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<s>[INST]भारत में बंधुआ मजदूरी प्रथा के उन्मूलन के लंबे समय पश्चात् भी यह प्रथा विद्यमान है। वे कौन-से कारण हैं जिन्होंने बंधुआ मजदूरी प्रथा को अभी भी जीवित रखा है? (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भारत में बंधुआ मज़दूरी की पृष्ठभूमि को बताते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये। भारत में बंधुआ मज़दूरी की निरंतरता के कारणों पर प्रकाश डालिये। बंधुआ मज़दूरी को समाप्त करने की राह बताते हुए निष्कर्ष दीजिये। बंधुआ मज़दूरी (उन्मूलन) अधिनियम 1976 बंधुआ मज़दूरी को किसी मज़दूर से अत्यधिक कार्य करवाने के बावजूद उसे मज़दूरी न देना या नाममात्र मज़दूरी देना तथा जीवन भर मज़दूर बनाकर शोषण करने के रूप में परिभाषित करता है। भारत में बंधुआ मज़दूरी की जड़ें अत्यधिक गहरी हैं। ऐतिहासिक रूप से भारत में बंधुआ मज़दूर अधिकतर निचली जातियों, अल्पसंख्यक तथा प्रवासी मज़दूर होते थे, जिन्हें बंधुआ मज़दूरी के साथ-साथ सामाजिक भेदभाव एवं अस्पृश्यता की दोहरी मार झेलनी पड़ती थी। स्वतंत्रता के पश्चात् भारत सरकार ने बंधुआ मज़दूरी के पूर्ण उन्मूलन के लिये त्रि-स्तरीय रणनीति अपनाई है- पहले स्तर पर भारतीय संविधान के अनुच्छेद-23 के तहत बंधुआ मज़दूरी पर प्रतिबंध लगाया गया है। दूसरे स्तर पर केंद्र सरकार ने बंधुआ मज़दूरों की पहचान, पुनर्वास तथा इस कुप्रथा के पूर्ण उन्मूलन पर रोक लगाने हेतु बंधुआ मज़दूरी (उन्मूलन) अधिनियम, 1976 लागू किया है। तीसरे स्तर पर बंधुआ मज़दूरों के पुनर्वास के लिये वर्ष 1978 में एक केंद्र प्रायोजित योजना लागू की गई है। इन उपायों के बावजूद भारत में इस कुप्रथा का पूर्ण उन्मूलन नहीं हो पाया है, जिसके वर्तमान में भी कई उदाहरण सामने आते रहते हैं। इस कुप्रथा की निरंतरता के पीछे कई आर्थिक-सामाजिक एवं धार्मिक कारण मौजूद हैं, जिन्हें निम्नवत् देखा जा सकता है- अत्यधिक गरीबी, बेरोज़गारी एवं आजीविका के साधनों का अभाव। परिवार का पालन-पोषण करने के लिये कृषि जोत का अत्यधिक छोटा आकार। ग्रामीण एवं शहरी निर्धनों के लिये वैकल्पिक लघु-स्तरीय ऋणों की कमी, जिससे वे साहूकारों, ज़मींदारों एवं सामंतों के ऋणजाल में फँसकर बंधुआ मज़दूरी करने हेतु मजबूर हैं। प्राकृतिक आपदाओं (जैसे- बाढ़, सूखा आदि) के कारण कृषि उत्पादन का कम होना। धर्म, नृजातीयता एवं जाति के आधार पर प्रभावशाली वर्गों द्वारा किया जाने वाला शोषण। श्रमिकों में अशिक्षा तथा कानूनी प्रावधानों की जानकारी का अभाव। स्थानीय वित्त एवं श्रम बाज़ारों पर साहूकारों तथा सामंतों का एकाधिकार। श्रमिकों का आपस में संगठित न होना, जिससे वे नियोक्ता से सौदेबाजी नहीं कर पाते। उपर्युक्त कारणों के परिणामस्वरूप यह कुप्रथा सदियों से चली आ रही है। इस कुप्रथा को समाप्त करने के लिये कानूनी प्रावधान नाकाफी प्रतीत हो रहे हैं। ऐसे में राज्य सरकारों, स्थानीय सरकारों एवं समुदायों को आपस में संगठित कर, इस कुप्रथा पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने की आवश्यकता है। साथ में लोगों में समाज के कमज़ोर वर्गों के प्रति संवेदनशीलता की भावना उत्पन्न करने एवं जनजागरूकता फैलाने का प्रयास कर इस कुप्रथा का उन्मूलन किया जा सकता है।</s>
<s>[INST]स्वतंत्रता के पश्चात् से भारत में विभिन्न सामाजिक, राजनीतिक एवं पर्यावरणीय आंदोलनों में महिलाओं की भूमिका पर चर्चा कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: स्वतंत्रता आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी की पृष्ठभूमि को बताते हुए इसकी स्वतंत्रता पश्चात् निरंतरता को बताएँ। उन प्रमुख सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं पर्यावरणीय आंदोलनों को बताइये, जिनमें महिलाओं की भागीदारी अहम रही। संतुलित निष्कर्ष दीजिये। भारत में स्वतंत्रता आंदोलन के गांधीवादी चरण के दौरान हड़तालों एवं धरनों में महिलाओं ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई तथा स्वतंत्रता के पश्चात् भी भारतीय महिलाओं ने कई सामाजिक, राजनीतिक एवं पर्यावरणीय आंदोलनों में अहम योगदान दिया तथा समाज में अभूतपूर्व परिवर्तन लाने में प्रमुख भूमिका निभाई। स्वतंत्रता के पश्चात् प्रमुख आंदोलनों में महिलाओं की भूमिका को निम्नवत् देखा जा सकता है- राजनीतिक आंदोलनों में: भारतीय संविधान के अनुच्छेद-326 के तहत महिलाओं को सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के माध्यम से राजनीतिक समानता प्रदान की गई है, जिसका भरपूर प्रयोग भारतीय महिलाओं ने किया है। यद्यपि राजनीति में महिलाओं का योगदान सीमित रहा, किंतु महँगाई विरोधी आंदोलन, जेपी आंदोलन, आदिवासी एवं कृषक आंदोलनों में भारतीय महिलाओं ने अहम योगदान दिया। सामाजिक आंदोलनों में: भारतीय पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं का स्थान पदानुव्रम में निम्न स्तर पर आता है। इसके बावजूद सामाजिक आंदोलनों में इनकी भूमिका प्रमुख रही। लैंगिक भेदभाव, हिंसा, शराब, बलात्कार एवं पितृसत्ता के खिलाफ आंदोलनों में भारतीय महिलाओं ने अहम योगदान दिया। सहेली, स्वरोज़गार महिला संघ (SEWA), नगा मदर्स एसोशिएशन आदि महिला संगठनों ने सामाजिक आंदोलनों में अहम भूमिका निभाई। पर्यावरणीय आंदोलन में: भारत में पर्यावरण संरक्षण संबंधी आंदोलनों में महिलाओं की अहम भागीदारी है। भारत में चिपको, नर्मदा बचाओ, टिहरी बांध पुनर्वास आंदोलन, मैती आंदोलन एवं नवद्या जैसे महत्त्वपूर्ण पर्यावरणीय आंदोलनों में महिलाओं की भूमिका प्रशंसनीय है। वस्तुत: यदि देखा जाए तो भारत में राजनीति एवं आर्थिक क्षेत्र में महिलाओं की उपस्थिति उनकी जनसंख्या के अनुपात में अत्यधिक न्यून है, इसके बावजूद भी भारत के प्रमुख सामाजिक, राजनीतिक एवं पर्यावरणीय आंदोलनों में इनकी भूमिका अत्यधिक सराहनीय है।</s>
<s>[INST]वैज्ञानिक सामाजिक उत्तरदायित्व क्या है? क्या आपको लगता है कि भारत को वैज्ञानिक सामाजिक उत्तरदायित्व पर नीति की आवश्यकता है? (150 शब्द)[/INST]प्रश्न का उत्तर जल्द ही प्रकाशित होगा।</s>
<s>[INST]जनजातीय विद्रोह भले ही समय और स्थान में एक-दूसरे से भिन्न थे लेकिन इनमें कुछ सामान्य विशेषताएँ थीं। चर्चा कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण आदिवासी विद्रोहों के विस्तार और ब्रिटिश शासन के तहत ऐसे विद्रोहों के कारणों को लिखते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये। जनजातीय विद्रोह की सामान्य विशेषताओं की चर्चा कीजिये। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में इन विद्रोहों के महत्त्व को लिखकर निष्कर्ष लिखिये। परिचय ब्रिटिश शासन के समय जनजातीय आंदोलन सभी आंदोलनों में सबसे सतत, उग्रवादी और हिंसक थे। जनजातीय आंदोलनों को महाद्वीपीय जनजातीय विद्रोहों और सीमांत जनजातीय विद्रोहों में वर्गीकृत किया जा सकता है जो मुख्य रूप से भारत के उत्तर-पूर्वी भाग में केंद्रित हैं। प्रारूप वे कारक जिन्होंने जनजातीय विद्रोहों में योगदान दिया: महाद्वीपीय जनजातीय विद्रोह: अंग्रेजों की बस्तियों ने आदिवासियों के बीच संयुक्त स्वामित्व परंपरा को प्रभावित किया और उनके सामाजिक ताने-बाने को बाधित किया चूँकि कंपनी सरकार द्वारा कृषि को एक व्यवस्थित रूप में विस्तारित किया गया था, इससे आदिवासियों ने अपनी भूमि खो दी थी और इन क्षेत्रों में गैर-आदिवासियों की आवक बढ़ गई थी। वनों में स्थानांतरित खेती पर अंकुश लगाया गया और इससे आदिवासियों की समस्याएँ और बढ़ गईं। पुलिस, व्यापारियों और साहूकारों (उनमें से अधिकांश 'बाहरी') द्वारा शोषण ने आदिवासियों की पीड़ा को और बढ़ा दिया। इन क्षेत्रों में आने वाली ईसाई मिशनरियों और उनके प्रयासों ने आदिवासियों के पारंपरिक रीति-रिवाजों में हस्तक्षेप किया। उदाहरण- चुआर विद्रोह, कोल विद्रोह, संथाल विद्रोह, भील विद्रोह आदि। सीमांत जनजातीय विद्रोह (भारत के उत्तर-पूर्वी भाग में): इनके विद्रोह अक्सर भारतीय संघ के भीतर राजनीतिक स्वायत्तता या पूर्ण स्वतंत्रता के पक्ष में थे। ये आंदोलन वन आधारित या कृषि विद्रोह नहीं थे क्योंकि ये आदिवासी आम तौर पर भूमि और वन क्षेत्र के नियंत्रण में थे। गैर-सीमांत जनजातीय आंदोलनों की तुलना में यह लंबे समय तक जारी रहे। असंस्कृतीकरण आंदोलन सीमावर्ती आदिवासियों के बीच भी विस्तृत हुआ। उदाहरण-खासी विद्रोह, अहोम विद्रोह, सिंगफोस विद्रोह, कुकी विद्रोह आदि। जनजातीय विद्रोहों की विशेषताएँ इन समूहों द्वारा दिखाई गई एकजुटता के पीछे जनजातीय पहचान या जातीय संबंध हैं। सभी 'बाहरी लोगों' को दुश्मन के रूप में नहीं देखा गया था: गरीब जो अपने शारीरिक श्रम या पेशे से जीवनयापन करते थे और गाँव में सामाजिक/आर्थिक रूप से सहायक भूमिका निभाते थे, उन्हें इन विद्रोहों में लक्षित नहीं किया गया था; हिंसा को साहूकारों और व्यापारियों की ओर निर्देशित किया गया था जिन्हें औपनिवेशिक सरकार के विस्तार के प्रभाव के रूप में देखा जाता था। विदेशी सरकार के विरुद्ध: एक सामान्य कारण 'विदेशी सरकार' द्वारा कानूनों को लागू करने के विरुद्ध नाराजगी थी जिसे आदिवासियों के पारंपरिक सामाजिक आर्थिक ढाँचे को नष्ट करने के प्रयास के रूप में देखा गया था। कई विद्रोहों का नेतृत्त्व मसीहा जैसी शख्सियतों ने किया, जिन्होंने अपने लोगों को विद्रोह के लिये प्रोत्साहित किया और इस वादे को पूरा किया कि वे 'बाहरी लोगों' द्वारा लाए गए उनके कष्टों को समाप्त कर सकते हैं। तकनीकी रूप से पिछड़ा: आदिवासी विद्रोह शुरू से ही कमज़ोर हो गए थे, उन्होंने अपने विरोधियों द्वारा इस्तेमाल किये जाने वाले आधुनिक हथियारों और तकनीकों का मुकाबला अपने पुराने व पारंपरिक हथियारों से किया। निष्कर्ष यह स्पष्ट है कि ईस्ट इंडिया कंपनी के दिनों में भी औपनिवेशिक शासन में कई विद्रोह और अशांति देखी गई। अंग्रेजों के विरुद्ध असंतुष्टि वर्ष 1857 के विद्रोह में अपने चरम पर पहुँच गईं। ऐसा माना जाता है कि जनजातीय विद्रोह भारतीयों के कुछ समूहों तक सीमित होने के बावजूद भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की शुरुआत से पहले अंग्रेजों के विरुद्ध होने वाले प्रमुख विद्रोहों के ध्वजवाहक थे।</s>
<s>[INST]1. सरकार विरोधी भावनाएँ आमतौर पर राष्ट्र विरोधी नहीं होती हैं। 2. पीड़कों (वर्मिन जानवरों) को मारना मूल प्रकृति की हत्या के समान है।[/INST]प्रश्न का उत्तर जल्द ही प्रकाशित होगा।</s>
<s>[INST]आधुनिकता के साथ-साथ संस्कृति का संरक्षण भी आवश्यक है। विवेचना कीजिये। साथ ही आधुनिकता के साथ जुड़ाव में आने वाली चुनौतियों की भी चर्चा कीजिये। (150 शब्द)[/INST]प्रश्न का उत्तर जल्द ही प्रकाशित होगा।</s>
<s>[INST]मंदिर वास्तुकला की द्रविड़ शैली के विकास में चोलों के योगदान पर चर्चा कीजिये। (150 शब्द)[/INST]प्रश्न का उत्तर जल्द ही प्रकाशित होगा।</s>
<s>[INST]कोरियाई युद्ध का अंत करने वाले ‘युद्धविराम समझौते, 1953’ को प्रभावी बनाने में भारत द्वारा निभाई गई महत्त्वपूर्ण भूमिका की चर्चा कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: कोरियाई युद्ध की पृष्ठभूमि का संक्षेप में वर्णन करें। किन चिंताओं के कारण भारत की भागीदारी की आवश्यकता पड़ी। यथास्थिति की बहाली के लिये भारत द्वारा किये गए प्रयासों चर्चा करें। इस वर्णन के साथ उत्तर पूर्ण करें कि कोरियाई युद्ध में मध्यस्थता किस प्रकार गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) के सिद्धांतों के प्रति भारत की प्रतिबद्धता का परीक्षण था। द्वितीय विश्वयुद्ध के अंत ने कोरिया को समाजवादी खेमे द्वारा नियंत्रित कम्युनिस्ट उत्तर कोरिया और पश्चिमी शक्तियों के वर्चस्व वाले दक्षिण कोरिया के बीच विभाजित कर दिया था। 25 जून, 1950 को कोरियाई युद्ध की शुरुआत हुई जब उत्तर कोरियाई पीपुल्स आर्मी के लगभग 75,000 सैनिकों ने 38वें समानांतर रेखा को पार कर दक्षिण कोरिया में प्रवेश किया। यह आक्रमण शीतयुद्ध की पहली सैन्य कार्रवाई थी जहाँ अमेरिका तथा सोवियत संघ और बाद में चीन संघर्षरत हुए। भारत की चिंताएँ भारत आंशिक रूप से इस आशंका से सक्रिय हुआ कि शीतयुद्ध, एशिया में एक अत्यधिक खतरनाक आयाम ले सकता है जो भारत की सीमाओं तक भी विस्तृत हो सकता है और इस कारण भारत सरकार ने भी इस युद्ध में मुखर रुचि ली। भारत की प्रतिक्रिया इस युद्ध के प्रति भारत का दृष्टिकोण दो बुनियादी अनिवार्यताओं से प्रेरित था। पहली अनिवार्यता यह थी कि युद्ध को नियंत्रित किया जाए और इसका आगे विस्तार न हो। भारत की दूसरी अनिवार्यता महाशक्ति एकता के सिद्धांत (Principle of Great Power Unity) को बनाए रखने की थी। इस संबंध में भारत मानता था कि सुरक्षा परिषद को यह अवसर सृजित करना चाहिए जहाँ पाँचों महाशक्तियाँ विचार-विमर्श और कार्रवाई के लिये साथ आ सकें। मूर्त, भौतिक स्तर पर भारत ने युद्ध में घायल लोगों की सहायता के लिये एक चिकित्सा इकाई (60वीं पैरा फील्ड एंबुलेंस) भेजी। कार्मिकों के योगदान के अतिरिक्त भारत ने राजनीतिक और राजनयिक स्तर पर युद्ध के अंत के लिये महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया। चीन में साम्यवादी क्रांति के बाद चीन और अमेरिका के बीच औपचारिक राजनयिक संबंध नहीं था और भारत ही दोनों देशों के बीच संवाद की एकमात्र कड़ी था। सुरक्षा परिषद में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (पी.आर.सी.) के गैर-प्रतिनिधित्व और सोवियत संघ द्वारा इस निकाय के बहिष्कार के परिदृश्य में भारत ने चीन को सुरक्षा परिषद में शामिल करने की अपील की और सुरक्षा परिषद का आह्वान किया कि वह संयुक्त रूप से समस्याओं के समाधान के लिये आगे बढ़े। भारत सरकार ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के उन प्रस्तावों का समर्थन किया जिसमें किसी भी पक्ष की निंदा या युद्ध विस्तारित करने के किसी प्रस्ताव के बिना यथास्थिति बहाल करने की आकांक्षा प्रकट की गई थी। इसके परिणामस्वरूप 27 जुलाई, 1953 को एक युद्धविराम की घोषणा कर दी गई। भारत के जनरल थिमबया की अध्यक्षता में एक तटस्थ राष्ट्र प्रत्यावर्तन आयोग (Neutral Nations Repatriation Commission) की स्थापना की गई और उनके नेतृत्व में कार्यरत एक भारतीय ‘कस्टोडियन फोर्स’ को बंदी सैनिकों के प्रत्यावर्तन का कठिन कार्य सौंपा गया। कोरियाई युद्ध भारत की गुटनिरपेक्षता और शांति के प्रति प्रतिबद्धता का एक परीक्षण था। भारत के राजनयिक और सुलह प्रयासों के बिना यह युद्ध एक व्यापक सैन्य संघर्ष में रूपांतरित हो सकता था जिसके परिणामस्वरूप बड़ी शक्तियाँ एक और अंतहीन युद्ध में उलझ कर रह जातीं।</s>
<s>[INST]किन परिस्थितियों ने अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम को जन्म दिया? व्याख्या दीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम के महत्त्व की संक्षिप्त चर्चा कीजिये। अमेरिकी क्रांति के प्रेरक के रूप में सप्तवर्षीय युद्ध, ग्रेनविले उपाय, बोस्टन टी पार्टी आदि जैसी विभिन्न घटनाओं की चर्चा कीजिये। अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता के साथ समाप्त हुआ और विश्व में एक लिखित संविधान के साथ पहली लोकतांत्रिक सरकार की नींव रखी। इसने संयुक्त राज्य अमेरिका में नई राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक संरचना का सृजन किया। यह न केवल इंग्लैंड के औपनिवेशिक वर्चस्व के विरुद्ध युद्ध था, बल्कि इसके साथ-साथ यह अभिजात वर्ग और प्रतिक्रियावादी तत्वों के विरुद्ध भी लड़ा गया। अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम के लिये उत्तरदायी परिस्थितियाँ: सप्तवर्षीय युद्ध: वर्ष 1763 में सप्तवर्षीय युद्ध का अंत तथा फ्राँस से इंग्लैंड को कनाडा का स्थानांतरण अमेरिकियों के दिमाग से फ्राँसीसी हमले का डर दूर हो गया। वे अब पूरी तरह से ब्रिटिश प्रतिकूलताओं का मुकाबला करने पर ध्यान केंद्रित कर सकते थे। ग्रेनविले उपाय: ब्रिटिश प्रधानमंत्री ग्रेनविले ने अधिनियमों की एक शृंखला पारित की जिससे अमेरिकी उपनिवेशों के हित प्रभावित हुए, जैसे- 1764 का चीनी अधिनियम, 1765 का स्टांप अधिनियम, द क्वार्टरिंग एक्ट आदि। इन उपायों का उपनिवेशवादियों ने कड़ा विरोध किया। उन्होंने नारा दिया ‘नो टैक्सेशन विदाउट रिप्रजेंटेशन’ (प्रतिनिधित्व के बिना कोई कर नहीं), इस प्रकार उन्होंने ब्रिटिश संसद में अमेरिकी प्रतिनिधित्व पर जोर दिया। टाउनशेंड अधिनियम: वर्ष 1767 में ब्रिटिश मंत्री टाउनशेंड ने काँच, कागज, चाय, पेंट आदि पर नए कर आरोपित किया। अमेरिकियों ने इन उपायों का विरोध किया और ब्रिटिश वस्तुओं का बहिष्कार किया। इस विरोध के फलस्वरूप ब्रिटिश सैनिकों द्वारा पाँच अमेरिकियों की हत्या कर दी गई, जिसे बोस्टन नरसंहार के रूप में जाना जाता है। बोस्टन टी पार्टी: वर्ष 1773 में एक नया चाय अधिनियम को चाय के आयात पर कर आरोपित करने हेतु पारित किया गया था जिसका अमेरिकियों द्वारा विरोध किया गया। आदिवासियों के रूप में कपड़े पहने अमेरिकियों का एक समूह जहाजों पर चढ़ गया तथा बोस्टन बंदरगाह पर समुद्र में चाय के गठ्ठों को फेंक दिया। इसे बोस्टन टी पार्टी के रूप में जाना जाता था। फिलाडेल्फिया कॉन्ग्रेस: वर्ष 1774 और 1775 में अमेरिकी उपनिवेशों के प्रतिनिधियों ने फिलाडेल्फिया में दो बार मुलाकात की। उन्होंने ब्रिटिश राज से उद्योगों एवं व्यापार पर प्रतिबंध हटाने तथा उनकी सहमति के बिना कोई भी कर लागू न करने की अपील की जिसे ब्रिटिश राज ने अस्वीकार कर दिया। अंतिम प्रयास के रूप में ब्रिटिश सम्राट जॉर्ज-III को ओलिव ब्राँच याचिका भेजी गई, जिसने इसे भी अस्वीकार कर दिया। इस प्रकार अमेरिकी उपनिवेशों ने अंग्रेज़ों के विरुद्ध अपनी लड़ाई में एकजुट होने का निर्णय लिया। स्वतंत्रता की घोषणा: ‘कॉमन सेंस’ नाम के एक पैम्फलेट को उन उपनिवेशों में प्रसारित किया जाने लगा, जो वंशानुगत राजशाही के विचार पर हमला करती हैं और लोकतांत्रिक सरकार की वकालत करती हैं। इस पैम्फलेट ने अमेरिकियों के बीच युद्ध की भावना में वृद्धि किया। अंतत: 4 जुलाई, 1776 को अमेरिकी स्वतंत्रता की घोषणा महाद्वीपीय कॉन्ग्रेस द्वारा अपनाई गई। इस घोषणा पत्र में मानवीय स्वतंत्रता के आदर्शों को शामिल किया गया तथा व्यक्तियों के अपरिहार्य अधिकारों ‘जीवन, स्वतंत्रता और सुख की तलाश’ पर जोर दिया गया। वर्ष 1775 में शुरू हुआ युद्ध अंतत: वर्ष 1781 में समाप्त हो गया, जहाँ जनरल कार्नवालिस के नेतृत्व में ब्रिटिश सैनिकों ने यॉर्क टाउन में कमांडर इन चीफ को आत्मसमर्पण कर दिया था। वर्ष 1783 में पेरिस की संधि द्वारा अंतत: यह युद्ध समाप्त हो गया।</s>
<s>[INST]‘‘यद्यपि स्वातंत्र्योत्तर भारत में महिलाओं ने विभिन्न क्षेत्रों में उत्कृष्टता हासिल की है, इसके बावजूद महिलाओं और नारीवादी आंदोलन के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण पितृसत्तात्मक रहा है।’’ महिला शिक्षा और महिला सशक्तीकरण की योजनाओं के अतिरिक्त कौन-से हस्तक्षेप इस परिवेश के परिवर्तन में सहायक हो सकते हैं?[/INST]प्रश्न का उत्तर जल्द ही प्रकाशित होगा।</s>
<s>[INST]औद्योगिकीकरण और उपनिवेशवाद ने विश्व भर में ब्रिटिश वर्चस्व की स्थापना में एक दूसरे का सहयोग किया। विश्लेषण कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: औद्योगिकीकरण और उपनिवेशवाद को परिभाषित करें। बताएँ कि उपनिवेशवाद और औद्योगिकीकरण परस्पर पूरक कैसे थे। राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में ब्रिटिश आधिपत्य के उद्भव के साथ उत्तर पूरा करें। भाप या बिजली जैसे ऊर्जा संसाधनों के उपयोग के माध्यम से मशीन आधारित उत्पादन के उद्भव को औद्योगिकीकरण कहा जाता है। दूसरी ओर, विजय या अन्य साधनों द्वारा उपनिवेशों को प्राप्त करने और उन्हें अपने स्वयं के आर्थिक और राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिये उपयोग करने को उपनिवेशवाद कहा जाता है। खोजयात्राओं के युग (Age of Exploration) में उपनिवेशवाद की पहली लहर उभरी जिसमें स्पेन और पुर्तगाल जैसे देश प्रमुख थे। औद्योगिक क्रांति के आगमन के साथ उपनिवेशवाद की दूसरी लहर का तीव्र उभार हुआ जहाँ ब्रिटेन अन्य सभी उपनिवेशवादी शक्तियों से अधिक सफल रहा। औद्योगिक क्रांति ने निम्नलिखित विषयों में बड़ी भूमिका निभाई: नए विचारों का उद्भव। उत्पादन स्तर में वृद्धि। आधुनिक उपकरणों का विकास। परिवहन और संचार में सुधार। इन सभी कारणों ने अन्य उपनिवेशवादी शक्तियों पर ब्रिटेन को असंगत लाभ प्रदान किया और इसके क्षेत्रों का विस्तार किया। अधिकाधिक उपनिवेशों पर नियंत्रण के साथ ब्रिटेन अपने घरेलू उद्योगों के लिये कच्चे माल की माँग की पूर्ति में सक्षम हुआ। उद्योगों के विस्तार के साथ इनके लिये अधिकाधिक कच्चे माल की आवश्यकता बढ़ती जा रही थी। भारत और मिस्र कपास के जबकि कॉंगो और ईस्ट इंडीज रबड़ के प्रमुख स्रोत देश थे। इन कच्चे उत्पादों के अतिरिक्त खाद्यान्न, चाय, कॉफी, नील, तंबाकू और चीनी की आपूर्ति भी इन उपनिवेशों से होती थी। इन उत्पादों की अधिकाधिक प्राप्ति प्राप्त के लिये उपनिवेशों के उत्पादन प्रारूप को परिवर्तित करना उपनिवेशवादी देशों के हित में था। इस प्रकार, उपनिवेशवादियों ने केवल उन एक या दो फसलों की खेती के लिये उपनिवेशों को विवश किया जिनकी उन्हें अपने उद्योगों के लिये कच्चे माल के रूप में आवश्यकता थी। बाद में औद्योगिक उत्पादन के संवर्धित स्तर के साथ घरेलू बाज़ार संतृप्त हो गए और अधिशेष को भारत जैसे उपनिवेशों की ओर मोड़ दिया गया जिससे वे कच्चे माल के स्रोत के साथ ही तैयार उत्पाद के बाज़ार में बदल गए। उपनिवेशों से कच्चे माल तथा श्रम व सेना के लिये मानव संसाधन से सहायता प्राप्त औद्योगिकीकरण की अतुलनीय गति ने ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना को सुनिश्चित किया। यह वर्चस्व केवल राजनीतिक, आर्थिक और सैन्य क्षेत्र तक ही सीमित नहीं था। ब्रिटिश संस्कृति, भाषा, शैक्षणिक और प्रशासनिक संरचना ने भी वैश्विक वर्चस्व प्राप्त किया जिससे ब्रिटेन का एक वैश्विक औपनिवेशिक शक्ति के रूप में उभार हुआ।</s>
<s>[INST]जनसंख्या शिक्षा के प्रमुख उद्देश्यों की विवेचना करते हुए भारत में इन्हें प्राप्त करने के उपायों पर विस्तृत प्रकाश डालिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: जनसंख्या शिक्षा के बारे में बताते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये। जनसंख्या शिक्षा के उद्देश्य और इन्हें प्राप्त करने के उपाय बताइये। उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये। भारत की जनसंख्या वर्तमान में 1.4 बिलियन हो गई है तथा इसके वर्ष 2026 तक चीन से ज़्यादा हो जाने की संभावना है। ऐसे में भारत के लिये जनसंख्या शिक्षा अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। यूनेस्को के अनुसार, ‘‘जनसंख्या शिक्षा एक शैक्षिक कार्यक्रम है जो परिवार, समुदाय, राष्ट्र और विश्व की जनसंख्या की स्थिति के अध्ययन के लिये छात्रों में उस स्थिति के प्रति तर्कसंगत और ज़िम्मेदार दृष्टिकोण और व्यवहार विकसित करने के उद्देश्य से प्रदान की जाती है’’। जनसंख्या शिक्षा के उद्देश्य छात्रों में परिवार के आकार के प्रति समझ विकसित करना। जनसंख्या की वृद्धि के कारणों और परिणामों को समझने में व्यक्ति की सहायता करना। परिवार के आकार और राष्ट्रीय जनसंख्या में परिवर्तन के व्यक्ति पर प्रभाव के बारे में सटीक जानकारी प्रदान करना। इस तथ्य की समझ विकसित करना कि परिवार के सदस्यों के स्वास्थ्य और कल्याण के लिये तथा युवा पीढ़ी के लिये अच्छी संभावनाएँ सुनिश्चित करने हेतु भारतीय परिवार छोटे और कॉम्पैक्ट होने चाहिये। व्यक्ति को यह समझने में सक्षम बनाना है कि एक विशाल जनसंख्या व्यक्ति और समाज को कैसे प्रभावित करती है। छात्रों को जनसंख्या शिक्षा की अवधारणा को समझने के लिये आवश्यक ज्ञान, कौशल, दृष्टिकोण और मूल्यों को प्राप्त करने में सक्षम करना। वर्तमान में जनसंख्या स्थितियों के बारे में सचेत और सही निर्णय लेने में सक्षम बनाना। जनसंख्या लक्ष्यों को पूरा करने में सरकार के प्रयासों में सहयोग हेतु प्रेरित करना। जनसंख्या शिक्षा के उपाय स्कूली पाठ्यक्रम में ‘जनसंख्या शिक्षा’ नामक विषय को शामिल करना। जनसंख्या शिक्षा कार्यक्रम के सफल क्रियान्वयन के लिये शिक्षकों का प्रशिक्षण। पंचायत स्तर पर वेब सीरीज़ जैसे- पंचायत, श्रव्य-दृश्य कार्यक्रम और सम्मेलनों के माध्यम से जागरूकता। लड़कियों की विवाह आयु में वृद्धि तथा उनकी शिक्षा पर बल। जनसंख्या नीति का आम लोगों के जीवन से जुड़ाव होना चाहिये और इसमें विधायिका, कार्यपालिका, नौकरशाही, मीडिया, पेशेवरों, शिक्षकों और आम जनता सहित सभी हितधारकों को सम्मिलित होना चाहिये। वास्तव में, बल या कानून के भय की अपेक्षा जनसंख्या शिक्षा और जागरूकता ही जनसंख्या नियंत्रण का समुचित उपाय हो सकती है।</s>
<s>[INST]क्या रूस 1917 की क्रांति को टाल सकता था? यह क्रांति अपने वादों की पूर्ति में कितनी सफल रही? (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: संक्षेप में घटना का वर्णन करें। क्रांति की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियों का उल्लेख करें। रूस में क्रांति के परिणामों का उल्लेख करें। विश्व इतिहास में इसके महत्त्व के साथ निष्कर्ष दें। उत्तर:  1917 की रूसी क्रांति बीसवीं शताब्दी की सबसे विस्फोटक राजनीतिक घटनाओं में से एक थी। इस हिंसक क्रांति ने रोमनोव राजवंश और सदियों से कायम रूसी जारशाही शासन का अंत किया। क्या क्रांति अपरिहार्य थी? यद्यपि क्रांतिकारी घटनाएँ कुछ माह की संक्षिप्त अवधि में घटित हुईं, रूस में सामाजिक अशांति दशकों से आकार ले रही थी। 1900 के दशक के आरंभ में रूस यूरोप के निर्धनतम देशों में से एक था जहाँ किसानों की एक भारी आबादी और निर्धन औद्योगिक श्रमिकों की बढ़ती अल्पसंख्यक आबादी मौजूद थी। 1917 तक जार और अधिकांश रूसी प्रजा के बीच का संबंध टूट चुका था। सरकारी भ्रष्टाचार और अक्षमता सर्वत्र व्याप्त थी। रूसी संसद ड्यूमा को बार-बार भंग कर दिये जाने जैसी जार की प्रतिक्रियावादी नीतियों ने आग में और घी डाला। लेकिन यह प्रथम विश्वयुद्ध में सरकार का अक्षम आचरण था जिसने जनता के सब्र के बाँध को तोड़ दिया। 1917 तक रोमनोव राजशाही का तीव्रता से क्षरण होने लगा था लेकिन फिर भी जार शासक अपनी सत्ता बनाए रह सकते थे यदि वे सुधार के अवसरों से बार-बार चूक नहीं गए होते। क्रांति के परिणाम अक्तूबर की महान क्रांति के बाद भी रूसियों की आकांक्षाओं की पूर्ण पूर्ति मूर्त परिणामों के रूप में प्रकट नहीं हुई और उल्लेखनीय है कि क्रांति के सबसे अग्रणी नेताओं में से एक लियोन ट्रॉट्स्की ने एक वर्ष बाद ही एक किताब लिखी जिसका शीर्षक ‘The Revolution Betrayed’ था। यद्यपि कुछ सामाजिक परिवर्तन तुरंत ही व्यापक रूप से प्रकट हुए, जैसे पुरुषों और महिलाओं के लिये समान स्थिति, गर्भपात को वैध बनाना, महिलाओं के काम कर सकने के अवसर के लिये बच्चों की देखभाल हेतु सामुदायिक सुविधाएँ, समलैंगिकता को गैर-आपराधिक बनाना और नि:शुल्क शिक्षा। लेकिन अधिक समय नहीं बीता जब देश गृहयुद्ध में फँस गया और बोल्शेविकों ने परिदृश्य को अपने अनुकूल करने और सत्ता में बने रहने के लिये बल-प्रदर्शन का सहारा लेना शुरू कर दिया। किसानों से अधिशेष अनाज की प्राप्ति के लिये सैन्य बल का मनमाना इस्तेमाल किया गया। 1924 में लेनिन की मृत्यु के बाद रूस एक अधिनायकवादी व्यवस्था में बदल गया जहाँ सत्ता पर स्टालिन के नियंत्रण के साथ व्यापक भुखमरी, सामूहिकीकरण कार्यक्रम (Collectivization), बलात श्रम प्रणाली (Gulag), राजनीतिक शुद्धिकरण (Great Purge) आदि का समकालीन वास्तविकता के रूप में उभार हुआ। अक्तूबर क्रांति ने अपने अवतरण पर एक वैश्विक उन्माद और अदम्य उत्साह को जन्म दिया जहाँ धरती पर स्वर्ग के उतर आने अर्थात् एक आदर्श राज्य के निर्माण की संभावना को लेकर आशा जगी। इसने मानव स्वतंत्रता और शोषणरहित सामाजिक व्यवस्था की ओर इतिहास के अपरिहार्य गमन की स्वाभाविक परिणति का संकेत दिया।</s>
<s>[INST]जर्मनी का राष्ट्रीय समाजवाद, राष्ट्रीयकरण और धन के पुनर्वितरण तक ही सीमित नहीं था। टिप्पणी कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: जर्मनी में राष्ट्रीय समाजवाद के उदय की चर्चा करें। इसके द्वारा किये गए विभिन्न समाजवादी वादों की चर्चा करें। नाजी पार्टी के कुटिल लक्ष्यों का वर्णन करें। उपरोक्त सभी को परस्पर संबद्ध कर निष्कर्ष दें। जर्मनी में राष्ट्रीय समाजवाद का उदय एक राजनीतिक आंदोलन के रूप में 1919 में हुआ था और जल्द ही यह नाजी पार्टी के रूप में लोकप्रिय हो गया। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी की अर्थव्यवस्था गंभीर संकट से गुजर रही थी, अति मुद्रास्फीति स्थानिक हो गई थी और इसके साथ ही वर्साय की संधि के तहत युद्ध के भुगतान का अतिरिक्त बोझ भी जर्मनी की स्थिति को और बदतर कर रहा था। इन परिस्थितियों में नाजी पार्टी ने जो पेशकश की उसे एक प्रभावशाली विकल्प के रूप में देखा गया। 1920 में घोषित अपने 25-सूत्री कार्यक्रम में राष्ट्रीय समाजवादियों ने समृद्धि, पूर्ण रोज़गार, राष्ट्रीयकरण, धन का पुनर्वितरण, राष्ट्रीय शिक्षा कार्यक्रम आदि समाजवादी प्रकृति के कई वादे किये थे। उनके व्यापक एजेंडे में जर्मनी को फिर से एक महान राष्ट्र बनाना और राष्ट्रीय गौरव को बहाल करना था जिसे निम्नलिखित बिंदुओं में समझा जा सकता है: राष्ट्रीय समाजवाद, राष्ट्र के पुनर्जन्म के लिये समर्पित जीवन का एक तरीका था और समाज में सभी वर्गों को एक ‘राष्ट्रीय समुदाय’ में एकजुट करने का लक्ष्य रखा गया था। राष्ट्रीय महानता प्राप्त करने के लिये केंद्रीय सरकार के अंतर्गत जनता के जीवन के सभी पहलुओं के कुशल संगठन पर बहुत जोर दिया गया था और यदि आवश्यक हो तो हिंसा और आतंक का सहारा भी लिया जा सकता था। राज्य सर्वोच्च था; व्यक्ति के हित हमेशा राज्य के हितों के समक्ष गौण थे, अर्थात् राज्य का स्वरूप अधिनायकवादी था जिसमें प्रचार या प्रोपेगेंडा की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। चूँकि जनसामान्य में यह धारणा थी कि महानता केवल युद्ध द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है, पूरे राज्य को एक सैन्य आधार पर गठित किया जाना था। नस्लीय सिद्धांत जर्मन समाज में अत्यंत महत्त्वपूर्ण था। मानव जाति को दो नस्लीय समूहों में विभाजित किया गया था- आर्य और गैर-आर्य। गैर-आर्य दोयम माने गए थे और उन्हें ‘राष्ट्रीय समुदाय’ से बाहर रखा गया था। आर्थिक संकट के बिना और राष्ट्रीयकरण एवं धन के पुनर्वितरण के वादे के बिना यह संदिग्ध है कि राष्ट्रीय समाजवादी सत्ता हासिल कर पाने का अधिक अवसर पाते। व्यापक बेरोज़गारी और सामाजिक पीड़ा के साथ साम्यवाद के भय ने नाजियों को व्यापक जनसमर्थन प्रदान किया। उन्होंने इस जनसमर्थन का दुरुपयोग अपने संकीर्ण हितों के लिये किया जहाँ विस्तारवादी नीति लेबेन्सराम और अल्पसंख्यकों व व्यक्तिगत अधिकारों के दमन के बाद होलोकॉस्ट के रूप में मानव इतिहास के सबसे घृणित अपराध अंजाम दिये गए और ये सभी परिणाम द्वितीय विश्वयुद्ध के कारणों में परिणत हुए।</s>
<s>[INST]प्रथम विश्वयुद्ध के खंडहरों पर राष्ट्र संघ की स्थापना का स्वागत किया गया। यद्यपि यह द्वितीय विश्वयुद्ध को टालने में अधिक काम नहीं आया। परीक्षण कीजिये।[/INST]प्रश्न का उत्तर जल्द ही प्रकाशित होगा।</s>
<s>[INST]चर्चा कीजिये कि किस प्रकार उभरती प्रौद्योगिकियाँ और वैश्वीकरण मनी लॉन्ड्ऱिग में योगदान करते हैं। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर मनी लॉन्ड्ऱिग की समस्या से निपटने के लिये किये जाने वाले उपायों को विस्तार से समझाइये। (150 शब्दों में उत्तर दीजिये)[/INST]उत्तर : FATF ने मनी लॉन्ड्ऱिग को ऐसी प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया है, जिसके अंतर्गत अपराध से प्राप्त प्राप्तियों को छिपाकर वैध व्यापार लेन-देनों के माध्यम से मूल्यांतरण द्वारा उनके अवैध स्रोतों को वैध किये जाने का प्रयास किया जाता है। उभरती प्रौद्योगिकियाँ, जैसे-क्रिप्टोकरेंसी एवं वैकल्पिक वित्त का उपयोग सरकार के नियंत्रण में नहीं हैं। एन्क्रिप्टेड बातचीत मनी लॉन्ड्ऱिग संबंधी सूचनाओं के आदान-प्रदान की सुविधा प्रदान करते हैं और क्रेडिट कार्ड की हैकिंग एवं इसका उपयोग वास्तविक पहचान छिपाकर अवैध धन के स्तरीकरण (Layering) के लिये किया जाता है। वहीं वैश्वीकरण के परिणामस्वरूप वैश्विक वित्तीय प्रणाली में धन का स्थानांतरण हुआ है। टैक्स हेवन देशों, जैसे-केमैन आइलैंड, पनामा आदि की अर्थव्यवस्थाएँ कर चोरी पर संरचित हैं, जिसके कारण इन देशों पर अधिकारियों द्वारा दंडात्मक कार्रवाई संभव नहीं होती और विभिन्न न्यायालय भी संबंधित मामलों में कार्रवाई नहीं कर पाते। इस प्रकार प्रौद्योगिकियाँ और वैश्वीकरण उपयुक्त माध्यमों से मनी लॉन्ड्ऱिग में योगदान करते हैं। मनी लॉन्ड्ऱिग से निपटने के लिये निम्नलिखित राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय उपाय किये गए हैं : धन शोधन निवारण अधिनियम, 2002 (संशोधित अधिनियम, 2012), अवैध रूप से कमाई गई संपत्ति की जाँच का अधिकार प्रवर्तन निदेशालय को सौंपता है और अपराध सिद्ध होने पर संपत्ति की कुर्की का भी अधिकार देता है। विधि विरुद्ध क्रियाकलाप (निवारण) संशोधन अधिनियम, 2019 सरकार को किसी व्यक्ति को आतंकवादी के रूप में नामित करने, ज़ब्त हथियार या संपत्ति को प्रतिबंधित करने की अनुमति देता है। RBI द्वारा भी एंटी मनी लॉन्ड्ऱिग स्टैंडर्ड के रूप में अपने ग्राहक को जानो/केवाईसी (KYC) दिशा-निर्देश जारी किये गए हैं। वियना कन्वेंशन, 1988 अपने हस्ताक्षरकर्त्ता राष्ट्रों में मादक पदार्थों की तस्करी से उत्पन्न धन को आपराधिक घोषित करना अनिवार्य बनाता है। द इंटरनेशनल मनी लॉन्ड्ऱिग इन्फॉर्मेशन नेटवर्क (IMoLIN) सरकारों, संगठनों और व्यक्तियों को मनी लॉन्ड्ऱिग के विरुद्ध लड़ाई में सहायता प्रदान करता है। निष्कर्षत: मनी लॉन्ड्ऱिग एक वैश्विक समस्या है, जिस पर अंकुश लगाने के लिये वैश्विक प्रयास की आवश्यकता है। तीव्र बदलती प्रौद्योगिकी के साथ प्रभावी निगरानी हेतु कर्मचारियों के कौशल विकास हेतु अद्यतन प्रशिक्षण देना, जागरूकता अभियान एवं वैश्विक मनी लॉन्ड्ऱिग नियंत्रण एजेंसियों के साथ समन्वय स्थापित करना प्रभावी कदम साबित होगा।</s>
<s>[INST]भारत में युवाओं पर वैश्वीकरण के विभिन्न सामाजिक-आर्थिक प्रभावों की चर्चा कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: वैश्वीकरण का संक्षिप्त परिचय दीजिये। भारतीय युवाओं पर वैश्वीकरण के विभिन्न सामाजिक-आर्थिक प्रभावों की चर्चा कीजिये। वैश्वीकरण के नकारात्मक प्रभाव को कम करने के लिये कुछ उपाय देते हुए निष्कर्ष लिखिये। वैश्वीकरण विभिन्न देशों के लोगों, कंपनियों और सरकारों के बीच वार्ता, एकता और परस्पर निर्भरता की प्रक्रिया को संदर्भित करता है। इसमें राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति शामिल हैं। वैश्वीकरण का समाज पर सकारात्मक तथा नकारात्मक दोनों परिणाम होते हैं। वैश्वीकरण का प्रभाव अत्यधिक व्यापक है। वैश्वीकरण का प्रभाव युवाओं में तीव्र परिवर्तन एवं अनिश्चितता लाने हेतु उत्तरदायी है। इस प्रकार, वैश्वीकरण न केवल युवाओं के बीच आर्थिक अवसर प्रदान करता है, बल्कि सामाजिक परिवर्तनों हेतु भी उत्तरदायी है। सूचना और संचार प्रौद्योगिकी के साथ, भारत में युवाओं के पास अब एक विशाल संसाधन है। इसके परिणामस्वरूप, उनमें वैश्विक मनोवैज्ञानिक चेतना का विकास हुआ है। वैश्वीकरण ने खुले बाज़ार की अवधारणा के परिणामस्वरूप रोज़गार के अधिक अवसर पैदा किये हैं। वैश्वीकरण युवाओं में उत्कृष्टता प्राप्त करने तथा अधिक प्रतिस्पर्द्धी बनने के लिये प्रोत्साहन एवं स्वतंत्रता प्रदान करता है। इसने ग्रामीण भारत से बढ़ते प्रवासन के परिणामस्वरूप शहरी गरीबी को जन्म दिया है। यह समाज में संरचनात्मक असमानताओं को भी जन्म देता है। जाति, वर्ग, लिंग, धर्म और आवास में विभाजन के परिणामस्वरूप युवा लोगों में सुभेद्यता, अस्थिरता और असुरक्षा की भावना बढ़ रही है। वैश्वीकरण के पश्चात् पश्चिमी मूल्यों और संस्कृति का अंधानुकरण हुआ है और युवाओं ने इसे अपनी भारतीय पहचान में शामिल किया है। जैसा कि न केवल आधिकारिक उद्देश्यों के लिये, बल्कि दैनिक जीवन में भी अंग्रेज़ी भाषा युवाओं के बीच भारतीय भाषाओं पर हावी होती जा रही है। वैश्वीकरण ने विवाह एवं परिवार की संस्थाओं को भी प्रभावित किया है। आज युवा अपने बुजुर्गों के पास नहीं हैं, जिसके परिणामस्वरूप सामाजिक संबंधों में अंतराल आए हैं। वैश्वीकरण के परिणामस्वरूप ही सामाजिक-आर्थिक अनिश्चितता के बढ़ने से युवाओं में अवसाद तथा आत्महत्या की घटनाओं में वृद्धि हुई है। वैश्वीकरण ने युवाओं में धार्मिक विश्वास को भी प्रभावित किया है। इस प्रकार अधिकांश धार्मिक गतिविधियाँ युवा वर्ग के लिये अप्रासंगिक होती जा रही हैं। सुखवाद की संस्कृति ने भारतीयों की पारंपरिक मान्यताओं को पूर्णत: बदल दिया है। नतीजतन, आज युवा आबादी, विशेष रूप से शहरी युवा पश्चिमी नए फैशन के पक्ष में हैं। युवाओं पर वैश्वीकरण के नकारात्मक प्रभाव को कम करने के लिये उन्हें शिक्षा, कौशल विकास तथा रोज़गार, उद्यमिता, स्वास्थ्य एवं स्वस्थ जीवन शैली आदि में अपनी पूरी क्षमता हासिल करने के लिये सशक्त करना चाहिये। राष्ट्रीय युवा नीति -2014 (एन.वाई.पी. -2014) में उल्लेखित सामाजिक मूल्यों का संवर्द्धन, सामुदायिक सहभागिता, राजनीति एवं शासन में भागीदारी, युवा सहभागिता, समावेश और सामाजिक न्याय जैसे कारकों जोर देना चाहिये।</s>
<s>[INST]प्रथम विश्व युद्ध ने यूरोपीय समाज और राजनीति पर गहरा प्रभाव डाला। परीक्षण कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : प्रथम विश्वयुद्ध के परिमाण और प्रकृति की संक्षिप्त चर्चा कीजिये। यूरोप में प्रथम विश्वयुद्ध के विभिन्न सामाजिक और राजनीतिक निहितार्थों का उल्लेख कीजिये। घटना के समग्र पुनर्मूल्यांकन के साथ निष्कर्षं दीजिये। प्रथम विश्वयुद्ध का प्रभाव असाधारण रूप से व्यापक था जो आश्चर्यजनक नहीं था क्योंकि यह इतिहास का पहला ‘समग्र युद्ध’ था। इसका आशय यह है कि इसमें केवल सेनाएँ और नौसेनाएँ नहीं बल्कि पूरी आबादी संलग्न थी और यह आधुनिक व औद्योगिक राष्ट्रों के बीच पहला बड़ा संघर्ष था। इस परिप्रेक्ष्य में प्रथम विश्वयुद्ध ने व्यापक विनाश और महामारी के साथ ही यूरोपीय समाज और राजनीति पर गहरा प्रभाव छोड़ा। यूरोपीय समाज और राजनीति पर प्रथम विश्वयुद्ध के प्रभाव युद्ध का सबसे महत्त्वपूर्ण प्रभाव सैनिकों की बड़ी संख्या में मौत में परिलक्षित हुआ जहाँ युवा पुरुषों की एक पूरी पीढ़ी के एक बड़े अनुपात का नाश हो गया (खोई हुई पीढ़ी/ the ‘lost generation’)। उदाहरण के लिये, फ्राँस के सैन्य आयु के लगभग 20 प्रतिशत पुरुष मारे गए। विश्वयुद्ध की पीड़ा और पराजय ने जर्मनी में एक क्रांति को जन्म दिया जहाँ कैसर विलयम द्वितीय को सत्ता के त्याग के लिये मजबूर किया गया और जर्मनी को गणराज्य घोषित कर दिया गया। अगले कुछ वर्षों में वाइमर गणराज्य (जिस नाम से यह ज्ञात होने लगा था) को गंभीर आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक समस्याओं का सामना करना पड़ा। हैब्सबर्ग साम्राज्य का पूर्णरूपेण पतन हो गया और विभिन्न राष्ट्रीयताओं ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया; ऑस्ट्रिया और हंगरी दो अलग-अलग राष्ट्रों में विभाजित हो गए। रूस में युद्ध के दबाव 1917 में दो क्रांतियों के कारण बने। पहली क्रांति (फरवरी-मार्च) ने जार निकोलस द्वितीय को सत्ता से उखाड़ फेंका और दूसरी क्रांति (अक्तूबर-नवंबर) लेनिन और बोल्शेविकों (कम्युनिस्टों) को सत्ता में लेकर आई। यद्यपि इटली विजयी पक्ष में शामिल था, युद्ध ने उसके संसाधनों का भारी व्यय किया था और वह भारी कर्ज में डूब गया था। मुसोलिनी ने सत्ता पर काबिज होने के लिये सरकार की अलोकप्रियता का फायदा उठाया। युद्ध के बाद सेना भंग करने की तात्कालिक चुनौतियाँ मौजूद थीं। वृहत स्तर पर सेनाओं में भर्ती किये गए लाखों लोगों को सेना से अलग कर नागरिक जीवन में पुन: शामिल किया जाना था। भारी सैन्य हानि झेलने वाले देशों की युद्ध बाद की आबादी महिलाओं, किशोरों और बुजुर्गों के विषम अनुपात दर्शा रही थी। युद्ध के दौरान लाखों की संख्या में शहरी निवासी विस्थापित हुए और अपने ही देश में शरणार्थी बन गए। युद्ध के बाद विश्व में सुरक्षा और शांति को बढ़ावा देने के लिये राष्ट्रों के एक अंतर्राष्ट्रीय निकाय की आवश्यकता प्रकट हुई। इसके कारण राष्ट्र संघ (League of Nations) की स्थापना हुई। युद्ध से पहले तक महिलाओं को समाज में एक अलग भूमिका में देखा जाता था। लेकिन युद्ध ने कारखानों और अन्य क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी की आवश्यकता को जन्म दिया जबकि वे क्षेत्र पहले विशेष रूप से पुरुषों के कार्य के लिये आरक्षित थे। इसने समाज की धारणा में परिवर्तन किया और बाद में महिलाओं के अधिकार के लिये अधिनियम पारित किये गए जिसमें ब्रिटेन जैसे देशों में महिलाओं को मतदान का अधिकार देने जैसे कई नए कदम शामिल थे। युद्ध के बाद के यूरोप ने आवश्यक रूप से युद्ध से क्षतिग्रस्त एक सामाजिक परिदृश्य को प्रकट किया जो आर्थिक, राजनीतिक एवं सामाजिक अव्यवस्था, बीमारी एवं विकलांगता, मृत्यु एवं शोक के लक्षणों वाला परिदृश्य था। इस तरह के बदले हुए सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य में शेष विश्व भी इन परिवर्तनों से अछूता नहीं रह सकता था और उसपर इसका गहरा प्रभाव पड़ा।</s>
