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6809fa373 | यहाँ पर भारत के उन व्यक्तियों, समूहों और संस्थाओं का संकलन है जो किसी श्रेणी में प्रथम हैं/थे।
भारत के प्रथम राष्ट्रपति - राजेन्द्र प्रसाद
भारत के प्रथम उप राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधा कृष्णन
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री - जवाहरलाल नेहरू
भारत के प्रथभ उप प्रधानमंत्री-
सरदार वल्लभ भाई पटेल
भारत के प्रथम गृह मंत्री
सरदार वल्लभ भाई पटेल
भारत के प्रथम कृषि मंत्री
राजेन्द्र प्रसाद
भारत के प्रथम कानून मंत्री
भीमराव अंबेडकर
भारत के प्रथम रेल मंत्री - आसफ अली
भारत के प्रथम वित्तमंत्री - लिआकत अली
भारत के प्रथम शिक्षा मंत्री- C राज गोपालाचार्य
भारत के प्रथम रक्षा मंत्री - वलदेव सिंह
भारत के प्रथम स्वास्थ्य मंत्री - गजान्तर आली
भारत के प्रथम संचार मंत्री - अब्दुल नस्तर
भारत के प्रथम श्रम मंत्री - जगजीवन राम
विभिन्न राज्यों के प्रथम मुख्यमंत्री =
भारत के विभिन्न राज्यों के प्रथम मुख्यमंत्रियों की सूची निम्नलिखित है-
जम्मू एवं कश्मीर - गुलाम मोहम्मद सद्दीक
हरियाणा - भगवत दयाल शर्मा
हिमाचल प्रदेश - यशवंत सिंह परमार
पंजाब - डॉ॰ गोपीचन्द भार्गव
दिल्ली - चौधरी ब्रह्म प्रकाश
उत्तराखण्ड - नित्यानन्द स्वामी
राजस्थान - हीरालाल शास्त्री
उत्तर प्रदेश - गोविन्द वल्लभ पन्त
बिहार - श्री कृष्ण सिन्हा
झारखण्ड - बाबूलाल मरांडी
पश्चिम बंगाल - प्रफुल्ल चन्द्र घोष
ओडिशा - हरेकृष्णा महतब
छत्तीसगढ़ - अजीत जोगी
मध्य प्रदेश - पं. रविशंकर शुक्ल
गुजरात - डॉ॰ जीवराज नारायण मेहता
महाराष्ट्र -- यशवन्त राव चव्हाण
गोवा -- दयानंद बांदोडकर
आंध्र प्रदेश -- नीलम संजीव रेड्डी
तमिलनाडु -- पी.एस. कुमारस्वामी राजा
केरल -- इ.एम.एस. नंबूदिरीपाद
असम -- गोपीनाथ बारदलोई
मणिपुर -- एम. कोइरंग सिंह
मेघालय -- डब्ल्यू. ए. संगमा
सिक्किम -- के.एल. दोरजी खंगसरपा
नागालैण्ड -- पी. शैलू ओ
अरुणाचल प्रदेश -- प्रेमखाण्डू थंगन
मिजोरम -- एल. चल छंगा
इन्हें भी देखें
हिन्दी से सम्बन्धित प्रथम
बाहरी कड़ियाँ
(सामान्य ज्ञान)
(प्रश्नमंच)
(प्रश्नमंच)
श्रेणी:भारत | भारत के पहले स्वास्थ्य मंत्री कौन थे? | गजान्तर आली | 622 | hindi |
de744a5b7 | डॉ॰ हरिसिंह गौर, (२६ नवम्बर १८७० - २५ दिसम्बर १९४९) सागर विश्वविद्यालय के संस्थापक, शिक्षाशास्त्री, ख्यति प्राप्त विधिवेत्ता, न्यायविद्, समाज सुधारक, साहित्यकार (कवि, उपन्यासकार) तथा महान दानी एवं देशभक्त थे। वह बीसवीं शताब्दी के सर्वश्रेष्ठ शिक्षा मनीषियों में से थे। वे दिल्ली विश्वविद्यालय तथा नागपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति रहे। वे भारतीय संविधान सभा के उपसभापति, साइमन कमीशन के सदस्य तथा रायल सोसायटी फार लिटरेचर के फेल्लो भी रहे थे।उन्होने कानून शिक्षा, साहित्य, समाज सुधार, संस्कृति, राष्ट्रीय आंदोलन, संविधान निर्माण आदि में भी योगदान दिया।
उन्होने अपनी गाढ़ी कमाई से 20 लाख रुपये की धनराशि से 18 जुलाई 1946 को अपनी जन्मभूमि सागर में सागर विश्वविद्यालय की स्थापना की तथा वसीयत द्वारा अपनी पैतृक सपत्ति से 2 करोड़ रुपये दान भी दिया था। इस विश्वविद्यालय के संस्थापक, उपकुलपति तो थे ही वे अपने जीवन के आखिरी समय (२५ दिसम्बर १९४९) तक इसके विकास व सहेजने के प्रति संकल्पित रहे। उनका स्वप्न था कि सागर विश्वविद्यालय, कैम्ब्रिज तथा ऑक्सफोर्ड जैसी मान्यता हासिल करे। उन्होंने ढाई वर्ष तक इसका लालन-पालन भी किया। डॉ॰ सर हरीसिंह गौर एक ऐसा विश्वस्तरीय अनूठा विश्वविद्यालय है, जिसकी स्थापना एक शिक्षाविद् के द्वारा दान द्वारा की गई थी।
जीवनी
डॉ॰ सर हरीसिंह गौर का जन्म महाकवि पद्माकर की नगरी [ग्राम - चिलपहाड़ी बाँदा [सागर]] (म.प्र.) के पास एक निर्धन परिवार में 26 नवम्बर 1870 को हुआ था। उन्होने सागर के ही गवर्नमेंट हाईस्कूल से मिडिल शिक्षा प्रथम श्रेणी में हासिल की। उन्हे छात्रवृत्ति भी मिली, जिसके सहारे उन्होंने पढ़ाई का क्रम जारी रखा, मिडिल से आगे की पढ़ाई के लिए जबलपुर गए फिर महाविद्यालयीन शिक्षा के लिए नागपुर के हिसलप कॉलेज (Hislop College) में दाखिला ले लिया, जहां से उन्होंने इंटरमीडिएट की परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में की थी। वे प्रांत में प्रथम रहे तथा पुरस्कारों से नवाजे गए।
सन् १८८९ में उच्च शिक्षा लेने इंग्लैंड गए। सन् १८९२ में दर्शनशास्त्र व अर्थशास्त्र में ऑनर्स की उपाधि प्राप्त की। फिर १८९६ में M.A., सन १९०२ में LL.M. और अन्ततः सन १९०८ में LL.D. किया। कैम्ब्रिज में पढाई से जो समय बचता था उसमें वे ट्रिनिटी कालेज में डी लिट्, तथा एल एल डी कीपडाई करते थे। उन्होने अंतर-विश्वविद्यालयीन शिक्षा समिति में कैंब्रिज विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व किया, जो उस समय किसी भारतीय के लिये गौरव की बात थी। डॉ॰ सर हरीसिंह गौड ने छात्र जीवन में ही दो काव्य संग्रह दी स्टेपिंग वेस्टवर्ड एण्ड अदर पोएम्स एवं रेमंड टाइम की रचना की, जिससे सुप्रसिद्ध रायल सोसायटी ऑफ लिटरेचर द्वारा उन्हें स्वर्ण पदक प्रदान किया गया।
सन् १९१२ में वे बैरिस्टर होकर स्वदेश आ गये। उनकी नियुक्ति सेंट्रल प्रॉविंस कमीशन में एक्स्ट्रा `सहायक आयुक्त´ के रूप में भंडारा में हो गई। उन्होंने तीन माह में ही पद छोड़कर अखिल भारतीय स्तर पर वकालत प्रारंभ कर दी व मध्य प्रदेश, भंडारा, रायपुर, लाहौर, कलकत्ता, रंगून तथा चार वर्ष तक इंग्लैंड की प्रिवी काउंसिल में वकालत की, उन्हें एलएलडी एवं डी. लिट् की सर्वोच्च उपाधि से भी विभूषित किया गया। १९०२ में उनकी द लॉ ऑफ ट्रांसफर इन ब्रिटिश इंडिया पुस्तक प्रकाशित हुई। वर्ष १९०९ में दी पेनल ला ऑफ ब्रिटिश इंडिया (वाल्यूम २) भी प्रकाशित हुई जो देश व विदेश में मान्यता प्राप्त पुस्तक है। प्रसिद्ध विधिवेत्ता सर फेडरिक पैलाक ने भी उनके ग्रंथ की प्रशंसा की थी। इसके अतिरिक्त डॉ॰ गौर ने बौद्ध धर्म पर दी स्पिरिट ऑफ बुद्धिज्म नामक पुस्तक भी लिखी। उन्होंने कई उपन्यासों की भी रचना की।
वे शिक्षाविद् भी थे। सन् १९२१ में केंद्रीय सरकार ने जब दिल्ली विश्वविद्यालय की स्थापना की तब डॉ॰ सर हरीसिंह गौड को विश्वविद्यालय का संस्थापक कुलपति नियुक्त किया गया। ९ जनवरी १९२५ को शिक्षा के क्षेत्र में `सर´ की उपाधि से विभूषित किया गया, तत्पश्चात डॉ॰ सर हरीसिंह गौर को दो बार नागपुर विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया गया।
डॉ॰ सर हरीसिंह गौर ने २० वर्षों तक वकालत की तथा प्रिवी काउंसिल के अधिवक्ता के रूप में शोहरत अर्जित की। वे कांग्रेस पार्टी के सदस्य रहे, लेकिन १९२० में महात्मा गांधी से मतभेद के कारण कांग्रेस छोड़ दी। वे १९३५ तक विधान परिषद् के सदस्य रहे। वे भारतीय संसदीय समिति के भी सदस्य रहे, भारतीय संविधान परिषद् के सदस्य रूप में संविधान निर्माण में अपने दायित्वों का निर्वहन किया। विश्वविद्यालय के संस्थापक डॉ॰ सर हरीसिंह गौर ने विश्वविद्यालय की स्थापना के बाद नागरिकों से अपील कर कहा था कि सागर के नागरिकों को सागर विश्वविद्यालय के रूप में एक शिक्षा का महान अवसर मिला है, वे अपने नगर को आदर्श विद्यापीठ के रूप में स्मरणीय बना सकते हैं।
यह भी एक संयोग ही है कि स्वतंत्र भारत व इस विश्वविद्यालय का जन्म एक ही समय हुआ। डॉ॰ सर हरीसिंह गौर को अपनी जन्मभूमि सागर में उच्च शिक्षा की व्यवस्था न होने का दर्द हमेशा रहा। इसी कारण द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात ही इंग्लैंड से लौट कर उन्होंने अपने जीवन भर की गाढ़ी कमाई से इसकी स्थापना करायी। वे कहते थे कि राष्ट्र का धन न उसके कल-कारखाने में सुरक्षित रहता है न सोने-चांदी की खदानों में; वह राष्ट्र के स्त्री-पुरुषों के मन और देह में समाया रहता है। डॉ हरिसिंह गौड की सेवाओं के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए भारतीय डाक व तार विभाग ने १९७६ में एक डाकटिकट जारी कीया जिस पर उनके र्चित्र को प्रदर्शात किया गया है।
डॉ॰ हरि सिंह गौर ने 'सेवेन लाईव्ज' (Seven Lives) शीर्षक से अपनी आत्मकथा लिखी है। मूलत: अंग्रेजी भाषा में लिखी गई। एक युवा पत्रकार ने इस आत्मकथा का हिन्दी भाषा में अनुवाद किया है। डॉ॰ गौर ने अपनी आत्मकथा में अपने जीवन के सभी पहलुओं पर बड़ी बेबाकी से लिखा है।
प्रमुख कृतियाँ
The Transfer of Property in British India: Being an Analytical Commentary on the Transfer of Property Act, 1882 as Amended ..., Published by Thacker, Spink, 1901.
The Law of Transfer in British India, Vol. 1–3 (1902)
The Penal Law of India, Vol. 1–2 (1909)
Hindu Code (1919)
India and the New Constitution (1947)
Renaissance of India (1942)
The Spirit of Buddhism (1929)
His only Love (1929)
Random Rhymes (1892)
Facts and Fancies (1948)
Seven Lives (आत्मकथा ; 1944)
India and the New Constitution (1947)
Letters from Heaven
Lost Soul
Passing Clouds
इन्हें भी देखें
डॉ॰ हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर
सागर
बाहरी कड़ियाँ
(बुन्देलखण्ड दर्शन)
श्रेणी:व्यक्तिगत जीवन
श्रेणी:मध्य प्रदेश के लोग
श्रेणी:मध्य प्रदेश के लेखक
श्रेणी:हिन्दी लेखक
श्रेणी:1870 में जन्मे लोग
श्रेणी:१९४९ में निधन | डॉ॰ हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय की स्थापना किस वर्ष में हुई थी? | 1946 | 613 | hindi |
9632519cb | गुर्जर प्रतिहार वंश या प्रतिहार वंश मध्यकाल के दौरान मध्य-उत्तर भारत के एक बड़े हिस्से में राज्य करने वाला राजवंश था, जिसकी स्थापना नागभट्ट नामक एक सामन्त ने ७२५ ई॰ में की थी। इस राजवंश के लोग स्वयं को राम के अनुज लक्ष्मण के वंशज मानते थे, जिसने अपने भाई राम को एक विशेष अवसर पर प्रतिहार की भाँति सेवा की। इस राजवंश की उत्पत्ति, प्राचीन कालीन ग्वालियर प्रशस्ति अभिलेख से ज्ञात होती है। अपने स्वर्णकाल में प्रतिहार साम्राज्य पश्चिम में सतलुज नदी से उत्तर में हिमालय की तराई और पुर्व में बंगाल-असम से दक्षिण में सौराष्ट्र और नर्मदा नदी तक फैला हुआ था। सम्राट मिहिर भोज, इस राजवंश का सबसे प्रतापी और महान राजा थे। अरब लेखकों ने मिहिरभोज के काल को सम्पन्न काल बताते हैं। इतिहासकारों का मानना है कि प्रतिहार राजवंश ने भारत को अरब हमलों से लगभग ३०० वर्षों तक बचाये रखा था, इसलिए प्रतिहार (रक्षक) नाम पड़ा।
प्रतिहारों ने उत्तर भारत में जो साम्राज्य बनाया, वह विस्तार में हर्षवर्धन के साम्राज्य से भी बड़ा और अधिक संगठित था। देश के राजनैतिक एकीकरण करके, शांति, समृद्धि और संस्कृति, साहित्य और कला आदि में वृद्धि तथा प्रगति का वातावरण तैयार करने का श्रेय प्रतिहारों को ही जाता हैं। प्रतिहारकालीन मंदिरो की विशेषता और मूर्तियों की कारीगरी से उस समय की प्रतिहार शैली की संपन्नता का बोध होता है।
इतिहास
प्रारंभिक शासक
ग्वालियर प्रशस्ति अभिलेख से इस वंश के बारे में कई महत्वपूर्ण बाते ज्ञात होती है।[1][2][3] नागभट्ट प्रथम (७३०-७५६ ई॰) को इस राजवंश का पहला राजा माना गया है। आठवीं शताब्दी में भारत में अरबों का आक्रमण शुरू हो चुका था। सिन्ध और मुल्तान पर उनका अधिकार हो चुका था। फिर सिंध के राज्यपाल जुनैद के नेतृत्व में सेना आगे मालवा, जुर्ज और अवंती पर हमले के लिये बढ़ी, जहां जुर्ज पर उसका कब्जा हो गया। परन्तु आगे अवंती पर नागभट्ट ने उन्हैं खदैड़ दिया। अजेय अरबों कि सेना को हराने से नागभट्ट का यश चारो ओर फैल गया।[4] अरबों को खदेड़ने के बाद नागभट्ट वहीं न रुकते हुए आगे बढ़ते गये। और उन्होंने अपना नियंत्रण पूर्व और दक्षिण में मंडोर, ग्वालियर, मालवा और गुजरात में भरूच के बंदरगाह तक फैला दिया। उन्होंने मालवा में अवंती (उज्जैन) में अपनी राजधानी की स्थापना की, और अरबों के विस्तार को रोके रखा, जो सिंध में स्वयं को स्थापित कर चुके थे। मुस्लिम अरबों से हुए इस युद्ध (७३८ ई॰) में नागभट्ट ने गुर्जर-प्रतिहारों का एक संघीय का नेतृत्व किया।[5][6] नागभट्ट के बाद दो कमजोर उत्तराधिकारी आये, उनके बाद आये वत्सराज (७७५-८०५ई॰) ने साम्राज्य का और विस्तार किया।[7]
कन्नौज पर विजय और आगे विस्तार
हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद कन्नौज को शक्ति निर्वात का सामना करना पड़ा, जिसके परिणामस्वरूप हर्ष के साम्राज्य का विघटन होने लगा। जोकि अंततः लगभग एक सदी के बाद यशोवर्मन ने भरा। लेकिन उसकी स्थिति भी ललितादित्य मुक्तपीड के साथ गठबंधन पर निर्भर थी। जब मुक्तापीदा ने यशोवर्मन को कमजोर कर दिया, तो शहर पर नियंत्रण के लिए त्रिकोणीय संघर्ष विकसित हुआ, जिसमें पश्चिम और उत्तर क्षेत्र से प्रतिहार साम्राज्य, पूर्व से बंगाल के पाल साम्राज्य और दक्षिण में दक्कन में आधारभूत राष्ट्रकूट साम्राज्य शामिल थे।[8][9] वत्सराज ने कन्नौज के नियंत्रण के लिए पाल शासक धर्मपाल और राष्ट्रकूट राजा दन्तिदुर्ग को सफलतापूर्वक चुनौती दी और पराजित कर दो राजछत्रों पर कब्जा कर लिया।[10][11]
७८६ के आसपास, राष्ट्रकूट शासक ध्रुव धारवर्ष (७८०-७९३) नर्मदा नदी को पार कर मालवा पहुंचा और वहां से कन्नौज पर कब्जा करने की कोशिश करने लगा। लगभग ८०० ई० में वत्सराज को ध्रुव धारवर्षा ने पराजित किया और उसे मरुदेश (राजस्थान) में शरण लेने को मजबुर कर दिया। और उसके द्वार गौंड़राज से जीते क्षेत्रों पर भी अपना कब्जा कर लिया।[12] वत्सराज को पुन: अपने पुराने क्षेत्र जालोन से शासन करना पडा, ध्रुव के प्रत्यावर्तन के साथ ही पाल नरेश धर्मपाल ने कन्नौज पर कब्जा कर, वहा अपने अधीन चक्रायुध को राजा बना दिया।[7]
वत्सराज के बाद उसका पुत्र नागभट्ट द्वितीय (805-833) राजा बना, उसे शुरू में राष्ट्रकूट शासक गोविन्द तृतीय (793-814) ने पराजित किया था, लेकिन बाद में वह अपनी शक्ति को पुन: बढ़ा कर राष्ट्रकूटों से मालवा छीन लिया। तदानुसार उसने आन्ध्र, सिन्ध, विदर्भ और कलिंग के राजाओं को हरा कर अपने अधीन कर लिया। चक्रायुध को हरा कर कन्नौज पर विजय प्राप्त कर लिया। आगे बढ़कर उसने धर्मपाल को पराजित कर बलपुर्वक आनर्त, मालव, किरात, तुरुष्क, वत्स और मत्स्य के पर्वतीय दुर्गो को जीत लिया।[13] शाकम्भरी के चाहमानों ने कन्नोज के गुर्जर प्रतीहारों कि अधीनता स्वीकार कर ली।[14] उसने प्रतिहार साम्राज्य को गंगा के मैदान में आगे पाटलिपुत्र (बिहार) तक फैला दिया। आगे उसने पश्चिम में पुनः मुसलमानों को रोक दिया। उसने गुजरात में सोमनाथ के महान शिव मंदिर को पुनः बनवाया, जिसे सिंध से आये अरब हमलावरों ने नष्ट कर दिया था। कन्नौज, गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य का केंद्र बन गया, अपनी शक्ति के चरमोत्कर्ष (८३६-९१०) के दौरान अधिकतर उत्तरी भारत पर इनका अधिकार रहा।
८३३ ई० में नागभट्ट के जलसमाधी लेने के बाद[15], उसका पुत्र रामभद्र या राम गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य का अगला राजा बना। रामभद्र ने सर्वोत्तम घोड़ो से सुसज्जित अपने सामन्तो के घुड़सवार सैना के बल पर अपने सारे विरोधियो को रोके रखा। हलांकि उसे पाल साम्राज्य के देवपाल से कड़ी चुनौतिया मिल रही थी। और वह गुर्जर प्रतीहारों से कलिंजर क्षेत्र लेने मे सफल रहा।
गुर्जर-प्रतिहार वंश का चरमोत्कर्ष
रामभद्र के बाद उसका पुत्र मिहिरभोज या भोज प्रथम ने गुर्जर प्रतिहार की सत्ता संभाली। मिहिरभोज का शासनकाल प्रतिहार साम्राज्य के लिये स्वर्णकाल माना गया है। अरब लेखकों ने मिहिरभोज के काल को सम्पन्न काल [16][17] बताते हैं। मिहिरभोज के शासनकाल मे कन्नौज के राज्य का अधिक विस्तार हुआ। उसका राज्य उत्तर-पश्चिम में सतुलज, उत्तर में हिमालय की तराई, पूर्व में पाल साम्राज्य कि पश्चिमी सीमा, दक्षिण-पूर्व में बुन्देलखण्ड और वत्स की सीमा, दक्षिण-पश्चिम में सौराष्ट्र, तथा पश्चिम में राजस्थान के अधिकांश भाग में फैला हुआ था। इसी समय पालवंश का शासक देवपाल भी बड़ा यशस्वी था। अतः दोनो के बीच में कई घमासान युद्ध हुए। अन्त में इस पाल-प्रतिहार संघर्स में भोज कि विजय हुई।
दक्षिण की ओर मिहिरभोज के समय अमोघवर्ष और कृष्ण द्वितीय राष्ट्रकूट शासन कर रहे थे। अतः इस दौर में गुर्जर प्रतिहार-राष्ट्रकूट के बीच शान्ति ही रही, हालांकि वारतो संग्रहालय के एक खण्डित लेख से ज्ञात होता है कि अवन्ति पर अधिकार के लिये भोज और राष्ट्रकूट राजा कृष्ण द्वितीय (878-911 ई०) के बीच नर्मदा नदी के पास युद्ध हुआ था। जिसमें राष्ट्रकुटों को वापस लौटना पड़ा था।[18] अवन्ति पर गुर्जर प्रतिहारों का शासन भोज के कार्यकाल से महेन्द्रपाल द्वितीय के शासनकाल तक चलता रहा। मिहिर भोज के बाद उसका पुत्र महेन्द्रपाल प्रथम ई॰) नया राजा बना, इस दौर में साम्राज्य विस्तार तो रुक गया लेकिन उसके सभी क्षेत्र अधिकार में ही रहे। इस दौर में कला और साहित्य का बहुत विस्तार हुआ। महेन्द्रपाल ने राजशेखर को अपना राजकवि नियुक्त किया था। इसी दौरान "कर्पूरमंजरी" तथा संस्कृत नाटक "बालरामायण" का अभिनीत किया गया। गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य अब अपने उच्च शिखर को प्राप्त हो चुका था।
पतन
महेन्द्रपाल की मृत्यु के बाद उत्तराधिकारी का युद्ध हुआ, और राष्ट्रकुटों कि मदद से महिपाल का सौतेला भाई भोज द्वितीय (910-912) कन्नौज पर अधिकार कर लिया हलांकि यह अल्पकाल के लिये था, राष्ट्रकुटों के जाते ही महिपाल प्रथम (९१२-९४४ ई॰) ने भोज द्वितीय के शासन को उखाड़ फेंका। गुर्जर-प्रतिहारों की अस्थायी कमजोरी का फायदा उठा, साम्राज्य के कई सामंतवादियों विशेषकर मालवा के परमार, बुंदेलखंड के चन्देल, महाकोशल का कलचुरि, हरियाणा के तोमर और चौहान स्वतंत्र होने लगे। राष्ट्रकूट वंश के दक्षिणी भारतीय सम्राट इंद्र तृतीय (९९९-९२८ ई॰) ने ९१२ ई० में कन्नौज पर कब्जा कर लिया। यद्यपि गुर्जर प्रतिहारों ने शहर को पुनः प्राप्त कर लिया था, लेकिन उनकी स्थिति 10वीं सदी में कमजोर ही रही, पश्चिम से तुर्को के हमलों, दक्षिण से राष्ट्रकूट वंश के हमलें और पूर्व में पाल साम्राज्य की प्रगति इनके मुख्य कारण थे। गुर्जर-प्रतिहार राजस्थान का नियंत्रण अपने सामंतों के हाथ खो दिया और चंदेलो ने ९५० ई॰ के आसपास मध्य भारत के ग्वालियर के सामरिक किले पर कब्जा कर लिया। १०वीं शताब्दी के अंत तक, गुर्जर-प्रतिहार कन्नौज पर केन्द्रित एक छोटे से राज्य में सिमट कर रह गया। कन्नौज के अंतिम गुर्जर-प्रतिहार शासक यशपाल के १०३६ ई. में निधन के साथ ही इस साम्राज्य का अन्त हो गया।
शासन प्रबन्ध
शासन का प्रमुख राजा होता था। गुर्जर प्रतिहार राजा असीमित शक्ति के स्वामी थे। वे सामन्तों, प्रान्तीय प्रमुखो और न्यायधीशों कि नियुक्ति करते थे। चुकि राजा सामन्तो की सेना पर निर्भर होता था, अत: राजा कि मनमानी पर सामन्त रोक लगा सकते थे। युद्ध के समय सामन्त सैनिक सहायता देते थे और स्वयं सम्राट के साथ लड़ने जाते थे।
प्रशासनिक कार्यों में राजा की सहायता मंत्रिपरिषद करता था, जिसके दो अंग थे "बहिर उपस्थान" और "आभयन्तर उपस्थान"। बहिर उपस्थान में मंत्री, सेनानायक, महाप्रतिहार, महासामन्त, महापुरोहित, महाकवि, ज्योतिषी और सभी प्रमुख व्यक्ति सम्मलित रहते थे, जबकि आभयन्तरीय उपस्थान में राजा के चुने हुए विश्वासपात्र व्यक्ति ही सम्मिलित होते थे। मुख्यमंत्री को "महामंत्री" या "प्रधानमात्य" कहा जाता था।
प्रान्तीय शासन
गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य अनेक भागों में विभक्त था। ये भाग सामन्तों द्वारा शासित किये जाते थे। इनमें से मुख्य भागों के नाम थे:
शाकम्भरी (सांभर) के चाहमान (चौहान)
दिल्ली के तौमर
मंडोर के गुर्जर प्रतिहार
बुन्देलखण्ड के कलचुरि
मालवा के परमार
मेदपाट (मेवाड़) के गुहिल
महोवा-कालिजंर के चन्देल
सौराष्ट्र के चालुक्य
शेष उत्तरी भारत केन्द्रीय राजधानी कन्नौज से सीधे प्रशासित होता था। "मण्डल" जिला के बराबर होता था, अभिलेखों में कालिजंर, श्रीवस्ती, सौराष्ट्र तथा कौशाम्बी मण्डल के प्रमुख स्थान थे। "विषय" आधुनिक तहसील के बराबर थे, विषय से छोटे ग्रामों के समुह आते थे, जिसमें 84 ग्रामों के समुह को "चतुरशितिका" और 12 ग्रामों को "द्वादशक" कहते थे। दुर्गो कि व्यवस्था के 'कोट्टपाल' या बलाधिकृत' करते थे। व्यापार संबन्धी कर व्यवस्था मोर्यकालिन प्रतित होती है।
शिक्षा तथा साहित्य
शिक्षा
शिक्षा का प्रारंभ उपनयन संस्कार से होता था। उपनयन के पश्चात बालक को गुरुकुल भेजा जाता था। ब्राम्हण बालक को चौदह विद्याओं के साथ कर्मकाण्ड का अध्ययन कराया जाता था। क्षत्रिय बालक को बहत्तर कलाएं सिखाई जाती थी। किन्तु उसे अस्त्र-शस्त्र विद्या में निपुणता प्राप्त करना आपश्यक होता था। विद्यार्थी को गुरुकुल में ही रह कर विद्या अध्ययन करना होता था। यहाँ आवास और भोजन की व्यवस्था नि:शुल्क थी। अधिकांश अध्ययन मौखिक होता था।
बडी-बडी सभाओं में प्रश्नोत्तरों और शास्त्रार्थ के द्वारा विद्वानों कि योग्यता कि पहचान की जाती थी। विजेता को राजा की ओर से जयपत्र प्रदान किया जाता था, और जुलुस निकाल कर उसका सम्मान किया जाता था। इसके अलवा विद्वान गोष्ठियों में एकत्र हो कर साहित्यक चर्चा करते थे। पुर्व मध्यकाल में कान्यकुब्ज (कन्नौज) विद्या का सबसे बड़ा केन्द्र था। राजशेखर ने कन्नौज में कई गोष्ठियों का वर्णन किया है। राजशेखर ने "ब्रम्ह सभा" की भी चर्चा की हैं। ऐसी सभा उज्जैन और पाटलिपुत्र में हुआ करती थी। इस प्रकार की सभाएं कवियों कि परीक्षा के लिये उपयोगी होती थी। परीक्षा में उत्तीर्ण कवि को रथ और रेशमी वस्त्र से सम्मानित किया जाता था। उपर्युक्त वर्णन से प्रमाणित होता है कि सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद भी उत्तर भारत से विद्या का का वातावरण समाप्त नहीं हुआ था। गुर्जर प्रतिहार शासक स्वयं विद्वान थे और वे विद्वानों को राज्याश्रय भी प्रदान करते थे।[19]
साहित्य
साहित्य के क्षेत्र में भिल्लमाल (भीनमाल) एक बड़ा केन्द्र था। यहाँ कई महान साहित्यकार हुए। इनमें "शिशुपालवध" के रचयिता माघ का नाम सर्वप्रथम है। माघ के वंश में सौ वर्षो तक कविता होती रही और संस्कृत और प्राकृत में कई ग्रंथ रचे गये। विद्वानो ने उसकी तुलना कालिदास, भारवि, तथा दण्डित से की है। माघ के ही समकालिन जैन कवि हरिभद्र सूरि हुए। उनका रचित ग्रंथ "धुर्तापाख्यान", हिन्दू धर्म का बड़ा आलोचक था। इनका सबसे प्रशिध्द प्राकृत ग्रंथ "समराइच्चकहा" है। हरिभद्र के शिष्य उद्योतन सूरि ने ७७८ ई० में जालोन में "कुवलयमाला" की रचना की।
भोज प्रथम के दरबार में भट्ट धनेक का पुत्र वालादित्य रहता था। जिसने ग्वालियर प्रशस्ति जैसे प्रशिध्द ग्रंथ की रचना की थी। इस काल के कवियों में राजशेखर कि प्रशिध्दि सबसे अधिक थी। उसकी अनेक कृतियाँ आज भी उपलब्ध है। कवि और नाटककार राजशेखर सम्राट महेन्द्रपाल प्रथम का गुरु था। राजशेखर बालकवि से कवि और फिर कवि से राजकवि के पद से प्रतिष्ठित हुआ। इसी दौरान "कर्पूरमंजरी" तथा संस्कृत नाटक "बालरामायण" का अभिनीत किया गया।
इससे पता चलता है कि प्रतिहार काल में संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश तीनों भाषाओं में साहित्य कि रचना हुई। किन्तु प्राकृत दिनो-दिन कम होती गई और उसकी जगह अपभ्रंश लेती रही। ब्राम्हणों की तुलना में जैनों द्वार रचित साहित्यों कि अधिकता हैं। जिसका कारण जैन ग्रंथों का भण्डार में सुरक्षित बच जाना जबकि ब्राम्हण ग्रंथो का नष्ट हो जाना हो सकता है।
धर्म और दर्शन
भारतीय संस्कृति धर्ममय है, और इस प्रकार गुर्जर प्रतिहारों का धर्ममय होना कोई नई बात नहीं है। पूरे समाज में हिन्दू धर्म के ही कई मान्यताओं के मानने वाले थे लेकिन सभी में एक सहुष्णता की भावना मौजुद थी। समाज में वैष्णव और शैव दोनों मत के लोग थे। गुर्जर प्रतिहार राजवंश में प्रत्येक राजा अपने ईष्टदेव बदलते रहते थे। भोज प्रथम के भगवती के उपासक होते हुए भी उन्होंने विष्णु का मंदिर बनवाया था। और महेन्द्रपाल के शैव मतानुयायी होते हुए भी वट-दक्षिणी देवी के लियी दान दिया था
गुर्जर प्रतिहार काल का मुख्य धर्म पौराणिक हिन्दू धर्म था, जिसमें कर्मों के अनुसार पुनर्जन्म का सिद्धान्त का गहारा असर था। विष्णु के अवतारों कि पुजा की जाती थी। और उनके कई मन्दिर बनवाये गये थे। कन्नौज में चतुर्भुज विष्णु और विराट विष्णु के अत्यन्त सुंदर प्रतिमाएं प्रतिष्ठित थी। कन्नौज के सम्राट वत्सराज, महेन्द्रपाल द्वतीय, और त्रिलोचनपाल शिव के उपासक थे। उज्जैन में महाकाल का प्रशिद्ध मंदिर था। बुन्देलखंड़ में अनेक शिव मन्दिर बनवाये गये थे।
साहित्य और अभिलेखों से धर्म की काफी लोकप्रियता जान पडती है। ग्रहण, श्राद्ध, जातकर्म, नामकरण, संक्रान्ति, अक्षय तृतीया, इत्यादि अवसरों पर लोग गंगा, यमुना अथवा संगम (प्रयाग) पर स्नान कर दान देते थे। धर्माथ हेतु दिये गये भुमि या गांव पर कोई कर नहीं लगाया जाता था।
पवित्र स्थलों में तीर्थयात्रा करना सामान्य था। तत्कालिन सहित्यों में दस प्रमुख तीर्थों का वर्णन मिलता है। जिसमें गया, वाराणसी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रभास, नैमिषक्षेत्र केदार, कुरुक्षेत्र, उज्जयिनी तथा प्रयाग आदि थे। नदियों को प्राकृतिक या दैवतीर्थ होने के कारण अत्यन्त पवित्र माना जाता था। सभी नदियों में गंगा को सबसे अधिक पवित्र मान जाता था।
बौद्ध धर्म
गुर्जर प्रतीहारकालिन उत्तरभारत में बौद्धधर्म का प्रभाव समाप्त था। पश्चिम कि ओर सिन्ध प्रदेश में और पूर्व में दिशा में बिहार और बंगाल में स्थिति संतोषजनक थी। जिसका मुख्य कारण था, गुप्तकाल के दौरान ब्राम्हण मतावलम्बियों ने बौद्धधर्म के अधिकांश सिद्धान्त अपना कर बुद्ध को भगवान विष्णु का अवतार मान लिया था।
जैन धर्म
बौद्ध धर्म कि तुलना में जैन धर्म ज्यादा सक्रिय था। मध्यदेश, अनेक जैन आचार्यों का कार्यस्थल रहा था। वप्पभट्ट सुरि को नागभट्ट द्वितीय का अध्यात्मिक गुरु माना गया है। फिर भी यह यहाँ जेजाकभुक्ति (बुन्देलखंड़) और ग्वालियर क्षेत्र तक में ही सिमित रह गया था। लेकिन पश्चिमी भारत के राजस्थान, गुजरात, मालवा और सौराष्ट्र जैनधर्म के विख्यात केन्द्र थे, जिसका श्रेय हरिभद्र सूरि जैसे जैन साधुओं को जाता है। हरिभद्र ने विद्वानों और सामान्यजन के लिये अनेक ग्रन्थों कि रचना की।
गुर्जर राजाओं ने जैनों के साथ उदारता का व्यवहार किया। नागभट्ट द्वितीय ने ग्वालियर में जैन मन्दिर भी बनवाया था।
प्रतिहारकालीन स्थापत्यकला
गुर्जर-प्रतिहार कला के अवशेष हरियाणा और मध्यभारत के एक विशाल क्षेत्र में देखे जा सकते हैं। इस युग में प्रतीहारों द्वारा निर्मित मंदिर स्थापत्य और कला की सबसे बड़ी विशेषता इसकी अलंकरण शैली है। इसी दौरान राजस्थानी स्थापत्य शैली का जन्म हुआ। जिसमें सज्जा और निर्माण शैली का पुर्ण समन्वय देखने को मिलता है। अपने पुर्ण विकसित रूप में प्रतिहार मन्दिरों में मुखमण्ड़प, अन्तराल, और गर्भग्रह के अतरिक्त अत्यधिक अल्ंकृत अधिष्ठान, जंघा और शिखर होते थे। मध्य प्रदेश के मुरैना जिले में बटेश्वर हिन्दू मंदिर इसी साम्राज्य काल के दौरान बनाया गया था।[20] कालान्तर में स्थापत्यकला की इस विधा को चन्देलों, परमारों, कच्छपघातों, तथा अन्य क्षेत्रीय राजवंशों ने अपनाया। लेकिन चन्देलों ने इस शैली को पूर्णता प्रदान की, जिसमें खजुराहो स्मारक समूह प्रशिद्ध है।[21]
इन्हें भी देखें
मिहिर भोज
पाल राजवंश
राष्ट्रकूट साम्राज्य
बाहरी कड़ियाँ
आर. सी. मजुमदार: प्रतिहार;
आर. एस. त्रिपाठी: कन्नौज का इतिहास।
ग्वालियर प्रशस्ति
प्रतिहार राजपूतों का इतिहास: रामलखन सिंह
सन्दर्भ
श्रेणी:भारत का इतिहास
श्रेणी:भारत के राजवंश
श्रेणी:राजस्थान का इतिहास
श्रेणी:गुजरात का इतिहास
श्रेणी:गुर्जर प्रतिहार राजवंश | गुर्जर प्रतिहार वंश का अंत किस साल में हुआ था? | १०३६ ई. | 7,332 | hindi |
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सहीह अल-बुख़ारी (अरबी: صحيح البخاري ), जिसे बुखारी शरीफ़ (अरबी: بخاري شريف ) भी कहा जाता है। सुन्नी इस्लाम के कुतुब अल-सित्ताह (छह प्रमुख हदीस संग्रह) में से एक है। इन पैग़म्बर की परंपराओं, या हदीसों को मुस्लिम विद्वान मुहम्मद अल-बुख़ारी ने एकत्र किया। इस हदीस का संग्रह 846/232 हिजरी के आसपास पूरा हो गया था। सुन्नी मुसलमान सही बुख़ारी और सही मुस्लिम को दो सबसे भरोसेमंद संग्रह मानते हैं। [1][2] ज़ैदी शिया मुसलमानों द्वारा भी एक प्रामाणिक हदीस संग्रह के रूप में माना और इसका उपयोग भी किया जाता है। [3] कुछ समूहों में, इसे कुरान के बाद सबसे प्रामाणिक पुस्तक माना जाता है। [4][5] अरबी शब्द "सहीह" का मतलब प्रामाणिक या सही का अर्थ देता है। [6] सही मुस्लिम के साथ सही अल बुखारी को "सहीहैन" (सहीह का बहुवचन) के नाम से पुकारा जाता है।
शीर्षक
इब्न अल-सलाह के अनुसार, आमतौर पर सही अल-बुख़ारी के नाम से जाने जानी वाली किताब का वास्तविक शीर्षक है: "अल-जामी 'अल-सहीह अल-मुस्नद अल-मुख्तसर मिन उमूरि रसूलिल्लाहि व सुननिही व अय्यामिही" है। शीर्षक का एक शब्द-से-शब्द अनुवाद है: पैगंबर, उनके प्रथाओं और उनके काल के संबंध में जुड़े मामलों के संबंध में प्रामाणिक हदीस का संग्रह। [5] इब्न हजर अल-असकलानी ने उसी शीर्षक का उल्लेख किया, जिसमें उमूर (अंग्रेजी: मामलों ) शब्द को हदीस शब्द से बदल दिया गया था। [7]
अवलोकन
अल बुखारी 16 साल की उम्र से अब्बासिद खिलाफ़त में व्यापक रूप से यात्रा करते थे, उन परंपराओं को इकट्ठा करते थे जिन्हें वह भरोसेमंद माना था। यह बताया गया है कि अल-बुखारी ने अपने इस संग्रह में लगभग 600,000 उल्लेखों को इकट्टा करने में अपने जीवन के 16 साल समर्पित किए थे। [8] बुखारी के सही में हदीस की सटीक संख्या पर स्रोत अलग-अलग हैं, इस पर निर्भर करता है कि हदीस को पैगंबर परंपरा का वर्णन माना गया है या नहीं। विशेषज्ञों ने, सामान्य रूप से, 7,397 हदीसों को पूर्ण-इस्नद हदीसों की संख्या का अनुमान लगाया है, और उन्ही हदीसों में पुनरावृत्ति या विभिन्न संस्करणों के विचारों के बिना, पैगंबर के हदीसों की संख्या लगभग 2,602 तक कम हो गई है। [8] उस समय बुखारी ने हदीस के मुतालुक पहले के कामों के देखा और उन्हें परखा। उर पूरी छान बीन के बाद जिसे सहीह (सही) और हसन (अच्छा) माना जाएगा उन्हीं को संग्रह किया। और उनमें से कई दईफ़ या ज़ईफ़ (कमज़ोर) हदीस भी शामिल हैं। इस से साफ़ ज़ाहिर होता है कि इनको हदीस को संकलित करने में अपनी रुचि थी और उन्हों ने इस को किया भी। उनके संकल्प को और मजबूत करने के लिए उनके शिक्षक, हदीस विद्वान इशाक इब्न इब्राहिम अल-हंथली ने उन्हें बताया था, "हम इशाक इब्न राहवेह के साथ थे, जिन्होंने कहा, 'अगर आप केवल पैगंबर के प्रामाणिक कथाओं की एक पुस्तक संकलित करेंगे।' यह सुझाव मेरे दिल में रहा, इसलिए मैंने सहीह को संकलित करना शुरू किया। " बुखारी ने यह भी कहा, "मैंने पैगंबर को एक सपने में देखा और ऐसा लगता था कि मैं उनके सामने खड़ा था। मेरे हाथ में एक पंखा था जिससे मैं उनकी रक्षा कर रहा था। मैंने कुछ ख्वाब की ताबीर बताने वालों से पुछा, तो उन्हों ने मुझ से कहा कि "आप उन्हें (उनकी हदीसों को) झूठ से बचाएंगे"। "यही वह है जो मुझे सहीह का उत्पादन करने के लिए आमादा किया था।" [9]
इस पुस्तक में इस्लाम के उचित मार्गदर्शन प्रदान करने में जीवन के लगभग सभी पहलुओं को शामिल किया गया है जैसे प्रार्थना करने और पैगंबर मुहम्मद द्वारा इबादतों के अन्य कार्यों की विधि। बुखारी ने अपना काम 846/232 हिजरी के आसपास पूरा कर लिया, और अपने जीवन के आखिरी चौबीस वर्षों में अन्य शहरों और विद्वानों का दौरा किया, उन्होंने जो हदीस एकत्र किया था उसे पढ़ाया। बुखारी के हर शहर में, हजारों लोग मुख्य मस्जिद में इकट्ठे होते हैं ताकि उन से संग्रह की गयी इन परंपराओं को पढ़ सकें। पश्चिमी शैक्षणिक संदेहों के जवाब में, जो कि उनके नाम पर मौजूद पुस्तक की वास्तविक तिथि और लेखक के रूप में है, विद्वान बताते हैं कि उस समय के उल्लेखनीय हदीस विद्वान अहमद इब्न हनबल (855 ई / 241 हिजरी), याह्या इब्न माइन (847 ई / 233 हिजरी), और अली इब्न अल-मादिनी (848 ई / 234 हिजरी) ने इनकी पुस्तक [10] की प्रामाणिकता स्वीकार की और संग्रह तत्काल प्रसिद्धि होगया। यहाँ तक प्रसिद्द हुआ कि लेखक (बुख़ारी) की मृत्यु के बाद लोग इस किताब को किसी संशोधन किये मानने लगे और यह एक ऐतिहासिक रिकॉर्ड बन गई।
चौबीस वर्ष की इस अवधि के दौरान, अल बुखारी ने अपनी पुस्तक में मामूली संशोधन किए, विशेष रूप से अध्याय शीर्षक। प्रत्येक संस्करण का नाम इसके वर्णनकर्ता द्वारा किया जाता है। इब्न हजर अल- असकलानी के अनुसार उनकी किताब नुक्ता में , सभी संस्करणों में हदीस की संख्या समान है। बुखारी के एक भरोसेमंद छात्र अल-फिराबरी (डी। 932 सीई / 320 एएच) द्वारा वर्णित संस्करण सबसे प्रसिद्ध है। अल-खतिब अल-बगदादी ने अपनी पुस्तक इतिहास बगदाद में फिराबरी को यह कहते हुए उद्धृत किया: "सत्तर हजार लोगों ने मेरे साथ सहहि बुखारी को सुना"।
फिराबरी सही अल बुखारी के एकमात्र फैलाने वाले नहीं थे। इब्राहिम इब्न मक़ल (907 ई / 295 हिजरी), हम्मा इब्न शाकेर (923 ई / 311 हिजरी), मंसूर बर्दूज़ी (931 ई / 319 हिजरी) और हुसैन महमीली (941 ई / 330 हिजरी) ने अगली पीढ़ियों को इस किताब के ज़रिये पढाया और फैलाया। ऐसी कई किताबें हैं जो मतभेद रखती हैं, जिन में सब से अहम् फ़तह अल-बारी है।
विशिष्ट विशेषताएं
उल्लेखनीय इस्लामी विद्वान अमीन अहसान इस्लाही ने सही अल बुखारी के तीन उत्कृष्ट गुण सूचीबद्ध किए हैं: [11]
चयनित अहादीस के वर्णनकर्ताओं की श्रृंखला की गुणवत्ता और सुदृढ़ता। मुहम्मद अल बुखारी ने गुणवत्त और दृढ़ अहादीस का चयन करने के लिए दो सिद्धांत मानदंडों का पालन किया है। सबसे पहले, एक कथाकार का जीवनकाल प्राधिकरण के जीवनकाल से आगे नहीं होना चाहिए जिससे वह वर्णन करता है। दूसरा, यह सत्यापित होना चाहिए कि उल्लेखनकारों ने मूल स्रोत व्यक्तियों से मुलाकात की है। उन्हें स्पष्ट रूप से यह भी कहना चाहिए कि उन्होंने इन उल्लेखनकारियों से कथा प्राप्त की है। यह मुस्लिम इब्न अल-हाजज द्वारा निर्धारित की गई एक कठोर मानदंड है।
मुहम्मद अल बुखारी ने केवल उन लोगों से कथाएं स्वीकार की जिन्होंने अपने ज्ञान के अनुसार, न केवल इस्लाम में विश्वास किया बल्कि इसकी शिक्षाओं का पालन किया। इस प्रकार, उन्होंने मुर्जियों से कथाओं को स्वीकार नहीं किया है।
अध्यायों की विशेष व्यवस्था और श्रृंखला। यह लेखक के गहन ज्ञान और धर्म की उनकी समझ व्यक्त करता है। इसने पुस्तक को धार्मिक विषयों की समझ में एक और उपयोगी मार्गदर्शिका बना दी है।
प्रामाणिकता
इब्न अल-सलाह ने कहा: "साहिह को लेखक बनाने वाले पहले बुखारी, अबू अब्द अल्लाह मुहम्मद इब्न इस्माइल अल-जुफी थे, इसके बाद अबू अल-उसैन मुस्लिम इब्न अल-अंजज एक-नायसबुरि अल-कुशायरी थे , जो उनके छात्र थे, साझा करते थे एक ही शिक्षक। ये दो पुस्तकें कुरान के बाद सबसे प्रामाणिक किताबें हैं। अल-शफीई के बयान के लिए, जिन्होंने कहा, "मुझे मलिक की किताब की तुलना में ज्ञान युक्त पुस्तक की जानकारी नहीं है," - अन्य एक अलग शब्द के साथ इसका उल्लेख किया - उन्होंने बुखारी और मुसलमान की किताबों से पहले यह कहा। बुखारी की किताब दो और अधिक उपयोगी दोनों के लिए अधिक प्रामाणिक है। " [5]
इब्न हजर अल- असक्लानी ने अबू जाफर अल-उक्विला को उद्धृत करते हुए कहा, "बुखारी ने साहिह लिखा था, उन्होंने इसे अली इब्न अल-मादिनी , अहमद इब्न हनबल , याह्या इब्न माइन के साथ-साथ अन्य लोगों को भी पढ़ा। उन्होंने इसे माना एक अच्छा प्रयास और चार हदीस के अपवाद के साथ इसकी प्रामाणिकता की गवाही दी गई। अल-अक्विला ने तब कहा कि बुखारी वास्तव में उन चार हदीस के बारे में सही थे। " इब्न हजर ने तब निष्कर्ष निकाला, "और वे वास्तव में प्रामाणिक हैं।" [12]
इब्न अल-सलाह ने अपने मुक्द्दीमा इब्न अल-इलाला फी 'उलम अल-आदीद में कहा: "यह हमें बताया गया है कि बुखारी ने कहा है,' मैंने अल-जामी पुस्तक में शामिल नहीं किया है ' जो प्रामाणिक है और मैंने किया अल्पसंख्यक के लिए अन्य प्रामाणिक हदीस शामिल नहीं है। '" [5] इसके अलावा, अल-धाहाबी ने कहा," बुखारी ने यह कहते हुए सुना था,' मैंने एक सौ हजार प्रामाणिक हदीस और दो सौ हजार याद किए हैं जो प्रामाणिक से कम हैं। ' " [13]
आलोचना
महिला नेतृत्व के संबंध में बुखारी में कम से कम एक प्रसिद्ध हाद (अकेली) हदीस, [14] इसकी सामग्री और उसके हदीस कथाकार (अबू बकरी) के आधार पर लिखी गयी, जिसको कुछ लेखकों ने प्रामाणिक नहीं माना। शेहदेह हदीस की आलोचना करने के लिए लिंग सिद्धांत का उपयोग करता हैं, [15] जबकि फारूक का मानना है कि इस तरह के हदीस इस्लाम में सुधार के लिए असंगत हैं। [16] एफी और एफ़ी शरिया क़ानून के लिए हदीस के बजाये समकालीन व्याख्या पर चर्चा करना चाहते हैं। [17]
एक और हदीस ("तीन चीजें बुरी किस्मत लाती हैं: घर, महिला और घोड़ा।"), अबू हुरैराह द्वारा उल्लेख की गई, इस पर फतेमा मेर्निसी ने संदर्भ से बाहर होने और बुखारी के संग्रह में कोई स्पष्टीकरण ना होनी की आलोचना की है। इमाम जरकाशी (1344-1392) हदीस संग्रह में हज़रत आइशा द्वारा सूचित हदीस में स्पष्टीकरण दिया गया है: "... वह [अबू हुरैरा] हमारे घर में आया जब पैगंबर वाक्य के बीच में थे। उसने इसके बारे में केवल अंत सुना। पैगंबर ने क्या कहा था: 'अल्लाह यहूदियों को खारिज करे; वे (यहूदी) कहते हैं कि तीन चीजें बुरी किस्मत लाती हैं: घर, महिला और घोड़े।" 'इस मामले में सवाल उठाया गया है कि बुखारी में अन्य हदीस को अपूर्ण और कमी की उचित संदर्भ सूचना मिली है या नहीं [18]
सही बुखारी पैगंबर के दवा और उपचार के तरीके और हिजामा जिसे अशास्त्रीय होने की संभावना पेश की गई है। [19] सुन्नी विद्वान इब्न हजर अल-असकलानी, पुरातात्विक साक्ष्य के आधार पर, हदीस [20] की आलोचना करते हुए कहा कि इस हदीस का दावा है कि आदम की ऊंचाई 60 हाथ थी और तब से मानव ऊंचाई कम हो रही है। [21]
हदीस की संख्या
इब्न अल-सलाह ने यह भी कहा: "हदीस की किताब, सहीह में 7,275 हदीस है, जिसमें कुछ हदीसें बार-बार दोहराई भी गयी हैं। ऐसा कहा गया है कि बार-बार दोहराई गयी हदीसों को छोड़कर यह संख्या 2,230 है।" [5] यह उन हदीस का जिक्र कर रहे हैं हो मुस्नद हैं, [22] जो मुहम्मद से उत्पन्न होकर सहयोगियों द्वारा प्रामाणिक हैं। [23]
टिप्पणी
अनवार उल-बारी - सय्यद अहमद रज़ा बिजनोरी द्वारा [24]
तोहफ़ तुल-क़ारी - मुफ़्ती सईद अहमद पालनपुरी द्वारा [25]
नसर उल-बारी - मोलाना उस्मान ग़नी द्वारा [26]
हाशिया - अहमद अली सहारनपुरी [27][28](1880 में मृत्यु)
शरह इब्न बत्ताल - अबू अल-हसन 'अली इब्न खलाफ इब्न' अब्द अल-मलिक (मृत्यु: 449 हिजरी) 10 खंडों में प्रकाशित, अतिरिक्त एक खंड इंडेक्स के साथ।
तफ़सीर अल-गारिब माँ फ़ी अल-सहीहैन - अल-हुमादी द्वारा (1095 ई में मृत्यु)।
अल-मुतावरी अल-अबवाब बुख़ारी - नासीर अल-दीन इब्न अल-मुनययिर (मृत्यु: 683 एएच): चुनिंदा अध्याय का एक स्पष्टीकरण; एक मात्रा में प्रकाशित।
शरह इब्न कसीर (मृत्यु: 774 हिजरी)
शरह अला-अल-दीन मगलते (मृत्यु: 792 हिजरी)
फ़तह अल-बारी - इब्न रजब अल-हंबली द्वारा (मृत्यु: 795 हिजरी)
अल-कोकब अल-दरारी फ़ी शरह अल-बुखारी - अल-किर्मानी द्वारा (मृत्यु: 796 हिजरी)
शरह इब्नु अल-मुलाक्किन (मृत्यु: 804 हिजरी)
अत-ताशीह - सुयूती द्वारा (मृत्यु: 811 हिजरी)
शरह अल-बरमावी (मृत्यु: 831 हिजरी)
शरह अल-तिलमसानी अल-मालिकी (मृत्यु: 842 हिजरी)
फ़तह उल-बारी फ़ी शरह सही अल बुखारी - अल-हाफ़ित इब्न हजर द्वारा (मृत्यु: 852 हिजरी) [29]
इरशाद अल-सरी ली शरह सही अल-बुख़ारी अल-क़सतलानी द्वारा (मृत्यु: 923 हिजरी); साहिह अल-बुखारी के स्पष्टीकरणों में सबसे प्रसिद्ध में से एक [29][30][31]
शरह अल-बल्किनी (मृत्यु: 995 हिजरी)
उमदा अल कारी फ़ी शरह सही अल बुखारी [32] ' बद्र अल-दीन अल-एनी द्वारा लिखी गई और बेरूत में दार इहिया अल-तुरत अल-अरबी [29][33] द्वारा प्रकाशित
अल-तनक़ीह - अल-ज़ारकाशी द्वारा
शरह इब्नी अबी हमज़ा अल-अन्दलूसी
शरह अबी अल-बक़ा 'अल-अहमदी
शरह अल-बाक़री
शरह इब्नु राशिद
"नुज़हत उल क़ारी शारह सही अल-बुख़ारी" - मुफ़्ती शरीफुल हक़ द्वारा
हाशियत उल बुखारी - ताजुस शरियह मुफ्ती मोहम्मद अख्तर रजा खान खान क़ादरी अल अज़ारी द्वारा
फैज़ अल-बारी - मौलाना अनवर शाह कश्मीरी द्वारा [34]
कौसर यज़दानी
इनाम-उल-बारी [35] मुफ्ती मोहम्मद तक़ी उस्मानी (9 खंड; 7 प्रकाशित)
नीमत-उल-बारी फ़ी शरह साही अल-बुख़ारी - गुलाम रसूल सैदी द्वारा, 16 खंड
कनज़ुल मुतवरी फ़ी मा मादीनी लामी 'अल-दरारी व सही अल-बुख़ारी - शैख़ उल हदीस मौलाना मोहम्मद जकरिया कंधलावी -24 खंड। यह पुस्तक प्रारंभ में मौलाना राशिद अहमद गंगोही द्वारा व्याख्यान का संकलन है और इसे मौलाना जकरिया द्वारा अतिरिक्त स्पष्टीकरण के साथ पूरा किया गया था। [36]
सहीह अल बुखारी में सबसे महत्वपूर्ण पहलुओं में से एक तर्जुमा अल-बाब या उस अध्याय का नाम है। [37] कई महान विद्वानों ने एक आम तरीक़ा अपनाया; "बुख़ारी की फ़िक़्ह उनके अध्यायों में"। हाफ़िज़ इब्न हजर असकलानी और कुछ अन्य लोगों को छोड़कर इस विद्वान के तरीके पर कई विद्वानों ने टिप्पणी नहीं की है। शाह वालीयुल्लाह मुहादीथ देहालावी ने अब्वाब या अध्यायों के तराजुम या अनुवाद को समझने के लिए 14 उसूल (विधियों) का उल्लेख किया था, फिर मौलाना शैख महमूद हसन अद-देवबंदी ने एक उसूल और जोड़ कर 15 उसूल बनाये। शैखुल हदीस मौलाना मुहम्मद जकरिया द्वारा किए गए एक अध्ययन में 70 यूसुल पाए गए थे। उन्होंने विशेष रूप से तराजीम सहीह अल बुखारी के उसूलों के बारे में अपनी पुस्तक अल-अब्वाब वअत-तराजीम फ़ी सही अल-बुख़ारी में लिखा है। [37] [36] में लिखा था।
अनुवाद
सही अल-बुख़ारी का अनुवाद नौ खंडों में "सही अल बुखारी अरबी अंग्रेजी के अर्थों का अनुवाद" शीर्षक के तहत मोहम्मद मुहसीन खान द्वारा अंग्रेजी में किया गया है। [38] इस काम के लिए इस्तेमाल किया गया पाठ फ़तह अल-बारी है, जो 1959 में मिस्र के प्रेस मुस्तफा अल-बाबी अल-हलाबी द्वारा प्रकाशित किया गया था। यह अल सादावी प्रकाशन और दार-हम-सलाम द्वारा प्रकाशित किया गया है और यूएससी में शामिल है - मुस्लिम ग्रंथों के एमएसए संग्रह । [39]
यह पुस्तक उर्दू, बंगाली, बोस्नियाई, तमिल, मलयालम, [40] अल्बेनियन , बहासा मेलयु इत्यादि सहित कई भाषाओं में उपलब्ध है।
यह भी देखें
हदीस
इस्लाम
सही मुस्लिम
जामी अल-तिर्मिज़ी
सुनन अबू दाऊद
सुनन अल-सुग़रा
सुनन इब्न माजह
मुवत्ता मलिक
अबू थालबा
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
–Digitized English translation of Muhammad Muhsin Khan.
–Translation from Center for Muslim-Jewish Engagement
, कुल 13 अहादीस की किताबें
श्रेणी:प्रोजेक्ट टाइगर लेख प्रतियोगिता के अंतर्गत बनाए गए लेख | कुतुब अल-सित्ताह' मूल रूप से कितनी किताबों का संग्रह है? | छह | 139 | hindi |
c06c11c38 | पालक (वानस्पतिक नाम: Spinacia oleracea) अमरन्थेसी कुल का फूलने वाला पादप है, जिसकी पत्तियाँ एवं तने शाक के रूप में खाये जाते हैं। पालक में खनिज लवण तथा विटामिन पर्याप्त रहते हैं, किंतु ऑक्ज़ैलिक अम्ल की उपस्थिति के कारण कैल्शियम उपलब्ध नहीं होता। यह ईरान तथा उसके आस पास के क्षेत्र का देशज है। ईसा के पूर्व के अभिलेख चीन में हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि पालक चीन में नेपाल से गया था। 12वीं शताब्दी में यह अफ्रीका होता हुआ यूरोप पहुँचा।[1]
परिचय
पालक शीतऋतु की फसल है तथा पाले को सहन कर सकता है, किंतु अधिक गर्मी नहीं सह सकता। जब दिन लंबे तथा रातें छोटी होती हैं, तब इसमें बीज के डंठल निकलने लगते हैं और पौधों का बढ़ना कम हो जाता है।
कई प्रकार की मिट्टियों में पालक सुगमता से उगाया जा सकता है, पर बलुई, दुमट, सादमय दुमट (silty loams) तथा दुमट भूमियों पर अधिक अच्छा उगता है। अम्लता को यह अधिक सहन कर सकता है। यथेष्ट बुद्धि के लिए इसको 6.0 से 7.0 पीएच की आवश्यकता है। पानी के निकास का अच्छा प्रबंध आवश्यक है, अन्यथा पत्तियों में बीमारी लग जाती है। इसमें प्रति एकड़ 75 से 100 पाउंड नाइट्रोजन की आवश्यकत होती है, जो आंशिक रूप से ऐमोनियम् सल्फेट के रूप में, कई बार करके, प्रत्येक कटाई के बाद दी जाती है। अधिक अच्छा होगा कि खाद पहले वाली फसल को दी जाए।
पालक के बीज की बुआई का मुख्य समय वर्षा के बाद है तथा बुआई लगातार नंवबर तक चलती है। छोटे पैमाने से बुआई वर्षा ऋतु में भी ऊँची उठी हुई भूमियों में की जा सकती है। बीज खेत में 6 इंच से 9 इंच की दूरी पर, की गहराई पर तथा बीज से बीज की दूरी पर बोया जाता है। यदि बुआई अधिक घनी है तो पत्तियों में बीमारी लगने का भय रहता है। 100 वर्ग फुट की बुआई करने के लिए लगभग 25 ग्राम बीज की आवश्यकता होगी। पहली कटाई एक माह बाद तथा बाद की कटाइयाँ प्रत्येक तीन सप्ताह बाद की जाती है। प्रत्येक कटाई के बाद खेत के खर पतवार निकालकर, एक मन प्रति एकड़ की दर से ऐमोनियम् सल्फेट डालकर खेत की सिंचाई करनी चाहिए। छिटकावाँ बुआई भी प्राय: प्रचलित है, मगर इस प्रकार में निकाई करना कठिन हो जाता है। पर्वतों पर बुआई फरवरी के अंत से लेकर अप्रैल के अंत तक की जा सकती है। पालक की औसत उपज लगभग 120 मन प्रति एकड़ है।
आयातित (imported) जातियों में, जो वर्ष के केवल ठंडे भाग में ही होती हैं, 'लांग स्टैंडिंग ब्लूम्सडेल' (Long Standing Bloomsdel), वरजीनिया सेवॉय (Virginia Savoy) तथा राउंड लीव्ड डच (Round Leaved Dutch) लोकप्रिय हैं। देशी पालक में 'बैनर्जीज़ जाएंट' (Banerjees giant) तथा 'बनारसी' या 'कटवी पालक' की माँग अत्यधिक है।
असली पालक स्पिनेशिआ ओलरएसिइ (Spinacia oleraceae) कहलाता है तथा कीनोपोडिएसिइ कुल (Chenopodiaceae family) के अंतर्गत आता है। भारत में यह अत्यधिक विस्तार से नहीं बोया जाता। आमतौर पर भारतीय पालक 'वेर वलगैरिस' जाति (Var Vulgaris) के अंतर्गत आते हैं।
परागण प्राय: हवा के द्वारा होता है, अत: पास पास बोई हुई दो जातियाँ, कभी शुद्ध पैदा नहीं होंगी। इसलिए किसी जाति का शुद्ध बीज उपजाने के लिए उस जाति के खेत बिलकुल अलग, कम से कम आधे मील की दूरी पर, होने चाहिए। बीज की अधिक उपज के लिए नवंबर के तीसरे सप्ताह के बाद कटाई बंद कर देनी चाहिए तथा पौधों को बीज बनाने के लिए छोड़ देना चाहिए। बीज को पकने में अधिक समय लगता है। जब बीज पक जाता है तब पौधों को काटकर तथा सुखाकर अन्न की तरह मड़ाई कर लेते हैं।
पालक के गुण
सर्दियों के मौसम में सबसे स्वास्थ्यवर्धक सब्जी मानी जाती है। पालक में जो गुण पाये जाते है वे समान्यत:अन्य सब्जियों में नहीं पाये जाते। पालक में लोहे का अंश भी बहुत अधिक रहता है, पालक में मौजूद लोहा शरीर द्वारा आसानी से सोख लिया जाता है। इसलिए पालक खाने से खून के लाल कणों की संख्या बढ़ती है।
[2] [3]
चित्रदीर्घा
नर पुष्प
मादा पुष्प
गोल बीज
शंक्वाकार बीज
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
USDA 2007
USDA 2004
Powell, D. and Chapman
श्रेणी:पत्तेदार सब्ज़ियाँ | पालक के पौधे का वैज्ञानिक नाम क्या है? | Spinacia oleracea | 21 | hindi |
ba9560ca9 | सूर्य अथवा सूरज सौरमंडल के केन्द्र में स्थित एक तारा जिसके चारों तरफ पृथ्वी और सौरमंडल के अन्य अवयव घूमते हैं। सूर्य हमारे सौर मंडल का सबसे बड़ा पिंड है और उसका व्यास लगभग १३ लाख ९० हज़ार किलोमीटर है जो पृथ्वी से लगभग १०९ गुना अधिक है। [1] ऊर्जा का यह शक्तिशाली भंडार मुख्य रूप से हाइड्रोजन और हीलियम गैसों का एक विशाल गोला है। परमाणु विलय की प्रक्रिया द्वारा सूर्य अपने केंद्र में ऊर्जा पैदा करता है। सूर्य से निकली ऊर्जा का छोटा सा भाग ही पृथ्वी पर पहुँचता है जिसमें से १५ प्रतिशत अंतरिक्ष में परावर्तित हो जाता है, ३० प्रतिशत पानी को भाप बनाने में काम आता है और बहुत सी ऊर्जा पेड़-पौधे समुद्र सोख लेते हैं। [2] इसकी मजबूत गुरुत्वाकर्षण शक्ति विभिन्न कक्षाओं में घूमते हुए पृथ्वी और अन्य ग्रहों को इसकी तरफ खींच कर रखती है।
सूर्य से पृथ्वी की औसत दूरी लगभग १४,९६,००,००० किलोमीटर या ९,२९,६०,००० मील है तथा सूर्य से पृथ्वी पर प्रकाश को आने में ८.३ मिनट का समय लगता है। इसी प्रकाशीय ऊर्जा से प्रकाश-संश्लेषण नामक एक महत्वपूर्ण जैव-रासायनिक अभिक्रिया होती है जो पृथ्वी पर जीवन का आधार है। यह पृथ्वी के जलवायु और मौसम को प्रभावित करता है। सूर्य की सतह का निर्माण हाइड्रोजन, हिलियम, लोहा, निकेल, ऑक्सीजन, सिलिकन, सल्फर, मैग्निसियम, कार्बन, नियोन, कैल्सियम, क्रोमियम तत्वों से हुआ है। [3] इनमें से हाइड्रोजन सूर्य के सतह की मात्रा का ७४ % तथा हिलियम २४ % है।
इस जलते हुए गैसीय पिंड को दूरदर्शी यंत्र से देखने पर इसकी सतह पर छोटे-बड़े धब्बे दिखलाई पड़ते हैं। इन्हें सौर कलंक कहा जाता है। ये कलंक अपने स्थान से सरकते हुए दिखाई पड़ते हैं। इससे वैज्ञानिकों ने निष्कर्ष निकाला है कि सूर्य पूरब से पश्चिम की ओर २७ दिनों में अपने अक्ष पर एक परिक्रमा करता है। जिस प्रकार पृथ्वी और अन्य ग्रह सूरज की परिक्रमा करते हैं उसी प्रकार सूरज भी आकाश गंगा के केन्द्र की परिक्रमा करता है। इसको परिक्रमा करनें में २२ से २५ करोड़ वर्ष लगते हैं, इसे एक निहारिका वर्ष भी कहते हैं। इसके परिक्रमा करने की गति २५१ किलोमीटर प्रति सेकेंड है।
विशेषताएँ
सूर्य एक G-टाइप मुख्य अनुक्रम तारा है जो सौरमंडल के कुल द्रव्यमान का लगभग 99.86% समाविष्ट करता है। करीब नब्बे लाखवें भाग के अनुमानित चपटेपन के साथ, यह करीब-करीब गोलाकार है,[4] इसका मतलब है कि इसका ध्रुवीय व्यास इसके भूमध्यरेखीय व्यास से केवल 10 किमी से अलग है। [5] जैसा कि सूर्य प्लाज्मा का बना हैं और ठोस नहीं है, यह अपने ध्रुवों पर की अपेक्षा अपनी भूमध्य रेखा पर ज्यादा तेजी से घूमता है। यह व्यवहार अंतरीय घूर्णन के रूप में जाना जाता है और सूर्य के संवहन एवं कोर से बाहर की ओर अत्यधिक तापमान ढलान के कारण पदार्थ की आवाजाही की वजह से हुआ है। यह सूर्य के वामावर्त कोणीय संवेग के एक बड़े हिस्से का वहन करती है, जैसा क्रांतिवृत्त के उत्तरी ध्रुव से देखा गया और इस प्रकार कोणीय वेग पुनर्वितरित होता है। इस वास्तविक घूर्णन की अवधि भूमध्य रेखा पर लगभग 25.6 दिन और ध्रुवों में 33.5 दिन की होती है। हालांकि, सूर्य की परिक्रमा के साथ ही पृथ्वी के सापेक्ष हमारी लगातार बदलती स्थिति के कारण इस तारे का अपनी भूमध्य रेखा पर स्पष्ट घूर्णन करीबन 28 दिनों का है। [6] इस धीमी गति के घूर्णन का केन्द्रापसारक प्रभाव सूर्य की भूमध्य रेखा पर के सतही गुरुत्वाकर्षण से 1.8 करोड़ गुना कमजोर है। ग्रहों के ज्वारीय प्रभाव भी कमजोर है और सूर्य के आकार को खास प्रभावित नहीं करते है। [7]
सूर्य एक पॉपुलेशन I या भारी तत्व युक्त सितारा है। [8] सूर्य का यह गठन एक या एक से अधिक नजदीकी सुपरनोवाओं से निकली धनुषाकार तरंगों द्वारा शुरू किया गया हो सकता है। [9] ऐसा तथाकथित पॉपुलेशन II (भारी तत्व-अभाव) सितारों में इन तत्वों की बहुतायत की अपेक्षा, सौरमंडल में भारी तत्वों की उच्च बहुतायत ने सुझाया है, जैसे कि सोना और यूरेनियम। ये तत्व, किसी सुपरनोवा के दौरान ऊष्माशोषी नाभकीय अभिक्रियाओं द्वारा अथवा किसी दूसरी-पीढ़ी के विराट तारे के भीतर न्यूट्रॉन अवशोषण के माध्यम से रूपांतरण द्वारा, उत्पादित किए गए हो सकने की सर्वाधिक संभवना है। [8]
सूर्य की चट्टानी ग्रहों के माफिक कोई निश्चित सीमा नहीं है। सूर्य के बाहरी हिस्सों में गैसों का घनत्व उसके केंद्र से बढ़ती दूरी के साथ तेजी से गिरता है। [10] बहरहाल, इसकी एक सुपारिभाषित आंतरिक संरचना है जो नीचे वर्णित है। सूर्य की त्रिज्या को इसके केंद्र से लेकर प्रभामंडल के किनारे तक मापा गया है। सूर्य का बाह्य प्रभामंडल दृश्यमान अंतिम परत है। इसके उपर की परते नग्न आंखों को दिखने लायक पर्याप्त प्रकाश उत्सर्जित करने के लिहाज से काफी ठंडी या काफी पतली है। [11] एक पूर्ण सूर्यग्रहण के दौरान, तथापि, जब प्रभामंडल को चंद्रमा द्वारा छिपा लिया गया, इसके चारों ओर सूर्य के कोरोना का आसानी से देखना हो सकता है।
सूर्य का आंतरिक भाग प्रत्यक्ष प्रेक्षणीय नहीं है। सूर्य स्वयं ही विद्युत चुम्बकीय विकिरण के लिए अपारदर्शी है। हालांकि, जिस प्रकार भूकम्प विज्ञान पृथ्वी के आंतरिक गठन को प्रकट करने के लिए भूकंप से उत्पन्न तरंगों का उपयोग करता है, सौर भूकम्प विज्ञान En का नियम इस तारे की आंतरिक संरचना को मापने और दृष्टिगोचर बनाने के लिए दाब तरंगों ( पराध्वनी) का इस्तेमाल करता है। [12] इसकी गहरी परतों की खोजबीन के लिए कंप्यूटर मॉडलिंग भी सैद्धांतिक औजार के रूप में प्रयुक्त हुए है।
कोर
सूर्य का कोर इसके केन्द्र से लेकर सौर त्रिज्या के लगभग 20-25% तक विस्तारित माना गया है। [13] इसका घनत्व 150 ग्राम/सेमी3 तक[14][15] (पानी के घनत्व का लगभग 150 गुना) और तापमान 15.7 करोड़ केल्विन के करीब का है। [15] इसके विपरीत, सूर्य की सतह का तापमान लगभग 5,800 केल्विन है। सोहो मिशन डेटा के हाल के विश्लेषण विकिरण क्षेत्र के बाकी हिस्सों की तुलना में कोर के तेज घूर्णन दर का पक्ष लेते है। [13] सूर्य के अधिकांश जीवन में, ऊर्जा p–p (प्रोटॉन-प्रोटॉन) श्रृंखलाEn कहलाने वाली एक चरणबद्ध श्रृंखला के माध्यम से नाभिकीय संलयन द्वारा उत्पादित हुई है; यह प्रक्रिया हाइड्रोजन को हीलियम में रुपांतरित करती है। [16] सूर्य की उत्पादित ऊर्जा का मात्र 0.8% CNO चक्र En से आता है। [17]
सूर्य में कोर अकेला ऐसा क्षेत्र है जो संलयन के माध्यम से तापीय ऊर्जा की एक बड़ी राशि का उत्पादन करता है; 99% शक्ति सूर्य की त्रिज्या के 24% के भीतर उत्पन्न हुई है, तथा त्रिज्या के 30% द्वारा संलयन लगभग पूरी तरह से बंद कर दिया गया है। इस तारे का शेष उस उर्जा द्वारा तप्त हुआ है जो कोर से लेकर संवहनी परतों के ठीक बाहर तक विकिरण द्वारा बाहर की ओर स्थानांतरित हुई है। कोर में संलयन द्वारा उत्पादित ऊर्जा को फिर उत्तरोत्तर कई परतों से होकर सौर प्रभामंडल तक यात्रा करनी होती है इसके पहले कि वह सूर्य प्रकाश अथवा कणों की गतिज ऊर्जा के रूप में अंतरिक्ष में पलायन करती है। [18][19]
कोर में प्रोटॉन-प्रोटॉन श्रृंखला दरेक सेकंड 9.2×1037 बार पाई जाती है। यह अभिक्रिया चार मुक्त प्रोटॉनों (हाइड्रोजन नाभिक) का प्रयोग करती है, यह हर सेकंड करीब 3.7×1038 प्रोटॉनों को अल्फा कणों (हीलियम नाभिक) में तब्दील करती है (सूर्य के कुल ~8.9×1056 मुक्त प्रोटॉनों में से), या लगभग 6.2× 1011 किलो प्रति सेकंड। [19] हाइड्रोजन से हीलियम संलयन के बाद हीलियम ऊर्जा के रूप में संलयित द्रव्यमान का लगभग 0.7% छोड़ती है,[20] सूर्य 42.6 करोड़ मीट्रिक टन प्रति सेकंड की द्रव्यमान-ऊर्जा रूपांतरण दर पर ऊर्जा छोड़ता है, 384.6 योटा वाट (3.846 × 1026 वाट),[21] या 9.192× 1010 टीएनटी मेगाटनEn प्रति सेकंड। राशि ऊर्जा पैदा करने में नष्ट नहीं हुई है, बल्कि यह राशि बराबर की इतनी ही ऊर्जा में तब्दील हुई है तथा ढोकर उत्सर्जित होने के लिए दूर ले जाई गई, जैसा द्रव्यमान-ऊर्जा तुल्यता अवधारणा का वर्णन हुआ है।
कोर में संलयन से शक्ति का उत्पादन सौर केंद्र से दूरी के साथ बदलता रहता है। सूर्य के केंद्र पर, सैद्धांतिक मॉडलों के आकलन में यह तकरीबन 276.5 वाट/मीटर3 होना है,[22]
जीवन चक्र
सूर्य आज सबसे अधिक स्थिर अवस्था में अपने जीवन के करीबन आधे रास्ते पर है। इसमें कई अरब वर्षों से नाटकीय रूप से कोई बदलाव नहीं हुआ है, और आगामी कई वर्षों तक यूँ ही अपरिवर्तित बना रहेगा। हालांकि, एक स्थिर हाइड्रोजन-दहन काल के पहले का और बाद का तारा बिलकुल अलग होता है।
निर्माण
सूर्य एक विशाल आणविक बादल के हिस्से के ढहने से करीब 4.57 अरब वर्ष पूर्व गठित हुआ है जो अधिकांशतः हाइड्रोजन और हीलियम का बना है और शायद इन्ही ने कई अन्य तारों को बनाया है। [23] यह आयु तारकीय विकास के कंप्यूटर मॉडलो के प्रयोग और न्यूक्लियोकोस्मोक्रोनोलोजीEn के माध्यम से आकलित हुई है। [24] परिणाम प्राचीनतम सौरमंडल सामग्री की रेडियोमीट्रिक तिथि के अनुरूप है, 4.567 अरब वर्ष। [25][26] प्राचीन उल्कापातों के अध्ययन अल्पजीवी आइसोटोपो के स्थिर नाभिक के निशान दिखाते है, जैसे कि लौह-60, जो केवल विस्फोटित, अल्पजीवी तारों में निर्मित होता है। यह इंगित करता है कि वह स्थान जहां पर सूर्य बना के नजदीक एक या एक से ज्यादा सुपरनोवा अवश्य पाए जाने चाहिए। किसी नजदीकी सुपरनोवा से निकली आघात तरंग ने आणविक बादल के भीतर की गैसों को संपीडित कर सूर्य के निर्माण को शुरू किया होगा तथा कुछ क्षेत्र अपने स्वयं के गुरुत्वाकर्षण के अधीन ढहने से बने होंगे। [27] जैसे ही बादल का कोई टुकड़ा ढहा कोणीय गति के संरक्षण के कारण यह भी घुमना शुरू हुआ और बढ़ते दबाव के साथ गर्म होने लगा। बहुत बड़ी द्रव्य राशि केंद्र में केंद्रित हुई, जबकि शेष बाहर की ओर चपटकर एक डिस्क में तब्दील हुई जिनसे ग्रह व अन्य सौरमंडलीय निकाय बने। बादल के कोर के भीतर के गुरुत्व व दाब ने अत्यधिक उष्मा उत्पन्न की वैसे ही डिस्क के आसपास से और अधिक गैस जुड़ती गई, अंततः नाभिकीय संलयन को सक्रिय किया। इस प्रकार, सूर्य का जन्म हुआ।
मुख्य अनुक्रम
सूर्य अपनी मुख्य अनुक्रम अवस्था से होता हुआ करीब आधी राह पर है, जिसके दरम्यान नाभिकीय संलयन अभिक्रियाओ ने हाइड्रोजन को हीलियम में बदला। हर सेकंड, सूर्य की कोर के भीतर चालीस लाख टन से अधिक पदार्थ ऊर्जा में परिवर्तित हुआ है और न्यूट्रिनो व सौर विकिरण का निर्माण किया है। इस दर पर, सूर्य अब तक करीब 100 पृथ्वी-द्रव्यमान जितना पदार्थ ऊर्जा में परिवर्तित कर चुका है। सूर्य एक मुख्य अनुक्रम तारे के रूप में लगभग 10 अरब साल जितना खर्च करेगा। [29]
कोर हाइड्रोजन समापन के बाद
सूर्य के पास एक सुपरनोवा के रूप में विस्फोट के लिए पर्याप्त द्रव्यमान नहीं है। बावजुद यह एक लाल दानव चरण में प्रवेश करेगा। सूर्य का तकरीबन 5.4 अरब साल में एक लाल दानव बनने का पूर्वानुमान है। [30] यह आकलन हुआ है कि सूर्य संभवतः पृथ्वी समेत सौरमंडल के आंतरिक ग्रहों की वर्तमान कक्षाओं को निगल जाने जितना बड़ा हो जाएगा। [31]
इससे पहले कि यह एक लाल दानव बनता है, सूर्य की चमक लगभग दोगुनी हो जाएगी और पृथ्वी शुक्र जितना आज है उससे भी अधिक गर्म हो जाएगी। एक बार कोर हाइड्रोजन समाप्त हुई, सूर्य का उपदानव चरण में विस्तार होगा और करीब आधे अरब वर्षों उपरांत आकार में धीरे धीरे दोगुना जाएगा। उसके बाद यह, आज की तुलना में दो सौ गुना बड़ा तथा दसियों हजार गुना और अधिक चमकदार होने तक, आगामी करीब आधे अरब वर्षों से ज्यादा तक और अधिक तेजी से फैलेगा। यह लाल दानव शाखा का वह चरण है, जहां पर सूर्य करीब एक अरब वर्ष बिता चुका होगा और अपने द्रव्यमान का एक तिहाई के आसपास गंवा चुका होगा। [31]
सूर्य के पास अब केवल कुछ लाख साल बचे है, पर वें बेहद प्रसंगपूर्ण है। प्रथम, कोर हीलियम चौंध में प्रचंडतापूर्वक सुलगता है और सूर्य चमक के 50 गुने के साथ, आज की तुलना में थोड़े कम तापमान के साथ, अपने हाल के आकार से 10 गुने के आसपास तक वापस सिकुड़ जाता है।
सौर अंतरिक्ष मिशन
सूर्य के निरीक्षण के लिए रचे गए प्रथम उपग्रह नासा के पायनियर 5, 6, 7, 8 और 9 थे। यह 1959 और 1968 के बीच प्रक्षेपित हुए थे। इन यानों ने पृथ्वी और सूर्य से समान दूरी की कक्षा में सूर्य परिक्रमा करते हुए सौर वायु और सौर चुंबकीय क्षेत्र का पहला विस्तृत मापन किया। पायनियर 9 विशेष रूप से लंबे अरसे के लिए संचालित हुआ और मई 1983 तक डेटा संचारण करता रहा। [33][34]
1970 के दशक में, दो अंतरिक्ष यान हेलिओस और स्काईलैब अपोलो टेलीस्कोप माउंट En ने सौर वायु व सौर कोरोना के महत्वपूर्ण नए डेटा वैज्ञानिकों को प्रदान किए। हेलिओस 1 और 2 यान अमेरिकी-जर्मनी सहकार्य थे। इसने अंतरिक्ष यान को बुध की कक्षा के भीतर की ओर ले जा रही कक्षा से सौर वायु का अध्ययन किया। [35] 1973 में स्कायलैब अंतरिक्ष स्टेशन नासा द्वारा प्रक्षेपित हुआ। इसने अपोलो टेलीस्कोप माउंट कहे जाने वाला एक सौर वेधशाला मॉड्यूल शामिल किया जो कि स्टेशन पर रहने वाले अंतरिक्ष यात्रियों द्वारा संचालित हुआ था। [36] स्काईलैब ने पहली बार सौर संक्रमण क्षेत्र का तथा सौर कोरोना से निकली पराबैंगनी उत्सर्जन का समाधित निरीक्षण किया। [36] खोजों ने कोरोनल मास एजेक्सन के प्रथम प्रेक्षण शामिल किए, जो फिर "कोरोनल ट्रांजीएंस्ट" और फिर कोरोनल होल्स कहलाये, अब घनिष्ठ रूप से सौर वायु के साथ जुड़े होने के लिए जाना जाता है। [35]
1980 का सोलर मैक्सीमम मिशन नासा द्वारा शुरू किया गया था। यह अंतरिक्ष यान उच्च सौर गतिविधि और सौर चमक के समय के दरम्यान गामा किरणों, एक्स किरणों और सौर ज्वालाओं से निकली पराबैंगनी विकिरण के निरीक्षण के लिए रचा गया था। प्रक्षेपण के बस कुछ ही महीने बाद, हालांकि, किसी इलेक्ट्रॉनिक्स खराबी की वजह से यान जस की तस हालत में चलता रहा और उसने अगले तीन साल इसी निष्क्रिय अवस्था में बिताए। 1984 में स्पेस शटल चैलेंजर मिशन STS-41C ने उपग्रह को सुधार दिया और कक्षा में फिर से छोड़ने से पहले इसकी इलेक्ट्रॉनिक्स की मरम्मत की। जून 1989 में पृथ्वी के वायुमंडल में पुनः प्रवेश से पहले सोलर मैक्सीमम मिशन ने मरम्मत पश्चात सौर कोरोना की हजारों छवियों का अधिग्रहण किया। [37]
1991 में प्रक्षेपित, जापान के योनकोह (सौर पुंज) उपग्रह ने एक्स-रे तरंग दैर्घ्य पर सौर ज्वालाओ का अवलोकन किया। मिशन डेटा ने वैज्ञानिकों को अनेकों भिन्न प्रकार की लपटों की पहचान करने की अनुमति दी, साथ ही दिखाया कि चरम गतिविधि वाले क्षेत्रों से दूर स्थित कोरोना और अधिक गतिशील व सक्रिय थी जैसा कि पूर्व में माना हुआ था। योनकोह ने एक पूरे सौर चक्र का प्रेक्षण किया लेकिन 2001 में जब एक कुंडलाकार सूर्यग्रहण हुआ यह आपातोपयोगी दशा में चला गया जिसकी वजह से इसका सूर्य के साथ जुडाव का नुकसान हो गया। यह 2005 में वायुमंडलीय पुनः प्रवेश दौरान नष्ट हुआ था। [38]
आज दिन तक का सबसे महत्वपूर्ण सौर मिशन सोलर एंड हेलिओस्फेरिक ओब्सर्वेटरी रहा है। 2 दिसंबर1995 को शुरू हुआ यह मिशन यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी और नासा द्वारा संयुक्त रूप से बनाया गया था। [36] मूल रूप से यह दो-वर्षीय मिशन के लिए नियत हुआ था। मिशन की 2012 तक की विस्तारण मंजूरी अक्टूबर 2009 में हुई थी। [39] यह इतना उपयोगी साबित हुआ कि इसका अनुवर्ती मिशन सोलर डायनमिक्स ओब्सर्वेटरी (एसडीओ) फरवरी, 2010 में शुरू किया गया था। [40] यह पृथ्वी और सूर्य के बीच लाग्रंगियन बिंदु (जिस पर दोनों ओर का गुरुत्वीय खींचाव बराबर होता है) पर स्थापित हुआ। सोहो ने अपने प्रक्षेपण के बाद से अनेक तरंगदैर्ध्यों पर सूर्य की निरंतर छवि प्रदान की है। [36] प्रत्यक्ष सौर प्रेक्षण के अलावा, सोहो को बड़ी संख्या में धूमकेतुओं की खोज के लिए समर्थ किया गया है, इनमे से अधिकांश सूर्य के निवाले छोटे धूमकेतुEn है जो सूर्य के पास से गुजरते ही भस्म हो जाते है। [41]
इन सभी उपग्रहों ने सूर्य का प्रेक्षण क्रांतिवृत्त के तल से किया है, इसलिए उसके भूमध्यरेखीय क्षेत्रों मात्र के विस्तार में प्रेक्षण किए गए है। यूलिसिस यान सूर्य के ध्रुवीय क्षेत्रों के अध्ययन के लिए 1990 में प्रक्षेपित हुआ था। इसने सर्वप्रथम बृहस्पति की यात्रा की, इससे पहले इसे क्रांतिवृत्त तल के ऊपर की दूर की किसी कक्षा में बृहस्पति के गुरुत्वीय बल के सहारे ले जाया गया था। संयोगवश, यह 1994 की बृहस्पति के साथ धूमकेतु शूमेकर-लेवी 9 की टक्कर के निरीक्षण के लिए अच्छी जगह स्थापित हुआ था। एक बार यूलिसिस अपनी निर्धारित कक्षा में स्थापित हो गया, इसने उच्च सौर अक्षांशों की सौर वायु और चुंबकीय क्षेत्र शक्ति का निरीक्षण करना शुरू कर दिया और पाया कि उच्च अक्षांशों पर करीब 750 किमी/सेकंड से आगे बढ़ रही सौर वायु उम्मीद की तुलना में धीमी थी, साथ ही पाया गया कि वहां उच्च अक्षांशों से आई हुई बड़ी चुंबकीय तरंगे थी जो कि बिखरी हुई गांगेय कॉस्मिक किरणे थी। [42]
वर्णमंडल की तात्विक बहुतायतता को स्पेक्ट्रोस्कोपी अध्ययनों से अच्छी तरह जाना गया है, पर सूर्य के अंदरूनी ढांचे की समझ उतनी ही बुरी है। सौर वायु नमूना वापसी मिशन, जेनेसिस, खगोलविदों द्वारा सीधे सौर सामग्री की संरचना को मापने के लिए रचा गया था। जेनेसिस 2004 में पृथ्वी पर लौटा, पर पृथ्वी के वायुमंडल में पुनः प्रवेश पर तैनात करते वक्त पैराशूट के विफल होने से यह अकस्मात् अवतरण से क्षतिग्रस्त हो गया था। गंभीर क्षति के बावजूद, कुछ उपयोगी नमूने अंतरिक्ष यान के नमूना वापसी मॉड्यूल से बरामद किए गए हैं और विश्लेषण के दौर से गुजर रहे हैं। [43]
सोलर टेरेस्ट्रियल रिलेशंस ओब्सर्वेटरी (स्टीरियो) मिशन अक्टूबर 2006 में शुरू हुआ था। दो एक सामान अंतरिक्ष यान कक्षाओं में इस तरीके से प्रक्षेपित किए गए जो उनको (बारी बारी से) कहीं दूर आगे की ओर खींचते और धीरे धीरे पृथ्वी के पीछे गिराते। यह सूर्य और सौर घटना के त्रिविम प्रतिचित्रण करने में समर्थ है, जैसे कि कोरोनल मास एजेक्सनEn। [44][45]
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन ने 2015-16 तक आदित्य नामक एक 100 किलो के उपग्रह का प्रक्षेपण निर्धारित किया है। सोलर कोरोना की गतिशीलता के अध्ययन के लिए इसका मुख्य साधन एक कोरोनाग्राफEn होगा। [46]
सन्दर्भ
इन्हें भी देखें
सूर्य देव
श्रेणी:सौर मंडल
श्रेणी:हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना
*
श्रेणी:जी-प्रकार मुख्य अनुक्रम तारे | सूर्य से पृथ्वी की यात्रा तक प्रकाश को कितना समय लगता है? | ८.३ मिनट | 846 | hindi |
d8551b015 | लीला सेठ (20 अक्टूबर 1930 – 5 मई 2017[1]) भारत में उच्च न्यायालय की मुख्य न्यायाधीश बनने वाली पहली महिला थीं। दिल्ली उच्च न्यायालय की पहली महिला न्यायाधीश बनने का श्रेय भी उन्ही को ही जाता है। वे देश की पहली ऐसी महिला भी थीं, जिन्होंने लंदन बार परीक्षा में शीर्ष स्थान प्राप्त किया।[2]
प्रारंभिक जीवन
न्यायमूर्ति लीला का जन्म लखनऊ में अक्टूबर 1930 में हुआ। बचपन में पिता की मृत्यु के बाद बेघर होकर विधवा माँ के सहारे पली-बढ़ी और मुश्किलों का सामना करती हुई उच्च न्यायालय की मुख्य न्यायाधीश जैसे पद तक पहुचने का सफ़र एक महिला के लिये कितना संघर्ष-मय हो सकता है, इसका अनुमान लगाया जा सकता है। भारत की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश रही लीला ने अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त लेखक विक्रम सेठ की माँ हैं। लन्दन में कानून की परीक्षा 1958 में टॉप रहने, भारत के 15 वे विधि आयोग की सदस्य बनने और कुछ चर्चित न्यायिक मामलो में विशेष योगदान के कारण लीला सेठ का नाम विख्यात है।
न्यायमूर्ति लीला की शादी पारिवारिक माध्यम से बाटा - कंपनी में सर्विस करने वाले प्रेमी के साथ हुई। उस समय लीला स्नातक भी नहीं थी, बाद में प्रेमो को इंग्लैंड में नौकरी के लिये जाना पड़ा तो वह साथ गई और वही से स्नातक किया यहाँ उनके लिये नियमित कोलेज जाना संभव नहीं था सोचा कोई ऐसा कौर्स हो जिसमे हाजरी और रोज जाना जरुरी न हो इसलिये उन्होने कानून की पढ़ाई करने का मन बनाया, जहां वे बार की परीक्षा में अवल रही।[3]
करियर
कुछ समय बाद पति को भारत लौटना पड़ा तो लीला ने यहाँ आ कर वकालत करने की ठानी, यह वह समय था जब नौकरियों में बहुत कम महिलाएँ होती थी। कोलकाता में उन्होने वकालत की शुरुआत की लेकिन बाद में पटना में आ कर उन्होने वकालत शरू किया। 1959 में उन्होने बार में दाखिला लिया और पटना के बाद दिल्ली में वकालत की। उन्होने वकालत के दौरान बड़ी तादात में इनकम टैक्स, सेल्स टैक्स, एक्सिस ड्यूटी और कस्टम संबंधी मामलो के अलावा सिविल कंपनी और वैवाहिक मुकदमे भी किये। 1978 में वे दिल्ली उच्च न्यायालय की पहली महिला न्यायाधीश बनी और बाद में 1991 में हिमाचल प्रदेश की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश नियुक्त की गई। महिलाओं के साथ भेद-भाव के मामले, संयुक्त परिवार में लड़की को पिता की सम्पति का बराबर की हिस्सेदारी बनाने और पुलिस हिरासत में हुई राजन पिलाई की मौत की जांच जैसे मामलो में उनकी महतवपूर्ण भूमिका रही है।
1995 में उन्होने पुलिस हिरासत में हुई राजन पिलाई की मौत की जांच के लिये बनाई एक सदस्यीय आयोग की ज़िम्मेदारी संभाली। 1998 से 2000 तक वे भारतीय विधि आयोग की सदस्य रही और हिन्दू उतराधिकार कानून में संशोधन कराया जिसके तहत संयुक्त परिवार में बेटियों को बराबर का अधिकार प्रदान किया गया। महत्वपूर्ण न्यायिक दायित्व के साथ साथ उन्होने घर परिवार की महत्वपूर्ण जिमेदारी भी सफलतापूर्वक निभाई। 1992 में वे हिमाचल प्रदेश की मुख्य न्यायाधीश के पद से सेवानिवृत हुई। करियर वुमन के रूप में लीला सेठ ने पुरुष प्रधान माने जाने वाली न्यायप्रणाली में अपनी एक अलग पहचान बनाई और कई पुरानी मान्यताओं को तोड़ा। साथ ही उन्होंने परिवार और करियर के बीच गजब का संतुलन बनाए रखा।[4]
किताबें
लीला सेठ की जीवनी “ऑन बैलेंस”[5] के को 2003 में पेन्गुइन इंडिया ने प्रकाशित किया। “ऑन बैलेंस” में उन्होने अपने प्रारम्भिक वर्षों के संघर्ष, इंग्लैण्ड में अपने पति प्रेमो के साथ रहते समय कानून की पढ़ाई शुरू करने, आगे चलके पटना, कलकत्ता आर दिल्ली में वक़ालत करने के अनुभव, पचास साल से अधिक के खुशहाल दाम्पत्य जीवन और अपने तीनों उल्लेखनीय बच्चों — लेखक विक्रम, न्याय कार्यकर्ता शान्तम और फ़िल्म निर्माता आराधना — को पालने-पोसने के बारे में लिखा है। इसके साथ-साथ, लीला सेठ ने भ्रष्टाचार पर अपने विचारों; भारत की अदालतों में होने वाले पक्षपात और विलम्ब; शिक्षा से सम्बंधित अदालत के फैसलों व व्यक्तिगत एवं संवैधानिक कानून; और 15वे विधि आयोग के सदस्य होने के अनुभव का भी व्याख्यान किया है। किताब में उनके जीवन की कई यादगार घटनाओं का भी वर्णन है — कैसे प्रेमो और उन्होने पटना में एक पुरानी हवेली को शानदार घर में तबदील किया, वह समय जब विक्रम अपना उपन्यास “अ सूटेबल बॉय” लिख रहे थे, जब बौद्ध संन्यासी थच न्य्हात हान्ह ने शान्तम को दीक्षा दी, आराधना का ऑस्ट्रीयाई राजनयिक, पीटर, से विवाह, और आराधना का अर्थ और वॉटर जैसी फ़िल्मों पर निर्माता और प्रोडक्शन डिज़ाइनर का काम करना।
2010 में लीला सेठ ने “वी, द चिल्ड्रन ऑफ़ इंडिया” लिखी। यह किताब बच्चों को भारतीय संविधान की उद्देशिका समझाती है। इसके बाद 2014 में उनकी किताब “टॉकिंग ऑफ़ जस्टिस: पीपल्ज़ राईट्स इन मॉडर्न इंडिया” प्रकाशित हुई, जिसमें उन्होने अपने लम्बे कानूनी सफर में जिन महत्वपूर्ण मुद्दों पर काम किया है उनपर चर्चा की।
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
श्रेणी:हिन्द की बेटियाँ
श्रेणी:विकिपरियोजना हिन्द की बेटियाँ
श्रेणी:भारतीय महिलाएँ
श्रेणी:जीवित लोग
श्रेणी:भारतीय न्यायाधीश
श्रेणी:भारतीय मुख्य न्यायधीश
श्रेणी:न्याय
श्रेणी:1930 में जन्मे लोग
श्रेणी:२०१७ में निधन | भारत में उच्च न्यायालय की मुख्य न्यायाधीश बनने वाली पहली महिला कौन थीं? | लीला सेठ | 0 | hindi |
00ef07946 | स्नातकोत्तर डिग्री एक शैक्षणिक डिग्री है जिसे अध्ययन के एक विशेष क्षेत्र अथवा पेशेवर अभ्यास के क्षेत्र में अध्ययन करने वाले उन व्यक्तियों को दिया जाता है जिन्होंने उसमें प्रवीणता या उच्च स्तरीय ज्ञान प्रदर्शित किया है।[1] अध्ययन किये गए विषय में, स्नातकों को सैद्धांतिक और व्यावहारिक विषय का उन्नत ज्ञान होता है; विश्लेषण, आलोचनात्मक मूल्यांकन और/या पेशेवर अनुप्रयोग में उच्च स्तरीय कौशल होता है; और जटिल समस्याओं को हल करने की और यथातथ्य और स्वतंत्र रूप से विचार करने की क्षमता होती है।[1]
कुछ भाषाओं में, स्नातकोत्तर की डिग्री को मजिस्टर कहा जाता है और मजिस्टर या कौग्नेट को भी उस व्यक्ति के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है जिसके पास यह डिग्री है। इसी स्तर की कई डिग्रियां हैं, जैसे कि इंजीनियर की डिग्री, जिसका नाम ऐतिहासिक कारणों से अलग-अलग है। स्नातकोत्तर डिग्री की सूची देखें।
संयुक्त राज्य अमेरिका में हाल ही में इन डिग्रियों के लिए कार्यक्रमों में वृद्धि की गई है; 1970 के दशक की तुलना में अब दोगुना से अधिक ऐसी डिग्रियों को प्रदान किया जाता है। यूरोप में, स्नातकोत्तर डिग्री प्रदान करने के लिए स्थितियों का एक मानकीकरण किया गया है और अधिकांश देश सभी विषयों में डिग्री प्रदान करते हैं।
प्रकार और उपाधि
स्नातकोत्तर डिग्री के दो सबसे आम प्रकार हैं मास्टर ऑफ आर्ट्स (एमए) (कला निष्णात) और मास्टर ऑफ साइंस (एम.एस. या एम.एससी.); ये पाठ्यक्रम आधारित, शोध आधारित या दोनों का मिश्रण हो सकते हैं। कुछ विश्वविद्यालयों में लैटिन डिग्री के नामों का उपयोग होता है; लैटिन में शब्द क्रम के लचीलेपन के कारण, मास्टर ऑफ़ आर्ट्स और मास्टर ऑफ़ साइंस को क्रमश: मजिस्टर आर्टियम या आर्टियम मजिस्टर और मजिस्टर साइन्टिए या साइन्टिएरम मजिस्टर के रूप में जाना जाता है। उदाहरण के लिए, हार्वर्ड विश्वविद्यालय और एमआईटी (MIT), अपने स्नातकोत्तर डिग्री के लिए ए.एम. और एस.एम. का उपयोग करते हैं। अधिक सामान्यतः, मास्टर ऑफ साइंस को अक्सर अमेरिका में एम.एस. या एस.एम में संक्षिप्त किया जाता है और राष्ट्रमंडल देशों और यूरोप में एमएससी या एम. एससी लिखा जाता है।
स्नातकोत्तर की अन्य डिग्रियों का विशेष रूप से नामकरण किया जाता है जिसमें शामिल हैं मास्टर ऑफ़ म्युज़िक (एम.एम. या एम.म्युज़.), स्नातकोत्तर सम्प्रेषण (एम.सी) और स्नातकोत्तर ललित कला (एम.ऍफ़.ए.); कुछ अन्य इसी तरह से सामान्य हैं, उदाहरण के लिए एम.फिल. और मास्टर ऑफ़ स्टडीज़. स्नातकोत्तर डिग्रियों की सूची देखें।
रचना
डिग्री प्राप्त करने के कई मार्ग हैं और प्रस्तावित क्षेत्र में उच्च डिग्री अध्ययन के लिए क्षमता के साक्ष्य के आधार पर प्रवेश दिया जाता है।
पाठ्यक्रम पर निर्भर करते हुए, एक शोध निबंध की आवश्यकता हो भी सकती है या नहीं भी.[2]
स्नातकोत्तर उपाधि को आम तौर पर स्नातकोत्तर स्तर पर प्रदान किया जाता है, हालांकि इसे एक स्नातक की डिग्री के रूप में भी प्रदान किया जाता है। कुछ विश्वविद्यालय पाठ्यक्रम, चार या पांच साल के बाद एक संयुक्त स्नातक और स्नातकोत्तर की डिग्री प्रदान करते हैं।
अवधि
यूरोप की हाल ही में मानकीकृत उच्च शिक्षा की प्रणाली (बोलोग्ना प्रक्रिया, एक स्नातकोत्तर की डिग्री, एक या दो वर्षीय स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के अनुरूप होती है, (60 से 120 ECTS क्रेडिट) जिसे स्नातक के कम से कम तीन वर्ष बाद ग्रहण किया जाता है। यह रोजगार के लिए उच्च योग्यता प्रदान करता है या डॉक्टरेट की पढ़ाई के लिए तैयार करता है। हालांकि, सामान्य रूप से स्नातकोत्तर की डिग्री के लिए अध्ययन के पाठ्यक्रम की संरचना और अवधि देश और विश्वविद्यालय के आधार पर भिन्न होती है:
कुछ प्रणाली में, जैसे जापान और अमरीका में, एक स्नातकोत्तर की डिग्री एक स्नातकोत्तर शैक्षणिक डिग्री है जिसे एक से लेकर छह साल के एक शैक्षणिक कार्यक्रम की समाप्ति के बाद प्रदान किया जाता है।
कुछ सीमित देशों में, जैसे कि इंग्लैंड, स्कॉटलैंड (वे छात्र जो जुलाई 2007 के बाद अपनी शिक्षा में प्रवेश कर रहे हैं) और आयरलैंड में, एक स्नातकोत्तर की डिग्री दोनों हो सकती है, एक स्नातक शैक्षणिक डिग्री जिसे एक चार (कभी-कभी पांच) वर्ष के एक शैक्षणिक पाठ्यक्रम को पूरा करने पर प्रदान किया जाता है, या स्नातकोत्तर शैक्षणिक डिग्री जिसे एक, एक वर्षीय या दो वर्षीय शैक्षणिक पाठ्यक्रम के समापन के बाद दिया जाता है।
प्रवेश
ऐसे देशों में जहां स्नातकोत्तर की डिग्री एक स्नातकोत्तर डिग्री होती है, वहां स्नातकोत्तर कार्यक्रम में प्रवेश के लिए सामान्य रूप से स्नातक डिग्री को धारण करने की आवश्यकता होती है (ब्रिटेन, कनाडा और अधिकांश राष्ट्रमंडल, में एक 'ऑनर्स' स्नातक डिग्री), हालांकि प्रासंगिक कार्य अनुभव एक उम्मीदवार को अर्हता प्रदान कर सकता है। एक डॉक्टरेट पाठ्यक्रम के लिए कभी-कभी यह आवश्यक होता है कि उम्मीदवार पहले स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल करे. कुछ क्षेत्रों में या स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में, डॉक्टर की उपाधि के लिए काम, स्नातक की डिग्री के तुरंत बाद शुरू हो जाता है, लेकिन स्नातकोत्तर की उपाधि को, पाठ्यक्रम और कुछ ख़ास परीक्षाओं के सफल समापन के परिणामस्वरूप साथ-साथ अर्जित किया जा सकता है (मास्टर्स डिग्री "ऑन रूट"). कुछ मामलों में छात्र की स्नातक डिग्री उसी विषय में होनी चाहिए जिस विषय में वह स्नातकोत्तर की डिग्री प्राप्त करने का इच्छुक हो, या एक निकट सहयोगी विषय में हो; अन्य मामलों में, स्नातक डिग्री का विषय महत्वहीन होता है।
तुलनीय यूरोपीय डिग्री
कुछ यूरोपीय देशों में, मजिस्टर प्रथम डिग्री होती है और उसे आधुनिक (मानकीकृत) स्नातकोत्तर डिग्री के समतुल्य माना जा सकता है (जैसे, जर्मन विश्वविद्यालय डिप्लोम/मजिस्टर, या समान 5 वर्षीय डिप्लोमा जिसे ग्रीक, स्पेनिश, पोलिश में विविध विषयों में और अन्य विश्वविद्यालयों और पौलिटेक्निकल में प्रदान किया जाता है।
इटली में, स्नातकोत्तर की डिग्री, 2 वर्षीय लौरिया मजीस्ट्राले के बराबर है, जिसका पाठ्यक्रम 3-वर्षीय लौरिया ट्रिनाले (मोटे तौर पर स्नातक की डिग्री के बराबर) उत्तीर्ण करने के बाद शुरू होता है। वास्तुकला, विधि, फार्मेसी और चिकित्सा संकायों ने इन दो डिग्रियों को नहीं अपनाया है (आमतौर पर "tre più due" कहा जाता है, यानी 3+2) और इन्हें अभी भी क्रमशः 5 वर्षीय और 6 वर्षीय लौरिया मजिस्ट्राले पाठ्यक्रमों के बाद अर्जित किया जाता है। है।
फ्रांस में स्नातकोत्तर डिग्री के पिछले समकक्षों (डीईए (DEA) और डीईएसएस (DESS)) को बोलोग्ना प्रक्रिया के बाद एक रिसर्च मास्टर (मास्टर रिसर्चे) और एक प्रोफेशनल मास्टर (मास्टर प्रोफेसियोनेल) द्वारा प्रतिस्थापित कर दिया गया है। पहले वाले को पीएचडी के लिए और दूसरे वाले को व्यावसायिक जीवन के लिए तैयार किया गया था लेकिन इन दोनों स्नातकोत्तर के बीच अंतर गायब हो गया और लोग अब केवल एक "स्नातकोत्तर" के बारे में बात करते हैं। एक रिसर्च या व्यावसायिक स्नातकोत्तर एक 2 साल का स्नातकोत्तर प्रशिक्षण है जिसे आमतौर पर एक 3 साल के प्रशिक्षण, लाइसेंस के बाद पूरा किया जाता है। स्नातकोत्तर का प्रथम वर्ष को "मास्टर 1" (M1) कहा जाता है और स्नातकोत्तर के दूसरे वर्ष को "मास्टर 2" (M2) कहा जाता है। ग्रान्डेस इस्कोलेस आमतौर पर लाइसेंस के तृतीय वर्ष में भर्ती करता है और लाइसेंस का तृतीय वर्ष और एक पूर्ण 2 वर्षीय स्नातकोत्तर डिग्री, दोनों प्रदान करता है।
स्विट्जरलैंड में, प्राचीन लाइसेंस या डिप्लोम (पांच से छह वर्षों की अवधि का) को स्नातकोत्तर की डिग्री के समकक्ष माना जाता है।[3]
स्लोवेनिया में, सभी शैक्षणिक डिग्रियों को, जिसे विश्वविद्यालय के 4 वर्षीय अध्ययन और लिखित थीसिस के सफल परीक्षण के बाद प्रदान किया जाता है उन्हें स्नातकोत्तर के बराबर माना जाता है।
डेनमार्क में, कैंन्डीडेटस या कैंन्डीडाटा (महिला) संक्षिप्त कैंन्ड. को स्नातकोत्तर के समकक्ष के रूप में प्रयोग किया जाता है। उदाहरण के लिए, इंजीनिअरिंग में स्नातकोत्तर की डिग्री के पूरा होने पर, एक व्यक्ति cand.polyt. (पौलिटेक्निकल) हो जाता है। लैटिन से प्रेरित ऐसे ही समान संक्षिप्त रूप, कई अध्ययनों पर लागू होते हैं जैसे कि समाजशास्त्र (cand.scient.soc), अर्थशास्त्र (cand.polit. या Cand.oecon), विधि (cand.jur), मानविकी (cand.mag) आदि. एक cand. उपाधि के लिए एक स्नातक की डिग्री को धारण करना आवश्यक है। फिनलैंड और स्वीडन में, kand. उपाधि एक स्नातक की डिग्री के बराबर होती है।
नीदरलैंड में इन्जेनिओर (ir.),) मिस्टर (mr.) और डॉक्टोरान्डस (drs.) को M अक्षर से दर्शाया जा सकता है (मास्टर से). जबकि ऐसी उपाधियों को अपने नाम से पहले प्रयोग किया जाता है, अक्षर M को नाम के पीछे लगाया जाता है। बोलोग्ना प्रक्रिया के बाद से उन्हें: ir. के बजाय MSc, mr. के बजाय LLM और drs. के बजाय MA या MSc द्वारा प्रतिस्थापित किया गया है। जो लोग MSc, LLM और MA उपाधि धारण करते हैं, वे अभी भी अपने अध्ययन के क्षेत्र के अनुकूल पुरानी शैली की उपाधि का उपयोग कर सकते हैं (ir., mr. और drs.). स्नातकोत्तर की विदेशी डिग्री को धारण करने वाले व्यक्ति, ir. mr. और drs. का उपयोग, इन्फ़ोर्माटी बेहीर ग्रोएप से ऐसी उपाधियों को धारण करने की अनुमति प्राप्त करने के बाद ही कर सकते हैं। इसके अलावा, नीदरलैंड्स में वहां विशिष्ट कॉलेजों (पॉलिटेक्निक या व्यावहारिक कला/विज्ञान के विश्वविद्यालयों) के स्नातक के लिए परास्नातक की डिग्री होती है, जिसमें M अक्षर का और A और Sc के अलावा उनके अध्ययन के अपने क्षेत्र का एक शॉर्टकट का प्रयोग होता है।
ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड
यह भी देखें: ऑस्ट्रेलिया में शिक्षा और न्यूजीलैंड में शिक्षा
ऑस्ट्रेलियाई और न्यूजीलैंड के विश्वविद्यालय स्नातकोत्तर डिप्लोमा (पोस्ट ग्रैड डिपाइप) प्रदान करते हैं। स्नातकोत्तर डिप्लोमा स्नातक से ऊपर के स्तर के अध्ययन को इंगित करता है।
कनाडा
कनाडा में स्नातकोत्तर प्रमाण पत्र कार्यक्रम में दो से तीन सेमेस्टर के होते हैं, जो कुछ उदाहरणों में एक वर्ष से कम समय में पूरा किया जा सकता है। इस प्रकार के कार्यक्रम में एक विश्वविद्यालय की डिग्री या मास्टर डिग्री की आवश्यकता होती है। यहाँ पर थीसिस लिखने की आवश्यकता नहीं होती हैं एवं विषय पर ही ध्यान केंद्रित करने का सुविधा प्रदान करता है।
भारत
भारत में कई संस्थान और विश्वविद्यालय स्नातकोत्तर डिप्लोमा कार्यक्रम (पीजी डिप्लोमा) की डिग्री प्रदान करते हैं।[4] ये स्नातकोत्तर डिप्लोमा कार्यक्रम मुख्यता एक साल का होता हैं जो दो से चार सेमेस्टर में बांटा जाता है। यह प्रशिक्षण, क्षेत्र में किया गया काम और क्रेडिट आवश्यकताओं पर निर्भर होता है। ये मास्टर स्तर के कार्यक्रम हैं एवं इसमें केवल अनिवार्यता को महत्व दिया जाता हैं। यह कार्यक्रम मुख्य रूप से बेहतर रोजगार के अवसर, उम्मीदवारों को पेशेवर शिक्षा और प्रशिक्षण और उन्हें उद्योग जगत में काम करने के तैयार करने के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए कराया जाता हैं। यह अवधारणाओं, वैज्ञानिक सिद्धांतों, नए तरीकों का कार्यान्वयन पद्धति के लिए गहराई से प्रदर्शन प्रदान करने के लिए बनाया गया है।
आयरलैंड
आयरलैंड में स्नातकोत्तर डिप्लोमा डिग्री जून 2005 के बाद से उच्च शिक्षा और प्रशिक्षण पुरस्कार परिषद से जुड़े संस्थानों में (आयरिश में डायोप्लोमा इर्चिएम) से सम्मानित किया गया है। यह स्नातक डिप्लोमा की तुलना में एक विशुद्ध रूप से एक पेशेवर कोर्स है एवं प्रारंभ में यह कला, व्यवसाय, इंजीनियरिंग, और विज्ञान में प्रदान किया जाता है।
पुर्तगाल
पुर्तगाल में स्नातकोत्तर डिप्लोमा दो परिस्थितियों में प्रदान किया जाता है: 1) पढ़ाई के स्वतंत्र कार्यक्रम के रूप में; 2) एक परास्नातक कार्यक्रम अध्ययन के पहले वर्ष के पूरा होने के बाद।[5][6]
स्पेन
स्नातकोत्तर डिप्लोमा (पीजीडीपी) की डिग्री को स्पेन के कई विश्वविद्यालयों द्वारा प्रदान किया जाता है एवं यह सब यूरोपीय क्रडिट ट्रांसफर और संचय प्रणाली (ईसीटीएस) ग्रेडिंग सिस्टम का अनुसरण करते है।
श्रीलंका
श्रीलंका में, स्नातकोत्तर डिप्लोमा, स्नातक की डिग्री के बाद लिया जाता हैं एवं यह एक स्नातकोत्तर शैक्षिक योग्यता है।
ब्रिटेन
इंग्लैंड और वेल्स में कई तरह के स्नातकोत्तर डिप्लोमा उपलब्ध हैं। यह एक व्यावसायिक पाठ्यक्रम है जिसकी पढाई अकादमिक डिग्री के बाद की जाती हैं जैसे कानूनी अभ्यास पाठ्यक्रम या बार व्यावसायिक पाठ्यक्रम। इस डिग्री के परिणामस्वरूप छात्र क्रमशः, वकील या बैरिस्टर व्यवसायों के लिए प्रवेश ले सकते हैं।
सन्दर्भ
श्रेणी:स्नातकोत्तर की डिग्री
श्रेणी:शिक्षा | मास्टर की डिग्री में MA का पूर्ण प्रपत्र क्या है? | मास्टर ऑफ आर्ट्स | 1,154 | hindi |
addf5671e | दो या अधिक धात्विक तत्वों के आंशिक या पूर्ण ठोस-विलयन को मिश्रातु या मिश्र धातु (Alloy) कहते हैं। इस्पात एक मिश्र धातु है। प्रायः मिश्र धातुओं के गुण उस मिश्रधातु को बनाने वाले संघटकों के गुणों से भिन्न होते हैं। इस्पात, लोहे की अपेक्षा अधिक मजबूत होता है। काँसा, पीतल, टाँका (सोल्डर) आदि मिश्रातु हैं।
परिचय
मिश्रधातु (Alloy) व्यापक रूप में एक ऐसा शब्द है जिसका प्रयोग किसी भी धात्विक वस्तु के लिये होता है, बशर्ते वह रासायनिक तत्व न हो। मिश्रधातु बनाने की कला अति प्राचीन है। सत्य तो यह है कि काँसे का महत्व एक युग में इतना अधिक था कि मानव सभ्यता के विकास के उस युग का नाम ही 'कांस्य युग' पड़ गया है। यद्यपि शुद्ध धातुओं के कई उपयोगी गुण हैं, जैसे ऊष्मा और विद्युत् की सुचालकता, तथापि यांत्रिक और निर्माण संबंधी कार्यों में साधारणतया शुद्ध धातुएँ उपयोग में नहीं लाई जातीं, क्योंकि इनमें आवश्यक मजबूती नहीं होती। धातु को अधिक मजबूत बनाने की सबसे महत्वपूर्ण विधि धातुमिश्रण (alloying) है। इस दिशा में 19वीं शताब्दी में बहुत अधिक प्रयास हुआ, उसी का फल है कि अनेक उपयोगी कार्यों के लिये आज पाँच हजार से भी अधिक मिश्रधातुएँ उपलब्ध हैं और नई मिश्रधातुएँ तैयार करने के लिये नित्य नए नए प्रयोग किए जा रहे हैं। आज किसी विशेष उपयोग के लिये इच्छित गुणोंवाली मिश्रधातुएँ बनाई जाती है।
धातुएँ जब किसी सामान्य विलयन, जैसे अम्ल, में घुलती है तब वे अपने धात्विक गुणों को छोड़ देती हैं और साधारणतया लवण बनाती हैं, किंतु पिघलाने पर जब वे परस्पर घुलती हैं तब वे अपने धात्विक गुणों के सहित रहती हैं। धातुओं के ऐसे ठोस विलयन को मिश्रधातु कहते हैं। अनेक मिश्रधातुओं में अधातुएँ भी अल्प मात्रा में होती हैं, किंतु संपूर्ण का गुण धात्विक रहता है। अत: 1939 ई0 में अमरीका वस्तु परीक्षक परिषद् ने मिश्रधातु की निम्नलिखित परिभाषा की-
मिश्रधातु वह वस्तु है जिसमें धातु के सब गुण होते हैं। इसमें दो या दो से अधिक धातुएँ, या धातु और अधातु होती है, जो पिघली हुई दशा में एक दूसरे से पूर्ण रूप से घुली रहती हैं और ठोस होने पर स्पष्ट परतों में अलग नहीं होती।"
प्रारंभ में मिश्रधातु का अधिकतम उपयोग सिक्कों और आभूषणों के बनाने में होता था। ताँबे के सिक्कों में ताँबा, टिन और जस्ता क्रमश: 95/4 तथा 1 प्रतिशत रहते हैं। सन् 1920 तक इंग्लैंड में चाँदी के सिक्के, 'स्टर्लिंग' चाँदी के बनाए जाते थे, जिसमें चाँदी और ताँबा क्रमश: 92.5 और 7.5 प्रतिशत होते थे। अमरीका में चाँदी के सभी सिक्कों में चाँदी और ताँबा क्रमश: 90 तथा 10 प्रतिशत होते हैं। इंग्लैंड के सोने के सिक्कें में सोना और ताँबा क्रमश: 91.67 और 8.33 प्रतिशत होते हैं और अमरीका के सोने के सिक्कों में सोना 90 प्रतिशत तथा शेष अन्य धातुएँ, विशेषकर ताँबा रहता है। प्लैटिनयम, सोना तथा चाँदी के आभूषणों के रंगो में सुंदरता लाने के लिये उनको कठोर, मजबूत तथा टिकाऊ बनाने के लिये, या उन्हें सस्ते मूल्यों में विक्रय के लिये दूसरी धातुओं के साथ मिलाकर काम में लाते हैं।
यह निश्चय करना कि मिश्रधातुएँ साधारण मिश्रण हैं या रासायनिक यौगिक, एक जटिल समस्या है। कुछ अर्थों में ये रासायनिक यौगिक हैं, क्योंकि जब सोडियम सरस बनाया जाता है, तब सोडियम के हर एक टुकड़े को पार में डालने से प्रकाश की तीव्र ज्वाला निकलती है और पारा गरम हो जाता है, यह यौगिक बनने का लक्षण है। इसी प्रकार पिघलते हुए सोने में जब ऐल्युमिनियम धातु का एक टुकड़ा डालते हैं, तब इतनी अधिक ऊष्मा उत्पन्न होती है कि संपूर्ण पिघली हुई धातु उज्जवल प्रकाशमय हो जाती है। अनेक मिश्र धातुओं का रंग अपने अवयव धातुओं के रंगों से बिल्कुल भिन्न होता है। उदाहरणार्थ, चाँदी और जस्ता दोना श्वेत रंग के होते हैं, किंतु इनसे जो मिश्रधातु बनती है उसका रंग अति सुंदर गुलाबी होता है। सोना पीला और ऐल्युमीनियम श्वेत होता है, किंतु इनकी मिश्रधातु का रंग अति चमकीला नीललोहित होता है। यह गुण भी यौगिकों का है।
मिश्रधातुओं के गलनांक निकालने पर ज्ञात हुआ है कि मिश्र धातुओं का व्यवहार दो प्रकार का है: कुछ मिश्रधातुओं का गलनांक जैसे जैसे किसी अवयव धातु की मात्रा बदलती हैं वैसे-वैसे बदलता है, यह मिश्रण का गुण है और कुछ मिश्रधातुओं का गलनांक एक स्थिर ताप होता है, जो प्रकट करता है कि मिश्रधातुएँ यौगिक हैं।
मिश्रधातुओं के भौतिक तथा रासायनिक गुण अपनी अवयव धातुओं के गुणों से भिन्न होते हैं और मिश्रधातुओं के गुण किसी भी प्रकार से अवयव धातुओं के गुणों के माध्य नहीं होते। यह भिन्नता इस कारण से है कि जब धातुओं को एक साथ पिघलाते हैं, तब वे कितने ही अंतराधातुक यौगिक तथा ठोस विलयन बनाती हैं। मिश्रधातु का घनत्व अपनी अवयव-धातुओं के माध्य घनत्व से कम या अधिक हो सकता है। कुछ मिश्रधातुओं का रंग अपनी अवयव धातुओं के रंगों से बिल्कुल ही भिन्न होता है। ये अपनी अवयव धातुओं से कठोरतर, किंतु कम लचीली तथा घातवर्घ्य और अधिक भंगुर होती हैं। मिश्रधातुओं का गलनांक सर्वदा अधिकतम ताप पर पिघलनेवाली अवयवधातु के गलनांक से भी कम होता है। और प्राय: न्यूनतम ताप पर पिघलनेवाली अवयव धातु के गलनांक से भी कम होता है। उदाहरणार्थ, एक मिश्रधातु, जिसमें सीसा (4 भाग), टिन (2 भाग), बिस्मथ (6 भाग) तथा कैडमियम (1 भाग) हैं, 75˚सें0 पर गलती है, जब कि न्यूनतम ताप पर पिघलने वाली अवयव-धातु, टिन का गलनांक 232˚ सें0 है। ये सब वे गुण हैं जिनके कारण मिश्रधातुएँ शुद्ध धातुओं से अधिक मूल्यवान हो जाती हैं तथा उद्योग में अधिक उपयोगी सिद्ध होती हैं।
वर्गीकरण
ऊपर वर्णित फलों द्वारा तथा सूक्ष्मदर्शी, एक्स-किरण वर्णक्रम मापी, ऊष्मीय तथा रासायनिक विश्लेषण और दूसरे भौतिक परीक्षणों द्वारा मिश्रधातओं के संगठन तथा क्रिस्टलीय रचना के विस्तृत अध्ययन के परिणामस्वरूप, मिश्रधातुओं को तीन श्रेणियों में रखा गया है। यह विभाजन मिश्रधातुओं में अवयव धातुओं के परमाणुओं का समूह किस प्रकार से संगठित है, उसके आधार पर किया गया है। ये तीन श्रेणियाँ निम्नलिखित हैं:
समान्य मिश्रण
इस प्रकार की मिश्रधातुओं में अवयव धातुएँ जब पिघली हुई होती हैं, तब वे एक दूसरे में घुली हुई रहती हैं, किंतु ठोस होने पर धातुओं के क्रिस्टल अलग-अलग हो जाते हैं, अर्थात् धातुएँ परस्पर अविलेय हैं। इस प्रकार मिश्रधातु प्रत्येक अवयव धातु के शुद्ध क्रिस्टल का मिश्रण होती है और ठंडा करने पर कोई एक अवयव धातु ठोस रूप में पृथक् हो जाती है। उदाहरणार्थ, एक तरल मिश्रधातु, जिसमें मात्रानुसार 10 भाग सीसा और 90 भाग टिन होते हैं, जब ठंडी की जाती है तब शुद्ध टिन के क्रिस्टल प्रथम उसी प्रकार से पृथक् होते हैं जिस प्रकार शुद्ध हिम के क्रिस्टल चीनी के तनु विलयन में से ठंडा करने पर पृथक् होते हैं। जिस ताप पर टिन के क्रिस्टल पृथक होना प्रारंभ करते है, वह ताप शुद्ध टिन के गलनांक से कम होता है। टिन के गलनांक को जब उसमें सीसा घुला रहता है, ज्ञात कर सीसे का अणुभार उसी नियम द्वारा निकालते हैं जिस नियम से पानी में घुली वस्तओं का अणुभार निकालते हैं। इस विधि से उन कई धातुओं का अणुभार निकाला गया है, जो तनुघात्विक विलयन में अलग परमाणु के रूप में रहती है। सीसा-ऐंटीमनी मिश्रधातु मिश्रण श्रेणी की है। ऐंटीमनी भंगुर होता है और सीसा मुलायम। मुद्रण धातु सीसी, ऐंटीमनी और अत्यंत कम मात्रा में टिन की मिश्रधातु है। इस मिश्रधातु में ऐंटीमनी की कठोरता तो होती है, किंतु यह उसकी तरह भंगुर नहीं होती।
ठोस विलयन
इस प्रकार की मिश्रधातुओं में एक अवयव धातु के परमाणु दूसरी अवयव धातु के क्रिस्टलीय ढाँचे (crystalline lattice) में भली-भाँति बैठ जाते हैं। ठोस विलयन श्रेणी की मिश्रधातुएँ दो भिन्न प्रकार की होती है:
(क) अंतराकाशी (interstitial) मध्य ठोस विलयन-इस प्रकार की मिश्रधातुओं में अधातु तत्त्व, जैसे हाइड्रोजन, कार्बन, नाइट्रोजन और बोरॉन के लघु परमाणु धातु के क्रिस्टलीय ढाँचे के मध्यस्थानों में अपना स्थान बनाते हैं। साधारणत: इससे धातु की रचना में कोई विशेष अंतर नहीं पड़ता है, केवल उसमें थोड़ी सी विकृति (distortion) आ जाती है। हॉग (Hogg) के अनुसार अंतराकाशी मध्य ठोस विलयन तभी बनेंगे, जब अधातु और धातु के परमाणुओं के अर्द्धव्यासों का अनुपात 0.59 से कम हो।
(ख) प्रतिस्थापित ठोस विलयन वे होते हैं, जिनमें एक तत्व के परमाणु दूसरे तत्व के क्रिस्टलीय ढाँचे में उन्हीं स्थानों को ग्रहण करते हैं जहाँ पर उनके पहले दूसरे तत्व के परमाणु स्थित थे। इस प्रकार की ठोस विलेयता दोनों तत्वों के परमाणुओं के अर्द्धव्यास सर्वसम (identical), या लगभग समान हों, तो ठोस विलेयता पूर्ण रूप से होगी। उदाहरणार्थ, ताँबे के परमाणु का अर्द्धव्यास 12.75 नैनोमीटर तथा निकल के परमाणु का अर्द्धव्यास 12.43 नैनोमीटर का होता है, अत: इनकी मिश्रधातु में ठोस विलेयता पूर्ण रूप से होगी। अगर अर्द्धव्यासों में अधिक अंतर हो, जैसे टिन और सीसे के परमाणुओं का अर्द्धव्यास क्रमश: 15.0 नैनोमीटर तथा 17.46 नैनोमीटर है, तो केवल सीमित ठोस विलेयता होगी। अगर दोनों धातुओं के ऋणविद्युती अंतर (electronegative difference) में कमी हो, तो इस प्रकार की ठोस विलेयता और भी अच्छी तरह से होगी।
ताँबा-निकल की अनेक मिश्रधातुएँ जिनका महत्वपूर्ण उपयोग है, ठोस विलयन की श्रेणी में आती हैं। उदाहरणार्थ, वे मिश्रधातुएँ जिनसे निकल के सिक्के, राइफल की गोलियों की टोपियाँ और एक तार जिसका वैद्युत प्रतिरोध अधिक होता है, बनता है। कनाडा के बहुत से खनिजों में ताँबा और निकल के सल्फाइड होते हैं, जिनको गलाने से एक मिश्रधातु मिलती है। इसमें निकल और ताँबा क्रमश: 67 और 28 प्रतिशत तथा शेष पाँच प्रतिशत में लोहा और मैंगनीज़ होते हैं। इस मिश्रधातु को मोनेल (Monel) धातु कहते हैं। यह अधिक तन्य, लचीली तथा संक्षारण प्रतिरोधक होती है।
अंतराधातुक यौगिक (Intermetallic compound)
साधारणत: धातुएँ एक दूसरे के साथ संयोग कर यौगिक नहीं बनातीं, किंतु ऊष्मा विश्लेषण द्वारा ज्ञात हुआ है कि धातुएँ एक दूसरे के साथ संयोग कर बहुत अधिक संख्या में यौगिक बनाती हैं। इन यौगिकों का वर्गीय नाम अंतराधातुक यौगिक है। इस प्रकार के सबसे अधिक यौगिक क्षार और क्षारीय मिट्टी की धातुएँ, आवर्त सारणी के विषम उपवर्गो (odd subgroups) की धातुओं के साथ संयोग करके, बनाती हैं। इन यौगिकों में धातुएँ किस मात्रा में मिली हुई हैं, इसको रासायनिक सूत्रों द्वारा दर्शाते हैं। इन सूत्रों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि इस प्रकार के यौगिक संयोजकता के उन सब नियमों का उल्लंघन करते हैं जो धातु तथा अधातु के संयोग से बननेवाले यौगिकों द्वारा प्रतिपादित हुए हैं। उदाहरणार्थ, सोडियम, टिन और सीसा के साथ रासायनिक क्रिया कर निम्नलिखित यौगिक बनाता है:
NaSn6, NaSn4, NaSn3, NaSn2, (NaSn), (Na4 Sn2),
(Na Pb5), (Na4 Pb9), (Na Pb), (Na2 Pb), तथा (Na4 Pb)।
अनेक अंतराधातुक यौगिक बहुत स्थायी होते हैं और अपने गलनांक से अधिक ताप पर गरम करने से भी अपनी अवयव धातुओं में विघटित नहीं होते। ये यौगिक तरल अमोनिया में घुलते हैं और इस प्रकार से जो विलयन तैयार होता है, वह वैद्युत् चालक होता है। जब इनका वैद्युत अपघटन किया जाता है, तब एक अवयव धातु, जो दूसरी की अपेक्षा न्यून धनविद्युती (electropositive) होती है, धनाग्र पर जमती है और दूसरी ऋणाग्र पर। अंतराधातुक यौगिक क्यों बनाता है, इसकी अभी तक सैद्धांतिक व्याख्या नहीं हुई। केवल इतना ही प्रतिपादित हो पाया है कि वे धातुएँ, जिनके गुण एक से हैं, एक दूसरे के साथ संयोग नहीं करती हैं। चूँकि इस प्रकार की मिश्रधातुएँ कठोर, भंगुर, बहुत ही कम तन्यशील तथा लचीली होती हैं, अत: इनमें से केवल कुछ ही उपयोगी हैं।
प्रमुख मिश्रधातुएँ
सब मिश्रधातुओं को साधारणतया लौह तथा अलौह मिश्रधातुओं में विभाजित किया गया है। जब मिश्रधातु में लोहा आधार धातु रहता है, तब वह लौह तथा जब आधार धातु कोई अन्य धातु होती है, तब वह अलौह मिश्रधातु कहलाती है।
अलौह मिश्रधातुएँ
कुछ मुख्य अलौह मिश्रधातुएँ निम्नलिखित हैं:
(1) ऐल्युमिनियम-पीतल (Aluminimum-brass) - इसके संगठन में ताँबा, जस्ता और ऐल्युमिनियम हैं, जो क्रमश: 71-55, 26-42 तथा 1-6 प्रतिशत तक होते हैं। इसका उपयोग पानी के जहाजों तथा वायुयान के नोदकों (propeller) के निर्माण में होता है।
(2) ऐल्युमिनियम-कांसा - इसमें ताँबा 99-89 तथा ऐल्युमिनियम 1-11 प्रतिशत तक होता है। यह अति कठोर तथा संक्षारण अवरोधक होता है। इसके बरतन बनाए जाते हैं।
(3) बबिट (Babit) धातु - इसमें टिन, ऐंटीमनी तथा ताँबा की प्रतिशत मात्रा क्रमश: 89, 7.3 तथा 3.7 होती है। इसका मुख्य उपयोग बॉल बियरिंग बनाने में होता है।
(4) घंटा धातु (Bell metal) - इसमें ताँबा और टिन की प्रतिशत मात्रा क्रमश: 75-80 और 25-20 तक होती है। इससे घंटे आदि बनाए जाते हैं।
(5) पीतल - इसमें ताँबा 73-66 तथा जस्ता 27-34 प्रतिशत तक होता है। इसका उपयोग चादर, नली तथा बरतन बनाने में होता है।
(6) कार्बोलाय (Carboloy) - यह टंग्स्टन कार्बाइड तथा कोबल्ट की मिश्रधातु है। इससे रगड़ने और काटने वाले यंत्र बनाए जाते हैं।
(7) कॉन्स्टैंटेन (Constantan) - इसमें तांबा 60-45, निकल 40-55, मैगनीज 0-1.4, कार्बन 0.1 प्रतिशत तथा शेष लोहा होता है। इसका उपयोग वैद्युत-तापमापक यंत्रों तथा ताप वैद्युत-युग्म (thermocouple) बनाने में होता है, क्योंकि यह विद्युत् का प्रबल प्रतिरोधक होता है।
(8) डेल्टा धातु (Delta metal) - इसमें ताँबा 56-54, जस्ता 40-44, लोहा 0.9-1.3, मैंगनीज 0.8-1.4 और सीसा 0.4-1.8 प्रतिशत तक होता है। यह मृदु इस्पात के समान मजबूत है, किंतु उसकी तरह सरलता से जंग खाकर नष्ट नहीं होती। इसका उपयोग पानी के जहाज बनाने में होता है।
(9) डो धातु (Dow metal) - इसमें मैग्नीशियम 90-96, ऐल्युमिनियम 10-4 प्रतिशत तक तथा कुछ अंशों में मैंगनीज़ होता है। इसका उपयोग मोटर तथा वायुयान के कुछ हिस्सों को बनाने में होता है।
(10) जर्मन सिलवर - इसमें ताँबा 55, जस्ता 25 और निकल 20 प्रतिशत होता है। कुछ वस्तुओं को बनाने में चाँदी के स्थान पर इसका उपयोग करते हैं, क्योंकि इससे बनी वस्तुएँ चाँदी के समान ही होती हैं।
(11) हरित स्वर्ण (Green gold) - इसमें सोना, चाँदी और कैडमियम, क्रमश: 75, 11-25 तथा 13-0 प्रतिशत तक, होते हैं। इसके आभूषण बनाए जाते हैं।
(12) गन मेटल (Gun metal) - इसमें ताँबा 95-71, टिन 0-11, सीसा 0.-13, जस्ता 0-5 तथा लोहा 0-1.4 प्रतिशत तक होता है। इससे बटन, बिल्ले, थालियाँ तथा दाँतीदार चक्र (gear) बनाए जाते हैं।
(13) मैग्नेलियम (Magnalium) - इसमें ऐल्युमिनियम 95-70 प्रतिशत तथा मैग्नीशियम 5-30 प्रतिशत तक होता है। यह मिश्रधातु हल्की होती है। इसका उपयोग विज्ञान संबंधी यंत्रों तथा तुलादंड बनाने में होता है।
(14) नाइक्रोम (Nichrome) - इसमें निकल 80-54, क्रोमियम 10-22, लोहा 4.8-27 प्रतिशत तक होते हैं। ऊँचे ताप पर इसका संक्षारण नहीं होता तथा इसका वैद्युत प्रतिरोध अधिक होता है। इसका उपयोग ऊष्मक (heater) बनाने में होता है।
(15) पालौ (Palau) - इसमें सोना 80 तथा पैलेडियम 20 प्रतिशत होते हैं। मूषा (crucibles) और थाली बनाने में प्लैटिनम के स्थान पर इसका उपयोग किया जाता है।
(16) पर्मलॉय (Permalloy) - इसमें निकल 78, लोहा 21, कोबल्ट 0.4 प्रतिशत तथा शेष मैगनीज, ताँबा, कार्बन, गंधक और सिलीकन होते हैं। इससे टेलीफोन के तार बनाए जाते हैं।
(17) सोल्डर (Solder) - इसमें सीसा 97 तथा टिन 33 प्रतिशत होते हैं। यह धातु दो धातुओं को आपस में जोड़ने के काम आती है।
(18) शॉट धातु (Shot metal) - इसमें सीसा 99 तथा आर्सेनिक 1 प्रतिशत होता है। इससे बंदूक की गीली तथा छरें बनाए जाते हैं।
(19) टिन की पन्नी (Tin foil) - इसमें टिन 88, सीसा 8, ताँबा 4 और ऐंटिमनी 0.5 प्रतिशत होते हैं। यह पन्नी सिगरेट और खाद्य वस्तुओं को सुरक्षित रखने के लिये उनके ऊपर लपेटी जाती है।
(20) उड की धातु (Wood metal) - यह मिश्रधातु सर्वप्रथम उड ने बनाई थी। इसमें बिस्मथ 50, सीसा 25, टिन 13 और कैडमियम 13 प्रतिशत होते हैं। इसका गलनांक बहुत कम होता है। आग को पानी छिड़क कर बुझानेवाले, स्वचालित यंत्रों में, जो प्लग (plug) लगा रहता है वह इस मिश्रधातु का बना होता है।
लोह मिश्रधातुएँ
आधुनिक युग में लौहमिश्र धातुओं का अधिकतम महत्व है। इसके अंतर्गत इस्पात और ढलवाँ लोहा (cast iron) तथा पिटवाँ लोहा (wrought iron) लोहा आते हैं। जब शुद्ध गलित लोहे को ठंडा करते हैं, तब 1,535˚ सें0 पर तरल लोहे से क्रिस्टलीय रूप में इस प्रकार का लोहा निकलता है। इसको डेल्टा लोहा (δ-लोहा) कहते हैं। यह लोहा दूसरे प्रकार के क्रिस्टल में 1,404˚ सें पर परिवर्तित हो जाता है। इसको गामा लोहा (γ-लोहा) कहते हैं। यह 900˚सें0 के ऊपर स्थायी रहता है और इस ताप पर ऐल्फा लोहा में परिवर्तित हो जाता है, जो साधारण ताप पर स्थायी रहता है। लोहा और कार्बन का एक यौगिक बनता है, जिसमें कार्बन की प्रतिशत मात्रा 6.67 होती है। इस मिश्रधातु को सेमेंटाइट (Sementite) कहते हैं। यह मिश्रधातु गामा लोहा (y-लोहा) के साथ ठोस विलयन बनाती है, जिसको ऑस्टेनाइट (Austenite) कहते हैं। इस्पात में कार्बन की मात्रा 0.5 से लेकर 1.5 प्रतिशत तक रहती है। जब गलित इस्पात ठोस होता है, तब ऑस्टेनाइट के ठोस विलयन-क्रिस्टल प्राप्त होते हैं। ये क्रिस्टल मुलायम होते हैं और इनसे चद्दरे, छड़ तथा तार सरलता से बनाए जाते हैं।
मोटर गाड़ियों के विकास के साथ साथ वे तत्व, जिनको केवल रसायनज्ञ ही जानते थे, इस्पात के साथ मिश्रधातु बनाने के उपयोग में लाए गए। ये इस्पात मिश्रधातुएँ मोटर गाड़ियों के इंजिनों के हिस्से बनाने तथा ये हिस्से जिन यंत्रों से बनाए जाते हैं, उनको बनाने में काम आती हैं। उदाहरणार्थ, मैंगनीज से इस्पात की मजबूती बढ़ती है और यह ऑक्सीजन और गंधक को, जो इस्पात को दुर्बल तथा भंगुर बना देते हैं, इस्पात में से अलग कर देता है। निकल इस्पात की मजबूती को बिना उसकी भंगुरता बढ़ाए बढ़ा देता है। क्रोमियम की कम मात्रा इस्पात को कठोरता प्रदान करती है और इसकी अधिक मात्रा इस्पात को संक्षारण से बचाती है। स्टेनलेस स्टील में क्रोमियम होता है। वैनेडियम-इस्पात (vanadium-steel) आघातसह (shock proof) होता है और मोलिब्डेनम्-इस्पात (molybdenum-steel) अधिक कठोर तथा ऊष्मा अवरोधक होता है। इस्पात-मिश्रधातुएँ केवल कार्बन-इस्पात से अधिक महँगी पड़ती हैं।
महत्वपूर्ण मिश्रित धातुएँ एवं उनके संघटक
मिश्रित धातु ———– संघटक
1. पीतल - तांबा (75 प्रतिशत) + जस्ता (25 प्रतिशत)
2. घंटा धातु (Bell metal) - तांबा (75 प्रतिशत) + टिन (25 प्रतिशत)
3. कांसा - तांबा (75 प्रतिशत) + टिन (25 प्रतिशत)
4. जर्मन सिल्वर - तांबा (50 प्रतिशत) + जस्ता (25 प्रतिशत) + निकेल (25 प्रतिशत)
5. एल्युमीनियम कांसा- तांबा (50 प्रतिशत) एल्युमीनियम (40 प्रतिशत) + लोहा (10 प्रतिशत)
6. गन मेटल - तांबा (88 प्रतिशत) + जस्ता (2 प्रतिशत) + टिन (१० प्रतिशत)
7. टाइप (प्रिटिंग) मेटल लेड (60 प्रतिशत) + एंटीमनी (30 प्रतिशत) + टिन (10 प्रतिशत)
8. स्टेनलेस स्टील - लोहा + क्रोमियम + निकेल
9. हिंडालियम - एल्युमीनियम (91 प्रतिशत) + मैग्नीशियम (9 प्रतिशत)
10. डेल्टा धातु - तांबा (55 प्रतिशत) + जस्ता (41 प्रतिशत) + लोहा (4 प्रतिशत)
11. डच मेटल - तांबा (80 प्रतिशत) + जस्ता (20 प्रतिशत)
12. मोनल धातु - तांबा (27 प्रतिशत) + निकिल (70 प्रतिशत) + लोहा (3 प्रतिशत)
13. टांका (solder) - टिन (67 प्रतिशत) + सीसा (33 प्रतिशत)
14. बुड्स धातु - बिस्मथ (33.5 प्रतिशत) + सीसा (33 प्रतिशत) + टिन (19 प्रतिशत) + कैडमियम (14.5 प्रतिशत)
15. कांस्टैटन - तांबा (60 प्रतिशत) + निकिल (40 प्रतिशत)
16. मुट्ज धातु - तांबा (60 प्रतिशत) + जस्ता (40 प्रतिशत)
इन्हें भी देखें
मिश्र धातुओं की सूची
बाहरी कड़ियाँ
श्रेणी:धातुकर्म
श्रेणी:मिश्रधातु | मिश्रातु या मिश्र धातु को अंग्रेज़ी भाषा में क्या कहते है? | Alloy | 81 | hindi |
1fc105d6d | मानव मस्तिष्क शरीर का एक आवश्यक अंग होने के साथ-साथ प्रकृति की एक उत्कृष्ट रचना भी है। देखने में यह एक जैविक रचना से अधिक नहीं प्रतीत होता। परन्तु यह हमारी इच्छाओं, संवेगों, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, चेतना, ज्ञान, अनुभव, व्यक्तित्व इत्यादि का केन्द्र भी होता है। मानव मस्तिष्क कैसे काम करता है यह एक ज्वलंत प्रश्न के रूप में जीवविज्ञान, भौतिक विज्ञान, गणित और दर्शनशास्त्र में स्थान रखता है। प्रस्तुत आलेख में मस्तिष्क के विभिन्न संरचनात्मक एवं क्रियात्मक पहलुओं पर चर्चा की गई है।
मस्तिष्क-एक परिचय
मानव मस्तिष्क का अध्ययन एक व्यापक क्षेत्र है। मुख्यतः इसका अध्ययन तंत्रिका विज्ञान में किया जाता है। परन्तु मनोविज्ञान, कम्प्यूटर विज्ञान, दर्शनशास्त्र, भाषाविज्ञान, मानव विज्ञान एवं आयुर्विज्ञान के क्षेत्र में हो रहे शोधों ने इसके अध्ययन को एक नयी दिशा प्रदान की है। तंत्रिका तंत्र के शीर्ष पर स्थित यह अंग शरीर की सभी क्रियाओं को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से नियंत्रित करता है। यह संरचनात्मक रूप में जटिल और क्रियात्मक रूप में जटिलतम होता है। इसकी संरचना, कार्य एवं इसके पारस्परिक संबंधो का अध्ययन मुख्यतः तंत्रिकाजैविकी (Neurobiology) मनोविज्ञान एवं कम्प्यूटर विज्ञान में किया जाता है।
तंत्रिकाजैविकी-मस्तिष्क का जैविक आधार
संपूर्ण ब्रह्मांड में जो भी है वह द्रव्य एवं ऊर्जा (Matter and energy) का संगम है। समस्त दृश्य एवं अदृश्य इन्ही दोनो के संयोग से घटित होता है। हम और हमारा मस्तिष्क इसके अपवाद नहीं हैं। सृष्टि के मूलभूत कणों के विभिन्न अनुपात में संयुक्त होने से परमाणु और क्रमशः अणुओं का निर्माण हुआ है। मस्तिष्क एवं इसके विभिन्न भाग, सूचनाओं के आदान-प्रदान एवं भंडारण के लिए इन्हीं अणुओं पर निर्भर रहते हैं। यह विशेष अणु न्यूरोकेमिकल कहलाते हैं। मस्तिष्क एक विशेष प्रकार की कोशिकाओं से मिल कर बना होता है जिन्हें तंत्रिका कोशा (Neuron) कहते हैं। ये मस्तिष्क की संरचनात्मक एवं क्रियात्मक इकाई होतीं हैं। इनकी कुल संख्या 1 खरब से भी अधिक होती है। संरचनात्मक रूप से मस्तिष्क के तीन मुख्य भाग होते हैं। अग्र मस्तिष्क (Fore Brain), मध्य मस्तिष्क (Mid Brain) एवं पश्च मस्तिष्क (Hind Brain)। प्रमस्तिष्क (Cerebram) एवं डाइएनसीफेलॉन (Diencephalon) अग्र मस्तिष्क के भाग होते हैं। मेडुला, पोन्स एवं अनुमस्तिष्क (Cerebellum) पश्च मस्तिष्क के भाग होते हैं। मध्य मस्तिष्क एवं पश्च मस्तिष्क मिल कर मस्तिष्क स्तंभ (Brain Stem) का निर्माण करते हैं। मस्तिष्क स्तंभ मुख्यतः शरीर की जैविक क्रियाओं एवं चैतन्यता (Awareness) का नियंत्रण करता है। प्रमस्तिष्क गोलार्ध (Cerebral Hemisphere) प्रमस्तिष्क के दो सममितीय भाग होते हैं और आपस में मध्य में कॉर्पस कैलोसम (Corpus Callosum) द्वारा जुड़े होते हैं। इनकी सतह का भाग प्रमस्तिष्क वल्कुट (Cerebral Cortex) कहलाता है। मस्तिष्क के इन विभिन्न भागों की क्रियात्मक समरूपता वाली कोशिकाएं तंत्रिका संजाल (Neural Network) का निर्माण करती हैं। विभिन्न संजाल मिल कर प्रतिचित्र (Topographical Map) का निर्माण करते हैं।
मस्तिष्क में प्रतिचित्र के स्तर पर शरीर के सभी अंगो का संरचनात्मक निरूपण होता है। प्रमस्तिष्क वल्कुट का भाग समस्त संरचनात्मक निरूपण के लिए उत्तरदाई होता है। यह निरूपण प्रतिपार्श्विक (Contraleteral) अर्थात शरीर सममिति के दाहिने अक्ष का निरूपण बाएं प्रमस्तिष्क गोलार्ध एवं बाएं अक्ष का निरूपण दाहिनी ओर होता है। चित्र में शरीर की विरूपता इसके विभिन्न भागों एवं अंगो के मस्तिष्क में निरूपित भाग को प्रदर्शित करती है। मस्तिष्क में इस निरूपण के चिकित्सकीय प्रमाण भी मिलते हैं। जब मस्तिष्क का कोई भाग चोट या किसी अन्य कारण से प्रभावित हो जाता है तो उससे संबंधित अंग या अंग तंत्र भी स्पष्टतः प्रभावित होता है। यह घटना प्रायः पक्षाघात (Paralysis) के रूप में देखने को मिलती है।
मस्तिष्क में सूचना का संवहन
तंत्रिका कोशा ही सूचना संवहन की इकाई होती है। मुख्य रूप से तंत्रिका कोशा कला (Neural Membrane) के बाहर और अंदर की घटनाएं ही इसके लिए उत्तरदाई होतीं हैं। कोशा कला के अंदर और बाहर सोडियम आयन्स (Na+) और (K+) घुलनशील अवस्था में विद्यमान होते हैं। उद्दीपन (Stimulus) की स्थिति में इन आयनों का संवहन सामान्य से विचलित हो जाता है और यह सतत् विचलन एक संवेग (Impulse) में परिवर्तित हो जाता है। विभिन्न उद्दीपकों की उपस्थिति में उनका समाकलन (Integration) एवं योग (Summation) भी होता है और यह उद्दीपन को कोड करने का कार्य करता है। यह संवेग कोशिका के एक सिरे से दूसरे सिरे पर संवहित होता है। दो तंत्रिका कोशाओं में संवेग संचरण न्यूरोकेमिकल्स के माध्यम से होता है। दो कोशाओं के सिरे आपस में साइनेप्स का निर्माण करते हैं। एक वाहक कोशिका से स्रावित न्यूरोकेमिकल दूसरी कोशा को आयनिक विचलन द्वारा उत्तेजित कर देता है। इस प्रकार संवेग का संचरण पूर्ण होता है। अब प्रश्न उठता है कि मस्तिष्क में इन सभी संचरणों के फलस्वरूप क्या होता है?
