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<s>[INST]दलित विमर्श के परिप्रेक्ष्य में गोदान का मूल्यांकन करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका • गोदान में दलित विमर्श के बिंदु • निष्कर्ष कोई भी अच्छी साहित्यिक कृति कालबद्ध नहीं होती बल्कि काल परिवर्तन के साथ नए तरीके से अर्थवान होती चलती है। जैसे-जैसे समाज का दृष्टिकोण बदलता है वैसे-वैसे हर ऐतिहासिक रचना का पुनर्मूल्यांकन उस नई विचार दृष्टि के आलोक में होता है। नारी विमर्श और दलित विमर्श वर्ष 1960 के बाद तेज़ी से साहित्य में उभरे हैं, जिन्होंने साहित्य के संपूर्ण इतिहास का पुनर्लेख अपने नज़रिए से करने की कोशिश की है। ऐसे में यह लाज़मी है कि गोदान को भी इन विमर्शों के नज़रिए से पुनर्मूल्यांकन का विषय बनाया जाए। गोदान में दलित विमर्श के बिंदु दलित विमर्श के समर्थकों ने प्रेमचंद्र को कटघरे में खड़ा किया है क्योंकि उन्हें लगता है कि प्रेमचंद जातिवादी चेतना से मुक्त नहीं थे। 'रंगभूमि' और 'कफ़न' में उनका यह पक्ष प्रबल रूप से प्रस्तुत हुआ है। गोदान भी इसका अपवाद नहीं है गोदान में कहीं-कहीं जातीय शब्दों का प्रयोग इस प्रकार से किया गया है कि जाति अंतराल साफ नज़र आता है। उदाहरणार्थ- रूपा एक स्थान पर सोना को कुछ इस प्रकार चिढ़ाती हैं "रूपा ने उंगली मटका कर कहा- ए राम, सोना चमार- ए राम सोना चमार।" इसी प्रकार पंडित दातादिन निम्न जातियों के प्रति कुछ इस प्रकार जहर उगलते हुए नजर आते हैं, "नीच जात जहां पेट भर रोटी खाई और टेढ़े चले, इसी से तो सास्तरों में कहा है नीच जात लतियाए अच्छा।" वस्तुतः प्रेमचंद को इन तथ्यों के आधार पर जातिवादी कहना बेहद गलत होगा। पंडित दातादिन एक जातिवादी व्यक्ति हैं इसलिए उसके मुँह से ऐसी बात कहलवाना कथानक योजना की दृष्टि से स्वाभाविक है। रूपा के माध्यम से यह कथन इसलिए कहलाया गया है ताकि वह दिखा सके कि बच्चों के समाजीकरण की प्रक्रिया में ही उनके मन में जातिवादी पूर्वाग्रह जहर की तरह घुल जाते हैं और मासूम बच्चे जो जाति का अर्थ भी नहीं समझते जातिगत पूर्वाग्रहों से निर्मित भाषा का प्रयोग करने लगते हैं। प्रेमचंद की जाति दृष्टि देखनी हो तो सिलिया का प्रशन ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। मातादीन और सिलिया का अंतर्जातीय प्रेम प्रसंग तत्कालीन गांधीवादी परिणाम है। जिसके अंतर्गत महात्मा गांधी लगातार अंतर्जाति विवाह को प्रोत्साहन दे रहे थे। इस प्रकार सिलिया के परिवार का विद्रोही तेवर उस समय उभरती हुई दलित चेतना का परिणाम है जो डॉ अंबेडकर आदि दलित चिंतकों के नेतृत्व में पनप रही थी।</s>
<s>[INST]उत्तर मौर्यकाल में प्रदेश-पारीय एवं महाद्वीप-पारीय व्यापार का भारत के सामाजिक और प्राकृतिक जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा? (250 शब्द )[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका • कथन के पक्ष में तर्क • उदाहरण • निष्कर्ष मौर्योत्तर काल व्यापार वाणिज्य की पराकाष्ठा का काल माना जाता है, इस समय कृषि विकास को प्रोत्साहन मिला। साथ ही विभिन्न शिल्पों के विकास के साथ इस काल में आंतरिक एवं बाह्य व्यापार को भी प्रोत्साहन मिला। व्यापारिक प्रोत्साहन के साथ अर्थव्यवस्था की बहुआयामी गतिविधियों को बल मिला। बाह्य व्यापार के साथ विभिन्न विदेशी समाज के मेल-जोल ने समग्र सामाजिक, संस्कृति जीवन की नवीन दिशा को विकसित किया। मौर्योत्तर काल में कृषि एवं शिल्प के विकास के परिणामस्वरूप आंतरिक एवं विदेशी व्यापार को व्यापक प्रोत्साहन मिला। कृषि विकास के परिणामस्वरूप एक समृद्ध वर्ग अस्तित्व में आया जिसने बहुमूल्य वस्तुओं की मांग को बढ़ा दिया। इसी के साथ कृषि अधिशेष उत्पादन के परिणामस्वरूप अनाज व्यापार को प्रोत्साहन मिला क्योंकि नगरीय क्षेत्रों में अनाजों की व्यापक मांग थी। मौर्योत्तर काल में रोमन साम्राज्य एवं शक साम्राज्य के अस्तित्व में आने के साथ विदेशी व्यापार को प्रोत्साहन मिला, दूसरे भारत ने पश्चिमी रोमन साम्राज्य एवं पूर्वी शक साम्राज्य के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाई। कुषाण शासकों के अंतर्गत रेशम मार्ग का एक भाग भारत के नियंत्रण में था जिसने भारतीय व्यापार को और अधिक प्रोत्साहन दिया। रोमन व्यापार भारत के लिये अत्यंत लाभदायक रहा, इस व्यापार के फलस्वरूप भारत में बड़ी मात्रा में सोना, चाँदी आने लगा। इस काल में भारत के व्यापारिक सहयोगी रोमन साम्राज्य, पश्चिम एशियाई क्षेत्र, मध्य एशियाई क्षेत्र, चीन तथा दक्षिण-पूर्ण एशियाई क्षेत्र थे। भारत एवं रोमन साम्राज्य के बीच व्यापार से रोम को जो आर्थिक एवं नैतिक घाटा हो रहा था उस विषय पर रोमन सीनेट में चिंता व्यक्त की गई थी। मौर्योत्तर काल में व्यापारिक मार्गों का विकास उत्तरापथ एवं दक्षिणापथ के रूप में हो चुका था। उत्तरापथ इस काल में मध्य एशिया से सिल्क मार्ग से जुड़ जाता था और चीन से आरंभ होकर बैक्ट्रिया से इसकी एक शाखा तक्षशिला की ओर जाती थी। इस समय के विभिन्न बंदरगाहों की चर्चा मिलती है जिससे विभिन्न देशों के साथ व्यापारिक विकास हुआ। जैसे- भड़ौच, सोपारा, बारवेरिकम, मुजरिस आदि। इन्होंने भारत में व्यापारिक एकीकरण की स्थापना की। मौर्योत्तर काल में आंतरिक एवं बाह्य व्यापार के साथ वैश्यों एवं शूद्रों की स्थिति में परिवर्तन आया। व्यापार एवं उद्योगों के विकास के साथ नगरीकरण की प्रगति से वैश्यों की आर्थिक संपन्नता और बढ़ गई। परिणामस्वरूप समाज में शिल्पियों एवं कारीगरों के रूप में शूद्रों का महत्त्व बढ़ गया जो धीरे-धीरे वैश्यों के समकक्ष आने लगे। मौर्योत्तर काल में एक अन्य महत्त्वपूर्ण अभिलक्षण उभरकर सामने आया जिसमें निम्न वर्ण के लोगों ने उच्च वर्ण के विरुद्ध विद्रोह कर दिया क्योंकि वह आर्थिक समानता के कारण सामाजिक समानता का अधिकार चाहते थे जिसके कारण वैश्यों ने कर देने से मना कर दिया और शूद्रों ने सेवा करने से। इस स्थिति से निपटने के लिये ब्राह्मणों ने शस्त्र धारण करना तथा राज्य करना धर्म सम्मत माना और ब्राह्मणों को भूमि अनुदान की परंपरा को शुरू किया गया तथा उच्च वर्णों की एकता पर बल दिया गया। इसी के साथ पुनः धार्मिक जटिलताओं को स्थापित किये जाने के प्रयास किये जाने लगे। मौर्योत्तर काल में हुए सामाजिक परिवर्तनों के कारण बौद्ध धर्म को स्वदेशी समर्थन मुख्य रूप से वणिक समाज द्वारा मिला। इस काल के कई स्तूपों एवं विहारों का निर्माण का श्रेय व्यापारियों की दानशीलता को ही जाता है। व्यापार के माध्यम से बौद्ध धर्म पश्चिमी और मध्य एशिया, चीन तथा दक्षिण पूर्वी एशिया से पहुँचा। बौद्ध धर्म ने व्यापार वाणिज्य के प्रश्रय में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई तथा वैदिक धर्म में हीनता के बोध के कारण निम्न वर्ग का झुकाव भी बौद्ध धर्म की ओर बढ़ता चला गया। विदेशी व्यापार के कारण भारत में विभिन्न मूर्ति कला की शैलियों का आर्विभाव हुआ जिसे गांधार कला एवं मथुरा कला के रूप में देखा गया तथा धनी व्यापारियों द्वारा स्तूप एवं गुहा मंदिर जिन्हें चैत्यग्रह कहते हैं, का निर्माण कराया तथा इसी के साथ कई स्थानों पर बौद्ध संघों का भी निर्माण कराया गया। निष्कर्षतः कह सकते हैं कि मौर्योत्तर काल में आंतरिक एवं बाह्य व्यापार ने भारतीय अर्थव्यवस्था को उच्च आयाम दिया जिसके कारण सामाजिक उन्नत्ति एवं नगरीकरण की पराकाष्ठा स्थापित हुई, जिसमें सामाजिक संघर्ष ने निम्न वर्ग की महत्त्वाकांक्षा को नवीन दिशा दी। इसने आर्थिक श्रेष्ठता के साथ सामाजिक श्रेष्ठता को नया आयाम दिया जो आज आधुनिक समाज में परिलक्षित होता है। इसी के साथ सांस्कृतिक विकास को भी बढ़ावा मिला।</s>
<s>[INST]हिन्दी भाषा एवं लिपि के विकास में 'नागरी प्रचारिणी सभा' के योगदान पर प्रकाश डालिए।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका • हिन्दी भाषा एवं लिपि के विकास में नागरी प्रचारिणी सभा का योगदान • निष्कर्ष श्यामसुंदर दास, रामनारायण मिश्र तथा ठाकुर शिवकुमार सिंह ने हिन्दी भाषा, साहित्य तथा देवनागरी लिपि की उन्नति, प्रचार एवं प्रसार के लिए सन् 1893 ई. में 'नागरी प्रचारिणी सभा' की स्थापना काशी में की। सभा के प्रयासों से उत्तर प्रदेश (तत्कालीन संयुक्त प्रांत) में नागरी के प्रयोग की अनुमति मिली और सरकारी कर्मचारियों के लिए हिन्दी और उर्दू दोनों भाषाओं का ज्ञान अनिवार्य कर दिया गया। सभा ने अपने स्थापना काल से ही इस बात पर ध्यान दिया की प्राचीन विद्वानों के हस्तलेख जो नगरों और देहातों में नष्ट हो रहे थे, उनका उद्धार किया जाए। सभा ने हिन्दी शब्द सागर, हिन्दी विश्वकोश, वैज्ञानिक शब्दावली आदि का प्रकाशन किया हिन्दी शब्द सागर में लगभग एक लाख शब्द हैं जिन्हें कोशबद्ध करने में अनेक विद्वानों ने योगदान दिया। विश्वकोश 12 खंडों में प्रकाशित है। काशी नागरी सभा ने पंडित कामता प्रसाद गुरु तथा आचार्य किशोरी दास बाजपेई द्वारा लिखित व्याकरण का भी प्रकाशन किया। हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र में जहाँ 'सरस्वती' पत्रिका को आरंभ करने का श्रेय सभा को है वहीं अपने आरंभ से लेकर आज तक शोध पत्रिका 'नागरी प्रचारिणी पत्रिका' का भी प्रकाशन करती आ रही है। इसने हिन्दी के प्रचार-प्रसार हेतु अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन का संगठन एवं आयोजन भी किया। सभा की यह प्रवृत्ति प्रारंभ से ही रही है कि विभिन्न विषयों के उत्तम ग्रंथों के प्रकाशन पर वह प्रतिवर्ष पुरस्कार एवं स्वर्ण, रजत पदक ग्रंथकर्ताओं को देती आ रही है। अपनी जैसी संस्थाओं से संबंध स्थापित करना, हिन्दी पढ़ने के लिए छात्रवृत्ति देना, हिन्दी के संकेत शॉर्ट हैंड शिक्षा देना गोष्ठियों का आयोजन आदि सभा की प्रवृतियाँ हैं। इस प्रकार हिन्दी भाषा एवं देवनागरी लिपि के विकास में सभा का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है।</s>
<s>[INST]रोस्तोव द्वारा प्रतिपादित एक राष्ट्र के विकास की उत्प्रस्थान एवं अनुवर्ती अवस्थाओं की आवश्यक शर्तो की व्याख्या कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद: रोस्तोव द्वारा प्रतिपादित एक राष्ट्र के विकास की उत्प्रस्थान एवं अनुवर्ती अवस्थाओं की आवश्यक शर्तें हल करने का दृष्टिकोण: संक्षिप्त भूमिका लिखें। किसी भी भूगोलवेत्ता का नाम पूरा लिखें। रोस्तोव द्वारा दिए गए आर्थिक संवृद्धि के सिद्धांत में आर्थिक वृद्धि की पाँच अवस्थाओं (Rostow's Stages of Economic Growth Model) का उल्लेख कीजिये। शब्द सीमा कम करने के लिये पाँच अवस्थाओं को चित्र/माइंड मैप के साथ दर्शाइये। निष्कर्ष में रोस्तोव के सिद्धांत का भारत के परिप्रेक्ष में उल्लेख कीजिये। वॉल्ट व्हिटमैन रोस्तोव (Walt Whitman Rostow) संयुक्त राज्य अमेरिका के आर्थिक इतिहासकार थे। रोस्तोव द्वारा एक ऐसे मॉडल को विकसित करने का प्रयास किया गया जिसके द्वारा किसी भी देश के क्रमिक आर्थिक विकास का विश्लेषण किया जा सकता है। रोस्तोव ने अपने आर्थिक संवृद्धि के सिद्धांत में आर्थिक वृद्धि की पाँच अवस्थाओं (Rostow's Stages of Economic Growth Model) का उल्लेख किया है। इस सिद्धांत को वर्ष 1960 में प्रकाशित किया गया था। इस मॉडल के अनुसार, किसी भी राष्ट्र का विकास कोई गत्यात्मक प्रक्रिया नहीं है बल्कि जैविक प्रक्रिया के समान है। समय और स्थान के परिप्रेक्ष्य में अलग होते हुये भी किसी देश को इन अवस्थाओं से होकर गुजरना पड़ता है। यह मॉडल बताता है कि किसी भी राष्ट्र का आर्थिक विकास पाँच बुनियादी चरणों में होकर गुजरता है। परंपरागत समाज की अवस्था (The Traditional Society) स्वयं स्फूर्ति से पूर्व की दशा (The Pre-Take Off Stage) स्वयं स्फूर्ति की दशा (The Take-Off Stage) परिपक्वता की अवस्था (Drive to Maturity) अत्यधिक जन उपभोग की अवस्था (Stage of High Mass Consumption) उत्प्रस्थान अवस्था किसी भी राष्ट्र के तीव्रतम विकास को सूचित करती है। इस अवस्था के पूर्व किसी भी देश को पारंपरिक परिवेश व उत्प्रस्थान पूर्व परिस्थितियों की आवश्यक शर्तो को पूरा करना पड़ता है। अर्थात् पारंपरिक समाज की अवस्था में किसी देश में सामाजिक-आर्थिक पिछड़ापन मौजूद होता है। यह आदिम समाज, रूढ़िवादी समाज को दर्शाता है जिसमें अंधविश्वास धार्मिक कट्टरता, समाजिक शोषण आदि समस्याएँ विद्यमान होती हैं इस अवस्था में केवल पशुचारण, जीवन निर्वाह कृषि व स्थानांतरित कृषि की जाती है। कच्चे माल का निर्यात तथा तैयार वस्तुओं का आयात किया जाता है। अर्थात् इस अवस्था में किसी राष्ट्र की अर्थव्यवस्था प्रतिस्पर्द्धा विहीन होती है। जैसे- वर्तमान मध्य अफ्रीकी देश व एशियाई में भूटान, कंबोडिया आदि। उत्प्रस्थान की पूर्व परिस्थितियों की अवस्था में निवेश के द्वारा आधारभूत संरचना के विकास पर बल दिया जाता है। जो कृषि व उद्योगों के विकास के लिये प्रमुख आधार प्रस्तुत करती हैं। इसमें सरकार की सीमित भागीदारी होती है। जैसे- भारत में ब्रिटिश शासन के समय यह स्थिति देखी गई। इस अवस्था में उत्पादकता निवेश दर में वृद्धि पर ज़ोर दिया जाता है, सामाजिक एवं आर्थिक बुनियादी संरचना की शुरूआत, आर्थिक आधार पर नये अभिजात्य वर्ग का उदय और प्रभावी केंद्रीकृत राष्ट्र की अवधारणा इस अवस्था की मूल विशेषताएँ हैं। इस अवस्था में पूंजीपति वर्ग का उदय विकास की अगली अवस्था अर्थात् उत्प्रस्थान अवस्था का मार्ग प्रशस्त करता है। रोस्तोव के अनुसार उत्प्रस्थान की अवस्था किसी देश के आर्थिक विकास की लघुकालीन अवस्था है क्योंकि इस अवस्था में कम समय में अधिक विकास की संभावना अधिक होती है। निवेश और आर्थिक वृद्धि द्वारा प्राथमिक तथा विनिर्माण क्षेत्रों में नये उद्योगों का विकास होता है। इससे नगरीकरण व औद्योगीकरण को बढ़ावा मिलता है। साक्षरतादर, रहन-सहन का स्तर व क्रय शक्ति आदि में वृद्धि दिखाई देती है। आधारभूत संरचना पर निवेश स्पष्ट दिखाई देता है। देश लगभग औद्योगिक क्रांति के दौर से गुजरने लगता है। कुछ उद्योगों में नई तकनीकी प्रगति में लगातार वृद्धि की मुख्य भूमिका होती है। इस अवस्था में ‘वृद्धि’ ही समाज को नियंत्रित करने वाला आवश्यक कारक होता है जिसके अंतर्गत आर्थिक, सामाजिक मुद्दों, निवेश में बढ़ोतरी खासकर अग्रणी वस्तु निर्माण में बढ़ोत्तरी शामिल है द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जापान का अभूतपूर्व विकास, वर्ष 1850-1875 में यूएसए का विकास तथा पाँचवीं पंचवर्षीय योजना के समय भारत इस अवस्था में था। उत्प्रस्थान के पश्चात् अनुवर्ती अवस्थाओं के अंतर्गत परिपक्वता व व्यापक उपभोग की अवस्थाएँ आती है। परिपक्वता की अवस्था किसी राष्ट्र की विकसित अर्थव्यवस्था का प्रतीक है। इस अवस्था में कुशल व विशिष्ट श्रमिकों के विशिष्ट उपयोग द्वारा सामाजिक एवं आर्थिक कार्यो में आधुनिक अर्थात् वैकल्पिक तकनीक का प्रयोग होता है। उद्योगों का विकेंद्रीकरण और विविधिकरण प्रारंभ होता है। बहुआयामी आर्थिक-सामाजिक विकास की प्रक्रिया प्रारंभ होती है। इस अवस्था में निर्यात बढ़ता है तथा आयात कम होता है। इस अवस्था की मुख्य विशेषताएँ उच्च साक्षरता दर, उच्च जीवन स्तर, उच्च क्रय शक्ति है। विश्व के अधिकतर विकसित देश जैसे- संयुक्त राज्य अमेरिका, जापान आदि इसी अवस्था में है। आर्थिक, सामाजिक विकास की प्रौढावस्था के बाद व्यापक जन उपभोग की अवस्था प्रांरभ हो जाती है। यह किसी भी देश के विकास की चरम अवस्था होती है। इस अवस्था में सेवा क्षेत्र की भूमिका अहम होती है। इस अवस्था में आय में भारी वृद्धि के कारण उपभोक्तावादी समाज की स्थापना होती है। अर्थात् इस अवस्था की आवश्यक शर्तानुसार कोई राष्ट्र विकास के सभी आयामों को प्राप्त कर स्थिरता की स्थिति में होता है। इस प्रकार रोस्तोव द्वारा किसी भी देश के आर्थिक-सामाजिक स्थितियों का आसानी से विश्लेषण कर उनकी विभिन्न अवस्थाओं (अल्पविकास, विकासशील, विकसित) का पता लगाया जा सकता है। जिनके माध्यम से वैश्विक स्तर पर विभिन्न राष्ट्रों की विकास संबंधी रणनीतियों को अंतर्राष्ट्रीय सहयोग प्रदान कर वैश्विक समावेशी व सतत् विकास की ओर अग्रसर किया जा सकता है। साथ ही भारत के राज्यों का रोस्तोव के आर्थिक संवृद्धि के मॉडल के आधार पर विश्लेषण करके क्षेत्रीय आर्थिक विभेदन को कम करने के लिये सटीक रणनीति बनाई जा सकती है।</s>
<s>[INST]तराइन एवं चंदावर की लड़ाइयों ने भारत में तुर्की शासन की नींव रखी थी, विस्तार पूर्वक स्पष्ट कीजिये। (250 शब्द )[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका • कथन के पक्ष में तर्क • उदाहरण • निष्कर्ष तराइन एवं चंदावर की लड़ाइयों में भारतीय राजपूत शासकों की पराजय के परिणामस्वरूप भारत में तुर्की शासन की नीव पड़ी। इस पराजय से यह नहीं कहा जा सकता कि युद्ध कौशल की श्रेष्ठता सिर्फ तुर्कों का गुण था बल्कि भारतीय राजपूत शासकों की वीरता एंव साहस भी जगत प्रसिद्ध थी किंतु उन्होंने युद्ध में भी नैतिकता को महत्त्व दिया गया। साथ ही कुछ रणनीतिक गलतियाँ भी की जिसके चलते उन्हें पराजय का मुँह देखना पड़ा और भारत मे तुर्की शासन की नींव पड़ी। पंजाब को जीतने के पश्चात् जब मोहम्मद गोरी के राज्य की सीमाएँ दिल्ली एवं अजमेर के शासक पृथ्वीराज के राज्य की सीमाओं से मिलने लगी तब गोरी ने 1189 ई. में भटिंडा के किले पर आक्रमण कर उसे जीत लिया। इसकी खबर जब पृथ्वीराज को मिली तो उसने भटिंडा को जीतने का निश्चय किया। भटिंडा के किले को लेकर पृथ्वीराज एवं मोहम्मद गोरी के बीच 1191 ई. में तराइन का प्रथम युद्ध हुआ जिसमें गोरी की पराजय हुई। तुर्की सेना के बड़े प्रतिरोध के बावजूद पृथ्वीराज ने 13 माह के पश्चात् भटिंडा के किले पर नियंत्रण स्थापित कर लिया। तराइन के प्रथम युद्ध मे पृथ्वीराज की विजय तो हुई किंतु इस दौरान उनसे कुछ गलतियाँ भी हुई जिसके परिणाम उसके लिये बाद मे हानिकारक रहे। इस युद्ध मे जब गोरी पराजित होकर भागा तो नैतिकता बस पृथ्वीराज ने भागते हुए शत्रु पर वार नहीं किया, न ही पीछा करके खदेड़ा। दूसरे सीमाओं की सुरक्षा का प्रबंध नहीं किया खासकर उत्तरी सीमा की सुरक्षा करना अति आवश्यक था क्योंकि इसी सीमा से भारत पर पहले से ही आक्रमण होते रहे थे। तराइन के प्रथम युद्ध की पराजय से अपमानित मोहम्मद गोरी एक वर्ष तक अपनी तैयारी करता रहा, फिर अपने साथ एक लाख बीस हज़ार की चुनी हुई घुड़सवार सेना लेकर गजनी से चला। लाहौर पहुँचकर उसने पृथ्वीराज के पास संदेश भेजा कि वह इस्लाम और उसका आधिपत्य स्वीकार कर ले। पृथ्वीराज ने उसे भारत से लौट जाने का परामर्श दिया। मोहम्मद गोरी का उद्देश्य तो युद्ध करना था तो वह पृथ्वीराज की बातों पर ध्यान क्यों देता, उसने भटिंडा पर आक्रमण कर दिया और उसे जीतकर तराइन के मैदान में पुनः पहुँच गया। 1192 ई. में पृथ्वीराज ने एक बड़ी सेना लेकर तराइन के मैदान में मोहम्मद गोरी का प्रतिरोध किया जिसे तराइन का द्वितीय युद्ध कहा गया। तराइन के द्वितीय युद्ध में मोहम्मद गोरी ने सजगता के साथ युद्ध किया जिसमें पृथ्वीराज की हार हुई तथा उसे सुरसती नदी के किनारे पकड़ लिया गया और कुछ दिन बाद उसकी हत्या कर दी गई। तराइन का द्वितीय युद्ध भारतीय इतिहास में महत्त्वपूर्ण रहा। इसी के साथ चौहानों की साम्राज्यवादी शक्ति नष्ट कर दी गई। पृथ्वीराज की पराजय का एक महत्त्वपूर्ण कारण यह था कि वह विदेशी आक्रमण के विरूद्ध न तो गहड़वालों की सहायता ले सका और न ही गुजरात के चालुक्यों की, गहड़वालों की सहायता न मिलने का मुख्य कारण पृथ्वीराज द्वारा गहड़वाल शासक जयचंद की पुत्री का हरण था जिसके कारण उनकी आपसी शत्रुता हो गई थी। उस समय उतर भारत में गहड़वालों को शक्तिशाली शासक माना जाता था। दूसरे, गहड़वालों के साथ संघर्ष मे पृथ्वीराज के अनेक सेनानायक, सामंत एंव सैनिक मारे गए थे जिसके कारण पृथ्वीराज की शक्ति क्षीण हो गई थी। 1194 ई. में मोहम्मद गोरी कन्नौज के शासक जयचंद गहड़वाल पर आक्रमण करने के लिये भारत आया। उस समय उत्तर भारत के कन्नौज का राज्य बहुत शक्तिशाली माना जाता था। इसी जयचंद ने आपसी शत्रुता के कारण पृथ्वीराज की तराइन के द्वितीय युद्ध में सहायता नहीं की थी। इस अवसर पर जयचंद को भी गोरी से अकेले ही युद्ध करना पड़ा। मोहम्मद गोरी एवं जयचंद के बीच युद्ध चंदावर नामक स्थान पर हुआ जो इटावा एंव कन्नौज में पड़ता है। चंदावर के युद्ध मे जयचंद मारा गया और राजपूतों की पराजय हुई । चंदावर के युद्ध में जयचंद की पराजय के पश्चात् मोहम्मद गोरी ने आगे बढ़कर वाराणसी को लूटा तथा जयचंद के राज्य के सभी प्रमुख स्थानों पर नियंत्रण कर लिया। अब उत्तर भारत में मोहम्मद गोरी का मुकाबला करने के लिये अन्य कोई शक्तिशाली राजा नही बचा था इसके साथ ही बंगाल, बिहार पर विजय का मार्ग प्रशस्त हो गया। इस विजय के उपरांत मोहम्मद गोरी तो वापस चला गया किंतु उसके विजित प्रदेशों को उसके गुलामों द्वारा संगठित किया गया तथा तुर्की शासन व्यवस्था की स्थापना की गई। निष्कर्षतः कह सकते हैं कि भारत मे तुुर्की शासन की स्थापना के पीछे भारतीय राजाओं के आपसी मतभेद, प्रतिस्पर्द्धा एवं संघर्ष के साथ सामाजिक विभेद प्रमुख कारण रहे जिसने राजनीतिक एकता को नष्ट कर दिया था। दूसरे सामाजिक अव्यवस्था एवं असंतोष ने देशद्रोह की भावना को जन्म दिया। अनेक अवसरों पर तुर्कों की विजय भारतीय सहयोग के कारण ही हुई थी फलतः दूषित सामाजिक व्यवस्था भी राजपूतों की पराजय एवं तुर्कों की विजय का महत्त्वपूर्ण कारण बनी।</s>
<s>[INST]'निर्गुण ज्ञानाश्रायी' या 'संत काव्यधारा' सामाजिक विषमताओं के प्रति विद्रोह करती है। कथन की सोदाहरण विवेचना कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका • कथन के पक्ष में उदाहरण सहित तर्क • निष्कर्ष 'निर्गुण ज्ञानाश्रायी' काव्यधारा या 'संत काव्यधारा' भक्तिकाल की आरंभिक काव्यधारा है। इस धारा के प्रमुख कवि कबीर दास, रैदास, दादूदयाल, मलूक दास,.रज्जब, सुंदर दास, गुरु नानक देव इत्यादि हैं। इस काव्यधारा के कवियों का साहित्य सामाजिक विषमताओं के प्रति क्रांतिकारी मानसिकता का परिचायक है। इसे निम्नलिखित बिंदुओं से समझा जा सकता है:- शास्त्रों का विरोध: संत कवि प्रायः निरक्षर थे। 'कागद' और 'मसि' को उन्होंने नहीं छुआ था। निम्न वर्ण और निम्न वर्ग के होने के कारण उन्हें शास्त्रों से परहेज है। क्योंकि शास्त्र ही उनके शोषण व वंचन को वैध बनाते हैं। वह शास्त्रों पर करारी चोट करते हैं क्योंकि शास्त्र लकीर का फकीर बनाते हैं और जीवन को तार्किकता से समझने की ताकत नहीं देते हैं। कबीर कहते हैं: "पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ पंडित भया न कोय ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय" माया का विरोध: नाथ परंपरा तथा शंकर के अद्वैतवाद से प्रभावित होने के कारण इनका मानना है कि माया मनुष्य में इच्छाएँ पैदा करके उसे दिग्भ्रमित कर देती हैं। माया का विरोध करते हुए वह कहते हैं: "माया मुई न मन मुआ मरी मरी गया सरीर आसा तृष्णा ना मुई कहि गया कबीर" आत्मविश्वास की प्रबलता: संत कवि प्रायः निरक्षर थे। शास्त्रों ने उन पर जो प्रहार किये थे उन्हें ना पढ़ सकने के कारण उनसे प्रभावित नहीं हुए। उन्होंने शंकराचार्य, वैष्णव, सूफी भक्तों और नाथ योगियों की परंपरा से अच्छे लगने वाले विचारों को ग्रहण किया इससे उनमें आत्मविश्वास की भावना आई और निडर होकर स्वानुभूतियों को व्यक्त कर सके। आत्मविश्वास से भर कर कबीर कहते हैं:- "हम घर जारा आपना लिया मुराड़ा हाथ अब घर जारौं तासु का जो चले हमारे साथ" आडंबरों का विरोध: कबीर व अन्य संत कवियों ने अपने व्यंग से आडंबर फैलाने वाले मौलवियों और पंडितों दोनों पर जमकर चोट की। इनके व्यंग्य में जो पैनापन तार्किकता है वह अन्यत्र दुर्लभ है। कबीर की व्यंग क्षमता की प्रशंसा आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी की है। उदाहरण के लिये: "काँकर पाथर जोरि के मस्जिद लई बनाय ताँ चढ़ी मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय।" हिंदू संप्रदाय में आई रूढ़िगत विकृतियों का भी जमकर विरोध किया। मूर्ति पूजा, धार्मिक हिंसा, व्रत,तीर्थ इत्यादि की आलोचना की। उदाहरण के तौर पर: "पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजूँ पहार तातैं तो चक्की भली, पिस खाए संसार।" सामाजिक असमानताओं का विरोध: सभी संतो ने सामाजिक भेदभाव के दंश को झेला था इसलिये उन्होंने सामाजिक व्यवस्था और मान्यताओं का विरोध किया। रैदास के शब्दों में: "जाति ओछा पाती ओछा, ओछा जनम हमारा रामराय की सेवा कीन्ही, कहि रविदास चमारा" सांप्रदायिकता का विरोध: संत काव्यधारा का समय भारतीय समाज में हिंदू और मुसलमानों के आरंभिक सह-अस्तित्व का काल था, जिसमें दोनों संप्रदाय के लोगों के मध्य अपरिचय, अविश्वास व विरोध की भावना हावी थी। संत कबीर ने दोनों तरह की मानसिकता के लोगों को फटकारा है और सौहार्द सीखाने की कोशिश की है: "अरे इन दोउन राह न पाई। हिंदुन की हिंदुआई देखी तुर्कन की तुरकाई।" निष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि संत काव्यधारा के कवि सामाजिक विषमताओं एवं रूढ़िवादिता को समाप्त करने तथा सामाजिक पुनर्जागरण के अग्रदूत थे।</s>
<s>[INST]गण संघों (गैर-राजतंत्रीय राज्य प्रणालियों) का विवरण प्रस्तुत कीजिये, उनका पतन किस कारण हुआ था? (250 शब्द )[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका • कथन के पक्ष में तर्क • उदाहरण • निष्कर्ष प्रारंभ में अधिकांश इतिहासकाराें की धारणा थी कि प्राचीन भारत में केवल राजतंत्र ही थे किंतु बाद की खोजों से यह बात प्रकाश में आई कि प्राचीन भारत में राजतंत्रों के साथ-साथ गण अथवा संघ राज्यों का भी अस्तित्त्व था। गैर राजतंत्रीय राज्य प्रणालियों का उल्लेख महाभारत में भी मिलता है। इसके अतिरिक्त गण संघों का विवरण यूनानी-रोमन लेखकों द्वारा किया गया है। पुरातात्त्विक प्रमाणों के रूप में विभिन्न गण संघाें के सिक्के के प्रमाण भी पाए गए। छठीं शताब्दी ईसा पूर्व अर्थात् बुद्धकालीन भारत में कई गणराज्य उत्तर-भारत में स्थापित थे जिनकी संख्या 10 बताई जाती है, इनमें से कुछ थे: कपिल वस्तु के साक्ष्य- यह गणराज्य नेपाल की तराई में स्थित था जिसकी राजधानी कपिलवस्तु थी। इसमें गोरखपुर का पश्चिमी भाग और नेपाल के कुछ क्षेत्र शामिल थे। इसी गणराज्य में बुद्ध का जन्म हुआ था। कपिलवस्तु इस समय शिक्षा संस्कृति का केंद्र माना जाता था। अल्लकप्प के बुली- यह गणराज्य आधुनिक बिहार प्रांत के शाहाबाद, आरा और मुज़फ्फरपुर ज़िलों के बीच स्थित था। वेठद्वीप (बेतिया) इनकी राजधानी थी। रामगाय के कोलिय: यह शाक्य गणराज्य के पूर्व में स्थित था जो दक्षिण में सरयू नदी तक विस्तृत था। शाक्य एवं कोलिय राज्यों के बीच रोहिणी नदी बहती थी, अतः नदी के पानी को लेकर शाक्यों एवं कोलियो के बीच संघर्ष की चर्चा मिलती है। पाबा के मल्ल: यह विशिष्ट गोत्र के क्षत्रिय थे, ये संभवतः आधुनिक पडरौना या फाजिलपुर में रहते थे। जैन साहित्य से पता चलता है कि अजातशत्रु के भय से मल्लों ने लिच्छवियों के साथ मिलकर संघ बनाया था। कुशीनारा के मल्ल: यह मल्लों की दूसरी शाखा थी। आधुनिक कसिया ही कुसीनारा के नाम से विख्यात थी जो कुसीनारा के मल्लों की राजधानी थी। कसिया वर्तमान में देवरिया ज़िले में है। विपनीवन के मौर्य: मौर्य गण की राजधानी विपलीवन थी जो कुसीनारा से लगभग 50 मील पश्चिम में स्थित थी, कुछ विद्वान चन्द्रगुप्त मौर्य को इसी कुल से जोड़कर देखते हैं। मिथिला के विदेह: बिहार के दरभंगा तथा भागलपुर ज़िलों के भू-भाग पर विदेह गणराज्य स्थित था। यह प्रारंभ में राजतंत्र था किंतु बुद्ध के समय से संघ राज्य बन गया। इसकी राजधानी मिथिला थी जिसकी वर्तमान में पहचान जनकपुर के नाम से की जाती है। बुद्ध के समय मिथिला एक व्यापारिक नगर था। वैशाली के लिच्छवि: बुद्ध के समय यह सबसे बड़ा एवं शक्तिशाली गणराज्य था, इसकी राजधानी वैशाली मुज़फ्फरपुर ज़िले के बसाढ़ नामक स्थान पर स्थित थी। महाबग्ग जातक में बैशाली को एक धनी एवं समृद्धशाली तथा घनी आवादी वाला नगर कहा गया है। उपरोक्त गणराज्य अत्यंत शक्तिशाली एवं सुव्यवस्थित थे। उन्होंने अपने समकालीन राजतंत्रों का बड़ा प्रतिरोध किया था। देश भक्ति एवं स्वाधीनता की भावना इन गणराज्यों में कूट-कूट कर भरी थी किंतु वे राजतंत्रों के विरुद्ध अपनी स्वतंत्रता की रक्षा नहीं कर पाए अंततोगत्वा उनका पतन हो गया। इसके लिये अनेक कारणों को उत्तरदायी बताया गया है। एक विचार के अनुसार, समुद्रगुप्त की साम्राज्यवादी नीति ने गणराज्यों की स्वाधीनता का अंत कर दिया जिसके कारण इनका पतन हो गया। किंतु यह विचार तर्कसंगत नहीं लगता क्योंकि समुद्रगुप्तकालीन गणराज्य नाममात्र के लिये प्रभुसत्ता स्वीकार करते थे, उन्हें पर्याप्त आंतरिक स्वायत्तता मिली हुई थी। दूसरा कारण गणराज्यों के शासन में उच्च पदों का आनुवंशिक होना पाया गया, चूँकि प्राचीन ग्रंथों में सर्वत्र राजतंत्रों की प्रशंसा की गई थी तथा राजा का पद दैवीय माना गया था। अतः गणराज्यों ने भी सुशासन तथा सुरक्षा की दृष्टि से राजतंत्रात्मक प्रणाली को अपनाना हितकर समझा। क्रमशः गणराज्यों की सत्ता प्रभावशाली व्यक्तियों के हाथों में केंद्रित होती गई और धीरे-धीरे शासन का जनतांत्रिक स्वरूप समाप्त हो गया। निष्कर्षतः गणतंत्रों की आपसी फूट तथा समकालीन राजतंत्रों की विस्तारवादी नीति को ही न्यूनाधिक रूप से उनके पतन के लिये उत्तरदायी माना जा सकता है।</s>
<s>[INST]पद्माकर के काव्य की काव्यगत विशेषताओं पर सोदाहरण चिंतन करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: भूमिका भाव पक्ष की विशेषताएँ शिल्प पक्ष की विशेषताएँ पद्माकर रीतिबद्ध काव्य धारा के प्रमुख कवियों में से एक हैं। इन्हें लगभग 10 राज्य दरबारों से राजाश्रय प्राप्त हुआ। इनकी 11 कृतियों का उल्लेख मिलता है। जिनमें से 'जगद्विनोद', 'पद्माभरण', 'गंगा लहरी' इत्यादि प्रमुख है। शुक्ल जी ने समग्रत: पद्माकर की नूतन कल्पना दृश्य चित्रण भाषा की अनेक रूपता की प्रशंसा की है। इनके काव्य की काव्यगत विशेषताएँ निम्नलिखित रुप से चित्रित की जा सकती हैं: भाव पक्ष की विशेषताएँ पद्माकर की कविता में मुख्य रूप से उल्लास और आनंद का वर्णन है। श्रृंगार के वर्णन में उन्मुक्तता और खुलापन है। ब्रज मंडल में फाग के दृश्य का अद्भुत वर्णन उन्होंने किया है: "फाग की भीर अभिरन में गही गोविंदै ले गई भीतर झोरी। माई करी मन की पद्माकर ऊपर नाई अबीर की जोरी। छीन पितंबर कमर तेसू विदा दई मीड़ि कपोलन रोरी। नैन नचाई कई मुस्काई लला फिर आइयो खेलन होरी।।" इसी प्रकार शीत ऋतु में सामंती दरबार का अत्यंत उद्दीपन परक चित्र उनके काव्य में देखा जा सकता है: "गुलगुली गिल में गलीचा है गुनीजन हैं चांदनी है चिक है चिरागन की माला है। कहै पद्माकर जो गजक है गिजा हैं सजी सेज है सुराही है सुरा है और प्यालिंहि है। सिसिर के पाला को न व्यापत कसाला तिन्हैं जिनके अधीन उदित मसाला है।" पद्माकर के संयोग-वियोग वर्णन अधिक व्यापक है। नायिका के विरह को कवि ने प्रकृति की उदासी और हृदयहीनता के माध्यम से भी चित्रित किया है: "पावस बनाऔ तो न विरह बनाऔ जो विरह बनाऔ तो ना पावस बनाऔ" पद्माकर ने अपने संरक्षक राजाओं की प्रशंसा में भी कवित लिखे हैं। जैसे:- "संपत्ति सुमेर की कुबेर की जो पावै ताहि तुरत लुटावत विलंब उर धारै ना।" किंतु ऐसे कविताओं में भाव नजर नहीं आते सिर्फ प्रशंसा करने पुरस्कार पाने की इच्छा दिखाई पड़ती है। उम्र के अंतिम पड़ाव में पद्माकर का रुझान भक्ति की तरफ भी होने लगा है और कुछ भक्ति परक रचनाएँ भी उनके द्वारा की गई। जैसे:- "या जगजीवन को है यहै फल जो छाड़ि भजै रघुराई।" शिल्प पक्ष की विशेषताएँ इनकी.भाषा सरस कोमल और मंजी हुई ब्रजभाषा है। इन्होंने शब्दावलियों में बिंबों का सुंदर प्रयोग किया है। इनके कविताओं में मुहावरे एवं लोकोक्तियों का प्रयोग भी उल्लेखनीय है। अधिकतर जगहों पर अलंकारों का सफल प्रयोग है। अनुप्रास आदि अलंकारों में नादात्मक सौंदर्य लक्षित होता है जैसे- "गोरी गरबीली तेरे गात की गुराई आगे।"</s>