<s>[INST]क्यूबा मिसाइल संकट शीत युद्ध का चरम बिंदु था। इसके परिणामों के साथ-साथ इसके लिये उत्तरदायी कारणों का उल्लेख कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: क्यूबा मिसाइल संकट को बताइये। इसके लिये उत्तरदायी कारणों की चर्चा कीजिये। क्यूबाई मिसाइल संकट के परिणामों की चर्चा कीजिये। उचित निष्कर्ष लिखिये। वर्ष 1959 में फिदेल कास्त्रो द्वारा अमेरिका समर्थित तानाशाह बतिस्ता से सत्ता छीनने के बाद क्यूबा, शीतयुद्ध में शामिल हो गया। वर्ष 1961 में अमेरिका ने क्यूबा के साथ राजनयिक संबंध तोड़ लिये, जिसके परिणामस्वरूप यू.एस.एस.आर. और क्यूबा के मध्य संबंध बेहतर हो गए। वर्ष 1961 में कास्त्रो ने घोषणा की कि वह एक मार्क्सवादी हैं और क्यूबा एक समाजवादी राष्ट्र है। अमेरिका ने क्यूबा में सैन्य एवं सामरिक प्रयासों से कास्त्रो शासन को नष्ट करने के अपने प्रयासों को जारी रखा। क्यूबा ने यू.एस.एस. आर. से सैन्य मदद के लिये अपील की। सोवियत संघ की नेता निकिता ख्रुश्चेव ने क्यूबा को रूसी बेस में परिवर्तित करने का निर्णय लिया। हथियारों की स्थापना ने अमेरिका को पहली बार यू.एस.एस.आर. की मिसाइलों की सीमा के भीतर रखा तथा अमेरिकी मुख्य भूमि के शहरों की संख्या लगभग दोगुनी हो गई, जिसे यू.एस.एस.आर. द्वारा खतरा हो सकता था। यह स्थिति अत्यधिक तनावपूर्ण हो गई और इससे ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे परमाणु युद्ध आसन्न है। इस घटना को क्यूबाई मिसाइल संकट के रूप में जाना जाता है। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव द्वारा अपील किये जाने के बाद यह संकट समाप्त हो गया। यू.एस.एस.आर. ने मिसाइलों को वापस लेने और क्यूबा में प्रक्षेपण स्थलों को नष्ट करने पर सहमति व्यक्त की और बदले में अमेरिका ने क्यूबा पर फिर से आक्रमण नहीं करने के लिये सहमति व्यक्त की। क्यूबा मिसाइल संकट के निम्नलिखित प्रमुख कारण थे: क्यूबा संयुक्त राज्य अमेरिका से सैन्य आक्रमण के संकेत में था, इसलिये यू.एस.एस.आर. क्यूबा को एकजुटता के एक संकेत के रूप में सहायता प्रदान करना चाहता था जो कि सोवियत संघ का सहयोगी राष्ट्र था। यू.एस.एस.आर. ने अंतरमहाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल (आई.सी.बी.एम.) विकसित करने की तकनीकी को प्राप्त नहीं कर सका, इसलिये वह निकट से अमेरिका को घेरने के अवसर की तलाश में था। वर्ष 1959 में अमेरिका ने तुर्की में जुपिटर मिसाइल तैनात की। इसने यू.एस.एस.आर. की सुरक्षा को संकट में डाल दिया, इसलिये, यू.एस.एस.आर. को क्यूबा संयुक्त राज्य अमेरिका के विरुद्ध काउंटर स्ट्राइक शुरू करने के लिये एक आदर्श स्थान लगता था। सोवियत संघ परमाणु हथियारों की संख्या के संबंध में असुरक्षित महसूस कर रहा था, जो पश्चिमी यूरोप तथा तुर्की द्वारा उस पर लक्षित थे और इस प्रकार क्यूबा में मिसाइलों की तैनाती का प्रयोग पश्चिम देशों के साथ सौदेबाजी के लिये किया जा सकता था। केवल कुछ दिनों तक चलने के बावजूद क्यूबाई मिसाइल संकट के निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण परिणाम थे: विश्व को ज्ञात हुआ कि परमाणु युद्ध कितनी आसानी से शुरू किया जा सकता है। यू.एस.एस.आर. और यू.एस.ए. के मध्य एक हॉटलाइन सेवा शुरू की गई थी ताकि तीव्र परामर्श की अनुमति मिल सके। वर्ष 1963 में यू.एस.ए., यू.एस.एस.आर. और ब्रिटेन ने परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि पर हस्ताक्षर किये, जिसके परिणामस्वरूप ये राष्ट्र वायुमंडल को प्रदूषित करने से बचने के लिये भविष्य में केवल भूमिगत परमाणु परीक्षण करने के लिये सहमत थे। क्यूबा-यू.एस.एस.आर. संबंधों में पहले जैसी ऊष्मा नहीं रही क्योंकि क्यूबा ने विश्वासघात की अनुभूति की। शीतयुद्ध के युग में क्यूबाई मिसाइल संकट एक महत्त्वपूर्ण घटना थी, जिसने विश्व को संयुक्त राज्य अमेरिका और यू.एस.एस.आर. की हथियार प्रतिद्वंद्विता से जनित संकट का एहसास कराया और यह विश्व को परमाणु युद्ध की भयावहता से सुरक्षित बनाने के आंदोलनों के लिये एक दिशा दी।</s>
<s>[INST]भारतीय समाज पर निम्नलिखित के प्रभाव की चर्चा कीजिये: (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: उल्लेखित पदों की व्याख्या कीजिये। बताएँ कि इन पदों ने भारतीय समाज को किस प्रकार प्रभावित किया है। संस्कृतिकरण: संस्कृतिकरण एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से निम्न जातियाँ, उच्च जातियों के रीति-रिवाजों एवं रस्मों का अनुकरण करके सामाजिक गतिशीलता को प्राप्त करने का प्रयास करती हैं। यह एक सांस्कृतिक प्रक्रिया है, परंतु संस्कृतिकरण के संबंध में लाई गई ऊर्ध्व गतिशीलता के परिणामस्वरूप सामाजिक स्थिति तथा व्यवसायों में परिवर्तन भी इसे एक संरचनात्मक प्रक्रिया बनाता है। यह ‘उच्च जाति’ के तौर-तरीकों को श्रेष्ठ और ‘निम्न जाति’ को हीन मानता है। इसलिये ‘उच्च जाति’ की नकल करने की इच्छा को स्वाभाविक एवं वांछनीय माना जाता है। यह एक मॉडल को सही ठहराता है जो असमानता और बहिष्कार पर आधारित है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह प्रदूषण की अवधारणा में विश्वास करना और लोगों के समूहों की पवित्रता का सुझाव देता है। इसके परिणामस्वरूप उच्च जाति के संस्कारों और रीति-रिवाजों को अपनाया जाता है जो लड़कियों और महिलाओं को जन सामान्य से अलग रखने के लिये, दुल्हन-मूल्य प्रथा के बजाय दहेज प्रथा को अपनाने और अन्य समूहों के विरुद्ध जातिगत भेदभाव का अभ्यास करने के लिये प्रेरित करता है। ऐसी प्रवृत्ति का प्रभाव यह है कि दलित संस्कृति और समाज की आधारभूत विशेषताएँ समाप्त हो जाती हैं। उदाहरण के लिये, निम्न जाति वर्ग द्वारा किये गए श्रम को कम आंका जाता है और इसे तुच्छ रूप में संदर्भित किया जाता है। पश्चिमीकरण: पश्चिम देशों के साथ, विशेष रूप से इंग्लैंड के साथ संपर्क भारत में रूपांतरण/परिवर्तन की एक और प्रक्रिया को गति प्रदान करता है, जिसे पश्चिमीकरण कहा जाता है। यह अंग्रेज़ी भाषा के माध्यम से प्रशासन, कानूनी प्रणाली एवं शिक्षा के पश्चिमी पद्धति को दर्शाता है। जीवन के पश्चिमी पद्धति के प्रभाव के अंतर्गत शिक्षित एवं शहरी भारतीयों के एक बड़े समूह ने पोशाक, भोजन, पेय, भाषण और रीति की पश्चिमी शैली को अपनाया है। पश्चिमी पद्धति का अनुकरण, पश्चिमी लोकतंत्र, औद्योगीकरण तथा पूंजीवाद के मूल्यों को विकसित किया। पश्चिमीकरण के सांस्कृतिक और सांस्कृतिक पहलू भी हैं। इसने आधुनिक शिक्षा, अर्थव्यवस्था और उद्योग से संबंधित आधुनिक व्यवसायों की वृद्धि द्वारा संरचनात्मक परिवर्तन लाए। आधुनिकीकरण: आधुनिकीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा समाज में आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान का परिचय दिया जाता है, जिसका अंतिम उद्देश्य संबंधित समाज द्वारा स्वीकार किये गए पद के व्यापक अर्थ में बेहतर एवं अधिक संतोषजनक जीवन प्राप्त करना है। इसने सामाजिक संस्थाओं जैसे विवाह, परिवार, जाति आदि में संरचनात्मक परिवर्तन किये हैं। संयुक्त परिवारों की अवधारणा तेज़ी से कम हो रही है, हर कोई दूसरों से अलग रहना चाहता है। कुछ विलक्षण परिवर्तन होते हैं जैसे कि सांस्कृतिक लक्षणों, व्यवहार पद्धति, मूल्यों में कमी आदि। पुराने और नए तत्त्वों के संश्लेषण के परिणामस्वरूप नए रूपों का उद्भव। उदाहरण के लिये, संरचना में एकल परिवार परंतु संयुक्त रूप में कार्य करना। आधुनिकता मानती है कि स्थानीय संबंध तथा दृष्टिकोण सार्वभौमिक प्रतिबद्धताओं एवं महानगरीय दृष्टिकोणों को मार्ग प्रदान करते हैं। भावनाओं, धार्मिक तथा गैर-तर्कसंगत लोगों के बजाए उपयोगिता, गणना और विज्ञान की सच्चाई को प्राथमिकता देती है।</s>
<s>[INST]‘भारत में नगरीकरण तथा प्रवासन से कृषि क्षेत्र का महिलाकरण हो रहा है’। इस कथन के आलोक में कृषि क्षेत्र की महिलाकरण के सामाजिक-आर्थिक प्रभावों पर चर्चा कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: नगरीकरण और प्रवास की संबद्ध घटनाओं के बारे में संक्षेप में व्याख्या कीजिये। नगरीकरण परिणामस्वरूप ग्रामीण-शहरी प्रवासन से कृषि क्षेत्र का महिलाकरण का संक्षिप्त उल्लेख कीजिये। इसके सामाजिक-आर्थिक प्रभावों की चर्चा कीजिये। ग्रामीण भारत में महिलाओं के सशक्तीकरण के लिये कुछ उपायों का सुझाव देकर निष्कर्ष लिखिये। नगरीकरण से तात्पर्य शहरी विकास की प्रक्रिया से है, अर्थात् किसी विशिष्ट समय पर शहर और कस्बों में रहने वाली कुल जनसंख्या के अनुपात से है। यह जीवन के एक अलग तरीके को भी संदर्भित करता है, जो शहरों की बड़ी, घनी और विविध जनसंख्या के कारण उभरता है। नगरीकरण के फलस्वरूप भारत में ग्रामीण-शहरी प्रवास में वृद्धि हुई है, जिससे कई भूमिकाओं यथा कृषक, उद्यमी, और श्रमिकों के रूप में महिलाओं की बढ़ती संख्या के साथ-साथ कृषि क्षेत्र की महिलाओं की संख्या बढ़ी है। भारत में ग्रामीण-शहरी प्रवासन के परिणामस्वरूप कृषि क्षेत्र का महिलाकरण हो रहा है: शहरी क्षेत्रों द्वारा दिये गए आर्थिक अवसरों ने ग्रामीण प्रवासन की घटनाओं में योगदान दिया है, जिनमें से पुरुष सदस्यों की संख्या अधिक है। ग्रामीण क्षेत्रों में पुरुषों को निर्माण से संबंधी मज़दूर, रिक्शा चालक, आदि तथा दयनीय व असुरक्षित निवास करने की स्थिति जैसे कार्य की प्रकृति ने गाँवों में परिवार को पीछे छोड़ने के लिये मज़बूर करती है। पुरुष प्रवासन ने महिला सदस्यों को कृषि भूमिकाओं के लिये अतिरिक्त दायित्वों को निभाने के लिये प्रेरित किया है। कृषि क्षेत्र की महिलाकरण का सामाजिक-आर्थिक प्रभाव: यह सामाजिक बहिष्कार एवं अन्याय का एक गंभीर कारण है क्योंकि महिलाओं को घर और कृषि दोनों का प्रबंधन करने के लिये शिक्षा तथा कौशल विकास के अवसरों का त्यागने के लिये मजबूर किया जाता है। पुरुष आबादी के प्रवासन से महिलाओं पर उत्पादक तथा प्रजनन कार्यों का चक्रवृद्धि बोझ पड़ा है, जिससे उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। कृषि के बढ़ते महिलाकरण का कृषि उत्पादकता पर गहरा एवं व्यापक प्रभाव पड़ता है क्योंकि महिलाओं को श्रम, बीज एवं उर्वरक सहित सभी आगतों की व्यवस्था करने के लिये अकेला छोड़ दिया जाता है। यह, बदले में, घरेलू खाद्य सुरक्षा के लिये प्रत्यक्ष प्रभाव करता है। इसके अतिरिक्त उनके पास इन सेवाओं से निपटने के लिये आर्थिक संसाधनों तथा अनुभवों पर नियंत्रण नहीं होता है, जो पूर्व में पुरुष समकक्षों द्वारा प्रबंधित किये गए थे। नकारात्मक सामाजिक परिवर्तनों जैसे कि पारिवारिक तनाव, पारिवारिक विखंडन, अपने पिता के बिना बड़े हो रहे बच्चों द्वारा ग्रामीण भारत को अधिक पिछड़ेपन में धकेल दिया है। आगे की राह भूमि, ऋण, जल, बीज और बाज़ार जैसे संसाधनों तक महिलाओं की पहुँच पर ध्यान देने की आवश्यकता है। महिला स्वयं-सहायता समूह (एस.एच.जी.) को केंद्रित करते हुए उन्हें क्षमता-निर्माण गतिविधियों के माध्यम से सूक्ष्म ऋण से जोड़ने तथा विभिन्न निर्णय लेने वाले निकायों में उनके प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने और जानकारी प्रदान करने के लिये ध्यान केंद्रित करने को आवश्यकता है। विभिन्न लाभार्थी-उन्मुख कार्यक्रमों/योजनाओं के लाभों को उन तक पहुँचाने के लिये महिला-केंद्रित गतिविधियाँ शुरू करना।</s>
<s>[INST]भारत में प्रजनन दर में कमी लाने हेतु विभिन्न आर्थिक तथा सामाजिक-सांस्कृतिक चुनौतियों पर चर्चा कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: प्रजनन पद की व्याख्या कीजिये। भारत में प्रजनन दर में कमी लाने में विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक चुनौतियों की व्याख्या कीजिये। जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित करने की आवश्यकता पर बल देते हुए निष्कर्ष लिखिये। प्रजनन किसी व्यक्ति या समूह के प्रजननीय प्रदर्शन को संदर्भित करता है। इसका अध्ययन जन्म के आँकड़ों द्वारा किया जा सकता है। अशोधित जन्म दर प्रजनन दर का एक महत्त्वपूर्ण मापक है, जिसमें केवल जीवित जन्मों अर्थात बच्चे जो जन्म ले चुके हों, को शामिल किया जाता है। भारत में प्रजनन दर में कमी लाने में बाधा उत्पन्न करने वाली निम्नलिखित विभिन्न सामाजिक-आर्थिक चुनौतियाँ हैं: बौद्ध धर्म को छोड़कर भारत के सभी धर्मों में, उनके अनुयायियों के प्रजनन और जनसंख्या वृद्धि करने के आदेश शामिल हैं। इस प्रकार इस तथ्य पर आश्चर्य की बात नहीं है कि उच्च प्रजनन पर विश्वास देश में धर्मों तथा सामाजिक संस्थाओं द्वारा दृढ़ता से जोर दिया गया है, जिससे परिवार के आकार के बारे में उचित मानदंड बन गए हैं। उच्च प्रजनन में योगदान देने वाला एक अन्य कारक विवाह संस्था की सार्वभौमिकता है। हिंदुओं में एक व्यक्ति से उसके जीवन (आश्रम) के विभिन्न चरणों से गुजरने की आशा की जाती है जिसमें प्रत्येक चरण से संबंधित कर्त्तव्यों का पालन करना शामिल है। विवाह इनमें से एक ऐसा कर्तव्य माना जाता है। अब तक, भारत में प्रथा थी कि किशोर अवस्था में प्रवेश करने से पूर्व ही हिंदू लड़कियों का विवाह कर दिया जाए। अंतत: वे बहुत कम आयु से बच्चों को जन्म देना प्रारंभ तब तक करती हैं जब तक वे उस आयु तक नहीं पहुँचती हैं, जिसके पश्चात् वे जैविक रूप से बच्चों को जन्म देने में सक्षम नहीं होती हैं। सभी पारंपरिक समाजों के समान, भारत में भी बच्चों को जन्म देने के लिये बहुत जोर दिया जाता है। एक महिला, जो बच्चों को जन्म नहीं देती है, को समाज में निम्न श्रेणी में रखा जाता है। भारतीय संस्कृति में एक बच्चे (पुरुष) के लिये वरीयता अंतर्निहित है। भारतीय समाज में बेटों के लिये वरीयता इतनी अधिक है कि एक दंपति कई अवांछित बेटियाँ को जन्म देता है जब तक उसे कम से कम एक बेटा नहीं हो जाता है। सामान्यत: बच्चों की संख्या को सीमित करने के लिये कोई आर्थिक प्रेरणा नहीं होती है, क्योंकि जैविक माता-पिता को अपने बच्चों की बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये आवश्यक नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि संयुक्त परिवार, संयुक्त रूप से इसमें जन्म लिये सभी बच्चों के लिये उत्तरदायी है। जैसा कि भारत में अभी भी गरीबी दर उच्च स्तर पर है, विशेषत: ग्रामीण क्षेत्रों में इस प्रकार अधिक बच्चों को जन्म देने की प्रवृत्ति शामिल है, ताकि परिवार में अधिक आय अर्जित करने में सहायता मिले। भारतीय समाज में व्याप्त निरक्षरता महिलाओं के मध्य भारत में उच्च प्रजनन दर के कारकों में से एक है। इसके अतिरिक्त गर्भधारण नियंत्रण विधियों को व्यापक रूप से अपनाने की अनुपस्थिति भी भारतीय महिलाओं की उच्च प्रजनन दर हेतु उत्तरदायी है। इसके अलावा गर्भनिरोधक के विभिन्न विकल्पों के बारे में जन सामान्य में जागरूकता की कमी है। तीव्र जनसंख्या वृद्धि ने कृषि क्षेत्र एवं खाद्य आपूर्ति के वितरण, निम्न प्रति व्यक्ति आय, बेरोज़गारी दर में वृद्धि और निरक्षरता दर में वृद्धि के फलस्वरूप गंभीर समस्याओं को जन्म दिया है। इसने राष्ट्र के लोगों के मध्य जीवन स्तर में वृद्धि को बाधित है। साक्षरता में वृद्धि, जागरूकता पैदा करना और विभिन्न गर्भनिरोधक विकल्पों की पर्याप्त आपूर्ति प्रदान करना जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।</s>
<s>[INST]1. लोकतंत्र और समाजवाद लक्ष्य पाने के साधन हैं, स्वयं में लक्ष्य नहीं! 2. अनुशासन विपत्ति की पाठशाला मे सीखा जाता है।[/INST]प्रश्न का उत्तर जल्द ही प्रकाशित होगा।</s>
<s>[INST]भारतीय एकता को मज़बूत करने में भाषाई विविधता ने कहाँ तक मदद की है? (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भारत की भाषायी विविधता पर संक्षेप में प्रकाश डालिये। भाषायी विविधता भारतीय एकता को किस प्रकार बढ़ावा दे रही है, परीक्षण कीजिये। साथ ही, भाषायी विविधता से संबंधित मुद्दों पर चर्चा कीजिये। आगे की राह के साथ निष्कर्ष लिखिये। भारत विविध भाषाओं का देश है, जिसमें सबसे प्रमुख 75% भारतीयों द्वारा बोली जाने वाली इंडो-आर्यन भाषाएँ और 20% भारतीयों द्वारा बोली जाने वाली द्रविड़ भाषाएँ हैं। इसकी 22 अनुसूचित भाषाएँ और कई बोलियाँ हैं, जो परस्पर सह-अस्तित्व में हैं। भाषायी विविधता और राष्ट्रीय एकता भाषायी राज्यों जैसे कि आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब आदि के गठन ने भारत की संघीय विशेषता को सुदृढ़ किया है तथा इस प्रकार क्षेत्रों की अलगाववादी प्रवृत्ति को रोका है जिससे राष्ट्रीय एकता बनी रहे। भाषायी विविधता दर्शाती है कि अल्पसंख्यक और आदिवासी भाषाओं सहित क्षेत्रीय भावनाओं का सम्मान है। इसके अलावा, अनुच्छेद 29,30,347,350 के अंतर्गत संवैधानिक प्रावधान प्रत्येक भाषा की सुरक्षा, सद्भाव को बढ़ावा देने और सभी लोगों के बीच सामान्य भाईचारे की भावना को बढ़ावा देते हैं। यदि भाषाओं में विविधता है, तो भी वे मुख्य रूप से इंडो-आर्यन और द्रविड़ भाषाओं से निकले हैं। इन भाषाओं की समान उत्पत्ति की इस भावना ने भी एकता को बढ़ावा दिया है। समकालीन समय में, ‘हिंग्लिश’, जो कि हिंदी और अन्य भाषाओं के साथ अंग्रेज़ी भाषा का सम्मिश्रण है, देश में बोली जाती है, भारत में विभिन्न भाषाओं के मध्य एक कड़ी का कार्य करती है और इस प्रकार यह ‘अखिल भारतीय की सामान्य शब्दावली’ बन गई है। निहित मुद्दे: बढ़ता क्षेत्रवाद और प्रांतीयता (स्थानीय भावना): विभिन्न भाषायी समूहों के लोग जो एक राज्य में निवास करते हैं, वे केवल अपने राज्यों के हितों के संदर्भ में सोचते हैं। यह राष्ट्रीय मुद्दों पर विचार को प्रभावित करता है और स्थानीय भावनाओं का कारण बनता है। अलग राज्यों की मांग: भाषायी आधार पर अलग राज्य की मांग संबंधित राज्य के साथ-साथ केंद्र के लिये भी विभिन्न समस्याओं को जन्म देती हैं। भाषायी अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न: यह अलगाववाद को जन्म दे सकता है और राष्ट्रीय एकता को प्रभावित कर सकता है। राष्ट्रीय भावना का क्षरण: भाषायी और क्षेत्रीय निष्ठा के फलस्वरूप राष्ट्रीय भावना का क्षरण होता है। राष्ट्रीय भावना के क्षरण के परिणामस्वरूप देश की संप्रभुता को संकट है। आगे की राह एक नए राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन किया जा सकता है जो विशेष राज्यों के विभाजन या नए राज्यों के गठन के पक्ष तथा विरोध में लोगों के सुझावों और दलीलों को आमंत्रित करेगा। भाषायी अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न को रोकने के लिये आपराधिक न्याय प्रणाली को मजबूत करना। भारत में आवास तथा सहिष्णुता की उल्लेखनीय गुणवत्ता के कारण भाषायी विविधता राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने में सहायता प्रदान करती है। सामान्य भाषा को बलपूर्वक लागू करने का कोई भी प्रयास राष्ट्रीय एकता पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है।</s>
<s>[INST]भारतीय जाति व्यवस्था में हाल के रुझानों और परिवर्तन के लिये ज़िम्मेदार कारकों पर चर्चा कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: महत्त्वपूर्ण विशेषताओं सहित भारतीय जाति प्रणाली का संक्षिप्त परिचय दीजिये। भारतीय जाति व्यवस्था में विभिन्न परिवर्तनों पर चर्चा कीजिये। इसके अलावा जाति व्यवस्था में वर्तमान पद्धति के पीछे के कारणों पर चर्चा कीजिये। भारत में जाति व्यवस्था सामाजिक स्तरीकरण प्रणाली, सामाजिक प्रतिबंध तथा सकारात्मक कार्रवाई का एक आधार है। ऐतिहासिक रूप से भारत में जाति व्यवस्था ने समुदायों को हजारों विलुप्त वंशानुगत समूहों में विभाजित किया, जिन्हें जाति कहा जाता है। भारतीय जाति व्यवस्था की विशेषताएँ: जाति अंतर्जात (प्राक्रतिक) है: भारत में जाति व्यवस्था पूर्णत: सख्त एवं गतिहीन है। यह जाति है जो जीवन में किसी व्यक्ति की स्थिति को निर्धारित करती है। जाति अंतर्विवाही है: प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जाति के भीतर और उपसमूह के भीतर विवाह करना होगा, यदि उस जाति में ऐसी कोई उपवर्ग हो। वर्गीकृत सामाजिक संरचना: समाज की जाति संरचना वर्ग या अधीनता की प्रणाली है जो श्रेष्ठ वर्ग और निम्न वर्ग के संबंधों द्वारा एक साथ दर्शायी जाती है जिसमें शीर्ष पर ब्राह्मण हैं और सबसे निम्न पद पर शूद्र हैं। भारतीय जाति व्यवस्था में वर्तमान पद्धति: जाति की संगठनात्मक शक्ति में वृद्धि: भारत में साक्षरता दर में वृद्धि के साथ सदस्यों की जाति-चेतना को उनके हितों की रक्षा में वृद्धि किया है। उदाहरण के लिये, जाट सभा जैसे जाति संघों का गठन। जाति की राजनीतिक भूमिका: जाति हमारी राजनीति का एक अविभाज्य पहलू बन गई है क्योंकि चुनाव जाति के आधार पर अधिक लड़े जाते हैं। जाति व्यवस्था की कठोरता में गिरावट: यह अंतर-जातीय विवाह में वृद्धि को दर्शाता है। जाति-आधारित आरक्षण की मांग: पाटीदार समुदाय और कापू समुदाय द्वारा आरक्षण की मांगों में हाल ही में वृद्धि इसके कुछ उदाहरण हैं। अनुसूचित जातियों तथा अन्य पिछड़े वर्गों के लिये संरक्षण: अनुसूचित जातियों और जनजातियों के हितों की रक्षा के लिये प्रदान किये गए संवैधानिक संरक्षोपायों ने जाति को जीवन का एक नया रूप प्रदान किया है। इन प्रावधानों ने वर्ग में से कुछ जाति को आरक्षण के लाभों को स्थायी रूप से पुन: प्राप्त करने के लिये निहित स्वार्थ को जन्म दिया है। संस्कृतिकरण और पश्चिमीकरण: पहला पद एक प्रक्रिया को संदर्भित करता है जिसमें निम्न जातियाँ कुछ प्रमुख उच्च जातियों के मूल्यों, प्रथाओं और अन्य जीवन-शैलियों की नकल करती हैं। वही दूसरा पद एक ऐसी प्रक्रिया को दर्शाता है जिसमें उच्च-जाति के लोग अपनी जीवन-शैली को पश्चिमी लोगों के अनुरूप ढालते हैं। जातियों की प्रतिस्पर्धात्मक भूमिका: सदियों से चली आ रही जातियों की परस्पर निर्भरता आज नहीं पाई जाती है। वर्तमान में प्रत्येक जाति दूसरे को संदेह, अवमानना एवं ईर्ष्या की दृष्टि से देखती है और उसे एक चुनौती देने वाले, एक प्रतियोगी के रूप में पाती है। जाति व्यवस्था में वर्तमान पद्धति के कारण समान विधायी प्रणाली: ब्रिटिश और स्वतंत्र भारत द्वारा शुरू की गई समान विधायी प्रणाली ने न केवल सभी को समानता का आश्वासन दिया है, बल्कि अस्पृश्यता के प्रचलन को भी गैर-कानूनी घोषित कर दिया है। आधुनिक शिक्षा का प्रभाव: आधुनिक धर्मनिरपेक्ष शिक्षा ने लोगों में जागरूकता पैदा करके कुछ उच्च जातियों के बौद्धिक एकाधिकार को बढ़ावा दिया और जाति व्यवस्था को प्रभावित किया है। औद्योगिकीकरण, शहरीकरण और पश्चिमीकरण: इनके परिणामस्वरूप नवीन आर्थिक अवसर पैदा होते हैं जिन्होंने सख्त जाति व्यवस्था को क्षीण किया है। इस प्रकार, भारतीय जाति व्यवस्था में हालिया बदलाव, जाति-निष्ठा, जाति-पहचान, जाति-देशभक्ति और जाति-मानसिकता में बढ़ती प्रवृत्ति का उल्लेख करता है। विभिन्न नीतिगत उपायों तथा जागरूकता कार्यक्रमों के माध्यम से भारत के सभी लोगों के बीच धार्मिक, भाषायी तथा क्षेत्रीय या जातियों की विविधताओं के बीच सामंजस्य एवं समान भाईचारे की भावना को बढ़ावा देने का प्रयास किया जाना चाहिये।</s>
<s>[INST]प्र. लैंगिक रूढ़ीवादिता क्या है? भारतीय समाज में महिलाओं पर इसके निहितार्थों की चर्चा कीजिये। (150 शब्द)[/INST]प्रश्न का उत्तर जल्द ही प्रकाशित होगा।</s>
<s>[INST]प्र. नृजातीयता से आपका क्या तात्पर्य है और यह नस्ल से किस प्रकार भिन्न है? नृजातीयता की विशेषताओं पर चर्चा कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: नृजातीयता की एक संक्षिप्त परिभाषा दीजिये। नस्ल और नृजातीयता के बीच विभेदन कीजिये। नृजातीयता की विशेषताओं को गिनाइये। नृजातीयता पद मूल शब्द ‘जातीय’ से आया है जिसका शिथिल रूप से अर्थ नस्ल है। यह सहभोजी संस्कृति पर आधारित है। एक ही जातीय समूह से संबंधित लोग शरीर विज्ञान या संस्कृति या दोनों से संबंधित समानताओं के कारण अपने सामान्य वंश का आचरण करते हैं। उन्हें हमेशा एक ही धर्म या राष्ट्रीयता की आवश्यकता नहीं होती है। नृजातीयता साझा अनुभवों, जैसे- भाषा, धार्मिक आस्था, विरासत आदि से संयुक्त समूहों या अतिसंबंध लोगों की आत्म-चेतना का प्रतीक है। नृजातीयता जातीय शब्द से संबंधित है, जो हालाँकि नस्ल से भिन्न है। नस्ल और नृजातीयता की पारंपरिक परिभाषा क्रमश: जैविक और समाजशास्त्रीय कारकों से संबंधित है। नस्ल और नृजातीयता के मध्य विभेदन: नस्ल एक व्यक्ति की शारीरिक विशेषताओं को संदर्भित करता है, जैसे- हड्डी संरचना, त्वचा, बाल, आँखों का रंग आदि। नृजातीयता , हालाँकि, सांस्कृतिक कारकों को संदर्भित करता है; जिसमें राष्ट्रीयता, क्षेत्रीय संस्कृति, वंश और भाषा आदि शामिल हैं, जहाँ नस्ल सामान्यत: एक समूह की विशेषताओं को दर्शाती है, वहीं नृजातीयता एक ऐसे समूह की रचनात्मक प्रतिक्रिया को चिह्नित करती है जो स्वयं को समाज में हाशिए पर मानते हैं। नृजातीयता की निम्नलिखित कुछ विशेषताएँ हैं: यह जाति, भाषा, धर्म, क्षेत्र इत्यादि के लिये विशिष्ट पहचान से संबंधित है। यह सामाजिक रूप से संगठित है और क्षेत्रीय रूप से सीमित है तथा इसमें संख्यात्मक रूप से पर्याप्त जनसंख्या शामिल है। यह विशिष्टताओं को दर्शाने वाले प्रतीकों का एक पूल है। यह एक संदर्भ समूह है, जिसके सापेक्ष में पदच्युत (वास्तविक या काल्पनिक) की भावना एकत्र होती है। विकासात्मक प्रक्रिया से बाहर रहने या यहाँ तक कि असमान विकास का शिकार होने के कारण, नृजातीयता जातीय आंदोलनों का कारण बनती है। यह भारतीय राजनीति में न केवल जनसाधारण असंतोष के कारण जनित होता है, बल्कि यह निहित राजनीतिक हित का निर्माण भी है। जातीय समूह जो अपनी स्थिति में परिवर्तन के लिये, उनकी आर्थिक भलाई आदि में, रुचि समूह राजनीति के रूप में राजनीतिक क्षेत्र में मांग करने के लिये सामान्य रूप से नृजातीयता का उपयोग करते हैं।</s>
<s>[INST]ऊर्जा प्रत्येक समाज या राष्ट्र की मूलभूत आवश्यकता है क्योंकि यह विकास की सीढ़ी के साथ आगे बढ़ती है। इस कथन के आलोक में परमाणु ऊर्जा की भूमिका की चर्चा कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण किसी समाज या राष्ट्र के विकास के लिये ऊर्जा के महत्त्व को संक्षेप में बताते हुए प्रारंभ कीजिये। भारत के विकास में परमाणु ऊर्जा की भूमिका की विवेचना कीजिये। परमाणु ऊर्जा की चुनौतियों पर चर्चा करते हुए इस मुद्दे से निपटने के लिए कुछ उपाय सुझाइये। परिचय हाल के समय में विश्व को बिजली और ऊर्जा संकट का सामना करना पड़ा है। यद्यपि अलग-अलग देशों में इस संकट के कारण अलग-अलग रहे हैं फिर भी जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम करने और व्यवहार्य विकल्पों की तलाश करने के लिये आवाज़ उठने लगी है। इस संदर्भ में परमाणु ऊर्जा एक वृहत अवसर उपलब्ध करा सकती है। एक ओर यह वर्तमान में मनुष्य को ज्ञात ऊर्जा का सबसे सस्ता, हरित और सबसे सुरक्षित स्रोत हो सकती है तो दूसरी ओर यह मानव जाति के इतिहास की कुछ सबसे भीषण आपदाओं के लिये ज़िम्मेदार भी रही है। परमाणु ऊर्जा क्यों? थोरियम की उपलब्धता: भारत थोरियम की उपलब्धता के मामले में अग्रणी स्थान रखता है जिसे भविष्य का परमाणु ईंधन माना जाता है। थोरियम की उपलब्धता के साथ भारत में ऐसा पहला राष्ट्र बनने की क्षमता है जो जीवाश्म ईंधन मुक्त राष्ट्र होने के सपने को साकार कर सकता है। आयात बिलों में कटौती: परमाणु ऊर्जा उत्पादन से राष्ट्र को सालाना लगभग 100 बिलियन डॉलर की बचत होगी जिसे हम पेट्रोलियम और कोयले के आयात पर खर्च करते हैं। स्थिर और विश्वसनीय स्रोत: विद्युत के सबसे हरित स्रोत निश्चित रूप से सौर एवं पवन हैं। लेकिन अपने सभी लाभों के बावजूद सौर एवं पवन ऊर्जा स्थिर नहीं हैं और मौसम एवं धूप की स्थिति पर अत्यधिक निर्भर हैं। दूसरी ओर, परमाणु ऊर्जा अंतर्राष्ट्रीय उपस्थिति के साथ विश्वसनीय ऊर्जा का अपेक्षाकृत स्वच्छ, उच्च घनत्व वाला स्रोत प्रदान करती है। सस्ता परिचालन/संचालन: कोयला अथवा गैस संयंत्रों की तुलना में परमाणु ऊर्जा संयंत्रों की परिचालन लागत कम होती है। अनुमान लगाया गया है कि रेडियोधर्मी ईंधन के प्रबंधन और परमाणु संयंत्रों के निपटान जैसी लागतों को जोड़कर भी यह लागत कोयला संयंत्र के 33 से 50% और गैस संयुक्त-चक्र संयंत्र के 20 से 25% के ही बराबर है। परमाणु ऊर्जा अपनाने से संबद्ध चुनौतियाँ पूंजी गहन: परमाणु ऊर्जा संयंत्र पूंजी गहन हैं और हाल के परमाणु निर्माणों को बड़ी लागत का सामना करना पड़ा है। इसका एक हालिया उदाहरण दक्षिण कैरोलिना (यूएस) में वी.सी. समर परमाणु परियोजना है जहाँ लागत इतनी तेज़ी से बढ़ी कि 9 बिलियन डॉलर से अधिक के खर्च के बाद परियोजना को छोड़ दिया गया। अपर्याप्त परमाणु स्थापित क्षमता: वर्ष 2008 में परमाणु ऊर्जा आयोग ने अनुमान लगाया था कि भारत में वर्ष 2050 तक 650GW स्थापित क्षमता होगी; वर्तमान स्थापित क्षमता मात्र 6.78 गीगावॉट है। इस तरह के लक्ष्य इस उम्मीद पर आधारित थे कि भारत-अमेरिका असैन्य परमाणु समझौते के बाद भारत कई लाइट-वाटर रिएक्टरों का आयात करेगा। लेकिन इस समझौते के संपन्न होने के 13 साल बाद भी किसी नए परमाणु संयंत्र की स्थापना नहीं हुई है। सार्वजनिक वित्तपोषण की कमी: परमाणु ऊर्जा को कभी भी ऐसी उदार सब्सिडी प्राप्त नहीं हुई जैसी अतीत में जीवाश्म ईंधन को प्राप्त हुई थी और वर्तमान में नवीकरणीय ऊर्जा को प्राप्त हो रही है। सार्वजनिक वित्तपोषण के अभाव में परमाणु ऊर्जा के लिये भविष्य में प्राकृतिक गैस और नवीकरणीय ऊर्जा से मुकाबला करना कठिन होगा। भूमि अधिग्रहण: भूमि अधिग्रहण और परमाणु ऊर्जा संयंत्र (NPP) के लिये स्थान का चयन भी देश में एक बड़ी समस्या है। तमिलनाडु में कुडनकुलम और आंध्र प्रदेश में कोव्वाडा जैसे परमाणु ऊर्जा संयंत्रों को भूमि अधिग्रहण संबंधी चुनौतियों के कारण देरी का सामना करना पड़ा है। जलवायु परिवर्तन का प्रभाव: जलवायु परिवर्तन से परमाणु रिएक्टर दुर्घटनाओं का खतरा बढ़ जाएगा। विश्व में लगातार गर्म होते जा रहे ग्रीष्मकाल के दौरान पहले से ही कई परमाणु ऊर्जा संयंत्रों को अस्थायी रूप से बंद करने की स्थिति बनती रही है। इसके अलावा, परमाणु ऊर्जा संयंत्र अपने रिएक्टरों को ठंडा करने के लिये आस-पास के जल स्रोतों पर निर्भर हैं, जबकि नदियों आदि के सूखने के साथ जल के उन स्रोतों की अब गारंटी नहीं है। भविष्य में इस तरह की चरम मौसमी घटनाओं की आवृत्ति बढ़ने की संभावना है। अपर्याप्त पैमाने पर तैनाती: भारत के कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिये यह उपयुक्त विकल्प नहीं हो सकता है क्योंकि इसे आवश्यक पैमाने पर तैनात नहीं किया जा सकता है। परमाणु अपशिष्ट: परमाणु ऊर्जा का एक अन्य दुष्प्रभाव इससे उत्पन्न होने वाले परमाणु अपशिष्ट की मात्रा है। परमाणु अपशिष्ट का जीवन पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ सकता है, जैसे यह कैंसर के विकास का कारण बन सकता है या पशुओं तथा पौधों की कई पीढ़ियों के लिये आनुवंशिक समस्याएँ पैदा कर सकता है। भारत जैसे घनी आबादी वाले देश में भूमि का अभाव है और आपातकालीन स्वास्थ्य देखभाल सुविधा सार्वभौमिक रूप से उपलब्ध नहीं है। आगे की राह परमाणु बिजली पर सब्सिडी: परमाणु रिएक्टरों से बिजली की लागत कम-से-कम 15 रुपए प्रति यूनिट होगी (पारेषण लागत को छोड़कर) जबकि सौर ऊर्जा के लिये हाल ही में न्यूनतम बोली 2.14 रुपए प्रति यूनिट और सौर-पवन हाइब्रिड परियोजनाओं के लिये 2.34 रुपए रही है। यदि परमाणु बिजली को प्रतिस्पर्द्धी दर पर बेचा जाना है तो उसे भारत सरकार द्वारा बहुत अधिक सब्सिडी देनी होगी जो भारत के परमाणु ऊर्जा निगम के माध्यम से सभी परमाणु संयंत्रों का संचालन करती है। पूर्व-परियोजना मुद्दों को संबोधित करना: सरकार को नई साइटों पर भूमि अधिग्रहण, विभिन्न मंत्रालयों (विशेष रूप से पर्यावरण मंत्रालय) से मंज़ूरी और समय पर विदेशी सहयोगियों को खोजने जैसी परियोजना-पूर्व गतिविधियों से संबंधित मुद्दों को संबोधित करना चाहिये। इसके अलावा, परमाणु ऊर्जा संयंत्रों की पूंजीगत लागत को कम करने के लिये निरंतर प्रयास किये जाने चाहिये। सुरक्षा चिंताओं को संबोधित करना: सुरक्षा जो एक प्रमुख चिंता का विषय है, को प्राथमिकता के आधार पर संबोधित किया जाना चाहिये। परमाणु दुर्घटना के भय से परमाणु ऊर्जा उत्पादन को पूरी तरह से समाप्त करना एक गलत कदम होगा। यदि सुरक्षा के उच्चतम मानकों का पालन करते हुए परमाणु ऊर्जा उत्पन्न की जाती है तो भयावह दुर्घटनाओं की संभावना कम रहती है। इस संबंध में जल्द-से-जल्द एक परमाणु सुरक्षा नियामक प्राधिकरण (Nuclear Safety Regulatory Authority) की स्थापना करना देश में परमाणु ऊर्जा कार्यक्रमों के लिये सहायक होगा। तकनीकी सहायता: भारत में पुनर्प्रसंस्करण और संवर्द्धन क्षमता को भी बढ़ावा देने की आवश्यकता है। इसके लिये भारत को भुक्तशेष ईंधन (Spent Fuel) का पूरी तरह से उपयोग करने और अपनी संवर्द्धन क्षमता बढ़ाने के लिये उन्नत प्रौद्योगिकी की आवश्यकता है। निष्कर्ष भारत के पास दुर्लभ और अत्यंत महत्त्वपूर्ण ‘भविष्य का परमाणु ईंधन- थोरियम’ मौजूद है। इसे विश्व की ऊर्जा राजधानी के रूप में उभरने का अवसर नहीं खोना चाहिये क्योंकि इसके माध्यम से यह विश्व की सबसे बड़ी युवा शक्ति के साथ-साथ दुनिया की अग्रणी अर्थव्यवस्था के रूप में भी उभर सकता है।</s>
<s>[INST]“गरीबी केवल आर्थिक अपर्याप्तता की स्थिति नहीं है; यह सामाजिक और राजनीतिक बहिष्कार भी है।" पुष्टि कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भारत में गरीबी के मौजूदा आँकड़ों के साथ गरीबी को संक्षिप्त रूप में परिभाषित कीजिये। आर्थिक अपर्याप्तता, सामाजिक और राजनीतिक बहिष्कार के रूप में गरीबी पर चर्चा कीजिये। गरीबी को कम करने के लिये कुछ उपाय देते हुए निष्कर्ष लिखिये। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, गरीबी एक ऐसी स्थिति है, जो भोजन, सुरक्षित पेयजल, स्वच्छता सुविधाओं, स्वास्थ्य, आवास, शिक्षा तथा सूचना सहित बुनियादी मानव आवश्यकताओं के गंभीर अभाव को संदर्भित करती है। यह न केवल आय पर निर्भर करता है, बल्कि सेवाओं तक पहुँच पर भी निर्भर करता है। वर्ष 2019 के वैश्विक बहुआयामी गरीबी सूचकांक के अनुसार, वर्ष 2006 और वर्ष 2016 के मध्य भारत ने 271 मिलियन लोगों को गरीबी से बाहर निकाला है। परंतु अभी भी, लगभग 28 प्रतिशत भारतीय जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे निवास कर रही है। आर्थिक अपर्याप्तता के रूप में गरीबी: भारतीय समाज में धन के असमान वितरण की विशेषता को दर्शाता है। भारत की शीर्ष 1 प्रतिशत जनसंख्या के पास वर्तमान में कुल 73 प्रतिशत धन है, जबकि 67 करोड़ नागरिकों, जिसमें देश का सबसे गरीब वर्ग शामिल है, के धन में केवल 1 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। नतीजतन, समाज का गरीब और पिछड़े वर्ग बुनियादी मानवीय आवश्यकताओं को वहन नहीं कर पा रहा है। आर्थिक रूप से भारत एक कृषि समाज है। अविकसित कृषि पर श्रम बल की अत्यधिक निर्भरता गरीबी के प्रमुख कारणों में से एक है। बेरोज़गारी, अत्यधिक मुद्रास्फीति, बुनियादी सुविधाओं में कमी के साथ-साथ असशक्त मांग भी गरीबी का एक प्रमुख कारण है। सामाजिक और राजनीतिक बहिष्कार के रूप में गरीबी सामाजिक बहिष्करण में जातीयता, नस्ल, धर्म, लिंग, जाति, वंश, आयु, विकलांगता, एच.आई.वी. प्रवास या जहाँ वे निवास करते हैं, के आधार पर लोगों के कुछ समूहों से भेदभाव शामिल है। सार्वजनिक संस्थानों, जैसे कि विधायी प्रणाली या शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवाओं, साथ ही घरेलू जैसे सामाजिक संस्थानों में भेदभाव निहित है। इससे उन्हें मूलभूत मानवीय आवश्यकताओं से वंचित किया जाता है जो कि गरीबी की मूल विशेषता है। यह उन्हें भौतिक रूप से प्रभावित करता है- उन्हें संसाधनों, बाज़ारों और सार्वजनिक सेवाओं तक पहुँच से वंचित करके उन्हें, स्वास्थ्य या शिक्षा के संदर्भ में गरीब बना देता है। प्राय: अल्पसंख्यक एवं मार्जिनल समूहों को राजनीतिक निर्णयन से बाहर रखा गया है। राजनीतिक निर्णय लेने में उनके बहिष्कार से लोगों की आजीविका, शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य बुनियादी सेवाओं तक पहुँच में कमी आई है। चूँकि गरीबी एक बहुआयामी घटना है, अत: गरीबी के विभिन्न पहलुओं को दूर करने के लिये कुशल गरीब निवारण कार्यक्रमों पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है। इस संबंध में सरकार की निम्नलिखित कुछ पहल हैं: महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (मनरेगा इस प्रकार गारंटीकृत श्रम रोज़गार प्रदान करके घरों की आजीविका सुरक्षा को बढ़ाने के उद्देश्य से उनकी क्रय शक्ति में वृद्धि हुई है। वर्ष 2022 तक सभी के लिये आवास मिशन: सभी गरीबों को किफायती आवास उपलब्ध कराना। दीन दयाल अंत्योदय योजना: इसका एक घटक- राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन का लक्ष्य देश में 7 करोड़ ग्रामीण गरीब परिवारों, 2.5 लाख ग्राम पंचायतों तथा 6 लाख गांवों को स्व-प्रबंधित स्वयं सहायता समूहों (एस.एच.जी.) तथा संस्थानों के माध्यम से शामिल करना है और 8-10 वर्षों की अवधि में आजीविका के लिये समर्थन करना है। प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना: गरीबी में कमी लाने की रणनीति के अंतर्गत सरकार ने 25 दिसंबर, 2000 को प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना (पी.एम.जी.एस.वाई.) की शुरुआत की, क्योंकि ग्रामीण सड़कें देश के लगभग 80 प्रतिशत सड़क नेटवर्क का गठन करती हैं और यह गाँवों में रहने वाली आबादी के लिये एक जीवन रेखा है। इन पहलों के साथ-साथ, गरीब वर्ग को सशक्त बनाने के लिये अधिक एवं बेहतर रोज़गार सृजित करना भी महत्त्वपूर्ण है ताकि वे अपनी अवश्यकताओं को पूरा करते रहें।</s>