मस्तिष्क में विभिन्न स्तरों पर इन सूचनाओं का संकलन एवं परिमार्जन किया जाता है। उदाहरण के लिए हम दृश्य (Vision) परिघटना को ले सकते हैं। किसी भी दृश्य का दिखाई देना उस पर पड़ रही प्रकाश की किरणों के प्रत्यावर्तन के कारण होता है। इस प्रत्यावर्तित प्रकाश की किरणें जब हमारी रेटिना पर पड़ती हैं तो उस दृश्य का एक उल्टा एवं द्विवीमीय प्रतिबिंब बनता है (क्योंकि रेटिना एक द्विवीमीय फोटोग्राफिक प्लेट की तरह कार्य करती है। परंतु जब मस्तिष्क के दृश्य क्षेत्र में रेटिना द्वारा प्राप्त संकेतो की व्याख्या होती है तो हम एक वास्तविक त्रिविमीय दृश्य का अनुभव करते हैं। ऐसा मस्तिष्क में विभिन्न स्तरों पर संयोजन, परिमार्जन एवं संसाधन (Processing) के कारण होता है।
मनोविज्ञान-मस्तिष्क का क्रियात्मक निरूपण
मानसिक संक्रियाएँ व्यवहार के रूप में परिलक्षित होतीं हैं और व्यवहार मन से उत्पन्न होता है। मनोविज्ञान में मानसिक संक्रियाओं और व्यवहार का अध्ययन किया जाता है। मन का अध्ययन सदैव एक अबूझ पहेली रहा है। सबसे कठिनतम तो इसे परिभाषित करना ही है। सामान्यतः मन को मस्तिष्क का क्रियात्मक निरूपण मान लेते हैं।
मन की तीन मुख्य क्रियाएँ होतीं हैं सोचना, अनुभव करना एवं चाहना (Thinking, Feeling and Willing)। संज्ञानात्मक क्रियाएँ जैसे कि स्मृति, अधिगम, मेधा, ध्यान, दृष्टि, श्रवण, स्वाद, गंध, स्पर्श इत्यादि मन के विभिन्न प्रभाग होते हैं।
उद्दीपन-संसाधन-अनुक्रिया तंत्र (Stimulus-Processing-Response System)
वातावरण एक उद्दीपक का कार्य करता है एवं हम इसे अपनी ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा ग्रहण करते हैं। ज्ञानेन्द्रियाँ जिन सूचनाओं को मस्तिष्क तक पहुँचाती है वे परिवर्तन पर आधारित होतीं हैं। उदाहरण के लिए कोई नई घटना जैसे अचानक उत्पन्न आवाज, तापमान में परिवर्तन, किसी वस्तु का अचानक दिखना इत्यादि। लेकिन इसके बीच की घटनाएं हमें प्रभावित नहीं करती। उदाहरण के लिए कमरे में रेडियो चालू होते समय हम इसकी आवाज को महसूस करते हैं। फिर हम इसकी आवाज से अनुकूलित हो जाते हैं। पुनः रेडियो बंद होते समय हमारा ध्यान उधर जाता है क्योंकि ध्वनि का अभाव हो जाता है। इस प्रकार मध्य में अनुक्रिया अभाव को ऐंद्रिक अनुकूलन (Sensory adaptation) कहते हैं।
हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ बाहर के भौतिक और आंतरिक मनोवैज्ञानिक वातावरण को परस्पर जोड़ने का कार्य करती हैं। इन अंतरसंबधों का अध्ययन मनोभौतिकी के अंतर्गत किया जाता है। भौतिकी की क्रिया-पद्धति और विधि को अपना प्रतिरूप मानते हुए प्रारम्भ में यह निर्धारित किया गया कि भौतिक उद्दीपन की कम से कम कितनी मात्रा हमारे ज्ञानेन्द्रियों को प्रभावित करती है। और इसे विभिन्न ज्ञानेन्द्रियों के लिए उद्दीपन की प्रभावसीमा कहा गया। यह देखा गया है कि प्रभावसीमा से कम तीव्रता का उद्दीपन ज्ञानेन्द्रियों को प्रभावित नहीं कर पाता।
इस प्रकार हम देखते हैं कि ज्ञानेन्द्रियों द्वारा लाई गई सूचना और उसके अनुरूप एक व्यवहार प्रदर्शित करने में एक सुन्दर लयबद्धता दिखाई पड़ती है।
मस्तिष्क का संज्ञानात्मक निरूपण
संज्ञानात्मक निरूपण के लिए मस्तिष्क के विभिन्न भाग अलग-अलग और एक साथ उत्तरदाई होते हैं। उदाहरण के लिए देखने के लिए दृश्य क्षेत्र, सुनने के लिए श्रव्य क्षेत्र, गति के लिए अनुमस्तिष्क का क्षेत्र उत्तरदाई होता है। कभी-कभी किसी विशेष ध्वनि के साथ किसी दृश्य की संकल्पना भी सामने आती है। ऐसा मस्तिष्क के विभिन्न भागों के आपसी सह संबधों के पूर्ण विकसित क्रियात्मक संजाल के कारण होता है। मस्तिष्क के शोधों में विशेष रूप से एफ.एम.आर.आई. (Functional Magnetic Resonance Imaging) यन्त्र तुलनात्मक रूप से नया है और बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ है। यह यंत्र मस्तिष्क के क्रियात्मक एवं संरचनात्मक दोनो तरह के निरूपण के लिए उपयुक्त होता है। किसी विशेष संज्ञानात्मक कार्य के लिए (उदाहरण के लिए दृश्य परिकल्पना) मस्तिष्क के किसी एक विशेष संबंधित भाग की क्रियाशीलता बढ़ जाती है और उसके साथ ही उस भाग में ग्लूकोज एवं आक्सीजन की खपत भी बढ़ जाती है। इसके फलस्वरूप उस भाग में आक्सीहीमोग्लोबिन और कार्बाक्सीहीमोग्लोबिन का संतुलन तुलनात्मक रूप से बदल जाता है। इन दोनो अणुओं के चुंबकीय गुण अलग होते हैं। चुंबकीय अनुनाद पर आधारित यह यंत्र इस परिवर्तन के आधार पर मस्तिष्क का एक स्पष्ट एवं त्रिविमीय प्रतिबिंब निरूपित करता है जिसमे मस्तिष्क के क्रियाशील भाग स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं।
मन-मस्तिष्क एवं स्वास्थ्य
एक पुरानी कहावत है कि एक स्वस्थ शरीर में एक स्वस्थ मन का वास होता है। वर्तमान समय में यह कहावत बिलकुल सही सिद्ध हुई है एवं इसका दूसरा पक्ष भी उतना ही सही है। हमारा शारीरिक स्वास्थ्य बहुत सीमा तक हमारी मानसिक स्थितियों पर निर्भर करता है। तनाव, स्वस्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालते हैं और स्वस्थ मानसिक स्थिति शारीरिक स्वास्थ्य के अनुकूल होती है। मनोतंत्रिका प्रतिरक्षाविज्ञान (Psychoneuroimmunology) की समग्रतात्मक संकल्पना पूर्णतः इसी पर आधारित है। इसके अनुसार हमारे स्वास्थ्य के लिए हमारी मानसिक स्थितियां, मस्तिष्क, अन्तःस्रावी तंत्र एवं प्रतिरक्षा तंत्र सामूहिक रूप से कार्य करते हैं और ये सब आपस में प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से जुड़ कर समस्थापन का कार्य करते हैं। इनकी अन्तःक्रिया हमारे स्वास्थ्य के रूप में परिलक्षित होती है। स्वास्थ्य की यह संकल्पना कोई बहुत नई नहीं है। हमारे पारंपरिक चिकित्साविज्ञान (आयुर्वेद) में शारीरिक स्वास्थ्य के लिए मानसिक शुचिता पर बल दिया गया है। योगविज्ञान में बताए गए प्राणायाम तथा आसन, मन एवं शरीर को स्वस्थ रखने के साधन कहे गए हैं। वर्तमान शोध भी इस बात की ओर संकेत करते हैं कि यौगिक आसन एवं प्राणायाम यदि सही विधि एवं नियमित रूप से किये जाएं तो उनसे बहुत लाभ मिल सकता है।
कम्प्यूटर विज्ञान-एक नई दिशा
पिछले अर्धशतक में कम्प्यूटर के क्षेत्र में हुए विकास ने इसे शोधकार्य का आवश्यक अंग बना दिया है। लेकिन मस्तिष्क के शोध में इसका योगदान थोड़ा अलग है। हमारे मस्तिष्क की तुलना कम्प्यूटर से की जाती है। यह ज्ञात है कि कम्प्यूटर के दो भाग हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर होते हैं। हार्डवेयर यन्त्रात्मक एवं दृश्य भाग होता है एवं सॉफ्टवेयर यंत्रेत्तर भाग है और इसकी क्रियाविधि का निरूपण है। ठीक उसी प्रकार जैसे मस्तिष्क एक जैविक संरचना है और मन इसका क्रियात्मक निरूपण है।
कम्प्यूटर को मुख्यतः सूचना संसाधन (Information Processing) का पर्याय माना जाता है। ऐसा देखा गया है कि हमारे संज्ञानात्मक तंत्र की क्रियाविधि बहुत हद तक गणितीय होती है। पूर्ववर्णित उद्दीपन-अनुक्रिया तंत्र की क्रियाविधि कम्प्यूटर विज्ञान से प्ररित है।
मस्तिष्क के इस नये दर्शन का आरंभ १९५६ दशक में एम॰आइ॰टी॰ (Massachusetts Institute of Technology) में हुआ था। बाद के वर्षों में रूमेलहार्ट (Rumelhart) एवं मैकक्लीलैंड (McClellend) ने इस विचारधारा का पोषण किया और मानव संज्ञान की नई कृत्रिम संयोजी नेटवर्क (Connectionist Network or Artificial Neural Network) की संकल्पना प्रस्तुत की। यह अवधारणा मस्तिष्क की सूक्ष्म शारीरिकी (Microanatomy) से प्रेरित थी। इसके अनुसार यह नेटवर्क कई छोटी इकाइयों से मिल कर बना होता है। ये इकाइयाँ जैविक न्यूरान की तरह एक दूसरे से जुड़ी होतीं हैं। इन इकाइयों के एक या अधिक स्तर हो सकते हैं। विभिन्न उद्दीपनों की उपस्थिति में उनका संकलन एवं योग भी होता है। क्रियाशीलता की स्थिति में उद्दीपन निवेशी इकाइयों (Input Units) द्वारा ग्रहण किया जाता है एवं कोड किया जाता है। वहाँ से यह सक्रियता प्रतिरूप (Activation Pattern) के रूप में नेटवर्क के अंदर के स्तरों की इकाइयों में समान्तर रूप से वितरित हो जाता है। यह इकाइयाँ स्वतंत्र रूप में एक गणना का कार्य करती हैं एवं सामूहिक रूप में सूचना संसाधन का कार्य करती हैं। अन्त में निर्गत इकाइयां (Output Units) निर्गत प्रतिरूप के रूप में व्यवहार प्रगट करती हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि रूमेलहार्ट द्वारा प्रदर्शित संयोजी नेटवर्क, उद्दीपन व्यवहार तंत्र की उचित व्याख्या प्रस्तुत करता है। पिछले दशकों में इस दिशा में कई अनुप्रयोगात्मक शोध हुए हैं। सेजनोवस्की एवं रोसेनबर्ग ने १९८७ में नेटटाक (NETTalk) नामक यंत्र बनाया था जोकि संयाजी नेटवर्क पर आधारित था। यह अंग्रेजी के निवेशी शब्दों को संभाषण में निरूपित कर सकता था।
कृत्रिम बुद्धि (Artificial Intelligence) एवं इसके अनुप्रयोग
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विशेष तौर पर तंत्रिकाविज्ञान और कम्प्यूटर विज्ञान के क्षेत्र में हो रहे शोधों ने कृत्रिम बुद्धि की नई अवधारणा को जन्म दिया। कृत्रिम बुद्धि से हमारा तात्पर्य मानव द्वारा विकसित एक ऐसी रचना से है जो बुद्धि में मानव की बराबरी कर सके। यह एक गहन चिन्तन का विषय है कि क्या कम्प्यूटर मानसिक क्षमताओं में मानव की बराबरी कर सकता है। यह सत्य है कि कम्प्यूटर कुछ मामलों में मानव से ज्यादा समुन्नत है। स्मृति भंडारण क्षमता, यथार्थता एवं प्रतिक्रिया समय के मामले में यह बहुत आगे हैं। बुद्धि की परिभाषा चिन्तन, मनन एवं सृजनात्मकता को ध्यान में रख कर दी जाती है। वर्तमान में कम्प्यूटर द्वारा एक सीमा तक उपर्युक्त कार्य किए गए हैं। परन्तु यह कहना उचित नहीं होगा कि कृत्रिम बुद्धि अपनी सीमा तक विकसित है। रोबोट विज्ञान में कृत्रिम बुद्धि का सबसे अधिक अनुप्रयोग होता है। डीप-ब्ल्यू नामक एक ऐसे ही कम्प्यूटर ने गैरी कास्परोव को शतरंज में पराजित किया था। कृत्रिम बुद्धि के अन्य अनुप्रयोग चिकित्सा विज्ञान एवं खगोल शास्त्र में हैं।
मस्तिष्क में व्याप्त संभावनाएं
मस्तिष्क का अध्ययन इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि क्योंकि यह प्रकृति की एकमात्र रचना है जिसमें प्रकृति को प्रभावित करने की क्षमता होती है। वास्तव में प्रकृति के साथ इसका संबंध द्विदिशात्मक होता है। अर्थात यह अंग प्रकृति से प्रभावित होने के साथ-साथ प्रकृति को प्रभावित भी करता है। मस्तिष्क का अध्ययन अंतर्विषयक है। विभिन्न विषयों के वैज्ञानिकों ने अलग-अलग कार्य करते हुए देखा कि कहीं वे एक हीं प्रश्न का उत्तर खोज रहे हैं। उदाहरण के लिए भाषाविज्ञान में भाषा की उत्पत्ति स्थान और भाषा एवं विचार (Thought and Language) में संबंध, मनोविज्ञान में मन का भौतिक निरूपण, कम्प्यूटर विज्ञान में सूचना संसाधन की उचित व्याख्या एवं दर्शन शास्त्र में भौतिक एवं मानसिक जगत (Physical and Mental) से संबंधित प्रश्न एक मुख्य प्रश्न कि “मस्तिष्क कैसे कार्य करता है” पर आधारित है।
चेतना (Consciousness) के केन्द्र के रूप में भी मस्तिष्क ने वैज्ञानिकों का ध्यान आकर्षित किया है। भौतिकी का सबसे मूलभूत प्रश्न है कि चेतना के गुण कहाँ से उत्पन्न होता है। मस्तिष्क के संदर्भ में चेतना से अभिप्राय चैतन्यता (Awareness) या अनुभव से हो सकता है। हम किसी भी चीज का अनुभव कैसे करते हैं। इश प्रश्न का उत्तर कोई सामान्य विद्यार्थी दे सकता है कि वातावरणीय उद्दीपन के फलस्वरूप होने वाली मस्तिष्क संक्रियाएँ (जोकि वैद्युतरासायनिक परिवर्तन एवं न्यूरोकेमिकल परिवर्तन पर आधारित होतीं हैं) हमारे सारे अनुभवों के लिए उत्तरदाई हैं। बात सही भी है। परन्तु यदि हम अपने सारे अनुभवों और चेतना को आणविक संक्रिया के रूप में प्रगट करे तो भी यह प्रश्न शेष रह जाता है कि इन अचेतन एवं निर्जीव अणुओं की अन्तःक्रिया एक सजीव रूप कैसे धारण कर लेती है।
एक संभावित उत्तर हो सकता है कि बहुत सारे अणुओं के विकासात्मक एवं सामूहिक गुण चेतना के रूप में परिलक्षित होते हैं। लेकिन यदि ऐसा है तो एक अकेले अणु में भी प्रारम्भिक स्तर की चेतना होनी चाहिए। अन्ततः यह प्रश्न अभी भी अनुत्तरित है। यह प्रश्न एकल विषयक न होकर विशुद्ध विज्ञान का है। अब देखना है कि भविष्य में विज्ञान इस पर कितना प्रकाश ड़ाल पाता है।
बाहरी कड़ियाँ
श्रेणी:विज्ञान
श्रेणी:जीव विज्ञान
श्रेणी:चिकित्सा विज्ञान
श्रेणी:तंत्रिका विज्ञान | मस्तिष्क के अध्ययन को क्या कहा जाता है? | तंत्रिका विज्ञान | 572 | hindi |
46eae44f7 | समुद्रफेनी (Cuttlefish) सेपाइडा जीववैज्ञानिक गण के समुद्री प्राणी होते हैं। ओक्टोपस, स्क्विड और नौटिलस के साथ समुद्रफेनियाँ शीर्षपाद (सेफ़ैलोपोड) जीववैज्ञानिक वर्ग के सदस्य हैं। समुद्रफेनियों की यह विषेशता है कि उनका शंख उनके शरीर के बाहर होने कि बजाये उनके शरीर के अंदर होता है। ऐरागोनाइट से बना यह भीतरी शंख खोखला होता है और समुद्रफेनी के शरीर को ढांचा प्रदान करने के साथ-साथ इसमें गैस भरकर समुद्रफेनी सहजता से समुद्र में ऊपर-नीचे की गहराईयों में जाने में सक्षम है।[1]
विवरण
समुद्रफेनियों की आँख का भीतरी काला भाग W-आकार का होता है। ओक्टोपसों की तरह इनकी भी आठ भुजाएँ होती हैं और दो लम्बें टेंटेकल भुजाएँ होती हैं जिनसे यह अपने ग्रास को पकड़ सकते हैं। इनके मस्तिष्क और व्यवहार से यह अनुमान लगाया गया है कि यह सबसे बुद्धिमान अकशेरुकी (बिना रीढ़ वाले) प्राणियों में से एक हैं।[2]
चित्रदीर्घा
W-आकार की आँख
नर और मादा समुद्रफेनी
समुद्रफेनी छुपने के लिये रंग बदल लेता है
एक समुद्रफेनी
इन्हें भी देखें
ओक्टोपस
स्क्विड
नौटिलस
शीर्षपाद (सेफ़ैलोपोड)
सन्दर्भ
श्रेणी:समुद्रफेनीयाँ
श्रेणी:सेफ़ैलोपोड
श्रेणी:रंग बदलने वाले प्राणी | समुद्रफेनी' या 'कटल फिश' किस वर्ग का एक समुद्री प्राणी है | जीववैज्ञानिक | 32 | hindi |
f2428c623 | विद्याधर शास्त्री (१९०१-१९८३) संस्कृत कवि और संस्कृत तथा हिन्दी भाषाओं के विद्वान थे। आपका जन्म राजस्थान के चूरु शहर में हुआ था। पंजाब विश्वविद्यालय (लाहौर) से शास्त्री की परीक्षा आपने सोलह वर्ष की आयु में उत्तीर्ण की थी। आगरा विश्वविद्यालय (वर्तमान डॉ॰ भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय) से आपने संस्कृत कलाधिस्नातक परीक्षा में सफलता प्राप्त की। शिक्षण कार्य और अकादमिक प्रयासों के दौरान आपने बीकानेर शहर में जीवन व्यतीत किया। १९६२ में भारत के राष्ट्रपति द्वारा विद्यावाचस्पति की उपाधि से आपको सम्मानित किया गया था।
पारिवारिक पृष्ठभूमि
विद्याधर शास्त्री सुप्रसिद्ध भाष्याचार्य हरनामदत्त शास्त्री के पौत्र थे। बीकानेर रियासत के महाराजा गंगा सिंह ने आपके पिता विद्यावाचस्पति देवीप्रसाद शास्त्री को राज पंडित के रूप में नियुक्त किया था। इतिहासकार दशरथ शर्मा और न्यायाधीश भानु प्रकाश शर्मा उनके छोटे भाई थे। आपके बड़े पुत्र दिवाकर शर्मा भी संस्कृत विद्वान थे और छोटे पुत्र गिरिजा शंकर शर्मा इतिहासकार और हिंदी तथा राजस्थानी भाषा के विद्वान हैं।
शैक्षणिक नियुक्तियाँ
१९२८ में आपको डूंगर महाविद्यालय (बीकानेर) में संस्कृत व्याख्याता नियुक्त किया गया, १९३६ में आप संस्कृत विभाग के अध्यक्ष बने। १९५६ में डूंगर महाविद्यालय से अवकाश ग्रहण करने के पश्चात आप हीरालाल बारह्सैनी महाविद्यालय (अलीगढ़) में संस्कृत विभाग के अध्यक्ष रहे। १९५८ में संस्कृत, हिंदी और राजस्थानी साहित्य को बढ़ावा देने के लिए आपने हिन्दी विश्व भारती (बीकानेर) की स्थापना की। आपने जीवन पर्यन्त इस संस्था का नेतृत्व किया।
शिष्य वर्ग
बीकानेर के राजपरिवार के गुरु होने के अलावा शास्त्रीजी ने कई छात्रों को प्रेरित किया। इन छात्रों की प्रमुख नामों में नरोत्तमदास स्वामी, डॉ ब्रह्मानंद शर्मा, श्री काशीराम शर्मा, श्रीमती कृष्णा मेहता और श्री रावत सारस्वत शामिल हैं।
ग्रन्थकारिता
संस्कृत महाकाव्य, हरनामाम्रितम् केवल पितामह का जीवन चरित नहीं बल्कि उदारचेता प्रशांताभाव विद्वानों का चरित चिंतन है। महाकाव्य पाठकों को प्रेरित करने के लिए हैं जिससे वह विश्वकल्याण के लिए स्वयं को समर्पित करें। महाकाव्य विश्वमानवियम् में कवि आधुनिकीकरण और १९६९ चन्द्र अभियान के प्रभाव को संबोधित करता है।विक्रमाभिनन्दनम् में कवि ने चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के शासनकाल में भारतीय सांस्कृतिक परम्पराओं का चित्रण किया है। आदि शंकर, रानी पद्मिनी, राणा प्रताप, गुरु गोविंद सिंह, शिवाजी इत्यादि महान पुरुषों का चरित्र स्मरण है। वैचित्र्य लहरी अपने अनर्गल व्यवहार पर प्रतिबिंबित करने के लिए जनता को एक विनती है।मत्त लहरी कवि की व्यंग कृति है। मत्त लहरी का नायक एक मध्यप (शराबी) है जो सभी को मधुशाला में समाज के बंधन से मुक्ति का आश्वासन देता है।. आनंद मंदाकिनी मत्त लहरी की पूरक है। यहां शराबी का साथी उसे चेत्रित करता है कि मदिरापान में व्यतीत समय असाध्य होगा। हिमाद्रि माहात्य़म् मदन मोहन मालवीय शताब्दी उत्सव के वर्ष में में लिखी गयी थी। उसी वर्ष चीन ने भारत पर आक्रमण किया था। कविता में मदन मोहन मालवीय सभी भारतीयों से हिमालय की रक्षा का निवेदन करते हुए कहते हैं कि हिमालय के महत्व को न भूलें। शाकुन्तल विज्ञानम् कालिदास नाटक अभिज्ञान शाकुंतलम् पर टिप्पणी है, कवि के अनुसार नाटक में प्रेम भावना का सामर्थ्य दर्शित किया गया है।
शिव पुष्पांजलि १९१५ में प्रकाशित हुई थी, कवि की यह प्राथमिक प्रकाशित रचना है। इसमें कवि ने कई छंदों का उपयोग किया है तथा ग़ज़ल और कव्वाली की शैली का भी प्रयोग है। सूर्य स्तवन तथा शिव पुष्पांजलि साथ ही प्रकाशित हुई थी, इस रचना में भी कई छंदों का उपयोग है। लीला लहरी में कवि भारतीय दर्शन की सभी शाखाओं के साथ पाठक को परिचित कराता है परन्तु अद्वैत को प्रधान मानता है।
पूर्णानन्दम्
संस्कृत नाटक पूर्णानन्दम् एक प्रसिद्ध लोक कथा पर आधारित है। नायक पूर्णमल का शीतलकोट शहर के राजकुमार रूप में जन्म होता है। प्रतिकूल ग्रहों के कारण राजा को उसे सोलह साल के लिए महल से बाहर भेजना पड़ता है। इस अन्तरकाल में राजा एक युवती नवीना से विवाह कर लेता है। जब पूर्णमल महल वापस पहुँचता है तो नवीना उसपर आसक्त हो जाती है। पूर्णमल जब नवीना को ठुकराता है तो नवीना उसको राजा से मृत्यु दंड दिलवा देती है। वधिक (जल्लाद) जंगल में पूर्णमल को कुँए में गिरा कर राजा के पास वापस चले जाते हैं। गुरु गोरखनाथ और उनके शिष्य कुँए से पूर्णमल को बचाकर अपने आश्रम ले जाते हैं। शिक्षा ग्रहण कर पूर्णमल गुरु के आज्ञानुसार शीतलकोट वापस लौटता है। वृद्ध राजा पूर्णमल को छाती से लगा कर दहाड़ मार कर रो उठता है। पूर्णमल की माता अक्षरा की प्रार्थना के कारण गुरु गोरखनाथ प्रकट होते हैं। गुरु गोरखनाथ अपने शिष्य पूर्णमल को जब तक नवीना का पुत्र योग्य न हो तब तक राज्य भार का कार्य संभालने का आदेश देकर अन्तर्धान हो जाते हैं। इस नाटक में भौतिक जीवन से अध्यात्मिक जीवन की श्रेष्ठता प्रतिपादित की गयी है।
प्रमुख सम्मान
भारतीय विद्या भवन, मुंबई द्वारा आयोजित 'संस्कृत विश्व परिषद्' के वाराणसी अधिवेशन में आपको राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने संस्कृत भाषा में विशिष्ट योगदान के लिए सम्मानित किया।
राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर ने आपको अपनी सर्वोच्च उपाधि साहित्य मनीषी से सम्मानित किया।
अखिल भारतीय संस्कृत सम्मलेन के स्वर्णजयंती के अवसर पर तत्कालीन राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने आपको विद्यावाचस्पति उपाधि देकर सम्मान प्रदान किया।
भारत की स्वतंत्रता के रजत जयंती वर्ष में राष्ट्रपति वी॰ वी॰ गिरि ने आपको एक संस्कृत विद्वान के रूप में सम्मानित किया।
अखिल भारतीय संस्कृत प्रचार सभा, दिल्ली ने कवि सम्राट की उपाधि से सम्मानित किया।
भारतीय गणतंत्र की रजत जयंती पर आप राष्ट्रीय संस्कृत मनीषी के रूप में सम्मानित हुए।
१९८२ में महाराणा मेवाड़ फाउंडेशन उदयपुर के हरित ऋषि की स्मृति में दिए जाने वाले सम्मान से आप सम्मानित हुए।
ग्रंथ सूची
संस्कृत महाकाव्य
हरनामाम्रितम्
विश्वमानवियम्
संस्कृत कविताएँ
विक्रमाभिनन्दनम्
वैचित्र्य लहरी
मत्त लहरी
आनंद मंदाकिनी
हिमाद्रि माहात्य़म्
शाकुन्तल विज्ञानम्
अलिदुर्ग दर्शनम्
स्तवन काव्य
शिव पुष्पांजलि
सूर्य स्तवन
लीला लहरी
संस्कृत नाटक
पूर्णानन्दम्
कलिदैन्य़म्
दुर्बल बलम्
चम्पूकाव्य (चम्पूकाव्य में गद्य और पद्य मिश्रित होते हैं)
विक्रमाभ्य़ुदय़म्
ग्रन्थ संग्रह
विद्याधर ग्रंथावली प्रकाशक: राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर १९७७
संपादित
कृष्णग्रंथावली (तुलसीदास रचित कविताएँ), संपादक: नरोत्तमदास स्वामी तथा विद्याधर शास्त्री, १९३१ में प्रकाशित
स्रोत सामग्री
सारस्वत, परमानन्द (१९८४) साहित्य़स्रष्टा श्री विद्याधर शास्त्री, गनु प्रकाशन, बीकानेर
बाहरी कड़ियाँ
लाइब्रेरी ऑफ़ कांग्रेस संग्रह सूची में साहित्य़स्रष्टा श्री विद्याधर शास्त्री
लाइब्रेरी ऑफ़ कांग्रेस संग्रह सूची में हरनामाम्रितम्
लाइब्रेरी ऑफ़ कांग्रेस संग्रह सूची में विद्याधर ग्रंथावली
लाइब्रेरी ऑफ़ कांग्रेस संग्रह सूची में कृष्णग्रंथावली
श्रेणी:संस्कृत कवि
श्रेणी:संस्कृत नाटककार
श्रेणी:संस्कृत विद्वान
श्रेणी:व्यक्तिगत जीवन
श्रेणी:राजस्थान के लोग
श्रेणी:1901 में जन्मे लोग | विद्याधर शास्त्री ने किस विश्विद्यालय से संस्कृत कलाधिस्नातक परीक्षा में सफलता प्राप्त की? | आगरा विश्वविद्यालय | 222 | hindi |
e00119f7c | एवरेस्ट पर्वत (नेपाली:सागरमाथा, संस्कृत: देवगिरि) दुनिया का सबसे ऊँचा पर्वत शिखर है, जिसकी ऊँचाई 8,850 मीटर है। पहले इसे XV के नाम से जाना जाता था। माउंट एवरेस्ट की ऊँचाई उस समय 29,002 फीट या 8,840 मीटर मापी गई। वैज्ञानिक सर्वेक्षणों में कहा जाता है कि इसकी ऊंचाई प्रतिवर्ष 2 से॰मी॰ के हिसाब से बढ़ रही है। नेपाल में इसे स्थानीय लोग सागरमाथा (अर्थात स्वर्ग का शीर्ष) नाम से जानते हैं, जो नाम नेपाल के इतिहासविद बाबुराम आचार्य ने सन् 1930 के दशक में रखा था - आकाश का भाल। तिब्बत में इसे सदियों से चोमोलंगमा अर्थात पर्वतों की रानी के नाम से जाना जाता है।
सर्वे ऑफ नेपाल द्वारा प्रकाशित, (1:50,000 के स्केल पर 57 मैप सेट में से 50वां मैप) “फर्स्ट जॉईन्ट इन्सपेक्सन सर्वे सन् 1979-80, नेपाल-चीन सीमा के मुख्य पाठ्य के साथ अटैच” पृष्ठ पर ऊपर की ओर बीच में, लिखा है, सीमा रेखा, की पहचान की गई है जो चीन और नेपाल को अलग करते हैं, जो ठीक शिखर से होकर गुजरता है। यह यहाँ सीमा का काम करता है और चीन-नेपाल सीमा पर मुख्य हिमालयी जलसंभर विभाजित होकर दोनो तरफ बहता है।
सर्वोच्च शिखर की पहचान
विश्व के सर्वोच्च पर्वतों को निर्धारित करने के लिए सन् 1808 में ब्रिटिशों ने भारत का महान त्रिकोणमितीय सर्वे को शुरु किया। दक्षिणी भारत से शुरु कर, सर्वे टीम उत्तर की ओर बढ़ी, जो विशाल 500 कि॰ग्रा॰ (1,100lb) का विकोणमान (थियोडोलाइट)(एक को उठाकर ले जाने के लिए 12 आदमी लगते थें) का इस्तेमाल करते थे जिससे सम्भवत: सही माप लिया जा सके। वे हिमालय के नजदीक पहाड़ो के पास पहुँचे सन् 1830 में, पर नेपाल अंग्रेजों को देश में घुसने देने के प्रति अनिच्छुक था क्योंकि नेपाल को राजनैतिक और सम्भावित आक्रमण का डर था। सर्वेयर द्वारा कई अनुरोध किये गये पर नेपाल ने सारे अनुरोध ठुकरा दिये। ब्रिटिशों को तराई से अवलोकन जारी रखने के लिए मजबूर किया गया, नेपाल के दक्षिण में एक क्षेत्र है जो हिमालय के समानान्तर में है।
तेज बर्षा और मलेरिया के कारण तराई में स्थिति बहुत कठिन थी: तीन सर्वे अधिकारी मलेरिया के कारण मारे गये जबकि खराब स्वास्थ्य के कारण दो को अवकाश मिल गया। फिर भी, सन् 1847 में, ब्रिटिश मजबूर हुए और अवलोकन स्टेशन से लेकर 240 किलोमीटर (150mi) दूर तक से हिमालय कि शिखरों कि विस्तार से अवलोकन करने लगे। मौसम ने साल के अन्त में काम को तीन महिने तक रोके रखा। सन् 1847 के नवम्बर में, भारत के ब्रिटिश सर्वेयर जेनरल एन्ड्रयु वॉग ने सवाईपुर स्टेशन जो हिमालय के पुर्वी छोर पर स्थित है से कई सारे अवलोकन तैयार किये। उस समय कंचनजंघा को विश्व कि सबसे ऊँची चोटी मानी गई और उसने रुचीपुर्वक नोट किया कि, इस के पीछे भी लगभग 230 किमी (140mi) दूर एक चोटी है। जौन आर्मस्ट्रांग, जो वॉग के सह अधिकारी थें ने भी एक जगह से दूर पश्चिम में इस चोटी को देखा जिसे उन्होने नाम दिया चोटी ‘बी’(peak b)। वॉग ने बाद में लिखा कि अवलोकन दर्शाता है कि चोटी ‘बी’ कंचनजंघा से ऊँचा था, लेकिन अवलोकन बहुत दूर से हुआ था, सत्यापन के लिए नजदीक से अवलोकन करना जरुरी है। आने वाले साल में वॉग ने एक सर्वे अधिकारी को तराई में चोटी ‘बी’ को नजदिक से अवलोकन करने के लिए भेजा पर बादलों ने सारे प्रयास को रोक दिया। सन् 1849 में वॉग ने वह क्षेत्र जेम्स निकोलसन को सौंप दिया। निकोलसन ने 190 (120mi) कि॰मी॰ दूर जिरोल से दो अवलोकन तैयार किये। निकोलसन तब अपने साथ बड़ा विकोणमान लाया और पूरब की ओर घुमा दिया, पाँच अलग स्थानों से निकोलसन ने चोटी के सबसे नजदीक 174 कि॰मी॰ (108mi) दूर से 30 से भी अधिक अवलोकन प्राप्त किये।
अपने अवलोकनों पर आधारित कुछ हिसाब-किताब करने के लिए निकोलसन वापस पटना, गंगा नदी के पास गया। पटना में उसके कच्चे हिसाब ने चोटी ‘बी’ कि औसत ऊँचाई 9,200 मी॰ (30,200ft) दिया, लेकिन यह प्रकाश अपवर्तन नहीं समझा जाता है, जो ऊँचाई को गलत बयान करता है। संख्या साफ दर्शाया गया, यद्यपि वह चोटी ‘बी’ कंचनजंघा से ऊँचा था। यद्यपि, निकोलसन को मलेरिया हो गया और उसे घर लौट जाने के लिए विवश किया गया, हिसाब-किताब खत्म नहीं हो पाया। माईकल हेनेसी, वॉग का एक सहायक रोमन संख्या के आधार पर चोटीयों को निर्दिष्ट करना शुरु कर दिया, उसने कंचनजंघा को IX नाम दिया और चोटि ‘बी’ को XV नाम दिया।
सन् 1852 मई सर्वे का केन्द्र देहरादून में लाया गया, एक भारतीय गणितज्ञ राधानाथ सिकदर और बंगाल के सर्वेक्षक ने निकोलसन के नाप पर आधारित त्रिकोणमितीय हिसाब-किताब का प्रयोग कर पहली बार विश्व के सबसे ऊँची चोटी का नाम एक पूर्व प्रमुख के नाम पर एवरेस्ट दिया, सत्यापन करने के लिए बार-बार हिसाब-किताब होता रहा और इसका कार्यालयी उदघोष, कि XV सबसे ऊँचा है, कई सालों तक लेट हो गया।
वॉग ने निकोलस के डाटा पर सन् 1854 में काम शुरु कर दिया और हिसाब-किताब, प्रकाश अपवर्तन के लेन-देन, वायु-दाब, अवलोकन के विशाल दूरी के तापमान पर अपने कर्मचारियों के साथ लगभग दो साल काम किया। सन् 1856 के मार्च में उसने पत्र के माध्यम से कलकत्ता में अपने प्रतिनिधी को अपनी खोज का पूरी तरह से उदघोष कर दिया। कंचनजंघा की ऊँचाई साफ तौर पर 28,156 फीट (8,582 मी॰) बताया गया, जबकि XV कि ऊँचाई (8,850 मी॰) बताई गई। वॉग ने XV के बारे में निष्कर्ष निकाला कि “अधिक सम्भव है कि यह विश्व में सबसे ऊँचा है”। चोटी XV (फिट में) का हिसाब-किताब लगाया गया कि यह पुरी तरह से 29,000 फिट (8,839.2 मी॰) ऊँचा है, पर इसे सार्वजनिक रूप में 29,002 फीट (8,839.8 मी॰) बताया गया। 29,000 को अनुमान लगाकर 'राउंड' किया गया है इस अवधारणा से बचने के लिए 2 फीट अधिक जोड़ा दिया गया था।
देखें
हिमालय
भूगोल
सन्दर्भ
श्रेणी:हिमालय
श्रेणी:पृथ्वी के चरम स्थान
श्रेणी:आठ हज़ारी
श्रेणी:सप्तचोटी
* | कंचनजंगा पर्वत की औसत ऊंचाई कितनी है? | 28,156 फीट | 4,303 | hindi |
74fb5c28a | विश्व पर्यावरण दिवस पर्यावरण की सुरक्षा और संरक्षण हेतु पूरे विश्व में मनाया जाता है। इस दिवस को मनाने की घोषणा संयुक्त राष्ट्र ने पर्यावरण के प्रति वैश्विक स्तर पर राजनीतिक और सामाजिक जागृति लाने हेतु वर्ष 1972 में की थी। इसे 5 जून से 16 जून तक संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा आयोजित विश्व पर्यावरण सम्मेलन में चर्चा के बाद शुरू किया गया था। 5 जून 1974 को पहला विश्व पर्यावरण दिवस मनाया गया।
इतिहास
1972 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा मानव पर्यावरण विषय पर संयुक्त राष्ट्र महासभा का आयोजन किया गया था। इसी चर्चा के दौरान विश्व पर्यावरण दिवस का सुझाव भी दिया गया और इसके दो साल बाद, 5 जून 1974 से इसे मनाना भी शुरू कर दिया गया। 1987 में इसके केंद्र को बदलते रहने का सुझाव सामने आया और उसके बाद से ही इसके आयोजन के लिए अलग अलग देशों को चुना जाता है।[1]
इसमें हर साल 143 से अधिक देश हिस्सा लेते हैं और इसमें कई सरकारी, सामाजिक और व्यावसायिक लोग पर्यावरण की सुरक्षा, समस्या आदि विषय पर बात करते हैं।
विश्व पर्यावरण दिवस को मनाने के लिए कवि अभय कुमार ने धरती पर एक गान लिखा था, जिसे 2013 में नई दिल्ली में पर्यावरण दिवस के दिन भारतीय सांस्कृतिक परिषद में आयोजित एक समारोह में भारत के तत्कालीन केंद्रीय मंत्रियों, कपिल सिब्बल और शशि थरूर ने इस गाने को पेश किया।
आयोजन
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
श्रेणी:आधार
श्रेणी:अंतर्राष्ट्रीय दिवस
श्रेणी:पर्यावरण | विश्व पर्यावरण दिवस' किस दिन मनाया जाता है? | 5 जून 1974 | 341 | hindi |
c0ec4a68e | राजधानी: बगदाद
जनसंख्या: 30,39 9, 572 (जुलाई 2011 अनुमान)
क्षेत्र: 16 9, 250 वर्ग मील (438,317 वर्ग किमी)
समुद्र तट: 36 मील (58 किमी)
सीमा देश: तुर्की, ईरान, जॉर्डन, कुवैत, सऊदी अरब और सीरिया
सर्वोच्च बिंदु: चीखा दार, 11,847 फीट (3,611 मीटर) ईरान की सीमा पर
इराक जो पश्चिमी एशिया में स्थित है और ईरान, जॉर्डन, कुवैत, सऊदी अरब और सीरिया के साथ सीमाओं को साझा करता है। इसमें फारस की खाड़ी के साथ सिर्फ 36 मील (58 किमी) का एक छोटा सा समुद्र तट है
इराक की राजधानी और सबसे बड़ा शहर बगदाद है और इसकी आबादी 30,39 9, 572 (जुलाई 2011 अनुमानित) है। इराक के अन्य बड़े शहरों में मोसुल, बसरा, इरबिल और किर्कुक शामिल हैं और देश की जनसंख्या घनत्व 17 9 6 लोग प्रति वर्ग मील या 69.3 लोग प्रति वर्ग किलोमीटर है।
इराक सरकार
इराक की सरकार एक संसदीय लोकतंत्र मानी जाती है जिसमें एक कार्यकारी शाखा होता है जिसमें देश प्रमुख (राष्ट्रपति) और सरकार का प्रधान (प्रधान मंत्री) शामिल होता है।
इराक का अर्थव्यवस्था भूगोल
इराक की अर्थव्यवस्था वर्तमान में आतंकवाद के कारण पिछड़ती जा रही है जो उसके तेल के भंडार के विकास पर निर्भर है। देश के मुख्य उद्योग आज पेट्रोलियम, रसायन, वस्त्र, चमड़े, निर्माण सामग्री, खाद्य प्रसंस्करण, उर्वरक और धातु के निर्माण और प्रसंस्करण हैं। कृषि भी इराक की अर्थव्यवस्था में एक भूमिका निभाता है और उस उद्योग के प्रमुख उत्पाद हैं गेहूं, जौ, चावल, सब्जियां, खजूर, कपास, पशु, भेड़ और मुर्गी पालन है।
जलवायु भूगोल
ईराक मध्य पूर्व में फारस की खाड़ी तथा ईरान और कुवैत के बीच स्थित है। इराक का 16 9, 250 वर्ग मील (438,317 वर्ग किमी) का क्षेत्रफल है। इराक की स्थलाकृति बदलती रहती है और इसमें दक्षिणी सीमाओं के साथ तुर्की और ईरान के साथ अपनी उत्तरी सीमाओं के साथ-साथ बड़े रेगिस्तानी इलाकों के साथ-साथ बीहड़ वाले पहाड़ी क्षेत्र भी हैं। दजला और फूरात नदी भी ईराक के केंद्र के माध्यम से चलती है और उत्तर-पश्चिम से दक्षिण-पूर्व तक बहती है।
इराक की जलवायु ज्यादातर रेगिस्तान पर है और जैसे ही हल्के सर्दियों और गर्मियों में अधिक गर्मी होती है।
देश के पहाड़ी क्षेत्रों में हालांकि बहुत ठंड और इराक में राजधानी और सबसे बड़े शहर बगदाद, जनवरी के औसत तापमान 39º फेरनहाइट (4º तापमान) और एक जुलाई औसत 111º फेरनहाइट (44º तापमान) का उच्च तापमान है
संसाधन और भूमि उपयोग
प्राकृतिक संसाधन: पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस, फॉस्फेट, सल्फर.[1]
भूमि उपयोग:
कृषि योग्य भूमि: 7.89%
स्थाई फसल: 0.53%
other: 91.58% (2012)
सिंचित भूमि: 35,250km2 or 13,610sqmi (2003)
कुल अक्षय जल संसाधन: 89.86km3 or 21.56cumi (2011)
शुध्द पानी (घरेलू/औद्योगिक/कृषि)::
कुल: 66km3/yr (7%/15%/79%)
प्रति व्यक्ति: 2,616 m3/yr (2000)
सन्दर्भ
श्रेणी:इराक़
श्रेणी:इराक का भूगोल
श्रेणी:देशानुसार भूगोल
श्रेणी:देशानुसार एशिया का भूगोल | ईराक का क्षेत्रफल कितना है? | 16 9, 250 वर्ग मील | 76 | hindi |
2f49ebecc | मोहनदास करमचंद गांधी की हत्या 30 जनवरी 1948 की शाम को नई दिल्ली स्थित बिड़ला भवन में गोली मारकर की गयी थी। वे रोज शाम को प्रार्थना किया करते थे। 30 जनवरी 1948 की शाम को जब वे संध्याकालीन प्रार्थना के लिए जा रहे थे तभी नाथूराम गोडसे नाम के व्यक्ति ने पहले उनके पैर छुए और फिर सामने से उन पर बैरेटा पिस्तौल से तीन गोलियाँ दाग दीं। उस समय गान्धी अपने अनुचरों से घिरे हुए थे।
इस मुकदमे में नाथूराम गोडसे सहित आठ लोगों को हत्या की साजिश में आरोपी बनाया गया था। इन आठ लोगों में से तीन आरोपियों शंकर किस्तैया, दिगम्बर बड़गे, वीर सावरकर, में से दिगम्बर बड़गे को सरकारी गवाह बनने के कारण बरी कर दिया गया। शंकर किस्तैया को उच्च न्यायालय में अपील करने पर माफ कर दिया गया। वीर सावरकर के खिलाफ़ कोई सबूत नहीं मिलने की वजह से अदालत ने जुर्म से मुक्त कर दिया। बाद में सावरकर के निधन पर भारत सरकार ने उनके सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया।
और अन्त में बचे पाँच अभियुक्तों में से तीन - गोपाल गोडसे, मदनलाल पाहवा और विष्णु रामकृष्ण करकरे को आजीवन कारावास हुआ तथा दो- नाथूराम गोडसे व नारायण आप्टे को फाँसी दे दी गयी।
हत्या के दिन
बिड़ला भवन में शाम पाँच बजे प्रार्थना होती थी लेकिन गान्धीजी सरदार पटेल के साथ मीटिंग में व्यस्त थे। तभी सवा पाँच बजे उन्हें याद आया कि प्रार्थना के लिए देर हो रही है। 30 जनवरी 1948 की शाम जब बापू आभा और मनु के कन्धों पर हाथ रखकर मंच की तरफ बढ़े कि उनके सामने नाथूराम गोडसे आ गया। उसने हाथ जोड़कर कहा - "नमस्ते बापू!" गान्धी के साथ चल रही मनु ने कहा - "भैया! सामने से हट जाओ, बापू को जाने दो। बापू को पहले ही देर हो चुकी है।" लेकिन गोडसे ने मनु को धक्का दे दिया और अपने हाथों में छुपा रखी छोटी बैरेटा पिस्टल से गान्धी के सीने पर एक के बाद एक तीन गोलियाँ दाग दीं। दो गोली बापू के शरीर से होती हुई निकल गयीं जबकि एक गोली उनके शरीर में ही फँसी रह गयी। 78 साल के महात्मा गान्धी की हत्या हो चुकी थी। बिड़ला हाउस में गान्धी के शरीर को ढँककर रखा गया था। लेकिन जब उनके सबसे छोटे बेटे देवदास गान्धी वहाँ पहुँचे तो उन्होंने बापू के शरीर से कपड़ा हटा दिया ताकि दुनिया शान्ति और अहिंसा के पुजारी के साथ हुई हिंसा को देख सके।[1]
न्यायालय में नाथूराम गोडसे द्वारा दिये गये बयान के अनुसार जिस पिस्तौल से गान्धी जी को निशाना बनाया गया वह उसने दिल्ली में एक शरणार्थी से खरीदी थी।[2]
षड्यन्त्रकारी
गान्धी की हत्या करने के मामले में मुख्य अभियुक्त नाथूराम गोडसे सहित कुल आठ व्यक्तियों को आरोपी बनाकर मुकदमा चलाया गया था। उन सबके नाम इस प्रकार हैं:
वीर सावरकर, सबूत नहीं मिलने की वजह से अदालत ने जुर्म से मुक्त
शंकर किस्तैया, उच्च न्यायालय ने अपील करने पर छोड़ने का निर्णय दिया।
दिगम्बर बड़गे, सरकारी गवाह बनने के कारण बरी
गोपाल गौड़से, आजीवन कारावास हुआ
मदनलाल पाहवा, आजीवन कारावास हुआ
विष्णु रामकृष्ण करकरेआजीवन कारावास हुआ
नारायण आप्टे,फाँसी दे दी गयी
नाथूराम विनायक गोडसे फाँसी दे दी गयी और
पिछले प्रयास
बिड़ला भवन में प्रार्थना सभा के दौरान गान्धी पर 10 दिन पहले भी हमला हुआ था। मदनलाल पाहवा नाम के एक पंजाबी शरणार्थी ने गान्धी को निशाना बनाकर बम फेंका था लेकिन उस वक्त गान्धी बाल-बाल बच गये। बम सामने की दीवार पर फटा जिससे दीवार टूट गयी। गान्धी ने कभी नहीं सोचा होगा कि कोई उन्हें जान से मारना चाहता है। गान्धी ने दिल्ली में अपना पहला आमरण अनशन शुरू किया था जिसमें साम्प्रदायिक हिंसा को तत्काल समाप्त करने और पाकिस्तान को 50 करोड़ रुपये का भुगतान करने के लिये कहा गया था। गान्धी जी को डर था कि पाकिस्तान में अस्थिरता और असुरक्षा से भारत के प्रति उनका गुस्सा और बढ़ जायेगा तथा सीमा पर हिंसा फैल जायेगी। गान्धी की जिद को देखते हुए सरकार ने इस रकम का भुगतान कर दिया लेकिन हिन्दू संगठनों को लगा कि गान्धी जी मुसलमानों को खुश करने के लिये चाल चल रहे हैं। बम ब्लास्ट की इस घटना को गान्धी के इस फैसले से जोड़कर देखा गया।[3] नाथूराम इससे पहले भी बापू के हत्या की तीन बार (मई 1934 और सितम्बर 1944 में) कोशिश कर चुका था, लेकिन असफल होने पर वह अपने दोस्त नारायण आप्टे के साथ वापस बम्बई चला गया। इन दोनों ने दत्तात्रय परचुरे और गंगाधर दंडवते के साथ मिलकर बैरेटा (Beretta) नामक पिस्टल खरीदी। असलहे के साथ ये दोनों 29 जनवरी 1948 को वापस दिल्ली पहुँचे और दिल्ली स्टेशन के रिटायरिंग रूम नम्बर 6 में ठहरे।[1]
सरदार पटेल से आखिरी मुलाकात
देश को आजाद हुए अभी महज पाँच महीने ही बीते थे कि मीडिया में पण्डित नेहरू और सरदार पटेल के बीच मतभेदों की खबर आने लगी थी। गान्धी ऐसी खबरें सामने आने से बेहद दुखी थे और वे इसका जवाब देना चाहते थे। वह तो यहाँ तक चाहते थे कि वे स्वयं सरदार पटेल को इस्तीफा देने को कह दें ताकि नेहरू ही सरकार का पूरा कामकाज देखें। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। उन्होंने 30 जनवरी 1948 को पटेल को बातचीत के लिये चार बजे शाम को बुलाया और प्रार्थना खत्म होने के बाद इस मसले पर बातचीत करने को कहा। लेकिन नियति को यह मंजूर नहीं था। पटेल अपनी बेटी मणिबेन के साथ तय समय पर गांन्धी के पास पहुँच गये थे। पटेल के साथ मीटिंग के बाद प्रार्थना के लिये जाते समय गान्धी गोडसे की गोलियों का शिकार हो गये।[3]
सुरक्षा
गान्धी कहा करते थे कि उनकी जिन्दगी ईश्वर के हाथ में है और यदि उन्हें मरना हुआ तो कोई बचा नहीं सकता है। उन्होंने एक बार कहा था-"जो आज़ादी के बजाय सुरक्षा चाहते हैं उन्हें जीने का कोई हक नहीं है।" हालांकि बिड़ला भवन के गेट पर एक पहरेदार जरूर रहता था। तत्कालीन गृह मन्त्री सरदार पटेल ने एहतियात के तौर पर बिड़ला हाउस पर एक हेड कांस्टेबल और चार कांस्टेबलों की तैनाती के आदेश दिये थे। गान्धी की प्रार्थना के वक्त बिड़ला भवन में सादे कपड़ों में पुलिस तैनात रहती थी जो हर संदिग्ध व्यक्ति पर नजर रखती थी। हालांकि पुलिस ने सोचा कि एहतियात के तौर पर यदि प्रार्थना सभा में हिस्सा लेने के लिए आने वाले लोगों की तलाशी लेकर उन्हें बिड़ला भवन के परिसर में घुसने की इजाजत दी जाये तो बेहतर रहेगा। लेकिन गान्धी जी को पुलिस का यह आइडिया पसन्द नहीं आया। पुलिस के डीआईजी लेवल के एक अफसर ने भी गान्धी से इस बारे में बात की और कहा कि उनकी जान को खतरा हो सकता है लेकिन गान्धी नहीं माने।
बापू की हत्या के बाद नन्दलाल मेहता द्वारा दर्ज़ एफआईआर के मुताबिक़ उनके मुख से निकला अन्तिम शब्द 'हे राम' था। लेकिन स्वतन्त्रता सेनानी और गान्धी के निजी सचिव के तौर पर काम कर चुके वी० कल्याणम् का दावा है कि यह बात सच नहीं है।[3] उस घटना के वक़्त गान्धी के ठीक पीछे खड़े कल्याणम् ने कहा कि गोली लगने के बाद गान्धी के मुँह से एक भी शब्द निकलने का सवाल ही नहीं था। हालांकि गान्धी अक्सर कहा जरूर करते थे कि जब वह मरेंगे तो उनके होठों पर राम का नाम ही होगा। यदि वह बीमार होते या बिस्तर पर पड़े होते तो उनके मुँह से जरूर 'राम' निकलता। गान्धी की हत्या की जाँच के लिये गठित आयोग ने उस दिन राष्ट्रपिता के सबसे करीब रहे लोगों से पूछताछ करने की जहमत भी नहीं उठायी। फिर भी यह दुनिया भर में मशहूर हो गया कि गान्धी के मुँह से निकले आखिरी शब्द 'हे राम' थे। लेकिन इसे कभी साबित नहीं किया जा सका।[3] इस बात की भी कोई जानकारी नहीं मिलती कि गोली लगने के बावजूद उन्हें अस्पताल ले जाने के बजाय बिरला हाउस में ही वापस क्यों ले जाया गया?[1]
यह भी माना जाता है कि महात्मा गान्धी के एक पारिवारिक मित्र ने उनकी अस्थियाँ लगभग 62 साल तक गोपनीय जगह पर रखीं जिसे 30 जनवरी 2010 को डरबन के समुद्र में प्रवाहित किया गया।[1]
अधूरी रह गयी आइंस्टीन की ख्वाहिश
दुनिया को परमाणु क्षमता से रू-ब-रू कराने के बाद इसकी विध्वंसक शक्ति के दुरुपयोग की आशंका से परेशान अल्बर्ट आइंस्टीन अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी से मिलने को बेताब थे। परन्तु उनकी यह इच्छा पूरी नहीं हो सकी। अल्बानो मुलर के संकलन के अनुसार 1931 में बापू को लिखे एक पत्र में आइंस्टीन ने उनसे मिलने की इच्छा जताई थी। आइंस्टीन ने पत्र में लिखा था-"आपने अपने काम से यह साबित कर दिया है कि ऐसे लोगों के साथ भी अहिंसा के जरिये जीत हासिल की जा सकती है जो हिंसा के मार्ग को खारिज नहीं करते। मैं उम्मीद करता हूँ कि आपका उदाहरण देश की सीमाओं में बँधा नहीं रहेगा बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित होगा। मैं उम्मीद करता हूँ कि एक दिन मैं आपसे मुलाकात कर पाऊँगा।"[3]
आइंस्टीन ने बापू के बारे में लिखा है कि महात्मा गान्धी की उपलब्धियाँ राजनीतिक इतिहास में अद्भुत हैं। उन्होंने देश को दासता से मुक्त कराने के लिये संघर्ष का ऐसा नया मार्ग चुना जो मानवीय और अनोखा है। यह एक ऐसा मार्ग है जो पूरी दुनिया के सभ्य समाज को मानवता के बारे में सोचने को मजबूर करता है। उन्होंने लिखा कि हमें इस बात पर प्रसन्न होना चाहिये कि तकदीर ने हमें अपने समय में एक ऐसा व्यक्ति तोहफे में दिया जो आने वाली पीढ़ियों के लिये पथ प्रदर्शक बनेगा।[3]
कांग्रेस
कांग्रेस गान्धी को अपना आदर्श बताते नहीं थकती जबकि उसी पार्टी के लोग गान्धी के जीते जी उनका निरादर किया करते थे। बिहार के तत्कालीन गवर्नर मॉरिस हैलेट के एक नोट से यह बात साफ हो जाती है।[3]
"अगर मुझे किसी पागल आदमी की गोली से भी मरना हो तो मुझे मुस्कराते हुए मरना चाहिये। मेरे दिलो-जुबान पर सिर्फ़ भगवान का ही नाम होना चाहिये। और अगर ऐसा कुछ होता है तो तुम लोगों को आँसू का एक कतरा भी नहीं बहाना।" (अंग्रेजी: If I’m to die by the bullet of a mad man, I must do so smiling. God must be in my heart and on my lips. And if anything happens, you are not to shed a single tear.)—मोहनदास करमचन्द गान्धी 28 जनवरी 1948
पत्र
अपने सम्पूर्ण जीवनकाल में महात्मा गान्धी ने करीब 35 हजार पत्र लिखे। इन पत्रों में बापू अपने सहयोगियों, शिष्यों, मित्रों, सम्बन्धियों आदि को उनके छद्म नाम से सम्बोधित करते थे। मसलन, सरोजिनी नायडू को बापू "माई डियर पीसमेकर!", "सिंगर एंड गार्डियन ऑफ माई सोल!", "माई डियर फ्लाई!" आदि से सम्बोधित करते थे, जबकि राजकुमारी अमृत कौर को "माई डियर रेबल!" कहते थे। लियो टॉल्सटाय को बापू सर और एडोल्फ हिटलर व एल्बर्ट आइंस्टीन को "माई डियर फेंड!" कहते थे।[3]
कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गान्धी वॉल्यूम-54 के अनुसार महात्मा गान्धी ने आइंस्टीन के पत्र का जवाब 18 अक्टूबर 1931 को दिया था। जवाब में उन्होंने लिखा - "सुन्दरम् (गान्धी जी के दोस्त) के माध्यम से मुझे आपका सुन्दर पत्र मिला। मुझे इस बात की सन्तुष्टि मिली कि जो काम मैं कर रहा हूँ वह आपकी दृष्टि में सही है। मैं उम्मीद करता हूँ कि भारत में मेरे आश्रम में आपसे मेरी आमने सामने मुलाकात होगी।"[3]
नेहरू व पटेल भी दोषी
क्या यह दायित्व जवाहर लाल नेहरू जो देश के प्रधान मन्त्री थे, अथवा सरदार पटेल, जो गृह मन्त्री थे उनका नहीं था? आखिर 20 जनवरी 1948 को पाहवा द्वारा गान्धीजी की प्रार्थना-सभा में बम-विस्फोट के ठीक 10 दिन बाद उसी प्रार्थना सभा में उसी समूह के एक सदस्य नाथूराम गोडसे ने गान्धी के सीने में 3 गोलियाँ उतार कर उन्हें सदा सदा के लिये समाप्त कर दिया। हत्यारिन राजनीति[4] शीर्षक से लिखित एक कविता में यह सवाल ("साजिश का पहले-पहल शिकार सुभाष हुए, जिनको विमान-दुर्घटना में था मरवाया; फिर मत-विभेद के कारण गान्धी का शरीर, गोलियाँ दागकर किसने छलनी करवाया?") बहुत पहले इन्दिरा गान्धी की मृत्यु के पश्चात् सन् 1984[5][6] में ही उठाया गया था जो आज तक अनुत्तरित है।
मुकदमे का फैसला
इस मुकदमे में शंकर किस्तैया, गोपाल गौड़से, मदनलाल पाहवा, दिगम्बर बड़गे, नारायण आप्टे, वीर सावरकर, नाथूराम गोडसे और विष्णु रामकृष्ण करकरे कुल आठ लोगों को हत्या की साजिश में आरोपी बनाया गया था। इन आठ लोगों में से दिगम्बर बड़गे सरकारी गवाह बनने के कारण बरी कर दिया गया। वीर सावरकर के खिलाफ़ कोई सबूत नहीं जुटाया जा सका अत: उन्हें भी अदालत ने जुर्म से मुक्त कर दिया। शंकर किश्तैया को निचली अदालत से आजीवन कारावास का हुक्म हुआ था परन्तु बड़ी अदालत ने अपील करने पर उसकी सजा माफ कर दी।
और अन्त में बचे पाँच अभियुक्तों में से गोपाल गौड़से, मदनलाल पाहवा और विष्णु रामकृष्ण करकरे को आजीवन कारावास तथा नाथूराम गोडसे व नारायण आप्टे को फाँसी की सजा दी गयी।
बाहरी कड़ियाँ
- एफआईआर उर्दू में
- अंग्रेजी में (किरन बेदी)
- महात्मा की हत्या का प्रयास
- एक समाचार (द हिन्दू)
- हिन्दी विकीस्रोत पर
- हिन्दी में वेबदुनिया
इन्हें भी देखें
मदनलाल पाहवा
सन्दर्भ
Coordinates:
श्रेणी:1948 में हत्याएं
श्रेणी:1948 में भारत
श्रेणी:स्वतंत्र भारत
मोहनदास करमचंद गांधी की हत्या | मोहनदास करमचन्द गांधी की हत्या किसने की थी? | नाथूराम गोडसे | 218 | hindi |
a8a828665 | स्त्रीरोगविज्ञान (Gynaccology), चिकित्साविज्ञान की वह शाखा है जो केवल स्त्रियों से संबंधित विशेष रोगों, अर्थात् उनके विशेष रचना अंगों से संबंधित रोगों एवं उनकी चिकित्सा विषय का समावेश करती है। स्त्री-रोग विज्ञान, एक महिला की प्रजनन प्रणाली (गर्भाशय, योनि और अंडाशय) के स्वास्थ्य हेतु अर्जित की गयी शल्यक (सर्जिकल) विशेषज्ञता को संदर्भित करता है। मूलतः यह 'महिलाओं की विज्ञान' का है। आजकल लगभग सभी आधुनिक स्त्री-रोग विशेषज्ञ, प्रसूति विशेषज्ञ भी होते हैं।
परिचय
स्त्री के प्रजननांगों को दो वर्ग में विभाजित किया जा सकता है (1) बाह्य और (2) आंतरिक। बाह्य प्रजननांगों में भग (Vulva) तथा योनि (Vagina) का अंतर्भाव होता है।
प्रजननांगों में से अधिकतम की अभिवृद्धि म्यूलरी वाहिनी (Mullerian duct) से होती है। म्यूलरी वाहिनी भ्रूण की उदर गुहा एवं श्रोणिगुहाभित्ति के पश्चपार्श्वीय भाग में ऊपर से नीचे की ओर गुजरती है तथा इनमें मध्यवर्ती, वुल्फियन पिंड एवं नलिकाएँ होती हैं, जिनके युवास्त्री में अवशेष मिलते हैं।
वुल्फियन नलिकाओं से अंदर की ओर दो उपकला ऊतकों से निर्मित रेखाएँ प्रकट होती हैं यही प्राथमिक जनन रेखा है जिससे भविष्य में डिंबग्रंथियों का निर्माण होता है।jnm
प्रजननांग संस्थान का शरीरक्रियाविज्ञान
एक स्त्री की प्रजनन आयु अर्थात् यौवनागमन से रजोनिवृत्ति तक, लगभग 30 वर्ष होती है। इस संस्थान की क्रियाओं का अध्ययन करने में हमें विशेषत: दो प्रक्रियाओं पर विशेष ध्यान देना होता है:
(क) बीजोत्पत्ति तथा (ख) मासिक रज:स्रवण।
बीजोत्पत्ति का अधिक संबंध बीजग्रंथियों से है तथा रज:स्रवण का अधिक संबंध गर्भाशय से है परंतु दोनों कार्य एक दूसरे से संबंद्ध तथा एक दूसरे पर पूर्ण निर्भर करते हैं। बीजग्रंथि (डिंबग्रंथि) का मुख्य कार्य है, ऐसे बीज की उत्पत्ति करना है जो पूर्ण कार्यक्षम तथा गर्भाधान योग्य हों। बीजग्रंथि स्त्री के मानसिक और शारीरिक अभिवृधि के लिए पूर्णतया उत्तरदायी होती है तथा गर्भाशय एवं अन्य जननांगों की प्राकृतिक वृद्धि एवं कार्यक्षमता के लिए भी उत्तरदायी होती है।
बीजोत्पत्ति का पूरा प्रक्रम शरीर की कई हारमोन ग्रंथियों से नियंत्रित रहता है तथा उनके हारमोन (Harmone) प्रकृति एवं क्रिया पर निर्भर करते हैं। अग्रयीयूष ग्रंथि को नियंत्रक कहा जाता है।
गर्भाशय से प्रति 28 दिन पर होनेवाले श्लेष्मा एवं रक्तस्राव को मासिक रज:स्राव कहते हैं। यह रज:स्राव यौवनागमन से रजोनिवृत्ति तक प्रति मास होता है। केवल गर्भावस्था में नहीं होता है तथा प्राय: घात्री अवस्था में भी नहीं होता है। प्रथम रज:स्राव को रजोदय अथवा (menarche) कहते हैं तथा इसके होने पर यह माना जाता है कि अब कन्या गर्भधारण योग्य हो गई है तथा यह प्राय: यौवनागमन के समय अर्थात् 13 से 15 वर्ष के वय में होता है। पैंतालीस से पचास वर्ष के वय में रज:स्राव एकाएक अथवा धीरे-धीरे बंद हो जाता है। इसे ही रजोनिवृत्ति कहते हैं। ये दोनों समय स्त्री के जीवन के परिवर्तनकाल हैं।
प्राकृतिक रज:चक्र प्राय: 28 दिन का होता है तथा रज:दर्शन के प्रथम दिन से गिना जाता है। यह एक रज:स्राव काल से दूसरे रज:स्राव काल तक का समय है। रज:चक्र के काल में गर्भाशय अंत:कला में जो परिवर्तन होते हैं उन्हें चार अवस्थाओं में विभाजित कर सकते हैं (1) वृद्धिकाल, (2) गर्भाधान पूर्वकाल, (3) रज: स्रावकाल तथा (4) पुनर्निर्माणकाल
(1) वृद्धिकाल: रज:स्राव के समाप्त होने पर गर्भाशय कला के पुन: निर्मित हो जाने पर यह गर्भाशयकला वृद्धिकाल प्रारंभ होता है तथा अंडोत्सर्ग (ovulation) तक रहता है। अंडोत्सर्ग (जीवग्रथि से अंडोत्सर्ग) मासिक रज:स्राव के प्रारंभ होने के पंद्रहवें दिन होती है। इस काल में गर्भाशय अंत:कला धीरे धीरे मोटी होती जाती है तथा डिंबग्रंथि में डिंबनिर्माण प्रारंभ हो जाता है। डिंबग्रंथि के अंत:स्राव ओस्ट्रोजेन की मात्रा बढ़ती है क्योंकि ग्रेफियन फालिकल वृद्धि करता है। गर्भाशय अंत:कला ओस्ट्रोजेन के प्रभाव में इस काल में 4-5 मिमी तक मोटी हो जाती है।
(2) गर्भाधान पूर्वकाल: इस अवस्था के पश्चात् स्राविक या गर्भाधान पूर्वकाल प्रारंभ होता है तथा 15 दिन तक रहता है अर्थात् रज:स्राव प्रारंभ होने तक रहता है। रज:स्राव के पंद्रहवें दिन डिंबग्रंथि से अंडोत्सर्ग (ovulation) होने पर पीत पिंड (Corpus Luteum) बनता है तथा इसके द्वारा मिर्मित स्रावों (प्रोजेस्ट्रान) तथा ओस्ट्रोजेन के प्रभाव के अंतर्गत गर्भाशय अंत:कला में परिवर्तन होते रहते हैं। यह गर्भाशय अंत:कला अंततोगत्वा पतनिका (decidua) में परिवर्तित होती है जो कि गर्भावस्था की अंत:कला कही जाती है। ये परिवर्तन इस रज:चक्र के 28 दिन तक पूरे हो जाते हैं तथा रज:स्राव होने से पूर्व मर्भाशय अंत:कला की मोटाई 6.7 मिमी होती है।
(3) रज: स्रावकाल: रज:स्रावकाल 4-5 दिन का होता है। इसमें गर्भाशय अंत:कला की बाहरी सतह टूटती है और रक्त एवं श्लेष्मा का स्राव होता है। जब रज:स्रावपूर्व होनेवाले परिवर्तन पूरे हो चुकते हैं तब गर्भाशय अंत:कला का अपजनन प्रारंभ होता है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि इस अंत:कला का बाह्य स्तर तथा मध्य स्तर ही इन अंत:स्रावों से प्रभावित होते हैं तथा गहन स्तर या अंत:स्तर अप्राभावित रहते हैं। इस तरह से रज:स्राव में रक्त, श्लेष्मा इपीथीलियम कोशिकाएँ तथा स्ट्रोमा (stroma) केशिकाएँ रहती हैं। यह रक्त जमता नहीं है। रक्त की मात्रा 4 से 8 औंस तक प्राकृतिक मानी जाती है।
(4) पुनर्निर्माणकाल: पुन: जनन या निर्माण का कार्य तब प्रारंभ होता है जब रज:स्रवण की प्रक्रिया द्वारा गर्भाशय अंत:कला का अप्रजनन होकर उसकी मोटाई घट जाती है। पुन: जनन अंत:कला के गंभीर स्तर से प्रारंभ होता है तथा अंत:कला वृद्धिकाल के समान दिखाई देता है।
रज:स्राव के विकार
(१) अडिंभी (anouhlar) रज:स्राव - इस विकार में स्वाभाविक रज:स्राव होता रहता है, परंतु स्त्री बंध्या होती है।
(२) रुद्धार्तव (Amehoryboea) स्त्री के प्रजननकाल अर्थात् यौवनागमन (Puberty) से रजोनिवृत्ति तक के समय में रज:स्राव का अभाव होने को रुद्धार्तव कहते हैं। यह प्राथमिक एवं द्वितीयक दो प्रकार का होता है। प्राथमिक रुद्धार्तव में प्रारंभ से ही रुद्धार्तव रहता है जैसे गर्भाशय की अनुपस्थिति में होता है। द्वितीयक में एक बार रज:स्राव होने के पश्चात् किसी विकार के कारण बंद होता है। इसका वर्गीकरण प्राकृतिक एवं वैकारिक भी किया जाता है। गर्भिणी, प्रसूता, स्तन्यकाल तथा यौवनागमन के पूर्व तथा रजो:निवृत्ति के पश्चात् पाया जानेवाला रुद्धार्तव प्राकृतिक होता है। गर्भधारण का सर्वप्रथम लक्षण रुद्धार्तव है।
(३) हीनार्तव (Hypomenorrhoea) तथा स्वल्पार्तव (oligomenorrhoea) - हीनार्तव में मासिक (menstrual cycle) रज:चक्र का समय बढ़ जाता है तथा अनियमित हो जाता है। स्वल्पार्तव में रज:स्राव का काल तथा उसकी मात्रा कम हो जाती है।
(४) ऋतुकालीन अत्यार्तव - (Menorrhagia) रज:स्राव के काल में अत्यधिक मात्रा में रज:स्राव होना।
(५) अऋतुकाली अत्यार्तव (Metrorrhagia) दो रज:स्रावकाल के बीच बीच में रक्त:स्राव का होना।
(६) कष्टार्तव - (Dysmenorrhoea) इसमें अतिस्राव के साथ वेदना बहुत होती है।
(७) श्वेत प्रदर (Leucorrhoea) - योनि से श्वेत या पीत श्वेत स्राव के आने को कहते हैं। इसमें रक्त या पूय या पूय नहीं होना चाहिए।
(८) बहुलार्तव (Polymenorrhoea) - इसमें रज:चक्र 28 दिन की जगह कम समय में होता है जैसे 21 दिन का अर्थात् स्त्री को रज:स्राव शीघ्र शीघ्र होने लगता है। अंडोत्सर्ग (ovulation) भी शीघ्र होने लगता है।
(९) वैकारिक आर्तव (Metropathia Haemorrhagica) - यह एक अनियमित, अत्यधिक रज:स्राव की स्थिति होती है।
(१०) कानीय रजोदर्शन - निश्चित वय या काल से पूर्व ही रजस्राव के होने को कहते हैं तथा इसी प्रकार के यौवनागमन को कानीय यौवनागमन कहते हैं।
(११) अप्राकृतिक आर्तव क्षय - निश्चित वय या काल से बहुत पूर्व तथा आर्तव विकार के साथ आर्तव क्षय को कहते हैं। प्राकृतिक क्षय चक्र की अवधि बढ़कर या मात्रा कम होकर धीरे धीरे होता है।
प्रजननांगों के सहज विकार
(1) बीजग्रंथियाँ - ग्रंथियों की रुद्ध वृद्धि (Hypoplasea) पूर्ण अभाव आदि विकार बहुत कम उपलब्ध होते हैं। कभी-कभी अंडग्रंथि तथा बीजग्रंथि सम्मिलित उपस्थित रहती है तथा उसे अंडवृषण (ovotesties) कहते हैं।
(2) बीजवाहिनियाँ - इनका पूर्ण अभाव, आंशिक वृद्धि, तथा इनका अंधवर्ध (diverticulum) आदि विकार पाए जाते हैं।
(3) गर्भाशय - इस अंग का पूर्ण अभाव कदाचित् ही होता है
गर्भाशय में दो शृंग, एवं दो ग्रीवा होती है तथा दो योनि होती हैं अर्थात् दोनों म्यूलरी वाहिनी परस्पर विगल-विगल रहकर वृद्धि करती है। इसे डाइडेलफिस (didelphys) गर्भाशय कहते हैं।
इस तरह वह अवस्था जिसमें म्यूलरी वाहिनियाँ परस्पर विलग रहती हैं परंतु ग्रीवा योनिसंधि पर संयोजक ऊतक द्वारा संयुक्त होती है उसे कूट डाइडेल फिस कहते हैं।
कभी गर्भाशय में दो शृंग होते हैं जो एक गर्भाशय ग्रीवा में खुलते हैं।
कभी गर्भाशय स्वाभाविक दिखाई देता है परंतु उसकी तथा ग्रीवा की गुहा, पट द्वारा विभाजित रहती है। यह पट पूर्ण तथा अपूर्ण हो सकता है।
कभी कभी छोटी छोटी अस्वाभाविकताएँ गर्भाशय में पाई जाती हैं जैसे शृंग का एक ओर झुकना, गर्भाशय का पिचका होना आदि।
शैशविक आकार आयतन का गर्भाशय युवावस्था में पाया जाता है क्योंकि जन्म के समय से ही उसकी वृद्धि रुक जाती है।
अल्पविकसित गर्भाशय में गर्भाशय शरीर छोटा तथा ग्रेवेय ग्रीवा लंबी होती है।
(4) गर्भाशय ग्रीवा - (क) ग्रीवा के बाह्य एवं अंत:मुख का बंद होना। (ख) योनिगत ग्रीवा का सहज अतिलंब होना एवं भग तक पहुँचना।
(5) योनि - योनि कदाचित् ही पूर्ण लुप्त होती है। योनिछिद्र का लोप पूर्ण अथवा अपूर्ण, पट द्वारा योनि का लंबाई में विभाजन आदि प्राय: मिलते हैं।
(6) इसमें अत्यधिक पाए जानेवाले सहज विकारों में योनिच्छद का पूर्ण अछिद्रित होना या चलनी रूप छिद्रित होना होता है।
जननांगों के आघातज विकार एवं अगविस्थापन
(1) मूलाधार (Perineaum) तथा भग के विकार - साधारणतया प्रसव में इनमें विदर हो जाती है तथा कभी कभी प्रथम संयोग से, आघात से तथा कंडु से भी विदरव्रण बन जाते हैं।
(2) योनि के विकार - गिरने से, प्रथम संभोग से, प्रसव से, यंत्रप्रवेश से, पेसेरी से तथा योनिभित्तिसर्स से ये आघातज विकार होते हैं। इसी तरह प्रसव से योनि गुदा तथा मूत्राशय योनि भगंदर उत्पन्न होते हैं।
(3) गर्भाशय ग्रीवा विकार - ग्रीवाविदर प्राय: प्रसव से उत्पन्न होता है।
(4) गर्भाशय एवं सह अंगों के विकार - प्राय: ये विकार कम होते हैं। गर्भाशय में छिद्र शल्यकर्म अथवा गर्भपात में यंत्रप्रयोग से होता है।
(5) गर्भाशय का विस्थापन (displacement)
गर्भाशय का अति अग्रनमन (anteversion) होना अथवा पश्चनति (Retroversion) होना।
योनि के अक्ष से गर्भाशय अक्ष के संबंध का विकृत होना अर्थात् दोनों अक्षों का एक रेखा में होना अथवा प्रत्यग्वक्र (Retroflexion) होना।
श्रोणिगुहा में गर्भाशय की स्थिति की जो प्राकृत सतह है उससे ऊपर या नीचे स्थित होना या भ्रंश (Prolapse) होना।
गर्भाशय भित्तियों का उसकी गुहा में लटकना या विपर्यय (Inversion) होना।
प्रजननांगों के उपसर्ग (Infections)
प्रजनांगों में कवक (fungal), जीवाणु (bacterial), विषाणु (viral) या प्रोटोजोवा (protozoal) के कारण इन्फेक्शन हो सकता है।
भग के उपसर्ग
(1) भग के विशिष्ट उपसर्ग - तीव्र भगशोथ, बार्थोलियन ग्रंथिशोथ गोनॉरिया में होते हैं। डुक्रे के जीवाणुओं द्वारा भग में मृदुव्रण उत्पन्न होता है। इसी प्रकार के यक्ष्मा एवं फिरंगज व्रण भी भग पर पाए जाते हैं।
(2) द्वैतीयिक भगशोथ - मधुमेह, पूयमेह, मूत्रस्राव कृमि एवं अर्श आदि में व्रण उत्पन्न होते हैं जिनसे यह शोथ होता है।
(3) प्राथमिक त्वक्विकार - पिडिकाएँ, हरपिस आदि त्वक्विकार भगत्वक् में भी होता है।
(4) विशिष्ट प्रकार के भगशोथ -
भग परिगलन (gangrene) यह मीसल्स, प्रसूतिज्वर अथवा रतिजन्य रोगों में होता है।
केचेट का लक्षण - यह मासिक स्रव पूर्व दिनों में होता है। इसमें मुखपाक, नेत्र-श्लेष्मा-शोथ सहलक्षण रूप में होता है।
अप्थस भगशोथ (apthous) इसमें भग का थ्रस (Thrush) रूपी उपसर्ग होता है।
दूरी सेपलास भग - रक्त लाई स्ट्रेप्टोकोकस के उपसर्ग से भगशोथ होता है।
भग योनिशोथ (बालिकाओं में) - यह स्वच्छता के अभाव में अस्वच्छ तौलियों के प्रयोग से होनेवाले गोनोकोकस उपसर्ग से तथा मैथुनप्रयत्न से होता है।
(5) भग के चिरकालिक विशेष रोग -
भग का ल्युकोप्लेकिआ (leucoplakia) - भग त्वचा का यह एक विशेष शोथ रजोनिवृत्ति के पश्चात् हो सकता है।
क्राराउसिस (krarausis) भग - बीजग्रंथियों की अकर्मण्यता होने पर यह भगशोष उत्पन्न होता है।
योनि के उपसर्ग
यों तो कोई भी जीवाणु या वाइरस का उपसर्ग योनि में हो सकता है तथा योनिशोथ पैदा हो सकता है परंतु बीकोलाई, डिप्थेराइड, स्टेफिलोकोकस, स्ट्रप्टोकोकस, ट्रिकनामस मोनिला (श्वेत) का उपसर्ग अधिकतर होता है।
(1) बालयोनिशोथ - इसमें उपसर्ग के साथ साथ अंत:स्राविक कारक भी सहयोगी होता है।
(2) द्वितीयक योनिशोथ - पेसेरी के आघात, तीव्र पूतिरोधक द्रव्यों से योनिप्रक्षालन, गर्भनिरोधक रसायन, गर्भाशय ग्रीवा से चिरकालिक औपसर्गिक स्राव आदि के पश्चात् होनेवाले योनिशोथ।
(3) प्रसवपश्चात् योनिशोथ - कठिन प्रसवजन्य विदार इत्यादि तथा आस्ट्रोजेन के प्रभाव को कुछ समय के लिए हटा लेने से बीजोत्सर्ग न होने से होता है।
(4) वृद्धत्वजन्य योनिशोथ - यह केवल वृद्धयोनि का शोथ है।
गर्भाशय के उपसर्ग
यह ऊर्ध्वगामी तथा अध:गामी दोनों प्रकार का होता है। प्रसव, गर्भपात, गोनोरिया, गर्भाशयभ्रंश, यक्ष्मा, अर्बुद, ग्रीवा का विस्फोट आदि के पश्चात् प्राय: उपद्रव रूप उपसर्ग होता है।
गर्भाशयशोथ - आधारीय स्तर में चिरकालिक शोथ से परिवर्तन होते हैं परंतु प्राय: इनके साथ गर्भाशय पेशी में भी ये चिरकालिक शोथपरिवर्तन होते हैं। यह शोथ तीव्र, अनुतीव्र चिरकालिक वर्ग में तथा यक्ष्मज और वृद्धताजन्य में विभाजित होता है।
बीजवाहिनियों तथा बीजग्रंथियों के उपसर्ग
बीजवाहिनी बीजग्रंथि शोथ - इसके अंतर्गत बीजवाहिनी बीजग्रंथि तथा श्रोणिकला के जीवाणुओं द्वारा होनेवाले उपसर्ग आते हैं। यह उपसर्ग प्राय: नीचे योनि से ऊपर जाता है परंतु यक्ष्मज बीजवाहिनी शोथ प्राय: श्रोणिकला से प्रारंभ होता है अथवा रक्त द्वारा लाया जाता है।
प्रजनन अंगों के अर्बुद (tumours)
इसके अंतर्गत नियोप्लास्म (neoplasm) के अलावा अन्य अर्बुद भी वर्णित किए जाते हैं।
भगयोनि के अर्बुद
(क) भग के अर्बुद -
(अ) भगशिश्न की अतिपुष्टि - यह प्राय: सहज होती है। हस्तमैथुन, बीजग्रंथि अर्बुद, चिरकालिक उपसर्ग तथा अधिवृक्क ग्रंथि के रोगों में यह रोग उपद्रव स्वरूप होता है।
(आ) लघु भगोष्ठ की अतिपुष्टि - यह प्राय: सहज होती है परंतु चिरकालिक उत्तेजनाओं से भी होती है।
(इ) पुटियुक्त शोथ (cystic swelling) - इसके अंतर्गत (1) बार्थोलियन पुटी, (2) नक (nuck) नलिका हाइड्रोपील, (3) इंडोमेट्रियोमाटा तथा (4) भगोष्ठों के एवं भगशिश्निका के सिस् आते हैं।
(ई) रक्तवाहिकामय शोथ - भग की शिराओं का फूलना तथा भग में रक्तसंग्रह (haematoma) आदि साधारणतया मिलता है।
(उ) वास्तविक अर्बुद -
(1) अघातक -
फ्राइब्रोमाटा (छोटा, कड़ा तथा पीड़ारहित)
पेपिलोमाटा (प्राय: अकेला वटि के समान होता है)
लापोमाटा (अध:त्वक् में प्रारंभ होता है।)
हाइड्रेडिनोमा (स्वेदग्रंथि का अर्बुद)
(2) घातक -
करसिनोमा भग,
एडिनो कारसिनोमा (बार्थोलियन ग्रंथि से प्रारंभ होता है)।
(3) विशिष्ट -
वेसल कोशिका कार्सिनोमा (रोडांडवृण)
इपीथीलियल अंत:कारसिनोमा
बी एन का रोग
घातक मेलिनोमा
पेगेट का रोग
सारकोमा
द्वितीयक कोरियन इपिथोलियमा
(ख) योनि के अर्बुद -
(अ) गार्टनर नलिका का सिस्ट
(आ) इनक्लूजन सिस्ट (शल्यकर्म के द्वारा इपीथीलियम को अंत:प्रविष्ट करने से बनता है)।
(इ) वास्तविक अर्बुद -
अघातक -
(क) पाइब्रोमा (गोल, कठिन, चल)
(ख) पेपिलोमाटा
घातक -
(क) कार्सिनोमा (प्राथमिक, द्वितीयक)
(ख) सारकोमा
गर्भाशय के अर्बुद
गर्भाशय के अघतक अर्बुद पेशी से या अंत:कला से उत्पन्न होते हैं अथवा गर्भाशय तंतु पेशी से उत्पन्न होते हैं।
(अ) फाइब्रोमायोमाटा - ये अचल, धीरे-धीरे बढ़नेवाले तथा गर्भाशय पेशी में स्थित आवरण से युक्त होते हैं। ये गर्भाशयशरीर में प्राय: होते हैं, कभी कभी अर्बुद गर्भाशयग्रीवा में भी पाए जाते हैं। गर्भाशय में तीन प्रकार के होते हैं-
(क) पेरीटोनियम के नीचे (ख) पेशी के अंतर्गत और (ग) अंत:कला के नीचे।
(आ) गर्भाशय पालिपस - ये अधिकतर पाए जाते हैं। ग्रीवा एवं शरीर दोनों में होते हैं।
शरीर में: एडिनोमेटस, फाइब्राइड, अपरा के कार्सिनोमा एवं सार्कोनाम। ग्रीवा में-अत:कला के फाइब्राइड, कार्सिनोमा, सार्कोमा, गर्भाशय के घातक अर्बुद, इपीथीलियल कोशिकाओं से उत्पन्न होते हैं। अत: कार्सिनोमा तथा सारकोमा से अधिक पाए जाते हैं।
बीजग्रंथि के अर्बुद
इनमें होनेवाली पुटि (सिस्ट) तथा अर्बुद का वर्गीकरण करना कठिन होता है क्योंकि उन कोशिकाओं का जिनसे ये उत्पन्न होते हैं विनिश्चय करना कठिन होता है।
(अ) फालिक्यूलर सिस्टम के सिस्ट - फालिक्यूलर सिस्ट, पीतपिंड सिस्ट, थीकाल्यूटीन सिस्ट।
(आ) इपीथीलयम अर्बुद
घातक
साधारण सीरस
पेपेलरी सिरस सिस्ट एडिनोमा
कूट म्यूसीन सिस्ट एडिनोमा
गर्भाशयिक विस्तृत स्नायु बीजग्रंथि सिस्ट
अघातक
कार्सिनोमा प्राथमिक
कार्सिनोमा द्वितीयक
अन्य रोगवर्ग
(1) इंडोमेट्रोसिस (endometrosis) इस विकार का मुख्य कारण यह है कि इंडोमेट्रियल ऊतक अपने स्थान के अलावा अन्य स्थानों पर उपस्थित है।
(2) इनके अतिरिक्त अन्य रोग जैसे वंध्यत्व, कष्ट मैथुन, नपुंसकता, यौनापकर्ष आदि नाना रोगों का वर्णन तथा चिकित्सा का वर्णन इस शास्त्र में करते हैं।
स्त्री-रोग विशेषज्ञ
स्त्री-रोग की चिकित्सा करने वाले चिकित्सक को स्त्री-रोग विशेषज्ञ कहते हैं। भारत में स्त्री-रोग विशेषज्ञ बनने के लिए स्त्री-रोग विषय में एम.डी. की डिग्री लेना अनिवार्य है।
बाहरी कड़ियाँ
श्रेणी:चिकित्सा पद्धति
श्रेणी:चिकित्सा विज्ञान | महिला प्रजनन प्रणाली के डॉक्टर को क्या कहा जाता है? | स्त्री-रोग विशेषज्ञ | 404 | hindi |
905169af4 | सीता रामायण और रामकथा पर आधारित अन्य रामायण ग्रंथ, जैसे रामचरितमानस, की मुख्य पात्र है। सीता मिथिला के राजा जनक की ज्येष्ठ पुत्री थी। इनका विवाह अयोध्या के राजा दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र राम से स्वयंवर में शिवधनुष को भंग करने के उपरांत हुआ था। इनकी स्त्री व पतिव्रता धर्म के कारण इनका नाम आदर से लिया जाता है। त्रेतायुग में इन्हे सौभाग्य की देवी लक्ष्मी का अवतार मानते हैं।[1]
जन्म व नाम
रामायण के अनुसार मिथिला के राजा जनक का खेतों में हल जोतते समय एक पेटी से अटका। इन्हें उस पेटी में पाया था। हल को मैथिली भाषामे 'सीत' कहने के कारण इनका नाम सीता पडा। राजा जनक और रानी सुनयना ने इनका परवरिश किया। उर्मिला उनकी छोटी बहन थीं ।
राजा जनक की पुत्री होने के कारण इन्हे जानकी, जनकात्मजा अथवा जनकसुता भी कहते थे। मिथिला की राजकुमारी होने के कारण यें मैथिली नाम से भी प्रसिद्ध है। भूमि में पाये जाने के कारण इन्हे भूमिपुत्री या भूसुता भी कहा जाता है।
विवाह
ऋषि विश्वामित्र का यज्ञ राम व लक्ष्मण की रक्षा में सफलतापूर्वक संपन्न हुआ। इसके उपरांत महाराज जनक ने सीता स्वयंवर की घोषणा किया और ऋषि विश्वामित्र की उपस्थिति हेतु निमंत्रण भेजा। आश्रम में राम व लक्ष्मण उपस्थित के कारण वे उन्हें भी मिथिपलपुरी साथ ले गये। महाराज जनक ने उपस्थित ऋषिमुनियों के आशिर्वाद से स्वयंवर के लिये शिवधनुष उठाने के नियम की घोषणा की। सभा में उपस्थित कोइ राजकुमार, राजा व महाराजा धनुष उठानेमें विफल रहे। श्रीरामजी ने धनुष को उठाया और उसका भंग किया। इस तरह सीता का विवाह श्रीरामजी से निश्चय हुआ।
इसी के साथ उर्मिला का विवाह लक्ष्मण से, मांडवी का भरत से तथा श्रुतकीर्ति का शत्रुघ्न से निश्चय हुआ। कन्यादान के समय राजा जनक ने श्रीरामजी से कहा "हे कौशल्यानंदन राम! ये मेरी पुत्री सीता है। इसका पाणीग्रहण कर अपनी के पत्नी के रूप मे स्वीकर करो। यह सदा तुम्हारे साथ रहेगी।" इस तरह सीता व रामजी का विवाह अत्यंत वैभवपूर्ण संपन्न हुआ। विवाहोपरांत सीता अयोध्या आई और उनका दांपत्य जीवन सुखमय था।
वनवास
राजा दशरथ अपनी पत्नी कैकेयी को दिये वचन के कारण श्रीरामजी को चौदह वर्ष का वनवास हुआ। श्रीरामजी व अन्य बडों की सलाह न मानकर अपने पति से कहा "मेरे पिता के वचन के अनुसार मुझे आप के साथ ही रहना होगा। मुझे आप के साथ वनगमन इस राजमहल के सभी सुखों से अधिक प्रिय हैं।" इस प्रकार राम व लक्ष्मण के साथ वनवास चली गयी।
वे चित्रकूट पर्वत स्थित मंदाकिनी तट पर अपना वनवास किया। इसी समय भरत अपने बड़े भाई श्रीरामजी को मनाकर अयोध्या ले जाने आये। अंतमे वे श्रीरामजी की पादुका लेकर लौट गये। इसके बाद वे सभी ऋषि अत्री के आश्रम गये। सीता ने देवी अनसूया की पूजा की। देवी अनसूया ने सीता को पतिव्रता धर्म का विस्तारपूर्वक उपदेश के साथ चंदन, वस्त्र, आभूषणादि प्रदान किया। इसके बाद कई ऋषि व मुनि के आश्रम गये, दर्शन व आशिर्वाद पाकर वे पवित्र नदी गोदावरी तट पर पंचवटी में वास किया।
अपहरण
पंचवटी में लक्ष्मण से अपमानित शूर्पणखा ने अपने भाई रावण से अपनी व्यथा सुनाई और उसके कान भरते कहा "सीता अत्यंत सुंदर है और वह तुम्हारी पत्नी बनने के सर्वथा योग्य है।" रावण ने अपने मामा मारीच के साथ मिलकर सीता अपहरण की योजना रची। इसके अनुसार मारीच सोने के हिरण का रूप धर राम व लक्ष्मण को वन में ले जायेगा और उनकी अनुपस्थिति में रावण सीता का अपहरण करेगा। अपहरण के बाद आकाश मार्ग से जाते समय पक्षीराज जटायु के रोकने पर रावण ने उसके पंख काट दिये।
जब कोई सहायता नहीं मिली तो सीताजी ने अपने पल्लू से एक भाग निकालकर उसमें अपने आभूषणों को बांधकर नीचे डाल दिया। नीचे वनमे कुछ वानरों ने इसे अपने साथ ले गये। रावण ने सीता को लंकानगरी के अशोकवाटिका में रखा और त्रिजटा के नेतृत्व में कुछ राक्षसियों को उसकी देख-रेख का भार दिया।
हनुमानजी की भेंट
सीताजी से बिछड़कर रामजी दु:खी हुए और लक्ष्मण सहित उनकी वन-वन खोज करते जटायु तक पहुंचे। जटायु ने उन्हें सीताजी को रावण दक्षिण दिशा की ओर लिये जाने की सूचना देकर प्राण त्याग दिया। राम जटायु का अंतिम संस्कार कर लक्ष्मण सहित दक्षिण दिशा में चले। आगे चलते वे दोनों हनुमानजी से मिले जो उन्हें ऋष्यमूक पर्वत पर स्थित अपने राजा सुग्रीव से मिलाया। रामजी संग मैत्री के बाद सुग्रीव ने सीताजी के खोजमें चारों ओर वानरसेना की टुकडियाँ भेजीं। वानर राजकुमार अंगद की नेतृत्व में दक्षिण की ओर गई टुकड़ी में हनुमान, नील, जामवंत प्रमुख थे और वे दक्षिण स्थित सागर तट पहुंचे। तटपर उन्हें जटायु का भाई सम्पाति मिला जिसने उन्हें सूचना दी कि सीता लंका स्थित एक वाटिका में है।
हनुमानजी समुद्र लाँघकर लंका पहुँचे, लंकिनी को परास्त कर नगर में प्रवेश किया। वहाँ सभी भवन और अंतःपुर में सीता माता को न पाकर वे अत्यंत दुःखी हुए। अपने प्रभु श्रीरामजी को स्मरण व नमन कर अशोकवाटिका पहुंचे। वहाँ 'धुएँ के बीच चिंगारी' की तरह राक्षसियों के बीच एक तेजस्विनी स्वरूपा को देख सीताजी को पहचाना और हर्षित हुए।
उसी समय रावण वहाँ पहुँचा और सीता से विवाह का प्रस्ताव किया। सीता ने घास के एक टुकड़े को अपने और रावण के बीच रखा और कहा "हे रावण! सूरज और किरण की तरह राम-सीता अभिन्न है। राम व लक्ष्मण की अनुपस्थिति मे मेरा अपहरण कर तुमने अपनी कायरता का परिचय और राक्षस जाति के विनाश को आमंत्रण दिया है। रघुवंशीयों की वीरता से अपरचित होकर तुमने ऐसा दुस्साहस किया है। तुम्हारे श्रीरामजी की शरण में जाना इस विनाश से बचने का एक मात्र उपाय है। अन्यथा लंका का विनाश निश्चित है।" इससे निराश रावण ने राम को लंका आकर सीता को मुक्त करने को दो माह की अवधि दी। इसके उपरांत रावण व सीता का विवाह निश्चिय है। रावण के लौटने पर सीताजी बहुत दु:खी हुई। त्रिजटा राक्षसी ने अपने सपने के बारे में बताते हुए धीरज दिया की श्रीरामजी रावण पर विजय पाकर उन्हें अवश्य मुक्त करेंगे।
उसके जाने के बाद हनुमान सीताजी के दर्शन कर अपने लंका आने का कारण बताते हैं। सीताजी राम व लक्ष्मण की कुशलता पर विचारण करती है। श्रीरामजी की मुद्रिका देकर हनुमान कहते हैं कि वे माता सीता को अपने साथ श्रीरामजी के पास लिये चलते हैं। सीताजी हनुमान को समझाती है कि यह अनुचित है। रावण ने उनका हरण कर रघुकुल का अपमान किया है। अत: लंका से उन्हें मुक्त करना श्रीरामजी का कर्तव्य है। विशेषतः रावण के दो माह की अवधी का श्रीरामजी को स्मरण कराने की विनती करती हैं।
हनुमानजी ने रावण को अपनी दुस्साहस के परिणाम की चेतावनी दी और लंका जलाया। माता सीता से चूड़ामणि व अपनी यात्रा की अनुमति लिए चले। सागरतट स्थित अंगद व वानरसेना लिए श्रीरामजी के पास पहुँचे। माता सीता की चूड़ामणि दिया और अपनी लंका यात्रा की सारी कहानी सुनाई। इसके बाद राम व लक्ष्मण सहित सारी वानरसेना युद्ध के लिए तैयार हुई।
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
श्रेणी:रामायण के पात्र | हिन्दू धर्म में सीता का अवतार किस देवी ने लिया था? | लक्ष्मी | 342 | hindi |
640a60b28 | किंग अब्दुल अज़ीज़ अन्तर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र (KAIA) (Arabic: مطار الملك عبدالعزيز الدولي) (IATA: JED , ICAO: OEJN) सऊदी अरब के शहर जेद्दाह से १९कि.मी उत्तर में स्थित एक अन्तर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र है। इसका नाम यहां के राजा अब्दुल अज़ीज़ अल सऊद के नाम पर रखा गया है। यह सऊदी अरब में तीसरी सबसे बड़ी वायुमार्ग सुविधा है एवं यात्री संख्या के अनुसार यह यहां का व्यस्ततम विमानक्षेत्र है। यहां का परिसर १५ वर्ग कि.मी में विस्तृत है।[1] इसमें विमानक्षेत्र के अलावा शाही टर्मिनल, रॉयल सऊदी वायु सेना की सुविधा एवं विमानक्षेत्र स्टाफ़ हेतु आवासीय परिसर भी हैं।
जेद्दाह विमानक्षेत्र में निर्माण कार्य १९७४ में आरंभ हुआ था और १९८० में पूर्ण हुआ। ३१ मई १९८१ को यह विमानक्षेत्र प्रचालन के लिये खुला एवं अप्रैल १९८१ को इसका आधिकारिक उद्घाटन संपन्न हुआ।[1]
सन्दर्भ
This article incorporatespublic domain material from the Air Force Historical Research Agencywebsite .
बाहरी कड़ियाँ
- नया जालस्थल
at World Aero Data. Data current as of October 2006.Source: DAFIF.
at Great Circle Mapper. Source: DAFIF(effective October 2006).
at NOAA/NWS
at Aviation Safety Network
श्रेणी:सऊदी अरब के विमानक्षेत्र
श्रेणी:जेद्दाह | किंग अब्दुलअज़ीज़ अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा कहाँ स्थित है? | जेद्दाह से १९कि.मी उत्तर में स्थित | 136 | hindi |
5243efa18 | वूहान (武汉), चीन के हुबेइ प्रान्त की राजधानी है और मध्य चीन में सबसे अधिक जनसंख्या वाला नगर है। यह जिआंघन मैदान के पूर्व में, यांग्त्ज़ी और हान नदियों के कटाव पर स्थित है। तीन बरो (नगर-प्रशासन), वूचांग, हांकोउ और हान्यांग के संगुटीकरण से उत्पन्न वूहान को "नौ प्रान्तों के सार्वजनिक मार्ग" के नाम से भी जाना जाता है; यह एक प्रमुख परिवहन केन्द्र है और दर्जनों रेलमार्ग, सड़कें और महामार्ग इस नगर से होकर जाते हैं। वूहान की जनसंख्या ९१ लाख (२००६) है, जिसमें से इसके नगरीय क्षेत्र में ६१ लाख लोग रहते हैं। १९२९ के दशक में, वूहान, वामपंथी कुओमिन्तांग (केएमटी) सरकार की राजधानी थी जिसका नेतृत्व वांग जिंग्वेइ ने चिआंग काइ-शेक के विरोध में किया था। आज वूहान की पहचान मध्य चीन के राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक और परिवहन केन्द्र के रूप में है।
भूगोल और मौसम
वूहान, हुबेइ प्रान्त के मध्य में, ११३°४१′-११५°०५′ पूर्व, २९°५८′-३१°२२′ उत्तर, जिआंघन मैदान के पूर्व और यांग्त्ज़ी और हान्शुइ नदियों के संगम पर बसा हुआ है।
बाहरी कड़ियाँ
श्रेणी:चीन के नगर | वुहान शहर किस देश में स्थित है? | चीन | 12 | hindi |
6c7ed667b | चार्ल्स बैबेज एक अंग्रेजी बहुश्रुत थे वह एक गणितज्ञ, दार्शनिक, आविष्कारक और यांत्रिक इंजीनियर थे, जो वर्तमान में सबसे अच्छे कंप्यूटर प्रोग्राम की अवधारणा के उद्धव के लिए जाने जाते हैं या याद किये जाते है।
चार्ल्स बैबेज को "कंप्यूटर का पिता"(फादर ऑफ कम्प्यूटर ) माना जाता है। बैबेज को अंततः अधिक जटिल डिजाइन करने के लिए एवं उनके नेतृत्व में पहली यांत्रिक कंप्यूटर की खोज करने का श्रेय दिया जाता है। इन्हें अन्य क्षेत्रों में अपने विभिन्न कामो के लिए भी जाना जाता है एवं इन्हें अपने समय में काफी लोकप्रियता एवं सम्मान भी मिला अपने विभिन्न खोज के लिए और वही आगे चल कर कंप्यूटर जगत में नए खोजो का श्रोत बना।
बैबेज के द्वारा निर्मित अपूर्ण तंत्र के कुछ हिस्सों को लंदन साइंस म्यूजियम में प्रदर्शनी के लिए रखा गया है| 1991 में, एक पूरी तरह से कार्य कर रहा अंतर इंजन बैबेज की मूल योजना से निर्माण किया गया था। 19 वीं सदी में प्राप्त के लिए निर्मित, समाप्त इंजन की सफलता ने यह संकेत दिया की बैबेज की मशीन काम करती है।
प्रारंभिक जीवन
कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में
चार्ल्स बैबेज ने अक्टूबर 1810 में, ट्रिनिटी कॉलेज, कैम्ब्रिज में दाखिला लिया वह पहले से ही समकालीन गणित के कुछ भागों को स्वयं अध्यन किया करते थे, वह रॉबर्ट वुडहाउस, यूसुफ लुइस Lagrange और मैरी Agnesi को पढ़ा करते थे नतीजे के तौर पर उन्हें कैम्ब्रिज में उपलब्ध मानक गणितीय शिक्षा में निराशा प्राप्त हुई चार्ल्स बैबेज और उनके कुछ मित्रगणों "जॉन Herschel, जॉर्ज मयूर" और कई अन्य मित्रों ने मिलकर 1812 में विश्लेषणात्मक सोसायटी का गठन किया।
कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के बाद
एस्ट्रॉनॉमिकल सोसायटी
ब्रिटिश लाग्रंगियन स्कूल
श्रेणी:१७९१ जन्म
श्रेणी:मृत लोग
श्रेणी:लंदन के लोग
श्रेणी:कंप्यूटर वैज्ञानिक | कंप्यूटर का आविष्कार किसने किया था? | चार्ल्स बैबेज | 0 | hindi |
637af0145 | अर्बेला का संग्राम या गौगेमेला का युद्ध सिकंदर के युद्धों में से एक था। यह युद्ध यूनान के सम्राट सिकंदर व ईरान के हख़ामनी साम्राज्य के राजा दारा तृतीय (डेरियस तृतीय) के बीच 331 ई.पू. में दुहोक के समीप हुआ था। 30 सितंबर, 331 ई.पू. को हुआ था। इसमें सिकंदर की सेना ईरानी सेना से बहुत छोटी थी लेकिन अपने युद्धकौशल के कारण जीत गई।
परिचय
गौगामेला का युद्ध (या, अरबेला का युद्ध) सिकंदर और दारा के बीच पहली अक्टूबर, 331 ई. पू. का इतिहासप्रसिद्ध युद्ध, जिसके परिणामस्वरूप ईरानी साम्राज्य का पतन हो गया। गौगामेला बाबुल से बहुत दूर नहीं था, दजला के पास अरबेला से केवल 32 मील पश्चिम पड़ता था। वहाँ ग्रीक और ईरानी सेनाएँ शक्ति के अंतिम निर्णय के लिये आमने-सामने खड़ी हुई। गौगामेला का युद्ध संसार के निर्णायक युद्धों में से है।
मिस्र आदि जीतने के बाद जब सिकंदर गौगामेला के मैदान में दारा की पड़ाव डाले पड़ी सेना से लगभग तीन मील की दूरी पर पहुँचा शाम का झुटपुटा हो चुका था। पारमेनियो ने सिकंदर को सुझाया कि रात के अँधरे ही में ईरानियों पर हमला किया जाय क्योंकि दिन के उजाले में ईरानी सेना की गणनातीत संख्या देख, बहुत संभव है कि हमारी सेना सहम जाय। सिंकदर ने उत्तर में उससे कहा कि वह जीत चुराया नहीं करता, लड़कर उसे संभव करता है। संभव है, जैसा कुछ इतिहासकारों ने कहा है, रात में सिकंदर का हमला न करने का कारण वस्तुत: युद्ध की वह तकनीक थी जिसका उपयोग वह रात के अंधेरे में न कर पाता।
सिकंदर ने आस पास के इलाकों का कुछ ही घंटों में कुछ घुड़़सवारों के साथ दौरा कर अपनी सेना का व्यूह बनाया। दाहिने और बाएँ बाजू फालांक्स के घुड्सवारों के तीन डिवीजन जमा दिए गए। अपनी हरावल के पीछे उसने दो हमलावर स्तंभों के रिजर्व खड़े किए, एक एक दोनों बाजुओं के पीछे, जिससे पीछे के बाजुओं का तोड़ने की कोशिश अगर शत्रु करे तो ये दुश्मन पर धावे बोल सकें। और यदि इसकी आवश्यकता न पड़े तो वे घूमकर प्रधान सेना की सहायता करें। दाहिने पक्ष के घुड़सवारों के सामने उसने धनुर्धरों और मल्लधारियों को ईरानी रथों के सामने खड़ा किया। ग्रीक इतिहासकारों के अनुसार सिकंदर की सेना में 7 हजार घुड़सवार और 40 हजार पैदल थे, जब कि ईरानियों की सेना संख्या में इससे पांचगुनी थी।
सिकंदर ने मौका देखकर स्वयं हमला किया। वह ईरानियों के बाएँ बाजू पर इस तरह टूटा कि दारा को समतल छोड़ ऊँची नीची भूमि पर सरक जाना पड़ा। दारा ने जब देखा कि ऊँची नीची जमीन पर उसके रथ बेकार हो जाएँगे तब उसने बाएँ बाजू के घुड़सवारों को सिकंदर के दाहिने बाजू पर घूमकर हमला करने और उसे रोक देने का हुक्म दिया। दोनों ओर के घुड़सवारों में घमासान छिड़ गया। अब दारा ने रथों को बढ़ाया पर वे कभी सही उपयोग में नहीं लाए जा सके और ग्रीक पैदलों के तीरों के ईरानी रथी शिकार होने लगे। ठीक तभी सिकंदर घूमकर चार डिवीजनों के साथ ईरानी घुड़सवारों द्वारा छोड़ी जमीन से होकर ईरानियों के बाएँ बाजू पर टूटा और स्वंय दारा की ओर बढ़ा। यह हमला इतने जोर का हुआ कि दारा के पाँव उखड़ गए और वह मैदान छोड़ भागा। इसी बीच सिकंदर के दाहिने बाजू के ईरानी घुड़सवारों ने जब अपने ऊपर मकदूनियाइयों को पीछे से हमला करते देखा तब वे भी भाग निकले, यद्यपि वे शत्रु द्वारा बहुत संख्या में हताहत हुए। सिकंदर की सेना के बीच उसके हमलों से जो दरार बन गई थी, ईरानियों और भारतीयों ने उसी की राह सहसा घुसकर ग्रीकों के सामान भरे तंबुओं पर हमला किया। तभी दारा के दाहिने बाजू के घुड़सवारों ने सिकंदर के बाएँ बाजू घूमकर पारमेनियों के पार्श्व पर आक्रमण किया। पारमेनियों ने बुरी तरह घिर जाने पर सिकंदर को अपनी भयानक स्थिति की खबर दी। सिकंदर तब बाएँ बाजू टूटी ईरानी सेना का पीछा कर रहा था। वह एकाएक अपने घुड़सवारों को लिए लौटा और ईरानियों के दाहिने बाजू पर टूटा। ईरानी घुड़सवार अब भागने के लिये पीछे लौटे पर उनके पीछे की राह जब इस तरह रुक गई, तब वे सामने के शत्रु से घमासान करने लगे। न उन्होंने आप शरण माँगी न शत्रु को शरण दी। सिकंदर ने उन्हें कुचल दिया और एक एक ईरानी घुड़सवार मारा गया। अरबेला तक सिकंदर की सेना दारा का पीछा करती रही पर उसे पकड़ न पाई। दारा भाग निकला और उसने बाख्त्री में जाकर शरण ली। एरियन लिखता है कि तीन लाख ईरानी मारे गए जब कि सिकंदर के कुल एक हजार घुड़सवार मारे गए। प्रकट है कि इस आँकड़े पर विश्वास नहीं किया जा सकता।
इस्सस के युद्ध के बाद यह दूसरा युद्ध था जिसमें ईरान को हारना पड़ा था और इस युद्ध के बाद ईरानी साम्राज्य टूक टूक हो गया। ईरानियों का अंतिम केंद्र फिर वंक्षुनद (आमू दरिया) की घाटी में स्थापित हुआ पर शीघ्र ही उनके उस अंतिम मोर्चे को भी सिकंदर ने तोड़ डाला जहाँ सिकंदर की मृत्यु के बाद स्वतंत्र ग्रीक राजतंत्र कायम हुआ।
सेनाओं का आकार
सिकन्दर की सेना
दारा की सेना
परिणाम
सिकंदर को डेरियस पर सफलता मिली। अब फारस भि सिकंदर के अधिकार में आ गया था। इसके बाद वह काबुल होता हुआ, झेलम पहुंचा, व 326ई.पू. में पोरस को पराजित किया। परन्तु इसके आगे गंगा तक जाने के अपने विचार को उसने अपने सैनिकों की थकान के कारण छोड़ दिया। फिर वह वापस हो चला, व बेबीलिन में अपनी राजधानी बनाने की सोची। व अनेक नवीन कार्य भी वहां कराये।
परन्तु 13 जून,323 ई.पू. को वह तेंतीस वर्ष की आयु में ही चल बसा।
ग्रंथावली
प्राचीन स्रोत
from Livius.org
Wiki Classical Dictionary, and
(in English)
(in English)
(in English)
(in Latin)
आधुनिक स्रोत
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Engels, Donald W. (1978). Alexander the Great and the Logistics of the Macedonian Army. Berkeley/Los Angeles/London.
Fox, Robin Lane (1973). Alexander the Great. London: Allen Lane.
Fuller, J. F. C. A Military History of the Western World. Three Volumes. New York: Da Capo Press, Inc., 1987 and 1988.
v. 1. From the earliest times to the Battle of Lepanto; ISBN 0-306-80304-6: pp. 87 to 114 (Alexander the Great).
Green, Peter. Alexander of Macedon 356-323 B.C.
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History of the Greek Nation volume Δ, Ekdotiki Athinon, Athens 1973
Moerbeek, Martijn (1997). Universiteit Twente.
De Santis, Marc G. “At The Crossroads of Conquest.” Military Heritage. December 2001. Volume 3, No. 3: 46-55, 97 (Alexander the Great, his military, his strategy at the Battle of Gaugamela and his defeat of Darius making Alexander the King of Kings).
Van der Spek, R.J. "Darius III, Alexander the Great and Babylonian Scholarship." in: W. Henkelman, A. Kuhrt eds., A Persian Perspective. Essays in Memory of Heleen Sancisi-Weerdenburg. Achaemenid History XIII (Leiden: Nederlands Instituut voor het Nabije Oosten, 2003) 289-342.
Warry, J. (1998). Warfare in the Classical World. ISBN 1-84065-004-4.
Welman, Nick. and . Fontys University.
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
tells the story of Alexander and quotes original sources. Favors a reconstruction of the battle which heavily privileges the Babylonian astronomical diaries.
provides a new scholarly edition of the Babylonian Astronomical Diary concerning the battle of Gaugamela and Alexander's entry into Babylon by R.J. van der Spek.