<s>[INST]"कल्हण की राजतरंगिणी कश्मीर के राजनीतिक इतिहास का एक विश्वसनीय स्रोत है।" कथन का सतर्क विश्लेषण कीजिये। (250 शब्द )[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका • कथन के पक्ष में तर्क • उदाहरण • निष्कर्ष कल्हण कृत राजतरंगिणी प्राचीन भारतीय साहित्य में पहला युद्ध ऐतिहासिक ग्रंथ माना जाता है। यह संस्कृत में है इसकी मुख्य विषय वस्तु कश्मीर का इतिहास है। इसकी रचना महाभारत की शैली के आधार पर की गई है। राजतरंगिणी की विश्वसनीयता इस बात से और अधिक पुष्ट होती है कि कल्हण किसी के दरबार में नहीं रहा तथा चाटूकारितापूर्ण विवरण न देकर तटस्थ विवरण देता है। इस ग्रंथ के लेखन में यथासंभव सावधानी बरती गई है। उसने कश्मीर के शासकों के लिखित आदेशों तथा प्राचीन शासकों के जीवन चरित्रों का अध्ययन करके संभवतः सभी चित्र प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है। कल्हण ने अपने विवरण में सभी शासकों के गुण-दोषों का निष्पक्ष विवेचन किया है। राजतरंगिणी मात्र कश्मीर की अनुक्रमणिका ही नहीं है जैसा कि इसके नाम से विदित होता है। उसने जिन शासकों से संबंधित विवरण दिया उनकी समकालीन घटनाओं तथा जीवन की अन्य घटनाओं पर भी दृष्टिपात किया है। इस संबंध में उसने ज़ोर देकर कहा कि कवि को निष्पक्ष होना चाहिये। कल्हण ने अपने विवरण में सांसारिक जीवन एवं भौतिक ऐश्वर्य की नश्वरता को प्रकट करने का प्रयास किया। उसकी इच्छा थी कि लोग अपने अतीत की गलतियों से सबक लें। यही उद्देश्य उसकी रचना की प्रमाणिकता और विश्वसनीयता को और बढ़ा देता है। राजतरंगिणी की रचना 8 सर्गों में विभक्त है जिसमें 8000 से ऊपर श्लोक है। पहले तीन सर्गों में 3000 से अधिक श्लोकों को शामिल किया गया है जिसमें सिर्फ राजवंशों की सूचियाँ ही दी गई हैं। इस युग के इतिहास के लिये कल्हण ने पौराणिक स्रोतों, अनुश्रुतियों का प्रयोग किया है। राजतरंगिणी ने चौथे, पाँचवें और छठे सर्गों में कार्कोट तथा उत्पन्न रजवंशों का विवरण प्रस्तुत किया है। इन्हीं सर्गों के साथ राजतरंगिणी के उचित ऐतिहासिक दृष्टिकोण का उभरना शुरू हो जाता है। अंतिम दोनों सर्गों में लोहार राजवंश पर विचार व्यक्त किये गए हैं। रचना के आरंभिक भाग में जिन लोक प्रचलित पौराणिक स्रोतों एवं जनश्रुतियों का संग्रह किया गया है जिनके आधार पर आलोचना के कुछ बिंदु उभर कर सामने आते हैं। किंतु जैसे-जैसे विवरण में आगे बढ़ते हैं वैसे-वैसे आलोचना की दृष्टि साफ होती चली जाती है। जैसा कि हर्ष की मृत्यु के बाद का विवरण राजनीतिक अस्थिरता की बात करता है और वह सभी तथ्यों के साथ स्पष्ट हो जाता है। कल्हण की राजतरंगिणी में विवरण मिलता है कि वह एक शक्तिशाली राजा की बात करता है- कि राजा को इतना शक्तिशाली होना चाहिये कि वह समाज के विविध तत्त्वों को भी नियंत्रण में रख सके। उसे यह निश्चित कर लेना चाहिये कि कोई भी क्षेत्र चाहे वह गाँव ही क्यों न हो, में संपत्ति को इकट्ठा नहीं होने देना चाहिये, क्योंकि संपत्ति राजनीतिक विद्रोह को प्रेरणा देती है। इस दृष्टिकोण से कल्हण द्वारा राजनीतिक एवं आर्थिक शक्तियों में एक स्पष्ट संबंध देखा गया। उसने अनुभव किया कि भूस्वामियों की आर्थिक शक्ति ने उन्हें इतना शक्तिशाली बना दिया है कि वे राजा को चुनौती दे सकते हैं जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण राजनीतिक षडयंत्रों में स्पष्टता से देखा गया। कल्हण की राजतरंगिणी में दिये गए तमाम स्रोतों एवं दृष्टिकोणों के साथ यथा अनुरूप तिथियों का प्रयोग इस ग्रंथ की प्रमाणिकता को पुष्ट करता है। इन्हीं उपरोक्त विवरण के आधार पर राजतरंगिणी को प्राचीन भारतीय इतिहास में पहला शुद्ध ऐतिहासिक ग्रंथ माना जाता है। इसमें समकालीन शासकों का उनके गुणों के साथ दोषों का भी निष्पक्ष विवेचन किया जाता है।</s>
<s>[INST]निम्नलिखित गद्यांश की व्याख्या कीजिये:[/INST]उत्तर : संदर्भः प्रस्तुत गद्यांश हिंदी की आंचलिक उपन्यासधारा की सर्वोत्कृष्ट’ कृति “मैला आँचल” से उद्घृत है। जिसकी रचना वर्ष 1954 में फणीश्वरनाथ रेणु ने की। प्रसंगः उपरोक्त पंक्तियाँ डॉ- प्रशांत और ममता के मध्य संवाद को दर्शाता है, जो उपन्यास के अंतिम पृष्ठ से ली गयी हैं। डॉ- प्रशांत आर्थिक स्वार्थों से मुक्त चिकित्सक है जो सामाजिक दायित्व बोध के आधार पर मेरीगंज गाँव में रहकर समाज की सेवा करना चाहता है। व्याख्याः डॉ- प्रशांत कहता है कि मैं फिर से इसी गाँव में अपने काम की शुरूआत करना चाहता हूँ। मेरी इच्छा अपनी शिक्षा से पैसे कमाने की नहीं है, मैं तो समाज में प्रेम बाँटना चाहता हूँ। यह गाँव जो पिछड़ेपन और दुखों में आकंठ डूबा है, मैं उसी के भीतर मनुष्यों को हँसते हुए देखना चाहता हूँ। उन्हें विश्वास दिलाना चाहता हूँ कि आज़ाद भारत के सपने टूटे नहीं हैं, अभी भी समाज के प्रति दायित्व निभाने की प्रेरणा लोगों में ज़िंदा है। भारतमाता तो गाँवों में ही रहती है, उसी के आँचल की छाँव में काम करते हुए मैं यथासंभव देश की सेवा करना चाहता हूँ। विशेषः 1. इन प्रक्तियों में निराशा के विरूद्ध आशा की विजय दिखती है। लेखक दिखाता है कि एक छोटी सी चिंगारी भी भयानक अंधेरे को कैसे चीर सकती है। 2. डॉ. प्रशांत का चरित्र ‘महाभोज’ के मि. सक्सेना से मिलता-जुलता है। दोनों सामाजिक दायित्वों को निभाने के लिये व्यक्तिगत सुखों का त्याग करते हैं। 3. शिल्पगत सुंदरता का मूल आधार इसकी उपमा शैली या रूपक शैली है।</s>
<s>[INST]"भाषा शैली शिल्प का प्राण तत्त्व है क्योंकि कोई रचनाकार जब अपनी अनुभूतियों को व्यक्त करना चाहता है तो भाषा ही पाठक और उसके मध्य सेतु का काम करती यही कारण है कि रचनाकार भाषा में निहित शक्तियों को उभारने पर काफी ज़्यादा ध्यान देते हैं।" उपर्युक्त कथन के आधार पर महाभोज की भाषा शैली पर चर्चा कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका • महाभोज की भाषा शैली की विवेचना • निष्कर्ष 'महाभोज' मन्नू भंडारी द्वारा रचित उपन्यास है। मन्नू भंडारी की भाषा शैली कई स्तरों पर प्रयोगशीलता के निर्वाह का परिणाम है। 'महाभोज' उनकी भाषा शैली की महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ क्रमशः हैं: महाभोज जन जीवन के अत्यंत निकट की रचना है इसलिए इसमें प्रयुक्त भाषा में तद्भव और देशज शब्दावली का अनुपात अधिक है। लेखिका ने शब्दावली के चयन में पात्रों की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि का ख्याल पूरी बारीकी के साथ रखा है। यही कारण है कि भाषा के कई तेवर महाभोज में दिखाई पड़ते हैं। जहाँ दा साहब और महेश जैसे पात्रों की भाषा में तत्समीपन और अंग्रेजी प्रधान है तो हीरा और गणेश जैसे ग्राम्य चरित्रों की भाषा में देशज और तद्भव शब्दावली का अनुपात सघन है। महाभोज में लेखिका ने जीवन की गहरी समझ को बहुत छोटे वाक्यों में चमत्कारी ढंग से प्रस्तुत किया है। यह शैली 'सूत्र शैली' कहलाती है। इसके प्रयोग की महारत उन्हीं रचनाकारों को हासिल होती है जिनके पास जीवन की सूक्ष्म समझ और भाषा की समाहार क्षमता का अद्भुत सामंजस्य होता है। उदाहरण के तौर पर- "आवेश राजनीति का दुश्मन है।" "कुर्सी और इंसानियत में बैर है।" मन्नू भंडारी ने व्यंग्य क्षमता का भी धारदार प्रयोग किया है। जब साहित्यकार खुद को सामाजिक विद्रूप को हटाने की स्थिति में नहीं पाता तो उसकी यही तिलमिलाहट पैने व्यंग्य को जन्म देती है। उदाहरण के लिये- "राजनीति में जिन की खाल गैंडे की तरह हो गई है, वे कटते नहीं इतनी आसानी से।" "गांधी नेहरू को देश एक क्षण के लिए भी नहीं भूलता। चप्पे-चप्पे में वह आपको विराजमान मिलेंगे, चाहे निर्जीव तस्वीरों के रूप में ही सही।" जो रचनाएँ जनजीवन के नज़दीक होती हैं उनकी भाषा में मुहावरे और लोकोक्तियों का प्रयोग होता ही है। महाभोज में भी ऐसे ही जीवंत प्रयोग हैं। उदाहरण के तौर पर- "मारने वाले को शह दो और मरने वाले को हमदर्दी- दोनों हाथ में लड्डू। लेखिका ने अपनी भाषा को तराशने के लिए प्रतीकों एवं बिंबो का असरदार प्रयोग किया है। कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं- "लावारिस लाश को गिद्ध नोच नोच कर खा जाते हैं।" (प्रतीक-भाषा) "आवेश के मारे मुँह से थूक की छोटी-छोटी फुहारें छूटने लगी लखन के, और साँवला चेहरा एकदम बैंगनी हो गया।" (बिंब-भाषा) अतः हम कह सकते हैं कि महाभोज की भाषा शैली इसकी प्राण तत्व है। इसमें प्रत्येक स्तरों पर त्तत्वों को उतना ही उभरा गया है जितनी ज़रूरत थी, ना उससे रत्ती भर अधिक ना उससे रत्ती भर कम।</s>
<s>[INST]निम्नलिखित पंक्तियों की संदर्भ सहित व्याख्या कीजिये:[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • संदर्भ • प्रसंग • व्याख्या संदर्भ: प्रस्तुत गद्यावतरण हिंदी के प्रगतिवादी उपन्यास के लेखक यशपाल द्वारा रचित प्रसिद्ध ऐतिहासिक उपन्यास दिव्या से उद्धृत है। इस उपन्यास में यशपाल ने इतिहास के आवरण के भीतर मानववादी दृष्टिकोण के आधार पर नारी तथा अन्य वंचित वर्गों की पीड़ा को आवाज़ दी है। प्रसंग: यह पंक्तियाँ उपन्यास के 'अंशुमाला' नामक खंड से ली गई है, जहाँ दिव्या रत्नप्रभा के साथ रहते हुए 'अंशुमाला' नाम से विख्यात हो चुकी है। यह पंक्तियाँ चार्वाक दर्शन के समर्थक मारीश ने दिव्या को समझाने के लिए कही है ताकि वह निराशा तथा आत्मप्रवचना की दुनिया से बाहर निकल कर जीवन को सक्रिय रूप में जीने की कोशिश करे। व्याख्या: जब दिव्या मारिश से कहती है कि उसका जीवन कला के लिए समर्पित है, तो मारिश इस तर्क की कमज़ोरी स्पष्ट करते हुए कहता है कि कला तो स्वयं मनुष्य के जीवन के लिये एक साधन मात्र है, कोई मनुष्य किसी साधन का साधन कैसे बन सकता है? भाव यह है कि जो व्यक्ति अपने जीवन को निरर्थक मान चुका हो और सिर्फ कला के अभ्यास में लगा हो, वह तो मानव के उच्च स्थान से उतरकर वस्तु में परिणत हो जाता है क्योंकि वस्तु की तरह उसका अस्तित्व भी दूसरों के संतोष व जीवन की सार्थकता के लिए प्रयुक्त होता है। मारिश कहता है कि नारी होने के नाते दिव्या के जीवन की मूलभूत सार्थकता जीवन को जीने में, सृजन करने में है क्योंकि मनुष्य की परंपरा का विकास करने की ज़िम्मेदारी प्रकृति ने नारी को दी है। दिव्या का अभी का जीवन तो दासों के समान है, जिसका संपूर्ण अस्तित्व दूसरों की सेवा में खत्म हो जाता है। ऐसे जीवन को अच्छा कहना, उसे बदलने की कोशिश ना करना भयानक आत्मा प्रवंचना है।</s>
<s>[INST]केशव की संवाद योजना की विशेषताएँ बताइये।[/INST]उत्तर : किसी भी वर्णनात्मक कृति में पात्रों की बातचीत के लिये संवाद या कथोपकथन शब्द प्रयुक्त होता है। यह कथा के विकास हेतु आवश्यक होता है एवं इसका उद्देश्य घटनाओं व दृश्यों में सजीवता लाना होता है। केशवदास दरबारी कवि थे, इन्होंने कविप्रिया, रसिकाप्रिया, नखशिख जैसी रचनाएँ की किंतु रामचंद्रिका नाम की पुस्तक इन्हें अनन्य स्थान दिलाती हैं, जिसकी प्रमुख विशेषता इसकी संवाद योजना है। हिंदी साहित्य के इतिहास में केशवदास संवाद योजना के निर्माण में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। रामचंद्रिका जैसी संवाद योजना हिंदी की किसी ओर रचना में दुर्लभ है। केशवदास की संवाद-योजना की प्रमुख विशेषता उसमें विद्यमान वक्रोक्तियों का प्रखर स्वरूप है। रामचंद्रिका में राम-परशुराम संवाद के साथ-साथ अंगद-रावण संवाद में भी पर्याप्त व्यंग्यमयता मिलती है। रावण-अंगद संवाद का एक उदाहरण- “राम को काम कहा? रिपु जीतहिं, न कबै रिपु जीत्यौं कहाँ?” लंबे प्रसंग को संवाद में अत्यंत संक्षिप्त रूप में रख देना केशवदास की निजी विशेषता मानी जाती है। रामचंद्रिका के संवादों में कहीं-कहीं ‘गागर में सागर’ वाली कहावत चरितार्थ होती है। उदाहरण के लिये दशरथ की मृत्यु, राम-लक्ष्मण-सीता का वन गमन और वन-गमन के कारण की सूचना इतनी सारी बातें केशवदास ने एक ही पंक्ति में कहलवा दी- “मातु कहाँ नृपतात? गये सुरलोकहिं, क्यों, सुत शोक लये” संवादों की भाषा में क्रोध व उत्साह जैसे भावों की सुंदर व्यंजना करना इनकी विशेषता है, इसके अलावा नाटकीयता भी केशव के संवादों को सुंदरता प्रदान करती है। रामचंद्रिका का कथानक संवादों के सहारे ही विकसित हुआ हैं एवं पात्रों के चरित्र का उद्घाटन भी हुआ हैं। आचार्य शुक्ल ने कहा भी है- “रामचंद्रिका में केशव को सबसे अधिक सफलता संवादों में मिली है। उनका रावण-अंगद संवाद तुलसी के संवाद से कहीं अधिक उपयुक्त एवं सुंदर है।”</s>
<s>[INST]छायावादी काव्य स्वाधीनता आंदोलन के सघनतम काल में रचे जाने के बावजूद यह काव्य राष्ट्रीय चेतना से कटा हुआ है। सुचिंतित टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका • कथन की समीक्षा • निष्कर्ष छायावादी काव्य पर आरोप लगता रहा है कि स्वाधीनता आंदोलन के सघनतम काल में रचे जाने के बावजूद यह काव्य राष्ट्रीय चेतना से कटा हुआ है। छायावादी कविता को स्थूल दृष्टि से देखने पर ऐसा लगना स्वाभाविक है, किंतु गहन विश्लेषण से सिद्ध होता है कि यह काव्य अपने समय के सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय संदर्भों को धारण ही नहीं करता बल्कि उनकी प्रगति में यथासंभव योगदान भी देता है छायावाद में जागरण शब्द का प्रयोग सभी कवियों ने अनेक संदर्भ में किया है। यह जागरण सूक्ष्म रूप से सांस्कृतिक नवजागरण और राष्ट्रीय राजनीतिक जागरण ही है। प्रसाद कहते हैं, "बीती विभावरी जाग री", निराला कहते हैं, "जागो फिर एक बार" और महादेवी कहती हैं, "जाग तुझको दूर जाना है"। छायावादी काव्य राष्ट्रीय जागरण की मूल चुनौतियों को गहराई से समझता है जिस देश में सदियों की पराधीनता के कारण जातीय व सांस्कृतिक स्वाभिमान नष्ट हो चुका हो वहाँ जागरण की पहली शर्त राष्ट्रीय स्वाभिमान की उत्पत्ति होती है। छायावादी कवि भारत के अतीत से रचनात्मक ऊर्जा ग्रहण करके वर्तमान संघर्षों से जुझना चाहते हैं। अतीत की महानता का वर्णन उनके यहाँ कई बिंदुओं पर नज़र आता है- "पश्चिम की उक्ति नहीं गीता है गीता है" (निराला) "किसी का हमने छीना नहीं,प्रकृति का रहा पालना यही कहीं से हम आए थे नहीं, हमारी जन्मभूमि है यहीं" (प्रसाद) छायावादी कवि इस बात को बखूबी समझते हैं कि राष्ट्रीय आंदोलन के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक जुझारू मन:स्थिति का होना आवश्यक है। वह कविता के माध्यम से राष्ट्रीय समस्याओं का केवल विश्लेषण नहीं करते बल्कि जुझारू मानसिकता के विकास का प्रयत्न भी करते हैं। जिस तरह से द्विवेदी युग में 'भारत-भारती' ने पूरे राष्ट्र में सांस्कृतिक ऊर्जा को जन्म दिया था वैसे ही छायावाद की कविताएँ भी जनसामान्य में जोश और उमंग पैदा करती है। प्रसाद लिखते हैं, "हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती स्वयंप्रभा समुज्ज्वला, स्वतंत्रता पुकारती" छायावादी कविता अपने समय से कुछ ऐसे स्तरों पर भी जुड़ी है जो साधारण कविताओं के लिए संभव नहीं होता। कविता अपने समय की घटनाओं का वर्णन करे यह कविता की सामाजिक दायित्वशीलता का मात्र एक पक्ष है। छायावादी कविता आगे बढ़कर राष्ट्रीय और सांस्कृतिक समस्याओं के समाधान प्रस्तुत करती है। यह अपने समाज की निष्क्रिय तस्वीरें नहीं बल्कि, समाज के लिए वांछनीय परिवर्तनों के स्तर पर भी सक्रिय होती हैं। 'राम की शक्ति पूजा' की मूल समस्या यही है कि 1936 ई. के भारत में अहिंसात्मक शक्ति निरर्थक प्रतीक होने लगी है। स्वाधीनता के संघर्ष में नए विकल्प के तौर पर निराला सुझाते हैं कि, "शक्ति की करो मौलिक कल्पना, करो पूजन, छोड़ दो समर जब तक न सिद्धि हो रघुनंदन। रावण अशुद्ध होकर भी यदि कर सका त्रस्त, तो निश्चित तुम हो सिद्ध करोगे उसे ध्वस्त।। छायावाद की राष्ट्रीय चेतना अपने अंतिम स्तर पर केवल राष्ट्र तक सीमित नहीं रहती बल्कि संपूर्ण मानवता के स्तर पर सक्रिय हो जाती है। यह भारतीय चिंतन सृष्टि की वही धारणा है जिसमें राष्ट्रीय हितों व वैश्विक हितों को परस्पर विपरीत नहीं बल्कि सुसंगत शक्तियों के रूप में 'वसुधैव कुटुंबकम' का व्याख्यान किया जाता है। अतः हम कह सकते हैं स्थूल रूप से नहीं किंतु, सूक्ष्म रूप से अध्ययन करने पर छायावादी कविताएँ राष्ट्रीय चेतना से जुड़ी तो है ही साथ ही मनुष्य के अंदर राष्ट्रीय भावना के विकास में भी सहायक रहीं।</s>
<s>[INST]मैथिलीशरण गुप्त की कविता नवजागरण के मूल्यों का वहन करने में कहाँ तक सफल हो सकी है? युक्तियुक्त विचार कीजिए।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका • कथन के पक्ष में तर्क • कथन के पक्ष में उदाहरण • निष्कर्ष द्विवेदी युग के प्रतिनिधि कवि मैथिलीशरण गुप्त का काव्य कर्म नवजागरण चेतना से स्पंदित और प्रेरित है। उन्होंने अपनी विभिन्न काव्य कृतियों में नवजागरण के जीवन मूल्यों को रचनात्मक अभिव्यक्ति प्रदान करने का प्रयत्न किया है। स्वचेतना, आत्मावलोकन, गौरवशाली अतीत का बोध, वर्तमान दुरावस्था का यथार्थ बोध, दूसरी संस्कृतियों के सार्थक मूल्यों का आत्मसातीकरण, सामाजिक-सांस्कृतिक प्रवृत्ति की चेतना आदि नवजागरण के चिन्ह थे जो मैथिलीशरण गुप्त के काव्य में दिखाई देते हैं। मैथिलीशरण गुप्त की कृति 'भारत भारती' में नवजागरण की उपर्युक्त सारी विशेषताएं परिलक्षित होती हैं इस कृति में कवि की मूल चिंता ही नवजागरण चेतना का परिणाम है- "हम कौन थे क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी। आओ विचारो आज मिलकर यह समस्याएँ सभी।" इस रचना में अतीत गौरव का भाव भी बार-बार उपस्थित हुआ है। उदाहरणस्वरूप- "संपूर्ण देशों से अधिक किस देश का उत्कर्ष है? उसका कि जो ऋषिभूमि है वह कौन भारतवर्ष है। कवि ने इस रचना में आत्मावलोकन करते हुए भारत की तत्कालीन दुर्दशा का व्यापक चित्र खींचा है। नवजागरण के सामाजिक-सांस्कृतिक बोध का एक महत्वपूर्ण प्रश्न तात्कालीन भारतीय समाज में स्त्रियों की हीन दशा थी। इसे लक्षित करते हुए मैथिलीशरण गुप्त ने 'यशोधरा', 'साकेत', 'हिडिंबा', 'विष्णु प्रिया' और 'द्वापर' जैसी नारी केंद्रित काव्य ग्रंथों की रचना की और नारी के महत्त्व को प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न किया। हालाँकि गुप्त जी की नवजागरण चेतना की कतिपय सीमाएँ भी थी। उन पर आर्य केंद्रित और हिंदूवादी होने के आरोप लगे हैं। लेकिन यह सीमाएँ तात्कालीन नवजागरण चेतना में भी दिखाई देती है। अतः हम कह सकते हैं कि मैथिलीशरण गुप्त की कविता नवजागरण चेतना के मूल्यों का वहन करने में सफल हुई है।</s>
<s>[INST]मध्यकाल में काव्यभाषा के रूप में ब्रजभाषा के विकास पर प्रकाश डालिए।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण • भूमिका • मध्यकाल में काव्यभाषा के रूप में ब्रजभाषा के विकास के कारण • निष्कर्ष मध्य काल के अंतर्गत भक्तिकाल तथा रीतिकाल दोनों आते हैं। काव्यभाषा के रूप में ब्रजभाषा इस काल में निरंतर परिपक्व हुई तथा क्षेत्रीय दृष्टि से अखिल भारतीय विस्तार प्राप्त किया। मध्यकाल से पहले खुसरो तथा चंदबरदाई के काव्य में ब्रजभाषा का प्रारंभिक स्वरूप दिखता है। सूर के काव्य में यह भाषा परिवर्धित हुई और रितिकाल में इसने अपना पूर्ण वैभव प्राप्त किया। सूर की काव्यभाषा ब्रजभाषा का आरंभिक रूप होकर भी चरम रूप से सफल भाषा है। सूरदास ने ब्रजभाषा को उसी रूप में नहीं लिया जो सामान्य बोलचाल की भाषा में प्रचलित था भाषा को व्यापकता प्रदान करने के उद्देश्य से उन्होंने 'जेही', 'तेही' जैसे अवधी शब्दों का प्रयोग 'गोड़', 'आपन', 'हमार' जैसे पूर्वी शब्दों का प्रयोग तथा महँगी (प्यारी) जैसे पंजाबी शब्दों का प्रयोग भी इसमें शामिल किया। सूर ब्रजभाषा की अंतर्निहित लयात्मक्ता को विकसित किया तथा चित्रात्मकता व अप्रस्तुत विधान के अनुकूल बनाया। इस कार्य में उन्हें अष्टछाप के अन्य कवियों का भी सहयोग मिला वहीं मीरा की ब्रज भाषा में राजस्थानी का भी मिश्रण हुआ है। भक्तिकाल के बाद उत्तर-मध्यकाल या रीतिकाल में ब्रजभाषा भाषा के विकल्प के रूप में नहीं बल्कि एक मात्र काव्यभाषा के रूप में स्थापित हो गई। रीतिकाल में ब्रज भाषा के प्रयोग दो रूप दिखाई पड़ते हैं। पहला रूप, प्रायः रीतिबद्ध व रीतिसिद्ध कवियों की भाषा में दिखता है, जिसमें आलंकारिकता, सजगता और चमत्कारप्रियता की प्रवृत्तियाँ बहुत व्यापक रूप से परिलक्षित होती हैं। यह भाषा अति सजग किस्म की है। इसका सबसे बेहतर प्रयोग बिहारी के दोहों में मिलता है। भाषा की समास क्षमता और भावों की समाहार क्षमता इसकी विशेषता है। इस काल की ब्रजभाषा का दूसरा रूप घनानंद जैसे रीतिमुक्त कवियों के काव्य में देखा जा सकता है। इनके यहाँ सहज शिल्प है। इनकी भाषा सुनकर व्यक्ति चमत्कृत नहीं होता बल्कि संवेदना के गहरे स्तर पर पहुँचता है। इनके अलंकार चमत्कृत नहीं करते बल्कि गहरा प्रभाव छोड़ते हैं। इस काल में ब्रजभाषा ने यद्यपि चरम विकास प्राप्त किया किंतु यह केवल भक्ति, वात्सल्य तथा श्रृंगार तक सीमित हो गई। यही कारण है कि लोक-रुचि बदलने के साथ ही खड़ी बोली ने इसे अपदस्थ कर दिया।</s>
<s>[INST]संचार माधयमों की भाषा के रूप में हिंदी कि कैसे सशक्त बनाया जा सकता है? सुचिंतित सुझाव दीजिए।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका • हिंदी को संचार माध्यमों की भाषा के रूप में सशक्त करने के कुछ सुझाव • निष्कर्ष वर्तमान युग एवं भावी युग सूचना एवं प्रौद्योगिकी का है। अतः हिंदी को इस हेतु पूर्णतया समर्थ बनाने हेतु सुनियोजित प्रयासों की आवश्यकता है। सर्वप्रथम तो एक ऐसी समिति का गठन करना चाहिये जो संचार माध्यमों के अनुरूप हिंदी को ढालने का कार्य निरंतर करती रहे। इस समिति में हिंदी भाषा के विद्वानों और सूचना प्रौद्योगिकी के विशेषज्ञों को शामिल किया जाना चाहिये। आज इलेक्ट्रॉनिक संचार माध्यमों के लिये हिंदी की सरल-सुगम पारिभाषिक शब्दावली के निर्माण की भी आवश्यकता है। इसे बनाते समय बोलचाल की भाषा से परहेज नहीं किया जाना चाहिये। इन शब्दों को जनसामान्य में प्रचलित करवाने हेतु खेल, फिल्म आदि क्षेत्रों के लोकप्रिय व्यक्तियों की मदद ली जानी चाहिये। टीवी, रेडियो आदि माध्यमों पर उनके मुख से बार-बार उच्चरित होने की स्थिति में जनसामान्य शीघ्र ही इन शब्दों को आत्मसात कर लेगा। सभी संचार माध्यमों में भाषा सलाहकार/समन्वय/अधिकारी जैसे पद सृजित किये जाने चाहिये तथा संबंधित विषय एवं भाषा के विशेषज्ञों की नियुक्ति की जानी चाहिये। आज आवश्यकता के अनुरूप प्रादेशिक भाषाओं के शब्दों को भी अपनाने की आवश्यकता है। इससे हिंदी का भी सामर्थ्य बढ़ेगा साथ ही, प्रादेशिक भाषाओं की गरिमा में भी वृद्धि होगी। प्रादेशिक भाषाओं के साथ अंग्रेजी के बहु प्रचलित शब्दों को भी अपनाने से परहेज नहीं किया जाना चाहिये। कई अन्य क्षेत्रों की तरह व्यवसायिक शिक्षा की दृष्टि से हिंदी में वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली के विकास की स्थिति बहुत संतोषजनक नहीं है। अतः इस क्षेत्र में भी सूचना के संप्रेषण के लिए हिंदी को सशक्त किया जाना चाहिये ताकि आगे भी हिंदी का इस्तेमाल प्रत्येक क्षेत्रों में सुगमता पूर्वक हो सके। भाषिक शुद्धता के आग्रहों को त्यागने तथा हिंदी भाषा के फलक को विस्तृत करने की आवश्यकता है। कई बार संस्कृत के दुर्बोध शब्दों की अपेक्षा अंग्रेजी के शब्द अधिक संप्रेषणिय होते हैं इस पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है।</s>
<s>[INST]क्या साहित्य का इतिहास फिर से लिखा जाना चाहिए? विश्लेषण कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका • कथन के पक्ष में तर्क • कथन के विपक्ष में तर्क • निष्कर्ष साहित्य के इतिहास के पुनर्लेखन का प्रश्न मूलतः इस बात से जुड़ा है इतिहास के पुनर्लेखन के क्या आधार हो सकते हैं? सावधानीपूर्वक विश्लेषण करें तो हम पाते हैं कि नए इतिहास लेखन की आवश्यकता तीन कारणों से ही जन्म लेती हैं; पहला - वे आधारभूत तथ्य बदल गए हो जिन पर इतिहास आधारित हो, दूसरा- इतिहास का दृष्टिकोण या बोध बदल गया हो; और तीसरा- पहले के इतिहास ग्रंथ लिखे जाने के बाद काफी लंबा कालखंड गुज़र चुका हो जिसे इतिहास में शामिल करना आवश्यक हो। हिंदी साहित्य के इतिहास की सबसे बड़ी समस्या यह है कि पिछले हजार वर्षों से संबंधित कई तथ्य प्रमाणिक रूप से उपलब्ध नहीं हो पाते। उदाहरण के लिये, कबीर के जन्म-मृत्यु की घटनाएँ, जायसी की रचनाओं की मूल प्रतियाँ, सूरदास के अंधत्व का प्रश्न, रासो साहित्य की प्रामाणिकता तथा घनानंद की रचनाओं की पूरी सूची, जैसे कई ऐसे प्रश्न हैं जिनके निर्धारण की प्रक्रिया निरंतर चल रही है। साहित्य के इतिहास लेखन की गंभीर परंपरा का आरंभ हुए मात्र डेढ़ शताब्दी हुए हैं इसलिए लगातार ऐसे तथ्य सामने आ रहे हैं इतिहास की व्याख्या बदल जाती हैं। अब दूसरा प्रश्न यह है कि इतिहास बोध में कोई परिवर्तन घटित हुआ है जो नए इतिहास लेखन की जरूरत महसूस कराता है। हम जानते हैं कि 19वीं शताब्दी से पहले तो 'भक्तमाल' और 'कालिदास हजारा' जैसी रचनाओं में इतिहास बोध नहीं के बराबर था। 19वीं शताब्दी के आरंभिक प्रयासों में इतिहास बोध बहुत सीमित रूप में जॉर्ज ग्रियर्सन जैसे विद्वानों के प्रयासों में दिखाई देता है। आचार्य शुक्ल के आगमन से साहित्य के इतिहास लेखन में गंभीर इतिहास दृष्टि दिखाई देने लगती है। यह परंपरा आचार्य द्विवेदी से होते हुए डॉ. रामविलास शर्मा, डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी तथा डॉ. बच्चन सिंह के प्रयासों तक पहुँचती है। आचार्य शुक्ल साहित्य को "प्रत्येक देश की जनता की चित्तवृत्तियों का संचित प्रतिबिंब" कह कर विधेयवादी दृष्टिकोण के अंतर्गत रचना काल की परिस्थितियों, रचना के क्षण तथा रचनाकार के जातीय समूह पर तो ध्यान देते हैं किंतु उसके व्यक्तित्व या साहित्यिक परंपरा में उसके स्थान की खोज नहीं कर पाते। आचार्य द्विवेदी "मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है" कह कर साहित्य और मनुष्य के संबंधों को तो जोड़ते हैं, रचना के साथ संपूर्ण परंपरा का संबंध भी स्थापित करते हैं किंतु रचनाकार के व्यक्तित्व एवं युगीन परिस्थितियों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दे पाते। डॉ. रामविलास शर्मा इतिहास की समाजवादी व्याख्या करते हुए कभी-कभी वैचारिक पूर्वाग्रह के शिकार हो जाते हैं और आर्थिक विचारों को ही साहित्यकार के मूल्यांकन की प्रमुख कसौटी बना देते हैं। इस कारण हम देखते हैं कि साहित्य के इतिहास का दृष्टिकोण किसी न किसी बिंदु पर सीमित हो जाता है। इस दृष्टि से साहित्य के इतिहास के पुनर्लेखन की आवश्यकता महसूस होती है। विश्लेषण का अंतिम बिंदु यह है कि क्या साहित्य के इतिहास लेखन के पूर्व प्रयासों के बाद इतना समय बीत चुका है कि नए इतिहास की आवश्यकता महसूस की जाए। इस दृष्टि से देखें तो पाते हैं कि साहित्य के इतिहास लेखन की परंपरा लगातार सक्रिय है। कई विद्वानों ने कई ग्रंथों में वर्तमान काल तक के हिंदी साहित्य की समीक्षा की है तथा इनके नए संस्करण लगातार अपने समय से जुड़े रहते हैं। ऐसी स्थिति में इतिहास के पुनर्लेखन के लिये यह कारण पर्याप्त नहीं होता। उपरोक्त विश्लेषण के आधार पर समग्र रूप से कहा जा सकता है कि हिंदी साहित्य के इतिहास परंपरा में नवीन इतिहास या प्राचीन इतिहास के नवीकरण की आवश्यकता बनी हुई है। किसी भी परंपरा में परिपक्वता एक क्षण में नहीं आती बल्कि कई प्रयासों के परिणाम से आती है। हिंदी साहित्य को भी एक ऐसे इतिहास की आवश्यकता है, जिसमें वर्तमान समय तक के अनुसंधानों से प्रमाणित नवीन तथ्य समाविष्ट हो। जिसमें कविता या गद्य, मुक्तक या प्रबंध काव्य जैसे साहित्य खंडों के बीच इतिहासकारों के मूल्यों से पैदा होने वाले मतभेद ना हो।</s>
<s>[INST]'रामचंद्रिका' की संवाद-योजना पर संक्षिप्त टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका • 'रामचंद्रिका' की संवाद-योजना के बारे में • निष्कर्ष 'रामचंद्रिका' की रचना केशवदास में 1601 ईस्वी में की है। इसमें कवि ने राम कथा का वर्णन किया है। हिंदी साहित्य के इतिहास में अपनी जिन विशिष्टताओं के कारण केशवदास महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं उनमें सबसे प्रमुख 'रामचंद्रिका' की संवाद-योजना है। 'रामचंद्रिका' के प्रमुख संवादों में 'राम-परशुराम संवाद', 'राम-लक्ष्मण संवाद', 'रावण-अंगद संवाद' आदि शामिल है खास बात यह है कि 'रामचंद्रिका' का कथानक संवादों के सहारे ही विकसित हुआ है। संवादों के माध्यम से ही पात्रों के चरित्र का उद्घाटन हुआ है। यह किसी भी प्रबंध काव्य में संवादों की सफलता का चरम स्तर हो सकता है। आचार्य शुक्ल ने कहा भी है- 'रामचंद्रिका' में केशव को सबसे अधिक सफलता मिली है संवादों में।xxxx उनका 'रावण-अंगद संवाद' तुलसी के संवादों से कहीं अधिक उपयुक्त एवं सुंदर हैं। 'रामचंद्रिका' के संवादों में कहीं-कहीं 'गागर में सागर' वाली कहावत चरितार्थ हुई है। लंबे प्रसंग को संवाद में अत्यंत संक्षिप्त रूप में रख देना केशव की विशेषता है। उदाहरण के लिये दशरथ की मृत्यु, राम लक्ष्मण सीता के वन-गमन की सूचना केशवदास ने एक ही पंक्ति में कहलवा दी है- "मातु कहाँ नृपतात? गए सुरलोकहिं, क्यों, सुत शोक लये।" रामचंद्रिका के संवादों में वक्रोक्तियों का प्रखर स्वरूप विशेष रूप से मिलता है। राम-परशुराम संवाद तो प्रसिद्ध रहे ही हैं पर अंगद-रावण संवाद में पर्याप्त व्यंग्यात्मकता दिखती है। रावण-अंगद संवाद का एक उदाहरण दृष्टव्य है- "राम को काम कहा? रितु जीतहिं, कौन कबै रिपु जीत्यौं कहाँ?" फड़कती हुई सजीव भाषा में क्रोध व उत्साह जैसे भावों की सुंदर व्यंजना इन संवादों की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता है। राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद इस दृष्टि से बहुत सुंदर है जो ओज-गुण की दृष्टि से किसी भी अन्य कविता पर भारी पड़ता है। नाटककीयता भी केशव दास के संवादों की महत्वपूर्ण विशेषता है। नाटकों में जो प्रभाव क्षमता अभिनय द्वारा आते हैं वहीं रामचंद्रिका में सुंदर, सजीव, उत्कृष्ट संवादों द्वारा आ गई है। समग्रत: केशवदास को रामचंद्रिका की संवाद योजना में अद्वितीय सफलता प्राप्त हुई है। इन जैसा संवाद-सौष्ठठव अन्यत्र दुर्लभ है।</s>
<s>[INST]आदिकालीन काव्य अपनी परिस्थितियों की उपज थीं। चर्चा कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका • आदिकालीन पृष्ठभूमि • काव्य पर आदिकालीन पृष्ठभूमि का प्रभाव • निष्कर्ष साहित्य का वातावरण शून्य में निर्मित नहीं होता है। साहित्यिक रचनाओं के पीछे ऐतिहासिक शक्तियों और सामाजिक संस्थाओं का योगदान होता है। अतः आदिकालीन साहित्य पर समाजिक, आर्थिक गतिविधियों, धार्मिक विचार इत्यादि द्वारा पड़ने वाले प्रभाव पर विचार करना ज़रूरी है। 7वीं-8वीं शताब्दी से 12 वीं शताब्दी तक के राजनीतिक घटनाचक्र ने हिंदी साहित्य को भाषा और भाव दोनों तरह से प्रभावित किया। इस युग में केंद्रीय सत्ता का ह्रास हुआ एवं छोटे-छोटे राज्यों का उदय हुआ। जिस कारण संस्कृत भाषा की केंद्रीयता भी समाप्त होने लगी एवं साहित्य रचनाएँ आम बोलचाल की भाषा में होने लगी। प्राकृत व अपभ्रंश को महत्व दिया जाने लगा। ना केवल राजनीतिक स्तर पर क्षेत्रीय अस्मिता का वर्चस्व बढ़ा बल्कि भाषा के स्तर पर भी हिंदी, बांग्ला, असमिया आदि भाषा के निर्माण की प्रवृत्ति बढ़ी। राज दरबार में पांडित्य प्रदर्शन के स्थान पर अनुभव की जीवंतता अनिवार्य हो गई। चारण युद्ध क्षेत्र में अनुभव प्राप्त करते थे इसलिए उनकी रचना में अनुभूति की वास्तविकता होती थी। आदिकाल का रासो साहित्य इसका श्रेष्ठ उदाहरण है। इस युग में चार वर्ण थे तथा अनेक जातियों एवं जातियों में बँटकर भारत सामाजिक आदर्श खो चुका था। जिस कारण कुछ वर्गो एवं जातियों ने ब्राह्मणों में वैदिक परंपरा के कर्मकांडों को चुनौती देने की कोशिश की इसका जीवंत उदाहरण सिद्ध-नाथ जैन साहित्य में मिलता है। केंद्रीय सत्ता के ह्रास के कारण सामंती शासन की शुरुआत हुई जिस कारण स्त्रियों की दशा में और गिरावट आई न केवल समाज बल्कि धर्म के क्षेत्र में भी देवदासी प्रथा अपने चरम पर था। इसी कारण सिद्धों में जहाँ नारी भोग की वस्तु समझी गई तो वहीं नाथों में त्याज्य मानी गई। केंद्रीय सत्ता समाप्त होने के कारण अखिल भारतीय व्यापार का भी ह्रास हो रहा था। नगर उजाड़ हो रहे थे। इससे संपर्क सूत्र कमजोर हो गया था एवं सामान्य संपर्क भाषा का विकास अवरुद्ध हो गया। इसलिए प्रादेशिक विविधता साहित्य का आधार हो गए। इस समय बौद्ध धर्म का विकास हीनयान, वज्रयान इत्यादि शाखाओं में होने लगा था। बौद्ध धर्म की शाखाओं में मंत्र, तंत्र, हठयोग आदि के साथ पंच मकारों, मांस, मिथुन, मत्स्य, मद्य, मुद्रा को भी विशेष स्थान प्राप्त होता जा रहा था। जिस कारण समाजिक क्षति हुई। इस प्रकार हम देखते हैं धर्म, सामाजिक संस्थाएँ, राजनीतिक स्थिति इत्यादि मिलकर आदिकालीन साहित्य की पृष्ठभूमि तैयार करते हैं।</s>
<s>[INST]केशवदास द्वारा रचित रामचंद्रिका पर संक्षिप्त टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण • भूमिका • रामचंद्रिका का परिचय एवं विशेषताएं • निष्कर्ष केशवदास की कृतियों में 'रामचंद्रिका' सर्वाधिक प्रसिद्ध है, जिसका रचनाकाल 1601 ई. है। इसमें रामकथा का वर्णन किया है एवं रामकथा के प्रमुख प्रसंगों को चुनकर और उन्हें विभिन्न छंदों में क्रम देकर छंदबद्ध कर दिया गया है रामचंद्रिका की विशेषताएँ :- कथानक योजना: रामचंद्रिका में कुछ प्रसंग असाधारण रूप से समृद्ध और सशक्त हैं पर कुछ शिथिल और कमज़ोर हैं। कथानक के निर्माण में बाल्मीकि आदि प्रसिद्ध कवियों की राम कथा तथा भागवत आदि पुराणों के अतिरिक्त केशवदास में संस्कृत के साहित्य ग्रंथों से भी पर्याप्त सहायता ली है, जिनमें 'हनुमान्नाटक' एवं 'प्रसन्नराघव' प्रमुख हैं। संवादों की नाटकियता तथा और उक्ति वैचित्र्य पर इन ग्रंथों का विशेष प्रभाव पड़ा है। संवाद योजना: रामचंद्रिका की विशिष्टता उसकी संवाद योजना है। इनके जैसा संवाद कोई प्राचीन कवि नहीं लिख सका है। आचार्य शुक्ल ने कहा है, "रामचंद्रिका में केशव को सबसे अधिक सफलता मिली है। xxxx संवादों में उनका रावण अंगद संवाद तुलसी के संवाद से कहीं अधिक उपयुक्त एवं सुंदर है।" उदाहरण के लिये निम्नलिखित पंक्ति में संवादों की तीव्रता और चुस्ती द्रष्टव्य है क्योंकि एक ही कथन में चार संवाद के दिये गए हैं- "मातु कहाँ नृपतात? गए सुरलोकहिं। क्यों? सुत शोक लये।" छंद योजना: 'रामचंद्रिका' की छंद योजना भी विशिष्ट है। उनकी बहु-छंद की कल्पना नई वस्तु है। महाकाव्य और प्रबंध काव्य के अन्य रूपों में संस्कृत और हिंदी दोनों भाषाओं में केशव ने जैसी छंद योजना की है वह प्राप्त नहीं होती। जीवन दृष्टि: 'रामचंद्रिका' में केशवदास ने रामकथा को नए तरीके से प्रस्तुत किया है। इसकी कथा संघर्ष की कथा नहीं है। ना तो वह सिर्फ भक्ति की रचना है। उसमें मौलिक तरीका अपनाते हुए भक्ति और राज वैभव दोनों पक्षों पर सामान बल दिया गया है। कवि ने इसमें जो जीवन दृष्टि अपनाई है उसमें लौकिक और पारलौकिक का अलगाव या विरोध लक्षित नहीं होता। केवल अंत में ज्ञान त्याग और भक्तों की वरीयता अवश्य सिद्ध होती है जो भारतीय संस्कृति की केंद्रीय विशेषता रही है। आलोचना के बिंदु 'रामचंद्रिका' में केशवदास ने उचित संबंध-निर्वाह नहीं किया है। इसमें मार्मिक प्रसंगों का ध्यान ठीक से नहीं रखा गया है। जैसे एक छंद में राम का राज्याभिषेक, दूसरे छंद में राम को वनवास व भरत को राज देने का वरदान मांगना चित्रित कर दिया है। शुक्ल जी ने कहा है कि केशव में संबंध निर्वाह की क्षमता नहीं थी। उन्होंने यह भी कहा है कि राम की कथा के भीतर जो मार्मिक स्थल है उनकी ओर केशव का ध्यान बहुत कम गया है। तुलसीदास ने राम वन गमन प्रसंग को इतना मार्मिक व जीवंत बना दिया था जबकि केशव के लिए वह एक सूचना मात्र रह गया। हालाँकि रामचंद्रिका में बहु-छंदों की कल्पना नई वस्तु है किंतु शुक्ल जी ने इसकी आलोचना करते हुए इसे 'छंदों का अजायबघर' कहा है उनका दावा है कि 'रामचंद्रिका' में छंद प्रयोग भाषा में प्रवाह एवं जीवंतता उत्पन्न नहीं करता। समग्रत: केशवदास को रामचंद्रिका के संवाद योजना, कथानक योजना में अद्वितीय सफलता प्राप्त हुई है। इनके जैसा संवाद दुर्लभ है किंतु छंद योजना एवं कथा के मार्मिक प्रसंगों को केवल सूचना मात्र के रूप में प्रस्तुत करने के कारण 'रामचंद्रिका' 'रामचरितमानस की तरह लोक ग्राही न हो सकी रामचंद्रिका</s>
