उत्थान में भी मदद की है। मनरेगा को 2015 में विश्व बैंक ने दुनिया के सबसे बड़े लोकनिर्माण कार्यक्रम के रूप में मान्यता दी थी।
मार्च 2020 में केंद्रीय वित्त मंत्री ने ‘प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना’ राहत पैकेज जारी करते समय मनरेगा की मज़दूरी में 20 रुपए प्रतिदिन की वृद्धि करने की घोषणा की है।
उपरोक्त के बावजूद इसमें अपर्याप्त बजट आवंटन, मज़दूरी के भुगतान में देरी, खराब मज़दूरी दर, भ्रष्टाचार जैसी समस्याएं व्याप्त है जिन्हें दूर करके इस योजना को अधिक प्रभावी बनाये जाने हेतु लघु तथा दीर्घकालिक उपाय अपनाये जाने की आवश्कता है सही मायनों में तभी यह प्रवासी समस्या का समाधान प्रस्तुत करने में सक्षम बन सकेगी।</s> |
<s>[INST]आज़ादी के सात दशक बाद के भी हमारा देश अनेक सामाजिक बुराइयों का शिकार है जिसके कारण गांधी के स्वराज के सपने को साकार करने की गति धीमी हो गयी है। उक्त समस्या के संदर्भ में महाराष्ट्र सरकार द्वारा शुरू किया गया ‘भारत छोड़ो आंदोलन-2’ किस प्रकार सहायक सिद्ध हो सकता है । चर्चा कीजिये।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
• भूमिका।
• सामाजिक बुराइयों एवं इसके कारणों की चर्चा करें ।
• भारत छोड़ो आंदोलन-2 कैसे इन बुराइयों को दूर करने में में सहायक सिद्ध हो सकता है।
• निष्कर्ष ।
आज़ादी के सात दशक बाद के भी हमारा देश अनेक सामाजिक बुराइयों का शिकार है जिसके कारण गांधी के स्वराज के सपने को साकार करने की गति धीमी हो गयी है। आज हम उन सामाजिक समस्याओं को नज़रअंदाज़ नही कर सकते जो देश को पीछे खिंचने का काम कर रही है।
19वीं शताब्दी में शुरू हुए सामाजिक-धार्मिक पुनर्जागरण के फलस्वरूप शिक्षा, वैज्ञानिक दृष्टिकोण एवं तार्किकता का प्रचार-प्रसार आरंभ हुआ जिससे विभिन्न सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध आवाज उठाने की शुरुआत हुई।
परंतु आज़ादी के सत्तर साल बाद, आज भी भारत में कई सामाजिक बुराइयां व्याप्त हैं , जैसे- अंधविश्वास, दहेज प्रथा, डायन घोषित कर महिलाओं की हत्या , किसान आत्महत्या, पानी की बर्बादी, भ्रष्टाचार, युवाओं में नशे की समस्या आदि जिसके कारण भारत के समाज का सर्वांगींण विकास नहीं हो पाया है ।
यदि इन सामाजिक बुराइयों के कारणों पर प्रकाश डालें तो ये निम्नलिखित हैं:
राजनीतिक दृढ़ इच्छाशक्ति की कमी एवं धार्मिक कट्टरवादी संस्थाओं से गठजोड़ के कारण इन्हें समाप्त करना कठिन है
आज शिक्षित तथा अशिक्षित दोनों ही प्रकार के लोगों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अभाव एवं तर्क-वितर्क की कमी देखी जा सकती है ।
उपरोक्त के आलावा अशिक्षा का प्रसार एवं जागरूकता की कमी आदि।
उपरोक्त कारणों के परिणामस्वरूप आज भी सामाजिक बुराइयों के खिलाफ आवाज़ उठाने वालों को हिंसा का शिकार होना पड़ता है तथा पंसारे, दाभोलकर आदि जैसे लोगों की हत्या तक कर दी जाती है।
उपरोक्त समस्याओं को देखते हुए महाराष्ट्र सरकार ने भारत छोड़ो आंदोलन-2, ‘स्वराज से सुराज’ आंदोलन शुरू किया। यह एक जागरूकता आंदोलन है तथा इसमें विभिन्न प्रकार की सामाजिक बुराइयों से स्वतंत्रता पर ज़ोर दिया गया साथ ही जनभागीदारी के माध्यम से इन बुराइयों दूर कर सभी मोर्चों पर समावेशी प्रगति प्राप्त करने का लक्ष्य रखा गया है जिससे ‘स्वराज से सुराज’ की प्रक्रिया को तीव्र किया जा सके।
निष्कर्षत: कह सकते हैं कि भारत छोड़ो आंदोलन-2 के माध्यम से एक बेेहतर परिणाम देखने को मिलेगा तथा साथ ही, इसे आज अन्य राज्यों द्वारा भी शुरु किये जाने की भी ज़रूरत है।</s> |
<s>[INST]वर्षा और जनघनत्व के बीच एक संतुलन है, जबकि वर्तमान में जल के उपयोग एवं संरक्षण में कोई संतुलन नहीं है। उक्त विसंगति को दूर करने हेतु सरकार द्वारा किये जा रहे प्रयासों की चर्चा कीजिए।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोणः
समझाएँ कि कैसे वर्षा और आबादी के बीच संतुलन पानी के अतार्किक उपयोग से बिगड़ गया। उसके बाद जल संसाधन के तर्कसंगत उपयोग और संरक्षण में सरकार की पहल पर ध्यान केंद्रित करें।
जल एक चक्रीय संसाधन है जो पृथ्वी पर प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। देश में एक वर्ष में वर्षण से प्राप्त कुल जल की मात्रा लगभग 4,000 घन किमी. है। धरातलीय जल और पुनःपूर्ति योग्य भौम जल से 1,869 घन किमी. जल उपलब्ध है। धरातलीय जल के चार मुख्य स्रोत हैं- नदियाँ, झीलें, तलैया और तालाब। लेकिन जल के अति उपयोग तथा संरक्षण में कमी (प्रदूषण) के कारण इसका संतुलन बिगड़ गया है।
पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और तमिलनाडु राज्यों में भौम जल का उपयोग बहुत अधिक है, और यदि वर्तमान प्रवृत्ति जारी रही तो जल की मांग की आपूर्ति करने में समस्या उत्पन्न होगी। वास्तव में भारत की वर्तमान में जल की मांग सिंचाई की आवश्यकताओं के लिये अधिक है जबकि औद्योगिक सेक्टर में सतही जल का केवल 2 प्रतिशत और भौम जल का 5 प्रतिशत भाग ही उपयोग में लाया जाता है।
जल की प्रति व्यक्ति उपलब्धता, जनसंख्या बढ़ने से दिन प्रतिदिन कम होती जा रही है। उपलब्ध जल संसाधन औद्योगिक, कृषि और घरेलू निस्सरणों से प्रदूषित होता जा रहा है और इस कारण उपयोगी जल संसाधनों की उपलब्धता और सीमित होती जा रही है।
भारत को जल-संरक्षण के लिये प्रभावशाली नीतियाँ और कानून बनाने की आवश्यकता है। कुछ नीतियाँ निम्नलिखित हैंः
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड एवं राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड साथ मिलकर 507 स्टेशनों के जल संसाधन की गुणवत्ता की निगरानी कर रहे हैं।
पुनर्चक्र और पुनर्उपयोग अन्य विकल्प हैं जिनके द्वारा अलवणीय जल की उपलब्धता को सुधारा जा सकता है। कम गुणवत्ता वाले जल का उपयोग, जैसे शोधित अपशिष्ट जल, उद्योगों के लिये एक आकर्षक विकल्प हैं और जिसका उपयोग शीतलन एवं अग्निशमन के लिये करके वे जल संसाधन की लागत को कम कर सकते हैं।
केंद्र और राज्य सरकारों ने देश में बहुत से जल-संभरण और प्रबंधन कार्यक्रम चलाए हैं। इनमें से कुछ NGO द्वारा भी चलाए जा रहे हैं। ‘हरियाली’ केंद्र सरकार द्वारा प्रवर्तित जल-संभरण विकास परियोजना है जिसका उद्देश्य ग्रामीण जनसंख्या को पीने, सिंचाई, मत्स्य पालन और वन रोपण हेतु जल संरक्षण के लिये योग्य बनाना है।
वर्षा जल संग्रहण विभिन्न उपयोगों के लिये वर्षा के जल को एकत्र करने की विधि है। आजकल देश के बहुत से राज्यों में वर्षा जल संग्रहण विधि का बड़े पैमाने पर उपयोग किया जा रहा है। इसका उपयोग भूमिगत जलभृतों के पुनर्भरण के लिये भी किया जाता है।
निष्कर्षतः जल पृथ्वी का सर्वाधिक मूल्यवान संसाधन है और हमें न केवल अपने लिये इसकी रक्षा करनी है बल्कि भविष्य की पीढ़ियों के लिये भी इसे बचा कर रखना है। वर्तमान समय में जब भारत के साथ-साथ संपूर्ण विश्व जल संकट का सामना कर रहा है तो आवश्यक है कि इस ओर गंभीरता से ध्यान दिया जाए।
भारत में जल प्रबंधन अथवा संरक्षण संबंधी नीतियाँ मौज़ूद हैं, परंतु समस्या उन नीतियों के कार्यान्वयन के स्तर पर है। अतः नीतियों के कार्यान्वयन में मौजूद शिथिलता को दूर कर उनके बेहतर क्रियान्वयन को सुनिश्चित किया जाना चाहिये जिससे देश में जल के कुप्रबंधन की सबसे बड़ी समस्या को संबोधित किया जा सके।</s> |
<s>[INST]‘वर्तमान वैश्वीकरण के युग में संयुक्त परिवार का जीवन चक्र सामाजिक मूल्यों के बजाए आर्थिक कारकों पर निर्भर करता है।’ चर्चा करें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
• भूमिका।
• संयुक्त परिवार का जीवन चक्र सामाजिक मूल्यों के बाजाए आर्थिक कारकों पर निर्भरता।
• निष्कर्ष।
संयुक्त परिवार से आशय ऐसे परिवार से है जिसमें एक से अधिक युगल (दंपत्ति) होते हैं और अक्सर दो से अधिक पीढ़ियों के लोग एक साथ रहते हैं।
आमतौर पर ऐसा माना जाता रहा है संयुक्त परिवार का जीवन चक्र (अर्थात परिवार के विभिन्न चरण अथवा अवस्थाएं) सामाजिक मूल्यों पर आधारित होती है। सामाजिक मूल्यों, संस्कारों तथा नैतिक कर्तव्यों के कारण लोग संयुक्त परिवार में रहते हैं, जिसके परिणामस्वरूप परिवार के कमज़ोर व्यक्ति को भी वही सुविधाएं प्राप्त हो जाती हैं जो परिवार के अन्य सदस्यों को प्राप्त होती है। किंतु अब ऐसा महसूस किया जाने लगा कि संयुक्त परिवार का जीवन चक्र सामाजिक मूल्यों के बजाए आर्थिक कारकों पर अधिक निर्भर करता है।
संयुक्त परिवार के बनने में आर्थिक कारकों की मुख्य भूमिका है। संयुक्त परिवार में लोग संसाधनों का साझा उपयोग करते हैं, जैसे- साझा घर, साथ-साथ खाना बनाना, घरेलू वस्तुओं आदि का प्रयोग आदि। निश्चित रूप से इससे खर्च में कमी आती है। जिसके फलस्वरूप लोग संयुक्त परिवार में साथ-साथ रहते हैं ऐसा देखा गया है कि जैसे ही परिवार के किसी सदस्य की आय बहुत अधिक हो जाती है और यदि वह अकेले सारे संसाधनों को जुटाने में सक्षम हो जाता है, तो उसमें संयुक्त परिवार से अलग होकर, एकाकी परिवार बनाने की प्रवृत्ति बढ़ जाती है। यही नहीं औद्योगीकरण तथा भूमंडलीकरण के परिणामस्वरूप बेहतर रोज़गार तथा बेहतर जीवन स्तर की तलाश में युवा अपने परिवार से दूर जाकर बस रहे हैं। इसके परिणामस्वरूप एकाकी अथवा एक परिवारों का चलन बढ़ रहा है, जिससे संयुक्त परिवार टूट रहे हैं।
उपरोक्त से स्पष्ट है कि संयुक्त परिवार के जीवन चक्र को मुख्य रूप से आर्थिक कारक प्रभावित करते हैं। हालांकि भारत जैसे देशों में संयुक्त परिवार के बने रहने में सामाजिक मूल्यों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। यह मूल्य कम मात्रा में ही सही, लेकिन भारतीय समाज में आज भी किसी न किसी रूप में विद्यमान हैं।</s> |