Gaugamela
श्रेणी:Battles involving the Achaemenid Empire
श्रेणी:331 BC
श्रेणी:इराक़ का इतिहास
श्रेणी:विश्व के युद्ध | गौगेमेला का युद्ध किस वर्ष में हुआ था? | 331 ई.पू. | 173 | hindi |
9e1cfe7a2 | जामिया हमदर्द उच्च शिक्षा का एक संस्थान है, भारत में नई दिल्ली में स्थित मानित विश्वविद्यालय है । इसे भारत के राष्ट्रीय आकलन और मान्यता परिषद द्वारा 'ए' ग्रेड विश्वविद्यालय की स्थिति से सम्मानित किया गया है और यह 1989 में स्थापित किया गया। यह एक सरकारी वित्त पोषित मानित विश्वविद्यालय है जो मुख्य रूप से अपने फार्मेसी कार्यक्रम के लिए जाना जाता है। [2]
फैकल्टीज
विश्वविद्यालय आधुनिक चिकित्सा में स्नातक कार्यक्रम प्रदान करता है जो एमबीबीएस, इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी, और कंप्यूटर अनुप्रयोगों के पुरस्कार और सूचना प्रौद्योगिकी, कंप्यूटर अनुप्रयोग, बिजनेस मैनेजमेंट, फिजियोथेरेपी और व्यावसायिक थेरेपी में स्नातकोत्तर कार्यक्रम पिछले कुछ सालों में शुरू किया गया है। फिजियोथेरेपी और व्यावसायिक थेरेपी में स्नातक कार्यक्रम और निवारक कार्डियोलॉजी में स्नातकोत्तर डिप्लोमा भी शुरू करने के लिए योजनाबद्ध है।
फैकल्टी में शामिल हैं:
फार्मेसी: स्कूल ऑफ फार्मास्यूटिकल एजुकेशन एंड रिसर्च (पूर्व फार्मेसी फैकल्टी) भारत में सबसे पुराने और सबसे प्रतिष्ठित फार्मेसी संस्थानों में से एक है। इसे राष्ट्रीय संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा अपने राष्ट्रीय संस्थान रैंकिंग फ्रेमवर्क के माध्यम से वर्ष 2017 में भारत में नंबर एक रैंक से सम्मानित किया गया था। .[3][4] स्कूल ऑफ़ फार्मेसी और फार्मास्युटिकल विज्ञान में डिप्लोमा, स्नातक, स्नातक और पीएचडी कार्यक्रम प्रदान करता है। संस्थान अनुसंधान गहन है और भारत और विदेश दोनों में दवा उद्योग में कई उल्लेखनीय पूर्व छात्र हैं।
अंतःविषय विज्ञान और प्रौद्योगिकी: जो खाद्य प्रौद्योगिकी कार्यक्रम प्रदान करता है।
प्रबंधन अध्ययन (मैनेजमेंट स्टडीज) और सूचना टेक्नोलॉजी (इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी)
इंजीनियरिंग विज्ञान और टेक्नोलॉजी
हमदर्द इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज एंड रिसर्च (एचआईएमएसआर) और एसोसिएटेड हकीम अब्दुल हमीद शताब्दी अस्पताल
चिकित्सा (यूनानी)
नर्सिंग
इस्लामी अध्ययन और सामाजिक विज्ञान
विज्ञान
बायो टेक्नोलॉजी
बायो केमिस्ट्री
बॉटनी (वनस्पति विज्ञान)
टॉक्सिकोलॉजी (ज़हरज्ञान)
केमिस्ट्री (रसायन विज्ञान)
क्लिनिकल रिसर्च
केंद्रीय इंस्ट्रुमेंटेशन सुविधा (सीआईएफ)
जुलाई 1990 में फार्मेसी के फैकल्टी में सेंट्रल इंस्ट्रुमेंटेशन सुविधा की स्थापना एल 7 बैकमैन अल्ट्रा-अपकेंद्रित्र, सोरवाल आरटी -6000 कम गति अपकेंद्रित्र, डीयू -64 बैकमैन यूवी-वीआईएस स्पेक्ट्रोमीटर, पेर्किन-एल्मर 8700 गैस क्रोमैटोग्राफ, पेर्किन-एल्मर की स्थापना के साथ की गई थी। एचपीएलसी और मेटलर इलेक्ट्रॉनिक संतुलन। वर्ष 1992 में, गामा-काउंटर, बीटा-काउंटर और डीएनए इलेक्ट्रोफोरोसिस सिस्टम सीआईएफ में जोड़े गए थे। पेर्किन-एल्मर लैम्ब्डा -20 डबल-बीम यूवी-वीआईएस स्पेक्ट्रोफोटोमीटर, पेर्किन-एल्मर एलएस -50 लुमेनसेंस स्पेक्ट्रोमीटर, बायो-रेड एफटी-आईआर स्पेक्ट्रोमीटर और मिनी कंप्यूटर, जिसमें आठ कंप्यूटर, इंटरनेट और ई-मेल सुविधाएं शामिल हैं, सीआईएफ में भी उपलब्ध हैं ।
सीआईएफ का उद्देश्य पीएचडी को प्रशिक्षित करने के लिए जामिया हमदर्द के शोधकर्ताओं को एक उपकरण सुविधा प्रदान करना है। और एम। फार्म / एमएससी .. विभिन्न उपकरणों पर छात्र। जामिया हमदर्द शोध छात्र अपने प्रयोगों के लिए खुद को यंत्र संचालित करते हैं। पीएच.डी. छात्रों, देर से घंटों के दौरान और सप्ताहांत पर अपने प्रयोगों को पूरा करने के लिए सीआईएफ का उपयोग करें। कई एम। फार्म और पीएच.डी. विद्वानों ने अपने शोध के लिए सीआईएफ का उपयोग किया है।
कैंपस सुविधाएं
लाइब्रेरी
पुस्तकालय प्रणाली में केंद्रीय पुस्तकालय और छह फैकल्टी पुस्तकालय शामिल हैं: विज्ञान, चिकित्सा, फार्मेसी, नर्सिंग, इस्लामी अध्ययन, और प्रबंधन अध्ययन और सूचना टेक्नोलॉजी के फैकल्टी। केंद्रीय पुस्तकालय का नाम संस्थापक के छोटे भाई का नाम 'हाकिम मोहम्मद सैद सेंट्रल लाइब्रेरी' रखा गया है।
कंप्यूटर केंद्र
विश्वविद्यालय के पास एक कंप्यूटर केंद्र है जो कंप्यूटर विज्ञान विभाग, कंप्यूटिंग सुविधाओं, और सिस्टम विश्लेषण इकाइयों के साथ-साथ सभी आवश्यक परिधीय और आवश्यक सॉफ़्टवेयर के प्रयोगशाला के रूप में काम करता है। कंप्यूटर सेंटर में पांच प्रयोगशालाएं हैं, जिनके संबंधित विकास क्षेत्रों की सुविधाएं हैं।
विद्वानों का घर
विद्वानों का घर विद्वानों, विश्वविद्यालय के मेहमानों, परीक्षा परीक्षकों, चयन बोर्ड के सदस्यों और आवासीय सम्मेलनों के लिए एक गेस्ट हाउस है।
इसमें 12 डबल बेड कमरे, 27 सिंगल बेड रूम और 4 फ्लैट हैं। रसोईघर अनुरोध पर मजीदिया अस्पताल और बाहरी लोगों के डॉक्टरों की भी सेवा करता है।
हमदर्द इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज एंड रिसर्च (एचआईएमएसआर) और हाकिम अब्दुल हमीद शताब्दी अस्पताल
विश्वविद्यालय के संस्थापक जनाब हकीम अब्दुल हमीद ने 1953 में यूनानी प्रणाली की दवा के साथ मेडिकल कॉलेज शुरू करने की कल्पना की थी। हिमासर भारतीय विश्वविद्यालयों में शीर्ष 7 स्थान पर है। जुलाई 2012 में मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया ने अपने परिसर में मेडिकल कॉलेज शुरू करने के लिए जामिया हमदर्द को अनुमति दी थी। इससे पहले विश्वविद्यालय ने पूर्व मजीदिया हॉस्पिटल का नाम हकीम अब्दुल हमीद शताब्दी अस्पताल (एचएएच शताब्दी अस्पताल) रखा और इसे एक नए स्थापित मेडिकल इंस्टीट्यूट - हामार्ड इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज ऑफ रिसर्च (एचआईएमएसआर) से जोड़ दिया। एचएएच शताब्दी अस्पताल में वर्तमान में 650 शिक्षण बिस्तर हैं जो रक्त बैंक और अस्पताल प्रयोगशाला सेवाओं के साथ सभी व्यापक नैदानिक विषयों का आवास करते हैं। एचआईएमएसआर दिल्ली के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में छठा मेडिकल कॉलेज था, और राजधानी शहर दिल्ली में सार्वजनिक-निजी क्षेत्र में पहला मॉडल अस्पताल था। विश्वविद्यालय का वर्तमान नेतृत्व डॉ। सेयद एहतेशाम हसनैन, कुलगुरू हैं। एमबीबीएस छात्रों के पहले बैच को अगस्त 2012 में लिया गया था। संस्थान ने दूसरे बैच लेने के लिए एमसीआई जांच पास की, और अगस्त 2013 में राष्ट्रीय पात्रता और प्रवेश परीक्षा (एनईईटी) के माध्यम से दूसरा बैच लिया।
संस्थान कर्क रोग (कैंसर), मधुमेह और कार्डियोवैस्कुलर बीमारियों में अनुसंधान करता है । संस्थान ने ऑल इंडिया हार्ट फाउंडेशन और नेशनल हार्ट इंस्टीट्यूट, नई दिल्ली के सहयोग से निवारक कार्डियोलॉजी में एक साल का स्नातकोत्तर डिप्लोमा शुरू किया। एक 550 बिस्तर की सुविधा की योजना बनाई गई है। एक छत के नीचे चिकित्सा इमेजिंग प्रदान करने के लिए हमदर्द इमेजिंग सेंटर की स्थापना की गई है। विश्वविद्यालय के छात्रों, शिक्षण और गैर-शिक्षण कर्मचारियों, उनके परिवार के सदस्यों और बहुत गरीब लोगों को मुफ्त ओपीडी सुविधाएं मुहैया कराई जाती हैं। पुराने मजीदिया अस्पताल को चिकित्सा फैकल्टी (यूनानी) के छात्रों के लिए प्रशिक्षण स्थान के रूप में विकसित किया जा रहा है।
जामिया हमदर्द के पूर्व छात्र को 'हमदर्दियन' कहा जाता है।
रैंकिंग
विश्वविद्यालय और कॉलेज रैंकिंग
NIRF_O_2018 = 37
NIRF_U_2018 = 23
NIRF_P_2018 = 2
2018 में राष्ट्रीय संस्थागत रैंकिंग फ्रेमवर्क (एनआईआरएफ) द्वारा विश्वविद्यालयों में जामिया हमदार्ड को 37 वें स्थान पर रखा गया था और 23 विश्वविद्यालयों में। यह फार्मेसी रैंकिंग में दूसरे स्थान पर था।
सुविधाएं
जामिया हमदर्द परिसर में और बाहर दोनों कर्मचारियों और छात्रों के लिए पूर्ण आवासीय सुविधाएं प्रदान करता है। परिसर में नौ आवासीय ब्लॉक हैं जो शिक्षण और गैर-शिक्षण कर्मचारियों की सभी श्रेणियों के निवास के लिए हैं।
जामिया हमदर्द में लड़कियां और लड़के के लिए अलग-अलग छात्रावास हैं। प्रत्येक छात्रावास में एक आम कमरा, पढ़ने का कमरा, डाइनिंग हॉल और आगंतुकों का कमरा होता है। हॉस्टल की संख्या इस प्रकार है:
2 यूजी लड़कियों के छात्रावास
1 पीजी लड़कियों का छात्रावास।
1 यूजी लड़कों का छात्रावास। (बन्द है)
1 इब्न बतूता पीजी लड़कों का छात्रावास। (एमबीबीएस छात्रों और पुराने पीएचडी छात्रों के लिए)।
1 अंतर्राष्ट्रीय लड़कों का छात्रावास।
एक व्यायामशाला, बास्केटबाल कोर्ट। क्रिकेट और फुटबॉल (5-ए पक्ष) के लिए खेल के मैदान भी उपलब्ध हैं।
विश्वविद्यालय में तीन कैंटीन हैं जिन्हें आंशिक रूप से सब्सिडी दी जाती है और ठेकेदारों द्वारा संचालित होते हैं।
विदेशी नागरिक
विश्वविद्यालय उन विदेशी नागरिकों का स्वागत करता है जिनके पास एक अच्छा अकादमिक रिकॉर्ड है और जो समकक्ष योग्यता परीक्षाओं में अच्छे अंक प्राप्त किए हैं। एसएटी / जीमैट / जीआरई परीक्षाओं में अच्छा प्रतिशत हासिल करने वाले उम्मीदवारों को प्राथमिकता दी जाती है।
विदेशी छात्र का सेल
विदेशी छात्र सेल उनके अधिकारों और सुविधाओं की देखभाल करता है। विदेशी छात्रों के सलाहकार विदेशी छात्रों के मामलों की देखभाल करते हैं। हर साल सेल द्वारा सांस्कृतिक और सामाजिक कार्यक्रम आयोजित किया जाता है।
प्लेसमेंट गतिविधियां
विश्वविद्यालय अपने छात्रों के लिए नियुक्ति गतिविधियों का आयोजन करता है और बड़ी संख्या में कंपनियां एलरगन, भारत, अमेरिकन एक्सप्रेस, एरिसेंट, बी ब्रून मेल्सुंगेन, बायोकॉन, ब्रिस्टल मायर्स स्क्विब, सिप्ला, सिस्को, सीएससी, कॉम्विवा टेक्नोलॉजीज लिमिटेड, डॉ। रेड्डीज लेबोरेटरीज, फिसर, हेडस्ट्रांग, हेवलेट पैकार्ड, एचसीएल टेक्नोलॉजीज, आईसीआईसीआई बैंक, इम्पेसस, इंफोसिस ल्यूपिन, मैक्स न्यू यॉर्क लाइफ इंश्योरेंस, मारुति उद्योग, न्यूजेन, नोवार्टिस, न्यूक्लियस सॉफ्टवेयर एक्सपोर्ट्स, पैनेसा, पेरोट सिस्टम्स, फाइजर, क्वालिटेक कंसल्टेंट्स, क्वार्क, रैनबैक्सी, अनुसंधान प्रयास, सैपीएंट, सन फार्मा, सिंटेल, टीसीएस, टेक महिंद्रा और कई अन्य कंपनियों में कैंपस द्वारा नियुक्त होते हैं।
हमदर्द स्टडी सर्किल
लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित सिविल सेवा परीक्षा के लिए समाज के कमजोर वर्ग, विशेष रूप से मुसलमानों के छात्रों की तैयारी के लिए 1992 में जनाब हकीम अब्दुल हमीद साहेब द्वारा स्थापित एक प्रमुख कोचिंग संस्थान है।
सर्किल सिविल सेवा परीक्षा, जैसे प्रारंभिक परीक्षा, मुख्य परीक्षा और व्यक्तित्व परीक्षण के सभी तीन चरणों के लिए कोचिंग प्रदान करता है। हमदर्द स्टडी सर्किल में उत्कृष्ट बोर्डिंग और रहने की सुविधा, एक अच्छी तरह से सुसज्जित पुस्तकालय, इंटरनेट सुविधा, कार्यालय परिसर, मनोरंजन कक्ष, आधुनिक भोजन कक्ष और रसोईघर दक्षिण दिल्ली में तालिमाबाद के 14 एकड़ (57,000 वर्ग मीटर ) में फैला हुए परिसर में स्थित है। कोचिंग के लिए कोई शुल्क नहीं लिया जाता है। लेकिन छात्रावास और सुविधाओं के रखरखाव के लिए प्रति माह 1750 / - और रु। 2000 / - भोजन के लिए प्रति माह का भुगतान करना होगा। अल्पसंख्यक, ओबीसी और एससी / एसटी श्रेणियों के योग्य छात्रों के लिए छात्र सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण अनुदान मंत्रालय के माध्यम से उपलब्ध हैं।
मुख्य परीक्षा कोचिंग के लिए अगले वर्ष जुलाई के अंतिम सप्ताह में प्रीलिम परीक्षा कोचिंग और नई दिल्ली में हर साल नवंबर के तीसरे रविवार को नई दिल्ली, पटना, चेन्नई और तिरुवनंतपुरम में आयोजित प्रतिस्पर्धी परीक्षण के माध्यम से मेरिट आधार पर सख्ती से प्रवेश परिक्षा के द्वारा एडमिशन दिया जाता है। व्यक्तित्व परीक्षण कोचिंग के लिए प्रवेश प्रत्येक वर्ष मार्च के आखिरी सप्ताह में व्यक्तिगत साक्षात्कार के माध्यम से किया जाता है। कुल 10 लड़कियों और 50 लड़कों तक का सेवन सुविधा है। अब तक 161 उम्मीदवारों ने हमदर्द स्टडी सर्कल से विभिन्न सिविल सेवाओं के लिए अर्हता प्राप्त की है।
पूर्व छात्र समुदाय
जामिया हमदर्द पूर्व छात्रों की एसोसिएशन और जामिया हमदर्द फार्मा प्रोफेशनल पूर्व छात्र लिंकडइन नेटवर्क पर दो समुदाय हैं। उन्हें बड़ी सफलता मिली है और पूर्व छात्रों और वर्तमान छात्रों के लिए गतिविधियों का केंद्र बन गया है।
यह भी देखें
भारत में विश्वविद्यालयों की सूची]
भारत में शिक्षा
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (भारत)
संदर्भ
अभिषेक- vice- of- Hamdard/ 53985672.cms
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
No URL found. Please specify a URL here or add one to Wikidata. | जामिया हमदर्द विश्वविद्यालय कब बनाया गया था? | 1989 | 213 | hindi |
d9eaa69f1 | नोरा फतेही एक मोरोक्कन कयानेडेली नृत्यिका अभिनेत्री और मॉडल हैं।[1]
करियर
उन्होंने बॉलीवुड की फिल्म 'रोअरः टाइगर्स ऑफ द सुंदरबन' में अभिनय किया। बाद में उन्होंने पुरी जगन्धा के तेलगू अभिनेता टेम्पर में एक विशेष गीत के लिए हस्ताक्षर किए। उन्होंने विक्रम भट्ट द्वारा निर्देशित फिल्म मिस्टर एक्स में इमरान हाशमी और गुरमीत चौधरी के साथ भी महेश भट्ट द्वारा निर्मित विशेष प्रदर्शन किया है।
दिसंबर 2014 की शुरुआत में उन्होंने पुरी जगन्धास के टेम्पर पर हस्ताक्षर किए, जो तेलुगू में अपनी शुरुआत का प्रतीक था। बाद में, उन्होंने बाहुबली: द बिगिनिंग और किक 2 जैसी फिल्मों में शर्मिंदा होने के लिए हस्ताक्षर किए।
जून 2015 के अंत में, उसने एक तेलगू फिल्म शेर पर हस्ताक्षर किए। अगस्त 2015 के अंत में, उसने एक तेलगु फिल्म लोफ़र पर हस्ताक्षर किए, जो पुरी जगन्धा द्वारा निर्देशित हैं, वरुण तेज के सामने। नवंबर 2015 के अंत में उसने ओपीरी फिल्म पर हस्ताक्षर किए। दिसंबर 2015 में, फतेह ने बिग बॉस हाउस में प्रवेश किया जो कि इसके नौवें सीज़न में एक वाइल्ड कार्ड प्रवेशक था। वह घर के अंदर 3 सप्ताह बिताए जब तक कि वह 12 वें सप्ताह (दिवस 83) में बेदखल हो गया। नोरा 2016 में झलक दिखला जाना पर एक प्रतियोगी थी। नोरा बाटला हाउस की फिल्म कलाकारों में शामिल हो गए।[2][3]
फतेही अपनी पहली भाषा के रूप में अंग्रेजी बोलती है, हालांकि वह हिंदी, फ्रेंच और अरबी भी बोल सकती है
इन्हें भी देखें
अदा खान
शमीन मन्नान
कृति खरबंदा
अतिशा प्रताप सिंह
शफ़क़ नाज़
लॉरेन गॉटलिब
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
at IMDb
श्रेणी:भारतीय अभिनेत्री
श्रेणी:जीवित लोग
श्रेणी:1992 में जन्मे लोग
श्रेणी:अरब लोग
श्रेणी:मॉडल | नोरा फतेही की राष्ट्रीयता क्या है? | मोरोक्कन कयानेडेली | 15 | hindi |
7471297bb | Today
Monday
26 April
2021 AD/CE
14 Ramadan
1442 AH
Using tabular calculations
हिजरी या इस्लामी पंचांग को (अरबी: التقويم الهجري; अत-तक्वीम-हिज़री; फारसी: تقویم هجری قمری 'तकवीम-ए-हिज़री-ये-क़मरी) जिसे हिजरी कालदर्शक भी कहते हैं, एक चंद्र कालदर्शक है, जो न सिर्फ मुस्लिम देशों में प्रयोग होता है बल्कि इसे पूरे विश्व के मुस्लिम भी इस्लामिक धार्मिक पर्वों को मनाने का सही समय जानने के लिए प्रयोग करते हैं। यह चंद्र-कालदर्शक है, जिसमें वर्ष में बारह मास, एवं 354 या 355 दिवस होते हैं। क्योंकि यह सौर कालदर्शक से 11 दिवस छोटा है इसलिए इस्लामी धार्मिक तिथियाँ, जो कि इस कालदर्शक के अनुसार स्थिर तिथियों पर होतीं हैं, परंतु हर वर्ष पिछले सौर कालदर्शक से 11 दिन पीछे हो जाती हैं। इसे हिज्रा या हिज्री भी कहते हैं, क्योंकि इसका पहला वर्ष वह वर्ष है जिसमें कि हज़रत मुहम्मद की मक्का शहर से मदीना की ओर हिज्ऱत (प्रवास) हुई थी। हर वर्ष के साथ वर्ष संख्या के बाद में H जो हिज्र को संदर्भित करता है या AH (लैटिनः अन्नो हेजिरी (हिज्र के वर्ष में) लगाया जाता है।[1]हिज्र से पहले के कुछ वर्ष (BH) का प्रयोग इस्लामिक इतिहास से संबंधित घटनाओं के संदर्भ मे किया जाता है, जैसे मुहम्म्द साहिब का जन्म लिए 53 BH।
वर्तमान हिज्री़ वर्ष है 1430 AH.
इतिहास
इस्लाम पूर्व कालदर्शक
अरब की सन्स्कृती परंपरा के अनुसार, इथियोपिया के "अक़्सूम साम्राज्य" का येमन का गवर्नर "अब्रहा" जो के क्रैस्तव धर्म से था उस ने ई ५७० में मक्के पर चढाई की और काबा गृह को ढाना चाहा। इस काम के लिये वह अप्ने सैन्य के कई हाथी लेकर आया। लैकिन नाकाम होगया और उसे बुरी हार के साथ वापस जाना पडा। इस वर्ष को अरबी लोग "आम्म अल फ़ील" (हाथियों का वर्ष) कह्ते हैं। इस अरबों के विजह को हर्शोल्लास के साथ मनाते थे, और इस साल के आधार पर अरब नया केलंडर बनालिये, जिस की शुरूआत "आम्म अल फ़ील" साल से होती है। इस मामले का ज़िक्र कुर'आन में से सूरा "अल-फ़ील" में है।
महीने
इस्लामी महीने या मास नाम हैं:[2]
मुहरम محرّم (पूर्ण नाम: मुहरम उल-हराम)
सफ़र صفر (पूर्ण नाम: सफर उल-मुज़फ्फर)
रबी अल-अव्वल (रबी उणन्नुर्) - मीलाद उन-नबी - ईद ए मीलाद - ربيع الأول
रबी अल-थानी (या रबी अल-थानी, रबी अल-आखिर) (Rabī' II) ربيع الآخر أو ربيع الثاني
जमाद अल-अव्वल या जमादि उल अव्वल (जुमादा I) جمادى الاولى
जमाद अल-थानी या जमादि उल थानी या जमादि उल आखिर (या जुमादा अल-आखीर) (जुमादा II) جمادى الآخر أو جمادى الثاني
रज्जब या रजब رجب (पूर्ण नाम: रज्जब अल-मुरज्जब)
शआबान شعبان (पूर्ण नाम: शाअबान अल-मुआज़म) या साधारण नाम शाबान
रमजा़न या रमदान رمضان (पूर्ण नाम: रमदान अल-मुबारक)
शव्वाल شوّال (पूर्ण नाम: शव्वाल उल-मुकरर्म)
ज़ु अल-क़ादा या ज़ुल क़ादा - ذو القعدة
ज़ु अल-हज्जा या ज़ुल हज्जा - ذو الحجة
इन सभी महीनों में, रमजान का महीना, सबसे आदरणीय माना जाता है। मुस्लिम लोगों को इस महीने में पूर्ण सादगी से रहना होता है दिन के समय।
ओर सबसे अफ्ज्ल रबी अल-अव्वल क महीना माना जाता है। इस्मे प्यारे नबी सल्ल्ल््लाहु अल््य्ही व्स्ल्ल्म की पैदाइष हुई।
सप्ताह के दिवस
इस्लामी सप्ताह, यहूदी सप्ताह के समान ही होता है, जो कि मध्य युगीय ईसाई सप्ताह समान होता है। इसका प्रथम दिवस भी रविवार के दिन ही होता है। इस्लामी एवं यहूदी दिवस सूर्यास्त के समय आरंभ होते हैं, जबकि ईसाई एवं ग्रहीय दिवस अर्धरात्रि में आरम्भ होते हैं।[3] मुस्लिम साप्ताहिक नमाज़ हेतु मस्जिदों में छठे दिवस की दोपहर को एकत्रित होते हैं, जो कि ईसाई एवं ग्रहीय शुक्रवास को होता है। ("यौम जो संस्कृत मूल "याम" से निकला है,يوم" अर्थात दिवस)
वर्षों की सँख्या
सारणीकृत इस्लामी कालदर्शक
मुख्य तिथियाँ
इस्लामी कालदर्शक की कुछ महत्वपूर्ण तिथियाँ हैं:
1 मुहरम (इस्लामी नया वर्ष)
10 मुहरम (आशूरा) मूसा बनी इस्राईल को लेकर फ़िरौन से छुटकारा पाकर "रेड सी" पार करते हैं। और भी; हुसैन इब्न अली और उन के साथी कर्बला के युद्ध में शहीद होते हैं।
12 रबीउल अव्वल -- मीलाद ए नबी
17 रबीउल अव्वल -- शिया समूह "इस्ना अशरी" इस दिन ईद ए मीलाद मनाते हैं।
13 रजब -- अली इब्ने अबी तालिब का जन्म दिन
27 रजब -- इस्रा और मेराज (शब-ए-मेराज)
22 रजब -- मुस्लिम के थोडे समूहों मे "कुंडों की नियाज़", "सफ़्रे के फ़ातिहा" के नाम पर मन्नतें और उन्के पूरे होने पर फ़ातिहा ख्वानी करते हैं। और यह फ़ातिहा ख्वानी हज़रत इमाम जाफ़र-ए-सादिक़ के नाम से जुडी है।
1 रमज़ान -- उपवास रखने की शुरूआत का पहला दिवस
21 रमज़ान -- अली इब्न अबी तालिब के देहांत का दिन।
27 रमज़ान -- क़ुर'आन के अवतरण का दिन। और शब-ए-क़द्र या लैलतुल क़द्र
1 शव्वाल -- ईद उल फ़ितर या ईद उल-फ़ित्र या ईद उल-फ़ित्र या ईदुल फ़ितर या ईदुल फ़ित्र
8-10 ज़ुल-हज्जा -- मक्का तीर्थ यात्रा या हज
10 ज़ुल हज्जा -- ईद-उल-अज़हा या ईद उल-अधा या ईदुल अधा या बक्रीद
वर्तमान सम्बन्ध
ग्रेगोरियन सूर्यमान केलंडर और ईस्लामी या अन्य चंद्रमान केलंडर के बीच ११ दिनों का व्यत्यास होता है। इस प्रकार अगर हिसाब लगायें तो नीचे बताई गयी सूची का व्याव्यास नज़र आता है। हर 33 या 34 इस्लामी साल 32 या 33 ग्रेगोरियन साल एक बार एक ही तरह देखने को मिलते हैं।:
प्रयोग
देखें
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
तिथि परिवर्तक
श्रेणी:इस्लाम
श्रेणी:इस्लामी कैलंडर
श्रेणी:कैलंडर | इस्लामिक कैलेंडर का सातवां महीना कौनसा है? | रज्जब | 2,151 | hindi |
85df64d99 | सेराक्यूस के आर्किमिडीज़ (यूनानी:Ἀρχιμήδης; 287 ई.पू. - 212 ई.पू.), एक यूनानी गणितज्ञ, भौतिक विज्ञानी, अभियंता, आविष्कारक और खगोल विज्ञानी थे। हालांकि उनके जीवन के कुछ ही विवरण ज्ञात हैं, उन्हें शास्त्रीय पुरातनता का एक अग्रणी वैज्ञानिक माना जाता है। भौतिक विज्ञान में उन्होनें जलस्थैतिकी, सांख्यिकी और उत्तोलक के सिद्धांत की व्याख्या की नीव रखी थी। उन्हें नवीनीकृत मशीनों को डिजाइन करने का श्रेय दिया जाता है, इनमें सीज इंजन और स्क्रू पम्प शामिल हैं। आधुनिक प्रयोगों से आर्किमिडीज़ के इन दावों का परीक्षण किया गया है कि दर्पणों की एक पंक्ति का उपयोग करते हुए बड़े आक्रमणकारी जहाजों को आग लगाई जा सकती हैं।[1]
आमतौर पर आर्किमिडीज़ को प्राचीन काल का सबसे महान गणितज्ञ माना जाता है और सब समय के महानतम लोगों में से एक कहा जाता है।[2][3] उन्होंने एक परवलय के चाप के नीचे के क्षेत्रफल की गणना करने के लिए पूर्णता की विधि का उपयोग किया, इसके लिए उन्होंने अपरिमित श्रृंखला के समेशन का उपयोग किया और पाई का उल्लेखनीय सटीक सन्निकट मान दिया।[4] उन्होंने एक आर्किमिडीज सर्पिल को भी परिभाषित किया, जो उनके नाम पर आधारित है, घूर्णन की सतह के आयतन के लिए सूत्र दिए और बहुत बड़ी संख्याओं को व्यक्त करने के लिए एक सरल प्रणाली भी दी।
आर्किमिडीज सेराक्यूस की घेराबंदी के दौरान मारे गए जब एक रोमन सैनिक ने उनकी हत्या कर दी, हालांकि यह आदेश दिया गया था कि उन्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचना चाहिए। सिसरो आर्किमिडिज़ का मकबरा, जो एक बेलन के अंदर अन्दर स्थित गुंबद की तरह है, पर जाने का वर्णन करते हैं कि, आर्किमिडीज ने साबित किया था कि गोले का आयतन और इसकी सतह का क्षेत्रफल बेलन का दो तिहाई होता है (बेलन के आधार सहित) और इसे उनकी एक महानतम गणितीय उपलब्धि माना जाता है।
उनके आविष्कारों के विपरीत, आर्किमिडीज़ के गणितीय लेखन को प्राचीन काल में बहुत कम जाना जाता था। एलेगज़ेनडरिया से गणितज्ञों ने उन्हें पढ़ा और उद्धृत किया, लेकिन पहला व्याख्यात्मक संकलन सी. तक नहीं किया गया था। यह 530 ई. में मिलेटस के इसिडोर ने किया, जब छठी शताब्दी ई. में युटोकियास ने आर्किमिडीज़ के कार्यों पर टिप्पणियां लिखीं और पहली बार इन्हें व्यापक रूप से पढने के लिये उपलब्ध कराया गया। आर्किमिडीज़ के लिखित कार्य की कुछ प्रतिलिपियां जो मध्य युग तक बनी रहीं, वे पुनर्जागरण के दौरान वैज्ञानिकों के लिए विचारों का प्रमुख स्रोत थीं,[5] हालांकि आर्किमिडीज़ पालिम्प्सेट में आर्किमिडीज़ के द्वारा पहले से किये गए अज्ञात कार्य की खोज 1906 में की गयी थी, जिससे इस विषय को एक नयी अंतर्दृष्टि प्रदान की कि उन्होंने गणितीय परिणामों को कैसे प्राप्त किया।[6]
जीवनी
आर्किमिडीज का जन्म 287 ई.पू. सेराक्यूस, सिसिली के बंदरगाह शहर में मैग्ना ग्रासिया की एक बस्ती में हुआ था। उनके जन्म की तारीख, बीजान्टिन यूनानी इतिहासकार जॉन ज़ेतज़ेस के कथन पर आधारित है, इसके अनुसार आर्किमिडीज़ 75 वर्ष तक जीवित रहे। [7]
द सेंड रेकोनर में, आर्किमिडीज़ अपने पिता का नाम फ़िदिआस बताते हैं, उनके अनुसार वे एक खगोल विज्ञानी थे, जिसके बारे में कुछ भी ज्ञात नहीं है। प्लूटार्क ने अपनी पेरेलल लाइव्ज़ में लिखा कि आर्किमिडीज़ सेराक्यूस के शासक, राजा हीरो से सम्बंधित थे।[8]
आर्किमिडीज़ की एक जीवनी उनके मित्र हीराक्लिडस के द्वारा लिखी गयी, लेकिन उनका कार्य खो गया है, जिससे उनके जीवन के विवरण अस्पष्ट ही रह गए हैं।[9]
उदाहरण के लिए, यह अज्ञात है कि वह शादी शुदा थे या नहीं या उनके बच्चे थे या नहीं। संभवत: अपनी जवानी में आर्किमिडीज़ ने अलेक्जेंड्रिया, मिस्र में अध्ययन किया, जहां वे सामोस के कोनन और सायरीन के इरेटोस्थेनेज समकालीन थे।
उन्हें उनके मित्र की तरह सामोस के कोनन से सन्दर्भित किया जाता था, जबकि उनके दो कार्यो (यांत्रिक प्रमेय की विधि और केटल समस्या (the Cattle Problem)) का परिचय इरेटोस्थेनेज के संबोधन से दिया जाता था।[20]
आर्किमिडीज की मृत्यु c 212 ई.पू. दूसरे पुनिक युद्ध के दौरान हुई जब रोमन सेनाओं ने जनरल मार्कस क्लाउडियस मार्सेलस के नेतृत्व में दो साल की घेराबंदी के बाद सेराक्यूस शहर पर कब्ज़ा कर लिया।
प्लूटार्क के द्वारा दिए गए लोकप्रिय विवरण के अनुसार, आर्किमिडीज़ एक गणितीय चित्र पर विचार कर रहे थे, जब शहर पर कब्ज़ा किया गया।
एक रोमन सैनिक ने उन्हें आकर जनरल मार्सेलस से मिलने का आदेश दिया, लेकिन उन्होंने यह कहकर इनकार कर दिया कि उन्हें अपनी समस्या पर काम पूरा करना है।
इससे सैनिक नाराज हो गया और उसने अपनी तलवार से आर्किमिडीज़ को मार डाला। प्लूटार्क आर्किमिडीज़ की मृत्यु का भी एक विवरण देते हैं lesser-known जिसमें यह कहा गया है कि संभवतया उन्हें तब मार दिया गया जब वे एक रोमन सैनिक को समर्पण करने का प्रयास कर रहे थे।
इस कहानी के अनुसार, आर्किमिडीज गणितीय उपकरण ले जा रहे थे और उन्हें इसलिए मार दिया गया क्योंकि सैनिक ने सोचा कि ये कीमती सामान है।
कहा जाता है कि आर्किमिडीज़ की मृत्यु से जनरल मार्सेलस बहुत क्रोधित हुए, क्योंकि वे उन्हें एक अमूल्य वैज्ञानिक सम्पति मानते थे और उन्होंने आदेश दिए थे कि आर्किमिडीज़ को किसी भी प्रकार का नुकसान नहीं पहुंचाया जाना चाहिए। [10]
माना जाता है कि आर्किमिडीज़ के अंतिम शब्द थे, "मेरे वृतों को परेशान मत करो (Do not disturb my circles)" (), यहां वृतों का सन्दर्भ उस गणितीय चित्र के वृतों से है जिसे आर्किमिडीज़ उस समय अध्ययन कर रहे थे जब रोमन सैनिक ने उन्हें परेशान किया।
इन शब्दों को अक्सर लैटिन में "Noli turbare circulos meos" के रूप में वर्णित किया जाता है, लेकिन इस बात के कोई भरोसेमंद प्रमाण नहीं हैं कि आर्किमिडिज़ ने ये शब्द कहे थे और ये प्लूटार्क के द्वारा दिए गए विवरण में नहीं मिलते हैं।[10]
आर्किमिडीज के मकबरे पर उनका पसंदीदा गणितीय प्रमाण चित्रित किया हुआ है, जिसमें समान उंचाई और व्यास का एक गोला और एक बेलन है। आर्किमिडीज़ ने प्रमाणित कि गोले का आयतन और सतह का क्षेत्रफल बेलन (आधार सहित) का दो तिहाई होता है।
75 ई.पू. में, उनकी मृत्यु के 137 साल बाद, रोमन वक्ता सिसरो सिसिली में कोषाध्यक्ष के रूप में सेवारत थे। उन्होंने आर्किमिडीज़ के मकबरे के बारे में कहानियां सुनी थीं, लेकिन स्थानीय लोगों में से कोई भी इसकी स्थिति बताने में सक्षम नहीं था। अंततः उन्होंने इस मकबरे को सेराक्यूस में एग्रीजेंटाइन गेट के पास खोज लिया, यह बहुत ही उपेक्षित हालत में था और इस पर बहुत अधिक झाडियां उगीं हुईं थीं।
सिसरो ने मकबरे को साफ़ किया और इसके ऊपर हुई नक्काशी को देख पाए और उस पर शिलालेख के रूप में उपस्थित कुछ छंदों को पढ़ा.[11]
आर्किमिडीज़ के जीवन के मानक संस्करणों को उनकी मृत्यु के लम्बे समय बाद प्राचीन रोम के इतिहासकारों के द्वारा लिखा गया। पोलिबियस के द्वारा दिया गया सेराक्यूस की घेराबंदी का विवरण उनकी यूनिवर्सल हिस्ट्री (Universal History) में आर्किमिडीज़ की मृत्यु के लगभग 70 वर्ष के बाद लिखा गया और इसे बाद में प्लूटार्क और लिवी के द्वारा एक स्रोत के रूप में प्रयुक्त किया गया। यह एक व्यक्ति के रूप में आर्किमिडीज़ पर थोड़ा प्रकाश डालता है और उन युद्ध मशीनों पर ध्यान केंद्रित करता है, जिन्हें माना जाता है कि उन्होंने शहर की रक्षा करने के लिए बनाया था।
खोजें और आविष्कार (Discoveries and inventions)
सोने का मुकुट (The Golden Crown)
आर्किमिडीज़ के बारे में सबसे व्यापक रूप से ज्ञात तथ्य (anecdote) यह बताता है कि किस प्रकार से उन्होंने एक अनियमित आकृति के एक वस्तु के आयतन को निर्धारित करने के लिए विधि की खोज की।
विट्रूवियस के अनुसार, राजा हीरो II के लिए एक लौरेल व्रेथ के आकार का एक नया मुकुट बनाया गया था और आर्किमिडीज़ से यह पता लगाने के लिए कहा गया कि यह मुकुट शुद्ध सोने से बना है या बेईमान सुनार ने इसमें चांदी मिलायी है।[12]
आर्किमिडीज़ को मुकुट को नुकसान पहुंचाए बिना इस समस्या का समाधान करना था, इसलिए वह इसके घनत्व की गणना करने के लिए इसे पिघला कर एक नियमित आकार की वस्तु में नहीं बदल सकता था।
नहाते समय, उन्होंने देखा कि जब वे टब के अन्दर गए, टब में पानी का स्तर ऊपर उठ गया और उन्होंने महसूस किया कि इस प्रभाव का उपयोग मुकुट के आयतन को निर्धारित करने के लिए किया जा सकता है। व्यवहारिक प्रयोजनों के लिए पानी को संपीडित नहीं किया जा सकता है,[13] इसलिए डूबा हुआ मुकुट अपने आयतन की बराबर मात्रा के पानी को प्रतिस्थापित करेगा। मुकुट के भार को प्रतिस्थापित पानी के आयतन से विभाजित करके, मुकुट का घनत्व प्राप्त किया जा सकता है। यदि इसमें सस्ते और कम घनत्व वाले धातु मिलाये गए हैं तो इसका घनत्व सोने से कम होगा।
फिर क्या था, आर्किमिडीज़ अपनी इस खोज से इतने ज्यादा उत्तेजित हो गए कि वे कपडे पहनना ही भूल गए और नग्न अवस्था में गलियों में भागते हुए चिल्लाने लगे "यूरेका (Eureka)!" (यूनानी: "εὕρηκα!," अर्थ "मैंने इसे पा लिया!")[14][14]
सोने के मुकुट की कहानी आर्किमिडीज़ के ज्ञात कार्यों में प्रकट नहीं होती है। इसके अलावा, पानी के विस्थापन के मापन में आवश्यक सटीकता की अत्यधिक मात्रा के कारण, इसके द्वारा वर्णित विधि की व्यवहारिकता पर सवाल उठाये गए हैं।[15]
संभवत: आर्किमिडीज़ ने एक ऐसा हल दिया जो जलस्थैतिकी में आर्किमिडीज़ के सिद्धांत नामक सिद्धांत पर लागू होता है, जिसे वे अपने एक ग्रन्थ ऑन फ्लोटिंग बोडीज़ (on Floating Bodies) में वर्णित करते हैं।
इस सिद्धांत के अनुसार एक तरल में डूबी हुई वस्तु पर एक उत्प्लावन बल (buoyant force) लगता है जो इसके द्वारा हटाये गए तरल के भार के बराबर होता है।[16]
इस सिद्धांत का प्रयोग करते हुए, सोने के मुकुट के घनत्व की तुलना ठोस सोने से करना संभव हो गया होगा, इसके लिए पहले मुकुट को सोने के एक नमूने के साथ एक पैमाने पर संतुलित किया गया होगा, फिर तंत्र को पानी में डुबाया गया होगा।
यदि मुकुट सोने से कम घना था, इसने अपने अधिक आयतन के कारण अधिक पानी को प्रतिस्थापित किया होगा और इस प्रकार इस पर लगने वाले उत्प्लावन बल की मात्रा नमूने से अधिक रही होगी।
उत्प्लावकता में यह अंतर पैमाने पर दिखायी दिया होगा। गैलीलियो ने माना कि "संभवतया आर्किमिडीज़ ने इसी विधि का उपयोग किया होगा, चूंकि, बहुत सटीक होने के साथ, यह खुद आर्किमिडीज़ के द्वारा दिए गए प्रदर्शन पर आधारित है।"[17]
आर्किमिडिज़
इंजीनियरिंग के क्षेत्र में आर्किमिडीज़ के द्वारा किये गए कार्य का एक बड़ा हिस्सा, उसके अपने शहर सेराक्युज़ की जरूरतों को पूरा करने से ही हुआ। यूनानी लेखक नौक्रातिस के एथेन्यूस ने वर्णित किया कि कैसे राजा हीरोन II ने आर्किमिडीज़ को एक विशाल जहाज, सिराकुसिया (Syracusia) डिजाइन करने के लिए कहा, जिसे विलासितापूर्ण यात्रा करने के लिए, सामान की सप्लाई करने के लिए और नौसेना के युद्धपोत के रूप में प्रयुक्त किया जा सके।
माना जाता है कि सिराकुसिया प्राचीन काल का सबसे बड़ा जहाज था।[18]
एथेन्यूस के अनुसार, यह 600 लोगों को ले जाने में सक्षम था, साथ ही इसकी सुविधाओं में एक बगीचे की सजावट, एक व्यायामशाला और देवी एफोर्डाईट को समर्पित एक मंदिर भी था। चूंकि इस आकार का एक जहाज पतवार के माध्यम से पानी की एक बड़ी मात्रा का रिसाव करेगा, इस पानी को हटाने के लिए आर्किमिडीज़ का स्क्रू बनाया गया।
आर्किमिद्दिज़ की मशीन एक एक उपकरण थी, जिसमें एक बेलन के भीतर घूर्णन करते हुए स्क्रू के आकार के ब्लेड थे। इसे हाथ से घुमाया जाता था और इसक प्रयोग पानी के एक low-lying निकाय से पानी को सिंचाई की नहर में स्थानांतरित करने के लिए भी किया जा सकता था। आर्किमिडीज़ के स्क्रू का उपयोग आज भी द्रव और कणीय ठोस जैसे कोयला और अनाज को पम्प करने के लिए किया जाता है। रोमन काल में विट्रूवियस के द्वारा वर्णित आर्किमिडीज़ का स्क्रू संभवतया स्क्रू पम्प पर एक सुधार था जिसका उपयोग बेबीलोन के लटकते हुए बगीचों (Hanging Gardens of Babylon) की सिंचाई करने के लिए किया जाता था।[19][20][21]
आर्किमिडीज का पंजा (The Claw of Archimedes)
आर्किमिडीज का पंजा (The Claw of Archimedes) एक हथियार है, माना जाता है कि उन्होंने सेराक्यूस शहर की रक्षा के लिए इसे डिजाइन किया था। इसे "द शिप शेकर (the ship shaker)" के नाम से भी जाना जाता है, इस पंजे में एक क्रेन के जैसी भुजा थी, जिससे एक बड़ा धातु का हुक लटका हुआ था।
जब इस पंजे को एक आक्रमण करते हुए जहाज पर डाला जाता था, भुजा ऊपर की ओर उठती थी और जहाज को को उठाकर पानी से बाहर निकालती थी और संभवतः इसे डूबा देती थी।
इस पंजे की व्यवहार्यता की जांच के लिए आधुनिक परिक्षण किये गए हैं और 2005 में सुपर वेपन्स ऑफ़ द एनशियेंट वर्ल्ड (Superweapons of the Ancient World) नामक एक टेलीविजन वृतचित्र ने इस पंजे के एक संस्करण को बनाया और निष्कर्ष निकाला कि यह एक कार्यशील उपकरण था।[22][23]
आर्किमिडीज की ऊष्मा किरण (The Archimedes Heat Ray)- मिथक या वास्तविकता?
2 शताब्दी ई. के लेखक लुसियन ने लिखा कि सेराक्यूस की घेराबंदी के दौरान (c. 214-212 ई.पू.), आर्किमिडीज़ ने आग से शत्रु के जहाजों को नष्ट कर दिया। सदियों बाद ट्रालेज के एन्थेमियास ने जलते हुए कांच का उल्लेख आर्किमिडीज़ के हथियार के रूप में किया।[24] यह उपकरण, कभी कभी "आर्किमिडीज़ कि उष्मा किरण" कहलाता है, इसका उपयोग लक्ष्य जहाज पर सूर्य के प्रकाश को फोकस करने के लिए किया जाता था, जिससे वे आग लकड़ लेते थे।
यह कथित हथियार पुनर्जागरण के बाद से ही बहस का विषय रहा है।
रेने डेसकार्टेस ने इसे गलत कह कर ख़ारिज कर दिया, जबकि आधुनिक वैज्ञानिकों ने केवल उन्हीं साधनों का उपयोग करते हुए उस प्रभाव को पुनः उत्पन्न करने की कोशिश की है, जो आर्किमिडीज़ को उपलब्ध थे।[25]
यह सुझाव दिया गया है कि बहुत अधिक पॉलिश की गयी कांसे या ताम्बे की परतों का एक बड़ा समूह दर्पण के रूप में कार्य करता है, संभवतया इसी का उपयोग जहाज पर सूर्य के प्रकाश को फोकस करने के लिए किया जाता था।
इसमें परवलय परावर्ती के सिद्धांत का उपयोग किया जाता था, जैसे सौर भट्टी में किया जाता है।
आर्किमिडीज़ उष्मा किरण का एक परीक्षण 1973 में यूनानी वैज्ञानिक लोंनिस सक्कास के द्वारा किया गया।
यह प्रयोग एथेंस के बाहर स्कारामजेस नौसेना बेस पर किया गया। इस समय 70 दर्पणों का उपयोग किया गया, प्रत्येक पर एक ताम्बे की पॉलिश की गयी थी और इसक आकार लगभग 5x3 फीट था (1.5 x 1 मीटर). दर्पण, लगभग 160 फीट (50 मीटर) की दूरी पर एक रोमन युद्धपोत के एक प्लाईवुड की दिशा में रखे गए थे।
जब दर्पणों को ठीक प्रकार से फोकस किया गया, जहाज कुछ ही क्षणों में आग की लपटों में जलने लगा। प्लाईवुड जहाज पर टार के पेंट की पॉलिश थी, जिसने दहन में और अधिक योगदान दिया। [26]
अक्टूबर 2005 में मेसाचुसेट्स प्रोद्योगिकी संस्थान के विद्यार्थियों के समूह ने 127 एक फुट (30 सेंटीमीटर) की वर्गाकार दर्पण टाइलों के साथ एक प्रयोग किया, इन्हें लगभग 100 फीट (30 मीटर) की दूरी पर स्थित लकड़ी के एक जहाज पर फोकस किया।
जहाज के एक स्थान पर लपटें फूट पडीं, लेकिन केवल तब जब आकाश में बादल नहीं थे और जहाज लगभग दस मिनट के लिए इसी स्थिति में बना रहा।
यह निष्कर्ष निकला गया कि यह उपकरण इन परिस्थितियों में एक व्यवहार्य हथियार था। MIT समूह ने टेलीविजन शो मिथबस्टर्स (MythBusters), के लिए इस प्रयोग को दोहराया, जिसमें लक्ष्य के रूप में सेन फ्रांसिस्को में एक लकड़ी की मछली पकड़ने वाली नाव का उपयोग किया गया। एक बार फिर से ऐसा ही हुआ, कम मात्रा में आग लग गयी।
आग पकड़ने के लिए, लकड़ी को अपने ज्वलन बिंदु (flash point) तक पहुंचना होता है, जो लगभग 300 डिग्री सेल्सियस (570 डिग्री फारेन्हाईट) होता है।[27]
जब मिथबस्टर्स ने जनवरी 2006 में सेन फ्रांसिस्को के परिणाम का प्रसारण किया, इस दावे को "असफल" की श्रेणी में रखा गया, क्योंकि इस दहन होने के लिए समय की उपयुक्त लम्बाई और मौसम की आदर्श परिस्थितियां अनिवार्य हैं।
इस बात पर भी इशारा किया गया कि क्योंकि सेराक्यूस पूर्व की ओर सूर्य के सामने है, इसलिए रोमन बेड़े को दर्पणों से अनुकूल प्रकाश एकत्रित करने के लिए सुबह के समय आक्रमण करना पड़ता होगा। मिथबस्टर्स ने यह भी कहा कि पारंपरिक हथियार, जैसे ज्वलंत तीर या एक गुलेल से भेजे गए तीर, कम दूरी से जहाज को जलने का अधिक आसान तरीका है।[1]
अन्य खोजें या आविष्कार (Other discoveries and inventions)
जबकि आर्किमिडीज़ ने लीवर की खोज नहीं की, उन्होंने इसमें शामिल सिद्धांत का कठोर विवरण सबसे पहले दिया। एलेगज़ेनड्रिया के पेप्पस के अनुसार, लीवर्स पर उनके कार्य से उन्होंने टिप्पणी दी: "मुझे खड़े होने की जगह दो और मैं पृथ्वी को गति दे दूंगा."
()[28] प्लूटार्क ने इस बात का वर्णन किया कि कैसे आर्किमिडीज़ ने ब्लॉक-और-टैकल (block-and-tackle) घिरनी प्रणाली को डिजाइन किया, जिससे ऐसी वस्तुओं को उठाने में नाविकों ने लीवरेज का सिद्दांत इस्तेमाल किया, जो इतनी भारी थीं कि उन्हें अन्यथा हिलाना भी बहुत मुश्किल होता था।[29]
आर्किमिडीज़ को गुलेल की क्षमता और सटीकता के सुधार का श्रेय भी दिया गया है और पहले पुनिक युद्ध के दौरान उन्होंने ओडोमीटर का आविष्कार किया।
ओडोमीटर को एक गियर से युक्त एक गाड़ी की प्रणाली के रूप में वर्णित किया गया है, जो हर एक मील चलने के बाद एक गेंद को एक पात्र में डालती है।[30]
सिसरो (106-43 ई.पू.) अपने संवाद डे रे पब्लिका (De re publica) में संक्षेप में आर्किमिडीज़ का उल्लेख करते हैं, जिसमें सेराक्यूस की घेराबंदी के बाद 129 ई.पू. में हुई एक काल्पनिक बातचीत का चित्रण किया गया है, c .कहा जाता है कि 212 ई.पू., जनरल मार्कस क्लाऊडिय्स मार्सेलस (Marcus Claudius Marcellus) रोम में दो प्रणालियां वापस लाये, जिन्हें खगोल विज्ञान में सहायतार्थ प्रयुक्त किया जाता था, जो सूर्य, चंद्रमा और पांच ग्रहों की गति को दर्शाता है। सिसरो उसी तरह की प्रणाली का उल्लेख करते हैं जैसी प्रणाली मिलेटस के थेल्स और नीडस के युडोक्सस के द्वारा डिजाइन की गयी।
इस संवाद के अनुसार मार्सेलस ने एक उपकरण को सेराक्यूस से की गयी अपनी निजी लूट के रूप में रखा और अन्य सभी को रोम में टेम्पल ऑफ़ वर्च्यू को दान कर दिया।
सिसरो के अनुसार मार्सेलस की प्रणाली को गेइयास सल्पिकास गेलस के द्वारा ल्युकियास फ्युरियास फिलस को दर्शाया गया, जिसने इसे इस प्रकार से वर्णित किया:
यह एक तारामंडल (planetarium) या ओरेरी (orrery)) का वर्णन है।एलेगज़ेनड्रिया के पेप्पस ने कहा कि आर्किमिडीज़ ने इन निर्दिष्ट प्रणालियों के निर्माण पर एक पांडुलिपि लिखी है (जो अब खो चुकी है) .
इस क्षेत्र में आधुनिक अध्ययन एंटीकाइथेरा प्रणाली पर ध्यान केन्द्रित करता है, यह प्राचीन काल का एक अन्य उपकरण था जिसे संभवतया समान उद्देश्य के लिए डिजाइन किया गया था। इस प्रकार की निर्माणात्मक प्रणाली के लिए अवकल गियरिंग के परिष्कृत ज्ञान की आवश्यकता रही होगी।
इसे एक बार प्राचीन काल में उपलब्ध तकनीक के रेजं के बाहर माना जाता था, लेकिन 1902 में एंटीकाईथेरा प्रणाली की खोज ने सुनिश्चित कर दिया कि इस प्रकार के उपकरण प्राचीन यूनानियों को ज्ञात थे।[31][32]
गणित (Mathematics)
हालांकि आर्किमिडीज़ को अक्सर यांत्रिक उपकरणों का डिजाइनर कहा जाता है, उन्होंने गणित के क्षेत्र में भी योगदान दिया।
प्लूटार्क ने लिखा था: "उन्होंने उन शुद्ध विवरणों में अपना पूरा स्नेह और महत्वाकांक्षा डाल दी, जहां जीवन की असभ्य जरूरतों के लिए कोई सन्दर्भ नहीं हो सकता."[33]
आर्किमिडीज़ अपरिमित श्रृंखलाओं (infinitesimals) का उपयोग उसी तरीके से कर सकते थे जैसे कि आधुनिक समाकल कलन (integral calculus) में किया जाता है।
विरोधाभास के द्वारा प्रमाण के माध्यम से (reductio ad absurdum), वे उन सीमाओं को निर्दिष्ट करते हुए, सटीकता के एक यादृच्छिक अंश तक किसी समस्या का हल दे सकते थे, जिनमें उत्तर होता था।
यह तकनीक पूर्णता की विधि (method of exhaustion) कहलाती है और उन्होंने इसका प्रयोग पाई (π (pi)) के सन्निकट मान का पता लगाने में किया।
उन्होंने इसके लिए एक व्रत के बाहर एक बड़ा बहुभुज चित्रित किया और व्रत के भीतर एक छोटा बहुभुज चित्रित किया।
जैसे जैसे बहुभुज की भुजाओं की संख्या बढ़ती है, व्रत का सन्निकटन अधिक सटीक हो जाता है। जब प्रत्येक बहुभुज में 96 भुजाएं थीं, उन्होंने उनकी भुजाओं की लम्बाई की गणना की और दर्शाया कि π का मान 31⁄7 (लगभग 3.1429) और 310⁄71 (लगभग 3.1408) के बीच था, यह इसके वास्तविक मान लगभग 3.1416 के अनुरूप था। उन्होंने यह भी प्रमाणित किया कि व्रतों का क्षेत्रफल π और व्रत की त्रिज्या के वर्ग के गुणनफल के बराबर था।
एक व्रत के मापन में, आर्किमिडीज़ 3 के वर्ग मूल के मान को 265⁄153 (लगभग 1.7320261) से अधिक और 1351⁄780 (लगभग 1.7320512) से कम बताते हैं। वास्तविक मान लगभग 1.7320508 है जो बहुत ही सटीक अनुमान है। उन्होंने इस परिणाम को देने के साथ, इसे प्राप्त करने में प्रयुक्त विधि का कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया।
आर्किमिडीज़ के कार्य के इस पहलू के कारण जॉन वालिस ने टिप्पणी दी कि वे:"जानबूझ कर अपनी जांच को छुपाना चाहते थे जैसे कि वे अपनी जांच की विधि को रहस्य बना कर रखना चाहते थे, जबकि इसके परिणामों को सबसे सामने लाना चाहते थे। "[34]
परवलय के वर्ग की गणना में, आर्किमिडीज़ ने साबित किया कि एक परवलय और एक सीधी रेखा से घिरा हुआ क्षेत्रफल इसके भीतर उपस्थित त्रिभुज के क्षेत्रफल का 4⁄3 गुना होता है, जैसा कि दायीं और दिए गए चित्र में दर्शाया गया है। उन्होंने इस समस्या के हल को सामान्य अनुपात से युक्त एक अपरिमित ज्यामितीय श्रृंखला के रूप में व्यक्त किया1⁄4:
∑
n
=
0
∞
4
−
n
=
1
+
4
−
1
+
4
−
2
+
4
−
3
+
⋯
=
4
3
.
{\displaystyle \sum _{n=0}^{\infty }4^{-n}=1+4^{-1}+4^{-2}+4^{-3}+\cdots ={4 \over 3}.\;}
यदि इस श्रृंखला में पहला पद त्रिभुज का क्षेत्रफल है, तो दूसरा दो त्रिभुजों के क्षेत्रफल का योग है, जिनके आधार दो छोटी छेदिका रेखाएं हैं और इसी प्रकार.
यह प्रमाण श्रृंखला 1/4 + 1/16 + 1/64 + 1/256 + · · · की भिन्नता का उपयोग करता है, जिसका योग 1⁄3 है।
द सेंड रिकोनर में, आर्किमिडीज़ ने इस ब्रह्माण्ड में उपस्थित मिटटी के कणों की संख्या की गणना करने के लिए एक समुच्चय दिया। ऐसा करने में, उन्होंने इस धारणा को चुनौती दी कि मिटटी के कणों की संख्या इतनी बड़ी है कि इसकी गणना नहीं की जा सकती है।
उन्होंने लिखा: "कुछ लोग, राजा गेलो (गेलो II, हीरो II का पुत्र) सोचते हैं कि मिटटी की संख्या अनंत में अपरिमित है; और मेरा मानना है कि मिटटी न केवल सेराक्यूस और शेष सिसिली में है बल्कि हर उस क्षेत्र में है जहां आवास है या आवास नहीं है। इस समस्या का हल करने के लिए, आर्किमिडीज़ ने असंख्य (myriad) के आधार पर गणना की एक प्रणाली दी।
यह शब्द ग्रीक μυριάς murias से बना है; यह 10,000 की संख्या के लिए है। उन्होंने असंख्य की एक असंख्य घात (100 मिलियन) की एक अंक प्रणाली की प्रस्तावना दी और निष्कर्ष निकाला कि मिटटी के कणों की संख्या जो एक ब्रह्माण्ड को भरने के लिए आवश्यक है वह 8 विजिनटिलीयन, या 8 ×1063 है।[35]
लेखन (Writings)
आर्किमिडीज़ के कार्य को डोरिक यूनानी में लिखा गया, जो प्राचीन सेराक्यूस की बोली है।[36]
युक्लीड की तरह आर्किमिडीज़ का लिखित कार्य भी मौजूद नहीं है और उनके सात ग्रंथों की उपस्थिति को जाना जाता है, जिसका सन्दर्भ अन्य लेखकों के द्वारा दिया गया है।
एलेगज़ेनड्रिया के पेप्पस ऑन स्फीयर मेकिंग (On Sphere-Making) का और बहुकोणीय आकृति पर किये गए अन्य कार्य का उल्लेख करते हैं, जबकि एलेगज़ेनड्रिया के थियोन केटोपट्रिक से अपवर्तन के बारे में एक टिप्पणी का उद्धरण देते हैं। [b]
उसके जीवनकाल के दौरान, आर्किमिडीज़ ने एलेगज़ेनड्रिया में गणितज्ञों के साथ पत्राचार के माध्यम से अपने कार्य को प्रसिद्ध बनाया। आर्किमिडीज़ के लेखन को मिलेटस के बीजान्टिन वास्तुकार इसिडोर के द्वारा संग्रहित किया गया। (c .530 ई.), जबकि आर्किमिडीज़ के कार्यों पर टिप्पणियों को छठी शताब्दी ई. में युटोकियास के द्वारा लिखा गया, उन्होंने उनके कार्य के लिए व्यापक दर्शक एकत्रित किये। आर्किमिडीज़ के कार्य को थाबित इब्न क्युर्रा (Thābit ibn Qurra) के द्वारा अरबी में अनुवादित किया गया (836-901 ई.) और सेरामोना के जेरार्ड के द्वारा लैटिन में अनुवादित किया गया (c. 1114-1187 ई.). पुनर्जागरण के दौरान, ग्रीक और लैटिन में आर्किमिडीज़ के कार्य के साथ, एडिटियो प्रिन्सेप्स (Editio Princeps) को 1544 में जोहान हर्वेगन के द्वारा बेसल (Basel) में प्रकाशित किया गया।[37]
ऐसा प्रतीत होता है कि वर्ष 1586 के आस पास गैलीलियो गैलीली ने आर्किमिडीज़ के कार्य से प्रेरित होकर वायु और जल में धातुओं का भार ज्ञात करने के लिए जलस्थैतिक तुला का आविष्कार किया।[38]
उपस्थित कार्य
तलों की साम्याव्स्था (दो खंड)
पहली पुस्तक पंद्रह प्रस्तावों में और सात अवधारणाओं से युक्त है, जबकि दूसरी पुस्तक दस प्रस्तावों में है।
इस कार्य में आर्किमिडीज़ उत्तोलक के नियम को स्पष्ट करते हैं, कहते हैं, "उनके भार की व्युत्क्रमानुपाती दूरियों में आयाम साम्यावस्था में हैं।".
आर्किमिडीज़ ज्यामितीय आकृतियों जैसे त्रिभुज, समानांतर चतुर्भुज और परवलय के क्षेत्रफल और गुरुत्व केंद्र की गणना करने के लिए व्युत्पन्न सिद्धांतों का उपयोग करते हैं।[39]
एक व्रत का मापन
यह एक छोटा कार्य है जो तीन प्रस्तावों से युक्त है। इसे पेलुसियम के डोसीथियास के साथ पत्राचार के रूप में लिखा गया है, जो सामोस के कोनोन के विद्यार्थी थे।
प्रस्ताव II में, आर्किमिडीज़ दर्शाते हैं की π (pi (पाई)) का मान से अधिक और से कम होता है। बाद वाले आंकड़े (आंकिक मान) को मध्य युग में π (pi) के सन्निकट मान के रूप में प्रयुक्त किया गया। और आज भी इसका उपयोग किया जाता है जब एक रफ मान की आवश्यकता होती है।
ऑन स्पाईरल्स (On Spirals)
28 प्रस्ताव का यह कार्य भी डोसीथियास को संबोधित है। यह ग्रन्थ वर्तमान के आर्किमिडीज़ सर्पिल को परिभाषित करता है।
यह उन बिन्दुओं का बिन्दुपथ है जो एक ऐसे बिंदु की स्थिति से सम्बंधित है जो समय के साथ एक स्थिर गति से एक ऐसी रेखा पर चलते हुए एक स्थिर बिंदु से दूर जा रहा है जो स्थिर कोणीय वेग के साथ घूर्णन कर रही है।
इसके तुल्य, ध्रुवीय निर्देशांकों (r, θ) में इसे इस समीकरण के द्वारा वर्णित किया जा सकता है।
जहां a और b वास्तविक संख्यायें हैं। यह एक यूनानी गणितज्ञ के द्वारा विचार किया गया एक यांत्रिक वक्र (एक गतिशील बिंदु के द्वारा बनाया गया वक्र) का प्रारंभिक उदाहरण है।
गोला और बेलन (दो खंड)
डोसीथियास को संबोधित इस ग्रन्थ में, आर्किमिडीज़ ने वह परिणाम प्राप्त किया जिसके लिए उन्हें सबसे ज्यादा गर्व था, यह था एक समान उंचाई और व्यास के बेलन और इसके भीतर उपस्थित गोले के बीच सम्बन्ध।
गोले का आयतन 4⁄3π<i data-parsoid='{"dsr":[37056,37061,2,2]}'>r 3 और बेलन का आयतन का 2π<i data-parsoid='{"dsr":[37096,37101,2,2]}'>r 3 था।
गोले की सतह का क्षेत्रफल 4π<i data-parsoid='{"dsr":[37147,37152,2,2]}'>r 2, और बेलन की सतह का क्षेत्रफल 6π<i data-parsoid='{"dsr":[37197,37202,2,2]}'>r 2 (दो आधार सहित),
जहां r गोले और बेलन की त्रिज्या है।
गोले का आयतन और सतह का क्षेत्रफल बेलन का है।
आर्किमिडीज़ के अनुरोध पर उनके मकबरे पर एक गोला और बेलन बनाया गया है।
शंकुभ और गोलाभ
यह डोसीथियास को संबोधित कार्य है जो 32 प्रस्तावों में है।
इस ग्रंथ में आर्किमिडीज शंकु, गोले और परवलय के भागों के क्षेत्रफल और आयतन की गणना करते हैं।
प्लवित पिंड (दो खंड)
इस ग्रंथ के पहले भाग में, आर्किमिडीज तरल के साम्यावस्था के नियम को बताते हैं और साबित करते हैं कि एक गुरुत्व केंद्र के चारों और पानी एक गोले का रूप ले लेता है।
यह समकालीन ग्रीक खगोलविदों इरेटोस्थेनेज के इस सिद्धांत को स्पष्ट करने का प्रयास हो सकता है कि पृथ्वी गोल है।
आर्किमिडीज द्वारा वर्णित तरल पदार्थ नहीं हैं, चूंकि वे एक ऐसे बिंदु के अस्तित्व को मानते हैं जिसकी ओर सभी चीजें गोलाकार आकृति उत्पन्न करने के लिए गिरती हैं।
दूसरे भाग में, वे परवलय के भाग की संतुलन (एक्वलिब्रियम) की स्थिति की गणना करते हैं।
यह शायद जहाज के हुल की आकृति के लिए बनाया गया आदर्श था। इनमें से कुछ सेक्शन पानी के नीचे आधार के साथ तैरते हैं और पानी के ऊपर शीर्ष पर रहते हैं, ठीक वैसे ही जैसे एक आइसबर्ग तैरता है।
आर्किमिडीज़ का उत्प्लावकता का सिद्धांत इस कार्य में दिया गया है, जिसे इस प्रकार से बताया गया है:
द क्वाडरचर ऑफ़ द पेराबोला (The Quadrature of the Parabola)
24 प्रस्तावों का यह कार्य डोसीथियास को समबोधित है, आर्किमिडीज़ दो विधियों से यह सिद्ध करते हैं कि एक परवलय और एक सीधी रेखा से घिरा हुआ क्षेत्रफल, समान आधार और उंचाई के त्रिभुज के क्षेत्रफल का 4/3 गुना होता है।
वह इसे एक ज्यामितीय श्रृंखला के मान की गणना के द्वरा प्राप्त करते हैं, जिसका योग अनुपात के साथ 1⁄4 है।
स्तोमचिऑन
यह टेनग्राम के समान एक विच्छेदन पहेली है और इसे वर्णित करने वाला ग्रन्थ आर्किमिडीज़ पलिम्प्सेस्ट में अधिक पूर्ण रूप में पाया गया है। आर्किमिडीज़ 14 खण्डों के क्षेत्रफल की गणना करते हैं, जिन्हें मिला कर एक वर्ग बनाया जा सकता है।
2003 में स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के डॉ॰ रीवील नेत्ज़ के द्वारा प्रकाशित शोध में तर्क दिया गया कि आर्किमिडीज़ यह पता लगाने का प्रयास कर रहे थे कि कितने तरीकों से टुकड़ों को मिला कर एक वर्ग का गोला बनाया जा सकता है।
डॉ॰ नेत्ज़ ने गणना की कि टुकड़ों से 17,152 तरीकों से वर्ग बनाया जा सकता है।[40] व्यवस्थाओं की संख्या 536 है जबकि घूर्णन और प्रतिबिबं के तुल्य परिणामों को शामिल नहीं किया गया है।[41] पहेली संयोजन विज्ञान में प्रारंभिक समस्या के एक उदाहरण को का प्रतिनिधित्व करती है।
पहेली के नाम की उत्पति स्पष्ट नहीं है और यह सुझाव दिया गया है कि इसे प्राचीन ग्रीक से घाले, या गुलेट या आमाशय के लिए लिया गया है। ().[42]
ऑसोनियास ने इस पहेली को ओस्टोमेकियन कहा है, यह ग्रीक संयुक्त शब्द है जो ὀστέον (ओस्टियन, अस्थि) और μάχη (माचे-लड़ाई) से बना है।
इस पहेली को लोकुलस ऑफ़ आर्किमिडीज या आर्किमिडीज के बॉक्स के रूप में भी जाना जाता है।[43]
आर्किमिडीज़' केटल प्रोबलम (Archimedes' cattle problem)
इसे ग्रीक पाण्डुलिपि में गोथोल्ड एफ्रेम लेसिंग के द्वारा खोजा गया, यह 44 लाइनों की कविता से बनी है, जिसे वोल्फानबुट्टेल, जर्मनी में हर्जोग अगस्त पुस्तकालय में पाया गया।
यह एरेटोस्थेनेज और एलेगज़ेनड्रिया के गणितज्ञों को संबोधित है।
आर्किमिडीज़ उन्हें चुनौती देते हैं कि वे सूर्य के झुण्ड में मवेशियों की संख्या की गणना करें, इसके लिए स्वतः डायोफेन्ताइन समीकरण की एक संख्या के हल का उपयोग किया जाये.
इस समस्या का एक और अधिक मुश्किल संस्करण है, जिसमें कुछ उत्तर वर्ग संख्याएं होनी चाहियें. समस्या के इस संस्करण का हल पहले ऐ एम्थर[44] के द्वारा 1880 में किया गया और एक बड़ी संख्या में उत्तर दिया गया जो लगभग 7.760271×10206544 था।[45]
द सेंड रेकोनर (The Sand Reckoner)
इस ग्रंथ में, आर्किमिडीज इस पूरे ब्रह्माण्ड में उपस्थित रेत के कणों की संख्या की गणना करते हैं। इस पुस्तक में सामोस के एरिस्ताकास के द्वारा प्रस्तावित सौर तंत्र के सूर्य केंद्री सिद्धांत का उल्लेख किया गया है, साथ ही धरती के आकार और भिन्न आकाशीय पिंडों के बीच की दूरी के बारे में समकालीन विचार भी दिए गए हैं।
असंख्य (myriad) की घाट पर आधारित संख्या प्रणाली का उपयोग करते हुए, आर्किमिडीज़ ने निष्कर्ष निकाला कि ब्रह्माण्ड को भरने के लिए आवश्यक मिट्टी के कणों के कणों की संख्या आधुनिक संकेतन में 8×1063 है।
परिचय पत्र कहते हैं कि आर्किमिडीज़ के पिता एक खगोलविज्ञानी थे जिनका नाम फ़िदिआस था। द सेंड रेकोनर (The Sand Reckoner) या समिटेस (Psammites) एकमात्र उपस्थित कार्य है जिसमें आर्किमिडीज़ खगोलविज्ञान के बारे में अपने विचारों की चर्चा करते हैं।[46]
द मेथड ऑफ़ मेकेनिकल थ्योरम्स (The Method of Mechanical Theorems)
माना जाता है कि यह ग्रन्थ 1906 में आर्किमिडीज़ के पलिम्प्सेस्ट की खोज तक खो चुका था।
इस कार्य में आर्किमिडीज़ अपरिमित श्रृंखलाओं का उपयोग करते हैं और दर्शाते हैं कि एक नंबर को असंख्य संख्याओं में या असंख्य छोटे छोटे भागों में तोड़ कर कैसे आयतन या क्षेत्रफल का पता लगाया जा सकता है।
आर्किमिडीज़ ने माना कि इस तरीके में औपचारिक कठोरता की कमी है, इसलिए उन्होंने परिणाम पाने के लिए पूर्णता की विधि (method of exhaustion) का भी प्रयोग किया।
केटल समस्या की तरह, द मेथड ऑफ़ मेकेनिकल थ्योरम को एलेगज़ेनड्रिया में इरेटोस्थेनेज को लिखे गए के पत्र के रूप में लिखा गया।
मनगढ़ंत कार्य (Apocryphal works)
आर्किमिडीज़ की book of Lemmas or Liber Assumptorum एक ग्रन्थ है जिसमें वृतों की प्रकृति पर पंद्रह प्रस्ताव दिए गए हैं।
इस पाठ्य की प्राचीनतम ज्ञात प्रतिलिपि अरबी में है। विद्वानों टी एल हीथ और मार्शल क्लागेत्त ने तर्क दिया कि यह अपने वर्तमान रूप में आर्किमिडीज़ के द्वारा नहीं लिखा जा सकता, संभवतया अन्य लेखकों ने इसमें संशोधन के प्रस्ताव दिए हैं।
लेम्मास आर्किमिडीज़ के प्रारंभिक कार्य पर आधारित हो सकता है, जो अब खो चुका है।[47]
यह दावा भी किया गया है कि एक त्रिभुज के भुजाओं की लम्बाई से क्षेत्रफल की गणना करने के लिए हीरोन का सूत्र आर्किमिडीज़ के द्वारा ही दिया गया।[c] हालांकि, इस सूत्र के लिए पहले भरोसेमंद सन्दर्भ पहली शताब्दी ई. में एलेगज़ेनड्रिया के हीरोन के द्वारा दिए गए।[48]
आर्किमिडीज पलिम्प्सेस्ट
सबसे प्राचीन दस्तावेज जिसमें आर्किमिडीज़ का कार्य है, वह है आर्किमिडिज़ पलिम्प्सेस्ट. 1906 में, डेनमार्क के प्रोफ़ेसर, जॉन लुडविग हीबर्ग ने कांस्टेंटिनोपल का दौरा किया और 13 वीं सदी ई. में लिखित प्रार्थना की गोत्स्किन चर्मपत्र की जांच की। उन्होंने पाया कि यह एक पलिम्प्सेस्ट था, एक पाठ्य से युक्त एक दस्तावेज जिसे मिटाए गए पुराने कार्य के ऊपर लिखा गया था।
पलिम्प्सेस्ट को बनाने के लिए उस पर उपस्थित स्याही को खुरच कर निकाल दिया गया और उसका पुनः उपयोग किया गया, यह मध्य युग में इस आम प्रथा थी, क्योंकि चर्मपत्र महंगा होता था। पलिम्प्सेस्ट में उपस्थित पुराने कार्य को विद्वानों ने10 वीं सदी ई में आर्किमिडीज़ के पहले से अज्ञात ग्रन्थ के रूप में पहचाना.[49]
चर्मपत्र सैंकड़ों वर्षों तक कांस्टेंटिनोपल में एक मठ के पुस्तकालय में पड़ा रहा, 1920 में इसे एक निजी कलेक्टर को बेच दिया गया।
29 अक्टूबर 1998 को इसे न्युयोर्क में क्रिस्टी में नीलामी के द्वारा एक अज्ञात खरीददार को 2 मिलियन डॉलर में बेच दिया गया।[50]
पलिम्प्सेस्ट में सात ग्रन्थ हैं, जिसमें मूल ग्रीक में ऑन फ्लोटिंग बोडीज़ (On Floating Bodies) की एकमात्र मौजूदा प्रतिलिपि भी शामिल है। यह द मेथड ऑफ़ मेकेनिकल थ्योरम्स (The Method of Mechanical Theorems), का एकमात्र ज्ञात स्रोत है, इसे सुइदास से सन्दर्भित किया जाता है और मन जाता है कि हमेशा के लिए खो गया है। स्टोमेकीयन को भी पलिम्प्सेस्ट में खोजा गया, जिसमें पिछले पाठ्यों की तुलना में पहेली का अधिक पूर्ण विश्लेषण दिया गया है।
पलिम्प्सेस्ट को अब वाल्टर्स कला संग्रहालय, बाल्टीमोर, मेरीलैंड में रखा गया है, जहां इस पर कई परिक्षण किये गये हैं, जिनमें ओवरराईट किये गए पाठ्य को पढ़ने के लिए पराबैंगनी और x-ray प्रकाश का उपयोग शामिल है।[51]
आर्किमिडीज पलिम्प्सेस्ट में ग्रंथ हैं: ऑन द इक्वलिब्रियम ऑफ़ प्लेन्स (On the Equilibrium of Planes), ऑन स्पाईरल्स (On Spirals), मेजरमेंट ऑफ़ अ सर्कल (Measurement of a Circle), ऑन द स्फीयर एंड द सिलिंडर (On the Sphere and the Cylinder), ऑन फ्लोटिंग बोडीज़ (On Floating Bodies), द मेथड ऑफ़ मेकेनिकल थ्योरम्स (The Method of Mechanical Theorems) और स्टोमेकीयन (Stomachion) .
विरासत
चांद की सतह पर एक गड्ढा है जिसे आर्किमिडीज़ के सम्मान में आर्किमिडीज गर्त (29.7° N, 4.0° W) नाम दिया गया है, साथ ही चाँद की एक पर्वत श्रृंखला को भी आर्किमिडीज़ पर्वतमाला (25.3° N, 4.6° W) नाम दिया गया है।[52]
एस्टेरोइड 3600 आर्किमिडीज का नाम भी उनके नाम पर दिया गया है।[53]
गणित में उत्कृष्ट उपलब्धि के लिए फील्ड मेडल में आर्किमिडीज़ का चित्र है, साथ ही उनका एक प्रमाण भी एक गोले और बेलन के रूप में दिया गया है।
आर्किमिडीज़ के सर के चारों ओर लैटिन में लिखा गया है: "Transire suum pectus mundoque potiri" (अपने ऊपर उठाना और दुनिया को पकड़ना)।[54]
आर्किमिडीज़ पूर्वी जर्मनी (1973), यूनान (1983), इटली (1983), निकारागुआ (1971), सैन मैरिनो (1982) और स्पेन (1963) के द्वारा जारी की गयी डाक टिकटों पर भी दिखायी दिए।[55]
यूरेका! के विस्मयादिबोधक को आर्किमिडीज़ के सम्मान में कैलिफोर्निया का एक आदर्श वाक्य बनाया गया है। इस उदाहरण में यह शब्द 1848 में सुतर की मिल के पास सोने की खोज से सन्दर्भ रखता है जो केलिफोर्निया गोल्ड रश में सापने आया।[56]
नागरिकों से युक्त एक ऐसा आन्दोलन जो संयुक्त राज्य के ओरेगोन राज्य में स्वास्थ्य रक्षा के लिए सार्वभौमिक पहुंच को लक्ष्य बनता है, इसे "आर्किमिडीज़ आन्दोलन" नाम दिया गया है, इसके अध्यक्ष पूर्व ओरेगोन गवर्नर जॉन किट्साबर हैं।[57]
यह भी देखें.
आर्किमिडीज़ का स्वयं सिद्ध कथन
आर्किमिडीज़ की संख्या
आर्किमिडीज़ का विरोधाभास
आर्किमिडीज़ की संपत्ति
आर्किमिडीज का स्क्रू
आर्किमिडीज़ का ठोस
आर्किमिडीज़ के दोहरे व्रत
आर्किमिडीज़ का अपरिमित श्रृंखलाओं का उपयोग
डायोकल्स
जलस्थैतिकी
कंप्यूटर वर्ग मूलों की विधियां
छद्म आर्किमिडीज़
सेलिनोन
स्टीम केनन
विट्रूवियस
झेंग हेंग
नोट्स और सन्दर्भ
नोट्स
अ. ऑन स्पाईरल्स (On Spirals) की प्रस्तावना में पेलुसियम के डोसीथियस को संबोधित किया गया, आर्किमिडीज़ कहते हैं की "केनन की मृत्यु के बाद कई साल गुजर गए हैं".
समोस का कोनोन रहते थे c. 280–220 BC सुझाव है कि आर्किमिडीज एक पुराने जब अपने काम से कुछ लिखने आदमी हो सकता है।
ब. आर्किमिडीज़ के ग्रंथों की उपस्थिति केवल अन्य लेखकों के कार्यों के माध्यम से ही ज्ञात होती है: ऑन स्फीयर मेकिंग और एलेगज़ेनड्रिया के पेप्पस के द्वारा उल्लेखित बहुकोणीय आकृति पर कार्य; केटॉपट्रिका, एलेगज़ेनड्रिया के थियोन के के द्वारा उल्लेखित प्रकाशिकी पर कार्य; प्रिंसिपल्स, ज़ेयुक्सिप्पस को संबोधन और द सेंड रिकोनर, ऑन बेलेंसेस एंड लीवर्स, ऑन सेंटर्स ऑफ़ ग्रेविटी, ऑन द केलेंडर .
आर्किमिडीज़ के उपस्थित कार्य में से, टी. एल. हेथ निम्न सुझाव देते हैं, जिन्हें इस क्रम में लिखा गया है: ऑन द एक्व्लिब्रियम ऑफ़ प्लेन्स I, द क्वड्राचर ऑफ़ द पेराबोला, ऑन द एक्व्लिब्रियम ऑफ़ प्लेन्स II, ऑन द स्फीयर एंड सिलिंडर I, ऑन स्पाईरल्स, ऑन कोनोइड्स एंड स्फीरोइड, ऑन फ्लोटिंग बोडीज़ I, II, ऑन द मेजरमेंट ऑफ़ अ सर्कल, द सेंड रिकोनर .
स. बोयर, कार्ल बेंजामिन, अ हिस्ट्री ऑफ़ मेथेमेटिक्स (1991) ISBN 0-471-54397-7 "अरबी विद्वान हमें जानकारी देते हैं कि तीनों भुजाओं के पदों में एक त्रिभुज के क्षत्रफल के लिए परिचित सूत्र, हीरोन का सूत्र कहलाता है- k = √(s (s − a)(s − b)(s − c)), जहां s अर्द्धपरिधि है-यह हीरोन से सदियों पहले आर्किमिडीज़ को ज्ञात था।
अरबी वैज्ञानिक "थ्योरम ऑफ़ द ब्रोकन कोर्ड का श्रेय भी आर्किमिडीज़ को ही देते हैं"- अरबी लोगों के अनुसार आर्किमिडीज़ ने कई प्रमाण और प्रमेय दीं।
चित्र दीर्घा
सोने में मिलावट पकड़ने के लिए आर्किमिडिज़ सिद्धांत का प्रयोग
आर्किमिडिज़ पेच पानी ऊपर उठाने में बहुत कारगर है
शायद कुछ इस तरह आर्किमिडिज़ ने दर्पणों के प्रयोग से शत्रु नावें जला डालीं
आर्किमिडिज़ ने शून्यीकरण का प्रयोग करके पाइ का परिमाण निकाला
"मैं पृथ्वी को हिला सकता हूँ"
फ़ील्ड्स मेडल पर
बर्लिन में कांस्य-प्रतिमा
वेलनाकार एवं समानाकार गेंद
सन्दर्भ
अग्रिम पठन
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CS1 maint: discouraged parameter (link) आर्किमिडीज़ के 1938 के अध्ययन और उन के कार्य के अनुवाद का एक वैज्ञानिक इतिहासकार के द्वारा पुनः प्रकाशन.
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CS1 maint: discouraged parameter (link) आर्किमिडीज़ का पूरा कार्य अंग्रेजी में.
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आर्किमिडीज़ के कार्य ऑनलाइन
शास्त्रीय ग्रीक में पाठ्य:
अंग्रेजी अनुवाद में: "आर्किमिडीज़ के कार्य", अनुवाद. टी. एल. हीथ; "" के द्वारा पूरक, अनुवाद. एल. जी. रॉबिन्सन
बाहरी कड़ियाँ
- इन आवर टाइम्स, 2007 में प्रसारण रिअल प्लेयर की आवश्यकता)
मेथपेज पर एक लेख जो यह जांच करता है कि कैसे की गणना की होगी।
श्रेणी:आर्किमिडीज़
श्रेणी:287 ईसा पूर्व जन्म
श्रेणी:212 ईसा पूर्व मृत्यु
श्रेणी:3 वीं सदी ईसा पूर्व यूनानी लोग
श्रेणी:3 वीं सदी ईसा पूर्व लेखक
श्रेणी:सेराक्यूस (शहर) से लोग, सिसिली
श्रेणी:प्राचीन यूनानी इंजीनियर
श्रेणी:प्राचीन यूनानी अन्वेषक
श्रेणी:प्राचीन यूनानी गणितज्ञ
श्रेणी:प्राचीन यूनानी भौतिकविद
श्रेणी:हेल्लेनिस्टिक युग के दार्शनिक
श्रेणी:दोरिक यूनानी लेखक
श्रेणी:सिसिली के यूनानी
श्रेणी:सिसिली के गणितज्ञ
श्रेणी:सिसिली के वैज्ञानिक
श्रेणी:हत्या कर दिए गए वैज्ञानिक
श्रेणी:ज्योमीटर्स
श्रेणी:प्राचीन यूनानी जिनकी हत्या कर दी गयी।
श्रेणी:प्राचीन सेराक्युसीयन
श्रेणी:द्रव गतिकी
श्रेणी:गूगल परियोजना
श्रेणी:यूनान के दार्शनिक | आर्किमिडीज़ का जन्म कब हुआ था? | 287 ई.पू. | 44 | hindi |
2af249652 | आर्गन एक रासायनिक तत्व है। यह एक निष्क्रिय गैस है। नाइट्रोजन और ओक्सीजन के बाद यह पृथ्वी के वायुमण्डल की तीसरी सबसे अधिक मात्रा की गैस है। औसतन पृथ्वी की वायु का ०.९३% आर्गन है। यह अगली सर्वाधिक मात्रा की गैस, कार्बन डायोक्साइड, से लगभग २३ गुना अधिक है। यह पृथ्वी की सर्वाधिक मात्रा में मौजूद निष्क्रिय गैस भी है और अगली सबसे ज़्यादा मात्रा की निष्क्रिय गैस, नीयोन, से ५०० गुना अधिक मात्रा में वायुमण्डल में उपस्थित है। आर्गन को वायु से प्रभाजी आसवन (फ़्रैक्शनल डिस्टिलेशन) की प्रक्रिया द्वारा अलग किया जाता है। इसे उद्योग में और बिजली के बल्ब आदि में काफ़ी प्रयोग किया जाता है।[1][2]
इन्हें भी देखें
निष्क्रिय गैस
मदद फंड प्रसार समिति (एफडीसी) निर्णय कैसे विकिमीडिया दान खर्च करने के लिए
11 प्रस्तावों पर टिप्पणी 31 अक्टूबर तक
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आर्गन
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यह लेख रासायनिक तत्व के बारे में है। अन्य उपयोगों के लिए, आर्गन (बहुविकल्पी) देखें।
Argonne (बहुविकल्पी) के साथ भ्रमित नहीं होना चाहिए।
आर्गन, 18Ar शीशी एक बैंगनी चमक गैस युक्त
आर्गन Spectrum.png
आर्गन के वर्णक्रमीय लाइनों
सामान्य विशेषता
नाम, प्रतीक आर्गन, Ar
उच्चारण / ɑːrɡɒn /
AR-gon
सूरत बेरंग गैस एक बकाइन / बैंगनी चमक का प्रदर्शन करते है जब एक उच्च वोल्टेज बिजली के क्षेत्र में रखा
आवर्त सारणी में आर्गन
हाइड्रोजन (द्विपरमाणुक अधातु)
हीलियम (महान गैस)
लिथियम (क्षार धातु)
बेरिलियम (क्षारीय पृथ्वी धातु)
बोरान (metalloid)
कार्बन (polyatomic अधातु)
नाइट्रोजन (द्विपरमाणुक अधातु)
ऑक्सीजन (द्विपरमाणुक अधातु)
फ्लोरीन (द्विपरमाणुक अधातु)
नियॉन (महान गैस)
सोडियम (क्षार धातु)
मैग्नीशियम (क्षारीय पृथ्वी धातु)
एल्युमिनियम (पोस्ट-संक्रमण धातु)
सिलिकॉन (metalloid)
फास्फोरस (polyatomic अधातु)
सल्फर (polyatomic अधातु)
क्लोरीन (द्विपरमाणुक अधातु)
आर्गन (महान गैस)
पोटेशियम (क्षार धातु)
कैल्शियम (क्षारीय पृथ्वी धातु)
Scandium (संक्रमण धातु)
टाइटेनियम (संक्रमण धातु)
Vanadium (संक्रमण धातु)
क्रोमियम (संक्रमण धातु)
मैंगनीज (संक्रमण धातु)
आयरन (संक्रमण धातु)
कोबाल्ट (संक्रमण धातु)
निकल (संक्रमण धातु)
कॉपर (संक्रमण धातु)
जिंक (संक्रमण धातु)
गैलियम (पोस्ट-संक्रमण धातु)
जर्मेनियम (metalloid)
आर्सेनिक (metalloid)
सेलेनियम (polyatomic अधातु)
ब्रोमीन (द्विपरमाणुक अधातु)
क्रिप्टन (महान गैस)
रूबिडीयाम (क्षार धातु)
स्ट्रोंटियम (क्षारीय पृथ्वी धातु)
Yttrium (संक्रमण धातु)
Zirconium (संक्रमण धातु)
नाइओबियम (संक्रमण धातु)
मोलिब्डेनम (संक्रमण धातु)
टेक्नेटियम (संक्रमण धातु)
दयाता (संक्रमण धातु)
रोडियम (संक्रमण धातु)
पैलेडियम (संक्रमण धातु)
रजत (संक्रमण धातु)
कैडमियम (संक्रमण धातु)
ईण्डीयुम (पोस्ट-संक्रमण धातु)
टिन (पोस्ट-संक्रमण धातु)
सुरमा (metalloid)
Tellurium (metalloid)
आयोडीन (द्विपरमाणुक अधातु)
क्सीनन (महान गैस)
सीजयम (क्षार धातु)
बेरियम (क्षारीय पृथ्वी धातु)
लेण्टेनियुम (lanthanide)
सैरियम (lanthanide)
Praseodymium (lanthanide)
Neodymium (lanthanide)
Promethium (lanthanide)
Samarium (lanthanide)
युरोपियम (lanthanide)
Gadolinium (lanthanide)
Terbium (lanthanide)
Dysprosium (lanthanide)
होलमियम (lanthanide)
अर्बियम (lanthanide)
थ्यूलियम (lanthanide)
Ytterbium (lanthanide)
Lutetium (lanthanide)
हेफ़नियम (संक्रमण धातु)
टैंटलम (संक्रमण धातु)
टंगस्टन (संक्रमण धातु)
रेनीयाम (संक्रमण धातु)
आज़मियम (संक्रमण धातु)
इरिडियम (संक्रमण धातु)
प्लेटिनम (संक्रमण धातु)
गोल्ड (संक्रमण धातु)
बुध (संक्रमण धातु)
थैलियम (पोस्ट-संक्रमण धातु)
लीड (पोस्ट-संक्रमण धातु)
बिस्मथ (पोस्ट-संक्रमण धातु)
पोलोनियम (पोस्ट-संक्रमण धातु)
एस्टाटिन (metalloid)
रेडॉन (महान गैस)
Francium (क्षार धातु)
रेडियम (क्षारीय पृथ्वी धातु)
जंगी (actinide)
थोरियम (actinide)
प्रोटैक्टीनियम (actinide)
यूरेनियम (actinide)
नैप्टुनियम (actinide)
प्लूटोनियम (actinide)
रेडियोऐक्टिव (actinide)
क्यूरियम (actinide)
बर्कीलियम (actinide)
Californium (actinide)
आइंस्टिनियम (actinide)
Fermium (actinide)
मेण्डेलीवियम (actinide)
Nobelium (actinide)
लॉरेंशियम (actinide)
रदरफोर्डियम (संक्रमण धातु)
Dubnium (संक्रमण धातु)
सीबोर्गियम (संक्रमण धातु)
बोरियम (संक्रमण धातु)
हैशियम (संक्रमण धातु)
Meitnerium (अज्ञात रासायनिक गुण)
Darmstadtium (अज्ञात रासायनिक गुण)
Roentgenium (अज्ञात रासायनिक गुण)
Copernicium (संक्रमण धातु)
Ununtrium (अज्ञात रासायनिक गुण)
Flerovium (पोस्ट-संक्रमण धातु)
Ununpentium (अज्ञात रासायनिक गुण)
Livermorium (अज्ञात रासायनिक गुण)
Ununseptium (अज्ञात रासायनिक गुण)
Ununoctium (अज्ञात रासायनिक गुण)
ne
↑
ar
↓
केआर
क्लोरीन ← आर्गन → पोटेशियम
परमाणु संख्या (जेड) 18
समूह, ब्लॉक समूह 18 (नोबल गैसों), पी-ब्लॉक
काल की अवधि 3
तत्व श्रेणी महान गैस
स्टैंडर्ड परमाणु वजन (±) (Ar) 39.948 (1) [1]
इलेक्ट्रॉन विन्यास [Ne] 3s2 3p6
प्रति खोल
2, 8, 8
भौतिक गुण
चरण गैस
गलनांक 83.81 कश्मीर (-189.34 डिग्री सेल्सियस, -308.81 ° F)
उबलते बिंदु 87.302 कश्मीर (-१८५.८४८ डिग्री सेल्सियस, -३०२.५२६ ° F)
एसटीपी (0 डिग्री सेल्सियस और 101.325 किलो पास्कल) 1.784 छ / एल पर घनत्व
जब तरल, बी.पी. पर 1.3954 ग्राम / सेमी 3
ट्रिपल बिंदु 83.8058 कश्मीर, 68.89 किलो पास्कल [2]
महत्वपूर्ण बिंदु 150.687 कश्मीर, 4.863 एमपीए [2]
फ्यूजन 1.18 केजे / मोल के हीट
वाष्पीकरण 6.53 केजे / मोल के हीट
दाढ़ गर्मी क्षमता 20.85 [3] जम्मू / (मोल · कश्मीर)
वाष्प दबाव
पी (पा) 1 10 100 1 k 10 k 100 कश्मीर
टी पर (कश्मीर) 47 53 61 71 87
परमाणु गुण
ऑक्सीकरण राज्यों 0
वैद्युतीयऋणात्मकता पॉलिंग पैमाने: कोई डेटा
आयनीकरण ऊर्जा 1: 1520.6 केजे / मोल
2: 2665.8 केजे / मोल
3: 3931 केजे / मोल
(अधिक)
कोवेलेंटत्रिज्या 106 ± 10 PM पर पोस्टेड
वान डर वाल्स 188 बजे त्रिज्या
अनेक वस्तुओं का संग्रह
क्रिस्टल संरचना चेहरा केंद्रित घन (एफसीसी)
आर्गन के लिए चेहरा केंद्रित घन क्रिस्टल संरचना
ध्वनि 323 एम / एस की गति (गैस, 27 डिग्री सेल्सियस पर)
थर्मल चालकता 17.72 × 10-3 / डब्ल्यू (एम · कश्मीर)
चुंबकीय आदेश देने के प्रति-चुंबकीय [4]
कैस संख्या 7440-37-1
इतिहास
डिस्कवरी और पहली अलगाव भगवान रेले और विलियम रामसे (1894)
आर्गन की सबसे अधिक स्थिर आइसोटोप
आईएसओ NA आधा जीवन डीएम डे (एमईवी) डीपी
36Ar 0.334% - (β + β +) .4335 36S
37Ar syn 35 डी ε 0.813 37Cl
38Ar 0.063% 38Ar 20 न्यूट्रॉन के साथ स्थिर है
39Ar 0.565 39K β- 269 y ट्रेस
40Ar 99.604% 40Ar 22 न्यूट्रॉन के साथ स्थिर है
41Ar syn 109.34 मिनट β- 2.49 41k
42Ar syn 32.9 Y 0.600 42k β-
कोष्ठकों में क्षय मोड भविष्यवाणी कर रहे हैं, लेकिन अभी तक मनाया नहीं किया गया है
दर्शन वार्ता संपादन
| संदर्भों
आर्गन प्रतीक ए.आर. और परमाणु संख्या 18. यह आवर्त सारणी के समूह 18 में है और एक महान गैस है के साथ एक रासायनिक तत्व है। [5] आर्गन, 0.934% (9340 ppmv) की तुलना में अधिक पर दो बार (जो 4000 ppmv के बारे में औसत है, लेकिन बहुत भिन्न होता है), कार्बन डाइऑक्साइड के रूप में प्रचुर मात्रा में (400 ppmv) के रूप में 23 बार जल वाष्प के रूप में प्रचुर मात्रा के रूप में पृथ्वी के वायुमंडल में तीसरा सबसे प्रचुर मात्रा में गैस है , और 500 से अधिक प्रचुर मात्रा में नियोन के रूप में (18 ppmv) के रूप में कई बार। आर्गन पपड़ी के 0.00015% शामिल है, पृथ्वी की पपड़ी में सबसे प्रचुर मात्रा में महान गैस है। [6]
लगभग सभी पृथ्वी के वायुमंडल में आर्गन के रेडियम-धर्मी आर्गन-40, पृथ्वी की पपड़ी में पोटेशियम-40 के क्षय से प्राप्त होता है। ब्रह्मांड में, आर्गन-36 अब तक का सबसे आम आर्गन आइसोटोप, वरीय आर्गन आइसोटोप सुपरनोवा में तारकीय nucleosynthesis द्वारा उत्पादित किया जा रहा है।
नाम "आर्गन" ग्रीक शब्द ἀργόν से ली गई है, जिसका अर्थ है ἀργός की सर्वनाम विलक्षण फार्म "आलसी" या "निष्क्रिय", तथ्य यह है कि तत्व लगभग कोई रासायनिक प्रतिक्रियाओं से होकर गुजरती है के लिए एक संदर्भ के रूप में। पूरा ओकटेट (आठ इलेक्ट्रॉन) बाहरी परमाणु खोल में आर्गन स्थिर और अन्य तत्वों के साथ संबंध के लिए प्रतिरोधी बनाता है। 83.8058 कश्मीर की अपनी ट्रिपल बिंदु तापमान 1990 के अंतर्राष्ट्रीय तापमान पैमाने में एक निर्णायक बिंदु तय है।
आर्गन तरल हवा की आंशिक आसवन द्वारा औद्योगिक रूप से निर्मित है। आर्गन ज्यादातर वेल्डिंग और अन्य उच्च तापमान औद्योगिक प्रक्रियाओं, जहां आमतौर पर सक्रीय पदार्थों प्रतिक्रियाशील बनने में एक निष्क्रिय परिरक्षण गैस के रूप में प्रयोग किया जाता है; उदाहरण के लिए, एक आर्गन वातावरण जलने से ग्रेफाइट को रोकने के लिए ग्रेफाइट बिजली भट्टियों में प्रयोग किया जाता है। आर्गन भी गरमागरम, फ्लोरोसेंट प्रकाश व्यवस्था, और अन्य गैस मुक्ति ट्यूबों में प्रयोग किया जाता है। आर्गन एक विशिष्ट नीले-हरे रंग की गैस लेजर बनाता है। आर्गन भी फ्लोरोसेंट चमक शुरुआत में प्रयोग किया जाता है।
अंतर्वस्तु
1 के लक्षण
2 इतिहास
3 घटना
4 आइसोटोप
5 यौगिकों
6 उत्पादन
6.1 औद्योगिक
6.2 रेडियोधर्मी decays में
7 आवेदन
7.1 औद्योगिक प्रक्रियाओं
7.2 वैज्ञानिक अनुसंधान
7.3 परिरक्षक
7.4 प्रयोगशाला के उपकरण
7.5 चिकित्सा का उपयोग करें
7.6 प्रकाश
7.7 विविध उपयोगों
8 सुरक्षा
9 इन्हें भी देखें
10 संदर्भ
11 आगे पढ़ने
12 बाहरी लिंक
लक्षण
तेजी से ठोस आर्गन पिघलने का एक छोटा सा टुकड़ा।
आर्गन ऑक्सीजन के रूप में पानी में लगभग एक ही घुलनशीलता है, और 2.5 गुना अधिक नाइट्रोजन की तुलना में पानी में घुलनशील है। आर्गन रंगहीन, गंधहीन, न जालनेवाला और एक ठोस, तरल और गैस के रूप में nontoxic है। [7] आर्गन सबसे शर्तों और रूपों कमरे के तापमान पर कोई इस बात की पुष्टि स्थिर यौगिकों के तहत रासायनिक निष्क्रिय है।
हालांकि आर्गन एक महान गैस है, यह कुछ यौगिकों के रूप में कर सकते हैं। आर्गन fluorohydride (harf), फ्लोरीन और हाइड्रोजन के साथ आर्गन की एक यौगिक है कि नीचे 17 कश्मीर स्थिर है, प्रदर्शन किया गया है। [8] [9] हालांकि आर्गन के तटस्थ जमीन राज्य रासायनिक यौगिकों वर्तमान में harf तक सीमित हैं, आर्गन पानी जब आर्गन के परमाणुओं के पानी के अणुओं का एक जाली में फंस रहे हैं के साथ clathrates फार्म कर सकते हैं। [10] ऐसे ARH + रूप में आयनों,
, और जैसे आसियान क्षेत्रीय मंच के रूप में उत्साहित राज्य परिसरों, प्रदर्शन किया गया है। सैद्धांतिक गणना कई और आर्गन यौगिकों कि स्थिर [11], लेकिन अभी तक संश्लेषित नहीं किया गया होना चाहिए भविष्यवाणी की है।
इतिहास
आर्गन के अलगाव के लिए भगवान रेले की विधि, हेनरी कैवेंडिश के एक प्रयोग के आधार पर। गैसों कमजोर क्षार (बी) की एक बड़ी मात्रा से अधिक एक टेस्ट ट्यूब (ए) खड़े में समाहित कर रहे हैं, और मौजूदा यू के आकार का ग्लास ट्यूब (सीसी) तरल माध्यम से गुजर से अछूता तारों में और के मुंह दौर अवगत करा दिया है टेस्ट ट्यूब। भीतरी प्लैटिनम समाप्त होता है (डीडी) तार के पांच ग्रोव कोशिकाओं की एक बैटरी और मध्यम आकार के एक Ruhmkorff तार से एक मौजूदा प्राप्त करते हैं।
आर्गन (αργός 'αργόν, सर्वनाम के विलक्षण रूप', यूनानी अर्थ "निष्क्रिय", इसकी रासायनिक निष्क्रियता के संदर्भ में) [12] [13] में 1785 आर्गन पहले से पृथक किया गया हेनरी कैवेंडिश से हवा के एक घटक होने का संदेह था हवा 1894 भगवान रेले और सर विलियम रामसे यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन से स्वच्छ हवा का एक नमूना से ऑक्सीजन, कार्बन डाइऑक्साइड, पानी, और नाइट्रोजन को हटाने के द्वारा। [14] [15] [16] वे निर्धारित किया था कि रासायनिक यौगिकों से उत्पादित नाइट्रोजन एक से डेढ़ प्रतिशत वातावरण से नाइट्रोजन की तुलना में हल्का था। अंतर मामूली था, लेकिन यह काफी महत्वपूर्ण कई महीनों के लिए उनका ध्यान आकर्षित करने के लिए किया गया था। उन्होंने निष्कर्ष निकाला हवा में नाइट्रोजन के साथ मिश्रित में एक और गैस नहीं था। [17] आर्गन भी एच एफ Newall और डब्ल्यू एन हार्टले की स्वतंत्र अनुसंधान के माध्यम से 1882 में आई थी। प्रत्येक हवा है कि ज्ञात तत्वों से मेल नहीं खाती का रंग स्पेक्ट्रम में नई लाइनों मनाया। आर्गन पहले महान गैस की खोज की जानी थी। 1957 तक, आर्गन के लिए प्रतीक 'ए' था, लेकिन अब "एआर" है। [18]
घटना
आर्गन पृथ्वी के वायुमंडल के द्रव्यमान से मात्रा से 0.934% और 1.288% का गठन किया, [19] और हवा शुद्ध आर्गन उत्पादों की प्राथमिक औद्योगिक स्रोत है। आर्गन विभाजन से हवा से अलग है, सबसे अधिक क्रायोजेनिक आंशिक आसवन, एक प्रक्रिया है कि यह भी शुद्ध नाइट्रोजन, ऑक्सीजन, नियोन, क्रिप्टन और क्सीनन पैदा करता है। [20] पृथ्वी की पपड़ी और समुद्री जल 1.2 पीपीएम और आर्गन क्रमश: 0.45 पीपीएम होते हैं। [21]
आइसोटोप
मुख्य लेख: आर्गन के आइसोटोप
आर्गन के मुख्य आइसोटोप पृथ्वी पर पाए 40
एआर (99.6%), 36
एआर (0.34%), और 38
एआर (0.06%)। स्वाभाविक रूप से होने वाली 40
कश्मीर, 1.25 × 109 वर्ष की एक आधा जीवन के साथ, स्थिर से 40 decays
एआर (11.2%) इलेक्ट्रॉन कब्जा या पोजीट्रान उत्सर्जन, और स्थिर करने के लिए 40 से भी
सीए (88.8%) बीटा क्षय के माध्यम से। इन गुणों और अनुपात द्वारा कश्मीर Ar डेटिंग चट्टानों की उम्र का निर्धारण करने के लिए उपयोग किया जाता है। [21] [22]
पृथ्वी के वायुमंडल, 39 में
Ar मुख्य रूप से 40 के साथ, कॉस्मिक रे गतिविधि द्वारा किया जाता है
गिरफ्तारी। उपसतह वातावरण में, यह भी 39 से न्यूट्रॉन कब्जा के माध्यम से उत्पादन किया जाता है
कश्मीर या अल्फा कैल्शियम से उत्सर्जन। 37
Ar 40 से न्यूट्रॉन कब्जे से बनाई गई है
उपसतह परमाणु विस्फोट का एक परिणाम के रूप में एक अल्फा कण उत्सर्जन के द्वारा पीछा सीए। यह 35 दिनों की एक आधा जीवन है। [22]
सौर प्रणाली में स्थानों के बीच, आर्गन के समस्थानिक रचना बहुत भिन्न होता है। कहाँ आर्गन का प्रमुख स्रोत 40 का क्षय है
चट्टानों में कश्मीर, 40
Ar, प्रमुख आइसोटोप हो जाएगा, क्योंकि यह पृथ्वी पर। आर्गन तारकीय nucleosynthesis द्वारा सीधे उत्पादन किया, 36 अल्फा प्रक्रिया nuclide का बोलबाला है
गिरफ्तारी। तदनुसार, सौर आर्गन 84.6% शामिल 36
एआर (सौर हवा माप के अनुसार), [23] और तीन आइसोटोप के अनुपात 36Ar: 38Ar: 40Ar बाहरी ग्रह के वायुमंडल में है 8400: 1600: 1. [24] यह मौलिक 36 से कम बहुतायत के साथ विरोधाभासों
पृथ्वी के वायुमंडल है, जो केवल 31.5 ppmv (= 9340 × ppmv 0.337%), पृथ्वी पर और ग्रहों के बीच गैसों, जांच से मापा साथ नीयन (18.18 ppmv) के साथ तुलनीय है में गिरफ्तारी।
मंगल ग्रह का निवासी माहौल 40 के 1.6% शामिल
ए.आर. और 36 की 5 पीपीएम
गिरफ्तारी। मेरिनर जांच फ्लाई द्वारा बुध ग्रह की 1973 में पाया पारा 70% आर्गन के साथ एक बहुत पतली माहौल, 40 के रेडियोधर्मी क्षय से परिणाम माना है कि
ग्रह की पपड़ी में कश्मीर। 2005 में, Huygens जांच विशेष रूप से 40 वर्ष की मौजूदगी की खोज
टाइटन, शनि के सबसे बड़े चंद्रमा पर एआर। [21] [25]
रेडियम-धर्मी 40 की प्रबलता
Ar कारण स्थलीय आर्गन के मानक परमाणु वजन अगले तत्व, पोटेशियम, एक तथ्य यह है कि जब आर्गन की खोज की थी puzzling गया था की तुलना में अधिक है। Mendeleev परमाणु वजन के क्रम में उसकी आवर्त सारणी पर तत्वों हों, लेकिन आर्गन की जड़ता प्रतिक्रियाशील क्षार धातु से पहले एक प्लेसमेंट का सुझाव दिया। हेनरी Moseley बाद में दिखा रहा है कि आवर्त सारणी वास्तव में परमाणु संख्या के क्रम में व्यवस्थित किया जाता है के द्वारा इस समस्या का हल है। (आवर्त सारणी के इतिहास को देखें)।
यौगिकों
मुख्य लेख: आर्गन यौगिकों
अंतरिक्ष भरने आर्गन fluorohydride की मॉडल।
आर्गन के इलेक्ट्रॉनों की पूरी ओकटेट पूर्ण एस और पी subshells इंगित करता है। यह पूर्ण बाहरी ऊर्जा स्तर आर्गन बहुत स्थिर है और अत्यंत अन्य तत्वों के साथ संबंधों के लिए प्रतिरोधी बनाता है। सन 1962 से पहले, आर्गन और अन्य महान गैसों रासायनिक निष्क्रिय और यौगिकों के रूप में करने में असमर्थ हो जाता था; हालांकि, भारी नोबल गैसों के यौगिकों के बाद से संश्लेषित किया गया है। अगस्त 2000 में, पहली आर्गन यौगिक हेलसिंकी विश्वविद्यालय में शोधकर्ताओं द्वारा बनाई गई थी। जमे हुए आर्गन सीज़ियम आयोडाइड के साथ हाइड्रोजन फ्लोराइड की एक छोटी राशि है, [26] आर्गन fluorohydride (harf) का गठन किया गया था युक्त पर पराबैंगनी प्रकाश से चमक रहा है। [9] [27] यह 40 केल्विन (-233 डिग्री सेल्सियस) तक स्थिर है। metastable ArCF2 +
2 dication, जो कार्बोनिल फ्लोराइड और विषैली गैस के साथ संयोजक isoelectronic है, 2010 में मनाया गया था [28] आर्गन-36, आर्गन हाइड्राइड (argonium) आयनों, के रूप में क्रैब नेबुला सुपरनोवा के साथ जुड़े तारे के बीच का माध्यम में पाया गया है; यह पहली नोबल गैस अणु बाह्य अंतरिक्ष में पाया गया था। [29] [30]
ठोस आर्गन हाइड्राइड (AR (एच 2) 2) MgZn2 laves चरण के रूप में एक ही क्रिस्टल संरचना है। यह 4.3 और 220 GPa के बीच दबाव पर रूपों, हालांकि रमन माप का सुझाव है कि एआर (एच 2) में एच 2 अणुओं 2 अलग कर देना 175 GPa ऊपर। [31]
उत्पादन
औद्योगिक
आर्गन एक क्रायोजेनिक एयर सेपरेशन यूनिट में तरल हवा की आंशिक आसवन द्वारा औद्योगिक रूप से उत्पादन किया जाता है; एक प्रक्रिया है कि तरल नाइट्रोजन से अलग करती है, जो 77.3 कश्मीर में फोड़े, आर्गन, जो 87.3 कश्मीर पर फोड़े, और तरल ऑक्सीजन से है, जो 90.2 लालकृष्ण आर्गन के बारे में 700,000 टन दुनिया भर में हर साल उत्पादन कर रहे हैं पर निर्भर करता है। [21] [32]
रेडियोधर्मी decays में
40Ar, आर्गन की सबसे प्रचुर मात्रा में आइसोटोप, इलेक्ट्रॉन कब्जा या पोजीट्रान उत्सर्जन से 1.25 × 109 वर्ष की एक आधा जीवन के साथ 40K के क्षय द्वारा निर्मित है। इस वजह से, यह पोटेशियम-आर्गन डेटिंग में प्रयोग किया जाता है चट्टानों की आयु निर्धारित करने के लिए।
अनुप्रयोगों
हानिकारक सर्वर उपकरणों के बिना आग बुझाने के लिए उपयोग में आर्गन गैस युक्त सिलेंडरों
आर्गन कई वांछनीय गुण है:
आर्गन रासायनिक निष्क्रिय गैस है।
आर्गन जब नाइट्रोजन पर्याप्त निष्क्रिय नहीं है सबसे सस्ता विकल्प है।
आर्गन कम तापीय चालकता है।
आर्गन इलेक्ट्रॉनिक गुण (आयनीकरण और / या उत्सर्जन स्पेक्ट्रम) कुछ अनुप्रयोगों के लिए वांछनीय है।
अन्य महान गैसों इन आवेदनों में से अधिकांश के लिए समान रूप से उपयुक्त होगा, लेकिन आर्गन द्वारा अब तक सबसे सस्ता है। क्योंकि यह हवा में स्वाभाविक रूप से होता है और आसानी से तरल ऑक्सीजन और तरल नाइट्रोजन के उत्पादन में क्रायोजेनिक हवा जुदाई के प्रतिफल के रूप में प्राप्त की है आर्गन सस्ती है: हवा के प्राथमिक घटक एक बड़े औद्योगिक पैमाने पर इस्तेमाल किया जाता है। अन्य महान गैसों (हीलियम को छोड़कर) इस तरह के रूप में अच्छी तरह से उत्पादित कर रहे हैं, लेकिन आर्गन अब तक का सबसे बहुतायत से होता है। आर्गन अनुप्रयोगों के थोक बस पैदा होती है क्योंकि यह निष्क्रिय है और अपेक्षाकृत सस्ता है।
औद्योगिक प्रक्रियाएं
आर्गन कुछ उच्च तापमान औद्योगिक प्रक्रियाओं, जहां आमतौर पर गैर प्रतिक्रियाशील पदार्थों प्रतिक्रियाशील बनने में प्रयोग किया जाता है। उदाहरण के लिए, एक आर्गन वातावरण जलने से ग्रेफाइट को रोकने के लिए ग्रेफाइट बिजली भट्टियों में प्रयोग किया जाता है।
इन प्रक्रियाओं में से कुछ के लिए, नाइट्रोजन और ऑक्सीजन गैसों की उपस्थिति सामग्री के भीतर दोष का कारण हो सकता है। आर्गन के साथ ही टाइटेनियम और अन्य प्रतिक्रियाशील तत्वों के प्रसंस्करण में, चाप गैस धातु आर्क वेल्डिंग और गैस टंगस्टन आर्क वेल्डिंग के रूप में इस तरह वेल्डिंग के कुछ प्रकार में प्रयोग किया जाता है। एक आर्गन वातावरण भी सिलिकॉन और जर्मेनियम के क्रिस्टल से बढ़ के लिए प्रयोग किया जाता है।
इन्हें भी देखें: परिरक्षण गैस
आर्गन बीमारी फैलने के बाद, पक्षियों गला घोंटना करने के लिए पोल्ट्री उद्योग में इस्तेमाल किया या तो बड़े पैमाने पर मुर्गियों को मारने के लिए, या वध बिजली स्नान से अधिक मानवीय के एक साधन के रूप में किया जाता है। आर्गन हवा की तुलना में सघन है और बक के दौरान जमीन के करीब ऑक्सीजन विस्थापित। [33] [34] अपने गैर प्रतिक्रियाशील प्रकृति यह एक खाद्य उत्पाद में उपयुक्त बनाता है, और क्योंकि यह मृत पक्षी के भीतर ऑक्सीजन की जगह, आर्गन भी शेल्फ जीवन को बढ़ाती है। [35]
आर्गन कभी कभी आग में जहां कीमती उपकरण पानी या फोम द्वारा क्षतिग्रस्त किया जा सकता है बुझाने के लिए प्रयोग किया जाता है। [36]
वैज्ञानिक अनुसंधान
तरल आर्गन न्युट्रीनो प्रयोगों और प्रत्यक्ष काले पदार्थ खोजों के लिए लक्ष्य के रूप में प्रयोग किया जाता है। काल्पनिक डरपोक समझा कण और एक आर्गन नाभिक के बीच बातचीत जगमगाहट रोशनी है कि photomultiplier ट्यूबों से पता चला है पैदा करता है। दो चरण आर्गन गैस युक्त डिटेक्टरों डरपोक समझा-नाभिक बिखरने के दौरान उत्पादन आयनित इलेक्ट्रॉनों का पता लगाने के लिए किया जाता है। अधिकांश अन्य तरलीकृत नोबल गैसों के साथ के रूप में, आर्गन एक उच्च जगमगाहट प्रकाश उपज है (ग 51 फोटॉनों / कीव। [37]), अपनी ही जगमगाहट रोशनी करने के लिए पारदर्शी है, और शुद्ध करने के लिए अपेक्षाकृत आसान है। क्सीनन की तुलना में, आर्गन सस्ता है और एक अलग जगमगाहट समय प्रोफाइल जो परमाणु recoils से इलेक्ट्रॉनिक recoils की जुदाई की अनुमति देता है। दूसरी ओर, उसके अंतर्निहित बीटा-रे पृष्ठभूमि बड़ा कारण है 39
Ar संदूषण, जब तक कि एक भूमिगत स्रोतों से आर्गन का उपयोग करता है, जो बहुत कम है 39
Ar संदूषण। पृथ्वी के वायुमंडल में आर्गन में से अधिकांश की इलेक्ट्रॉन कब्जा द्वारा निर्मित किया गया लंबे समय रहते 40
कश्मीर (40
कश्मीर + ई → 40
Ar + ν) पृथ्वी के भीतर प्राकृतिक पोटेशियम के मामले में उपस्थित थे। 39
वातावरण में Ar गतिविधि के माध्यम से 40 cosmogenic उत्पादन द्वारा बनाए रखा है
एआर (एन, 2n) 39
Ar और इसी तरह की प्रतिक्रियाओं। 39 का आधा जीवन
Ar केवल 269 वर्ष है। नतीजतन, भूमिगत Ar, रॉक और पानी से परिरक्षित, बहुत कम 39 है
Ar संदूषण। [38] काले पदार्थ वर्तमान में तरल आर्गन के साथ संचालन डिटेक्टरों Darkside, ताना, ArDM, microCLEAN और DEAP शामिल हैं। न्यूट्रिनो प्रयोगों ICARUS और MicroBooNE, जो दोनों के न्यूट्रिनो बातचीत के ठीक छोटाबीजवाला तीन आयामी इमेजिंग के लिए एक समय प्रक्षेपण कक्ष में उच्च शुद्धता तरल आर्गन का उपयोग शामिल है।
परिरक्षक
सीज़ियम का एक नमूना आर्गन के तहत पैक किया जाता है हवा के साथ प्रतिक्रियाओं से बचने के लिए
आर्गन नमी युक्त पैकेजिंग सामग्री में हवा सामग्री की शेल्फ जीवन (आर्गन E938 के यूरोपीय खाद्य additive कोड है) का विस्तार करने के लिए ऑक्सीजन को विस्थापित करने के लिए प्रयोग किया जाता है। एरियल ऑक्सीकरण, हाइड्रोलिसिस, और अन्य रासायनिक प्रतिक्रियाओं है कि नीचा उत्पादों मंद या पूरी तरह से रोका जाता है। उच्च शुद्धता केमिकल्स एंड फार्मास्युटिकल्स कभी कभी पैक किया और आर्गन में सील कर रहे हैं।
वाइन बनाने में, आर्गन तरल की सतह पर ऑक्सीजन के खिलाफ एक बाधा है, जो (एसिटिक एसिड बैक्टीरिया के साथ के रूप में) दोनों माइक्रोबियल चयापचय और मानक redox रसायन विज्ञान ईंधन भरने से शराब खराब कर सकते हैं प्रदान करने के लिए गतिविधियों की एक किस्म में प्रयोग किया जाता है।
आर्गन कभी कभी वार्निश, polyurethane, और रंग के रूप में इस तरह के उत्पादों के लिए एयरोसोल के डिब्बे में प्रणोदक के रूप में प्रयोग किया जाता है, और जब उद्घाटन के बाद भंडारण के लिए एक कंटेनर की तैयारी कर हवा विस्थापित करने के लिए। [39]
2002 के बाद से, अमेरिकी राष्ट्रीय अभिलेखागार दुकानों महत्वपूर्ण राष्ट्रीय आर्गन से भरे मामलों के भीतर इस तरह की आजादी की घोषणा और संविधान के रूप में दस्तावेजों उनके गिरावट को बाधित करने के लिए। क्योंकि हीलियम गैस सबसे कंटेनरों में आणविक छिद्रों के माध्यम से बच निकलता है और नियमित रूप से प्रतिस्थापित किया जाना चाहिए आर्गन, हीलियम कि पिछले पांच दशकों में इस्तेमाल किया गया था के लिए बेहतर है। [40]
प्रयोगशाला के उपकरण
Gloveboxes अक्सर आर्गन, जो, स्क्रबर खत्म पुनः प्रसारित एक ऑक्सीजन बनाए रखने के लिए नाइट्रोजन, और नमी से मुक्त वातावरण के साथ भर रहे हैं
इन्हें भी देखें: एयर मुक्त तकनीक
आर्गन Schlenk लाइनों और gloveboxes भीतर अक्रिय गैस के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। आर्गन मामलों में जहां नाइट्रोजन अभिकर्मकों या उपकरण के साथ प्रतिक्रिया कर सकते में कम खर्चीला नाइट्रोजन के लिए पसंद किया जाता है।
आर्गन गैस क्रोमैटोग्राफी में और electrospray आयनीकरण मास स्पेक्ट्रोमेट्री में वाहक गैस के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है; यह आईसीपी स्पेक्ट्रोस्कोपी में इस्तेमाल प्लाज्मा के लिए पसंद की गैस है। आर्गन स्कैनिंग इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी के लिए नमूनों की धूम कोटिंग के लिए पसंद किया जाता है। आर्गन गैस भी आमतौर पर माइक्रोइलेक्ट्रॉनिक में के रूप में और microfabrication में वेफर सफाई के लिए पतली फिल्मों की धूम बयान के लिए प्रयोग किया जाता है।
चिकित्सा का उपयोग करें
ऐसे cryoablation उपयोग तरल आर्गन के रूप में Cryosurgery प्रक्रियाओं जैसे कि कैंसर कोशिकाओं के रूप में ऊतकों को नष्ट करने। यह एक प्रक्रिया है, "आर्गन बढ़ाया जमावट" कहा जाता है आर्गन प्लाज्मा किरण electrosurgery का एक रूप में प्रयोग किया जाता है। प्रक्रिया गैस का आवेश के उत्पादन का खतरा रहता है और कम से कम एक मरीज की मौत हुई है। [41]
ब्लू आर्गन लेज़रों सही नेत्र दोष, धमनियों वेल्ड ट्यूमर को नष्ट करने के लिए शल्य चिकित्सा में उपयोग किया जाता है, और। [21]
आर्गन भी प्रयोगात्मक इस्तेमाल किया गया है Argox के रूप में जाना जाता है, खून से भंग नाइट्रोजन के उन्मूलन की गति को सांस लेने या decompression मिश्रण में नाइट्रोजन की जगह के लिए। [42]
प्रकाश
आर्गन गैस नली आर्गन "एआर" के लिए प्रतीक बनाने।
गरमागरम रोशनी आर्गन से भर रहे हैं, ऑक्सीकरण से उच्च तापमान पर तंतु संरक्षित करने के लिए। यह विशिष्ट तरीका यह ionizes और ऐसे प्लाज्मा ग्लोब और प्रयोगात्मक कण भौतिकी में उष्मामिति में के रूप में प्रकाश का उत्सर्जन करता है, के लिए प्रयोग किया जाता है। गैस निर्वहन लैंप शुद्ध आर्गन के साथ भरा बकाइन / बैंगनी प्रकाश प्रदान करते हैं; आर्गन और कुछ पारा, नीले प्रकाश के साथ। आर्गन भी नीले और हरे रंग आर्गन आयन लेज़रों के लिए प्रयोग किया जाता है।
विविध उपयोगों
आर्गन ऊर्जा कुशल खिड़कियों में थर्मल इन्सुलेशन के लिए प्रयोग किया जाता है। [43] आर्गन भी एक सूखी सूट बढ़ करने के लिए है क्योंकि यह निष्क्रिय है और कम तापीय चालकता है तकनीकी स्कूबा डाइविंग में प्रयोग किया जाता है। [44]
आर्गन परिवर्तनीय विशिष्ट आवेग Magnetoplasma रॉकेट (VASIMR) के विकास में एक प्रणोदक के रूप में प्रयोग किया जाता है। संपीडित आर्गन गैस का विस्तार करने के लिए उद्देश्य -9 मिसाइल पहलू की चोट और अन्य मिसाइलों कि ठंडा थर्मल साधक सिर का उपयोग के साधक सिर शांत करने के लिए अनुमति दी है। गैस उच्च दबाव में संग्रहित किया जाता है। [45]
आर्गन-39, 269 वर्ष की एक आधा जीवन के साथ, आवेदनों की एक संख्या है, मुख्य रूप से आइस कोर और भूजल डेटिंग के लिए इस्तेमाल किया गया है। इसके अलावा, पोटेशियम-आर्गन डेटिंग तारीख आग्नेय चट्टानों के लिए प्रयोग किया जाता है। [21]
आर्गन एक डोपिंग एजेंट के रूप में एथलीटों द्वारा इस्तेमाल किया गया है hypoxic शर्तों अनुकरण। 31 अगस्त को, 2014 के विश्व एंटी डोपिंग एजेंसी (वाडा) आर्गन और क्सीनन प्रतिबंधित पदार्थ और विधियों की सूची के लिए, कहा, हालांकि इस समय वहाँ दुरुपयोग के लिए कोई विश्वसनीय परीक्षण है। [46]
सुरक्षा
हालांकि आर्गन गैर विषैले है, यह 38% हवा की तुलना में सघन है और इसलिए बंद क्षेत्रों में एक खतरनाक गला घोंटनेवाला माना जाता है। यह पता लगाने के लिए मुश्किल है क्योंकि यह रंगहीन, गंधहीन, और बेस्वाद है। 1994 की घटना है जिसमें एक आदमी अलास्का में निर्माणाधीन तेल पाइप के एक आर्गन से भरे खंड में प्रवेश करने के बाद asphyxiated था सीमित स्थान में आर्गन टैंक रिसाव के खतरे पर प्रकाश डाला गया है, और समुचित उपयोग, भंडारण और हैंडलिंग के लिए की जरूरत पर जोर दिया। [47]
यह भी देखें
औद्योगिक गैस
ऑक्सीजन-आर्गन अनुपात, दो शारीरिक रूप से समान गैसों का अनुपात है, जो विभिन्न क्षेत्रों में महत्व है। | आर्गन की परमाणु संख्या कितनी है? | 18 | 1,079 | hindi |
719799421 | विश्व स्वास्थ्य संगठन (वि॰ स्वा॰ सं॰) (WHO) विश्व के देशों के स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं पर आपसी सहयोग एवं मानक विकसित करने की संस्था है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के 193 सदस्य देश तथा दो संबद्ध सदस्य हैं। यह संयुक्त राष्ट्र संघ की एक अनुषांगिक इकाई है। इस संस्था की स्थापना 7 अप्रैल 1948 को की गयी थी। इसका उद्देश्य संसार के लोगो के स्वास्थ्य का स्तर ऊँचा करना है। डब्ल्यूएचओ का मुख्यालय स्विटजरलैंड के जेनेवा शहर में स्थित है। इथियोपिया के डॉक्टर टैड्रोस ऐडरेनॉम ग़ैबरेयेसस विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के नए महानिदेशक निर्वाचित हुए हैं।
वो डॉक्टर मार्गरेट चैन का स्थान लेंगे जो पाँच-पाँच साल के दो कार्यकाल यानी दस वर्षों तक काम करने के बाद इस पद से रिटायर हो रही हैं।। [1]
भारत भी विश्व स्वास्थ्य संगठन का एक सदस्य देश है और इसका भारतीय मुख्यालय भारत की राजधानी दिल्ली में स्थित है।
सन्दर्भ
मूल रूप से 23 जून 1851 को आयोजित अंतर्राष्ट्रीय स्वच्छता सम्मेलन, डब्ल्यूएचओ के पहले पूर्ववर्ती थे। 1851 से 1 9 38 तक चलने वाली 14 सम्मेलनों की एक श्रृंखला, अंतरराष्ट्रीय स्वच्छता सम्मेलनों ने कई बीमारियों, मुख्य रूप से कोलेरा, पीले बुखार, और ब्यूबोनिक प्लेग का मुकाबला करने के लिए काम किया। 18 9 2 में सातवें तक सम्मेलन काफी हद तक अप्रभावी थे; जब कोलेरा के साथ निपटाया गया एक अंतरराष्ट्रीय स्वच्छता सम्मेलन पारित किया गया था। पांच साल बाद, प्लेग के लिए एक सम्मेलन पर हस्ताक्षर किए गए। [2] सम्मेलनों की सफलताओं के परिणामस्वरूप, पैन-अमेरिकन सेनेटरी ब्यूरो, और ऑफिस इंटरनेशनल डी हाइगेन पब्लिक को जल्द ही 1 9 02 और 1 9 07 में स्थापित किया गया था। जब 1 9 20 में लीग ऑफ नेशंस का गठन हुआ, तो उन्होंने लीग ऑफ नेशंस के हेल्थ ऑर्गनाइजेशन की स्थापना की। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, संयुक्त राष्ट्र ने डब्ल्यूएचओ बनाने के लिए अन्य सभी स्वास्थ्य संगठनों को अवशोषित किया। [3]
बाह्य कड़ियां
श्रेणी:स्वास्थ्यविज्ञान | विश्व स्वास्थ्य संगठन का मुख्यालय कहा है? | स्विटजरलैंड के जेनेवा शहर में | 386 | hindi |
28349634f | रोमानियाई या दाको-रोमानियाई एक रोमांस भाषा है, जिसे दुनियाभर में, विशेषतौर से रोमानिया और मोल्दोवा में, करीबन ढाई करोड़ लोग बोलते हैं। इसे रोमानिया, मोल्दोवा गणराज्य और सर्बिया के वोज्वूदिना स्वायत्त प्रांत में आधिकारिक दर्जा प्राप्त है। मोल्दोवा में इसे राजनैतिक कारणों से लिम्बा मोल्दोवेन्सका (मोल्दोवियाई) कहा जाता है।
रोमानियाई भाषी पूरी दुनिया में, खासतौर से इटली, स्पेन, रूस, यूक्रेन, इजराइल, पुर्तगाल, युनाइटेड किंगडम, संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, फ्रांस और जर्मनी में फैली हुए हैं।
श्रेणी:रोमानिया
श्रेणी:रोमान्स भाषाएँ
श्रेणी:हिन्द-यूरोपीय भाषाएँ | रोमानिया की आधिकारिक भाषा क्या है? | रोमानियाई | 0 | hindi |
b028b54cf | हेलेन एडम्स केलर (27 जून 1880 - 1 जून 1968) एक अमेरिकी लेखक, राजनीतिक कार्यकर्ता और आचार्य थीं। वह कला स्नातक की उपाधि अर्जित करने वाली पहली बधिर और दृष्टिहीन थी। ऐनी सुलेवन के प्रशिक्षण में ६ वर्ष की अवस्था से शुरु हुए ४९ वर्षों के साथ में हेलेन सक्रियता और सफलता की ऊंचाइयों तक पहुँची। ऐनी और हेलेन की चमत्कार लगने वाले कहानी ने अनेक फिल्मकारों को आकर्षित किया। हिंदी में २००५ में संजय लीला भंसाली ने इसी कथानक को आधार बनाकर थोड़ा परिवर्तन करते हुए ब्लैक फिल्म बनाई। बेहतरीन लेखिका केलर अपनी रचनाओं में युद्ध विरोधी के रूप में नजर आतीं हैं। समाजवादी दल के एक सदस्य के रूप में उन्होंने अमेरिकी और दुनिया भर के श्रमिकों और महिलाओं के मताधिकार, श्रम अधिकारों, समाजवाद और कट्टरपंथी शक्तियों के खिलाफ अभियान चलाया।
जीवन वृत
हेलेन एडम्स केलर २७ जून १८८० को अमेरिका के टस्कंबिया, अलबामा में पैदा हुईं।जन्म के समय हेलन केलर एकदम स्वस्थ्य थी।उन्नीस महीनों के बाद वो बिमार हो गयी और उस बिमारी में उनकी नजर, ज़ुबान और सुनने की शक्ती चली गयी| हेलन केलर के माता-पिता के सामने एक चुनौती आ खड़ी हुई कि ऐसा कौन शिक्षक होगा जो हेलन केलर को अच्छी शिक्षा दे पाए और हेलन केलर समझ पाए। ऐसा इसलिए क्योंकि हेलन केलर सामान्य बच्चों से भिन्न थी। इसके बाद उन्हें आखिरकार एक शिक्षक मिल गया जिनका नाम था "एनि सुलिव्हान"। इन्होंने हेलन केलर को हर तरीके से शिक्षा दी, जिसमें उन्होंने मेन्युअल अल्फाबेट और ब्रेल लिपी आदि पद्धतियों से शिक्षा देने की कोशिश की। जैसे-तैसे संघर्षो का दौर बीतता गया और एक तरह से हेलन केलर ने राइट हमसन स्कूल फाॅर डीप से प्रारंभिक शिक्षा पूरी की।प्रारंभिक शिक्षा पूरी होने के बाद अब हेलन केलर अपने आपको अकेला समझने लगी, क्योंकि उनकी जिज्ञासा थी कि वो भी सभी की तरह पढ़ाई करें। इसके लिए आगे 1902 में स्नातक की पढ़ाई करने के लिए हेलन केलर ने रेडक्लिफ काॅलेज में दाखिला लिया। वहां हेलन केलर सामान्य छात्रों के साथ पढ़ने लगी। यहां पढ़ते-पढ़ते हेलन केलर को लिखने का शौक जगा और वो लिखने लगी। हेलन केलर ने उस दौर में एक ऐसी पुस्तक लिखी जिन्होंने उनको बहुत बड़ी उपलब्धि दिलाई और उस पुस्तक का नाम है ‘‘द स्टोरी आॅफ माय लाइफ‘‘। अपने जीवन में संघर्षो के ऐसे दौर को पार करके हेलन केलर ने समझ लिया था कि जीवन में यदि संघर्ष किया जाए, तो कोई काम ऐसा नहीं है जिसे हम ना कर सकते हो। यदि सोच लेकर हेलन केलर ने समाज के हित के लिए कदम बढ़ाया और वो अपने जैसे लोगों को जागरूक करने निकल पड़ी। हेलन केलर अपनी यही सोच हर जगह जाकर बताती कि व्यक्ति चाहे शरीर से कितना भी असक्षम हो लेकिन उसे अपने आपको सक्षम अपनी स्कील के द्वारा बनाना चाहिए।हेलन केलर का संघर्ष तो बचपन से लेकर पूरे जीवन भर चलता रहा। भले ही आंखों की रोशनी चली गई। लेकिन उन्होंने इस दुनिया के रास्तों को बड़ी गहराई से देख लिया। तभी तो वो उन रास्तों पर चली और अपनी मंजिल तक पहुंच पाई। उन्होंने अपने जीवन के हर वक्त में संघर्ष जारी रखा और जीवन के अंतिम दौर में भी वो समाज के हित के लिए प्रयास करती रही। इसके बाद 1938 में हेलन केलर ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।हेलन केलर इस दुनिया से चली तो गई। लेकिन वो आज भी उन हर शख्स में जिंदा है जो अपने जीवन में ऐसे कष्टों को पाकर भी इस दुनिया में हर मंजिल हासिल करने का जज्बा रखते हैं। हेलन केलर कई उपलब्धियां हासिल करके गई है, सबसे बड़ी उपलब्धि लोगों से मिली दुआएं और स्नेह है। क्योंकि जिन लोगों को सक्षम बनाने में प्रेरणा के रूप में कार्य किया वो सभी हेलन केलर को एक बहुत बड़े प्रेरणा स्रोत के रूप में देखते हैं।
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
जॉन ए. मैसी और ऐने सुलिवान के साथ एलेन केलर (1903) The Story of My Life. न्यूयॉर्क: डबलडे, पेज & कम्पनी।
लैश, जोसेफ पी. (1980) Helen and Teacher: The Story of Helen Keller and Anne Sullivan Macy . न्यूयॉर्क: डेलाकोर्टे प्रेस, ISBN 978-0-440-03654-8
हर्मन, डोरोथी (1998) Helen Keller: A Life. न्यूयॉर्क: क्नॉफ़. ISBN 978-0-679-44354-4
श्रेणी:अमेरिकी लेखक
श्रेणी:अंग्रेज़ साहित्यकार
श्रेणी: व्यक्तिगत जीवन
श्रेणी: अमेरिका के लोग
श्रेणी:1880 में जन्मे लोग
श्रेणी:१९६८ में निधन | हेलेन केलर की मृत्यु किस वर्ष में हुई थी? | 1968 | 38 | hindi |
430c4f4d0 | तेन्जिंग नॉरगे (29 मई 1914- 9 मई 1986) एक नेपाली पर्वतारोही थे जिन्होंने एवरेस्ट और केदारनाथ के प्रथम मानव चढ़ाई के लिए जाना जाता है। न्यूजीलैंड एडमंड हिलेरी के साथ वे पहले व्यक्ति हैं जिसने माउंट एवरेस्ट की चोटी पर पहला मानव कदम रखा। इसके पहले पर्वतारोहण के सिलसिले में वो चित्राल और नेपाल में रहे थे। नोरगे को नोरके भी कहा जाता है। इनका मूल नाम नांगयाल वंगड़ी है, जिसका अभिप्राय होता है धर्म का समृद्ध भाग्यवान अनुयायी।
जीवन
तेन्जिंग का जन्म उत्तरी नेपाल में थेम नामक स्थान पर 1914 में एक शेरपा बौद्ध परिवार में हुआ था। सन् 1933 में वे कुछ महीनों के लिए एक भिक्षु बनने के बाद नौकरी की तलाश में दार्जीलिंग आ गए जो अब भारतीय बंगाल के उत्तर में स्थित है। एक ब्रिटिश मिशन में शामिल होने के बाद उन्होंने कई एवरेस्ट मिशनों में हिस्सा लिया और अंततः 29 मई सन् 1953 को सातवें प्रयास में उनको सफलता मिली। न्यूज़ीलैंड के सर एडमंड हिलेरी इस मिशन में उनके साथ थे।
तेन्जिंग बौद्ध धर्म के अनुयायी थे और 1933 में वे भारतीय नागरिक बन गये थे। कॉफ़ी उनका प्रिय पेय और कुत्ते पालना उनका मुख्य शौक़ था। बचपन से ही पर्वतारोहण में रुचि होने के कारण वे एक अच्छे एवं कुशल पर्वतारोही बन गये। उनका प्रारम्भिक नाम नामग्याल बांगडी था। वे तेनज़िंग खुमजुंग भूटिया भी कहलाते थे। तेनज़िंग को अपनी सफलताओं के लिए जार्ज मैडल भी प्राप्त हुआ था। 1954 में दार्जिलिंग में 'हिमालय पर्वतारोहण संस्थान' की स्थापना के समय उन्हें इसका प्रशिक्षण निर्देशक बना दिया गया था। तेन्जिंग ने अपने अपूर्व साहस से भारत का नाम हिमालय की ऊँचाइयों पर लिख दिया है, जिसके लिय वे सदैव याद किए जाएंगे।
उपलब्धि
बचपन में ही तेन्जिंग एवरेस्ट के दक्षिणी क्षेत्र में स्थित अपने गाँव, जहां शेरपाओं (पर्वतारोहण में निपुण नेपाली लोग, आमतौर पर कुली) का निवास था, से भागकर भारत के पश्चिम बंगाल में दार्जिलिंग में बस गए। 1935 में वे एक कुली के रूप में वह सर एरिक शिपटन के प्रारम्भिक एवरेस्ट सर्वेक्षण अभियान में शामिल हुए। अगले कुछ वर्षों में उन्होने अन्य किसी भी पर्वतारोही के मुक़ाबले एवरेस्ट के सर्वाधिक अभियानों में हिस्सा लिया। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वह कुलियों के संयोजक अथवा सरदार बन गए। और इस हैसियत से वह कई अभियानों पर साथ गए। 1952 में स्वीस पर्वतारोहियों ने दक्षिणी मार्ग से एवरेस्ट पर चढ़ने के दो प्रयास किए और दोनों अभियानों में तेन्जिंग सरदार के रूप में उनके साथ थे। 1953 में वे सरदार के रूप में ब्रिटिश एवरेस्ट के अभियान पर गए और हिलेरी के साथ उन्होने दूसरा शिखर युगल बनाया। दक्षिण-पूर्वी पर्वत क्षेत्र में 8,504 मीटर की ऊंचाई पर स्थित अपने तम्बू से निकलकर वह 29 मई को दिन के 11.30 बजे शिखर पर पहुंचे। उन्होने वहाँ फोटो खींचते और मिंट केक खाते हुए 15 मिनट बिताए और एक श्रद्धालु बौद्ध की तरह चढ़ावे के रूप में प्रसाद अर्पित किया। इस उपलब्धि के बाद उन्हें कई नेपालियों और भर्तियों द्वारा अनश्रुत नायक माना जाता है।[1][2]
तेन्जिंग की इस महान विजय यात्रा में सर एडमंड हिलेरी उनके सहयोगी थे। तेनज़िंग कर्नल जान हण्ट के नेतृत्व में एक ब्रिटिश पर्वतारोही दल के सदस्य के रूप में हिमालय की यात्रा पर गये थे और दृढ़ निश्चय के साथ आगे बढ़ते हुए 29 मई, 1953 को उन्होंने एवरेस्ट के शिखर को स्पर्श किया। तेनज़िंग की इस ऐतिहासिक सफलता ने उन्हें इतिहास में अमर कर दिया है। भारत के अतिरिक्त इंग्लैंड एवं नेपाल की सरकारों ने भी उन्हें सम्मानित किया था। 1959 में उन्हें 'पद्मभूषण' से अलंकृत किया गया। वास्तव में 1936-1953 तक के सभी एवरेस्ट अभियानों में उनका सक्रिय सहयोग रहा था।[3][4]
सम्मान और कीर्ति
उनको नेपाल सरकार की ओर सन् १९५३ में सम्मान (सुप्रदीप्त मान्यवर नेपाल तारा) प्रदान किया और उनके एवरेस्ट आरोहण के तुरंत बाद रानी बनी एलिज़ाबेथ ने जार्ज मेडल दिया जो किसी भी विदेशी को दिया जाने वाला सर्वोच्च सम्मान था। सन् १९५९ ने भारत सरकार ने उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया।[5]
एक स्विस कंपनी ने उनके नाम से शेरपा तेनसिंग लोशन और लिप क्रीम बेचा।
न्यूज़ीलैंड की एक कार का नाम शेरपा रखा गया।
सन् २००८ में नेपाल के लुकला एयरपोर्ट का नाम बदल कर तेनज़िंग-हिलेरी एयरपोर्ट कर दिया गया।
व्यक्तिगत जीवन
उन्होंने तीन शादिया कीं - पहली पत्नी, दावा फुती से उनको तीन संतान हुई। पहला लड़का चार साल की उम्र में मर गया, जबकि जुड़वां बहने - आंग निमा और पेम पेम के जन्म के बाद दावा फुती का निधन (१९४४) हो गया। उसके बाद उन्होंने आंग ल्हामु से शादी की। ल्हामु को तेनज़िंग की पर्वतारोही जिन्दगी का संबल माना जाता है, हाँलांकि उनसे तेन्ज़िंग को कोई संतान नहीं हुई। इसी समय उन्होंने ल्हामु की (च्चेरी) बहन डाकु से शादी की। दाकु की ३ संताने हुईं - नोव्बु, जामलिंग और धामे। उनकी एक संतान जामलिंग ने सन् १९९६ में एवरेस्ट आरोहण में सफलता अर्जित की।
मृत्यु
9 मई, 1986 को इनकी मृत्यु हो गई।
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
रॉयल जियोग्राफिकल सोसायटी पर तेनजिंग पर
व्यक्तिगत डेटाबेस में
1935 में माउंट एवरेस्ट टोही एरिक शिपटन के नेतृत्व में
श्रेणी:१९५९ पद्म भूषण
श्रेणी:पर्वतारोही
श्रेणी:1914 में जन्मे लोग | तेन्जिंग नॉरगे का देहांत किस वर्ष में हुआ था? | 1986 | 33 | hindi |
ff227273d | गुड़ी पड़वा (मराठी-पाडवा) के दिन हिन्दू नव संवत्सरारम्भ माना जाता है। चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा को गुड़ी पड़वा या वर्ष प्रतिपदा या उगादि (युगादि) कहा जाता है। इस दिन हिन्दु नववर्ष का आरम्भ होता है। 'गुड़ी' का अर्थ 'विजय पताका' होता है। कहते हैं शालिवाहन नामक एक कुम्हार-पुत्र ने मिट्टी के सैनिकों की सेना से प्रभावी शत्रुओं का पराभव किया। इस विजय के प्रतीक रूप में शालिवाहन शक का प्रारंभ इसी दिन से होता है। ‘युग‘ और ‘आदि‘ शब्दों की संधि से बना है ‘युगादि‘। आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में ‘उगादि‘ और महाराष्ट्र में यह पर्व 'ग़ुड़ी पड़वा' के रूप में मनाया जाता है।इसी दिन चैत्र नवरात्रि का प्रारम्भ होता है।
परिचय
कहा जाता है कि इसी दिन ब्रह्माजी ने सृष्टि का निर्माण किया था। इसमें मुख्यतया ब्रह्माजी और उनके द्वारा निर्मित सृष्टि के प्रमुख देवी-देवताओं, यक्ष-राक्षस, गंधवारें, ऋषि-मुनियों, नदियों, पर्वतों, पशु-पक्षियों और कीट-पतंगों का ही नहीं, रोगों और उनके उपचारों तक का भी पूजन किया जाता है। इसी दिन से नया संवत्सर शुंरू होता है। अत इस तिथि को ‘नवसंवत्सर‘ भी कहते हैं। चैत्र ही एक ऐसा महीना है, जिसमें वृक्ष तथा लताएं पल्लवित व पुष्पित होती हैं। शुक्ल प्रतिपदा का दिन चंद्रमा की कला का प्रथम दिवस माना जाता है। जीवन का मुख्य आधार वनस्पतियों को सोमरस चंद्रमा ही प्रदान करता है। इसे औषधियों और वनस्पतियों का राजा कहा गया है। इसीलिए इस दिन को वर्षारंभ माना जाता है।
आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र में सारे घरों को आम के पेड़ की पत्तियों के बंदनवार से सजाया जाता है। सुखद जीवन की अभिलाषा के साथ-साथ यह बंदनवार समृद्धि, व अच्छी फसल के भी परिचायक हैं। ‘उगादि‘ के दिन ही पंचांग तैयार होता है। महान गणितज्ञ भास्कराचार्य ने इसी दिन से सूर्योदय से सूर्यास्त तक दिन, महीना और वर्ष की गणना करते हुए ‘पंचांग ‘ की रचना की। चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा को महाराष्ट्र में गुड़ीपड़वा कहा जाता है। वर्ष के साढ़े तीन मुहूतारें में गुड़ीपड़वा की गिनती होती है। शालिवाहन शक का प्रारंभ इसी दिन से होता है।
कहा जाता है कि शालिवाहन नामक एक कुम्हार के लड़के ने मिट्टी के सैनिकों की सेना बनाई और उस पर पानी छिड़ककर उनमें प्राण फूँक दिए और इस सेना की मदद से शिक्तशाली शत्रुओं को पराजित किया। इस विजय के प्रतीक के रूप में शालिवाहन शक का प्रारंभ हुआ। कई लोगों की मान्यता है कि इसी दिन भगवान राम ने वानरराज बाली के अत्याचारी शासन से दक्षिण की प्रजा को मुक्ति दिलाई। बाली के त्रास से मुक्त हुई प्रजा ने घर-घर में उत्सव मनाकर ध्वज (ग़ुड़ियां) फहराए। आज भी घर के आंगन में ग़ुड़ी खड़ी करने की प्रथा महाराष्ट्र में प्रचलित है। इसीलिए इस दिन को गुड़ीपडवा नाम दिया गया।
इस अवसर पर आंध्र प्रदेश में घरों में ‘पच्चड़ी/प्रसादम‘ तीर्थ के रूप में बांटा जाता है। कहा जाता है कि इसका निराहार सेवन करने से मानव निरोगी बना रहता है। चर्म रोग भी दूर होता है। इस पेय में मिली वस्तुएं स्वादिष्ट होने के साथ-साथ आरोग्यप्रद होती हैं। महाराष्ट्र में पूरन पोली या मीठी रोटी बनाई जाती है। इसमें जो चीजें मिलाई जाती हैं वे हैं--गुड़, नमक, नीम के फूल, इमली और कच्चा आम। गुड़ मिठास के लिए, नीम के फूल कड़वाहट मिटाने के लिए और इमली व आम जीवन के खट्टे-मीठे स्वाद चखने का प्रतीक होती हैं।
यूँ तो आजकल आम बाजार में मौसम से पहले ही आ जाता है, किन्तु आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र में इसी दिन से खाया जाता है। नौ दिन तक मनाया जाने वाला यह त्यौहार दुर्गापूजा के साथ-साथ, रामनवमी को राम और सीता के विवाह के साथ सम्पन्न होता है।
इतिहास में वर्ष प्रतिपदा
ब्रह्म पुराण के अनुसार ब्रह्मा द्वारा सृष्टि का सृजन [1]
मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम का राज्याभिषेक [2]
माँ दुर्गा की उपासना की नवरात्र व्रत का प्रारम्भ
युगाब्द (युधिष्ठिर संवत्) का आरम्भ तथा उनका राज्याभिषेक [3]
उज्जयिनी सम्राट- विक्रमादित्य द्वारा विक्रमी संवत् प्रारम्भ [4]
शालिवाहन शक संवत् (भारत सरकार का राष्ट्रीय पंचांग) का प्रारम्भ
महर्षि दयानन्द द्वारा आर्य समाज की स्थापना का दिवस [5]
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार का जन्मदिवस
सिख परंपरा के द्वितीय गुरु अंगद देव जी के जन्म दिवस[6]
सिंध प्रान्त के प्रसिद्ध समाज रक्षक वरूणावतार संत झूलेलाल का प्रकट दिवस[7]
नव वर्ष का प्रारंभ प्रतिपदा से ही क्यों?
