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कक्षा-11 एनसीईआरटी के विषय पर बेहतरीन पद | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/tags/class-11-ncert-11/pad | [
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"जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।",
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कक्षा-11 एनसीईआरटी के विषय पर बेहतरीन निबंध | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/tags/class-11-ncert-11/essay | [
"अक्सर जब मैं एक जलसे से दूसरे जलसे में जाता होता, और इस तरह चक्कर काटता रहता होता था, तो इन जलसों में मैं अपने सुनने वालों से अपने इस हिंदुस्तान या भारत की चर्चा करता। भारत एक संस्कृत शब्द है और इस जाति के परंपरागत संस्थापक के नाम से निकला हुआ है। मैं",
"माई लार्ड! अंत को आपके शासन-काल का इस देश में अंत हो गया। अब आप इस देश से अलग होते हैं। इस संसार में सब बातों का अंत है। इससे आपके शासन-काल का भी अंत होता, चाहे आपकी एक बार की कल्पना के अनुसार आप यहाँ के चिरस्थायी वायसराय भी हो जाते। किंतु इतनी जल्दी",
"आज बड़े आनंद का दिन है कि छोटे से नगर बलिया में हम इतने मनुष्यों को एक बड़े उत्साह से एक स्थान पर देखते हैं। इस अभागे आलसी देश में जो कुछ हो जाए, वही बहुत है। बनारस ऐसे-ऐसे बड़े नगरों में जब कुछ नहीं होता तो हम यह न कहेंगे कि बलिया में जो कुछ हमने",
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कक्षा-11 एनसीईआरटी के विषय पर बेहतरीन आत्मकथ्य | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/tags/class-11-ncert-11/autobiography | [
"मैं अब अपने किराए के घर में थी। सब समय सोचती रहती कि काम न मिला तो बच्चों को क्या खिलाऊँगी, कैसे उन्हें पालूँगी-पोसूँगी! मैं स्वयं एक घर से दूसरे घर काम खोजने जाती और दूसरों से भी काम जुटाने के लिए कहती। मुझे यह चिंता भी थी कि महीना ख़त्म होने पर घर का",
"बड़ौदा का बोर्डिंग स्कूल\r\n\r\nमक़बूल अब लड़का नहीं रहा क्योंकि उसके दादा चल बसे। लड़के के अब्बा ने सोचा क्यों न उसे बड़ौदा के बोर्डिंग स्कूल में दाख़िल करा दिया जाए, वरना दिनभर अपने दादा के कमरे में बंद रहता है। सोता भी है तो दादा के बिस्तर-पर और वही भूरी",
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कक्षा-11 एनसीईआरटी के विषय पर बेहतरीन जीवनी | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/tags/class-11-ncert-11/biographies | [
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कक्षा-11 एनसीईआरटी के विषय पर बेहतरीन लेख | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/tags/class-11-ncert-11/article | [
"बरसों पहले की बात है। मैं बीमार था। उस बीमारी में एक दिन मैंने सहज ही रेडियो लगाया और अचानक एक अद्वितीय स्वर मेरे कानों में पड़ा। स्वर सुनते ही मैंने अनुभव किया कि यह स्वर कुछ विशेष है, रोज़ का नहीं। यह स्वर सीधे मेरे कलेजे से जा भिड़ा। मैं तो हैरान",
"पसीने में तरबतर चेलवांजी कुंई के भीतर काम कर रहे हैं। कोई तीस-पैंतीस हाथ गहरी खुदाई हो चुकी है। अब भीतर गर्मी बढ़ती ही जाएगी। कुंई का व्यास, घेरा बहुत ही संकरा है। उखरूँ बैठे चेलवांजी की पीठ और छाती से एक-एक हाथ की दूरी पर मिट्टी है। इतनी संकरी",
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कक्षा-11 एनसीईआरटी के विषय पर बेहतरीन गीत | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/tags/class-11-ncert-11/geet | [
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कक्षा-11 एनसीईआरटी के विषय पर बेहतरीन संस्मरण | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/tags/class-11-ncert-11/sansmaran | [
"पथेर पाँचाली फ़िल्म की शूटिंग का काम ढाई साल तक चला था! इस ढाई साल के कालखंड में हर रोज़ तो शूटिंग होती नहीं थी। मैं तब एक विज्ञापन कंपनी में नौकरी करता था। नौकरी के काम से जब फ़ुर्सत मिलती थी, तब शूटिंग करता था। मेरे पास उस समय पर्याप्त पैसे भी नहीं थे।",
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कक्षा-11 एनसीईआरटी के विषय पर बेहतरीन अनुवाद | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/tags/class-11-ncert-11/anuwad | [
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कक्षा-11 एनसीईआरटी के विषय पर बेहतरीन नाटक | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/tags/class-11-ncert-11/Play | [
"(मध्यवर्गीय परिवार के फ़्लैट का एक कमरा। एक महिला रसोई में व्यस्त है। घंटी बजती है। बाई दरवाज़ा खोलती है। रजनी का प्रवेश।)\r\n\r\nरजनी : लीला बेन कहाँ हो...बाज़ार नहीं चलना क्या?\r\n\r\nलीला : (रसोई में से हाथ पोंछती हुई निकलती है) चलना तो था पर इस समय तो अमित",
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कक्षा-11 एनसीईआरटी के विषय पर बेहतरीन व्यंग्य | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/tags/class-11-ncert-11/satire | [
"वह पहले चौराहों पर बिजली के टार्च बेचा करता था। बीच में कुछ दिन वह नहीं दिखा। कल फिर दिखा। मगर इस बार उसने दाढ़ी बढ़ा ली थी और लंबा कुर्ता पहन रखा था।\r\n\r\nमैंने पूछा, \"कहाँ रहे? और यह दाढ़ी क्यों बढ़ा रखी है?\"\r\n\r\nउसने जवाब दिया, \"बाहर गया था।\" \r\n\r\nदाढ़ीवाले",
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कक्षा-11 एनसीईआरटी के विषय पर बेहतरीन कवित्त | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/tags/class-11-ncert-11/kavitt | [
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कक्षा-11 एनसीईआरटी के विषय पर बेहतरीन ग़ज़ल | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/tags/class-11-ncert-11/ghazals | [
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घर की याद - कविता | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kavita/class-11-ncert-11/ghar-ki-yaad-bhawaniprasad-mishra-kavita?sort= | [
"आज पानी गिर रहा है,",
"बहुत पानी गिर रहा है,",
"रात-भर गिरता रहा है,",
"प्राण मन घिरता रहा है,",
"अब सवेरा हो गया है,",
"कब सवेरा हो गया है,",
"ठीक से मैंने न जाना,",
"बहुत सोकर सिर्फ़ माना—",
"क्योंकि बादल की अँधेरी,",
"है अभी तक भी घनेरी,",
"अभी तक चुपचाप है सब,",
"रातवाली छाप है सब,",
"गिर रहा पानी झरा-झर,",
"हिल रहे पत्ते हरा-हर,",
"बह रही है हवा सर-सर,",
"काँपते हैं प्राण थर-थर,",
"बहुत पानी गिर रहा है,",
"घर नज़र में तिर रहा है,",
"घर कि मुझसे दूर है जो,",
"घर ख़ुशी का पूर है जो,",
"घर कि घर में चार भाई,",
"मायके में बहिन आई,",
"बहिन आई बाप के घर,",
"हायर रे परिताप के घर!",
"आज का दिन दिन नहीं है,",
"क्योंकि इसका छिन नहीं है,",
"एक छिन सौ बरस है रे,",
"हाय कैसा तरस है रे,",
"घर कि घर में सब जुड़े हैं,",
"सब कि इतने तब जुड़े हैं,",
"चार भाई चार बहिनें,",
"भुजा भाई प्यार बहिनें,",
"और माँ बिन-पढ़ी मेरी,",
"दुःख में वह गढ़ी मेरी,",
"माँ कि जिसकी गोद में सिर,",
"रख लिया तो दुख नहीं फिर,",
"माँ कि जिसकी स्नेह-धारा",
"का यहाँ तक भी पसारा,",
"उसे लिखना नहीं आता,",
"जो कि उसका पत्र पाता।",
"और पानी गिर रहा है,",
"घर चतुर्दिक् घिर रहा है,",
"पिताजी भोले बहादुर,",
"वज्र-भुज नवनीत-सा उर,",
"पिताजी जिनको बुढ़ापा,",
"एक क्षण भी नहीं व्यापा,",
"जो अभी दौड़ जाएँ,",
"जो अभी भी खिल-खिलाएँ,",
"मौत के आगे न हिचकें,",
"शेर के आगे न बिचकें,",
"बोल में बादल गरजता,",
"काम में झंझा लरजता,",
"आज गीता पाठ करके,",
"दंड दो सौ साठ करके,",
"ख़ूब मुगदर हिला लेकर,",
"मूठ उनकी मिला लेकर,",
"जब कि नीचे आए होंगे",
"नैन जल से छाए होंगे,",
"हाय, पानी गिर रहा है,",
"घर नज़र में तिर रहा है,",
"चार भाई चार बहिनें,",
"भुजा भाई प्यार बहिनें,",
"खेलते या खड़े होंगे,",
"नज़र उनकी पड़े होंगे।",
"पिताजी जिनको बुढ़ापा,",
"एक क्षण भी नहीं व्यापा,",
"रो पड़े होंगे बराबर,",
"पाँचवें का नाम लेकर,",
"पाँचवाँ मैं हूँ अभागा,",
"जिसे सोने पर सुहागा,",
"पिताजी कहते रहे हैं,",
"प्यार में बहते रहे हैं,",
"आज उनके स्वर्ण बेटे,",
"लगे होंगे उन्हें हेटे,",
"क्योंकि मैं उन पर सुहागा",
"बँधा बैठा हूँ अभागा,",
"और माँ ने कहा होगा,",
"दुःख कितना बहा होगा",
"आँख में किस लिए पानी,",
"वहाँ अच्छा है भवानी,",
"वह तुम्हारा मन समझ कर,",
"और अपनापन समझ कर,",
"गया है सो ठीक ही है,",
"यह तुम्हारी लीक ही है,",
"पाँव जो पीछे हटाता,",
"कोख को मेरी लजाता,",
"इस तरह होओ न कच्चे,",
"रो पड़ेगे और बच्चे,",
"पिताजी ने कहा होगा,",
"हाय कितना सहा होगा,",
"कहाँ, मैं रोता कहाँ हूँ,",
"धीर मैं खोता, कहाँ हूँ,",
"गिर रहा है आज पानी,",
"याद आता है भवानी,",
"उसे थी बरसात प्यारी,",
"रात-दिन की झड़ी झारी,",
"खुले सिर नंगे बदन वह,",
"घूमता फिरता मगन वह,",
"बड़े बाड़े में कि जाता,",
"बीज लौकी का लगाता,",
"तुझे बतलाता कि बेला",
"ने फलानी फूल झेला,",
"तू कि उसके साथ जाती,",
"आज इससे याद आती,",
"मैं न रोऊँगा,—कहा होगा,",
"और फिर पानी बहा होगा,",
"दृश्य उसके बाद का रे,",
"पाँचवे की याद का रे,",
"भाई पागल, बहिन पागल,",
"और अम्मा ठीक बादल,",
"और भौजी और सरला,,",
"सहज पानी, सहज तरला,",
"शर्म से रो भी न पाएँ,",
"ख़ूब भीतर छटपटाएँ,",
"आज ऐसा कुछ हुआ होगा,",
"आज सबका मन चुआ होगा।",
"अभी पानी थम गया है,",
"मन निहायत नम गया है,",
"एक-से बादल जमे हैं,",
"गगन-भर फैले रमे हैं,",
"ढेर है उनका, न फाँकें,",
"जो कि किरने झुकें-झाँकें,",
"लग रहे हैं वे मुझे यों,",
"माँ कि आँगन लीप दे ज्यों,",
"गगन-आँगन की लुनाई,",
"दिशा के मन से समाई,",
"दश-दिशा चुपचार है रे,",
"स्वस्थ की छाप है रे,",
"झाड़ आँखें बंद करके,",
"साँस सुस्थिर मंद करके,",
"हिले बिन चुपके खड़े हैं,",
"क्षितिज पर जैसे जड़े हैं,",
"एक पंछी बोलता है,",
"घाव उर के खोलता है,",
"आदमी के उर बिचारे,",
"किस लिए इतनी तृषा रे,",
"तू ज़रा-सा दुःख कितना,",
"सह सकेगा क्या कि इतना,",
"और इस पर बस नहीं है,",
"बस बिना कुछ रस नहीं है,",
"हवा आई उड़ चला तू,",
"लहर आई मुड़ चला तू,",
"लगा झटका टूट बैठा,",
"गिरा नीचे फूट बैठा,",
"तू कि प्रिय से दूर होकर,",
"बह चला रे पूर होकर",
"दुःख भर क्या पास तेरे,",
"अश्रु सिंचित हास तेरे!",
"पिताजी का वेश मुझको,",
"दे रहा है क्लेश मुझको,",
"देह एक पहाड़ जैसे,",
"मन कि बड़ का झाड़ जैसे",
"एक पत्ता टूट जाए,",
"बस कि धारा फूट जाए,",
"एक हल्की चोट लग ले,",
"दूध की नद्दी उमग ले,",
"एक टहनी कम न होले,",
"कम कहाँ कि ख़म न होले,",
"ध्यान कितना फ़िक्र कितनी,",
"डाल जितनी जड़ें उतनी!",
"इस तरह का हाल उनका,",
"इस तरह का ख़याल उनका,",
"हवा, उनको धीर देना,",
"यह नहीं जी चीर देना,",
"हे सजीले हरे सावन,",
"हे कि मेरे पुण्य पावन,",
"तुम बरस लो वे न बरसें,",
"पाँचवें को वे न तरसें,",
"मैं मज़े में हूँ सही है,",
"घर नहीं हूँ बस यही है,",
"किंतु यह बस बड़ा बस है,",
"इसी बस से सब विरस है,",
"किंतु उससे यह न कहना,",
"उन्हें देते धीर रहना,",
"उन्हें कहना लिख रहा हूँ,",
"मत करो कुछ शोक कहना,",
"और कहना मस्त हूँ मैं,",
"कातने में व्यस्त हूँ मैं,",
"वज़न सत्तर सेर मेरा,",
"और भोजन ढेर मेरा,",
"कूदता हूँ, खेलता हूँ,",
"दुःख डट कर ठेलता हूँ,",
"और कहना मस्त हूँ मैं,",
"यों न कहना अस्त हूँ मैं,",
"हाय रे, ऐसा न कहना,",
"है कि जो वैसा न कहना,",
"कह न देना जागता हूँ,",
"आदमी से भागता हूँ,",
"कह न देना मौन हूँ मैं,",
"ख़ुद न समझूँ कौन हूँ मैं,",
"देखना कुछ बक न देना,",
"उन्हें कोई शक न देना,",
"हे सजीले हरे सावन,",
"हे कि मेरे पुण्य पावन,",
"तुम बरस लो वे न बरसें,",
"पाँचवें को वे न तरसें।",
"aaj pani gir raha hai,",
"bahut pani gir raha hai,",
"raat bhar girta raha hai,",
"paran man ghirta raha hai,",
"ab sawera ho gaya hai,",
"kab sawera ho gaya hai,",
"theek se mainne na jana,",
"bahut sokar sirf mana—",
"kyonki badal ki andheri,",
"hai abhi tak bhi ghaneri,",
"abhi tak chupchap hai sab,",
"ratwali chhap hai sab,",
"gir raha pani jhara jhar,",
"hil rahe patte hara har,",
"bah rahi hai hawa sar sar,",
"kanpte hain paran thar thar,",
"bahut pani gir raha hai,",
"ghar nazar mein tir raha hai,",
"ghar ki mujhse door hai jo,",
"ghar khushi ka poor hai jo,",
"ghar ki ghar mein chaar bhai,",
"mayke mein bahin i,",
"bahin i bap ke ghar,",
"hayar re paritap ke ghar!",
"aj ka din din nahin hai,",
"kyonki iska chhin nahin hai,",
"ek chhin sau baras hai re,",
"hay kaisa taras hai re,",
"ghar ki ghar mein sab juDe hain,",
"sab ki itne tab juDe hain,",
"chaar bhai chaar bahinen,",
"bhuja bhai pyar bahinen,",
"aur man bin paDhi meri,",
"duःkh mein wo gaDhi meri,",
"man ki jiski god mein sir,",
"rakh liya to dukh nahin phir,",
"man ki jiski sneh dhara",
"ka yahan tak bhi pasara,",
"use likhna nahin aata,",
"jo ki uska patr pata",
"aur pani gir raha hai,",
"ghar chaturdik ghir raha hai,",
"pitaji bhole bahadur,",
"wajr bhuj nawanit sa ur,",
"pitaji jinko buDhapa,",
"ek kshan bhi nahin wyapa,",
"jo abhi dauD jayen,",
"jo abhi bhi khil khilayen,",
"maut ke aage na hichken,",
"sher ke aage na bichken,",
"bol mein badal garajta,",
"kaam mein jhanjha larajta,",
"aj gita path karke,",
"danD do sau sath karke,",
"khoob mugdar hila lekar,",
"mooth unki mila lekar,",
"jab ki niche aaye honge",
"nain jal se chhaye honge,",
"hay, pani gir raha hai,",
"ghar nazar mein tir raha hai,",
"chaar bhai chaar bahinen,",
"bhuja bhai pyar bahinen,",
"khelte ya khaDe honge,",
"nazar unki paDe honge",
"pitaji jinko buDhapa,",
"ek kshan bhi nahin wyapa,",
"ro paDe honge barabar,",
"panchawen ka nam lekar,",
"panchwan main hoon abhaga,",
"jise sone par suhaga,",
"pitaji kahte rahe hain,",
"pyar mein bahte rahe hain,",
"aj unke swarn bete,",
"lage honge unhen hete,",
"kyonki main un par suhaga",
"bandha baitha hoon abhaga,",
"aur man ne kaha hoga,",
"duःkh kitna baha hoga",
"ankh mein kis liye pani,",
"wahan achchha hai bhawani,",
"wo tumhara man samajh kar,",
"aur apnapan samajh kar,",
"gaya hai so theek hi hai,",
"ye tumhari leak hi hai,",
"panw jo pichhe hatata,",
"kokh ko meri lajata,",
"is tarah hoo na kachche,",
"ro paDege aur bachche,",
"pitaji ne kaha hoga,",
"hay kitna saha hoga,",
"kahan, main rota kahan hoon,",
"dheer main khota, kahan hoon,",
"gir raha hai aaj pani,",
"yaad aata hai bhawani,",
"use thi barsat pyari,",
"raat din ki jhaDi jhari,",
"khule sir nange badan wo,",
"ghumta phirta magan wo,",
"baDe baDe mein ki jata,",
"beej lauki ka lagata,",
"tujhe batlata ki bela",
"ne phalani phool jhela,",
"tu ki uske sath jati,",
"aj isse yaad aati,",
"main na rounga,—kaha hoga,",
"aur phir pani baha hoga,",
"drishya uske baad ka re,",
"panchawe ki yaad ka re,",
"bhai pagal, bahin pagal,",
"aur amma theek badal,",
"aur bhauji aur sarla,,",
"sahj pani, sahj tarla,",
"sharm se ro bhi na payen,",
"khoob bhitar chhataptayen,",
"aj aisa kuch hua hoga,",
"aj sabka man chua hoga",
"abhi pani tham gaya hai,",
"man nihayat nam gaya hai,",
"ek se badal jame hain,",
"gagan bhar phaile rame hain,",
"Dher hai unka, na phanken,",
"jo ki kirne jhuken jhanken,",
"lag rahe hain we mujhe yon,",
"man ki angan leep de jyon,",
"gagan angan ki lunai,",
"disha ke man se samai,",
"dash disha chupchar hai re,",
"swasth ki chhap hai re,",
"jhaD ankhen band karke,",
"sans susthir mand karke,",
"hile bin chupke khaDe hain,",
"kshaitij par jaise jaDe hain,",
"ek panchhi bolta hai,",
"ghaw ur ke kholta hai,",
"adami ke ur bichare,",
"kis liye itni trisha re,",
"tu zara sa duःkh kitna,",
"sah sakega kya ki itna,",
"aur is par bus nahin hai,",
"bus bina kuch ras nahin hai,",
"hawa i uD chala tu,",
"lahr i muD chala tu,",
"laga jhatka toot baitha,",
"gira niche phoot baitha,",
"tu ki priy se door hokar,",
"bah chala re poor hokar",
"duःkh bhar kya pas tere,",
"ashru sinchit has tere!",
"pitaji ka wesh mujhko,",
"de raha hai klesh mujhko,",
"deh ek pahaD jaise,",
"man ki baD ka jhaD jaise",
"ek patta toot jaye,",
"bus ki dhara phoot jaye,",
"ek halki chot lag le,",
"doodh ki naddi umag le,",
"ek tahni kam na hole,",
"kam kahan ki kham na hole,",
"dhyan kitna fir kitni,",
"Dal jitni jaDen utni!",
"is tarah ka haal unka,",
"is tarah ka khayal unka,",
"hawa, unko dheer dena,",
"ye nahin ji cheer dena,",
"he sajile hare sawan,",
"he ki mere punny pawan,",
"tum baras lo we na barsen,",
"panchawen ko we na tarsen,",
"main maze mein hoon sahi hai,",
"ghar nahin hoon bus yahi hai,",
"kintu ye bus baDa bus hai,",
"isi bus se sab wiras hai,",
"kintu usse ye na kahna,",
"unhen dete dheer rahna,",
"unhen kahna likh raha hoon,",
"mat karo kuch shok kahna,",
"aur kahna mast hoon main,",
"katne mein wyast hoon main,",
"wazan sattar ser mera,",
"aur bhojan Dher mera,",
"kudta hoon, khelta hoon,",
"duःkh Dat kar thelta hoon,",
"aur kahna mast hoon main,",
"yon na kahna ast hoon main,",
"hay re, aisa na kahna,",
"hai ki jo waisa na kahna,",
"kah na dena jagata hoon,",
"adami se bhagta hoon,",
"kah na dena maun hoon main,",
"khu na samjhun kaun hoon main,",
"dekhana kuch bak na dena,",
"unhen koi shak na dena,",
"he sajile hare sawan,",
"he ki mere punny pawan,",
"tum baras lo we na barsen,",
"panchawen ko we na tarsen",
"aaj pani gir raha hai,",
"bahut pani gir raha hai,",
"raat bhar girta raha hai,",
"paran man ghirta raha hai,",
"ab sawera ho gaya hai,",
"kab sawera ho gaya hai,",
"theek se mainne na jana,",
"bahut sokar sirf mana—",
"kyonki badal ki andheri,",
"hai abhi tak bhi ghaneri,",
"abhi tak chupchap hai sab,",
"ratwali chhap hai sab,",
"gir raha pani jhara jhar,",
"hil rahe patte hara har,",
"bah rahi hai hawa sar sar,",
"kanpte hain paran thar thar,",
"bahut pani gir raha hai,",
"ghar nazar mein tir raha hai,",
"ghar ki mujhse door hai jo,",
"ghar khushi ka poor hai jo,",
"ghar ki ghar mein chaar bhai,",
"mayke mein bahin i,",
"bahin i bap ke ghar,",
"hayar re paritap ke ghar!",
"aj ka din din nahin hai,",
"kyonki iska chhin nahin hai,",
"ek chhin sau baras hai re,",
"hay kaisa taras hai re,",
"ghar ki ghar mein sab juDe hain,",
"sab ki itne tab juDe hain,",
"chaar bhai chaar bahinen,",
"bhuja bhai pyar bahinen,",
"aur man bin paDhi meri,",
"duःkh mein wo gaDhi meri,",
"man ki jiski god mein sir,",
"rakh liya to dukh nahin phir,",
"man ki jiski sneh dhara",
"ka yahan tak bhi pasara,",
"use likhna nahin aata,",
"jo ki uska patr pata",
"aur pani gir raha hai,",
"ghar chaturdik ghir raha hai,",
"pitaji bhole bahadur,",
"wajr bhuj nawanit sa ur,",
"pitaji jinko buDhapa,",
"ek kshan bhi nahin wyapa,",
"jo abhi dauD jayen,",
"jo abhi bhi khil khilayen,",
"maut ke aage na hichken,",
"sher ke aage na bichken,",
"bol mein badal garajta,",
"kaam mein jhanjha larajta,",
"aj gita path karke,",
"danD do sau sath karke,",
"khoob mugdar hila lekar,",
"mooth unki mila lekar,",
"jab ki niche aaye honge",
"nain jal se chhaye honge,",
"hay, pani gir raha hai,",
"ghar nazar mein tir raha hai,",
"chaar bhai chaar bahinen,",
"bhuja bhai pyar bahinen,",
"khelte ya khaDe honge,",
"nazar unki paDe honge",
"pitaji jinko buDhapa,",
"ek kshan bhi nahin wyapa,",
"ro paDe honge barabar,",
"panchawen ka nam lekar,",
"panchwan main hoon abhaga,",
"jise sone par suhaga,",
"pitaji kahte rahe hain,",
"pyar mein bahte rahe hain,",
"aj unke swarn bete,",
"lage honge unhen hete,",
"kyonki main un par suhaga",
"bandha baitha hoon abhaga,",
"aur man ne kaha hoga,",
"duःkh kitna baha hoga",
"ankh mein kis liye pani,",
"wahan achchha hai bhawani,",
"wo tumhara man samajh kar,",
"aur apnapan samajh kar,",
"gaya hai so theek hi hai,",
"ye tumhari leak hi hai,",
"panw jo pichhe hatata,",
"kokh ko meri lajata,",
"is tarah hoo na kachche,",
"ro paDege aur bachche,",
"pitaji ne kaha hoga,",
"hay kitna saha hoga,",
"kahan, main rota kahan hoon,",
"dheer main khota, kahan hoon,",
"gir raha hai aaj pani,",
"yaad aata hai bhawani,",
"use thi barsat pyari,",
"raat din ki jhaDi jhari,",
"khule sir nange badan wo,",
"ghumta phirta magan wo,",
"baDe baDe mein ki jata,",
"beej lauki ka lagata,",
"tujhe batlata ki bela",
"ne phalani phool jhela,",
"tu ki uske sath jati,",
"aj isse yaad aati,",
"main na rounga,—kaha hoga,",
"aur phir pani baha hoga,",
"drishya uske baad ka re,",
"panchawe ki yaad ka re,",
"bhai pagal, bahin pagal,",
"aur amma theek badal,",
"aur bhauji aur sarla,,",
"sahj pani, sahj tarla,",
"sharm se ro bhi na payen,",
"khoob bhitar chhataptayen,",
"aj aisa kuch hua hoga,",
"aj sabka man chua hoga",
"abhi pani tham gaya hai,",
"man nihayat nam gaya hai,",
"ek se badal jame hain,",
"gagan bhar phaile rame hain,",
"Dher hai unka, na phanken,",
"jo ki kirne jhuken jhanken,",
"lag rahe hain we mujhe yon,",
"man ki angan leep de jyon,",
"gagan angan ki lunai,",
"disha ke man se samai,",
"dash disha chupchar hai re,",
"swasth ki chhap hai re,",
"jhaD ankhen band karke,",
"sans susthir mand karke,",
"hile bin chupke khaDe hain,",
"kshaitij par jaise jaDe hain,",
"ek panchhi bolta hai,",
"ghaw ur ke kholta hai,",
"adami ke ur bichare,",
"kis liye itni trisha re,",
"tu zara sa duःkh kitna,",
"sah sakega kya ki itna,",
"aur is par bus nahin hai,",
"bus bina kuch ras nahin hai,",
"hawa i uD chala tu,",
"lahr i muD chala tu,",
"laga jhatka toot baitha,",
"gira niche phoot baitha,",
"tu ki priy se door hokar,",
"bah chala re poor hokar",
"duःkh bhar kya pas tere,",
"ashru sinchit has tere!",
"pitaji ka wesh mujhko,",
"de raha hai klesh mujhko,",
"deh ek pahaD jaise,",
"man ki baD ka jhaD jaise",
"ek patta toot jaye,",
"bus ki dhara phoot jaye,",
"ek halki chot lag le,",
"doodh ki naddi umag le,",
"ek tahni kam na hole,",
"kam kahan ki kham na hole,",
"dhyan kitna fir kitni,",
"Dal jitni jaDen utni!",
"is tarah ka haal unka,",
"is tarah ka khayal unka,",
"hawa, unko dheer dena,",
"ye nahin ji cheer dena,",
"he sajile hare sawan,",
"he ki mere punny pawan,",
"tum baras lo we na barsen,",
"panchawen ko we na tarsen,",
"main maze mein hoon sahi hai,",
"ghar nahin hoon bus yahi hai,",
"kintu ye bus baDa bus hai,",
"isi bus se sab wiras hai,",
"kintu usse ye na kahna,",
"unhen dete dheer rahna,",
"unhen kahna likh raha hoon,",
"mat karo kuch shok kahna,",
"aur kahna mast hoon main,",
"katne mein wyast hoon main,",
"wazan sattar ser mera,",
"aur bhojan Dher mera,",
"kudta hoon, khelta hoon,",
"duःkh Dat kar thelta hoon,",
"aur kahna mast hoon main,",
"yon na kahna ast hoon main,",
"hay re, aisa na kahna,",
"hai ki jo waisa na kahna,",
"kah na dena jagata hoon,",
"adami se bhagta hoon,",
"kah na dena maun hoon main,",
"khu na samjhun kaun hoon main,",
"dekhana kuch bak na dena,",
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"जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।",
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"Urdu poetry, urdu shayari, shayari in urdu, poetry in urdu",
"A Trilingual Treasure of Urdu Words",
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"हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश"
] |
बादल को घिरते देखा - कविता | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kavita/class-11-ncert-11/badal-ko-ghirte-dekha-nagarjun-kavita?sort= | [
"अमल धवल गिरि के शिखरों पर,",
"बादल को घिरते देखा है।",
"छोटे-छोटे मोती जैसे",
"उसके शीतल तुहिन कणों को",
"मानसरोवर के उन स्वर्णिम",
"कमलों पर गिरते देखा है,",
"बादल को घिरते देखा है।",
"तुंग हिमालय के कंधों पर",
"छोटी बड़ी कई झीलें हैं,",
"उनके श्यामल नील सलिल में",
"समतल देशों से आ-आकर",
"पावस की ऊमस से आकुल",
"तिक्त-मधुर बिषतंतु खोजते",
"हंसों को तिरते देखा है।",
"बादल को घिरते देखा है।",
"ऋतु वसंत का सुप्रभात था",
"मंद-मंद था अनिल बह रहा",
"बालारुण की मृदु किरणें थीं",
"अगल-बग़ल स्वर्णाभ शिखर थे",
"एक-दूसरे से विरहित हो",
"अलग-अलग रहकर ही जिनको",
"सारी रात बितानी होती,",
"निशा-काल से चिर-अभिशापित",
"बेबस उस चकवा-चकई का",
"बंद हुआ क्रंदन, फिर उनमें",
"उस महान सरवर के तीरे",
"शैवालों की हरी दरी पर",
"प्रणय-कलह छिड़ते देखा है।",
"बादल को घिरते देखा है।",
"दुर्गम बर्फ़ानी घाटी में",
"शत-सहस्र फुट ऊँचाई पर",
"अलख नाभि से उठने वाले",
"निज के ही उन्मादक परिमल—",
"के पीछे धावित हो-होकर",
"तरल-तरुण कस्तूरी मृग को",
"अपने पर चिढ़ते देखा है,",
"बादल को घिरते देखा है।",
"कहाँ गए धनपति कुबेर वह",
"कहाँ गई उसकी वह अलका",
"नहीं ठिकाना कालिदास के",
"व्योम-प्रवाही गंगाजल का,",
"ढूँढ़ा बहुत किंतु लगा क्या",
"मेघदूत का पता कहीं पर,",
"कौन बताए वह छायामय",
"बरस पड़ा होगा न यहीं पर,",
"जाने दो, वह कवि-कल्पित था,",
"मैंने तो भीषण जाड़ों में",
"नभ-चुंबी कैलाश शीर्ष पर,",
"महामेघ को झंझानिल से",
"गरज-गरज भिड़ते देखा है,",
"बादल को घिरते देखा है।",
"शत-शत निर्झर-निर्झरणी कल",
"मुखरित देवदारु-कानन में,",
"शोणित धवल भोज पत्रों से",
"छाई हुई कुटी के भीतर",
"रंग-बिरंगे और सुगंधित",
"फूलों से कुंतल को साजे,",
"इंद्रनील की माला डाले",
"शंख-सरीखे सुघड़ गलों में,",
"कानों में कुवलय लटकाए,",
"शतदल लाल कमल वेणी में,",
"रजत-रचित मणि-खचित कलामय",
"पान पात्र द्राक्षासव पूरित",
"रखे सामने अपने-अपने",
"लोहित चंदन की त्रिपटी पर,",
"नरम निदाग बाल-कस्तूरी",
"मृगछालों पर पलथी मारे",
"मदिरारुण आँखों वाले उन",
"उन्मद किन्नर-किन्नरियों की",
"मृदुल मनोरम अँगुलियों को",
"वंशी पर फिरते देखा है,",
"बादल को घिरते देखा है।",
"amal dhaval giri ke shikhro.n par,",
"baadal ko ghirte dekha hai।",
"chhoTe-chhoTe motii jaise",
"uske shiital tuhin ka.na.o.n ko",
"maanasrovar ke un svar.na.im",
"kamlo.n par girte dekha hai,",
"baadal ko ghirte dekha hai।",
"tu.ng himaalay ke ka.ndho.n par",
"chhoTii baDii ka.ii jhiile.n hai.n,",
"unke shyaamal niil salil me.n",
"samtal desho.n se aa-.aakar",
"paavas kii uumas se aakul",
"tikta-madhur bishata.ntu khojate",
"ha.nso.n ko tirte dekha hai।",
"baadal ko ghirte dekha hai।",
".rtu vasa.nt ka suprabhaat tha",
"ma.nd-ma.nd tha anil bah raha",
"baalaaru.n kii mridu kir.na.e.n thii.n",
"agal-baग़l svar.na.aabh shikhar the",
"ek-duusare se virhit ho",
"alag-.alag rahkar hii jinko",
"saarii raat bitaanii hotii,",
"nishaa-kaal se chir-.abhishaapit",
"bebas us chakvaa-chak.ii ka",
"ba.nd hu.a kra.ndan, phir unme.n",
"us mahaan sarvar ke tiire",
"shaivaalo.n kii harii darii par",
"pra.naya-kalah chhiD़te dekha hai।",
"baadal ko ghirte dekha hai।",
"durgam barफ़.aanii ghaaTii me.n",
"shat-sahasr phuT uu.nchaa.ii par",
"alakh naabhi se uThne vaale",
"nij ke hii unmaadak parimal—",
"ke piichhe dhaavit ho-hokar",
"taral-taru.n kastuurii mrig ko",
"apne par chiDh़te dekha hai,",
"baadal ko ghirte dekha hai।",
"kahaa.n ga.e dhanapti kuber vah",
"kahaa.n ga.ii uskii vah alka",
"nahii.n Thikaana kaalidaas ke",
"vyoma-pravaahii ga.ngaajal ka,",
"Dhuu.nDha bahut ki.ntu laga kya",
"meghaduut ka pata kahii.n par,",
"kaun bataa.e vah chhaayaamay",
"baras paDa hoga n yahii.n par,",
"jaane do, vah kavi-kalpit tha,",
"mai.nne to bhiisha.n jaaDo.n me.n",
"nabh-chu.mbii kailaash shiirsh par,",
"mahaamegh ko jha.njhaanil se",
"garaj-garaj bhiD़te dekha hai,",
"baadal ko ghirte dekha hai।",
"shat-shat nirjhar-nirjhar.na.ii kal",
"mukhrit devadaaru-kaanan me.n,",
"sho.na.it dhaval bhoj patro.n se",
"chhaa.ii hu.ii kuTii ke bhiitar",
"ra.ng-bira.nge aur suga.ndhit",
"phuulo.n se ku.ntal ko saaje,",
"i.ndraniil kii maala Daale",
"sha.nkh-sariikhe sughaD galo.n me.n,",
"kaano.n me.n kuvlay laTkaa.e,",
"shatdal laal kamal ve.na.ii me.n,",
"rajat-rachit ma.na.i-khachit kalaamay",
"paan paatr draakshaasav puurit",
"rakhe saamane apne-.apne",
"lohit cha.ndan kii tripTii par,",
"naram nidaag baala-kastuurii",
"mrigachhaalo.n par palthii maare",
"madiraaru.n aa.nkho.n vaale un",
"unmad kinnar-kinnariyo.n kii",
"mridul manoram a.nguliyo.n ko",
"va.nshii par phirte dekha hai,",
"baadal ko ghirte dekha hai।",
"amal dhaval giri ke shikhro.n par,",
"baadal ko ghirte dekha hai।",
"chhoTe-chhoTe motii jaise",
"uske shiital tuhin ka.na.o.n ko",
"maanasrovar ke un svar.na.im",
"kamlo.n par girte dekha hai,",
"baadal ko ghirte dekha hai।",
"tu.ng himaalay ke ka.ndho.n par",
"chhoTii baDii ka.ii jhiile.n hai.n,",
"unke shyaamal niil salil me.n",
"samtal desho.n se aa-.aakar",
"paavas kii uumas se aakul",
"tikta-madhur bishata.ntu khojate",
"ha.nso.n ko tirte dekha hai।",
"baadal ko ghirte dekha hai।",
".rtu vasa.nt ka suprabhaat tha",
"ma.nd-ma.nd tha anil bah raha",
"baalaaru.n kii mridu kir.na.e.n thii.n",
"agal-baग़l svar.na.aabh shikhar the",
"ek-duusare se virhit ho",
"alag-.alag rahkar hii jinko",
"saarii raat bitaanii hotii,",
"nishaa-kaal se chir-.abhishaapit",
"bebas us chakvaa-chak.ii ka",
"ba.nd hu.a kra.ndan, phir unme.n",
"us mahaan sarvar ke tiire",
"shaivaalo.n kii harii darii par",
"pra.naya-kalah chhiD़te dekha hai।",
"baadal ko ghirte dekha hai।",
"durgam barफ़.aanii ghaaTii me.n",
"shat-sahasr phuT uu.nchaa.ii par",
"alakh naabhi se uThne vaale",
"nij ke hii unmaadak parimal—",
"ke piichhe dhaavit ho-hokar",
"taral-taru.n kastuurii mrig ko",
"apne par chiDh़te dekha hai,",
"baadal ko ghirte dekha hai।",
"kahaa.n ga.e dhanapti kuber vah",
"kahaa.n ga.ii uskii vah alka",
"nahii.n Thikaana kaalidaas ke",
"vyoma-pravaahii ga.ngaajal ka,",
"Dhuu.nDha bahut ki.ntu laga kya",
"meghaduut ka pata kahii.n par,",
"kaun bataa.e vah chhaayaamay",
"baras paDa hoga n yahii.n par,",
"jaane do, vah kavi-kalpit tha,",
"mai.nne to bhiisha.n jaaDo.n me.n",
"nabh-chu.mbii kailaash shiirsh par,",
"mahaamegh ko jha.njhaanil se",
"garaj-garaj bhiD़te dekha hai,",
"baadal ko ghirte dekha hai।",
"shat-shat nirjhar-nirjhar.na.ii kal",
"mukhrit devadaaru-kaanan me.n,",
"sho.na.it dhaval bhoj patro.n se",
"chhaa.ii hu.ii kuTii ke bhiitar",
"ra.ng-bira.nge aur suga.ndhit",
"phuulo.n se ku.ntal ko saaje,",
"i.ndraniil kii maala Daale",
"sha.nkh-sariikhe sughaD galo.n me.n,",
"kaano.n me.n kuvlay laTkaa.e,",
"shatdal laal kamal ve.na.ii me.n,",
"rajat-rachit ma.na.i-khachit kalaamay",
"paan paatr draakshaasav puurit",
"rakhe saamane apne-.apne",
"lohit cha.ndan kii tripTii par,",
"naram nidaag baala-kastuurii",
"mrigachhaalo.n par palthii maare",
"madiraaru.n aa.nkho.n vaale un",
"unmad kinnar-kinnariyo.n kii",
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चंपा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती - कविता | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kavita/class-11-ncert-11/champa-kale-kale-achchhar-nahin-chinhti-trilochan-kavita?sort= | [
"चंपा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती",
"मैं जब पढ़ने लगता हूँ वह आ जाती है",
"खड़ी खड़ी चुपचाप सुना करती है",
"उसे बड़ा अचरज होता है :",
"इन काले चिन्हों से कैसे ये सब स्वर",
"निकला करते हैं",
"चंपा सुंदर की लड़की है",
"सुंदर ग्वाला है : गायें-भैंसे रखता है",
"चंपा चौपायों को लेकर",
"चरवाही करने जाती है",
"चंपा अच्छी है",
"चंचल है",
"न ट ख ट भी है",
"कभी-कभी ऊधम करती है",
"कभी-कभी वह क़लम चुरा देती है",
"जैसे तैसे उसे ढूँढ़ कर जब लाता हूँ",
"पाता हूँ—अब काग़ज़ ग़ायब",
"परेशान फिर हो जाता हूँ",
"चंपा कहती है :",
"तुम कागद ही गोदा करते हो दिन भर",
"क्या यह काम बहुत अच्छा है",
"यह सुनकर मैं हँस देता हूँ",
"फिर चंपा चुप हो जाती है",
"उस दिन चंपा आई, मैंने कहा कि",
"चंपा, तुम भी पढ़ लो",
"हारे गाढ़े काम सरेगा",
"गांधी बाबा की इच्छा है—",
"सब जन पढ़ना लिखना सीखें",
"चंपा ने यह कहा कि",
"मैं तो नहीं पढ़ूँगी",
"तुम तो कहते थे गांधी बाबा अच्छे हैं",
"वे पढ़ने लिखने की कैसे बात कहेंगे",
"मैं तो नहीं पढ़ूँगी",
"मैंने कहा कि चंपा, पढ़ लेना अच्छा है",
"ब्याह तुम्हारा होगा, तुम गौने जाओगी,",
"कुछ दिन बालम संग साथ रह चला जाएगा जब कलकत्ता",
"बड़ी दूर है वह कलकत्ता",
"कैसे उसे सँदेसा दोगी",
"कैसे उसके पत्र पढ़ोगी",
"चंपा पढ़ लेना अच्छा है!",
"चंपा बोली : तुम कितने झूठे हो, देखा,",
"हाय राम, तुम पढ़ लिखकर इतने झूठे हो",
"मैं तो ब्याह कभी न करूँगी",
"और कहीं जो ब्याह हो गया",
"तो मैं अपने बालम को संग साथ रखूँगी",
"कलकत्ता मैं कभी न जाने दूँगी",
"कलकत्ते पर बजर गिरे।",
"champa kale kale achchhar nahin chinhti",
"main jab paDhne lagta hoon wo aa jati hai",
"khaDi khaDi chupchap suna karti hai",
"use baDa achraj hota hai ha",
"in kale chinhon se kaise ye sab swar",
"nikla karte hain",
"champa sundar ki laDki hai",
"sundar gwala hai ha gayen bhainse rakhta hai",
"champa chaupayon ko lekar",
"charwahi karne jati hai",
"champa achchhi hai",
"chanchal hai",
"na t kh t bhi hai",
"kabhi kabhi udham karti hai",
"kabhi kabhi wo qalam chura deti hai",
"jaise taise use DhoonDh kar jab lata hoon",
"pata hun—ab kaghaz ghayab",
"pareshan phir ho jata hoon",
"champa kahti hai ha",
"tum kagad hi goda karte ho din bhar",
"kya ye kaam bahut achchha hai",
"ye sunkar main hans deta hoon",
"phir champa chup ho jati hai",
"us din champa i, mainne kaha ki",
"champa, tum bhi paDh lo",
"hare gaDhe kaam sarega",
"gandhi baba ki ichha hai—",
"sab jan paDhna likhna sikhen",
"champa ne ye kaha ki",
"main to nahin paDhungi",
"tum to kahte the gandhi baba achchhe hain",
"we paDhne likhne ki kaise baat kahenge",
"main to nahin paDhungi",
"mainne kaha ki champa, paDh lena achchha hai",
"byah tumhara hoga, tum gaune jaogi,",
"kuch din balam sang sath rah chala jayega jab kalkatta",
"baDi door hai wo kalkatta",
"kaise use sandesa dogi",
"kaise uske patr paDhogi",
"champa paDh lena achchha hai!",
"champa boli ha tum kitne jhuthe ho, dekha,",
"hay ram, tum paDh likh kar itne jhuthe ho",
"main to byah kabhi na karungi",
"aur kahin jo byah ho gaya",
"to main apne balam ko sang sath rakhungi",
"kalkatta main kabhi na jane dungi",
"kalkatte par bajar gire",
"champa kale kale achchhar nahin chinhti",
"main jab paDhne lagta hoon wo aa jati hai",
"khaDi khaDi chupchap suna karti hai",
"use baDa achraj hota hai ha",
"in kale chinhon se kaise ye sab swar",
"nikla karte hain",
"champa sundar ki laDki hai",
"sundar gwala hai ha gayen bhainse rakhta hai",
"champa chaupayon ko lekar",
"charwahi karne jati hai",
"champa achchhi hai",
"chanchal hai",
"na t kh t bhi hai",
"kabhi kabhi udham karti hai",
"kabhi kabhi wo qalam chura deti hai",
"jaise taise use DhoonDh kar jab lata hoon",
"pata hun—ab kaghaz ghayab",
"pareshan phir ho jata hoon",
"champa kahti hai ha",
"tum kagad hi goda karte ho din bhar",
"kya ye kaam bahut achchha hai",
"ye sunkar main hans deta hoon",
"phir champa chup ho jati hai",
"us din champa i, mainne kaha ki",
"champa, tum bhi paDh lo",
"hare gaDhe kaam sarega",
"gandhi baba ki ichha hai—",
"sab jan paDhna likhna sikhen",
"champa ne ye kaha ki",
"main to nahin paDhungi",
"tum to kahte the gandhi baba achchhe hain",
"we paDhne likhne ki kaise baat kahenge",
"main to nahin paDhungi",
"mainne kaha ki champa, paDh lena achchha hai",
"byah tumhara hoga, tum gaune jaogi,",
"kuch din balam sang sath rah chala jayega jab kalkatta",
"baDi door hai wo kalkatta",
"kaise use sandesa dogi",
"kaise uske patr paDhogi",
"champa paDh lena achchha hai!",
"champa boli ha tum kitne jhuthe ho, dekha,",
"hay ram, tum paDh likh kar itne jhuthe ho",
"main to byah kabhi na karungi",
"aur kahin jo byah ho gaya",
"to main apne balam ko sang sath rakhungi",
"kalkatta main kabhi na jane dungi",
"kalkatte par bajar gire",
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"हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश"
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आओ, मिलकर बचाएँ - कविता | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kavita/class-11-ncert-11/aao-milkar-bachayen-nirmala-putul-kavita?sort= | [
"अनुवाद : अशोक सिंह",
"अपनी बस्तियों को",
"नंगी होने से",
"शहर की आबो-हवा से बचाएँ उसे",
"बचाएँ डूबने से",
"पूरी की पूरी बस्ती को",
"हड़िया में",
"अपने चेहरे पर",
"संथाल परगना की माटी का रंग",
"भाषा में झारखंडीपन",
"ठंडी होती दिनचर्या में",
"जीवन की गर्माहट",
"मन का हरापन",
"भोलापन दिल का",
"अक्खड़पन, जुझारूपन भी",
"भीतर की आग",
"धनुष की डोरी",
"तीर का नुकीलापन",
"कुल्हाड़ी की धार",
"जंगल की ताज़ा हवा",
"नदियों की निर्मलता",
"पहाड़ों का मौन",
"गीतों की धुन",
"मिट्टी का सोंधापन",
"फसलों की लहलहाहट",
"नाचने के लिए खुला आँगन",
"गाने के लिए गीत",
"हँसने के लिए थोड़ी-सी खिलखिलाहट",
"रोने के लिए मुट्ठीभर एकांत",
"बच्चों के लिए मैदान",
"पशुओं के लिए हरि-हरि घास",
"बूढों के लिए पहाड़ों की शांति",
"और इस अविश्वास-भरे दौर में",
"थोड़ा-सा विश्वास",
"थोड़ी-सी उम्मीद",
"थोड़े-से सपने",
"आओ, मिलकर बचाएँ",
"कि इस दौर में भी बचाने को",
"बहुत कुछ बचा है,",
"अब भी हमारे पास!",
"apni bastiyon ko",
"nangi hone se",
"shahr ki aabo hawa se bachayen use",
"bachayen Dubne se",
"puri ki puri basti ko",
"haDiya mein",
"apne chehre par",
"santhal paragna ki mati ka rang",
"bhashamen jharkhanDipan",
"thanDi hoti dincharya mein",
"jiwan ki garmahat",
"man ka harapan",
"bholapan dil ka",
"akkhaDpan, jujharupan bhi",
"bhitar ki aag",
"dhanush ki Dori",
"teer ka nukilapan",
"kulhaDi ki dhaar",
"jangal ki taza hawa",
"nadiyon ki nirmalta",
"pahaDon ka maun",
"giton ki dhun",
"mitti ka sondhapan",
"phaslon ki lahlahahat",
"nachne ke liye khula angan",
"gane ke liye geet",
"hansne ke liye thoDi si khilkhilahat",
"rone ke liye mutthibhar ekant",
"bachchon ke liye maidan",
"pashuon ke liye hari hari ghas",
"buDhon ke liye pahaDon ki shanti",
"aur is awishwas bhare daur mein",
"thoDa sa wishwas",
"thoDi si ummid",
"thoDe se sapne",
"ao, milkar bachayen",
"ki is daur mein bhi bachane ko",
"bahut kuch bacha hai,",
"ab bhi hamare pas!",
"apni bastiyon ko",
"nangi hone se",
"shahr ki aabo hawa se bachayen use",
"bachayen Dubne se",
"puri ki puri basti ko",
"haDiya mein",
"apne chehre par",
"santhal paragna ki mati ka rang",
"bhashamen jharkhanDipan",
"thanDi hoti dincharya mein",
"jiwan ki garmahat",
"man ka harapan",
"bholapan dil ka",
"akkhaDpan, jujharupan bhi",
"bhitar ki aag",
"dhanush ki Dori",
"teer ka nukilapan",
"kulhaDi ki dhaar",
"jangal ki taza hawa",
"nadiyon ki nirmalta",
"pahaDon ka maun",
"giton ki dhun",
"mitti ka sondhapan",
"phaslon ki lahlahahat",
"nachne ke liye khula angan",
"gane ke liye geet",
"hansne ke liye thoDi si khilkhilahat",
"rone ke liye mutthibhar ekant",
"bachchon ke liye maidan",
"pashuon ke liye hari hari ghas",
"buDhon ke liye pahaDon ki shanti",
"aur is awishwas bhare daur mein",
"thoDa sa wishwas",
"thoDi si ummid",
"thoDe se sapne",
"ao, milkar bachayen",
"ki is daur mein bhi bachane ko",
"bahut kuch bacha hai,",
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संध्या के बाद - कविता | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kavita/class-11-ncert-11/sandhya-ke-baad-sumitranandan-pant-kavita?sort= | [
"सिमटा पंख साँझ की लाली",
"जा बैठा अब तरु शिखरों पर",
"ताम्रपर्ण पीपल से, शतमुख",
"झरते चंचल स्वर्णिम निर्झर!",
"ज्योति स्तंभ-सा धँस सरिता में",
"सूर्य क्षितिज पर होता ओझल,",
"बृहद जिह्वा विश्लथ केंचुल-सा",
"लगता चितकबरा गंगाजल!",
"धूपछाँह के रंग की रेती",
"अनिल उर्मियों से सपार्कित",
"नील लहरियों में लोड़ित",
"पीला जल रजत जलद से बिंबित!",
"सिकता, सलिल, समीर सदा से",
"स्नेह पाश में बँधे समुज्ज्वल,",
"अनिल पिघलकर सलिल, सलिल",
"ज्यों गति द्रव खो बन गया लवोपल",
"शंख घंट बजते मंदिर में",
"लहरों में होता लय कंपन,",
"दीप शिखा-सा ज्वलित कलश",
"नभ में उठकर करता नीराजन!",
"तट पर बगुलों-सी वृद्धाएँ",
"विधवाएँ जप ध्यान में मगन,",
"मंथर धारा में बहता",
"जिनका अदृश्य, गति अंतर-रोदन!",
"दूर तमस रेखाओं-सी,",
"उड़ती पंखों की गति-सी चित्रित",
"सोन खगों की पाँति",
"आर्द्र ध्वनि से नीरव नभ करती मुखरित!",
"स्वर्ण चूर्ण-सी उड़ती गोरज",
"किरणों की बादल-सी जलकर,",
"सनन तीर-सा जाता नभ में",
"ज्योतित पंखो कंठो का स्वर!",
"लौटे खग, गायें घर लौटीं",
"लौटे कृषक श्रांत श्लथ डग धर",
"छिपे गृहों में म्लान चराचर",
"छाया भी हो गई अगोचर,",
"लौटे पैंठ से व्यापारी भी",
"जाते घर, उस पार नाव पर,",
"ऊँटों, घोड़ों के संग बैठे",
"ख़ाली बोरों पर, हुक्का भर!",
"जाड़ों की सूनी द्वाभा में",
"झूल रही निशि छाया गहरी,",
"डूब रहे निष्प्रभ विषाद में",
"खेत, बाग़, गृह, तरु, तट, लहरी!",
"बिरहा गाते गाड़ी वाले,",
"भूँक-भूँककर लड़ते कूकर,",
"हुआँ-हुआँ करते सियार",
"देते विषण्ण निशि बेला को स्वर!",
"माली की मँड़ई से उठ,",
"नभ के नीचे नभ-सी धूमाली",
"मंद पवन में तिरती",
"नीली रेशम की-सी हलकी जाली!",
"बत्ती जला दुकानों में",
"बैठे सब क़स्बे के व्यापारी,",
"मौन मंद आभा में",
"हिम की ऊँघ रही लंबी अँधियारी!",
"धुआँ अधिक देती है",
"टिन की ढबरी, कम करती उजियाला,",
"मन से कढ़ अवसाद श्रांति",
"आँखों के आगे बुनती जाला!",
"छोटी-सी बस्ती के भीतर",
"लेन-देन के थोथे सपने",
"दीपक के मंडल में मिलकर",
"मँडराते घिर सुख-दुख अपने!",
"कँप-कँप उठते लौ के संग",
"कातर उर क्रंदन, मूक निराशा,",
"क्षीण ज्योति ने चुपके ज्यों",
"गोपन मन को दे दी भाषा!",
"लीन हो गई क्षण में बस्ती,",
"मिट्टी खपरे के घर आँगन,",
"भूल गए लाला अपनी सुधि,",
"भूल गया सब ब्याज, मूलधन!",
"सकुची-सी परचून किराने की ढेरी",
"लग रहीं ही तुच्छतर,",
"इस नीरव प्रदोष में आकुल",
"उमड़ रहा अंतर जग बाहर!",
"जाग उठा उसमें मानव,",
"औ’ असफल जीवन का उत्पीड़न!",
"दैन्य दुःख अपमान ग्लानि",
"चित्र क्षुधित पिपासा, मृत अभिलाषा,",
"बिना आय की क्लांति बन रही",
"उसके जीवन की परिभाषा,",
"जड़ अनाज के ढेर सदृश ही",
"वह दिन-भर बैठा गद्दी पर",
"बात-बात पर झूठ बोलता",
"कौड़ी की स्पर्धा में मर-मर",
"फिर भी क्या कुटुंब पलता है?",
"रहते स्वच्छ सुघर सब परिजन?",
"बना पा रहा वह पक्का घर?",
"मन में सुख है? जुटता है धन?",
"खिसक गई कंधो से कथड़ी",
"ठिठुर रहा अब सर्दी से तन,",
"सोच रहा बस्ती का बनिया",
"घोर विवशता का निज कारण!",
"शहरी बनियों-सा वह भी उठ",
"क्यों बन जाता नहीं महाजन?",
"रोक दिए हैं किसने उसकी",
"जीवन उन्नति के सब साधन?",
"यह क्या संभव नहीं",
"व्यवस्था में जग की कुछ हो परिवर्तन?",
"कर्म और गुण के समान ही",
"सकल आय-व्यय का हो वितरण?",
"घुसे घरौंदे में मिट्टी के",
"अपनी-अपनी सोच रहे जन,",
"क्या ऐसा कुछ नहीं,",
"फूँक दे जो सबमें सामूहिक जीवन?",
"मिलकर जन निर्माण करे जग,",
"मिलकर भोग करें जीवन का,",
"जन विमुक्त हो जन शोषण से,",
"हो समाज अधिकारी धन का?",
"दरिद्रता पापों की जननी,",
"मिटें जनों के पाप, ताप, भय,",
"सुंदर हों अधिवास, वसन, तन,",
"पशु पर फिर मानव की हो जय?",
"व्यक्ति नहीं, जग की परिपाटी",
"दोषी जन के दुःख क्लेश की,",
"जन का श्रम जन में बँट जाए,",
"प्रजा सुखी हो देश देश की!",
"टूट गया वह स्वप्न वणिक का,",
"आई जब बुढ़िया बेचारी,",
"आध-पाव आटा लेने",
"लो, लाला ने फिर डंडी मारी!",
"चीख़ उठा घुघ्घू डालों में",
"लोगों ने पट दिए द्वार पर,",
"निगल रहा बस्ती को धीरे,",
"गाढ़ अलस निद्रा का अजगर!",
"simta pankh sanjh ki lali",
"ja baitha ab taru shikhron par",
"tamrparn pipal se, shatmukh",
"jharte chanchal swarnaim nirjhar!",
"jyoti stambh sa dhans sarita mein",
"surya kshaitij par hota ojhal,",
"brihad jihwa wishlath kenchul sa",
"lagta chitkabra gangajal!",
"dhupachhanh ke rang ki reti",
"anil urmiyon se saparkit",
"neel lahariyon mein loDit",
"pila jal rajat jalad se bimbit!",
"sikta,salil,samir sada se",
"sneh pash mein bandhe samujjwal,",
"anil pighalkar salil, salil",
"jyon gati draw kho ban gaya lawopal",
"shankh ghant bajte mandir mein",
"lahron mein hota lai kampan,",
"deep shikha sa jwalit kalash",
"nabh mein uthkar karta nirajan!",
"tat par bagulon si wriddhayen",
"widhwayen jap dhyan mein magan,",
"manthar dhara mein bahta",
"jinka adrshy, gati antar rodan!",
"door tamas rekhaon si,",
"uDti pankhon ki gati si chitrit",
"son khagon ki panti",
"ardr dhwani se niraw nabh karti mukhrit!",
"swarn choorn si uDti goraj",
"kirnon ki badal si jalkar,",
"sanan teer sa jata nabh mein",
"jyotit pankho kantho ka swar!",
"laute khag, gayen ghar lautin",
"laute krishak shrant shlath Dag dhar",
"chhipe grihon mein mlan charachar",
"chhaya bhi ho gai agochar,",
"laute painth se wyapari bhi",
"jate ghar,us par naw par,",
"unton,ghoDon ke sang baithe",
"khali boron par,hukka bhar!",
"jaDon ki suni dwabha mein",
"jhool rahi nishi chhaya gahri,",
"Doob rahe nishprabh wishad mein",
"khet,bag,grih,taru,tat,lahri!",
"birha gate gaDi wale,",
"bhoonk bhunkakar laDte kukar,",
"huan huan karte siyar",
"dete wishnn nishi bela ko swar!",
"mali ki manD़i se uth,",
"nabh ke niche nabh si dhumali",
"mand pawan mein tirti",
"nili resham ki si halki jali!",
"batti jala dukanon mein",
"baithe sab kasbe ke wyapari,",
"maun mand aabha mein",
"him ki ungh rahi lambi andhiyari!",
"dhuan adhik deti hai",
"tin ki Dhabri,kam karti ujiyala,",
"man se kaDh awsad shranti",
"ankhon ke aage bunti jala!",
"chhoti si basti ke bhitar",
"len den ke thothe sapne",
"dipak ke manDal mein milkar",
"manDrate ghir sukh dukh apne!",
"kanp kanp uthte lau ke sang",
"katar ur krandan,mook nirasha,",
"kshain jyoti ne chupke jyon",
"gopan man ko de di bhasha!",
"leen ho gai kshan mein basti,",
"mitti khapre ke ghar angan,",
"bhool gaye lala apni sudhi,",
"bhool gaya sab byaj,muladhan!",
"sakuchi si parchun kirane ki Dheri",
"lag rahin hi tuchchhtar,",
"is niraw pradosh mein aakul",
"umaD raha antar jag bahar!",
"jag utha usmen manaw,",
"au’asaphal jiwan qa utpiDan!",
"dainy duःkh apman glani",
"chitr kshaudhit pipasa,mrit abhilasha,",
"bina aay ki klanti ban rahi",
"uske jiwan ki paribhasha,",
"jaD anaj ke Dher sadrish hi",
"wo din bhar baitha gaddi par",
"baat baat par jhooth bolta",
"kauDi ki spardha mein mar mar",
"phir bhi kya kutumb palta hai?",
"rahte swachchh sughar sab parijan?",
"bana pa raha wo pakka ghar?",
"man mein sukh hai? jutta hai dhan?",
"khisak gai kandho se kathDi",
"thithur raha ab sardi se tan,",
"soch raha basti ka baniya",
"ghor wiwashta ka nij karan!",
"shahri baniyon sa wo bhi uth",
"kyon ban jata nahin mahajan?",
"rok diye hain kisne uski",
"jiwan unnati ke sab sadhan?",
"ye kya sambhaw nahin",
"wyawastha mein jag ki kuch ho pariwartan?",
"karm aur gun ke saman hi",
"sakal aay wyay ka ho witarn?",
"ghuse gharaunde mein mitti ke",
"apni apni soch rahe jan,",
"kya aisa kuch nahin,",
"phoonk de jo sabmen samuhik jiwan?",
"milkar jan nirman kare jag,",
"milkar bhog karen jiwan ka,",
"jan wimukt ho jan shoshan se,",
"ho samaj adhikari dhan ka?",
"daridrata papon ki janani,",
"miten janon ke pap,tap,bhay,",
"sundar hon adhiwas,wasan,tan,",
"pashu par phir manaw ki ho jay?",
"wekti nahin,jag ki paripati",
"doshi jan ke duःkh klesh ki,",
"jan ka shram jan mein bant jaye,",
"praja sukhi ho desh desh kee!",
"toot gaya wo swapn wanaik ka,",
"i jab buDhiya bechari,",
"adh paw aata lene",
"lo, lala ne phir DanDi mari!",
"cheekh utha ghughghu Dalon mein",
"logon ne pat diye dwar par,",
"nigal raha basti ko dhire,",
"gaDh alas nidra ka ajgar!",
"simta pankh sanjh ki lali",
"ja baitha ab taru shikhron par",
"tamrparn pipal se, shatmukh",
"jharte chanchal swarnaim nirjhar!",
"jyoti stambh sa dhans sarita mein",
"surya kshaitij par hota ojhal,",
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"lagta chitkabra gangajal!",
"dhupachhanh ke rang ki reti",
"anil urmiyon se saparkit",
"neel lahariyon mein loDit",
"pila jal rajat jalad se bimbit!",
"sikta,salil,samir sada se",
"sneh pash mein bandhe samujjwal,",
"anil pighalkar salil, salil",
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"lahron mein hota lai kampan,",
"deep shikha sa jwalit kalash",
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"tat par bagulon si wriddhayen",
"widhwayen jap dhyan mein magan,",
"manthar dhara mein bahta",
"jinka adrshy, gati antar rodan!",
"door tamas rekhaon si,",
"uDti pankhon ki gati si chitrit",
"son khagon ki panti",
"ardr dhwani se niraw nabh karti mukhrit!",
"swarn choorn si uDti goraj",
"kirnon ki badal si jalkar,",
"sanan teer sa jata nabh mein",
"jyotit pankho kantho ka swar!",
"laute khag, gayen ghar lautin",
"laute krishak shrant shlath Dag dhar",
"chhipe grihon mein mlan charachar",
"chhaya bhi ho gai agochar,",
"laute painth se wyapari bhi",
"jate ghar,us par naw par,",
"unton,ghoDon ke sang baithe",
"khali boron par,hukka bhar!",
"jaDon ki suni dwabha mein",
"jhool rahi nishi chhaya gahri,",
"Doob rahe nishprabh wishad mein",
"khet,bag,grih,taru,tat,lahri!",
"birha gate gaDi wale,",
"bhoonk bhunkakar laDte kukar,",
"huan huan karte siyar",
"dete wishnn nishi bela ko swar!",
"mali ki manD़i se uth,",
"nabh ke niche nabh si dhumali",
"mand pawan mein tirti",
"nili resham ki si halki jali!",
"batti jala dukanon mein",
"baithe sab kasbe ke wyapari,",
"maun mand aabha mein",
"him ki ungh rahi lambi andhiyari!",
"dhuan adhik deti hai",
"tin ki Dhabri,kam karti ujiyala,",
"man se kaDh awsad shranti",
"ankhon ke aage bunti jala!",
"chhoti si basti ke bhitar",
"len den ke thothe sapne",
"dipak ke manDal mein milkar",
"manDrate ghir sukh dukh apne!",
"kanp kanp uthte lau ke sang",
"katar ur krandan,mook nirasha,",
"kshain jyoti ne chupke jyon",
"gopan man ko de di bhasha!",
"leen ho gai kshan mein basti,",
"mitti khapre ke ghar angan,",
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"bhool gaya sab byaj,muladhan!",
"sakuchi si parchun kirane ki Dheri",
"lag rahin hi tuchchhtar,",
"is niraw pradosh mein aakul",
"umaD raha antar jag bahar!",
"jag utha usmen manaw,",
"au’asaphal jiwan qa utpiDan!",
"dainy duःkh apman glani",
"chitr kshaudhit pipasa,mrit abhilasha,",
"bina aay ki klanti ban rahi",
"uske jiwan ki paribhasha,",
"jaD anaj ke Dher sadrish hi",
"wo din bhar baitha gaddi par",
"baat baat par jhooth bolta",
"kauDi ki spardha mein mar mar",
"phir bhi kya kutumb palta hai?",
"rahte swachchh sughar sab parijan?",
"bana pa raha wo pakka ghar?",
"man mein sukh hai? jutta hai dhan?",
"khisak gai kandho se kathDi",
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"sakal aay wyay ka ho witarn?",
"ghuse gharaunde mein mitti ke",
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"milkar bhog karen jiwan ka,",
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"ho samaj adhikari dhan ka?",
"daridrata papon ki janani,",
"miten janon ke pap,tap,bhay,",
"sundar hon adhiwas,wasan,tan,",
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"wekti nahin,jag ki paripati",
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"jan ka shram jan mein bant jaye,",
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"adh paw aata lene",
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हे भूख! मत मचल - कविता | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kavita/class-11-ncert-11/he-bhukh-mat-machal-aakkmahadevi-kavita?sort= | [
"एक",
"हे भूख! मत मचल",
"प्यास, तड़प मत",
"हे नींद! मत सता",
"क्रोध, मचा मत उथल-पुथल",
"हे मोह! पाश अपने ढील",
"लोभ, मत ललचा",
"हे मद! मत कर मदहोश",
"ईर्ष्या, जला मत",
"ओ चराचर! मत चूक अवसर",
"आई हूँ संदेश लेकर चन्नमल्लिकार्जु का",
"दो",
"हे मेरे जूही के फूल जैसे इश्वर",
"मँगवाओ मुझसे भीख",
"और कुछ ऐसा करो",
"कि भूल जाऊँ अपना घर पूरी तरह",
"झोली फैलाऊँ और न मिले भीख",
"कोई हाथ बढ़ाए कुछ देने को",
"तो वह गिर जाए नीचे",
"और यदि मैं झुकूँ उसे उठाने",
"तो कोई कुत्ता आ जाए",
"और उसे झपटकर छीन ले मुझसे।",
"he bhookh! mat machal",
"pyaas, taDap mat",
"he neend ! ,mat sata",
"krodh,macha mat uthal puthal",
"he moh ! paash apne Dheel",
"lobh, mat lalcha",
"he mad ! mat kar madhosh",
"irshya, jala mat",
"o charachar ! mat chook avsar",
"i hoon sandesh lekar channmallikarjun ka",
"he bhookh! mat machal",
"pyaas, taDap mat",
"he neend ! ,mat sata",
"krodh,macha mat uthal puthal",
"he moh ! paash apne Dheel",
"lobh, mat lalcha",
"he mad ! mat kar madhosh",
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"जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।",
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"हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश"
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वे आँखे - कविता | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kavita/class-11-ncert-11/we-ankhe-sumitranandan-pant-kavita?sort= | [
"अंधकार की गुहा सरीखी",
"उन आँखों से डरता है मन,",
"भरा दूर तक उनमें दारुण",
"दैन्य दुख का नीरव रोदन!",
"वह स्वाधीन किसान रहा,",
"अभिमान भरा आँखों में इसका,",
"छोड़ उसे मँझधार आज",
"संसार कगार सदृश बह खिसका!",
"लहराते वे खेत दृगों में",
"हुआ बेदख़ल वह अब जिनसे,",
"हँसती थी उसके जीवन की",
"हरियाली जिनके तृन-तृन से!",
"आँखों ही में घूमा करता",
"वह उसकी आँखों का तारा,",
"कारकुनों की लाठी से जो",
"गया जवानी ही में मारा!",
"बिका दवा दर्पन के घरनी",
"स्वरग चली, आँखे आती भर,",
"देख-रेख के बिना दुधमुँही",
"बिटिया दो दिन बाद गई मर!",
"घर में विधवा रही पतोहू,",
"लछमी थी, यद्यपि पति घातिन,",
"पकड़ मँगाया कोतवाल ने,",
"डूब कुँए में मरी एक दिन!",
"ख़ैर, पैर की जूती, जोरू",
"न सही एक, दूसरी आती,",
"पर जवान लड़के की सुध कर",
"साँप लोटते, फटती छाती।",
"पिछले सुख की स्मृति आँखों में",
"क्षण भर एक चमक है लाती,",
"तुरत शून्य में गड़ वह चितवन",
"तीखी नोक सदृश बन जाती।",
"andhkar ki guha sarikhi",
"un ankhon se Darta hai man,",
"bhara door tak unmen darun",
"dainy dukh ka niraw rodan!",
"wo swadhin kisan raha,",
"abhiman bhara ankhon mein iska,",
"chhoD use manjhdhar aaj",
"sansar kagar sadrish bah khiska!",
"lahrate we khet drigon mein",
"hua bedakhal wo ab jinse,",
"hansti thi uske jiwan ki",
"hariyali jinke trin trin se!",
"ankhon hi mein ghuma karta",
"wo uski ankhon ka tara,",
"karakunon ki lathi se jo",
"gaya jawani hi mein mara!",
"bika dawa darpan ke gharni",
"swrag chali, ankhe aati bhar,",
"dekh rekh ke bina dudhamunhi",
"bitiya do din baad gai mar!",
"ghar mein widhwa rahi patohu,",
"lachhmi thi,yadyapi pati ghatin,",
"pakaD mangaya kotwal ne,",
"Doob kune mein mari ek din!",
"khair,pair ki juti,joru",
"na sahi ek,dusri aati,",
"par jawan laDke ki sudh kar",
"sanp lotte,phatti chhati",
"pichhle sukh ki smriti ankhon mein",
"kshan bhar ek chamak hai lati,",
"turat shunya mein gaD wo chitwan",
"tikhi nok sadrish ban jati",
"andhkar ki guha sarikhi",
"un ankhon se Darta hai man,",
"bhara door tak unmen darun",
"dainy dukh ka niraw rodan!",
"wo swadhin kisan raha,",
"abhiman bhara ankhon mein iska,",
"chhoD use manjhdhar aaj",
"sansar kagar sadrish bah khiska!",
"lahrate we khet drigon mein",
"hua bedakhal wo ab jinse,",
"hansti thi uske jiwan ki",
"hariyali jinke trin trin se!",
"ankhon hi mein ghuma karta",
"wo uski ankhon ka tara,",
"karakunon ki lathi se jo",
"gaya jawani hi mein mara!",
"bika dawa darpan ke gharni",
"swrag chali, ankhe aati bhar,",
"dekh rekh ke bina dudhamunhi",
"bitiya do din baad gai mar!",
"ghar mein widhwa rahi patohu,",
"lachhmi thi,yadyapi pati ghatin,",
"pakaD mangaya kotwal ne,",
"Doob kune mein mari ek din!",
"khair,pair ki juti,joru",
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घर में वापसी - कविता | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kavita/class-11-ncert-11/ghar-mein-wapsi-dhumil-kavita?sort= | [
"मेरे घर में पाँच जोड़ी आँखें हैं",
"माँ की आँखें पड़ाव से पहले ही",
"तीर्थ-यात्रा की बस के",
"दो पंचर पहिए हैं।",
"पिता की आँखें—",
"लोहसाँय की ठंडी सलाख़ें हैं",
"बेटी की आँखें मंदिर में दीवट पर",
"जलते घी के",
"दो दिए हैं।",
"पत्नी की आँखें आँखें नहीं",
"हाथ हैं, जो मुझे थामे हुए हैं",
"वैसे हम स्वजन हैं, क़रीब हैं",
"बीच की दीवार के दोनों ओर",
"क्योंकि हम पेशेवर ग़रीब हैं।",
"रिश्ते हैं; लेकिन खुलते नहीं हैं",
"और हम अपने ख़ून में इतना भी लोहा",
"नहीं पाते,",
"कि हम उससे एक ताली बनवाते",
"और भाषा के भुन्ना-सी ताले को खोलते",
"रिश्तों को सोचते हुए",
"आपस में प्यार से बोलते,",
"कहते कि ये पिता हैं,",
"यह प्यारी माँ है, यह मेरी बेटी है",
"पत्नी को थोड़ा अलग",
"करते—तू मेरी",
"हमसफ़र है,",
"हम थोड़ा जोखिम उठाते",
"दीवार पर हाथ रखते और कहते",
"यह मेरा घर है।",
"mere ghar mein panch joDi ankhe hain",
"man ki ankhe paDaw se pahle hi",
"teerth yatra ki bus ke",
"do panchar pahiye hain",
"pita ki ankhe",
"lohsanya ki thanDi shalakhen hain",
"beti ki ankhe mandir mein diwat par",
"jalte ghi ke",
"do diye hain",
"patni ki ankhe ankhe nahin",
"hath hain,jo mujhe thame hue hain",
"waise hum swajan hain,karib hain",
"beech ki diwar ke donon or",
"kyonki hum peshewar garib hain",
"rishte hain; lekin khulte nahin hain",
"aur hum apne khoon mein itna bhi loha",
"nahin pate,",
"ki hum usse ek tali banwate",
"aur bhasha ke bhunna si tale ko kholte,",
"rishton ko sochte hue",
"apas mein pyar se bolte,",
"kahte ki ye pita hain,",
"ye pyari man hai,yah meri beti hai",
"patni ko thoDa alag",
"karte tu meri",
"hamsafar hai,",
"hum thoDa jokhim uthate",
"diwar par hath rakhte aur kahte",
"ye mera ghar hai",
"mere ghar mein panch joDi ankhe hain",
"man ki ankhe paDaw se pahle hi",
"teerth yatra ki bus ke",
"do panchar pahiye hain",
"pita ki ankhe",
"lohsanya ki thanDi shalakhen hain",
"beti ki ankhe mandir mein diwat par",
"jalte ghi ke",
"do diye hain",
"patni ki ankhe ankhe nahin",
"hath hain,jo mujhe thame hue hain",
"waise hum swajan hain,karib hain",
"beech ki diwar ke donon or",
"kyonki hum peshewar garib hain",
"rishte hain; lekin khulte nahin hain",
"aur hum apne khoon mein itna bhi loha",
"nahin pate,",
"ki hum usse ek tali banwate",
"aur bhasha ke bhunna si tale ko kholte,",
"rishton ko sochte hue",
"apas mein pyar se bolte,",
"kahte ki ye pita hain,",
"ye pyari man hai,yah meri beti hai",
"patni ko thoDa alag",
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"hamsafar hai,",
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हस्तक्षेप - कविता | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kavita/class-11-ncert-11/hastakshaep-shrikant-verma-kavita?sort= | [
"कोई छींकता तक नहीं",
"इस डर से",
"कि मगध की शांति",
"भंग न हो जाए,",
"मगध को बनाए है, तो,",
"मगध में शांति",
"रहनी ही चाहिए",
"मगध है, तो शांति है",
"कोई चीख़ता तक नहीं",
"इस डर से",
"कि मगध की व्यवस्था में",
"दख़ल न पड़ जाए",
"मगध में व्यवस्था रहनी ही चाहिए",
"मगध में न रही",
"तो कहाँ रहेगी?",
"क्या कहेंगे लोग?",
"लोगों का क्या?",
"लोग तो यह भी कहते हैं",
"मगध अब कहने को मगध है,",
"रहने को नहीं",
"कोई टोकता तक नहीं",
"इस डर से",
"कि मगध में",
"टोकने का रिवाज न बन जाए",
"एक बार शुरू होने पर",
"कहीं नहीं रुकता हस्तक्षेप—",
"वैसे तो मगधवासियों",
"कितना भी कतराओ",
"तुम बच नहीं सकते हस्तक्षेप से—",
"जब कोई नहीं करता",
"तब नगर के बीच से गुज़रता हुआ",
"मुर्दा",
"यह प्रश्न कर हस्तक्षेप करता है—",
"मनुष्य क्यों मरता है?",
"koi chhinkta tak nahin",
"is Dar se",
"ki magadh ki shanti",
"bhang na ho jaye,",
"magadh ko banaye hai,to,",
"magadh mein shanti",
"rahni hi chahiye",
"magadh hai,to shanti hai",
"koi chikhta tak nahin",
"is Dar se",
"ki magadh ki wyawastha mein",
"dakhal na paD jaye",
"magadh mein wyawastha rahni hi chahiye",
"magadh mein na rahi",
"to kahan rahegi?",
"kya kahenge log?",
"logon ka kya?",
"log to ye bhi kahte hain",
"magadh ab kahne ko magadh hai,",
"rahne ko nahin",
"koi tokta tak nahin",
"is Dar se",
"ki magadh mein",
"tokne ka riwaj na ban jaye",
"ek bar shuru hone par",
"kahin nahin rukta hastakshaep",
"waise to magadhwasiyon",
"kitna bhi katrao",
"tum bach nahin sakte hastakshaep se",
"jab koi nahin karta",
"tab nagar ke beech se guzarta hua",
"murda",
"ye parashn kar hastakshaep karta hai",
"manushya kyon marta hai?",
"koi chhinkta tak nahin",
"is Dar se",
"ki magadh ki shanti",
"bhang na ho jaye,",
"magadh ko banaye hai,to,",
"magadh mein shanti",
"rahni hi chahiye",
"magadh hai,to shanti hai",
"koi chikhta tak nahin",
"is Dar se",
"ki magadh ki wyawastha mein",
"dakhal na paD jaye",
"magadh mein wyawastha rahni hi chahiye",
"magadh mein na rahi",
"to kahan rahegi?",
"kya kahenge log?",
"logon ka kya?",
"log to ye bhi kahte hain",
"magadh ab kahne ko magadh hai,",
"rahne ko nahin",
"koi tokta tak nahin",
"is Dar se",
"ki magadh mein",
"tokne ka riwaj na ban jaye",
"ek bar shuru hone par",
"kahin nahin rukta hastakshaep",
"waise to magadhwasiyon",
"kitna bhi katrao",
"tum bach nahin sakte hastakshaep se",
"jab koi nahin karta",
"tab nagar ke beech se guzarta hua",
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नींद उचट जाती है - कविता | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kavita/class-11-ncert-11/neend-uchat-jati-hai-narendra-sharma-kavita?sort= | [
"जब-तब नींद उचट जाती है",
"पर क्या नींद उचट जाने से",
"रात किसी की कट जाती है?",
"देख-देख दु:स्वप्न भयंकर,",
"चौंक-चौंक उठता हूँ डरकर;",
"पर भीतर के दु:स्वप्नों से",
"अधिक भयावह है तम बाहर!",
"आती नहीं उषा, बस केवल",
"आने की आहट आती है!",
"देख अँधेरा नयन दूखते,",
"दुश्चिंता में प्राण सूखते!",
"सन्नाटा गहरा हो जाता,",
"जब-जब श्वान श्रृगाल भूँकते!",
"भीत भावना,भोर सुनहली",
"नयनों के न लाती है!",
"मन होता है फिर सो जाऊँ,",
"गहरी निद्रा में खो जाऊँ;",
"जब तक रात रहे धरती पर,",
"चेतन से फिर जड़ हो जाऊँ",
"उस करवट अकुलाहट थी, पर",
"नींद न इस करवट आती है!",
"करवट नहीं बदलता है तम,",
"मन उतावलेपन में अक्षम!",
"जगते अपलक नयन बावले,",
"थिर न पुतलियाँ, निमिष गए थम!",
"साँस आस में अटकी, मन को",
"आस रात भर भटकाती है!",
"जागृति नहीं अनिद्रा मेरी,",
"नहीं गई भव-निशा अँधेरी!",
"अंधकार केंद्रित धरती पर,",
"देती रही ज्योति चकफेरी!",
"अंतर्नयनों के आगे से",
"शिला न तम की हट पाती है!",
"jab tab neend uchat jati hai",
"par kya neend uchat jane se",
"raat kisi ki kat jati hai?",
"dekh dekh duhaswapn bhayankar,",
"chaunk chaunk uthta hoon Darkar;",
"par bhitar ke duhaswapnon se",
"adhik bhayawah hai tam bahar!",
"ati nahin usha, bus kewal",
"ane ki aahat aati hai!",
"dekh andhera nayan dukhte,",
"dushixnchata mein paran sukhte!",
"sannata gahra ho jata,",
"jab jab shwan shrrigal bhunkate!",
"bheet bhawna,bhor sunahli",
"naynon ke na lati hai!",
"man hota hai phir so jaun,",
"gahri nidra mein kho jaun;",
"jab tak raat rahe dharti par,",
"chetan se phir jaD ho jaun",
"us karwat akulahat thi, par",
"neend na is karwat aati hai!",
"karwat nahin badalta hai tam,",
"man utawlepan mein aksham!",
"jagte aplak nayan bawle,",
"thir na putliyan,nimish gaye tham!",
"sans aas mein atki, man ko",
"as raat bhar bhatkati hai!",
"jagriti nahin anidra meri,",
"nahin gai bhaw nisha andheri!",
"andhkar kendrit dharti par,",
"deti rahi jyoti chakpheri!",
"antarnaynon ke aage se",
"shila na tam ki hat pati hai!",
"jab tab neend uchat jati hai",
"par kya neend uchat jane se",
"raat kisi ki kat jati hai?",
"dekh dekh duhaswapn bhayankar,",
"chaunk chaunk uthta hoon Darkar;",
"par bhitar ke duhaswapnon se",
"adhik bhayawah hai tam bahar!",
"ati nahin usha, bus kewal",
"ane ki aahat aati hai!",
"dekh andhera nayan dukhte,",
"dushixnchata mein paran sukhte!",
"sannata gahra ho jata,",
"jab jab shwan shrrigal bhunkate!",
"bheet bhawna,bhor sunahli",
"naynon ke na lati hai!",
"man hota hai phir so jaun,",
"gahri nidra mein kho jaun;",
"jab tak raat rahe dharti par,",
"chetan se phir jaD ho jaun",
"us karwat akulahat thi, par",
"neend na is karwat aati hai!",
"karwat nahin badalta hai tam,",
"man utawlepan mein aksham!",
"jagte aplak nayan bawle,",
"thir na putliyan,nimish gaye tham!",
"sans aas mein atki, man ko",
"as raat bhar bhatkati hai!",
"jagriti nahin anidra meri,",
"nahin gai bhaw nisha andheri!",
"andhkar kendrit dharti par,",
"deti rahi jyoti chakpheri!",
"antarnaynon ke aage se",
"shila na tam ki hat pati hai!",
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पथिक - कविता | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kavita/class-11-ncert-11/pathik-ramnaresh-tripathi-kavita?sort= | [
"प्रतिक्षण नूतन वेश बनाकर रंग-बिरंग निराला।",
"रवि के सम्मुख थिरक रही है नभ में वारिद-माला।",
"नीचे नील समुद्र मनोहर ऊपर नील गगन है।",
"घन पर बैठ,बीच में बिचरूँ यही चाहता मन है॥",
"रत्नाकर गर्जन करता है,मलयानिल बहता है।",
"हरदम यह हौसला ह्रदय में प्रिये! भरा रहता है।",
"इस विशाल,विस्तृत,महिमामय रत्नाकर के घर के-",
"कोने-कोने में लहरों पर बैठे फिरूँ जी भर के॥",
"निकल रहा है जलनिधि-तल पर दिनकर-बिंब अधुरा।",
"कमला के कंचन-मंदिर का माना कांत कँगूरा।",
"लाने को निज पुण्य-भूमि पर लक्ष्मी की असवारी।",
"रत्नाकर ने निर्मित कर दी स्वर्ण-सड़क अति प्यारी॥",
"निर्भय,दृढ़,गंभीर भाव से गरज रहा सागर है।",
"लहरों पर लहरों का आना सुंदर,अति सुंदर है।",
"कहो यहाँ से बढ़कर सुख क्या पा सकता है प्राणी?",
"अनुभव करो ह्रदय से, हे अनुराग-भरी कल्याणी॥",
"जब गंभीर तम अर्द्ध-निशा में जग को ढक लेता है।",
"अंतरिक्ष की छत पर तारों को छिटका देता है।",
"सस्मित-वदन जगत का स्वामी मृदु गति से आता है।",
"तट पर खड़ा गगन-गंगा के मधुर गीत गाता है॥",
"उससे ही विमुग्ध हो नभ में चंद्र विहँस देता है।",
"वृक्ष विविध पत्तों-पुष्पों से तन को सज लेता है।",
"पक्षी हर्ष सँभाल न सकते मुग्ध चहक उठते हैं।",
"फूल साँस लेकर सुख की सानंद महक उठते हैं-",
"वन,उपवन,गिरी,सानु,कुंज में मेघ बरस पड़ते हैं।",
"मेरा आत्म-प्रलय होता है, नयन नीर झड़ते हैं।",
"पढो लहर,तट,तृण,तरु,गिरी,नभ,किरन,जलद पर प्यारी।",
"लिखी हुई यह मधुर कहानी विश्व-विमोहनहारी॥",
"कैसी मधुर मनोहर उज्ज्वल है यह प्रेम-कहानी।",
"जी में है अक्षर बन इसके बनूँ विश्व की बानी।",
"स्थिर,पवित्र,आनंद-प्रवाहित,सदा शांति सुखकर है।",
"आह! प्रेम का राज्य परम सुंदर, अतिशय सुंदर है॥",
"pratikshan nutan wesh banakar rang birang nirala",
"rawi ke sammukh thirak rahi hai nabh mein warid mala",
"niche neel samudr manohar upar neel gagan hai",
"ghan par baith,beech mein bichrun yahi chahta man hai॥",
"ratnakar garjan karta hai,malyanil bahta hai",
"hardam ye hausla hrday mein priye! bhara rahta hai",
"is wishal,wistrit,mahimamay ratnakar ke ghar ke",
"kone kone mein lahron par baithe phirun ji bhar ke॥",
"nikal raha hai jalnidhi tal par dinkar bimb adhura",
"kamla ke kanchan mandir ka mana kant kangura",
"lane ko nij punny bhumi par lakshmi ki aswari",
"ratnakar ne nirmit kar di swarn saDak ati pyari॥",
"nirbhay,driDh,gambhir bhaw se garaj raha sagar hai",
"lahron par lahron ka aana sundar,ati sundar hai",
"kaho yahan se baDhkar sukh kya pa sakta hai parani?",
"anubhaw karo hrday se, he anurag bhari kalyanai॥",
"jab gambhir tam arddh nisha mein jag ko Dhak leta hai",
"antriksh ki chhat par taron ko chhitka deta hai",
"sasmit wadan jagat ka swami mridu gati se aata hai",
"tat par khaDa gagan ganga ke madhur geet gata hai॥",
"usse hi wimugdh ho nabh mein chandr wihans deta hai",
"wriksh wiwidh patton pushpon se tan ko saj leta hai",
"pakshi harsh sanbhal na sakte mugdh chahak uthte hain",
"phool sans lekar sukh ki sanand mahak uthte hain",
"wan,upwan,giri,sanu,kunj mein megh baras paDte hain",
"mera aatm prlay hota hai, nayan neer jhaDte hain",
"paDho lahr,tat,trin,taru,giri,nabh,kiran,jalad par pyari",
"likhi hui ye madhur kahani wishw wimohanhari॥",
"kaisi madhur manohar ujjwal hai ye prem kahani",
"ji mein hai akshar ban iske banun wishw ki bani",
"sthir,pawitra,anand prwahit,sada shanti sukhkar hai",
"ah! prem ka rajy param sundar, atishay sundar hai॥",
"pratikshan nutan wesh banakar rang birang nirala",
"rawi ke sammukh thirak rahi hai nabh mein warid mala",
"niche neel samudr manohar upar neel gagan hai",
"ghan par baith,beech mein bichrun yahi chahta man hai॥",
"ratnakar garjan karta hai,malyanil bahta hai",
"hardam ye hausla hrday mein priye! bhara rahta hai",
"is wishal,wistrit,mahimamay ratnakar ke ghar ke",
"kone kone mein lahron par baithe phirun ji bhar ke॥",
"nikal raha hai jalnidhi tal par dinkar bimb adhura",
"kamla ke kanchan mandir ka mana kant kangura",
"lane ko nij punny bhumi par lakshmi ki aswari",
"ratnakar ne nirmit kar di swarn saDak ati pyari॥",
"nirbhay,driDh,gambhir bhaw se garaj raha sagar hai",
"lahron par lahron ka aana sundar,ati sundar hai",
"kaho yahan se baDhkar sukh kya pa sakta hai parani?",
"anubhaw karo hrday se, he anurag bhari kalyanai॥",
"jab gambhir tam arddh nisha mein jag ko Dhak leta hai",
"antriksh ki chhat par taron ko chhitka deta hai",
"sasmit wadan jagat ka swami mridu gati se aata hai",
"tat par khaDa gagan ganga ke madhur geet gata hai॥",
"usse hi wimugdh ho nabh mein chandr wihans deta hai",
"wriksh wiwidh patton pushpon se tan ko saj leta hai",
"pakshi harsh sanbhal na sakte mugdh chahak uthte hain",
"phool sans lekar sukh ki sanand mahak uthte hain",
"wan,upwan,giri,sanu,kunj mein megh baras paDte hain",
"mera aatm prlay hota hai, nayan neer jhaDte hain",
"paDho lahr,tat,trin,taru,giri,nabh,kiran,jalad par pyari",
"likhi hui ye madhur kahani wishw wimohanhari॥",
"kaisi madhur manohar ujjwal hai ye prem kahani",
"ji mein hai akshar ban iske banun wishw ki bani",
"sthir,pawitra,anand prwahit,sada shanti sukhkar hai",
"ah! prem ka rajy param sundar, atishay sundar hai॥",
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"हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश"
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कक्षा-11 एनसीईआरटी के विषय पर बेहतरीन कविता | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/tags/class-11-ncert-11 | [
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यथार्थ के विषय पर बेहतरीन कहानी | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/tags/realitys | [
"जब नमक का नया विभाग बना और ईश्वर-प्रदत्त वस्तु के व्यवहार करने का निषेध हो गया तो लोग चोरी-छिपे इसका व्यापार करने लगे। अनेक प्रकार के छल-प्रपंचों का सूत्रपात हुआ, कोई घूस से काम निकालता था, कोई चालाकी से। अधिकारियों के पौ-बारह थे। पटवारीगिरी का सर्वसम्मानित",
"रात के दो बजे होंगे कि अकस्मात् सूरदास की झोंपड़ी से ज्वाला उठी। लोग अपने-अपने द्वारों पर सो रहे थे। निद्रावस्था में भी उपचेतना जागती रहती है। दम-के-दम में सैकड़ों आदमी जमा हो गए। आसमान पर लाली छाई हुई थी, ज्वालाएँ लपक-लपककर आकाश की ओर दौड़ने लगीं।",
"जाड़े का दिन। अमावस्या की रात—ठंडी और काली। मलेरिया और हैज़े से पीड़ित गाँव भयार्त्त शिशु की तरह थर-थर काँप रहा था। पुरानी और उजड़ी बाँस-फूस की झोपड़ियों में अंधकार और सन्नाटे का सम्मिलित साम्राज्य! अँधेरा और निस्तब्धता!\r\n\r\nअँधेरी रात चुपचाप आँसू बहा रही",
"क्वार की एक शाम को पान की एक दुकान पर दो युवक मिले। आकाश साफ़, नीला और ख़ुशनुमा था और हवा आने वाले मौसम की स्मृति में चंचल। एक युवक गोरे रंग का, लंबा, तगड़ा और बहुत सुंदर था, यद्यपि उसकी आँखें छोटी-छोटी थीं। वह सफ़ेद क़मीज़ और आधुनिक फ़ैशन की एक ऐसी",
"शायद मरते वक़्त वह खिलखिलाकर हँसा था, मन में पहला विचार यही आया। बाक़ी खोपड़ी कुछ इस तरह से जलकर काली पड़ गई थी, और आस-पास की खाल कुछ ऐसे वीभत्स रूप से सिकुड़ी हुई थी कि सिर्फ़ बत्तीसी की सफ़ेदी ही पहली निगाह में दीखती थी और बाक़ी चेहरा न देखो तो यही",
"एक\r\n\r\nमुसलमानों को स्पेन-देश पर राज्य करते कई शताब्दियाँ बीत चुकी थीं। कलीसाओं की जगह मस्जिदें बनती जाती थीं; घंटों की जगह अज़ान की आवाज़ें सुनाई देती थी। ग़रनाता और अलहमरा में वे समय की नश्वर गति पर हँसने वाले प्रासाद बन चुके थे, जिनके खंडहर अब तक देखने",
"समुद्र के किनारे ऊँचे पर्वत की अँधेरी गुफ़ा में एक साँप रहता था। समुद्र की तूफ़ानी लहरें धूप में चमकतीं, झिलमिलातीं और दिन भर पर्वत की चट्टानों से टकराती रहती थीं। \r\n\r\nपर्वत की अँधेरी घाटियों में एक नदी भी बहती थी। अपने रास्ते पर बिखरे पत्थरों को तोड़ती,",
"हालदार साहब को हर पंद्रहवें दिन कंपनी के काम के सिलसिले में उस क़स्बे से गुज़रना पड़ता था। क़स्बा बहुत बड़ा नहीं था। जिसे पक्का मकान कहा जा सके वैसे कुछ ही मकान और जिसे बाज़ार कहा जा सके वैसा एक ही बाज़ार था। क़स्बे में एक लड़कों का स्कूल, एक लड़कियों का स्कूल,",
"—तेरा नाम क्या है?\r\n\r\n—राही।\r\n\r\n—तुझे किस अपराध में सज़ा हुई?\r\n\r\n—चोरी की थी सरकार।\r\n\r\n—चोरी? क्या चुराया था?\r\n\r\n—नाज की गठरी।\r\n\r\n—कितना अनाज था?\r\n\r\n—होगा पाँच छह सेर।\r\n\r\n—और सज़ा कितने दिन की है?\r\n\r\n—साल भर की।\r\n\r\n—तो तूने चोरी क्यों की? मज़दूरी करती",
"संध्या का समय था। डॉक्टर चड्ढा गोल्फ़ खेलने के लिए तैयार हो रहे थे। मोटर द्वार के सामने खड़ी थी कि दो कहार एक डोली लिए आते दिखाई दिए। डोली के पीछे एक बूढ़ा लाठी टेकता चला आता था। डोली औषधालय सामने आकर रुक गई। बूढ़े ने धीरे-धीरे आकर द्वार पर पड़ी हुई",
"‘शकुंतला क्या नहीं जानती?'\r\n'कौन? शकुंतला! कुछ नहीं जानती!'\r\n'क्यों साहब? क्या नहीं जानती? ऐसा क्या काम जो वह नहीं कर सकती?'\r\n‘वह उस गूँगे को नहीं बुला सकती।'\r\n'अच्छा, बुला दिया तो? \r\n\"बुला दिया?\"\r\nबालिका ने एक बार कहने वाली की ओर द्वेष से देखा और चिल्ला",
"सुकिया के हाथ की पथी कच्ची ईंटें पकने के लिए भट्टे में लगाई जा रही थीं। भट्टे के गलियारे में झरोखेदार कच्ची ईंटों की दीवार देखकर सुकिया आत्मिक सुख से भर गया था। देखते-ही-देखते हज़ारों ईंटें भट्ठे के गलियारे में समा गई थीं। ईंटों के बीच ख़ाली जगह में पत्थर",
"बहुत कुछ निरुद्देश्य घूम चुकने पर हम सड़क के किनारे की एक बेंच पर बैठ गए।\r\n\r\nनैनीताल की संध्या धीरे-धीरे उतर रही थी। रूई के रेशे-से भाप-से, बादल हमारे सिरों को छू-छूकर बेरोक घूम रहे थे। हल्के प्रकाश और अँधियारी से रंगकर कभी वे नीले दीखते, कभी सफ़ेद और",
"मोहन के पैर अनायास ही शिल्पकार टोले की ओर मुड़ गए। उसके मन के किसी कोने में शायद धनराम लुहार के ऑफ़र की वह अनुगूँज शेष थी जिसे वह पिछले तीन-चार दिनों से दुकान की ओर जाते हुए दूर से सुनता रहा था। निहाई पर रखे लाल गर्म लोहे पर पड़ती हथौड़े की धप्-धप् आवाज़,",
"शकलदीप बाबू कहीं एक घंटे बाद वापस लौटे। घर में प्रवेश करने के पूर्व उन्होंने ओसारे के कमरे में झाँका, कोई भी मुवक्किल नहीं था और मुहर्रिर साहब भी ग़ायब थे। वह भीतर चले गए और अपने कमरे के सामने ओसारे में खड़े होकर बंदर की भाँति आँखे मलका-मलकाकर उन्होंने",
"एक\r\n\r\nसीधे-सादे किसान धन हाथ आते ही धर्म और कीर्ति की ओर झुकते हैं। धनिक समाज की भाँति वे पहले अपने भोग-विलास की ओर नहीं दौड़ते। सुजान की खेती में कई साल से कंचन बरस रहा था। मेहनत तो गाँव के सभी किसान करते थे, पर सुजान के चंद्रमा बली थे। ऊसर में भी दाना",
"शहर के अख़बार तो पिछले कई दिनों से चिल्ला रहे थे कि जिस दिन हुज़ूर की पुत्री ससुराल जाएगी, सारा शहर रोएगा। बात कहने का ढंग कुछ फूहड़ हो गया, अन्यथा रोने को भी अलंकृत किया जा सकता है जो कि अख़बार कर रहे थे यथा 'हर आँख नम होगी', प्रेमाश्रु के मोर्मियों",
"यह बालोद का बुधवारी बाज़ार है।\r\n\r\nबालोद इस ज़िले की एक तहसील है। कुछ साल पहले तक यह सिर्फ़ एक छोटा-सा गाँव हुआ करता था। जहाँ किसान थे, उनके खेत थे, हल-बक्खर थे, उनके बरगद, नीम और पीपल थे। पर अब यह एक छोटा शहर की सारी ख़ूबियाँ लिए हुए। आसपास के गाँव-देहातों",
"साग-मीट बनाना क्या मुश्किल काम है। आज शाम खाना यहीं खाकर जाओ, मैं तुम्हारे सामने बनवाऊँगी, सीख भी लेना और खा भी लेना। रुकोगी न? इन्हें साग-मीट बहुत पसंद है। जब कभी दोस्तों का खाना करते हैं, तो साग-मीट ज़रूर बनवाते हैं। हाय, साग-मीट तो जग्गा बनाता",
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संथाली कविता के विषय पर बेहतरीन कविता | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/tags/santhali-kavita | [
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कक्षा-5 एनसीईआरटी के विषय पर बेहतरीन कविता | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/tags/class-5-ncert-5/kavita | [
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एक माँ की बेबसी - कविता | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kavita/class-5-ncert-5/ek-man-ki-bebasi-kunwar-narayan-kavita-40?sort= | [
"प्रसतुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा पाँचवी के पाठ्यक्रम में शामिल है।",
"इस कविता को पढ़ते समय, आँखों के सामने कई चित्र बनते हैं। बचपन का चित्र, बचपन के ख़ास समय खेल और साथियों का चित्र, उन साथियों में एक ख़ास साथी रतन का और एक माँ का चित्र। इसे पढ़ो और महसूस करो।",
"कविता धीरे-धीरे पढ़ने की चीज़ है। उसे मन में उतरने में काफ़ी समय लगता है। कभी-कभी तो बरसों बाद हम बचपन की पढ़ी कविता पढ़ते हैं तो लगता है-पहली बार पढ़ा है इसे। कविता पढ़ने के बाद मन के किसी कोने में घर बना लेती हैं। किसी मौक़े पर वह उभर आती है।",
"कविता, कहानी, सबके साथ यह होता है। इसीलिए हमें इससे चिंतित होने की ज़रूरत नहीं कि कविता एक बार में पूरी तरह समझ में आ रही है या नहीं। अगर उससे सिर्फ़ एक चित्र ही उभरता है तो भी कविता कामयाब है।",
"न जाने किस अदृश्य पड़ोस से",
"निकल कर आता था वह",
"खेलने हमारे साथ—",
"रतन, जो बोल नहीं सकता था",
"खेलता था हमारे साथ",
"एक टूटे खिलौने की तरह",
"देखने में हम बच्चों की ही तरह",
"था वह भी एक बच्चा।",
"लेकिन हम बच्चों के लिए अजूबा था",
"क्योंकि हमसे भिन्न था।",
"थोड़ा घबराते भी थे हम उससे",
"क्योंकि समझ नहीं पाते थे",
"उसकी घबराहटों को,",
"न इशारों में कही उसकी बातों को,",
"न उसकी भयभीत आँखों में",
"हर समय दिखती",
"उसके अंदर की छटपटाहटों को।",
"जितनी देर वह रहता",
"पास बैठी उसक माँ",
"निहारती रहती उसका खेलना।",
"अब जैसे-जैसे",
"कुछ बेहतर समझने लगा हूँ",
"उनकी भाषा जो बोल नहीं पाते हैं",
"याद आती",
"रतन से अधिक",
"उसकी माँ की आँखों में",
"झलकती उसकी बेबसी।",
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गुरु और चेला - कविता | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kavita/class-5-ncert-5/guru-aur-chela-sohanlal-dwivedi-kavita?sort= | [
"प्रसतुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा पाँचवी के पाठ्यक्रम में शामिल है।",
"गुरु एक थे और था एक चेला,",
"चले घूमने पास में था न धेला।",
"चले चलते-चलते मिली एक नगरी,",
"चमाचम थी सड़कें चमाचम थी डगरी।",
"मिली एक ग्वालिन धरे शीश गगरी,",
"गुरु ने कहा तेज़ ग्वालिन न भग री।",
"बता कौन नगरी, बता कौन राजा,",
"कि जिसके सुयश का यहाँ बजता बाजा।",
"कहा बढ़के ग्वालिन ने महाराज पंडित,",
"पधारे भले हो यहाँ आज पंडित।",
"यह अँधेर नगरी है अनबूझ राजा,",
"टके सेर भाजी, टके सेर खाजा।",
"गुरु ने कहा-जान देना नहीं है,",
"मुसीबत मुझे मोल लेना नहीं है।",
"न जाने की अँधेर हो कौन छन में?",
"यहाँ ठीक रहना समझता न मन में।",
"गुरु ने कहा किंतु चेला न माना,",
"गुरु को विवश हो पड़ा लौट जाना।",
"गुरुजी गए, रह गया किंतु चेला,",
"यही सोचता हूँगा मोटा अकेला।",
"चला हाट को देखने आज चेला,",
"तो देखा वहाँ पर अजब रेल-पेला।",
"टके सेर हल्दी, टके सेर जीरा,",
"टके सेर ककड़ी टके सेर खीरा।",
"टके सेर मिलती थी रबड़ी मलाई,",
"बहुत रोज़ उसने मलाई उड़ाई।",
"सुनो और आगे का सिर हाल ताज़ा।",
"थी अँधेर नगरी, था अनबूझ राजा।",
"बरसता था पानी, चमकती थी बिजली,",
"थी बरसात आई, दमकती थी बिजली।",
"गरजते थे बादल, झमकती थी बिजली,",
"थी बरसात गहरी, धमकती थी बिजली।",
"गिरी राज्य की एक दीवार भारी,",
"जहाँ राजा पहुँचे तुरत ले सवारी।",
"झपट संतरी को डपटकर बुलाया,",
"गिरी क्यों यह दीवार, किसने गिराया?",
"कहा संतरी ने-महाराज साहब,",
"न इसमें ख़ता मेरी, ना मेरा करतब!",
"यह दीवार कमज़ोर पहले बनी थी,",
"इसी से गिरी, यह न मोटी घनी थी।",
"ख़ता कारीगर की महाराज साहब,",
"न इसमें ख़ता मेरी, या मेरा करतब!",
"बुलाया गया, कारीगर झट वहाँ पर,",
"बिठाया गया, कारीगर झट वहाँ पर।",
"कहा राजा ने-कारीगर को सज़ा दो",
"ख़ता इसकी है आज इसको कज़ा दो।",
"कहा कारीगर ने, ज़रा की न देरी,",
"महाराज! इसमें ख़ता कुछ न मेरी।",
"यह भिश्ती की ग़लती यह उसकी शरारत,",
"किया गारा गीला उसी की यह ग़फ़लत।",
"कहा राजा ने-जल्द भिश्ती बुलाओ।",
"पकड़कर उसे जल्द फाँसी चढ़ाओ।",
"चला आया भिश्ती, हुई कुछ न देरी,",
"कहा उसने-इसमें ख़ता कुछ न मेरी।",
"यह ग़लती है जिसने मशक़ को बनाया,",
"कि ज़्यादा ही जिसमें था पानी समाया।",
"मशकवाला आया, हुई कुछ न देरी,",
"कहा उसने इसमें ख़ता कुछ न मेरी।",
"यह मंत्री की ग़लती, है मंत्री की ग़फ़लत,",
"उन्हीं की शरारत, उन्हीं की है हिकमत।",
"बड़े जानवर का था चमड़ा दिलाया,",
"चुराया न चमड़ा मशक को बनाया।",
"बड़ी है मशक ख़ूब भरता है पानी,",
"ये ग़लती न मेरी, यह ग़लती बिरानी।",
"है मंत्री की ग़लती तो मंत्री को लाओ,",
"हुआ हुक्म मंत्री को फाँसी चढ़ाओ।",
"चले मंत्री को लेके जल्लाद फ़ौरन,",
"चढाने को फाँसी उसी दम उसी क्षण।",
"मगर मंत्री था इतना दुबला दिखाता,",
"न गर्दन में फाँसी का फंदा था आता।",
"कहा राजा ने जिसकी मोटी हो गर्दन,",
"पकड़कर उसे फाँसी दो तुम इसी क्षण।",
"चले संतरी ढूँढ़ने मोटी गर्दन,",
"मिला चेला खाता था हलुआ दनादन।",
"कहा संतरी ने चलें आप फ़ौरन,",
"महाराज ने भेजा न्यौता इसी क्षण।",
"बहुत मन में ख़ुश हो चला आज चेला,",
"कहा आज न्यौता छकूँगा अकेला!!",
"मगर आके पहुँचा तो देखा झमेला,",
"वहाँ तो जुड़ा था अजब एक मेला।",
"यह मोटी है गर्दन, इसे तुम बढ़ाओ,",
"कहा राजा ने इसको फाँसी चढ़ाओ!",
"कहा चेले ने-कुछ ख़ता तो बताओ,",
"कहा राजा ने—‘चुप’ न बकबक मचाओ।",
"मगर था न बुद्ध—था चालाक चेला,",
"मचाया बड़ा ही वहीं पर झमेला!!",
"कहा पहले गुरु जी के दर्शन कराओ,",
"मुझे बाद में चाहे फाँसी चढ़ाओ।",
"गुरुजी बुलाए गए झट वहाँ पर,",
"कि रोता था चेला खड़ा था जहाँ पर।",
"गुरु जी ने चेले को आकर बुलाया,",
"तुरत कान में मंत्र कुछ गुनगुनाया।",
"झगड़ने लगे फिर गुरु और चेला,",
"मचा उनमें धक्का रेल-पेला।",
"गुरु ने कहा—फाँसी पर मैं चढ़ूँगा,",
"कहा चेले ने—फाँसी पर मैं मरूँगा।",
"हटाए न हटते अड़े ऐसे दोनों,",
"छुटाए न छुटते लड़े ऐसे दोनों।",
"बढ़े राजा फ़ौरन कहा बात क्या है?",
"गुरु ने बताया करामात क्या है।",
"चढ़ेगा जो फाँसी महूरत है ऐसी,",
"न ऐसी महूरत बनी बढ़िया जैसी।",
"वह राजा नहीं, चक्रवर्ती बनेगा,",
"यह संसार का छत्र उस पर तनेगा।",
"कहा राजा ने बात सच गर यही",
"गुरु का कथन, झूठ होता नहीं है",
"कहा राजा ने फाँसी पर मैं चढ़ूँगा",
"इसी दम फाँसी पर मैं ही टँगूँगा।",
"चढ़ा फाँसी राजा बजा ख़ूब बाजा",
"प्रजा ख़ुश हुई जब मरा मूर्ख़ राजा",
"बजा ख़ूब घर-घर बधाई का बाजा।",
"थी अँधेर नगरी, था अनबूझ राजा",
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खिलौनेवाला - कविता | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kavita/class-5-ncert-5/khilaunewala-subhadrakumari-chauhan-kavita-1?sort= | [
"प्रसतुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा पाँचवी के पाठ्यक्रम में शामिल है।",
"वह देखो माँ आज",
"खिलौनेवाला फिर से आया है।",
"कई तरह के सुंदर-सुंदर",
"नए खिलौने लाया है।",
"हरा-हरा तोता पिंजड़े में",
"गेंद एक पैसे वाली",
"छोटी-सी मोटर गाड़ी है",
"सर-सर-सर चलने वाली।",
"सीटी भी है कई तरह की",
"कई तरह के सुंदर खेल",
"चाभी भर देने से भक-भक",
"करती चलने वाली रेल।",
"गुड़िया भी है बहुत भली-सी",
"पहिने कानों में बाली",
"छोटा-सा ‘टी सेट’ है",
"छोटे-छोटे हैं लोटा-थाली।",
"छोटे-छोटे धनुष-बाण हैं",
"हैं छोटी-छोटी तलवार",
"नए खिलौने ले लो भैया",
"ज़ोर-ज़ोर वह रहा पुकार।",
"मुन्नू ने गुड़िया ले ली है",
"मोहन ने मोटर गाड़ी",
"मचल-मचल सरला कहती है",
"माँ से लेने को साड़ी",
"कभी खिलौनेवाला भी माँ",
"क्या साड़ी ले आता है।",
"साड़ी तो वह कपड़े वाला",
"कभी-कभी दे जाता है",
"अम्मा तुमने तो लाकर के",
"मुझे दे दिए पैसे चार",
"कौन खिलौने लेता हूँ मैं",
"तुम भी मन में करो विचार।",
"तुम सोचोगी मैं ले लूँगा।",
"तोता, बिल्ली, मोटर, रेल",
"पर माँ, यह मैं कभी न लूँगा",
"ये तो हैं बच्चों के खेल।",
"मैं तलवार ख़रीदूँगा माँ",
"या मैं लूँगा तीर-कमान",
"जंगल में जा, किसी ताड़का",
"को मारूँगा राम समान।",
"तपसी यज्ञ करेंगे, असुरों—",
"को मैं मार भगाऊँगा",
"यों ही कुछ दिन करते-करते",
"रामचंद्र बन जाऊँगा।",
"यहीं रहूँगा कौशल्या मैं",
"तुमको यहीं बनाऊँगा।",
"तुम कह दोगी वन जाने को",
"हँसते-हँसते जाऊँगा।",
"पर माँ, बिना तुम्हारे वन में",
"मैं कैसे रह पाऊँगा।",
"दिन भर घूमूँगा जंगल में",
"लौट कहाँ पर आऊँगा।",
"किससे लूँगा पैसे, रूठूँगा",
"तो कौन मना लेगा",
"कौन प्यार से बिठा गोद में",
"मनचाही चीज़ें देगा।",
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बाघ आया उस रात - कविता | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kavita/class-5-ncert-5/bagh-aaya-us-raat-nagarjun-kavita?sort= | [
"प्रसतुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा पाँचवी के पाठ्यक्रम में शामिल है।",
"“वो इधर से निकला",
"उधर चला गया ऽऽ”",
"वो आँखें फैलाकर",
"बतला रहा था—",
"“हाँ बाबा, बाघ आया उस रात,",
"आप रात को बाहर न निकलो!",
"जाने कब बाघ फिर से आ जाए!”",
"“हाँ, वो ही ही ही! वो ही जो",
"उस झरने के पास रहता है",
"वहाँ अपन दिन के वक़्त",
"गए थे न एक रोज़?",
"बाघ उधर ही तो रहता है",
"बाबा, उसके दो बच्चे हैं",
"बाघिन सारा दिन पहरा देती है",
"बाघ या तो सोता है",
"या बच्चों से खेलता है...”",
"दूसरा बालक बोला—",
"“बाघ कहीं काम नहीं करता",
"न किसी दफ़्तर में",
"न कॉलेज में ऽऽ”",
"छोटू बोला—",
"“स्कूल में भी नहीं...”",
"पाँच-साला बेटू ने",
"हमें फिर से आगाह किया",
"“अब रात को बाहर होकर बाथरूम न जाना!”",
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कक्षा-6 एनसीईआरटी के विषय पर बेहतरीन कविता | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/tags/class-6-ncert-6/kavita | [
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कक्षा-6 एनसीईआरटी के विषय पर बेहतरीन साक्षात्कार | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/tags/class-6-ncert-6/interview | [
"राजीव : जोसफ़! नमस्ते!",
"जोसफ़ : नमस्ते! तुम यहाँ? क्या यही तुम्हारा घर है? बहुत दिनों बाद मिले हो। बैठक में बैठकर कुछ देर बात करें।",
"राजीव : हाँ, यह हमारा नया घर है।",
"जोसफ़ : घर में कौन-कौन है?",
"राजीव : घर में मेरे पिता जी, माँ और बड़े भैया हैं। अंदर आओ, इधर बैठो सोफ़े पर।",
"जोसफ़ : यह कमरा बहुत सुंदर है। घर में कितने कमरे हैं।",
"राजीव : घर में पाँच कमरे हैं। तीन कमरे नीचे हैं, दो कमरे ऊपर। नीचे वाले कमरे बड़े हैं, ऊपर के कमरे छोटे हैं। दाहिनी ओर पिता जी का कमरा है।",
"जोसफ़ : यह कमरा किसका है?",
"राजीव : यह बड़े भैया का कमरा है। उसके पास स्नान घर है।",
"जोसफ़ : वह किसका मकान है?",
"राजीव : वह मुन्ना शाहिद का मकान है। वह मेरा दोस्त है।",
"जोसफ़ : और वह बग़ीचा किसका है?",
"राजीव : मेरा बग़ीचा है। चलो आओ, हम बग़ीचा देखें। क्यारी में कई पौधे हैं। क्यारियों में रंग-बिरंगे फूल लगे हैं। ये गुलाब के फूल हैं और वे गेंदे के। दीवार के पास कई पेड़ लंबे हैं और कुछ पेड़ छोटे। यह आम का पेड़ है और वह नीम का। वह अमरूद का पेड़ है, यह नारियल का। अमरूद का पेड़ छोटा होता है और नारियल का पेड़ लंबा।",
"जोसफ़ : यह बग़ीचा बहुत अच्छा है।",
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कक्षा-6 एनसीईआरटी के विषय पर बेहतरीन निबंध | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/tags/class-6-ncert-6/essay | [
"कभी-कभी मैं अपने मित्रों की परीक्षा लेती हूँ, यह परखने के लिए कि वह क्या देखते हैं। हाल ही में मेरी एक प्रिय मित्र जंगल की सैर करने के बाद वापस लौटीं। मैंने उनसे पूछा, “आपने क्या-क्या देखा?”\r\n\r\n“कुछ ख़ास तो नहीं,” उनका जवाब था। मुझे बहुत अचरज नहीं हुआ",
"लोकगीत अपनी लोच, ताज़गी और लोकप्रियता में शास्त्रीय संगीत से भिन्न हैं। लोकगीत सीधे जनता के संगीत हैं। घर, गाँव और नगर की जनता के गीत हैं ये। इनके लिए साधना की ज़रूरत नहीं होती। त्योहारों और विशेष अवसरों पर ये गाए जाते हैं। सदा से ये गाए जाते रहे हैं",
"आश्रम में गांधी कई ऐसे काम भी करते थे जिन्हें आमतौर पर नौकर-चाकर करते हैं। जिस ज़माने में वे बैरिस्टरी से हज़ारों रुपए कमाते थे, उस समय भी वे प्रतिदिन सुबह अपने हाथ से चक्की पर आटा पीसा करते थे। चक्की चलाने में कस्तूरबा और उनके लड़के भी हाथ बँटाते थे।",
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कक्षा-6 एनसीईआरटी के विषय पर बेहतरीन कहानी | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/tags/class-6-ncert-6/story | [
"केशव के घर कार्निस के ऊपर एक चिड़िया ने अंडे दिए थे। केशव और उसकी बहन श्यामा दोनों बड़े ध्यान से चिड़िया को वहाँ आते-जाते देखा करते। सवेरे दोनों आँखें मलते कार्निस के सामने पहुँच जाते और चिड़ा और चिड़िया दोनों को वहाँ बैठा पाते। उनको देखने में दोनों",
"अब राजप्पा को कोई नहीं पूछता। आजकल सब के सब नागराजन को घेरे रहते। ‘नागराजन घमंडी हो गया है’, राजप्पा सारे लड़कों में कहता फिरता। पर लड़के भला कहाँ उसकी बातों पर ध्यान देते! नागराजन के मामा जी ने सिंगापुर से एक अलबम भिजवाया था। वह लड़कों को दिखाया करता।",