<s>[INST]‘‘स्वेज नहर के राष्ट्रीयकरण ने मिस्र के आर्थिक एवं सामरिक विकास में अभूतपूर्व भूमिका अदा की थी।’’ टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण
• भूमिका।
• स्वेज नहर के राष्ट्रीयकरण से मिस्र के आर्थिक एवं सामरिक क्षेत्र में हुए परिवर्तनों की चर्चा ।
• निष्कर्ष ।
1951 के बाद कर्नल नासिर ने मिस्र के आर्थिक एवं सामारिक विकास के लिये विभिन्न प्रयास शुरू किये किंतु ये तभी सफल हो सकते थे, जब स्वेज नहर पर मित्र राष्ट्रों के अतिक्रमण को हटाया जाए क्योंकि मित्र राष्ट्रों की बढ़ती गतिविधियों के कारण मिस्र की संप्रभुता तथा अखंडता पर संकट उत्पन्न होने लगा। इन क्षेत्र में मित्र राष्ट्राें के अपने हित थे क्योंकि अब प्रत्यक्ष सम्राज्य के स्थान पर नव साम्राज्यवाद की संकल्पना का प्रसार हो रहा था।
मिस्र में मित्र राष्ट्रों के साथ-साथ रूस तथा अमेरिका के हित भी शामिल थे। अमेरिका का उद्देश्य जहाँ एशियाई क्षेत्र में संतुलन बनाना था वहीं रूस इस क्षेत्र में अपनी नैसिर्गिक उपस्थिति मानता था। यही कारण था कि दोनों देशों के लिये रणनीतिक रूप से यह क्षेत्र महत्वपूर्ण था।
इस संकट से उबरने के लिये स्वेज नहर का राष्ट्रीयकरण ही एकमात्र उपाय था क्याेंकि इस तरह का अतिक्रमण मिस्र की संप्रभुता पर भी प्रश्न खड़ा कर रहा था। स्वेज नहर के राष्ट्रीयकरण का ब्रिटेन, फ़्रांस, इजराइल आदि के द्वारा विरोध किया गया तथा उस क्षेत्र में सैन्य तैनाती शुरू कर दी।
वस्तुतः मिस्र को रूस का मौन समर्थन प्राप्त था। क्याेंकि मिस्र संयुक्त राष्ट्र का संस्थापक सदस्य था तथा रूस के द्वारा इसके मुद्दे को समर्थन दिया गया था, इसलिये संयुक्त राष्ट्र में ब्रिटेन एवं फ़्रांस की कार्यवाही को अनुचित मानकर स्वेज नहर के राष्ट्रीयकरण के प्रति स्वीकृति प्रदान की।
इस राष्ट्रीयकरण से एशिया तथा यूरोप को जोड़ने वाले अति महत्त्वपूर्ण जलमार्ग पर मिस्र का अधिकार होने के साथ ही उसे अतिरिक्त वाणिज्यिक लाभ भी प्राप्त हुआ। मिस्र में यूरोपीय गतिविधियों का भी विस्तार हुआ किंतु इन्हें इस शर्त पर स्वीकारा गया कि इससे मिस्र का आर्थिक लाभ सुनिश्चित हो सके। यह मिस्र के सक्रिय योगदान का ही परिणाम था कि गुट-निरपेक्ष आंदोलन के विचार को वैश्विक स्तर पर स्थापित किया गया।</s> |
<s>[INST]‘द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् वैश्विक स्तर पर हुए बदलावों में राजनीतिक ध्रुवीकरण प्रमुख था।’ चर्चा कीजिये।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
• भूमिका
• द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् वैश्विक स्तर पर हुए बदलावों में राजनीतिक ध्रुवीकरण कहाँ-कहाँ दिखता है?
• निष्कर्ष।
1945 के बाद वैश्विक स्तर पर विभिन्न परिवर्तन दिखाई देते हैं। धुरी राष्ट्र खंडित हो चुके थे। मित्र राष्ट्र सक्षम होकर यूरोप के एकीकरण के लिये प्रयासरत थे, ऐसी स्थिति में रूस तथा अमेरिका के यूरोपीय संदर्भ में नए टकराव उत्पन्न हुए और अपने-अपने संगठन को निर्मित कर ये दो महाशक्तियों के रूप में उदित हुए।
अमेरिका में यूरोप के आर्थिक एवं सामरिक हित को देखते हुए इसके एकीकरण के लिये मार्शल योजना प्रस्तुत की, चर्चिल इसके समर्थक थे, क्योंकि ब्रिटेन अब यह स्वीकार कर चुका था कि यूरोप का विकास यूरोपीय हितों के साथ संबंधित हो। इस स्थिति में अमेरिका ब्रिटेन तथा फ्राँस वैचारिक स्तर एक साथ दिखे। इसी समय अमेरिकी नेतृत्व में पूँजीवादी ध्रुवीकरण प्रारंम्भ हुआ और बाद में नाटो की स्थापना हुई।
इसके विपरीत रूस जो द्वितीय विश्वयुद्ध में मित्र राष्ट्र के साथ था साम्यवादी विचारधारा को प्रसारित करता रहा। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद उसे यूरोप में कुछ क्षेत्र प्राप्त हुए थे इन क्षेत्रों में साम्यवाद का प्रचार पूँजीवादी विचारधारा के लिये आशंकित करने वाला था तथा नाटो के गठन में भी यह स्पष्ट उद्देश्य था कि साम्यवादी विस्तार को यूरोप में विकसित होने से रोके, इसलिये रूस में समान विचारधारा के राष्ट्रो का संगठन वारसा पैक्ट के रूप में निर्मित किया, जो दूसरे ध्रुव के रूप में विकसित हुआ।
इसके अलावा एक तीसरा समूह जो अपेक्षाकृत कम प्रभावशाली था, गुट-निरपेक्ष आंदोलन के रूप में संगठित हुआ। यह मुख्यत: भारत, मिस्त्र तथा यूगोस्लोवाकिया के नेतृत्व में गठित अल्पविकसित तथा विकासशाील राष्ट्रा का संगठन था। इसका मुख्य उद्देश्य साम्यवादी तथा पूँजीवादी देशों का विरोध न करते हुए उनसे तटस्थ रहना था तथा आवश्यकतानुरूप दोनों की ध्रुवों से अपने विकास के लिये सहायता प्राप्त करना था।
निर्ष्कषत: द्वितीय विश्वयुद्ध के परिणामों में ध्रुवीकरण का उदय एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। सबसे महत्त्वपूर्ण यह था, सभी विचारधाराओं के देशों के मध्य अंतर्विरोधोंको दूर करने और वैश्विक संतुलन को बनाए रखने के लिये संयुक्त संघ का गठन हुआ जो वर्तमान में भी देशों के मध्य संतुलन तथा समन्वय बनाकर अपनी सार्थकता को सिद्ध कर रहा है।</s> |
<s>[INST]‘चार्टिस्ट आंदोलन में न सिर्फ राजनीतिक सुधारों के अपितु सामाजिक क्रांति के भी बीज तत्त्व निहित थे।’ विश्लेष्ण करें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण
• चार्टिस्ट आंदोलन की पृष्ठभूमि से उत्तर प्रारंभ करें।
• चार्टिस्ट आंदोलन के स्वरूप का परिचय दें।
• राजनीतिक मांगों के सामाजिक आधार को स्पष्ट करते हुए निष्कर्ष लिखें।
19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में इंग्लैंड में मज़दूर वर्ग के हितों के संरक्षण के लिये चलाया गया आंदोलन ही चार्टिस्ट आंदोलन कहलाता है। औद्योगिक क्रांति के परिणामस्वरूप इंग्लैंड में अनेक नवीन औद्योगिक केंद्रों की स्थापना हुई जिससे ब्रिटेन के विभिन्न क्षेत्रों से लोग यहाँ आकर बसने लगे। किंतु सामाजिक-आर्थिक विषमता के कारण श्रमिकों की स्थिति गंभीर से गंभीरतम होती गई। इसी दुरावस्था को दूर करने के लिये श्रमिक वर्ग ने संसद के समक्ष अपनी मांगें रखीं। चूँकि ये मांगें एक चार्टर के रूप में थीं, अत: यह आंदोलन चार्टिस्ट आंदोलन कहलाया।
आंदोलनकारियों ने मांगों का एक दस्तावेज़ तैयार किया, जिसे ‘जनता का आज्ञापत्र’ कहा गया। इसमें छ: मांगें थीं।
सभी को वयस्क मताधिकार प्राप्त हो।
निचले सदन की सदस्यता के लिये न्यूनतम संपत्ति की शर्त समाप्त हो।
संसद का वार्षिक चुनाव हो।
मतदान गुप्त हो।
संसद सदस्यों को वेतन दिया जाए।
संसद क्षेत्र समान हों।
उपर्युक्त मांगों से यह पूर्णतया स्पष्ट हो गया कि यह एक राजनीतिक कार्यक्रम था। किंतु इन राजनीतिक सुधारों की मांग के पीछे आर्थिक और सामाजिक विषमता ही उत्तरदायी थी।
चूंकि नगरीय क्रांति के फलस्वरूप स्थापित औद्योगिक नगरों में मज़दूर वर्ग अनेक समस्याओं से ग्रसित था। अत: वयस्क मताधिकार और निचले सदन की सदस्यता प्राप्त कर वे अपने अधिकारों को सुनिश्चित कर सकते थे। राजनीतिक हिस्सेदारी के माध्यम से समाज विशेषकर मज़दूर वर्ग में जागरूकता आती और उनमें समता (संसद क्षेत्र समान हो) की भावना स्थापित होती। इससे सामाजिक क्रांति का आविर्भाव होता है।
निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि चार्टिस्ट आंदोलन एक ऐसा प्रयत्न था, जिसके अंतर्गत राजनैतिक सुधारों के माध्यम से सामाजिक क्रांति लाने का उद्देश्य निहित था। इसका उद्देश्य समाज में आमूल-चूल परिवर्तन करके मज़दूरों की दशा में सुधार करना था। यद्यपि यह आंदोलन असफल रहा तथापि इसके दूरगामी परिणाम रहे।</s> |
<s>[INST]आप इस विचार को कि गुप्तकालीन सिक्काशास्त्रीय कला की उत्कृष्टता का स्तर बाद के समय में देखने को नहीं मिलता, किस प्रकार सिद्ध करेंगे?[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
• भूमिका
• कथन के पक्ष में तर्क
• उदाहरण
• निष्कर्ष
सिक्कों में प्रयुक्त धातु, सिक्के का आकार तथा स्वरूप, सिक्कों की माप, निर्माण विधि सिक्काशास्त्रीय कला के विभिन्न पहलू हैं। चूँकि सिक्के उस काल की आर्थिक स्थिति के साथ संस्कृतिक और राजनीतिक दशाओं का भी वर्णन करते है। अत: इतिहास तत्त्व में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान है।
गुप्ताकालीन राजाओं ने सोने-चांदी-तांबे तथा निक्षित धातु के विभिन्न आकार के सिक्के चलाए जिनमें रानी प्रकार, धनुधीरी तथा वीणावादन प्रकार अंकित कराई। इन सिक्कों पर हिंदू पौराण्कि पंरपरओं को भी दर्शाया गया। सिक्कों पर उत्कीर्ण किवदंतियाँ इस काल की कलात्मक उत्कृष्टता की उदाहरण हैं।
लेकिन गुप्तोत्तर काल में जहाँ एक ओर सिक्कों के उपयोग में कमी आई। वहीं इनमें नैतिकता तथा कलात्मकता का अभाव भी देखने को मिलता है। माप में भी गुप्तकालीन सिक्कों की अपेक्षा बाद के काल में सिक्कों में गिरावट देखने को मिलती है। मुद्राओं में निर्गत करने वाले राजाओं के नाम का भी उल्लेख नहीं मिलता हैं व्यापार में गिरावट के साथ ही निम्न कोटि की मिश्रधातु के बने सिक्कों का प्रचलन वदा।
अत: जिस प्रकार की विविधता कलात्मकता तथा गुणवत्ता हमें गुप्तकालीन सिक्कों में देखने को तथा गुणवत्ता हमें गुप्तकालीन सिक्कों में देखने को मिलती है बाद के कालों मे उसका अभाव देखने को मिलता है।</s> |
<s>[INST]मूर्तिकला की दृष्टि से भी गुप्त काल में पर्याप्त सृजन हुआ। टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
• भूमिका
• कथन के पक्ष एवं विपक्ष में तर्क
• निष्कर्ष
मथुरा, सारनाथ तथा पाटलिपुत्र गुप्तकालीन मूर्तिकला के उत्कृष्ट आकारमूलक अभिव्यक्ति के मुख्य केंद्र थे। इस समय की मूर्तिकला संयत तथा नैतिक है। कुषाणकालीन मूर्तियों में सौंदर्य का जो रूप था उसके विपरीत गुप्तकाल की मूर्तिकला में नग्नता नहीं है। बल्कि आ़द्योपोत आध्यात्मिकता, भद्रता एवं शालीनता दृष्टिगोचर होती है।