भारतीय नववर्ष का प्रारंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही माना जाता है और इसी दिन से ग्रहों, वारों, मासों और संवत्सरों का प्रारंभ गणितीय और खगोल शास्त्रीय संगणना के अनुसार माना जाता है। आज भी जनमानस से जुड़ी हुई यही शास्त्रसम्मत कालगणना व्यावहारिकता की कसौटी पर खरी उतरी है। इसे राष्ट्रीय गौरवशाली परंपरा का प्रतीक माना जाता है। विक्रमी संवत किसी संकुचित विचारधारा या पंथाश्रित नहीं है। हम इसको पंथ निरपेक्ष रूप में देखते हैं। यह संवत्सर किसी देवी, देवता या महान पुरुष के जन्म पर आधारित नहीं, ईस्वी या हिजरी सन की तरह किसी जाति अथवा संप्रदाय विशेष का नहीं है। हमारी गौरवशाली परंपरा विशुद्ध अर्थो में प्रकृति के खगोलशास्त्रीय सिद्धातों पर आधारित है और भारतीय कालगणना का आधार पूर्णतया पंथ निरपेक्ष है।
प्रतिपदा का यह शुभ दिन भारत राष्ट्र की गौरवशाली परंपरा का प्रतीक है। ब्रह्म पुराण के अनुसार चैत्रमास के प्रथम दिन ही ब्रह्मा ने सृष्टि संरचना प्रारंभ की। यह भारतीयों की मान्यता है, इसीलिए हम चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नववर्षारंभ मानते हैं।
आज भी हमारे देश में प्रकृति, शिक्षा तथा राजकीय कोष आदि के चालन-संचालन में मार्च, अप्रैल के रूप में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही देखते हैं। यह समय दो ऋतुओं का संधिकाल है। इसमें रातें छोटी और दिन बड़े होने लगते हैं। प्रकृति नया रूप धर लेती है। प्रतीत होता है कि प्रकृति नवपल्लव धारण कर नव संरचना के लिए ऊर्जस्वित होती है। मानव, पशु-पक्षी, यहां तक कि जड़-चेतन प्रकृति भी प्रमाद और आलस्य को त्याग सचेतन हो जाती है। वसंतोत्सव का भी यही आधार है। इसी समय बर्फ पिघलने लगती है। आमों पर बौर आने लगता है। प्रकृति की हरीतिमा नवजीवन का प्रतीक बनकर हमारे जीवन से जुड़ जाती है।
इसी प्रतिपदा के दिन आज से 2054 वर्ष पूर्व उज्जयनी नरेश महाराज विक्रमादित्य ने विदेशी आक्रांत शकों से भारत-भू का रक्षण किया और इसी दिन से काल गणना प्रारंभ की। उपकृत राष्ट्र ने भी उन्हीं महाराज के नाम से विक्रमी संवत कह कर पुकारा। महाराज विक्रमादित्य ने आज से 2054 वर्ष पूर्व राष्ट्र को सुसंगठित कर शकों की शक्ति का उन्मूलन कर देश से भगा दिया और उनके ही मूल स्थान अरब में विजयश्री प्राप्त की। साथ ही यवन, हूण, तुषार, पारसिक तथा कंबोज देशों पर अपनी विजय ध्वजा फहराई। उसी के स्मृति स्वरूप यह प्रतिपदा संवत्सर के रूप में मनाई जाती थी और यह क्रम पृथ्वीराज चौहान के समय तक चला। महाराजा विक्रमादित्य ने भारत की ही नहीं, अपितु समस्त विश्व की सृष्टि की। सबसे प्राचीन कालगणना के आधार पर ही प्रतिपदा के दिन को विक्रमी संवत के रूप में अभिषिक्त किया। इसी दिन मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान रामचंद्र के राज्याभिषेक अथवा रोहण के रूप में मनाया गया। यह दिन ही वास्तव में असत्य पर सत्य की विजय दिलाने वाला है। इसी दिन महाराज युधिष्टिर का भी राज्याभिषेक हुआ और महाराजा विक्रमादित्य ने भी शकों पर विजय के उत्सव के रूप में मनाया। आज भी यह दिन हमारे सामाजिक और धाíमक कार्यों के अनुष्ठान की धुरी के रूप में तिथि बनाकर मान्यता प्राप्त कर चुका है। यह राष्ट्रीय स्वाभिमान और सांस्कृतिक धरोहर को बचाने वाला पुण्य दिवस है। हम प्रतिपदा से प्रारंभ कर नौ दिन में छह मास के लिए शक्ति संचय करते हैं, फिर अश्विन मास की नवरात्रि में शेष छह मास के लिए शक्ति संचय करते हैं।
इन्हें भी देखें
नया साल
छडी पूजा
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(महाशक्ति समूह, हिन्दी चिट्ठा)
(अमर उजाला) ऊह
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श्रेणी:भारत में धार्मिक त्यौहार | गुड़ी पड़वा के दिन किस धर्म का नव-वर्ष मनाया जाता है? | हिन्दु | 169 | hindi |
a841a463e | स्वामी नैलापीपर मंदिर स्वामी नैलायप्पर मंदिर एक हिंदू मंदिर है जो दक्षिण भारतीय राज्य तमिलनाडु के एक शहर तिरुनेलवेली में स्थित देवता शिव को समर्पित है। शिव को नेलियाप्पार (वेणुवननाथ के नाम से भी जाना जाता है) को लिंगम द्वारा दर्शाया गया है और उनकी पत्नी पार्वती को कांतिमथी अम्मन के रूप में दर्शाया गया है। मंदिर तिरुनेलवेली जिले में थामिबरानी नदी के उत्तरी तट पर स्थित है । पीठासीन देवता 7 वीं शताब्दी के तमिल सायवा विहित कार्यों में प्रतिष्ठित हैं, तेवारम , जो तमिल संत कवियों द्वारा नायनार के रूप में जाना जाता है और पाडल पेट्रा स्टालम के रूप में वर्गीकृत है ।
मंदिर परिसर चौदह एकड़ के एक क्षेत्र को कवर करता है और इसके सभी तीर्थों को गाढ़ा आयताकार दीवारों से सुसज्जित किया गया है। मंदिर में कई मंदिर हैं, जिनमें स्वामी नैलायप्पर और उनके शिष्य श्री कांतिमथी अम्बल सबसे प्रमुख हैं।
मंदिर में 6:00 बजे से कई बार तीन छह अनुष्ठान होते हैं सुबह 9:00 बजे से दोपहर, और इसके कैलेंडर पर छह वार्षिक उत्सव। ब्रह्मोत्सवम त्योहार तमिल महीने अनी (जून-जुलाई) के सबसे प्रमुख त्योहार मंदिर में मनाया जाता है।
माना जाता है कि मूल परिसर का निर्माण पांड्यों द्वारा किया गया था, जबकि वर्तमान चिनाई संरचना को चोल, पल्लव, चेरस, नायक (मदुरै नायक) द्वारा जोड़ा गया था। आधुनिक समय में, मंदिर का रखरखाव और प्रशासन तमिलनाडु सरकार के हिंदू धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्त विभाग द्वारा किया जाता है।
इतिहास
तिरुनेलवेली राज्य के कई मंदिर कस्बों में से एक है, जो एक विशेष प्रकार के पेड़ या झाड़ी और एक ही किस्म के पेड़ या झाड़ी के पेड़ पर स्थित है, जो कि देवता, झाड़ियों या जंगलों के नाम पर है। माना जाता है कि यह क्षेत्र वेणु वन से आच्छादित है और इसलिए इसे वेणुवनम कहा जाता है। [1]
पुराणों के अनुसार, दोनों गोपुरम पांड्यों द्वारा बनाए गए थे और मंदिर के गर्भगृह का निर्माण निंदरेसर नेदुमारन द्वारा किया गया था जिन्होंने 7 वीं शताब्दी में शासन किया था। अपने प्रसिद्ध संगीत स्तंभ के साथ मणि मंडप 7 वीं शताब्दी में बाद के पांड्यों द्वारा बनाया गया था। मूल रूप से नैलायप्पर और कांतिमथी मंदिर दो स्वतंत्र संरचनाएं थीं जिनके बीच में रिक्त स्थान थे। यह 1647 में था कि थिरु वडामलियप्पा पिल्लैयन, शिव के एक महान भक्त ने "चेन मंडपम" (तमिल सांगली मंडपम) का निर्माण करके दोनों मंदिरों को जोड़ा था। चेन मंडपम के पश्चिमी भाग में फूल उद्यान है जिसे 1756 में थिरुवेनगदाकृष्ण मुदलियार द्वारा स्थापित किया गया था। फ्लावर गार्डन के केंद्र में एक वर्गाकार वसंथा मंडपम है जिसमें 100 खंभे हैं। कहा जाता है कि नंदी मंडप का निर्माण 1654 में सिवंतियप्पा नायक ने करवाया था। नंदी के पास झंडा स्टैंड की स्थापना 1155 में की गई थी। [2]
मंदिर में कई पत्थर के शिलालेख हैं। उनमें से सबसे महत्वपूर्ण वे वीरपांडियान हैं, जिन्होंने लगभग 950 और राजेंद्रन प्रथम और कुलोथुंगा टोला I को पुनः प्राप्त किया । मारवर्मन सुंदरा पांडियन के शिलालेख में भगवान को "वूडायार" और "वोडायनारार" और देवी को "नाचीर" के रूप में संदर्भित किया गया है। कुलशेखर पांडियन के शिलालेखों से हमें पता चलता है कि उन्होंने चेरा , चोल और होयसला राजाओं को पराजित किया और मंदिर की बाहरी दीवारों को युद्ध की लूट से जोड़ा। [3]
आर्किटेक्चर
नैलायप्पार मंदिर 14 एकड़ में फैला है। इस मंदिर का गोपुरम 850 फीट लंबा और 756 फीट चौड़ा है। [4] वडामलैयप्पा पिल्लन द्वारा 1647 में निर्मित सांगिली मंडपम, गणमतिथी अम्मान और नेल्लियप्पार मंदिरों को जोड़ता है। [5] तलवार और सींग धारण करने वाले वीरभद्र के मिश्रित स्तंभ विजयनगर राजाओं के 1500 के दशक के आरंभ में मिले हैं। वीरभद्र की इसी कॉलम में पाए जाते हैं Adikesava पेरूमल मंदिर थिरूवत्तर पर, मीनाक्षी मंदिर में मदुरै , कासी Viswanathar मंदिर में तेनकाशी , कृष्णापुरम Venkatachalapathy मंदिर , Ramanathaswamy मंदिर में रामेश्वरम , Soundararajaperumal मंदिर में Thadikombu , श्रीविल्लीपुतुर अंदल मंदिर , Srivaikuntanathan Permual मंदिर में श्रीवैकुंठम , Avudayarkovil , तिरुक्कुंगुगुड़ी में वैष्णव नांबी और थिरुकुरंगुदिवल्ली नाचीर मंदिर । [6]
थमीरा अम्बलम
तिरुनेलवेली भी उन पाँच स्थानों में से एक है जहाँ भगवान शिव ने अपने नृत्य का प्रदर्शन किया है और इन सभी स्थानों पर चरण / स्तम्भ हैं। जबकि तिरुनेलवेली में थमीराई (तांबा) अंबालाम है, अन्य तिरुवल्लांगडु (रथिनम - रूबी / लाल) में रथिना अंबालम हैं, कोर्टमम में चित्रा अंबालम (चित्र - चित्र), मदुरई मीनाक्षी अम्मन मंदिर (वेल्ली) में वेल्ली अम्बलम और थाइलै नटराज मंदिर, चिदंबरम में पोन (गोल्ड) अंबालाम। [7] [8]
धार्मिक महत्व और त्योहार
नवरात्रि, अयिपसी में तिरुक्कल्याणम, (15 अक्टूबर - 15 नवंबर) और अरुद्र दरिसनम यहाँ के कुछ महत्वपूर्ण त्योहार हैं। अरुद्र दरिसनम यहाँ भारी भीड़ को आकर्षित करता है। मंदिर का रथ एक विशाल है, दूसरा माना जाता है कि केवल तिरुवरूर में है। यहाँ का भ्राम्मोत्सवम तमिल के आनी (15 जून - 15 जुलाई) के दौरान विस्तारित अवधि तक रहता है। इसके अलावा, एक गोल्डन टेम्पल कार (पहला उद्घाटन नैलायप्पार टेम्पल गोल्डन कार 2 नवंबर 2009 है) महत्वपूर्ण त्योहारों जैसे थिरुक्ल्याणम, कारथिगई, आरुथ्रा महोत्सव आदि के दौरान चलेगी। थाई में थाइपोसोमम उत्सव के दौरान, भगवान शिव और पार्वती को तिरुनेलवेली जंक्शन में थामीबेरानी नदी के तट पर ले जाया जाता है जिसे "थाइपोसा मंडपम" कहा जाता है। वहां विशेष अनुष्ठान किए जाते हैं और भगवान रात में मंदिर लौटते हैं। Nellaiappar Temple कार तमिलनाडु की तीसरी सबसे बड़ी कार है। और यह पहली कार है जिसे पूरी तरह से स्वचालित रूप से चलाया जा सकता है। [9]
मंदिर के पुजारी त्योहारों के दौरान और दैनिक आधार पर पूजा (अनुष्ठान) करते हैं। मंदिर के अनुष्ठान दिन में छह बार किए जाते हैं; तिरुवनंतपुरम में सुबह 5.15 बजे उष्टकलपूजा, प्रातः 6.00 बजे स्युकलसन्थी , प्रातः 7.00 बजे कलशंती 12:00 बजे, उचिकलम am और सयारखाई 6:00 बजे बजे रात्रि ai.३० बजे अठजामम, रात्रि ९ .५५ बजे पल्लराई और रात्रि ९ .३० बजे भैरवर पूजाई प्रत्येक अनुष्ठान में चार चरण होते हैं: अभिषेक (पवित्र स्नान), अलंगाराम (सजावट), नैवेद्यम (भोजन अर्पण) और नेलियापर और कनिमोत्री के लिए दीप अरनाई (दीपों का प्रकीर्णन) जैसे साप्ताहिक अनुष्ठान हैं (सोमवार) और (शुक्रवार), पाषाणोत्सव जैसे पाक्षिक अनुष्ठान, और मासिक त्यौहार जैसे अमावसई (अमावस्या दिन), किर्थुताई , पूर्णमी (पूर्णिमा का दिन) और शतुरथी । के दौरान थाई Aaratu त्योहार तमिल महीने थाई (जनवरी - फरवरी) के मंदिर के सबसे महत्वपूर्ण त्यौहारों है। [10] [11]
पंच सबै लहलंगल
माना जाता है कि जिन मंदिरों में भगवान शिव ने लौकिक नृत्य किया है ।
साहित्यिक उल्लेख
Tirugnana सैमबंडर और अप्पर , 7 वीं सदी तमिल शैव कवि Nayanmars , में दस छंद में Nelliappar पूजा Tevaram , के रूप में संकलित पहले Tirumurai । सुन्दरर , एक 8 वीं सदी nayanmar, यह भी Tevaram में दस छंद, पांचवें Tirumurai के रूप में संकलित में Idaiyatreeswarar पूजा। जैसा कि मंदिर तेवरम में प्रतिष्ठित है, इसे पाडल पेट्रा स्टालम के रूप में वर्गीकृत किया गया है , जो 276 मंदिरों में से एक है जो सायवा कैनन में उल्लेखित है। [11] मुथुस्वामी दीक्षितार ने इस मंदिर में एक गीत (श्री कांतिमतिम) की रचना देवी कंथिमथी अम्मान पर की थी। इस गीत को दुर्लभ राग में स्थापित एक दुर्लभ गीत माना जाता है। [4]
संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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श्रेणी:७वीं शताब्दी के हिंदू मंदिर
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श्रेणी:Pages with unreviewed translations | स्वामी नैलायप्पर मंदिर का निर्माण किस राजवंश द्वारा किया गया था? | पांड्यों | 1,046 | hindi |
3dd421793 | गुरुग्राम (पूर्व नाम: गुड़गाँव), हरियाणा का एक नगर है जो राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली से सटा हुआ है। यह दिल्ली से ३२ किमी. दक्षिण-पश्चिम में स्थित है। २०११ में ८,७९,९९६ की जनसंख्या के साथ यह फरीदाबाद के बाद हरियाणा का दूसरा सर्वाधिक जनसंख्या वाला नगर है। गुरुग्राम दिल्ली के प्रमुख सैटेलाइट नगरों में से एक है, और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र का हिस्सा है। चण्डीगढ़ और मुम्बई के बाद यह भारत का तीसरा सबसे ज्यादा पर-कैपिटा इनकम वाला नगर है।[1]
लोकमान्यता अनुसार महाभारत काल में इन्द्रप्रस्थ के राजा युधिष्ठिर ने यह ग्राम अपने गुरु द्रोणाचार्य को दिया था।[2] उनके नाम पर ही इसे गुरुग्राम कहा जाने लगा, जो कालांतर में बदलकर गुड़गांव हो गया। मुगल काल मे यह आगरा सूबे में, जबकि ब्रिटिश काल मे दिल्ली जिले का भाग था। १९५० के दशक तक गुरुग्राम एक छोटा सा गांव था, जहां की अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित थी। आस-पास के क्षेत्रों के मुकाबले यहां की मिट्टी खराब गुणवत्ता की थी, और इस कारण यहां भूमि की दरें काफी कम थी। इसका लाभ उठाकर कई कम्पनियों ने ८० और ९० के दशक में यहां औद्योगिक क्षेत्र स्थापित करना शुरू किया।[3][4]
इतिहास
प्राचीन इतिहास
महाभारत (९०० ईसा पूर्व) के अनुसार, इस क्षेत्र को पांडव राजा युधिष्ठिर द्वारा उनके गुरु द्रोणाचार्य को गुरुदक्षिणा में दिया गया था। कालांतर में यह मौर्य साम्राज्य के अधीन आया, और फिर अगले वर्षों में पहलवी और कुषाण साम्राज्यों के बाद यादव (Yaudheya) आक्रमणकारियों के हाथों में आ गया, जब उन्होंने यमुना और सतलुज के बीच के क्षेत्र में कुषाणों को परास्त कर दिया। यादवों के बाद यहां क्षत्रप राजा रुद्रदमन प्रथम का, और फिर बाद में गुप्त राजवंश, और हूणों का राज रहा, जिन्हें मंदसौर के यशोधर्मन और फिर कन्नौज के यशोवर्मन द्वारा उखाड़ फेंका गया था। उनके बाद इस क्षेत्र पर हर्ष (५९०-४६७ ईसा पूर्व) और गुर्जर प्रतिहार राजवंश (७ वीं शताब्दी के मध्य से ११ वीं शताब्दी) का शासन रहा। ७५६ में प्रतिहारों को हटाकर तोमर वंश ने अपना राज्य स्थापित किया, जिन्हें ११५६ में चौहान वंश के राजा विसालेदेव चौहान ने पराजित कर दिया था। ११८२ में चौहान वंश का विस्तार गुरुग्राम, नूह, भिवानी और रेवाड़ी तक था।
११९२ में पृथ्वीराज चौहान की हार के बाद, यह क्षेत्र दिल्ली सल्तनत के अधीन आ गया। १२०६ में दिल्ली के सुल्तान कुतुब-उद-दीन ऐबक ने मेवात पर आक्रमण करने के कारण पृथ्वीराज के बेटे हेमराज को पराजित कर मार डाला था। लगभग उसी समय मे सय्यद वाजी-उद-दीन ने मेव हिंदुओं पर आक्रमण किया, लेकिन उन्होंने उसे पराजित कर मार डाला, इसके बाद ऐबक के भतीजे मिरान हुसैन जांग ने उन पर पुनः आक्रमण किया और सफल रहा। १२४९ में बलबन ने विद्रोह करने पर २००० मेव लोगों की हत्या कर दी। १२५७-५८ में मेव विद्रोहियों ने दोबारा बलबन की सेना से बड़ी संख्या में ऊंट चुरा लिए। इससे क्षुब्ध होकर बलबन ने १२६० में उनके क्षेत्र पर आक्रमण कर २५० मेव कैदियों को तो तुरन्त मार दिया, और फिर केवल पुरुषों को जीवित छोड़कर १२,००० महिलाओं और बच्चों की हत्या कर दी।
१३९८ में तैमूरलंग के भारत पर आक्रमण के समय इस क्षेत्र में 'बहादुर नाहर' के नाम से प्रसिद्ध संबर पाल नामक राजा का शासन था। उसने ही नूह के कोटला गांव में कोटला झील के पास कोटला बहादुर नाहर नामक किले का निर्माण किया था। संबर पाल ने तैमूर के आक्रमण करने पर उसके समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया, और इस्लाम अपनाकर नाम 'राजा नाहर खान' के साथ राज जारी रखा। १४२१ में दिल्ली के सय्यद राजवंश के सुल्तान ख़िज्र खाँ ने बहादुर नाहर के पुत्र जलाल खान को मेवात और कोट्टला किले में पराजित किया। १४२५ में फिर बहादुर नाहर के पोते जलाल खान और अब्दुल कादिर दिल्ली सल्तनत के विद्रोह में उठ खड़े हुए, और उन्हें तत्कालीन सुल्तान मुबारक शाह (१४२१- १४३४) द्वारा पराजित किया गया, जिन्होंने उनके राज्य पर कब्जा कर लिया और कादिर को मार डाला। जलाल ने हालांकि दिल्ली सल्तनत के विरुद्ध मूल विद्रोह जारी रखा। १५२७ में संबर पाल के वंशज हसन खां मेवाती ने राजपूत राजा राणा सांगा की ओर से खानवा के युद्ध में शामिल हुआ, जहां उसे बाबर द्वारा पराजित कर दिया गया, और उसके बेटे 'नाहर खान द्वितीय' ने मुगलों के संरक्षण में इस क्षेत्र पर शासन जारी रखा।
अकबर के शासनकाल के दौरान, गुरुग्राम दिल्ली और आगरा के सूबों का हिस्सा था। जैसे जैसे मुग़ल साम्राज्य की शक्तियां क्षीण होना प्रारम्भ हुई, यह क्षेत्र कई स्थानीय शासकों के मध्य बंट गया। औरंगजेब की मृत्यु के बाद गुरुग्राम जिले के उत्तर में स्थित बहादुरगढ़ और फर्रुखनगर बलूच नवाबों के अधीन थे, जिन्हें १७१३ में मुगल बादशाह फर्रुख़ सियर द्वारा इन्हें जागीर बना दिया गया था, मध्य में स्थित बादशाहपुर के आस पास का क्षेत्र हिंदू बड़गुजर राजपूत राजा हाथी सिंह के शासनाधीन, और दक्षिणी भाग (नूह सहित) भरतपुर राज्य के महाराजा सूरज मल के अधीन थे। १८ वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में मराठा साम्राज्य के शासनकाल के दौरान इस क्षेत्र पर अनेक फ्रेंच जनरलों द्वारा विजय प्राप्त की गई और उन्होंने फरुखनगर को जॉर्ज थॉमस और झारसा (बादशापुर) जो बेगम सुमेरो, और नूह समेत दक्षिण क्षेत्र को भरतपुर के राजा और उनके रिश्तेदारों के अधीन रखा, जिनमें से एक नाहर सिंह भी था।
ब्रिटिश राज
१८०३ में सिंधिया के साथ सुरजी अर्जुनंग संधि के माध्यम से यह क्षेत्र ब्रिटिश शासन के अधीन आया, और इसे दिल्ली जिले का एक परगना बनाया गया। १८५७ के विद्रोह के बाद, दिल्ली जिले को उत्तर-पश्चिमी प्रांत से पंजाब प्रांत में स्थानांतरित कर दिया गया। १८६१ में दिल्ली जिले को पांच तहसीलों में पुन: व्यवस्थित किया गया था: गुड़गांव, फिरोजपुर झिरका, नूह, पलवल और रेवाड़ी। १९४७ में गुड़गांव भारतीय पंजाब के नग्गर के रूप में स्वतंत्र भारत का हिस्सा बन गया। १९६६ में यह नगर नव निर्मित राज्य हरियाणा के अंतर्गत आया था।[5]
सन १९५० में एक द्वितीय श्रेणी की नगरपालिका के रूप में गुरुग्राम नगरपालिका की स्थापना हुई थी, और २ वर्ष बाद इसमें सिविल लाइन्स, न्यू लाइन्स, पुलिस कॉलोनी, मड-हट्स, मॉडल टाउन और मरला कॉलोनी को नगर क्षेत्र में शामिल किया गया। १९६९ में इसे प्रथम श्रेणी की नगरपालिका का दर्जा दिया गया। २००८ में गुरुग्राम को नगर निगम घोषित किया गया।[6]
भूगोल
गुरुग्राम नगर हरियाणा राज्य के गुरुग्राम जिले में स्थित है। यह नगर राष्ट्रीय राजधानी नई दिल्ली के ३० किमी दक्षिण में द्वारका से करीब १० किलोमीटर की दूरी पर, और राज्य की राजधानी चंडीगढ़ के २६८ किमी दक्षिण में स्थित है। नगर का कुल क्षेत्रफल ७३८.८ वर्ग किलोमीटर है,[7] और समुद्र तल से इसकी ऊंचाई २१७ मीटर है।[8]
जलवायु
गुरुग्राम में मानसून-प्रभावित मानसून से प्रभावित समग्र जलवायु का अनुभव करता है, और कोपेन जलवायु वर्गीकरण के अनुसार इसकी जलवायु उप-उष्णकटिबंधीय ("सीडब्लूए") है।[9] नगर में प्रमुखतः चार अलग-अलग मौसम देखे जा सकते हैं - वसंत (फरवरी-मार्च), गर्मी (अप्रैल-अगस्त), पतझड़ (सितंबर-अक्टूबर) और सर्दी (नवंबर-जनवरी); हालांकि गर्मी की आखिरी महीने मानसून के नाम रहते हैं। अप्रैल से लेकर अक्टूबर के मध्य तक चलने वाला ग्रीष्मकालइन मौसम आमतौर पर गर्म और आर्द्र होता है, और जून में औसत दैनिक उच्च तापमान ४० डिग्री सेल्सियस (१०४ डिग्री फ़ारेनहाइट) रहता है। इस मौसम में तापमान अक्सर ४३ डिग्री सेल्सियस (१०९ डिग्री फारेनहाइट) के पार चला जाता है। सर्दियां ठंड और धूमिल होती हैं, जिनमें केवल कुछ ही दिन अच्छी धूप निकलती है, और दिसंबर में दैनिक औसत ३ डिग्री सेल्सियस (३७ डिग्री फ़ारेनहाइट) रहता है। पश्चिमी विक्षोभ के कारण सर्दियों में कुछ बारिश होती है, जिससे ठंड में भी बढ़ोतरी होती है। वसंत और शरद ऋतु में कम आर्द्रता वाला हल्का और सुखद मौसम होता है। मनसून आमतौर पर जुलाई के पहले सप्ताह में शुरू होता है, और अगस्त तक रहता है। मनसून के दौरान तूफान असामान्य नहीं हैं। औसत वार्षिक वर्षा लगभग ७१४ मिलीमीटर (२८.१ इंच) तक होती है।[9]
स्थापत्य
गुरुग्राम में विशिष्ट समय अवधियों में विभिन्न शैलियों की विस्तृत श्रृंखला में बनी वास्तुशिल्प के रूप से उल्लेखनीय कई इमारतें स्थित हैं। गुरुग्राम की कई गगनचुंबी इमारतों को राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त है, और यह शहर आधुनिक नियोजन के साथ कई लंबी इमारतों का घर रहा है। गुरुग्राम में लगभग १,१०० आवासीय गगनचुम्बी इमारतें हैं।[10] गुरुग्राम में किसी कॉन्डोमिनियम में ९३-वर्ग मीटर (१,००० वर्ग फीट) के दो बेडरूम के अपार्टमेंट की औसत कीमत कम से कम १ करोड़ रुपये है।[10]
क्षेत्र
गुरुग्राम नगर में ३६ वार्ड हैं, और प्रत्येक वार्ड आगे ब्लॉकों में बांटा गया है। नगर को गैर-आधिकारिक तौर पर ४ भागों में बांटा जा सकता है। पहला पुराना गुड़गांव नगर; दूसरा हुडा (हरियाणा अर्बन डेवेलपमेंट अथॉरिटी) द्वारा व्यवस्थित क्षेत्र; तीसरा सेक्टर १ से ५७ तक का क्षेत्र, जिसे मुख्यतः प्राइवेट बिल्डरों ने बसाया था; और चौथा सेक्टर ५८ से ११५ तक का क्षेत्र, जो नगर की आधिकारिक सीमाओं से बाहर स्थित है।[11] शहर में आवास के प्रकारों में मुख्य रूप से संलग्न आवास शामिल हैं, हालांकि अपार्टमेंट, कॉन्डोमिनियम और उच्च वृद्धि आवासीय टावरों सहित बड़ी संख्या में संलग्न बहु-आवासीय इकाइयां धीरे धीरे लोकप्रिय हो रही हैं।
उद्यान
गुरुग्राम में कई उद्यान हैं, जिनमें से अधिकतर हरियाणा शहरी विकास प्राधिकरण द्वारा अनुरक्षित हैं। नगर के उद्यानों में सेक्टर २९ में स्थित लैज़र वैली पार्क, जो १५ हेक्टेयर (३६ एकड़) से अधिक क्षेत्र में फैला हुआ है; सेक्टर ५२ में स्थित ताऊ देवी लाल जैव विविधता बॉटनिकल गार्डन; सेक्टर १४ में स्थित नेताजी सुभाषचंद्र बोस पार्क, जिसे हुडा गार्डन के नाम से भी जाना जाता है; सेक्टर २३ में स्थित ताऊ देवी लाल पार्क; और एमजी रोड पर स्थित अरावली जैव विविधता पार्क प्रमुख हैं। हालांकि, गुरुग्राम के अधिकांश पार्क छोटे और अव्यवस्थित हैं।[12]
जनसांख्यिकी
गुरुग्राम की दशकवार जनसंख्या[13]YearPop.±%19014,765—19115,461+14.6%19215,107−6.5%19317,208+41.1%19419,935+37.8%195118,613+87.3%196137,868+103.4%197157,151+50.9%198189,115+55.9%1991121,486+36.3%2001201,322+65.7%2011886,519+340.3%
२०११ की भारत की जनगणना के अनुसार गुरुग्राम नगर निगम क्षेत्र की जनसंख्या ८,७६,९६९ है, और नगर के चारों तरफ स्थित कुछ कॉलोनियों को जोड़कर यह संख्या ८,८६,५१९ हो जाती है।[14] नगर में पुरुषों की संख्या ४,७५,०३२ है, जबकि महिलाओं की संख्या ४,०१,९३७ है, और इस प्रकार गुरुग्राम का लिंगानुपात ८४६ महिलाएं प्रति १००० पुरुष है। फरीदाबाद के बाद यह हरियाणा का दूसरा सर्वाधिक जनसंख्या वाला नगर है।
गुरुग्राम के जनगणना आंकड़े
१९०१ में गुरुग्राम एक छोटा सा गांव था, और इसकी जनसंख्या ४,७६५ थी। अगले ५ दशकों में नगर में जनसंख्या विस्तार काफी धीमा रहा, और १९११, २१, ३१, तथा ४१ में नगर की जनसंख्या क्रमशः ५,४६१, ५,१०७, ७,२०८ और ९,९३५ थी। १९५१ में आख़िरकार इसकी जनसंख्या १० हज़ार का आंकड़ा पार कर १८,६१३ पहुंच पाई। ५० के दशक में नगरपालिका की स्थापना, और नगर क्षेत्र के विस्तार के कारण १९६१ की जनगणना में गुरुग्राम की जनसंख्या दो गुना से भी अधिक बढ़कर ३७,८६८ हो गई। १९७१ में जनसंख्या ५७,१५१ थी, और १९८१ में यह बढ़कर ८९,११५ हो गई। ८०-९० के दशक में एक औद्योगिक नगर के रूप में गुरुग्राम का रूपांतरण होने लगा, और १९९१ की जनगणना में इसकी जनसंख्या १ लाख के पार पहुंच गई।
२००१ की जनगणना में नगर की जनसंख्या २,०१,३२२ थी, और २०११ में यह लगभग ४ गुना बढ़कर ८,८६,५१९ गई। इस जनसंख्या वृद्धि, और नगर की तीव्र विकास दर को देखते हुए विभिन्न संस्थाओं द्वारा अपने अपने शोधों में इसकी प्रस्तावित जनसंख्या का अलग अलग विवरण दिया गया है। टाइम्स ऑफ़ इंडिया की एक खबर में गुरुग्राम की २०१८ की जनसंख्या लगभग २५ बताई गई है,[15] और एक अन्य खबर में २०२० तक इसके ३० लाख तक पहुंचने की बात कही है।[16] इसी तरह सीआईआई हरयाणा और प्राइस वाटरहाउस कूपर्स के एक संयुक्त अध्ययन में २०३१ तक इसकी जनसंख्या ५७ लाख हो जाने की बात कही है,[17] जबकि डायरेक्टरेट ऑफ़ टाउन एंड कंट्री प्लानिंग ने इसके ६९ लाख तक बढ़ जाने की बात कही है।[18]
० से ६ साल तक की उम्र के बच्चों की संख्या १,११,८०१ है, जो नगर की कुल जनसंख्या का १२.७५% है।[14] इसके अतिरिक्त नगर की साक्षरता दर ८७.५२% है, जो कि राज्य की साक्षरता दर (६७.९१%) से अधिक है।[14] पुरुषों में साक्षरता दर ९०.९३% जबकि महिलाओं में साक्षरता दर ८३.५०% है।[13]:369 नगर में कुल ३०,८८८ झुग्गियां हैं, जिनमें १,४४,९०५ लोग रहते हैं, और ये नगर की कुल जनसंख्या का १६.३३% हैं।[14]
प्रशासन
नगर में प्रशासन का मुख्य दायित्व गुरुग्राम नगर निगम के पास है। इसके अतिरिक्त हाल ही में हरियाणा सरकार ने गुरुग्राम मेट्रोपोलिटन डेवेलपमेंट अथॉरिटी (जीएमडीए) की भी स्थापना की है।[19]
मण्डल तथा जिला
गुरुग्राम हरियाणा के गुरुग्राम जिले और गुरुग्राम मण्डल का प्रशासनिक मुख्यालय है।
गुरुग्राम मण्डल हरियाणा के ६ मण्डलों में से एक है, और इसमें गुरुग्राम के अलावा महेंद्रगढ़ और रेवाड़ी जिले भी आते हैं। पहले फरीदाबाद, पलवल और मेवात जिले भी गुरुग्राम मण्डल का ही भाग थे, परन्तु हरियाणा सरकार ने जनवरी २०१७ में फरीदाबाद मण्डल का गठन कर इन जिलों को वहां स्थानांतरित कर दिया।[20]
गुरुग्राम जिला हरियाणा के २२ जिलों में से एक है। २०११ की जनगणना के अनुसार इसकी जनसंख्या १५,१४,०८५ है। प्रशासनिक कार्यों से जिले को ५ तहसीलों (गुड़गांव, सोहना, मानेसर, फर्रुख नगर, पटौदी), ४ उप-तहसीलों (वज़ीराबाद, बादशाहपुर, कादीपुर, हरसरू), और ४ विकास खण्डों (गुड़गांव, सोहना, फर्रुख नगर, पटौदी) में बांटा गया है।
संस्कृति
मनोरंजन तथा प्रदर्शन कला
नगर में उल्लेखनीय प्रदर्शन कला स्थलों में सेक्टर ४४ में स्थित एपिसेंटर और आईएफएफसीओ चौक के पास स्थित किंगडम ऑफ ड्रीम्स और नौटंकी महल प्रमुख हैं। बॉलीवुड अभिनेता राजकुमार राव का जन्म गुरुग्राम में हुआ था।
भाषाएं तथा बोलियां
गुड़गांव में बोली जाने वाली मुख्य भाषा हिंदी है, हालांकि आबादी का एक प्रमुख वर्ग अंग्रेजी को समझता और बोलता है। हिंदी में इस्तेमाल की जाने वाली बोली दिल्ली के समान है, और इसे भाषिक तौर पर तटस्थ माना जाता है, हालांकि हरियाणा, उत्तर प्रदेश और पंजाब के क्षेत्रीय प्रभाव भाषा उच्चारण में स्पष्ट देखे जा सकते हैं। अंग्रेजी को भारतीय उच्चारण में मुख्य रूप से उत्तर भारतीय प्रभाव के साथ बोला जाता है। चूंकि गुड़गांव में बड़ी संख्या में अंतरराष्ट्रीय कॉल सेंटर हैं, इसलिए कर्मचारियों को मूल अंग्रेजी बोलने तथा समझने योग्य होने के लिए आमतौर पर तटस्थ उच्चारण में औपचारिक प्रशिक्षण दिया जाता है। हरियाणवी, मेवाती और पंजाबी शहर में बोली जाने वाली अन्य लोकप्रिय भाषाएं हैं।[21][22]
धर्म तथा सम्प्रदाय
हिंदू धर्म नगर का प्रमुख धर्म है। इसके अतिरिक्त गुड़गांव में सिख धर्म, इस्लाम, बौद्ध धर्म, जैन धर्म, ईसाई धर्म और बहाई के अनुयायी भी रहते हैं। गुड़गांव में सभी प्रमुख धर्मों के लिए पूजा के कई स्थल उपस्थित हैं, जिनमें मंदिर, गुरुद्वारे, मस्जिद और चर्च शामिल हैं।
नगर की कुल जनसंख्या में से ९१.८८ प्रतिशत लोग हिन्दू धर्म का जबकि ४.५७ प्रतिशत लोग इस्लाम का अनुसरण करते हैं। इसके अत्रिरक्त नगर में १.६० प्रतिशत लोग सिख धर्म का, ०.९५ प्रतिशत लोग ईसाई धर्म का, ०.७९ प्रतिशत लोग जैन धर्म का तथा ०.०९ प्रतिशत लोग बौद्ध धर्म का अनुसरण करते हैं। इसके अतिरिक्त नगर की कुल जनसंख्या में से ०.१३ प्रतिशत लोग या तो आस्तिक हैं, या किसी भी धर्म से ताल्लुक नहीं रखते।
पुराने नगर में शीतला माता को समर्पित एक मंदिर प्रसिद्ध मंदिर है। शीतला माता गुरु द्रोणाचार्य की पत्नी थी।[23] इस मंदिर में प्रतिवर्ष नियमित रूप से मेले का आयोजन होता है, और हर साल इस मेले में शीतला माता का आशीर्वाद लेने के लिए बड़ी संख्या में लोग आते हैं।
खेल
गुरूग्राम में दो प्रमुख खेल स्टेडियम हैं: सेक्टर ३८ में स्थित ताऊ देवी लाल स्टेडियम, जिसमें क्रिकेट, फुटबॉल, बास्केटबाल और एथलेटिक्स के मैदानों के साथ-साथ एक खेल छात्रावास भी है, और नेहरू स्टेडियम, जो फुटबॉल और एथलेटिक्स के लिए डिजाइन किया गया है। एमिटी यूनाइटेड एफसी का घरेलू मैदान ताऊ देवी लाल स्टेडियम है। गुड़गांव जिले में कुल नौ गोल्फ कोर्स हैं, और इसे "भारत के गोल्फिंग प्रदेश का दिल" कहा जाता है।[24] प्रसिद्ध घरेलू क्रिकेट खिलाड़ी जोगिंदर राव गुड़गांव से थे।
आवागमन
इन्दिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय विमानक्षेत्र के समीप स्थित है, और दिल्ली से दिल्ली गुरुग्राम द्रुतगामी मार्ग के माध्यम से जुड़ा हुआ है। मेट्रो गुरुग्राम में यातायात का सबसे प्रचलित साधन है। दिल्ली मेटो की येलो लाइन के द्वारा दिल्ली मेट्रो नेटवर्क से जुड़ा है। इसके अतिरिक्त भी नगर में कई अन्य मेट्रो रूट प्रस्तावित हैं।[25] मोनो रेल भी गुरुग्राम में यातायात का एक अच्छा विकल्प उपलब्ध कराती है।
इन्हें भी देखें
गुरुग्राम जिला
सन्दर्भ
श्रेणी:गुरुग्राम | गुरुग्राम का क्षेत्रफल कितना है? | ७३८.८ वर्ग किलोमीटर | 5,561 | hindi |
45aea83da | ममता बनर्जी (Bengali: মমতা বন্দ্যোপাধ্যায়, जन्म: जनवरी 5, 1955) भारतीय राज्य पश्चिम बंगाल की वर्तमान मुख्यमंत्री एवं राजनैतिक दल तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख हैं। उनके अनुयायी उन्हें दीदी (बड़ी बहन) के नाम से संबोधित करते हैं।
जीवन
बनर्जी का जन्म कोलकाता में गायत्री एवं प्रोमलेश्वर के यहां हुआ। उन्होंने बसंती देवी कॉलेज से स्नातक पूरा किया एवं जोगेश चंद्र चौधरी लॉ कॉलेज से उन्होंने कानून की डिग्री प्राप्त की।
संगीत एलबम
2018 मे उन्होंने दुर्गा पूजा पर आधारित अपने एलबम ' रौद्रर छाया ' केे लिए सात गीत कंपोज किए हैं।[1]
सन्दर्भ
श्रेणी:1955 में जन्मे लोग
श्रेणी:जीवित लोग
श्रेणी:पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री
श्रेणी:१०वीं लोक सभा के सदस्य
श्रेणी:११वीं लोक सभा के सदस्य
श्रेणी:१२वीं लोक सभा के सदस्य
श्रेणी:१३वीं लोक सभा के सदस्य
श्रेणी:१४वीं लोक सभा के सदस्य
श्रेणी:१५वीं लोकसभा के सदस्य
श्रेणी:भारत के रेल मंत्री
श्रेणी:सर्वभारतीय तृणमूल कांग्रेस के राजनीतिज्ञ
श्रेणी:भारतीय महिला राजनीतिज्ञ
श्रेणी:हिन्द की बेटियाँ
श्रेणी:विकिपरियोजना हिन्द की बेटियाँ | ममता बनर्जी का जन्म कहाँ हुआ था? | कोलकाता | 247 | hindi |
a0de361c3 | हेल्फोर्ड जॉन मैकिण्डर (१८६१ से १९४5 ई.) मेकिण्डर ब्रिटेन में भुगोल का अग्रदूत माना जाता हैं। ब्रिटेन में भूगोल का विभाग सर्वप्रथम ऑक्सफ़ोर्ड में १८८७ में खोला गया था, और नवयुवक मेकिण्डर वहां सर्वप्रथम रीडर नियुक्त हुवा था, तब उसकी आयु केवल २६ वर्ष थी।
रचनाएं
इतिहास का भौगोलिक धुराग्र
हृदय स्थल सिद्धांत
"जो पुर्वी युरोप पर शासन करता हैं, हृदय स्थल को नियंत्रित करता है,
जो हृदय स्थल पर शासन करता हैं, विश्वद्वीप को नियंत्रित करता है,
जो विश्वद्वीप पर शासन करता हैं, विश्व को नियंत्रित करता है,"
श्रेणी:भूगोलवेत्ता
श्रेणी:ब्रिटिश भूगोलवेत्ता
श्रेणी:हेल्फोर्ड जॉन मैकिण्डर
श्रेणी:रक्षा अध्ययन
श्रेणी:राजनीतिक भूगोल | ब्रिटेन में भूगोल का विभाग सर्वप्रथम किस विश्विद्यालय में खोला गया था? | ऑक्सफ़ोर्ड | 131 | hindi |
d637f9208 | डेमलर एजी (Daimler AG) (German pronunciation:[ˈdaɪmlɐ aːˈɡeː]; पूर्व नाम डेमलर क्रिसलर (DaimlerChrysler) ; FWB:) एक जर्मन कार कंपनी है। यह दुनिया की तेरहवीं सबसे बड़ी कार निर्माता और दूसरी सबसे बड़ी ट्रक निर्माता कंपनी है। ऑटोमोबाइल के अलावा डेमलर बसों का भी निर्माण करती है और अपनी डेमलर फाइनेंशियल सर्विसेस शाखा के माध्यम से वित्तीय सेवा भी प्रदान करती है। एरोस्पेस समूह ईएडीएस में भी कंपनी का बहुत बड़ी हिस्सेदारी है, जो एक उच्च प्रौद्योगिकी कंपनी होने के साथ-साथ वोडाफोन मैक्लारेन मर्सडीज रेसिंग टीम मैक्लारेन ग्रुप (जो फ़िलहाल एक पूर्ण रूप से स्वतंत्र स्वचलित कंपनी[2] बनने की प्रक्रिया में है) और जापानी ट्रक निर्माता कंपनी मित्सुबिशी फूसो ट्रक एण्ड बस कॉर्पोरेशन की मूल कंपनी है।
डेमलर क्रिसलर की स्थापना (1998–2007), 1998 में जर्मनी के स्टटगार्ट की मर्सडीज-बेंज निर्माता कंपनी डेमलर-बेंज (1926–1998) और अमेरिका आधारित क्रिसलर कॉर्पोरेशन के विलय के साथ हुई थी। इस सौदे से एक नई कंपनी डेमलर क्रिसलर का जन्म हुआ। हालांकि इस खरीदारी से अटलांटिक के परे की एक शक्तिशाली ऑटोमोटिव कंपनी का निर्माण न हो सका जिसकी उम्मीद सौदा करने वालों ने की थी और डेमलर क्रिसलर ने 14 मई 2007 को यह घोषणा की कि यह क्रिसलर को न्यूयॉर्क की सेर्बेरस कैपिटल मैनेजमेंट नामक एक प्राइवेट इक्विटी फर्म को बेच देगी जिसे संकटग्रस्त कंपनियों के पुनर्गठन में विशेषज्ञता प्राप्त है।[3] 4 अक्टूबर 2007 को डेमलर क्रिसलर के शेयरधारकों की एक आसाधारण बैठक में कंपनी के पुनर्नामकरण पर मंजूरी दी गई। 5 अक्टूबर 2007 को इस कंपनी को डेमलर एजी नाम दिया गया।[4] 3 अगस्त 2007 को बिक्री का काम पूरा होने पर अमेरिकी कंपनी ने क्रिसलर एलएलसी नाम रख लिया।
डेमलर कई ब्रांड नामों के तहत कारों और ट्रकों का निर्माण करती है, जिनमें शामिल हैं मर्सडीज-बेंज, मेबैक, स्मार्ट और फ्रेटलाइनर.
इतिहास
डेमलर एजी एक सदी से भी ज्यादा समय से ऑटोमोबाइल, मोटर वाहन और इंजनों का निर्माण करने वाली एक जर्मन निर्माता कंपनी रही है।
कार्ल बेंज की बेंज एण्ड सी (1883 में स्थापित) और गोटलीब डेमलर और विल्हेम मेबैक की डेमलर मोटरेन गेसेलशाफ्ट (1890 में स्थापित) के बीच 1 मई 1924 को आपसी हित के एक समझौते पर हस्ताक्षर किया गया।
दोनों कंपनियों ने 28 जून 1926 तक अपने-अपने अलग ऑटोमोबाइल और आतंरिक दहन इंजन ब्रांडों का निर्माण जारी रखा जब बेंज एण्ड सी और डेमलर मोटरेन गेसेलशाफ्ट के मिलने से डेमलर-बेंज एजी का निर्माण हुआ और इस बात पर अपनी सहमति व्यक्त की कि उसके बाद सभी कारखानों में उनके ऑटोमोबाइल पर मर्सडीज-बेंज ब्रांड नाम का इस्तेमाल किया जाएगा.
1998 में डेमलर-बेंज एजी और अमेरिकी ऑटोमोबाइल निर्माता कंपनी क्रिसलर कॉर्पोरेशन के मिलने से डेमलर क्रिसलर एजी का निर्माण हुआ। इस समूह ने डेमलर-बेंज के गैर-ऑटोमोटिव व्यवसाय जैसे डेमलर-बेंज इंटर सर्विसेस एजी (डेबिस) (जिसे डेमलर समूह के लिए डेटा प्रॉसेसिंग, वित्तीय एवं बीमा सेवा और अचल संपत्ति प्रबंधन का काम संभालने के लिए 1989 में निर्मित किया गया था) को उनके विस्तार संबंधी रणनीतियों पर चलते रहने की अनुमति प्रदान की। प्राप्त ख़बरों के अनुसार 1997 में डेबिस का राजस्व 8.6 बिलियन डॉलर (15.5 बिलियन ड्यूश मार्क) था।[5][6]
2007 में जब क्रिसलर समूह को सेर्बेरस कैपिटल मैनेजमेंट को बेच दिया गया तब मूल कंपनी का नाम बदलकर सिर्फ "डेमलर एजी" कर दिया गया।
डेमलर एजी की समयरेखा
बेंज एण्ड कंपनी, 1883-1926
डेमलर मोटरेन गेसेलशाफ्ट एजी, 1890-1926
डेमलर बेंज एजी, 1926-1998
डेमलर क्रिसलर एजी, 1998-2007
डेमलर एजी, 2007-वर्तमान
पूर्व क्रिसलर गतिविधियां
क्रिसलर को हाल के वर्षों में लगातार कई बाधाओं का सामना करना पड़ा है जिसके परिणामस्वरूप मई 2007 में 6 बिलियन अमेरिकी डॉलर में इस इकाई को सेर्बेरस कैपिटल मैनेजमेंट को बेचने के लिए डेमलर क्रिसलर को समझौता करना पड़ा.
अपने इतिहास के अधिकांश समय में क्रिसलर "बिग 3" अमेरिकी ऑटो निर्माता कंपनियों में से तीसरी सबसे बड़ी कंपनी रही है लेकिन जनवरी 2007 में इसकी लग्जरी मर्सडीज और मेबैक लाइनों को छोड़कर डेमलर क्रिसलर ने पारंपरिक रूप से दूसरा स्थान प्राप्त करने वाले फोर्ड को भी बेच दिया हालांकि यह जनरल मोटर्स और टोयोटा से पीछे रहा है।
प्राप्त ख़बरों के अनुसार 2006 में क्रिसलर को 1.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर का नुकसान हुआ था। उसके बाद इसने 2008 तक लाभकारिता को बहाल करने के लिए मध्य-फरवरी 2007 में 13,000 कर्मचारियों को निकालने, एक प्रमुख असेम्बली प्लांट को बंद करने और अन्य प्लांटों के उत्पादन में कटौती करने की योजनाओं की घोषणा की। [7]
यह विलय विवादपूर्ण था और निवेशकों ने इस बात पर मुकदमा करना शुरू आर दिया था कि क्या यह लेनदेन 'बराबर का विलय' था जिसका वरिष्ठ प्रबंधन ने दावा किया था या वास्तव में इसके फलस्वरूप क्रिसलर पर डेमलर बेंज का कब्ज़ा हो गया। एक वर्ग कार्रवाई निवेशक मुक़दमे को अगस्त 2003 में 300 मिलियन अमेरिकी डॉलर में निपटा दिया गया जबकि कर्मण्यतावादी अरबपति किर्क केर्कोरियन के एक मुक़दमे को 7 अप्रैल 2005 को खारिज कर दिया गया।[8] इस लेनदेन के फलस्वरूप इसके वास्तुकार चेयरमैन जर्जेन ई. श्रेम्प को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा जिन्होंने इस लेनदेन के बाद कंपनी के शेयर की कीमत में हुई गिरावट के प्रतिक्रियास्वरूप 2005 के अंत में इस्तीफा दे दिया। यह विलय बिल व्लासिक और ब्रैडली ए. स्टर्ट्ज़ की टेकेन फॉर ए राइड: हाउ डेमलर बेंज ड्रोव ऑफ विथ क्रिसलर (2000) नामक एक किताब का विषय भी था।[9]
विवाद का एक और मुद्दा यह है कि क्या इस विलय से प्रस्तावित सहक्रिया पर अमल किया गया और क्या इसके फलस्वरूप दोनों व्यवसायों का सफल एकीकरण हुआ। अधिक से अधिक 2002 में डेमलर क्रिसलर को दो स्वतंत्र उत्पाद लाइनों का संचालन करते हुए देखा गया। बाद में उसी वर्ष कंपनी ने जिन उत्पादों का शुभारंभ किया वे कंपनी के दोनों पक्षों के तत्वों को एकीकृत करता हुआ दिखाई देता है जिसमें क्रिसलर क्रॉसफायर भी शामिल है जो मर्सडीज एसएलके प्लेटफॉर्म पर आधारित था और जिसमें मर्सडीज की 3.2L V6 का इस्तेमाल किया गया था और इसके साथ ही साथ इसमें डोज स्प्रिंटर/फ्रेटलाइनर स्प्रिंटर भी शामिल है जो एक पुनर्बैज वाला मर्सडीज बेंज स्प्रिंटर वैन है। चौथी पीढ़ी की जीप ग्रांड चेरोकी मर्सडीज बेंज एम-क्लास पर आधारित है हालांकि सच्चाई यह है कि डेमलर/क्रिसलर अलगाव के लगभग चार साल बाद इसका निर्माण किया गया था।[10]
क्रिसलर की बिक्री
कथित तौर पर डेमलर क्रिसलर ने क्रिसलर को बेचने के लिए 2007 के आरम्भ में अन्य कार निर्माता कंपनियों और निवेश समूहों से संपर्क किया। जनरल मोटर्स ने अपनी इच्छा प्रकट की जबकि रेनॉल्ट-निस्सान ऑटो गठबंधन वोल्क्सवैगन और ह्युंडाई मोटर कंपनी ने कहा था कि उन्हें इस कंपनी को खरीदने में कोई दिलचस्पी नहीं है।
3 अगस्त 2007 को डेमलर क्रिसलर ने सेर्बेरस कैपिटल मैनेजमेंट को क्रिसलर ग्रुप बेचने का काम पूरा किया। मूल समझौते के अनुसार सेर्बेरस को नई कंपनी क्रिसलर होल्डिंग एलएलसी में 80.1 प्रतिशत हिस्सा मिला। डेमलर क्रिसलर का नाम बदलकर डेमलर एजी कर दिया गया और अलग हो चुके क्रिसलर में उसकी शेष 19.9% की हिस्सेदारी कायम रही। [11]
समय के साथ डेमलर को सेर्बेरस के हाथों से क्रिसलर को हासिल करने और इससे जुड़ी देनदारियों से छुटकारा पाने के लिए सेर्बेरस को 650 मिलियन अमेरिकी डॉलर का भुगतान करना पड़ा. यह 1998 में क्रिसलर पर कब्ज़ा करने के लिए चुकाई गई 36 बिलियन अमेरिकी डॉलर की तुलना में एक उल्लेखनीय विपरीत भाग्य है। क्रय मूल्य 7.4 बिलियन अमेरिकी डॉलर में से सेर्बेरस कैपिटल मैनेजमेंट क्रिसलर होल्डिंग्स में 5 बिलियन अमेरिकी डॉलर और क्रिसलर की वित्तीय यूनिट में 1.05 बिलियन अमेरिकी डॉलर का निवेश करेगी। अलग हो चुके डेमलर एजी को सेर्बेरस से सीधे 1.35 बिलियन अमेरिकी डॉलर प्राप्त हुआ लेकिन इसने खुद क्रिसलर में सीधे 2 बिलियन अमेरिकी डॉलर का निवेश किया।
संयुक्त राज्य अमेरिका में क्रिसलर की 2009 के दिवालिएपन की फाइलिंग के बाद से क्रिसलर को इतालवी ऑटो निर्माता कंपनी फिएट द्वारा नियंत्रित किया गया है जो डेमलर के विपरीत क्रिसलर के उत्पादों को खास तौर पर लान्सिया और क्रिसलर के समान नाम वाले ब्रांड को फिएट पोर्टफोलियो में एकीकृत करना चाहती है।
रेनॉल्ट-निस्सान और डेमलर गठबंधन
7 अप्रैल 2010 को रेनॉल्ट-निस्सान कार्यकारी कार्लोस घोसन और डॉ डाइटर जेत्शे ने एक संयुक्त संवाददाता सम्मलेन में तीन कंपनियों के बीच एक साझेदारी की घोषणा की। [12]
प्रबंधन
डॉ डाइटर जेत्शे 1 जनवरी 2006 से डेमलर के चेयरमैन और मर्सडीज बेंज कार्स के हेड होने के साथ-साथ 1998 से बोर्ड ऑफ मैनेजमेंट के सदस्य हैं। वह पहले क्रिसलर एलएलसी (जिस पर पहले डेमलर एजी का स्वामित्व था) के प्रेसिडेंट और सीईओ थे। वह अमेरिका में शायद "आस्क डॉ जेड" नामक एक क्रिसलर विज्ञापन अभियान के डॉ जेड के रूप में मशहूर हैं।
डेमलर एजी के बोर्ड ऑफ मैनेजमेंट के वर्तमान सदस्य हैं:
डॉ डाइटर जेत्शे: बोर्ड के चेयरमैन के साथ-साथ मर्सडीज बेंज कार्स का प्रमुख.
डॉ॰ वोल्फगैंग बर्नहार्ड: मर्सिडीज बेंज कार्स की खरीद और उत्पादन का प्रमुख.
विलफ्राइड पोर्थ: मानव संसाधन एवं श्रम संबंध के प्रमुख.
एंड्रियास रेंशलेर: डेमलर ट्रक्स का प्रमुख.
बोडो यूएबर: वित्त एवं नियंत्रण के साथ-साथ वित्तीय सेवाओं का प्रमुख.
डॉ थॉमस वेबर: सामूहिक अनुसन्धान और मर्सडीज बेंज कार्स के विकास का प्रमुख.
डेमलर एजी के पर्यवेक्षी बोर्ड के वर्तमान सदस्य इस प्रकार हैं: हेनरिक फ्लेगेल, जुएर्गेन हैम्ब्रेष्ट, थॉमस क्लेब, एरिक क्लेम, अर्नौड लैगर्देर, जर्जेन लैंगर, हेल्मट लेंस, सैरी बल्दौफ़, विलियम ओवेंस, एन्स्गर ओस्सेफोर्थ, वाल्टर संचेस, मैनफ्रेड श्नाइडर, स्टीफन श्वाब, बर्नहार्ड वॉल्टर, लाइंतन विल्सन, मार्क वोस्सनर, मैनफ्रेड बिस्कोफ़, क्लीमेंस बोर्सिग और उवे वेर्नर. डॉ मैनफ्रेड बिस्कोफ़ डेमलर एजी के पर्यवेक्षी बोर्ड के चेयरमैन के रूप में और एरिक क्लेम वाइस-चेयरमैन के रूप में कार्यरत हैं।[13]
शेयरधारकों की संरचना
स्वामित्व द्वारा[14]
आबार इन्वेस्टमेंट्स (संयुक्त अरब अमीरात): 9.0%
कुवैत निवेश प्राधिकरण (कुवैत): 6.9%
रेनॉल्ट (फ्रांस): 1.55%
निस्सान (जापान): 1.55%
संस्थागत निवेशक: 61.9%
निजी निवेशक: 19.1%
क्षेत्र द्वारा[14]
28.2% जर्मनी
36.9% अन्य यूरोप
15.4% संयुक्त राज्य अमेरिका
9.0% संयुक्त अरब अमीरात
6.9% कुवैत
3.6% अन्य
ब्रांड
डेमलर निम्नलिखित ब्रांड नामों के तहत पूरे विश्व में ऑटोमोबाइल बेचता है:
मर्सिडीज-बेंज कार
मेबैक
मर्सिडीज-बेंज़
स्मार्ट
मर्सिडीज़-एएमजी
डेमलर ट्रक
वाणिज्यिक वाहन
फ़्रेइटलाइनर
मर्सिडीज-बेंज (ट्रक समूह)
मित्सुबिशी फूसो
थॉमस द्वारा निर्मित बसें
स्टर्लिंग ट्रक्स - 2010 में ऑपरेशन समाप्त हो गया था, लेकिन वाहन मालिकों तथा प्राधिकृत डीलरों को समर्थन जारी रखा जायेगा.
वेस्टर्न स्टार
भारतबेंज
घटक
डेट्रोइट डीजल
मर्सिडीज-बेंज़
मित्सुबिशी फूसो
डेमलर बसें
मर्सिडीज-बेंज बस
ओरियन बस इंडस्ट्रीज
सेट्रा
मर्सिडीज-बेंज वैन
मर्सिडीज-बेंज (वैन समूह)
डेमलर वित्तीय सेवायें
मर्सिडीज-बेंज बैंक
मर्सिडीज-बेंज वित्तीय
डेमलर ट्रक फाइनेंशियल
होल्डिंग्स
डेमलर की वर्तमान में निम्नलिखित कंपनियों में हिस्सेदारी है:
85.0% जापान की मित्सुबिशी फूसो ट्रक और बस कॉर्पोरेशन
50.1% कनाडा की ऑटोमोटिव फ्यूल सेल कॉर्पोरेशन
11% यूनाइटेड किंगडम की मैकलेरन ग्रुप (मैकलेरन समूह धीरे-धीरे अपनी हिस्सेदारी को बढ़ा रहा है जिसे 2011 के शुरुआत तक पूरा कर लिया जायेगा)
22.4% यूरोपीय एरोनॉटिक डिफेन्स एंड स्पेस कंपनी (ईएडीएस) - यूरोप के एयरबस की मूल कंपनी
22.3% जर्मनी की टोग्नुम
11.0% रूस की कामाज़ (KAMAZ)
10.0% संयुक्त राज्य अमेरिका की टेस्ला मोटर्स
साझीदार
डेमलर ने टेस्ला की बैटरी प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करके अपने स्मार्ट फोर्टवो के 1,000 पूर्ण रूप से बिजली-चालित संस्करणों का निर्माण किया है।[15]
डेमलर चीन के बेईकी फोटोन (बीएआईसी की एक सहायक कंपनी) के साथ औमन ट्रकों का निर्माण[16] और बीवाईडी के साथ ईवी प्रौद्योगिकी का विकास करती है।[17]
रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार
1 अप्रैल 2010 को अमेरिकी न्याय विभाग और अमेरिकी प्रतिभूति एवं विनिमय आयोग द्वारा लगाए गए रिश्वतखोरी के दो आरोपों में डेमलर एजी की जर्मन और रूसी सहायक कंपनियों को दोषी पाया गया। खुद डेमलर एक निपटान के रूप में 185 मिलियन अमेरिकी डॉलर का भुगतान करेगी लेकिन कंपनी और इसकी चीनी सहायक कंपनी अभी भी दो वर्षों से आस्थगित अभियोजन समझौते के अधीन है जिसके लिए नियामकों के अतिरिक्त सहयोग, आतंरिक नियंत्रणों के अनुपालन और वापस अदालत के कमरे में उनके लौटने से पहले अन्य शर्तों को पूरा करने की जरूरत है। दो सालों की अवधि में समझौते की शर्तों को पूरा करने में विफल होने पर डेमलर को कठोर दंडों का सामना करना पड़ेगा.
इसके अतिरिक्त डेमलर द्वारा रिश्वतखोरी विरोधी कानूनों के अनुपालन की निगरानी करने के लिए फेडरल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन के पूर्व डायरेक्टर लुईस जे. फ्रीह एक स्वतंत्र मॉनिटर के रूप में अपनी सेवा प्रदान करेंगे।
अमेरिकी अभियाजकों ने डेमलर, डेमलर की सहायक कंपनियों और डेमलर से जुड़ी कंपनियों के प्रमुख कार्यकारियों पर दुनिया भर में सरकारी ठेकों को सुरक्षित करने के लिए 1998 और 2008 के बीच गैर कानूनी तरीके से विदेशी अधिकारियों को पैसे और उपहार देने का इल्जाम लगाया. इस मामले की जांच से पता चला कि डेमलर ने अनुचित तरीके से कम से कम 22 देशों (जिनमें चीन, रूस, तुर्की, हंगरी, यूनान, लातविया, सर्बिया और मोंटेनेग्रो सहित अन्य स्थानों में मिस्र और नाइजीरिया भी शामिल है) में लगभग 200 से ज्यादा लेनदेनों से संबंधित रिश्वतों में लगभग 56 मिलियन डॉलर का भुगतान किया जिसके परिणामस्वरूप कंपनी को 1.9 बिलियन डॉलर राजस्व और गैर कानूनी लाभ के रूप में कम से कम 91.4 मिलियन डॉलर प्राप्त हुआ।[18]
2004 में दक्षिण अमेरिका में मर्सडीज बेंज की यूनिटों द्वारा नियंत्रित बैंक खातों के बारे में सवाल उठाने के लिए नौकरी से निकाले जाने के बाद तत्कालीन डेमलर क्रिसलर कॉर्प के पूर्व लेखा परीक्षक डेविड बजेत्ता द्वारा एक मुखबिर शिकायत दर्ज किए जाने के बाद एसईसी का मुद्दा भड़क उठा.[19] बजेत्ता ने आरोप लगाया कि स्टटगार्ट में हुई जुलाई 2001 की कॉर्पोरेट लेखा परीक्षण कार्यकारी समीति की एक बैठक में उन्हें पता चला कि व्यावसायिक यूनिटों द्वारा "विदेशी सरकारी अधिकारियों को रिश्वत देने के लिए गुप्त बैंक खातों को बनाए रखा जा रहा है" हालांकि कंपनी को अमेरिकी क़ानून का उल्लंघन करने वाली इस प्रक्रिया के बारे में मालूम था।
बजेत्ता को चुप कराने के एक और प्रयास में डेमलर ने बाद में उनकी नौकरी की समाप्ति से जुड़े इस मुक़दमे को अदालत के बाहर निपटाने की पेशकश की जिसे उन्होंने अंत में स्वीकार कर लिया। लेकिन बजेत्ता के साथ डेमलर की रणनीति नाकामयाब साबित हुई क्योंकि रिश्वतखोरी-विरोधी कानूनों के लिए पहले से ही अमेरिकी आपराधिक जांच चल रही थी जो एक विदेशी कॉर्पोरेशन के खिलाफ चल रहे सबसे व्यापक मामलों में से एक है।
आरोपों के अनुसार जरूरत से ज्यादा चालान करने वाले ग्राहकों द्वारा अक्सर रिश्वतखोरी और शीर्ष सरकारी अधिकारियों या उनके प्रतिनिधियों को अत्यधिक राशि का भुगतान किया गया है। रिश्वतों ने भोगविलासपूर्व यूरोपीय छुट्टियों, उच्च पदों पर आसीन सरकारी अधिकारियों के लिए बख्तरबंद मर्सडीज वाहनों और एक वरिष्ठ तुर्कमेनिस्तान अधिकारी के लिए एक सोने के बक्से और अधिकारी के व्यक्तिगत घोषणापत्रों की जर्मन भाषा में अनुवाद की गई 10,000 प्रतियों वाले एक जन्मदिन उपहार का रूप भी धारण कर लिया है।
जांचकर्ताओं को इस बात का भी पता चला कि फर्म ने उस समय सद्दाम हुसैन के नेतृत्व वाली इराकी सरकार के तहत काम करने वाली अधिकारियों को ठेके के मूल्य के 10% मूल्य की रिश्वत देकर इराक के साथ संयुक्त राष्ट्र के ऑयल-फॉर-फ़ूड प्रोग्राम की शर्तों का उल्लंघन किया है। एसईसी ने कहा कि कंपनी को भ्रष्ट ऑयल-फॉर-फ़ूड सौदों में वाहनों और स्पेयर पार्ट्स की बिक्री से 4 मिलियन डॉलर से ज्यादा आमदनी हुई है।[18]
अमेरिकी अभियोजकों ने आगे चलकर यह आरोप लगाया कि कुछ रिश्वतों का भुगतान अमेरिका में आधारित शेल कंपनियों के माध्यम से की गई थी। अदालत की कागजातों से जाहिर हुआ कि "कुछ मामलों में डेमलर ने रिश्वत की रकम पहुँचाने के लिए अमेरिकी शेल कंपनियों के अमेरिकी बैंक खातों या विदेशी बैंक खातों में इन अनुचित भुगतान राशियों को स्थानांतरित किया था।"[20]
अभियोजकों ने कहा कि इस प्रक्रिया को कुछ हद तक प्रोत्साहित करने वाली एक कॉर्पोरेट संस्कृति की वजह से रिश्वत की रकम का भुगतान करने के लिए एक "लंबे समय से चली आ रही प्रथा" में डेमलर का हाथ था।
न्याय विभाग के आपराधिक प्रभाग के एक प्रिंसिपल डेपुटी माइथिली रमण ने कहा कि "अपतटीय बैंक खातों, तीसरे दल के एजेंटों और भ्रामक मूल्य निर्धारण प्रक्रियाओं का इस्तेमाल करके इन कंपनियों [डेमलर एजी, इसकी सहायक और इससे जुड़ी कंपनियां] ने विदेशी रिश्वतखोरी को व्यवसाय करने का जरिया बना लिया।"[21]
एसईसी के प्रवर्तन प्रभाग के डायरेक्टर रॉबर्ट खुजामी ने एक बयान में कहा कि "डेमलर के भ्रष्टाचार और रिश्वत देने की क्रिया का वर्णन एक मानक व्यवसाय प्रक्रिया के रूप में करना कोई अतिशयोक्ति नहीं है।"[22]
डेमलर के बोर्ड के चेयरमैन डाइटर जेत्शे ने एक बयान में कहा कि "हमने अपने पिछले अनुभव से बहुत कुछ सीखा है।"
अभियोजकों के साथ किए गए समझौते के अनुसार डेमलर की दो सहायक कंपनियों ने व्यवसाय के फायदे के लिए विदेशी अधिकारियों को रिश्वत विदेशी भ्रष्टाचार प्रक्रिया अधिनियम का जानबूझकर उल्लंघन करने की बात स्वीकार की
अभियोजन पक्ष के साथ समझौते के अनुसार, दो डेमलर सहायक व्यवसाय भर्ती कराया जीतने के लिए जानबूझकर उल्लंघन विदेशी भ्रष्टाचार अधिनियम को रिश्वत के लिए विदेशी अधिकारियों और कंपनियों को भुगतान सलाखों, जो अपने से अधिकारी शामिल हैं।[23] विदेशी भ्रष्टाचार प्रक्रिया अधिनियम उस कंपनी पर लागू होता है जो जो अपने शेयरों को अमेरिकी स्टॉक एक्सचेंजों में सूचीबद्ध कराती है। डेमलर एजी को एनवाईएसई में "डीएआई" संकेत के साथ सूचीबद्ध किया गया था जिससे न्याय विभाग को दुनिया भर के देशों में जर्मन कार निर्माता कंपनी के भुगतान का क्षेत्राधिकार प्राप्त हुआ।
डी.सी. के वॉशिंगटन के संयुक्त राज्य अमेरिका जिला न्यायालय के न्यायाधीश रिचर्ड जे. लियोन ने दलील के समझौते और निपटान को "न्यायपूर्ण समाधान" कहते हुए इसकी मंजूरी दी।
प्राथमिक मामला संयुक्त राज्य अमेरिका बनाम डेमलर एजी, कोलंबिया के जिले के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका जिला न्यायालय, नंबर 10-00063 है।[24]
वैकल्पिक प्रणोदन
जैव ईंधन अनुसंधान
डेमलर एजी एक जैव ईंधन के रूप में जटरोफा का विकास करने के लिए आर्कर डैनियल्स मिडलैंड कंपनी और बेयर क्रॉप साइंस के साथ एक संयुक्त परियोजना में शामिल है।[25]
परिवहन विद्युतीकरण
कार निर्माता डेमलर एजी और उपयोगिता कंपनी आरडब्ल्यूई एजी जर्मन राजधानी बर्लिन में "ई-मोबिलिटी बर्लिन" नामक एक संयुक्त इलेक्ट्रिक कार और चार्जिंग स्टेशन परीक्षण परियोजना का आरम्भ करने वाली है।[26][27]
मर्सडीज बेंज 2009 की गर्मियों में एक हाइब्रिड ड्राइव सिस्टम से सुसज्जित अपने पहले यात्री कार मर्सडीज बेंज एस 400 हाइब्रिड का आरम्भ करने वाली है।[27]
डेमलर ट्रक्स हाइब्रिड सिस्टमों के मामले में विश्व बाजार अग्रणी है। अपने "शेपिंग फ्यूचर ट्रांसपोर्टेशन" पहल के साथ डेमलर ट्रकों और बसों के लिए एक स्पष्ट उद्देश्य को पूरा करने में लगी हुई है। मित्सुबिशी फूसो की "एयरो स्टार इको हाइब्रिड" अब जापान में व्यावहारिक परीक्षणों में नए मानकों की स्थापना कर रही है।[28]
फॉर्मूला 1
16 नवम्बर 2009 को डेमलर ने ब्रॉन जीपी के 75.1% शेयर खरीद लिए। कंपनी का नया ब्रांड नाम मर्सडीज जीपी रखा गया। रॉस ब्रॉन टीम के प्रमुख बने रहेंगे और यह टीम यूके के ब्रैक्ले में आधारित होगी। हालाँकि ब्रॉन की खरीदारी का उद्देश्य यह था कि डेमलर मैक्लारेन में अपने 40% शेयर को फिर से कई चरणों में बेच सके जो 2011 तक चलेगा. मर्सडीज 2015 तक मैक्लारेन को प्रयोजन और इंजन प्रदान करती रहेगी, उसके बाद मैक्लारेन को संभवतः एक इंजन आपूर्तिकर्ता कंपनी खोजनी पड़ेगी या वह खुद अपने इंजनों का निर्माण करने लगेगी. नई कंपनी के 45.1% शेयर पर मर्सडीज का स्वामित्व है जबकि आबार इन्वेस्टमेंट्स के पास 30% और रॉस ब्रॉन के पास 24.9% का स्वामित्व है। रेसिंग टीम ने पूर्व चैम्पियन माइकल शूमाकर के साथ अनुबंध किया है।
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
श्रेणी:1883 में स्थापित कंपनियां
श्रेणी:स्टटगार्ट में स्थापित कंपनियां
श्रेणी:जर्मनी के ब्रांड
श्रेणी:जर्मनी के मोटर वाहन निर्माता
श्रेणी:बस निर्माता
श्रेणी:जर्मनी के कार निर्माता
श्रेणी:डेमलर एजी
श्रेणी:2007 में स्थापित कंपनियां
श्रेणी:बहुराष्ट्रीय कंपनियां
श्रेणी:आबार इन्वेस्टमेंट्स | डेमलर एजी कंपनी का मुख्यालय कहाँ पर है? | जर्मनी के स्टटगार्ट | 734 | hindi |
b6c70a953 | पानीपत का तृतीय युद्ध अहमद शाह अब्दाली और मराठों के बीच हुआ। पानीपत की तीसरी लड़ाई (95.5 किमी) उत्तर में मराठा साम्राज्य और अफगानिस्तान के अहमद शाह अब्दाली, दो भारतीय मुस्लिम राजा रोहिला अफगान दोआब और अवध के नवाब शुजाउद्दौला (दिल्ली के सहयोगी दलों) के एक गठबंधन के साथ अहमद शाह अब्दाली के एक उत्तरी अभियान बल के बीच पर 15 जनवरी 1764, पानीपत, के बारे में 60 मील की दूरी पर हुआ। लड़ाई018 वीं सदी में सबसे बड़े, लड़ाई में से एक माना जाता है और एक ही दिन में एक क्लासिक गठन दो सेनाओं के बीच लड़ाई की रिपोर्ट में मौत की शायद सबसे बड़ी संख्या है।
मुग़ल राज का अंत (१६८०-१७७०) में शुरु हो गया था, जब मुगलों के ज्यादातर भू - भागों पर मराठाओं का अधिपत्य हो गया था। गुजरात और मालवा के बाद बाजी राव ने १७३७ में दिल्ली पर मुगलों को हराकर अपने अधीन कर लिया था और दक्षिण दिल्ली के ज्यादातर भागों पर अपने मराठाओं का राज था। बाजी राव के पुत्र बाला जी बाजी राव ने बाद में पंजाब को भी जीतकर अपने अधीन करके मराठाओं की विजय पताका उत्तर भारत में फैला दी थी। पंजाब विजय ने १७५८ में अफगानिस्तान के दुर्रानी शासकों से टकराव को अनिवार्य कर दिया था। १७५९ में दुर्रानी शासक अहमद शाह अब्दाली ने कुछ पसतून कबीलो के सरदारों और भारत में अवध के नवाबों से मिलकर गंगा के दोआब क्षेत्र में मराठाओं से युद्ध के लिए सेना एकत्रित की। इसमें रोहलिआ अफगान ने भी उसकी सहायता की। पानीपत का तीसरा युद्ध इस तरह सम्मिलित इस्लामिक सेना और मराठाओं के बीच लड़ा गया। अवध के नवाब ने इसे इस्लामिक सेना का नाम दिया और बाकी मुसल्मानों को भी इस्लाम के नाम पर इकट्ठा किया। जबकि मराठा सेना ने अन्य हिन्दू राजाओं से सहायता की उम्मीद की थी (राजपूतों और जाटों) जो कि उन्हें न मिल सकी। इस युद्ध में इस्लामिक सेना में ६००००- 100000 सैनिक और मराठाओं के ओर से ४५०००-६०००० सैनिकों ने भाग लिया।
15 जनवरी 1761 को हुए इस युद्ध में भूखे ही युद्ध में पहुँचे मराठाओं को सुरवती विजय के बाद हार का मुख देखना पड़ा . इस युद्ध में दोनों पक्षों की हानियों के बारे में इतिहासकारों में भारी मतभेद है। फिर भी ये माना जाता है कि इस युद्ध में १२०००० लोगों ने सक्रिय रूप से हिस्सा लिया था जिसमें अहमद शाह अब्दाली विजय हुई थी और मराठाअों को भारी हानि उठानी पड़ी।
सन्दर्भ
श्रेणी:पानीपत के युद्ध | पानीपत का तीसरा युद्ध किसने जीता? | अहमद शाह अब्दाली | 22 | hindi |
17ff6c946 | ताइवान या ताईवान (चीनी: 台灣) पूर्व एशिया में स्थित एक द्वीप है। यह द्वीप अपने आसपास के कई द्वीपों को मिलाकर चीनी गणराज्य का अंग है जिसका मुख्यालय ताइवान द्वीप ही है। इस कारण प्रायः 'ताइवान' का अर्थ 'चीनी गणराज्य' से भी लगाया जाता है। यूं तो ऐतिहासिक तथा संस्कृतिक दृष्टि से यह मुख्य भूमि (चीन) का अंग रहा है, पर इसकी स्वायत्ता तथा स्वतंत्रता को लेकर चीन (जिसका, इस लेख में, अभिप्राय चीन का जनवादी गणराज्य से है) तथा चीनी गणराज्य के प्रशासन में विवाद रहा है।
ताइवान की राजधानी है ताइपे। यह देश का वित्तीय केन्द्र भी है और यह नगर देश के उत्तरी भाग में स्थित है।
यहाँ के निवासी मूलत: चीन के फ्यूकियन (Fukien) और क्वांगतुंग प्रदेशों से आकर बसे लोगों की संतान हैं। इनमें ताइवानी वे कहे जाते हैं, जो यहाँ द्वितीय विश्वयुद्ध के पूर्व में बसे हुए हैं। ये ताइवानी लोग दक्षिण चीनी भाषाएँ जिनमें अमाय (Amoy), स्वातोव (Swatow) और हक्का (Hakka) सम्मिलित हैं, बोलते हैं। मंदारिन (Mandarin) राज्यकार्यों की भाषा है। ५० वर्षीय जापानी शासन के प्रभाव में लोगों ने जापानी भी सीखी है। आदिवासी, मलय पोलीनेशियाई समूह की बोलियाँ बोलते हैं।
इतिहास
चीन के प्राचीन इतिहास में ताइवान का उल्लेख बहुत कम मिलता है। फिर भी प्राप्त प्रमाणों के अनुसार यह ज्ञात होता है कि तांग राजवंश (Tang Dynasty) (६१८-९०७) के समय में चीनी लोग मुख्य भूमि से निकलकर ताइवान में बसने लगे थे। कुबलई खाँ के शासनकाल (१२६३-९४) में निकट के पेस्काडोर्स (pescadores) द्वीपों पर नागरिक प्रशासन की पद्धति आरंभ हो गई थी। ताइवान उस समय तक अवश्य मंगोलों से अछूता रहा।
जिस समय चीन में सत्ता मिंग वंश (१३६८-१६४४ ई.) के हाथ में थी, कुछ जापानी जलदस्युओं तथा निर्वासित और शरणार्थी चीनियों ने ताइवान के तटीय प्रदेशों पर, वहाँ के आदिवासियों को हटाकर बलात् अधिकार कर लिया। चीनी दक्षिणी पश्चिमी और जापानी उत्तरी इलाकों में बस गए।
१५१७ में ताइवान में पुर्तगाली पहुँचे, और उसका नाम 'इला फारमोसा' (Ilha Formosa) रक्खा। १६२२ में व्यापारिक प्रतिस्पर्धा से प्रेरित होकर डचों (हालैंडवासियों) ने पेस्काडोर्स (Pescadores) पर अधिकार कर लिया। दो वर्ष पश्चात् चीनियों ने डच लोगों से संधि की, जिसके अनुसार डचों ने उन द्वीपों से हटकर अपना व्यापारकेंद्र ताइवान बनाया और ताइवान के दक्षिण पश्चिम भाग में फोर्ट ज़ीलांडिया (Fort Zeelandia) और फोर्ट प्राविडेंशिया (Fort Providentia) दो स्थान निर्मित किए। धीरे धीरे राजनीतिक दावँ पेंचों से उन्होंने संपूर्ण द्वीप पर अपना अधिकार कर लिया।
१७वीं शताब्दी में चीन में मिंग वंश का पतन हुआ, और मांचू लोगों ने चिंग वंश (१६४४-१९१२ ई.) की स्थापना की। सत्ताच्युत मिंग वंशीय चेंग चेंग कुंग (Cheng Cheng Kung) ने १६६१-६२ में डचों को हटाकर ताइवान में अपना राज्य स्थापित किया। १६८२ में मांचुओं ने चेंग चेंग कुंग (Cheng Cheng Kung) के उत्तराधिकारियों से ताइवान भी छीन लया। सन् १८८३ से १८८६ तक ताइवान फ्यूकियन (Fukien) प्रदेश के प्रशासन में था। १८८६ में उसे एक प्रदेश के रूप में मान्यता मिल गई। प्रशासन की ओर भी चीनी सरकार अधिक ध्यान देने लगी।
१८९५ में चीन-जापान युद्ध के बाद ताइवान पर जापानियों का झंडा गड़ गया, किंतु द्वीपवासियों ने अपने को जापानियों द्वारा शासित नहीं माना और ताइवान गणराज्य के लिए संघर्ष करते रहे। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय जापान ने वहाँ अपने प्रसार के लिए उद्योगीकरण की योजनाएँ चलानी आरम्भ कीं। इनको युद्ध की विभीषिका ने बहुत कुछ समाप्त कर दिया।
काहिरा (१९४६) और पोट्सडम (१९४५) की घोषणाओं के अनुसार सितंबर १९४५ में ताइवान पर चीन का अधिकार फिर से मान लिया गया। लेकिन चीनी अधिकारियों के दुर्व्यवहारों से द्वीपवासियों में व्यापक क्षोभ उत्पन्न हुआ। विद्रोहों का दमन बड़ी नृशंसता से किया गया। जनलाभ के लिए कुछ प्रशासनिक सुधार अवश्य लागू हुए।
इधर चीन में साम्यवादी आंदोलन सफल हो रहा था। अंततोगत्वा च्यांग काई शेक (तत्कालीन राष्ट्रपति) को अपनी नेशनलिस्ट सेनाओं के साथ भागकर ताइवान जाना पड़ा। इस प्रकार ८ दिसंबर, १९४९ को चीन की नेशनलिस्ट सरकार का स्थानांतरण हुआ।
१९५१ की सैनफ्रांसिस्को संधि के अंतर्गत जापान ने ताइवान से अपने सारे स्वत्वों की समाप्ति की घोषणा कर दी। दूसरे ही वर्ष ताइपी (Taipei) में चीन-जापान-संधि-वार्ता हुई। किंतु किसी संधि में ताइवान पर चीन के नियंत्रण का स्पष्ट संकेत नहीं किया गया।
बाहरी कड़ियाँ
श्रेणी:चीन
श्रेणी:ताइवान | ताइवान की आधिकारिक भाषा क्या है? | मंदारिन | 856 | hindi |
90ed0bf00 | गौतम बुद्ध (जन्म 563 ईसा पूर्व – निर्वाण 483 ईसा पूर्व) एक श्रमण थे जिनकी शिक्षाओं पर बौद्ध धर्म का प्रचलन हुआ।[1]
उनका जन्म लुंबिनी में 563 ईसा पूर्व इक्ष्वाकु वंशीय क्षत्रिय शाक्य कुल के राजा शुद्धोधन के घर में हुआ था। उनकी माँ का नाम महामाया था जो कोलीय वंश से थी जिनका इनके जन्म के सात दिन बाद निधन हुआ, उनका पालन महारानी की छोटी सगी बहन महाप्रजापती गौतमी ने किया। सिद्धार्थ विवाहोपरांत एक मात्र प्रथम नवजात शिशु राहुल और पत्नी यशोधरा को त्यागकर संसार को जरा, मरण, दुखों से मुक्ति दिलाने के मार्ग की तलाश एवं सत्य दिव्य ज्ञान खोज में रात में राजपाठ छोड़कर जंगल चले गए। वर्षों की कठोर साधना के पश्चात बोध गया (बिहार) में बोधि वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई और वे सिद्धार्थ गौतम से बुद्ध बन गए।
जीवन वृत्त
उनका जन्म 563 ईस्वी पूर्व के बीच शाक्य गणराज्य की तत्कालीन राजधानी कपिलवस्तु के निकट लुम्बिनी में हुआ था, जो नेपाल में है।[2]
लुम्बिनी वन नेपाल के तराई क्षेत्र में कपिलवस्तु और देवदह के बीच नौतनवा स्टेशन से 8 मील दूर पश्चिम में रुक्मिनदेई नामक स्थान के पास स्थित था। कपिलवस्तु की महारानी महामाया देवी के अपने नैहर देवदह जाते हुए रास्ते में प्रसव पीड़ा हुई और वहीं उन्होंने एक बालक को जन्म दिया। शिशु का नाम सिद्धार्थ रखा गया।[3] गौतम गोत्र में जन्म लेने के कारण वे गौतम भी कहलाए। क्षत्रिय राजा शुद्धोधन उनके पिता थे। परंपरागत कथा के अनुसार सिद्धार्थ की माता का उनके जन्म के सात दिन बाद निधन हो गया था। उनका पालन पोषण उनकी मौसी और शुद्दोधन की दूसरी रानी महाप्रजावती (गौतमी)ने किया। शिशु का नाम सिद्धार्थ दिया गया, जिसका अर्थ है "वह जो सिद्धी प्राप्ति के लिए जन्मा हो"। जन्म समारोह के दौरान, साधु द्रष्टा आसित ने अपने पहाड़ के निवास से घोषणा की- बच्चा या तो एक महान राजा या एक महान पवित्र पथ प्रदर्शक बनेगा।[4] शुद्दोधन ने पांचवें दिन एक नामकरण समारोह आयोजित किया और आठ ब्राह्मण विद्वानों को भविष्य पढ़ने के लिए आमंत्रित किया। सभी ने एक सी दोहरी भविष्यवाणी की, कि बच्चा या तो एक महान राजा या एक महान पवित्र आदमी बनेगा।[4] दक्षिण मध्य नेपाल में स्थित लुंबिनी में उस स्थल पर महाराज अशोक ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व बुद्ध के जन्म की स्मृति में एक स्तम्भ बनवाया था। बुद्ध का जन्म दिवस व्यापक रूप से थएरावदा देशों में मनाया जाता है।[4]
सुद्धार्थ का मन वचपन से ही करुणा और दया का स्रोत था। इसका परिचय उनके आरंभिक जीवन की अनेक घटनाओं से पता चलता है।
घुड़दौड़ में जब घोड़े दौड़ते और उनके मुँह से झाग निकलने लगता तो सिद्धार्थ उन्हें थका जानकर वहीं रोक देता और जीती हुई बाजी हार जाता।
खेल में भी सिद्धार्थ को खुद हार जाना पसंद था क्योंकि किसी को हराना और किसी का दुःखी होना उससे नहीं देखा जाता था।
सिद्धार्थ ने चचेरे भाई देवदत्त द्वारा तीर से घायल किए गए हंस की सहायता की और उसके प्राणों की रक्षा की।
शिक्षा एवं विवाह
सिद्धार्थ ने गुरु विश्वामित्र के पास वेद और उपनिषद् को तो पढ़ा हीं , राजकाज और युद्ध-विद्या की भी शिक्षा ली। कुश्ती, घुड़दौड़, तीर-कमान, रथ हाँकने में कोई उसकी बराबरी नहीं कर पाता।
सोलह वर्ष की उम्र में सिद्धार्थ का कन्या यशोधरा के साथ विवाह हुआ। पिता द्वारा ऋतुओं के अनुरूप बनाए गए वैभवशाली और समस्त भोगों से युक्त महल में वे यशोधरा के साथ रहने लगे जहाँ उनके पुत्र राहुल का जन्म हुआ।
लेकिन विवाहके बाद उनका मन वैराग्यमें चला और सम्यक सुख-शांतिके लिए उन्होंने आपने परिवार का त्याग कर दिया।
विरक्ति
राजा शुद्धोधन ने सिद्धार्थ के लिए भोग-विलास का भरपूर प्रबंध कर दिया। तीन ऋतुओं के लायक तीन सुंदर महल बनवा दिए। वहाँ पर नाच-गान और मनोरंजन की सारी सामग्री जुटा दी गई। दास-दासी उसकी सेवा में रख दिए गए। पर ये सब चीजें सिद्धार्थ को संसार में बाँधकर नहीं रख सकीं। वसंत ऋतु में एक दिन सिद्धार्थ बगीचे की सैर पर निकले। उन्हें सड़क पर एक बूढ़ा आदमी दिखाई दिया। उसके दाँत टूट गए थे, बाल पक गए थे, शरीर टेढ़ा हो गया था। हाथ में लाठी पकड़े धीरे-धीरे काँपता हुआ वह सड़क पर चल रहा था। दूसरी बार कुमार जब बगीचे की सैर को निकला, तो उसकी आँखों के आगे एक रोगी आ गया। उसकी साँस तेजी से चल रही थी। कंधे ढीले पड़ गए थे। बाँहें सूख गई थीं। पेट फूल गया था। चेहरा पीला पड़ गया था। दूसरे के सहारे वह बड़ी मुश्किल से चल पा रहा था। तीसरी बार सिद्धार्थ को एक अर्थी मिली। चार आदमी उसे उठाकर लिए जा रहे थे। पीछे-पीछे बहुत से लोग थे। कोई रो रहा था, कोई छाती पीट रहा था, कोई अपने बाल नोच रहा था। इन दृश्यों ने सिद्धार्थ को बहुत विचलित किया। उन्होंने सोचा कि ‘धिक्कार है जवानी को, जो जीवन को सोख लेती है। धिक्कार है स्वास्थ्य को, जो शरीर को नष्ट कर देता है। धिक्कार है जीवन को, जो इतनी जल्दी अपना अध्याय पूरा कर देता है। क्या बुढ़ापा, बीमारी और मौत सदा इसी तरह होती रहेगी सौम्य? चौथी बार कुमार बगीचे की सैर को निकला, तो उसे एक संन्यासी दिखाई पड़ा। संसार की सारी भावनाओं और कामनाओं से मुक्त प्रसन्नचित्त संन्यासी ने सिद्धार्थ को आकृष्ट किया।
महाभिनिष्क्रमण
सुंदर पत्नी यशोधरा, दुधमुँहे राहुल और कपिलवस्तु जैसे राज्य का मोह छोड़कर सिद्धार्थ तपस्या के लिए चल पड़े। वह राजगृह पहुँचे। वहाँ भिक्षा माँगी। सिद्धार्थ घूमते-घूमते आलार कालाम और उद्दक रामपुत्र के पास पहुँचे। उनसे योग-साधना सीखी। समाधि लगाना सीखा। पर उससे उसे संतोष नहीं हुआ। वह उरुवेला पहुँचे और वहाँ पर तरह-तरह से तपस्या करने लगे।
सिद्धार्थ ने पहले तो केवल तिल-चावल खाकर तपस्या शुरू की, बाद में कोई भी आहार लेना बंद कर दिया। शरीर सूखकर काँटा हो गया। छः साल बीत गए तपस्या करते हुए। सिद्धार्थ की तपस्या सफल नहीं हुई।
शांति हेतु बुद्ध का मध्यम मार्ग: एक दिन कुछ स्त्रियाँ किसी नगर से लौटती हुई वहाँ से निकलीं, जहाँ सिद्धार्थ तपस्या कर रहा थे। उनका एक गीत सिद्धार्थ के कान में पड़ा- ‘वीणा के तारों को ढीला मत छोड़ दो। ढीला छोड़ देने से उनका सुरीला स्वर नहीं निकलेगा। पर तारों को इतना कसो भी मत कि वे टूट जाएँ।’ बात सिद्धार्थ को जँच गई। वह मान गये कि नियमित आहार-विहार से ही योग सिद्ध होता है। अति किसी बात की अच्छी नहीं। किसी भी प्राप्ति के लिए मध्यम मार्ग ही ठीक होता है ओर इसके लिए कठोर तपस्या करनी पड़ती है।
ज्ञान की प्राप्ति
वैशाखी पूर्णिमा के दिन सिद्धार्थ वटवृक्ष के नीचे ध्यानस्थ थे। समीपवर्ती गाँव की एक स्त्री सुजाता को पुत्र हुआ। उसने बेटे के लिए एक वटवृक्ष की मनौती मानी थी। वह मनौती पूरी करने के लिए सोने के थाल में गाय के दूध की खीर भरकर पहुँची। सिद्धार्थ वहाँ बैठा ध्यान कर रहा था। उसे लगा कि वृक्षदेवता ही मानो पूजा लेने के लिए शरीर धरकर बैठे हैं। सुजाता ने बड़े आदर से सिद्धार्थ को खीर भेंट की और कहा- ‘जैसे मेरी मनोकामना पूरी हुई, उसी तरह आपकी भी हो।’
उसी रात को ध्यान लगाने पर सिद्धार्थ की साधना सफल हुई। उसे सच्चा बोध हुआ। तभी से सिद्धार्थ 'बुद्ध' कहलाए। जिस पीपल वृक्ष के नीचे सिद्धार्थ को बोध मिला वह बोधिवृक्ष कहलाया और गया का समीपवर्ती वह स्थान बोधगया।
धर्म-चक्र-प्रवर्तन
वे 80 वर्ष की उम्र तक अपने धर्म का संस्कृत के बजाय उस समय की सीधी सरल लोकभाषा पाली में प्रचार करते रहे। उनके सीधे सरल धर्म की लोकप्रियता तेजी से बढ़ने लगी।
चार सप्ताह तक बोधिवृक्ष के नीचे रहकर धर्म के स्वरूप का चिंतन करने के बाद बुद्ध धर्म का उपदेश करने निकल पड़े। आषाढ़ की पूर्णिमा को वे काशी के पास मृगदाव (वर्तमान में सारनाथ) पहुँचे। वहीं पर उन्होंने सबसे पहला धर्मोपदेश दिया और पहले के पाँच मित्रों को अपना अनुयायी बनाया और फिर उन्हें धर्म प्रचार करने के लिये भेज दिया।
महापरिनिर्वाण
पालि सिद्धांत के महापरिनिर्वाण सुत्त के अनुसार ८० वर्ष की आयु में बुद्ध ने घोषणा की कि वे जल्द ही परिनिर्वाण के लिए रवाना होंगे। बुद्ध ने अपना आखिरी भोजन, जिसे उन्होंने कुन्डा नामक एक लोहार से एक भेंट के रूप में प्राप्त किया था, ग्रहण लिया जिसके कारण वे गंभीर रूप से बीमार पड़ गये। बुद्ध ने अपने शिष्य आनंद को निर्देश दिया कि वह कुन्डा को समझाए कि उसने कोई गलती नहीं की है। उन्होने कहा कि यह भोजन अतुल्य है।[5]
उपदेश
भगवान बुद्ध ने लोगों को मध्यम मार्ग का उपदेश किया। उन्होंने दुःख, उसके कारण और निवारण के लिए अष्टांगिक मार्ग सुझाया। उन्होंने अहिंसा पर बहुत जोर दिया है। उन्होंने यज्ञ और पशु-बलि की निंदा की।
बुद्ध के उपदेशों का सार इस प्रकार है -
महात्मा बुद्ध ने सनातन धरम के कुछ संकल्पनाओं का प्रचार किया, जैसे अग्निहोत्र तथा गायत्री मन्त्र
ध्यान तथा अन्तर्दृष्टि
मध्यमार्ग का अनुसरण
चार आर्य सत्य
अष्टांग मार्ग
बौद्ध धर्म एवं संघ
बुद्ध के धर्म प्रचार से भिक्षुओं की संख्या बढ़ने लगी। बड़े-बड़े राजा-महाराजा भी उनके शिष्य बनने लगे। शुद्धोधन और राहुल ने भी बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। भिक्षुओं की संख्या बहुत बढ़ने पर बौद्ध संघ की स्थापना की गई। बाद में लोगों के आग्रह पर बुद्ध ने स्त्रियों को भी संघ में ले लेने के लिए अनुमति दे दी, यद्यपि इसे उन्होंने उतना अच्छा नहीं माना। भगवान बुद्ध ने ‘बहुजन हिताय’ लोककल्याण के लिए अपने धर्म का देश-विदेश में प्रचार करने के लिए भिक्षुओं को इधर-उधर भेजा। अशोक आदि सम्राटों ने भी विदेशों में बौद्ध धर्म के प्रचार में अपनी अहम् भूमिका निभाई। मौर्यकाल तक आते-आते भारत से निकलकर बौद्ध धर्म चीन, जापान, कोरिया, मंगोलिया, बर्मा, थाईलैंड, हिंद चीन, श्रीलंका आदि में फैल चुका था। इन देशों में बौद्ध धर्म बहुसंख्यक धर्म है।
गौतम बुद्ध - अन्य धर्मों की दृष्टि में
हिन्दू धर्म में
हिन्दू धर्म में भगवान बुद्ध
बुद्ध को विष्णु का अवतार माना जाता है। अनेक पुराणों में उनका उल्लेख है।
सन्दर्भ
स्रोत ग्रन्थ
According to Pali scholar K. R. Norman, a life span for the Buddha of c. 480 to 400 BCE (and his teaching period roughly from c. 445 to 400 BCE) "fits the archaeological evidence better".[6] See also .}}
इन्हें भी देखें
हिन्दू धर्म में भगवान बुद्ध
बुद्धावतार
बाहरी कड़ियाँ
श्रेणी:बौद्ध धर्म
श्रेणी:धर्म प्रवर्तक
श्रेणी:धर्मगुरू
श्रेणी:भारतीय बौद्ध | गौतम बुद्ध के पिता का नाम क्या था | राजा शुद्धोधन | 189 | hindi |
2b3b2a97c | इमरान ख़ान नियाजी (Urdu: عمران خان نیازی; जन्म 25 नवम्बर 1952) एक पाकिस्तानी राजनीतिज्ञ तथा वर्तमान पाकिस्तान के प्रधानमंत्री और सेवानिवृत्त पाकिस्तानी क्रिकेटर हैं।[5] उन्होंने पाकिस्तानी आम चुनाव, २०१८ में बहुमत जीता।[6] वह 2013 से 2018 तक पाकिस्तान की नेशनल असेंबली के सदस्य थे, जो सीट 2013 के आम चुनावों में जीती थीं। इमरान बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध के दो दशकों में अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट खेला और 1990 के दशक के मध्य से राजनीतिज्ञ हो गए।[7] वर्तमान में, अपनी राजनीतिक सक्रियता के अलावा, ख़ान एक धर्मार्थ कार्यकर्ता और क्रिकेट कमेंटेटर भी हैं।
ख़ान, 1971-1992 तक पाकिस्तानी क्रिकेट टीम के लिए खेले और 1982 से 1992 के बीच, आंतरायिक कप्तान रहे। 1987 के विश्व कप के अंत में, क्रिकेट से संन्यास लेने के बाद, उन्हें टीम में शामिल करने के लिए 1988 में दुबारा बुलाया गया। 39 वर्ष की आयु में ख़ान ने पाकिस्तान की प्रथम और एकमात्र विश्व कप जीत में अपनी टीम का नेतृत्व किया।[8]
उन्होंने टेस्ट क्रिकेट में 3,807 रन और 362 विकेट का रिकॉर्ड बनाया है, जो उन्हें 'आल राउंडर्स ट्रिपल' हासिल करने वाले छह विश्व क्रिकेटरों की श्रेणी में शामिल करता है।[9]
अप्रैल 1996 में ख़ान ने पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (न्याय के लिए आंदोलन) नाम की एक छोटी और सीमांत राजनैतिक पार्टी की स्थापना की और उसके अध्यक्ष बने और जिसके वे संसद के लिए निर्वाचित केवल एकमात्र सदस्य हैं।[10] उन्होंने नवंबर 2002 से अक्टूबर 2007 तक नेशनल असेंबली के सदस्य के रूप में मियांवाली का प्रतिनिधित्व किया।[11] ख़ान ने दुनिया भर से चंदा इकट्ठा कर, 1996 में शौकत ख़ानम मेमोरियल कैंसर अस्पताल और अनुसंधान केंद्र और 2008 में मियांवाली नमल कॉलेज की स्थापना में मदद की।
परिवार, शिक्षा और व्यक्तिगत जीवन
इमरान ख़ान, शौकत ख़ानम और इकरमुल्लाह खान नियाज़ी की संतान हैं, जो लाहौर में एक सिविल इंजीनियर थे। ख़ान, जो अपने युवावस्था में एक शांत और शर्मीली लड़के थे, एक मध्यम वर्गीय परिवार में अपनी चार बहनों के साथ पले-बढे.[12] पंजाब में बसे ख़ान के पिता, मियांवाली के पश्तून नियाज़ी शेरमनखेल जनजाति के वंशज थे।[13] उनकी माता के परिवार में जावेद बुर्की और माजिद ख़ान जैसे सफल क्रिकेटर शामिल हैं।[13] ख़ान ने लाहौर में ऐचीसन कॉलेज, कैथेड्रल स्कूल और इंग्लैंड में रॉयल ग्रामर स्कूल वर्सेस्टर में शिक्षा ग्रहण की, जहां क्रिकेट में उनका प्रदर्शन उत्कृष्ट था। 1972 में, उन्होंने केबल कॉलेज, ऑक्सफोर्ड में दर्शन, राजनीति और अर्थशास्त्र के अध्ययन के लिए दाखिला लिया, जहां उन्होंने राजनीति में दूसरी श्रेणी से और अर्थशास्त्र में तीसरी श्रेणी से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। [14]
16 मई, 1995 को, ख़ान ने अंग्रेज़ उच्च-वर्गीय, रईस जेमिमा गोल्डस्मिथ के साथ विवाह किया, जिसने पेरिस में दो मिनट के इस्लामी समारोह में अपना धर्म परिवर्तन किया। एक महीने बाद, 21 जून को, उन्होंने फिर से इंग्लैंड में रिचमंड रजिस्टर कार्यालय में एक नागरिक समारोह में शादी की, उसके तुरंत बाद गोल्डस्मिथ के सरी में स्थित घर पर स्वागत समारोह का आयोजन किया गया।[15] इस शादी से, जिसे ख़ान ने "कठिन" परिभाषित किया,[13] सुलेमान ईसा (18 नवम्बर 1996 को जन्म) और कासिम (10 अप्रैल, 1999 को जन्म), दो पुत्र हुए.[13] अपनी शादी के समझौते के अनुसार, ख़ान वर्ष के चार महीने इंग्लैंड में व्यतीत करते थे। 22 जून, 2004 को यह घोषणा की गई कि ख़ान दंपत्ति ने तलाक़ ले लिया है, क्योंकि "जेमिमा के लिए पाकिस्तानी जीवन को अपनाना मुश्किल था।"[16]
ख़ान, अब बनी गाला, इस्लामाबाद में रहते हैं जहां उन्होंने अपने लंदन फ्लैट की बिक्री से प्राप्त धन से एक फ़ार्म-हाउस का निर्माण किया है। छुट्टियों के दौरान उनके पास आने वाले दोनों बेटों के लिए एक क्रिकेट मैदान का रख-रखाव करने के साथ-साथ, वे फलों के वृक्ष और गेहूं का उत्पादन भी करते हैं और गायों को पालते हैं।[13] खबरों के अनुसार ख़ान, कथित रूप से उनकी नाजायज़ बेटी, टीरियन जेड ख़ान-व्हाइट के साथ भी नियमित संपर्क में रहते हैं, जिसे उन्होंने सार्वजनिक रूप से कभी स्वीकार नहीं किया।[17]
क्रिकेट कॅरियर
ख़ान ने लाहौर में सोलह साल की उम्र में प्रथम श्रेणी क्रिकेट में एक फीके प्रदर्शन के साथ शुरूआत की। 1970 के दशक के आरंभ से ही उन्होंने अपनी घरेलू टीमों, लाहौर A (1969-70), लाहौर B(1969-70), लाहौर ग्रीन्स (1970-71) और अंततः, लाहौर (1970-71) से खेलना शुरू कर दिया। [18] ख़ान 1973-75 सीज़न के दौरान ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की ब्लूज़ क्रिकेट टीम का हिस्सा थे।[14] वोर्सेस्टरशायर में, जहां उन्होंने 1971 से 1976 तक काउंटी क्रिकेट खेला, उनको सिर्फ़ एक औसत मध्यम तेज़ गेंदबाज के रूप में माना जाता था। इस दशक की ख़ान के प्रतिनिधित्व वाली दूसरी टीमों में शामिल हैं दाऊद इंडस्ट्रीज (1975-76) और पाकिस्तान इंटरनेशनल एयरलाइंस (1975-76 से 1980-81).1983 से 1988 तक, वह ससेक्स के लिए खेले।[9]
1971 में, ख़ान ने बर्मिंघम में इंग्लैंड के खिलाफ़ अपने टेस्ट क्रिकेट का शुभारंभ किया। तीन साल बाद, उन्होंने एक दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय (ODI) मैच का श्री गणेश एक बार फिर नॉटिंघम में प्रूडेंशियल ट्राफ़ी के लिए इंग्लैंड के खिलाफ़ खेल कर किया। ऑक्सफोर्ड से स्नातक बनने और वोर्सेस्टरशायर में अपना कार्यकाल खत्म करने के बाद, वे 1976 में पाकिस्तान लौटे और अपनी देशी राष्ट्रीय टीम में 1976-77 सत्र के आरंभ में ही उन्होंने एक स्थायी स्थान सुरक्षित कर लिया, जिसके दौरान उनको न्यूज़ीलैंड और ऑस्ट्रेलिया का सामना करना पड़ा.[18] ऑस्ट्रेलियाई सीरीज़ के बाद, वे वेस्ट इंडीज के दौरे पर गए, जहां वे टोनी ग्रेग से मिले, जिन्होंने उनको केरी पैकर के 'वर्ल्ड सीरीज़ क्रिकेट' के लिए हस्ताक्षरित किया[9] .उनकी पहचान विश्व के एक तेज़ गेंदबाज़ के रूप में तब बननी शुरू हुई जब 1978 में पर्थ में आयोजित एक तेज़ गेंदबाज़ी समारोह में उन्होंने 139.7km/h की रफ्तार से गेंद फेंकते हुए, जेफ़ थॉमप्सन और माइकल होल्डिंग के पीछे तीसरा स्थान प्राप्त किया, मगर डेनिस लिली, गार्थ ले रौक्स और एंडी रॉबर्ट्स से आगे रहे। [9] . 30 जनवरी 1983 को ख़ान ने भारत के खिलाफ़ 922 अंकों का टेस्ट क्रिकेट बॉलिंग रेटिंग दर्जा हासिल किया। उनका प्रदर्शन जो उस समय का उच्चतम प्रदर्शन था, ICC के ऑल टाइम टेस्ट बॉलिंग रेटिंग पर तीसरे स्थान पर है।[19].
ख़ान ने 75 टेस्ट में (3000 रन और 300 विकेट हासिल करते हुए) आल-राउंडर्स ट्रिपल प्राप्त किया, जो इयान बॉथम के 72 के बाद दूसरा सबसे तेज़ रिकार्ड है। बल्लेबाजी क्रम में छठे स्थान पर खेलते हुए वे 61.86 के साथ द्वितीय सर्वोच्च सार्वकालिक टेस्ट बल्लेबाजी औसत वाले टेस्ट बल्लेबाज के रूप में स्थापित हैं। उन्होंने अपना अंतिम टेस्ट मैच, जनवरी 1992 में पाकिस्तान के लिए श्रीलंका के खिलाफ़ फ़ैसलाबाद में खेला। ख़ान ने इंग्लैंड के खिलाफ़ मेलबोर्न ऑस्ट्रेलिया में खेले गए अपने अंतिम ODI, 1992 विश्व कप के ऐतिहासिक फ़ाइनल के छह महीने बाद क्रिकेट से संन्यास ले लिया।[20] उन्होंने अपने कॅरियर का अंत 88 टेस्ट मैचों, 126 पारियों और 37.69 की औसत से 3,807 रन बना कर किया, जिसमे छह शतक और 18 अर्द्धशतक शामिल हैं। उनका सर्वोच्च स्कोर 136 रन था। एक गेंदबाज के रूप में उन्होंने टेस्ट क्रिकेट में 362 विकेट लिए, ऐसा करने वाले वे पाकिस्तान के पहले और दुनिया के चौथे गेंदबाज हैं।[9] ODI में उन्होंने 175 मैच खेले और 33.41 की औसत से 3,709 रन बनाए। उनका सर्वोच्च स्कोर 102 नाबाद है। उनकी सर्वश्रेष्ठ ODI गेंदबाजी, 14 रन पर 6 विकेट पर दर्ज है।
कप्तानी
1982 में अपने कॅरियर की ऊंचाई पर तीस वर्षीय ख़ान ने जावेद मियांदाद से पाकिस्तानी क्रिकेट टीम की कप्तानी संभाली. इस नई भूमिका को याद करते हुए और उसकी शुरूआती परेशानियों की चर्चा करते हुए उन्होंने बाद में कहा, "जब मैं क्रिकेट टीम का कप्तान बना था, तो मैं इतना शर्मीला था कि सीधे टीम से बात नहीं कर सकता था। मुझे प्रबंधक से कहना पड़ता था, सुनिए क्या आप उनसे बात कर सकते हैं, यह बात है जो मैं उनसे व्यक्त करना चाहता हूं.