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कक्षा-6 एनसीईआरटी के विषय पर बेहतरीन गीत | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/tags/class-6-ncert-6/geet | [
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कक्षा-6 एनसीईआरटी के विषय पर बेहतरीन एकांकी | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/tags/class-6-ncert-6/ekanki | [
"पात्र-परिचय\r\nमोहन : एक विद्यार्थी\r\nदीनानाथ : एक पड़ोसी\r\nमाँ : मोहन की माँ\r\nपिता : मोहन के पिता\r\nमास्टर : मोहन के मास्टर जी।\r\n\r\nवैद्य जी डॉक्टर तथा एक पड़ोसिन।\r\n(सड़क के किनारे एक सुंदर फ़्लैट में बैठक का दृश्य। उसका एक दरवाज़ा सड़कवाले बरामदे में खुलता",
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कक्षा-6 एनसीईआरटी के विषय पर बेहतरीन संस्मरण | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/tags/class-6-ncert-6/sansmaran | [
"मैं तुम्हें अपने बचपन की ओर ले जाऊँगी।\r\nमैं तुमसे कुछ इतनी बड़ी हूँ कि तुम्हारी दादी भी हो सकती हूँ, तुम्हारी नानी भी। बड़ी बुआ भी—बड़ी मौसी भी। परिवार में मुझे सभी लोग जीजी कहकर ही पुकारते हैं।\r\nहाँ, मैं इन दिनों कुछ बड़ा-बड़ा यानी उम्र में सयाना महसूस",
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कक्षा-6 एनसीईआरटी के विषय पर बेहतरीन पत्र | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/tags/class-6-ncert-6/letter | [
"जब तुम मेरे साथ रहती हो तो अक्सर मुझसे बहुत सी बातें पूछा करती हो और मैं उनका जवाब देने की कोशिश करता हूँ। लेकिन अब, जब तुम मसूरी में हो और मैं इलाहाबाद में, हम दोनों उस तरह बातचीत नहीं कर सकते। इसलिए मैंने इरादा किया है कि कभी-कभी तुम्हें इस दुनिया",
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कक्षा-6 एनसीईआरटी के विषय पर बेहतरीन सवैया | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/tags/class-6-ncert-6/savaiya | [
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कक्षा-6 एनसीईआरटी के विषय पर बेहतरीन जीवनी | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/tags/class-6-ncert-6/biographies | [
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झाँसी की रानी - कविता | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kavita/class-6-ncert-6/jhansi-ki-rani-subhadrakumari-chauhan-kavita?sort= | [
"प्रसतुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा छठी के पाठ्यक्रम में शामिल है।",
"सिंहासन हिल उठे, राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,",
"बूढ़े भारत में भी आई फिर से नई जवानी थी,",
"गुमी हुई आज़ादी की क़ीमत सबने पहचानी थी,",
"दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी,",
"चमक उठी सन् सत्तावन में",
"वह तलवार पुरानी थी।",
"बुंदेले हरबोलों के मुँह",
"हमने सुनी कहानी थी।",
"ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो",
"झाँसी वाली रानी थी॥",
"कानपूर के नाना की मुँहबोली बहन 'छबीली' थी,",
"लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,",
"नाना के संग पढ़ती थी वह, नाना के संग खेली थी,",
"बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी,",
"वीर शिवाजी की गाथाएँ",
"उसको याद ज़बानी थीं।",
"बुंदेले हरबोलों के मुँह",
"हमने सुनी कहानी थी।",
"ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो",
"झाँसी वाली रानी थी॥",
"लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,",
"देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,",
"नक़ली युद्ध, व्यूह की रचना और खेलना ख़ूब शिकार,",
"सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना, ये थे उसके प्रिय खिलवार,",
"महाराष्ट्र-कुल-देवी उसकी",
"भी आराध्य भवानी थी।",
"बुंदेले हरबोलों के मुँह",
"हमने सुनी कहानी थी।",
"ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो",
"झाँसी वाली रानी थी॥",
"हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,",
"ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में,",
"राजमहल में बजी बधाई ख़ुशियाँ छाईं झाँसी में,",
"सुभट बुंदेलों की विरुदावलि-सी वह आई झाँसी में,",
"चित्रा ने अर्जुन को पाया,",
"शिव से मिली भवानी थी।",
"बुंदेले हरबोलों के मुँह",
"हमने सुनी कहानी थी।",
"ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो",
"झाँसी वाली रानी थी॥",
"उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजयाली छाई,",
"किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,",
"तीर चलानेवाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाईं,",
"रानी विधवा हुई हाय! विधि को भी नहीं दया आई,",
"निःसंतान मरे राजाजी",
"रानी शोक-समानी थी।",
"बुंदेले हरबोलों के मुँह",
"हमने सुनी कहानी थी।",
"ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो",
"झाँसी वाली रानी थी॥",
"बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया,",
"राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,",
"फ़ौरन फ़ौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,",
"लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया,",
"अश्रुपूर्ण रानी ने देखा",
"झाँसी हुई बिरानी थी।",
"बुंदेले हरबोलों के मुँह",
"हमने सुनी कहानी थी।",
"ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो",
"झाँसी वाली रानी थी॥",
"अनुनय-विनय नहीं सुनता है, विकट फिरंगी की माया,",
"व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया,",
"डलहौज़ी ने पैर पसारे अब तो पलट गयी काया,",
"राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया,",
"रानी दासी बनी, बनी यह",
"दासी अब महरानी थी।",
"बुंदेले हरबोलों के मुँह",
"हमने सुनी कहानी थी।",
"ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो",
"झाँसी वाली रानी थी॥",
"छिनी राजधानी देहली की, लिया लखनऊ बातों-बात,",
"क़ैद पेशवा था बिठूर में, हुआ नागपुर का भी घात,",
"उदैपूर, तंजोर, सतारा, करनाटक की कौन बिसात,",
"जबकि सिंध, पंजाब, ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात,",
"बंगाले, मद्रास आदि की",
"भी तो यही कहानी थी।",
"बुंदेले हरबोलों के मुँह",
"हमने सुनी कहानी थी।",
"ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो",
"झाँसी वाली रानी थी॥",
"रानी रोईं रनिवासों में बेगम ग़म से थीं बेज़ार",
"उनके गहने-कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार,",
"सरे-आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अख़बार,",
"'नागपूर के जेवर ले लो' 'लखनऊ के लो नौलख हार',",
"यों पर्दे की इज़्ज़त पर—",
"देशी के हाथ बिकानी थी।",
"बुंदेले हरबोलों के मुँह",
"हमने सुनी कहानी थी।",
"ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो",
"झाँसी वाली रानी थी॥",
"कुटियों में थी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,",
"वीर सैनिकों के मन में था, अपने पुरखों का अभिमान,",
"नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,",
"बहिन छबीलीनेरण-चंडी का कर दिया प्रकट आह्वान,",
"हुआ यज्ञ प्रारंभ उन्हें तो",
"सोयी ज्योति जगानी थी।",
"बुंदेले हरबोलों के मुँह",
"हमने सुनी कहानी थी।",
"ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो",
"झाँसी वाली रानी थी॥",
"महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,",
"यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,",
"झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थीं,",
"मेरठ, कानपूर, पटना ने भारी धूम मचाई थी,",
"जबलपूर, कोल्हापुर में भी",
"कुछ हलचल उकसानी थी।",
"बुंदेले हरबोलों के मुँह",
"हमने सुनी कहानी थी।",
"ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो",
"झाँसी वाली रानी थी॥",
"इस स्वतंत्रता-महायज्ञ में कई वीरवर आए काम",
"नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अजीमुल्ला सरनाम,",
"अहमद शाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,",
"भारत के इतिहास-गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम,",
"लेकिन आज ज़़ुर्म कहलाती",
"उनकी जो क़ुरबानी थी।",
"बुंदेले हरबालों के मुँह",
"हमने सुनी कहानी थी।",
"ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो",
"झाँसी वाली रानी थी॥",
"इनकी गाथा छोड़ चलें हम झाँसी के मैदानों में,",
"जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,",
"लेफ़्टिनेंट वॉकर आ पहुँचा, आगे बढ़ा जवानों में,",
"रानी ने तलवार खींच ली, हुआ द्वंद्व असमानों में,",
"ज़ख्मी होकर वॉकर भागा,",
"उसे अजब हैरानी थी।",
"बुंदेले हरबोलों के मुँह",
"हमने सुनी कहानी थी।",
"ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो",
"झाँसी वाली रानी थी॥",
"रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार",
"घोड़ा थककर गिरा भूमि पर, गया स्वर्ग तत्काल सिधार,",
"यमुना-तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,",
"विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार,",
"अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया",
"ने छोड़ी रजधानी थी।",
"बुंदेले हरबोलों के मुँह",
"हमने सुनी कहानी थी।",
"ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो",
"झाँसी वाली रानी थी॥",
"विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी,",
"अबके जनरल स्मिथ सन्मुख था, उसने मुँह की खाई थी,",
"काना और मंदरा सखियाँ रानी के सँग आई थीं,",
"युद्ध क्षेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी,",
"पर, पीछे ह्यूरोज़ आ गया,",
"हाय! घिरी अब रानी थी।",
"बुंदेले हरबोलों के मुँह",
"हमने सुनी कहानी थी।",
"ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो",
"झाँसी वाली रानी थी॥",
"तो भी रानी मार-काटकर चलती बनी सैन्य के पार,",
"किंतु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार,",
"घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गए सवार,",
"रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार पर वार,",
"घायल होकर गिरी सिंहनी",
"उसे वीर-गति पानी थी।",
"बुंदेले हरबोलों के मुँह",
"हमने सुनी कहानी थी।",
"ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो",
"झाँसी वाली रानी थी॥",
"रानी गई सिधार, चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,",
"मिला तेज़ से तेज़, तेज़ की वह सच्ची अधिकारी थी,",
"अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,",
"हमको जीवित करने आई बन स्वतंत्रता नारी थी,",
"दिखा गई पथ, सिखा गई",
"हमको जो सीख सिखानी थी।",
"बुंदेले हरबोलों के मुँह",
"हमने सुनी कहानी थी।",
"ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो",
"झाँसी वाली रानी थी॥",
"जाओ रानी याद रखेंगे हम कृतज्ञ भारतवासी,",
"यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनाशी,",
"होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,",
"हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी,",
"तेरा स्मारक तू ही होगी,",
"तू ख़ुद अमिट निशानी थी।",
"बुंदेले हरबोलों के मुँह",
"हमने सुनी कहानी थी।",
"ख़ूब लड़ी मर्दानी वह तो",
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तितली - कविता | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kavita/class-6-ncert-6/titli-narmada-prasad-khare-kavita?sort= | [
"प्रसतुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा छठी के पाठ्यक्रम में शामिल है।",
"रंग-बिरंगे पंख तुम्हारे, सबके मन को भाते हैं।",
"कलियाँ देख तुम्हें ख़ुश होतीं फूल देख मुस्काते हैं॥",
"रंग-बिरंगे पंख तुम्हारे, सबका मन ललचाते हैं।",
"तितली रानी, तितली रानी, यह कह सभी बुलाते हैं॥",
"पास नहीं क्यों आती तितली, दूर-दूर क्यों रहती हो?",
"फूल-फूल के कानों में जा धीरे-से क्या कहती हो?",
"सुंदर-सुंदर प्यारी तितली, आँखों को तुम भाती हो।",
"इत्नी बात बता दो हमको हाथ नहीं क्यों आती हो?",
"इस डाली से उस डाली पर उड़-उड़कर क्यों जाती हो?",
"फूल-फूल का रस लेती हो, हमसे क्यों शरमाती हो?",
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"जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।",
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मत बाँटो इंसान को - कविता | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kavita/class-6-ncert-6/mat-banto-insaan-ko-vinay-mahajan-kavita?sort= | [
"प्रसतुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा पाँचवी के पाठ्यक्रम में शामिल है।",
"मंदिर—मस्जिद—गिरजाघर ने",
"बाँट लिया भगवान को।",
"धरती बाँटी सागर बाँटा—",
"मत बाँटो इंसान को॥",
"अभी राह तो शुरू हुई है—",
"मंज़िल बैठी दूर है।",
"उजियाला महलों में बंदी—",
"हर दीपक मजबूर है॥",
"मिला न सूरज का संदेसा—",
"हर घाटी मैदान को।",
"धरती बाँटी सागर बाँटा—",
"मत बाँटो इंसान को।",
"अब भी हरी भरी धरती है—",
"ऊपर नील वितान है।",
"पर न प्यार हो तो जग सूना—",
"जलता रेगिस्तान है॥",
"अभी प्यार का जल देना है—",
"हर प्यासी चट्टान को।",
"धरती बाँटी सागर बाँटा—",
"बाँटा मत बाँटो इंसान को॥",
"साथ उठें सब तो पहरा हो—",
"सूरज का हर द्वार पर।",
"हर उदास आँगन का हक़ हो—",
"खिलती हुई बहार पर॥",
"रौंद न पाएगा फिर कोई—",
"मौसम की मुस्कान को।",
"धरती बाँटी सागर बाँटा—",
"मत बाँटो इंसान को॥",
"mandir—masjid—girjaghar ne baant liya bhagvan ko.",
"dharti banti sagar banta—mat banto insaan ko॥",
"abhi raah to shuru hui hai—manjil baithi door hai.",
"ujiyala mahlon mein bandi—har dipak majbur hai॥",
"mila na suraj ka sandesa—har ghati maidan ko.",
"dharti banti sagar banta—mat banto insaan ko.",
"ab bhi hari bhari dharti hai—uupar neel vitan hai.",
"par na pyaar ho to jag suna—jalta registan hai॥",
"abhi pyaar ka jal dena hai—har pyasi chattan ko.",
"dharti banti sagar banta—banta mat banto insaan ko॥",
"saath uthen sab to pahra ho—suraj ka har dvaar par.",
"har udaas angan ka hak ho—khilti hui bahar par॥",
"raund na payega phir koi—mausam ki muskan ko.",
"dharti banti sagar banta—mat banto insaan ko॥",
"mandir—masjid—girjaghar ne baant liya bhagvan ko.",
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"abhi raah to shuru hui hai—manjil baithi door hai.",
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"mila na suraj ka sandesa—har ghati maidan ko.",
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"dharti banti sagar banta—mat banto insaan ko॥",
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वह चिड़िया जो - कविता | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kavita/class-6-ncert-6/wo-chidiya-jo-kedarnath-agarwal-kavita?sort= | [
"प्रसतुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा छठी के पाठ्यक्रम में शामिल है।",
"वह चिड़िया जो—",
"चोंच मारकर",
"दूध-भरे जुंडी के दाने",
"रुचि से, रस से खा लेती है",
"वह छोटी संतोषी चिड़िया",
"नीले पंखोंवाली मैं हूँ",
"मुझे अन्न से बहुत प्यार है।",
"वह चिड़िया जो—",
"कंठ खोलकर",
"बूढ़े वन-बाबा की ख़ातिर",
"रस उँडेलकर गा लेती है",
"वह छोटी मुँह बोली चिड़िया",
"नीले पंखोंवाली मैं हूँ",
"मुझे विजन से बहुत प्यार है।",
"वह चिड़िया जो—",
"चोंच मारकर",
"चढ़ी नदी का दिल टटोलकर",
"जल का मोती ले जाती है",
"वह छोटी गरबीली चिड़िया",
"नीले पंखोंवाली मैं हूँ",
"मुझे नदी से बहुत प्यार है।",
"chonch markar",
"doodh bhare junDi ke dane",
"ruchi se, ras se kha leti hai",
"wo chhotabh santoshi chiDiya",
"nile pankhonwali main hoon",
"mujhe ann se bahut pyar hai",
"wo chiDiya jo—",
"kanth kholkar",
"buDhe wan baba ki khatir",
"ras unDelakar ga leti hai",
"wo chhoti munh boli chiDiya",
"nile pankhonwali main hoon",
"mujhe wision se bahut pyar hai",
"wo chiDiya jo—",
"chonch markar",
"chaDhi nadi ka dil tatolkar",
"jal ka moti le jati hai",
"wo chhoti garbili chiDiya",
"nile pankhonwali main hoon",
"mujhe nadi se bahut pyar hai",
"chonch markar",
"doodh bhare junDi ke dane",
"ruchi se, ras se kha leti hai",
"wo chhotabh santoshi chiDiya",
"nile pankhonwali main hoon",
"mujhe ann se bahut pyar hai",
"wo chiDiya jo—",
"kanth kholkar",
"buDhe wan baba ki khatir",
"ras unDelakar ga leti hai",
"wo chhoti munh boli chiDiya",
"nile pankhonwali main hoon",
"mujhe wision se bahut pyar hai",
"wo chiDiya jo—",
"chonch markar",
"chaDhi nadi ka dil tatolkar",
"jal ka moti le jati hai",
"wo chhoti garbili chiDiya",
"nile pankhonwali main hoon",
"mujhe nadi se bahut pyar hai",
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चाँद से थोड़ी-सी गप्पें - कविता | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kavita/class-6-ncert-6/chand-se-thodi-si-gappen-shamsher-bahadur-singh-kavita?sort= | [
"प्रसतुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा छठी के पाठ्यक्रम में शामिल है।",
"(दस-ग्यारह साल की एक लड़की)",
"गोल हैं ख़ूब मगर",
"आप तिरछे नज़र आते हैं ज़रा।",
"आप पहने हुए हैं कुल आकाश",
"तारों-जड़ा;",
"सिर्फ़ मुँह खोले हुए हैं अपना",
"गोरा-चिट्टा",
"गोल-मटोल,",
"अपनी पोशाक को फैलाए हुए चारों सिम्त।",
"आप कुछ तिरछे नज़र आते हैं जाने कैसे",
"—ख़ूब हैं गोकि!",
"वाह जी, वाह!",
"हमको बुद्ध ही निरा समझा है!",
"हम समझते ही नहीं जैसे कि",
"आपको बीमारी है :",
"आप घटते हैं तो घटते ही चले जाते हैं,",
"और बढ़ते हैं तो बस यानी कि",
"बढ़ते ही चले जाते हैं—",
"हम नहीं लेते हैं जब तक बि ल कु ल ही",
"गोल न हो जाएँ,",
"बिलकुल गोल।",
"यह मर्ज़ आपका अच्छा ही नहीं होने में...",
"आता है।",
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मैं सबसे छोटी होऊँ - कविता | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kavita/class-6-ncert-6/main-sabse-chhoti-houn-sumitranandan-pant-kavita?sort= | [
"प्रसतुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा छठी के पाठ्यक्रम में शामिल है।",
"मैं सबसे छोटी होऊँ,",
"तेरा अंचल पकड़-पकड़कर",
"फिरूँ सदा माँ! तेरे साथ,",
"कभी न छोड़ूँ तेरा हाथ!",
"बड़ा बनाकर पहले हमको",
"तू पीछे छलती है मात!",
"हाथ पकड़ फिर सदा हमारे",
"साथ नहीं फिरती दिन-रात!",
"अपने कर से खिला, धुला मुख,",
"धूल पोंछ, सज्जित कर गात,",
"थमा खिलौने, नहीं सुनाती",
"हमें सुखद परियों की बात!",
"ऐसी बड़ी न होऊँ मैं",
"तेरा स्नेह न खोऊँ मैं,",
"तेरे अंचल की छाया में",
"छिपी रहूँ निस्पृह, निर्भय,",
"कहूँ—दिखा दे चंद्रोदय!",
"main sabse chhoti houn,",
"tera anchal pakaD pakaDkar",
"phirun sada man! tere sath,",
"kabhi na chhoDun tera hath!",
"baDa banakar pahle hamko",
"tu pichhe chhalti hai mat!",
"hath pakaD phir sada hamare",
"sath nahin phirti din raat!",
"apne kar se khila, dhula mukh,",
"dhool ponchh, sajjit kar gat,",
"thama khilaune, nahin sunati",
"hamein sukhad pariyon ki baat!",
"aisi baDi na houn main",
"tera sneh na khoun main,",
"tere anchal ki chhaya mein",
"chhipi rahun nisprih, nirbhay,",
"kahun—dikha de chandroday!",
"main sabse chhoti houn,",
"tera anchal pakaD pakaDkar",
"phirun sada man! tere sath,",
"kabhi na chhoDun tera hath!",
"baDa banakar pahle hamko",
"tu pichhe chhalti hai mat!",
"hath pakaD phir sada hamare",
"sath nahin phirti din raat!",
"apne kar se khila, dhula mukh,",
"dhool ponchh, sajjit kar gat,",
"thama khilaune, nahin sunati",
"hamein sukhad pariyon ki baat!",
"aisi baDi na houn main",
"tera sneh na khoun main,",
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"kahun—dikha de chandroday!",
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फूल - कविता | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kavita/class-6-ncert-6/phool-dinesh-kumar-shukla-kavita?sort= | [
"प्रसतुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा छठी के पाठ्यक्रम में शामिल है।",
"छोटी-सी बग़िया में देखो,",
"कितने रंग जमाते फूल।",
"सबके मन को मोहक लगते हैं।",
"हँसते और मुस्काते फूल॥",
"जो भी बग़िया में आता है",
"सबको ख़ूब रिझाते फूल।",
"इधर भटकते, उधर मटकते",
"तनिक नहीं शरमाते फूल॥",
"तितली आती भँवरे आते",
"सबको पास बुलाते फूल।",
"ताथई-ताथई नाच-नाचकर",
"मीठे गीत सुनाते फूल॥",
"सर्दी गर्मी और वर्षा में",
"कभी नहीं घबराते फूल।",
"झूम-झूम कर मौज मनाते",
"सबका मन बहलाते फूल॥",
"रंग-बिरंगे प्यारे-प्यारे",
"बग़िया को महकाते फूल।",
"छोटे-छोटे बच्चों जैसे,",
"सबके मन को भाते फूल।",
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कक्षा-7 एनसीईआरटी के विषय पर बेहतरीन कथा | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/tags/class-7-ncert-7/kathaen | [
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कक्षा-7 एनसीईआरटी के विषय पर बेहतरीन कविता | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/tags/class-7-ncert-7/kavita | [
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कक्षा-7 एनसीईआरटी के विषय पर बेहतरीन निबंध | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/tags/class-7-ncert-7/essay | [
"मिट्टी से विभिन्न तरह के खिलौने बनाना तुममें से कई लोग जानते होगे। कईयों का तो यह प्रिय खेल भी होगा। पर क्या तुम जानते हो कि मिट्टी के खिलौने या चीज़ें बनना कब शुरू हुआ? इतिहास में तुमने पढ़ा होगा कि सिंधु घाटी की सभ्यता में मिट्टी से बनी और पकी हुई",
"अभी तक मैंने उन्हें दूर से देखा था। बड़ी गंभीर, शांत, अपने आप में खोई हुई लगती थीं। संभ्रात महिला की भाँति वे प्रतीत होती थीं। उनके प्रति मेरे दिल में आदर और श्रद्धा के भाव थे। माँ और दादी, मौसी और मामी की गोद की तरह उनकी धारा में डुबकियाँ लगाया करता।\r\n\r\nपरंतु",
"पिछले दस-पंद्रह वर्षों में हमारी खानपान की संस्कृति में एक बड़ा बदलाव आया है। इडली-डोसा-बड़ा-साँभर-रसम अब केवल दक्षिण भारत तक सीमित नहीं हैं। ये उत्तर भारत के भी हर शहर में उपलब्ध हैं और अब तो उत्तर की ‘ढाबा’ संस्कृति लगभग पूरे देश में फैल चुकी है। अब",
"मैं एक यंत्र मानव हूँ। आम भाषा में लोग मुझे ‘रोबोट’ कहते हैं। मुझे देखकर आपको हैरानी होगी कि मेरा रूप, रंग, आकार और शरीर तुमसे नहीं मिलता, फिर भी मैं तुम्हारे जैसे बहुत से कार्य कर सकता हूँ; और वे भी, जो तुम नहीं कर सकते।\r\n\r\nमेरा शरीर हाड़-माँस का नहीं,",
"कोई दो हज़ार वर्ष हुए, सी ह्यांग ती नाम का एक चीनी सम्राट था। उसे अपनी प्रजा से एक अजीब नाराज़गी थी कि लोग इतना पढ़ते क्यों हैं, और जो लोग किताबें पढ़ नहीं सकते, वे उन्हें सुनते क्यों हैं? उसको विश्वास नहीं था कि अब तक जो पुस्तकें लिखी गई हैं—वे चाहे",
"आरंभ में संस्था (आश्रम) में चालीस लोग होंगे। कुछ समय में इस संख्या के पचास हो जाने की संभावना है।\r\nहर महीने औसतन दस अतिथियों के आने की संभावना है। इनमें तीन या पाँच सपरिवार होंगे, इसलिए स्थान की व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि परिवारवाले लोग अलग रह सकें",
"भारत एक कृषि प्रधान देश है। भारतीय किसान का जीवन प्रकृति से जुड़ा रहता है। वह प्रकृति के साथ ही हँसता-रोता है, नाचता-गाता है। बुआई, सिंचाई, निराई आदि खेती-बाड़ी के सारे काम वह मौसम के अनुसार करता है। जब चारों तरफ़ हरियाली छा जाती है, वृक्ष-लताएँ फूलों",
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कक्षा-7 एनसीईआरटी के विषय पर बेहतरीन कहानी | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/tags/class-7-ncert-7/story | [
"समुद्र के किनारे एक गाँव था। उसमें एक कलाकार रहता था। वह दिनभर समुद्र की लहरों से खेलता रहता, जाल डालता और सीपियाँ बटोरता। रंग-बिरंगी कौड़ियाँ, नाना रूप के सुंदर-सुंदर शंख, चित्र-विचित्र पत्थर, न जाने क्या-क्या समुद्र-जाल में भर देता। उनसे वह तरह-तरह",
"“मैं तो ज़रूर जाऊँगा, चाहे कोई छुट्टी दे या न दे।”\r\n\r\nबलदेव सब लड़कों को सर्कस देखने चलने की सलाह दे रहा है।\r\n\r\nबात यह थी कि स्कूल के पास एक मैदान में सर्कस पार्टी आई हुई थी। सारे शहर की दीवारों पर उसके विज्ञापन चिपका दिए गए थे। विज्ञापन में तरह-तरह",
"सहसा मेरी पाँच वर्ष की लाड़ली बेटी मिनी ‘अगड़म बगड़म’ का खेल छोड़कर खिड़की की तरफ़ भागी और ज़ोर-ज़ोर से पुकारने लगी, “काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले!”\r\n\r\nमैं इस समय उपन्यास लिख रहा था। नायक, नायिका को लेकर अँधेरी रात में जेल की ऊँची खिड़की से नीचे बहती नदी",
"एक\r\nबहुत ही मीठे स्वरों के साथ वह गलियों में घूमता हुआ कहता—\"बच्चों को बहलानेवाला, खिलौनेवाला।\"\r\nइस अधूरे वाक्य को वह ऐसे विचित्र किंतु मादक-मधुर ढंग से गाकर कहता कि सुनने वाले एक बार अस्थिर हो उठते। उनके स्नेहाभिषिक्त कंठ से फूटा हुआ उपयुक्त गान सुनकर",
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कक्षा-7 एनसीईआरटी के विषय पर बेहतरीन जीवनी | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/tags/class-7-ncert-7/biographies | [
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कक्षा-7 एनसीईआरटी के विषय पर बेहतरीन रेखाचित्र | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/tags/class-7-ncert-7/rekhachitra | [
"उस दिन एक अतिथि को स्टेशन पहुँचाकर मैं लौट रही थी कि चिड़ियों और ख़रगोशों की दुकान का ध्यान आ गया और मैंने ड्राइवर को उसी ओर चलने का आदेश दिया।\r\n\r\nबड़े मियाँ चिड़ियावाले की दुकान के निकट पहुँचते ही उन्होंने सड़क पर आकर ड्राइवर को रुकने का संकेत दिया। मेरे",
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कक्षा-7 एनसीईआरटी के विषय पर बेहतरीन गीत | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/tags/class-7-ncert-7/geet | [
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कक्षा-7 एनसीईआरटी के विषय पर बेहतरीन एकांकी | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/tags/class-7-ncert-7/ekanki | [
"(सन् 1857 ई. अपने महल में रानी लक्ष्मीबाई। चिंतित अवस्था में। रानी वीर वेश में रानी के सामने नाना साहब और कुछ विश्वासपात्र सामंत बैठे हैं। पास ही एक पलंग पर रानी का दत्तक पुत्र दामोदर राव बैठा है।) \r\nलक्ष्मीबाई: झाँसी के वीरो अँग्रेज़ों की विशाल सेना",
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कक्षा-7 एनसीईआरटी के विषय पर बेहतरीन साक्षात्कार | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/tags/class-7-ncert-7/interview | [
"हॉकी के सुप्रसिद्ध खिलाड़ी धनराज पिल्लै जब पैतींस वर्ष के हो गए, उनका एक साक्षात्कार विनीता पांडेय ने लिया था। इस साक्षात्कार का संपादित अंश यहाँ दिया जा रहा है।",
"विनीता—खिड़की, पुणे की तंग गलियों से लेकर मुंबई के हीरानंदानी पवई कॉम्प्लेक्स तक आपका सफ़र बहुत लंबा और कष्टसाध्य रहा है। उस सफ़र के बारे में कुछ बताएँ।",
"धनराज—बचपन मुश्किलों से भरा रहा। हम बहुत ग़रीब थे। मेरे दोनों बड़े भाई हॉकी खेलते थे। उन्हीं के चलते मुझे भी उसका शौक़ हुआ। पर, हॉकी-स्टिक ख़रीदने तक की हैसियत नहीं थी मेरी। इसलिए अपने साथियों की स्टिक उधार माँगकर काम चलाता था। वह मुझे तभी मिलती, जब वे खेल चुके होते थे। इसके लिए बहुत धीरज के साथ अपनी बारी का इंतज़ार करना पड़ता था। मुझे अपनी पहली स्टिक तब मिली, जब मेरे बड़े भाई को भारतीय कैंप के लिए चुन लिया गया। उसने मुझे अपनी पुरानी स्टिक दे दी। वह नई तो नहीं थी लेकिन मेरे लिए बहुत क़ीमती थी, क्योंकि वह मेरी अपनी थी।",
"मैंने अपनी जूनियर राष्ट्रीय हॉकी सन् 1985 में मणिपुर में खेली। तब मैं सिर्फ़ 16 साल का था—देखने में दुबला-पतला और छोटे बच्चे जैसा चेहरा...। अपनी दुबली क़द-काठी के बावजूद कोशिश नहीं करता था। मैं बहुत जुझारू था—मैदान में भी और मैदान से बाहर भी। 1986 में मुझे सीनियर टीम में डाल दिया गया और मैं बोरिया-बिस्तरा बाँधकर मुंबई चला आया। उस साल मैंने और मेरे बड़े भाई रमेश ने मुंबई लीग में बेहतरीन खेल—हमने ख़ूब धूम मचाई। इसी के चलते मेरे अंदर एक उम्मीद जागी कि मुझे ओलंपिक (1988) के लिए नेशनल कैंप से बुलावा ज़रूर आएगा, पर नहीं आया। मेरा नाम 57 खिलाड़ियों की लिस्ट में भी नहीं था। बड़ी मायूसी हुई। मगर एक साल बाद ही ऑलविन एशिया कप के कैंप के लिए मुझे चुन लिया गया। तब से लेकर आज तक मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा।",
"विनीता—आपका विद्यार्थी जीवन कैसा रहा? अपने स्कूल के दिनों से आपकी किस प्रकार की यादें जुड़ी हैं?",
"धनराज—मैं पढ़ने में एकदम फिसड्डी था। किसी तरह दसवीं तक पहुँचा, मगर उसके आगे तो मामला बहुत कठिन था। एक बात कहूँ अगर मैं हॉकी खिलाड़ी न होता तो शायद एक चपरासी की नौकरी भी मुझे न मिलती। आज मैं बैचलर ऑफ़ साइंस या आर्ट्स भले ही न होऊँ पर गर्व से कह सकता हूँ कि मैं बैचलर ऑफ़ हॉकी हूँ। (हँसते हुए)...और मेरी शादी के लिए आप मुझे मास्टर ऑफ़ हॉकी कह सकते हैं।",
"विनीता—आप इतने तुनुकमिज़ाज क्यों हैं? कभी-कभी आप आक्रामक भी हो जाते हैं!",
"धनराज—इस बात का संबंध मेरे बचपन से जुड़ा हुआ है। मैं हमेशा से ही अपने आपको बहुत असुरक्षित महसूस करता रहा। मैंने अपनी माँ को देखा है कि उन्हें हमारे पालन-पोषण में कितना संघर्ष करना पड़ा है। मेरी तुनुकमिज़ाजी के पीछे कई वजहें हैं। लेकिन मैं बिना लाग-लपेट वाला आदमी हूँ। मन में जो आता है, सीधे-सीधे कह डालता हूँ और बाद को कई बार पछताना भी पड़ता है। मुझसे अपना ग़ुस्सा रोका नहीं जाता। दूसरे लोगों को भी मुझे उकसाने में मज़ा आता है। मुझे ज़िंदगी में हर छोटी-बड़ी चीज़ के लिए जूझना पड़ा, जिससे मैं चिड़चिड़ा हो गया हूँ। साथ-ही-साथ मैं बहुत भावुक इंसान भी हूँ। मैं किसी को तकलीफ़ में नहीं देख सकता। मैं अपने दोस्तों और अपने परिवार की बहुत क़द्र करता हूँ। मुझे अपनी ग़लतियों के लिए माफ़ी माँगने में कोई शर्म महसूस नहीं होती।",
"विनीता—आपके परिवार की आपके लिए क्या अहमियत है?",
"धनराज—सबसे अधिक प्रेरणा मुझे अपनी माँ से मिली। उन्होंने हम सब भाई-बहनों में अच्छे संस्कार डालने की कोशिश की। मैं उनके सबसे नज़दीक हूँ। मैं चाहे भारत में रहूँ या विदेश में, रोज़ रात में सोने से पहले माँ से ज़रूर बात करता हूँ। मेरी माँ ने मुझे अपनी प्रसिद्धि को विनम्रता के साथ सँभालने की सीख दी है। मेरी सबसे बड़ी भाभी कविता भी मेरे लिए माँ की तरह हैं और वह भी मेरे लिए प्रेरणा-स्रोत रही हैं।",
"विनीता—आपने सबसे पहले कृत्रिम घास (एस्ट्रो टर्फ़) पर हॉकी कब खेली?",
"धनराज—मैंने सबसे पहले कृत्रिम घास तब देखी जब राष्ट्रीय खेलों (नेशनल्स) में भाग लेने 1988 में नई दिल्ली आया । मुझे याद है कि किस तरह सोमय्या और जोक्विम कार्वाल्हो मुझे एक कोने में ले जाकर कृत्रिम घास पर खेलने के गुर बता रहे थे। और जब वे बताने में लगे हुए थे, मैं झुक-झुककर उस मैदान को छू रहा था। मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि विज्ञान इस कदर तरक़्क़ी कर सकता है, जिससे कृत्रिम घास तक उगाई जा सके!",
"विनीता—हर युवक का यह सपना होता है कि उसके पास एक कार हो। आपके पास अपनी पहली कार कब आई?",
"धनराज—मेरी पहली कार एक सेकेंड हैंड अरमाडा थी, जो इम्प्लॉयर ने दी थी। तब तक मैं काफ़ी नामी खिलाड़ी बन चुका था। मगर यह कोई ज़रूरी नहीं कि शोहरत पैसा साथ लेकर आए! मैं तब भी मुंबई की लोकल ट्रेनों और बसों में सफ़र करता था। क्योंकि टैक्सी में चढ़ने की हैसियत मुझमें नहीं थी। मुझे याद है, एक बार किसी फ़ोटोग्राफ़र ने एक भीड़ से भरे रेलवे स्टेशन पर मेरी तस्वीर खींचकर अगली सुबह अख़बार में यह ख़बर छाप दी कि 'हॉकी का सितारा पिल्लै अभी भी मुंबई की लोकल ट्रेनों में सफ़र करता है।' उस दिन मैंने महसूस किया कि मैं एक मशहूर चेहरा बन चुका हूँ और मुझे लोकल ट्रेनों में सफ़र करने से बचना चाहिए। लेकिन मैं कर ही क्या सकता था? मैं जो भी थोड़ा बहुत कमाता, उससे अपना परिवार चलाना पड़ता था। धीरे-धीरे पैसे जमा करके बहन की शादी की और अपनी माँ के लिए हर महीने पुणे पैसा भेजना शुरू किया। आज मेरे पास एक फ़ोर्ड आइकॉन है, जिसे मैंने सन् 2000 में ख़रीदा था। मगर वह किसी कॉरपोरेट हाउस का दिया हुआ तोहफ़ा नहीं, बल्कि मेरी मेहनत की गाढ़ी कमाई से ख़रीदी हुई कार है।",
"विनीता—सफलता का आपके लिए क्या महत्त्व है? हॉकी को आपने इतना कुछ दिया, इसके बदले आपको क्या मिला?",
"धनराज—कुछ रुपए ईनाम में मिले थे, मगर आज खिलाड़ियों को जितना मिलता है, उसके मुक़ाबले में पहले कुछ नहीं मिलता था। मेरी पहली ज़िम्मेदारी थी परिवार में आर्थिक तंगी को दूर करना और उन सबको एक बेहतर ज़िंदगी देना। विदेश में जाकर खेलने से जो कमाई हुई, उससे मैंने 1994 में पुणे के भाऊ पाटिल रोड पर दो बेडरूम का एक छोटा सा फ़्लैट ख़रीदा। घर छोटा ज़रूर है पर हम सबके लिए काफ़ी है। 1999 में महाराष्ट्र सरकार ने मुझे पवई में एक फ़्लैट दिया। वह ऐसा घर है जिसे ख़रीदने की मेरी ख़ुद की हैसियत कभी नहीं हो पाती।",
"विनीता—सेलेब्रिटीज़ के साथ एक ही मंच पर बैठना कैसा लगता है?",
"धनराज—बहुत अच्छा! जब हम राष्ट्रपति से मिले तब यह महसूस हुआ कि हम कितने ख़ास हैं। हॉकी ही है जिसके चलते हर जगह प्रतिष्ठा मिली।",
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कक्षा-7 एनसीईआरटी के विषय पर बेहतरीन दोहा | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/tags/class-7-ncert-7/dohe | [
"कहि रहीम संपत्ति सगे, बनत बहुत बहु रीत।",
"बिपति कसौटी जे कसे, तेई साँचे मीत॥",
"जाल परे जल जात बहि, तजि मीनन को मोह।",
"रहिमन मछरी नीर को तऊ न छाँड़ति छोह॥",
"तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियत न पान।",
"कहि रहीम परकाज हित, संपत्ति-सचहिं सुजान॥",
"थोथे बादर क्वार के, ज्यों रहीम घहरात।",
"धनी पुरुष निर्धन भए, करें पाछिली बात॥",
"धरती की-सी रीत है, सीत घाम औ मेह।",
"जैसी परे सो सहि रहे, त्यों रहीम यह देह॥",
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कक्षा-7 एनसीईआरटी के विषय पर बेहतरीन पद | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/tags/class-7-ncert-7/pad | [
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कक्षा-7 एनसीईआरटी के विषय पर बेहतरीन लोककथा | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/tags/class-7-ncert-7/folk-tales | [
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कक्षा-7 एनसीईआरटी के विषय पर बेहतरीन संस्मरण | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/tags/class-7-ncert-7/sansmaran | [
"सभागार में शिविर लगने के दो दिन बाद तोत्तो-चान के लिए एक बड़ा साहस करने का दिन आया। इस दिन उसे यासुकी-चान से मिलना था। इस भेद का पता न तो तोत्तो-चान के माता-पिता को था, न ही यासुकी-चान को अपने पेड़ पर चढ़ने का न्योता था।\r\n\r\nतोमोए में हरेक बच्चा बाग़ के एक-एकपेड़",
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कक्षा-7 एनसीईआरटी के विषय पर बेहतरीन नाटक | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/tags/class-7-ncert-7/Play | [
"पात्र\r\nबिजली का खंभा नाचनेवाली\r\n पेड़ लड़की\r\n\r\n लैटरबक्स आदमी\r\n कौआ\r\n \r\nसड़क। रात का समय। समुद्र के सामने फ़ुटपाथ। वहीं पर एक बिजली का खंभा। एक पेड़। एक लैटरबक्स। दूसरी ओर धीमे प्रकाश में एक सिनेमा का पोस्टर।",
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कक्षा-7 एनसीईआरटी के विषय पर बेहतरीन ग़ज़ल | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/tags/class-7-ncert-7/ghazals | [
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कक्षा-7 एनसीईआरटी के विषय पर बेहतरीन लेख | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/tags/class-7-ncert-7/article | [
"(केवल पढ़ने के लिए)\r\nदिल्ली के फेरीवालों की एक बड़ी विशेषता यह थी कि अपने सौदे को एक बड़ी लच्छेदार आवाज़ में और अक्सर सुरीले स्वर में और कभी-कभी तो गाकर बेचते थे। किसी साहित्यकार ने सच आवाज़ें सुनकर ऐसा लगता था कि इस्फ़हान के शहर चौक में ग़ज़ल पढ़ रहे हैं।",
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बाल महाभारत : यक्ष-प्रश्न - कथा | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kathaen/class-7-ncert-7/baal-mahabharat-yaksh-prshan-chakraborty-rajagopalacharya-kathaen?sort= | [
"प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।",
"युधिष्ठिर उसी विषैले तालाब के पास जा पहुँचे, जिसका जल पीकर उनके चारों भाई मृत-से पड़े हुए थे। यह देखकर युधिष्ठिर चौंक पड़े। असह्य शोक के कारण उनकी आँखों से आँसू बह चले।",
"कुछ देर यो विलाप करने के बाद युधिष्ठिर ने ज़रा ध्यान से भाइयों के शरीरों को देखा और अपने आपसे कहने लगे—“यह तो कोई मायाजाल-सा लगता है। आसपास ज़मीन पर किसी शत्रु के पाँव के निशान भी तो नज़र नहीं आ रहे हैं। हो सकता है कि यह भी दुर्योधन का ही कोई षड्यंत्र हो। संभव है पानी में विष मिला हो।” सोचते-सोचते युधिष्ठिर भी प्यास से प्रेरित होकर तालाब में उतरने लगे। इतने में वही वाणी सुनाई दी। युधिष्ठिर ने ताड़ लिया कि कोई यक्ष बोल रहा है। उन्होंने बात मान ली और बोले—“आप प्रश्न कर सकते हैं।”",
"यक्ष ने कई प्रश्न किए, जिनके उत्तर युधिष्ठिर ने दिए—",
"प्र.—मनुष्य का साथ कौन देता है?",
"उ.—धैर्य ही मनुष्य का साथी होता है।",
"प्र.—कौन सा शास्त्र (विद्या) है, जिसका अध्ययन करके मनुष्य बनता है?",
"उ.—कोई भी शास्त्र ऐसा नहीं है। महान लोगों की संगति से ही मनुष्य बुद्धिमान बनता है।",
"प्र.—भूमि से भारी चीज़ क्या है?",
"उ.—संतान को कोख में धारण करने वाली माता भूमि से भी भारी होती है।",
"प्र.—आकाश से भी ऊँचा कौन है?",
"उ.—पिता।",
"प्र.—हवा से भी तेज़ चलनेवाला कौन है?",
"उ.—मन।",
"प्र.—घास से भी तुच्छ कौन सी चीज़ होती है?",
"उ.—चिंता।",
"प्र.—विदेश जाने वाले का कौन साथी होता है?",
"उ.—विद्या।",
"प्र.—घर ही में रहने वाले का कौन साथी होता है?",
"उ.—पत्नी।",
"प्र.—मरणासन्न वृद्ध का मित्र कौन होता है?",
"उ.—दान, क्योंकि वही मृत्यु के बाद अकेले चलने वाले जीव के साथ-साथ चलता है।",
"प्र.—बर्तनों में सबसे बड़ा कौन सा है?",
"उ.—भूमि ही सबसे बड़ा बर्तन है, जिसमें सब कुछ समा सकता है।",
"प्र.—सुख क्या है?",
"उ.—सुख वह चीज़ है, जो शील और सच्चरित्रता पर स्थित है।",
"प्र.—किसके छूट जाने पर मनुष्य सर्वप्रिय बनता है?",
"उ.—अहंभाव के छूट जाने पर।",
"प्र.—किस चीज़ के खो जाने से दुख नहीं होता है?",
"उ.—क्रोध के खो जाने से।",
"प्र.—किस चीज़ को गँवाकर मनुष्य धनी बनता है?",
"उ.—लालच को।",
"प्र.—संसार में सबसे बड़े आश्चर्य की बात क्या है?",
"उ.—हर रोज़ आँखों के सामने कितने ही प्राणियों को मृत्यु के मुँह में जाते देखकर भी बचे हुए प्राणी, जो यह चाहते हैं कि हम अमर रहें, यही महान आश्चर्य की बात है।",
"इसी प्रकार यक्ष ने कई अन्य प्रश्न भी किए और युधिष्ठिर ने उन सबके ठीक-ठीक उत्तर दिए। अंत में यक्ष बोला—“राजन्! मैं तुम्हारे मृत भाइयों में से एक को जीवित कर सकता हूँ। तुम जिस किसी को भी चाहो, वह जीवित हो जाएगा।”",
"युधिष्ठिर ने पलभर सोचा कि किसे जीवित कराऊँ? थोड़ी देर रुककर बोले—“मेरा छोटा भाई नकुल जी उठे।”",
"युधिष्ठिर के इस प्रकार बोलते ही यक्ष ने सामने प्रकट होकर पूछा—“युधिष्ठिर। दस हज़ार हाथियों के बलवाले भीमसेन को छोड़कर तुमने नकुल को जीवित करवाना क्यों ठीक समझा?”",
"युधिष्ठिर ने कहा—“यक्षराज! मैंने जो नकुल को जीवित करवाना चाहा, वह सिर्फ़ इसी कारण कि मेरे पिता की दो पत्नियों में से माता कुंती का बचा हुआ एक पुत्र तो मैं हूँ, मैं चाहता हूँ कि माता माद्री का भी एक पुत्र जीवित हो उठे, जिससे हिसाब बराबर हो जाए। अतः आप कृपा करके नकुल को जीवित कर दें।”",
"“पक्षपात से रहित मेरे प्यारे पुत्र! तुम्हारे चारों ही भाई जी उठें,” यक्ष ने वर दिया।",
"उन्होंने युधिष्ठिर के सद्गुणों से मुग्ध होकर उन्हें छाती से लगा लिया और आशीर्वाद देते हुए कहा—“बारह बरस के वनवास की अवधि पूरी होने में अब थोड़े ही दिन बाक़ी रह गए हैं। बारह मास तक जो तुम्हें अज्ञातवास करना है, वह भी सफलता से पूरा हो जाएगा। तुम्हें और तुम्हारे भाइयों को कोई भी नहीं पहचान सकेगा। तुम अपनी प्रतिज्ञा सफ़लता के साथ पूरी करोगे।” इतना कहकर धर्मदेव अंतर्धान हो जाए।",
"वनवास की कठिनाइयाँ पांडवों ने धीरज के साथ झेल लीं। अर्जुन इंद्रदेव से दिव्यास्त्र प्राप्त करके वापस आ गया। भीमसेन ने भी सुगंधित फूलों वाले सरोवर के पास हनुमान से भेंट कर ली थी और उनका आलिंगन प्राप्त करके दस गुना अधिक शक्तिशाली हो गया था। मायावी सरोवर के पास युधिष्ठिर ने स्वयं धर्मदेव के दर्शन किए और उनसे गले मिलने का सौभाग्य प्राप्त कर लिया था। वनवास की अवधि पूरी होने पर युधिष्ठिर ने ब्राह्मणों की अनुमति लेकर उन्हें और अपने परिवार के अन्य लोगों से कहा कि वे नगर को लौट जाएँ। युधिष्ठिर की बात मानकर सब लोग नगर लौट आए और यह ख़बर उड़ गई कि पांडव हम लोगों को आधी रात में सोया हुआ छोड़कर न जाने कहाँ चले गए। यह सुनकर लोगों को बड़ा दुख हुआ। इधर पांडव वन में एक एकांत स्थान में बैठकर आगे के कार्यक्रम पर सोच-विचार करने लगे। युधिष्ठिर ने अर्जुन से पूछा—“अर्जुन! बताओ कि यह तेरहवाँ बरस किस देश में और किस तरह बिताया जाए?”",
"अर्जुन ने जवाब दिया—“महाराज! इसमें संदेह नहीं है कि हम बारह महीने बड़ी सुगमता के साथ इस प्रकार बिता सकेंगे कि जिसमें किसी को भी हमारा असली परिचय प्राप्त न हो सके। अच्छा यही होगा कि हम सब एक साथ ही रहें। कौरवों के देश के आसपास पांचाल, मत्स्य, वैदेह, बाल्हिक दशार्ण, शूरसेन, मगध आदि कितने ही देश हैं। इसमें से आप जिसे पसंद करें, वहीं जाकर रह जाएँगे। यदि मुझसे पूछा जाए, तो मैं कहूँगा कि मत्स्य देश में जाकर रहना ठीक होगा। इस देश के अधीश राजा विराट है। विराट नगर बहुत ही सुंदर और समृद्ध है। मेरी तो ऐसी ही राय है। आगे आप जो उचित समझें।”",
"युधिष्ठिर ने कहा—“मत्स्याधिपति राजा विराट बड़े शक्ति संपन्न हैं। दुर्योधन की बातों में भी वह आने वाले नहीं हैं। अत: राजा विराट के यहाँ छिपकर रहा जाए।”",
"yudhishthir usi vishaile talab ke paas ja pahunche, jiska jal pikar unke charon bhai mrit se paDe hue the. ye dekhkar yudhishthir chaunk paDe. asahya shok ke karan unki ankhon se ansu bah chale.",
"kuch der yo vilap karne ke baad yudhishthir ne zara dhyaan se bhaiyon ke shariron ko dekha aur apne aapse kahne lage—“yah to koi mayajal sa lagta hai. asapas zamin par kisi shatru ke paanv ke nishan bhi to nazar nahin aa rahe hain. ho sakta hai ki ye bhi duryodhan ka hi koi shaDyantr ho. sambhav hai pani mein vish mila ho. ” sochte sochte yudhishthir bhi pyaas se prerit hokar talab mein utarne lage. itne mein vahi vani sunai di. yudhishthir ne taaD liya ki koi yaksh bol raha hai. unhonne baat maan li aur bole—“ap parashn kar sakte hain. ”",
"yaksh ne kai parashn kiye, jinke uttar yudhishthir ne diye—",
"pra. —manushya ka saath kaun deta hai?",
"u. —dhairya hi manushya ka sathi hota hai.",
"pra. —kaun sa shaastr (vidya) hai, jiska adhyayan karke manushya banta hai?",
"u. —koi bhi shaastr aisa nahin hai. mahan logon ki sangati se hi manushya buddhiman banta hai.",
"pra. —bhumi se bhari cheez kya hai?",
"pra. —kis cheez ko ganvakar manushya dhani banta hai?",
"u. —santan ko kokh mein dharan karnevali mata bhumi se bhi bhari hoti hai.",
"pra. —akash se bhi uncha kaun hai?",
"u. —pita.",
"pra. —hava se bhi tez chalnevala kaun hai?",
"u. —man.",
"pra. —ghaas se bhi tuchchh kaun si cheez hoti hai?",
"u. —chinta.",
"pra. —videsh janevale ka kaun sathi hota hai?",
"u. —vidya.",
"pra. —ghar hi mein rahnevale ka kaun sathi hota hai?",
"u. —patni.",
"pra. —marnasann vriddh ka mitr kaun hota hai?",
"u. —daan, kyonki vahi mrityu ke baad akele chalnevale jeev ke saath saath chalta hai.",
"pra. —bartnon mein sabse baDa kaun sa hai?",
"u. —bhumi hi sabse baDa bartan hai, jismen sab kuch sama sakta hai.",
"pra. —sukh kya hai?",
"u. —sukh wo cheez hai, jo sheel aur sachchritrta par sthit hai.",
"pra. —kiske chhoot jane par manushya sarvapriy banta hai?",
"u. —ahambhav ke chhoot jane par.",
"pra. —kis cheez ke kho jane se dukh nahin hota hai?",
"u. —krodh ke kho jane se.",
"u. —lalach ko.",
"pra. —sansar mein sabse baDe ashcharya ki baat kya hai?",
"u. —har roz ankhon ke samne kitne hi praniyon ko mrityu ke munh mein jate dekhkar bhi bache hue prani, jo ye chahte hain ki hum amar rahen, yahi mahan ashcharya ki baat hai.",
"isi prakar yaksh ne kai anya parashn bhi kiye aur yudhishthir ne un sabke theek theek uttar diye. ant mein yaksh bola—“rajan! main tumhare mrit bhaiyon mein se ek ko jivit kar sakta hoon. tum jis kisi ko bhi chaho, wo jivit ho jayega. ”",
"yudhishthir ne palbhar socha ki kise jivit karaun? thoDi der rukkar bole—“mera chhota bhai nakul ji uthe. ”",
"yudhishthir ke is prakar bolte hi yaksh ne samne prakat hokar puchha—“yudhishthir. das hazar hathiyon ke balvale bhimasen ko chhoDkar tumne nakul ko jivit karvana kyon theek samjha?”",
"yudhishthir ne kaha—“yaksharaj! mainne jo nakul ko jivit karvana chaha, wo sirf isi karan ki mere pita ki do patniyon mein se mata kunti ka bacha hua ek putr to main hoon, main chahta hoon ki mata madri ka bhi ek putr jivit ho uthe, jisse hisab barabar ho jaye. atः aap kripa karke nakul ko jivit kar den. ”",
"“pakshapat se rahit mere pyare putr! tumhare charon hi bhai ji uthen,” yaksh ne var diya.",
"unhonne yudhishthir ke sadgunon se mugdh hokar unhen chhati se laga liya aur ashirvad dete hue kaha—“barah baras ke vanvas ki avadhi puri hone mein ab thoDe hi din baqi rah ge hain. barah maas tak jo tumhein agyatvas karna hai, wo bhi safalta se pura ho jayega. tumhein aur tumhare bhaiyon ko koi bhi nahin pahchan sakega. tum apni prtigya safalta ke saath puri karoge. ” itna kahkar dharmdev antardhan ho jaye.",
"vanvas ki kathinaiyan panDvon ne dhiraj ke saath jhel leen. arjun indrdev se divyastr praapt karke vapas aa gaya. bhimasen ne bhi sugandhit phulon vale sarovar ke paas hanuman se bhent kar li thi aur unka alingan praapt karke das guna adhik shaktishali ho gaya tha. mayavi sarovar ke paas yudhishthir ne svayan dharmdev ke darshan kiye aur unse gale milne ka saubhagya praapt kar liya tha. vanvas ki avadhi puri hone par yudhishthir ne brahmnon ki anumti lekar unhen aur apne parivar ke anya logon se kaha ki ve nagar ko laut aaye aur ye khabar uD gai ki panDav hum logon ko baDa dukh hua. idhar panDav van mein ek ekaant sthaan mein baithkar aage ke karyakram par soch vichar karne lage. yudhishthir ne arjun se puchha—“arjun! batao ki ye terahvan baras kis desh mein aur kis tarah bitaya jaye?”",
"arjun ne javab diya—“maharaj! ismen sandeh nahin hai ki hum barah mahine baDi sugamta ke saath is prakar bita sakenge ki jismen kisi ko bhi hamara asli parichay praapt na ho sake. achchha yahi hoga ki hum sab ek saath hi rahen. kaurvon ke desh ke asapas panchal, matsya, vaideh, balhik dasharn, shurasen, magadh aadi kitne hi desh hain. ismen se aap jise pasand karen, vahin jakar rah jayenge. yadi mujhse puchha jaye, to main kahunga ki matsya desh mein jakar rahna theek hoga. virat nagar bahut hi sundar aur samriddh hai. meri to aisi hi raay hai. aage aap jo uchit samjhen. ”",
"yudhishthir ne kaha—“matsyadhipati raja virat baDe shakti sampann hain. duryodhan ki baton mein bhi wo anevale nahin hain. atah raja virat ke yahan chhipkar raha jaye. ”",
"yudhishthir usi vishaile talab ke paas ja pahunche, jiska jal pikar unke charon bhai mrit se paDe hue the. ye dekhkar yudhishthir chaunk paDe. asahya shok ke karan unki ankhon se ansu bah chale.",
"kuch der yo vilap karne ke baad yudhishthir ne zara dhyaan se bhaiyon ke shariron ko dekha aur apne aapse kahne lage—“yah to koi mayajal sa lagta hai. asapas zamin par kisi shatru ke paanv ke nishan bhi to nazar nahin aa rahe hain. ho sakta hai ki ye bhi duryodhan ka hi koi shaDyantr ho. sambhav hai pani mein vish mila ho. ” sochte sochte yudhishthir bhi pyaas se prerit hokar talab mein utarne lage. itne mein vahi vani sunai di. yudhishthir ne taaD liya ki koi yaksh bol raha hai. unhonne baat maan li aur bole—“ap parashn kar sakte hain. ”",
"yaksh ne kai parashn kiye, jinke uttar yudhishthir ne diye—",
"pra. —manushya ka saath kaun deta hai?",
"u. —dhairya hi manushya ka sathi hota hai.",
"pra. —kaun sa shaastr (vidya) hai, jiska adhyayan karke manushya banta hai?",
"u. —koi bhi shaastr aisa nahin hai. mahan logon ki sangati se hi manushya buddhiman banta hai.",
"pra. —bhumi se bhari cheez kya hai?",
"pra. —kis cheez ko ganvakar manushya dhani banta hai?",
"u. —santan ko kokh mein dharan karnevali mata bhumi se bhi bhari hoti hai.",
"pra. —akash se bhi uncha kaun hai?",
"u. —pita.",
"pra. —hava se bhi tez chalnevala kaun hai?",
"u. —man.",
"pra. —ghaas se bhi tuchchh kaun si cheez hoti hai?",
"u. —chinta.",
"pra. —videsh janevale ka kaun sathi hota hai?",
"u. —vidya.",
"pra. —ghar hi mein rahnevale ka kaun sathi hota hai?",
"u. —patni.",
"pra. —marnasann vriddh ka mitr kaun hota hai?",
"u. —daan, kyonki vahi mrityu ke baad akele chalnevale jeev ke saath saath chalta hai.",
"pra. —bartnon mein sabse baDa kaun sa hai?",
"u. —bhumi hi sabse baDa bartan hai, jismen sab kuch sama sakta hai.",
"pra. —sukh kya hai?",
"u. —sukh wo cheez hai, jo sheel aur sachchritrta par sthit hai.",
"pra. —kiske chhoot jane par manushya sarvapriy banta hai?",
"u. —ahambhav ke chhoot jane par.",
"pra. —kis cheez ke kho jane se dukh nahin hota hai?",
"u. —krodh ke kho jane se.",
"u. —lalach ko.",
"pra. —sansar mein sabse baDe ashcharya ki baat kya hai?",
"u. —har roz ankhon ke samne kitne hi praniyon ko mrityu ke munh mein jate dekhkar bhi bache hue prani, jo ye chahte hain ki hum amar rahen, yahi mahan ashcharya ki baat hai.",
"isi prakar yaksh ne kai anya parashn bhi kiye aur yudhishthir ne un sabke theek theek uttar diye. ant mein yaksh bola—“rajan! main tumhare mrit bhaiyon mein se ek ko jivit kar sakta hoon. tum jis kisi ko bhi chaho, wo jivit ho jayega. ”",
"yudhishthir ne palbhar socha ki kise jivit karaun? thoDi der rukkar bole—“mera chhota bhai nakul ji uthe. ”",
"yudhishthir ke is prakar bolte hi yaksh ne samne prakat hokar puchha—“yudhishthir. das hazar hathiyon ke balvale bhimasen ko chhoDkar tumne nakul ko jivit karvana kyon theek samjha?”",
"yudhishthir ne kaha—“yaksharaj! mainne jo nakul ko jivit karvana chaha, wo sirf isi karan ki mere pita ki do patniyon mein se mata kunti ka bacha hua ek putr to main hoon, main chahta hoon ki mata madri ka bhi ek putr jivit ho uthe, jisse hisab barabar ho jaye. atः aap kripa karke nakul ko jivit kar den. ”",
"“pakshapat se rahit mere pyare putr! tumhare charon hi bhai ji uthen,” yaksh ne var diya.",
"unhonne yudhishthir ke sadgunon se mugdh hokar unhen chhati se laga liya aur ashirvad dete hue kaha—“barah baras ke vanvas ki avadhi puri hone mein ab thoDe hi din baqi rah ge hain. barah maas tak jo tumhein agyatvas karna hai, wo bhi safalta se pura ho jayega. tumhein aur tumhare bhaiyon ko koi bhi nahin pahchan sakega. tum apni prtigya safalta ke saath puri karoge. ” itna kahkar dharmdev antardhan ho jaye.",
"vanvas ki kathinaiyan panDvon ne dhiraj ke saath jhel leen. arjun indrdev se divyastr praapt karke vapas aa gaya. bhimasen ne bhi sugandhit phulon vale sarovar ke paas hanuman se bhent kar li thi aur unka alingan praapt karke das guna adhik shaktishali ho gaya tha. mayavi sarovar ke paas yudhishthir ne svayan dharmdev ke darshan kiye aur unse gale milne ka saubhagya praapt kar liya tha. vanvas ki avadhi puri hone par yudhishthir ne brahmnon ki anumti lekar unhen aur apne parivar ke anya logon se kaha ki ve nagar ko laut aaye aur ye khabar uD gai ki panDav hum logon ko baDa dukh hua. idhar panDav van mein ek ekaant sthaan mein baithkar aage ke karyakram par soch vichar karne lage. yudhishthir ne arjun se puchha—“arjun! batao ki ye terahvan baras kis desh mein aur kis tarah bitaya jaye?”",
"arjun ne javab diya—“maharaj! ismen sandeh nahin hai ki hum barah mahine baDi sugamta ke saath is prakar bita sakenge ki jismen kisi ko bhi hamara asli parichay praapt na ho sake. achchha yahi hoga ki hum sab ek saath hi rahen. kaurvon ke desh ke asapas panchal, matsya, vaideh, balhik dasharn, shurasen, magadh aadi kitne hi desh hain. ismen se aap jise pasand karen, vahin jakar rah jayenge. yadi mujhse puchha jaye, to main kahunga ki matsya desh mein jakar rahna theek hoga. virat nagar bahut hi sundar aur samriddh hai. meri to aisi hi raay hai. aage aap jo uchit samjhen. ”",
"yudhishthir ne kaha—“matsyadhipati raja virat baDe shakti sampann hain. duryodhan ki baton mein bhi wo anevale nahin hain. atah raja virat ke yahan chhipkar raha jaye. ”",
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] |
बाल महाभारत : अभिमन्यु - कथा | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kathaen/class-7-ncert-7/baal-mahabharat-abhimanyu-chakraborty-rajagopalacharya-kathaen?sort= | [
"प्रसतुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।",
"तेरहवें दिन भी संशप्तकों (त्रिगर्तों) ने अर्जुन को युद्ध के लिए ललकारा। अर्जुन भी चुनौती स्वीकार करके उनके साथ लड़ता हुआ दक्षिण दिशा की ओर चला। नियत स्थान पर पहुँचने पर अर्जुन और संशप्तकों के बीच घोर संग्राम छिड़ गया। अर्जुन के दक्षिण की ओर चले जाने के बाद द्रोणाचार्य ने चक्रव्यूह की रचना की और युधिष्ठिर पर धावा बोल दिया। युधिष्ठिर की ओर से भीम, सात्यकि, चेकितान, धृष्टद्युम्न, कुंतिभोज, उत्तमौजा, विराटराज, वीर कैकेय आदि कितने ही सुविख्यात महारथियों द्रोणाचार्य के आक्रमण की बाढ़ को रोकने की जी-तोड़ कोशिश की। फिर भी द्रोण का वेग उनके रोके नहीं रुका। यह देखकर सभी महारथी चिंता में पड़ गए। सुभद्रा का पुत्र अभिमन्यु अभी बालक ही था। फिर भी अपनी रणकुशलता और शूरता के लिए वह इतना अधिक प्रसिद्ध हो चुका था कि लोग उसको कृष्ण एवं अर्जुन की समता करने वाला समझते थे।",
"युधिष्ठिर ने इस वीर बालक को बुलाकर कहा—“बेटा! द्रोण के रचे हुए चक्रव्यूह को तोड़ना हमारे और किसी वीर से हो नहीं सकता। अकेले तुम्हीं ऐसे हो, जिसके लिए द्रोण के बनाए इस व्यूह को तोड़ना संभव है। तुम द्रोण की सेना पर आक्रमण करने को तैयार हो?”",
"यह सुनकर अभिमन्यु बोला—“महाराज, इस चक्रव्यूह में प्रवेश करना तो मुझे आता है, पर प्रवेश करने के बाद कहीं कोई संकट आ गया तो व्यूह से बाहर निकलना मुझे याद नहीं है।” युधिष्ठिर ने कहा—“बेटा! व्यूह को तोड़कर एक बार तुम भीतर प्रवेश कर लो; फिर तो जिधर से तुम आगे बढ़ोगे, उधर से ही हम तुम्हारे पीछे-पीछे चले आएँगे और तुम्हारी मदद को तैयार रहेंगे।”",
"युधिष्ठिर की बातों का समर्थन करते हुए भीमसेन ने कहा—“तुम्हारे ठीक पीछे-पीछे मैं चलूँगा। धृष्टद्युम्न, सात्यकि आदि वीर भी अपनी-अपनी सेनाओं के साथ तुम्हारा अनुकरण करेंगे। एक बार तुमने व्यूह को तोड़ दिया, तो फिर यह निश्चित समझना की हम सब कौरव-सेना को तहस-नहस कर डालेंगे।”",
"यह सब सुनकर बालक अभिमन्यु को अपने मामा श्रीकृष्ण और पिता अर्जुन की वीरता का स्मरण हो आया। बड़े उत्साह के साथ वह बोला—“मैं अपनी वीरता और पराक्रम से मामा श्रीकृष्ण और पिता जी को अवश्य प्रसन्न करूँगा।”",
"“सुमित्र! वह देखो! द्रोणाचार्य के रथ की ध्वजा। उसी ओर रथ चलाओ, जल्दी करो।” अपने सारथी को उत्साहित करते हुए अभिमन्यु ने कहा और सारथी ने भी उसी ओर रथ चलाया। अभिमन्यु की आज्ञा मानकर सारथी ने उधर रथ बढ़ा दिया। कौरव-सेना में हलचल मच गई—“अरे अभिमन्यु आया और उसके पीछे-पीछे पांडव वीर भी चले आ रहे हैं।”",
"द्रोणाचार्य के देखते-देखते उनका बनाया हुआ व्यूह टूट गया और अभिमन्यु व्यूह के अंदर दाख़िल हो गया। कौरव-वीर एक-एक करके अभिमन्यु का सामना करने आते गए और इस प्रकार कूच करते गए कि जैसे आग में पड़कर पतंगे भस्म हो जाते हैं। जो भी सामने आया, उस बालवीर के बाणों की मार से मारा गया। जैसा कि पहले तय हुआ था, पांडवों की सेना अभिमन्यु के पीछे-पीछे चली और जहाँ से व्यूह तोड़कर अभिमन्यु अंदर घुसा था, वहीं से व्यूह के अंदर प्रवेश करने लगी। यह देखकर सिंधु देश का पराक्रमी राजा जयद्रथ, जो धृतराष्ट्र का दामाद था, अपनी सेना को लेकर पांडव-सेना पर टूट पड़ा। जयद्रथ ने ऐसी कुशलता और बहादुरी से ठीक समय पर व्यूह की टूटी हुई किलेबंदी को फिर से पूरा करके मज़बूत बना दिया कि जिससे पांडव बाहर ही रह गए। अभिमन्यु व्यूह के अंदर अकेला रह गया, परंतु अकेले अभिमन्यु ने व्यूह के अंदर ही कौरवों की उस विशाल सेना को तहस-नहस करना शुरू कर दिया। जो भी उसके सामने आता, ख़त्म हो जाता था। दुर्योधन का पुत्र लक्ष्मण अभी बालक था, परंतु उसमें वीरता की आभा फूट रही थी। उसको भय छू तक नहीं गया था। अभिमन्यु की बाण-वर्षा से व्याकुल होकर जब सभी योद्धा पीछे हटने लगे, तो वीर लक्ष्मण अकेला जाकर अभिमन्यु से भिड़ गया। वह वीर बालक भाले की चोट से तत्काल मृत होकर गिर पड़ा। यह देखकर कौरव सेना आर्त स्वर में हाहाकार कर उठी।",
"“अभिमन्यु का इसी क्षण वध करो।” दुर्योधन ने चिल्लाकर कहा और द्रोण, अश्वत्थामा, वृहदबल, कृतवर्मा आदि छह महारथियों ने अभिमन्यु को चारों ओर से घेर लिया।",
"द्रोण ने कर्ण के पास आकर कहा—“इसका कवच भेदा नहीं जा सकता। ठीक से निशाना साधकर इसके रथ के घोड़ों की रास काट डालो और पीछे की ओर से इस पर अस्त्र चलाओ।”",
"कर्ण ने यही किया। पीछे की ओर से बाण चलाए गए। अभिमन्यु का धनुष कट गया। घोड़े और सारथी मारे गए। वह रथविहीन हो गया। तुरंत ही अभिमन्यु ने टूटे हुए रथ का पहिया हाथ में उठा लिया और उसे घुमाने लगा। इस समय अभिमन्यु भयानक युद्ध कर रहा था। यह देखकर सारी सेना एक साथ उस पर टूट पड़ी। उसके हाथ का पहिया चूर-चूर हो गया। इसी बीच दुःशासन का पुत्र गदा लेकर अभिमन्यु पर झपटा। इस पर अभिमन्यु ने भी पहिया फेंककर गदा उठा ली और दोनों आपस में भिड़ गए। दोनों में घोर युद्ध छिड़ गया। एक-दूसरे पर गदा का भीषण वार करते हुए दोनों ही राजकुमार आहत होकर गिर पड़े। दोनों ही हड़बड़ाकर उठने लगे। दुःशासन का पुत्र ज़रा पहले उठ खड़ा हुआ। अभिमन्यु अभी उठ ही रहा था कि दुःशासन के पुत्र ने उसके सिर पर ज़ोर से गदा-प्रहार किया। यों भी अभिमन्यु अब कइयों से अकेला लड़ते हुए घायल हो चुका था और थककर चूर हो रहा था। गदा की मार पड़ते ही उसके प्राण-पखेरू उड़ गए।",
"संशप्तकों (त्रिगर्तों) का संहार करने के बाद युद्ध समाप्त करके अर्जुन और श्री कृष्ण अपने शिविर को लौट रहे थे। अर्जुन श्रीकृष्ण से बोला—“जनार्दन! मेरा मन घबराया हुआ है। मैं भ्रांत-सा हो रहा हूँ? सब भाई कुशल से तो होंगे? आज अभिमन्यु अपने भाइयों के साथ हँसता हुआ मेरा स्वागत करने क्यों नहीं दौड़ा आ रहा है?” ऐसी ही बातें करते हुए दोनों शिविर के अंदर पहुँचे।",
"किसी के कुछ न कहने पर भी अर्जुन ने परिस्थिति देखकर अपने आप ही सब बातें ताड़ लीं और तब उससे रहा नहीं गया। सब कुछ जान जाने पर वह बुरी तरह से बिलखने लगा।",
"श्रीकृष्ण की बातें सुनकर अर्जुन कुछ शांत हुआ। उसने अपने इस वीर पुत्र की मृत्यु का सारा हाल जानना चाहा। उसके पूछने पर युधिष्ठिर बोले—“मैंने ही अभिमन्यु से कहा था कि चक्रव्यूह को तोड़कर भीतर प्रवेश करने का हमारे लिए रास्ता बना दो, तो हम सब तुम्हारा अनुकरण करते हुए व्यूह में प्रवेश कर लेंगे। मेरी बात मानकर वीर अभिमन्यु इस अभेद्य व्यूह को तोड़कर अंदर घुस गया। हम भी उसी के पीछे-पीछे चले। हम अंदर घुसने ही वाले थे कि पापी जयद्रथ ने हमें रोक लिया। उसने बड़ी चतुरता से टूटे हुए व्यूह को फिर से ठीक कर दिया। हमारे लाख प्रयत्न करने पर भी जयद्रथ ने हमें प्रवेश करने नहीं दिया। इसके बाद हम तो बाहर रहे और अंदर कई महारथियों ने एक साथ मिलकर उस अकेले बालक को घेर लिया और मार डाला।”",
"युधिष्ठिर की बात पूरी भी न हो पाई थी कि अर्जुन आर्त स्वर में “हा बेटा!” कहकर मूच्छित होकर गिर पड़ा। चेत आने पर वह उठा और दृढ़तापूर्वक बोला—“जिसके कारण मेरे प्रिय पुत्र की मृत्यु हुई है, उस जयद्रथ का मैं कल सूर्यास्त होने से पहले वध करके रहूँगा। यह मेरी प्रतिज्ञा है।” यह कहकर अर्जुन ने गांडीव पर ज़ोर से टंकार की।",
"सिंधु देश के सुप्रसिद्ध राजा वृद्ध के पुत्र जयद्रथ को जब अर्जुन की प्रतिज्ञा का हाल मालूम हुआ, तो वह दुर्योधन के पास गया और बोला—“मुझे युद्ध की चाह नहीं है। मैं अपने देश चला जाना चाहता हूँ।” यह सुनकर दुर्योधन ने उसको धीरज बँधाया और बोला—“सैंधव! आप भय न करें। मेरी सारी सेना आपकी रक्षा करने के लिए नियुक्त की जाएगी, आप नि:शंक रहें।” दुर्योधन के इस प्रकार आग्रह करने पर जयद्रथ ने उसकी बात मान ली।",
"सवेरा हुआ। शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ आचार्य द्रोण ने सेना की व्यवस्था करने में ध्यान दिया। युद्ध के मैदान से बारह मील की दूरी पर जयद्रथ को अपनी सेना एवं रक्षकों के साथ रखा गया। उसकी रक्षा के लिए भूरिश्रवा, कर्ण, अश्वत्थामा, शल्य, वृषसेन आदि महारथी अपनी सेनाओं के साथ सुसज्जित होकर तैयार खड़े थे। अर्जुन पहले भोजों की सेना पर टूट पड़ा। कृतवर्मा और सुदक्षिण पर एक ही साथ हमला करके व उनको परास्त करके वह श्रुतायुध पर टूट पड़ा। ज़ोरों की लड़ाई छिड़ गई। श्रुतायुध के घोड़े मारे गए। इस पर उसने गदा उठाकर श्रीकृष्ण पर प्रहार किया। परंतु निःशस्त्र और युद्ध में शरीक न होने वाले श्रीकृष्ण पर फेंककर मारी गई गदा श्रुतायुध को ही जा लगी और श्रुतायुध मृत होकर गिर पड़ा। इस पर कांभोजराज सुदक्षिण ने अर्जुन पर ज़ोरों का हमला कर दिया। किंतु अर्जुन ने उस पर बाणों की ऐसी वर्षा की कि उसका रथ चूर-चूर हो गया। उसके कवच के टुकडे-टुकड़े हो गए और छाती पर बाण लगने से कांभोजराज हाथ फैलाता हुआ धड़ाम से गिर पड़ा।",
"इस प्रकार अपना गांडीव हाथ में लिए हुए असंख्य वीरों का काम तमाम करता हुआ अर्जुन आगे बढ़ता गया और कौरव-सेना के समुद्र को चीरता हुआ अंत में उस जगह पर जा पहुँचा, जहाँ जयद्रथ अपनी सेना से घिरा हुआ खड़ा था। अर्जुन का रथ जयद्रथ की ओर जाते हुए देखकर दुर्योधन चिंतित और दुखी हुआ।",
"जयद्रथ की रक्षा के लिए नियुक्त वीरों ने जब यह सुना, तो उनके दिल एकबारगी दहल उठे और भूरिश्रवा, कर्ण, वृषसेन, शल्य, अश्वत्थामा, जयद्रथ आदि आठों महारथी अर्जुन का मुक़ाबला करने को तत्पर हो उठे।",
"terahven din bhi sanshaptkon (trigarton) ne arjun ko yuddh ke liye lalkara. arjun bhi chunauti svikar karke unke saath laDta hua dakshin disha ki or chala. niyat sthaan par pahunchne par arjun aur sanshaptkon ke beech ghor sangram chhiD gaya. arjun ke dakshin ki or chale jane ke baad dronacharya ne chakravyuh ki rachna ki aur yudhishthir par dhava bol diya. yudhishthir ki or se bheem, satyaki, chekitan, dhrishtadyumn, kuntibhoj, uttamauja, viratraj, veer kaikey aadi kitne hi suvikhyat maharathiyon dronacharya ke akrman ki baaDh ko rokne ki ji toD koshish ki. phir bhi dron ka veg unke roke nahin ruka. ye dekhkar sabhi maharathi chinta mein paD ge. subhadra ka putr abhimanyu abhi balak hi tha. phir bhi apni ranakushalta aur shurata ke liye wo itna adhik prasiddh ho chuka tha ki log usko krishn evan arjun ki samta karnevala samajhte the.",
"yudhishthir ne is veer balak ko bulakar kaha—“beta! dron ke rache hue chakravyuh ko toDna hamare aur kisi veer se ho nahin sakta. akele tumhin aise ho, jiske liye dron ke banaye is vyooh ko toDna sambhav hai. tum dron ki sena par akrman karne ko taiyar ho?”",
"ye sunkar abhimanyu bola—“maharaj, is chakravyuh mein pravesh karna to mujhe aata hai, par pravesh karne ke baad kahin koi sankat aa gaya to vyooh se bahar nikalna mujhe yaad nahin hai. ” yudhishthir ne kaha—“beta! vyooh ko toDkar ek baar tum bhitar pravesh kar lo; phir to jidhar se tum aage baDhoge, udhar se hi hum tumhare pichhe pichhe chale ayenge aur tumhari madad ko taiyar rahenge. ”",
"yudhishthir ki baton ka samarthan karte hue bhimasen ne kaha—“tumhare theek pichhe pichhe main chalunga. dhrishtadyumn, satyaki aadi veer bhi apni apni senaon ke saath tumhara anukran karenge. ek baar tumne vyooh ko toD diya, to phir ye nishchit samajhna ki hum sab kaurav sena ko tahas nahas kar Dalenge. ”",
"ye sab sunkar balak abhimanyu ko apne mama shrikrishn aur pita arjun ki virata ka smran ho aaya. baDe utsaah ke saath wo bola—“main apni virata aur parakram se mama shrikrishn aur pita ji ko avashya prasann karunga. ”",
"“sumitr! wo dekho! dronacharya ke rath ki dhvaja. usi or rath chalao, jaldi karo. ” apne sarthi ko utsahit karte hue abhimanyu ne kaha aur sarthi ne bhi usi or rath chalaya. abhimanyu ki aagya mankar sarthi ne udhar rath baDha diya. kaurav sena mein halchal mach gai—“are abhimanyu aaya aur uske pichhe pichhe panDav veer bhi chale aa rahe hain. ”",
"dronacharya ke dekhte dekhte unka banaya hua vyooh toot gaya aur abhimanyu vyooh ke andar dakhil ho gaya. kaurav veer ek ek karke abhimanyu ka samna karne aate ge aur is prakar kooch karte ge ki jaise aag mein paDkar patange bhasm ho jate hain. jo bhi samne aaya, us balvir ke banon ki maar se mara gaya. jaisa ki pahle tay hua tha, panDvon ki sena abhimanyu ke pichhe pichhe chali aur jahan se vyooh toDkar abhimanyu andar ghusa tha, vahin se vyooh ke andar pravesh karne lagi. ye dekhkar sindhu desh ka parakrami raja jayadrath, jo dhritarashtr ka damad tha, apni sena ko lekar panDav sena par toot paDa. jayadrath ne aisi kushalta aur bahaduri se theek samay par vyooh ki tuti hui kilebandi ko phir se pura karke mazbut bana diya ki jisse panDav bahar hi rah ge. abhimanyu vyooh ke andar akela rah gaya, parantu akele abhimanyu ne vyooh ke andar hi kaurvon ki us vishal sena ko tahas nahas karna shuru kar diya. jo bhi uske samne aata, khatm ho jata tha. duryodhan ka putr lakshman abhi balak tha, parantu usmen virata ki aabha phoot rahi thi. usko bhay chhu tak nahin gaya tha. abhimanyu ki baan varsha se vyakul hokar jab sabhi yoddha pichhe hatne lage, to veer lakshman akela jakar abhimanyu se bhiD gaya. wo veer balak bhale ki chot se tatkal mrit hokar gir paDa. ye dekhkar kaurav sena aart svar mein hahakar kar uthi.",
"“abhimanyu ka isi kshan vadh karo. ” duryodhan ne chillakar kaha aur dron, ashvatthama, vrihadbal, kritvarma aadi chhah maharathiyon ne abhimanyu ko charon or se gher liya.",
"dron ne karn ke paas aakar kaha—“iska kavach bheda nahin ja sakta. theek se nishana sadhkar iske rath ke ghoDon ki raas kaat Dalo aur pichhe ki or se is par astra chalao. ”",
"karn ne yahi kiya. pichhe ki or se baan chalaye ge. abhimanyu ka dhanush kat gaya. ghoDe aur sarthi mare ge. wo rathavihin ho gaya. turant hi abhimanyu ne tute hue rath ka pahiya haath mein utha liya aur use ghumane laga. is samay abhimanyu bhayanak yuddh kar raha tha. ye dekhkar sari sena ek saath us par toot paDi. uske haath ka pahiya choor choor ho gaya. isi beech duःshasan ka putr gada lekar abhimanyu par jhapta. is par abhimanyu ne bhi pahiya phenkkar gada utha li aur donon aapas mein bhiD ge. donon mein ghor yuddh chhiD gaya. ek dusre par gada ka bhishan vaar karte hue donon hi rajakumar aahat hokar gir paDe. donon hi haDabDakar uthne lage. duःshasan ka putr zara pahle uth khaDa hua. abhimanyu abhi uth hi raha tha ki duःshasan ke putr ne uske sir par zor se gada prahar kiya. yon bhi abhimanyu ab kaiyon se akela laDte hue ghayal ho chuka tha aur thakkar choor ho raha tha. gada ki maar paDte hi uske praan pakheru uD ge.",
"sanshaptkon (trigarton) ka sanhar karne ke baad yuddh samapt karke arjun aur shri krishn apne shivir ko laut rahe the. arjun shrikrishn se bola—“janardan! mera man ghabraya hua hai. main bhraant sa ho raha hoon? sab bhai kushal se to honge? aaj abhimanyu apne bhaiyon ke saath hansta hua mera svagat karne kyon nahin dauDa aa raha hai?” aisi hi baten karte hue donon shivir ke andar pahunche.",
"kisi ke kuch na kahne par bhi arjun ne paristhiti dekhkar apne aap hi sab baten taaD leen aur tab usse raha nahin gaya. sab kuch jaan jane par wo buri tarah se bilakhne laga.",
"shrikrishn ki baten sunkar arjun kuch shaant hua. usne apne is veer putr ki mrityu ka sara haal janna chaha. uske puchhne par yudhishthir bole—“mainne hi abhimanyu se kaha tha ki chakravyuh ko toDkar bhitar pravesh karne ka hamare liye rasta bana do, to hum sab tumhara anukran karte hue vyooh mein pravesh kar lenge. meri baat mankar veer abhimanyu is abhedya vyooh ko toDkar andar ghus gaya. hum bhi usi ke pichhe pichhe chale. hum andar ghusne hi vale the ki papi jayadrath ne hamein rok liya. usne baDi chaturta se tute hue vyooh ko phir se theek kar diya. hamare laakh prayatn karne par bhi jayadrath ne hamein pravesh karne nahin diya. iske baad hum to bahar rahe aur andar kai maharathiyon ne ek saath milkar us akele balak ko gher liya aur maar Dala. ”",
"yudhishthir ki baat puri bhi na ho pai thi ki arjun aart svar mein “ha beta!” kahkar muchchhit hokar gir paDa. chet aane par wo utha aur driDhtapurvak bola—“jiske karan mere priy putr ki mrityu hui hai, us jayadrath ka main kal suryast hone se pahle vadh karke rahunga. ye meri prtigya hai. ” ye kahkar arjun ne ganDiv par zor se tankar ki.",
"sindhu desh ke suprasiddh raja vriddh ke putr jayadrath ko jab arjun ki prtigya ka haal malum hua, to wo duryodhan ke paas gaya aur bola—“mujhe yuddh ki chaah nahin hai. main apne desh chala jana chahta hoon. ” ye sunkar duryodhan ne usko dhiraj bandhaya aur bola—“saindhav! aap bhay na karen. meri sari sena apaki raksha karne ke liye niyukt ki jayegi, aap nihshank rahen. ” duryodhan ke is prakar agrah karne par jayadrath ne uski baat maan li.",
"savera hua. shastrdhariyon mein shreshth acharya dron ne sena ki vyavastha karne mein dhyaan diya. yuddh ke maidan se barah meel ki duri par jayadrath ko apni sena evan rakshkon ke saath rakha gaya. uski raksha ke liye bhurishrva, karn, ashvatthama, shalya, vrishsen aadi maharathi apni senaon ke saath susajjit hokar taiyar khaDe the. arjun pahle bhojon ki sena par toot paDa. kritvarma aur sudakshin par ek hi saath hamla karke va unko parast karke wo shrutayudh par toot paDa. zoron ki laDai chhiD gai. shrutayudh ke ghoDe mare ge. is par usne gada uthakar shrikrishn par prahar kiya. parantu niःshastr aur yuddh mein sharik na honevale shrikrishn par phenkkar mari gai gada shrutayudh ko hi ja lagi aur shrutayudh mrit hokar gir paDa. is par kambhojraj sudakshin ne arjun par zoron ka hamla kar diya. kintu arjun ne us par banon ki aisi varsha ki ki uska rath choor choor ho gaya. uske kavach ke tukDe tukDe ho ge aur chhati par baan lagne se kambhojraj haath phailata hua dhaDam se gir paDa.",
"is prakar apna ganDiv haath mein liye hue asankhya viron ka kaam tamam karta hua arjun aage baDhta gaya aur kaurav sena ke samudr ko chirta hua ant mein us jagah par ja pahuncha, jahan jayadrath apni sena se ghira hua khaDa tha. arjun ka rath jayadrath ki or jate hue dekhkar duryodhan chintit aur dukhi hua.",
"jayadrath ki raksha ke liye niyukt viron ne jab ye suna, to unke dil ekbargi dahal uthe aur bhurishrva, karn, vrishsen, shalya, ashvatthama, jayadrath aadi athon maharathi arjun ka muqabala karne ko tatpar ho uthe.",
"terahven din bhi sanshaptkon (trigarton) ne arjun ko yuddh ke liye lalkara. arjun bhi chunauti svikar karke unke saath laDta hua dakshin disha ki or chala. niyat sthaan par pahunchne par arjun aur sanshaptkon ke beech ghor sangram chhiD gaya. arjun ke dakshin ki or chale jane ke baad dronacharya ne chakravyuh ki rachna ki aur yudhishthir par dhava bol diya. yudhishthir ki or se bheem, satyaki, chekitan, dhrishtadyumn, kuntibhoj, uttamauja, viratraj, veer kaikey aadi kitne hi suvikhyat maharathiyon dronacharya ke akrman ki baaDh ko rokne ki ji toD koshish ki. phir bhi dron ka veg unke roke nahin ruka. ye dekhkar sabhi maharathi chinta mein paD ge. subhadra ka putr abhimanyu abhi balak hi tha. phir bhi apni ranakushalta aur shurata ke liye wo itna adhik prasiddh ho chuka tha ki log usko krishn evan arjun ki samta karnevala samajhte the.",
"yudhishthir ne is veer balak ko bulakar kaha—“beta! dron ke rache hue chakravyuh ko toDna hamare aur kisi veer se ho nahin sakta. akele tumhin aise ho, jiske liye dron ke banaye is vyooh ko toDna sambhav hai. tum dron ki sena par akrman karne ko taiyar ho?”",
"ye sunkar abhimanyu bola—“maharaj, is chakravyuh mein pravesh karna to mujhe aata hai, par pravesh karne ke baad kahin koi sankat aa gaya to vyooh se bahar nikalna mujhe yaad nahin hai. ” yudhishthir ne kaha—“beta! vyooh ko toDkar ek baar tum bhitar pravesh kar lo; phir to jidhar se tum aage baDhoge, udhar se hi hum tumhare pichhe pichhe chale ayenge aur tumhari madad ko taiyar rahenge. ”",
"yudhishthir ki baton ka samarthan karte hue bhimasen ne kaha—“tumhare theek pichhe pichhe main chalunga. dhrishtadyumn, satyaki aadi veer bhi apni apni senaon ke saath tumhara anukran karenge. ek baar tumne vyooh ko toD diya, to phir ye nishchit samajhna ki hum sab kaurav sena ko tahas nahas kar Dalenge. ”",
"ye sab sunkar balak abhimanyu ko apne mama shrikrishn aur pita arjun ki virata ka smran ho aaya. baDe utsaah ke saath wo bola—“main apni virata aur parakram se mama shrikrishn aur pita ji ko avashya prasann karunga. ”",
"“sumitr! wo dekho! dronacharya ke rath ki dhvaja. usi or rath chalao, jaldi karo. ” apne sarthi ko utsahit karte hue abhimanyu ne kaha aur sarthi ne bhi usi or rath chalaya. abhimanyu ki aagya mankar sarthi ne udhar rath baDha diya. kaurav sena mein halchal mach gai—“are abhimanyu aaya aur uske pichhe pichhe panDav veer bhi chale aa rahe hain. ”",
"dronacharya ke dekhte dekhte unka banaya hua vyooh toot gaya aur abhimanyu vyooh ke andar dakhil ho gaya. kaurav veer ek ek karke abhimanyu ka samna karne aate ge aur is prakar kooch karte ge ki jaise aag mein paDkar patange bhasm ho jate hain. jo bhi samne aaya, us balvir ke banon ki maar se mara gaya. jaisa ki pahle tay hua tha, panDvon ki sena abhimanyu ke pichhe pichhe chali aur jahan se vyooh toDkar abhimanyu andar ghusa tha, vahin se vyooh ke andar pravesh karne lagi. ye dekhkar sindhu desh ka parakrami raja jayadrath, jo dhritarashtr ka damad tha, apni sena ko lekar panDav sena par toot paDa. jayadrath ne aisi kushalta aur bahaduri se theek samay par vyooh ki tuti hui kilebandi ko phir se pura karke mazbut bana diya ki jisse panDav bahar hi rah ge. abhimanyu vyooh ke andar akela rah gaya, parantu akele abhimanyu ne vyooh ke andar hi kaurvon ki us vishal sena ko tahas nahas karna shuru kar diya. jo bhi uske samne aata, khatm ho jata tha. duryodhan ka putr lakshman abhi balak tha, parantu usmen virata ki aabha phoot rahi thi. usko bhay chhu tak nahin gaya tha. abhimanyu ki baan varsha se vyakul hokar jab sabhi yoddha pichhe hatne lage, to veer lakshman akela jakar abhimanyu se bhiD gaya. wo veer balak bhale ki chot se tatkal mrit hokar gir paDa. ye dekhkar kaurav sena aart svar mein hahakar kar uthi.",
"“abhimanyu ka isi kshan vadh karo. ” duryodhan ne chillakar kaha aur dron, ashvatthama, vrihadbal, kritvarma aadi chhah maharathiyon ne abhimanyu ko charon or se gher liya.",
"dron ne karn ke paas aakar kaha—“iska kavach bheda nahin ja sakta. theek se nishana sadhkar iske rath ke ghoDon ki raas kaat Dalo aur pichhe ki or se is par astra chalao. ”",
"karn ne yahi kiya. pichhe ki or se baan chalaye ge. abhimanyu ka dhanush kat gaya. ghoDe aur sarthi mare ge. wo rathavihin ho gaya. turant hi abhimanyu ne tute hue rath ka pahiya haath mein utha liya aur use ghumane laga. is samay abhimanyu bhayanak yuddh kar raha tha. ye dekhkar sari sena ek saath us par toot paDi. uske haath ka pahiya choor choor ho gaya. isi beech duःshasan ka putr gada lekar abhimanyu par jhapta. is par abhimanyu ne bhi pahiya phenkkar gada utha li aur donon aapas mein bhiD ge. donon mein ghor yuddh chhiD gaya. ek dusre par gada ka bhishan vaar karte hue donon hi rajakumar aahat hokar gir paDe. donon hi haDabDakar uthne lage. duःshasan ka putr zara pahle uth khaDa hua. abhimanyu abhi uth hi raha tha ki duःshasan ke putr ne uske sir par zor se gada prahar kiya. yon bhi abhimanyu ab kaiyon se akela laDte hue ghayal ho chuka tha aur thakkar choor ho raha tha. gada ki maar paDte hi uske praan pakheru uD ge.",
"sanshaptkon (trigarton) ka sanhar karne ke baad yuddh samapt karke arjun aur shri krishn apne shivir ko laut rahe the. arjun shrikrishn se bola—“janardan! mera man ghabraya hua hai. main bhraant sa ho raha hoon? sab bhai kushal se to honge? aaj abhimanyu apne bhaiyon ke saath hansta hua mera svagat karne kyon nahin dauDa aa raha hai?” aisi hi baten karte hue donon shivir ke andar pahunche.",
"kisi ke kuch na kahne par bhi arjun ne paristhiti dekhkar apne aap hi sab baten taaD leen aur tab usse raha nahin gaya. sab kuch jaan jane par wo buri tarah se bilakhne laga.",
"shrikrishn ki baten sunkar arjun kuch shaant hua. usne apne is veer putr ki mrityu ka sara haal janna chaha. uske puchhne par yudhishthir bole—“mainne hi abhimanyu se kaha tha ki chakravyuh ko toDkar bhitar pravesh karne ka hamare liye rasta bana do, to hum sab tumhara anukran karte hue vyooh mein pravesh kar lenge. meri baat mankar veer abhimanyu is abhedya vyooh ko toDkar andar ghus gaya. hum bhi usi ke pichhe pichhe chale. hum andar ghusne hi vale the ki papi jayadrath ne hamein rok liya. usne baDi chaturta se tute hue vyooh ko phir se theek kar diya. hamare laakh prayatn karne par bhi jayadrath ne hamein pravesh karne nahin diya. iske baad hum to bahar rahe aur andar kai maharathiyon ne ek saath milkar us akele balak ko gher liya aur maar Dala. ”",
"yudhishthir ki baat puri bhi na ho pai thi ki arjun aart svar mein “ha beta!” kahkar muchchhit hokar gir paDa. chet aane par wo utha aur driDhtapurvak bola—“jiske karan mere priy putr ki mrityu hui hai, us jayadrath ka main kal suryast hone se pahle vadh karke rahunga. ye meri prtigya hai. ” ye kahkar arjun ne ganDiv par zor se tankar ki.",
"sindhu desh ke suprasiddh raja vriddh ke putr jayadrath ko jab arjun ki prtigya ka haal malum hua, to wo duryodhan ke paas gaya aur bola—“mujhe yuddh ki chaah nahin hai. main apne desh chala jana chahta hoon. ” ye sunkar duryodhan ne usko dhiraj bandhaya aur bola—“saindhav! aap bhay na karen. meri sari sena apaki raksha karne ke liye niyukt ki jayegi, aap nihshank rahen. ” duryodhan ke is prakar agrah karne par jayadrath ne uski baat maan li.",
"savera hua. shastrdhariyon mein shreshth acharya dron ne sena ki vyavastha karne mein dhyaan diya. yuddh ke maidan se barah meel ki duri par jayadrath ko apni sena evan rakshkon ke saath rakha gaya. uski raksha ke liye bhurishrva, karn, ashvatthama, shalya, vrishsen aadi maharathi apni senaon ke saath susajjit hokar taiyar khaDe the. arjun pahle bhojon ki sena par toot paDa. kritvarma aur sudakshin par ek hi saath hamla karke va unko parast karke wo shrutayudh par toot paDa. zoron ki laDai chhiD gai. shrutayudh ke ghoDe mare ge. is par usne gada uthakar shrikrishn par prahar kiya. parantu niःshastr aur yuddh mein sharik na honevale shrikrishn par phenkkar mari gai gada shrutayudh ko hi ja lagi aur shrutayudh mrit hokar gir paDa. is par kambhojraj sudakshin ne arjun par zoron ka hamla kar diya. kintu arjun ne us par banon ki aisi varsha ki ki uska rath choor choor ho gaya. uske kavach ke tukDe tukDe ho ge aur chhati par baan lagne se kambhojraj haath phailata hua dhaDam se gir paDa.",
"is prakar apna ganDiv haath mein liye hue asankhya viron ka kaam tamam karta hua arjun aage baDhta gaya aur kaurav sena ke samudr ko chirta hua ant mein us jagah par ja pahuncha, jahan jayadrath apni sena se ghira hua khaDa tha. arjun ka rath jayadrath ki or jate hue dekhkar duryodhan chintit aur dukhi hua.",
"jayadrath ki raksha ke liye niyukt viron ne jab ye suna, to unke dil ekbargi dahal uthe aur bhurishrva, karn, vrishsen, shalya, ashvatthama, jayadrath aadi athon maharathi arjun ka muqabala karne ko tatpar ho uthe.",
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] |
बाल महाभारत : शांतिदूत श्रीकृष्ण - कथा | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kathaen/class-7-ncert-7/baal-mahabharat-shantidut-shrikrishn-chakraborty-rajagopalacharya-kathaen?sort= | [
"प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।",
"शांति की बातचीत करने के उद्देश्य से श्रीकृष्ण हस्तिनापुर गए। उनके साथ सात्यकि भी गए थे। रास्ते में कुशस्थल नामक स्थान में वह एक रात विश्राम करने के लिए ठहरे। हस्तिनापुर में जब यह ख़बर पहुँची कि श्रीकृष्ण पांडवों की ओर से दूत बनकर संधि चर्चा के लिए आ रहे हैं तो धृतराष्ट्र ने आज्ञा दी कि नगर को ख़ूब सजाया जाए। पुरवासियों ने द्वारिकाधीश के स्वागत की धूमधाम से तैयारियाँ कीं दुःशासन का भवन दुर्योधन के भवन से अधिक ऊँचा और सुंदर था। इसलिए धृतराष्ट्र ने आज्ञा दी कि उसी भवन में श्रीकृष्ण को ठहराने का प्रबंध किया जाए। श्रीकृष्ण हस्तिनापुर पहुँच गए। पहले श्रीकृष्ण धृतराष्ट्र के भवन में गए। फिर धृतराष्ट्र से विदा लेकर वह विदुर के भवन में गए। कुंती वहीं कृष्ण की प्रतीक्षा में बैठी थीं।",
"श्रीकृष्ण को देखते ही उन्हें अपने पुत्रों का स्मरण हो आया। श्रीकृष्ण ने उन्हें मीठे वचनों से सांत्वना दी और उनसे विदा लेकर दुर्योधन के भवन में गए। दुर्योधन ने श्रीकृष्ण का शानदार स्वागत किया और उचित आदर-सत्कार करके भोजन का न्यौता दिया। श्रीकृष्ण ने कहा—“राजन! जिस उद्देश्य को लेकर मैं यहाँ आया हूँ, वह पूरा हो जाए, तब मुझे भोजन का न्यौता देना उचित होगा।” यह कहकर वे विदुर के यहाँ चले गए और वहाँ भोजन करके विश्राम किया।",
"इसके बाद श्रीकृष्ण और विदुर में आगे के कार्यक्रम के बारे में सलाह हुई। विदुर ने कहा—“उनकी सभा में आपका जाना भी उचित नहीं है।”",
"दुर्योधनादि के स्वभाव से जो भी परिचित थे, उनका भी यही कहना था कि वे लोग कोई-न-कोई कुचक्र रचकर श्रीकृष्ण के प्राणों तक को हानि पहुँचाने की चेष्टा करेंगे। विदुर की बातें ध्यान से सुनने के बाद श्रीकृष्ण बोले—“मेरे प्राणों की चिंता आप न करें।”",
"दूसरे दिन सवेरे दुर्योधन और शकुनि ने आकर श्रीकृष्ण से कहा—“महाराज धृतराष्ट्र आपको प्रतीक्षा कर रहे हैं।” इस पर विदुर को साथ लेकर श्रीकृष्ण धृतराष्ट्र के भवन में गए।",
"वासुदेव के सभा में प्रविष्ट होते ही सभी सभासद उठ खड़े हुए श्रीकृष्ण ने बड़ों को विधिवत् नमस्कार किया और आसन पर बैठे राजदूत एवं सम्भ्रांत अतिथि सा उनका सत्कार किया गया। इसके बाद श्रीकृष्ण उठे और पांडवों की माँग सभा के सामने रखी। फिर वह धृतराष्ट्र की ओर देखकर बोले—“राजन्! पांडव शांतिप्रिय है, परंतु साथ ही यह भी समझ लीजिए कि वे युद्ध के लिए भी तैयार हैं। पांडव आपको पिता स्वरूप मानते हैं। ऐसा उपाय करें, जिससे आप भाग्यशाली बने।”",
"यह सुनकर धृतराष्ट्र ने कहा—“सभासदो में भी वही चाहता हूँ, जो श्रीकृष्ण को प्रिय है।”",
"इस पर श्रीकृष्ण दुर्योधन से बोले—“मैं इतना ही कहना चाहता हूँ कि पांडवों को आधा राज्य लौटा दो और उनके साथ संधि कर लो। यदि यह बात स्वीकृत हो गई, तो स्वयं पांडव तुम्हें युवराज और धृतराष्ट्र को महाराज के रूप में सहर्ष स्वीकार कर लेंगे।”",
"भीष्म और द्रोण ने भी दुर्योधन को बहुत समझाया। फिर भी दुर्योधन ने अपना हठ नहीं छोड़ा। वह श्रीकृष्ण का प्रस्ताव स्वीकार करने पर राज़ी न हुआ। धृतराष्ट्र ने दुबारा पुत्र से आग्रह किया कि श्रीकृष्ण का प्रस्ताव मान ले नहीं तो कुल का सर्वनाश हो जाएगा। दुर्योधन ने अपने आपको निर्दोष सिद्ध करने को जो चेष्टा की थी, उससे श्रीकृष्ण को हँसी आ गई। तभी श्रीकृष्ण ने दुर्योधन को उन सब अत्याचारों का विस्तार से स्मरण दिलाया, जो उसने पांडवों पर किए थे। भीष्म, द्रोण आदि प्रमुख वृद्धों ने भी श्रीकृष्ण के इस वक्तव्य का समर्थन किया।",
"यह देखकर दुःशासन क्रुद्ध हो उठा और दुर्योधन से बोला—“भाई मालूम होता है, ये लोग आपको क़ैद करके कहीं पांडवों के हवाले न कर दें। इसलिए चलिए, यहाँ से निकल चलें।” इस पर दुर्योधन उठा और अपने भाइयों के साथ सभा से बाहर चला गया।",
"इसी बीच धृतराष्ट्र ने विदुर से कहा—“तुम ज़रा गाधारी को सभा में ले आओ। उसकी समझ बहुत स्पष्ट है और वह दूर की सोच सकती है। हो सकता है, उसकी बातें दुर्योधन मान ले।” यह सुनकर विदुर ने सेवकों की आज्ञा देकर गांधारी को बुला लाने को भेजा। गांधारी भी सभा में आई और धृतराष्ट्र मे दुर्योधन को भी सभा में फिर से बुलाया। दुर्योधन सभा में लौट आया। क्रोध के कारण उसकी आँखें लाल हो रही थी। गांधारी ने भी उसे कई तरह से समझाया, परंतु दुर्योधन ये बातें मानने वाला कब था। अपनी माँ को भी उसने मना कर दिया और दुबारा सभा से निकलकर चला गया। बाहर जाकर दुर्योधन ने अपने साथियों के साथ मिलकर एक षड्यंत्र रचा और राजदूत श्रीकृष्ण को पकड़ने का प्रयत्न किया। श्रीकृष्ण ने तो पहले ही से इन बातों की कल्पना कर ली थी। दुर्योधन की यह चेष्टा देखकर वह हँस पड़े। श्रीकृष्ण उठे। सात्यकि और विदुर उनके दोनों और हो गए। सब सभासदों से विधिवत् आज्ञा ली। सभा से चलकर सीधे कुंती के पास पहुँचे और उनको सभा का सारा हाल कह सुनाया।",
"कुंती बोली—“हे कृष्ण! अब तुम्हीं मेरे पुत्रों के रक्षक हो।” श्रीकृष्ण रथ पर आरूढ़ होकर उपप्लव्य की ओर तेज़ी से रवाना हो गए। युद्ध अब अनिवार्य हो गया था। श्रीकृष्ण के हस्तिनापुर से लौटते ही शांति स्थापना की जो थोड़ी-बहुत आशा थी, वह भी लुप्त हो गई। कुंती को जब पता चला कि कुलनाशी युद्ध छिड़ेगा ही, तो वह बहुत व्याकुल हो गई।",
"चिंता के कारण आकुल हो रही कुंती अपने पुत्रों को सुरक्षा का विचार करती हुई गंगा के किनारे पहुँची, जहाँ कर्ण रोज़ संध्या वंदन किया करता था। मध्याह्न के बाद कर्ण का जप पूरा हुआ तो उसे यह जानकर असीम आश्चर्य हुआ कि महाराज पांडु की पत्नी और पांडवों को माता कुंती हो उसका उत्तरीय सिर पर लिए खड़ी हैं।",
"कर्ण ने शिष्टतापूर्वक अभिवादन करके कहा—“आज्ञा दीजिए, मैं आपकी क्या सेवा करूँ?”",
"कुंती ने गद्गद स्वर में कहा—“कर्ण यह न समझो कि तुम केवल सूत-पुत्र ही हो। न तो राधा तुम्हारी माँ है, न अधिरथ तुम्हारे पिता। तुमको जानना चाहिए कि राजकुमारी पृथा की कोख से तुम उत्पन्न हुए हो। तुम सूर्य के अंश हो।” थोड़ा सुस्ताने के बाद वह फिर बोली—“बेटा! दुर्योधन के पक्ष में होकर तुम अपने भाइयों से ही शत्रुता कर रहे हो। धृतराष्ट्र के लड़कों के आश्रित रहना तुम्हारे लिए अपमान की बात है। तुम अर्जुन के साथ मिल जाओ, वीरता से लड़ो और राज्य प्राप्त करो। वे भी तुम्हारे अधीन रहेंगे और तुम उनसे घिरे हुए प्रकाशमान होओगे।”",
"कर्ण माता कुंती का यह अनुरोध सुनकर बोला—“माँ यदि इस समय मैं दुर्योधन का साथ छोड़कर पांडवों की तरफ़ चला गया, तो लोग मुझे ही कायर कहेंगे। अब जब युद्ध होना निश्चित हो गया है, तो मैं उनको मझधार में कैसे छोड़ जाऊँ? यह तुम्हारी कैसी सलाह है? आज मेरा कर्तव्य यही है कि मैं पांडवों के विरुद्ध सारी शक्ति लगाकर लडूँ। मैं तुमसे असत्य क्यों बोलूँ? मुझे क्षमा कर दो। लेकिन हो, तुम्हारी भी बात एकदम व्यर्थ नहीं जाएगी। अब मैं यह करूँगा कि अर्जुन को छोड़कर और किसी पांडव के प्राण नहीं लूँगा। या तो अर्जुन इस युद्ध में काम आएगा, या मैं दोनों में से एक को तो मरना ही पड़ेगा। शेष चारों पांडव मुझे चाहे कितना भी तग करें, मैं उनको नहीं मारूँगा। माँ, तुम्हारे तो पाँच पुत्र हर हालत में रहेंगे, चाहे मैं मर जाऊँ, चाहे अर्जुन। हम दोनों में से एक बचेगा और बाक़ी चार तो रहेंगे ही। तुम चिंता न करो।”",
"अपने बड़े पुत्र को से सारी बातें सुनकर माता कुंती का मन बहुत विचलित हुआ, परंतु उन्होंने उसे अपने गले से लगा लिया और बोली—“तुम्हारा कल्याण हो।” कर्ण को इस प्रकार आशीर्वाद देकर कुंती अपने महल में चली आई।",
"shanti ki batachit karne ke uddeshya se shrikrishn hastinapur ge. unke saath satyaki bhi ge the. raste mein kushasthal namak sthaan mein wo ek raat vishram karne ke liye thahre. hastinapur mein jab ye khabar pahunchi ki shrikrishn panDvon ki or se doot bankar sandhi charcha ke liye aa rahe hain to dhritarashtr ne aagya di ki nagar ko khoob sajaya jaye. purvasiyon ne dvarikadhish ke svagat ki dhumdham se taiyariyan keen duःshasan ka bhavan duryodhan ke bhavan se adhik uncha aur sundar tha. isliye dhritarashtr ne aagya di ki usi bhavan mein shrikrishn ko thahrane ka prbandh kiya jaye. shrikrishn hastinapur pahunch ge. pahle shrikrishn dhritarashtr ke bhavan mein ge. phir dhritarashtr se vida lekar wo vidur ke bhavan mein ge. kunti vahin krishn ki prtiksha mein baithi theen.",
"shrikrishn ko dekhte hi unhen apne putron ka smran ho aaya. shrikrishn ne unhen mithe vachnon se santvna di aur unse vida lekar duryodhan ke bhavan mein ge. duryodhan ne shrikrishn ka shanadar svagat kiya aur uchit aadar satkar karke bhojan ka nyauta diya. shrikrishn ne kaha—“rajan! jis uddeshya ko lekar main yahan aaya hoon, wo pura ho jaye, tab mujhe bhojan ka nyauta dena uchit hoga. ” ye kahkar ve vidur ke yahan chale ge aur vahan bhojan karke vishram kiya.",
"iske baad shrikrishn aur vidur mein aage ke karyakram ke bare mein salah hui. vidur ne kaha—“unko sabha mein aapka jana bhi uchit nahin hai. ”",
"duryodhnadi ke svbhaav se jo bhi parichit the, unka bhi yahi kahna tha ki ve log koi na koi kuchakr rachkar shrikrishn ke pranon tak ko hani pahunchane ki cheshta karenge. vidur ko baten dhyaan se sunne ke baad shrikrishn bole—“mere pranon ki chinta aap na karen. ”",
"dusre din savere duryodhan aur shakuni ne aakar shrikrishn se kaha—“maharaj dhritarashtr aapko prtiksha kar rahe hain. ” is par vidur ko saath lekar shrikrishn dhritarashtr ke bhavan mein ge.",
"vasudev ke sabha mein pravisht hote hi sabhi sabhasad uth khaDe hue shrikrishn ne baDon ko vidhivat namaskar kiya aur aasan par baithe rajadut evan sambhrant atithi sa unka satkar kiya gaya. iske baad shrikrishn uthe aur panDvon ki maang sabha ke samne rakhi. phir wo dhritarashtr ki or dekhkar bole—“rajan! panDav shantipriy hai, parantu saath hi ye bhi samajh lijiye ki ve yuddh ke liye bhi taiyar hain. panDav aapko pita svarup mante hain. aisa upaay karen, jisse aap bhagyashali bane. ”",
"ye sunkar dhritarashtr ne kaha—“sabhasdo mein bhi vahi chahta hoon, jo shrikrishn ko priy hai. ”",
"is par shrikrishn duryodhan se bole—“main itna hi kahna chahta hoon ki panDvon ko aadha rajya lauta do aur unke saath sandhi kar lo. yadi ye baat svikrit ho gai, to svayan panDav tumhein yuvaraj aur dhritarashtr ko maharaj ke roop mein saharsh svikar kar lenge. ”",