इस समय बनी कुछ मूर्तियाँ भी गांधार शैली के प्रभाव से बिल्कुल अछूती हैं। कुषाण मूर्तियों के विपरीत इनका प्रभामंडल अलंकृत है। सारनाथ की बुद्धमूर्ति पद्मासन मुद्रा में है। मथुरा में दो खड़ी मुद्रा की मूर्ति है। सुल्तानगंज की ताम्रमूर्ति, साढ़े सात फुट ऊँची है।
हिंदुओं ने मूर्तियों को देवी-देवताओं का प्रतीक माना उनका प्रतिनिधि नहीं। इस प्रकार इस काल में देवता तो मानवीय आकार ले लिया उनमें कई भुजाओं का निर्माण किया गया तथा प्रत्येक भुजा को किसी-न-किसी देवता का प्रतीक मान लिया गया। इनका निर्माण मथुरा शैली के प्रतिमानों के आधार पर हुआ। विष्णु की प्रसिद्ध प्रतिमा देवगढ़ का दशान्तर मंदिर- ये अंततशायी रूप में हैं। अवतारों में अनेक वराह की मूर्तियाँ बनाई गई। शैव संप्रदाय अधिकतर लिंग पूजा तक सीमित था और इसमें शिल्प की अधिक संभावनाएँ नहीं थी। फिर भी कत्यदंडा से प्राप्त चतुर्मुखी तथा खोह से प्राप्त एक मुखी शिवलिंग के साथ ही भूमरा के गर्भगृह में स्थापित एकमुखी शिवलिंग उल्लेखनीय है।
इसके अतिरिक्त इस काल में मृणमूर्तियों का प्राप्ति उत्तर भारत की विशेषता रही। इनमें से बहुत सी साँचे में ढली हुई है और इसलिये लगता है कि इनका निर्माण बड़े पैमाने पर होता था। इनमें से कुछ मूर्तियों का उपयोग धार्मिक कृतियों के लिये होता था- पहाड़पुर से कृष्ण की लीालाओं से संबंधित मृणमूर्तियाँ प्राप्त हुई है। अहिक्षन से गंगा-यमुना की एवं श्रावस्ती से धराधारी शिव की मृणमूर्तियों मिली है, परंतु अधिकांश मूर्तियों का धर्म से कोई संबंध नहीं था और उनका उपयोग खिलौने तथा सजावट की सामग्री के रूप में होता था।</s> |
<s>[INST]संगम साहित्य में प्राचीन तमिल देश के समाज व संस्कृति का ज्ञान प्राप्त होता है। विश्लेषण कीजिये।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
• भूमिका
• संगम साहित्य से प्राचीन तमिल संस्कृति के बारे में प्राप्त जानकारियों के बिंदु
• निष्कर्ष
संगम युग 300 ई.पू. से 300 ई. तक के दक्षिण भारतीय इतिहास को संदर्भित करता हैं इस कालखंड में लिखी गई साहित्यिक रचनाओं को संगम साहित्य के नाम से जाना जाता है।
संगम साहित्य को तत्कालीन समाज के विषय में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान करने वाली शिलापादिकारम तथा मणिमेखले जैसे रचनाएँ उस समय की सामाजिक स्थिति को भली-भाँति उजागर करते हैं। इन ग्रंथों में तत्कालीन समाज नारी की स्थिति, दार्शनिक एवं शास्त्रार्थ संबंधित बातों को शामिल किया गया है। संगमकालीन समाज में वर्ण तथा जाति व्यवस्था उतनी सख्त नहीं थी जितनी उत्तर भारत में थी। सामाजिक वर्गों में ब्राह्मणों को समाज में सर्वाधिक प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त था। ब्राह्मणों के पश्चात् वेल्लार वर्ग का स्थान था। संगम युग के तमिल शाकाहार तथा मांसाहार दोनों तरह के भोजन करते थे। वे लोक संगीत, नृत्य एवं विविध प्रकार के बाघों द्वारा मनोरंजन किया करते थे। धनी वर्ग पक्के एवं निर्धन वर्ग कच्चे मकानों में रहते थे।
तमिल साहित्य में सांस्कृतिक पक्षों की भी जानकारी प्राप्त होती है। इस काल में मृतक के संस्कारों की जानकारी प्राप्त होती है। अग्निदाह एवं समाधीकरण दोनों ही विधियों द्वारा शव का अंतिम संस्कार किया जाता था। कभी-कभी शवों को खुले में जानवरों के खाने के लिये छोड़ दिया जाता था। ब्राह्मण अपना समय अध्ययन एवं अध्यापन में व्यतीत करते थे साथ ही अन्य धर्मों के अनुयायियों से उनका वाद-विवाद होता रहता था।</s> |
<s>[INST]भूमि निम्नीकरण के संदर्भ में भारत की स्थिति पर प्रकाश डालते हुए भारत द्वारा इसे रोकने के लिये किये गए उपायों की चर्चा करें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
• भूमिका
• भारत में भूमि निम्नीकरण की स्थिति
• इस रोकने के प्रयास/उपाय
• निष्कर्ष
यूनाइटेड नेशन कन्वेंशन टू कॉम्बैट डिजर्टिफिकेशन के अंतर्गत 2030 तक भूमि निम्नीकरण को रोकने का लक्ष्य रखा गया है। भारत ने भी सतत् लक्ष्यों के अनुरूप इसे प्राप्त करने का लक्ष्य 2030 सुनिश्चित किया है।
भारत में भूमि निम्नीकरण की स्थिति
वर्ष 2011-2013 के दौरान भारत का कुल निम्नीकृत भूमि क्षेत्र भारत के कुल भूमि क्षेत्रफल का लगभग 29.3 प्रतिशत था।
TERI के अनुमान के अनुसार वर्ष 2014-15 में भूमि निम्नीकरण तथा भू-उपयोग में परिवर्तन के परिणामस्वरूप आर्थिक हानि, भारत की जीडीपी के लगभग 2.54 प्रतिशत के बराबर थी।
जल अपरदन के साथ-साथ वनस्पति का निम्नीकरण तथा वायु अपरदन भी भारत में मरुस्थलीकरण के प्रमुख कारण हैं।
भारत की पर्यावरण स्थिति रिपोर्ट 2019 के अनुसार भारत के कुछ भौगोलिक क्षेत्र का 30 प्रतिशत भाग भू-निम्नीकरण से प्रभावित है।
भारत द्वारा किये जा रहे उपाय
LDN (लैंड डिग्रेडेशन न्यूट्रैलिटी) कार्यक्रम की शुरुआत की गई।
संधारणीय कृषि, संधारणीय पशुपालन प्रबंधन, कृषि वानिकी, संधारणीय वानिकी, नवीकरणीय ऊर्जा, अवसंरचना विकास तथा इको टूरिज्म सहित संपूर्ण विश्व में भूमि पुनर्वासन एवं संधारणीय भूमि प्रबंधन पर बैंक ग्राह्य परियोजनाओं में निवेश करने हेतु एलडीएन विधि का निर्माण करना।
यूएनसीसीडी द्वारा ग्लोबल लैंड आउटलुक जारी किया जाता है जिसमें मानव कल्याण के लिये भूमि की गुणवत्ता के केंद्रीय महत्त्व का प्रदर्शन, भूमि उपयोग का परिवर्तन, निम्नीकरण तथा हानि से संबंधित वर्तमान प्रवृत्तियों का आंकलन, इन्हें प्रेरित करने वाले कारकों की पहचान तथा प्रभावों आदि का विश्लेषण आदि किया जाता है।
एकीकृत जलसंभर प्रबंधन कार्यक्रम, प्रति बूंद अधिक फसल, राष्ट्रीय वनीकरण कार्यक्रम, राष्ट्रीय हरित मिशन आदि योजनाओं में भूमि निम्नीकरण से निपटने हेतु आवश्यक घटक विद्यमान है।
उपरोक्त के अतिरिक्त भूमि निम्नीकरण को रोकने हेतु भूमि संसाधनों पर बढ़ते दबावों को कम किये जाने की आवश्यकता है साथ ही मल्टीफंक्शन लैंडस्केप एप्रोच, ग्रामीण-शहरी इंटरफेस का प्रबंधन तथा स्वस्थ तथा उपजाऊ भूमि को किसी भी प्रकार की हानि से बचाने के लिये एकीकृत प्रयासों पर बल दिये जाने की आवश्यकता है।</s> |
<s>[INST]लुप्तप्राय: भाषाओं के विलुप्त होने के कारणों पर प्रकाश डालें। इस संदर्भ में लुप्तप्राय भाषाओं की सुरक्षा तथा संरक्षण योजना के प्रावधानों को रेखांकित करें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
• भूमिका
• लुप्तप्राय: भाषाओं के विलुप्त होने के कारण
• लुप्तप्राय भाषाओं की सुरक्षा तथा संरक्षण योजना
• निष्कर्ष
भारतीय लोकभाषा सर्वेक्षण/पीपुल्स लिंग्वस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया 2013 के अनुसार पिछले 50 वर्षों में लगभग 220 भाषाएँ लुप्त हो चुकी हैं, जबकि 197 भाषाओं को लुप्तप्राय के रूप में वर्गीकृत किया गया है। वर्तमान में भारत सरकार केवल उन्हीं भाषाओं को मान्यता देती है जिसकी अपनी एक लिपी हो तथा व्यापक स्तर पर बोली जाती हो। इस प्रकार भारत सरकार द्वारा 122 भाषाओं को मान्यता प्रदान की गई है जो भारतीय लोकभाषा सर्वेक्षण द्वारा आकलित 780 भाषाओं की तुलना में बहुत कम है।
यूनेस्को द्वारा अपनाए गए मानदंडों के अनुसार, कोई भाषा तब विलुप्त होती है जब कोई व्यक्ति उस भाषा को नहीं बोलता था, न ही याद रखता है। उल्लेखनीय है कि यूनेस्को ने भारत की 42 भाषाओं को गंभीर रूप से संकटग्रस्त माना है।
विलुप्त होने के कारण
भारत सरकार 10,000 में कम लोगों द्वारा बोले जाने वाली भाषाओं को मन्यता नहीं देती है।
समुदायों की प्रवासन तथा अप्रवासन की प्रवृत्ति के कारण पारंपरिक बसावट में कमी आती जा रही है, जिसके कारण क्षेत्रीय भाषाओं को नुकसान पहुँचता है।
रोजगार के प्रारूप में परिवर्तन।
सामाजिक तथा सांस्कृतिक मूल्यों में परिवर्तन।
व्यक्तिवाद की प्रवृत्ति में वृद्धि के कारण समुदाय के हित के ऊपर स्वयं के हितों को प्राथमिकता दिये जाने के कारण भी भाषाओं पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
पारंपरिक समुदायों में भौतिकवाद का अतिक्रमण जिसके चलते आध्यात्मिक तथा नैतिक मूल्य उपभोक्तावाद से प्रभावित होते हैं।
लुप्तप्राय भाषाओं की सुरक्षा तथा संरक्षण योजना
मानव संसाधन विकास मंत्रालयों ने लुप्तप्राय भाषाओं की सुरक्षा तथा संरक्षण के लिये योजना का संचालन किया है।
इसकी शुरुआत 2013 में की गई।
इस योजना का एकमात्र उद्देश्य देश की ऐसी भाषाओं का दस्तावेजीकरण करना तथा उन्हें संगृहीत करना है जिनकी निकट भविष्य में लुप्तप्राय या संकटग्रस्त होने की संभावना है।
इस योजना की निगरानी कर्नाटक के मैसूर में स्थित केंद्रीय भारतीय भाषा संस्थान द्वारा की जाती है।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अनुसंधान परियोजनाओं को शुरू करने के लिये केंद्रीय तथा राज्य विश्वविद्यालयों में लुप्तप्राय भाषाओं के लिये केंद्र स्थापित करने हेतु वित्तीय सहायता प्रदान करता है।
इस योजना के अधीन केंद्रीय भारतीय भाषा संस्थान देश में 10,000 से कम लोगों द्वारा बोली जाने वाली सभी भाषाओं तथा मातृभाषाओं की सुरक्षा संरक्षण तथा प्रलेखन का कार्य करता है।
इस प्रकार उपरोक्त प्रायासों द्वारा लुप्तप्राय भाषाओं की सुरक्षा तथा संरक्षण इन भाषाओं को लुप्त होने से बचाती है।</s> |
<s>[INST]वर्तमान समाज व्यापक विश्वास न्यूनता से ग्रसित है। इस स्थिति के व्यक्तिगत कल्याण तथा सामाजिक कल्याण के संदर्भ में क्या परिणाम है? आप स्वयं को विश्वसनीय बनाने के लिये व्यक्तिगत स्तर पर क्या उपाय अपना सकते हैं?[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
• कैसे वर्तमान समाज व्यापक विश्वास न्यूनता से ग्रसित है?