<s>[INST]क्या 'आदिकाल' नामकरण उपयुक्त है? चर्चा कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका • आदिकाल के नामकरण में विवाद के बिंदु • आदिकाल नामकरण के पीछे का तर्क • निष्कर्ष हिंदी साहित्येतिहास लेखन में सर्वाधिक विवादास्पद प्रसंगों में से एक यह है कि इसके आरंभिक काल के लिए सर्वश्रेष्ठ नाम कौन सा हो सकता है? किसी साहित्यिक युग का समुचित नामकरण वह होता है जो उस युग की साहित्यिक प्रवृत्तियों का बोधकराता है। आदिकाल के संबंध में यह प्रश्न जटिल इसलिये है कि कई अनसुलझे प्रश्न इसमें शामिल हैं, जैसे- हिंदी भाषा का आरंभ सातवीं सदी से माना जाए या 10 वीं या 12 वीं सदी से; धार्मिक संप्रदाय की रचनाओं को साहित्य माना जाए या नहीं; कौन सी रचना प्रमाणिक है और कौन सी रचनाएँ अप्रमाणिक हैं? नामकरण का प्रथम प्रयास जॉर्ज ग्रियर्सन ने "द मॉडर्न वर्नाकुलर लिटरेचर नदर्न हिंदुस्तान" में किया व इसे 'चारण काल' कहा इसके पश्चात मिश्र बंधु ने इसे 'प्रारंभिक काल' कहा तो आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 'बीजपवन काल' कहा क्योंकि यही वह काल था जहाँ से हिंदी साहित्य की शुरुआत हुई और आगे के साहित्य की प्रवृत्तियाँ भी बीज रूप में यहाँ दिखती हैं किंतु यह दोनों नाम अत्यंत सामान्य व अपर्याप्त हैं एवं 'चारण काल' नाम इसलिए सही नहीं है क्योंकि इस काल में केवल चारण काव्य नहीं लिखा गया। इस श्रृंखला में पहला महत्वपूर्ण प्रयास आचार्य शुक्ल ने किया और अपनी विधेयवादी दृष्टि के आधार पर इसे 'वीरगाथा काल' कहा। किंतु यदि इस काल की रचनाओं को समग्र रूप से देखा जाए तो इसमें न केवल वीरगाथा काव्य बल्कि धार्मिक सांप्रदायिक काव्य, लौकिक काव्य (विद्यापति एवं अमीर खुसरो) इत्यादि, भी लिखा गया है। अतः यह नाम इस काल को समुचित रूप से व्याख्यायित नहीं कर पाता है। आचार्य शुक्ल के उपरांत आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस काल को 'आदिकाल' कहा इसके पीछे मूल तर्क यह था कि संपूर्ण आदिकाल में किसी भी साहित्यिक प्रवृत्ति को केंद्रीय नहीं माना जा सकता है जो उसे पूर्णता में व्यक्त करे। इस नामकरण से इस काल में रचित लगभग सभी प्रकार के काव्यों, जैसे- सिद्ध-नाथ साहित्य, जैन साहित्य, लौकिक साहित्य, वीरगाथा सहित्य की धारा भी शामिल हो जाती है। वस्तुतः इस काल की वैविध्यपूर्ण साहित्यिक प्रवृत्तियों को समेटने के लिये कोई भी प्रवृत्ति सूचक नामकरण अनुपयुक्त है क्योंकि इस काल में कोई केंद्रीय तथा सर्व समावेशी प्रवृत्ति है ही नहीं। अतः निर्विशिष्ट नामकरण ही इस काल के लिये उचित हो सकता है। इस दृष्टि से 'आदिकाल' इस काल हेतु सर्वश्रेष्ठ नामकरण प्रतीत होता है। इससे ना केवल आरंभ का संकेत मिलता है बल्कि आगे आने वाले युगों में दिखने वाली वीरता, आध्यात्मिकता तथा श्रृंगारिका जैसी प्रवृत्तियाँ भी यहीं से विकसित हुई हैं।</s>
<s>[INST]"पृथ्वीराज रासो एक हिंदी साहित्य का पहला महाकाव्य है।" इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं? अपने उत्तर के पक्ष में उचित तर्क दीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका • कथन के पक्ष में तर्क • कथन के विपक्ष तर्क • निष्कर्ष किसी भी रचना को महाकाव्य मानने की दो प्रकार की कसौटियाँ होती हैं- पारंपरिक एवं आधुनिक। यदि पारंपरिक कसौटियों की बात करें तो महाकाव्य मानने के लिए रचना में निम्नलिखित गुण होने चाहिये: महाकाव्य का नायक धीरोदात्त एवं उच्च कुल का होना चाहिये। रचना में वीर, श्रृंगार या शांत में से कोई एक अंगी रस होना चाहिये। कम से कम आठ या उससे अधिक सर्ग होने चाहिये। छंद वैविध्य, चारों पुरुषार्थों का वर्णन, सज्जन-प्रशंसा, दुर्जन-निंदा इत्यादि जैसे तत्त्व भी होने चाहिये। यदि 'पृथ्वीराज रासो' को उपरोक्त कसौटियों पर कसें तो- नायक पृथ्वीराज के उच्च कुल से होने में कोई शक नहीं है तथा उसमें वीरता जैसे गुण इतने अधिक हैं कि उसे धीरोदात्त मानने में भी कोई समस्या प्रतीत नहीं होती है। रचना में अधिकांश प्रसंग वीरता की अनुभूति तो कराती ही है तथा इसकी परिणति भी वीरता का गहरा प्रभाव छोड़ती है। अतः इस प्रबंध काव्य का अंगी रस वीर है। 'पृथ्वीराज रासो' सर्गों में नहीं बल्कि समयों में विभाजित है, जो लगभग हर घटना के बाद बदल जाते हैं। इसमें कुल 69 समय हैं जो निश्चय ही 8 सर्गों से अधिक है। यदि छंद वैविध्यता की बात करें तो चंदवरदाई ने इसमें लगभग 68 प्रकार के छंदों का प्रयोग किया है। डॉ. नामवर सिंह के अनुसार, चंद को हिंदी में छंदों का राजा कहा जा सकता है। इन सबके अलावा इस काव्य में मंगलाचरण, सज्जन-प्रशंसा, दुर्जन-निंदा, भाषागत वैविध्यता, युद्ध वर्णन, आखेट, विवाह, ऋतु, प्रकृति, नगर वर्णन इत्यादि, के भी तत्त्व पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं। यदि आधुनिक कसौटी की बात करें तो डॉक्टर नगेंद्र ने माना है कि अब किसी रचना का महाकाव्य होना उदात्त कथानक, उदात्त चरित्र, उदात्त भाव, उदात्त कार्य तथा उदात्त शैली जैसे तत्त्वों की उपस्थिति के आधार पर तय होना चाहिए न कि परंपरागत आधारों पर। इन लक्षणों पर कसे तो 'पृथ्वीराज रासो' का महाकाव्य तो कुछ कमज़ोर प्रतीत होता है। रचना का कथानक युद्ध और वीरता के वर्णन से भरा पड़ा है किंतु इसके लिए कोई बड़ा उद्देश्य नज़र नहीं आता है। नायक पृथ्वीराज शक्तिशाली और वीर तो है किंतु उसमें संयम और धैर्य जैसे गुणों की कमी प्रतीत होती है। उदात्त भाव की बात करें तो रचना में विद्यमान वीरता का भाव उदात्त माना जा सकता है जहाँ तक शैली का प्रश्न है छंद, अलंकार और कथानक रूढ़ि जैसे तत्वों का बेहतर प्रयोग है किंतु भाषा का व्याकरणिक पक्ष कमज़ोर है। निष्कर्षत: हम यह कर सकते हैं कि 'पृथ्वीराज रासो' पारंपरिक कसौटियों पर तो महाकाव्य सिद्ध होता ही है, आधुनिकता कसौटियों पर भी कुछ सीमाओं के साथ इसे महाकाव्य माना जा सकता है। आचार्य शुक्ल ने 'पृथ्वीराज रासो' के महाकाव्यत्व का समर्थन करते हुए कहा है कि, "चंद हिंदी के प्रथम महा कवि माने जाते हैं और इनका पृथ्वीराज रासो हिंदी का प्रथम महाकाव्य है।"</s>
<s>[INST]जैन कवि हेमचंद्र पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका • कवि हेमचंद्र का परिचय • हेमचंद्र का साहित्य लेखन हेमचंद्र ग्यारहवीं शताब्दी के कवि है। ये अपनी विद्या एवं पांडित्य के कारण विख्यात थे। इन्हें गुजरात के राजा सिद्धराज जयसिंह एवं उसके पश्चात कुमारपाल द्वारा सम्मानित किया गया। इन्होंने जैन मुनियों के नैतिक उपदेशों एवं शिक्षाओं को प्रसारित करने हेतु कई रचनाएँ की जिनमें से 'सिद्ध हेम शब्दानुशासन' , 'देशी नाममाला' एवं 'कुमारपाल चरित' प्रमुख हैं। इसके अलावा इन्होंने जैन सिद्धांतों के अपवाद के रूप में वीरता एवं श्रृंगार से पूरित कविताएँ भी लिखी। वीरतापूर्ण कविता के उदाहरण के तौर पर- "खग्ग विसाहिउ जहिं लहहुँ, पिय ताहि देसहिं जाहुँ। रण दुब्भिक्खें भग्गाइँ, विणु जुज्झें न बलाहुँ।।" यहाँ नायिका नायक से कहती है कि मुझे उस देश ले चलो जहाँ तलवारों का व्यवसाय होता हो। यहाँ तो युद्धों का अकाल पड़ गया है और बिना युद्ध के हम कमज़ोर हो जाएँगे। इनकी कविता में कहीं-कहीं वीरता एवं आत्मसम्मान के भाव भी प्रकट होते हैं। जैसे- "भल्ला हुआ जू मारिया बहिणी महारा कंतु। लज्जेजं वयंसिअहु जइ भग्गा घर एंतु।।" न केवल वीरता एवं आत्मसम्मान से जुड़े तत्त्व बल्कि श्रृंगार के तत्त्व भी इनकी कविताओं में दिखते हैं। जैसे- "सिरी जरखंडी लोअडी, गलि मणियडा न बीस। तो वि गोट्ठडा कराविआ, युद्धहे उट्ठ बईस।।" हेमचंद्र ने व्याकरण के नियमों को भी अपनी कविताओं में स्पष्ट किया है इनकी रचना 'सिद्ध हेम शब्दनुशासन' प्राकृत-अपभ्रंश का व्याकरण है इस रचना के कारण इन्हें 'प्राकृत का पाणिनी' भी कहते हैं इनके द्वारा प्रयुक्त प्राकृत भाषा में प्राकृत की स्वाभाविक सुगंध प्रकट होती है।</s>
<s>[INST]सिद्ध - नाथ साहित्य साहित्य है या नहीं? सतर्क विवेचना कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका • सिद्ध नाथ साहित्य के साहित्य होने के विपक्ष में तर्क • सिद्ध नाथ साहित्य के साहित्य होने के पक्ष में तर्क • निष्कर्ष हिंदी साहित्य के इतिहास में यह प्रश्न सर्वाधिक विवादास्पद रहा है कि सिद्ध-नाथ साहित्य, साहित्य है या नहीं। इस प्रश्न के उठने का कारण है कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल इसे हिन्दी साहित्य में शामिल करने के पक्ष में नहीं है जबकि, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी इसके पक्ष में हैं। सिद्ध-नाथ साहित्य के साहित्य होने के विपक्ष में तर्क: सिद्ध-नाथ साहित्य काव्यशास्त्रीय मानदंडों पर खरा नहीं उतरता है। आचार्य शुक्ल के अनुसार, सिद्ध-नाथ काव्यों की अंतर्वस्तु मूल रूप से धार्मिक-सांप्रदायिक है तथा इसमें अप्रतित्व दोष है। सिद्ध-नाथ साहित्य में बहुत से ऐसे प्रसंग मिलते हैं जहाँ सांप्रदायिकता का शुष्क प्रचार मात्र दिखता है ना कि कोई साहित्यिक तत्त्व। यदि परिभाषिक शब्दों को छोड़ भी दिया जाए तो इन कविताओं का एक अंश ऐसा है जो पाठक को समझ तो आता है लेकिन उसके मर्म को छू नहीं पाता है। सिद्ध-नाथ साहित्य के साहित्य होने के पक्ष में तर्क: वास्तव में सिद्ध-नाथ साहित्य काव्यशास्त्रीय मानदंडों पर भले खरा न उतरे, इनमें प्रवाहमयी भाषा भले ना हो किंतु कई प्रसंगों में सामाजिक हित की भावना स्पष्ट दिखती है। यदि धार्मिक काव्य होने के कारण इन्हें हिन्दी साहित्य में शामिल नहीं किया जा सकता है तो इस आधार पर पूरा भक्तिकाल ही हिन्दी साहित्य से बाहर हो जाएगा जबकि जॉर्ज ग्रियर्सन ने इसे हिन्दी साहित्य का स्वर्ण युग कहा है। सुसंस्कृत भाषा कबीर की भी नहीं थी किंतु वो अपनी सामाजिक चेतना के कारण प्रखर कवि सिद्ध हुए। इतना ही नहीं, सिद्ध-नाथ काव्यों में कहीं-कहीं शिल्पगत सामर्थ्य भी दिखता है। कुछ जगहों पर शब्दों के चयन, भाषा के प्रवाह, प्रतीकों एवं बिंबों के कुशल प्रयोग के कारण उन्हें कवि कहने का मन होता है। निष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि सिद्ध नाथ साहित्य भले ही अपनी धार्मिक मान्यताओं के प्रचार हेतु लिखे गए हों किंतु उनकी सामाजिक संवेदना, जैसे- सिद्धों द्वारा कर्मकांडों एवं बाह्य आडंबरों का विरोध, नाथों का आचरण शुचिता पर बल, के कारण इनके हिन्दी साहित्य के विकास में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका को लेकर विद्वानों में लगभग सहमति है।</s>
<s>[INST]विद्यापति भक्त कवि हैं या श्रृंगारिक? सतर्क विश्लेषण कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका • विद्यापति के भक्त कवि होने के पक्ष में तर्क • विद्यापति के श्रृंगारिक कवि होने के पक्ष में तर्क विद्यापति की प्रसिद्धि का मूल आधार उनकी रचना पदावली है। पदावली में भक्ति विषयक पद भी हैं और श्रृंगार विषयक पद भी। संभवत: पदावली के आधार पर ही विद्वानों ने यह प्रश्न उठाया कि विद्यापति भक्त कवि हैं या श्रृंगारिक? जार्ज ग्रियर्सन, बाबू श्याम सुंदर दास, तथा बाबू ब्रजनंदन सहाय जैसे कुछ विद्वानों ने विद्यापति को भक्त कवि माना है। वहीं दूसरी ओर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, बाबू राम सक्सेना, डॉक्टर राम कुमार वर्मा और बच्चन सिंह जैसे विद्वानों ने विद्यापति को श्रृंगारिक कवि कहा है। विद्यापति को श्रृंगारिक कवि मानने के पीछे तर्क: पदावली में संयोग श्रृंगार पदों की अधिकता है। विद्यापति शैव थे अत: यदि भक्ति करनी होती तो शिव-पार्वती की करते न कि राधा कृष्ण की। विद्यापति ने अपने आश्रयदाता राजा शिव सिंह की प्रशंसा एवं मनोरंजन हेतु कृष्ण का प्रतीकात्मक प्रयोग किया है जो वास्तव में शिव सिंह ही है। विद्यापति के काव्य में विद्यमान भक्ति तत्त्व की सबसे तीखी आलोचना आचार्य शुक्ल करते हैं और लिखते हैं कि "आध्यात्मिक रंग के चश्में आजकल बहुत सस्ते हो गए हैं। उन्हें चढ़ाकर जैसे कुछ लोगों ने 'गीत-गोविंद' को आध्यात्मिक संकेत बताया है वैसे ही विद्यापति के इन पदों को भी।" श्रृंगार विषयक इन्हीं तर्को के आधार पर विद्यापति के काव्य को निराला 'नागिन की लहर' कहते हैं तो बच्चन सिंह 'खजुराहों की मंदिरों वाली आध्यात्मिकता' बताते हैं। विद्यापति को भक्त कवि मानने के पीछे तर्क: विद्यापति के पद श्रृंगारिक या अश्लील होते तो मंदिरों में क्यों गाए जाते? इनको सुनकर चैतन्य महाप्रभु जैसे भक्त मूर्छित क्यों होते? परवर्ती काल में कृष्णदास, गोविंददास जैसे कवियों ने विद्यापति को भक्त कवि के रूप में ही महत्त्व दिया है। यदि राधा-कृष्ण के श्रृंगार का विस्तृत वर्णन कर सूर दास भक्त कवि हो सकते हैं तो विद्यापति क्यों नहीं? विद्यापति ने शिव स्तुति, गंगा स्तुति, काली वंदना, कृष्ण प्रार्थना जैसे भक्तीपरक पदों की भी रचना की है। विद्यापति को भक्त मानते हुए जार्ज ग्रियर्सन ने लिखा है "राधा जीवात्मा का प्रतीक है और कृष्ण परमात्मा के। जीवात्मा, परमात्मा से मिलने के लिए निरंतर प्रयत्नशील है।" निष्कर्ष उपर्युक्त विश्लेषण के आलोक में यह माना जा सकता है कि विद्यापति में श्रृंगार समन्वित भक्ति है। इनके यहाँ लौकिक प्रेम ही इश्वरोन्मुख होकर कहीं-कहीं भक्ति में परिणत हो जाता है। इनकी भक्ति भावना पर अपनी पूर्ववर्ती परंपरा का प्रभाव है साथ ही, प्रेम तत्त्व का सम्मिश्रण भी है।</s>
<s>[INST]खुसरो का साहित्य संवेदना एवं शिल्प दोनों स्तरों पर भारत की सामासिक संस्कृति का पोषक है। चर्चा कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका • खुसरो के साहित्य में संवेदना पक्ष में भारतीय सामासिक संस्कृति • शिल्प पक्ष में भारतीय सामासिक संस्कृति • निष्कर्ष अमीर खुसरो खड़ी बोली हिंदी और उर्दू के पहले कवि तो माने ही जाते हैं। उनकी रचनाएँ न केवल संवेदना बल्कि शिल्प के स्तर पर भी भारतीय सामाजिक संस्कृति की द्योतक है। इसके कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं- संवेदना पक्ष में भारतीय सामासिक संस्कृति: गुरु का महत्व- प्रसिद्ध सूफी संत हजरत निजामुद्दीन ओलिया अमीर खुसरो के गुरु थे। गुरु का उनके जीवन पर विशेष प्रभाव था। गुरु की मृत्यु के पश्चात वह लिखते हैं- “गोरी सोवे सेज पर मुख पर डारे केस! चल खुसरो घर आपने रैन भई चहुँ देस!!” गुरु की यह महत्ता भारतीय संस्कृति में पुरातन काल से विद्यमान रही है, जिसका प्रमाण हमें अलग-अलग समय के ग्रंथों से मिलता ही है। धार्मिक एवं बाह्य आडंबरों पर चोट- खुसरो की सामाजिक चेतना उनके साहित्य में दिखती हैं। जिस प्रकार सिद्ध-नाथ एवं बाद में भक्तिकालीन कवियों ने धार्मिक आडंबरों पर प्रहार किया था उसी प्रकार खुसरो भी पाखंडी चरित्र का पर्दाफाश करते हुए लिखते हैं- “ उज्जवल बरन, अधीन तन, एक चित्त दो ध्यान देखन में तो साधु है, निपट पाप की खान” सौंदर्य एवं प्रेम के कवि- अमीर खुसरो की कविताएँ सौंदर्य एवं प्रेम की कविताएँ हैं। उन्होंने भारतीय आध्यात्म से प्रेम व सौन्दर्य का विकास किया। उदाहरण के तौर पर- “खुसरो दरिया प्रेम की उलटी वाकी धार! जो उतरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार!!” नारी चेतना/ लोक जीवन काव्य- भारतीय समाज में प्रयुक्त होने वाले गंवई शब्द जैसे- कुम्हार, चौपाई, पलंग, हांडी, चाक इत्यादि उनकी रचनाओं में दिखते हैं। साथ ही यहाँ की लौकिक परंपराएँ भी उनकी कलम का विषय बनती हैं। जैसे बेटी के विवाह के पश्चात उसकी विदाई का हृदय स्पर्शी विवरण- “काहे को बियाहे विदेश, सुन बाबुल मोरे.. .” शिल्प पक्ष में भारतीय संस्कृति की झलक: भाषिक समन्वय- खुसरो एक तरफ ठेठ ब्रजभाषा के साथ शुरुआती खड़ी बोली का मिश्रण करते हैं तो दूसरी तरफ फारसी के साथ हिंदी का मिश्रण कर उर्दू जैसे भाषा को जन्म देते हैं, जो भारतीय सामाजिक संस्कृति का अनन्य उदाहरण है। भाषा के स्तर पर कुछ अद्भुत प्रयोग में उन्होंने शुद्ध फारसी एवं शुद्ध ब्रजभाषा को एक ही कविता में पिरो दिया है। जैसे- “जे हाल मिसकी मकुन तगाफुल, दुराय नैना बनाय बतियाँ…" छंद वैविध्य- खुसरों के साहित्य में छंद वैविध्यता की प्रधानता है। उन्होंने दोहे, सुखने, पहेलियाँ, मुकरियाँ, ढकोसले इत्यादि सब में अपनी उपस्थिति दर्ज की है। इसी तरह हम अन्य आदिकालीन साहित्य देखें तो ‘पृथ्वीराज रासों’ कई प्रकार के छंद उपयुक्त हुए हैं, सिद्ध एवं नाथों में छंद एवं लय की एक समृद्ध परंपरा रही है। न सिर्फ साहित्य रचना बल्कि संगीत में भी खुसरों ने अरबी एवं हिंदुस्तानी संस्कृति को एक ही छत के नीचे ला दिया। उदाहरण के तौर पर भारतीय संस्कृति का वाद्य यंत्र वीणा एवं अरबी के तंबूरा को मिलाकर उन्होंने सितार का आविष्कार किया। अतः हम कह सकते हैं कि अमीर खुसरो सही मायने में भारतीय सामासिक संस्कृति के वाहक हैं।</s>
<s>[INST]‘सिद्ध एवं नाथ साहित्य ने हिन्दी साहित्य को न केवल संवेदना के स्तर पर बल्कि शिल्प के स्तर पर भी प्रभावित किया है।’ व्याख्या कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका • हिन्दी साहित्य में संवेदना के स्तर पर सिद्ध एवं नाथ साहित्य का योगदान • हिन्दी साहित्य में शिल्प के स्तर पर सिद्ध एवं नाथ साहित्य का योगदान • निष्कर्ष सिद्ध एवं नाथ साहित्य आदिकालीन हिन्दी साहित्य का एक प्रमुख भाग है। हालाँकि इस बात पर विद्वानों में पर्याप्त विवाद है कि सिद्ध एवं नाथ साहित्य हिन्दी साहित्य में शामिल हैं या नहीं। आचार्य शुक्ल ने इन्हें सांप्रदायिक साहित्य कह कर हिन्दी साहित्य क्षेत्र से बहार रखा है जबकि साहित्य के संदर्भ में यह देखना चाहिये कि वह संवेदना एवं शिल्प के स्तर योगदान दे रहा है या नहीं। सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो सिद्ध एवं नाथ साहित्य का हिन्दी साहित्य के संवेदना एवं शिल्प के क्षेत्र में व्यापक योगदान है:- संवेदना के स्तर पर: सिद्ध एवं नाथ साहित्य में गुरु को विशेष महत्त्व दिया गया है, गुरु की ऐसी ही महत्ता आगे चलकर भक्तिकाल में देखने को मिलता है, जहाँ कबीर कहते हैं- “गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूँ पांय” सिद्धों एवं नाथों दोनों ने ही वैदिक परम्पराओं एवं बाह्य आडंबरों का विरोध किया है जैसे- “आगम वेअ पुणेही पंडिअ माण वहन्ति…” इसी प्रकार कबीर कहते है: “पाथर पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहाड़…” दोनों प्रकार के साहित्य में साधनात्मक रहस्यवाद की प्रधानता है एवं इसके लिये एक अलग प्रकार की भाषा जिसे पंडित महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री ने ‘संधा भाषा’ कहा है, उपयोग में लाया है। उदाहरण के तौर पर- “का आ तरुवर पंच बिडाल चंचल चीये पैठो काल” स्त्री के प्रति जहाँ सिद्ध परंपरा में भोगवादी दृष्टिकोण है वहीं नाथों एवं भक्तिकालीन संत परंपरा में स्त्री का साथ त्याज्य है। शिल्पगत योगदान सिद्ध एवं नाथ साहित्य में अर्द्ध-मागधी अपभ्रंश का प्रयोग हुआ है जिससे आगे चलकर पूर्वी हिन्दी भाषा का विकास हुआ। सिद्ध एवं नाथ साहित्य में आंतरिक अनुभूतियों को व्यक्त करने हेतु जिस संधा भाषा का प्रयोग हुआ है आगे चलकर भक्तिकाल में ज्ञानाश्रयी संत काव्यधारा में परिलक्षित हुई है। हिन्दी साहित्य की छंद परंपरा सिद्ध एवं नाथ साहित्य के कारण ही समृद्ध हुई है।इनके साहित्य में छंद के विभिन्न रूप प्रयुक्त हुए हैं, जैसे- दोहा, सोरठा, रोला इत्यादि। साथ ही, मुक्तक काव्यरूप की परंपरा, जैसे- चर्यापद, भी इन्हीं से लिया गया है। उलटबांसियों का प्रयोग भी सिद्ध एवं नाथ परंपरा की दें है। इस तरह हम कह सकते हैं कि जिन छंद व लय को सिद्धों एवं नाथों ने संघर्ष से प्राप्त किया वह हिन्दी भाषा में सहज ही उपलब्ध हो सकीं। सिद्ध-नाथ की सहित्यिक परम्परा से अलग हटकर हम हिन्दी की विकास की कल्पना नहीं कर सकते हैं।</s>
<s>[INST]हिन्दी साहित्येतिहास लेखन की परंपरा में जॉर्ज ग्रियर्सन के योगदान की विवेचना कीजिये।[/INST]उत्तर : हल करने का दृष्टिकोण: • भूमिका • हिन्दी साहित्येतिहास लेखन की परंपरा में जॉर्ज ग्रियर्सन का योगदान • जॉर्ज ग्रियर्सन के साहित्येतिहास लेखन की सीमाएँ • निष्कर्ष हिन्दी साहित्येतिहास लेखन की परंपरा का प्रथम परिपक्व प्रयास जॉर्ज ग्रियर्सन द्वारा किया गया है। इन्होने अपनी पुस्तक 'द मॉडर्न लिटरेचर ऑफ़ नदर्न हिंदुस्तान' में युगीन प्रवृत्तियों को ध्यान में रखते हुए काल विभाजन एवं नामकरण का प्रथम गंभीर प्रयास किया। ग्रियर्सन ने कालक्रमनुसार वर्णन करते हुए कवियों एवं उनकी रचनाओं के मूल्यांकन का प्रयास किया। इन्होने साहित्येतिहास लेखन के लिये वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाते हुए संस्कृत, प्राकृत, फारसी को अलग-अलग भाषा कहा एवं तथ्यों के स्रोत का भी उल्लेख किया। इन्होने भक्ति काल को हिन्दी साहित्य का स्वर्ण युग कहा जो आज भी मान्य है। सीमाएँ ग्रियर्सन द्वारा सहित्येतिहास के काल विभाजन एवं नामकरण में यादृच्छिकता की प्रधानता रही है। उन्होंने व्यक्तिगत एवं राजनीतिक आधार पर नामकरण किया है जैसे - विक्टोरिया शासन में हिंदुस्तान, कंपनी के शासन में हिंदुस्तान आदि। भाषाविद् होते हुए भी उन्होंने उर्दू को एक विदेशी भाषा माना जबकि भाषा विज्ञान की दृष्टि से यह एक हिन्दुस्तानी भाषा है। साथ ही इनके सहित्येतिहास लेखन पर ब्रिटिश प्रभाव परिलक्षित किया का सकता है, जैसे इन्होंने भक्ति काल के उदय पर ईसाइयत का प्रभाव माना जबकि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार, भक्ति साहित्य भारतीय परंपरा का स्वत: स्फूर्त विकास था। इन्होंने विद्यापति की घोर श्रृंगारिक कविताओं को भी भक्तिपरक माना जबकि विद्वानों में इस बात पर मतैक्यता नहीं है। निष्कर्ष निश्चित रूप से ग्रियर्सन का इतिहास लेखन सीमाओं से परे नहीं था किंतु ग्रियर्सन की उपलब्धि इस बात में निहित है कि काल विभाजन व नामकरण का गंभीर प्रयास उनके द्वारा किया गया साथ ही हिन्दी सहित्येतिहास लेखन परंपरा को एक दिशा अवश्य मिली।</s>
<s>[INST]निम्नलिखित गद्यांश की ससंदर्भ व्याख्या करते हुए इसके रचनात्मक सौंदर्य का उद्घाटन कीजिये: (लगभग 150 शब्दों में)[/INST]उत्तर : संदर्भ: प्रस्तुत गद्यांश हिन्दी उपन्यास की दशा-दिशा परिवर्तित करने वाले मुंशी प्रेमचंद द्वारा रचित ‘गोदान’ से उद्धृत है। प्रसंग: रायसाहब, होरी को आने वाले समय में होने वाले परिवर्त्तनों की संभावनाओं से अवगत करा रहे हैं। व्याख्या: रायसाहब परिवर्तनों की संभावना व्यक्त करते हुए होरी से कहते हैं कि वह दिन दूर नहीं जब जमींदार वर्ग का नामोनिशान मिट जाएगा, स्वयं को इस परिवर्तन हेतु उत्सुक प्रदर्शित करते हुए वे कहते हैं कि वह स्वयं उस दिन की प्रतीक्षा कर रहे हैं। उनकी नज़रों में यह सबके उद्धार का दिन होगा। जब तक ज़मींदार वर्ग अपनी संपत्ति के मोह से दूर नहीं होता, तब तक यह संपत्ति उसे बंधन में बांधे रखेगी, तब तक मानवता से हमारी (संपन्न वर्ग) दूरी बनी रहेगी, वस्तुत: इस दिन को प्राप्त करना हमारा सर्वोच्च लक्ष्य भी है। विशेष: समाजवाद की आहट गद्यांश में उभकर साफ-साफ सुनाई देती है। प्रेमचंद तत्कालीन विमर्शों और विचारधाराओं के प्रति सजग चिंतक व्यक्तित्व रखते हैं, जिसे इन पंक्तियों में देखा जा सकता है। इन पंक्तियों में रायसाहब के माध्यम से ज़मींदार वर्ग का छद्म रूप उभरकर सामने आया है जिसकी कथनी और करनी में फर्क है। प्रेमचंद का द्रष्टा रूप इन पंक्तियों में देखा जा सकता है जो भविष्य के भारत का संकेत इन पंक्तियों में दे रहे हैं। भाषा आम हिंदुस्तानी है जिसमें तत्सम-तद्भव शब्दों के साथ ‘हस्ती’, ‘शिकार’ जैसे विदेशज शब्द भी शामिल हैं जो हिंदुस्तानी के भीतर रच बस गए हैं।</s>
<s>[INST]‘हार्डवेयर मॉडल’ की विवेचना कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • हार्डवेयर मॉडल को बताना है। हल करने का दृष्टिकोण • सर्वप्रथम संक्षिप्त भूमिका लिखें। • हार्डवेयर मॉडल की चर्चा करें। द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् भूगोल की परिभाषा एवं पद्धतियों में व्यापक बदलाव आया तथा इसे एक सुदृढ़ आधार प्रदान करने के लिये भूगोलवेत्ताओं ने मॉडलों का विकास किया। हार्डवेयर मॉडल या मापक अनुमाप मॉडल भी उन्हीं में से एक है। यह मॉडल सरल होता है तथा लघुमापक पर यथार्थता को प्रत्यक्ष रूप में व्यक्त करता है। इसमें भूगर्भीय (स्थिर) अथवा नद-अवनालिका (सक्रिय) जैसे भौतिक गुणों को रीतिबद्ध कर प्रस्तुत किया जाता है। सक्रिय मॉडल में प्रत्येक चर का अलग-अलग अध्ययन किया जा सकता है, जैसे- किसी सरोवर में उसका भौतिक आकार, तरंग की लंबाई और उसकी ढाल का शुद्धत: अलग-अलग अध्ययन एवं मापन किया जा सकता है। इसके लिये दो चरों को स्थिर बनाकर तीसरे को परिवर्तनीय रखते हैं। इस मॉडल में दोनों स्थितियों से उपलब्ध संबंध बिंदु लगभग सीधी रेखा पर होते हैं अथवा बिखराव प्रकट करते हैं। सीधी रेखा पर संबंध बिंदु महत्त्वपूर्ण होता है, जबकि बिखराव की स्थिति में यह न्यून अथवा कोई संबंध व्यक्त नहीं करता। इस मॉडल का प्रयोग किसी वृहद् प्रोजेक्ट के परीक्षण के संदर्भ में किया जाता है। नदियों पर सुधार कार्य, बांध निर्माण, नहर निकालने आदि में इसकी उपयोगिता है। अधिकतर भू-आकार वैज्ञानिकों द्वारा इसका प्रयोग भौतिक भूगोल में किया जाता है।</s>
<s>[INST]प्रेमचंद के उपन्यासों में व्यक्त यथार्थवाद के स्वरूप पर प्रकाश डालें।[/INST]उत्तर : हिन्दी उपन्यास की विकास यात्रा में प्रेमचंद का आगमन एक परिवर्तनकारी बिंदु है। यद्यपि रचनाकाल के आरंभिक दौर में प्रेमचंद आदर्शोन्मुख यथार्थवादी थे, किंतु जल्द ही वे कोरे यथार्थ की ओर उन्मुख हुए और यही उनके उपन्यासों की आत्मा रही। प्रेमचंद के उपन्यासों में प्रकट यथार्थवाद किसी विचारधारा से प्रेरित नहीं है। हालाँकि आलोचकों ने उनके यर्थावाद को समाजवादी-मार्क्सवादी यथार्थवाद कहा है लेकिन निर्मला, सेवासदन, प्रेमाश्रम जैसे उपन्यासों में यह नारीवादी व अंबेडकरवादी प्रतीत होता है। उनकी आरंभिक कृति सेवासदन, प्रेमाश्रम, निर्मला, रंगभूमि, कायकल्प, कर्मभूमि आदि का यथार्थवाद सुधारात्मक व अन्य परिवर्तन जैसे तत्वों से युक्त था। किंतु गोदान तक आते-आते उनके उपन्यास का यथार्थवाद नग्न रूप में व्यक्त हुआ है। प्रेमचंद ने अपने उपन्यास में केवल सामाजिक-आर्थिक यथार्थ को ही शामिल नहीं किया है बल्कि मनोवैज्ञानिक सत्यों को भी उजागर किया है। दलित व नारी संबंधी मनोविज्ञान उनके कई उपन्यासों में काफी गहराई से व्यक्त हुआ है। प्रेमचंद के उपन्यासों में व्यक्त यथार्थ एक अन्य मामले में भी विशिष्ट है और यह कि वह देशकाल की सीमा से परे है। चाहे गोदान में व्यक्त होरी की समस्या हो या निर्मला में व्यक्त निर्मला की समस्या। आज भी ये हमारे आस-पास की समस्या के रूप में मौजूद है। निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि प्रेमचंद ने हिन्दी साहित्य के उपन्यास को मजबूती से यथार्थ के साथ जोड़ने का कार्य किया और हिंदी उपन्यास को नई दिशा प्रदान की।</s>
<s>[INST]क्या ‘भारत-दुर्दशा’ को ‘त्रासदी’ माना जा सकता है? अपना मत प्रकट कीजिये।[/INST]उत्तर : त्रासदी यूनानी साहित्य की एक प्राचीन विधा है। ग्रीक दार्शनिक अरस्तू ने पहली बार त्रासदी का व्यवस्थित विवेचन किया और उसके बाद कई सिद्धांतकारों जैसे बुचर, येटकिन्स, हीगेल, जॉर्ज लुकाच आदि ने अपने-अपने तरीकों से त्रासदी की व्याख्या की। सामान्य दृष्टि से त्रासदी ऐसी हर रचना को कहा जा सकता है जिसका अंत नायक की सफलता में न होकर दुख और पीड़ा की सघन अनुभूति में हो। नायक का खलनायक के हाथों पराजित होना, नैतिक व मानसिक स्तर पर टूट जाना तथा मृत्यु को प्राप्त होना- ये सब दृश्य प्राय: त्रासदी के अंत में दिखाई पड़ते हैं। किंतु, यदि त्रासदी के व्यवस्थित ढाँचे तथा नियमों को आधार बनाएँ तो किसी रचना का त्रासदी होना कई अन्य कारकों पर भी निर्भर होता है, जैसे द्वंद्व की सघन उपस्थिति के कारण कथानक का वक्र होना; नायक का भद्र, साहसी व सत्य के पक्ष में संघर्षशील होना; नायक की अति नैतिकता से उत्पन्न गंभीर भूल अर्थात् हैमर्शिया के कारण नायक का पतन की ओर बढ़ना; कथानक का पाँच क्रमबद्ध चरणों (व्याख्या, विकास, चरम बिंदु, निगति तथा पतन) से गुज़रना तथा रचना के अंत में विरेचनमूलक प्रभाव का उत्पन्न होना ऐसे प्रमुख लक्षण हैं। भारत दुर्दशा त्रासदी है या नहीं- इसका निर्णय दो स्तरों पर भिन्न-भिन्न तरीकों से किया जा सकता है: सामान्य दृष्टि से देखें तो इसे इस अर्थ में त्रासदी माना जा सकता है कि इसका अंत बेहद दुखद है। भारत का अत्यंत कमज़ोर होना, आंतरिक व बाह्य कमज़ोरियों के कारण उसका दुर्दशाग्रस्त होना, तमाम कोशिशों के बावजूद उसका पुन: न उठ पाना ये सभी तथ्य नाटक के अंत को दुखद बनाते हैं। दुख की यह छाया नाटक के पहले अंक से ही मंडराने लगती है और हर अंक के साथ और गहरी होती जाती है। नाटक के अंत में न तो कोई सुख है और न ही सुख की संभावना। इस दृष्टि से भारत दुर्दशा को ट्रेेजिक रचना माना जा सकता है। किंतु, यदि त्रासदी की तकनीकी धारणा के आलोक में भारत दुर्दशा का मूल्यांकन करें तो कई समस्याएँ दिखाई पड़ती हैं: सर्वप्रथम, इसका नायक वैसा भद्र, दृढ़, साहसी और नैतिक नहीं है जैसा पारंपरिक त्रासदी में होता है। साहस का तो उसमें इतना अभाव है कि खलनायक की दहाड़ सुनकर ही वह बेहोश हो गया है और भारत भाग्य द्वारा उसे जगाए जाने की अनेकानेक कोशिशों के बाद भी वह होश में नहीं आता। चूँकि नायक कमज़ोर है, इसलिये कथानक वक्र न होकर रैखिक बन गया है। उसमें द्वंद्व पूर्णत: अनुपस्थित है। नायक का पतन किसी हैमर्शिया के कारण होता हुआ नज़र नहीं आता बल्कि उसकी अपनी ही आंतरिक कमज़ोरियों का परिणाम दिखाई पड़ता है। यही कारण है कि अंतिम स्थिति में नायक को मरणासन्न अवस्था में देखकर भी पाठक के मन में वह बेचैनी या छटपटाहट पैदा नहीं होती जो ट्रेेजिक नायक के पतन के समय होती है। इसी प्रकार, नाटक के अंत में दुख महसूस तो होता है, किंतु यह उतना घना और मार्मिक नहीं है कि उसे ‘विरेचन’ कहा जा सके। किंतु, इसका यह अर्थ नहीं कि भारत दुर्दशा का त्रासदी न होना भारतेंदु की विफलता है। विफलता तब होती जब भारतेंदु ने त्रासदी लिखने का प्रयास किया होता पर लिख न पाए होते। उनकी कोशिश तो यह है ही नहीं कि वे ट्रेजेडी के ढाँचे को यथारूप प्रस्तुत करें। वे साहित्य को सिर्फ समाजहित से जोड़कर देखते हैं और भारत दुर्दशा लिखने के पीछे उनका उद्देश्य आत्ममोह-ग्रस्त भारतीय जनता को झकझोरना और प्रेरित करना है, न कि ट्रेजेडी के शिल्प को साधना। अपने इस सामाजिक उद्देश्य की दृष्टि से उन्हें ट्रेजेडी के पूरे ढाँचे की ज़रूरत महसूस नहीं हुई, इतना ही पर्याप्त लगा कि नाटक का अंत दुखद हो। उपरोक्त विश्लेषण से यही निष्कर्ष निकलता है कि भारत दुर्दशा सामान्य अर्थ में ही त्रासदी के निकट है; त्रासदी के पारंपरिक, तकनीकी व ढाँचागत अर्थ में उसे त्रासदी नहीं कहा जा सकता। यह भी ध्यान रखना ज़रूरी है कि भारतेंदु की योजना त्रासदी लिखने की नहीं थी, इसलिये यह भारतेंदु या भारत दुर्दशा की विफलता भी नहीं है।</s>
<s>[INST]यद्यपि शेरशाह का शासनकाल काफी छोटा था परंतु वह भारतीय इतिहास में अपने सुधाराें के लिये जाना जाता है, जो कि शासन के प्रत्येक पहलू को स्पर्श करता है। चर्चा करें।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • कथन शेरशाह द्वारा अपने शासनकाल में किये गए सुधारों से संबंधित है। हल करने का दृष्टिकोण • शेरशाह के शासनकाल के विषय में संक्षिप्त उल्लेख के साथ परिचय लिखिये। • शेरशाह के शासनकाल में विभिन्न क्षेत्रों में किये गए सुधारों का उल्लेख कीजिये। • उचित निष्कर्ष लिखिये। शेरशाह सूरी को वास्तव में भारत के राष्ट्रीय नायकों में से एक माना जाता है। इसने अपने शासनकाल की पाँच वर्ष की एक छोटी सी अवधि (1540-1545) में अपने सुधारों के माध्यम से शासन के अधिकांश पहलुओं को स्पर्श किया। शेरशाह के शासनकाल में विभिन्न क्षेत्रों में किये गए सुधार निम्नलिखित रूपों में वर्णित हैं- केंद्र सरकार में कई विभाग शामिल थे। राज़ा को चार महत्त्वपूर्ण मंत्रियों की मदद मिलती थी। शेरशाह का साम्राज्य 47 सरकारों में विभाजित किया गया था। प्रत्येक सरकार कई परगनाओं में विभाजित थी। कई प्रशासनिक इकाइयाँ भी थीं जिन्हें इक्ता कहा जाता था। राज्य को औसत उत्पादन का एक-तिहाई हिस्सा प्राप्त होता था जिसका भुगतान नकद या फसल के रूप में किया जाता था। संपूर्ण खेती योग्य भूमि को अच्छी, मध्यम एवं खराब तीन वर्गों में वर्गीकृत किया गया था। शेरशाह सूरी ने कलकत्ता से पेशावर के बीच पुराने राजमार्ग ग्रांट ट्रंक रोड को पुन: चालू करवाया। शेरशाह ने सोनारगाँव से सिंध, आगरा से बुरहानपुर, जोधपुर से चित्तौड़ और मुल्तान से लाहौर तक चार महत्त्वपूर्ण राजमार्गों के निर्माण द्वारा संचार व्यवस्था को सुदृढ़ किया। पुलिस का पुनर्गठन कुशलता पूर्वक किया गया था जिसकी वजह से उसके शासन के दौरान अपराध कम होते थे। सैन्य प्रशासन का पुनर्गठन भी कुशलता से किया गया था। शेरशाह ने घोड़ों की ब्रांडिंग जैसे कई विचारों को अलाउद्दीन खिलजी से प्राप्त किया था। शेरशाह के शासनकाल में न्याय व्यवस्था के तहत खुद अपने कबीले के लोगों, रिश्तेदारों एवं अन्य लोगों के बीच भेदभाव न करने और सत्ताधारी वर्ग तथा अन्य लोगों द्वारा किये जाने वाले अत्याचारों को रोकने पर विशेष बल दिया गया था। शेरशाह के शासन के तहत भूमि राजस्व प्रशासन को अच्छी तरह से संगठित किया गया था और भूमि सर्वेक्षण ध्यानपूर्वक किया जाता था। उसके राजस्व सुधारों ने राज्य के राजस्व में वृद्धि की। शेरशाह ने ‘दाम’ कहे जाने वाले चांदी के नए सिक्के जारी किये जो 1835 ई. तक प्रचलन में थे। शेरशाह ने ‘रुपए’ (मुद्रा) का प्रारंभ किया और एक व्यवस्थित डाक सेवा की शुरुआत की। शेरशाह सूरी ने दिल्ली के निकट यमुना नदी के किनारे एक नया नगर बसाया था। वास्तुशिल्प के क्षेत्र में सूरी का उत्कृष्ट योगदान उसके द्वारा सादगी और लालित्य के मिश्रण से सासाराम, बिहार में बनाया गया स्वयं का मकबरा है। शेरशाह द्वारा किये गए सुधार उसे एक बहादुर, बुद्धिमान, व्यवहार कुशल सैन्य प्रशासक, पैनी राजनीतिक परख एवं नगर प्रशासन में असाधारण कौशल और योग्यता रखने वाला व्यक्ति सिद्ध करते हैं। कई मायनों में शेरशाह के सुधारों की प्रभावशीलता के विषय में स्पष्ट रूप से कुछ कह पाना कठिन है।</s>