<s>[INST]दुनिया भर में ब्रिटिश वर्चस्व स्थापित करने में औद्योगीकरण और औपनिवेशीकरण एक दूसरे के पूरक थे। विश्लेषण कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: औद्योगिकीकरण और उपनिवेशवाद को परिभाषित कीजिये। बताइये कि उपनिवेशवाद और औद्योगिकीकरण परस्पर पूरक कैसे थे। राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में ब्रिटिश आधिपत्य के उद्भव के साथ उत्तर पूरा कीजिये। भाप या बिजली जैसे ऊर्जा संसाधनों के उपयोग के माध्यम से मशीन आधारित उत्पादन के उद्भव को औद्योगिकीकरण कहा जाता है। दूसरी ओर, विजय या अन्य साधनों द्वारा उपनिवेशों को प्राप्त करने और उन्हें अपने स्वयं के आर्थिक और राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिये उपयोग करने को उपनिवेशवाद कहा जाता है। खोजयात्राओं के युग (Age of Exploration) में उपनिवेशवाद की पहली लहर उभरी जिसमें स्पेन और पुर्तगाल जैसे देश प्रमुख थे। औद्योगिक क्रांति के आगमन के साथ उपनिवेशवाद की दूसरी लहर का तीव्र उभार हुआ जहाँ ब्रिटेन अन्य सभी उपनिवेशवादी शक्तियों से अधिक सफल रहा। औद्योगिक क्रांति ने निम्नलिखित विषयों में बड़ी भूमिका निभाई: नए विचारों का उद्भव। उत्पादन स्तर में वृद्धि। आधुनिक उपकरणों का विकास। परिवहन और संचार में सुधार। इन सभी कारणों ने अन्य उपनिवेशवादी शक्तियों पर ब्रिटेन को असंगत लाभ प्रदान किया और इसके क्षेत्रों का विस्तार किया। अधिकाधिक उपनिवेशों पर नियंत्रण के साथ ब्रिटेन अपने घरेलू उद्योगों के लिये कच्चे माल की माँग की पूर्ति में सक्षम हुआ। उद्योगों के विस्तार के साथ इनके लिये अधिकाधिक कच्चे माल की आवश्यकता बढ़ती जा रही थी। भारत और मिस्र कपास के जबकि कॉंगो और ईस्ट इंडीज रबड़ के प्रमुख स्रोत देश थे। इन कच्चे उत्पादों के अतिरिक्त खाद्यान्न, चाय, कॉफी, नील, तंबाकू और चीनी की आपूर्ति भी इन उपनिवेशों से होती थी। इन उत्पादों की अधिकाधिक प्राप्ति के लिये उपनिवेशों के उत्पादन प्रारूप को परिवर्तित करना उपनिवेशवादी देशों के हित में था। इस प्रकार, उपनिवेशवादियों ने केवल उन एक या दो फसलों की खेती के लिये उपनिवेशों को विवश किया जिनकी उन्हें अपने उद्योगों के लिये कच्चे माल के रूप में आवश्यकता थी। बाद में औद्योगिक उत्पादन के संवर्धित स्तर के साथ घरेलू बाज़ार संतृप्त हो गए और अधिशेष को भारत जैसे उपनिवेशों की ओर मोड़ दिया गया जिससे वे कच्चे माल के स्रोत के साथ ही तैयार उत्पाद के बाज़ार में बदल गए। उपनिवेशों से कच्चे माल तथा श्रम व सेना के लिये मानव संसाधन से सहायता प्राप्त औद्योगिकीकरण की अतुलनीय गति ने ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना को सुनिश्चित किया। यह वर्चस्व केवल राजनीतिक, आर्थिक और सैन्य क्षेत्र तक ही सीमित नहीं था। ब्रिटिश संस्कृति, भाषा, शैक्षणिक और प्रशासनिक संरचना ने भी वैश्विक वर्चस्व प्राप्त किया जिससे ब्रिटेन का एक वैश्विक औपनिवेशिक शक्ति के रूप में उभार हुआ।</s>
<s>[INST]द्वितीय विश्व युद्ध के प्रसार के लिये किस हद तक 'तुष्टिकरण' की नीति को दोषी ठहराया जा सकता है? (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण ब्रिटेन और फ्राँस की तुष्टीकरण की नीति का संक्षेप में वर्णन कीजिये। इस नीति की तर्कसंगतता को समझाइये। तुष्टीकरण के कुछ उदाहरण दीजिये। द्वित्तीय विश्व युद्ध के प्रादुर्भाव में तुष्टीकरण की भूमिका का आकलन कीजिये। 1930 के दशक के दौरान आंग्ल-फ्राँसीसी विदेश नीति का संचालन तुष्टीकरण, संघर्ष से बचने के लिये तानाशाही शक्तियों को रियायतें देने की नीति, के साथ हुआ। प्रथम विश्वयुद्ध से प्राप्त सीख ने ब्रिटेन और फ्राँस को एक और वैश्विक प्रसार के प्रति सशंकित कर दिया था और वे किसी भी तरह से युद्ध जैसी स्थिति से बचना चाहते थे। फ्राँस और ब्रिटेन ने तुष्टीकरण का सहारा क्यों लिया? इसे युद्ध से बचने के लिये आवश्यक समझा गया था, जिसके पहले से कहीं अधिक विनाशकारी होने की संभावना थी। बहुत से विशेषज्ञों का मानना था कि जर्मनी और इटली की शिकायतें कुछ हद तक उचित थी। वर्साय संधि में इटली के साथ छल किया गया और जर्मनी के साथ बहुत कठोर व्यवहार किया गया था। चूँकि इस समय राष्ट्र संघ असहाय प्रतीत हो रहा था, ब्रिटेन और फ्राँस का मानना था कि विवादों को निपटाने का एकमात्र तरीका नेताओं के बीच व्यक्तिगत संपर्क था। इसके अलावा साम्यवादी रूस से विश्व के अन्य देशों में साम्यवाद के प्रसार का भय बढ़ता जा रहा था, उस समय बहुत से लोगों का मानना था कि साम्यवाद का खतरा हिटलर से उत्पन्न खतरे से बड़ा था। तुष्टीकरण के उदाहरण: जर्मनी के शस्त्रीकरण की जाँच के लिये कोई कार्रवाई नहीं की गई थी। ऑस्ट्रिया और चेकोस्लोवाकिया पर जर्मनी के कब्जे को ब्रिटेन या फ्राँस से कोई प्रतिरोध नहीं मिला। एबिसिनिया (इथियोपिया) पर इतालवी आक्रमण के खिलाफ ब्रिटेन की कार्रवाई अपर्याप्त थी। मित्र राष्ट्र, राइनलैंड में जर्मनी के अभ्युदय को नियंत्रित करने में विफल रहे। किस सीमा तक तुष्टीकरण ने द्वितीय विश्व युद्ध के प्रादुर्भाव को प्रेरित करने का कार्य किया: तुष्टीकरण की नीति ने हिटलर को विद्रोह के लिये खुली छूट प्रदान की। इसने जर्मनी, इटली और जापान को बर्लिन-रोम-टोक्यो धुरी के निर्माण के लिये एक-दूसरे से जुड़ने का अवसर व स्थिति प्रदान की। इस गठबंधन के उभरने से सत्ता संतुलन बिगड़ गया। आरंभिक सफलताओं और पश्चिमी शक्तियों से प्रतिरोध की अनुपस्थिति ने हिटलर को और आगे बढ़ने तथा बड़े जोखिम उठाने के लिये प्रेरित किया। भले ही युद्ध के लिये हिटलर के पास कोई निश्चित योजना नहीं थी, किंतु म्यूनिख में चेकोस्लोवाकिया के आत्मसमर्पण के बाद, उसे विश्वास हो गया कि ब्रिटेन और फ्राँस फिर से निष्क्रिय रहेंगे, इस तरह उसने पोलैंड के साथ युद्ध की जोखिम भरी बाजी खेलने का फैसला किया। तुष्टीकरण की नीति ने हिटलर को आश्वस्त किया कि पश्चिमी लोकतंत्रों की न तो वैश्विक शांति की इच्छा थी, न ही उनकी जर्मनी के सामने टिकने की क्षमता थी। द्वितीय विश्व युद्ध की पूर्वावधि में ब्रिटेन और फ्राँस इस बात का सही आकलन नहीं कर पाए कि एडोल्फ हिटलर विजय पाने की लालसा में कितना दृढ़ है। नतीजतन ब्रिटिश प्रधानमंत्री नेविल चेम्बरलेन की तुष्टीकरण की नीति की विफलता का ही परिणाम था कि युद्ध अपरिहार्य हो गया।</s>
<s>[INST]विश्व में खनिज तेल के असमान वितरण के बहुआयामी प्रभावों की विवेचना कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : खनिज तेल वैश्विक ऊर्जा की मूलभूत आवश्यकता माने जाते हैं तथा इनका विश्व में वितरण असमान है। वस्तुतः विश्व का आधे से अधिक खनिज तेल भंडार ईरान व अरब देशों ( उत्तरी अफ्रीका के देश शामिल नहीं ) में मौजूद है; जबकि कनाडा, संयुक्त राज्य अमेरिका, दक्षिणी अमेरिका, अफ्रीका तथा रूस में विश्व के लगभग 15 प्रतिशत खनिज तेल रिज़र्व मौजूद हैं। वहीं भारत के डिग्बोई, बंबई हाई, बसीन, अंकलेश्वर, अलियाबेट क्षेत्रों में मौजूद तेल रिज़र्व देश की ऊर्जा आवश्यकता की पूर्ति करने में नगण्य के बराबर हैं। खनिज तेल के अत्यधिक सामरिक महत्त्व और दुनिया भर में इसके असमान वितरण के बहुआयामी निहितार्थ हैं, जिन्हें निम्नांकित बिंदुओं के माध्यम से समझा जा सकता है: आर्थिक प्रभाव खनिज तेल का असमान वितरण तेल आयातक देशों में मुद्रास्फीति को बढ़ाता है। उदाहरण के लिये तेल के दामों में संस्थागत बढ़ोतरी भारत जैसे देश में महँगाई को बढ़ाती है तथा भुगतान संतुलन व फॉरेक्स रिज़र्व पर विपरीत प्रभाव डालती है। इसके अतिरिक्त तेल रिज़र्व व उत्पादक देशों का तेल निर्यात बढ़ने से राष्ट्रीय आय में वृद्धि होती है तथा इन देशों की ओर जॉब के लिये अन्य देशों से प्रवासन बढ़ता है। तेल का असमान वितरण वैश्विक स्तर पर असमान वृद्धि व विकास को बढ़ावा देते हैं वस्तुतः आयात कीमतों में वृद्धि से सरकार की कल्याणकारी उद्देश्यों पर खर्च करने की क्षमता सीधे तौर पर बाधित होती है। भू - राजनीतिक प्रभाव खनिज तेल भंडार वाले अधिकांश देशों में राजनीतिक अस्थायित्व विद्यमान रहता है; जैसे - वेनेजुएला में गृह युद्ध, अफ्रीकी देशों में सैन्य तख्तापलट आदि घटनाएँ अत्यधिक रिज़र्व होने के बावजूद उत्पादन की गतिविधियों पर प्रतिकूल असर डालती हैं। खनिज तेल रिज़र्व वाले अधिकांश देशों में अधिनायकवादी सत्ता या राजतंत्र विद्यमान है, जिससे उन देशों में मानव पूंजी के विकास पर ज़्यादा ज़ोर नहीं दिया जाता। खनिज तेल भंडार की प्रकृति ही सामरिक है। अतः इसका असमान वितरण रिज़र्व पर नियंत्रण हेतु क्षेत्रीय संघर्ष को बढ़ावा देता है। उदाहरण के लिये, पश्चिम एशिया में क्षेत्रीय संघर्ष। खनिज तेल एक अत्यावश्यक आर्थिक कमोडिटी है। अत : इसके आयात - निर्यात को प्रोत्साहित करने हेतु अंतर्राष्ट्रीय संबंधों व विदेश नीति का भी सहारा लिया जाता है। ऊर्जा सुरक्षा पर प्रभाव खनिज तेल की कीमतों में अतिशय वृद्धि को सुनिश्चित करने हेतु OPEC जैसे समूह व अन्य प्रमुख तेल उत्पादक देश तेल उत्पादन को नियंत्रित कर तेल संकट की स्थिति उत्पन्न कर देते हैं। इससे आयातक देशों में आर्थिक व राजनीतिक अस्थिरता बढ़ जाती है और उनकी सामरिक स्वायत्तता प्रभावित होती है। खनिज तेल के असमान वितरण व सीमित उपलब्धता के कारण तेल आयातक देशों की ऊर्जा निर्भरता तेल प्रचुर देशों पर आश्रित हो जाती है। इकोलॉजिकल प्रभाव तेल प्रचुर देशों में तेलों की निष्कर्षण संबंधी प्रक्रिया में जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण होता है। तथा उस क्षेत्र की मृदा का ह्रास होता है। तेल के निष्कर्षण से उस क्षेत्र की जैवविविधता का ह्रास होता है। तेल के व्यापार के कारण समुद्रों में ऑयल स्पिल की घटनाएँ समुद्री जैवविविधता के लिये अत्यंत घातक साबित होती हैं। उपर्युक्त प्रभावों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि खनिज तेल का असमान वितरण एक ओर ऊर्जा सुरक्षा को प्रभावित करता है, तो वहीं ऊर्जा स्रोत के रूप में कार्बनिक खनिज तेल का व्यापक उपयोग ग्लोबल वार्मिंग व जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा देता है। अतः अब संपूर्ण विश्व इन कार्बनिक खनिज तेलों की बजाय नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों की ओर स्थानांतरित हो रहा है, जिसमें भारत भी अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं का विविधीकरण कर रहा है।</s>
<s>[INST]प्रश्न. आर्कटिक की बर्फ और अंटार्कटिक के ग्लेशियरों का पिघलना किस तरह अलग-अलग ढंग से पृथ्वी पर मौसम के स्वरुप और मानवीय गतिविधियों पर प्रभाव डालते हैं? स्पष्ट कीजिये।(250 शब्द)[/INST]उत्तर : भूसंहतियों के समीप अवस्थित आर्कटिक महासागर सतत महसागरीय हिम से आच्छादित है जबकि सुदूर दक्षिण में अवस्थित अंटार्कटिक एक हिमनद आवरित महाद्वीप है। जलवायु परिवर्तन ने ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ाया है। फलतः विश्व के प्रशीतक के रूप में मौजूद आर्कटिक एवं अंटार्कटिक दोनों के हिमनदों के पिघलने की दर में वृद्धि हुई है। IPCC की रिपोर्ट के अनुसार आर्कटिक की बर्फ अंटार्कटिक के ग्लेशियर की अपेक्षा अधिक तीव्र गति से पिघल रही है। चूँकि आर्कटिक एवं अंटार्कटिक की अवस्थिति व प्रकृति में अंतर है। अतः इनकी बर्फ व ग्लेशियरों के पिघलने से मौसम के प्रतिरूप एवं मानवीय क्रियाकलापों पर भी अलग - अलग प्रभाव पड़ता है, जिसे निम्नांकित बिंदुओं के माध्यम से समझा जा सकता है- आर्कटिक की बर्फ के पिघलने का प्रभाव आर्कटिक की बर्फ के पिघलने से एल्बिडी प्रभाव कम होगा, जिससे तापमान में वृद्धि होगी और पोलर जेट स्ट्रीम कमज़ोर होगी फलस्वरूप मध्य अक्षांशों; जैसे - अमेरिका , यूरोप क्षेत्र में पोलर वर्टेक्स का नकारात्मक प्रभाव देखने को मिलेगा। आर्कटिक की बर्फ पिघलने से निम्न अक्षांशों की ओर आने वाली ठंडी महसागरीय धाराओं ( जैसे - पूर्वी ग्रीनलैंड धारा ) की प्रकृति में परिवर्तन से शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात में परिवर्तन आना शुरू हो जाता है। AMOC (अटलांटिक मेरिडियोनल ओवरटर्निंग सर्कुलेशन) की प्रक्रिया प्रभावित होती है। ENSO चक्र अनियमित हो जाएगा। फलत: अलनीनो की घटनाओं में वृद्धि होगी। इसका भारतीय मानसून पर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा। आर्कटिक क्षेत्र की जैवविविधता का ह्रास होगा। वस्तुतः यहाँ के ध्रुवीय भालू, आर्कटिक लोमड़ी व अन्य समुद्री जीवों के हैबिटेट का पतन होगा। आर्कटिक बर्फ के पिघलने से समुद्री जल- स्तर में वृद्धि होगी। फलतः समुद्रतटीय शहरों व देशों के निमग्न होने का खतरा बढ़ जाएगा। आर्कटिक पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने से बड़ी मात्रा में मीथेन गैस का उत्सर्जन ग्लोबल वार्मिंग के दुश्चक्र को बढ़ाता है। आर्कटिक बर्फ के पिघलने से नॉर्दर्न सी रूट खुल सकता है तथा इस क्षेत्र में प्राकृतिक संसाधनों के दोहन हेतु देशों के मध्य नकारात्मक प्रतिस्पर्धा शुरू हो जाएगी। हीट वेव में वृद्धि तथा मौसमी अनियमितता खाद्य संकट को बढ़ाएगी। अंटार्कटिक के ग्लेशियर के पिघलने के प्रभाव अंटार्कटिक के ग्लेशियरों के पिघलने से अंटार्कटिक परिध्रुवीय धारा के तापमान में वृद्धि होगी। अलनीनो व ला- लीना की दशाओं में परिवर्तन तथा भारत में दक्षिण- पश्चिम मानसून कमज़ोर हो सकता है। दक्षिणी गोलार्द्ध में चक्रवातों की गहनता में वृद्धि। अंटार्कटिक क्षेत्र की जैवविविधता में क्षति, वस्तुतः इस क्षेत्र में पाई जाने वाली पेंगुइन व अन्य प्रजातियों के हैबिटेट का ह्रास होगा। हिमनद के पिघलने से समुद्री स्तर में वृद्धि होगी। फलतः दक्षिणी गोलार्द्ध के छोटे - छोटे द्वीपीय देशों के निमग्न होने का खतरा बढ़ेगा। अंटार्कटिक के हिमनदों के पिघलने से भी AMOC मंद गति से होगा। फलतः विश्व भर के महासागरीय बेसिन में ताप एवं पोषक तत्त्वों का वितरण दुष्प्रभावित होगा। एक पारितंत्र के रूप में आर्कटिक और अंटार्कटिक ऊष्मा बजट को संतुलित एवं जलवायवीय दशाओं को नियंत्रित करने वाले पृथ्वी के अभिन्न अंग हैं। इनके अनवरत पिघलने से वैश्विक जलवायु तंत्र व संपूर्ण जैवमंडल पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। अतः ग्लोबल वार्मिंग के पर्यावरणीय प्रभाव को कम करने के लिये संपूर्ण विश्व को संधारणीय विकास को अमल में लाना चाहिये तथा ग्रीन एनर्जी के उपयोग को बढ़ावा देना चाहिये।</s>
<s>[INST]क्रिप्टोकरेंसी क्या है? यह वैश्विक समाज को कैसे प्रभावित करता है? क्या यह भारतीय समाज को भी प्रभावित कर रहा है? (250 शब्द)[/INST]उत्तर : क्रिप्टोकरेंसी एक प्रकार की डिजिटल करेंसी होती है, जिसमें लेन - देन संबंधी सभी जानकारियों को कूटबद्ध (Encrypt) तरीके से विकेंद्रित डेटाबेस (Decentralized Database) में सुरक्षित रखा जाता है। क्रिप्टोकरेंसी क्रिप्टोग्राफी प्रोग्राम पर आधारित एक वर्चुअल करेंसी सिस्टम पर आधारित है। इसने वैश्वीकरण में संपूर्ण विश्व के लिये एक मुद्रा जैसी परिकल्पना को यथार्थ किया है। वैश्विक समाज पर प्रभाव सकारात्मक प्रभाव भौतिक मुद्रा की छपाई की लागत में कमी तथा सामाजिक कल्याण हेतु अधिक धन उपलब्धता। जालसाजी और नकली मुद्रा से समाज का बचाव तथा सभी वर्गों के लिये एकसमान उपलब्धता। नकारात्मक प्रभाव नारकोटिक्स, आतंकवाद के वित्तपोषण, मानव तस्करी और मनी लॉन्ड्रिग में उपयोग। अवैध गतिविधियों में युवा पीढ़ी की संलिप्तता में वृद्धि तथा जनसंख्या लाभांश की हानि। क्रिप्टो माइनिंग अत्यंत ऊर्जा गहन है इससे ई - वेस्ट और बिजली की खपत में वृद्धि | एक नए डिजिटल विभाजन का कारण। कर चोरी से सरकार को राजस्व हानि तथा समाज कल्याण के लिये धन उपलब्धता में कमी। क्रिप्टोकरेंसी में एक आंतरिक मूल्य का अभाव होता है तथा यह पोंजी योजनाओं पर निवेश को बढ़ावा दे सकता है। साइबर आतंकवाद के प्रति सुभेद्यता। वित्तीय प्रणाली विश्वास के मूल्य पर आधारित है, जो क्रिप्टोकरेंसी में पूरी तरह से अनुपस्थित है। भारत में क्रिप्टोकरेंसी कानूनी मुद्रा नहीं है तथा भारत सरकार और आरबीआई भारतीय समाज में इसके बढ़ते प्रचलन और उपयोग को लेकर सतर्क हैं। इसके बाद भी देश में युवा वर्ग बड़ी संख्या में क्रिप्टोकरेंसी की ओर आकर्षित हो रहा है। ये अपनी बचत और परिश्रम की कमाई को उच्च रिटर्न के लालच में क्रिप्टोकरेंसी में निवेश कर रहे हैं, जिसमें अत्यधिक जोखिम है। इसके संबंध में जानकारी के अभाव में नुकसान की स्थिति में यह उन्हें महँगा भी पड़ सकता है हालाँकि भ्रष्टाचार की जाँच करने वित्तीय समावेशन करने, वित्तीय हस्तांतरण में दक्षता वृद्धि करने और वित्तीय धोखाधड़ी नियंत्रित करने में क्रिप्टोकरेंसी भारतीय समाज की सहायता करके लाभदायक सिद्ध हो सकती है। क्रिप्टोकरेंसी और इसके नकारात्मक प्रभाव वैश्विक समाज को प्रभावित करेंगे, इस प्रकार क्रिप्टोकरेंसी के नकारात्मक परिणामों को समाप्त करने के लिये वैश्विक स्तर पर UNODC-CMLS द्वारा विकसित क्रिप्टोकरेंसी ट्रेनिंग मॉड्यूल के माध्यम से विभिन्न देशों को अपने अधिकारियों को प्रशिक्षित करना चाहिये। इसके साथ ही यूएसए. में प्रयोग हो रहे नवीन ' फॉरेंसिक सॉफ्टवेयर ' को भी बढ़ावा दिया जा सकता है, जिसके माध्यम से उच्च मात्रा में होने वाले क्रिप्टोकरेंसी हस्तांतरण का विश्लेषण करना संभव है।</s>
<s>[INST]जनसंख्या शिक्षा के मुख्य उद्देश्यों की विवेचना कीजिये तथा भारत में इन्हें प्राप्त करने के उपायों का विस्तार से उल्लेख कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : भारत की जनसंख्या वर्तमान में 1.4 बिलियन हो गई है तथा इसके वर्ष 2026 तक चीन से ज़्यादा हो जाने की संभावना है। ऐसे में भारत के लिये जनसंख्या शिक्षा अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। यूनेस्को के अनुसार, " जनसंख्या शिक्षा एक शैक्षिक कार्यक्रम है जो परिवार, समुदाय, राष्ट्र और विश्व की जनसंख्या की स्थिति के अध्ययन के लिये छात्रों में उस स्थिति के प्रति तर्कसंगत और ज़िम्मेदार दृष्टिकोण तथा व्यवहार विकसित करने के उद्देश्य से प्रदान की जाती है "। जनसंख्या शिक्षा के उद्देश्य छात्रों में परिवार के आकार के प्रति समझ विकसित करना। जनसंख्या की वृद्धि के कारणों और परिणामों को समझने में व्यक्ति की सहायता करना। परिवार के आकार और राष्ट्रीय जनसंख्या में परिवर्तन के व्यक्ति पर प्रभाव के बारे में सटीक जानकारी प्रदान करना। इस तथ्य की समझ विकसित करना कि परिवार के सदस्यों के स्वास्थ्य और कल्याण के लिये तथा युवा पीढ़ी के लिये अच्छी संभावनाएँ सुनिश्चित करने हेतु भारतीय परिवार छोटे और कॉम्पैक्ट होने चाहिये। व्यक्ति को यह समझने में सक्षम बनाना है कि एक विशाल जनसंख्या व्यक्ति और समाज को कैसे प्रभावित करती है। छात्रों को जनसंख्या शिक्षा की अवधारणा को समझने के लिये आवश्यक ज्ञान, कौशल, दृष्टिकोण और मूल्यों को प्राप्त करने में सक्षम करना। वर्तमान में जनसंख्या स्थितियों के बारे में सचेत और सही निर्णय लेने में सक्षम बनाना । जनसंख्या लक्ष्यों को पूरा करने में सरकार के प्रयासों में सहयोग हेतु प्रेरित करना। जनसंख्या शिक्षा के उपाय स्कूली पाठ्यक्रम में जनसंख्या शिक्षा ' नामक विषय को शामिल करना। जनसंख्या शिक्षा कार्यक्रम के सफल क्रियान्वयन के लिये शिक्षकों का प्रशिक्षण। पंचायत स्तर पर वेब सीरीज़ जैसे- पंचायत, श्रव्य - दृश्य कार्यक्रम और सम्मेलनों के माध्यम से जागरूकता। लड़कियों की विवाह आयु में वृद्धि तथा उनकी शिक्षा पर बल जनसंख्या नीति का आम लोगों के जीवन से जुड़ाव होना चाहिये और इसमें विधायिका, कार्यपालिका, नौकरशाही, मीडिया, पेशेवरों, शिक्षकों और आम जनता सहित सभी हितधारकों को सम्मिलित होना चाहिये। वास्तव में, बल या कानून के भय की अपेक्षा जनसंख्या शिक्षा और जागरूकता जनसंख्या नियंत्रण का समुचित उपाय हो सकती है।</s>
<s>[INST]‘‘सार्वजनिक स्थान धार्मिक पहचान के किसी भी सार्वजनिक प्रदर्शन से मुक्त होने चाहिये।’’ स्कूल यूनिफाॅर्म के संबंध में कर्नाटक सरकार द्वारा हाल ही में दिये गए आदेशों के संदर्भ में इस कथन की आलोचनात्मक विवेचन कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: स्कूल यूनिफॉर्म और उसके बाद हिजाब-विवाद के संबंध में कर्नाटक सरकार के आदेश को संक्षेप में समझाते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये। सरकारी आदेश से जुड़े मुद्दों पर चर्चा कीजिये। चर्चा कीजिये कि इसका समाधान क्या हो सकता है। परिचय हाल ही में कर्नाटक सरकार द्वारा एक आदेश पारित किया जिसमें कहा गया कि प्री-यूनिवर्सिटी कॉलेजों (Pre-University Colleges) के छात्र-छात्राओं को कॉलेज के प्रशासनिक बोर्ड द्वारा निर्धारित यूनिफाॅर्म पहनना अनिवार्य होगा। किसी निर्धारण के आभाव में दृष्टिकोण यह होगा कि ‘‘समानता, अखंडता और सार्वजनिक कानून व्यवस्था को बिगाड़ने वाले कपड़े’’ नहीं पहने जा सकेंगे। यह आदेश विभिन्न कॉलेजों में हाल के घटनाक्रमों को देखते हुए जारी किया गया जहाँ हिजाब पहनने वाली महिला छात्रों के कॉलेज परिसरों में प्रवेश को निषिद्ध कर दिया गया था। इस सरकारी आदेश से संबद्ध समस्याएँ संविधान के अंतर्गत धार्मिक स्वतंत्रता का संरक्षण: संविधान के अनुच्छेद 25 (1) के अनुसार सभी व्यक्तियों को ‘‘अंतःकरण की स्वतंत्रता और धर्म को निर्बाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का समान अधिकार प्राप्त है।’ यह ऐसा अधिकार है जो नकारात्मक स्वतंत्रता की गारंटी प्रदान करता है जिसका अर्थ यह कि राज्य सुनिश्चित करेगा कि इस स्वतंत्रता का प्रयोग करने में कोई हस्तक्षेप या बाधा न हो। हालाँकि अन्य सभी मूल अधिकारों समान इस अधिकार को भी राज्य द्वारा लोक व्यवस्था, सदाचार, नैतिकता, स्वास्थ्य और अन्य राज्य हितों के आधार पर निर्बंधित किया जा सकता है। हिज़ाब पर प्रतिबंध मुस्लिम बालिकाओं के उनकी शिक्षा प्राप्ति में बाधा उत्पन्न कर सकता है। उनके परिवार उन्हें स्कूल भेजना बंद कर सकते हैं और यह ‘सभी के लिये शिक्षा के अधिकार’ की भावना के विरुद्ध होगा। मुस्लिम महिलाओं द्वारा हिज़ाब पहनने का उद्देश्य यह नहीं है कि वे कॉलेज के कार्यकरण को बाधित करने या किसी अन्य समुदायों की छात्राओं को इसे अपनाने या किसी अन्य तरह की पोशाक का त्याग करने हेतु उकसाने का कार्य करे बल्कि यूनिफ़ॉर्म के साथ उनका हिजाब पहनना ठीक वैसा ही है जैसा सिख पुरुष पगड़ी धारण करते हैं या हिंदू बिंदी/तिलक/विभूति लगाते हैं। संबंधित मामलों में न्यायालय के निर्णय: वर्ष 2015 में केरल उच्च न्यायालय के समक्ष दो ऐसी याचिकाएँ दायर की गई थीं जिनमें अखिल भारतीय प्री-मेडिकल प्रवेश के लिये ड्रेस कोड के निर्धारण को लेकर चुनौती दी गई थी। निर्धारित ड्रेस कोड में आधी आस्तीन वाले हल्के कपड़े (जिसमें बड़े बटन, ब्रोच/बैज, फूल आदि न हो) सलवार/पायजामे के साथ पहनने और चप्पल पहनने का निर्देश दिया गया था। केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (CBSE) द्वारा तर्क प्रस्तुत किया गया कि इन नियमों का उद्देश्य केवल यह सुनिश्चित करना है कि परीक्षा में अभ्यर्थी कपड़ों के भीतर कोई अनुचित सामान को छिपाकर उसका प्रयोग नकल करने के लिये न करे। केरल उच्च न्यायालय ने उनके तर्क को स्वीकार करते हुए CBSE को निर्देश दिया कि वे उन छात्र-छात्राओं की जाँच के लिये अतिरिक्त उपाय करें जो ‘’अपनी धार्मिक मान्यताओं के अनुरूप, परंतु ड्रेस कोड के विपरीत, पोशाक पहनते हैं।’’ आमना बिन्त बशीर बनाम केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड मामले (2016) में केरल उच्च न्यायालय ने इस मुद्दे पर और अधिक बारीकी से विचार किया। न्यायालय ने माना कि हिज़ाब पहनना एक आवश्यक धार्मिक अभ्यास है, लेकिन न्यायालय द्वारा CBSE के नियम को रद्द नहीं किया। न्यायालय ने एक बार पुनः वर्ष 2015 में अपनाए गए ‘अतिरिक्त उपायों’ और सुरक्षा उपायों का अपनाने हेतु निर्देश दिये। हालाँकि एक स्कूल द्वारा निर्धारित यूनिफाॅर्म के विषय पर फातिमा तसनीम बनाम केरल राज्य मामले (2018) में एक अन्य बेंच ने बिल्कुल अलग निर्णय दिया। केरल उच्च न्यायालय की एकल पीठ ने कहा कि किसी संस्था के सामूहिक अधिकारों को याचिकाकर्त्ता के व्यक्तिगत अधिकारों पर प्राथमिकता दी जाएगी। आगे की राह ऐसे मामलों पर निर्णय लेते समय धार्मिक भावनाएँ प्रबल नहीं होनी चाहिये लेकिन ऐसे निर्णय तर्कसंगत तथा आधुनिक विचारों के संयोजन पर आधारित होने चाहिये। शैक्षणिक संस्थानों को स्कूल या कॉलेज प्रशासन के अपने अधिकार के नाम पर छात्रों के व्यक्तिगत अधिकारों के उल्लंघन से बचना चाहिये। दैनिक जीवन में हमें उन लोगों के साथ रहना है जो हमसे अलग दिखते हैं, अलग-अलग कपड़े पहनते हैं और अलग-अलग भोजन करते हैं तो फिर इसी विविधता को विशेष रूप से शैक्षिक संस्थानों में निषिद्ध किया जाना तर्कसंगत नहीं लगता है। हमारा संविधान सभी के व्यक्तिगत मामलों में एक अनुल्लंघनीय स्वतंत्रता की गारंटी देता है जब तक कि इस स्वतंत्रता के प्रभाव से सामाजिक स्तर पर व्यापक क्षति या भेदभाव की स्थिति उत्पन्न न हो। हिज़ाब के संदर्भ में समाज के लिये ऐसा कोई नुकसान या भेदभाव होता नज़र नहीं आता। यद्यपि हिज़ाब को पहनने हेतु एक आवश्यक धार्मिक अभ्यास परीक्षण (Essential Religious Practices Test) की आवश्यक है जैसा दाढ़ी के मामले में किया गया था। वर्ष 2006 में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया था कि दाढ़ी रखना इस्लामिक अभ्यासों का अनिवार्य अंग नहीं है।</s>
<s>[INST]‘‘STEM क्षेत्र में लैंगिक असमानता को तभी समाप्त किया जा सकता है जब समाज, परिवार, शैक्षणिक संस्थान और सरकार की ओर से इसके विरुद्ध सामूहिक प्रयास किये जाएँ।’’ टिप्पणी कीजिये।[/INST]प्रश्न का उत्तर जल्द ही प्रकाशित होगा।</s>
<s>[INST]विश्व की प्रमुख पर्वत श्रृंखलाओं के संरेखण का संक्षेप में उल्लेख कीजिये तथा उनके स्थानीय मौसम पर पड़े प्रभावों का सोदाहरण वर्णन कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण : पर्वत श्रृंखलाओं और इसकी विशेषताओं को संक्षेप में परिभाषित कीजिये। विश्व की पर्वत श्रृंखलाओं के संरेखण का उल्लेख करते हुए एक विश्व मानचित्र बनाइये विश्व की कुछ महत्त्वपूर्ण पर्वत श्रृंखलाओं और स्थानीय मौसम एवं जलवायु पर इसके प्रभाव का उल्लेख कीजिये। उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये। परिचय एक ही काल में निर्मित विभिन्न पर्वतों के निश्चित क्रम को पर्वत श्रृंखला कहा जाता है। विश्व की प्रमुख पर्वत श्रृंखलाओं के संरेखण एवं स्थानीय मौसम पर पड़ने वाले उनके प्रभावों को निम्नांकित बिंदुओं के माध्यम से समझा जा सकता है: हिमालय हिमालय एक चाप के आकार में पश्चिम से पूर्व की ओर फैला हुआ है। भारतीय प्लेट के यूरेशियन प्लेट से टकराने पर हिमालय की उत्पत्ति हुई है। इसका पश्चिमी भाग पूर्वी भाग की तुलना में अधिक चौड़ा है। मानसूनी पवनों के अवरोधक के रूप में कार्य कर दक्षिण की ओर वर्षा कराता है, जबकि उत्तर की ओर वृष्टि छाया प्रदेश का निर्माण ठंडे मरुस्थलों; जैसे - लद्दाख, तकलामकान आदि के निर्माण में सहायता प्रदान करता है। यह साइबेरिया की शीत लहरों से भारतीय उपमहाद्वीप की रक्षा करता है तथा भारतीय जलवायु को समग्रता में उष्णकटिबंधीय स्वरूप प्रदान करने में सहायक है। हिमालय का उच्च एल्बिडो भारतीय उपमहाद्वीप के ऊष्मा बजट को निर्धारित करता है। जेट स्ट्रीम को नियंत्रित कर पश्चिमी विक्षोभ के माध्यम से वर्षा कराता है, जो गेहूँ की फसल के लिये लाभकारी एवं उत्तर भारत में शीत लहर के लिये उत्तरदायी होती है। आल्प्स: अफ्रीकी एवं यूरेशियन प्लेट के टकराने से इस वलित पर्वत श्रृंखला का निर्माण हुआ। यह यूरोप की सबसे ऊँची पर्वत श्रृंखला है। यह पश्चिम से पूर्व की ओर विस्तृत है। यह श्रेणी दक्षिणी यूरोप एवं यूरेशिया क्षेत्र में वर्षण प्रतिरूप को प्रभावित करती है। यह पर्वत श्रेणी पवनों के संचरण को भी प्रभावित करती है। वस्तुतः जब फॉन पवन में पर्वत से नीचे शुष्क एवं गर्म हवा के रूप उतरती है तो हिम को पिघला देती है, जिससे चरागाह पशुओं के चरने योग्य बन जाते और अंगूरों को शीघ्र पकने में सहायता भी मिलती है। एंडीज़: एंडीज़ पर्वत श्रृंखला विश्व की सबसे लंबी महाद्वीपीय पर्वत श्रेणी है, जो दक्षिणी प्रशांत महासागर के समानांतर दक्षिण अमेरिका महाद्वीप में उत्तर से दक्षिण की ओर फैली हुई है। यह श्रृंखला व्यापारिक एवं पछुवा पवनों को रोककर क्रमश : अपने उत्तरी, पूर्वी तथा दक्षिण - पश्चिम के पवनामुखी ढाल में वर्षा अकराती है। वृष्टि छाया प्रदेश का निर्माण कर श्रृंखला अटाकामा मरुस्थल के निर्माण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। एंडीज श्रृंखला के दक्षिणी छोर के पूर्वी ढाल से उतरने वाली गर्म व शुष्क पवन जोन्डा हिम को पिघलाकर पपास के मैदानों के निर्माण महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। रॉकीज़ उत्तर - दक्षिण की ओर उत्तरी प्रशांत महासागर के समानांतर विस्तृत यह श्रेणी उत्तर अमेरिका महाद्वीप की सबसे बड़ी पर्वत श्रृंखला है। प्रशांत महासागर से आने वाली पवनें पवनामुखी ढाल पर वर्षा करती हैं, जबकि पवनाविमुख क्षेत्र पर मरुस्थल निर्माण की दशाएँ बनती हैं जैसे - ग्रेट बेसिन मरुस्थल | रॉकीज़ श्रृंखला के पूर्वी ढालों के सहारे उतरने वाली गर्म व शुष्क पवन चिनूक पशुओं के लिये लाभदायक होती। वस्तुतः इसके आगमन से चरागाह बर्फमुक्त हो जाते हैं। उपर्युक्त पर्वत श्रृंखलाओं के अतिरिक्त एटलस, अप्लेशियन, यूराल, पश्चिमी घाट, ग्रेट डिवाइडिंग रेंज जैसी कई अन्य श्रृंखलाएँ भी हैं, जिनका संरेखण दक्षिण - पश्चिम से उत्तर - पूर्व, उत्तर से दक्षिण की ओर या अन्य दिशाओं में देखने को मिलता है। पर्वतीय श्रृंखलाएँ स्थानीय मौसम के साथ-साथ वैश्विक जलवायु एवं लोगों की जीवन-शैली को भी प्रभावित करती हैं। हरेक पर्वत श्रृंखला विभिन्न प्रकार की वनस्पतियाँ एवं जैव विविधता प्रचुरता में विद्यमान रहती है। इसीलिये जैव विविधता से युक्त पर्वतीय पर्यावरण का संरक्षण बहुत ज़रूरी है। FAO की एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व की लगभग 15 प्रतिशत जनसंख्या पर्वतीय क्षेत्र में रहती है। अतः पर्वतीय क्षेत्र का संरक्षण सांस्कृतिक एवं आर्थिक स्तर पर भी अत्यावश्यक है।</s>
<s>[INST]भारत में महिला सशक्तिकरण की प्रक्रिया में 'गिग इकॉनमी' की भूमिका का परीक्षण कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण : गिग अर्थव्यवस्था के बारे में संक्षेप में बताते हुए परिचय दीजिये। चर्चा कीजिये कि यह भारत में महिला सशक्तिकरण की प्रक्रिया में कैसे मदद करता है। गिग इकोनॉमी के समक्ष उपस्थित बाधाओं का भी मूल्यांकन कीजिये। उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये। परिचय ' गिग इकोनॉमी ' एक ऐसी मुक्त बाज़ार व्यवस्था है, जहाँ पारंपरिक पूर्णकालिक रोज़गार की बजाय अस्थायी रोज़गार का प्रचलन होता है। इसके तहत कंपनियाँ या संगठन अपनी अल्पकालिक या विशेष आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये स्वतंत्र प्रतिरोध की श्रमिकों के साथ अनुबंध करते हैं। गिग इकोनॉमी देश और दुनिया भर में बढ़ती बेरोज़गारी का एक समाधान भी देती है। इसके अंतर्गत ओला,उबर, अमेजॉन, जोमाटो आदि जैसे प्लेटफॉर्म सम्मिलित हैं। गिग इकोनॉमी की महिला सशक्तीकरण में भूमिका घरेलू महिलाओं के लिये अधिक आर्थिक अवसर की उपलब्धता क्योंकि कार्य के समय चयन करने की स्वतंत्रता अधिक लचीलापन प्रदान करती है। नियोजकों को सामाजिक सुरक्षा और मातृत्व लाभ अधिनियम जैसे कानूनों का पालन नहीं करना पड़ता है, जिससे महिलाओं को उनको गर्भावस्था की अवधि के बावजूद भर्ती कर सकते हैं। स्नैपडील, अमेजॉन और फ्लिपकार्ट आदि प्लेटफॉर्म के माध्यम से महिलाएं अपने पारंपरिक उत्पादों को बेचने में सक्षम हुई हैं। डिजिटल प्रौद्योगिकी के बढ़ते प्रचलन से वर्चुअल वर्किंग में महिलाओं के लिये नए अवसर खुले हैं तथा वे ऐप और फोन कॉल के माध्यम से कार्य करने में सक्षम हुई हैं। महिला सशक्तीकरण की दिशा में गिग इकोनॉमी के साथ-साथ जेंडर संवेदीकरण कार्यक्रमों को बढ़ावा देने, घरेलू हिंसा अधिनियम आदि का सफल कार्यान्वयन और महिलाओं की कार्यबल में भागीदारी को बढ़ावा देने जैसे प्रयास भी करना चाहिये।</s>
<s>[INST]प्रश्न. भारत के शहर उत्पादन और उपभोग के उल्लेखनीय स्तर के साथ देश के आर्थिक विकास के चालक हैं, लेकिन इस विकास कथा को जलवायु परिवर्तन के युग में असंवहनीय शहरी विकास से खतरा है। टिप्पणी कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: यह बताइये कि शहर आर्थिक विकास के चालक कैसे हैं। चर्चा कीजिये कि जलवायु परिवर्तन के कारण शहरों को कैसे सतत् शहरी विकास से खतरा है। आगे की राह बताइये। परिचय चेन्नई में हाल ही में हुई अप्रत्याशित भारी बारिश की घटनाओं ने बार-बार मानसूनी बाढ़ और शहर के बंद होने (Urban Paralysis) जैसी समस्याओं को जन्म दिया। इसके साथ ही इसने चरम मौसमी घटनाओं के कारण शहरी व्यवस्था के पतन के जोखिमों को भी उजागर किया। अतीत में चेन्नई में वर्ष वर्ष 2015 में आई विनाशकारी बाढ़ और मुंबई में वर्ष 2005 में उत्पन्न हुई भीषण बाढ़ की स्थिति के बाद उम्मीद थी कि शहरी विकास के संबंध में प्राथमिकताओं में एक बड़ा परिवर्तन देखने को मिलेगा। चुनौतियाँ: राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (National Disaster Management Authority- NDMA) के अनुसार, भारत में कुल भूमि का लगभग 12% बाढ़ के खतरे से युक्त है, 68% सूखा, भूस्खलन एवं हिमस्खलन के प्रति संवेदनशील है और 58.6% भूभाग भूकंप-प्रवण है। भारत की 7,516 किलोमीटर लंबी तटरेखा के 5,700 किमी. हिस्से के लिये सुनामी और चक्रवात एक नियमित घटना है। नियोजन और स्थानीय शासन की समस्याएँ: सभी शहरों में से आधे से भी कम में ‘मास्टर प्लान’ मौजूद हैं और इन पर भी अनौपचारिक रूप से ही अमल होता है क्योंकि प्रभावशाली अभिजात वर्ग और गरीब वर्ग दोनों ही आर्द्रभूमि और नदी तटों जैसी सार्वजनिक भूमियों का अतिक्रमण करते हैं। नगर परिषदों की उपेक्षा, सशक्तीकरण की कमी और नगरपालिका प्राधिकारों में क्षमता निर्माण की विफलता ने चरम मौसम के दौरान बार-बार शहरी पक्षाघात की स्थिति उत्पन्न की है। प्राकृतिक स्थानों का अतिक्रमण: देश में आर्द्रभूमि की संख्या वर्ष 1956 में 644 से घटकर वर्ष 2018 में 123 रह गई और हरित आवरण महज 9% है, जो आदर्श रूप से कम से कम 33% होना चाहिये था। महत्त्वपूर्ण सार्वजनिक संपत्तियों का अतिक्रमण किफायती शहरी आवासों की आपूर्ति हेतु बाज़ार की शक्तियों पर अत्यधिक निर्भरता को प्रकट करता है। आवास क्षेत्र में अधिकांश उपनगरीय निवेश उनके वास्तविक मूल्य को नहीं दर्शाते, भले ही वे सरकार द्वारा 'अनुमोदित' हों, क्योंकि नगर से दूर स्थित इन नगर पंचायतों के पास जल आपूर्ति, स्वच्छता और सड़कों जैसी बुनियादी संरचनाओं के निर्माण की भी पर्याप्त क्षमता या धन का अभाव होता है। अपर्याप्त निकासी अवसंरचना: जल निकासी तंत्र पर अत्यधिक दबाव, अनियमित निर्माण, प्राकृतिक स्थलाकृति एवं ‘हाइड्रो-जियोमॉर्फोलॉजी’ की अवहेलना आदि शहरी बाढ़ को एक मानव निर्मित आपदा बनाते हैं। हैदराबाद, मुंबई जैसे शहर एक सदी पुरानी जल निकासी प्रणाली पर निर्भर हैं, जो मुख्य शहर के केवल एक छोटे से हिस्से को ही दायरे में लेती है। शहरों के विस्तार के साथ उपयुक्त जल निकासी व्यवस्था के अभाव को दूर करने के लिये अधिक प्रयास नहीं किया गया। कार्यान्वयन में शिथिलता: पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (Environmental Impact Assessment- EIA) जैसे नियामक तंत्रों में वर्षा जल संचयन, संवहनीय शहरी जल निकासी प्रणाली आदि के प्रावधानों के बावजूद उपयोगकर्ता के साथ-साथ प्रवर्तन एजेंसियों के स्तर पर इनके अंगीकरण की गति शिथिल रही है। आगे की राह स्थानीय स्वशासन की भूमिका: वृहत समावेशन और समुदाय की भावना को सुनिश्चित करने के लिये लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई स्थानीय सरकारों को केंद्रीय भूमिका सौंपे जाने की आवश्यकता है। जलवायु परिवर्तन अनुकूलन के लिये एक शीर्ष-स्तरीय विभाग का निर्माण करना उपयुक्त होगा जो आवास एवं शहरी विकास, परिवहन, जल आपूर्ति, ऊर्जा, भूमि उपयोग, लोक कार्य और सिंचाई जैसे राज्य के सभी संबंधित विभागों का समन्वय करेगा और उन्हें निर्वाचित स्थानीय सरकार के साथ मिलकर कार्य करने में सक्षम बनाएगा। प्राथमिकताओं के निर्धारण और उत्तरदायित्व के वहन में इस शीर्ष विभाग की प्रमुख भूमिका होगी। समग्र संलग्नता: ऊर्जा एवं संसाधनों के ठोस और केंद्रित निवेश के बिना वृहत स्तरीय शहरी बाढ़ को अकेले नगरपालिका अधिकारियों द्वारा नियंत्रित करना संभव नहीं होगा। नगर निगमों के साथ-साथ महानगर विकास प्राधिकरण, NDMA और राज्य के राजस्व एवं सिंचाई विभागों को इस तरह के कार्य के लिये एक साथ संलग्न करना होगा। बेहतर शहर नियोजन: सस्ते आवास सहित शहर के विकास के सभी आयाम भविष्य के जलवायु परिवर्तन के प्रति अनुकूल होने में केंद्रीय भूमिका निभाते हैं। वे आधारभूत संरचना निर्माण के दौरान भी कार्बन उत्सर्जन वृद्धि को कम कर सकते हैं यदि बायोफिलिक डिज़ाइन (biophilic design) और हरित सामग्री का उपयोग किया जाए। नियोजित शहरीकरण आपदाओं का सामना कर सकता है। इसका आदर्श उदाहरण जापान है जो नियमित रूप से भूकंप का सामना करता रहता है। भारत आपदा संसाधन नेटवर्क (India Disaster Resource Network ) को व्यवस्थित सूचना और साधन एकत्रीकरण (Equipment Gathering) के लिये एक निधान (Repository) के रूप में संस्थागत किया जाना चाहिये। ‘ड्रेनेज प्लानिंग’: नीति और कानून में वाटरशेड प्रबंधन और आपातकालीन निकासी योजना/ड्रेनेज प्लानिंग को स्पष्ट रूप से व्यक्त किया जाना चाहिए। अर्बन वाटरशेड सूक्ष्म पारिस्थितिक जल निकासी प्रणाली (Micro Ecological Drainage Systems) हैं, जो भूभाग की आकृति के अनुरूप आकार ग्रहण करते हैं। इनका विस्तृत दस्तावेज उन एजेंसियों के पास होना चाहिये जो नगरपालिका के अधिकार क्षेत्र से बंधे नहीं हैं। वास्तव में निकासी योजना को आकार देने के लिये चुनावी वार्ड जैसे शासनिक सीमाओं के बजाय वाटरशेड जैसी प्राकृतिक सीमाओं पर विचार किया जाना अधिक उपयुक्त होगा।</s>
<s>[INST]मुख्यधारा के ज्ञान और सांस्कृतिक प्रणालियों की तुलना में आदिवासी ज्ञान प्रणालियों की विशिष्टता की जाँच कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण : आदिवासी ज्ञान प्रणाली को समझाते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये। आदिवासी ज्ञान कैसे अद्वितीय है और मुख्यधारा के ज्ञान से अलग है, यह भी समझाइये। उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये। परिचय भारत ही नहीं दुनिया भर में जनजातियों (आदिवासियों) के विशिष्ट ज्ञान और सांस्कृतिक प्रणालियाँ हैं । जनजातियों ने अपने ज्ञान और सांस्कृतिक अनुभव की विशिष्ट समझ को संरक्षित किया है , जो उन्हें विभिन्न परिस्थितियों में मानव, मानवेतर और अन्य विषयों के संबंध में मार्गदर्शन प्रदान करने में सहायता करता है। जनजातीय ज्ञान और संस्कृति की विशिष्टता मुख्यधारा की ज्ञान प्रणालियाँ औपचारिक शिक्षा और सामाजिक व्यवस्था जैसी बाधाओं से बंधी हुई हैं, जबकि जनजातीय ज्ञान प्रणाली समावेशी और समानता के सिद्धांत पर आधारित है। मुख्यधारा के ज्ञान से संबंधित साक्ष्य पुस्तकों, पांडुलिपियों और वास्तुकला से प्राप्त होते हैं, जबकि जनजातीय ज्ञान के साक्ष्य परंपरागत लोकगीत, नृत्य, चित्रकारी आदि में देखे सकते हैं। मुख्यधारा के समाज में बिखराव दिखाई पड़ता है तथा यह सामाजिक और आर्थिक आधार पर अत्यधिक विभाजित है, जबकि जनजातियों में अपनी जनजाति के प्रति अपनेपन और सहयोग की भावना होती है। जनजातियों की संस्कृति में अपने समुदाय के प्रति तो सहयोग का भाव है किंतु जनजाति से इतर लोगों के प्रति असुरक्षा का भाव है; जैसे- अंडमान की सेंटिनली जनजाति। मुख्यधारा का ज्ञान बीमारियों को ठीक करने के लिये आधुनिक दवाओं और तकनीकों का उपयोग करता है, जबकि जनजातियों की ज्ञान परंपरा में सदियों से बीमारियों से लड़ने के लिये पौधों और पारंपरिक औषधियों का उपयोग किया जाता है। उदाहरण हेतु त्वचा संबंधी रोग के उपचार के लिये एलोवेरा का उपयोग। मुख्यधारा में पर्यावरण संरक्षण, अनुसंधान तथा वैज्ञानिक साक्ष्य पर आधारित है, जिसके क्रियान्वयन हेतु पेरिस अभिसमय जैसे अंतर्राष्ट्रीय सहयोग किये जा रहे हैं, जबकि जनजातियों के लिये प्रकृति संस्कृति और आस्था का विषय है। जैसे- असम की तिवा जनजाति की परंपरा और संस्कृति प्रकृति के साथ घनिष्ठ संबंध में रहने की रही है। जनजातियों के पास पारंपरिक ज्ञान और संस्कृति की अकूत संपदा है, जिसे मुख्यधारा से संवाद और समन्वय स्थापित करके न केवल संरक्षित किया जा सकता है, अपितु मानव कल्याण और समावेशी विकास को भी बढ़ावा दिया जा सकता है।</s>