मेरे कहने का मतलब है कि मैं इतना शर्मीला और संकोची हुआ करता था कि शुरूआती टीम बैठकों में मैं टीम से बात नहीं कर पाता था।[21] एक कप्तान के रूप में, ख़ान ने 48 टेस्ट मैच खेले, जिसमें से 14 पाकिस्तान ने जीते, 8 में हार गए और बाकी 26 बिना हार-जीत के समाप्त हो गए। उन्होंने 139 एक-दिवसीय मैच भी खेले, जिनमें से 77 में जीत, 57 में हार हासिल हुई और एक बराबर का खेल रहा। [9]
उनके नेतृत्व में टीम के दूसरे मैच में, ख़ान ने उन्हें अंग्रेज़ी धरती पर 28 साल में पहली टेस्ट विजय दिलाई.[22] एक कप्तान के रूप में ख़ान का प्रथम वर्ष, एक तेज़ गेंदबाज़ और एक ऑल राउंडर के रूप में उनकी उपलब्धि के शिखर पर था। उन्होंने अपने कॅरियर की सर्वश्रेष्ठ टेस्ट गेंदबाजी लाहौर में श्रीलंका के खिलाफ़ 1981-82 में 58 रनों में 8 विकेट लेकर दर्ज की। [9] 1982 में इंग्लैंड के खिलाफ़ तीन टेस्ट श्रृंखला में 21 विकेट लेकर और बल्ले से औसत 56 बना कर गेंदबाज़ी और बल्लेबाज़ी दोनों में सर्वश्रेष्ठ रहे। बाद में उसी वर्ष, एक बेहद मज़बूत भारतीय टीम के खिलाफ़ घरेलू सीरीज़ में छह टेस्ट मैचों में 13.95 की औसत से 40 विकेट लेकर एक ज़बरदस्त अभिस्वीकृत प्रदर्शन किया। 1982-83 में इस श्रृंखला के अंत तक, ख़ान ने कप्तान के रूप में एक वर्ष की अवधि में 13 टेस्ट मैचों में 88 विकेट लिए। [18]
बहरहाल, भारत के खिलाफ़ यही टेस्ट सीरीज़, उनकी पिंडली में तनाव फ्रैक्चर का कारण बनी, जिसने उनको दो से अधिक वर्षों के लिए क्रिकेट से बाहर रखा। पाकिस्तानी सरकार द्वारा निधिबद्ध एक प्रयोगात्मक इलाज से 1984 के अंत तक उन्हें ठीक होने में मदद मिली और 1984-85 सीज़न के उत्तरार्द्ध में अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में उन्होंने एक सफल वापसी की। [9]
1987 में ख़ान ने पाकिस्तान की भारत में पहली टेस्ट सीरीज़ जीत और उसके बाद उसी वर्ष इंग्लैंड में पाकिस्तान की पहली श्रृंखला जीत में पाकिस्तान का नेतृत्व किया।[22] 1980 के दशक के दौरान, उनकी टीम ने वेस्ट इंडीज के खिलाफ़ तीन विश्वसनीय ड्रॉ दर्ज किये। 1987 में भारत और पाकिस्तान ने विश्व कप की सह-मेज़बानी की, लेकिन दोनों में से कोई भी सेमी-फ़ाइनल से ऊपर नहीं जा पाया। ख़ान ने विश्व कप के अंत में अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट से संन्यास ले लिया। 1988 में, पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल जिया उल हक ने उन्हें दुबारा कप्तानी संभालने को कहा और 18 जनवरी को उन्होंने टीम में फिर से आने के निर्णय की घोषणा की। [9] कप्तानी में लौटने के तुरंत बाद उन्होंने वेस्ट इंडीज में पाकिस्तान के एक विजयी दौरे का नेतृत्व किया, जिसके बारे में उन्होंने याद करते हुए कहा कि "वास्तव में मैंने पिछली बार अच्छी गेंदबाज़ी की."[13] 1988 में वेस्ट इंडीज़ के खिलाफ़ उनको मैन ऑफ़ द सीरीज़ घोषित किया गया, जब उन्होंने सीरीज़ में 3 टेस्ट मैचों में 23 विकेट लिए। [9]
एक कप्तान और एक क्रिकेटर के रूप में ख़ान के कॅरियर का उच्चतम स्तर तब आया, जब उन्होंने 1992 क्रिकेट विश्व कप में पाकिस्तान की जीत का नेतृत्व किया। एक जल्दी टूटने वाले बल्लेबाज़ी पंक्ति में खेलते हुए, ख़ान ने खुद को शीर्ष क्रम के बल्लेबाज़ के रूप में जावेद मियांदाद के साथ खेलने के लिए पदोन्नत किया, लेकिन एक गेंदबाज़ के रूप में उनका योगदान कम रहा। 39 की उम्र में, ख़ान ने सभी पाकिस्तानी बल्लेबाजों में सबसे ज़्यादा रन बनाए और आखिरी विजय विकेट भी उन्होंने खुद ली। [18] बहरहाल, पाकिस्तानी टीम की ओर से ख़ान द्वारा विश्व कप ट्रॉफी स्वीकार करने की आलोचना भी हुई। यह बताया गया कि ख़ान का अपने स्वीकृति-भाषण में अपनी टीम और अपने देश का उल्लेख ना करने के निर्णय और उनके बजाय खुद पर और अपने आगामी कैंसर अस्पताल पर केंद्रित ध्यान ने कई नागरिकों को "नाराज़ और शर्मिंदा" किया। "इमरान के 'मैं' 'मुझे' और 'मेरा' भाषण ने हर किसी को दुखी किया," डेली नेशन अख़बार के एक संपादकीय में लिखा था, जिसने स्वीकृति भाषण को एक "कर्कश स्वर" का तमगा दिया। [23]
सेवानिवृत्ति के बाद
1994 में ख़ान ने स्वीकार किया कि टेस्ट मैचों के दौरान उन्होंने "कभी-कभी गेंद के किनारे खरोंचे और सीम को उठाया." उन्होंने यह भी जोड़ा कि "केवल एक बार मैंने किसी चीज़ का इस्तेमाल किया। जब ससेक्स 1981 में हैम्पशायर से खेल रहे थे, तब गेंद बिल्कुल भी घूम नहीं रही थी। मैंने 12वें आदमी से बोतल का ढक्कन मंगवाया और वह चारों ओर काफी घूमने लगी."[24] 1996 में, ख़ान ने पूर्व अंग्रेज़ कप्तान और ऑल राउंडर इयान बॉथम और बल्लेबाज़ एलन लैम्ब द्वारा कथित तौर पर ख़ान द्वारा ऊपर उल्लिखित गेंद-छेड़छाड़ के बारे में दो लेखों में की गई टिप्पणी और भारतीय पत्रिका इंडिया टुडे में प्रकाशित एक दूसरे लेख में की गई टिप्पणीयों के लिए की गई एक परिवाद कार्रवाई में सफलतापूर्वक खुद का बचाव किया। उन्होंने दावा किया कि बाद के प्रकाशन में ख़ान ने दोनों क्रिकेटरों को "नस्लवादी, अशिक्षित और निम्न स्तरीय" कहा.ख़ान ने विरोध किया कि उन्हें ग़लत उद्धृत किया गया है, यह कहते हुए कि 18 साल पहले उनके द्वारा एक काउंटी मैच में गेंद के साथ छेड़छाड़ करने की बात स्वीकार करने के बाद वह खुद का बचाव कर रहे थे।[25] ख़ान ने परिवाद मामला निर्णायक मंडल द्वारा 10-2 बहुमत के निर्णय के साथ जीत लिया, जिसे न्यायाधीश ने "एक निरर्थक पूर्ण मेहनत" करार दिया। [25]
सेवानिवृत्त होने के बाद से, ख़ान ने विभिन्न ब्रिटिश और एशियाई समाचार पत्रों के लिए क्रिकेट पर विचारात्मक लेख लिखें हैं, खास कर पाकिस्तान की राष्ट्रीय टीम के बारे में. उनके योगदान भारत की आउटलुक पत्रिका,[26] द गार्जियन[27] द इंडीपेनडेंट और द टेलीग्राफ में प्रकाशित हुए हैं। ख़ान कभी-कभी, BBC उर्दू[28] और स्टार टीवी नेटवर्क सहित एशियाई और ब्रिटिश खेल नेटवर्क पर एक क्रिकेट कमेंटेटर के रूप में प्रस्तुत होते हैं।[29] 2004 में, जब भारतीय क्रिकेट टीम ने 14 वर्षों बाद पाकिस्तान का दौरा किया, तो वे TEN Sports के विशेष सजीव कार्यक्रम, स्ट्रेट ड्राइव,[30] पर एक कमेंटेटर थे, जबकि वे 2005 भारत-पाकिस्तान टेस्ट सीरीज़ के लिए sify.com के स्तंभकार भी थे।[31] वह 1992 के बाद से हर क्रिकेट विश्व कप के लिए विश्लेषण उपलब्ध कराते रहे हैं, जिसमें शामिल है 1999 विश्व कप के दौरान BBC के लिए मैच सारांश प्रदान करना। [31]
सामाजिक कार्य
1992 में क्रिकेट से संन्यास लेने के बाद, चार से अधिक वर्षों तक, ख़ान ने अपने प्रयासों को केवल सामाजिक कार्य पर केंद्रित किया। 1991 तक, वे अपनी मां, श्रीमती शौकत ख़ानम के नाम पर गठित एक धर्मार्थ संगठन, शौकत ख़ानम मेमोरियल ट्रस्ट की स्थापना कर चुके थे। ट्रस्ट के प्रथम प्रयास के रूप में, ख़ान ने पाकिस्तान के पहले और एकमात्र कैंसर अस्पताल की स्थापना की, जिसका निर्माण ख़ान द्वारा दुनिया भर से जुटाए गए $25 मीलियन से अधिक के दान और फंड के प्रयोग से किया गया।[10] उन्होंने अपनी मां की स्मृति से प्रेरित होकर, जिनकी मृत्यु कैंसर से हुई थी, 29 दिसम्बर 1994 को लाहौर में शौकत ख़ानम मेमोरियल कैंसर अस्पताल और अनुसंधान केंद्र, 75 प्रतिशत मुफ्त देखभाल वाला एक धर्मार्थ कैंसर अस्पताल खोला.[13] सम्प्रति ख़ान अस्पताल के अध्यक्ष के रूप में कार्य करते हैं और धर्मार्थ और सार्वजनिक दान के माध्यम से धन जुटाते रहते हैं।[32] 1990 के दशक के दौरान, ख़ान ने UNICEF के लिए, खेलों के विशेष प्रतिनिधि के रूप में कार्य किया[33] और बांग्लादेश, पाकिस्तान, श्रीलंका और थाईलैंड में स्वास्थ्य और टीकाकरण कार्यक्रम को बढ़ावा दिया। [34]
27 अप्रैल 2008 को, ख़ान के दिमाग की उपज, नमल कॉलेज नामक एक तकनीकी महाविद्यालय मियांवाली जिले में उद्घाटित किया गया। नमल कॉलेज, मियांवाली विकास ट्रस्ट (MDT) द्वारा बनाया गया था, जिसके अध्यक्ष ख़ान थे और दिसम्बर 2005 में इसे ब्रैडफ़ोर्ड विश्वविद्यालय का एक सहयोगी कॉलेज बना दिया गया।[35] इस समय, ख़ान अपनी सफल लाहौर संस्था को एक मॉडल के रूप में प्रयोग करते हुए कराची में एक और कैंसर अस्पताल का निर्माण करवा रहे हैं।लंदन में प्रवास के दौरान वे एक क्रिकेट धर्मार्थ संस्था, लॉर्ड्स टेवरनर्स के साथ काम करते हैं।[10]
राजनीतिक कार्य
एक क्रिकेटर के रूप में अपने पेशेवर कॅरियर के अंत के कुछ साल बाद, ख़ान ने यह स्वीकार करते हुए चुनावी राजनीति में प्रवेश किया कि उन्होंने इससे पहले चुनाव में कभी वोट नहीं डाला। [36] तब से उनका सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक कार्य, परवेज़ मुशर्रफ़ और आसिफ़ अली ज़रदारी जैसे सत्ताधारी नेताओं और उनकी अमेरिकी और ब्रिटिश विदेश नीति के विरोध के खिलाफ़ विरोध प्रदर्शन करना रहा है। "पाकिस्तान में ख़ान की राजनीति को गंभीरता से नहीं लिया जाता है और सबसे उचित रूप में उसका मूल्यांकन, अधिकांश अख़बारों में एकल कॉलम की समाचार वस्तु के रूप में किया जाता है।[37] रिपोर्ट और उनकी अपनी स्वीकारोक्ति के अनुसार, ख़ान के सबसे प्रमुख राजनीतिक समर्थक महिलाएं और युवा हैं।[12] उनका राजनैतिक धावा, लेफ्टिनेंट जनरल हामिद गुल से प्रभावित है, पाकिस्तानी गुप्तचर विभाग के पूर्व प्रमुख, जो अफ़गानिस्तान में तालिबान के विस्तार को हवा देने और अपने पश्चिम-विरोधी दृष्टिकोण के लिए प्रसिद्द हैं।[38] पाकिस्तान में उनके राजनैतिक कार्यों के प्रति प्रतिक्रिया को कुछ ऐसा माना गया है, "ख़ाने की मेज़ पर उनके नाम का ज़िक्र कीजिये और सबकी प्रतिक्रिया एक जैसी होती है: लोग अपनी आंखें घुमाते हैं, मंद-मंद मुस्काते हैं और उसके बाद एक दुखःद आह भरते हैं।"[39]
25 अप्रैल, 1996 को ख़ान ने "न्याय, मानवता और आत्म-सम्मान" के प्रस्तावित नारे के साथ पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (PTI) नामक अपनी स्वयं की राजनीतिक पार्टी की स्थापना की। [13] 7 जिलों से चुनाव लड़ने वाले ख़ान और उनकी पार्टी के सदस्य, 1997 के आम चुनावों में सार्वभौमिक रूप से चुनाव में हार गए। ख़ान ने 1999 में जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ के सैन्य तख्ता-पलट का समर्थन किया, लेकिन 2002 के आम चुनावों से कुछ महीने पहले उनके राष्ट्रपति पद की भर्त्सना की। कई राजनीतिक आलोचकों और उनके विरोधियों ने ख़ान के विचार परिवर्तन को एक अवसरवादी क़दम क़रार दिया। "जनमत संग्रह का समर्थन करने का मुझे खेद है। मुझे यह समझाया गया था कि उनकी जीत पर प्रणाली से भ्रष्ट लोगों का सफ़ाया होगा.लेकिन वास्तव में मामला ऐसा नहीं था", उन्होंने बाद में स्पष्टीकरण दिया। [40] 2002 के चुनावी मौसम के दौरान उन्होंने पाकिस्तान द्वारा अमेरिकी सेना को अफ़गानिस्तान में सहाय-सहकार सम्बन्धी समर्थन के खिलाफ़ यह कहते हुए आवाज़ उठाई कि उनका देश "अमेरिका का ग़ुलाम" हो चुका है।[40] 20 अक्टूबर, 2002 विधायी चुनावों में PTI ने लोकप्रिय वोट का 0.8% और 272 खुली सीटों में से एक पर विजय हासिल की। ख़ान को, जो मियांवाली के NA-71 निर्वाचन क्षेत्र से चुने गए थे, 16 नवंबर को एक सांसद के रूप में शपथ दिलाई गई।[41] कार्यालय में एक बार आ जाने के बाद, ख़ान ने 2002 में प्रधानमंत्री पद के लिए मुशर्रफ़ की पसंद को दरकिनार करते हुए, तालिबान समर्थक इस्लामी उम्मीदवार के पक्ष में वोट दिया। [38] एक सांसद के रूप में, वह कश्मीर और लोक लेखा पर स्थायी समितियों के सदस्य थे और उन्होंने विदेश मंत्रालय, शिक्षा और न्याय में विधायी रुचि व्यक्त की। [42]
6 मई, 2005 को ख़ान उन चंद मुस्लिमों में से एक बन गए, जिन्होंने 300 शब्द की न्यूज़वीक की कहानी की आलोचना की, जिसमें कथित तौर पर क्यूबा के ग्वांटनमो की खाड़ी में नौसैनिक अड्डे पर एक अमेरिकी सैन्य जेल में क़ुरान को अपवित्र किया गया। ख़ान ने लेख की निंदा करने के लिए एक प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित की और मांग की कि जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ इस घटना के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डबल्यू. बुश से माफ़ी मंगवाएं.[38] 2006 में उन्होंने कहा, "मुशर्रफ़ यहां बैठे हैं और वह जॉर्ज बुश के जूते चाटते हैं!" बुश प्रशासन के समर्थक मुस्लिम नेताओं की आलोचना करते हुए उन्होंने कहा, "वे मुस्लिम दुनिया पर बैठी कठपुतलियां हैं। हम एक प्रभुसत्ता-संपन्न पाकिस्तान चाहते हैं। हम नहीं चाहते कि राष्ट्रपति, जॉर्ज बुश का एक पूडल (गोद में रखने वाला छोटा कुत्ता) बनें.[21] मार्च 2006 में, जॉर्ज डब्ल्यू. बुश की पाकिस्तान यात्रा के दौरान, ख़ान को उनके विरोध प्रदर्शन आयोजित करने की धमकी के बाद इस्लामाबाद में घर में नज़रबंद रखा गया।[13] जून 2007 में संघीय संसदीय कार्य मंत्री डॉ॰ शेर अफ़गान ख़ान नियाज़ी और मुत्तहिदा कौमी मूवमेंट (MQM) पार्टी ने ख़ान के खिलाफ़ अनैतिकता के आधार पर राष्ट्रीय असेंबली के सदस्य के रूप में उनकी अनर्हता की मांग करते हुए, अलग-अलग अयोग्यता संदर्भ दायर किए. पाकिस्तानी संविधान के अनुच्छेद 62 और 63 के आधार पर दर्ज दोनों ही संदर्भ, 5 सितंबर को खारिज कर दिये गए।[43]
2 अक्टूबर, 2007 को ऑल पार्टीज़ डेमोक्रेटिक मूवमेंट के हिस्से के रूप में, ख़ान ने 85 अन्य सांसदों में शामिल होकर संसद से 6 अक्टूबर को निर्धारित राष्ट्रपति चुनाव के विरोध में इस्तीफ़ा दे दिया, जिसमें जनरल मुशर्रफ़ सेना प्रमुख के रूप में इस्तीफ़ा दिए बिना चुनाव लड़ रहे थे।[11] 3 नवंबर, 2007 को राष्ट्रपति मुशर्रफ़ द्वारा पाकिस्तान में आपातकाल घोषित किये जाने के कुछ घंटों बाद, ख़ान को उनके पिता के घर में नज़रबंद कर दिया गया। आपातकालीन शासन लगाने के बाद ख़ान ने मुशर्रफ़ के लिए मृत्यु दंड की मांग की, जिसे उन्होंने "देशद्रोह" के समकक्ष रखा। अगले दिन, 4 नवंबर को, ख़ान भाग गए और भ्रमणशील आश्रय में छिप गए।[44] अंततः 14 नवंबर को वे पंजाब विश्वविद्यालय में छात्रों के एक विरोध प्रदर्शन में शामिल होने के लिए बाहर आए। [45] रैली में ख़ान को जमात-ए-इस्लामी राजनीतिक दल के छात्रों द्वारा दबोच लिया गया, जिन्होंने दावा किया कि ख़ान रैली में एक बिन बुलाए सरदर्द थे और उन्हें पुलिस को सौंप दिया, जिसने उनके ऊपर हथियार उठाने के लिए लोगों को भड़काने, नागरिक अवज्ञा का आह्वान करने और घृणा फैलाने के लिए कथित तौर पर आतंकवाद अधिनियम के अर्न्तगत दोषारोपण किया।[46] डेरा गाज़ी ख़ान जेल में बंद, ख़ान के रिश्तेदारों को उनके पास जाने की अनुमति थी और जेल में उनके एक सप्ताह के दौरान उन तक चीज़ें पहुंचाने में वे सक्षम थे।19 नवंबर को, PTI सदस्यों और अपने परिवार के माध्यम से यह ख़बर बाहर भेजी कि उन्होंने भूख हड़ताल शुरू की है, पर डेरा गाज़ी ख़ान जेल के उप-अधीक्षक ने इस ख़बर का यह कहते हुए खंडन किया कि ख़ान ने नाश्ते में ब्रेड, अंडे और फल लिए। [47] 21 नवंबर, 2007 को रिहा 3,000 राजनीतिक क़ैदियों में ख़ान भी एक थे।[48]
18 फरवरी, 2008 को उनकी पार्टी ने राष्ट्रीय चुनावों का बहिष्कार किया और इसलिए, 2007 में ख़ान के इस्तीफ़े के बाद, PTI के किसी सदस्य ने संसद में कार्य नहीं किया। संसद के अब सदस्य ना होने के बावजूद, पाकिस्तानी राष्ट्रपति आसिफ़ अली ज़रदारी द्वारा 15 मार्च 2009 को एक क़ानूनी कार्रवाई में ख़ान को सरकार-विरोधी प्रदर्शन के लिए घर में नज़रबंद रखा गया।
२०१८ आम चुनाव
२५ जुलाई २०१८ को 270 सीटों के परिणाम घोषित हुए। इस परिणाम के मुताबिक इमरान ख़ान की पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ यानी पीटीआई को 116 सीटें मिली हैं।[49] पाकिस्तान निर्वाचन आयोग (ईसीपी) के अनुसार पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग-एन (पीएमएल-एन) 64 सीटों के साथ दूसरे नंबर पर तो पूर्व राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) 43 सीटों के साथ तीसरे स्थान पर है। इसके अनुसार 13 सीटों के साथ मुत्तहिदा मज्लिस-ए-अमल (एमएमएपी) चौथे स्थान पर रही। 13 निर्दलीय उम्मीदवारों ने भी जीत दर्ज की है, जिनकी भूमिका अहम होगी क्योंकि पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) को केंद्र में सरकार बनाने के लिये उनके समर्थन की जरूरत होगी।
विचारधारा
ख़ान के घोषित राजनीतिक मंच और घोषणाओं में शामिल हैं: इस्लामिक मूल्य, जिसके प्रति उन्होंने खुद को, नियंत्रण-मुक्त अर्थ-व्यवस्था और एक कल्याणकारी राज्य बनाने के वादे के साथ, 1990 के दशक में पुनर्निर्देशित किया; एक स्वच्छ सरकार को निर्मित और सुनिश्चित करने के लिए अल्प नौकरशाही और भ्रष्टाचार विरोधी क़ानून; एक स्वतंत्र न्यायपालिका की स्थापना; देश की पुलिस व्यवस्था की मरम्मत; और एक लोकतांत्रिक पाकिस्तान के लिए आतंकवाद विरोधी दृष्टि.[20][29]
ख़ान ने राजनीति में अपने प्रवेश के फ़ैसले का श्रेय एक आध्यात्मिक जागरण को दिया है, जो उनके क्रिकेट कॅरियर के अंतिम वर्षों में शुरू हुए इस्लाम के सूफ़ी संप्रदाय के एक फ़कीर के साथ उनकी बातचीत से जागृत हुआ। "मैंने कभी शराब या सिगरेट नहीं पी, लेकिन मैं अपने हिस्से का जश्न मनाया करता था। मेरे आध्यात्मिक विकास में एक अवरोध था," अमेरिका के वाशिंगटन पोस्ट को उन्होंने बताया। एक सांसद के रूप में, ख़ान ने कभी-कभी कट्टरपंथी धार्मिक पार्टियों के खेमे के साथ वोट दिया, जैसे मुत्तहिदा मजलिस-ए-अमल, जिसके नेता मौलाना फ़जल-उर-रहमान का उन्होंने 2002 में प्रधानमंत्री पद के लिए मुशर्रफ की उम्मीदवारी के खिलाफ़ समर्थन किया। रहमान एक तालिबान समर्थक मौलवी हैं, जिन्होंने अमेरिका के खिलाफ़ जेहाद का आह्वान किया है।[29] पाकिस्तान में धर्म पर, ख़ान ने कहा है कि, "जैसे-जैसे समय बीतता है, धार्मिक विचार को भी विकसित करना चाहिए, लेकिन इसका विकास नहीं हो रहा है, यह पश्चिमी संस्कृति के खिलाफ़ प्रतिक्रिया कर रहा है और कई बार इसका विश्वास या धर्म से कोई लेना-देना नहीं होता."
ख़ान ने ब्रिटेन के डेली टेलीग्राफ़ को बताया, "मैं चाहता हूं पाकिस्तान एक कल्याणकारी राज्य और क़ानून के शासन और एक स्वतंत्र न्यायपालिका के साथ एक वास्तविक लोकतंत्र बने."[20] उनके द्वारा व्यक्त अन्य विचारों में शामिल है, सभी छात्रों द्वारा स्नातक स्तर की शिक्षा के बाद ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षण करते हुए एक साल बिताना और नौकरशाही में आवश्यकता से अधिक मौजूद कर्मचारियों को कम कर, उन्हें भी शिक्षण के लिए भेजना.[40] उन्होंने कहा, "क्षेत्रीय स्तर पर लोगों को अधिकार संपन्न बनाने के लिए, हमें विकेंद्रीकरण की ज़रूरत है".[50] जून 2007 में ख़ान ने सार्वजनिक रूप से भारतीय मूल के लेखक सलमान रुश्दी को नाईट की पदवी देने के लिए ब्रिटेन की निंदा की। उन्होंने कहा, "इस लेखक ने अपनी बेहद विवादास्पद पुस्तक द सैटेनिक वर्सेज लिख कर मुस्लिम समुदाय को जो चोट पहुंचाई है, उसके प्रति पश्चिमी सभ्यता को जागरूक रहना चाहिए."[51]
पाकिस्तानी आम चुनाव, 2018 के परिणामस्वरूप, इमरान खान ने कहा कि वह पाकिस्तान बनाने की कोशिश करेंगे जो मोहम्मद अली जिन्नाह की विचारधारा पर आधारित है।[52]
व्यक्तिगत जीवन
1970 और 1980 के दशक के दौरान, ख़ान लंदन के एनाबेल्स और ट्रैम्प जैसे नाइट क्लबों की पार्टियों में निरंतर मशगूल होने के कारण, सोशलाइट के रूप में जाने गए, हालांकि वे दावा करते हैं कि उन्हें अंग्रेजी पबों से नफ़रत है और उन्होंने कभी शराब नहीं पी.[10][13][29][38] उन्होंने सुज़ाना कॉन्सटेनटाइन, लेडी लीज़ा कैम्पबेल जैसे नवोदित युवा कलाकारों और चित्रकार एम्मा सार्जेंट के साथ रोमांस के कारण, लंदन गपशप कॉलमों में ख्याति बटोरी.[13] उनके इन पूर्व गर्लफ्रेंड में से एक और गॉर्डन व्हाइट, हल के सामंत व्हाइट की बेटी ब्रिटिश उत्तराधिकारिणी सीता व्हाइट, कथित रूप से उनकी नाजायज़ बेटी की मां बनीं। अमेरिका में एक न्यायाधीश ने उनका टीरियन जेड व्हाइट के पिता होने को प्रमाणित किया, लेकिन ख़ान ने पितृत्व का खंडन किया है।[53]
16 मई 1995 को, 43 साल की उम्र में, खान ने 21 वर्षीय जेमिमा गोल्डस्मिथ से शादी की, पेरिस में उर्दू में आयोजित दो मिनट के समारोह में।[54] एक महीने बाद, 21 जून को, इंग्लैंड में रिचमंड रजिस्ट्री कार्यालय में एक सिविल समारोह में फिर से विवाह हुआ। जेमीमा इस्लाम में परिवर्तित इस जोड़े के दो बेटे सुलेमान ईसा और कासिम हैं।
अफवाहें फैल गईं कि जोड़े की शादी संकट में थी। गोल्डस्मिथ ने पाकिस्तानी समाचार पत्रों में विज्ञापन प्रकाशित करके अफवाहों से इंकार कर दिया। 22 जून 2004 को, यह घोषणा की गई कि दंपति ने नौ साल की शादी समाप्त कर दी थी क्योंकि यह "जेमिमा पाकिस्तान में जीवन के अनुकूल होने के लिए मुश्किल था"।
जनवरी 2015 में, यह घोषणा की गई कि खान ने इस्लामाबाद में अपने निवास पर एक निजी निकहा समारोह में ब्रिटिश-पाकिस्तानी पत्रकार रेहम खान से विवाह किया था। हालांकि, रेहम खान बाद में अपनी आत्मकथा में कहता है कि वास्तव में उन्होंने अक्टूबर 2014 में शादी कर ली लेकिन घोषणा केवल जनवरी में हुई थी। 22 अक्टूबर को, उन्होंने तलाक के लिए फाइल करने के अपने इरादे की घोषणा की।
2016 के मध्य में, 2017 के अंत और 2018 की शुरुआत में, रिपोर्ट उभरी कि खान ने अपने आध्यात्मिक सलाहकार बुशरा मनेका से विवाह किया था। खान, पीटीआई सहयोगी और बुशरा मनेका परिवार के सदस्य ने अफवाह से इंकार कर दिया। खान ने अफवाह फैलाने के लिए मीडिया को "अनैतिक" कहा, और पीटीआई ने समाचार चैनलों के खिलाफ शिकायत दायर की जिसने इसे प्रसारित किया था। 7 जनवरी 2018 को, हालांकि, केंद्रीय सचिवालय ने एक बयान जारी किया कि खान ने बुशरा मनेका को प्रस्ताव दिया था, लेकिन उसने अभी तक अपना प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया था। 18 फरवरी 2018 को, पीटीआई ने पुष्टि की कि खान ने मणिका से विवाह किया है।
खान बनी गाला में अपने विशाल फार्महाउस में रहते हैं। नवंबर 2009 में, खान ने बाधा को दूर करने के लिए लाहौर के शौकत खानम कैंसर अस्पताल में आपातकालीन सर्जरी की।
छवि और आलोचना
ख़ान को अक्सर एक हल्के राजनीतिक[45] और पाकिस्तान में एक बाहरी सेलिब्रिटी[21] के रूप में खारिज किया जाता है, जहां राष्ट्रीय समाचार पत्र भी उन्हें एक "विघ्नकर्ता राजनेता" के रूप में उद्धृत करते हैं।[55] MQM राजनैतिक पार्टी (?) ने कहा है कि ख़ान "एक बीमार व्यक्ति हैं, जो राजनीति में पूरी तरह विफल रहे हैं और सिर्फ़ मीडिया कवरेज के कारण ज़िंदा हैं".[56] राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि जो भीड़ वे बटोरते हैं वह उनके क्रिकेट सेलिब्रिटी होने के कारण आकर्षित होती है और ख़बरों के अनुसार लोग उन्हें एक गंभीर राजनीतिक प्राधिकारी के बजाय एक मनोरंजक व्यक्ति के रूप में देखते हैं।[40] राजनीतिक शक्ति या एक राष्ट्रीय आधार बनाने में उनकी विफलता के लिए, आलोचकों और पर्यवेक्षकों ने उनकी राजनीतिक परिपक्वता में कमी और भोलेपन को जिम्मेदार ठहराया है।[29] अख़बार के स्तंभकार अयाज़ अमीर ने अमेरिकी वॉशिंगटन पोस्ट को बताया, "[ख़ान] में वह राजनीतिक बात नहीं है, जो आग लगा दे."
इंग्लैंड के द गार्जियन अख़बार ने ख़ान को एक "दयनीय राजनेता" के रूप में वर्णित किया है, यह देखते हुए कि "1996 में राजनीति में प्रवेश करने के बाद से ख़ान के विचार और संबंध, बारिश में एक रिक्शे की तरह विचलित और फिसले हैं।... एक दिन वह लोकतंत्र का उपदेश देते हैं, पर दूसरे ही दिन प्रतिक्रियावादी मुल्लाओं को वोट देते हैं।"[39] ख़ान के खिलाफ़ लगातार उठाया जाने वाला आरोप, पाखंड और अवसरवाद का है, जिसमें वह भी शामिल है, जो उनके जीवन का "प्लेबॉय से शुद्धतावादी U-टर्न" कहलाता है।"[21]
पाकिस्तान के सबसे सम्मानित राजनीतिक आलोचकों में से एक, नजम सेठी ने कहा कि, "इमरान ख़ान की अधिकांश कहानी, उनकी कही गई पिछली बातों पर उलटे पांव लौटने से जुड़ी है और यही वजह है कि यह लोगों को प्रेरित नहीं करती."[21] ख़ान का राजनीतिक आमूल नीति-परिवर्तन, 1999 में मुशर्रफ़ के सैन्य अधिग्रहण के प्रति उनके समर्थन के बाद, उनकी मुखर आलोचना से निर्मित है। इसी तरह, ख़ान, पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ के सत्ता काल में उनके आलोचक थे, जिन्होंने उस समय कहा था: "हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री एक फासीवादी मनोवृत्ति के हैं और संसद के सदस्य, सत्तारूढ़ दल के खिलाफ़ नहीं जा सकते. हमें लगता है कि हर दिन जब वे सत्ता में बने हैं, देश अधिक अराजकता में डूबता जा रहा है।"[57] फिर भी, वे 2008 में शरीफ़ के साथ मुशर्रफ़ के खिलाफ़ एकजुट हो गए। "क्या असली इमरान कृपया खड़े होंगे" शीर्षक के एक कॉलम में पाकिस्तानी स्तंभकार अमीर जिया ने PTI कराची के एक नेता को यह कहते उद्धृत किया, "यहां तक कि हमें भी यह पता लगाना मुश्किल हो रहा है कि असली इमरान कहां हैं। वह जब पाकिस्तान में होता है तो सलवार-कमीज पहनता है और देसी उपदेश और धार्मिक मूल्यों की शिक्षा देता है, लेकिन ब्रिटेन और पश्चिम की दूसरी जगहों पर अभिजात वर्ग के साथ कंधे से कंधा मिलाते वक्त खुद को पूरी तरह से बदल लेता है।[58]
2008 में, 2007 के हॉल ऑफ़ शेम अवार्ड के हिस्से के रूप में, पाकिस्तान की न्यूज़लाइन पत्रिका ने ख़ान को "मीडिया का सबसे अयोग्य दुलारा होने के लिए पेरिस हिल्टन पुरस्कार" दिया गया। ख़ान के प्रशस्ति पत्र पर लिखा था: "वे एक ऐसी पार्टी के नेता हैं, जिसे राष्ट्रीय विधानसभा में एक सीट धारण करने का गौरव प्राप्त है, (और) अपने राजनीतिक प्रभाव के विपरीत मीडिया कवरेज पाते हैं।" ख़ान की सेवानिवृत्ति के बाद की गतिविधियों द्वारा इंग्लैंड में अर्जित कवरेज को वर्णित करते हुए, जहां उन्होंने एक क्रिकेट सितारे और रात्रि क्लब में नियमित रूप से जाने वाले के रूप में अपना नाम बनाया, द गार्जियन ने कहा "ख़तरे से जुड़ा निहायती बकवास है। यह एक महान (और महानतम रूप से दीन) तीसरी दुनिया के देश को एक गपशप-कॉलम से जोड़ता है। ऐसी निरर्थकता से हमारा दम घुट सकता है।"[59]
2008 के आम चुनावों के बाद, राजनीतिक स्तंभकार आजम खलील ने ख़ान को, जो महान क्रिकेट व्यक्तित्व के रूप में आज भी सम्मानित हैं, "पाकिस्तान की राजनीति में अत्यन्त विफल" के रूप में संबोधित किया है।[60] फ्रंटियर पोस्ट में लिखते हुए, खलील ने कहा: "इमरान ख़ान के पास समय है और फिर से उन्होंने अपनी राजनीतिक दिशा परिवर्तित की है और इस समय उनकी कोई राजनैतिक विचारधारा नहीं है और इसलिए जनता के एक बड़े तबके द्वारा गंभीरता से नहीं लिए जाते."
लोकप्रिय संस्कृति में
2010 में, एक पाकिस्तानी उत्पादन घर ने खान के जीवन के आधार पर एक जीवनी फिल्म बनाई, जिसका शीर्षक कप्तान: द मेकिंग ऑफ ए लीजेंड। शीर्षक 'कप्तान' के लिए उर्दू है, जिसमें पाकिस्तान की क्रिकेट टीम के साथ खान की कप्तानी और करियर दर्शाया गया है, जिसने उन्हें 1992 के क्रिकेट विश्व कप में जीत के साथ-साथ घटनाओं को जन्म दिया जो उनके जीवन को आकार देते थे; क्रिकेट में एक प्लेबॉय लेबल करने के लिए उपहासित होने से;[61] पाकिस्तान में पहले कैंसर अस्पताल के निर्माण में अपने प्रयासों और प्रयासों के लिए अपनी मां की दुखद मौत से; नामल विश्वविद्यालय के निर्माण के लिए ब्रैडफोर्ड विश्वविद्यालय के पहले चांसलर होने से।
पुरस्कार और सम्मान
1992 में, ख़ान को पाकिस्तान के प्रतिष्ठित नागरिक पुरस्कार, हिलाल-ए-इम्तियाज़ से सम्मानित किया गया। इससे पहले उन्होंने 1983 में राष्ट्रपति का प्राइड ऑफ़ परफार्मेंस पुरस्कार प्राप्त किया था। ख़ान ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध खिलाड़ियों की सूची में शामिल हैं और ऑक्सफोर्ड केबल कॉलेज के मानद सदस्य रहे हैं।[33] 7 दिसम्बर, 2005 को ख़ान ब्रैडफोर्ड विश्वविद्यालय के पांचवें कुलपति नियुक्त किये गए, जहां वे बॉर्न इन ब्रैडफोर्ड अनुसंधान परियोजना के संरक्षक भी हैं।
अंग्रेज़ प्रथम श्रेणी क्रिकेट में प्रमुख ऑल-राउंडर होने के कारण ख़ान को 1980 और 1976 में द क्रिकेट सोसायटी वेदरऑल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1983 में उन्हें विसडेन क्रिकेटर ऑफ़ द इयर, 1985 में ससेक्स क्रिकेट सोसाइटी प्लेयर ऑफ़ द इयर और 1990 में भारतीय क्रिकेट वर्ष का क्रिकेटर घोषित किया गया।[18] ख़ान को वर्तमान में ESPN लेजेंड्स ऑफ़ क्रिकेट की सार्वकालिक सूची में 8वें स्थान पर रखा गया है। 5 जुलाई, 2008 को कराची में एशियाई क्रिकेट परिषद (ACC) के उद्घाटन पुरस्कार समारोह में विशेष रजत जयंती पुरस्कार प्राप्त करने वाले कई दिग्गज एशियाई क्रिकेटरों में से ख़ान एक थे।[62]
कई अंतर्राष्ट्रीय धर्मार्थ कार्यों के लिए एक सभापति के रूप में और पूरी भावना के साथ और व्यापक तौर पर निधि संचय की गतिविधियों में कार्य करने के लिए 8 जुलाई, 2004 को, लंदन में 2004 के एशियन जुएल अवार्ड में ख़ान को लाइफ़-टाइम एचीवमेंट अवार्ड से सम्मानित किया गया।[63] 13 दिसम्बर, 2007 को पाकिस्तान में पहला कैंसर अस्पताल स्थापित करने में उनके प्रयासों के लिए ख़ान को कुवालालंपुर में एशियाई खेल पुरस्कारों के अर्न्तगत ह्युमेनिटेरियन अवार्ड से नवाज़ा गया।[64] 2009 में, अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट परिषद के शताब्दी उत्सव में ख़ान, उन पचपन क्रिकेट खिलाड़ियों में से एक थे, जिन्हें ICC हॉल ऑफ़ फेम में शामिल किया गया।[65]
ख़ान द्वारा लेखन
ख़ान कभी-कभी क्रिकेट और पाकिस्तानी राजनीति पर ब्रिटेन के समाचार पत्रों के लिए संपादकीय विचारों का योगदान करते हैं। उन्होंने पांच कथेतर साहित्य भी प्रकाशित किए हैं, जिनमें पैट्रिक मर्फी के साथ सह-लिखित एक आत्मकथा भी शामिल है। 2008 में यह उद्घाटित किया गया कि ख़ान ने अपनी दूसरी पुस्तक, इंडस जर्नी: अ पर्सनल व्यू ऑफ़ पाकिस्तान नहीं लिखी है। इसके बजाय, क़िताब के प्रकाशक जेरेमी लुईस ने एक संस्मरण में यह रहस्योद्घाटन किया कि उन्हें ख़ान के लिए क़िताब लिखनी पड़ी.लुईस याद करते हैं कि जब उन्होंने ख़ान को प्रकाशनार्थ अपना लेखन दिखाने के लिए कहा, तो "उन्होंने मुझे एक चमड़े के कवरवाली नोटबुक या डायरी दी, जिसमें थोड़ा-बहुत संक्षेप में लिखे और आत्मकथात्मक अंश थे। मुझे, उसे पढ़ने में ज्यादा से ज्यादा पांच मिनट लगे; और जल्दी ही यह स्पष्ट हो गया कि हमें इतने के साथ ही आगे जाना होगा। [66]
किताबें
लेख
, ख़ान द्वारा राजनैतिक और क्रिकेट कमेंट्री
, 2000 से वर्तमान तक ख़ान द्वारा लिखे खेलकूद संबंधी लेख
, 11 सितंबर के हमलों के बाद इंडीपेनडेंट में ख़ान का संपादकीय
, पाकिस्तान में भुट्टो की वापसी पर, ख़ान की 2007 संपादकीय
सन्दर्भ
अतिरिक्त पठन
बाहरी कड़ियाँ
, ख़ान का राजनीतिक दल
, ब्रैडफ़ोर्ड विश्वविद्यालय में मुखपृष्ठ
Template:पाकिस्तान के प्रधानमंत्री
Template:सार्क नेता
श्रेणी:जीवित लोग
श्रेणी:पाकिस्तान के प्रधानमंत्री
श्रेणी:1975 क्रिकेट विश्व कप में क्रिकेट खिलाड़ी
श्रेणी:1979 क्रिकेट विश्व कप में क्रिकेट खिलाड़ी
श्रेणी:1983 क्रिकेट विश्व कप में क्रिकेट खिलाड़ी
श्रेणी:1987 क्रिकेट विश्व कप में क्रिकेट खिलाड़ी
श्रेणी:1992 क्रिकेट विश्व कप में क्रिकेट खिलाड़ी
श्रेणी:आईसीसी क्रिकेट हॉल ऑफ़ फ़ेम में प्रविष्ट लोग
श्रेणी:ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय क्रिकेटर
श्रेणी:केबल कॉलेज, ऑक्सफोर्ड के पूर्व छात्र
श्रेणी:पश्तून लोग
श्रेणी:पाकिस्तान इंटरनेशनल एयरलाइंस के क्रिकेटर
श्रेणी:पाकिस्तान के एकदिवसीय क्रिकेटर
श्रेणी:पाकिस्तान टेस्ट क्रिकेटर
श्रेणी:पाकिस्तानी क्रिकेट कप्तान
श्रेणी:पाकिस्तानी राजनीतिज्ञ
श्रेणी:पाकिस्तानी समाजसेवक
श्रेणी:ब्रैडफोर्ड विश्वविद्यालय के कुलपति
श्रेणी:लाहौर क्रिकेटर
श्रेणी:लाहौर के लोग
श्रेणी:वर्ल्ड सीरीज क्रिकेट खिलाड़ी
श्रेणी:विसडेन वर्ष के क्रिकेटर्स
श्रेणी:गूगल परियोजना
श्रेणी:1952 में जन्मे लोग
श्रेणी:पाकिस्तानी क्रिकेट खिलाड़ी | इमरान ख़ान नियाज़ी की पार्टी का नाम क्या है? | पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ | 1,066 | hindi |
4b7b11b97 | उज्जैन (उज्जयिनी) भारत के मध्य प्रदेश राज्य का एक प्रमुख शहर है जो क्षिप्रा नदी के किनारे बसा है। यह एक अत्यन्त प्राचीन शहर है। यह विक्रमादित्य के राज्य की राजधानी थी। इसे कालिदास की नगरी के नाम से भी जाना जाता है। यहाँ हर १२ वर्ष पर सिंहस्थ कुंभ मेला लगता है। भगवान शिव के १२ ज्योतिर्लिंगों में एक महाकाल इस नगरी में स्थित है। उज्जैन मध्य प्रदेश के सबसे बड़े शहर इन्दौर से ५५ कि॰मी॰ पर है। उज्जैन के प्राचीन नाम अवन्तिका, उज्जयनी, कनकश्रन्गा आदि है। उज्जैन मंदिरों की नगरी है। यहाँ कई तीर्थ स्थल है। इसकी जनसंख्या लगभग 5.25 लाख है। यह मध्य प्रदेश का पाँचवा सबसे बड़ा शहर है। नगर निगम सीमा का क्षेत्रफल ९३ वर्ग किलोमीटर है।
इतिहास
राजनैतिक इतिहास उज्जैन का काफी लम्बा रहा है। उज्जैन के गढ़ क्षेत्र से हुयी खुदाई में आद्यैतिहासिक (protohistoric) एवं प्रारंभिक लोहयुगीन सामग्री प्रचुर मात्रा में प्राप्त हुई है। पुराणों व महाभारत में उल्लेख आता है कि वृष्णि-वीर कृष्ण व बलराम यहाँ गुरु सांदीपनी के आश्रम में विद्याप्राप्त करने हेतु आये थे। कृष्ण की एक पत्नी मित्रवृन्दा उज्जैन की ही राजकुमारी थी। उसके दो भाई विन्द एवं अनुविन्द महाभारत युद्ध में कौरवों की और से युद्ध करते हुए वीर गति को प्राप्त हुए थे। ईसा की छठी सदी में उज्जैन में एक अत्यंत प्रतापी राजा हुए जिनका नाम चंड प्रद्योत था। भारत के अन्य शासक उससे भय खाते थे। उसकी दुहिता वासवदत्ता एवं वत्सनरेश उदयन की प्रणय गाथा इतिहास प्रसिद्ध है प्रद्योत वंश के उपरांत उज्जैन मगध साम्राज्य का अंग बन गया।
महाकवि कालिदास उज्जयिनी के इतिहास प्रसिद्ध सम्राट विक्रमादित्य के दरबार के नवरत्नों में से एक थे। इनको उज्जयिनी अत्यंत प्रिय थी। इसीलिये कालिदास ने उज्जयिनी का अत्यंत ही सुंदर वर्णन किया है। सम्राट विक्रमादित्य ही महाकवि कालिदास के वास्तविक आश्रयदाता के रूप में प्रख्यात है।
महाकवि कालिदास की मालवा के प्रति गहरी आस्था थी। उज्जयिनी में ही उन्होंने अत्यधिक प्रवास-काल व्यतीत किया और यहीं पर कालिदास ने उज्जयिनी के प्राचीन एवं गौरवशाली वैभव को देखा। वैभवशाली अट्टालिकाओं, उदयन, वासवदत्ता की प्रणय गाथा, भगवान महाकाल संध्याकालीन आरती तथा नृत्य करती गौरीगनाओं के सात ही क्षिप्रा नदी का पौराणिक महत्व आदि से भली भांति परिचित होने का अवसर भी प्राप्त किया हुआ जान पड़ता है।
'मेघदूत' में महाकवि कालिदास ने उज्जयिनी का सुंदर वर्णन करते हुए कहा है कि जब स्वर्गीय जीवों को अपने पुण्यक्षीण होने की स्थिति में पृथ्वी पर आना पड़ा। तब उन्होंने विचार किया कि हम अपने साथ स्वर्ग का एक खंड (टुकत्रडा) भी ले चले। वही स्वर्गखंड उज्जयिनी है। आगे महाकवि ने लिखा है कि उज्जयिनी भारत का वह प्रदेश है जहां के वृध्दजनइतिहास प्रसिद्ध आधिपति राजा उदयन की प्रणय गाथा कहने में पूर्ण दक्ष है।
कालिदास के 'मेघदूत' में उज्जयिनी का वैभव आज भले ही विलुप्त हो गया हो परंतु आज भी विश्व में उज्जयिनी का धार्मिक-पौराणिक एवं ऐतिहासिक महत्व के सात ही ज्योतिक्ष क्षेत्र का महत्व भी प्रसिद्ध है। उज्जयिनी भारत की सात पुराण प्रसिद्ध नगरियों में प्रमुख स्थान रखती है। उज्जयिनी में प्रति बारह वर्षों में सिंहस्थ महापर्व का आयोजन होता है। इस अवसर पर देश-विदेश से करोड़ों श्रध्दालु भक्तजन, साधु-संत, महात्मा महामंडलेश्वर एवं अखात्रडा प्रमुख उज्जयिनी में कल्पवास कर मोक्ष प्राप्ति की मंगल कामना करते हैं।
प्रमाणिक इतिहास
उज्जयिनी की ऐतिहासिकता का प्रमाण 600 वर्ष पूर्व मिलता है। तत्कालीन समय में भारत में जो सोलह जनपद थे उनमें अवंति जनपद भी एक था। अवंति उत्तर एवं दक्षिण इन दो भागों में विभक्त होकर उत्तरी भाग की राजधानी उज्जैन थी तथा दक्षिण भाग की राजधानी महिष्मति थी। उस समय चंद्रप्रद्योत गुर्जर नामक सम्राट सिंहासनारूढ थे। प्रद्योत के वंशजों का उज्जैन पर तीसरी शताब्दी तक प्रभुत्व था।
मौर्य साम्राज्य
मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य यहाँ आए थे। उनके पोते अशोक यहाँ के राज्यपाल रहे थे। उनकी एक भार्या वेदिसा देवी से उन्हें महेंद्र और संघमित्रा जैसी संतान प्राप्त हुई जिसने कालांतर में श्रीलंका में बौद्ध धर्म का प्रचार किया था।
मौर्य साम्राज्य के अभुदय होने पर मगध सम्राट बिन्दुसार के पुत्र अशोक उज्जयिनी के समय नियुक्त हुए। बिन्दुसार की मृत्योपरान्त अशोक ने उज्जयिनी के शासन की बागडोर अपने हाथों में सम्हाली और उज्जयिनी का सर्वांगीण विकास कियां सम्राट अशोकके पश्चात उज्जयिनी ने दीर्घ काल तक अनेक सम्राटों का उतार चढ़ाव देखा।
मौर्य साम्राज्य का पतन
मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद उज्जैन शकों और सातवाहनों की प्रतिस्पर्धा का केंद्र बन गया। शकों के पहले आक्रमण को उज्जैन के वीर सम्राट विक्रमादित्य के नेतृत्व में यहाँ की जनता ने प्रथम सदी पूर्व विफल कर दिया था। कालांतर में विदेशी पश्चिमी शकों ने उज्जैन हस्त गत कर लिया। चस्टान व रुद्रदमन इस वंश के प्रतापी व लोक प्रिय महाक्षत्रप सिद्ध हुए।
गुप्त साम्राज्य
चौथी शताब्दी में गुप्तों और औलिकरों ने मालवा से इन शकों की सत्ता समाप्त कर दी। शकों और गुप्तों के काल में इस क्षेत्र का अद्वितीय आर्थिक एवं औद्योगिक विकास हुआ। छठी से दसवीं सदी तक उज्जैन गुर्जर प्रतिहारों की राजनैतिक व सैनिक स्पर्धा का दृश्य देखता रहा।
सातवीं शताब्दी में उज्जैन कन्नौज के हर्षवर्धन साम्राज्य में विलीन हो गया। उस काल में उज्जैन का सर्वांगीण विकास भी होता रहा। वर्ष ६४८ में हर्ष वर्धन की मृत्यु के पश्चात राजपूत काल में नवी शताब्दी तक उज्जैन परमार राजपूतों के आधिपत्य में आया जो ग्यारहवीं शताब्दी तक कायम रहा इस काल में उज्जैन की उन्नति होती रही। इसके पश्चात उज्जैन चौहान राजपूतों और तोमर राजपूतों के अधिकारों में आ गया।
वर्ष १००० से १३०० तक मालवा परमार-शक्ति द्वारा शासित रहा। काफी समय तक उनकी राजधानी उज्जैन रही। इस काल में सीयक द्वितीय, मुंजदेव, भोजदेव, उदयादित्य, नरवर्मन जैसे महान शासकों ने साहित्य, कला एवं संस्कृति की अभूतपूर्व सेवा की।
दिल्ली सल्तनत
दिल्ली के दास एवं खिलजी सुल्तानों के आक्रमण के कारण परमार वंश का पतन हो गया।
वर्ष १२३५ में दिल्ली का शमशुद्दीन इल्तमिश विदिशा विजय करके उज्जैन की और आया यहां उस क्रूर शासक ने ने उज्जैन को न केवल बुरी तरह लूटा अपितु उनके प्राचीन मंदिरों एवं पवित्र धार्मिक स्थानों का वैभव भी नष्ट किया।
वर्ष १४०६ में मालवा दिल्ली सल्तनत से मुक्त हो गया और उसकी राजधानी मांडू से धोरी, खिलजी व अफगान सुलतान स्वतंत्र राज्य करते रहे। मुग़ल सम्राट अकबर ने जब मालवा पर किया तो उज्जैन को प्रांतीय मुख्यालय बनाया गया। मुग़ल बादशाह अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ व औरंगजेब यहाँ आये थे।
मराठों का अधिकार
सन् १७३७ ई. में उज्जैन सिंधिया वंश के अधिकार में आया उनका वर्ष १८८० तक एक छत्र राज्य रहा जिसमें उज्जैन का सर्वांगीण विकास होता रहा। सिंधिया वंश की राजधानी उज्जैन बनी। राणोजी सिंधिया ने महाकालेश्वर मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। इस वंश के संस्थापक राणोजी शिंदे के मंत्री रामचंद्र शेणवी ने वर्तमान महाकाल मंदिर का निर्माण करवाया। वर्ष १८१० में सिंधिया राजधानी ग्वालियर ले जाई गयी किन्तु उज्जैन का सांस्कृतिक विकास जारी रहा। १९४८ में ग्वालियर राज्य का नवीन मध्य भारत में विलय हो गया।
उज्जयिनी में आज भी अनेक धार्मिक पौराणिक एवं ऐतिहासिक स्थान हैं जिनमें भगवान महाकालेश्वर मंदिर, गोपाल मंदिर, चौबीस खंभा देवी, चौसठ योगिनियां, नगर कोट की रानी, हरसिध्दिमां, गत्रढकालिका, काल भैरव, विक्रांत भैरव, मंगलनाथ, सिध्दवट, बोहरो का रोजा, बिना नींव की मस्जिद, गज लक्ष्मी मंदिर, बृहस्पति मंदिर, नवगृह मंदिर, भूखी माता, भर्तृहरि गुफा, पीरमछन्दर नाथ समाधि, कालिया देह पैलेस, कोठी महल, घंटाघर, जन्तर मंतर महल, चिंतामन गणेश आदि प्रमुख हैं।
आज का उज्जैन
वर्तमान उज्जैन नगर विंध्यपर्वतमाला के समीप और पवित्र तथा ऐतिहासिक क्षिप्रा नदी के किनारे समुद्र तल से 1678 फीट की ऊंचाई पर 23°डिग्री.50' उत्तर देशांश और 75°डिग्री .50' पूर्वी अक्षांश पर स्थित है। नगर का तापमान और वातावरण समशीतोष्ण है। यहां की भूमि उपजाऊ है। कालजयी कवि कालिदास और महान रचनाकार बाणभट्ट ने नगर की खूबसूरती को जादुई निरूपति किया है। कालिदास ने लिखा है कि दुनिया के सारे रत्न उज्जैन में हैं और समुद्रों के पास सिर्फ उनका जल बचा है। उज्जैन नगर और अंचल की प्रमुख बोली मीठी मालवी बोली है। हिंदी भी प्रयोग में है।
उज्जैन इतिहास के अनेक परिवर्तनों का साक्षी है। क्षिप्रा के अंतर में इस पारम्परिक नगर के उत्थान-पतन की निराली और सुस्पष्ट अनुभूतियां अंकित है। क्षिप्रा के घाटों पर जहाँ प्राकृतिक सौन्दर्य की छटा बिखरी पड़ी है, असंख्य लोग आए और गए। रंगों भरा कार्तिक मेला हो या जन-संकुल सिंहस्थ या दिन के नहान, सब कुछ नगर को तीन और से घेरे क्षिप्रा का आकर्षण है।
उज्जैन के दक्षिण-पूर्वी सिरे से नगर में प्रवेश कर क्षिप्रा ने यहां के हर स्थान से अपना अंतरंग संबंध स्थापित किया है। यहां त्रिवेणी पर नवगृह मंदिर है और कुछ ही गणना में व्यस्त है। पास की सड़क आपको चिन्तामणि गणेश पहुंचा देगी। धारा मुत्रड गई तो क्या हुआ? ये जाने पहचाने क्षिप्रा के घाट है, जो सुबह-सुबह महाकाल और हरसिध्दि मंदिरों की छाया का स्वागत करते है।
क्षिप्रा जब पूर आती है तो गोपाल मंदिर की देहली छू लेती है। दुर्गादास की छत्री के थोड़े ही आगे नदी की धारा नगर के प्राचीन परिसर के आस-पास घूम जाती है। भर्तृहरि गुफा, पीर मछिन्दर और गढकालिका का क्षेत्र पार कर नदी मंगलनाथ पहुंचती है। मंगलनाथ का यह मंदिर सान्दीपनि आश्रम और निकट ही राम-जनार्दन मंदिर के सुंदर दृश्यों को निहारता रहता है। सिध्दवट और काल भैरव की ओर मुत्रडकर क्षिप्रा कालियादेह महल को घेरते हुई चुपचाप उज्जैन से आगे अपनी यात्रा पर बढ जाती है।
कवि हों या संत, भक्त हों या साधु, पर्यटक हों या कलाकार, पग-पग पर मंदिरों से भरपूर क्षिप्रा के मनोरम तट सभी के लिए समान भाव से प्रेरणाम के आधार है।
उज्जयिनी नगरी
आज जो नगर उज्जैन नाम से जाना जाता है वह अतीत में अवंतिका, उज्जयिनी, विशाला, प्रतिकल्पा, कुमुदवती, स्वर्णशृंगा, अमरावती आदि अनेक नामों से अभिहित रहा। मानव सभ्यता के प्रारंभ से यह भारत के एक महान तीर्थ-स्थल के रूप में विकसित हुआ। पुण्य सलिला क्षिप्रा के दाहिने तट पर बसे इस नगर को भारत की मोक्षदायक सप्तपुरियों में एक माना गया है।
पर्यटन
महाकालेश्वर मंदिर
उज्जैन के महाकालेश्वर की मान्यता भारत के प्रमुख बारह ज्योतिर्लिंगों में है। महाकालेश्वर मंदिर का माहात्म्य विभिन्न पुराणों में विस्तृत रूप से वर्णित है। महाकवि तुलसीदास से लेकर संस्कृत साहित्य के अनेक प्रसिध्द कवियों ने इस मंदिर का वर्णन किया है। लोक मानस में महाकाल की परम्परा अनादि है। उज्जैन भारत की कालगणना का केंद्र बिन्दु था और महाकाल उज्जैन के अधिपति आदि देव माने जाते हैं।
इतिहास के प्रत्येक युग में-शुंग, कुशाण, सात वाहन, गुप्त, परिहार तथा अपेक्षाकृत आधुनिक मराठा काल में इस मंदिर का निरंतर जीर्णोध्दार होता रहा है। वर्तमान मंदिर का पुनर्निर्माण राणोजी सिंधिया के काल में मालवा के सूबेदार रामचंद्र बाबा शेणवी द्वारा कराया गया था। वर्तमान में भी जीर्णोध्दार एवं सुविधा विस्तार का कार्य होता रहा है। महाकालेश्वर की प्रतिमा दक्षिणमुखी है। तांत्रिक परम्परा में प्रसिध्द दक्षिण मुखी पूजा का महत्व बारह ज्योतिर्लिंगों में केवल महाकालेश्वर को ही प्राप्त है। ओंकारेश्वर में मंदिर की ऊपरी पीठ पर महाकाल मूर्ति की तरह इस तरह मंदिर में भी ओंकारेश्वर शिव की प्रतिष्ठा है। तीसरे खण्ड में नागचंद्रेश्वर की प्रतिमा के दर्शन केवल नागपंचमी को होते है। विक्रमादित्य और भोज की महाकाल पूजा के लिए शासकीय सनदें महाकाल मंदिर को प्राप्त होती रही है। वर्तमान में यह मंदिर महाकाल मंदिर समिति के तत्वावधान में संरक्षित है।
श्री बडे गणेश मंदिर
श्री महाकालेश्वर मंदिर के निकट हरिसिद्धि मार्ग पर बड़े गणेश की भव्य और कलापूर्ण मूर्ति प्रतिष्ठित है। इस मूर्ति का निर्माण पद्मविभूषण पं॰ सूर्यनारायण व्यास के पिता विख्यात विद्वान स्व. पं॰ नारायण जी व्यास ने किया था। मंदिर परिसर में सप्तधातु की पंचमुखी हनुमान प्रतिमा के साथ-साथ नवग्रह मंदिर तथा कृष्ण यशोदा आदि की प्रतिमाएं भी विराजित हैं। यहाँ गणपति की प्रतिमा बहुत विशाल होने के कारण ही इसे बड़ा गणेश के नाम से जानते हैं। गणेश जी की मूर्ति संरचना में पवित्र सात नदियों के जल एवं सप्त पूरियों के मिट्टी को प्रयोग में लाया गया था। यहाँ गणेश जी को महिलायें अपने भाई के रूप में मानती हैं,एवं रक्षा बंधन के पावन पर्व पर राखी पहनाती हैं।
मंगलनाथ मंदिर
पुराणों के अनुसार उज्जैन नगरी को मंगल की जननी कहा जाता है। ऐसे व्यक्ति जिनकी कुंडली में मंगल भारी रहता है, वे अपने अनिष्ट ग्रहों की शांति के लिए यहाँ पूजा-पाठ करवाने आते हैं। यूँ तो देश में मंगल भगवान के कई मंदिर हैं, लेकिन उज्जैन इनका जन्मस्थान होने के कारण यहाँ की पूजा को खास महत्व दिया जाता है। कहा जाता है कि यह मंदिर सदियों पुराना है। सिंधिया राजघराने में इसका पुनर्निर्माण करवाया गया था। उज्जैन शहर को भगवान महाकाल की नगरी कहा जाता है, इसलिए यहाँ मंगलनाथ भगवान की शिवरूपी प्रतिमा का पूजन किया जाता है। हर मंगलवार के दिन इस मंदिर में श्रद्धालुओं का ताँता लगा रहता है।
हरसिद्धि
उज्जैन नगर के प्राचीन और महत्वपूर्ण धार्मिक स्थलों में हरसिद्धि देवी का मंदिर प्रमुख है। चिन्तामण गणेश मंदिर से थोड़ी दूर और रूद्रसागर तालाब के किनारे स्थित इस मंदिर में सम्राट विक्रमादित्य द्वारा हरिसिद्धि देवी की पूजा की जाती थी। हरसिध्दि देवी वैष्णव संप्रदाय की आराध्य रही। शिवपुराण के अनुसार दक्ष यज्ञ के बाद सती की कोहनी यहां गिरी थी।
क्षिप्रा घाट
उज्जैन नगर के धार्मिक स्वरूप में क्षिप्रा नदी के घाटों का प्रमुख स्थान है। नदी के दाहिने किनारे, जहाँ नगर स्थित है, पर बने ये घाट स्थानार्थियों के लिये सीढीबध्द हैं। घाटों पर विभिन्न देवी-देवताओं के नये-पुराने मंदिर भी है। क्षिप्रा के इन घाटों का गौरव सिंहस्थ के दौरान देखते ही बनता है, जब लाखों-करोड़ों श्रद्धालु यहां स्नान करते हैं।
गोपाल मंदिर
गोपाल मंदिर उज्जैन नगर का दूसरा सबसे बड़ा मंदिर है। यह मंदिर नगर के मध्य व्यस्ततम क्षेत्र में स्थित है। मंदिर का निर्माण महाराजा दौलतराव सिंधिया की महारानी बायजा बाई ने वर्ष 1833 के आसपास कराया था। मंदिर में कृष्ण (गोपाल) प्रतिमा है। मंदिर के चांदी के द्वार यहां का एक अन्य आकर्षण हैं।
गढकालिका देवी
गढकालिका देवी का यह मंदिर आज के उज्जैन नगर में प्राचीन अवंतिका नगरी क्षेत्र में है। कालयजी कवि कालिदास गढकालिका देवी के उपासक थे। इस प्राचीन मंदिर का गुर्जर सम्राट नागभट्ट द्वारा जीर्णोध्दार कराने का उल्लैख मिलता है। गढ़ कालिका के मंदिर में माँ कालिका के दर्शन के लिए रोज हजारों भक्तों की भीड़ जुटती है। तांत्रिकों की देवी कालिका के इस चमत्कारिक मंदिर की प्राचीनता के विषय में कोई नहीं जानता, फिर भी माना जाता है कि इसकी स्थापना महाभारतकाल में हुई थी, लेकिन मूर्ति सतयुग के काल की है। बाद में इस प्राचीन मंदिर का जीर्णोद्धार सम्राट नागभट्ट द्वारा किए जाने का उल्लेख मिलता है। स्टेटकाल में ग्वालियर के महाराजा ने इसका पुनर्निर्माण कराया।
भर्तृहरि गुफा
भर्तृहरि की गुफा ग्यारहवीं सदी के एक मंदिर का अवशेष है, जिसका उत्तरवर्ती दोर में जीर्णोध्दार होता रहा।
काल भैरव
काल भैरव मंदिर आज के उज्जैन नगर में स्थित प्राचीन अवंतिका नगरी के क्षेत्र में स्थित है। यह स्थल शिव के उपासकों के कापालिक सम्प्रदाय से संबंधित है। मंदिर के अंदर काल भैरव की विशाल प्रतिमा है। कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण प्राचीन काल में राजा भद्रसेन ने कराया था। पुराणों में वर्णित अष्ट भैरव में काल भैरव का स्थल है।
सिंहस्थ कुम्भ
सिंहस्थ उज्जैन का महान स्नान पर्व है। बारह वर्षों के अंतराल से यह पर्व तब मनाया जाता है जब बृहस्पति सिंह राशि पर स्थित रहता है। पवित्र क्षिप्रा नदी में पुण्य स्नान की विधियां चैत्र मास की पूर्णिमा से प्रारंभ होती हैं और पूरे मास में वैशाख पूर्णिमा के अंतिम स्नान तक भिन्न-भिन्न तिथियों में सम्पन्न होती है। उज्जैन के महापर्व के लिए पारम्परिक रूप से दस योग महत्वपूर्ण माने गए हैं।
देश भर में चार स्थानों पर कुम्भ का आयोजन किया जाता है। प्रयाग, नासिक, हरिद्धार और उज्जैन में लगने वाले कुम्भ मेलों के उज्जैन में आयोजित आस्था के इस पर्व को सिंहस्थ के नाम से पुकारा जाता है। उज्जैन में मेष राशि में सूर्य और सिंह राशि में गुरु के आने पर यहाँ महाकुंभ मेले का आयोजन किया जाता है, जिसे सिहस्थ के नाम से देशभर में पुकारा जाता है। सिंहस्थ आयोजन की एक प्राचीन परम्परा है। इसके आयोजन के संबंध में अनेक कथाएँ प्रचलित है।
अमृत बूंदे छलकने के समय जिन राशियों में सूर्य, चन्द्र, गुरु की स्थिति के विशिष्ट योग के अवसर रहते हैं, वहां कुंभ पर्व का इन राशियों में गृहों के संयोग पर आयोजन होता है। इस अमृत कलश की रक्षा में सूर्य, गुरु और चन्द्रमा के विशेष प्रयत्न रहे। इसी कारण इन्हीं गृहों की उन विशिष्ट स्थितियों में कुंभ पर्व मनाने की परम्परा है।
इन्हें भी देखें
उज्जैन का इतिहास
महाकाल मंदिर
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
श्रेणी:मध्य प्रदेश के शहर | उज्जैन कहाँ पर स्थित है? | भारत के मध्य प्रदेश राज्य का एक प्रमुख शहर है जो क्षिप्रा नदी के किनारे बसा है | 18 | hindi |
f57637091 | गौतम बुद्ध (जन्म 563 ईसा पूर्व – निर्वाण 483 ईसा पूर्व) एक श्रमण थे जिनकी शिक्षाओं पर बौद्ध धर्म का प्रचलन हुआ।[1]
उनका जन्म लुंबिनी में 563 ईसा पूर्व इक्ष्वाकु वंशीय क्षत्रिय शाक्य कुल के राजा शुद्धोधन के घर में हुआ था। उनकी माँ का नाम महामाया था जो कोलीय वंश से थी जिनका इनके जन्म के सात दिन बाद निधन हुआ, उनका पालन महारानी की छोटी सगी बहन महाप्रजापती गौतमी ने किया। सिद्धार्थ विवाहोपरांत एक मात्र प्रथम नवजात शिशु राहुल और पत्नी यशोधरा को त्यागकर संसार को जरा, मरण, दुखों से मुक्ति दिलाने के मार्ग की तलाश एवं सत्य दिव्य ज्ञान खोज में रात में राजपाठ छोड़कर जंगल चले गए। वर्षों की कठोर साधना के पश्चात बोध गया (बिहार) में बोधि वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई और वे सिद्धार्थ गौतम से बुद्ध बन गए।
जीवन वृत्त
उनका जन्म 563 ईस्वी पूर्व के बीच शाक्य गणराज्य की तत्कालीन राजधानी कपिलवस्तु के निकट लुम्बिनी में हुआ था, जो नेपाल में है।[2]
लुम्बिनी वन नेपाल के तराई क्षेत्र में कपिलवस्तु और देवदह के बीच नौतनवा स्टेशन से 8 मील दूर पश्चिम में रुक्मिनदेई नामक स्थान के पास स्थित था। कपिलवस्तु की महारानी महामाया देवी के अपने नैहर देवदह जाते हुए रास्ते में प्रसव पीड़ा हुई और वहीं उन्होंने एक बालक को जन्म दिया। शिशु का नाम सिद्धार्थ रखा गया।[3] गौतम गोत्र में जन्म लेने के कारण वे गौतम भी कहलाए। क्षत्रिय राजा शुद्धोधन उनके पिता थे। परंपरागत कथा के अनुसार सिद्धार्थ की माता का उनके जन्म के सात दिन बाद निधन हो गया था। उनका पालन पोषण उनकी मौसी और शुद्दोधन की दूसरी रानी महाप्रजावती (गौतमी)ने किया। शिशु का नाम सिद्धार्थ दिया गया, जिसका अर्थ है "वह जो सिद्धी प्राप्ति के लिए जन्मा हो"। जन्म समारोह के दौरान, साधु द्रष्टा आसित ने अपने पहाड़ के निवास से घोषणा की- बच्चा या तो एक महान राजा या एक महान पवित्र पथ प्रदर्शक बनेगा।[4] शुद्दोधन ने पांचवें दिन एक नामकरण समारोह आयोजित किया और आठ ब्राह्मण विद्वानों को भविष्य पढ़ने के लिए आमंत्रित किया। सभी ने एक सी दोहरी भविष्यवाणी की, कि बच्चा या तो एक महान राजा या एक महान पवित्र आदमी बनेगा।[4] दक्षिण मध्य नेपाल में स्थित लुंबिनी में उस स्थल पर महाराज अशोक ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व बुद्ध के जन्म की स्मृति में एक स्तम्भ बनवाया था। बुद्ध का जन्म दिवस व्यापक रूप से थएरावदा देशों में मनाया जाता है।[4]
सुद्धार्थ का मन वचपन से ही करुणा और दया का स्रोत था। इसका परिचय उनके आरंभिक जीवन की अनेक घटनाओं से पता चलता है।
घुड़दौड़ में जब घोड़े दौड़ते और उनके मुँह से झाग निकलने लगता तो सिद्धार्थ उन्हें थका जानकर वहीं रोक देता और जीती हुई बाजी हार जाता।
खेल में भी सिद्धार्थ को खुद हार जाना पसंद था क्योंकि किसी को हराना और किसी का दुःखी होना उससे नहीं देखा जाता था।
सिद्धार्थ ने चचेरे भाई देवदत्त द्वारा तीर से घायल किए गए हंस की सहायता की और उसके प्राणों की रक्षा की।
शिक्षा एवं विवाह
सिद्धार्थ ने गुरु विश्वामित्र के पास वेद और उपनिषद् को तो पढ़ा हीं , राजकाज और युद्ध-विद्या की भी शिक्षा ली। कुश्ती, घुड़दौड़, तीर-कमान, रथ हाँकने में कोई उसकी बराबरी नहीं कर पाता।
सोलह वर्ष की उम्र में सिद्धार्थ का कन्या यशोधरा के साथ विवाह हुआ। पिता द्वारा ऋतुओं के अनुरूप बनाए गए वैभवशाली और समस्त भोगों से युक्त महल में वे यशोधरा के साथ रहने लगे जहाँ उनके पुत्र राहुल का जन्म हुआ।
लेकिन विवाहके बाद उनका मन वैराग्यमें चला और सम्यक सुख-शांतिके लिए उन्होंने आपने परिवार का त्याग कर दिया।
विरक्ति
राजा शुद्धोधन ने सिद्धार्थ के लिए भोग-विलास का भरपूर प्रबंध कर दिया। तीन ऋतुओं के लायक तीन सुंदर महल बनवा दिए। वहाँ पर नाच-गान और मनोरंजन की सारी सामग्री जुटा दी गई। दास-दासी उसकी सेवा में रख दिए गए। पर ये सब चीजें सिद्धार्थ को संसार में बाँधकर नहीं रख सकीं। वसंत ऋतु में एक दिन सिद्धार्थ बगीचे की सैर पर निकले। उन्हें सड़क पर एक बूढ़ा आदमी दिखाई दिया। उसके दाँत टूट गए थे, बाल पक गए थे, शरीर टेढ़ा हो गया था। हाथ में लाठी पकड़े धीरे-धीरे काँपता हुआ वह सड़क पर चल रहा था। दूसरी बार कुमार जब बगीचे की सैर को निकला, तो उसकी आँखों के आगे एक रोगी आ गया। उसकी साँस तेजी से चल रही थी। कंधे ढीले पड़ गए थे। बाँहें सूख गई थीं। पेट फूल गया था। चेहरा पीला पड़ गया था। दूसरे के सहारे वह बड़ी मुश्किल से चल पा रहा था। तीसरी बार सिद्धार्थ को एक अर्थी मिली। चार आदमी उसे उठाकर लिए जा रहे थे। पीछे-पीछे बहुत से लोग थे। कोई रो रहा था, कोई छाती पीट रहा था, कोई अपने बाल नोच रहा था। इन दृश्यों ने सिद्धार्थ को बहुत विचलित किया। उन्होंने सोचा कि ‘धिक्कार है जवानी को, जो जीवन को सोख लेती है। धिक्कार है स्वास्थ्य को, जो शरीर को नष्ट कर देता है। धिक्कार है जीवन को, जो इतनी जल्दी अपना अध्याय पूरा कर देता है। क्या बुढ़ापा, बीमारी और मौत सदा इसी तरह होती रहेगी सौम्य? चौथी बार कुमार बगीचे की सैर को निकला, तो उसे एक संन्यासी दिखाई पड़ा। संसार की सारी भावनाओं और कामनाओं से मुक्त प्रसन्नचित्त संन्यासी ने सिद्धार्थ को आकृष्ट किया।
महाभिनिष्क्रमण
सुंदर पत्नी यशोधरा, दुधमुँहे राहुल और कपिलवस्तु जैसे राज्य का मोह छोड़कर सिद्धार्थ तपस्या के लिए चल पड़े। वह राजगृह पहुँचे। वहाँ भिक्षा माँगी। सिद्धार्थ घूमते-घूमते आलार कालाम और उद्दक रामपुत्र के पास पहुँचे। उनसे योग-साधना सीखी। समाधि लगाना सीखा। पर उससे उसे संतोष नहीं हुआ। वह उरुवेला पहुँचे और वहाँ पर तरह-तरह से तपस्या करने लगे।
सिद्धार्थ ने पहले तो केवल तिल-चावल खाकर तपस्या शुरू की, बाद में कोई भी आहार लेना बंद कर दिया। शरीर सूखकर काँटा हो गया। छः साल बीत गए तपस्या करते हुए। सिद्धार्थ की तपस्या सफल नहीं हुई।
शांति हेतु बुद्ध का मध्यम मार्ग: एक दिन कुछ स्त्रियाँ किसी नगर से लौटती हुई वहाँ से निकलीं, जहाँ सिद्धार्थ तपस्या कर रहा थे। उनका एक गीत सिद्धार्थ के कान में पड़ा- ‘वीणा के तारों को ढीला मत छोड़ दो। ढीला छोड़ देने से उनका सुरीला स्वर नहीं निकलेगा। पर तारों को इतना कसो भी मत कि वे टूट जाएँ।’ बात सिद्धार्थ को जँच गई। वह मान गये कि नियमित आहार-विहार से ही योग सिद्ध होता है। अति किसी बात की अच्छी नहीं। किसी भी प्राप्ति के लिए मध्यम मार्ग ही ठीक होता है ओर इसके लिए कठोर तपस्या करनी पड़ती है।
ज्ञान की प्राप्ति
वैशाखी पूर्णिमा के दिन सिद्धार्थ वटवृक्ष के नीचे ध्यानस्थ थे। समीपवर्ती गाँव की एक स्त्री सुजाता को पुत्र हुआ। उसने बेटे के लिए एक वटवृक्ष की मनौती मानी थी। वह मनौती पूरी करने के लिए सोने के थाल में गाय के दूध की खीर भरकर पहुँची। सिद्धार्थ वहाँ बैठा ध्यान कर रहा था। उसे लगा कि वृक्षदेवता ही मानो पूजा लेने के लिए शरीर धरकर बैठे हैं। सुजाता ने बड़े आदर से सिद्धार्थ को खीर भेंट की और कहा- ‘जैसे मेरी मनोकामना पूरी हुई, उसी तरह आपकी भी हो।’
उसी रात को ध्यान लगाने पर सिद्धार्थ की साधना सफल हुई। उसे सच्चा बोध हुआ। तभी से सिद्धार्थ 'बुद्ध' कहलाए। जिस पीपल वृक्ष के नीचे सिद्धार्थ को बोध मिला वह बोधिवृक्ष कहलाया और गया का समीपवर्ती वह स्थान बोधगया।
धर्म-चक्र-प्रवर्तन
वे 80 वर्ष की उम्र तक अपने धर्म का संस्कृत के बजाय उस समय की सीधी सरल लोकभाषा पाली में प्रचार करते रहे। उनके सीधे सरल धर्म की लोकप्रियता तेजी से बढ़ने लगी।
चार सप्ताह तक बोधिवृक्ष के नीचे रहकर धर्म के स्वरूप का चिंतन करने के बाद बुद्ध धर्म का उपदेश करने निकल पड़े। आषाढ़ की पूर्णिमा को वे काशी के पास मृगदाव (वर्तमान में सारनाथ) पहुँचे। वहीं पर उन्होंने सबसे पहला धर्मोपदेश दिया और पहले के पाँच मित्रों को अपना अनुयायी बनाया और फिर उन्हें धर्म प्रचार करने के लिये भेज दिया।
महापरिनिर्वाण
पालि सिद्धांत के महापरिनिर्वाण सुत्त के अनुसार ८० वर्ष की आयु में बुद्ध ने घोषणा की कि वे जल्द ही परिनिर्वाण के लिए रवाना होंगे। बुद्ध ने अपना आखिरी भोजन, जिसे उन्होंने कुन्डा नामक एक लोहार से एक भेंट के रूप में प्राप्त किया था, ग्रहण लिया जिसके कारण वे गंभीर रूप से बीमार पड़ गये। बुद्ध ने अपने शिष्य आनंद को निर्देश दिया कि वह कुन्डा को समझाए कि उसने कोई गलती नहीं की है। उन्होने कहा कि यह भोजन अतुल्य है।[5]
उपदेश
भगवान बुद्ध ने लोगों को मध्यम मार्ग का उपदेश किया। उन्होंने दुःख, उसके कारण और निवारण के लिए अष्टांगिक मार्ग सुझाया। उन्होंने अहिंसा पर बहुत जोर दिया है। उन्होंने यज्ञ और पशु-बलि की निंदा की।
बुद्ध के उपदेशों का सार इस प्रकार है -
महात्मा बुद्ध ने सनातन धरम के कुछ संकल्पनाओं का प्रचार किया, जैसे अग्निहोत्र तथा गायत्री मन्त्र
ध्यान तथा अन्तर्दृष्टि
मध्यमार्ग का अनुसरण
चार आर्य सत्य
अष्टांग मार्ग
बौद्ध धर्म एवं संघ
बुद्ध के धर्म प्रचार से भिक्षुओं की संख्या बढ़ने लगी। बड़े-बड़े राजा-महाराजा भी उनके शिष्य बनने लगे। शुद्धोधन और राहुल ने भी बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। भिक्षुओं की संख्या बहुत बढ़ने पर बौद्ध संघ की स्थापना की गई। बाद में लोगों के आग्रह पर बुद्ध ने स्त्रियों को भी संघ में ले लेने के लिए अनुमति दे दी, यद्यपि इसे उन्होंने उतना अच्छा नहीं माना। भगवान बुद्ध ने ‘बहुजन हिताय’ लोककल्याण के लिए अपने धर्म का देश-विदेश में प्रचार करने के लिए भिक्षुओं को इधर-उधर भेजा। अशोक आदि सम्राटों ने भी विदेशों में बौद्ध धर्म के प्रचार में अपनी अहम् भूमिका निभाई। मौर्यकाल तक आते-आते भारत से निकलकर बौद्ध धर्म चीन, जापान, कोरिया, मंगोलिया, बर्मा, थाईलैंड, हिंद चीन, श्रीलंका आदि में फैल चुका था। इन देशों में बौद्ध धर्म बहुसंख्यक धर्म है।
गौतम बुद्ध - अन्य धर्मों की दृष्टि में
हिन्दू धर्म में
हिन्दू धर्म में भगवान बुद्ध
बुद्ध को विष्णु का अवतार माना जाता है। अनेक पुराणों में उनका उल्लेख है।
सन्दर्भ
स्रोत ग्रन्थ
According to Pali scholar K. R. Norman, a life span for the Buddha of c. 480 to 400 BCE (and his teaching period roughly from c. 445 to 400 BCE) "fits the archaeological evidence better". See also .}}
इन्हें भी देखें
हिन्दू धर्म में भगवान बुद्ध
बुद्धावतार
बाहरी कड़ियाँ
श्रेणी:बौद्ध धर्म
श्रेणी:धर्म प्रवर्तक
श्रेणी:धर्मगुरू
श्रेणी:भारतीय बौद्ध | गौतम बुद्ध किस शताब्दी में पैदा हुए थे? | 563 ईसा पूर्व | 17 | hindi |
7ecaa9501 | फ़्रीड्रिक विलियम अगस्त फ्रोबेल (Friedrich Wilhelm August Fröbel ; जर्मन उच्चारण: [ˈfʁiːdʁɪç ˈvɪlhɛlm ˈaʊɡʊst ˈfʁøːbəl] ; 21 अप्रैल, 1782 – 21 जून, 1852) जर्मनी के प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री थे। वे पेस्तालोजी के शिष्य थे। उन्होने किंडरगार्टन (बालवाड़ी) की संकल्पना दी। उन्होने शैक्षणिक खिलौनों का विकास किया जिन्हें 'फ्रोबेल उपहार' के नाम से जाना जाता है।
शिक्षा जगत में फ्रोबेल का महत्वपूर्ण स्थान है। बालक को पौधे से तुलना करके, फ्रोबेल ने बालक के स्वविकास की बात कही वह पहला व्यक्ति था, जिसने प्राथमिक स्कूलों के अमानवीय व्यवहार के विरूद्ध आवाज उठाई और एक नई शिक्षण विधि का प्रतिपादन किया। उसने आत्मक्रिया स्वतन्त्रता, सामाजिकता तथा खेल के माध्यम से स्कूलों की नीरसता को समाप्त किया। संसार में फ्रोबेल ही पहला व्यक्ति था जिसने अल्पायु बालकों की शिक्षा के लिए एक व्यवहारिक योजना प्रस्तुत किया। उसने शिक्षकों के लिए कहा कि वे बालक की आन्तरिक शक्तियों के विकास में किसी प्रकार का हस्तक्षेप न करें, बल्कि प्रेम एवं सहानुभूति पूर्वक व्यवहार करते हुए बालकों को पूरी स्वतन्त्रता दें। शिक्षा के क्षेत्र में इस प्रकार का परिवर्तन लाने के लिए फ्रोबेल को हमेशा याद किया जायेगा।
जीवन परिचय
फ्रोबेल का जन्म जर्मनी के ओबेरवेस बाक नामक एक छोटे से गाँव में हुआ था। बचपन में ही उसकी माँ का देहान्त हो गया तथा उसके पिता ने दूसरी शादी कर ली और फ्रोबेल के पालन-पोषण में कोई रूचि नहीं ली। जब फ्रोबेल को अपने पिता तथा विमाता से कोई प्यार न मिला तो वह दुखी होकर जंगलों में घूमने लगा। इससे उसके हृदय में प्रकृति के प्रति अनुराग उत्पन्न हो गया। जब फ्रोबेल १० वर्ष का हुआ तो उसके मामा ने उसकी दयनीय स्थिति देखकर उसे विद्यालय में भेजा, परन्तु उसका पढ़ाई में मन नहीं लगा। १५ वर्ष की आयु में उसके मामा ने उसे जीविकोपार्जन हेतु एक बन रक्षक के यहाँ भेज दिया, वहाँ भी उसका मन नहीं लगा। लेकिन यहाँ पर फ्रोबेल ने प्रकृति का अच्छा अध्ययन किया और इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि प्रकृति के नियमों में एकता है। १८ वर्ष की आयु में फ्रोबेल को जैना विश्वविद्यालय भेजा गया, किन्तु धनाभाव के कारण उसे वह विश्वविद्यालय भी छोड़ना पड़ा। इसके बाद उसने फ्रैंकफोर्ट में ग्रूनर द्वारा संचालित एक स्कूल में शिक्षण कार्य किया। अपने अनुभवों से फ्रोबेल इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि बालकों को रचनात्मक एवं कियात्मक अभिव्यक्ति का अवसर दिया जाना चाहिए। सन् १८०८ में वह पेस्टालाजी द्वारा स्थापित स्कूल ‘वरडन’ गया, जहाँ उसने अध्ययन-अध्यापन का कार्य किया। सन् १८१६ में फ्रोबेल ने कीलहाउ में एक स्कूल खोला, लेकिन आर्थिक कठिनाइयों केकारण उसे बन्द कर देना पड़ा। सन् १८२६ में फ्रोबेल ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘मनुष्य की शिक्षा’ (Die Menschenerziehung) प्रकाशित की, तथा अपने विचारों को क्रियान्वित करने के लिए ‘किण्डर गार्टन’ नाम से ब्लैकेन वर्ग में एक स्कूल खोला जिसको उसने बालक उद्यान बनाया और खिलौनों उपकरणों आदि के द्वारा बालकों को शिक्षा प्रदान करना आरम्भ किया। इस स्कूल को आश्चर्य जनक सफलता मिली, फलस्वरूप विभिन्न स्थानों पर किण्डर गार्टन स्कूल खुल गये। सन् १८५१ में सरकार ने फ्रोबेल को क्रान्तिकारी मानकर सभी किण्डर गार्टन स्कूलों को बन्द कर दिया। इससे फ्रोबेल को इतना कष्ट हुआ कि सन् १८५३ में उसका स्वर्गवास हो गया।
फ्रोबेल के शैक्षिक विचार
छोटे बालकों को शिक्षा देने के लिए नई शिक्षण विधि का प्रतिपादन सर्वप्रथम फ्रोबेल ने किया। फ्रोबेल का मानना था कि बालकों के अन्दर विभिन्न सदगुण होते हैं। हमें उन सद्गुणों का विकास करना चाहिए ताकि वह चरित्रवान बनकर राष्ट्र के कार्यों में सफलतापूर्वक भाग ले सके।
फ्रोबेल का विश्वास था कि जैसे एक बीज में सम्पूर्ण वृक्ष छिपा रहता है, उसी प्रकार प्रत्येक बालक में एक पूर्ण व्यक्ति छिपा रहता है अर्थात बालक में अपने पूर्व विकास की सम्भावनायें निहित होती हैं। इसलिए शिक्षा का यह दायित्व है कि बालक को ऐसा स्वाभाविक वातावरण प्रदान करे, जिससे बालक अपनी आन्तरिक शक्तियों का पूर्ण विकास स्वयं कर सके। फ्रोबेल का कहना है कि जिस प्रकार उपयुक्त वातावरण मिलने पर एक बीज बढ़कर पेड़ बन जाता है, उसी प्रकार उपयुक्त वातावरण मिलने पर बालक भी पूर्ण व्यक्ति बन जाता है।
फ्रोबेल ने बालक को पौधा, स्कूल को बाग तथा शिक्षक को माली की संज्ञा देते हुए कहा है कि विद्यालय एक बाग है, जिसमें बालक रूपी पौधा शिक्षक ह्वपी माली की देखरेख में अपने आन्तरिक नियमों के अनुसार स्वाभाविक रूप से विकसित होता रहता है। माली की भााँति शिक्षक का कार्य अनुकूल वातावरण प्रस्तुत करना है, जिससे बालक का स्वाभाविक विकास हो सके।
शिक्षा का उद्देश्य
फ्रोबेल का विचार है कि संसार की समस्त वस्तुओं में विभिन्नता होते हुए भी एकता निहित है। ये सभी वस्तुएं अपने आन्तरिक नियमों के अनुसार विकसित होती हुई उस एकता (ईश्वर) की ओर जा रही है। अत: शिक्षा द्वारा व्यक्ति को इस योग्य बनाया जाय कि वह इस विभिन्नता में एकता का दर्शन कर सके। फ्रोबेल का यह भी विचार है कि बालक की शिक्षा में किसी प्रकार का हस्तक्षेप न करके उसके स्वाभाविक विकास हेतु पूर्ण अवसर देना चाहिए, ताकि अपने आपको, प्रकृति को तथा ईश्वरीय शक्ति को पहचान सके।
संक्षेप में फ्रोबेल के अनुसार शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य होने चाहिये-
१- बालक के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास करना।
२- बालक का वातावरण एवं प्रकृति से एकीकरण स्थापित करना।
३- बालक के उत्तम चरित्र का निर्माण करना।
४- बालक का आध्यात्मिक विकास करना।
५- बालकों को उनमें निहित दैवीय शक्ति का आभास कराना।
पाठ्यक्रम
फ्रोबेल ने पाठ्यक्रम निर्माण के कुछ सिद्धान्त बताये हैं, जैसे-
१- पाठ्यक्रम बालक की आवश्यकताओं के अनुसार होनी चाहिए,
२- पाठ्यक्रम के विषयों में परस्पर एकता स्थापित होनी चाहिए,
३- पाठ्यक्रम क्रिया पर आधारित होनी चाहिए,
४- पाठ्यक्रम में प्रकृति को महत्वपूर्ण स्थान मिलना चाहिए,
५- पाठ्यक्रम में धार्मिक विचारों को भी स्थान मिलना चाहिए।
उपयुर्युक्त सिद्धान्तों को ध्यान में रखकर फ्रोबेल ने पाठ्यक्रम में प्रकृति अध्ययन, धार्मिक निर्देशन, हस्त व्यवसाय, गणित, भाषा, एवं कला आदि विषयों को प्रमुख रूप से रखा। उसने इस बात पर बल दिया कि पाठ्यक्रम के सभी विषयों में एकता का सम्बन्ध अवश्य होना चाहिए। क्योंकि यदि पाठ्यक्रम के विषयों में एकता का सम्बन्ध नहीं होगा, तो शिक्षा के उद्देश्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता।
शिक्षण विधि
फ्रोबेल ने अपनी शिक्षण-विधि को निम्नलिखित सिद्धान्तों पर आधारित किया है-
आत्मक्रिया का सिद्धान्त
फ्रोबेल बालक को व्यक्तित्व का विकास करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने आत्म क्रिया के सिद्धान्त पर बल दिया। आत्म क्रिया से फ्रोबेल का तात्पर्य उस क्रिया से था, जिसे बालक अपने आप तथा अपनी ह्वचि के अनकूल स्वतन्त्र वातावरण में करके सीखता है। फ्रोबेल ने बताया कि आत्मक्रिया द्वारा बालक परिस्थितियों पर विजय प्राप्त करता है और वातावरण को अपने अनुकूल बनाता है। इसलिए बालक की शिक्षा आत्म क्रिया द्वारा अर्थात् उसको करके सीखने देना चाहिए।
खेल द्वारा शिक्षा का सिद्धान्त
फ्रोबेल पहला शिक्षाशास्त्री था, जिसने खेल द्वारा शिक्षा देने की बात कही। इसका कारण उसने यह बताया कि बालक खेल में अधिक रूचि लेता है। फ्रोबेल के अनुसार बालक की आत्म क्रिया खेल द्वारा विकसित होती है। इसलिए बालक को खेल द्वारा सिखाया जाना चाहिए, ताकि बालक के व्यक्तित्व का विकास स्वाभाविक रूप से हो सके।
स्वतन्त्रता का सिद्धान्त
फ्रोबेल के अनुसार स्वतन्त्र रूप से कार्य करने से बालक का विकास होता है और हस्तक्षेप करने या बाधा डालने से उसका विकास अवरूद्ध हो जाता है। इसलिए उसने इस बात पर बल दिया कि शिक्षक को बालक के सीखने में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, बल्कि वह केवल एक सक्रिय निरीक्षक के रूप में कार्य करे।
सामाजिकता का सिद्धान्त
व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी है। समाज से अलग व्यक्ति का कोई अस्तित्व नहीं है। इसलिए उसे इसलिए फ्रोबेल ने सामूहिक खेलों एवं सामूहिक कार्यों पर बल दिया, जिससे बालकों में खेलते–खेलते परस्पर प्रेम, सहानुभूति, सामूहिक सहयोग आदि सामाजिक गुणों का किास सरलता पूर्वक हो सके।
अनुशासन
फ्रोबेल ने दमनात्मक अनुशासन का विरोध किया और कहा कि आत्मानुशासन या स्वानुशासन ही सबसे अच्छा अनुशासन होता है। इसलिए बालकों को आत्म क्रिया करने की पूर्ण स्वतन्त्रता मिलनी चाहिए, जिससे बालक में स्वयं ही अनुशासन में रहने की आदत पड़ जाय। फ्रोबेल के अनुसार बालक के साथ प्रेम एवं सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करना चाहिए तथा उसे आत्मक्रिया करने का पूर्ण अवसर प्रदान करना चाहिए।
शिक्षक
फ्रोबेल के अनुसार शिक्षक को एक निर्देशक, मित्र एवं पथ प्रदर्शक होना चाहिए। उसने शिक्षक की तुलना उस माली से की है, जो उद्यान के पौधों के विकास में मदद करता है। जिस तरह शिक्षक के निर्देशन में बालक का विकास होता है। फ्रोबेल का विचार है कि शिक्षक को बालक के कार्यों में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, बल्कि उसका कार्य सिर्फ बालक के कार्यों का निरीक्षण करना है और उसके विकास हेतु उपयुक्त वातावरण प्रदान करना है।
इन्हें भी देखें
शिक्षाशास्त्री
श्रेणी:शिक्षाशास्त्री
श्रेणी:1782 में जन्मे लोग
श्रेणी:१८५२ में निधन | फ़्रीड्रिक विलियम अगस्त फ्रोबेल की मृत्यु किस वर्ष में हुई थी? | 1852 | 148 | hindi |
f3cdf23de | एमा चारलॉट डुएरे वॉटसन (जन्म 15 अप्रैल 1990) एक ब्रिटिश अभिनेत्री है जो हैरी पॉटर फिल्म श्रृंखला की तीन स्टार भूमिकाओं में से एक, हरमाइन ग्रेनजर की भूमिका में उभर कर सामने आई. नौ वर्ष की उम्र में वॉटसन ने हरमाइन के रूप में अभिनय किया। इसके पहले वह सिर्फ स्कूल के नाटकों में अभिनय करती थी।[2] 2001 से 2009 तक, उसने डैनियल रैडक्लिफ और रूपर्ट ग्रिन्ट के साथ छः हैरी पॉटर फिल्मों में अभिनय किया; वह अंतिम दो कड़ी: हैरी पॉटर ऐंड द डेथली हैलोज़ के दोनों भागों के लिए वापस आएगी.[3] हैरी पॉटर श्रृंखला में वॉटसन के काम ने उसे कई पुरस्कार और £10million से भी अधिक राशि दिलवाए.[4]
सन् 2007 में, वॉटसन ने दो गैर-हैरी पॉटर निर्माण में खुद को शामिल करने की घोषणा की, ये दो गैर-हैरी पॉटर निर्माण थे: बैलेट शूज़ उपन्यास का टेलीविज़न रूपांतरण और एक एनिमेटेड फिल्म, द टेल ऑफ़ डेस्परेऑक्स . 26 दिसम्बर 2007 को 5.2 मिलियन दर्शकों के सामने बैलेट शूज़ का प्रसारण किया गया और 2008 में केट डिकैमिलो के उपन्यास पर आधारित द टेल ऑफ़ डेस्परेऑक्स को रिलीज़ किया गया जिसने दुनिया भर में US $70 मिलियन डॉलर की कमाई की.[5][6]
प्रारंभिक जीवन
एमा वॉटसन का जन्म पेरिस में हुआ था। वह ब्रिटिश वकील जैकलिन लिज़बी और क्रिस वॉटसन की पुत्री है।[7][8] वॉटसन की एक फ्रेंच दादी है[9] और पांच वर्ष की उम्र तक वह पेरिस में रही. अपने माता-पिता के तलाक के बाद वह अपनी मां और छोटे भाई एलेक्स के साथ ऑक्सफोर्डशायर चली गई।[7]
छः वर्ष की उम्र से ही वॉटसन एक अभिनेत्री बनना चाहती थी[10] और कई सालों तक उसने स्टेजकोच थिएटर आर्ट्स की एक ऑक्सफोर्ड शाखा में प्रशिक्षण प्राप्त किया। यह एक अंशकालिक थिएटर स्कूल था जहां उसने संगीत, नृत्य और अभिनय सीखा.[11] 10 वर्ष की उम्र तक उसने विभिन्न स्टेजकोच निर्माण और स्कूल प्ले में अभिनय किया था जिसमें आर्थर: द यंग यर्स और द हैप्पी प्रिंस भी शामिल थे[7] लेकिन हैरी पॉटर श्रृंखला से पहले उसने कभी पेशे के तौर पर अभिनय नहीं किया था। 2007 में पैरेड के एक साक्षात्कार में उसने कहा, "मुझे फिल्म श्रृंखला के स्तर का पता नहीं था, अगर मुझे पता होता तो मैं पूरी तरह से अभिभूत हो गयी होती".[12]
जीवन-वृत्त
हैरी पॉटर
ब्रिटिश लेखिका जे. के. रॉलिंग की सबसे अधिक बिकने वाले उपन्यास के फिल्म रूपांतरण, हैरी पॉटर ऐंड द फिलॉसफर्स स्टोन (संयुक्त राज्य में हैरी पॉटर ऐंड द सॉर्सरर्स स्टोन के रूप में रिलीज़) की कास्टिंग 1999 में शुरू हुआ।[10] हैरी पॉटर की मुख्य भूमिका और हैरी के सर्वश्रेष्ठ मित्रों, हरमाइन ग्रेनजर एवं रॉन वेसले की सह-भूमिका, कास्टिंग निर्देशकों के लिए बहुत मायने रखती थी। कास्टिंग कर्मियों ने वॉटसन को उसके ऑक्सफोर्ड थिएटर के एक शिक्षक के माध्यम से ढूंढ निकाला[10] और निर्माता उसके आत्मविश्वास से बहुत प्रभावित हुए. आठ ऑडिशन (स्वर-परीक्षण) देने के बाद[13] निर्माता डेविड हेमैन ने वॉटसन और साथी आवेदकों, डैनियल रैडक्लिफ और रूपर्ट ग्रिंट को बताया कि उन्हें क्रमशः हरमाइन, हैरी और रॉन की भूमिकाओं के लिए कास्ट किया जाएगा. रॉलिंग ने प्रथम स्क्रीन टेस्ट से ही वॉटसन का समर्थन किया।[10]
2001 में हैरी पॉटर ऐंड द फिलॉसफर्स स्टोन का रिलीज़, वॉटसन का पहला स्क्रीन प्रदर्शन था। इस फिल्म ने उद्घाटन वाले दिन की बिक्री और उद्घाटन वाले सप्ताहांत की कमाई का रिकॉर्ड तोड़ दिया और यह 2001 की सबसे अधिक कमाई कराने वाली फिल्म बनी.[14][15] आलोचकों ने इन तीन मुख्य कलाकारों के प्रदर्शन की सराहना की. इन तीनों में विशेष रूप से वॉटसन की अलग से प्रशंसा की गई। द डेली टेलीग्राफ ने उसके प्रदर्शन को "सराहनीय"[16] कहा और IGN ने कहा कि वह "शो में छा गई".[17] द फिलॉसफर्स स्टोन में प्रदर्शन के लिए वॉटसन को पांच पुरस्कारों के लिए नामांकित किया गया। उसने मुख्य युवा अभिनेत्री के लिए यंग आर्टिस्ट अवार्ड भी जीता.[18]
एक वर्ष बाद, वॉटसन ने श्रृंखला की दूसरी कड़ी, हैरी पॉटर ऐंड द चैम्बर ऑफ़ सीक्रेट्स में हरमाइन के रूप में फिर से अभिनय किया। हालांकि फिल्म की मिश्रित समीक्षा की गई लेकिन समीक्षक प्रमुख अभिनेताओं के प्रदर्शन के प्रति सकारात्मक थे। लॉस एंजिल्स टाइम्स ने कहा कि वॉटसन और उसके साथी कलाकार फिल्मों में परिपक्व हो गए हैं[19] जबकि वॉटसन के सर्वाधिक लोकप्रिय चरित्र को नीचे दर्जे का काम दिए जाने की वजह से द टाइम्स ने निर्देशक क्रिस कोलम्बस की आलोचना की.[20] वॉटसन को अपने अभिनय के लिए जर्मन मैगज़ीन ब्रैवो की तरफ से एक ओट्टो अवार्ड भी प्राप्त हुआ।[21]
2004 में हैरी पॉटर ऐंड द प्रिज़नर ऑफ़ अजकाबैन को रिलीज़ किया गया। अपने चरित्र को "करिश्माई" और "निभाई गई एक शानदार भूमिका" कहते हुए वॉटसन हरमाइन की और अधिक मुखर भूमिका से बहुत खुश थी।[22] हालांकि आलोचकों ने 'वूडेन' (लकड़ी का) का लेबल लगाते हुए रैडक्लिफ के प्रदर्शन की आलोचना की लेकिन वॉटसन की प्रशंसा की. द न्यूयॉर्क टाइम्स ने उसके प्रदर्शन की सराहना की और कहा कि "श्री रैडक्लिफ की कमी को संयोगवश सुश्री वॉटसन की तीव्र अधीरता ने पूरा कर दिया है। हैरी अपनी विस्तारित जादूगरी दक्षता का दिखावा कर सकता है।.. लेकिन हरमाइन ... ड्रैको मॉलफॉय के नाक पर एक जोरदार गैर-जादुई प्रहार करके उच्च प्रशंसा अर्जित करती है।[23] हालांकि प्रिज़नर ऑफ़ अजकाबैन, अप्रैल 2009 तक की न्यूनतम-कमाई वाली हैरी पॉटर फिल्म रही है लेकिन वॉटसन को अपने व्यक्तिगत प्रदर्शन के लिए दो ओट्टो अवार्ड्स और टोटल फिल्म की तरफ से वर्ष के बाल कलाकार का पुरस्कार प्राप्त हुआ।[24][25][26]
हैरी पॉटर ऐंड द गॉब्लेट ऑफ़ फायर (2005) के साथ वॉटसन और हैरी पॉटर फिल्म श्रृंखला दोनों ने नए कीर्तिमान स्थापित किए. फिल्म ने एक हैरी पॉटर उद्घाटन सप्ताहांत, US में एक गैर-मई उद्घाटन सप्ताहांत और UK में एक उद्घाटन सप्ताहांत के लिए रिकॉर्ड कायम किए. आलोचकों ने वॉटसन और उसके किशोर सह-कलाकारों की बढ़ती परिपक्वता की प्रशंसा की. द न्यूयॉर्क टाइम्स ने उसके प्रदर्शन को "टचिंगली अर्नेस्ट" (हृदयवेदक रूप से उत्साही) कहा.[27] जब वे परिपक्व हुए तो उन तीन मुख्य पात्रों के बीच के तनाव की वजह से फिल्म में वॉटसन को लेकर कई अफवाहें फैली. उसने कहा, "मुझे सभी बहस अच्छी लगी... मुझे लगता है कि यह बहुत ज्यादा वास्तविक है कि वे बहस करते और यह भी कि कुछ समस्या होती."[28] गॉब्लेट ऑफ़ फायर के लिए तीन पुरस्कारों के लिए नामांकित वॉटसन ने एक कांस्य ओट्टो अवार्ड जीता.[29][30][31] बाद में उसी वर्ष, वॉटसन टीन वॉग के कवर पर दिखलाई देने वाली सबसे कम उम्र की व्यक्ति बनी.[32] अगस्त 2009 में वह फिर से दिखलाई दी.[33] 2006 में महारानी एलिजाबेथ II के 80वें जन्मदिन के अवसर पर हैरी पॉटर के एक विशेष छोटे प्रकरण, द क्वींस हैंडबैग में वॉटसन ने हरमाइन की भूमिका निभाई.[34]
2007 में हैरी पॉटर फ़्रैन्चाइज़ की पांचवीं फिल्म हैरी पॉटर ऐंड द ऑर्डर ऑफ़ द फोएनिक्स को रिलीज़ किया गया। फिल्म को एक बहुत बड़ी वित्तीय सफलता मिली जब इसने विश्व्यापी उद्घाटन-सप्ताहांत में $332.7 मिलियन की कमाई का रिकॉर्ड कायम किया।[35] वॉटसन को सर्वश्रेष्ठ महिला प्रदर्शन के लिए अभिषेकात्मक नेशनल मूवी अवार्ड मिला.[36] क्रमबद्ध श्रृंखला और अभिनेत्री की प्रसिद्धि के रूप में, वॉटसन और साथी हैरी पॉटर के साथ-साथ सह-कलाकार डैनियल रैडक्लिफ और रूपर्ट ग्रिन्ट ने 9 जुलाई 2007 को ग्रौमैंस चाइनीज़ थिएटर के सामने अपने हाथ, पैर और छड़ी अर्थात् अपने अभिनय की छाप छोड़ी.[37]
आर्डर ऑफ़ द फोएनिक्स की सफलता के बावजूद, हैरी पॉटर फ़्रैन्चाइज़ का भविष्य संदेह में घिर गया क्योंकि तीनों मुख्य कलाकारों को अंतिम दो प्रकरण के लिए अपनी-अपनी भूमिकाओं को निभाते रहने के लिए हस्ताक्षर करने में संकोच हो रहा था।[38] अंततः 2 मार्च 2007 को रैडक्लिफ ने अंतिम फिल्मों के लिए हस्ताक्षर कर दिया[38] लेकिन वॉटसन को अभी भी संकोच हो रहा था।[39] उसने बताया कि यह एक महत्वपूर्ण निर्णय है क्योंकि इस भूमिका के लिए इन फिल्मों में और चार वर्ष की प्रतिबद्धता थी लेकिन अंत में 23 मार्च 2007 को उसने इस भूमिका के लिए हस्ताक्षर करते हुए स्वीकार किया कि वह "हरमाइन [की भूमिका] को कभी नहीं छोड़ सकती".[40][41] अंतिम फिल्मों की प्रतिबद्धता के बदले वॉटसन के वेतन को दोगुना करके £2 मिलियन प्रति फिल्म कर दिया गया।[42] उसने निष्कर्ष निकालते हुए कहा कि "अंत में, इस बढ़ोत्तरी ने घाटे को भर दिया".[12] 2007 के अंत में छठे फिल्म के लिए प्रिंसिपल फोटोग्राफी की शुरूआत हुई जिसमें वॉटसन के हिस्से का फिल्मांकन 18 दिसम्बर से 17 मई 2008 तक किया गया।[43][44]
हैरी पॉटर ऐंड द हाफ-ब्लड प्रिंस का प्रीमियर विवादग्रस्त होने के कारण नवम्बर 2008 से देर होते-होते अंततः 15 जुलाई 2009[45] को संपन्न हुआ।[46] अब उनके सभी प्रमुख कलाकार किशोरावस्था की दहलीज़ पर थे और आलोचक फिल्म के बाकी सभी स्टार कास्ट की तरह एक ही स्तर पर उनकी भी समीक्षा करना चाहते थे जिसका वर्णन लॉस एंजिल्स टाइम्स ने "समकालीन UK अभिनय के एक व्यापक गाइड" के रूप में किया। द वॉशिंगटन पोस्ट को लगा कि वॉटसन ने "अब तक का [अपना] सबसे आकर्षक प्रदर्शन" दिया है,[47] जबकि द डेली टेलीग्राफ ने मुख्य कलाकारों का वर्णन "अभी-अभी स्वाधीन और उत्साहित, श्रृंखला को अपना बचा-खुचा सब कुछ देने के इच्छुक" के रूप में किया।[48]
हैरी पॉटर फिल्म श्रृंखला की अंतिम कड़ी, हैरी पॉटर ऐंड द डेथली हैलोज़ के लिए वॉटसन का फिल्मांकन 18 फ़रवरी 2009 को शुरू हुआ।[49] वित्तीय और पटकथा के कारणों के आधार पर फिल्म को दो भागों में बांटकर[50][51] फिर से फिल्माने और उन्हें नवम्बर 2010 और जुलाई 2011 में रिलीज़ करने करने का समय निर्धारित किया गया हैं।[52]
अन्य कार्य
वॉटसन की पहली गैर-हैरी पॉटर भूमिका, 2007 की टेलीविज़न फिल्म बैलेट शूज़ में थी।[53] उसने परियोजना के बारे में कहा कि, "मैं हैरी पॉटर [ऐंड द ऑर्डर ऑफ़ द फोएनिक्स ] खत्म करने के बाद स्कूल वापस जाने के लिए पूरी तरह से तैयार थी लेकिन बैलेट शूज़ के लिये अपने आप को रोक नहीं पाई. वास्तव में यह मुझे बहुत पसंद थी।" नोएल स्ट्रेटफिल्ड नोवेल के नाम से प्रकाशित उपन्यास के एक BBC रूपांतरण वाली फिल्म में वॉटसन ने तीनों बहनों में सबसे बड़ी और आकांक्षी अभिनेत्री पॉलिन फॉसिल की भूमिका निभाई. इस फिल्म की कहानी इन्हीं तीन बहनों के इर्द-गिर्द घूमती है।[54] निर्देशक सैन्ड्रा गोल्डबाचर ने टिप्पणी की, "एमा पॉलिन की भूमिका के लिए बिल्कुल सही थी। .. उसमें एक तेज, संवदेनशील आभा है जो आपमें उसको निहारते रहने की चाहत जगा देता है।"[55] बैलेट शूज़ का प्रसारण लगभग 5.2 मिलियन (देखने वाले कुल लोगों का 22%)[56] दर्शकों के सामने यूनाइटेड किंगडम[57] में बॅक्सिंग डे के अवसर पर किया गया। आमतौर पर इस फिल्म की बहुत खराब आलोचनात्मक समीक्षा प्राप्त हुई और साथ-ही-साथ द टाइम्स ने इसका वर्णन "हलके भावनात्मक निवेश, या जादूई, या नाटकीय गति वाली प्रगति" के रूप में किया".[58] हालांकि, आमतौर पर इसके कलाकारों के प्रदर्शन को सराहा गया। द डेली टेलीग्राफ ने लिखा कि फिल्म "में बेशक अच्छा काम किया गया था, खासकर इसलिए क्योंकि इसने इस बात की पुष्टि की कि इन दिनों कितने अच्छे बाल कलाकार काम कर रहे हैं".[59]
वॉटसन ने एक एनिमेटेड फिल्म द टेल ऑफ़ डेस्परेऑक्स में भी एक भूमिका निभाई जो मैथ्यू ब्रॉडरिक और ट्रेसी उल्मान द्वारा अभिनीत एक बाल कॉमेडी थी जिसे दिसम्बर 2008 में रिलीज़ किया गया।[5] उसने इस फिल्म में प्रिंसेस पी के चरित्र को अपनी आवाज़ दी.
वॉटसन के अन्य मीडिया का काम सीमित हो गया है और उच्च शिक्षा को पूरा करना दूसरा जरूरी काम बन गया है।[60] अप्रैल 2008 में, एक पूर्वानुमानित फिल्म नेपोलियन ऐंड बेट्सी में बेट्सी बोनापार्ट[61][62] की भूमिका से उसके जुड़ने की एक ज़ोरदार अफवाह के बावजूद उस फिल्म का निर्माण कभी पूरा नहीं हुआ।[63] समान रूप से, यह भी संकेत मिल रहा था कि फैशन हाउस चैनल की मुखाकृति के रूप में वह कीरा नाइटली की जगह लेने वाली थी[64] जिसे एक प्रमुख ब्रिटिश अखबार द्वारा एक fait accompli (फेट एकॉम्पली जिसका हिंदी अर्थ है - सम्पूर्ण तथ्य) के रूप में प्रस्तुत किए जाने के बावजूद, दोनों पक्षों ने इससे साफ़ इनकार कर दिया.[65] अप्रैल 2009 में, बरबेर्री[66] के साथ इसी तरह के समझौते की अफवाह उठी. अंततः 9 जून 2009[67] को इस अनुबंध की पुष्टि कर दी गई। लगभग छः-अंकों वाले शुल्क के बदले वॉटसन ने बरबेर्री के शरद/शीत 2009 संग्रह के लिए मॉडलिंग की.[68] चूंकि वॉटसन अब बड़ी हो गई है, इसलिए वह उभरते फैशन की कुछ-कुछ शौक़ीन भी हो गई है। उसका कहना है कि वह फैशन को कुछ हद तक कला की तरह ही मानती है जिसकी पढ़ाई उसने स्कूल में की थी। सितम्बर 2008 में उसने एक ब्लॉग में कहा, "मैं कला पर बहुत ध्यान देती आ रही हूं और फैशन उसका एक बहुत बड़ा विस्तार है।"[69] 16 सितम्बर 2009 को वॉटसन ने पीपुल ट्री, एक निष्पक्ष व्यापार फैशन ब्रांड के साथ अपनी भागीदारी की घोषणा की.[70] वॉटसन कहती है कि वह पीपुल ट्री के साथ मिलकर वसंत ऋतु के कपड़ों को बनाने में लगी है (जिसे 2010 की फरवरी में जारी किया जायेगा). इस फैशन लाइन में दक्षिणी फ्रांस और लंदन शहर से प्रेरित शैलियों की झलक होगी.
व्यक्तिगत जीवन
वॉटसन का विस्तृत परिवार और बड़ा हो गया जब उसके तलाकशुदा माता-पिता के अपने नए साथियों से बच्चे हुए. उसके पिता की एक जैसी दो जुड़वां बेटियां, नीना और लुसी एवं एक चार सालीय बेटा टॉबी है।[71] उसकी मां की साथी के दो बेटे (वॉटसन के सौतेले भाई) हैं जो "उसके साथ नियमित रूप से रहते हैं".[72] वॉटसन के सगे भाई, अलेक्ज़ेंडर ने दो हैरी पॉटर फिल्मों[71] में एक अतिरिक्त कलाकार के रूप में काम किया है और उसकी सौतेली बहन ने BBC के बैलेट शूज़ रूपांतरण में युवा पॉलिन फॉसिल के रूप में अभिनय किया था।
अपनी मां और भाई के साथ ऑक्सफोर्ड जाने के बाद, वॉटसन ने एक स्वतंत्र प्राथमिक विद्यालय, द ड्रैगन स्कूल में जून 2003 तक अध्ययन किया और फिर ऑक्सफोर्ड में ही लड़कियों की एक स्वतंत्र विद्यालय, हेडिंगटन स्कूल में अध्ययन किया।[7] फिल्म के सेट पर वॉटसन और उसके साथियों को प्रति दिन पांच घंटे तक पढ़ाया जाता था।[73] फिल्मॊ पर पूरा ध्यान देने के बावजूद उसने उच्च अकादमिक स्तर बनाए रखा. जून 2006 में, वॉटसन ने 10 विषयों में GCSE की परीक्षा दी जिसमें से आठ विषयों में उसे A* और बाकी दो विषयों में A ग्रेड मिले.[74] अपने परीक्षा फल के रूप में सीधे-A पाने के कारण हैरी पॉटर के सेट पर उसके मित्र इसको लेकर उसका उपहास करते थे।[32] कला के इतिहास में 2007 की AS (अडवांस्ड सब्सिडिअरी जिसका हिंदी अर्थ है - उन्नत सहायक) स्तर एवं अंग्रेजी,[75] भूगोल और कला में 2008 की A स्तर की परीक्षाओं में उसे A ग्रेड मिले.[76]
स्कूल से निकलने के बाद वॉटसन ने हैरी पॉटर ऐंड द डेथली हैलोज़ के फिल्मांकन के लिए एक वर्ष का अंतराल[75] लिया जिसकी शुरूआत फरवरी 2009[51] में हुई थी लेकिन उसने कहा कि वह "निश्चित रूप से यूनिवर्सिटी जाना चाहती है [थी]".[60] अनगिनत विरोधाभासी संवाद कथाओं के बावजूद, कुछ अति-सम्मानित स्रोतों का दावा है कि वह 'निश्चित रूप से' ट्रिनिटी कॉलेज, कैम्ब्रिज[77], कोलंबिया यूनिवर्सिटी,[78][79][80] ब्राउन यूनिवर्सिटी[81] या येल यूनिवर्सिटी में अध्ययन करती लेकिन वॉटसन सार्वजनिक तौर पर किसी एक संस्था के लिए अपनी प्रतिबद्धता जाहिर करने के प्रति अनिच्छुक थी बल्कि उसने कहा कि वह अपने फैसले की घोषणा सबसे पहले अपनी ऑफिसियल वेबसाइट पर करेगी.[82] जुलाई 2009 में जोनाथन रॉस और डेविड लेटरमैन के साथ साक्षात्कार में उसने पुष्टि की कि वह संयुक्त राज्य[1] में लिबरल आर्ट्स के अध्ययन की योजना बना रही है। उसने कहा कि - फिल्मांकन के लिए एक बच्चे के रूप इतने सारे स्कूल से वंचित रहने के कारण - ब्रिटिश विश्वविद्यालयों की अपेक्षा उसे अमेरिकी उच्च शिक्षा का "व्यापक पाठ्यक्रम" ज्यादा अच्छा लगता था, "जहां तीन वर्ष के अध्ययन के लिए सिर्फ एक विषय चुनना पड़ता है".[13] जुलाई 2009 में, एक दूसरी ज़ोरदार अफवाह के बाद,[83] द प्रॉविडेंस जर्नल ने अपने रिपोर्ट में कहा कि वॉटसन ने "अनिच्छापूर्वक स्वीकार किया" है कि उसने रॉड आइलैंड के प्रॉविडेंस स्थित ब्राउन यूनिवर्सिटी का चयन कर लिया है।[84][85] वॉटसन ने अपने पसंदीदा विश्वविद्यालय की घोषणा से बचने के प्रयासों का प्रतिवाद किया लेकिन हैरी पॉटर ऐंड द हाफ-ब्लड प्रिंस की रिलीज़ के प्रचार को लेकर होने वाले साक्षात्कार के दौरान डैनियल रैडक्लिफ और निर्माता डेविड हेमैन[86][87] ने गलती से इसका खुलासा कर दिया और अंततः सितम्बर 2009 में विश्वविद्यालय की अकादमिक वर्ष के शुरू होने के बाद उसने इसकी पुष्टि की[88] और कहा कि वह "सामान्य बने रहना चाहती है[थी]... बाकी सब की तरह मैं भी इसे अच्छी तरह से करना चाहती हूं. जब मैं खुद हर जगह जाकर हैरी पॉटर के पोस्टर को देख लूंगी तब मैं निश्चिन्त हो जाऊंगी".[85]
हैरी पॉटर श्रृंखला में काम करके वॉटसन ने £10 मिलियन से भी अधिक अर्जित किया[4] और उसने कबूल किया है कि उसे अब पैसों के लिए कभी काम नहीं करना पड़ेगा. मार्च 2009 में उसे "मोस्ट वैल्यूएबल यंग स्टार्स" (सबसे मूल्यवान युवा सितारों) की फॉर्ब्स सूची में 6ठे दर्ज़े पर रखा गया। हालांकि, उसने एक पूर्णकालिक अभिनेत्री बनने के लिए स्कूल छोड़ने से मना कर दिया है। उसका कहना है कि "लोगों को समझ में नहीं आता कि मैं क्यों नहीं बनना चाहती ... मात्र स्कूली जीवन ही मुझे अपने मित्रों के संपर्क में रखता है। यह मुझे सच्चाई के संपर्क में रखता है".[12] वह एक बाल अभिनेत्री के रूप में काम करने के प्रति सकारात्मक रही है और कहती है कि उसके माता-पिता और सहयोगियों ने उसके अनुभव को सकारात्मक बनाने में काफी मदद की.[32][72][89] वॉटसन अपने सहयोगी हैरी पॉटर स्टार डैनियल रैडक्लिफ और रूपर्ट ग्रिंट के साथ घनिष्ठ मित्रता का आनंद लेती है और फिल्मांकन कार्य के तनाव के लिए उनका वर्णन एक "अद्वितीय सहायता व्यवस्था" के रूप में करती है और कहती है कि फिल्म श्रृंखलाओं में दस वर्ष तक उनके साथ काम करने के बाद "वे सच में मेरे भाइयों और बहनों की तरह हैं".[13]
वॉटसन नृत्य, गायन, फील्ड हॉकी, टेनिस, आर्ट[7] और फ्लाइंग फिशिंग[90] में रूचि रखती है और WTT (वाइल्ड ट्राउट ट्रस्ट) को दान भी देती है।[91][92][93] वह स्वयं का वर्णन "किसी हद तक एक नारीवादी"[12][72] के रूप में करती है और अपने साथी कलाकार जॉनी डेप और जूलिया रॉबर्ट्स की प्रशंसा करती है।[94]
फिल्म सूची
पुरस्कार
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
at IMDb
BBC पर
श्रेणी:अंग्रेजी अभिनेत्री
श्रेणी:अंग्रेजी टेलीविज़न अभिनेता
श्रेणी:अंग्रेजी आवाज़ अभिनेता
श्रेणी:अंग्रेजी बाल अभिनेता
श्रेणी:ओल्ड ड्रैगंस
श्रेणी:ऑक्सफोर्ड के लोग
श्रेणी:पेरिस के लोग
श्रेणी:फ्रांसीसी उद्गम के अंग्रेज लोग
श्रेणी:ब्रिटिश फिल्म अभिनेता
श्रेणी:1990 में जन्मे लोग
श्रेणी:जीवित लोग
श्रेणी:गूगल परियोजना | एम्मा वाटसन का पूरा नाम क्या है? | एमा चारलॉट डुएरे वॉटसन | 0 | hindi |
fd2ab1397 | श्यामजी कृष्ण वर्मा (जन्म: 4 अक्टूबर 1857 - मृत्यु: 31 मार्च 1930) क्रान्तिकारी गतिविधियों के माध्यम से भारत की आजादी के संकल्प को गतिशील करने वाले अध्यवसायी एवं कई क्रान्तिकारियों के प्रेरणास्रोत थे। वे पहले भारतीय थे, जिन्हें ऑक्सफोर्ड से एम॰ए॰ और बार-ऐट-ला की उपाधियाँ मिलीं थीं। पुणे में दिये गये उनके संस्कृत के भाषण से प्रभावित होकर मोनियर विलियम्स ने वर्माजी को ऑक्सफोर्ड में संस्कृत का सहायक प्रोफेसर बना दिया था। उन्होंने लन्दन में इण्डिया हाउस की स्थापना की जो इंग्लैण्ड जाकर पढ़ने वाले छात्रों के परस्पर मिलन एवं विविध विचार-विमर्श का एक प्रमुख केन्द्र था।
जीवन वृत्त
श्यामजी कृष्ण वर्मा का जन्म 4 अक्टूबर[1] 1857 को गुजरात प्रान्त के माण्डवी कस्बे में श्रीकृष्ण वर्मा के यहाँ हुआ था।[2]
यह कस्बा अब मांडवी लोकसभा क्षेत्र में विकसित हो चुका है। उन्होंने 1888 में अजमेर में वकालत के दौरान स्वराज के लिये काम करना शुरू कर दिया था। मध्यप्रदेश के रतलाम और गुजरात के जूनागढ़ में दीवान रहकर उन्होंने जनहित के काम किये। मात्र बीस वर्ष की आयु से ही वे क्रान्तिकारी गतिविधियों में हिस्सा लेने लगे थे। वे लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और स्वामी दयानंद सरस्वती से प्रेरित थे। 1918 के बर्लिन और इंग्लैण्ड में हुए विद्या सम्मेलनों में उन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व किया था।
1897 में वे पुनः इंग्लैण्ड गये। 1905 में लॉर्ड कर्जन की ज्यादतियों के विरुद्ध संघर्षरत रहे। इसी वर्ष इंग्लैण्ड से मासिक समाचार-पत्र "द इण्डियन सोशियोलोजिस्ट" निकाला, जिसे आगे चलकर जिनेवा से भी प्रकाशित किया गया। इंग्लैण्ड में रहकर उन्होंने इंडिया हाउस की स्थापना की। भारत लौटने के बाद 1905 में उन्होंने क्रान्तिकारी छात्रों को लेकर इण्डियन होम रूल सोसायटी की स्थापना की।
उस समय यह संस्था क्रान्तिकारी छात्रों के जमावड़े के लिये प्रेरणास्रोत सिद्ध हुई। क्रान्तिकारी शहीद मदनलाल ढींगरा उनके प्रिय शिष्यों में थे। उनकी शहादत पर उन्होंने छात्रवृत्ति भी शुरू की थी। वीर सावरकर ने वर्माजी का मार्गदर्शन पाकर लन्दन में रहकर लेखन कार्य किया था।
31 मार्च 1930 को जिनेवा के एक अस्पताल में वे अपना नश्वर शरीर त्यागकर चले गये। उनका शव अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों के कारण भारत नहीं लाया जा सका और वहीं उनकी अन्त्येष्टि कर दी गयी। बाद में गुजरात सरकार ने काफी प्रयत्न करके जिनेवा से उनकी अस्थियाँ भारत मँगवायीं।[2]
अस्थियों का भारत में संरक्षण
वर्माजी का दाह संस्कार करके उनकी अस्थियों को जिनेवा की सेण्ट जॉर्ज सीमेट्री में सुरक्षित रख दिया गया। बाद में उनकी पत्नी भानुमती कृष्ण वर्मा का जब निधन हो गया तो उनकी अस्थियाँ भी उसी सीमेट्री में रख दी गयीं।
22 अगस्त 2003 को भारत की स्वतन्त्रता के 55 वर्ष बाद गुजरात के तत्कालीन मुख्यमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने स्विस सरकार से अनुरोध करके जिनेवा से श्यामजी कृष्ण वर्मा और उनकी पत्नी भानुमती की अस्थियों को भारत मँगाया। बम्बई से लेकर माण्डवी तक पूरे राजकीय सम्मान के साथ भव्य जुलूस की शक्ल में उनके अस्थि-कलशों को गुजरात लाया गया। वर्मा के जन्म स्थान में दर्शनीय क्रान्ति-तीर्थ बनाकर उसके परिसर स्थित श्यामजीकृष्ण वर्मा स्मृतिकक्ष में उनकी अस्थियों को संरक्षण प्रदान किया।[3][1]
उनके जन्म स्थान पर गुजरात सरकार द्वारा विकसित श्रीश्यामजी कृष्ण वर्मा मेमोरियल को गुजरात के मुख्यमन्त्री नरेन्द्र मोदी द्वारा 13 दिसम्बर 2010 को राष्ट्र को समर्पित किया गया।[1] कच्छ जाने वाले सभी देशी विदेशी पर्यटकों के लिये माण्डवी का क्रान्ति-तीर्थ एक उल्लेखनीय पर्यटन स्थल बन चुका है।
क्रान्ति-तीर्थ के श्यामजीकृष्ण वर्मा स्मृतिकक्ष में पति-पत्नी के अस्थि-कलशों को देखने दूर-दूर से पर्यटक गुजरात आते हैं।[4]
सन्दर्भ
इन्हें भी देखें
इण्डिया हाउस
बाहरी कड़ियाँ
(वेदप्रताप वैदिक)
(वेबदुनिया)
- वेबसाइट
- अधिकृत वेबसाइट
- विस्तृत वेबसाइट देखें
- ई-पेपर टाइम्स ऑफ इण्डिया डॉट कॉम (अभिगमन तिथि: १२ फरबरी २०१४)
(भास्कर)
श्रेणी:भारतीय क्रांतिकारी
श्रेणी:व्यक्तिगत जीवन
श्रेणी:भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम | श्यामजी कृष्ण वर्मा ने इंडियन होम रूल सोसाइटी को किस साल में स्थापित किया था? | 1905 | 1,202 | hindi |
e30235cab | आईबीएम (English: International Business Machines Corporation (IBM), अनुवाद: अंतरराष्ट्रीय व्यापार मशीन निगम) एक अमेरिकी बहुराष्ट्रीय सूचना प्रौद्योगिकी कंपनी है। इसका मुख्यालय संयुक्त राष्ट्र के अर्मोंक, न्यू यॉर्क में स्थित है। ये कंपनी 170 देशों से भी ज्यादा में फैला हुआ है। इस कंपनी की शुरुआत 1911 में कम्प्यूटिंग-टैबुलैटिंग-रिकॉर्डिंग कंपनी के नाम से हुआ था, जिसे 1924 में बदल कर इंटरनेशनल बिजनेस मशीन कर दिया गया था।
इसे बिग ब्लू नाम से भी जाना जाता है। ये दुनिया की सबसे अधिक कर्मचारियों वाली कंपनी में से एक है, जिसमें 2017 के अनुसार लगभग 3,80,000 कर्मचारी काम कर रहे थे। इन्हें आईबीमर्स के रूप में जाना जाता है। इनके कर्मचारियों को अब तक 5 नोबल पुरस्कार, 6 टुरिन्ग पुरस्कार, तकनीकी के क्षेत्र में 10 और विज्ञान के क्षेत्र में 5 राष्ट्रीय पदक भी मिल चुका है।
इतिहास
वह कंपनी जो आई बी एं बनी उसकी स्थापना 1896 में सारणी मशीन कंपनी[4] के रूप में हेरमन होल्लेरिथ (Herman Hollerith) के द्वारा ब्रूम काउंटी, न्यूयार्क (Broome County, New York) एन्दिकोत, न्यूयार्क (Endicott, New York) में हुआ था, जहाँ अभी भी बहुत सिमित ओप्रेसन/परिचालन किया जाता है। जून 16,1911, को इसे कंप्यूटिंग सारणी रिकॉर्डिंग निगम/कारपोरेशन (सीटीआर) (Computing Tabulating Recording Corporation (CTR)) के रूप में शामिल किया गया था और 1911 में न्यूयार्क स्टॉक एक्सचेंज (New York Stock Exchange) में सूचीबद्ध किया गया था। जब यह फोर्तुन 500 (Fortune 500) कंपनी बना तब इसने 1924, में अपना वर्तमान नाम आई बी एं को अपनाया.
1950s, के दशक में, आई बी एं अपने मैन्फ्रम (mainframes) के आई बी एं 701 (IBM 701) और अन्य मॉडल आई बी एं 700/7000 सीरीज़ (IBM 700/7000 series) के रिलीज़ होते ही उभरते कंप्यूटर उद्योग में प्रमुख विक्रेता बन गया। अपने आई बी एं मैन्फ्रम के सिस्टम (IBM System/360) /360 और }आई बी एं सिस्टम (IBM System/370) /370 के साथ ही कंपनी और भी मजबूत/स्पष्ट हो गई, हालाँकि विपक्षिये संस्था सयुंक्त राष्ट्र न्याय विभाग (United States Department of Justice) के द्वारा आई बी एं के उद्योग में स्थान को मिनी कंप्यूटर (minicomputer) के उदय जैसे डिजीटल उपकरण निगम (Digital Equipment Corporation) और डाटा जनरल (Data General) और माइक्रो प्रोसेसर के शुरुआत आदि के योग से कमज़ोर करने की कोशिश की गई, अंततः कंपनी को निजी कंप्यूटर, सॉफ्टवेर और सेवाओ जैसे अनेक क्षेत्रों में जाना पड़ा.
1981 में आई बी एं ने निजी/पर्सनल कंप्यूटर (IBM Personal Computer) का आरम्भ किया जो की मूल संस्करण तथा आई बी एं हार्डवेयर (IBM PC compatible) प्लात्फोर्म (platform) की तरफ़ से सबसे पहले शुरुआत था। आई बी एं के वंशजों ने आज माइक्रो कंप्यूटर (microcomputer) को बड़े पैमाने में बाज़ार में लाने में सक्षम हैं।मई 1, 2005 में आई बी एं ने अपने पीसी भाग को चाइनीज कंपनी लेनोवो (Lenovo) को $655 मिलियन नगद तथा $600 मिलियन लेनोवो स्टॉक को बेचा।
जनवरी 25, 2007, को रिकोह (Ricoh) ने आई बी एं मुद्रण सिस्टम को $725 मिलियन में खरीदने की घोषणा की और तीन साल के सयुंक्त कार्य के बाद नया सहायक रिकोह इन्फो प्रिंट सोलुसन कंपनी (InfoPrint Solutions Company) बनाया और इन्फो प्रिंट में रिकोह 51% शेयर का मालिक बनेगा और आई बी एं 49% शेयर का मालिक बनेगा.
विवाद
लेखक एडविन ब्लैक (Edwin Black) ने कहा कि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, आई बी एं केसीईओ थॉमस जे वाटसन (Thomas J. Watson) तीसरा धनि (Third Reich) बनने के लिए यूनिट रिकॉर्ड (unit record) डाटा संसाधनों (data processing) मशीन के साथ समुद्र पार की सहायता दी, कंपनी के लाभ के लिए उन्होंने नजिस (Nazis) को यूरोपीय यहूदियों को ट्रैक करने के लिए कुशलता पूर्वक आपूर्ति और सेवाओ के द्वारा मदत की। आई बी एं यह इनकार करता हैं कि नाजिस के सत्ता लेने के बाद सहायक पर उनका नियंत्रण था। आरोपों के आधार पर आई बी एं पर जो मुक़दमा चलाया गया था उसे खारिज कर दिया गया।
विश्व युद्ध II, जो 1943 से 1945 तक चला उसमें मित्र देशों की सहायता के लिए आई बी एं ने तक़रीबन 346,500 M1 कार्बिने (Caliber .30 carbine) सयुंक्त राष्ट्र मिलिटरी के लिए छोटे रायफलों का उत्पादन किया।[5]
चालू/वर्तमान परियोजना
ग्रहण
ग्रहण प्लात्फोर्म स्वतंत्र है, जावा (Java) पर आधारित सॉफ्टवेर ढांचा (software framework).ग्रहण मूल रूप से दृश्य काल (VisualAge) परिवार के उपकरण के रूप में आई बी एं द्वारा विकसित प्रमुख स्वामित्व (proprietary) उत्पाद है बाद में ग्रहण, सार्वजानिक ग्रहण लाईसेन्स (Eclipse Public License) के तहत मुक्त (free) / खुला स्रोत (open source) सॉफ्टवेर के रूप में जारी किया गया।
विकासककार्य
सॉफ्टवेर डेवलपर (software developer) और आई टी प्रोफ़ेस्सिओनल्स के लिए साईट पर देव्लोपेर/विकास कार्य आई बी एम् (IBM) के द्वारा चलता है। इसमें ब्रह्तर मात्रा में कैसे लेख और तुतोरिअल्स करने के लिए इसके साथ साथ सॉफ्टवेर डाउनलोड और कोड नमूने, चर्चा फॉरम, पॉडकास्ट, ब्लोग्स, विकिस और डेवलपर और तकनीक पेशेवरों के लिए अन्य संसाधन समाविष्ट है। उद्योग स्टैण्डर्ड टेक्नोलोजी जैसे जावा (Java), लिनुक्स, एसओऐ (SOA) और वेब सेवाएं (web services), वेब विकास (web development), एजेक्स (Ajax), पीएचपी और एक्सएम्एल से आई बी एं उत्पाद (वेब स्फेर (WebSphere), रशनल/वाजिब (Rational), लोतुस, टिवोली (Tivoli) और डीबी2 (DB2) आदि विषय होते हैं। 2007 में डेवलपर कार्य हॉल ऑफ़ फाम में सम्मिलित हुआ था।[6]
अल्फा कार्य
अल्फा कार्य आई बी एं का उभरते सॉफ्टवेर टेक्नोलोजी का स्रोत है। इन तकनीको में शामिल है;
लचीला इंटरनेट का वास्तुकला मूल्यांकन रिपोर्ट- डिजाईन, प्रदर्शन और इंटरनेट सर्वेक्षण की रिपोर्टिंग के लिए उच्च स्तरीय वास्तुकला.
आई बी एं इतिहास प्रवाह दृश्यात्मक आवेदन (IBM History Flow Visualization Application) - गत्यात्मक दृश्य. विकसित दस्तावेजों और कई सहयोगी लेखकों के पारस्परिक संपर्क के लिए एक उपकरण.
आई बी एं लिनुक्स पर अनुकारी शक्ति निष्पादन- आई बी एं की पावर प्रोसेसर के लिए निष्पादित मोडलों के सेट पर लिनुक्स के उपयोगकर्ताओं को पावर प्रदान करने का एक उपकरण.
डेटाबेस संचिका पुरालेख और प्रत्यावर्तन प्रबंधन - डेटाबेस में संगृहीत संचिका सन्दर्भ का उपयोग पुरालेख और हार्ड डिस्क संचिका में प्रत्यावर्तन करने के लिए अप्लिकेसन
स्वायत कंप्यूटिंग के लिए नीति प्रबंधन - नीति पर आधारित स्वायत प्रबंधन ढांचा जो आई टी के स्वचालन और व्यावसायिक प्रक्रियायों को सरल करता है।
फेयर यु सी ई - एक स्पेम फिल्टर जो सामग्री को छानने के बजाये प्रेषक की पहचान को प्रमाणित करता है।
असंरचित सुचना प्रबंधन वास्तुशिल्प (यु आई एं ऐ) एसडीके - जावा जो कार्यान्वयन का समर्थन, संयोजन और असंरचित सुचना के साथ कार्य करने वाली अप्लिकेसन परिनियोजन है।
अभिगम्यता ब्राउज़र - इस वेब ब्राउज़र का चक्षुहीन लोगों को सहायता प्रदान करने के लिए विशेष रूप से इसका डिजाईन किया गया है, जिसे सार्वजानिक स्रोत सॉफ्टवेर के रूप में जारी किया गया है।"ऐ- ब्राउज़र", के रूप में भी जाना जाता है, इस तकनीक का उद्देश्य माउस की आवश्यकता को समाप्त करने के बजाये, पुरी तरह से आवाज़ पर नियंत्रण, बटन और पूर्व निर्धारित शार्टकट कुंजी पर भरोसा करता है।
अर्धचालक डिजाईन और निर्माण
लगभग सभी आई बी एं द्वारा विकसित आधुनिक कंसोल गेमिंग सिस्टम (console gaming systems) माइक्रो प्रोसस्सोर्स (microprocessors developed) का उपयोग करते हैं। Xbox 360 (Xbox 360) में सेनों (Xenon) त्रिकोर प्रोसेसर सम्मिलित है जिसका डिजाईन और उत्पादन आई बी एं के द्वारा २४ महीने से भी कम में हुआ था।[7] आई बी एम्, तोशिबा (Toshiba) और सोनी के द्वारा संयुक्त रूप से विशेष गुन सेल बी इ माइक्रो प्रोसेसर (Cell BE microprocessor) सोनी (Sony) प्ले स्टेशन (PlayStation 3) ३ का डिजाईन हुआ है।निन्तेंदो (Nintendo) की सातवीं पीढी (seventh-generation) कंसोल, डब्लूआईआई (Wii), एक आई बी एं चिप का कोड नाम की सुविधा ब्रोडवे (Broadway) है। आई बी एं द्वारा डिजाईन किया गया पुराना निन्तेंदो गेम क्यूब (Nintendo GameCube) गेक्को (Gekko) प्रोसेसर का भी उपयोग करता है।
मई 2002, में आई बी एं और बुट्टरफ्लाई.नेट, इंक ने घोषणा की कि बट्टर फ्लाई ग्रिड (grid), ऑनलाइन विडियो गेमिंग बाज़ार के लिए एक वाणिज्यिक ग्रिड है।[8] मार्च 2006, आई बी एं ने होप्लों इन्फोतैन्मेंट के साथ अलग समझौते की घोषणा की, ऑनलाइन गेम सर्विसेस इन्कोर्पोरातेद (ओजीएसआई) और मांग सामग्री प्रबंधन और ब्लेड सर्वर (blade server) कंप्यूटिंग संसाधनों प्रदान करने के लिए रेंडर रॉकेट का प्रयोग होगा। [9]
वैकल्पिक ग्राहक भेंट
आई बी एं ने घोषणा की कि यह एक नया सॉफ्टवेर का शुभारम्भ करेगी जिसका नाम "ओपन क्लाइंट ओफ्फेरिंग" जो माइक्रोसॉफ्ट के विन्डोज़ (Windows), लिनुक्स और एप्पल (Apple) के मसिन्तोश पर चलेगी (Macintosh).कंपनी ने कहा कि इनका नया उत्पाद कारोबार में कर्मचारियों को विण्डोज़ और इसके विकल्पी पर यही सॉफ्टवेर का प्रयोग करने का अनुमति देता है। इसका अर्थ है कि "ओपन क्लाइंट ओफ्फेरिंग" चाहे विण्डोज़ के सम्बन्धी लिनुक्स या एप्पल हो प्रबंधन में लागत कि कमी होगी। कंपनियों के लिए यह जरूरी नहीं कि वे ओपरेशन लाईसेन्स के लिए माइक्रोसॉफ्ट को भुगतान करे जब तक विण्डोज़ पर आधारित सॉफ्टवेर पर ओपरेशन बहुत देर तक नहीं जाती है। माइक्रोसॉफ्ट ऑफिस का एक विकल्प ओपन दोचुमेंट फॉर्मेट सॉफ्टवेर है जिसका विकास आई बी एं के समर्थन से हुआ है। इसका प्रयोग अनेक कार्यो के लिए होगा जैसे; वर्ड प्रोसेसिंग, प्रस्तुतीकरण, लोतुस नोट्स (Lotus Notes) के सहयोग के साथ, तुंरत संदेश और ब्लॉग उपकरण के साथ साथ इन्टरनेट एक्स्प्लोरर (Internet Explorer) के प्रतियोगी फायरफोक्स वेब ब्राउजर. आई बी एं ओपन क्लाइंट को अपने डेस्कटॉप पीसी में ५ प्रतिशत पर स्थापित करने की योजना बना रही है।
UC2 एकीकृत संचार और सहयोग
UC2(एकीकृत संचार और सहयोग) आई बी एं और सिस्को (Cisco) का संयुक्त परियोजना ग्रहण (Eclipse) और ओसीजीआई (OSGi) पर आधारित है। यह कई ग्रहण अप्लिकेसन डेवेलोपेर्स आसान कार्य का पर्यावरण के लिए एक मंच प्रदान करेगा।
UC2 पर आधारित सॉफ्टवेर बड़े उद्यमों को संचार समाधान के साथ प्रदान करेगा जैसे लोटस पर आधारित सेम टाइम (Sametime). भविष्य में सेम टाइम उपयोगकर्ता अतिरिक्त कार्य से लाभ मिलेगा जैसे क्लिक टू कॉल (click-to-call) और वौइस् मेलिंग (voice mailing).[10]
आतंरिक प्रोग्राम्स
एक्सट्रीम ब्लू (Extreme Blue) कंपनी सबसे पहले अनुभवी आई बी एं इंजीनियरों, प्रतिभावान और उच्च मूल्य प्रौद्योगिकी का विकास के लिए व्यापार प्रबंधकों का प्रयोग करता है। इस परियोजना का डिजाईन उभरते व्यापार की जरुरत और तकनीक जो उसका समाधान कर सकता है का विश्लेषण करता है। इस परियोजना में अधिकतर उच्च प्रोफाइल सॉफ्टवेर और हार्डवेयर परियोजना का रापिड (तेजी) प्रोटो टाइपिंग सम्मिलित है।
मई 2007, में बिग ग्रीन परियोजना (Project Big Green) का अनावरण किया-- $1 billion प्रति वर्ष अपने पूरे व्यापार में ऊर्जा दक्षता बढ़ाने का एक पुनः दिशा.