"bheeshm aur dron ne bhi duryodhan ko bahut samjhaya. phir bhi duryodhan ne apna nahin chhoDa wo shrikrishn ka prastav svikar karne par raji na hua. raashtr ne dobara putr se agrah kiya ki shrikrishn ka prastav maan le nahin to kul ka sarvanash ho jayega. duryodhan ne apne aapko nirdosh siddh karne ko jo cheshta ki thi, usse shrikrishn ko hansi aa gai. tabhi shrikrishn ne duryodhan ko un sab atyacharon ka vistar se smran dilaya, jo usne panDvon par kiye the. bheeshm, dron aadi pramukh vriddhon ne bhi shrikrishn ke is vaktavya ka samarthan kiya.",
"ye dekhkar duःshasan kruddh ho utha aur duryodhan se bola—“bhai malum hota hai, ye log aapko qaid karke kahan panDvon ke havale na kar den. isliye chaliye, yahan se nikal chalen. ” is par duryodhan utha aur apne bhaiyon ke saath sabha se bahar chala gaya.",
"isi beech dhritarashtr ne vidur se kaha—“tum dara gadhari ko sabha mein le aao. uski samajh bahut aspasht hai aur wo door ki soch sakti hai. ho sakta hai, uski baten duryodhan maan le. ” ye sunkar vidur ne sevkon ki aagya dekar gandhari ko bula lane ko bheja. gandhari bhi sabha mein aai aur dhritarashtr mae duryodhan ko bhi sabha mein phir se bulaya. duryodhan sabha mein laut aaya. krodh ke karan uski ankhen laal ho rahi thi. gandharon ne bhi use kai tarah se samjhaya, parantu duryodhan ye baten mannevala kab tha. apni maan ko bhi usne mana kar diya aur dobara sabha se nikalkar chala gaya. bahar jakar duryodhan ne apne sathiyon ke saath milkar ek shaDyantr racha aur rajadut shrikrishn ko pakaDne ka prayatn kiya. shrikrishn ne to pahle hi se in baton ki kalpana kar li thi. duryodhan ki ye cheshta dekhkar wo hans paDe. shrikrishn uthe. satyaki aur vidur unke donon aur ho ge. sab sabhasdon se vidhivat aagya li. sabha se chalkar sodhe kunti ke paas pahunche aur unko sabha ka sara haal kah sunaya.",
"kunti boli—“he krishn! ab tumhi mere putron ke rakshak ho. ” shrikrishn rath par aruDh hokar upaplavya ki or tezi se ravana ho ge. yuddh ab anivarya ho gaya tha. shrikrishn ke hastinapur se lautte hi shanti sthapana ki jo thoDi bahut aasha thi, wo bhi lupt ho gai. kunti ko jab pata chala ki kulnashi yuddh chhiDega ho, to wo bahut vyakul ho gai.",
"chinta ke karan aakul ho rahi kriti apne putron ko suraksha ka vichar karti hui ganga ke kinare pahunchi, jahan karn roz sandhya vandan kiya karta tha. madhyah ke baad karn ka jap pura hua to use ye jankar asim ashcharya hua ki maharaj panDu ki patni aur panDvon ko mata kuti ho uska uttariy sir par liye khaDi hain.",
"karn ne shishttapurvak abhivadan karke kaha—“agya dijiye, main apaki kya seva karun?”",
"kunti ne gadgad svar mein kaha—“karn ye na samjho ki tum keval soot putr ho hoto, radha tumhari maan hai, na adhirath tumhare pita. tumko janna chahiye ki rajakumari pritha ki kokh se tum utpann hue ho. tum surya ke ansh ho. ” thoDa sustane ke baad wo phir boli—“beta! duryodhan ke paksh mein hokar tum apne bhaiyon se hi shatruta kar rahe ho. dhritarashtr ke laDkon ke ashrit rahna tumhare liye apman ki baat hai. tum arjun ke saath mil jao, virata se laDi aur rajya praapt karo. ve bhi tumhare adhin rahenge aur tum unse ghire hue prakashaman hooge. ”",
"karn mata kunti ka ye anurodh sunkar bola—“man yadi is samay main duryodhan ka saath chhoDkar panDvon ki taraf chala gaya, to log mujhe hi kaar kahenge. ab jab yuddh hona nishchit ho gaya hai, to main unko majhdhar mein kaise chhoD jaun? ye tumhari kaisi salah hai? aaj mera kartavya yahi hai ki main panDvon ke viruddh sari shakti lagakar lahun. main tumse asatya kyon bolu? mujhe kshama kar do. lekin ho, tumhari bhi baat ekdam vyarth nahin jayegi. ab main ye karunga ki arjun ko chhoDkar aur kisi panDav ke praan nahin lunga. ya to arjun is yuddh mein kaam ayega, ya main donon mein se ek ko to marna hi paDega. shesh charon panDav mujhe chahe kitna bhi tag karen, main unko nahin marunga. maan, tumhare to paanch putr har haalat mein rahenge, chahe main mar jaun, chahe arjun. hum donon mein se ek bachega aur baqi chaar to rahenge hi. tum chinta na karo. ”",
"apne baDe putr ko se sari baten sunkar mata kunti ka man bahut vichlit hua, parantu unhonne use apne gale se laga liya aur boli—“tumhara kalyan ho. ” karn ko is prakar ashirvad dekar kunti apne mahl mein chali aai.",
"shanti ki batachit karne ke uddeshya se shrikrishn hastinapur ge. unke saath satyaki bhi ge the. raste mein kushasthal namak sthaan mein wo ek raat vishram karne ke liye thahre. hastinapur mein jab ye khabar pahunchi ki shrikrishn panDvon ki or se doot bankar sandhi charcha ke liye aa rahe hain to dhritarashtr ne aagya di ki nagar ko khoob sajaya jaye. purvasiyon ne dvarikadhish ke svagat ki dhumdham se taiyariyan keen duःshasan ka bhavan duryodhan ke bhavan se adhik uncha aur sundar tha. isliye dhritarashtr ne aagya di ki usi bhavan mein shrikrishn ko thahrane ka prbandh kiya jaye. shrikrishn hastinapur pahunch ge. pahle shrikrishn dhritarashtr ke bhavan mein ge. phir dhritarashtr se vida lekar wo vidur ke bhavan mein ge. kunti vahin krishn ki prtiksha mein baithi theen.",
"shrikrishn ko dekhte hi unhen apne putron ka smran ho aaya. shrikrishn ne unhen mithe vachnon se santvna di aur unse vida lekar duryodhan ke bhavan mein ge. duryodhan ne shrikrishn ka shanadar svagat kiya aur uchit aadar satkar karke bhojan ka nyauta diya. shrikrishn ne kaha—“rajan! jis uddeshya ko lekar main yahan aaya hoon, wo pura ho jaye, tab mujhe bhojan ka nyauta dena uchit hoga. ” ye kahkar ve vidur ke yahan chale ge aur vahan bhojan karke vishram kiya.",
"iske baad shrikrishn aur vidur mein aage ke karyakram ke bare mein salah hui. vidur ne kaha—“unko sabha mein aapka jana bhi uchit nahin hai. ”",
"duryodhnadi ke svbhaav se jo bhi parichit the, unka bhi yahi kahna tha ki ve log koi na koi kuchakr rachkar shrikrishn ke pranon tak ko hani pahunchane ki cheshta karenge. vidur ko baten dhyaan se sunne ke baad shrikrishn bole—“mere pranon ki chinta aap na karen. ”",
"dusre din savere duryodhan aur shakuni ne aakar shrikrishn se kaha—“maharaj dhritarashtr aapko prtiksha kar rahe hain. ” is par vidur ko saath lekar shrikrishn dhritarashtr ke bhavan mein ge.",
"vasudev ke sabha mein pravisht hote hi sabhi sabhasad uth khaDe hue shrikrishn ne baDon ko vidhivat namaskar kiya aur aasan par baithe rajadut evan sambhrant atithi sa unka satkar kiya gaya. iske baad shrikrishn uthe aur panDvon ki maang sabha ke samne rakhi. phir wo dhritarashtr ki or dekhkar bole—“rajan! panDav shantipriy hai, parantu saath hi ye bhi samajh lijiye ki ve yuddh ke liye bhi taiyar hain. panDav aapko pita svarup mante hain. aisa upaay karen, jisse aap bhagyashali bane. ”",
"ye sunkar dhritarashtr ne kaha—“sabhasdo mein bhi vahi chahta hoon, jo shrikrishn ko priy hai. ”",
"is par shrikrishn duryodhan se bole—“main itna hi kahna chahta hoon ki panDvon ko aadha rajya lauta do aur unke saath sandhi kar lo. yadi ye baat svikrit ho gai, to svayan panDav tumhein yuvaraj aur dhritarashtr ko maharaj ke roop mein saharsh svikar kar lenge. ”",
"bheeshm aur dron ne bhi duryodhan ko bahut samjhaya. phir bhi duryodhan ne apna nahin chhoDa wo shrikrishn ka prastav svikar karne par raji na hua. raashtr ne dobara putr se agrah kiya ki shrikrishn ka prastav maan le nahin to kul ka sarvanash ho jayega. duryodhan ne apne aapko nirdosh siddh karne ko jo cheshta ki thi, usse shrikrishn ko hansi aa gai. tabhi shrikrishn ne duryodhan ko un sab atyacharon ka vistar se smran dilaya, jo usne panDvon par kiye the. bheeshm, dron aadi pramukh vriddhon ne bhi shrikrishn ke is vaktavya ka samarthan kiya.",
"ye dekhkar duःshasan kruddh ho utha aur duryodhan se bola—“bhai malum hota hai, ye log aapko qaid karke kahan panDvon ke havale na kar den. isliye chaliye, yahan se nikal chalen. ” is par duryodhan utha aur apne bhaiyon ke saath sabha se bahar chala gaya.",
"isi beech dhritarashtr ne vidur se kaha—“tum dara gadhari ko sabha mein le aao. uski samajh bahut aspasht hai aur wo door ki soch sakti hai. ho sakta hai, uski baten duryodhan maan le. ” ye sunkar vidur ne sevkon ki aagya dekar gandhari ko bula lane ko bheja. gandhari bhi sabha mein aai aur dhritarashtr mae duryodhan ko bhi sabha mein phir se bulaya. duryodhan sabha mein laut aaya. krodh ke karan uski ankhen laal ho rahi thi. gandharon ne bhi use kai tarah se samjhaya, parantu duryodhan ye baten mannevala kab tha. apni maan ko bhi usne mana kar diya aur dobara sabha se nikalkar chala gaya. bahar jakar duryodhan ne apne sathiyon ke saath milkar ek shaDyantr racha aur rajadut shrikrishn ko pakaDne ka prayatn kiya. shrikrishn ne to pahle hi se in baton ki kalpana kar li thi. duryodhan ki ye cheshta dekhkar wo hans paDe. shrikrishn uthe. satyaki aur vidur unke donon aur ho ge. sab sabhasdon se vidhivat aagya li. sabha se chalkar sodhe kunti ke paas pahunche aur unko sabha ka sara haal kah sunaya.",
"kunti boli—“he krishn! ab tumhi mere putron ke rakshak ho. ” shrikrishn rath par aruDh hokar upaplavya ki or tezi se ravana ho ge. yuddh ab anivarya ho gaya tha. shrikrishn ke hastinapur se lautte hi shanti sthapana ki jo thoDi bahut aasha thi, wo bhi lupt ho gai. kunti ko jab pata chala ki kulnashi yuddh chhiDega ho, to wo bahut vyakul ho gai.",
"chinta ke karan aakul ho rahi kriti apne putron ko suraksha ka vichar karti hui ganga ke kinare pahunchi, jahan karn roz sandhya vandan kiya karta tha. madhyah ke baad karn ka jap pura hua to use ye jankar asim ashcharya hua ki maharaj panDu ki patni aur panDvon ko mata kuti ho uska uttariy sir par liye khaDi hain.",
"karn ne shishttapurvak abhivadan karke kaha—“agya dijiye, main apaki kya seva karun?”",
"kunti ne gadgad svar mein kaha—“karn ye na samjho ki tum keval soot putr ho hoto, radha tumhari maan hai, na adhirath tumhare pita. tumko janna chahiye ki rajakumari pritha ki kokh se tum utpann hue ho. tum surya ke ansh ho. ” thoDa sustane ke baad wo phir boli—“beta! duryodhan ke paksh mein hokar tum apne bhaiyon se hi shatruta kar rahe ho. dhritarashtr ke laDkon ke ashrit rahna tumhare liye apman ki baat hai. tum arjun ke saath mil jao, virata se laDi aur rajya praapt karo. ve bhi tumhare adhin rahenge aur tum unse ghire hue prakashaman hooge. ”",
"karn mata kunti ka ye anurodh sunkar bola—“man yadi is samay main duryodhan ka saath chhoDkar panDvon ki taraf chala gaya, to log mujhe hi kaar kahenge. ab jab yuddh hona nishchit ho gaya hai, to main unko majhdhar mein kaise chhoD jaun? ye tumhari kaisi salah hai? aaj mera kartavya yahi hai ki main panDvon ke viruddh sari shakti lagakar lahun. main tumse asatya kyon bolu? mujhe kshama kar do. lekin ho, tumhari bhi baat ekdam vyarth nahin jayegi. ab main ye karunga ki arjun ko chhoDkar aur kisi panDav ke praan nahin lunga. ya to arjun is yuddh mein kaam ayega, ya main donon mein se ek ko to marna hi paDega. shesh charon panDav mujhe chahe kitna bhi tag karen, main unko nahin marunga. maan, tumhare to paanch putr har haalat mein rahenge, chahe main mar jaun, chahe arjun. hum donon mein se ek bachega aur baqi chaar to rahenge hi. tum chinta na karo. ”",
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"This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.",
"You have remaining out of 5 free poetry pages per month. Log In or Register to become Rekhta Family member to access the full website.",
"Sign up and enjoy FREE unlimited access to a whole Universe of Urdu Poetry, Language Learning, Sufi Mysticism, Rare Texts",
"जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।",
"Devoted to the preservation & promotion of Urdu",
"Urdu poetry, urdu shayari, shayari in urdu, poetry in urdu",
"A Trilingual Treasure of Urdu Words",
"Online Treasure of Sufi and Sant Poetry",
"The best way to learn Urdu online",
"Best of Urdu & Hindi Books",
"हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश"
] |
बाल महाभारत : देवव्रत - कथा | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kathaen/class-7-ncert-7/baal-mahabhartah-devavrat-chakraborty-rajagopalacharya-kathaen?sort= | [
"प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।",
"गंगा एक सुंदर युवती का रूप धारण किए नदी के तट पर खड़ी थी, उनके सौंदर्य और नवयौवन ने राजा शांतनु को मोह लिया था।",
"गंगा बोली, “राजन्! आपकी पत्नी होना मुझे स्वीकार है, पर इससे पहले आपको मेरी शर्ते माननी होंगी। क्या आप मानेंगे?”",
"राजा ने कहा—“अवश्य!”",
"राजा शांतनु ने गंगा की सारी शर्तें मान लीं और वचन दिया कि वह उनका पूर्ण रूप से पालन करेंगे।",
"समय पाकर गंगा से शांतनु के कई तेजस्वी पुत्र हुए, परंतु गंगा ने उनको जीने नहीं दिया।",
"बच्चे के पैदा होते ही वह उसे नदी की बहती हुई धारा में फेंक देती थी और फिर हँसती-मुस्कुराती राजा शांतनु के महल में आ जाती थी।",
"अज्ञात सुंदरी के इस व्यवहार से राजा शांतनु चकित रह जाते। उनके आश्चर्य और क्षोभ का पारावार न रहता। शांतनु वचन दे चुके थे, इस कारण मन मसोसकर रह जाते थे।",
"सात बच्चों को गंगा ने इसी भाँति नदी की धारा में बहा दिया। आठवाँ बच्चा पैदा हुआ। गंगा उसे भी लेकर नदी की तरफ़ जाने लगी, तो शांतनु से न रहा गया। बोले—“माँ होकर अपने नादान बच्चों को अकारण ही क्यों मार दिया करती हो? यह घृणित व्यवहार तुम्हें शोभा नहीं देता है।”",
"राजा की बात सुनकर गंगा मन-ही-मन मुस्कुराई, परंतु क्रोध का अभिनय करती हुई बोली—“राजन्! क्या आप अपना वचन भूल गए हैं? मालूम होता है कि आपको पुत्र से ही मतलब है, मुझसे नहीं। आपको मेरी क्या परवाह है! ठीक है, पर शर्त के अनुसार मैं अब नहीं ठहर सकती। हाँ, आपके इस पुत्र को मैं नदी में नहीं फेंकूँगी। इस अंतिम बालक को मैं कुछ दिन पालूँगी और फिर पुरस्कार के रूप में आपको सौंप दूँगी।”",
"यह कहकर गंगा बच्चे को साथ लेकर चली गई। यही बच्चा आगे चलकर भीष्म पितामह के नाम से विख्यात हुआ।",
"गंगा के चले जाने से राजा शांतनु का मन विरक्त हो गया। उन्होंने भोग-विलास से जी हटा लिया और राज-काज में मन लगाने लगे।",
"एक दिन राजा शिकार खेलते-खेलते गंगा के तट पर चले गए तो देखा किनारे पर खड़ा एक सुंदर और गठीला युवक गंगा की बहती हुई धारा पर बाण चला रहा था। बाणों की बौछार से गंगा की प्रचंड धारा एकदम रुकी हुई थी। यह दृश्य देखकर शांतनु दंग रह गए।",
"इतने में ही राजा के सामने स्वयं गंगा आकर उपस्थित हो गई। गंगा ने युवक को अपने पास बुलाया और राजा से बोली—“राजन्,पहचाना मुझे और इस युवक को? यही आपका और मेरा आठवाँ पुत्र देवव्रत है। महर्षि वसिष्ठ ने इसे शिक्षा दी है। शास्त्र ज्ञान में शुक्राचार्य और रण-कौशल में परशुराम ही इसका मुक़ाबला कर सकते हैं। यह जितना कुशल योद्धा है, उतना ही चतुर राजनीतिज्ञ भी है। आपका पुत्र, मैं आपको सौंप रही हूँ। अब ले जाइए इसे अपने साथ।”",
"गंगा ने देवव्रत का माथा चूमा और आशीर्वाद देकर राजा के साथ उसे विदा कर दिया।",
"ganga ek sundar yuvati ka roop dharan kiye nadi ke tat par khaDi thi, unke saundarya aur navyauvan ne raja shantanu ko moh liya tha.",
"ganga boli, “rajan! apaki patni hona mujhe svikar hai, par isse pahle aapko meri sharte manni hongi. kya aap manenge?”",
"raja ne kaha—“avashya!”",
"raja shantanu ne ganga ki sari sharten maan leen aur vachan diya ki wo unka poorn roop se palan karenge.",
"samay pakar ganga se shantanu ke kai tejasvi putr hue, parantu ganga ne unko jine nahin diya.",
"bachche ke paida hote hi wo use nadi ki bahti hui dhara mein phenk deti thi aur phir hansti muskurati raja shantanu ke mahl mein aa jati thi.",
"agyat sundri ke is vyvahar se raja shantanu chakit rah jate. unke ashcharya aur kshobh ka paravar na rahta. shantanu vachan de chuke the, is karan man masoskar rah jate the.",
"saat bachchon ko ganga ne isi bhanti nadi ki dhara mein baha diya. athvan bachcha paida hua. ganga use bhi lekar nadi ki taraf jane lagi, to shantanu se na raha gaya. bole—“man hokar apne nadan bachchon ko akaran hi kyon maar diya karti ho? ye ghrinit vyvahar tumhein shobha nahin deta hai. ”",
"raja ki baat sunkar ganga man hi man muskurai, parantu krodh ka abhinay karti hui boli—“rajan! kya aap apna vachan bhool ge hain? malum hota hai ki aapko putr se hi matlab hai, mujhse nahin. aapko meri kya parvah hai! theek hai, par shart ke anusar main ab nahin thahar sakti. haan, aapke is putr ko main nadi mein nahin phenkungi. is antim balak ko main kuch din palungi aur phir puraskar ke roop mein aapko saump dungi. ”",
"ye kahkar ganga bachche ko saath lekar chali gai. yahi bachcha aage chalkar bheeshm pitamah ke naam se vikhyat hua.",
"ganga ke chale jane se raja shantanu ka man virakt ho gaya. unhonne bhog vilas se ji hata liya aur raaj kaaj mein man lagane lage.",
"ek din raja shikar khelte khelte ganga ke tat par chale ge to dekha kinare par khaDa ek sundar aur gathila yuvak ganga ki bahti hui dhara par baan chala raha tha. banon ki bauchhar se ganga ki prchanD dhara ekdam ruki hui thi. ye drishya dekhkar shantanu dang rah ge.",
"itne mein hi raja ke samne svayan ganga aakar upasthit ho gai. ganga ne yuvak ko apne paas bulaya aur raja se boli—“rajan,pahchana mujhe aur is yuvak ko? yahi aapka aur mera athvan putr devavrat hai. maharshi vasishth ne ise shiksha di hai. shaastr gyaan mein shukracharya aur ran kaushal mein parshuram hi iska muqabala kar sakte hain. ye jitna kushal yoddha hai, utna hi chatur rajnitigya bhi hai. aapka putr, main aapko saump rahi hoon. ab le jaiye ise apne saath. ”",
"ganga ne devavrat ka matha chuma aur ashirvad dekar raja ke saath use vida kar diya.",
"ganga ek sundar yuvati ka roop dharan kiye nadi ke tat par khaDi thi, unke saundarya aur navyauvan ne raja shantanu ko moh liya tha.",
"ganga boli, “rajan! apaki patni hona mujhe svikar hai, par isse pahle aapko meri sharte manni hongi. kya aap manenge?”",
"raja ne kaha—“avashya!”",
"raja shantanu ne ganga ki sari sharten maan leen aur vachan diya ki wo unka poorn roop se palan karenge.",
"samay pakar ganga se shantanu ke kai tejasvi putr hue, parantu ganga ne unko jine nahin diya.",
"bachche ke paida hote hi wo use nadi ki bahti hui dhara mein phenk deti thi aur phir hansti muskurati raja shantanu ke mahl mein aa jati thi.",
"agyat sundri ke is vyvahar se raja shantanu chakit rah jate. unke ashcharya aur kshobh ka paravar na rahta. shantanu vachan de chuke the, is karan man masoskar rah jate the.",
"saat bachchon ko ganga ne isi bhanti nadi ki dhara mein baha diya. athvan bachcha paida hua. ganga use bhi lekar nadi ki taraf jane lagi, to shantanu se na raha gaya. bole—“man hokar apne nadan bachchon ko akaran hi kyon maar diya karti ho? ye ghrinit vyvahar tumhein shobha nahin deta hai. ”",
"raja ki baat sunkar ganga man hi man muskurai, parantu krodh ka abhinay karti hui boli—“rajan! kya aap apna vachan bhool ge hain? malum hota hai ki aapko putr se hi matlab hai, mujhse nahin. aapko meri kya parvah hai! theek hai, par shart ke anusar main ab nahin thahar sakti. haan, aapke is putr ko main nadi mein nahin phenkungi. is antim balak ko main kuch din palungi aur phir puraskar ke roop mein aapko saump dungi. ”",
"ye kahkar ganga bachche ko saath lekar chali gai. yahi bachcha aage chalkar bheeshm pitamah ke naam se vikhyat hua.",
"ganga ke chale jane se raja shantanu ka man virakt ho gaya. unhonne bhog vilas se ji hata liya aur raaj kaaj mein man lagane lage.",
"ek din raja shikar khelte khelte ganga ke tat par chale ge to dekha kinare par khaDa ek sundar aur gathila yuvak ganga ki bahti hui dhara par baan chala raha tha. banon ki bauchhar se ganga ki prchanD dhara ekdam ruki hui thi. ye drishya dekhkar shantanu dang rah ge.",
"itne mein hi raja ke samne svayan ganga aakar upasthit ho gai. ganga ne yuvak ko apne paas bulaya aur raja se boli—“rajan,pahchana mujhe aur is yuvak ko? yahi aapka aur mera athvan putr devavrat hai. maharshi vasishth ne ise shiksha di hai. shaastr gyaan mein shukracharya aur ran kaushal mein parshuram hi iska muqabala kar sakte hain. ye jitna kushal yoddha hai, utna hi chatur rajnitigya bhi hai. aapka putr, main aapko saump rahi hoon. ab le jaiye ise apne saath. ”",
"ganga ne devavrat ka matha chuma aur ashirvad dekar raja ke saath use vida kar diya.",
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"जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।",
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"हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश"
] |
बाल महाभारत : मंत्रणा - कथा | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kathaen/class-7-ncert-7/baal-mahabharat-mantrna-chakraborty-rajagopalacharya-kathaen?sort= | [
"प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।",
"तेरहवाँ बरस पूरा होने पर पांडव विराट की राजधानी छोड़कर विराटराज के ही राज्य में स्थित 'उपप्लव्य' नामक नगर में जाकर रहने लगे। अज्ञातवास की अवधि पूरी हो चुकी थी। इसलिए पाँचों भाई प्रकट रूप में रहने लगे। आगे का कार्यक्रम तय करने के लिए उन्होंने अपने भाई-बंधुओं एवं मित्रों को बुलाने के लिए दूत भेजे। भाई बलराम, अर्जुन की पत्नी सुभद्रा तथा पुत्र अभिमन्यु और यदुवंश के कई वीरों को लेकर श्रीकृष्ण उपप्लव्य जा पहुँचे। इंद्रसेन आदि इसलिए राजा अपने-अपने रथों पर चढ़कर उपप्लव्य आ पहुँचे। काशिराज और वीर शैव्य भी अपनी दो अक्षौहिणी सेना के साथ आकर युधिष्ठिर के नगर में पहुँच गए। पांचालराज द्रुपद तीन अक्षौहिणी सेना लाए। उनके साथ शिखंडी, द्रौपदी का भाई धृष्टद्युम्न और द्रौपदी के पुत्र भी आ पहुँचे। और भी कितने ही राजा अपनी-अपनी सेनाओं को साथ लेकर पांडवों की सहायता के लिए आ गए।",
"सबसे पहले अभिमन्यु के साथ उत्तरा का विवाह किया गया। इसके बाद विराटराज के सभा भवन में सभी आगंतुक राजा मंत्रणा के लिए इकट्ठे हुए। विराट के पास श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर बैठे। द्रुपद के पास बलराम और सात्यकि और भी कितने ही प्रतापी राजा सभा में विराजमान थे। सभा में सबके अपने-अपने आसन पर बैठ जाने पर श्रीकृष्ण उठे और बोले—“सम्माननीय बंधुओ और मित्रो! आज हम सब यहाँ इसलिए इकट्ठे हुए हैं कि कुछ ऐसे उपाय सोचें, जो युधिष्ठिर और राजा दुर्योधन के लिए लाभप्रद हों, न्यायोचित हों और जिनसे पांडवों तथा कौरवों का सुयश बढ़े। जो राज्य युधिष्ठिर से छीना गया है वह उनको वापस मिल जाए, तो पांडव शांत हो जाएँगे और दोनों में संधि हो सकती है। मेरी राय में इस बारे में दुर्योधन के साथ उचित रीति से बातचीत करके उसे समझाने के लिए एक ऐसे व्यक्ति को दूत बनाकर भेजना होगा, जो सर्वथा योग्य हो।”",
"तब बलराम उठे और बोले—“कृष्ण ने जो सलाह दी है, वह मुझे न्यायोचित लगती है। आप लोग जानते ही हैं कि कुंती के पुत्रों को आधा राज्य मिला था। वे उसे जुए में हार गए। अब वे उसे फिर से प्राप्त करना चाहते हैं। यदि शांतिपूर्ण ढंग से, बिना युद्ध किए ही वे अपना राज्य प्राप्त कर सकें, तो उससे न केवल पांडवों बल्कि दुर्योधन तथा सारी प्रजा की भलाई ही होगी।”",
"बलराम के कहने का सार यह था कि युधिष्ठिर ने जान-बूझकर अपनी इच्छा से जुआ खेलकर राज्य गँवाया था। उनकी इन बातों से यदुकुल का वीर और पांडवों का हितैषी सात्यकि आगबबूला हो उठा। उससे न रहा गया। वह उठकर कहने लगा—“बलराम जी की बातें मुझे ज़रा भी न्यायोचित नहीं मालूम होतीं युधिष्ठिर को आग्रह करके जुआ खेलने पर विवश किया गया और खेल में कपट से हराया गया था। फिर भी इनकी सज्जनता ही थी जो प्रण निभाकर उन्होंने खेल की शर्तें पूरी को। दुर्योधन और उनके साथी जो यह चिल्ल-पुकार मचा रहे हैं कि बारह महीने पूरे होने से पहले ही पांडवों को उन्होंने पहचान लिया है, सरासर झूठ है और बिल्कुल अन्याय है। मेरी राय में दुर्योधन बग़ैर युद्ध के मानेगा ही नहीं इसलिए विलंब करना हमारे लिए बिल्कुल नासमझी की बात होगी।”",
"सात्यकि को इन दृढ़तापूर्ण और ज़ोरदार बातों से राजा द्रुपद बड़े ख़ुश हुए। वह उठे और बोले—“सात्यकि ने जो कहा, वह बिल्कुल सही है। मैं उनका ज़ोरों से समर्थन करता हूँ। शल्य, धृष्टकेतु, जयत्सेन, कैकय आदि राजाओं के पास अभी से दूत भेज देने चाहिए। इसका मतलब यह नहीं है कि सुलह का प्रयत्न ही न किया जाए, बल्कि मेरी राय में तो राजा धृतराष्ट्र के पास अभी से किसी सुयोग्य व्यक्ति को दूत बनाकर भेजना बहुत ही ज़रूरी है।”",
"राजा द्रुपद के कह चुकने के बाद श्रीकृष्ण उठे और बोले—“सज्जनो! पांचालराज ने जो सलाह दी है वह बिल्कुल ठीक है भैया बलराम जी और मुझ पर कौरवों का जितना हक है, उतना ही पांडवों का भी है। हम यहाँ किसी का पक्षपात करने नहीं, बल्कि उत्तरा के विवाह में शामिल होने के लिए आए हैं। हम अब अपने स्थान पर वापस चले जाएँगे। (द्रुपद की ओर देखकर) द्रुपदराज! आप सभी राजाओं में श्रेष्ठ हैं, बुद्धि एवं आयु में भी बड़े हैं। हमारे लिए तो आप आचार्य के समान हैं। धृतराष्ट्र भी आपको बड़ी इज़्ज़त करते हैं। द्रोण और कृपाचार्य तो आपके लड़कपन के साथी हैं। इसलिए उचित तो यही होगा कि जो कुछ दूत को समझाना-बुझाना हो, वह आप ही समझा दें और उन्हें हस्तिनापुर भेज दें। यदि इसके बाद दुर्योधन न्यायोचित रूप से संधि के लिए तैयार न हो, तो सब लोग सब तरह से तैयार हो जाएँ और हमें भी कहला भेजें।”",
"यह निश्चय हो जाने के बाद श्रीकृष्ण अपने साथियों सहित द्वारका लौट गए। विराट, द्रुपद, युधिष्ठिर आदि युद्ध की तैयारियाँ करने में लग गए। चारों ओर दूत भेजे गए सब मित्र-राजाओं को सेना इकट्ठी करने का संदेश भेज दिया गया। पांडवों के पक्ष में राजा लोग अपनी-अपनी सेना सज्जित करने लगे। इधर ये तैयारियाँ होने लगीं, उधर दुर्योधन आदि भी चुपचाप बैठे नहीं रहे। वे भी युद्ध की तैयारियों में जी-जान से लग गए। उन्होंने अपने मित्रों के यहाँ दूतों द्वारा संदेश भेजे, जिससे सेनाएँ इकट्ठी की जा सकें। इस तरह सारा भारतवर्ष आगामी युद्ध के कोलाहल से गूँजने लगा।",
"शांति चर्चा के लिए हस्तिनापुर को दूत भेजने के बाद पांडव और उनके मित्र राजागण ज़ोरों से युद्ध की तैयारी में जुट गए। श्रीकृष्ण के पास अर्जुन स्वयं पहुँचा। इधर दुर्योधन को भी इस बात की ख़बर मिल गई कि उत्तरा के विवाह से निवृत्त होकर श्रीकृष्ण द्वारका लौट गए, हैं, सो वह भी द्वारका को रवाना हो गया। संयोग की बात है कि जिस दिन अर्जुन द्वारका पहुँचा, ठीक उसी दिन दुर्योधन भी वहाँ पहुँचा। श्रीकृष्ण के भवन में भी दोनों एक साथ ही प्रविष्ट हुए। श्रीकृष्ण उस समय आराम कर रहे थे अर्जुन और दुर्योधन दोनों ही उनके निकट संबंधी थे। इसलिए दोनों ही बेखटके शयनागार में चले गए। दुर्योधन आगे था, अर्जुन ज़रा पीछे कमरे में प्रवेश करके दुर्योधन श्रीकृष्ण के सिरहाने एक ऊँचे आसन पर जा बैठा। अर्जुन श्रीकृष्ण के पैताने ही हाथ जोड़े खड़ा रहा। श्रीकृष्ण की नींद खुली तो उन्होंने सामने अर्जुन को खड़े देखा। उन्होंने उठकर उसका स्वागत किया और कुशल पूछी। बाद में घूमकर आसन पर बैठे दुर्योधन को देखा, तो उसका भी स्वागत किया और कुशल-समाचार पूछे। उसके बाद दोनों के आने का कारण पूछा।",
"दुर्योधन जल्दी से पहले बोला—“श्रीकृष्ण, ऐसा मालूम होता है कि हमारे और पांडवों के बीच जल्दी ही युद्ध छिड़ेगा। यदि ऐसा हुआ, तो मैं आपसे प्रार्थना करने आया हूँ कि आप मेरी सहायता करें। सामान्यतः यह नियम है कि जो पहले आए उसका काम पहले हो। आप विद्वज्जनों में श्रेष्ठ हैं। आप सबके पथ-प्रदर्शक हैं। अतः बड़ों की चलाई हुई प्रथा पर चलें और पहले मेरी सहायता करें।”",
"यह सुनकर श्रीकृष्ण बोले—“राजन्! आप पहले पहुँचे ज़रूर, लेकिन मैंने तो पहले अर्जुन को ही देखा था। मेरी निगाह में तो दोनों ही बराबर हैं। इसलिए कर्तव्यभाव से मैं दोनों की ही समान रूप से सहायता करूँगा। पूर्वजों की चलाई हुई प्रथा यह है कि जो आयु में छोटा हो, उसी को पहले पुरस्कार देना चाहिए। अर्जुन आपसे आयु में छोटा है। इसलिए मैं पहले उससे ही पूछता हूँ कि वह क्या चाहता है?”",
"अर्जुन की तरफ़ मुड़कर श्रीकृष्ण बोले—“पार्थ! सुनो! मेरे वंश के लोग नारायण कहलाते हैं। वे बड़े साहसी और वीर भी हैं। उनकी एक भारी सेना इकट्ठी की जा सकती है। मेरी यह सेना एक तरफ़ होगी। दूसरी तरफ़ अकेला मैं रहूँगा। मेरी प्रतिज्ञा यह भी है कि युद्ध में मैं न तो हथियार उठाऊँगा और न ही लहूँगा। तुम भली-भाँति सोच लो, तब निर्णय करो। इन दो में से जो पसंद हो, वह ले लो।”",
"बिना किसी हिचकिचाहट के अर्जुन बोला—“आप शस्त्र उठाएँ या न उठाएँ, आप चाहे लड़ें या न लड़ें, मैं तो आपको ही चाहता हूँ।”",
"दुर्योधन के आनंद की सीमा न रही। वह सोचने लगा कि अर्जुन ने ख़ूब धोखा खाया और श्रीकृष्ण की वह लाखों वीरोंवाली भारी-भरकम सेना सहज में ही उसके हाथ आ गई। यह सोचता और हर्ष से फूला न समाता दुर्योधन बलराम जी के यहाँ पहुँचा और उनको सारा हाल कह सुनाया। बलराम जी ने दुर्योधन की बातें ध्यान से सुनों और बोले—“दुर्योधन! मालूम होता है कि उत्तरा के विवाह के अवसर पर मैंने जो कुछ कहा था उसकी ख़बर तुम्हें मिल गई है। कृष्ण से भी मैंने कई बार तुम्हारी बात छेड़ी और उसको समझाता रहा कि कौरव और पांडव दोनों ही हमारे बराबर के संबंधी हैं। किंतु कृष्ण मेरी सुने तब न! मैंने निश्चय कर लिया है कि मैं युद्ध में तटस्थ रहूँगा, क्योंकि जिधर कृष्ण न हो, उस तरफ़ मेरा रहना ठीक नहीं है। अर्जुन की सहायता मैं करूँगा नहीं, इस कारण मैं अब तुम्हारी भी सहायता करने योग्य नहीं रहा। मेरा तटस्थ रहना ही ठीक होगा।”",
"हस्तिनापुर को लौटते हुए दुर्योधन का दिल बल्लियों उछल रहा था। वह सोच रहा था कि अर्जुन बड़ा बुद्धू बना। द्वारका की इतनी बड़ी सेना अब मेरी हो गई है और बलराम जी का स्नेह तो मुझ पर है ही। श्रीकृष्ण भी निःशस्त्र और सेनाविहीन हो गए। यही सोचते विचारते दुर्योधन ख़ुशी-ख़ुशी अपनी राजधानी में आ पहुँचा।",
"कृष्ण ने पूछा—“सखा अर्जुन! एक बात बताओ। तुमने सेना-बल के बजाए मुझ निःशस्त्र को क्यों पसंद किया?”",
"अर्जुन बोला—“बात यह है कि आप में वह शक्ति है कि जिससे आप अकेले ही इन तमाम राजाओं से लड़कर इन्हें कुचल सकते हैं।”",
"अर्जुन की बात सुनकर कृष्ण मुस्कुराए और बोले—“अच्छा, यह बात है!” और अर्जुन को बड़े प्रेम से विदा किया। इस प्रकार श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथी बने और पार्थ सारथी की पदवी प्राप्त की।",
"मद्र देश के राजा शल्य, नकुल सहदेव की माँ माद्री के भाई थे। जब उन्हें यह ख़बर मिली कि पांडव उपप्लव्य के नगर में युद्ध की तैयारियाँ कर रहे हैं, तो उन्होंने एक भारी सेना इकट्ठी की और उसे लेकर पांडवों की सहायता के लिए उपप्लव्य की ओर रवाना हो गए।",
"राजा शल्य की सेना बहुत बड़ी थी। उपप्लव्य की ओर जाते हुए रास्ते में जहाँ कहीं भी शल्य विश्राम करने के लिए डेरा डालते थे, तो उनकी सेना का पड़ाव कोई डेढ़ योजन तक लंबा फैल जाता था।",
"जब दुर्योधन ने सुना कि राजा शल्य विशाल सेना लेकर पांडवों की सहायता के लिए जा रहे हैं, तो उसने किसी प्रकार इस सेना को अपनी ओर कर लेने का निश्चय कर लिया। अपने कुशल कर्मचारियों को उसने आज्ञा दी कि रास्ते में जहाँ कहीं भी राजा शल्य और उनकी सेना डेरा डाले, उसे हर तरह की सुविधा पहुँचाई जाए। शल्य पर दुर्योधन के आदर-सत्कार का कुछ ऐसा असर हुआ कि उन्होंने पुत्रों के समान प्यार करने योग्य भानजों (पांडवों) को छोड़ दिया और दुर्योधन के पक्ष में रहकर युद्ध करने का वचन दे दिया। उपप्लव्य में राजा शल्य का ख़ूब स्वागत किया गया। मामा को आया देखकर नकुल और सहदेव के आनंद की तो सीमा ही न रही। जब भावी युद्ध की चर्चा छिड़ी, तो शल्य ने युधिष्ठिर को बताया कि किस प्रकार दुर्योधन ने धोखा देकर उनको अपने पक्ष में कर लिया है।",
"युधिष्ठिर बोला—“मामा जी! मौक़ा आने पर निश्चय ही महाबली कर्ण आपको अपना सारथी बनाकर अर्जुन का वध करने का प्रयत्न करेगा। मैं यह जानना चाहता हूँ कि उस समय आप अर्जुन की मृत्यु का कारण बनेंगे या अर्जुन की रक्षा का प्रयत्न करेंगे? मैं यह पूछकर आपको असमंजस में नहीं डालना चाहता था, पर फिर भी पूछने का मन हो गया।”",
"मद्रराज ने कहा—“बेटा युधिष्ठिर, मैं धोखे में आकर दुर्योधन को वचन दे बैठा। इसलिए युद्ध तो मुझे उसकी ओर से ही करना होगा। पर एक बात बताए देता हूँ कि कर्ण मुझे सारथी बनाएगा, तो अर्जुन के प्राणों की रक्षा ही होगी।”",
"उपप्लव्य में महाराज युधिष्ठिर और द्रौपदी को मद्रराज शल्य ने दिलासा दिया और कहा—“जीत उन्हीं की होती है, जो धीरज से काम लेते हैं। युधिष्ठिर! कर्ण और दुर्योधन की बुद्धि फिर गई है। अपनी दुष्टता के फलस्वरूप निश्चय ही उनका सर्वनाश होकर रहेगा।”",
"terahvan baras pura hone par panDav virat ki bheje. bhai balram, arjun ki patni subhadra tatha rajdhani chhoDkar viratraj ke hi rajya mein sthit putr abhimanyu aur yaduvansh ke kai viron ko upaplavya namak nagar mein jakar rahne lage. lekar shrikrishn upaplavya ja pahunche. indrsen aadi agyatvas ki avadhi puri ho chuki thi. isliye raja apne apne rathon par chaDhkar upaplavya aa panchon bhai prakat roop mein rahne lage. aage ka pahunche. kashiraj aur veer shaivya bhi apni do karyakram tay karne ke liye unhonne apne akshauhini sena ke saath aakar yudhishthir ke bhai bandhuon evan mitron ko bulane ke liye doot nagar mein pahunch ge. panchalraj drupad teen akshauhini sena laye. unke saath shikhanDi, draupadi ka bhai dhrishtadyumn aur draupadi ke putr bhi aa pahunche. aur bhi kitne hi raja apni apni senaon ko saath lekar panDvon ki sahayata ke liye aa ge.",
"sabse pahle abhimanyu ke saath uttara ka vivah kiya gaya. iske baad viratraj ke sabha bhavan mein sabhi agantuk raja mantrna ke liye ikatthe hue. virat ke paas shrikrishn aur yudhishthir baithe. drupad ke paas balram aur satyaki aur bhi kitne hi pratapi raja sabha mein virajman the. sabha mein sabke apne apne aasan par baith jane par shrikrishn uthe aur bole—“sammananiy bandhuo aur mitro! aaj hum sab yahan isliye ikatthe hue hain ki kuch aise upaay sochen, jo yudhishthir aur raja duryodhan ke liye labhaprad hon, nyayochit hon aur jinse panDvon tatha kaurvon ka suyash baDhe. jo rajya yudhishthir se chhina gaya hai wo unko vapas mil jaye, to panDav shaant ho jayenge aur donon mein sandhi ho sakti hai. meri raay mein is bare mein duryodhan ke saath uchit riti se batachit karke use samjhane ke liye ek aise vyakti ko doot banakar bhejna hoga, jo sarvatha yogya ho. ”",
"tab balram uthe aur bole—“krishn ne jo salah di hai, wo mujhe nyayochit lagti hai. aap log jante hi hain ki kunti ke putron ko aadha rajya mila tha. ve use jue mein haar ge. ab ve use phir se praapt karna chahte hain. yadi shantipurn Dhang se, bina yuddh kiye hi ve apna rajya praapt kar saken, to usse na keval panDvon balki duryodhan tatha sari praja ki bhalai hi hogi. ”",
"balram ke kahne ka saar ye tha ki yudhishthir ne jaan bujhkar apni ichchha se jua khelkar rajya ganvaya tha. unki in baton se yadukul ka veer aur panDvon ka hitaishi satyaki agabbula ho utha. usse na raha gaya. wo uthkar kahne laga—“balram ji ki baten mujhe zara bhi nyayochit nahin malum hotin yudhishthir ko agrah karke jua khelne par vivash kiya gaya aur khel mein kapat se haraya gaya tha. phir bhi inki sajjanta hi thi jo pran nibhakar unhonne khel ki sharten puri ko. duryodhan aur unke sathi jo ye chill pukar macha rahe hain ki barah mahine pure hone se pahle hi panDvon ko unhonne pahchan liya hai, sarasar jhooth hai aur bilkul anyay hai. meri raay mein duryodhan bagair yuddh ke manega hi nahin isliye vilamb karna hamare liye bilkul nasamjhi ki baat hogi. ”",
"satyaki ko in driDhtapurn aur zordar baton se raja drupad baDe khush hue. wo uthe aur bole—“satyaki ne jo kaha, wo bilkul sahi hai. main unka zoron se samarthan karta hoon. shalya, dhrishtketu, jayatsen, kaikay aadi rajaon ke paas abhi se doot bhej dene chahiye. iska matlab ye nahin hai ki sulah ka prayatn hi na kiya jaye, balki meri raay mein to raja dhritarashtr ke paas abhi se kisi suyogya vyakti ko doot banakar bhejna bahut hi zaruri hai. ”",
"raja drupad ke kah chukne ke baad shrikrishn uthe aur bole—“sajjno! panchalraj ne jo salah di hai wo bilkul theek hai bhaiya balram ji aur mujh par kaurvon ka jitna hak hai, utna hi panDvon ka bhi hai. hum yahan kisi ka pakshapat karne nahin, balki uttara ke vivah mein shamil hone ke liye aaye hain. hum ab apne sthaan par vapas chale jayenge. (drupad ki or dekhkar) drupadraj! aap sabhi rajaon mein shreshth hain, buddhi evan aayu mein bhi baDe hain. hamare liye to aap acharya ke saman hain. dhritarashtr bhi aapko baDi izzat karte hain. dron aur kripacharya to aapke laDakpan ke sathi hain. isliye uchit to yahi hoga ki jo kuch doot ko samjhana bujhana ho, wo aap hi samjha den aur unhen hastinapur bhej den. yadi iske baad duryodhan nyayochit roop se sandhi ke liye taiyar na ho, to sab log sab tarah se taiyar ho jayen aur hamein bhi kahla bhejen. ”",
"ye nishchay ho jane ke baad shrikrishn apne sathiyon sahit dvarka laut ge. virat, drupad, yudhishthir aadi yuddh ki taiyariyan karne mein lag ge. charon or doot bheje ge sab mitr rajaon ko sena ikatthi karne ka sandesh bhej diya gaya. panDvon ke paksh mein raja log apni apni sena sajjit karne lage. idhar ye taiyariyan hone lagin, udhar duryodhan aadi bhi chupchap baithe nahin rahe. ve bhi yuddh ki taiyariyon mein ji jaan se lag ge. unhonne apne mitron ke yahan duton dvara sandesh bheje, jisse senayen ikatthi ki ja saken. is tarah sara bharatvarsh agami yuddh ke kolahal se gunjne laga.",
"shanti charcha ke liye hastinapur ko doot bhejne ke baad panDav aur unke mitr rajagan zoron se yuddh ki taiyari mein jut ge. shrikrishn ke paas arjun svayan pahuncha. idhar duryodhan ko bhi is baat ki khabar mil gai ki uttara ke vivah se nivritt hokar shrikrishn dvarka laut ge, hain, so wo bhi dvarka ko ravana ho gaya. sanyog ki baat hai ki jis din arjun dvarka pahuncha, theek usi din duryodhan bhi vahan pahuncha. shrikrishn ke bhavan mein bhi donon ek saath hi pravisht hue. shrikrishn us samay aram kar rahe the arjun aur duryodhan donon hi unke nikat sambandhi the. isliye donon hi bekhatke shaynagar mein chale ge. duryodhan aage tha, arjun zara pichhe kamre mein pravesh karke duryodhan shrikrishn ke sirhane ek uunche aasan par ja baitha. arjun shrikrishn ke paitane hi haath joDe khaDa raha. shrikrishn ki neend khuli to unhonne samne arjun ko khaDe dekha. unhonne uthkar uska svagat kiya aur kushal puchhi. baad mein ghumkar aasan par baithe duryodhan ko dekha, to uska bhi svagat kiya aur kushal samachar puchhe. uske baad donon ke aane ka karan puchha.",
"duryodhan jaldi se pahle bola—“shrikrishn, aisa malum hota hai ki hamare aur panDvon ke beech jaldi hi yuddh chhiDega. yadi aisa hua, to main aapse pararthna karne aaya hoon ki aap meri sahayata karen. samanyatः ye niyam hai ki jo pahle aaye uska kaam pahle ho. aap vidvajjnon mein shreshth hain. aap sabke path pradarshak hain. atः baDon ki chalai hui pratha par chalen aur pahle meri sahayata karen. ”",
"ye sunkar shrikrishn bole—“rajan! aap pahle pahunche zarur, lekin mainne to pahle arjun ko hi dekha tha. meri nigah mein to donon hi barabar hain. isliye kartavybhav se main donon ki hi saman roop se sahayata karunga. purvjon ki chalai hui pratha ye hai ki jo aayu mein chhota ho, usi ko pahle puraskar dena chahiye. arjun aapse aayu mein chhota hai. isliye main pahle usse hi puchhta hoon ki wo kya chahta hai?”",
"arjun ki taraf muDkar shrikrishn bole—“parth! suno! mere vansh ke log narayan kahlate hain. ve baDe sahasi aur veer bhi hain. unki ek bhari sena ikatthi ki ja sakti hai. meri ye sena ek taraf hogi. dusri taraf akela main rahunga. meri prtigya ye bhi hai ki yuddh mein main na to hathiyar uthaunga aur na hi lahunga. tum bhali bhanti soch lo, tab nirnay karo. in do mein se jo pasand ho, wo le lo. ”",
"bina kisi hichkichahat ke arjun bola—“ap shastr uthayen ya na uthayen, aap chahe laDen ya na laDen, main to aapko hi chahta hoon. ”",
"duryodhan ke anand ki sima na rahi. wo sochne laga ki arjun ne khoob dhokha khaya aur shrikrishn ki wo lakhon vironvali bhari bharkam sena sahj mein hi uske haath aa gai. ye sochta aur harsh se phula na samata duryodhan balram ji ke yahan pahuncha aur unko sara haal kah sunaya. balram ji ne duryodhan ki baten dhyaan se sunon aur bole—“duryodhan! malum hota hai ki uttara ke vivah ke avsar par mainne jo kuch kaha tha uski khabar tumhein mil gai hai. krishn se bhi mainne kai baar tumhari baat chheDi aur usko samjhata raha ki kaurav aur panDav donon hi hamare barabar ke sambandhi hain. kintu krishn meri sune tab na! mainne nishchay kar liya hai ki main yuddh mein tatasth rahunga, kyonki jidhar krishn na ho, us taraf mera rahna theek nahin hai. arjun ki sahayata main karunga nahin, is karan main ab tumhari bhi sahayata karne yogya nahin raha. mera tatasth rahna hi theek hoga. ”",
"hastinapur ko lautte hue duryodhan ka dil balliyon uchhal raha tha. wo soch raha tha ki arjun baDa buddh bana. dvarka ki itni baDi sena ab meri ho gai hai aur balram ji ka sneh to mujh par hai hi. shrikrishn bhi niःshastr aur senavihin ho ge. yahi sochte vicharte duryodhan khushi khushi apni rajdhani mein aa pahuncha.",
"krishn ne puchha—“sakha arjun! ek baat batao. tumne sena bal ke bajaye mujh niःshastr ko kyon pasand kiya?”",
"arjun bola—“bat ye hai ki aap mein wo shakti hai ki jisse aap akele hi in tamam rajaon se laDkar inhen kuchal sakte hain. ”",
"arjun ki baat sunkar krishn musakraye aur bole—“achchha, ye baat hai!” aur arjun ko baDe prem se vida kiya. is prakar shrikrishn arjun ke sarthi bane aur paarth sarthi ki padvi praapt ki.",
"madr desh ke raja shalya, nakul sahdev ki maan madri ke bhai the. jab unhen ye khabar mili ki panDav upaplavya ke nagar mein yuddh ki taiyariyan kar rahe hain, to unhonne ek bhari sena ikatthi ki aur use lekar panDvon ki sahayata ke liye upaplavya ki or ravana ho ge.",
"raja shalya ki sena bahut baDi thi. upaplavya ki or jate hue raste mein jahan kahin bhi shalya vishram karne ke liye Dera Dalte the, to unki sena ka paDav koi DeDh yojan tak lamba phail jata tha.",
"jab duryodhan ne suna ki raja shalya vishal sena lekar panDvon ki sahayata ke liye ja rahe hain, to usne kisi prakar is sena ko apni or kar lene ka nishchay kar liya. apne kushal karmchariyon ko usne aagya di ki raste mein jahan kahin bhi raja shalya aur unki sena Dera Dale, use har tarah ki suvidha pahunchai jaye. shalya par duryodhan ke aadar satkar ka kuch aisa asar hua ki unhonne putron ke saman pyaar karne yogya bhanjon (panDvon) ko chhoD diya aur duryodhan ke paksh mein rahkar yuddh karne ka vachan de diya. upaplavya mein raja shalya ka khoob svagat kiya gaya. mama ko aaya dekhkar nakul aur sahdev ke anand ki to sima hi na rahi. jab bhavi yuddh ki charcha chhiDi, to shalya ne yudhishthir ko bataya ki kis prakar duryodhan ne dhokha dekar unko apne paksh mein kar liya hai.",
"yudhishthir bola—“mama jee! mauka aane par nishchay hi mahabali karn aapko apna sarthi banakar arjun ka vadh karne ka prayatn karega. main ye janna chahta hoon ki us samay aap arjun ki mrityu ka karan banenge ya arjun ki raksha ka prayatn karenge? main ye puchhkar aapko asmanjas mein nahin Dalna chahta tha, par phir bhi puchhne ka man ho gaya. ”",
"madrraj ne kaha—“beta yudhishthir, main dhokhe mein aakar duryodhan ko vachan de baitha. isliye yuddh to mujhe uski or se hi karna hoga. par ek baat bataye deta hoon ki karn mujhe sarthi banayega, to arjun ke pranon ki raksha hi hogi. ”",
"upaplavya mein maharaj yudhishthir aur draupadi. ko madrraj shalya ne dilasa diya aur kaha—“jit unhin ki hoti hai, jo dhiraj se kaam lete hain. yudhishthir! karn aur duryodhan ki buddhi phir gai hai. apni dushtata ke phalasvarup nishchay hi unka sarvanash hokar rahega. ”",
"terahvan baras pura hone par panDav virat ki bheje. bhai balram, arjun ki patni subhadra tatha rajdhani chhoDkar viratraj ke hi rajya mein sthit putr abhimanyu aur yaduvansh ke kai viron ko upaplavya namak nagar mein jakar rahne lage. lekar shrikrishn upaplavya ja pahunche. indrsen aadi agyatvas ki avadhi puri ho chuki thi. isliye raja apne apne rathon par chaDhkar upaplavya aa panchon bhai prakat roop mein rahne lage. aage ka pahunche. kashiraj aur veer shaivya bhi apni do karyakram tay karne ke liye unhonne apne akshauhini sena ke saath aakar yudhishthir ke bhai bandhuon evan mitron ko bulane ke liye doot nagar mein pahunch ge. panchalraj drupad teen akshauhini sena laye. unke saath shikhanDi, draupadi ka bhai dhrishtadyumn aur draupadi ke putr bhi aa pahunche. aur bhi kitne hi raja apni apni senaon ko saath lekar panDvon ki sahayata ke liye aa ge.",
"sabse pahle abhimanyu ke saath uttara ka vivah kiya gaya. iske baad viratraj ke sabha bhavan mein sabhi agantuk raja mantrna ke liye ikatthe hue. virat ke paas shrikrishn aur yudhishthir baithe. drupad ke paas balram aur satyaki aur bhi kitne hi pratapi raja sabha mein virajman the. sabha mein sabke apne apne aasan par baith jane par shrikrishn uthe aur bole—“sammananiy bandhuo aur mitro! aaj hum sab yahan isliye ikatthe hue hain ki kuch aise upaay sochen, jo yudhishthir aur raja duryodhan ke liye labhaprad hon, nyayochit hon aur jinse panDvon tatha kaurvon ka suyash baDhe. jo rajya yudhishthir se chhina gaya hai wo unko vapas mil jaye, to panDav shaant ho jayenge aur donon mein sandhi ho sakti hai. meri raay mein is bare mein duryodhan ke saath uchit riti se batachit karke use samjhane ke liye ek aise vyakti ko doot banakar bhejna hoga, jo sarvatha yogya ho. ”",
"tab balram uthe aur bole—“krishn ne jo salah di hai, wo mujhe nyayochit lagti hai. aap log jante hi hain ki kunti ke putron ko aadha rajya mila tha. ve use jue mein haar ge. ab ve use phir se praapt karna chahte hain. yadi shantipurn Dhang se, bina yuddh kiye hi ve apna rajya praapt kar saken, to usse na keval panDvon balki duryodhan tatha sari praja ki bhalai hi hogi. ”",
"balram ke kahne ka saar ye tha ki yudhishthir ne jaan bujhkar apni ichchha se jua khelkar rajya ganvaya tha. unki in baton se yadukul ka veer aur panDvon ka hitaishi satyaki agabbula ho utha. usse na raha gaya. wo uthkar kahne laga—“balram ji ki baten mujhe zara bhi nyayochit nahin malum hotin yudhishthir ko agrah karke jua khelne par vivash kiya gaya aur khel mein kapat se haraya gaya tha. phir bhi inki sajjanta hi thi jo pran nibhakar unhonne khel ki sharten puri ko. duryodhan aur unke sathi jo ye chill pukar macha rahe hain ki barah mahine pure hone se pahle hi panDvon ko unhonne pahchan liya hai, sarasar jhooth hai aur bilkul anyay hai. meri raay mein duryodhan bagair yuddh ke manega hi nahin isliye vilamb karna hamare liye bilkul nasamjhi ki baat hogi. ”",
"satyaki ko in driDhtapurn aur zordar baton se raja drupad baDe khush hue. wo uthe aur bole—“satyaki ne jo kaha, wo bilkul sahi hai. main unka zoron se samarthan karta hoon. shalya, dhrishtketu, jayatsen, kaikay aadi rajaon ke paas abhi se doot bhej dene chahiye. iska matlab ye nahin hai ki sulah ka prayatn hi na kiya jaye, balki meri raay mein to raja dhritarashtr ke paas abhi se kisi suyogya vyakti ko doot banakar bhejna bahut hi zaruri hai. ”",
"raja drupad ke kah chukne ke baad shrikrishn uthe aur bole—“sajjno! panchalraj ne jo salah di hai wo bilkul theek hai bhaiya balram ji aur mujh par kaurvon ka jitna hak hai, utna hi panDvon ka bhi hai. hum yahan kisi ka pakshapat karne nahin, balki uttara ke vivah mein shamil hone ke liye aaye hain. hum ab apne sthaan par vapas chale jayenge. (drupad ki or dekhkar) drupadraj! aap sabhi rajaon mein shreshth hain, buddhi evan aayu mein bhi baDe hain. hamare liye to aap acharya ke saman hain. dhritarashtr bhi aapko baDi izzat karte hain. dron aur kripacharya to aapke laDakpan ke sathi hain. isliye uchit to yahi hoga ki jo kuch doot ko samjhana bujhana ho, wo aap hi samjha den aur unhen hastinapur bhej den. yadi iske baad duryodhan nyayochit roop se sandhi ke liye taiyar na ho, to sab log sab tarah se taiyar ho jayen aur hamein bhi kahla bhejen. ”",
"ye nishchay ho jane ke baad shrikrishn apne sathiyon sahit dvarka laut ge. virat, drupad, yudhishthir aadi yuddh ki taiyariyan karne mein lag ge. charon or doot bheje ge sab mitr rajaon ko sena ikatthi karne ka sandesh bhej diya gaya. panDvon ke paksh mein raja log apni apni sena sajjit karne lage. idhar ye taiyariyan hone lagin, udhar duryodhan aadi bhi chupchap baithe nahin rahe. ve bhi yuddh ki taiyariyon mein ji jaan se lag ge. unhonne apne mitron ke yahan duton dvara sandesh bheje, jisse senayen ikatthi ki ja saken. is tarah sara bharatvarsh agami yuddh ke kolahal se gunjne laga.",
"shanti charcha ke liye hastinapur ko doot bhejne ke baad panDav aur unke mitr rajagan zoron se yuddh ki taiyari mein jut ge. shrikrishn ke paas arjun svayan pahuncha. idhar duryodhan ko bhi is baat ki khabar mil gai ki uttara ke vivah se nivritt hokar shrikrishn dvarka laut ge, hain, so wo bhi dvarka ko ravana ho gaya. sanyog ki baat hai ki jis din arjun dvarka pahuncha, theek usi din duryodhan bhi vahan pahuncha. shrikrishn ke bhavan mein bhi donon ek saath hi pravisht hue. shrikrishn us samay aram kar rahe the arjun aur duryodhan donon hi unke nikat sambandhi the. isliye donon hi bekhatke shaynagar mein chale ge. duryodhan aage tha, arjun zara pichhe kamre mein pravesh karke duryodhan shrikrishn ke sirhane ek uunche aasan par ja baitha. arjun shrikrishn ke paitane hi haath joDe khaDa raha. shrikrishn ki neend khuli to unhonne samne arjun ko khaDe dekha. unhonne uthkar uska svagat kiya aur kushal puchhi. baad mein ghumkar aasan par baithe duryodhan ko dekha, to uska bhi svagat kiya aur kushal samachar puchhe. uske baad donon ke aane ka karan puchha.",
"duryodhan jaldi se pahle bola—“shrikrishn, aisa malum hota hai ki hamare aur panDvon ke beech jaldi hi yuddh chhiDega. yadi aisa hua, to main aapse pararthna karne aaya hoon ki aap meri sahayata karen. samanyatः ye niyam hai ki jo pahle aaye uska kaam pahle ho. aap vidvajjnon mein shreshth hain. aap sabke path pradarshak hain. atः baDon ki chalai hui pratha par chalen aur pahle meri sahayata karen. ”",
"ye sunkar shrikrishn bole—“rajan! aap pahle pahunche zarur, lekin mainne to pahle arjun ko hi dekha tha. meri nigah mein to donon hi barabar hain. isliye kartavybhav se main donon ki hi saman roop se sahayata karunga. purvjon ki chalai hui pratha ye hai ki jo aayu mein chhota ho, usi ko pahle puraskar dena chahiye. arjun aapse aayu mein chhota hai. isliye main pahle usse hi puchhta hoon ki wo kya chahta hai?”",
"arjun ki taraf muDkar shrikrishn bole—“parth! suno! mere vansh ke log narayan kahlate hain. ve baDe sahasi aur veer bhi hain. unki ek bhari sena ikatthi ki ja sakti hai. meri ye sena ek taraf hogi. dusri taraf akela main rahunga. meri prtigya ye bhi hai ki yuddh mein main na to hathiyar uthaunga aur na hi lahunga. tum bhali bhanti soch lo, tab nirnay karo. in do mein se jo pasand ho, wo le lo. ”",
"bina kisi hichkichahat ke arjun bola—“ap shastr uthayen ya na uthayen, aap chahe laDen ya na laDen, main to aapko hi chahta hoon. ”",
"duryodhan ke anand ki sima na rahi. wo sochne laga ki arjun ne khoob dhokha khaya aur shrikrishn ki wo lakhon vironvali bhari bharkam sena sahj mein hi uske haath aa gai. ye sochta aur harsh se phula na samata duryodhan balram ji ke yahan pahuncha aur unko sara haal kah sunaya. balram ji ne duryodhan ki baten dhyaan se sunon aur bole—“duryodhan! malum hota hai ki uttara ke vivah ke avsar par mainne jo kuch kaha tha uski khabar tumhein mil gai hai. krishn se bhi mainne kai baar tumhari baat chheDi aur usko samjhata raha ki kaurav aur panDav donon hi hamare barabar ke sambandhi hain. kintu krishn meri sune tab na! mainne nishchay kar liya hai ki main yuddh mein tatasth rahunga, kyonki jidhar krishn na ho, us taraf mera rahna theek nahin hai. arjun ki sahayata main karunga nahin, is karan main ab tumhari bhi sahayata karne yogya nahin raha. mera tatasth rahna hi theek hoga. ”",
"hastinapur ko lautte hue duryodhan ka dil balliyon uchhal raha tha. wo soch raha tha ki arjun baDa buddh bana. dvarka ki itni baDi sena ab meri ho gai hai aur balram ji ka sneh to mujh par hai hi. shrikrishn bhi niःshastr aur senavihin ho ge. yahi sochte vicharte duryodhan khushi khushi apni rajdhani mein aa pahuncha.",
"krishn ne puchha—“sakha arjun! ek baat batao. tumne sena bal ke bajaye mujh niःshastr ko kyon pasand kiya?”",
"arjun bola—“bat ye hai ki aap mein wo shakti hai ki jisse aap akele hi in tamam rajaon se laDkar inhen kuchal sakte hain. ”",
"arjun ki baat sunkar krishn musakraye aur bole—“achchha, ye baat hai!” aur arjun ko baDe prem se vida kiya. is prakar shrikrishn arjun ke sarthi bane aur paarth sarthi ki padvi praapt ki.",
"madr desh ke raja shalya, nakul sahdev ki maan madri ke bhai the. jab unhen ye khabar mili ki panDav upaplavya ke nagar mein yuddh ki taiyariyan kar rahe hain, to unhonne ek bhari sena ikatthi ki aur use lekar panDvon ki sahayata ke liye upaplavya ki or ravana ho ge.",
"raja shalya ki sena bahut baDi thi. upaplavya ki or jate hue raste mein jahan kahin bhi shalya vishram karne ke liye Dera Dalte the, to unki sena ka paDav koi DeDh yojan tak lamba phail jata tha.",
"jab duryodhan ne suna ki raja shalya vishal sena lekar panDvon ki sahayata ke liye ja rahe hain, to usne kisi prakar is sena ko apni or kar lene ka nishchay kar liya. apne kushal karmchariyon ko usne aagya di ki raste mein jahan kahin bhi raja shalya aur unki sena Dera Dale, use har tarah ki suvidha pahunchai jaye. shalya par duryodhan ke aadar satkar ka kuch aisa asar hua ki unhonne putron ke saman pyaar karne yogya bhanjon (panDvon) ko chhoD diya aur duryodhan ke paksh mein rahkar yuddh karne ka vachan de diya. upaplavya mein raja shalya ka khoob svagat kiya gaya. mama ko aaya dekhkar nakul aur sahdev ke anand ki to sima hi na rahi. jab bhavi yuddh ki charcha chhiDi, to shalya ne yudhishthir ko bataya ki kis prakar duryodhan ne dhokha dekar unko apne paksh mein kar liya hai.",
"yudhishthir bola—“mama jee! mauka aane par nishchay hi mahabali karn aapko apna sarthi banakar arjun ka vadh karne ka prayatn karega. main ye janna chahta hoon ki us samay aap arjun ki mrityu ka karan banenge ya arjun ki raksha ka prayatn karenge? main ye puchhkar aapko asmanjas mein nahin Dalna chahta tha, par phir bhi puchhne ka man ho gaya. ”",
"madrraj ne kaha—“beta yudhishthir, main dhokhe mein aakar duryodhan ko vachan de baitha. isliye yuddh to mujhe uski or se hi karna hoga. par ek baat bataye deta hoon ki karn mujhe sarthi banayega, to arjun ke pranon ki raksha hi hogi. ”",
"upaplavya mein maharaj yudhishthir aur draupadi. ko madrraj shalya ne dilasa diya aur kaha—“jit unhin ki hoti hai, jo dhiraj se kaam lete hain. yudhishthir! karn aur duryodhan ki buddhi phir gai hai. apni dushtata ke phalasvarup nishchay hi unka sarvanash hokar rahega. ”",
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बाल महाभारत : द्वेष करनेवाले का जी नहीं भरता - कथा | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kathaen/class-7-ncert-7/baal-mahabharat-dvesh-karne-vale-ka-ji-nahin-bharta-chakraborty-rajagopalacharya-kathaen?sort= | [
"प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।",
"पांडवों के वनवास के दिनों में कई ब्राह्मण उनके आश्रम गए थे। वहाँ से लौटकर वे हस्तिनापुर पहुँचे और धृतराष्ट्र को पांडवों के हाल-चाल सुनाए। धृतराष्ट्र ने जब यह सुना कि पांडव वन में बड़ी तकलीफ़ें उठा रहे हैं, तो उनके मन में चिंता होने लगी। लेकिन दुर्योधन और शकुनि कुछ और ही सोचते थे।",
"कर्ण और शकुनि दुर्योधन की चापलूसी किया करते थे, किंतु दुर्योधन को भला इतने से संतोष कहाँ होता! वह कर्ण से कहता—“कर्ण, मैं तो चाहता हूँ कि पांडवों को मुसीबतों में पड़े हुए अपनी आँखों से देखूँ। इसलिए तुम और मामा शकुनि कुछ ऐसा उपाय करो कि वन में जाकर पांडवों को देखने की पिता जी से अनुमति मिल जाए।”",
"कर्ण बोला—“द्वैतवन में कुछ बस्तियाँ हैं, जो हमारे अधीन हैं। हर साल उन बस्तियों में जाकर चौपायों की गणना करना राजकुमारों का ही काम होता है। बहुत समय से यह प्रथा चली आ रही है। इसलिए उस बहाने हम पिता जी की अनुमति आसानी से प्राप्त कर सकते हैं।”",
"कर्ण अपनी बात पूरी तरह से कह भी न पाया था कि दुर्योधन और शकुनि मारे ख़ुशी के उछल पड़े। राजकुमारों ने भी धृतराष्ट्र से आग्रहपूर्वक प्रार्थना की कि वह इसकी अनुमति दे दें। किंतु धृतराष्ट्र न माने।",
"दुर्योधन ने विश्वास दिलाया कि पांडव जहाँ होंगे, वहाँ वे सब नहीं जाएँगे और बड़ी सावधानी से काम लेंगे। विवश होकर धृतराष्ट्र ने अनुमति दे दी। एक बड़ी सेना को साथ लेकर कौरव द्वैतवन के लिए रवाना हुए। दुर्योधन और कर्ण फूले नहीं समाते थे। उन्होंने पहुँचने पर अपने डेरे ऐसे स्थान पर लगाए, जहाँ से पांडवों का आश्रम चार कोस की दूरी पर ही था।",
"गंधर्वराज चित्रसेन भी अपने परिवार के साथ उसी जलाशय के तट पर डेरा डाले हुए था। दुर्योधन के अनुचर जलाशय के पास गए और किनारे पर तंबू गाड़ने लगे। इस पर गंधर्वराज के नौकर बहुत बिगड़े और दुर्योधन के अनुचरों की उन्होंने ख़ूब ख़बर ली। वे कुछ न कर सके और अपने प्राण लेकर भाग खड़े हुए। दुर्योधन को जब इस बात का पता चला, तो उसके क्रोध की सीमा न रही। वह अपनी सेना लेकर तालाब की ओर बढ़ा। वहाँ पहुँचना था कि गंधर्वों और कौरवों की सेनाएँ आपस में भिड़ गईं। घोर संग्राम छिड़ गया। यहाँ तक कि कर्ण जैसे महारथियों के भी रथ और अस्त्र चूर-चूर हो गए और वे उलटे पाँव भाग खड़े हुए। अकेला दुर्योधन लड़ाई के मैदान में अंत तक डटा रहा। गंधर्वराज चित्रसेन ने उसे पकड़ लिया। फिर रस्सी से बाँधकर उसको अपने रथ पर बैठा लिया और शंख बजाकर विजय घोष किया। जब युधिष्ठिर ने सुना कि दुर्योधन व उसके साथी अपमानित हुए हैं, तो उसने गंभीर स्वर में कहा—“भाई भीमसेन! ये हमारे ही कुटुंबी हैं। तुम अभी जाओ और किसी तरह अपने बंधुओं को गंधर्वो के बंधन से छुड़ा लाओ।”",
"युधिष्ठिर के आग्रह पर भीम और अर्जुन ने कौरवों की बिखरी हुई सेना को इकट्ठा किया और वे गंधर्वों पर टूट पड़े। अंतत: गंधर्वराज ने कौरवों को बंधनमुक्त कर दिया। इस प्रकार अपमानित कौरव हस्तिनापुर लौट गए।",
"पांडवों के वनवास के समय दुर्योधन की तो इच्छा राजसूय यज्ञ करने की थी, किंतु पंडितों ने कहा कि धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर के रहते उसे राजसूय यज्ञ करने का अधिकार नहीं है। तब ब्राह्मणों की सलाह मानकर दुर्योधन ने वैष्णव नामक यज्ञ करके ही संतोष कर लिया।",
"इसी समय की बात है कि महर्षि दुर्वासा अपने दस हज़ार शिष्यों को साथ लेकर दुर्योधन के राजभवन में पधारे। दुर्योधन के सत्कार से ऋषि बहुत प्रसन्न हुए और कहा—“वत्स, कोई वर चाहो, तो माँग लो।”",
"दुर्योधन बोला—“मुनिवर! प्रार्थना यही है कि जैसे आपने शिष्यों-समेत अतिथि बनकर मुझे अनुगृहीत किया है, वैसे ही वन में मेरे भाई पांडवों के यहाँ जाकर उनका भी सत्कार स्वीकार करें और फिर एक छोटी सी बात मेरे लिए करने की कृपा करें। वह यह कि आप अपने शिष्यों समेत ठीक ऐसे समय युधिष्ठिर के आश्रम में जाएँ, जब द्रौपदी पांडवों एवं उनके परिवार को भोजन करा चुकी हों और जब सभी लोग आराम से बैठे विश्राम कर रहे हों।” उन्होंने दुर्योधन की प्रार्थना तुरंत मान ली। दुर्वासा ऋषि अपने शिष्यों के साथ युधिष्ठिर के आश्रम में जा पहुँचे। युधिष्ठिर ने भाइयों समेत ऋषि की बड़ी आवभगत की और उनका सत्कार किया। कुछ देर बाद मुनि ने कहा—“अच्छा! हम सब अभी स्नान करके आते हैं। तब तक भोजन तैयार करके रखना।” कहकर दुर्वासा शिष्यों समेत नदी पर स्नान करने चले गए।",
"वनवास के प्रारंभ में युधिष्ठिर से प्रसन्न होकर सूर्य ने उन्हें एक अक्षयपात्र प्रदान किया था और कहा था कि बारह बरस तक इसके द्वारा मैं तुम्हें भोजन दिया करूँगा। इसकी विशेषता यह है कि द्रौपदी हर रोज़ चाहे जितने लोगों को इस पात्र में से भोजन खिला सकेगी; परंतु सबके भोजन कर लेने पर जब द्रौपदी स्वयं भी भोजन कर चुकेगी, तब इस बर्तन की यह शक्ति अगले दिन तक के लिए लुप्त हो जाएगी।",
"जिस समय दुर्वासा ऋषि आए, उस समय सभी को खिला-पिलाकर द्रौपदी भी भोजन कर चुकी थी। इसीलिए सूर्य का अक्षयपात्र उस दिन के लिए ख़ाली हो चुका था।",
"द्रौपदी बड़ी चिंतित हो उठी और कोई सहारा न पाकर उसने परमात्मा की शरण ली। इतने में श्रीकृष्ण कहीं से आ गए और सीधे आश्रम के रसोईघर में जाकर द्रौपदी के सामने खड़े हो गए। बोले—“बहन कृष्णा, बड़ी भूख लगी है। कुछ खाने को दो।”",
"द्रौपदी और भी दुविधा में पड़ गई।",
"कृष्ण बोले—“ज़रा लाओ तो अपना अक्षयपात्र। देखें कि उसमें कुछ है भी या नहीं।”",
"द्रौपदी हड़बड़ाकर बरतन ले आई। उसके एक छोर पर अन्न का एक कण और साग की पत्ती लगी हुई थी। श्रीकृष्ण ने उसे लेकर मुँह में डालते हुए मन में कहा—यह भोजन हो, इससे उनकी भूख मिट जाए।",
"द्रौपदी तो यह देखकर सोचने लगी—“कैसी हूँ मैं कि मैंने ठीक से बर्तन भी नहीं धोया! इसलिए उसमें लगा हुआ अन्न-कण और साग वासुदेव को खाना पड़ा। धिक्कार है मुझे!” इस तरह द्रौपदी अपने-आपको ही धिक्कार रही थी कि इतने में श्रीकृष्ण ने बाहर जाकर भीमसेन को कहा—“भीम, जल्दी जाकर ऋषि दुर्वासा को शिष्यों समेत भोजन के लिए बुला लाओ।”",
"भीमसेन उस स्थान पर गया, जहाँ दुर्वासा ऋषि शिष्यों-समेत स्नान कर रहे थे। नज़दीक जाकर भीमसेन देखता क्या है कि दुर्वासा ऋषि का सारा शिष्य-समुदाय स्नान करके भोजन भी कर चुका है।",
"शिष्य दुर्वासा से कह रहे थे—“गुरुदेव! युधिष्ठिर से हम व्यर्थ में कह आए की भोजन तैयार करके रखें। हमारा तो पेट भरा हुआ है। हमसे उठा भी नहीं जाता। इस समय तो हमारी ज़रा भी खाने की इच्छा नहीं है।”",
"यह सुनकर दुर्वासा ने भीमसेन से कहा—“हम सब तो भोजन कर चुके हैं। युधिष्ठिर से जाकर कहना कि असुविधा के लिए हमें क्षमा करें।” यह कहकर ऋषि अपने शिष्यों सहित वहाँ से रवाना हो गए।",
"panDvon ke vanvas ke dinon mein kai brahman unke ashram ge the. vahan se lautkar ve hastinapur pahunche aur dhritarashtr ko panDvon ke haal chaal sunaye. dhritarashtr ne jab ye suna ki panDav van mein baDi taklifen utha rahe hain, to unke man mein chinta hone lagi. lekin duryodhan aur shakuni kuch aur hi sochte the.",
"karn aur shakuni duryodhan ki chaplusi kiya karte the, kintu duryodhan ko bhala itne se santosh kahan hota! wo karn se kahta—“karn, main to chahta hoon ki panDvon ko musibton mein paDe hue apni ankhon se dekhun. isliye tum aur mama shakuni kuch aisa upaay karo ki van mein jakar panDvon ko dekhne ki pita ji se anumti mil jaye. ”",
"karn bola—“dvaitavan mein kuch bastiyan hain, jo hamare adhin hain. har saal un bastiyon mein jakar chaupayon ki ganna karna rajakumaron ka hi kaam hota hai. bahut samay se ye pratha chali aa rahi hai. isliye us bahane hum pita ji ki anumti asani se praapt kar sakte hain. ”",
"karn apni baat puri tarah se kah bhi na paya tha ki duryodhan aur shakuni mare khushi ke uchhal paDe. rajakumaron ne bhi dhritarashtr se agrahpurvak pararthna ki ki wo iski anumti de den. kintu dhritarashtr na mane.",
"duryodhan ne vishvas dilaya ki panDav jahan honge, vahan ve sab nahin jayenge aur baDi savadhani se kaam lenge. vivash hokar dhritarashtr ne anumti de di. ek baDi sena ko saath lekar kaurav dvaitavan ke liye ravana hue. duryodhan aur karn phule nahin samate the. unhonne pahunchne par apne Dere aise sthaan par lagaye, jahan se panDvon ka ashram chaar kos ki duri par hi tha.",
"gandharvraj chitrsen bhi apne parivar ke saath usi jalashay ke tat par Dera Dale hue tha. duryodhan ke anuchar jalashay ke paas ge aur kinare par tambu gaDne lage. is par gandharvraj ke naukar bahut bigDe aur duryodhan ke anuchron ki unhonne khoob khabar li. ve kuch na kar sake aur apne praan lekar bhaag khaDe hue. duryodhan ko jab is baat ka pata chala, to uske krodh ki sima na rahi. wo apni sena lekar talab ki or baDha. vahan pahunchna tha ki gandharvon aur kaurvon ki senayen aapas mein bhiD gain. ghor sangram chhiD gaya. yahan tak ki karn jaise maharathiyon ke bhi rath aur astra choor choor ho ge aur ve ulte paanv bhaag khaDe hue. akela duryodhan laDai ke maidan mein ant tak Data raha. gandharvraj chitrsen ne use pakaD liya. phir rassi se bandhakar usko apne rath par baitha liya aur shankh bajakar vijay ghosh kiya. jab yudhishthir ne suna ki duryodhan va uske sathi apmanit hue hain, to usne gambhir svar mein kaha—“bhai bhimasen! ye hamare hi kutumbi hain. tum abhi jao aur kisi tarah apne bandhuon ko gandharvo ke bandhan se chhuDa lao. ”",
"yudhishthir ke agrah par bheem aur arjun ne kaurvon ki bikhri hui sena ko ikattha kiya aur ve gandharvon par toot paDe. anttah gandharvraj ne kaurvon ko bandhanmukt kar diya. is prakar apmanit kaurav hastinapur laut ge.",
"panDvon ke vanvas ke samay duryodhan ki to ichchha rajasuy yagya karne ki thi, kintu panDiton ne kaha ki dhritarashtr aur yudhishthir ke rahte use rajasuy yagya karne ka adhikar nahin hai. tab brahmnon ki salah mankar duryodhan ne vaishnav namak yagya karke hi santosh kar liya.",
"isi samay ki baat hai ki maharshi durvasa apne das hazar shishyon ko saath lekar duryodhan ke rajabhvan mein padhare. duryodhan ke satkar se rishi bahut prasann hue aur kaha—“vats, koi var chaho, to maang lo. ”",
"duryodhan bola—“munivar! pararthna yahi hai ki jaise aapne shishyon samet atithi bankar mujhe anugrihit kiya hai, vaise hi van mein mere bhai panDvon ke yahan jakar unka bhi satkar svikar karen aur phir ek chhoti si baat mere liye karne ki kripa karen. wo ye ki aap apne shishyon samet theek aise samay yudhishthir ke ashram mein jayen, jab draupadi panDvon evan unke parivar ko bhojan kara chuki hon aur jab sabhi log aram se baithe vishram kar rahe hon. ” unhonne duryodhan ki pararthna turant maan li. durvasa rishi apne shishyon ke saath yudhishthir ke ashram mein ja pahunche. yudhishthir ne bhaiyon samet rishi ki baDi avabhgat ki aur unka satkar kiya. kuch der baad muni ne kaha—“achchha! hum sab abhi snaan karke aate hain. tab tak bhojan taiyar karke rakhna. ” kahkar durvasa shishyon samet nadi par snaan karne chale ge.",
"vanvas ke prarambh mein yudhishthir se prasann hokar surya ne unhen ek akshayapatr pradan kiya tha aur kaha tha ki barah baras tak iske dvara main tumhein bhojan diya karunga. iski visheshata ye hai ki draupadi har roz chahe jitne logon ko is paatr mein se bhojan khila sakegi; parantu sabke bhojan kar lene par jab draupadi svayan bhi bhojan kar chukegi, tab is bartan ki ye shakti agle din tak ke liye lupt ho jayegi.",
"jis samay durvasa rishi aaye, us samay sabhi ko khila pilakar draupadi bhi bhojan kar chuki thi. isiliye surya ka akshayapatr us din ke liye khali ho chuka tha.",
"draupadi baDi chintit ho uthi aur koi sahara na pakar usne parmatma ki sharan li. itne mein shrikrishn kahin se aa ge aur sidhe ashram ke rasoighar mein jakar draupadi ke samne khaDe ho ge. bole—“bahan krishna, baDi bhookh lagi hai. kuch khane ko do. ”",
"draupadi aur bhi duvidha mein paD gai.",
"krishn bole—“zara lao to apna akshayapatr. dekhen ki usmen kuch hai bhi ya nahin. ”",
"draupadi haDabDakar bartan le aai. uske ek chhor par ann ka ek kan aur saag ki patti lagi hui thi. shrikrishn ne use lekar munh mein Dalte hue man mein kaha ye bhojan ho, isse unki bhookh mit jaye.",
"draupadi to ye dekhkar sochne lagi—“kaisi hoon main ki mainne theek se bartan bhi nahin dhoya! isliye usmen laga hua ann kan aur saag vasudev ko khana paDa. dhikkar hai mujhe!” is tarah draupadi apne aapko hi dhikkar rahi thi ki itne mein shrikrishn ne bahar jakar bhimsena ko kaha—“bhim, jaldi jakar rishi durvasa ko shishyon samet bhojan ke liye bula lao. ”",
"bhimasen us sthaan par gaya, jahan durvasa rishi shishyon samet snaan kar rahe the. nazdik jakar bhimasen dekhta kya hai ki durvasa rishi ka sara shishya samuday snaan karke bhojan bhi kar chuka hai.",
"shishya durvasa se kah rahe the—“gurudev! yudhishthir se hum vyarth mein kah aaye ki bhojan taiyar karke rakhen. hamara to pet bhara hua hai. hamse utha bhi nahin jata. is samay to hamari zara bhi khane ki ichchha nahin hai. ”",
"ye sunkar durvasa ne bhimasen se kaha—“ham sab to bhojan kar chuke hain. yudhishthir se jakar kahna ki asuvidha ke liye hamein kshama karen. ” ye kahkar rishi apne shishyon sahit vahan se ravana ho ge.",
"panDvon ke vanvas ke dinon mein kai brahman unke ashram ge the. vahan se lautkar ve hastinapur pahunche aur dhritarashtr ko panDvon ke haal chaal sunaye. dhritarashtr ne jab ye suna ki panDav van mein baDi taklifen utha rahe hain, to unke man mein chinta hone lagi. lekin duryodhan aur shakuni kuch aur hi sochte the.",
"karn aur shakuni duryodhan ki chaplusi kiya karte the, kintu duryodhan ko bhala itne se santosh kahan hota! wo karn se kahta—“karn, main to chahta hoon ki panDvon ko musibton mein paDe hue apni ankhon se dekhun. isliye tum aur mama shakuni kuch aisa upaay karo ki van mein jakar panDvon ko dekhne ki pita ji se anumti mil jaye. ”",
"karn bola—“dvaitavan mein kuch bastiyan hain, jo hamare adhin hain. har saal un bastiyon mein jakar chaupayon ki ganna karna rajakumaron ka hi kaam hota hai. bahut samay se ye pratha chali aa rahi hai. isliye us bahane hum pita ji ki anumti asani se praapt kar sakte hain. ”",
"karn apni baat puri tarah se kah bhi na paya tha ki duryodhan aur shakuni mare khushi ke uchhal paDe. rajakumaron ne bhi dhritarashtr se agrahpurvak pararthna ki ki wo iski anumti de den. kintu dhritarashtr na mane.",
"duryodhan ne vishvas dilaya ki panDav jahan honge, vahan ve sab nahin jayenge aur baDi savadhani se kaam lenge. vivash hokar dhritarashtr ne anumti de di. ek baDi sena ko saath lekar kaurav dvaitavan ke liye ravana hue. duryodhan aur karn phule nahin samate the. unhonne pahunchne par apne Dere aise sthaan par lagaye, jahan se panDvon ka ashram chaar kos ki duri par hi tha.",
"gandharvraj chitrsen bhi apne parivar ke saath usi jalashay ke tat par Dera Dale hue tha. duryodhan ke anuchar jalashay ke paas ge aur kinare par tambu gaDne lage. is par gandharvraj ke naukar bahut bigDe aur duryodhan ke anuchron ki unhonne khoob khabar li. ve kuch na kar sake aur apne praan lekar bhaag khaDe hue. duryodhan ko jab is baat ka pata chala, to uske krodh ki sima na rahi. wo apni sena lekar talab ki or baDha. vahan pahunchna tha ki gandharvon aur kaurvon ki senayen aapas mein bhiD gain. ghor sangram chhiD gaya. yahan tak ki karn jaise maharathiyon ke bhi rath aur astra choor choor ho ge aur ve ulte paanv bhaag khaDe hue. akela duryodhan laDai ke maidan mein ant tak Data raha. gandharvraj chitrsen ne use pakaD liya. phir rassi se bandhakar usko apne rath par baitha liya aur shankh bajakar vijay ghosh kiya. jab yudhishthir ne suna ki duryodhan va uske sathi apmanit hue hain, to usne gambhir svar mein kaha—“bhai bhimasen! ye hamare hi kutumbi hain. tum abhi jao aur kisi tarah apne bandhuon ko gandharvo ke bandhan se chhuDa lao. ”",
"yudhishthir ke agrah par bheem aur arjun ne kaurvon ki bikhri hui sena ko ikattha kiya aur ve gandharvon par toot paDe. anttah gandharvraj ne kaurvon ko bandhanmukt kar diya. is prakar apmanit kaurav hastinapur laut ge.",
"panDvon ke vanvas ke samay duryodhan ki to ichchha rajasuy yagya karne ki thi, kintu panDiton ne kaha ki dhritarashtr aur yudhishthir ke rahte use rajasuy yagya karne ka adhikar nahin hai. tab brahmnon ki salah mankar duryodhan ne vaishnav namak yagya karke hi santosh kar liya.",
"isi samay ki baat hai ki maharshi durvasa apne das hazar shishyon ko saath lekar duryodhan ke rajabhvan mein padhare. duryodhan ke satkar se rishi bahut prasann hue aur kaha—“vats, koi var chaho, to maang lo. ”",
"duryodhan bola—“munivar! pararthna yahi hai ki jaise aapne shishyon samet atithi bankar mujhe anugrihit kiya hai, vaise hi van mein mere bhai panDvon ke yahan jakar unka bhi satkar svikar karen aur phir ek chhoti si baat mere liye karne ki kripa karen. wo ye ki aap apne shishyon samet theek aise samay yudhishthir ke ashram mein jayen, jab draupadi panDvon evan unke parivar ko bhojan kara chuki hon aur jab sabhi log aram se baithe vishram kar rahe hon. ” unhonne duryodhan ki pararthna turant maan li. durvasa rishi apne shishyon ke saath yudhishthir ke ashram mein ja pahunche. yudhishthir ne bhaiyon samet rishi ki baDi avabhgat ki aur unka satkar kiya. kuch der baad muni ne kaha—“achchha! hum sab abhi snaan karke aate hain. tab tak bhojan taiyar karke rakhna. ” kahkar durvasa shishyon samet nadi par snaan karne chale ge.",
"vanvas ke prarambh mein yudhishthir se prasann hokar surya ne unhen ek akshayapatr pradan kiya tha aur kaha tha ki barah baras tak iske dvara main tumhein bhojan diya karunga. iski visheshata ye hai ki draupadi har roz chahe jitne logon ko is paatr mein se bhojan khila sakegi; parantu sabke bhojan kar lene par jab draupadi svayan bhi bhojan kar chukegi, tab is bartan ki ye shakti agle din tak ke liye lupt ho jayegi.",
"jis samay durvasa rishi aaye, us samay sabhi ko khila pilakar draupadi bhi bhojan kar chuki thi. isiliye surya ka akshayapatr us din ke liye khali ho chuka tha.",
"draupadi baDi chintit ho uthi aur koi sahara na pakar usne parmatma ki sharan li. itne mein shrikrishn kahin se aa ge aur sidhe ashram ke rasoighar mein jakar draupadi ke samne khaDe ho ge. bole—“bahan krishna, baDi bhookh lagi hai. kuch khane ko do. ”",
"draupadi aur bhi duvidha mein paD gai.",
"krishn bole—“zara lao to apna akshayapatr. dekhen ki usmen kuch hai bhi ya nahin. ”",
"draupadi haDabDakar bartan le aai. uske ek chhor par ann ka ek kan aur saag ki patti lagi hui thi. shrikrishn ne use lekar munh mein Dalte hue man mein kaha ye bhojan ho, isse unki bhookh mit jaye.",
"draupadi to ye dekhkar sochne lagi—“kaisi hoon main ki mainne theek se bartan bhi nahin dhoya! isliye usmen laga hua ann kan aur saag vasudev ko khana paDa. dhikkar hai mujhe!” is tarah draupadi apne aapko hi dhikkar rahi thi ki itne mein shrikrishn ne bahar jakar bhimsena ko kaha—“bhim, jaldi jakar rishi durvasa ko shishyon samet bhojan ke liye bula lao. ”",
"bhimasen us sthaan par gaya, jahan durvasa rishi shishyon samet snaan kar rahe the. nazdik jakar bhimasen dekhta kya hai ki durvasa rishi ka sara shishya samuday snaan karke bhojan bhi kar chuka hai.",
"shishya durvasa se kah rahe the—“gurudev! yudhishthir se hum vyarth mein kah aaye ki bhojan taiyar karke rakhen. hamara to pet bhara hua hai. hamse utha bhi nahin jata. is samay to hamari zara bhi khane ki ichchha nahin hai. ”",
"ye sunkar durvasa ne bhimasen se kaha—“ham sab to bhojan kar chuke hain. yudhishthir se jakar kahna ki asuvidha ke liye hamein kshama karen. ” ye kahkar rishi apne shishyon sahit vahan se ravana ho ge.",
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बाल महाभारत : भीष्म शर-शय्या पर - कथा | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kathaen/class-7-ncert-7/baal-mahabharat-bheeshm-shar-shayya-par-chakraborty-rajagopalacharya-kathaen?sort= | [
"प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।",
"दसवें दिन का युद्ध शुरू हुआ। आज पांडवों ने शिखंडी को आगे किया था। आगे-आगे शिखंडी और उसके पीछे अर्जुन। शिखंडी की आड़ से अर्जुन ने पितामह पर बाण बरसाए। शिखंडी के बाणों ने वृद्ध पितामह का वक्ष-स्थल बींध डाला। भीष्म ने अपने चेहरे पर ज़रा भी शिकन न आने दी और शिखंडी के बाणों का प्रत्युत्तर नहीं दिया। अर्जुन ने जब यह देखा कि पितामह प्रतिरोध नहीं कर रहे हैं, तो ज़रा जी कड़ा करके उसने भीष्म के मर्म-स्थानों को लक्ष्य करके तीखे बाणों से बींधना शुरू कर दिया। भीष्म का सारा शरीर बिंध गया, पर इतने पर भी उनका मुख मलिन न हुआ। भीष्म ने अर्जुन पर शक्ति-अस्त्र चलाया। अर्जुन ने उसे तीन बाणों से काट गिराया। अब भीष्म को यह निश्चय हो गया था कि आज का युद्ध उनका आख़िरी युद्ध होगा। इस कारण वह हाथ में ढाल-तलवार लेकर रथ से उतरने लगे। अर्जुन का बाण बरसाना जारी था। उसके बाणों ने पितामह के शरीर में उँगली रखने की भी जगह न छोड़ी थी। पितामह के सारे शरीर में बाण-ही-बाण घुस गए थे। ऐसी अवस्था में ही भीष्म रथ से सिर के बल ज़मीन पर गिर पड़े। भीष्म गिर तो गए, लेकिन उनका शरीर भूमि से नहीं लगा। सारे शरीर में जो बाण लगे हुए थे वे एक तरफ़ से घुसकर दूसरी तरफ़ निकल आए थे। भीष्म का शरीर ज़मीन पर न गिरकर ऊँ तीरों के सहारे ही ऊपर उठा रहा। पितामह अर्जुन से बोले—“बेटा अर्जुन, मेरे सिर के नीचे कोई सहारा नहीं है। वह लटक रहा है। कोई ठीक-सा सहारा तो लगा दो।”",
"भीष्म ने ये वचन उसी अर्जुन से कहे, जिसने अभी-अभी प्राणहारी बाणों से उनको बींध डाला था। भीष्म का आदेश सुनते ही अर्जुन ने अपने तर्कस से तिन तेज़ बाण निकाले और पितामह का सिर उनकी नोंक पर रखकर उनके लिए उपयुक्त तकिया बना दिया।",
"भीष्म बोले—“हे राजागण! अर्जुन ने मेरे लिए जो सिरहाना बनाया है, उसी से मैं प्रसन्न हुआ हूँ। अभी मेरा शरीर-त्याग करने का उचित समय नहीं हुआ है। अतः सूर्यनारायण के उत्तरायण होने तक मैं यहीं और ऐसा ही पड़ा रहूँगा। आप लोगों में से जो भी उस समय तक जीवित बचें, वे आकर मुझे देख जाएँ।”",
"इसके बाद पितामह ने अर्जुन से कहा—“बेटा! मेरा सारा शरीर जल रहा है और प्यास लग रही है। थोड़ा पानी तो पिलाओ।”",
"अर्जुन ने तुरंत धनुष तानकर भीष्म की दाहिनी बग़ल में पृथ्वी पर बड़े ज़ोर से एक तीर मारा। बाण पृथ्वी में घुसकर सीधा पाताल में जा लगा। उसी क्षण उस स्थल से जल का एक सोता फूट निकला। और पितामह भीष्म ने अमृत के समान मधुर और शीतल जल पीकर अपनी प्यास बुझाई। वह बहुत ही ख़ुश और प्रसन्न दिखाई दिए।",
"जब कर्ण को यह पता चला कि पितामह भीष्म घायल होकर रणक्षेत्र में पड़े हैं, तो वह उनके पास गया। प्रणाम करके जब कर्ण उठा, तो पितामह को उसके मुख पर भय की छाया-सी दिखाई दी। यह देखकर भीष्म का दिल भर आया। शरीर पर लगे हुए बाणों से होने वाले कष्ट को दबाकर बोले—“बेटा, तुम राधा के पुत्र नहीं, कुंती के पुत्र हो। सूर्यपुत्र! मैंने तुमसे कभी द्वेष नहीं किया। अकारण ही तुमने पांडवों से वैर रखा। इसी कारण तुम्हारे प्रति मेरा मन मलिन हुआ तुम्हारी दानवीरता और शूरता से मैं भली-भाँति परिचित हूँ। इसमें कोई संदेह नहीं कि शूरता में तुम कृष्ण और अर्जुन को बराबरी कर सकते हो। तुम पांडवों में ज्येष्ठ हो। इस कारण तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम उनसे मित्रता कर लो मेरी यहीं इच्छा है कि युद्ध में मेरे सेनापतित्व के साथ ही पांडवों के प्रति तुम्हारे वैरभाव का भी आज हो अंत हो जाए।”",
"यह सुनकर कर्ण बड़ी नम्रता के साथ बोला—“पितामह! मैं जानता हूँ कि मैं कुंती का पुत्र हैं, लेकिन यह भी मुझे मालूम है कि मैं सूत-पुत्र नहीं हूँ, लेकिन यह बात मुझसे नहीं हो सकती कि अब मैं दुर्योधन का साथ छोड़ दूँ और उनके शत्रुओं से जा मिलूँ। मेरा कर्तव्य यही है कि मैं दुर्योधन के ही पक्ष में रहकर युद्ध करूँ। आप कृपया मुझे इस बात की अनुमति दें कि मैं दुर्योधन की तरफ से लड़ूँ। मैंने जो कुछ किया या कहा है, उसमें जितने दोष हो, उसके लिए मुझे क्षमा कर दें।”",
"कर्ण का कथन भीष्म बड़े ध्यान से सुनते रहे। उसके बाद बोले—“जो तुम्हारी इच्छा हो, वही करो।”",
"भीष्म पितामह से आशीष पाकर कर्ण बहुत प्रसन्न हुआ और रथ पर चढ़कर युद्धक्षेत्र में जा पहुँचा। कर्ण को देखते ही दुर्योधन आनंद के मारे फूल उठा। भीष्म के बिछोह का जो दुख उसके लिए दु:सह—सा प्रतीत हो रहा था, अब कर्ण के आ जाने पर किसी तरह उसे भूल जाना उसके लिए संभव मालूम होने लगा।",
"दुर्योधन और कर्ण इस बारे में सोच-विचार करने लगे कि अब सेनापति किसे बनाया जाए। रीति से द्रोणाचार्य का सेनापति-पद पर अभिषेक हुआ। द्रोणाचार्य ने पाँच दिन तक कौरवों की सेना का संचालन करते हुए घोर युद्ध किया। यद्यपि अवस्था में वह बूढ़े थे, फिर भी सात्यकि, भीम, अर्जुन, धृष्टद्युम्न, अभिमन्यु, द्रुपद, काशिराज आदि सुविख्यात वीरों के विरुद्ध द्रोणाचार्य अकेले ही भिड़ जाते थे और एक-एक को खदेड़ देते थे। पाँचों दिन तक उनके हाथों पांडवों की सेना बहुत ही सताई गई। आचार्य द्रोण ने पांडव-सेना की नाक में दम कर दिया। द्रोणाचार्य के सेनापतित्व ग्रहण करने के बाद दुर्योधन, कर्ण और दुःशासन—तीनों ने आपस में सलाह करके एक योजना बनाई। उसके अनुसार दुर्योधन आचार्य के पास जाकर बोला—“आचार्य! किसी भी उपाय से आप युधिष्ठिर को जीवित ही पकड़ कर हमारे हवाले कर सकें तो बड़ा ही उत्तम हो!”",
"दुर्योधन का उद्देश्य तो कुछ और ही था। दुर्योधन को यह भी पता चल गया था कि युधिष्ठिर का वध करने से कोई लाभ नहीं हो सकता। इसके विपरीत यदि युधिष्ठिर को जीवित पकड़ लिया जाए, तो युद्ध भी शीघ्र ही बंद हो जाएगा और जीत भी कौरवों की होगी। थोड़ा राज्य युधिष्ठिर को देने का बहाना करना होगा, सो वह कर देंगे और बाद में फिर जुआ खेलकर सहज ही में उसे वापस छीन भी लेंगे। इन्हीं सब विचारों से प्रेरित होकर दुर्योधन ने द्रोणाचार्य से युधिष्ठिर को जीवित पकड़ लाने का अनुरोध किया था। लेकिन द्रोण को जब दुर्योधन के असली उद्देश्य का पता लगा, तो वह बहुत उदास हो गए। इससे उनके मन में दुर्योधन के प्रति तीव्र घृणा उत्पन्न हो गई। मन-ही-मन यह सोचकर उन्होंने संतोष कर लिया कि युधिष्ठिर के प्राण न लेने का कोई-न-कोई बहाना तो मिल ही गया।",
"पांडव तो द्रोणाचार्य की अद्वितीय शूरता एवं शस्त्र विद्या के अनुपम ज्ञान से भली-भाँति परिचित ही थे। अतः जब सुना कि द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर को पकड़ने का निश्चय ही नहीं किया है, बल्कि प्रतिज्ञा भी की है, तो वे भी भयभीत हो गए। सबको यही चिंता रहने लगी कि किसी भी तरह युधिष्ठिर की रक्षा का पूरा-पूरा प्रबंध किया जाए। द्रोण ने अपने सारथी को आज्ञा दी कि रथ को उस ओर ले चलो, जिधर युधिष्ठिर युद्ध कर रहे हों। युधिष्ठिर सँभले, इससे पहले ही द्रोणाचार्य वेग से उनके निकट जा पहुँचे। धृष्टद्युम्न ने हज़ार चेष्टा की, परंतु वह द्रोण को नहीं रोक सका।",
"‘युधिष्ठिर पकड़े गए!’ ‘युधिष्ठिर पकड़े गए!’ की चिल्लाहट से सारा कुरुक्षेत्र गूँज उठा। इतने ही में एकाएक न जाने कहाँ से अर्जुन उधर आ पहुँचा और अर्जुन के गांडीव से बाणों की ऐसी अविरल बौछार छूट रही थी कि कोई देख ही नहीं पाता था कि कब बाण धनुष पर चढ़ते और कब छूटते थे। कुरुक्षेत्र का आकाश बाणों से भर गया। इस कारण सारे मैदान में अंधकार-सा छा गया।",
"अर्जुन के हमले के कारण द्रोणाचार्य को पीछे हटना पड़ा। युधिष्ठिर को जीवित पकड़ने का उनका प्रयत्न विफल हो गया और संध्या होते-होते उस दिन का युद्ध भी बंद हो गया। कौरव-सेना में भय छा गया। पांडव-सेना के वीर शान से अपने-अपने शिविर को लौट चले।",
"सैन्य-समूह के पीछे-पीछे चलते हुए कृष्ण और अर्जुन अपने शिविर में जा पहुँचे। इस प्रकार ग्यारहवें दिन का युद्ध समाप्त हुआ।",
"dasven din ka yuddh shuru hua. aaj panDvon ne shikhanDi ko aage kiya tha. aage aage shikhanDi aur uske pichhe arjun. shikhanDi ki aaD se arjun ne pitamah par baan barsaye. shikhanDi ke banon ne vriddh pitamah ka vaksh sthal beendh Dala. bheeshm ne apne chehre par zara bhi shikan na aane di aur shikhanDi ke banon ka pratyuttar nahin diya. arjun ne jab ye dekha ki pitamah pratirodh nahin kar rahe hain, to zara ji kaDa karke usne bheeshm ke marm sthanon ko lakshya karke tikhe banon se bindhna shuru kar diya. bheeshm ka sara sharir bindh gaya, par itne par bhi unka mukh malin na hua. bheeshm ne arjun par shakti astra chalaya. arjun ne use teen banon se kaat giraya. ab bheeshm ko ye nishchay ho gaya tha ki aaj ka yuddh unka akhiri yuddh hoga. is karan wo haath mein Dhaal talvar lekar rath se utarne lage. arjun ka baan barsana jari tha. uske banon ne pitamah ke sharir mein ungli rakhne ki bhi jagah na chhoDi thi. pitamah ke sare sharir mein baan hi baan ghus ge the. aisi avastha mein hi bheeshm rath se sir ke bal zamin par gir paDe. bheeshm gir to ge, lekin unka sharir bhumi se nahin laga. sare sharir mein jo baan lage hue the ve ek taraf se ghuskar dusri taraf nikal aaye the. bheeshm ka sharir zamin par na girkar uun tiron ke sahare hi uupar utha raha. pitamah arjun se bole—“beta arjun, mere sir ke niche koi sahara nahin hai. wo latak raha hai. koi theek sa sahara to laga do. ”",
"bheeshm ne ye vachan usi arjun se kahe, jisne abhi abhi pranhari banon se unko beendh Dala tha. bheeshm ka adesh sunte hi arjun ne apne tarkas se tin tez baan nikale aur pitamah ka sir unki nonk par rakhkar unke liye upyukt takiya bana diya.",
"bheeshm bole—“he rajagan! arjun ne mere liye jo sirhana banaya hai, usi se main prasann hua hoon. abhi mera sharir tyaag karne ka uchit samay nahin hua hai. atः surynarayan ke uttrayan hone tak main yahin aur aisa hi paDa rahunga. aap logon mein se jo bhi us samay tak jivit bachen, ve aakar mujhe dekh jayen. ”",
"iske baad pitamah ne arjun se kaha—“beta! mera sara sharir jal raha hai aur pyaas lag rahi hai. thoDa pani to pilao. ”",
"arjun ne turant dhanush tankar bheeshm ki dahini baghal mein prithvi par baDe zor se ek teer mara. baan prithvi mein ghuskar sidha patal mein ja laga. usi kshan us sthal se jal ka ek sota phoot nikla. aur pitamah bheeshm ne amrit ke saman madhur aur shital jal pikar apni pyaas bujhai. wo bahut hi khush aur prasann dikhai diye.",
"jab karn ko ye pata chala ki pitamah bheeshm ghayal hokar ranakshetr mein paDe hain, to wo unke paas gaya. prnaam karke jab karn utha, to pitamah ko uske mukh par bhay ki chhaya si dikhai di. ye dekhkar bheeshm ka dil bhar aaya. sharir par lage hue banon se honevale kasht ko dabakar bole—“beta, tum radha ke putr nahin, kunti ke putr ho. suryputr! mainne tumse kabhi dvesh nahin kiya. akaran hi tumne panDvon se vair rakha. isi karan tumhare prati mera man malin hua tumhari danvirta aur shurata se main bhali bhanti parichit hoon. ismen koi sandeh nahin ki shurata mein tum krishn aur arjun ko barabari kar sakte ho. tum panDvon mein jyeshth ho. is karan tumhara kartavya hai ki tum unse mitrata kar lo meri yahin ichchha hai ki yuddh mein mere senaptitv ke saath hi panDvon ke prati tumhare vairbhav ka bhi aaj ho ant ho jaye. ”",
"ye sunkar karn baDi namrata ke saath bola—“pitamah! main janta hoon ki main kunti ka putr hain, lekin ye bhi mujhe malum hai ki main soot putr nahin hoon, lekin ye baat mujhse nahin ho sakti ki ab main duryodhan ka saath chhoD doon aur unke shatruon se ja milun. mera kartavya yahi hai ki main duryodhan ke hi paksh mein rahkar yuddh karun. aap kripaya mujhe is baat ki anumti den ki main duryodhan ki taraph se lahun. mainne jo kuch kiya ya kaha hai, usmen jitne dosh ho, uske liye mujhe kshama kar den. ”",
"karn ka kathan bheeshm baDe dhyaan se sunte rahe. uske baad bole—“jo tumhari ichchha ho, vahi karo. ”",
"bheeshm pitamah se ashish pakar karn bahut prasann hua aur rath par chaDhkar yuddhakshetr mein ja pahuncha. karn ko dekhte hi duryodhan anand ke mare phool utha. bheeshm ke vichhoh ka jo dukh uske liye duhsah—sa pratit ho raha tha, ab karn ke aa jane par kisi tarah use bhool jana uske liye sambhav malum hone laga.",
"duryodhan aur karn is bare mein soch vichar karne lage ki ab senapati kise banaya jaye. riti se dronacharya ka senapati pad par abhishek hua. dronacharya ne paanch din tak kaurvon ki sena ka sanchalan karte hue ghor yuddh kiya. yadyapi avastha mein wo buDhe the, phir bhi satyaki, bheem, arjun, dhrishtadyumn, abhimanyu, drupad, kashiraj aadi suvikhyat viron ke viruddh dronacharya akele hi bhiD jate the aur ek ek ko khadeD dete the. panchon din tak unke hathon panDvon ki sena bahut hi satai gai. acharya dron ne panDav sena ki naak mein dam kar diya. dronacharya ke senaptitv grhan karne ke baad duryodhan, karn aur duःshasan—tinon ne aapas mein salah karke ek yojna banai. uske anusar duryodhan acharya ke paas jakar bola—“acharya! kisi bhi upaay se aap yudhishthir ko jivit hi pakaD kar hamare havale kar saken to baDa hi uttam ho!”",