<s>[INST]गोंडवानालैंड के देशों में से एक होने के बावजूद भारत के खनन उद्योग प्रतिशत अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में बहुत कम प्रतिशत का योगदान देते हैं। चर्चा कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण : भारत के सकल घरेलू उत्पाद में खनन क्षेत्र के योगदान पर चर्चा कीजिये। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में इसके बहुत कम प्रतिशत के योगदान के कारणों पर चर्चा कीजिये। सरकार द्वारा उठाए गए कदमों और उनके महत्त्व के बारे में बताइये। परिचय गोंडवानालैंड भूमि में कोयला, लोहा, अभ्रक, एल्युमीनियम आदि जैसे खनिजों की प्रचुरता है तथा इसका हिस्सा होने के बावजूद भारत के सकल घरेलू उत्पाद में खनन क्षेत्र के योगदान में लगातार गिरावट देखी जा रही है। सकल घरेलू उत्पाद में खनन क्षेत्र का योगदान केवल 1.75% है, जबकि दक्षिण अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया जैसे अन्य देशों का योगदान 7.5% और 6.99% है। कारण: जनजातीय समुदाय: कई आदिवासी समुदाय और विशेष रूप से कमज़ोर जनजातीय समूह (पीवीटीजी) खनन क्षेत्रों में रहते हैं। खनन कार्य बढ़ने से उनके आवास को भी खतरा उत्पन्न होता है। उनका पुनर्वास और मुआवज़ा प्रदान करना एक अन्य प्रमुख मुद्दा है। प्रशासनिक मुद्दे: खदान की नीलामी एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें सत्ता राज्य सरकारों के हाथों में होती है। उस मामले में अस्पष्टता हो सकती है जहाँ केंद्र और राज्य में दो अलग-अलग राजनीतिक दल सत्ता में हैं। अन्वेषण और प्रौद्योगिकी के उन्नयन में निवेश की कमी भी इसके पीछे एक बड़ा कारण है तथा अभी भी अप्रचलित व कम कुशल तकनीक का उपयोग किया जाता है। कोविड-19 महामारी जैसे अप्रत्याशित मुद्दों ने लौह, अलौह और लघु खनिजों के खनन पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है। पर्यावरण संबंधी चिंता: अधिनियम में सुधार भारत के खनन क्षेत्र को उतना ही अस्थिर करते हैं, जितना कि यह देश के विकास के लिये फायदेमंद हैं। खनन पर्यावरण की दृष्टि से हानिकारक है। सरकार के नीतिगत प्रयास अभी तक सफल नहीं हुए हैं और इनके कार्यान्वयन में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। सरकार द्वारा उठाए गए कदम MMDR संशोधन विधेयक, 2021: यह विधेयक खान और खनिज (विकास और विनियमन) अधिनियम, 1957 में संशोधन करना चाहता है जो भारत में खनन क्षेत्र को नियंत्रित करता है। खनिजों के अंतिम उपयोग पर प्रतिबंध हटाना: यह अधिनियम केंद्र सरकार को किसी विशेष अंतिम उपयोग (जैसे स्टील प्लांट के लिये लौह अयस्क खदान) के लिये नीलामी के माध्यम से पट्टे पर दी जाने वाली किसी भी खदान (कोयला, लिग्नाइट और परमाणु खनिजों के अलावा) को आरक्षित करने का अधिकार देता है। ऐसी खानों को कैप्टिव खानों के रूप में जाना जाता है। बिल में प्रावधान है कि कोई भी खदान किसी विशेष अंतिम उपयोग के लिये आरक्षित नहीं होगी। कैप्टिव खदानों द्वारा खनिजों की बिक्री: बिल में प्रावधान है कि कैप्टिव खदानें (परमाणु खनिजों के अलावा) अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के बाद अपने वार्षिक खनिज उत्पादन का 50% तक खुले बाज़ार में बेच सकती हैं। कुछ मामलों में केंद्र सरकार द्वारा नीलामी: विधेयक केंद्र सरकार को राज्य सरकार के परामर्श से नीलामी प्रक्रिया को पूरा करने के लिये एक समय अवधि निर्दिष्ट करने का अधिकार देता है। यदि राज्य सरकार इस अवधि के भीतर नीलामी प्रक्रिया को पूरा करने में असमर्थ है, तो नीलामी केंद्र सरकार द्वारा आयोजित की जा सकती है। वैधानिक मंज़ूरी का हस्तांतरण: यह प्रावधान करता है कि हस्तांतरित वैधानिक मंज़ूरी नए पट्टेदार की पट्टे की अवधि के दौरान मान्य होगी। वर्तमान में नए पट्टेदार को पिछले पट्टेदार से हस्तांतरण के दो साल के भीतर नई मंज़ूरी के लिये आवेदन करना होता है। लीज़ समाप्ति वाली खदानों का आवंटन: बिल में कहा गया है कि जिन खदानों की लीज़ खत्म हो चुकी है, उन्हें कुछ मामलों में सरकारी कंपनी को आवंटित किया जा सकता है। राज्य सरकार ऐसी खदान के लिये किसी सरकारी कंपनी को 10 साल तक की अवधि के लिये या नए पट्टेदार के चयन तक (जो भी पहले हो) पट्टे पर दे सकती है। सरकारी कंपनियों को पट्टों का विस्तार: अधिनियम में प्रावधान है कि सरकारी कंपनियों को दिये गए खनन पट्टों की अवधि केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित की जाएगी और बिल में निर्धारित अतिरिक्त राशि के भुगतान पर इसे बढ़ाया जा सकता है। निष्कर्ष खनिज संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग के लिये निकासी प्रक्रिया में तेज़ी लाने की आवश्यकता है। खदान से संबंधित दुर्घटनाओं को रोकने हेतु विशेष रूप से रैट-होल पर प्रतिबंध और अवैज्ञानिक खनन के संबंध में खनन संबंधी नियमों के सख्त कार्यान्वयन की आवश्यकता है। दुनिया भर में खनिकों द्वारा भूमिगत खनन के लिये उपयोग की जाने वाली उच्च तकनीक पर ध्यान केंद्रित करना एक समाधान है।</s>
<s>[INST]1. मनुष्य जन्म से नहीं कर्म से महान होता है। 2. अगर संघर्ष न रहे, किसी भी भय का सामना न करना पड़े, तब जीवन का आधा स्वाद ही समाप्त हो जाता है।[/INST]प्रश्न का उत्तर जल्द ही प्रकाशित होगा।</s>
<s>[INST]वर्ष 2021 में घटित प्रमुख ज्वालामुखी विस्फोट की वैश्विक घटनाओं को बताते हुए क्षेत्रीय पर्यावरण पर उनके प्रभावों का उल्लेख कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: ज्वालामुखी क्या है और वैश्विक स्तर पर इस घटना को परिभाषित करके उत्तर की शुरुआत कीजिये। 2021 में ज्वालामुखी विस्फोट के कुछ उदाहरणों को उनके विस्फोट के स्थान के साथ सूचीबद्ध कीजिये। पर्यावरण पर ज्वालामुखी विस्फोट के प्रभाव की विवेचना कीजिये। उपयुक्त निष्कर्ष निकालें। परिचय: ज्वालामुखी प्राय: एक छिद्र अथवा खुला भाग होता है, जिससे होकर पृथ्वी के अत्यंत तप्त भाग से गैस, तरल लावा, जल, चट्टानों के टुकड़ों आदि से युक्त गर्म पदार्थ पृथ्वी के धरातल पर प्रकट होता है। ज्वालामुखी विस्फोट के स्थानीय और क्षेत्रीय वातावरण पर भूकंप, भूस्खलन, मृदा का बहाव, राख और गरज जैसे प्रभाव पड़ते हैं। निकाय: ज्वालामुखी विस्फोट 2021 विस्फोट का स्थान माउंट सिनाबंग विस्फोट इंडोनेशिया क्लाईचेवस्काया ज्वालामुखी रूस का सुदूर पूर्वी कमचटका प्रायद्वीप। फोर्नेज ज्वालामुखी रियूनियन द्वीप माउंट एटना इटली एरेबस अंटार्कटिका पर्यावरण पर ज्वालामुखी विस्फोट का प्रभाव: ज्वालामुखी विस्फोट पृथ्वी की सतह पर नई चट्टानों के निर्माण के लिये ज़िम्मेदार हैं। ज्वालामुखी विस्फोट के दौरान वातावरण में उत्सर्जित गैसों और धूल के कणों का जलवायु पर प्रभाव पड़ता है। ज्वालामुखी पृथ्वी के इतिहास में लाखों वर्षों से ग्लोबल वार्मिंग का कारण बना है, जब अत्यधिक मात्रा में ज्वालामुखी की घटना घटित होती हैं तब वातावरण में ग्रीनहाउस गैसें उत्सर्जित होती हैं। भले ही ज्वालामुखी की घटना पृथ्वी के विशिष्ट स्थानों पर घटित होती हैं, परंतु उनके प्रभाव अधिक व्यापक रूप से वितरित होते हैं क्योंकि इनसे उत्सर्जित गैस, धूल और राख वातावरण में मिल जाते हैं। इसका कारण वायुमंडलीय परिसंचरण पैटर्न है, इस कारण उष्ण कटिबंध में ये विस्फोट दोनों गोलार्द्धों में जलवायु पर प्रभाव डाल सकते हैं। मध्य या उच्च अक्षांशों पर विस्फोटों का प्रभाव केवल उस गोलार्द्ध पर पड़ता है जिसमें वे घटित होते हैं। ज्वालामुखी विस्फोट आमतौर पर बढ़ी हुई भूकंपीय गतिविधि से पहले घटित होते हैं। निष्कर्ष पृथ्वी पर अधिकांश सक्रिय ज्वालामुखी सर्कम-पैसिफिक बेल्ट पर होते हैं, जिन्हें ‘द रिंग ऑफ फायर’ भी कहा जाता है। ज्वालामुखी क्षेत्र प्राकृतिक बहिर्जात घटना है जिसे टाला नहीं जा सकता है, लेकिन आपदा जोखिम प्रबंधन सुविधाएँ विकसित करना निश्चित रूप से सही दिशा में एक कदम होगा।</s>
<s>[INST]शहरी भूमि उपयोग के लिये जल निकायों से भूमि उद्धार के पर्यावरणीय प्रभाव क्या हैं? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भूमि उद्धार की प्रक्रिया और उसकी आवश्यकताओं की व्याख्या के साथ प्रारंभ कीजिये। इसके पर्यावरणीय प्रभावों की व्याख्या कीजिये। उपयुक्त निष्कर्ष निकालें। परिचय: भूमि उद्धार का अर्थ है- कीचड़युक्त क्षेत्रों से पानी को बाहर निकालकर या भूमि के स्तर को ऊपर उठाकर नई भूमि का निर्माण करना। भूमि की बढ़ती मांग के साथ यह भवन, कृषि और अन्य उपयोगों हेतु क्षेत्र के निर्माण के लिये एक अच्छा समाधान हो सकता है। निकाय: शहरी भूमि उपयोग में जल निकायों के सुधार के कई पर्यावरणीय परिणाम हैं, जैसे: क्षतिग्रस्त पारिस्थितिकी: शहरी भूमि परिवर्तन से जल निकायों के आसपास आवासीय, वाणिज्यिक भवनों का निर्माण होता है, जिससे जल पारिस्थितिकी का क्षरण होता है और पोषक तत्त्वों का प्रवाह होता है। श्रीनगर में डल झील और अन्य जल निकाय इसके बड़े उदाहरण हैं। भूमि उद्धार भी समुद्र तल और लहर पैटर्न के आकार को बदल सकता है, इसके परिणामस्वरूप ज्वार पैटर्न भी बदल सकता है, जिससे पारिस्थितिकी तंत्र में परिवर्तन हो सकता है। अतिक्रमण: जैसे-जैसे अधिक लोग शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं, भूमि की उपलब्धता कम होती जा रही है, शहरी क्षेत्रों में भूमि के एक छोटे से टुकड़े का भी उच्च आर्थिक मूल्य होता है। इन शहरी जल निकायों को न केवल उनकी पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं के लिये बल्कि उनकी अचल संपत्ति मूल्य हेतु भी स्वीकार किया जाता है। गुवाहाटी में दीपोर बील जल निकाय इसका एक प्रसिद्ध उदाहरण है। बाढ़ की बारंबारता में वृद्धि: जल निकाय अतिरिक्त वर्षा के लिये स्पंज के रूप में कार्य करते हैं, जल निकायों के सुधार के कारण बाढ़ की घटनाएँ अधिक होती हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण मुंबई है। वनस्पति का ह्रास, मृदा आवरण के कंक्रीट के परिदृश्य में परिवर्तन ने पारगम्यता को कम कर दिया है एवं अपवाह में वृद्धि हुई है, जो मानसून के दौरान मुंबई में बाढ़ के प्राथमिक कारणों में से एक रहा है। गाद और निर्माणाधीन क्षेत्रों में वृद्धि के कारण नाले संकरे और उथले होते जा रहे हैं, जिससे शहर की प्राकृतिक जल निकासी व्यवस्था बाधित हो रही है। जैसा कि 26 जुलाई, 2005 की भीषण बाढ़ के दौरान स्पष्ट हुआ था। प्रजातियों का विलुप्त होना: आर्द्रभूमि में सुधार से जैव रासायनिक ऑक्सीजन मांग (BOD) में वृद्धि हुई है जो न केवल जलीय प्रजातियों के लिये बल्कि उड़ने वाले जीवों के लिये भी हानिकारक है। हुसैन सागर झील ऐसी स्थिति का एक अच्छा उदाहरण है। प्रदूषण: दूषित पदार्थों के निस्यंदन के माध्यम से जल निकायों का शुद्धिकरण प्रभावी होता है। कचरे के निपटान के लिये बुनियादी ढाँचे जैसी नागरिक सुविधाओं के विस्तार के बिना शहरी आबादी में विस्फोटक वृद्धि हुई है। जल निकायों को कई मामलों में लैंडफिल में बदल दिया गया है। उदाहरण के लिये, बंगाल और गुवाहाटी के दीपोर बील में कई जल निकायों का उपयोग नगर निगम द्वारा ठोस कचरे को डंप करने हेतु किया गया। हुसैन सागर झील में भारी प्रदूषण के कारण कई प्रदूषक भूमिगत जल निकायों में प्रवेश जाते हैं। हालाँकि रिसाव कई प्रदूषकों का निस्यंदन करता है, जिससे खुले कुँओं या बोरवेल में कुछ प्रदूषक चले जाते हैं जो भूजल प्रदूषण का कारण बनते हैं। पर्यावरणीय खतरे: आपदाएँ बड़ी बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं के सामाजिक और प्राकृतिक संदर्भों के प्रति लापरवाही के कारण उत्पन्न होती हैं। तटीय क्षेत्रों में शहरी भूमि उपयोग के लिये जल सुधार से भूकंप आदि की घटनाओं में वृद्धि हो सकती है। निष्कर्ष जल निकाय न केवल जैव विविधता की उच्च सांद्रता का समर्थन करते हैं, बल्कि भोजन, पानी, फाइबर, भूजल पुनर्भरण, जल शोधन, बाढ़ नियंत्रण, तूफान से संरक्षण, क्षरण नियंत्रण, कार्बन भंडारण और जलवायु विनियमन जैसे महत्त्वपूर्ण संसाधनों एवं पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं की एक विस्तृत शृंखला प्रदान करते हैं। इसलिये इनका संरक्षण करना आवश्यक है।</s>
<s>[INST]भारतीय समाज पारंपरिक सामाजिक मूल्यों में निरंतरता कैसे बनाए रखता है? इसमें होने वाले परिवर्तनों का विस्तृत विवरण दीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण भारतीय समाज के विविध पारंपरिक मूल्यों का वर्णन करते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये। चर्चा कीजिये कि भारतीय समाज अपने पारंपरिक सामाजिक मूल्यों को बनाए रखने में कैसे सक्षम है? पारंपरिक मूल्यों के संबंध में हो रहे परिवर्तनों को उजागर कीजिये। उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये। पुरातन परंपराओं एवं मान्यताओं को साथ लेकर आधुनिकता की ओर बढ़ता भारतीय समाज अपने आंचल में ‘विविधता’ को समेटे हुए है। विभिन्न धर्म, जाति एवं भाषा के लोग अपनी-अपनी भिन्न ‘संस्कृति’ का निर्वाह करते हुए परस्पर समन्वय के साथ यहाँ रहते हैं। इतिहास इस बात का गवाह है कि जिन समाजों ने मतभेद के कारण संघर्ष किया है, वे इस तरह के प्रयास में बिखर गए। भारतीय समाज ने पारंपरिक सामाजिक व्यवस्था में निरंतरता बनाए रखी है: सहिष्णुता: भारत में सभी धर्मों, जातियों, समुदायों आदि के लिये सहिष्णुता और उदारवाद मौजूद है। भारतीय समाज ने विभिन्न धर्मों को स्वीकार कर उनका सम्मान किया और यह सुनिश्चित किया कि धर्मों का शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व हो। सद्भाव की भावना: भारतीय दर्शन और संस्कृति समाज में सहज सद्भाव और व्यवस्था हासिल करने का प्रयास करते हैं। निरंतरता और स्थिरता: प्राचीन भारतीय संस्कृति जीवन का प्रकाश अभी भी चमक रहा है। कई आक्रमण हुए, कई शासक बदले, कई कानून पारित हुए लेकिन आज भी पारंपरिक संस्थाएँ, धर्म, महाकाव्य, साहित्य, दर्शन, परंपराएँ आदि जीवित हैं। अनुकूलनशीलता: अनुकूलनशीलता समय, स्थान और अवधि के अनुसार बदलने की प्रक्रिया है। भारतीय समाज ने बदलते समय के साथ खुद को समायोजित किया है। जाति व्यवस्था और पदानुक्रम: भारतीय समाज ने सामाजिक स्तरीकरण की प्रणाली विकसित की है, जिसने अतीत में बाहरी लोगों को समायोजित करने में मदद की, लेकिन साथ ही यह भेदभाव और पूर्वाग्रह का कारण भी रहा है। विविधता में एकता: अंतर्निहित मतभेदों के बावजूद भारतीय समाज में विविधता में एकता देखने को मिलती है जो आधुनिक भारत के संस्थापक सिद्धांतों और संवैधानिक आदर्शों में परिलक्षित होता है। हाल के दिनों में भारतीय समाज ने कई विभाजनकारी मुद्दों में वृद्धि देखी है जैसे: जातिवाद: जाति-आधारित भेदभाव समाज को कृत्रिम समूहों में विभाजित करता है जो कभी-कभी हिंसा का कारण भी बनता है। कोई भी देश वास्तव में प्रगति तब तक नहीं कर सकता जब तक कि इस व्यवस्था को पूरी तरह से जड़ से उखाड़ न दिया जाए। सांप्रदायिकता: एक समुदाय का दूसरे के प्रति आक्रामक रवैया दो धार्मिक समुदायों के बीच तनाव और संघर्ष पैदा करता है। यह लोकतंत्र एवं हमारे देश की एकता के लिये एक बड़ी चुनौती है। एकल परिवार: भारत में एक या अधिकतम दो बच्चों वाले एकल परिवारों का एक नया चलन उभरा है। इसके कारण बच्चों को बुजुर्गों की उपस्थिति नहीं मिल पाती है जो छोटों के बीच नैतिक मूल्यों को स्थापित करने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। लैंगिक भेदभाव: भारत को उन मानदंडों की बारीकी से जाँच करने की आवश्यकता है जो हिंसा और लिंग भेदभाव के व्यापक पैटर्न को जारी रखने की अनुमति देते हैं। कोई भी समाज जो महिलाओं को पुरुषों के बराबर महत्व नहीं देता, वह अपनी पूरी क्षमता तक नहीं पहुँच पाता है। यद्यपि भारत मामूली स्तर पर बड़े और छोटे धार्मिक समुदायों के बीच अंतर का सामना कर रहा है। फिर भी भारत की अधिकांश आबादी यहाँ की विविधता का आनंद उठाते हुए सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रही है। इससे विभिन्न संस्कृतियों का समावेश होता है जिससे बंधुता की भावना को बल मिलता है। निजता या व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार से सृजनात्मकता और नवाचार को बढ़ावा मिलता है। यह किसी एक भाषा, संस्कृति, रीति-रिवाज आदि को प्रभावशाली होने से रोकती है और गंगा-जमुनी तहज़ीब को जीवंत बनाए रखती है।</s>
<s>[INST]भारतीय रियासतों की एकीकरण प्रक्रिया में मुख्य प्रशासनिक मुद्दों और सामाजिक-सांस्कृतिक समस्याओं का आकलन कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण स्वतंत्रता के ठीक बाद की रियासतों की स्थिति का संक्षेप में वर्णन करते हुए उत्तर का परिचय दीजिये। भारत के साथ उनके एकीकरण से जुड़े कुछ प्रशासनिक मुद्दों का उल्लेख कीजिये। इससे जुड़े कुछ सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दों का उल्लेख कीजिये। भारतीय संविधान में देशी रियासतों के लिये प्रदान की गई व्यवस्था के बारे में बताते हुए उत्तर समाप्त कीजिये। परिचय ब्रिटिश भारत के अधीन राजशाही वाले राज्यों को रियासतें कहा जाता था। तत्कालीन समय में लगभग 500 से ज़्यादा रियासतें लगभग 48% भारतीय क्षेत्र एवं 28% जनसंख्या को कवर करती थीं। ये रियासतें वैधानिक रूप से ब्रिटिश भारत के भाग नहीं थे लेकिन ये पूर्णत: ब्रिटिश क्राउन के अधीनस्थ थीं। रियासतों के एकीकरण में प्रशासनिक मुद्दे ब्रिटिश सर्वोच्चता की समाप्ति: वर्ष 1947 के भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम (माउंटबेटन योजना पर आधारित) ने भारतीय राज्यों पर ब्रिटिश क्राउन की सर्वोच्चता की समाप्ति की। कई शासकों ने अंग्रेज़ों के जाने को अपनी स्वायत्तता और विश्व मानचित्र पर अपने स्वतंत्र राज्य की घोषणा करने के आदर्श क्षण के रूप में देखा। विलय के दस्तावेज़ों पर हस्ताक्षर: शासकों द्वारा निष्पादित विलय के दस्तावेज़, तीन विषयों अर्थात् रक्षा, विदेश मामलों और संचार पर भारत के डोमिनियन (या पाकिस्तान) में राज्यों के प्रवेश के लिये प्रदान किये गए। प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता: कुछ रियासतों के पास प्राकृतिक संसाधनों का अच्छा भंडार था, यह माना जाता था कि ये रियासतें स्वायत्तता के साथ अपना गुजर-बसर कर सकती हैं और इसलिये स्वतंत्र रहना चाहती हैं। कनेक्टिविटी और कृषि सहायता: राजपूत रियासत में हिंदू राजा और एक बड़ी हिंदू आबादी होने के बावजूद इसका झुकाव पाकिस्तान की ओर था। कहा जाता है कि जिन्ना ने महाराजा को अपनी सभी मांगों को सूचीबद्ध करने के लिये एक हस्ताक्षरित खाली कागज़ दिया था। किसान विरोध: 1946-51 का तेलंगाना विद्रोह तेलंगाना क्षेत्र में हैदराबाद की रियासत के खिलाफ किसानों का कम्युनिस्ट नेतृत्त्व वाला विद्रोह था, जो आंदोलन के साथ आगे बढ़ा। सामाजिक-सांस्कृतिक चुनौतियाँ हैदराबाद यह सभी रियासतों में सबसे बड़ी एवं सबसे समृद्धशाली रियासत थी, जो दक्कन पठार के अधिकांश भाग को कवर करती थी। इस रियासत की अधिसंख्यक जनसंख्या हिंदू थी, जिस पर एक मुस्लिम शासक निजाम मीर उस्मान अली का शासन था। इसने एक स्वतंत्र राज्य की मांग की एवं भारत में शामिल होने से मना कर दिया। इसने जिन्ना से मदद का आश्वासन प्राप्त किया और इस प्रकार हैदराबाद को लेकर कशमकश एवं उलझनें समय के साथ बढ़ती गईं। सरदार पटेल एवं अन्य मध्यस्थों के निवेदन एवं धमकियाँ निजाम के मानस पर कोई फर्क नहीं डाल सकीं और उसने लगातार यूरोप से हथियारों का आयात जारी रखा। परिस्थितियाँ तब भयावह हो गईं, जब सशस्त्र कट्टरपंथियों ने हैदराबाद की हिंदू प्रजा के खिलाफ हिंसक वारदातें शुरू कर दीं। 13 सितंबर, 1948 के ‘ऑपरेशन पोलो के तहत भारतीय सैनिकों को हैदराबाद भेजा गया। 4 दिन तक चले सशस्त्र संघर्ष के बाद अंतत: हैदराबाद भारत का अभिन्न अंग बन गया। बाद में निजाम के आत्मसमर्पण पर उसे पुरस्कृत करते हुए हैदराबाद राज्य का गवर्नर बनाया गया। जूनागढ़ गुजरात के दक्षिण-पश्चिम में स्थित एक रियासत, जो 15 अगस्त, 1947 तक भारत में शामिल नहीं हुई थी, की अधिकांश जनसंख्या हिंदू एवं राजा मुस्लिम था। 15 सितंबर, 1947 को नवाब मुहम्मद महाबत खानजी ने पाकिस्तान में शामिल होने का फैसला किया और तर्क दिया कि जूनागढ़ समुद्र द्वारा पाकिस्तान से जुड़ा है। दो राज्यों के शासक मंगरोल एवं बाबरियावाड जो जूनागढ़ के अधीन थे, ने प्रतिक्रिया स्वरूप जूनागढ़ से स्वतंत्रता एवं भारत में शामिल होने की घोषणा की। इसकी अनुक्रिया में जूनागढ़ के नवाब ने सैन्यबल का प्रयोग कर इन दोनों राज्यों पर कब्ज़ा कर लिया, परिणामस्वरूप पड़ोसी राज्यों के राजाओं ने भारत सरकार से मदद की अपील की। भारत सरकार मानती थी कि यदि जूनागढ़ को पाकिस्तान में शामिल होने की अनुमति दे दी गई तो सांप्रदायिक दंगे और भयावह रूप धारण कर लेंगे, साथ ही बहुसंख्यक हिंदू जनसंख्या, जो कि 80% है, इस फैसले को स्वीकार नहीं करेगी। इस कारण भारत सरकार ने ‘‘जनमत संग्रह’’ से विलय के मुद्दे के समाधान का प्रस्ताव रखा। इसी दौरान भारत सरकार ने जूनागढ़ के लिये ईंधन एवं कोयले की आपूर्ति को रोक दिया एवं भारतीय सेनाओं ने मंगरोल एवं बाबरियावाड पर कब्ज़ा कर लिया। पाकिस्तान, भारतीय सेनाओं की वापसी की शर्त के साथ ‘जनमत संग्रह’ के लिये सहमत हो गया, लेकिन भारत ने इस शर्त को खारिज कर दिया। 7 नवंबर, 1947 को जूनागढ़ की अदालत ने भारत सरकार को राज्य का प्रशासन अपने हाथ में लेने के लिये आमंत्रित किया। जूनागढ़ के दीवान सर शाह नवाज भुट्टो (जुल्फीकार अली भुट्टो के पिता), ने हस्तक्षेप के लिये भारत सरकार को आमंत्रित करने का निर्णय लिया। फरवरी, 1948 को ‘जनमत संग्रह’ कराया गया, जो लगभग सर्वसम्मति से भारत में विलय के पक्ष में गया। कश्मीर एक ऐसी रियासत जहाँ की बहुसंख्यक जनसंख्या मुस्लिम थी, जबकि राजा हिंदू था। राजा हरि सिंह ने पाकिस्तान या भारत में शामिल होने के लिये विलय पत्र पर कोई निर्णय न लेते हुए ‘मौन स्थिति’ बनाए रखी। इसी दौरान पाकिस्तानी सैनिकों एवं हथियारों से लैस आदिवासियों ने कश्मीर में घुसपैठ कर हमला कर दिया। महाराजा ने भारत सरकार से मदद की अपील की। राजा ने शेख अब्दुल्ला को अपने प्रतिनिधि के रूप में सहायता के लिये दिल्ली भेजा। 26 अक्तूबर, 1947 को राजा हरि सिंह ने ‘विलय पत्र’ पर हस्ताक्षर कर दिये। इसके तहत संचार, रक्षा एवं विदेशी मामलों को भारत सरकार के अधिकार क्षेत्र में लाया गया। 5 मार्च, 1948 को महाराजा हरि सिंह ने अंतरिम लोकप्रिय सरकार की घोषणा की जिसके प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला बने। 1951 में राज्य संविधान सभा निर्वाचित हुई एवं 31 अक्तूबर, 1951 में इसकी पहली बार बैठक हुई। 1952 में दिल्ली समझौते पर हस्ताक्षर हुए, जिसके तहत भारतीय संविधान में जम्मू-कश्मीर को ‘विशेष दर्जा’ प्रदान किया गया। 6 फरवरी, 1954 को, जम्मू-कश्मीर की संविधान ने भारत संघ के साथ विलय का अनुमोदन किया। जम्मू-कश्मीर के संविधान की धारा 3 के अनुसार, जम्मू -कश्मीर भारत का एक अभिन्न अंग है और रहेगा। निष्कर्ष भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस के नेतृत्त्व वाली अंतरिम सरकार ने भारत में रियासतों के पूर्ण एकीकरण के लिये बातचीत की और बदले में उन्होंने शासकों को संविधान के तहत गारंटीकृत कर मुक्त प्रिवी पर्स, उनके खिताब और उनकी संपत्ति और महलों को बनाए रखने का अधिकार देने की पेशकश की। अनुच्छेद 370 स्वायत्तता और राज्य के स्थायी निवासियों के लिये कानून बनाने की क्षमता के मामले में जम्मू और कश्मीर राज्य की विशेष स्थिति को स्वीकार करता है।</s>
<s>[INST]क्यूबा मिसाइल संकट शीत युद्ध का चरम बिंदु था। इसके परिणामों के साथ-साथ इसके लिये उत्तरदायी कारणों का उल्लेख कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: क्यूबा मिसाइल संकट को बताइये। इसके लिये उत्तरदायी कारणों की चर्चा कीजिये। क्यूबाई मिसाइल संकट के परिणामों की चर्चा कीजिये। उचित निष्कर्ष लिखिये। वर्ष 1959 में फिदेल कास्त्रो द्वारा अमेरिका समर्थित तानाशाह बतिस्ता से सत्ता छीनने के बाद क्यूबा, शीतयुद्ध में शामिल हो गया। वर्ष 1961 में अमेरिका ने क्यूबा के साथ राजनयिक संबंध तोड़ लिये, जिसके परिणामस्वरूप यू.एस.एस.आर. और क्यूबा के मध्य संबंध बेहतर हो गए। वर्ष 1961 में कास्त्रो ने घोषणा की कि वह एक मार्क्सवादी हैं और क्यूबा एक समाजवादी राष्ट्र है। अमेरिका ने क्यूबा में सैन्य एवं सामरिक प्रयासों से कास्त्रो शासन को नष्ट करने के अपने प्रयासों को जारी रखा। क्यूबा ने यू.एस.एस. आर. से सैन्य मदद के लिये अपील की। सोवियत संघ की नेता निकिता ख्रुश्चेव ने क्यूबा को रूसी बेस में परिवर्तित करने का निर्णय लिया। हथियारों की स्थापना ने अमेरिका को पहली बार यू.एस.एस.आर. की मिसाइलों की सीमा के भीतर रखा तथा अमेरिकी मुख्य भूमि के शहरों की संख्या लगभग दोगुनी हो गई, जिसे यू.एस.एस.आर. द्वारा खतरा हो सकता था। यह स्थिति अत्यधिक तनावपूर्ण हो गई और इससे ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे परमाणु युद्ध आसन्न है। इस घटना को क्यूबाई मिसाइल संकट के रूप में जाना जाता है। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव द्वारा अपील किये जाने के बाद यह संकट समाप्त हो गया। यू.एस.एस.आर. ने मिसाइलों को वापस लेने और क्यूबा में प्रक्षेपण स्थलों को नष्ट करने पर सहमति व्यक्त की और बदले में अमेरिका ने क्यूबा पर फिर से आक्रमण नहीं करने के लिये सहमति व्यक्त की। क्यूबा मिसाइल संकट के निम्नलिखित प्रमुख कारण थे: क्यूबा संयुक्त राज्य अमेरिका से सैन्य आक्रमण के संकेत में था, इसलिये यू.एस.एस.आर. क्यूबा को एकजुटता के एक संकेत के रूप में सहायता प्रदान करना चाहता था जो कि सोवियत संघ का सहयोगी राष्ट्र था। यू.एस.एस.आर. ने अंतरमहाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल (आई.सी.बी.एम.) विकसित करने की तकनीकी को प्राप्त नहीं कर सका, इसलिये वह निकट से अमेरिका को घेरने के अवसर की तलाश में था। वर्ष 1959 में अमेरिका ने तुर्की में जुपिटर मिसाइल तैनात की। इसने यू.एस.एस.आर. की सुरक्षा को संकट में डाल दिया, इसलिये, यू.एस.एस.आर. को क्यूबा संयुक्त राज्य अमेरिका के विरुद्ध काउंटर स्ट्राइक शुरू करने के लिये एक आदर्श स्थान लगता था। सोवियत संघ परमाणु हथियारों की संख्या के संबंध में असुरक्षित महसूस कर रहा था, जो पश्चिमी यूरोप तथा तुर्की द्वारा उस पर लक्षित थे और इस प्रकार क्यूबा में मिसाइलों की तैनाती का प्रयोग पश्चिम देशों के साथ सौदेबाजी के लिये किया जा सकता था। केवल कुछ दिनों तक चलने के बावजूद क्यूबाई मिसाइल संकट के निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण परिणाम थे: विश्व को ज्ञात हुआ कि परमाणु युद्ध कितनी आसानी से शुरू किया जा सकता है। यू.एस.एस.आर. और यू.एस.ए. के मध्य एक हॉटलाइन सेवा शुरू की गई थी ताकि तीव्र परामर्श की अनुमति मिल सके। वर्ष 1963 में यू.एस.ए., यू.एस.एस.आर. और ब्रिटेन ने परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि पर हस्ताक्षर किये, जिसके परिणामस्वरूप ये राष्ट्र वायुमंडल को प्रदूषित करने से बचने के लिये भविष्य में केवल भूमिगत परमाणु परीक्षण करने के लिये सहमत थे। क्यूबा-यू.एस.एस.आर. संबंधों में पहले जैसी ऊष्मा नहीं रही क्योंकि क्यूबा ने विश्वासघात की अनुभूति की। शीतयुद्ध के युग में क्यूबाई मिसाइल संकट एक महत्त्वपूर्ण घटना थी, जिसने विश्व को संयुक्त राज्य अमेरिका और यू.एस.एस.आर. की हथियार प्रतिद्वंद्विता से जनित संकट का एहसास कराया और यह विश्व को परमाणु युद्ध की भयावहता से सुरक्षित बनाने के आंदोलनों के लिये एक दिशा दी।</s>
<s>[INST]भारतीय समाज पर निम्नलिखित के प्रभाव की चर्चा कीजिये: (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: उल्लेखित पदों की व्याख्या कीजिये। बताएँ कि इन पदों ने भारतीय समाज को किस प्रकार प्रभावित किया है। संस्कृतिकरण: संस्कृतिकरण एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से निम्न जातियाँ, उच्च जातियों के रीति-रिवाजों एवं रस्मों का अनुकरण करके सामाजिक गतिशीलता को प्राप्त करने का प्रयास करती हैं। यह एक सांस्कृतिक प्रक्रिया है, परंतु संस्कृतिकरण के संबंध में लाई गई ऊर्ध्व गतिशीलता के परिणामस्वरूप सामाजिक स्थिति तथा व्यवसायों में परिवर्तन भी इसे एक संरचनात्मक प्रक्रिया बनाता है। यह ‘उच्च जाति’ के तौर-तरीकों को श्रेष्ठ और ‘निम्न जाति’ को हीन मानता है। इसलिये ‘उच्च जाति’ की नकल करने की इच्छा को स्वाभाविक एवं वांछनीय माना जाता है। यह एक मॉडल को सही ठहराता है जो असमानता और बहिष्कार पर आधारित है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह प्रदूषण की अवधारणा में विश्वास करना और लोगों के समूहों की पवित्रता का सुझाव देता है। इसके परिणामस्वरूप उच्च जाति के संस्कारों और रीति-रिवाजों को अपनाया जाता है जो लड़कियों और महिलाओं को जन सामान्य से अलग रखने के लिये, दुल्हन-मूल्य प्रथा के बजाय दहेज प्रथा को अपनाने और अन्य समूहों के विरुद्ध जातिगत भेदभाव का अभ्यास करने के लिये प्रेरित करता है। ऐसी प्रवृत्ति का प्रभाव यह है कि दलित संस्कृति और समाज की आधारभूत विशेषताएँ समाप्त हो जाती हैं। उदाहरण के लिये, निम्न जाति वर्ग द्वारा किये गए श्रम को कम आंका जाता है और इसे तुच्छ रूप में संदर्भित किया जाता है। पश्चिमीकरण: पश्चिम देशों के साथ, विशेष रूप से इंग्लैंड के साथ संपर्क भारत में रूपांतरण/परिवर्तन की एक और प्रक्रिया को गति प्रदान करता है, जिसे पश्चिमीकरण कहा जाता है। यह अंग्रेज़ी भाषा के माध्यम से प्रशासन, कानूनी प्रणाली एवं शिक्षा के पश्चिमी पद्धति को दर्शाता है। जीवन के पश्चिमी पद्धति के प्रभाव के अंतर्गत शिक्षित एवं शहरी भारतीयों के एक बड़े समूह ने पोशाक, भोजन, पेय, भाषण और रीति की पश्चिमी शैली को अपनाया है। पश्चिमी पद्धति का अनुकरण, पश्चिमी लोकतंत्र, औद्योगीकरण तथा पूंजीवाद के मूल्यों को विकसित किया। पश्चिमीकरण के सांस्कृतिक और सांस्कृतिक पहलू भी हैं। इसने आधुनिक शिक्षा, अर्थव्यवस्था और उद्योग से संबंधित आधुनिक व्यवसायों की वृद्धि द्वारा संरचनात्मक परिवर्तन लाए। आधुनिकीकरण: आधुनिकीकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा समाज में आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान का परिचय दिया जाता है, जिसका अंतिम उद्देश्य संबंधित समाज द्वारा स्वीकार किये गए पद के व्यापक अर्थ में बेहतर एवं अधिक संतोषजनक जीवन प्राप्त करना है। इसने सामाजिक संस्थाओं जैसे विवाह, परिवार, जाति आदि में संरचनात्मक परिवर्तन किये हैं। संयुक्त परिवारों की अवधारणा तेज़ी से कम हो रही है, हर कोई दूसरों से अलग रहना चाहता है। कुछ विलक्षण परिवर्तन होते हैं जैसे कि सांस्कृतिक लक्षणों, व्यवहार पद्धति, मूल्यों में कमी आदि। पुराने और नए तत्त्वों के संश्लेषण के परिणामस्वरूप नए रूपों का उद्भव। उदाहरण के लिये, संरचना में एकल परिवार परंतु संयुक्त रूप में कार्य करना। आधुनिकता मानती है कि स्थानीय संबंध तथा दृष्टिकोण सार्वभौमिक प्रतिबद्धताओं एवं महानगरीय दृष्टिकोणों को मार्ग प्रदान करते हैं। भावनाओं, धार्मिक तथा गैर-तर्कसंगत लोगों के बजाए उपयोगिता, गणना और विज्ञान की सच्चाई को प्राथमिकता देती है।</s>
<s>[INST]असहयोग आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी के रचनात्मक कार्यक्रमों को स्पष्ट कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण : संक्षेप में रचनात्मक कार्यक्रम का उल्लेख करते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये। असहयोग आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान रचनात्मक कार्यक्रम के विभिन्न आयामों को सूचीबद्ध कीजिये। उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये। परिचय: गांधी की राष्ट्रीय उत्थान की व्यापक योजना, जिसे उन्होंने रचनात्मक कार्यक्रम का नाम दिया, का उद्देश्य सत्य और अहिंसा पर आधारित सामाजिक व्यवस्था की स्थापना करना था। गांधी का मानना था कि एक राष्ट्र के रूप में मौलिक कर्त्तव्यों के प्रति हमारी लापरवाही के कारण भारत में विदेशी प्रभुत्व जीवित और समृद्ध हुआ। इन कर्त्तव्यों की सामूहिक पूर्ति को संयुक्त रूप से रचनात्मक कार्यक्रम कहा जा सकता है। असहयोग आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान रचनात्मक कार्यक्रम: सांप्रदायिक एकता: गांधी के अनुसार, सांप्रदायिक एकता का मतलब केवल राजनीतिक एकता नहीं है बल्कि दिलों की अटूट एकता होनी चाहिये। यह लखनऊ संधि 1916 के दौरान हासिल की गई थी, जिसके तहत भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ हाथ मिलाया था। लखनऊ समझौते ने खिलाफत और असहयोग आंदोलन की नींव रखी। अस्पृश्यता का उन्मूलन: गांधी ने माना कि अस्पृश्यता भारतीय समाज पर एक धब्बा और अभिशाप है। गांधी ने इस बुराई को खत्म करने का प्रयास किया। उन्होंने 1932 में अपने पूना समझौते के बाद अस्पृश्यता के उन्मूलन के लिये 'हरिजन सेवक संघ' की स्थापना की। खादी वस्त्र बनाना: गांधी ने खादी को राष्ट्रवाद, आर्थिक स्वतंत्रता, समानता और आत्मनिर्भरता के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया। उनका मानना था कि खादी के माध्यम से ही समाज का पुनर्निर्माण और विदेशी शासन के खिलाफ प्रभावी सत्याग्रह संभव है। खादी का ग्रामीण अर्थव्यवस्था के उत्थान में केंद्रीय स्थान है, जो अंततः ग्राम स्वराज की प्राप्ति की ओर ले जाता है। नई या बुनियादी शिक्षा: गांधी की नई शिक्षा की अवधारणा का तात्पर्य प्रकृति, समाज और शिल्प शिक्षा के विशाल माध्यम है। उनके अनुसार, सच्ची शिक्षा वह है जो बच्चों को आध्यात्मिक, बौद्धिक और शारीरिक संकायों की ओर खींचती और उत्तेजित करती है। यह शिक्षा उनके लिये बेरोज़गारी के खिलाफ एक तरह का बीमा होनी चाहिये। महिलाओं का उत्थान: स्वराज के अपने मिशन में गांधी को महिलाओं, किसानों, मज़दूरों और छात्रों के सहयोग की आवश्यकता थी। इसलिये, उन्होंने एक रचनात्मक कार्यक्रम के माध्यम से उनके बीच काम करने की योजना बनाई थी। 1930-32 के आंदोलन ने महिलाओं में अभूतपूर्व जागरूकता पैदा की। गांधी के प्रयासों के कारण ही महिलाएँ इतिहास में पहली बार अपने घरों से बाहर निकलीं और उन्होंने भारतीय राजनीतिक संघर्ष में भाग लिया। निष्कर्ष: भारतीय समाज का एकीकरण शायद स्वतंत्रता की उपलब्धि से अधिक कठिन था क्योंकि इस प्रक्रिया में हमारे अपने लोगों के समूहों और वर्गों के बीच संघर्ष की संभावना मौजूद थी। इस परिदृश्य में गांधीवादी रचनात्मक भूमिका ने राष्ट्र निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।</s>
<s>[INST]यंग बंगाल और ब्रह्म समाज के विशेष संदर्भ में सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलनों के उत्थान और विकास को रेखांकित कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: संक्षेप में सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलनों के उदय का उल्लेख करते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये। यंग बंगाल और ब्रह्म समाज के योगदान का उल्लेख कीजिये। उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये। परिचय: 19वीं शताब्दी के धार्मिक और सामाजिक सुधार आंदोलनों का भारतीय इतिहास में विशेष स्थान है। ये आंदोलन बहुमुखी स्वरूप और व्यापकता लिये हुए थे, इसी कारण इन आंदोलनों ने देश में व्याप्त तत्कालीन जड़ता को समाप्त करने और आम जन-जीवन को बदलने का प्रयास किया। इसके पथ प्रदर्शकों ने जहाँ एक ओर धार्मिक एवं सामाजिक सुधाराें का आह्वान किया, वहीं दूसरी ओर, भारत के अतीत को उजागर करके भारतवासियों के मन में आत्मसम्मान एवं आत्मगौरव जगाने का प्रयास किया। इन आंदोलनों के पीछे दो शक्तियाँ कार्य कर रही थीं; प्रथम, अंग्रेज़ी शिक्षा और संस्कृति के प्रभाव से अवतरित हुई थी तो दूसरी, ईसाई मिशनरियों के कार्यों के विरुद्ध तीखी प्रतिक्रिया के रूप में हिंदुओं में जागृत हुई थी। ब्रह्म समाज और यंग बंगाल आंदोलन का योगदान: राजा राम मोहन राय ने वर्ष 1828 में ब्रह्म सभा की स्थापना की जिसे बाद में ब्रह्म समाज का नाम दिया गया। यह पुरोहिती, अनुष्ठानों और बलि आदि के खिलाफ था। यह प्रार्थना, ध्यान और शास्त्रों को पढ़ने पर केंद्रित था। यह सभी धर्मों की एकता में विश्वास करता था। यह आधुनिक भारत में पहला बौद्धिक सुधार आंदोलन था। इससे भारत में तर्कवाद और प्रबोधन का उदय हुआ जिसने अप्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रवादी आंदोलन में योगदान दिया। यह आधुनिक भारत के सभी सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक आंदोलनों का अग्रदूत था। यह वर्ष 1866 में दो भागों में विभाजित हो गया, अर्थात् भारत के ब्रह्म समाज का नेतृत्व केशव चन्द्र सेन ने और आदि ब्रह्म समाज का नेतृत्व देबेंद्रनाथ टैगोर ने किया। यंग बंगाल और हेनरी लुई विवियन डेरोजियो: उनका प्रवेश कलकत्ता के हिंदू कॉलेज में एक शिक्षक के रूप में हुआ। डेरोजियो ने अपने शिक्षण के माध्यम से साहित्य, दर्शन, इतिहास और विज्ञान पर बहस व चर्चा के लिये एक संघ के माध्यम से मौलिक विचारों को बढ़ावा दिया। उन्होंने अपने अनुयायियों और छात्रों को उनके अधिकारों की मांग हेतु प्रेरित किया। डेरोजियो और उनके प्रसिद्ध अनुयायी, जिन्हें डेर्ज़ियन और यंग बंगाल के नाम से जाना जाता है, तेजस्वी देशभक्त थे। उन्होंने फ्रांसीसी क्रांति (1789 ई.) के आदर्शों और ब्रिटेन की उदारवादी सोच को संजोया। 22 वर्ष की कम उम्र में डेरोजियो की हैजा से मौत हो गई थी । निष्कर्ष: कट्टरता, अंधविश्वास, अस्पृश्यता, पर्दा प्रथा, सती प्रथा, बाल विवाह, सामाजिक असमानता और निरक्षरता जैसी सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध लड़ने के अलावा सामाजिक एवं धार्मिक सुधार आंदोलनों ने औपनिवेशिक शासन द्वारा बनाए गए नस्लवाद से निपटने में भी मदद की। इससे अंततः ब्रिटिश सरकार के खिलाफ राष्ट्रवाद का विकास हुआ।</s>