<s>[INST]वर्षण की प्रक्रिया को स्पष्ट कीजिये तथा विश्व में वर्षण के प्रतिरूप की चर्चा कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद वर्षण की प्रक्रिया तथा उसके वैश्विक प्रतिरूप की चर्चा करें। हल करने का दृष्टिकोण संक्षिप्त भूमिका लिखें। वर्षण की प्रक्रिया को स्पष्ट करें। वर्षण के वैश्विक प्रतिरूप की चर्चा करें। जब जलवाष्प संघनित होकर जल की बूँदों या ठोस हिमकणों के रूप में धरातल पर गिरती है, तो उसे वर्षण कहते हैं। विश्व के अलग-अलग भागों में वर्षण की मात्रा और प्रकार में काफी भिन्नता है। वर्षण की प्रक्रिया संपन्न होने के लिये नमी युक्त वायु, संवहन धाराएँ, वायु में धूल-कण की उपस्थिति तथा संघनन की प्रक्रिया आवश्यक शर्त है। जब आर्द्र वायु संवहन धाराओं के रूप में ऊपर उठती है और फैलती है, तो तापमान में कमी आती है और बादलों का निर्माण होता है। तापमान में कमी आने से जलग्राही नाभिक (धूल-कण) के चारों ओर जलवाष्प का संघनन होने लगता है। जलवाष्प का संघनन होने से जल की बूँदों का निर्माण होता है। जब हवा का प्रतिरोध गुरुत्वाकर्षण बल के विरुद्ध इन बूँदों को रोकने में असफल हो जाता है तब ये धरातल पर जलकण या हिम-रवे के रूप में गिरते हैं, जिसे वर्षण कहा जाता है। वर्षा का वैश्विक वितरण असमान है। पृथ्वी के अलग-अलग भाग भिन्न-भिन्न मात्रा में तथा अलग-अलग मौसमों में वर्षा प्राप्त करते हैं : सामान्यत: भूमध्यरेखा से ध्रुवों की ओर वर्षा की मात्रा कम होती जाती है। विश्व के वे भाग जहाँ उच्च तापमान और जल की अधिकता है, वहाँ पर वर्षा अधिक होती है। भूमध्यरेखीय प्रदेश सर्वाधिक वर्षा प्राप्त करते हैं। वे प्रदेश जो उच्च वायुदाब की पेटी में आते हैं कम वार्षिक वर्षा प्राप्त करते हें। व्यापारिक पवनों की पेटी में महाद्वीपों के पूर्वी तटों पर अधिक वर्षा होती है तथा पश्चिम की तरफ यह घटती जाती है। इसके विपरीत पछुआ पवन की पेटी में महाद्वीपों के पश्चिमी तट पर अधिक वर्षा होती है। विश्व के स्थलीय भागों की अपेक्षा महासागरों के ऊपर वर्षा अधिक होती है। वर्षा का प्रतिरूप वैश्विक स्तर पर सामाजिक-आर्थिक जीवन को व्यापक रूप से प्रभावित करता है। पृथ्वी के वे भाग जो अत्यधिक या कम वर्षा प्राप्त करते हैं, सामाजिक-आर्थिक रूप से कम महत्त्वपूर्ण हैं जबकि मानसूनी क्षेत्र सघन जनसंख्या वाले क्षेत्र हैं। वर्तमान में जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप वैश्विक वर्षण प्रतिरूप में बदलाव के कारण अनेक सामाजिक-आर्थिक समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं।</s>
<s>[INST]‘कफन’ की संवेदना पर विचार कीजिये। क्या यह कहानी दलित-विरोधी है?[/INST]उत्तर : कफन की संवेदना का सबसे मुख्य बिंदु उसमें व्यक्त होने वाला चरम यथार्थवाद है। इसमें सिर्फ प्रश्न खड़े किये गए हैं, उत्तर या उपदेश देने की कोशिश दूर-दूर तक नज़र नहीं आती है। यद्यपि ‘सद्गति’, ‘दूध का दाम’ और ‘पूस की रात’ में भी प्रेमचंद का यथार्थवाद प्रकट हुआ है किंतु वहाँ उसकी चुभन इतनी तीखी नहीं है। कफन में प्रेमचंद घीसू और माधव की कामचोरी को उनकी व्यक्तिगत कामचोरी घोषित नहीं करते बल्कि उसके पीछे की ज़िम्मेदार स्थितियों को उभारते हैं। वे लिखते हैं- ‘‘जिस समाज में रात-दिन मेहनत करने वालों की हालत उनकी हालत से कुछ बहुत अच्छी नहीं थी; और किसानों के मुकाबले में वे लोग जो किसानों की दुर्बलताओें से लाभ उठाना जानते थे, कहीं ज़्यादा संपन्न थे; वहाँ इस तरह की मनोवृत्ति का पैदा हो जाना कोई अचरज की बात नहीं थी।’’ सामाजिक समस्याओं का यह विश्लेषण कहानी के कुछ अन्य प्रसंगों में और ज़्यादा घनीभूत होकर उभरा है जहाँ प्रेमचंद सामाजिक और धार्मिक व्यवस्था में निहित विसंगतियों पर कड़ी चोट करते हैं। गौरतलब है कि कुछ दलित विचारकों की राय में यह कहानी दलित विरोधी चेतना से भरी है। घीसू और माधव की जाति चमार बताई गई है। आरोप यह है कि प्रेमचंद घीसू और माधव की जाति का ज़िक्र किये बिना भी यह कहानी लिख सकते थे क्योंकि घोर गरीबी किसी व्यक्ति को संवेदनहीन बनाने के लिये अपने आप में पर्याप्त है। किंतु, प्रेमचंद पर यह आक्षेप उचित नहीं। दलितों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता ‘सद्गति’ और ‘दूध का दाम’ जैसी कहानियाें और ‘गोदान’ जैसे उपन्यासों के सिलिया आदि चरित्रों से स्पष्ट हो जाती है। घीसू और माधव को वह चमार जाति का सिर्फ इसलिये बताते हैं ताकि समझा जा सके कि दलित जातियों का जीवन कितना अभावग्रस्त है। यदि कहानी को ध्यान से पढ़ें तो साफ नज़र आता है कि उनकी राय में घीसू और माधव की कामचोरी और संवेदनहीनता के पीछे उनकी व्यक्तिगत कमज़ोरियाँ नहीं बल्कि सामाजिक, आर्थिक व्यवस्था है।</s>
<s>[INST]औद्योगिक अवस्थिति के संबंध में ‘श्रम लागत प्रभाव’ की विवेचना कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद औद्योगिक अवस्थिति में श्रम लागत प्रभाव की चर्चा करनी है। हल करने का दृष्टिकोण औद्योगिक अवस्थिति के संबंध में श्रम लागत प्रभाव को स्पष्ट कीजिये। वेबर ने अपने औद्योगिक अवस्थिति सिद्धांत में उद्योगों की स्थापना के संबंध में श्रम लागतों के प्रभाव की भी विवेचना की है। वेबर ने यह माना था कि उस दशा में उद्योगाें की स्थापना श्रम लागत के बिंदु पर होगी,जब श्रम लागत की बचत दर परिवहन लागत की बचत दर से अधिक हो। उन्होंने श्रम लागत प्रभाव को सस्ते श्रम केंद्र पर कच्चे माल के परिवहन की अतिरिक्त लागत के बिंदुओं को जोड़ने वाली रेखा (आइसोटाइम्स) के माध्यम से समझाने का प्रयास किया। वेबर ने यद्यपि अपने मॉडल में उद्योगों की स्थापना के संदर्भ में श्रम लागत प्रभाव की महत्ता को स्पष्ट किया परंतु फिर भी उसका सर्वाधिक झुकाव परिवहन लागत के बिंदु पर रहा जो उसके मॉडल की आलोचना का कारण भी था।</s>
<s>[INST]व्याख्या कीजिये:[/INST]उत्तर : संदर्भ व प्रसंग: प्रस्तुत गद्यांश हिंदी के सर्वश्रेष्ठ स्वातंत्र्योत्तर नाटककार मोहन राकेश के प्रसिद्ध नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ से उद्धृत है। ये पंक्तियाँ प्रियंगुमंजरी व मल्लिका के बीच हो रही बातचीत के दौरान प्रियंगुमंजरी द्वारा कही गई हैं। व्याख्या: प्रियंगुमंजरी राजनीति के प्रति कालिदास की उदासीनता के संदर्भ में मल्लिका से कहती है कि राजनीति और साहित्य नितांत भिन्न चीजें हैं। राजनीति प्रत्येक क्षण सावधानी और जागरूकता की मांग करती है। इसमें जरा-सी भी चूक राजनीतिक पतन की ओर ले जा सकता है। विशेष: ‘आषाढ़ का एक दिन’ नाटक के माध्यम से मोहन राकेश के रचना-लक्ष्य का एक महत्त्वपूर्ण अनुषंग सत्ता एवं राजनीति के संवेदनहीन चरित्र का भी चित्रण करना है। जिसे सत्ता की प्रतिनिधि चरित्र प्रियंगुमंजरी द्वारा कहे गए इन पंक्तियों के माध्यम से वे सूक्ष्मता के साथ प्रकट कर रहे हैं। साहित्य संवेदना को प्रश्रय देता है। साहित्य से राजनीति की तुलना राजनीति के मानवीय संबंधों के प्रति यांत्रिक और अनुभूतिविहीन दृष्टिकोण को तीक्ष्ण रूप में उजागर कर देता है। ये पंक्तियाँ समकालीन समय में भी अत्यधिक प्रासंगिक हैं। राजनीतिक जटिलताएँ आज के समय में कहीं अधिक है। मोहन राकेश की रंगदृष्टि के अनुरूप ये पंक्तियाँ नाट्य-संवाद की दृष्टि से उपयुक्त हैं। राजनीति के संबंध में ऐसा ही दृष्टिकोण ‘स्कंदगुप्त’ नाटक में भी दिखाई देता है।</s>
<s>[INST]अमीरों की पितृसत्तात्मक मानसिकता रजिया सुल्तान के शांतिपूर्ण शासन के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा थी। टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद कथन रजिया सुल्तान के शासन के मार्ग में अमीरों की भूमिका से संबंधित है। हल करने का दृष्टिकोण अमीरों की भूमिका के बारे में संक्षिप्त उल्लेख के साथ परिचय लिखिये। रजिया सुल्तान के शासनकाल में अमीरों द्वारा खड़ी की जाने वाली बाधाओं का उल्लेख कीजिये। उचित निष्कर्ष लिखिये। इल्तुतमिश ने अपनी पुत्री रजिया के उत्तराधिकार को निश्चित करने के पश्चात् अपने अमीरों एवं उलेमाओं को राजी किया था लेकिन इल्तुतमिश के मरणोपरांत अमीरों की भूमिका निहित स्वार्थों के चलते व्यापक रूप से परिवर्तित हो गई। रजिया सुल्तान के शासनकाल में अमीरों की सोच के चलते खड़ी होने वाली बाधाएँ निम्नलिखित हैं: तुर्क अमीर, रजिया द्वारा सत्ता के प्रत्यक्ष प्रयोग एवं संचालन करने की इच्छा और दृढ़ता से असंतुष्ट थे। रजिया औरत होते हुए भी अमीरों के हाथों की कठपुतली बनने के लिये तैयार नहीं थी जिससे वे उसे अपने बस में नहीं रख सकते थे। बरनी के अनुसार, तुर्कान-ए-चहलगानी के अमीर एक-दूसरे के समक्ष झुकने को तैयार नहीं थे और क्षेत्र (इक्ता), शक्ति, पद एवं सम्मान के वितरण में समानता की महत्त्वाकांक्षा रखते थे, जिसे व्यावहारिक नहीं माना जा सकता। रजिया ने तुर्क अमीरों की महत्त्वाकांक्षा पर नियंत्रण के लिये गैर-तुर्कों को प्रतिष्ठित करने एवं अपना एक अलग दल तैयार करने का प्रयास किया जिस कारण वह तुर्क अमीरों में अप्रिय हो गई। रजिया ने महिलाओं की वेशभूषा को त्यागकर पुरुषों के कबा और कुलाह को अपनाया, बिना बुर्का डाले दरबार में बैठकों का आयोजन एवं शिकार करने लगी, जिसे तुर्क सरदारों ने नारी मर्यादा का उल्लंघन बताया। यद्यपि रजिया का विरोध शुरू से ही पितृसत्तात्मक मानसिकता के चलते जातीय आधार पर किया गया था लेकिन सच तो यह है कि तुर्की अमीरों के असंतोष का प्रमुख कारण रजिया द्वारा सत्ता का प्रत्यक्ष प्रयोग व संचालन करने की इच्छा और दृढ़ता थी। इसके बाद अमीरों ने सुल्तानों को चुनने और पदच्युत करने का अधिकार पूर्णत: अपने हाथों में ले लिया।</s>
<s>[INST]वॉन थ्यूनेन के कृषि भूमि उपयोग मॉडल की संक्षिप्त आलोचनात्मक व्याख्या कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद वॉन थ्यूनेन के कृषि भूमि उपयोग मॉडल की आलोचनात्मक चर्चा करनी है। हल करने का दृष्टिकोण वॉन थ्यूनेन के कृषि भूमि उपयोग मॉडल की संक्षिप्त चर्चा कीजिये। मान्यताओं को बताइये। आलोचना के बिंदुओं को स्पष्ट कीजिये। निष्कर्ष लिखिये। यह कृषीय अवस्थिति प्रारूपों के विश्लेषण का आनुभविक मॉडल है, जिसमें इस तथ्य पर ज़ोर दिया गया है कि बाज़ार से बढ़ती दूरी के साथ कैसे कृषि भूमि उपयोग में भिन्नता आती है। यह मॉडल दो पूर्वधारणाओं पर आधारित है, यथा- बाज़ार से दूरी के अनुसार फसल गहनता तथा भूमि उपयोग के प्रकार में अंतर। यह मॉडल कुछ मान्यताओं/दशाओं पर निर्भर है जो निम्नलिखित प्रकार से हैं: नगर, कृषि क्षेत्र के अधिशेष उत्पादन का एकमात्र बाज़ार है और कृषि क्षेत्र नगर का एकमात्र आपूर्तिकर्त्ता। किसी विशेष फसल के लिये सभी को समान मूल्य। समस्त कृषि क्षेत्र एक समदैशिक सतह हो, जिसमें भू-भाग, स्थलाकृति और जलवायु में समरूपता हो। कृषक एक आर्थिक मानव है जो अपने लाभ को अधिकतम करने के लिये कृषि में संलग्न है। कृषक को बाज़ार की ज़रूरतों का पूर्ण ज्ञान है। नगर कृषि भूमि के केंद्र में है तथा आसपास कोई बाज़ार नहीं है। यातायात का एकमात्र साधन घोड़ा गाड़ी अथवा नाव है। आलोचना के बिंदु: इसमें स्थानिक कारकों के संकेन्द्रण ने वातावरणीय कारकों को गौण बना दिया है। इसमें भौतिक कारकों के लाभ की उपेक्षा की गई है। कृषि वस्तुओं के विक्रय के एकमात्र बाज़ार केंद्र की अवधारणा वर्तमान में अव्यवहारिक है। आधुनिक परिवहन व्यवस्था के विकास ने दूरी के अनुपात में परिवहन की दर को कम कर दिया है। इसमें मांग कारक की उपेक्षा की गई है, जबकि मांग फसल प्रारूप तथा फसल भूमि उपयोग गहनता पर प्रभाव डालती है। उपरोक्त आलोचनाओं के बावजूद विभिन्न स्थानीय मापकों के आधार पर वैश्विक स्तर से लेकर एकाकी गाँव तथा फार्मों तक इसे महत्ता मिली है। ग्रामीण और नगरीय भू-उपयोग प्रारूपों के अध्ययन में इस संकल्पना का बहुत अधिक महत्त्व है।</s>
<s>[INST]संस्मरण ‘स्मृति की रेखाएँ’ पर टिप्पणी लिखिये।[/INST]उत्तर : अपनी कविताओं में वैयक्तिक वेदनानुभूति एवं रहस्यात्मकता के लिए जानी जाने वाली महादेवी वर्मा अपने गद्य-साहित्य में सामाजिकता की ओर उन्मुख दिखाई देती हैं जिसका एक सशक्त प्रमाण उनका गद्य-संग्रह ‘स्मृति की रेखाएँ’ है। ‘स्मृति की रेखाएँ’ को कुछ विद्वानों ने संस्मरण विधा के अंतर्गत रखा है, कुछ ने रेखाचित्र के अंतर्गत, कुछ ने इसे संस्मरणात्मक रेखाचित्र कहा है, तो कुछ ने रेखाचित्रात्मक संस्मरण। चाहे इसकी विधा कुछ भी हो, इसमें कोई संदेह नहीं कि यह गद्यकृति हिंदी गद्य-साहित्य की अमूल्य निधि है। इसके गुंगिया, बिबिया, ठकुरी बाबा, भक्तिन आदि संस्मरणों में जिस सामाजिक संलग्नता, आमजन के संघर्षों, दुख-सुखों में सहभागिता, आत्मीयता तथा करुणा का परिचय मिलता है, वह अप्रतिम है। महादेवी वर्मा ने ‘स्मृति की रेखाएँ’ में उत्कृष्ट गद्य-शैली का भी निदर्शन प्रस्तुत किया है। शब्दों के नपे-तुले एवं सटीक प्रयोग में वे अत्यन्त कुशल हैं। ध्यातव्य है कि महादेवी वर्मा कवयित्री होने के साथ-साथ चित्रकार भी हैं। किन रेखाओं में किन रंगों को डाला जाए, यह उन्हें खूब मालूम है। चित्र को रंगीन बनाने में वे अपनी काव्यात्मक प्रतिभा का उपयोग करती हैं तथा बिंबात्मक बनाने में अलंकार का। उनके गद्य का एक उदाहरण प्रस्तुत है- ‘गुँगिया ने उस मैले-फटे कागज़ के टुकड़े को अस्थिशेष उँगलियों में दबाकर पंजर जैसे हृदय पर रखकर आँखें मूँद लीं; पर झुर्रियों में सिमटी हुई पलकों के कोनों से बहने वाली आँसू की पतली धार उसके कानों को छूकर मैले और तेल से चीकट तकिये को धोने लगी।’</s>
<s>[INST]'वज्रयान’ के उद्विकास की चर्चा कीजिये। इसकी महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ क्या हैं?[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद कथन वज्रयान के उद्विकास की चर्चा एवं इसकी प्रमुख विशेषताओं के उल्लेख से संबंधित है। हल करने का दृष्टिकोण वज्रयान के उद्विकास की चर्चा के साथ परिचय लिखिये। वज्रयान की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिये। उचित निष्कर्ष लिखिये। ईसा की पाँचवीं या छठी शताब्दी से बौद्ध धर्म पर तंत्र-मंत्रों का प्रभाव बढ़ने लगा। गुप्तोत्तर काल में बौद्ध धर्म का अत्यंत परिवर्तित रूप सामने आया। बौद्ध धर्म में बढ़ते हुए तांत्रिक प्रभाव के चलते बौद्ध धर्म की एक नई शाखा के रूप में वज्रयान का विकास हुआ। वज्रयान की महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ निम्नलिखित रूपों में वर्णित हैं: इसमें मंत्रों एवं तांत्रिक क्रियाओं द्वारा मोक्ष प्राप्ति का विधान प्रस्तुत किया गया है। इस सम्प्रदाय के लोग वज्र को एक अलौकिक तत्त्व के रूप में स्वीकार करते हैं। इसका संबंध धर्म के साथ स्थापित किया गया है। इसमें भिक्षा, तप आदि के स्थान पर मैथुन, माँस आदि के सेवन पर बल दिया जाता है। वज्रयानियों की क्रियाएँ शाक्त मतावलंबियों से मिलती-जुलती हैं। इसमें रागचर्या को सर्वोत्तम बताया गया है। इसमें यह प्रतिपादित किया गया है कि रूप, शब्द, स्पर्श आदि भोगों से बुद्ध की पूजा की जानी चाहिये। वज्रयान का सबसे अधिक विकास आठवीं सदी में हुआ। वज्रयान ने भारत से बौद्ध धर्म के पतन का मार्ग प्रशस्त किया। तांत्रिक पद्धति ने हिंदू धर्म एवं बौद्ध धर्म के बीच के भेद को और कम कर दिया।</s>
<s>[INST]जलीय चक्र से आशय स्पष्ट करते हुए उसकी क्रियाविधि को स्पष्ट कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद जलीय चक्र की क्रियाविधि की चर्चा करनी है। हल करने का दृष्टिकोण जल चक्र का आशय स्पष्ट कीजिये। जलीय चक्र की क्रियाविधि का स्पष्ट उल्लेख कीजिये। जल चक्र ऐसी प्रक्रिया है जिसमें जल अपना रूप परिवर्तित कर पृथ्वी पर मौजूद जल के एक भंडार से दूसरे भंडार में गति करता रहता है। इस प्रक्रिया में जल की हानि नहीं होती है बल्कि जल के रूप और स्थान में परिवर्तन होता रहता है। जल चक्र के अंतर्गत महासागरों, नदियों, झीलों आदि से जल वाष्पीकृत होकर जलवाष्प के रूप में ऊपर उठता है। जलवाष्प के संघनन से बादलों का निर्माण होता है और फिर वर्षा, बर्फ या ओलों के रूप में वापस पृथ्वी पर आ जाता है। जल चक्र की क्रियाविधि निम्नलिखित चरणों में संपन्न होती है: वाष्पीकरण: सौर विकिरण द्वारा पृथ्वी पर मौजूद जल भंडारों से जल वाष्पीकृत होकर जलवाष्प में बदल जाता है। वायु का तापमान और उसमें उपस्थित आर्द्रता की मात्रा वाष्पीकरण की मात्रा एवं दर को प्रभावित करती है। लगभग 84% वाष्पीकरण महासागरों से होता है। वाष्पोत्सर्जन: पेड़-पौधों द्वारा अपने जड़ों के माध्यम से मिट्टी से जल का अवशोषण करना और फिर पत्तियों द्वारा इस जल को वायुमंडल में छोड़ देना ही वाष्पोत्सर्जन कहलाता है। इस प्रक्रिया से मृदा जल का ह्रास होता है। वाष्पोत्सर्जन की मात्रा वनस्पति के घनत्व के अनुपात में होती है। वर्षण: वाष्पीकरण और वाष्पोत्सर्जन क्रिया के फलस्वरूप वायुमंडल में उपस्थित जलवाष्प संघनित होकर बादल का निर्माण करता है और फिर वर्षण के माध्यम से वापस सतह पर आ जाता हैं। अंत: स्पंदन: वर्षा के जल का कुछ भाग भूमि द्वारा सोख लिया जाता है। इस प्रकार जल का कुछ भाग भूमि के अंदर चला जाता है। इसी प्रक्रिया को अंत: स्पंदन कहते हैं। धरातलीय प्रवाह: वर्षा जल की बड़ी मात्रा भूमि के ढाल के अनुसार विभिन्न दिशाओं में प्रवाहित होने लगती है, जिसे धरातलीय प्रवाह कहते हैं। यह धरातलीय प्रवाह नदी, नाले, झील या फिर महासागरों में जाकर मिल जाता है।</s>
<s>[INST]कवि सुंदरदास के बारे में संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये।[/INST]उत्तर : उत्तर: निर्गुण संत कवियों में दादूदयाल के शिष्य सुंदरदास सर्वाधिक शास्त्रज्ञ एवं सुशिक्षित थे। यही कारण है कि उनकी कविता कलात्मकता से युक्त है और उनकी भाषा परिमार्जित है। सुंदरदास ने पदों एवं दोहों के साथ-साथ कवित्त एवं सवैयों की भी रचना की है। उनकी काव्यभाषा में अलंकारोें का बहुत प्रयोग है। उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध ग्रंथ ‘सुंदरविलास’ है। सुंदरदास योग मार्ग के समर्थक और अद्वैत वेदांत पर पूर्ण आस्था रखने वाले थे। इन्होंने अपने काव्य में सांख्य और अद्वैतवाद का निरूपण विशद रूप में किया है। संत होते हुए भी ये हास्य-रस के विशेष प्रेमी थे जिससे इनकी वेदांत की गंभीरता मनोरंजन में परिणत हो जाती है। निर्गुण साधना एवं भक्ति के अतिरिक्त उन्होंने सामाजिक व्यवहार, लोकगीत एवं आचार व्यवहारों पर भी उक्तियाँ कहीं हैं। अपने काव्य में उन्होंने लोक-धर्म और लोक-मर्यादा की उपेक्षा नहीं की है। शृंगार रस की रचनाओं के वे कट्टर विरोधी थे। उदाहरण के लिये- ‘‘ज्यों रोगी मिष्टान पाइ रोगहि बिस्तारै। सुंदर यह गति होइ जुतो रसिकप्रिया धारै।।’’</s>
<s>[INST]‘तुर्कान-ए-चहलगानी’ क्या था? समकालीन राजनीति पर इसके प्रभाव की चर्चा करें।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • कथन तुर्कान-ए-चहलगानी के परिचय एवं समकालीन राजनीति में इसके प्रभाव की चर्चा से संबंधित है। हल करने का दृष्टिकोण • तुर्कान-ए-चहलगानी के विषय में संक्षिप्त उल्लेख के साथ परिचय लिखिये। • तुर्कान-ए-चहलगानी की समकालीन राजनीति में प्रभाव की चर्चा कीजिये। • उचित निष्कर्ष लिखिये। तुर्कान-ए-चहलगानी इल्तुतमिश के दास अधिकारियों का एक अभिजात समूह था। चालीस की इस संख्या का कोई विशेष महत्त्व नहीं है क्योंकि इल्तुतमिश के अमीरों की सूची में ऐसे 25 से भी कम दास अधिकारियों का उल्लेख मिलता है। तुर्कान-ए-चहलगानी की समकालीन राजनीति में प्रभाव की चर्चा निम्नलिखित रूपों में वर्णित है: तुर्कान-ए-चहलगानी के सदस्यों की स्वामीभक्ति जहाँ एक तरफ सल्तनत के स्वास्थ्य के लिये लाभदायक थी वहीं, इनकी महत्त्वाकांक्षा भविष्य के मार्ग में एक प्रमुख रोड़ा भी थी। तुर्कान-ए-चहलगानी के सदस्यों ने इल्तुतमिश के पश्चात् एक संगठित निकाय के तौर पर व्यवहार नहीं किया जिससे प्रत्यक्ष रूप से शासन एवं प्रशासन के स्तर पर विपरीत स्थिति उत्पन्न हुई। तुर्कान-ए-चहलगानी के सदस्य एक-दूसरे के समक्ष झुकने को तैयार नहीं होते थे जिससे सल्तनत के शासन एवं प्रशासन के संचालन में कठिनाई होती थी। ये क्षेत्रों (इक्तों), शक्तियों, पदों एवं सम्मानों के वितरण में एक-दूसरे से समानता की मांग करते थे, जिसकी प्राप्ति न होने पर केंद्र के विरुद्ध षडयंत्र रचते थे। तुर्कान-ए-चहलगानी के अमीरों को अपने ऊपर बहुत गर्व था और ये मुक्त अमीरों (तुर्क एवं ताजिक दोनों) को अपने बराबर नहीं समझते थे जिससे शासन संचालन में कठिनाई होती थी। इल्तुतमिश की मृत्यु के पश्चात् अमीर इस बात से तो सहमत थे कि इल्तुतमिश के ही किसी वंशज को दिल्ली की राजगद्दी पर बैठाया जाए लेकिन समस्त शक्ति एवं प्राधिकार उन्हीं के हाथ में निहित रहे। रजिया को राजगद्दी पर बैठाने में तुर्क दास अधिकारियों के एक सबल समूह की प्रमुख भूमिका थी। निष्कर्षत: तुर्कान-ए-चहलगानी के सदस्यों की समकालीन राजनीति में प्रभावी भूमिका थी। ये सदस्य संगठित रूप में सल्तनत को एक बेहतर दशा और दिशा दे सकते थे लेकिन यह संभव नहीं हो पाया।</s>
<s>[INST]वाताग्र जनन की प्रक्रिया की चर्चा करते हुए शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवातों की उत्पत्ति में वाताग्रों की भूमिका को स्पष्ट कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • वाताग्र जनन तथा शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवातों की उत्पत्ति में इसकी भूमिका। हल करने का दृष्टिकोण • वाताग्र जनन की प्रक्रिया को स्पष्ट कीजिये। • शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवातों की उत्पत्ति में वाताग्रों की भूमिका को स्पष्ट कीजिये। दो वायुराशियाँ जिनके तापमान, आद्रता एवं दाब में पर्याप्त अंतर हो, के अभिसरण से दोनों के बीच निर्मित असांतत्य पृष्ठ अथवा संक्रमण पेटी को वाताग्र कहा जाता है। शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवातों की उत्पत्ति में वाताग्र महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। वाताग्र एक मौसमी तंत्र है। जब किसी प्रदेश में गर्म एवं ठंडी वायुराशियाँ विपरीत दिशा में प्रवाहित होती हुई एक-दूसरे से अभिसरण करती हैं, तो वे आपस में मिलने का प्रयास करती हैं। इनके बीच एक संक्रमण क्षेत्र निर्मित होता है, जिनमें दोनों वायुराशियों के गुण मौजूद होते हैं। इसी संक्रमण क्षेत्र को वाताग्र प्रदेश कहा जाता है। जब गर्म वायुराशि सक्रिय रूप से शीत वायुराशि से अभिसरण करती है, तो उष्ण वाताग्र का निर्माण होता है। इसके विपरीत, जब शीत वायुराशि सक्रिय होकर गर्म वायुराशि से अभिसरण करती है तो शीत वाताग्र का निर्माण होता है। वाताग्र मध्य अक्षांशों में निर्मित होते हैं तथा इनमें तीव्र वायुदाब एवं तापमान प्रवणता पाई जाती है। वाताग्र धरातलीय सतह से कुछ कोण पर झुका होता है तथा इसकी ढाल पृथ्वी की अक्षीय गति पर आधारित होती है। शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात की स्थिति दोनों ही गोलार्द्धों में 40° से 60° अक्षाशों के मध्य दो विपरीत प्रकार की वायुराशियों के अभिसरण से बनता है। यह स्थिति ध्रुवीय वाताग्र के साथ-साथ बनते हैं। आरम्भ में वाताग्र स्थिर होता है। वाताग्र के दक्षिण से कोष्ण व उत्तर दिशा से ठंडी हवा प्रवाहित होती है। वाताग्र के साथ वायुदाब कम हो जाने पर कोष्ण वायु उत्तर दिशा की ओर तथा ठंडी वायु दक्षिण दिशा की ओर वामावर्त (घड़ी की सुइयों के विपरीत) चक्रवातीय परिसंचरण करती है, जिससे शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवात विकसित होता है। इस चक्रवात में एक उष्ण वाताग्र तथा एक शीत वाताग्र होता है। दक्षिणी गोलार्द्ध में जल की अधिकता के कारण वायुराशियों के तापमान एवं आद्रता में ज़्यादा अंतर नहीं होता है जिसके कारण ये चक्रवात अधिक मज़बूत नहीं बनते। उत्तरी गोलार्द्ध में जल एवं स्थलखंड के वितरण में असमानता के कारण वायुराशियों के मध्य तापीय अंतर अधिक होता है जिसके कारण उत्तरी गोलार्द्ध में ये मज़बूती से बनते हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि शीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवातों की उत्पत्ति से वाताग्रों का गहरा संबंध है।</s>
<s>[INST]‘उग्रसुधारवाद पूंजीवादी संकट के विरुद्ध भूगोल में सामाजिक क्रांति लाने का प्रयास था।’ स्पष्ट कीजिये।[/INST]उत्तर : भूगोल में उग्र सुधारवाद की मांग 1970 के दशक में मात्रात्मक क्रांति और प्रत्यक्षवाद के प्रतिक्रिया स्वरूप उठी। मात्रात्मक क्रांति एवं प्रत्यक्षवाद द्वारा भूगोल के अवस्थितिजन्य विश्लेषण तथा स्थानिक विज्ञान में परिवर्तन करने पर ज़ोर का इन्हाेंने विरोध किया। ये पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली में ही असमानताओं की गहरी जड़ें देखते थे, अत: इन्होंने सामुदायिक नियंत्रण मॉडल की आवश्यकता पर ज़ोर दिया। इनका मानना था कि मात्र आय के पुनर्वितरण और टैक्स लगाने से गरीबी समाप्त नहीं होगी बल्कि इसके लिये वातावरण रचना में विकल्पों द्वारा अतिवाद/उग्र सुधारवाद आवश्यक है। उग्र सुधारवाद आंदोलन का आरंभ 1960 के दशक के अंतिम भाग में संयुक्त राज्य अमेरिका में घटित तीन राजनीतिक समस्याओं, यथा- वियतनाम युद्ध, नागरिकों के अधिकार तथा नगरों की उपेक्षित बस्तियों में गरीबी व असमानता से उत्पन्न त्रासदी से हुआ। उग्र सुधारवाद के मुख्य समर्थक पीट थे, जो सामाजिक असमानता की मुख्य वजह पूंजीवादी व्यवस्था को मानते थे। पीट मुख्यत: सामाजिक हित की समस्याओं पर ध्यान केंद्रित कर समाज में से असमानता, प्रजातीयता, लिंग भेद, अपराध, रंगभेद जैसी कुरीतियों को उखाड़ पेंकने के पक्षपाती थे। 1960 के दशक के अंत में घटित घटनाओं, जैसे- पश्चिमी यूरोप के बड़े नगरों में आगजनी, पेरिस में कामगारों का आंदोलन, विद्यार्थियों में असंतोष आदि ने भूगोल की क्षेत्र विज्ञान के रूप में निरर्थकता सिद्ध कर दी तथा भूगोल में अवस्थापनिक विश्लेषण की कमियाँ स्पष्ट हो गईं। इसी पृष्ठभूमि में विद्यार्थियों के एक समूह ने उग्र सुधारवाद की मांग उठाते हुए परांपरागत भूगोल को चुनौती दी। उग्र सुधारवादियों ने न केवल पश्चिमी जगत में व्याप्त सामाजिक असमानताओं पर लेख प्रकाशित किये बल्कि तीसरी दुनिया के देशों में व्याप्त बेराज़गारी, गरीबी, कुपोषण, विकासहीन स्थिति आदि पर भी लेख प्रकाशित किये। इन्होंने समाज के शोषित वर्ग के हितों के रक्षार्थ भूगोल में सामाजिक क्रांति लाने पर ज़ोर दिया ताकि पश्चिमी विश्व के पूंजीवादी संकट से बचा जा सके।</s>
<s>[INST]'यही सच है’ कहानी की शिल्प-योजना पर प्रकाश डालिये।[/INST]उत्तर : ‘यही सच है’ कहानी की शिल्प-योजना कुछ विशेष प्रयोगों के कारण अत्यंत चर्चित रही है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता है- डायरी शैली का प्रयोग। नई कहानी की प्रयोगशील प्रवृत्तियों में एक यह भी थी कि डायरी के ढाँचे में कहानी लिखी गई। यह कहानी वस्तुत: दीपा की डायरी के कुछ पन्नों का संकलन मात्र है जो क्रमश: कानपुर, कलकत्ता और फिर कानपुर में लिखे गए हैं। इसलिये, स्वाभाविक तौर पर यह कहानी उत्तम पुरुष शैली में रचित है और प्रमुख चरित्र दीपा ‘मैं’ के रूप में उपस्थित है। डायरी शैली का एक विशेष लाभ इसकी चरित्र योजना में दिखाई पड़ता है। चूँकि डायरी लिखते समय व्यक्ति पूरी ईमानदारी का परिचय देता है और बाह्य जीवन में नहीं कही जा सकने वाली बातें भी खुलकर लिखता है, इसलिये दीपा का चरित्र मनोविज्ञान की उन सूक्ष्मताओं को छू सका है जो शायद नई कहानी में भी दुर्लभ हैं। इसी साफगोई का परिणाम है कि कुछ पारंपरिक समीक्षक दीपा के चरित्र को नैतिक रूप से उचित नहीं मानते। डायरी शैली से एक समस्या यह उत्पन्न हुई कि एक चरित्र का पूरा सच उभर गया किंतु बाकी चरित्रों (निशीथ, संजय आदि) के वही पक्ष उभरे जो बाह्य जीवन में व्यक्त होते हैं। चेतना प्रवाह शैली का सुंदर प्रयोग इस कहानी की अन्य विशेषताओं मे से एक है। दीपा की चेतना में उत्पन्न होते क्षणिक परिवर्तनों को दिखाने के लिये इससे बेहतर शैली हो भी नहीं सकती थी। उसका नीली साड़ी पहनने का प्रसंग और टैक्सी में बैठते समय उसकी मन:स्थिति, ये दोनों प्रसंग चेतना प्रवाह शैली की दृष्टि से अनूठे हैं। जहाँ तक शेष शिल्पगत तत्त्वों का प्रश्न है, वे नई कहानी की प्रतिनिधि विशेषताओं से मिलते-जुलते हैं। इसकी भाषा सघन अनुभूति प्रधान भाषा है। घटनाओं और वर्णनों की कमी तथा चिंतन-मनन-विश्लेषण की अधिकता ने कथानक के विन्यास को तोड़ा है जो अन्य नई कहानियों की भी विशेषता है। चरित्र योजना की खासियत यह है कि दीपा के चेतन और अवचेतन मन में निरंतर चलने वाले द्वंद्व को इसमें उभारा गया है।</s>
<s>[INST]एक व्यक्तिगत ईश्वर के प्रति निष्ठा भक्ति आंदोलन की मूल विशेषता थी। इसके औचित्य को प्रमाणित कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • भक्ति आंदोलन के दौरान संतों द्वारा व्यक्तिगत ईश्वर के प्रति निष्ठा को प्रमाणित कीजिये। हल करने का दृष्टिकोण • सर्वप्रथम भूमिका लिखिये। • व्यक्तिगत ईश्वर के प्रति निष्ठा के औचित्य पर चर्चा कीजिये। • निष्कर्ष दीजिये। मध्यकालीन भारतीय हिंदू समाज के धार्मिक जीवन में भक्ति आंदोलन के रूप में महत्त्वपूर्ण चेतना व जागृति का विकास हुआ। भक्ति काल में प्रत्येक सामाजिक, धार्मिक सुधारक संत के द्वारा समाज में किसी विशेष भगवान के प्रति भक्ति या आस्था का प्रचार -प्रसार किया गया जो इसे भक्ति आंदोलन की महत्त्वपूर्ण विशेषता बनाता है। यह भारत में बहुदेववाद की स्थापित पंरपरा से भिन्न था। भक्ति आन्दोलन का प्रसार: भक्ति आंदोलन का आरंभ दक्षिण भारत में अलवारों व नयनारों से हुआ। अलवार विष्णु भक्त तथा नयनार शिव भक्त थे। इन्होंने ईश्वर के प्रति व्यक्तिगत प्रेम और समर्पण को मोक्ष प्राप्ति का मार्ग बताया। महाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन को नामदेव व तुकाराम ने अधिक मुखरता प्रदान की तथा हरि के प्रति अदम्य प्रेम व समर्पण का उपदेश दिया। महाराष्ट्र में संत रामदास ने राम की पूजा को लोकप्रिय बनाने में योगदान दिया। भारत के हिंदी भाषी प्रांतों में भक्ति आंदोलन के प्रमुख संत रामानन्द थे जिन्होंने भगवान राम के स्वरूप में भक्ति भावना का प्रकटीकरण किया। रामानन्द ने बताया कि केवल राम के प्रति प्रेम व समर्पण के माध्यम से ही मुक्ति पाई जा सकती है। तुलसीदास ने भगवान राम में आस्था प्रकट की तथा राम को निरपेक्ष सत्य (अंतिम सत्य) के रूप में स्थापित किया। मीराबाई कृष्ण भक्ति की साकार प्रतिमा मानी जाती थीं। संत सूरदास भी अपनी रचनाओं में कृष्ण के मोहक रूप तथा राधा की कथाओं का वर्णन करते थे। इसके अतिरिक्त चैतन्य महाप्रभु ने श्रीकृष्ण की आराधना से भगवान के प्रति अदम्य प्रेमभाव का प्रकटीकरण किया है। स्पष्ट है कि मध्यकालीन भारत का भक्ति आंदोलन अपने व्यक्तिगत ईश्वर के प्रति निष्ठा के प्रकटीकरण के संदर्भ में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है परंतु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि इन संतों ने अन्य की उपेक्षा की या आलोचना की। इन्होंने केवल अपने आराध्य के प्रति पूर्ण समर्पण की भावना को अभिव्यक्त किया।</s>