"duryodhan ka uddeshya to kuch aur hi tha. duryodhan ko ye bhi pata chal gaya tha ki yudhishthir ka vadh karne se koi laabh nahin ho sakta. iske viprit yadi yudhishthir ko jivit pakaD liya jaye, to yuddh bhi sheeghr hi band ho jayega aur jeet bhi kaurvon ki hogi. thoDa rajya yudhishthir ko dene ka bahana karna hoga, so wo kar denge aur baad mein phir jua khelkar sahj hi mein use vapas chheen bhi lenge. inhin sab vicharon se prerit hokar duryodhan ne dronacharya se yudhishthir ko jivit pakaD lane ka anurodh kiya tha. lekin dron ko jab duryodhan ke asli uddeshya ka pata laga, to wo bahut udaas ho ge. isse unke man mein duryodhan ke prati teevr ghrina utpann ho gai. man hi man ye sochkar unhonne santosh kar liya ki yudhishthir ke praan na lene ka koi na koi bahana to mil hi gaya.",
"panDav to dronacharya ki advitiy shurata evan shastr vidya ke anupam gyaan se bhali bhanti parichit hi the. atः jab suna ki dronacharya ne yudhishthir ko pakaDne ka nishchay hi nahin kiya hai, balki prtigya bhi ki hai, to ve bhi bhaybhit ho ge. sabko yahi chinta rahne lagi ki kisi bhi tarah yudhishthir ki raksha ka pura pura prbandh kiya jaye. dron ne apne sarthi ko aagya di ki rath ko us or le chalo, jidhar yudhishthir yuddh kar rahe hon. yudhishthir sanbhale, isse pahle hi dronacharya veg se unke nikat ja pahunche. dhrishtadyumn ne hazar cheshta ki, parantu wo dron ko nahin rok saka.",
"‘yudhishthir pakDe ge!’ ‘yudhishthir pakDe ge!’ ki chillahat se sara kurukshetr goonj utha. itne hi mein ekayek na jane kahan se arjun udhar aa pahuncha aur arjun ke ganDiv se banon ki aisi aviral bauchhar chhoot rahi thi ki koi dekh hi nahin pata tha ki kab baan dhanush par chaDhte aur kab chhutte the. kurukshetr ka akash banon se bhar gaya. is karan sare maidan mein andhkar sa chha gaya.",
"arjun ke hamle ke karan dronacharya ko pichhe hatna paDa. yudhishthir ko jivit pakaDne ka unka prayatn viphal ho gaya aur sandhya hote hote us din ka yuddh bhi band ho gaya. kaurav sena mein bhay chha gaya. panDav sena ke veer shaan se apne apne shivir ko laut chale.",
"sainya samuh ke pichhe pichhe chalte hue krishn aur arjun apne shivir mein ja pahunche. is prakar gyarahven din ka yuddh samapt hua.",
"dasven din ka yuddh shuru hua. aaj panDvon ne shikhanDi ko aage kiya tha. aage aage shikhanDi aur uske pichhe arjun. shikhanDi ki aaD se arjun ne pitamah par baan barsaye. shikhanDi ke banon ne vriddh pitamah ka vaksh sthal beendh Dala. bheeshm ne apne chehre par zara bhi shikan na aane di aur shikhanDi ke banon ka pratyuttar nahin diya. arjun ne jab ye dekha ki pitamah pratirodh nahin kar rahe hain, to zara ji kaDa karke usne bheeshm ke marm sthanon ko lakshya karke tikhe banon se bindhna shuru kar diya. bheeshm ka sara sharir bindh gaya, par itne par bhi unka mukh malin na hua. bheeshm ne arjun par shakti astra chalaya. arjun ne use teen banon se kaat giraya. ab bheeshm ko ye nishchay ho gaya tha ki aaj ka yuddh unka akhiri yuddh hoga. is karan wo haath mein Dhaal talvar lekar rath se utarne lage. arjun ka baan barsana jari tha. uske banon ne pitamah ke sharir mein ungli rakhne ki bhi jagah na chhoDi thi. pitamah ke sare sharir mein baan hi baan ghus ge the. aisi avastha mein hi bheeshm rath se sir ke bal zamin par gir paDe. bheeshm gir to ge, lekin unka sharir bhumi se nahin laga. sare sharir mein jo baan lage hue the ve ek taraf se ghuskar dusri taraf nikal aaye the. bheeshm ka sharir zamin par na girkar uun tiron ke sahare hi uupar utha raha. pitamah arjun se bole—“beta arjun, mere sir ke niche koi sahara nahin hai. wo latak raha hai. koi theek sa sahara to laga do. ”",
"bheeshm ne ye vachan usi arjun se kahe, jisne abhi abhi pranhari banon se unko beendh Dala tha. bheeshm ka adesh sunte hi arjun ne apne tarkas se tin tez baan nikale aur pitamah ka sir unki nonk par rakhkar unke liye upyukt takiya bana diya.",
"bheeshm bole—“he rajagan! arjun ne mere liye jo sirhana banaya hai, usi se main prasann hua hoon. abhi mera sharir tyaag karne ka uchit samay nahin hua hai. atः surynarayan ke uttrayan hone tak main yahin aur aisa hi paDa rahunga. aap logon mein se jo bhi us samay tak jivit bachen, ve aakar mujhe dekh jayen. ”",
"iske baad pitamah ne arjun se kaha—“beta! mera sara sharir jal raha hai aur pyaas lag rahi hai. thoDa pani to pilao. ”",
"arjun ne turant dhanush tankar bheeshm ki dahini baghal mein prithvi par baDe zor se ek teer mara. baan prithvi mein ghuskar sidha patal mein ja laga. usi kshan us sthal se jal ka ek sota phoot nikla. aur pitamah bheeshm ne amrit ke saman madhur aur shital jal pikar apni pyaas bujhai. wo bahut hi khush aur prasann dikhai diye.",
"jab karn ko ye pata chala ki pitamah bheeshm ghayal hokar ranakshetr mein paDe hain, to wo unke paas gaya. prnaam karke jab karn utha, to pitamah ko uske mukh par bhay ki chhaya si dikhai di. ye dekhkar bheeshm ka dil bhar aaya. sharir par lage hue banon se honevale kasht ko dabakar bole—“beta, tum radha ke putr nahin, kunti ke putr ho. suryputr! mainne tumse kabhi dvesh nahin kiya. akaran hi tumne panDvon se vair rakha. isi karan tumhare prati mera man malin hua tumhari danvirta aur shurata se main bhali bhanti parichit hoon. ismen koi sandeh nahin ki shurata mein tum krishn aur arjun ko barabari kar sakte ho. tum panDvon mein jyeshth ho. is karan tumhara kartavya hai ki tum unse mitrata kar lo meri yahin ichchha hai ki yuddh mein mere senaptitv ke saath hi panDvon ke prati tumhare vairbhav ka bhi aaj ho ant ho jaye. ”",
"ye sunkar karn baDi namrata ke saath bola—“pitamah! main janta hoon ki main kunti ka putr hain, lekin ye bhi mujhe malum hai ki main soot putr nahin hoon, lekin ye baat mujhse nahin ho sakti ki ab main duryodhan ka saath chhoD doon aur unke shatruon se ja milun. mera kartavya yahi hai ki main duryodhan ke hi paksh mein rahkar yuddh karun. aap kripaya mujhe is baat ki anumti den ki main duryodhan ki taraph se lahun. mainne jo kuch kiya ya kaha hai, usmen jitne dosh ho, uske liye mujhe kshama kar den. ”",
"karn ka kathan bheeshm baDe dhyaan se sunte rahe. uske baad bole—“jo tumhari ichchha ho, vahi karo. ”",
"bheeshm pitamah se ashish pakar karn bahut prasann hua aur rath par chaDhkar yuddhakshetr mein ja pahuncha. karn ko dekhte hi duryodhan anand ke mare phool utha. bheeshm ke vichhoh ka jo dukh uske liye duhsah—sa pratit ho raha tha, ab karn ke aa jane par kisi tarah use bhool jana uske liye sambhav malum hone laga.",
"duryodhan aur karn is bare mein soch vichar karne lage ki ab senapati kise banaya jaye. riti se dronacharya ka senapati pad par abhishek hua. dronacharya ne paanch din tak kaurvon ki sena ka sanchalan karte hue ghor yuddh kiya. yadyapi avastha mein wo buDhe the, phir bhi satyaki, bheem, arjun, dhrishtadyumn, abhimanyu, drupad, kashiraj aadi suvikhyat viron ke viruddh dronacharya akele hi bhiD jate the aur ek ek ko khadeD dete the. panchon din tak unke hathon panDvon ki sena bahut hi satai gai. acharya dron ne panDav sena ki naak mein dam kar diya. dronacharya ke senaptitv grhan karne ke baad duryodhan, karn aur duःshasan—tinon ne aapas mein salah karke ek yojna banai. uske anusar duryodhan acharya ke paas jakar bola—“acharya! kisi bhi upaay se aap yudhishthir ko jivit hi pakaD kar hamare havale kar saken to baDa hi uttam ho!”",
"duryodhan ka uddeshya to kuch aur hi tha. duryodhan ko ye bhi pata chal gaya tha ki yudhishthir ka vadh karne se koi laabh nahin ho sakta. iske viprit yadi yudhishthir ko jivit pakaD liya jaye, to yuddh bhi sheeghr hi band ho jayega aur jeet bhi kaurvon ki hogi. thoDa rajya yudhishthir ko dene ka bahana karna hoga, so wo kar denge aur baad mein phir jua khelkar sahj hi mein use vapas chheen bhi lenge. inhin sab vicharon se prerit hokar duryodhan ne dronacharya se yudhishthir ko jivit pakaD lane ka anurodh kiya tha. lekin dron ko jab duryodhan ke asli uddeshya ka pata laga, to wo bahut udaas ho ge. isse unke man mein duryodhan ke prati teevr ghrina utpann ho gai. man hi man ye sochkar unhonne santosh kar liya ki yudhishthir ke praan na lene ka koi na koi bahana to mil hi gaya.",
"panDav to dronacharya ki advitiy shurata evan shastr vidya ke anupam gyaan se bhali bhanti parichit hi the. atः jab suna ki dronacharya ne yudhishthir ko pakaDne ka nishchay hi nahin kiya hai, balki prtigya bhi ki hai, to ve bhi bhaybhit ho ge. sabko yahi chinta rahne lagi ki kisi bhi tarah yudhishthir ki raksha ka pura pura prbandh kiya jaye. dron ne apne sarthi ko aagya di ki rath ko us or le chalo, jidhar yudhishthir yuddh kar rahe hon. yudhishthir sanbhale, isse pahle hi dronacharya veg se unke nikat ja pahunche. dhrishtadyumn ne hazar cheshta ki, parantu wo dron ko nahin rok saka.",
"‘yudhishthir pakDe ge!’ ‘yudhishthir pakDe ge!’ ki chillahat se sara kurukshetr goonj utha. itne hi mein ekayek na jane kahan se arjun udhar aa pahuncha aur arjun ke ganDiv se banon ki aisi aviral bauchhar chhoot rahi thi ki koi dekh hi nahin pata tha ki kab baan dhanush par chaDhte aur kab chhutte the. kurukshetr ka akash banon se bhar gaya. is karan sare maidan mein andhkar sa chha gaya.",
"arjun ke hamle ke karan dronacharya ko pichhe hatna paDa. yudhishthir ko jivit pakaDne ka unka prayatn viphal ho gaya aur sandhya hote hote us din ka yuddh bhi band ho gaya. kaurav sena mein bhay chha gaya. panDav sena ke veer shaan se apne apne shivir ko laut chale.",
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] |
बाल महाभारत : अश्वत्थामा - कथा | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kathaen/class-7-ncert-7/baal-mahabharat-ashvatthama-chakraborty-rajagopalacharya-kathaen?sort= | [
"प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।",
"दुर्योधन पर जो कुछ बीती, उसका हाल सुनकर अश्वत्थामा बहुत क्षुब्ध हो उठा। उसके पिता द्रोणाचार्य को मारने के लिए जो कुचक्र रचा गया था, वह उसे भूला नहीं था। वह उस स्थान पर जा पहुँचा, जहाँ दुर्योधन मृत्यु की प्रतीक्षा करता हुआ पड़ा था। दुर्योधन के सामने जाकर अश्वत्थामा ने दृढ़तापूर्वक प्रतिज्ञा की कि वह आज ही रात में पांडवों को नष्ट करके रहेगा।",
"मृत्यु की प्रतीक्षा करते हुए दुर्योधन ने जब यह सुना तो उसका पुराना वैर फिर से जाग्रत हो गया और उसे कुछ प्रसन्नता हुई। उसने आसपास खड़े हुए लोगों से कहकर अश्वत्थामा को कौरव सेना का विधिवत् सेनापति बनाया और बोला—“आचार्य-पुत्र! शायद मेरा यह अंतिम कार्य है। शायद आप ही मुझे शांति दिला सकें। मैं बड़ी आशा से आपकी राह देखता रहूँगा।”",
"सूरज डूब चुका था, रात हो गई थी। एक बड़े बरगद के पेड़ के नीचे अश्वत्थामा, कृपाचार्य और कृतवर्मा रात बिताने की गरज़ से ठहरे। कृप और कृतवर्मा बहुत थके हुए थे। इसलिए दोनों वहीं पड़े पड़े सो गए। लेकिन अश्वत्थामा को नींद नहीं आई। अश्वत्थामा सोचने लगा—“मैं इन पांडवों और पिता जी की हत्या करने वाले धृष्टद्युम्न को उनके संगी-साथियों समेत एक साथ ही क्यों न मार डालूँ? अभी रात का समय है और वे सब अपने शिविरों में पड़े सो रहे होंगे।’ इस समय उन सबका वध कर डालना बहुत सुगम होगा।' अश्वत्थामा ने कृपाचार्य को जगाकर उनको अपना निश्चय सुनाया।",
"अश्वत्थामा की ये बातें सुनकर कृपाचार्य व्यथित हो गए। वह बोले—“अश्वत्थामा! सोते हुओं को मारना कभी भी धर्म नहीं हो सकता। तुम यह विचार छोड़ दो।” यह सुनकर अश्वत्थामा झल्लाकर बोला—“आपने भी क्या यह धर्म-धर्म की रट लगा रखी है?”",
"दृढ़तापूर्वक अपनी इच्छा जताकर अश्वत्थामा पांडवों के शिविर की ओर जाने को उठा। यह देखकर कृपाचार्य और कृतवर्मा भी अश्वत्थामा के साथ हो लिए। आधी रात बीत चुकी थी। पांडवों के शिविर में भी सभी सैनिक मीठी नींद में सो रहे थे। अश्वत्थामा पहले धृष्टद्युम्न के शिविर में घुसा और उसने सोए हुए धृष्टद्युम्न को पैरों तले ऐसा कुचला कि वह तत्काल ही मर गया। इसी प्रकार सभी पांचाल-वीरों को अश्वत्थामा ने कुचलकर भयानक ढंग से मार डाला और द्रौपदी के पुत्रों की भी एक-एक करके हत्या कर दी।",
"कृपाचार्य और कृतवर्मा ने भी इस हत्याकांड में अश्वत्थामा का हाथ बँटाया। वहाँ तीनों ने ऐसे-ऐसे अत्याचार किए, जैसे कि अब तक किसी ने सुने भी न थे। उन्होंने वहाँ आग लगा दी। आग भड़क उठी और सारे शिविरों में फैल गई। इससे सोए हुए सारे सैनिक जाग गए और भयभीत होकर इधर-उधर भागने लगे। उन सबको अश्वत्थामा ने बड़ी निदर्यता से मार डाला। दुर्योधन के पास पहुँचकर अश्वत्थामा ने कहा—“महाराज दुर्योधन! आप अभी जीवित हैं क्या? देखिए, आपके लिए मैं ऐसा अच्छा समाचार लाया हूँ कि जिसे सुनकर आपका कलेजा ज़रूर ठंडा हो जाएगा। जो कुछ हम लोगों ने किया है, उसे आप ध्यान से सुनें। सारे पांचाल ख़त्म कर दिए गए हैं। पांडवों के भी सारे पुत्र मारे गए हैं। पांडवों की सारी सेना का हमने सोते में ही सर्वनाश कर दिया। पांडवों के पक्ष में अब केवल सात ही व्यक्ति जीवित बच गए हैं। हमारे पक्ष में कृपाचार्य, कृतवर्मा और मैं—तीन ही रह गए हैं।”",
"यह सुनकर दुर्योधन बहुत प्रसन्न हुआ और बोला—“गुरु भाई अश्वत्थामा, आपने मेरी ख़ातिर वह काम किया है, जो न भीष्म पितामह से हुआ और न जिसे महावीर कर्ण ही कर सके।” इतना कहकर दुर्योधन ने अपने प्राण त्याग दिए।",
"द्रौपदी की दयनीय अवस्था की क्या कहें! युधिष्ठिर के पास आकर वह कातर स्वर में पुकार उठी—“क्या इस पापी अश्वत्थामा से बदला लेने वाला हमारे यहाँ कोई नहीं रहा है?”",
"शोक-विह्वल द्रौपदी की हालत देखकर पाँचों पांडव अश्वत्थामा की खोज में निकले। ढूँढ़ते-ढूँढ़ते आख़िर उन्होंने गंगा नदी के तट पर छिपे हुए अश्वत्थामा का पता लगा ही लिया। अश्वत्थामा और भीमसेन में युद्ध छिड़ गया लेकिन अंत में अश्वत्थामा हार गया।",
"पांडव-वंश का नामोनिशान तक मिट गया होता, लेकिन उत्तरा के गर्भ की रक्षा हो गई। समय पर उत्तरा ने परीक्षित को जन्म दिया। यही परीक्षित पांडवों के वंश का एकमात्र चिह्न रह गया था।",
"हस्तिनापुर का सारा नगर निःसहाय स्त्रियों और अनाथ बच्चों के रोने-कलपने के हृदय-विदारक शब्दों से गूँज उठा। युद्ध समाप्त होने का समाचार पाकर हज़ारों निःसहाय स्त्रियों को लेकर वृद्ध महाराज धृतराष्ट्र कुरुक्षेत्र की समर-भूमि में गए, जहाँ एक ही वंश के बंधु-बांधवों ने एक-दूसरे से भयानक युद्ध करके अपने ही कुल का सर्वनाश कर डाला था। धृतराष्ट्र ने बीती बातों का स्मरण करते हुए बहुत विलाप किया।",
"duryodhan par jo kuch biti, uska haal sunkar ashvatthama bahut kshubdh ho utha. uske pita dronacharya ko marne ke liye jo kuchakr racha gaya tha, wo use bhula nahin tha. wo us sthaan par ja pahuncha, jahan duryodhan mrityu ki prtiksha karta hua paDa tha. duryodhan ke samne jakar ashvatthama ne driDhtapurvak prtigya ki ki wo aaj hi raat mein panDvon ko nasht karke rahega.",
"mrityu ki prtiksha karte hue duryodhan ne jab ye suna to uska purana vair phir se jagrat ho gaya aur use kuch prasannata hui. usne asapas khaDe hue logon se kahkar ashvatthama ko kaurav sena ka vidhivat senapati banaya aur bola—“acharya putr! shayad mera ye antim karya hai. shayad aap hi mujhe shanti dila saken. main baDi aasha se apaki raah dekhta rahunga. ”",
"suraj Doob chuka tha, raat ho gai thi. ek baDe bargad ke peD ke niche ashvatthama, kripacharya kar di. aur kritvarma raat bitane ki garaj se thahre. krip aur kritvarma bahut thake hue the. isliye donon vahin paDe paDe so ge. lekin ashvatthama ko neend nahin aai. ashvatthama sochne laga—“main in panDvon aur pita ji ki hatya karnevale dhrishtadyumn ko unke sangi sathiyon samet ek saath hi kyon na maar Dalun? abhi raat ka samay hai aur ve sab apne shiviron mein paDe so rahe honge. ’ is samay un sabka vadh kar Dalna bahut sugam hoga. ashvatthama ne kripacharya ko jagakar unko apna nishchay sunaya.",
"ashvatthama ki ye baten sunkar kripacharya vyathit ho ge. wo bole—“ashvatthama! sote huon ko marana kabhi bhi dharm nahin ho sakta. tum ye vichar chhoD do. ” ye sunkar ashvatthama jhallakar bola—“apne bhi kya ye dharm dharm ki rat laga rakhi hai?”",
"driDhtapurvak apni ichchha jatakar ashvatthama panDvon ke shivir ki or jane ko utha. ye dekhkar kripacharya aur kritvarma bhi ashvatthama ke saath ho liye. aadhi raat beet chuki thi. panDvon ke shivir mein bhi sabhi sainik mithi neend mein so rahe the. ashvatthama pahle dhrishtadyumn ke shivir mein ghusa aur usne soe hue dhrishtadyumn ko pairon tale aisa kuchla ki wo tatkal hi mar gaya. isi prakar sabhi panchal viron ko ashvatthama ne kuchalkar bhayanak Dhang se maar Dala aur draupadi ke putron ki bhi ek ek karke hatya kar di.",
"kripacharya aur kritvarma ne bhi is hatyakanD mein ashvatthama ka haath bantaya. vahan tinon ne aise aise atyachar kiye, jaise ki ab tak kisi ne sune bhi na the. unhonne vahan aag laga di. aag bhaDak uthi aur sare shiviron mein phail gai. isse soe hue sare sainik jaag ge aur bhaybhit hokar idhar udhar bhagne lage. un sabko ashvatthama ne baDi nidaryta se maar Dala. duryodhan ke paas pahunchakar ashvatthama ne kaha—“maharaj duryodhan! aap abhi jivit hain kyaa? dekhiye, aapke liye main aisa achchha samachar laya hoon ki jise sunkar aapka kaleja zarur thanDa ho jayega. jo kuch hum logon ne kiya hai, use aap dhyaan se sunen. sare panchal khatm kar diye ge hain. panDvon ke bhi sare putr mare ge hain. panDvon ki sari sena ka hamne sote mein hi sarvanash kar diya. panDvon ke paksh mein ab keval saat hi vyakti jivit bach ge hain. hamare paksh mein kripacharya, kritvarma aur main—tin hi rah ge hain. ”",
"ye sunkar duryodhan bahut prasann hua aur bola—“guru bhai ashvatthama, aapne meri khatir wo kaam kiya hai, jo na bheeshm pitamah se hua aur na jise mahavir karn hi kar sake. ” itna kahkar duryodhan ne apne praan tyaag diye.",
"draupadi ki dayniy avastha ki kya kahen! yudhishthir ke paas aakar wo katar svar mein pukar uthi—“kya is papi ashvatthama se badla lenevala hamare yahan koi nahin raha hai?”",
"shok vihval draupadi ki haalat dekhkar panchon panDav ashvatthama ki khoj mein nikle. DhunDhate DhunDhate akhir unhonne ganga nadi ke tat par chhipe hue ashvatthama ka pata laga hi liya. ashvatthama aur bhimasen mein yuddh chhiD gaya lekin ant mein ashvatthama haar gaya.",
"panDav vansh ka namonishan tak mit gaya hota, lekin uttara ke garbh ki raksha ho gai. samay par uttara ne parikshit ko janm diya. yahi parikshit panDvon ke vansh ka ekmaatr chihn rah gaya tha.",
"hastinapur ka sara nagar niःsahay striyon aur anath bachchon ke rone kalapne ke hriday vidarak shabdon se goonj utha. yuddh samapt hone ka samachar pakar hazaron niःsahay striyon ko lekar vriddh maharaj dhritarashtr kurukshetr ki samar bhumi mein ge, jahan ek hi vansh ke bandhu bandhvon ne ek dusre se bhayanak yuddh karke apne hi kul ka sarvanash kar Dala tha. dhritarashtr ne biti baton ka smran karte hue bahut vilap kiya.",
"duryodhan par jo kuch biti, uska haal sunkar ashvatthama bahut kshubdh ho utha. uske pita dronacharya ko marne ke liye jo kuchakr racha gaya tha, wo use bhula nahin tha. wo us sthaan par ja pahuncha, jahan duryodhan mrityu ki prtiksha karta hua paDa tha. duryodhan ke samne jakar ashvatthama ne driDhtapurvak prtigya ki ki wo aaj hi raat mein panDvon ko nasht karke rahega.",
"mrityu ki prtiksha karte hue duryodhan ne jab ye suna to uska purana vair phir se jagrat ho gaya aur use kuch prasannata hui. usne asapas khaDe hue logon se kahkar ashvatthama ko kaurav sena ka vidhivat senapati banaya aur bola—“acharya putr! shayad mera ye antim karya hai. shayad aap hi mujhe shanti dila saken. main baDi aasha se apaki raah dekhta rahunga. ”",
"suraj Doob chuka tha, raat ho gai thi. ek baDe bargad ke peD ke niche ashvatthama, kripacharya kar di. aur kritvarma raat bitane ki garaj se thahre. krip aur kritvarma bahut thake hue the. isliye donon vahin paDe paDe so ge. lekin ashvatthama ko neend nahin aai. ashvatthama sochne laga—“main in panDvon aur pita ji ki hatya karnevale dhrishtadyumn ko unke sangi sathiyon samet ek saath hi kyon na maar Dalun? abhi raat ka samay hai aur ve sab apne shiviron mein paDe so rahe honge. ’ is samay un sabka vadh kar Dalna bahut sugam hoga. ashvatthama ne kripacharya ko jagakar unko apna nishchay sunaya.",
"ashvatthama ki ye baten sunkar kripacharya vyathit ho ge. wo bole—“ashvatthama! sote huon ko marana kabhi bhi dharm nahin ho sakta. tum ye vichar chhoD do. ” ye sunkar ashvatthama jhallakar bola—“apne bhi kya ye dharm dharm ki rat laga rakhi hai?”",
"driDhtapurvak apni ichchha jatakar ashvatthama panDvon ke shivir ki or jane ko utha. ye dekhkar kripacharya aur kritvarma bhi ashvatthama ke saath ho liye. aadhi raat beet chuki thi. panDvon ke shivir mein bhi sabhi sainik mithi neend mein so rahe the. ashvatthama pahle dhrishtadyumn ke shivir mein ghusa aur usne soe hue dhrishtadyumn ko pairon tale aisa kuchla ki wo tatkal hi mar gaya. isi prakar sabhi panchal viron ko ashvatthama ne kuchalkar bhayanak Dhang se maar Dala aur draupadi ke putron ki bhi ek ek karke hatya kar di.",
"kripacharya aur kritvarma ne bhi is hatyakanD mein ashvatthama ka haath bantaya. vahan tinon ne aise aise atyachar kiye, jaise ki ab tak kisi ne sune bhi na the. unhonne vahan aag laga di. aag bhaDak uthi aur sare shiviron mein phail gai. isse soe hue sare sainik jaag ge aur bhaybhit hokar idhar udhar bhagne lage. un sabko ashvatthama ne baDi nidaryta se maar Dala. duryodhan ke paas pahunchakar ashvatthama ne kaha—“maharaj duryodhan! aap abhi jivit hain kyaa? dekhiye, aapke liye main aisa achchha samachar laya hoon ki jise sunkar aapka kaleja zarur thanDa ho jayega. jo kuch hum logon ne kiya hai, use aap dhyaan se sunen. sare panchal khatm kar diye ge hain. panDvon ke bhi sare putr mare ge hain. panDvon ki sari sena ka hamne sote mein hi sarvanash kar diya. panDvon ke paksh mein ab keval saat hi vyakti jivit bach ge hain. hamare paksh mein kripacharya, kritvarma aur main—tin hi rah ge hain. ”",
"ye sunkar duryodhan bahut prasann hua aur bola—“guru bhai ashvatthama, aapne meri khatir wo kaam kiya hai, jo na bheeshm pitamah se hua aur na jise mahavir karn hi kar sake. ” itna kahkar duryodhan ne apne praan tyaag diye.",
"draupadi ki dayniy avastha ki kya kahen! yudhishthir ke paas aakar wo katar svar mein pukar uthi—“kya is papi ashvatthama se badla lenevala hamare yahan koi nahin raha hai?”",
"shok vihval draupadi ki haalat dekhkar panchon panDav ashvatthama ki khoj mein nikle. DhunDhate DhunDhate akhir unhonne ganga nadi ke tat par chhipe hue ashvatthama ka pata laga hi liya. ashvatthama aur bhimasen mein yuddh chhiD gaya lekin ant mein ashvatthama haar gaya.",
"panDav vansh ka namonishan tak mit gaya hota, lekin uttara ke garbh ki raksha ho gai. samay par uttara ne parikshit ko janm diya. yahi parikshit panDvon ke vansh ka ekmaatr chihn rah gaya tha.",
"hastinapur ka sara nagar niःsahay striyon aur anath bachchon ke rone kalapne ke hriday vidarak shabdon se goonj utha. yuddh samapt hone ka samachar pakar hazaron niःsahay striyon ko lekar vriddh maharaj dhritarashtr kurukshetr ki samar bhumi mein ge, jahan ek hi vansh ke bandhu bandhvon ne ek dusre se bhayanak yuddh karke apne hi kul ka sarvanash kar Dala tha. dhritarashtr ne biti baton ka smran karte hue bahut vilap kiya.",
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"जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।",
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"हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश"
] |
बाल महाभारत : धृतराष्ट्र की चिंता - कथा | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kathaen/class-7-ncert-7/baal-mahabharat-dhritarashtr-ki-chinta-chakraborty-rajagopalacharya-kathaen?sort= | [
"प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।",
"जब द्रौपदी को साथ लेकर पांडव वन की ओर जाने लगे थे, तो धृतराष्ट्र ने विदुर को बुला और पूछा—“विदुर, पांडु के बेटे और द्रौपदी कैसे जा रहे हैं? मैं कुछ देख नहीं सकता हूँ। तुम्हीं बताओ कैसे जा रहे हैं वे?”",
"विदुर ने कहा—“कुंती-पुत्र युधिष्ठिर, कपड़े से चेहरा ढककर जा रहे हैं। भीमसेन अपनी दोनों भुजाओं को निहारता, अर्जुन हाथ में कुछ बालू लिए उसे बिखेरता, नकुल और सहदेव सारे शरीर पर धूल रमाए हुए क्रमशः युधिष्ठिर के पीछे-पीछे जा रहे हैं। द्रौपदी ने बिखरे हुए केशों से सारा मुख ढक लिया है और आँसू बहाती हुई, युधिष्ठिर का अनुसरण कर रही है।”",
"यह सुनकर धृतराष्ट्र की आशंका और चिंता पहले से भी अधिक प्रबल हो उठी।",
"विदुर बार-बार धृतराष्ट्र से आग्रह करते थे कि आप पांडवों के साथ संधि कर लें। विदुर अकसर इसी भाँति धृतराष्ट्र को उपदेश दिया करते थे। विदुर की बुद्धिमता का धृतराष्ट्र पर भारी प्रभाव था। इसलिए शुरू-शुरू में वह विदुर की बातें सुन लिया करते थे। परंतु बार-बार विदुर की ऐसी ही बातें सुनते-सुनते वह ऊब गए।",
"एक दिन विदुर ने फिर वही बात छेड़ी, तो धृतराष्ट्र झुँझलाकर बोले—“विदुर! मुझे अब तुम्हारी सलाह की ज़रूरत नहीं है। अगर चाहो तो तुम भी पांडवों के पास चले जाओ।”",
"धृतराष्ट्र यह कहकर बड़े क्रोध के साथ विदुर के उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना अंतः पुर में चले गए। विदुर ने मन में कहा कि अब इस भेजा वंश का सर्वनाश निश्चित है। उन्होंने तुरंत अपना रथ जुतवाया और उस पर चढ़कर जंगल में उस ओर तेज़ी से चल पड़े, जहाँ पांडव अपने वनवास का काल व्यतीत कर रहे थे। विदुर के चले जाने पर धृतराष्ट्र और भी चिंतित हो गए। वह सोचने लगे कि मैंने यह क्या कर दिया। विदुर को भगाकर मैंने भारी भूल कर दी। यह सोचकर धृतराष्ट्र ने संजय को बुलाया और कहा—“संजय! मैंने अपने प्रिय विदुर को बहुत बुरा-भला कह दिया था, इससे ग़ुस्सा होकर वह वन में चला गया है। तुम जाकर उसे किसी तरह समझा-बुझाकर मेरे पास वापस ले आओ।”",
"धृतराष्ट्र की बात मानकर संजय जंगल में पांडवों के आश्रम में जा पहुँचे। संजय ने विदुर से बड़ी नम्रता के साथ कहा—“धृतराष्ट्र अपनी भूल पर पछता रहे हैं। आप यदि वापस नहीं लौटेंगे, तो वह अपने प्राण छोड़ देंगे। कृपया अभी लौट चलिए।”",
"यह बात सुनकर विदुर युधिष्ठिर आदि से विदा लेकर हस्तिनापुर के लिए चल पड़े। हस्तिनापुर पहुँचकर जब धृतराष्ट्र के सामने गए, तो धृतराष्ट्र ने उन्हें बड़े प्रेम से गले लगा लिया और गद्गद स्वर में बोले—“निर्दोष विदुर! मैं उतावली में जो बुरा-भला कह बैठा, उसका बुरा मत मानना और मुझे क्षमा कर देना।”",
"इसी तरह एक बार महर्षि मैत्रेय धृतराष्ट्र के दरबार में पधारे। राजा ने उनका समुचित आदर-सत्कार करके प्रसन्न किया। फिर महर्षि से हाथ जोड़कर पूछा—“कुरुजांगल के वन में आपने मेरे प्यारे पुत्र वीर पांडवों को तो देखा होगा! वे कुशल से तो हैं!”",
"महर्षि मैत्रेय ने कहा—“राजन् काम्यक वन में संयोग से युधिष्ठिर से मेरी भेंट हो गई थी। भवन के दूसरे ऋषि-मुनि भी उनसे मिलने उनके आश्रम में आए थे। हस्तिनापुर में जो कुछ हुआ था, उसका सारा हाल उन्होंने मुझे बताया था। यही कारण हैं कि मैं आपके यहाँ आया हूँ। आपके और भीष्म के रहते ऐसा नहीं होना चाहिए था।”",
"इस अवसर पर दुर्योधन भी सभा में मौजूद था। मुनि ने उसकी ओर देखकर कहा—“राजकुमार, तुम्हारी भलाई के लिए कहता हूँ, सुनो! पांडवों को धोखा देने का विचार छोड़ दो। उनसे वैर मोल न लो। उनके साथ संधि कर लो। इसी में तुम्हारी भलाई है।”",
"ऋषि ने यों मीठी बातों से दुर्योधन को समझाया, पर ज़िद्दी व नासमझ दुर्योधन ने उसकी ओर देखा तक नहीं। वह कुछ बोला भी नहीं, बल्कि अपनी जाँघ पर हाथ ठोकता और पैर के अँगूठे से ज़मीन कुरेदता, मुस्कुराता हुआ खड़ा रहा। दुर्योधन की इस ढिठाई को देखकर महर्षि बड़े क्रोधित हुए। उन्होंने कहा—“दुर्योधन! याद रखो, अपने घमंड का फल तुम अवश्य पाओगे।”",
"इसी बीच हस्तिनापुर में हुई घटनाओं की ख़बर श्रीकृष्ण को लगी। उन्हें यह पता चला कि पाँचों पांडव द्रौपदी समेत वन में चले गए हैं। यह ख़बर पाते ही वह फ़ौरन उस वन को चल पड़े जहाँ पांडव ठहरे हुए थे।",
"श्रीकृष्ण जब पांडवों से भेंट करने के लिए जाने लगे, तो उनके साथ कैकेय, भोज और वृष्टि जाति के नेता, चेदिराज धृष्टकेतु आदि भी गए। इन लोगों के साथ पांडवों का बड़ा स्नेह-संबंध था और वे उनको बड़ी श्रद्धा से देखते थे। द्रौपदी श्रीकृष्ण से मिली। श्रीकृष्ण को देखते ही उसकी आँखों से अविरल अश्रुधार बह चली। बड़ी मुश्किल से वह बोली—“इस तरह अपमानित होने के बाद मेरा जीना ही बेकार है। मेरा कोई नहीं रहा और आप भी मेरे न रहे!” यह कहते कहते द्रौपदी की बड़ी-बड़ी आँखों से गर्म-गर्म आँसुओं की धारा बहने लगी। वह आगे न बोल सकी। करुण स्वर में विलाप करती हुई द्रौपदी को श्रीकृष्ण ने बहुत समझाया और धीरज बँधाया। वह बोले—“बहन द्रौपदी! जिन्होंने तुम्हारा अपमान किया है, उन सबकी लाशें युद्ध के मैदान में ख़ून से लथपथ होकर पड़ेंगी। तुम शोक न करो। मैं वचन देता हूँ कि पांडवों की हर प्रकार से सहायता करूँगा। यह भी निश्चय मानो कि तुम साम्राज्ञी के पद को फिर सुशोभित करोगी।”",
"धृष्टद्युम्न ने भी बहन को सांत्वना दी और समझाते हुए कहा कि श्रीकृष्ण की प्रतिज्ञा अवश्य पूरी होगी। इसके बाद श्रीकृष्ण पांडवों से विदा हुए। साथ में अर्जुन की पत्नी सुभद्रा और उसके पुत्र अभिमन्यु को भी वे द्वारकापुरी लेते गए। द्रौपदी के पुत्रों को लेकर धृष्टद्युम्न पांचाल देश चला गया।",
"jab draupadi ko saath lekar panDav van ki or jane lage the, to dhritarashtr ne vidur ko bula aur puchha—“vidur, panDu ke bete aur draupadi kaise ja rahe hain? main kuch dekh nahin sakta hoon. tumhin batao kaise ja rahe hain ve?”",
"vidur ne kaha—“kunti putr yudhishthir, kapDe se chehra Dhakkar ja rahe hain. bhimasen apni donon bhujaon ko niharta, arjun haath mein kuch balu liye use bikherta, nakul aur sahdev sare sharir par dhool ramaye hue krmashः yudhishthir ke pichhe pichhe ja rahe hain. draupadi ne bikhre hue keshon se sara mukh Dhak liya hai aur ansu bahati hui, yudhishthir ka anusran kar rahi hai. ”",
"ye sunkar dhritarashtr ki ashanka aur chinta pahle se bhi adhik prabal ho uthi.",
"vidur baar baar dhritarashtr se agrah karte the ki aap panDvon ke saath sandhi kar len. vidur aksar isi bhanti dhritarashtr ko updesh diya karte the. vidur ki buddhimta ka dhritarashtr par bhari prabhav tha. isliye shuru shuru mein wo vidur ki baten sun liya karte the. parantu baar baar vidur ki aisi hi baten sunte sunte wo uub ge.",
"ek din vidur ne phir vahi baat chheDi, to dhritarashtr jhunjhlakar bole—“vidur! mujhe ab tumhari salah ki zarurat nahin hai. agar chaho to tum bhi panDvon ke paas chale jao. ”",
"dhritarashtr ye kahkar baDe krodh ke saath vidur ke uttar ki prtiksha kiye bina antः pur mein chale ge. vidur ne man mein kaha ki ab is bheja vansh ka sarvanash nishchit hai. unhonne turant apna rath jutvaya aur us par chaDhkar jangal mein us or tezi se chal paDe, jahan panDav apne vanvas ka kaal vyatit kar rahe the. vidur ke chale jane par dhritarashtr aur bhi chintit ho ge. wo sochne lage ki mainne ye kya kar diya. vidur ko bhagakar mainne bhari bhool kar di. ye sochkar dhritarashtr ne sanjay ko bulaya aur kaha—“sanjay! mainne apne priy vidur ko bahut bura bhala kah diya tha, isse ghussa hokar wo van mein chala gaya hai. tum jakar use kisi tarah samjha bujhakar mere paas vapas le aao. ”",
"dhritarashtr ki baat mankar sanjay jangal mein panDvon ke ashram mein ja pahunche. sanjay ne vidur se baDi namrata ke saath kaha—“dhritarashtr apni bhool par pachhta rahe hain. aap yadi vapas nahin lautenge, to wo apne praan chhoD denge. kripaya abhi laut chaliye. ”",
"ye baat sunkar vidur yudhishthir aadi se vida lekar hastinapur ke liye chal paDe. hastinapur pahunchakar jab dhritarashtr ke samne ge, to dhritarashtr ne unhen baDe prem se gale laga liya aur gadgad svar mein bole—“nirdosh vidur! main utavli mein jo bura bhala kah baitha, uska bura mat manna aur mujhe kshama kar dena. ”",
"isi tarah ek baar maharshi maitrey dhritarashtr ke darbar mein padhare. raja ne unka samuchit aadar satkar karke prasann kiya. phir maharshi khabar pate hi wo fauran us van ko chal paDe se haath joDkar puchha—“kurujangal ke van mein jahan panDav thahre hue the. aapne mere pyare putr veer panDvon ko to dekha hoga! ve kushal se to hain!”",
"maharshi maitrey ne kaha—“rajan kamyak van mein sanyog se yudhishthir se meri bhent ho gai thi. bhavan ke dusre rishi muni bhi unse milne unke ashram mein aaye the. hastinapur mein jo kuch hua tha, uska sara haal unhonne mujhe bataya tha. yahi karan hain ki main aapke yahan aaya hoon. aapke aur bheeshm ke rahte aisa nahin hona chahiye tha. ”",
"is avsar par duryodhan bhi sabha mein maujud tha. muni ne uski or dekhkar kaha—“rajakumar, tumhari bhalai ke liye kahta hoon, suno! panDvon ko dhokha dene ka vichar chhoD do. unse vair mol na lo. unke saath sandhi kar lo. isi mein tumhari bhalai hai. ”",
"rishi ne yon mithi baton se duryodhan ko samjhaya, par ziddi va nasamajh duryodhan ne uski or dekha tak nahin. wo kuch bola bhi nahin, balki apni jaangh par haath thokta aur pair ke anguthe se zamin kuredta, musakrata hua khaDa raha. duryodhan ki is Dhithai ko dekhkar maharshi baDe krodhit hue. unhonne kaha—“duryodhan! yaad rakho, apne ghamanD ka phal tum avashya paoge. ”",
"isi beech hastinapur mein hui ghatnaon ki khabar shrikrishn ko lagi. unhen ye pata chala ki panchon panDav draupadi samet van mein chale ge hain. ye khabar pate hi wo fauran us van ko chal paDe jahan panDav thahre hue the.",
"shrikrishn jab panDvon se bhent karne ke liye jane lage, to unke saath kaikey, bhoj aur vrishti jati ke neta, chediraj dhrishtketu aadi bhi ge. in logon ke saath panDvon ka baDa sneh sambandh tha aur ve unko baDi shraddha se dekhte the. draupadi shrikrishn se mili. shrikrishn ko dekhte hi uski ankhon se aviral ashrudhar bah chali. baDi mushkil se wo boli—“is tarah apmanit hone ke baad mera jina hi bekar hai. mera koi nahin raha aur aap bhi mere na rahe!” ye kahte kahte draupadi ki baDi baDi ankhon se garm garm ansuon ki dhara bahne lagi. wo aage na bol saki. karun svar mein vilap karti hui draupadi ko shrikrishn ne bahut samjhaya aur dhiraj bandhaya. wo bole “bahan draupadi! jinhonne tumhara apman kiya hai, un sabki lashen yuddh ke maidan mein khoon se lathpath hokar paDengi. tum shok na karo. main vachan deta hoon ki panDvon ki har prakar se sahayata karunga. ye bhi nishchay mano ki tum samragyi ke pad ko phir sushobhit karogi. ”",
"dhrishtadyumn ne bhi bahan ko santvna di aur samjhate hue kaha ki shrikrishn ki prtigya avashya puri hogi. iske baad shrikrishn panDvon se vida hue. saath mein arjun ki patni subhadra aur uske putr abhimanyu ko bhi ve dvarkapuri lete ge. draupadi ke putron ko lekar dhrishtadyumn panchal desh chala gaya.",
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बाल महाभारत : कर्ण और दुर्योधन भी मारे गए - कथा | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kathaen/class-7-ncert-7/baal-mahabharat-karn-aur-duryodhan-bhi-mare-ge-chakraborty-rajagopalacharya-kathaen?sort= | [
"प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।",
"द्रोण के मारे जाने पर कौरव-पक्ष के राजाओं ने कर्ण को सेनापति मनोनीत किया। मद्रराज शल्य कर्ण के सारथी बने। दूसरे दिन कर्ण के सेनापतित्व में फिर से घमासान युद्ध जारी हो गया। अर्जुन की रक्षा करता हुआ भीम, अपने रथ पर उसके पीछे-पीछे चला और दोनों एक साथ कर्ण पर टूट पड़े। जब दुःशासन ने यह देखा, तो उसने भीम पर बाणों की वर्षा कर दी। उसको भीम ने एक ही धक्के में ज़मीन पर गिरा दिया और उसका एक-एक अंग तोड़-मरोड़ डाला। भीम मैदान में नाचने-कूदने लगा और चिल्लाने लगा—“मेरी एक प्रतिज्ञा पूरी हुई। अब दुर्योधन की बारी है। उसका काम तमाम करना बाक़ी है।”",
"भीमसेन का वह भयानक रूप देखकर कर्ण का भी शरीर काँपने लगा। तभी अश्वत्थामा को दुर्योधन ने पांडवों पर हमला करने की आज्ञा दी। कर्ण ने अर्जुन पर एक ऐसा बाण चलाया जो आग उगलता गया। अर्जुन की ओर उस भयानक तीर को आता हुआ देखकर कृष्ण ने रथ को पाँव के अँगूठे से दबा दिया, जिससे रथ ज़मीन में पाँच अँगुल धँस गया। कृष्ण की इस युक्ति से अर्जुन मरते-मरते बचा। कर्ण का चलाया हुआ सर्पमुखास्त्र फुँफकारता हुआ आया और अर्जुन का मुकुट उड़ा ले गया। इस पर अर्जुन के क्रोध का ठिकाना न रहा। उसने जोश के साथ कर्ण पर बाण-वर्षा कर दी। तभी अचानक कर्ण के रथ का बाईं तरफ़ का पहिया धरती में धँस गया।",
"इससे कर्ण घबरा गया और बोला—“अर्जुन! ज़रा ठहरो। मेरे रथ का पहिया कीचड़ में फँस गया है। पांडु-पुत्र, तुम्हें धर्म-युद्ध करने का जो यश प्राप्त हुआ है, उसे व्यर्थ ही न गँवाओ। मैं ज़मीन पर खड़ा रहूँ और तुम रथ पर बैठे-बैठे मुझ पर बाण चलाओ, यह ठीक नहीं होगा। ज़रा रुको।”",
"कर्ण की ये बातें सुनकर श्रीकृष्ण बोले—“कर्ण! जब दुःशासन, दुर्योधन और तुम द्रौपदी को भरी सभा में घसीटकर लाए थे, उस वक़्त तुम्हें धर्म की याद आई थी? जब दूधमुँहे बच्चे अभिमन्यु को तुम सात लोगों ने एक साथ घेरकर निर्लज्जता के साथ मार डाला था, तब तुम्हारा धर्म कहाँ था? और आज जब मुसीबत सामने खड़ी दिखाई दे रही है, तो तुमको धर्म याद आ रहा है!”",
"श्रीकृष्ण की इस झिड़की का कर्ण से कोई उत्तर देते न बना। उसने सिर झुका लिया और अटके हुए रथ पर से ही युद्ध जारी रखा। इतने में कर्ण का एक बाण अर्जुन को जा लगा, तो वह थोड़ी देर के लिए विचलित हो उठा। बस, यही ज़रा सा समय पाकर कर्ण रथ से उतर पड़ा और रथ का पहिया उठाकर उसे समतल पर लाने की कोशिश करने लगा। कर्ण के हज़ार प्रयत्न करने पर भी पहिया गड्ढे से निकलता न था। यह स्थिति देख श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा—“अर्जुन, अब देरी न करो, हिचकिचाओ मत। इसी समय इसे ख़त्म कर दो।”",
"श्रीकृष्ण की यह बात मानकर अर्जुन ने एक बाण तानकर ऐसा मारा कि कर्ण का सिर कटकर ज़मीन पर गिर पड़ा। जब दुर्योधन को इस बात की ख़बर मिली कि युद्ध में कर्ण भी मारा गया है, तो उसके शोक की सीमा न रही। दुर्योधन की इस अवस्था पर कृपाचार्य को बड़ा तरस आया। उन्होंने दुर्योधन को सांत्वना देते हुए कहा—“राजन्! अब तुम्हारा कर्तव्य यही है कि पांडवों से किसी प्रकार संधि कर लो। अब युद्ध बंद करना ही श्रेयस्कर होगा।” यद्यपि दुर्योधन हताश हो चुका था, फिर भी कृपाचार्य की यह सलाह उसे बिलकुल पसंद नहीं आई। वह उसे मानने के लिए तैयार न हुआ। सभी कौरव वीरों ने दुर्योधन की बातों का समर्थन किया और कहा कि युद्ध जारी रखना ही ठीक होगा। इस पर सबकी सलाह से मद्रराज शल्य को सेनापति नियुक्त किया गया। इसलिए शल्य के सेनापतित्व में फिर से युद्ध जारी हुआ।",
"पांडवों की सेना के संचालन का पूरा दायित्व अब युधिष्ठिर ने स्वयं अपने कंधों पर ले लिया। शल्य पर उन्होंने स्वयं आक्रमण किया। युधिष्ठिर ने शल्य पर शक्ति का प्रयोग किया और मद्रराज शल्य मृत होकर रथ पर से धड़ाम से गिर पड़े। जब शल्य भी मारा गया, तो कौरव सेना निःसहाय—सी हो गई। फिर भी, धृतराष्ट्र के रहे-सहे पुत्रों ने हिम्मत न हारी। दूसरी ओर शकुनि और सहदेव का युद्ध हो रहा था। तलवार की पैनी धार के समान नोंकवाला एक बाण शकुनि पर चलाते हुए सहदेव ने गरजकर कहा—“शकुनि! अपने किए का फल भुगत ही ले!” और मानो उसकी बात सफल हो गई। बाण धनुष से निकला नहीं कि शकुनि का सिर कटकर गिरा पड़ा।",
"इस प्रकार कौरव-सेना के सारे वीर कुरुक्षेत्र की भूमि पर सदा के लिए सो गए। अकेला दुर्योधन जीवित बचा था, अब उसके पास न तो सेना थी, न रथ। उस वीर की स्थिति बड़ी दयनीय थी। ऐसी हालत में दुर्योधन अकेला ही हाथ में गदा लिए हुए एक जलाशय की ओर चुपके से चल दिया। उधर दूसरे दिन युधिष्ठिर और उनके भाई उसे खोजते हुए उसी जलाशय पर जा पहुँचे, जहाँ वह छिपा हुआ बैठा था। श्रीकृष्ण भी उनके साथ थे। उन सबको यह पता चल गया था कि दुर्योधन जलाशय में छिपा हुआ है। युधिष्ठिर ने कहा—“दुर्योधन! अपने कुटुंब और वंश का नाश कराने के बाद अब पानी में छिपकर प्राण बचाना चाहते हो?”",
"यह सुनकर दुर्योधन ने व्यथित होकर कहा—“मैं न तो डरा हुआ ही हूँ और न मुझे प्राणों का ही मोह है। फिर भी, सच पूछो तो युद्ध से मेरा जी हट गया है। मेरे सभी संगी-साथी और बंधु-बांधव मारे जा चुके हैं। अब मैं बिलकुल अकेला हूँ। राज्य-सख का मुझे लोभ नहीं रहा। यह सारा राज्य अब तुम्हारा ही है। निश्चिंत होकर तुम्हीं इसका उपभोग करो।”",
"युधिष्ठिर ने गरजते हुए कहा—“दुर्योधन! एक दिन वह था, जब तुम्हीं ने कहा था कि सूई की नोंक जितनी ज़मीन भी नहीं दूँगा।”",
"दुर्योधन ने जब स्वयं युधिष्ठिर के मुख से ये कठोर बातें सुनीं, तो उसने गदा उठा ली और जल में ही उठ खड़ा हुआ और बोला—“अच्छा! यही सही! तुम एक-एक करके मुझसे भिड़ लो! मैं अकेला हूँ और तुम पाँच हो। पाँचों का अकेले के साथ लड़ना न्यायोचित नहीं। मैं थका हुआ और घायल हूँ। कवच भी मेरे पास नहीं है। इसलिए एक-एक करके निपट लो। चलो!”",
"यह सुनकर युधिष्ठिर बोले—“यदि अकेले पर कइयों का हमला करना धर्म नहीं, तो बालक अभिमन्यु कैसे मारा गया था?” यह सुनकर दुर्योधन जलाशय से बाहर निकल आया और उसने भीम से गदा युद्ध करने की इच्छा प्रकट की। भीम भी राज़ी हो गया और दोनों में गदा युद्ध शुरू हो गया। इस तरह बड़ी देर तक युद्ध जारी रहा। श्रीकृष्ण ने इशारों में ही अर्जुन को बताया कि भीम दुर्योधन की जाँघ पर गदा मारेगा, तो जीत जाएगा। भीम ने श्रीकृष्ण का यह इशारा तुरंत भाँप लिया और अचानक दुर्योधन पर झपट पड़ा। उसकी जाँघ पर ज़ोर से गदा का प्रहार किया। जाँघ टूट जाने के कारण अधमरी अवस्था में पड़े हुए दुर्योधन के दिल में फिर से क्रोध और द्वेष की आग सी भड़क उठी। वह चिल्लाकर बोला—“कृष्ण! धर्म युद्ध करने वाले हमारे पक्ष के सारे यशस्वी महारथियों को तुमने ही कुचक्र रचकर मरवा डाला है। यदि तुमने कुचक्र न रचा होता, तो कर्ण, भीष्म, द्रोण भला समर में परास्त होने वाले थे?”",
"मरणासन्न अवस्था में दुर्योधन को इस प्रकार विलाप करता देख श्रीकृष्ण बोले—“दुर्योधन! तुम अपने ही किए हुए कर्मों का फल पा रहे हो। तुम यह क्यों नहीं समझते और उसका पश्चाताप करते? अपने अपराध के लिए दूसरों को दोष देना बेकार है। तुम्हारे नाश का कारण मैं नहीं हूँ। लालच में पड़कर तुमने जो महापाप किया था, उसी का यह फल तुम्हें भुगतना पड़ रहा है।”",
"dron ke mare jane par kaurav paksh ke rajaon ne karn ko senapati manonit kiya. madrraj shalya karn ke sarthi bane. dusre din karn ke senaptitv mein phir se ghamasan yuddh jari ho gaya. arjun ki raksha karta hua bheem, apne rath par uske pichhe pichhe chala aur donon ek saath karn par toot paDe. jab duःshasan ne ye dekha, to usne bheem par banon ki varsha kar di. usko bheem ne ek hi dhakke mein zamin par gira diya aur uska ek ek ang toD maroD Dala. bheem maidan mein nachne kudne laga aur chillane laga—“meri ek prtigya puri hui. ab duryodhan ki bari hai. uska kaam tamam karna baqi hai. ”",
"bhimasen ka wo bhayanak roop dekhkar karn ka bhi sharir kanpne laga. tabhi ashvatthama ko duryodhan ne panDvon par hamla karne ki aagya di. karn ne arjun par ek aisa baan chalaya jo aag ugalta gaya. arjun ki or us bhayanak teer ko aata hua dekhkar krishn ne rath ko paanv ke anguthe se daba diya, jisse rath zamin mein paanch angul dhans gaya. krishn ki is yukti se arjun marte marte bacha. karn ka chalaya hua sarpamukhastr phunphakarata hua aaya aur arjun ka mukut uDa le gaya. is par arjun ke krodh ka thikana na raha. usne josh ke saath karn par baan varsha kar di. tabhi achanak karn ke rath ka bain taraf ka pahiya dharti mein dhans gaya.",
"isse karn ghabra gaya aur bola—“arjun! zara thahro. mere rath ka pahiya kichaD mein phans gaya hai. panDu putr, tumhein dharm yuddh karne ka jo yash praapt hua hai, use vyarth hi na ganvao. main zamin par khaDa rahun aur tum rath par baithe baithe mujh par baan chalao, ye theek nahin hoga. zara ruko. ”",
"karn ki ye baten sunkar shrikrishn bole—“karn! jab duःshasan, duryodhan aur tum draupadi ko bhari sabha mein ghasitkar laye the, us vakt tumhein dharm ki yaad aai thee? jab dudhamunhe bachche abhimanyu ko tum saat logon ne ek saath gherkar nirlajjata ke saath maar Dala tha, tab tumhara dharm kahan tha? aur aaj jab musibat samne khaDi dikhai de rahi hai, to tumko dharm yaad aa raha hai!”",
"shrikrishn ki is jhiDki ka karn se koi uttar dete na bana. usne sir jhuka liya aur atke hue rath par se hi yuddh jari rakha. itne mein karn ka ek baan arjun ko ja laga, to wo thoDi der ke liye vichlit ho utha. bas, yahi zara sa samay pakar karn rath se utar paDa aur rath ka pahiya uthakar use samtal par lane ki koshish karne laga. karn ke hazar prayatn karne par bhi pahiya gaDDhe se nikalta na tha. ye sthiti dekh shrikrishn ne arjun se kaha—“arjun, ab deri na karo, hichakichao mat. isi samay ise khatm kar do. ”",
"shrikrishn ki ye baat mankar arjun ne ek baan tankar aisa mara ki karn ka sir katkar zamin par gir paDa. jab duryodhan ko is baat ki khabar mili ki yuddh mein karn bhi mara gaya hai, to uske shok ki sima na rahi. duryodhan ki is avastha par kripacharya ko baDa taras aaya. unhonne duryodhan ko santvna dete hue kaha—“rajan! ab tumhara kartavya yahi hai ki panDvon se kisi prakar sandhi kar lo. ab yuddh band karna hi shreyaskar hoga. ” yadyapi duryodhan hatash ho chuka tha, phir bhi kripacharya ki ye salah use bilkul pasand nahin aai. wo use manne ke liye taiyar na hua. sabhi kaurav viron ne duryodhan ki baton ka samarthan kiya aur kaha ki yuddh jari rakhna hi theek hoga. is par sabki salah se madrraj shalya ko senapati niyukt kiya gaya. isliye shalya ke senaptitv mein phir se yuddh jari hua.",
"panDvon ki sena ke sanchalan ka pura dayitv ab yudhishthir ne svayan apne kandhon par le liya. shalya par unhonne svayan akrman kiya. yudhishthir ne shalya par shakti ka prayog kiya aur madrraj shalya mrit hokar rath par se dhaDam se gir paDe. jab shalya bhi mara gaya, to kaurav sena niःsahay—si ho gai. phir bhi, dhritarashtr ke rahe sahe putron ne himmat na hari. dusri or shakuni aur sahdev ka yuddh ho raha tha. talvar ki paini dha ke saman nonkvala ek baan shakuni par chalate hue sahdev ne garajkar kaha—“shakuni! apne kiye ka phal bhugat hi le!” aur mano uski baat safal ho gai. baan dhanush se nikla nahin ki shakuni ka sir katkar gira paDa.",
"is prakar kaurav sena ke sare veer kurukshetr ki bhumi par sada ke liye so ge. akela duryodhan jivit bacha tha, ab uske paas na to sena thi, na rath. us veer ki sthiti baDi dayniy thi. aisi haalat mein duryodhan akela hi haath mein gada liye hue ek jalashay ki or chupke se chal diya. udhar dusre din yudhishthir aur unke bhai use khojte hue usi jalashay par ja pahunche, jahan wo chhipa hua baitha tha. shrikrishn bhi unke saath the. un sabko ye pata chal gaya tha ki duryodhan jalashay mein chhipa hua hai. yudhishthir ne kaha—“duryodhan! apne kutumb aur vansh ka naash karane ke baad ab pani mein chhipkar praan bachana chahte ho?”",
"ye sunkar duryodhan ne vyathit hokar kaha—“main na to Dara hua hi hoon aur na mujhe pranon ka hi moh hai. phir bhi, sach puchho to yuddh se mera ji hat gaya hai. mere sabhi sangi sathi aur bandhu bandhav mare ja chuke hain. ab main bilkul akela hoon. rajya sakh ka majhe lobh nahin raha. ye sara rajya ab tumhara hi hai. nishchint hokar tumhin iska upbhog karo. ”",
"yudhishthir ne garajte hue kaha—“duryodhan! ek din wo tha, jab tumhin ne kaha tha ki sui ki nonk jitni zamin bhi nahin dunga. ”",
"duryodhan ne jab svayan yudhishthir ke mukh se ye kathor baten sunin, to usne gada utha li aur jal mein hi uth khaDa hua aur",
"dron ke mare jane par kaurav paksh ke rajaon ne karn ko senapati manonit kiya. madrraj shalya karn ke sarthi bane. dusre din karn ke senaptitv mein phir se ghamasan yuddh jari ho gaya. arjun ki raksha karta hua bheem, apne rath par uske pichhe pichhe chala aur donon ek saath karn par toot paDe. jab duःshasan ne ye dekha, to usne bheem par banon ki varsha kar di. usko bheem ne ek hi dhakke mein zamin par gira diya aur uska ek ek ang toD maroD Dala. bheem maidan mein nachne kudne laga aur chillane laga—“meri ek prtigya puri hui. ab duryodhan ki bari hai. uska kaam tamam karna baqi hai. ”",
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बाल महाभारत : अंबा और भीष्म - कथा | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kathaen/class-7-ncert-7/amba-aur-bheeshm-chakraborty-rajagopalacharya-kathaen?sort= | [
"प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।",
"सत्यवती के पुत्र चित्रांगद बड़े ही वीर, परंतु स्वेच्छाचारी थे। एक बार किसी गंधर्व के साथ युद्ध हुआ, उसमें वह मारे गए। उनके कोई पुत्र न था, इसलिए उनके छोटे भाई विचित्रवीर्य हस्तिनापुर की राजगद्दी पर बैठे विचित्रवीर्य की आयु उस समय बहुत छोटी थी, इस कारण उनके बालिग होने तक राज-काज भीष्म को ही सँभालना पड़ा।",
"जब विचित्रवीर्य विवाह के योग्य हुए, तो भीष्म को उनके विवाह की चिंता हुई। उन्हें ख़बर लगी कि काशिराज की कन्याओं का स्वयंवर होने वाला है। यह जानकर भीष्म बड़े ख़ुश हुए और स्वयंवर में सम्मिलित होने के लिए काशी रवाना हो गए।",
"देश-विदेश के अनेक राजकुमार उस स्वयंवर राजकुमार उस में भाग लेने के लिए आए थे। राजपुत्रियों को पाने के लिए आपस में बड़ी स्पर्धा थी।",
"क्षत्रियों में भीष्म की प्रतिज्ञा की प्रतिष्ठा अद्वितीय थी। उनके महान त्याग और भीषण प्रतिज्ञा का हाल सब जानते थे। इसलिए जब वह स्वयंवर-मंडप में प्रविष्ट हुए, तो राजकुमारों ने सोचा कि वह सिर्फ़ स्वयंवर देखने के लिए आए होंगे। परंतु जब स्वयंवर में सम्मिलित होने वालों में भीष्म ने भी अपना नाम दिया तो अन्य कुमारों को निराश होना पड़ा। उनको क्या पता था कि दृढव्रती भीष्म अपने लिए नहीं, वरन् अपने भाई के लिए स्वयंवर में सम्मिलित हुए हैं।",
"सभा में खलबली मच गई। चारों ओर से भीष्म पर फब्तियाँ कसी जाने लगीं—“माना कि भरतवंशी भीष्म बड़े बुद्धिमान और विद्वान हैं, स्वयंवर से इन्हें क्या मतलब? इनके प्रण का क्या हुआ? जीवनभर ब्रह्मचारी रहने की इन्होंने जो प्रतिज्ञा की थी, क्या वह झूठी थी?” इस भाँति सब राजकुमारों ने भीष्म की हँसी उड़ाई, यहाँ तक कि काशिराज की कन्याओं ने भी भीष्म की तरफ़ से दृष्टि फेर ली और उनकी अवहेलना-सी करके आगे की ओर चल दीं।",
"भीष्म इस अवहेलना को सह न सके। उन्होंने सभी राजकुमारों को हराकर तीनों राजकन्याओं को बलपूर्वक रथ पर बैठा लिया और हस्तिनापुर को चल दिए। सौभदेश का राजा शाल्व बड़ा वीर था। काशिराज की सबसे बड़ी कन्या अंबा उस पर अनुरुक्त थी और उसको मन-ही-मन अपना पति मान चुकी थी। शाल्व ने भीष्म के रथ का पीछा किया और उसको रोकने का प्रयत्न किया। इस पर भीष्म और शाल्व के बीच घोर युद्ध छिड़ गया। भीष्म ने उसे हरा दिया, किंतु काशिराज की कन्याओं की प्रार्थना पर उसे जीवित ही छोड़ दिया।",
"भीष्म काशिराज की कन्याओं को लेकर हस्तिनापुर पहुँचे। विचित्रवीर्य के विवाह की सारी तैयारी हो जाने के बाद जब कन्याओं को विवाह मंडप में ले जाने का समय आया तो काशिराज की बड़ी बेटी अंबा एकांत में भीष्म से बोली—“गांगेय, मैंने अपने मन में सौभदेश के राजा शाल्व को अपना पति मान लिया था। इसी बीच आप मुझे बलपूर्वक यहाँ ले आए। मेरे मन की बात जानने के बाद आप मेरे बारे में अब जो उचित समझें, करें।”",
"भीष्म को अंबा की बात जँची। उन्होंने अंबा को उसकी इच्छानुसार उचित प्रबंध के साथ शाल्व के पास भेज दिया और अंबा की दोनों बहनों—अंबिका और अंबालिका—का विचित्रवीर्य के साथ विवाह करा दिया।",
"अंबा अपने मनोनीत वर सौभराज शाल्व के पास गई और सारा वृत्तांत कह सुनाया। उसने कहा—“राजन्! मैं आपको ही अपना पति मान चुकी हूँ। मेरे अनुरोध से भीष्म ने मुझे आपके पास भेजा है। आप मुझे अपनी पत्नी स्वीकार कर लें।”",
"पर शाल्व न माना। उसने अंबा से कहा—“सारे राजकुमारों के सामने भीष्म ने मुझे युद्ध में पराजित किया और तुम्हें बलपूर्वक हरण करके ले गए। इतने बड़े अपमान के बाद मैं तुम्हें कैसे स्वीकार कर सकता हूँ। तुम्हारे लिए अब उचित यही है कि तुम भीष्म के पास जाओ और उनकी सलाह के मुताबिक़ ही काम करो।”",
"बेचारी अंबा हस्तिनापुर लौट आई और भीष्म को सारा हाल कह सुनाया। उन्होंने विचित्रवीर्य से कहा—“वत्स, राजा शाल्व अंबा को स्वीकार नहीं करता। इससे विदित होता है कि उसकी इच्छा अंबा को पत्नी बनाने की नहीं थी। अब उसके साथ तुम्हारा ब्याह करने में कोई आपत्ति नहीं रही है। पर विचित्रवीर्य अंबा के साथ ब्याह करने को राजी न हुए।",
"बेचारी अंबा न इधर की रही न उधर की। कोई और रास्ता न देख वह भीष्म से बोली—“गांगेय, मैं तो दोनों ओर से ही गई। मेरा कोई भी सहारा न रहा। आप ही मुझे हर लाए थे, अतः अब आपका यह कर्तव्य है कि आप मेरे साथ ब्याह कर लें।”",
"भीष्म ने उसकी बात ध्यान से सुनी और अपनी प्रतिज्ञा की याद दिलाकर बोले—“अपनी प्रतिज्ञा तो मैं नहीं तोड़ सकता।” उन्होंने अंबा की परिस्थिति समझकर विचित्रवीर्य से दुबारा आग्रह किया, पर वह न माना। भीष्म ने अंबा को फिर समझाया और कहा कि सौभराज शाल्व के ही पास जाओ और एक बार फिर प्रार्थना करो। लाचार अंबा फिर शाल्व के पास गई और उसकी बहुत मिन्नतें कीं, लेकिन दूसरे की जीती हुई कन्या को स्वीकार करने से सौभराज ने साफ़ इंकार कर दिया। अंबा इस प्रकार छह साल तक हस्तिनापुर और सौभदेश के बीच ठोकरें खाती फिरी। उसने अपने इस सारे दुख का कारण भीष्म को ही समझा। उन पर उसे बहुत क्रोध आया और प्रतिहिंसा की आग उसके मन में जलने लगी।",
"भीष्म से बदला लेने की इच्छा से वह कई राजाओं के पास गई और उनको अपना दुखड़ा सुनाया। भीष्म से युद्ध करके उनका वध करने की उसने राजाओं से प्रार्थना की, पर राजा लोग तो भीष्म के नाम से ही डरते थे। किसी में इतना साहस न था कि भीष्म से युद्ध करे। क्षत्रियों से एकदम निराश होकर अंबा ने तपस्वी ब्राह्मणों की शरण ली। तपस्वियों ने कहा—“बेटी, तुम परशुराम के पास जाओ। वे तुम्हारी इच्छा अवश्य पूरी करेंगे।” तब ऋषियों की सलाह पर अंबा परशुराम के पास गई।",
"अंबा की करुण कहानी सुनकर परशुराम का हृदय पिघल गया। उन्होंने दयार्द्र स्वर में कहा—“काशिराज-कन्ये, तुम मुझसे क्या चाहती हो?”",
"अंबा ने कहा—“ब्राह्मण वीर, मेरी प्रार्थना केवल यही है कि आप भीष्म से युद्ध करें। मैं आपसे भीष्म के वध की भीख माँगती हूँ।”",
"परशुराम को अंबा की प्रार्थना पसंद आई। बड़े उत्साह के साथ वह भीष्म के पास गए और उन्हें युद्ध के लिए ललकारा। दोनों कुशल योद्धा थे और धनुष-विद्या के जानकार भी। दोनों ही जितेंद्रिय और ब्रह्मचारी थे समान योद्धाओं की टक्कर थी। कई दिनों तक युद्ध होता रहा, फिर भी हार जीत का निश्चय न हो सका। अंत में परशुराम ने हार मान ली और उन्होंने अंबा से कहा—“जो कुछ मेरे वश में था, कर चुका। अब तुम्हारे लिए यही उचित है कि तुम भीष्म ही की शरण लो।”",
"पर अंबा ऐसी बातों से कब विचलित होने वाली थी? उसने वन में जाकर फिर तपस्या शुरू की और तपोबल से स्त्री रूप छोड़कर पुरुष बन गई और उसने अपना नाम शिखंडी रख लिया।",
"जब कौरवों और पांडवों के बीच कुरुक्षेत्र के मैदान में युद्ध हुआ, तो भीष्म के विरुद्ध लड़ते समय शिखंडी रथ के आगे बैठा था और अर्जुन ठीक उसके पीछे। ज्ञानी भीष्म को यह बात मालूम थी कि अंबा ही शिखंडी का रूप धारण किए हुए है। इसलिए उन्होंने उस पर बाण चलाना अपनी वीरोचित प्रतिष्ठा के विरुद्ध समझा। शिखंडी को आगे करके अर्जुन ने भीष्म पितामह पर हमला किया और अंत में उन पर विजय प्राप्त की। जब भीष्म आहत होकर पृथ्वी पर गिरे, तब जाकर अंबा का क्रोध शांत हुआ।",
"satyavti ke putr chitrangad baDe hi veer, parantu svechchhachari the. ek baar kisi gandharv ke saath yuddh hua, usmen wo mare ge. unke koi putr na tha, isliye unke chhote bhai vichitravirya hastinapur ki rajagaddi par baithe vichitravirya ki aayu us samay bahut chhoti thi, is karan unke balig hone tak raaj kaaj bheeshm ko hi sanbhalana paDa.",
"jab vichitravirya vivah ke yogya hue, to bheeshm ko unke vivah ki chinta hui. unhen khabar lagi ki kashiraj ki kanyaon ka svyanvar honevala hai. ye jankar bheeshm baDe khush hue aur svyanvar mein sammilit hone ke liye kashi ravana ho ge.",
"desh videsh ke anek rajakumar us svyanvar rajakumar us mein bhaag lene ke liye aaye the. rajputriyon ko pane ke liye aapas mein baDi spardha thi.",
"kshatriyon mein bheeshm ki prtigya ki pratishtha advitiy thi. unke mahan tyaag aur bhishan prtigya ka haal sab jante the. isliye jab wo svyanvar manDap mein pravisht hue, to rajakumaron ne socha ki wo sirf svyanvar dekhne ke liye aaye honge. parantu jab svyanvar mein sammilit honevalon mein bheeshm ne bhi apna naam diya to anya kumaron ko nirash hona paDa. unko kya pata tha ki driDhavrti bheeshm apne liye nahin, varan apne bhai ke liye svyanvar mein sammilit hue hain.",
"sabha mein khalbali mach gai. charon or se bheeshm par phabtiyan kasi jane lagin—“mana ki bharatvanshi bheeshm baDe buddhiman aur vidvan hain, svyanvar se inhen kya matlab? inke pran ka kya hua? jivanbhar brahamchari rahne ki inhonne jo prtigya ki thi, kya wo jhuthi thee?” is bhanti sab rajakumaron ne bheeshm ki hansi uDai, yahan tak ki kashiraj ki kanyaon ne bhi bheeshm ki taraf se drishti pher li aur unki avhelana si karke aage ki or chal deen.",
"bheeshm is avhelana ko sah na sake. unhonne sabhi rajakumaron ko harakar tinon rajkanyaon ko balpurvak rath par baitha liya aur hastinapur ko chal diye. saubhdesh ka raja shaalv baDa veer tha. kashiraj ki sabse baDi kanya amba us par anurukt thi aur usko man hi man apna pati maan chuki thi. shaalv ne bheeshm ke rath ka pichha kiya aur usko rokne ka prayatn kiya. is par bheeshm aur shaalv ke beech ghor yuddh chhiD gaya. bheeshm ne use hara diya, kintu kashiraj ki kanyaon ki pararthna par use jivit hi chhoD diya.",
"bheeshm kashiraj ki kanyaon ko lekar hastinapur pahunche. vichitravirya ke vivah ki sari taiyari ho jane ke baad jab kanyaon ko vivah manDap mein le jane ka samay aaya to kashiraj ki baDi beti amba ekaant mein bheeshm se boli—“gangey, mainne apne man mein saubhdesh ke raja shaalv ko apna pati maan liya tha. isi beech aap mujhe balpurvak yahan le aaye. mere man ki baat janne ke baad aap mere bare mein ab jo uchit samjhen, karen. ”",
"bheeshm ko amba ki baat janchi. unhonne amba ko uski ichchhanusar uchit prbandh ke saath shaalv ke paas bhej diya aur amba ki donon bahnon—ambika aur ambalika—ka vichitravirya ke saath vivah kara diya.",
"amba apne manonit var saubhraj shaalv ke paas gai aur sara vrittant kah sunaya. usne kaha—“rajan! main aapko hi apna pati maan chuki hoon. mere anurodh se bheeshm ne mujhe aapke paas bheja hai. aap mujhe apni patni svikar kar len. ”",
"par shaalv na mana. usne amba se kaha—“sare rajakumaron ke samne bheeshm ne mujhe yuddh mein parajit kiya aur tumhein balpurvak haran karke le ge. itne baDe apman ke baad main tumhein kaise svikar kar sakta hoon. tumhare liye ab uchit yahi hai ki tum bheeshm ke paas jao aur unki salah ke mutabik hi kaam karo. ”",
"bechari amba hastinapur laut aai aur bheeshm ko sara haal kah sunaya. unhonne vichitravirya se kaha—“vats, raja shaalv amba ko svikar nahin karta. isse vidit hota hai ki uski ichchha amba ko patni banane ki nahin thi. ab uske saath tumhara byaah karne mein koi apatti nahin rahi hai. par vichitravirya amba ke saath byaah karne ko raji na hue.",
"bechari amba na idhar ki rahi na udhar ki. koi aur rasta na dekh wo bheeshm se boli—“gangey, main to donon or se hi gai. mera koi bhi sahara na raha. aap hi mujhe har laye the, atः ab aapka ye kartavya hai ki aap mere saath byaah kar len. ”",
"bheeshm ne uski baat dhyaan se suni aur apni prtigya ki yaad dilakar bole—“apni prtigya to main nahin toD sakta. ” unhonne amba ki paristhiti samajhkar vichitravirya se dobara agrah kiya, par wo na mana. bheeshm ne amba ko phir samjhaya aur kaha ki saubhraj shaalv ke hi paas jao aur ek baar phir pararthna karo. lachar amba phir shaalv ke paas gai aur uski bahut minnten keen, lekin dusre ki jiti hui kanya ko svikar karne se saubhraj ne saaf inkaar kar diya. amba is prakar chhah saal tak hastinapur aur saubhdesh ke beech thokren khati phiri. usne apne is sare dukh ka karan bheeshm ko hi samjha. un par use bahut krodh aaya aur pratihinsa ki aag uske man mein jalne lagi.",
"bheeshm se badla lene ki ichchha se wo kai rajaon ke paas gai aur unko apna dukhDa sunaya. bheeshm se yuddh karke unka vadh karne ki usne rajaon se pararthna ki, par raja log to bheeshm ke naam se hi Darte the. kisi mein itna sahas na tha ki bheeshm se yuddh kare. kshatriyon se ekdam nirash hokar amba ne tapasvi brahmnon ki sharan li. tapasviyon ne kaha—“beti, tum parshuram ke paas jao. ve tumhari ichchha avashya puri karenge. ” tab rishiyon ki salah par amba parshuram ke paas gai.",
"amba ki karun kahani sunkar parshuram ka hriday pighal gaya. unhonne dayardr svar mein kaha—“kashiraj kanye, tum mujhse kya chahti ho?”",
"amba ne kaha—“brahman veer, meri pararthna keval yahi hai ki aap bheeshm se yuddh karen. main aapse bheeshm ke vadh ki bheekh mangti hoon. ”",
"parshuram ko amba ki pararthna pasand aai. baDe utsaah ke saath wo bheeshm ke paas ge aur unhen yuddh ke liye lalkara. donon kushal yoddha the aur dhanush vidya ke jankar bhi. donon hi jitendriy aur brahamchari the saman yoddhaon ki takkar thi. kai dinon tak yuddh hota raha, phir bhi haar jeet ka nishchay na ho saka. ant mein parshuram ne haar maan li aur unhonne amba se kaha—“jo kuch mere vash mein tha, kar chuka. ab tumhare liye yahi uchit hai ki tum bheeshm hi ki sharan lo. ”",
"par amba aisi baton se kab vichlit honevali thee? usne van mein jakar phir tapasya shuru ki aur tapobal se stri roop chhoDkar purush ban gai aur usne apna naam shikhanDi rakh liya.",
"jab kaurvon aur panDvon ke beech kurukshetr ke maidan mein yuddh hua, to bheeshm ke viruddh laDte samay shikhanDi rath ke aage baitha tha aur arjun theek uske pichhe gyani bheeshm ko ye baat malum thi ki amba hi shikhanDi ka roop dharan kiye hue hai. isliye unhonne us par baan chalana apni virochit pratishtha ke viruddh samjha. shikhanDi ko aage karke arjun ne bheeshm pitamah par hamla kiya aur ant mein un par vijay praapt ki. jab bheeshm aahat hokar prithvi par gire, tab jakar amba ka krodh shaant hua.",
"satyavti ke putr chitrangad baDe hi veer, parantu svechchhachari the. ek baar kisi gandharv ke saath yuddh hua, usmen wo mare ge. unke koi putr na tha, isliye unke chhote bhai vichitravirya hastinapur ki rajagaddi par baithe vichitravirya ki aayu us samay bahut chhoti thi, is karan unke balig hone tak raaj kaaj bheeshm ko hi sanbhalana paDa.",
"jab vichitravirya vivah ke yogya hue, to bheeshm ko unke vivah ki chinta hui. unhen khabar lagi ki kashiraj ki kanyaon ka svyanvar honevala hai. ye jankar bheeshm baDe khush hue aur svyanvar mein sammilit hone ke liye kashi ravana ho ge.",
"desh videsh ke anek rajakumar us svyanvar rajakumar us mein bhaag lene ke liye aaye the. rajputriyon ko pane ke liye aapas mein baDi spardha thi.",
"kshatriyon mein bheeshm ki prtigya ki pratishtha advitiy thi. unke mahan tyaag aur bhishan prtigya ka haal sab jante the. isliye jab wo svyanvar manDap mein pravisht hue, to rajakumaron ne socha ki wo sirf svyanvar dekhne ke liye aaye honge. parantu jab svyanvar mein sammilit honevalon mein bheeshm ne bhi apna naam diya to anya kumaron ko nirash hona paDa. unko kya pata tha ki driDhavrti bheeshm apne liye nahin, varan apne bhai ke liye svyanvar mein sammilit hue hain.",
"sabha mein khalbali mach gai. charon or se bheeshm par phabtiyan kasi jane lagin—“mana ki bharatvanshi bheeshm baDe buddhiman aur vidvan hain, svyanvar se inhen kya matlab? inke pran ka kya hua? jivanbhar brahamchari rahne ki inhonne jo prtigya ki thi, kya wo jhuthi thee?” is bhanti sab rajakumaron ne bheeshm ki hansi uDai, yahan tak ki kashiraj ki kanyaon ne bhi bheeshm ki taraf se drishti pher li aur unki avhelana si karke aage ki or chal deen.",
"bheeshm is avhelana ko sah na sake. unhonne sabhi rajakumaron ko harakar tinon rajkanyaon ko balpurvak rath par baitha liya aur hastinapur ko chal diye. saubhdesh ka raja shaalv baDa veer tha. kashiraj ki sabse baDi kanya amba us par anurukt thi aur usko man hi man apna pati maan chuki thi. shaalv ne bheeshm ke rath ka pichha kiya aur usko rokne ka prayatn kiya. is par bheeshm aur shaalv ke beech ghor yuddh chhiD gaya. bheeshm ne use hara diya, kintu kashiraj ki kanyaon ki pararthna par use jivit hi chhoD diya.",
"bheeshm kashiraj ki kanyaon ko lekar hastinapur pahunche. vichitravirya ke vivah ki sari taiyari ho jane ke baad jab kanyaon ko vivah manDap mein le jane ka samay aaya to kashiraj ki baDi beti amba ekaant mein bheeshm se boli—“gangey, mainne apne man mein saubhdesh ke raja shaalv ko apna pati maan liya tha. isi beech aap mujhe balpurvak yahan le aaye. mere man ki baat janne ke baad aap mere bare mein ab jo uchit samjhen, karen. ”",
"bheeshm ko amba ki baat janchi. unhonne amba ko uski ichchhanusar uchit prbandh ke saath shaalv ke paas bhej diya aur amba ki donon bahnon—ambika aur ambalika—ka vichitravirya ke saath vivah kara diya.",
"amba apne manonit var saubhraj shaalv ke paas gai aur sara vrittant kah sunaya. usne kaha—“rajan! main aapko hi apna pati maan chuki hoon. mere anurodh se bheeshm ne mujhe aapke paas bheja hai. aap mujhe apni patni svikar kar len. ”",
"par shaalv na mana. usne amba se kaha—“sare rajakumaron ke samne bheeshm ne mujhe yuddh mein parajit kiya aur tumhein balpurvak haran karke le ge. itne baDe apman ke baad main tumhein kaise svikar kar sakta hoon. tumhare liye ab uchit yahi hai ki tum bheeshm ke paas jao aur unki salah ke mutabik hi kaam karo. ”",
"bechari amba hastinapur laut aai aur bheeshm ko sara haal kah sunaya. unhonne vichitravirya se kaha—“vats, raja shaalv amba ko svikar nahin karta. isse vidit hota hai ki uski ichchha amba ko patni banane ki nahin thi. ab uske saath tumhara byaah karne mein koi apatti nahin rahi hai. par vichitravirya amba ke saath byaah karne ko raji na hue.",
"bechari amba na idhar ki rahi na udhar ki. koi aur rasta na dekh wo bheeshm se boli—“gangey, main to donon or se hi gai. mera koi bhi sahara na raha. aap hi mujhe har laye the, atः ab aapka ye kartavya hai ki aap mere saath byaah kar len. ”",
"bheeshm ne uski baat dhyaan se suni aur apni prtigya ki yaad dilakar bole—“apni prtigya to main nahin toD sakta. ” unhonne amba ki paristhiti samajhkar vichitravirya se dobara agrah kiya, par wo na mana. bheeshm ne amba ko phir samjhaya aur kaha ki saubhraj shaalv ke hi paas jao aur ek baar phir pararthna karo. lachar amba phir shaalv ke paas gai aur uski bahut minnten keen, lekin dusre ki jiti hui kanya ko svikar karne se saubhraj ne saaf inkaar kar diya. amba is prakar chhah saal tak hastinapur aur saubhdesh ke beech thokren khati phiri. usne apne is sare dukh ka karan bheeshm ko hi samjha. un par use bahut krodh aaya aur pratihinsa ki aag uske man mein jalne lagi.",
"bheeshm se badla lene ki ichchha se wo kai rajaon ke paas gai aur unko apna dukhDa sunaya. bheeshm se yuddh karke unka vadh karne ki usne rajaon se pararthna ki, par raja log to bheeshm ke naam se hi Darte the. kisi mein itna sahas na tha ki bheeshm se yuddh kare. kshatriyon se ekdam nirash hokar amba ne tapasvi brahmnon ki sharan li. tapasviyon ne kaha—“beti, tum parshuram ke paas jao. ve tumhari ichchha avashya puri karenge. ” tab rishiyon ki salah par amba parshuram ke paas gai.",
"amba ki karun kahani sunkar parshuram ka hriday pighal gaya. unhonne dayardr svar mein kaha—“kashiraj kanye, tum mujhse kya chahti ho?”",
"amba ne kaha—“brahman veer, meri pararthna keval yahi hai ki aap bheeshm se yuddh karen. main aapse bheeshm ke vadh ki bheekh mangti hoon. ”",
"parshuram ko amba ki pararthna pasand aai. baDe utsaah ke saath wo bheeshm ke paas ge aur unhen yuddh ke liye lalkara. donon kushal yoddha the aur dhanush vidya ke jankar bhi. donon hi jitendriy aur brahamchari the saman yoddhaon ki takkar thi. kai dinon tak yuddh hota raha, phir bhi haar jeet ka nishchay na ho saka. ant mein parshuram ne haar maan li aur unhonne amba se kaha—“jo kuch mere vash mein tha, kar chuka. ab tumhare liye yahi uchit hai ki tum bheeshm hi ki sharan lo. ”",
"par amba aisi baton se kab vichlit honevali thee? usne van mein jakar phir tapasya shuru ki aur tapobal se stri roop chhoDkar purush ban gai aur usne apna naam shikhanDi rakh liya.",
"jab kaurvon aur panDvon ke beech kurukshetr ke maidan mein yuddh hua, to bheeshm ke viruddh laDte samay shikhanDi rath ke aage baitha tha aur arjun theek uske pichhe gyani bheeshm ko ye baat malum thi ki amba hi shikhanDi ka roop dharan kiye hue hai. isliye unhonne us par baan chalana apni virochit pratishtha ke viruddh samjha. shikhanDi ko aage karke arjun ne bheeshm pitamah par hamla kiya aur ant mein un par vijay praapt ki. jab bheeshm aahat hokar prithvi par gire, tab jakar amba ka krodh shaant hua.",
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"This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.",
"You have remaining out of 5 free poetry pages per month. Log In or Register to become Rekhta Family member to access the full website.",
"Sign up and enjoy FREE unlimited access to a whole Universe of Urdu Poetry, Language Learning, Sufi Mysticism, Rare Texts",
"जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।",
"Devoted to the preservation & promotion of Urdu",
"Urdu poetry, urdu shayari, shayari in urdu, poetry in urdu",
"A Trilingual Treasure of Urdu Words",
"Online Treasure of Sufi and Sant Poetry",
"The best way to learn Urdu online",
"Best of Urdu & Hindi Books",
"हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश"
] |
बाल महाभारत : सातवाँ, आठवाँ और नवाँ दिन - कथा | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kathaen/class-7-ncert-7/baal-mahabharat-satvan-athvan-aur-navan-din-chakraborty-rajagopalacharya-kathaen?sort= | [
"प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।",
"सातवें दिन का युद्ध केंद्रित न था, बल्कि कई मोर्चों पर व्याप्त था। प्रत्येक मोर्चे पर विख्यात वीरों में घमासान युद्ध होता रहा। एक मोर्चे पर अर्जुन के विरूद्ध स्वयं भीष्म डटे हुए थे। एक स्थान पर द्रोणाचार्य और विराटराज में भीषण युद्ध हो रहा था। एक अन्य मोर्चे पर शिखंडी और अश्वत्थामा में लड़ाई हो रही थी। एक स्थान पर धृष्टद्युम्न और दुर्योधन युद्धरत थे। एक ओर नकुल और सहदेव अपने मामा शल्य पर बाण बरसा रहे थे। दूसरी ओर अवंती के दोनों राजा युधामन्यु से लड़ते दिखाई दे रहे थे। एक मोर्चे पर दुर्योधन के चार भाइयों की अकेला भीमसेन ख़बर ले रहा था, तो दूसरे मोर्चे पर घटोत्कच और भगदत्त में भयानक द्वंद्व छिड़ा हुआ था। एक ओर मोर्चे पर अलंबुष और सात्यकि की टक्कर थी। युधिष्ठिर का श्रुतायु के साथ द्वंद्व हो रहा था, जबकि कृपाचार्य और चेकितान एक अन्य मोर्चे पर लड़ रहे थे। द्रोणाचार्य के साथ लड़ाई में विराट को हार खानी पड़ी। विराट कुमार उत्तर एवं श्वेत पहले ही दिन की लड़ाई में काम आ चुके थे। सातवें दिन के युद्ध में तीसरे कुमार शंख ने पिता के देखते-देखते प्राण त्याग दिए, परंतु यह युद्ध अधिक देर नहीं चला। सूरज अस्त होने लगा और युद्ध बंद हुआ।",
"आठवें दिन का युद्ध शुरू हुआ, तो पहले ही धावे में भीमसेन ने धृतराष्ट्र के आठ बेटों का वध कर दिया। एक ऐसी घटना हुई कि जिससे अर्जुन शोक-विह्वल हो उठा। उसका लाड़ला, साहसी और वीर बेटा इरावान, जो एक नागकन्या से पैदा हुआ था, उस दिन खेत रहा। इधर भीमसेन के पुत्र घटोत्कच ने जब देखा कि दुर्ग की इरावान मारा गया, तो उसने इतने ज़ोर से गर्जना की कि जिससे सारी सेना थर्रा उठी। उसके बाद वह कौरव-सेना पर टूट पड़ा और घोर प्रलय मचाने लगा। युधिष्ठिर को लगा कि घटोत्कच पर कोई आफ़त आई है। उन्होंने तत्काल भीमसेन को घटनास्थल पर भेज दिया। भीमसेन के आ जाने पर तो युद्ध की भयानकता और भी अधिक बढ़ गई, परंतु जल्दी ही सूर्यास्त हो गया और युद्ध बंद हुआ।",
"नवें दिन के युद्ध में अभिमन्यु और अलंबुष में घोर संग्राम छिड़ गया। धनंजय के पुत्र ने पिता की ही भाँति रण-कौशल का परिचय दिया। पांडवों की सेना की पितामह ने उस दिन बड़ी दुर्गत की।",
"यहाँ तक कि अर्जुन और श्रीकृष्ण दोनों को ही बड़ी पीड़ा हुई। सैनिक बहुत पीड़ित हो रहे थे। थोड़ी देर में सूर्यास्त हुआ और उस दिन युद्ध बंद कर दिया गया।",
"satven din ka yuddh kendrit na tha, balki kai morchon par vyaapt tha. pratyek morche par vikhyat viron mein ghamasan yuddh hota raha. ek morche par arjun ke viruddh svayan bheeshm Date hue the. ek sthaan par dronacharya aur viratraj mein bhishan yuddh ho raha tha. ek anya morche par shikhanDi aur ashvatthama mein laDai ho rahi thi. ek sthaan par dhrishtadyumn aur duryodhan yuddharat the. ek or nakul aur sahdev apne mama shalya par baan barsa rahe the. dusri or avanti ke donon raja yudhamanyu se laDte dikhai de rahe the. ek morche par duryodhan ke chaar bhaiyon ki akela bhimasen khabar le raha tha, to dusre morche par ghatotkach aur bhagdatt mein bhayanak dvandv chhiDa hua tha. ek or morche par alambush aur satyaki ki takkar thi. yudhishthir ka shrutayu ke saath dvandv ho raha tha, jabki kripacharya aur chekitan ek anya morche par laD rahe the. dronacharya ke saath laDai mein virat ko haar khani paDi. virat kumar uttar evan shvet pahle hi din ki laDai mein kaam aa chuke the. satven din ke yuddh mein tisre kumar shankh ne pita ke dekhte dekhte praan tyaag diye, parantu ye yuddh adhik der nahin chala. suraj ast hone laga aur yuddh band hua.",
"athven din ka yuddh shuru hua, to pahle hi dhave mein bhimasen ne dhritarashtr ke aath beton ka vadh kar diya. ek aisi ghatna hui ki jisse arjun shok vihval ho utha. uska laDla, sahasi aur veer beta iravan, jo ek nagkanya se paida hua tha, us din khet raha. idhar bhimasen ke putr ghatotkach ne jab dekha ki durg ki iravan mara gaya, to usne itne zor se garjana ki ki jisse sari sena tharra uthi. uske baad wo kaurav sena par toot paDa aur ghor prlay machane laga. yudhishthir ko laga ki ghatotkach par koi aafat aai hai. unhonne tatkal bhimasen ko ghatnasthal par bhej diya. bhimasen ke aa jane par to yuddh ki bhayanakta aur bhi adhik baDh gai, parantu jaldi hi suryast ho gaya aur yuddh band hua.",
"naven din ke yuddh mein abhimanyu aur alambush mein ghor sangram chhiD gaya. dhananjay ke putr ne pita ki hi bhanti ran kaushal ka parichay diya. panDvon ki sena ki pitamah ne us din baDi durgat ki.",
"yahan tak ki arjun aur shrikrishn donon ko hi baDi piDa hui. sainik bahut piDit ho rahe the. thoDi der mein suryast hua aur us din yuddh band kar diya gaya.",
"satven din ka yuddh kendrit na tha, balki kai morchon par vyaapt tha. pratyek morche par vikhyat viron mein ghamasan yuddh hota raha. ek morche par arjun ke viruddh svayan bheeshm Date hue the. ek sthaan par dronacharya aur viratraj mein bhishan yuddh ho raha tha. ek anya morche par shikhanDi aur ashvatthama mein laDai ho rahi thi. ek sthaan par dhrishtadyumn aur duryodhan yuddharat the. ek or nakul aur sahdev apne mama shalya par baan barsa rahe the. dusri or avanti ke donon raja yudhamanyu se laDte dikhai de rahe the. ek morche par duryodhan ke chaar bhaiyon ki akela bhimasen khabar le raha tha, to dusre morche par ghatotkach aur bhagdatt mein bhayanak dvandv chhiDa hua tha. ek or morche par alambush aur satyaki ki takkar thi. yudhishthir ka shrutayu ke saath dvandv ho raha tha, jabki kripacharya aur chekitan ek anya morche par laD rahe the. dronacharya ke saath laDai mein virat ko haar khani paDi. virat kumar uttar evan shvet pahle hi din ki laDai mein kaam aa chuke the. satven din ke yuddh mein tisre kumar shankh ne pita ke dekhte dekhte praan tyaag diye, parantu ye yuddh adhik der nahin chala. suraj ast hone laga aur yuddh band hua.",
"athven din ka yuddh shuru hua, to pahle hi dhave mein bhimasen ne dhritarashtr ke aath beton ka vadh kar diya. ek aisi ghatna hui ki jisse arjun shok vihval ho utha. uska laDla, sahasi aur veer beta iravan, jo ek nagkanya se paida hua tha, us din khet raha. idhar bhimasen ke putr ghatotkach ne jab dekha ki durg ki iravan mara gaya, to usne itne zor se garjana ki ki jisse sari sena tharra uthi. uske baad wo kaurav sena par toot paDa aur ghor prlay machane laga. yudhishthir ko laga ki ghatotkach par koi aafat aai hai. unhonne tatkal bhimasen ko ghatnasthal par bhej diya. bhimasen ke aa jane par to yuddh ki bhayanakta aur bhi adhik baDh gai, parantu jaldi hi suryast ho gaya aur yuddh band hua.",
"naven din ke yuddh mein abhimanyu aur alambush mein ghor sangram chhiD gaya. dhananjay ke putr ne pita ki hi bhanti ran kaushal ka parichay diya. panDvon ki sena ki pitamah ne us din baDi durgat ki.",
"yahan tak ki arjun aur shrikrishn donon ko hi baDi piDa hui. sainik bahut piDit ho rahe the. thoDi der mein suryast hua aur us din yuddh band kar diya gaya.",
"Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.",
"Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.",
"This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.",
"You have remaining out of 5 free poetry pages per month. Log In or Register to become Rekhta Family member to access the full website.",
"Sign up and enjoy FREE unlimited access to a whole Universe of Urdu Poetry, Language Learning, Sufi Mysticism, Rare Texts",
"जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।",
"Devoted to the preservation & promotion of Urdu",
"Urdu poetry, urdu shayari, shayari in urdu, poetry in urdu",
"A Trilingual Treasure of Urdu Words",
"Online Treasure of Sufi and Sant Poetry",
"The best way to learn Urdu online",
"Best of Urdu & Hindi Books",
"हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश"
] |
बाल महाभारत : कुंती - कथा | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kathaen/class-7-ncert-7/baal-mahabharat-kunti-chakraborty-rajagopalacharya-kathaen?sort= | [
"प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।",
"यदुवंश के प्रसिद्ध राजा शूरसेन श्रीकृष्ण के पितामह थे। इनके पृथा नाम की कन्या थी। उसके रूप और गुणों की कीर्ति दूर-दूर तक फैली हुई थी। शूरसेन के फुफेरे भाई कुंतिभोज के कोई संतान न थी। शूरसेन ने कुंतिभोज को वचन दिया था कि उनकी जो पहली संतान होगी, उसे कुंतिभोज को गोद दे देंगे। उसी के अनुसार शूरसेन ने कुंतिभोज को पृथा गोद दे दी। कुंतिभोज के यहाँ आने पर पृथा का नाम कुंती पड़ गया।",
"कुंती के बचपन में ऋषि दुर्वासा एक बार कुंतिभोज के यहाँ पधारे। कुंती ने एक वर्ष तक बड़ी सावधानी व सहनशीलता के साथ उनकी सेवा सुश्रूषा की। उसकी सेवा टहल से दुर्वासा ऋषि प्रसन्न हुए और उसे उपदेश दिया और बोले—“कुंतिभोज कन्ये, तुम किसी भी देवता का ध्यान करोगी, तो वह अपने ही समान एक तेजस्वी पुत्र तुम्हें प्रदान करेगा।”",
"इस प्रकार सूर्य के संयोग से कुमारी कुंती ने सूर्य के समान तेजस्वी एवं सुंदर बालक को जन्म दिया। जन्मजात कवच और कुंडलों से शोभित वही बालक आगे चलकर शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ कर्ण के नाम से विख्यात हुआ। लेकिन अब कुंती को लोक-निंदा का डर हुआ। उसने बच्चे को छोड़ देना ही उचित समझा। इसलिए बच्चे को एक पेटी में बड़ी सावधानी के साथ बंद करके उसे गंगा की धारा में बहा दिया। बहुत आगे जाकर अधिरथ नाम के एक सारथी की नज़र उस पर पड़ी। उसने पेटी निकाली और खोलकर देखा तो उसमें एक सुंदर बच्चा सोता हुआ मिला। अधिरथ निःसंतान था। बालक को पाकर वह बड़ा प्रसन्न हुआ। सूर्य पुत्र कर्ण इस तरह एक सारथी के घर पलने लगा।",
"इधर कुंती विवाह के योग्य हुई। राजा कुंतिभोज ने उसका स्वयंवर रचा। उससे विवाह करने की इच्छा से देश-विदेश के अनेक राजकुमार स्वयंवर में आए। हस्तिनापुर के राजा पांडु भी स्वयंवर में शरीक हुए थे। कुंती ने उन्हीं के गले में वरमाला डाल दी। महाराज पांडु का कुंती से ब्याह हो गया और वह कुंती सहित हस्तिनापुर लौट आए। उन दिनों राजवंशों में एक से अधिक ब्याह करने की प्रथा प्रचलित थी। इसी रिवाज के अनुसार पितामह भीष्म की सलाह से महाराज पांडु ने मद्रराज की कन्या माद्री से भी ब्याह कर लिया।",
"एक दिन महाराजा पांडु वन में शिकार खेलने गए। वहीं जंगल में हिरण के रूप में एक ऋषि-दंपति भी विहार कर रहे थे। पांडु ने अपने तीर से हिरण को मार गिराया। उनको यह पता नहीं था कि ये ऋषि-दंपति हैं। ऋषि ने मरते-मरते पांडु को शाप दिया। ऋषि के शाप से पांडु को बड़ा दुख हुआ, साथ ही वह अपनी भूल से खिन्न होकर नगर को लौटे और पितामह भीष्म तथा विदुर को राज्य का भार सौंपकर अपनी पत्नियों के साथ वन में चले गए और वहाँ पर ब्रह्मचारी जैसा जीवन व्यतीत करने लगे। कुंती ने देखा कि महाराज को संतान लालसा तो है, लेकिन ऋषि के शापवश वह संतानोत्पत्ति नहीं कर सकते। अतः उसने विवाह से पूर्व दुर्वासा ऋषि से पाए वरदानों का पांडु से ज़िक्र किया।",
"उनके अनुरोध से कुंती और माद्री ने देवताओं के अनुग्रह से पाँच पांडवों को जन्म दिया। वन में ही पाँचों का जन्म हुआ और वहीं तपस्वियों के संग वे पलने लगे। अपनी दोनों स्त्रियों तथा बेटों के साथ महाराज पांडु कई बरस वन में रहे।",
"वसंत ऋतु थी। सारा वन आनंद में डूबा हुआ-सा प्रतीत हो रहा था। महाराज पांडु माद्री के साथ प्रकृति की इस उद्गारमय सुषमा को निहार रहे थे। ऋषि के शाप का असर हो गया। तत्काल उनकी मृत्यु हो गई। माद्री के दुख का पार न रहा। पति की मृत्यु का वह कारण बनी यह सोचकर पांडु के साथ ही वह भी मर गई।",
"इस दुर्घटना से कुंती और पाँचों पांडवों के शोक की सीमा न रही। पर वन के ऋषि-मुनियों ने बहुत समझा-बुझाकर उनको शांत किया और उन्हें हस्तिनापुर ले जाकर पितामह भीष्म के सुपुर्द किया। युधिष्ठिर की उम्र उस समय सोलह वर्ष की थी।",
"हस्तिनापुर के लोगों ने जब ऋषियों से सुना कि वन में पांडु की मृत्यु हो गई है, तो उनके शोक की सीमा न रही पोते की मृत्यु पर शोक करती हुई सत्यवती अपनी दोनों विधवा पुत्रवधुओं-अंबिका और अंबालिका को साथ लेकर वन में चली गई। तीनों वृद्धाएँ कुछ दिन तपस्या करती रहीं और बाद में स्वर्ग सिधार गईं। अपने कुल में जो छल-प्रपंच तथा अन्याय होने वाले थे, उन्हें न देखना ही संभवतः उन्होंने उचित समझा।",
"yaduvansh ke prasiddh raja shurasen shrikrishn ke pitamah the. inke pritha naam ki kanya thi. uske roop aur gunon ki kirti door door tak phaili hui thi. shurasen ke phuphere bhai kuntibhoj ke koi santan na thi. shurasen ne kuntibhoj ko vachan diya tha ki unki jo pahli santan hogi, use kuntibhoj ko god de denge. usi ke anusar shurasen ne kuntibhoj ko pritha god de di. kuntibhoj ke yahan aane par pritha ka naam kunti paD gaya.",
"kunti ke bachpan mein rishi durvasa ek baar kuntibhoj ke yahan padhare. kunti ne ek varsh tak baDi savadhani va sahanshilata ke saath unki seva sushrusha ki. uski seva tahal se durvasa rishi prasann hue aur use updesh diya aur bole—“kuntibhoj kanye, tum kisi bhi devta ka dhyaan karogi, to wo apne hi saman ek tejasvi putr tumhein pradan karega. ”",
"is prakar surya ke sanyog se kumari kunti ne surya ke saman tejasvi evan sundar balak ko janm diya. janmajat kavach aur kunDlon se shobhit vahi balak aage chalkar shastrdhariyon mein shreshth karn ke naam se vikhyat hua. lekin ab kunti ko lok ninda ka Dar hua. usne bachche ko chhoD dena hi uchit samjha. isliye bachche ko ek peti mein baDi savadhani ke saath band karke use ganga ki dhara mein baha diya. bahut aage jakar adhirath naam ke ek sarthi ki nazar us par paDi. usne peti nikali aur kholkar dekha to usmen ek sundar bachcha sota hua mila. adhirath niःsantan tha. balak ko pakar wo baDa prasann hua. surya putr karn is tarah ek sarthi ke ghar palne laga.",
"idhar kunti vivah ke yogya hui. raja kuntibhoj ne uska svyanvar racha. usse vivah karne ki ichchha se desh videsh ke anek rajakumar svyanvar mein aaye. hastinapur ke raja panDu bhi svyanvar mein sharik hue the. kunti ne unhin ke gale mein varmala Daal di. maharaj panDu ka kunti se byaah ho gaya aur wo kunti sahit hastinapur laut aaye. un dinon rajvanshon mein ek se adhik byaah karne ki pratha prachalit thi. isi rivaj ke anusar pitamah bheeshm ki salah se maharaj panDu ne madrraj ki kanya madri se bhi byaah kar liya.",
"ek din maharaja panDu van mein shikar khelne ge. vahin jangal mein hiran ke roop mein ek rishi dampati bhi vihar kar rahe the. panDu ne apne teer se hiran ko maar giraya. unko ye pata nahin tha ki ye rishi dampati hain. rishi ne marte marte panDu ko shaap diya. rishi ke shaap se panDu ko baDa dukh hua, saath hi wo apni bhool se khinn hokar nagar ko laute aur pitamah bheeshm tatha vidur ko rajya ka bhaar saumpkar apni patniyon ke saath van mein chale ge aur vahan par brahamchari jaisa jivan vyatit karne lage. kunti ne dekha ki maharaj ko santan lalsa to hai, lekin rishi ke shapvash wo santanotpatti nahin kar sakte. atः usne vivah se poorv durvasa rishi se pae vardanon ka panDu se zikr kiya.",
"unke anurodh se kunti aur madri ne devtaon ke anugrah se paanch panDvon ko janm diya. van mein hi panchon ka janm hua aur vahin tapasviyon ke sang ve palne lage. apni donon striyon tatha beton ke saath maharaj panDu kai baras van mein rahe.",
"vasant ritu thi. sara van anand mein Duba hua sa pratit ho raha tha. maharaj panDu madri ke saath prkriti ki is udgarmay sushama ko nihar rahe the. rishi ke shaap ka asar ho gaya. tatkal unki mrityu ho gai. madri ke dukh ka paar na raha. pati ki mrityu ka wo karan bani ye sochkar panDu ke saath hi wo bhi mar gai.",
"is durghatna se kunti aur panchon panDvon ke shok ki sima na rahi. par van ke rishi muniyon ne bahut samjha bujhakar unko shaant kiya aur unhen hastinapur le jakar pitamah bheeshm ke supurd kiya. yudhishthir ki umr us samay solah varsh ki thi.",
"hastinapur ke logon ne jab rishiyon se suna ki van mein panDu ki mrityu ho gai hai, to unke shok ki sima na rahi pote ki mrityu par shok karti hui satyavti apni donon vidhva putravadhuon ambika aur ambalika ko saath lekar van mein chali gai. tinon vriddhayen kuch din tapasya karti rahin aur baad mein svarg sidhar gain. apne kul mein jo chhal prpanch tatha anyay hone vale the, unhen na dekhana hi sambhvatः unhonne uchit samjha.",
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"This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.",
"You have remaining out of 5 free poetry pages per month. Log In or Register to become Rekhta Family member to access the full website.",
"Sign up and enjoy FREE unlimited access to a whole Universe of Urdu Poetry, Language Learning, Sufi Mysticism, Rare Texts",
"जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।",
"Devoted to the preservation & promotion of Urdu",
"Urdu poetry, urdu shayari, shayari in urdu, poetry in urdu",
"A Trilingual Treasure of Urdu Words",
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"Best of Urdu & Hindi Books",
"हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश"
] |
बाल महाभारत : बारहवाँ दिन - कथा | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kathaen/class-7-ncert-7/baal-mahabharat-barahvan-din-chakraborty-rajagopalacharya-kathaen?sort= | [
"प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।",
"युधिष्ठिर को जीवित पकड़ने की चेष्टा के विफल हो जाने पर अंत में यही निश्चय किया गया कि अर्जुन को युद्ध के लिए ललकारा जाए और लड़ते-लड़ते उसे युधिष्ठिर से दूर हटाकर ले जाया जाए। युद्ध का बारहवाँ दिन था। बहुत ही भयानक लड़ाई हो रही थी। आचार्य द्रोण ने युधिष्ठिर को जीवित पकड़ने की कई बार चेष्टा की पर असफल रहे। ‘भगदत्त के हाथी ने भीमसेन को मार दिया!’ यह शोर सुनकर युधिष्ठिर ने भी विश्वास कर लिया कि भीमसेन सचमुच ही मारा गया होगा। यह सोचकर उन्होंने अपने वीरों को आज्ञा दी कि वे भगदत्त पर हमला करें। इधर युधिष्ठिर द्वारा भेजी गई कुमुक आ पहुँची थी और वृद्ध भगदत्त को चारों तरफ़ से पांडव-वीरों ने घेर लिया था। उधर दूर अर्जुन संशप्तकों से लड़ रहा था।",