• इसका व्यक्तिगत तथा सामाजिक कल्याण पर परिणाम
• स्वयं को विश्वसनीय बनाने के उपाय
• निष्कर्ष
विश्वास न्यूनता से आशय है कि लोगों को एक दूसरे तथा साथ-ही-साथ सामाजिक तथा राजनीतिक संस्थाओं पर निरंतर विश्वास घट रहा है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति तथा समाज दोनों को नुकसान होता है। जब व्यक्ति एक-दूसरे पर भरोसा नहीं कर पाता तो वह अकेलेपन का शिकार हो जाता है जो उसे अवसाद की ओर ले जाता है, उसका सामाजिक तथा भावनात्मक जीवन असफल हो जाता है तथा सामाजिक समन्वय की कड़ी को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है।
विश्वास-न्यूनता का नुकसान सामाजिक कल्याण पर भी पड़ता है, क्योंकि ऐसे समाज में आस-पड़ोस के अन्य सामाजिक संबंध कमज़ोर हो जाते हैं। परस्पर अविश्वास से भरे माहौल में अपराध व अनैतिक आचरण बढ़ जाते हैं। उन्हें नियंत्रित करने के लिये सामाजिक दबाव नहीं रहता।
मैं स्वयं को विश्वसनीय बनाने के लिये निम्नलिखित उपाय अपनाऊँगा-
यदि किसी से कोई वादा करूंगा तो कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी उसे निभाने का प्रयास करूंगा।
मैं किसी संकट में फंसे व्यक्ति का कभी फायदा नहीं उठाऊँगा। मैं उसकी मदद करूंगा ताकि न सिर्फ तत्काल समय वह मुझ पर विश्वास कर सके अपितु दीर्घकाल में भी वह मुझ पर विश्वास कर सके।
यदि कोई व्यक्ति मुझे अपने बारे में कोई ऐसी बताई है जिसका ज़िक्र उसने कभी किसी अन्य इंसान से नहीं किया तो मैं किसी भी स्थिति में किसी अन्य व्यक्ति के सामने यह जानकारी व्यक्त नहीं करूंगा।
इस प्रकार उपरोक्त प्रयासों के माध्यम से मैं दीर्घकाल तक स्वयं को दूसरों के प्रति अधिक विश्वसनीय बनाने का प्रयत्न करूंगा साथ ही दूसरों को भी ऐसा करने के लिये प्रेरित करूंगा।</s> |
<s>[INST]द्वितीय विश्वयुद्ध में अधिनायकवादी विचारधाराओं ने राष्ट्रों को एकीकृत रूप प्रदान किया, जिससे एक वैचारिक साम्यता एवं टकराव उत्पन्न हुआ। स्पष्ट करें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
• भूमिका
• द्वितीय विश्वयुद्ध में अधिनायकवादी विचारधाराओं के कारण उग्र राष्ट्रवाद का उदय एवं इसका प्रभाव
• निष्कर्ष
प्रथम विश्वयुद्ध के वैश्विक परिदृश्य में मित्र राष्ट्र अपनी औपनिवेशिक विचारधारा के साथ वैचारिक एवं संगठनात्मक आधार पर प्रभावित करने में सफल रहे, जिसके कारण पराजित राष्ट्रों में अनचाहा राष्ट्रवाद भी प्रकट हुआ। इटली का लाभ उसके अनुकूल न था। अत: उसमें असंतोष का भाव उत्पन्न हुआ। इसी विचार क्रम में जर्मनी में हिटलर के नाजीवाद और इटली में मुसोलिनी के फासीवादी अधिनायकवाद ने उग्र राष्ट्रवाद को संगठित कर संपूर्ण शक्तियों को अधिग्रहीत किया तथा नवीन परिवर्तन के रूप में अपनी विचारधाराओं को एक मंच पर संगठित कर मित्र राष्ट्रों की विचारधारा का सव्रिय विरोध प्रारंभ किया। यहाँ स्पष्ट रूप से यूरोपीय परिदृश्य के अनुरूप प्रारंभिक विरोध साम्यवाद के विरुद्ध था। परंतु ब्रिटेन तथा फ्रांस जैसी शक्तियों के सक्रिय पूंजीवाद का विरोध भी इसमें शामिल था।
अधिनायकवादी विचारधारा ने स्पष्ट रूप से राष्ट्र को एक नए ढंग से कल्पित किया, जिसमें संपूर्ण शक्तियों का केंद्र एक व्यक्ति विशेष था। राष्ट्र सर्वोपरि था जिसका प्रतीक वह स्वयं अधिनायक था। मित्र राष्ट्रों के विरुद्ध आक्रोश का मुख्य कारण प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात् हुई संधियाँ थी। जिसमें जर्मनी और राष्ट्रों के विरुद्ध आव्रोश का मुख्य कारण प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात् हुई संधियाँ थी। जिसमें जर्मनी और इटली को राष्ट्रीय अपमान का सामना करना पड़ा। जिसका विरोध करते हुए अधिनायकवाद ने वैश्विक नियंत्रण के प्रयास प्रारंभ किये। इसके वैचारिक एकीकरण का विरोध मित्र राष्ट्रों ने किया जिसमें प्रारंभ में तुष्टीकरण की नीति अपनाई, जो द्वितीय विश्वयुद्ध में परिवर्तित हुई। इन राष्ट्रों के मध्य एक धुरी का निर्माण हुआ जिसे रोम-बर्लिन धुरी कहा गया। बाद में जापान को सम्मिलित कर निरंकुश सैन्यवाद का समर्थन प्राप्त किया और रोम-बर्लिन-टोकियो धुरी का निर्माण कर मित्र राष्ट्रों के विरोध में सक्रियता दर्ज की। जर्मनी के बढ़ते हुए इस प्रभाव को देखते हुए जर्मनी, फ्रांस एवं ब्रिटेन के मध्य 1937 का म्यूनिख समझौता हुआ जिसमें दोनों ही देश जर्मनी के प्रति तुष्टीकरण की नीति अपना रहे थे। परंतु यह समझौता जर्मनी के पोलैंड अभियान के बाद स्वत: टूट गया तथा और द्वितीय विश्वयुद्ध का प्रारंभ हुआ।
इस घटनाक्रम में स्पष्ट रूप से मित्र राष्ट्र एवं धुरी राष्ट्रों के मध्य उत्पन्न वैचारिक गतिरोध, सामरिक रणनीति, प्रत्यक्ष साम्राज्यवाद, संधियों तथा प्रति संधियों का प्रभाव, साम्यवाद का प्रसार इन सभी के मध्य स्पष्ट रूप से जिन परिस्थितियों का निर्माण हुआ, वे द्वितीय विश्वयुद्ध में परिवर्तित हो गई।</s> |
<s>[INST]‘ग्रीष्मकालिक मानसून’ के पूर्वानुमान की विधियाँ किस सीमा तक सफल सिद्ध हुई हैं? ‘भारतीय मौसम विभाग’ द्वारा विकसित मानसून के पूर्वानुमान की अद्यतन विधियों पर प्रकाश डालें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण
• ग्रीष्मकालीन मानसून का संक्षिप्त परिचय देते हुए उत्तर प्रारम्भ करें।
• मानसून पूर्वानुमान की प्रचलित विधि/विधियाँ बताइये।
• वर्तमान में प्रचलित विधियों का परिचय देते हुए निष्कर्ष लिखें।
ग्रीष्मकालीन मानसून, दक्षिण एवं दक्षिण-पूर्वी एशिया में घटने वाली विशिष्ट जलवायविक परिघटना है। अप्रैल और मई के महीनों में जब सूर्य कर्क रेखा पर लम्बवत् चमकता है तो हिंद महासागर के उत्तर में स्थित विशाल भू-खंड अत्यधिक गर्म हो जाता है। इसके परिणामस्वरूप उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिमी भाग पर एक गहन न्यूनदाब का क्षेत्र विकसित हो जाता है। चूँकि भूखंड के दक्षिण में महासागरीय क्षेत्र अपेक्षया धीरे-धीरे गर्म होता है, अत: यह निम्नदाब का क्षेत्र विषुवत् रेखा के दक्षिण से दक्षिण-पूर्वी सन्मार्गी पवनों को आकर्षित करता है। इन परिस्थितियों में अंत:उष्ण कटिबंधीय क्षेत्र उत्तर की ओर स्थानांतरित हो जाता है। इस प्रकार दक्षिण-पूर्वी सन्मार्गी पवनें विषुवत् रेखा को पार करने के पश्चात् दक्षिण-पश्चिमी मानसूनी पवन के रूप में विस्तृत हो जाती हैं। इसे ही ग्रीष्मकालीन मानसून कहते हैं।
भारत में ग्रीष्मकालीन मानसून का अधिक महत्त्व है क्योंकि भारतीय कृषि का वृहद् भाग इस पर निर्भर है। इसलिये मानसून पूर्वानुमान भारत में और भी अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है। विज्ञान की भाषा में पूर्वानुमान का अर्थ भविष्य के लिये कुछ चरों में परिवर्तनीयता का अनुमान लगाने से होता है। राष्ट्रीय मौसम सेवा के अनेक कार्यों में से ग्रीष्मकालीन मानसून का पूर्वानुमान लगाना भी एक है। वर्तमान में मानसून-पूर्वानुमान की अनेक विधियाँ प्रचलित हैं, जिनमें तीन प्रमुख हैं-(1) लघु अवधि मानसून पूर्वानुमान, (2) मध्यम अवधि मानसून पूर्वानुमान और (3) दीर्घ अवधि मानसून पूर्वानुमान।
लघु अवधि मानसून पूर्वानुमान, 72 घण्टों तक के मौसम का पूर्वानुमान करता है। मध्यम अवधि मानसून पूर्वानुमान, 4 से 10 दिनों तक के लिये वैध होता है। इसमें प्रतिदिन के मौसम का औसत लघु अवधि विधि की तुलना में अधिक सटीक होता है। दीर्घ अवधि मानसून पूर्वानुमान में 30 दिनों से लेकर एक ऋतु तक के मौसम का पूर्वानुमान होता है। इसके अतिरिक्त विस्तृत अवधि पूर्वानुमान की विधि भी प्रचलित है जो मध्यम और लघु अवधि पूर्वानुमान के मध्य अवस्थित है। इसमें 10 दिनों तक के मौसम का पूर्वानुमान किया जाता है।
वर्तमान में तकनीकी उन्नयन और मौसमी उपग्रहों की उपलब्धता ने देश में मौसम पूर्वानुमान की विधियों में परिवर्तन किया है। पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय ने घोषणा की है कि भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (IMD) ‘गतिशील मानसून मॉडल’ पर आधारित विधि के द्वारा सुपर कंप्यूटर से मानसून का पूर्वानुमान करेगा। इस मॉडल को युग्मित पूर्वानुमान प्रक्रिया प्रकार (Version-2) भी कहा जाता है। किंतु इस मॉडल को अधिकांशत: लघु अवधि की जाँच के लिये ही अपनाया जाता है और दीर्घ अवधि पूर्वानुमान के लिये यह विधि 60% तक ही सटीक रही है।
इस प्रकार, निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि ग्रीष्मकालीन मानसून के सामाजिक और आर्थिक महत्त्व को देखते हुए सटीक पूर्वानुमान की अनेक विधियाँ अपनाई जा रही हैं तथा इसे और अधिक सटिक बनाने के लिये भारत सरकार एवं भारतीय मौसम विज्ञान विभाग निरंतर प्रयासरत हैं।</s> |