<s>[INST]प्रदेश की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए सांस्कृतिक प्रदेशों का वर्गीकरण प्रस्तुत कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • प्रदेश की अवधारणा तथा सांस्कृतिक प्रदेश के वर्गीकरण की चर्चा। हल करने का दृष्टिकोण • प्रदेश की अवधारणा को स्पष्ट कीजिये। • संक्षेप में प्रदेश के लक्षण बताइये। • सांस्कृतिक प्रदेशों का वर्गीकरण प्रस्तुत कीजिये। ‘प्रदेश’ की संकल्पना एक सक्रिय, परिवर्तनात्मक एवं गतिशील अवधारणा है। इसे कई रूपों में परिभाषित किया गया है जैसे- ब्लाश ने समान प्राकृतिक व सांस्कृतिक क्षेत्रों को प्रदेश के रूप में परिभाषित किया है। हरबर्टसन ने जलवायविक विशेषताओं के आधार पर संपूर्ण विश्व को वृहत् प्राकृतिक प्रदेशों में बाँटा है। वस्तुत: प्रदेश की संकल्पना कोई नई नहीं है, आदिकालीन मानव भी प्रतिकूल पर्यावरणीय अवस्थाओं में अनुकूल प्रदेश की खोज में संलग्न था। प्रदेश के लक्षण: प्रदेश एक अवस्थिति धारणा है, जिसे उसकी अपनी स्थिति के आधार पर भी संबोधित किया जा सकता है, जैसे- सुदूर पूर्व। इनका स्थानिक विस्तार होता है जिसे धरातल पर व्यक्त किया जाता हैं, जैसे-थार मरुस्थल। इनकी सीमा होती है जो इनका बाह्य छोर होता है तथा यह दूसरे क्षेत्र से इनकी भिन्नता को दर्शाता है। ये औपचारिक अथवा कार्यपरक हो सकते हैं। औपचारिक प्रदेश सर्वत्र एक समान गुण का आभास (मानसून प्रदेश) कराते हैं, जबकि कार्यपरक प्रदेश अंतर्क्रिया और आसपास के क्षेत्रों से जुड़ाव को दर्शाते (नगर प्रदेश) हैं। प्रदेश पदानुक्रमित होते हैं तथा इनकी सीमाएँ परिवर्तित होती रहती हैं। सांस्कृतिक प्रदेश: सांस्कृतिक प्रदेश वह क्षेत्र होता है जहाँ मानव समूह के सांस्कृतिक लक्षणों की पहचान होती है जो एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में भिन्न होता है। इस भिन्नता से मानवीय क्रियाकलाप, व्यवसाय और स्थान के संघटन में विभेद विकसित होता है। इसी आधार पर सांस्कृतिक प्रदेशों का वर्गीकरण किया गया है। जनसंख्या प्रदेश: जिन क्षेत्रों को जनसांख्यिकीय लक्षणों के आधार पर चिह्नित किया जाता है, जनसंख्या प्रदेश कहलाते हैं। यह आधार जनंसख्या का उच्च अथवा निम्न घनत्व, आयु व लिंग संरचना, जन्म व मृत्यु दर तथा साक्षरता आदि में से कुछ भी हो सकता है। भाषायी प्रदेश: भाषा सांस्कृतिक प्रादेशीकरण का एक अन्य लक्षण है। संसार के भिन्न-भिन्न भागों एवं समाजों में अलग-अलग भाषाओं के आधार पर प्रदेशों का निर्धारण किया गया है, जैसे-इण्डो-ईरानियन, साइनो तिब्बत आदि। धार्मिक प्रदेश: धर्म के आधार पर जैसे-ईसाई, यहूदी, बौद्ध आदि प्रदेशों की पहचान की जाती है। आर्थिक प्रदेश: ये क्षेत्र के संसाधनों एवं आर्थिक क्रियाओं के आधार पर निर्धारित किये जाते हैं। आर्थिक प्रदेश नियोजन में लाभदायक हाते हैं। औद्योगिक प्रदेश: औद्योगिक घटकों के आधार पर चिह्नाकिंत प्रदेश, जैसे-मुंबई-अहमदाबाद प्रदेश, मद्रास-कोयम्बटूर प्रदेश, आदि इसमें आते हैं। कृषि प्रदेश: वृहद उपजों के आधार पर कृषि प्रदेशों का निर्धारण किया जाता है, जैसे- दक्षिण एशिया का जूट प्रदेश। इसी प्रकार अन्य गतिविधियों के आधार पर भी सांस्कृतिक प्रदेशों का निर्धारण किया गया है।</s>
<s>[INST]उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में विकासमान ‘मध्यवर्गीय चेतना’ जहाँ लोकप्रिय असंतोषों को संगठित कर राष्ट्रीय चेतना के विकास की महत्त्वपूर्ण कारक सिद्ध हुई, वहीं वायसराय लिटन की प्रतिक्रियावादी नीतियों ने इसे सशक्त बनाया। विवेचना करें। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • मध्यवर्गीय चेतना के विकास के कारणों तथा लोकप्रिय असंतोष को संगठित करने के लिये इसके द्वारा किया गया प्रयास। • लिटन की प्रतिक्रियावादी नीतियाँ। हल करने का दृष्टिकोण • संक्षिप्त भूमिका लिखिये। • मध्यवर्गीय चेतना के विकास के कारणों को बताइये। • लोकप्रिय असंतोष को संगठित करने के लिये क्या प्रयास किये गए? • लिटन की प्रतिक्रियावादी नीतियों का उल्लेख करते हुए निष्कर्ष लिखिये। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध तक पाश्चात्य चिंतन एवं शिक्षा के प्रचार-प्रसार के कारण एक नवीन शिक्षित भारतीय मध्यवर्ग का उदय हुआ। इसने राष्ट्रीय चेतना एवं राष्ट्रवाद की भावना को आगे बढ़ाने का काम किया। वस्तुत: आधुनिक पाश्चात्य विचारों को अपनाने से भारतीय राजनीतिक चिंतन को एक नई दिशा प्राप्त हुई। नवशिक्षित भारतीय मध्यवर्ग पाश्चात्य उदारवादी विचारधारा के अनुरूप स्वतंत्रता, समानता एवं जनतंत्र जैसे प्रगतिशील मूल्यों के संपर्क में आया। इसने औपनिवेशिक शोषण के वास्तविक स्वरूप को समझकर भारतीयों को एकजुट करने का प्रयास प्रारंभ किया। इसी क्रम में 1867 में दादाभाई नौरोजी धन निकासी सिद्धांत का प्रतिपादन कर औपनिवेशिक शासन के वास्तविक चेहरे को सामने लाए। इस नवशिक्षित मध्यवर्ग द्वारा लोगों में व्याप्त असंतोष को संगठित करने के लिये निम्नलिखित राजनीतिक संस्थाएँ स्थापित की गईं, जैसे: 1851 में ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन का गठन। इसने उच्च वर्ग के नौकरशाहों के वेतन में कमी तथा नमक कर, आबकारी कर एवं डाक शुल्क समाप्ति जैसे लोकप्रिय मांगों को लेकर ब्रिटिश संसद को पत्र लिखा। 1866 में दादाभाई नौरोजी ने लदंन में ईस्ट इंडिया एसोसिएशन की स्थापना की। इसका उद्देश्य भारतीय समस्याओं से ब्रिटिश जनमत को परिचित कराना था। 1852 में बॉम्बे एसोसिएशन की स्थापना करना। इसका उद्देश्य भेदभावपूर्व सरकारी नियमों के विरुद्ध सरकार को सुझाव देना था। इसी तरह 1875 में इंडियन लीग तथा 1876 में इंडियन एसोसिएशन जैसी संस्थाएँ स्थापित की गईं। इनका उद्देश्य राष्ट्रवाद की भावना जाग्रत कर लोगों को एकजुट करना था। उपर्युक्त प्रयासों को लॉर्ड लिटन की निम्न प्रतिक्रियावादी नीतियों ने सशक्त बनाया, जैसे: इंडियन सिविल परीक्षा में आयु सीमा को 21 वर्ष से घटाकर 19 वर्ष करना। अकाल के दौरान दिल्ली दरबार का आयोजन करना। वार्नाकुलर प्रेस एक्ट (1878) तथा शस्त्र अधिनियम (1878) आदि। उपर्युक्त नीतियों ने भारतीयों के साथ भेदभाव को दर्शाया तथा भारतीय जन को और असंतुष्ट कर दिया। फलत: 1885 में स्थापित भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस ने उभरते हुए इस राष्ट्रीय चेतना को आगे बढ़ाया और अंतत: भारत को आज़ाद कराने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।</s>
<s>[INST]तड़ितझंझा से उत्पन्न मौसमी दशाओं की चर्चा कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • तड़ितझंझा से निर्मित मौसमी दशाओं की चर्चा कीजिये। हल करने का दृष्टिकोण • तड़ितझंझा का आशय स्पष्ट कीजिये। • तड़ितझंझा से उत्पन्न मौसमी दशाओं को स्पष्ट कीजिये। तड़ितझंझा एक प्रचंड स्थानीय तूफान है। इसकी उत्पत्ति उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में गर्म एवं आर्द्र हवाओं के प्रबल संवहन के कारण होती है। यह पूर्ण विकसित कपासी वर्षा मेघ हैं। इसमें बादल गर्जन, बिजली चमकना व तेज़ हवाएँ चलने की घटनाएँ होती हैं। तड़ितझंझा से उत्पन्न मौसमी दशाएँ: वर्षा: इसमें वायु प्रचंड वेग से ऊपर उठती है, जिस कारण संघनन तीव्रता से होता है और कम समय में ही मूसलाधार बारिश होती है। ऐसी स्थिति में लगता है कि मेघ ही फूट पड़े है, इसलिये इसे ‘बादलों का प्रस्फोटन’ भी कहते हैं। ओलावृष्टि: हिमांक के नीचे संघनन के कारण तड़ितझंझा से कभी-कभी ओलावृष्टि भी होती है, किंतु जितने क्षेत्र पर झंझावात का विस्तार होता है, उसके किसी भाग में ओले गिरते हैं। निम्न अक्षांशों में तड़ितझंझा के साथ प्राय: उपल वृष्टि नहीं होती है। बिजली का चमकना: बिजली का चमकना तड़ितझंझा की मुख्य विशेषता है। इसमें जल बूँदों में बराबर मात्रा में धनात्मक तथा ऋणात्मक आवेश होता है किंतु बूँदों के टूटने से कहीं धन आवेश तो कहीं ऋण आवेश अधिक हो जाता है। बादलों के आधार में ऋणात्मक बिजली तथा ऊपरी भाग में धनात्मक बिजली के आवेश के बीच अंतर होने से तनाव बढ़ जाता है जिससे प्रकाश रेखाएँ उत्पन्न होती हैं। इसे ही बिजली का चमकना कहते हैं। मेघ गर्जन: बिजली के चमकने से अत्यधिक ऊष्मा उत्पन्न होती है जो वायु को इतनी तीव्रता से हटाती है कि एक तेज़ गर्जन उत्पन्न होता है। तीव्र वात: झंझावत के पूर्ण विकसित हो जाने पर वर्षा के साथ-साथ ऊपर से ठंडी हवा तेज़ गति से पृथ्वी पर उतरती है। धरातल पर आकर ठंडी हवाएँ अपसरित होने लगती हैं, जिससे आक्रामक तूफान उत्पन्न होने लगते हैं। यद्यपि तड़ितझंझा की अवधि कम होती है किंतु कम समय में ही यह अत्यधिक विनाशकारी साबित हो सकती है। यह व्यापक जान-माल की हानि का कारण बन जाती है।</s>
<s>[INST]हिंदी गद्य के विकास में बालकृष्ण भट्ट के योगदान पर प्रकाश डालिये।[/INST]उत्तर : ‘हिंदी प्रदीप’ के संपादक बालकृष्ण भट्ट भारतेंदु मंडल के सबसे वरिष्ठ सदस्य थे। भट्ट जी भारतेन्दु युग तथा द्विवेदी युग को जोड़ने वाले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने नाटक, उपन्यास, निबंध, आलोचना, पत्रकारिता, पुस्तक-समीक्षा आदि अनेक क्षेत्रों में एक साथ योगदान दिया है किंतु उनकी प्रतिभा मुख्यत: निबंधों में ही चमकी है। बालकृष्ण भट्ट का योगदान: भट्ट जी ने यूँ तो भावात्मक, वर्णनात्मक, कथानक तथा विचारात्मक सभी प्रकार के निबंध लिखे हैं, किन्तु उनके विचारात्मक निबंध अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। इसीलिये इन्हें 17वीं शताब्दी के पश्चिमी निबंधकार जोसेफ एडीसन (जो बुद्धिप्रधान निबंध लिखने के लिये विख्यात था) के सादृश्य के आधार पर ‘हिंदी का एडीसन’ भी कहा जाता है। इनके निबंधों में उनके पाण्डित्य तथा लोक प्रचलित भाषा का अद्भुत समन्वय हुआ है। भट्ट जी के प्रमुख निबंध हैं- ‘चंद्रोदय’, ‘एक अनोखा स्वप्न’, ‘प्रेम के बाग का सैलानी’, ‘साहित्य जन समूह के हृदय का विकास है’ आदि। भट्ट जी ने अनेक नाटकों का भी प्रणयन किया है, जिनमें ‘कलिराज की सभा’, ‘चंद्रसेन’, ‘खेल’, ‘रेल का टिकट’, ‘बाल विवाह’ आदि प्रमुख हैं। भट्ट जी ने ‘नूतन ब्रह्मचारी’ नामक एक उपन्यास भी लिखा आलोचना के क्षेत्र में भी भट्ट जी का महत्त्वपूर्ण योगदान है। भारतेन्दु ने ‘नाटक’ नामक निबंध द्वारा सैद्धांतिक आलोचना की शुरुआत की थी तो भट्ट जी ने ‘हिंदी प्रदीप’ में लाला श्रीनिवासदास के नाटक ‘संयोगिता स्वयंवर’ की ‘सच्ची समालोचना’ नाम से व्यावहारिक आलोचना की जिसे हिंदी साहित्य की पहली व्यावहारिक आलोचना माना जाता है। भट्ट जी ने कविताओं के स्थान पर गद्यात्मक लेखन को प्रधानता दी है, किंतु कहीं-कहीं इनके गद्यों में भी पद्यात्मकता आ गई है, जैसे- ‘‘आज हम इस जून एक ऊन दो के ऊपर सून वाली संख्या में प्रवेश कर रहे हैं।’’ भट्ट जी का भाषा संबंधी दृष्टिकोण भी गौर करने के लायक है। वे भाषायी शुद्धता के समर्थक नहीं थे। उनका मानना था कि भाषा का विकास विभिन्न भाषाओं के शब्दों के आदान-प्रदान से ही होता है। उनका प्रसिद्ध कथन है कि ‘‘बहुत से लोगों का मत है कि हम लिखने-पढ़ने की भाषा से यावनिक शब्दों को बीन-बीनकर अलग करते रहें। कलकत्ता और बंबई के कुछ पत्र ऐसा करने का कुछ यत्न भी कर रहे हैं, किंतु ऐसा करने से हमारी हिंदी बढ़ेगी नहीं, वरन दिन-दिन संकुचित होती जाएगी। भाषा के विस्तार का सदा यह क्रम रहा है कि किसी भी देश के शब्दों को हम अपनी भाषा में मिलाते जाएँ और उसे अपना करते रहें।’’ कुल मिलाकर, भट्ट जी ने आधुनिक काल के हिंदी साहित्य का बहुत अधिक संवर्द्धन किया है। उनके निबंधों की सीमा यह है कि उनमें वह सुघड़ता व वह वैचारिकता नहीं है जो आगे चलकर शुक्ल जी के निबंधों में मिलती है। इसी प्रकार आलोचना के क्षेत्र में भी उनका कार्य महज एक शुरुआती प्रयास ही माना जा सकता है। फिर भी, नवजागरणकालीन संक्रमण के दौर में हिंदी साहित्य में गद्य की विविध विधाओं के प्रवर्तन तथा विकास में योगदान के लिये इनका प्रयास सराहनीय माना जाता है।</s>
<s>[INST]जैन धर्म एवं बौद्ध धर्म कई मामलों में समरूपता दर्शाते हैं। इसके बावजूद जैन धर्म की तुलना में बौद्ध धर्म का प्रसार व्यापक स्तर पर हुआ, इसके क्या कारण रहे? विवेचना कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • दोनों धर्मों के विद्यमान समानता को स्पष्ट कीजिये। • जैन धर्म की तुलना में बौद्ध धर्म के अत्यधिक प्रसार के कारणों को स्पष्ट कीजिये। हल करने का दृष्टिकोण • बौद्ध एवं जैन धर्म का संक्षेप में परिचय देते हुए उत्तर प्रारंभ कीजिये। • दोनों ही धर्मों में विद्यमान समानता के तत्त्व बताइये। • जैन धर्म की तुलना में बौद्ध धर्म के व्यापक होने के कारणों को स्पष्ट कीजिये। • प्रभावी निष्कर्ष लिखिये। छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व में बौद्ध एवं जैन धर्म का उदय एक महत्त्वपूर्ण घटना थी, जिसका योगदान अविस्मरणीय रहा है। दोनों ही, धर्मों ने भारतीय सांस्कृतिक जीवन को काफी प्रभावित किया है। इन दोनों धर्मों में समानता के साथ-साथ असमानता के तत्त्व भी रहे हैं जिसके कारण जैन धर्म, बौद्ध धर्म की अपेक्षा ज़्यादा व्यापक रूप से प्रसारित नहीं हो सका। इसे हम निम्नलिखित रूपों में देख सकते हैं- समानता के तत्त्व: दोनों ही धर्मों ने वैदिक कर्मकांडों तथा वेदों की अपौरुषेयता का विरोध किया। अहिंसा तथा सदाचार पर दोनों ही धर्मों ने बल दिया। कर्मवाद, पुनर्जन्म तथा मोक्ष दोनों ही धर्मों में शामिल थे। दोनों धर्मों में प्रचार-प्रसार के लिये भिक्षु संघों की स्थापना पर बल दिया गया। उपरोक्त समानता के बावजूद भारत में जैन धर्म का उतना व्यापक प्रसार नहीं हो पाया जितना की बौद्ध धर्म का हुआ तथा जैन धर्म कुछ ही भागों में सीमित होकर रह गया, इसके निम्नलिखित कारण हैं- बौद्ध धर्म ने मध्यम मार्ग पर बल दिया। इसके तहत मोक्ष के लिये कठोर साधना एवं कायाक्लेश में विश्वास नहीं किया जाता था। परंतु जैन धर्म में मोक्ष के लिये घोर तपस्या तथा शरीर त्याग को आवश्यक माना गया। बौद्ध धर्म आत्मा में विश्वास नहीं करता था, जबकि जैन धर्म में इसकी प्रधानता विद्यमान थी। बौद्ध धर्म की अपेक्षा जैन धर्म में अहिंसा एवं अपरिग्रह पर अधिक बल दिया गया है। इस संदर्भ में उनके विचार अतिवादी थे। जैन धर्म में नग्नता को अनिवार्य माना गया था जो बौद्ध धर्म में अनुपस्थित था। गौतम बुद्ध द्वारा तत्कालीन समाज में विद्यमान कुरीतियों पर जिस प्रकार से कुठाराघात किया गया था, उस प्रकार से महावीर द्वारा नहीं किया गया था। अत: उपरोक्त कारणों पर यदि गौर करें तो स्पष्ट होता है, कि बौद्ध धर्म जैन धर्म के सापेक्ष अधिक लचीला था जो सर्वसाधारण के लिये आसानी से अनुकरणीय था। साथ ही, बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में जनसाधारण के लिये सर्वसुलभ भाषा मगधी को अपनाया गया जिसके कारण भी इसकी लोकप्रियता में बढ़ोतरी हुई। तत्कालीन बदलती समाजिक-आर्थिक परिस्थितियाँ भी बौद्ध धर्म को लोकप्रिय बनाने में काफी महत्त्वपूर्ण रहीं। बावजूद इसके कि जैन धर्म का प्रसार बौद्ध धर्म की अपेक्षा कम रहा हो लेकिन भारतीय संस्कृति पर इसका योगदान अविस्मरणीय रहा है।</s>
<s>[INST]‘‘भूगोल को स्थान विषयक विज्ञान बनाने के प्रयासों ने मात्रात्मक क्रांति को जन्म दिया।’’ स्पष्ट कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • मात्रात्मक क्रांति के विकास की चर्चा करें। हल करने का दृष्टिकोण • मात्रात्मक क्रांति का परिचय दें। • भूगोल को स्थान विषय विज्ञान बनाने के प्रयासों ने इसे किस प्रकार जन्म दिया? • इसके दोषों को उजागर करते हुए निष्कर्ष दें। भूगोल में सांख्यिकीय और गणितीय विधियों के प्रयोग को मात्रात्मक क्रांति कहते हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् भूगोल के समक्ष अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया तथा हारवर्ड विश्वविद्यालय में भूगोल विभाग को बंद कर दिया गया। ऐसी ही दशा में भूगोल को स्थान विषयक विज्ञान बनाने के प्रयासों ने मात्रात्मक क्रांति को जन्म दिया। भूगोल को सुदृढ़ सैद्धांतिक आधार पर स्थापित करने का प्रयास किया गया। अब भूगोलवेत्ताओं ने स्थानों व क्षेत्रों की सुव्यवस्थित संरचना संबंधी नियमों का मात्रा प्रधान तकनीकों से विश्लेषण पर ज़ोर दिया। उन्होंने मानव एवं वातावरण के मध्य संबंधों को परिशुद्ध बनाने तथा सामान्य अनुमान निर्धारण हेतु गणितीय मापकों की रचना की, जिससे वस्तुओं के वितरण, घनत्व एवं दूरियों की शुद्धता मापी जा सके। भौगोलिक अध्ययन में स्थानिक संबंधों का विशेष महत्त्व होता है। सर्वप्रथम शेफर ने इसकी महत्ता को स्वीकार किया तथा विलियम बंगी ने इसे आगे बढ़ाया। उनके अनुसार भूगोल स्थानिक संबंधों एवं अंतर्संबंधों का विज्ञान है। भूगोल में सर्वप्रथम मात्रात्मक विधियों का प्रयोग भू-आकृति विज्ञान तथा जलवायु विज्ञान में किया गया। मात्रात्मक क्रांति से स्थान का घनिष्ठ संबंध है। स्थान विश्लेषण का मुख्य उद्देश्य वस्तुओं के स्थानिक व्यवस्था पर ध्यान केंद्रित करना है। आर्थिक क्रियाओं से संबंधित विभिन्न अवस्थिति सिद्धांतों में स्थान मुख्य बिंदु होता है, जिसे मात्रात्मक क्रांति के प्रयोग ने अधिक वैज्ञानिक बना दिया। प्रादेशिक भूगोल में मात्रात्मक क्रांति के प्रयोग ने नगरीय एवं प्रादेशिक योजनाओं को मज़बूत सैद्धांतिक आधार प्रदान किया। इस प्रकार भूगोल को स्थान विषयक विज्ञान बनाने के प्रयासों ने अनुभवाश्रित व वर्णनीय परंपरा को नकार कर उसे गणितीय एवं सांख्यिकीय आधार प्रदान किया। यद्यपि मात्रात्मक क्रांति ने भूगोल को एक विषय के रूप में पुनर्स्थापित किया परंतु इसके कुछ दोष भी रहे- स्थान विषयक विज्ञान की विधि को यह स्थान की ज्यामिति से जोड़कर उसकी मूल भावना को समाप्त करता है। अवस्थितिक रूप से प्रदेश का विश्लेषण भेदभाव को जन्म देता है। सांख्यिकीय भाषा मानव-पर्यावरण के संबंधों को समझने के लिये अव्यवहारिक है। यह मानवीय निर्णय लेने की क्षमता को नाकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। इसमें मानव की एक पूर्ण आर्थिक प्राणी के रूप में कल्पना की गई है।</s>
<s>[INST]अज्ञेय की कहानियों के शिल्प पर प्रकाश डालिये।[/INST]उत्तर : अज्ञेय आधुनिक हिंदी साहित्य के शिखर रचनाकार हैं जिन्हाेंने कविता, उपन्यास, निबंध और आलोचना के साथ-साथ कहानी लेखन के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया है। जो परंपरा जैनेन्द्र ने शुरु की थी, उसे पूर्णता अज्ञेय ने ही प्रदान की। शिल्प के धरातल पर अज्ञेय की कहानियों में निम्नांकित विशेषताएँ लक्षित की जा सकती हैं- (क) कहानियों में कथानक लगभग खत्म हो गया है। उसकी जगह मानसिक सत्य ने ले ली है। (ख) कहानी का पांरपरिक ढाँचा जिसमें आरंभ, उत्कर्ष और अंत की शृंखलाबद्धता होती थी, वह अज्ञेय की कहानियों में टूट जाता है। (ग) कहानी का अंत किसी आदर्श या उद्देश्य के बिन्दु पर नहीं होता है। (घ) अज्ञेय ने अपनी कहानियों में भाषा का अत्यंत सजग एवं सधा हुआ प्रयोग किया है। बिंबात्मकता एवं प्रतीकात्मकता का गुण उनकी भाषा में दिखाई देता है। (ङ) शैली के धरातल पर पूर्वदीप्ति, चेतना-प्रवाह, प्रत्यावलोकन, पत्र आदि शैलियों का प्रयोग अज्ञेय की कहानियों में दिखाई देता है।</s>
<s>[INST]विजयनगर के शासकों का कला एवं संस्कृति में योगदान का आकलन करें।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • कथन विजयनगर के शासकों के कला एवं संस्कृति में योगदान के आकलन से संबंधित है। हल करने का दृष्टिकोण • विजयनगर के शासकों के कला एवं संस्कृति में योगदान के संक्षिप्त उल्लेख के साथ परिचय लिखिये। • विजयनगर के शासकाें के कला एवं संस्कृति में योगदान का आकलन प्रस्तुत कीजिये। • उचित निष्कर्ष लिखिये। विजयनगर, जिसकी स्थापना चौदहवीं शताब्दी में हुई थी, अपने चरमोत्कर्ष पर उत्तर में कृष्णा नदी से लेकर प्रायद्वीप के सुदूर दक्षिण तक फैला हुआ था। इस साम्राज्यिक उन्नति का कृष्ण देवराय जैसे शासकों के अंतर्गत कला एवं संस्कृति के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय प्रभाव पड़ा। विजयनगर के शासकों के कला एवं संस्कृति में योगदान का आकलन निम्नलिखित रूपों में वर्णित है: विजयनगर में शासकों की गजशालाओं पर बीजापुर और गोलकुंडा जैसी आस-पास की सल्तनतों की वास्तुकलात्मक शैली का काफी प्रभाव पड़ा था। कृष्णा और तुंगभद्रा नदियों की घाटी में स्थित साम्राज्य के केंद्रस्थल हंपी नगर की किलेबंदी उच्च कोटि की थी। किले की दीवारों के निर्माण में गारे-चूने जैसे किसी भी जोड़ने वाले मसाले का प्रयोग नहीं किया गया था बल्कि शिलाखंडों को आपस में फँसाकर गूँथा गया था। कृष्णदेव को ही कुछ बेहतरीन मंदिरों के निर्माण तथा कई महत्त्वपूर्ण दक्षिण भारतीय मंदिरों में भव्य गोपुरमों को जोड़ने का श्रेय जाता है। विजयनगर शासन के दौरान मंदिर निर्माण गतिविधि ने अधिक गति प्राप्त की। मंदिर परिसर में नक्काशीदार स्तंभों के साथ लंबा राय गोपुरम या प्रवेश द्वार एवं कल्याण मंडपम का निर्माण विजयनगर स्थापत्य का प्रमुख अभिलक्षण था। स्तंभों पर मूर्तियाँ विशिष्ट विशेषताओं के साथ खुदी हुई थीं। घोड़ा इन स्तंभों पर पाया जाने वाला सबसे आम जीव था। स्वामी मंदिर एवं हज़ार रामास्वामी मंदिर विजयनगर शैली के मंदिरों के बेहतरीन उदाहरण थे। विजयनगर के शासकों द्वारा संगीत एवं नृत्य को भी संरक्षण प्रदान किया गया था। कांचीपुरम में वरदराज मंदिर एवं एकंबरनाथ मंदिर विजयनगर शैली की भव्यता के उदाहरण हैं। इस क्षेत्र में विभिन्न भाषाओं जैसे- संस्कृत, तेलुगू, कन्नड़ और तमिल का विकास हुआ। संस्कृत और तेलुगू साहित्य के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण विकास हुआ था। कृष्ण देवराय के शासनकाल के दौरान साहित्यिक उपलब्धि शिखर पर पहुँच गई थी, वह स्वयं भी संस्कृत और तेलुगू विद्वान था। इसका प्रसिद्ध दरबारी कवि अलसानी पेद्दन तेलुगू साहित्य में प्रतिष्ठित था। हंपी के शाही भवनों में भव्य मेहराब एवं गुंबद, मूर्त्तियों को रखने के लिये आले सहित स्तंभों वाले कई विशाल कक्ष और कमल एवं टोडों की आकृति वाले मूर्तिकला के नमूनों के साथ सुनियोजित बाग-बगीचे भी थे। इस प्रकार विजयनगर शासकों का कला एवं संस्कृति के क्षेत्र में योगदान बहुमुखी और उल्लेखनीय था।</s>
<s>[INST]सांस्कृतिक नियतिवाद पर संक्षिप्त टिप्पणी कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • सांस्कृतिक नियतिवाद की चर्चा करनी है। हल करने का दृष्टिकोण • संक्षिप्त भूमिका लिखें। • सांस्कृतिक नियतिवाद को स्पष्ट करें। भौगोलिक संकल्पनाओं के इतिहास में अनेक उपागमों का विकास हुआ, जिनमें मानव एवं प्रकृति के बीच घटित अंतर्क्रियाओं का अध्ययन किया जाता है। सांस्कृतिक अथवा सामाजिक नियतिवाद भी उन अनेक उपागमों में से एक है जो मानवीय कारक पर ज़ोर देता है। इस संकल्पना के अनुसार हमारे विचार हमारे कार्यों को निर्धारित करते हैं तथा कार्यों से पूर्व जगत की विशेषताएँ प्रकट होती हैं। मानवीय अभिरुचि, मनोकांक्षाओं और जीवन मूल्यों में क्षेत्रीय भिन्नता के कारण सामाजार्थिक विकास और सांस्कृतिक दृश्य में अंतर विकसित होता है। इस संकल्पना के अनुसार कोयले का क्षेत्र उन लोगों के लिये एक समान रूप से महत्त्वपूर्ण नहीं हो सकता है जिनके पास इसके उपयोग के लिये तकनीकी ज्ञान एवं कौशल नहीं है। इस संकल्पना के अनुसार वातावरण तटस्थ तत्त्व है तथा इसका उपयोग तकनीकी स्तर पर निर्भर है। प्रमुख अमेरिकी भूगोलवेत्ता उल्मान ने इसे इस प्रकार समझाने का प्रयास किया है कि एक जापानी किसान व एक अमेज़न इंडियन के लिये मृदा की उपजाऊ शक्ति का महत्त्व समान नहीं होता है। एक ही जैसी परिस्थितियों में अलग-अलग संस्कृतियाँ विकसित पाई गई हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् यह संकल्पना ऑस्ट्रिया, हालैंड और स्वीडन में काफी लोकप्रिय हुई। सांस्कृतिक नियतिवाद वातावरणीय कारकों का उचित मूल्यांकन नहीं करता है। इससे दृश्य वस्तुओं अथवा घटनाओं के सामाजिक संबंधों की पूर्ण व्याख्या नहीं होती है। साथ ही, इससे प्राकृतिक वातावरण के आधार पर सांस्कृतिक भौगोलिक विभेदों की स्पष्ट व्याख्या नहीं होती है।</s>
<s>[INST]भारतेन्दुयुगीन हिंदी नाटकों पर प्रकाश डालिये।[/INST]उत्तर : भारतेंदु युग हिंदी नाट्य साहित्य का प्रथम चरण है। यह दौर सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक परिवर्तनों का था। एक वर्ग पाश्चात्य संस्कृति का समर्थन कर रहा था तो दूसरा विरोध और अंग्रेज़ी साहित्य का प्रभाव बढ रहा था। ऐसे में नई मान्यताओं और दृष्टिकोण को सृजनात्मक दिशा देने की आवश्यकता थी। यह कार्य भारतेंदु ने अपने नाटकों के माध्यम से किया है। भारतेंदु के नाटकों का मूल उद्देश्य मनोरंजन के साथ जनसामान्य को जागृत करना तथा उनमें आत्मविश्वास जगाना था। प्राचीन संस्कृति के प्रति प्रेम जगाने, मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था बनाए रखने तथा पश्चिम के गलत प्रभावों से समाज को बचाए रखने का प्रयास इन नाटकों में किया गया है। इस दौर के प्रसिद्ध नाटक हैं- देवकीनंदन खत्री का ‘सीताहरण’, भारतेंदु का ‘भारत दुर्दशा’ व ‘अंधेर नगरी’ तथा प्रताप नारायण मिश्र का ‘शिक्षादान’ आदि। इस युग में प्रहसन अधिक लिखे गए। इन प्रहसनों में हास्य-व्यंग्य शैली में तत्कालीन सामाजिक-धार्मिक कुरीतियों, कुप्रथाओं एवं अंधविश्वासों का मज़ाक उड़ाया गया है। भारतेंदु का ‘वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति’ तथा राधाचरण गोस्वामी का ‘बूढ़े मुँह मुँहासे’ इसी शैली के नाटक हैं। भारतेंदु युगीन नाटकों में प्राचीन-नवीन शैलियों का सामंजस्य दिखाई देता है। जो नाटक संस्कृत शैली में लिखे गए, उनके पात्र आदर्श आधारित हैं जबकि नवीन शैली में नाटकों के पात्र जीवन के सच्चे प्रतिनिधि नज़र आते हैं। शिल्प की दृष्टि से ये नाटक न तो पूर्णतया प्राचीन-नाट्य शास्त्र से जुड़े हैं और न ही इनमें अंग्रेज़ी परंपरा की नकल उतारी गई है। भारतेंदु ने ही पाश्चात्य ट्रेजेडी पद्धति पर दुखांत नाटक लिखे। उनका ‘नीलदेवी’ नाटक दुखांत के नज़दीक है। इस काल में अनूदित नाटक भी लिखे गए। भवभूति व कालिदास के संस्कृत नाटकों के हिंदी अनुवाद अधिक हुए। राजा लक्ष्मणसिंह ने ‘अभिज्ञान-शाकुन्तलम’ का अनुवाद किया। बांग्ला से माइकेल मधुसूदन दत्त के नाटकों के अनुवाद हुए। अंग्रेज़ी से शेक्सपियर के ‘मर्चेन्ट ऑफ वेनिस’, ‘मैकबेथ’ का अनुवाद हुआ। भारतेंदु युग के सर्वश्रेष्ठ नाटककार भारतेंदु हरिश्चंद्र थे। अन्य नाटककार हैं- श्रीनिवास दास, बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र, राधाचरण गोस्वामी व राधाकृष्ण दास। इन सभी ने भारतेंदु का ही अनुसरण किया।</s>
<s>[INST]महमूद गवाँ एक योग्य सेनापति, कठोर प्रशासक तथा कला का महान आश्रयदाता था। टिप्पणी करें।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • कथन महमूद गवाँ के एक योग्य सेनापति, कठोर प्रशासक और कला के महान आश्रयदाता होने से संबंधित है। हल करने का दृष्टिकोण • महमूद गवाँ के बारे में संक्षिप्त उल्लेख के साथ परिचय लिखिये। • महमूद गवाँ के एक योग्य सेनापति, कठोर प्रशासक और कला के महान आश्रयदाता होने के संदर्भ में उल्लेख कीजिये। • उचित निष्कर्ष लिखिये। बहमनी साम्राज्य की शक्ति मुहम्मद शाह तृतीय के शासन के अंतर्गत अपने शिखर पर पहुँच गई थी। मुहम्मद शाह की सफलता उसके मंत्री महमूद गवाँ की सलाह और सेवाओं के कारण थी। महमूद गवाँ को निम्नलिखित आधारों पर एक योग्य सेनापति, कठोर प्रशासक और कला का महान आश्रयदाता कहा जा सकता है: महमूद गवाँ 20 वर्षों तक राजकीय क्रियाकलापों पर हावी रहा। इस दौरान उसने बहमनी सल्तनत की सीमाओं को पूरब और पश्चिम में बढ़ाने का प्रयास किया जिसमें उसे काफी हद तक सफलता भी हासिल हुई। महमूद गवाँ का प्रमुख सैनिक अभियान दाभोल एवं गोवा का था। इन क्षेत्रों के हाथ से निकल जाने से जहाँ विजयनगर को व्यापक क्षति हुई, वहीं बहमनी की ईरान एवं इराक आदि के साथ व्यापार में वृद्धि हुई। इससे आतंरिक व्यापार एवं उत्पादन में भी उन्नति हुई। महमूद गवाँ ने अनेक सुधार किये जिनमें से कई तो अमीरों की शक्ति को सीमित करने के लिये थे। प्रत्येक अमीर के वेतन एवं दायित्व निर्धारित कर दिये गए थे। महमूद गवाँं ने सांस्कृतिक सेतु के रूप में ईरान एवं रोम (टर्की) सहित पश्चिम एशिया के कुछ प्रमुख देशों के साथ निकट संबंध स्थापित किये जिससे उत्तर भारत में भिन्न संस्कृति का विकास हुआ और इसने मुगल संस्कृति को भी प्रभावित किया। महमूद गवाँं ने बीदर में एक भव्य मदरसा अथवा महाविद्यालय का निर्माण करवाया जिसमें एक हज़ार शिक्षकों एवं विद्यार्थियों के रहने की व्यवस्था थी। इसके आग्रह पर ईरान एवं इराक के सर्वाधिक प्रसिद्ध विद्वान इस मदरसे से जुड़े भी थे। उपर्युक्त विशेषताओं के बावजूद महमूद गवाँं की अपनी कमियाँ भी थीं। उसने उन कमियों को दूर करने का प्रयास किया लेकिन दलगत झगड़ों पर अंकुश नहीं लगा पाया जिससे विरोधियों को युवा सुल्तान के कान भरने में सफलता मिली, परिणामस्वरूप उसे मृत्युदंड दे दिया गया।</s>
<s>[INST]वायुमंडल के सामान्य परिसंचरण की चर्चा कीजिये तथा बताइये कि यह किस प्रकार से महासागरों को प्रभावित करता है?[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • वायुमंडल के सामान्य परिसंचरण तथा महासागरों पर उसके प्रभाव को बताएँ। हल करने का दृष्टिकोण • सर्वप्रथम भूमिका लिखें। • वायुमंडलीय सामान्य परिसंचरण की चर्चा करें। • महासागरों पर इसके प्रभाव को स्पष्ट करें। वायुमंडलीय पवनों के प्रवाह प्रतिरूप को वायुमंडलीय सामान्य परिसंचरण के नाम से जाना जाता है। सौर विकिरण द्वारा पृथ्वी तथा वायुमंडल के असमान ऊष्मन के कारण उत्पन्न दाब प्रवणता से पवनों के प्रवाह प्रतिरूप का निर्माण होता है। यह परिसंचरण न केवल महासागरीय जल को प्रभावित करता है बल्कि स्वयं भी उससे प्रभावित होता है। अंतर-उष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र पर उच्च सूर्यातप के कारण वायु संवहन धाराओं के रूप में ऊपर उठती है जिससे यहाँ निम्न वायुदाब पेटी का निर्माण होता है। ऊपर उठती वायु ठंडी हो जाती है तथा उसका 30° उत्तर तथा 30° दक्षिण अक्षांश पर अवतलन होता है, जिससे यहाँ उपोष्ण उच्च वायुदाब पेटी का निर्माण होता है। धरातल के निकट वायु का पुन: विषुवत वृत की ओर अपसरण होता है। इस प्रकार एक परिसंचरण कोष्ठ का निर्माण होता है, जिसे ‘हेडले कोष्ठ’ कहते हैं। मध्य अक्षांशीय वायु परिसंचरण में उपोष्ण उच्च वायुदाब से पवनें उपध्रुवीय निम्नदाब की ओर प्रवाहित होती हैं और 60° अक्षांश के पास संवहन धाराओं के रूप में ऊपर उठती हैं। ये पवनें विषुवत रेखा और ध्रुव की ओर विस्थापित होती हैं। विषुवत रेखा की ओर विस्थापित पवनों का उपोष्ण उच्च वायुदाब पेटी पर अवतलन होता है। इस प्रकार निर्मित परिसंचरण कोष्ठ को ‘पैरल कोष्ठ’ के नाम से जाना जाता है। दोनों गोलार्द्धों में 60°–90° अक्षांशों के मध्य ध्रुवीय ठंडी हवाएँ उपध्रुवीय निम्नदाब की ओर प्रवाहित होती हैं तथा कोरियालिस बल के कारण ध्रुवीय हवाओं की दिशा पूर्वी हो जाती है। 60°–65° अक्षांशों के मध्य पृथ्वी के घूर्णन के कारण ऊपर उठती हवाएँ क्षोभमंडल में पहुँचकर ध्रुवों तथा भूमध्य रेखा की ओर मुड़ जाती हैं। ध्रुवों पर अवतलित वायु ‘ध्रुवीय कोष्ठ’ का निर्माण करती है। वायुमंडल का सामान्य परिसंचरण महासागरीय धाराओं को प्रवाहित करता है, जो पृथ्वी की जलवायु को प्रभावित करता है। प्रशांत महासागर का गर्म या ठंडा होने के संदर्भ में वायुमंडल के सामान्य परिसंचरण का अत्यधिक महत्त्व है। पीरू के तट पर ठंडी धाराओं के स्थान पर गर्म धाराओं की उपस्थिति से ‘अल नीनो’ की उत्पत्ति होती है, जो वायुमंडलीय परिसंचरण का ही परिणाम है। गल्फ स्ट्रीम भी सामान्य वायुमंडलीय परिसंचरण का ही परिणाम है। इस परिसंचरण (वायुमंडलीय) से सागरीय लवणता एवं तापमान का वितरण होता है, जिसका प्रभाव समुद्री जैव विविधता पर पड़ता है।</s>
<s>[INST]रामवृक्ष बेनीपुरी के रेखाचित्र-लेखन पर प्रकाश डालिये।[/INST]उत्तर : हिंदी के अप्रतिम गद्यकार रामवृक्ष बेनीपुरी का हिंदी रेखाचित्र के विकास में अतुलनीय योगदान है। अपने रेखाचित्र-संग्रहों ‘लाल तारा’, ‘माटी की मूरतें’, ‘गेहूँ और गुलाब’, ‘मील के पत्थर’ आदि के माध्यम से उन्होंने हिंदी रेखाचित्र को संवेदनात्मक एवं वैचारिक गहराई तथा शिल्पगत उत्कर्ष प्रदान करने का काम किया। ‘लाल तारा’ संग्रह के रेखाचित्र रामवृक्ष बेनीपुरी के विद्रोही एवं मार्क्सवादी दृष्टिकोण के द्योतक हैं। ‘माटी की मूरतें’ में उन्होंने गाँव के परिचितों के आत्मीय चित्र खींचे हैं। इस संग्रह के ‘रजिया’, ‘बलदेव सिंह’, ‘सुभान खाँ’ आदि रेखाचित्रों में अनुभूतिप्रवण आत्मीयता, स्मृतियों के माधुर्य, जीवन की तिक्तता आदि को अत्यन्त सजीव भाषा में प्राणवान बनाया गया है। ‘गेहूँ और गुलाब’ के रेखाचित्र भौतिकता और आध्यात्मिकता के समन्वय पर बल देते हैं। ‘मील के पत्थर’ में मुख्यत: साहित्यकारों के रेखाचित्र हैं। यथार्थ के साथ कल्पना और भावुकता का समन्वय, विषय-वैविध्य तथा शब्दों एवं वाक्यों का सधा प्रयोग रामवृक्ष बेनीपुरी के रेखाचित्रों की ऐसी विशेषताएँ हैं जो उन्हें स्मरणीय बना देती हैं। सहज भाषा, प्रचलित मुहावरों आदि के प्रयोग के कारण अन्य रेखा चित्रकारों की अपेक्षा उनके रेखाचित्र पाठकों को अधिक आकृष्ट करते हैं। उनकी भाषा-शैली का एक उदाहरण प्रस्तुत है- ‘कि अचानक, लो यह क्या? वह रजिया चली आ रही है। रजिया वह बच्ची। अरे रजिया फिर बच्ची हो गई? कानों में वे ही बालियाँ, गोरे चेहरे पर वे ही नीली आँखें, वही भर बाँह की कमीज, वे ही कुछ लटें जिन्हें सम्हालती बढ़ी आ रही है। बीच में चालीस-पैंतालिस साल का व्यवधान। अरे मैं सपना तो नहीं देख रहा?’</s>