"अर्जुन के पहुँचते ही पांडवों की सेना में नया उत्साह आ गया। हाथी पर सवार भगदत्त ने अर्जुन और श्रीकृष्ण दोनों पर ही बाण बरसाने शुरू किए। भगदत्त ने एक तोमर अर्जुन पर चलाया। तोमर अर्जुन के मुकुट पर जा लगा। इससे अर्जुन को बड़ा क्रोध आया। उसने अपना मुकुट सँभालकर रख लिया और बोला—“भगदत्त अब इस संसार को अंतिम बार अच्छी तरह से देख लो।” यह कहते-कहते अर्जुन ने अपना गांडीव तान लिया। अर्जुन द्वारा छोड़े गए बाणों से भगदत्त का धनुष टूट गया। तर्कश का भी यही हाल हुआ। अर्जुन ने भगदत्त के मर्म स्थानों पर भी बाण चलाकर उन्हें छेद डाला। इसके बाद अर्जुन के तेज़ बाणों से भगदत्त की आँखों के ऊपर बँधी हुई रेशम की पट्टी कट गई, जो उसकी आँखों के ऊपर लटक आने वाली चमड़ी को ऊपर उठाए रखती थी। इससे भगदत्त की आँखें बंद हो गईं। उसे कुछ भी सूझना बंद हो गया। वह अँधेरे में मानो विलीन-सा हो गया। थोड़ी ही देर बाद एक और पैने बाण ने उसकी छाती भेद डाली। भगदत्त को गिरते हुए देखकर कौरवों की सेना मारे भय के तितर-बितर होने लगी। किंतु शकुनि के दो भाई वृषक और अचक तब भी विचलित न हुए और जमकर लड़ते रहे। उन दोनों वीरों ने अर्जुन पर आगे और पीछे से बाणों की वर्षा करके ख़ूब परेशान किया। अर्जुन ने थोड़ी देर बाद उन दोनों के रथों को तहस-नहस कर दिया और उनकी सेनाओं पर भी भयानक बाण-वर्षा की। सिंह शिशुओं के समान वे दोनों भाई अर्जुन के बाणों से घायल होकर गिर पड़े और मृत्यु को प्राप्त हुए।",
"अपने अनुपम वीर भाइयों के मारे जाने पर शकुनि के क्रोध और क्षोभ की सीमा न रही। उसने युद्ध शुरू कर दिया और उन सब उपायों से काम लिया, जिनमें उसे कुशलता प्राप्त थी। परंतु अर्जुन ने उसके एक-एक अस्त्र को अपने जवाबी अस्त्रों से काट डाला। अंत में अर्जुन के बाणों से शकुनि ऐसा आहत हुआ कि उसे युद्ध-क्षेत्र से हट जाना पड़ा।",
"इसके बाद तो पांडवों की सेना द्रोणाचार्य की सेना पर टूट पड़ी। असंख्य वीर खेत रहे। ख़ून की नदियाँ-सी बहने लगीं। थोड़ी देर बाद सूर्य अस्त हुआ। अपनी सेना का यह हाल देखकर द्रोणाचार्य ने लड़ाई बंद कर दी। दोनों पक्षों की सेनाएँ अपने-अपने डेरों को चल दीं और इस प्रकार बारहवें दिन का युद्ध समाप्त हुआ।",
"yudhishthir ko jivit pakaDne ki cheshta ke viphal ho jane par ant mein yahi nishchay kiya gaya ki arjun ko yuddh ke liye lalkara jaye aur laDte laDte use yudhishthir se door hatakar le jaya jaye. yuddh ka barahvan din tha. bahut hi bhayanak laDai ho rahi thi. acharya dron ne yudhishthir ko jivit pakaDne ki kai baar cheshta ki par asfal rahe. ‘bhagdatt ke hathi ne bhimasen ko maar diya!’ ye shor sunkar yudhishthir ne bhi vishvas kar liya ki bhimasen sachmuch hi mara gaya hoga. ye sochkar unhonne apne viron ko aagya di ki ve bhagdatt par hamla karen. idhar yudhishthir dvara bheji gai kumuk aa pahunchi thi aur vriddh bhagdatt ko charon taraf se panDav viron ne gher liya tha. udhar door arjun sanshaptkon se laD raha tha.",
"arjun ke pahunchte hi panDvon ki sena mein naya utsaah aa gaya. hathi par savar bhagdatt ne arjun aur shrikrishn donon par hi baan barsane shuru kiye. bhagdatt ne ek tomar arjun par chalaya. tomar arjun ke mukut par ja laga. isse arjun ko baDa krodh aaya. usne apna mukut sanbhalakar rakh liya aur bola—“bhagdatt ab is sansar ko antim baar achchhi tarah se dekh lo. ” ye kahte kahte arjun ne apna ganDiv taan liya. arjun dvara chhoDe ge banon se bhagdatt ka dhanush toot gaya. tarkash ka bhi yahi haal hua. arjun ne bhagdatt ke marm sthanon par bhi baan chalakar unhen chhed Dala. iske baad arjun ke tez banon se bhagdatt ki ankhon ke uupar bandhi hui resham ki patti kat gai, jo uski ankhon ke uupar latak anevali chamDi ko uupar uthaye rakhti thi. isse bhagdatt ki ankhen band ho gain. use kuch bhi sujhna band ho gaya. wo andhere mein mano vilin sa ho gaya. thoDi hi der baad ek aur paine baan ne uski chhati bhed Dali. bhagdatt ko girte hue dekhkar kaurvon ki sena mare bhay ke titar bitar hone lagi. kintu shakuni ke do bhai vrishak aur achak tab bhi vichlit na hue aur jamkar laDte rahe. un donon viron ne arjun par aage aur pichhe se banon ki varsha karke khoob pareshan kiya. arjun ne thoDi der baad un donon ke rathon ko tahas nahas kar diya aur unki senaon par bhi bhayanak baan varsha ki. sinh shishuon ke saman ve donon bhai arjun ke banon se ghayal hokar gir paDe aur mrityu ko praapt hue.",
"apne anupam veer bhaiyon ke mare jane par shakuni ke krodh aur kshobh ki sima na rahi. usne yuddh shuru kar diya aur un sab upayon se kaam liya, jinmen use kushalta praapt thi. parantu arjun ne uske ek ek astra ko apne javabi astron se kaat Dala. ant mein arjun ke banon se shakuni aisa aahat hua ki use yuddh kshetr se hat jana paDa.",
"iske baad to panDvon ki sena dronacharya ki sena par toot paDi. asankhya veer khet rahe. khoon ki nadiyan si bahne lagin. thoDi der baad surya ast hua. apni sena ka ye haal dekhkar dronacharya ne laDai band kar di. donon pakshon ki senayen apne apne Deron ko chal deen aur is prakar barahven din ka yuddh samapt hua.",
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"iske baad to panDvon ki sena dronacharya ki sena par toot paDi. asankhya veer khet rahe. khoon ki nadiyan si bahne lagin. thoDi der baad surya ast hua. apni sena ka ye haal dekhkar dronacharya ne laDai band kar di. donon pakshon ki senayen apne apne Deron ko chal deen aur is prakar barahven din ka yuddh samapt hua.",
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"जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।",
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"हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश"
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बाल महाभारत : प्रतिज्ञा-पूर्ति - कथा | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kathaen/class-7-ncert-7/baal-mahabharat-prtigya-purti-chakraborty-rajagopalacharya-kathaen?sort= | [
"प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।",
"द्रोण ने कहा—“मालूम होता है, यह तो अर्जुन ही आया है।” आचार्य की शंका और घबराहट दुर्योधन को ठीक न लगी। तभी कर्ण बोला—“पांडव जुए के खेल में जब हार गए थे, तो शर्त के अनुसार उन्हें बारह बरस का वनवास और एक बरस अज्ञातवास में बिताना था। अभी तेरहवाँ बरस पूरा नहीं हुआ है और अर्जुन हमारे सामने प्रकट हो गया है, तो डर किस बात का है? शर्त के अनुसार पांडवों को फिर से बारह बरस वनवास और एक बरस अज्ञातवास में बिताना होगा। अजीब बात है कि सेना के योद्धा भय के मारे काँप रहे हैं, जबकि उन्हें दिल खोलकर लड़ना चाहिए। आप लोग यही रट लगा रहे हैं कि सामने जो रथ आ रहा है, उस पर अर्जुन धनुष ताने हुए बैठा है। पर वहाँ अर्जुन की बजाए परशुराम हों, तो भी हम क्यों डरें? मैं तो अकेला ही जाकर उसका मुक़ाबला करूँगा और मैंने दुर्योधन को जो वचन दिया था, उसे आज पूरा करके दिखाऊँगा।”",
"कर्ण को यो दम भरते हुए देखकर कृपाचार्य झल्लाकर बोले—“कर्ण मूर्खता की बातें न करो। हम सबको एक साथ मिलकर अर्जुन का मुक़ाबला करना होगा।”",
"यह सुनकर कर्ण को ग़ुस्सा आ गया। वह बोला—“आचार्य तो अर्जुन की प्रशंसा करते कभी थकते ही नहीं हैं। अर्जुन की शक्ति को बढ़ा-चढ़ाकर बताने की इन्हें एक आदत सी पड़ गई है। न मालूम यह भय के कारण है या अर्जुन को अधिक प्यार करते हैं, इस कारण है। जो भी हो, मैं अकेला ही डटा रहूँगा।”",
"जब कर्ण ने आचार्य की यों चुटकी ली, तो कृपाचार्य के भानजे अश्वत्थामा से न रहा गया। वह बोला—“कर्ण! किया तुमने कुछ नहीं है और कोरी डोंगे मारने में समय गँवा रहे हो।”",
"इस प्रकार कौरव सेना के वीर आपस में ही वाद-विवाद तथा झगड़ा करने लगे। यह देखकर भीष्म बड़े खिन्न हुए। वह बोले—“यह आपस में बैर-विरोध या झगड़े का समय नहीं है। अभी तो सबको एक साथ मिलकर शत्रु का मुक़ाबला करना है।”",
"पितामह के इस प्रकार समझाने पर कर्ण, अश्वत्थामा आदि वीर जो उत्तेजित हो रहे थे, शांत हो गए। सबको शांत देखकर भीष्म दुर्योधन से फिर बोले—“बेटा दुर्योधन, अर्जुन प्रकट हो गया, वह ठीक है। पर प्रतिज्ञा का समय कल ही पूरा हो चुका है। चंद्र और सूर्य की गति, वर्ष, महीने और पक्ष विभाग के पारस्परिक संबंध को अच्छी तरह जानने वाले मेरे कथन की पुष्टि करेंगे। प्रत्येक वर्ष में एक जैसे महीने नहीं होते। मालूम होता है कि तुम लोगों की गणना में भूल हुई है। इसलिए तुम्हें भ्रम हुआ है। जैसे ही अर्जुन ने गांडीव धनुष की टंकार की थी, मैं समझ गया था कि प्रतिज्ञा की अवधि पूरी हो गई है। दुर्योधन! युद्ध शुरू करने से पहले इस बात का निश्चय कर लेना होगा कि पांडवों के साथ संधि कर लें या नहीं। यदि संधि करने की इच्छा है, तो उसके लिए अभी समय है।”",
"दुर्योधन ने कहा—“पूज्य पितामह! मैं संधि नहीं चाहता हूँ। राज्य तो दूर रहा, मैं तो एक गाँव तक पांडवों को देने के लिए तैयार नहीं हूँ।”",
"यह सुनकर द्रोणाचार्य की आज्ञानुसार कौरव वीरों ने व्यूह रचना की। उधर उत्तर ने रथ उसी ओर हाँक दिया, जिधर दुर्योधन था। अर्जुन ने गांडीव पर चढ़ाकर दो-दो बाण आचार्य द्रोण और पितामह भीष्म की ओर इस तरह से छोड़े जो उनके चरणों में जाकर गिरे। इस प्रकार अपने बड़ों की वंदना करके, अर्जुन ने दुर्योधन का पीछा किया। अर्जुन को दुर्योधन का पीछा करते देखकर भीष्म आदि सेना लेकर अर्जुन का पीछा करने लगे। अर्जुन ने उस समय अद्भुत रण-कौशल का परिचय दिया। पहले तो उसने कर्ण पर हमला करके उसे बुरी तरह से घायल करके मैदान से भगा दिया। इसके बाद द्रोणाचार्य की बुरी गत होते देखकर अश्वत्थामा आगे बढ़ा और अर्जुन पर बाण बरसाने लगा। अर्जुन ने जरा सा हटकर द्रोणाचार्य को खिसक जाने का मौक़ा दे दिया। मौक़ा पाकर आचार्य जल्दी से खिसक गए। उनके चले जाने के बाद अर्जुन अब अश्वत्थामा पर टूट पड़ा। दोनों में भयानक युद्ध होता रहा। अंत में अश्वत्थामा को हार माननी पड़ी। उसके बाद कृपाचार्य की बारी आई और वह भी हार गए। पाँचों महारथी जब इस भाँति परास्त हो गए, तो फिर सेना किसके बल पर टिकती! सारी कौरव-सेना को अर्जुन ने जल्दी ही तितर-बितर कर दिया। सैनिक अपनी जान बचाकर भाग खड़े हुए।",
"इस भाँति भीषण युद्ध करते हुए भी अर्जुन ने दुर्योधन का पीछा करना न छोड़ा। पाँचों महारथियों द्वारा अर्जुन को एक साथ रोकने का प्रयत्न करने पर भी उसे रोका न जा सका। अर्जुन आख़िर दुर्योधन के निकट पहुँच ही गया। उसने दुर्योधन पर भीषण हमला कर दिया। दुर्योधन घायल हो गया और मैदान छोड़कर भाग खड़ा हुआ।",
"भीष्म ने उससे कहा कि अब वापस हस्तिनापुर लौट चलना चाहिए। भीष्म की सलाह मानकर सारी सेना हार मानकर हस्तिनापुर की ओर लौट चली।",
"इधर युद्ध से लौटते हुए अर्जुन ने कहा—“उत्तर! अपना रथ नगर की ओर ले चलो। तुम्हारी गायें छुड़ा ली गई हैं। शत्रु भी भाग खड़े हुए हैं। इस विजय का यश तुम्हीं को मिलना चाहिए। इसलिए चंदन लगाकर और फूलों का हार पहनकर नगर में प्रवेश करना।”",
"रास्ते में अर्जुन ने फिर से बृहन्नला का वेश धारण कर लिया और राजकुमार उत्तर को रथ पर बैठाकर सारथी के स्थान पर ख़ुद बैठ गया। उन्होंने विराटनगर की ओर कुछ दूतों को यह आज्ञा देकर भेज दिया कि जाकर घोषणा कर दो कि राजकुमार उत्तर की विजय हुई है।",
"dron ne kaha—“malum hota hai, ye to arjun hi aaya hai. ” acharya ki shanka aur ghabrahat duryodhan ko theek na lagi. tabhi karn bola—“panDav jue ke khel mein jab haar ge the, to shart ke anusar unhen barah baras ka vanvas aur ek baras agyatvas mein bitana tha. abhi terahvan baras pura nahin hua hai aur arjun hamare samne prakat ho gaya hai, to Dar kis baat ka hai? shart ke anusar panDvon ko phir se barah baras vanvas aur ek baras agyatvas mein bitana hoga. ajib baat hai ki sena ke yoddha bhay ke mare kaanp rahe hain, jabki unhen dil kholkar laDna chahiye. aap log yahi rat laga rahe hain ki samne jo rath aa raha hai, us par arjun dhanush tane hue baitha hai. par vahan arjun ki bajaye parshuram hon, to bhi hum kyon Daren? main to akela hi jakar uska muqabala karunga aur mainne duryodhan ko jo vachan diya tha, use aaj pura karke dikhaunga. ”",
"karn ko yo dam bharte hue dekhkar kripacharya jhallakar bole—“karn murkhata ki baten na karo. hum sabko ek saath milkar arjun ka muqabala karna hoga. ”",
"ye sunkar karn ko ghussa aa gaya. wo bola—“acharya to arjun ki prshansa karte kabhi thakte hi nahin hain. arjun ki shakti ko baDha chaDhakar batane ki inhen ek aadat si paD gai hai. na malum ye bhay ke karan hai ya arjun ko adhik pyaar karte hain, is karan hai. jo bhi ho, main akela hi Data rahunga. ”",
"jab karn ne acharya ki yon chutki li, to kripacharya ke bhanje ashvatthama se na raha gaya. wo bola—“karn! kiya tumne kuch nahin hai aur kori Donge marne mein samay ganva rahe ho. ”",
"is prakar kaurav sena ke veer aapas mein hi vaad vivad tatha jhagDa karne lage. ye dekhkar bheeshm baDe khinn hue. wo bole—“yah aapas mein bair virodh ya jhagDe ka samay nahin hai. abhi to sabko ek saath milkar shatru ka muqabala karna hai. ”",
"pitamah ke is prakar samjhane par karn, ashvatthama aadi veer jo uttejit ho rahe the, shaant ho ge. sabko shaant dekhkar bheeshm duryodhan se phir bole—“beta duryodhan, arjun prakat ho gaya, wo theek hai. par prtigya ka samay kal hi pura ho chuka hai. chandr aur surya ki gati, varsh, mahine aur paksh vibhag ke parasparik sambandh ko achchhi tarah jannevale mere kathan ki pushti karenge. pratyek varsh mein ek jaise mahine nahin hote. malum hota hai ki tum logon ki ganna mein bhool hui hai. isliye tumhein bhram hua hai. jaise hi arjun ne ganDiv dhanush ki tankar ki thi, main samajh gaya tha ki prtigya ki avadhi puri ho gai hai. duryodhan! yuddh shuru karne se pahle is baat ka nishchay kar lena hoga ki panDvon ke saath sandhi kar len ya nahin. yadi sandhi karne ki ichchha hai, to uske liye abhi samay hai. ”",
"duryodhan ne kaha—“pujya pitamah! main sandhi nahin chahta hoon. rajya to door raha, main to ek gaanv tak panDvon ko dene ke liye taiyar nahin hoon. ”",
"ye sunkar dronacharya ki agyanusar kaurav viron ne vyooh rachna ki. udhar uttar ne rath usi or haank diya, jidhar duryodhan tha. arjun ne ganDiv par chaDhakar do do baan acharya dron aur pitamah bheeshm ki or is tarah se chhoDe jo unke charnon mein jakar gire. is prakar apne baDon ki vandna karke, arjun ne duryodhan ka pichha kiya. arjun ko duryodhan ka pichha karte dekhkar bheeshm aadi sena lekar arjun ka pichha karne lage. arjun ne us samay adbhut ran kaushal ka parichay diya. pahle to usne karn par hamla karke use buri tarah se ghayal karke maidan se bhaga diya. iske baad dronacharya ki buri gat hote dekhkar ashvatthama aage baDha aur arjun par baan barsane laga. arjun ne jara sa hatkar dronacharya ko khisak jane ka mauka de diya. mauka pakar acharya jaldi se khisak ge. unke chale jane ke baad arjun ab ashvatthama par toot paDa. donon mein bhayanak yuddh hota raha. ant mein ashvatthama ko haar manni paDi. uske baad kripacharya ki bari aai aur wo bhi haar ge. panchon maharathi jab is bhanti parast ho ge, to phir sena kiske bal par tikti! sari kaurav sena ko arjun ne jaldi hi titar bitar kar diya. sainik apni jaan bachakar bhaag khaDe hue.",
"is bhanti bhishan yuddh karte hue bhi arjun ne duryodhan ka pichha karna na chhoDa. panchon maharathiyon dvara arjun ko ek saath rokne ka prayatn karne par bhi use roka na ja saka. arjun akhir duryodhan ke nikat pahunch hi gaya. usne duryodhan par bhishan hamla kar diya. duryodhan ghayal ho gaya aur maidan chhoDkar bhaag khaDa hua.",
"bheeshm ne usse kaha ki ab vapas hastinapur laut chalna chahiye. bheeshm ki salah mankar sari sena haar mankar hastinapur ki or laut chali.",
"idhar yuddh se lautte hue arjun ne kaha—“uttar! apna rath nagar ki or le chalo. tumhari gayen chhuDa li gai hain. shatru bhi bhaag khaDe hue hain. is vijay ka yash tumhin ko milna chahiye. isliye chandan lagakar aur phulon ka haar pahankar nagar mein pravesh karna. ”",
"raste mein arjun ne phir se brihannla ka vesh dharan kar liya aur rajakumar uttar ko rath par baithakar sarthi ke sthaan par khud baith gaya. unhonne viratangar ki or kuch duton ko ye aagya dekar bhej diya ki jakar ghoshna kar do ki rajakumar uttar ki vijay hui hai.",
"dron ne kaha—“malum hota hai, ye to arjun hi aaya hai. ” acharya ki shanka aur ghabrahat duryodhan ko theek na lagi. tabhi karn bola—“panDav jue ke khel mein jab haar ge the, to shart ke anusar unhen barah baras ka vanvas aur ek baras agyatvas mein bitana tha. abhi terahvan baras pura nahin hua hai aur arjun hamare samne prakat ho gaya hai, to Dar kis baat ka hai? shart ke anusar panDvon ko phir se barah baras vanvas aur ek baras agyatvas mein bitana hoga. ajib baat hai ki sena ke yoddha bhay ke mare kaanp rahe hain, jabki unhen dil kholkar laDna chahiye. aap log yahi rat laga rahe hain ki samne jo rath aa raha hai, us par arjun dhanush tane hue baitha hai. par vahan arjun ki bajaye parshuram hon, to bhi hum kyon Daren? main to akela hi jakar uska muqabala karunga aur mainne duryodhan ko jo vachan diya tha, use aaj pura karke dikhaunga. ”",
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] |
बाल महाभारत : जरासंध - कथा | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kathaen/class-7-ncert-7/baal-mahabharat-jarasandh-chakraborty-rajagopalacharya-kathaen?sort= | [
"प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।",
"इंद्रप्रस्थ में प्रतापी पांडव न्यायपूर्वक प्रजा-पालन कर रहे थे। युधिष्ठिर के भाइयों तथा साथियों की इच्छा हुई कि अब राजसूय यज्ञ करके सम्राट-पद प्राप्त किया जाए। इस बारे में सलाह करने के लिए युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण को संदेश भेजा। जब श्रीकृष्ण को मालूम हुआ कि युधिष्ठिर उनसे मिलना चाहते हैं, तो तत्काल ही वह द्वारका से चल पड़े और इंद्रप्रस्थ पहुँचे।",
"युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से कहा—“मित्रों का कहना है कि मैं राजसूय यज्ञ करके सम्राट-पद प्राप्त करूँ। परंतु राजसूय यज्ञ तो वही कर सकता है, जो सारे संसार के नरेशों का पूज्य हो और उनके द्वारा सम्मानित हो। आप ही इस विषय में मुझे सही सलाह दे सकते हैं।”",
"युधिष्ठिर की बात शांति के साथ सुनकर श्रीकृष्ण बोले—“मगधदेश के राजा जरासंध ने सब राजाओं को जीतकर उन्हें अपने अधीन कर रखा है। सभी उसका लोहा मान चुके हैं और उसके नाम से डरते हैं, यहाँ तक कि शिशुपाल जैसे शक्ति-संपन्न राजा भी उसकी अधीनता स्वीकार कर चुके हैं और उसकी छत्रछाया में रहना पसंद करते हैं। अतः जरासंध के रहते हुए और कौन सम्राट-पद प्राप्त कर सकता है? जब महाराज उग्रसेन का नासमझ बेटा कंस जरासंध की बेटी से ब्याह करके उसका साथी बन गया था, तब मैंने और मेरे बंधुओं ने जरासंध के विरुद्ध युद्ध किया था। तीन बरस तक हम उसकी सेनाओं के साथ लड़ते रहे पर आख़िर हार गए। हमें मथुरा छोड़कर दूर पश्चिम द्वारका में जाकर नगर और दुर्ग बनाकर रहना पड़ा। आपके साम्राज्याधीश होने में दुर्योधन और कर्ण को आपत्ति न भी हो, फिर भी जरासंध से इसकी आशा रखना बेकार है। बग़ैर युद्ध के जरासंध इस बात को नहीं मान सकता है। जरासंध ने आज तक पराजय का नाम तक नहीं जाना है। ऐसे अजेय पराक्रमी राजा जरासंध के जीते जी आप राजसूय यज्ञ नहीं कर सकेंगे। उसने जो राजे-महाराजे बंदीगृह में डाल रखे हैं, किसी-न-किसी उपाय से पहले उन्हें छुड़ाना होगा। जब ये हो जाएगा, तभी राजसूय करना आपके लिए साध्य होगा।”",
"श्रीकृष्ण की ये बातें सुनकर शांति-प्रिय राजा युधिष्ठिर बोले—“आपका कहना बिलकुल सही है। इस विशाल संसार में कितने ही राजाओं के लिए जगह है। कितने ही नरेश अपने अपने राज्य का शासन करते हुए इसमें संतुष्ट रह सकते हैं। आकांक्षा वह आग है, जो कभी बुझती नहीं है। इसलिए मेरी भलाई इसी में दिखती है। कि साम्राज्याधीश बनने का विचार छोड़ दूँ और जो है उसी को लेकर संतुष्ट रहूँ।”",
"युधिष्ठिर की यह विनयशीलता भीमसेन को अच्छी न लगी। उसने कहा—“श्रीकृष्ण की नीति-कुशलता, मेरा शारीरिक बल और अर्जुन का शौर्य एक साथ मिल जाने पर कौन सा ऐसा काम है, जो हम नहीं कर सकते? यदि हम तीनों एक साथ चल पड़ें, तो जरासंध की शक्ति को चूर करके ही लौटेंगे। आप इस बात की शंका न करें।”",
"यह सुनकर श्रीकृष्ण ने कहा—“यदि भीम और अर्जुन सहमत हों, तो हम तीनों एक साथ जाकर उस अन्यायी की जेल में पड़े हुए निर्दोष राजाओं को छुड़ा सकेंगे।”",
"परंतु युधिष्ठिर को यह बात न जँची। उन्होंने कहा—“मैं तो कहूँगा कि जिस कार्य में प्राणों पर बन आने की संभावना हो, उसके विचार तक को छोड़ देना ही अच्छा होगा।”",
"यह सुनकर वीर अर्जुन बोल उठा—“यदि हम यशस्वी भरतवंश की संतान होकर भी कोई साहस का काम न करें, तो धिक्कार है हमें और हमारे जीवन को! जिस काम को करने की हममें सामर्थ्य है, भाई युधिष्ठिर क्यों समझते हैं कि उसे हम न कर सकेंगे?”",
"श्रीकृष्ण अर्जुन की इन बातों से मुग्ध हो गए। बोले—“धन्य हो अर्जुन! कुंती के लाल अर्जुन से मुझे यही आशा थी।”",
"जब जरासंध के साथ युद्ध करने का निश्चय हो गया, तो श्रीकृष्ण और पांडवों ने अपनी योजना बनाई। श्रीकृष्ण, भीमसेन और अर्जुन ने वल्कल पहन लिए, हाथ में कुशा ले ली और व्रती लोगों का-सा वेष धारण करके मगध देश के लिए रवाना हो गए। राह में सुंदर नगरों तथा गाँवों को पार करते हुए वे तीनों जरासंध की राजधानी में पहुँचे। जरासंध ने कुलीन अतिथि समझकर उनका बड़े आदर के साथ स्वागत किया। जरासंध के स्वागत का भीम और अर्जुन ने कोई जवाब नहीं दिया। वे दोनों मौन रहे। इस पर श्रीकृष्ण बोले—“मेरे दोनों साथियों ने मौन व्रत लिया हुआ है, इस कारण अभी नहीं बोलेंगे। आधी रात के बाद व्रत खुलने पर बातचीत करेंगे।” जरासंध ने इस बात पर विश्वास कर लिया और तीनों मेहमानों को यज्ञशाला में ठहराकर महल में चला गया। कोई भी ब्राह्मण अतिथि जरासंध के यहाँ आता, तो उनकी इच्छा तथा सुविधा के अनुसार बातें करना व उनका सत्कार करना जरासंध का नियम था। इसके अनुसार आधी रात के बाद जरासंध अतिथियों से मिलने गया, लेकिन अतिथियों के रंग-ढंग देखकर मगध नरेश के मन में कुछ शंका हुई।",
"राजा जरासंध ने कड़ककर पूछा—“सच-सच बताओ, तुम लोग कौन हो? ब्राह्मण तो नहीं दिखाई देते।” इस पर तीनों ने सही हाल बता दिया और कहा—“हम तुम्हारे शत्रु हैं। तुमसे अभी द्वंद्व युद्ध करना चाहते हैं। हम तीनों में से किसी एक से, जिससे तुम्हारी इच्छा हो, लड़ सकते हो। हम सभी इसके लिए तैयार हैं।”",
"तभी भीमसेन और जरासंध में कुश्ती शुरू हो गई। दोनों वीर एक-दूसरे को पकड़ते, मारते और उठाते हुए लड़ने लगे। इस प्रकार पलभर भी विश्राम किए बग़ैर वे तेरह दिन और तेरह रात लगातार लड़ते रहे। चौदहवें दिन जरासंध थककर ज़रा देर को रुक गया। पर ठीक मौक़ा देखकर श्रीकृष्ण ने भीम को इशारे से समझाया और भीमसेन ने फ़ौरन जरासंध को उठाकर चारों ओर घुमाया और उसे ज़मीन पर ज़ोर से पटक दिया। इस प्रकार अजेय जरासंध का अंत हो गया।",
"श्रीकृष्ण और दोनों पांडवों ने उन सब राजाओं को छुड़ा लिया, जिनको जरासंध ने बंदीगृह में डाल रखा था और जरासंध के पुत्र सहदेव को मगध की राजगद्दी पर बैठाकर इंद्रप्रस्थ लौट आए। इसके बाद पांडवों ने विजय-यात्रा की और सारे देश को महाराज युधिष्ठिर की अधीनता में ले आए।",
"जरासंध के वध के बाद पांडवों ने राजसूय यज्ञ किया। इसमें समस्त भारत के राजा आए हुए थे। जब अभ्यागत नरेशों का आदर-सत्कार करने की बारी आई तो प्रश्न उठा कि अग्र पूजा किसकी हो? सम्राट युधिष्ठिर ने इस बारे में पितामह भीष्म से सलाह ली। वृद्ध भीष्म ने कहा कि द्वारकाधीश श्रीकृष्ण की पूजा पहले की जाए। युधिष्ठिर को भी यह बात पसंद आई। उन्होंने सहदेव को आज्ञा दी कि वह श्रीकृष्ण का पूजन करे। सहदेव ने विधिवत् श्रीकृष्ण की पूजा की। वासुदेव का इस प्रकार गौरवान्वित होना चेदि नरेश शिशुपाल को अच्छा नहीं लगा। वह एकाएक उठ खड़ा हुआ और ठहाका मारकर हँस पड़ा। सारी सभा की दृष्टि जब शिशुपाल की ओर गई, तो वह ऊँचे स्वर में व्यंग्य से बोलने लगा—“यह अन्याय की बात है कि एक मामूली से व्यक्ति को इस प्रकार गौरवान्वित किया जाता है।”",
"युधिष्ठिर को यों आड़े हाथों लेने के बाद शिशुपाल सभा में उपस्थित राजाओं की ओर देखकर बोला—“उपस्थित राजागण! जिस दुरात्मा-ने कुचक्र रचकर वीर जरासंध को मरवा डाला, उसी की युधिष्ठिर ने अग्रपूजा की। इसके बाद-उसे हम धर्मात्मा कैसे कह सकते हैं? उनमें हमारा विश्वास नहीं रहा है।”",
"इस तरह शब्द-बाणों की बौछार कर चुकने के बाद शिशुपाल दूसरे कुछ राजाओं को साथ लेकर सभा से निकल गया। राजाधिराज युधिष्ठिर नाराज़ हुए राजाओं के पीछे दौड़े गए और अनुनय-विनय करके उन्हें समधाने लगे। युधिष्टिर के बहुत समझाने पर भी शिशुपाल नहीं माना। उसका हठ और घमंड बढ़ता गया। अंत में शिशुपाल श्रीकृष्ण में युद्ध छिड़ गया, जिसमें शिशुपाल मारा गया। राजसूय यज्ञ संपूर्ण हुआ और राजा युधिष्टिर को राजाधिराज की पदवी प्राप्त हो गई।",
"indraprastha mein pratapi panDav nyaypurvak praja palan kar rahe the. yudhishthir ke bhaiyon tatha sathiyon ki ichchha hui ki ab rajasuy yagya karke samrat pad praapt kiya jaye. is bare mein salah karne ke liye yudhishthir ne shrikrishn ko sandesh bheja. jab shrikrishn ko malum hua ki yudhishthir unse milna chahte hain, to tatkal hi wo dvarka se chal paDe aur indraprastha pahunche.",
"yudhishthir ne shrikrishn se kaha—“mitron ka kahna hai ki main rajasuy yagya karke samrat pad praapt karun. parantu rajasuy yagya to vahi kar sakta hai, jo sare sansar ke nareshon ka pujya ho aur unke dvara sammanit ho. aap hi is vishay mein mujhe sahi salah de sakte hain. ”",
"yudhishthir ki baat shanti ke saath sunkar shrikrishn bole—“magadhdesh ke raja jarasandh ne sab rajaon ko jitkar unhen apne adhin kar rakha hai. sabhi uska loha maan chuke hain aur uske naam se Darte hain, yahan tak ki shishupal jaise shakti sampann raja bhi uski adhinta svikar kar chuke hain aur uski chhatrchhaya mein rahna pasand karte hain. atः jarasandh ke rahte hue aur kaun samrat pad praapt kar sakta hai? jab maharaj ugrsen ka nasamajh beta kans jarasandh ki beti se byaah karke uska sathi ban gaya tha, tab mainne aur mere bandhuon ne jarasandh ke viruddh yuddh kiya tha. teen baras tak hum uski senaon ke saath laDte rahe par akhir haar ge. hamein mathura chhoDkar door pashchim dvarka mein jakar nagar aur durg banakar rahna paDa. aapke samrajyadhish hone mein duryodhan aur karn ko apatti na bhi ho, phir bhi jarasandh se iski aasha rakhna bekar hai. bagair yuddh ke jarasandh is baat ko nahin maan sakta hai. jarasandh ne aaj tak parajay ka naam tak nahin jana hai. aise ajey parakrami raja jarasandh ke jite ji aap rajasuy yagya nahin kar sakenge. usne jo raje maharaje bandigrih mein Daal rakhe hain, kisi na kisi upaay se pahle unhen chhuDana hoga. jab ye ho jayega, tabhi rajasuy karna aapke liye sadhya hoga. ”",
"shrikrishn ki ye baten sunkar shanti priy raja yudhishthir bole—“apka kahna bilkul sahi hai. is vishal sansar mein kitne hi rajaon ke liye jagah hai. kitne hi naresh apne apne rajya ka shasan karte hue ismen santusht rah sakte hain. akanksha wo aag hai, jo kabhi bujhti nahin hai. isliye meri bhalai isi mein dikhti hai. ki samrajyadhish banne ka vichar chhoD doon aur jo hai usi ko lekar santusht rahun. ”",
"yudhishthir ki ye vinayshilata bhimasen ko achchhi na lagi. usne kaha—“shrikrishn ki niti kushalta, mera sharirik bal aur arjun ka shaurya ek saath mil jane par kaun sa aisa kaam hai, jo hum nahin kar sakte? yadi hum tinon ek saath chal paDen, to jarasandh ki shakti ko choor karke hi lautenge. aap is baat ki shanka na karen. ”",
"ye sunkar shrikrishn ne kaha—“yadi bheem aur arjun sahmat hon, to hum tinon ek saath jakar us anyayi ki jel mein paDe hue nirdosh rajaon ko chhuDa sakenge. ”",
"parantu yudhishthir ko ye baat na janchi. unhonne kaha—“main to kahunga ki jis karya mein pranon par ban aane ki sambhavna ho, uske vichar tak ko chhoD dena hi achchha hoga. ”",
"ye sunkar veer arjun bol utha—“yadi hum yashasvi bharatvansh ki santan hokar bhi koi sahas ka kaam na karen, to dhikkar hai hamein aur hamare jivan ko! jis kaam ko karne ki hammen samarthya hai, bhai yudhishthir kyon samajhte hain ki use hum na kar sakenge?”",
"shrikrishn arjun ki in baton se mugdh ho ge. bole—“dhanya ho arjun! kunti ke laal arjun se mujhe yahi aasha thi. ”",
"jab jarasandh ke saath yuddh karne ka nishchay ho gaya, to shrikrishn aur panDvon ne apni yojna banai. shrikrishn, bhimasen aur arjun ne valkal pahan liye, haath mein kusha le li aur vrati logon ka sa vesh dharan karke magadh desh ke liye ravana ho ge. raah mein sundar nagron tatha ganvon ko paar karte hue ve tinon jarasandh ki rajdhani mein pahunche. jarasandh ne kulin atithi samajhkar unka baDe aadar ke saath svagat kiya. jarasandh ke svagat ka bheem aur arjun ne koi javab nahin diya. ve donon maun rahe. is par shrikrishn bole—“mere donon sathiyon ne maun vart liya hua hai, is karan abhi nahin bolenge. aadhi raat ke baad vart khulne par batachit karenge. ” jarasandh ne is baat par vishvas kar liya aur tinon mehmanon ko yagyshala mein thahrakar mahl mein chala gaya. koi bhi brahman atithi jarasandh ke yahan aata, to unki ichchha tatha suvidha ke anusar baten karna va unka satkar karna jarasandh ka niyam tha. iske anusar aadhi raat ke baad jarasandh atithiyon se milne gaya, lekin atithiyon ke rang Dhang dekhkar magadh naresh ke man mein kuch shanka hui.",
"raja jarasandh ne kaDakkar puchha—“sach sach batao, tum log kaun ho? brahman to nahin dikhai dete. ” is par tinon ne sahi haal bata diya aur kaha—“ham tumhare shatru hain. tumse abhi dvandv yuddh karna chahte hain. hum tinon mein se kisi ek se, jisse tumhari ichchha ho, laD sakte ho. hum sabhi iske liye taiyar hain. ”",
"tabhi bhimasen aur jarasandh mein kushti shuru ho gai. donon veer ek dusre ko pakaDte, marte aur uthate hue laDne lage. is prakar palbhar bhi vishram kiye baghair ve terah din aur terah raat lagatar laDte rahe. chaudahven din jarasandh thakkar zara der ko ruk gaya. par theek mauka dekhkar shrikrishn ne bheem ko ishare se samjhaya aur bhimasen ne fauran jarasandh ko uthakar charon or ghumaya aur use jamin par zor se patak diya. is prakar ajey jarasandh ka ant ho gaya.",
"shrikrishn aur donon panDvon ne un sab rajaon ko chhuDa liya, jinko jarasandh ne bandigrih mein Daal rakha tha aur jarasandh ke putr sahdev ko magadh ki rajagaddi par baithakar indraprastha laut aaye. iske baad panDvon ne vijay yatra ki aur sare desh ko maharaj yudhishthir ki adhinta mein le aaye.",
"jarasandh ke vadh ke baad panDvon ne rajasuy yagya kiya. ismen samast bharat ke raja aaye hue the. jab abhyagat nareshon ka aadar satkar karne ki bari aai to parashn utha ki agr puja kiski ho? samrat yudhishthir ne is bare mein pitamah bheeshm se salah li. vriddh bheeshm ne kaha ki dvarakadhish shrikrishn ki puja pahle ki jaye. yudhishthir ko bhi ye baat pasand aai. unhonne sahdev ko aagya di ki wo shrikrishn ka pujan kare. sahdev ne vidhivat shrikrishn ki puja ki. vasudev ka is prakar gauravanvit hona chedi naresh shishupal ko achchha nahin laga. wo ekayek uth khaDa hua aur thahaka markar hans paDa. sari sabha ki drishti jab shishupal ki or gai, to wo uunche svar mein vyangya se bolne laga—“yah anyay ki baat hai ki ek mamuli se vyakti ko is prakar gauravanvit kiya jata hai. ”",
"yudhishthir ko yon aaDe hathon lene ke baad shishupal sabha mein upasthit rajaon ki or dekhkar bola—“upasthit rajagan! jis duratma ne kuchakr rachkar veer jarasandh ko marva Dala, usi ki yudhishthir ne agrapuja ki. iske baad use hum dharmatma kaise kah sakte hain? unmen hamara vishvas nahin raha hai. ”",
"is tarah shabd banon ki bauchhar kar chukne ke baad shishupal dusre kuch rajaon ko saath lekar sabha se nikal gaya. rajadhiraj yudhishthir naraz hue rajaon ke pichhe dauDe ge aur anunay vinay karke unhen samdhane lage. yudhishtir ke bahut samjhane par bhi shishupal nahin mana. uska hath aur ghamanD baDhta gaya. ant mein shishupal shrikrishn mein yuddh chhiD gaya, jismen shishupal mara gaya. rajasuy yagya sampurn hua aur raja yudhishtir ko rajadhiraj ki padvi praapt ho gai.",
"indraprastha mein pratapi panDav nyaypurvak praja palan kar rahe the. yudhishthir ke bhaiyon tatha sathiyon ki ichchha hui ki ab rajasuy yagya karke samrat pad praapt kiya jaye. is bare mein salah karne ke liye yudhishthir ne shrikrishn ko sandesh bheja. jab shrikrishn ko malum hua ki yudhishthir unse milna chahte hain, to tatkal hi wo dvarka se chal paDe aur indraprastha pahunche.",
"yudhishthir ne shrikrishn se kaha—“mitron ka kahna hai ki main rajasuy yagya karke samrat pad praapt karun. parantu rajasuy yagya to vahi kar sakta hai, jo sare sansar ke nareshon ka pujya ho aur unke dvara sammanit ho. aap hi is vishay mein mujhe sahi salah de sakte hain. ”",
"yudhishthir ki baat shanti ke saath sunkar shrikrishn bole—“magadhdesh ke raja jarasandh ne sab rajaon ko jitkar unhen apne adhin kar rakha hai. sabhi uska loha maan chuke hain aur uske naam se Darte hain, yahan tak ki shishupal jaise shakti sampann raja bhi uski adhinta svikar kar chuke hain aur uski chhatrchhaya mein rahna pasand karte hain. atः jarasandh ke rahte hue aur kaun samrat pad praapt kar sakta hai? jab maharaj ugrsen ka nasamajh beta kans jarasandh ki beti se byaah karke uska sathi ban gaya tha, tab mainne aur mere bandhuon ne jarasandh ke viruddh yuddh kiya tha. teen baras tak hum uski senaon ke saath laDte rahe par akhir haar ge. hamein mathura chhoDkar door pashchim dvarka mein jakar nagar aur durg banakar rahna paDa. aapke samrajyadhish hone mein duryodhan aur karn ko apatti na bhi ho, phir bhi jarasandh se iski aasha rakhna bekar hai. bagair yuddh ke jarasandh is baat ko nahin maan sakta hai. jarasandh ne aaj tak parajay ka naam tak nahin jana hai. aise ajey parakrami raja jarasandh ke jite ji aap rajasuy yagya nahin kar sakenge. usne jo raje maharaje bandigrih mein Daal rakhe hain, kisi na kisi upaay se pahle unhen chhuDana hoga. jab ye ho jayega, tabhi rajasuy karna aapke liye sadhya hoga. ”",
"shrikrishn ki ye baten sunkar shanti priy raja yudhishthir bole—“apka kahna bilkul sahi hai. is vishal sansar mein kitne hi rajaon ke liye jagah hai. kitne hi naresh apne apne rajya ka shasan karte hue ismen santusht rah sakte hain. akanksha wo aag hai, jo kabhi bujhti nahin hai. isliye meri bhalai isi mein dikhti hai. ki samrajyadhish banne ka vichar chhoD doon aur jo hai usi ko lekar santusht rahun. ”",
"yudhishthir ki ye vinayshilata bhimasen ko achchhi na lagi. usne kaha—“shrikrishn ki niti kushalta, mera sharirik bal aur arjun ka shaurya ek saath mil jane par kaun sa aisa kaam hai, jo hum nahin kar sakte? yadi hum tinon ek saath chal paDen, to jarasandh ki shakti ko choor karke hi lautenge. aap is baat ki shanka na karen. ”",
"ye sunkar shrikrishn ne kaha—“yadi bheem aur arjun sahmat hon, to hum tinon ek saath jakar us anyayi ki jel mein paDe hue nirdosh rajaon ko chhuDa sakenge. ”",
"parantu yudhishthir ko ye baat na janchi. unhonne kaha—“main to kahunga ki jis karya mein pranon par ban aane ki sambhavna ho, uske vichar tak ko chhoD dena hi achchha hoga. ”",
"ye sunkar veer arjun bol utha—“yadi hum yashasvi bharatvansh ki santan hokar bhi koi sahas ka kaam na karen, to dhikkar hai hamein aur hamare jivan ko! jis kaam ko karne ki hammen samarthya hai, bhai yudhishthir kyon samajhte hain ki use hum na kar sakenge?”",
"shrikrishn arjun ki in baton se mugdh ho ge. bole—“dhanya ho arjun! kunti ke laal arjun se mujhe yahi aasha thi. ”",
"jab jarasandh ke saath yuddh karne ka nishchay ho gaya, to shrikrishn aur panDvon ne apni yojna banai. shrikrishn, bhimasen aur arjun ne valkal pahan liye, haath mein kusha le li aur vrati logon ka sa vesh dharan karke magadh desh ke liye ravana ho ge. raah mein sundar nagron tatha ganvon ko paar karte hue ve tinon jarasandh ki rajdhani mein pahunche. jarasandh ne kulin atithi samajhkar unka baDe aadar ke saath svagat kiya. jarasandh ke svagat ka bheem aur arjun ne koi javab nahin diya. ve donon maun rahe. is par shrikrishn bole—“mere donon sathiyon ne maun vart liya hua hai, is karan abhi nahin bolenge. aadhi raat ke baad vart khulne par batachit karenge. ” jarasandh ne is baat par vishvas kar liya aur tinon mehmanon ko yagyshala mein thahrakar mahl mein chala gaya. koi bhi brahman atithi jarasandh ke yahan aata, to unki ichchha tatha suvidha ke anusar baten karna va unka satkar karna jarasandh ka niyam tha. iske anusar aadhi raat ke baad jarasandh atithiyon se milne gaya, lekin atithiyon ke rang Dhang dekhkar magadh naresh ke man mein kuch shanka hui.",
"raja jarasandh ne kaDakkar puchha—“sach sach batao, tum log kaun ho? brahman to nahin dikhai dete. ” is par tinon ne sahi haal bata diya aur kaha—“ham tumhare shatru hain. tumse abhi dvandv yuddh karna chahte hain. hum tinon mein se kisi ek se, jisse tumhari ichchha ho, laD sakte ho. hum sabhi iske liye taiyar hain. ”",
"tabhi bhimasen aur jarasandh mein kushti shuru ho gai. donon veer ek dusre ko pakaDte, marte aur uthate hue laDne lage. is prakar palbhar bhi vishram kiye baghair ve terah din aur terah raat lagatar laDte rahe. chaudahven din jarasandh thakkar zara der ko ruk gaya. par theek mauka dekhkar shrikrishn ne bheem ko ishare se samjhaya aur bhimasen ne fauran jarasandh ko uthakar charon or ghumaya aur use jamin par zor se patak diya. is prakar ajey jarasandh ka ant ho gaya.",
"shrikrishn aur donon panDvon ne un sab rajaon ko chhuDa liya, jinko jarasandh ne bandigrih mein Daal rakha tha aur jarasandh ke putr sahdev ko magadh ki rajagaddi par baithakar indraprastha laut aaye. iske baad panDvon ne vijay yatra ki aur sare desh ko maharaj yudhishthir ki adhinta mein le aaye.",
"jarasandh ke vadh ke baad panDvon ne rajasuy yagya kiya. ismen samast bharat ke raja aaye hue the. jab abhyagat nareshon ka aadar satkar karne ki bari aai to parashn utha ki agr puja kiski ho? samrat yudhishthir ne is bare mein pitamah bheeshm se salah li. vriddh bheeshm ne kaha ki dvarakadhish shrikrishn ki puja pahle ki jaye. yudhishthir ko bhi ye baat pasand aai. unhonne sahdev ko aagya di ki wo shrikrishn ka pujan kare. sahdev ne vidhivat shrikrishn ki puja ki. vasudev ka is prakar gauravanvit hona chedi naresh shishupal ko achchha nahin laga. wo ekayek uth khaDa hua aur thahaka markar hans paDa. sari sabha ki drishti jab shishupal ki or gai, to wo uunche svar mein vyangya se bolne laga—“yah anyay ki baat hai ki ek mamuli se vyakti ko is prakar gauravanvit kiya jata hai. ”",
"yudhishthir ko yon aaDe hathon lene ke baad shishupal sabha mein upasthit rajaon ki or dekhkar bola—“upasthit rajagan! jis duratma ne kuchakr rachkar veer jarasandh ko marva Dala, usi ki yudhishthir ne agrapuja ki. iske baad use hum dharmatma kaise kah sakte hain? unmen hamara vishvas nahin raha hai. ”",
"is tarah shabd banon ki bauchhar kar chukne ke baad shishupal dusre kuch rajaon ko saath lekar sabha se nikal gaya. rajadhiraj yudhishthir naraz hue rajaon ke pichhe dauDe ge aur anunay vinay karke unhen samdhane lage. yudhishtir ke bahut samjhane par bhi shishupal nahin mana. uska hath aur ghamanD baDhta gaya. ant mein shishupal shrikrishn mein yuddh chhiD gaya, jismen shishupal mara gaya. rajasuy yagya sampurn hua aur raja yudhishtir ko rajadhiraj ki padvi praapt ho gai.",
"Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.",
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"This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.",
"You have remaining out of 5 free poetry pages per month. Log In or Register to become Rekhta Family member to access the full website.",
"Sign up and enjoy FREE unlimited access to a whole Universe of Urdu Poetry, Language Learning, Sufi Mysticism, Rare Texts",
"जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।",
"Devoted to the preservation & promotion of Urdu",
"Urdu poetry, urdu shayari, shayari in urdu, poetry in urdu",
"A Trilingual Treasure of Urdu Words",
"Online Treasure of Sufi and Sant Poetry",
"The best way to learn Urdu online",
"Best of Urdu & Hindi Books",
"हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश"
] |
बाल महाभारत : भीष्मप्रतिज्ञा - कथा | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kathaen/class-7-ncert-7/baal-mahabharat-bhishmaprtigya-chakraborty-rajagopalacharya-kathaen?sort= | [
"प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।",
"तेजस्वी पुत्र को पाकर राजा प्रफुल्लित मन से नगर को लौटे और देवव्रत राजकुमार के पद को सुशोभित करने लगे।",
"चार वर्ष और बीत गए। एक दिन राजा शांतनु यमुना-तट की ओर घूमने गए तो वहाँ अप्सरा-सी सुंदर एक तरुणी खड़ी दिखाई दी। तरुणी का नाम सत्यवती था",
"गंगा के वियोग के कारण राजा के मन में जो विराग छाया हुआ था, वह इस तरुणी को देखते ही विलीन हो गया। उस सुंदरी को अपनी पत्नी बनाने की इच्छा उनके मन में बलवती हो उठी और उन्होंने सत्यवती से प्रेम याचना की। सत्यवती बोली—“मेरे पिता मल्लाहों के सरदार हैं। पहले उनकी अनुमति ले लीजिए। फिर मैं आपकी पत्नी बनने को तैयार हूँ।”",
"राजा शांतनु ने जब अपनी इच्छा उन पर प्रकट की, तो केवटराज ने कहा—“आपको मुझे एक वचन देना पड़ेगा।”",
"राजा ने कहा—“जो माँगोगे दूँगा, यदि वह मेरे लिए अनुचित न हो।”",
"केवटराज बोले—“आपके बाद हस्तिनापुर के राज-सिंहासन पर मेरी लड़की का पुत्र बैठेगा, इस बात का आप मुझे वचन दे सकते हैं?”",
"केवटराज की शर्त राजा शांतनु को नागवार लगी। गंगा-सुत को छोड़कर अन्य किसी को राजगद्दी पर बैठाने की कल्पना तक उनसे न हो सकी निराश और उद्विग्न मन से वह नगर की ओर लौट आए। किसी से कुछ कह भी न सके। पर चिंता उनके मन को कीड़े की तरह कुतर-कुतरकर खाने लगी।",
"देवव्रत ने देखा कि उसके पिता के मन में कोई-न-कोई व्यथा समाई हुई है। एक दिन उसने शांतनु से पूछा—“पिता जी, संसार का कोई भी सुख ऐसा नहीं है, जो आपको प्राप्त न हो। फिर भी इधर कुछ दिनों से आप दुखी दिखाई दे रहे हैं। आपको किस बात की चिंता है?”",
"यद्यपि शांतनु ने गोलमोल बातें बताई, फिर भी कुशाग्र-बुद्धि देवव्रत को बात समझते देर न लगी। उन्होंने राजा के सारथी से पूछताछ करके, उस दिन केवटराज से यमुना नदी के किनारे जो कुछ बातें हुई थीं, उनका पता लगा लिया। पिता जी के मन की व्यथा जानकर देवव्रत सीधे केवटराज के पास गए और उनसे कहा कि वह अपनी पुत्री सत्यवती का विवाह महाराज शांतनु से कर दें।",
"केवटराज ने वही शर्त दोहराई जो उन्होंने शांतनु के सामने रखी थी।",
"देवव्रत ने कहा—“यदि तुम्हारी आपत्ति का कारण यही है, तो मैं वचन देता हूँ कि मैं राज्य का लोभ नहीं करूँगा। सत्यवती का पुत्र ही मेरे पिता के बाद राजा बनेगा।”",
"केवराज इससे संतुष्ट न हुए। उन्होंने और दूर की सोची। बोले—“आर्यपुत्र, इस बात का मुझे पूरा भरोसा है कि आप अपने वचन पर अटल रहेंगे, किंतु आपकी संतान से मैं वैसी आशा कैसे रख सकता हूँ? आप जैसे वीर का पुत्र भी तो वीर ही होगा। बहुत संभव है कि वह मेरे नाती से राज्य छीनने का प्रयत्न करे। इसके लिए आपके पास क्या उत्तर है?”",
"केवटराज का प्रश्न अप्रत्याशित था। उसे संतुष्ट करने का यही अर्थ हो सकता था कि देवव्रत अपने भविष्य का भी बलिदान कर दें, किंतु पितृभक्त देवव्रत इससे ज़रा भी विचलित नहीं हुए। गंभीर स्वर में उन्होंने यह कहा—“मैं जीवनभर विवाह नहीं करूँगा! आजन्म ब्रह्मचारी रहूँगा! मेरे संतान ही न होगी! अब तो तुम संतुष्ट हो?”",
"किसी को आशा न थी कि तरुण कुमार ऐसी कठोर प्रतिज्ञा करेंगे। देवव्रत ने भयंकर प्रतिज्ञा की थी, इसलिए उस दिन से उनका नाम ही भीष्म पड़ गया। केवटराज ने सानंद अपनी पुत्री को देवव्रत के साथ विदा किया।",
"सत्यवती से शांतनु के दो पुत्र हुए—चित्रांगद और विचित्रवीर्य। शांतनु के देहावसान पर चित्रांगद हस्तिनापुर के सिंहासन पर बैठे और उनके युद्ध में मारे जाने पर विचित्रवीर्य। विचित्रवीर्य की दो रानियाँ थीं—अंबिका और अंबालिका। अंबिका के पुत्र थे धृतराष्ट्र और अंबालिका के पांडु। धृतराष्ट्र के पुत्र कौरव कहलाए और पांडु के पांडव।",
"महात्मा भीष्म, शांतनु के बाद से कुरुक्षेत्र-युद्ध का अंत होने तक उस विशाल राजवंश के सामान्य कुलनायक और पूज्य बने रहे। शांतनु के बाद कुरुवंश का क्रम यह रहा—",
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बाल महाभारत : द्रोणाचार्य - कथा | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kathaen/class-7-ncert-7/baal-mahabharat-dronacharya-chakraborty-rajagopalacharya-kathaen?sort= | [
"प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।",
"आचार्य द्रोण महर्षि भरद्वाज के पुत्र थे। पांचाल-नरेश का पुत्र द्रुपद भी द्रोण के साथ ही भरद्वाज-आश्रम में शिक्षा पा रहा था। दोनों में गहरी मित्रता थी। कभी-कभी राजकुमार द्रुपद उत्साह में आकर द्रोण से यहाँ तक कह देता था कि पांचाल देश का राजा बन जाने पर मैं आधा राज्य तुम्हें दे दूँगा। शिक्षा समाप्त होने पर द्रोणाचार्य ने कृपाचार्य की बहन से ब्याह कर लिया। उससे उनके एक पुत्र हुआ, जिसका नाम उन्होंने अश्वत्थामा रखा। द्रोण अपनी पत्नी और पुत्र को बड़ा प्रेम करते थे।",
"द्रोण बड़े ग़रीब थे। वह चाहते थे कि धन आश्रम में प्राप्त किया जाए और अपनी पत्नी व पुत्र के साथ सुख से रहा जाए। उन्हें ख़बर लगी कि परशुराम अपनी सारी संपत्ति ग़रीब ब्राह्मणों को बाँट रहे हैं, तो भागे-भागे उनके पास गए, लेकिन उनके पहुँचने तक परशुराम अपनी सारी संपत्ति वितरित कर चुके थे और वन-गमन की तैयारी कर रहे थे। द्रोण को देखकर वह बोले—“ब्राह्मण श्रेष्ठ! आपका स्वागत है। पर मेरे पास जो कुछ था, वह मैं बाँट चुका हूँ। अब यह मेरा शरीर और धनुर्विद्या ही है। बताइए, मैं आपके लिए क्या करूँ?",
"तब द्रोण ने उनसे सारे अस्त्रों के प्रयोग तथा रहस्य सिखाने की प्रार्थना की। परशुराम ने यह प्रार्थना स्वीकार कर ली और द्रोण को धनुर्विद्या की पूरी शिक्षा दे दी।",
"कुछ समय बाद राजकुमार द्रुपद के पिता का देहावसान हो गया और द्रुपद राजगद्दी पर बैठा। द्रोणाचार्य को जब द्रुपद के पांचाल देश की राजगद्दी पर बैठने की ख़बर लगी, तो यह सुनकर वह बड़े प्रसन्न हुए और राजा द्रुपद से मिलने पांचाल देश को चल पड़े। उन्हें गुरु के द्रुपद की लड़कपन में की गई बातचीत याद थी। सोचा, यदि आधा राज्य न भी देगा तो कम-से-कम कुछ धन तो ज़रूर ही देगा। यह आशा लेकर द्रोणाचार्य राजा द्रुपद के पास पहुँचे और बोले—“मित्र द्रुपद, मुझे पहचानते हो न? मैं तुम्हारा बालपन का मित्र द्रोण हूँ।",
"ऐश्वर्य के मद में मत्त हुए राजा द्रुपद को द्रोणाचार्य का आना बुरा लगा और द्रोण का अपने साथ मित्र का सा व्यवहार करना तो और भी अखरा। वह द्रोण पर ग़ुस्सा हो गया और बोला—“ब्राह्मण, तुम्हारा यह व्यवहार सज्जनोचित नहीं है। मुझे मित्र कहकर पुकारने का तुम्हें साहस कैसे हुआ? सिंहासन पर बैठे हुए एक राजा के साथ एक दरिद्र प्रजाजन की मित्रता कभी हुई है? तुम्हारी बुद्धि कितनी कच्ची है! लड़कपन में लाचारी के कारण हम दोनों को जो साथ रहना पड़ा, उसके आधार पर तुम द्रुपद से मित्रता का दावा करने लगे! दरिद्र की धनी के साथ मूर्ख की विद्वान के साथ और कायर की वीर के साथ मित्रता कहीं हो सकती है? मित्रता बराबरी की हैसियत वालों में ही होती है जो किसी राज्य का स्वामी न हो, वह राजा का मित्र कभी नहीं हो सकता। द्रुपद की इन कठोर गर्वोक्तियों को सुनकर द्रोणाचार्य बड़े लज्जित हुए और उन्हें क्रोध भी बहुत आया। उन्होंने निश्चय किया कि मैं इस अभिमानी राजा को सबक सिखाऊँगा और बचपन में जो मित्रता की बात हुई थी, उसे पूरा करके चैन लूँगा। वह हस्तिनापुर पहुँचे और वहाँ अपनी पत्नी के भाई कृपाचार्य के यहाँ गुप्त रूप से रहने लगे।",
"एक रोज़ हस्तिनापुर के राजकुमार नगर से बाहर कहीं गेंद खेल रहे थे कि इतने में उनकी गेंद एक कुएँ में जा गिरी। युधिष्ठिर उसको निकालने का प्रयत्न करने लगे तो उनकी अँगूठी भी कुएँ में गिर पड़ी। सभी राजकुमार कुएँ के चारों ओर झाँक-झाँककर देखने लगे, पर उसे निकालने का उपाय उनको नहीं सूझता था। एक कृष्ण वर्ण का ब्राह्मण मुस्कुराता हुआ यह सब चुपचाप देख रहा था। राजकुमारों को उसका पता नहीं था। राजकुमारों को अचरज में डालता हुआ वह बोला—“राजकुमारो! बोलो, मैं गेंद निकाल दूँ तो तुम मुझे क्या दोगे?",
"ब्राह्मणश्रेष्ठ! आप गेंद निकाल देंगे, तो कृपाचार्य के घर आपकी बढ़िया दावत करेंगे। तब द्रोणाचार्य ने पास पड़ी हुई सिंक उठा ली और उसे पानी में फेंका। सींक गेंद को ऐसे जाकर लगी, जैसे तीर और फिर इस तरह लगातार कई सिंकें वे कुएँ में डालते गए। सींकें एक-दूसरे के सिरे से चिपकती गईं। जब आख़िरी सींक का सिरा कुएँ के बाहर तक पहुँच गया, तो द्रोणाचार्य ने उसे पकड़कर खींच लिया और गेंद निकल आई। सब राजकुमार आश्चर्य से यह करतब देख रहे थे। उन्होंने ब्राह्मण से विनती की कि युधिष्ठिर की अँगूठी भी निकाल दीजिए।",
"द्रोण ने तुरंत धनुष चढ़ाया और कुएँ में तीर मारा। पलभर में बाण अँगूठी को अपनी नोंक में लिए हुए ऊपर आ गया। द्रोणाचार्य ने अँगूठी युधिष्ठिर को दे दी। यह चमत्कार देखकर राजकुमारों को और भी ज़्यादा अचरज हुआ। उन्होंने द्रोण के आगे आदरपूर्वक सिर नवाया और हाथ जोड़कर पूछा—“महाराज! हमारा प्रणाम स्वीकार कीजिए और हमें अपना परिचय दीजिए कि आप कौन हैं? हम आपकी क्या सेवा कर सकते हैं? हमें आज्ञा दीजिए।",
"द्रोण ने कहा—“राजकुमारो! यह सारी घटना सुनाकर पितामह भीष्म से ही मेरा परिचय प्राप्त कर लेना।",
"राजकुमारों ने जाकर पितामह भीष्म को सारी बात सुनाई, तो भीष्म ताड़ गए कि हो-न-हो वे सुप्रसिद्ध आचार्य द्रोण ही होंगे। यह सोचकर उन्होंने निश्चय कर लिया कि अब से राजकुमारों की अस्त्र-शिक्षा द्रोणाचार्य के ही हाथों पूरी कराई जाए। बड़े सम्मान से उन्होंने द्रोण का स्वागत किया और राजकुमारों को आदेश दिया कि वे गुरु द्रोण से ही धनुर्विद्या सीखा करें। कुछ समय बाद जब राजकुमारों की शिक्षा पूरी हो गई, तो द्रोणाचार्य ने उनसे गुरु-दक्षिणा के रूप में पांचालराज द्रुपद को कैद कर लाने के लिए कहा। उनकी आज्ञानुसार पहले दुर्योधन और कर्ण ने द्रुपद के राज्य पर धावा बोल दिया, पर पराक्रमी द्रुपद के आगे वे न ठहर सके। हारकर वापस आ गए। तब द्रोण ने अर्जुन को भेजा। अर्जुन ने पांचालराज की सेना को तहस नहस कर दिया और राजा द्रुपद को उनके मंत्री सहित क़ैद करके आचार्य के सामने ला खड़ा किया।",
"द्रोणाचार्य ने मुस्कुराते हुए द्रुपद से कहा—“हे वीर! डरो नहीं। किसी प्रकार की विपत्ति की आशंका न करो। लड़कपन में तुम्हारी हमारी मित्रता थी। साथ-साथ खेले कूदे उठे-बैठे। बाद में जब तुम राजा बन गए, तो ऐश्वर्य के मद में आकर तुम मुझे भूल गए और मेरा अपमान किया। तुमने कहा था कि राजा ही राजा के साथ मित्रता कर सकता है। इसी कारण मुझे युद्ध करके तुम्हारा राज्य छीनना पड़ा। परंतु मैं तो तुम्हारे साथ मित्रता ही करना चाहता हूँ। इसलिए आधा राज्य तुम्हें वापस लौटा देता हूँ, क्योंकि मेरा मित्र बनने के लिए भी तो तुम्हें राज्य चाहिए न मित्रता तो बराबरी की हैसियत वालों में ही हो सकती है।",
"द्रोणाचार्य ने इसे अपने अपमान का काफ़ी बदला समझा और उन्होंने द्रुपद को बड़े सम्मान के साथ विदा किया। इस प्रकार राजा द्रुपद का गर्व चूर हो गया, लेकिन बदले से घृणा दूर नहीं होती। किसी के अभिमान को ठेस लगने पर जो पीड़ा होती है, उसे सहन करना बड़ा कठिन होता है। द्रोण से बदला लेने की भावना द्रुपद के जीवन का लक्ष्य बन गई। उसने कई कठोर व्रत और तप इस कामना से किए की उसे एक ऐसा पुत्र हो, जो द्रोण को मार सके। साथ ही एक ऐसी कन्या हो, जो अर्जुन को ब्याही जा सके। आख़िर उसकी कामना पूरी हुई। उसके धृष्टद्युम्न नामक एक पुत्र हुआ और द्रौपदी नाम की एक कन्या। आगे चलकर कुरुछेत्र की रणभूमि में अजेय द्रोणाचार्य इसी धृष्टद्युम्न के हाथों मारे गए थे।",
"acharya dron maharshi bhardvaj ke putr the. panchal naresh ka putr drupad bhi dron ke saath hi bhardvaj ashram mein shiksha pa raha tha. donon mein gahri mitrata thi. kabhi kabhi rajakumar drupad utsaah mein aakar dron se yahan tak kah deta tha ki panchal desh ka raja ban jane par main aadha rajya tumhein de dunga. shiksha samapt hone par dronacharya ne kripacharya ki bahan se byaah kar liya. usse unke ek putr hua, jiska naam unhonne ashvatthama rakha. dron apni patni aur putr ko baDa prem karte the.",
"dron baDe gharib the. wo chahte the ki dhan ashram mein praapt kiya jaye aur apni patni va putr ke saath sukh se raha jaye. unhen khabar lagi ki parshuram apni sari sampatti gharib brahmnon ko baant rahe hain, to bhage bhage unke paas ge, lekin unke pahunchne tak parshuram apni sari sampatti vitrit kar chuke the aur van gaman ki taiyari kar rahe the. dron ko dekhkar wo bole—“brahman shreshth! aapka svagat hai. par mere paas jo kuch tha, wo main baant chuka hoon. ab ye mera sharir aur dhanurvidya hi hai. bataiye, main aapke liye kya karun?",
"tab dron ne unse sare astron ke prayog tatha rahasya sikhane ki pararthna ki. parshuram ne ye pararthna svikar kar li aur dron ko dhanurvidya ki puri shiksha de di.",
"kuch samay baad rajakumar drupad ke pita ka dehavasan ho gaya aur drupad rajagaddi par baitha. dronacharya ko jab drupad ke panchal desh ki rajagaddi par baithne ki khabar lagi, to ye sunkar wo baDe prasann hue aur raja drupad se milne panchal desh ko chal paDe. unhen guru ke drupad ki laDakpan mein ki gai batachit yaad thi. socha, yadi aadha rajya na bhi dega to kam se kam kuch dhan to zarur hi dega. ye aasha lekar dronacharya raja drupad ke paas pahunche aur bole—“mitr drupad, mujhe pahchante ho na? main tumhara balapan ka mitr dron hoon.",
"aishvarya ke mad mein matt hue raja drupad ko dronacharya ka aana bura laga aur dron ka apne saath mitr ka sa vyvahar karna to aur bhi akhra. wo dron par ghussa ho gaya aur bola—“brahman, tumhara ye vyvahar sajjnochit nahin hai. mujhe mitr kahkar pukarne ka tumhein sahas kaise hua? sinhasan par baithe hue ek raja ke saath ek daridr prjajan ki mitrata kabhi hui hai? tumhari buddhi kitni kachchi hai! laDakpan mein lachari ke karan hum donon ko jo saath rahna paDa, uske adhar par tum drupad se mitrata ka dava karne lage! daridr ki dhani ke saath moorkh ki vidvan ke saath aur kayar ki veer ke saath mitrata kahin ho sakti hai? mitrata barabari ki haisiyat valon mein hi hoti hai jo kisi rajya ka svami na ho, wo raja ka mitr kabhi nahin ho sakta. drupad ki in kathor garvoktiyon ko sunkar dronacharya baDe lajjit hue aur unhen krodh bhi bahut aaya. unhonne nishchay kiya ki main is abhimani raja ko sabak sikhaunga aur bachpan mein jo mitrata ki baat hui thi, use pura karke chain lunga. wo hastinapur pahunche aur vahan apni patni ke bhai kripacharya ke yahan gupt roop se rahne lage.",
"ek roz hastinapur ke rajakumar nagar se bahar kahin gend khel rahe the ki itne mein unki gend ek kuen mein ja giri. yudhishthir usko nikalne ka prayatn karne lage to unki anguthi bhi kuen mein gir paDi. sabhi rajakumar kuen ke charon or jhaank jhankakar dekhne lage, par use nikalne ka upaay unko nahin sujhta tha. ek krishn varn ka brahman muskurata hua ye sab chupchap dekh raha tha. rajakumaron ko uska pata nahin tha. rajakumaron ko achraj mein Dalta hua wo bola—“rajakumaro! bolo, main gend nikal doon to tum mujhe kya doge?",
"brahmnashreshth! aap gend nikal denge, to kripacharya ke ghar apaki baDhiya davat karenge. tab dronacharya ne paas paDi hui sink utha li aur use pani mein phenka. seenk gend ko aise jakar lagi, jaise teer aur phir is tarah lagatar kai sinken ve kuen mein Dalte ge. sinken ek dusre ke sire se chipakti gain. jab akhiri seenk ka sira kuen ke bahar tak pahunch gaya, to dronacharya ne use pakaDkar kheench liya aur gend nikal aai. sab rajakumar ashcharya se ye kartab dekh rahe the. unhonne brahman se vinti ki ki yudhishthir ki anguthi bhi nikal dijiye.",
"dron ne turant dhanush chaDhaya aur kuen mein teer mara. palbhar mein baan anguthi ko apni nonk mein liye hue uupar aa gaya. dronacharya ne anguthi yudhishthir ko de di. ye chamatkar dekhkar rajakumaron ko aur bhi zyada achraj hua. unhonne dron ke aage adarpurvak sir navaya aur haath joDkar puchha—“maharaj! hamara prnaam svikar kijiye aur hamein apna parichay dijiye ki aap kaun hain? hum apaki kya seva kar sakte hain? hamein aagya dijiye.",
"dron ne kaha—“rajakumaro! ye sari ghatna sunakar pitamah bheeshm se hi mera parichay praapt kar lena.",
"rajakumaron ne jakar pitamah bheeshm ko sari baat sunai, to bheeshm taaD ge ki ho na ho ve suprasiddh acharya dron hi honge. ye sochkar unhonne nishchay kar liya ki ab se rajakumaron ki astra shiksha dronacharya ke hi hathon puri karai jaye. baDe samman se unhonne dron ka svagat kiya aur rajakumaron ko adesh diya ki ve guru dron se hi dhanurvidya sikha karen. kuch samay baad jab rajakumaron ki shiksha puri ho gai, to dronacharya ne unse guru dakshina ke roop mein panchalraj drupad ko kaid kar lane ke liye kaha. unki agyanusar pahle duryodhan aur karn ne drupad ke rajya par dhava bol diya, par parakrami drupad ke aage ve na thahar sake. harkar vapas aa ge. tab dron ne arjun ko bheja. arjun ne panchalraj ki sena ko tahas nahas kar diya aur raja drupad ko unke mantri sahit qaid karke acharya ke samne la khaDa kiya.",
"dronacharya ne muskurate hue drupad se kaha—“he veer! Daro nahin. kisi prakar ki vipatti ki ashanka na karo. laDakpan mein tumhari hamari mitrata thi. saath saath khele kude uthe baithe. baad mein jab tum raja ban ge, to aishvarya ke mad mein aakar tum mujhe bhool ge aur mera apman kiya. tumne kaha tha ki raja hi raja ke saath mitrata kar sakta hai. isi karan mujhe yuddh karke tumhara rajya chhinna paDa. parantu main to tumhare saath mitrata hi karna chahta hoon. isliye aadha rajya tumhein vapas lauta deta hoon, kyonki mera mitr banne ke liye bhi to tumhein rajya chahiye na mitrata to barabari ki haisiyat valon mein hi ho sakti hai.",
"dronacharya ne ise apne apman ka kafi badla samjha aur unhonne drupad ko baDe samman ke saath vida kiya. is prakar raja drupad ka garv choor ho gaya, lekin badle se ghrina door nahin hoti. kisi ke abhiman ko thes lagne par jo piDa hoti hai, use sahn karna baDa kathin hota hai. dron se badla lene ki bhavna drupad ke jivan ka lakshya ban gai. usne kai kathor vart aur tap is kamna se kiye ki use ek aisa putr ho, jo dron ko maar sake. saath hi ek aisi kanya ho, jo arjun ko byahi ja sake. akhir uski kamna puri hui. uske dhrishtadyumn namak ek putr hua aur draupadi naam ki ek kanya. aage chalkar kuruchhetr ki ranbhumi mein ajey dronacharya isi dhrishtadyumn ke hathon mare ge the.",
"acharya dron maharshi bhardvaj ke putr the. panchal naresh ka putr drupad bhi dron ke saath hi bhardvaj ashram mein shiksha pa raha tha. donon mein gahri mitrata thi. kabhi kabhi rajakumar drupad utsaah mein aakar dron se yahan tak kah deta tha ki panchal desh ka raja ban jane par main aadha rajya tumhein de dunga. shiksha samapt hone par dronacharya ne kripacharya ki bahan se byaah kar liya. usse unke ek putr hua, jiska naam unhonne ashvatthama rakha. dron apni patni aur putr ko baDa prem karte the.",
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] |
बाल महाभारत : युधिष्ठिर की चिंता और कामना - कथा | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kathaen/class-7-ncert-7/baal-mahabharat-yudhishthir-ki-chinta-aur-kamna-chakraborty-rajagopalacharya-kathaen?sort= | [
"प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।",
"दुर्योधन को अर्जुन का पीछा करते देखकर पांडव सेना ने शत्रुओं पर और भी ज़ोर का हमला कर दिया। धृष्टद्युम्न ने सोचा कि जयद्रथ की रक्षा करने हेतु यदि द्रोण भी चले गए, तो अनर्थ हो जाएगा। इस कारण द्रोणाचार्य को रोके रखने के इरादे से उसने द्रोण पर लगातार आक्रमण जारी रखा। धृष्टद्युम्न की इस चाल के कारण कौरव सेना तीन हिस्सों में बँटकर कमज़ोर पड़ गई।",
"इतने में धृष्टद्युम्न उछलकर द्रोणाचार्य के रथ पर जा चढ़ा और विक्षिप्त-सा होकर द्रोण पर वार करने लगा। धुष्टद्युम्न का हमला जारी रहा। अंत में द्रोण ने क्रोध में आकर एक अत्यधिक पैना बाण चलाया। वह पांचालकुमार के प्राण ही ले लेता, यदि सात्यकि का बाण उसे बीच में ही पुनः न काट देता। अचानक सात्यकि के बाण रोक लेने पर द्रोण का ध्यान उसकी ओर चला गया। इसी बीच पांचाल-सेना के रथसवार धृष्टद्युम्न को वहाँ से हटा ले गए। परंतु सात्यकि भी कोई मामूली वीर नहीं था। पांडव-सेना के सबसे चतुर योद्धाओं में उसका स्थान था। जब उसने द्रोणाचार्य को अपनी ओर झपटते देखा, तो वह ख़ुद भी उनकी ओर झपटा। इस तरह बहुत देर तक दोनों वीर लड़ते रहे।",
"इसी बीच युधिष्ठिर को पता चला कि सात्यकि पर संकट आया हुआ है, तो वह अपने आसपास के वीरों से बोले—“कुशल योद्धा, नरोत्तम और सच्चे वीर सात्यकि आचार्य द्रोण के बाणों से बहुत ही पीड़ित हो रहे हैं। चलो, हम लोग उधर चलकर उस वीर महारथी की सहायता करें।”",
"उसके बाद वह धृष्टद्युम्न से बोले—“द्रुपद-कुमार! आपको अभी जाकर द्रोणाचार्य पर आक्रमण करना चाहिए, नहीं तो डर है कि कहीं आचार्य के हाथों सात्यकि का वध न हो जाए। युधिष्ठिर ने द्रोण पर हमला करने के लिए धृष्टद्युम्न के साथ एक बड़ी सेना भेज दी। समय पर कुमुक के पहुँच जाने पर भी बड़े परिश्रम के बाद ही सात्यकि को द्रोण के फँदे से छुड़ाया जा सका।",
"इसी समय श्रीकृष्ण के पांचजन्य की ध्वनि सुनाई दी। वह आवाज़ सुनकर युधिष्ठिर चिंतित हो गए। “इस घड़ी अर्जुन की सहायता को चले जाओ”, इतना कहते-कहते युधिष्ठिर बहुत ही अधीर हो उठे। युधिष्ठिर के इस प्रकार आग्रह करने पर सात्यकि ने बड़ी नम्रता से कहा “युधिष्ठिर! द्रोण की प्रतिज्ञा तो आप जानते ही हैं। अतः आपकी रक्षा का भार हमारे ऊपर है। महाराज, वासुदेव और अर्जुन मुझे यह आदेश दे गए हैं और मुझ पर भरोसा करके यह भारी ज़िम्मेदारी डाल गए हैं। मैं उनकी बात को कैसे टालूँ? आप अर्जुन की ज़रा भी चिंता न करें। अर्जुन को कोई नहीं जीत सकता।”",
"उधर जैसे ही सात्यकि युधिष्ठिर को छोड़कर अर्जुन की ओर चला, वैसे ही द्रोणाचार्य ने पांडव सेना पर हमले करने शुरू कर दिए। पांडव सेना की पंक्तियाँ कई जगह से टूट गईं और उन्हें पीछे हटना पड़ गया। यह देखकर युधिष्ठिर बड़े चिंतित हो उठे और बोले—“भीम, मेरा कहा मानो तो तुम भी अर्जुन के पास चले जाओ और सात्यकि तथा अर्जुन का हालचाल मालूम करो। इसके लिए जो कुछ करना ज़रूरी हो, वह करके वापस आकर मुझे सूचना दो। मेरा कहना मानकर ही सात्यकि अर्जुन की सहायता को कौरव-सेना से युद्ध करता हुआ गया है। यदि तुम उनको कुशलपूर्वक पाओ तो सिंहनाद करना। मैं समझ लूँगा कि सब कुशल है।”",
"भीमसेन ने युधिष्ठिर की बात का प्रतिवाद नहीं किया और वह धृष्टद्युम्न से बोला—“आचार्य द्रोण के इरादे से तो आप परिचित हैं ही। किसी-न-किसी तरह भ्राता युधिष्ठिर को जीवित पकड़ने का उनका प्रण है। राजा की रक्षा करना ही हमारा प्रथम कर्तव्य है। जब वह स्वयं मुझे जाने की आज्ञा दे रहे हैं, तो उसका भी पालन करना मेरा धर्म हो जाता है। इस कारण भ्राता युधिष्ठिर को आपके ही भरोसे पर छोड़कर जा रहा हूँ। इनकी भली-भाँति रक्षा कीजिएगा।”",
"धृष्टद्युम्न ने कहा—“तुम किसी प्रकार की चिंता न करो और निश्चित होकर जाओ। विश्वास रखो कि द्रोण मेरा वध किए बिना युधिष्ठिर को नहीं पकड़ सकेंगे।” आचार्य द्रोण के जन्म के बैरी धृष्टद्युम्न के इस प्रकार विश्वास दिलाने पर भीम निश्चित होकर तेज़ी से अर्जुन की तरफ़ चल दिया।",
"जितने भी सैन्यदल मुक़ाबला करने आए, उन्हें मारता-गिराता हुआ भीम अंत में उस स्थान पर पहुँच गया, जहाँ अर्जुन जयद्रथ की सेना से लड़ रहा था।",
"अर्जुन को सुरक्षित देखते ही भीमसेन ने सिंहनाद किया। भीम का सिंहनाद सुनकर श्रीकृष्ण और अर्जुन आनंद के मारे उछल पड़े और उन्होंने भी ज़ोरों से सिंहनाद किया। इन सिंहनादों को सुनकर युधिष्ठिर बहुत ही प्रसन्न हुए। उनके मन से शोक के बादल हट गए। उन्होंने अर्जुन को मन-ही-मन आशीर्वाद दिया। वह सोचने लगे—अभी सूरज डूबने से पहले अर्जुन अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर लेगा और जयद्रथ का वध करके लौट आएगा। हो सकता है, जयद्रथ के वध के बाद दुर्योधन शायद संधि कर ले। इधर युधिष्ठिर मन-ही-मन शांति स्थापना की कामना कर रहे थे और उधर मोर्चे पर जहाँ भीम, सात्यकि और अर्जुन थे, वहाँ घोर संग्राम हो रहा था।",
"थोड़े ही समय में जिस स्थान पर अर्जुन और जयद्रथ का युद्ध हो रहा था, दुर्योधन भी वहाँ आ पहुँचा मगर थोड़ी ही देर में बुरी तरह हारकर मैदान छोड़कर भाग खड़ा हुआ। इस भाँति उस रोज़ कई मोर्चों पर ज़ोरों से युद्ध हो रहा था।",
"द्रोण ने कहा—“बेटा दुर्योधन, तुम्हें हिम्मत नहीं हारनी चाहिए। तुम जयद्रथ की सहायता के लिए जाओ और वहाँ जो कुछ करना आवश्यक हो, वह करो।” आचार्य के कहने-सुनने पर दुर्योधन कुछ सेना लेकर फिर से लड़ाई के उस मोर्चे पर चला गया, जहाँ अर्जुन और जयद्रथ में ज़ोरों की लड़ाई हो रही थी। उस दिन भीम और कर्ण में जो युद्ध हुआ, वह एक रोमांचकारी घटना के रूप में वर्णित है। भीमसेन उत्तेजना और उग्रता की प्रतिमूर्ति-सा दिखाई दे रहा था। कर्ण जो कुछ करता, धीरज और व्यवस्था के साथ शांतभाव से करता, किंतु भीम को तो थोड़ा-सा भी अपमान असह्य हो जाता था।",
"दोनों ही बड़े वीर थे। वे एक-दूसरे पर झपटकर आघात करने लगे। भीमसेन को उस समय पिछले घोर अपमानों, यातनाओं और मुसीबतों की याद हो आई, जो उसे, उसके भाइयों और द्रौपदी को पहुँचाई गई थीं। प्राणों का मोह छोड़कर वह लड़ने लगा। उस समय भीमसेन का घावों से भरा हुआ शरीर धधकती हुई आग-सा प्रतीत हो रहा था।",
"कर्ण और भीम के युद्ध में इस बार भीमसेन के रथ के घोड़े मारे गए। सारथी भी कटकर गिर पड़ा। रथ टूट-फूट गया और धनुष भी कट गया। भीम ने ढाल-तलवार ले ली और जान झोंककर लड़ने लगा। पलक झपकते ही कर्ण ने उसकी ढाल के भी टुकड़े-टुकड़े कर दिए। जब ढाल भी न रही तो कर्ण ने भीम को ख़ूब परेशान किया। इससे भीम बहुत ही पीड़ित हुआ। उसे असीम क्रोध आया। वह उछलकर कर्ण के रथ पर जा कूदा। कर्ण ने रथ के ध्वजस्तंभ की आड़ लेकर भीमसेन की झपट से अपने को बचा लिया। भीम नीचे ज़मीन पर कूद पड़ा और विलक्षण युद्ध करने लगा। मैदान में जो रथ के पहिए घोड़े, हाथी आदि पड़े हुए थे, उन्हीं को उठा-उठाकर वह कर्ण पर फेंकता गया, जिससे उसे क्षणभर भी आराम न मिल पाया। उस समय कर्ण चाहता तो वह भीम को आसानी से मार सकता था, पर निहत्थे भीम को उसने मारना नहीं चाहा। माता कुंती को दिया हुआ वचन भी उसे याद था कि वह अर्जुन के अतिरिक्त और किसी को युद्ध में न मारेगा।",
"duryodhan ko arjun ka pichha karte dekhkar panDav sena ne shatruon par aur bhi zor ka hamla kar diya. dhrishtadyumn ne socha ki jayadrath ki raksha karne hetu yadi dron bhi chale ge, to anarth ho jayega. is karan dronacharya ko roke rakhne ke irade se usne dron par lagatar akrman jari rakha. dhrishtadyumn ki is chaal ke karan kaurav sena teen hisson mein bantakar kamzor paD gai.",
"itne mein dhrishtadyumn uchhalkar dronacharya ke rath par ja chaDha aur vikshipt sa hokar dron par vaar karne laga. dhushtadyumn ka hamla jari raha. ant mein dron ne krodh mein aakar ek atyadhik paina baan chalaya. wo panchalakumar ke praan hi le leta, yadi satyaki ka baan use beech mein hi punः na kaat deta. achanak satyaki ke baan rok lene par dron ka dhyaan uski or chala gaya. isi beech panchal sena ke rathasvar dhrishtadyumn ko vahan se hata le ge. parantu satyaki bhi koi mamuli veer nahin tha. panDav sena ke sabse chatur yoddhaon mein uska sthaan tha. jab usne dronacharya ko apni or jhapatte dekha, to wo khud bhi unki or jhapta. is tarah bahut der tak donon veer laDte rahe.",
"isi beech yudhishthir ko pata chala ki satyaki par sankat aaya hua hai, to wo apne asapas ke viron se bole—“kushal yoddha, narottam aur sachche veer satyaki acharya dron ke banon e bahut hi piDit ho rahe hain. chalo, hum log udhar chalkar us veer maharathi ki sahayata karen. ”",
"uske baad wo dhrishtadyumn se bole—“drupad kumar! aapko abhi jakar dronacharya par akrman karna chahiye, nahin to Dar hai ki kahin acharya ke hathon satyaki ka vadh na ho jaye. yudhishthir ne dron par hamla karne ke liye dhrishtadyumn ke saath ek baDi sena bhej di. samay par kumuk ke pahunch jane par bhi baDe parishram ke baad hi satyaki ko dron ke phande se chhuDaya ja saka.",
"isi samay shrikrishn ke panchjanya ki dhvani sunai di. wo avaz sunkar yudhishthir chintit ho ge. “is ghaDi arjun ki sahayata ko chale jao”, itna kahte kahte yudhishthir bahut hi adhir ho uthe. yudhishthir ke is prakar agrah karne par satyaki ne baDi namrata se kaha “yudhishthir! dron ki prtigya to aap jante hi hain. atः apaki raksha ka bhaar hamare uupar hai. maharaj, vasudev aur arjun mujhe ye adesh de ge hain aur mujh par bharosa karke ye bhari zimmedari Daal ge hain. main unki baat ko kaise talun? aap arjun ki zara bhi chinta na karen. arjun ko koi nahin jeet sakta. ”",
"udhar jaise hi satyaki yudhishthir ko chhoDkar arjun ki or chala, vaise hi dronacharya ne panDav sena par hamle karne shuru kar diye. panDav sena ki panktiyan kai jagah se toot gain aur unhen pichhe hatna paD gaya. ye dekhkar yudhishthir baDe chintit ho uthe aur bole—“bhim, mera kaha mano to tum bhi arjun ke paas chale jao aur satyaki tatha arjun ka halachal malum karo. iske liye jo kuch karna zaruri ho, wo karke vapas aakar mujhe suchana do. mera kahna mankar hi satyaki arjun ki sahayata ko kaurav sena se yuddh karta hua gaya hai. yadi tum unko kushalpurvak pao to sinhnad karna. main samajh lunga ki sab kushal hai. ”",
"bhimasen ne yudhishthir ki baat ka prativad nahin kiya aur wo dhrishtadyumn se bola—“acharya dron ke irade se to aap parichit hain hi. kisi na kisi tarah bhrata yudhishthir ko jivit pakaDne ka unka pran hai. raja ki raksha karna hi hamara pratham kartavya hai. jab wo svayan mujhe jane ki aagya de rahe hain, to uska bhi palan karna mera dharm ho jata hai. is karan bhrata yudhishthir ko aapke hi bharose par chhoDkar ja raha hoon. inki bhali bhanti raksha kijiyega. ”",
"dhrishtadyumn ne kaha—“tum kisi prakar ki chinta na karo aur nishchit hokar jao. vishvas rakho ki dron mera vadh kiye bina yudhishthir ko nahin pakaD sakenge. ” acharya dron ke janm ke bairi dhrishtadyumn ke is prakar vishvas dilane par bheem nishchit hokar tezi se arjun ki taraf chal diya.",
"jitne bhi sainydal muqabala karne aaye, unhen marta girata hua bheem ant mein us sthaan par pahunch gaya, jahan arjun jayadrath ki sena se laD raha tha.",
"arjun ko surakshit dekhte hi bhimasen ne sinhnad kiya. bheem ka sinhnad sunkar shrikrishn aur arjun anand ke mare uchhal paDe aur unhonne bhi zoron se sinhnad kiya. in sinhnadon ko sunkar yudhishthir bahut hi prasann hue. unke man se shok ke badal hat ge. unhonne arjun ko man hi man ashirvad diya. wo sochne lage—abhi suraj Dubne se pahle arjun apni prtigya puri kar lega aur jayadrath ka vadh karke laut ayega. ho sakta hai, jayadrath ke vadh ke baad duryodhan shayad sandhi kar le. idhar yudhishthir man hi man shanti sthapana ki kamna kar rahe the aur udhar morche par jahan bheem, satyaki aur arjun the, vahan ghor sangram ho raha tha.",
"thoDe hi samay mein jis sthaan par arjun aur jayadrath ka yuddh ho raha tha, duryodhan bhi vahan aa pahuncha magar thoDi hi der mein buri tarah harkar maidan chhoDkar bhaag khaDa hua. is bhanti us roz kai morchon par zoron se yuddh ho raha tha.",
"dron ne kaha—“beta duryodhan, tumhein himmat nahin harni chahiye. tum jayadrath ki sahayata ke liye jao aur vahan jo kuch karna avashyak ho, wo karo. ” acharya ke kahne sunne par duryodhan kuch sena lekar phir se laDai ke us morche par chala gaya, jahan arjun aur jayadrath mein zoron ki laDai ho rahi thi. us din bheem aur karn mein jo yuddh hua, wo ek romanchkari ghatna ke roop mein varnit hai. bhimasen uttejna aur ugrata ki pratimurti sa dikhai de raha tha. karn jo kuch karta, dhiraj aur vyavastha ke saath shantbhav se karta, kintu bheem ko to thoDa sa bhi apman asahya ho jata tha.",
"donon hi baDe veer the. ve ek dusre par jhapatkar aghat karne lage. bhimasen ko us samay pichhle ghor apmanon, yatnaon aur musibton ki yaad ho aai, jo use, uske bhaiyon aur draupadi ko pahunchai gai theen. pranon ka moh chhoDkar wo laDne laga. us samay bhimasen ka ghavon se bhara hua sharir dhadhakti hui aag sa pratit ho raha tha.",
"karn aur bheem ke yuddh mein is baar bhimasen ke rath ke ghoDe mare ge. sarthi bhi katkar gir paDa. rath toot phoot gaya aur dhanush bhi kat gaya. bheem ne Dhaal talvar le li aur jaan jhonkkar laDne laga. palak jhapakte hi karn ne uski Dhaal ke bhi tukDe tukDe kar diye. jab Dhaal bhi na rahi to karn ne bheem ko khoob pareshan kiya. isse bheem bahut hi piDit hua. use asim krodh aaya. wo uchhalkar karn ke rath par ja kuda. karn ne rath ke dhvjastambh ki aaD lekar bhimasen ki jhapat se apne ko bacha liya. bheem niche zamin par kood paDa aur vilakshan yuddh karne laga. maidan mein jo rath ke pahiye ghoDe, hathi aadi paDe hue the, unhin ko utha uthakar wo karn par phenkta gaya, jisse use kshanbhar bhi aram na mil paya. us samay karn chahta to wo bheem ko asani se maar sakta tha, par nihatthe bheem ko usne marana nahin chaha. mata kunti ko diya hua vachan bhi use yaad tha ki wo arjun ke atirikt aur kisi ko yuddh mein na marega.",
"duryodhan ko arjun ka pichha karte dekhkar panDav sena ne shatruon par aur bhi zor ka hamla kar diya. dhrishtadyumn ne socha ki jayadrath ki raksha karne hetu yadi dron bhi chale ge, to anarth ho jayega. is karan dronacharya ko roke rakhne ke irade se usne dron par lagatar akrman jari rakha. dhrishtadyumn ki is chaal ke karan kaurav sena teen hisson mein bantakar kamzor paD gai.",
"itne mein dhrishtadyumn uchhalkar dronacharya ke rath par ja chaDha aur vikshipt sa hokar dron par vaar karne laga. dhushtadyumn ka hamla jari raha. ant mein dron ne krodh mein aakar ek atyadhik paina baan chalaya. wo panchalakumar ke praan hi le leta, yadi satyaki ka baan use beech mein hi punः na kaat deta. achanak satyaki ke baan rok lene par dron ka dhyaan uski or chala gaya. isi beech panchal sena ke rathasvar dhrishtadyumn ko vahan se hata le ge. parantu satyaki bhi koi mamuli veer nahin tha. panDav sena ke sabse chatur yoddhaon mein uska sthaan tha. jab usne dronacharya ko apni or jhapatte dekha, to wo khud bhi unki or jhapta. is tarah bahut der tak donon veer laDte rahe.",
"isi beech yudhishthir ko pata chala ki satyaki par sankat aaya hua hai, to wo apne asapas ke viron se bole—“kushal yoddha, narottam aur sachche veer satyaki acharya dron ke banon e bahut hi piDit ho rahe hain. chalo, hum log udhar chalkar us veer maharathi ki sahayata karen. ”",
"uske baad wo dhrishtadyumn se bole—“drupad kumar! aapko abhi jakar dronacharya par akrman karna chahiye, nahin to Dar hai ki kahin acharya ke hathon satyaki ka vadh na ho jaye. yudhishthir ne dron par hamla karne ke liye dhrishtadyumn ke saath ek baDi sena bhej di. samay par kumuk ke pahunch jane par bhi baDe parishram ke baad hi satyaki ko dron ke phande se chhuDaya ja saka.",
"isi samay shrikrishn ke panchjanya ki dhvani sunai di. wo avaz sunkar yudhishthir chintit ho ge. “is ghaDi arjun ki sahayata ko chale jao”, itna kahte kahte yudhishthir bahut hi adhir ho uthe. yudhishthir ke is prakar agrah karne par satyaki ne baDi namrata se kaha “yudhishthir! dron ki prtigya to aap jante hi hain. atः apaki raksha ka bhaar hamare uupar hai. maharaj, vasudev aur arjun mujhe ye adesh de ge hain aur mujh par bharosa karke ye bhari zimmedari Daal ge hain. main unki baat ko kaise talun? aap arjun ki zara bhi chinta na karen. arjun ko koi nahin jeet sakta. ”",
"udhar jaise hi satyaki yudhishthir ko chhoDkar arjun ki or chala, vaise hi dronacharya ne panDav sena par hamle karne shuru kar diye. panDav sena ki panktiyan kai jagah se toot gain aur unhen pichhe hatna paD gaya. ye dekhkar yudhishthir baDe chintit ho uthe aur bole—“bhim, mera kaha mano to tum bhi arjun ke paas chale jao aur satyaki tatha arjun ka halachal malum karo. iske liye jo kuch karna zaruri ho, wo karke vapas aakar mujhe suchana do. mera kahna mankar hi satyaki arjun ki sahayata ko kaurav sena se yuddh karta hua gaya hai. yadi tum unko kushalpurvak pao to sinhnad karna. main samajh lunga ki sab kushal hai. ”",
"bhimasen ne yudhishthir ki baat ka prativad nahin kiya aur wo dhrishtadyumn se bola—“acharya dron ke irade se to aap parichit hain hi. kisi na kisi tarah bhrata yudhishthir ko jivit pakaDne ka unka pran hai. raja ki raksha karna hi hamara pratham kartavya hai. jab wo svayan mujhe jane ki aagya de rahe hain, to uska bhi palan karna mera dharm ho jata hai. is karan bhrata yudhishthir ko aapke hi bharose par chhoDkar ja raha hoon. inki bhali bhanti raksha kijiyega. ”",
"dhrishtadyumn ne kaha—“tum kisi prakar ki chinta na karo aur nishchit hokar jao. vishvas rakho ki dron mera vadh kiye bina yudhishthir ko nahin pakaD sakenge. ” acharya dron ke janm ke bairi dhrishtadyumn ke is prakar vishvas dilane par bheem nishchit hokar tezi se arjun ki taraf chal diya.",
"jitne bhi sainydal muqabala karne aaye, unhen marta girata hua bheem ant mein us sthaan par pahunch gaya, jahan arjun jayadrath ki sena se laD raha tha.",
"arjun ko surakshit dekhte hi bhimasen ne sinhnad kiya. bheem ka sinhnad sunkar shrikrishn aur arjun anand ke mare uchhal paDe aur unhonne bhi zoron se sinhnad kiya. in sinhnadon ko sunkar yudhishthir bahut hi prasann hue. unke man se shok ke badal hat ge. unhonne arjun ko man hi man ashirvad diya. wo sochne lage—abhi suraj Dubne se pahle arjun apni prtigya puri kar lega aur jayadrath ka vadh karke laut ayega. ho sakta hai, jayadrath ke vadh ke baad duryodhan shayad sandhi kar le. idhar yudhishthir man hi man shanti sthapana ki kamna kar rahe the aur udhar morche par jahan bheem, satyaki aur arjun the, vahan ghor sangram ho raha tha.",
"thoDe hi samay mein jis sthaan par arjun aur jayadrath ka yuddh ho raha tha, duryodhan bhi vahan aa pahuncha magar thoDi hi der mein buri tarah harkar maidan chhoDkar bhaag khaDa hua. is bhanti us roz kai morchon par zoron se yuddh ho raha tha.",
"dron ne kaha—“beta duryodhan, tumhein himmat nahin harni chahiye. tum jayadrath ki sahayata ke liye jao aur vahan jo kuch karna avashyak ho, wo karo. ” acharya ke kahne sunne par duryodhan kuch sena lekar phir se laDai ke us morche par chala gaya, jahan arjun aur jayadrath mein zoron ki laDai ho rahi thi. us din bheem aur karn mein jo yuddh hua, wo ek romanchkari ghatna ke roop mein varnit hai. bhimasen uttejna aur ugrata ki pratimurti sa dikhai de raha tha. karn jo kuch karta, dhiraj aur vyavastha ke saath shantbhav se karta, kintu bheem ko to thoDa sa bhi apman asahya ho jata tha.",
"donon hi baDe veer the. ve ek dusre par jhapatkar aghat karne lage. bhimasen ko us samay pichhle ghor apmanon, yatnaon aur musibton ki yaad ho aai, jo use, uske bhaiyon aur draupadi ko pahunchai gai theen. pranon ka moh chhoDkar wo laDne laga. us samay bhimasen ka ghavon se bhara hua sharir dhadhakti hui aag sa pratit ho raha tha.",
"karn aur bheem ke yuddh mein is baar bhimasen ke rath ke ghoDe mare ge. sarthi bhi katkar gir paDa. rath toot phoot gaya aur dhanush bhi kat gaya. bheem ne Dhaal talvar le li aur jaan jhonkkar laDne laga. palak jhapakte hi karn ne uski Dhaal ke bhi tukDe tukDe kar diye. jab Dhaal bhi na rahi to karn ne bheem ko khoob pareshan kiya. isse bheem bahut hi piDit hua. use asim krodh aaya. wo uchhalkar karn ke rath par ja kuda. karn ne rath ke dhvjastambh ki aaD lekar bhimasen ki jhapat se apne ko bacha liya. bheem niche zamin par kood paDa aur vilakshan yuddh karne laga. maidan mein jo rath ke pahiye ghoDe, hathi aadi paDe hue the, unhin ko utha uthakar wo karn par phenkta gaya, jisse use kshanbhar bhi aram na mil paya. us samay karn chahta to wo bheem ko asani se maar sakta tha, par nihatthe bheem ko usne marana nahin chaha. mata kunti ko diya hua vachan bhi use yaad tha ki wo arjun ke atirikt aur kisi ko yuddh mein na marega.",
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"Sign up and enjoy FREE unlimited access to a whole Universe of Urdu Poetry, Language Learning, Sufi Mysticism, Rare Texts",
"जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।",
"Devoted to the preservation & promotion of Urdu",
"Urdu poetry, urdu shayari, shayari in urdu, poetry in urdu",
"A Trilingual Treasure of Urdu Words",
"Online Treasure of Sufi and Sant Poetry",
"The best way to learn Urdu online",
"Best of Urdu & Hindi Books",
"हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश"
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बाल महाभारत : चौथा, पाँचवाँ और छठा दिन - कथा | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kathaen/class-7-ncert-7/baal-mahabharat-ha-chautha-panchvan-aur-chhatha-din-chakraborty-rajagopalacharya-kathaen?sort= | [
"प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।",
"पौ फटी लड़ाई शुरू हो गई। शल्य का पुत्र मारा गया। भीमसेन ने दुर्योधन के आठ भाई मार डाले। दुर्योधन ने भी निशाना साधकर भीमसेन की छाती पर एक भीषण अस्त्र चलाया। चोट खाकर भीम मूच्छित-सा होकर रथ पर बैठ गया। अपने पिता का यह हाल देखकर घटोत्कच के क्रोध का ठिकाना न रहा। वह आपे से बाहर हो गया और उसने भयानक युद्ध शुरू कर दिया। घटोत्कच के भीषण आक्रमण के आगे कौरव-सेना टिक न सकी सेना को विह्वल होती देखकर भीष्म ने युद्ध बंद कर दिया और सेना लौटा दी। उस दिन की लड़ाई में दुर्योधन के कितने ही भाई मारे गए। चिंताग्रस्त दुर्योधन अपने शिविर में जाकर व्यथित हृदय से बैठ गया। उसकी आँखें भर आईं। संजय कुरुक्षेत्र के मैदान का आँखों देखा हाल धृतराष्ट्र को सुनाता जाता था। वहाँ का बयान सुनते-सुनते धृतराष्ट्र व्यथित हो जाते थे। वह दुख उनकी सहनशक्ति से भारी हो जाता था, तो वह कुछ कह-सुनकर अपना शोक-भार हलका कर लेते। दुर्योधन बड़ी देर तक विचारों में डूबा रहा। इसी प्रकार सोचते-सोचते उसे नींद आ गई।",
"सुबह होने पर दोनों सेनाएँ फिर युद्ध के लिए सज्जित हो गई। लड़ाई शुरू हो गई। उस दिन संध्या होते-होते अर्जुन ने हज़ारों कौरव सैनिकों का जीवन समाप्त कर दिया। यह देखकर पांडव-सेना के वीरों ने अर्जुन को चारों ओर से घेर लिया और ज़ोर का जय-जयकार कर उठे। उधर सूरज डूबा और भीष्म ने युद्ध बंद करने की आज्ञा दी। दोनों ओर के थके-थकाए सैनिक अपनी-अपनी छावनी की ओर चले गए।",
"छठे दिन सवेरे युद्ध छिड़ते ही दोनों तरफ़ की जन-हानि बड़ी तादाद में होने लगी। पर अंत में द्रोण ने वह तबाही मचाई कि पांडव सेना के पाँव उखड़ गए।",
"इसके बाद तो अंधाधुंध युद्ध होने लगा। अंत में दुर्योधन बुरी तरह घायल हुआ और बेहोश होकर रथ से गिर पड़ा। तब कृपाचार्य ने बड़ी चतुराई से उसे रथ पर ले लिया, जिससे दुर्योधन की जान बच गई। आकाश लाल हो चला। सूरज डूबना ही चाहता था। फिर भी कुछ मुहूर्त तक युद्ध जारी रहा। सूर्यास्त के बाद युद्ध समाप्त हुआ। आज का युद्ध इतना भयंकर था कि धृष्टद्युम्न और भीमसेन के सकुशल शिविर में लौट आने पर युधिष्ठिर ने बड़ा आनंद मनाया। उनकी ख़ुशी की सीमा न थी।",
"pau phati laDai shuru ho gai. shalya ka putr mara gaya. bhimasen ne duryodhan ke aath bhai maar Dale. duryodhan ne bhi nishana sadhkar bhimasen ki chhati par ek bhishan astra chalaya. chot khakar bheem muchchhit sa hokar rath par baith gaya. apne pita ka ye haal dekhkar ghatotkach ke krodh ka thikana na raha. wo aape se bahar ho gaya aur usne bhayanak yuddh shuru kar diya. ghatotkach ke bhishan akrman ke aage kaurav sena tik na saki sena ko vihval hoti dekhkar bheeshm ne yuddh band kar diya aur sena lauta di. us din ki laDai mein duryodhan ke kitne hi bhai mare ge. chintagrast duryodhan apne shivir mein jakar vyathit hriday se baith gaya. uski ankhen bhar ain. sanjay kurukshetr ke maidan ka ankhon dekha haal dhritarashtr ko sunata jata tha. vahan ka byaan sunte sunte dhritarashtr vyathit ho jate the. wo dukh unki sahanshakti se bhari ho jata tha, to wo kuch kah sunkar apna shok bhaar halka kar lete. duryodhan baDi der tak vicharon mein Duba raha. isi prakar sochte sochte use neend aa gai.",
"subah hone par donon senayen phir yuddh ke liye sajjit ho gai. laDai shuru ho gai. us din sandhya hote hote arjun ne hazaron kaurav sainikon ka jivan samapt kar diya. ye dekhkar panDav sena ke viron ne arjun ko charon or se gher liya aur zor ka jay jaykar kar uthe. udhar suraj Duba aur bheeshm ne yuddh band karne ki aagya di. donon or ke thake thakaye sainik apni apni chhavani ki or chale ge.",
"chhathe din savere yuddh chhiDte hi donon taraf ki jan hani baDi tadad mein hone lagi. par ant mein dron ne wo tabahi machai ki panDav sena ke paanv ukhaD ge.",
"iske baad to andhadhundh yuddh hone laga. ant mein duryodhan buri tarah ghayal hua aur behosh hokar rath se gir paDa. tab kripacharya ne baDi chaturai se use rath par le liya, jisse duryodhan ki jaan bach gai. akash laal ho chala. suraj Dubna hi chahta tha. phir bhi kuch muhurt tak yuddh jari raha. suryast ke baad yuddh samapt hua. aaj ka yuddh itna bhayankar tha ki dhrishtadyumn aur bhimasen ke sakushal shivir mein laut aane par yudhishthir ne baDa anand manaya. unki khushi ki sima na thi.",
"pau phati laDai shuru ho gai. shalya ka putr mara gaya. bhimasen ne duryodhan ke aath bhai maar Dale. duryodhan ne bhi nishana sadhkar bhimasen ki chhati par ek bhishan astra chalaya. chot khakar bheem muchchhit sa hokar rath par baith gaya. apne pita ka ye haal dekhkar ghatotkach ke krodh ka thikana na raha. wo aape se bahar ho gaya aur usne bhayanak yuddh shuru kar diya. ghatotkach ke bhishan akrman ke aage kaurav sena tik na saki sena ko vihval hoti dekhkar bheeshm ne yuddh band kar diya aur sena lauta di. us din ki laDai mein duryodhan ke kitne hi bhai mare ge. chintagrast duryodhan apne shivir mein jakar vyathit hriday se baith gaya. uski ankhen bhar ain. sanjay kurukshetr ke maidan ka ankhon dekha haal dhritarashtr ko sunata jata tha. vahan ka byaan sunte sunte dhritarashtr vyathit ho jate the. wo dukh unki sahanshakti se bhari ho jata tha, to wo kuch kah sunkar apna shok bhaar halka kar lete. duryodhan baDi der tak vicharon mein Duba raha. isi prakar sochte sochte use neend aa gai.",
"subah hone par donon senayen phir yuddh ke liye sajjit ho gai. laDai shuru ho gai. us din sandhya hote hote arjun ne hazaron kaurav sainikon ka jivan samapt kar diya. ye dekhkar panDav sena ke viron ne arjun ko charon or se gher liya aur zor ka jay jaykar kar uthe. udhar suraj Duba aur bheeshm ne yuddh band karne ki aagya di. donon or ke thake thakaye sainik apni apni chhavani ki or chale ge.",
"chhathe din savere yuddh chhiDte hi donon taraf ki jan hani baDi tadad mein hone lagi. par ant mein dron ne wo tabahi machai ki panDav sena ke paanv ukhaD ge.",
"iske baad to andhadhundh yuddh hone laga. ant mein duryodhan buri tarah ghayal hua aur behosh hokar rath se gir paDa. tab kripacharya ne baDi chaturai se use rath par le liya, jisse duryodhan ki jaan bach gai. akash laal ho chala. suraj Dubna hi chahta tha. phir bhi kuch muhurt tak yuddh jari raha. suryast ke baad yuddh samapt hua. aaj ka yuddh itna bhayankar tha ki dhrishtadyumn aur bhimasen ke sakushal shivir mein laut aane par yudhishthir ne baDa anand manaya. unki khushi ki sima na thi.",
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बाल महाभारत : पांडवों की रक्षा - कथा | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kathaen/class-7-ncert-7/baal-mahabharat-pandvon-ki-raksha-chakraborty-rajagopalacharya-kathaen?sort= | [
"प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।",