आई बी एं सॉफ्टवेर समूह
यह समूह आई बी एं का एक प्रमुख भाग है। अनेक ब्रांड इसमें शामिल हैं;
सूचना प्रबंधन सॉफ्टवेर (Information Management Software) — डाटा बेस सर्वर और उपकरण, पाठ विश्लेषिकी, व्यवसाय प्रक्रिया प्रबंधन और व्यापार खुफिया.
लोटस सॉफ्टवेर; ग्रूपवेयर, सहयोग और व्यापार सॉफ्टवेर 1995 में अर्जित किया गया
तर्कसंगत सॉफ्टवेर (Rational Software) — सॉफ्टवेर विकास और अनुप्रयोग जीवन चक्र प्रबंधन.2002 में अर्जित किया गया।
टिवोली सॉफ्टवेर (Tivoli Software); सिस्टम प्रबंधन.1996 में अर्जित किया गया।
वेबचक्र (WebSphere) —; एकता और अवसंरचना सॉफ्टवेर प्रोग्राम.
पर्यावरण रिकॉर्ड
आईबीएं का अपने पर्यावरण की समस्याओं से निपटने का एक लंबा इतिहास है। 1971, में इसने वैश्विक पर्यावरण प्रबंधन प्रणाली के सहयोग के साथ पर्यावरण संरक्षण पर संस्था प्रणाली की स्थापना की। आई बी एं के अनुसार इसका कुल खतरनाक कचड़ा पिछले पाँच वर्षों में ४४ प्रतिशत कम हुई है और 1987.से 94.6 प्रतिशत कम हुई है। आई बी एं का कुल कचड़ा गणना निर्माण कार्यों तथा निर्माण ओपेरेसन दोनों को मिलकर शामिल है। निर्माण कार्य ओपेरेसन का अपशिष्ट में, बंद पाश सिस्टम में कचड़ा होता है जहाँ रसायन प्रक्रिया बरामद होते हैं और पुनः प्रयोग किए जाते हैं, बजाये सिर्फ़ दिस्पोसिंग और नए रसायन पदार्थों के प्रयोग शामिल हैं इन वर्षों में आई बी एं तक़रीबन सभी संवृत पाश रीसाइक्लिंग को समाप्त करने के लिए और अब अपनी जगह में और अधिक पर्यावरण के अनुकूल सामग्री का प्रयोग के लिए फिर से डिजाईन किया है।[11]
2005.में अमेरिकी पर्यावरण संरक्षण एजेन्सी (ईपीऐ (EPA)) के द्वारा आई बी एं को २० सर्वश्रेष्ठ कार्य स्थानों में सर्वश्रेष्ठ कम्मुतर की मान्यता दी गई थी। इसका अर्थ है कि यह फोर्च्यून 500 कंपनियों को पहचाने जो अपने कर्मचारियों को उत्कृष्ट कम्यूटर लाभ दे जो यातायात और वायु प्रदुषण को कम करता है।[12]
हालाँकि, आई बी एं का जन्म स्थान, एन्दिकोत (Endicott) को दशकों के लिए आई बी एं का प्रदुषण का सामना करना पड़ा. आई बी एं अपने सर्किट बोर्ड सभा ओपेरेसन दो दशकों से भी अधिक तरल सफाई एजेंट का इस्तेमाल किया और छः स्पिल्स और चूना घटनाएँ भूमिगत टेंक से 1979 लीक का 4,100 गेल्लन दर्ज किया गया। इसमें शहर की मिटटी और जलदायी स्तर में वाष्पशील कार्बनिक यौगिकों को पीछे छोड़ दिया जाता है। वाष्पशील कार्बनिक यौगिकों के ट्रेस तत्वों को एन्दिकोत पीने के पानी में पहचान किया गया है, लेकिन उसका स्तर विनियामक सीमा के भीतर होता है। इसके आलावा, 1980, से आई बी एं त्रिच्लोरो एथान, फरों, बेन्जें और पेर्च्लोरो एथेन हवा के लिए और जिसके कारण ग्रामीणों के बीच अनेक कैंसर मामलों भी हुए, के साथ 78,000 रसायन गेल्लोंस पम्प किया। पर्यावरण संरक्षण विभाग के द्वारा आई बी एं एन्दिकोत को प्रदुषण का प्रमुख स्रोत के रूप में पहचाना गया, हालाँकि प्रदुषण कारी तत्त्व स्थानीय ड्राई क्लिनेर्स और अन्य प्रदूषणों भी पाए गए। हालाँकि राज्य स्वास्थय अधिकारी नहीं पहचान सकता की वायु प्रदुषण या जल प्रदुषण एन्दिकोत में स्वास्थय समस्या का कारण है गावं के अधिकारी ने कहा की परीक्षण बताता है कि पानी पीने के लिए सुरक्षित है।[13]
सौर उर्जा
टोकियो ओहका कोग्यो कंपनी., लिमिटेड (टीओके) और आई बी एं अपने सहयोग से नई पीढी के लिए कम लागत वाली विधियों के सौर उर्जा उत्पादों को बाज़ार में ला रहे हैं, यह है, सीआईजीएस (CIGS) (कोप्पर-इन्डियम-गल्लियम-सेलेनिद) सौर सेल (solar cell) मॉड्यूल. पतली झिल्ली (thin film) तकनीक का प्रयोग, जैसे सीआईजीएस, ने सौर कोशिकाओं के पूर्ण लागत और व्यापक धारण को सक्षम करने का महान वादा किया था।[14][15]
आईबीएम फोटोवोल्टिक अनुसंधान के चार मुख्य क्षेत्रों पर खोज कर रहा है: सस्ते और अधिक प्रभावी सिलिकॉन सौर सेल (solar cell) के विकास के लिये वर्तमान तकनीकों का उपयोग करना, नई विलयन उपचारित पतली फ़िल्म (thin film) वाली फोटोवोल्टिक युक्तियों का विकास करना, सांद्रक फोटोवोल्टिक (concentrator photovoltaics) और नेनो सरंचना (nanostructures) जैसे अर्ध चालक क्वांटम डॉट (semiconductor quantum dot) और नेनो तार (nanowire) पर आधारित भविष्य की पीढी के फोटोवोल्टिक आर्किटेक्चर.[16]
आई बी एं फोटोवोल्ताच्स के डॉ सुप्रतीक गुहा अग्रणी वैज्ञानिक हैं।[16]
आई बी एं की कॉर्पोरेट संस्कृति.
बिग ब्लू आई बी एं के लिए एक उपनाम है; इसके प्रारम्भ से सम्बंधित अनेक सिधांत उपलब्ध हैं। जो लोग आई बी एं के लिए पर काम करते हैं उनका एक सिधांत है, की १९६० के दशक में आई बी एं ने इस शब्द को गढाआई बी एं ने १९६० और १९७० के दशक के शुरू में मैन्फ्रम की स्थापना की। बाद में सभी ब्लू शब्द का इस्तेमाल वफादार आई बी एं ग्राहक और व्यापार लेखकों के लिए ग्रहण किया गया।[17][18] एक अन्य सिधांत में बिग ब्लू को कंपनी के लोगो (logo) के रूप में सुझाव दिया गया। तीसरे सिधांत में यह सुझाव दिया गया की बिग ब्लू पूर्व कंपनी के ड्रेस कोड का उल्लेख करता है जिसमें अनेक आई बी एं कर्मचारियों को केवल सफ़ेद शर्ट और बहुतों को नीला शूट पहनना आवश्यक है।[17][19] किसी भी घटना में, आई बी एं किबोर्ड, टाइप राइटर और कुछ अन्य उपकरणों का निर्माण में एंटरकी और वापसी के लिए रंग का इस्तेमाल करते हुए बिग ब्लू अवधारणा पर अवश्य होना चाहिए
बिक्री
आई बी एं अक्सर बिक्री केंद्रित या बिक्री उन्मुख व्यापार संस्कृति के रूप में वर्णित किया गया है। परंपरागत रूप से, आई बी एं के कई अधिकारीयों और प्रबंधकों का चुनाव बिक्री बल से होता है। उद्धरण के लिए वर्तमान सीईओ सेम पल्मिसनो (Sam Palmisano) ने एक बिक्री करता के रूप में कंपनी में शामिल हुए थे, असामान्य रूप से बड़े निगमों के सीईओ के पास एमबीऐ या स्नातकोत्तर योग्यता नहीं है। मध्यम और उच्च प्रबंधन अक्सर महत्व पूर्ण ग्राहकों को बिक्री पिचिंग करने के लिए सेल्समेन की सीधे सहायता करते हैं।
वर्दी
२० वीं शताब्दी में अधिकांशतः गाढा या ग्रे शूट, सफ़ेद कमीज़ और अनुकूल टाई[20] आई बी एं के कर्मचारियों की सामान्य वर्दी थी 1990s, में आई बी एं प्रबंधन बदलाव के दौरान लोउ ग्रास्नर (Lou Gerstner) ने स्थापित कोड में छुट दी, आई बी एं के कर्मचारियों के अन्य बड़े प्रौद्योगिकी कंपनियों के प्रतिरूप समान रूप के लिए ड्रेस और व्यवहार को सामान्य बनाया
आई बी एं कंपनी मूल्य और "जेम"
2003, में आई बी एं ने कंपनी के मूल्यों को फिर से लिखने के लिए एक महत्त्वपूर्ण परियोजना शुरू की। कंपनी ने जेम प्रौद्योगिकी का प्रयोग करते हुए 50,000 कर्मचारियों के साथ लगभग तीन दिनों तक प्रमुख व्यापार मुद्दे पर इंटरनेट आधारित ऑनलाइन चर्चा की मेजबानी की। उस चर्चा का विश्लेषण विषय के ऑनलाइन टिप्पणियों के लिए परिष्कृत पाठ विश्लेषण सॉफ्टवेर (ई क्लासिफिएर) के द्वारा विश्लेषण किया गया। २००३ में परिणाम स्वरूप कंपनी मूल्य को तीन आधुनिक व्यापार, बाज़ार स्थान और कर्मचारी विचारों को प्रतिबिंबित करने के लिए अद्यतन किया गया ; "हर ग्राहक की सफलता के लिए समर्पण", " नवप्रवर्तन हमारी कंपनी और दुनिया के लिए माने रखती है", "सभी संबंधों में विश्वास और वैयक्तिक जिम्मेदारी होनी चाहिए".[21]
2004, में एक और जेम का आयोजन हुआ जिसमें ७२ घंटे का 52,000 कर्मचारियों ने सर्वोतम बदलाव का अभ्यास किया था। वे पहले पहचान की हुई मूल्यों के कार्यान्वयन का समर्थन के लिए व्यवहार्य विचारों पर केंद्रित है। आई बी एं को मूल्यों के समर्थन के लिए प्रमुख विचारों का चयन करने के लिए अनुमति देने के लिए एक नई पोस्ट-जेम अंकन वृतांत का विकास हुआ। निदेशक मंडल इस जेम का आह्वान कर रहे थे जब 2005. के बसंत में पल्मिसनो के वेतन में वृद्धि हो रही थी।[22]
जुलाई और सितम्बर 2006, में पल्मिसनो ने एक और जेम शुरू किया जिसे . कहते हैं। नव प्रवर्तन आज तक का सबसे बड़ा ऑनलाइन बुद्धिशीलता सत्र था जिसमें 104 देशों से 150,000 से भी ज्यादा सहभागी थे। आई बी एं कर्मचारी, आई बी एं कर्मचारियों के पारिवारिक सदस्यों, विश्वविद्यालय, साझेदारों और ग्राहकों आदि इसके इस कार्यक्रम में भाग लेने वाले थे। नवप्रवर्तन 72 घंटे का दो सत्रों में विभाजित था (एक जुलाई में और एक सितम्बर में) और 46,000 से भी ज्यादा विचार उत्पन्न हुआ। नवम्बर 2006, में नवप्रवर्तन जेम के सर्वश्रेष्ठ दस विचारों पर आई बी एं ने $US 100 मिलियन निवेश करने की घोषणा की। [23]
सार्वजनिक स्रोत
आई बी एं सार्वजानिक स्रोत पहल (Open Source Initiative) के द्वारा प्रभावित है और 1998. में लिनुक्स का समर्थन करना शुरू किया।[24] कंपनी ने सेवाओ और सॉफ्टवेर पर आधारित लिनुक्स पर आई बी एं लिनुक्स प्रौद्योगिकी केन्द्र (Linux Technology Center) के मध्यम से अरबों डॉलर पूंजी लगा दिया, जिसमें 300 लिनुक्स कर्नेल (Linux kernel) डेवलपर से भी ज्यादा शामिल है।[25] आई बी एं ने भी अलग सार्वजानिक स्रोत लाइसेंस (open-source license) जारी किया, जैसे स्वतंत्र सॉफ्टवेर ग्रहण (Eclipse) ढांचा मंच (दान के समय लगभग उसका मूल्य US$40 मिलियन)[26] और जावा (Java) पर आधारित सम्बन्ध परक प्रबंधन प्रणाली (relational database management system) (आरदीबीएम्एस) अपाच्य डर्बी (Apache Derby). आई बी एं का सार्वजानिक भागीदारी मुसीबत से मुक्त नहीं है, halanki (स्को बनाम आई बी एम् (SCO v. IBM) देखें)
कॉर्पोरेट मामलें
विविधता और कार्यबल मुद्ये
जब कंपनी ने अक्षम दिग्गजों को किराये पर लिया तब कम से कम प्रथम विश्व युद्ध तक आई बी एं ने कार्यबल विविधता और समान अवसर को बढ़ाने के लिए बहुत प्रयास किया। आई बी एं एकमात्र ऐसा प्रौद्योगिकी कंपनी था जिसने 2004, के वोर्किंग मदर पत्रिका में शीर्ष १० में था और 2005 (में दो प्रौद्योगिकी कंपनी में एक था (वह दूसरा कंपनी हेवलेट पेक्कार्ड था).[27][28]
सितम्बर 21 (September 21), 1953, में थॉमस जे वाटसन (Thomas J. Watson), जो उस समय सी ई ओ थे, उन्होंने आई बी एं के सभी कर्मचारियों को विवादस्पद पत्र भेजा की आई बी एं सबसे अच्छे लोगों को लेना चाहती है चाहे किसी भी जाती, किसी भी मूल राष्ट्र या किसी भी लिंग का हो 1984 में, आई बी एं यौन वरीयता को सम्मिलित किया। उन्होंने ने कहाकि आई बी एं को यह प्रतिस्पर्धात्मक लाभ देगा क्योंकि आई बी एं प्रतिभावान लोगों को लेने में सक्षम होगा और इसके प्रतिस्पर्धी इससे नीचे चले जायेंगे.[29]
आई बी एं ने परंपरागत मजदूर यूनियन (labor union) संघ का विरोध किया है, हालाँकि सयुंक्त राष्ट्र के बाहर कुछ आई बी एं श्रमिकों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
1990s, के दशक में रोकड़ शेष योजना रूपांतरण के साथ दो प्रमुख पेंशन (pension) प्रोग्राम में बदलाव आया, परिणाम स्वरूप एक कर्मचारी ने आयु भेदभाव (age discrimination) और वर्ग कारवाई (class action) का मुकदमा लगाया.आई बी एं कर्मचारियों ने मुकदमा जीत लिया और आंशिक अवस्थापन में आए, हालाँकि अपील अभी भी चल रहे हैं। 2006में भी आई बी एं ने एक विशेष वर्ग कारवाई का मुकदमा निपटाया.[30]
अगर आई बी एं के इतिहास को देखा जाए तो उसने कुछ बड़े स्केल वाले लोगों को नौकरी से मुक्त करने के साथ साथ लंबे समय तक काम करने वाले कर्मचारियों के साथ अच्छे सम्बन्ध रहा है। हाल के ही वर्षों में वहाँ कार्यबल में व्यापक कटौती हुई है क्योंकि आई बी एं बाज़ार की बदलती स्थितियों और गिरावट का लाभ को धारण करने का प्रयास किया है। 2005, की पहली तिमाही में संभावित आमदनी में गिरावट आने के बाद आई बी एं ने यूरोप में 14,500 पदों को अपने कार्यबल निकाल दिया। मई 2005, में आई बी एं आयरलैण्ड ने अपने स्टाफ से कहा की एं डी (लघु इलेक्ट्रानिक्स डिविजन) सुविधा 2005 के अंत तक बंद हो गई थी और स्टाफ से चुकौता करने का प्रस्ताव दिया। तथापि, सभी कर्मचारियों ने साथ रहने की कामना की और उन्हें फिर से आई बी एं आयरलैण्ड में रोजगार मिला। पुरा उत्पादन सिंगापूर के एक कंपनी जिसका नाम अम्कोर था, में स्थानांतरित हो गई जिसने आई बी एं के माइक्रो इलेक्ट्रानिक्स व्यापार को सिंगापूर में खरीद लिया और सुविधाओं के खरीदने के बाद आई बी एं ने कंपनी को पुरा भर क्षमता का वादा किया।जून 8,2005, में आई बी एं कनाडा लिमिटेड ने लगभग 700 पदों को निकाल दिया। आई बी एं का यह परियोजना "पुनः संतुलन" का एक रणनीति था व्यवसायिक कौशल और व्यापारों का पोर्टफोलियो अनेक कर्मचारियों की भर्ती और लगातार वृद्धि कम मजदूरी के कारण हुआ है और इस बात का साक्षी आई बी एं भारत (IBM India) और चाइना के आई बी एं कार्यालय, फिल्लिपेंस और कोस्टा रिका रहे हैं।
अक्टूबर 10 (October 10),2005, में आई बी एं विश्व के प्रमुख कंपनियों में आई बी एं पहला कंपनी बना जिसने यह प्रतिज्ञा की कि औपचारिक रूप से आनुवंशिक जानकारी (genetic information) का प्रयोग अपने रोज़गार के फैसले में नहीं करेगा। यह कुछ ही महीनो में आई बी एं के राष्ट्रीय भुगौलिक सोसाइटी (National Geographic Society) के जेनोग्रफिक परियोजना (Genographic Project) में समर्थन कि घोषणा के बाद आ गया।
समलैंगिक अधिकार
आई बी एं अपने कर्मचारियों को विरोधी भेदभाव खंड के साथ एक ही यौन साझेदारों का लाभ देता है। मानव अधिकार अभियान (Human Rights Campaign) लगातार आई बी एं को 2003 तक समलैंगिक अनुकूल होने का अपने सूचकांक में 100% देता है (2002, के वर्ष में प्रमुख कंपनियों का संकलन शुरू हुआ था, (आई बी एं ने 86% स्कोर किया था).[31]
लोगोस
1924 to 1946. तक लोगो (logo) का इस्तमाल हुआ इस लोगो को ग्लोब को इंटरनेशनल शब्द के रूप में सुझाव दिया गया था,[32]
1947 से 1956 तक लोगो का इस्तमाल किया गया परिचित "ग्लोब" को साधारण शब्द "आई बी एम्" जिसे टाइप फेस में "बेटन बोल्ड", से बदला गया था।[33]
1956 से 1972. तक लोगो का इस्तमाल किया गया।"आई बी एम्" शब्द और ठोस, आधार और संतुलित रूप धारण किया था।[34]
1972, में क्षैतिज पट्टियाँ अब ठोस शब्दों का सुझाव देता है जो "गति और गतिशीलता" में परिवर्तन हुआ है। यह लोगो (दो संस्करणों में, ८ बार और १३ बार), के साथ साथ पिछला वाला ग्राफिक डिजाइनर पाल रोंद (Paul Rand) के द्वारा डिजाईन किया गया है।[35]
1970 में जो लोगो (Logo) का डिजाईन किया गया था फोटो कोपिएर का तकनीकी सीमा संवेदनशील हो जाती थी, जिसे बाद में व्यापक कार्य में तैनात किया गया। 1970s, में बृहत् ठोस क्षेत्र के साथ इस लोगो का कोपिएर के द्वारा ख़राब नक़ल हुई थी, इसलिए कंपनी ने ठोस बड़े क्षेत्रों से बचे हुए लोगो को पसंद किया। 1972 का आई बी एं लोगो इस प्रवृति का एक उदाहरण है। 1980 के दशक के मध्य में डिजिटल कोपियर के आगमन के साथ यह तकनीकी अवरोध बड़े पैमाने पर लुप्त हो गया; लगभग इसी समय, 13- बार लोगो को इसके विपरीत कारण के लिए छोड़ दिया गया उस समय के कम रेजोल्यूशन डिजिटल प्रिंटर (240 डॉट प्रति इंच) को ठीक प्रकार से प्रस्तुत करना मुश्किल था।
निदेशक मंडल
आई बी एं निदेशक मंडल (board of directors) के वर्तमान सदस्य हैं;
हेर्स्त पत्रिका (Hearst Magazines) के कैथलीन ब्लैक प्रेसीडेंट
जॉन्स होपकिंस विश्वविद्यालय (Johns Hopkins University) के अध्यक्ष विलियम ब्रोडी (William Brody)
अमेरिकन एक्सप्रेस (American Express) कंपनी के अध्यक्ष और सी ई ओ कें चेनौल्ट (Ken Chenault)
ऐ बी बी बोर्ड लिमिटेड के अध्यक्ष जुएर्गें दोर्मन
सयुंक्त पार्सल सेवा (United Parcel Service), इंक के अध्यक्ष और सी ई ओ मिचल एस्केव (Michael Eskew)
रेंसेलिअर पोलीटेक्निक संसथान (Rensselaer Polytechnic Institute) के अध्यक्ष शिरले अन जेक्सन (Shirley Ann Jackson)
मिनोरू मकिहरा वरिष्ठ कंपनी सलाहकार और मित्शुबिशी कंपनी (Mitsubishi Corporation) के भूतपूर्व अध्यक्ष.
लूसिया नोटों प्रबंधन भागीदार, मझधार भागीदार एल एल सी
अध्यक्ष और सी ई ओ जेम्स डब्लू. ओवेन्स (James W. Owens). कैटरपिलर इंक (Caterpillar Inc.)
अध्यक्ष samual जे palmisano, आई बी एं का अधिपति और सी ई ओ (Samuel J. Palmisano)
अधिपति सपेरो जों, धर्माथ फाउंडेशन डोरिस दूके (Doris Duke)
सिडनी तुरेल, अध्यक्ष और सीईओ, एली लिली और कंपनी (Eli Lilly and Company)
लोरेंजो ज़म्ब्रानो (Lorenzo Zambrano) अध्यक्ष और CEO, cemex (Cemex) SAB de CV
इन्हें भी देखें
IBM AIX (ऑपरेटिंग सिस्टम) (IBM AIX (operating system))
IBM OS/2 (IBM OS/2)
IBM पीएस/2 (IBM PS/2)
IBM पीसी-डॉस (IBM PC-DOS)
IBM पीसी (IBM PC)
IBM सिस्टम/360 (IBM System/360)
IBM सिस्टम /370 (IBM System/370)
IBM ESA/390 (IBM ESA/390)
IBM सिस्टम z9 (IBM System z9), IBM सिस्टम z10 (IBM System z10)
IBM सिस्टम पी (IBM System p), पावर6 (POWER6)
IBM सिस्टम (IBM System i)
IBM पीसी के साथ (या आई बी एं पीसी क्लोन) (IBM PC compatible (or IBM PC clone))
कंप्यूटर सिस्टम के निर्माताओं की सूची (List of Computer System Manufacturers)
आई बी एं अधिग्रहण/उपलब्धि और लाभ की सूची (List of IBM acquisitions and spinoffs)
आई बी एं उत्पादों कि सूची (List of IBM products)
स्को बनाम आई बी एम् (SCO v. IBM)
आई बी एं रोचेस्टर (IBM Rochester)
आई बी एं और प्रलय (IBM and the Holocaust)
आई बी एं का गहन विचार (शतरंज कंप्यूटर) (Deep Thought (chess computer))
एक्सट्रीम ब्लू (Extreme Blue)
आई ई ई ई (IEEE)
सन्दर्भों और पन्ने के नीचे कि टीका.
आगे का अध्ययन/ अतिरिक्त अध्ययन
लुईस वि.गेर्स्त्नेर, जूनियर. (Louis V. Gerstner, Jr.)2002किसने कहा कि हाथी नाच नहीं सकता?हार्पर कॉलिन्स ISBN 0-00-715448-8रॉबर्ट स्लाटर 1999बिग ब्लू की बचत; आई बी एं का लोउ गर्स्त्नर हैमेक ग्रो हिल एमर्सन डब्लू. पुघ 1996आई बी एं ईमारत; य्द्योग का आकार मासचुसेट्स प्रोद्यौगिकी संसथान रॉबर्ट हेलर 1994आई बी एं का भाग्य थोड़ा भूरा पाल करोल 1993बिग ब्लुस; आई बी एं के द्वारा नहीं बनाया हुआ क्राउन प्रकाशक रोय ऐ बौअर इत अल 1992सिल्वर लेक परियोजना; आई बी एं में परिवर्तन (AS/400)ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय प्रेस थॉमस जे वाटसन जूनियर.1990पिता, पुत्र & को; आई बी एं में मेरा जीवन और जीवन से आगे बंटन रॉबर्ट सोबेल (Robert Sobel) 1988आई बी एं बनाम जापान; भविष्य के लिए संघर्ष डेविड मर्सर 1987आई बी एम्; दुनिया का सबसे सफल कंपनी प्रबंधित हैकोगन पृष्ठ रिचर्ड थॉमस देलामर्टर 1986बिग ब्लू; आई बी एं के शक्ति का उपयोग और दुरूपयोगमैकमिलन बुक रोगर्स 1986आई बी एं द्वार/उन्नति/दिशा/पथहार्पर & रो रॉबर्ट सोबेल (Robert Sobel)1981आई बी एम्; भीमाकार में संक्रमण/संक्रांति ISBN 0-8129-1000-1सम्मे चितुम (Samme Chittum)2004न्यू यार्क टाईम्स रॉबर्ट सोबेल (Robert Sobel)1981थॉमस वाटसन, आई बी एं के वरिष्ठ और कंप्यूटर kranti (थॉमस जे वाटसन का जीवनी (Thomas J. Watson))ISBN 1-893122-82-4
बाहरी सम्बन्ध/बाहरी लिंक्स
श्रेणी:Companies established in 1888
श्रेणी:Companies based in Westchester County, New York
श्रेणी:Dow Jones Industrial Average
श्रेणी:Electronics companies of the United States
श्रेणी:Point of sale companies
श्रेणी:Semiconductor companies
श्रेणी:Computer storage companies
श्रेणी:Computer companies of the United States
श्रेणी:Computer hardware companies
श्रेणी:Software companies of the United States
श्रेणी:UML Partners
श्रेणी:Monopolies
श्रेणी:Multinational companies | आईबीएम कंपनी का मुख्यालय कहाँ पर है? | संयुक्त राष्ट्र के अर्मोंक, न्यू यॉर्क में | 176 | hindi |
6eccd025b | संत ज्ञानेश्वर महाराष्ट्र तेरहवीं सदी के एक महान सन्त थे जिन्होंने ज्ञानेश्वरी की रचना की। संत ज्ञानेश्वर की गणना भारत के महान संतों एवं मराठी कवियों में होती है। ये संत नामदेव के समकालीन थे और उनके साथ इन्होंने पूरे महाराष्ट्र का भ्रमण कर लोगों को ज्ञान-भक्ति से परिचित कराया और समता, समभाव का उपदेश दिया। वे महाराष्ट्र-संस्कृति के 'आद्य-प्रवर्तकों' में भी माने जाते हैं।
जीवनी
संत ज्ञानेश्वर का जन्म सन १२७५ ईसवी में महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में पैठण के पास गोदावरी नदी के किनारे आपेगाँव में भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को हुआ था। इनके पिता का नाम विट्ठल पंत एवं माता का नाम रुक्मिणी बाई था। इनके पिता उच्च कोटि के मुमुक्षु तथा भगवान् विट्ठलनाथ के अनन्य उपासक थे। विवाह के उपरांत उन्होंने संन्यास दीक्षा ग्रहण की थी, किंतु उन्हें अपने गुरुदेव की आज्ञा से फिर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना पड़ा। इस अवस्था में उन्हें निवृत्तिनाथ, ज्ञानदेव तथा सोपान नामक तीन पुत्र एवं मुक्ताबाई नाम की एक कन्या हुई। संन्यास-दीक्षा-ग्रहण के उपरांत इन संतानों का जन्म होने के कारण इन्हें 'संन्यासी की संतान' यह अपमानजनक संबोधन निरंतर सहना पड़ता था। विट्ठल पंत को तो उस समय के समाज द्वारा दी गई आज्ञा के अनुसार देहत्याग तक करना पड़ा था।
पिता की छत्रछाया से वंचित से अनाथ भाई-बहन जनापवाद के कठोर आघात सहते हुए 'शुद्धिपत्र' की प्राप्ति के लिये उस समय के सुप्रसिद्ध धर्मक्षेत्र पैठन में जा पहुँचे। किम्वदंती प्रसिद्ध है: ज्ञानदेव ने यहाँ उनका उपहास उड़ा रहे ब्राह्मणों के समक्ष भैंसे के मुख से वेदोच्चारण कराया था। गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित इनके जीवन-परिचय के अनुसार - ".....1400 वर्ष के तपस्वी चांगदेव के स्वागत के लिए जाना था, उस समय ये दीवार बैठे थे, उसी दीवार को उक्त संत के पास चला कर ले गये। " मराठी गीत में यह घटना यों गाई जाती रही है-"चालविली जड़ भिंती। हरविली चांगयाची भ्रान्ति।" इनके इस अलौकिक चमत्कार से प्रभावित हो पैठन (पैठण) के प्रमुख विद्वानों ने उन चारों भाई बहनों को शक संवत १२०९ (सन् १२८७) में 'शुद्धिपत्र' प्रदान कर दिया।
उक्त शुद्धिपत्र को लेकर ये चारों प्रवरा नदी के किनारे बसे नेवासे ग्राम में पहुँचे। ज्ञानदेव के ज्येष्ठ भ्राता निवृत्तिनाथ के नाथ संप्रदाय के गहनीनाथ से उपदेश मिला था। इन्होंने उस आध्यात्मिक धरोहर को ज्ञानदेव के द्वारा अपनी छोटी बहन मुक्ताबाई तक यथावत् पहुँचा दिया। इस प्रकार परमार्थमार्ग में कृतार्थ एवं सामाजिक दृष्टि से पुनीत ज्ञानदेव ने आबालवृद्धों को अध्यात्म का सरल परिचय प्राप्त कराने के उद्देश्य से श्रीमद्भगवद्गीता पर मराठी में टीका लिखी। इसी का नाम है भावार्थदीपिका अथवा ज्ञानेश्वरी। इस ग्रंथ की पूर्णता शक संवत १२१२ नेवासे गाँव के महालय देवी के मंदिर में हुई। कुछ विद्वानों का अभिमत है- इन्होंने अभंग-वृत्त की एक मराठी टीका योगवासिष्ठ पर भी लिखी थी, पर दुर्भाग्य से वह अप्राप्य है।
उन दिनों के लगभग सारे धर्मग्रंथ संस्कृत में होते थे और आम जनता बहुत संस्कृत नहीं जानती थी, अस्तु तेजस्वी बालक ज्ञानेश्वर ने केवल १५ वर्ष की उम्र में ही गीता पर मराठी की बोलचाल भाषा में 'ज्ञानेश्वरी'नामक गीता-भाष्य की रचना करके मराठी जनता की उनकी अपनी भाषा में उपदेश कर जैसे ज्ञान की झोली ही खोल दी। स्वयं टीकाकार ने लिखा है- "अब यदि मैं गीता का ठीक-ठीक विवेचन मराठी (देशी) भाषा में करूं तो इस में आश्चर्य का क्या कारण है ...गुरु-कृपा से क्या कुछ सम्भव नहीं ?"
इस ग्रंथ की समाप्ति के उपरांत ज्ञानेश्वर ने अपने राजनीतिक सिद्धांतों की स्वतंत्र विवेचना करनेवाले 'अमृतानुभव' नामक दूसरे ग्रंथ का निर्माण किया। इस ग्रंथ के पूर्ण होने के बाद ये चारों भाई-बहन पुणे के निकटवर्ती ग्राम आलंदी आ पहुँचे। यहाँ से इन्होंने योगिराज चांगदेव को ६५ ओवियों (पदों) में जो पत्र लिखा वह महाराष्ट्र में 'चांगदेव पासष्ठी' नाम से विख्यात है।
ज्ञानदेव जब तीर्थयात्रा के उद्देश्य से आलंदी से चले उस समय इनके साथ इनके भाई, बहन, दादी, तथा विसोवा खेचर, गोरा कुम्हार आदि अनेक समकालीन संत भी थे। विशेषतया नामदेव तथा ज्ञानदेव के आपसी संबंध इतने स्नेहपूर्ण थे कि ऐसा लगता था मानो इस तीर्थयात्रा के बहाने ज्ञान और कर्म दोनों तपस्वियों के भेस में साकार रूप धारण कर एकरूप हो गए हों। तीर्थयात्रा से लौटते हुए ज्ञानदेव पंढरपुर मार्ग से आलंदी आ पहुँचे। विद्वानों का अनुमान हैं कि ज्ञानदेव ने इसी काल में अपने 'अभंगों' की रचना की होगी।
बालक से लेकर वृद्धों तक को भक्तिमार्ग का परिचय करा कर भागवत-धर्म की पुन:स्थापना करने बाद ज्ञानदेव ने आलंदी ग्राम में अत्यंत युवा होते हुए भी जीवित समाधि लेने का निश्चय किया। मात्र २१ वर्ष तीन माह और पांच दिन की अल्पायु में वह इस नश्वर संसार का परित्याग कर समाधिस्थ हो गये। ज्ञानदेव के समाधिग्रहण का वृत्तांत संत नामदेव ने अत्यंत हृदयस्पर्शी शब्दों में लिखा है। अपने गुरु निवृत्तिनाथ को अंतिम वंदन कर ज्ञानदेव स्थितप्रज्ञ के समान समाधिमंदिर में जा बैठे। तदुपरांत स्वयं गुरु ने समाधिमंदिर की द्वारशिला बंद कर दी। ज्ञानेश्वर, जिन्हें ध्यानेश्वर भी कहा जाता है, ने यह जीवित समाधि ग्राम आलिंदी संवत में शके १२१७ (वि. संवत १३५३ (सन् १२९६) की मार्गशीर्ष वदी (कृष्ण) त्रियोदशी को ली, जो पुणे के लगभग १४ किलोमीटर दूर अब एक प्रसिद्ध तीर्थ बन गया है।
कृतियाँ
ज्ञानेश्वर जी की लिखी 'ज्ञानेश्वरी', 'अमृतानुभव', 'चांगदेव पासठी' तथा 'अभंग' जैसी कई कृतियाँ सर्वमान्य हैं। कुछ वर्ष पूर्व यह सिद्धांत उपस्थित किया गया था कि ज्ञानेश्वरी के लेखक तथा अभंग के रचयिता, एक ही नाम के दो भिन्न व्यक्ति हैं। किंतु अब अनेक पुष्ट आधारों से इस सिद्धांत का खंडन होकर यह बात सर्वमान्य हो चुकी है कि ये रचनाएं ही व्यक्ति संत ज्ञानेश्वर/ ध्यानेश्वर की ही हैं।
अपने अभंगों में ज्ञानेश्वर ने तत्वचर्चा की गहराइयों को न नापते हुए अधिकार वाणी से साधारण जनता को आचारधर्म की शिक्षा दी है। फल यह हुआ कि बालकों से वृद्धों तक के मन पर यह अभंगवाणी पूर्ण रूप से प्रतिबिंबित हुई। गुरुकृपा, नामस्मरण और सत्संग ये परमार्थपथ की तीन सीढ़ियाँ हैं, जिनका दिग्दर्शन संत ज्ञानेश्वर ने अपनी शिक्षाओं में मूलतः कराया है।
ज्ञानदेव जैस श्रेष्ठ संत थे वैसे ही वे श्रेष्ठ कवि भी थे। उनकी आध्यात्मिक साधना काव्यरस से आप्लावित है, उनकी कविता को दर्शन की गुरु-गंभीरता मिली है। यह सत्य है कि ज्ञानेश्वर की अभंगवाणी 'आप-बीती' जैसी होने के कारण उसमें जगह जगह रस-स्रोत दृष्टव्य रहे हैं, तथापि उनके ज्ञान की पूर्णता ज्ञानेश्वरी में ही हुई है। काव्य के दोनों अंगों, रस और अलंकार का ज्ञानेश्वरी में सुंदर समन्वय है।
तत्वविचार तथा काव्यसौंदर्य के समान ही महाराष्ट्र के पारमार्थिक जीवन में भी ज्ञानेश्वर ने जो कार्य किए वे सभी क्रांतिकारी थे। उन दिनों कर्मकांड का बोलबाला था, समाज का नेतृत्व करनेवाली पंडितों की परंपरा प्रभावहीन हो चुकी थी। ऐसी अवस्था में अध्यात्म-ज्ञान की महत्ता स्थापित करते हुए सर्वसाधारण मानव के आकलन योग्य भक्तिमार्ग का प्रतिपादन ज्ञानदेव ने किया। पंडितों के ग्रंथों तक सीमित रहनेवाला अध्यात्म दर्शन शूद्रादिकों के लिये भी सहज सुलभ हो, इसे ध्यान में रखते हुए' ज्ञानेश्वरी' की रचना की गई। 'नीच' समझे जाने वाले कुल में जन्म लेने के कारण मनुष्य को सामाजिक दृष्टि से कितना ही 'निम्न' क्यों न माना जाता हो, परंतु ईश्वर के यहाँ सभी को समान आश्रय मिलता है, इस सिद्धांत को प्रतिपादित करने का श्रेय ज्ञानेश्वर को है। महाराष्ट्र में इनके ग्रंथ ज्ञानेश्वरी को 'माउली' या माता भी कहा जाता है। दूसरे उपदेश एवं आश्वासन के कारण उस समय महाराष्ट्र की सभी जातियों में भगवद्भक्तों की एक पीढ़ी ही निर्मित हो गई और मराठी भावुक नर-नारी अपनी अपनी भाषा में पंढरपुर के भगवान पांडुरंग या विट्ठल की महिमा गाने लगे। भगवान् केवल कठोर न्यायाधीश ही नहीं, अपितु सहजवत्सल पिता भी हैं। उनकी दृष्टि में एक माता की सी करुणा है- यह बात संपूर्ण महाराष्ट्र में ज्ञानेश्वर ने अपनी सादी-मधुर-भाषा में बतलाई। इसी कारण यहाँ पुनः एक बार भागवत धर्म की स्थापना हुई तथा इस संप्रदाय के प्रमुख धर्मग्रंथ के रूप में 'ज्ञानेश्वरी' की भी समान्यजन के बीच प्रतिष्ठा हुई। इसी के द्वारा स्फूर्ति प्राप्त कर अनेक भागवत कवियों ने मराठी भाषा में ग्रंथ-रचना की और भक्ति-मार्ग में एक समृद्ध काव्य-परंपरा का निर्माण किया इसीलिये ज्ञानदेव महाराष्ट्र-संस्कृति के आद्य-प्रवर्तक माने जाने लगे।
इन्हें भी देखें
ज्ञानेश्वर महाराज द्वारा लिखित भावार्थ दीपिका - गीता पर टीका, ज्ञान का भण्डार है। गीताप्रेस, गोरखपुर ने हिंदी में उनकी यह टीका प्रकाशित की है जिसके संवत २०७३ तक नौ संस्करण मुद्रित हो चुके हैं |इस ग्रन्थ का अनेक भाषाओँ में अनुवाद हुआ है |
संत ज्ञानेश्वरके बारे में बनाई गई हिंदी फिल्म - संत ज्ञानेश्वर
श्रेणी:सन्त
श्रेणी:मराठी कवि
श्रेणी:समाज सुधारक
श्रेणी:अध्यात्म गुरु
श्रेणी:टीकाकार | संत ज्ञानेश्वर के गुरु का नाम क्या है? | निवृत्तिनाथ | 828 | hindi |
8be4d3c46 | मस्तिष्क जन्तुओं के केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र का नियंत्रण केन्द्र है। यह उनके आचरणों का नियमन एंव नियंत्रण करता है। स्तनधारी प्राणियों में मस्तिष्क सिर में स्थित होता है तथा खोपड़ी द्वारा सुरक्षित रहता है। यह मुख्य ज्ञानेन्द्रियों, आँख, नाक, जीभ और कान से जुड़ा हुआ, उनके करीब ही स्थित होता है। मस्तिष्क सभी रीढ़धारी प्राणियों में होता है परंतु अमेरूदण्डी प्राणियों में यह केन्द्रीय मस्तिष्क या स्वतंत्र गैंगलिया के रूप में होता है। कुछ जीवों जैसे निडारिया एंव तारा मछली में यह केन्द्रीभूत न होकर शरीर में यत्र तत्र फैला रहता है, जबकि कुछ प्राणियों जैसे स्पंज में तो मस्तिष्क होता ही नही है। उच्च श्रेणी के प्राणियों जैसे मानव में मस्तिष्क अत्यंत जटिल होते हैं। मानव मस्तिष्क में लगभग १ अरब (१,००,००,००,०००) तंत्रिका कोशिकाएं होती है, जिनमें से प्रत्येक अन्य तंत्रिका कोशिकाओं से १० हजार (१०,०००) से भी अधिक संयोग स्थापित करती हैं। मस्तिष्क सबसे जटिल अंग है।[1]
मस्तिष्क के द्वारा शरीर के विभिन्न अंगो के कार्यों का नियंत्रण एवं नियमन होता है। अतः मस्तिष्क को शरीर का मालिक अंग कहते हैं। इसका मुख्य कार्य ज्ञान, बुद्धि, तर्कशक्ति, स्मरण, विचार निर्णय, व्यक्तित्व आदि का नियंत्रण एवं नियमन करना है। तंत्रिका विज्ञान का क्षेत्र पूरे विश्व में बहुत तेजी से विकसित हो रहा है। बडे-बड़े तंत्रिकीय रोगों से निपटने के लिए आण्विक, कोशिकीय, आनुवंशिक एवं व्यवहारिक स्तरों पर मस्तिष्क की क्रिया के संदर्भ में समग्र क्षेत्र पर विचार करने की आवश्यकता को पूरी तरह महसूस किया गया है। एक नये अध्ययन में निष्कर्ष निकाला गया है कि मस्तिष्क के आकार से व्यक्तित्व की झलक मिल सकती है। वास्तव में बच्चों का जन्म एक अलग व्यक्तित्व के रूप में होता है और जैसे जैसे उनके मस्तिष्क का विकास होता है उसके अनुरुप उनका व्यक्तित्व भी तैयार होता है।[2]
मस्तिष्क (Brain), खोपड़ी (Skull) में स्थित है। यह चेतना (consciousness) और स्मृति (memory) का स्थान है। सभी ज्ञानेंद्रियों - नेत्र, कर्ण, नासा, जिह्रा तथा त्वचा - से आवेग यहीं पर आते हैं, जिनको समझना अर्थात् ज्ञान प्राप्त करना मस्तिष्क का काम्र है। पेशियों के संकुचन से गति करवाने के लिये आवेगों को तंत्रिकासूत्रों द्वारा भेजने तथा उन क्रियाओं का नियमन करने के मुख्य केंद्र मस्तिष्क में हैं, यद्यपि ये क्रियाएँ मेरूरज्जु में स्थित भिन्न केन्द्रो से होती रहती हैं। अनुभव से प्राप्त हुए ज्ञान को सग्रह करने, विचारने तथा विचार करके निष्कर्ष निकालने का काम भी इसी अंग का है।
मस्तिष्क की रचना
मस्तिष्क में ऊपर का बड़ा भाग प्रमस्तिष्क (hemispheres) कपाल में स्थित हैं। इनके पीछे के भाग के नचे की ओर अनुमस्तिष्क (cerebellum) के दो छोटे छोटे गोलार्घ जुड़े हुए दिखाई देते हैं। इसके आगे की ओर वह भाग है, जिसको मध्यमस्तिष्क या मध्यमस्तुर्लुग (midbrain or mesencephalon) कहते हैं। इससे नीचे को जाता हुआ मेरूशीर्ष, या मेदुला औब्लांगेटा (medulla oblongata), कहते है।
प्रमस्तिष्क और अनुमस्तिष्क झिल्लियों से ढके हुए हैं, जिनको तानिकाएँ कहते हैं। ये तीन हैं: दृढ़ तानिका, जालि तानिका और मृदु तानिका। सबसे बाहरवाली दृढ़ तानिका है। इसमें वे बड़ी बड़ी शिराएँ रहती हैं, जिनके द्वारा रक्त लौटता है। कलापास्थि के भग्न होने के कारण, या चोट से क्षति हो जाने पर, उसमें स्थित शिराओं से रक्त निकलकर मस्तिष्क मे जमा हो जाता है, जिसके दबाव से मस्ष्तिष्क की कोशिकाएँ बेकाम हो जाती हैं तथा अंगों का पक्षाघात (paralysis) हो जाता है। इस तानिका से एक फलक निकलकर दोनों गोलार्धो के बीच में भी जाता है। ये फलक जहाँ तहाँ दो स्तरों में विभक्त होकर उन चौड़ी नलिकाओं का निर्माण करते हैं, जिनमें से हाकर लौटनेवाला रक्त तथा कुछ प्रमस्तिष्क मेरूद्रव भी लौटते है।
प्रमस्तिष्क
इसके दोनों गोलार्घो का अन्य भागों की अपेक्षा बहुत बड़ा होना मनुष्य के मस्तिष्क की विशेषता है। दोनों गोलार्ध कपाल में दाहिनी और बाईं ओर सामने ललाट से लेकर पीछे कपाल के अंत तक फैले हुए हैं। अन्य भाग इनसे छिपे हुए हैं। गोलार्धो के बीच में एक गहरी खाई है, जिसके तल में एक चौड़ी फीते के समान महासंयोजक (Corpus Callosum) नामक रचना से दोनों गोलार्ध जुरे हुए हैं। गोलार्धो का रंग ऊपर से घूसर दिखाई देता है।
गोलार्धो के बाह्य पृष्ठ में कितने ही गहरे विदर बने हुए हैं, जहाँ मस्तिष्क के बाह्य पृष्ठ की वस्तु उसके भीतर घुस जाती है। ऐसा प्रतीत होता है, मानो पृष्ठ पर किसी वस्तु की तह को फैलाकर समेट दिया गया है, जिससे उसमें सिलवटें पड़ गई हैं। इस कारण मस्तिष्क के पृष्ठ पर अनेक बड़ी छोटी खाइयाँ बन जाती हैं, जो परिखा (Sulcus) कहलाती हैं। परिखाओं के बीच धूसर मस्तिष्क पृष्ठ के मुड़े हुए चक्रांशवतद् भाग कर्णक (Gyrus) कहलाते हैं, क्योंकि वे कर्णशुष्कली के समान मुडे हुए से हैं। बडी और गहरी खाइयॉ विदर (Fissure) कहलाती है और मस्तिष्क के विशिष्ट क्षेत्रों को पृथक करती है। मस्तिष्क के सामने, पार्श्व तथा पीछे के बड़े-बड़े भाग को उनकी स्थिति के अनुसार खांड (Lobes) तथा खांडिका (Lobules) कहा गया है। गोलार्ध के सामने का खंड ललाटखंड (frontal lobe) है, जो ललाटास्थि से ढँका रहता है। इसी प्रकार पार्श्विका (Parietal) खंड तथा पश्चकपाल (Occipital) खंड तथा शंख खंड (temporal) हैं। इन सब पर परिशखाएँ और कर्णक बने हुए हैं। कई विशेष विदर भी हैं। चित्र 2. और 3 में इनके नाम और स्थान दिखाए गए हैं। कुछ विशिष्ट विदरों तथा परिखाओं की विवेचना यहाँ की जाती है। पार्शिवक खंड पर मध्यपरिखा (central sulcus), जो रोलैडो का विदर (Fissure of Rolando) भी कहलाती है, ऊपर से नीचे और आगे को जाती है। इसके आगे की ओर प्रमस्तिष्क का संचालन भाग है, जिसकी क्रिया से पेशियाँ संकुचित होती है। यदि वहाँ किसी स्थान पर विद्युतदुतेजना दी जाती है तो जिन पेशियों को वहाँ की कोशिकाओं से सूत्र जाते हैं उनका संकोच होने लगता है। यदि किसी अर्बुद, शोथ दाब आदि से कोशिकाएँ नष्ट या अकर्मणय हो जाती हैं, तो पेशियाँ संकोच नहीं, करतीं। उनमें पक्षघात हो जाता है। दस विदर के पीछे का भाग आवेग क्षेत्र है, जहाँ भिन्न भिन्न स्थानों की त्वचा से आवेग पहुँचा करते हैं। पीछे की ओर पश्चकपाल खंड में दृष्टिक्षेत्र, शूक विदर (calcarine fissure) दृष्टि का संबंध इसी क्षेत्र से है। दृष्टितंत्रिका तथा पथ द्वारा गए हुए आवेग यहाँ पहुँचकर दृष्ट वस्तुओं के (impressions) प्रभाव उत्पन्न करते हैं।
नीचे की ओर शंखखंड में विल्वियव के विदर के नीचे का भाग तथा प्रथम शंखकर्णक श्रवण के आवेगों को ग्रहण करते हैं। यहाँ श्रवण के चिह्रों की उत्पत्ति होती है। यहाँ की कोशिकाएँ शब्द के रूप को समझती हैं। शंखखंड के भीतरी पृष्ठ पर हिप्पोकैंपी कर्णक (Hippocampal gyrus) है, जहाँ गंध का ज्ञान होता है। स्वाद का क्षेत्र भी इससे संबंधित है। गंध और स्वाद के भाग और शक्तियाँ कुछ जंतुओं में मनुष्य की अपेक्षा बहुत विकसित हैं। यहीं पर रोलैंडो के विदर के पीछे स्पर्शज्ञान प्राप्त करनेवाला बहुत सा भाग है।
ललाटखंड अन्य सब जंतुओं की अपेक्षा मनुष्य में बढ़ा हुआ है, जिसके अग्रिम भाग का विशेष विकास हुआ है। यह भाग समस्त प्रेरक और आवेगकेंद्रों से संयोजकसूत्रों (association fibres) द्वारा संबद्ध है, विशेषकर संचालक क्षेत्र के समीप स्थित उन केंद्रों से, जिनका नेत्र की गति से संबंध है। इसलिये यह माना जाता है कि यह भाग सूक्ष्म कौशलयुक्त क्रियाओं का नियमन करता है, जो नेत्र में पहुँचे हुए आवेगों पर निर्भर करती हैं और जिनमें स्मृति तथा अनुभाव की आवश्यकता होती है। मनुष्य के बोलने, लिखने, हाथ की अँगुलियों से कला की वस्तुएँ तैयार करने आदि में जो सूक्ष्म क्रियाएँ होती हैं, उनका नियंत्रण यहीं से होता है।
प्रमस्तिष्क उच्च भावनाओं का स्थान माना जाता है। मनुष्य के जो गुण उसे पशु से पृथक् कते हैं, उन सबका स्थान प्रमस्तिष्क है।
पार्श्व निलय (Lateral Ventricles) - यदि गोलार्धो को अनुप्रस्थ दिशा में काटा जाय तो उसके भीतर खाली स्थान या गुहा मिलेगी। दोनों गोलार्धो में यह गुहा है, जिसको निलय कहा जाता है। ये गोलार्धो के अग्रिम भाग ललाटखंड से पीछे पश्चखंड तक विस्तृत हैं। इनके भीतर मस्तिष्क पर एक अति सूक्ष्म कला आच्छादित है, जो अंतरीय कहलाती है। मृदुतानिका की जालिका दोनों निलयों में स्थित है। इन गुहाओं में प्रमस्तिष्क मेरूद्रव भरा रहता है, जो एक सूक्ष्म छिद्र क्षरा, जिसे मुनरो का छिद्र (Foramen of Munro) कहते हैं, दृष्टिचेतकां (optic thalamii) के बीच में स्थित तृतीय निलय में जाता रहता है।
प्रमस्तिष्क प्रांतस्था (Cerebral Cortex)- प्रमस्तिष्क के पृष्ठ पर जो धूसर रंग के पदार्थ का मोटा स्तर चढ़ा हुआ है, वह प्रांतस्था कहलाता है। इसके नीचे श्वेत रंग का अंतस्थ (medulla) भाग है। उसमें भी जहाँ तहाँ धूसर रंग के द्वीप और कई छोटी छोटी द्वीपिकाएँ हैं। इनको केंद्रक (nucleus) कहा जाता है।
प्रांतस्था स्तर विशेषकर तंत्रिका कोशिकाओं का बना हुआ है, यद्यपि उसमें कोशिकाओं से निकले हुए सूत्र और न्यूरोम्लिया नामक संयोजक ऊतक भी रहते हैं, किंतु इस स्तर में कोशिकाओं की ही प्रधानता होती है।
स्वयं प्रांतस्था में कई स्तर हाते हैं। सूत्रों के स्तर में दो प्रकार के सूत्र हैं: एक वे जो भिन्न भिन्न केंद्रों को आपस में जोड़े हुए हैं (इनमें से बहुत से सूत्र नीचे मेरूशीर्ष या मे डिग्री के केंद्रों तथा अनुमस्तिष्क से आते हैं, कुछ मस्तिष्क ही में स्थित केंद्रों से संबंध स्थापित करते हैं); दूरे वे सत्र हैं जे वहाँ की कोशिकाओं से निकलकर नीचे अंत:-संपुट में चे जाते हैं और वहाँ पिरामिडीय पथ (pyramidial tract) में एकत्र हाकर मे डिग्री में पहुँचते हैं।
मनुष्य तथा उच्च श्रेणी के पशुओं, जैसे एप, गारिल्ला आदि में, प्रांतस्था में विशिष्ट स्तरों का बनना विकास की उन्नत सीमा का द्योतक है। निम्न श्रेणी के जंतुओं में न प्रांतस्था का स्तरीभवन ही मिलता है और न प्रमस्तिष्क का इतना विकास होता है।
अंततस्था - यह विशेषतया प्रांतस्था की काशिकाओं से निकले हुए अपवाही तथा उनमें जनेवाले अभिवाही सूत्रों का बना हुआ है। इन सूत्रपुंजों के बीच काशिकाओं के समूह जहाँ तहाँ स्थित हैं और उनका रंग धूसर है। अंंतस्था श्वेत रंग का है।
अनुमस्तिष्क
मस्तिष्क के पिछले भाग के नीचे अनुमस्तिष्क स्थित है। उसके सामने की ओर मघ्यमस्तिष्क है, जिसके तीन स्तंभों द्वारा वह मस्तिष्क से जुड़ा हुआ है। बाह्य पृष्ठ धूसर पदार्थ से आच्छादित होने के कारण इसका रंग भी धूसर है और प्रमस्तिष्क की ही भाँति उसके भीतर श्वेत पदार्थ है। इसमें भी दो गोलार्ध हैं, जिनका काटने से बीच में श्वेत रंग की, वृक्ष की शाखाओं की सी रचना दिखाई देती है। अनुमस्तिष्क में विदरों के गहरे होने से वह पत्रकों (lamina) में विभक्त हे गया है। ऐसी रचना प्रशाखारूपिता (Arber vitae) कहलाती है।
अनुमस्तिष्क का संबंध विशेषकर अंत:कर्ण से और पेशियों तथा संधियों से है। अन्य अंगों से संवेदनाएँ यहाँ आती रहती हैं। उन सबका सामंजस्य करना इस अंग का काम है, जिससे अंगों की क्रियाएँ सम रूप से होती रहें। शरीर को ठीक बनाए रखना इस अंग का विशेष कर्म है। जिन सूत्रों द्वारा ये संवेग अनुमतिष्क की अंतस्था में पहुँचते हैं, वे प्रांतस्था से गोलार्ध के भीतर स्थित दंतुर केंद्रक (dentate nucleus) में पहुँचते हैं, जो घूसर पदार्थ, अर्थात् कोशिकाओं, का एक बड़ा पुंज है। वहाँ से नए सूत्र मध्यमस्तिष्क में दूसरी ओर स्थित लाल केंद्रक (red nucleus) में पहुँचते हैं। वहाँ से संवेग प्रमस्तिष्क में पहुँच जाते हैं।
मध्यमस्तिष्क (Mid-brain)
अनुमस्तिष्क के सामने का ऊपर का भाग मध्यमस्तिक और नीचे का भाग मेरूशीर्ष (Medulla oblongata) है। अनुमस्तिष्क और प्रमस्तिष्क का संबंध मध्यमस्तिष्क द्वारा स्थापित होता है। मघ्यमस्तिष्क में होते हुए सूत्र प्रमस्तिष्क में उसी ओर, या मध्यरेखा को पार करके दूसरी ओर को, चले जाते हैं।
मध्यमस्तिष्क के बीच में सिल्वियस की अणुनलिका है, जो तृतिय निलय से चतुर्थ निलय में प्रमस्तिष्क मेरूद्रव को पहुँचाती है। इसके ऊपर का भाग दो समकोण परिखाओं द्वारा चार उत्सेधों में विभक्त है, जो चतुष्टय काय या पिंड (Corpora quadrigemina) कहा जाता है। ऊपरी दो उत्सेधों में दृष्टितंत्रिका द्वारा नेत्र के रेटिना पटल से सूत्र पहुँचते हैं। इन उत्सेधों से नेत्र के तारे में होनेवाली उन प्रतिवर्त क्रियाओं का नियमन होता है, जिनसे तारा संकुचित या विस्तृत होता है। नीचे के उत्सेधों में अंत:कर्ण के काल्कीय भाग से सूत्र आते हैं और उनके द्वारा आए हुए संवेगों को यहाँ से नए सूत्र प्रमस्तिष्क के शंखखंड के प्रतिस्था में पहुँचाते हैं।
मेरूरज्जु से अन्य सूत्र भी मध्यमस्तिष्क में आते हैं। पीड़ा, शीत, उष्णता आदि के यहाँ आकर, कई पुंजो में एकत्र होकर, मेरूशीर्ष द्वारा उसी ओर को, या दूसरी ओर पार होकर, पौंस और मध्यमस्तिष्क द्वारा थैलेमस में पहुँचते हैं और मस्तिष्क में अपने निर्दिष्ट केंद्र को, या प्रांतस्या में, चले जाते हैं।
अणुनलिका के सामने यह नीचे के भाग द्वारा भी प्रेरक तथा संवेदनसूत्र अनेक भागों को जाते हैं। संयोजनसूत्र भी यहाँ पाए जाते हैं।
पौंस वारोलिआइ (Pons varolii)- यह भाग मेरूशीर्ष और मध्यमस्तिष्क के बीच में स्थित है और दोनों अनुमस्तिष्क के गोलार्धों को मिलाए रहता है। चित्र में यह गोल उरूत्सेध के रूप में सामने की ओर निकला हुआ दिखाई देता है। मस्तिष्क की पीरक्षा करने पर उसपर अनुप्रस्थ दिशा में जाते हुए सूत्र छाए हुए दिखाई देते हैं। ये सूत्र अंत:संपुट और मध्यमस्तिष्क से पौंस में होते हुए मेरूशीर्ष में चले जाते हैं। सब सूत्र इतने उत्तल नहीं हैं। कुछ गहरे सूत्र ऊ पर से आनेवाले पिरामिड पथ के सूत्रों के नीचे रहते हैं। पिरामिड पथों के सूत्र विशेष महत्व के हैं, जो पौंस में होकर जाते हैं। अन्य कई सूत्रपुंज भी पौंस में होकर जाते हैं, जो अनुदैर्ध्य, मध्यम और पार्श्व पंज कहलाते हैं। इस भाग में पाँचवीं, छठी, सातवीं और आठवीं तंत्रिकाओं के केंद्रक स्थित हैं।
मेरूशीर्ष (Medulla oblongata) - देखने से यह मे डिग्री का भाग ही दिखाई देता है, जो ऊपर जाकर मध्यमस्तिष्क और पौंस में मिल जाता है; किंतु इसकी रचना मेरूरज्जु से भिन्न है। इसके पीछे की ओर अनुमस्तिष्क है। यहाँ इसका आकार मेरुरज्जु से दुगना हो जाता है। इसके चौड़े और चपटे पृष्ठभाग पर एक चौकोर आकार का खात बन गया है, जिसपर एक झिल्ली छाई रहती है। यह चतुर्थ निलय (Fourth ventricle) कहलाता है, जिसमें सिलवियस की नलिका द्वारा प्रमस्तिष्क मेरूद्रव आता रहता है। इसके पीछे की ओर अनुमस्तिष्क है।
मेरूशीर्षक अत्यंत महत्व का अंग है। हृत्संचालक केंद्र, श्वासकेंद्र तथा रक्तसंचालक केन्द्र चतुर्थ निलय में निचले भाग में स्थित हैं, जो इन क्रियाओं का नियंत्रण करते हैं। इसी भाग में आठवीं, नवीं, दसवीं, ग्यारहवीं और बारहवीं मस्तिष्कीय तंत्रिकाओं के केन्द्र भी स्थित हैं। यह भाग प्रमस्तिष्क, अनुमस्तिष्क तथा मध्यमस्तिष्क से अनेक सूत्रों द्वारा जुड़ा हुआ है और अनेक सूत्र मेरूरज्जु में जाते और वहाँ से आते हैं। ये सूत्र पुंजों में समूहित हैं। ये विशेष सूत्रपुंज हैं:
1. पिरामिड पथ (Pyramidal tract), 2. मध्यम अनुदैर्ध्यपुंज (Median Longitudinal bundles), तथा 3. मध्यम पुंजिका (Median filler)।
पिरामिड पथ में केवल प्रेरक (motor) सूत्र हैं, जो प्रमस्तिष्क के प्रांतस्था की प्रेरक कोशिकाओं से निकलकर अंत:संपुट में होते हुए, मध्यमस्तिष्क और पौंस से निकलकर, मेरूशीर्षक में आ जाते हैं और दो पुंजों में एकत्रित होकर रज्जु की मध्य परिखा के सामने और पीछे स्थित होकर नीचे को चले जाते हैं। नीचे पहुँचकर कुछ सूत्र दूसरी ओर पार हो जाते हैं और कुछ उसी ओर नीचे जाकर तब दूसरी ओर पार होते हैं, किंतु अंत में सस्त सूत्र दूसरी ओर चले जाते हैं। जहाँ वे पेशियों आदि में वितरित होते हैं। इसी कारण मस्तिष्क पर एक ओर चोट लगने से, या वहाँ रक्तस्राव होने से, उस ओर की कोशिकाआं के अकर्मणय हो जाने पर शरीर के दूसरी ओर की पेशियों का संस्तंभ होता है।
मध्यम अनुदैर्ध्य पुंजों के सूत्र मघ्यमस्तिष्क और पौंस में होते हुए मेरूशीर्ष में आते हैं और कई तंत्रिकाआं के केंद्र को उस ओर तथा दूसरी ओर भी जोड़ते हैं, जिससे दोनों ओर की तंत्रिकाओं की क्रियाओं का नियमन सभव होता है।
'मध्यम पुंजिका में केवल संवेदन सूत्र हैं। चह पुंजिका उपर्युक्त दोनों पुंजों के बीच में स्थित है। ये सूत्र मेरुरज्जु से आकर, पिरामिड सूत्रों के आरपार होने से ऊपर जाकर, दूसरी ओर के दाहिने सूत्र बाईं ओर और वाम दिशा के सूत्र दाहिनी ओर को प्रमस्तिष्क में स्थित केंद्रो में चले जाते हैं।
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
(Head Injury Care Manual)
श्रेणी:शारीरिकी
श्रेणी:अंग
श्रेणी:प्राणी विज्ञान
श्रेणी:मस्तिष्क
श्रेणी:हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना | स्तनधारी प्राणियों में मस्तिष्क किस अंग के अंदर स्थित होता है? | सिर | 147 | hindi |
f7b839902 | साम्राज्य - पादप
विभाग - मैंगोलियोफाइटा
वर्ग - मैंगोलियोफाइटा
जाति - रिबीस
प्रजाति - आर यूवा-क्रिस्पा
वैज्ञानिक नाम - रिबीस यूवा-क्रिस्पा
आँवला एक फल देने वाला वृक्ष है। यह करीब २० फीट से २५ फुट तक लंबा झारीय पौधा होता है। यह एशिया के अलावा यूरोप और अफ्रीका में भी पाया जाता है। हिमालयी क्षेत्र और प्राद्वीपीय भारत में आंवला के पौधे बहुतायत मिलते हैं। इसके फूल घंटे की तरह होते हैं। इसके फल सामान्यरूप से छोटे होते हैं, लेकिन प्रसंस्कृत पौधे में थोड़े बड़े फल लगते हैं। इसके फल हरे, चिकने और गुदेदार होते हैं। स्वाद में इनके फल कसाय होते हैं।
संस्कृत में इसे अमृता, अमृतफल, आमलकी, पंचरसा इत्यादि, अंग्रेजी में 'एँब्लिक माइरीबालन' या इण्डियन गूजबेरी (Indian gooseberry) तथा लैटिन में 'फ़िलैंथस एँबेलिका' (Phyllanthus emblica) कहते हैं। यह वृक्ष समस्त भारत में जंगलों तथा बाग-बगीचों में होता है। इसकी ऊँचाई 2000 से 25000 फुट तक, छाल राख के रंग की, पत्ते इमली के पत्तों जैसे, किंतु कुछ बड़े तथा फूल पीले रंग के छोटे-छोटे होते हैं। फूलों के स्थान पर गोल, चमकते हुए, पकने पर लाल रंग के, फल लगते हैं, जो आँवला नाम से ही जाने जाते हैं। वाराणसी का आँवला सब से अच्छा माना जाता है। यह वृक्ष कार्तिक में फलता है।
आयुर्वेद के अनुसार हरीतकी (हड़) और आँवला दो सर्वोत्कृष्ट औषधियाँ हैं। इन दोनों में आँवले का महत्व अधिक है। चरक के मत से शारीरिक अवनति को रोकनेवाले अवस्थास्थापक द्रव्यों में आँवला सबसे प्रधान है। प्राचीन ग्रंथकारों ने इसको शिवा (कल्याणकारी), वयस्था (अवस्था को बनाए रखनेवाला) तथा धात्री (माता के समान रक्षा करनेवाला) कहा है।
परिचय
इसके फल पूरा पकने के पहले व्यवहार में आते हैं। वे ग्राही (पेटझरी रोकनेवाले), मूत्रल तथा रक्तशोधक बताए गए हैं। कहा गया है, ये अतिसार, प्रमेह, दाह, कँवल, अम्लपित्त, रक्तपित्त, अर्श, बद्धकोष्ठ, वीर्य को दृढ़ और आयु में वृद्धि करते हैं। मेधा, स्मरणशक्ति, स्वास्थ्य, यौवन, तेज, कांति तथा सर्वबलदायक औषधियों में इसे सर्वप्रधान कहा गया है। इसके पत्तों के क्वाथ से कुल्ला करने पर मुँंह के छाले और क्षत नष्ट होते हैं। सूखे फलों को पानी में रात भर भिगोकर उस पानी से आँख धोने से सूजन इत्यादि दूर होती है। सूखे फल खूनी अतिसार, आँव, बवासरी और रक्तपित्त में तथा लोहभस्म के साथ लेने पर पांडुरोग और अजीर्ण में लाभदायक माने जाते हैं। आँवला के ताजे फल, उनका रस या इनसे तैयार किया शरबत शीतल, मूत्रल, रेचक तथा अम्लपित्त को दूर करनेवाला कहा गया है। आयुर्वेद के अनुसार यह फल पित्तशामक है और संधिवात में उपयोगी है। ब्राह्मरसायन तथा च्यवनप्राश, ये दो विशिष्ट रसायन आँवले से तैयार किए जाते हैं। प्रथम मनुष्य को नीरोग रखने तथा अवस्थास्थापन में उपयोगी माना जाता है तथा दूसरा भिन्न-भिन्न अनुपानों के साथ भिन्न-भिन्न रोगों, जैसे हृदयरोग, वात, रक्त, मूत्र तथा वीर्यदोष, स्वरक्षय, खाँसी और श्वासरोग में लाभदायक माना जाता है।
आधुनिक अनुसंधानों के अनुसार आँवला में विटैमिन-सी प्रचुर मात्रा में होता है; इतनी अधिक मात्रा में कि साधारण रीति से मुरब्बा बनाने में भी सारे विटैमिन का नाश नहीं हो पाता। संभवत: आँवले का मुरब्बा इसीलिए गुणकारी है। आँवले को छाँह में सुखाकर और कूट पीसकर सैनिकों के आहार में उन स्थानों में दिया जाता है जहाँ हरी तरकारियाँ नहीं मिल पाती। आँवले के उस अचार में, जो आग पर नहीं पकाया जाता विटैमिन सी प्राय: पूर्ण रूप से सुरक्षित रह जाता है और यह अचार, विटैमिन सी की कमी में खाया जा सकता है।
खेती
एशिया और यूरोप में बड़े पैमाने पर आंवला की खेती होती है। आंवला के फल औषधीय गुणों से युक्त होते हैं, इसलिए इसकी व्यवसायिक खेती किसानों के लिए लाभदायक होती है।
भारत की जलवायु आंवले की खेती के लिहाज से सबसे उपयुक्त मानी जाती है। ( उत्तर प्रदेश का प्रतापगढ़ जनपद आॅवले के लिए प्रसिद्ध है)। इसके उपरान्त ब्रिटेन, फ्रांस, इटली, स्कॉटलैंड, नॉर्वे आदि देशों में इसकी खेती सफलतापूर्वक की जाती है। इसके फलों को विकसित होने के लिए सूर्य का प्रकाश आवश्यक माना जाता है। हालांकि आंवले को किसी भी मिट्टी में उगाया जा सकता है, लेकिन काली जलोढ़ मिट्टी को इसके लिए उपयुक्त माना जाता है। कई बार आँवला में फल नहीं लगते जैसी समस्या आती है मगर आवश्यक यह है की जहाँ आँवला का पेड़ हो उसके आसपास दूसरे आँवले का पेड़ होना भी आवश्यक है तभी उसमें फल लगते हैं|
आंवले को बीज के उगाने की अपेक्षा कलम लगाना ज्यादा अच्छा माना जाता है। कलम पौधा जल्द ही मिट्टी में जड़ जमा लेता है और इसमें शीघ्र फल लग जाते हैं।
कम्पोस्ट खाद का उपयोग कर भारी मात्रा में फल पाए जा सकते हैं। आंवले के फल विभिन्न आकार के होते हैं। छोटे फल बड़े फल की अपेक्षा ज्यादा तीखे होते हैं।
आंवला के पौधे और फल कोमल प्रकृति के होते हैं, इसलिए इसमें कीड़े जल्दी लग जाते हैं। आंवले की व्यवसायिक खेती के दौरान यह ध्यान रखना होता है कि पौधे और फल को संक्रमण से रोका जाए। शुरुआती दिनों में इनमें लगे कीड़ों और उसके लार्वे को हाथ से हटाया जा सकता है।
पोटाशियम सल्फाइड कीटाणुओं और फफुंदियों की रोकथाम के लिए उपयोगी माना जाता है।
परिचय
आँवला एक छोटे आकार और हरे रंग का फल है। इसका स्वाद खट्टा होता है। आयुर्वेद में इसके अत्यधिक स्वास्थ्यवर्धक माना गया है। आँवला विटामिन 'सी' का सर्वोत्तम और प्राकृतिक स्रोत है। इसमें विद्यमान विटामिन 'सी' नष्ट नहीं होता। यह भारी, रुखा, शीत, अम्ल रस प्रधान, लवण रस छोड़कर शेष पाँचों रस वाला, विपाक में मधुर, रक्तपित्त व प्रमेह को हरने वाला, अत्यधिक धातुवर्द्धक और रसायन है। यह 'विटामिन सी' का सर्वोत्तम भण्डार है। आँवला दाह, पाण्डु, रक्तपित्त, अरुचि, त्रिदोष, दमा, खाँसी, श्वास रोग, कब्ज, क्षय, छाती के रोग, हृदय रोग, मूत्र विकार आदि अनेक रोगों को नष्ट करने की शक्ति रखता है। वीर्य को पुष्ट करके पौरुष बढ़ाता है, चर्बी घटाकर मोटापा दूर करता है। सिर के केशों को काले, लम्बे व घने रखता है। विटामिन सी ऐसा नाजुक तत्व होता है जो गर्मी के प्रभाव से नष्ट हो जाता है, लेकिन आँवले में विद्यमान विटामिन सी कभी नष्ट नहीं होता। हिन्दू मान्यता में आँवले के फल के साथ आँवले का पेड़ भी पूजनीय है| माना जाता है कि आँवले का फल भगवान विष्णु को बहुत प्रिय है इसीलिए अगर आँवले के पेड़ के नीचे भोजन पका कर खाया जाये तो सारे रोग दूर हो जाते हैं|[1]
रासायनिक संघटन
आँवले के 100 ग्राम रस में 921 मि.ग्रा. और गूदे में 720 मि.ग्रा. विटामिन सी पाया जाता है। आर्द्रता 81.2, प्रोटीन 0.5, वसा 0.1, खनिज द्रव्य 0.7, कार्बोहाइड्रेट्स 14.1, कैल्शियम 0.05, फॉस्फोरस 0.02, प्रतिशत, लौह 1.2 मि.ग्रा., निकोटिनिक एसिड 0.2 मि.ग्रा. पाए जाते हैं। इसके अलावा इसमें गैलिक एसिड, टैनिक एसिड, शर्करा (ग्लूकोज), अलब्यूमिन, काष्ठौज आदि तत्व भी पाए जाते हैं।
लाभ
आँवला दाह, खाँसी, श्वास रोग, कब्ज, पाण्डु, रक्तपित्त, अरुचि, त्रिदोष, दमा, क्षय, छाती के रोग, हृदय रोग, मूत्र विकार आदि अनेक रोगों को नष्ट करने की शक्ति रखता है। वीर्य को पुष्ट करके पौरुष बढ़ाता है, चर्बी घटाकर मोटापा दूर करता है। सिर के केशों को काले, लम्बे व घने रखता है। दाँत-मसूड़ों की खराबी दूर होना, कब्ज, रक्त विकार, चर्म रोग, पाचन शक्ति में खराबी, नेत्र ज्योति बढ़ना, बाल मजबूत होना, सिर दर्द दूर होना, चक्कर, नकसीर, रक्ताल्पता, बल-वीर्य में कमी, बेवक्त बुढ़ापे के लक्षण प्रकट होना, यकृत की कमजोरी व खराबी, स्वप्नदोष, धातु विकार, हृदय विकार, फेफड़ों की खराबी, श्वास रोग, क्षय, दौर्बल्य, पेट कृमि, उदर विकार, मूत्र विकार आदि अनेक व्याधियों के घटाटोप को दूर करने के लिए आँवला बहुत उपयोगी है।
बाहरी कड़ियाँ
(चौधरी चरण सिंह कृषि विश्वविद्यालय, हिसार)
श्रेणी:औषधीय पादप
श्रेणी:भारतीय पादप
आँवला | आंवले के पौधे की औसत ऊंचाई कितनी होती है? | २० फीट से २५ फुट तक | 178 | hindi |
bdba2de2b | Main Page
प्रेम रतन धन पायो बॉलीवुड में बनी हिन्दी भाषा की एक फिल्म है।[3][4][5] इस फिल्म के मुख्य किरदार में सलमान खान और सोनम कपूर हैं।[6][7] यह फिल्म 12 नवम्बर 2015 को सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई। [8][9]
[10]
कहानी
युवराज विजय सिंह (सलमान खान) प्रीतमपुर का राजकुमार होता है, जिसे जल्द ही ताज पहना कर वहाँ का राजा बनाया जाने वाला रहता है। उसकी मंगनी राजकुमारी मैथिली (सोनम कपूर) से हो जाती है। लेकिन उसके कठोर और जिद्दीपन के कारण उसे कई परेशानी का सामना करना पड़ता है। उसकी सौतेली बहने अलग स्थान पर रहते हैं। वहीं उसका सौतेला भाई युवराज अजय सिंह (नील नितिन मुकेश) उसे मारकर ताज खुद पहनना चाहता है। चिराग सिंह (अरमान कोहली) उसे गलत राह पर ले जाता है। वह दोनों मिल कर युवराज विजय को मारने की योजना बनाते हैं। लेकिन विजय उससे निकल जाता है।
वहीं प्रेम दिलवाले (सलमान खान) जो युवराज विजय के जैसे दिखता है, वह राजकुमारी मैथिली को देख कर उससे मिलने प्रीतमपुर आ जाता है। युवराज अजय और चिराग मिलकर युवराज विजय का अपहरण कर लेते हैं। चिराग यह तय करता है कि वह अजय को धोका देगा, इस लिए वह विजय को छोड़ देता है और उसे अजय और प्रेम के बारे में बता कर भड़का देता है। विजय और अजय में तलवार से लड़ाई होने लगती है और उस समय प्रेम और कन्हैया मिल कर इस पूरे घटना के बारे में जान जाते हैं। चिराग उन्हें गोली मारना चाहता है, लेकिन उसकी मौत हो जाती है।
अजय को कर्मों का पछतावा होता है, वहीं विजय अपने परिवार से मिल जाता है। मैथिली प्रेम और विजय के बारे में जान कर चौंक जाती है। प्रेम अपने घर चला जाता है। मैथिली को एहसास होता है कि वह प्रेम से प्यार करती है। पूरा परिवार प्रेम और मैथिली को एक करने के लिए प्रेम के घर चले जाता है और कहानी समाप्त हो जाती है।
रिकॉर्ड
एक भारतीय समाचार चैनल नवभारत टाइम्स के मुताबिक इस फ़िल्म ने थ्री ईडियट्स का रिकॉर्ड्स तोड़ दिया। [11]
कलाकार
2
संगीत
प्रेम रतन धन पायो का संगीत हिमेश रेशमिया ने दिया है और बोल इरशाद कामिल ने लिखे हैं। फिल्म में कुल १० गाने हैं। संजय चौधरी ने फिल्म का पाश्र्व संगीत बनाया है। फिल्म के संगीत अधिकारों का टी-सीरीज़ ने अधिग्रहण किया है। फिल्म का पहला गाना "प्रेम लीला" 7 अक्टूबर 2015 को रिलीज़ किया गया था। फिल्म की पूर्ण संगीत एलबम 10 अक्टूबर 2015 को रिलीज़ की गयी।
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
श्रेणी:2015 में बनी हिन्दी फ़िल्म
श्रेणी:हिन्दी फ़िल्में
श्रेणी:राजश्री प्रोडक्शन्स | प्रेम रतन धन पायो फिल्म कब रिलीज़ हुई थी? | 12 नवम्बर 2015 | 153 | hindi |
61d862faf | जौ पृथ्वी पर सबसे प्राचीन काल से कृषि किये जाने वाले अनाजों में से एक है। इसका उपयोग प्राचीन काल से धार्मिक संस्कारों में होता रहा है। संस्कृत में इसे "यव" कहते हैं। रूस, यूक्रेन, अमरीका, जर्मनी, कनाडा और भारत में यह मुख्यत: पैदा होता है।
परिचय
होरडियम डिस्टिन (Hordeum distiehon), जिसकी उत्पत्ति मध्य अफ्रीका और होरडियम वलगेयर (H. vulgare), जो यूरोप में पैदा हुआ, इसकी दो मुख्य जातियाँ है। इनमें द्वितीय अधिक प्रचलित है। इसे समशीतोष्ण जलवायु चाहिए। यह समुद्रतल से 14,000 फुट की ऊँचाई तक पैदा होता है। यह गेहूँ के मुकाबले अधिक सहनशील पौधा है। इसे विभिन्न प्रकार की भूमियों में बोया जा सकता है, पर मध्यम, दोमट भूमि अधिक उपयुक्त है। खेत समतल और जलनिकास योग्य होना चाहिए। प्रति एकड़ इसे 40 पाउंड नाइट्रोजन की आवश्यकता होती है, जो हरी खाद देने से पूर्ण हो जाती है। अन्यथा नाइट्रोजन की आधी मात्रा कार्बनिक खाद - गोवर की खाद, कंपोस्ट तथा खली - और आधी अकार्बनिक खाद - ऐमोनियम सल्फेट और सोडियम नाइट्रेट - के रूप में क्रमशः: बोने के एक मास पूर्व और प्रथम सिंचाई पर देनी चाहिए। असिंचित भूमि में खाद की मात्रा कम दी जाती है। आवश्यकतानुसार फॉस्फोरस भी दिया जा सकता है।
एक एकड़ बोने के लिये 30-40 सेर बीज की आवश्यकता होता है। बीज बीजवपित्र (seed drill) से, या हल के पीछे कूड़ में, नौ नौ इंच की समान दूरी की पंक्तियों मे अक्टूबर नवंबर में बोया जाता है। पहली सिंचाई तीन चार सप्ताह बाद और दूसरी जब फसल दूधिया अवस्था में हो तब की जाती है। पहली सिंचाई के बाद निराई गुड़ाई करनी चाहिए। जब पौधों का डंठल बिलकुल सूख जाए और झुकाने पर आसानी से टूट जाए, जो मार्च अप्रैल में पकी हुई फसल को काटना चाहिए। फिर गट्ठरों में बाँधकर शीघ्र मड़ाई कर लेनी चाहिए, क्योंकि इन दिनों तूफान एवं वर्षा का अधिक डर रहता है।
बीज का संचय बड़ी बड़ी बालियाँ छाँटकर करना चाहिए तथा बीज को खूब सुखाकर घड़ोँ में बंद करके भूसे में रख दें। एक एकड़ में ८-१० क्विंटल उपज होती है। भारत की साधारण उपज 705 पाउंड और इंग्लैंड की 1990 पाउंड है। शस्यचक्र की फसलें मुख्यत: चरी, मक्का, कपास एवं बाजरा हैं। उन्नतिशील जातियाँ, सी एन 294 हैं। जौ का दाना लावा, सत्तू, आटा, माल्ट और शराब बनाने के काम में आता है। भूसा जानवरों को खिलाया जाता है।
जौ के पौधों में कंड्डी (आवृत कालिका) का प्रकोप अधिक होता है, इसलिये ग्रसित पौधों को खेत से निकाल देना चाहिए। किंतु बोने के पूर्व यदि बीजों का उपचार ऐग्रोसन जी एन द्वारा कर लिया जाय तो अधिक अच्छा होगा। गिरवी की बीमारी की रोक थाम तथा उपचार अगैती बोवाई से हो सकता है।
उत्पादक देश
सन २००७ में विश्व भर में लगभग १०० देशों में जौ की खेती हुई। १९७४ में पूरे विश्व में जौ का उत्पादन लगभग 148,818,870 टन था उसके बाद उत्पादन में कुछ कमी आयी है। 2011 के आंकडों के अनुसार यूक्रेन विश्व में सर्वाधिक जौ निर्यातक देश था।[2]
जलवायु (by Ahsan alam)
जौ शीतोष्ण जलवायु की फसल है, लेकिन समशीतोष्ण जलवायु में भी इसकी खेती सफलतापू्र्वक की जा सकती है । जौ की खेती समुद्र तल से 4000 मीटर की ऊंचाई तक की जा सकती है । जौ की खेती के लिये ठंडी आैर नम जलवायु उपयुक्त रहती है । जौ की फसल के लिये न्यूनतम तापमान 35-40°F, उच्चतम तापमान 72-86°F आैर उपयुक्त तापमान 70°F होता है ।
भारतीय संस्कृति में जौ
भारतीय संस्कृति में त्यौहारों और शादी-ब्याह में अनाज के साथ पूजन की पौराणिक परंपरा है। हिंदू धर्म में जौ का बड़ा महत्व है। धार्मिक अनुष्ठानों, शादी-ब्याह होली में लगने वाले नव भारतीय संवत् में नवा अन्न खाने की परंपरा बिना जौ के पूरी नहीं की जा सकती। इसी के चलते लोग होलिका की आग से निकलने वाली हल्की लपटों में जौ की हरी कच्ची बाली को आंच दिखाकर रंग खेलने के बाद भोजन करने से पहले दही के साथ जौ को खाकर नवा (नए) अन्न की शुरुआत होने की परंपरा का निर्वहन करते हैं।
जौ का उपयोग बेटियाें के विवाह के समय होने वाले द्वाराचार में भी होता है। घर की महिलाएं वर पक्ष के लोगों पर अपनी चौखट पर मंगल गीत गाते हुए दूल्हे सहित अन्य लोगाें पर इसकी बौछार करना शुभ मानती हैं। मृत्यु के बाद होने वाले कर्मकांड तो बिना जौ के पूरे नहीं हो सकते। ऐसा शास्त्रों में भी लिखा है।
सन्दर्भ
इन्हें भी देखें
माल्ट
बीयर
रबी की फसल
खरीफ की फसल
ज़ायद की फसल
बाहरी कड़ियाँ
(एग्रोपीडिया)
(ATMA)
(खेती-गंगा)
(अमर उजाला)
श्रेणी:रबी की फ़सल
श्रेणी:कृषि
श्रेणी:अन्न | जौ का वैज्ञानिक नाम क्या होता है? | होरडियम डिस्टिन | 247 | hindi |
33f5a537d | लीबिया (Arabic: ليبيا), आधिकारिक तौर पर 'महान समाजवादी जनवादी लिबियाई अरब जम्हूरिया' (Arabic: الجماهيرية العربية الليبية الشعبية الإشتراكية العظمى Al-Jamāhīriyyah al-ʿArabiyyah al-Lībiyyah aš-Šaʿbiyyah al-Ištirākiyyah al-ʿUẓmā), उत्तरी अफ़्रीका में स्थित एक देश है। इसकी सीमाएं उत्तर में भूमध्य सागर, पूर्व में मिस्र, उत्तरपूर्व में सूडान, दक्षिण में चाड व नाइजर और पश्चिम में अल्जीरिया और ट्यूनीशिया से मिलती है।
करीबन १,८००,०० वर्ग किमी (६९४,९८४ वर्ग मील) क्षेत्रफल वाला यह देश, जिसका ९० प्रतिशत हिस्सा मरुस्थल है, अफ़्रीका का चौथा और दुनिया का १७ वां बड़ा देश है। देश की ५७ लाख की आबादी में से १७ लाख राजधानी त्रिपोली में निवास करती है। सकल घरेलू उत्पाद के लिहाज से यह इक्वीटोरियल गिनी के बाद अफ्रीका का दूसरा समृद्ध देश है। इसके पीछे मुख्य कारण विपुल तेल भंडार और कम जनसंख्या है।
लीबिया १९५१ मे आजाद हुआ था एवं इस्क नाम 'युनाइटेड लीबियन किंगडम' (English: United Libyan Kingdom) रखा गया। जिसका नाम १९६३ मे 'किंगडम ऑफ लीबिया' (English: Kingdom of Libya) हो गया। १९६९ के तख्ता-पलट के बाद इस देश का नाम 'लिबियन अरब रिपब्लिक' रखा गया। १९७७ में इसका नाम बदलकर 'महान समाजवादी जनवादी लिबियाई अरब जम्हूरिया' रख दिया गया।
परिचय
लिबिया राज्य उत्तर में भूमध्य सागर से, दक्षिण में चैड प्रजातंत्र एवं नाइजर प्रजातंत्र से, पश्चिम में ट्युनिज़िया एवं अजलीरिया से तथा पूर्व में संयुक्त अरब गणराज्य एवं सूडान से घिरा हुआ है। इस संघ राज्य का संपूर्ण क्षेत्रफल १७,५९,५०० वर्ग किलोमीटर है।
भूमध्य सागर एवं रेगिस्तान के प्रभाव के कारण मौसमी परिवर्तन हुआ करते हैं। ग्रीष्म ऋतु में ट्रिपोलिटैनिया के समुद्री किनारे का ताप ४१ डिग्री सें. से ४६ डिग्री सें. के मध्य रहता है। सुदूर दक्षिण में ताप्त अपेक्षाकृत ऊँचा रहता है। उत्तरी सिरेनेइका का ताप २७ डिग्री सें. से लेकर ३२ डिग्री सें. के मध्य रहता है। टोब्रुक (Tobruk) का जनवरी का औसत ताप १३ डिग्री सें. तथा जुलाई और औसत ताप २६ डिग्री सें. रहता है। भिन्न भिन्न क्षेत्रों में वर्षा का औसत भिन्न भिन्न है। ट्रिपोलिटैनिया तथा सिरेनेइका के जाबाल क्षेत्र में वार्षिक वर्षा का औसत १५ से २० इंच तक है। अन्य क्षेत्रों में आठ इंच से कम वर्षा होती है। वर्षा प्राय: अल्पकालीन शीत ऋतु में होती है और इसके कारण बाढ़ आ जाती है।
यहाँ अनेक प्रकार के आवर्धित फल के पेड़, छुहारा, सदाबहार वृक्ष तथा मस्तगी (mastic) के वृक्ष हैं। सुदूर उत्तर में बकरियाँ तथा मवेशी पाले जाते हैं। दक्षिण में भेड़ों और ऊटों की संख्या अधिक है। चमड़ा कमाने, जूते, साबुन, जैतून का तले निकालने तथा तेल के शोधन करने के कारखाने हैं। यहाँ सन् १९६३ में एक सीमेंट फैक्टरी की स्थापना की गई है। जौ और गेहूँ की खेती होती है।
यहाँ पेट्रोलियम के अतिरिक्त फ़ॉस्फ़ेट, मैंगनीज़, मैग्नीशियम तथा पोटैशियम मिलते हैं। खानेवाला समुद्री नमक यहाँ का प्रमुख खनिज है।
ट्रिपोली तथा बेंगाज़ि यहाँ की संयुक्त राजधानियाँ हैं। अप्रैल, १९६३ ई. में संविधान का संशोधन हुआ, जिसके अनुसार स्त्रियों को मताधिकार दिया गया और संघीय शासनव्यवस्था के स्थान पर केंद्रीय शासनव्यवस्था लागू की गई। इस नई व्यवस्था की दस इकाइयाँ हैं, जिनके प्रधान अधिकारी 'मुहाफिद' कहलाते हैं।
सेबहा से ट्रिपोली तक तट के साथ साथ तथा देश के भीतरी भाग में अच्छी सड़कें हैं। यहाँ पर्याप्त संख्या में हल्की रेल लाइनें हैं। ट्रिपोली, बेंगाज़ि तथा टाब्रुक बंदरगाह है। इद्रिस तथा बेनिना यहाँ के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे हैं।
भूगोल
लीबिया 1,75 9,540 वर्ग किलोमीटर (679,362 वर्ग मील) से अधिक है, जो इसे आकार में दुनिया का 16 वां सबसे बड़ा देश बनाता है। लीबिया भूमध्य सागर से उत्तर में है, पश्चिम में ट्यूनीशिया और अल्जीरिया, दक्षिणपश्चिम नाइजर, चाड द्वारा दक्षिण, सूडान द्वारा दक्षिणपूर्व और पूर्व में मिस्र द्वारा। लीबिया अक्षांश 19 डिग्री और 34 डिग्री एन, और अक्षांश 9 डिग्री और 26 डिग्री ई के बीच है।
1,770 किलोमीटर (1,100 मील) पर, लीबिया की तटरेखा भूमध्यसागरीय सीमा के किसी भी अफ्रीकी देश का सबसे लंबा है।.[1][2] लीबिया के उत्तर में भूमध्य सागर के हिस्से को अक्सर लीबिया सागर कहा जाता है। जलवायु प्रकृति में ज्यादातर शुष्क और रेगिस्तानी है। हालांकि, उत्तरी क्षेत्र हल्के भूमध्य जलवायु का आनंद लेते हैं।.[3]
प्राकृतिक रूप गर्म, शुष्क, धूल से भरे सिरोको के रूप में आती हैं (लीबिया में गिब्ली के रूप में जाना जाता है)। यह वसंत और शरद ऋतु में एक से चार दिनों तक उड़ने वाली दक्षिणी हवा है। वहां धूल तूफान और मिट्टी के तूफ़ान भी हैं। ओसा भी पूरे लीबिया में बिखरे हुए पाए जा सकते हैं, जिनमें से सबसे महत्वपूर्ण घाडम्स और कुफरा हैं। रेगिस्तान पर्यावरण की मौजूदा उपस्थिति के कारण लीबिया दुनिया के सबसे सुन्दर और सूखे देशों में से एक है।
इतिहास
लीबिया के पहले निवासी बर्बर जनजाति के थे। 7 वीं शताब्दी में ईसापूर्व में , फोएनशियनों ने लीबिया के पूर्वी हिस्से को उपनिवेशित किया, जिसे साइरेनाका कहा जाता है, और यूनानियों ने पश्चिमी भाग का उपनिवेश किया, जिसे त्रिपोलिटानिया कहा जाता है। त्रिपोलिटानिया कार्थगिनियन नियंत्रण हिस्सा था। यह 46 ईस्वी से रोमन साम्राज्य का हिस्सा बन गया। पहली शताब्दी ईस्वी में साइरेनिका रोमन साम्राज्य से संबंधित था। जिसके बाद 642 ईस्वी में अरबो ने हमला किया था और विजयी प्राप्त की। 16 वीं शताब्दी में, त्रिपोलिटानिया और साइरेनाका दोनों नाममात्र रूप से तुर्क साम्राज्य का हिस्सा बन गए।
1 9 11 में इटली और तूर्की के बीच शत्रुता के फैलने के बाद, इतालवी सैनिकों ने त्रिपोली पर कब्जा कर लिया। लिबिया ने 1914 ईस्वी तक इटाली से लड़ना जारी रखा, जिसके द्वारा इटली ने अधिकांश भूमि को नियंत्रित किया। इटली ने 1934 में लीबिया को उपनिवेश के रूप में औपचारिक रूप से एकजुट ट्रिपोलिटानिया और साइरेनाका को जोड़ा।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान लीबिया एक रेगिस्तानी लड़ाई का दृश्य था। 23 जनवरी, 1943 को त्रिपोली के पतन के बाद, यह सहयोगी प्रशासन के अधीन आया। 1949 में, संयुक्त राष्ट्र ने मतदान किया कि लीबिया स्वतंत्र होना चाहिए, और 1951 में यह लीबिया यूनाइटेड किंगडम बन गया। 1958 में गरीब देश में तेल की खोज हुई और अंततः इसकी अर्थव्यवस्था में बदलाव आया।
प्रशासन
इस राष्ट्र में निम्न लिखित प्रान्त है-
अलबतनान प्रान्त
दरनऩ प्रान्त
अलजबल अलणख़ज़र प्रान्त
अलमर्ज प्रान्त
बनग़ाज़ी प्रान्त
उल्लू अहात प्रान्त
अलकफ़रऩ प्रान्त
सुरत प्रान्त
मरज़क प्रान्त
सबिया प्रान्त
वादी अलहयाऩ प्रान्त
मसरातऩ प्रान्त
अलमरक़ब प्रान्त
तरह बिल्ल्स् प्रान्त
अलजफ़ारऩ प्रान्त
अलज़ावीऩ प्रान्त
अलनक़ात अलख़मस प्रान्त
अलजबल अलगर बी प्रान्त
नालोत प्रान्त
गात प्रान्त
अलजफ़रऩ प्रान्त
वादी अलिशा ती-ए- प्रान्त
धर्म
लीबिया में लगभग 97% आबादी मुसलमान हैं, जिनमें से अधिकतर सुन्नी शाखा से संबंधित हैं। इबादी मुसलमानों और अहमदीयो की छोटी संख्या देश में रहती है।.[4] जिसके बाद ईसाई, बुद्ध, यहूदी धर्मो के अनुयायी एक अल्पशंकयक के रूप में निवास करते है।
इन्हें भी देखें
मुअम्मर अल-गद्दाफ़ी
लीबिया गृहयुद्ध (2014-वर्तमान)
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
श्रेणी:लीबिया
श्रेणी:अफ़्रीका के देश
श्रेणी:अरबी-भाषी देश व क्षेत्र | लीबिया की राजधानी क्या है? | त्रिपोली | 615 | hindi |
632aef4c3 | अमिताभ बच्चन (जन्म-११ अक्टूबर, १९४२) बॉलीवुड के सबसे लोकप्रिय अभिनेता हैं। १९७० के दशक के दौरान उन्होंने बड़ी लोकप्रियता प्राप्त की और तब से भारतीय सिनेमा के इतिहास में सबसे प्रमुख व्यक्तित्व बन गए हैं।
बच्चन ने अपने करियर में कई पुरस्कार जीते हैं, जिनमें तीन राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार और बारह फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार शामिल हैं। उनके नाम सर्वाधिक सर्वश्रेष्ठ अभिनेता फ़िल्मफेयर अवार्ड का रिकार्ड है। अभिनय के अलावा बच्चन ने पार्श्वगायक, फ़िल्म निर्माता और टीवी प्रस्तोता और भारतीय संसद के एक निर्वाचित सदस्य के रूप में १९८४ से १९८७ तक भूमिका की हैं। इन्होंने प्रसिद्द टी.वी. शो "कौन बनेगा करोड़पति" में होस्ट की भूमिका निभाई थी |जो की बहुत चरचित अवम सफल रहा।
बच्चन का विवाह अभिनेत्री जया भादुड़ी से हुआ है। इनकी दो संतान हैं, श्वेता नंदा और अभिषेक बच्चन, जो एक अभिनेता भी हैं और जिनका विवाह ऐश्वर्या राय से हुआ है।
बच्चन पोलियो उन्मूलन अभियान के बाद अब तंबाकू निषेध परियोजना पर काम करेंगे। अमिताभ बच्चन को अप्रैल २००५ में एचआईवी/एड्स और पोलियो उन्मूलन अभियान के लिए यूनिसेफ के सद्भावना राजदूत नियुक्त किया गया था।[1]
आरंभिक जीवन
इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश, में जन्मे अमिताभ बच्चन के पिता, डॉ॰ हरिवंश राय बच्चन प्रसिद्ध हिन्दी कवि थे, जबकि उनकी माँ तेजी बच्चन कराची से संबंध रखती थीं।[2] आरंभ में बच्चन का नाम इंकलाब रखा गया था जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान प्रयोग में किए गए प्रेरित वाक्यांश इंकलाब जिंदाबाद से लिया गया था। लेकिन बाद में इनका फिर से अमिताभ नाम रख दिया गया जिसका अर्थ है, "ऐसा प्रकाश जो कभी नहीं बुझेगा"। यद्यपि इनका अंतिम नाम श्रीवास्तव था फिर भी इनके पिता ने इस उपनाम को अपने कृतियों को प्रकाशित करने वाले बच्चन नाम से उद्धृत किया। यह उनका अंतिम नाम ही है जिसके साथ उन्होंने फ़िल्मों में एवं सभी सार्वजनिक प्रयोजनों के लिए उपयोग किया। अब यह उनके परिवार के समस्त सदस्यों का उपनाम बन गया है।
अमिताभ, हरिवंश राय बच्चन के दो बेटों में सबसे बड़े हैं। उनके दूसरे बेटे का नाम अजिताभ है। इनकी माता की थिएटर में गहरी रुचि थी और उन्हें फ़िल्म में भी रोल की पेशकश की गई थी किंतु इन्होंने गृहणि बनना ही पसंद किया। अमिताभ के करियर के चुनाव में इनकी माता का भी कुछ हिस्सा था क्योंकि वे हमेशा इस बात पर भी जोर देती थी कि उन्हें सेंटर स्टेज को अपना करियर बनाना चाहिए।[3] बच्चन के पिता का देहांत २००३ में हो गया था जबकि उनकी माता की मृत्यु २१ दिसंबर २००७ को हुई थीं।[4]
बच्चन ने दो बार एम. ए. की उपाधि ग्रहण की है। मास्टर ऑफ आर्ट्स (स्नातकोत्तर) इन्होंने इलाहाबाद के ज्ञान प्रबोधिनी और बॉयज़ हाई स्कूल (बीएचएस) तथा उसके बाद नैनीताल के शेरवुड कॉलेज में पढ़ाई की जहाँ कला संकाय में प्रवेश दिलाया गया। अमिताभ बाद में अध्ययन करने के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज चले गए जहां इन्होंने विज्ञान स्नातक की उपाधि प्राप्त की। अपनी आयु के २० के दशक में बच्चन ने अभिनय में अपना कैरियर आजमाने के लिए कोलकता की एक शिपिंग फर्म बर्ड एंड कंपनी में किराया ब्रोकर की नौकरी छोड़ दी।
३ जून, १९७३ को इन्होंने बंगाली संस्कार के अनुसार अभिनेत्री जया भादुड़ी से विवाह कर लिया। इस दंपती को दो बच्चों: बेटी श्वेता और पुत्र अभिषेक पैदा हुए।
कैरियर
आरंभिक कार्य १९६९ -१९७२
बच्चन ने फ़िल्मों में अपने कैरियर की शुरूआत ख्वाज़ा अहमद अब्बास के निर्देशन में बनी सात हिंदुस्तानी के सात कलाकारों में एक कलाकार के रूप में की,[5] उत्पल दत्त, मधु और जलाल आगा जैसे कलाकारों के साथ अभिनय कर के। फ़िल्म ने वित्तीय सफ़लता प्राप्त नहीं की पर बच्चन ने अपनी पहली फ़िल्म के लिए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार में सर्वश्रेष्ठ नवागंतुक का पुरूस्कार जीता।[6]
इस सफल व्यावसायिक और समीक्षित फ़िल्म के बाद उनकी एक और आनंद (१९७१) नामक फ़िल्म आई जिसमें उन्होंने उस समय के लोकप्रिय कलाकार राजेश खन्ना के साथ काम किया। डॉ॰ भास्कर बनर्जी की भूमिका करने वाले बच्चन ने कैंसर के एक रोगी का उपचार किया जिसमें उनके पास जीवन के प्रति वेबकूफी और देश की वास्तविकता के प्रति उसके दृष्टिकोण के कारण उसे अपने प्रदर्शन के लिए सर्वश्रेष्ठ सहायक कलाकार का फिल्मफेयर पुरस्कार मिला। इसके बाद अमिताभ ने (१९७१) में बनी परवाना में एक मायूस प्रेमी की भूमिका निभाई जिसमें इसके साथी कलाकारों में नवीन निश्चल, योगिता बाली और ओम प्रकाश थे और इन्हें खलनायक के रूप में फ़िल्माना अपने आप में बहुत कम देखने को मिलने जैसी भूमिका थी। इसके बाद उनकी कई फ़िल्में आई जो बॉक्स ऑफिस पर उतनी सफल नहीं हो पाई जिनमें रेशमा और शेरा (१९७१) भी शामिल थी और उन दिनों इन्होंने गुड्डी फ़िल्म में मेहमान कलाकार की भूमिका निभाई थी। इनके साथ इनकी पत्नी जया भादुड़ी के साथ धर्मेन्द्र भी थे। अपनी जबरदस्त आवाज के लिए जाने जाने वाले अमिताभ बच्चन ने अपने कैरियर के प्रारंभ में ही उन्होंने बावर्ची फ़िल्म के कुछ भाग का बाद में वर्णन किया। १९७२ में निर्देशित एस. रामनाथन द्वारा निर्देशित कॉमेडी फ़िल्म बॉम्बे टू गोवा में भूमिका निभाई। इन्होंने अरूणा ईरानी, महमूद, अनवर अली और नासिर हुसैन जैसे कलाकारों के साथ कार्य किया है।
अपने संघर्ष के दिनों में वे ७ (सात) वर्ष की लंबी अवधि तक अभिनेता, निर्देशक एवं हास्य अभिनय के बादशाह महमूद साहब के घर में रूके रहे।
स्टारडम की ओर उत्थान १९७३ -१९८३
१९७३ में जब प्रकाश मेहरा ने इन्हें अपनी फ़िल्म जंजीर (१९७३) में इंस्पेक्टर विजय खन्ना की भूमिका के रूप में अवसर दिया तो यहीं से इनके कैरियर में प्रगति का नया मोड़ आया। यह फ़िल्म इससे पूर्व के रोमांस भरे सार के प्रति कटाक्ष था जिसने अमिताभ बच्चन को एक नई भूमिका एंग्री यंगमैन में देखा जो बॉलीवुड के एक्शन हीरो बन गए थे, यही वह प्रतिष्ठा थी जिसे बाद में इन्हें अपनी फ़िल्मों में हासिल करते हुए उसका अनुसरण करना था। बॉक्स ऑफिस पर सफलता पाने वाले एक जबरदस्त अभिनेता के रूप में यह उनकी पहली फ़िल्म थी, जिसने उन्हें सर्वश्रेष्ठ पुरूष कलाकार फ़िल्मफेयर पुरस्कार के लिए मनोनीत करवाया। १९७३ ही वह साल था जब इन्होंने ३ जून को जया से विवाह किया और इसी समय ये दोनों न केवल जंजीर में बल्कि एक साथ कई फ़िल्मों में दिखाई दिए जैसे अभिमान जो इनकी शादी के केवल एक मास बाद ही रिलीज हो गई थी। बाद में हृषिकेश मुखर्जी के निदेर्शन तथा बीरेश चटर्जी द्वारा लिखित नमक हराम फ़िल्म में विक्रम की भूमिका मिली जिसमें दोस्ती के सार को प्रदर्शित किया गया था। राजेश खन्ना और रेखा के विपरीत इनकी सहायक भूमिका में इन्हें बेहद सराहा गया और इन्हें सर्वश्रेष्ठ सहायक कलाकार का फ़िल्मफेयर पुरस्कार दिया गया।
१९७४ की सबसे बड़ी फ़िल्म रोटी कपड़ा और मकान में सहायक कलाकार की भूमिका करने के बाद बच्चन ने बहुत सी फ़िल्मों में कई बार मेहमान कलाकार की भूमिका निभाई जैसे कुँवारा बाप|कुंवारा बाप और दोस्त। मनोज कुमार द्वारा निदेशित और लिखित फ़िल्म जिसमें दमन और वित्तीय एवं भावनात्मक संघर्षों के समक्ष भी ईमानदारी का चित्रण किया गया था, वास्तव में आलोचकों एवं व्यापार की दृष्टि से एक सफल फ़िल्म थी और इसमें सह कलाकार की भूमिका में अमिताभ के साथी के रूप में कुमार स्वयं और शशि कपूर एवं जीनत अमान थीं। बच्चन ने ६ दिसंबर १९७४ की बॉलीवुड की फ़िल्में|१९७४ को रिलीज मजबूर फ़िल्म में अग्रणी भूमिका निभाई यह फ़िल्म हालीवुड फ़िल्म जिगजेग की नकल कर बनाई थी जिसमें जॉर्ज कैनेडी अभिनेता थे, किंतु बॉक्स ऑफिस[7] पर यह कुछ खास नहीं कर सकी और १९७५ में इन्होंने हास्य फ़िल्म चुपके चुपके, से लेकर अपराध पर बनी फ़िल्म फरार और रोमांस फ़िल्म मिली (फिल्म)|मिली में अपने अभिनय के जौहर दिखाए। तथापि, १९७५ का वर्ष ऐसा वर्ष था जिसमें इन्होंने दो फ़िल्मों में भूमिकाएं की और जिन्हें हिंदी सिनेमा जगत में बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इन्होंने यश चोपड़ा द्वारा निर्देशित फ़िल्म दीवार में मुख्य कलाकार की भूमिका की जिसमें इनके साथ शशि कपूर, निरूपा राय और नीतू सिंह थीं और इस फ़िल्म ने इन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फ़िल्मफेयर पुरस्कार दिलवाया। १९७५ में यह फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर हिट रहकर चौथे[8] स्थान पर रही और इंडियाटाइम्स की मूवियों में बॉलीवुड की हर हाल में देखने योग्य शीर्ष २५ फिल्मों[9] में भी नाम आया। १५ अगस्त, १९७५ को रिलीज शोले है और भारत में किसी भी समय की सबसे ज्यादा आय अर्जित करने वाली फिल्म बन गई है जिसने २,३६,४५,००००० रू० कमाए जो मुद्रास्फीति[10] को समायोजित करने के बाद ६० मिलियन अमरीकी डालर के बराबर हैं। बच्चन ने इंडस्ट्री के कुछ शीर्ष के कलाकारों जैसे धर्मेन्द्र, हेमा मालिनी, संजीव कुमार, जया बच्चन और अमजद खान के साथ जयदेव की भूमिका अदा की थी। १९९९ में बीबीसी इंडिया ने इस फ़िल्म को शताब्दी की फ़िल्म का नाम दिया और दीवार की तरह इसे इंडियाटाइम्ज़ मूवियों में बालीवुड की शीर्ष २५ फिल्मों में[11] शामिल किया। उसी साल ५० वें वार्षिक फिल्म फेयर पुरस्कार के निर्णायकों ने एक विशेष पुरस्कार दिया जिसका नाम ५० सालों की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म फिल्मफेयर पुरूस्कार था।
बॉक्स ऑफिस पर शोले जैसी फ़िल्मों की जबरदस्त सफलता के बाद बच्चन ने अब तक अपनी स्थिति को मजबूत कर लिया था और १९७६ से १९८४ तक उन्हें अनेक सर्वश्रेष्ठ कलाकार वाले फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार और अन्य पुरस्कार एवं ख्याति मिली। हालांकि शोले जैसी फ़िल्मों ने बालीवुड में उसके लिए पहले से ही महान एक्शन नायक का दर्जा पक्का कर दिया था, फिर भी बच्चन ने बताया कि वे दूसरी भूमिकाओं में भी स्वयं को ढाल लेते हैं और रोमांस फ़िल्मों में भी अग्रणी भूमिका कर लेते हैं जैसे कभी कभी (१९७६) और कामेडी फ़िल्मों जैसे अमर अकबर एन्थनी (१९७७) और इससे पहले भी चुपके चुपके (१९७५) में काम कर चुके हैं। १९७६ में इन्हें यश चोपड़ा ने अपनी दूसरी फ़िल्म कभी कभी में साइन कर लिया यह और एक रोमांस की फ़िल्म थी, जिसमें बच्चन ने एक अमित मल्होत्रा के नाम वाले युवा कवि की भूमिका निभाई थी जिसे राखी गुलजार द्वारा निभाई गई पूजा नामक एक युवा लड़की से प्रेम हो जाता है। इस बातचीत के भावनात्मक जोश और कोमलता के विषय अमिताभ की कुछ पहले की एक्शन फ़िल्मों तथा जिन्हें वे बाद में करने वाले थे की तुलना में प्रत्यक्ष कटाक्ष किया। इस फिल्म ने इन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फ़िल्मफेयर पुरस्कार के लिए नामित किया और बॉक्स ऑफिस पर यह एक सफल फ़िल्म थी। १९७७ में इन्होंने अमर अकबर एन्थनी में अपने प्रदर्शन के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फ़िल्मफेयर पुरस्कार जीता। इस फ़िल्म में इन्होंने विनोद खन्ना और ऋषि कपूर के साथ एनथॉनी गॉन्सॉलनेज़ के नाम से तीसरी अग्रणी भूमिका की थी। १९७८ संभवत: इनके जीवन का सर्वाधिक प्रशेषनीय वर्ष रहा और भारत में उस समय की सबसे अधिक आय अर्जित करने वाली चार फ़िल्मों में इन्होंने स्टार कलाकार की भूमिका निभाई।[12] इन्होंने एक बार फिर कस्में वादे जैसी फ़िल्मों में अमित और शंकर तथा डॉन में अंडरवर्ल्ड गैंग और उसके हमशक्ल विजय के रूप में दोहरी भूमिका निभाई.इनके अभिनय ने इन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के फ़िल्मफेयर पुरस्कार दिलवाए और इनके आलोचकों ने त्रिशूल और मुकद्दर का सिकन्दर जैसी फ़िल्मों में इनके अभिनय की प्रशंसा की तथा इन दोनों फ़िल्मों के लिए इन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फ़िल्मफेयर पुरस्कार मिला। इस पड़ाव पर इस अप्रत्याशित दौड़ और सफलता के नाते इनके कैरियर में इन्हें फ्रेन्काइज ट्रूफोट[13] नामक निर्देशक द्वारा वन मेन इंडस्ट्री का नाम दिया।
१९७९ में पहली बार अमिताभ को मि० नटवरलाल नामक फ़िल्म के लिए अपनी सहयोगी कलाकार रेखा के साथ काम करते हुए गीत गाने के लिए अपनी आवाज का उपयोग करना पड़ा.फ़िल्म में उनके प्रदर्शन के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार पुरुष पार्श्वगायक का सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म पुरस्कार मिला। १९७९ में इन्हें काला पत्थर (१९७९) में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार दिया गया और इसके बाद १९८० में राजखोसला द्वारा निर्देशित फ़िल्म दोस्ताना में दोबारा नामित किया गया जिसमें इनके सह कलाकार शत्रुघन सिन्हां और जीनत अमान थीं। दोस्ताना वर्ष १९८० की शीर्ष फ़िल्म साबित हुई।[14] १९८१ में इन्होंने यश चोपड़ा की नाटकीयता फ़िल्म सिलसिला में काम किया, जिसमें इनकी सह कलाकार के रूप में इनकी पत्नी जया और अफ़वाहों में इनकी प्रेमिका रेखा थीं। इस युग की दूसरी फ़िल्मों में राम बलराम (१९८०), शान (१९८०), लावारिस (१९८१) और शक्ति (१९८२) जैसी फिल्में शामिल थीं, जिन्होंने दिलीप कुमार जैसे अभिनेता से इनकी तुलना की जाने लगी थी।[15]
१९८२ के दौरान कुली की शूटिंग के दौरान चोट
१९८२ में कुली फ़िल्म में बच्चन ने अपने सह कलाकार पुनीत इस्सर के साथ एक फाइट की शूटिंग के दौरान अपनी आंतों को लगभग घायल कर लिया था।[16] बच्चन ने इस फ़िल्म में स्टंट अपनी मर्जी से करने की छूट ले ली थी जिसके एक सीन में इन्हें मेज पर गिरना था और उसके बाद जमीन पर गिरना था। हालांकि जैसे ही ये मेज की ओर कूदे तब मेज का कोना इनके पेट से टकराया जिससे इनके आंतों को चोट पहुंची और इनके शरीर से काफी खून बह निकला था। इन्हें जहाज से फोरन स्पलेनक्टोमी के उपचार हेतु अस्पताल ले जाया गया और वहां ये कई महीनों तक अस्पताल में भर्ती रहे और कई बार मौत के मुंह में जाते जाते बचे। यह अफ़वाह भी फैल भी गई थी, कि वे एक दुर्घटना में मर गए हैं और संपूर्ण देश में इनके चाहने वालों की भारी भीड इनकी रक्षा के लिए दुआएं करने में जुट गयी थी। इस दुर्घटना की खबर दूर दूर तक फैल गई और यूके के अखबारों की सुर्खियों में छपने लगी जिसके बारे में कभी किसने सुना भी नहीं होगा। बहुत से भारतीयों ने मंदिरों में पूजा अर्चनाएं की और इन्हें बचाने के लिए अपने अंग अर्पण किए और बाद में जहां इनका उपचार किया जा रहा था उस अस्पताल के बाहर इनके चाहने वालों की मीलों लंबी कतारें दिखाई देती थी।[17]
तिसपर भी इन्होंने ठीक होने में कई महीने ले लिए और उस साल के अंत में एक लंबे अरसे के बाद पुन: काम करना आरंभ किया। यह फ़िल्म १९८३ में रिलीज हुई और आंशिक तौर पर बच्चन की दुर्घटना के असीम प्रचार के कारण बॉक्स ऑफिस पर सफल रही।[18]
निर्देशक मनमोहन देसाई ने कुली फ़िल्म में बच्चन की दुर्घटना के बाद फ़िल्म के कहानी का अंत बदल दिया था। इस फ़िल्म में बच्चन के चरित्र को वास्तव में मृत्यु प्राप्त होनी थी लेकिन बाद में स्क्रिप्ट में परिवर्तन करने के बाद उसे अंत में जीवित दिखाया गया। देसाई ने इनके बारे में कहा था कि ऐसे आदमी के लिए यह कहना बिल्कुल अनुपयुक्त होगा कि जो असली जीवन में मौत से लड़कर जीता हो उसे परदे पर मौत अपना ग्रास बना ले। इस रिलीज फ़िल्म में पहले सीन के अंत को जटिल मोड़ पर रोक दिया गया था और उसके नीचे एक केप्शन प्रकट होने लगा जिसमें अभिनेता के घायल होने की बात लिखी गई थी और इसमें दुर्घटना के प्रचार को सुनिश्चित किया गया था।[17]
बाद में ये मियासथीनिया ग्रेविस में उलझ गए जो या कुली में दुर्घटना के चलते या तो भारीमात्रा में दवाई लेने से हुआ या इन्हें जो बाहर से अतिरिक्त रक्त दिया गया था इसके कारण हुआ। उनकी बीमारी ने उन्हें मानसिक और शारीरिक दोनों रूप से कमजोर महसूस करने पर मजबूर कर दिया और उन्होंने फ़िल्मों में काम करने से सदा के लिए छुट्टी लेने और राजनीति में शामिल होने का निर्णन किया। यही वह समय था जब उनके मन में फ़िल्म कैरियर के संबंध में निराशावादी विचारधारा का जन्म हुआ और प्रत्येक शुक्रवार को रिलीज होने वाली नई फ़िल्म के प्रत्युत्तर के बारे में चिंतित रहते थे। प्रत्येक रिलीज से पहले वह नकारात्मक रवैये में जवाब देते थे कि यह फिल्म तो फ्लाप होगी।.[19]
राजनीति: १९८४-१९८७
१९८४ में अमिताभ ने अभिनय से कुछ समय के लिए विश्राम ले लिया और अपने पुराने मित्र राजीव गांधी की सपोर्ट में राजनीति में कूद पड़े।[20] उन्होंने इलाहाबाद लोक सभा सीट से उत्तरप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री एच.एन। बहुगुणा को इन्होंने आम चुनाव के इतिहास में (६८.२ %) के मार्जिन से विजय दर्ज करते हुए चुनाव में हराया था।[21] हालांकि इनका राजनीतिक कैरियर कुछ अवधि के लिए ही था, जिसके तीन साल बाद इन्होंने अपनी राजनीतिक अवधि को पूरा किए बिना त्याग दिया। इस त्यागपत्र के पीछे इनके भाई का बोफोर्स घोटाले|बोफोर्स विवाद में अखबार में नाम आना था, जिसके लिए इन्हें अदालत में जाना पड़ा।[22] इस मामले में बच्चन को दोषी नहीं पाया गया।
उनके पुराने मित्र अमरसिंह ने इनकी कंपनी एबीसीएल के फेल हो जाने के कारण आर्थिक संकट के समय इनकी मदद कीं। इसके बाद बच्चन ने अमरसिंह की राजनीतिक पाटी समाजवादी पार्टी को सहयोग देना शुरू कर दिया। जया बच्चन ने समाजवादी पार्टी ज्वाइन कर ली और राज्यसभा की सदस्या बन गई।[23]
बच्चन ने समाजवादी पार्टी के लिए अपना समर्थन देना जारी रखा जिसमें राजनीतिक अभियान अर्थात प्रचार प्रसार करना शामिल था। इनकी इन गतिविधियों ने एक बार फिर मुसीबत में डाल दिया और इन्हें झूठे दावों के सिलसिलों में कि वे एक किसान हैं के संबंध में कानूनी कागजात जमा करने के लिए अदालत जाना पड़ा I[24]
बहुत कम लोग ऐसे हैं जो ये जानते हैं कि स्वयंभू प्रैस ने अमिताभ बच्चन पर प्रतिबंध लगा दिया था। स्टारडस्ट (पत्रिका)|स्टारडस्ट और कुछ अन्य पत्रिकाओं ने मिलकर एक संघ बनाया, जिसमें अमिताभ के शीर्ष पर रहते समय १५ वर्ष के लिए प्रतिबंध लगा दिया गया। इन्होंने अपने प्रकाशनों में अमिताभ के बारे में कुछ भी न छापने का निर्णय लिया। १९८९ के अंत तक बच्चन ने उनके सैटों पर प्रेस के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा रखा था। लेकिन, वे किसी विशेष पत्रिका के खिलाफ़ नहीं थे।[25] ऐसा कहा गया है कि बच्चन ने कुछ पत्रिकाओं को प्रतिबंधित कर रखा था क्योंकि उनके बारे में इनमें जो कुछ प्रकाशित होता रहता था उसे वे पसंद नहीं करते थे और इसी के चलते एक बार उन्हें इसका अनुपालन करने के लिए अपने विशेषाधिकार का भी प्रयोग करना पड़ा।
मंदी के कारण और सेवानिवृत्ति: १९८८ -१९९२
१९८८ में बच्चन फ़िल्मों में तीन साल की छोटी सी राजनीतिक अवधि के बाद वापस लौट आए और शहंशाह में शीर्षक भूमिका की जो बच्चन की वापसी के चलते बॉक्स आफिस पर सफल रही।[26] इस वापसी वाली फिल्म के बाद इनकी स्टार पावर क्षीण होती चली गई क्योंकि इनकी आने वाली सभी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर असफल होती रहीं। १९९१ की हिट फिल्म हम (फिल्म)|हम से ऐसा लगा कि यह वर्तमान प्रवृति को बदल देगी किंतु इनकी बॉक्स आफिस पर लगातार असफलता के चलते सफलता का यह क्रम कुछ पल का ही था। उल्लेखनीय है कि हिट की कमी के बावजूद यह वह समय था जब अमिताभ बच्चन ने १९९० की फिल्म अग्निपथ में माफिया डॉन की यादगार भूमिका के लिए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार, जीते। ऐसा लगता था कि अब ये वर्ष इनके अंतिम वर्ष होंगे क्योंकि अब इन्हें केवल कुछ समय के लिए ही परदे पर देखा जा सकेगा I१९९२ में खुदागवाह के रिलीज होने के बाद बच्चन ने अगले पांच वर्षों के लिए अपने आधे रिटायरमेंट की ओर चले गए। १९९४ में इनके देर से रिलीज होने वाली कुछ फिल्मों में से एक फिल्म इन्सान्यित रिलीज तो हुई लेकिन बॉक्स ऑफिस पर असफल रही।[27]
निर्माता और अभिनय की वापसी १९९६ -१९९९
अस्थायी सेवानिवृत्ति की अवधि के दौरान बच्चन निर्माता बने और अमिताभ बच्चन कारपोरेशन लिमिटेड की स्थापना की। ए;बी;सी;एल;) १९९६ में वर्ष २००० तक १० बिलियन रूपए (लगभग २५० मिलियन अमरीकी डॉलर) वाली मनोरंजन की एक प्रमुख कंपनी बनने का सपना देखा। एबीसीएल की रणनीति में भारत के मनोरंजन उद्योग के सभी वर्गों के लिए उत्पाद एवं सेवाएं प्रचलित करना था। इसके ऑपरेशन में मुख्य धारा की व्यावसायिक फ़िल्म उत्पादन और वितरण, ऑडियो और वीडियो कैसेट डिस्क, उत्पादन और विपणन के टेलीविजन सॉफ्टवेयर, हस्ती और इवेन्ट प्रबंधन शामिल था।
१९९६ में कंपनी के आरंभ होने के तुरंत बाद कंपनी द्वारा उत्पादित पहली फिल्म तेरे मेरे सपने थी जो बॉक्स ऑफिस पर विफल रही लेकिन अरशद वारसी दक्षिण और फिल्मों के सुपर स्टार सिमरन जैसे अभिनेताओं के करियर के लिए द्वार खोल दिए। एबीसीएल ने कुछ फिल्में बनाई लेकिन इनमें से कोई भी फिल्म कमाल नहीं दिखा सकी।
१९९७ में, एबीसीएल द्वारा निर्मित मृत्युदाता, फिल्म से बच्चन ने अपने अभिनय में वापसी का प्रयास किया। यद्यपि मृत्युदाता ने बच्चन की पूर्व एक्शन हीरो वाली छवि को वापस लाने की कोशिश की लेकिन एबीसीएल के उपक्रम, वाली फिल्म थी और विफलता दोनों के आर्थिक रूप से गंभीर है। एबीसीएल १९९७ में बंगलौर में आयोजित १९९६ की मिस वर्ल्ड सौंदर्य प्रतियोगिता, का प्रमुख प्रायोजक था और इसके खराब प्रबंधन के कारण इसे करोड़ों रूपए का नुकसान उठाना पड़ा था। इस घटनाक्रम और एबीसीएल के चारों ओर कानूनी लड़ाइयों और इस कार्यक्रम के विभिन्न गठबंधनों के परिणामस्वरूप यह तथ्य प्रकट हुआ कि एबीसीएल ने अपने अधिकांश उच्च स्तरीय प्रबंधकों को जरूरत से ज्यादा भुगतान किया है जिसके कारण वर्ष १९९७ में वह वित्तीय और क्रियाशील दोनों तरीके से ध्वस्त हो गई। कंपनी प्रशासन के हाथों में चली गई और बाद में इसे भारतीय उद्योग मंडल द्वारा असफल करार दे दिया गया। अप्रेल १९९९ में मुबंई उच्च न्यायालय ने बच्चन को अपने मुंबई वाले बंगला प्रतीक्षा और दो फ्लैटों को बेचने पर तब तक रोक लगा दी जब तक कैनरा बैंक की राशि के लौटाए जाने वाले मुकदमे का फैसला न हो जाए। बच्चन ने हालांकि दलील दी कि उन्होंने अपना बंग्ला सहारा इंडिया फाइनेंस के पास अपनी कंपनी के लिए कोष बढाने के लिए गिरवी रख दिया है।[28]
बाद में बच्चन ने अपने अभिनय के कैरियर को संवारने का प्रयास किया जिसमें उसे बड़े मियाँ छोटे मियाँ (१९९८)[29] से औसत सफलता मिली और सूर्यावंशम (१९९९)[30], से सकारात्मक समीक्षा प्राप्त हुई लेकिन तथापि मान लिया गया कि बच्चन की महिमा के दिन अब समाप्त हुए चूंकि उनके बाकी सभी फिल्में जैसे लाल बादशाह (१९९९) और हिंदुस्तान की कसम (१९९९) बॉक्स ऑफिस पर विफल रही हैं।
टेलीविजन कैरियर
वर्ष २००० में, एह्दिन्द्नेम्, म्ल्द्च्म्ल्द् बच्चन ने ब्रिटिश टेलीविजन शो के खेल, हू वाण्टस टु बी ए मिलियनेयर को भारत में अनुकूलन हेतु कदम बढाया। शीर्षक कौन बनेगा करोड़पति.