<s>[INST]दिल्ली सल्तनत के दौरान सामाजिक-आर्थिक स्थिति का वर्णन करें[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद कथन दिल्ली सल्तनत के दौरान की सामाजिक-आर्थिक स्थिति के वर्णन से संबंधित है। हल करने का दृष्टिकोण दिल्ली सल्तनत की सामाजिक-आर्थिक स्थिति के विषय में संक्षिप्त उल्लेख के साथ परिचय लिखिये। दिल्ली सल्तनत की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का वर्णन कीजिये। उचित निष्कर्ष लिखिये। दिल्ली सल्तनत के अंतर्गत आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति को लेकर विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत हैं। भारतीय इतिहास का नवीनतम मत अविच्छिन्नता एवं निरंतरता की बजाय परिवर्तन पर बल देता है। दिल्ली सल्तनत की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का वर्णन निम्नलिखित रूपों में वर्णित है- समाज की महत्त्वपूर्ण विशेषता लोगों का उनकी राष्ट्रीयता के आधार पर विभाजन, जैसे- विदेशी मुसलमान, भारतीय मुसलमान और हिंदू थी। सल्तनत काल में मुस्लिम समाज नस्ल और जातीय समूहों में विभाजित रहा। समाज में गहन आर्थिक विषमता व्याप्त थी। हिंदू समाज एवं स्त्रियों की स्थिति में भी शायद ही कोई परिवर्तन हुआ। स्वार्थों के टकराव के साथ-साथ सामाजिक एवं सांस्कृतिक विचारों, प्रथाओं एवं विश्वासों में उपस्थित विषमताओं ने न सिर्फ तनाव पैदा किया बल्कि पारस्परिक समझदारी एवं सांस्कृतिक आत्मसातीकरण की प्रक्रियाओं को भी धीमा किया। हालाँकि जातिगत प्रतिबंधों ने मुसलमानों और उच्च जातियों के हिंदुओं एवं शूद्रों के बीच सामाजिक संसर्ग को पूर्णतया बंद नहीं किया था। शहर के आर्थिक जीवन में अमीरों एवं उनके कर्मचारियों, व्यापारियों एवं दुकानदारों का प्राधान्य था। नगरों में सर्वाधिक संख्या नौकरों, दासों, कारीगरों, सैनिकों, फेरीवालों, संगीतकारों, नटों एवं भिखारियों के मिश्रित वर्ग की थी। भू-राजस्व आय का प्रमुख स्रोत था। इसलिये कृषि और सिंचाई को अधिक महत्त्व दिया गया था। लोग मुख्य रूप से कृषि एवं उद्योग कार्य में संलग्न थे। सल्तनत काल में व्यापार कर, गृह कर, अश्व कर, खान कर आदि एकत्र किये जाते थे। इस काल में शहरों की संख्या में वृद्धि, औद्योगिक उत्पादन में बढ़ोतरी एवं व्यापार में विकास जैसी परस्पर संबंधित क्रियाएँ भी देखी जा सकती हैं। वस्त्र उद्योग प्राथमिक उद्योग था। चीनी उद्योग, कागज उद्योग, धातु का कार्य, पत्थर काटना, मोती के लिये गोता लगाना, हाथी दांत और चंदन का कार्य इस काल के अन्य उद्योग थे। पश्चिम एशिया एवं इससे होते हुए भूमध्य-सागरीय जगत के साथ-साथ मध्य एशिया, दक्षिण-पूर्व एशिया और चीन के साथ स्थल व जल दोनों ही मार्गों के ज़रिये भारतीय व्यापार संपन्न होता था। निष्कर्षत: भारतीय समाज में परिवर्तन की गति सदैव तीव्र रही है। आर्थिक क्षेत्र में भी परिवर्तन की प्रक्रिया धीमी नहीं थी। इतिहासकार इरफान हबीब ने भी सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में दूरगामी परिवर्तन का संकेत दिया है।</s>
<s>[INST]प्लेट विवर्तनिकी के माध्यम से द्वीप चापों पर पर्वतों के निर्माण की प्रक्रिया का सोदाहरण विवेचन कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • प्लेट विवर्तनिकी तथा द्वीप चापों पर पर्वत निर्माण के मध्य संबंध। हल करने का दृष्टिकोण • संक्षिप्त भूमिका लिखें। • द्वीप चापों पर पर्वत निर्माण की प्रक्रिया को प्लेट विवर्तनिकी के माध्यम से स्पष्ट करें। प्लेट विवर्तनिकी पर्वत निर्माण संबंधी आधुनिक मत है, जो प्लेटों के अभिसरण की तीन स्थितियों के आधार पर पर्वतों के निर्माण की व्याख्या करता है। इसके अंतर्गत महासागरीय-महाद्वीपीय, महाद्वीपीय-महाद्वीपीय तथा महासागरीय- महासागरीय प्लेटों का अभिसरण शामिल है। जब अभिसारी प्लेट सीमा के दोनों ओर महासागरीय पटल की अवस्थिति होती है तो एक सागरीय पटल दूसरे के नीचे क्षेपित हो जाता है। परिणामस्वरूप इससे उत्पन्न संपीडन द्वारा द्वीप चापों पर पर्वतों का निर्माण होता है। द्वीप चाप मुख्यत: प्रशांत महासागर के पश्चिमी किनारे तथा हिंद महासागर के उत्तरी-पूर्वी किनारे पर विशेष रूप से पाए जाते हैं। महाद्वीपों तथा इस चापाकार द्वीपसमूहों के बीच छिछले समुद्र पाए जाते हैं जिन्हें पृष्ठ चाप बेसिन कहते हैं। जापान सागर, पृष्ठ चाप बेसिन का एक अच्छा उदाहरण है। प्रत्येक चाप के महासागरीय किनारे की तरफ एक गहरा ट्रेंच पाया जाता है। इन ट्रेंचों का निर्माण प्लेटों के क्षेपण का परिणाम है। जब ये प्लेटें गहराई में प्रवेश करती हैं, तो अत्यधिक ताप के कारण पिघलने लगती हैं और पिघला हुआ मैग्मा ज्वालामुखीय चट्टानों के रूप में ऊपर उठने लगता है। ज्वालामुखी उद्भेदन की क्रिया ट्रेंच से महाद्वीप की ओर लगभग 200 किलोमीटर की क्षैतिज दूरी पर होती है। इससे उत्पन्न ताप एवं दाब के कारण चट्टानों में और अधिक रूपांतरण होता है। इसके परिणामस्वरूप विशाल पर्वतों का निर्माण होता है। इस तरह के उदाहरण जापान द्वीप चाप में मिलते हैं। यहाँ मुख्यत: हौन्शु द्वीप में 3000 से 4000 मीटर ऊँचे पर्वत हैं।</s>
<s>[INST]हिन्दी निबंध के विकास में आचार्य रामचंद्र शुक्ल के योगदान पर प्रकाश डालिये।[/INST]उत्तर : आचार्य शुक्ल ने हिन्दी निबंध परंपरा को बहुत कम समय में परिपक्वता के उच्च स्तर तक पहुँचा दिया। उनके योगदान को निम्नलिखित बिंदुओं में व्याख्यायित किया जा सकता है- विषयों के स्तर पर उन्होंने मनोविकारपरक तथा काव्यशास्त्रीय क्षेत्रोें को चुना। उनसे पूर्व, इन दोनों ही क्षेत्रों में निबंध लिखे जा रहे थे किंतु दोनों को परिपक्वता आचार्य शुक्ल ने ही दी। उनके मनोविकारपरक निबंधों में मिलने वाली सूक्ष्मता तथा काव्यशास्त्रीय निबंधों में मिलने वाली मौलिकता उन्हें परंपरा में विशिष्ट स्थान दिलाती है। निबंध परंपरा में शुक्ल जी ने शैली के स्तर पर भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने ऐसी भाषा का प्रयोग किया जो उस युग की अमानकता जैसी समस्याओं से बची हुई थी। इस दृष्टि से जिस मानकीकरण हेतु आचार्य द्विवेदी सरस्वती पत्रिका के माध्यम से प्रयास कर रहे थे, वही कार्य उन्होंने निबंधों में किया। उन्होंने हिन्दी निबंधों को वैज्ञानिक शैली से जोड़ा। इसके पूर्व के निबंधों में वैज्ञानिक शैली की सभी विशेषताएँ एक साथ नहीं मिलती थीं। वस्तुनिष्ठ विश्लेषण की गंभीरता से विचलित हुए बिना उन्होंने वैयक्तिकता, सहृदयता, साहित्यिकता, आत्मनिष्ठता और मनोरंजन जैसे तत्त्वों का पर्याप्त ध्यान रखा जिससे उनके निबंध शुष्कता से बचे रहे। उन्होंने भाषा के स्तर पर कसाव का अनूठा प्रतिमान उपस्थित किया। उनकी भाषा इतनी कसी हुई है कि एक भी शब्द अनावश्यक नहीं मिलता। भाषिक मितव्ययता की यह शैली आगे के साहित्य में अत्यंत प्रचलित होती गई। उपदेशात्मकता की प्रवृत्ति से बचते हुए हास्य विनोद, उदाहरण आदि की शैली से उन्होंने लोकमंगल के पक्ष को पुष्ट किया और सिद्ध किया कि जटिल-से-जटिल और सैद्धांतिक विषयों में भी लोकमंगल का भाव आरोपित किया जा सकता है।</s>
<s>[INST]सूफी विचारधारा ने भक्ति आंदोलन को किस सीमा तक प्रभावित किया था? विश्लेषण करें।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • कथन सूफी विचारधारा द्वारा भक्ति आंदोलन को प्रभावित करने की सीमा से संबंधित है। हल करने का दृष्टिकोण • सूफी विचारधारा एवं भक्ति आंदोलन के विषय में संक्षिप्त उल्लेख के साथ परिचय लिखिये। • सूफी विचारधारा द्वारा भक्ति आंदोलन को प्रभावित करने की सीमा का उल्लेख कीजिये। • उचित निष्कर्ष लिखिये। सूफीवाद इस्लाम के भीतर एक उदारवादी सुधार आंदोलन था, जिसकी उत्पत्ति फारस में हुई थी जो ग्यारहवीं सदी में भारत में फैल गया। भक्ति पंथ का उदय तमिलनाडु में सातवीं और आठवीं सदी के दौरान ही हो चुका था जिसे मध्यकाल में विशाल लोकप्रियता प्राप्त हुई। सूफी विचारधारा द्वारा भक्ति आंदोलन को प्रभावित करने की सीमा का उल्लेख निम्नलिखित रूपों में वर्णित है- ताराचंद, यूसुफ हुसैन एवं प्रो. अजीज अहमद जैसे इतिहासकारों ने भक्ति भावना पर इस्लाम या सूफी विचारधारा के गहरे प्रभाव की पुष्टि की है। इन्होंने शंकराचार्य के अद्वैतवाद एवं रामानंद की भक्ति-भावना पर इसके प्रभाव का उल्लेख किया है। सूफी शिक्षकों के उपदेशों ने रामानंद, कबीर और नानक जैसे भक्ति पंथ के सुधारकों की सोच को आकार दिया। सूफीवाद की उदार एवं गैर-रूढ़िवादी विशेषताएँ मध्यकालीन भक्ति पंथ के संतों पर गहरा प्रभाव रखती थीं। संतों का मन निर्मल होता है और जो सिद्धांत उन्हें अपने लक्ष्य की तरफ ले जाने में उचित प्रतीत होते हैं उन्हें वे निस्संकोच भाव से अपना लेते हैं। अत: कबीर एवं नानक जैसे महान संतों के विचारों में हमें सूफी विचारधारा का मिश्रण दिखलाई पड़ता है। गुरु का महत्त्व, नाम स्मरण, प्रार्थना, ईश्वर के प्रति प्रेम, व्याकुलता एवं विरह की स्थिति, संसार की क्षणभंगुरता, जीवन की सरलता, सच्ची साधना, मानवता से प्रेम, ईश्वर की एकता एवं व्यापकता जैसी समानताओं के चलते इस्लाम के भक्ति भावना पर अत्यधिक प्रभाव की संज्ञा देना अनुचित है। 12वीं सदी से पहले दोनों संस्कृतियों का संपर्क इतना निकटतम नहीं था कि आध्यात्मिक तौर पर वे एक-दूसरे को पूर्ण रूप से प्रभावित कर सकें और 13वीं सदी के बाद यह निर्धारित कर पाना कठिन है कि भक्ति आंदोलन पर इसका कितना प्रभाव पड़ा। भक्ति आंदोलन को मध्यकाल में भले ही व्यापक लोकप्रियता प्राप्त हुई हो लेकिन इसके बुनियादी विचार भारतीय परंपरा में ही मौजूद रहे हैं। भारत का संपूर्ण उपनिषद साहित्य रहस्यवाद से परिपूर्ण है और भगवद्गीता में भक्ति भावना का सुंदर वर्णन है, ऐसे में रहस्यवाद एवं भक्ति भावना का विकास सूफीवाद द्वारा मानना उचित प्रतीत नहीं होता है। संतों द्वारा जाति प्रथा एवं ब्राह्मणों के आडम्बरों की कटु आलोचना प्राचीन भारत में बौद्ध धर्म का महत्त्वपूर्ण भाग था जिसे आगे चलकर नाथपंथी योगियों ने भी अपनाया। भक्ति एवं सूफी आंदोलनों ने ईश्वरीय प्रेम द्वारा मानवता का मार्ग प्रशस्त किया। दोनों में ही बहुत सारी समानताएँ हैं लेकिन भक्ति आंदोलन के मुख्य विचारों पर प्रभाव की सीमा के विषय में निश्चित रूप से कुछ कहना कठिन है।</s>
<s>[INST]‘‘नेताओं का दृष्टिकोण एवं उनके निर्णय ही किसी राष्ट्र के भाग्य का फैसला करते हैं।’’ इस कथन के आलोक में, भारत को एकजुट करने और इसे एक लोकतांत्रिक स्वरूप प्रदान करने में पंडित नेहरू तथा सरदार पटेल की भूमिका का विश्लेषण कीजिये। (250 शब्द)[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • भारत के एकीकरण व इसे लोकतांत्रिक स्वरूप प्रदान करने में नेहरू व पटेल की भूमिका को बताना है। हल करने का दृष्टिकोण • कथन के अनुसार उत्तर प्रारंभ करें। • भारत को एकजुट करने में नेहरू व पटेल की भूमिका को बताएँ। • इसे लोकतांत्रिक स्वरूप प्रदान करने में भूमिका को स्पष्ट करें। • प्रभावी निष्कर्ष लिखें। स्वतंत्रता उपरांत भारत के समक्ष कई चुनौतियाँ विद्यमान थीं, जिनमें तीन प्रमुख चुनौतियाँ थीं- देश का एकीकरण, लोकतांत्रिक व्यवस्था को कायम करना और समावेशी विकास। इनमें देश के एकीकरण को प्राथमिकता प्रदान की गई लेकिन समस्या यह थी कि देश में विद्यमान देशी रियासतों का एकीकरण कैसे किया जाए? उस समय कुल रजवाड़ों की संख्या 565 थी और इनमें से कुछ भारत संघ में शामिल होना नहीं चाहते थे। उपरोक्त चुनौतियों को देखते हुए नेहरू द्वारा रजवाड़ों को भारत संघ में मिलाने की ज़िम्मेदारी सरदार पटेल को दी गई। पटेल ने महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते हुए उन सभी रजवाड़ों, जिनकी सीमाएँ आज़ाद हिन्दुस्तान से मिलती थीं, को शांतिपूर्ण बातचीत के ज़रिये भारत संघ में शामिल कर लिया। किंतु जूनागढ़, हैदराबाद, कश्मीर और मणिपुर की रियासतों को भारत में शामिल करने में कठिनाई का सामना करना पड़ा। पटेल द्वारा रणनीतिक कौशल का परिचय देते हुए हैदराबाद को सैन्य कार्रवाई, जूनागढ़ को जनमत संग्रह तथा नेहरू द्वारा कश्मीर व मणिपुर को विलय पत्र के माध्यम से भारत संघ में शामिल कर लिया गया। रियासतों के विलय के बाद भी राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया पूरी नहीं हो पाई थी तथा आंतरिक सीमाओं को तय किया जाना अभी भी बाकी था। नेहरू राष्ट्र का सीमांकन इस तरह से करना चाह रहे थे ताकि देश की भाषायी व सांस्कृतिक बहुलता की झलक मिले और साथ ही राष्ट्रीय एकता भी खंडित न हो। ऐसे में भाषा के आधार पर राज्यों का गठन सुनिश्चित किया गया और आंध्र प्रदेश का एक नए राज्य के रूप में गठन किया गया। इसके बाद 1956 में राज्य पुनर्गठन अधिनियम के माध्यम से 14 राज्य और 6 केंद्रशासित प्रदेशों का गठन किया गया। राष्ट्र के एकीकरण को सुनिश्चित करने के पश्चात् दूसरी सबसे बड़ी चुनौती थी लोकतांत्रिक प्रक्रिया की स्थापना करना। संविधान को 26 जनवरी, 1950 से ही अमल में लाया जा चुका था। देश का शासन लोकतांत्रिक सरकार द्वारा चलाए जाने का निर्णय लिया गया और 1950 में चुनाव आयोग का गठन किया गया। तत्पश्चात् देश के आकार को देखते हुए चुनाव क्षेत्रों का सीमांकन, मताधिकार प्राप्त वयस्क व्यक्तियों की सूची निर्मित करने, आदि जैसे कार्य किये गए और पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुनाव कराए गए तथा देश में लोकतंत्र की एक मज़बूत नींव रखी गई, जिसके चलते आज भी वैश्विक स्तर पर भारतीय लोकतंत्र एक मिशाल के तौर पर विद्यमान है। इस प्रकार पं. नेहरू व सरदार पटेल का देश के एकीकरण व इसे लोकतंात्रिक स्वरूप प्रदान करने में सराहनीय योगदान रहा है।</s>
<s>[INST]छायावादी कविता के बिंब-सौंदर्य पर प्रकाश डालिये।[/INST]उत्तर : आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कविता में बिंब के महत्व को रेखांकित करते हुए लिखा था कि ‘कविता में अर्थग्रहण नहीं, बिंब ग्रहण होता है। इस कसौटी पर खरे उतरनेवाले काव्यान्दोलनों में छायावाद सर्वोपरि है। जीवन के विविध क्षेत्रों और उसमें भी प्रकृति के अप्रतिम बिंबों की सर्जना करने में छायावादी कविता अद्वितीय है। छायावादी कविता में प्रकृति के विराट बिंबों से लेकर सूक्ष्म बिंबों तक का तथा एकल बिंबों से लेकर संश्लिष्ट बिंबों तक का निर्माण कवियों ने जिस कुशलता के साथ किया है वह छायावादी कविता को शिल्पगत उत्कर्ष प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। निराला की कविता ‘राम की शक्ति-पूजा’ का निम्नांकित संश्लिष्ट एवं विराट प्रकृति-बिंब अपनी भव्यता के कारण कालजयी ही हो गया है- है अमानिशा, उगलता गगन धन अंधकार खो रहा दिशा का ज्ञान, स्तब्ध है पवन चार अप्रतिहत गरज रहा पीछे अम्बुधि विशाल भूघर ज्यों ध्यान-मग्न, केवल जलती मशाल, इसी प्रकार प्रसाद की कामायनी का आरंभ ही ऐसे ही बिम्ब-चित्रण से हुआ है- हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर बैठ शिला की शीतल छाँह एक पुरुष भींगे नयनों से देख रहा था प्रलय-प्रवाह ‘कामायनी’ में एकल ही नहीं, संश्लिष्ट बिंब भी पर्याप्त मात्रा में प्रयुक्त हुए हैं। उदाहरण के लिए- दिग्दाहों से घूम उठे, या जलघर उठे क्षितिज-तट के, सघन गगन में भीम प्रकंपन, झंझा के चलते झटके</s>
<s>[INST]अज्ञेय के यात्रा-साहित्य का परिचय देते हुए उसके वैशिष्ट्य पर प्रकाश डालिये।[/INST]उत्तर : हिन्दी साहित्य में अज्ञेय की महत्वपूर्ण पहचान का कारण उनकी कविताओं, कथा-साहित्य, संस्मरणों एवं चिन्तन-ग्रंथों के साथ-साथ उनका यात्रा-साहित्य भी है। ‘अरे यायावर रहेगा याद’ तथा ‘एक बूँद सहसा उछली’ उनके महत्वपूर्ण यात्रा-वृत्तांत हैं और ये संपूर्ण हिन्दी यात्रा-साहित्य में अद्वितीय स्थान रखते हैं। ‘अरे यायावर रहेगा याद’ में भारतीय क्षेत्रों की यात्रा का वर्णन है। असम, पंजाब, कश्मीर, हिमाचल प्रदेश आदि के विभिन्न भागों के यात्रा-वर्णन इसमें संकलित हैं। ‘एक बूँद सहसा उछली’ में अज्ञेय ने अपनी यूरोपीय यात्रा को सृजनात्मक रूप प्रदान किया है। इसमें भौगोलिक स्वरूप के साथ-साथ यूरोप के वर्तमान परिवेश को समझने और उसके कारण जानने के प्रयत्न में उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का संकेत है। विभिन्न देशों या नगरों के नागरिक चरित्र का विश्लेषण है। उनके रहन-सहन, शिष्टाचार, सभ्यता, आपसी संबंध, स्वभाव आदि का उल्लेख है। संपूर्ण यूरोप की चेतना को समझने की चेष्टा है। यूरोप के विभिन्न देशों की विशिष्टताओं की पृथक-पृथक पहचान है। कुल मिलाकर अज्ञेय अपने यात्रा-साहित्य में यात्रा-स्थलों की ही भरपूर जानकारी नहीं देते, उनसे जुड़े मानव के इतिहास और सांस्कृतिक चरित्र पर भी उनकी आँख बराबर रहती है। उनमें कवि-कथाकार और संस्कृति-चिंतक का संश्लिष्ट व्यक्तित्व बोलता दिखाई देता है। अनुभव की प्रामाणिकता तथा अनुभूति की गहराई उनके यात्रा-साहित्य को विशिष्टता प्रदान करती है। वे उनमें बाह्य यात्राओं के साथ अंतर्यात्राएँ भी करते दिखाई देते हैं। इन मात्रा-वृतांतों का शिल्प भी रचनात्मकता की दृष्टि से अत्यंत उत्कृष्ट है।</s>
<s>[INST]मौर्य साम्राज्य की तकनीकी प्रगति, धार्मिक सहिष्णुता और भौगोलिक एकता उसकी कला में परिलक्षित होती है। मौर्यकालीन गुफाओं, स्तूपों एवं स्तंभों के माध्यम से उपर्युक्त कथन की विवेचना कीजिये। (150 शब्द)[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • मौर्यकालीन कला यथा-गुफाओं, स्तूपों एवं स्तंभों के माध्यम से उसकी तकनीकी प्रगति, धार्मिक सहिष्णुता और भौगोलिक एकता को स्पष्ट करना है। हल करने का दृष्टिकोण • संक्षेप में मौर्यकालीन स्थापत्य कला को स्पष्ट करते हुए उत्तर प्रारंभ करें। • गुफाओं, स्तूपों एवं स्तंभों के माध्यम से मौर्यकालीन तकनीकी प्रगति, धार्मिक सहिष्णुता और भौगोलिक एकता को स्पष्ट करें। • प्रभावी निष्कर्ष लिखें। भारतीय स्थापत्य कला के क्षेत्र में मौर्यकालीन स्थापत्य कला का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस काल में ही सर्वप्रथम स्थापत्य कला के सुसंगठित क्रिया-कलाप के दर्शन होते हैं। इस काल में ही कला के क्षेत्र में सर्वप्रथम पाषाण का प्रयोग कर इसे चिरस्थायी स्वरूप प्रदान किया गया। अशोक के काल तक आते-आते मौर्यकालीन स्थापत्य अपने चरमोत्कर्ष पर था। इसके समय में स्तंभ, स्तूप, वेदिका तथा गुफाओं का अधिक संख्या में निर्माण किया गया जो भौगोलिक एकता को सूचित करने के साथ-साथ तकनीकी प्रगति तथा धार्मिक सहिष्णुता के भी परिचायक हैं। मौर्यकालीन स्थापत्य अपने तकनीकी स्वरूप में काफी उत्कृष्ट था। स्वतंत्र रूप से विकसित अशोक का स्तंभ एकाष्मक पत्थर से तराशकर बनाए गए हैं जिन्हें बिना किसी आधार के भूमि पर टिकाया गया था। सपाट प्रकार के अशोक के स्तंभ नीचे से ऊपर की ओर पतले होते गए हैं। इस स्तंभ की सबसे बड़ी विशेषता यह थी की इस पर पशुआें की आकृति को प्रधानता दी गई है तथा यह उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम भारत सभी जगह से मिले हैं जो मौर्य साम्राज्य की भौगोलिक एकता को दर्शाता है। चैत्य का निर्माण पर्वत गुफाओं को खोदकर किया जाता था। स्तूप में एक मेधि के ऊपर उल्टे कटोरे की आकृति के एक गुहा का निर्माण किया जाता था जिसे ‘अंड’ कहा जाता था। स्तूप के सबसे ऊपर चोटी पर धर्मिका का निर्माण किया जाता था। अत: मौर्यकालीन तकनीकी कौशल बेहतर स्थिति में था। अशोक के सारनाथ स्तंभ में उत्कीर्ण सिंह शीर्ष सर्वोत्कृष्ट है जो चक्रवर्ती सम्राट अशोक की शक्ति के प्रतीक के रूप में स्थापित है तथा इससे धर्म के प्रचार की सूचना प्राप्त होती है। विभिन्न स्थानों से प्राप्त अशोक के शिलालेख उसके भौगोलिक प्रसार को संदर्भित करते हैं। सारनाथ स्तंभ में सिंहों के मस्तक पर महाधर्मचक्र स्थापित किया गया जिसमें मूलत: 32 तीलियाँ हैं जो शक्ति के ऊपर धर्म के विजय को संदर्भित करता है। इसमें बुद्ध तथा अशोक दोनों का व्यक्तित्व दृष्टिगोचर होता है। अशोक का स्तंभ उसके ‘धम्म’ के स्वरूप को स्पष्ट करता है। स्तूप का निर्माण बुद्ध की समाधियों के रूप में किया गया था जो बौद्ध धर्म में अपार आस्था को प्रकट करता है। इस काल में पर्वत गुफाओं को काटकर आजीवकों के लिये निवास स्थान बनाने की कला का भी विकास हुआ था जिसमें ‘सुदामा की गुफा’ तथा ‘कर्ण चौपड़’ नामक गुफा महत्त्वपूर्ण है। यह कार्य धार्मिक सहिष्णुता को दर्शाता है। इस प्रकार उपरोक्त विश्लेषण के आधार पर कहा जा सकता है कि मौर्यकालीन स्थापत्य के अंतर्गत शामिल गुफाएँ, स्तूप एवं स्तंभ इस काल की तकनीकी प्रगति, धार्मिक सहिष्णुता और भौगोलिक एकता को संदर्भित करते हैं।</s>
<s>[INST]अवस्थिति विश्लेषण की अवधारणा की आलोचना के आधारों को स्पष्ट कीजिये। (200 शब्द)[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • अवस्थिति विश्लेषण की अवधारणा की आलोचना के आधारों को बताएँ। हल करने का दृष्टिकोण • अवस्थिति विश्लेषण की अवधारणा का संक्षिप्त परिचय देें। • अवधारणा की आलोचना के आधारों को स्पष्ट करें। अवस्थिति विश्लेषण स्थानिक विज्ञान से जुड़ी विधि है, जो प्रत्यक्षवाद के दार्शनिक विचार पर आधारित है। स्थानिक व्यवस्था के प्रारूपों के सिद्धांतों की चर्चा के कारण यह मात्रात्मक क्रांति का ही अंग है। यह अवधारणा आर्थिक भूगोल में सर्वाधिक व्यवहार्य है। इस अवधारणा के अनुसार मानव न्यूनतम लागत वाले स्थान के समीप संबंधित क्रियाओं की पूर्ति करता है। परंतु हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि भिन्न-भिन्न समाज अपने व्यवहार के अनुकूल स्थान का निर्धारण करते हैं। इसी के आधार पर इसकी आलोचना के आधारों को समझा जा सकता है। आलोचना के आधार- इसका प्रत्यक्षवाद पर आधारित होना इसकी आलोचना के कारणों में से एक है। मानव और वातावरण से संबंधित नीति, प्रासंगिक, नियामक और आदर्श प्रश्नों का इसमें अभाव है। व्यावहारिक रूप में इस अवधारणा की वास्तविकता संदिग्ध है। पूंजीवाद से इसका संबंध इसकी आलोचना का एक कारण है। पूंजीवाद ने सामाजिक सहजता एवं सहयोग की भावना को नष्ट कर दिया है। इस अवधारणा से मनुष्य मशीनवत् कार्य करने वाला तथा मात्रात्मक समीकरणों में फँसा निर्जीव प्राणी बन गया है। इसमें उत्पादन पर किसी प्रकार के नियंत्रण के अभाव में औद्योगीकरण सीमोल्लंघन की स्थिति में पहुँच जाता है। वास्तव में विश्व की जटिलताओं के प्रति उदासीनता इसकी आलोचना का एक अन्य आधार है। भूमंडलीकरण के दौर में समाजों में आर्थिक अंतर्निर्भरता वातावरणीय निर्भरता को औचित्यहीन बनाती है। अपनी तमाम कमियों के बावजूद इस अवधारणा की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि इसने अर्थशास्त्र एवं भूगोल के बीच की खाई को पाटा है।</s>
<s>[INST]भीष्म साहनी के उपन्यासों में निहित सामाजिक चेतना पर प्रकाश डालिये।[/INST]उत्तर : हिन्दी उपन्यासकारों में प्रेमचंद के बाद गहरी सामाजिक चेतना से युक्त उपन्यासकारों में भीष्म साहनी का नाम अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। उनके उपन्यासों में निहित सामाजिकता का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष एक गैर-सांप्रदायिक सामाजिक दृष्टिकोण की खोज है। अपने उपन्यास ‘झरोखे’, ‘तमस’ और ‘नीलू नीलिमा नीलोफर’ में वे एक गंभीर रचनात्मक विमर्श के साथ ऐसा करते दिखाई देते हैं। ‘तमस’ में भारतीय परिप्रेक्ष्य में सांप्रदायिकता से जुड़े विभिन्न पहलुओं; सत्ता एवं राजनीति द्वारा धर्म का अपने स्वार्थ के लिये इस्तेमाल, सभी धर्मों में निहित सांप्रदायिक मानसिकता का समान चरित्र, धर्मांधता और कट्टरता का पीढ़ी-दर-पीढ़ी संक्रमण, सांप्रदायिकता का सर्वाधिक शिकार निम्न वर्ग के लोगों का होना आदि, का उद्घाटन हुआ है। भीष्म साहनी ने अपने उपन्यासों में भारतीय समाज में स्त्री की पराधीनता जैसी समस्या को भी चित्रित किया है। ‘कड़ियाँ’ उपन्यास में प्रमिला के माध्यम से उन्होंने नारी की विडंबनापूर्ण स्थिति के साथ उसके भीतर से प्रकट होती एक संघर्षशील नई नारी की भी पहचान की है। भीष्म साहनी के उपन्यासों में निम्न मध्यवर्गीय जीवन के संघर्षों एवं त्रासदियों का भी चित्रण हुआ है। कुल मिलाकर भीष्म साहनी अपने उपन्यासों में यह लक्ष्य लेकर चले हैं कि इतिहास, संस्कृति एवं मूल्यों के यथास्थितिवादी भ्रमों से मुक्त तभी हुआ जा सकता है जब मुनष्य को सामाजिक विकास के यथार्थवादी दृष्टिकोण से परिचित कराए जाए।</s>
<s>[INST]अकबर तथा औरंगजेब की धार्मिक नीतियों की तुलना करें।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • कथन अकबर एवं औरंगज़ेब की धार्मिक नीतियों की तुलना से संबंधित है। हल करने का दृष्टिकोण • अकबर और औरंगज़ेब की धार्मिक नीतियों के संक्षिप्त उल्लेख के साथ परिचय लिखिये। • अकबर एवं औरंगज़ेब की धार्मिक नीतियों के उल्लेख के आधार पर तुलना प्रस्तुत कीजिये। • उचित निष्कर्ष लिखिये। धर्म की विशेषता एवं महत्त्व को समझते हुए मध्यकालीन भारत में न केवल अकबर एवं औरंगज़ेब बल्कि अन्य शासकों ने भी धर्म का प्रयोग अपने निजी एवं राजनीतिक लाभों के लिये खुलकर किया। इतिहास से यह सिद्ध होता है कि इनमें से किसी ने कभी धर्म के लिये युद्ध नहीं किया बल्कि समय-दर-समय उसमें आवश्यकतानुरूप परिवर्तन किये। अकबर की धार्मिक नीतियों का विवरण निम्नलिखित रूपों में वर्णित है- अकबर की धार्मिक नीति सूफी संतों के साथ उसके शुरुआती संपर्क, उसके शिक्षक अब्दुल लतीफ द्वारा दी गई शिक्षा, राजपूत महिलाओं के साथ उसकी शादी, शेख मुबारक जैसे बौद्धिक दिग्गजों के साथ उसका जुड़ाव, उसके बेटे अबुल फैजी एवं अबुल फजल और साथ ही उसकी हिंदुस्तान में एक शानदार साम्राज्य स्थापित करने की महत्त्वाकांक्षा जैसे कारकों से प्रभावित थी। अकबर पहले स्वयं के धर्म को न मानने वालों का धार्मिक उत्पीड़न करता था और इसे ही इस्लाम समझता था। लेकिन जैसे-जैसे उसका ज्ञान बढ़ा, वह इस बात पर शर्मिंदा भी हुआ। अकबर ने अपने साम्राज्य के विभिन्न स्थानों से तीर्थयात्रियों से लिये जाने वाले करों की वसूली बंद करवा दी और मुस्लिम राज्य में रहने वाली गैर-मुस्लिम प्रजा से लिये जाने वाले कर ‘जजिया’ को भी बंद करवा दिया था। अकबर ने इबादतखाने की स्थापना धार्मिक विषयों पर वाद-विवाद के उद्देश्य से करवाई थी। इसमें हिंदू, जैन, ईसाई और पारसी धर्म से जुड़े विद्वान भी आमंत्रित किये जाते थे। महजर ने यह अधिकार दिया कि उलमा से मतभेद की स्थिति में कुरान के कानूनों के दायरे में साम्राज्य की ज़रूरतों को ध्यान में रखते हुए अकबर सर्वोत्तम विचार को लागू कर सके। इसने धार्मिक एवं भौतिक सत्ता को विधिवत रूप से अकबर के हाथों में केंद्रित करने का कार्य किया। विभिन्न धर्मों के बीच मतभेद की खाई को भरने के लिये अकबर ने 1582 में नया धर्म दीन-ए-इलाही चलाया। यह एक ईश्वर में विश्वास करता था। इसमें सभी धर्मों के अच्छे तत्त्व समाहित थे। इसका आधार तर्कसंगत था। औरंगज़ेब की धार्मिक नीतियों का विवरण निम्नलिखित रूपों में वर्णित है- 1559 ई. में औरंगज़ेब ने बनारस के पुजारियों को एक चार्टर दिया था जिसमें पुराने मंदिरों को न गिराने, ब्राह्मणों एवं दूसरे हिन्दुओं को परेशान न करने का उल्लेख था। 1666 ई. के पश्चात् ‘जजिया’ पुन: लगाया गया, गैर मुस्लिमों पर तीर्थयात्रा कर भी आरोपित किया गया एवं उन पर आयात कर बढ़ाया गया। अंधविश्वास एवं इस्लाम के विरुद्ध होने के आधार पर झरोखा दर्शन एवं सिर्फ अल्लाह के सामने किये जाने के आधार पर बादशाह के सामने सिजदा किये जाने पर रोक और होली व मुहर्रम को सार्वजनिक रूप से मनाने पर रोक लगा दी गई। आयात कर को लागू करने के पीछे बहुत सख्ती नहीं दिखाई गई और तीर्थयात्रा कर के पीछे धार्मिक कट्टरता से ज़्यादा आर्थिक लक्ष्य नज़र आता है। मंदिरों को गिराने का आदेश सभी मंदिरों की बजाय कुछ खास मंदिरों के लिये ही था और ज़्यादातर आदेश कागज़ पर ही रहे तथा जजिया के पीछे धार्मिक कट्टरता के अतिरिक्त आर्थिक कारण भी मौजूद था। औरंगज़ेब के काल में हिंदू मनसबदारों की संख्या में तीव्र वृद्धि, जिसमें पूर्व की तुलना में हिंदू उमरा की संख्या का 31.6% होना, हिन्दुओं के प्रति स्पष्ट नीति का परिचायक है। राजपूतों के प्रति नीति को 1665 ई. में सामान्यतौर पर शाही खानदान को मिलने वाले दक्षिण के सूबे का भार जयसिंह को सौंपे जाने के आधार पर समझा जा सकता है। औरंगज़ेब ने भी नीति में परिवर्तन से पूर्व पूर्वजों जैसा ही बर्ताव किया, इसका मतलब यह नहीं कि वह अकबर जैसा था। औरंगज़ेब के विपरीत अकबर ने रूढ़िवादी उलमा वर्ग पर उचित नियंत्रण कायम करने में बेहतर सफलता हासिल की थी। अकबर के विपरीत उपर्युक्त कार्रवाइयों से औरंगज़ेब के संकीर्ण एवं सीमित दृष्टिकोण का ही पता चलता है। औरंगज़ेब कई मायनों में अकबर जैसे शासकों के विपरीत इतिहास से सबक लेने में असफल एवं अदूरदर्शी साबित हुआ। इस्लाम के साथ हमदर्दी का कारण भले ही औरंगज़ेब की धार्मिक कट्टरता की बजाय राजनीतिक आवश्यकता का भाग हो लेकिन इसे उचित नहीं ठहराया जा सकता।</s>
<s>[INST]क्षेत्रीय विभेदीकरण की संकल्पना को स्पष्ट कीजिये तथा यह बताइए कि इसकी आलोचना के आधार कितने प्रासंगिक हैं?[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • क्षेत्रीय विभेदीकरण की संकल्पना तथा आलोचना के आधारों की प्रासंगिकता। हल करने का दृष्टिकोण • क्षेत्रीय विभेदीकरण की संकल्पना को स्पष्ट करें। • आलोचना के आधारों की चर्चा करें। • निष्कर्ष में आलोचना के आधारों की प्रासंगिकता स्पष्ट करें। एक क्षेत्र में व्याप्त विशिष्टता का दूसरे क्षेत्र से भिन्न होना क्षेत्रीय विभेदीकरण कहलाता है। भूगोल में क्षेत्रीय विभेदीकरण की नींव हिकेटियस ने रखी थी तथा स्ट्रैबो ने इसे प्रदेश विज्ञान के रूप में प्रस्तुत किया। इसके अंतर्गत पृथ्वी के विभिन्न क्षेत्रों का अध्ययन उनकी भौगोलिक पृष्ठभूमि में किया जाता है। चूँकि प्रत्येक क्षेत्र का अपना भौगोलिक महत्त्व होता है, अत: वह अन्य क्षेत्र से भिन्न होता है। 1950 तथा 1960 के दशक में मात्रात्मक क्रांति के कारण यह अप्रासंगिक हो गया परंतु 1980 के दशक में यह पुन: मानव भूगोल का केंद्र बिंदु बन गया। आलोचना के आधार- इस संकल्पना में क्षेत्रों में व्याप्त भिन्नताओं पर मुख्य ज़ोर दिया गया तथा सादृश्यता की अवहेलना की गई, जबकि कई बार ऐसा देखा गया है कि दो भिन्न क्षेत्रों में भिन्नता से ज़्यादा सादृश्यता के तत्त्व विद्यमान रहते हैं। अत: यह भूगोल का एकपक्षीय वर्णन है। हैटनर और सॉवर द्वारा इस संकल्पना के संदर्भ में प्रयोग किये गए शब्द, अर्थ में भिन्नता दर्शाते हैं। हैटनर द्वारा प्रस्तुत क्षेत्रीय विभेदन का वास्तविक अर्थ क्षेत्रों में अंतर नहीं बल्कि क्षेत्रों की विविधता है, जबकि सॉवर स्पष्ट रूप से अंतर की बात करता है। आलोचना का एक अन्य बिंदु यह है कि भूगोल केवल क्षेत्रीय भिन्नता ही नहीं बल्कि क्षेत्रीय संबंधों का भी अध्ययन है। दो क्षेत्रों में संरचना, उच्चावच, जलवायु, मृदा आदि में भिन्नता के साथ-साथ कुछ समानताएँ भी पाई जा सकती हैं। किन्हीं दो क्षेत्रों के मध्य स्पष्ट सीमा रेखा का निर्धारण कठिन कार्य है क्योंकि सामाजिक समुदायों में आर्थिक, सांस्कृतिक व नैतिक बदलाव तीव्रता से घटित होते हैं। इसका अध्ययन कोई प्रभावी व स्थायी निष्कर्ष प्रस्तुत नहीं करता तथा कोई भी प्रदेश पूर्णरूप से अलग और स्वावलंबी नहीं होता। यद्यपि इसकी आलोचना करते हुए इसे अव्यावहारिक बताया गया है परंतु इसके आधार पर विषय की परिभाषा अत्यंत तर्कपूर्ण, वैज्ञानिक और यथार्थपरक की जा सकती है। साथ ही, इसने प्रादेशिक भूगोल के अध्ययन को एक नवीन आयाम प्रदान किया।</s>
<s>[INST]मार्क्सवादी प्रभाव के आलोक में निराला की प्रगति-चेतना पर विचार कीजिये।[/INST]उत्तर : निराला के काव्य-विकास को सामान्यत: तीन चरणों में विभक्त किया जाता है। प्रथम चरण 1920 से 1936, द्वितीय चरण 1936 से 1950 तथा तृतीय चरण 1950 से 1961 ई. तक। इनमें द्वितीय चरण की कविताओं में निराला में प्रगतिशील चेतना दिखाई देती है। इस चरण की कविताओं की सर्वप्रमुख विशेषता यथार्थवाद है। ‘कुकुरमुत्ता’ (प्रथम संस्करण), ‘अजिमा’, ‘नये पत्ते’ कविताओं में जो व्यंग्य दिखाई देता है उनके भीतर निराला के सामाजिक यथार्थ का गहरा बोध छिपा हुआ है। ‘कुकुरमुत्ता’ में तो व्यंग्य की दोहरी धार है, उसमें एक ओर पूंजीपति वर्ग पर व्यंग्य है तो दूसरी ओर संकीर्ण प्रगतिशील दृष्टि पर। निराला की प्रगतिशील चेतना ‘नये पत्ते’ की ‘कुत्ता भौंकने लगा’, ‘झींगुर डरकर बोला’, ‘उछाल मारता चला गया’, ‘महगू महँगा रहा’ जैसी कविताओं में अपने चरम रूप में अभिव्यक्त हुई है। (नोट: विस्तार के लिये ‘काव्य-परिचय’ में ‘अणिमा’, ‘कुकुरमुत्ता’, ‘बेला’ तथा ‘नये पत्ते’ का विश्लेषण देखें।) निराला की उपर्युक्त प्रगतिशील चेतना को कई आलोचकों ने सीधे-सीधे मार्क्सवादी प्रभाव से जोड़कर देखा है। लेकिन ध्यातव्य है उनकी 1936 से पहले की कई कविताओं में भी प्रगतिशील दृष्टि मौजूद है। ‘विधवा’, ‘भिक्षुक’, ‘तोड़ती पत्थर’ आदि ऐसी ही कविताएँ हैं। अत: यह तो स्वीकार किया जा सकता है कि बाद में उन पर मार्क्सवादी चिंतन का कुछ प्रभाव पड़ा होगा, लेकिन उनकी प्रगतिशील चेतना से युक्त काव्य को मार्क्सवाद का परिणाम मानना उचित नहीं है।</s>