<s>[INST]भारत के प्रमुख शहरों में आईटी उद्योगों के विकास से उत्पन्न होने वाले मुख्य सामाजिक-आर्थिक प्रभाव क्या हैं? (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण कुछ तथ्यों या उदाहरणों के साथ भारत में आईटी उद्योगों के विकास का परिचय दीजिये, उन प्रमुख शहरों का वर्णन कीजिये जहाँ यह उद्योग तेज़ी से विकसित हुआ है। इस उद्योग के विकास से उत्पन्न होने वाले सामाजिक-आर्थिक प्रभावों (सकारात्मक और नकारात्मक प्रभावों) पर चर्चा कीजिये। उन निहितार्थों से उत्पन्न मुद्दों को संबोधित करने के लिये आगे की राह सुझाइये। परिचय सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) एक सामान्य प्रयोजन प्रौद्योगिकी का उदाहरण है जिसमें आर्थिक विकास के साथ-साथ आर्थिक और सामाजिक विकास के अन्य आयामों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने की क्षमता है। वर्ष 2020 में भारत के सकल घरेलू उत्पाद में आईटी उद्योग की लगभग 8% हिस्सेदारी थी। आईटी उद्योग के विकास के सामाजिक-आर्थिक निहितार्थ सकारात्मक: संयुक्त राष्ट्र के सतत् विकास लक्ष्यों में से प्रत्येक में आईटी एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है, उन्हें प्राप्त करने के लिये आवश्यक बुनियादी ढाँचा प्रदान करता है। यह एम-कॉमर्स के माध्यम से वित्तीय समावेशन को भी सक्षम बनाता है और लोगों को तुरंत लाखों लोगों से जुड़ने की अनुमति देता है यह लोगों को तुरंत ज्ञान और सलाह साझा करने तथा कम लागत पर एक ऑनलाइन दुकान या वेबसाइट स्थापित करने का अधिकार देता है, जिससे व्यवसाय शुरू करने में आने वाली बाधाओं को नाटकीय रूप से कम किया जा सकता है। आईटी ग्रामीण विकास में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। अब आईटी के माध्यम से दूर-दराज के लोगों के लिये सेवाएँ उपलब्ध हैं। चूँकि प्रमुख शहरों में गुणवत्तापूर्ण नौकरियों में महिलाओं की श्रम शक्ति की भागीदारी तुलनात्मक रूप से अधिक है, आईटी उद्योगों के विकास के कारण वित्तीय स्वतंत्रता के साथ उनका सशक्तीकरण हुआ है। आईटी इन्फ्रास्ट्रक्चर हमें लाखों लोगों के साथ तुरंत जुड़ने की अनुमति देता है। इसका मतलब है कि उद्यमियों की पहल समाज के केवल एक समुदाय तक सीमित नहीं है; वे आसानी से उन लोगों तक पहुँच सकते हैं जिन्हें वे सशक्त बनाना चाहते हैं और अपने संदेश को दूर-दूर तक प्रसार करना चाहते हैं। नकारात्मक प्रभाव: असमान विकास और आर्थिक असमानता: बड़े आईटी हब वाले प्रमुख शहर अर्ध शहरी और टियर I, II शहरों की तुलना में तेजी से विकसित हो रहे हैं। इसके अलावा, आईटी कर्मचारियों और अन्य कर्मचारियों के बीच वेतन का बहुत बड़ा अंतर है। डिजिटल डिवाइड को बढ़ाना: ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी ढाँचे की कमी आवश्यक सेवाओं तक पहुँच में बाधा डालती है, जिससे उनका सामाजिक-आर्थिक विकास प्रभावित होता है। प्रवासन और सांस्कृतिक परिवर्तन में वृद्धि: युवा अपने माता-पिता को अकेला छोड़कर और सामाजिक एवं भावनात्मक समर्थन के लिये ज़रूरतमंदों को छोड़कर, ग्रामीण क्षेत्रों तथा छोटे शहरों से प्रमुख आईटी शहरों की ओर पलायन करते हैं। इससे संयुक्त परिवार संस्कृति का विघटन हो रहा है और भारत में तेज़ी से एकल परिवार संस्कृति उभर रही है। आगे की राह भारत का प्रौद्योगिकी सेवा उद्योग वर्ष 2025 तक वार्षिक राजस्व में 300-350 बिलियन अमेंरीकी डॉलर प्रदान कर सकता है यदि यह क्लाउड, कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई), साइबर सुरक्षा और अन्य उभरती प्रौद्योगिकियों में तेज़ी से उभरती व्यावसायिक क्षमता का फायदा उठा पाता है। इसलिये हमें ऐसी तकनीकों में निवेश करने की ज़रूरत है। यह निवेश समान रूप से वितरित किया जाना चाहिये और कुछ स्थानों पर केंद्रित नहीं होना चाहिये। उदाहरण के लिये आईटी-बीपीओ उद्योग उत्तर पूर्व के शहरों और टियर 1 एवं 2 शहरों में स्थापित किये जा सकते हैं। हम एक ज्ञान अर्थव्यवस्था तभी बन सकते हैं जब विकास सम और समावेशी हों।</s>
<s>[INST]भक्ति साहित्य की प्रकृति और भारतीय संस्कृति में इसके योगदान का मूल्यांकन कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण भक्ति काल और उसके साहित्य को संक्षेप में समझाते हुए उत्तर प्रारंभ कीजिये। भक्ति साहित्य की प्रकृति/विशेषताओं का मूल्यांकन कीजिये। भारतीय संस्कृति में भक्ति साहित्य के योगदान की व्याख्या कीजिये। भक्ति काल के संपूर्ण प्रभाव के साथ संक्षेप में निष्कर्ष लिखिये। परिचय भक्ति आंदोलन का विकास सातवीं और बारहवीं शताब्दी के बीच तमिलनाडु में हुआ। मूल रूप से दक्षिण भारत में 9वीं शताब्दी में शंकराचार्य द्वारा शुरू किया गया यह आंदोलन भारत के सभी हिस्सों में 16 वीं शताब्दी तक विस्तृत हुआ और कबीर, नानक तथा श्री चैतन्य ने इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। भक्ति साहित्य की प्रकृति अंतर-धार्मिक सद्भाव: भक्ति और सूफी आंदोलन ने एक-दूसरे का समर्थन किया तथा विभिन्न सूफी संतों के पाठ को सिखों के धार्मिक सिद्धांतों में जगह मिली। श्री गुरु ग्रंथ साहिब ने कबीर की शिक्षाओं को शामिल किया। स्थानीय भाषाओं को अपनाने के कारण भक्ति पंथ का प्रसार हुआ जिसे जनता आसानी से समझ सकती थी। समावेशी साहित्य: इसने संप्रदायवाद और जातिवाद को दूर करने का उपदेश दिया। पारंपरिक समाज के अपरंपरागत रीति-रिवाजों के खिलाफ भक्ति साहित्य में जातियों और बाहरी जातियों को शामिल करने का आह्वान किया गया। मुस्लिम कवियों दौलत काज़ी और सैयद अलाओल ने ऐसी कविताएँ लिखीं जो हिंदू धर्म और इस्लाम का सांस्कृतिक संश्लेषण थीं। भक्ति साहित्य का योगदान स्थानीय भाषाओं का विकास: भक्ति साहित्य ने देश के विभिन्न हिस्सों में स्थानीय भाषा के विकास को बढ़ावा दिया। पूर्वी उत्तर प्रदेश में 'चंदायन' के लेखक मुल्ला दाऊद जैसे सूफी संतों, 'पद्मावत' के लेखक मलिक मुहम्मद जायसी ने अपनी रचनाएँ हिंदी में लिखीं और सूफी अवधारणाओं को एक ऐसे रूप में सामने रखा, जिसे आम आदमी आसानी से समझ सके। भाषाओं के पूर्वी समूह में, बांग्ला का प्रयोग चैतन्य और कवि चंडीदास द्वारा किया जाता था, जिन्होंने राधा और कृष्ण के प्रेम के विषय पर विस्तार से लिखा था। शंकरदेव भी भक्ति कवि थे, जिन्होंने 15वीं शताब्दी में ब्रह्मपुत्र घाटी में असमी भाषा को लोकप्रिय बनाया। उन्होंने अपने विचारों को फैलाने के लिये एक बिल्कुल नए माध्यम का इस्तेमाल किया। आज के महाराष्ट्र में एकनाथ और तुकाराम जैसे संतों के हाथों मराठी अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गई। कबीर, नानक और तुलसीदास जैसे अन्य प्रमुख संतों ने अपने मनोरम छंदों और आध्यात्मिक व्याख्याओं के साथ क्षेत्रीय साहित्य एवं भाषा में काफी योगदान दिया। भक्ति और सूफीवाद के प्रभाव से एक नई सांस्कृतिक परंपरा का उदय। साथ ही सिख धर्म, कबीर पंथ आदि जैसे नए संप्रदायों का उदय हुआ। दार्शनिक विकास: वेदांत के बाद के विचारों की खोज माधवाचार्य ने अपने द्वैताद्वैत, रामानुजाचार्य ने अपने विशिष्ट अद्वैत आदि में की थी। एक साहित्यिक आंदोलन के रूप में, इसने काव्य को राजाओं की स्तुतिगान से मुक्त किया और आध्यात्मिक विषयों को पेश किया। शैली की दृष्टि से, इसने विभिन्न भाषाओं में वचन (कन्नड़ में), साखियों, दोहों और अन्य रूपों जैसी सरल एवं सुलभ शैलियों की शुरुआत की तथा संस्कृत छंद के आधिपत्य को समाप्त कर दिया। उनके द्वारा निर्मित किये गए भक्ति आंदोलन के विचार साहित्य के विशाल संग्रह के माध्यम से समाज के सांस्कृतिक लोकाचार में व्याप्त रहे। उनके विचारों की अनुरूपता ने न केवल हमें संभावित आंतरिक संघर्षों से बचाया बल्कि सहिष्णुता की भावना भी पैदा की। उन्होंने जनता से अपील करने तथा उन्हें अज्ञान से मुक्त करने के लिये संदेशों की रचना गीतों, कहावतों और कहानियों में की, जिससे अवधी, भोजपुरी, मैथिली और कई अन्य भाषाओं का विकास हुआ।</s>
<s>[INST]प्रश्न. भारत को उपमहाद्वीप क्यों माना जाता है? विस्तृत वर्णन कीजिये । (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण : भारत और उसके आसपास के देशों की भौतिक स्थिति की व्याख्या करते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये जो भारतीय उपमहाद्वीप का निर्माण करते हैं। स्पष्ट कीजिये कि भारत और उसके आसपास के देशों को उपमहाद्वीप क्यों कहा जाता है? उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये। भारतीय उपमहाद्वीप, दक्षिण एशिया में एक भौगोलिक क्षेत्र है। यह भारतीय प्लेट पर स्थित है, जो हिमालय से हिंद महासागर में दक्षिण की ओर प्रक्षेपित है। इसमें आम तौर पर बांग्लादेश, भूटान, भारत, मालदीव, नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका के देश शामिल हैं। भूगर्भीय रूप से, भारतीय उपमहाद्वीप उस भूभाग से संबंधित है जो क्रेटेशियस के दौरान सुपरकॉन्टिनेंट गोंडवाना से अलग हो गया था और लगभग 55 मिलियन वर्ष पहले यूरेशियन भूभाग से मिल गया था। भौगोलिक रूप से, यह दक्षिण-मध्य एशिया में प्रायद्वीपीय क्षेत्र है, जो उत्तर में हिमालय, पश्चिम में हिंदू कुश और पूर्व में अराकनी द्वारा निरूपित किया गया है। उपमहाद्वीप के आसपास के पड़ोसी भौगोलिक क्षेत्रों में उत्तर में तिब्बती पठार, पूर्व में भारत-चीन प्रायद्वीप और पश्चिम में फारस का पठार (या ग्रेटर ईरान) शामिल हैं। दक्षिण एशिया का यह प्राकृतिक भौतिक भू-भाग शेष यूरेशिया से अपेक्षाकृत अलग-थलग है। हिमालय (पूर्व में ब्रह्मपुत्र नदी से पश्चिम में सिंधु नदी तक), काराकोरम (पूर्व में सिंधु नदी से पश्चिम में यारकंद नदी तक) और हिंदू कुश पर्वत (यारकंद नदी से पश्चिम की ओर) इसकी उत्तरी सीमा बनाते हैं। पश्चिम में यह हिंदू कुश, स्पिन घर (सफ़ेद कोह), सुलेमान पर्वत, किर्थर पर्वत, ब्राहुई पर्वतमाला और पाब पर्वतमाला की पर्वत श्रृंखलाओं के कुछ हिस्सों से घिरा है, इस सीमा के साथ पश्चिमी तह बेल्ट के साथ (सुलेमान रेंज और चमन फॉल्ट के बीच) ही भारतीय प्लेट की पश्चिमी सीमा है, जहाँ पूर्वी हिंदू कुश के साथ, अफगानिस्तान-पाकिस्तान सीमा स्थित है। पूर्व में यह पटकाई, नगा, लुशाई और चिन पहाड़ियों से घिरा है। हिंद महासागर, बंगाल की खाड़ी और अरब सागर दक्षिण, दक्षिण-पूर्व तथा दक्षिण-पश्चिम में भारतीय उपमहाद्वीप की सीमा बनाते हैं। भारत और पड़ोसी देश एशियाई महाद्वीप के दक्षिण में स्थित भारतीय उपमहाद्वीप में स्थित हैं। इसे एक उपमहाद्वीप माना जाता है क्योंकि इसमें भूमि का एक विस्तृत क्षेत्र शामिल है जिसमें उत्तर में हिमालय क्षेत्र शामिल है। यह दक्षिण में हिंद महासागर, दक्षिण-पश्चिम में अरब सागर तथा दक्षिण-पूर्व में बंगाल की खाड़ी से घिरा हुआ है। यह उत्तर में मध्य एशिया, पश्चिम में ईरान, पूर्व में भारत-चीन तथा उत्तर-पूर्व में चीन के साथ भूमि सीमा साझा करता है। उपमहाद्वीप के भीतर ही, लोगों, भाषाओं और धर्मों की एक विस्तृत विविधता है। उनका वितरण काफी हद तक भूमि के भौतिक पहलुओं का परिणाम है, जो बदले में प्रवास और आक्रमण जैसी ऐतिहासिक घटनाओं को आकार देता है। हालाँकि कई मतभेदों के बावजूद, मूल रूप से सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक जीवन शैली में कई समानताएँ हैं जो अद्वितीय हैं और इस क्षेत्र को एक उपमहाद्वीप बनाती हैं।</s>
<s>[INST]प्रश्न. उदारवादियों की भूमिका ने किस हद तक व्यापक स्वतंत्रता आंदोलन के लिए आधार तैयार किया? टिप्पणी कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण : कॉन्ग्रेस में दो वैचारिक विभाजनों - नरमपंथ और उग्रवाद के बारे में संक्षिप्त परिचय दीजिये। अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में नरमपंथियों की सफलता की चर्चा कीजिये। नरमपंथियों की कार्रवाई के तरीकों से संबंधित मुद्दों/चुनौतियों पर टिप्पणी कीजिये और कैसे वे बड़े लक्ष्य को प्राप्त करने में काफी हद तक विफल रहे, यह भी बताइये। सकारात्मक निष्कर्ष लिखिये। कॉन्ग्रेस के अस्तित्व के पहले चरण को उदारवादी चरण (1885-1905) के रूप में जाना जाता है। इस दौरान कॉन्ग्रेस ने सीमित उद्देश्यों के लिये काम किया और अपने संगठन के निर्माण पर अधिक ध्यान केंद्रित किया। दादाभाई नौरोजी, पी.एन. मेहता, डी.ई. वाचा, डब्ल्यू.सी. बनर्जी, एस.एन. बनर्जी, गोपाल कृष्ण गोखले, जो कि इस समय कॉन्ग्रेस के प्रमुख नेता हुआ करते थे, उदारवाद और उदारवादी राजनीति में कट्टर विश्वास रखते थे तथा उन्हें नरमपंथी कहा जाने लगा। नरमपंथियों का मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर स्वशासन प्राप्त करना था। वे हिंसा और टकराव के बजाय धैर्य व सुलह में विश्वास करते थे, इस प्रकार अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये संवैधानिक एवं शांतिपूर्ण तरीकों पर भरोसा करते थे। उदारवादी नेताओं के राजनीतिक कार्य करने के तरीके: उन्होंने लोगों को शिक्षित करने, उनकी राजनीतिक चेतना जगाने और जनमत बनाने के लिये सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक मामलों से संबंधित बैठकें तथा चर्चाएँ कीं। उन्होंने देश के सभी हिस्सों से भाग लेने वाले प्रतिनिधियों के साथ वार्षिक सत्र आयोजित किये। विचार विमर्श के बाद संकल्पों को पारित किया गया जिसे सूचना एवं उचित कार्रवाई के लिये सरकार को अग्रेषित किया गया। नरमपंथियों की सफलता/योगदान वे उस समय की सबसे प्रगतिशील ताकतों का प्रतिनिधित्व करते थे। वे समान हितों वाले सभी भारतीयों के लिये एक व्यापक राष्ट्रीय जागृति पैदा करने में सक्षम थे। उन्होंने लोगों को राजनीतिक कार्यों में प्रशिक्षित किया और आधुनिक विचारों को लोकप्रिय बनाया। उन्होंने औपनिवेशिक शासन के मूल रूप से शोषक चरित्र को उजागर किया, इस प्रकार इसकी नैतिक नींव को कमजोर किया। उनका राजनीतिक कार्य कठोर वास्तविकताओं पर आधारित था, न कि उथली भावनाओं, धर्म आदि पर। वे मूल राजनीतिक सत्य को स्थापित करने में सक्षम थे कि भारतीयों के हित में भारत पर शासन किया जाना चाहिये। उन्होंने आने वाले वर्षों में अधिक सशक्त, उग्रवादी, जन-आधारित राष्ट्रीय आंदोलन के लिये एक ठोस आधार तैयार किया। प्रारंभिक राष्ट्रवादियों ने राष्ट्रीय भावना को जगाने के लिये बहुत कुछ किया, भले ही वे जनता को अपनी ओर नहीं खींच सके तथा अपने लोकतांत्रिक आधार एवं अपनी मांगों के दायरे को व्यापक बनाने में विफल रहे। वे ब्रिटिश शासन के वास्तविक स्वरूप को नहीं समझ पाए। राष्ट्रीय आंदोलन के उदारवादी चरण का एक संकीर्ण सामाजिक आधार था और जनता ने इसमें निष्क्रिय भूमिका निभाई। इसका कारण यह था कि आरंभिक राष्ट्रवादियों का जनता में राजनीतिक विश्वास नहीं था; उन्होंने महसूस किया कि भारतीय समाज में कई विभाजन और उप-विभाजन हैं तथा जनता आम तौर पर अज्ञानी थी और रूढ़िवादी विचार रखती थी। नरमपंथियों ने महसूस किया कि राजनीतिक क्षेत्र में प्रवेश करने से पहले इन विषम तत्त्वों को एक साथ लाना पड़ेगा। लेकिन वे यह समझने में विफल रहे कि केवल एक स्वतंत्रता संग्राम के दौरान और राजनीतिक भागीदारी के साथ ही ये विविध तत्त्व एक साथ आ सकते थे। जन भागीदारी की कमी के कारण, नरमपंथी अधिकारियों के खिलाफ जुझारू राजनीतिक स्थिति नहीं ले सके। बाद के राष्ट्रवादी इस बिंदु पर नरमपंथियों से भिन्न थे। फिर भी, प्रारंभिक राष्ट्रवादियों ने औपनिवेशिक हितों के खिलाफ उभरते हुए भारतीय राष्ट्र का प्रतिनिधित्व किया। प्रार्थना, याचिका और विरोध जैसी राजनीति कारगर नहीं हो सकी बंगाल का विभाजन लोगों की इच्छा के विरुद्ध था। नरमपंथी आधुनिक राजनीति में लोगों को शिक्षित करना चाहते थे, राष्ट्रीय और राजनीतिक चेतना जगाना चाहते थे और राजनीतिक सवालों पर एकजुट जनमत बनाना चाहते थे। उनके आलोचक अक्सर उन पर प्रार्थनाओं और याचिकाओं के माध्यम से भीख मांगने के तरीकों का इस्तेमाल करने का आरोप लगाते हैं। हालाँकि, अगर उन्होंने क्रांतिकारी या हिंसक तरीके अपनाए होते, तो कॉन्ग्रेस को उसके आरंभ में ही कुचल दिया जाता। उन्होंने बाद के वर्षों में एक अधिक जोरदार, उग्रवादी, जन-आधारित राष्ट्रीय आंदोलन के लिये एक ठोस आधार तैयार किया।</s>
<s>[INST]1. शोध क्या है, ज्ञान के साथ एकअजनबी मुलाकात ! 2. लोगों की केवल धन के माध्यम से सहायता कर हम गरीबी से छुटकारा नहीं पा सकते।[/INST]प्रश्न का उत्तर जल्द ही प्रकाशित होगा।</s>
<s>[INST]प्र. वेलेज़ली की विस्तार नीति के अंतर्निहित कारक एवं शक्तियाँ कौन-सी थीं? (150 शब्द)[/INST]प्रश्न का उत्तर जल्द ही प्रकाशित होगा।</s>
<s>[INST]कई देशों में उच्च तकनीक वाले उद्योगों के प्रमुख महानगरीय केंद्रों के परिधीय क्षेत्रों की ओर आकर्षित होने के कारणों पर चर्चा कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: उच्च-तकनीकी उद्योगों का परिचय दीजिये। प्रमुख महानगरों के परिधीय क्षेत्रों में इन उद्योगों के विकास के कारणों को बताइये। ऐसे कुछ उदाहरणों को बताते हुए निष्कर्ष लिखिये। उच्च तकनीक उद्योग विनिर्माण गतिविधियों की नवीनतम पीढ़ी है। यह गहन अनुसंधान एवं विकास प्रयासों के कार्यान्वयन को उल्लेखित करता है, जहाँ वस्तुओं का निर्माण उन्नत वैज्ञानिक और इंजीनियरिंग प्रौद्योगिकी की सहायता से किया जाता है। इसमें असेंबली लाइन रोबोटिक्स, कंप्यूटर-एडेड डिज़ाइन (सी.ए.डी.) एवं विनिर्माण, प्रगलन तथा शोधन प्रक्रियाओं पर इलेक्ट्रॉनिक नियंत्रण और नवीन रसायनों एवं औषध निर्माण हेतु उच्च प्रौद्योगिकी का प्रयोग शामिल हैं। इन उद्योगों को आम बोल-चाल की भाषा में फुटलूज उद्योग भी कहा जाता है। प्रमुख महानगरों के परिधीय क्षेत्रों में इन उद्योगों के विकास के कारण: शहरी केंद्रों की तुलना में यहाँ भूमि का सस्ता होना, जिससे संयंत्रों की स्थापना कम लागत पर हो जाती है। शहरी परिधि से बाहर एवं उपनगरों में श्रमिकों की आसान उपलब्धता से व्यावसायिक पार्कों तथा आवासीय परिसरों का निर्माण करने में आसानी। मोटरवे लिंक एवं रेलवे कनेक्टिविटी से यात्रियों एवं उत्पादों के परिवहन में सुलभता। शहरी केंद्रों के निकट होने के कारण बाज़ार तक आसान पहुँच एवं शैक्षणिक संस्थानों की अधिकता से कुशल श्रमिकों की आपूर्ति आसान। उच्च तकनीकी आधारित उद्योग विकेंद्रित, आधुनिक, कम लागत, कार्यालय-संयंत्र-प्रयोगशाला आधारित होते हैं, जो कि महानगरीय क्षेत्रों में बढ़ती हुई आबादी की मांग को पूरा करने हेतु आवश्यक है। ये विशिष्ट कच्चे माल पर आधारित उद्योग हैं, जो कम वज़नी एवं हल्के कच्चे माल पर आधारित हैं, जिन्हें बाज़ार केंद्र के पास में आसानी से लगाया जा सकता है। इनके इनपुट की भाँति आउटपुट (उत्पाद) भी हल्के होते हैं, जिन्हें आसानी से बाज़ारों तक पहुँचाया जा सकता है। उच्च तकनीक आधारित उद्योग क्षेत्रीय रूप से विशिष्ट केंद्रों पर संकेंद्रित होते हैं, जो कि अत्यधिक तकनीक आधारित व स्वचालित प्रकृति के हैं। उनकी इस प्रकृति के कारण इन्हें टेक्नोपोलिस भी कहा जाता है। सैन फ्रांसिस्को के पास सिलिकॉन वैली और सिएटल के पास सिलिकॉन फॉरेस्ट टेक्नोपोलिस के उदाहरण हैं। इसी प्रकार भारत में गुरुग्राम दिल्ली के पास स्थित एक उच्च तकनीकी केंद्र के रूप में विकसित हुआ है।</s>
<s>[INST]प्रश्न: उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी के दौरान दुनिया के लोगों के लिये फ्राँसीसी क्रांति की विरासत का वर्णन कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: फ्राँसीसी क्रांति का महत्त्व स्पष्ट कीजिये। बताइये कि इस क्रांति ने विश्व भर के आम लोगों के जीवन पर कैसे गहरा प्रभाव छोड़ा? उपयुक्त निष्कर्ष दीजिये। फ्राँसीसी क्रांति, आधुनिक यूरोपीय इतिहास में एक अभूतपूर्व घटना थी जो 1789 में शुरू हुई और 1790 के दशक के अंत में नेपोलियन बोनापार्ट के उत्थान के साथ समाप्त हुई। इस अवधि के दौरान फ्राँसीसी नागरिकों ने पूर्ण राजशाही और सामंती व्यवस्था जैसी सदियों पुरानी संस्थाओं को उखाड़ फेंकते हुए देश के राजनीतिक परिदृश्य का पुनर्निर्माण किया। क्रांति ने उन्नीसवीं-बीसवीं सदी के लोगों को एक स्थायी विरासत सौंपीं जिसे विभिन्न रूपों में अभिव्यक्त किया जा सकता है: सिद्धांतों का उपहार: स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व: फ्राँसीसी क्रांति से यूरोप और विश्व को स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व जैसे सिद्धांतों का बहुमूल्य उपहार प्राप्त हुआ। फ्राँसीसी क्रांति ने दुनिया भर के लोगों को ऐसे कई आधुनिक विचार दिये। राजतंत्र, सामंतवाद से छुटकारा: अनियंत्रित सम्राट, सामंती सरदार और पादरी आम जनता का लगातार शोषण कर रहे थे। इसी तरह की स्थिति यूरोप के लगभग हर देश में बनी हुई है। क्रांति ने उस अन्याय को समाप्त कर दिया। राजतंत्र को लोकतंत्र द्वारा प्रतिस्थापित किया गया और सामंती सरदारों व पादरियों के सभी विशेष अधिकारों और रियायतों को अस्वीकार कर दिया गया था। लोगों को इससे प्रेरणा मिली और अन्याय के सभी कारकों के विरुद्ध आंदोलन का सूत्रपात हुआ। यह यूरोप में आधुनिक युग की शुरुआत थी। सभी क्षेत्रों में सुधारों का आरंभ: क्रांति के उदारवाद, राष्ट्रवाद आदि विचारों के कारण फ्राँस में वर्गहीन समाज का उभार होने लगा। अब पादरियों की नियुक्ति सरकार द्वारा होने लगी। कृषि, व्यापार और व्यवसाय में सुधार हुआ। यूरोप के अन्य देशों को भी इससे प्रेरणा मिली और उन्होंने सुधार शुरू किये। राष्ट्रवादी आंदोलनों की प्रेरणा: समानता के सिद्धांत ने लोगों में एकता पैदा की जिसने राष्ट्रवाद की भावना पैदा की। फ्राँसीसी क्रांति से प्रेरणा पाकर जर्मनी, इटली, रूस आदि में एकीकरण के आंदोलन शुरू हुए। लोकतंत्र का विकास: क्रांति ने फ्राँस में सामाजिक-आर्थिक असमानता को नष्ट कर दिया और लोकतंत्र की स्थापना हुई। क्रांति का केंद्रीय विचार लोगों का कल्याण था। राजा और प्रतिनिधियों को समाज के सेवक के रूप में कार्य करना था। लोगों ने अपने अधिकार के रूप में अन्यायपूर्ण नियमों के विरुद्ध आवाज उठाना शुरू कर दिया। इसने यूरोप में भी लोकतंत्र के विकास में मदद की। यद्यपि फ्राँसीसी क्रांति कई अवसरों पर एक अराजक हिंसा में भी तब्दील हुई, लेकिन इसने दुनिया को लोगों की इच्छा में निहित शक्ति को प्रकट करते हुए आधुनिक राष्ट्रों को आकार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1789 की फ्राँसीसी क्रांति की स्मृतियाँ न केवल ऐतिहासिक हैं बल्कि उस विरासत का भी निर्माण करती हैं जो आज भी मानवीय मूल्यों और अधिकारों के रूप में जारी हैं।</s>
<s>[INST]प्रश्न: बालिका विवाह के उन्मूलन के संबंध में शिक्षा, कानूनी प्रावधान और जागरूकता पहलों जैसे सामाजिक परिवर्तन के प्रेरकों को अभी भी लंबा रास्ता तय करना होगा। टिप्पणी कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण : लड़कियों की शादी की उम्र बढ़ाने के सरकार के हालिया प्रस्ताव से शुरुआत कीजिये। महिला सशक्तिकरण के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये प्रस्ताव के लाभों और वैकल्पिक तरीकों की आवश्यकता पर चर्चा कीजिये। उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये। बाल विवाह एक वैश्विक मुद्दा है, जो लैंगिक असमानता, गरीबी, सामाजिक मानदंडों और असुरक्षा से प्रेरित है और दुनिया भर में इसके विनाशकारी परिणाम देखने को मिलते हैं। बाल विवाह के उच्च स्तर समाज में महिलाओं और बालिकाओं के प्रति भेदभाव और अवसरों की कमी को दर्शाते हैं। भारत में विभिन्न वैधानिक प्रावधानों और सशर्त नकद हस्तांतरण (Conditional Cash Transfer- CCT) कार्यक्रमों जैसी पहलों के बावजूद, अधिक प्रगति नहीं हो सकी है। राष्ट्रव्यापी कोविड-19 लॉकडाउन ने परिदृश्य को और बदतर कर दिया। भारत में बाल विवाह व्यापकता: संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (United Nations Children’s Fund- UNICEF) के आकलन से पता चलता है कि भारत में हर साल 18 वर्ष से कम उम्र की कम-से-कम 15 लाख लड़कियों की शादी हो जाती है, जो वैश्विक संख्या का एक तिहाई है और इस प्रकार अन्य देशों की तुलना में भारत में बाल वधुओं की सर्वाधिक संख्या मौजूद है। बाल विवाह के विषय में NFHS के निष्कर्ष: वर्ष 2015-16 में आयोजित ‘राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण’ (NFHS4) के चौथे दौर के आँकड़े से पता चलता है कि भारत में प्रत्येक चार लड़कियों में से एक की शादी 18 वर्ष की आयु से पहले हो रही थी। सर्वेक्षण अवधि के दौरान 15-19 वर्ष आयु वर्ग की लगभग 8% महिलाएँ माता थीं या गर्भवती थीं। विभिन्न रिपोर्टों के अनुसार कोविड महामारी के दौरान बाल विवाहों की संख्या में वृद्धि देखी गई। NFHS-5 (2019-20) के पहले चरण के निष्कर्ष भी बाल विवाह के उन्मूलन की दिशा में कोई महत्त्वपूर्ण प्रगति नहीं दिखाते हैं। आवश्यक कदम नीतिगत हस्तक्षेप: भारत से बालिका विवाह और समग्र रूप से बाल विवाह के उन्मूलन की दिशा में कानूनों की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। कर्नाटक ने वर्ष 2017 में बाल विवाह निषेध अधिनियम में संशोधन किया है, जहाँ प्रत्येक बाल विवाह को उसके आरंभ से ही अमान्य घोषित कर दिया गया, इसे एक संज्ञेय अपराध बनाया गया है और बाल विवाह संपन्न कराने में योगदान करने वाले सभी व्यक्तियों के लिये कठोर कारावास की न्यूनतम अवधि तय की गई है। केंद्रीय स्तर पर भी ऐसा ही किया जा सकता है। सामाजिक परिवर्तन के लिये सरकारी कार्रवाई: शिक्षकों, आँगनवाड़ी पर्यवेक्षकों, पंचायत एवं राजस्व कर्मचारियों सहित विभिन्न विभागों के ज़मीनी स्तर के नौकरशाह—जिनका ग्रामीण समुदायों के साथ अंतर्संपर्क होता है, को बाल विवाह निषेध अधिकारी (Child Marriage Prohibition Officers) के रूप में अधिसूचित किया जाना चाहिये। इसके अलावा, जन्म और विवाह पंजीकरण का विकेंद्रीकरण ग्राम पंचायतों में किये जाने से आयु और विवाह के आवश्यक दस्तावेजों के साथ महिलाओं और लड़कियों की रक्षा होगी, और इस प्रकार वे अपने अधिकारों का दावा करने में अधिक सक्षम बन सकेंगी। सामाजिक परिवर्तन के प्रेरकों की मौलिक भूमिका: इनमें माध्यमिक शिक्षा का विस्तार, सुरक्षित एवं सस्ते सार्वजनिक परिवहन तक पहुँच और युवा महिलाओं को आजीविका कमाने के लिये अपनी शिक्षा का उपयोग करने के लिये सहयोग देना शामिल हैं। शिक्षा का विस्तार महज़ उस तक पहुँच तक ही सीमित नहीं है। लड़कियों को नियमित रूप से स्कूल जा सकने, स्कूल में बने रहने और उपलब्धियाँ पाने में सक्षम होना चाहिये। राज्य यह सुनिश्चित करने के लिये विशेष रूप से निम्न-सुविधा-संपन्न क्षेत्रों में आवासीय स्कूलों, बालिका छात्रावासों और सार्वजनिक परिवहन के अपने नेटवर्क का लाभ उठा सकते हैं ताकि सुनिश्चित हो सके कि किशोर लड़कियाँ शिक्षा से बहिर्वेशित न की जाएँ। उच्च विद्यालय की लड़कियों और लड़कों के साथ नियमित रूप से लैंगिक समानता पर संवाद जारी रखने की आवश्यकता है ताकि एक प्रगतिशील दृष्टिकोण को आकार दिया जा सके जो उनके वयस्क आयु में भी साथ बना रहेगा। सशक्तीकरण के उपाय: बाल विवाह को समाप्त करने के लिये महिला समाख्या जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से सामुदायिक संलग्नता की भी आवश्कयता है। भारत भर की ग्राम पंचायतों में बच्चों की ग्राम सभाएँ बच्चों को अपनी चिंताओं को व्यक्त करने के लिये एक मंच प्रदान कर सकती हैं। बाल विवाह की रोकथाम के लिये आर्थिक विकास आवश्यक: बालिका विवाह पर रोक और उपयुक्त आयु पर लड़कियों के विवाह को सुनिश्चित करने के लिये भारत को न केवल सांस्कृतिक रूप से बल्कि आर्थिक रूप से भी विकसित होने की आवश्यकता है। इस दिशा में कुछ प्रगति हुई भी है, जहाँ समृद्धि बढ़ने और चरम गरीबी के स्तर में गिरावट आने के साथ-साथ बाल वधुओं की संख्या में कमी आई है। आर्थिक विकास भारतीय बालिकाओं को बाल विवाह से बचाएगा। लैंगिक वरीयता के विषय में शैक्षिक और सांस्कृतिक जागरूकता (जिसमें निस्संदेह समय लगेगा) के साथ आर्थिक सफलता ही एक स्थायी समाधान लेकर आएगी। निष्कर्ष बालिका विवाह के उन्मूलन के संबंध में शिक्षा, कानूनी प्रावधान और जागरूकता पहलों जैसे सामाजिक परिवर्तन के प्रेरकों को अभी भी लंबा रास्ता तय करना होगा। इसके साथ ही यह ऐसा बदलाव है जिसे इसके अंदर से ही घटित होना है।</s>
<s>[INST]प्रश्न. विशाल और अलंकृत भारतीय मंदिरों के उद्भव को सरल रॉक-कट गुफा मंदिरों से चिन्हित किया जा सकता है। प्राचीन काल के भारतीय मंदिरों की स्थापत्य शैली के विकास का वर्णन कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण भारतीय मंदिर स्थापत्य कला का परिचय दीजिये। भारतीय मंदिर स्थापत्य कला के विकास को उदाहरण सहित लिखिये। निष्कर्ष। परिचय: मंदिरों की वास्तुकला का आविर्भाव गुप्त काल में हुआ। प्रारंभिक मंदिरों में वर्गाकार गर्भगृह और खंभों से युक्त मंडप होता था। मंदिरों के उत्तरोत्तर विकास के साथ इनकी भव्यता व विशालता में वृद्धि हुई। इन मंदिरों के निर्माण से पूर्व चट्टानों को काटकर चैत्य व विहार का निर्माण किया जाता था। चैत्य का उपयोग आराधना के लिये किया जाता था। प्रमुख बिंदु: चट्टानों को काटकर बनाई गई गुफा स्थापत्य कला का उद्भव मौर्य काल में हुआ। इस काल में बौद्ध व जैन भिक्षुओं ने गुफाओं का उपयोग विहार या वासस्थल के रूप में किया। मंदिर स्थापत्य कला का विकास: प्रारंभ में सपाट छत व वर्गाकार गर्भगृह युक्त मंदिरों के निर्माण के बाद शिखरों से युक्त मंदिरों का क्रमिक विकास हुआ। मंदिरों के क्रमिक विकास को 5 चरणों में विभाजित किया जा सकता है- प्रथम चरण: इस चरण में मंदिरों की विशेषता उनकी सपाट छत, मंदिरों का वर्गाकार आकार, मंडपों के उथले स्तंभ आदि थे। इसका उदाहरण सांची स्थित मंदिर संख्या 17 है। द्वितीय चरण: इस चरण में अधिकांश विशेषताएँ पूर्ववत् रहीं। परंतु इस चरण में गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणा-पथ का निर्माण किया जाने लगा इसका उदाहरण है- पार्वती मंदिर (मध्य प्रदेश) है। तृतीय चरण: इस चरण में शिखरों के उद्भव के साथ ही मंदिर निर्माण की पंचायतन शैली का उद्भव हुआ। इसका उदाहरण दशावतार मंदिर (उत्तर प्रदेश) है। चतुर्थ चरण: इस चरण में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ। इसमें एक मात्र परिवर्तन मुख्य मंदिर का अधिक आयताकार होना है। इसका उदाहरण शोलापुर का तेर मंदिर है। पंचम चरण: इस चरण में वृत्ताकार मंदिरों का निर्माण हुआ परंतु शेष सभी विशेषताएँ पूर्ववत् रहीं। राजगीर का मनियार मठ इसका प्रमुख उदाहरण है। 5वीं शताब्दी के पश्चात उत्तर भारत में नागर शैली विकसित हुई। मंदिरों में मंडप निर्माण में स्तंभ का प्रयोग, ऊँची वेदी, पंचायतन शैली का अनुपालन आदि इसकी विशिष्टता थी। नागर शैली के अंतर्गत ओडिशा शैली, खजुराहो शैली व सोलंकी शैली विकसित हुई। वास्तव में उत्तर भारत में विशाल व अंलकृत मंदिरों का निर्माण नागर शैली के विकास के साथ ही हुआ। भुवनेश्वर का लिंगराज मंदिर, खजुराहो का विश्वनाथ मंदिर, मोढेरा का सूर्य मंदिर इस शैली के प्रमुख मंदिर है। दक्षिण में विशाल गोपुरम युक्त मंदिरों का निर्माण शुरू हुआ। इन मंदिरों की विशेषता ऊँची चहारदीवारी, विशाल गोपुरम्, ऊँचा शिखर (विमान), मंदिर परिसर में जलाशय आदि है। बृहदेश्वर मंदिर (तंजावुर) इस शैली का प्रमुख मंदिर है। निष्कर्ष: भारतीय मंदिर स्थापत्य कला चित्रकला, मूर्तिकला, स्थापत्य कला व भवन निर्माण का सुंदर संगम है।</s>
<s>[INST]भारत में 'विविधता में एकता' को बनाए रखने में क्षेत्रवाद एक खतरा है।" दिये गए कथन का समालोचनात्मक विश्लेषण कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : दृष्टिकोण क्षेत्रीयता और विविधता में एकता की अवधारणा को परिभाषित कीजिये। भारत में क्षेत्रवाद के कारणों पर चर्चा कीजिये। क्षेत्रवाद के सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव बताइये। उपयुक्त निष्कर्ष दीजिये। परिचय: विविधता में एकता: भारत विविधता से परिपूर्ण देश है; “विविधता में एकता” भारतीय समाज की महत्त्वपूर्ण विशेषता है। यह वाक्यांश इस बात का भी सूचक है कि भारत किस प्रकार से विविधता पूर्ण संस्कृति, सामाजिक और जातीय तत्त्वों को अपनाते हुए निरंतर आगे बढ़ रहा है। यहाँ अपनी पहचान को अक्षुण्ण रखकर विविधता को अंगीकार करने की आज़ादी है। क्षेत्रवाद: क्षेत्रवाद एक ऐसी अवधारणा है जो राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और वैचारिक रूप से क्षेत्र विशेष के हितों को सर्वोपरि मानता है। भारत में क्षेत्रवाद के लिये कई कारक उत्तरदायी हैं। उदाहरण के लिये पृथक् भाषा, अलग भौगोलिक पहचान, नृजातीय पहचान, असमान विकास, धार्मिक पहचान आदि। भारत में क्षेत्रवाद की अभिव्यक्ति पृथक् राज्य की मांग, विशेष राज्य या पूर्ण राज्य की मांग के साथ-साथ भारत संघ से अलग होने के रूप में भी होती रहती है। क्षेत्रीयता की जड़ें भारत की भाषाओं, संस्कृतियों, जातीय समूहों, समुदायों, धर्मों आदि की विविधता में निहित हैं और इन पहचान चिह्नों को क्षेत्रीय एकाग्रता द्वारा प्रोत्साहित किया जाता है, इससे क्षेत्रीय पृथक्करण की भावना प्रबल होती है। संरचना क्षेत्रवाद के कारण भाषा: भाषायी राज्यों की मांग ने क्षेत्रीयता को बढ़ावा दिया है जिसके कारण आंध्र प्रदेश, पंजाब आदि जैसे नए राज्यों का निर्माण हुआ है। धर्म: यह भी क्षेत्रवाद के प्रमुख कारकों में से एक है। उदाहरणतः जम्मू और कश्मीर में तीन स्वायत्त राज्यों की मांग धर्म पर आधारित है। उनकी माँगों के आधार हैं- मुस्लिम बहुल जनसंख्या के लिये कश्मीर, हिन्दू बहुल जनसंख्या के लिये जम्मू और बौद्ध बहुल जनसंख्या के लिये लद्दाख। क्षेत्रीय संस्कृति/नृजातीय पहचान: विभिन्न जनजातीय समूहों द्वारा अपनी नृजातीय पहचान को सुरक्षित बनाए रखने के प्रयास भी क्षेत्रवाद का कारण बनते हैं, जैसे- बोडोलैंड और झारखंड का आंदोलन। आर्थिक पिछड़ापन: सामाजिक आर्थिक विकास के असमान प्रतिरूप ने क्षेत्रीय विषमताएँ पैदा की हैं। सामाजिक आर्थिक विकास और संसाधनों के उपयोग के आधार पर राज्यों के वर्गीकरण और उप-वर्गीकरण ने नाराज़गी पैदा की है, जिससे क्षेत्रवाद को बढ़ावा मिला है। उदाहरणतः:आंध्र प्रदेश से तेलंगाना का विभाजन, विदर्भ, सौराष्ट्र आदि के लिये अलग राज्य की मांग। राजनीतिक दलों का उदय: गठबंधन की राजनीति और क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के उदय ने क्षेत्रवाद को वोट हासिल करने हेतु एक राजनीतिक उपकरण के रूप में प्रेरित किया है। भूमि पुत्र का सिद्धांत: यह सिद्धांत बताता है कि एक सीमित भगौलिक क्षेत्र के समस्त संसाधनों पर केवल उन्हीं लोगों का अधिकार होना चाहिये जिनका जन्म उस क्षेत्र में हुआ है। जिनका जन्म उस क्षेत्र से बाहर हुआ हो, उनका उस क्षेत्र में कोई अधिकार नहीं है। प्रवासी और स्थानीय शिक्षित मध्यम वर्ग के युवाओं के बीच नौकरियों और संसाधनों के लिये प्रतिस्पर्द्धा के कारण इस सिद्धांत का चलन बढ़ा है। उदाहरणतः मराठों के लिये महाराष्ट्र, गुजरातियों के लिये गुजरात आदि। नकारात्मक प्रभाव उग्रवाद का उदय: क्षेत्रवाद राष्ट्र के विकास और एकता के लिये एक खतरा है क्योंकि यह विद्रोही समूहों (पंजाब में खालिस्तान आंदोलन) द्वारा आंतरिक सुरक्षा चुनौतियाँ पैदा करता है, जो देश की मुख्यधारा की राजनीतिक-प्रशासनिक व्यवस्था के खिलाफ क्षेत्रीयता की भावनाओं का प्रचार करता है। असममित विकास: क्षेत्रीय माँगें राष्ट्रीय मांगों को कम करती हैं क्योंकि विकास संबंधी योजनाएँ उन क्षेत्रों पर असमान रूप से लागू होती हैं, जहाँ महत्त्वपूर्ण नेता होते हैं, इसलिये बाकी क्षेत्रों के बीच अशांति उत्पन्न होती है। विदेश नीति के लिये चुनौती: क्षेत्रीयता अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति में बाधा पैदा करती है, उदाहरण के लिये भूमि सीमा समझौते और तीस्ता नदी जल बँटवारे के लिये केंद्र सरकार के सहमत होने के बावजूद भी राज्य सरकार द्वारा सहमति न देने का मामला। मौलिक अधिकारों को प्रतिबंधित करना: क्षेत्रवाद भारत के किसी भी भाग में अबाध संचरण की स्वतंत्रता और आजीविका की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करता है, जो कि संविधान के अनुच्छेद 19 की अवेहलना है, जैसा कि गैर-मूल निवासियों का शोषण किया जाता है और प्रवासी आबादी की संवेदनशीलता को बढ़ाया जाता है। उदाहरण के लिये: हाल ही में घटित गुजरात का प्रवासी संकट। संवैधानिक लोकाचार के विरुद्ध: यह भारत के लोकाचार, संस्कृति और संवैधानिक आदर्श जो कि समन्वयात्मक, लोकतांत्रिक, संघीय एकता आदि हैं, के विरुद्ध हैं। सकारात्मक प्रभाव सममित विकास: क्षेत्रीय आकांक्षाओं का, संतुलित क्षेत्रीय विकास पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है क्योंकि ऐसे क्षेत्रों से संबंधित समस्याओं को केंद्रीय प्राधिकरण द्वारा सुना जाता है जिसके तहत क्षेत्रीय स्तर पर व्याप्त असमानताओं को कम करने की कोशिश की जाती है। प्रतिस्पर्द्धात्मक संघवाद: यह प्रतिस्पर्द्धी संघवाद की भावना के विकास में मदद करता है, जिससे राष्ट्रीय विकास के साथ अविकसित क्षेत्रों को समान स्तर पर लाया जाता है। लोकतांत्रिक मूल्यों को बढ़ावा : क्षेत्रीय मुद्दों पर चर्चा, बहस और कार्रवाई द्वारा समाज की लोकतांत्रिक संस्कृति को बढ़ावा देने में मदद करता है। सेफ्टी वाल्व: यह समाज की विभिन्न समस्याओं और चिंताओं तथा उनके समय पर निवारण के लिये एक आउटलेट प्रदान करता है, जो कि विविधता से परिपूर्ण समाज में उत्पन्न होने वाले तनाव से मुक्ति में मदद करता है। निष्कर्ष इस प्रकार, क्षेत्रीयता भारत की संघीय राजनीति में एक प्राकृतिक घटना है जहाँ विविधताएँ बड़े पैमाने पर राजनीतिक, जातीय, सांस्कृतिक और भाषाई आधार पर क्षेत्रीय रूप से समूहीकृत हैं। राजव्यवस्था की संघीय व्यवस्था ने वास्तव में क्षेत्रवाद को व्यवहार्य बनाया है। भारत में क्षेत्रों की सांस्कृतिक विशिष्टता केंद्रीकरण की प्रवृत्ति का प्रतिकार करती है और इस प्रकार संघीय राजनीतिक प्रणाली में एक केन्द्रापसारी बल का गठन करती है। हालाँकि क्षेत्रीयता निहित स्वार्थों की पूर्ति करती है किंतु यह क्षेत्रीय चिंताओं को दूर करने के नाम पर भारतीय समाज को खतरे में डालती है। क्षेत्रवाद की विचारधारा को समझने के साथ-साथ हमें इस बात पर भी पुनर्विचार करने की आवश्यकता है कि हम सबसे पहले भारतीय हैं उसके बाद मराठी, गुजराती, पंजाबी इत्यादि हैं। हमें अपने व्यक्तिगत हितों को नज़रअंदाज़ करते हुए देश की संप्रभुता, एकता एवं अखंडता का सम्मान करना चाहिये।</s>
<s>[INST]उष्णकटिबंधीय चक्रवातों से आप क्या समझते हैं और इनका निर्माण कैसे होता है? भारत पर इन चक्रवातों का क्या प्रभाव पड़ता है? परीक्षण कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण परिचय में उष्णकटिबंधीय चक्रवात को परिभाषित कीजिये। उष्णकटिबंधीय चक्रवातों के उत्पन्न होने की परिस्थितियों को समझाइये। भारत पर पड़ने वाले चक्रवात के प्रभाव का उल्लेख कीजिये। शमन और अनुकूलन तकनीकों का महत्त्व बताते हुए निष्कर्ष दीजिये। परिचय उष्णकटिबंधीय चक्रवात एक तीव्र गोलाकार तूफान है, जिसकी उत्पत्ति गर्म उष्णकटिबंधीय महासागरों में होती है तथा कम वायुमंडलीय दबाव, तेज़ पवनें और भारी वर्षा इसकी विशेषताएँ हैं। इसे विभिन्न नामों से जाना जाता है: हिंद महासागर में चक्रवात अटलांटिक महासागर में हरिकेन पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र और दक्षिण चीन सागर में टाइफून पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया में विली-विलीज़ ढाँचा/संरचना निम्नलिखित स्थितियाँ उष्णकटिबंधीय चक्रवाती तूफान की उत्पत्ति और उसके तीव्र होने के लिये उत्तरदायी हैं: 27 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान के साथ समुद्र की विशाल सतह कोरिओलिस बल की मौजूदगी ऊर्ध्वाधर पवन की गति में कम अंतर पहले से मौजूद एक कमज़ोर-निम्न-दबाव का क्षेत्र या निम्न-स्तर-चक्रवाती परिसंचरण समुद्र तल प्रणाली के ऊपर उच्च विचलन ये उत्तरी गोलार्द्ध में घड़ी की विपरीत दिशा में पूर्व से पश्चिम की ओर चलते हैं और दक्षिणी गोलार्द्ध में घड़ी की दिशा में चलते हैं। भारत में चक्रवात भारत की भौगोलिक स्थिति इसे उष्णकटिबंधीय चक्रवातों के लिये और भी अधिक सुभेद्य बनाती है। भारत का पूर्वी तट विशेष रूप से चक्रवात के प्रभावों के उच्च जोखिम वाले क्षेत्र में है। बंगाल की खाड़ी में उच्च तापमान का होना और नदियों तथा वर्षा से ताज़े पानी का निरंतर होने वाला अंतर्प्रवाह चक्रवात की उत्पत्ति के लिये आदर्श स्थितियाँ पैदा करता है। उत्तर-पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में टाइफून का शेष रह गया प्रभाव दक्षिण चीन सागर से हिंद महासागर तक पहुँच जाता है। यह तटीय जीवन और प्राकृतिक वातावरण पर विनाशकारी प्रभाव डालता है, जैसा कि फणि (2019), तितली (2018) और फैलिन (2013) जैसे चक्रवाती तूफानों के दौरान देखा गया। भारत पर उष्णकटिबंधीय चक्रवातों के प्रमुख प्रभाव निम्नानुसार हैं: चक्रवात से तटीय क्षेत्रों में जन-धन की भारी क्षति होती है और संपत्ति का नुकसान होता है। मछुआरों की आजीविका का नुकसान और पर्यटन उद्योग पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। समुद्री पक्षियों और जीवों को नुकसान होता है। चिल्का झील, जो भारत का सबसे बड़ा तटीय लैगून और बड़ी संख्या में प्रवासी पक्षियों का आवास है, वह भी उच्च जोखिम वाले क्षेत्र में है। तटीय क्षेत्र के लोगों के संपूर्ण सामाजिक कल्याण पर प्रभाव डालता है। विद्यालय और अस्पताल बंद रहते हैं, नारियल के बागानों को नुकसान होता है, जिन्हें फिर से बढ़ने में वर्षों लग जाते हैं, इससे हर बार चक्रवात की चपेट में आने वाले किसानों का जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। निष्कर्ष भारत अपने आपदा शमन और अनुकूलन तकनीकों को लगातार उन्नत कर रहा है। ओडिशा सरकार ने विश्व बैंक राष्ट्रीय चक्रवात जोखिम शमन परियोजना के सहयोग से पीड़ितों के लिये आश्रय स्थल तैयार करने, प्रभावित क्षेत्रों से उन्हें निकालने की योजना बनाने, बचाव अभ्यास आयोजित करने तथा तटबंधों को मज़बूत करने जैसी आपदा का सामना करने की तैयारी बढ़ाई है। मिशन ज़ीरो कैज़ुअल्टी ने चक्रवातों के दौरान जन-धन की हानि को काफी कम कर दिया है। अभी भी भारत के पास बेहतर पूर्वानुमान, ट्रैकिंग और चेतावनी प्रणाली के लिये अपनी तकनीक को उन्नत करने की बड़ी क्षमता मौजूद है। तटीय क्षेत्र प्रबंधन नियम 2018 के तहत नए दिशा-निर्देशों ने समुद्री तटों की ओर बुनियादी कार्यों के विस्तार की अनुमति दी है। लेकिन यह चक्रवात जैसे खतरों के लिये बहुत बड़ा जोखिम है और इस पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। अतः बुनियादी विकास के बजाय पारिस्थितिक स्थिरता और आपदा न्यूनीकरण को प्राथमिकता देने की आवश्यकता है। सतत विकास ही आगे की राह होनी चाहिये।</s>