"पाँचों पांडव माता कुंती के साथ वारणावत के लिए चल पड़े। उनके हस्तिनापुर छोड़कर वारणावत जाने की ख़बर पाकर नगर के लोग उनके साथ हो लिए। बहुत दूर जाने के बाद युधिष्ठिर का कहा मानकर नगरवासियों को लौट जाना पड़ा। दुर्योधन के षड्यंत्र और उससे बचने का उपाय विदुर ने युधिष्ठिर को इस तरह गूढ़ भाषा में सिखा दिया था कि जिससे दूसरे लोग समझ न सकें। वारणावत के लोग पांडवों के आगमन की ख़बर पाकर बड़े ख़ुश हुए और उनके वहाँ पहुँचने पर उन्होंने बड़े ठाठ से उनका स्वागत किया। जब तक लाख का भवन बनकर तैयार हुआ, पांडव दूसरे घरों में रहते रहे, जहाँ पुरोचन ने पहले से ही उनके ठहरने का प्रबंध कर रखा था। लाख का भवन बनकर तैयार हो गया, तो पुरोचन उन्हें उसमें ले गया। भवन में प्रवेश करते ही युधिष्ठिर ने उसे ख़ूब ध्यान से देखा। विदुर की बातें उन्हें याद थीं। ध्यान से देखने पर युधिष्ठिर को पता चल गया कि यह घर जल्दी आग लगने वाली चीज़ों से बना हुआ है। युधिष्ठिर ने भीम को भी यह भेद बता दिया; पर साथ ही उसे सावधान करते हुए कहा—“यद्यपि यह साफ़ मालूम हो गया है कि यह स्थान ख़तरनाक है, फिर भी हमें विचलित नहीं होना चाहिए। पुरोचन को इस बात का ज़रा भी पता न लगे कि उसके षड्यंत्र का भेद हम पर खुल गया है। मौक़ा पाकर हमें यहाँ से निकल भागना होगा। पर अभी हमें जल्दी से ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए जिससे शत्रु के मन में ज़रा भी संदेह पैदा होने की संभावना हो।",
"युधिष्ठिर की इस सलाह को भीमसेन सहित सब भाइयों तथा कुंती ने मान लिया। वे उसी लाख के भवन में रहने लगे। इतने में विदुर का भेजा हुआ एक सुरंग बनाने वाला कारीगर वारणावत नगर में आ पहुँचा। उसने एक दिन पांडवों को अकेले में पाकर उन्हें अपना परिचय देते हुए कहा—“आप लोगों की भलाई के लिए हस्तिनापुर से रवाना होते समय विदुर ने युधिष्ठिर से सांकेतिक भाषा में जो कुछ कहा था, वह बात मैं जानता हूँ। यही मेरे सच्चे मित्र होने का सबूत है। आप मुझ पर भरोसा रखें। मैं आप लोगों की रक्षा का प्रबंध करने के लिए आया हूँ।",
"इसके बाद वह कारीगर महल में पहुँच गया और गुप्त रूप से कुछ दिनों में ही उसमें एक सुरंग बना दी इस रास्ते से पांडव महल के अंदर से नीचे-ही-नीचे चहारदीवारी और गहरी खाई को लाँघकर सुरक्षित बेखटके बाहर निकल सकते थे। यह काम इतने गुप्त रूप से और इस ख़ूबी से हुआ कि पुरोचन को अंत तक इस बात की ख़बर न होने पाई। पुरोचन ने लाख के भवन के द्वार पर ही अपने रहने के लिए स्थान बनवा लिया था। इस कारण पांडवों को भी सारी रात हथियार लेकर चौकन्ने रहना पड़ता था।",
"एक दिन पुरोचन ने सोचा कि अब पांडवों का काम तमाम करने का समय आ गया है। समझदार युधिष्ठिर उसके रंग-ढंग से ताड़ गए कि वह क्या सोच रहा है। युधिष्ठिर की सलाह से माता कुंती ने उसी रात को एक बड़े भोज का प्रबंध किया। नगर के सभी लोगों को भोजन कराया गया। बड़ी धूमधाम रही, मानो कोई बड़ा उत्सव हो। ख़ूब खा-पीकर भवन के सब कर्मचारी गहरी नींद में सो गए। पुरोचन भी सो गया। आधी रात के समय भीमसेन ने भवन में कई जगह आग लगा दी और फिर पाँचों भाई माता कुंती के साथ सुरंग के रास्ते अँधेरे में रास्ता टटोलते टटोलते बाहर निकल गए। भवन से बाहर वे निकले ही थे कि आग ने सारे भवन को अपनी लपटों में ले लिया। पुरोचन के रहने के मकान में भी आग लग गई। सारे नगर के लोग इकट्ठे हो गए और पांडवों के भवन को भयंकर आग की भेंट होते, देखकर हाहाकार मचाने लगे। कौरवों के अत्याचार से जनता क्षुब्ध हो उठी और तरह-तरह से कौरवों की निंदा करने लगी। लोग क्रोध में अनाप-शनाप बकने लगे, हाय-तौबा मचाने लगे और उनके देखते-देखते सारा भवन जलकर राख हो गया। पुरोचन का मकान और स्वयं पुरोचन भी आग की भेंट हो गया।",
"वारणावत के लोगों ने तुरंत ही हस्तिनापुर में ख़बर पहुँचा दी कि पांडव जिस भवन में ठहराए गए थे, वह जलकर राख हो गया है और भवन में कोई भी जीता नहीं बचा।धृतराष्ट्र और उनके बेटों ने पांडवों की मृत्यु पर बड़ा शोक मनाया। वे गंगा किनारे गए और पांडवों तथा कुंती को जलांजलि दी। फिर सब मिलकर बड़े ज़ोर-ज़ोर से रोते और विलाप करते हुए घर लौटे। परंतु दार्शनिक विदुर ने शोक को मन ही में दवा लिया। अधिक शोक-प्रदर्शन न किया। इसके अलावा विदुर को यह भी पक्का विश्वास था कि पांडव लाख के भवन से बचकर निकल गए होंगे। पितामह भीष्म तो मानो शोक के सागर ही में थे, पर उनको विदुर ने धीरज बँधाया और पांडवों के बचाव के लिए किए गए अपने सारे प्रबंध का हाल बताकर उन्हें चिंतामुक्त कर दिया।",
"लाख के घर को जलता हुआ छोड़कर पाँचों भाई माता कुंती के साथ बच निकले और जंगल में पहुँच गए। जंगल पहुँचने पर भीमसेन ने देखा कि रातभर जगे होने तथा चिंता और भय से पीड़ित होने के कारण चारों भाई बहुत थके हुए हैं। माता कुंती की दशा तो बड़ी ही दयनीय थी। बेचारी थककर चूर हो गई थी। सो महाबली भीम ने माता को उठाकर अपने कंधे पर बैठा लिया और नकुल एवं सहदेव को कमर पर ले लिया। युधिष्ठिर और अर्जुन को दोनों हाथों से पकड़ लिया और वह उस जंगली रास्ते में उन्मत्त हाथी के समान झाड़-झंखाड़ और पेड़-पौधों को इधर-उधर हटाता व रौंदता हुआ तेज़ी से चलने लगा। जब वे सब गंगा के किनारे पहुँचे, तो वहाँ विदुर की भेजी हुई एक नाव मिली। युधिष्ठिर ने मल्लाह से सांकेतिक प्रश्न करके जाँच लिया कि वह मित्र है। वे लोग अगले दिन शाम होने तक चलते ही रहे, ताकि किसी सुरक्षित स्थान पर पहुँच जाएँ।",
"सूरज डूब गया और रात हो चली थी। चारों तरफ़ अँधेरा छा गया। कुंती और पांडव एक तो थकावट के मारे चूर हो रहे थे, ऊपर से प्यास और नींद भी उन्हें सताने लगी चक्कर-सा आने लगा। एक पग भी आगे बढ़ना असंभव हो गया। भीम के सिवाए और सब भाई वहीं ज़मीन पर लगती थीं। बैठ गए। कुंती से तो बैठा भी नहीं गया। वह दीनभाव से बोली—“मैं तो प्यास से मरी जा रही हूँ। अब मुझसे बिलकुल चला नहीं जाता। धृतराष्ट्र के बेटे चाहें तो भले ही मुझे यहाँ से उठा ले जाएँ, मैं तो यहीं पड़ी रहूँगी। यह कहकर कुंती वहीं ज़मीन पर गिरकर बेहोश हो गई।",
"माता और भाइयों का यह हाल देखकर क्षोभ के मारे भीमसेन का हृदय दग्ध हो उठा। वह उस भयानक जंगल में बेधड़क घुस गया और इधर-उधर घूम-घामकर उसने एक जलाशय का पता लगा ही लिया। उसने पानी लाकर माता व भाइयों की प्यास बुझाई। पानी पीकर चारों भाई और माता कुंती ऐसे सोए कि उन्हें अपनी सुध-बुध तक न रही। अकेला भीमसेन मन-ही-मन कुछ सोचता हुआ चिंतित भाव से बैठा रहा। पाँचों भाई माता कुंती को लिए अनेक विघ्न-बाधाओं का सामना करते और बड़ी मुसीबतें झेलते हुए उस जंगली हो जाते। रास्ते में आगे बढ़ते ही चले गए। वे कभी माता को उठाकर तेज़ चलते, कभी थके-माँदे बैठ जाते। कभी एक-दूसरे से होड़ लगाकर रास्ता पार करते। वे ब्राह्मण ब्रह्मचारियों का वेश धरकर एकचक्रा नगरी में जाकर एक ब्राह्मण के घर में रहने लगे।",
"माता कुंती के साथ पाँचों पांडव एकचक्रा नगरी में भिक्षा माँगकर अपनी गुज़र करके दिन बिताने लगे। भिक्षा के लिए जब पाँचों भाई निकल जाते, तो कुंती का जी बड़ा बेचैन हो उठता था। वह बड़ी चिंता से उनकी बाट जोहती रहती। उनके लौटने में ज़रा भी देर हो जाती तो कुंती के मन में तरह-तरह की आशंकाएँ उठने लगती थीं।",
"पाँचों भाई भिक्षा में जितना भोजन लाते, कुंती उसके दो हिस्से कर देती। एक हिस्सा भीमसेन को दे देती और बाक़ी आधे में से पाँच हिस्से करके चारों बेटे और ख़ुद खा लेती थी। तिसपर भी भीमसेन की भूख नहीं मिटती थी। हमेशा ही भूखा रहने के कारण वह दिन-पर-दिन दुबला होने लगा। भीमसेन का यह हाल देखकर कुंती और युधिष्ठिर बड़े चिंतित रहने लगे। थोड़े से भोजन से पेट न भरता था, सो भीमसेन ने एक कुम्हार से दोस्ती कर ली। उसने मिट्टी आदि खोदने में मदद करके उसको ख़ुश कर दिया। कुम्हार भीम से बड़ा ख़ुश हुआ और एक बड़ी भारी हाँडी बनाकर उसको दी। भीम उसी हाँडी को लेकर भिक्षा के लिए निकलने लगा। उसका विशाल शरीर और उसकी वह विलक्षण हाँडी देखकर बच्चे तो हँसते-हँसते लोटपोट हो जाते।",
"एक दिन चारों भाई भिक्षा के लिए गए। अकेला भीमसेन ही माता कुंती के साथ घर पर रहा। इतने में ब्राह्मण के घर के भीतर से बिलख-बिलखकर रोने की आवाज़ आई। अंदर जाकर देखा कि ब्राह्मण और उसकी पत्नी आँखों में आँसू भरे सिसकियाँ लेते हुए एक-दूसरे बातें कर रहे हैं।",
"ब्राह्मण बड़े दुखी हृदय से अपनी पत्नी से कह रहा था—“कितनी ही बार मैंने तुम्हें समझाया कि इस अँधेर नगरी को छोड़कर कहीं और चले जाएँ, पर तुम नहीं मानीं यही हठ करती रहीं कि यह मेरे बाप-दादा का गाँव है, यहीं रहूँगी। बोलो, अब क्या कहती हो? अपनी बेटी की भी बलि कैसे चढ़ा दूँ और पुत्र को कैसे काल कवलित होने दूँ? यदि मैं शरीर त्यागता हूँ, तो फिर इन अनाथ बच्चों का भरण-पोषण कौन करेगा? हाय! मैं अब क्या करूँ? और कुछ करने से तो अच्छा उपाय यह है कि सभी एक साथ मौत को गले लगा लें। यही अच्छा होगा।” कहते-कहते ब्राह्मण सिसक-सिसककर रो पड़ा।",
"ब्राह्मण की पत्नी रोती-रोती बोली—“प्राणनाथ! मुझे मरने का कोई दुख नहीं है मेरी मृत्यु के बाद आप चाहें तो दूसरी पत्नी ला सकते हैं। अब मुझे प्रसन्नतापूर्वक आज्ञा दें, ताकि मैं राक्षस का भोजन बनूँ।”",
"पत्नी की ये व्यथाभरी बातें सुनकर ब्राह्मण से न रहा गया। वह बोला—“प्रिये! मुझसे बड़ा दुरात्मा और पापी कौन होगा, जो तुम्हें राक्षस की बलि चढ़ा दे और ख़ुद जीवित रहे?”",
"माता-पिता को इस तरह बातें करते देख ब्राह्मण की बेटी से न रहा गया। उसने करुण स्वर में कहा—“पिताजी, अच्छा तो यह है कि राक्षस के पास आप मुझे भेज दें। सबको इस तरह रोते देखकर ब्राह्मण का नन्हा सा बालक पास में पड़ी हुई सूखी लकड़ी हाथ में लेकर घुमाता हुआ बोला—“उस राक्षस को तो मैं ही इस लकड़ी से इस तरह ज़ोर से मार डालूँगा।”",
"कुंती खड़ी-खड़ी यह सब देख रही थी। अपनी बात कहने का उसने ठीक मौक़ा देखा। वह बोली—“हे ब्राह्मण, क्या आप कृपा करके मुझे बता सकते हैं कि आप लोगों के इस असमय दुख का कारण क्या है?”",
"ब्राह्मण ने कहा—“देवी! सुनिए, इस नगरी के समीप एक गुफ़ा है, जिसमें बक नामक एक बड़ा अत्याचारी राक्षस रहता है। पिछले तेरह वर्षों से इस नगरी के लोगों पर वह बड़े ज़ुल्म ढा रहा है। इस देश का राजा, जो वेत्रकीय नाम के महल में रहता है, इतना निकम्मा है कि प्रजा को राक्षस के अत्याचार से बचा नहीं रहा है। इससे घबराकर नगर के लोगों ने मिलकर उससे बड़ी अनुनय-विनय की कि कोई-न-कोई नियम बना ले। बकासुर ने लोगों की यह बात मान ली और तब से इस समझौते के अनुसार यह नियम बना हुआ है कि लोग बारी-बारी से एक-एक आदमी और खाने की चीज़ें हर सप्ताह उसे पहुँचा दिया करते हैं। इस सप्ताह में उस राक्षस के खाने के लिए आदमी और भोजन भेजने की हमारी बारी है। अब तो मैंने यही सोचा है कि सबको साथ लेकर ही राक्षस के पास चला जाऊँगा। आपने पूछा सो आपको बता दिया। इस कष्ट को दूर करना तो आपके बस में भी नहीं है।”",
"ब्राह्मण की बात का कोई उत्तर देने से पहले कुंती ने भीमसेन से सलाह की। उसने लौटकर कहा—“विप्रवर, आप इस बात की चिंता छोड़ दें। मेरे पाँच बेटे हैं, उनमें से एक आज राक्षस के पास भोजन लेकर चला जाएगा।”",
"सुनकर ब्राह्मण चौंक पड़ा और बोला—“आप भी कैसी बात कहती हैं! आप हमारी अतिथि हैं। हमारे घर में आश्रय लिए हुए हैं। आपके बेटे को मौत के मुँह में मैं भेजूँ, यह कहाँ का न्याय है? मुझसे यह नहीं हो सकता।”",
"कुंती को डर था कि यदि यह बात फैल गई, तो दुर्योधन और उनके साथियों को पता लग जाएगा कि पांडव एकचक्रा नगरी में छिपे हुए हैं। इसीलिए उसने ब्राह्मण से इस बात को गुप्त रखने का आग्रह किया था। कुंती ने जब भीमसेन को बताया कि उसे बकासुर के पास भोजन-सामग्री लेकर जाना होगा, तो युधिष्ठिर खीझ उठे और बोले—“यह तुम कैसा दुस्साहस आगे करने चली हो माँ!”",
"युधिष्ठिर की इन कड़ी बातों का उत्तर देते हुए कुंती बोली—“बेटा युधिष्ठिर! इस ब्राह्मण के घर में हमने कई दिन आराम से बिताए हैं। जब इन पर विपदा पड़ी है, तो मनुष्य होने के नाते हमें उसका बदला चुकाना ही चाहिए। मैं बेटा भीम की शक्ति और बल से अच्छी तरह परिचित हूँ। तुम इस बात की चिंता मत करो। जो हमें वारणावत से यहाँ तक उठा लाया, जिसने हिडिंब का वध किया, उस भीम के बारे में मुझे न तो कोई डर है, न चिंता भीम को बकासुर के पास भेजना हमारा कर्तव्य है।”",
"इसके बाद नियम के अनुसार नगर के लोग खाने-पीने की चीज़ें गाड़ी में रखकर ले आए। भीमसेन उछलकर गाड़ी में बैठ गया। शहर के लोग भी बाजे बजाते हुए कुछ दूर तक उसके पीछे-पीछे चले। एक निश्चित स्थान पर लोग रुक गए और अकेला भीम गाड़ी दौड़ाता हुआ आगे गया।",
"उधर राक्षस मारे भूख के तड़प रहा था। जब बहुत देर हो गई, तो बड़े क्रोध के साथ वह गुफ़ा के बाहर आया। देखता क्या है कि एक मोटा सा मनुष्य बड़े आराम से बैठा हुआ भोजन कर रहा है। यह देखकर बकासुर की आँखें क्रोध से एकदम लाल हो उठीं। इतने में भीमसेन की भी निगाह उस पर पड़ी। उसने हँसते हुए उसका नाम लेकर पुकारा। भीमसेन की यह ढिठाई देखकर राक्षस ग़ुस्से में भर गया और तेज़ी से भीमसेन पर झपटा। भीमसेन ने बकासुर को अपनी ओर आते देखा, तो उसने उसकी तरफ़ पीठ फेर ली और कुछ भी परवाह न करके खाने में ही लगा रहा। ख़ाली हाथों काम न बनते देखकर राक्षस ने एक बड़ा सा पेड़ जड़ से उखाड़ लिया और उसे भीमसेन पर दे मारा, परंतु भीमसेन ने बाएँ हाथ पर उसे रोक लिया। दोनों में भयानक मुठभेड़ हो गई। भीमसेन ने बकासुर को ठोकरें मारकर गिरा दिया और कहा—“दुष्ट राक्षस! जरा विश्राम तो करने दे।”",
"थोड़ी देर सुस्ताकर भीम ने फिर कहा—“अच्छा! अब उठो!” बकासुर उठकर भीम के साथ लड़ने लगा। भीमसेन ने उसको ठोकरें लगाकर फिर गिरा दिया। इस तरह बार-बार पछाड़ खाने पर भी राक्षस उठकर भिड़ जाता था। आख़िर भीम ने उसे मुँह के बल गिरा दिया और उसकी पीठ पर घुटनों की मार देकर उसकी रीढ़ तोड़ डाली। राक्षस पीड़ा के मारे चीख़ उठा और उसके प्राण पखेरू उड़ गए। भीमसेन उसकी लाश को घसीट लाया और उसे नगर के फाटक पर जाकर पटक दिया। फिर उसने घर आकर माँ को सारा हाल बताया।",
"panchon panDav mata kunti ke saath varnavat ke liye chal paDe. unke hastinapur chhoDkar varnavat jane ki khabar pakar nagar ke log unke saath ho liye. bahut door jane ke baad yudhishthir ka kaha mankar nagarvasiyon ko laut jana paDa. duryodhan ke shaDyantr aur usse bachne ka upaay vidur ne yudhishthir ko is tarah gooDh bhasha mein sikha diya tha ki jisse dusre log samajh na saken. varnavat ke log panDvon ke agaman ki khabar pakar baDe khush hue aur unke vahan pahunchne par unhonne baDe thaath se unka svagat kiya. jab tak laakh ka bhavan bankar taiyar hua, panDav dusre gharon mein rahte rahe, jahan purochan ne pahle se hi unke thaharne ka prbandh kar rakha tha. laakh ka bhavan bankar taiyar ho gaya, to purochan unhen usmen le gaya. bhavan mein pravesh karte hi yudhishthir ne use khoob dhyaan se dekha. vidur ki baten unhen yaad theen. dhyaan se dekhne par yudhishthir ko pata chal gaya ki ye ghar jaldi aag lagnevali chizon se bana hua hai. yudhishthir ne bheem ko bhi ye bhed bata diya; par saath hi use savdhan karte hue kaha—“yadyapi ye saaf malum ho gaya hai ki ye sthaan khatarnak hai, phir bhi hamein vichlit nahin hona chahiye. purochan ko is baat ka zara bhi pata na lage ki uske shaDyantr ka bhed hum par khul gaya hai. mauka pakar hamein yahan se nikal bhagna hoga. par abhi hamein jaldi se aisa koi kaam nahin karna chahiye jisse shatru ke man mein zara bhi sandeh paida hone ki sambhavna ho.",
"yudhishthir ki is salah ko bhimasen sahit sab bhaiyon tatha kunti ne maan liya. ve usi laakh ke bhavan mein rahne lage. itne mein vidur ka bheja hua ek surang bananevala karigar varnavat nagar mein aa pahuncha. usne ek din panDvon ko akele mein pakar unhen apna parichay dete hue kaha—“ap logon ki bhalai ke liye hastinapur se ravana hote samay vidur ne yudhishthir se sanketik bhasha mein jo kuch kaha tha, wo baat main janta hoon. yahi mere sachche mitr hone ka sabut hai. aap mujh par bharosa rakhen. main aap logon ki raksha ka prbandh karne ke liye aaya hoon.",
"iske baad wo karigar mahl mein pahunch gaya aur gupt roop se kuch dinon mein hi usmen ek surang bana di is raste se panDav mahl ke andar se niche hi niche chaharadivari aur gahri khai ko langhakar surakshit bekhatke bahar nikal sakte the. ye kaam itne gupt roop se aur is khubi se hua ki purochan ko ant tak is baat ki khabar na hone pai. purochan ne laakh ke bhavan ke dvaar par hi apne rahne ke liye sthaan banva liya tha. is karan panDvon ko bhi sari raat hathiyar lekar chaukanne rahna paDta tha.",
"ek din purochan ne socha ki ab panDvon ka kaam tamam karne ka samay aa gaya hai. samajhdar yudhishthir uske rang Dhang se taaD ge ki wo kya soch raha hai. yudhishthir ki salah se mata kunti ne usi raat ko ek baDe bhoj ka prbandh kiya. nagar ke sabhi logon ko bhojan karaya gaya. baDi dhumdham rahi, mano koi baDa utsav ho. khoob kha pikar bhavan ke sab karmachari gahri neend mein so ge. purochan bhi so gaya. aadhi raat ke samay bhimasen ne bhavan mein kai jagah aag laga di aur phir panchon bhai mata kunti ke saath surang ke raste andhere mein rasta tatolte tatolte bahar nikal ge. bhavan se bahar ve nikle hi the ki aag ne sare bhavan ko apni lapton mein le liya. purochan ke rahne ke makan mein bhi aag lag gai. sare nagar ke log ikatthe ho ge aur panDvon ke bhavan ko bhayankar aag ki bhent hote, dekhkar hahakar machane lage. kaurvon ke atyachar se janta kshubdh ho uthi aur tarah tarah se kaurvon ki ninda karne lagi. log krodh mein anap shanap bakne lage, haay tauba machane lage aur unke dekhte dekhte sara bhavan jalkar raakh ho gaya. purochan ka makan aur svayan purochan bhi aag ki bhent ho gaya.",
"varnavat ke logon ne turant hi hastinapur mein khabar pahuncha di ki panDav jis bhavan mein thahraye ge the, wo jalkar raakh ho gaya hai aur bhavan mein koi bhi jita nahin bacha. dhritarashtr aur unke beton ne panDvon ki mrityu par baDa shok manaya. ve ganga kinare ge aur panDvon tatha kunti ko jalanjali di. phir sab milkar baDe zor zor se rote aur vilap karte hue ghar laute. parantu darshanik vidur ne shok ko man hi mein dava liya. adhik shok pradarshan na kiya. iske alava vidur ko ye bhi pakka vishvas tha ki panDav laakh ke bhavan se bachkar nikal ge honge. pitamah bheeshm to mano shok ke sagar hi mein the, par unko vidur ne dhiraj bandhaya aur panDvon ke bachav ke liye kiye ge apne sare prbandh ka haal batakar unhen chintamukt kar diya.",
"laakh ke ghar ko jalta hua chhoDkar panchon bhai mata kunti ke saath bach nikle aur jangal mein pahunch ge. jangal pahunchne par bhimasen ne dekha ki ratbhar jage hone tatha chinta aur bhay se piDit hone ke karan charon bhai bahut thake hue hain. mata kunti ki dasha to baDi hi dayniy thi. bechari thakkar choor ho gai thi. so mahabali bheem ne mata ko uthakar apne kandhe par baitha liya aur nakul evan sahdev ko kamar par le liya. yudhishthir aur arjun ko donon hathon se pakaD liya aur wo us jangli raste mein unmatt hathi ke saman jhaaD jhankhaD aur peD paudhon ko idhar udhar hatata va raundta hua tezi se chalne laga. jab ve sab ganga ke kinare pahunche, to vahan vidur ki bheji hui ek naav mili. yudhishthir ne mallah se sanketik parashn karke jaanch liya ki wo mitr hai. ve log agle din shaam hone tak chalte hi rahe, taki kisi surakshit sthaan par pahunch jayen.",
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"mata aur bhaiyon ka ye haal dekhkar kshobh ke mare bhimasen ka hriday dagdh ho utha. wo us bhayanak jangal mein bedhaDak ghus gaya aur idhar udhar ghoom ghamkar usne ek jalashay ka pata laga hi liya. usne pani lakar mata va bhaiyon ki pyaas bujhai. pani pikar charon bhai aur mata kunti aise soe ki unhen apni sudh budh tak na rahi. akela bhimasen man hi man kuch sochta hua chintit bhaav se baitha raha. panchon bhai mata kunti ko liye anek vighn badhaon ka samna karte aur baDi musibten jhelte hue us jangli ho jate. raste mein aage baDhte hi chale ge. ve kabhi mata ko uthakar tez chalte, kabhi thake mande baith jate. kabhi ek dusre se hoD lagakar rasta paar karte. ve brahman brahmchariyon ka vesh dharkar ekchakra nagri mein jakar ek brahman ke ghar mein rahne lage.",
"mata kunti ke saath panchon panDav ekchakra nagri mein bhiksha mangakar apni guzar karke din bitane lage. bhiksha ke liye jab panchon bhai nikal jate, to kunti ka ji baDa bechain ho uthta tha. wo baDi chinta se unki baat johti rahti. unke lautne mein zara bhi der ho jati to kunti ke man mein tarah tarah ki ashankayen uthne lagti theen.",
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"ek din charon bhai bhiksha ke liye ge. akela bhimasen hi mata kunti ke saath ghar par raha. itne mein brahman ke ghar ke bhitar se bilakh bilakhkar rone ki avaz aai. andar jakar dekha ki brahman aur uski patni ankhon mein ansu bhare siskiyan lete hue ek dusre baten kar rahe hain.",
"brahman baDe dukhi hriday se apni patni se kah raha tha—“kitni hi baar mainne tumhein samjhaya ki is andher nagri ko chhoDkar kahin aur chale jayen, par tum nahin manin yahi hath karti rahin ki ye mere baap dada ka gaanv hai, yahin rahungi. bolo, ab kya kahti ho? apni beti ki bhi bali kaise chaDha doon aur putr ko kaise kaal kavlit hone doon? yadi main sharir tyagta hoon, to phir in anath bachchon ka bharan poshan kaun karega? haay! main ab kya karun? aur kuch karne se to achchha upaay ye hai ki sabhi ek saath maut ko gale laga len. yahi achchha hoga. ” kahte kahte brahman sisak sisakkar ro paDa.",
"brahman ki patni roti roti boli—“prannath! mujhe marne ka koi dukh nahin hai meri mrityu ke baad aap chahen to dusri patni la sakte hain. ab mujhe prasannatapurvak aagya den, taki main rakshas ka bhojan banun. ”",
"patni ki ye vythabhri baten sunkar brahman se na raha gaya. wo bola—“priye! mujhse baDa duratma aur papi kaun hoga, jo tumhein rakshas ki bali chaDha de aur khud jivit rahe?”",
"mata pita ko is tarah baten karte dekh brahman ki beti se na raha gaya. usne karun svar mein kaha—“pitaji, achchha to ye hai ki rakshas ke paas aap mujhe bhej den. sabko is tarah rote dekhkar brahman ka nanha sa balak paas mein paDi hui sukhi lakDi haath mein lekar ghumata hua bola—“us rakshas ko to main hi is lakDi se is tarah zor se maar Dalunga. ”",
"kunti khaDi khaDi ye sab dekh rahi thi. apni baat kahne ka usne theek mauka dekha. wo boli—“he brahman, kya aap kripa karke mujhe bata sakte hain ki aap logon ke is asamay dukh ka karan kya hai?”",
"brahman ne kaha—“devi! suniye, is nagri ke samip ek gufa hai, jismen bak namak ek baDa atyachari rakshas rahta hai. pichhle terah varshon se is nagri ke logon par wo baDe zulm Dha raha hai. is desh ka raja, jo vetrkiy naam ke mahl mein rahta hai, itna nikamma hai ki praja ko rakshas ke atyachar se bacha nahin raha hai. isse ghabrakar nagar ke logon ne milkar usse baDi anunay vinay ki ki koi na koi niyam bana le. bakasur ne logon ki ye baat maan li aur tab se is samjhaute ke anusar ye niyam bana hua hai ki log bari bari se ek ek adami aur khane ki chizen har saptah use pahuncha diya karte hain. is saptah mein us rakshas ke khane ke liye adami aur bhojan bhejne ki hamari bari hai. ab to mainne yahi socha hai ki sabko saath lekar hi rakshas ke paas chala jaunga. aapne puchha so aapko bata diya. is kasht ko door karna to aapke bas mein bhi nahin hai. ”",
"brahman ki baat ka koi uttar dene se pahle kunti ne bhimasen se salah ki. usne lautkar kaha—“viprvar, aap is baat ki chinta chhoD den. mere paanch bete hain, unmen se ek aaj rakshas ke paas bhojan lekar chala jayega. ”",
"sunkar brahman chaunk paDa aur bola—“ap bhi kaisi baat kahti hain! aap hamari atithi hain. hamare ghar mein ashray liye hue hain. aapke bete ko maut ke munh mein main bhejun, ye kahan ka nyaay hai? mujhse ye nahin ho sakta. ”",
"kunti ko Dar tha ki yadi ye baat phail gai, to duryodhan aur unke sathiyon ko pata lag jayega ki panDav ekchakra nagri mein chhipe hue hain. isiliye usne brahman se is baat ko gupt rakhne ka agrah kiya tha. kunti ne jab bhimasen ko bataya ki use bakasur ke paas bhojan samagri lekar jana hoga, to yudhishthir kheejh uthe aur bole—“yah tum kaisa dussahas aage karne chali ho maan!”",
"yudhishthir ki in kaDi baton ka uttar dete hue kunti boli—“beta yudhishthir! is brahman ke ghar mein hamne kai din aram se bitaye hain. jab in par vipda paDi hai, to manushya hone ke nate hamein uska badla chukana hi chahiye. main beta bheem ki shakti aur bal se achchhi tarah parichit hoon. tum is baat ki chinta mat karo. jo hamein varnavat se yahan tak utha laya, jisne hiDimb ka vadh kiya, us bheem ke bare mein mujhe na to koi Dar hai, na chinta bheem ko bakasur ke paas bhejna hamara kartavya hai. ”",
"iske baad niyam ke anusar nagar ke log khane pine ki chizen gaDi mein rakhkar le aaye. bhimasen uchhalkar gaDi mein baith gaya. shahr ke log bhi baje bajate hue kuch door tak uske pichhe pichhe chale. ek nishchit sthaan par log ruk ge aur akela bheem gaDi dauData hua aage gaya.",
"udhar rakshas mare bhookh ke taDap raha tha. jab bahut der ho gai, to baDe krodh ke saath wo gufa ke bahar aaya. dekhta kya hai ki ek mota sa manushya baDe aram se baitha hua bhojan kar raha hai. ye dekhkar bakasur ki ankhen krodh se ekdam laal ho uthin. itne mein bhimasen ki bhi nigah us par paDi. usne hanste hue uska naam lekar pukara. bhimasen ki ye Dhithai dekhkar rakshas ghusse mein bhar gaya aur tezi se bhimasen par jhapta. bhimasen ne bakasur ko apni or aate dekha, to usne uski taraf peeth pher li aur kuch bhi parvah na karke khane mein hi laga raha. khali hathon kaam na bante dekhkar rakshas ne ek baDa sa peD jaD se ukhaaD liya aur use bhimasen par de mara, parantu bhimasen ne bayen haath par use rok liya. donon mein bhayanak muthbheD ho gai. bhimasen ne bakasur ko thokren markar gira diya aur kaha—“dusht rakshas! jara vishram to karne de. ”",
"thoDi der sustakar bheem ne phir kaha—“achchha! ab utho!” bakasur uthkar bheem ke saath laDne laga. bhimasen ne usko thokren lagakar phir gira diya. is tarah baar baar pachhaD khane par bhi rakshas uthkar bhiD jata tha. akhir bheem ne use munh ke bal gira diya aur uski peeth par ghutnon ki maar dekar uski reeDh toD Dali. rakshas piDa ke mare cheekh utha aur uske praan pakheru uD ge. bhimasen uski laash ko ghasit laya aur use nagar ke phatak par jakar patak diya. phir usne ghar aakar maan ko sara haal bataya.",
"panchon panDav mata kunti ke saath varnavat ke liye chal paDe. unke hastinapur chhoDkar varnavat jane ki khabar pakar nagar ke log unke saath ho liye. bahut door jane ke baad yudhishthir ka kaha mankar nagarvasiyon ko laut jana paDa. duryodhan ke shaDyantr aur usse bachne ka upaay vidur ne yudhishthir ko is tarah gooDh bhasha mein sikha diya tha ki jisse dusre log samajh na saken. varnavat ke log panDvon ke agaman ki khabar pakar baDe khush hue aur unke vahan pahunchne par unhonne baDe thaath se unka svagat kiya. jab tak laakh ka bhavan bankar taiyar hua, panDav dusre gharon mein rahte rahe, jahan purochan ne pahle se hi unke thaharne ka prbandh kar rakha tha. laakh ka bhavan bankar taiyar ho gaya, to purochan unhen usmen le gaya. bhavan mein pravesh karte hi yudhishthir ne use khoob dhyaan se dekha. vidur ki baten unhen yaad theen. dhyaan se dekhne par yudhishthir ko pata chal gaya ki ye ghar jaldi aag lagnevali chizon se bana hua hai. yudhishthir ne bheem ko bhi ye bhed bata diya; par saath hi use savdhan karte hue kaha—“yadyapi ye saaf malum ho gaya hai ki ye sthaan khatarnak hai, phir bhi hamein vichlit nahin hona chahiye. purochan ko is baat ka zara bhi pata na lage ki uske shaDyantr ka bhed hum par khul gaya hai. mauka pakar hamein yahan se nikal bhagna hoga. par abhi hamein jaldi se aisa koi kaam nahin karna chahiye jisse shatru ke man mein zara bhi sandeh paida hone ki sambhavna ho.",
"yudhishthir ki is salah ko bhimasen sahit sab bhaiyon tatha kunti ne maan liya. ve usi laakh ke bhavan mein rahne lage. itne mein vidur ka bheja hua ek surang bananevala karigar varnavat nagar mein aa pahuncha. usne ek din panDvon ko akele mein pakar unhen apna parichay dete hue kaha—“ap logon ki bhalai ke liye hastinapur se ravana hote samay vidur ne yudhishthir se sanketik bhasha mein jo kuch kaha tha, wo baat main janta hoon. yahi mere sachche mitr hone ka sabut hai. aap mujh par bharosa rakhen. main aap logon ki raksha ka prbandh karne ke liye aaya hoon.",
"iske baad wo karigar mahl mein pahunch gaya aur gupt roop se kuch dinon mein hi usmen ek surang bana di is raste se panDav mahl ke andar se niche hi niche chaharadivari aur gahri khai ko langhakar surakshit bekhatke bahar nikal sakte the. ye kaam itne gupt roop se aur is khubi se hua ki purochan ko ant tak is baat ki khabar na hone pai. purochan ne laakh ke bhavan ke dvaar par hi apne rahne ke liye sthaan banva liya tha. is karan panDvon ko bhi sari raat hathiyar lekar chaukanne rahna paDta tha.",
"ek din purochan ne socha ki ab panDvon ka kaam tamam karne ka samay aa gaya hai. samajhdar yudhishthir uske rang Dhang se taaD ge ki wo kya soch raha hai. yudhishthir ki salah se mata kunti ne usi raat ko ek baDe bhoj ka prbandh kiya. nagar ke sabhi logon ko bhojan karaya gaya. baDi dhumdham rahi, mano koi baDa utsav ho. khoob kha pikar bhavan ke sab karmachari gahri neend mein so ge. purochan bhi so gaya. aadhi raat ke samay bhimasen ne bhavan mein kai jagah aag laga di aur phir panchon bhai mata kunti ke saath surang ke raste andhere mein rasta tatolte tatolte bahar nikal ge. bhavan se bahar ve nikle hi the ki aag ne sare bhavan ko apni lapton mein le liya. purochan ke rahne ke makan mein bhi aag lag gai. sare nagar ke log ikatthe ho ge aur panDvon ke bhavan ko bhayankar aag ki bhent hote, dekhkar hahakar machane lage. kaurvon ke atyachar se janta kshubdh ho uthi aur tarah tarah se kaurvon ki ninda karne lagi. log krodh mein anap shanap bakne lage, haay tauba machane lage aur unke dekhte dekhte sara bhavan jalkar raakh ho gaya. purochan ka makan aur svayan purochan bhi aag ki bhent ho gaya.",
"varnavat ke logon ne turant hi hastinapur mein khabar pahuncha di ki panDav jis bhavan mein thahraye ge the, wo jalkar raakh ho gaya hai aur bhavan mein koi bhi jita nahin bacha. dhritarashtr aur unke beton ne panDvon ki mrityu par baDa shok manaya. ve ganga kinare ge aur panDvon tatha kunti ko jalanjali di. phir sab milkar baDe zor zor se rote aur vilap karte hue ghar laute. parantu darshanik vidur ne shok ko man hi mein dava liya. adhik shok pradarshan na kiya. iske alava vidur ko ye bhi pakka vishvas tha ki panDav laakh ke bhavan se bachkar nikal ge honge. pitamah bheeshm to mano shok ke sagar hi mein the, par unko vidur ne dhiraj bandhaya aur panDvon ke bachav ke liye kiye ge apne sare prbandh ka haal batakar unhen chintamukt kar diya.",
"laakh ke ghar ko jalta hua chhoDkar panchon bhai mata kunti ke saath bach nikle aur jangal mein pahunch ge. jangal pahunchne par bhimasen ne dekha ki ratbhar jage hone tatha chinta aur bhay se piDit hone ke karan charon bhai bahut thake hue hain. mata kunti ki dasha to baDi hi dayniy thi. bechari thakkar choor ho gai thi. so mahabali bheem ne mata ko uthakar apne kandhe par baitha liya aur nakul evan sahdev ko kamar par le liya. yudhishthir aur arjun ko donon hathon se pakaD liya aur wo us jangli raste mein unmatt hathi ke saman jhaaD jhankhaD aur peD paudhon ko idhar udhar hatata va raundta hua tezi se chalne laga. jab ve sab ganga ke kinare pahunche, to vahan vidur ki bheji hui ek naav mili. yudhishthir ne mallah se sanketik parashn karke jaanch liya ki wo mitr hai. ve log agle din shaam hone tak chalte hi rahe, taki kisi surakshit sthaan par pahunch jayen.",
"suraj Doob gaya aur raat ho chali thi. charon taraf andhera chha gaya. kunti aur panDav ek to thakavat ke mare choor ho rahe the, uupar se pyaas aur neend bhi unhen satane lagi chakkar sa aane laga. ek pag bhi aage baDhna asambhav ho gaya. bheem ke sivaye aur sab bhai vahin zamin par lagti theen. baith ge. kunti se to baitha bhi nahin gaya. wo dinbhav se boli—“main to pyaas se mari ja rahi hoon. ab mujhse bilkul chala nahin jata. dhritarashtr ke bete chahen to bhale hi mujhe yahan se utha le jayen, main to yahin paDi rahungi. ye kahkar kunti vahin zamin par girkar behosh ho gai.",
"mata aur bhaiyon ka ye haal dekhkar kshobh ke mare bhimasen ka hriday dagdh ho utha. wo us bhayanak jangal mein bedhaDak ghus gaya aur idhar udhar ghoom ghamkar usne ek jalashay ka pata laga hi liya. usne pani lakar mata va bhaiyon ki pyaas bujhai. pani pikar charon bhai aur mata kunti aise soe ki unhen apni sudh budh tak na rahi. akela bhimasen man hi man kuch sochta hua chintit bhaav se baitha raha. panchon bhai mata kunti ko liye anek vighn badhaon ka samna karte aur baDi musibten jhelte hue us jangli ho jate. raste mein aage baDhte hi chale ge. ve kabhi mata ko uthakar tez chalte, kabhi thake mande baith jate. kabhi ek dusre se hoD lagakar rasta paar karte. ve brahman brahmchariyon ka vesh dharkar ekchakra nagri mein jakar ek brahman ke ghar mein rahne lage.",
"mata kunti ke saath panchon panDav ekchakra nagri mein bhiksha mangakar apni guzar karke din bitane lage. bhiksha ke liye jab panchon bhai nikal jate, to kunti ka ji baDa bechain ho uthta tha. wo baDi chinta se unki baat johti rahti. unke lautne mein zara bhi der ho jati to kunti ke man mein tarah tarah ki ashankayen uthne lagti theen.",
"panchon bhai bhiksha mein jitna bhojan late, kunti uske do hisse kar deti. ek hissa bhimasen ko de deti aur baki aadhe mein se paanch hisse karke charon bete aur khud kha leti thi. tispar bhi bhimasen ki bhookh nahin mitti thi. hamesha hi bhukha rahne ke karan wo din par din dubla hone laga. bhimasen ka ye haal dekhkar kunti aur yudhishthir baDe chintit rahne lage. thoDe se bhojan se pet na bharta tha, so bhimasen ne ek kumhar se dosti kar li. usne mitti aadi khodne mein madad karke usko khush kar diya. kumhar bheem se baDa khush hua aur ek baDi bhari hanDi banakar usko di. bheem usi hanDi ko lekar bhiksha ke liye nikalne laga. uska vishal sharir aur uski wo vilakshan hanDi dekhkar bachche to hanste hanste lotpot ho jate.",
"ek din charon bhai bhiksha ke liye ge. akela bhimasen hi mata kunti ke saath ghar par raha. itne mein brahman ke ghar ke bhitar se bilakh bilakhkar rone ki avaz aai. andar jakar dekha ki brahman aur uski patni ankhon mein ansu bhare siskiyan lete hue ek dusre baten kar rahe hain.",
"brahman baDe dukhi hriday se apni patni se kah raha tha—“kitni hi baar mainne tumhein samjhaya ki is andher nagri ko chhoDkar kahin aur chale jayen, par tum nahin manin yahi hath karti rahin ki ye mere baap dada ka gaanv hai, yahin rahungi. bolo, ab kya kahti ho? apni beti ki bhi bali kaise chaDha doon aur putr ko kaise kaal kavlit hone doon? yadi main sharir tyagta hoon, to phir in anath bachchon ka bharan poshan kaun karega? haay! main ab kya karun? aur kuch karne se to achchha upaay ye hai ki sabhi ek saath maut ko gale laga len. yahi achchha hoga. ” kahte kahte brahman sisak sisakkar ro paDa.",
"brahman ki patni roti roti boli—“prannath! mujhe marne ka koi dukh nahin hai meri mrityu ke baad aap chahen to dusri patni la sakte hain. ab mujhe prasannatapurvak aagya den, taki main rakshas ka bhojan banun. ”",
"patni ki ye vythabhri baten sunkar brahman se na raha gaya. wo bola—“priye! mujhse baDa duratma aur papi kaun hoga, jo tumhein rakshas ki bali chaDha de aur khud jivit rahe?”",
"mata pita ko is tarah baten karte dekh brahman ki beti se na raha gaya. usne karun svar mein kaha—“pitaji, achchha to ye hai ki rakshas ke paas aap mujhe bhej den. sabko is tarah rote dekhkar brahman ka nanha sa balak paas mein paDi hui sukhi lakDi haath mein lekar ghumata hua bola—“us rakshas ko to main hi is lakDi se is tarah zor se maar Dalunga. ”",
"kunti khaDi khaDi ye sab dekh rahi thi. apni baat kahne ka usne theek mauka dekha. wo boli—“he brahman, kya aap kripa karke mujhe bata sakte hain ki aap logon ke is asamay dukh ka karan kya hai?”",
"brahman ne kaha—“devi! suniye, is nagri ke samip ek gufa hai, jismen bak namak ek baDa atyachari rakshas rahta hai. pichhle terah varshon se is nagri ke logon par wo baDe zulm Dha raha hai. is desh ka raja, jo vetrkiy naam ke mahl mein rahta hai, itna nikamma hai ki praja ko rakshas ke atyachar se bacha nahin raha hai. isse ghabrakar nagar ke logon ne milkar usse baDi anunay vinay ki ki koi na koi niyam bana le. bakasur ne logon ki ye baat maan li aur tab se is samjhaute ke anusar ye niyam bana hua hai ki log bari bari se ek ek adami aur khane ki chizen har saptah use pahuncha diya karte hain. is saptah mein us rakshas ke khane ke liye adami aur bhojan bhejne ki hamari bari hai. ab to mainne yahi socha hai ki sabko saath lekar hi rakshas ke paas chala jaunga. aapne puchha so aapko bata diya. is kasht ko door karna to aapke bas mein bhi nahin hai. ”",
"brahman ki baat ka koi uttar dene se pahle kunti ne bhimasen se salah ki. usne lautkar kaha—“viprvar, aap is baat ki chinta chhoD den. mere paanch bete hain, unmen se ek aaj rakshas ke paas bhojan lekar chala jayega. ”",
"sunkar brahman chaunk paDa aur bola—“ap bhi kaisi baat kahti hain! aap hamari atithi hain. hamare ghar mein ashray liye hue hain. aapke bete ko maut ke munh mein main bhejun, ye kahan ka nyaay hai? mujhse ye nahin ho sakta. ”",
"kunti ko Dar tha ki yadi ye baat phail gai, to duryodhan aur unke sathiyon ko pata lag jayega ki panDav ekchakra nagri mein chhipe hue hain. isiliye usne brahman se is baat ko gupt rakhne ka agrah kiya tha. kunti ne jab bhimasen ko bataya ki use bakasur ke paas bhojan samagri lekar jana hoga, to yudhishthir kheejh uthe aur bole—“yah tum kaisa dussahas aage karne chali ho maan!”",
"yudhishthir ki in kaDi baton ka uttar dete hue kunti boli—“beta yudhishthir! is brahman ke ghar mein hamne kai din aram se bitaye hain. jab in par vipda paDi hai, to manushya hone ke nate hamein uska badla chukana hi chahiye. main beta bheem ki shakti aur bal se achchhi tarah parichit hoon. tum is baat ki chinta mat karo. jo hamein varnavat se yahan tak utha laya, jisne hiDimb ka vadh kiya, us bheem ke bare mein mujhe na to koi Dar hai, na chinta bheem ko bakasur ke paas bhejna hamara kartavya hai. ”",
"iske baad niyam ke anusar nagar ke log khane pine ki chizen gaDi mein rakhkar le aaye. bhimasen uchhalkar gaDi mein baith gaya. shahr ke log bhi baje bajate hue kuch door tak uske pichhe pichhe chale. ek nishchit sthaan par log ruk ge aur akela bheem gaDi dauData hua aage gaya.",
"udhar rakshas mare bhookh ke taDap raha tha. jab bahut der ho gai, to baDe krodh ke saath wo gufa ke bahar aaya. dekhta kya hai ki ek mota sa manushya baDe aram se baitha hua bhojan kar raha hai. ye dekhkar bakasur ki ankhen krodh se ekdam laal ho uthin. itne mein bhimasen ki bhi nigah us par paDi. usne hanste hue uska naam lekar pukara. bhimasen ki ye Dhithai dekhkar rakshas ghusse mein bhar gaya aur tezi se bhimasen par jhapta. bhimasen ne bakasur ko apni or aate dekha, to usne uski taraf peeth pher li aur kuch bhi parvah na karke khane mein hi laga raha. khali hathon kaam na bante dekhkar rakshas ne ek baDa sa peD jaD se ukhaaD liya aur use bhimasen par de mara, parantu bhimasen ne bayen haath par use rok liya. donon mein bhayanak muthbheD ho gai. bhimasen ne bakasur ko thokren markar gira diya aur kaha—“dusht rakshas! jara vishram to karne de. ”",
"thoDi der sustakar bheem ne phir kaha—“achchha! ab utho!” bakasur uthkar bheem ke saath laDne laga. bhimasen ne usko thokren lagakar phir gira diya. is tarah baar baar pachhaD khane par bhi rakshas uthkar bhiD jata tha. akhir bheem ne use munh ke bal gira diya aur uski peeth par ghutnon ki maar dekar uski reeDh toD Dali. rakshas piDa ke mare cheekh utha aur uske praan pakheru uD ge. bhimasen uski laash ko ghasit laya aur use nagar ke phatak par jakar patak diya. phir usne ghar aakar maan ko sara haal bataya.",
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बाल महाभारत : चौसर का खेल व द्रौपदी की व्यथा - कथा | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kathaen/class-7-ncert-7/baal-mahabharat-chausar-ka-khel-va-draupadi-ki-vyatha-chakraborty-rajagopalacharya-kathaen?sort= | [
"प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।",
"धृतराष्ट्र की बात मानकर विदुर पांडवों के पास आए। उनको देखकर महाराज युधिष्ठिर उठे और उनका यथोचित स्वागत-सत्कार किया। विदुर आसन पर बैठते हुए शांति से बोले—“हस्तिनापुर में खेल के लिए एक सभा मंडप बनाया गया है, जो तुम्हारे मंडप के समान ही सुंदर है राजा धृतराष्ट्र की ओर से उसे देखने चलने के लिए मैं तुम लोगों को न्यौता देने आया हूँ। राजा धृतराष्ट्र की इच्छा है कि तुम सब भाइयों सहित वहाँ आओ, उस मंडप को देखो और दो हाथ चौसर भी खेल जाओ।”",
"युधिष्ठिर ने कहा—“चाचा जी! चौसर का खेल अच्छा नहीं है। उससे आपस में झगड़े पैदा होते हैं। समझदार लोग उसे पसंद नहीं करते हैं। लेकिन इस मामले में हम तो आप ही के आदेशानुसार चलने वाले हैं। आपकी सलाह क्या है?”",
"विदुर बोले—“यह तो किसी से छिपा नहीं है कि चौसर का खेल सारे अनर्थ की जड़ होता है। मैंने तो भरसक कोशिश की थी कि इसे न होने दूँ, किंतु राजा ने आज्ञा दी है कि तुम्हें खेल के लिए न्यौता दे ही आऊँ इसलिए आना पड़ा। अब तुम्हारी जो इच्छा हो करो।”",
"राजवंशों की रीति के अनुसार किसी को भी खेल के लिए बुलावा मिल जाने पर उसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता था। इसके अलावा युधिष्ठिर को डर था कि कहीं खेल में न जाने को ही धृतराष्ट्र अपना अपमान न समझ लें और यही बात कहीं लड़ाई का कारण न बन जाए। इन्हीं सब विचारों से प्रेरित होकर समझदार युधिष्ठिर ने न्यौता स्वीकार कर लिया, यद्यपि विदुर ने उन्हें चेता दिया था। युधिष्ठिर अपने परिवार के साथ हस्तिनापुर पहुँच गए। नगर के पास ही उनके लिए एक सुंदर विश्राम गृह बना था। वहाँ ठहरकर उन्होंने आराम किया। अगले दिन सुबह नहा-धोकर सभा मंडप में जा पहुँचे।",
"कुशल समाचार पूछने के बाद शकुनि ने कहा—“युधिष्ठिर, खेल के लिए चौपड़ बिछा हुआ है। चलिए, दो हाथ खेल लें।”",
"युधिष्ठिर बोले—“राजन्, यह खेल ठीक नहीं है! बाज़ी जीत लेना साहस का काम नहीं है। जुआ खेलना धोखा देने के समान है। आप तो यह सब बातें जानते ही हैं।”",
"वह बोला—“आप भी क्या कहते हैं, महाराज! यह भी कोई धोखे की बात है! हाँ, यह कहिए कि आपको हार जाने का डर लग रहा है।”",
"युधिष्ठिर कुछ गर्म होकर बोले—“राजन्! ऐसी बात नहीं है। अगर मुझे खेलने को कहा गया, तो मैं ना नहीं करूँगा। आप कहते हैं, तो मैं तैयार हूँ। मेरे साथ खेलेगा कौन?”",
"दुर्योधन तुरंत बोल उठा—“मेरी जगह खेलेंगे तो मामा शकुनि किंतु दाँव लगाने के लिए जो धन-रत्नादि चाहिए, वह मैं दूँगा।”",
"युधिष्ठिर बोले—“मेरी राय यह है कि किसी एक की जगह दूसरे को नहीं खेलना चाहिए। यह खेल के साधारण नियमों के विरुद्ध है।”",
"“अच्छा तो अब दूसरा बहाना बना लिया।” शकुनि ने हँसते हुए कहा।",
"युधिष्ठिर ने कहा—“ठीक है। कोई बात नहीं, मैं खेलूँगा।” और खेल शुरू हुआ। सारा मंडप दर्शकों से खचाखच भरा हुआ था। द्रोण, भीष्म, कृप, विदुर, धृतराष्ट्र जैसे वयोवृद्ध भी उपस्थित थे। वे उसे रोक नहीं सके थे। उनके चेहरों पर उदासी छाई हुई थी। अन्य कौरव राजकुमार बड़े चाव से खेल को देख रहे थे।",
"पहले रत्नों की बाज़ी लगी, फिर सोने-चाँदी के खज़ानों की। उसके बाद रथों और घोड़ों की। तीनों दाँव युधिष्ठिर हार गए। शकुनि का पासा मानो उसके इशारों पर चलता था। खेल में युधिष्ठिर बारी-बारी से अपनी गायें, भेड़, बकरियाँ, दास-दासी, रथ, घोड़े, सेना, देश, देश की प्रजा सब खो बैठे। भाइयों के शरीरों पर जो आभूषण और वस्त्र थे, उनको भी बाज़ी पर लगा दिया और हार गए।",
"“और कुछ बाक़ी है? शकुनि ने पूछा।",
"“यह साँवले रंग का सुंदर युवक, मेरा भाई नकुल खड़ा है। वह भी मेरा ही धन है। इसकी बाज़ी लगाता हूँ। चलो!” युधिष्ठिर ने जोश के साथ कहा।",
"शकुनि ने कहा—“अच्छा तो यह बात है! तो यह लीजिए। आपका प्यारा राजकुमार अब हमारा हो गया! कहते-कहते शकुनि ने पासा फेंका और बाज़ी मार ली।",
"युधिष्ठिर ने कहा—“यह मेरा भाई सहदेव, जिसने सारी विद्याओं का पार पा लिया है। इसकी बाज़ी लगाना उचित तो नहीं है, फिर भी लगाता हूँ। चलो देखा जाएगा।”",
"“यह चला और वह जीता” कहते हुए शकुनि ने पासा फेंका। सहदेव को भी युधिष्ठिर गँवा बैठे।",
"अब दुरात्मा शकुनि को आशंका हुई कि कहीं युधिष्ठिर खेल बंद न कर दें। बोला—“युधिष्ठिर शायद आपकी निगाह में भीमसेन और अर्जुन माद्री के बेटों से ज़्यादा मूल्यवान हैं। सो उनको बाज़ी पर आप लगाएँगे नहीं।”",
"युधिष्ठिर ने कहा—“मूर्ख शकुनि! तुम्हारी चाल यह मालूम होती है कि हम भाइयों में आपस में फूट पड़ जाए! सो तुम क्या जानो कि हम पाँचों भाइयों के संबंध क्या हैं? पराक्रम में जिसका कोई सानी नहीं है, उस अपने भाई अर्जुन को मैं दाँव पर लगाता हूँ। चलो।”",
"शकुनि यही तो चाहता था। “तो यह चला”, कहते हुए पासा फेंका और अर्जुन भी हाथ से निकल गया। असीम दुर्दैव मानो युधिष्ठिर को बेबस कर रहा था और उन्हें पतन की ओर बलपूर्वक लिए जा रहा था। वह बोले—“राजन्! शारीरिक बल में संसार भर में जिसका कोई जोड़ीदार नहीं है, अपने उस भाई को मैं दाँव पर लगाता हूँ।” यह कहते कहते युधिष्ठिर भीमसेन से भी हाथ धो बैठे।",
"दुष्टात्मा शकुनि ने तब भी नहीं छोड़ा। पूछा—“और कुछ?”",
"युधिष्ठिर ने कहा—“हाँ! यदि इस बार तुम जीत गए, तो मैं ख़ुद तुम्हारे अधीन हो जाऊँगा।”",
"“लो, यह जीता!” कहते हुए शकुनि ने पासा फेंका और यह बाज़ी भी ले गया।",
"इस पर शकुनि सभा के बीच उठ खड़ा हुआ और पाँचों पांडवों को एक-एक करके पुकारा और घोषणा की कि वे अब उसके ग़ुलाम हो चुके हैं। शकुनि को दाद देनेवालों के हर्षनाद से और पांडवों की इस दुर्दशा पर तरस खानेवालों के हाहाकार से सारा सभा मंडप गूँज उठा। सभा में इस तरह खलबली मचने के बाद शकुनि ने युधिष्ठिर से कहा—“एक और चीज़ है, जो तुमने अभी हारी नहीं है। उसकी बाज़ी लगाओ, तो तुम अपने-आपको भी छुड़ा सकते हो। अपनी पत्नी द्रौपदी को तुम दाँव पर क्यों नहीं लगाते?” और जुए के नशे में चूर युधिष्ठिर के मुँह से निकल पड़ा “चलो अपनी पत्नी द्रौपदी की भी मैंने बाज़ी लगाई!” उनके मुँह से यह निकल तो गया, पर उसके परिणाम को सोचकर वह विकल हो उठे कि 'हाय यह मैंने क्या कर डाला!’",
"युधिष्ठिर की इस बात पर सारी सभा में एकदम हाहाकार मच गया। जहाँ वृद्ध लोग बैठे थे, उधर से धिक्कार की आवाज़ें आने लगीं। लोग बोले—“छिः-छिः, कैसा घोर पाप है!” कुछ ने आँसू बहाए और कुछ लोग परेशानी के मारे पसीने से तर-बतर हो गए। दुर्योधन और उसके भाइयों ने बड़ा शोर मचाया। पर युयुत्सु नाम का धृतराष्ट्र का एक बेटा शोक संतप्त हो उठा और ठंडी आह भरकर उसने सिर झुका लिया।",
"शकुनि ने पासा फेंककर कहा—“यह लो, यह बाज़ी भी मेरी ही रही।”",
"बस, फिर क्या था? दुर्योधन ने विदुर को आदेश देते हुए कहा—“आप अभी रनवास में जाएँ और द्रौपदी को यहाँ ले आएँ। उससे कहें कि जल्दी आए।”",
"विदुर बोले—“मूर्ख! नाहक क्यों मृत्यु को न्यौता देने चला है। अपनी विषम परिस्थिति का तुम्हें ज्ञान नहीं है।”",
"दुर्योधन को यों फटकारने के बाद विदुर सभासदों की ओर देखकर कहा “अपने को हार चुकने के बाद युधिष्ठिर को कोई अधिकार नहीं था कि वह पांचालराज की बेटी को दाँव पर लगाए।”",
"विदुर की बातों से दुर्योधन बौखला उठा। अपने सारथी प्रातिकामी को बुलाकर कहा—“विदुर तो हमसे जलते हैं और पांडवों से डरते हैं। रनवास में जाओ और द्रौपदी को बुला लाओ।”",
"आज्ञा पाकर प्रातिकामी रनवास में गया और द्रौपदी से बोला—“द्रुपदराज की पुत्री! चौसर के खेल में युधिष्ठिर आपको दाँव में हार बैठे हैं। आप अब राजा दुर्योधन के अधीन हो गई हैं। राजा की आज्ञा है कि अब आपको धृतराष्ट्र के महल में दासी का काम करना है। मैं आपको ले जाने के लिए आया हूँ।”",
"सारथी ने जुए के खेल में जो कुछ हुआ था, उसका सारा हाल कह सनाया।",
"वह प्रातिकामी से बोली—“रथवान! जाकर उन हारने वाले जुए के खिलाड़ी से पूछो कि पहले वह अपने को हारे थे या मुझे? सारी सभा में यह प्रश्न उनसे करना और जो उत्तर मिले, वह मुझे आकर बताओ। उसके बाद मुझे ले जाना।”",
"प्रातिकामी ने जाकर भरी सभा के सामने युधिष्ठिर से वही प्रश्न किया, जो द्रौपदी ने उसे बताया था। इस पर दुर्योधन ने प्रातिकामी से कहा—“द्रौपदी से जाकर कह दो कि वह स्वयं ही आकर अपने पति से यह प्रश्न कर ले।”",
"प्रातिकामी दुबारा रनवास में गया और द्रौपदी के आगे झुककर बड़ी नम्रता से बोला—“देवि! दुर्योधन की आज्ञा है कि आप सभा में आकर स्वयं ही युधिष्ठिर से प्रश्न कर लें।”",
"द्रौपदी ने कहा—“नहीं, मैं वहाँ नहीं जाऊँगी। अगर युधिष्ठिर जवाब नहीं देते, तो सभा में जो सज्जन विद्यमान हैं, उन सबको तुम मेरा प्रश्न जाकर सुनाओ और उसका उत्तर आकर मुझे बताओ।”",
"प्रातिकामी लौटकर फिर सभा में गया और सभासदों को द्रौपदी का प्रश्न सुनाया। यह सुनकर दुर्योधन झल्ला उठा। अपने भाई दुःशासन से बोला—“दुःशासन, यह सारथी भीमसेन से डरता मालूम होता है। तुम्हीं जाकर उस घमंडी औरत को ले आओ।”",
"दुरात्मा दुःशासन के लिए इससे अच्छी बात और क्या हो सकती थी। उसने द्रौपदी के गुँथे हुए बाल बिखेर डाले, गहने तोड़-फोड़ दिए और उसके बाल पकड़कर बलपूर्वक घसीटता हुआ सभा की ओर ले जाने लगा। द्रौपदी विकल हो उठी। द्रौपदी की ऐसी दीन अवस्था देखकर धृतराष्ट्र के एक बेटे विकर्ण को बड़ा दुख हुआ।",
"उससे नहीं रहा गया। वह बोला—“उपस्थित वीरो! सुनिए, चौसर के खेल के लिए युधिष्ठिर को धोखे से बुलावा दिया गया था। वह धोखा खाकर इस जाल में फँस गए और अपनी स्त्री तक की बाज़ी लगा दी। यह सारा कार्य न्यायोचित नहीं है। दूसरी बात यह है कि द्रौपदी अकेले युधिष्ठिर की ही पत्नी नहीं है, बल्कि पाँचों पांडवों की पत्नी है। इसलिए उसको दाँव पर लगाने का अकेले युधिष्ठिर को कोई हक़ नहीं था। इसके अलावा ख़ास बात यह है कि एक बार जब युधिष्ठिर ख़ुद को ही दाँव में हार गए थे, तो उनको द्रौपदी की बाज़ी लगाने का अधिकार ही क्या था? मेरी एक और आपत्ति यह है कि शकुनि ने द्रौपदी का नाम लेकर युधिष्ठिर को उसकी बाज़ी लगाने के लिए उकसाया था। लोगों ने चौसर के खेल के जो नियम बना रखें हैं, यह उनके बिलकुल विरुद्ध है। इन सब बातों के आधार पर मैं इस सारे खेल को नियम विरुद्ध ठहराता हूँ। मेरी राय में द्रौपदी नियमपूर्वक नहीं जीती गई है।”",
"युवक विकर्ण के भाषण से वहाँ उपस्थित लोगों के विवेक पर से भ्रम का पर्दा हट गया। सभा में बड़ा कोलाहल मच गया। यह सब देखकर कर्ण उठ खड़ा हुआ और क्रुद्ध होकर बोला—“विकर्ण, अभी तुम बच्चे हो। सभा में इतने बड़े-बूढ़ों के होते हुए तुम कैसे बोल पड़े! तुम्हें यहाँ बोलने और तर्क-वितर्क करने का कोई अधिकार नहीं हैं।”",
"यह देखकर दु:शासन द्रौपदी के पास गया और उसका वस्त्र पकड़कर खींचनें लगा। ज्यों-ज्यों वह खींचता गया त्यों-त्यों वस्त्र भी बढ़ता गया। अंत में खींचते-खींचते की दोनों भुजाएँ थक गई। हाँफता हुआ वह थकान से चूर होकर बैठ गया। सभा के लोगों में कंपकंपी-सी फैल गई और धीमे स्वर में बातें होने लगीं। इतने में भीमसेन उठा। उसके होंठ मारे क्रोध के फड़क रहे थे। ऊँचे स्वर में उसने यह भयानक प्रतिज्ञा की, “उपस्थित सज्जनो! मैं शपथ खाकर कहता हूँ कि जब तक, भरत वंश पर बट्टा लगाने वाले इस दुरात्मा दुःशासन की छाती चीर न लूँगा, तब तक इस संसार को छोड़कर नहीं जाऊँगा।” भीमसेन की इस प्रतिज्ञा को सुनकर उपस्थित लोगों के हृदय भय के मारे थर्रा उठे।",
"इन सब लक्षणों से धृतराष्ट्र ने समझ लिया कि यह सब ठीक नहीं हुआ है। उन्होंने अनुभव किया कि जो कुछ हो चुका है, उसका परिणाम शुभ नहीं होगा। यह उनके पुत्रों और कुल के विनाश का कारण बन जाएगा। उन्होंने परिस्थिति को सँभालने के इरादे से द्रौपदी को बड़े प्रेम से अपने पास बुलाया और शांत किया तथा सांत्वना दी। उसके बाद वह युधिष्ठिर की ओर मुड़कर बोले—“युधिष्ठिर तुम तो अजातशत्रु हो। उदार हृदय के भी हो। दुर्योधन की इस कुचाल को क्षमा करो और इन बातों को मन से निकाल दो और भूल जाओ अपना राज्य तथा संपत्ति आदि सब ले जाओ और इंद्रप्रस्थ जाकर सुखपूर्वक रहो!”",
"धृतराष्ट्र की इन मीठी बातों को सुनकर पांडवों के दिल शांत हो गए और यथोचित अभिवादनादि के उपरांत द्रौपदी और कुंती सहित सब पांडव इंद्रप्रस्थ के लिए विदा हो गए। पांडवों के विदा हो जाने के बाद कौरवों में बड़ी हलचल मच गई। पांडवों के इस प्रकार अपने पंजे साफ़ निकल जाने के कारण कौरव बड़ा क्रोध-प्रदर्शन करने लगे और दु:शासन तथा शकुनि के उकसाने पर के उकसाने पर दुर्योधन पुनः अपने पिता धृतराष्ट्र के सिर पर सवार हो गया और पांडवों को खेल के लिए एक बार और बुलाने को उनको राज़ी कर लिया। युधिष्ठिर को खेल के लिए बुलाने को फिर दूत भेजा गया। पिछली घटना के कारण दुखी होते हुए भी युधिष्ठिर को यह निमंत्रण स्वीकार करना पड़ा। युधिष्ठिर हस्तिनापुर लौटे और शनि के साथ फिर चौपड़ खेला। इस बार खेल में यह शर्त थी कि हारा हुआ दल अपने भाइयों के साथ बारह वर्ष तक वनवास करेगा तथा उसके उपरांत एक वर्ष अज्ञातवास में रहेगा। यदि इस एक वर्ष में उनका पता चल जाएगा, तो उन सबको बारह वर्ष का वनवास फिर से भोगना होगा। इस बार भी युधिष्ठिर हार गए और पांडव अपने किए वादे के अनुसार वन में चले गए।",
"dhritarashtr ki baat mankar vidur panDvon ke paas aaye. unko dekhkar maharaj yudhishthir uthe aur unka yathochit svagat satkar kiya. vidur aasan par baithte hue shanti se bole—“hastinapur mein khel ke liye ek sabha manDap banaya gaya hai, jo tumhare manDap ke saman hi sundar hai raja dhritarashtr ki or se use dekhne chalne ke liye main tum logon ko nyauta dene aaya hoon. raja dhritarashtr ki ichchha hai ki tum sab bhaiyon sahit vahan aao, us manDap ko dekho aur do haath chausar bhi khel jao. ”",
"yudhishthir ne kaha—“chacha jee! chausar ka khel achchha nahin hai. usse aapas mein jhagDe paida hote hain. samajhdar log use pasand nahin karte hain. lekin is mamle mein hum to aap hi ke adeshanusar chalnevale hain. apaki salah kya hai?”",
"vidur bole—“yah to kisi se chhipa nahin hai ki chausar ka khel sare anarth ki jaD hota hai. mainne to bharsak koshish ki thi ki ise na hone doon, kintu raja ne aagya di hai ki tumhein khel ke liye nyauta de hi auun isliye aana paDa. ab tumhari jo ichchha ho karo. ”",
"rajvanshon ki riti ke anusar kisi ko bhi khel ke liye bulava mil jane par use asvikar nahin kiya ja sakta tha. iske alava yudhishthir ko Dar tha ki kahin khel mein na jane ko hi dhritarashtr apna apman na samajh len aur yahi baat kahin laDai ka karan na ban jaye. inhin sab vicharon se prerit hokar samajhdar yudhishthir ne nyauta svikar kar liya, yadyapi vidur ne unhen cheta diya tha. yudhishthir apne parivar ke saath hastinapur pahunch ge. nagar ke paas hi unke liye ek sundar vishram grih bana tha. vahan thaharkar unhonne aram kiya. agle din subah nha dhokar sabha manDap mein ja pahunche.",
"kushal samachar puchhne ke baad shakuni ne kaha—“yudhishthir, khel ke liye chaupaD bichha hua hai. chaliye, do haath khel len. ”",
"yudhishthir bole—“rajan, ye khel theek nahin hai! bazi jeet lena sahas ka kaam nahin hai. jua khelna dhokha dene ke saman hai. aap to ye sab baten jante hi hain. ”",
"wo bola—“ap bhi kya kahte hain, maharaj! ye bhi koi dhokhe ki baat hai! haan, ye kahiye ki aapko haar jane ka Dar lag raha hai. ”",
"yudhishthir kuch garm hokar bole—“rajan! aisi baat nahin hai. agar mujhe khelne ko kaha gaya, to main na nahin karunga. aap kahte hain, to main taiyar hoon. mere saath khelega kaun?”",
"duryodhan turant bol utha—“meri jagah khelenge to mama shakuni kintu daanv lagane ke liye jo dhan ratnadi chahiye, wo main dunga. ”",
"yudhishthir bole—“meri raay ye hai ki kisi ek ki jagah dusre ko nahin khelna chahiye. ye khel ke sadharan niymon ke viruddh hai. ”",
"“achchha to ab dusra bahana bana liya. ” shakuni ne hanste hue kaha.",
"yudhishthir ne kaha—“thik hai. koi baat nahin, main khelunga. ” aur khel shuru hua. sara manDap darshkon se khachakhach bhara hua tha. dron, bheeshm, krip, vidur, dhritarashtr jaise vayovriddh bhi upasthit the. ve use rok nahin sake the. unke chehron par udasi chhai hui thi. anya kaurav rajakumar baDe chaav se khel ko dekh rahe the.",
"pahle ratnon ki bazi lagi, phir sone chandi ke khazanon ki. uske baad rathon aur ghoDon ki. tinon daanv yudhishthir haar ge. shakuni ka pasa mano uske isharon par chalta tha. khel mein yudhishthir bari bari se apni gayen, bheD, bakriyan, daas dasi, rath, ghoDe, sena, desh, desh ki praja sab kho baithe. bhaiyon ke shariron par jo abhushan aur vastra the, unko bhi bazi par laga diya aur haar ge.",
"“aur kuch baqi hai? shakuni ne puchha.",
"“yah sanvle rang ka sundar yuvak, mera bhai nakul khaDa hai. wo bhi mera hi dhan hai. iski bazi lagata hoon. chalo!” yudhishthir ne josh ke saath kaha.",
"shakuni ne kaha—“achchha to ye baat hai! to ye lijiye. aapka pyara rajakumar ab hamara ho gaya! kahte kahte shakuni ne pasa phenka aur bazi maar li.",
"yudhishthir ne kaha—“yah mera bhai sahdev, jisne sari vidyaon ka paar pa liya hai. iski bazi lagana uchit to nahin hai, phir bhi lagata hoon. chalo dekha jayega. ”",
"“yah chala aur wo jita” kahte hue shakuni ne pasa phenka. sahdev ko bhi yudhishthir ganva baithe.",
"ab duratma shakuni ko ashanka hui ki kahin yudhishthir khel band na kar den. bola—“yudhishthir shayad apaki nigah mein bhimasen aur arjun madri ke beton se jyada mulyavan hain. so unko baji par aap lagayenge nahin. ”",
"yudhishthir ne kaha—“murkh shakuni! tumhari chaal ye malum hoti hai ki hum bhaiyon mein aapas mein phoot paD jaye! so tum kya jano ki hum panchon bhaiyon ke sambandh kya hain? parakram mein jiska koi sani nahin hai, us apne bhai arjun ko main daanv par lagata hoon. chalo. ”",
"shakuni yahi to chahta tha. “to ye chala”, kahte hue pasa phenka aur arjun bhi haath se nikal gaya. asim durdaiv mano yudhishthir ko bebas kar raha tha aur unhen patan ki or balpurvak liye ja raha tha. wo bole—“rajan! sharirik bal mein sansarbhar mein jiska koi joDidar nahin hai, apne us bhai ko main daanv par lagata hoon. ” ye kahte kahte yudhishthir bhimasen se bhi haath dho baithe.",
"dushtatma shakuni ne tab bhi nahin chhoDa. puchha—“aur kuchh?”",
"yudhishthir ne kaha—“han! yadi is baar tum jeet ge, to main khud tumhare adhin ho jaunga. ”",
"“lo, ye jita!” kahte hue shakuni ne pasa phenka aur ye bazi bhi le gaya.",
"is par shakuni sabha ke beech uth khaDa hua aur panchon panDvon ko ek ek karke pukara aur ghoshna ki ki ve ab uske gulam ho chuke hain. shakuni ko daad denevalon ke harshanad se aur panDvon ki is durdasha par taras khanevalon ke hahakar se sara sabha manDap goonj utha. sabha mein is tarah khalbali machne ke baad shakuni ne yudhishthir se kaha—“ek aur cheez hai, jo tumne abhi hari nahin hai. uski bazi lagao, to tum apne aapko bhi chhuDa sakte ho. apni patni draupadi ko tum daanv par kyon nahin lagate?” aur jue ke nashe mein choor yudhishthir ke munh se nikal paDa “chalo apni patni draupadi ki bhi mainne bazi lagai!” unke munh se ye nikal to gaya, par uske parinam ko sochkar wo vikal ho uthe ki haay ye mainne kya kar Dala!’",
"yudhishthir ki is baat par sari sabha mein ekdam hahakar mach gaya. jahan vriddh log baithe the, udhar se dhikkar ki avazen aane lagin. log bole—“chhiः chhiः, kaisa ghor paap hai!” kuch ne ansu bahaye aur kuch log pareshani ke mare pasine se tar batar ho ge. duryodhan aur uske bhaiyon ne baDa shor machaya. par yuyutsu naam ka dhritarashtr ka ek beta shok santapt ho utha aur thanDi aah bharkar usne sir jhuka liya.",
"shakuni ne pasa phenkkar kaha—“yah lo, ye bazi bhi meri hi rahi. ”",
"bas, phir kya tha? duryodhan ne vidur ko adesh dete hue kaha—“ap abhi ranvas mein jayen aur draupadi ko yahan le ayen. usse kahen ki jaldi aaye. ”",
"vidur bole—“murkh! nahak kyon mrityu ko nyauta dene chala hai. apni visham paristhiti ka tumhein gyaan nahin hai. ”",
"duryodhan ko yon phatkarne ke baad vidur sabhasdon ki or dekhkar kaha “apne ko haar chukne ke baad yudhishthir ko koi adhikar nahin tha ki wo panchalraj ki beti ko daanv par lagaye. ”",
"vidur ki baton se duryodhan baukhla utha. apne sarthi pratikami ko bulakar kaha—“vidur to hamse jalte hain aur panDvon se Darte hain. ranvas mein jao aur draupadi ko bula lao. ”",
"aagya pakar pratikami ranvas mein gaya aur draupadi se bola—“drupadraj ki putri! chausar ke khel mein yudhishthir aapko daanv mein haar baithe hain. aap ab raja duryodhan ke adhin ho gai hain. raja ki aagya hai ki ab aapko dhritarashtr ke mahl mein dasi ka kaam karna hai. main aapko le jane ke liye aaya hoon. ”",
"sarthi ne jue ke khel mein jo kuch hua tha, uska sara haal kah sanaya.",
"wo pratikami se boli—“rathvan! jakar un harnevale jue ke khilaDi se puchho ki pahle wo apne ko hare the ya mujhe? sari sabha mein ye parashn unse karna aur jo uttar mile, wo mujhe aakar batao. uske baad mujhe le jana. ”",
"pratikami ne jakar bhari sabha ke samne yudhishthir se vahi parashn kiya, jo draupadi ne use bataya tha. is par duryodhan ne pratikami se kaha—“draupadi se jakar kah do ki wo svayan hi aakar apne pati se ye parashn kar le. ”",
"pratikami dobara ranvas mein gaya aur draupadi ke aage jhukkar baDi namrata se bola—“devi! duryodhan ki aagya hai ki aap sabha mein aakar svayan hi yudhishthir se parashn kar len. ”",
"draupadi ne kaha—“nahin, main vahan nahin jaungi. agar yudhishthir javab nahin dete, to sabha mein jo sajjan vidyaman hain, un sabko tum mera parashn jakar sunao aur uska uttar aakar mujhe batao. ”",
"pratikami lautkar phir sabha mein gaya aur sabhasdon ko draupadi ka parashn sunaya. ye sunkar duryodhan jhalla utha. apne bhai duःshasan se bola—“duःshasan, ye sarthi bhimasen se Darta malum hota hai. tumhin jakar us ghamanDi aurat ko le aao. ”",
"duratma duःshasan ke liye isse achchhi baat aur kya ho sakti thi. usne draupadi ke gunthe hue baal bikher Dale, gahne toD phoD diye aur uske baal pakaDkar balpurvak ghasitta hua sabha ki or le jane laga. draupadi vikal ho uthi. draupadi ki aisi deen avastha dekhkar dhritarashtr ke ek bete vikarn ko baDa dukh hua.",
"usse nahin raha gaya. wo bola—“upasthit viro! suniye, chausar ke khel ke liye yudhishthir ko dhokhe se bulava diya gaya tha. wo dhokha khakar is jaal mein phans ge aur apni stri tak ki bazi laga di. ye sara karya nyayochit nahin hai. dusri baat ye hai ki draupadi akele yudhishthir ki hi patni nahin hai, balki panchon panDvon ki patni hai. isliye usko daanv par lagane ka akele yudhishthir ko koi haq nahin tha. iske alava khaas baat ye hai ki ek baar jab yudhishthir khud ko hi daanv mein haar ge the, to unko draupadi ki bazi lagane ka adhikar hi kya tha? meri ek aur apatti ye hai ki shakuni ne draupadi ka naam lekar yudhishthir ko uski bazi lagane ke liye uksaya tha. logon ne chausar ke khel ke jo niyam bana rakhen hain, ye unke bilkul viruddh hai. in sab baton ke adhar par main is sare khel ko niyam viruddh thahrata hoon. meri raay mein draupadi niyampurvak nahin jiti gai hai. ”",
"yuvak vikarn ke bhashan se vahan upasthit logon ke vivek par se bhram ka parda hat gaya. sabha mein baDa kolahal mach gaya. ye sab dekhkar karn uth khaDa hua aur kruddh hokar bola—“vikarn, abhi tum bachche ho. sabha mein itne baDe buDhon ke hote hue tum kaise bol paDe! tumhein yahan bolne aur tark vitark karne ka koi adhikar nahin hain. ”",
"ye dekhkar duhshasan draupadi ke paas gaya aur uska vastra pakaDkar khinchnen laga. jyon jyon wo khinchta gaya tyon tyon vastra bhi baDhta gaya. ant mein khinchte khinchte ki donon bhujayen thak gai. hanphata hua wo thakan se choor hokar baith gaya. sabha ke logon mein kampkampi si phail gai aur dhime svar mein baten hone lagin. itne mein bhimasen utha. uske honth mare krodh ke phaDak rahe the. uunche svar mein usne ye bhayanak prtigya ki, “upasthit sajjno! main shapath khakar kahta hoon ki jab tak, bharat vansh par batta laganevale is duratma duःshasan ki chhati cheer na lunga, tab tak is sansar ko chhoDkar nahin jaunga. ” bhimasen ki is prtigya ko sunkar upasthit logon ke hriday bhay ke mare tharra uthe.",
"in sab lakshnon se dhritarashtr ne samajh liya ki ye sab theek nahin hua hai. unhonne anubhav kiya ki jo kuch ho chuka hai, uska parinam shubh nahin hoga. ye unke putron aur kul ke vinash ka karan ban jayega. unhonne paristhiti ko sanbhalane ke irade se draupadi ko baDe prem se apne paas bulaya aur shaant kiya tatha santvna di. uske baad wo yudhishthir ki or muDkar bole—“yudhishthir tum to ajatashatru ho. udaar hriday ke bhi ho. duryodhan ki is kuchal ko kshama karo aur in baton ko man se nikal do aur bhool jao apna rajya tatha sampatti aadi sab le jao aur indraprastha jakar sukhpurvak raho!”",
"dhritarashtr ki in mithi baton ko sunkar panDvon ke dil shaant ho ge aur yathochit abhivadnadi ke upraant draupadi aur kunti sahit sab panDav indraprastha ke liye vida ho ge. panDvon ke vida ho jane ke baad kaurvon mein baDi halchal mach gai. panDvon ke is prakar apne panje saaf nikal jane ke karan kaurav baDa krodh pradarshan karne lage aur duhshasan tatha shakuni ke uksane par ke uksane par duryodhan punः apne pita dhritarashtr ke sir par savar ho gaya aur panDvon ko khel ke liye ek baar aur bulane ko unko razi kar liya. yudhishthir ko khel ke liye bulane ko phir doot bheja gaya. pichhli ghatna ke karan dukhi hote hue bhi yudhishthir ko ye nimantran svikar karna paDa. yudhishthir hastinapur laute aur shani ke saath phir chaupaD khela. is baar khel mein ye shart thi ki hara hua dal apne bhaiyon ke saath barah varsh tak vanvas karega tatha uske upraant ek varsh agyatvas mein rahega. yadi is ek varsh mein unka pata chal jayega, to un sabko barah varsh ka vanvas phir se bhogna hoga. is baar bhi yudhishthir haar ge aur panDav apne kiye vade ke anusar van mein chale ge.",
"dhritarashtr ki baat mankar vidur panDvon ke paas aaye. unko dekhkar maharaj yudhishthir uthe aur unka yathochit svagat satkar kiya. vidur aasan par baithte hue shanti se bole—“hastinapur mein khel ke liye ek sabha manDap banaya gaya hai, jo tumhare manDap ke saman hi sundar hai raja dhritarashtr ki or se use dekhne chalne ke liye main tum logon ko nyauta dene aaya hoon. raja dhritarashtr ki ichchha hai ki tum sab bhaiyon sahit vahan aao, us manDap ko dekho aur do haath chausar bhi khel jao. ”",
"yudhishthir ne kaha—“chacha jee! chausar ka khel achchha nahin hai. usse aapas mein jhagDe paida hote hain. samajhdar log use pasand nahin karte hain. lekin is mamle mein hum to aap hi ke adeshanusar chalnevale hain. apaki salah kya hai?”",
"vidur bole—“yah to kisi se chhipa nahin hai ki chausar ka khel sare anarth ki jaD hota hai. mainne to bharsak koshish ki thi ki ise na hone doon, kintu raja ne aagya di hai ki tumhein khel ke liye nyauta de hi auun isliye aana paDa. ab tumhari jo ichchha ho karo. ”",
"rajvanshon ki riti ke anusar kisi ko bhi khel ke liye bulava mil jane par use asvikar nahin kiya ja sakta tha. iske alava yudhishthir ko Dar tha ki kahin khel mein na jane ko hi dhritarashtr apna apman na samajh len aur yahi baat kahin laDai ka karan na ban jaye. inhin sab vicharon se prerit hokar samajhdar yudhishthir ne nyauta svikar kar liya, yadyapi vidur ne unhen cheta diya tha. yudhishthir apne parivar ke saath hastinapur pahunch ge. nagar ke paas hi unke liye ek sundar vishram grih bana tha. vahan thaharkar unhonne aram kiya. agle din subah nha dhokar sabha manDap mein ja pahunche.",
"kushal samachar puchhne ke baad shakuni ne kaha—“yudhishthir, khel ke liye chaupaD bichha hua hai. chaliye, do haath khel len. ”",
"yudhishthir bole—“rajan, ye khel theek nahin hai! bazi jeet lena sahas ka kaam nahin hai. jua khelna dhokha dene ke saman hai. aap to ye sab baten jante hi hain. ”",
"wo bola—“ap bhi kya kahte hain, maharaj! ye bhi koi dhokhe ki baat hai! haan, ye kahiye ki aapko haar jane ka Dar lag raha hai. ”",
"yudhishthir kuch garm hokar bole—“rajan! aisi baat nahin hai. agar mujhe khelne ko kaha gaya, to main na nahin karunga. aap kahte hain, to main taiyar hoon. mere saath khelega kaun?”",
"duryodhan turant bol utha—“meri jagah khelenge to mama shakuni kintu daanv lagane ke liye jo dhan ratnadi chahiye, wo main dunga. ”",
"yudhishthir bole—“meri raay ye hai ki kisi ek ki jagah dusre ko nahin khelna chahiye. ye khel ke sadharan niymon ke viruddh hai. ”",
"“achchha to ab dusra bahana bana liya. ” shakuni ne hanste hue kaha.",
"yudhishthir ne kaha—“thik hai. koi baat nahin, main khelunga. ” aur khel shuru hua. sara manDap darshkon se khachakhach bhara hua tha. dron, bheeshm, krip, vidur, dhritarashtr jaise vayovriddh bhi upasthit the. ve use rok nahin sake the. unke chehron par udasi chhai hui thi. anya kaurav rajakumar baDe chaav se khel ko dekh rahe the.",
"pahle ratnon ki bazi lagi, phir sone chandi ke khazanon ki. uske baad rathon aur ghoDon ki. tinon daanv yudhishthir haar ge. shakuni ka pasa mano uske isharon par chalta tha. khel mein yudhishthir bari bari se apni gayen, bheD, bakriyan, daas dasi, rath, ghoDe, sena, desh, desh ki praja sab kho baithe. bhaiyon ke shariron par jo abhushan aur vastra the, unko bhi bazi par laga diya aur haar ge.",
"“aur kuch baqi hai? shakuni ne puchha.",
"“yah sanvle rang ka sundar yuvak, mera bhai nakul khaDa hai. wo bhi mera hi dhan hai. iski bazi lagata hoon. chalo!” yudhishthir ne josh ke saath kaha.",
"shakuni ne kaha—“achchha to ye baat hai! to ye lijiye. aapka pyara rajakumar ab hamara ho gaya! kahte kahte shakuni ne pasa phenka aur bazi maar li.",
"yudhishthir ne kaha—“yah mera bhai sahdev, jisne sari vidyaon ka paar pa liya hai. iski bazi lagana uchit to nahin hai, phir bhi lagata hoon. chalo dekha jayega. ”",
"“yah chala aur wo jita” kahte hue shakuni ne pasa phenka. sahdev ko bhi yudhishthir ganva baithe.",
"ab duratma shakuni ko ashanka hui ki kahin yudhishthir khel band na kar den. bola—“yudhishthir shayad apaki nigah mein bhimasen aur arjun madri ke beton se jyada mulyavan hain. so unko baji par aap lagayenge nahin. ”",
"yudhishthir ne kaha—“murkh shakuni! tumhari chaal ye malum hoti hai ki hum bhaiyon mein aapas mein phoot paD jaye! so tum kya jano ki hum panchon bhaiyon ke sambandh kya hain? parakram mein jiska koi sani nahin hai, us apne bhai arjun ko main daanv par lagata hoon. chalo. ”",
"shakuni yahi to chahta tha. “to ye chala”, kahte hue pasa phenka aur arjun bhi haath se nikal gaya. asim durdaiv mano yudhishthir ko bebas kar raha tha aur unhen patan ki or balpurvak liye ja raha tha. wo bole—“rajan! sharirik bal mein sansarbhar mein jiska koi joDidar nahin hai, apne us bhai ko main daanv par lagata hoon. ” ye kahte kahte yudhishthir bhimasen se bhi haath dho baithe.",
"dushtatma shakuni ne tab bhi nahin chhoDa. puchha—“aur kuchh?”",
"yudhishthir ne kaha—“han! yadi is baar tum jeet ge, to main khud tumhare adhin ho jaunga. ”",
"“lo, ye jita!” kahte hue shakuni ne pasa phenka aur ye bazi bhi le gaya.",
"is par shakuni sabha ke beech uth khaDa hua aur panchon panDvon ko ek ek karke pukara aur ghoshna ki ki ve ab uske gulam ho chuke hain. shakuni ko daad denevalon ke harshanad se aur panDvon ki is durdasha par taras khanevalon ke hahakar se sara sabha manDap goonj utha. sabha mein is tarah khalbali machne ke baad shakuni ne yudhishthir se kaha—“ek aur cheez hai, jo tumne abhi hari nahin hai. uski bazi lagao, to tum apne aapko bhi chhuDa sakte ho. apni patni draupadi ko tum daanv par kyon nahin lagate?” aur jue ke nashe mein choor yudhishthir ke munh se nikal paDa “chalo apni patni draupadi ki bhi mainne bazi lagai!” unke munh se ye nikal to gaya, par uske parinam ko sochkar wo vikal ho uthe ki haay ye mainne kya kar Dala!’",
"yudhishthir ki is baat par sari sabha mein ekdam hahakar mach gaya. jahan vriddh log baithe the, udhar se dhikkar ki avazen aane lagin. log bole—“chhiः chhiः, kaisa ghor paap hai!” kuch ne ansu bahaye aur kuch log pareshani ke mare pasine se tar batar ho ge. duryodhan aur uske bhaiyon ne baDa shor machaya. par yuyutsu naam ka dhritarashtr ka ek beta shok santapt ho utha aur thanDi aah bharkar usne sir jhuka liya.",
"shakuni ne pasa phenkkar kaha—“yah lo, ye bazi bhi meri hi rahi. ”",
"bas, phir kya tha? duryodhan ne vidur ko adesh dete hue kaha—“ap abhi ranvas mein jayen aur draupadi ko yahan le ayen. usse kahen ki jaldi aaye. ”",
"vidur bole—“murkh! nahak kyon mrityu ko nyauta dene chala hai. apni visham paristhiti ka tumhein gyaan nahin hai. ”",
"duryodhan ko yon phatkarne ke baad vidur sabhasdon ki or dekhkar kaha “apne ko haar chukne ke baad yudhishthir ko koi adhikar nahin tha ki wo panchalraj ki beti ko daanv par lagaye. ”",
"vidur ki baton se duryodhan baukhla utha. apne sarthi pratikami ko bulakar kaha—“vidur to hamse jalte hain aur panDvon se Darte hain. ranvas mein jao aur draupadi ko bula lao. ”",
"aagya pakar pratikami ranvas mein gaya aur draupadi se bola—“drupadraj ki putri! chausar ke khel mein yudhishthir aapko daanv mein haar baithe hain. aap ab raja duryodhan ke adhin ho gai hain. raja ki aagya hai ki ab aapko dhritarashtr ke mahl mein dasi ka kaam karna hai. main aapko le jane ke liye aaya hoon. ”",
"sarthi ne jue ke khel mein jo kuch hua tha, uska sara haal kah sanaya.",
"wo pratikami se boli—“rathvan! jakar un harnevale jue ke khilaDi se puchho ki pahle wo apne ko hare the ya mujhe? sari sabha mein ye parashn unse karna aur jo uttar mile, wo mujhe aakar batao. uske baad mujhe le jana. ”",
"pratikami ne jakar bhari sabha ke samne yudhishthir se vahi parashn kiya, jo draupadi ne use bataya tha. is par duryodhan ne pratikami se kaha—“draupadi se jakar kah do ki wo svayan hi aakar apne pati se ye parashn kar le. ”",
"pratikami dobara ranvas mein gaya aur draupadi ke aage jhukkar baDi namrata se bola—“devi! duryodhan ki aagya hai ki aap sabha mein aakar svayan hi yudhishthir se parashn kar len. ”",
"draupadi ne kaha—“nahin, main vahan nahin jaungi. agar yudhishthir javab nahin dete, to sabha mein jo sajjan vidyaman hain, un sabko tum mera parashn jakar sunao aur uska uttar aakar mujhe batao. ”",
"pratikami lautkar phir sabha mein gaya aur sabhasdon ko draupadi ka parashn sunaya. ye sunkar duryodhan jhalla utha. apne bhai duःshasan se bola—“duःshasan, ye sarthi bhimasen se Darta malum hota hai. tumhin jakar us ghamanDi aurat ko le aao. ”",
"duratma duःshasan ke liye isse achchhi baat aur kya ho sakti thi. usne draupadi ke gunthe hue baal bikher Dale, gahne toD phoD diye aur uske baal pakaDkar balpurvak ghasitta hua sabha ki or le jane laga. draupadi vikal ho uthi. draupadi ki aisi deen avastha dekhkar dhritarashtr ke ek bete vikarn ko baDa dukh hua.",
"usse nahin raha gaya. wo bola—“upasthit viro! suniye, chausar ke khel ke liye yudhishthir ko dhokhe se bulava diya gaya tha. wo dhokha khakar is jaal mein phans ge aur apni stri tak ki bazi laga di. ye sara karya nyayochit nahin hai. dusri baat ye hai ki draupadi akele yudhishthir ki hi patni nahin hai, balki panchon panDvon ki patni hai. isliye usko daanv par lagane ka akele yudhishthir ko koi haq nahin tha. iske alava khaas baat ye hai ki ek baar jab yudhishthir khud ko hi daanv mein haar ge the, to unko draupadi ki bazi lagane ka adhikar hi kya tha? meri ek aur apatti ye hai ki shakuni ne draupadi ka naam lekar yudhishthir ko uski bazi lagane ke liye uksaya tha. logon ne chausar ke khel ke jo niyam bana rakhen hain, ye unke bilkul viruddh hai. in sab baton ke adhar par main is sare khel ko niyam viruddh thahrata hoon. meri raay mein draupadi niyampurvak nahin jiti gai hai. ”",
"yuvak vikarn ke bhashan se vahan upasthit logon ke vivek par se bhram ka parda hat gaya. sabha mein baDa kolahal mach gaya. ye sab dekhkar karn uth khaDa hua aur kruddh hokar bola—“vikarn, abhi tum bachche ho. sabha mein itne baDe buDhon ke hote hue tum kaise bol paDe! tumhein yahan bolne aur tark vitark karne ka koi adhikar nahin hain. ”",
"ye dekhkar duhshasan draupadi ke paas gaya aur uska vastra pakaDkar khinchnen laga. jyon jyon wo khinchta gaya tyon tyon vastra bhi baDhta gaya. ant mein khinchte khinchte ki donon bhujayen thak gai. hanphata hua wo thakan se choor hokar baith gaya. sabha ke logon mein kampkampi si phail gai aur dhime svar mein baten hone lagin. itne mein bhimasen utha. uske honth mare krodh ke phaDak rahe the. uunche svar mein usne ye bhayanak prtigya ki, “upasthit sajjno! main shapath khakar kahta hoon ki jab tak, bharat vansh par batta laganevale is duratma duःshasan ki chhati cheer na lunga, tab tak is sansar ko chhoDkar nahin jaunga. ” bhimasen ki is prtigya ko sunkar upasthit logon ke hriday bhay ke mare tharra uthe.",
"in sab lakshnon se dhritarashtr ne samajh liya ki ye sab theek nahin hua hai. unhonne anubhav kiya ki jo kuch ho chuka hai, uska parinam shubh nahin hoga. ye unke putron aur kul ke vinash ka karan ban jayega. unhonne paristhiti ko sanbhalane ke irade se draupadi ko baDe prem se apne paas bulaya aur shaant kiya tatha santvna di. uske baad wo yudhishthir ki or muDkar bole—“yudhishthir tum to ajatashatru ho. udaar hriday ke bhi ho. duryodhan ki is kuchal ko kshama karo aur in baton ko man se nikal do aur bhool jao apna rajya tatha sampatti aadi sab le jao aur indraprastha jakar sukhpurvak raho!”",
"dhritarashtr ki in mithi baton ko sunkar panDvon ke dil shaant ho ge aur yathochit abhivadnadi ke upraant draupadi aur kunti sahit sab panDav indraprastha ke liye vida ho ge. panDvon ke vida ho jane ke baad kaurvon mein baDi halchal mach gai. panDvon ke is prakar apne panje saaf nikal jane ke karan kaurav baDa krodh pradarshan karne lage aur duhshasan tatha shakuni ke uksane par ke uksane par duryodhan punः apne pita dhritarashtr ke sir par savar ho gaya aur panDvon ko khel ke liye ek baar aur bulane ko unko razi kar liya. yudhishthir ko khel ke liye bulane ko phir doot bheja gaya. pichhli ghatna ke karan dukhi hote hue bhi yudhishthir ko ye nimantran svikar karna paDa. yudhishthir hastinapur laute aur shani ke saath phir chaupaD khela. is baar khel mein ye shart thi ki hara hua dal apne bhaiyon ke saath barah varsh tak vanvas karega tatha uske upraant ek varsh agyatvas mein rahega. yadi is ek varsh mein unka pata chal jayega, to un sabko barah varsh ka vanvas phir se bhogna hoga. is baar bhi yudhishthir haar ge aur panDav apne kiye vade ke anusar van mein chale ge.",
"Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.",
"Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.",
"This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.",
"You have remaining out of 5 free poetry pages per month. Log In or Register to become Rekhta Family member to access the full website.",
"Sign up and enjoy FREE unlimited access to a whole Universe of Urdu Poetry, Language Learning, Sufi Mysticism, Rare Texts",
"जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।",
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"हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश"
] |
बाल महाभारत : महाभारत कथा - कथा | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kathaen/class-7-ncert-7/mahabharat-katha-chakraborty-rajagopalacharya-kathaen?sort= | [
"प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।",
"महाभारत की कथा महर्षि पराशर के कीर्तिमान पुत्र वेद व्यास की देन है। व्यास जी ने महाभारत की यह कथा सबसे पहले अपने पुत्र शुकदेव को कंठस्थ कराई थी और बाद में अपने दूसरे शिष्यों को मानव-जाति में महाभारत की कथा का प्रसार महर्षि वैशंपायन के द्वारा हुआ। वैशंपायन व्यास जी के प्रमुख शिष्य थे। ऐसा माना जाता है कि महाराजा परीक्षित के पुत्र जनमेजय ने एक बड़ा यज्ञ किया। इस महायज्ञ में सुप्रसिद्ध पौराणिक सूत जी भी मौजूद थे। सूत जी ने समस्त ऋषियों की एक सभा बुलाई। महर्षि शौनक इस सभा के अध्यक्ष हुए।",
"सूत जी ने ऋषियों की सभा में महाभारत की कथा प्रारंभ की कि महाराजा शांतनु के बाद उनके पुत्र चित्रांगद हस्तिनापुर की गद्दी पर बैठे।उनकी अकाल मृत्यु हो जाने पर उनके भाई विचित्रवीर्य राजा हुए। उनके दो पुत्र हुए—धृतराष्ट्र और पांडु। बड़े बेटे धृतराष्ट्र जन्म से ही अंधे थे, इसलिए उस समय की नीति के अनुसार पांडु को गद्दी पर बैठाया गया।",
"पांडु ने कई वर्षों तक राज्य किया। उनकी दो रानियाँ थीं—कुंती और माद्री कुछ समय राज्य करने के बाद पांडु अपने किसी अपराध के प्रायश्चित के लिए तपस्या करने जंगल में गए। उनकी दोनों रानियाँ भी उनके साथ ही गई। वनवास के समय कुंती और माद्री ने पाँच पांडवों को जन्म दिया। कुछ समय बाद पांडु की मृत्यु हो गई। पाँचों अनाथ बच्चों का वन के ऋषि-मुनियों ने पालन-पोषण किया और पढ़ाया-लिखाया। जब युधिष्ठिर सोलह वर्ष के हुए, तो ऋषियों ने पाँचों कुमारों को हस्तिनापुर ले जाकर पितामह भीष्म को सौंप दिया।",
"पाँचों पांडव बुद्धि से तेज़ और शरीर से बली थे। उनकी प्रखर बुद्धि और मधुर स्वभाव ने सबको मोह लिया था। यह देखकर धृतराष्ट्र के पुत्र कौरव उनसे जलने लगे और उन्होंने पांडवों को तरह-तरह से कष्ट पहुँचाना शुरू किया।",
"दिन-पर-दिन कौरवों और पांडवों के बीच वैरभाव बढ़ता गया। अंत में पितामह भीष्म ने दोनों को किसी तरह समझाया और उनके बीच संधि कराई। भीष्म के आदेशानुसार कुरु-राज्य के दो हिस्से किए गए। कौरव हस्तिनापुर में ही राज करते रहे और पांडवों को एक अलग राज्य दे दिया गया, जो आगे चलकर इंद्रप्रस्थ के नाम से मशहूर हुआ। इस प्रकार कुछ दिन शांति रही।",
"उन दिनों राजा लोगों में चौसर खेलने का आम रिवाज था। राज्य तक की बाज़ियाँ लगा दी जाती थीं। इस रिवाज के मुताबिक़ एक बार पांडवों और कौरवों ने चौपड़ खेला। कौरवों की तरफ़ से कुटिल शकुनि खेला। उसने युधिष्ठिर को हरा दिया। इसके फलस्वरूप पांडवों का राज्य छिन गया और उनको तेरह वर्ष का वनवास भोगना पड़ा। उसमें एक शर्त यह भी थी कि बारह वर्ष के वनवास के बाद एक वर्ष अज्ञातवास करना होगा। उसके बाद उनका राज्य उन्हें लौटा दिया जाएगा।",
"द्रौपदी के साथ पाँचों पांडव बारह वर्ष वनवास और एक वर्ष अज्ञातवास में बिताकर वापस लौटे, पर लालची दुर्योधन ने लिया हुआ राज्य वापस करने से इंकार कर दिया। अतः पांडवों को अपने राज्य के लिए लड़ना पड़ा। युद्ध में सारे कौरव मारे गए, तब पांडव उस विशाल साम्राज्य के स्वामी हुए।",
"इसके बाद छत्तीस वर्ष तक पांडवों ने राज्य किया और फिर अपने पोते परीक्षित को राज्य देकर द्रौपदी के साथ तपस्या करने हिमालय चले गए।",
"संक्षेप में यही महाभारत की कथा है।",
"mahabharat ki katha maharshi parashar ke kirtiman putr ved vyaas ki den hai. vyaas ji ne mahabharat ki ye katha sabse pahle apne putr shukdev ko kanthasth karai thi aur baad mein apne dusre shishyon ko manav jati mein mahabharat ki katha ka prasar maharshi vaishampayan ke dvara hua. vaishampayan vyaas ji ke pramukh shishya the. aisa mana jata hai ki maharaja parikshit ke putr janmejay ne ek baDa yagya kiya. is mahayagya mein suprasiddh pauranik soot ji bhi maujud the. soot ji ne samast rishiyon ki ek sabha bulai. maharshi shaunak is sabha ke adhyaksh hue.",
"soot ji ne rishiyon ki sabha mein mahabharat ki katha prarambh ki ki maharaja shantanu ke baad unke putr chitrangad hastinapur ki gaddi par baithe. unki akal mrityu ho jane par unke bhai vichitravirya raja hue. unke do putr hue—dhritarashtr aur panDu. baDe bete dhritarashtr janm se hi andhe the, isliye us samay ki niti ke anusar panDu ko gaddi par baithaya gaya.",
"panDu ne kai varshon tak rajya kiya. unki do raniyan thin—kunti aur madri kuch samay rajya karne ke baad panDu apne kisi apradh ke prayashchit ke liye tapasya karne jangal mein ge. unki donon raniyan bhi unke saath hi gai. vanvas ke samay kunti aur madri ne paanch panDvon ko janm diya. kuch samay baad panDu ki mrityu ho gai. panchon anath bachchon ka van ke rishi muniyon ne palan poshan kiya aur paDhaya likhaya. jab yudhishthir solah varsh ke hue, to rishiyon ne panchon kumaron ko hastinapur le jakar pitamah bheeshm ko saump diya.",
"panchon panDav buddhi se tez aur sharir se bali the. unki prakhar buddhi aur madhur svbhaav ne sabko moh liya tha. ye dekhkar dhritarashtr ke putr kaurav unse jalne lage aur unhonne panDvon ko tarah tarah se kasht pahunchana shuru kiya.",
"din par din kaurvon aur panDvon ke beech vairbhav baDhta gaya. ant mein pitamah bheeshm ne donon ko kisi tarah samjhaya aur unke beech sandhi karai. bheeshm ke adeshanusar kuru rajya ke do hisse kiye ge. kaurav hastinapur mein hi raaj karte rahe aur panDvon ko ek alag rajya de diya gaya, jo aage chalkar indraprastha ke naam se mashhur hua. is prakar kuch din shanti rahi.",
"un dinon raja logon mein chausar khelne ka aam rivaj tha. rajya tak ki baziyan laga di jati theen. is rivaj ke mutabik ek baar panDvon aur kaurvon ne chaupaD khela. kaurvon ki taraf se kutil shakuni khela. usne yudhishthir ko hara diya. iske phalasvarup panDvon ka rajya chhin gaya aur unko terah varsh ka vanvas bhogna paDa. usmen ek shart ye bhi thi ki barah varsh ke vanvas ke baad ek varsh agyatvas karna hoga. uske baad unka rajya unhen lauta diya jayega.",
"draupadi ke saath panchon panDav barah varsh vanvas aur ek varsh agyatvas mein bitakar vapas laute, par lalchi duryodhan ne liya hua rajya vapas karne se inkaar kar diya. atः panDvon ko apne rajya ke liye laDna paDa. yuddh mein sare kaurav mare ge, tab panDav us vishal samrajya ke svami hue.",
"iske baad chhattis varsh tak panDvon ne rajya kiya aur phir apne pote parikshit ko rajya dekar draupadi ke saath tapasya karne himalay chale ge.",
"sankshep mein yahi mahabharat ki katha hai.",
"mahabharat ki katha maharshi parashar ke kirtiman putr ved vyaas ki den hai. vyaas ji ne mahabharat ki ye katha sabse pahle apne putr shukdev ko kanthasth karai thi aur baad mein apne dusre shishyon ko manav jati mein mahabharat ki katha ka prasar maharshi vaishampayan ke dvara hua. vaishampayan vyaas ji ke pramukh shishya the. aisa mana jata hai ki maharaja parikshit ke putr janmejay ne ek baDa yagya kiya. is mahayagya mein suprasiddh pauranik soot ji bhi maujud the. soot ji ne samast rishiyon ki ek sabha bulai. maharshi shaunak is sabha ke adhyaksh hue.",
"soot ji ne rishiyon ki sabha mein mahabharat ki katha prarambh ki ki maharaja shantanu ke baad unke putr chitrangad hastinapur ki gaddi par baithe. unki akal mrityu ho jane par unke bhai vichitravirya raja hue. unke do putr hue—dhritarashtr aur panDu. baDe bete dhritarashtr janm se hi andhe the, isliye us samay ki niti ke anusar panDu ko gaddi par baithaya gaya.",
"panDu ne kai varshon tak rajya kiya. unki do raniyan thin—kunti aur madri kuch samay rajya karne ke baad panDu apne kisi apradh ke prayashchit ke liye tapasya karne jangal mein ge. unki donon raniyan bhi unke saath hi gai. vanvas ke samay kunti aur madri ne paanch panDvon ko janm diya. kuch samay baad panDu ki mrityu ho gai. panchon anath bachchon ka van ke rishi muniyon ne palan poshan kiya aur paDhaya likhaya. jab yudhishthir solah varsh ke hue, to rishiyon ne panchon kumaron ko hastinapur le jakar pitamah bheeshm ko saump diya.",
"panchon panDav buddhi se tez aur sharir se bali the. unki prakhar buddhi aur madhur svbhaav ne sabko moh liya tha. ye dekhkar dhritarashtr ke putr kaurav unse jalne lage aur unhonne panDvon ko tarah tarah se kasht pahunchana shuru kiya.",
"din par din kaurvon aur panDvon ke beech vairbhav baDhta gaya. ant mein pitamah bheeshm ne donon ko kisi tarah samjhaya aur unke beech sandhi karai. bheeshm ke adeshanusar kuru rajya ke do hisse kiye ge. kaurav hastinapur mein hi raaj karte rahe aur panDvon ko ek alag rajya de diya gaya, jo aage chalkar indraprastha ke naam se mashhur hua. is prakar kuch din shanti rahi.",