<s>[INST]अलाउद्दीन खिलजी द्वारा विभिन्न विभागों में शुरू किये गए सुधारों की चर्चा करें। सुधार किस सीमा तक सफल रहे इसका मूल्यांकन करें।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • पहला भाग अलाउद्दीन खिलजी द्वारा विभिन्न विभागों में शुरू किये गए सुधारों की चर्चा से संबंधित है। • दूसरा भाग सुधारों की सफलता की सीमा के मूल्यांकन से संबंधित है। हल करने का दृष्टिकोण • अलाउद्दीन खिलजी के सुधारों के विषय में संक्षिप्त उल्लेख के साथ परिचय लिखिये। • अलाउद्दीन खिलजी द्वारा विभिन्न विभागों में शुरू किये गए सुधारों की चर्चा कीजिये। • सुधारों की सफलता की सीमा का मूल्यांकन प्रस्तुत कीजिये। • उचित निष्कर्ष लिखिये। अलाउद्दीन खिलजी ने न केवल राज्य का विस्तार किया बल्कि उसने अपने सुधारों के ज़रिये एक प्रभावशाली शासन-तंत्र भी प्रदान किया। अलाउद्दीन खिलजी द्वारा विभिन्न विभागों में शुरू किये गए सुधार निम्नलिखित हैं- अलाउद्दीन खिलजी ने एक बड़ी स्थायी सेना को बनाए रखा और उन्हें शाही खजाने से नकदी में भुगतान किया। सेना की अधिकतम दक्षता सुनिश्चित करने के क्रम में समय-समय पर सख्त समीक्षा की जाती थी। विद्रोहों के लिये मूल कारण मानते हुए शराब और दवाओं की सार्वजनिक बिक्री और सुल्तान की अनुमति के बिना सामाजिक समारोहों एवं उत्सवों को मनाना प्रतिबंधित कर दिया गया था। सैनिकों को नकद में वेतन देने की शुरुआत ने कीमत विनियमन के लिये प्रेरित किया जिसे सार्वजनिक रूप से बाज़ार सुधार के नाम से जाना जाता हैै। अलाउद्दीन खिलजी ने दिल्ली में चार अलग-अलग बाज़ारों की स्थापना की जिनमें पहला अनाज के लिये; दूसरा कपड़ा, चीनी, सूखे फल, मक्खन और तेल के लिये; तीसरा घोड़ों, दासों और पशुओं के लिये तथा चौथा विविध वस्तुओं के लिये था। अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली का पहला सुल्तान था जिसने भूमि की माप के आदेश दिये थे। इसके भू-राजस्व सुधारों ने शेरशाह और अकबर हेतु भविष्य के सुधारों के लिये एक आधार उपलब्ध कराया। सुल्तान को सैनिकों का भुगतान नकद में करने हेतु सक्षम बनाने के लिये भू-राजस्व नकदी में एकत्र की जाती थी। अलाउद्दीन खिलजी ने घुड़सवारों एवं लिपिकों को डाक चौकियों पर नियुक्त किया जो सुल्तान को समाचार पहुँचाते थे। अलाउद्दीन खिलजी ने पुलिस विभाग और गुप्तचर पद्धति को ठोस रूप में संगठित किया। पुलिस विभाग में नए पदों का सृजन किया और योग्य व्यक्तियों की नियुक्ति की। सुल्तान स्वयं भी गुलामों लड़कों को कीमतों की जाँच के लिये अनेक वस्तुओं को खरीदने के लिये भेजता था। पक्ष-विपक्ष के उल्लेख के साथ सुधारों की सफलता की सीमा का मूल्यांकन निम्नलिखित रूपों में वर्णित है- अफसर काफी सावधानीपूर्वक कीमतों का सर्वेक्षण करते थे और निश्चित दरों का उल्लंघन करने वाले व्यापारियों को सज़ा मिलती थी। यहाँ तक कि अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल में अकाल के दौरान भी उसी कीमत को बनाए रखा गया था। अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल में बड़े ज़मींदार भी भूमि कर देने से नहीं बच सकते थे। अलाउद्दीन की डाक व्यवस्था पर्याप्त कुशलता के साथ कार्यरत थी और इससे सुल्तान को विद्रोहों एवं युद्ध अभियानों के समाचार शीघ्रतापूर्वक प्राप्त होते थे। अलाउद्दीन के बाज़ार की सफलता का श्रेय बरीद एवं मुन्हियों जैसे सूचना प्रदाताओं को जाता है। राजस्व एकत्रीकरण में एक दोष त्रुटिपूर्ण वसूली थी जिससे बहुधा राशि बिना वसूल किये ही रह जाती थी। खालसा भूमि के विस्तार से निचले दर्जे के राजस्व कर्मचारियों की संख्या में वृद्धि हुई जिसमें अधिकांश भ्रष्ट-लुटेरे भी थे। यह स्पष्ट नहीं है कि दिल्ली के बाज़ार के नियम प्रांतीय राजधानियों और नगरों में भी लागू होते थे या नहीं। समकालीन परिस्थितियों में अलाउद्दीन खिलजी द्वारा किये गए सुधार अहम स्थान रखते थे। हालाँकि कुछ त्रुटियाँ थीं, जिसमेें प्रणालियों का विकास के दौर में होना भी एक प्रमुख कारण था।</s>
<s>[INST]प्लेट विवर्तनिकी के माध्यम से द्वीप चापों पर पर्वतों के निर्माण की प्रक्रिया का सोदाहरण विवेचन कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद प्लेट विवर्तनिकी तथा द्वीप चापों पर पर्वत निर्माण के मध्य संबंध। हल करने का दृष्टिकोण संक्षिप्त भूमिका लिखें। द्वीप चापों पर पर्वत निर्माण की प्रक्रिया को प्लेट विवर्तनिकी के माध्यम से स्पष्ट करें। प्लेट विवर्तनिकी पर्वत निर्माण संबंधी आधुनिक मत है, जो प्लेटों के अभिसरण की तीन स्थितियों के आधार पर पर्वतों के निर्माण की व्याख्या करता है। इसके अंतर्गत महासागरीय-महाद्वीपीय, महाद्वीपीय-महाद्वीपीय तथा महासागरीय- महासागरीय प्लेटों का अभिसरण शामिल है। जब अभिसारी प्लेट सीमा के दोनों तरफ महासागरीय पटल की अवस्थिति होती है तो एक सागरीय पटल दूसरे के नीचे क्षेपित हो जाता है। परिणामस्वरूप इससे उत्पन्न संपीडन द्वारा द्वीप चापों पर पर्वतों का निर्माण होता है। द्वीप चाप मुख्यत: प्रशांत महासागर के पश्चिमी किनारे तथा हिंद महासागर के उत्तरी-पूर्वी किनारे पर विशेष रूप से पाए जाते हैं। महाद्वीपों तथा इस चापाकार द्वीपसमूहों के बीच छिछले समुद्र मिलते हैं जिन्हें पृष्ठ चाप बेसिन कहते हैं। जापान सागर, पृष्ठ चाप बेसिन का एक अच्छा उदाहरण है। प्रत्येक चाप के महासागरीय किनारे की तरफ एक गहरा ट्रेंच पाया जाता है। इन ट्रेंचों का निर्माण प्लेटों के क्षेपण का परिणाम है। जब ये प्लेटें गहराई में प्रवेश करती हैं, तो अत्यधिक ताप के कारण पिघलने लगती हैं और पिघला हुआ मैग्मा ज्वालामुखीय चट्टानों के रूप में ऊपर उठने लगता है। ज्वालामुखी उद्भेदन की क्रिया ट्रेंच से महाद्वीप की ओर लगभग 200 किलोमीटर की क्षैतिज दूरी पर होती है। इससे उत्पन्न ताप एवं दाब के कारण चट्टानों का और अधिक रूपांतरण होता है। इसके परिणामस्वरूप विशाल पर्वतों का निर्माण होता है। इस तरह के उदाहरण जापान द्वीप चाप में मिलते हैं। यहाँ मुख्यत: हौन्शु द्वीप में 3000 से 4000 मीटर ऊँचे पर्वत हैं।</s>
<s>[INST]क्या भक्तिकाव्य को लोकजागरण का काव्य कहना उचित है? सुचिंतित विचार प्रस्तुत कीजिये।[/INST]उत्तर : आलोचक रामविलास शर्मा ने आचार्य रामचंद्र शुक्ल के मतों का संदर्भ देते हुए भक्तिकाव्य को लोकजागरण का काव्य कहा है। संभवत: ब्रह्म के प्रति प्रबल आस्था ने भक्त कवियों को इतना निर्भय बना दिया कि उनका काव्य सामंती अँधेरे को चुनौती देता हुआ लोकजागरण का प्रयास करता है। भक्तिकाव्य में लोकजागरण का प्रयास भाषा व भाव दोनों स्तरों पर दिखता है। भक्तिकाव्य ने काव्यभाषा के रूप में संस्कृत को अपदस्थ कर लोक भाषाओं को काव्यभाषा का दर्जा दिलाया। यह लोकजागरण की दृष्टि से आवश्यक भी था क्योंकि लोक की भाषा ही लोकजागरण की भाषा हो सकती है। लोकभाषा के पक्ष में कबीर व तुलसी एक साथ खड़े नज़र आते हैं- ‘‘संस्किरत है कूपजल, भाखा बहता नीर।’’-कबीर ‘‘का भाषा का संस्कृत, प्रेम चाहिये साँच। काज जु आवै कामरी, का लै करिअ कुमाच।।’’- तुलसी भक्तिकाव्य में भाषा के साथ-साथ कथानक भी लोक से ही लिया गया है। यहाँ तक कि मुस्लिम सूफी कवियों ने भी अपने काव्य के आधार के रूप में पद्मावती व हीरामन तोते जैसी लोक कथाएँ ही लीं ताकि उनका संदेश लोक तक सीधे पहुँच सके। सामंती समाज में जहाँ नारी उपभोग की वस्तु मानी जाती है वहाँ नारियों को प्रेम की स्वतंत्रता देना अपने आप में एक लोकजागरण का कार्य है और सूर की गोपियों को यह स्वतंत्रता हासिल है। नारियों के विषय में प्रगतिशील न माने जाने वाले कवि तुलसी भी ‘‘कत विधि सृजी नारि जग मांही, पराधीन सपनेहु सुख नाहीं’’ कहते दिखाई देते हैं। भक्ति काव्य ने जाति व्यवस्था के विरुद्ध सशक्त संघर्ष किया है। कबीर ने तो जाति व्यवस्था के विरुद्ध मोर्चा ही खोल दिया। उन्होंने भक्ति के स्तर पर बेहद स्पष्ट कर दिया कि ‘हरि को भजे सो हरि का होई, जाति पांति पूछई नहिं कोई’। तुलसी कई जगह विप्र चरणों की वंदना करने के बाद भी अंतत: प्रभु के गोत्र को ही भक्त का गोत्र बताते हैं- ‘साह ही को गोत गोत होत है गुलाम को’। लोकजागरण में बाधक बनने वाले शास्त्रवाद के खिलाफ संत काव्यधारा विशेष रूप से मुखर है। संत कवियों को ‘कागद लेखी’ नहीं ‘आंखन देखी’ पर यकीन है। सूर के यहाँ भी अनपढ़ गोपियाँ शास्त्रज्ञ उद्धव को पराजित कर देती हैं जो शास्त्रवाद पर जाग्रत लोक की विजय को प्रदर्शित करता है। भक्त कवि तत्कालीन राजनीतिक व्यवस्था से भी अनजान नहीं हैं और इस व्यवस्था के विरुद्ध लोक के साथ खड़े दिखाई देते हैं। तुलसी का कलियुग-वर्णन आर्थिक, सामाजिक-राजनीतिक प्रत्येक स्तर पर अपने समय की विसंगतियों की पहचान करता है जो लोकजागरण का एक विशिष्ट पहलू है। वह न केवल इस लोक में शासकों के दुराचरण की आलोचना करते हैं बल्कि प्रजा को दुखी रखने वाले राजाओं के लिये परलोक में नर्क के रूप में दंड की व्यवस्था भी करते हैं और ‘रामराज्य’ के रूप में एक आदर्श भी स्थापित करते हैं। भक्तिकाव्य में भक्ति के साथ लोकजागरण की सरिता प्रवाहमान है इसमें कोई संदेह नहीं।</s>
<s>[INST]कला के क्षेत्र में पल्लवों की उपलब्धियों का मूल्यांकन कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • कथन कला के क्षेत्र में पल्लवों की उपलब्धियों के मूल्यांकन से संबंधित है। हल करने का दृष्टिकोण • पल्लव राजवंश के बारे में संक्षिप्त उल्लेख के साथ परिचय लिखिये। • कला के क्षेत्र में पल्लवों की उपलब्धियों का मूल्यांकन प्रस्तुत कीजिये। • उचित निष्कर्ष लिखिये। पल्लवों ने प्रारंभिक पल्लव शासकों (250 ई.) से लेकर नौवीं शताब्दी के अपने पतन के अंतिम समय तक शासन किया। पल्लवों ने वास्तुकला के साथ-साथ संगीत, नृत्य एवं चित्रकला के क्षेत्र में भी प्रगति की, इस प्रकार पल्लव वास्तुकला का इतिहास में काफी महत्त्व है। कला के क्षेत्र में पल्लवों की उपलब्धियों का मूल्यांकन निम्नलिखित रूपों में वर्णित है- पल्लव कलाकारों ने धीरे-धीरे वास्तुकला को काष्ठकला एवं कंदराकला के प्रभाव से मुक्त करना प्रारंभ किया। पल्लवों ने चट्टान मेें मंदिरों की खुदाई कर कला की शुरुआत की। प्रमुख पल्लव नरेशों के नाम पर वास्तुकला की चार शैलियाँ-महेन्द्रवर्मन, मामल्ल, राजसिंह एवं नन्दिवर्मन हैं। महेन्द्रवर्मन ने चट्टानों को काटकर बनाए जाने वाले मंदिरों की शुरुआत की। वास्तव में मंदिर स्थापत्य की द्रविण शैली की शुरुआत पल्लव शासन के साथ ही हुई। यह गुफा मंदिरों से शुरू होकर अखंड रथ के रूप में क्रमिक विकास था जिसकी परिणति संरचनात्मक मंदिरों के रूप में हुई। पल्लव शासक नरसिंहवर्मन द्वारा महाबलिपुरम या मामल्लपुम बनवाया गया, इस प्रकार रथ के रूप में सात मंदिर प्रसिद्ध हैं। ये पल्लव शासकों द्वारा आराध्य देवताओं की प्रतिमाएँ स्थापित करने के लिये बनवाए गए प्रस्तर मंदिरों में सबसे प्रसिद्ध हैं। मामल्लपुम अपने तट मंदिर के लिये प्रसिद्ध है जो किसी चट्टान को काटकर नहीं बल्कि स्वतंत्र संरचना के रूप में खड़ा किया गया है। कांची का कैलाशनाथ मंदिर पल्लव राजवंश के महानतम स्थापत्य की उत्कृष्ट कृति है एवं इसका अच्छा उदहारण है। यह विश्व में प्रस्तर कला की महान एवं अद्वितीय कृति है। पल्लवों ने मूर्तियों के विकास में भी योगदान दिया था। मंदिरों में पाई गई मूर्तियों के अलावा, मामल्लपुरम में स्थित ‘ओपन आर्ट गैलरी’ इस काल के मूर्तिकला सौन्दर्य का एक महत्त्वपूर्ण स्मारक है। एक पत्थर में गंगा के अवतरण या अर्जुन की तपस्या को भित्तिचित्र कहा जाता है। पल्लवों के संरक्षण में ललित कला के अंतर्गत संगीत, नृत्य और चित्रकला भी विकसित हुई थी। अलवार एवं नयनार अपने भजन विभिन्न संगीत के सुरों में रचते थे। इस अवधि के दौरान नृत्य और नाटकों का भी विकास हुआ। इस काल की मूर्तियाँ कई नृत्य मुद्राएँ दर्शाती हैं। पल्लव काल मंदिर निर्माण का एक महान युग था। पल्लवों ने बौद्ध चैत्य विहारों से विरासत में प्राप्त कला का विकास किया और नवीन शैली को जन्म दिया जिसका पूर्ण विकसित रूप पांड्य काल में देखने को मिला। पल्लव कला की विशेषताएँ भारत से बाहर दक्षिण-पूर्व एशिया तक भी पहुँचीं।</s>
<s>[INST]भौगोलिक अवधारणा के विकास पर डार्विनवाद के प्रभाव को स्पष्ट कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद भौगोलिक अवधारणा के विकास में डार्विनवाद का प्रभाव। हल करने का दृष्टिकोण डार्विनवाद का संक्षिप्त परिचय दें। भौगोलिक अवधारणा के विकास पर इसके प्रभाव को स्पष्ट करें। भूगोल में डार्विन द्वारा विकसित ‘विकासवादी सिद्धांत’ को डार्विनवाद कहा जाता है। इस सिद्धांत ने भू-विज्ञान, पर्यावरणीय एवं जीव विज्ञान में आमूलचूल परिवर्तन किया। डार्विन प्राकृतिक चयन में विश्वास करता था और उसने जीवों द्वारा पर्यावरण के प्रति अनुकूलन की प्रक्रिया को स्पष्ट किया। डार्विनवाद के प्रभाव को मानव भूगोल व भौतिक भूगोल की अवधारणाओं के विकास में देखा जा सकता है। डार्विन ने भौतिक भूगोल के विचारों में परिवर्तन करते हुए प्राकृतिक विज्ञान की विवेचना कार्य-कारण के आधार पर की। इसी का प्रभाव था कि भूगर्भ वैज्ञानिकाें एवं जीवाश्म वैज्ञानिकों ने काल मापक के विकास पर ध्यान केंद्रित किया तथा जीवाश्मों का विश्लेषण किया। भौतिक भूगोल में भू-आकार शोध का विषय बन गया तथा भू-आकारिकी विज्ञान भौतिक भूगोल की महत्त्चपूर्ण शाखा बन गई। डेविस ने डार्विन की संकल्पना का उपयोग अपने भौगोलिक चक्र की अवधारणा में किया। डार्विनवाद से प्रभावित होकर जर्मन भू-आकारिकी वैज्ञानिकों ने भूगोल को ‘भू-दृश्य विज्ञान’ के रूप में परिभाषित किया जिसमें भूगोल को क्षेत्र विशेष के भू-आकारों पर आधारित माना जाता है। डार्विनवाद ने मानव भूगोल के आधारभूत नियम को प्रभावित किया तथा जर्मन एवं अमेरिकी वैज्ञानिक मानव-वातावरण संबंधों को डार्विन के विकासवादी सिद्धांत के परिप्रेक्ष्य में देखने लगे। रेटजेल, सेम्पल व हटिंग्टन के विचारों पर डार्विन के प्रभाव को देखा जा सकता है। राजनीतिक भूगोल पर डार्विन के प्रभाव का ही परिणाम था कि राष्ट्र को जीव तुल्य समझते हुए उसके सीमा विस्तार की तुलना जीव द्वारा शरीर के विस्तार से की गई।</s>
<s>[INST]समकालीन हिंदी उपन्यास में ‘स्त्री-विमर्श’ की उपस्थिति की पहचान कीजिये।[/INST]उत्तर : हिंदी उपन्यास पर स्त्री-विमर्श का गहरा प्रभाव पड़ा है और धीरे-धीरे यह प्रभाव बढ़ता जा रहा है। कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी, उषा प्रियंवदा आदि ने स्त्री-जीवन का प्रामाणिक अंकन प्रारंभ किया था जो बाद के उपन्यासों में और घनीभूत हुआ है। मृदुला गर्ग के उपन्यासों ‘कठगुलाब’, ‘चितकोबरा’ एवं ‘मिलजुल मन’ में स्त्री-मुक्ति चेतना का रचनात्मक अंकन हुआ है। उन्होंने ‘कठगुलाब’ में नारी-मुक्ति विषयक अपने प्रौढ़ चिंतन का परिचय देते हुए नारी शोषण के सभी रूपों और नारी के सामर्थ्य का समुचित चित्रण किया है। प्रभा खेतान का उपन्यास ‘छिन्नमस्ता’ नारी जीवन की उन छुपी सच्चाइयों का उद्घाटन करता है जो अपनी समस्त विद्रूपता, विकृति और कुत्सा के बावजूद भारतीय समाज का क्रूर यथार्थ है। इस उपन्यास की केंद्रीय पात्रा ‘प्रिया’ मारवाड़ी समाज की घुटन भरी संस्कृति से लेकर कॉर्पोरेट कल्चर तक शोषण का शिकार होती है। परिवार, प्रेम-संबंध, वैवाहिक जीवन आदि प्रत्येक स्तर पर स्त्री किस प्रकार पुरुष शोषण का शिकार होती है, इसका अनावरण लेखिका ने स्तब्धकारी ढंग से किया है। मैत्रेयी पुष्पा ने अपने उपन्यासों ‘इदन्नम’, ‘अल्मा कबूतरी’, ‘चाक’ आदि में स्त्री-मुक्ति के प्रश्न को उठाया है। इनमें ‘चाक’ ग्रामीण पृष्ठभूमि में अत्यन्त सशक्त रूप में स्त्री अस्मिता के स्तर को अभिव्यक्ति प्रदान करता है। ‘चाक’ की ‘रेशम’ विवाह संस्था के बाहर भी ‘गर्भधारण’ का अधिकार चाहती है और ‘सारंग’ पति, पुत्र, सास-ससुर से भरे-पूरे परिवार में होते हुए भी प्रेम करने का अधिकार चाहती है। चित्रा मुद्गल का ‘आंवा’, मंजुल भगत का ‘अनारो’, नासिरा शर्मा का ‘शाल्मली’, गीतांजलिश्री का ‘तिरोहित’ आदि उपन्यासों में अपने-अपने ढंग से स्त्री-मुक्ति चेतना की सशक्त अभिव्यक्ति दिखाई देती है। समग्रत: हम कह सकते हैं कि ‘स्त्री-मुक्ति चेतना’ हिंदी उपन्यास का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है जो पुरुष वर्चस्ववाद को तोड़ने का रचनात्मक प्रयत्न कर रही है।</s>
<s>[INST]आप किस हद तक सहमत हैं कि मुगल साम्राज्य के पतन का मुख्य कारण जागीर व्यवस्था थी? चर्चा कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • कथन जागीर व्यवस्था के मुगल साम्राज्य के पतन का मुख्य कारण होने की सीमा से संबंधित है? हल करने का दृष्टिकोण • मुगलकालीन जागीर व्यवस्था के विषय में संक्षिप्त उल्लेख के साथ परिचय लिखिये। • जागीर व्यवस्था के मुगल साम्राज्य के पतन का मुख्य कारण होने की सीमा का उल्लेख कीजिये। • उचित निष्कर्ष लिखिये। मुगलों की सेवा में आने वाले नौकरशाह ‘मनसबदार’ अपना वेतन राजस्व एकत्रित की जाने वाली भूमि के रूप में पाते थे जिन्हें जागीर कहते थे। अकबर के शासनकाल में इन जागीरों का सावधानीपूर्वक आकलन किया जाता था, ताकि इनका राजस्व मनसबदार के वेतन के तकरीबन बराबर रहे लेकिन औरंगज़ेब के शासनकाल तक आते-आते स्थिति परिवर्तित हो गई। जागीर व्यवस्था के मुगल साम्राज्य के पतन का मुख्य कारण होने की सीमा का उल्लेख निम्नलिखित रूपों में वर्णित है- नवनियुक्त मनसबदारों को जागीरें देते-देते साम्राज्य के संसाधन लगभग समाप्त हो गए, परिणामस्वरूप केंद्रीय सता के कमज़ोर पड़ जाने से साम्राज्य के विघटन की प्रक्रिया तीव्र हो गई। मनसबदारों की संख्या में वृद्धि से जागीरों की संख्या में कमी हुई फलस्वरूप कई जागीरदार अधिक-से-अधिक राजस्व वसूल करने की कोशिश करने लगे जिससे किसानों एवं भूमि की सेहत पर विपरीत असर पड़ा। इस पर नियंत्रण से जुड़े कदम उठाए जाने के बावजूद जागीरदार किसानों और ज़मींदारों से निर्धारित लगान से हमेशा ज़्यादा ही वसूलते थे जिससे किसानों में रोष उत्पन्न हुआ , शासक वर्ग के हितों को क्षति पहुँची एवं छोटे और बड़े ज़मींदार एक-दूसरे से टकराने लगे। मनसबदारों एवं जागीरों की संख्या के असंतुलन को समाप्त करने के लिये पुराने मनसबदारों के भाग में कटौती की जाने लगी जिससे राजनीतिक गुटबंदी और तनाव में वृद्धि हुई । छोटे जागीरदारों ने लगान वसूल करने के लिये लगान का ठेका (इजारादारी प्रथा) देना शुरू कर दिया जिससे किसानों पर अत्याचार के मामलों में वृद्धि हुई और वे भूमि छोड़कर भागने लगे। अठारहवीं शताब्दी में सामाजिक अधिशेष एवं शासक वर्ग के बीच बढ़ती हुई मांगों से असंतुलन में वृद्धि हुई। जागीरदारों की एक निश्चित छोटी अवधि के बाद बदली अनिवार्य थी जिससे वे कृषि उत्पादन बढ़ाने के इच्छुक नहीं थे। मनसब एवं जागीर दोनों ही प्रणालियों के सुचारु रूप से कार्य न करने के कारण सम्राज्य की आर्थिक, राजनीतिक एवं सैनिक शक्ति क्षीण होती गई जिसका संबंधित वर्गों ने लाभ उठाया। धार्मिक नीति, मुगल अमीरों का राजनीतिक षड्यंत्र; प्रौद्योगिकी, विशेष रूप से विदेशों से आई नई तकनीकों कोअपनाने में असफलता जैसे अन्य कारण भी उत्तरदायी थे। जागीरदारी संकट के साथ-साथ व्यक्तिगत स्तर पर निजी क्षमताएँ भी विघटनकारी शक्तियों को बढ़ावा देने के लिये ज़िम्मेदार थीं। उपर्युक्त विवरणों से स्पष्ट है कि मुगल साम्राज्य के पतन के लिये कोई एक कारण ज़िम्मेदार नहीं था फिर भी जागीरदारी संकट निश्चित रूप से प्रमुख कारण था। प्रो. इरफान हबीब ने भी इसे ही पतन का कारण माना है।</s>
<s>[INST]‘‘यूनानियों ने न केवल भूगोल के क्षितिज का विस्तार किया बल्कि इसे दृढ़ता भी प्रदान की।’’ स्पष्ट कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • यूनानियों का भूगोल में योगदान। हल करने का दृष्टिकोण • संक्षिप्त भूमिका लिखें। • भूगोल के विकास में यूनानियों के योगदान को बताएँ। आरंभिक काल में भौगोलिक ज्ञान यूनान व एजियन सागर से घिरे देशों व द्वीपों तक ही सीमित था परंतु यूनानियों ने अपनी तीक्ष्ण बुद्धि से तथा जिज्ञासु स्वभाव व वैज्ञानिक अभिरुचि के कारण न केवल भौगोलिक ज्ञान का विस्तार किया बल्कि इसे एक विषय के रूप में स्थापित कर दृढ़ता भी प्रदान की। होमर से लेकर पोसीडोनियस जैसे विद्वानों ने भूगोल की विभिन्न विधाओं में अपना योगदान दिया। यूनानियों ने न केवल भूगोल के ज्ञान का विस्तार एजियन सागर से स्पेन व गॉल, रूसी स्टेपी प्रदेश, सिंधु नदी व इथोपिया तक किया बल्कि उन्हाेंने गणितीय, भौतिक, ऐतिहासिक एवं प्रादेशिक भूगोल में भी अपना योगदान दिया। इरेटॉस्थनीज ने अपने पूर्ववर्तियों द्वारा विकसित गणितीय भूगोल को शीर्ष पर पहुँचा दिया। उसने पृथ्वी की गोलाभीय आकृति को सिद्ध कर दिखाया तथा उसके आकार के सही माप की गणना की। यूनानियों ने ही सर्वप्रथम अक्षांश एवं देशांतरों के जाल पर विश्व मानचित्र की रचना की। इन्होंने नील की बाढ़ों का कारण तथा डेल्टा निर्माण का अध्ययन किया एवं जलधाराओं द्वारा घाटियों के निर्माण को स्पष्ट किया। अरस्तू ने उथले सागर तटों पर भूमि के विस्तार तथा डेल्टाओं के निर्माण की घटना को स्पष्ट किया। प्लेटो ने बताया कि यूनान की अनुपजाऊ बंजर भूमि पूर्वकाल में वन एवं उपजाऊ मृदा से ढकी थी तथा वर्तमान स्थिति मृदा निक्षालन का परिणाम है। यूनानियों ने समुद्र तट रेखाओं, उनके खारापन, तरंगों एवं ज्वार का अध्ययन कर उनके कारकों को स्पष्ट किया। इस प्रकार से यूनानियों ने भूगोल में अपने योगदान के द्वारा उसे दृढ़ता प्रदान की।</s>
<s>[INST]प्रगतिवादी कविता की प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालिये।[/INST]उत्तर : सन् 1936 ई. में भारत में प्रगतिवादी लेखक संघ की स्थापना एवं लखनऊ में हुए उसके प्रथम सम्मेलन से प्रेरित प्रगतिवादी कविता मार्क्सवादी विचारधारा द्वारा निरूपति जीवन-यथार्थ को केंदीय चेतना के रूप में स्वीकार करने वाली काव्यधारा है। प्रगतिवादी कविता आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक परिस्थितियों के संघात से निर्मित जीवन-यथार्थ और विशेषकर किसान एवं मजदूर-जीवन के चित्रण को कविता के लिये अनिवार्य मानती है। वर्ग-संघर्ष को रेखांकित करते हुए शोषण की अमानवीयता का चित्रण प्रगतिवाद की प्रमुख प्रवृत्ति है। इस संदर्भ में दिनकर की कुछ पंक्तियाँ उल्लेखनीय हैं- श्वानों को मिलना दूध-भात/भूखे बच्चे चिल्लाते हैं/माँ की गोदी से चिपक-चिपक/जाड़े की रात बिताते हैं। जन पक्षधर राजनीतिक चेतना, पूंजीवादी व्यवस्था के प्रति तीव्र घृणा, शोषितों के प्रति सहानुभूति, व्यवस्था परिवर्तन हेतु क्रांति-चेतना तथा शोषितों की संघर्ष-क्षमता एवं शक्ति में विश्वास इस काव्यधारा की महत्त्वपूर्ण संवेदनागत प्रवृत्तियाँ हैं। एक उदाहरण द्रष्टव्य है- मैंने उसको जब-जब देखा लोहा देखा/लोहा जैसे तपते देखा, गलते देखा, ढलते देखा/मैंने उसको गोली जैसे चलते देखा। ग्राम्य-प्रकृति का चित्रण तथा प्रेम के गार्हस्थिक रूप की अभिव्यक्ति भी इसकी प्रमुख प्रवृत्तियाँ हैं। शिल्प के धरातल पर सामान्य एवं सहज भाषा का प्रयोग, छन्द-विधान में लोकधुनों को महत्त्व, लोकजीवन से बिंबों का चयन, प्रतीकात्मकता का अभाव आदि प्रगतिवादी कविता की मुख्य प्रवृत्तियाँ हैं। कुल मिलाकर ‘प्रगतिवादी कविता’ मार्क्सवादी विचारधारा के अनुरूप कविता में आम मनुष्य की प्रतिष्ठा आम बोलचाल की भाषा में करने वाली काव्यधारा है।</s>
<s>[INST]भूगोल में ‘मॉडल’ निर्माण की आवश्यकता को स्पष्ट करते हुए उसका आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • भूगोल में मॉडल निर्माण की आवश्यकता। • आलोचना के बिंदु। हल करने का दृष्टिकोण • भूगोल में मॉडल निर्माण की चर्चा करें। • मॉडल निर्माण की आवश्यकता को स्पष्ट करें। • मॉडल निर्माण का आलोचनात्मक विश्लेषण करें। ‘मॉडल’ रचना एक ऐसी प्रक्रिया है जो सिद्धांतों का तर्कसंगत ढंग से परीक्षण करती है। यह एक सिद्धांत, नियम अथवा परिकल्पना है जो भौगोलिक दृष्टि से विश्व की यथार्थता तथा स्थान व काल के संदर्भ में तर्कसंगत विचार को शामिल करती है। यह भू-दृश्य एवं मानव-प्रकृति संबंध का सरल व आदर्श प्रस्तुतीकरण है। पिछले कुछ दशकों में भूगोल में भौतिक, जैविक एवं अन्य सामाजिक विज्ञानों की भाँति मॉडल निर्माण पर भूगोलवेत्ताओं का ध्यान गया है। मॉडल पृथ्वी की सतह पर व्याप्त मानवीय एवं प्राकृतिक वातावरण के मध्य घटित अंतर्क्रियाओं को जानने का साधन हैं। अत: भूगोल में मॉडल निर्माण आवश्यक है, जिसे निम्नलिखित बिंदुओं द्वारा समझा जा सकता है- मॉडल आँकड़ों की उत्पत्ति एवं आकलन, भावी अनुमानों तथा दृशी विश्व के अनुरूपण के लिये उपयोगी है। इसकी सहायता से जनसंख्या घनत्व और भावी विकास, भू उपयोग व फसल गहनता, नगरीकरण, जनसंख्या का प्रवास, समुद्र तल में परिवर्तन, मृदा क्षरण आदि का सही अनुमान लगाना संभव है। इसके माध्यम से व्याख्या, विश्लेषण एवं भौगोलिक तंत्र को सरल रूप में व्यक्त किया जाता है। उद्योगों संबंधी अवस्थितिजन्य सिद्धांतों, कृषि कटिबंध के अनुसार भूमि उपयोग आदि के पूर्वानुमानों में यह सहायक है। इससे सामान्य एवं विशिष्ट नियमों के निर्माण तथा सिद्धांतों की रचना में सहायता मिलती है। यह औपचारिक सिद्धांतों को आनुभविक यथार्थता प्रदान करता है। यह किसी तंत्र के प्रधान व गौण लक्षणों तथा उनका पर्यावरण के साथ संबंध को समझने में उपयोगी है। प्रत्यक्ष रूप से अवलोकन न किये जा सकने वाले ‘प्रतिस्थापित प्रेक्षणों’ के लिये वैकल्पिक मॉडल का प्रयोग किया जा सकता है। यद्यपि मॉडल दृश्य जगत की जटिल घटनाओं को समझने में सहायक है, तथापि इनमें कमियाँ भी हैं। इनकी रचना की विधि दोषयुक्त है। मॉडलों को सरल बनाने के प्रयास में शोधकर्त्ता विषमताओं को बहुत अधिक सरल बनाने अथवा कम सरलीकरण के मध्य फँस जाता है। कभी-कभी इस प्रयास से भ्रम की स्थिति पैदा हो जाती है तथा विद्यार्थी पूर्वानुमान से भटक जाता है। मॉडल समस्या के सरलीकरण के लिये बनाए जाते हैं परंतु जटिल तकनीकों के प्रयोग के कारण यह और अधिक जटिल हो जाते हैं। प्रत्येक स्थिति में इसका प्रयोग एक अन्य कमी है, जैसे- मानव व प्रादेशिक भूगोल में इसका प्रयोग अनुपयुक्त है। गणितीय परिकलन व सांख्यिकीय विधियों के प्रयोग की अधिकता के कारण भी इसकी आलोचना की जाती है।</s>
<s>[INST]‘सरोज-स्मृति’ की ‘सरोज’ के सौन्दर्य-चित्रण को हिन्दी साहित्य की विशिष्ट उपलब्धि क्यों माना जाता है? सोदाहरण बताइए।[/INST]उत्तर : ‘सरोज स्मृति’ हिन्दी साहित्य में एकमात्र दृष्टांत है जहाँ कवि ने पुत्री के सौंदर्य का चित्रण किया है। पुत्री के सौंदर्य चित्रण में कवि के समक्ष दोहरी चुनौती थी कि सौंदर्य किसी से कमतर न हो तथा उत्तेजक न प्रतीत हो। कवि इन दोनों चुनौतियों में सफल प्रतीत होता है। निम्नांकित विशेषताएं सरोज के सौदर्य को विशिष्ट बनाती हैं- सौंदर्य का वर्णन संरचनात्मक अप्रस्तुतियों के माध्यम से किया है जिससे सौंदर्य की अत्यंत मर्यादित तथा संयमित व्यंजना हुई है। उदाहरणत: निम्नांकित पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं- ‘‘काँपा कोमलता पर सस्वर ज्यों मालकोश नव वीणा पर क्या दृष्टि अतल की सिक्त-धार ज्यों भोगावती उठी अपार’’ सौंदर्य वर्णन में नखशिख परंपरा से विचलन है। स्वर सौंदर्य पर बल अनोखी विशेषता है। शुचि उपमानों का प्रयोग किया गया है जिससे वर्णन की पवित्रता की रक्षा हो सके। उषा, भोगावती, मालकोश आदि ऐसे ही उपमान हैं। छायावादी सौंदर्य वर्णन तथा नारी का छायावादी चित्रण के क्रम में प्रकारान्तर से रीतिकालीन शृंगार का विरोध इस कविता में उच्चतम स्तर पर पहुंचा है। वय की तीनों अवस्थाओं: बाल्यावस्था, युवावस्था, सद्य: परिणीता का सौंदर्य चित्रण किया गया है। एक उदाहरण द्रष्टव्य हैं- सद्य: परिणीता : ‘‘देखती मुझे तू हंसी मन्द होठों में बिजली फँसी स्पन्द x x x x नत बचनों से आलोक उत्तर काँपा अधरों पर थर-थर-थर’’ इस प्रकार निराला ने सरोज-स्मृति में अपनी पुत्री सरोज के सौंदर्य का जो चित्रण किया है, वह हिन्दी साहित्य की विशिष्ट घटना है।</s>
<s>[INST]दिल्ली सल्तनत के ऊपर मंगोल आक्रमण के विभिन्न प्रभावों की चर्चा कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • कथन दिल्ली सल्तनतपर मंगोल आक्रमण के प्रभावों से संबंधित है। हल करने का दृष्टिकोण • दिल्ली सल्तनत पर मंगोल आक्रमण के संक्षिप्त उल्लेख के साथ परिचय लिखिये। • दिल्ली सल्तनत पर मंगोल आक्रमण के प्रभावों को लिखिये। • उचित निष्कर्ष लिखिये। 13वीं एवं 14वीं शताब्दियों का मंगोल साम्राज्य हिन्दुस्तान एवं एशियाई महाद्वीप के दक्षिण-पूर्व भाग को छोड़कर मध्य-पूर्व एवं मध्य एशिया सेे लेकर पूर्वी यूरोप और चीन तक फैला हुआ था। यह साम्राज्य दिल्ली सल्तनत के अन्य किसी भी बाहरी या आंतरिक शत्रु से कहीं ज़्यादा शक्तिशाली, विनाशकारी एवं आक्रामक था। न केवल आक्रमण बल्कि भारत की उत्तर-पश्चिम सीमा पर इसकी मौजूदगी भर ने दिल्ली सल्तनत को अनेक रूपों में गंभीरतापूर्वक प्रभावित किया। दिल्ली सल्तनत पर मंगोल आक्रमणों के प्रभावों का विवरण निम्नलिखित रूपों में वर्णित है- मंगोलों के विरुद्ध संगठित एवं सफल प्रयास के रूप में खिलजी एवं तुगलक सुल्तानों ने धर्म एवं जाति के तत्त्वों से ऊपर उठकर योग्यता एवं वफादारी पर आधारित केन्द्रीकृत राज्य का ढाँचा स्थापित किया। अलाउद्दीन ने मंगोलों के आक्रमणों का सामना करने के लिये सीमावर्ती किलों एवं दिल्ली के किलों की मरम्मत, नए किलों का निर्माण और अन्य सैन्य एवं आर्थिक सुधार भी किये। मध्य-पूर्व के इस्लामी राज्यों में मंगोल आक्रमणों के परिणामस्वरूप बहुत से प्रतिष्ठित शास्त्रज्ञों, कवियों, इतिहासकारों, रहस्यवादियों, सूफी शेखों, धार्मिक नेताओं और अनेक प्रमुख परिवारों ने भागकर दिल्ली के सुल्तानों से पनाह एवं शाही संरक्षण मांगा। सूफी शेखों ने न केवल हिंदू दर्शन और धर्म का गहरा अध्ययन किया बल्कि हिंदुओं को इस्लाम के वास्तविक सिद्धांतों एवं पैगम्बर की शिक्षाओं से भी अवगत कराया। इस्लामी जगत के पूर्वी भाग से देशांतरण करते हुए कारीगर और व्यापारी अपने शिल्प, तकनीक और कार्यप्रणालियों के साथ-साथ व्यक्तिगत संस्कृति, परंपरा और रीति-रिवाज़ भी लाए, जिसने भारतीय संस्कृति को कई दृष्टिकोणों से बड़े पैमाने पर समृद्ध बनाया। भारतीय सुल्तानों ने सीमावर्ती जातियों को नियंत्रण में रखने या उनसे मित्रता के बराबर प्रयास किये क्योंकि ये जातियाँ न केवल उन्नत हथियार बनाने में निपुण थीं बल्कि मंगोलों की युद्ध संबंधी रणनीति एवं उनके तौर-तरीके से भी अच्छी तरह परिचित थीं। मंगोल आक्रमणों के परिणामस्वरूप भारत में राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्रों में इजतिहाद (ijtihad) विचारधारा का पदार्पण हुआ। इससे भारत में स्वतंत्र तर्कवाद की राजनीतिक विचारधाराओं के पनपने में सहायता मिली। उत्तर-पश्चिम भारत का क्षेत्र सामरिक एवं आर्थिक दोनों ही दृष्टिकोणों से अत्यंत महत्त्वपूर्ण था। अत: इल्तुतमिश एवं बलबन से लेकर मुहम्मद तुगलक तक सभी सुल्तानों ने अपने आधार को मज़बूत करते हुए मंगोलों पर विजय हासिल की, जिससे न केवल उनकी स्थिति सुरक्षित हुई इसने बल्किउच्चतर स्थिति में भी पहुँचा दिया।</s>
<s>[INST]अष्टछाप पर टिप्पणी लिखिये।[/INST]उत्तर : वल्लभाचार्य के पुत्र विट्ठलनाथ द्वारा स्थापित ‘अष्टछाप’ कृष्ण काव्यधारा के आठ कवियों का समूह है जिसका मूल संबंध आचार्य वल्लभ द्वारा प्रतिपादित पुष्टिमार्गीय संप्रदाय से है। अष्टछाप के आठ कवियों में चार वल्लभ के शिष्य हैं, जबकि चार विट्ठलनाथ के। वल्लभ के शिष्य हैं- सूरदास, परमानन्ददास, कुम्भनदास व कृष्णदास, जबकि विट्ठलनाथ के शिष्योें में नन्ददास, चतुर्भुजदास, गोविन्दस्वामी तथा छीतस्वामी शामिल हैं। वस्तुत: विट्ठलनाथ ने भगवान श्रीनाथ के अष्ट शृंगार की परंपरा शुरु की थी । अष्टछाप के कवियों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सूरदास हैं जिन्होंने अपनी महान रचना सूरसागर में कृष्ण के बाल-रूप, सखा-रूप तथा प्रेमी रूप का अत्यंत विस्तृत, सूक्ष्म व मनोग्राही अंकन किया है। यही कारण है कि स्वयं वल्लभ ने सूर को ‘पुष्टिमार्ग का जहाज़’ कहा। आचार्य शुक्ल भी कहते हैं- ‘‘आचार्यों की छाप लगी आठ कवियों की जो वीणाएँ कृष्ण माधुरी के गान में प्रवृत्त हुईं, उनमें सर्वाधिक मधुर, सरस व मादक स्वर अंधे गायक सूर की वीणा का था।’’ अष्टछाप में सूरदास के अतिरिक्त दो अन्य कवि भी साहित्यिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं- नन्ददास व कुम्भनदास। नंददास ने ‘भँवरगीत’ व ‘पदावली’ जैसी रचनाएँ लिखीं जिनमें कृष्ण के सगुण रूप को स्थापित किया गया। कुंभनदास का भी साहित्य की दृष्टि से पर्याप्त महत्त्व है। उनकी प्रसिद्ध पंक्तियाँ हैं- ‘‘संतन को कहाँ सीकरी सों काम। आवत जात पन्हैया टूटी, बिसरि गयो हरि नाम।’’ अष्टछाप का न सिर्फ कृष्ण काव्य परंपरा में बल्कि संपूर्ण हिन्दी काव्य में अनूठा स्थान है। इन कवियों ने ब्रज भाषा में निहित गंभीर कलात्मकता और संगीतात्मकता तत्त्व को जो ऊँचाई प्रदान की, वह किसी भी माधुर्य भाव की कविता के लिये अनुकरणीय है।</s>
<s>[INST]यद्यपि पाल, प्रतिहार तथा राष्ट्रकूट में से कोई भी बड़ा साम्राज्य स्थापित करने में सफल नहीं हुआ परंतु वे काफी समय तक भारत में राजनीतिक शून्यता को भरने में कामयाब रहे। आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • कथन पाल, प्रतिहार एवं राष्ट्रकूट शासकों की भूमिका के आलोचनात्मक विश्लेषण से संबंधित है। हल करने का दृष्टिकोण • पाल, प्रतिहार एवं राष्ट्रकूट शासकों की भूमिका के बारे में संक्षिप्त उल्लेख के साथ परिचय लिखिये। • पाल, प्रतिहार एवं राष्ट्रकूट शासकों की भूमिका का आलोचनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत कीजिये। • उचित निष्कर्ष लिखिये। भारत में पाल, प्रतिहार एवं राष्ट्रकूट जैसी प्रमुख महाशक्तियों का उदय हुआ जो कन्नौज पर आधिपत्य स्थापित करने को लेकर त्रिपक्षीय संघर्ष में काफी लंबे समय तक संलग्न रहीं। गुप्त साम्राज्य के पतन के पश्चात् कन्नौज का वही स्थान था जो मगध साम्राज्य के इतिहास में कभी पाटलिपुत्र का था। पाल, प्रतिहार एवं राष्ट्रकूट शासकों की भूमिका का आलोचनात्मक विश्लेषण निम्नलिखित रूपों में वर्णित है- हर्ष के बाद गुर्जर-प्रतिहारों ने उत्तरी भारत को राजनीतिक एकता प्रदान की और अरबों को सिंध से आगे बढ़ने से भी रोका। त्रिपक्षीय संघर्ष में सफलता के पश्चात् गुर्जर-प्रतिहार सर्वाधिक प्रभावशाली हो गए। पाल वंश के शासकों ने बंगाल को राजनीतिक एकता प्रदान करके सांस्कृतिक समुन्नति का मार्ग प्रशस्त किया और भारत की राजनीति में इसके महत्त्व को लगभग चार सौ वर्षों तक स्थापित करने में सफल रहे। पाल वंश ने बंगाल में दशकों से चली आ रही मत्स्यन्याय एवं अराजकता को समाप्त कर एक सुदृढ़ राजशक्ति को कायम किया और इनका काल तीनों ही शक्तियों में से सबसे लंबे समय तक चला। महाराष्ट्र-दक्कन में राष्ट्रकूट एक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक शक्ति थे जिनका सांस्कृतिक क्षेत्र में प्रमुख योगदान था। इन्होंने भी आरम्भ में अरबों का विरोध कर महत्ता हासिल की। यदि ये अपनी महत्त्वाकांक्षा को दक्षिण तक ही सीमित रखते तो एक शक्तिशाली राज्य का निर्माण कर सकते थे। लगभग एक सदी तक गंगा घाटी में स्थित कन्नौज नगर के ऊपर नियंत्रण को लेकर आपस में लड़ने के पश्चात् अंतत: नौवीं शताब्दी में गुर्जर-प्रतिहारों ने आधिपत्य स्थापित करने में सफलता पाई। त्रिपक्षीय संघर्ष ने तीनों महाशक्तियों की स्थिति को कमज़ोर किया जिससे ये एक बड़ा साम्राज्य कायम नहीं कर सकीं और इसने तुर्कों को इन्हें सत्ता से बेदखल करने में सक्षम बनाया। तीनों महाशक्तियों की शक्ति लगभग समान थी जो मुख्यत: विशाल संगठित सेनाओं पर आधारित थी लेकिन कन्नौज के संघर्ष का लाभ उठाकर सामंतों ने अपने-आप को स्वतंत्र घोषित कर दिया, जिससे रही-सही एकता भी नष्ट हो गई। त्रिपक्षीय संघर्ष की शक्तियाँ लगभग एक साथ अस्तित्व में आई और लुप्त हो गईं। यद्यपि ये भारत में एक बड़ा साम्राज्य स्थापित करने में सफल नहीं हुईं लेकिन राजनीतिक शून्यता को काफी लम्बे समय तक भरने में कामयाब रहीं।</s>