<s>[INST]सोशल मीडिया के आगमन का भारतीय समाज पर पड़ने वाले प्रभाव का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण परिचय में सोशल मीडिया के बारे में संक्षिप्त वर्णन कीजिये। समाज पर इसके सकारात्मक और नकारात्मक प्रभावों के बारे में बताइये। हाल के सोशल मीडिया अभियानों और समाज पर उनके परिणामों का उल्लेख कीजिये। सोशल मीडिया को नियंत्रित करने के लिये सरकार को जो कदम उठाने चाहिये, उन्हें बताते हुए उत्तर समाप्त कीजिये। परिचय सोशल मीडिया आज हमारे जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बन चुका है तथा अपनी भूमिका निभाते हुए यह समाज और व्यक्तियों पर अत्यधिक प्रभाव डालता है। 21वीं सदी की पीढ़ी के लिये यह जीवन जीने का एक नया तरीका बन गया है। संरचना/ढाँचा सोशल मीडिया के समाज पर पड़ने वाले कुछ प्रभाव इस प्रकार हैं: सामाजिक लाभ: फेसबुक, व्हाट्सएप जैसे प्लेटफॉर्म्स ने लोगों को डिजिटल तरीके से जुड़ने और समूह बनाने का अवसर दिया है। यह कला, साहित्य, खेल आदि जैसे विविध क्षेत्रों में लोगों को समान हितों से जोड़ने में मदद करता है, जिससे सामाजिक सामंजस्य को बढ़ावा मिलता है। लिंक्डइन जैसे प्लेटफॉर्म लोगों को व्यावसायिक संपर्क बनाने का अवसर प्रदान करते हैं और प्रतिभाशाली युवाओं की भर्ती में कंपनियों की सहायता करते हैं। प्रशासनिक सुगमता: सोशल मीडिया के उपयोग द्वारा नागरिक भागीदारी से जुड़ी कई ई-गवर्नेंस पहल करना संभव हुआ है। उदाहरण के लिये, समुद्र तटों को साफ रखने के लिये केरल की ‘तेरे मेरे बीच में' पहल। सोशल मीडिया की पारदर्शी और व्यापक पहुँच के चलते सरकार शिकायतों के त्वरित निवारण के लिये बाध्य हो गई हैं। उदाहरण के लिये, ट्विटर के माध्यम से रेलवे में खाद्य गुणवत्ता, स्वच्छता से संबंधित शिकायतों का तुरंत समाधान किया जाता है। आर्थिक लाभ: इसने कंपनियों द्वारा अपने उत्पादों और सेवाओं को ऑनलाइन बेचने के लिये डिजिटल मार्केटिंग के नए द्वार खोले हैं। इसने टियर-II और टियर-III शहरों के व्यापारियों और खुदरा विक्रेताओं के लिये बेहतर विपणन और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ प्रतिस्पर्द्धा करने के अवसर पैदा किये हैं। राजनीतिक लाभ: यह राजनीतिक दलों द्वारा लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने में मदद करता है। ऐसे निर्दलीय उम्मीदवार जिनके पास अधिक पैसे और बाहुबल नहीं है, वे सोशल मीडिया के ज़रिये अपना राजनीतिक प्रचार कर सकते हैं। अन्य लाभ: सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल जागरूकता उत्पन्न करने, आपदा राहत, सामाजिक भलाई के लिये क्राउड फंडिंग आदि करने के लिये किया जा सकता है। हालाँकि, सोशल मीडिया के अनुचित उपयोग से समाज के लिये गंभीर परिणाम हो सकते हैं। इसके कुछ नकारात्मक प्रभाव इस प्रकार हैं: झूठी खबरें फैलाना: सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स का इस्तेमाल अफवाहें फैलाने, सांप्रदायिक द्वेष फैलाने, माँब लिंचिंग के लिये उकसाने और यहाँ तक कि इंटरनेट धोखाधड़ी के लिये भी किया जा रहा है। निजता में सेंध: विदेशों से संचालित हो रही कंपनियों पर सरकारी नियंत्रण का अभाव है, जो अपने मौद्रिक लाभ के लिये उपयोगकर्त्ताओं का डेटा लीक कर देती हैं। जटिल नियमों और शर्तों के साथ फेस एप का हालिया मामला उपयोगकर्त्ता के डेटा में हेरफेर करने का ही एक मामला है। इसी प्रकार फेसबुक का कैम्ब्रिज एनालिटिका मामला इन कंपनियों का विनियमन करने में अपर्याप्तता को दर्शाता है। स्वास्थ्य समस्याएँ: विभिन्न अध्ययनों से पता चलता है कि वास्तविक दुनिया से संपर्क न रहने की वज़ह से मोटापा, अवसाद, चिंता, आत्महत्या आदि जैसे नकारात्मक स्वास्थ्य प्रभाव उत्पन्न होते हैं। ट्रोलिंग, साइबर बुलिंग, ऑनलाइन शोषण का सामना करने वाली महिलाएँ सोशल मीडिया की एक विचलित करने वाली वास्तविकता है। निष्कर्ष: सोशल मीडिया एक दुधारी तलवार जैसा है। इसके अपने कई लाभ हैं, लेकिन यदि इसका दुरुपयोग किया जाए तो सामाजिक ताने-बाने को क्षति पहुँच सकती है। यह न केवल सरकार का कर्त्तव्य है कि वह इसे विनियमित करे, बल्कि इसके किसी भी गैर-कानूनी उपयोग के बारे में नागरिक समाज का भी दायित्व है कि वह अधिक जागरूक और जिज्ञासु बने। अब तो सोशल मीडिया कंपनियाँ भी उपयोगकर्त्ताओं को अधिक जागरूक बनाने के लिये अभियान शुरू करने हेतु आगे आ रही हैं। उदाहरण के लिये, जहाँ व्हाट्सएप ने फर्ज़ी खबरों (फेक न्यूज़) के प्रसार को रोकने के लिये ‘Share Joy Not Rumours’ अभियान लॉन्च किया है, वहीं साइबर बुलिंग, मानसिक प्रताड़ना, आदि जैसे मुद्दों को संबोधित करने के लिये फेसबुक ने #SocialForGood अभियान शुरू किया है।</s>
<s>[INST]सूफीवाद से आप क्या समझते हैं? वर्तमान समय में सूफीवाद कैसे प्रासंगिक है? स्पष्ट कीजिये।[/INST]उत्तर : सूफीवाद इस्लाम के भीतर एक उदारवादी सुधार आंदोलन था, जिसकी उत्पत्ति फारस में हुई थी। सूफीवाद भारत में 10-11वीं शताब्दी में आया और 12वीं शताब्दी में लोकप्रिय हुआ। 12वीं शताब्दी तक सूफियों को 12 सिलसिलों में संगठित किया गया था। सिलसिला आमतौर पर एक प्रमुख फकीर के नेतृत्त्व में होता था जो अपने शिष्यों के साथ खानकाह या धर्मशाला में रहता था। चार सबसे लोकप्रिय सिलसिले थे: चिश्ती, सुहरावर्दी, कादरी-रियास और नक्शबंदी। सूफीवाद की मुख्य विशेषताएँ: मौलिक सिद्धांत: ईश्वर एवं मनुष्य के बीच प्रेम का संबंध सूफीवाद का आधार है। केंद्रीय विचार: आत्मा का विचार, दैवीय निकटता, दिव्य प्रेम और आत्म-विनाश सूफीवाद के सिद्धांत के केंद्र में हैं। मानव प्रेम: सूफीवाद के अनुसार, ईश्वर से प्रेम का अर्थ मानवता से प्रेम है और इस प्रकार उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि ईश्वर की सेवा मानवता की सेवा के अलावा और कुछ नहीं है। समानता में विश्वास: सूफीवाद सभी धार्मिक और सांप्रदायिक भेदों से परे है तथा सभी मनुष्यों को समान मानता है। आत्म अनुशासन: सूफीवाद आत्म अनुशासन पर भी ज़ोर देता है और इसे ईश्वर का ज्ञान प्राप्त करने के लिये आवश्यक मानता है। आंतरिक पवित्रता: यह रूढ़िवादी मुस्लिम संप्रदायों (जो कि बाहरी आचरण पर ज़ोर देते हैं) के विपरीत सूफीवाद आंतरिक शुद्धता पर ज़ोर देता है। वर्तमान समय में सूफीवाद की प्रासंगिकता: समाज में बढ़ती असहिष्णुता और हिंसा के साथ सूफीवाद वर्तमान समय में और भी महत्त्वपूर्ण हो गया है। अहिंसा: सूफीवाद ईश्वर के प्रति प्रेम और भक्ति में विश्वास करता है। इसके आदेश में हिंसा के लिये कोई स्थान नहीं है। यह तालिबान द्वारा अनुसरण किये जाने वाले इस्लाम के हिंसक और कट्टरपंथी रूप के विपरीत है। प्राणियों में समानता: यह किसी भी सामाजिक वर्गीकरण जैसे- धर्म, जाति, वर्ग या लिंग में विश्वास नहीं करता है। लोगों में बढ़ते मतभेदों के बीच सूफीवाद सभी मनुष्यों की आवश्यक समानता का संदेश देता है। सामजिक कल्याण: यह सामाजिक कल्याण पर ज़ोर देता है जिसके परिणामस्वरूप धर्मार्थ प्रकृति के कार्यों के साथ-साथ अनाथालय और महिला सेवा केंद्रों की स्थापना करना है। निजामुद्दीन औलिया धर्म या जाति से परे ज़रूरतमंदों के बीच उपहार बाँटने के लिये प्रसिद्ध थे। सामाजिक कल्याण के कार्यों का महत्त्व कोविड-19 महामारी के दौरान महसूस किया गया। नैतिकता: ऐसे समय में जब सत्ता के लिये संघर्ष प्रचलित पागलपन है, सूफीवाद लोगों को उनके नैतिक दायित्वों की याद दिलाता है। कलह और संघर्षपूर्ण इस दुनिया में यह शांति एवं सद्भाव का संदेश देता है। ध्यान: सूफीवाद द्वारा ध्यान पर अत्यधिक बल दिया गया। ध्यान हमारे शरीर और दिमाग में बढ़ते तनाव को शांति और संतुलन प्रदान करता है जो भावनात्मक बल प्रदान कर व्यक्ति की भलाई और समग्र स्वास्थ्य दोनों का लाभ पहुँचा सकता है। निष्कर्ष सूफीवाद ने दुनिया में धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन पर एक व्यापक प्रभाव छोड़ा है। मानवता की सेवा और ईश्वर के प्रति प्रेम की इसकी शिक्षा आज भी लोगों के मन में गूँजती है। सूफी धार्मिक और सांप्रदायिक संघर्षों से दूर रहने के लिये दृढ़ थे और नागरिक समाज के शांतिपूर्ण तत्त्व बनने का प्रयास करते थे। इस कठिन और अनिश्चित समय में सूफीवाद की शिक्षाएँ दुनिया भर में मानवता के लिये मार्गदर्शक हो सकती हैं।</s>
<s>[INST]सामाजिक परिवर्तन लाने में कानून की अपनी सीमा है। इस संदर्भ में गंभीर रूप से महिलाओं को सशक्त बनाने और उनके आसपास पितृसत्ता की पकड़ को कमज़ोर करने के लिये उठाए गए कदमों की प्रभावकारिता का मूल्यांकन कीजिये। (250 शब्द )[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण कानून द्वारा सामाजिक परिवर्तन का उदाहरण सहित वर्णन कीजिये। पितृसत्तात्मक प्रथाओं को समाप्त करने में कानूनी प्रयासों के उदाहरण प्रस्तुत कीजिये। पितृसत्तात्मक रीति-रिवाज़ों के उन्मूलन में कानून की असफलता का परिचय देते हुए, उचित निष्कर्ष लिखिये। परिचय: हमेशा से कानून सामाजिक परिवर्तनों व सुधारों को सुनिश्चित करने का मुख्य साधन रहा है। अभी तक देश में महिलाओं के लिये अनेक कानून बनाएँ गए हैं जो इन्हें आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में सशक्त बनाते हैं। साथ ही पितृसत्तात्मक समाज में पुरुषों के समान अवसर व अधिकार भी सुनिश्चित करते हैं। संरचना: संविधान द्वारा प्रदत्त-सामाजिक व राजनीतिक अधिकार: संविधान में महिलाओं को पुरुषों के समकक्ष लाने के लिये अनेक प्रावधान शामिल किये गए हैं। मूलअधिकारों के रूप में विधि के समक्ष समानता (अनुच्छेद-14), लैंगिक भेदभाव का प्रतिषेध (अनुच्छेद-15), रोज़गार में भेदभाव का अभाव (अनुच्छेद-16) आदि का प्रावधान किया गया है। नीति निर्देशक तत्त्वों में शामिल वेतन (अनुच्छेद-39क) की समानता आदि के माध्यम से महिलाओं को पुरुषों के समक्ष समानता प्रदान की गई है। 73वाँ व 74वाँ संविधान संशोधन पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं के लिये 33 प्रतिशत का आरक्षण का प्रावधान करता है जो राजनीति में पुरुषों के एकाधिकार को समाप्त कर महिलाओं की स्थानीय राजनीति में भागीदारी सुनिश्चित करता है। आर्थिक अधिकार: महिलाओं को आर्थिक रूप से सबल करने के लिये मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961 हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956, जैसे कानून संसद द्वारा बनाए गए हैं। संविधान का अनुच्छेद-300(A) महिलाओं के लिये संपत्ति पर अधिकार का उपबंध करता है। मनरेगा में 33 प्रतिशत रोज़गार महिलाओं के लिये आरक्षित है। सामाजिक न्याय: संविधान का अनुच्छेद 51(A) महिलाओं के सम्मान के विरूद्ध प्रथाओं को त्यागने को मूल कर्त्तव्यों में शामिल करता है। जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 सती प्रथा को बढ़ावा देने के आरोपी व्यक्ति को चुनाव लड़ने से निषेध करता है। सती प्रथा (निवारण) अधिनियम, 1987; दहेज प्रतिषेध अधिनियम, 1961; घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 जैसे कानून महिलाओं को हिंसा व अपराध से संरक्षण प्रदान करते हैं। आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2013 महिलाओं के खिलाफ यौन अपराधों, एसिड अटैक आदि मामलों में कठोर सज़ा का प्रावधान करता है। सामाजिक परिवर्तन हेतु कानून की सीमाएँ महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार प्रदान करने व उनके सशक्तीकरण के लिये अनेक कानून के पश्चात् भी विश्व आर्थिक मंच के ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट (जिसके मानक हैं- शैक्षिक उपलब्धियाँ, स्वास्थ्य और उत्तरजीविता, आर्थिक अवसर तथा राजनैतिक सशक्तीकरण आदि) में विश्व के 149 देशों में भारत की रैंकिंग है 108 जो कि देश में महिलाओं की स्थिति को दर्शाता है। भारतीय संसद व विधानसभाओं में अभी भी महिलाओं का प्रतिनिधित्व अपर्याप्त बना हुआ है। लोकसभा चुनाव-2019 में महिला सांसदों की संख्या मात्र 14.58 प्रतिशत है जो महिलाओं की आधी जनसंख्या की तुलना में बहुत कम है। संसद में महिलाओं के लिये 33 प्रतिशत आरक्षण संबंधी बिल अभी भी पारित नहीं हुआ है। विश्व श्रम संगठन के अनुसार महिलाओं को पुरुषों की तुलना में 34 प्रतिशत कम वेतन दिया जा रहा है जो समान वेतन अधिनियम की विफलता को इंगित करता है। हाल ही में सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर उच्चतम न्यायालय के आदेश का जिस प्रकार रूढ़िवादी लोगों ने विरोध किया वह अभी भी भारतीय समाज में पुरुष प्रधान सोच की उपस्थिति को दर्शाता है। निष्कर्ष: यद्यपि महिलाओं की सुरक्षा, आर्थिक और समाजिक उत्थान आदि के लिये अनेक कानून उपलब्ध हैं परंतु उनका उचित क्रियान्वयन किया जाना आवश्यक है।</s>
<s>[INST]हीट वेव्स प्राकृतिक खतरों में सबसे खतरनाक हैं, जिनकी आवृत्ति एवं तीव्रता 21वीं सदी में जलवायु परिवर्तन के कारण और अधिक बढ़ेगी। चर्चा कीजिये। (250 शब्द)।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण हीट वेव्स के बारे में लिखते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये और ऊष्मा तरंगों की तीव्रता एवं आवृत्ति में वृद्धि के कारणों पर चर्चा कीजिये। हीट वेव्स के प्रभावों की विवेचना कीजिये। आगे की राह सुझाते हुए निष्कर्ष लिखिये। परिचय हीट वेव्स असामान्य रूप से उच्च तापमान की वह स्थिति है, जिसमें तापमान सामान्य से अधिक रहता है और यह मुख्यतः देश के उत्तर-पश्चिमी भागों को प्रभावित करती है। हीट वेव्स हवा के तापमान की एक स्थिति है जो मानव शरीर के लिये नुकसानदायक होती है। भारत में हीट वेव्स सामान्यतः मार्च-जून के बीच चलती है परंतु कभी-कभी जुलाई तक भी चला करती है। भारत मौसम विज्ञान विभाग ने मैदानी क्षेत्रों में 40 डिग्री सेल्सियस और पहाड़ी क्षेत्रों में 30 डिग्री सेल्सियस तापमान को हीट वेव्स के मानक के रूप में निर्धारित किया है। जहाँ सामान्य तापमान 40 डिग्री सेल्सियस से कम रहता है वहाँ 5 से 6 डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ने पर सामान्य तथा 7 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान बढ़ने पर गंभीर हीट वेव्स की घटनाएँ होती हैं। प्रारूप हीट वेव्स का प्रभाव: हीट स्ट्रोक: बहुत अधिक तापमान या आर्द्र स्थितियाँ हीट स्ट्रोक का जोखिम पैदा करती हैं। वृद्ध लोग और पुरानी बीमारी जैसे- हृदय रोग, श्वसन रोग तथा मधुमेह वाले लोग हीट स्ट्रोक के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं, क्योंकि शरीर की गर्मी को नियंत्रित करने की क्षमता उम्र के साथ कम हो जाती है। स्वास्थ्य देखभाल की लागत में वृद्धि: अत्यधिक गर्मी के प्रभाव अस्पताल में भर्ती होने, कार्डियो-रेसपिरेटरी (Cardio-respiratory) एवं अन्य बीमारियों से होने वाली मौतों में वृद्धि, मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों, प्रतिकूल गर्भावस्था तथा जन्म आदि जैसे परिणामों से भी जुड़े हैं। श्रमिकों की उत्पादकता में कमी: अत्यधिक गर्मी श्रमिक उत्पादकता को कम करती है, विशेष रूप से उन 1 अरब से अधिक श्रमिकों की जो नियमित रूप से उच्च गर्मी के संपर्क में आते रहते हैं। ये कर्मचारी अक्सर गर्मी के तनाव के कारण कम काम करते हैं। वनाग्नि का खतरा: हीट डोम (Heat Dome) वनाग्नि के लिये ईंधन का काम करते हैं, जो प्रत्येक वर्ष अमेरिका जैसे देशों में काफी अधिक भूमि क्षेत्र को नष्ट कर देता है। बादल निर्माण में बाधा: यह स्थिति बादलों के निर्माण में बाधा उत्पन्न करती है, जिससे सूर्य विकिरण अधिक मात्रा में पृथ्वी तक पहुँच जाता है। वनस्पतियों पर प्रभाव: गर्मी के कारण फसलों को भी नुकसान हो सकता है, वनस्पति सूख सकती है और इसके परिणामस्वरूप सूखा पड़ सकता है। ऊर्जा मांग में वृद्धि: हीट वेव्स के कारण ऊर्जा की मांग में भी वृद्धि होगी, विशेष रूप से बिजली की खपत जिससे इसकी मूल्य दरों में वृद्धि होगी। बिजली से संबंधित मुद्दे: हीट वेव्स प्रायः उच्च मृत्यु दर वाली आपदाएँ होती हैं। इस आपदा से बचना प्रायः विद्युत ग्रिड के लचीलेपन पर निर्भर करता है, जो बिजली के अधिक उपयोग होने के कारण विफल हो सकते हैं। आगे की राह शीतलन उपाय: प्रभावी एवं पर्यावरणीय रूप से सतत् शीतलन उपाय गर्मी के सबसे खराब स्वास्थ्य प्रभावों से बचा सकते हैं। इसमें शहरों में हरियाली को बढ़ावा देना, इमारतों में गर्मी को प्रतिबिंबित करने वाली दीवारों की कोटिंग्स और बिजली के पंखे एवं अन्य व्यापक रूप से उपलब्ध व्यक्तिगत शीतलन तकनीक शामिल हैं। जलवायु परिवर्तन शमन: कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिये जलवायु परिवर्तन शमन एवं पृथ्वी को और अधिक गर्म होने से रोकने में भी काफी मदद मिल सकती है। प्रभावी रोकथाम उपाय: समयबद्ध एवं प्रभावी रोकथाम तथा प्रतिक्रिया उपायों की पहचान करना, विशेष रूप से अल्प-संसाधनों की स्थिति में ये उपाय समस्या को कम करने हेतु महत्त्वपूर्ण हो सकते हैं। निष्कर्ष पेरिस समझौते के अनुरूप इस अध्ययन में ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने का आह्वान किया गया है, ताकि भविष्य में गर्मी से होने वाली मौतों को रोका जा सके। अत्यधिक गर्मी के कारण स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों में कमी लाना एक तत्काल प्राथमिकता है और इसमें गर्मी से संबंधित मौतों को रोकने के लिये बुनियादी अवसंरचना, शहरी पर्यावरण और व्यक्तिगत व्यवहार में तत्काल परिवर्तन जैसे उपाय शामिल होने चाहिये।</s>
<s>[INST]'भारत छोड़ो' आंदोलन की सबसे बड़ी उपलब्धि यह थी कि इसने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध भारतीय जनता को एकजुट किया। चर्चा कीजिये। (150 शब्द)।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण भारत छोड़ो आंदोलन के बारे में संक्षेप में बताइये। ब्रिटिश शासन के खिलाफ भारतीय लोगों को एकजुट करने में आंदोलन की सफलता पर चर्चा कीजिये। आंदोलन की विफलता पर भी चर्चा कीजिये। उपयुक्त रूप से निष्कर्ष लिखिये। परिचय 8 अगस्त 1942 को, महात्मा गांधी ने ब्रिटिश शासन को समाप्त करने का आह्वान किया और मुंबई में अखिल भारतीय काॅन्ग्रेस कमेटी के सत्र में भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत की। ग्वालिया टैंक मैदान में दिये गए अपने भाषण में गांधी जी ने "करो या मरो" का नारा दिया था। आंदोलन के कारण आंदोलन का तात्कालिक कारण क्रिप्स मिशन का पतन था। मिशन विफल हो गया क्योंकि इसने भारत को पूर्ण स्वतंत्रता नहीं बल्कि विभाजन के साथ डोमिनियन स्टेटस देने की पेशकश की। द्वितीय विश्व युद्ध में भारत से अंग्रेज़ों को बिना शर्त समर्थन की ब्रिटिश धारणा भारतीय राष्ट्रीय काॅन्ग्रेस द्वारा स्वीकार नहीं की गई थी। ब्रिटिश विरोधी भावनाओं और पूर्ण स्वतंत्रता की मांग ने भारतीय जनता के बीच लोकप्रियता हासिल की थी। आवश्यक वस्तुओं की कमी: द्वितीय विश्व युद्ध के परिणामस्वरूप अर्थव्यवस्था चरमरा गई थी। आंदोलन की सफलता भविष्य के नेताओं का उदय: राम मनोहर लोहिया, जेपी नारायण, अरुणा आसफ अली, बीजू पटनायक, सुचेता कृपलानी आदि नेताओं ने भूमिगत गतिविधियों को अंजाम दिया जो बाद में प्रमुख नेताओं के रूप में उभरे। महिलाओं की भागीदारी: आंदोलन में महिलाओं ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। उषा मेहता जैसी महिला नेताओं ने एक भूमिगत रेडियो स्टेशन स्थापित करने में मदद की जिससे आंदोलन के बारे में जागरूकता पैदा हुई। राष्ट्रवाद का उदय: भारत छोड़ो आंदोलन के कारण देश में एकता और भाईचारे की एक विशिष्ट भावना पैदा हुई। कई छात्रों ने स्कूल-कॉलेज छोड़ दिये और लोगों ने अपनी नौकरी छोड़ दी। स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त: यद्यपि वर्ष 1944 में भारत छोड़ो आंदोलन को कुचल दिया गया था और अंग्रेज़ों ने यह कहते हुए तत्काल स्वतंत्रता देने से इनकार कर दिया था कि स्वतंत्रता युद्ध समाप्ति के बाद ही दी जाएगी, किंतु इस आंदोलन और द्वितीय विश्व युद्ध के बोझ के कारण ब्रिटिश प्रशासन को यह अहसास हो गया कि भारत को लंबे समय तक नियंत्रित करना संभव नहीं था। इस आंदोलन के कारण अंग्रेज़ों के साथ भारत की राजनीतिक वार्ता की प्रकृति ही बदल गई और अंततः भारत की स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त हुआ। आंदोलन की असफलता क्रूर दमन: आंदोलन के दौरान कुछ स्थानों पर हिंसा देखी गई, जो कि पूर्व नियोजित नहीं थी। आंदोलन को अंग्रेज़ों द्वारा हिंसक रूप से दबा दिया गया, लोगों पर गोलियाँ चलाई गईं, लाठीचार्ज किया गया, गाँवों को जला दिया गया और भारी जुर्माना लगाया गया। इस तरह सरकार ने आंदोलन को कुचलने के लिये हिंसा का सहारा लिया और 1,00,000 से अधिक लोगों को गिरफ्तार किया गया। समर्थन का अभाव मुस्लिम लीग, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और हिंदू महासभा ने आंदोलन का समर्थन नहीं किया। भारतीय नौकरशाही ने भी इस आंदोलन का समर्थन नहीं किया। मुस्लिम लीग, बँटवारे से पूर्व अंग्रेज़ों के भारत छोड़ने के पक्ष में नहीं थी। कम्युनिस्ट पार्टी ने अंग्रेज़ों का समर्थन किया, क्योंकि वे सोवियत संघ के साथ संबद्ध थे। हिंदू महासभा ने खुले तौर पर भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध किया और इस आशंका के तहत आधिकारिक तौर पर इसका बहिष्कार किया कि यह आंदोलन आंतरिक अव्यवस्था पैदा करेगा और युद्ध के दौरान आंतरिक सुरक्षा को खतरे में डाल देगा। इस बीच सुभाष चंद्र बोस ने देश के बाहर ‘भारतीय राष्ट्रीय सेना’ और ‘आज़ाद हिंद सरकार’ को संगठित किया। सी. राजगोपालाचारी जैसे कई काॅन्ग्रेस सदस्यों ने प्रांतीय विधायिका से इस्तीफा दे दिया, क्योंकि वे महात्मा गांधी के विचार का समर्थन नहीं करते थे। निष्कर्ष यह आंदोलन स्वतंत्रता के अंतिम चरण को इंगित करता है। इसने गाँव से लेकर शहर तक ब्रिटिश सरकार को चुनौती दी। इससे भारतीय जनता के अंदर आत्मविश्वास बढ़ा और समानांतर सरकारों के गठन से जनता काफी उत्साहित हुई। इसमें महिलाओं ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और जनता ने नेतृत्व अपने हाथ में लिया। जो राष्ट्रीय आंदोलन के परिपक्व चरण को सूचित करता है। इस आंदोलन के दौरान पहली बार राजाओं को जनता की संप्रभुता स्वीकार करने को कहा गया। ज्ञातव्य है कि भारत छोड़ो आंदोलन में कम्युनिस्ट पार्टी व मुस्लिम लीग ने भागीदारी नहीं की थी।</s>
<s>[INST]प्राचीन भारत में गुप्त काल कला, वास्तुकला, विज्ञान, धर्म और दर्शन के क्षेत्र में अपनी उपलब्धियों के लिये जाना जाता है। टिप्पणी कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण गुप्त साम्राज्य और उसके विस्तार के बारे में लेखन के साथ परिचय दें। कला, वास्तुकला, विज्ञान, धर्म और दर्शन के क्षेत्र में गुप्त साम्राज्य की उपलब्धियों की चर्चा कीजिये। इस अवधि में उभरे सामाजिक मुद्दों पर भी चर्चा कीजिये। उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये। परिचय गुप्त साम्राज्य 320 और 550 ई.के बीच उत्तरी, मध्य और दक्षिणी भारत के कुछ हिस्सों में फैला हुआ था। यह अवधि कला, वास्तुकला, विज्ञान, धर्म और दर्शन में अपनी उपलब्धियों के लिये विख्यात है। प्रारूप शासन: गुप्त साम्राज्य की ‘मार्शल’ प्रणाली की दक्षता सर्वविदित थी। इसमें बड़े राज्य को छोटे प्रदेशों (प्रांतों) में विभाजित किया गया था। व्यापार: सोने और चाँदी के सिक्के बड़ी संख्या में जारी किये गए जो स्वस्थ्य अर्थव्यवस्था का संकेतक है। व्यापार और वाणिज्य का देश के भीतर व बाहर दोनों जगह विकास हुआ। रेशम, कपास, मसाले, औषधि, अमूल्य रत्न, मोती, कीमती धातु और स्टील का निर्यात समुद्र मार्ग से किया जाता था। धर्म: गुप्त सम्राट स्वयं वैष्णव (विष्णु के रूप में सर्वोच्च निर्माता की पूजा करने वाले हिंदू) थे, फिर भी उन्होंने बौद्ध एवं जैन धर्म के अनुयायियों के प्रति सहिष्णुता प्रदर्शित की। साहित्य: इस काल के दौरान कवि और नाटककार कालिदास ने अभिज्ञानशाकुंतलम, मालविकाग्निमित्रम, रघुवंश और कुमारसम्भम जैसे महाकाव्यों की रचना की। हरिषेण ने ‘इलाहाबाद प्रशस्ति’ की रचना की, शूद्रक ने मृच्छकटिका, विशाखदत्त ने मुद्राराक्षस और विष्णुशर्मा ने पंचतंत्र की रचना की। वराहमिहिर द्वारा वृहत् संहिता लिखी गई तथा खगोल विज्ञान एवं ज्योतिष के क्षेत्र में भी योगदान दिया। प्रतिभाशाली गणितज्ञ और खगोलशास्त्री आर्यभट्ट ने सूर्य सिद्धांत लिखा जिसमें ज्यामिति, त्रिकोणमिति एवं ब्रह्मांड विज्ञान के कई पहलुओं को शामिल किया गया। शंकु द्वारा भूगोल के क्षेत्र में कई ग्रंथों की रचना की गई। वास्तुकला: उस काल की चित्रकला, मूर्तिकला और स्थापत्य कला के बेहतरीन उदाहरण अजंता, एलोरा, सारनाथ, मथुरा, अनुराधापुरा और सिगिरिया में देखे जा सकते हैं। विज्ञान और प्रौद्योगिकी: इस काल के विद्वान आर्यभट्ट गणित की विभिन्न प्रकार की गणना करने में पारंगत थे। आर्यभट्ट की पुस्तक ‘आर्यभट्टीयम्’ इस काल की गणित के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। खगोल के क्षेत्र में भी इस काल में खूब प्रगति हुई, जैसे- वराहमिहिर और आर्यभट्ट इस काल के प्रमुख खगोलशास्त्री थे। गुप्तकालीन शिल्पकारों ने भी लौह और कांस्य शिल्पाकृतियों में अपना चमत्कार दिखाया है। इस समय बुद्ध की अनेक कांस्य मूर्तियों का बड़े पैमाने पर निर्माण हुआ। लोहे की वस्तुओं में दिल्ली के महरौली में लौह स्तंभ प्रमुख उदाहरण है। चौथी सदी में निर्मित यह स्तंभ आज तक जंग के प्रभाव से मुक्त है, जो तत्कालीन महान तकनीकी कौशल का परिणाम है। गुप्त काल के दौरान सामाजिक स्थिति में गिरावट हालाँकि यह ध्यान दिया जाना चाहिये कि गुप्त काल में सामाजिक विकास में प्रगति नहीं देखी गई, उदाहरण के लिये इस काल में चांडालों (अछूतों) की संख्या में वृद्धि हुई और इस दौरान उनकी स्थिति खराब हो गई। सती प्रथा का पहला उदाहरण गुप्त काल में ही 510 ईस्वी में मिलता है। निष्कर्ष गुप्त काल ने समग्र समृद्धि और विकास की अवधि की शुरुआत की जो अगली ढाई शताब्दियों तक जारी रही, इसे भारत के इतिहास में स्वर्ण युग के रूप में जाना जाने लगा। हालाँकि गुप्त काल को स्वर्ण काल केवल एक दर्जे के रूप में ही स्वीकार किया जा सकता है, निरपेक्ष रूप से नहीं।</s>
<s>[INST]नैतिक उत्तरदायित्व से आप क्या समझते हैं? सरकारी सेवकों की आमतौर पर मान्य नैतिक ज़िम्मेदारियाँ क्या हैं? (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण नैतिक उत्तरदायित्व शब्द के बारे में संक्षेप में व्याख्या करते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये। सरकारी सेवकों के लिये सामान्यतः मान्य नैतिक उत्तरदायित्वों की चर्चा कीजिये। उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये। परिचय नैतिक उत्तरदायित्व किसी क्षेत्र और/या संदर्भ में प्रदत्त मानकों के अनुसार बहुत से सिद्धांतों और मूल्यों को मान्यता देने, उनकी व्याख्या करने और उनके अनुसार कार्य करने की क्षमता है। यह संगठन के सही और उचित व्यावसायिक व्यवहार की धारणा को दर्शाता है। ये ऐसे दायित्व हैं जो कानूनी आवश्यकताओं से परे हैं। यह संगठनों की आवश्यकता नहीं है लेकिन इनसे नैतिक रूप से व्यवहार करने की अपेक्षा की जाती है। प्रारूप आमतौर पर मान्यता प्राप्त नैतिक उत्तरदायित्व नैतिक और संवेदनशील आचरण: सरकारी कर्मचारियों के कार्यों में अधिकार का प्रयोग और सेवाओं का प्रावधान शामिल है। इन कार्यों के निर्वहन में सरकारी सेवकों को जनता के प्रति विचारशील, विनम्र, सही और मिलनसार होना चाहिये। उन्हें विशुद्ध रूप से निजी मामलों का खुलासा नहीं करना चाहिये और नागरिकों की निजता की रक्षा करनी चाहिये। उन्हें लोगों की ज़रूरतों, मूल्यों, मानदंडों और अपेक्षाओं के प्रति संवेदनशील होना चाहिये। उन्हें ऐसा कोई व्यवहार नहीं करना चाहिये जिससे मानवीय गरिमा का हनन हो। उन्हें नैतिक रूप से अपने कर्त्तव्यों का पालन करना चाहिये। ईमानदारी: कर्मचारियों की ईमानदारी से तात्पर्य है कि कर्मचारियों को सार्वजनिक हित में कार्य करना चाहिये। उन्हें सार्वजनिक रूप से सरकार की आलोचना नहीं करनी चाहिये। आज्ञाकारिता का कर्त्तव्य: यह कर्त्तव्य सरकारी सेवकों पर निम्नलिखित उत्तरदायित्व डालता है। उन्हें अपने कार्यों से संबंधित कानूनी नियमों और नैतिक दिशा-निर्देशों का पालन करना चाहिये। उन्हें वरिष्ठों द्वारा जारी आदेशों का पालन करना होगा। उन्हें कुछ भी अवैध या अनैतिक करने से संबंधित आदेशों का पालन करने की आवश्यकता नहीं है। सरकार के निर्णय लेने से पहले वे मामलों का गहन विश्लेषण कर सकते हैं। एक बार निर्णय लेने के बाद इसे सरकारी अधिकारियों के विचारों की परवाह किये बिना स्थापित मापदंडों के भीतर तेज़ी से और कुशलता से लागू किया जाना चाहिये। दक्षता: इसका अर्थ है लक्ष्य को पूरा करने के संबंध में इष्टतम संसाधनों का उपयोग और प्रभावशीलता। ज़मीनी स्तर पर योजनाओं को लागू करने हेतु नीतियों को लागू करने की ज़िम्मेदारी सिविल सेवकों की होती है। वे कानून और कार्यान्वयन के मध्य महत्त्वपूर्ण संबंध स्थापित करते हैं। इस प्रकार संसाधनों के इष्टतम उपयोग द्वारा सिविल सेवकों को परिवर्तनकारी नेतृत्त्व के ज़रिये नई ऊंँचाई प्राप्त करने के लिये प्रेरित किया जाना चाहिये। जैसे: मेट्रो-मैन ’ई. श्रीधरन ने रिकॉर्ड समय में परियोजनाओं को लागू किया, जो बाद में अन्य हाई स्पीड ट्रेन परियोजनाओं के लिये एक मॉडल बन गया। पारदर्शिता: सरकारी अधिकारियों को निम्नलिखित के प्रति पारदर्शिता को बढ़ावा देने की आवश्यकता है: (a) नागरिकों के बीच। (b) अपने स्वयं के रैंक के भीतर। (c) विभिन्न प्रशासनिक शाखाओं के बीच। उन्हें आरटीआई एक्ट का पूरी लगन से पालन करना चाहिये। निष्पक्षताः निष्पक्षता से तात्पर्य एक ऐसा मूल्य जो बिना किसी पूर्वाग्रह के वस्तुनिष्ठ आधार पर तार्किक रूप से चलने के लिये प्रेरित करे तथा किसी को मनमाने ढंग से लाभ पहुँचाने पर रोक लगाए अर्थात् यह ‘प्राकृतिक न्याय’ को संदर्भित करता है। एक सिविल सेवक हेतु किसी क्षेत्र के विकास के लिये सभी संबद्ध हित समूहों, यथा- सिविल सोसायटी, एनजीओ, उद्योगपति इत्यादि से अपने प्राधिकार के अंतर्गत संपर्क स्थापित करना किंतु किसी के पक्ष में व्यक्तिगत झुकाव न रखना आवश्यक है। निष्कर्ष लोक सेवकों पर एक भारी नैतिक उत्तरदायित्व होता है क्योंकि वे सत्ता के पदों पर काबिज होते हैं, बड़ी मात्रा में सार्वजनिक धन को संभालते हैं और उनके निर्णयों का समाज तथा पर्यावरण पर व्यापक प्रभाव पड़ता है।</s>
<s>[INST]'फ्राँस और संयुक्त राज्य अमेरिका को आधुनिक लोकतंत्र का जन्म स्थान माना जाता है।' फ्राँसीसी और अमेरिकी क्रांति के आलोक में इस कथन की चर्चा कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण फ्राँसीसी और अमेरिकी क्रांतियों के बारे में संक्षेप में लिखते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये। चर्चा कीजिये कि किस प्रकार इन दोनों क्रांतियों ने दुनिया में लोकतांत्रिक आदर्शों का मार्ग प्रशस्त किया। उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये। परिचय अमेरिकी क्रांति और फ्राँसीसी क्रांति को विश्व इतिहास में एक प्रमुख युग माना जाता है। इसने शासन की पुरानी रूढि़वादी व्यवस्था को नष्ट कर दिया और शासन करने वाले राष्ट्रों के लिये आधुनिक आदर्श स्थापित किये। प्रारूप आधुनिक दुनिया में अमेरिकी क्रांति का योगदान स्वतंत्रता और लोकतंत्र के सिद्धांत: अमेरिकी स्वतंत्रता के माध्यम से यह घोषित हुआ कि "सभी मानव समान हैं"। इसने दुनिया के लोगों को स्वतंत्रता और स्वतंत्रता की मांग करने हेतु एक प्रोत्साहन प्रदान किया। संविधानवाद: इस क्रांति ने दुनिया में पहले लिखित संविधान का नेतृत्व किया जिसने कई राष्ट्रों के लिये प्रेरणा के रूप में कार्य किया, साथ ही कई देशों ने अमेरिकी संविधान के तत्त्वों को अपनाया। अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम ने सरकार की एक नई प्रणाली, संघवाद को जन्म दिया। समय के साथ सरकार के संघीय स्वरूप को लोकप्रियता मिली। इसने जटिल राजनीति वाले विविध देशों में सत्ता के बँटवारे के लिये एक ऐसा अनुकूल ढाँचा प्रदान किया, जिसकी आवश्यकता थी। मानवाधिकारों का प्रचार: अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम ने मानवाधिकारों पर ज़ोर दिया। थॉमस जेफरसन के "अधिकारों की घोषणा" ने लोगों को उनके अधिकारों के बारे में जागृत किया। आधुनिक दुनिया में फ्राँसीसी क्रांति का योगदान समाज का लोकतंत्रीकरण: फ्राँसीसी क्रांति एक अखिल यूरोपीय क्रांति थी। इसने यूरोप में प्राचीन व्यवस्था की जड़ों को काट दिया और सदियों पुरानी सामंती व्यवस्था को समाप्त कर दिया। क्रांति से पहले समाज असमानता, भेदभाव, विशेषाधिकारों और रियायतों पर आधारित था। क्रांति ने इस असमानता की जड़ों पर प्रहार किया। इसने एक नए सामाजिक संगठन की शुरुआत की। आधुनिकता के आदर्श: स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के आदर्श ने यूरोप में राजनीतिक जागृति को बढ़ाया। धर्मनिरपेक्षता: क्रांति ने चर्च की संप्रभुता, निरंकुशता और भ्रष्टाचार को समाप्त कर दिया। इस क्रांति के पश्चात् बुद्धि और तर्क का महत्त्व और अधिक प्रमुख हो गया। लोगों ने न केवल राजनीतिक स्वतंत्रता बल्कि संपत्ति के अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की भी मांग की। उन्होंने मतदान के अधिकार की भी मांग की। महिलाओं ने पुरुषों के समान अधिकारों का दावा किया। क्रांति ने राष्ट्रवाद की भावना को जगाया। इसने इटली और जर्मनी के एकीकरण का मार्ग प्रशस्त किया। इसने लोकतंत्र की अवधारणा को भी लोकप्रिय बनाया। उपनिवेशवादी लोगों ने एक संप्रभु राष्ट्र-राज्य बनाने के लिये अपने आंदोलनों में बंधन से मुक्ति के विचार को फिर से लागू किया। टीपू सुल्तान और राममोहन राय दो ऐसे उदाहरण हैं जिन्होंने क्रांतिकारी फ्राँस के विचारों का समर्थन किया। निष्कर्ष फ्राँसीसी और अमेरिकी क्रांति ने न केवल एक नए उभरते समतावादी समाज एवं अपने-अपने देशों में राजनीति के एक नए तरीके की नींव रखी, बल्कि उन्होंने अन्य राष्ट्रों के लोगों के दार्शनिक आधार और आकांक्षा के रूप में भी काम किया। इन क्रांतियों ने एक सभ्य दुनिया के मूल सिद्धांतों पर प्रकाश डाला जिसने वर्तमान समय की वैश्विक आकांक्षाओं को आकार देना अभी भी जारी रखा है।</s>
<s>[INST]भारत जनसांख्यिकीय संक्रमण के एक ऐसे चरण में है कि यदि नीति निर्माता इस जनसांख्यिकीय बदलाव के साथ विकासात्मक नीतियों को संरेखित करते हैं तो यह देश के तीव्र सामाजिक-आर्थिक विकास के लिये एक सुनहरा अवसर प्रदान करेगा। चर्चा कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण जनसांख्यिकीय लाभांश के बारे में बताते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये और बताइये कि यह किस प्रकार भारत के सामाजिक-आर्थिक विकास के लिये एक सुनहरा अवसर है। भारत में जनसांख्यिकीय लाभांश की प्राप्ति के समक्ष आने वाले मुद्दों पर चर्चा कीजिये। सुझाव दीजिये कि जनसांख्यिकीय लाभांश की प्राप्ति के लिये क्या नीति होनी चाहिये। परिचय संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (UNFPA) के अनुसार, जनसांख्यिकीय लाभांश का अर्थ है, "आर्थिक विकास क्षमता जो जनसंख्या की आयु संरचना में बदलाव के परिणामस्वरूप प्राप्त हो सकती है, मुख्य रूप से तब जब कार्यशील आबादी (15 से 64 वर्ष) की हिस्सेदारी गैर-कार्यशील (14 और उससे कम, तथा 65 एवं उससे अधिक) की आबादी से अधिक हो"। भारत में 15-59 वर्ष आयु वर्ग में 62.5% आबादी है और इसमें लगातार वृद्धि हो रही है। वर्ष 2036 के आसपास यह चरम पर होगी तथा लगभग 65% तक पहुँच जाएगी। आर्थिक सर्वेक्षण 2018-19 के अनुसार, वर्ष 2041 के आस-पास भारत का जनसांख्यिकीय लाभांश चरम पर होगा, जब कामकाजी आबादी का हिस्सा कुल जनसंख्या के 59% तक पहुँचने की संभावना व्यक्त की गई है। प्रारूप जनसांख्यिकीय लाभांश सुनहरा अवसर प्रदान करता है: कामकाजी उम्र की अधिक आबादी और आश्रित आबादी में कमी के कारण आर्थिक गतिविधियों में वृद्धि होगी जिनके परिणामस्वरूप बेहतर आर्थिक विकास होगा। इसे निम्नलिखित के माध्यम से समझा जा सकता है: बढ़ी हुई श्रम शक्ति अर्थव्यवस्था की उत्पादकता को बढ़ाती है। महिलाओं के कार्यबल में वृद्धि, जो स्वाभाविक रूप से प्रजनन क्षमता में गिरावट लाती है, विकास का एक नया स्रोत हो सकती है। बचत दर में वृद्धि, काम करने की उम्र भी बचत के लिये प्रमुख अवधि होती है। जनसांख्यिकीय लाभांश से जुड़ी चुनौतियाँ कौशल की कमी: भविष्य में सृजित होने वाली अधिकांश नई नौकरियाँ अत्यधिक कौशल केंद्रित होंगी और भारतीय कार्यबल में कौशल की कमी एक बड़ी चुनौती है। निम्न मानव पूंजी आधार और कौशल की कमी के कारण भारत अवसरों का लाभ उठाने में चूक सकता है। निम्न मानव विकास मानदंड: यूएनडीपी के मानव विकास सूचकांक में भारत की स्थिति चिंताजनक है। इसलिये भारतीय कार्यबल को कुशल बनाने हेतु स्वास्थ्य तथा शिक्षा के मानकों में पर्याप्त सुधार करने की आवश्यकता है। भारत में अर्थव्यवस्था की अनौपचारिक प्रकृति भारत में जनसांख्यिकीय संक्रमण के लाभों को प्राप्त करने में आने वाली एक और बाधा है। रोज़गारविहीन विकास: इस बात की चिंता बढ़ती जा रही है कि गैर-औद्योगीकरण, वि-वैश्वीकरण, चौथी औद्योगिक क्रांति और तकनीकी प्रगति के कारण भविष्य में बेरोज़गारी में वृद्धि हो सकती है। एनएसएसओ के आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण 2017-18 के अनुसार, 15-59 वर्ष के आयु वर्ग के लिये भारत की श्रम शक्ति भागीदारी दर लगभग 53% है, यानी कामकाजी उम्र की आबादी का लगभग आधा बेरोज़गार है। आगे की राह: नीति निर्माण की आवश्यकता मानव पूंजी का निर्माण: स्वास्थ्य देखभाल, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, नौकरियों और कौशल के माध्यम से लोगों में निवेश करने से मानव पूंजी का निर्माण होता है, जो आर्थिक विकास का समर्थन करने, अत्यधिक गरीबी को समाप्त करने तथा अधिक समावेशी समाज के निर्माण हेतु महत्त्वपूर्ण है। युवा आबादी की रोज़गार क्षमता बढ़ाने के लिये कौशल विकास: भारत की श्रम शक्ति को आधुनिक अर्थव्यवस्था के लिये सही कौशल के साथ सशक्त बनाने की आवश्यकता है। शिक्षा: प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च शिक्षा में उचित निवेश करके शैक्षिक स्तर को बढ़ाना होगा। भारत, जिसकी लगभग 41% आबादी 20 वर्ष से कम उम्र की है, एक बेहतर शिक्षा प्रणाली के साथ ही जनसांख्यिकीय लाभांश प्राप्त कर सकता है। साथ ही आधुनिक उद्योग की मांगों और शिक्षाविदों में सीखने के स्तर के बीच तालमेल स्थापित करने के लिये अकादमिक-उद्योग सहयोग की आवश्यकता है। स्वास्थ्य: स्वास्थ्य सेवा के बुनियादी ढाँचे में सुधार से युवा श्रमशक्ति के लिये अधिक संख्या में उत्पादक दिन सुनिश्चित होंगे, जिससे अर्थव्यवस्था की उत्पादकता में वृद्धि होगी। रोज़गार सृजन: युवाओं को कार्यबल में शामिल करने के लिये राष्ट्र को प्रति वर्ष दस मिलियन रोज़गार सृजित करने की आवश्यकता है। व्यवसायों के हितों और उद्यमिता को बढ़ावा देने से बड़े श्रमबल को रोज़गार प्रदान करने के लिये रोज़गार सृजन में मदद मिलेगी। विश्व बैंक के ईज़ ऑफ डूइंग बिजनेस इंडेक्स में भारत की बेहतर रैंकिंग इस दिशा में एक अच्छा संकेत है। शहरीकरण: आने वाले वर्षों में बड़ी युवा और कामकाजी आबादी अपने और अन्य राज्यों के शहरी क्षेत्रों में प्रवास करेगी, जिससे शहरी आबादी में तेज़ी से और बड़े पैमाने पर वृद्धि होगी। शहरी क्षेत्रों में इन प्रवासी लोगों की बुनियादी सुविधाओं, स्वास्थ्य और सामाजिक सेवाओं तक पहुँच सुनिश्चित करने हेतु इस पर शहरी नीति नियोजन का ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है। निष्कर्ष जापान और कोरिया जैसे देशों के वैश्विक दृष्टिकोण से सीखकर और घरेलू जटिलताओं को ध्यान में रखते हुए समाधान तैयार करके हम जनसांख्यिकीय लाभांश के लाभों को प्राप्त करने में सक्षम हो सकते हैं।</s>