"un dinon raja logon mein chausar khelne ka aam rivaj tha. rajya tak ki baziyan laga di jati theen. is rivaj ke mutabik ek baar panDvon aur kaurvon ne chaupaD khela. kaurvon ki taraf se kutil shakuni khela. usne yudhishthir ko hara diya. iske phalasvarup panDvon ka rajya chhin gaya aur unko terah varsh ka vanvas bhogna paDa. usmen ek shart ye bhi thi ki barah varsh ke vanvas ke baad ek varsh agyatvas karna hoga. uske baad unka rajya unhen lauta diya jayega.",
"draupadi ke saath panchon panDav barah varsh vanvas aur ek varsh agyatvas mein bitakar vapas laute, par lalchi duryodhan ne liya hua rajya vapas karne se inkaar kar diya. atः panDvon ko apne rajya ke liye laDna paDa. yuddh mein sare kaurav mare ge, tab panDav us vishal samrajya ke svami hue.",
"iske baad chhattis varsh tak panDvon ne rajya kiya aur phir apne pote parikshit ko rajya dekar draupadi ke saath tapasya karne himalay chale ge.",
"sankshep mein yahi mahabharat ki katha hai.",
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"This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.",
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"Sign up and enjoy FREE unlimited access to a whole Universe of Urdu Poetry, Language Learning, Sufi Mysticism, Rare Texts",
"जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।",
"Devoted to the preservation & promotion of Urdu",
"Urdu poetry, urdu shayari, shayari in urdu, poetry in urdu",
"A Trilingual Treasure of Urdu Words",
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"हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश"
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बाल महाभारत : कर्ण - कथा | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kathaen/class-7-ncert-7/baal-mahabharat-karn-chakraborty-rajagopalacharya-kathaen?sort= | [
"प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।",
"पांडवों ने पहले कृपाचार्य से और बाद में द्रोणाचार्य से अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा पाई। उनको जब विद्या में काफ़ी निपुणता प्राप्त हो गई, तो एक भारी समारोह किया गया, जिसमें सबने अपने कौशल का प्रदर्शन किया। सारे नगरवासी इस समारोह को देखने आए थे। तरह-तरह के खेल हुए हरेक राजकुमार यही चाहता था कि वही सबसे बढ़कर निकले। आपस में प्रतिस्पर्धा बड़े ज़ोर की थी, परंतु तीर चलाने में पांडु पुत्र अर्जुन का कोई सानी न था। अर्जुन ने धनुष-विद्या में कमाल का खेल दिखाया। उसकी अद्भुत चतुरता को देखकर सभी दर्शक और राजवंश के सभी उपस्थित लोग दंग रह गए। यह देखकर दुर्योधन का मन ईर्ष्या से जलने लगा। अभी खेल हो ही रहा था कि इतने में रंगभूमि के द्वार पर खम ठोंकते हुए एक रोबीला और तेजस्वी युवक मस्तानी चाल से आकर अर्जुन के सामने खड़ा हो गया। यह युवक और कोई नहीं, अधिरथ द्वारा पोषित कुंती पुत्र कर्ण ही था, लेकिन उसके कुंती पुत्र होने की बात किसी को मालूम न थी। रंगभूमि में आते ही उसने अर्जुन को ललकारा—“अर्जुन! जो भी करतब तुमने यहाँ दिखाए हैं, उनसे बढ़कर कौशल में दिखा सकता हूँ। क्या तुम इसके लिए तैयार हो ?",
"इस चुनौती को सुनकर दर्शक मंडली में बड़ी खलबली मच गई, पर ईर्ष्या की आग से जलने वाले दुर्योधन को बड़ी राहत मिली। वह बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने तपाक से कर्ण का स्वागत किया और उसे छाती से लगाकर बोला—“कहो कर्ण, कैसे आए? बताओ, हम तुम्हारे लिए क्या कर सकते हैं?”",
"कर्ण बोला—“राजन्! मैं अर्जुन से द्वंद्व युद्ध और आपसे मित्रता करना चाहता हूँ।”",
"कर्ण की चुनौती को सुनकर अर्जुन को बड़ा तैश आया। वह बोला—“कर्ण! सभा में जो बिना बुलाए आते हैं और जो बिना किसी के पूछे बोलने लगते हैं, वे निंदा के योग्य होते हैं।”",
"यह सुनकर कर्ण ने कहा—“अर्जुन, यह उत्सव केवल तुम्हारे लिए ही नहीं मनाया जा रहा है। सभी प्रजाजन इसमें भाग लेने का अधिकार रखते हैं। व्यर्थ डींगें मारने से फ़ायदा क्या? चलो, तीरों से बात कर लें!”",
"जब कर्ण ने अर्जुन को यों चुनौती दी, तो दर्शकों ने तालियाँ बजाईं। उनके दो दल बन गए। एक दल अर्जुन को बढ़ावा देने लगा और दूसरा कर्ण को। इसी प्रकार वहाँ इकट्ठी स्त्रियों के भी दो दल बन गए। कुंती ने कर्ण को देखते ही पहचान लिया और भय तथा लज्जा के मारे मूच्छित सी हो गई। उसकी यह हालत देखकर विदुर ने दासियों को बुलाकर उसे चेत करवाया।",
"इसी बीच कृपाचार्य ने उठकर कर्ण से कहा—“अज्ञात वीर! महाराज पांडु का पुत्र और कुरुवंश का वीर अर्जुन तुम्हारे साथ द्वंद्व युद्ध करने के लिए तैयार है, किंतु तुम पहले अपना परिचय तो दो! तुम कौन हो, किसके पुत्र हो, किस राजकुल को तुम विभूषित करते हो? द्वंद्व युद्ध बराबर वालों में ही होता है। कुल का परिचय पाए बग़ैर राजकुमार कभी द्वंद्व करने को तैयार नहीं होते। कृपाचार्य की यह बात सुनकर कर्ण का सिर झुक गया।",
"कर्ण को इस तरह देखकर दुर्योधन उठ खड़ा हुआ और बोला अगर बराबरी की बात है, तो मैं आज ही कर्ण को अंगदेश का राजा बनाता हूँ! यह कहकर दुर्योधन ने तुरंत पितामह भीष्म एवं पिता धृतराष्ट्र से अनुमति लेकर वहीं रंगभूमि में ही राज्याभिषेक की सामग्री मँगवाई और कर्ण का राज्याभिषेक करके उसे अंगदेश का राजा घोषित कर दिया।",
"इतने में बूढ़ा सारथी अधिरथ, जिसने कर्ण को पाला था, लाठी टेकता हुआ और भय के मारे काँपता हुआ सभा में प्रविष्ट हुआ। कर्ण, जो अभी-अभी अंगदेश का नरेश बना दिया गया था, उसको देखते ही धनुष नीचे रखकर उठ खड़ा हुआ और पिता मानकर बड़े आदर के साथ उसके आगे सिर नवाया। बूढ़े ने भी 'बेटा' कहकर उसे गले लगा लिया। यह देखकर भीम ख़ूब कहकहा मारकर हँस पड़ा और बोला—सारथी के बेटे, धनुष छोड़कर हाथ में चाबुक लो, चाबुक! वही तुम्हें शोभा देगा। तुम भला कब से अर्जुन के साथ द्वंद्व युद्ध करने के योग्य हो गए?",
"यह सब देखकर सभा में खलबली मच गई। इसी बीच कृपाचार्य ने उठकर कर्ण से इस समय सूरज भी डूब रहा था। इस कारण कहा—“अज्ञात वीर! महाराज पांडु का पुत्र और सभा विसर्जित हो गई। मशालों और दीपकों की रोशनी में दर्शक वृंद अपनी-अपनी पसंद के अनुसार अर्जुन, कर्ण और दुर्योधन की जय बोलते जाते थे।",
"इस घटना के बहुत समय बाद एक बार इंद्र बूढ़े ब्राह्मण के वेश में अंग नरेश कर्ण के पास आए और उसके जन्मजात कवच और कुंडलों की भिक्षा माँगी। इंद्र को डर था कि भावी युद्ध में कर्ण की शक्ति से अर्जुन पर विपत्ति आ सकती है। इस कारण कर्ण की ताक़त कम करने की इच्छा से ही उन्होंने उससे यह भिक्षा माँगी थी।",
"कर्ण को सूर्यदेव ने पहले ही सचेत कर दिया था कि उसे धोखा देने के लिए इंद्र ऐसी चाल चलने वाले हैं, परंतु कर्ण इतना दानी था कि किसी के कुछ माँगने पर वह मना कर ही नहीं सकता था। इस कारण यह जानते हुए भी कि भिखारी के वेश में इंद्र धोखा कर रहे हैं, कर्ण ने अपने जन्मजात कवच और कुंडल निकालकर भिक्षा में दे दिए।",
"इस अद्भुत दानवीरता को देखकर इंद्र चकित रह गए। कर्ण की प्रशंसा करते हुए बोले—“कर्ण, तुमसे मैं बहुत प्रसन्न हूँ। तुम जो भी वरदान चाहो, माँगो।",
"कर्ण ने देवराज से कहा—“आप प्रसन्न हैं, तो शत्रुओं का संहार करने वाला अपना 'शक्ति' नामक शस्त्र मुझे प्रदान करें!",
"बड़ी प्रसन्नता के साथ अपना वह शस्त्र कर्ण को देते हुए देवराज ने कहा—“युद्ध में तुम जिस किसी को लक्ष्य करके इसका प्रयोग करोगे, वह अवश्य मारा जाएगा, परंतु एक ही बार तुम इसका प्रयोग कर सकोगे। तुम्हारे शत्रु को मारने के बाद यह मेरे पास वापस आ जाएगा। इतना कहकर इंद्र चले गए।",
"एक बार कर्ण को परशुराम जी से ब्रह्मास्त्र सीखने की इच्छा हुई। इसलिए वह ब्राह्मण के वेश में परशुराम जी के पास गया और प्रार्थना की कि उसे शिष्य स्वीकार करने की कृपा करें। परशुराम जी ने उसे ब्राह्मण समझकर शिष्य बना लिया। इस प्रकार छल से कर्ण ने ब्रह्मास्त्र चलाना सीख लिया।",
"एक दिन परशुराम कर्ण की जाँघ पर सिर रखकर सो रहे थे। इतने में एक काला भौरा कर्ण की जाँघ के नीचे घुस गया और काटने लगा। कीड़े के काटने से कर्ण को बहुत पीड़ा हुई और जाँघ से लहू की धारा बहने लगी, पर कर्ण ने इस भय से कि कहीं गुरुदेव की नींद न खुल जाए, जाँघ को ज़रा भी हिलाया डुलाया नहीं। जब ख़ून से परशुराम की देह भीगने लगी, तो उनकी नींद खुली। उन्होंने देखा कि कर्ण की जाँघ से ख़ून बह रहा है। यह देखकर परशुराम बोले—“बेटा, सच बताओ तुम कौन हो? तब कर्ण असली बात न छिपा सका। उसने स्वीकार कर लिया कि वह ब्राह्मण नहीं, बल्कि सूत पुत्र है। यह जानकर परशुराम को बड़ा क्रोध आया। अतः उन्होंने उसी घड़ी कर्ण को शाप देते हुए कहा—“चूँकि तुमने अपने गुरु को ही धोखा दिया है, इसलिए जो विद्या तुमने मुझसे सीखी है, वह अंत समय में तुम्हारे किसी काम न आएगी। ऐन वक़्त पर तुम उसे भूल जाओगे और रणक्षेत्र में तुम्हारे रथ का पहिया पृथ्वी में धँस जाएगा।",
"परशुराम जी का यह शाप झूठा न हुआ। जीवनभर कर्ण को उनकी सिखाई हुई ब्रह्मास्त्र- विद्या याद रही, पर कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन से युद्ध करते समय कर्ण को वह याद न रही। दुर्योधन के घनिष्ठ मित्र कर्ण ने अंत समय तक कौरवों का साथ न छोड़ा। कुरुक्षेत्र के युद्ध में भीष्म तथा आचार्य द्रोण के बाद दुर्योधन ने कर्ण को कौरव-सेना का सेनापति बनाया था। कर्ण ने दो दिन तक अद्भुत कुशलता के साथ का संचालन किया। आख़िर जब शापवश उसके रथ का पहिया ज़मीन में धँस गया और वह धनुष-बाण रखकर ज़मीन में धँसा बाद हुआ पहिया निकालने का प्रयत्न करने लगा, तभी अर्जुन ने उस महारथी पर प्रहार किया। माता कुंती ने जब यह सुना, तो उसके दुख का पार न रहा।",
"panDvon ne pahle kripacharya se aur baad mein dronacharya se astra shastr ki shiksha pai. unko jab vidya mein kafi nipunta praapt ho gai, to ek bhari samaroh kiya gaya, jismen sabne apne kaushal ka pradarshan kiya. sare nagarvasi is samaroh ko dekhne aaye the. tarah tarah ke khel hue harek rajakumar yahi chahta tha ki vahi sabse baDhkar nikle. aapas mein pratispardha baDe zor ki thi, parantu teer chalane mein panDu putr arjun ka koi sani na tha. arjun ne dhanush vidya mein kamal ka khel dikhaya. uski adbhut chaturta ko dekhkar sabhi darshak aur rajvansh ke sabhi upasthit log dang rah ge. ye dekhkar duryodhan ka man iirshya se jalne laga. abhi khel ho hi raha tha ki itne mein rangbhumi ke dvaar par kham thonkte hue ek robila aur tejasvi yuvak mastani chaal se aakar arjun ke samne khaDa ho gaya. ye yuvak aur koi nahin, adhirath dvara poshit kunti putr karn hi tha, lekin uske kunti putr hone ki baat kisi ko malum na thi. rangbhumi mein aate hi usne arjun ko lalkara—“arjun! jo bhi kartab tumne yahan dikhaye hain, unse baDhkar kaushal mein dikha sakta hoon. kya tum iske liye taiyar ho ?",
"is chunauti ko sunkar darshak manDli mein baDi khalbali mach gai, par iirshya ki aag se jalnevale duryodhan ko baDi rahat mili. wo baDa prasann hua. usne tapak se karn ka svagat kiya aur use chhati se lagakar bola—“kaho karn, kaise aaye? batao, hum tumhare liye kya kar sakte hain?”",
"karn bola—“rajan! main arjun se dvandv yuddh aur aapse mitrata karna chahta hoon. ”",
"karn ki chunauti ko sunkar arjun ko baDa taish aaya. wo bola—“karn! sabha mein jo bina bulaye aate hain aur jo bina kisi ke puchhe bolne lagte hain, ve ninda ke yogya hote hain. ”",
"ye sunkar karn ne kaha—“arjun, ye utsav keval tumhare liye hi nahin manaya ja raha hai. sabhi prjajan ismen bhaag lene ka adhikar rakhte hain. vyarth Dingen marne se fayda kyaa? chalo, tiron se baat kar len!”",
"jab karn ne arjun ko yon chunauti di, to darshkon ne taliyan bajain. unke do dal ban ge. ek dal arjun ko baDhava dene laga aur dusra karn ko. isi prakar vahan ikatthi striyon ke bhi do dal ban ge. kunti ne karn ko dekhte hi pahchan liya aur bhay tatha lajja ke mare muchchhit si ho gai. uski ye haalat dekhkar vidur ne yogya ho ge?” dasiyon ko bulakar use chet karvaya.",
"isi beech kripacharya ne uthkar karn se kaha—“agyat veer! maharaj panDu ka putr aur kuruvansh ka veer arjun tumhare saath dvandv yuddh karne ke liye taiyar hai, kintu tum pahle apna",
"parichay to do! tum kaun ho, kiske putr ho, kis rajakul ko tum vibhushit karte ho? dvandv yuddh barabar valon mein hi hota hai. kul ka parichay pae bagair rajakumar kabhi dvandv karne ko taiyar nahin hote. kripacharya ki ye baat sunkar karn ka sir jhuk gaya.",
"karn ko is tarah dekhkar duryodhan uth khaDa hua aur bola agar barabari ki baat hai, to main aaj hi karn ko angdesh ka raja banata hoon! ye kahkar duryodhan ne turant pitamah bheeshm evan pita dhritarashtr se anumti lekar vahin rangbhumi mein hi rajyabhishek ki samagri mangvai aur karn ka rajyabhishek karke use angdesh ka raja ghoshit kar diya.",
"itne mein buDha sarthi adhirath, jisne karn ko pala tha, lathi tekta hua aur bhay ke mare kanpta hua sabha mein pravisht hua. karn, jo abhi abhi angdesh ka naresh bana diya gaya tha, usko dekhte hi dhanush niche rakhkar uth khaDa hua aur pita mankar baDe aadar ke saath uske aage sir navaya. buDhe ne bhi beta kahkar use gale laga liya. ye dekhkar bheem khoob kahakha markar hans paDa aur bola—“sarthi ke bete, dhanush chhoDkar haath mein chabuk lo, chabuk! vahi tumhein shobha dega. tum bhala kab se arjun ke saath dvandv yuddh karne ke ye sab dekhkar sabha mein khalbali mach gai. isi beech kripacharya ne uthkar karn se is samay suraj bhi Doob raha tha. is karan kaha—“agyat veer! maharaj panDu ka putr aur sabha visarjit ho gai. mashalon aur dipkon ki roshni mein darshak vrind apni apni pasand ke anusar arjun, karn aur duryodhan ki jay bolte jate the.",
"is ghatna ke bahut samay baad ek baar indr buDhe brahman ke vesh mein ang naresh karn ke paas aaye aur uske janmajat kavach aur kunDlon ki bhiksha mangi. indr ko Dar tha ki bhavi yuddh mein karn ki shakti se arjun par vipatti aa sakti hai. is karan karn ki takat kam karne ki ichchha se hi unhonne usse ye bhiksha mangi thi.",
"karn ko surydev ne pahle hi sachet kar diya tha ki use dhokha dene ke liye indr aisi chaal chalnevale hain, parantu karn itna dani tha ki kisi ke kuch mangne par wo mana kar hi nahin sakta tha. is karan ye jante hue bhi ki bhikhari ke vesh mein indr dhokha kar rahe hain, karn ne apne janmajat kavach aur kunDal nikalkar bhiksha mein de diye.",
"is adbhut danvirta ko dekhkar indr chakit rah ge. karn ki prshansa karte hue bole—“karn, tumse main bahut prasann hoon. tum jo bhi vardan chaho, mango.",
"karn ne devraj se kaha—“ap prasann hain, to shatruon ka sanhar karnevala apna shakti namak shastr mujhe pradan karen!",
"baDi prasannata ke saath apna wo shastr karn ko dete hue devraj ne kaha—“yuddh mein tum jis kisi ko lakshya karke iska prayog karoge, wo avashya mara jayega, parantu ek hi baar tum iska prayog kar sakoge. tumhare shatru ko marne ke baad ye mere paas vapas aa jayega. itna kahkar indr chale ge.",
"ek baar karn ko parshuram ji se brahmastr sikhne ki ichchha hui. isliye wo brahman ke vesh mein parshuram ji ke paas gaya aur pararthna ki ki use shishya svikar karne ki kripa karen. parshuram ji ne use brahman samajhkar shishya bana liya. is prakar chhal se karn ne brahmastr chalana seekh liya.",
"ek din parshuram karn ki jaangh par sir rakhkar so rahe the. itne mein ek kala bhaura karn ki jaangh ke niche ghus gaya aur katne laga. kiDe ke katne se karn ko bahut piDa hui aur jaangh se lahu ki dhara bahne lagi, par karn ne is bhay se ki kahin gurudev ki neend na khul jaye, jaangh ko jara bhi hilaya Dulaya nahin. jab khoon se parshuram ki deh bhigne lagi, to unki neend khuli. unhonne dekha ki karn ki jaangh se khoon bah raha hai. ye dekhkar parshuram bole—“beta, sach batao tum kaun ho? tab karn asli baat na chhipa saka. usne svikar kar liya ki wo brahman nahin, balki soot putr hai. ye jankar parshuram ko baDa krodh aaya. atः unhonne usi ghaDi karn ko shaap dete hue kaha—“chunki tumne apne guru ko hi dhokha diya hai, isliye jo vidya tumne mujhse sikhi hai, wo ant samay mein tumhare kisi kaam na ayegi. ain vaqt par tum use bhool jaoge aur ranakshetr mein tumhare rath ka pahiya prithvi mein dhans jayega.",
"parshuram ji ka ye shaap jhutha na hua. jivanbhar karn ko unki sikhai hui brahmastr vidya yaad rahi, par kurukshetr ke maidan mein arjun se yuddh karte samay karn ko wo yaad na rahi. duryodhan ke ghanishth mitr karn ne ant samay tak kaurvon ka saath na chhoDa. kurukshetr ke yuddh mein bheeshm tatha acharya dron ke baad duryodhan ne karn ko kaurav sena ka senapati banaya tha. karn ne do din tak adbhut kushalta ke saath ka sanchalan kiya. akhir jab shapvash uske rath ka pahiya zamin mein dhans gaya aur wo dhanush baan rakhkar zamin mein dhansa baad hua pahiya nikalne ka prayatn karne laga, tabhi arjun ne us maharathi par prahar kiya. mata kunti kushalta ke saath yuddh ka sanchalan kiya. akhir ne jab ye suna, to uske dukh ka paar na raha.",
"panDvon ne pahle kripacharya se aur baad mein dronacharya se astra shastr ki shiksha pai. unko jab vidya mein kafi nipunta praapt ho gai, to ek bhari samaroh kiya gaya, jismen sabne apne kaushal ka pradarshan kiya. sare nagarvasi is samaroh ko dekhne aaye the. tarah tarah ke khel hue harek rajakumar yahi chahta tha ki vahi sabse baDhkar nikle. aapas mein pratispardha baDe zor ki thi, parantu teer chalane mein panDu putr arjun ka koi sani na tha. arjun ne dhanush vidya mein kamal ka khel dikhaya. uski adbhut chaturta ko dekhkar sabhi darshak aur rajvansh ke sabhi upasthit log dang rah ge. ye dekhkar duryodhan ka man iirshya se jalne laga. abhi khel ho hi raha tha ki itne mein rangbhumi ke dvaar par kham thonkte hue ek robila aur tejasvi yuvak mastani chaal se aakar arjun ke samne khaDa ho gaya. ye yuvak aur koi nahin, adhirath dvara poshit kunti putr karn hi tha, lekin uske kunti putr hone ki baat kisi ko malum na thi. rangbhumi mein aate hi usne arjun ko lalkara—“arjun! jo bhi kartab tumne yahan dikhaye hain, unse baDhkar kaushal mein dikha sakta hoon. kya tum iske liye taiyar ho ?",
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बाल महाभारत : भूरिश्रवा, जयद्रथ और आचार्य द्रोण का अंत - कथा | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kathaen/class-7-ncert-7/baal-mahabharat-bhurishrva-jayadrath-aur-acharya-dron-ka-ant-chakraborty-rajagopalacharya-kathaen?sort= | [
"प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।",
"उधर अर्जुन सिंधुराज जयद्रथ के साथ युद्ध कर रहा था और उसका वध करने के मौक़े की तलाश में था। इतने में भूरिश्रवा ने सात्यकि को ऊपर उठाया और ज़मीन पर ज़ोर से दे पटका। कौरव-सेना ज़ोरों से कोलाहल कर उठी—“सात्यकि मारा गया।”",
"अर्जुन ने देखा कि मैदान में मृत-से पड़े सात्यकि को भूरिश्रवा घसीट रहा है। यह देखकर अर्जुन भारी असमंजस में पड़ गया। उसे कुछ नहीं सूझा कि क्या किया जाए। वह श्रीकृष्ण से बोला—“कृष्ण, भूरिश्रवा मुझसे लड़ नहीं रहा है। दूसरे के साथ लड़ने वाले पर कैसे बाण चलाऊँ?”",
"अर्जुन इस प्रकार श्रीकृष्ण से बातें कर ही रहा था कि इतने में जयद्रथ द्वारा छोड़े गए बाणों के समूह आकाश में छा गए। इस पर अर्जुन ने बातें करते-करते ही जयद्रथ पर बाणों की बौछार जारी रखी।",
"ज्योंही अर्जुन ने सात्यकि की ओर मुड़कर देखा तो पाया कि सात्यकि ज़मीन पर पड़ा हुआ था और भूरिश्रवा उसके शरीर को एक पाँव से दबाकर और दाहिने हाथ में तलवार लेकर उस पर वार करने को उद्यत ही था। यह देखकर अर्जुन से रहा न गया। उसने उसी क्षण भूरिश्रवा पर तानकर बाण चलाया। बाण लगते ही भूरिश्रवा का दाहिना हाथ कटकर तलवार समेत दूर ज़मीन पर जा गिरा।",
"अपना हाथ कट जाने पर जब भूरिश्रवा ने कृष्ण की निंदा की, तो अर्जुन बोला—“वृद्ध भूरिश्रवा ! तुमने मेरे प्रिय मित्र सात्यकि का वध करने की कोशिश की है और वह भी उस समय जबकि वह घायल और अचेत-सा होकर ज़मीन पर निःशस्त्र पड़ा हुआ था। उस अवस्था में तुमने उसे तलवार से मारना चाहा। जिसके हथियार टूट चुके थे, कवच नष्ट हो चुका था और जो इतना थका हुआ था कि जिसके लिए खड़ा रहना भी दूभर था, ऐसे मेरे कोमल बालक अभिमन्यु का वध होने पर तुम सभी लोगों ने विजयोत्सव मनाया था। तुम्हीं बताओ कि ऐसा करना किस धर्म के अनुसार उचित था?”",
"अर्जुन के इस प्रकार मुँहतोड़ जवाब देने पर भूरिश्रवा युद्ध के मैदान में शरों को फैलाकर और आसन जमाकर बैठ गया। उसने वहीं आमरण अनशन शुरू कर दिया। यह सब देखकर अर्जुन बोला—“वीरो! तुम सब मेरी प्रतिज्ञा जानते हो। मेरे बाणों की पहुँच तक अपने किसी भी मित्र या साथी का शत्रु के हाथों वध न होने देने का प्रण मैंने कर रखा है। इसलिए सात्यकि की रक्षा करना मेरा धर्म था।” अर्जुन की ये बातें सुनकर भूरिश्रवा ने भी शांति से सिर नवाया और ज़मीन पर टेक दिया। इन बातों में कोई दो घड़ी का समय बीत गया था। सब लोगों के मना करते हुए भी सात्यकि ने भूरिश्रवा का सिर धड़ से अलग कर दिया।",
"सात्यकि के कार्य को सबने निकृष्ट कहकर धिक्कारा लड़ाई के मैदान में जिस ढंग से भूरिश्रवा का वध हुआ था, उसे किसी ने भी उचित नहीं माना।",
"कौरव-सेना को तितर-बितर करता हुआ अर्जुन जयद्रथ के पास आख़िर पहुँच ही गया, परंतु जयद्रथ भी कोई साधारण वीर नहीं था। वह सुविख्यात योद्धा था। वह डटकर लड़ने लगा। उसे हराना अर्जुन के लिए भी सुगम न था। बड़ी देर तक युद्ध होता रहा। दोनों पक्षों के वीर सूर्य की ओर बार-बार देखने लगे। धीरे-धीरे पश्चिम में लालिमा छाने लगी और सूर्यास्त का समय भी नज़दीक आने लगा, परंतु जयद्रथ और अर्जुन का युद्ध समाप्त होने के कोई लक्षण नज़र नहीं आते थे।",
"यह देखकर दुर्योधन के मन में आनंद की लहर उठने लगी। उसने सोचा कि अब ज़रा सी देर और है। जयद्रथ तो बच ही गया और अर्जुन की प्रतिज्ञा विफल हुई-सी है। जयद्रथ ने भी पश्चिम की ओर देखते हुए मन में कहा—“चलो, प्राण बचे!”",
"इसी बीच श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा—“अर्जुन! जयद्रथ सूर्य की तरफ़ देखने में लगा है और मन में समझ रहा है कि सूर्य डूब गया। परंतु अभी तो सूर्य डूबा नहीं है। अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने का तुम्हारे लिए यही अवसर है।”",
"श्रीकृष्ण के ये वचन अर्जुन के कान में पड़े ही थे कि अर्जुन के गांडीव से एक तेज़ बाण छूटा और जयद्रथ के सिर को उड़ा ले गया। श्रीकृष्ण ने समय पर ही एक चेतावनी अर्जुन को दे दी थी कि जयद्रथ के सिर को ज़मीन पर नहीं गिरने देना है। अर्जुन ने ऐसा ही किया। जयद्रथ के पिता राजा वृद्धक्षत्र अपने आश्रम में बैठे संध्या वंदना कर रहे थे कि इतने में जयद्रथ का सिर ध्यानमग्न राजा की गोद में जा गिरा। ध्यान समाप्त होने पर जब वृद्धक्षत्र की आँखें खुलीं और वह उठे, तो जयद्रथ का सिर उनकी गोद से ज़मीन पर गिर पड़ा उसी क्षण बूढ़े वृद्धक्षत्र के सिर के भी सौ टुकड़े हो गए।",
"जब युधिष्ठिर ने जान लिया कि अर्जुन के हाथों जयद्रथ का वध हो गया है, तो उन सबके आनंद की सीमा न रही। इसके बाद तो युधिष्ठिर दूने उत्साह के साथ सारी पांडव सेना को लेकर आचार्य द्रोण पर टूट पड़े। चौदहवें दिन का युद्ध केवल सूर्यास्त तक ही नहीं हुआ, बल्कि रात को भी होता रहा। घटोत्कच भीमसेन का हिडिंबा से उत्पन्न पुत्र था। कर्ण और घटोत्कच में उस रात बड़ा भयानक युद्ध हुआ। घटोत्कच ने कर्ण को भी इतनी पीड़ा पहुँचाई थी कि वह आपे में न रहा और इंद्र की दी हुई शक्ति का, जिसे उसने अर्जुन का वध करने के उद्देश्य से यत्नपूर्वक सुरक्षित रखा था, घटोत्कच पर प्रयोग कर दिया। इससे अर्जुन का संकट तो टल गया, परंतु भीमसेन का प्रिय एवं वीर पुत्र घटोत्कच मारा गया। पांडवों के दुख की सीमा न रही। इतने पर भी युद्ध बंद नहीं हुआ। द्रोणाचार्य के धनुष से बाणों की तीव्र बौछार से पांडव सेना के असंख्य वीर कट-कटकर गिरते जाते थे।",
"यह देखकर श्रीकृष्ण अर्जुन से बोले—“अर्जुन! कुछ कुचक्र रचकर ही इनको परास्त करना होगा। आज अगर परास्त न हुए तो ये हमारा सर्वनाश कर देंगे। इसलिए किसी को आचार्य के पास जाकर यह ख़बर पहुँचानी चाहिए कि अश्वत्थामा मारा गया।” युधिष्ठिर ने काफ़ी सोच-विचार के बाद कहा कि यह पाप मैं अपने ही ऊपर लेता हूँ। इस व्यवस्था के अनुसार भीम ने गदा-प्रहार से अश्वत्थामा नाम के एक भारी लड़ाके हाथी को मार डाला। फिर द्रोण की सेना के पास जाकर ज़ोर से चिल्लाने लगा—“मैंने अश्वत्थामा को मारा डाला है।”",
"उधर युद्ध करते हुए द्रोणाचार्य ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करना ही चाहते थे कि उन्होंने सुना कि उनका पुत्र अश्वत्थामा मारा गया। वह विचलित हो गए। साथ ही उन्हें इस बात की सच्चाई पर भी शक हुआ। उन्होंने युधिष्ठिर से पूछा। आचार्य द्रोण को विश्वास था कि युधिष्ठिर झूठ नहीं बोलेंगे।",
"युधिष्ठिर असत्य बोलते हुए डरे, पर विजय प्राप्त करने की लालसा में किसी तरह जी कड़ा करके जोर से बोले—“हाँ, अश्वत्थामा मारा गया। परंतु यह कहते-कहते अंत में धीमे स्वर में यह भी कह दिया कि—“मनुष्य नहीं, हाथी।” इसके साथ ही भीम तथा अन्य पांडवों ने ज़ोरों का शंखनाद और सिंहनाद किया, जिससे युधिष्ठिर के अंतिम वचन उस शोर में लुप्त हो गए।",
"युधिष्ठिर के मुँह से यह सुनते ही चारों ओर हाहाकार मच गया और इसी हाहाकार के बीच धृष्टद्युम्न ने ध्यानमग्न आचार्य की गरदन पर खड्ग से ज़ोर का वार किया। आचार्य द्रोण का सिर तत्काल ही धड़ से अलग होकर गिर पड़ा।",
"udhar arjun sindhuraj jayadrath ke saath yuddh kar raha tha aur uska vadh karne ke mauqe ki talash mein tha. itne mein bhurishrva ne satyaki ko uupar uthaya aur zamin par zor se de patka. kaurav sena zoron se kolahal kar uthi—“satyaki mara gaya. ”",
"arjun ne dekha ki maidan mein mrit se paDe satyaki ko bhurishrva ghasit raha hai. ye dekhkar arjun bhari asmanjas mein paD gaya. use kuch nahin sujha ki kya kiya jaye. wo shrikrishn se bola—“krishn, bhurishrva mujhse laD nahin raha hai. dusre ke saath laDnevale par kaise baan chalaun?”",
"arjun is prakar shrikrishn se baten kar hi raha tha ki itne mein jayadrath dvara chhoDe ge banon ke samuh akash mein chha ge. is par arjun ne baten karte karte hi jayadrath par banon ki bauchhar jari rakhi.",
"jyonhi arjun ne satyaki ki or muDkar dekha to paya ki satyaki zamin par paDa hua tha aur bhurishrva uske sharir ko ek paanv se dabakar aur dahine haath mein talvar lekar us par vaar karne ko udyat hi tha. ye dekhkar arjun se raha na gaya. usne usi kshan bhurishrva par tankar baan chalaya. baan lagte hi bhurishrva ka dahina haath katkar talvar samet door zamin par ja gira.",
"apna haath kat jane par jab bhurishrva ne krishn ki ninda ki, to arjun bola—“vriddh bhurishrva ! tumne mere priy mitr satyaki ka vadh karne ki koshish ki hai aur wo bhi us samay jabki wo ghayal aur achet sa hokar zamin par niःshastr paDa hua tha. us avastha mein tumne use talvar se marana chaha. jiske hathiyar toot chuke the, kavach nasht ho chuka tha aur jo itna thaka hua tha ki jiske liye khaDa rahna bhi dubhar tha, aise mere komal balak abhimanyu ka vadh hone par tum sabhi logon ne vijyotsav manaya tha. tumhin batao ki aisa karna kis dharm ke anusar uchit tha?”",
"arjun ke is prakar munhatoD javab dene par bhurishrva yuddh ke maidan mein sharon ko phailakar aur aasan jamakar baith gaya. usne vahin amran anshan shuru kar diya. ye sab dekhkar arjun bola—“viro! tum sab meri prtigya jante ho. mere banon ki pahunch tak apne kisi bhi mitr ya sathi ka shatru ke hathon vadh na hone dene ka pran mainne kar rakha hai. isliye satyaki ki raksha karna mera dharm tha. ” arjun ki ye baten sunkar bhurishrva ne bhi shanti se sir navaya aur zamin par tek diya. in baton mein koi do ghaDi ka samay beet gaya tha. sab logon ke mana karte hue bhi satyaki ne bhurishrva ka sir dhaD se alag kar diya.",
"satyaki ke karya ko sabne nikrisht kahkar dhikkara laDai ke maidan mein jis Dhang se bhurishrva ka vadh hua tha, use kisi ne bhi uchit nahin mana.",
"kaurav sena ko titar bitar karta hua arjun jayadrath ke paas akhir pahunch hi gaya, parantu jayadrath bhi koi sadharan veer nahin tha. wo suvikhyat yoddha tha. wo Datkar laDne laga. use harana arjun ke liye bhi sugam na tha. baDi der tak yuddh hota raha. donon pakshon ke veer surya ki or baar baar dekhne lage. dhire dhire pashchim mein lalima chhane lagi aur suryast ka samay bhi nazdik aane laga, parantu jayadrath aur arjun ka yuddh samapt hone ke koi lakshan nazar nahin aate the.",
"ye dekhkar duryodhan ke man mein anand ki lahr uthne lagi. usne socha ki ab zara si der aur hai. jayadrath to bach hi gaya aur arjun ki prtigya viphal hui si hai. jayadrath ne bhi pashchim ki or dekhte hue man mein kaha—“chalo, praan bache!”",
"isi beech shrikrishn ne arjun se kaha—“arjun! jayadrath surya ki taraf dekhne mein laga hai aur man mein samajh raha hai ki surya Doob gaya. parantu abhi to surya Duba nahin hai. apni prtigya puri karne ka tumhare liye yahi avsar hai. ”",
"shrikrishn ke ye vachan arjun ke kaan mein paDe hi the ki arjun ke ganDiv se ek tez baan chhuta aur jayadrath ke sir ko uDa le gaya. shrikrishn ne samay par hi ek chetavni arjun ko de di thi ki jayadrath ke sir ko zamin par nahin girne dena hai. arjun ne aisa hi kiya. jayadrath ke pita raja vriddhakshatr apne ashram mein baithe sandhya vandna kar rahe the ki itne mein jayadrath ka sir dhyanamagn raja ki god mein ja gira. dhyaan samapt hone par jab vriddhakshatr ki ankhen khulin aur wo uthe, to jayadrath ka sir unki god se zamin par gir paDa usi kshan buDhe vriddhakshatr ke sir ke bhi sau tukDe ho ge.",
"jab yudhishthir ne jaan liya ki arjun ke hathon jayadrath ka vadh ho gaya hai, to un sabke anand ki sima na rahi. iske baad to yudhishthir dune utsaah ke saath sari panDav sena ko lekar acharya dron par toot paDe. chaudahven din ka yuddh keval suryast tak hi nahin hua, balki raat ko bhi hota raha. ghatotkach bhimasen ka hiDimba se utpann putr tha. karn aur ghatotkach mein us raat baDa bhayanak yuddh hua. ghatotkach ne karn ko bhi itni piDa pahunchai thi ki wo aape mein na raha aur indr ki di hui shakti ka, jise usne arjun ka vadh karne ke uddeshya se yatnpurvak surakshit rakha tha, ghatotkach par prayog kar diya. isse arjun ka sankat to tal gaya, parantu bhimasen ka priy evan veer putr ghatotkach mara gaya. panDvon ke dukh ki sima na rahi. itne par bhi yuddh band nahin hua. dronacharya ke dhanush se banon ki teevr bauchhar se panDav sena ke asankhya veer kat katkar girte jate the.",
"ye dekhkar shrikrishn arjun se bole—“arjun! kuch kuchakr rachkar hi inko parast karna hoga. aaj agar parast na hue to ye hamara sarvanash kar denge. isliye kisi ko acharya ke paas jakar ye khabar pahunchani chahiye ki ashvatthama mara gaya. ” yudhishthir ne kafi soch vichar ke baad kaha ki ye paap main apne hi uupar leta hoon. is vyavastha ke anusar bheem ne gada prahar se ashvatthama naam ke ek bhari laDake hathi ko maar Dala. phir dron ki sena ke paas jakar zor se chillane laga—“mainne ashvatthama ko mara Dala hai. ”",
"udhar yuddh karte hue dronacharya brahmastr ka prayog karna hi chahte the ki unhonne suna ki unka putr ashvatthama mara gaya. wo vichlit ho ge. saath hi unhen is baat ki sachchai par bhi shak hua. unhonne yudhishthir se puchha. acharya dron ko vishvas tha ki yudhishthir jhooth nahin bolenge.",
"yudhishthir asatya bolte hue Dare, par vijay praapt karne ki lalsa mein kisi tarah ji kaDa karke jor se bole—“han, ashvatthama mara gaya. parantu ye kahte kahte ant mein dhime svar mein ye bhi kah diya ki—“manushya nahin, hathi. ” iske saath hi bheem tatha anya panDvon ne zoron ka shankhnad aur sinhnad kiya, jisse yudhishthir ke antim vachan us shor mein lupt ho ge.",
"yudhishthir ke munh se ye sunte hi charon or hahakar mach gaya aur isi hahakar ke beech dhrishtadyumn ne dhyanamagn acharya ki gardan par khaDg se zor ka vaar kiya. acharya dron ka sir tatkal hi dhaD se alag hokar gir paDa.",
"udhar arjun sindhuraj jayadrath ke saath yuddh kar raha tha aur uska vadh karne ke mauqe ki talash mein tha. itne mein bhurishrva ne satyaki ko uupar uthaya aur zamin par zor se de patka. kaurav sena zoron se kolahal kar uthi—“satyaki mara gaya. ”",
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बाल महाभारत : भीम - कथा | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kathaen/class-7-ncert-7/baal-mahabharat-bheem-chakraborty-rajagopalacharya-kathaen?sort= | [
"प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।",
"पाँचों पांडव तथा धृतराष्ट्र के सौ पुत्र, जो कौरव कहलाते थे, हस्तिनापुर में साथ-साथ रहने लगे। खेलकूद, हँसी-मज़ाक सब में वे साथ ही रहते थे। शरीर-बल में पांडु का पुत्र भीम सबसे बढ़कर था। खेलों में वह दुर्योधन और उसके भाइयों को ख़ूब तंग किया करता। यद्यपि भीम मन में किसी से वैर नहीं रखता था और बचपन के जोश के कारण ही ऐसा करता था, फिर भी दुर्योधन तथा उसके भाइयों के मन में भीम के प्रति द्वेषभाव बढ़ने लगा। इधर सभी बालक उचित समय आने पर कृपाचार्य से अस्त्र-विद्या के साथ-साथ अन्य विद्याएँ भी सीखने लगे। विद्या सीखने में भी पांडव कौरवों से आगे ही रहते थे। इससे कौरव और खीझने लगे। दुर्योधन पांडवों को हर प्रकार से नीचा दिखाने का प्रयत्न करता रहता था। भीम से तो उसकी ज़रा भी नहीं पटती थी। एक बार सब कौरवों ने आपस में सलाह करके यह निश्चय किया कि भीम को गंगा में डुबोकर मार डाला जाए और उसके मरने पर युधिष्ठिर-अर्जुन आदि को क़ैद करके बंदी बना लिया जाए। दुर्योधन ने सोचा कि ऐसा करने से सारे राज्य पर उनका अधिकार हो जाएगा।",
"एक दिन दुर्योधन ने धूमधाम से जल-क्रीड़ा का प्रबंध किया और पाँचों पांडवों को उसके लिए न्यौता दिया। बड़ी देर तक खेलने और तैरने के बाद सबने भोजन किया और अपने-अपने डेरों में जाकर सो गए। दुर्योधन ने छल से भीम के भोजन में विष मिला दिया था। सब लोग ख़ूब खेले-तैरे थे, सो थक-थकाकर सो गए। भीम को विष के कारण गहरा नशा हो गया। वह डेरे पर भी न पहुँच पाया और नशे में चूर होकर गंगा किनारे रेत में ही गिर गया। उसी हालत में दुर्योधन ने लताओं से उसके हाथ-पैर बाँधकर उसे गंगा में बहा दिया। लताओं से जकड़ा हुआ भीम का शरीर गंगा की धारा में बहता हुआ दूर निकल गया।",
"इधर दुर्योधन मन-ही-मन यह सोचकर ख़ुश हो रहा था कि भीम का तो काम ही तमाम हो गया होगा। जब युधिष्ठिर आदि जागे और भीम को न पाया, तो चारों भाइयों ने मिलकर सारा जंगल तथा गंगा का वह किनारा, जहाँ जल-क्रीड़ा की थी, छान डाला। पर भीम का कहीं पता न चला। अंत में निराश होकर दुखी हृदय से वे अपने महल को लौट आए। इतने में ही क्या देखते हैं कि भीम झूमता-झामता चला आ रहा है। पांडवों और कुंती के आनंद का ठिकाना न रहा! युधिष्ठिर, कुंती आदि ने भीम को गले से लगा लिया। पर यह सब हाल देखकर कुंती को बड़ी चिंता हुई। उसने विदुर को बुला भेजा और अकेले में उनसे बोली—“दुष्ट दुर्योधन ज़रूर कोई-न-कोई चाल चल रहा है। राज्य के लोभ में वह भीम को मार डालना चाहता है। मुझे इसकी चिंता हो रही है।”",
"राजनीति-कुशल विदुर कुंती को समझाते हुए बोले—“तुम्हारा कहना सही है, परंतु कुशल इसी में है कि इस बात को अपने तक ही रखो। प्रकट रूप से दुर्योधन की निंदा कदापि न करना, नहीं तो इससे उसका द्वेष और बढ़ेगा।”",
"इस घटना से भीम बहुत उत्तेजित हो गया था। उसे समझाते हुए युधिष्ठिर ने कहा—“भाई भीम, अभी समय नहीं आया है। तुम्हें अपने आपको सँभालना होगा। इस समय तो हम पाँचों भाइयों को यही करना है कि किसी प्रकार एक-दूसरे की रक्षा करते हुए बचे रहें।”",
"भीम के वापस आ जाने पर दुर्योधन को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसका हृदय और जलने लगा।",
"panchon panDav tatha dhritarashtr ke sau putr, jo kaurav kahlate the, hastinapur mein saath saath rahne lage. khelakud, hansi mazak sab mein ve saath hi rahte the. sharir bal mein panDu ka putr bheem sabse baDhkar tha. khelon mein wo duryodhan aur uske bhaiyon ko khoob tang kiya karta. yadyapi bheem man mein kisi se vair nahin rakhta tha aur bachpan ke josh ke karan hi aisa karta tha, phir bhi duryodhan tatha uske bhaiyon ke man mein bheem ke prati dveshbhav baDhne laga. idhar sabhi balak uchit samay aane par kripacharya se astra vidya ke saath saath anya vidyayen bhi sikhne lage. vidya sikhne mein bhi panDav kaurvon se aage hi rahte the. isse kaurav aur khijhne lage. duryodhan panDvon ko har prakar se nicha dikhane ka prayatn karta rahta tha. bheem se to uski zara bhi nahin patti thi. ek baar sab kaurvon ne aapas mein salah karke ye nishchay kiya ki bheem ko ganga mein Dubokar maar Dala jaye aur uske marne par yudhishthir arjun aadi ko qaid karke bandi bana liya jaye. duryodhan ne socha ki aisa karne se sare rajya par unka adhikar ho jayega.",
"ek din duryodhan ne dhumdham se jal kriDa ka prbandh kiya aur panchon panDvon ko uske liye nyauta diya. baDi der tak khelne aur tairne ke baad sabne bhojan kiya aur apne apne Deron mein jakar so ge. duryodhan ne chhal se bheem ke bhojan mein vish mila diya tha. sab log khoob khele taire the, so thak thakakar so ge. bheem ko vish ke karan gahra nasha ho gaya. wo Dere par bhi na pahunch paya aur nashe mein choor hokar ganga kinare ret mein hi gir gaya. usi haalat mein duryodhan ne lataon se uske haath pair bandhakar use ganga mein baha diya. lataon se jakDa hua bheem ka sharir ganga ki dhara mein bahta hua door nikal gaya.",
"idhar duryodhan man hi man ye sochkar khush ho raha tha ki bheem ka to kaam hi tamam ho gaya hoga. jab yudhishthir aadi jage aur bheem ko na paya, to charon bhaiyon ne milkar sara jangal tatha ganga ka wo kinara, jahan jal kriDa ki thi, chhaan Dala. par bheem ka kahin pata na chala. ant mein nirash hokar dukhi hriday se ve apne mahl ko laut aaye. itne mein hi kya dekhte hain ki bheem jhumta jhamta chala aa raha hai. panDvon aur kunti ke anand ka thikana na raha! yudhishthir, kunti aadi ne bheem ko gale se laga liya. par ye sab haal dekhkar kunti ko baDi chinta hui. usne vidur ko bula bheja aur akele mein unse boli—“dusht duryodhan zarur koi na koi chaal chal raha hai. rajya ke lobh mein wo bheem ko maar Dalna chahta hai. mujhe iski chinta ho rahi hai. ”",
"rajaniti kushal vidur kunti ko samjhate hue bole—“tumhara kahna sahi hai, parantu kushal isi mein hai ki is baat ko apne tak hi rakho. prakat roop se duryodhan ki ninda kadapi na karna, nahin to isse uska dvesh aur baDhega. ”",
"is ghatna se bheem bahut uttejit ho gaya tha. use samjhate hue yudhishthir ne kaha—“bhai bheem, abhi samay nahin aaya hai. tumhein apne aapko sanbhalana hoga. is samay to hum panchon bhaiyon ko yahi karna hai ki kisi prakar ek dusre ki raksha karte hue bache rahen. ”",
"bheem ke vapas aa jane par duryodhan ko baDa ashcharya hua. uska hriday aur jalne laga.",
"panchon panDav tatha dhritarashtr ke sau putr, jo kaurav kahlate the, hastinapur mein saath saath rahne lage. khelakud, hansi mazak sab mein ve saath hi rahte the. sharir bal mein panDu ka putr bheem sabse baDhkar tha. khelon mein wo duryodhan aur uske bhaiyon ko khoob tang kiya karta. yadyapi bheem man mein kisi se vair nahin rakhta tha aur bachpan ke josh ke karan hi aisa karta tha, phir bhi duryodhan tatha uske bhaiyon ke man mein bheem ke prati dveshbhav baDhne laga. idhar sabhi balak uchit samay aane par kripacharya se astra vidya ke saath saath anya vidyayen bhi sikhne lage. vidya sikhne mein bhi panDav kaurvon se aage hi rahte the. isse kaurav aur khijhne lage. duryodhan panDvon ko har prakar se nicha dikhane ka prayatn karta rahta tha. bheem se to uski zara bhi nahin patti thi. ek baar sab kaurvon ne aapas mein salah karke ye nishchay kiya ki bheem ko ganga mein Dubokar maar Dala jaye aur uske marne par yudhishthir arjun aadi ko qaid karke bandi bana liya jaye. duryodhan ne socha ki aisa karne se sare rajya par unka adhikar ho jayega.",
"ek din duryodhan ne dhumdham se jal kriDa ka prbandh kiya aur panchon panDvon ko uske liye nyauta diya. baDi der tak khelne aur tairne ke baad sabne bhojan kiya aur apne apne Deron mein jakar so ge. duryodhan ne chhal se bheem ke bhojan mein vish mila diya tha. sab log khoob khele taire the, so thak thakakar so ge. bheem ko vish ke karan gahra nasha ho gaya. wo Dere par bhi na pahunch paya aur nashe mein choor hokar ganga kinare ret mein hi gir gaya. usi haalat mein duryodhan ne lataon se uske haath pair bandhakar use ganga mein baha diya. lataon se jakDa hua bheem ka sharir ganga ki dhara mein bahta hua door nikal gaya.",
"idhar duryodhan man hi man ye sochkar khush ho raha tha ki bheem ka to kaam hi tamam ho gaya hoga. jab yudhishthir aadi jage aur bheem ko na paya, to charon bhaiyon ne milkar sara jangal tatha ganga ka wo kinara, jahan jal kriDa ki thi, chhaan Dala. par bheem ka kahin pata na chala. ant mein nirash hokar dukhi hriday se ve apne mahl ko laut aaye. itne mein hi kya dekhte hain ki bheem jhumta jhamta chala aa raha hai. panDvon aur kunti ke anand ka thikana na raha! yudhishthir, kunti aadi ne bheem ko gale se laga liya. par ye sab haal dekhkar kunti ko baDi chinta hui. usne vidur ko bula bheja aur akele mein unse boli—“dusht duryodhan zarur koi na koi chaal chal raha hai. rajya ke lobh mein wo bheem ko maar Dalna chahta hai. mujhe iski chinta ho rahi hai. ”",
"rajaniti kushal vidur kunti ko samjhate hue bole—“tumhara kahna sahi hai, parantu kushal isi mein hai ki is baat ko apne tak hi rakho. prakat roop se duryodhan ki ninda kadapi na karna, nahin to isse uska dvesh aur baDhega. ”",
"is ghatna se bheem bahut uttejit ho gaya tha. use samjhate hue yudhishthir ne kaha—“bhai bheem, abhi samay nahin aaya hai. tumhein apne aapko sanbhalana hoga. is samay to hum panchon bhaiyon ko yahi karna hai ki kisi prakar ek dusre ki raksha karte hue bache rahen. ”",
"bheem ke vapas aa jane par duryodhan ko baDa ashcharya hua. uska hriday aur jalne laga.",
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बाल महाभारत : पांडवों और कौरवों के सेनापति - कथा | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kathaen/class-7-ncert-7/baal-mahabharat-pandvon-aur-kaurvon-ke-senapati-chakraborty-rajagopalacharya-kathaen?sort= | [
"प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।",
"श्रीकृष्ण उपप्लव्य लौट आए और हस्तिनापुर की चर्चा का हाल पांडवों को सुनाया। युधिष्ठिर अपने भाइयों से बोले—“भैया! अब सेना सुसज्जित करो और व्यूह रचना सुचारु रूप से कर लो।”",
"पांडवों की विशाल सेना को सात हिस्सों में बाँट दिया गया। द्रुपद, विराट, धृष्टद्युम्न, शिखंडी, सात्यकि, चेकितान, भीमसेन आदि सात महारथी इन सात दलों के नायक बने। अब प्रश्न उठा कि सेनापति किसे बनाया जाए? सबकी राय ली गई। अंत में युधिष्ठिर ने कहा—“सबने जिन-जिन वीरों के नाम लिए हैं, वे सभी सेनापति बनने के योग्य हैं। किंतु अर्जुन की राय मुझे हर दृष्टि से ठीक प्रतीत होती है। मैं उसी का समर्थन करता हूँ। धृष्टद्युम्न को ही सारी सेना का नायक बनाया जाए।”",
"वीर कुमार धृष्टद्युम्न को पांडवों की सेना का नायक बनाया गया और उसका विधिवत् अभिषेक किया गया। अपने कोलाहल से दिशाओं को गुँजाती हुई पांडवों की सेना मैदान में आ पहुँची।",
"उधर कौरवों की सेना के नायक थे भीष्म पितामह। भीष्म ने कहा—“युद्ध का संचालन करके अपना ऋण अवश्य चुका दूँगा। लड़ाई की घोषणा करते समय मेरी सम्मति किसी ने नहीं ली थी। इसी कारण मैंने निश्चय कर लिया था कि जान-बूझकर स्वयं आगे होकर पांडु पुत्रों का वध मैं नहीं करूँगा। कर्ण, तुम लोगों का बहुत ही प्यारा है। शुरू से ही वह मेरा तथा मेरी सम्मतियों का विरोध करता आया है। अतः अच्छा हो कि अगर वह सेनापति बन जाए। इसमें मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी।”",
"कर्ण का उद्दंड व्यवहार भीष्म को सदा से ही बहुत खटकता रहता था। कर्ण ने भी हठ कर लिया था कि जब तक भीष्म जीवित रहेंगे, तब तक वह युद्ध भूमि में प्रवेश नहीं करेगा। भीष्म के मारे जाने के बाद ही वह लड़ाई में भाग लेगा और केवल अर्जुन को ही मारेगा। दुर्योधन ने सब सोच-समझकर पितामह भीष्म की शर्त मान ली और उन्हीं को सेनापति नियुक्त किया। फलतः कर्ण तब तक के लिए युद्ध से विरत रहा।",
"पितामह के नायकत्व में कौरव-सेना समुद्र की भाँति लहरें मारती हुई कुरुक्षेत्र की ओर प्रवाहित हुई।",
"इधर युद्ध की तैयारियाँ हो रही थीं और उधर एक रोज़ बलराम पांडवों की छावनी में एकाएक जा पहुँचे। बलराम जी ने अपने बड़े-बूढ़े विराटराज और द्रुपदराज को विधिवत् प्रणाम किया और धर्मराज के पास बैठ गए। वह बोले—“कितनी ही बार मैंने कृष्ण को कहा था कि हमारे लिए तो पांडव और कौरव दोनों ही एक समान हैं। इसमें हमें बीच में पड़ने की आवश्यकता नहीं है, पर कृष्ण ने मेरी बात नहीं मानी। अर्जुन के प्रति उसका इतना स्नेह है कि उसने तुम्हारे पक्ष में रहकर युद्ध करना भी स्वीकार कर लिया। जिस तरफ़ कृष्ण हो, उसके विपक्ष में मैं भला कैसे जाऊँ? भीम और दुर्योधन दोनों ने ही मुझसे गदा-युद्ध सीखा है। दोनों ही मेरे शिष्य हैं। दोनों पर मेरा एक जैसा प्यार है। इन दोनों कुरुवंशियों को यों आपस में लड़ते-मरते देखना मुझसे सहन नहीं होता है। लड़ो तुम लोग, परंतु यह सब देखने के लिए मैं यहाँ नहीं रह सकता हूँ। मुझे अब संसार से विराग हो गया है। अतः मैं जा रहा हूँ।”",
"युद्ध के समय सारे भारतवर्ष में दो ही राजा युद्ध में सम्मिलित नहीं हुए और तटस्थ रहे—एक बलराम और दूसरे भोजकट के राजा रुक्मी। रुक्मी की छोटी बहन रुक्मिणी श्रीकृष्ण की पत्नी थी।",
"कुरुक्षेत्र में होने वाले युद्ध के समाचार सुनकर रुक्मी एक अक्षौहिणी सेना लेकर युद्ध में सम्मिलित होने को गया। उसने सोचा कि यह अवसर वासुदेव की मित्रता प्राप्त कर लेने के लिए ठीक होगा। इसलिए वह पांडवों के पास पहुँचा और अर्जुन से बोला—“पांडु-पुत्र! आपकी सेना से शत्रु-सेना कुछ अधिक मालूम होती है। इसी कारण मैं आपकी सहायता करने आया हूँ।”",
"यह सुनकर अर्जुन हँसते हुए रुक्मी से बोला—“राजन्! आप बिना शर्त के सहायता करना चाहते हैं, तो आपका स्वागत है। नहीं तो आपकी जैसी इच्छा।”",
"यह सुनकर रुक्मी बड़ा क्रुद्ध हुआ और अपनी सेना लेकर दुर्योधन के पास चला गया। रुक्मी ने दुर्योधन से कहा—“पांडव मेरी मदद नहीं चाहते हैं। इस कारण मैं आपकी सहायता हेतु आया हूँ।”",
"पांडवों ने जिसकी सहायता स्वीकार नहीं की, हमें उसकी सहायता स्वीकार करने की ज़रूरत नहीं है।” यह कहकर दुर्योधन ने भी रुक्मी की सहायता ठुकरा दी। बेचारा रुक्मी दोनों तरफ़ से अपमानित होकर भोजकट वापस लौट गया। रुक्मी कर्तव्य से प्रेरित होकर नहीं, बल्कि अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने के उद्देश्य से कुरुक्षेत्र गया और अपमानित हुआ।",
"कुरुक्षेत्र के मैदान में दोनों तरफ़ की सेनाएँ लड़ने को तैयार खड़ी थीं। उन दिनों की रीति के अनुसार दोनों पक्ष के वीरों ने युद्ध-नीति पर चलने की प्रतिज्ञाएँ लीं।",
"कौरवों की सेना की व्यूह रचना देखकर युधिष्ठिर ने अर्जुन को आज्ञा दी—“एक जगह सब वीरों को इकट्ठे रहकर लड़ना होगा। अतः सेना को सूची-मुख (सूई की नोंक के समान) व्यूह में सज्जित करो।”",
"इस प्रकार दोनों पक्षों की सेनाओं की व्यूह-रचना हो गई। अर्जुन ने युद्ध के लिए तैयार हुए वीरों को देखा, तो उसके मन में शंका हुई कि हम यह क्या करने जा रहे हैं। उसने अपनी यह शंका श्रीकृष्ण पर प्रकट की। तब अर्जुन के इस भ्रम को दूर करने के लिए श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र में जिस कर्मयोग का उपदेश दिया, वह तो विश्वविख्यात है।",
"सब लोग इसी की राह देख रहे थे कि कब युद्ध शुरू हो, पर एकाएक पांडव-सेना के बीच में हलचल मच गई। देखते क्या हैं कि युधिष्ठिर ने अचानक अपना कवच और धनुष-बाण उतारकर रथ पर रख दिया है और रथ से उतरकर हाथ जोड़े कौरव सेना की हथियारबंद पंक्तियों को चीरते हुए भीष्म की ओर पैदल जा रहे हैं। बिना सूचना दिए उनको इस प्रकार जाते देखकर दोनों ही पक्षवाले अचंभे में पड़ गए।",
"अर्जुन तुरंत रथ से कूद पड़ा और युधिष्ठिर के पीछे कौरव-सेना में घुस गया। दूसरे, पांडव और श्रीकृष्ण भी उनके साथ ही हो लिए।",
"इतने में श्रीकृष्ण बोले—“अर्जुन, मैं समझ गया हूँ कि महाराज युधिष्ठिर की इच्छा क्या है। बिना बड़ों की आज्ञा लिए युद्ध करना अनुचित माना जाता है। धर्मराज का उद्देश्य अच्छा ही है।”",
"शत्रु-सेना के हथियारबंद वीरों की क़तार को चीरते हुए युधिष्ठिर सीधे पितामह भीष्म के पास पहुँचे और झुककर उनके चरण छुए। फिर बोले—“पितामह! हमने आपके साथ लड़ने का दुःसाहस कर ही लिया। कृपया हमें युद्ध की अनुमति दीजिए और आशीर्वाद भी कि हम युद्ध में विजय प्राप्त करें।”",
"भीष्म बोले—“बेटा युधिष्ठिर, मुझे तुमसे यही आशा थी। मैं स्वतंत्र नहीं हूँ। विवश होकर मुझे तुम्हारे विपक्ष में रहना पड़ रहा है। फिर भी मेरी यही कामना है कि रण में विजय तुम्हारी हो।”",
"भीष्म की आज्ञा और आशीर्वाद प्राप्त कर लेने के बाद युधिष्ठिर आचार्य द्रोण के पास गए और परिक्रमा करके उनको दंडवत् किया। आचार्य ने आशीर्वाद देते हुए कहा—“मैं भी कौरवों के अधीन हूँ। उनका साथ देने को विवश हूँ। फिर भी मेरी यही कामना है कि जीत तुम्हारी ही हो।” आचार्य द्रोण से आशीष लेकर धर्मराज ने आचार्य कृप एवं मद्रराज शल्य के पास जाकर उनके भी आशीर्वाद प्राप्त किए और सेना में लौट आए।",
"युद्ध शुरू हुआ, तो पहले बड़े योद्धाओं में द्वंद्व होने लगा। बराबर की ताक़त वाले एक ही जैसे हथियार लेकर दो-दो की जोड़ी में लड़ने लगे। अर्जुन के साथ भीष्म, सात्यकि के साथ कृतवर्मा और अभिमन्यु बृहत्पाल के साथ भिड़ गए। भीमसेन दुर्योधन से जा भिड़ा। युधिष्ठिर शल्य के साथ लड़ने लगे। धृष्टद्युम्न ने आचार्य द्रोण पर सारी शक्ति लगाकर हमला बोल दिया और इसी प्रकार प्रत्येक वीर युद्ध-धर्म का पालन करता हुआ द्वंद्व करने लगा।",
"भीष्म के नेतृत्व में कौरव-वीरों ने दस दिन तक युद्ध किया। दस दिन के बाद भीष्म आहत हुए और द्रोणाचार्य सेनापति नियुक्त किए गए। द्रोणाचार्य भी जब खेत रहे, तो कर्ण को सेनापतित्व ग्रहण करना पड़ा। सत्रहवें दिन की लड़ाई में कर्ण का भी स्वर्गवास हो गया। इसके बाद शल्य ने कौरवों का सेनापति बनकर सेना का संचालन किया। इस प्रकार महाभारत का युद्ध कुल अट्ठारह दिन चला।",
"shrikrishn upaplavya laut aaye aur hastinapur ki charcha ka haal panDvon ko sunaya. yudhishthir apne bhaiyon se bole—“bhaiya! ab sena susajjit karo aur vyooh rachna sucharu roop se kar lo. ”",
"panDvon ki vishal sena ko saat hisson mein baant diya gaya. drupad, virat, dhrishtadyumn, shikhanDi, satyaki, chekitan, bhimasen aadi saat maharathi in saat dalon ke nayak bane. ab parashn utha ki senapati kise banaya jaye? sabki raay li gai. ant mein yudhishthir ne kaha—“sabne jin jin viron ke naam liye hain, ve sabhi senapati banne ke yogya hain. kintu arjun ki raay mujhe har drishti se theek pratit hoti hai. main usi ka samarthan karta hoon. dhrishtadyumn ko hi sari sena ka nayak banaya jaye. ”",
"veer kumar dhrishtadyumn ko panDvon ki sena ka nayak banaya gaya aur uska vidhivat abhishek kiya gaya. apne kolahal se dishaon ko gunjati hui panDvon ki sena maidan mein aa pahunchi.",
"udhar kaurvon ki sena ke nayak the bheeshm pitamah. bheeshm ne kaha—“yuddh ka sanchalan karke apna rin avashya chuka dunga. laDai ki ghoshna karte samay meri sammati kisi ne nahin li thi. isi karan mainne nishchay kar liya tha ki jaan bujhkar svayan aage hokar panDu putron ka vadh main nahin karunga. karn, tum logon ka bahut hi pyara hai. shuru se hi wo mera tatha meri sammatiyon ka virodh karta aaya hai. atः achchha ho ki agar wo senapati ban jaye. ismen mujhe koi apatti nahin hogi. ”",
"karn ka uddanD vyvahar bheeshm ko sada se hi bahut khatakta rahta tha. karn ne bhi hath kar liya tha ki jab tak bheeshm jivit rahenge, tab tak wo yuddh bhumi mein pravesh nahin karega. bheeshm ke mare jane ke baad hi wo laDai mein bhaag lega aur keval arjun ko hi marega. duryodhan ne sab soch samajhkar pitamah bheeshm ki shart maan li aur unhin ko senapati niyukt kiya. phalatः karn tab tak ke liye yuddh se virat raha.",
"pitamah ke nayakatv mein kaurav sena samudr ki bhanti lahren marti hui kurukshetr ki or prvahit hui.",
"idhar yuddh ki taiyariyan ho rahi theen aur udhar ek roz balram panDvon ki chhavani mein ekayek ja pahunche. balram ji ne apne baDe buDhe viratraj aur drupadraj ko vidhivat prnaam kiya aur dharmaraj ke paas baith ge. wo bole—“kitni hi baar mainne krishn ko kaha tha ki hamare liye to panDav aur kaurav donon hi ek saman hain. ismen hamein beech mein paDne ki avashyakta nahin hai, par krishn ne meri baat nahin mani. arjun ke prati uska itna sneh hai ki usne tumhare paksh mein rahkar yuddh karna bhi svikar kar liya. jis taraf krishn ho, uske vipaksh mein main bhala kaise jaun? bheem aur duryodhan donon ne hi mujhse gada yuddh sikha hai. donon hi mere shishya hain. donon par mera ek jaisa pyaar hai. in donon kuruvanshiyon ko yon aapas mein laDte marte dekhana mujhse sahn nahin hota hai. laDo tum log, parantu ye sab dekhne ke liye main yahan nahin rah sakta hoon. mujhe ab sansar se virag ho gaya hai. atः main ja raha hoon. ”",
"yuddh ke samay sare bharatvarsh mein do hi raja yuddh mein sammilit nahin hue aur tatasth rahe—ek balram aur dusre bhojakat ke raja rukmi. rukmi ki chhoti bahan rukmini shrikrishn ki patni thi.",
"kurukshetr mein honevale yuddh ke samachar sunkar rukmi ek akshauhini sena lekar yuddh mein sammilit hone ko gaya. usne socha ki ye avsar vasudev ki mitrata praapt kar lene ke liye theek hoga. isliye wo panDvon ke paas pahuncha aur arjun se bola—“panDu putr! apaki sena se shatru sena kuch adhik malum hoti hai. isi karan main apaki sahayata karne aaya hoon. ”",
"ye sunkar arjun hanste hue rukmi se bola—“rajan! aap bina shart ke sahayata karna chahte hain, to aapka svagat hai. nahin to apaki jaisi ichchha. ”",
"ye sunkar rukmi baDa kruddh hua aur apni sena lekar duryodhan ke paas chala gaya. rukmi ne duryodhan se kaha—“panDav meri madad nahin chahte hain. is karan main apaki sahayata hetu aaya hoon. ”",
"panDvon ne jiski sahayata svikar nahin ki, hamein uski sahayata svikar karne ki zarurat nahin hai. ” ye kahkar duryodhan ne bhi rukmi ki sahayata thukra di. bechara rukmi donon taraf se apmanit hokar bhojakat vapas laut gaya. rukmi kartavya se prerit hokar nahin, balki apni pratishtha baDhane ke uddeshya se kurukshetr gaya aur apmanit hua.",
"kurukshetr ke maidan mein donon taraf ki senayen laDne ko taiyar khaDi theen. un dinon ki riti ke anusar donon paksh ke viron ne yuddh niti par chalne ki prtigyayen leen.",
"kaurvon ki sena ki vyooh rachna dekhkar yudhishthir ne arjun ko aagya di—“ek jagah sab viron ko ikatthe rahkar laDna hoga. atः sena ko suchi mukh (sui ki nonk ke saman) vyooh mein sajjit karo. ”",
"is prakar donon pakshon ki senaon ki vyooh rachna ho gai. arjun ne yuddh ke liye taiyar hue viron ko dekha, to uske man mein shanka hui ki hum ye kya karne ja rahe hain. usne apni ye shanka shrikrishn par prakat ki. tab arjun ke is bhram ko door karne ke liye shrikrishn ne kurukshetr mein jis karmayog ka updesh diya, wo to vishvvikhyat hai.",
"sab log isi ki raah dekh rahe the ki kab yuddh shuru ho, par ekayek panDav sena ke beech mein halchal mach gai. dekhte kya hain ki yudhishthir ne achanak apna kavach aur dhanush baan utarkar rath par rakh diya hai aur rath se utarkar haath joDe kaurav sena ki hathiyarband panktiyon ko chirte hue bheeshm ki or paidal ja rahe hain. bina suchana diye unko is prakar jate dekhkar donon hi pakshvale achambhe mein paD ge.",
"arjun turant rath se kood paDa aur yudhishthir ke pichhe kaurav sena mein ghus gaya. dusre, panDav aur shrikrishn bhi unke saath hi ho liye.",
"itne mein shrikrishn bole—“arjun, main samajh gaya hoon ki maharaj yudhishthir ki ichchha kya hai. bina baDon ki aagya liye yuddh karna anuchit mana jata hai. dharmaraj ka uddeshya achchha hi hai. ”",
"shatru sena ke hathiyarband viron ki katar ko chirte hue yudhishthir sidhe pitamah bheeshm ke paas pahunche aur jhukkar unke charan chhue. phir bole—“pitamah! hamne aapke saath laDne ka duःsahas kar hi liya. kripaya hamein yuddh ki anumti dijiye aur ashirvad bhi ki hum yuddh mein vijay praapt karen. ”",
"bheeshm bole—“beta yudhishthir, mujhe tumse yahi aasha thi. main svtantr nahin hoon. vivash hokar mujhe tumhare vipaksh mein rahna paD raha hai. phir bhi meri yahi kamna hai ki ran mein vijay tumhari ho. ”",
"bheeshm ki aagya aur ashirvad praapt kar lene ke baad yudhishthir acharya dron ke paas ge aur parikrama karke unko danDvat kiya. acharya ne ashirvad dete hue kaha—“main bhi kaurvon ke adhin hoon. unka saath dene ko vivash hoon. phir bhi meri yahi kamna hai ki jeet tumhari hi ho. ” acharya dron se ashish lekar dharmaraj ne acharya krip evan madrraj shalya ke paas jakar unke bhi ashirvad praapt kiye aur sena mein laut aaye.",
"yuddh shuru hua, to pahle baDe yoddhaon mein dvandv hone laga. barabar ki takatvale ek hi jaise hathiyar lekar do do ki joDi mein laDne lage. arjun ke saath bheeshm, satyaki ke saath kritvarma aur abhimanyu brihatpal ke saath bhiD ge. bhimasen duryodhan se ja bhiDa. yudhishthir shalya ke saath laDne lage. dhrishtadyumn ne acharya dron par sari shakti lagakar hamla bol diya aur isi prakar pratyek veer yuddh dharm ka palan karta hua dvandv karne laga.",
"bheeshm ke netritv mein kaurav viron ne das din tak yuddh kiya. das din ke baad bheeshm aahat hue aur dronacharya senapati niyukt kiye ge. dronacharya bhi jab khet rahe, to karn ko senaptitv grhan karna paDa. satrahven din ki laDai mein karn ka bhi svargavas ho gaya. iske baad shalya ne kaurvon ka senapati bankar sena ka sanchalan kiya. is prakar mahabharat ka yuddh kul attharah din chala.",
"shrikrishn upaplavya laut aaye aur hastinapur ki charcha ka haal panDvon ko sunaya. yudhishthir apne bhaiyon se bole—“bhaiya! ab sena susajjit karo aur vyooh rachna sucharu roop se kar lo. ”",
"panDvon ki vishal sena ko saat hisson mein baant diya gaya. drupad, virat, dhrishtadyumn, shikhanDi, satyaki, chekitan, bhimasen aadi saat maharathi in saat dalon ke nayak bane. ab parashn utha ki senapati kise banaya jaye? sabki raay li gai. ant mein yudhishthir ne kaha—“sabne jin jin viron ke naam liye hain, ve sabhi senapati banne ke yogya hain. kintu arjun ki raay mujhe har drishti se theek pratit hoti hai. main usi ka samarthan karta hoon. dhrishtadyumn ko hi sari sena ka nayak banaya jaye. ”",
"veer kumar dhrishtadyumn ko panDvon ki sena ka nayak banaya gaya aur uska vidhivat abhishek kiya gaya. apne kolahal se dishaon ko gunjati hui panDvon ki sena maidan mein aa pahunchi.",
"udhar kaurvon ki sena ke nayak the bheeshm pitamah. bheeshm ne kaha—“yuddh ka sanchalan karke apna rin avashya chuka dunga. laDai ki ghoshna karte samay meri sammati kisi ne nahin li thi. isi karan mainne nishchay kar liya tha ki jaan bujhkar svayan aage hokar panDu putron ka vadh main nahin karunga. karn, tum logon ka bahut hi pyara hai. shuru se hi wo mera tatha meri sammatiyon ka virodh karta aaya hai. atः achchha ho ki agar wo senapati ban jaye. ismen mujhe koi apatti nahin hogi. ”",
"karn ka uddanD vyvahar bheeshm ko sada se hi bahut khatakta rahta tha. karn ne bhi hath kar liya tha ki jab tak bheeshm jivit rahenge, tab tak wo yuddh bhumi mein pravesh nahin karega. bheeshm ke mare jane ke baad hi wo laDai mein bhaag lega aur keval arjun ko hi marega. duryodhan ne sab soch samajhkar pitamah bheeshm ki shart maan li aur unhin ko senapati niyukt kiya. phalatः karn tab tak ke liye yuddh se virat raha.",
"pitamah ke nayakatv mein kaurav sena samudr ki bhanti lahren marti hui kurukshetr ki or prvahit hui.",
"idhar yuddh ki taiyariyan ho rahi theen aur udhar ek roz balram panDvon ki chhavani mein ekayek ja pahunche. balram ji ne apne baDe buDhe viratraj aur drupadraj ko vidhivat prnaam kiya aur dharmaraj ke paas baith ge. wo bole—“kitni hi baar mainne krishn ko kaha tha ki hamare liye to panDav aur kaurav donon hi ek saman hain. ismen hamein beech mein paDne ki avashyakta nahin hai, par krishn ne meri baat nahin mani. arjun ke prati uska itna sneh hai ki usne tumhare paksh mein rahkar yuddh karna bhi svikar kar liya. jis taraf krishn ho, uske vipaksh mein main bhala kaise jaun? bheem aur duryodhan donon ne hi mujhse gada yuddh sikha hai. donon hi mere shishya hain. donon par mera ek jaisa pyaar hai. in donon kuruvanshiyon ko yon aapas mein laDte marte dekhana mujhse sahn nahin hota hai. laDo tum log, parantu ye sab dekhne ke liye main yahan nahin rah sakta hoon. mujhe ab sansar se virag ho gaya hai. atः main ja raha hoon. ”",
"yuddh ke samay sare bharatvarsh mein do hi raja yuddh mein sammilit nahin hue aur tatasth rahe—ek balram aur dusre bhojakat ke raja rukmi. rukmi ki chhoti bahan rukmini shrikrishn ki patni thi.",
"kurukshetr mein honevale yuddh ke samachar sunkar rukmi ek akshauhini sena lekar yuddh mein sammilit hone ko gaya. usne socha ki ye avsar vasudev ki mitrata praapt kar lene ke liye theek hoga. isliye wo panDvon ke paas pahuncha aur arjun se bola—“panDu putr! apaki sena se shatru sena kuch adhik malum hoti hai. isi karan main apaki sahayata karne aaya hoon. ”",
"ye sunkar arjun hanste hue rukmi se bola—“rajan! aap bina shart ke sahayata karna chahte hain, to aapka svagat hai. nahin to apaki jaisi ichchha. ”",
"ye sunkar rukmi baDa kruddh hua aur apni sena lekar duryodhan ke paas chala gaya. rukmi ne duryodhan se kaha—“panDav meri madad nahin chahte hain. is karan main apaki sahayata hetu aaya hoon. ”",
"panDvon ne jiski sahayata svikar nahin ki, hamein uski sahayata svikar karne ki zarurat nahin hai. ” ye kahkar duryodhan ne bhi rukmi ki sahayata thukra di. bechara rukmi donon taraf se apmanit hokar bhojakat vapas laut gaya. rukmi kartavya se prerit hokar nahin, balki apni pratishtha baDhane ke uddeshya se kurukshetr gaya aur apmanit hua.",
"kurukshetr ke maidan mein donon taraf ki senayen laDne ko taiyar khaDi theen. un dinon ki riti ke anusar donon paksh ke viron ne yuddh niti par chalne ki prtigyayen leen.",
"kaurvon ki sena ki vyooh rachna dekhkar yudhishthir ne arjun ko aagya di—“ek jagah sab viron ko ikatthe rahkar laDna hoga. atः sena ko suchi mukh (sui ki nonk ke saman) vyooh mein sajjit karo. ”",
"is prakar donon pakshon ki senaon ki vyooh rachna ho gai. arjun ne yuddh ke liye taiyar hue viron ko dekha, to uske man mein shanka hui ki hum ye kya karne ja rahe hain. usne apni ye shanka shrikrishn par prakat ki. tab arjun ke is bhram ko door karne ke liye shrikrishn ne kurukshetr mein jis karmayog ka updesh diya, wo to vishvvikhyat hai.",
"sab log isi ki raah dekh rahe the ki kab yuddh shuru ho, par ekayek panDav sena ke beech mein halchal mach gai. dekhte kya hain ki yudhishthir ne achanak apna kavach aur dhanush baan utarkar rath par rakh diya hai aur rath se utarkar haath joDe kaurav sena ki hathiyarband panktiyon ko chirte hue bheeshm ki or paidal ja rahe hain. bina suchana diye unko is prakar jate dekhkar donon hi pakshvale achambhe mein paD ge.",
"arjun turant rath se kood paDa aur yudhishthir ke pichhe kaurav sena mein ghus gaya. dusre, panDav aur shrikrishn bhi unke saath hi ho liye.",
"itne mein shrikrishn bole—“arjun, main samajh gaya hoon ki maharaj yudhishthir ki ichchha kya hai. bina baDon ki aagya liye yuddh karna anuchit mana jata hai. dharmaraj ka uddeshya achchha hi hai. ”",
"shatru sena ke hathiyarband viron ki katar ko chirte hue yudhishthir sidhe pitamah bheeshm ke paas pahunche aur jhukkar unke charan chhue. phir bole—“pitamah! hamne aapke saath laDne ka duःsahas kar hi liya. kripaya hamein yuddh ki anumti dijiye aur ashirvad bhi ki hum yuddh mein vijay praapt karen. ”",
"bheeshm bole—“beta yudhishthir, mujhe tumse yahi aasha thi. main svtantr nahin hoon. vivash hokar mujhe tumhare vipaksh mein rahna paD raha hai. phir bhi meri yahi kamna hai ki ran mein vijay tumhari ho. ”",
"bheeshm ki aagya aur ashirvad praapt kar lene ke baad yudhishthir acharya dron ke paas ge aur parikrama karke unko danDvat kiya. acharya ne ashirvad dete hue kaha—“main bhi kaurvon ke adhin hoon. unka saath dene ko vivash hoon. phir bhi meri yahi kamna hai ki jeet tumhari hi ho. ” acharya dron se ashish lekar dharmaraj ne acharya krip evan madrraj shalya ke paas jakar unke bhi ashirvad praapt kiye aur sena mein laut aaye.",
"yuddh shuru hua, to pahle baDe yoddhaon mein dvandv hone laga. barabar ki takatvale ek hi jaise hathiyar lekar do do ki joDi mein laDne lage. arjun ke saath bheeshm, satyaki ke saath kritvarma aur abhimanyu brihatpal ke saath bhiD ge. bhimasen duryodhan se ja bhiDa. yudhishthir shalya ke saath laDne lage. dhrishtadyumn ne acharya dron par sari shakti lagakar hamla bol diya aur isi prakar pratyek veer yuddh dharm ka palan karta hua dvandv karne laga.",
"bheeshm ke netritv mein kaurav viron ne das din tak yuddh kiya. das din ke baad bheeshm aahat hue aur dronacharya senapati niyukt kiye ge. dronacharya bhi jab khet rahe, to karn ko senaptitv grhan karna paDa. satrahven din ki laDai mein karn ka bhi svargavas ho gaya. iske baad shalya ne kaurvon ka senapati bankar sena ka sanchalan kiya. is prakar mahabharat ka yuddh kul attharah din chala.",
"Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.",
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"This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.",
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"जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।",
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"हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश"
] |
बाल महाभारत : युधिष्ठिर की वेदना - कथा | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kathaen/class-7-ncert-7/baal-mahabharat-yudhishthir-ki-vedna-chakraborty-rajagopalacharya-kathaen?sort= | [
"प्रसतुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।",
"कुछ देर बाद युधिष्ठिर रोती-बिलखती हुई स्त्रियों के समूह को पार करते हुए भाइयों व श्रीकृष्ण सहित धृतराष्ट्र के पास आए व नम्रतापूर्वक हाथ जोड़े खड़े रहे। इसके बाद धृतराष्ट्र ने भीम को अपने पास बुलाया। धृतराष्ट्र के हाव-भाव से श्रीकृष्ण ने अंदाज़ा लगाया कि इस समय धृतराष्ट्र पुत्र-शोक के कारण क्रोध में हैं। इससे भीम को उनके पास भेजना ठीक न होगा। अतः उन्होंने भीमसेन को तो एक तरफ़ हटा लिया और उसके स्थान पर लोहे की एक प्रतिमा दृष्टिहीन राजा धृतराष्ट्र के आगे लाकर खड़ी कर दी। श्रीकृष्ण का भय सही साबित हुआ। वृद्ध राजा ने प्रतिमा को भीम समझकर ज्योंही छाती से लगाया, त्योंही उन्हें याद हो आया कि मेरे कितने ही प्यारे बेटों को इस भीम ने मार डाला है। इस विचार के मन में आते ही धृतराष्ट्र क्षुब्ध हो उठे और उसे ज़ोरों से छाती से लगाकर कस लिया। प्रतिमा चूर-चूर हो गई। पर प्रतिमा के चूर हो जाने के बाद धृतराष्ट्र को ख़याल आया कि मैंने यह क्या कर डाला! वह दुखी हो गए और शोक विह्वल होकर बोले—“हाय! क्रोध में आकर मूर्खतावश मैंने यह क्या कर डाला! भीम की हत्या कर दी।” यह कहकर वह बुरी तरह विलाप करने लगे।",
"इस पर श्रीकृष्ण ने धृतराष्ट्र से कहा—“राजन्, क्षमा करें। मुझे पहले ही से मालूम था कि क्रोध में आकर आप ऐसा काम करेंगे। इसलिए उस अनर्थ को टालने के लिए मैंने पहले से ही उचित प्रबंध कर रखा था। आपने जिसको नष्ट किया है, वह भीमसेन का शरीर नहीं, बल्कि लोहे की मूर्ति थी। आपके क्रोध का ताप उस पर ही उतरकर शांत हो गया। भीमसेन अभी जीवित है।”",
"यह सुनकर धृतराष्ट्र के मन को धीरज बँधा और उन्होंने अपना क्रोध शांत कर लिया। उन्होंने सभी पांडवों को आशीर्वाद देकर विदा किया। धृतराष्ट्र से आज्ञा पाकर पाँचों भाई श्रीकृष्ण के साथ गांधारी के पास गए। गांधारी का शोकोद्वेग देखकर अर्जुन भी डर गया और श्रीकृष्ण के पीछे ही खड़ा रहा। कुछ बोला नहीं। गांधारी ने अपने दग्ध-हृदय को धीरे-धीरे शांत कर लिया और पांडवों को आशीर्वाद देकर विदा किया। युधिष्ठिर आदि सब वहाँ से चले गए, परंतु द्रौपदी वहीं गांधारी के पास ही रही। अपने पाँचों सुकुमार बालकों के मारे जाने के कारण द्रौपदी शोकविह्वल होकर रो रही थी। उसकी अवस्था पर गांधारी को बड़ी दया आई। वह बोली—“बेटी, दुखी न होओ। मैं और तुम एक ही जैसी हैं। हमें सांत्वना देने वाला कौन है? इस सबकी दोषी तो मैं ही हूँ। मेरे ही दोष के कारण आज इस कुल का सर्वनाश हुआ है। पर अब अपने को भी दोष देने से क्या लाभ?”",
"युधिष्ठिर के मन में यह बात समा गई थी कि हमने अपने बंधु-बांधवों को मारकर राज्य पाया है, इससे उनको भारी व्यथा रहने लगी। अंत में उन्होंने वन में जाने का निश्चय किया, ताकि इस पाप का प्रायश्चित हो सके। यह सुनकर सब भाइयों पर मानो वज्र गिर गया। वे बहुत चिंतित हो उठे और बारी-बारी से सब युधिष्ठिर को समझाने लगे। अर्जुन ने गृहस्थ धर्म की श्रेष्ठता पर प्रकाश डाला। भीमसेन ने कटु वचनों से काम लिया। नकुल ने प्रमाणपूर्वक यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि कर्म-मार्ग न केवल सुगम है, बल्कि उचित भी है, जबकि संन्यास-मार्ग कँटीला और दुष्कर है। इस तरह देर तक युधिष्ठिर से वाद-विवाद होता रहा। सहदेव ने नकुल के पक्ष का समर्थन किया और अंत में अनुरोध किया कि हमारे पिता, माता, आचार्य, बंधु सब कुछ आप ही हैं। हमारी ढिठाई को क्षमा करें। द्रौपदी भी इस वाद-विवाद में पीछे न रही। वह बोली—“अब तो आपका यही कर्तव्य है कि राजोचित धर्म का पालन करते हुए राज्य शासन करें और चिंता न करें।”",
"तब शासन-सूत्र ग्रहण करने से पहले युधिष्ठिर भीष्म के पास गए, जो कुरुक्षेत्र में शर-शय्या पर पड़े हुए मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे थे। पितामह भीष्म ने युधिष्ठिर को धर्म का मर्म समझाया और उपदेश भी दिया। धृतराष्ट्र भी युधिष्ठिर के पास आकर सांत्वना देते हुए बोले—“बेटा, तुम्हें इस तरह शोकविह्वल नहीं होना चाहिए। दुर्योधन ने जो मूर्खताएँ की थीं, उनको सही समझकर मैंने धोखा खाया। इस कारण मेरे सौ-के-सौ पुत्र उसी भाँति काल-कवलित हो गए, जैसे सपने में मिला हुआ धन नींद खुलने पर लुप्त हो जाता है। अब तुम्हीं मेरे पुत्र हो। इस कारण तुम्हें दुखी नहीं होना चाहिए।”",
"kuch der baad yudhishthir roti bilakhti hui striyon ke samuh ko paar karte hue bhaiyon va shrikrishn sahit dhritarashtr ke paas aaye va namratapurvak haath joDe khaDe rahe. iske baad dhritarashtr ne bheem ko apne paas bulaya. dhritarashtr ke haav bhaav se shrikrishn ne andaza lagaya ki is samay dhritarashtr putr shok ke karan krodh mein hain. isse bheem ko unke paas bhejna theek na hoga. atः unhonne bhimasen ko to ek taraf hata liya aur uske sthaan par lohe ki ek pratima drishtihin raja dhritarashtr ke aage lakar khaDi kar di. shrikrishn ka bhay sahi sabit hua. vriddh raja ne pratima ko bheem samajhkar jyonhi chhati se lagaya, tyonhi unhen yaad ho aaya ki mere kitne hi pyare beton ko is bheem ne maar Dala hai. is vichar ke man mein aate hi dhritarashtr kshubdh ho uthe aur use zoron se chhati se lagakar kas liya. pratima choor choor ho gai. par pratima ke choor ho jane ke baad dhritarashtr ko khayal aaya ki mainne ye kya kar Dala! wo dukhi ho ge aur shok vihval hokar bole—“hay! krodh mein aakar murkhtavash mainne ye kya kar Dala! bheem ki hatya kar di. ” ye kahkar wo buri tarah vilap karne lage.",
"is par shrikrishn ne dhritarashtr se kaha—“rajan, kshama karen. mujhe pahle hi se malum tha ki krodh mein aakar aap aisa kaam karenge. isliye us anarth ko talne ke liye mainne pahle se hi uchit prbandh kar rakha tha. aapne jisko nasht kiya hai, wo bhimasen ka sharir nahin, balki lohe ki murti thi. aapke krodh ka taap us par hi utarkar shaant ho gaya. bhimasen abhi jivit hai. ”",
"ye sunkar dhritarashtr ke man ko dhiraj bandha aur unhonne apna krodh shaant kar liya. unhonne sabhi panDvon ko ashirvad dekar vida kiya. dhritarashtr se aagya pakar panchon bhai shrikrishn ke saath gandhari ke paas ge. gandhari ka shokodveg dekhkar arjun bhi Dar gaya aur shrikrishn ke pichhe hi khaDa raha. kuch bola nahin. gandhari ne apne dagdh hriday ko dhire dhire shaant kar liya aur panDvon ko ashirvad dekar vida kiya. yudhishthir aadi sab vahan se chale ge, parantu draupadi vahin gandhari ke paas hi rahi. apne panchon sukumar balkon ke mare jane ke karan draupadi shokvihval hokar ro rahi thi. uski avastha par gandhari ko baDi daya aai. wo boli—“beti, dukhi na hoo. main aur tum ek hi jaisi hain. hamein santvna denevala kaun hai? is sabki doshi to main hi hoon. mere hi dosh ke karan aaj is kul ka sarvanash hua hai. par ab apne ko bhi dosh dene se kya laabh?”",
"yudhishthir ke man mein ye baat sama gai thi ki hamne apne bandhu bandhvon ko markar rajya paya hai, isse unko bhari vyatha rahne lagi. ant mein unhonne van mein jane ka nishchay kiya, taki is paap ka prayashchit ho sake. ye sunkar sab bhaiyon par mano vajr gir gaya. ve bahut chintit ho uthe aur bari bari se sab yudhishthir ko samjhane lage. arjun ne grihasth dharm ki shreshthta par parkash Dala. bhimasen ne katu vachnon se kaam liya. nakul ne prmanpurvak ye siddh karne ka prayatn kiya ki karm maarg na keval sugam hai, balki uchit bhi hai, jabki sannyas maarg kantila aur dushkar hai. is tarah der tak yudhishthir se vaad vivad hota raha. sahdev ne nakul ke paksh ka samarthan kiya aur ant mein anurodh kiya ki hamare pita, mata, acharya, bandhu sab kuch aap hi hain. hamari Dhithai ko kshama karen. draupadi bhi is vaad vivad mein pichhe na rahi. wo boli—“ab to aapka yahi kartavya hai ki rajochit dharm ka palan karte hue rajya shasan karen aur chinta na karen. ”",
"tab shasan sootr grhan karne se pahle yudhishthir bheeshm ke paas ge, jo kurukshetr mein shar shayya par paDe hue mrityu ki prtiksha kar rahe the. pitamah bheeshm ne yudhishthir ko dharm ka marm samjhaya aur updesh bhi diya. dhritarashtr bhi yudhishthir ke paas aakar santvna dete hue bole—“beta, tumhein is tarah shokvihval nahin hona chahiye. duryodhan ne jo murkhtayen ki theen, unko sahi samajhkar mainne dhokha khaya. is karan mere sau ke sau putr usi bhanti kaal kavlit ho ge, jaise sapne mein mila hua dhan neend khulne par lupt ho jata hai. ab tumhin mere putr ho. is karan tumhein dukhi nahin hona chahiye. ”",
"kuch der baad yudhishthir roti bilakhti hui striyon ke samuh ko paar karte hue bhaiyon va shrikrishn sahit dhritarashtr ke paas aaye va namratapurvak haath joDe khaDe rahe. iske baad dhritarashtr ne bheem ko apne paas bulaya. dhritarashtr ke haav bhaav se shrikrishn ne andaza lagaya ki is samay dhritarashtr putr shok ke karan krodh mein hain. isse bheem ko unke paas bhejna theek na hoga. atः unhonne bhimasen ko to ek taraf hata liya aur uske sthaan par lohe ki ek pratima drishtihin raja dhritarashtr ke aage lakar khaDi kar di. shrikrishn ka bhay sahi sabit hua. vriddh raja ne pratima ko bheem samajhkar jyonhi chhati se lagaya, tyonhi unhen yaad ho aaya ki mere kitne hi pyare beton ko is bheem ne maar Dala hai. is vichar ke man mein aate hi dhritarashtr kshubdh ho uthe aur use zoron se chhati se lagakar kas liya. pratima choor choor ho gai. par pratima ke choor ho jane ke baad dhritarashtr ko khayal aaya ki mainne ye kya kar Dala! wo dukhi ho ge aur shok vihval hokar bole—“hay! krodh mein aakar murkhtavash mainne ye kya kar Dala! bheem ki hatya kar di. ” ye kahkar wo buri tarah vilap karne lage.",
"is par shrikrishn ne dhritarashtr se kaha—“rajan, kshama karen. mujhe pahle hi se malum tha ki krodh mein aakar aap aisa kaam karenge. isliye us anarth ko talne ke liye mainne pahle se hi uchit prbandh kar rakha tha. aapne jisko nasht kiya hai, wo bhimasen ka sharir nahin, balki lohe ki murti thi. aapke krodh ka taap us par hi utarkar shaant ho gaya. bhimasen abhi jivit hai. ”",
"ye sunkar dhritarashtr ke man ko dhiraj bandha aur unhonne apna krodh shaant kar liya. unhonne sabhi panDvon ko ashirvad dekar vida kiya. dhritarashtr se aagya pakar panchon bhai shrikrishn ke saath gandhari ke paas ge. gandhari ka shokodveg dekhkar arjun bhi Dar gaya aur shrikrishn ke pichhe hi khaDa raha. kuch bola nahin. gandhari ne apne dagdh hriday ko dhire dhire shaant kar liya aur panDvon ko ashirvad dekar vida kiya. yudhishthir aadi sab vahan se chale ge, parantu draupadi vahin gandhari ke paas hi rahi. apne panchon sukumar balkon ke mare jane ke karan draupadi shokvihval hokar ro rahi thi. uski avastha par gandhari ko baDi daya aai. wo boli—“beti, dukhi na hoo. main aur tum ek hi jaisi hain. hamein santvna denevala kaun hai? is sabki doshi to main hi hoon. mere hi dosh ke karan aaj is kul ka sarvanash hua hai. par ab apne ko bhi dosh dene se kya laabh?”",
"yudhishthir ke man mein ye baat sama gai thi ki hamne apne bandhu bandhvon ko markar rajya paya hai, isse unko bhari vyatha rahne lagi. ant mein unhonne van mein jane ka nishchay kiya, taki is paap ka prayashchit ho sake. ye sunkar sab bhaiyon par mano vajr gir gaya. ve bahut chintit ho uthe aur bari bari se sab yudhishthir ko samjhane lage. arjun ne grihasth dharm ki shreshthta par parkash Dala. bhimasen ne katu vachnon se kaam liya. nakul ne prmanpurvak ye siddh karne ka prayatn kiya ki karm maarg na keval sugam hai, balki uchit bhi hai, jabki sannyas maarg kantila aur dushkar hai. is tarah der tak yudhishthir se vaad vivad hota raha. sahdev ne nakul ke paksh ka samarthan kiya aur ant mein anurodh kiya ki hamare pita, mata, acharya, bandhu sab kuch aap hi hain. hamari Dhithai ko kshama karen. draupadi bhi is vaad vivad mein pichhe na rahi. wo boli—“ab to aapka yahi kartavya hai ki rajochit dharm ka palan karte hue rajya shasan karen aur chinta na karen. ”",
"tab shasan sootr grhan karne se pahle yudhishthir bheeshm ke paas ge, jo kurukshetr mein shar shayya par paDe hue mrityu ki prtiksha kar rahe the. pitamah bheeshm ne yudhishthir ko dharm ka marm samjhaya aur updesh bhi diya. dhritarashtr bhi yudhishthir ke paas aakar santvna dete hue bole—“beta, tumhein is tarah shokvihval nahin hona chahiye. duryodhan ne jo murkhtayen ki theen, unko sahi samajhkar mainne dhokha khaya. is karan mere sau ke sau putr usi bhanti kaal kavlit ho ge, jaise sapne mein mila hua dhan neend khulne par lupt ho jata hai. ab tumhin mere putr ho. is karan tumhein dukhi nahin hona chahiye. ”",
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"This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.",
"You have remaining out of 5 free poetry pages per month. Log In or Register to become Rekhta Family member to access the full website.",
"Sign up and enjoy FREE unlimited access to a whole Universe of Urdu Poetry, Language Learning, Sufi Mysticism, Rare Texts",
"जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।",
"Devoted to the preservation & promotion of Urdu",
"Urdu poetry, urdu shayari, shayari in urdu, poetry in urdu",
"A Trilingual Treasure of Urdu Words",
"Online Treasure of Sufi and Sant Poetry",
"The best way to learn Urdu online",
"Best of Urdu & Hindi Books",
"हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश"
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बाल महाभारत : पांडवों का धृतराष्ट्र के प्रति व्यवहार - कथा | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kathaen/class-7-ncert-7/baal-mahabharat-pandvon-ka-dhritarashtr-ke-prati-vyvahar-chakraborty-rajagopalacharya-kathaen?sort= | [
"प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।",
"कौरवों पर विजय पा लेने के बाद सारे राज्य पर पांडवों का एकछत्र अधिकार हो गया और उन्होंने कर्तव्य समझकर राज-काज सँभाल लिया। फिर भी जिस संतोष और सुख की उन्हें आशा वह प्राप्त नहीं हुआ।",
"युधिष्ठिर ने अपने भाइयों को आज्ञा दे रखी थी कि पुत्रों के बिछोह से दुखी राजा धृतराष्ट्र को किसी भी तरह की व्यथा न पहुँचने पाए। सिवाए भीमसेन के सब पांडव युधिष्ठिर के ही आदेशानुसार व्यवहार करते थे। पांडव वृद्ध धृतराष्ट्र का ख़ूब आदर करते हुए उन्हें हर प्रकार का सुख एवं सुविधा पहुँचाने के प्रयत्न में लगे रहते थे, जिससे धृतराष्ट्र को अपने पुत्रों का अभाव महसूस न हो।",
"धृतराष्ट्र भी पांडवों स्नेहपूर्ण व्यवहार किया करते थे। न तो पांडव उन्हें अप्रिय समझते थे और न धृतराष्ट्र ही पांडवों को अप्रिय समझते थे। परंतु भीमसेन कभी-कभी ऐसी बातें दिया करता था, जिससे धृतराष्ट्र के दिल को चोट पहुँचती। युधिष्ठिर के राजाधिराज बनने के थोड़े ही दिन बाद भीमसेन धृतराष्ट्र की किसी आज्ञा को परिणत न होने देता था। कभी-कभी धृतराष्ट्र को सुनाते हुए वह कह भी देता था कि दुर्योधन और उसके साथी अपनी नासमझी के कारण मारे गए हैं।",
"बात यह थी कि दुर्योधन, दुःशासन आदि द्वारा किए गए अत्याचारों और अपमानों का दुखद स्मरण भीमसेन के मन में अमिट रूप से अंकित हो चुका था। इस कारण न तो वह अपना पुराना वैर भूल पाता था और न क्रोध को ही चबा पाता था। कभी-कभी वह गांधारी तक के आगे उलटी-सीधी बातें कर दिया करता था। भीमसेन की इन तीखी बातों से धृतराष्ट्र के हृदय को बहुत चोट पहुँचती थी। गांधारी को भी इस कारण बहुत दुख होता था। परंतु वह विवेकशीला थीं और धर्म का मर्म जानती थीं। इसलिए भीमसेन की बातें चुपचाप सह लिया करती थीं तथा कुंती से स्फूर्ति पाकर धीरज धर लिया करती थीं।",
"यद्यपि महाराज युधिष्ठिर ने धृतराष्ट्र को हर प्रकार से आराम पहुँचाने का उचित प्रबंध कर रखा था, फिर भी धृतराष्ट्र का जी सुखभोग में नहीं लगता था। एक तो वह बहुत वृद्ध हो गए थे, फिर भीमसेन की अप्रिय बातों से कभी-कभी उनका हृदय खिन्न हो जाता था। धीरे-धीरे उनके मन में विराग आ गया। इन बातों में गांधारी भी उनका अनुसरण किया करती थीं।",
"एक दिन धृतराष्ट्र धर्मराज के भवन में गए और उनसे बोले—“तुम तो शास्त्रों के ज्ञाता हो और यह भी जानते हो कि हमारे वंश की परंपरागत प्रथा के अनुसार हम वृद्धों को वल्कल धारण करके वन में जाना चाहिए। इसके अनुसार ही मैं अब तुम्हारी भलाई की कामना करता हुआ वन में जाकर रहना चाहता हूँ। तुम्हें इस बात की अनुमति मुझे देनी ही होगी।”",
"धृतराष्ट्र की ये बातें सुनकर युधिष्ठिर बहुत खिन्न हुए और भरे हुए हृदय से बोले—“अब मैंने तय किया है कि आज से आपका ही पुत्र युयुत्सु राजगद्दी पर बैठे या जिसे आप चाहें राजा बना दें। अथवा शासन की बागडोर स्वयं अपने हाथों में ले लें और प्रजा का पालन करें। मैं वन में चला जाऊँगा। राजा मैं नहीं बल्कि आप ही हैं। मैं ऐसी हालत में आपको अनुमति कैसे दे सकता हूँ?”",
"यह सुनकर धृतराष्ट्र बोले—“कुंती पुत्र मेरे मन में वन में जाकर तपस्या करने की इच्छा बड़ी प्रबल हो रही है। तुम्हारे साथ मैं इतने बरसों तक सुखपूर्वक रहा और तुम और तुम्हारे भाई सभी मेरी सेवा सुश्रूषा करते रहे। वन में जाने का मेरा ही समय है, तुम्हारा नहीं। इस कारण वन में जाने की अनुमति तुम्हें देने का सवाल ही नहीं उठता। यह अनुमति तो तुमको देनी ही होगी।”",
"यह सुनकर युधिष्ठिर अंजलिबद्ध होकर काँपते हुए खड़े रहे। वह कुछ बोल न सके। उनसे ये बातें कहने के बाद धृतराष्ट्र आचार्य कृप एवं विदुर से बोले—“भैया विदुर और आचार्य! आप लोग महाराज युधिष्ठिर को समझा-बुझाकर मुझे वन में जाने की अनुमति दिलाइए।” और इस तरह से युधिष्ठिर से वन में जाने की अनुमति पाकर वृद्ध राजा धृतराष्ट्र उठे और गांधारी के कंधे पर हाथ रखकर लाठी टेकते लिए रवाना हुए।",
"माता कुंती भी उनके साथ रवाना हुईं। गांधारी ने अपनी आँखों पर पट्टी बाँधी हुई थी, इसीलिए वह कुंती के कंधे पर हाथ रखकर रास्ता टटोलती हुई जाने लगी और इस तरह तीनों वृद्ध राजकुटुंबी राजधानी की सीमा पारकर वन की और चले।",
"धर्मराज समझ रहे थे कि माता कुंती गांधारी को थोड़ी दूर तक विदा करने के लिए साथ जा रही हैं। वह सँभलकर बोले—“माँ, तुम वन में क्यों जा रही हो? तुम्हारा जाना तो ठीक नहीं है। तुम्हीं ने आशीर्वाद देकर युद्ध के लिए भेजा था। अब तुम्हीं हमें छोड़कर वन को जाने लगीं। यह ठीक नहीं है।” इतना कहते-कहते युधिष्ठिर का गला भर आया। किंतु उनके आग्रह करने पर भी कुंती अपने निश्चय पर अटल रहीं। युधिष्ठिर अवाक् होकर खड़े हुए देखते रहे।",
"धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती ने तीन वर्ष तक वन में तपस्वियों का सा जीवन व्यतीत किया। संजय भी उनके साथ था।",
"kaurvon par vijay pa lene ke baad sare rajya par panDvon ka ekchhatr adhikar ho gaya aur unhonne kartavya samajhkar raaj kaaj sanbhal liya. phir bhi jis santosh aur sukh ki unhen aasha wo praapt nahin hua.",
"yudhishthir ne apne bhaiyon ko aagya de rakhi thi ki putron ke bichhoh se dukhi raja dhritarashtr ko kisi bhi tarah ki vyatha na pahunchne pae. sivaye bhimasen ke sab panDav yudhishthir ke hi adeshanusar vyvahar karte the. panDav vriddh dhritarashtr ka khoob aadar karte hue unhen har prakar ka sukh evan suvidha pahunchane ke prayatn mein lage rahte the, jisse dhritarashtr ko apne putron ka abhav mahsus na ho.",
"dhritarashtr bhi panDvon snehpurn vyvahar kiya karte the. na to panDav unhen apriy samajhte the aur na dhritarashtr hi panDvon ko apriy samajhte the. parantu bhimasen kabhi kabhi aisi baten kar karti theen. diya karta tha, jisse dhritarashtr ke dil ko chot pahunchti. yudhishthir ke rajadhiraj banne ke thoDe hi din baad bhimasen dhritarashtr ki kisi aagya ko parinat na hone deta tha. kabhi kabhi dhritarashtr ko sunate hue wo kah bhi deta tha ki duryodhan aur uske sathi apni nasamjhi ke karan mare ge hain.",
"baat ye thi ki duryodhan, duःshasan aadi dvara kiye ge atyacharon aur apmanon ka dukhad smran bhimasen ke man mein amit roop se ankit ho chuka tha. is karan na to wo apna purana vair bhool pata tha aur na krodh ko hi chaba pata tha. kabhi kabhi wo gandhari tak ke aage ulti sidhi baten kar diya karta tha. bhimasen ki in tikhi baton se dhritarashtr ke hriday ko bahut chot pahunchti thi. gandhari ko bhi is karan bahut dukh hota tha. parantu wo vivekshila theen aur dharm ka marm janti theen. isliye bhimasen ki baten chupchap sah liya karti theen tatha kunti se sphurti pakar dhiraj dhar liya karti theen.",
"yadyapi maharaj yudhishthir ne dhritarashtr ko har prakar se aram pahunchane ka uchit prbandh kar rakha tha, phir bhi dhritarashtr ka ji sukhbhog mein nahin lagta tha. ek to wo bahut vriddh ho ge the, phir bhimasen ki apriy baton se kabhi kabhi unka hriday khinn ho jata tha. dhire dhire unke man mein virag aa gaya. in baton mein gandhari bhi unka anusran kiya karti theen.",
"ek din dhritarashtr dharmaraj ke bhavan mein ge aur unse bole—“tum to shastron ke gyata ho aur ye bhi jante ho ki hamare vansh ki parampragat pratha ke anusar hum vriddhon ko valkal dharan karke van mein jana chahiye. iske anusar hi main ab tumhari bhalai ki kamna karta hua van mein jakar rahna chahta hoon. tumhein is baat ki anumti mujhe deni hi hogi. ”",
"dhritarashtr ki ye baten sunkar yudhishthir bahut khinn hue aur bhare hue hriday se bole—“ab mainne tay kiya hai ki aaj se aapka hi putr yuyutsu rajagaddi par baithe ya jise aap chahen raja bana den. athva shasan ki bagaDor svayan apne hathon mein le len aur praja ka palan karen. main van mein chala jaunga. raja main nahin balki aap hi hain. main aisi haalat mein aapko anumti kaise de sakta hoon?”",
"ye sunkar dhritarashtr bole—“kunti putr mere man mein van mein jakar tapasya karne ki ichchha baDi prabal ho rahi hai. tumhare saath main itne barson tak sukhpurvak raha aur tum aur tumhare bhai sabhi meri seva sushrusha karte rahe. van mein jane ka mera hi samay hai, tumhara nahin. is karan van mein jane ki anumti tumhein dene ka saval hi nahin uthta. ye anumti to tumko deni hi hogi. ”",
"ye sunkar yudhishthir anjalibaddh hokar kanpte hue khaDe rahe. wo kuch bol na sake. unse ye baten kahne ke baad dhritarashtr acharya krip evan vidur se bole—“bhaiya vidur aur acharya! aap log maharaj yudhishthir ko samjha bujhakar mujhe van mein jane ki anumti dilaiye. ” aur is tarah se yudhishthir se van mein jane ki anumti pakar vriddh raja dhritarashtr uthe aur gandhari ke kandhe par haath rakhkar lathi tekte liye ravana hue.",
"mata kunti bhi unke saath ravana huin. gandhari ne apni ankhon par patti bandhi hui thi, isiliye wo kunti ke kandhe par haath rakhkar rasta tatolti hui jane lagi aur is tarah tinon vriddh rajakutumbi rajdhani ki sima parkar van ki aur chale.",
"dharmaraj samajh rahe the ki mata kunti gandhari ko thoDi door tak vida karne ke liye saath ja rahi hain. wo sanbhalakar bole—“man, tum van mein kyon ja rahi ho? tumhara jana to theek nahin hai. tumhon ne ashirvad dekar yuddh ke liye bheja tha. ab tumhin hamein chhoDkar van ko jane lagin. ye theek nahin hai. ” itna kahte kahte yudhishthir ka gala bhar aaya. kintu unke agrah karne par bhi kunti apne nishchay par atal rahin. yudhishthir avak hokar khaDe hue dekhte rahe.",