<s>[INST]हिंद महासागर के ‘सुनामी प्रवण क्षेत्र’ होने के क्या कारण हैं? हाल के दिनों में इसकी तलहटी में एक नए प्लेट सीमांत के बनने की परिघटना एवं उसके प्रभाव को स्पष्ट करें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण
• हिंद महासागर और सुनामी प्रवण क्षेत्र का संक्षिप्त परिचय लिखते हुए उत्तर प्रारंभ करें।
• हिंद महासागर में सुनामी प्रवण क्षेत्र विकसित होने के कारण बताएँ।
• वर्तमान में इस क्षेत्र में प्लेट सीमांत विकसित होने के कारणों एवं प्रभावों की चर्चा करते हुए उत्तर लिखें।
तीव्र भूकंप के दौरान समुद्री प्लेट कई मीटर तक खिसक जाती है, फलस्वरूप समुद्री सतह पर ज़बरदस्त उथल-पुथल मचती है और इस कारण सागर की सतह पर जल बड़ी-बड़ी लहरों के रूप में उठता है। यद्यपि महासागरों में ये बहुत कम ऊँचाई की होती हैं, किंतु जैसे-जैसे यह किनारों की ओर बढ़ती हैं तो इसकी ऊँचाई और तीव्रता बढ़ती जाती है। यही तीव्र और ऊँची लहरें धरातल पर सुनामी कहलाती हैं। हिंद महासागर भूगर्भिक रूप से प्लेट सीमाओं से बहुत दूर है, फिर भी यह सुमात्रा और अन्य क्षेत्रों के नज़दीक स्थित अत्यधिक सक्रिय भूकंपीय क्षेत्र के काफी निकट है जो इन क्षेत्रों में उत्पन्न भूकंप से हिन्द महासागर में सुनामी का खतरा उत्पन्न करता है।
वर्ष 2004 में उत्पन्न सुनामी से हुए नुकसान के कारण यह क्षेत्र सुनामी प्रवण क्षेत्र के रूप में चिह्नित किया जाने लगा। यद्यपि हिन्द महासागर में सुनामी का आना बहुत ही दुर्लभ है क्योंकि यहाँ प्रशांत महासागर की तुलना में भूकंपीय हलचलें बहुत ही कम होती हैं। फिर भी इण्डोनेशियाई द्वीपसमूह में अवस्थित ज्वालामुखीय क्रियाओं के कारण भूकंप की संम्भावनाएँ बनती रहती हैं।
वर्ष 2012 में अंडमान-सुमात्रा क्षेत्र में आए भूकंप के कारण इस क्षेत्र में नवीन प्लेट सीमांत के विकसित होने की संभावना जताई जा रही है। इस भूकंप के पूर्व, पश्चात् और भूकंप के दौरान एकत्रित किये गए आँकड़ों के आधार पर वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि हिन्द महासागर की तलहटी में एक नवीन प्लेट सीमांत विकसित हुई है। यह भूकंप इतना तीव्र था कि इससे अंतर-प्लेट भूकंप उत्पन्न हुआ और तीव्र झटके के कारण प्लेट में दरार उत्पन्न हो गई।
यह नवीन प्लेट सीमांत इस क्षेत्र में भूकंपों की बारम्बारता को बढ़ा सकती है। इससे हिन्द महासागर क्षेत्र तथा भारतीय उपमहाद्वीप के तटीय क्षेत्रों में सुनामी आने का खतरा बढ़ गया है। इससे मत्स्य पालन, तटीय पारिस्थितिकी, पर्यटन, तटीय अवसंरचना आदि क्षेत्र प्रभावित हो सकते हैं।
निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि हिन्द महासागर तकनीकी रूप से सुनामी प्रवण क्षेत्र नहीं है, किंतु नवीन भूगर्भिक हलचलों के कारण इस क्षेत्र में सुनामी आने की संभावनाएँ बढ़ गई हैं।</s> |
<s>[INST]‘माइक्रोप्लेट्स’ से आप क्या समझते हैं? ‘टूज़ो विल्सन’ की अवधारणा किस प्रकार ‘प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत’ को समझने में सहायक सिद्ध हुई है? [/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण
• प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत का संक्षिप्त परिचय देते हुए उत्तर प्रारम्भ करें।
• ‘माइक्रोप्लेट्स’ को समझाएँ।
• ‘टूज़ो विल्सन’ के सिद्धांत को समझाते हुए यह स्पष्ट करें कि यह प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत को समझने में किस प्रकार सहायक है।
• निष्कर्ष।
प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत का संबंध स्थलमंडलीय परिवर्तनों की व्याख्या करना है। वर्ष 1967 में मैकेन्जी पारकर और मोरगन ने स्वतंत्र रूप से उपलब्ध विचारों को समन्वित कर एक अवधारणा प्रस्तुत की, जिसे प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत कहा गया। विवर्तनिकी अंग्रेज़ी के टेक्टॉनिक (Tectonic) शब्द का पर्याय है जो ग्रीक भाषा के tektonikos से लिया गया है। Tektonikos शब्द का अर्थ निर्माण अथवा रचना से है। एक विवर्तनिक प्लेट ठोस चट्टान का विशाल व अनियमित आकार का खंड है, जो महाद्वीपीय अैर महासागरीय स्थलमंडलों से मिलकर बना है। ये प्लेटें दुर्बलता मंडल पर एक दृढ़ इकाई के रूप में क्षैतिज अवस्था में चलायमान हैं।
एक प्लेट को महाद्वीपीय या महासागरीय प्लेट कहा जाता है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि इस प्लेट का अधिकतर भाग कहाँ अवस्थित है। जैसे- प्रशांत प्लेट मुख्यत: महासागरीय प्लेट है, जबकि यूरेशियाई प्लेट को महाद्वीपीय प्लेट कहा जाता है। आकार के आधार पर प्लेटों को वृहद्, लघु और सूक्ष्म वर्गों में वर्गीकृत किया गया है।
सूक्ष्म या माइक्रोप्लेट्स आकार में छोटी तथा 1 मिलियन वर्ग कि.मी. क्षेत्रफल से कम आकार की होती हैं। ये प्लेटें वृहद् एवं लघु प्लेटों के किनारों पर पाई जाती हैं। जैसे- अप्रीकी प्लेट के साथ मेडागास्कर प्लेट, सेशल्स माइक्रोकॉण्टिनेंट, रोवुमा प्लेट आदि तथा अंटार्कटिक प्लेट के साथ दक्षिण सैण्डविच प्लेट, शेटलैण्ड प्लेट; कोकोस प्लेट के साथ रिवेरा प्लेट और मालपेलो प्लेट आदि।
इस सिद्धांत में प्लेट शब्दावली का सबसे पहले उपयोग कनाडा के भू-वैज्ञानिक टूज़ो विल्सन ने किया था। विल्सन के अनुसार पृथ्वी का क्रस्ट भाग विभिन्न प्लेटों में विभक्त है, जो दुर्बलता मंडल पर क्षैतिज दिशा में क्रियाशील है। टूज़ो विल्सन ने प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत में हॉटस्पॉट और संक्रमण परिसीमा की अवधारणा स्पष्ट की। यद्यपि विल्सन द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत अस्पष्ट और परिकल्पना (Hypothesis) पर आधारित था किंतु इसी सिद्धांत को आधार बनाकर कालांतर में डब्ल्यू. जे. मॉर्गन और ली पिचोन ने इसे तार्किक और सरल रूप में प्रस्तुत किया।
निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि विल्सन के सिद्धांत ने गहरे महासागरीय गर्त, पर्वत शृंखलाएँ, ज्वालामुखी शृंखलाएँ, वृहद् भूकम्पीय क्षेत्रों का वितरण आदि को समझाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। साथ ही वृहद्, लघु और सूक्ष्म प्लेटों का वर्गीकरण भी टूज़ो विल्सन के सिद्धांत से प्रभावित है। </s> |
<s>[INST]प्राचीन तथा मध्यकालीन शासकों द्वारा संगीत के संरक्षण तथा प्रोत्साहन ने भक्ति परंपरा को जीवंत बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। परीक्षण करें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
• भूमिका
• शासकों द्वारा भक्ति परंपरा के संगीत के संरक्षण में योगदान
• निष्कर्ष
भारतीय इतिहास के सभी कालों में संगीत तथा भक्ति का संबंध अन्योन्याश्रितता का रहा है। भक्ति परंपरा में संगीत एक ऐसा साधन था जिसके माध्यम से ईश्वर को सर्वस्व समर्पित किया जाता था। प्राचीन तथा मध्यकालीन शासकों द्वारा राजदरबारी संगीत को प्रोत्साहन ने न केवल संगीत को जीवंत बनाया, बल्कि भक्ति परंपरा को भी मज़बूती प्रदान की।
उल्लेखनीय है कि प्राचीन काल में समुद्रगुप्त, धार के राजा भोज तथा कल्याण के राजा सोमेश्वर आदि ने संगीत को संरक्षण दिया था। राजाओं की संगीत को संरक्षण देने की प्रवृत्ति के कारण भक्त कवियों ने अपनी-अपनी रचनाओं में ‘संगीत’ को महत्त्व देना प्रारंभ किया। 12वीं शताब्दी में ओडिशा के जयदेव ने ‘गीत-गोविंद’ जैसे उत्कृष्ट राजकाव्य की रचना की जिसका प्रत्येक गीत रागों पर आधारित था। ‘गीत-गोविंद’ राधा और कृष्ण के प्रेम-प्रसंगों पर रचित काव्य है। अभिनवगुप्त द्वारा रचित ‘अभिनवभारती’ ग्रंथ संगीत के विषय में उपयोगी जानकारी प्रदान करता है। इसी तरह शैववादी ‘नयनार’ तथा वैष्णववादी ‘अलवारों’ ने अपनी कविताओं की रचना संगीत के आधार पर की।
मुगलकाल में भी संगीत को संरक्षण दिया गया। इस काल में ‘कव्वाली’, ‘ख्याल’ आदि का विकास हुआ। अकबर ने गीतों को रागात्मक रूप से बांधा तथा संगीतकारों को प्रोत्साहित किया। इससे प्रभावित होकर मध्यकाल में सूफी तथा भक्ति संतों ने संगीत को बढ़ावा दिया। सूफी खानकाहों में कव्वालियाँ गाई जाती थी, वहीं भक्ति संतों के कारण भक्ति संगीत, जैसे- कीर्तन और भजन आदि लोकप्रिय हुए।
मुगल शासकों के संरक्षण में ही स्वामी हरिदास तथा उनके शिष्यों ने अनेक गीतों को विभिन्न धुनों को बांधा। इब्राहिम आदिलशाह द्वितीय द्वारा रचित 17वीं शताब्दी में ‘किताब-ए-नवरस’ में मुस्लिम संतों तथा देवी-देवताओं को प्रशंसाओं की कविताओं का संग्रह है।