<s>[INST]ब्लैक कार्बन से आप क्या समझते हैं? ग्लेशियर के पिघलने के संबंध में इसके प्रभावों की चर्चा कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण ब्लैक कार्बन के बारे में समझाते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये। विशेष रूप से हिमनदों के पिघलने पर इसके प्रभावों की चर्चा कीजिये। आगे की राह बताइये। परिचय ब्लैक कार्बन, जो कि अक्सर ग्लेशियरों के पिघलने का कारण बनता है, मोटर वाहनों, जैव ईंधन और बायोमास जीवाश्म ईंधन के अधूरे दहन के कारण वातावरण में उत्सर्जित होता है। प्रारूप ब्लैक कार्बन (BC) ब्लैक कार्बन एक अल्पकालिक प्रदूषक है जो कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) के बाद ग्रह को गर्म करने में दूसरा सबसे बड़ा योगदानकर्त्ता है। अन्य ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के विपरीत BC जल्दी साफ हो जाता है और अगर उत्सर्जन बंद हो जाता है तो इसे वातावरण से समाप्त किया जा सकता है। ऐतिहासिक कार्बन उत्सर्जन के विपरीत यह अधिक स्थानीय प्रभाव वाला एक स्थानीय स्रोत भी है। ब्लैक कार्बन एक तरह का एरोसोल है। सामान्य प्रभाव: एरोसोल (जैसे ब्राउन कार्बन, सल्फेट्स) में ब्लैक कार्बन (BC) को जलवायु परिवर्तन के लिये दूसरे सबसे महत्त्वपूर्ण मानवजनित एजेंट और वायु प्रदूषण के कारण होने वाले प्रतिकूल प्रभावों को समझने के लिये प्राथमिक मार्कर के रूप में मान्यता दी गई है। उत्सर्जन: यह गैस और डीज़ल इंजनों, कोयले से चलने वाले बिजली संयंत्रों तथा जीवाश्म ईंधन को जलाने वाले अन्य स्रोतों से उत्सर्जित होता है। इसमें पार्टिकुलेट मैटर या पीएम का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा होता है, जो कि एक वायु प्रदूषक है। ग्लेशियर पर ब्लैक कार्बन का प्रभाव यह दो तरह से कार्य करता है जिससे ग्लेशियर के पिघलने की गति तेज़ हो जाती है: सूर्य के प्रकाश की सतह से परावर्तन को कम करके। हवा का तापमान बढ़ाकर। काली वस्तु अधिक प्रकाश को अवशोषित करती है और तापमान को बढ़ाने वाले इंफ्रा-रेड विकिरण का उत्सर्जन करती है। इसलिये जब उच्च हिमालय में ब्लैक कार्बन में वृद्धि होगी तो यह हिमालय के ग्लेशियरों के तेज़ी से पिघलने में योगदान देगा। लंबे समय में उच्च हिमालय की वायुमंडलीय संरचना में परिवर्तन, बारिश और हिमपात के पैटर्न को प्रभावित करेगा। तदनुसार हिमालयी समुदायों के प्राकृतिक संसाधन और सामाजिक-आर्थिक गतिविधियाँ भी प्रभावित होंगी। वास्तविक समय में मौसम स्टेशनों के आँकड़ों के विश्लेषण से हमें उच्च हिमालय में ब्लैक कार्बन सांद्रता और मौसमी विविधताओं के बारे में जानने में मदद मिली है। यह पाया गया है कि विभिन्न कारकों के कारण गर्मियों के महीनों में ब्लैक कार्बन की सांद्रता बढ़ जाती है। उपाय हिमालय पर रसोई चूल्हे, डीज़ल इंजन और खुले में जलने से उत्पन्न ब्लैक कार्बन उत्सर्जन को कम करना सबसे अधिक लाभदायक होगा और यह विकिरण बल को काफी कम कर सकता है तथा हिमालयी ग्लेशियर तंत्र के एक बड़े हिस्से को बनाए रखने में मदद कर सकता है। इन उच्च ऊंचाई वाले क्षेत्रों में जीवाश्म ईंधन पर प्रतिबंध लगाना या ग्लेशियर कर लगाना एक निवारक उपाय हो सकता है। निष्कर्ष वस्तुतः 1 डिग्री सेल्सियस के मामूली बदलाव से भी हिमालय के ग्लेशियरों के बर्फ के आवरण क्षेत्र में बड़ी कमी आएगी, साथ ही वनस्पतियों और जीवों को इससे बड़ा नुकसान होगा। इसलिये ब्लैक कार्बन की सांद्रता को कम करने के लिये कार्रवाई करना अनिवार्य है।</s>
<s>[INST]भारत के स्वतंत्रता संग्राम ने उस दौर के कला और साहित्य को कैसे प्रभावित किया। विश्लेषण कीजिये (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का उल्लेख करते हुए परिचय दीजिये। स्वतंत्रता संग्राम के कारण कला और साहित्य की शैली और रचनाओं में हुए परिवर्तनों की व्याख्या कीजिये। भारत में राष्ट्रवाद के विकास में अपना योगदान देते हुए समापन कीजिये। परिचय भारत अपनी समृद्ध कला और सांस्कृतिक विरासत के लिये जाना जाता है। जैसे-जैसे समाज बदलता है, वैसे-वैसे कला और साहित्य भी बदलता है। जैन धर्म, बौद्ध धर्म, प्राचीन और मध्यकाल जैसे महान धर्मों की उत्पत्ति भारतीय कला पर इसके धार्मिक प्रभाव के लिये जानी जाती थी। इसी तरह आधुनिक समय में राष्ट्रवाद के गौरव में निहित अवंत-गार्डे आंदोलन ने भारतीय कला को 'स्वदेशी' मूल्यों से लैस कर दिया। प्रारूप स्वतंत्रता संग्राम ने भारतीय कला और साहित्य में राष्ट्रवादी उत्साह और अभिव्यक्ति को निम्नलिखित तरीकों से लाया: चित्रकला वर्ष 1905 के स्वदेशी आंदोलन के दौरान बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट की स्थापना हुई जिसकी उत्पत्ति तत्कालीन कलकत्ता और शांति निकेतन में हुई थी। वर्ष 1906 में, बंगाल के विभाजन का विरोध करने के लिये, अबनिंद्रनाथ टैगोर ने बंग माता / भारत माता को पश्चिमी प्रभाव के खिलाफ एक आवाज के रूप में चित्रित किया। इसके चार गुण - भोजन, कपड़ा, विद्या और आध्यात्मिक ज्ञान को राष्ट्रवादी लक्ष्यों की वस्तु के रूप में देखा गया। चित्रों का उपयोग भारतीय इतिहास के गौरवशाली अतीत को उद्घाटित करने के लिये एक उपकरण के रूप में किया गया था। इस तरह की पेंटिंग का एक उदाहरण अबनिंद्रनाथ टैगोर द्वारा मुगल लघु परंपरा को श्रद्धांजलि के रूप में 'द पासिंग ऑफ शाहजहाँ' है। 'कंपनी पेंटिंग' की रोमांटिक शैली को राजा रवि वर्मा के हिंदू देवताओं, पौराणिक दृश्यों और भारतीय जीवन के चित्रों से बदल दिया गया था। उनके प्रिंटिंग प्रेस में दर्जनों में उन्हें फिर से बनाया गया और पोस्टर तथा कैलेंडर कला के रूप में पूरे देश में मध्यम वर्ग के घरों में वितरित किया गया। नंदलाल बोस ने चित्रों की एक श्रृंखला बनाई जिसमें भारतीय जीवन और स्वदेशी व्यवसायों की भावना का आह्वान और जश्न मनाया गया। इन पोस्टरों ने पश्चिमी सामग्री/शैली को खारिज कर दिया और इसके बजाय, जापानी सुलेख स्ट्रोक, प्राकृतिक रंग और ग्रामीण जीवन के दृश्यों का इस्तेमाल किया। उदाहरण के लिये-कांग्रेस कमेटी की हरिपुरा-बैठक के पोस्टर। चित्रकला की कालीघाट शैली: कारीगरों और शिल्पकारों (पटुआ या स्क्रॉल चित्रकार) ने यूरोपीय तकनीकों के साथ अपने पारंपरिक ज्ञान का संचार किया। उन्होंने समकालीन समाज के साथ मिश्रित धार्मिक विषयों (प्राच्य कला) पर स्मृति चिन्ह बनाए-बाबू संस्कृति (ओक्सीडेंटल आर्ट)। ज़ैनुल आबेदीन जैसे कलाकारों ने वर्ष 1943 के बंगाल अकाल के दौरान की भयावह स्थितियों को दिखाने के लिये रेखाचित्र बनाए, जो भारत में ब्रिटिश सरकार की नीतियों का परिणाम था। संगीत और साहित्य कविताओं, नारों, लोक गीतों और संगीत के विषय राजनीतिक जागरूकता तथा सामाजिक मुद्दों पर स्थानांतरित हो गए, जो पहले धर्म, सूफीवाद और प्रेम पर आधारित थे। रवींद्रनाथ टैगोर, मुहम्मद इकबाल, बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय जैसे लेखकों और कवियों ने भारतीयों पर अंग्रेजों द्वारा अत्याचारों के खिलाफ जागरूकता फैलाने, लोगों को देश के लिये लड़ने हेतु प्रोत्साहित करने और स्वतंत्रता के विचार को भड़काने के लिये साहित्य, कविता एवं भाषण का इस्तेमाल एक उपकरण के रूप में किया। उपन्यासों का जन्म 19वीं शताब्दी के सामाजिक सुधार आंदोलनों से निकटता से जुड़ा था। भारतीय क्रांतिकारियों और राष्ट्रवादी नेताओं का मंत्र "वंदे मातरम" बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय के बंगाली कथा आनंदमठ में 1882 में लिखा गया था। अस्पृश्यता, जाति भेद, विधवाओं के पुनर्विवाह की मनाही आदि जैसे बुरे सामाजिक रीति-रिवाजों और प्रथाओं की फिर के प्रति जागरूकता हेतु उपन्यास लिखे गए थे। निष्कर्ष वास्तुतः कला और साहित्य भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिये बेहद महत्वपूर्ण हैं क्योंकि उन्होंने ब्रिटिश सांस्कृतिक वर्चस्व को तोड़ने, आत्म-पहचान के पुनर्निर्माण और जनता के बीच स्वदेशी प्रथाओं में प्रेरक के रूप में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।</s>
<s>[INST]धार्मिक विविधता भारत की ताकत और कमज़ोरी दोनों है। विश्लेषण कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण परिचय में भारतीय मूल्यों और इसकी धार्मिक विविधता का उल्लेख कीजिये। धार्मिक विविधता भारत की ताकत कैसे है, यह भी बताइये। उल्लेख कीजिये कि कैसे धार्मिक विविधता समस्याएं पैदा करती है और देश के लिये कमज़ोरी साबित हो सकती है। निष्कर्ष में लिखिये कि भारत अपनी धार्मिक विविधता का उपयोग करके संवैधानिक लक्ष्यों को कैसे प्राप्त कर सकता है। परिचय सहिष्णुता, महानगरीयता और बहुसंस्कृतिवाद के भारतीय सभ्यता के मूल्य भारतीय संस्कृति को एक अनूठा चरित्र प्रदान करते हैं। हमारे देश में विभिन्न जातियों और धर्मों के लोग हैं। जबकि दुनिया के 94% हिंदू भारत में रहते हैं इसके बाद भी यहाँ मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध, जैन और अन्य धर्मों के अनुयायियों की भी पर्याप्त आबादी है। इन सभी को धर्म की स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार भी प्राप्त है (अनुच्छेद 25-28), जिससे भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश बन गया है। प्रारूप धार्मिक विविधता निम्नलिखित तरीके से भारत की ताकत है: यह भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को जोड़ता है। होली, दिवाली, क्रिसमस, ईद जैसी विविध परंपराएं और त्यौहार भारत को जीवन जीने का एक अनूठा तरीका प्रदान करते हैं। यह विविधता समृद्ध संगीत, नृत्य, कला और साहित्य को भी जन्म देती है। यह बौद्धिक दृष्टिकोण में विविधता लाता है जो कानूनों को सामाजिक मूल्यों के अनुकूल बनाने में मदद करता है। भारत धार्मिक असहिष्णुता के साथ चिह्नित वर्तमान युग में अंतर्राष्ट्रीय समाज के लिये एक मॉडल का प्रतिनिधित्व करता है। ' वसुधैव कुटुम्बकम' का भारतीय मूल्य दुनिया को शांति और समृद्धि की ओर ले जा सकता है। धार्मिक विविधता भारत को दुनिया भर में लोगों से लोगों के बीच संपर्क बढ़ाने का अवसर देती है। यह न केवल भारत की व्यापार सीमाओं के विस्तार में मदद करता है बल्कि संकट की स्थितियों में बैकचैनल कूटनीति के रूप में भी कार्य करता है। हालाँकि धार्मिक विविधता बहुत सी चुनौतियाँ भी पैदा करती है। उनमें से कुछ इस प्रकार हैं: इससे सांप्रदायिक वैमनस्य की संभावना बढ़ जाती है। कुछ लोग सांप्रदायिक घृणा फैलाने के लिये अभद्र भाषा का उपयोग करते हैं जिससे विभिन्न धर्मों के लोगों के बीच दंगे और तनाव हो सकता है। कुछ राष्ट्र-विरोधी तत्व धर्म का उपयोग नाजायज हितों के लिये करते हैं जैसे धर्म के नाम पर युवाओं को आतंकवादी गतिविधियों में शामिल करने के लिये कट्टरपंथी बनाना। विविध धार्मिक प्रथाओं को समायोजित करना जो देश के बाकी हिस्सों के लिये उपयुक्त नहीं हो सकते हैं। यह विभिन्न धार्मिक प्रथाओं को वैध बनाने के लिये भानुमती का पिटारा खोल सकता है। अल्पसंख्यकों की धार्मिक प्रथाओं में राज्य का हस्तक्षेप उनकी स्वायत्तता को भंग कर सकता है और संवैधानिक सिद्धांतों में उनके विश्वास को बाधित कर सकता है। इस प्रकार, संवैधानिक नैतिकता और धार्मिक नैतिकता के बीच संघर्ष न्यायपालिका के लिये कठिन प्रश्न हैं। निष्कर्ष भारत विभिन्न सांस्कृतिक पहचानों के सबसे जटिल समामेलन का प्रतिनिधित्व करता है। धार्मिक विविधता समाज की परिपक्वता के आधार पर वरदान या अभिशाप हो सकती है। यदि नागरिक बंधुत्व और भाईचारे के संवैधानिक सिद्धांतों का पालन करते हैं, तभी भारत वास्तव में 'अनेकता में एकता' प्राप्त कर सकता है।</s>
<s>[INST]माउंटबेटन के शासनकाल के दौरान घटित घटनाओं के चलते विभाजन की व्यवस्था में विसंगतियाँ उत्पन्न हुईं और वह विभाजन के कारण हुए नरसंहार को रोकने में विफल रहा। समालोचनात्मक विश्लेषण कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण उत्तर की शुरुआत उन घटनाओं से कीजिये जो भारत की स्वतंत्रता से ठीक पहले माउंटबेटन के शासन काल में हुई थीं। चर्चा कीजिये कि किस प्रकार विभाजन की व्यवस्था में विसंगतियाँ उत्पन्न हुईं और यह नरसंहार को रोकने में विफल रहीं। उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये। परिचय माउंटबेटन ने अपने पूर्ववर्तियों की तुलना में निर्णय लेने में अधिक दृढ़ता और शीघ्रता दिखाई क्योंकि उन्हें अनौपचारिक रूप से समय पर निर्णय लेने के लिये अधिक अधिकार दिये गए थे। दृढ़ निर्णय का लाभ भी मिला तथा ब्रिटिश सरकार जल्द से जल्द भारत को छोड़ पाई। उनका कार्य अक्तूबर 1947 तक एकीकरण और विभाजन के विकल्पों का पता लगाना था और फिर सत्ता के हस्तांतरण के संबंध में ब्रिटिश सरकार को सलाह देना था। प्रारूप 5 जुलाई, 1947 को ब्रिटिश संसद ने भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम पारित किया जो माउंटबेटन योजना पर आधारित था और इस अधिनियम को 18 जुलाई, 1947 को शाही स्वीकृति मिली। यह अधिनियम 15 अगस्त, 1947 को लागू किया गया था। इस अधिनियम में 15 अगस्त, 1947 से भारत और पाकिस्तान के दो स्वतंत्र डोमिनियन के निर्माण का प्रावधान था। प्रत्येक डोमिनियन में एक गवर्नर-जनरल का प्रावधान था जो अधिनियम के प्रभावी संचालन के लिये ज़िम्मेदार हो। प्रत्येक नए अधिराज्य की संविधान सभा को उस अधिराज्य की विधायिका की शक्तियों का प्रयोग करना था और मौजूदा केंद्रीय विधान सभा तथा राज्यों की परिषद को स्वतः भंग कर दिया जाना था। हालाँकि, माउंटबेटन के अधीन घटनाओं की द्रुतगामी गति ने विभाजन को व्यवस्थित करने में विसंगतियाँ पैदा की और वह पंजाब नरसंहार को रोकने में पूरी तरह से विफल रहा क्योंकि कोई संक्रमणकालीन संस्थागत संरचना नहीं थी जिसके भीतर विभाजन की समस्याओं से निपटा जा सके; माउंटबेटन को भारत और पाकिस्तान के सामान्य गवर्नर-जनरल होने की उम्मीद थी लेकिन जिन्ना पाकिस्तान में अपने लिये यह स्थिति चाहते थे; सीमा आयोग पंचाट (रेडक्लिफ के तहत) की घोषणा में देरी हुई; हालाँकि यह पुरस्कार 12 अगस्त 1947 तक तैयार हो गया था। माउंटबेटन ने 15 अगस्त के बाद इसे सार्वजनिक करने का फैसला किया ताकि अंग्रेज किसी भी प्रकार की ज़िम्मेदारी से बच सकें। तत्काल विभाजन की आवश्यकता केवल सत्ता का तत्काल हस्तांतरण ही 'सीधी कार्रवाई' और सांप्रदायिक हिंसा के प्रसार को रोक सकता था। अंतरिम सरकार के आभासी पतन ने भी पाकिस्तान की धारणा को अपरिहार्य बना दिया। विभाजन की योजना ने रियासतों को अपने स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रखने का विकल्प दिया जो भारतीय एकता के लिये एक बड़ा खतरा हो सकता था क्योंकि इसका मतलब देश का बाल्कनीकरण होता। विभाजन को स्वीकार करना एक अलग मुस्लिम राज्य की लीग की पैरवी करने के लिये चरण-दर-चरण विभाजन की प्रक्रिया हेतु किया गया केवल एक अंतिम कार्य था। निष्कर्ष विभाजन की भयावहता भारतीय इतिहास के काले अध्यायों में से एक थी। सत्ता के शांतिपूर्ण हस्तांतरण का प्रयास किया गया लेकिन विभाजन की भयावहता बनी हुई थी जिसे टाला नहीं जा सकता था। भारत ने हाल ही में 14 अगस्त को विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की।</s>
<s>[INST]जनजातीय विद्रोह भले ही समय और स्थान में एक-दूसरे से भिन्न थे लेकिन इनमें कुछ सामान्य विशेषताएँ थीं। चर्चा कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण आदिवासी विद्रोहों के विस्तार और ब्रिटिश शासन के तहत ऐसे विद्रोहों के कारणों को लिखते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये। जनजातीय विद्रोह की सामान्य विशेषताओं की चर्चा कीजिये। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में इन विद्रोहों के महत्त्व को लिखकर निष्कर्ष लिखिये। परिचय ब्रिटिश शासन के समय जनजातीय आंदोलन सभी आंदोलनों में सबसे सतत, उग्रवादी और हिंसक थे। जनजातीय आंदोलनों को महाद्वीपीय जनजातीय विद्रोहों और सीमांत जनजातीय विद्रोहों में वर्गीकृत किया जा सकता है जो मुख्य रूप से भारत के उत्तर-पूर्वी भाग में केंद्रित हैं। प्रारूप वे कारक जिन्होंने जनजातीय विद्रोहों में योगदान दिया: महाद्वीपीय जनजातीय विद्रोह: अंग्रेजों की बस्तियों ने आदिवासियों के बीच संयुक्त स्वामित्व परंपरा को प्रभावित किया और उनके सामाजिक ताने-बाने को बाधित किया चूँकि कंपनी सरकार द्वारा कृषि को एक व्यवस्थित रूप में विस्तारित किया गया था, इससे आदिवासियों ने अपनी भूमि खो दी थी और इन क्षेत्रों में गैर-आदिवासियों की आवक बढ़ गई थी। वनों में स्थानांतरित खेती पर अंकुश लगाया गया और इससे आदिवासियों की समस्याएँ और बढ़ गईं। पुलिस, व्यापारियों और साहूकारों (उनमें से अधिकांश 'बाहरी') द्वारा शोषण ने आदिवासियों की पीड़ा को और बढ़ा दिया। इन क्षेत्रों में आने वाली ईसाई मिशनरियों और उनके प्रयासों ने आदिवासियों के पारंपरिक रीति-रिवाजों में हस्तक्षेप किया। उदाहरण- चुआर विद्रोह, कोल विद्रोह, संथाल विद्रोह, भील विद्रोह आदि। सीमांत जनजातीय विद्रोह (भारत के उत्तर-पूर्वी भाग में): इनके विद्रोह अक्सर भारतीय संघ के भीतर राजनीतिक स्वायत्तता या पूर्ण स्वतंत्रता के पक्ष में थे। ये आंदोलन वन आधारित या कृषि विद्रोह नहीं थे क्योंकि ये आदिवासी आम तौर पर भूमि और वन क्षेत्र के नियंत्रण में थे। गैर-सीमांत जनजातीय आंदोलनों की तुलना में यह लंबे समय तक जारी रहे। असंस्कृतीकरण आंदोलन सीमावर्ती आदिवासियों के बीच भी विस्तृत हुआ। उदाहरण-खासी विद्रोह, अहोम विद्रोह, सिंगफोस विद्रोह, कुकी विद्रोह आदि। जनजातीय विद्रोहों की विशेषताएँ इन समूहों द्वारा दिखाई गई एकजुटता के पीछे जनजातीय पहचान या जातीय संबंध हैं। सभी 'बाहरी लोगों' को दुश्मन के रूप में नहीं देखा गया था: गरीब जो अपने शारीरिक श्रम या पेशे से जीवनयापन करते थे और गाँव में सामाजिक/आर्थिक रूप से सहायक भूमिका निभाते थे, उन्हें इन विद्रोहों में लक्षित नहीं किया गया था; हिंसा को साहूकारों और व्यापारियों की ओर निर्देशित किया गया था जिन्हें औपनिवेशिक सरकार के विस्तार के प्रभाव के रूप में देखा जाता था। विदेशी सरकार के विरुद्ध: एक सामान्य कारण 'विदेशी सरकार' द्वारा कानूनों को लागू करने के विरुद्ध नाराजगी थी जिसे आदिवासियों के पारंपरिक सामाजिक आर्थिक ढाँचे को नष्ट करने के प्रयास के रूप में देखा गया था। कई विद्रोहों का नेतृत्त्व मसीहा जैसी शख्सियतों ने किया, जिन्होंने अपने लोगों को विद्रोह के लिये प्रोत्साहित किया और इस वादे को पूरा किया कि वे 'बाहरी लोगों' द्वारा लाए गए उनके कष्टों को समाप्त कर सकते हैं। तकनीकी रूप से पिछड़ा: आदिवासी विद्रोह शुरू से ही कमज़ोर हो गए थे, उन्होंने अपने विरोधियों द्वारा इस्तेमाल किये जाने वाले आधुनिक हथियारों और तकनीकों का मुकाबला अपने पुराने व पारंपरिक हथियारों से किया। निष्कर्ष यह स्पष्ट है कि ईस्ट इंडिया कंपनी के दिनों में भी औपनिवेशिक शासन में कई विद्रोह और अशांति देखी गई। अंग्रेजों के विरुद्ध असंतुष्टि वर्ष 1857 के विद्रोह में अपने चरम पर पहुँच गईं। ऐसा माना जाता है कि जनजातीय विद्रोह भारतीयों के कुछ समूहों तक सीमित होने के बावजूद भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की शुरुआत से पहले अंग्रेजों के विरुद्ध होने वाले प्रमुख विद्रोहों के ध्वजवाहक थे।</s>
<s>[INST]भारत में साल दर साल जल संकट की बढ़ती हुई गंभीरता के चलते सभी हितधारकों द्वारा जल संकट से निपटने के लिये विभिन्न उपाय किये जाने की आवश्यकता है। टिप्पणी कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण उत्तर के प्रारंभ में जल संकट की गंभीरता पर बल देते हुए भारत में जल संकट का विवरण दीजिये। संकट के समाधान के लिये उठाए जा सकने वाले विभिन्न उपायों की चर्चा कीजिये। उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये। परिचय भारत में दुनिया की कुल जनसंख्या की 16% आबादी है लेकिन देश के पास दुनिया के मीठे जल के संसाधनों का केवल 4% हिस्सा ही है। बदलते मौसम के मिजाज और बार-बार आने वाले सूखे के कारण भारत जल संकट से जूझ रहा है। केंद्रीय भूजल बोर्ड (2017) के नवीनतम आँकड़ों के अनुसार, 700 में से 256 ज़िलों में 'गंभीर' या 'अति-शोषित' भूजल स्तर की सूचना प्राप्त हुई है। इसका मतलब है कि इन ज़िलों में जल स्तर के गिरने के कारण जल की आपूर्ति करना मुश्किल हो गया है। प्रारूप भारत में जल संकट अवलोकन: जल संग्रह करने की दर में कमी: भारत को हर साल वर्षा या अन्य स्रोतों जैसे ग्लेशियरों के माध्यम से 3,000 बिलियन क्यूबिक मीटर जल प्राप्त होता है; इसमें से केवल 8% ही एकत्रित किया जाता है। भूजल पर अति-निर्भरता और अति-निष्कर्षण: भारत प्रतिवर्ष 458 बीसीएम की दर से भूजल का संचय करता है, जबकि यह पृथ्वी से लगभग 650 बीसीएम जल का निष्कर्षण करता है। भारत के 89% जल संसाधनों का उपयोग कृषि के लिये किया जाता है, जिसमें से 65% भूमिगत जल है। इस प्रकार भारत की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक भूजल संरक्षण है। जल संकट: नीति आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्तमान में भारत की 12 प्रमुख नदी घाटियों में लगभग 820 मिलियन लोग अत्यधिक जल तनाव का सामना कर रहे हैं। गुणात्मक मुद्दा: जल की उपलब्धता की कमी के मुद्दे के साथ जल की गुणवत्ता से संबंधित मुद्दा भी महत्त्वपूर्ण है। भारत के 600 ज़िलों में से एक-तिहाई में भूजल मुख्य रूप से फ्लोराइड और आर्सेनिक के माध्यम से दूषित है। इसके अलावा भारत की पर्यावरण रिपोर्ट 2019 के अनुसार, वर्ष 2011- 2018 के बीच सकल प्रदूषणकारी उद्योगों की संख्या में 136 प्रतिशत तक की वृद्धि हुई है। आगे की राह भारत जल तक पहुँच में सुधार की दिशा में लगातार काम कर रहा है। वर्ष 2019 में जारी जल जीवन मिशन (JJM) दिशा-निर्देश घरों में जल हेतु नल के कनेक्शन का प्रावधान प्रदान करते हैं। JJM विशेष रूप से ग्रामीण स्तर पर योजना संबंधित गतिविधियों का नेतृत्त्व करने में महिलाओं को शामिल करने की आवश्यकता पर बल देता है। जल की कमी वाले क्षेत्रों के ग्रामीण भागों में प्रोत्साहन आधारित जल संरक्षण एक और समाधान है, उदाहरण के लिये यदि भूजल का एक विशेष स्तर बनाए रखा जाता है तो उस क्षेत्र के किसानों को उच्च एमएसपी प्रदान किया जा सकता है। जल उपयोग दक्षता में सुधार: किसानों को जागरूक करके और उन्हें ज़मीनी स्तर पर जल प्रतिरोधी फसलों से संबंधित तकनीक उपलब्ध कराकर कृषि में जल उपयोग दक्षता सुनिश्चित की जा सकती है। इन-सीटू जल संरक्षण तकनीकों जैसे- वर्षा जल संचयन, चेक डैम को जारी रखने की आवश्यकता है। जल प्रबंधन: फिलहाल जल प्रबंधन संबंधी योजना निर्माण और विकास की ज़रूरत है। साथ ही जल प्रबंधन को कृषि क्षेत्र एवं पर्यावरण सुधार के प्रयासों पर केंद्रित होना चाहिये। उचित जल प्रबंधन से ही सही भूमि प्रबंधन, स्वास्थ्य प्रबंधन और शिक्षा प्रबंधन होगा। डेटा और सिस्टम एकीकरण: जनसांख्यिकी, सामाजिक-सांस्कृतिक, आर्थिक और अन्य मापदंडों सहित विभिन्न डेटासेट्स को जल से संबंधित स्थानिक एवं गैर-स्थानिक डेटा के साथ एकीकृत करने की आवश्यकता है, जैसे- मिट्टी की नमी, वार्षिक वर्षा, नदियाँ, जलभृत, भूजल स्तर, जल की गुणवत्ता आदि। सर्वोत्तम प्रथाओं को साझा करना: जल प्रबंधन से संबंधित ऐसा बहुत सारा ज्ञान मौजूद है जो हितधारकों को जल संरक्षण से संबंधित उपायों में मदद कर सकता। जल शक्ति मंत्रालय द्वारा ज्ञान पोर्टल के रूप में इस तरह का ज्ञान आधारित एक केंद्रीय भंडार बनाया जा सकता है जिसमें केस स्टडी, सर्वोत्तम अभ्यास, उपकरण, डेटा स्रोतों पर जानकारी आदि शामिल हो। निष्कर्ष सरकार को जल प्रबंधन की आपूर्ति के साथ-साथ मांग पक्ष पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है और देश में जल संकट से निपटने के लिये समाज में हर सभी को [केंद्र सरकार, राज्य सरकारें (जल, राज्य का विषय होने के नाते), नागरिकों, गैर सरकारी संगठनों और कंपनियों को] मिलकर कम करने की ज़रूरत है।</s>
<s>[INST]युवाओं के सशक्तीकरण से यह सुनिश्चित होगा कि जनसांख्यिकीय लाभांश, जो एक समय-सीमित अवसर है, भारत के लिये एक वरदान बन जाए। चर्चा कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण जनसांख्यिकीय लाभांश, जो एक समय-सीमित अवसर है, की व्याख्या करते हुए परिचय दीजिये। युवाओं की क्षमता को साकार करने से संबंधित चुनौतियों पर चर्चा कीजिये। युवा सशक्तिकरण को प्राप्त करने हेतु आगे की राह बताइये। उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये। परिचय संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (UNFPA) के अनुसार, जनसांख्यिकीय लाभांश का अर्थ है, "आर्थिक विकास क्षमता जो जनसंख्या की आयु संरचना में बदलाव के परिणामस्वरूप प्राप्त हो सकती है, मुख्यतः जब कार्यशील उम्र की आबादी (15 से 64 वर्ष ) का हिस्सा गैर-कार्यशील जनसंख्या (14 वर्ष और उससे कम, तथा 65 एवं उससे अधिक) से बड़ा हो "। UNFPA द्वारा भारत में जनसांख्यिकीय लाभांश पर एक अध्ययन में कहा गया है कि भारत में जनसांख्यिकीय लाभांश केवल पाँच दशकों (वर्ष 2005-06 से वर्ष 2055-56 तक) के लिये उपलब्ध है। युवा क्षमता को साकार करने से संबंधित चुनौतियाँ शिक्षा और कौशल की कमी: भारत की अल्प-वित्तपोषित शिक्षा प्रणाली युवाओं को उभरते रोज़गार के अवसरों का लाभ उठाने हेतु आवश्यक कौशल प्रदान करने के लिये अपर्याप्त है। विश्व बैंक के अनुसार, शिक्षा पर सार्वजनिक व्यय वर्ष 2020 में सकल घरेलू उत्पाद का केवल 3.4% था। एक अन्य रिपोर्ट से पता चला है कि प्रति छात्र सार्वजनिक व्यय के मामले में भारत 62वें स्थान पर है और छात्र-शिक्षक अनुपात एवं शिक्षा उपायों की गुणवत्ता में इसका प्रदर्शन खराब रहा है। महामारी का प्रभाव: विभिन्न अध्ययनों से पता चलता है कि स्कूल बंद होने से बच्चों की शिक्षा, जीवन और मानसिक कल्याण पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि दुनिया भर में महामारी के दौरान 65% किशोरों की शिक्षा में कमी आई है। युवा महिलाओं के मुद्दे: बाल विवाह, लिंग आधारित हिंसा, दुर्व्यवहार और तस्करी के प्रति उनकी संवेदनशीलता, खासकर यदि प्राथमिक देखभाल करने वाले बीमार पड़ जाते हैं या मर जाते हैं जैसे मुद्दे युवा महिलाओं को उनकी पूरी क्षमता हासिल करने से रोकते हैं। रोज़गार विहीन विकास: भारत के सकल घरेलू उत्पाद में मुख्य योगदानकर्त्ता सेवा क्षेत्र है जो श्रम प्रधान नहीं है और इस प्रकार यह रोज़गार विहीन विकास को बढावा देता है। इसके अलावा भारत की लगभग 50% आबादी अभी भी कृषि पर निर्भर है जो कि अल्प-रोज़गारऔर प्रच्छन्न बेरोज़गारी के लिये बदनाम है। निम्न सामाजिक पूंजी: इसके अलावा उच्च स्तर की भुखमरी, कुपोषण, बच्चों में बौनापन, किशोरियों में रक्ताल्पता का उच्च स्तर, खराब स्वच्छता आदि ने भारत के युवाओं की क्षमता को साकार करने में बाधा पहुंँचाई है। आगे की राह अंतर-क्षेत्रीय सहयोग: युवा पीढ़ी के भविष्य की सुरक्षा के लिये बेहतर अंतर-क्षेत्रीय सहयोग के लिये एक तंत्र का होना अनिवार्य है। विभागों के बीच समन्वय किसी भी संकट से निपटने के लिये बेहतर समाधान और अधिक क्षमता को सक्षम कर सकता है। उदाहरणतः मध्याह्न भोजन योजना न केवल माता-पिता को अपने बच्चों को स्कूल भेजने के लिये प्रोत्साहन प्रदान करती है बल्कि कक्षा में सतर्क रहने के लिये आवश्यक कैलोरी की मात्रा भी प्रदान करती है। युवा आबादी की रोज़गार क्षमता बढ़ाने के लिये कौशल विकास: भारत की श्रम शक्ति को आधुनिक अर्थव्यवस्था के लिये सही कौशल के साथ सशक्त बनाने की आवश्यकता है। सरकार ने वर्ष 2022 तक भारत में 500 मिलियन लोगों को कौशल युक्त करने के समग्र लक्ष्य के साथ राष्ट्रीय कौशल विकास निगम (एनएसडीसी) की स्थापना की है। सामाजिक बुनियादी ढाँचे में सुधार: यदि भारत अपने युवा उभार की आर्थिक क्षमता का लाभ उठाना चाहता है तो उसे सामाजिक बुनियादी ढाँचे जैसे- अच्छा स्वास्थ्य, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा में सुधार करने के लिये निवेश करना चाहिये और पूरी आबादी को अच्छा रोज़गार प्रदान करने का प्रयास करना चाहिये। बुनियादी स्वच्छता को बनाए रखना: चूँकि स्कूल बंद होने से मासिक धर्म संबंधी स्वच्छता उत्पादों की किशोरों तक पहुँच जैसी योजनाएँ प्रभावित हुई हैं। बालिकाओं को सैनिटरी नैपकिन वितरित करने के लिये फ्रंटलाइन स्वास्थ्य कार्यकर्त्ताओं को सहयोग करने हेतु शिक्षक स्वयंसेवकों के रूप में काम कर सकते हैं। युवाओं के लिये हेल्पलाइन: किशोरों के मानसिक स्वास्थ्य को संबोधित करने के लिये स्वास्थ्य और शिक्षा मंत्रालयों को मौजूदा हेल्पलाइन के माध्यम से तथा उनके प्रजनन एवं यौन स्वास्थ्य के संबंध में महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर बातचीत कर उन्हें सक्षम बनाया जाना चाहिये। महामारी के बाद तत्काल कदम: लंबे समय तक स्कूल बंद रहने के नुकसान के साथ बच्चों के माध्यम से महामारी के संचरण के जोखिम को संतुलित करना नीति निर्माताओं हेतु महत्त्वपूर्ण है। शिक्षकों और स्कूल के सहायक कर्मचारियों के टीकाकरण को प्राथमिकता देकर तथा एक विकेंद्रीकृत दृष्टिकोण के साथ स्कूलों को सुरक्षित तथा चरणबद्ध तरीके से खोला जा सकता है। निष्कर्ष मिशन मोड में युवाओं के जीवन में सुधार करने से उनका जीवन उन्नत होगा, साथ ही स्वस्थ और शिक्षित युवा वयस्कों के चलते भारत के भविष्य को सुरक्षित करने में योगदान भी प्राप्त होगा। युवाओं के सशक्तीकरण की नीतियाँ और उनके प्रभावी कार्यान्वयन से जनसांख्यिकीय लाभांश, जो कि एक समय-सीमित अवसर है, भारत के लिये एक वरदान बन सकेगा।</s>
<s>[INST]उत्तरी भारतीय राज्यों में हिमालय के क्षेत्र में मंदिर वास्तुकला का एक अनूठा रूप विकसित हुआ। स्पष्ट कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण प्राचीन भारत की मुख्य मंदिर स्थापत्य शैली के बारे में संक्षेप में बताइये। उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिये कि किस प्रकार पहाड़ी वास्तुकला अन्य कला रूपों से भिन्न थी। उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये। परिचय प्राचीन और मध्यकालीन भारत के अधिकांश स्थापत्य अवशेष धार्मिक प्रकृति के हैं। देश के विभिन्न भागों में मंदिरों की विशिष्ट स्थापत्य शैली भौगोलिक, जातीय और ऐतिहासिक विविधताओं का परिणाम थी। देश में मंदिरों की दो प्रसिद्ध शैलियाँ उत्तर में नागर और दक्षिण में द्रविड़ के नाम से जानी जाती हैं। कभी-कभी मंदिरों की बेसर शैली को एक स्वतंत्र शैली के रूप में देखा जाता है, जिसे नागर और द्रविड़ शैलियों के मिश्रण के माध्यम से बनाया गया है। प्रारूप गांधार प्रभाव: यह कुमाऊँ, गढ़वाल, हिमाचल और कश्मीर की पहाड़ियों में विकसित वास्तुकला का एक अनूठा रूप है। प्रमुख गांधार स्थलों (जैसे तक्षशिला, पेशावर तथा उत्तर-पश्चिम सीमा) से कश्मीर की निकटता ने इस क्षेत्र को पाँचवीं शताब्दी तक एक मज़बूत गांधार प्रभाव क्षेत्र बना दिया। गुप्त और उत्तर-गुप्त परंपराओं का प्रभाव सारनाथ, मथुरा और यहाँ तक कि गुजरात एवं बंगाल के केंद्रों से संबंधित है। लक्ष्मण-देवी मंदिर में महिषासुरमर्दिनी और नरसिम्हा की छवियाँ उत्तर-गुप्त परंपरा के प्रभाव का प्रमाण हैं। दोनों छवियाँ कश्मीर की धातु मूर्तिकला परंपरा के प्रभाव को दर्शाती हैं। पहाड़ी क्षेत्रों की छतों वाली काष्ठ इमारतों की भी अपनी परंपरा थी। इस क्षेत्र में कई स्थानों पर मुख्य गर्भगृह और शिखर, रेखा-प्रसाद या लैटिना शैली में बनाए गए हैं। मंडप, काष्ठ वास्तुकला का एक पुराना रूप है। कभी-कभी मंदिरों को पगोड़ा का आकार भी दे दिया गया है। सबसे महत्त्वपूर्ण मंदिरों में से एक पंड्रेथन है, जिसे आठवीं और नौवीं शताब्दी के दौरान बनाया गया था। मंदिर से जुड़ी एक पानी की टंकी की परंपरा को ध्यान में रखते हुए यह मंदिर एक तालाब के बीच में बने चबूतरे पर बनाया गया है। यह एक हिंदू मंदिर है और संभवतः शिव को समर्पित है। इस मंदिर की वास्तुकला लकड़ी की इमारतों की सदियों पुरानी कश्मीरी परंपरा के अनुरूप है। कश्मीर में बर्फीले हालात के कारण पहाड़ी मंदिरों की छत नुकीली और हल्की सी बाहर की ओर झुकी हुई बनाई गई है। भारी नक्काशी के गुप्तोत्तर सौंदर्यशास्त्र से दूर जाते हुए मंदिर को मध्यम रूप से अलंकृत किया गया है। हालाँकि कुमाऊँ, अल्मोड़ा में जागेश्वर और पिथौरागढ़ के पास चंपावत मंदिर इस क्षेत्र में नागर वास्तुकला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। निष्कर्ष इस प्रकार बौद्ध और हिंदू दोनों परंपराएँ आपस में मिल गईं तथा पहाड़ी क्षेत्रों में विस्तृत हो गईं जिसके परिणामस्वरूप वास्तुकला की एक अनूठी शैली अस्तित्व में आई।</s>
<s>[INST]ब्रिटिश साम्राज्यवाद के हितों द्वारा निर्देशित विदेश नीति के अनुसरण के कारण अक्सर भारत को पड़ोसी देशों के साथ संघर्ष का सामना करना पड़ता था। चर्चा कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण ब्रिटिश विदेशी नीति के लक्ष्यों का संक्षेप में उल्लेख करते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये। ब्रिटिश विदेश नीति के चलते संघर्ष के प्रमुख कारणों पर चर्चा कीजिये। उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये। परिचय ब्रिटिश विदेशी नीति का उद्देश्य भारत में ब्रिटिश विस्तार और इसकी प्राकृतिक सीमाओं के बाहर क्षेत्रीय विजय प्राप्त करना था। इन साम्राज्यवादी प्रवृत्तियों का टकराव अन्य यूरोपीय साम्राज्यवादी शक्तियों से हुआ जिसके परिणामस्वरूप कई संघर्ष हुए। प्रारूप ब्रिटिश विदेश नीति के चलते संघर्ष के कारण ऐसे कई कारक थे जिन्होंने भारत सरकार को आंतरिक सामंजस्य और रक्षा के लिये प्राकृतिक, भौगोलिक सीमाओं तक पहुँचने के लिये प्रेरित किया। उदाहरण के लिये: देश का राजनीतिक और प्रशासनिक सुदृढ़ीकरण; संचार के आधुनिक साधनों से परिचय; इन कारकों के परिणामस्वरूप कभी-कभी सीमा पर संघर्ष होते थे। एशिया और अफ्रीका में ब्रिटिश सरकार के प्रमुख उद्देश्य थे: अमूल्य भारतीय साम्राज्य का संरक्षण; ब्रिटिश वाणिज्यिक और आर्थिक हितों का विस्तार; अन्य यूरोपीय साम्राज्यवादी शक्तियों, जिनके औपनिवेशिक हित अंग्रेज़ो के हितों के साथ संघर्षपूर्ण थे, को एशिया और अफ्रीका से दूर रखना। निष्कर्ष ब्रिटिश विदेश नीति के हितों ने ब्रिटिश भारत को संघर्षों में घसीटा, जबकि ब्रिटिश साम्राज्य को इससे कई लाभ प्राप्त हुए थे। इस दौरान भारत का धन खर्च करने के साथ ही भारतीयों रक्त बहाया गया किंतु इन संघर्षों का समस्त लाभ अंग्रेज़ो को मिला।</s>
<s>[INST]महात्मा गांधी और सुभाष चंद्र बोस अपनी अलग-अलग विचारधाराओं के बावजूद एक-दूसरे के प्रति गहरा सम्मान रखते थे। टिप्पणी कीजिये(250 शब्द)[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण महात्मा गांधी और सुभाष चंद्र बोस अलग-अलग विचारधाराओं को मानते थे इसके बावजूद उनके एक-दूसरे के प्रति गहरे सम्मान के संदर्भ में कुछ पंक्तियाँ लिखकर उत्तर की शुरुआत कीजिये। गांधी और बोस के वैचारिक मतभेदों पर चर्चा कीजिये। उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये। परिचय वर्ष 1942 में गांधी जी ने बोस को "देशभक्तों के बीच राजकुमार" कहा। गांधी जी ने कहा कि नेताजी की "देशभक्ति किसी से पीछे नहीं है। उनकी वीरता उनके सभी कार्यों से चमकती है। उसने उच्च लक्ष्य रखा और असफल रहा। लेकिन कौन असफल नहीं हुआ है।” एक अन्य अवसर पर गांधी ने कहा, "नेताजी भारत की सेवा के लिये आने वाले समय के लिये अमर रहेंगे।" जबकि बोस गांधीजी को भारतीय राष्ट्रवाद का प्रतीक मानते थे और उन्हें "हमारे राष्ट्रपिता" कहते थे। प्रारूप उनकी विचारधाराओं में समानताएँ: दोनों व्यक्तित्वों ने स्वतंत्र भारत में समाजवाद को आगे बढ़ने का मार्ग माना। वे दोनों धार्मिक व्यक्ति थे और साम्यवाद को नापसंद करते थे। उन्होंने छुआछूत के खिलाफ काम किया और महिलाओं की मुक्ति की बात की। मतभेद: अहिंसा बनाम उग्रवादी दृष्टिकोण: गांधी अहिंसा और सत्याग्रह में दृढ़ विश्वास रखते थे जबकि बोस गांधी की अहिंसा पर आधारित रणनीति को भारत की स्वतंत्रता हेतु अपर्याप्त मानते थे। बोस का मानना था कि केवल हिंसक प्रतिरोध ही भारत से विदेशी साम्राज्यवादी शासन को खदेड़ सकता था। साधन और साध्य: बोस की नज़र कार्रवाई के परिणाम पर थी। नाजियों, फासीवादियों या बाद में शाही जापान की मदद लेना उनके लिये कोई नैतिक मुद्दा नहीं था। लेकिन गांधीजी कहते थे कि लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये किसी भी साधन का उपयोग नहीं किया जा सकता चाहे वह अंत कितना ही वांछनीय क्यों न हो। सरकार के रूप में: प्रारंभिक लेखन में बोस ने यह राय व्यक्त की कि लोकतंत्र भारत के लिये स्वीकार्य राजनीतिक व्यवस्था है। लेकिन बाद में, ऐसा लगा कि वह इस विचार की ओर झुक गए हैं कि कम से कम शुरुआत में, राष्ट्र के पुनर्निर्माण और गरीबी तथा सामाजिक असमानता के उन्मूलन की प्रक्रिया के लिये एक लोकतांत्रिक प्रणाली पर्याप्त नहीं होगी। गांधी के आदर्श राज्य, रामराज्य को एक प्रतिनिधि सरकार, एक संविधान, एक सेना या एक पुलिस बल की आवश्यकता नहीं थी। गांधी केंद्रीकरण के विरोधी थे। सैन्यवाद: बोस सैन्य अनुशासन के प्रति बहुत आकर्षित थे जबकि गांधी जी कुल मिलाकर सेना के खिलाफ थे। उनका रामराज्य सत्य और अहिंसा तथा आत्म-नियमन की अवधारणा पर आधारित था अर्थव्यवस्था पर विचार: गांधी की स्वराज की अवधारणा की आर्थिक दृष्टि का अपना ब्रांड था। वह राज्य के नियंत्रण के बिना एक विकेन्द्रीकृत अर्थव्यवस्था चाहते थे जबकि बोस भारत के लिये बड़े औद्योगीकरण के पक्ष में थे। शिक्षा: गांधी अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली के खिलाफ थे और शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी के इस्तेमाल के भी खिलाफ थे। बोस उच्च शिक्षा के पक्षधर थे, खासकर तकनीकी और वैज्ञानिक क्षेत्रों में, क्योंकि वे एक औद्योगिक भारत चाहते थे। निष्कर्ष गांधी और बोस अपनी अलग-अलग विचारधाराओं के बावजूद एक-दूसरे के प्रति गहरा सम्मान रखते थे। हालाँकि दोनों ने स्वतंत्रता के लिये राष्ट्रीय संघर्ष में एक दूसरे द्वारा किये गए कार्यों की सराहना की और भारत के स्वतंत्रता संग्राम में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।</s>