जैसा कि इसने अधिकांशत: अन्य देशों में अपना कार्य किया था जहां इसे अपनाया गया था वहां इस कार्यक्रम को तत्काल और गहरी सफलता मिली जिसमें बच्चन के करिश्मे भी छोटे रूप में योगदान देते थे। यह माना जाता है कि बच्चन ने इस कार्यक्रम के संचालन के लिए साप्ताहिक प्रकरण के लिए अत्यधिक २५ लाख रुपए (२,५ लाख रुपए भारतीय, अमेरिकी डॉलर लगभग ६००००) लिए थे, जिसके कारण बच्चन और उनके परिवार को नैतिक और आर्थिक दोनों रूप से बल मिला। इससे पहले एबीसीएल के बुरी तरह असफल हो जाने से अमिताभ को गहरे झटके लगे थे। नवंबर २००० में केनरा बैंक ने भी इनके खिलाफ अपने मुकदमे को वापस ले लिया। बच्चन ने केबीसी का आयोजन नवंबर २००५ तक किया और इसकी सफलता ने फिल्म की लोकप्रियता के प्रति इनके द्वार फिर से खोल दिए।
सत्ता में वापस लौटें: २००० - वर्तमान
मोहब्बतें (२०००) फ़िल्म में स्क्रीन के सामने शाहरुख खान के साथ सह कलाकार के रूप में वापस लौट आए।
[[चित्र:Amitabh Bachan award.jpg|thumb|right|250px|प्रतिभा देवीसिंह पाटिल ने हिंदी फ़िल्म ब्लैक में अमिताभ के अभिनय के लिए वर्ष २००५ का सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म अभिनेता का फ़िल्मफेयर पुरस्कार दिया।
सन् २००० में अमिताभ बच्चन जब आदित्य चोपड़ा, द्वारा निर्देशित यश चोपड़ा' की बॉक्स ऑफिस पर सुपर हिट फ़िल्म मोहब्बतें में भारत की वर्तमान घड़कन शाहरुख खान.के चरित्र में एक कठोर की भूमिका की तब इन्हें अपना खोया हुआ सम्मान पुन: प्राप्त हुआ। दर्शक ने बच्चन के काम की सराहना की है, क्योंकि उन्होंने एक ऐसे चरित्र की भूमिका निभाई, जिसकी उम्र उनकी स्वयं की उम्र जितनी थी और अपने पूर्व के एंग्री यंगमैन वाली छवि (जो अब नहीं है) के युवा व्यक्ति से मिलती जुलती भूमिका थी। इनकी अन्य सफल फ़िल्मों में बच्चन के साथ एक बड़े परिवार के पितृपुरुष के रूप में प्रदर्शित होने में एक रिश्ता:द बॉन्ड ओफ लव (२००१), कभी ख़ुशी कभी ग़म (२००१) और बागबान (२००३) हैं। एक अभिनेता के रूप में इन्होंने अपनी प्रोफाइल के साथ मेल खाने वाले चरित्रों की भूमिकाएं करनी जारी रखीं तथा अक्स (२००१), आंखें (२००२), खाकी (२००४), देव (२००४) और ब्लैक (२००५) जैसी फ़िल्मों के लिए इन्हें अपने आलोचकों की प्रशंसा भी प्राप्त हुई। इस पुनरुत्थान का लाभ उठाकर, अमिताभ ने बहुत से टेलीविज़न और बिलबोर्ड विज्ञापनों में उपस्थिति देकर विभिन्न किस्मों के उत्पाद एवं सेवाओं के प्रचार के लिए कार्य करना आरंभ कर दिया।
२००५ और २००६ में उन्होंने अपने बेटे अभिषेक के साथ बंटी और बबली (२००५), द गॉडफ़ादर श्रद्धांजलि सरकार (२००५), और कभी अलविदा ना कहना (२००६) जैसी हिट फ़िल्मों में स्टार कलाकार की भूमिका की। ये सभी फ़िल्में बॉक्स ऑफिस पर अत्यधिक सफल रहीं।[31][32] २००६ और २००७ के शुरू में रिलीज उनकी फ़िल्मों में बाबुल (२००६), और[33]एकलव्य , निशब्द|नि:शब्द (२००७) बॉक्स ऑफिस पर असफल रहीं किंतु इनमें से प्रत्येक में अपने प्रदर्शन के लिए आलोचकों[34] से सराहना मिली।
इन्होंने चंद्रशेखर नागाथाहल्ली द्वारा निर्देशित कन्नड़ फ़िल्म अमृतधारा में मेहमान कलाकार की भूमिका की है।
मई २००७ में, इनकी दो फ़िल्मों में से एक चीनी कम और बहु अभिनीत शूटआउट एट लोखंडवाला रिलीज हुई<i data-parsoid='{"dsr":[32078,32101,2,2]}'>शूटआउट एट लोखंडवाला बॉक्स ऑफिस पर बहुत अच्छी रही और भारत[35] में इसे हिट घोषित किया गया और चीनी कम ने धीमी गति से आरंभ होते हुए कुल मिलाकर औसत हिट का दर्जा पाया।[36]
अगस्त २००७ में, (१९७५) की सबसे बड़ी हिट फ़िल्म शोले की रीमेक बनाई गई और उसे राम गोपाल वर्मा की आग शीर्षक से जारी किया गया। इसमें इन्होंने बब्बन सिंह (मूल गब्बर सिंह के नाम से खलनायक की भूमिका अदा की जिसे स्वर्गीय अभिनेता अमजद ख़ान द्वारा १९७५ में मूल रूप से निभाया था। यह फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर बेहद नाकाम रही और आलोचना करने वालो ने भी इसकी कठोर निंदा की।[35]
उनकी पहली अंग्रेजी भाषा की फ़िल्म रितुपर्णा घोष द लास्ट ईयर का वर्ष २००७ में टोरंटो अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में ९ सितंबर, २००७ को प्रीमियर लांच किया गया। इन्हें अपने आलोचकों से सकारात्मक समीक्षाएं मिली हैं जिन्होंने स्वागत के रूप में ब्लेक.[37] में अपने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन के बाद से अब तक सराहना की है।
बच्चन शांताराम नामक शीर्षक वाली एवं मीरा नायर द्वारा निर्देशित फ़िल्म में सहायक कलाकार की भूमिका करने जा रहे हैं जिसके सितारे हॉलीवुड अभिनेता जॉनी डेप हैं। इस फ़िल्म का फ़िल्मांकन फरवरी २००८ में शुरू होना था, लेकिन लेखक की हड़ताल की वजह से, इस फ़िल्म को सितम्बर २००८ में फ़िल्मांकन हेतु टाल दिया गया।[38]
९ मई २००८, भूतनाथ (फिल्म) फ़िल्म में इन्होंने भूत के रूप में शीर्षक भूमिका की जिसे रिलीज किया गया। जून २००८ में रिलीज हुई उनकी नवीनतम फ़िल्म सरकार राज जो उनकी वर्ष २००५ में बनी फ़िल्म सरकार का परिणाम है।
स्वास्थ्य
२००५ अस्पताल में भर्ती
नवंबर २००५ में, अमिताभ बच्चन को एक बार फिर लीलावती अस्पताल की आईसीयू में विपटीशोथ के छोटी आँत [39] की सर्जरी लिए भर्ती किया गया। उनके पेट में दर्द की शिकायत के कुछ दिन बाद ही ऐसा हुआ। इस अवधि के दौरान और ठीक होने के बाद उसकी ज्यादातर परियोजनाओं को रोक दिया गया जिसमें कौन बनेगा करोड़पति का संचालन करने की प्रक्रिया भी शामिल थी। भारत भी मानो मूक बना हुआ यथावत जैसा दिखाई देने लगा था और इनके चाहने वालों एवं प्रार्थनाओं के बाद देखने के लिए एक के बाद एक, हस्ती देखने के लिए आती थीं। इस घटना के समाचार संतृप्त कवरेज भर अखबारों और टीवी समाचार चैनल में फैल गए। अमिताभ मार्च २००६ में काम करने के लिए वापस लौट आए।[40]
आवाज
बच्चन अपनी जबरदस्त आवाज़ के लिए जाने जाते हैं। वे बहुत से कार्यक्रमों में एक वक्ता, पार्श्वगायक और प्रस्तोता रह चुके हैं। बच्चन की आवाज से प्रसिद्ध फ़िल्म निर्देशक सत्यजीत रे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने शतरंज के खिलाड़ी में इनकी आवाज़ का उपयोग कमेंटरी के लिए करने का निर्णय ले लिया क्योंकि उन्हें इनके लिए कोई उपयुक्त भूमिका नहीं मिला था।[41]
फ़िल्म उद्योग में प्रवेश करने से पहले, बच्चन ने ऑल इंडिया रेडियो में समाचार उद्घोषक, नामक पद हेतु नौकरी के लिए आवेदन किया जिसके लिए इन्हें अयोग्य घोषित कर दिया गया था।
विवाद और आलोचना
बाराबंकी भूमि प्रकरण
के लिए भागदौड़
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव, २००७,
अमिताभ बच्चन ने एक फ़िल्म बनाई जिसमें मुलायम सिंह सरकार के गुणगाणों का बखान किया गया था। उसका समाजवादी पार्टी मार्ग था और मायावती सत्ता में आई।
२ जून, २००७, फैजाबाद अदालत ने इन्हें आदेश दिया कि इन्होंने भूमिहीन दलित किसानों के लिए विशेष रूप से आरक्षित भूमि को अवैध रूप से अधिग्रहीत किया है।[42] जालसाजी से संबंधित आरोंपों के लिए इनकी जांच की जा सकती है। जैसा कि उन्होंने दावा किया कि उन्हें कथित तौर पर एक किसान माना जाए[43] यदि वह कहीं भी कृषिभूमि के स्वामी के लिए उत्तीर्ण नहीं कर पाते हैं तब इन्हें 20 एकड़ फार्महाउस की भूमि को खोना पड़ सकता है जो उन्होंने मावल पुणे.[42] के निकट खरीदी थी।
१९ जुलाई २००७ के बाद घेटाला खुलने के बाद बच्चन ने बाराबंकी उत्तर प्रदेश और पुणे में अधिग्रहण की गई भूमि को छोड़ दिया। उन्होंने महाराष्ट्र, के मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख को उनके तथा उनके पुत्र अभिषेक बच्चन द्वारा पुणे[44] में अवैध रूप से अधिग्रहण भूमि को दान करने के लिए पत्र लिखा। हालाँकि, लखनऊ की अदालत ने भूमि दान पर रोक लगा दी और कहा कि इस भूमि को पूर्व स्थिति में ही रहने दिया जाए।
१२ अक्टूबर २००७ को, बच्चने ने बाराबंकी जिले[45] के दौलतपुर गांव की इस भूमि के दावे को छोड़ दिया।
११ दिसम्बर २००७ को इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनव खंडपीठ ने बाराबंकी जिले में इन्हें अवैध रूप से जमीन आंवटित करने के मामले में हरी झंडी दे दी। बच्चन को हरी झंडी देते हुए लखनऊ की एकल खंडपीठ के न्यायधीश ने कहा कि ऐसे कोई सबूत नहीं मिले हैं जिनसे प्रमाणित हो कि अभिनेता ने राजस्व अभिलेखों[46][47] में स्वयं के द्वारा कोई हेराफेरी अथवा फेरबदल किया हो।
बाराबंकी मामले में अपने पक्ष में सकारात्मक फैसला सुनने के बाद बच्चन ने महाराष्ट्र सरकार को सूचित किया कि पुणे जिले[48] की मारवल तहसील में वे अपनी जमीन का आत्मसमर्पण करने के लिए तैयार नहीं हैं।
राज ठाकरे की आलोचना
जनवरी २००८ में राजनीतिक रैलियों पर, महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रमुख राज ठाकरे ने अमिताभ बच्चन को अपना निशाना बनाते हुए कहा कि ये अभिनेता महाराष्ट्र की तुलना में अपनी मातृभूमि के प्रति अधिक रूचि रखते हैं। उन्होंने अपनी बहू अभीनेत्री एश्वर्या राय बच्चन के नाम पर लड़कियों का एक विद्यालय महाराष्ट्र[49] के बजाय उत्तर प्रदेश के बाराबंकी में उद्घाटन के लिए अपनी नामंजूरी दी.मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, अमिताभ के लिए राज की आलोचना, जिसकी वह प्रशंसा करते हैं, अमिताभ के पुत्र अभिषेक का ऐश्वर्या के साथ हुए विवाह में आमंत्रित न किए जाने के कारण उत्पन्न हुई जबकि उनसे अलग रह रहे चाचा बाल और चचेरे भाई उद्धव को आमंत्रित किया गया था।[50][51]
राज के आरोपों के जवाब में, अभिनेता की पत्नी जया बच्चन जो सपा सांसद हैं ने कहा कि वे (बच्चन परिवार) मुंबई में एक स्कूल खोलने की इच्छा रखते हैं बशर्ते एमएनएस के नेता उन्हें इसका निर्माण करने के लिए भूमि दान करें.उन्होंने मीडिया से कहा, " मैंने सुना है कि राज ठाकरे के पास महाराष्ट्र में मुंबई में कोहिनूर मिल की बड़ी संपत्ति है। यदि वे भूमि दान देना चाहते हैं तब हम यहां ऐश्वर्या राय के नाम पर एक स्कूल चला चकते हैं।[52] इसके आवजूद अमिताभ ने इस मुद्दे पर कुछ भी कहने से इंकार कर दिया।
बाल ठाकरे ने आरोपों का खंडन करते हुए कहा कि अमिताभ बच्चन एक खुले दिमाग वाला व्यक्ति है और महाराष्ट्र के लिए उनके मन में विशेष प्रेम है जिन्हें कई अवसरों पर देखा जा चुका है।इस अभिनेता ने अक्सर कहा है कि महाराष्ट्र और खासतौर पर मुंबई ने उन्हें महान प्रसिद्धि और स्नेह दिया है। .उन्होंने यह भी कहा है कि वे आज जो कुछ भी हैं इसका श्रेय जनता द्वारा दिए गए प्रेम को जाता है। मुंबई के लोगों ने हमेशा उन्हें एक कलाकार के रूप में स्वीकार किया है। उनके खिलाफ़ इस प्रकार के संकीर्ण आरोप लगाना नितांत मूर्खता होगी। दुनिया भर में सुपर स्टार अमिताभ है। दुनिया भर के लोग उनका सम्मान करते हैं। इसे कोई भी नहीं भुला सकता है। अमिताभ को इन घटिया आरोपों की उपेक्षा करनी चाहिए और अपने अभिनय पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए।"[53]
कुछ रिपोर्टों के अनुसार अमिताभ की राज के द्वारा की गई गणना के अनुसार जिनकी उन्हें तारीफ करते हुए बताया जाता है, को बड़ी निराश हुई जब उन्हें अमिताभ के बेटे अभिषेक की ऐश्वर्या के साथ विवाह में आमंत्रित नहीं किया गया जबकि उनके रंजिशजदा चाचा बाल और चचेरे भाई उद्धव[50][51] को आमंत्रित किया गया था।
मार्च २३, २००८ को राज की टिप्पणियों के लगभग डेढ महीने बाद अमिताभ ने एक स्थानीय अखबार को साक्षात्कार देते हुए कह ही दिया कि, अकस्मात लगाए गए आरोप अकस्मात ही लगते हैं और उन्हें ऐसे किसी विशेष ध्यान की जरूरत नहीं है जो आप मुझसे अपेक्षा रखते हैं।[54] इसके बाद २८ मार्च को अंतर्राष्ट्रीय भारतीय फ़िल्म अकादमी के एक सम्मेलन में जब उनसे पूछा गया कि प्रवास विरोधी मुद्दे पर उनकी क्या राय है तब अमिताभ ने कहा कि यह देश में किसी भी स्थान पर रहने का एक मौलिक अधिकार है और संविधान ऐसा करने की अनुमति देता है।[55] उन्होंने यह भी कहा था कि वे राज की टिप्पणियों से प्रभावित नहीं है।[56]
पनामा पेपर्स के बाद पैराडाइज़ पेपर्स में भी अमिताभ बच्चन का नाम, KBC-1 के बाद विदेशी कंपनी में लगाया था पैसा
पुरस्कार, सम्मान और पहचान
अमिताभ बच्चन को सन २००१ में भारत सरकार ने कला क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया था। ये महाराष्ट्र से हैं।
फिल्मोग्राफी
अभिनेता
सालफ़िल्मभूमिकानोट्स१९६९ सात हिंदुस्तानीअनवर अलीविजेता, सर्वश्रेष्ठ नवागंतुक राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार भुवन सोम कमेन्टेटर (स्वर)१९७१ परवाना कुमार सेनआनंद डॉ॰ कुमार भास्करबनर्जी / बाबू मोशायविजेता, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का पुरस्काररेश्मा और शेरा छोटू गुड्डी खुदप्यार की कहानी राम चन्द्र१९७२ संजोग मोहनबंसी बिरजू बिरजूपिया का घर अतिथि उपस्थितिएक नज़रमनमोहन आकाश त्यागीबावर्ची वर्णन करने वाला रास्ते का पत्थर जय शंकर रायबॉम्बे टू गोवा रवि कुमार१९७३ बड़ा कबूतर अतिथि उपस्थितिबंधे हाथ शामू और दीपक दोहरी भूमिकाज़ंजीर इंस्पेक्टर विजय खन्नामनोनीत, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कारगहरी चाल )रतनअभिमान सुबीर कुमारसौदागर )मोतीनमक हराम विक्रम (विक्की)विजेता, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का पुरस्कार१९७४ कुँवारा बाप ऍगस्टीनअतिथि उपस्थितिदोस्त आनंदअतिथि उपस्थितिकसौटी अमिताभ शर्मा (अमित)बेनाम अमित श्रीवास्तवरोटी कपड़ा और मकानविजयमजबूर रवि खन्ना१९७५ चुपके चुपकेसुकुमार सिन्हा / परिमल त्रिपाठीफरार राजेश (राज)मिली शेखर दयालदीवार विजय वर्मामनोनीत, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कारज़मीरबादल / चिम्पूशोले जय (जयदेव)१९७६ दो अनजाने अमित रॉय / नरेश दत्तछोटी सी बात विशेष उपस्थितिकभी कभीअमित मल्होत्रामनोनीत, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कारहेराफेरी विजय / इंस्पेक्टर हीराचंद१९७७ आलाप आलोक प्रसादचरणदास कव्वाली गायकविशेष उपस्थितिअमर अकबर एन्थोनी एंथोनी गॉन्सॉल्वेज़विजेता, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कारशतरंज के खिलाड़ीवर्णन करने वाला अदालत धर्म / व राजूमनोनीत, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार.
दोहरी भूमिकाइमान धर्म अहमद रज़ाखून पसीना शिवा/टाइगरपरवरिश अमित१९७८ बेशरम राम चन्द्र कुमार/
प्रिंस चंदशेखर गंगा की सौगंध जीवाकसमें वादे अमित / शंकरदोहरी भूमिकात्रिशूल विजय कुमारमनोनीत, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कारडॉन डॉन / विजयविजेता, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार.
दोहरी भूमिकामुकद्दर का सिकन्दर सिकंदरमनोनीत, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार१९७९ द ग्रेट गैम्बलरजय / इंस्पेक्टर विजयदोहरी भूमिकागोलमाल खुदविशेष उपस्थितिजुर्माना इन्दर सक्सेनामंज़िल अजय चन्द्रमि० नटवरलाल नटवरलाल / अवतार सिंहमनोनीत, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार और पुरुष पार्श्वगायक का सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म पुरस्कार काला पत्थर विजय पाल सिंहमनोनीत, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कारसुहाग अमित कपूर१९८० दो और दो पाँच विजय / रामदोस्ताना विजय वर्मामनोनीत, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कारराम बलराम इंस्पेक्टर बलराम सिंहशान विजय कुमार१९८१ चश्मेबद्दूर विशेष उपस्थितिकमांडर अतिथि उपस्थितिनसीब जॉन जॉनी जनार्दनबरसात की एक रात एसीपी अभिजीत रायलावारिस हीरामनोनीत, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कारसिलसिला (फिल्म)अमित मल्होत्रामनोनीत, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कारयाराना किशन कुमारकालिया कल्लू / कालिया१९८२ सत्ते पे सत्ता रवि आनंद और बाबूदोहरी भूमिकाबेमिसाल डॉ॰ सुधीर रॉय और अधीर रायमनोनीत, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार.
दोहरी भूमिकादेश प्रेमी मास्टर दीनानाथ और राजूदोहरी भूमिकानमक हलाल अर्जुन सिंहमनोनीत, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कारखुद्दार गोविंद श्रीवास्तव / छोटू उस्तादशक्ति विजय कुमारमनोनीत, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार१९८३ नास्तिक शंकर (शेरू) / भोलाअंधा क़ानून जान निसार अख़्तर खानमनोनीत, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का पुरस्कार.
अतिथि उपस्थितिमहान राणा रनवीर, गुरु, और इंस्पेक्टर शंकरट्रिपल भूमिकापुकार रामदास / रोनी कुली इकबाल ए॰ खान१९८४ इंकलाब'अमरनाथशराबी विक्की कपूर मनोनीत, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार१९८५ गिरफ्तार इंस्पेक्टर करण कुमार खन्नामर्द राजू " मर्द " तांगेवालामनोनीत, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार१९८६ एक रूका हुआ फैसला अतिथि उपस्थितिआखिरी रास्ता डेविड / विजयदोहरी भूमिका१९८७ जलवा खुदविशेष उपस्थितिकौन जीता कौन हारा खुदअतिथि उपस्थिति१९८८ सूरमा भोपाली अतिथि उपस्थितिशहंशाह इंस्पेक्टर विजय कुमार श्रीवास्तव
/ शहंशाहमनोनीत, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कारहीरो हीरालाल खुदविशेष उपस्थितिगंगा जमुना सरस्वतीगंगा प्रसाद१९८९ बंटवारा 'वर्णन करने वाला तूफान तूफान और श्यामदोहरी भूमिकाजादूगर गोगा गोगेश्वरमैं आज़ाद हूँआज़ाद१९९० अग्निपथ विजय दीनानाथ चौहानविजेता,सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार और मनोनीत फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार,क्रोध विशेष उपस्थितिआज का अर्जुन भीमा१९९१ हम टाइगर / शेखरविजेता, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कारअजूबा अजूबा / अलीइन्द्रजीत इन्द्रजीतअकेला इंस्पेक्टर विजय वर्मा१९९२ खुदागवाह बादशाह खानमनोनीत, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार१९९४ इन्सानियत इंस्पेक्टर अमर१९९६ तेरे मेरे सपने वर्णन करने वाला १९९७ मृत्युदाता डॉ॰ राम प्रसाद घायल१९९८ मेजर साब मेजर जसबीर सिंह राणाबड़े मियाँ छोटे मियाँइंस्पेक्टर अर्जुन सिंह और बड़े मियाँदोहरी भूमिका१९९९ लाल बादशाह लाल " बादशाह " सिंह और रणबीर सिंहदोहरी भूमिकासूर्यवंशम भानु प्रताप सिंह ठाकुर और हीरा सिंहदोहरी भूमिकाहिंदुस्तान की कसम कबीरा कोहराम कर्नलबलबीर सिंह सोढी (देवराज हथौड़ा)
और दादा भाईहैलो ब्रदर व्हाइस ऑफ गोड २००० मोहब्बतेंनारायण शंकरविजेता, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का पुरस्कार२००१ एक रिश्ता विजय कपूरलगानवर्णन करने वाला अक्स मनु वर्माविजेता, फ़िल्म समीक्षक पुरस्कार के लिए सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन और मनोनीत, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कारकभी ख़ुशी कभी ग़मयशवर्धन यश रायचंदमनोनीत, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का पुरस्कार२००२ आंखेंविजय सिंह राजपूतमनोनीत, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का पुरस्कारहम किसी से कम नहींडॉ॰ रस्तोगीअग्नि वर्षा इंद्र (परमेश्वर)विशेष उपस्थितिकांटे यशवर्धन रामपाल / " मेजर "मनोनीत, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार२००३ खुशी वर्णन करने वाला अरमान डॉ॰ सिद्धार्थ सिन्हामुंबई से आया मेरा दोस्त वर्णन करने वाला बूमबड़े मियाबागबान राज मल्होत्रामनोनीत, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कारफ़नटूश वर्णन करने वाला २००४ खाकी डीसीपीअनंत कुमार श्रीवास्तव मनोनीत, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कारएतबार डॉ॰रनवीर मल्होत्रारूद्राक्ष वर्णन करने वाला इंसाफ वर्णन करने वाला देवडीसीपीदेव प्रताप सिंहलक्ष्य कर्नलसुनील दामलेदीवार मेजर रणवीर कौलक्यूं...!हो गया नाराज चौहानहम कौन है जॉन मेजर विलियम्स और
फ्रैंक जेम्स विलियम्सदोहरी भूमिकावीर - जारासुमेर सिंह चौधरीमनोनीत, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का पुरस्कार.
विशेष उपस्थितिअब तुम्हारे हवाले वतन साथियो मेजर जनरल अमरजीत सिंह२००५ ब्लैक देवराज सहायदोहरे विजेता, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार & फ़िल्म समीक्षक पुरस्कार के लिए सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन
विजेता, राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेतावक़्त ईश्वरचंद्र शरावत बंटी और बबली डीसीपी दशरथ सिंहमनोनीत, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का पुरस्कारपरिणीता वर्णन करने वाला पहेली गड़रिया विशेष उपस्थितिसरकार सुभाष नागरे / " सरकार "मनोनीत, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कारविरूद्ध विद्याधर पटवर्धन रामजी लंदनवाले खुदविशेष उपस्थितिदिल जो भी कहे शेखर सिन्हाएक अजनबीसूर्यवीर सिंहअमृतधाराखुदविशेष उपस्थिति कन्नड़ फ़िल्म२००६ परिवार वीरेन साहीडरना जरूरी है प्रोफेसरकभी अलविदा न कहना समरजित सिंह तलवार (आका.सेक्सी सैम)मनोनीत, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का पुरस्कारबाबुल बलराज कपूर२००७ एकलव्य: द रॉयल गार्ड एकलव्यनिशब्द विजयचीनी कमबुद्धदेव गुप्ताशूटआऊट ऍट लोखंडवाला डिंगरा विशेष उपस्थितिझूम बराबर झूम सूत्रधारविशेष उपस्थितिराम गोपाल वर्मा की आगबब्बन सिंहओम शांति ओमखुदविशेष उपस्थितिद लास्ट इयऱ हरीश मिश्रा२००८ यार मेरी जिंदगी४ अप्रैल, २००८ को रिलीजभूतनाथ(कैलाश नाथ)सरकार राज सुभाष नाग्रेगोड तुस्सी ग्रेट होसर्वशक्तिमान ईश्वर२००९दिल्ली -6दादाजीअलादीनजिनपाऑरो२०१०रणतीन पत्तीप्रो वेंकट सुब्रमण्यमकंधारलोकनाथ शर्मा२०११बुड्ढा...होगा तेरा बापविजय मल्होत्राआरक्षण प्रभाकर आनंद२०१२मि० भट्टी ऑन छुट्टी स्वयंडिपार्टमेंट गायकवाड़ बोल बच्चन स्वयं इंग्लिश विंग्लिश सहयात्री २०१३बॉम्बे टॉकीज़ स्वयं अतिथि उपस्थिति सत्याग्रह बॉस सूत्रधार कृश-३ सूत्रधार महाभारत भीष्म (आवाज़) द ग्रेट गैट्सबी (अंग्रेजी फ़िल्म) विशेष भूमिका२०१४ भूतनाथ रिटर्न्स मनम (तेलुगु फ़िल्म)२०१५ शमिताभ हे ब्रो पीकू२०१६ वज़ीर की एण्ड का टी३न पिंक दीपक सहगल२०१७ द ग़ाज़ी अटैक सरकार ३2018ठग्स ऑफ हिंदोस्तान
निर्माता
[[तेरे मेरे सपने (2015)
उलासाम (तमिल) (१९९७)
मृत्युदाता (१९९७)
मेजर साब (१९९८)
अक्स(२००१)
विरूद्ध (२००५)
परिवार -- टायस ऑफ़ ब्लड (२००६)
पार्श्व गायक
द ग्रेट गैम्बलर
मि० नटवरलाल
लावारिस (१९८१)
नसीब (१९८१)
सिलसिला (१९८१)
महान (१९८३)
पुकार (१९८३)
शराबी (१९८४)
तूफान (१९८९)
जादूगर (१९८९)
खुदागवाह (१९९२)
मेजर साब (१९९८)
सूर्यवंशम (१९९९)
अक्स (२००१)
कभी ख़ुशी कभी ग़म (२००१)
आंखें (२००२ फ़िल्म) (२००२)
अरमान (२००३)
बागबान (२००३)
देव (२००४)
एतबार (२००४)
बाबुल (२००६)
निशब्द (२००७)
चीनी कम (२००७)
भूतनाथ (२००८)
पा
== हस्ताक्षर ==rathi
वंश वृक्ष
[email protected]
इन्हें भी देखें
रजनीकान्त
अक्षय कुमार
ऋतिक रोशन
सनी देओल
अजय देवगन
बाहरी कड़ियाँ
अमिताभ बच्चन के बारे में सम्पूर्ण जानकारी
(दैनिक भास्कर)
(प्रवासी दुनिया)
(नवभारत टाइम्स)
at IMDb
सन्दर्भ
श्रेणी:1942 में जन्मे लोग
श्रेणी:भारतीय पुरुष आवाज अभिनेताओं
श्रेणी:जीवित लोग
श्रेणी:२००१ पद्म भूषण
श्रेणी:भारतीय फ़िल्म अभिनेता
श्रेणी:हिन्दी अभिनेता
श्रेणी:फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार विजेता
श्रेणी:श्रेष्ठ अभिनेता के लिए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार विजेता
श्रेणी:पद्म विभूषण धारक | अमिताभ बच्चन ने सबसे पहले किस हिंदी फिल्म में अभिनय किया था? | सात हिंदुस्तानी | 2,950 | hindi |
cadbacac3 | मिशेल ओबामा अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा की पत्नी हैं , एवं अमरीका की प्रथम महिला रह चुकी हैं।
परिवार
मिशेल की परवरिश दक्षिणी शिकागो में हुई है। उनके पिता वॉटर पंट में एक कर्मचारी थे और उनकी मां एक स्कूल में सचिव थीं। उन्होंने प्रिंसटन विश्वविद्यालय और हार्वर्ड लॉ स्कूल से ग्रेजुएशन किया है।
पहली डेट पर बराक और मिशेल स्पाइक ली की फिल्म डू द राइट थिंग देखने गए थे। इसके बाद उन्होंने अक्टूबर 1992 में शादी कर ली। मिशेल और उसके पति बराक ओबामा को इन विट्रो फर्टिलाइजेशन से दो बेटियों- मालिया एन (जन्म 1998) और नताशा (जिसे साशा के रूप में जाना जाता है, 2001 में पैदा हुआ) हैं।[1]
शिक्षा
मिशेल अपने अध्ययन काल में छात्र-राजनीति में काफी सक्रिय थीं। खासतौर पर नस्लभेद को लेकर उनके विचार काफी क्रांतिकारी हैं। वह अपने दिल में कोई बात छिपा कर नहीं रखती। जो सच्चाई होती है, वह सबके सामने बता देती हैं। उनकी बातों में मजाक और व्यंग्य की तल्खी भी महसूस की जा सकती है। कुछ लोग उन्हें 'एंग्री यंग 'लेडी' तक कहते हैं। जब बराक को पहली बार इलिनॉइस से सीनेटर चुना गया, तो उनका कहना था, 'मुझे पता है कि बराक एक न एक दिन कुछ ऐसा जरूर करेंगे, जिससे सारे देश की निगाहें उन पर टिक जाएंगी।'
पत्नी रूप में
जहां पहले महिलाएं बैक फुट पर रहकर या परदे के पीछे से अपने जीवन-साथी की मदद करती थीं मिशेल ने फ्रंट फुट पर आकर यह काम बड़ी खूबसूरती से किया। मजेदार बात यह है कि बराक के चुनाव अभियान में जोशीले अंदाज में भाग लेने के लिए उन्होंने एक मीठी सी शर्त रखी थी कि अगर बराक सिगरेट पीना छोड़ देगे तो वह न सिर्फ उनके चुनाव अभियान में ही भाग लेगी, बल्कि उन्हें राष्ट्रपति बनवाकर ही दम लेंगी। वैसे, मिशेल ओबामा को उनके अजीज तरह-तरह के नामों से जानते हैं। ग्लैमर वाइफ, मम इन चीफ, नेक्सट जैकी कैनडी जैसे नाम मिशेल के शुभचिंतकों ने ही उन्हें दिए हैं। वह न केवल अपने पति के सुख-दुख में उनका साथ पूरी तरह निभाती हैं, बल्कि कार्यरत होने के बावजूद बच्चों की जरूरतों का पूरा ख्याल रखती हैं। पेशे से वह वकील हैं, लिहाजा उनके पास तर्को की कोई कमी नहीं है। वह पूरी तरह से हाजिर जवाब हैं। उनकी इसी खासियत ने उन्हें प्रभावशाली तरीके से अपनी पति का चुनाव प्रचार संभालने में मदद की। मिशेल की मेहनत तब रंग लाई, जब 4 नवम्बर को ओबामा ने अमेरिकी राष्ट्रपति के रूप में वाइट हाउस पर दस्तक दी।
ओबामा के मुख से
बराक, मिशेल की तारीफ करते नहीं थकते। वह कहते हैं,"मिशेल मेरे परिवार की वह कड़ी हैं, जिससे सभी परिवार के सदस्य भावनात्मक रूप से जुड़े हैं। वह मेरी जिंदगी का प्यार है।" मिशेल फायर ब्रैंड लेडी होने के साथ-साथ स्टाइल आइकॉन भी है। उन्होंने ओबामा के राष्ट्रपति बनने के दिन मशहूर वस्त्र विन्यासक नारकिसो रोड्रिग्स द्वारा विन्यासित पोशाक पहनी थी।
पति के लिए लगन
अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में ओबामा के रणनीतिकार डेविड एक्सरॉड कहते हैं, 'मिशेल मिलनसार और ईमानदार हैं। जो उनके दिमाक़ में होता हैं, वही ज़बान पर होता है। उनको इस बात की कोई परवाह नहीं होती कि उनकी बातों का दूसरा व्यक्ति राजनैतिक रूप से क्या मतलब निकोलगा। अपने बोलने के आक्रामक अंदाज के कारण वह कई बार मुश्किल में फंस चुकी हैं। हाल ही में ओबामा की चुनावी सभा में उनके मुंह से निकल गया था, "आज जिंदगी में पहली बार मुझे अपने देश पर गर्व हो रहा है।" इस पर आलोचकों ने तुरंत उनकी देशभक्ति पर सवाल उठाने शुरु कर दिये। लेकिन उनका परिवार, दोस्त, रिश्तेदार या परिचित, जो भी उन्हें करीब से जानता है, उनका कहना है, "मिशेल ने अपनी पहचान अपने दम पर बनाई है और वो काफी बहादुर हैं।"
पिछले साल 'ग्लैमर' पत्रिका की लेखिका और फिल्म निर्माता स्पाइक ली की पत्नी टॉन्या लुईस ली ने कहा था, 'मिशेल को 1 बार देखने, के बाद मैं काफी डर गई थी। पर जब उनसे मुलाकात हुई तो उन्होंने न केवल गर्मजोशी से हाथ मिलाया, बल्कि मिलियन डॉलर की मुस्कराहट भी मेरी ओर फेंक दी, इतना हीं नहीं, उन्होंने मुझे गले से लगाया मुझे लगा कि मैं उन्हें बरसों से जानती हूं। एक दूसरे साक्षात्कार में मिशेल ने कहा था, "जीवन में हर समय फूलों की सेज नहीं मिलती। कभी-कभी कांटों के बिस्तर पर भी सोना पड़ता है। ईश्वर की कृपा से, अब तक जिंदगी में वह मुश्किल दौर नहीं आया है। रोज सुबह उठकर मैं सिर्फ यही सोचती थी कि किस तरह यह चमत्कार ; ओबामा का राष्ट्रपति बनना मुमकिन होगा।"
राष्ट्रपति पद के लिए ओबामा की उम्मीदवारी का फैसला होते ही मिशेल ने खुद को पूरी तरह चुनाव प्रचार अभियान में झोंक दिया। अब महत्वपूर्ण युद्घ तो ओबामा जीत ही चुके हैं। अब उन्हें राष्ट्रपति पद की जिम्मेदारियों को बखूबी निभाना होगा, लेकिन मिशेल साथ हों, तो क्या चिंता। 20 जनवरी 2009 को मिशेल अमेरिका की प्रथम महिला बनेंगी। इसमें कोई शक नहीं कि अमेरिका के ऐतिहासिक चुनाव प्रचार की तरह मिशेल प्रशासन में ओबामा की योग्य सलाहकार बनेंगी, भले ही अनौपचारिक रूप से ही सही!
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मैडम तुसाद संग्रहालय में
मैडम तुसाद संग्रहालय की वॉशिंगटन शाखा में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की पत्नी मिशेल ओबामा का मोम का पुतला शोभा बढ़ाएगा। उल्लेखनीय है कि मैडम तुसाद संग्रहालय में मशहूर हस्तियों के मोम के पुतले बनाकर रखे जाते हैं।
सन्दर्भ
विस्तृत पठन
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बाहरी कड़ियाँ
, Whitehouse.gov
, biographical entry at BarackObama.com
, interview with Katie Couric of CBS News.
in Newsweek
at U.S.News & World Report
श्रेणी:अमरिका की प्रथम महिला | बराक ओबामा और मिशेल की शादी कब हुई? | अक्टूबर 1992 | 397 | hindi |
2a8fdb383 | कार्टून और कार्टूनिस्ट
व्युत्पत्ति
अंग्रेजी के जाने पहचाने शब्द ‘‘कार्टून’’ की व्युत्पत्ति इतालवी के शब्द ‘‘कार्तोने’’ और डच भाषा के शब्द ‘‘कारटों’’ से हुई है। स्टेन-ग्लास या टेपेस्ट्री पर चित्रांकन या रेखांकन करने के लिए बहुत मोटे कागज पर जो स्केच/ या ड्राइंग की जाती थी - उसके लिए ये शब्द इतालवी और डच भाषाओं में आए। बाद में भित्ति चित्रकला में इस तकनीक का प्रयोग हुआ। जाने-माने चित्रकारों राफेल औरलियोनार्दो दा विन्ची ने अपनी रचनाओं में कार्टून तकनीक का इस्तेमाल किया।
ऐतिहासिक तथ्य
आधुनिक छापे-संदर्भों में, हास्य व्यंग्य की सर्जना करने के उद्देश्य से बनाए जाने वाले रेखांकनों और चित्रों के लिए कालांतर में ये शब्द रूढ हो गया। १८८३ में ‘पंच’ ने राजनैतिक व्यंग्यात्मक रेखांकनों का यह सिलसिला चालू किया था।
भारत में कार्टून कला की शुरुआत ब्रिटिश काल में मानी जाती है और केशव शंकर पिल्लै जिन्हें ‘‘शंकर’’ के नाम से भी जाना जाता है, को भारतीय कार्टून कला का पितामह कहा जाता है। शंकर ने 1932 में ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ में कार्टून बनाने प्रारम्भ किए। 1946 में अनवर अहमद हिंदुस्तान टाइम्स में कार्टूनिस्ट शंकर की जगह पर नियुक्त हुए।
शंकर के बाद भारत में धीरे धीरे कार्टून कला का विकास हुआ और आज भारत में हर प्रान्त और भाषा में कार्टूनिस्ट काम कर रहे हैं। शंकर के अलावा आर.के. लक्ष्मण, कुट्टी, मेनन, रंगा, मारियो मिरांडा, अबू अब्राहम, मीता रॉय,सुधीर तैलंग और शेखर गुरेरा अदि पचासों ऐसे नाम हैं जिन्होंने कार्टून-कला को आगे बढ़ाया है। आज प्रायः हर अखबार और पत्रिका ससम्मान व्यंग्यचित्रों को प्रकाशित करती है क्योंकि पाठकों का सबसे पहले ध्यान आकर्षित करने वाली सामग्री में कार्टून-कोने की अपनी खासमखास जगह जो है।
भारत के प्रमुख कार्टूनिस्ट
के. शंकर पिल्लई, आर. के. लक्ष्मण, अबू अब्राहम, रंगा, कुट्टी, (ई. पी.), उन्नी, प्राण, मारियो मिरांडा, रवींद्र, केशव, बाल ठाकरे, अनवर अहमद, मीता रॉय, जी. अरविन्दन, जयंतो बनर्जी, माया कामथ, कुट्टी, माधन, वसंत सरवटे, रविशंकर, आबिद सुरती, अजीत नैनन, काक, मिकी पटेल, सुधीर दर, सुधीर तैलंग, शेखर गुरेरा, राजेंद्र धोड़पकर, इस्माईल लहरी, आदि इस कला के कई जाने पहचाने नाम हैं।
दूसरे कुछ भारतीय व्यंग्यचित्रकार माली, सुशील कालरा , नीरद, देवेन्द्र शर्मा, सुधीर गोस्वामी इंजी, मंजुला पद्मनाभन, पी. के मंत्री, सलाम, प्रिया राज, तुलाल, येसुदासन, यूसुफ मुन्ना, चंदर, पोनप्पा, सतीश आचार्य, चन्दर, त्र्यम्बक शर्मा, अभिषेक तिवारी, इरफान, चंद्रशेखर हाडा, हरिओम तिवारी, गोपी कृष्णन, शरद शर्मा, शुभम गुप्ता, शिरीश, पवन, देवांशु वत्स, के. अनूप, राधाकृष्णन, अनुराज, के. आर. अरविंदन, धीमंत व्यास, धीर, द्विजित, गिरीश वेंगर, सुरेन्द्र वर्मा, धनेश दिवाकर, ए. एस. नायर, नम्बूतिरी, शिवराम दत्तात्रेय फडणीस, शंकर परमार्थी, एन. पोनप्पा, गोपुलू. राजिंदर पुरी, के. के. राघव, माधन, माया कामथ, जी. अरविन्दन. नीलाभ बनर्जी, सुमंत बरुआ, चित्त्प्रसाद भट्टाचार्य, एम्. वी. धुरंधर, बी. एम् गफूर, जयराज, उस्मान (Irumpuzhi), जयराज, ऐस. जितेश, जनार्दन स्वामी, असीम त्रिवेदी, ओ.वी. विजयन, विन्स, येसुदासन, मोहन शिवानंद, मंजुल, जया गोस्वामी आदि अलग अलग भारतीय भाषाओँ में व्यंग्यचित्र बनाने वाले कलाकर्मी हैं।
बीकानेर के कार्टूनिस्ट: एक परंपरा: एक ही शहर के एक ही मोहल्ले में पचासों कार्टूनिस्ट एक साथ सक्रिय हों, ये बात सुनने में अजीब तो है पर सच है।
अकेले बीकानेर शहर के 'गोस्वामी चौक' ने हिन्दी पत्रकारिता को शताधिक व्यंग्यकार दिए हैं जिनके व्यंग्यचित्र अक्सर समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के माध्यम से पाठकों का ध्यानाकर्षित करते आ रहे हैं। व्यंग्यचित्र-कला को विस्तार देने में बीकानेर में अकेले दाक्षिणात्य प्रवासी तैलंग समाज के कुछ व्यंग्य चित्रकारों का हिंदी की व्यंग्यचित्र कला के विकास में अनूठा योगदान रहा है।
कार्टून के क्षेत्र में (पद्मश्री) सुधीर तैलंग, पंकज गोस्वामी, संकेत, सुधीर गोस्वामी ‘इन्जी’, सुशील गोस्वामी, शंकर रामचन्द्र राव तैलंग, अनूप गोस्वामी आदि कई कलाकार हैं जिन्होंने न केवल इस कला को परवान चढ़ाया अपितु, अपनी कला-साधना से वैयक्तिक ख्याति भी अर्जित की। हिंदी क्रिकेट कमेंटेटर प्रभात गोस्वामी के कार्टून्स भी लगभग एक दशक पूर्व विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। इन दिनों राहुल गोस्वामी, अवनीश कुमार गोस्वामी, अलंकार गोस्वामी जैसे अनेक युवा व किशोर कलाकार लगभग अविज्ञप्त रह कर बतौर अभिरुचि व्यंग्यचित्र के मैदान में तूलिका चला रहे हैं।
एक समय वह भी था जब संभवतः कार्टूनिस्ट पंकज गोस्वामी के प्रभाव और प्रेरणा से व्यंग्यचित्र कला को ले कर बीकानेर के प्रसिद्ध गोस्वामी चौक में एक तूफानी उत्साह का दौर आ गया था, जब वहां का हर दूसरा तीसरा युवा व्यंग्यचित्र बनाता और छपवाता रहा था। इसी बात से प्रभावित हो कर विनोद दुआ ने बीकानेर के गोस्वामी चौक में बनाए जा रहे कार्टून- और उनके कलाकारों पर केन्द्रित एक रोचक वृत्तचित्र का निर्माण किया था- जिसका प्रसारण दूरदर्शन के विभिन्न चैनलों पर हुआ था।
बाहरी कड़ियाँ
श्रेणी:चित्रकला | 1946 में कौन हिंदुस्तान टाइम्स में कार्टूनिस्ट शंकर की जगह पर नियुक्त हुए? | अनवर अहमद | 966 | hindi |
9658a986b | दिल्ली समुद्रतल से ७०० से १००० फीट की ऊँचाई पर हिमालय से १६० किलोमीटर दक्षिण में यमुना नदी के किनारे पर बसा है। दिल्ली २८ डिग्री ६१' उत्तरी अक्षांश तथा ७७ डिग्री २३' पूर्वी देशांतर पर स्थित है। यह उत्तर, पश्चिम एवं दक्षिण तीन तरफं से हरियाणा राज्य तथा पूरब में उत्तर प्रदेश राज्य द्वारा घिरा हुआ है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र १,४८४ वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है, जिसमें शहरी क्षेत्र ७८३ वर्ग किलोमीटर तथा ग्रामीण क्षेत्र ७०० किलोमीटर है। इसकी अधिकतम लम्बाई ५१ किलोमीटर तथा अधिकतम चौड़ाई ४८.४८ किलोमीटर है।
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली 1,484km2 (573sqmi) में विस्तृत है, जिसमें से 783km2 (302sqmi) भाग ग्रामीण और 700km2 (270sqmi) भाग शहरी घोषित है। दिल्ली उत्तर-दक्षिण में अधिकतम 51.9km (32mi) है और पूर्व-पश्चिम में अधिकतम चौढ़ाई 48.48km (30mi) है। दिल्ली के अनुरक्षण हेतु तीन संस्थाएं कार्यरत है:-
दिल्ली नगर निगम:निगम विश्व की सबसे बड़ी नगर पालिका संगठन है, जो कि अनुमानित १३७.८० लाख नागरिकों (क्षेत्रफल 1,397.3km2 or 540sqmi) को नागरिक सेवाएं प्रदान करती है। यह क्षेत्रफ़ल के हिसाब से भी मात्र टोक्यो से ही पीछे है।"[1]. नगर निगम १३९७ वर्ग कि॰मी॰ का क्षेत्र देखती है।
नई दिल्ली नगरपालिका परिषद: (एन डी एम सी) (क्षेत्रफल 42.7km2 or 16sqmi) नई दिल्ली की नगरपालिका परिषद का नाम है। इसके अधीन आने वाला कार्यक्षेत्र एन डी एम सी क्षेत्र कहलाता है।
दिल्ली छावनी बोर्ड: (क्षेत्रफल (43km2 or 17sqmi)[2] जो दिल्ली के छावनी क्षेत्रों को देखता है।
दिल्ली एक अति-विस्तृत क्षेत्र है। यह अपने चरम पर उत्तर में सरूप नगर से दक्षिण में रजोकरी तक फैला है। पश्चिमतम छोर नजफगढ़ से पूर्व में यमुना नदी तक (तुलनात्मक परंपरागत पूर्वी छोर)। वैसे शाहदरा, भजनपुरा, आदि इसके पूर्वतम छोर होने के साथ ही बड़े बाज़ारों में भी आते हैं। रा.रा.क्षेत्र में उपरोक्त सीमाओं से लगे निकटवर्ती प्रदेशों के नोएडा, गुड़गांव आदि क्षेत्र भी आते हैं। दिल्ली की भू-प्रकृति बहुत बदलती हुई है। यह उत्तर में समतल कृषि मैदानों से लेकर दक्षिण में शुष्क अरावली पर्वत के आरंभ तक बदलती है। दिल्ली के दक्षिण में बड़ी प्राकृतिक झीलें हुआ करती थीं, जो अब अत्यधिक खनन के कारण सूखाती चली गईं हैं। इनमें से एक है बड़खल झील। यमुना नदी शहर के पूर्वी क्षेत्रों को अलग करती है। ये क्षेत्र यमुना पार कहलाते हैं, वैसे ये नई दिल्ली से बहुत से पुलों द्वारा भली-भांति जुड़े हुए हैं। दिल्ली मेट्रो भी अभी दो पुलों द्वारा नदी को पार करती है।
दिल्ली पर उत्तरी भारत में बसा हुआ है। यह समुद्रतल से ७०० से १००० फीट की ऊँचाई पर हिमालय से १६० किलोमीटर दक्षिण में यमुना नदी के किनारे पर बसा है। यह उत्तर, पश्चिम एवं दक्षिण तीन तरफं से हरियाणा राज्य तथा पूर्व में उत्तर प्रदेश राज्य द्वारा घिरा हुआ है। दिल्ली लगभग पूर्णतया गांगेय क्षेत्र में स्थित है। दिल्ली के भूगोल के दो प्रधान अंग हैं यमुना सिंचित समतल एवं दिल्ली रिज (पहाड़ी)। अपेक्षाकृत निचले स्तर पर स्थित मैदानी उपत्यकाकृषि हेतु उत्कृष्ट भूमि उपलब्ध कराती है, हालांकि ये बाढ़ संभावित क्षेत्र रहे हैं। ये दिल्ली के पूर्वी ओर हैं। और पश्चिमी ओर रिज क्षेत्र है। इसकी अधिकतम ऊंचाई ३१८ मी.(१०४३ फी.)[3] तक जाती है। यह दक्षिण में अरावली पर्वतमाला से आरंभ होकर शहर के पश्चिमी, उत्तर-पश्चिमी एवं उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों तक फैले हैं। दिल्ली की जीवनरेखा यमुना हिन्दू धर्म में अति पवित्र नदियों में से एक है। एक अन्य छोटी नदी हिंडन नदी पूर्वी दिल्ली को गाजियाबाद से अलग करती है। दिल्ली सीज़्मिक क्षेत्र-IV में आने से इसे बड़े भूकम्पों का संभावी बनाती है।[4]
जल संपदा
भूमिगत जलभृत लाखों वर्षों से प्राकृतिक रूप से नदियों और बरसाती धाराओं से नवजीवन पाते रहे हैं। भारत में गंगा-यमुना का मैदान ऐसा क्षेत्र है, जिसमें सबसे उत्तम जल संसाधन मौजूद हैं। यहाँ अच्छी वर्षा होती है और हिमालय के ग्लेशियरों से निकलने वाली सदानीरा नदियाँ बहती हैं। दिल्ली जैसे कुछ क्षेत्रों में भी कुछ ऐसा ही है। इसके दक्षिणी पठारी क्षेत्र का ढलाव समतल भाग की ओर है, जिसमें पहाड़ी श्रृंखलाओं ने प्राकृतिक झीलें बना दी हैं। पहाड़ियों पर का प्राकृतिक वनाच्छादन कई बारहमासी जलधाराओं का उद्गम स्थल हुआ करता था।[5]
व्यापारिक केन्द्र के रूप में दिल्ली का आज जो उत्कर्ष है; उसका कारण यहाँ चौड़ी पाट की एक यातायात योग्य नदी यमुना का होना ही है; जिसमें माल ढुलाई भी की जा सकती थी। 500 ई. पूर्व में भी निश्चित ही यह एक ऐसी ऐश्वर्यशाली नगरी थी, जिसकी संपत्तियों की रक्षा के लिए नगर प्राचीर बनाने की आवश्यकता पड़ी थी। सलीमगढ़ और पुराना किला की खुदाइयों में प्राप्त तथ्यों और पुराना किला से इसके इतने प्राचीन नगर होने के प्रमाण मिलते हैं। एक हजार ईस्वी सन् के बाद से तो इसके इतिहास, इसके युध्दापदाओं और उनसे बदलने वाले राजवंशों का पर्याप्त विवरण मिलता है।
भौगोलिक दृष्टि से अरावली की श्रृंखलाओं से घिरे होने के कारण दिल्ली की शहरी बस्तियों को कुछ विशेष उपहार मिले हैं। अरावली श्रृंखला और उसके प्राकृतिक वनों से तीन बारहमासी नदियाँ दिल्ली के मध्य से बहती यमुना में मिलती थीं। दक्षिण एशियाई भूसंरचनात्मक परिवर्तन से अब यमुना अपने पुराने मार्ग से पूर्व की ओर बीस किलोमीटर हट गई है।[6] 3000 ई. पूर्व में ये नदी दिल्ली में वर्तमान 'रिज' के पश्चिम में होकर बहती थी। उसी युग में अरावली की श्रृंखलाओं के दूसरी ओर सरस्वती नदी बहती थी, जो पहले तो पश्चिम की ओर सरकी और बाद में भौगोलिक संरचना में भूमिगत होकर पूर्णत: लुप्त हो गई।
एक अंग्रेज द्वारा १८०७ में किए गए सर्वेक्षण के आधार पर बने उपर्युक्त नक्शे में वह जलधाराएं दिखाई गई हैं, जो दिल्ली की यमुना में मिलती थीं। एक तिलपत की पहाड़ियों में दक्षिण से उत्तर की ओर बहती थी, तो दूसरी हौजखास में अनेक सहायक धाराओं को समेटते हुए पूर्वाभिमुख बहती बारापुला के स्थान पर निजामुद्दीन के ऊपरी यमुना प्रवाह में जाकर मिलती थी। एक तीसरी और इनसे बड़ी धारा जिसे साहिबी नदी (पूर्व नाम रोहिणी) कहते थे। दक्षिण-पश्चिम से निकल कर रिज के उत्तर में यमुना में मिलती थी। ऐसा लगता है कि विवर्तनिक हलचल के कारण इसके बहाव का निचाई वाला भूभाग कुछ ऊंचा हो गया, जिससे इसका यमुना में गिरना रूक गया। पिछले मार्ग से इसका ज्यादा पानी नजफगढ़ झील में जाने लगा। कोई ७० वर्ष पहले तक इस झील का आकार २२० वर्ग किलोमीटर होता था। अंग्रेजों ने साहिबी नदी की गाद निकालकर तल सफ़ाई करके नाला नजफगढ़ का नाम दिया और इसे यमुना में मिला दिया। यही जलधाराएं और यमुना-दिल्ली में अरावली की श्रृंखलाओं के कटोरे में बसने वाली अनेक बस्तियों और राजधानियों को सदा पर्याप्त पानी उपलब्ध कराती आईं थीं।
हिमालय के हिमनदों से निकलने के कारण यमुना सदानीरा रही और आज भी है। परंतु अन्य उपरोक्त उपनदियां अब से २०० वर्ष पूर्व तक ही, जब तक कि अरावली की पर्वतमाला प्राकृतिक वन से ढकी रहीं तभी तक बारहमासी रह सकीं। खेद है कि दिल्ली में वनों का कटान खिलजियों के समय से ही शुरू हो गया था। इस्लाम स्वीकार न करने वाले स्थानीय विद्रोहियों और लूटपाट करने वाले मेवों का दमन करने के लिए ऐसा किया गया था। साथ ही बढ़ती शहरी आबादी के भार से भी वन प्रांत सिकुड़ा है। इसके चलते वनांचल में संरक्षित वर्षा जल का अवक्षय हुआ।
अंग्रेजी शासन के दौरान दिल्ली में सड़कों के निर्माण और बाढ़ अवरोधी बांध बनाने से पर्यावरण परिवर्तन के कारण ये जलधाराएं वर्ष में ग्रीष्म के समय सूख जाने लगीं। स्वतंत्रता के बाद के समय में बरसाती नालों, फुटपाथों और गलियों को सीमेंट से पक्का किया गया, इससे इन धाराओं को जल पहुंचाने वाले स्वाभाविक मार्ग अवरुद्ध हो गये। ऐसी दशा में, जहां इन्हें रास्ता नहीं मिला, वहाँ वे मानसून में बरसाती नालों की तरह उफनने लगीं। विशद रूप में सीमेंट कंक्रीट के निर्माणों के कारण उन्हें भूमिगत जलभृत्तों या नदी में मिलाने का उपाय नहीं रह गया है। आज इन नदियों में नगर का अधिकतर मैला ही गिरता है।
सन्दर्भ
श्रेणी:दिल्ली | दिल्ली का क्षेत्रफल कितना है? | १,४८४ वर्ग किलोमीटर | 326 | hindi |
d8db99f26 | नर्मदा, जिसे रेवा के नाम से भी जाना जाता है, मध्य भारत की एक नदी और भारतीय उपमहाद्वीप की पांचवीं सबसे लंबी नदी है। यह गोदावरी नदी और कृष्णा नदी के बाद भारत के अंदर बहने वाली तीसरी सबसे लंबी नदी है। मध्य प्रदेश राज्य में इसके विशाल योगदान के कारण इसे "मध्य प्रदेश की जीवन रेखा" भी कहा जाता है। यह उत्तर और दक्षिण भारत के बीच एक पारंपरिक सीमा की तरह कार्य करती है। यह अपने उद्गम से पश्चिम की ओर 1,312 किमी चल कर खंभात की खाड़ी, अरब सागर में जा मिलती है।
नर्मदा, मध्य भारत के मध्य प्रदेश और गुजरात राज्य में बहने वाली एक प्रमुख नदी है। मैकल पर्वत के अमरकण्टक शिखर से नर्मदा नदी की उत्पत्ति हुई है। इसकी लम्बाई प्रायः 1312 किलोमीटर है। यह नदी पश्चिम की तरफ जाकर खम्बात की खाड़ी में गिरती है।
उद्गम एवं मार्ग
नर्मदा नदी का उद्गम मध्यप्रदेश के अनूपपुर जिले में विंध्याचल और सतपुड़ा पर्वतश्रेणियों के पूर्वी संधिस्थल पर स्थित अमरकंटक में नर्मदा कुंड से हुआ है।
नदी पश्चिम की ओर सोनमुद से बहती हुई, एक चट्टान से नीचे गिरती हुई कपिलधारा नाम की एक जलप्रपात बनाती है। घुमावदार मार्ग और प्रबल वेग के साथ घने जंगलो और चट्टानों को पार करते हुए रामनगर के जर्जर महल तक पहुँचती हैं। आगे दक्षिण-पूर्व की ओर, रामनगर और मंडला (25 किमी (15.5 मील)) के बीच, यहाँ जलमार्ग अपेक्षाकृत चट्टानी बाधाओं से रहित सीधे एवं गहरे पानी के साथ है। बंजर नदी बाईं ओर से जुड़ जाता है। नदी आगे एक संकीर्ण लूप में उत्तर-पश्चिम में जबलपुर पहुँचती है। शहर के करीब, नदी भेड़ाघाट के पास करीब 9 मीटर का जल-प्रपात बनाती हैं जो की धुआँधार के नाम से प्रसिद्ध हैं, आगे यह लगभग 3 किमी तक एक गहरी संकीर्ण चैनल में मैग्नीशियम चूनापत्थर और बेसाल्ट चट्टानों जिसे संगमरमर चट्टान भी कहते हैं के माध्यम से बहती है, यहाँ पर नदी 80 मीटर के अपने पाट से संकुचित होकर मात्र 18 मीटर की चौड़ाई के साथ बहती हैं। आगे इस क्षेत्र से अरब सागर में अपनी मिलान तक, नर्मदा उत्तर में विंध्य पट्टियों और दक्षिण में सतपुड़ा रेंज के बीच तीन संकीर्ण घाटियों में प्रवेश करती है। घाटी का दक्षिणी विस्तार अधिकतर स्थानों पर फैला हुआ है।
संगमरमर चट्टानों से निकलते हुए नदी अपनी पहली जलोढ़ मिट्टी के उपजाऊ मैदान में प्रवेश करती है, जिसे "नर्मदाघाटी" कहते हैं। जो लगभग 320 किमी (198.8 मील) तक फैली हुई है, यहाँ दक्षिण में नदी की औसत चौड़ाई 35 किमी (21.7 मील) हो जाती है। वही उत्तर में, बर्ना-बरेली घाटी पर सीमित होती जाती है जो की होशंगाबाद के बरखरा पहाड़ियों के बाद समाप्त होती है। हालांकि, कन्नोद मैदानों से यह फिर पहाड़ियों में आ जाती हैं। यह नर्मदा की पहली घाटी में है, जहां दक्षिण की ओर से कई महत्वपूर्ण सहायक नदियाँ आकर इसमें शामिल होती हैं और सतपुड़ा पहाड़ियों के उत्तरी ढलानों से पानी लाती हैं। जिनमे: शार, शाककर, दधी, तवा (सबसे बड़ी सहायक नदी) और गंजल साहिल हैं। हिरन, बरना, चोरल , करम और लोहर, जैसी महत्वपूर्ण सहायक नदियां उत्तर से आकर जुड़ती हैं।
हंडिया और नेमावर से नीचे हिरन जल-प्रपात तक, नदी दोनों ओर से पहाड़ियों से घिरी हुई है। इस भाग पर नदी का चरित्र भिन्न दिखाई देता है। ओंकारेश्वर द्वीप, जोकि भगवान शिव को समर्पित हैं, मध्य प्रदेश का सबसे महत्वपूर्ण नदी द्वीप है। सिकता और कावेरी, खण्डवा मैदान के नीचे आकर नदी से मिलते हैं। दो स्थानों पर, नेमावर से करीब 40 किमी पर मंधार पर और पंसासा के करीब 40 किमी पर ददराई में, नदी लगभग 12 मीटर (39.4 फीट) की ऊंचाई से गिरती है।
बरेली के निकट कुछ किलोमीटर और आगरा-मुंबई रोड घाट, राष्ट्रीय राजमार्ग 3, से नीचे नर्मदा मंडलेश्वर मैदान में प्रवेश करती है, जो कि 180 किमी (111.8 मील) लंबा है। बेसिन की उत्तरी पट्टी केवल 25 किमी (15.5 मील) है। यह घाटी साहेश्वर धारा जल-प्रपात पर जा कर ख़त्म होती है।
मकरई के नीचे, नदी बड़ोदरा जिले और नर्मदा जिला के बीच बहती है और फिर गुजरात राज्य के भरूच जिला के समृद्ध मैदान के माध्यम से बहती है। यहाँ नदी के किनारे, सालो से बाह कर आये जलोढ़ मिट्टी, गांठदार चूना पत्थर और रेत की बजरी से पटे हुए हैं। नदी की चौड़ाई मकराई पर लगभग 1.5 किमी (0.9 मील), भरूच के पास और 3 किमी तथा कैम्बे की खाड़ी के मुहाने में 21 किमी (13.0 मील) तक फैली हुई बेसीन बनाती हुई अरब सागर में विलिन हो जाती है।
हिन्दू धर्म में महत्व
नर्मदा, समूचे विश्व में दिव्य व रहस्यमयी नदी है,इसकी महिमा का वर्णन चारों वेदों की व्याख्या में श्री विष्णु के अवतार वेदव्यास जी ने स्कन्द पुराण के रेवाखंड़ में किया है। इस नदी का प्राकट्य ही, विष्णु द्वारा अवतारों में किए राक्षस-वध के प्रायश्चित के लिए ही प्रभु शिव द्वारा अमरकण्टक (जिला शहडोल, मध्यप्रदेश जबलपुर-विलासपुर रेल लाईन-उडिसा मध्यप्रदेश ककी सीमा पर) के मैकल पर्वत पर कृपा सागर भगवान शंकर द्वारा १२ वर्ष की दिव्य कन्या के रूप में किया गया। महारूपवती होने के कारण विष्णु आदि देवताओं ने इस कन्या का नामकरण नर्मदा किया। इस दिव्य कन्या नर्मदा ने उत्तर वाहिनी गंगा के तट पर काशी के पंचक्रोशी क्षेत्र में १०,००० दिव्य वर्षों तक तपस्या करके प्रभु शिव से निम्न ऐसे वरदान प्राप्त किये जो कि अन्य किसी नदी और तीर्थ के पास नहीं है:'
प्रलय में भी मेरा नाश न हो। मैं विश्व में एकमात्र पाप-नाशिनी प्रसिद्ध होऊँ, यह अवधि अब समाप्त हो चुकी है। मेरा हर पाषाण (नर्मदेश्वर) शिवलिंग के रूप में बिना प्राण-प्रतिष्ठा के पूजित हो। विश्व में हर शिव-मंदिर में इसी दिव्य नदी के नर्मदेश्वर शिवलिंग विराजमान है। कई लोग जो इस रहस्य को नहीं जानते वे दूसरे पाषाण से निर्मित शिवलिंग स्थापित करते हैं ऐसे शिवलिंग भी स्थापित किये जा सकते हैं परन्तु उनकी प्राण-प्रतिष्ठा अनिवार्य है। जबकि श्री नर्मदेश्वर शिवलिंग बिना प्राण के पूजित है। मेरे (नर्मदा) के तट पर शिव-पार्वती सहित सभी देवता निवास करें।
सभी देवता, ऋषि मुनि, गणेश, कार्तिकेय, राम, लक्ष्मण, हनुमान आदि ने नर्मदा तट पर ही तपस्या करके सिद्धियाँ प्राप्त की। दिव्य नदी नर्मदा के दक्षिण तट पर सूर्य द्वारा तपस्या करके आदित्येश्वर तीर्थ स्थापित है। इस तीर्थ पर (अकाल पड़ने पर) ऋषियों द्वारा तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर दिव्य नदी नर्मदा १२ वर्ष की कन्या के रूप में प्रकट हो गई तब ऋषियों ने नर्मदा की स्तुति की। तब नर्मदा ऋषियों से बोली कि मेरे (नर्मदा के) तट पर देहधारी सद्गुरू से दीक्षा लेकर तपस्या करने पर ही प्रभु शिव की पूर्ण कृपा प्राप्त होती है। इस आदित्येश्वर तीर्थ पर हमारा आश्रम अपने भक्तों के अनुष्ठान करता है।
किंवदंती (लोक कथायें)
नर्मदा नदी को लेकर कई लोक कथायें प्रचलित हैं एक कहानी के अनुसार नर्मदा जिसे रेवा के नाम से भी जाना जाता है और राजा मैखल की पुत्री है। उन्होंने नर्मदा से शादी के लिए घोषणा की कि जो राजकुमार गुलबकावली के फूल उनकी बेटी के लिए लाएगा, उसके साथ नर्मदा का विवाह होगा। सोनभद्र यह फूल ले आए और उनका विवाह तय हो गया। दोनों की शादी में कुछ दिनों का समय था। नर्मदा सोनभद्र से कभी मिली नहीं थीं। उन्होंने अपनी दासी जुहिला के हाथों सोनभद्र के लिए एक संदेश भेजा। जुहिला ने नर्मदा से राजकुमारी के वस्त्र और आभूषण मांगे और उसे पहनकर वह सोनभद्र से मिलने चली गईं। सोनभद्र ने जुहिला को ही राजकुमारी समझ लिया। जुहिला की नियत भी डगमगा गई और वह सोनभद्र का प्रणय निवेदन ठुकरा नहीं पाई। काफी समय बीता, जुहिला नहीं आई, तो नर्मदा का सब्र का बांध टूट गया। वह खुद सोनभद्र से मिलने चल पड़ीं। वहां जाकर देखा तो जुहिला और सोनभद्र को एक साथ पाया। इससे नाराज होकर वह उल्टी दिशा में चल पड़ीं। उसके बाद से नर्मदा बंगाल सागर की बजाय अरब सागर में जाकर मिल गईं।
एक अन्य कहानी के अनुसार सोनभद्र नदी को नद (नदी का पुरुष रूप) कहा जाता है। दोनों के घर पास थे। अमरकंटक की पहाडिय़ों में दोनों का बचपन बीता। दोनों किशोर हुए तो लगाव और बढ़ा। दोनों ने साथ जीने की कसमें खाई, लेकिन अचानक दोनों के जीवन में जुहिला आ गई। जुहिला नर्मदा की सखी थी। सोनभद्र जुहिला के प्रेम में पड़ गया। नर्मदा को यह पता चला तो उन्होंने सोनभद्र को समझाने की कोशिश की, लेकिन सोनभद्र नहीं माना। इससे नाराज होकर नर्मदा दूसरी दिशा में चल पड़ी और हमेशा कुंवारी रहने की कसम खाई। कहा जाता है कि इसीलिए सभी प्रमुख नदियां बंगाल की खाड़ी में मिलती हैं,लेकिन नर्मदा अरब सागर में मिलती है।
ग्रंथों में उल्लेख
रामायण तथा महाभारत और परवर्ती ग्रंथों में इस नदी के विषय में अनेक उल्लेख हैं। पौराणिक अनुश्रुति के अनुसार नर्मदा की एक नहर किसी सोमवंशी राजा ने निकाली थी जिससे उसका नाम सोमोद्भवा भी पड़ गया था। गुप्तकालीन अमरकोशमें भी नर्मदा को 'सोमोद्भवा' कहा है। कालिदास ने भी नर्मदा को सोमप्रभवा कहा है। रघुवंश में नर्मदा का उल्लेख है। मेघदूत में रेवा या नर्मदा का सुन्दर वर्णन है। विश्व में नर्मदा ही एक ऐसी नदी है जिसकी परिक्रमा की जाती है और पुराणों के अनुसार जहाँ गंगा में स्नान से जो फल मिलता है नर्मदा के दर्शन मात्र से ही उस फल की प्राप्ति होती है। नर्मदा नदी पुरे भारत की प्रमुख नदियों में से एक ही है जो पूर्व से पश्चिम की ओर बहती है।
बाहरी कड़ियाँ
Narmada nadi sbse zyada gahri omkareshvar or mamleshwar ke bich he.
सन्दर्भ
श्रेणी:भारत की नदियाँ
श्रेणी:मध्य प्रदेश की नदियाँ
श्रेणी:नर्मदा नदी | नर्मदा नदी की लंबाई कितनी है? | 1312 किलोमीटर | 614 | hindi |
54b8087db | सीवी रमन (तमिल: சந்திரசேகர வெங்கட ராமன்) (७ नवंबर, १८८८ - २१ नवंबर, १९७०) भारतीय भौतिक-शास्त्री थे। प्रकाश के प्रकीर्णन पर उत्कृष्ट कार्य के लिये वर्ष १९३० में उन्हें भौतिकी का प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार दिया गया। उनका आविष्कार उनके ही नाम पर रामन प्रभाव के नाम से जाना जाता है।[1] १९५४ ई. में उन्हें भारत सरकार द्वारा भारत रत्न की उपाधि से विभूषित किया गया तथा १९५७ में लेनिन शान्ति पुरस्कार प्रदान किया था।
परिचय
चन्द्रशेखर वेंकटरमन का जन्म ७ नवम्बर सन् १८८८ ई. में तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली नामक स्थान में हुआ था। आपके पिता चन्द्रशेखर अय्यर एस. पी. जी. कॉलेज में भौतिकी के प्राध्यापक थे। आपकी माता पार्वती अम्मल एक सुसंस्कृत परिवार की महिला थीं। सन् १८९२ ई. मे आपके पिता चन्द्रशेखर अय्यर विशाखापतनम के श्रीमती ए. वी.एन. कॉलेज में भौतिकी और गणित के प्राध्यापक होकर चले गए। उस समय आपकी अवस्था चार वर्ष की थी। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा विशाखापत्तनम में ही हुई। वहाँ के प्राकृतिक सौंदर्य और विद्वानों की संगति ने आपको विशेष रूप से प्रभावित किया।
शिक्षा
आपने बारह वर्ष की अल्पावस्था में ही मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी। तभी आपको श्रीमती एनी बेसेंट के भाषण सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उनके लेख पढ़ने को मिले। आपने रामायण, महाभारत जैसे धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन किया। इससे आपके हृदय पर भारतीय गौरव की अमिट छाप पड़ गई। आपके पिता उच्च शिक्षा के लिए विदेश भेजने के पक्ष में थे; किन्तु एक ब्रिटिश डॉक्टर ने आपके स्वास्थ्य को देखते हुए विदेश न भेजने का परामर्श दिया। फलत: आपको स्वदेश में ही अध्ययन करना पड़ा। आपने सन् १९०३ ई. में चेन्नै के प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रवेश ले लिया। यहाँ के प्राध्यापक आपकी योग्यता से इतने प्रभावित हुए कि आपको अनेक कक्षाओं में उपस्थित होने से छूट मिल गई। आप बी.ए. की परीक्षा में विश्वविद्यालय में अकेले ही प्रथम श्रेणी में आए। आप को भौतिकी में स्वर्णपदक दिया गया। आपको अंग्रेजी निबंध पर भी पुरस्कृत किया गया। आपने १९०७ में मद्रास विश्वविद्यालय से गणित में प्रथम श्रेणी में एमए की डिग्री विशेष योग्यता के साथ हासिल की। आपने इस में इतने अंक प्राप्त किए थे, जितने पहले किसी ने नहीं लिए थे।[2]
युवा विज्ञानी
आपने शिक्षार्थी के रूप में कई महत्त्वपूर्ण कार्य किए। सन् १९०६ ई. में आपका प्रकाश विवर्तन पर पहला शोध पत्र लंदन की फिलसोफिकल पत्रिका में प्रकाशित हुआ। उसका शीर्षक था - 'आयताकृत छिद्र के कारण उत्पन्न असीमित विवर्तन पट्टियाँ'। जब प्रकाश की किरणें किसी छिद्र में से अथवा किसी अपारदर्शी वस्तु के किनारे पर से गुजरती हैं तथा किसी पर्दे पर पड़ती हैं, तो किरणों के किनारे पर मद-तीव्र अथवा रंगीन प्रकाश की पट्टियां दिखाई देती है। यह घटना `विवर्तन' कहलाती है। विवर्तन गति का सामान्य लक्षण है। इससे पता चलता है कि प्रकाश तरगों में निर्मित है।
वृत्ति एवं शोध
उन दिनों आपके समान प्रतिभाशाली व्यक्ति के लिए भी वैज्ञानिक बनने की सुविधा नहीं थी। अत: आप भारत सरकार के वित्त विभाग की प्रतियोगिता में बैठ गए। आप प्रतियोगिता परीक्षा में भी प्रथम आए और जून, १९०७ में आप असिस्टेंट एकाउटेंट जनरल बनकर कलकत्ते चले गए। उस समय ऐसा प्रतीत होता था कि आपके जीवन में स्थिरता आ गई है। आप अच्छा वेतन पाएँगे और एकाउँटेंट जनरल बनेंगे। बुढ़ापे में उँची पेंशन प्राप्त करेंगे। पर आप एक दिन कार्यालय से लौट रहे थे कि एक साइन बोर्ड देखा, जिस पर लिखा था 'वैज्ञानिक अध्ययन के लिए भारतीय परिषद (इंडियन अशोसिएशन फार कल्टीवेशन आफ़ साईंस)'। मानो आपको बिजली का करेण्ट छू गया हो। तभी आप ट्राम से उतरे और परिषद् कार्यालय में पहुँच गए। वहाँ पहुँच कर अपना परिचय दिया और परिषद् की प्रयोगशाला में प्रयोग करने की आज्ञा पा ली।
तत्पश्चात् आपका तबादला पहले रंगून को और फिर नागपुर को हुआ। अब आपने घर में ही प्रयोगशाला बना ली थी और समय मिलने पर आप उसी में प्रयोग करते रहते थे। सन् १९११ ई. में आपका तबादला फिर कलकत्ता हो गया, तो यहाँ पर परिषद् की प्रयोगशाला में प्रयोग करने का फिर अवसर मिल गया। आपका यह क्रम सन् १९१७ ई. में निर्विघ्न रूप से चलता रहा। इस अवधि के बीच आपके अंशकालिक अनुसंधान का क्षेत्र था - ध्वनि के कम्पन और कार्यों का सिद्धान्त। आपका वाद्यों की भौतिकी का ज्ञान इतना गहरा था कि सन् १९२७ ई. में जर्मनी में प्रकाशित बीस खण्डों वाले भौतिकी विश्वकोश के आठवें खण्ड के लिए वाद्ययंत्रों की भौतिकी का लेख आपसे तैयार करवाया गया। सम्पूर्ण भौतिकी कोश में आप ही ऐसे लेखक हैं जो जर्मन नहीं है।
कलकत्ता विश्वविद्यालय में सन् १९१७ ई में भौतिकी के प्राध्यापक का पद बना तो वहाँ के कुलपति आशुतोष मुखर्जी ने उसे स्वीकार करने के लिए आपको आमंत्रित किया। आपने उनका निमंत्रण स्वीकार करके उच्च सरकारी पद से त्याग-पत्र दे दिया।
कलकत्ता विश्वविद्यालय में आपने कुछ वर्षों में वस्तुओं में प्रकाश के चलने का अध्ययन किया। इनमें किरणों का पूर्ण समूह बिल्कुल सीधा नहीं चलता है। उसका कुछ भाग अपनी राह बदलकर बिखर जाता है। सन् १९२१ ई. में आप विश्वविद्यालयों की कांग्रेस में प्रतिनिधि बन गए आक्सफोर्ड गए। वहां जब अन्य प्रतिनिधि लंदन में दर्शनीय वस्तुओं को देख अपना मनोरंजन कर रहे थे, वहाँ आप सेंट पाल के गिरजाघर में उसके फुसफुसाते गलियारों का रहस्य समझने में लगे हुए थे। जब आप जलयान से स्वदेश लौट रहे थे, तो आपने भूमध्य सागर के जल में उसका अनोखा नीला व दूधियापन देखा। कलकत्ता विश्वविद्यालय पहुँच कर आपने पार्थिव वस्तुओं में प्रकाश के बिखरने का नियमित अध्ययन शुरु कर दिया। इसके माध्यम से लगभग सात वर्ष उपरांत, आप अपनी उस खोज पर पहुँचें, जो 'रामन प्रभाव' के नाम से विख्यात है। आपका ध्यान १९२७ ई. में इस बात पर गया कि जब एक्स किरणें प्रकीर्ण होती हैं, तो उनकी तरंग लम्बाइया बदल जाती हैं। तब प्रश्न उठा कि साधारण प्रकाश में भी ऐसा क्यों नहीं होना चाहिए?
आपने पारद आर्क के प्रकाश का स्पेक्ट्रम स्पेक्ट्रोस्कोप में निर्मित किया। इन दोनों के मध्य विभिन्न प्रकार के रासायनिक पदार्थ रखे तथा पारद आर्क के प्रकाश को उनमें से गुजार कर स्पेक्ट्रम बनाए। आपने देखा कि हर एक स्पेक्ट्रम में अन्तर पड़ता है। हरएक पदार्थ अपनी-अपनी प्रकार का अन्तर डालता है। तब श्रेष्ठ स्पेक्ट्रम चित्र तैयार किए गए, उन्हें मापकर तथा गणित करके उनकी सैद्धान्तिक व्याख्या की गई। प्रमाणित किया गया कि यह अन्तर पारद प्रकाश की तरगं लम्बाइयों में परिवर्तित होने के कारण पड़ता है। रामन् प्रभाव का उद्घाटन हो गया। आपने इस खोज की घोषणा २९ फ़रवरी सन् १९२८ ई. को की।
सम्मान
आप सन् १९२४ ई. में अनुसंधानों के लिए रॉयल सोसायटी, लंदन के फैलो बनाए गए। रामन प्रभाव के लिए आपको सन् १९३० ई. मे नोबेल पुरस्कार दिया गया। रामन प्रभाव के अनुसंधान के लिए नया क्षेत्र खुल गया।
१९४८ में सेवानिवृति के बाद उन्होंने रामन् शोध संस्थान की बैंगलोर में स्थापना की और इसी संस्थान में शोधरत रहे। १९५४ ई. में भारत सरकार द्वारा भारत रत्न की उपाधि से विभूषित किया गया। आपको १९५७ में लेनिन शान्ति पुरस्कार भी प्रदान किया था।
२८ फरवरी १९२८ को चन्द्रशेखर वेंकट रामन् ने रामन प्रभाव की खोज की थी जिसकी याद में भारत में इस दिन को प्रत्येक वर्ष 'राष्ट्रीय विज्ञान दिवस' के रूप में मनाया जाता है।
सन्दर्भ
इन्हें भी देखें
रामन् प्रभाव
रामन अनुसन्धान संस्थान, बंगलुरु
इण्डियन एसोसियेशन फॉर द कल्टिवेशन ऑफ साईन्स
राष्ट्रीय विज्ञान दिवस
नोबेल पुरस्कार विजेताओं की सूची
बाहरी कड़ियाँ
श्रेणी:नोबेल पुरस्कार विजेता भौतिक विज्ञानी
श्रेणी:भारतीय वैज्ञानिक
श्रेणी:हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना
श्रेणी:भारत रत्न सम्मान प्राप्तकर्ता
श्रेणी:1888 में जन्मे लोग
श्रेणी:१९७० में निधन | चंद्रशेखर वेंकट रमन को भारत रत्न पुरस्कार कब मिला? | १९५४ ई. | 281 | hindi |
64b643feb | आमिर ख़ान (नस्तालीक़: عامر خان) (जन्म आमिर हुसैन ख़ान ; मार्च 14, 1965) एक भारतीय फ़िल्म अभिनेता, निर्माता, निर्देशक, पटकथा लिखनेवाले, कभी कभी गायक और आमिर ख़ान प्रोडक्सनस के संस्थापक-मालिक है।
अपने चाचा नासिर हुसैन की फ़िल्म यादों की बारात (1973) में आमिर ख़ान एक बाल कलाकार की भूमिका में नज़र आए थे और ग्यारह साल बाद ख़ान का करियर फ़िल्म होली (1984) से आरम्भ हुआ उन्हें अपने चचेरे भाई मंसूर ख़ान के साथ फ़िल्म क़यामत से क़यामत तक (1988) के लिए अपनी पहली व्यवसायिक सफलता मिली और उन्होंने फ़िल्म में एक्टिंग के लिए फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ मेल नवोदित पुरस्कार (सर्वश्रेष्ठ नवोदित पुरूष कलाकार के लिए फ़िल्मफेयर पुरस्कार) जीता। पिछले आठ नामांकन के बाद 1980 और 1990 के दौरान, ख़ान को राजा हिन्दुस्तानी (1996), के लिए पहला फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार मिला जो अब तक की उनकी एक बड़ी व्यवसायिक सफलता थी।[1]
उन्हें बाद में फिल्मफेयर कार्यक्रम में दूसरा सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार और लगान में उनके अभिनय के लिए 2001 में कई अन्य पुरस्कार मिले और अकादमी पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया। अभिनय से चार साल का सन्यास लेने के बाद, केतन मेहता की फ़िल्म द रायजिंग (2005) से ख़ान ने वापसी की। २००७ में, वे निर्देशक के रूप में फ़िल्म तारे ज़मीन पर का निर्देशन किया, जिसके लिए उन्हें फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ निर्देशक पुरस्कार दिया गया। कई कॉमर्शियल सफल फ़िल्मों का अंग होने के कारण और बहुत ही अच्छा अभिनय करने के कारण, वे हिन्दी सिनेमा के एक प्रमुख अभिनेता बन गए हैं।[2][3]
पारिवारिक पृष्ठभूमि
आमिर ख़ान बांद्रा के होली फेमिली अस्पताल, मुंबई, भारत में एक ऐसे मुस्लिम परिवार में जन्म लिए जो भारतीय मोशन पिक्चर में दशकों से सक्रिय थे। उनके पिता, ताहिर हुसैन एक फ़िल्म निर्माता थे जबकि उनके दिवंगत चाचा, नासिर हुसैन, एक फ़िल्म निर्माता के साथ-साथ एक निर्देशक भी थे। मौलाना अबुल कलाम आजाद के वंशज होने के कारण, उनकी जड़ें अफगानिस्तान के हेरात शहर में देखे जा सकते हैं। वे भारत के पूर्व राष्ट्रपति, डॉ॰जाकिर हुसैन के भी वंशज हैं और भारत की अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री, डॉ॰नजमा हेपतुल्ला के दूसरे भतीजे भी हैं।[4]
फ़िल्म करियर
ख़ान ने अपना फ़िल्मी करियर की शुरुआत एक बाल कलाकार के रूप में नासिर हुसैन द्बारा गृह निर्मित, निर्माण व निर्देशित फ़िल्म यादों की बारात (1973) और मदहोश (1974) से की। ग्यारह साल बाद, उन्हें एडल्ट अभिनय डेब्यू का मौका मिला जिस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया, वह थी केतन मेहता की होली (1984).
ख़ान का पहला मुख्य किरदार 1988 के दौरान फ़िल्म क़यामत से क़यामत तक में नज़र आया, जिसे उनके भतीजे और नासिर हुसैन के बेटे मंसूर ख़ान ने निर्देशित किया था।
क़यामत से क़यामत तक बॉक्स ऑफिस पर काफी सफल रही और इसने ख़ान के करियर को एक लीडिंग अभिनेता के तौर पर आगे बढाया.एक टिपिकल 'चॉकलेट अभिनेता' के रूप में उन्हें किशोरों का आदर्श माना जाने लगा। उसके बाद वे '80 और '90 की शुरुआत में कई फ़िल्मों में दिखे: दिल (1990), जो साल का सबसे बड़ा व्यवसायिक हिट रही,[5] दिल है की मानता नहीं (1991), जो जीता वही सिकंदर (1992), हम हैं राही प्यार के (1993) (जिसके लिए उन्होंने पटकथा भी लिखा) और रंगीला (1995).इनमे से अधिकतर फ़िल्में आलोचनात्मक व व्यवसायिक दृष्टि से सफल रहीं। [6][7][8] दूसरी सफल फ़िल्में अंदाज अपना अपना, जिसमें सह-अभिनेता सलमान ख़ान थे। इसके रिलीज के समय फ़िल्म असफल रही परन्तु बाद में इसने अच्छी स्थिति बना ली। [9]
ख़ान साल में एक या दो फ़िल्में ही करते हैं, जो मेनस्ट्रीम हिन्दी सिनेमा अभिनेता के लिए कुछ अलग बात है। उनकी 1996 में एकमात्र रिलीज थी धर्मेश दर्शन द्वारा निर्देशित व्यवसायिक ब्लॉकबस्टर राजा हिन्दुस्तानी जिसमे उनके विपरीत करिश्मा कपूर थी। इस फ़िल्म से उन्हें पिछले 8 नामांकनों के बाद पहला फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार मिला जो 1990 साल का बहुत बड़ी हिट थी और तीसरा सर्वाधिक कमाई करने वाला भारतीय फ़िल्म रही। [10] ख़ान के कैरियर ने इस समय तक ठहराव पा लिया था और उनकी ज्यादातर फ़िल्में आने वाले समय में कम सफल रही। 1997 में उन्होंने अजय देवगन और जूही चावला के विपरीत फ़िल्म इश्क में काम किया, जो आलोचकों के लिए ख़राब परन्तु बॉक्स ऑफिस पर हिट रही। १९९८ में, ख़ान मध्यम सफल फ़िल्म ग़ुलाम में नज़र आए, जिसमें उन्होंने पार्श्व गायन भी किया।[11] जॉन मेथ्यु मथान की सरफ़रोश (1999) ख़ान की 1999 के दौरान पहला रिलीज था थोडी सफल और बॉक्स ऑफिस पर औसत रही, जबकि फ़िल्म को आलोचकों ने सराहा. एक समर्पित, इमानदार और भ्रष्टता से दूर पुलिस के रूप में ख़ान का अभिनय सीमा पार आतंक को रोकना था, जिसकी तारीफ हुई। उन्होंने दीपा मेहता की कलात्मक फ़िल्म अर्थ में काम किया। 1999 के दौरान पहली रिलीज थी जो थोड़ी सफल और बॉक्स ऑफिस पर औसत रही, जबकि फ़िल्म को आलोचकों ने सराहा. नए शताब्दी में उनकी पहली रिलीज,मेला थी जिसमे उन्होंने वास्तविक जीवन के भाई फैसल ख़ान, के साथ काम किया, यह एक बॉक्स-ऑफिस और आलोचकों की नज़र में हिटबोम्ब (bomb) साबित हुई। [12]
ख़ान ने अपना निर्माण कंपनी, आमिर ख़ान प्रोडक्शन बनाकर अपने पुराने दोस्त आशुतोष गोवारिकर की स्वप्निल फ़िल्म लगान को वित्तीय सहायता किया।
यह फ़िल्म 2001 में रिलीज हुई, जिसमें आमिर ख़ान मुख्य अभिनेता थे। यह फ़िल्म आलोचकों और कॉमर्शियल की नज़र से सफल रही[13] और इसे सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा फ़िल्म के लिए 74 वें एकेडमी पुरस्कार में भारत के आधिकारिक सूची (India's official entry) में चुन लिया गया। फलतः यह चुन लिया गया और अन्य चार विदेशी फ़िल्मों के साथ उसी वर्ग में नामांकन हुआ, लेकिन नो मेंस लैंड से हार गया। इसके अलावा फ़िल्म को कई अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म फेस्टिवल्स में सराहा गया, साथ ही बॉलीवुड के कई पुरस्कार मिले जिनमें राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार भी शामिल है। ख़ान अपना दूसरा फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार जीता जबकि ऑस्कर में लगान को निराशा मिला। परन्तु चीज़ें हमारा उत्साह बनाये रखती है, कि सारा देश हमारे साथ है।"
लगान की सफलता के बाद उसी साल आगे दिल चाहता है जिसमें ख़ान के साथ थे अक्षय खन्ना और सैफ अली ख़ान, प्रीटी जिंटा. इस फ़िल्म का लेखन और निर्देशन नए नए आए फरहान अख्तर ने किया। आलोचकों के अनुसार, इस फ़िल्म में युवा वर्ग का सही चित्रांकन किया गया जो वे आज हैं। इसके चरित्र नए, मनभावन और सार्वभौमिक थे। यह फ़िल्म मध्यम सफल रही और शहरों में ज़्यादा चली.[13]
ख़ान ने अपने निजी कारणों के कारण 4 साल का संन्यास लिया और 2005 में केतन मेहता की मंगल पांडे - द राइज़िंग फ़िल्म में एक सिपाही और एक शहीद के वास्तविक जीवन पर आधारित जो १८५७ का प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम या “भारतीय आज़ादी की पहली लड़ाई” को बढाया था, में अभिनय किया।
राकेश ओमप्रकाश मेहरा की पुरस्कार विजेता फ़िल्म, रंग दे बसंती, 2006 में ख़ान का पहला रिलीज था। उन्हें आलोचकों की तारीफ मिली,[14] सर्वश्रेष्ठ अभिनय के लिए फिल्मफेयर आलोचना और सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार जीता। यह फ़िल्म साल की सबसे कमाई करने वाली फ़िल्म रही,[15] और इसे ऑस्कर में भारत के आधिकारिक प्रवेश सूचि में चुना गया.जबकि फ़िल्म को नामिति के तौर पर नहीं चुना गया, इसे इंग्लैंड में BAFTA पुरस्कार के दौरान सर्वश्रेष्ठ विदेशी फ़िल्म का नामांकन मिला। ख़ान की अगली फ़िल्म, फना (2006) की भी तारीफ की गई,[16] और 2006 की सर्वाधिक कमाई करने वाला भारतीय फ़िल्म रही। [15]
उनकी 2007 की फ़िल्म, तारे ज़मीन पर (एक शिक्षक के बारे में जो डाइस्लेक्सिक से ग्रस्त बच्चे से दोस्ती व सहायता करता है), जिसे ख़ान ने निर्माण किया और अभिनय भी किया, उनका निर्देशन के क्षेत्र में पहला कदम था। यह फ़िल्म आमिर ख़ान प्रोडक्शन्स की दूसरी फ़िल्म थी, जिसे सराहना और दर्शकों दोनों से अच्छा रेस्पॉन्स मिला। उन्हें फ़िल्मफेयर में सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म और सर्वश्रेष्ठ निर्देशक पुरस्कार मिला, एक अच्छे निर्देशक और कहानी लेखक के रूप में जगह बने।
२००८ में, ख़ान ने अपने भतीजे इमरान ख़ान को फ़िल्म जाने तू या जाने ना में लॉन्च किया। यह फ़िल्म आलोचनात्मक व व्यवसायिक दृष्टि से काफी सफल रही। [17]
निजी जीवन
क़यामत से क़यामत तक, के वर्षों में, ख़ान ने रीना दत्ता के साथ विवाह किया। उनके अभिभावक ने इस विवाह को मंजूर नहीं किया क्योंकि वह मुस्लिम नहीं थी। इस कारण से, ख़ान की शादी अभिभावक और प्रेस-मीडिया दोनों से छिपी रही। एक लोकप्रिय गाना पापा कहतें हैं क़यामत से क़यामत तक में दत्ता ने छोटी सी भूमिका निभाया था। ख़ान की शादी की ख़बर ने भी सामने आने पर मीडिया में हंगामा मचा दिया। रीना दत्ता ने शोर नहीं किया और ट्रेवल एजेंसी में काम जारी रखा। उनके दो बच्चे जुनैद और बेटी, इरा और वे दुनिया की नज़र से दूर ही रहे। रीना ने ख़ान के कैरियर में लगान के लिए निर्माता के रूप में काम किया। दिसम्बर २००२ में, आमिर ने तलाक के लिए अर्ज़ी दी, रीना से अपने १५ वर्ष की विवाहित जिंदगी को समाप्त करते हुए, दोनों बच्चों को अपने अधिकार में लेते हुए 28 दिसम्बर 2005 को आमिर ने किरण राव से शादी की जो आशुतोष गोवारिकर की फ़िल्म लगान के दौरान उनकी सह निर्देशक थी।[18]
हाल ही में भाई फैसल ने उन्हें मीडिया में बदनाम यह कहते हुए किया कि वह उनके साथ अच्छा व्यवहार नहीं कर रहे हैं और उन्हें दवा लेने को मजबूर किया। फैसल को मानसिक बिमारी से त्रस्त बताया गया। 31 अक्टूबर 2007 को बॉम्बे उच्च न्यायालय ने फैसल की अस्थाई अभिरक्षा उनके पिता, ताहिर हुसैन को दी। ख़ान के परिवार ने सार्वजनिक बयान देकर इस मामले में समर्थन किया। कथन पर उसकी पूर्व पत्नी, रीना दत्ता द्वारा भी हस्ताक्षर किया गया।[19]
जबकि उन्हें कई भारतीय पुरस्कार मिले हैं, ख़ान शायद ही किसी भारतीय पुरस्कार समारोह में जाते हैं और कहते है कि उन्हें इस तरह चुनाव जीतने के तरीके पर भरोसा नहीं है।..वे लगान के ऑस्कर में नामांकन के लिए सबसे पहले पहुंचे। 2007 में, ख़ान को लन्दन में मैडम तुसाद का मोम का पुतला बनने के लिये बुलाया गया था।[20] ख़ान ने यह कह कर मना कर दिया कि मेरे लिए यह महत्वपूर्ण नहीं है, यदि लोग मुझे देखना चाहते है तो मेरी फ़िल्म देखें। साथ ही मैं इतनी सारी चीजें नहीं कर सकता. मेरे पास इतनी ही ताकत है।
"[21]
पुरस्कार और नामांकन
फिल्म
अभिनेता
वर्ष फ़िल्म भूमिका अन्य नोट्स 1973यादों की बारातयंग रतन 1974मदहोशबाल कलाकार 1984होलीमदन शर्मा 1988क़यामत से क़यामत तकराज विजेता, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ मेल डिबत पुरस्कार
नामांकित, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार1989राख आमिर हुसैन नामांकित, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार लव लव लवअमित 1990अव्वल नम्बर सन्नी तुम मेरे हो शिवा दिल राजा नामांकित, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार दीवाना मुझ सा नहीं अजय शर्मा जवानी जिंदाबाद शशि 1991अफ़साना प्यार का राज दिल है की मानता नहीं रघु जेटली नामांकित, फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार इसी का नाम जिंदगी छोटू दौलत की जंगराजेश चौधरी 1992जो जीता वही सिकंदरसंजयलाल शर्मा नामांकित, फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार 1993परंपरारणबीर पृथ्वी राज चौहान हम हैं राही प्यार केराहुल मल्होत्रा नामांकित, फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार 1994अंदाज अपना अपनाअमर नामांकित, फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार 1995बाज़ीइंसपेक्टर अमर दमजी आतंक ही आतंकरोहन रंगीलामुन्ना अकेले हम अकेले तुमरोहित नामांकित, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार 1996राजा हिन्दुस्तानीराजा हिन्दुस्तानीविजेता, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार 1997इश्कराजा 1998ग़ुलाम सिद्धार्त मराठे नामांकित, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार
नामांकित, फिल्मफेयर बेस्ट मेल पार्श्व पुरस्कार (Filmfare Best Male Playback Award) 1999सरफ़रोशअजय सिंह राठोड़ नामांकित, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कारमनकारन देव सिंह अर्थ (1947)दिल नवाज ओस्कर में भारत की आधिकारिक प्रवेश (India's official entry to the Oscars)2000मेलाकिशन प्यारे 2001लगानभुवन विजेता, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता
नामांकित, सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा फ़िल्म के लिए अकेडमी पुरस्कार (Academy Award for Best Foreign Language Film) दिल चाहता हैआकाश मल्होत्रा नामांकित, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ट अभिनेता पुरस्कार2005मंगल पांडे: द राइज़िंगमंगल पांडेनामांकित, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ट अभिनेता पुरस्कार2006रंग दे बसंतीदलजीत Singh (DJ)विजेता, सर्वश्रेष्ठ अभिनय के लिए फिल्मफेयर सराहना पुरस्कार (Filmfare Critics Award for Best Performance)
में नामांकित, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार
सर्वश्रेष्ठ गैर अंग्रेजी फ़िल्म के लिए BAFTA पुरस्कार (BAFTA Award for Best Film Not in the English Language) और
ओस्कर में भारत का आधिकारिक प्रवेश (India's official entry to the Oscars)फनारेहान कादरी 2007तारे ज़मीन परराम शंकर निकुम्ब नामांकित, फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ट सहायक अभिनेता 2008गजनीसन्जय सिघानिया28 नवम्बर, 2008 2009थ्री इडियट्सरणछोड़दास चांचड़(फुन्सुक वांगड़ू)2011धोबीघाटअरुण2012तलाश: द आंसर लाइज वीथिनइंस्पेक्टर सुरजन सिंह सेखावत2013धूम 3शाहिर/ समर2014पीकेपीके 2015दिल धड़कने दोप्लूटो मेहरा2016दंगलमहावीर सिंह फोगाट2018ठग्स ऑफ हिंदोस्तान
पार्श्व गायन
सालफ़िल्मगीत1998ग़ुलामआती क्या खंडाला2000मेलादेखो 2000 ज़माना आ गया2005द रायसिंग (The Rising)होली रे2006फनाचंदा चमके और मेरे हाथ में2007तारे ज़मीन परबम बम बोले
निर्माता
सालफ़िल्मनिर्देशक2001लगानआशुतोष गोवारीकर (Ashutosh Gowariker)
विजेता, फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म पुरस्कार2007तारे ज़मीन परआमिर ख़ान
विजेता, फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म पुरस्कार2008जाने तू या जाने नाअब्बास टायरवाला
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सालफ़िल्मनोट्स1988क़यामत से क़यामत तककहानी लेखक1993हम हैं राही प्यार केपटकथा लेखक (Screenwriter)2007तारे ज़मीन परनिर्देशक
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श्रेणी:गूगल परियोजना | आमिर खान का जन्म कब हुआ था? | मार्च 14, 1965 | 56 | hindi |
851309982 | डॉ॰ रेड्डीज लेबोरेटरीज लिमिटेड (Dr. Reddy's Laboratories Ltd.), जिसे डॉ रेड्डीज के नाम से ट्रेड किया जाता है, आज भारत की दूसरी सबसे बड़ी औषधि कंपनी है। इसकी स्थापना 1984 में डॉक्टर के. अंजी रेड्डी ने की थी। इसके पूर्व डॉ॰ अंजी रेड्डी भारत सरकार के उपक्रम इंडियन ड्रग्स एंड फार्मास्यूटिकल्स लिमिटेड में कार्यरत थे। डॉ॰ रेड्डीज अनेकों प्रकार की दवायें बना कर देश-विदेश में विपणन करती है। कंपनी के पास आज 190 से अधिक दवाएं, दवाओं के निर्माण की करीब साठ सक्रिय सामग्रियां, नैदानिक उपकरण तथा सघन चिकित्सा और बायोटेक्नोलॉजी उत्पाद मौजूद हैं।
परिचय
डॉ॰ रेड्डीज की शुरुआत अन्य भारतीय दवा निर्माताओं को दवाएं बनाकर मुहैया कराने से हुई, परन्तु शीघ्र ही यह कंपनी उन देशों को दवाएं निर्यात करने लगी जहां इस व्यापार से संबंधित कानून अनुकूल थे। उदाहरण के लिए अमेरिकी कंपनियों को जिन दवाओं के निर्माण के लिए फ़ूड एवं ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए) से लंबी एवं जटिल लाइसेंस अनुमति प्रक्रिया से गुजरना पड़ता था, वे उन दवाओं को डॉ॰ रेड्डीज से खरीदने लगीं. 1990 के आते-आते कंपनी का व्यापार और लाभ इतना बढ़ गया कि कंपनी ने और अनुकूल देशों के बाजारों में दवाओं की फैक्ट्रियां लगाने के लिए वहां की दवा विनियामक अभिकरणों से सीधा अनुमति लेना प्रारंभ कर दिया। वहां से ये दवाएं अमरीका तथा यूरोप जैसे कठिन बाजारों में भी भेजी जाने लगी।
2007 आते-आते, डॉ॰ रेड्डीज के पास अमेरिकी अभिकरण एफडीए से अनुमोदित छह फैक्ट्रियां हो गईं जिनमें दवा निर्माण की सक्रिय सामग्रियां बनती थीं। साथ ही एफडीए की मान्यता प्राप्त ऐसी सात फैक्ट्रियां भी खोल ली गईं जहां मरीजों के लिए तैयार दवाएं निर्मित की जाती थी। इनमें से पांच भारत में व दो यूनाइटेड किंगडम (यूके) में स्थित है, तथा सातों ही आईएसओ (ISO) 9001 (गुणवत्ता मानक) व आईएसओ (ISO) 14001 पर्यावरण संरक्षण के लिए मानक) से मान्यता प्राप्त है।[1]
2010 में, परिवार द्वारा संचालित इस कंपनी ने इस बात का पुरजोर खंडन[2] किया कि वह अपना जेनरिक व्यापार अमेरिकी औषध कंपनी फाइजर को बेचने जा रही है,[3] विवाद व चर्चा तब शुरू हुई जब डॉ॰ रेड्डी ने घोषणा की कि वे कोलेस्ट्रॉल के इलाज में काम आने वाली दवा ऑटोवस्टेटिन (Atorvastatin) का जेनरिक रूप बाजार में उतारेगी. फाइज़र (Pfizer) ने इसका यह कह कर कड़ा विरोध किया कि वे इस दवा को लिपिटोर (Lipitor) के नाम से पहले से ही बेच रहे हैं तथा ऐसा करके डॉ॰ रेड्डी सीधे पेटेंट कानून का उल्लंघन कर रहा है।[4][5] इस विवाद से पूर्व डॉ॰ रेड्डीज़ का नाम यूके की मशहूर बहुराष्ट्रीय दवा कंपनी ग्लैक्सो स्मिथक्लाइन (Glaxo Smithkline) से जोड़ा जा चुका था।[6]
डॉ॰ रेड्डीज और विनियमन
जेनरिक दवाओं में अकूत धन लाभ
अधिकतर ओईसीडी (OECD) सदस्य राष्ट्रों में ब्रांडेड दवाएं अत्यधिक महँगी थीं, अतः इन देशों की सरकारी स्वास्थ्य प्रणालियों में ब्रांडेड दवाओं के जेनरिक रूपों का प्रयोग लोकप्रिय होने लगा। यूके में नेशनल हैल्थ सर्विस (National Health Service) के डॉक्टरों को इस आशय की सलाह देश के स्वास्थ्य विभाग ने दी, तथा अमेरिका में 1984 में इसके लिए एक विधेयक पास हुआ। इस विधेयक का नाम था 'हैच-वैक्समैन एक्ट' (Hatch-Waxman Act) अथवा ड्रग प्राइस कम्पटीशन एंड पेटेंट टर्म रेस्टोरेशन' एक्ट[7]. 1990 के दशक[8] के मध्य में आये आर्थिक उदारीकरण से भारत सहित तीसरी दुनिया के देशों को अमेरिका जैसे कठिन बाजार में अपने दवा उत्पाद बेचने का मौका मिला। 1997 में अमेरिका अभिकरण एफडीए (FDA) ने 'पैरा 4 फाइलिंग लॉ' (Para 4 filing law) नामक एक विधेयक प्रस्तुत किया जिससे जेनरिक दवा निर्माताओं को ब्रांडेड दवा बनाने वालों के विरुद्ध पेटेंट संबंधी केस लड़ने में असीम सहायता व प्रोत्साहन मिला। अब तक वे इन पेटेंटों की अवधि समाप्त होने का इन्तजार करने को बाध्य थे।
भारत: पेटेंट और लाभ
भारत की आजादी के पिछले 60 सालों से भी घरेलू औषध उद्योग मुख्यतः नियमाधारित रहा है। प्रारंभ में, औषध कंपनियों पर बहुद्देशीय कंपनियों का ही एकाधिकार था। वे ही सभी प्रकार की दवाओं का भारत में आयात करती थीं और उनका विपणन करती थीं; विशेष रूप से कम कीमत वाली जेनरिक तथा बहुत कीमती विशिष्ट दवाइयों का. जब भारतीय सरकार ने निर्यात वस्तुओं के आयत पर रोक लगाने की प्रक्रिया चलाई तो इन बहुद्देशीय कंपनियों ने निर्माता इकाइयां स्थापित कर लीं और बहुमात्रिक दवाइयों का आयात जारी रखा।
सन 1960 के दशक में भारत सरकार ने घरेलू औषध उद्योग की नींव रखी और बहुमात्रिक दवाइयों के बनाने के लिए सरकारी उपक्रम "हिंदुस्तान एंटीबायोटिक्स लिमिटेड" और "भारतीय औषधि फार्मास्यूटिकल्स लिमिटेड" को प्रोन्नत किया। फिर भी, बहुद्देशीय कंपनियों का महत्त्व बना ही रहा, क्योंकि उनके पास टेक्नीकल कुशलता, वित्तीय शक्ति तथा एक बाजार से दूसरे बाजार तक जाने के लिए नवाचार का गुण था। मौलिक अनुसंधान हेतु आने वाला अतिव्यय, गहन वैज्ञानिक ज्ञान की जरुरत और वित्तीय क्षमता - कुछ ऐसी बाधाएं थीं जिनकी वजह से निजी उपक्रम की भारतीय कंपनियों को पूरी सफलता न मिली।
भारतीय पेटेंट अधिनियम 1970 के लागू होने से इस स्थिति में परिवर्तन आने लगा। इस अधिनियम की वजह से अब खाद्य पदार्थों और औषध में प्रयोग आने वाले पदार्थों का उत्पादन पेटेंट मिलना बंद हो गया। विधि का पेटेंट स्वीकृत किया जाता था - स्वीकृति की तिथि से पांच वर्ष के लिए या प्रार्थना पत्र देने की तिथि से सात वर्ष के लिए, जो भी कम हो। विधि में सुधार लाना अपेक्षाकृत सरल था और इसलिए घरेलू निर्माताओं की बहुतायत हो गई। इन निर्माता कंपनियों ने आम तौर पर बहुमात्रिक औषधियों से काम शुरू किया और बाद में सम्पूर्ण विशिष्ट औषध का निर्माण भी करने लगे। बहुद्देशीय कंपनियां अपनी-अपनी मूल कंपनियों की उत्पादन श्रृंखलाओं के कारण उलझन में पड़ रही थीं; भारतीय उत्पादक तो अब लगभग सब कुछ निर्माण करने में सक्षम थे। उत्पादन पेटेंट का स्वायत्तता खर्च ना देने के कारण भारतीय उत्पादकों की निर्माण-लागत कम हो गई और वे सकुशल पनपने लगे।
इसके कुछ समय बाद, 'औषध मूल्य नियंत्रण आदेश' के माध्यम से आम प्रयोग में आने वाली औषधविधाओं के मूल्य नियत कर दिए गए। कम कीमतें नियत किये जाने के कारण बहुद्देशीय कंपनियों के स्वदेशी बाजार में असंतोष की आशंका से उन्होंने नए उत्पादनों पर एकदम रोक लगा दी, जिससे भारतीय घरेलू उद्योग को और बल मिल गया।
1970 के दशक के अंत के विदेशी मुद्रा विनियम अधिनियम के अंतर्गत बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भारतीय उद्यमों में अपनी हिस्सेदारी को घटाकर 40% तक सीमित करना पड़ा, या 51% की अपनी इक्विटी हिस्सेदारी बनाए रखने के लिए कुछ निर्यात दायित्वों का पालन किया जाना आवश्यक हो गया। कई बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने ऐसे माहौल में व्यवसाय न करने का निर्णय किया, जो भारतीय औषध उद्योग के लिए एक अन्य रामबाण साबित हुआ।
सन 1986 ई. में रेड्डीज ने ब्रांडेड औषध विधाओं को आरम्भ किया। एक ही वर्ष में रेड्डीज ने नॉरिलट को बाजार में उतारा, जो कि भारत में उनका पहला ब्रांड था। परन्तु, अपनी श्रेष्ठ विधि तकनीक की वजह से, रेड्डीज को ओमेज़ से उच्च सफलता मिली, जो ब्रांडेड ओमेजाप्रोल तथा अल्सर और रिफल्क्स ओजोफैजिटिस की औषधि है। यह औषध तत्कालीन भारतीय बाजार में उपलब्ध ब्रांड औषधियों से आधी कीमत पर उपलब्ध थी।
एक साल के भीतर रेड्डीज औषध के जरूरी तत्वों को यूरोप को निर्यात करने वाली पहली कंपनी बन गई। सन 1987 में रेड्डीज में परिवर्तन आरम्भ हुआ। अब वह औषध के तत्वों को दूसरे निर्माताओं को प्रदान करने की अपेक्षा स्वयं औषध उत्पादनों की निर्माता कंपनी बन गई।
भारत के बाहर प्रसार
भारत से बाहर डॉ॰ रेड्डीज ने पहला कदम 1992 में रूस में रखा जब वहां की सबसे बड़ी दवा कंपनी बायोमेड के साथ संयुक्त व्यापार समझौता किया। परन्तु 1995 में कंपनी ने रूस में अपने व्यापार को पहले सिस्टेमा ग्रुप को बेचा तथा 2002 में इस पूरी कंपनी को खरीद लिया। कंपनी के मॉस्को ऑफिस पर 1995 में भारी नुकसान के आरोप लगे थे, जिसमें बायोमेड के तत्कालीन मुखिया[9] का नाम भी उछला था।
1993 में, डॉ रेड्डीज ने मध्य पूर्व एशिया में संयुक्त उद्यम का प्रारंभ किया, तथा रूस व मध्य-पूर्व में दो फोर्मुलेशन प्लांट शुरु किये। रेड्डीज इन्हें बड़ी मात्रा में दवा भेजते थे तथा ये यूनिट उन्हें अंतिम रूप देकर बाजार में उतारने का काम करती थीं। 1994 में, रेड्डीज ने अमेरिकी जेनेरिक बाजार पर ध्यान केंद्रित किया तथा वहां एक आधुनिक दवा निर्माण प्लांट का शुभारंभ किया।
रेड्डीज ने नई दवाओं के अविष्कार में दक्षता प्राप्त करने के लिए पश्चिमी देशों में भारी मांग वाली जेनेरिक दवाओं पर अनुसंधान केंद्रित किया। उनमें भी उन दवाओं को चुना गया जो कुछ विशेष रोगों में काम आती थीं। इसका कारण यह था कि आम जेनेरिक दवा व खास रोगों की दवा के अविष्कार की प्रक्रिया एक सी थी, परन्तु विशेष रोगों की दवा में अधिक अनुभव व लाभ की प्राप्ति होती थी। प्रक्रिया के हिस्से जैसे प्रयोगशाला में नवाचार, मिश्रण बनाना, विपणन के प्रयास आदि दोनों में समान थे। अनुसंधान एवं विकास में रेड्डीज ने विशेष प्रयास किये, तथा यह भारत की पहली कंपनी थी जिसने अनुसंधान के लिए विदेशों में प्रयोगशालाएं स्थापित कीं. डॉ॰ रेड्डीज रिसर्च फाउंडेशन की स्थापना 1992 में दवाओं की खोज एवं शोध के लिए ही की गयी थी। पहले तो इस संस्थान का ध्यान बाजार से मिलने वाली दवाओं के भारतीय संस्करण पर ही केंद्रित रहा, परन्तु बाद में इन्होंने नई दवाओं के आविष्कार की ओर ध्यान देना शुरू किया। इसके लिए डॉक्टरेट व आगे की पढ़ाई के लिए विदेशों में बसे भारतीय विद्यार्थियों को चुना। सन 2000 में संस्थान ने अटलांटा अमेरिका में एक प्रयोगशाला की स्थापना की जिसका कार्य केवल चिकित्सा की नई विधाओं पर अनुसंधान करना था। इस लैब (प्रयोगशाला) का नाम रुस्ती (RUSTI) अथवा 'रेड्डी यूएस थेराप्यूटिक्स इंक.' है। रुस्ती जीनोम व प्रोटियोम के सिद्धांतों को लेकर नई दवाओं के आविष्कार में लग्न है। पश्चिम में रेड्डीज ने कैंसर, मधुमेह, हृदय रोग तथा संक्रमण जैसे रोगों के इलाज की दवाओं पर सराहनीय कार्य किया है।
अंतरराष्ट्रीय व भारतीय कंपनियां खरीदने से रेड्डीज की दवा निर्माण में संप्रभुता सी हो गई, जिससे उन्हें विदेशी बाजार में दवाएं बेचने में बहुत लाभ हुआ। 'चैमिनॉर ड्रग लिमिटेड' (सीडीएल) का कंपनी में विलय, उत्तरी अमेरि़क और यूरोप के कठिन तकनीकी बाजारों में दवा-सामग्री बेचने के उद्देश्य से ही किया गया था। इससे उन बाजारों में बाद में जेनरिक दवाएं बेचने में भी बहुत लाभ हुआ।
1997 तक दवा सामग्री और बल्क दवा बेचने वाली कंपनी (अमेरिका व यूके) को तथा अनुकूल बाजारों (जैसे भारत व रूस) में ब्रांडेड फोर्मुलेशन बेचने वाली कंपनी के रूप में रेड्डीज की अच्छी खासी साख बन गई थी। अब अगले कदम की बारी थी। अतः कंपनी में जेनरिक दवाओं के क्षेत्र में नई दवा हेतु अमेरिका में 'नई दवा आवेदन' फाइल किया। उसी साल रेड्डीज ने अपने एक अणु (मॉलिक्यूल) को पहली बार कंपनी से बाहर परीक्षण के लिए डेनमार्क की एक कंपनी नोवो नॉर्डिस्क को दिया।
1999 में अमेरिकी रेमेडीज लिमिटेड नामक कंपनी को अधिग्रहित करके और भी शक्तिशाली दवा निर्माता बन गई। इसके बाद भारत में उनसे आगे केवल रैनबैक्सी और ग्लैक्सो रह गए थे। कंपनी के पास अब थोक दवाएं, नैदानिक उपकरण, जैव-तकनीक तथा रसायन संबंधित सभी तरह उत्पाद उपलब्ध थे।
समयानुसार रेड्डीज ने बाजार में 'पैरा 4 क़ानून' का लाभ उठाना शुरू कर दिया। इस कड़ी में 1999 में एक सफल दवाई ओमाप्रजोल पर पैरा 4 आवेदन प्रस्तुत किया गया। दिसंबर 2000 में रेड्डीज ने अमेरिका में अपना पहला व्यवसायिक जेनरिक उत्पाद लॉन्च किया और अगस्त 2001 में बाजार विशेषाधिकार वाला अपना पहला उत्पाद पेश किया। उसी वर्ष यह एशिया-प्रशांत क्षेत्र से न्यू यॉर्क स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध होने वाली पहली गैर-जापानी औषध कंपनी भी बन गयी। ये सभी कदम भारतीय औषध उद्योग के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि थे।
2001 में रेड्डीज ने अमेरिका ने फ़्लूओज़ेटीन नामक जेनरिक दवा को (एली लिली व रेड्डीज की दवा प्रोजेक का जेनरिक रूप) बाजार में उतारा. ऐसा करने वाली वह पहली भारतीय कंपनी बनी। एक विशेषाधिकार के रूप में रेड्डीज को 180 दिन के लिए यह दवा पूर्णतया अकेले बाजार में बेचने को मिली। 90 के दशक के अंतिम भाग में प्रोजेक ने अमेरिका में एक बिलियन डॉलर से अधिक का व्यापार किया था। अनुमोदित खुराकों (10 मिलीग्राम, 20 मिलीग्राम) के विशेषाधिकार अमेरिका की बार्र लैब्ज़ नामक कंपनी के पास थे, लेकिन मौका देखकर रेड्डीज ने (40 मिलीग्राम) के अधिकार खरीद लिए। रेड्डीज के पास इसके मिश्रण से संबंधित कई पेटेंट पहले से ही थे। यह विवाद दो बार फेडरल सर्किट कोर्ट पहुंचा तथा दोनों बार रेड्डीज की विजय हुई। 180 दिन के विपणन के एकाधिकार की वजह से 6 महीने में रेड्डीज ने इस दवा का 70 मिलियन डॉलर का व्यापार किया। इतने बड़े लाभ के बाद रेड्डीज लंबी कानूनी लड़ाई के लिए भी तैयार थे।
फ़्लूओजेटीन की सफलता के बाद जनवरी 2003 में कंपनी ने अपने नाम के तहत 400, 600 और 800 मिलीग्राम वाली इबुप्रोफेन टैबलेट लॉन्च की। अपने ब्रांड नाम का अमेरिका में सीधा प्रयोग कंपनी के जेनरिक व्यापार के लिए एक महत्वपूर्ण कदम था। इसके बाद रेड्डीज का विपणन नेटवर्क अमेरिका में फैलता ही गया। काफी हद तक यह प्रमुख भारतीय सॉफ्टवेयर कंपनियों के समान ही था जिनके पास अमेरिका में विपणन पेशेवर मौजूद रहते हैं।
2001 में रेड्डीज ने अपना 132.8 मिलियन डॉलर का अमेरिकी डिपोजिटरी रिसीट इश्यू पूरा किया और उसी साल न्यूयॉर्क शेयर बाज़ार में लिस्ट हुए. यूएस इनीशियल पब्लिक ऑफरिंग से अर्जित धन का प्रयोग कंपनी ने अन्य देशों में निर्माण संयंत्र लगाने तथा कुछ तकनीक-आधारित कंपनियों को खरीदने के लिए किया।
2002 में रेड्डीज का यूके में व्यापार शुरू हुआ तथा प्रारंभ में उन्होंने दो दवा कंपनियां खरीदीं. बीएमएस लैब्स व उसकी ग्रुप कंपनी मैरीडियन यूके खरीदने से यूरोप में रेड्डीज का काफी विस्तार हुआ। 2003 में ही रेड्डीज़ ने बायो साइंसेज लिमिटेड नामक कंपनी के शेयरों में 5.25 मिलियन डॉलर का निवेश किया।
2002 में रेड्डीज ने कॉन्ट्रेक्ट पर अनुसंधान करने वाली औरीजीन डिस्कवरी टेक्नोलॉजीज नामक कंपनी का गठन किया। इसका मकसद दूसरों के लिए अनुसंधान करके महत्वपूर्ण अनुभव प्राप्त करना था। रेड्डीज ने इसके लिए आईसीआईसीआई बैंक से वेंचर फंडिंग (धन) की व्यवस्था की। इसके अंतर्गत बैंक नई दवाओं के आवेदनों के विकास व कानूनी कार्यों पर आने वाले खर्चों के वहन को सहमत हुआ। बाजार में आने के पश्चात पहले 5 वर्ष तक रेड्डीज दवा की कुल बिक्री पर आईसीआईसीआई को रॉयल्टी प्रदान करने वाले थे। एक दशक के भीतर ही एक सफल व मान्य दवा कंपनी बनने के पीछे रेड्डीज के कई साहसिक कदम हैं। छोटी बड़ी कई कंपनियां क्रय करने के साथ-साथ अनुसंधान एवं विकास (आरएंडडी) पर व्यय करना एक अत्यंत लाभकारी निर्णय साबित हुआ। 'बड़ा जोखिम बड़ा लाभ' का सिद्धांत अपनाते हुए रेड्डीज ने पेटेंटों के लिए बड़ी दवा कंपनियों से सीधी टक्कर ली। कंपनी के लिए व्यय के नुकसान से बचना एक कड़ी चुनौती रही और इसके लिए दवा सामग्री व्यापार में हो रहे अच्छे लाभ से काफी मदद मिली। वहां से मिला धन लाभ अनुसंधान जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में काम आया। एक अन्य तरीका अनुसंधान के लिए नई कंपनियां खरीदने का था जिसका भी रेड्डीज ने भरपूर प्रयोग किया। इसने वैश्विक मार्ग चुना और कंपनियों को खरीदने की एक झड़ी सी लगा दी।
मार्च 2002 में डॉ॰ रेड्डीज ने बेवरली (इंग्लैंड) स्थित एक छोटी कंपनी बीएमसी लैब्ज़ को खरीद लिया। साथ ही उसकी ग्रुप कंपनी मैरीडियन हैल्थकेयर भी रेड्डीज के हाथ आ गयी। इसके लिए रेड्डीज ने 14.81 मिलियन यूरो खर्च किये। ये कंपनियां तरल व ठोस दवाओं तथा दवा पैकेजिंग के व्यापार में थीं। लंदन व बेवरली में इनके दो प्लांट थे। इसके तुरंत बाद रेड्डीज ने यूके की एक निजी दवा कंपनी आर्जेन्टा डिस्कवरी लिमिटेड के साथ अनुसंधान विकास तथा दवा बेचने के एक समझौते पर हस्ताक्षर किये। यह कंपनी सीओपीडी (COPD) के लिए दवा खोज रही थी।
जेनरिक दवा के बाजार में सफल होने के बाद रेड्डीज को लगा कि अमेरिका में उनका अपना एक मजबूत क्रय एवं वितरण नेटवर्क होना चाहिए। रेड्डीज 2003 में उच्च-रक्तचाप उत्पादों के विपणन के लिए कई विकल्पों पर विचार कर रही थी। इसी संदर्भ में फ्यूओजेनेटीन 40 मिलीग्राम के विपणन के लिए कंपनी ने फार्मास्यूटिकल रिसोर्सेस इंक. के साथ समझौता किया। साथ ही 'ओवर दी काउंटर' मिलने वाली दवाओं के निर्माण व विपणन के लिए 'पार फार्मा' नाम की एक कंपनी के साथ भी हाथ मिला लिया। अमेरिका के अतिरिक्त रेड्डीज का जेनरिक दवा व्यापार यूके में भी मौजूद है जो इसे यूरोप के अन्य देशों में विस्तार करने में मददगार साबित होगा। कंपनी शीघ्र ही कनाडा व दक्षिण अफ्रीका में व्यापार प्रारंभ करने जा रही है। इनकी दवा सामग्री का व्यापार 60 देशों में फैल चुका है तथा सबसे अधिक राजस्व भारत व अमेरिका से आता है। फ़ार्मूलेशन व्यापार भी भारत व रूस जैसे लगभग 30 देशों में फल-फूल रहा था। निकट भविष्य में रेड्डीज चीन, ब्राजील तथा मैक्सिको में व्यापार आरंभ करने की योजना रखती है।
रेड्डीज का डेनमार्क की कंपनी रियोसाइंस ए/एस के साथ डायबटीज टाइप-2 के इलाज के व्यूहाणु बालाग्लिटाजोन (डीआरएस-2593) के विकास व विपणन का 10 साल का समझौता है। समझौते के तहत इस दवा को यूरोप व चीन में रियोसाइंस बेचेगी तथा अमेरिका व विश्व में यह कार्य रेड्डीज स्वयं करेगी। 2005 में रेड्डीज़ ने बेलफास्ट, आयरलैंड में आरयूएस (RUS) 3108 नामक हृयद रोग की दवा का परीक्षण किया। गुणवत्ता और सुरक्षा के लिए किये गए परीक्षणों का मकसद इसे विपणन के लिए तैयार करना था। यह दवा एथरोस्क्लीरोसिस नामक हृदय रोग के उपचार में काम आती है।
श्वसन संबंधी बीमारियों में काम आने वाली दवाओं के लिए रेड्डीज ने नीदरलैंड्स की कंपनी यूरोड्रग लैब्ज़ के साथ समझौता किया। उनके साथ मिलकर कंपनी ने क्रौनिक आबस्ट्रकटिव पल्मनरी डिजीज (सीओपीडी) व अस्थमा जैसी बीमारियों में कारगर नई दवा डाक्सोफायलीन पेश की (यह दवा एक उन्नत जैन्थिन ब्रौकोडिलेटर है).
2004 में रेड्डीज ने त्वचा रोग विशेषज्ञ अमेरिकी कंपनी ट्राईजैनेसिन थेराप्यूटिक्स का अधिग्रहण किया। इससे रेड्डीज को त्वचा रोग की दवाओं के कुछ पेटेंट व तकनीक हासिल हुई। लेकिन इसी समय रेड्डीज को तब बड़ा झटका लगा जब वे फाईज़र की दवा नोर्वास्क (एम्लोडिपाइन मैलियेट) के विरुद्ध 'पैरा 4' का एक पेटेंट मुकदमा हार गए। ये लड़ाई एन्जाइना व हाइपरटेंशन की फाईज़र निर्मित दवा नॉरवैस्क (एम्लोडिपीन मैलिएट) को लेकर थी। इससे रेड्डीज को काफी आर्थिक नुक्सान हुआ तथा विशेषज्ञ दवा-व्यापार में आने की योजनाओं को भी भारी झटका लगा।
मार्च 2006 में डॉ॰ रेड्डीज ने 3आई (3i) से 'बीटाफ़ार्म आर्जनेमिट्टेल जीएमबीएच (Betapharm Arzneimittel GmbH)' नामक कंपनी 480 मिलियन यूरो में अधिग्रहित की। किसी भी भारतीय दवा कंपनी का यह सबसे बड़ा विदेशी अधिग्रहण था। इस जर्मन कंपनी के पास 150 सक्रिय दवा सामग्रियां थीं, तथा जर्मनी में 3.5% व्यापार हिस्से के साथ यह वहां के जेनरिक व्यापार में चौथी सबसे बड़ी कंपनी थी।
रेड्डीज ने आईसीआईसीआई वेंचर कैपिटल फंड मैनेजमेंट कंपनी लिमिटेड तथा सिटीग्रुप वेंचर कैपिटल इंटरनेशनल ग्रोथ पार्टनरशिप मॉरिशस लिमिटेड के साथ मिलकर पर्लेकेन फार्मा प्राइवेट लिमिटेड नामक भारत की प्रथम एकीकृत औषध विकास कंपनी को आगे बढ़ाया है। यह संयुक्त इकाई इस नई रासायनिक कंपनी की नैदानिक विकास तथा संपत्तियों के लाइसेंस को बेचने का कार्य करेगी।
इसके दूसरी ओर रेड्डीज एक अन्य कंपनी मर्क एंड कंपनी की दवा सिमबस्टाटिन (जोकोर) का जेनरिक रूप अमेरिका में केवल विपणन करती है। इस दवा के लिए रेड्डीज के पास 23 जून 2006 के बाद एकमात्र क्रय का विशेषाधिकार नहीं है, यह अधिकार अब भारत की रैनबैक्सी, रेड्डीज तथा टेवा फार्मा तीनों के पास है।[10]
2006 के आकड़ों के अनुसार, डॉ॰ रेड्डीज का राजस्व 500 मिलियन डॉलर के पार जा चुका है। इसमें सक्रिय सामग्री व्यापार (एपीआई), ब्रांडेड फ़ार्मूलेशन व्यापार, व जेनरिक दवा व्यापार तीनों का योगदान है। लगभग 75% राजस्व सामग्री व फ़ार्मूलेशन व्यापार से आता है। डॉ॰ रेड्डीज अब दवा व्यापार के हर पहलू और उससे जुड़े हर प्रकार के विकास कार्य में अग्रणी है। सामग्री व्यापार से लेकर पेटेंट संबंधी कार्य, विपणन से लेकर जेनरिक दवा थोक निर्माण तक में रेड्डीज का कोई सानी नहीं। अमेरिका और यूरोप में सुदृढ़ साझेदारियां बनाने से अब यह भारतीय कंपनी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नए कीर्तिमान स्थापित करने की ओर अग्रसर है।
दवा आविष्कार में बाधायें
सितम्बर 2005 में डॉ॰ रेड्डीज़ ने अपने आविष्कार एवं अनुसंधान विभाग को एक पृथक कंपनी का रूप दिया, जिसका नाम 'पर्लेकैन फार्मा प्राइवेट लिमिटेड' रखा गया। उस समय तो सभी ने इस कदम की प्रशंसा की, परन्तु 2008 में आर्थिक समस्याओं के कारण इस कंपनी को बंद करना पड़ा.[11] अनुसंधान व आविष्कार के कार्य को दवा निर्माण के आर्थिक खतरों से अलग करने वाली डॉ॰ रेड्डीज पहली भारतीय दवा कंपनी थी। इस नई कंपनी में आईसीआईसीआई वेंचर कैपिटल तथा सिटीग्रुप वेंचर इंटरनेशनल का धन लगा था। दोनों वित्तीय संस्थानों का इसमें 43% भाग था तथा कुल देय राशि लगभग 22.5 मिलियन अमेरिकी डॉलर (लगभग 115 करोड़ रूपये) थी। वित्तीय समस्याओं की शुरुआत के बाद दोनों संस्थानों ने कंपनी के दवा अनुसंधान में अविश्वास जताया तथा अंत में कंपनी को दोनों से पर्लेकैन के शेयर वापस खरीदने पड़े. जुलाई 2008 में इस तरह पर्लेकैन डॉ॰ रेड्डीज की एक ग्रुप कंपनी बन गई, परन्तु 23 अक्टूबर को हुई मीटिंग में पुनः पर्लेकैन को डॉ॰ रेड्डीज का एक विभाग बना दिया गया।[11]
2009 में कंपनी ने फिर पासा पलटा तथा अनुसंधान व आविष्कार तथा बुद्धिजीवी अधिकार विभागों को अपनी बंगलूर स्थित ग्रुप कंपनी को दे दिया। कंपनी ने इसके लिए अब पार्टनर की तलाश से भी परहेज नहीं किया ताकि अनुसंधान के लिए धन की कमी न रहे। [12]
मधुमेह की दवा का तीसरा परीक्षण
बालाग्लिटाज़ोन नामक मधुमेह की दवा का परीक्षण डॉ॰ रेड्डीज के लिए डेनमार्क की एक कंपनी रियोसाइंस कर रही थी। परन्तु उस कंपनी की वित्तीय समस्याओं[13] के कारण इसमें बहुत देरी हुई। अब रियोसाइंस की मालिक कंपनी नॉर्डिक बायोसाइंस धन लाभ कर डॉ॰ रेड्डीज के साथ हुए करार को पूरा करने को राजी हो गई है तथा परीक्षण फिर आरंभ होने की आशा है।
जनवरी 2010 में डॉ॰ रेड्डीज ने बालाग्लोटाज़ोन के प्रथम परीक्षणों की सफलता की घोषणा की। इसमें खून में ग्लूकोज की मात्रा कम करने का पहला लक्ष्य सफलतापूर्वक प्राप्त कर लिया। इससे यह आशा बंधी की शीघ्र ही यह दवा विनियामक कानूनों से मान्य हो पायेगी। [14]
प्रमुख लोग
31 मार्च 2006 को बोर्ड के सदस्य और वरिष्ठ अधिकारी शामिल हुए.