निष्कर्षत: प्राचीन तथा मध्यकालीन शासकों द्वारा संगीत को दिये गए संरक्षण ने भक्ति परंपरा को जीवंत बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।</s> |
<s>[INST]वैश्वीकरण ने भारतीय समाज को किस सीमा तक सकारात्मक रूप से प्रभावित किया, चर्चा करें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
• भूमिका
• भारतीय समाज पर वैश्वीकरण का प्रभाव
• निष्कर्ष
वैश्वीकरण एक सतत् चलने वाली प्रक्रिया है जिसमें दुनिया के सभी देश एक-दूसरे से आर्थिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक रूप से जुड़े हुए हैं। इस प्रक्रिया में सभी संभव स्तरों पर वैश्विक संचार बढ़ता है तथा विश्व में एकरूपता और क्षेत्रीयता दोनों की प्रवृत्ति बढ़ती है। इस प्रक्रिया में कुछ सकारात्मक और कुछ नकारात्मक प्रभाव विभिन्न क्षेत्रों में पडते हैं।
वैश्वीकरण के भारतीय समाज पर पड़ने वाले सकारात्मक प्रभावों को निम्नलिखित बिंदुओं के अंतर्गत समझा जा सकता है-
वैश्वीकरण के परिणामस्वरूप भारतीय समाज ने पश्चिमी समाज तथा संस्कृतियों के कुछ बातों को आत्मसात् किया है, जैसे- महिलाओं की स्वतंत्रता हेतु पहल, रूढ़िवादी तत्त्वों का विरोध।
शिक्षा की अधिक-से-अधिक लोगों तक पहुँच सुनिश्चित हुई है।
शहरीकरण, जनजागरूकता, संसाधनों की पहुँच में वृद्धि हुई है।
हमारे खान-पान, रहन-सहन तथा पहनावे में विविधता आई है, वैश्वीकरण ने हमारे सामने विकल्पों की उपलब्धता को बढ़ावा दिया है।
भारतीय समाज में आधुनिकतम तकनीकों का आगमन हुआ। लेपटॉप, एयर कंडीशनर, आदि आज आम बात हो गई है।
वैश्वीकरण के फलस्वरूप भारतीय समाज में मध्यम वर्ग का उदय हुआ।
इसके अलावा डिजिटल लेन-देन, सोशल मीडिया, ई-कॉमर्स आदि कई क्षेत्रों में प्रगति हुई है। हालाँकि वैश्वीकरण का समाज पर पड़ने वाले प्रभाव की भी सीमाएँ हैं, जैसे- शिक्षा बाजार केंद्रित हो गई है और आज पढ़ाई का उद्देश्य मात्र पैसे कमाने तक सीमित रह गया है।
लोक कल्याणकारी राज्य की जगह बाज़ार, आर्थिक तथा सामाजिक प्राथमिकताओं के प्रमुख निर्धारक हो गए हैं।
वैश्वीकरण ने सांस्कृतिक समरूपता की दिशा में कार्य किया है जिसकी वजह से स्थानीय संस्कृतियों को खतरा पहुँचा है।
निष्कर्षत: वैश्वीकरण ने समाज को कई सकारात्मक आयामों से सुसज्जित करने में मदद की है, किंतु इसकी कुछ सीमाएँ भी रही है।</s> |
<s>[INST]वर्तमान में भूजल उपयोग की स्थिति को स्पष्ट करते हुए अटल भूजल योजना के महत्त्वपूर्ण प्रावधानों पर प्रकाश डालें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टकोण:
• भूमिका
• भूजल से जुड़े आंकड़े
• अटल भूजल योजना
• निष्कर्ष
जल और संबंद्धित सांख्यिकी 2019 द्वारा प्रस्तुत आँकड़ों के अनुसार भारत में वार्षिक पुन: आपूर्ति योग्य भूजल संसाधन 432 बिलियन घन मीटर है जिसमें से वार्षिक निकासी योग्य भूजल संसाधन 393 बिलियन घन मीटर है, जबकि भूजल की कुल वार्षिक निकासी 249 बिलियन घन मीटर है।
उपलब्ध भूजल के द्वारा 60 प्रतिशत सिंचाई आवश्यकताओं की पूर्ति की जाती है, इसके अलावा 50 प्रतिशत शहरी पेयजल आवश्यकताओं तथा 85 प्रतिशत ग्रामीण पेयजल आवश्यकताओं की पूर्ति हो रही है।
केंद्रीय जल आयोग की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2025 में देश में प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता जहाँ 1434 घन मीटर होगी वहीं 2050 में यह घटकर 1219 घन मीटर रह जाएगी।
उपरोत स्थितियों को देखते हुए अटल भूजल योजना की शुरुआत की गई जिसके अंतर्गत सर्वप्रथम प्राथमिकता वाले क्षेत्रों को चिह्नित किया जाएगा, चिह्नित प्राथमिकता वाले क्षेत्रों में सामुदायिक भागीदारी के माध्यम से भूजल प्रबंधन को बेहतर बनाने के लिये भारत सरकार के जलशक्ति मंत्रालय द्वारा केंद्रीय क्षेत्रक योजना के रूप में ‘अटल भूजल योजना’ आरंभ की गई है। इस योजना पर व्यय होने वाली धनराशि का 50 प्रतिशत विश्व बैंक द्वारा वहन किया जाएगा। इस योजना के दो प्रमुख घटकों को चिह्नित किया गया है-
प्रोत्साहन घटक: जिसके अंतर्गत राज्यों को जल सुरक्षा योजना तैयार करने, डेटा एकल करने तथा जल बजट संबंधित गतिविधियों पर कार्य करने हेतु प्रोत्साहित किया जाएगा। इस योजना के अंतर्गत सात राज्यों, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, गुजरात, कर्नाटक, हरियाणा तथा मध्य प्रदेश को सम्मिलित किया जाएगा।
संस्थागत सुदृढ़ीकरण तथा क्षमता निर्माण घटक: इस घटक के अंतर्गत जल उपयोगकर्त्ता संगठनों को सुदृढ़ करने, पंचायतों को अधिकाधिक धन आवंटित करने, निगरानी नेटवर्क में सुधार करने तथा क्षमता निर्माण करने का काम किया जाएगा। इस योजना को 5 वर्षों के लिये कार्यान्वित किया जाएगा।</s> |
<s>[INST]क्या कारण है कि ‘पश्चिमी घाट की तुलना में हिमालय में भूस्खलन की घटनाओं की बारंबारता अधिक देखी गई है?[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
• भूमिका
• पश्चिमी घाट एवं हिमालयी क्षेत्र का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए भूस्खलन की घटनाओं की बारंबारता के कारण
• निष्कर्ष
भूस्खलन वह प्राकृतिक घटना है जो गुरुत्वाकर्षण बल, ढाल की अधिक प्रवणता, बहाव, भारी बर्फबारी जैसे सम्मिलित कारकों के कारण घटित होती है जिसके कारण भारी मात्रा में मिट्टी, पत्थर, मलबा आदि पहाड़ी ढ़लानों से टूटकर नीचे गिरता है। भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण विभाग के अनुसार भारत का 15% भूभाग भूस्खलन से प्रभावित है। परंतु हिमालय में पश्चिमी घाट की तुलना में भूस्खलन की घटनाओं की बंरबारता अधिक देखने को मिलती है। जिसके कारणों को निम्नलिखित बिंदुओं के अंतर्गत समझा जा सकता है:-
पश्चिमी घाट की ऊंचाई तथा ढलान की तीव्रता हिमालय की अपेक्षा कम है जो भूस्खलन के प्रमुख कारको में से एक मानी जाती है।
हिमालय एक नवीन वलित पर्वत है जो निर्माण की प्रक्रिया से गुज़र रहा है जबकि पश्चिमी घाट एक घर्षित ब्लॉक पर्वत है।
हिमालय से निकलने वाली नदियों के कारण जल तथा अवसाद का दबाव बढ़ जाता है, जिसके कारण ढलानों पर भी दबाव बढ़ जाता है जबकि पश्चिम घाट की नदियों में हिमालयी नदियों की अपेक्षा अवसाद कम है।
भूकंप की दृष्टिकोण से हिमालयी क्षेत्र अधिक संवेदनशील है जबकि पश्चिमी घाट अपेक्षाकृत स्थित है। जो भू-स्खलन का प्रमुख कारक है।
हिमालयी क्षेत्र में ठंड में होने वाली बर्पबारी जब गर्मी के मौसम में पिछलती है तो वहां की मिट्टी को मुलायम बना देती है जिससे भूस्खलन की समस्या बढ़ जाती है। देखा जाए तो पश्चिमी घाट में भूस्खलन का प्रमुख कारण भारी बारिश है बर्पबारी नहीं।
उपरोक्त के अतिरिक्त हिमालयी क्षेत्र में बढ़ती मानवीय तथा औद्योगिक गतिविधियां पश्चिमी घाट की तुलना में अधिक है। जिसके कारण समय-समय पर भू-स्खलन की समस्या की बारंबारता बढ़ जाती है। </s> |
<s>[INST]समानता. स्वतंत्रता एवं भातृत्व ने फ्रांसीसी क्रांति के प्रथम चरण और साथ ही द्वितीय चरण को भी नेतृत्व प्र्दान किया टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
• भूमिका
• फ्रांसीसी क्रांति में समानता, स्वतंत्रता एवं भातृत्व की भूमिका
• निष्कर्ष
1789 ई. में सम्पन्न फ्रांसीसी क्रांति मुख्यत: निरंकुश, अराजक राजतंत्र के विरुद्ध प्रतिक्रिया थी जिसने जनता ने अपने अधिकारों को पाने संगठित संघर्ष किया गया तथा सत्ता परिवर्तन कर जनरल असेम्बली या काउन्सिल के शासन को स्थापित किया।
इस क्रांति का सूत्र वाक्य स्वतंत्रता, समानता तथा भ्रातृत्व था। जहाँ स्वतंत्रता से आशय स्पष्ट रूप से रूसो जैसे विचारकों का समर्थन था जहाँ मनुष्य को जन्म से ही स्वतंत्र माना गया था। इसके अलावा अन्य दार्शनिकों- जैसे वाल्टेयर, माण्टेम्यू आदि के विचार भी वास्तविक अधिकार के प्रति जनता को प्रेरित करने में सफल रहे तथा स्वतंत्रता बोध के आधार पर क्रांति को संगठित करने में सफल रहे।
मध्यम वर्गीय चिंतकों का मानना था कि उच्च वर्गीय पादरी हो या सामंत कोई भी वर्ग विशेष किसी भी प्रकार के विशेषाधिकार तथा राज्य हवा के योग्य नहीं है। बल्कि राज्य के द्वारा सभी को समान अधिकार प्रदान किये जाने चाहिये।
भ्रातृत्व के सिद्धांत से आशय वर्ग-विभेद होते हुए भी सभी के मध्य समतामूलक तथा मानवतावादी विचारों का प्रसार किया जाना चाहिये। इन सम्मिलित उद्देश्यों को लेकर फ्रांसीसी क्रांति के प्रथम चरण को नेतृत्व प्रदान किया गया।