<s>[INST]क्या भाषायी राज्यों के गठन ने भारतीय एकता के उद्देश्य को मज़बूती प्रदान की है?[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण स्वतंत्रता पश्चात् राज्यों के पुनर्गठन में आने वाली समस्याओं का उल्लेख करते हुए उत्तर आरंभ कीजिये। भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की पृष्ठभूमि के बारे में बताइये। भाषायी आधार पर राज्यों के गठन ने किस प्रकार भारतीय एकता को मज़बूती प्रदान की, इस पर चर्चा कीजिये। राज्यों के गठन के आधार संबंधित कारणों में आए परिवर्तन पर चर्चा कीजिये। संतुलित एवं सारगर्भित निष्कर्ष लिखें। परिचय: स्वतंत्रता के पश्चात् ही भारत के सामने भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का सवाल आ खड़ा हुआ। यह राष्ट्र की एकता और समेकन का महत्त्वपूर्ण पहलू था। गांधी जी सहित अन्य नेताओं द्वारा कमोबेश यह स्वीकार कर लिया गया था कि आज़ाद भारत अपनी प्रशासनिक इकाइयों के सीमा निर्धारण को भाषायी सिद्धांत के आधार पर करेगा लेकिन आज़ादी के बाद राष्ट्रीय नेतृत्व में यह विचार व्यक्त किया गया कि इस समय देश की सुरक्षा, एकता और आर्थिक संपन्नता पर पहले ध्यान दिया जाना चाहिये। पृष्ठभूमि: 1948 में एस.के. धर के नेतृत्व में बने भाषायी राज्य आयोग तथा जे.वी.पी. समिति ने भी तात्कालिक रूप से भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के विरुद्ध सलाह दी। हालाँकि इसके बाद पूरे देश में राज्यों के पुनर्गठन के लिये व्यापक जनांदोलन शुरू हो गए, जिनमें मद्रास प्रेसीडेंसी से अलग आंध्र राज्य बनाने की मांग सबसे प्रबल थी। अक्तूबर 1952 में पोट्टी श्रीरामलू की आमरण अनशन के चलते मृत्यु हो गई, इसके पश्चात् हुई हिंसा के कारण सरकार को 1953 में आंध्र प्रदेश के रूप में नया राज्य बनाना पड़ा। इसके बाद देश के अन्य क्षेत्रों में भी भाषायी आधार पर राज्यों की मांग के जोर पकड़ने के कारण 1956 में राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना की गई। आयोग की रिपोर्ट के आधार पर वर्ष 1956 में पारित राज्य पुनर्गठन अधिनियम द्वारा भाषायी आधार पर 14 राज्यों तथा 6 केंद्रशासित प्रदेशों का गठन हुआ। भाषायी आधार पर राज्यों के गठन द्वारा भारतीय एकता को मज़बूती: भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन का कार्य कर राष्ट्रीय नेतृत्व ने राष्ट्र की एकता के सामने उत्पन्न प्रश्नचिह्न को समाप्त कर दिया जो संभवत: विघटनकारी प्रवृत्तियों को बढ़ावा दे सकता था। अत: भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन एक तरह से राष्ट्रीय एकीकरण का आधार माना गया क्योंकि जहाँ भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन ने क्षेत्रीय आकांक्षाओं को पूरा किया वहीं, उसने जनता की भावनाओं का भी मान रखा। इससे लोगों के अंदर यह भावना बलवती हुई कि स्वतंत्र भारत में उनकी इच्छाओं, भावनाओं तथा सांस्कृतिक अस्मिता के साथ-साथ उनकी क्षेत्रीय भाषा को भी महत्त्व दिया जा रहा है। इसके अलावा यह भी महत्त्वपूर्ण है कि भाषायी राज्यों के पुनर्गठन ने देश के संघीय ढाँचे को प्रभावित नहीं किया, केंद्र एवं राज्य के संबंध पूर्ववत बने रहे। भाषा के आधार पर राज्यों के गठन तथा राज्य भाषा की अवधारणा ने लोगों को मातृभाषा में सरकार से संपर्क स्थापित करने तथा प्रशासनिक कार्यों को पूर्ण करने की सहूलियत प्रदान की। इसके अतिरिक्त त्रि-भाषा सिद्धांत ने हिंदी व अंग्रेज़ी के प्रसार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसने संपूर्ण भारतीयों के बीच संचार की सुविधा तो प्रदान की ही, आर्थिक विकास में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। राज्यों के गठन के आधार संबंधित कारणों में आए परिवर्तन: समय के साथ-साथ भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की मांग कमज़ोर पड़ती गई तथा उसका आधार प्रशासनिक शिथिलता तथा आर्थिक विषमता हो गई। इसके आधार पर पूर्वोत्तर के राज्यों के साथ-साथ झारखंड, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड राज्यों का गठन हुआ। हाल ही के वर्षों में इसमें एक नवीन प्रवृत्ति देखने को मिली, जो राज्य भाषा के आधार पर निर्मित हुए थे उनमें भी पुन: राज्य के गठन की मांग ज़ोर पकड़ने लगी है। इसी कड़ी में नवीनतम राज्य तेलंगाना का निर्माण हुआ। निष्कर्ष: राज्यों के पुनर्गठन ने भारत की एकता को कमज़ोर नहीं किया बल्कि संपूर्ण रूप से देखा जाए तो मज़बूत ही किया है परंतु यह विभिन्न राज्यों के मध्य सभी विवादों और समस्याओं का समाधान नहीं कर पाया। विभिन्न राज्यों के बीच सीमा विवाद, भाषायी अल्पसंख्यकों की समस्या के साथ-साथ नदी जल बँटवारे की समस्या जैसे प्रश्न अभी भी अनसुलझे पड़े हैं।</s>
<s>[INST]नए स्वतंत्र भारत के सामने आने वाली प्रमुख चुनौतियों का वर्णन कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण भारत की स्वतंत्रता का संक्षेप में उल्लेख करते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये। स्वतंत्रता के बाद भारत के सामने आने वाली विभिन्न चुनौतियों पर चर्चा कीजिये। उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये। परिचय स्वतंत्रता के लिये एक लंबे संघर्ष के बाद भारत 15 अगस्त, 1947 को औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्र हुआ। हालाँकि यह स्वतंत्रता अपने साथ सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं के एक समूह के साथ आई। स्वतंत्रता के बाद भारत के सामने उपस्थित विभिन्न चुनौतियाँ: विभाजन: विभाजन को बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक हिंसा के रूप में चिह्नित किया गया था। इसके अलावा विभाजन के कारण ही कश्मीर समस्या की उत्पत्ति हुई और उसके परिणामस्वरूप पाकिस्तान के साथ युद्ध भी भी हुआ। साथ ही भारत को बड़ी संख्या में शरणार्थियों को पुनर्वास प्रदान करने की आवश्यकता थी। बड़े पैमाने पर गरीबी और निरक्षरता: स्वतंत्रता के समय भारत में लगभग 80% या लगभग 250 मिलियन आबादी गरीब थी। अकाल और भूख ने भारत को अपनी खाद्य सुरक्षा के लिये बाहरी मदद लेने हेतु प्रेरित किया। विविधता में एकता सुनिश्चित करना: एक नए स्वतंत्र भारत जिसे मुख्य रूप से रियासतों को आत्मसात करने से उत्पन्न चुनौतियों के कारण देश की एकता और संप्रभुता को बनाए रखने की आवश्यकता थी। ब्रिटिश भारतीय प्रांतों की सीमाओं को सांस्कृतिक और भाषाई एकता के बारे में सोचे बिना बेतरतीब ढंग से खींचा गया था। कम आर्थिक क्षमता: भारत में स्थिर कृषि और निम्न औद्योगिक आधार जैसी समस्याएं मौजूद थीं। वर्ष 1947 में भारत के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का 54% हिस्सा था। स्वतंत्रता के समय भारत की 60% जनसंख्या जीविका के लिए कृषि पर निर्भर थी। शीत-युद्ध तनाव: अधिकांश विकासशील देश संयुक्त राज्य अमेरिका या सोवियत संघ की दो महाशक्तियों में से किसी एक से जुड़े हुए थे। भारत ने शीत युद्ध की राजनीति से दूर रहने और इसके आंतरिक विकास पर ध्यान केंद्रित करने के लिये गुटनिरपेक्षता की नीति का पालन किया। निष्कर्ष सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक चुनौतियों के कारण स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर कई ब्रिटिश विद्वानों ने भविष्यवाणी की थी कि भारत एक राष्ट्र के रूप में जीवित नहीं रहेगा। हालाँकि यह इसके संवैधानिक सिद्धांतों के प्रति भारत की मज़बूत प्रतिबद्धता ही थी जिसने भारत को न केवल एक राष्ट्र के रूप में जीवित रहने के लिये बल्कि नए स्वतंत्र देशों के नेता के रूप में उभरने हेतु भी प्रेरित किया।</s>
<s>[INST]स्वतंत्रता के बाद के भारत में औपनिवेशिक विरासत के तत्त्वों की चर्चा कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण उत्तर की शुरुआत में संक्षेप में बताएं कि औपनिवेशिक विरासत क्या है। औपनिवेशिक विरासत के सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं पर चर्चा कीजिये। उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये। परिचय भारत लगभग एक सदी तक प्रत्यक्ष ब्रिटिश प्रशासनिक नियंत्रण में था और अगस्त 1947 में ब्रिटेन से स्वतंत्रता प्राप्त की। हालाँकि ब्रिटिश साम्राज्यवाद के इस क्षेत्र पर कई महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़े। ब्रिटिश शासन की ये विरासत देश की आर्थिक और सामाजिक स्थिति को प्रभावित करती रहती है। औपनिवेशिक विरासत के तत्त्व अंग्रेज़ी भाषा का प्रयोग: ब्रिटिश शासन के दौरान अंग्रेज़ी ने पूरे देश के लिये आधिकारिक भाषा के रूप में कार्य किया। आज भी अंग्रेज़ी राजभाषा बनी हुई है। यह सामान्य बोलचाल की भाषा और उच्च शिक्षा के माध्यम के रूप में कार्य करती है। हालाँकि अंग्रेज़ी के उपयोग ने शहरी और ग्रामीण भारत के बीच एक आर्थिक एवं सामाजिक विभाजन पैदा कर दिया है। ब्रिटिश शासन के तीन स्तंभ: कानून और व्यवस्था का प्रावधान ब्रिटिश शासन का एक महत्त्वपूर्ण योगदान था। इसमें नौकरशाही, पुलिस और सेना भारत में ब्रिटिश राज की रीढ़ थे। भारतीय प्रशासनिक सेवा के रूप में जाना जाने वाला भारतीय सिविल सेवा का उत्तराधिकारी अभी भी "स्टील फ्रेम" बना हुआ है, जिस पर स्वतंत्र राष्ट्र की स्थिरता और विकास मुख्य रूप से निर्भर करता है। हालाँकि आम लोगों के प्रति पुलिस का रवैया अभी भी औपनिवेशिक प्रकृति का बना हुआ है। विभाजन: भारत और पाकिस्तान के बीच विभाजन सबसे बड़ी औपनिवेशिक विरासत है। जिसके कारण देशों के बीच संबंध लगातार खराब होते जा रहे हैं। इसके परिणामस्वरूप दक्षिण एशियाई क्षेत्र दुनिया के सबसे विघटित क्षेत्रों में से एक बना हुआ है। इसके अलावा कश्मीर समस्या की जड़ें भी ब्रिटिश नीतियों में है। एक एकीकृत प्रशासनिक व्यवस्था की स्थापना: अंग्रेज़ों ने पहली बार पूरे उपमहाद्वीप को एक शाही शासन के अधीन ला दिया। ब्रिटिश शासन के तहत एक एकीकृत प्रशासनिक व्यवस्था संभव हो पाई और यह देश के दूर-दराज के इलाकों तक भी पहुँच गई। हालाँकि स्वतंत्रता के लगभग 75 वर्षों के बाद भी हम ब्रिटिश शासन के दौरान बनाए गए कई कानूनों का पालन कर रहे हैं। निष्कर्ष औपनिवेशिक विरासतों के कुछ प्रभाव भारत के लिये सकारात्मक थे लेकिन कई ब्रिटिश साम्राज्यवादी हितों को घरेलू हितों पर प्राथमिकता देने की परिणति विकास के एक असमान पैटर्न और कमज़ोर केंद्र सरकार के रूप में हुई। इस प्रकार यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि विदेशी नियंत्रण की एक सदी ने देश के विकास को सकारात्मक की अपेक्षा नकारात्मक रूप से अधिक प्रभावित किया होगा।</s>
<s>[INST]वैश्वीकरण विचार, पूंजी, वस्तु एवं लोगों की आवाजाही तथा तकनीक द्वारा संचालित एक परिघटना है। चर्चा कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण संक्षेप में वैश्वीकरण की अवधारणा को परिभाषित करके उत्तर की शुरुआत कीजिये। वैश्वीकरण के विकास के विभिन्न चरणों की विवेचना कीजिये। उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये। परिचय वैश्वीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा लोग, वस्तुएँ और विचार आसानी से सीमाओं के पार गतिशील होते हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अंतर्राष्ट्रीय समुदाय एक साझा भविष्य के निर्माण के लिये एक साथ आए। इसके फलस्वरूप विकास के मॉडल के रूप में वैश्वीकरण पर वैश्विक जोर दिया गया। दशकों से वैश्वीकरण एक अवधारणा और अभ्यास दोनों के रूप में विकसित हुआ है। हालाँकि वैश्वीकरण ने वैश्विक समुदाय के लिये अवसर के साथ चुनौतियाँ भी उत्पन्न की हैं। वैश्वीकरण का विकास वैश्वीकरण 1.0: यह प्रथम विश्व युद्ध से पहले का वैश्वीकरण था, जिसे व्यापार लागत में ऐतिहासिक गिरावट और उपनिवेशवाद के विस्तार द्वारा शुरू किया गया था। वैश्वीकरण 2.0: यह द्वितीय विश्व युद्ध के बाद का चरण है जहाँ वस्तुओं के व्यापार को घरेलू नीतियों के साथ जोड़ा गया था। इसके दौरान संस्थान-आधारित, नियम-आधारित अंतर्राष्ट्रीय शासन, विशेष रूप से UN, IMF, विश्व बैंक, GATT / WTO, अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन आदि की स्थापना हुई। वैश्वीकरण 3.0: इसने विनिर्माण की एक नई दुनिया बनाई जिसमें उच्च तकनीक को कम मज़दूरी के साथ जोड़ा गया। यह वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं की स्थापना के माध्यम से हासिल किया गया था क्योंकि कारखाने अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं को पार कर गए थे। इसे न्यू वैश्वीकरण, हाइपर वैश्वीकरण, वैश्विक मूल्य श्रृंखला विकास आदि नामों से जाना जाता था। वैश्वीकरण 4.0: चौथी औद्योगिक क्रांति (बिग डेटा, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, 5G, आदि) का उदय एक इलेक्ट्रॉनिक आधारित उद्योग से एक ऐसी प्रक्रिया की ओर बढ़ रहा है जो मानव और इलेक्ट्रॉनिक्स का संयोजन है। वैश्वीकरण 4.0 जलवायु परिवर्तन जैसे वैश्विक मुद्दों से निपटने और अंतरिक्ष, क्वांटम यांत्रिकी आदि के क्षेत्र में नए रास्ते तलाशने में मदद कर सकता है। दूसरी तरफ, यह असमानता, बेरोज़गारी, युद्ध के नए क्षेत्र खोल सकता है (जैसे साइबर युद्ध)। निष्कर्ष वैश्वीकरण 4.0 के लिये हमें यह पहचानने की आवश्यकता है कि हम एक नए प्रकार की नवाचार-संचालित अर्थव्यवस्था में रह रहे हैं और जनता के विश्वास की रक्षा के लिये नए वैश्विक मानदंडों, मानकों, नीतियों और सम्मेलनों की आवश्यकता है।</s>
<s>[INST]भूकंपीय तरंगें क्या हैं? विभिन्न प्रकार की भूकंपीय तरंगों का विस्तृत विवरण दीजिये।[/INST]उत्तर : दृष्टिकोण भूकंपीय तरंगों की उत्पत्ति और उनके प्रकारों का परिचय देकर उत्तर की शुरुआत कीजिये। विभिन्न प्रकार की भूकंपीय तरंगों और उनकी विशेषताओं पर चर्चा कीजिये। उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये। परिचय भूकंप के दौरान भूकंपीय तरंगें उत्पन्न होती हैं जो केंद्र से सभी दिशाओं में बाहर की ओर प्रसारित होती हैं। भूकंपीय तरंगें तीन प्रकार की होती हैं (i) P तरंगें या प्राथमिक तरंगें, (ii) S तरंगें या द्वितीयक तरंगें और (iii) L तरंगें या सतही तरंगें। भूकंपीय तरंगों के प्रकार और उनकी विशेषताएँ P तरंगें या प्राथमिक तरंगें: ये संपीडन तरंगें हैं जो चट्टान के कणों के अनुदैर्ध्य दिशा में कंपन करने के कारण बनती हैं। P तरंगों की गति सबसे तेज होती है इसलिये वे पहले भूकंपीय स्टेशन पर पहुँचती हैं। इनका वेग S तरंगों के वेग से 1.7 गुना होता है। वे ठोस के साथ-साथ द्रव माध्यम से भी गुजर सकती हैं। S तरंगें या द्वितीयक तरंगें: ये अपरूपण तरंगें हैं जो प्रकृति में अनुप्रस्थ होती हैं। ये केवल ठोस पदार्थों से ही गुजर सकती हैं। L तरंगें या सतही तरंगें: जब P और S तरंगें पृथ्वी की सतह पर पहुँचती हैं तो वे L तरंगों में परिवर्तित हो जाती हैं। L तरंगें सतह के समानांतर चलती हैं और भूकंप का कारण बनती हैं। यह अनुप्रस्थ प्रकृति की होती हैं और उनका वेग P और S तरंगों से बहुत कम होता है। निष्कर्ष L तरंगें भूकंप उत्पन्न करने के लिये उत्तरदायी होती हैं जबकि P और S तरंगों का मुख्य महत्त्व पृथ्वी के आंतरिक भाग के अध्ययन में होता है। P और S तरंगें पृथ्वी के आंतरिक भाग से होकर गुजरती हैं और विभिन्न माध्यमों की एक परत में प्रवेश करते ही परावर्तित और अपवर्तित हो जाती हैं।</s>
<s>[INST]किसी व्यक्ति के अंदर मूल्यों के विकास में परिवार की क्या भूमिका होती है। विवेचना कीजिये।[/INST]प्रश्न का उत्तर जल्द ही प्रकाशित होगा।</s>
<s>[INST]‘हरित कर’ प्रदूषण नियंत्रण और प्रबंधन के बारे में नागरिकों को संवेदनशील बनाने में एक निवारक भूमिका निभा सकते हैं। चर्चा कीजिये।[/INST]उत्तर : दृष्टिकोण ‘हरित कर’ के उद्देश्य को संक्षेप में बताते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये। हरित कर को लागू करने की दिशा में प्रमुख लाभों और कदमों की चर्चा कीजिये। उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये । परिचय पर्यावरणीय करों का उद्देश्य हानिकारक पदार्थों के उपयोग या खपत की मात्रा को कम करना है। पर्यावरणीय कर सुधारों में आम तौर पर तीन पूरक गतिविधियाॅं शामिल होती हैं: पर्यावरण पर हानिकारक प्रभाव डालने वाली मौजूदा सब्सिडी और करों को समाप्त करना। पर्यावरण के अनुकूल तरीके से मौजूदा करों का पुनर्गठन। नए पर्यावरणीय करों की शुरुआत। पर्यावरणीय कर और लाभ सार्वजनिक वस्तु के रूप में पर्यावरण: जिस तरह सार्वजनिक वस्तु के रूप में 'पर्यावरण' का प्रचार किया जा रहा है; सभी सार्वजनिक वस्तुओं की तरह पर्यावरण से संबंधित खर्च का वित्तपोषण भी पर्यावरणीय करों सहित करों के सामान्य पूल से होना चाहिये। पर्यावरण संरक्षण: यह प्रदूषणकारी पदार्थो की लागतों को बढ़ाकर निवेशकों को उचित पर्यावरणीय निर्णय लेने के लिये बाध्य कर सकता है और इस प्रकार प्रदूषणकारी गतिविधियाँ कम की जा सकती है। वित्त लाभ: पर्यावरणीय कर सुधार से बुनियादी सार्वजनिक सेवाओं के वित्तपोषण के लिये राजस्व जुटा सकते हैं, जबकि अन्य स्रोतों के माध्यम से राजस्व जुटाना मुश्किल या बोझिल साबित होता है। आगे की राह संभावनाओं का आकलन: पर्यावरणीय कर की दर वस्तु और सेवाओं के उत्पादन, उपभोग या निपटान से पड़ने वाले नकारात्मक असर के सीमांत सामाजिक लागत के बराबर होनी चाहिये। इसके लिये वैज्ञानिक आकलन के आधार पर पर्यावरण को हुए नुकसान के मूल्यांकन की आवश्यकता है। राजस्व का उपयोग: भारत जैसे विकासशील देशों में राजस्व का उपयोग अधिक-से-अधिक पर्यावरणीय मुद्दों को संबोधित करने के लिये किया जा सकता है। प्रमुख क्षेत्रों को लक्षित करना: भारत में पर्यावरणीय कर लागू करने हेतु तीन मुख्य क्षेत्रों को लक्षित किया जा सकता है- परिवहन क्षेत्र में वाहनों का कराधान विशुद्ध रूप से ईंधन दक्षता और जीपीएस आधारित होना चाहिये; ऊर्जा क्षेत्र में ऊर्जा उत्पादन हेतु प्रयुक्त ईंधन पर कर लगाना; अपशिष्ट उत्पादन और प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग। ‌पर्यावरण-राजकोषीय सुधार: मद्रास स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स द्वारा अपने अध्ययन के अनुसार वस्तु और सेवा कर ढाॅंचे में पर्यावरणीय करों को शामिल करने की भी आवश्यकता है। निष्कर्ष प्रदूषण नियंत्रण और प्रबंधन के बारे में नागरिकों को संवेदनशील बनाने के लिये हरित करों को लागू करना एक निवारक उपाय होगा। अतः भारत के लिये पर्यावरणीय वित्तीय सुधारों को अपनाने का यह सही समय है।</s>
<s>[INST]बौद्ध धर्म ने तत्कालीन मानवीय समस्याओं के व्यावहारिक समाधान के साथ ही भारतीय कला व स्थापत्य को भी एक नई दिशा प्रदान की। विवेचना कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण- भूमिका बौद्ध धर्म का मानवीय समस्याओं के प्रति दृष्टिकोण बौद्ध धर्म का कला व स्थापत्य पर प्रभाव निष्कर्ष बौद्ध धर्म की स्थापना छठवीं शताब्दी में गौतम बुद्ध द्वारा की गयी थी। छठवीं शताब्दी ईसा पूर्व के सामाजिक,आर्थिक तथा धार्मिक पृष्ठभूमि में बौद्ध धर्म का उदय हुआ। इन परिस्थितियों ने समाज में नवीन विचारों तथा संकल्पनाओं के उदय में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। बौद्ध धर्म का मानवीय समस्याओं के प्रति दृष्टिकोण- समाज में उपस्थित असमानता को दूर करने हेतु बौद्ध धर्म में अपरिग्रह अर्थात् धन संचय न करने का उपदेश दिया गया। घृणा, क्रूरता, हिंसा व दरिद्रता का कारण है। अतः मनुष्यों को परस्पर सहयोग व समन्वय पर विश्वास करना चाहिये। किसानों को बीज और अन्य सुविधाएँ, व्यापारियों को धन व श्रमिकों के लिये मज़दूरी जैसे समाधान प्रस्तुत किये गए। इन उपायों की अनुशंसा सांसारिक दरिद्रता को दूर करने के लिये की गई। बौद्धिक और साहित्यिक जगत को तर्क आधारित गुण-दोष विवेचना की हेतु प्रेरित किया गया ताकि अंधविश्वास को कम किया जा सके। बौद्ध धर्म ने स्त्रियों व शूद्रों के लिये संघ के द्वार खोलकर समाज पर गहरा प्रभाव डाला। ऐसे में उपदेशात्मक प्रवृत्ति से इतर यह कदम अधिक व्यावहारिक व प्रभावी था। बौद्ध धर्म का कला व स्थापत्य कला पर प्रभाव- बौद्ध धर्म के फलस्वरूप स्तूपों, चैत्यों तथा विहारों का निर्माण हुआ। उदाहरण- सांची, भरहुत, सारनाथ का स्तूप। अजंता, एलोरा के साथ-साथ गांधार मथुरा व अमरावती शैली पर भी इस धर्म का प्रभाव देखा जा सकता है। पालि भाषा में साहित्य लिखकर इसे समृद्ध किया गया। निष्कर्ष के रूप में कह सकते हैं की बौद्ध धर्म ने तत्कालीन मानवीय समस्याओं के व्यावहारिक समाधान के साथ ही भारतीय कला व स्थापत्य को भी एक नई दिशा प्रदान की।</s>
<s>[INST]महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत के भूवैज्ञानिक और पुरापाषाणकालीन साक्ष्यों की व्याख्या कीजिये।[/INST]उत्तर : दृष्टिकोण महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत पर संक्षेप में चर्चा करके उत्तर की शुरुआत कीजिये। महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत के विभिन्न प्रमाणों की चर्चा कीजिये। उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये। परिचय महाद्वीपीय विस्थापन का सिद्धांत जर्मन वैज्ञानिक अल्फ्रेड वेगनर द्वारा दिया गया था। इसके अनुसार पूर्व में सभी महाद्वीप एक बड़े भूखंड से जुड़े हुए थे। यह भूखंड एक बड़े महासागर से घिरा हुआ था। इस बड़े महाद्वीप को पैंजिया और बड़े महासागर को पैंथालसा नाम दिया गया। 20 करोड़ वर्षों पहले पैंजिया विभाजित होकर लारेशिया और गोंडवाना लैंड नामक दो बड़े भूखंडों में विभक्त हुआ, और बाद में ये खंड विभक्त होकर आज के महाद्वीपों के रूप में परिवर्तित हो गए। महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत के साक्ष्य: तटरेखाओं के आकार में समानताएँ: वेगनर के अनुसार अंध महासागर के दोनों तटों पर भौगोलिक एकरूपता पाई जाती है। वेगनर ने इसे ‘साम्य की स्थापना’ (zigsaw-Fit) का नाम दिया। भूगर्भिक प्रमाणों के आधार पर अंध महासागर के दोनों तटों के कैलिडोनियन तथा हर्सीनियन पर्वत क्रमों में समानता पाई जाती है। महासागर के दोनों तटों पर चट्टानों में पाए जाने वाले जीवावशेषों तथा वनस्पतियों के अवशेषों में भी पर्याप्त समानता पाई जाती है। समान ऑरोजेनिक बेल्ट: यदि दक्षिण अमेरिका के पूर्वी तट और अफ्रीका के पश्चिमी तट को एक साथ फिट किया जाता है तो यहाँ दो महाद्वीपों के एक से ऑरोजेनिक बेल्ट मिलते हैं जिनकी आयु समान और संरचनात्मक प्रवृत्ति भी समान होती है। उदाहरण के लिये घाना में अकरा (पश्चिम अफ्रीका) के पास 2000 मिलियन वर्ष पुरानी चट्टानों और आज की नवीन (लगभग 400 मिलियन वर्ष पुरानी) चट्टानों के बीच एक स्पष्ट सीमा है। परमो-कार्बोनिफेरस हिमनद: यदि आज उपस्थित भूखंड हमेशा से ही उष्णकटिबंधीय अक्षांश में होते तो इसका मतलब यह होता कि हिमनद ध्रुवीय क्षेत्रों से भूमध्य रेखा तक फैले हुए हैं। यह विचार स्पष्ट रूप से गलत है। इस पहेली की एकमात्र व्याख्या यह है कि इन सभी महाद्वीपों को एक साथ मिलाकर एक ही भूभाग बनाया गया था। महासागरों के पार चट्टानों की आयु में समानता- 200 करोड़ वर्ष प्राचीन शैल समूहों की एक पट्टी ब्राज़ील तट और पश्चिमी अफ्रीका के तट पर मिलती है, जो आपस में मेल खाती है। भारत में पाए जाने वाले गोंडवाना श्रेणी के तलछटों के प्रतिरूप दक्षिणी गोलार्द्ध के छः विभिन्न स्थलखण्डों में मिलते हैं। इसी क्रम के प्रतिरूप अफ्रीका, फॉकलैंड द्वीप, मैडागास्कर, अंटार्कटिक और ऑस्ट्रेलिया में मिलते हैं। घाना तट पर सोने के बड़े निक्षेप तथा ब्राज़ील में भी सोनायुक्त शिराओं का पाया जाना आश्चर्यजनक तथ्य है। जीवाश्मों का वितरण- मेसोसारस नामक छोटे रेंगने वाले जीव केवल उथले खारे पानी में रह सकते थे। इनकी अस्थियाँ केवल दक्षिण अफ्रीका के दक्षिणी केप प्रांत और ब्राज़ील में इरावर शैल समूह में ही मिलती हैं। ये दोनों स्थान आज एक दूसरे से 4800 किमी दूर हैं। निष्कर्ष यदि समुद्र तल के प्रसार के प्रमाण और प्लेट विवर्तनिकी के प्रमाणों को तर्क में जोड़ दिया जाए तो महाद्वीपीय विस्थापन को एक स्थापित यथार्थ माना जा सकता है।</s>
<s>[INST]19वीं शताब्दी के लगभग मध्य से लेकर भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति तक अंग्रेजी शासन के विरूद्ध हुए अनेक प्रतिरोधों में 'नील विद्रोह' सर्वाधिक संगठित और जुझारू था जिसने न केवल किसानों की ब्रिटिश शासन के विरुद्ध प्रतिरोध की एक मिसाल कायम की बल्कि कुछ अर्थों में सफलता भी प्राप्त की। चर्चा करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण- भूमिका नील आंदोलन का कारण महत्त्व निष्कर्ष 19वीं शताब्दी के लगभग मध्य से लेकर भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति तक अंग्रेजी शासन के विरूद्ध अनेक किसान आंदोलन हुए जैसे -नील आंदोलन, पाबना आंदोलन, दक्कन विद्रोह, किसान सभा आंदोलन, एका आंदोलन, मोपला विद्रोह, बारदोली सत्याग्रह, तेभाग आंदोलन, तेलंगाना आंदोलन आदि। इतिहासकारों के अनुसार वर्ष 1859-60 में बंगाल में हुआ ‘नील-विद्रोह’ किसानों का अंग्रेजी शासन के विरूद्ध पहला संगठित व सर्वाधिक जुझारू विद्रोह था। यूरोपीय बाजारों में ‘नील’ की बढ़ती मांग की पूर्ति के लिये बंगाल के किसानों से नील उत्पादक जबरन यह अलाभकारी खेती करवा रहे थे। वे किसानों की निरक्षरता का लाभ उठाकर उनसे थोड़े से पैसों में करार कर चावल की खेती लायक जमीन पर नील की खेती करवाते थे। यदि किसान करार के पैसे वापिस कर शोषण से मुक्ति पाने का प्रयास करते तो नील उत्पादक उनको अपहरण, अवैध बेदखली, लाठियों से पीटकर, उनकी महिलाओं एवं बच्चों को पीटकर, पशुओं को जब्त करने जैसे क्रूर हथकंडे अपनाकर उन्हें नील की खेती करने के लिये मजबूर करते थे। उपरोक्त परिस्थितियों में वर्ष 1859 के मध्य में एक नाटकीय घटना हुई। एक सरकारी आदेश को समझने में भूल कर कलारोव के डिप्टी मैजिस्ट्रेट ने पुलिस विभाग को यह सुनिश्चित करने का आदेश दिया कि किसान अपनी इच्छानुसार भूमि पर उत्पादन कर सकें। फिर तो, शीघ्र ही किसानों ने जबरन नील-उत्पादन कराये जाने के विरूद्ध अर्जिया देनी शुरू कर दी। जब अर्जियों पर कार्रवाई नहीं हुई तो नादिया जिले के गोविंदपुर गाँव के किसानों ने दिगम्बर विश्वास एवं विष्णु विश्वास के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया। जब सरकार ने आंदोलन को दबाने के लिये बल का प्रयोग किया तो किसान उग्र हो गये । गोविंदपुर के किसानों से प्रेरित हो आसपास के क्षेत्र के किसानों ने भी नील की खेती करना व जमींदारों को लगान देना बंद कर दिया। जब नील उत्पादकों ने किसानों के खिलाफ मुकदमें दायर किये तो किसानों ने उत्पादकों की सेवा में लगे लोगों का सामाजिक बहिष्कार प्रारम्भ कर दिया। बंगाल के बुद्धिजीवियों ने भी किसान आंदोलन के समर्थन में समाचार-पत्रों में लेख लिखे, जनसभाएँ की एवं सरकार को ज्ञापन सौंपे। दीनबंधु मित्र ने ‘नीलदर्पण’ में गरीब नील-किसानों की दयनीय स्थिति का मार्मिक प्रस्तुतीकरण किया। स्थिति की गंभीरता समझकर सरकार ने नील उत्पादन की समस्याओं पर सुझाव देने के लिये ‘नील आयोग’ का गठन किया। इस आयोग की अनुशंसाओं के आधार पर सरकार ने अधिसूचना द्वारा किसानों को आश्वासन दिया कि उन्हें नील उत्पादन के लिये विवश नहीं किया जाएगा। नील उत्पादकों ने भी परिस्थितियों को विपरीत देख बंगाल से अपने कारखाने बंद करने शुरू कर दिये तथा 1860 तक ‘नील विद्रोह’ सफलता के साथ समाप्त हो गया। उपरोक्त विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि नील विद्रोह ने निश्चित तौर पर प्रतिरोध की एक मिसाल कायम की जिसने बाद के किसान आंदोलनों को निश्चित तौर पर प्रेरित किया ।</s>
<s>[INST]मारुति उत्तर प्रदेश के राजस्व विभाग में डिप्टी सेक्रेटरी के पद पर कार्यरत है। वह विभिन्न प्रयोजनों के लिये सरकारी भूमि के अनुदान का कार्य करती है। चूँकि भूमि बहुत दुर्लभ और बहुत महंगी हो गई है अतः ऐसे अनुदानों को सावधानी से देना होगा। सरकार ने सार्वजनिक उद्देश्यों के लिये अपनी भूमि के अनुदान हेतु एक नीति तैयार की है।[/INST]उत्तर : उपरोक्त स्थिति के संदर्भ में कार्रवाई हेतु मारुति निम्नलिखित विकल्पों के बारे में सोच सकती है। मारुति को प्रस्ताव का डटकर विरोध करना चाहिये और अगर सरकार इसे मंज़ूरी दे भी देती है तो उसे आदेश जारी नहीं करना चाहिये। यह विकल्प एक अनावश्यक प्रतिक्रिया का प्रतिनिधित्व करेगा। यदि मारुति का मानना है कि भूमि का अनुदान नहीं दिया जा सकता है तो उसे तथ्यात्मक, कानूनी और नीतिगत आयामों को रेखांकित करने वाली फाइल पर अपने विचार स्पष्ट रूप से दर्ज करने चाहिये। इसके बाद सरकार जो भी आदेश पारित करने का निर्णय लेती है उसे वह लागू करना चाहिये। उसे स्पष्ट रूप से बताना चाहिये कि सांस्कृतिक केंद्र वर्तमान नीति के तहत भूमि के लिये पात्र नहीं है और प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया जाना चाहिये। यह विकल्प उचित कार्रवाई को प्रदर्शित करता है। सचिवालय में सिविल सेवकों की भूमिका सरकार को सलाह देने की होती है। दूसरे शब्दों में उसे प्रस्तावों का अध्ययन करना चाहिये और उन कार्यों के पाठ्यक्रम की सिफारिश करनी चाहिये जिन्हें तथ्यात्मक, कानूनी एवं स्वामित्व के आधार पर उचित ठहराया जा सकता है तथा जो स्वीकृत नीति ढाँचे के अंतर्गत हैं। एक बार जब अधिकारी इस कार्य को पूरा कर लेते हैं तो वे अपने कर्त्तव्य का पर्याप्त रूप से निर्वहन करते हैं। इसके बाद उन्हें सरकार के निर्णयों का पालन करना होता है तथा इसके पश्चात वे सरकार के किसी भी अवैध या अनुचित कार्यों के लिये जवाबदेह नहीं होंगे। चूँकि प्रस्ताव निचले स्तर से आया है और मारुति वहाँ एकमात्र पर्यवेक्षी अधिकारी है अतः वह प्रस्ताव पर हस्ताक्षर कर सकती है। यह विकल्प अस्वीकार्य है। किसी फ़ाइल में किसी प्रस्ताव पर हस्ताक्षर करने का अर्थ है कि अधिकारी उसे स्वीकार कर लेता है। वह इस निर्णय के लिये ज़िम्मेदार भी हो जाता है। यदि निर्णय पर बाद में सवाल उठाया जाता है तो यह दावा करना कि उसे गुमराह किया गया था, एकमात्र बचाव होगा। लेकिन यह तभी संभव है जब पहले के विश्लेषण में गलत बयान दिया गया हो या उन भौतिक तथ्यों का उल्लेख न किया गया हो जिनका निर्णय पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। हालाँकि यह बचाव भी कभी-कभार काम करता है क्योंकि अधिकारियों से यह अपेक्षा होती है कि उन्हें प्रासंगिक कानूनों और नीतियों के बारे में पता होना चाहिये। उसे फाइल पर प्रश्न (प्रश्न और संदेह) उठाना चाहिये और साथ ही इस मामले के बारे में लोकायुक्त को आरटीआई आवेदन करना चाहिये। यह विकल्प हानिकर है। जब फाइलों पर प्रश्न उठाए जाते हैं तो वे फिर से निचले स्तर पर चले जाते हैं और पुनः निचले स्तर से प्रश्नों के उत्तर के साथ वापस भेजे जाते हैं। इससे निर्णय लेने में देरी होती है जिससे संपूर्ण सरकारी तंत्र अवरुद्ध होता है है। किसी प्रस्ताव का विश्लेषण करने में छूटे हुए मामलों के बारे में वास्तविक प्रश्न उठाए जा सकते हैं लेकिन मामलों को जानबूझकर विलंबित करने का कोई प्रयास नहीं किया जाना चाहिये। आम नागरिकों के लिये सूचना का अधिकार और अन्य प्रावधान बनाए गए हैं किंतु अधिकारियों द्वारा इन प्रावधानों का दुरुपयोग नहीं किया जाना चाहिये। निष्कर्ष निष्पक्षता और ईमानदारी सुशासन के मूल सिद्धांत हैं। इसे देखते हुए दूसरे विकल्प का अनुसरण करना मारुति के लिये उपयुक्त होगा।</s>
<s>[INST]पृथ्वी की आंतरिक संरचना की चर्चा कीजिये और उपयुक्त आरेखों के साथ S एवं P-तरंगों के छाया क्षेत्रों पर टिप्पणी कीजिये।[/INST]प्रश्न का उत्तर जल्द ही प्रकाशित होगा।</s>
<s>[INST]भारत में मुगल साम्राज्य के पतन के कारणों की संक्षेप में चर्चा कीजिये।[/INST]उत्तर : दृष्टिकोण उत्तर की शुरुआत मुगल साम्राज्य के आरंभ और पतन की संक्षेप में चर्चा करके कीजिये। मुगलों के पतन के प्रमुख कारणों की विवेचना कीजिये। उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये। परिचय वर्ष 1526 में बाबर के सिंहासन पर बैठने के साथ शुरू हुआ महान मुगलों का शासन वर्ष 1707 में औरंगजेब की मृत्यु के साथ समाप्त हुआ। औरंगजेब की मृत्यु ने भारतीय इतिहास में एक युग के अंत को चिह्नित किया। जब औरंगजेब की मृत्यु हुई तब भारत में मुगलों का साम्राज्य सबसे बड़ा था लेकिन फिर भी उसकी मृत्यु के लगभग पचास वर्षों के भीतर ही मुगल साम्राज्य का विघटन हो गया। मुगलों के पतन के कुछ प्रमुख कारण इस प्रकार थे: मुगलों की सरकार एक व्यक्तिगत निरंकुशता से प्रेरित थी और इसलिये इसकी सफलता शासकों के चरित्र पर निर्भर करती थी। बाद के मुगल शासक अयोग्य थे और राज्य के प्रशासन की उपेक्षा करते थे। उत्तराधिकार के एक निश्चित नियम के अभाव में मुगल शासन में उत्तराधिकार का युद्ध हमेशा ही चलता रहता था; इसने सरकार के स्थायित्व को कमज़ोर कर दिया और देशभक्ति की कीमत पर पक्षपात को बढ़ावा दिया। शासकों के पतन के कारण कुलीन वर्ग का पतन हुआ जिसमें गुटबाजी और साज़िशों के कारण साम्राज्य को भारी कीमत चुकानी पड़ी। सेना का पतन भी साम्राज्य के लिये विनाशकारी सिद्ध हुआ। कमज़ोर शासकों और विशेषकर परिवहन एवं संचार की मौजूदा परिस्थितियों के कारण एक केंद्रीय प्राधिकरण के माध्यम से कुशलतापूर्वक शासित होने के संदर्भ में साम्राज्य बहुत विशाल और बोझिल हो गया था। औरंगजेब की धार्मिक नीति भी मुगलों के पतन हेतु काफी हद तक उत्तरदाई थी जिसके कारण राजपूतों, सिखों, जाटों और मराठों ने विद्रोह किया। औरंगजेब की दक्कन नीति पूरी तरह विफल रही और मुगल साम्राज्य के पतन का एक महत्त्वपूर्ण कारण थी। ईरानी राज्यों के आक्रमणों ने मुगल साम्राज्य को अत्यंत कमज़ोर कर दिया। निष्कर्ष मराठों को छोड़कर कोई भी भारतीय शक्ति ऐसी नहीं थी जो मुगल साम्राज्य के पतन से उत्पन्न शक्ति शून्य को भर सके। हालाँकि पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठों की हार ने उन्हें भारत में सर्वोपरि शक्ति नहीं बनने दिया। इसने अंग्रेज़ों के लिये भारत में एक साम्राज्य स्थापित करने का मार्ग प्रशस्त किया।</s>
<s>[INST]असहयोग आन्दोलन किस प्रकार सविनय अवज्ञा आन्दोलन से भिन्न था? चर्चा कीजिये।[/INST]प्रश्न का उत्तर जल्द ही प्रकाशित होगा।</s>
<s>[INST]जवाहरलाल नेहरू की नीतियों ने किस प्रकार राष्ट्र-निर्माण और स्वतंत्रता के बाद भारत के एकीकरण में मदद की? विवेचना कीजिये।[/INST]उत्तर : दृष्टिकोण उत्तर की शुरुआत नव स्वतंत्र भारत के सामने आने वाली चुनौतियों को संक्षेप में बताते हुए कीजिये। स्वतंत्रता के बाद के सुदृढ़ीकरण और राष्ट्र निर्माण में नेहरू की भूमिका पर चर्चा कीजिये। उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये। परिचय वर्ष 1947 में भारत को स्वतंत्रता तो मिली लेकिन एक राष्ट्र के रूप में इसे बहुत कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। उदाहरण के लिये स्वतंत्रता देश के विभाजन और सांप्रदायिक हिंसा के साथ आई। पूरा देश गरीबी, अशिक्षा और विकास की कमी के बोझ तले दब गया था। विदेश नीति के मोर्चे पर, भू-राजनीति शीत युद्ध की शुरुआत देख रही थी। इस परिदृश्य में, जवाहरलाल नेहरू स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री बने और कई सुधारों एवं नीतियों की शुरुआत की जिन्होंने राष्ट्र निर्माण तथा स्वतंत्रता के बाद भारत के एकीकरण में मदद की। राष्ट्र का एकीकरण: नेहरू ने लोगों की क्षेत्रीय आकांक्षाओं को पूरा करने के लिये राज्य पुनर्गठन समिति की स्थापना की ताकि उनके राष्ट्र से अलग होने की संभावना कम हो जाए। शरणार्थियों का पुनर्वास: पाकिस्तान के शरणार्थियों को आश्रय दिया गया और सांप्रदायिकता को कम करने के प्रयास किये गए। धर्मनिरपेक्षता: विशेष रूप से नेहरू के प्रयासों के कारण ही भारत बीसवीं शताब्दी के मध्य में एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के रूप में उभरा। स्वतंत्रता से बहुत पहले, उन्होंने भारतीय राजनीति के लिये एक धर्मनिरपेक्ष आधार के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इससे 'अनेकता में एकता' के आख्यान के निर्माण में मदद मिली। कल्याणकारी राज्य: नेहरू एक व्यावहारिक आदर्शवादी थे और उनका मानना था कि समाजवाद तथा लोकतंत्र परस्पर विरोधी नहीं बल्कि एक दूसरे के पूरक हैं। वह धन के समान वितरण के लिये एक कल्याणकारी राज्य का निर्माण करना चाहते थे। योजना आयोग: एक व्यावहारिक समाजवादी के रूप में जवाहरलाल नेहरू ने एक ऐसे देश में कल्याणकारी राज्य के महत्त्व को समझा, जिसके पास पर्याप्त बुनियादी ढाँचा उपलब्ध नहीं था और सामाजिक कल्याण हेतु दीर्घकालिक योजना के लिये एक योजना आयोग की स्थापना की। गुटनिरपेक्ष नीति (NAM): विदेश मंत्री होने के नाते, नेहरू किसी भी शक्ति गुट में शामिल नहीं होना चाहते थे। साथ ही वह नहीं चाहते थे कि भारत विश्व राजनीति से अलग रहे। इसलिये अन्य तीसरी दुनिया के देशों के साथ NAM स्थापित करने का नेहरू का दूरदर्शी दृष्टिकोण एक आदर्श विदेश नीति दृष्टिकोण साबित हुआ। निष्कर्ष कठिन चुनौतियों का सामना करने के बावजूद नेहरू राष्ट्र को मज़बूत बनाए रखने में सफल रहे। उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन की परंपराओं को आगे बढ़ाते हुए नवजात राष्ट्र भारत का पोषण किया। यही कारण है कि उन्हें व्यापक रूप से आधुनिक भारत के वास्तुकारों में से एक के रूप में प्रशंसित किया जाता है।</s>
<s>[INST]नमामि गंगे परियोजना, गंगा नदी को साफ करने हेतु सही दिशा में उठाया गया एक कदम है। भारत की अन्य नदियों में प्रदूषण से निपटने के लिये भी इसका अनुकरण किया जाना चाहिये। टिप्पणी कीजिये[/INST]उत्तर : दृष्टिकोण नमामि गंगे परियोजना के शुभारंभ के संदर्भ का उल्लेख करते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये । नमामि गंगे परियोजना द्वारा निभाई गई भूमिका का उल्लेख कीजिये। उपयुक्त निष्कर्ष लिखिये । परिचय समय के साथ, जनसंख्या में वृद्धि, अनियमित औद्योगीकरण और अस्थिर कृषि पद्धतियों के साथ, गंगा नदी और उसकी सहायक नदियों में प्रदूषकों में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। गंगा नदी में प्रदूषण को कम करने की खोज में, भारत सरकार ने नमामि गंगे नामक प्रमुख कार्यक्रम शुरू किया है। कार्यक्रम में सार्वजनिक नीति, प्रौद्योगिकी हस्तक्षेप और सामुदायिक भागीदारी के लिए एक समग्र दृष्टिकोण की परिकल्पना की गई है। नमामि गंगे परियोजना द्वारा निभाई गई भूमिका सहकारी संघवाद: नमामि गंगे योजना को राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन द्वारा,राज्य कार्यक्रम प्रबंधन समूहों (एसपीएमजी) के साथ कार्यान्वित किया जाता है। मुख्य स्तंभ: नमामि गंगे के मुख्य स्तंभों को निम्नलिखित के रूप में दर्शाया जा सकता है: सीवरेज ट्रीटमेंट इंफ्रास्ट्रक्चर एंड इंडस्ट्रियल एफ्लुएंट मॉनिटरिंग। नदी के किनारे के साथ-साथ नदी की सतह की सफाई का विकास। जैव-विविधता और वनीकरण। जन जागरण। सार्वजनिक नीति: वर्ष 2016 में सरकार ने राष्ट्रीय गंगा स्वच्छ मिशन (एनएमसीजी) को पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 के तहत प्रदत्त अधिकारों का प्रयोग करने के लिये अधिकृत करते हुए अधिसूचना जारी की। एनएमसीजी ने नदी तटों पर खनन गतिविधियों को नियंत्रित करने, अतिक्रमण को रोकने और मूर्तियों के विसर्जन जैसी गतिविधियों को विनियमित करने के निर्देश भी जारी किये। प्रौद्योगिकी का प्रयोग: एनएमसीजी ने उपग्रह इमेज़री, रिमोट सेंसिंग और भू-स्थानिक समाधान जैसी अत्याधुनिक तकनीकों को अपनाया है, जिससे वास्तविक समय में गंगा और उसकी सहायक नदियों में प्रदूषकों की निगरानी की जा सकती है। सीवेज उपचार हेतु नए बुनियादी ढाॅंचे को डिजाइन करने के लिये वैज्ञानिकों ने पूर्वानुमानित मॉडल तैयार किये हैं। सामुदायिक भागीदारी: गंगा नदी की सफाई हेतु सामुदायिक भागीदारी को प्रोत्साहित करने के लिये गंगा तट पर बसे शहरों, गाॅंवों एवं कस्बों में "गंगा प्रहरी" नामक नव-स्थापित समुदाय समूह के माध्यम से जागरुकता अभियान नियमित रूप से चलाया जा जा रहा है। उनके माध्यम से, सरकार "जल चेतना" को "जन चेतना" एवं पुनः इसे "जल आंदोलन" में बदल सकती है। निष्कर्ष भारत का संविधान, केंद्र और राज्य सरकारों को इसके नागरिकों के लिये स्वच्छ तथा स्वस्थ वातावरण एवं स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराने का प्रावधान करता है। (अनुच्छेद 48A, अनुच्छेद 51 (A) (g), अनुच्छेद 21)। साथ ही, सर्वोच्च न्यायालय ने घोषणा की है कि स्वस्थ और स्वच्छ पर्यावरण का अधिकार एक मौलिक अधिकार है।</s>
<s>[INST]बी.आर. अंबेडकर द्वारा निभाई गई भूमिका ने राष्ट्र निर्माण में मदद की है और वर्तमान भारतीय सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था पर भी इसका प्रभाव जारी है। चर्चा कीजिये।[/INST]प्रश्न का उत्तर जल्द ही प्रकाशित होगा।</s>
<s>[INST]"संसद की निष्क्रियता भारत में लोकतंत्र को मृत बनाती है।” इसे अपने संवैधानिक जनादेश को पूरा करने के लिये संसद के कामकाज में गिरावट को रोकने की आवश्यकता है। चर्चा कीजिये।[/INST]प्रश्न का उत्तर जल्द ही प्रकाशित होगा।</s>