<s>[INST]पर्यावरणीय नियतिवाद की संक्षिप्त विवेचना कीजिये तथा वर्तमान में उसकी प्रासंगिकता को स्पष्ट कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • पर्यावरणीय नियतिवाद एवं वर्तमान में इसकी प्रासंगिकता। हल करने का दृष्टिकोण • पर्यावरणीय नियतिवाद की चर्चा करें। • वर्तमान में इसकी प्रासंगिकता को स्पष्ट करें। पर्यावरणीय नियतिवाद की संकल्पना इतिहास के आरंभ से चली आ रही है। यह संकल्पना मनुष्य पर प्रकृति की प्रधानता को बताती है। वर्तमान वैज्ञानिकता एवं अंधाधुंध विकास के युग में यह कितनी प्रासंगिक है, इसे विचारों के आलोक में समझे जाने की आवश्यकता है। इस संकल्पना के अनुसार मनुष्य पर्यावरण की संतति है। पर्यावरण ने ही मनुष्य के विचारों को एक निश्चित दिशा दी है, उसके सामने कठिनाइयाँ उपस्थित की हैं, जिनसे उसके शरीर को बल एवं बुद्धि को तीव्रता मिली है। अर्थात् पर्यावरण ही मानवीय क्रियाकलापों को पूर्णतया नियंत्रित करता है। इस संकल्पना के अनुसार विश्व के विभिन्न भागों में मानवीय व्यवहार में अंतर प्राकृतिक पर्यावरण में अंतर के कारण ही होता है। कुमारी सैम्पुल ने इसे इस प्रकार स्पष्ट किया है, ‘‘प्रकृति ने पर्वतों पर रहने वाले मनुष्यों को ढालों पर चढ़ने-उतरने के लिये लोहे के पैर (मजबूत पैर) दिये, समुद्र तट पर रहने वाले मनुष्यों को पतवार चलाने के लिये बलशाली सीने और भुजाएँ दीं।’’ इस संकल्पना के अनुसार पर्यावरण का नियंत्रण केवल मनुष्य के विचारों एवं भावनाओं पर ही नहीं होता है बल्कि उसके धार्मिक विश्वासों, भोजन, वस्त्र, आवास एवं आर्थिक विकास पर भी होता है। आज विज्ञान ने इतनी प्रगति कर ली है कि मनुष्य पर्यावरण का नियंता बन गया है। मनुष्य ने अपने आविष्कारों एवं उद्यमिता से दुर्गम पहाड़ों, वन, रेगिस्तान एवं दर्रों को सुगम बना दिया है, अर्थात् अपने समक्ष उपस्थित प्राकृतिक बाधाओं को बौना साबित कर दिया है। परिवहन साधनों के विकास, वातानुकूलन यंत्रों एवं वस्त्रों ने पर्यावरणीय नियतिवाद की इस संकल्पना को अप्रासंगिक बना दिया है कि पर्यावरण मनुष्य के विचारों का नियंता है। परंतु जब हम अंधाधुंध विकास के चलते हो रहे पर्यावरणीय क्षति पर विचार करते हैं तो यह संकल्पना प्रासंगिक लगती है। आरंभिक समय में पर्यावरण ही मनुष्य का पालना था तथा इसकी कठिनाइयों से लड़ते हुए ही मनुष्य में वैज्ञानिक विचारों का विकास हुआ। ऐसे में इसे बनाए रखने के लिये हमें इसमें कम-से-कम हस्तक्षेप का प्रयास करना चाहिये, विशेषकर बढ़ती प्राकृतिक आपदाओं (जो मानवीय हस्तक्षेप का परिणाम है) के संदर्भ में ऐसा किया जाना आवश्यक है।</s>
<s>[INST]‘छत्तीसगढ़ी’ बोली के क्षेत्र और व्याकरणिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिये।[/INST]उत्तर : ‘छत्तीसगढ़ी’ हिंदी की ‘पूर्वी हिंदी’ उपभाषा के अंतर्गत आने वाली बोली है। यह वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य की बोली है जिसे इतिहास में दक्षिण कोसल भी कहा गया है। चेदि राजाओं के कारण इस क्षेत्र का नाम चेदीसगढ़ पड़ा और उसी से बदलकर छत्तीसगढ़ हो गया। इसके क्षेत्र के अंतर्गत सरगुजा, बिलासपुर, रायपुर, रायगढ़, दुर्ग तथा नंदगाँव आदि जिले आते हैं। यह क्षेत्र भोजपुरी, मगही, बघेली, मराठी और उड़िया भाषी क्षेत्रों से घिरा है तथा इन सभी का प्रभाव स्पष्ट रूप से छत्तीसगढ़ी पर दिखता है। यह बोली भी आमतौर पर अवधी के समान ही है। इसकी विशेष प्रवृत्तियाँ इस प्रकार हैं- (1) उच्चारण में महाप्राणीकरण इसकी मूलभूत विशेषता है - दौड़ > धौड़ कचहरी >कछेरी जन > झन (2) ‘स’ के स्थान पर ‘छ’, ‘ल’ के स्थान पर ‘र’ तथा ‘ब’ या ‘व’ के स्थान पर ‘ज’ करने की प्रवृत्ति मिलती है - सीता > छीता बालक > बारक (3) ष तथा श को स के रूप में बोला जाता है - भाषा > भासा दोष > दोस (4) एकवचन से बहुवचन बनाने के लिए प्राय: ‘मन’ प्रत्यय जोड़ा जाता है जैसे - ‘हममन’ (हम लोग)। (5) बहुवचन के लिए ‘न’ का प्रयोग भी किया जाता है जैसे- ‘लरिकन’। (6) क्रिया के साथ आने वाले ‘त’ और ‘ह’ को जोड़कर ‘थ’ बनाने की प्रवृत्ति भी मिलती है- करते हैं > करत थन (7) कर्म, सम्प्रदान के लिए ‘ल’ परसर्ग तथा करण, अपादान के लिए ‘ले’ परसर्ग का प्रयोग विशिष्ट है। (8) पुल्लिंग को स्त्रीलिंग करने के लिए इन, आनि, इया आदि प्रत्यय विशेष रूप से प्रचलित हैं, जैसे- जेठानी, बुढ़िया, नतनिन आदि।</s>
<s>[INST]हड़प्पा सभ्यता के भौतिक जीवन का वर्णन करें तथा विदेशों के साथ इसके संपर्कों की चर्चा कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • पहला भाग हड़प्पा सभ्यता के भौतिक जीवन के वर्णन से संबंधित है। • दूसरा भाग विदेशों के साथ इसके संपर्क की चर्चा से संबंधित है। हल करने का दृष्टिकोण • हड़प्पा सभ्यता के बारे में संक्षिप्त उल्लेख के साथ परिचय लिखिये। • हड़प्पा सभ्यता के भौतिक जीवन का वर्णन कीजिये। • विदेशों के साथ इसके संपर्क की चर्चा कीजिये। • उचित निष्कर्ष लिखिये। हड़प्पा नामक स्थान पर पहली बार यह संस्कृति खोजी गई थी इसलिये इसका नाम हड़प्पा सभ्यता रखा गया है। सिधु घाटी सभ्यता को हड़प्पा संस्कृति भी कहा जाता है। हड़प्पा सभ्यता की भौतिक जीवन से जुड़ी नगर-नियोजन प्रणाली जैसी विशेषताएँ अद्भुत हैं। इस सभ्यता ने परस्पर आवश्यकताओं के अनुरूप पश्चिम एशिया के साथ अपने वैदेशिक संबंधों को कायम किया जो पश्चिम एशिया की सभ्यताओं में प्राप्त अभिलेखीय साक्ष्यों से भी स्पष्ट होता है। संस्कृति’ शब्द का प्रयोग पुरावस्तुओं के ऐसे समूह के लिये किया जाता है जो एक विशिष्ट शैली के होते हैं। हड़प्पा सभ्यता के भौतिक जीवन का वर्णन निम्नलिखित रूपों में है- कृषि पर निर्भर होते हुए भी इस संस्कृति के लोग बैल-गाय, भैंस, बकरी, भेड़ और सुअर आदि जैसे बहुत सारे पशु पालते थे। ये लोग गेहूँ, जौ, राई, मटर आदि अनाज उपजाते थे। इस संस्कृति के लोगों का आंतरिक एवं बाह्य व्यापार परस्पर नेटवर्किंग क्रियाओं पर आधारित था। वस्तुएँ बनाने के लिये जिस कच्चे माल की उपलब्धता नहीं होती थी उसे अन्य केन्द्रों से मंगा लिया जाता था। इस संस्कृति की नगर-योजना प्रणाली के अंतर्गत पकी ईंटों का प्रयोग, उत्तम जल-निकास प्रणाली, समकोण पर काटती सड़कें, ईंटों की बड़ी-बड़ी इमारतें, नरमोखे, प्रांगण एवं स्नानागार जैसी विशेषताएँ प्रमुख हैं। इस संस्कृति के लोग पत्थर के बहुत सारे औज़ारों के साथ-साथ कांसे के निर्माण और प्रयोग से भी भली-भाँति परिचित थे। हड़प्पाई लोग कुम्हार के चाक का उपयोग करने में बड़े कुशल थे, इनके बर्तनों पर अनेक रंगों की चित्रकारी देखने को मिलती है। हड़प्पाई लोगों ने भी प्राचीन मेसोपोटामिया की तरह लेखन-कला का आविष्कार किया, हालाँकि लिपि अभी तक अपठित है। हड़प्पाई लोगों ने व्यापार-वाणिज्य की सहूलियत के लिये माप-तौल का भी प्रयोग किया। ऐसा तौल के लिये 16 के आवर्तकों के प्रयोग एवं माप के निशान वाले पाए गए डंडे जैसे साक्ष्यों के आधार पर प्रतीत होता है। हड़प्पा संस्कृति की सर्वोत्तम कलाकृतियाँ उसकी मुहरें हैं जिनमें से अधिकांश पर एक सींग वाले जानवर, भैंस, बाघ, बकरी, और हाथी की आकृतियाँ उकेरी गई हैं। हड़प्पाई शिल्पी धातु की खूबसूरत मूर्तियाँ बनाते थे। कांसे की नर्तकी उनकी मूर्तिकला का सर्वश्रेष्ठ नमूना है। सिन्धु प्रदेश में भारी संख्या में आग में पकी मिट्टी की बनी मूर्तियाँ (टेराकोटा) मिली हैं जिनका प्रयोग या तो खिलौने के रूप में या पूज्य प्रतिमाओं के रूप में होता था। पुरुष देवता की प्राप्त मूर्ति, पकी मिट्टी की स्त्री मूर्तियाँ एवं मुहरों पर पीपल की डालों के बीच विराजमान चित्रित देवता इस संस्कृति के धार्मिक स्वरूप पर प्रकाश डालते हैं। इस संस्कृति के राजनीतिक संगठन का कोई स्पष्ट आभास नहीं होता है लेकिन प्रतीत होता है कि इतनी विकसित सभ्यता का संचालन बगैर किसी सत्ता के संभव नहीं हुआ होगा। विदेशों के साथ हड़प्पा सभ्यता के संपर्क निम्नलिखित रूपों में वर्णित हैं- इनका संपर्क अफगानिस्तान एवं ईरान से भी था। उत्तरी अफगानिस्तान में इन्होंने वाणिज्य-बस्ती स्थापित कर रखी थी जिसके चलते इनका व्यापार मध्य एशिया के साथ संचालित होता था। इन नगरों का व्यापार दजला-फरात प्रदेश के नगरों के साथ भी चलता था। बहुत सी हड़प्पाई मुहरें मेसोपोटामिया की खुदाई में प्राप्त हुई हैं जिनसे प्रतीत होता है कि हड़प्पाई लोगों द्वारा मेसोपोटामियाई नागरिकों के कई प्रसाधनों का अनुकरण किया गया। 2350 ई.पू. के आसपास एवं उसके आगे के मेसोपोटामियाई अभिलेखों में मेलुहा के साथ व्यापारिक संबंध की चर्चा है जो सिन्धु क्षेत्र का प्राचीन नाम था। मेसोपोटामियाई पुरालेखों में दो मध्यवर्ती व्यापारिक केंद्रों दिलमन (बहरैन) एवं मकन की चर्चा है जो मेसोपोटामिया और मेलुहा के बीच में पड़ते थे। हड़प्पा सभ्यता अपने दौर की एक महत्त्वपूर्ण सभ्यता थी। इस सभ्यता के विषय में लिपि के अपठित होने के कारण अभी बहुत से पहलू अनछुए हैं। उम्मीद की जा सकती है कि आने वाले समय में इस सभ्यता के भौतिक जीवन एवं वैदेशिक संबंधों के साथ-साथ अन्य पक्षों पर उचित प्रकाश पड़ेगा।</s>
<s>[INST]ज्वालामुखी उद्गार की प्रवृत्ति तथा विकसित आकृतियों के आधार पर ज्वालामुखियों का वर्गीकरण प्रस्तुत कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • उद्गार की प्रवृत्ति और विकसित आकृति के आधार पर ज्वालामुखी का वर्गीकरण कीजिये। हल करने का दृष्टिकोण • संक्षिप्त भूमिका लिखिये। • उद्गार की प्रवृत्ति के आधार पर वर्गीकरण कीजिये। • विकसित आकृतियों के आधार पर वर्गीकरण कीजिये। ज्वालामुखी प्राय: एक छिद्र अथवा खुला भाग होता है, जिससे होकर पृथ्वी के अत्यंत तप्त भाग से गैस, तरल लावा, जल, चट्टानों के टुकड़ों आदि से युक्त गर्म पदार्थ पृथ्वी के धरातल पर प्रकट होता है। ज्वालामुखी उद्गार से निर्मित स्थलाकृतियाँ उद्गार की प्रवृत्ति तथा निस्सृत पदार्थों के प्रकार पर निर्भर करती हैं। ज्वालामुखी उद्गार की प्रवृत्ति के आधार पर ज्वालामुखियों का वर्गीकरण: (a) केंद्रीय उद्भेदन वाले ज्वालामुखी- इसका उद्गार एक संकरी नली या द्रोणी के सहारे एक छिद्र से होता है। इसके अंतर्गत गैस, लावा तथा विखंडित पदार्थ अधिक मात्रा में विस्फोटक उद्भेदन के साथ आकाश में काफी ऊँचाई तक प्रकट होते हैं। यह अत्यधिक विनाशकारी ज्वालामुखी है। इस प्रकार के ज्वालामुखी को निस्सृत पदार्थों की विभिन्नता और उद्गार की अवधि के आधार पर कई उपविभागों में विजाजित किया जाता है- हवायन प्रकार के ज्वालामुखी स्ट्राम्बोली प्रकार के ज्वालामुखी वलकैनो तुल्य ज्वालामुखी विसुवियस प्रकार के ज्वालामुखी पीलियन प्रकार के ज्वालामुखी (ये सभी विस्फोटकता के बढ़ते क्रम में हैं) (b) दरारी उद्भेदन वाले ज्वालामुखी- जब लावा के साथ गैस और जलवाष्प की मात्रा कम होती है तो धरातल पर दरार पड़ जाने के कारण लावा शांत रूप में प्रवाहित होकर धरातल के ऊपर जमा हो जाता है। इससे लावा पठारों का निर्माण होता है, जैसे- भारत के दक्कन का पठार। आकृतियों के आधार पर ज्वालामुखी का वर्गीकरण: शील्ड ज्वालामुखी: यह सभी ज्वालामुखियों में (बेसाल्ट प्रवाह को छोड़कर) सबसे विशाल है। हवाईद्वीप के ज्वालामुखी इसके उदाहरण हैं। ये ज्वालामुखी मुख्यत: बेसाल्ट से निर्मित होते हैं तथा यह कम विस्फोटक है। तरल लावा के उद्गार के कारण इनकी ढाल मंद होती है। मिश्रित ज्वालामुखी: इसमें शील्ड ज्वालामुखी की अपेक्षा अधिक गाढ़ा और चिपचिपा लावा निकलता है तथा यह अधिक विस्फोटक होता है। इसका निर्माण विभिन्न प्रकार के ज्वालामुखी पदार्थों के क्रमिक रूप से एक के ऊपर एक जमा होने से होता है। सिण्डर ज्वालामुखी: इनका निर्माण ज्वालामुखी धूल, राख एवं विखंडित पदार्थों से होता है तथा इसकी ढाल, मिश्रित ज्वालामुखी के ढाल के समान होती है। प्रारंभ में इसकी ऊँचाई कम होती है परंतु निस्सृत पदार्थों के क्रमिक रूप से जमाव से यह बढ़ता जाता है। इनके निर्माण में तरल पदार्थों का योगदान नहीं होता है। निष्कर्षत: ज्वालामुखी एक महत्त्वपूर्ण क्रिया है, जो धरातल पर विभिन्न स्थलाकृतियों का निर्माण करता है। इसके द्वारा हमें पृथ्वी की आंतरिक संरचना के अध्ययन में सहायता मिलती है।</s>
<s>[INST]पद्माकर के शृंगार-वर्णन पर प्रकाश डालिये।[/INST]उत्तर : पद्माकर मुख्यत: शृंगार के कवि हैं। इनका शृंगार सामान्यत: रीतिकालीन वैभव व विलास के भीतर देह-प्रेम के उत्सव को चित्रित करता है। पद्माकर ने इसके अंतर्गत नायिका के अंगों की शोभा, विलास, भोग, आदि का चित्रण किया है। पद्माकर के संयोग शृंगार-वर्णन में नायिका के अंतर्मन, शारीरिक-मानसिक आकांक्षा, अभिसार आदि का भी सुन्दर वर्णन हुआ है। शृंगार के निम्नलिखित प्रसंग में उन्होंने विलास के सारे उपादानों को इकट्ठा कर दिया है- ‘‘गुलगुली गिल में गलीचा है, गुनीजन है, चाँदनी है, चिक है, चिरागन की माला है। कहै पद्माकर ज्यों गजक गिजा है सजी, सेज है, सुराही है, सुरा है और प्याला है।’’ इनके शृंगार वर्णन में संयोग-वियोग के प्रसंग प्राय: ऋतुओं-त्यौहारों से जुड़े हैं, जैसे कृष्ण-राधा से संबंधित निम्नलिखित पद होली के त्यौहार का जीवंत चित्रण करता है- ‘‘या अनुराग की फाग लखौ, जहँ राजत राग किसोर किसोरी। गोरिन के रंग भीजिगो साँउरो, साँउरे के रंग भीजिगो गोरी।।’’ पद्माकर के शृंगार-वर्णन में संयोग के समान वियोग भी गहरा व व्यापक है। नायिका के विरह को कवि ने प्रकृति की उदासी एवं हृदयहीनता के माध्यम से भी चित्रित किया है - ‘‘पावस बनाओ तो न विरह बनाऔ। जो विरह बनायौ तो न पावस बनाऔ।’’ स्पष्ट है कि शृंगार के संयोग-वियोग दोनों पक्षों की जैसी मार्मिक अभिव्यक्ति पद्माकर ने की है, वह अन्यत्र दुर्लभ है।</s>
<s>[INST]द्वितीय नगरीकरण के लिये उत्तरदायी सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक कारकों की चर्चा कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • कथन द्वितीय नगरीकरण के लिये उत्तरदायी सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक कारकों की चर्चा से संबंधित है। हल करने का दृष्टिकोण • द्वितीय नगरीकरण के विषय में संक्षिप्त उल्लेख के साथ परिचय लिखिये। • द्वितीय नगरीकरण के लिये उत्तरदायी सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक कारकों का उल्लेख कीजिये। • उचित निष्कर्ष लिखिये। सिन्धु घाटी सभ्यता के नगर 1900 ईसा-पूर्व के आस-पास विलुप्त हो गए और तब से लगभग 1400 वर्षों तक भारत में कोई शहर नहीं बस पाया। ईसा-पूर्व लगभग पाँचवीं सदी में मध्य-गंगा के मैदान में नगरों के प्रकट होने के साथ ही द्वितीय नगरीकरण की शुरुआत हुई। इसके पीछे भौगोलिक, आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक कारकों का पारस्परिक प्रभाव उत्तरदायी रहा है। 300 ईसा-पूर्व तक नगरीकरण का पूर्ण स्वरूप दिखाई पड़ने लगता है। द्वितीय नगरीकरण के लिये उत्तरदायी सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक कारक निम्नलिखित हैं- मध्य गंगा घाटी के वर्षा पोषित जंगलों से आच्छादित, कड़ी मिट्टी वाले क्षेत्रों की सफाई, खेती और बस्ती को उपयुक्त बनाने में लोहे का बड़ा लाभ मिला। लोहार लोहे के औज़ारों को ठोस बनाना जानते थे जिससे शिल्पकर्म एवं कृषिकर्म के लिये उपयुक्त औज़ारों की सुलभता सुनिश्चित हो सकती थी। समुन्नत खाद्य उत्पादक अर्थव्यवस्था मध्यगंगा की जलोढ़ मिट्टी पर सबसे पहले फैलती हुई दिखाई देती है जिससे न केवल उत्पादकों बल्कि शिल्प एवं व्यापार-वाणिज्य क्षेत्र से जुड़े लोगों का भरण-पोषण भी संभव हुआ जो नगरीकरण के लिये काफी अहम है। इस प्रकार की अर्थव्यवस्था से करों की नियमित वसूली एवं लम्बे समय तक सेना का रख-रखाव संभव हुआ जिससे बड़े-बड़े जनपद राज्य बनकर टिक सकते थे। ऐसे राज्य शिल्प एवं व्यापार-वाणिज्य जैसी गतिविधियों के लिये उचित माहौल उपलब्ध करा पाने में सक्षम थे। बड़े राज्यों के उदय से सभा एवं समिति जैसी कबायली संस्थाएँ अपने कबायली स्वरूप एवं अन्य व्यावहारिक कारणों से प्रासंगिक नहीं रह पाईं इनकी जगह पर परिषद नाम की छोटी सी समिति बनी जिसमें ब्राह्मण ही सदस्य होते थे। हालाँकि, गणतांत्रिक राज्यों में सभाओं का अस्तित्व कायम रहा। उपर्युक्त वर्णित व्यवस्था को बनाए रखने के लिये वर्ण व्यवस्था रची गई जिसमें प्रत्येक वर्ण के कर्तव्य को स्पष्ट रीति से निर्धारित कर दिया गया। वर्ण व्यवस्था के अनुसार शासकों एवं योद्धाओं को क्षत्रिय, पुरोहितों और शिक्षकों को ब्राह्मण, किसानों और कर दाताओं को वैश्य तथा श्रमिकों के रूप में वर्णित तीनों वर्णों की सेवा करने वाले को शूद्र की संज्ञा दी गई। निष्कर्षत: छठी शताब्दी ईसा-पूर्व महत्त्वपूर्ण परिवर्तनों का काल साबित हुआ। इस दौर में कृषि, शिल्प, व्यापार एवं वाणिज्य सभी स्तरों पर अभूतपूर्व परिवर्तन देखने को मिला। अत: परिवर्तनों के पारस्परिक प्रभावों ने ही एक लम्बी अवधि के बाद नगरीकरण को पुन: संभव बनाया।</s>
<s>[INST]पर्यावरणीय शिक्षा के लक्ष्यों और सिद्धांतों की विवेचना कीजिये। भारत में औपचारिक एवं अनौपचारिक पर्यावरणीय शिक्षा के आधारभूत सरोकारों का वर्णन कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद: • पर्यावरणीय शिक्षा के लक्ष्य • पर्यावरणीय शिक्षा के सिद्धांत • भारत में पर्यावरणीय शिक्षा से संबंधित आधारभूत मुद्दे/सरोकार 1. औपचारिक शिक्षा 2. अनौपचारिक शिक्षा हल करने का दृष्टिकोण: • संक्षिप्त भूमिका लिखते हुए प्रश्न के विभिन्न आयामों को क्रमबद्ध तरीके से लिखें। • संक्षिप्त एवं सार्थक भूमिका लिखें। UNESCO के अनुसार ,” पर्यावरणीय शिक्षा पर्यावरण संरक्षण के लक्ष्यों को लागू करने का एक तरीका है। यह विज्ञान की एक अलग शाखा नहीं है, बल्कि अध्ययन का एक सतत अंतर-विषयक क्षेत्र है।” साथ ही पर्यावरणीय शिक्षा की महत्ता को समझते हुए इसे सतत् विकास लक्ष्यों के अंतर्गत SDG-4.7 के रूप में भी शामिल किया गया है। पर्यावरणीय शिक्षा के लक्ष्य : आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक एवं पारिस्थितिक अंतर-निर्भरता एवं इनसे जुड़ी चुनौतियों के संदर्भ में जागरूक करना। प्रत्येक व्यक्ति को पर्यावरण की रक्षा और सुधार के लिये आवश्यक ज्ञान, मूल्य, दृष्टिकोण, प्रतिबद्धताओं एवं कौशल प्राप्ति के लिये अवसर प्रदान करना। पर्यावरण के प्रति समग्र रूप से व्यक्तियों, समूहों और समाज के व्यवहार में सकारात्मक सुधार करना। पर्यावरणीय शिक्षा के सिद्धांत : पर्यावरणीय शिक्षा पर अंतर-सरकारी सम्मलेन के ‘त्बिलिसी घोषणा-पत्र’ (Tbilsi Declaration) में बताए गए मार्गदर्शक सिद्धांतों में से कुछ प्रमुख सिद्धांत निम्नलिखित हैं- अंतर-विषयक दृष्टिकोण के साथ एक समग्र व संतुलित परिप्रेक्ष्य बनाना। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखते हुए वर्तमान और संभावित पर्यावरणीय स्थितियों पर ध्यान देना। पर्यावरणीय समस्याओं की रोकथाम और समाधान में स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के मूल्यों को बढ़ावा देना। विकास और संवृद्धि की योजनाओं में पर्यावरणीय पहलुओं पर स्पष्ट रूप से विचार करना। शुरुआती वर्षों में पर्यावरण संवेदनशीलता पर विशेष जोर देने के साथ ही पर्यावरणीय संवेदनशीलता, ज्ञान, समस्याओं को सुलझाने के कौशल, और मूल्यों के स्पष्टीकरण को हर उम्र से संदर्भित करना। यद्यपि भारत शुरुआत से ही पर्यावरण के प्रति संवेदनशील देशों में शामिल रहा है किंतु यहाँ की शिक्षा-व्यवस्था अभी तक पर्यावरणीय शिक्षा को सतत्, प्रबंधित एवं व्यावहारिक स्वरूप प्रदान करने में कई आधारभूत मुद्दों से ग्रसित दृष्टिगोचर होती है। औपचारिक पर्यावरणीय शिक्षा के संदर्भ में : सक्षम एवं प्रशिक्षित शिक्षकों का अभाव एवं आधारभूत शैक्षणिक अवसंरचनाओं की अपर्याप्तता। पाठ्यक्रम एवं शिक्षण प्रणाली में नवीनीकरण का अभाव; फलतः वर्तमान परिदृश्य में पर्यावरणीय समस्याओं के व्यावहारिक समाधान हेतु मार्गदर्शन कर पाने में सक्षम न हो पाना। अप्रभावी पर्यावरण शैक्षिक कार्यक्रम और नीतियों के कारण यह पर्यावरणीय शिक्षा को कैरियर हेतु विकल्प के रूप में चुनने के लिये छात्रों को आकर्षित करने में असफल रही है। पर्यावरण प्रशिक्षण कार्यक्रमों के स्तर, इसकी सामग्री एवं मॉड्यूल का संतोषजनक न होना। सामान्य शिक्षाप्रणाली से जुड़ी अन्य समस्याएँ; जैसे कि स्कूल ड्रॉपआउट की समस्या इत्यादि। अनौपचारिक पर्यावरणीय शिक्षा के संदर्भ में : इस संदर्भ में अधिकांशतः मीडिया का सकारात्मक एवं सक्रिय रुख एवं राजनीतिक व प्रशासनिक इच्छाशक्ति का अभाव एक बड़ी समस्या है। यद्यपि परंपरागत ज्ञान एवं रूढ़ियाँ पर्यावरण के प्रति संवेदनशील एवं संरक्षणकारी प्रवृत्ति की हैं तथापि ये वर्तमान समय की विस्तृत समस्याओं की दृष्टि से अपर्याप्त हैं औरअनेक अन्तर्निहित सीमाओं से ग्रसित हैं। गरीबी एवं बेरोज़गारी, निरक्षरता एवं स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से ग्रसित जनसंख्या स्वाभाविक रूप से पर्यावरण को प्राथमिकता नहीं दे पाती है। समग्रतः पर्यावरण संरक्षण की अनिवार्यता एवं उसके लिये पर्यावरणीय शिक्षा की सार्थकता को समझते हुए यह वांछित है कि भारत भी इस संदर्भ में राजनीतिक एवं प्रशासनिक इच्छाशक्ति एवं सतत जन-जागरूकता के माध्यम से निहित मुद्दों को दूर करने हेतु सक्षम समाधानों को अपनाकर समुचित प्रयास करे एवं अन्य देशों का भी मार्गदर्शन करे</s>
<s>[INST]गुप्त शासकों के अधीन विज्ञान, साहित्य, धर्म एवं ललित कलाओं के विकास का मूल्यांकन कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद •कथन गुप्त शासकों के अधीन विज्ञान, साहित्य, धर्म एवं ललित कलाओं के विकास के मूल्यांकन से संबंधित है। हल करने का दृष्टिकोण •गुप्त वंश के बारे में संक्षिप्त उल्लेख के साथ परिचय लिखिये। •गुप्त शासकों के अधीन विज्ञान, साहित्य, धर्म एवं ललित कलाओं के क्षेत्र में विकास का मूल्यांकन प्रस्तुत कीजिये। •उचित निष्कर्ष लिखिये। ईसा की तीसरी सदी के मध्य में कुषाण एवं सातवाहन राजवंशों के अवसान के परिणामस्वरुप गुप्त साम्राज्य का उदय हुआ। यह मौर्य साम्राज्य जितना विस्तृत भले ही न रहा हो लेकिन उत्तर भारत को 335 ई. से 455 ई. तक राजनीतिक एकता के सूत्र में बांधने में सफल साबित हुआ। इस एकता रूपी सूत्र के प्रभाव को शासन-प्रशासन एवं अर्थव्यवस्था के साथ-साथ विज्ञान, साहित्य, धर्म और ललित कला जैसे क्षेत्रों के विकास में भी बखूबी अनुभव किया गया। गुप्त शासकों के अधीन विज्ञान, साहित्य, धर्म एवं ललित कलाओं के क्षेत्र में विकास का मूल्यांकन निम्नलिखित है- यह काल लौकिक साहित्य की सर्जना के लिये स्मरणीय है। इस काल में धार्मिक साहित्य की रचना में व्यापक प्रगति हुई। रामायण और महाभारत गाथा काव्य इसी काल में आकर पूरे हुए। इस काल का सर्वोत्कृष्ट मंदिर झाँसी ज़िले में देवगढ़ का दशावतार मंदिर है। यह इस काल में वैष्णव धर्म का न केवल सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उदाहरण है बल्कि इसमें गुप्त स्थापत्य कला अपने पूर्ण विकसित रूप में मिलती है। कला की नागर और द्रविड़ दोनों शैलियाँ इस अवधि के दौरान विकसित हुईं। सारनाथ में बुद्ध प्रतिमा का पता लगाया गया जो गुप्त कला का एक अद्वितीय भाग था। गुप्तकालीन कला संयत और नैतिक है। कुषाण काल के विपरीत मूर्तियों में नग्नता नहीं है और यहाँ की मूर्तियों में सुसज्जित प्रभामंडल बनाए गए हैं। बौद्ध मूर्तियों में सजीवता एवं मौलिकता का समावेश है। कारीगर धातु की मूर्तियों और स्तंभों की ढलाई की कला में कुशल थे। बुद्ध की तांबे की विशाल प्रतिमा इसका प्रमुख उदाहरण है। गणित के क्षेत्र के प्रसिद्ध ग्रन्थ आर्यभटीय, खगोलशास्त्र में रोमक सिद्धांत नामक पुस्तक की रचना, धातु की उन्नत जानकारी, कांस्य मूर्तियों का बड़े पैमाने पर निर्माण, लौह शिल्पकारी के अच्छे उदाहरण, महरौली का लौह स्तम्भ इस काल में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी पर उचित प्रकाश डालते हैं। गुप्त काल के दौरान संस्कृत भाषा प्रसिद्ध हो गई थी। नागरी लिपि, ब्राह्मी लिपि से विकसित हुई थी। संस्कृत के सबसे अच्छे साहित्य गुप्त काल से संबंधित थे। चंद्रगुप्त द्वितीय का दरबार प्रसिद्ध नवरत्नों से विभूषित था जिनमें कालिदास सबसे आगे थे। संस्कृत नाटक शकुंतला उनकी उत्कृष्ट कृति है। स्वयं एक महान कवि समुद्रगुप्त ने हरिसेन सहित कई विद्वानों को संरक्षण प्रदान किया। गुप्त काल में मूर्तिपूजा ब्राह्मण धर्म का सामान्य लक्षण बन गई और बौद्ध धर्म का उत्कर्ष अशोक एवं कनिष्क के काल जैसा नहीं रह गया था। इस काल में महायान बौद्ध धर्म की तुलना में भागवत या बौद्ध सम्प्रदाय अधिक प्रभावी थे। वास्तुकला के क्षेत्र में इस काल के अवशेष बहुत कम मिलने से यह नहीं कहा जा सकता कि यह युग वास्तुकला का भी उत्कृष्टतम युग था। वास्तुकला के नाम पर हमें ईंट के बने कुछ मंदिर मिले हैं। गुप्त काल को कला एवं साहित्य के विकास की दृष्टि से स्वर्ण युग कहा गया है, हालाँकि वास्तुकला की दृष्टि से इसके उत्कृष्टतम युग होने पर प्रश्नचिह्न लगता है। गुप्त शासकों का दृष्टिकोण सभी धर्मों के प्रति सहिष्णु था। कुल मिलाकर इस काल में विभिन्न स्तरों पर महत्त्वपूर्ण प्रगति देखने को मिलती है।</s>
<s>[INST]मध्य महासागरीय कटकों के आधार पर सागरीय अधस्तल विस्तार की परिकल्पना की पुष्टि कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • मध्य महासागरीय कटकों से सागरीय अधस्तल विस्तार का संबंध बताएँ। हल करने का दृष्टिकोण • सागरीय अधस्तल विस्तार परिकल्पना की संक्षिप्त चर्चा करें। • मध्य महासागरीय कटकों के आधार पर इस परिकल्पना की पुष्टि करें। हैरी हेस ने 1960 में पुराचुम्बकत्त्व विज्ञान, समुद्री भूगर्भ शास्त्र के खोज एवं ध्रुवीय भटकन (Wandening) सिद्धांत तथा संवहनीय धारा सिद्धांत जैसी संकल्पनाओं को संश्लेषित कर सागरीय अधस्तल विस्तार अभिमत प्रस्तुत किया। हैरी हेस ने मध्य महासागरीय कटक के दोनों ओर की चट्टानों के चुंबकीय गुणों के विश्लेषण के आधार पर अपना मत प्रस्तुत किया। हैरी हेस ने अपने सिद्धांत में प्रतिपादित किया कि अधिकांश महासागरों में दरारें मौजूद हैं। इन दरारों के दोनों ओर के भूखंड एक-दूसरे से दूर हट रहे हैं। इन दरारों के सहारे ज्वालामुखी उद्गार हो रहा है। भूखंडों का दूसरा सिरा महाद्वीपों के नीचे क्षेपित हो जाता है जो गहराई में उच्च तापमान के कारण पिघल जाता है। यह पिघला हुआ मैग्मा महासागरीय दरारों की ओर प्रवाहित होता है। इस प्रकार एक कन्वेयर बेल्ट का निर्माण होता है। इसी के आधार पर हैरी हेस ने सागरीय अधस्थल विस्तार की परिकल्पना का प्रतिपादन किया। मध्य महासागरीय कटकों के आधार पर परिकल्पना की पुष्टि: महासागरीय क्रस्ट की नवीनता मध्य महासागरीय कटक से बढ़ती दूरी के साथ घटती जाती है। अर्थात् कटकों के पास नवीन चट्टानें तो गर्तों के पास पुरानी चट्टानें मिलती हैं। चुंबकीय व्युत्क्रमण सिद्धांत के अनुसार, कटक से बढ़ती दूरी के साथ कटक के दोनों ओर की चट्टानों में चुम्बकत्व संबंधी सामयिक व्युत्क्रमणता पाई जाती है। कटकों के साथ-साथ ज्वालामुखी उद्गार तथा भूकंपों का पाया जाना। कटकों के शिखर पर तलछटों का अभाव, जबकि दूरी के साथ तलछटों के जमाव में वृद्धि। कटक के मध्य भाग के दोनों तरफ समान दूरी पर चट्टानों के निर्माण के समय संरचना और संघटन में एकरूपता। हैरी हेस द्वारा प्रतिपादित सागरीय अधस्तल विस्तार सिद्धांत भविष्य के अध्ययनों के लिये महत्त्वपूर्ण आधार बना। इसका अधिक परिष्कृत, विस्तारित और अधिक व्यापक रूप प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत के तौर पर विकसित हुआ।</s>
<s>[INST]अकहानी आन्दोलन का परिचय देते हुए उसकी प्रमुख प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालिये।[/INST]उत्तर : अकहानी आंदोलन का सूत्रपात 1960 के दशक में ‘नई कहानी’ के विरोध में हुआ। यह फ्राँस के ‘एन्टी स्टोरी मूवमेंट’ से प्रभावित आन्दोलन है। इस आन्दोलन की कहानियों में जीवन के प्रति अस्वीकार का भाव वैसे ही दिखता है जैसे अकविता की कविताओं में दिखाई पड़ता है। गंगा प्रसाद विमल की ‘प्रश्नचिन्ह’, दूधनाथ सिंह की ‘रीछ’, रवींद्र कालिया की ‘नौ साल छोटी पत्नी’, आदि अकहानी के कुछ प्रमुख उदाहरण हैं। अकहानी आंदोलन की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं- 1. जीवन-मूल्यों का तिरस्कार: अकहानी जीवन मूल्यों को चुनौती देती हुई कुछ नए प्रश्न उपस्थित करती है। यही कारण है कि इसमें भाव-बोध के धरातल पर आत्मपीड़न, ऊब, अकेलापन, अजनबीपन, निरर्थकता बोध, विसंगति आदि का चित्रण दिखाई देता है। 2. परंपरा का पूर्ण नकार: अकहानी पुरानी व्यवस्था से कोई संबंध नहीं रखना चाहती। परम्परा के प्रति उसमें गुस्से भरा नकार-भाव दिखाई देता है। 3. अतिशय आधुनिकता: अकहानी, अतिशय आधुनिकता पर जोर देती है और इसी कारण से वह समाज से कट जाती है। अकहानी ‘संबंधहीनता’ की स्थितियों को उभारती है। इसमें संबंधों के जिस संसार का चित्रण है, वह बहुत भयावह, तकलीफदेह और निर्मम है। 4. यौन-उन्मुक्तता: अकहानी में पर-पुरुष या पर-स्त्री के साथ संभोग के दृश्यों का वर्णन विस्तार से हुआ है। इसके अतिरिक्त ‘अकहानी’ के अन्तर्गत समलैंगिक संपर्क तथा पशु संपर्क की कहानियाँ भी लिखी गईं। 5. शिल्पगत अमूर्तता: शिल्प के स्तर पर, अकहानी आंदोलन पारंपरिक शिल्प का विरोध तो करता ही है, साथ ही नए शिल्प के प्रति भी उदासीन है। यह एक शिल्पहीन आंदोलन है।</s>
<s>[INST]भारतीय कला एवं संस्कृति में कुषाणों के योगदान का मूल्यांकन कीजिये।[/INST]उत्तर : प्रश्न विच्छेद • कथन भारतीय कला एवं संस्कृति में कुषाणों के योगदान के मूल्यांकन से संबंधित है। हल करने का दृष्टिकोण • कुषाणों के विषय में संक्षिप्त उल्लेख के साथ परिचय लिखिये। • भारतीय कला एवं संस्कृति में कुषाणों के योगदान का मूल्यांकन प्रस्तुत कीजिये। • उचित निष्कर्ष लिखिये। 200 ईसा-पूर्व से जिस युग की शुरुआत होती है उसमें मौर्य राजवंश जैसे विशाल साम्राज्य की बजाय कई राजवंशों का उदय हुआ और इनमें कुषाण सर्वाधिक प्रसिद्ध हुए। कुषाणों को यूंची और तोखारी भी कहा जाता था जो उत्तरी-हरित मैदानों के खानाबदोश लोग थे। राजनीतिक शांति के चलते कुषाण युग में धर्म, साहित्य, कला, विज्ञान, व्यापार एवं वाणिज्य के क्षेत्र में खूब प्रगति हुई। भारतीय कला एवं संस्कृति में कुषाणों के योगदान का मूल्यांकन निम्नलिखित प्रकार से किया गया है- कुषाण साम्राज्य ने विभिन्न शैलियों और देशों में प्रशिक्षित राजमिस्त्रियों और अन्य कारीगरों को इकट्ठा किया जिससे गांधार एवं मथुरा जैसी कला की नई शैलियों का विकास हुआ। गांधार शैली को ग्रीक-बौद्ध शैली भी कहा जाता है। हालाँकि, इस शैली का विकास उत्तर-पश्चिम में ई.पू. प्रथम शताब्दी के मध्य गांधार में हुआ था लेकिन इसका सर्वाधिक विकास कुषाण काल में हुआ। वर्तमान उत्तर प्रदेश के मथुरा में विकसित कला की शैली को ही मथुरा कला के नाम से जाना जाता है। पहली सदी के शुरुआती चरण में यह कला स्वदेशी तर्ज पर विकसित हुई। इसमें बुद्ध के चित्रों में उनके चेहरे पर आध्यात्मिक भावना प्रदर्शित होती है जो कि गांधार कला में काफी हद तक अनुपस्थित थी। मथुरा कला में शिव और विष्णु को भी क्रमश: उनकी पत्नी पार्वती एवं लक्ष्मी की छवियों के साथ चित्रित किया गया है। मथुरा कला में यक्षिणी और अप्सरा के चित्रों को खूबसूरती से उकेरा गया था। कनिष्क द्वारा चतुर्थ बौद्ध संगीति का आयोजन कश्मीर में किया गया जिसमें वसुबन्धु, अश्वघोष और नागार्जुन जैसे प्रसिद्ध बौद्ध दार्शनिकों ने भाग लिया। इसी समय बौद्ध धर्म की नई शाखा महायान की उत्पत्ति हुई। कुषाणों के संरक्षण में बौद्ध धर्म का विकास हुआ लेकिन मथुरा से सैकड़ों अवशेष व मूर्तियाँ आदि मिले हैं जो कुषाण संरक्षण में बने और ये जैन धर्म के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालते हैं। महायान बौद्ध विद्वान अश्वघोष ने बड़ी मात्रा में बुद्धचरित्र, सूत्रालंकार जैसे संस्कृत साहित्य की रचना की। वसुमित्र ने महाविभाषा को संकलित किया। नागार्जुन ने दर्शन पर पुस्तकें लिखीं। कनिष्क के राज्य में प्रसिद्ध चिकित्सक चरक एवं महान भवन निर्माता (बिल्डर) अजिलसिम (Ajilasim) थे। विमकडफिसस के सिक्कों पर एक तरफ यूनानी लिपि और दूसरी तरफ खरोष्ठी लिपि है तथा साथ ही शिव की आकृति, नंदी, त्रिशूल आदि तत्कालीन कला एवं संस्कृति के विकास को परिलक्षित करते हैं। कनिष्क के सिक्कों पर पार्थियन, यूनानी एवं भारतीय देवी-देवताओं की आकृतियाँ हैं और कुछ सिक्कों पर यूनानी ढंग से खड़े एवं कुछ पर भारतीय ढंग से बैठे बुद्ध की आकृतियाँ सम्राट के धर्म सहिष्णु चरित्र की तरफ इशारा करती हैं। कुषाण शासकों द्वारा बड़ी संख्या में स्वर्ण मुद्राएँ जारी की गईं जो शुद्धता में गुप्त शासकों से उत्कृष्ट हैं. कनिष्क द्वारा एक बड़ा स्तूप एवं मठ बनवाया गया जिसमें बुद्ध के अवशेष रखे गए। भक्ति भावना के पुट का उदय इसी काल में देखने को मिलता है जिसमें ज्ञानमार्ग अथवा कर्ममार्ग की अपेक्षा भक्तिमार्ग की लोकप्रियता में वृद्धि हो रही थी। कुषाणों की अपनी विकसित संस्कृति नहीं थी लेकिन इन्होंने भारतीय एवं यूनानी संस्कृति को अपना लिया जो खूब विकसित हुई। भक्ति मार्ग की तरह कई मायनों में कला एवं संस्कृति विकास के अपने शुरुआती दौर से गुज़र रही थी। इसमें कोई दो राय नहीं है कि गुप्त राजाओं से पूर्व कुषाण युग भारतीय कला एवं संस्कृति में प्रमुख स्थान रखता है।</s>