"dhritarashtr, gandhari aur kunti ne teen varsh tak van mein tapasviyon ka sa jivan vyatit kiya. sanjay bhi unke saath tha.",
"kaurvon par vijay pa lene ke baad sare rajya par panDvon ka ekchhatr adhikar ho gaya aur unhonne kartavya samajhkar raaj kaaj sanbhal liya. phir bhi jis santosh aur sukh ki unhen aasha wo praapt nahin hua.",
"yudhishthir ne apne bhaiyon ko aagya de rakhi thi ki putron ke bichhoh se dukhi raja dhritarashtr ko kisi bhi tarah ki vyatha na pahunchne pae. sivaye bhimasen ke sab panDav yudhishthir ke hi adeshanusar vyvahar karte the. panDav vriddh dhritarashtr ka khoob aadar karte hue unhen har prakar ka sukh evan suvidha pahunchane ke prayatn mein lage rahte the, jisse dhritarashtr ko apne putron ka abhav mahsus na ho.",
"dhritarashtr bhi panDvon snehpurn vyvahar kiya karte the. na to panDav unhen apriy samajhte the aur na dhritarashtr hi panDvon ko apriy samajhte the. parantu bhimasen kabhi kabhi aisi baten kar karti theen. diya karta tha, jisse dhritarashtr ke dil ko chot pahunchti. yudhishthir ke rajadhiraj banne ke thoDe hi din baad bhimasen dhritarashtr ki kisi aagya ko parinat na hone deta tha. kabhi kabhi dhritarashtr ko sunate hue wo kah bhi deta tha ki duryodhan aur uske sathi apni nasamjhi ke karan mare ge hain.",
"baat ye thi ki duryodhan, duःshasan aadi dvara kiye ge atyacharon aur apmanon ka dukhad smran bhimasen ke man mein amit roop se ankit ho chuka tha. is karan na to wo apna purana vair bhool pata tha aur na krodh ko hi chaba pata tha. kabhi kabhi wo gandhari tak ke aage ulti sidhi baten kar diya karta tha. bhimasen ki in tikhi baton se dhritarashtr ke hriday ko bahut chot pahunchti thi. gandhari ko bhi is karan bahut dukh hota tha. parantu wo vivekshila theen aur dharm ka marm janti theen. isliye bhimasen ki baten chupchap sah liya karti theen tatha kunti se sphurti pakar dhiraj dhar liya karti theen.",
"yadyapi maharaj yudhishthir ne dhritarashtr ko har prakar se aram pahunchane ka uchit prbandh kar rakha tha, phir bhi dhritarashtr ka ji sukhbhog mein nahin lagta tha. ek to wo bahut vriddh ho ge the, phir bhimasen ki apriy baton se kabhi kabhi unka hriday khinn ho jata tha. dhire dhire unke man mein virag aa gaya. in baton mein gandhari bhi unka anusran kiya karti theen.",
"ek din dhritarashtr dharmaraj ke bhavan mein ge aur unse bole—“tum to shastron ke gyata ho aur ye bhi jante ho ki hamare vansh ki parampragat pratha ke anusar hum vriddhon ko valkal dharan karke van mein jana chahiye. iske anusar hi main ab tumhari bhalai ki kamna karta hua van mein jakar rahna chahta hoon. tumhein is baat ki anumti mujhe deni hi hogi. ”",
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"mata kunti bhi unke saath ravana huin. gandhari ne apni ankhon par patti bandhi hui thi, isiliye wo kunti ke kandhe par haath rakhkar rasta tatolti hui jane lagi aur is tarah tinon vriddh rajakutumbi rajdhani ki sima parkar van ki aur chale.",
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बाल महाभारत : इंद्रप्रस्थ - कथा | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kathaen/class-7-ncert-7/baal-mahabharat-indraprastha-chakraborty-rajagopalacharya-kathaen?sort= | [
"प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।",
"द्रौपदी के स्वयंवर में जो कुछ हुआ था, उसकी ख़बर जब हस्तिनापुर पहुँची तो विदुर बड़े ख़ुश हुए। धृतराष्ट्र के पास दौड़े गए और बोले—“पांडव अभी जीवित हैं। राजा द्रुपद की कन्या को स्वयंवर में अर्जुन ने प्राप्त किया है। पाँचों भाइयों ने विधिपूर्वक द्रौपदी के साथ ब्याह कर लिया है और कुंती के साथ वे सब द्रुपद के यहाँ कुशल से हैं।”",
"यह सुनकर धृतराष्ट्र हर्ष प्रकट करते हुए बोले—“भाई विदुर! तुम्हारी बातों से मुझे असीम आनंद हो रहा है। राजा द्रुपद की बेटी हमारी बहू बन गई है, यह बड़ा ही अच्छा हुआ।”",
"उधर दुर्योधन को जब मालूम हुआ कि पांडवों ने लाख के घर की भीषण आग से किसी तरह बचकर और एक बरस तक कहीं छिपे रहने के बाद अब पराक्रमी पांचालराज की कन्या से ब्याह कर लिया है और अब वे पहले से भी अधिक शक्तिशाली बन गए हैं, तो उनके प्रति उसके मन में ईर्ष्या की आग और अधिक प्रबल हो उठी। दबा हुआ वैर फिर से जाग उठा। दुर्योधन और दु:शासन ने शकुनि को अपना दुखड़ा सुनाया—“मामा अब क्या करें? अब तो द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न और शिखंडी भी उनके साथी बन गए हैं।”",
"उसके बाद कर्ण और दुर्योधन धृतराष्ट्र के पास गए और एकांत में उनसे दुर्योधन ने कहा—“पिता जी, जल्दी ही हम ऐसा कोई उपाय करें, जिससे हम सदा के लिए निश्चित हो सकें।",
"धृतराष्ट्र ने कहा, “बेटा, तुम बिल्कुल ठीक कहते हो। तुम्हीं बताओ, अब क्या करना चाहिए?”",
"दुर्योधन ने कहा, “तो फिर हमें कोई ऐसा उपाय करना चाहिए, जिससे पांडव यहाँ आएँ ही नहीं, क्योंकि यदि वे इधर आए, तो ज़रूर राज्य पर भी अपना अधिकार ज़माना चाहेंगे।”",
"इस पर कर्ण को हँसी आ गई। उसने कहा—“दुर्योधन! अब एक साल बाहर रहने और दुनिया देख लेने से उन्हें काफ़ी अनुभव प्राप्त हो चुका है। एक शक्ति संपन्न राजा के यहाँ उन्होंने शरण ली है। तिस पर उनके प्रति तुम्हारा वैरभाव उनसे छिपा नहीं है। इसलिए छल-प्रपंच से अब काम नहीं बनेगा। आपस में फूट डालकर भी उनको हराना संभव नहीं। राजा द्रुपद धन के प्रलोभन में पड़ने वाले व्यक्ति भी नहीं हैं। लालच देकर उनको अपने पक्ष में करने का विचार बेकार है। पांडवों का साथ वे कभी नहीं छोड़ेंगे द्रौपदी के मन में पांडवों के प्रति घृणा पैदा हो ही नहीं सकती। ऐसे विचार की ओर ध्यान देना भी ठीक नहीं है। हमारे पास केवल एक ही उपाय रह गया है और वह यह है कि पांडवों की ताक़त बढ़ने से पहले उन पर हमला कर दिया जाए।” कर्ण तथा अपने बेटों की परस्पर विरोधी बातें सुनकर धृतराष्ट्र इस बारे में कोई निर्णय नहीं ले सके। वे पितामह भीष्म तथा आचार्य द्रोण को बुलाकर उनसे सलाह-मशविरा करने लगे। पांडु पुत्रों के जीवित रहने की ख़बर पाकर पितामह भीष्म के मन में भी आनंद की लहरें उठ रही थीं।",
"भीष्म ने कहा—“बेटा! वीर पांडवों के साथ संधि करके आधा राज्य उन्हें दे देना ही उचित है।” आचार्य द्रोण ने भी यही सलाह दी। अंग नरेश कर्ण भी इस अवसर पर धृतराष्ट्र के दरबार में उपस्थित था। पांडवों को आधा राज्य देने की सलाह उसे बिलकुल अच्छी न लगी। दुर्योधन के प्रति कर्ण के हृदय में अपार स्नेह था। इस कारण द्रोणाचार्य की सलाह सुनकर उसके क्रोध की सीमा न रही। वह धृतराष्ट्र से बोला—“राजन्! मुझे यह देखकर बड़ा आश्चर्य हो रहा है कि आचार्य द्रोण भी आपको ऐसी कुमंत्रणा देते हैं! राजन्! शासकों का कर्तव्य है कि मंत्रणा देने वालों की नीयत को पहले परख लें, फिर उनकी मंत्रणा पर ध्यान दें।” कर्ण की इन बातों से द्रोणाचार्य क्रोधित हो गरजकर बोले—“दुष्ट कर्ण तुम राजा को ग़लत रास्ता बता रहे हो। यह निश्चित है कि यदि राजा धृतराष्ट्र ने मेरी तथा पितामह भीष्म की सलाह न मानी और तुम जैसों की सलाह पर चले, तो फिर कौरवों का नाश होने वाला है।”",
"इसके बाद धृतराष्ट्र ने धर्मात्मा विदुर से सलाह ली। विदुर ने कहा—“हमारे कुल के नायक भीष्म तथा आचार्य द्रोण ने जो बताया है, वही श्रेयस्कर है। कर्ण की सलाह किसी काम की नहीं है।”",
"अंत में सब सोच-विचारकर धृतराष्ट्र ने पांडु के पुत्रों को आधा राज्य देकर संधि कर लेने का निश्चय किया और पांडवों को द्रौपदी तथा कुंती सहित सादर लिवा लाने के लिए विदुर को पांचाल देश भेजा। विदुर पांचाल देश को रवाना हो गए। पांचाल देश में पहुँचकर विदुर ने राजा द्रुपद को अमूल्य उपहार भेंट करके उनका सम्मान किया और राजा धृतराष्ट्र की तरफ़ से अनुरोध किया कि पांडवों को द्रौपदी सहित हस्तिनापुर जाने की अनुमति दें। विदुर का अनुरोध सुनकर राजा द्रुपद के मन में शंका हुई। उनको धृतराष्ट्र पर विश्वास न हुआ। सिर्फ़ इतना कह दिया कि पांडवों की जैसी इच्छा हो, वही करना ठीक होगा। तब विदुर ने माता कुंती के पास जाकर अपने आने का कारण उन्हें बताया कुंती के मन में भी शंका हुई कि कहीं पुत्रों पर फिर कोई आफ़त न आ जाए।",
"विदुर ने उन्हें समझाया और धीरज देते हुए कहा—“देवी, आप निश्चित रहें। आपके बेटों का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा। वे संसार में ख़ूब यश कमाएँगे और विशाल राज्य के स्वामी बनेंगे। आप सब बेखटके हस्तिनापुर चलिए।”",
"आख़िर द्रुपद राजा ने भी अनुमति दे दी और विदुर के साथ कुंती और द्रौपदी समेत पांडव हस्तिनापुर को रवाना हो गए।",
"उधर हस्तिनापुर में पांडवों के स्वागत की बड़ी धूमधाम से तैयारियाँ होने लगीं। जैसा कि पहले ही निश्चय हो चुका था, युधिष्ठिर का यथाविधि राज्याभिषेक हुआ और आधा राज्य पांडवों के अधीन किया गया। राज्याभिषेक के उपरांत युधिष्ठिर को आशीर्वाद देते हुए धृतराष्ट्र ने कहा—“बेटा युधिष्ठिर! मेरे अपने बेटे बड़े दुरात्मा हैं। एक साथ रहने से संभव है कि तुम लोगों के बीच वैर बढ़े। इस कारण मेरी सलाह है। कि तुम खांडवप्रस्थ को अपनी राजधानी बना लेना और वहीं से राज करना। खांडवप्रस्थ वह नगरी है, जो पुरु नहुष एवं ययाति जैसे हमारे प्रतापी पूर्वजों की राजधानी रही है। हमारे वंश की पुरानी राजधानी खांडवप्रस्थ को फिर से बसाने का यश और श्रेय तुम्हीं को प्राप्त हो।”",
"धृतराष्ट्र के मीठे वचन मानकर पांडवों ने खांडवप्रस्थ के भग्नावशेषों पर, जोकि उस समय तक निर्जन वन बन चुका था, निपुण शिल्पकारों एक नए नगर का निर्माण कराया। सुंदर भवनों, अभेद्य दुर्गा आदि से सुशोभित उस नगर का नाम इंद्रप्रस्थ रखा गया। इंद्रप्रस्थ की शान एवं सुंदरता ऐसी हो गई कि सारा संसार उसकी प्रशंसा करते न थकता था। अपनी राजधानी में द्रौपदी और माता कुंती के साथ पाँचों पांडव तेईस बरस तक सुखपूर्वक जीवन बिताते हुए न्यायपूर्वक राज्य करते रहे।",
"draupadi ke svyanvar mein jo kuch hua tha, uski khabar jab hastinapur pahunchi to vidur baDe khush hue. dhritarashtr ke paas dauDe ge aur bole—“panDav abhi jivit hain. raja drupad ki kanya ko svyanvar mein arjun ne praapt kiya hai. panchon bhaiyon ne vidhipurvak draupadi ke saath byaah kar liya hai aur kunti ke saath ve sab drupad ke yahan kushal se hain. ”",
"ye sunkar dhritarashtr harsh prakat karte hue bole—“bhai vidur! tumhari baton se mujhe asim anand ho raha hai. raja drupad ki beti hamari bahu ban gai hai, ye baDa hi achchha hua. ”",
"udhar duryodhan ko jab malum hua ki panDvon ne laakh ke ghar ki bhishan aag se kisi tarah bachkar aur ek baras tak kahin chhipe rahne ke baad ab parakrami panchalraj ki kanya se byaah kar liya hai aur ab ve pahle se bhi adhik shaktishali ban ge hain, to unke prati uske man mein iirshya ki aag aur adhik prabal ho uthi. daba hua vair phir se jaag utha. duryodhan aur duhshasan ne shakuni ko apna—“mama ab kya karen? ab to dukhDa sunaya drupadakumar dhrishtadyumn aur shikhanDi bhi unke sathi ban ge hain. ”",
"uske baad karn aur duryodhan dhritarashtr ke paas ge aur ekaant mein unse duryodhan ne kaha—“pita ji, jaldi hi hum aisa koi upaay karen, jisse hum sada ke liye nishchit ho saken.",
"dhritarashtr ne kaha, “beta, tum bilkul theek kahte ho. tumhin batao, ab kya karna chahiye?”",
"duryodhan ne kaha, “to phir hamein koi aisa upaay karna chahiye, jisse panDav yahan ayen hi nahin, kyonki yadi ve idhar aaye, to zarur rajya par bhi apna adhikar zamana chahenge. ”",
"is par karn ko hansi aa gai. usne kaha—“duryodhan! ab ek saal bahar rahne aur duniya dekh lene se unhen kafi anubhav praapt ho chuka hai. ek shakti sampann raja ke yahan unhonne sharan li hai. tis par unke prati tumhara vairbhav unse chhipa nahin hai. isliye chhal prpanch se ab kaam nahin banega. aapas mein phoot Dalkar bhi unko harana sambhav nahin. raja drupad dhan ke pralobhan mein paDnevale vyakti bhi nahin hain. lalach dekar unko apne paksh mein karne ka vichar bekar hai. panDvon ka saath ve kabhi nahin chhoDenge draupadi ke man mein panDvon ke prati ghrina paida ho hi nahin sakti. aise vichar ki or dhyaan dena bhi theek nahin hai. hamare paas keval ek hi upaay rah gaya hai aur wo ye hai ki panDvon ki taqat baDhne se pahle un par hamla kar diya jaye. ” karn tatha apne beton ki paraspar virodhi baten sunkar dhritarashtr is bare mein koi nirnay nahin le sake. ve pitamah bheeshm tatha acharya dron ko bulakar unse salah mashavira karne lage. panDu putron ke jivit rahne ki khabar pakar pitamah bheeshm ke man mein bhi anand ki lahren uth rahi theen.",
"bheeshm ne kaha—“beta! veer panDvon ke saath sandhi karke aadha rajya unhen de dena hi uchit hai. ” acharya dron ne bhi yahi salah di. ang naresh karn bhi is avsar par dhritarashtr ke darbar mein upasthit tha. panDvon ko aadha rajya dene ki salah use bilkul achchhi na lagi. duryodhan ke prati karn ke hriday mein apar sneh tha. is karan dronacharya ki salah sunkar uske krodh ki sima na rahi. wo dhritarashtr se bola—“rajan! mujhe ye dekhkar baDa ashcharya ho raha hai ki acharya dron bhi aapko aisi kumantrna dete hain! rajan! shaskon ka kartavya hai ki mantrna denevalon ki niyat ko pahle parakh len, phir unki mantrna par dhyaan den. ” karn ki in baton se dronacharya krodhit ho garajkar bole—“dusht karn tum raja ko ghalat rasta bata rahe ho. ye nishchit hai ki yadi raja dhritarashtr ne meri tatha jaison ne pitamah bheeshm ki salah na mani aur tum ki salah par chale, to phir kaurvon ka naash honevala hai. ”",
"iske baad dhritarashtr ne dharmatma vidur se salah li. vidur ne kaha—“hamare kul ke nayak bheeshm tatha acharya dron ne jo bataya hai, vahi shreyaskar hai. karn ki salah kisi kaam ki nahin hai. ”",
"ant mein sab soch vicharkar dhritarashtr ne panDu ke putron ko aadha rajya dekar sandhi kar lene ka nishchay kiya aur panDvon ko draupadi tatha kunti sahit sadar liva lane ke liye vidur ko panchal desh bheja. vidur panchal desh ko ravana ho ge. panchal desh mein pahunchakar vidur ne raja drupad ko amulya uphaar bhent karke unka samman kiya aur raja dhritarashtr ki taraf se anurodh kiya ki panDvon ko draupadi sahit hastinapur jane ki anumti den. vidur ka anurodh sunkar raja drupad ke man mein shanka hui. unko dhritarashtr par vishvas na hua. sirf itna kah diya ki panDvon ki jaisi ichchha ho, vahi karna theek hoga. tab vidur ne mata kunti ke paas jakar apne aane ka karan unhen bataya kunti ke man mein bhi shanka hui ki kahin putron par phir koi aafat na aa jaye.",
"vidur ne unhen samjhaya aur dhiraj dete hue kaha—“devi, aap nishchit rahen. aapke beton ka koi kuch nahin bigaD sakega. ve sansar mein khoob yash kamayenge aur vishal rajya ke svami banenge. aap sab bekhatke hastinapur chaliye. ”",
"akhir drupad raja ne bhi anumti de di aur vidur ke saath kunti aur draupadi samet panDav hastinapur ko ravana ho ge.",
"udhar hastinapur mein panDvon ke svagat ki baDi dhumdham se taiyariyan hone lagin. jaisaki pahle hi nishchay ho chuka tha, yudhishthir ka yathavidhi rajyabhishek hua aur aadha rajya panDvon ke adhin kiya gaya. rajyabhishek ke upraant yudhishthir ko ashirvad dete hue dhritarashtr ne kaha—“beta yudhishthir! mere apne bete baDe duratma hain. ek saath rahne se sambhav hai ki tum logon ke beech vair baDhe. is karan meri salah hai. ki tum khanDvaprasth ko apni rajdhani bana lena aur vahin se raaj karna. khanDvaprasth wo nagri hai, jo puru nahush evan yayati jaise hamare pratapi purvjon ki rajdhani rahi hai. hamare vansh ki purani rajdhani khanDvaprasth ko phir se basane ka yash aur shrey tumhin ko praapt ho. ”",
"dhritarashtr ke mithe vachan mankar panDvon ne khanDvaprasth ke bhagnavsheshon par, joki us samay tak nirjan van ban chuka tha, nipun shilpkaron ek ne nagar ka nirman karaya. sundar bhavnon, abhedya durga aadi se sushobhit us nagar ka naam indraprastha rakha gaya. indraprastha ki shaan evan sundarta aisi ho gai ki sara sansar uski prshansa karte na thakta tha. apni rajdhani mein draupadi aur mata kunti ke saath panchon panDav teis baras tak sukhpurvak jivan bitate hue nyaypurvak rajya karte rahe.",
"draupadi ke svyanvar mein jo kuch hua tha, uski khabar jab hastinapur pahunchi to vidur baDe khush hue. dhritarashtr ke paas dauDe ge aur bole—“panDav abhi jivit hain. raja drupad ki kanya ko svyanvar mein arjun ne praapt kiya hai. panchon bhaiyon ne vidhipurvak draupadi ke saath byaah kar liya hai aur kunti ke saath ve sab drupad ke yahan kushal se hain. ”",
"ye sunkar dhritarashtr harsh prakat karte hue bole—“bhai vidur! tumhari baton se mujhe asim anand ho raha hai. raja drupad ki beti hamari bahu ban gai hai, ye baDa hi achchha hua. ”",
"udhar duryodhan ko jab malum hua ki panDvon ne laakh ke ghar ki bhishan aag se kisi tarah bachkar aur ek baras tak kahin chhipe rahne ke baad ab parakrami panchalraj ki kanya se byaah kar liya hai aur ab ve pahle se bhi adhik shaktishali ban ge hain, to unke prati uske man mein iirshya ki aag aur adhik prabal ho uthi. daba hua vair phir se jaag utha. duryodhan aur duhshasan ne shakuni ko apna—“mama ab kya karen? ab to dukhDa sunaya drupadakumar dhrishtadyumn aur shikhanDi bhi unke sathi ban ge hain. ”",
"uske baad karn aur duryodhan dhritarashtr ke paas ge aur ekaant mein unse duryodhan ne kaha—“pita ji, jaldi hi hum aisa koi upaay karen, jisse hum sada ke liye nishchit ho saken.",
"dhritarashtr ne kaha, “beta, tum bilkul theek kahte ho. tumhin batao, ab kya karna chahiye?”",
"duryodhan ne kaha, “to phir hamein koi aisa upaay karna chahiye, jisse panDav yahan ayen hi nahin, kyonki yadi ve idhar aaye, to zarur rajya par bhi apna adhikar zamana chahenge. ”",
"is par karn ko hansi aa gai. usne kaha—“duryodhan! ab ek saal bahar rahne aur duniya dekh lene se unhen kafi anubhav praapt ho chuka hai. ek shakti sampann raja ke yahan unhonne sharan li hai. tis par unke prati tumhara vairbhav unse chhipa nahin hai. isliye chhal prpanch se ab kaam nahin banega. aapas mein phoot Dalkar bhi unko harana sambhav nahin. raja drupad dhan ke pralobhan mein paDnevale vyakti bhi nahin hain. lalach dekar unko apne paksh mein karne ka vichar bekar hai. panDvon ka saath ve kabhi nahin chhoDenge draupadi ke man mein panDvon ke prati ghrina paida ho hi nahin sakti. aise vichar ki or dhyaan dena bhi theek nahin hai. hamare paas keval ek hi upaay rah gaya hai aur wo ye hai ki panDvon ki taqat baDhne se pahle un par hamla kar diya jaye. ” karn tatha apne beton ki paraspar virodhi baten sunkar dhritarashtr is bare mein koi nirnay nahin le sake. ve pitamah bheeshm tatha acharya dron ko bulakar unse salah mashavira karne lage. panDu putron ke jivit rahne ki khabar pakar pitamah bheeshm ke man mein bhi anand ki lahren uth rahi theen.",
"bheeshm ne kaha—“beta! veer panDvon ke saath sandhi karke aadha rajya unhen de dena hi uchit hai. ” acharya dron ne bhi yahi salah di. ang naresh karn bhi is avsar par dhritarashtr ke darbar mein upasthit tha. panDvon ko aadha rajya dene ki salah use bilkul achchhi na lagi. duryodhan ke prati karn ke hriday mein apar sneh tha. is karan dronacharya ki salah sunkar uske krodh ki sima na rahi. wo dhritarashtr se bola—“rajan! mujhe ye dekhkar baDa ashcharya ho raha hai ki acharya dron bhi aapko aisi kumantrna dete hain! rajan! shaskon ka kartavya hai ki mantrna denevalon ki niyat ko pahle parakh len, phir unki mantrna par dhyaan den. ” karn ki in baton se dronacharya krodhit ho garajkar bole—“dusht karn tum raja ko ghalat rasta bata rahe ho. ye nishchit hai ki yadi raja dhritarashtr ne meri tatha jaison ne pitamah bheeshm ki salah na mani aur tum ki salah par chale, to phir kaurvon ka naash honevala hai. ”",
"iske baad dhritarashtr ne dharmatma vidur se salah li. vidur ne kaha—“hamare kul ke nayak bheeshm tatha acharya dron ne jo bataya hai, vahi shreyaskar hai. karn ki salah kisi kaam ki nahin hai. ”",
"ant mein sab soch vicharkar dhritarashtr ne panDu ke putron ko aadha rajya dekar sandhi kar lene ka nishchay kiya aur panDvon ko draupadi tatha kunti sahit sadar liva lane ke liye vidur ko panchal desh bheja. vidur panchal desh ko ravana ho ge. panchal desh mein pahunchakar vidur ne raja drupad ko amulya uphaar bhent karke unka samman kiya aur raja dhritarashtr ki taraf se anurodh kiya ki panDvon ko draupadi sahit hastinapur jane ki anumti den. vidur ka anurodh sunkar raja drupad ke man mein shanka hui. unko dhritarashtr par vishvas na hua. sirf itna kah diya ki panDvon ki jaisi ichchha ho, vahi karna theek hoga. tab vidur ne mata kunti ke paas jakar apne aane ka karan unhen bataya kunti ke man mein bhi shanka hui ki kahin putron par phir koi aafat na aa jaye.",
"vidur ne unhen samjhaya aur dhiraj dete hue kaha—“devi, aap nishchit rahen. aapke beton ka koi kuch nahin bigaD sakega. ve sansar mein khoob yash kamayenge aur vishal rajya ke svami banenge. aap sab bekhatke hastinapur chaliye. ”",
"akhir drupad raja ne bhi anumti de di aur vidur ke saath kunti aur draupadi samet panDav hastinapur ko ravana ho ge.",
"udhar hastinapur mein panDvon ke svagat ki baDi dhumdham se taiyariyan hone lagin. jaisaki pahle hi nishchay ho chuka tha, yudhishthir ka yathavidhi rajyabhishek hua aur aadha rajya panDvon ke adhin kiya gaya. rajyabhishek ke upraant yudhishthir ko ashirvad dete hue dhritarashtr ne kaha—“beta yudhishthir! mere apne bete baDe duratma hain. ek saath rahne se sambhav hai ki tum logon ke beech vair baDhe. is karan meri salah hai. ki tum khanDvaprasth ko apni rajdhani bana lena aur vahin se raaj karna. khanDvaprasth wo nagri hai, jo puru nahush evan yayati jaise hamare pratapi purvjon ki rajdhani rahi hai. hamare vansh ki purani rajdhani khanDvaprasth ko phir se basane ka yash aur shrey tumhin ko praapt ho. ”",
"dhritarashtr ke mithe vachan mankar panDvon ne khanDvaprasth ke bhagnavsheshon par, joki us samay tak nirjan van ban chuka tha, nipun shilpkaron ek ne nagar ka nirman karaya. sundar bhavnon, abhedya durga aadi se sushobhit us nagar ka naam indraprastha rakha gaya. indraprastha ki shaan evan sundarta aisi ho gai ki sara sansar uski prshansa karte na thakta tha. apni rajdhani mein draupadi aur mata kunti ke saath panchon panDav teis baras tak sukhpurvak jivan bitate hue nyaypurvak rajya karte rahe.",
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"This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.",
"You have remaining out of 5 free poetry pages per month. Log In or Register to become Rekhta Family member to access the full website.",
"Sign up and enjoy FREE unlimited access to a whole Universe of Urdu Poetry, Language Learning, Sufi Mysticism, Rare Texts",
"जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।",
"Devoted to the preservation & promotion of Urdu",
"Urdu poetry, urdu shayari, shayari in urdu, poetry in urdu",
"A Trilingual Treasure of Urdu Words",
"Online Treasure of Sufi and Sant Poetry",
"The best way to learn Urdu online",
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"हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश"
] |
बाल महाभारत : पहला, दूसरा और तीसरा दिन - कथा | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kathaen/class-7-ncert-7/baal-mahabharat-pahla-dusra-aur-tisra-din-chakraborty-rajagopalacharya-kathaen?sort= | [
"प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।",
"कौरवों की सेना के अग्रभाग पर प्रायः दुःशासन ही रहा करता था और पांडवों की सेना के आगे भीमसेन बाप ने बेटे को मारा। बेटे ने पिता के प्राण लिए। भानजे ने मामा का वध किया। मामा ने भानजे का काम तमाम किया। युद्ध का यह दृश्य था। पहले दिन की लड़ाई में भीष्म ने पांडवों पर ऐसा हमला किया कि पांडव सेना थर्रा उठी। युधिष्ठिर के मन में भय छा गया।",
"दुर्योधन आनंद के कारण झूमता हुआ दिखाई दिया। पांडव घबराहट के मारे श्रीकृष्ण के पास गए। श्रीकृष्ण युधिष्ठिर और पांडव-सेना का धीरज बँधाने लगे।",
"पहले दिन की लड़ाई में पांडव सेना की जो दुर्गति हुई थी, उससे सबक लेकर पांडव सेना के नायक धृष्टद्युम्न ने दूसरे दिन बड़ी सतर्कता के साथ व्यूह रचना की और सैनिकों का साहस बँधाया।",
"सारी कौरव-सेना में तीन ही ऐसे वीर थे, जो अर्जुन का मुक़ाबला कर सकते थे—भीष्म, द्रोण और कर्ण। सारे कौरव-वीरों को अपना प्रतिरोध करते हुए देखकर अर्जुन ने अपना गांडीव हाथ में लेकर इस कुशलता से युद्ध किया कि कौरव-सेना के सभी महारथी देखकर दंग रह गए। भीष्म ने अर्जुन पर ज़ोरों से हमला कर दिया। इस प्रकार अर्जुन और भीष्म के बीच बड़ी देर तक युद्ध होता रहा। फिर भी हार जीत का कोई निर्णय न हो सका। एक ओर यह अद्भुत युद्ध हो रहा था, तो दूसरी ओर द्रुपद का पुत्र धृष्टद्युम्न, जो द्रोणाचार्य का जन्म से बैरी था, आचार्य के साथ युद्धरत था।",
"सात्यकि द्वारा छोड़े गए एक बाण ने भीष्म के सारथी को मार गिराया। सारथी के गिर जाने पर घोड़े हवा से बातें करते हुए अत्यंत वेग से भाग खड़े हुए। इससे कौरव-सेना में बड़ी तबाही मची। सब कौरव-वीर पश्चिम की ओर देख-देखकर यह मनाने लगे कि कब सूर्यास्त हो और युद्ध बंद हो, ताकि इस तबाही से मुक्ति मिले।",
"सूर्य अस्त हुआ। संध्या हुई और युद्ध बंद हुआ। पहले दिन की लड़ाई के बाद पांडवों में जो आतंक छाया हुआ था, वह दूसरे दिन के युद्ध का अंत होने के बाद कौरवों के मन पर छा गया। तीसरे दिन दोनों सेनाओं की व्यूह-रचना हो जाने के बाद दोनों पक्ष फिर से युद्ध में लग गए और एक-दूसरे पर हमला करने लगे। भीमसेन द्वारा चलाए एक बाण से दुर्योधन ज़ोर का धक्का खाकर बेहोश हो गया और रथ पर गिर पड़ा। यह देखकर उसके सारथी ने सोचा कि दुर्योधन को लड़ाई के मैदान से हटा लिया जाए, जिससे कौरव-सेना को दुर्योधन के मूर्छित होने का पता न चले। इन्हीं विचारों से प्रेरित होकर सारथी जल्दी से रथ को युद्ध-भूमि से हटाकर छावनी की ओर ले गया, किंतु उसने जो सोचा था, हुआ उससे उलटा ही। अनुशासन के टूटने और सेना में खलबली मच जाने का कारण वह स्वयं ही बन गया। सैनिकों में भगदड़ मच गई।",
"इधर पांडवों की सेना में आनंद छाया हुआ था। दिन के पहले भाग में उन्होंने कौरव-सेना पर जिस प्रकार हमला करके उसे तितर-बितर कर दिया था, उन्हें इस बात की आशा न थी कि भीष्म इस बिखरी हुई सेना को फिर से इकट्ठा करके उन पर टूट पड़ेंगे। भीष्म ने ऐसा भयानक हमला किया कि पांडव-सेना के पाँव उखड़ गए। श्रीकृष्ण, अर्जुन और शिखंडी के प्रयत्नों के बावजूद सेना अनुशासन में न रह सकी। भीष्म के छोड़े गए कई बाण अर्जुन एवं श्रीकृष्ण के शरीर पर लग ही गए। इस पर श्रीकृष्ण को असीम क्रोध आ गया। उनसे रहा न गया। उन्होंने ख़ुद भीष्म को मारने की ठानी। अर्जुन यह देखकर सन्न रह गया। उसने सोचा कि यह तो बड़ा अनर्थ हो जाएगा। वह रथ से उतरा और श्रीकृष्ण के पीछे भागा। अर्जुन के आग्रह पर श्रीकृष्ण वापस लौटकर फिर से अर्जुन का रथ हाँकने लगे। श्रीकृष्ण के इस कार्य से अर्जुन उत्तेजित हो उठा और कौरव-सेना पर वह वज्र के समान गिरा। शाम होते-होते कौरव-सेना बड़ी बुरी तरह से हार गई। थकी हारी सेना मशालों की रोशनी में अपने शिविरों को लौट चली।",
"kaurvon ki sena ke agrabhag par praayः duःshasan hi raha karta tha aur panDvon ki sena ke aage bhimasen baap ne bete ko mara. bete ne pita ke praan liye. bhanje ne mama ka vadh kiya. mama ne bhanje ka kaam tamam kiya. yuddh ka ye drishya tha. pahle din ki laDai mein bheeshm ne panDvon par aisa hamla kiya ki panDav sena tharra uthi. yudhishthir ke man mein bhay chha gaya.",
"duryodhan anand ke karan jhumta hua dikhai diya. panDav ghabrahat ke mare shrikrishn ke paas ge. shrikrishn yudhishthir aur panDav sena ka dhiraj bandhane lage.",
"pahle din ki laDai mein panDav sena ki jo durgati hui thi, usse sabak lekar panDav sena ke nayak dhrishtadyumn ne dusre din baDi satarkata ke saath vyooh rachna ki aur sainikon ka sahas bandhaya.",
"sari kaurav sena mein teen hi aise veer the, jo arjun ka muqabala kar sakte the—bhishm, dron aur karn. sare kaurav viron ko apna pratirodh karte hue dekhkar arjun ne apna ganDiv haath mein lekar is kushalta se yuddh kiya ki kaurav sena ke sabhi maharathi dekhkar dang rah ge. bheeshm ne arjun par zoron se hamla kar diya. is prakar arjun aur bheeshm ke beech baDi der tak yuddh hota raha. phir bhi haar jeet ka koi nirnay na ho saka. ek or ye adbhut yuddh ho raha tha, to dusri or drupad ka putr dhrishtadyumn, jo dronacharya ka janm se bairi tha, acharya ke saath yuddharat tha.",
"satyaki dvara chhoDe ge ek baan ne bheeshm ke sarthi ko maar giraya. sarthi ke gir jane par ghoDe hava se baten karte hue atyant veg se bhaag khaDe hue. isse kaurav sena mein baDi tabahi machi. sab kaurav veer pashchim ki or dekh dekhkar ye manane lage ki kab suryast ho aur yuddh band ho, taki is tabahi se mukti mile.",
"surya ast hua. sandhya hui aur yuddh band hua. pahle din ki laDai ke baad panDvon mein jo atank chhaya hua tha, wo dusre din ke yuddh ka ant hone ke baad kaurvon ke man par chha gaya. tisre din donon senaon ki vyooh rachna ho jane ke baad donon paksh phir se yuddh mein lag ge aur ek dusre par hamla karne lage. bhimasen dvara chalaye ek baan se duryodhan zor ka dhakka khakar behosh ho gaya aur rath par gir paDa. ye dekhkar uske sarthi ne socha ki duryodhan ko laDai ke maidan se hata liya jaye, jisse kaurav sena ko duryodhan ke murchhit hone ka pata na chale. inhin vicharon se prerit hokar sarthi jaldi se rath ko yuddh bhumi se hatakar chhavani ki or le gaya, kintu usne jo socha tha, hua usse ulta hi. anushasan ke tutne aur sena mein khalbali mach jane ka karan wo svayan hi ban gaya. sainikon mein bhagdaD mach gai.",
"idhar panDvon ki sena mein anand chhaya hua tha. din ke pahle bhaag mein unhonne kaurav sena par jis prakar hamla karke use titar bitar kar diya tha, unhen is baat ki aasha na thi ki bheeshm is bikhri hui sena ko phir se ikattha karke un par toot paDenge. bheeshm ne aisa bhayanak hamla kiya ki panDav sena ke paanv ukhaD ge. shrikrishn, arjun aur shikhanDi ke pryatnon ke bavjud sena anushasan mein na rah saki. bheeshm ke chhoDe ge kai baan arjun evan shrikrishn ke sharir par lag hi ge. is par shrikrishn ko asim krodh aa gaya. unse raha na gaya. unhonne khud bheeshm ko marne ki thani. arjun ye dekhkar sann rah gaya. usne socha ki ye to baDa anarth ho jayega. wo rath se utra aur shrikrishn ke pichhe bhaga. arjun ke agrah par shrikrishn vapas lautkar phir se arjun ka rath hankne lage. shrikrishn ke is karya se arjun uttejit ho utha aur kaurav sena par wo vajr ke saman gira. shaam hote hote kaurav sena baDi buri tarah se haar gai. thaki hari sena mashalon ki roshni mein apne shiviron ko laut chali.",
"kaurvon ki sena ke agrabhag par praayः duःshasan hi raha karta tha aur panDvon ki sena ke aage bhimasen baap ne bete ko mara. bete ne pita ke praan liye. bhanje ne mama ka vadh kiya. mama ne bhanje ka kaam tamam kiya. yuddh ka ye drishya tha. pahle din ki laDai mein bheeshm ne panDvon par aisa hamla kiya ki panDav sena tharra uthi. yudhishthir ke man mein bhay chha gaya.",
"duryodhan anand ke karan jhumta hua dikhai diya. panDav ghabrahat ke mare shrikrishn ke paas ge. shrikrishn yudhishthir aur panDav sena ka dhiraj bandhane lage.",
"pahle din ki laDai mein panDav sena ki jo durgati hui thi, usse sabak lekar panDav sena ke nayak dhrishtadyumn ne dusre din baDi satarkata ke saath vyooh rachna ki aur sainikon ka sahas bandhaya.",
"sari kaurav sena mein teen hi aise veer the, jo arjun ka muqabala kar sakte the—bhishm, dron aur karn. sare kaurav viron ko apna pratirodh karte hue dekhkar arjun ne apna ganDiv haath mein lekar is kushalta se yuddh kiya ki kaurav sena ke sabhi maharathi dekhkar dang rah ge. bheeshm ne arjun par zoron se hamla kar diya. is prakar arjun aur bheeshm ke beech baDi der tak yuddh hota raha. phir bhi haar jeet ka koi nirnay na ho saka. ek or ye adbhut yuddh ho raha tha, to dusri or drupad ka putr dhrishtadyumn, jo dronacharya ka janm se bairi tha, acharya ke saath yuddharat tha.",
"satyaki dvara chhoDe ge ek baan ne bheeshm ke sarthi ko maar giraya. sarthi ke gir jane par ghoDe hava se baten karte hue atyant veg se bhaag khaDe hue. isse kaurav sena mein baDi tabahi machi. sab kaurav veer pashchim ki or dekh dekhkar ye manane lage ki kab suryast ho aur yuddh band ho, taki is tabahi se mukti mile.",
"surya ast hua. sandhya hui aur yuddh band hua. pahle din ki laDai ke baad panDvon mein jo atank chhaya hua tha, wo dusre din ke yuddh ka ant hone ke baad kaurvon ke man par chha gaya. tisre din donon senaon ki vyooh rachna ho jane ke baad donon paksh phir se yuddh mein lag ge aur ek dusre par hamla karne lage. bhimasen dvara chalaye ek baan se duryodhan zor ka dhakka khakar behosh ho gaya aur rath par gir paDa. ye dekhkar uske sarthi ne socha ki duryodhan ko laDai ke maidan se hata liya jaye, jisse kaurav sena ko duryodhan ke murchhit hone ka pata na chale. inhin vicharon se prerit hokar sarthi jaldi se rath ko yuddh bhumi se hatakar chhavani ki or le gaya, kintu usne jo socha tha, hua usse ulta hi. anushasan ke tutne aur sena mein khalbali mach jane ka karan wo svayan hi ban gaya. sainikon mein bhagdaD mach gai.",
"idhar panDvon ki sena mein anand chhaya hua tha. din ke pahle bhaag mein unhonne kaurav sena par jis prakar hamla karke use titar bitar kar diya tha, unhen is baat ki aasha na thi ki bheeshm is bikhri hui sena ko phir se ikattha karke un par toot paDenge. bheeshm ne aisa bhayanak hamla kiya ki panDav sena ke paanv ukhaD ge. shrikrishn, arjun aur shikhanDi ke pryatnon ke bavjud sena anushasan mein na rah saki. bheeshm ke chhoDe ge kai baan arjun evan shrikrishn ke sharir par lag hi ge. is par shrikrishn ko asim krodh aa gaya. unse raha na gaya. unhonne khud bheeshm ko marne ki thani. arjun ye dekhkar sann rah gaya. usne socha ki ye to baDa anarth ho jayega. wo rath se utra aur shrikrishn ke pichhe bhaga. arjun ke agrah par shrikrishn vapas lautkar phir se arjun ka rath hankne lage. shrikrishn ke is karya se arjun uttejit ho utha aur kaurav sena par wo vajr ke saman gira. shaam hote hote kaurav sena baDi buri tarah se haar gai. thaki hari sena mashalon ki roshni mein apne shiviron ko laut chali.",
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"जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।",
"Devoted to the preservation & promotion of Urdu",
"Urdu poetry, urdu shayari, shayari in urdu, poetry in urdu",
"A Trilingual Treasure of Urdu Words",
"Online Treasure of Sufi and Sant Poetry",
"The best way to learn Urdu online",
"Best of Urdu & Hindi Books",
"हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश"
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बाल महाभारत : राजदूत संजय - कथा | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kathaen/class-7-ncert-7/baal-mahabharat-rajadut-sanjay-chakraborty-rajagopalacharya-kathaen?sort= | [
"प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।",
"उपप्लव्य नगर में रहते हुए पांडवों ने अपने मित्र राजाओं को दूतों द्वारा संदेश भेजकर कोई सात अक्षौहिणी सेना एकत्र की। उधर कौरवों ने भी अपने मित्रों द्वारा काफ़ी बड़ी सेना इकट्ठी कर ली, जो ग्यारह अक्षौहिणी तक हो गई थी। पांचाल नरेश के पुरोहित, जो युधिष्ठिर की ओर से राजदूत बनकर हस्तिनापुर गए थे, नियत समय पर धृतराष्ट्र की राजसभा में पहुँचे। यथाविधि कुशल-समाचार पूछने के बाद पांडवों की ओर से संधि का प्रस्ताव करते हुए वह बोले—“युधिष्ठिर का विचार है कि युद्ध से संसार का नाश ही होगा और इसी कारण वे युद्ध से घृणा करते हैं। वे लड़ना नहीं चाहते। इसलिए न्याय तथा पहले के समझौते के अनुसार यह उचित होगा कि आप उनका हिस्सा देने की कृपा करें। इसमें विलंब न कीजिए।”",
"यह सुनकर विवेकशील और महारथी भीष्म बोले—“यही न्यायोचित है कि उन्हें उनका राज्य वापस दे दिया जाए।”",
"भीष्म की बात कर्ण को अप्रिय लगी। वह बड़े क्रोध के साथ भीष्म की बात काटकर दूत की ओर देखता हुआ बोला—“तेरहवाँ बरस पूरा होने से पहले ही उन्होंने प्रतिज्ञा भंग करके अपने जाएँगे।” आपको प्रकट कर दिया है। इसलिए शर्त के अनुसार उनको फिर से बारह बरस के लिए वनवास भोगना पड़ेगा।”",
"कर्ण के इस प्रकार बीच में उनकी बात काटकर बोलने से भीष्म को बड़ा क्रोध आया। वह बोले—“राधा-पुत्र! तुम बेकार की बातें कर रहे हो। यदि हम युधिष्ठिर के दूत के कहे अनुसार संधि नहीं करेंगे, तो निश्चय ही युद्ध छिड़ जाएगा और उसमें दुर्योधन आदि सबको पराजित होकर मृत्यु के मुँह में जाना पड़ेगा।”",
"भीष्म की बातों से सभा में खलबली मचते देखकर धृतराष्ट्र बोले—“सारे संसार की भलाई को ध्यान में रखकर मैंने यह निश्चय किया है कि अपनी तरफ़ से संजय को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजा जाए।”",
"फिर धृतराष्ट्र ने संजय को बुलाकर कहा—“संजय, तुम पांडु पुत्रों के पास जाओ। वहाँ श्रीकृष्ण, सात्यकि विराट आदि राजाओं से भी कहना कि मैंने सप्रेम उन सबकी कुशल पूछी है। वहाँ जाकर मेरी ओर से युद्ध न होने की चेष्टा करो।”",
"संजय उपप्लव्य को रवाना हो गए। वहाँ पहुँचकर युधिष्ठिर की सभा में सबको विधिवत् कह सुनाया। प्रणाम करके बोले—“धर्मराज! महाजन धृतराष्ट्र ने आपकी कुशल पूछी है और कहा है कि वह युद्ध की बात नहीं करना चाहते। वह तो आपकी मित्रता चाहते हैं।”",
"संजय की ये बातें सुनकर राजा युधिष्ठिर बड़े प्रसन्न हुए और बोले—“मैं तो संधि ही चाहता हूँ। युद्ध का विचार करते ही मेरा मन घृणा से भर जाता है। यदि हमें अपना राज्य वापस मिल जाए, तो हम अपने सारे कष्ट भूल जाएँगे।”",
"संजय ने कहा—“युधिष्ठिर! धृतराष्ट्र के पुत्र न तो अपने पिता की बात पर ध्यान देते हैं, न भीष्म की ही कुछ सुनते हैं। आप सदा से ही न्याय पर स्थिर हैं। आप युद्ध की चाह न करें।”",
"संजय की ये बातें सुनकर युधिष्ठिर बोले—“संजय! श्रीकृष्ण दोनों पक्षों के लोगों के हितचिंतक हैं। वह जो सलाह देंगे, वैसा ही मैं करूँगा।”",
"तभी श्रीकृष्ण बोले—“मैं स्वयं हस्तिनापुर जाना उचित समझता हूँ। मेरी यह इच्छा है कि कौरवों से संधि की जा सकती हो, तो की जाए।”",
"श्रीकृष्ण के बाद युधिष्ठिर फिर बोले—“संजय! कौरवों की राजसभा में जाकर महाराज को मेरी तरफ़ से प्रार्थनापूर्वक संदेश सुनाना कि कम-से-कम हमें पाँच गाँव ही दे दें। हम पाँचों भाई इसी से संतोष कर लेंगे और संधि करने को तैयार होंगे।”",
"संजय के इस प्रकार कहने पर भीष्म दुर्योधन को दुबारा समझाने के बाद धृतराष्ट्र से बोले—“राजन! कर्ण बार-बार यही दम भर रहा है कि ख़त्म कर डालूँगा। किंतु मैं कहता हूँ कि पांडवों की शक्ति का सोलहवाँ हिस्सा भी उसमें नहीं है। तुम्हारा पुत्र उसी के कहे में चलता है और अपने नाश का आप ही आयोजन कर रहा है। विराट नगर पर आक्रमण करते समय, जब अर्जुन ने हमारा दर्प चूर कर दिया था, तब कर्ण वहीं तो था! गंधर्व जब दुर्योधन को क़ैद करके ले गए थे, तब यह डपोरशंख कर्ण कहाँ छिप गया था? गंधर्वो को अर्जुन ने ही तो भगाया था और दुर्योधन को उनकी क़ैद से मुक्त किया था।”",
"इसके बाद धृतराष्ट्र ने संतप्त होकर दुर्योधन को समझाया—“बेटा, भीष्म पितामह जो कहते हैं, वही करने योग्य है। युद्ध न होने दो। साँध करना ही उचित है।”",
"दुर्योधन, जो यह सब बातें सुन रहा था, उठा और अपने पिता को साहस बँधाता हुआ बोला—“पिता जी, आप भी कैसे भोले हैं, जो यह भी नहीं समझते हैं कि स्वयं युधिष्ठिर हमारा सैन्य-बल देखकर घबरा उठे हैं और इसी कारण आधे राज्य की बात छोड़कर अब केवल पाँच गाँवों की याचना कर रहे हैं। क्या उनकी इस पाँच गाँव वाली माँग से यह सिद्ध नहीं होता है कि हमारी ग्यारह अक्षौहिणी सेना देखकर युधिष्ठिर के मन में भय उत्पन्न हो गया है? इतने पर भी आपको हमारी विजय के बारे में संदेह हो रहा है। यह बड़े आश्चर्य की बात है!”",
"धृतराष्ट्र ने समझाते हुए कहा—“बेटा, जब पाँच गाँव देने से ही युद्ध टलता है, तो बाज़ आओ युद्ध से तुम्हारे पास तो फिर भी पूरा-का-पूरा राज्य रह जाता है। अब हठ न करो।”",
"लेकिन इस उपदेश से दुर्योधन चिढ़ गया और बोला—“मैं तो सुई की नोक के बराबर भूमि भी पांडवों को नहीं देना चाहता हूँ। आपकी जो इच्छा हो, करें। अब इसका फैसला युद्धभूमि में ही होगा।” यह कहता-कहता दुर्योधन उठ खड़ा हुआ और बाहर चला आया। सभा में खलबली मच गई और इस गड़बड़ी में सभा भंग हो गई।",
"इधर संजय के उपप्लव्य से रवाना हो जाने के बाद युधिष्ठिर श्रीकृष्ण से बोले—“वासुदेव! संजय तो महाराज धृतराष्ट्र के मानो दूसरे प्राण हैं। उनकी बातों से मुझे महाराज के मन की बात स्पष्ट रूप से मालूम हो गई है। मैंने तो कहला भेजा है कि मैं तो केवल पाँच गाँवों से ही संतोष कर लूँगा, किंतु ऐसा लगता है कि वे दुष्ट इतना भी देने को तैयार नहीं होंगे। इस बारे में अब आप ही सलाह दे सकते हैं।”",
"युधिष्ठिर की बातें सुनकर श्रीकृष्ण ने कहा—“युधिष्ठिर! मैंने भी एक बार स्वयं हस्तिनापुर जाने का इरादा कर लिया है। तुम लोगों के स्वत्वों को युद्ध से बचाने की चेष्टा करूँगा। यदि मैं सफल हुआ, तो इससे सारे संसार का कल्याण होगा।”",
"युधिष्ठिर ने कहा—“श्रीकृष्ण! मुझे लगता है कि आप वहाँ न जाएँ। दुर्योधन का कोई ठिकाना नहीं है कि वह कब क्या कर बैठे! मुझे भय है, कि कहीं वह आप पर ही प्रहार न कर दे।”",
"श्रीकृष्ण बोले—“धर्मपुत्र में दुर्योधन से भली-भाँति परिचित हूँ। फिर भी हमें प्रयत्न करना ही चाहिए। किसी के यह कहने की गुंजाइश ही मैं नहीं रखना चाहता कि मुझे शांति स्थापित करने का जो प्रयास करना चाहिए था, वह नहीं किया। इसलिए मेरा तो जाना ही ठीक होगा।”",
"इतना कहकर श्रीकृष्ण हस्तिनापुर के लिए विदा हुए।",
"upaplavya nagar mein rahte hue panDvon ne apne mitr rajaon ko duton dvara sandesh bhejkar koi saat akshauhini sena ekatr ki. udhar kaurvon ne bhi apne mitron dvara kafi baDi sena ikatthi kar li, jo gyarah akshauhini tak ho gai thi. panchal naresh ke purohit, jo yudhishthir ki or se rajadut bankar hastinapur ge the, kijiye. ” niyat samay par dhritarashtr ki rajasbha mein pahunche. yathavidhi kushal samachar puchhne ke baad panDvon ki or se sandhi ka prastav karte hue wo bole—“yudhishthir ka vichar hai ki yuddh se sansar ka naash hi hoga aur isi karan ve yuddh se ghrina karte hain. ve laDna nahin chahte. isliye nyaay tatha pahle ke samjhaute ke anusar ye uchit hoga ki aap unka hissa dene ki kripa karen. ismen vilamb na kijiye. ”",
"ye sunkar vivekashil aur maharathi bheeshm bole—“yahi nyayochit hai ki unhen unka rajya vapas de diya jaye. ”",
"bheeshm ki baat karn ko apriy lagi. wo baDe krodh ke saath bheeshm ki baat katkar doot ki or dekhta hua bola—“terahvan baras pura hone se pahle hi unhonne prtigya bhang karke apne jayenge. ” aapko prakat kar diya hai. isliye shart ke anusar unko phir se barah baras ke liye vanvas bhogna paDega. ”",
"karn ke is prakar beech mein unki baat katkar bolne se bheeshm ko baDa krodh aaya. wo bole—“radha putr! tum bekar ki baten kar rahe ho. yadi hum yudhishthir ke doot ke kahe anusar sandhi nahin karenge, to nishchay hi yuddh chhiD jayega aur usmen duryodhan aadi sabko parajit hokar mrityu ke munh mein jana paDega. ”",
"bheeshm ki baton se sabha mein khalbali machte dekhkar dhritarashtr bole—“sare sansar ki bhalai ko dhyaan mein rakhkar mainne ye nishchay kiya hai ki apni taraf se sanjay ko doot banakar panDvon ke paas bheja jaye. ”",
"phir dhritarashtr ne sanjay ko bulakar kaha—“sanjay, tum panDu putron ke paas jao. vahan shrikrishn, satyaki virat aadi rajaon se bhi kahna ki mainne saprem un sabki kushal puchhi hai. vahan jakar meri or se yuddh na hone ki cheshta karo. ”",
"sanjay upaplavya ko ravana ho ge. vahan pahunchakar yudhishthir ki sabha mein sabko vidhivat kah sunaya. prnaam karke bole—“dharmaraj! rajan! karn baar baar yahi dam bhar raha haiki khatm kar Dalunga. kintu main kahta hoon ki panDvon ki shakti ka solahvan hissa bhi usmen nahin hai. tumhara putr usi ke kahe mein chalta hai aur apne naash ka aap hi ayojan kar raha hai. virat nagar par akrman karte samay, jab arjun ne hamara darpan choor kar diya tha, tab karn vahin to tha! gandharv jab duryodhan ko qaid karke le ge the, tab ye Daporshankh karn kahan chhip gaya tha? gandharvo ko arjun ne hi to bhagaya tha aur duryodhan ko unki qaid se mukt kiya tha. ”",
"iske baad dhritarashtr ne santapt hokar duryodhan ko samjhaya—“beta, bheeshm pitamah jo kahte hain, vahi karne yogya hai. yuddh na hone do. saandh karna hi uchit hai. ”",
"duryodhan, jo ye sab baten sun raha tha, utha aur apne pita ko sahas bandhata hua bola—“pita ji, aap bhi kaise bhole hain, jo ye bhi nahin samajhte hain ki svayan yudhishthir hamara sainya bal dekhkar ghabra uthe hain aur isi karan aadhe rajya ki baat chhoDkar ab keval paanch ganvon ki yachana kar rahe hain. kya unki is paanch ganvvali maang se ye siddh nahin hota hai ki hamari gyarah akshauhini sena dekhkar yudhishthir ke man mein bhay utpann ho gaya hai? itne par bhi aapko hamari vijay ke bare mein sandeh ho raha hai. ye baDe ashcharya ki baat hai!”",
"dhritarashtr ne samjhate hue kaha—“beta, jab paanch gaanv dene se hi yuddh talta hai, to baaz aao yuddh se tumhare paas to phir bhi pura ka pura rajya rah jata hai. ab hath na karo. ”",
"lekin is updesh se duryodhan chiDh gaya aur bola—“main to sui ki nok ke barabar bhumi bhi panDvon ko nahin dena chahta hoon. apaki jo ichchha ho, karen. ab iska phaisla yuddhabhumi mein hi hoga. ” ye kahta kahta duryodhan uth khaDa hua aur bahar chala aaya. sabha mein khalbali mach gai aur is gaDbaDi mein sabha bhang ho gai.",
"idhar sanjay ke upaplavya se ravana ho jane ke baad yudhishthir shrikrishn se bole—“vasudev! sanjay to maharaj dhritarashtr ke mano dusre praan hain. unki baton se mujhe maharaj ke man ki baat aspasht roop se malum ho gai hai. mainne to kahla bheja hai ki main to keval paanch ganvon se hi santosh kar lunga, kintu aisa lagta hai ki ve dusht itna bhi dene ko taiyar nahin honge. is bare mein ab aap hi salah de sakte hain. ”",
"yudhishthir ki baten sunkar shrikrishn ne kaha—“yudhishthir! mainne bhi ek baar svayan hastinapur jane ka irada kar liya hai. tum logon ke svatvon ko yuddh se bachane ki cheshta karunga. yadi main safal hua, to isse sare sansar ka kalyan hoga. ”",
"yudhishthir ne kaha—“shrikrishn! mujhe lagta hai ki aap vahan na jayen. duryodhan ka koi thikana nahin hai ki wo kab kya kar baithe! mujhe bhay hai, ki kahin wo aap par hi prahar na kar de. ”",
"shrikrishn bole—“dharmaputr mein duryodhan se bhali bhanti parichit hoon. phir bhi hamein prayatn karna ho chahiye. kisi ke ye kahne ki gunjaish hi main nahin rakhna chahta ki mujhe shanti sthapit karne ka jo prayas karna chahiye tha, wo nahin kiya. isliye mera to jana hi theek hoga. ”",
"itna kahkar shrikrishn hastinapur ke liye vida hue.",
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] |
बाल महाभारत : भीम और हनुमान - कथा | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kathaen/class-7-ncert-7/baal-mahabharat-bheem-aur-hanuman-chakraborty-rajagopalacharya-kathaen?sort= | [
"प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।",
"सुहावना मौसम था। द्रौपदी आश्रम के बाहर खड़ी थी। इतने में एक सुंदर फूल हवा में उड़ता हुआ उसके पास आ गिरा। द्रौपदी ने उसे उठा लिया और भीमसेन के पास जाकर बोली—“क्या तुम जाकर ऐसे ही कुछ और फूल ला सकोगे?” यह कहती हुई द्रौपदी हाथ में फूल लिए युधिष्ठिर के पास दौड़ी गई।",
"द्रौपदी की इच्छा पूरी करने के लिए भीमसेन उस फूल की तलाश में निकल पड़ा। चलते-चलते वह पहाड़ की घाटी में जा पहुँचा, जहाँ केले के पेड़ों का एक विशाल बग़ीचा लगा हुआ था। बग़ीचे के बीच एक बड़ा भारी बंदर रास्ता रोके लेटा हुआ था। बंदर ने भीम की तरफ़ देखकर कहा—“मैं कुछ अस्वस्थ हूँ। इसलिए लेटा हुआ हूँ। ज़रा आँख लगी थी, तो तुमने आकर नींद ख़राब कर दी। मुझे क्यों जगाया तुमने?”",
"एक बंदर के इस प्रकार मनुष्य जैसा उपदेश देने पर भीमसेन को बड़ा क्रोध आया और बोला—“जानते हो, मैं कौन हूँ? मैं कुरुवंश का वीर, कुंती का बेटा हूँ। मुझे रोको मत! मेरे रास्ते से हट जाओ और मुझे आगे जाने दो।”",
"बंदर बोला—“देखो भाई, मैं बूढ़ा हूँ। कठिनाई से उठ बैठ सकता हूँ। ठीक है, यदि तुम्हें आगे बढ़ना ही है, तो मुझे लाँघकर चले जाओ।” भीमसेन ने कहा—“किसी जानवर को लाँघना अनुचित कहा गया है। इसी से मैं रुक गया, नहीं तो मैं कभी का तुम्हें एक ही छलाँग में लाँघकर चला गया होता।” बंदर ने कहा—“भाई, मुझे ज़रा बताना कि वह हनुमान कौन था, जो समुद्र को लाँघ गया था।”",
"भीमसेन ज़रा कड़ककर बोला—“क्या कहा? तुम महावीर हनुमान को नहीं जानते? उठकर रास्ता दे दो, नाहक मृत्यु को न्यौता मत दो।”",
"बंदर बड़े करुण स्वर में बोला—“हे वीर! शांत हो जाओ! इतना क्रोध न करो। यदि मुझे लाँघना तुम्हें अनुचित लगता हो, तो मेरी इस पूँछ को हटाकर एक ओर कर दो और चले जाओ।”",
"भीमसेन ने बंदर की पूँछ एक हाथ से पकड़ ली, लेकिन आश्चर्य! भीम ने पूँछ पकड़ तो ली; पर वह उससे ज़रा भी नहीं हिली—उठने की तो कौन कहे! उसे बड़ा ताज्जुब होने लगा कि यह बात क्या है? उसने दोनों हाथों से पूँछ पकड़कर ख़ूब ज़ोर लगाया। किंतु पूँछ वैसी की वैसी ही धरी रही। भीम बड़ा लज्जित हुआ। उसका गर्व चूर हो गया। उसे बड़ा विस्मय होने लगा कि मुझसे अधिक ताक़तवर यह कौन है! भीम के मन में बलिष्ठों के लिए बड़ी श्रद्धा थी। वह नम्र हो गया। बोला—“मुझे क्षमा करें। आप कौन हैं?” हनुमान ने कहा—“हे पांडुवीर! हनुमान मैं ही हूँ।”",
"“वानर-श्रेष्ठ! मुझसे बढ़कर भाग्यवान और कौन होगा, जो मुझे आपके दर्शन प्राप्त हुए।” कहकर भीमसेन ने हनुमान को दंडवत प्रणाम किया। मारुति ने आशीर्वाद देते हुए कहा—“भीम! युद्ध के समय तुम्हारे भाई अर्जुन के रथ पर उड़ने वाली ध्वजा पर मैं विद्यमान रहूँगा। विजय तुम्हारी ही होगी।” इसके बाद हनुमान ने भीमसेन को पास के झरने में खिले हुए सुगंधित फूल दिखाए। फूलों को देखते ही भीमसेन को द्रौपदी का स्मरण हो आया। उसने जल्दी से फूल तोड़े और वेग से आश्रम की ओर लौट चला।",
"suhavna mausam tha. draupadi ashram ke bahar khaDi thi. itne mein ek sundar phool hava mein uDta hua uske paas aa gira. draupadi ne use utha liya aur bhimasen ke paas jakar boli—“kya tum jakar aise hi kuch aur phool la sakoge?” ye kahti hui draupadi haath mein phool liye yudhishthir ke paas dauDi gai.",
"draupadi ki ichchha puri karne ke liye bhimasen us phool ki talash mein nikal paDa. chalte chalte wo pahaD ki ghati mein ja pahuncha, jahan kele ke peDon ka ek vishal baghicha laga hua tha. baghiche ke beech ek baDa bhari bandar rasta roke leta hua tha. bandar ne bheem ki taraf dekhkar kaha—“main kuch asvasth hoon. isliye leta hua hoon. zara ankh lagi thi, to tumne aakar neend kharab kar di. mujhe kyon jagaya tumne?”",
"ek bandar ke is prakar manushya jaisa updesh dene par bhimasen ko baDa krodh aaya aur bola—“jante ho, main kaun hoon? main kuruvansh ka veer, kunti ka beta hoon. mujhe roko mat! mere raste se hat jao aur mujhe aage jane do. ”",
"bandar bola—“dekho bhai, main buDha hoon. kathinai se uth baith sakta hoon. theek hai, yadi tumhein aage baDhna hi hai, to mujhe langhakar chale jao. ” bhimasen ne kaha—“kisi janvar ko langhana anuchit kaha gaya hai. isi se main ruk gaya, nahin to main kabhi ka tumhein ek hi chhalang mein langhakar chala gaya hota. ” bandar ne kaha—“bhai, mujhe zara batana ki wo hanuman kaun tha, jo samudr ko laangh gaya tha. ”",
"bhimasen zara kaDakkar bola—“kya kaha? tum mahavir hanuman ko nahin jante? uthkar rasta de do, nahak mrityu ko nyauta mat do. ”",
"bandar baDe karun svar mein bola—“he veer! shaant ho jao! itna krodh na karo. yadi mujhe langhana tumhein anuchit lagta ho, to meri is poonchh ko hatakar ek or kar do aur chale jao. ”",
"bhimasen ne bandar ki poonchh ek haath se pakaD li, lekin ashcharya! bheem ne poonchh pakaD to lee; par wo usse zara bhi nahin hili uthne ki to kaun kahe! use baDa tajjub hone laga ki ye baat kya hai? usne donon hathon se poonchh pakaDkar khoob zor lagaya. kintu poonchh vaisi ki vaisi hi dhari rahi. bheem baDa lajjit hua. uska garv choor ho gaya. use baDa vismay hone laga ki mujhse adhik taqatvar ye kaun hai! bheem ke man mein balishthon ke liye baDi shraddha thi. wo namr ho gaya. bola—“mujhe kshama karen. aap kaun hain?” hanuman ne kaha—“he panDuvir! hanuman main hi hoon. ”",
"“vanar shreshth! mujhse baDhkar bhagyavan aur kaun hoga, jo mujhe aapke darshan praapt hue. ” kahkar bhimasen ne hanuman ko danDvat prnaam kiya. maruti ne ashirvad dete hue kaha—“bhim! yuddh ke samay tumhare bhai arjun ke rath par uDnevali dhvaja par main vidyaman rahunga. vijay tumhari hi hogi. ” iske baad hanuman ne bhimasen ko paas ke jharne mein khile hue sugandhit phool dikhaye. phulon ko dekhte hi bhimasen ko draupadi ka smran ho aaya. usne jaldi se phool toDe aur veg se ashram ki or laut chala.",
"suhavna mausam tha. draupadi ashram ke bahar khaDi thi. itne mein ek sundar phool hava mein uDta hua uske paas aa gira. draupadi ne use utha liya aur bhimasen ke paas jakar boli—“kya tum jakar aise hi kuch aur phool la sakoge?” ye kahti hui draupadi haath mein phool liye yudhishthir ke paas dauDi gai.",
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"जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।",
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बाल महाभारत : शकुनि का प्रवेश - कथा | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kathaen/class-7-ncert-7/baal-mahabharat-shakuni-pravesh-chakraborty-rajagopalacharya-kathaen?sort= | [
"प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।",
"एक दिन युधिष्ठिर ने अपने भाइयों से कहा—“भाइयो! युद्ध की संभावना ही मिटा देने के उद्देश्य से मैं यह शपथ लेता हूँ कि आज से तेरह बरस तक मैं अपने भाइयों या किसी और बंधु को बुरा-भला नहीं कहूँगा। सदा अपने भाई-बंधुओं की इच्छा पर ही चलूँगा। मैं ऐसा कुछ नहीं करूँगा, जिससे आपस में मनमुटाव होने का डर हो, क्योंकि मनमुटाव के कारण ही झगड़े होते हैं। इसलिए मन से क्रोध को एकबारगी निकाल दूँगा। दुर्योधन और दूसरे कौरवों की बात कभी न टालूँगा। हमेशा उनकी इच्छानुसार काम करूँगा।”",
"युधिष्ठिर की बातें उनके भाइयों को भी ठीक लगीं। वे भी इसी निश्चय पर पहुँचे कि झगड़े-फ़साद का हमें कारण नहीं बनना चाहिए। उधर युधिष्ठिर चिंतित हो रहे थे कि कहीं कोई लड़ाई-झगड़ा न हो जाए और इधर राजसूय यज्ञ का ठाट-बाट तथा पांडवों की यश-समृद्धि का स्मरण ही दुर्योधन के मन को खाए जा रहा था। वह ईर्ष्या की जलन से बेचैन हो रहा था। दुर्योधन ने यह भी देखा कि कितने ही देशों के राजा पांडवों के परम मित्र बने हैं। इस सबके स्मरण मात्र से उसका दुख और भी असह्य हो उठा। पांडवों के सौभाग्य की याद करके उसकी जलन बढ़ने लगती थी। अपने महल के कोने में इसी भाँति चिंतित और उदास भाव से वह एक रोज़ खड़ा हुआ था कि उसे यह भी पता न लगा कि उसकी बग़ल में उसका मामा शकुनि आ खड़ा हुआ है।",
"“बेटा! यों चिंतित और उदास क्यों खड़े हो? कौन सा दुख तुमको सता रहा है?” शकुनि ने पूछा। दुर्योधन लंबी साँस लेते हुए बोला—“मामा, चारों भाइयों समेत युधिष्ठिर ठाट-बाट से राज कर रहा है। यह सब इन आँखों से देखने पर भी मैं कैसे शोक न करूँ? मेरा तो अब जीना ही व्यर्थ मालूम होता है!”",
"शकुनि दुर्योधन को सांत्वना देता हुआ बोला—“बेटा दुर्योधन! इस तरह मन छोटा क्यों करते हो? आख़िर पांडव तुम्हारे भाई ही तो हैं। उनके सौभाग्य पर तुम्हें जलन नहीं होनी चाहिए। न्यायपूर्वक जो राज्य उनको प्राप्त हुआ है, उसी का तो उपभोग वे कर रहे हैं। पांडवों ने किसी का कुछ बिगाड़ा नहीं है। जिस पर उनका अधिकार था, वही उन्हें मिला है। अपनी शक्ति से प्रयत्न करके यदि उन्होंने अपना राज्य तथा सत्ता बढ़ा ली है, तो तुम जी छोटा क्यों करते हो? और फिर पांडवों की शक्ति और सौभाग्य से तुम्हारा बिगड़ता क्या है? तुम्हें कमी किस बात की है? द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा तथा कर्ण जैसे महावीर तुम्हारे पक्ष में हैं। यही नहीं, बल्कि मैं भीष्म, कृपाचार्य, जयद्रथ सोमदत्त सब तुम्हारे साथ हैं। इन साथियों की सहायता से तुम सारे संसार पर विजय पा सकते हो। फिर दुख क्यों करते हो?”",
"यह सुनकर दुर्योधन बोला—“जब ऐसी बात है, तो मामा जी, हम इंद्रप्रस्थ पर चढ़ाई ही क्यों न कर दें?”",
"शकुनि ने कहा—“युद्ध की तो बात ही न करो। वह ख़तरनाक काम है। तुम पांडवों पर विजय पाना चाहते हो, तो युद्ध के बजाए चतुराई से काम लो। मैं तुमको ऐसा उपाय बता सकता हूँ, जिससे बग़ैर लड़ाई के ही युधिष्ठिर पर सहज में विजय पाई जा सके।”",
"दुर्योधन की आँखें आशा से चमक उठीं। बड़ी उत्सुकता के साथ पूछा, “मामा जी! आप ऐसा उपाय जानते हैं?”",
"शकुनि ने कहा—“दुर्योधन, युधिष्ठिर को चौसर के खेल का बड़ा शौक़ है। पर उसे खेलना नहीं आता है। हम उसे खेलने के लिए न्यौता दें, तो युधिष्ठिर अवश्य मान जाएगा। तुम तो जानते ही हो कि मैं मँजा हुआ खिलाड़ी हूँ। तुम्हारी ओर से मैं खेलूँगा और युधिष्ठिर को हराकर उसका सारा राज्य और ऐश्वर्य बिना युद्ध के आसानी से छीनकर तुम्हारे हवाले कर दूँगा।”",
"इसके बाद दुर्योधन और शकुनि धृतराष्ट्र के पास गए। शकुनि ने बात छेड़ी—“राजन्! देखिए तो आपका बेटा दुर्योधन शोक और चिंता के कारण पीला-सा पड़ गया है।”",
"अंधे और बूढ़े धृतराष्ट्र को अपने बेटे पर अपार स्नेह था। शकुनि की बातों से वह सचमुच बड़े चितिंत हो गए। अपने बेटे को उन्होंने छाती से लगा लिया और बोले—“बेटा! मुझे तो कुछ समझ में ही नहीं आता कि तुम्हें किस बात का दुख हो सकता है। तुम्हारे पास ऐश्वर्य की कमी नहीं है। सारा संसार तुम्हारी आज्ञा पर चल रहा है। फिर तुम्हें चिंता काहे की?”",
"लेकिन शकुनि ने धृतराष्ट्र को सलाह दी कि चौसर के खेल के लिए पांडवों को बुलाया जाए।",
"दोनों के इस प्रकार आग्रह करने पर भी धृतराष्ट्र ने तुरंत हाँ नहीं की। वह बोले—“मुझे यह उपाय ठीक नहीं जँच रहा है। मैं विदुर से भी तो सलाह कर लूँ। वह बड़ा समझदार है। मैं हमेशा से उसका कहा मानता आया हूँ। उससे सलाह कर लेने के बाद ही कुछ तय करना ठीक होगा।” पर दुर्योधन को विदुर से सलाह करने की बात पसंद नहीं आई।",
"धृतराष्ट्र बोले—“जुए का खेल वैर-विरोध की जड़ होता है। इसलिए बेटा, मेरी तो यह राय है कि तुम्हारा यह विचार ठीक नहीं है। इसे छोड़ दो।”",
"दुर्योधन अपने हठ पर दृढ़ रहता हुआ बोला—“चौसर का खेल कोई हमने तो ईजाद किया नहीं है। यह तो हमारे पूर्वजों का ही चलाया हुआ है।” दुर्योधन के इस तरह आग्रह करने पर आख़िर धृतराष्ट्र ने घुटने टेक दिए। बेटे का आग्रह मानकर धृतराष्ट्र ने चौसर खेलने के लिए अनुमति दे दी और सभा मंडप बनाने की भी आज्ञा दे दी, परंतु विदुर से भी उन्होंने इस बारे में गुपचुप सलाह की।",
"विदुर बोले—“राजन्, सारे वंश का इससे नाश हो जाएगा। इसके कारण हमारे कुल के लोगों में आपसी मनमुटाव और झगड़े-फ़साद होंगे। इसकी भारी विपदा हम पर आएगी।”",
"धृतराष्ट्र ने कहा—“भाई विदुर! मुझे खेल का भय नहीं है। लेकिन हम क्या कर सकते हैं? सो तुम ही युधिष्ठिर के पास जाओ और मेरी तरफ़ से खेल के लिए न्यौता देकर बुला लाओ।”",
"अपने बेटे पर उनका असीम स्नेह उनकी कमज़ोरी थी और यही कारण था कि उन्होंने बेटे की बात मान ली।",
"ek din yudhishthir ne apne bhaiyon se kaha—“bhaiyo! yuddh ki sambhavna hi mita dene ke uddeshya se main ye shapath leta hoon ki aaj se terah baras tak main apne bhaiyon ya kisi aur bandhu ko bura bhala nahin kahunga. sada apne bhai bandhuon ki ichchha par hi chalunga. main aisa kuch nahin karunga, jisse aapas mein manmutav hone ka Dar ho, kyonki manmutav ke karan hi jhagDe hote hain. isliye man se krodh ko ekbargi nikal dunga. duryodhan aur dusre kaurvon ki baat kabhi na talunga. hamesha unki ichchhanusar kaam karunga. ”",
"yudhishthir ki baten unke bhaiyon ko bhi theek lagin. ve bhi isi nishchay par pahunche ki jhagDe fasad ka hamein karan nahin banna chahiye. udhar yudhishthir chintit ho rahe the ki kahin koi laDai jhagDa na ho jaye aur idhar rajasuy yagya ka thaat baat tatha panDvon ki yash samriddhi ka smran hi duryodhan ke man ko khaye ja raha tha. wo iirshya ki jalan se bechain ho raha tha. duryodhan ne ye bhi dekha ki kitne hi deshon ke raja panDvon ke param mitr bane hain. is sabke smran maatr se uska dukh aur bhi asahya ho utha. panDvon ke saubhagya ki yaad karke uski jalan baDhne lagti thi. apne mahl ke kone mein isi bhanti chintit aur udaas bhaav se wo ek roz khaDa hua tha ki use ye bhi pata na laga ki uski baghal mein uska mama shakuni aa khaDa hua hai.",
"“beta! yon chintit aur udaas kyon khaDe ho? kaun sa dukh tumko sata raha hai?” shakuni ne puchha. duryodhan lambi saans lete hue bola—“mama, charon bhaiyon samet yudhishthir thaat baat se raaj kar raha hai. ye sab in ankhon se dekhne par bhi main kaise shok na karun? mera to ab jina hi vyarth malum hota hai!”",
"shakuni duryodhan ko santvna deta hua bola—“beta duryodhan! is tarah man chhota kyon karte ho? akhir panDav tumhare bhai hi to hain. unke saubhagya par tumhein jalan nahin honi chahiye. nyaypurvak jo rajya unko praapt hua hai, usi ka to upbhog ve kar rahe hain. panDvon ne kisi ka kuch bigaDa nahin hai. jis par unka adhikar tha, vahi unhen mila hai. apni shakti se prayatn karke yadi unhonne apna rajya tatha satta baDha li hai, to tum ji chhota kyon karte ho? aur phir panDvon ki shakti aur saubhagya se tumhara bigaDta kya hai? tumhein kami kis baat ki hai? dronacharya, ashvatthama tatha karn jaise mahavir tumhare paksh mein hain. yahi nahin, balki main bheeshm, kripacharya, jayadrath somdatt sab tumhare saath hain. in sathiyon ki sahayata se tum sare sansar par vijay pa sakte ho. phir dukh kyon karte ho?”",
"ye sunkar duryodhan bola—“jab aisi baat hai, to mama ji, hum indraprastha par chaDhai hi kyon na kar den?”",
"shakuni ne kaha—“yuddh ki to baat hi na karo. wo khatarnak kaam hai. tum panDvon par vijay pana chahte ho, to yuddh ke bajaye chaturai se kaam lo. main tumko aisa upaay bata sakta hoon, jisse bagair laDai ke hi yudhishthir par sahj mein vijay pai ja sake. ”",
"duryodhan ki ankhen aasha se chamak uthin. baDi utsukta ke saath puchha, “mama ji ! aap aisa upaay jante hain?”",
"shakuni ne kaha—“duryodhan, yudhishthir ko chausar ke khel ka baDa shauk hai. par use khelna nahin aata hai. hum use khelne ke liye nyauta den, to yudhishthir avashya maan jayega. tum to jante hi ho ki main manja hua khilaDi hoon. tumhari or se main khelunga aur yudhishthir ko harakar uska sara rajya aur aishvarya bina yuddh ke asani se chhinkar tumhare havale kar dunga. ”",
"iske baad duryodhan aur shakuni dhritarashtr paas ge. shakuni ne baat chheDi—“rajan! dekhiye to aapka beta duryodhan shok aur chinta ke karan pila sa paD gaya hai. ”",
"andhe aur buDhe dhritarashtr ko apne bete par apar sneh tha. shakuni ki baton se wo sachmuch baDe chitint ho ge. apne bete ko unhonne chhati se laga liya aur bole—“beta! mujhe to kuch samajh mein hi nahin aata ki tumhein kis baat ka dukh ho sakta hai. tumhare paas aishvarya ki kami nahin hai. sara sansar tumhari aagya par chal raha hai. phir tumhein chinta kahe kee?”",
"lekin shakuni ne dhritarashtr ko salah di ki chausar ke khel ke liye panDvon ko bulaya jaye.",
"donon ke is prakar agrah karne par bhi dhritarashtr ne turant haan nahin ki. wo bole—“mujhe ye upaay theek nahin janch raha hai. main vidur se bhi to salah kar loon. wo baDa samajhdar hai. main hamesha se uska kaha manata aaya hoon. usse salah kar lene ke baad hi kuch tay karna theek hoga. ” par duryodhan ko vidur se salah karne ki baat pasand nahin aai.",
"dhritarashtr bole—“jue ka khel vair virodh ki jaD hota hai. isliye beta, meri to ye raay hai ki tumhara ye vichar theek nahin hai. ise chhoD do. ”",
"duryodhan apne hath par driDh rahta hua bola—“chausar ka khel koi hamne to iijad kiya nahin hai. ye to hamare purvjon ka hi chalaya hua hai. ” duryodhan ke is tarah agrah karne par akhir dhritarashtr ne ghutne tek diye. bete ka agrah mankar dhritarashtr ne chausar khelne ke liye anumti de di aur sabha manDap banane ki ke bhi aagya de di, parantu vidur se bhi unhonne is bare mein gupchup salah ki.",
"vidur bole—“rajan, sare vansh ka isse naash ho jayega. iske karan hamare kul ke logon mein aapsi manmutav aur jhagDe fasad honge. iski bhari vipda hum par ayegi. ”",
"dhritarashtr ne kaha—“bhai vidur! mujhe khel ka bhay nahin hai. lekin hum kya kar sakte hain? so tum hi yudhishthir ke paas jao aur meri taraf se khel ke liye nyauta dekar bula lao. ”",
"apne bete par unka asim sneh unki kamzori thi aur yahi karan tha ki unhonne bete ki baat maan li.",
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बाल महाभारत : मायावी सरोवर - कथा | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kathaen/class-7-ncert-7/baal-mahabharat-mayavi-sarovar-chakraborty-rajagopalacharya-kathaen?sort= | [
"प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।",
"पांडवों के वनवास की अवधि पूरी होने को ही थी। बारह बरस समाप्त होने में कुछ ही दिन रह गए थे। उन्हीं दिनों एक निर्धन ब्राह्मण की सहायता करते हुए पाँचों भाई जंगल में काफ़ी दूर निकल आए। वे थके हुए थे, सो ज़रा सुस्ताने लगे। युधिष्ठिर नकुल से बोले—“भैया! ज़रा उस पेड़ पर चढ़कर देखो तो सही कि कहीं कोई जलाशय या नदी दिखलाई दे रही है?”",
"नकुल ने पेड़ पर चढ़कर देखा और उतरकर कहा कि कुछ दूरी पर ऐसे पौधे दिखाई दे रहे हैं जो पानी के नज़दीक ही उगते हैं। आसपास कुछ बगुले भी बैठे हुए हैं। वहीं कहीं आसपास पानी अवश्य होना चाहिए। युधिष्ठिर ने कहा कि जाकर देखो और पानी मिले, तो ले आओ। यह सुनकर नकुल तुरंत पानी लाने चल पड़ा। कुछ दूर चलने पर अनुमान के अनुसार नकुल को एक जलाशय मिला। उसने सोचा कि पहले तो मैं अपनी प्यास बुझा लूँ और फिर तर्कश में पानी भरकर भाइयों के लिए ले जाऊँगा। यह सोचकर उसने दोनों हाथों की अंजुलि में पानी लिया और पीना ही चाहता था कि इतने में आवाज़ आई—“माद्री के पुत्र! दुःसाहस न करो। यह जलाशय मेरे अधीन है। पहले मेरे प्रश्नों का उत्तर दो। फिर पानी पियो।”",
"पर उसे प्यास इतनी तेज़ लगी थी कि उस वाणी की परवाह न करके उसने अंजुलि से पानी पी लिया। पानी पीकर किनारे पर चढ़ते ही उसे कुछ चक्कर-सा आया और वह गिर पड़ा।",
"बड़ी देर तक नकुल के न लौटने पर युधिष्ठिर चिंतित हो गए और उन्होंने सहदेव को भेजा। सहदेव जलाशय के नज़दीक पहुँचा तो नकुल को ज़मीन पर पड़ा हुआ देखा। पर उसे भी प्यास इतनी तेज़ लगी थी कि वह कुछ ज़्यादा सोच न सका। वह पानी पीने को ही था कि पहले जैसी वाणी उसे भी सुनाई दी। उसने वाणी की चेतावनी पर ध्यान न देते हुए पानी पी लिया और किनारे पर चढ़ते-चढ़ते वह अचेत होकर नकुल के पास ही गिर पड़ा।",
"जब सहदेव भी बहुत देर तक नहीं लौटा, तो युधिष्ठिर घबराकर अर्जुन से बोले—“जाकर देखो तो उनके साथ कोई दुर्घटना तो नहीं हो गई?” अर्जुन बड़ी तेज़ी से चला। तालाब के किनारे पर दोनों भाइयों को उसने मृत पड़े हुए देखा, तो वह चौंक उठा। वह नहीं समझ पाया कि इनकी मृत्यु का क्या कारण है! यह सोचते हुए अर्जुन भी पानी पीने के लिए जलाशय में उतरा कि तभी उसे भी वही वाणी सुनाई दी—“अर्जुन! मेरे प्रश्नों का उत्तर देने के बाद ही प्यास बुझा सकते हो। यह तालाब मेरा है। मेरी बात नहीं मानोगे, तो तुम्हारी भी वही गति होगी, जो तुम्हारे दो भाइयों की हुई है।”",
"अर्जुन यह सुनकर ग़ुस्से से भर गया। उसने बाण छोड़ने शुरू कर दिए। जिधर से आवाज़ सुनाई दी थी, उसी ओर निशाना लगाकर वह तीर चलाता रहा, किंतु उन बाणों का कोई असर नहीं हुआ।",
"अपने बाणों को बेकार होते देखकर अर्जुन के क्रोध की सीमा न रही। उसने सोचा पहले अपनी प्यास तो बुझा ही लूँ। फिर लड़ लिया जाएगा। यह सोचकर अर्जुन ने जलाशय में उतरकर पानी पी लिया और किनारे आते-आते चारों खाने चित्त होकर गिर पड़ा।",
"उधर बाट जोहते-जोहते युधिष्ठिर बड़े व्याकुल हो उठे। भीमसेन से चितिंत स्वर में बोले—“भैया भीमसेन! देखो तो अर्जुन भी नहीं लौटा। ज़रा तुम्हीं जाकर तलाश करो कि तीनों भाइयों को क्या हो गया है।”",
"युधिष्ठिर की आज्ञा मानकर भीमसेन तेज़ी से जलाशय की ओर बढ़ा। तालाब के किनारे पर देखा कि तीनों भाई मरे-से पड़े हुए हैं। सोचा, यह किसी यक्ष की करतूत मालूम होती है। ज़रा पानी पी लूँ फिर देखता हूँ। यह सोचकर भीमसेन तालाब में उतरना ही चाहता था कि फिर वही आवाज़ आई। “मुझे रोकने वाला तू कौन है?” कहता हुआ भीमसेन बेधड़क तालाब में उतर गया और पानी भी पी लिया। पानी पीते ही अपने भाइयों की तरह वह भी वहीं ढेर हो गया। उधर युधिष्ठिर अकेले बैठे घबराने लगे और सोचने लगे कि बड़े आश्चर्य की बात है कि कोई भी अब तक नहीं लौटा! आख़िर भाइयों को हो क्या गया? क्या कारण है कि अभी तक वे लौटे नहीं? जल की खोज में वे जंगल में इधर-उधर भटक तो नहीं गए? मैं ही चलकर देखूँ कि क्या बात है!",
"panDvon ke vanvas ki avadhi puri hone ko hi thi. barah baras samapt hone mein kuch hi din rah ge the. unhin dinon ek nirdhan brahman ki sahayata karte hue panchon bhai jangal mein kafi door nikal aaye. ve thake hue the, so zara sustane lage. yudhishthir nakul se bole—“bhaiya! zara us peD par chaDhkar dekho to sahi ki kahin koi jalashay ya nadi dikhlai de rahi hai?”",
"nakul ne peD par chaDhkar dekha aur utarkar kaha ki kuch duri par aise paudhe dikhai de rahe hain jo pani ke nazdik hi ugte hain. asapas kuch bagule bhi baithe hue hain. vahin kahin asapas pani avashya hona chahiye. yudhishthir ne kaha ki jakar dekho aur pani mile, to le aao. ye sunkar nakul turant pani lane chal paDa. kuch door chalne par anuman ke anusar nakul ko ek jalashay mila. usne socha ki pahle to main apni pyaas bujha loon aur phir tarkash mein pani bharkar bhaiyon ke liye le jaunga. ye sochkar usne donon hathon ki anjuli mein pani liya aur pina hi chahta tha ki itne mein avaz ai—“madri ke putr! duःsahas na karo. ye jalashay mere adhin hai. pahle mere prashnon ka uttar do. phir pani piyo. ”",
"par use pyaas itni tez lagi thi ki us vani ki parvah na karke usne anjuli se pani pi liya. pani pikar kinare par chaDhte hi use kuch chakkar sa aaya aur wo gir paDa.",
"baDi der tak nakul ke na lautne par yudhishthir chintit ho ge aur unhonne sahdev ko bheja. sahdev jalashay ke nazdik pahuncha to nakul ko zamin par paDa hua dekha. par use bhi pyaas itni tez lagi thi ki wo kuch zyada soch na saka. wo pani pine ko hi tha ki pahle jaisi vani use bhi sunai di. usne vani ki chetavni par dhyaan na dete hue pani pi liya aur kinare par chaDhte chaDhte wo achet hokar nakul ke paas hi gir paDa.",
"jab sahdev bhi bahut der tak nahin lauta, to yudhishthir ghabrakar arjun se bole—“jakar dekho to unke saath koi durghatna to nahin ho gai?” arjun baDi tezi se chala. talab ke kinare par donon bhaiyon ko usne mrit paDe hue dekha, to wo chaunk utha. wo nahin samajh paya ki inki mrityu ka kya karan hai! ye sochte hue arjun bhi pani pine ke liye jalashay mein utra ki tabhi use bhi vahi vani sunai di—“arjun! mere prashnon ka uttar dene ke baad hi pyaas bujha sakte ho. ye talab mera hai. meri baat nahin manoge, to tumhari bhi vahi gati hogi, jo tumhare do bhaiyon ki hui hai. ”",
"arjun ye sunkar ghusse se bhar gaya. usne baan chhoDne shuru kar diye. jidhar se avaz sunai di thi, usi or nishana lagakar wo teer chalata raha, kintu un banon ka koi asar nahin hua.",
"apne banon ko bekar hote dekhkar arjun ke krodh ki sima na rahi. usne socha pahle apni pyaas to bujha hi loon. phir laD liya jayega. ye sochkar arjun ne jalashay mein utarkar pani pi liya aur kinare aate aate charon khane chitt hokar gir paDa.",
"udhar baat johte johte yudhishthir baDe vyakul ho uthe. bhimasen se chitint svar mein bole—“bhaiya bhimasen! dekho to arjun bhi nahin lauta. zara tumhin jakar talash karo ki tinon bhaiyon ko kya ho gaya hai. ”",
"yudhishthir ki aagya mankar bhimasen tezi se jalashay ki or baDha. talab ke kinare par dekha ki tinon bhai mare se paDe hue hain. socha, ye kisi yaksh ki kartut malum hoti hai. zara pani pi loon phir dekhta hoon. ye sochkar bhimasen talab mein utarna hi chahta tha ki phir vahi avaj aai. “mujhe roknevala tu kaun hai?” kahta hua bhimasen bedhaDak talab mein utar gaya aur pani bhi pi liya. pani pite hi apne bhaiyon ki tarah wo bhi vahin Dher ho gaya. udhar yudhishthir akele baithe ghabrane lage aur sochne lage ki baDe ashcharya ki baat hai ki koi bhi ab tak nahin lauta! akhir bhaiyon ko ho kya gaya? kya karan hai ki abhi tak ve laute nahin? jal ki khoj mein ve jangal mein idhar udhar bhatak to nahin ge? main hi chalkar dekhun ki kya baat hai!",
"panDvon ke vanvas ki avadhi puri hone ko hi thi. barah baras samapt hone mein kuch hi din rah ge the. unhin dinon ek nirdhan brahman ki sahayata karte hue panchon bhai jangal mein kafi door nikal aaye. ve thake hue the, so zara sustane lage. yudhishthir nakul se bole—“bhaiya! zara us peD par chaDhkar dekho to sahi ki kahin koi jalashay ya nadi dikhlai de rahi hai?”",
"nakul ne peD par chaDhkar dekha aur utarkar kaha ki kuch duri par aise paudhe dikhai de rahe hain jo pani ke nazdik hi ugte hain. asapas kuch bagule bhi baithe hue hain. vahin kahin asapas pani avashya hona chahiye. yudhishthir ne kaha ki jakar dekho aur pani mile, to le aao. ye sunkar nakul turant pani lane chal paDa. kuch door chalne par anuman ke anusar nakul ko ek jalashay mila. usne socha ki pahle to main apni pyaas bujha loon aur phir tarkash mein pani bharkar bhaiyon ke liye le jaunga. ye sochkar usne donon hathon ki anjuli mein pani liya aur pina hi chahta tha ki itne mein avaz ai—“madri ke putr! duःsahas na karo. ye jalashay mere adhin hai. pahle mere prashnon ka uttar do. phir pani piyo. ”",
"par use pyaas itni tez lagi thi ki us vani ki parvah na karke usne anjuli se pani pi liya. pani pikar kinare par chaDhte hi use kuch chakkar sa aaya aur wo gir paDa.",
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"arjun ye sunkar ghusse se bhar gaya. usne baan chhoDne shuru kar diye. jidhar se avaz sunai di thi, usi or nishana lagakar wo teer chalata raha, kintu un banon ka koi asar nahin hua.",
"apne banon ko bekar hote dekhkar arjun ke krodh ki sima na rahi. usne socha pahle apni pyaas to bujha hi loon. phir laD liya jayega. ye sochkar arjun ne jalashay mein utarkar pani pi liya aur kinare aate aate charon khane chitt hokar gir paDa.",
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"This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.",
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"हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश"
] |
बाल महाभारत : द्रौपदी-स्वयंवर - कथा | हिन्दवी | https://www.hindwi.org/kathaen/class-7-ncert-7/baal-mahabharat-draupadi-svyanvar-chakraborty-rajagopalacharya-kathaen?sort= | [
"प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा सातवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।",
"जिस समय पांडव एकचक्रा नगरी में ब्राह्मणों के वेष में जीवन बिता रहे थे, उन्हीं दिनों पांचाल-नरेश की कन्या द्रौपदी के स्वयंवर की तैयारियाँ होने लगीं। एकचक्रा नगरी के ब्राह्मणों के झुंड पांचाल देश के लिए रवाना हुए। पांडव भी उनके साथ ही हो लिए। पाँचों भाई माता कुंती के साथ किसी कुम्हार की झोंपड़ी में आ टिके पांचाल देश में भी पांडव ब्राह्मण-वेश ही धारण किए रहे। इस कारण कोई उनको पहचान न सका। स्वयंवर-मंडप में एक वृहदाकार धनुष रखा हुआ था, जिसकी डोरी तारों की बनी हुई थी। ऊपर काफ़ी ऊँचाई पर एक सोने की मछली टँगी हुई थी। उसके नीचे एक चमकदार यंत्र बड़े वेग से घूम रहा था। राजा द्रुपद ने घोषणा की थी कि जो राजकुमार पानी में प्रतिबिंब देखकर उस भारी धनुष से तीर चलाकर ऊपर टंगे हुए निशाने (मछली) को गिरा देगा, उसी को द्रौपदी वरमाला पहनाएगी।",
"इस स्वयंवर के लिए दूर-दूर से अनेक वीर आए हुए थे। मंडप में सैकड़ों राजा इकट्ठे हुए थे जिनमें धृतराष्ट्र के सौ बेटे, अंग-नरेश कर्ण, श्रीकृष्ण, शिशुपाल, जरासंध आदि भी शामिल हुए थे। दर्शकों की भी भारी भीड़ थी। राजकुमार धृष्टद्युम्न घोड़े पर सवार होकर आगे आया। उसके पीछे हाथी पर सवार द्रौपदी आई। हाथ में फूलों का हार लिए हुए राजकन्या हाथी से उतरी और सभा में पदार्पण किया।",
"राजकुमार धृष्टद्युम्न अपनी बहन का हाथ पकड़कर उसे मंडप के बीच में ले गया।",
"इसके बाद एक-एक करके राजकुमार उठते और धनुष पर डोरी चढ़ाते हारते और अपमानित होकर लौट जाते। कितने ही सुप्रसिद्ध वीरों को इस तरह मुँह की खानी पड़ी। शिशुपाल, जरासंध, शल्य व दुर्योधन जैसे पराक्रमी राजकुमार तक असफल हो गए। जब कर्ण की बारी आई तो सभा में एक लहर सी दौड़ गई। सबने सोचा, अंग नरेश ज़रूर सफल हो जाएँगे। कर्ण ने धनुष उठाकर खड़ा कर दिया और तानकर प्रत्यंचा भी चढ़ानी शुरू कर दी। डोरी के चढ़ाने में अभी बालभर की ही कसर रह गई थी कि इतने में धनुष का डंडा उसके हाथ से छूट गया तथा उछलकर उसके मुँह पर लगा। अपनी चोट सहलाता हुआ कर्ण अपनी जगह पर जा बैठा। इतने में उपस्थित ब्राह्मणों के बीच से एक तरुण उठ खड़ा हुआ। ब्राह्मणों की मंडली में ब्राह्मण वेषधारी अर्जुन को यों खड़ा होते देखकर सभा में बड़ी हलचल मच गई। लोगों में तरह-तरह की चर्चा होने लगी। तब अर्जुन ने धनुष हाथ में लिया और उस पर डोरी चढ़ा दी। उसने धनुष पर तीर चढ़ाया और आश्चर्यचकित लोगों को मुस्कुराते हुए देखा। लोग उसे देख रहे थे। उसने और देरी न करके तुरंत एक के बाद एक पाँच बाण उस घूमते हुए चक्र में मारे और हज़ारों लोगों के देखते-देखते निशाना टूटकर नीचे गिर पड़ा। सभा में कोलाहल मच गया। बाजे बज उठे।",
"उस समय राजकुमारी द्रौपदी की शोभा कुछ अनूठी हो गई। वह आगे बढ़ी और सकुचाते हुए लेकिन प्रसन्नतापूर्वक ब्राह्मण-वेष में खड़े अर्जुन को वरमाला पहना दी माता को यह समाचार सुनाने के लिए युधिष्ठिर, नकुल और सहदेव तीनों भाई मंडप से उठकर चले गए। परंतु भीम नहीं गया। उसे भय था कि निराश राजकुमार कहीं अर्जुन को कुछ कर न बैठें। भीमसेन का अनुमान ठीक ही निकला। राजकुमारों में बड़ी हलचल मच गई। उन्होंने शोर मचाया। राजकुमारों का जोश बढ़ता गया। ऐसा प्रतीत हुआ कि भारी विप्लव मच जाएगा। यह हाल देखकर श्रीकृष्ण, बलराम और कुछ राजा विप्लव मचाने वाले राजकुमारों को समझाने लगे। वे समझाते रहे और इस बीच भीम और अर्जुन द्रौपदी को साथ लेकर कुम्हार की कुटिया की ओर चल दिए।",
"जब भीम और अर्जुन द्रौपदी को साथ लेकर सभा से जाने लगे, तो द्रुपद का पुत्र धृष्टद्युम्न चुपके से उनके पीछे हो लिया। कुम्हार की कुटिया में उसने जो देखा, उससे उसके आश्चर्य की सीमा न रही। वह तुरंत लौट आया और अपने पिता से बोला—“पिता जी, मुझे तो ऐसा लगता है कि ये लोग कहीं पांडव न हों! बहन द्रौपदी उस युवक की मृगछाला पकड़े जब जाने लगी, तो मैं भी उनके पीछे हो लिया। वे एक कुम्हार की झोंपड़ी में जा पहुँचे। वहाँ अग्नि-शिखा की भाँति एक तेजस्वी देवी बैठी हुईं थीं। वहाँ जो बातें हुईं, उनसे मुझे विश्वास हो गया कि वह कुंती देवी ही होनी चाहिए।”",
"तब राजा द्रुपद के बुलावा भेजने पर पाँचों भाई माता कुंती और द्रौपदी को साथ लेकर राजभवन पहुँचे। युधिष्ठिर ने राजा को अपना सही परिचय दे दिया। यह जानकर कि ये पांडव हैं, राजा द्रुपद फूले न समाए। उनकी इच्छा पूरी हुई। महाबली अर्जुन मेरी बेटी के पति हो गए हैं, तो फिर द्रोणाचार्य की शत्रुता की मुझे चिंता नहीं रही यह विचारकर उन्होंने संतोष की साँस ली माँ की आज्ञा और सबकी सम्मति से द्रौपदी के साथ पाँचों पांडवों का विवाह हो गया।",
"jis samay panDav ekchakra nagri mein brahmnon ke vesh mein jivan bita rahe the, unhin dinon panchal naresh ki kanya draupadi ke svyanvar ki taiyariyan hone lagin. ekchakra nagri ke brahmnon ke jhunD panchal desh ke liye ravana hue. panDav bhi unke saath hi ho liye. panchon bhai mata kunti ke saath kisi kumhar ki jhopDi mein aa tike panchal desh mein bhi panDav brahman vesh hi dharan kiye rahe. is karan koi unko pahchan na saka. svyanvar manDap mein ek vrihdakar dhanush rakha hua tha, jiski Dori taron ki bani hui thi. uupar kafi uunchai par ek sone ki machhli tangi hui thi. uske niche ek chamakdar yantr baDe veg se ghoom raha tha. raja drupad ne ghoshna ki thi ki jo rajakumar pani mein pratibimb dekhkar us bhari dhanush se teer chalakar uupar tange hue nishane (machhli) ko gira dega, usi ko draupadi varmala pahnayegi.",
"is svyanvar ke liye door door se anek veer aaye hue the. manDap mein saikDon raja ikatthe hue the jinmen dhritarashtr ke sau bete, ang naresh karn, shrikrishn, shishupal, jarasandh aadi bhi shamil hue the. darshkon ki bhi bhari bheeD thi. rajakumar dhrishtadyumn ghoDe par savar hokar aage aaya. uske pichhe hathi par savar draupadi aai. haath mein phulon ka haar liye hue rajkanya hathi se utri aur sabha mein padarpan kiya.",
"rajakumar dhrishtadyumn apni bahan ka haath pakaDkar use manDap ke beech mein le gaya.",
"iske baad ek ek karke rajakumar uthte aur dhanush par Dori chaDhate harte aur apmanit hokar laut jate. kitne hi suprasiddh viron ko is tarah munh ki khani paDi. shishupal, jarasandh, shalya va duryodhan jaise parakrami rajakumar tak asfal ho ge. jab karn ki bari aai to sabha mein ek lahr si dauD gai. sabne socha, ang naresh zarur safal ho jayenge. karn ne dhanush uthakar khaDa kar diya aur tankar pratyancha bhi chaDhani shuru kar di. Dori ke chaDhane mein abhi balbhar ki hi kasar rah gai thi ki itne mein dhanush ka DanDa uske haath se chhoot gaya tatha uchhalkar uske munh par laga. apni chot sahlata hua karn apni jagah par ja baitha. itne mein upasthit brahmnon ke beech se ek tarun uth khaDa hua. brahmnon ki manDli mein brahman veshadhari arjun ko yon khaDa hote dekhkar sabha mein baDi halchal mach gai. logon mein tarah tarah ki charcha hone lagi. tab arjun ne dhanush haath mein liya aur us par Dori chaDha di. usne dhanush par teer chaDhaya aur ashcharyachkit logon ko musakrate hue dekha. log use dekh rahe the. usne aur deri na karke turant ek ke baad ek paanch baan us ghumte hue chakr mein mare aur hajaron logon ke dekhte dekhte nishana tutkar niche gir paDa. sabha mein kolahal mach gaya. baje baj uthe.",
"us samay rajakumari draupadi ki shobha kuch anuthi ho gai. wo aage baDhi aur sakuchate hue lekin prasannatapurvak brahman vesh mein khaDe arjun ko varmala pahna di mata ko ye samachar sunane ke liye yudhishthir, nakul aur sahdev tinon bhai manDap se uthkar chale ge. parantu bheem nahin gaya. use bhay tha ki nirash rajakumar kahin arjun ko kuch kar na baithen. bhimasen ka anuman theek hi nikla. rajakumaron mein baDi halchal mach gai. unhonne shor machaya. rajakumaron ka josh baDhta gaya. aisa pratit hua ki bhari viplav mach jayega. ye haal dekhkar shrikrishn, balram aur kuch raja viplav machanevale rajakumaron ko samjhane lage. ve samjhate rahe aur is beech bheem aur arjun draupadi ko saath lekar kumhar ki kutiya ki or chal diye.",
"jab bheem aur arjun draupadi ko saath lekar sabha se jane lage, to drupad ka putr dhrishtadyumn chupke se unke pichhe ho liya. kumhar ki kutiya mein usne jo dekha, usse uske ashcharya ki sima na rahi. wo turant laut aaya aur apne pita se bola—“pita ji, mujhe to aisa lagta hai ki ye log kahin panDav na hon! bahan draupadi us yuvak ki mrigachhala pakDe jab jane lagi, to main bhi unke pichhe ho liya. ve ek kumhar ki jhopDi mein ja pahunche. vahan agni shikha ki bhanti ek tejasvi devi baithi huin theen. vahan jo baten huin, unse mujhe vishvas ho gaya ki wo kunti devi hi honi chahiye. ”",
"tab raja drupad ke bulava bhejne par panchon bhai mata kunti aur draupadi ko saath lekar rajabhvan pahunche. yudhishthir ne raja ko apna sahi parichay de diya. ye jankar ki ye panDav hain, raja drupad phule na samaye. unki ichchha puri hui. mahabali arjun meri beti ke pati ho ge hain, to phir dronacharya ki shatruta ki mujhe chinta nahin rahi ye vicharkar unhonne santosh ki saans li maan ki aagya aur sabki sammati se draupadi ke saath panchon panDvon ka vivah ho gaya.",
"jis samay panDav ekchakra nagri mein brahmnon ke vesh mein jivan bita rahe the, unhin dinon panchal naresh ki kanya draupadi ke svyanvar ki taiyariyan hone lagin. ekchakra nagri ke brahmnon ke jhunD panchal desh ke liye ravana hue. panDav bhi unke saath hi ho liye. panchon bhai mata kunti ke saath kisi kumhar ki jhopDi mein aa tike panchal desh mein bhi panDav brahman vesh hi dharan kiye rahe. is karan koi unko pahchan na saka. svyanvar manDap mein ek vrihdakar dhanush rakha hua tha, jiski Dori taron ki bani hui thi. uupar kafi uunchai par ek sone ki machhli tangi hui thi. uske niche ek chamakdar yantr baDe veg se ghoom raha tha. raja drupad ne ghoshna ki thi ki jo rajakumar pani mein pratibimb dekhkar us bhari dhanush se teer chalakar uupar tange hue nishane (machhli) ko gira dega, usi ko draupadi varmala pahnayegi.",
"is svyanvar ke liye door door se anek veer aaye hue the. manDap mein saikDon raja ikatthe hue the jinmen dhritarashtr ke sau bete, ang naresh karn, shrikrishn, shishupal, jarasandh aadi bhi shamil hue the. darshkon ki bhi bhari bheeD thi. rajakumar dhrishtadyumn ghoDe par savar hokar aage aaya. uske pichhe hathi par savar draupadi aai. haath mein phulon ka haar liye hue rajkanya hathi se utri aur sabha mein padarpan kiya.",
"rajakumar dhrishtadyumn apni bahan ka haath pakaDkar use manDap ke beech mein le gaya.",
"iske baad ek ek karke rajakumar uthte aur dhanush par Dori chaDhate harte aur apmanit hokar laut jate. kitne hi suprasiddh viron ko is tarah munh ki khani paDi. shishupal, jarasandh, shalya va duryodhan jaise parakrami rajakumar tak asfal ho ge. jab karn ki bari aai to sabha mein ek lahr si dauD gai. sabne socha, ang naresh zarur safal ho jayenge. karn ne dhanush uthakar khaDa kar diya aur tankar pratyancha bhi chaDhani shuru kar di. Dori ke chaDhane mein abhi balbhar ki hi kasar rah gai thi ki itne mein dhanush ka DanDa uske haath se chhoot gaya tatha uchhalkar uske munh par laga. apni chot sahlata hua karn apni jagah par ja baitha. itne mein upasthit brahmnon ke beech se ek tarun uth khaDa hua. brahmnon ki manDli mein brahman veshadhari arjun ko yon khaDa hote dekhkar sabha mein baDi halchal mach gai. logon mein tarah tarah ki charcha hone lagi. tab arjun ne dhanush haath mein liya aur us par Dori chaDha di. usne dhanush par teer chaDhaya aur ashcharyachkit logon ko musakrate hue dekha. log use dekh rahe the. usne aur deri na karke turant ek ke baad ek paanch baan us ghumte hue chakr mein mare aur hajaron logon ke dekhte dekhte nishana tutkar niche gir paDa. sabha mein kolahal mach gaya. baje baj uthe.",
"us samay rajakumari draupadi ki shobha kuch anuthi ho gai. wo aage baDhi aur sakuchate hue lekin prasannatapurvak brahman vesh mein khaDe arjun ko varmala pahna di mata ko ye samachar sunane ke liye yudhishthir, nakul aur sahdev tinon bhai manDap se uthkar chale ge. parantu bheem nahin gaya. use bhay tha ki nirash rajakumar kahin arjun ko kuch kar na baithen. bhimasen ka anuman theek hi nikla. rajakumaron mein baDi halchal mach gai. unhonne shor machaya. rajakumaron ka josh baDhta gaya. aisa pratit hua ki bhari viplav mach jayega. ye haal dekhkar shrikrishn, balram aur kuch raja viplav machanevale rajakumaron ko samjhane lage. ve samjhate rahe aur is beech bheem aur arjun draupadi ko saath lekar kumhar ki kutiya ki or chal diye.",
"jab bheem aur arjun draupadi ko saath lekar sabha se jane lage, to drupad ka putr dhrishtadyumn chupke se unke pichhe ho liya. kumhar ki kutiya mein usne jo dekha, usse uske ashcharya ki sima na rahi. wo turant laut aaya aur apne pita se bola—“pita ji, mujhe to aisa lagta hai ki ye log kahin panDav na hon! bahan draupadi us yuvak ki mrigachhala pakDe jab jane lagi, to main bhi unke pichhe ho liya. ve ek kumhar ki jhopDi mein ja pahunche. vahan agni shikha ki bhanti ek tejasvi devi baithi huin theen. vahan jo baten huin, unse mujhe vishvas ho gaya ki wo kunti devi hi honi chahiye. ”",
"tab raja drupad ke bulava bhejne par panchon bhai mata kunti aur draupadi ko saath lekar rajabhvan pahunche. yudhishthir ne raja ko apna sahi parichay de diya. ye jankar ki ye panDav hain, raja drupad phule na samaye. unki ichchha puri hui. mahabali arjun meri beti ke pati ho ge hain, to phir dronacharya ki shatruta ki mujhe chinta nahin rahi ye vicharkar unhonne santosh ki saans li maan ki aagya aur sabki sammati se draupadi ke saath panchon panDvon ka vivah ho gaya.",
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