किंतु सत्ता परिवर्तन के बाद असेम्बली के द्वारा जब पुन: राजतंत्र की कमियों को स्वीकार किया जाने लगा तो जनता उद्वेलित हुई जिसका लाभ नेपोलियन ने उठाया। नेपोलियन ने पुन: स्वतंत्रता, समानता बंधुत्व का नारा देकर अराजक राज्य को समाप्त करने का प्रयास किया जिसमें नेपोलियन सफल हुआ किंतु जनता को पुन: निराशा ही हाथ लगी क्योंकि नेपोलियन ने सभी शक्तियों का अधिग्रहण कर निरंकुश राजतंत्र की स्थापना कर दी।</s> |
<s>[INST]‘हिटलर की विदेश नीति ने ही विश्वयुद्ध की आशंका को जन्म दिया।’ टिप्पणी कीजिये।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
• भूमिका
• विश्वयुद्ध के मुख्य कारणों में हिटलर की विदेश नीति
• निष्कर्ष
हिटलर की विदेश नीति के सामान्य सिद्धांत के अंतर्गत राज्य की सर्वोच्चता तथा युद्ध की अनिवार्यता का सिद्धांत समाहित था। हिटलर ने उग्र-राष्ट्रवाद का समर्थन किया तथा अंतर्राष्ट्रीयता का विरोध किया तथा सैन्य बल पर आधारित विदेश नीति को निर्धारित करते हुए युद्ध को राष्ट्रीय शक्ति का प्रतीक माना।
हिटलर नस्लवाद के सिद्धांत का समर्थक था। इसके आधार पर उसने उन क्षेत्रों का अधिग्रहण करना चाहा जहाँ जर्मन जनसंख्या की अधिकता थी, जैसे- चेकोस्लोवाकिया, ऑस्ट्रिया, पोलैंड आदि। इस उद्देश्य को पूरा करने के लिये उसने लेवन स्टांग या लिविंग स्पेस की नीति अपनाई। अर्थात् जर्मन जातियों का बसाव व नई बस्तियों की स्थापना तथा उनके जीवन-यापन के लिये नए स्थानों को जीतना। यह नीति दक्षिण-पूर्वी यूरोप, रूस तथा चेकोस्लोवाकिया में चलाई गई।
हिटलर ने अपने वैदेशिक सिद्धांतों की अभिव्यक्ति के लिये सर्वाय की संधि का अतिक्रमण करते हुए सार क्षेत्र में जनमत संग्रह कराकर सार का जर्मनी में विलय कर लिया गया तथा डेजिंग, मेमेल आदि का विलय करते हुए क्षतिपूर्ति देने से इंकार कर दिया। स्पष्ट रणनीति अपनाते हुए नि:शस्त्रीकरण सम्मेलन का बहिष्कार किया तथा राष्ट्र संघ से जर्मनी को पृथक् कर लिया, साथ ही जर्मनी में अनिवार्य सैन्य सेवा लागू की।
जर्मनी को सशक्त बनाने के उद्देश्य से विभिन्न राष्ट्रों से संधियाँ की 1937 ई. में दस वर्षीय पोलैंड से अनाक्रमण समझौता किया और 1939 ई. में ब्रिटेन के साथ समझौता किया। 1936 ई. में जापान तथा इटली से समझौता कर रोम-बर्लिन-टोकियो धुरी का निर्माण किया। फ्रांस के साथ समझौता किया कि हिटलर उसकी सीमाओं का सम्मान करेगा तथा साम्यवाद के विस्तार को रोकने के लिये कॉमिन्टर्न विरोधी समझौता किया।
युद्ध के माध्यम से विस्तारवादी नीति अपनाते हुए सर्वप्रथम ऑस्ट्रिया पर अधिकार करने का प्रयास 1934 ई. में किया, किंतु इटली के विरोध के कारण शुरुआत में असफल रहा, किंतु 1938 ई. में इटली के समर्थन से ऑस्ट्रेलिया पर अधिकार कर लिया। 1938 ई. में म्यूनिख संधि की तथा सुडेटनलैंड पर अधिकार किया। 1939 ई. में चेकोस्लोवाकिया पर आक्रमण किया। परंतु पोलैंड पर विस्तारवादी नीति से द्वितीय विश्वयुद्ध का सूत्रपा हुआ।
हिटलर की विदेश नीति के परिणामस्वरूप तनावपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय स्थितियाँ निर्मित हुई। अंतर्राष्ट्रीय नियमों एवं आदर्शों का उल्लंघन होने से द्वितीय विश्वयुद्ध की शुरुआत हुई।</s> |
<s>[INST]क्या कारण है कि पश्चिमी घाट की तुलना में हिमालय में भू स्खलन की घटनाओं की बारंबारता अधिक देखी गई है?[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
• भूमिका
• हिमालय में भू स्खलन की घटनाओं की बारंबारता के कारण
• निष्कर्ष
भू स्खलन वह प्राकृतिक घटना है जो गुरुत्वाकर्षण बल, ढाल की अधिक प्रवणता, नदी बहाव, भारी बर्फबारी जैसे सम्मिलित कारकों के कारण घटित होती है जिसके कारण भारी मात्रा में मिट्टी, पत्थर, मलबा आदि पहाड़ी ढ़लानों से टूटकर नीचे गिरता है। भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण विभाग के अनुसार भारत का 15% भू भाग भू स्खलन से प्रभावित है। परंतु हिमालय में पश्चिमी घाट की तुलना में भू स्खलन की घटनाओं की बंरबारता अधिक देखने को मिलती है। जिसके कारणों को निम्नलिखित बिंदुओं के अंतर्गत समझा जा सकता है-
पश्चिमी घाट की ऊँचाई तथा ढलान की तीव्रता हिमालय की अपेक्षा कम है जो भू स्खलन के प्रमुख कारकों में से एक मानी जाती है।
हिमालय एक नवीन वलित पर्वत है जो निर्माण की प्रक्रिया से गुज़र रहा है जबकि पश्चिमी घाट एक घर्षित ब्लॉक पर्वत है।
हिमालय से निकलने वाली नदियों के कारण जल तथा अवसाद का दबाव बढ़ जाता है, जिसके कारण ढलानों पर भी दबाव बढ़ जाता है जबकि पश्चिमी घाट की नदियों में हिमालयी नदियों की अपेक्षा अवसाद कम है
भूकंप की दृष्टिकोण से हिमालयी क्षेत्र अधिक संवेदनशील है जबकि पश्चिमी घाट अपेक्षाकृत स्थिर है। जो कि भू-स्खलन का प्रमुख कारक है।
हिमालयी क्षेत्र में ठंड में होने वाली बर्फबारी जब गर्मी के मौसम में पिघलता है तो वहाँ की मिट्टी को मुलायम बना देती है जिससे भू स्खलन की समस्या बढ़ जाती है। देखा जाए तो पश्चिमी घाट में भूस्खलन का प्रमुख कारण भारी बारिश है बर्फबारी नहीं।
उपरोक्त के अतिरिक्त हिमालयी क्षेत्र में बढ़ती मानवीय तथा औद्योगिक गतिविधियाँ पश्चिमी घाट की तुलना में अधिक है। जिसके कारण समय-समय पर भू-स्खलन की समस्या की बारंबारता बढ़ जाती है।</s> |
<s>[INST]भारतीय पुनर्जागरण 19वीं शताब्दी को एकीकृत होते भारत के रूप में प्रस्तुत करने में सफल रहा। क्यों?[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
• भूमिका
• भारतीय पुनर्जागरण का महत्त्व
• निष्कर्ष
19वीं शताब्दी में ब्रिटिश औपनिवेशिक व्यवस्था के परिणामस्वरूप भारत में एकीकृत शासन प्रणाली तथा प्रशासनिक व्यवस्था की शुरुआत हुई जिसके कारण ब्रिटिश सरकार के अधीन रहे भारतीय क्षेत्रों में भारत जैसी संकल्पना के लक्षण दिखाई देते हैं। इसलिये राजनीतिक तथा आर्थिक आधार पर एकीकृत भारत को ब्रिटिश शासन की परोक्ष देन माना जाता है।
औपनिवेशिक व्यवस्था के परिणामस्वरूप सबसे महत्त्वपूर्ण परिवर्तन यह हुआ कि ब्रिटिश शासन को प्रत्येक वैधानिक व्यवस्था को एक समान भारत में उनके क्षेत्र में लागू किया गया। यह प्रक्रिया उन देशी रियासतों से पूर्णत: भिन्न थी जो अंग्रेजी नियंत्रण से मुक्त थे, किंतु वहाँ की जनता द्वारा भी इसी तरह के परिवर्तनों को लागू किये जाने की मांग की जाने लगी, जैसे कि पश्चिमोत्तर क्षेत्र की कुछ देशी रियासतों में भी दिखाई देता है, लेकिन अंग्रेजों के इस प्रयास से सामाजिक एकता को बढ़ावा नहीं मिला जिसे सुनिश्चित करने में पुनर्जागरण का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा।
पुनर्जागरण के कारण मानवतावादी मूल्यों को प्रश्रय प्रदान किया गया। मानव के ऊपर स्वयं मानव के ही नियंत्रण को स्वीकार करते हुए वर्ण भेद, जाति भेद, लिंग भेद आदि के संदर्भ में प्रभावी उपाय सुझाए गए, जिसके द्वारा सामाजिक चेतना का उदय हुआ। इसमें सामाजिक एकता निहित थी जिसने अंतत: राष्ट्रवाद को भी मजबूत आधार प्रदान करने का कार्य किया।
इस प्रकार अंग्रेजों ने भारत में राजनीतिक तथा आर्थिक एकीकरण का सूत्रपात किया, वहीं भारतीय पुनर्जागरण ने सामाजिक एकता का लक्ष्य निर्धारित कर 19वीं सदी के भारत को एकीकृत भारत में परिवर्तित करने का कार्य किया।</s> |
<s>[INST]‘प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान हुई सामाजिक तथा आर्थिक क्षति की भरपाई आने वाले कई वर्षों तक नहीं की जा सकी।’ विश्लेषण कीजिये।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
• भूमिका
• विश्वयुद्ध के दौरान हुई सामाजिक तथा आर्थिक क्षति
• परिणाम
• निष्कर्ष
प्रथम विश्वयुद्ध की शुरुआत वर्ष 1914 में हुई। अपने विस्तार स्वरूप तथा परिणामों की दृष्टि से प्रथम विश्वयुद्ध उसके पूर्व लड़े गए युद्धों से भिन्न था। विश्व इतिहास में इसे ‘प्रथम आधुनिक युद्ध’ की संज्ञा दी गई। इस युद्ध ने विश्व के सामाजिक-आर्थिक क्षेत्रों को इतना व्यापक नुकसान पहुँचाया कि उसकी क्षतिपूर्ति करना वर्षों तक संभव न हो सका:
सामाजिक परिणाम:
विश्वयुद्ध सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यंत विनाशकारी सिद्ध हुआ। इस दौर में अनेक ऐतिहासिक स्थलों तथा सांस्कृतिक धरोहरों को नष्ट कर दिया गया।
युद्ध के पश्चात् अल्पसंख्यकों की स्थिति दयनीय हो गई।
फ्राँस तथा ब्रिटेन जैसे देशों में परिवार नियोजन पर बल दिया जाता था। ऐसे में युद्ध में जनसंख्या का एक भाग खोने के बाद इन देशों की सरकारों तथा जनता के मध्य संघर्ष देखने को मिले।
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद देशों में अधिक विकसित तथा क्षतिकारक हथियारों का निर्माण शुरू हुआ जिससे समाज में भय का माहौल बना।
युद्ध के परिणामस्वरूप बेरोज़गारी तथा महामारी फैली। युद्ध के दौरान अपाहिज हुए सैनिकों तथा नागरिकों को बेरोज़गारी का सामना करना पड़ा।
महायुद्ध के दौरान शिक्षा को भारी क्षति पहुँची।
आर्थिक परिणाम:
इस युद्ध के कारण धन-संपत्ति का अत्यधिक विनाश हुआ। युद्ध का औसत दैनिक व्यय 40 करोड़ रुपए था जो अंतिम वर्षों में 44 करोड़ तक बढ़ गया।
युद्ध के दौरान युद्धरत देशों के सार्वजनिक ऋणों में भारी वृद्धि हुई। देश ऋण के बोझ से लद गए। विनाश के कारण वस्तुओं के दाम बढ़ने लगे तथा मुद्रा की कीमत गिरने लगी। फलत: व्यापार के क्षेत्र में अव्यवस्था और असंतुलन उत्पन्न हो गया।
युद्धकाल के कारण राष्ट्रों पर ऋण बढ़ गया था। ऋणों को चुकाने के लिये यूरोपीय राष्ट्रों ने भारी मात्रा में कागज़ी मुद्रा जारी की। फलत: मुद्रा का मूल्य बाज़ार में बहुत अधिक गिर गया और वस्तुओं की कीमतों में भारी वृद्धि हुई। धन एकत्रित करने के लिये जनता पर कर लगाए गए, परिणामस्वरूप जनता में असंतोष बढ़ा।
निष्कर्षत: प्रथम विश्वयुद्ध ने वैश्विक अर्थव्यवस्था के समक्ष संकट खड़ा किया जिससे आगे चलकर द्वितीय विश्वयुद्ध के मूल कारणों में अहम योगदान दिया। 1917 की रूसी क्रांति तथा जर्मनी का नाजीवाद व इटली में फासीवाद के प्रसार को भी इसी संदर्भ में समझा जा सकता है।</s> |
<s>[INST]तापीय प्रतिलोमन से आप क्या समझते हैं? इसके कारण मानव जीवन किस प्रकार प्रभावित होता है। चर्चा करें।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
• तापीय प्रतिलोमन से तात्पर्य
• मानव जीवन पर इसका प्रभाव
• निष्कर्ष
तापीय ह्रास के सामान्य नियम के अनुसार ऊँचाई के साथ तापमान में क्रमिक रूप से गिरावट आती है, किंतु तापीय प्रतिलोमन की दशाओं में सामान्य नियम के विपरीत ऊँचाई में वृद्धि के साथ तापमान में वृद्धि देखी जाती है। तापीय प्रतिलोमन की परिघटना प्राय: कालिक तथा स्थानीय होती है। इस दशा में वायु की ठंडी परतें भारी होने के कारण नीचे बैठ जाती है जबकि गर्म हवा की परते ऊपर उठ जाती है।
इस परिघटना से मानवीय जीवन किस प्रकार प्रभावित होता है, इसे निम्नलिखित बिंदुओं के अंतर्गत समझा जा सकता है-
तापीय प्रतिलोमन की परिघटना अगर धरातल के समीप घटित होती है तो संवहनीय मेघों के विकास में बाघा उत्पन्न होती है जिससे वर्षा हेतु प्रतिकूल दशाओं का निर्माण होता है।
वायुमंडल में धूलकण व धुएँ तथा मुहरे से दृश्यता भी कम हो जाती है जिससे यातायात व मानव जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
वाताग्री व्युत्क्रमण के कारण वर्षा के लिये अनुकूल स्थिति उत्पन्न होती है। इस प्रकार की वाताग्री वर्षा भूमध्यसागरीय प्रदेश में अधिक देखने को मिलती है। इस वर्षा के कारण भूमध्य सागरीय प्रदेश में रसदार फलों की खेती के लिये अनुकूल दशाओं का निर्माण होता है।
तापीय प्रतिलोमन के प्रभाव से वायुमंडल की विभिन्न प्रतों में वायु की गति व दिशा में अंतर उत्पन्न होता है जिससे हल्के वायुयानों के यातायात में बाधा उत्पन्न होती है।
शीत ऋतु में तापीय प्रतिलोमन के कारण पर्वतीय घाटियों में शांत तथा स्वच्छ रात्रि में पाले का प्रकोप देखने को मिलता है जो पसलों के लिये हानिकारक हैं।
उपरोक्त से स्पष्ट है कि तापीय प्रतिलोमन मानव जीवन को अनुकूल तथा प्रतिकूल दोनों रूपों ने प्रभावित करता है।</s> |
<s>[INST]यह कहना कहाँ तक तर्क संगत होगा कि वैदिकोत्तर काल की अर्थव्यवस्था में हुए परिवर्तनों ने भारत में नए धार्मिक आंदोलनों को जन्म दिया था?[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
• भूमिका
• अर्थव्यवस्था में परिवर्तन एवं धार्मिक आंदोलन के मध्य संबंध
• निष्कर्ष
छठी शताब्दी ईसा पूर्व का काल धार्मिक तथा आर्थिक अशांति का काल था। 600 ई.पू. गंगा की घाटी में कई धार्मिक आंदोलनों की शुरुआत हुई। समकालीन स्रोतों से पता चलता है कि ऐसे 62 धार्मिक संगठन तत्समय अस्तित्व में थे। इन धार्मिक सम्प्रदायों के उदय में सामाजिक-आर्थिक कारकों की भूमिका निर्णायक रही। जिसे निम्नलिखित बिंदुओं के अंतर्गत समझा जा सकता है-
यह दौर उत्तर भारत में नई कृषि अर्थव्यवस्था का दौर था। यहाँ बड़े पैमाने पर नए शहरों का विकास हुआ; जैसे- कौशांबी, कुशीनगर, बनारस, वैशाली, राजगीर आदि। इन शहरों में व्यापारियों तथा शिलाकारों की भूमिका में वृद्धि हुई, जिसके परिणामस्वरूप वैश्य वर्ण के सामाजिक महत्त्व में वृद्धि हुई।
ब्राह्मणवादी समाज एवं साहित्य में वैश्य वर्ण के कार्यों को तुच्छ समझा जाता था। परिणामत: वे अन्य धर्मों के प्रति उन्मुख हुए।
महावीर तथा बौद्ध धर्म के उत्थान में वैश्य वर्ण का व्यापक समर्थन रहा।
छठी शताब्दी के धार्मिक समूहों का मुख्य बल अहिंसा पर था। परिणामस्वरूप विभिन्न साम्राज्यों के मध्य युद्ध का अहिंसा के कारण पशुबलि में कमी आईं, जिससे कृषि अर्थव्यवस्था मजबूत हुई।
धर्म शास्त्रों में सूद पर लगाए जाने वाले धन को निकृष्ट कार्य बताया गया है, साथ ही इसमें ऐसे व्यक्तियों की भी आलोचना की गई जो सूद पर जीवित रहते हैं। यही कारण है कि वैश्यों ने नए धार्मिक आंदोलनों को समर्थन दिया।
उपरोक्त से स्पष्ट है कि वैदिकोत्तर काल की अर्थव्यवस्था में हुए परिवर्तनों ने भारत में नए धार्मिक आंदोलनों को जन्म दिया, किंतु केवल आर्थिक कारण ही उन आंदोलनों के लिये उत्तरदायी नहीं थे। वस्तुत: तत्कालीन समाज में उपजे अंतविरोधों के कारण भी नए धर्म की पृष्ठभूमि तैयार हुई। प्रचलित वर्णव्यवस्था ने केवल ब्राह्मण वर्ण के वर्चस्व ने अन्य वर्णों को विरोध के लिये प्रेरित किया। यही कारण था कि बौद्ध तथा जैन धर्म के प्रणेता भी क्षत्रिय वर्ण से संबंधित थे।</s> |
<s>[INST]‘स्वयं सहायता समूहों ने न सिर्फ ग्रामीण भारत के विकास में अपितु महिला सशक्तीकरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।’ चर्चा कीजिये।[/INST]उत्तर :
हल करने का दृष्टिकोण:
• भूमिका
• ग्रामीण भारत एवं महिला सशक्तीकरण में सहायता समूह का योगदान
• निष्कर्ष
स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से सभी सदस्य अपनी सामूहिक बचत निधि से जरूरतमंद सदस्य की न्यूनतम ब्याज दर पर ऋण प्रदान करते हैं जिससे वह सदस्य स्थानीय आर्थिक गतिविधियों के माध्यम से आजीविका उपार्जन हेतु उद्यमशीलता को आकार प्रदान करता है। विकासशील देशों के लिये स्वयं सहायता समूह ज़मीनी स्तर पर जनसामान्य के आर्थिक सशक्तीकरण का एक प्रमुख माध्यम है। वहीं दूसरी ओर इस अवधारणा को न केवल सामान्य लोगों द्वारा अपनाया जाता है बल्कि दुनिया भर की सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाएँ भी स्वयं सहायता समूह के महत्त्व को बखूबी समझती है।
ग्रामीण भारत के सामाजिक-आर्थिक विकास तथा महिला सशक्तीकरण में योगदान-
सामाजिक उद्यमिता को प्रोत्साहन देने में सहायक
लोगों में उद्यमशीलता, प्रबंधकीय गुणों जैसे नेतृत्व व निर्णय लेने की क्षमता का विकास।
आर्थिक गतिविधियों द्वारा मूल्यवर्द्धक वस्तुओं का उत्पादन।
नवाचार तथा रचनात्मक उद्योगों को प्रोत्साहन।
रोज़गार, स्वरोज़गार तथा उद्यमिता से गरीब उन्मूलन में सहायक।
महिला स्वयं सहायता समूहों द्वारा उत्पादित विभिन्न खाद्य पदार्थों जैसे- अचार, पापड़, बड़ी, दलिया, आटा, अगरबत्ती, मुरब्बा इत्यादि को सुगम उपलब्धता से महिलाओं तथा बच्चों के पोषण तथा विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान।
स्वैच्छिक बचत तथा वित्तीय समवेशन को प्रोत्साहन।
विगत कुछ वर्षों के आँकड़े बताते हैं कि इसमें महिला सहभागिता बढ़ी है जिससे इनकी स्थिति में सकारात्मक बदलाव देखने को मिल रहा है। अब तक महिलाओं द्वारा लगभग 6 हजार से अधिक स्वयं सहायता समूहों का गठन किया जा चुका है। ग्रामीण क्षेत्रों में सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में भी स्वयं सहायता समूह महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। आँकड़ों के अनुसार, राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन, 2011 में शामिल लगभग 7 करोड़ परिवारों को इस योजना के अर्थात् लाने में इस समूहों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस प्रकार स्वयं सहायता समूहों ने महिला सशक्तीकरण की दिशा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इन समूहों ने महिलाओं को छोटे व्यापार तथा स्वरोज़गार के लिये प्रोत्साहिन कर उनके कौशल विकास, आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता, स्वायत्तता एवं सामाजिक स्थिति में अभूतपूर्व वृद्धि की है।</s> |