श्री अमित पटेल - उपाध्यक्ष, कॉर्पोरेट विकास और सामरिक योजना
डॉ॰ के अंजी रेड्डी, चेयरमैन
श्री जीवी प्रसाद - उपाध्यक्ष और मुख्य कार्यकारी अधिकारी
श्री सतीश रेड्डी -प्रबंध निदेशक और सीओओ
श्री बी. कोटेश्वर राव - स्वतंत्र निदेशक
श्री अनुपम पुरी - स्वतंत्र निदेशक
डॉ॰ कृष्ण जी पलेपू - स्वतंत्र निदेशक (सत्यम घोटाले के बाद मीडिया में ऐसी ख़बरें आई हैं कि प्रोफ़ेसर पलेपू से अनौपचारिक रूप से डॉ रेड्डीज लेबोरेटरीज के बोर्ड की सदस्यता छोड़ने के लिए कहा गया है।[15])
डॉ॰ ओम्कार गोस्वामी - स्वतंत्र निदेशक
श्री पीएन देवराजन - स्वतंत्र निदेशक
श्री रवि भूथालिंगम - स्वतंत्र निदेशक
डॉ॰ वी. मोहन - स्वतंत्र निदेशक
डॉ॰ राजिंदर कुमार - अध्यक्ष, अनुसंधान, विकास और व्यावसायीकरण (30 अप्रैल 2007 को शामिल हुए और 2009-10 को कंपनी छोड़ा तो इस कारण अब वे डॉ॰ रेड्डी से जुड़े हुए नहीं हैं)[16]
मुख्य उत्पाद
शीर्ष सक्रिय दवा सामग्रियां
साइप्रोफ्लोक्सासिन हाइड्रोक्लोराइड
रामिप्रिल
टेरबिनाफिन एचसीआई
इब्रूफिन
सेरटालिन हाइड्रोक्लोराइड
रेनिटिदीन एचसीएल फॉर्म 2
नेपरोक्सन सोडियम
नेपरॉक्सन
एटोरवास्टेटिन
मॉन्टेलुकास्ट
लोसर्टन पोटेशियम
स्पारफ्लोक्सासिन
निज़ाटिडाइन
फेक्सोफेनाडिन
रेनिटिदीन हाइड्रोक्लोराइड फॉर्म 1
क्लोपिडोग्रेल (2007 पेटेंट मामले की वजह से यूएस में मौजूद नहीं है)
ओमेप्रज़ोल
फिनएसटेराइड
सुमाट्रिप्टॉन
भारत में शीर्ष 10 ब्रांड
ओमेज़
निस
स्टाम्लो
स्टाम्लो बीटा
एनम
अटोकोर
राज़ो
रेक्लीमेट
क्लैम्प
मिन्टोप
मध्य पूर्व में शीर्ष ब्रांड
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
श्रेणी:बीएसई सेंसेक्स
श्रेणी:भारत की दवा कंपनियां
श्रेणी:बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज पर सूचीबद्ध कम्पनियां
श्रेणी:हैदराबाद, भारत में उद्योग
श्रेणी:1984 में स्थापित कंपनियां | लिपिटोर' दवा मुख्यत: किस रोग के इलाज में कारगर है? | कोलेस्ट्रॉल | 1,855 | hindi |
eba0f2176 | ऑस्कर वाइल्ड उस शख्स का नाम है, जिसने सारी दुनिया में अपने लेखन से हलचल मचा दी थी। शेक्सपीयर के उपरांत सर्वाधिक चर्चित ऑस्कर वाइल्ड सिर्फ उपन्यासकार, कवि और नाटककार ही नहीं थे, अपितु वे एक संवेदनशील मानव थे। उनके लेखन में जीवन की गहरी अनुभूतियाँ हैं, रिश्तों के रहस्य हैं, पवित्र सौन्दर्य की व्याख्या है, मानवीय धड़कनों की कहानी है।
उनके जीवन का मूल्यांकन एक व्यापक फैलाव से गुजरकर ही किया जा सकता है। अपने धूपछाँही जीवन में उथल-पुथल और संघर्ष को समेटे 'ऑस्कर फिंगाल ओं फ्लाहर्टी विल्स वाइल्ड' मात्र 46 वर्ष पूरे कर अनंत आकाश में विलीन हो गए।
ऑस्कर वाइल्ड 'कीरो' के समकालीन थे। एक बार भविष्यवक्ता कीरो किसी संभ्रांत महिला के यहांं भोज पर आमंत्रित थे। काफी संख्या में यहाँ प्रतिष्ठित लोग मौजूद थे। कीरो उपस्थित हों और भविष्य न पूछा जाए, भला यह कैसे संभव होता। एक दिलचस्प अंदाज में भविष्य दर्शन का कार्यक्रम आरंभ हुआ। एक लाल मखमली पर्दा लगाया गया। उसके पीछे से कई हाथ पेश किए गए। यह सब इसलिए ताकि कीरो को पता न चल सके कि कौन सा हाथ किसका है? दो सुस्पष्ट, सुंदर हाथ उनके सामने आए। उन हाथों को कीरो देखकर हैरान रह गए। दोनों में बड़ा अंतर था। जहाँ बाएँ हाथ की रेखाएँ कह रही थीं कि व्यक्ति असाधारण बुद्धि और अपार ख्याति का मालिक है। वहीं दायाँ हाथ..? कीरो ने कहा 'दायाँ हाथ ऐसे शख्स का है जो अपने को स्वयं देश निकाला देगा और किसी अनजान जगह एकाकी और मित्रविहीन मरेगा। कीरो ने यह भी कहा कि 41 से 42वें वर्ष के बीच यह निष्कासन होगा और उसके कुछ वर्षों बाद मृत्यु हो जाएगी। यह दोनों हाथ लंदन के सर्वाधिक चर्चित व्यक्ति ऑस्कर वाइल्ड के थे। संयोग की बात कि उसी रात एक महान नाटक 'ए वुमन ऑफ नो इम्पोर्टेंस' मंचित किया गया। उसके रचयिता भी और कोई नहीं ऑस्कर वाइल्ड ही थे।
बहरहाल, 15 अक्टूबर 1854 को ऑस्कर वाइल्ड जन्मे थे। कीरो की भविष्यवाणी पर दृष्टिपात करें तो 1895 में ऑस्कर वाइल्ड ने समाज के नैतिक नियमों का उल्लंघन कर दिया। फलस्वरूप समाज में उनकी अब तक अर्जित प्रतिष्ठा, मान-सम्मान और सारी उपलब्धियाँ ध्वस्त हो गईं। यहाँ तक कि उन्हें दो वर्ष का कठोर कारावास भी भुगतना पड़ा। जब ऑस्कर वाइल्ड ने अपने सौभाग्य के चमकते सितारे को डूबते हुए और अपनी कीर्ति पताका को झुकते हुए देखा तो उनके धैर्य ने जवाब दे दिया।
अब वे अपने उसी गौरव और प्रभुता के साथ समाज के बीच खड़े नहीं हो सकते थे। हताशा की हालत में उन्होंने स्वयं को देश निकाला दे दिया। वे पेरिस चले गए और अकेले गुमनामी की जिंदगी गुजारने लगे। कुछ वर्षों बाद 30 नवम्बर 1900 को पेरिस में ही उनकी मृत्यु हो गई। उस समय उनके पास कोई मित्र नहीं था। यदि कुछ था तो सिर्फ सघन अकेलापन और पिछले सम्मानित जीवन की स्मृतियों के बचे टुकड़े।
ऑस्कर वाइल्ड का पूरा नाम बहुत लंबा था, लेकिन वे सारी दुनिया में केवल ऑस्कर वाइल्ड के नाम से ही जाने गए। उनके पिता सर्जन थे और माँ कवयित्री। कविता के संस्कार उन्हें अपनी माँ से ही मिले। क्लासिक्स और कविता में उनकी विशेष गति थी।
19वीं शताब्दी के अंतिम दशक में उन्होंने सौंदर्यवादी आंदोलन का नेतृत्व किया। इससे उनकी कीर्ति चारों ओर फैली। ऑस्कर वाइल्ड विलक्षण बुद्धि, विराट कल्पनाशीलता और प्रखर विचारों के स्वामी थे। परस्पर बातचीत से लेकर उद्भट वक्ता के रूप में भी उनका कोई जवाब नहीं था। उन्होंने कविता, उपन्यास और नाटक लिखे। अँग्रेजी साहित्य में शेक्सपीयर के बाद उन्हीं का नाम प्राथमिकता से लिया जाता है। 'द पिक्चर ऑफ डोरियन ग्रे' उनका प्रथम और अंतिम उपन्यास था, जो 1890 में पहली बार प्रकाशित हुआ।
विश्व की कई भाषाओं में उनकी कृतियाँ अनुवादित हो चुकी हैं। 'द बैलेड ऑफ रीडिंग गोल' और 'डी प्रोफनडिस', उनकी सुप्रसिद्ध कृतियाँ हैं। लेडी विंडरम'र्स फेन और द इम्पोर्टेंस ऑफ बीइंग अर्नेस्ट जैसे नाटकों ने भी खासी लोकप्रियता अर्जित की। उनकी लिखी परिकथाएँ भी विशेष रूप से पसंद की गईं। उनके एक नाटक 'सलोमी' को प्रदर्शन के लिए इंग्लैंड में लाइसेंस नहीं मिला। बाद में उसे सारा बरनार्ड ने पेरिस में प्रदर्शित किया।
ऑस्कर वाइल्ड ने जीवन मूल्यों, पुस्तकों, कला इत्यादि के विषय में अनेक सारगर्भित रोचक टिप्पणियाँ की हैं। उन्होंने कहा- 'पुस्तकें नैतिक या अनैतिक नहीं होतीं। वे या तो अच्छी लिखी गई होती हैं या बुरी।' अपने अनंत अनुभवों के आधार पर एक जगह उन्होंने लिखा- 'विपदाएँ झेली जा सकती हैं, क्योंकि वे बाहर से आती हैं, किंतु अपनी गलतियों का दंड भोगना हाय, वही तो है जीवन का दंश। कला के विषय में उनके विचार थे- 'कला, जीवन को नहीं, बल्कि देखने वाले को व्यक्त करती है अर्थात तब किसी कलात्मक कृति पर लोग विभिन्ना मत प्रकट करते हैं तब ही कृति की पहचान निर्धारित होती है कि वास्तव में वह कैसी है, आकर्षक या उलझी हुई।'
ऑस्कर वाइल्ड ने अपने साहित्य में कहीं न कहीं अपनी पीड़ा, अवसाद और अपमान को ही अभिव्यक्त किया है। बावजूद इसके उनकी रचनाएँ एक विशेष प्रकार का कोमलपन लिए एक विशेष दिशा में चलती हैं। कई बड़े साहित्यकारों की तरह उन्होंने भी विषपान किया, नीलकंठ बने और खामोश रहे। विश्व साहित्य का यह तेजस्वी हस्ताक्षर आज भी पूरी दुनिया में स्नेह के साथ पढ़ा और सराहा जाता है।
बाहरी कड़ियाँ
(वेबदुनिया साहित्य)
श्रेणी:अंग्रेजी साहित्यकार | उपन्यासकार ऑस्कर वाइल्ड का जन्म कब हुआ था? | 15 अक्टूबर 1854 | 1,563 | hindi |
f59bde866 | Coordinates:
अक्साई चिन या अक्सेचिन (उईग़ुर: ur, सरलीकृत चीनी: 阿克赛钦, आकेसैचिन) चीन, पाकिस्तान और भारत के संयोजन में तिब्बती पठार के उत्तरपश्चिम में स्थित एक विवादित क्षेत्र है। यह कुनलुन पर्वतों के ठीक नीचे स्थित है।[1] ऐतिहासिक रूप से अक्साई चिन भारत को रेशम मार्ग से जोड़ने का ज़रिया था और भारत और हज़ारों साल से मध्य एशिया के पूर्वी इलाकों (जिन्हें तुर्किस्तान भी कहा जाता है) और भारत के बीच संस्कृति, भाषा और व्यापार का रास्ता रहा है। भारत से तुर्किस्तान का व्यापार मार्ग लद्दाख़ और अक्साई चिन के रास्ते से होते हुए काश्गर शहर जाया करता था।[2] १९५० के दशक से यह क्षेत्र चीन क़ब्ज़े में है पर भारत इस पर अपना दावा जताता है और इसे जम्मू और कश्मीर राज्य का उत्तर पूर्वी हिस्सा मानता है। अक्साई चिन जम्मू और कश्मीर के कुल क्षेत्रफल के पांचवें भाग के बराबर है। चीन ने इसे प्रशासनिक रूप से शिनजियांग प्रांत के काश्गर विभाग के कार्गिलिक ज़िले का हिस्सा बनाया है।
नाम की उत्पत्ति
'अक्साई चिन' (ur) का नाम उईग़ुर भाषा से आया है, जो एक तुर्की भाषा है। उईग़ुर में 'अक़' (ur) का मतलब 'सफ़ेद' होता है[3] और 'साई' (ur) का अर्थ 'घाटी' या 'नदी की वादी' होता है।[4] उईग़ुर का एक और शब्द 'चोअल' () है, जिसका अर्थ है 'वीराना' या 'रेगिस्तान', जिसका पुरानी ख़ितानी भाषा में रूप 'चिन' () था।[5][6] 'अक्साई चिन' के नाम का अर्थ 'सफ़ेद पथरीली घाटी का रेगिस्तान' निकलता है।[7] चीन की सरकार इस क्षेत्र पर अधिकार जतलाने के लिए 'चिन' का मतलब 'चीन का सफ़ेद रेगिस्तान' निकालती है, लेकिन अन्य लोग इसपर विवाद रखते हैं।
विवरण
अक्साई चिन एक बहुत ऊंचाई (लगभग ५,००० मीटर) पर स्थित एक नमक का मरुस्थल है। इसका क्षेत्रफल ४२,६८५ किमी² (१६,४८१ वर्ग मील) के आसपास है। भौगोलिक दृष्टि से अक्साई चिन तिब्बती पठार का भाग है और इसे 'खारा मैदान' भी कहा जाता है। यह क्षेत्र लगभग निर्जन है और यहां पर स्थायी बस्तियां नहीं है। इस क्षेत्र में 'अक्साई चिन' (अक्सेचिन) नाम की झील और 'अक्साई चिन' नाम की नदी है। यहां वर्षा और हिमपात ना के बराबर होता है क्योंकि हिमालय और अन्य पर्वत भारतीय मानसूनी हवाओं को यहां आने से रोक देते हैं।
भारत-चीन विवाद
चीन ने जब १९५० के दशक में तिब्बत पर क़ब्ज़ा किया तो वहाँ कुछ क्षेत्रों में विद्रोह भड़के जिनसे चीन और तिब्बत के बीच के मार्ग के कट जाने का ख़तरा बना हुआ था। चीन ने उस समय शिंजियांग-तिब्बत राजमार्ग का निर्माण किया जो अक्साई चिन से निकलता है और चीन को पश्चिमी तिब्बत से संपर्क रखने का एक और ज़रिया देता है। भारत को जब यह ज्ञात हुए तो उसने अपने इलाक़े को वापस लेने का यत्न किया। यह १९६२ के भारत-चीन युद्ध का एक बड़ा कारण बना। वह रेखा जो भारतीय कश्मीर के क्षेत्रों को अक्साई चिन से अलग करती है 'वास्तविक नियंत्रण रेखा' के रूप में जानी जाती है। अक्साई चिन भारत और चीन के बीच चल रहे दो मुख्य सीमा विवाद में से एक है। चीन के साथ अन्य विवाद अरुणाचल प्रदेश से संबंधित है।
इन्हें भी देखें
शिंजियांग-तिब्बत राजमार्ग
काश्गर विभाग
बाहरी जोड़
, यूट्यूब विडियो
, यूट्यूब विडियो
(प्रवक्ता)
सन्दर्भ
श्रेणी:अक्साई चिन
श्रेणी:स्वतंत्र भारत
श्रेणी:जम्मू और कश्मीर का इतिहास
श्रेणी:कश्मीर
श्रेणी:ख़ोतान विभाग
श्रेणी:शिंजियांग
श्रेणी:चीन के क्षेत्रीय विवाद
श्रेणी:भारत के क्षेत्रीय विवाद
श्रेणी:भारत-चीन युद्ध
श्रेणी:विवादित क्षेत्र
श्रेणी:हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना
श्रेणी:हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना परीक्षित लेख
श्रेणी:भारत के पारंपरिक क्षेत्र | अक्साई चिन का क्षेत्रफल लगभग कितने किमी(स्क्वायर) है? | ४२,६८५ | 1,492 | hindi |
3a6c412d2 | तत्वबोधिनी सभा की स्थापना देवेन्द्रनाथ ठाकुर ने कलकत्ता में 6 अक्टूबर, 1839 को की थी। इस सभा का उद्देश्य धार्मिक विषयों पर चिन्तन तथा उपनिषदों के सार का प्रसार करना था।
आरम्भ में इसका नाम 'तत्त्वरंजिनी सभा' था और यह ब्रह्म समाज से टूटकर अलग हुए कुछ लोगों द्वारा स्थापित एक संघ था। बाद में इसका मान तत्त्वबोधिनी सभा कर दिया गया। 1859 में पुनः इस सभा का विलय ब्रह्म समाज में कर दिया गया।
इन्हें भी देखें
देवेन्द्रनाथ ठाकुर
ब्रह्म समाज
तत्वबोधिनी पत्रिका
श्रेणी:भारत के धर्मसुधार आन्दोलन | 'तत्वबोधिनी सभा'' की स्थापना किसने की थी? | देवेन्द्रनाथ ठाकुर | 26 | hindi |
b766260e6 | एरिक एरिक्सन (Erik Homberger Erikson ; १५ जून १९०२ - १३ मार्च १९९४ ) एक अमेरिकी विकास मनोवैज्ञानिक एवं मनोविश्लेषक थे जिनका जन्म जर्मनी में हुआ था। वे अपने मनोसामाजिक विकास सिद्धान्त के लिये जाने जाते हैं।
जीवन परिचय
15 जून 1902 में पैदा हुआ था और वह एक जर्मन मूल के अमेरिकी विकास मनोवैज्ञानिक और मनोविश्लेषक मनुष्य के मनोसामाजिक विकास पर उनके सिद्धांत के लिए जाना जाता था। उन्होंने वाक्यांश पहचान के संकट को नाम देने के लिए सबसे प्रसिद्ध सकता है। उनके पुत्र, काई. टी. एरिक्सन, एक प्रख्यात अमेरिकी समाजशास्त्री है।
हालांकि एरिक्सन भी एक स्नातक की डिग्री कमी रह गई थी, वह इस तरह के हार्वर्ड और येल के रूप में प्रमुख संस्थानों में प्रोफेसर के रूप में कार्य किया। जनरल मनोविज्ञान सर्वेक्षण की समीक्षा, 2002 में प्रकाशित, 20 वीं सदी के 12 वें सबसे उद्धृत मनोचिकित्सक के रूप में एरिक्सन स्थान पर रहीं।
एरिक्सन की मां कार्ला एब्रएह्म्सन, कोपेनहेगन, डेनमार्क में एक प्रमुख यहूदी परिवार से आया है। वह यहूदी शेयर दलाल वलदेमार् इसीदोर सालोमोन्सेन् से शादी की थी, लेकिन कई महीनों के समय में एरिक कल्पना की थी के लिए उसके पास से बिछड़ गया था। लिटिल सिवाय इसके कि वह डेनमार्क के एक नास्तिक व्यक्ति था एरिक के जैविक पिता के बारे में जाना जाता है। उसकी गर्भावस्था की खोज पर, कार्ला फ्रैंकफर्ट, जर्मनी, जहां एरिक 15 जून, 1902 को पैदा हुआ था और सरनेम सालोमोन्सेन् दिया गया था के लिए भाग गए।
अनुभव
पहचान के विकास के लिए अपने स्वयं के जीवन में के रूप में अच्छी तरह से अपने सिद्धांत में एरिक्सन की सबसे बड़ी चिंताओं में से एक रहा है लगता है। एक पुराने वयस्क के रूप में, वह अपने किशोर "पहचान भ्रम" अपने यूरोपीय दिनों में के बारे में लिखा था। "मेरी पहचान भ्रम," उन्होंने लिखा था पर समय पर था, "न्युरोसिस और किशोर मानसिकता के बीच की सीमा रेखा।" एरिक्सन की बेटी लिखता है कि उसके पिता के 'असली मनो पहचान "स्थापित नहीं किया गया था जब तक कि वह" के नाम के साथ अपने सौतेले पिता के उपनाम [होमबर्गर] की जगह अपने ही आविष्कार [एरिक्सन]।
प्रमुख कार्य
प्रत्येक चरण के अनुकूल परिणाम कभी कभी "गुण," एरिक्सन के काम के संदर्भ में प्रयुक्त शब्द के रूप में जाना जाता है के रूप में यह चिकित्सा के लिए लागू किया जाता है, जिसका अर्थ है 'शक्ति। " एरिक्सन के शोध से पता चलता है कि प्रत्येक व्यक्ति को सीखना चाहिए एक दूसरे के साथ तनाव में प्रत्येक विशिष्ट जीवन-चरण चुनौती के दोनों चरम सीमाओं धारण करने के लिए कैसे, तनाव या अन्य के एक छोर नहीं खारिज। केवल जब एक जीवन-चरण चुनौती में दोनों चरम सीमाओं को समझा और स्वीकार किए जाते हैं दोनों के रूप में आवश्यक और उपयोगी है, कर सकते हैं कि मंच की सतह के लिए इष्टतम पुण्य। इस प्रकार, 'विश्वास' और 'गलत विश्वास' दोनों को समझा और यथार्थवादी 'आशा' पहले चरण में एक व्यवहार्य समाधान के रूप में उभरने के लिए आदेश में स्वीकार किए जाते हैं, किया जाना चाहिए। इसी तरह, 'ईमानदारी' और 'निराशा' दोनों को समझा और कार्रवाई 'ज्ञान' आखिरी चरण में एक व्यवहार्य समाधान के रूप में उभरने के लिए आदेश में गले लगा लिया, किया जाना चाहिए।
एरिक्सन जीवन चरण पुण्य, आठ चरणों में जो वे हासिल किया जा सकता है के क्रम में, कर रहे हैं:
१) आशा, बुनियादी ट्रस्ट बनाम बुनियादी अविश्वास-इस चरण में बचपन की अवधि, उम्र के 0-1 वर्ष है, जो जीवन का सबसे मौलिक चरण में है शामिल हैं। बच्चे बुनियादी विश्वास या अविश्वास बुनियादी विकसित चाहे पोषण का केवल एक मामला नहीं है। यह बहुआयामी है और मजबूत सामाजिक घटक हैं।
२)मर्जी, स्वायत्तता बनाम बचपन के आसपास 1-3 वर्ष शर्म-कवर। स्वायत्तता बनाम शर्म की बात है और शक की अवधारणा का परिचय। बच्चे को अपने या उसकी स्वतंत्रता की शुरुआत की खोज करने के लिए शुरू होता है, और माता पिता के बुनियादी कार्य कर रही के बच्चे की भावना की सुविधा चाहिए "सब खुद / खुद को।"
३)प्रयोजन, पहल बनाम अपराध-पूर्वस्कूली / 3-6 साल। बच्चे की क्षमता है या इस तरह उसे या खुद पोशाक के रूप में अपने दम पर बातें करते हैं, है ना? अगर "दोषी" अपने या अपने विकल्प बनाने के बारे में, बच्चे को अच्छी तरह से कार्य नहीं करेंगे।
४) क्षमता, उद्योग बनाम हीनता-स्कूल उम्र / 6-11 साल। बाल (एक कक्षा के वातावरण में के रूप में इस तरह के) स्वयं के लायक दूसरों की तुलना में। बाल व्यक्तिगत क्षमताओं के अन्य बच्चों के सापेक्ष में प्रमुख असमानताओं को पहचान सकते हैं।
५) फिडेलिटी, पहचान बनाम भूमिका भ्रम किशोर / 12-18 साल। स्वयं का सवाल उठाया। मैं कौन हूँ, मैं कैसे में फिट हो? कहाँ मैं जीवन में जा रहा हूँ? एरिक्सन का मानना है कि अगर माता पिता बच्चे का पता लगाने के लिए अनुमति देते हैं, वे उनकी खुद की पहचान समाप्त होगा।
६) प्यार, अंतरंगता बनाम अलगाव-यह वयस्क विकास का पहला चरण है। इस विकास आमतौर पर युवा वयस्कता, जो 18 35. डेटिंग करने की उम्र के बीच है के दौरान होता है, विवाह, परिवार और दोस्ती को अपने जीवन में चरण के दौरान महत्वपूर्ण हैं। सफलतापूर्वक अन्य लोगों के साथ प्रेम संबंधों के गठन करके, व्यक्तियों प्यार और आत्मीयता का अनुभव करने में सक्षम हैं। जो लोग असफल स्थायी संबंधों से अलग-थलग महसूस करते हैं और अकेले मई के लिए फार्म।
७) केयर, जेनरेतीविती बनाम ठहराव-वयस्कता के दूसरे चरण में 35-64 की उम्र के बीच होता है। इस समय के दौरान लोगों को सामान्य रूप से उनके जीवन में बसे हैं और जानते हैं कि क्या उनके लिए महत्वपूर्ण है कर रहे हैं।
८)बुद्धि, अहंकार अखंडता बनाम निराशा-इस चरण में 65 और पर के आयु वर्ग को प्रभावित करता है। इस समय के दौरान एक व्यक्ति को अपने जीवन में अंतिम अध्याय तक पहुँच गया है और सेवानिवृत्ति के करीब पहुंच रहा है या पहले से ही जगह ले ली है।
श्रेणी:मनोवैज्ञानिक | एरिक एरिक्सन का जन्म कब हुआ था? | १५ जून १९०२ | 39 | hindi |
e51cd0595 | कर्नाटक (Kannada: ಕರ್ನಾಟಕ), जिसे कर्णाटक भी कहते हैं, दक्षिण भारत का एक राज्य है। इस राज्य का गठन १ नवंबर, १९५६ को राज्य पुनर्गठन अधिनियम के अधीन किया गया था। पहले यह मैसूर राज्य कहलाता था। १९७३ में पुनर्नामकरण कर इसका नाम कर्नाटक कर दिया गया। इसकी सीमाएं पश्चिम में अरब सागर, उत्तर पश्चिम में गोआ, उत्तर में महाराष्ट्र, पूर्व में आंध्र प्रदेश, दक्षिण-पूर्व में तमिल नाडु एवं दक्षिण में केरल से लगती हैं। इसका कुल क्षेत्रफल ७४,१२२ वर्ग मील (१,९१,९७६कि॰मी॰²) है, जो भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र का ५.८३% है। २९ जिलों के साथ यह राज्य आठवां सबसे बड़ा राज्य है। राज्य की आधिकारिक और सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है कन्नड़।
कर्नाटक शब्द के उद्गम के कई व्याख्याओं में से सर्वाधिक स्वीकृत व्याख्या यह है कि कर्नाटक शब्द का उद्गम कन्नड़ शब्द करु, अर्थात काली या ऊंची और नाडु अर्थात भूमि या प्रदेश या क्षेत्र से आया है, जिसके संयोजन करुनाडु का पूरा अर्थ हुआ काली भूमि या ऊंचा प्रदेश। काला शब्द यहां के बयालुसीम क्षेत्र की काली मिट्टी से आया है और ऊंचा यानि दक्कन के पठारी भूमि से आया है। ब्रिटिश राज में यहां के लिये कार्नेटिक शब्द का प्रयोग किया जाता था, जो कृष्णा नदी के दक्षिणी ओर की प्रायद्वीपीय भूमि के लिये प्रयुक्त है और मूलतः कर्नाटक शब्द का अपभ्रंश है।[1]
प्राचीन एवं मध्यकालीन इतिहास देखें तो कर्नाटक क्षेत्र कई बड़े शक्तिशाली साम्राज्यों का क्षेत्र रहा है। इन साम्राज्यों के दरबारों के विचारक, दार्शनिक और भाट व कवियों के सामाजिक, साहित्यिक व धार्मिक संरक्षण में आज का कर्नाटक उपजा है। भारतीय शास्त्रीय संगीत के दोनों ही रूपों, कर्नाटक संगीत और हिन्दुस्तानी संगीत को इस राज्य का महत्त्वपूर्ण योगदान मिला है। आधुनिक युग के कन्नड़ लेखकों को सर्वाधिक ज्ञानपीठ सम्मान मिले हैं।[2] राज्य की राजधानी बंगलुरु शहर है, जो भारत में हो रही त्वरित आर्थिक एवं प्रौद्योगिकी का अग्रणी योगदानकर्त्ता है।
इतिहास
कर्नाटक का विस्तृत इतिहास है जिसने समय के साथ कई करवटें बदलीं हैं।[3] राज्य का प्रागैतिहास पाषाण युग तक जाता है तथा इसने कई युगों का विकास देखा है। राज्य में मध्य एवं नव पाषाण युगों के साक्ष्य भी पाये गए हैं। हड़प्पा में खोजा गया स्वर्ण कर्नाटक की खानों से निकला था, जिसने इतिहासकारों को ३००० ई.पू के कर्नाटक और सिंधु घाटी सभ्यता के बीच संबंध खोजने पर विवश किया।[4][5]
तृतीय शताब्दी ई.पू से पूर्व, अधिकांश कर्नाटक राज्य मौर्य वंश के सम्राट अशोक के अधीन आने से पहले नंद वंश के अधीन रहा था। सातवाहन वंश को शासन की चार शताब्दियां मिलीं जिनमें उन्होंने कर्नाटक के बड़े भूभाग पर शासन किया। सातवाहनों के शासन के पतन के साथ ही स्थानीय शासकों कदंब वंश एवं पश्चिम गंग वंश का उदय हुआ। इसके साथ ही क्षेत्र में स्वतंत्र राजनैतिक शक्तियां अस्तित्त्व में आयीं। कदंब वंश की स्थापना मयूर शर्मा ने ३४५ ई. में की और अपनी राजधानी बनवासी में बनायी;[6][7] एवं पश्चिम गंग वंश की स्थापना कोंगणिवर्मन माधव ने ३५० ई में तालकाड़ में राजधानी के साथ की।[8][9]
हाल्मिदी शिलालेख एवं बनवसी में मिले एक ५वीं शताब्दी की ताम्र मुद्रा के अनुसार ये राज्य प्रशासन में कन्नड़ भाषा प्रयोग करने वाले प्रथम दृष्टांत बने[10][11] इन राजवंशों के उपरांत शाही कन्नड़ साम्राज्य बादामी चालुक्य वंश,[12][13] मान्यखेत के राष्ट्रकूट,[14][15] और पश्चिमी चालुक्य वंश[16][17] आये जिन्होंने दक्खिन के बड़े भाग पर शासन किया और राजधानियां वर्तमान कर्नाटक में बनायीं। पश्चिमी चालुक्यों ने एक अनोखी चालुक्य स्थापत्य शैली भी विकसित की। इसके साथही उन्होंने कन्नड़ साहित्य का भी विकास किया जो आगे चलकर १२वीं शताब्दी में होयसाल वंश के कला व साहित्य योगदानों का आधार बना।[18][19]
आधुनिक कर्नाटक के भागों पर ९९०-१२१० ई. के बीच चोल वंश ने अधिकार किया।[20] अधिकरण की प्रक्रिया का आरंभ राजराज चोल १ (९८५-१०१४) ने आरंभ किया और ये काम उसके पुत्र राजेन्द्र चोल १ (१०१४-१०४४) के शासन तक चला।[20] आरंभ में राजराज चोल १ ने आधुनिक मैसूर के भाग "गंगापाड़ी, नोलंबपाड़ी एवं तड़िगैपाड़ी' पर अधिकार किया। उसने दोनूर तक चढ़ाई की और बनवसी सहित रायचूर दोआब के बड़े भाग तथा पश्चिमी चालुक्य राजधानी मान्यखेत तक हथिया ली।[20] चालुक्य शासक जयसिंह की राजेन्द्र चोल १ के द्वारा हार उपरांत, तुंगभद्रा नदी को दोनों राज्यों के बीच की सीमा तय किया गया था।[20] राजाधिराज चोल १ (१०४२-१०५६) के शासन में दन्नड़, कुल्पाक, कोप्पम, काम्पिल्य दुर्ग, पुण्डूर, येतिगिरि एवं चालुक्य राजधानी कल्याणी भी छीन ली गईं।[20] १०५३ में, राजेन्द्र चोल २ चालुक्यों को युद्ध में हराकर कोल्लापुरा पहुंचा और कालंतर में अपनी राजधानी गंगाकोंडचोलपुरम वापस पहुंचने से पूर्व वहां एक विजय स्मारक स्तंभ भी बनवाया।[21] १०६६ में पश्चिमी चालुक्य सोमेश्वर की सेना अगले चोल शासक वीरराजेन्द्र से हार गयीं। इसके बाद उसी ने दोबारा पश्चिमी चालुक्य सेना को कुदालसंगम पर मात दी और तुंगभद्रा नदी के तट पर एक विजय स्मारक की स्थापनी की।[21] १०७५ में कुलोत्तुंग चोल १ ने कोलार जिले में नांगिली में विक्रमादित्य ६ को हराकर गंगवाड़ी पर अधिकार किया।[22] चोल साम्राज्य से १११६ में गंगवाड़ी को विष्णुवर्धन के नेतृत्व में होयसालों ने छीन लिया।[20]
प्रथम सहस्राब्दी के आरंभ में ही होयसाल वंश का क्षेत्र में पुनरोद्भव हुआ। इसी समय होयसाल साहित्य पनपा साथ ही अनुपम कन्नड़ संगीत और होयसाल स्थापत्य शैली के मंदिर आदि बने।[23][24][25][26] होयसाल साम्राज्य ने अपने शासन के विस्तार के तहत आधुनिक आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु के छोटे भागों को विलय किया। १४वीं शताब्दी के आरंभ में हरिहर और बुक्का राय ने विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की एवं वर्तमान बेल्लारी जिले में तुंगभद्रा नदी के तट होसनपट्ट (बाद में विजयनगर) में अपनी राजधानी बसायी। इस साम्राज्य ने अगली दो शताब्दियों में मुस्लिम शासकों के दक्षिण भारत में विस्तार पर रोक लगाये रखी।[27][28]
१५६५ में समस्त दक्षिण भारत सहित कर्नाटक ने एक बड़ा राजनैतिक बदलाव देख, जिसमें विजयनगर साम्राज्य तालिकोट के युद्ध में हार के बाद इस्लामी सल्तनतों के अधीन हो गया।[29] बीदर के बहमनी सुल्तान की मृत्यु उपरांत उदय हुए बीजापुर सल्तनत ने जल्दी ही दक्खिन पर अधिकार कर लिया और १७वीं शताब्दी के अंत में मुगल साम्राज्य से मात होने तक बनाये रखा।[30][31] बहमनी और बीजापुर के शसकों ने उर्दू एवं फारसी साहित्य तथा भारतीय पुनरोद्धार स्थापत्यकला (इण्डो-सैरेसिनिक) को बढ़ावा दिया। इस शैली का प्रधान उदाहरण है गोल गुम्बज[32] पुर्तगाली शासन द्वारा भारी कर वसूली, खाद्य आपूर्ति में कमी एवं महामारियों के कारण १६वीं शताब्दी में कोंकणी हिन्दू मुख्यतः सैल्सेट, गोआ से विस्थापित होकर]],[33] कर्नाटक में आये और १७वीं तथा १८वीं शताब्दियों में विशेषतः बारदेज़, गोआ से विस्थापित होकर मंगलौरियाई कैथोलिक ईसाई दक्षिण कन्नड़ आकर बस गये।[34]
भूगोल
कर्नाटक राज्य में तीन प्रधान मंडल हैं: तटीय क्षेत्र करावली, पहाड़ी क्षेत्र मालेनाडु जिसमें पश्चिमी घाट आते हैं, तथा तीसरा बयालुसीमी क्षेत्र जहां दक्खिन पठार का क्षेत्र है। राज्य का अधिकांश क्षेत्र बयालुसीमी में आता है और इसका उत्तरी क्षेत्र भारत का सबसे बड़ा शुष्क क्षेत्र है।[35] कर्नाटक का सबसे ऊंचा स्थल चिकमंगलूर जिले का मुल्लयनगिरि पर्वत है। यहां की समुद्र सतह से ऊंचाई है। कर्नाटक की महत्त्वपूर्ण नदियों में कावेरी, तुंगभद्रा नदी, कृष्णा नदी, मलयप्रभा नदी और शरावती नदी हैं।
कृषि हेतु योग्यता के अनुसार यहां की मृदा को छः प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है: लाल, लैटेरिटिक, काली, ऍल्युवियो-कोल्युविलय एवं तटीय रेतीली मिट्टी। राज्य में चार प्रमुख ऋतुएं आती हैं। जनवरी और फ़रवरी में शीत ऋतु, उसके बाद मार्च-मई तक ग्रीष्म ऋतु, जिसके बाद जून से सितंबर तक वर्षा ऋतु (मॉनसून) और अंततः अक्टूबर से दिसम्बर पर्यन्त मॉनसूनोत्तर काल। मौसम विज्ञान के आधार पर कर्नाटक तीन क्षेत्रों में बांटा जा सकता है: तटीय, उत्तरी आंतरिक और दक्षिणी आंतरिक क्षेत्र। इनमें से तटीय क्षेत्र में सर्वाधिक वर्षा होती है, जिसका लगभग प्रतिवर्ष है, जो राज्य के वार्षिक औसत से कहीं अधिक है। शिमोगा जिला में अगुम्बे भारत में दूसरा सर्वाधिक वार्षिक औसत वर्षा पाने वाला स्थल है।[36] द्वारा किया गया है। यहां का सर्वाधिक अंकित तापमान ४५.६ ° से. (११४ °फ़ै.) रायचूर में तथा न्यूनतम तापमान बीदर में नापा गया है।
कर्नाटक का लगभग (राज्य के भौगोलिक क्षेत्र का २०%) वनों से आच्छादित है। ये वन संरक्षित, सुरक्षित, खुले, ग्रामीण और निजी वनों में वर्गीकृत किये जा सकते हैं। यहां के वनाच्छादित क्षेत्र भारत के औसत वनीय क्षेत्र २३% से कुछ ही कम हैं, किन्तु राष्ट्रीय वन नीति द्वारा निर्धारित ३३% से कहीं कम हैं।[37]
उप-मंडल
कर्नाटक राज्य में ३० जिले हैं —बागलकोट, बंगलुरु ग्रामीण,
बंगलुरु शहरी, बेलगाम, बेल्लारी, बीदर, बीजापुर, चामराजनगर, चिकबल्लपुर,[38] चिकमंगलूर, चित्रदुर्ग, दक्षिण कन्नड़, दावणगिरि, धारवाड़, गडग, गुलबर्ग, हसन, हवेरी, कोडगु, कोलार, कोप्पल, मांड्या, मैसूर, रायचूर, रामनगर,[38] शिमोगा, तुमकुर, उडुपी, उत्तर कन्नड़ एवं यादगीर। प्रत्येक जिले का प्रशासन एक जिलाधीश या जिलायुक्त के अधीन होता है। ये जिले फिर उप-क्षेत्रों में बंटे हैं, जिनका प्रशासन उपजिलाधीश के अधीन है। उप-जिले ब्लॉक और पंचायतों तथा नगरपालिकाओं द्वारा देखे जाते हैं।
२००१ की जनगणना के आंकड़ों से ज्ञात होता है कि जनसंख्यानुसार कर्नाटक के शहरों की सूची में सर्वोच्च छः नगरों में बंगलुरु, हुबली-धारवाड़, मैसूर, गुलबर्ग, बेलगाम एवं मंगलौर आते हैं। १० लाख से अधिक जनसंख्या वाले महानगरों में मात्र बंगलुरु ही आता है। बंगलुरु शहरी, बेलगाम एवं गुलबर्ग सर्वाधिक जनसंख्या वाले जिले हैं। प्रत्येक में ३० लाख से अधिक जनसंख्या है। गडग, चामराजनगर एवं कोडगु जिलों की जनसंख्या १० लाख से कम है।[39]
जनसांख्यिकी
२००१ की भारतीय जनगणना के अनुसार, कर्नाटक की कुल जनसंख्या ५२,८५०,५६२ है, जिसमें से २६,८९८,९१८ (५०.८९%) पुरुष और २५,९५१,६४४ स्त्रियां (४३.११%) हैं। यानि प्रत्येक १००० पुरुष ९६४ स्त्रियां हैं। इसके अनुसार १९९१ की जनसंख्या में १७.२५% की वृद्धि हुई है। राज्य का जनसंख्या घनत्व २७५.६ प्रति वर्ग कि.मी है और ३३.९८% लोग शहरी क्षेत्रों में रहते हैं। यहां की साक्षरता दर ६६.६% है, जिसमें ७६.१% पुरुष और ५६.९% स्त्रियां साक्षर हैं।[40] यहां की कुल जनसंख्या का ८३% हिन्दू हैं और १३% मुस्लिम, २% ईसाई, ०.७८% जैन, ०.३% बौद्ध और शेष लोग अन्य धर्मावलंबी हैं।[41]
कर्नाटक की आधिकारिक भाषा कन्नड़ है और स्थानीय भाषा के रूप में ६४.७५% लोगों द्वारा बोली जाती है। १९९१ के अनुसार अन्य भाषायी अल्पसंख्यकों में उर्दु (१०.५४ %), तेलुगु (७.०३ %), तमिल (३.५७ %), मराठी (३.६० %), तुलु (३.०० %), हिन्दी (२.५६ %), कोंकणी (१.४६ %), मलयालम (१.३३ %) और कोडव तक्क भाषी ०.३ % हैं।[42] राज्य की जन्म दर २.२% और मृत्यु दर ०.७२% है। इसके अलावा शिशु मृत्यु (मॉर्टैलिटी) दर ५.५% एवं मातृ मृत्यु दर ०.१९५% है। कुल प्रजनन (फर्टिलिटी) दर २.२ है।[43]
स्वास्थ्य एवं आरोग्य के क्षेत्र (सुपर स्पेशियलिटी हैल्थ केयर) में कर्नाटक की निजी क्षेत्र की कंपनियां विश्व की सर्वश्रेष्ठ संस्थाओं से तुलनीय हैं।[44] कर्नाटक में उत्तम जन स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध हैं, जिनके आंकड़े व स्थिति भारत के अन्य अधिकांश राज्यों की तुलना में काफी बेहतर है। इसके बावजूद भी राज्य के कुछ अति पिछड़े इलाकों में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव है।[45]
प्रशासनिक उद्देश्य हेतु, कर्नाटक को चार रेवेन्यु मंडलों, ४९ उप-मंडलों, २९ जिलों, १७५ तालुकों और ७४५ होब्लीज़/रेवेन्यु वृत्तों में बांटा गया है।[46] प्रत्येक जिला प्रशासन का अध्यक्ष जिला उपायुक्त होता है, जो भारतीय प्रशासनिक सेवा (आई.ए.एस) से होता है और उसके अधीन कर्नाटक राज्य सेवाओं के अनेक अधिकारीगण होते हैं। राज्य के न्याय और कानून व्यवस्था का उत्तरदायित्व पुलिस उपायुक्त पर होता है। ये भारतीय पुलिस सेवा का अधिकारी होता है, जिसके अधीन कर्नाटक राज्य पुलिस सेवा के अधिकारीगण कार्यरत होते हैं। भारतीय वन सेवा से वन उपसंरक्षक अधिकारी तैनात होता है, जो राज्य के वन विभाग की अध्यक्षता करता है। जिलों के सर्वांगीण विकास, प्रत्येक जिले के विकास विभाग जैसे लोक सेवा विभाग, स्वास्थ्य, शिक्षा, कृषि, पशु-पालन, आदि विभाग देखते हैं। राज्य की न्यायपालिका बंगलुरु में स्थित कर्नाटक उच्च न्यायालय (अट्टार कचेरी) और प्रत्येक जिले में जिले और सत्र न्यायालय तथा तालुक स्तर के निचले न्यायालय के द्वारा चलती है।
सरकार एवं प्रशासन
कर्नाटक राज्य में भारत के अन्य राज्यों कि भांति ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया द्वारा चुनी गयी एक द्विसदनीय संसदीय सरकार है: विधान सभा एवं विधान परिषद। विधान सभा में २४ सदस्य हैं जो पांच वर्ष की अवधि हेतु चुने जाते हैं।[47] विधान परिषद एक ७५ सदस्यीय स्थायी संस्था है और इसके एक-तिहाई सदस्य (२५) प्रत्येक २ वर्ष में सेवा से निवृत्त होते जाते हैं।[47]
कर्नाटक सरकार की अध्यक्षता विधान सभा चुनावों में जीतकर शासन में आयी पार्टी के सदस्य द्वारा चुने गये मुख्य मंत्री करते हैं। मुख्य मंत्री अपने मंत्रिमंडल सहित तय किये गए विधायी एजेंडा का पालन अपनी अधिकांश कार्यकारी शक्तियों के उपयोग से करते हैं।[48] फिर भी राज्य का संवैधानिक एवं औपचारिक अध्यक्ष राज्यपाल ही कहलाता है। राज्यपाल को ५ वर्ष की अवधि हेतु केन्द्र सरकार के परामर्श से भारत के राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है।[49] कर्नाटक राज्य की जनता द्वारा आम चुनावों के माध्यम से २८ सदस्य लोक सभा हेतु भी चुने जाते हैं।[50][51] विधान परिषद के सदस्य भारत के संसद के उच्च सदन, राज्य सभा हेतु १२ सदस्य चुन कर भेजते हैं।
प्रशासनिक सुविधा हेतु कर्नाटक राज्य को चार राजस्व विभागों, ४९ उप-मंडलों, २९ जिलों, १७५ तालुक तथा ७४५ राजस्व वृत्तों में बांटा गया है।[46] प्रत्येक जिले के प्रशासन का अध्यक्ष वहां का उपायुक्त (डिप्टी कमिश्नर) होता है। उपायुक्त एक भारतीय प्रशासनिक सेवा का अधिकारी होता है तथा उसकी सहायता हेतु राज्य सरकार के अनेक उच्चाधिकारी तत्पर रहते हैं। भारतीय पुलिस सेवा से एक अधिकारी राज्य में उपायुक्त पद पर आसीन रहता है। उसके अधीन भी राज्य पुलिस सेवा के अनेक उच्चाधिकारी तत्पर रहते हैं। पुलिस उपायुक्त जिले में न्याय और प्रशासन संबंधी देखभाल के लिये उत्तरदायी होता है। भारतीय वन सेवा से एक अधिकारी वन उपसंक्षक अधिकारी (डिप्टी कन्ज़र्वेटर ऑफ फ़ॉरेस्ट्स) के पद पर तैनात होता है। ये जिले में वन और पादप संबंधी मामलों हेतु उत्तरदायी रहता है। प्रत्येक विभाग के विकास अनुभाग के जिला अधिकारी राज्य में विभिन्न प्रकार की प्रगति देखते हैं, जैसे राज्य लोक सेवा विभाग, स्वास्थ्य, शिक्षा, कृषि, पशुपालन आदि। ] बीच में बना है। इसके ऊपर घेरे हुए चार सिंह चारों दिशाओं में देख रहे हैं। इसे सारनाथ में अशोक स्तंभ से लिया गया है। इस चिह्न में दो शरभ हैं, जिनके हाथी के सिर और सिंह के धड़ हैं।]]
राज्य की न्यायपालिका में सर्वोच्च पीठ कर्नाटक उच्च न्यायालय है, जिसे स्थानीय लोग "अट्टार कचेरी" बुलाते हैं। ये राजधानी बंगलुरु में स्थित है। इसके अधीन जिला और सत्र न्यायालय प्रत्येक जिले में तथा निम्न स्तरीय न्यायालय ताल्लुकों में कार्यरत हैं।
में गंद बेरुंड बीच में बना है। इसके ऊपर घेरे हुए चार सिंह चारों दिशाओं में देख रहे हैं। इसे सारनाथ में अशोक स्तंभ से लिया गया है। इस चिह्न में दो शरभ हैं, जिनके हाथी के सिर और सिंह के धड़ हैं। कर्नाटक की राजनीति में मुख्यतः तीन राजनैतिक पार्टियों: भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी और जनता दल का ही वर्चस्व रहता है।[52] कर्नाटक के राजनीतिज्ञों ने भारत की संघीय सरकार में प्रधानमंत्री तथा उपराष्ट्रपति जैसे उच्च पदों की भी शोभा बढ़ायी है। वर्तमान संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यू.पी.ए सरकार में भी तीन कैबिनेट स्तरीय मंत्री कर्नाटक से हैं। इनमें से उल्लेखनीय हैं पूर्व मुख्यमंत्री एवं वर्तमान क़ानून एवं न्याय मंत्रालय – वीरप्पा मोइली हैं। राज्य के कासरगोड[53] और शोलापुर[54] जिलों पर तथा महाराष्ट्र के बेलगाम पर दावे के विवाद राज्यों के पुनर्संगठन काल से ही चले आ रहे हैं।[55]
अर्थव्यवस्था
कर्नाटक राज्य का वर्ष २००७-०८ का सकल राज्य घरेलु उत्पाद लगभग २१५.२८२ हजार करोड़ ($ ५१.२५ बिलियन) रहा।[56] २००७-०८ में इसके सकल घरेलु उत्पाद में ७% की वृद्धी हुई थी।[57] भारत के राष्ट्रीय सकल घरेलु उत्पाद में वर्ष २००४-०५ में इस राज्य का योगदान ५.२% रहा था।[58]
कर्नाटक पिछले कुछ दशकों में जीडीपी एवं प्रति व्यक्ति जीडीपी के पदों में तीव्रतम विकासशील राज्यों में रहा है। यह ५६.२% जीडीपी और ४३.९% प्रति व्यक्ति जीडीपी के साथ भारतीय राज्यों में छठे स्थान पर आता है।[59] सितंबर, २००६ तक इसे वित्तीय वर्ष २००६-०७ के लिये ७८.०९७ बिलियन ($ १.७२५५ बिलियन) का विदेशी निवेश प्राप्त हुआ था, जिससे राज्य भारत के अन्य राज्यों में तीसरे स्थान पर था।[60] वर्ष २००४ के अंत तक, राज्य में अनुद्योग दर (बेरोजगार दर) ४.९४% थी, जो राष्ट्रीय अनुद्योग दर ५.९९% से कम थी।[61] वित्तीय वर्ष २००६-०७ में राज्य की मुद्रा स्फीति दर ४.४% थी, जो राष्ट्रीय दर ४.७% से थोड़ी कम थी।[62] वर्ष २००४-०५ में राज्य का अनुमानित गरीबी अनुपात १७% रहा, जो राष्ट्रीय अनुपात २७.५% से कहीं नीचे है।[63]
कर्नाटक की लगभग ५६% जनसंख्या कृषि और संबंधित गतिविधियों में संलग्न है।[64] राज्य की कुल भूमि का ६४.६%, यानि १.२३१ करोड़ हेक्टेयर भूमि कृषि कार्यों में संलग्न है।[65] यहाँ के कुल रोपित क्षेत्र का २६.५% ही सिंचित क्षेत्र है। इसलिए यहाँ की अधिकांश खेती दक्षिण-पश्चिम मानसून पर निर्भर है।[65] यहाँ भारत के सार्वजनिक क्षेत्र के अनेक बड़े उद्योग स्थापित किए गए हैं, जैसे हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड, नेशनल एरोस्पेस लैबोरेटरीज़, भारत हैवी एलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड, इंडियन टेलीफोन इंडस्ट्रीज़, भारत अर्थ मूवर्स लिमिटेड एवं हिन्दुस्तान मशीन टूल्स आदि जो बंगलुरु में ही स्थित हैं। यहाँ भारत के कई प्रमुख विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी अनुसंधान केन्द्र भी हैं, जैसे भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन, केन्द्रीय विद्युत अनुसंधान संस्थान, भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड एवं केन्द्रीय खाद्य प्रौद्योगिकी अनुसंधान संस्थान। मैंगलोर रिफाइनरी एंड पेट्रोकैमिकल्स लिमिटेड, मंगलोर में स्थित एक तेल शोधन केन्द्र है।
१९८० के दशक से कर्नाटक (विशेषकर बंगलुरु) सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विशेष उभरा है। वर्ष २००७ के आंकड़ों के अनुसार कर्नाटक से लगभग २००० आई.टी फर्म संचालित हो रही थीं। इनमें से कई के मुख्यालय भी राज्य में ही स्थित हैं, जिनमें दो सबसे बड़ी आई.टी कंपनियां इन्फोसिस और विप्रो हैं।[66] इन संस्थाओं से निर्यात रु. ५०,००० करोड़ (१२.५ बिलियन) से भी अधिक पहुंचा है, जो भारत के कुल सूचना प्रौद्योगिकी निर्यात का ३८% है।[66] देवनहल्ली के बाहरी ओर का नंदी हिल क्षेत्र में ५० वर्ग कि.मी भाग, आने वाले २२ बिलियन के ब्याल आईटी निवेश क्षेत्र की स्थली है। ये कर्नाटक की मूल संरचना इतिहास की अब तक की सबसे बड़ी परियोजना है।[67] इन सब कारणों के चलते ही बंगलौर को भारत की सिलिकॉन घाटी कहा जाने लगा है।[68]
भारत में कर्नाटक जैवप्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी अग्रणी है। यह भारत के सबसे बड़े जैव आधारित उद्योग समूह का केन्द्र भी है। यहां देश की ३२० जैवप्रौद्योगिकी संस्थाओं व कंपनियों में से १५८ स्थित हैं।[69] इसी राज्य से भारत के कुल पुष्प-उद्योग का ७५% योगदान है। पुष्प उद्योग तेजी से उभरता और फैलता उद्योग है, जिसमें विश्व भर में सजावटी पौधे और फूलों की आपूर्ति की जाती है।[70]
भारत के अग्रणी बैंकों में से सात बैंकों, केनरा बैंक, सिंडिकेट बैंक, कार्पोरेशन बैंक, विजया बैंक, कर्नाटक बैंक, वैश्य बैंक और स्टेट बैंक ऑफ मैसूर का उद्गम इसी राज्य से हुआ था।[71] राज्य के तटीय जिलों उडुपी और दक्षिण कन्नड़ में प्रति ५०० व्यक्ति एक बैंक शाखा है। ये भारत का सर्वश्रेष्ठ बैंक वितरण है।[72] मार्च २००२ के अनुसार, कर्नाटक राज्य में विभिन्न बैंकों की ४७६७ शाखाएं हैं, जिनमें से प्रत्येक शाखा औसत ११,००० व्यक्तियों की सेवा करती है। ये आंकड़े राष्ट्रीय औसत १६,००० से काफी कम है।[73]
भारत के ३५०० करोड़ के रेशम उद्योग से अधिकांश भाग कर्नाटक राज्य में आधारित है, विशेषकर उत्तरी बंगलौर क्षेत्रों जैसे मुद्दनहल्ली, कनिवेनारायणपुरा एवं दोड्डबल्लपुर, जहां शहर का ७० करोड़ रेशम उद्योग का अंश स्थित है। यहां की बंगलौर सिल्क और मैसूर सिल्क विश्वप्रसिद्ध हैं।[74][75]
यातायात
कर्नाटक में वायु यातायात देश के अन्य भागों की तरह ही बढ़ता हुआ किंतु कहीं उन्नत है। कर्नाटक राज्य में बंगलुरु, मंगलौर, हुबली, बेलगाम, हम्पी एवं बेल्लारी विमानक्षेत्र में विमानक्षेत्र हैं, जिनमें बंगलुरु एवं मंगलौर अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र हैं। मैसूर, गुलबर्ग, बीजापुर, हस्सन एवं शिमोगा में भी २००७ से प्रचालन कुछ हद तक आरंभ हुआ है।[76] यहां चालू प्रधान वायुसेवाओं में किंगफिशर एयरलाइंस एवं एयर डेक्कन हैं, जो बंगलुरु में आधारित हैं।
कर्नाटक का रेल यातायात जाल लगभग 3,089 kilometres (1,919mi) लंबा है। २००३ में हुबली में मुख्यालय सहित दक्षिण पश्चिमी रेलवे के सृजन से पूर्व राज्य दक्षिणी एवं पश्चिमी रेलवे मंडलों में आता था। अब राज्य के कई भाग दक्षिण पश्चिमी मंडल में आते हैं, व शेष भाग दक्षिण रेलवे मंडल में आते हैं। तटीय कर्नाटक के भाग कोंकण रेलवे नेटवर्क के अंतर्गत आते हैं, जिसे भारत में इस शताब्दी की सबसे बड़ी रेलवे परियोजना के रूप में देखा गया है।[77] बंगलुरु अन्तर्राज्यीय शहरों से रेल यातायात द्वारा भली-भांति जुड़ा हुआ है। राज्य के अन्य शहर अपेक्षाकृत कम जुड़े हैं।[78][79]
कर्नाटक में ११ जहाजपत्तन हैं, जिनमें मंगलौर पोर्ट सबसे नया है, जो अन्य दस की अपेक्षा सबसे बड़ा और आधुनिक है।[80] मंगलौर का नया पत्तन भारत के नौंवे प्रधान पत्तन के रूप में ४ मई, १९७४ को राष्ट्र को सौंपा गया था। इस पत्तन में वित्तीय वर्ष २००६-०७ में ३ करोड़ २०.४ लाख टन का निर्यात एवं १४१.२ लाख टन का आयात व्यापार हुआ था। इस वित्तीय वर्ष में यहां कुल १०१५ जलपोतों की आवाजाही हुई, जिसमें १८ क्यूज़ पोत थे। राज्य में अन्तर्राज्यीय जलमार्ग उल्लेखनीय स्तर के विकसित नहीं हैं।[81]
कर्नाटक के राष्ट्रीय एवं राज्य राजमार्गों की कुल लंबाइयां क्रमशः 3,973 kilometres (2,469mi) एवं 9,829 kilometres (6,107mi) हैं। कर्नाटक राज्य सड़क परिवहन निगम (के.एस.आर.टी.सी) राज्य का सरकारी लोक यातायात एवं परिवहन निगम है, जिसके द्वारा प्रतिदिन लगभग २२ लाख यात्रियों को परिवहन सुलभ होता है। निगम में २५,००० कर्मचारी सेवारत हैं।[82] १९९० के दशक के अंतिम दौर में निगम को तीन निगमों में विभाजित किया गया था, बंगलौर मेट्रोपॉलिटन ट्रांस्पोर्ट कार्पोरेशन, नॉर्थ-वेस्ट कर्नाटक ट्रांस्पोर्ट कार्पोरेशन एवं नॉर्थ-ईस्ट कर्नाटक ट्रांस्पोर्ट कार्पोरेशन। इनके मुख्यालय क्रमशः बंगलौर, हुबली एवं गुलबर्ग में स्थित हैं।[82]
संस्कृति
कर्नाटक राज्य में विभिन्न बहुभाषायी और धार्मिक जाति-प्रजातियां बसी हुई हैं। इनके लंबे इतिहास ने राज्य की सांस्कृतिक धरोहर में अमूल्य योगदान दिया है। कन्नड़िगों के अलावा, यहां तुलुव, कोडव और कोंकणी जातियां, भी बसी हुई हैं। यहां अनेक अल्पसंख्यक जैसे तिब्बती बौद्ध तथा अनेक जनजातियाँ जैसे सोलिग, येरवा, टोडा और सिद्धि समुदाय हैं जो राज्य में भिन्न रंग घोलते हैं। कर्नाटक की परंपरागत लोक कलाओं में संगीत, नृत्य, नाटक, घुमक्कड़ कथावाचक आदि आते हैं। मालनाड और तटीय क्षेत्र के यक्षगण, शास्त्रीय नृत्य-नाटिकाएं राज्य की प्रधान रंगमंच शैलियों में से एक हैं। यहां की रंगमंच परंपरा अनेक सक्रिय संगठनों जैसे निनासम, रंगशंकर, रंगायन एवं प्रभात कलाविदरु के प्रयासों से जीवंत है। इन संगठनों की आधारशिला यहां गुब्बी वीरन्ना, टी फी कैलाशम, बी वी करंथ, के वी सुबन्ना, प्रसन्ना और कई अन्य द्वारा रखी गयी थी।[83] वीरागेस, कमसेल, कोलाट और डोलुकुनिता यहां की प्रचलित नृत्य शैलियां हैं। मैसूर शैली के भरतनाट्य यहां जत्ती तयम्मा जैसे पारंगतों के प्रयासों से आज शिखर पर पहुंचा है और इस कारण ही कर्नाटक, विशेषकर बंगलौर भरतनाट्य के लिये प्रधान केन्द्रों में गिना जाता है।[84]
कर्नाटक का विश्वस्तरीय शास्त्रीय संगीत में विशिष्ट स्थान है, जहां संगीत की[85] कर्नाटक (कार्नेटिक) और हिन्दुस्तानी शैलियां स्थान पाती हैं। राज्य में दोनों ही शैलियों के पारंगत कलाकार हुए हैं। वैसे कर्नाटक संगीत में कर्नाटक नाम कर्नाटक राज्य विशेष का ही नहीं, बल्कि दक्षिण भारतीय शास्त्रीय संगीत को दिया गया है।१६वीं शताब्दी के हरिदास आंदोलन कर्नाटक संगीत के विकास में अभिन्न योगदान दिया है। सम्मानित हरिदासों में से एक, पुरंदर दास को कर्नाटक संगीत पितामह की उपाधि दी गयी है।[86] कर्नाटक संगीत के कई प्रसिद्ध कलाकार जैसे गंगूबाई हंगल, मल्लिकार्जुन मंसूर, भीमसेन जोशी, बसवराज राजगुरु, सवाई गंधर्व और कई अन्य कर्नाटक राज्य से हैं और इनमें से कुछ को कालिदास सम्मान, पद्म भूषण और पद्म विभूषण से भी भारत सरकार ने सम्मानित किया हुआ है।
कर्नाटक संगीत पर आधारित एक अन्य शास्त्रीय संगीत शैली है, जिसका प्रचलन कर्नाटक राज्य में है। कन्नड़ भगवती शैली आधुनिक कविगणों के भावात्मक रस से प्रेरित प्रसिद्ध संगीत शैली है। मैसूर चित्रकला शैली ने अनेक श्रेष्ठ चित्रकार दिये हैं, जिनमें से सुंदरैया, तंजावुर कोंडव्य, बी.वेंकटप्पा और केशवैय्या हैं। राजा रवि वर्मा के बनाये धार्मिक चित्र पूरे भारत और विश्व में आज भी पूजा अर्चना हेतु प्रयोग होते हैं।[87] मैसूर चित्रकला की शिक्षा हेतु चित्रकला परिषत नामक संगठन यहां विशेष रूप से कार्यरत है।
कर्नाटक में महिलाओं की परंपरागत भूषा साड़ी है। कोडगु की महिलाएं एक विशेष प्रकार से साड़ी पहनती हैं, जो शेष कर्नाटक से कुछ भिन्न है।[88] राज्य के पुरुषों का परंपरागत पहनावा धोती है, जिसे यहां पाँचे कहते हैं। वैसे शहरी क्षेत्रों में लोग प्रायः कमीज-पतलून तथा सलवार-कमीज पहना करते हैं। राज्य के दक्षिणी क्षेत्र में विशेष शैली की पगड़ी पहनी जाती है, जिसे मैसूरी पेटा कहते हैं और उत्तरी क्षेत्रों में राजस्थानी शैली जैसी पगड़ी पहनी जाती है और पगड़ी या पटगा कहलाती है।
चावल (Kannada: ಅಕ್ಕಿ) और रागी राज्य के प्रधान खाद्य में आते हैं और जोलड रोट्टी, सोरघम उत्तरी कर्नाटक के प्रधान खाद्य हैं। इनके अलावा तटीय क्षेत्रों एवं कोडगु में अपनी विशिष्ट खाद्य शैली होती है। बिसे बेले भात, जोलड रोट्टी, रागी बड़ा, उपमा, मसाला दोसा और मद्दूर वड़ा कर्नाटक के कुछ प्रसिद्ध खाद्य पदार्थ हैं। मिष्ठान्न में मैसूर पाक, बेलगावी कुंड, गोकक करदंतु और धारवाड़ पेड़ा मशहूर हैं।
धर्म
आदि शंकराचार्य ने शृंगेरी को भारत पर्यन्त चार पीठों में से दक्षिण पीठ हेतु चुना था। विशिष्ट अद्वैत के अग्रणी व्याख्याता रामानुजाचार्य ने मेलकोट में कई वर्ष व्यतीत किये थे। वे कर्नाटक में १०९८ में आये थे और यहां ११२२ तक वास किया। इन्होंने अपना प्रथम वास तोंडानूर में किया और फिर मेलकोट पहुंचे, जहां इन्होंने चेल्लुवनारायण मंदिर और एक सुव्यवस्थित मठ की स्थापना की। इन्हें होयसाल वंश के राजा विष्णुवर्धन का संरक्षण मिला था।[89] १२वीं शताब्दी में जातिवाद और अन्य सामाजिक कुप्रथाओं के विरोध स्वरूप उत्तरी कर्नाटक में वीरशैवधर्म का उदय हुआ। इन आन्दोलन में अग्रणी व्यक्तित्वों में बसव, अक्का महादेवी और अलाम प्रभु थे, जिन्होंने अनुभव मंडप की स्थापना की जहां शक्ति विशिष्टाद्वैत का उदय हुआ। यही आगे चलकर लिंगायत मत का आधार बना जिसके आज कई लाख अनुयायी हैं।[90] कर्नाटक के सांस्कृतिक और धार्मिक ढांचे में जैन साहित्य और दर्शन का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।
इस्लाम का आरंभिक उदय भारत के पश्चिमी छोर पर १०वीं शताब्दी के लगभग हुआ था। इस धर्म को कर्नाटक में बहमनी साम्राज्य और बीजापुर सल्तनत का संरक्षण मिला।[91] कर्नाटक में ईसाई धर्म १६वीं शताब्दी में पुर्तगालियों और १५४५ में सेंट फ्रांसिस ज़ेवियर के आगमन के साथ फैला।[92] राज्य के गुलबर्ग और बनवासी आदि स्थानों में प्रथम सहस्राब्दी में बौद्ध धर्म की जड़े पनपीं। गुलबर्ग जिले में १९८६ में हुई अकस्मात खोज में मिले मौर्य काल के अवशेष और अभिलेखों से ज्ञात हुआ कि कृष्णा नदी की तराई क्षेत्र में बौद्ध धर्म के महायन और हिनायन मतों का खूब प्रचार हुआ था।
मैसूर मैसूर राज्य में नाड हब्बा (राज्योत्सव) के रूप में मनाया जाता है। यह मैसूर के प्रधान त्यौहारों में से एक है।[93] उगादि (कन्नड़ नव वर्ष), मकर संक्रांति, गणेश चतुर्थी, नाग पंचमी, बसव जयंती, दीपावली आदि कर्नाटक के प्रमुख त्यौहारों में से हैं।
भाषा
राज्य की आधिकारिक भाषा है कन्नड़, जो स्थानीय निवासियों में से ६५% लोगों द्वारा बोली जाती है।[94][95] कन्नड़ भाषा ने कर्नाटक राज्य की स्थापना में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है, जब १९५६ में राज्यों के सृजन हेतु भाषायी सांख्यिकी मुख्य मानदंड रहा था। राज्य की अन्य भाषाओं में कोंकणी एवं कोडव टक हैं, जिनका राज्य में लंबा इतिहास रहा है। यहां की मुस्लिम जनसंख्या द्वारा उर्दु भी बोली जाती है। अन्य भाषाओं से अपेक्षाकृत कम बोली जाने वाली भाषाओं में बेयरे भाषा व कुछ अन्य बोलियां जैसे संकेती भाषा आती हैं। कन्नड़ भाषा का प्राचीन एवं प्रचुर साहित्य है, जिसके विषयों में काफी भिन्नता है और जैन धर्म, वचन, हरिदास साहित्य एवं आधुनिक कन्नड़ साहित्य है। अशोक के समय की राजाज्ञाओं व अभिलेखों से ज्ञात होता है कि कन्नड़ लिपि एवं साहित्य पर बौद्ध साहित्य का भी प्रभाव रहा है। हल्मिडी शिलालेख ४५० ई. में मिले कन्नड़ भाषा के प्राचीनतम उपलब्ध अभिलेख हैं, जिनमें अच्छी लंबाई का लेखन मिलता है। प्राचीनतम उपलब्ध साहित्य में ८५० ई. के कविराजमार्ग के कार्य मिलते हैं। इस साहित्य से ये भी सिद्ध होता है कि कन्नड़ साहित्य में चट्टान, बेद्दंड एवं मेलवदु छंदों का प्रयोग आरंभिक शताब्दियों से होता आया है।[96]
कुवेंपु, प्रसिद्ध कन्नड़ कवि एवं लेखक थे, जिन्होंने जय भारत जननीय तनुजते लिखा था, जिसे अब राज्य का गीत (एन्थम) घोषित किया गया है।[97] इन्हें प्रथम कर्नाटक रत्न सम्मान दिया गया था, जो कर्नाटक सरकार द्वारा दिया जाने वाला सर्वोच्च नागरिक सम्मान है। अन्य समकालीन कन्नड़ साहित्य भी भारतीय साहित्य के प्रांगण में अपना प्रतिष्ठित स्थान बनाये हुए है। सात कन्नड़ लेखकों को भारत का सर्वोच्च साहित्य सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार मिल चुका है, जो किसी भी भारतीय भाषा के लिये सबसे बड़ा साहित्यिक सम्मान होता है।[98] टुलु भाषा मुख्यतः राज्य के तटीय जिलों उडुपी और दक्षिण कन्नड़ में बोली जाती है। टुलु महाभरतो, अरुणब्ज द्वारा इस भाषा में लिखा गया पुरातनतम उपलब्ध पाठ है।[99] टुलु लिपि के क्रमिक पतन के कारण टुलु भाषा अब कन्नड़ लिपि में ही लिखी जाती है, किन्तु कुछ शताब्दी पूर्व तक इस लिपि का प्रयोग होता रहा था। कोडव जाति के लोग, जो मुख्यतः कोडगु जिले के निवासी हैं, कोडव टक्क बोलते हैं। इस भाषा की दो क्षेत्रीय बोलियां मिलती हैं: उत्तरी मेन्डले टक्क और दक्षिणी किग्गाति टक।[100] कोंकणी मुख्यतः उत्तर कन्नड़ जिले में और उडुपी एवं दक्षिण कन्नड़ जिलों के कुछ समीपस्थ भागों में बोली जाती है। कोडव टक्क और कोंकणी, दोनों में ही कन्नड़ लिपि का प्रयोग किया जाता है। कई विद्यालयों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी है और अधिकांश बहुराष्ट्रीय कंपनियों तथा प्रौद्योगिकी-संबंधित कंपनियों तथा बीपीओ में अंग्रेज़ी का प्रयोग ही होता है।
राज्य की सभी भाषाओं को सरकारी एवं अर्ध-सरकारी संस्थाओं का संरक्षण प्राप्त है। कन्नड़ साहित्य परिषत एवं कन्नड़ साहित्य अकादमी कन्नड़ भाषा के उत्थान हेतु एवं कन्नड़ कोंकणी साहित्य अकादमी कोंकणी साहित्य के लिये कार्यरत है।[101] टुलु साहित्य अकादमी एवं कोडव साहित्य अकादमी अपनी अपनी भाषाओं के विकास में कार्यशील हैं।
शिक्षा
२००१ की जनसंख्या अनुसार, कर्नाटक की साक्षरता दर ६७.०४% है, जिसमें ७६.२९% पुरुष तथा ५७.४५% स्त्रियाँ हैं।[102] राज्य में भारत के कुछ प्रतिष्ठित शैक्षिक और अनुसंधान संस्थान भी स्थित हैं, जैसे भारतीय विज्ञान संस्थान, भारतीय प्रबंधन संस्थान, राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, कर्नाटक और भारतीय राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय।
मार्च २००६ के अनुसार, कर्नाटक में ५४,५२९ प्राथमिक विद्यालय हैं, जिनमें २,५२,८७५ शिक्षक तथा ८४.९५ लाख विद्यार्थी हैं।[103] इसके अलावा ९४९८ माध्यमिक विद्यालय जिनमें ९२,२८७ शिक्षक तथा १३.८४ लाख विद्यार्थी हैं।[103] राज्य में तीन प्रकार के विद्यालय हैं, सरकारी, सरकारी सहायता प्राप्त निजी (सरकार द्वारा आर्थिक सहायता प्राप्त) एवं पूर्णतया निजी (कोई सरकारी सहायता नहीं)। अधिकांश विद्यालयों में शिक्षा का माध्यम कन्नड़ एवं अंग्रेज़ी है। विद्यालयों में पढ़ाया जाने वाला पाठ्यक्रम या तो सीबीएसई, आई.सी.एस.ई या कर्नाटक सरकार के शिक्षा विभाग के अधीनस्थ राज्य बोर्ड पाठ्यक्रम (एसएसएलसी) से निर्देशित होता है। कुछ विद्यालय ओपन स्कूल पाठ्यक्रम भी चलाते हैं। राज्य में बीजापुर में एक सैनिक स्कूल भी है।
विद्यालयों में अधिकतम उपस्थिति को बढ़ावा देने हेतु, कर्नाटक सरकार ने सरकारी एवं सहायता प्राप्त विद्यालयों में विद्यार्थियों हेतु निःशुल्क अपराह्न-भोजन योजना आरंभ की है।[104] राज्य बोर्ड परीक्षाएं माध्यमिक शिक्षा अवधि के अंत में आयोजित की जाती हैं, जिसमें उत्तीर्ण होने वाले छात्रों को द्विवर्षीय विश्वविद्यालय-पूर्व कोर्स में प्रवेश मिलता है। इसके बाद विद्यार्थी स्नातक पाठ्यक्रम के लिये अर्हक होते हैं।
राज्य में छः मुख्य विश्वविद्यालय हैं: बंगलुरु विश्वविद्यालय,गुलबर्ग विश्वविद्यालय, कर्नाटक विश्वविद्यालय, कुवेंपु विश्वविद्यालय, मंगलौर विश्वविद्यालय तथा मैसूर विश्वविद्यालय। इनके अलावा एक मानिव विश्वविद्यालय क्राइस्ट विश्वविद्यालय भी है। इन विश्वविद्यालयों से मान्यता प्राप्त ४८१ स्नातक महाविद्यालय हैं।[105] १९९८ में राज्य भर के अभियांत्रिकी महाविद्यालयों को नवगठित बेलगाम स्थित विश्वेश्वरैया प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के अंतर्गत्त लाया गया, जबकि चिकित्सा महाविद्यालयों को राजीव गांधी स्वास्थ्य विज्ञान विश्वविद्यालय के अधिकारक्षेत्र में लाया गया था। इनमें से कुछ अच्छे महाविद्यालयों को मानित विश्वविद्यालय का दर्जा भी प्रदान किया गया था। राज्य में १२३ अभियांत्रिकी, ३५ चिकित्सा ४० दंतचिकित्सा महाविद्यालय हैं।[106] राज्य में वैदिक एवं संस्कृत शिक्षा हेतु उडुपी, शृंगेरी, गोकर्ण तथा मेलकोट प्रसिद्ध स्थान हैं। केन्द्र सरकार की ११वीं पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत्त मुदेनहल्ली में एक भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान की स्थापना को स्वीकृति मिल चुकी है। ये राज्य का प्रथम आई.आई.टी संस्थान होगा।[107] इसके अतिरिक्त मेदेनहल्ली-कानिवेनारायणपुरा में विश्वेश्वरैया उन्नत प्रौद्योगिकी संस्थान का ६०० करोड़ रुपये की लागत से निर्माण प्रगति पर है।[108]
मीडिया
राज्य में समाचार पत्रों का इतिहास १८४३ से आरंभ होता है, जब बेसल मिशन के एक मिश्नरी, हर्मैन मोग्लिंग ने प्रथम कन्नड़ समाचार पत्र मंगलुरु समाचार का प्रकाशन आरंभ किया था। प्रथम कन्नड़ सामयिक, मैसुरु वृत्तांत प्रबोधिनी मैसूर में भाष्यम भाष्याचार्य ने निकाला था। भारतीय स्वतंत्रता उपरांत १९४८ में के। एन.गुरुस्वामी ने द प्रिंटर्स (मैसूर) प्रा.लि. की स्थापना की और वहीं से दो समाचार-पत्र डेक्कन हेराल्ड और प्रजावनी का प्रकाशन शुरु किया। आधुनिक युग के पत्रों में द टाइम्स ऑफ इण्डिया और विजय कर्नाटक क्रमशः सर्वाधिक प्रसारित अंग्रेज़ी और कन्नड़ दैनिक हैं।[109][110] दोनों ही भाषाओं में बड़ी संख्या में साप्ताहिक, पाक्षिक और मासिक पत्रिकाओं का प्रकाशन भी प्रगति पर है। राज्य से निकलने वाले कुछ प्रसिद्ध दैनिकों में उदयवाणि, कन्नड़प्रभा, संयुक्त कर्नाटक, वार्ता भारती, संजीवनी, होस दिगंत, एईसंजे और करावली आले आते हैं।
दूरदर्शन भारत सरकार द्वारा चलाया गया आधिकारिक सरकारी प्रसारणकर्त्ता है और इसके द्वारा प्रसारित कन्नड़ चैनल है डीडी चंदना। प्रमुख गैर-सरकारी सार्वजनिक कन्नड़ टीवी चैनलों में ईटीवी कन्नड़, ज़ीटीवी कन्नड़, उदय टीवी, यू२, टीवी९, एशियानेट सुवर्ण एवं कस्तूरी टीवी हैं।[111]
कर्नाटक का भारतीय रेडियो के इतिहास में एक विशिष्ट स्थान है। भारत का प्रथम निजी रेडियो स्टेशन आकाशवाणी १९३५ में प्रो॰एम॰वी॰ गोपालस्वामी द्वारा मैसूर में आरंभ किया गया था।[112] यह रेडियोस्टेशन काफी लोकप्रिय रहा और बाद में इसे स्थानीय नगरपालिका ने ले लिया था। १९५५ में इसे ऑल इण्डिया रेडियो द्वारा अधिग्रहण कर बंगलुरु ले जाया गया। इसके २ वर्षोपरांत ए.आई.आर ने इसका मूल नाम आकाशवाणी ही अपना लिया। इस चैनल पर प्रसारित होने वाले कुछ प्रसिद्ध कार्यक्रमों में निसर्ग संपदा और सास्य संजीवनी रहे हैं। इनमें गानों, नाटकों या कहानियों के माध्यम से विज्ञान की शिक्षा दी जाती थी। ये कार्यक्रम इतने लोकप्रिय बने कि इनका अनुवाद १८ भाषाओं में हुआ और प्रसारित किया गया। कर्नाटक सरकार ने इस पूरी शृंखला को ऑडियो कैसेटों में रिकॉर्ड कराकर राज्य भर के सैंकड़ों विद्यालयों में बंटवाया था।[112] राज्य में एफ एम प्रसारण रेडियो चैनलों में भी बढ़ोत्तरी हुई है। ये मुख्यतः बंगलुरु, मंगलौर और मैसूर में चलन में हैं।[113][114]
क्रीड़ा
कर्नाटक का एक छोटा सा जिला कोडगु भारतीय हाकी टीम के लिये सर्वाधिक योगदान देता है। यहां से अनेक खिलाड़ियों ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हॉकी में भारत का प्रतिनिधित्व किया है।[115] वार्षिक कोडव हॉकी उत्सव विश्व में सबसे बड़ा हॉकी टूर्नामेण्ट है।[116] बंगलुरु शहर में महिला टेनिस संघ (डब्लु.टी.ए का एक टेनिस ईवेन्ट भी हुआ है, तथा १९९७ में शहर भारत के चतुर्थ राष्ट्रीय खेल सम्मेलन का भी आतिथेय रहा है।[117] इसी शहर में भारत के सर्वोच्च क्रीड़ा संस्थान, भारतीय खेल प्राधिकरण तथा नाइके टेनिस अकादमी भी स्थित हैं। अन्य राज्यों की तुलना में तैराकी के भी उच्च आनक भी कर्नाटक में ही मिलते हैं।[118]
राज्य का एक लोकप्रिय खेल क्रिकेट है। राज्य की क्रिकेट टीम छः बार रणजी ट्रॉफी जीत चुकी है और जीत के आंकड़ों में मात्र मुंबई क्रिकेट टीम से पीछे रही है।[119] बंगलुरु स्थित चिन्नास्वामी स्टेडियम में अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट मैचों का आयोजन होता रहता है। साथ ही ये २००० में आरंभ हुई राष्ट्रीय क्रिकेट अकादमी का भी केन्द्र रहा है, जहां अकादमी भविष्य के लिए अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ियों को तैयार करती है। राज्य क्रिकेट टीम के कई प्रसिद्ध क्रिकेट खिलाड़ी राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अग्रणी रहे हैं। १९९० के दशक में हुए एक अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट मैच में यहीं के खिलाड़ियों का बाहुल्य रहा था।[120][121] कर्नाटक प्रीमियर लीग राज्य का एक अंतर्क्षेत्रीय ट्वेन्टी-ट्वेन्टी क्रिकेट टूर्नामेंट है। रॉयल चैलेन्जर्स बैंगलौर भारतीय प्रीमियर लीग का एक फ़्रैंचाइज़ी है जो बंगलुरु में ही स्थित है।
राज्य के अंचलिक क्षेत्रों में खो खो, कबड्डी, चिन्नई डांडु तथा कंचे या गोली आदि खेल खूब खेले जाते हैं।
राज्य के उल्लेखनीय खिलाड़ियों में १९८० के ऑल इंग्लैंड बैडमिंटन चैंपियनशिप विजेता प्रकाश पादुकोन का नाम सम्मान से लिया जाता है। इनके अलावा पंकज आडवाणी भी उल्लेखनीय हैं, जिन्होंने २० वर्ष की आयु से ही बैडमिंटन स्पर्धाएं आरंभ कर दी थीं तथा तथा क्यू स्पोर्ट्स के तीन उपाधियां धारण की हैं, जिनमें २००३ की विश्व स्नूकर चैंपियनशिप एवं २००५ की विश्व बिलियर्ड्स चैंपियनशिप आती हैं।[122][123]
राज्य में साइकिलिंग स्पर्धाएं भी जोरों पर रही हैं। बीजापुर जिले के क्षेत्र से राष्ट्रीय स्तर के अग्रणी सायक्लिस्ट हुए हैं। मलेशिया में आयोजित हुए पर्लिस ओपन ’९९ में प्रेमलता सुरेबान भारतीय प्रतिनिधियों में से एक थीं। जिले की साइक्लिंग प्रतिभा को देखते हुए उनके उत्थान हेतु राज्य सरकार ने जिले में ४० लाख की लागत से यहां के बी.आर अंबेडकर स्टेडियम में सायक्लिंग ट्रैक बनवाया है।[124]
पर्यटन
अपने विस्तृत भूगोल, प्राकृतिक सौन्दर्य एवं लम्बे इतिहास के कारण कर्नाटक राज्य बड़ी संख्या में पर्यटन आकर्षणों से परिपूर्ण है। राज्य में जहां एक ओर प्राचीन शिल्पकला से परिपूर्ण मंदिर हैं तो वहीं आधुनिक नगर भी हैं, जहां एक ओर नैसर्गिक पर्वतमालाएं हैं तो वहीं अनान्वेषित वन संपदा भी है और जहां व्यस्त व्यावसायिक कार्यकलापों में उलझे शहरी मार्ग हैं, वहीं दूसरी ओर लम्बे सुनहरे रेतीले एवं शांत सागरतट भी हैं। कर्नाटक राज्य को भारत के राज्यों में सबसे प्रचलित पर्यटन गंतव्यों की सूची में चौथा स्थान मिला है।[125] राज्य में उत्तर प्रदेश के बाद सबसे अधिक राष्ट्रीय संरक्षित उद्यान एवं वन हैं,[126] जिनके साथ ही यहां राज्य पुरातत्त्व एवं संग्रहालय निदेशलय द्वारा संरक्षित ७५२ स्मारक भी हैं। इनके अलावा अन्य २५,००० स्मारक भी संरक्षण प्राप्त करने की सूची में हैं।[127][128]
राज्य के मैसूर शहर में स्थित महाराजा पैलेस इतना आलीशान एवं खूबसूरत बना है, कि उसे सबसे विश्व के दस कुछ सुंदर महलों में गिना जाता है।[129][130] कर्नाटक के पश्चिमी घाट में आने वाले तथा दक्षिणी जिलों में प्रसिद्ध पारिस्थितिकी पर्यटन स्थल हैं जिनमें कुद्रेमुख, मडिकेरी तथा अगुम्बे आते हैं। राज्य में २५ वन्य जीवन अभयारण्य एवं ५ राष्ट्रीय उद्यान हैं। इनमें से कुछ प्रसिद्ध हैं: बांदीपुर राष्ट्रीय उद्यान, बनेरघाटा राष्ट्रीय उद्यान एवं नागरहोल राष्ट्रीय उद्यान। हम्पी में विजयनगर साम्राज्य के अवशेष तथा पत्तदकल में प्राचीन पुरातात्त्विक अवशेष युनेस्को विश्व धरोहर चुने जा चुके हैं। इनके साथ ही बादामी के गुफा मंदिर तथा ऐहोल के पाषाण मंदिर बादामी चालुक्य स्थापात्य के अद्भुत नमूने हैं तथा प्रमुख पर्यटक आकर्षण बने हुए हैं। बेलूर तथा हैलेबिडु में होयसाल मंदिर क्लोरिटिक शीस्ट (एक प्रकार के सोपस्टोन) से बने हुए हैं एवं युनेस्को विश्व धरोहर स्थल बनने हेतु प्रस्तावित हैं।[131] यहाँ बने गोल गुम्बज तथा इब्राहिम रौज़ा दक्खन सल्तनत स्थापत्य शैली के अद्भुत उदाहरण हैं। श्रवणबेलगोला स्थित गोमतेश्वर की १७ मीटर ऊंची मूर्ति जो विश्व की सर्वोच्च एकाश्म प्रतिमा है, वार्षिक महामस्तकाभिषेक उत्सव में सहस्रों श्रद्धालु तीर्थायात्रियों का आकर्षण केन्द्र बनती है।[132]
कर्नाटक के जल प्रपात एवं कुद्रेमुख राष्ट्रीय उद्यान "विश्व के १००१ प्राकृतिक आश्चर्य" में गिने गये हैं।[133] जोग प्रपात को भारत के सबसे ऊंचे एकधारीय जल प्रपात के रूप में गोकक प्रपात, उन्चल्ली प्रपात, मगोड प्रपात, एब्बे प्रपात एवं शिवसमुद्रम प्रपात सहित अन्य प्रसिद्ध जल प्रपातों की सूची में शम्मिलित किया गया है।
यहां अनेक खूबसूरत सागरतट हैं, जिनमें मुरुदेश्वर, गोकर्ण एवं करवर सागरतट प्रमुख हैं। इनके साथ-साथ कर्नाटक धार्मिक महत्त्व के अनेक स्थलों का केन्द्र भी रहा है। यहां के प्रसिद्ध हिन्दू मंदिरों में उडुपी कृष्ण मंदिर, सिरसी का मरिकंबा मंदिर, धर्मस्थल का श्री मंजुनाथ मंदिर, कुक्के में श्री सुब्रह्मण्यम मंदिर तथा शृंगेरी स्थित शारदाम्बा मंदिर हैं जो देश भर से ढेरों श्रद्धालुओं को आकर्षित करते हैं। लिंगायत मत के अधिकांश पवित्र स्थल जैसे कुदालसंगम एवं बसवन्ना बागेवाड़ी राज्य के उत्तरी भागों में स्थित हैं। श्रवणबेलगोला, मुदबिद्री एवं कर्कला जैन धर्म के ऐतिहासिक स्मारक हैं। इस धर्म की जड़े राज्य में आरंभिक मध्यकाल से ही मजबूत बनी हुई हैं और इनका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण केन्द्र है श्रवणबेलगोला
हाल के कुछ वर्षों में कर्नाटक स्वास्थ्य रक्षा पर्यटन हेतु एक सक्रिय केन्द्र के रूप में भी उभरा है। राज्य में देश के सर्वाधिक स्वीकृत स्वास्थ्य प्रणालिययाँ और वैकल्पिक चिकित्सा उपलब्ध हैं। राज्य में आईएसओ प्रमाणित सरकारी चिकित्सालयों सहित, अंतर्राष्ट्रीय स्तर की चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने वाले निजी संस्थानों के मिले-जुले योगदान से वर्ष २००४-०५ में स्वास्थ्य-रक्षा उद्योग को ३०% की बढोत्तरी मिली है। राज्य के अस्पतालों में लगभग ८,००० स्वास्थ्य संबंधी सैलानी आते हैं।[44]
इन्हें भी देखें
कर्नाटक के लोकसभा सदस्य
कर्नाटक का पठार
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
का आधिकारिक जालस्थल
- भारत डिस्कवरी पर देखें | मैसूर शहर की आधिकारिक भाषा क्या है? | कन्नड़ | 610 | hindi |
464699dbf | लातविया या लातविया गणराज्य (लातवियाई: Latvijas Republika) उत्तरपूर्वी यूरोप में स्थित एक देश है और उन तीन बाल्टिक गणराज्यों में से एक है जिनका द्वितीय विश्व युद्ध के बाद भूतपूर्व सोवियत संघ में विलय कर दिया गया। इसकी सीमाएं लिथुआनिया, एस्टोनिया, बेलारूस और रूस से मिलती हैं। यह आकार की दृष्टि से एक छोटा देश है और इसका कुल क्षेत्रफल ६४,५८९ वर्ग किमी और जनसंख्या २२,३१,५० (२००९) है।[1]
लातविया की राजधानी है रीगा जिसकी अनुमानित जनसंख्या है ८,२६,०००। कुल जनसंख्या का ६०% लातवियाई मूल के नागरिक है और लगभग ३०% लोग रूसी मूल के हैं। यहाँ की आधिकारिक भाषा है लातवियाई, जो बाल्टिक भाषा परिवार से है। यहाँ की आधिकारिक मुद्रा है लात्स।
लात्विया को १९९१ में सोवियत संघ से स्वतंत्रता मिली थी। १ मई, २००४ को लातविया यूरोपीय संघ का सदस्य बना। यहाँ के वर्तमान राष्ट्रपति हैं - वाल्डिस ज़ाट्लर्स।
इतिहास
तेरहवीं से सोलहवीं शताब्दियों तक लातविया लिवोनिया और कौरलैंड तक फैला हुआ था और प्रुसीयाई राजाओं के अधीन था। सत्रहवीं सदी में लातविया पर पोलैंड और स्वीडन ने अधिकार कर लिया।
अठारहवीं सदी में, न्येस्ताद की संधि के बाद लिवोनिया और कौरलैंड रूसी साम्राज्य का भाग बन गए। इसकी सरकार कौरलैंड और लिवोनिया दोनो से मिलकर बनीं थी।
रूसी गृहयुद्ध के दौरान (१९१७-१९२२), लातविया के अधिकांश सैन्य वाहिनियों ने जर्मनी के विरुद्ध बोल्शेविक के पक्ष में युद्ध किया था। लातविया पहली बार १९१८ में एक स्वतन्त्र राष्ट्र के रूप में अस्तित्व में आया।
दूसरे विश्व युद्ध के दौरान, इसपर प्रथम बार (दो अन्य बाल्टिक गणराज्यों के साथ) सोवियत संघ ने आक्रमण किया और बाद में नाज़ी जर्मनी ने और अंततः १९४४ में सोवियत संघ ने इसे संयोजित कर एक सोवियत गणराज्य बना दिया।
१९९१ में सोवियत संघ के विघटन के बाद यह एक बार फिर एक स्वतन्त्र राष्ट्र के रूप में अस्तित्व में आया। लिथुआनिया और एस्टोनिया से विलग लातविया ने स्वतंत्र राष्ट्र राष्ट्रमण्डल की सदस्यता ग्रहण नहीं की बल्कि लातविया नें यूरो-अटलान्टिक एका का चुनाव किया और अप्रैल २००४ में नाटो का सदस्य बना और १ मई २००४ को यूरोपीय संघ का।
प्रशासनिक प्रभाग
लातविया २६ प्रशासकीय क्षेत्रों और ७ नगरीय क्षेत्रों में विभाजित है जिन्हें लातविया में क्रमशः apriņķis और lielpilsētas कहा जाता है।
राजनीति
१००-सीटों वाली एकविधाई लातवियाई संसद, जिसे सैइमा (Saeima) कहा जाता है, चुनावों द्वारा प्रति चार वर्ष में चुनी जाती है। राष्ट्रपति का चुनाव सैइमा द्वारा एक अन्य चुनाव में किया जाता है और यह भी प्रति चार वर्ष में होता है। राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री नियुक्त किया जाता है, जो अपनी मंत्रीपरिषद के साथ, कार्यकारी शाखा बनाता है, जिसे सैइमा में विश्वास मत प्राप्त करना होता है। यही संसदीय प्रणाली दूसरे विश्व युद्ध से पूर्व भी थी। सर्वोच्च सिविल सेवक १६ राज्य सचिव होते हैं।
लातविया में १८ वर्ष से ऊपर के सभी लातवियाई नागरिक संसदीय चुनावों मतदान कर सकते हैं।
राष्ट्रपति चुनाव २००७
राष्ट्रपति चुनाव, ३१ मई २००७
वाल्डिस ज़ाट्लर्स को संसद द्वारा राष्ट्रपति चुना गया।
आम चुनाव
२००६ के आम चुनाव
२००६ के संसदीय चुनावों में १९ राजनीतिक दलों में भाग लिया था। इन चुनावों में प्रधानमंत्री एइग्कार्स काल्विटिस के सत्तारूढ़ गठबंधन को जीत मिली।
संसद (Saeima), ७ अक्टूबर २००६
जनमत संग्रह २००८
अगस्त २००८ का संवैधानिक जनमत संग्रह
२ अगस्त, २००८ को संसद को भंग करने को लेकर संविधान में संशोधन करने के लिए जनमत संग्रह हुआ। मतदान करने बाले ९६% लोगों ने इसका समर्थन किया और ३.५% लोगों ने विरोध में मतदान किया, लेकिन बहुत कम मतदान के कारण (५०% से कम) इसे रद्द कर दिया गया।
पेंशन वृद्धि के लिए अगस्त २००८ का जनमत संग्रह
२३ अगस्त, २००३ को पेंशन वृद्धि के लिए एक जनमत करवाया गया। इसे भी कम मतदान के कारण रद्द कर देना पड़ा क्योंकि यह अभीष्ट ४,५३,७३० मतों तक नहीं पहुँच पाया था।[2] यदि जनमत इस सुझाव के पक्ष में होता तो सरकार पेंशन को वर्तमान ५० लात्स से बढ़ाकर १३५ लात्स कर देती। यह जनमत भिन्न राजनीति समाज संघ द्वारा समर्थित था, जो एक राजनैतिक दल बनना चाहता है।
जनसांख्यिकी
२००९ के अनुमानानुसार लातविया की जनसंख्या २२,३१,५० है। २००९ की जनसंख्या अनुमान के आधार पर जन्म प्रत्याशा ७२.१५ वर्ष है। महिला जीवन प्रत्याशा है ७७.५९ वर्ष और पुरुष जीवन प्रत्याशा है ६६.५९ वर्ष।
जातीय और नस्लीय विविधता
सदियों से लातविया एक बहुनस्लीय देश रहा है, लेकिन २०वीं सदी के दौरान विश्व युद्धों, प्रवासन और बाल्टिक जर्मनों को हटाने के कारण, यहूदी नरसंहार (हौलोकास्ट) और सोवियत अधिकरण के कारण जनसांख्यकी में बहुत परिवर्तन आया। १८९७ के रूसी साम्राज्य की जनगणना के अनुसार, लातवियाई लोग कुल १९.३ लाख की जनसंख्या का ६८.४% थे; रूसी मूल के १२%, यहूदी ७.४%, जर्मन ६.२% और पोलैण्ड मूल के ३.४%।
धर्म
सबसे बड़ा धार्मिक समुदाय है ईसाई, यद्यपि केवल ७% जनसंख्या ही नियमित रूप से धार्मिक गतिविधियों में सक्रिय है। सबसे बड़े समूह हैं:
इवेंग्लिकल लूथरन चर्च ऑफ़ लातविया - ४,५०,०००
रोमन कैथोलिक - ४,५०,०००
लातवियाई ऑर्थडॉक्स - ३,५०,०००
भाषा
लातवियाई भाषा, लातविया की आधिकरिक भाषा है। इस भाषा के प्रथम बोलने वालो की संख्या १४ लाख है। इसके अतिरिक्त १,५०,००० लोग अन्य देशों में इस भाषा को बोलते हैं। लातवियाई भाषा को बोलने वाले अदेशीय लोगों की संख्या अपेक्षाकृत रूप से अधिक है जो एक छोटी भाषा के लिए बहुत है। लातविया की भाषा नीति के कारण यहाँ की ८ लाख की जातीय-अल्पसंख्यक जनसंख्या में से ६०% इस भाषा को बोलते हैं। लातवियाई भाषा का उपयोग लातविया के सामाजिक जीवन में बढ़ रहा है।[4]
लातवियाई एक बाल्टिक भाषा है और यह लिथुआनियाई से सर्वाधिक मिलती-जुलती है, लेकिन दोनों परस्पर-सुबोध नहीं हैं।
सोवियत संघ का भाग रहने और बड़ी संख्या में रूसी मूल के लोगों की संख्या के कारण रूसी भाषा भी बहुत लोगों द्वारा बोली जाती है और वृद्ध पीढ़ी के अधिसंख्य लोग रूसी समझ सकते हैं।
अर्थव्यवस्था
लातविया विश्व व्यापार संगठन (१९९९ से) और यूरोपीय संघ (२००४ से) का सदस्य है।
वर्ष २००० के बाद से लातविया की वृद्धि दर यूरोप में सर्वाधिक में से एक है। हालांकि, लातविया की मुख्यतः उपभोग-चालित वृद्धि के कारण २००८ के अंत और २००९ के आरंभ में लातवियाई जीडीपी ढह गई, जो वैश्विक आर्थिक मंदी के कारण और अधिक चपेट में आई। वर्ष २००९ के प्रथम तीन महीनों में लातवियाई अर्थव्यस्था में १८% की गिरावट आई, जो यूरोपीय संघ में सर्वाधिक थी। यूरोस्टैट डाटा के अनुसार, क्रय शक्ति के आधार पर लातविया की प्रति व्यक्ति आय २००८ में यूरोपीय संघ का ५६% थी।
जनवरी २००९ में राजधानी रीगा में आर्थिक संकट को लेकर दंगे हुए जो सरकार की कठोरता नीतियों का विरोध कर रहे थे। प्रदर्शनकारियों की माँगें थी की संसद भंग कर दी जाए, जबकि राष्ट्रपति वाल्डिस ज़ाट्लर्स ने सरकार को चेताया की यदि नागरिकों की माँगें ना मानी गईं तो समयपूर्व चुनाव कर दिया जाएगा। सरकार को आईएमएफ से ७.५ अरब यूरो प्राप्त करने के लिए वेतनों में कमी करनी पड़ी और कोसोवो से अगस्त २००९ में कुछ सैनिक हटाने पड़े।
शिक्षा
लातविया विश्वविद्यालय, लातविया में सबसे पुराना विश्वविद्यालय है और यह राजधानी रीगा में स्थित है। डौगाव्पिल्स विश्वविद्यालय दूसरा सबसे पुराना विश्वविद्यालय है।
परिवहन
यहाँ यातायात का सड़क के दाँई ओर चलने का नियम है।
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
श्रेणी:यूरोप के देश | लात्विया की आधिकारिक भाषा क्या है? | लातवियाई भाषा | 4,400 | hindi |
710068b7d | जोसेफ़ जॉन थॉमसन (१८ दिसम्बर १८५६ - ३० अगस्त १९४०)}[1] अंग्रेज़ भौतिक विज्ञानी थे। वो रॉयल सोसायटी ऑफ़ लंदन के निर्वाचित सदस्य थे।[2]
एक विख्यात वैज्ञानिक थे। उन्हौंने इलेक्ट्रॉन की खोज की थी।
थॉमसन गैसों में बिजली के चालन पर अपने काम के लिए भौतिकी में 1906 नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किये गए।[3] उनके सात छात्रों में उनके बेटे जॉर्ज पेजेट थॉमसन सहित सभी भौतिक विज्ञान में या तो रसायन शास्त्र में नोबेल पुरस्कार विजेता बने।[4] उनका रिकॉर्ड केवल जर्मन भौतिकशास्त्री अर्नाल्ड सोम्मेरफील्ड के बराबर है।
जीवनी
जोसफ जॉन थॉमसन का जन्म १८ दिसम्बर १८५६ को चीथम हिल, मानचेस्टर, लंकाशायर, इंग्लैण्ड में हुआ। इनकी माता, एमा स्विंडेल्स एक स्थानीय कपड़ा उद्योग से जुड़े परिवार से थीं। इनके पिता, जोसेफ जेम्स थॉमसन, पुरानी दुर्लभ किताबों की दुकान चलाते थे जिसकी स्थापना इनके परदादा ने की थी। जॉन थॉमसन के, इनसे दो साल छोटे एक भाई फ्रेडरिक वर्नॉन थॉमसन भी थे।
इनकी शुरुआती शिक्षा एक छोटे से प्राइवेट स्कूल में हुई जहाँ इन्होने अद्भुत प्रतिभा और विज्ञान में रूचि का प्रदर्शन किया। १८७० में इनका एडमिशन ओवेन्स कॉलेज में हुआ जब इनकी उम्र मात्र १४ वर्ष थी, जो एक असाधारण बात थी। इनके पिता की योजना यह थी कि इन्हें शार्प-स्टीवर्ट एंड कं में, जो रेल इंजन बनाती थी, एक अप्रेंटिस इंजीनियर के रूप में दाखिला करा दिया जाय, लेकिन इस योजना का क्रियान्वयन नहीं हो पाया क्योंकि पिता का १८७३ में देहांत हो गया।
१८७६ में वे ट्रिनिटी कॉलेज आ गए। १८८० में गणित में बी ए की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने आवेदन किया और १८८१ में वे ट्रिनिटी कॉलेज के फेलो चुन लिए गए। १८८३ में इन्होने ऍमए की उपाधि (एडम्स पुरस्कार के साथ) प्राप्त की।
१२ जून १८८४ को इन्हें रॉयल सोसाइटी का फेलो चुना गया। बाद में ये १९१५ से १९२० तक इसके अध्यक्ष भी रहे।
२२ दिसम्बर १८८४ को इन्हें कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में कैवेंडिश प्रोफ़ेसर ऑफ फिजिक्स चुना गया। यह नियुक्ति काफी आश्चर्यजनक थी क्योंकि अन्य प्रतिस्पर्धी जैसे कि रिचार्ड ग्लेज़ब्रुक इनसे उम्र में भी बड़े थे और प्रयोगशाला कार्य में भी अधिक अनुभवी थे। थॉमसन को मुख्यतः इनके गणित में किये कार्यों के लिए जाना जाता था जहाँ इन्हें एक असाधारण प्रतिभा के रूप में पहचान मिली थी।
१८९० में थॉमसन का विवाह रोस एलिजाबेथ पैगेट से हुआ जो सर जॉर्ज एडवर्ड पैगेट, केसीबी, एक चिकित्सक और चर्च ऑफ सेंट मेरी दि लेस में तत्कालीन रेज़ियस प्रोफ़ेसर ऑफ फिजिक्स ऑफ कैम्ब्रिज (चिकत्सा विज्ञान की एक प्रोफ़ेसरशिप) थे। एलिजाबेथ और थॉमसन का एक बेटा, जॉर्ज पेगेट थॉमसन और एक बेटी जोआन पेगेट थॉमसन हुईं।
थॉमसन को १९०६ में नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया[5], "गैसों से होकर विद्युत प्रवाह के प्रयोगात्मक परीक्षणों और संबंधित सैद्धान्तिक कार्यों की उच्च गुणवत्ता को देखते हुए"। इन्हें १९०८ में नाइटहुड प्राप्त हुई, १९१२ में ऑर्डर ऑफ मेरिट में नियुक्ति मिली और १९१४ में इन्होने "परमाणविक सिद्धान्त" (दि एटोमिक थ्योरी) पर ऑक्सफोर्ड में रोमान्सेस अभिभाषण दिया।
१९१८ में ये कैम्ब्रिज में मास्टर ऑफ ट्रिनिटी कॉलेज बनाये गए और जीवनपर्यन्त इस पद पर रहे। जोसेफ़ जॉन थॉमसन का देहान्त ३० अगस्त १९४० को हुआ; इनकी अस्थियाँ वेस्टमिन्स्टर ऍबे में, सर आइजक न्यूटन और थॉमसन के अपने शिष्य अर्न्स्ट रदरफ़ोर्ड की कब्रों के पास दफनाई गयी हैं।
आधुनिक विज्ञान के क्षेत्र में एक प्रतिभासंपन्न अध्यापक के रूप में दिए गए उनके योगदानों को अत्यंत महत्वपूर्ण स्वीकारा जाता है। इनके शिष्यों में से एक, अर्न्स्ट रदरफ़ोर्ड रहे जिन्होंने कैवेंडिश प्रोफ़ेसर के रूप में इनका उत्तराधिकार संभाला। खुद थॉमसन के अतिरिक्त इनके शोध सहायकों में से आठ लोग (फ्रान्सिस विलियम एस्टन, चार्ल्स ग्लोवर बर्कला, नील्स बोर, मैक्स बॉर्न, विलियम हेनरी ब्रैग , ओवेन्स विलान्स रिचर्डसन, एर्न्स्ट रदरफोर्ड, और चार्ल्स थॉमसन रीज विल्सन) और इनके पुत्र ने भौतिकी अथवा रसायनविज्ञान के क्षेत्र में नोबल पुरस्कार अर्जित किया। इनके बेटे को १९३७ में इलेक्ट्रानों के तरंगवत अभिलक्षणों को साबित करने के लिए नोबल पुरस्कार मिला।
विज्ञानी जीवन
थॉमसन कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय तथा रॉयल इंस्टीट्यूशन, लंदन में भौतिक विज्ञान के प्रोफेसर मानद प्रोफेसर रहे। परमाणु संरचना में थॉमसन की विशेष रुचि थी।मोशन ऑफ़ वोरटेक्स रिंग्स पर १९८४ में एडम्स पुरस्कार मिला।१८९६ में थॉमसन अपनी नवीन खोजों से सम्बंधित व्याख्यान देने के लिए अमेरिका गए। वर्ष १९०४ में पुनः विद्युत् पर येल विश्वविद्यालय में छह व्याख्यान देने के लिए अमेरिका गए। [6]
प्रारम्भिक कार्य
थॉमसन का पुरस्कार प्राप्त करने वाला कार्य वलय में चक्रण गति पर उनका कार्य (Treatise on the motion of vortex rings) है जो उनके परमाणवीय सरंचना में उनकी रूची को प्रदर्शित करता है।[3] इसमें, थॉमसन ने विलियम थॉमसन की भ्रमिल-परमाणु-सिद्धान्त की गति को गणितीय रूप से समझाया।[7]
थॉमसन ने विद्युत्-चुम्बकीकी पर प्रायोगिक और सैद्धान्तिक दोनों तरह के विभिन्न प्रपत्र प्रकाशित किये। उन्होंने जेम्स क्लर्क मैक्सवेल की प्रकाश के विद्युतचुम्बकीय सिद्धान्त का प्रायोगिक अध्ययन किया, उन्होंने आवेशित कणों के विद्युत्-चुम्बकीइय द्रव्यमान की अवधारणा को प्रतिपादित किया और सिद्ध किया कि गतिशील आवेशित पिण्ड अधिक द्रव्यमान प्रदर्शित करता है।[7]
उनका राशायनिक प्रक्रियाओं का गणितीय प्रतिरूपण में अधिकतर कार्य शुरूआती अभिकलनात्मक रसायन के रूप में देखा जा सकता है।[8]ऍप्लिकेशन्स ऑफ़ डायनामिक्स टू फिजिक्स एंड केमिस्ट्री (२००८) (अनुवाद: गतिकी से भौतिकी और रसायन विज्ञान के अनुप्रयोग) के रूप में प्रकाशित आगे के कार्य में थॉमसन ने ऊर्जा के गणितीय और सैद्धान्तिक पदों में स्थानान्तरण को बताया जिसके अनुसार सभी तरह की ऊर्जा गतिज ऊर्जा हो सकती है।[7] उनकी वर्ष १८९३ में प्रकाशित अगली पुस्तक नोट्स ऑन रिसेंट रिसर्चेस इन इलेक्ट्रिसिटी एंड मैग्नेटिज़्म (अनुवाद: वैद्युत् और चुम्बकत्व में हाल ही के शोध पर प्रलेख), मैक्सवैल की ट्रीटीज़ अपॉन इलेक्ट्रिसिटी एंड मैग्नेटिज़्म (अनुवाद: वैद्युत् और चुम्बकत्व पर ग्रन्थ) पर आधारित थी जिसे कई बार "मैक्सवैल के तीसरे संस्करण" के रूप में माना जाता है।[3] इसमें थॉमसन ने प्रायोगिक विधियों और विस्तृत चित्रों एवं उपकरणों को शामिल करते हुये, गैसों से विद्युत पारण को समाहित करने को महत्त्व दिया।[7] उनकी १८९५ में प्रकाशित तीसरी पुस्तक विस्तार से विभिन्न विषयों के परिक्षय के रूप में पठनीय सामग्री प्रदान की और पाठ्यपुस्तकों के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण लोकप्रियता प्राप्त की।[9][7]
थॉमसन ने प्रिंसटन विश्वविद्यालय में वर्ष १८९६ में चार व्याख्यानों की शृंखला रखी जो वर्ष १८९७ में डिसचार्ज ऑफ़ इलेक्ट्रीसिटी थ्रो गैसेस (अनुवाद: गैसों में विद्युत् विसर्जन) के रूप में प्रकाशित हुई। थॉमसन ने वर्ष १९०४ में येल विश्वविद्यालय में छः व्याख्यानों की शृंखला प्रस्तुत की।[3]
इलेक्ट्रॉन की खोज
विभिन्न वैज्ञानिकों, जैसे विलियम प्राउट और नॉर्मन लॉकयर ने यह सुझाव दिया कि परमाणु कुछ अन्य मूलभूत इकाइयों से मिलकर बना हुआ है, लेकिन उन्होंने इसे लघुतम आकार वाले परमाणु, हाइड्रोजन से मिलकर बना हुआ मानने लगे। थॉमसन ने वर्ष १८९७ में पहली बार सुझाव दिया कि इसकी मूलभूत इकाई परमाणु के १००० वें भाग से भी छोटी है। इस तरह उन्होंने अपरमाणुक कण का सुझाव दिया जिसे आज इलेक्ट्रॉन के नाम से जाना जाता है। थॉमसन ने यह कैथोड़ किरणों के गुणधर्मों पर अन्वेषण करते हुये पाया। थॉमसन ने ३० अप्रैल १८९७ को पहली अपनी खोज में पाया कि कैथोड़ किरणें (उस समय इन्हें लेनार्ड किरणों के नाम से जाना जाता था) हवा में परमाणु-आकार वाले कणों से कई गुणा अधिक तेजी से गति कर सकती हैं।[10]
कैथोड़े किरणों के साथ प्रयोग
पुरस्कार और पहचान
एडम्स प्राइज (१८८२)
रॉयल मेडल (१८९४)
ह्युजेस मेडल (१९०२)
भौतिकी में नोबेल पुरस्कार (१९०६)
एलीट क्रेसन मेडल (१९१०)
कोप्ले मेडल (१९१४)
फ्रेंकलिन मेडल (१९२२)
वर्ष १९९१ में, उनके सम्मान में द्रव्यमान वर्णक्रममाप में द्रव्यमान-आवेश अनुपात के रूप में थॉमसन (प्रतीक: Th) प्रस्तावित किया गया।[11]
उनकी याद में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय परिसर में जे॰जे॰ थॉमसन अवेन्यू का नामकरण किया गया।[12]
नवम्बर १९२७ में, जे॰जे॰ थॉमसन ने अपने सम्मान में, लेज स्कूल, कैम्ब्रिज में थॉमसन इमारत खोली।[13]
इन्हें भी देखें
नोबेल पुरस्कार विजेताओं की सूची
भौतिकी में नोबेल पुरस्कार
सन्दर्भ
श्रेणी:व्यक्तिगत जीवन
श्रेणी:1856 में जन्मे लोग
श्रेणी:१९४० में निधन
श्रेणी:भौतिक विज्ञानी
श्रेणी:नोबेल पुरस्कार विजेता भौतिक विज्ञानी | अर्नेस्ट रदरफोर्ड, किस पेशे से सम्बंधित थे? | कैवेंडिश प्रोफ़ेसर | 1,651 | hindi |
32a186c41 | समान नागरिक संहिता अथवा समान आचार संहिता का अर्थ एक धर्मनिरपेक्ष (सेक्युलर) कानून होता है जो सभी धर्म के लोगों के लिये समान रूप से लागू होता है।[1] दूसरे शब्दों में, अलग-अलग धर्मों के लिये अलग-अलग सिविल कानून न होना ही 'समान नागरिक संहिता' का मूल भावना है। समान नागरिक कानून से अभिप्राय कानूनों के वैसे समूह से है जो देश के समस्त नागरिकों (चाहे वह किसी धर्म या क्षेत्र से संबंधित हों) पर लागू होता है।[2] यह किसी भी धर्म या जाति के सभी निजी कानूनों से ऊपर होता है। विश्व के अधिकतर आधुनिक देशों में ऐसे कानून लागू हैं।
समान नागरिकता कानून के अंतर्गत
व्यक्तिगत स्तर
संपत्ति के अधिग्रहण और संचालन का अधिकार
विवाह, तलाक और गोद लेना
समान नागरिकता कानून भारत के संबंध में है, जहाँ भारत का संविधान राज्य के नीति निर्देशक तत्व में सभी नागरिकों को समान नागरिकता कानून सुनिश्चित करने के प्रति प्रतिबद्धता व्यक्त करता है।[3] हालाँकि इस तरह का कानून अभी तक पूरी तरह से लागू नहीं किया जा सका है।गोवा एक मात्र ऐसा राज्य है जहां यह लागू है।
व्यक्तिगत कानून
भारत में अधिकतर निजी कानून धर्म के आधार पर तय किए गए हैं।[4] हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध हिंदू विधि के अंतर्गत आते हैं, जबकि मुस्लिम और ईसाई के लिए अपने कानून हैं। मुस्लिमों का कानून शरीअत पर आधारित है; अन्य धार्मिक समुदायों के कानून भारतीय संसद के संविधान पर आधारित हैं।
इतिहास
मैं व्यक्तिगत रूप से समझ नहीं पा रहा हूं कि क्यों धर्म को इस विशाल, व्यापक क्षेत्राधिकार के रूप में दी जानी चाहिए ताकि पूरे जीवन को कवर किया जा सके और उस क्षेत्र पर अतिक्रमण से विधायिका को रोक सके। सब के बाद, हम क्या कर रहे हैं के लिए इस स्वतंत्रता? हमारे सामाजिक व्यवस्था में सुधार करने के लिए हमें यह स्वतंत्रता हो रही है, जो असमानता, भेदभाव और अन्य चीजों से भरा है, जो हमारे मौलिक अधिकारों के साथ संघर्ष करते हैं।[5]- बी आर अम्बेडकर
१९९३ में महिलाओं के खिलाफ होने वाले भेदभाव को दूर करने के लिए बने कानून में औपनिवेशिक काल के कानूनों में संशोधन किया गया। इस कानून के कारण धर्मनिरपेक्ष और मुसलमानों के बीच खाई और गहरी हो गई। वहीं, कुछ मुसलमानों ने बदलाव का विरोध किया और दावा किया कि इससे देश में मुस्लिम संस्कृति ध्वस्त हो जाएगी।[6]
यह विवाद ब्रिटिशकाल से ही चला आ रहा है। अंग्रेज मुस्लिम समुदाय के निजी कानूनों में बदलाव कर उससे दुश्मनी मोल नहीं लेना चाहते थे। हालाँकि विभिन्न महिला आंदोलनों के कारण मुसलमानों के निजी कानूनों में थोड़ा बदलाव हुआ।[7]
प्रक्रिया की शुरुआत १७७२ के हैस्टिंग्स योजना से हुई और अंत शरिअत कानून के लागू होने से हुआ।[8]. हालाँकि समान नागरिकता कानून उस वक्त कमजोर पड़ने लगा, जब तथाकथित सेक्यूलरों ने मुस्लिम तलाक और विवाह कानून को लागू कर दिया। १९२९ में, जमियत-अल-उलेमा ने बाल विवाह रोकने के खिलाफ मुसलमानों को अवज्ञा आंदोलन में शामिल होने की अपील की। इस बड़े अवज्ञा आंदोलन का अंत उस समझौते के बाद हुआ जिसके तहत मुस्लिम जजों को मुस्लिम शादियों को तोड़ने की अनुमति दी गई।
भारतीय संविधान और समान नागरिक संहिता
समान नागरिक संहिता का उल्लेख भारतीय संविधान के भाग ४ के अनुच्छेद ४४ में है। इसमें नीति-निर्देश दिया गया है कि समान नागरिक कानून लागू करना हमारा लक्ष्य होगा।[9] सर्वोच्च न्यायालय भी कई बार समान नागरिक संहिता लागू करने की दिशा में केन्द्र सरकार के विचार जानने की पहल कर चुका है।
समान नागरिक संहिता वाले पंथनिरपेक्ष देश
समान नागरिक संहिता से संचालित धर्मनिरपेक्ष देशों की संख्या बहुत अधिक है। उनमें से कुछ ये हैं- पोलैण्ड, नार्वे, आस्ट्रेलिया, जर्मनी, यूएसए, यूके, कनाडा, चीन, रूस आदि।
इन्हें भी देखें
बी आर अम्बेडकर
शाहबानो प्रकरण
छद्म धर्मनिरपेक्षता
तुष्टीकरण
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
(पाञ्चजन्य)
श्रेणी:भारतीय विधि
श्रेणी:विधि | समान नागरिक संहिता किस अनुच्छेद के अंतर्गत आता है? | भारतीय संविधान के भाग ४ के अनुच्छेद ४४ में | 2,693 | hindi |
9aa6b3e1e | होली (Holi) वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण भारतीय और नेपाली लोगों का त्यौहार है। यह पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। रंगों का त्यौहार कहा जाने वाला यह पर्व पारंपरिक रूप से दो दिन मनाया जाता है। यह प्रमुखता से भारत तथा नेपाल में मनाया जाता है। यह त्यौहार कई अन्य देशों जिनमें अल्पसंख्यक हिन्दू लोग रहते हैं वहाँ भी धूम-धाम के साथ मनाया जाता है।[1] पहले दिन को होलिका जलायी जाती है, जिसे होलिका दहन भी कहते हैं। दूसरे दिन, जिसे प्रमुखतः धुलेंडी व धुरड्डी, धुरखेल या धूलिवंदन इसके अन्य नाम हैं, लोग एक दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल इत्यादि फेंकते हैं, ढोल बजा कर होली के गीत गाये जाते हैं और घर-घर जा कर लोगों को रंग लगाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि होली के दिन लोग पुरानी कटुता को भूल कर गले मिलते हैं और फिर से दोस्त बन जाते हैं। एक दूसरे को रंगने और गाने-बजाने का दौर दोपहर तक चलता है। इसके बाद स्नान कर के विश्राम करने के बाद नए कपड़े पहन कर शाम को लोग एक दूसरे के घर मिलने जाते हैं, गले मिलते हैं और मिठाइयाँ खिलाते हैं।[2]
राग-रंग का यह लोकप्रिय पर्व वसंत का संदेशवाहक भी है।[3] राग अर्थात संगीत और रंग तो इसके प्रमुख अंग हैं ही पर इनको उत्कर्ष तक पहुँचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे यौवन के साथ अपनी चरम अवस्था पर होती है। फाल्गुन माह में मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहते हैं। होली का त्यौहार वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है। उसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है। इस दिन से फाग और धमार का गाना प्रारंभ हो जाता है। खेतों में सरसों खिल उठती है। बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा छा जाती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं। खेतों में गेहूँ की बालियाँ इठलाने लगती हैं। बच्चे-बूढ़े सभी व्यक्ति सब कुछ संकोच और रूढ़ियाँ भूलकर ढोलक-झाँझ-मंजीरों की धुन के साथ नृत्य-संगीत व रंगों में डूब जाते हैं। चारों तरफ़ रंगों की फुहार फूट पड़ती है।[4] गुझिया होली का प्रमुख पकवान है जो कि मावा (खोया) और मैदा से बनती है और मेवाओं से युक्त होती है इस दिन कांजी के बड़े खाने व खिलाने का भी रिवाज है। नए कपड़े पहन कर होली की शाम को लोग एक दूसरे के घर होली मिलने जाते है जहाँ उनका स्वागत गुझिया,नमकीन व ठंडाई से किया जाता है। होली के दिन आम्र मंजरी तथा चंदन को मिलाकर खाने का बड़ा माहात्म्य है।[5]
इतिहास
होली भारत का अत्यंत प्राचीन पर्व है जो होली, होलिका या होलाका[6] नाम से मनाया जाता था। वसंत की ऋतु में हर्षोल्लास के साथ मनाए जाने के कारण इसे वसंतोत्सव और काम-महोत्सव भी कहा गया है।
इतिहासकारों का मानना है कि आर्यों में भी इस पर्व का प्रचलन था लेकिन अधिकतर यह पूर्वी भारत में ही मनाया जाता था। इस पर्व का वर्णन अनेक पुरातन धार्मिक पुस्तकों में मिलता है। इनमें प्रमुख हैं, जैमिनी के पूर्व मीमांसा-सूत्र और कथा गार्ह्य-सूत्र। नारद पुराण औऱ भविष्य पुराण जैसे पुराणों की प्राचीन हस्तलिपियों और ग्रंथों में भी इस पर्व का उल्लेख मिलता है। विंध्य क्षेत्र के रामगढ़ स्थान पर स्थित ईसा से ३०० वर्ष पुराने एक अभिलेख में भी इसका उल्लेख किया गया है। संस्कृत साहित्य में वसन्त ऋतु और वसन्तोत्सव अनेक कवियों के प्रिय विषय रहे हैं।
सुप्रसिद्ध मुस्लिम पर्यटक अलबरूनी ने भी अपने ऐतिहासिक यात्रा संस्मरण में होलिकोत्सव का वर्णन किया है। भारत के अनेक मुस्लिम कवियों ने अपनी रचनाओं में इस बात का उल्लेख किया है कि होलिकोत्सव केवल हिंदू ही नहीं मुसलमान भी मनाते हैं। सबसे प्रामाणिक इतिहास की तस्वीरें हैं मुगल काल की और इस काल में होली के किस्से उत्सुकता जगाने वाले हैं। अकबर का जोधाबाई के साथ तथा जहाँगीर का नूरजहाँ के साथ होली खेलने का वर्णन मिलता है। अलवर संग्रहालय के एक चित्र में जहाँगीर को होली खेलते हुए दिखाया गया है।[7] शाहजहाँ के समय तक होली खेलने का मुग़लिया अंदाज़ ही बदल गया था। इतिहास में वर्णन है कि शाहजहाँ के ज़माने में होली को ईद-ए-गुलाबी या आब-ए-पाशी (रंगों की बौछार) कहा जाता था।[8] अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के बारे में प्रसिद्ध है कि होली पर उनके मंत्री उन्हें रंग लगाने जाया करते थे।[9] मध्ययुगीन हिन्दी साहित्य में दर्शित कृष्ण की लीलाओं में भी होली का विस्तृत वर्णन मिलता है।
इसके अतिरिक्त प्राचीन चित्रों, भित्तिचित्रों और मंदिरों की दीवारों पर इस उत्सव के चित्र मिलते हैं। विजयनगर की राजधानी हंपी के १६वी शताब्दी के एक चित्रफलक पर होली का आनंददायक चित्र उकेरा गया है। इस चित्र में राजकुमारों और राजकुमारियों को दासियों सहित रंग और पिचकारी के साथ राज दम्पत्ति को होली के रंग में रंगते हुए दिखाया गया है। १६वी शताब्दी की अहमदनगर की एक चित्र आकृति का विषय वसंत रागिनी ही है। इस चित्र में राजपरिवार के एक दंपत्ति को बगीचे में झूला झूलते हुए दिखाया गया है। साथ में अनेक सेविकाएँ नृत्य-गीत व रंग खेलने में व्यस्त हैं। वे एक दूसरे पर पिचकारियों से रंग डाल रहे हैं। मध्यकालीन भारतीय मंदिरों के भित्तिचित्रों और आकृतियों में होली के सजीव चित्र देखे जा सकते हैं। उदाहरण के लिए इसमें १७वी शताब्दी की मेवाड़ की एक कलाकृति में महाराणा को अपने दरबारियों के साथ चित्रित किया गया है। शासक कुछ लोगों को उपहार दे रहे हैं, नृत्यांगना नृत्य कर रही हैं और इस सबके मध्य रंग का एक कुंड रखा हुआ है। बूंदी से प्राप्त एक लघुचित्र में राजा को हाथीदाँत के सिंहासन पर बैठा दिखाया गया है जिसके गालों पर महिलाएँ गुलाल मल रही हैं।[10]
कहानियाँ
होली के पर्व से अनेक कहानियाँ जुड़ी हुई हैं। इनमें से सबसे प्रसिद्ध कहानी है प्रह्लाद की। माना जाता है कि प्राचीन काल में हिरण्यकशिपु नाम का एक अत्यंत बलशाली असुर था। अपने बल के दर्प में वह स्वयं को ही ईश्वर मानने लगा था। उसने अपने राज्य में ईश्वर का नाम लेने पर ही पाबंदी लगा दी थी। हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद ईश्वर भक्त था। प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति से क्रुद्ध होकर हिरण्यकशिपु ने उसे अनेक कठोर दंड दिए, परंतु उसने ईश्वर की भक्ति का मार्ग न छोड़ा। हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह आग में भस्म नहीं हो सकती। हिरण्यकशिपु ने आदेश दिया कि होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठे। आग में बैठने पर होलिका तो जल गई, पर प्रह्लाद बच गया। ईश्वर भक्त प्रह्लाद की याद में इस दिन होली जलाई जाती है।[11] प्रतीक रूप से यह भी माना जाता है कि प्रह्लाद का अर्थ आनन्द होता है। वैर और उत्पीड़न की प्रतीक होलिका (जलाने की लकड़ी) जलती है और प्रेम तथा उल्लास का प्रतीक प्रह्लाद (आनंद) अक्षुण्ण रहता है।[12]
प्रह्लाद की कथा के अतिरिक्त यह पर्व राक्षसी ढुंढी, राधा कृष्ण के रास और कामदेव के पुनर्जन्म से भी जुड़ा हुआ है।[13] कुछ लोगों का मानना है कि होली में रंग लगाकर, नाच-गाकर लोग शिव के गणों का वेश धारण करते हैं तथा शिव की बारात का दृश्य बनाते हैं। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि भगवान श्रीकृष्ण ने इस दिन पूतना नामक राक्षसी का वध किया था। इसी खु़शी में गोपियों और ग्वालों ने रासलीला की और रंग खेला था।[14]
परंपराएँ
होली के पर्व की तरह इसकी परंपराएँ भी अत्यंत प्राचीन हैं और इसका स्वरूप और उद्देश्य समय के साथ बदलता रहा है। प्राचीन काल में यह विवाहित महिलाओं द्वारा परिवार की सुख समृद्धि के लिए मनाया जाता था और पूर्ण चंद्र की पूजा करने की परंपरा थी। वैदिक काल में इस पर्व को नवात्रैष्टि यज्ञ कहा जाता था। उस समय खेत के अधपके अन्न को यज्ञ में दान करके प्रसाद लेने का विधान समाज में व्याप्त था। अन्न को होला कहते हैं, इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा। भारतीय ज्योतिष के अनुसार चैत्र शुदी प्रतिपदा के दिन से नववर्ष का भी आरंभ माना जाता है। इस उत्सव के बाद ही चैत्र महीने का आरंभ होता है। अतः यह पर्व नवसंवत का आरंभ तथा वसंतागमन का प्रतीक भी है। इसी दिन प्रथम पुरुष मनु का जन्म हुआ था, इस कारण इसे मन्वादितिथि कहते हैं।[15]
होली का पहला काम झंडा या डंडा गाड़ना होता है। इसे किसी सार्वजनिक स्थल या घर के आहाते में गाड़ा जाता है। इसके पास ही होलिका की अग्नि इकट्ठी की जाती है। होली से काफ़ी दिन पहले से ही यह सब तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं। पर्व का पहला दिन होलिका दहन का दिन कहलाता है। इस दिन चौराहों पर व जहाँ कहीं अग्नि के लिए लकड़ी एकत्र की गई होती है, वहाँ होली जलाई जाती है। इसमें लकड़ियाँ और उपले प्रमुख रूप से होते हैं। कई स्थलों पर होलिका में भरभोलिए[16] जलाने की भी परंपरा है। भरभोलिए गाय के गोबर से बने ऐसे उपले होते हैं जिनके बीच में छेद होता है। इस छेद में मूँज की रस्सी डाल कर माला बनाई जाती है। एक माला में सात भरभोलिए होते हैं। होली में आग लगाने से पहले इस माला को भाइयों के सिर के ऊपर से सात बार घूमा कर फेंक दिया जाता है। रात को होलिका दहन के समय यह माला होलिका के साथ जला दी जाती है। इसका यह आशय है कि होली के साथ भाइयों पर लगी बुरी नज़र भी जल जाए।[16] लकड़ियों व उपलों से बनी इस होली का दोपहर से ही विधिवत पूजन आरंभ हो जाता है। घरों में बने पकवानों का यहाँ भोग लगाया जाता है। दिन ढलने पर ज्योतिषियों द्वारा निकाले मुहूर्त पर होली का दहन किया जाता है। इस आग में नई फसल की गेहूँ की बालियों और चने के होले को भी भूना जाता है। होलिका का दहन समाज की समस्त बुराइयों के अंत का प्रतीक है। यह बुराइयों पर अच्छाइयों की विजय का सूचक है। गाँवों में लोग देर रात तक होली के गीत गाते हैं तथा नाचते हैं।
होली से अगला दिन धूलिवंदन कहलाता है। इस दिन लोग रंगों से खेलते हैं। सुबह होते ही सब अपने मित्रों और रिश्तेदारों से मिलने निकल पड़ते हैं। गुलाल और रंगों से सबका स्वागत किया जाता है। लोग अपनी ईर्ष्या-द्वेष की भावना भुलाकर प्रेमपूर्वक गले मिलते हैं तथा एक-दूसरे को रंग लगाते हैं। इस दिन जगह-जगह टोलियाँ रंग-बिरंगे कपड़े पहने नाचती-गाती दिखाई पड़ती हैं। बच्चे पिचकारियों से रंग छोड़कर अपना मनोरंजन करते हैं। सारा समाज होली के रंग में रंगकर एक-सा बन जाता है। रंग खेलने के बाद देर दोपहर तक लोग नहाते हैं और शाम को नए वस्त्र पहनकर सबसे मिलने जाते हैं। प्रीति भोज तथा गाने-बजाने के कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं।
होली के दिन घरों में खीर, पूरी और पूड़े आदि विभिन्न व्यंजन पकाए जाते हैं। इस अवसर पर अनेक मिठाइयाँ बनाई जाती हैं जिनमें गुझियों का स्थान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। बेसन के सेव और दहीबड़े भी सामान्य रूप से उत्तर प्रदेश में रहने वाले हर परिवार में बनाए व खिलाए जाते हैं। कांजी, भांग और ठंडाई इस पर्व के विशेष पेय होते हैं। पर ये कुछ ही लोगों को भाते हैं। इस अवसर पर उत्तरी भारत के प्रायः सभी राज्यों के सरकारी कार्यालयों में अवकाश रहता है, पर दक्षिण भारत में उतना लोकप्रिय न होने की वज़ह से इस दिन सरकारी संस्थानों में अवकाश नहीं रहता।
विशिष्ट उत्सव
भारत में होली का उत्सव अलग-अलग प्रदेशों में भिन्नता के साथ मनाया जाता है। ब्रज की होली आज भी सारे देश के आकर्षण का बिंदु होती है। बरसाने की लठमार होली[17] काफ़ी प्रसिद्ध है। इसमें पुरुष महिलाओं पर रंग डालते हैं और महिलाएँ उन्हें लाठियों तथा कपड़े के बनाए गए कोड़ों से मारती हैं। इसी प्रकार मथुरा और वृंदावन में भी १५ दिनों तक होली का पर्व मनाया जाता है। कुमाऊँ की गीत बैठकी[18] में शास्त्रीय संगीत की गोष्ठियाँ होती हैं। यह सब होली के कई दिनों पहले शुरू हो जाता है। हरियाणा की धुलंडी में भाभी द्वारा देवर को सताए जाने की प्रथा है। बंगाल की दोल जात्रा[19] चैतन्य महाप्रभु के जन्मदिन के रूप में मनाई जाती है। जलूस निकलते हैं और गाना बजाना भी साथ रहता है। इसके अतिरिक्त महाराष्ट्र की रंग पंचमी[20] में सूखा गुलाल खेलने, गोवा के शिमगो[21] में जलूस निकालने के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन तथा पंजाब के होला मोहल्ला[22] में सिक्खों द्वारा शक्ति प्रदर्शन की परंपरा है। तमिलनाडु की कमन पोडिगई[23] मुख्य रूप से कामदेव की कथा पर आधारित वसंतोतसव है जबकि मणिपुर के याओसांग[24] में योंगसांग उस नन्हीं झोंपड़ी का नाम है जो पूर्णिमा के दिन प्रत्येक नगर-ग्राम में नदी अथवा सरोवर के तट पर बनाई जाती है। दक्षिण गुजरात के आदिवासियों के लिए होली सबसे बड़ा पर्व है, छत्तीसगढ़ की होरी में लोक गीतों की अद्भुत परंपरा है और मध्यप्रदेश के मालवा अंचल के आदिवासी इलाकों में बेहद धूमधाम से मनाया जाता है भगोरिया[25], जो होली का ही एक रूप है। बिहार का फगुआ[26] जम कर मौज मस्ती करने का पर्व है और नेपाल की होली[27] में इस पर धार्मिक व सांस्कृतिक रंग दिखाई देता है। इसी प्रकार विभिन्न देशों में बसे प्रवासियों तथा धार्मिक संस्थाओं जैसे इस्कॉन या वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर में अलग अलग प्रकार से होली के शृंगार व उत्सव मनाने की परंपरा है जिसमें अनेक समानताएँ और भिन्नताएँ हैं।
साहित्य में होली
प्राचीन काल के संस्कृत साहित्य में होली के अनेक रूपों का विस्तृत वर्णन है। श्रीमद्भागवत महापुराण में रसों के समूह रास का वर्णन है। अन्य रचनाओं में 'रंग' नामक उत्सव का वर्णन है जिनमें हर्ष की प्रियदर्शिका व रत्नावली[क] तथा कालिदास की कुमारसंभवम् तथा मालविकाग्निमित्रम् शामिल हैं। कालिदास रचित ऋतुसंहार में पूरा एक सर्ग ही 'वसन्तोत्सव' को अर्पित है। भारवि, माघ और अन्य कई संस्कृत कवियों ने वसन्त की खूब चर्चा की है। चंद बरदाई द्वारा रचित हिंदी के पहले महाकाव्य पृथ्वीराज रासो में होली का वर्णन है। भक्तिकाल और रीतिकाल के हिन्दी साहित्य में होली और फाल्गुन माह का विशिष्ट महत्व रहा है। आदिकालीन कवि विद्यापति से लेकर भक्तिकालीन सूरदास, रहीम, रसखान, पद्माकर[ख], जायसी, मीराबाई, कबीर और रीतिकालीन बिहारी, केशव, घनानंद आदि अनेक कवियों को यह विषय प्रिय रहा है। महाकवि सूरदास ने वसन्त एवं होली पर 78 पद लिखे हैं। पद्माकर ने भी होली विषयक प्रचुर रचनाएँ की हैं।[28] इस विषय के माध्यम से कवियों ने जहाँ एक ओर नितान्त लौकिक नायक नायिका के बीच खेली गई अनुराग और प्रीति की होली का वर्णन किया है, वहीं राधा कृष्ण के बीच खेली गई प्रेम और छेड़छाड़ से भरी होली के माध्यम से सगुण साकार भक्तिमय प्रेम और निर्गुण निराकार भक्तिमय प्रेम का निष्पादन कर डाला है।[29] सूफ़ी संत हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया, अमीर खुसरो और बहादुर शाह ज़फ़र जैसे मुस्लिम संप्रदाय का पालन करने वाले कवियों ने भी होली पर सुंदर रचनाएँ लिखी हैं जो आज भी जन सामान्य में लोकप्रिय हैं।[8] आधुनिक हिंदी कहानियों प्रेमचंद की राजा हरदोल, प्रभु जोशी की अलग अलग तीलियाँ, तेजेंद्र शर्मा की एक बार फिर होली, ओम प्रकाश अवस्थी की होली मंगलमय हो तथा स्वदेश राणा की हो ली में होली के अलग अलग रूप देखने को मिलते हैं। भारतीय फ़िल्मों में भी होली के दृश्यों और गीतों को सुंदरता के साथ चित्रित किया गया है। इस दृष्टि से शशि कपूर की उत्सव, यश चोपड़ा की सिलसिला, वी शांताराम की झनक झनक पायल बाजे और नवरंग इत्यादि उल्लेखनीय हैं।[30]
संगीत में होली
भारतीय शास्त्रीय, उपशास्त्रीय, लोक तथा फ़िल्मी संगीत की परम्पराओं में होली का विशेष महत्व है। शास्त्रीय संगीत में धमार का होली से गहरा संबंध है, हालाँकि ध्रुपद, धमार, छोटे व बड़े ख्याल और ठुमरी में भी होली के गीतों का सौंदर्य देखते ही बनता है। कथक नृत्य के साथ होली, धमार और ठुमरी पर प्रस्तुत की जाने वाली अनेक सुंदर बंदिशें जैसे चलो गुंइयां आज खेलें होरी कन्हैया घर आज भी अत्यंत लोकप्रिय हैं। ध्रुपद में गाये जाने वाली एक लोकप्रिय बंदिश है खेलत हरी संग सकल, रंग भरी होरी सखी। भारतीय शास्त्रीय संगीत में कुछ राग ऐसे हैं जिनमें होली के गीत विशेष रूप से गाए जाते हैं। बसंत, बहार, हिंडोल और काफ़ी ऐसे ही राग हैं। होली पर गाने बजाने का अपने आप वातावरण बन जाता है और जन जन पर इसका रंग छाने लगता है। उपशास्त्रीय संगीत में चैती, दादरा और ठुमरी में अनेक प्रसिद्ध होलियाँ हैं। होली के अवसर पर संगीत की लोकप्रियता का अंदाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि संगीत की एक विशेष शैली का नाम ही होली है, जिसमें अलग अलग प्रांतों में होली के विभिन्न वर्णन सुनने को मिलते है जिसमें उस स्थान का इतिहास और धार्मिक महत्व छुपा होता है। जहाँ ब्रजधाम में राधा और कृष्ण के होली खेलने के वर्णन मिलते हैं वहीं अवध में राम और सीता के जैसे होली खेलें रघुवीरा अवध में। राजस्थान के अजमेर शहर में ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर गाई जाने वाली होली का विशेष रंग है। उनकी एक प्रसिद्ध होली है आज रंग है री मन रंग है, अपने महबूब के घर रंग है री।[31] इसी प्रकार शंकर जी से संबंधित एक होली में दिगंबर खेले मसाने में होली कह कर शिव द्वारा श्मशान में होली खेलने का वर्णन मिलता है। भारतीय फिल्मों में भी अलग अलग रागों पर आधारित होली के गीत प्रस्तुत किये गए हैं जो काफी लोकप्रिय हुए हैं। 'सिलसिला' के गीत रंग बरसे भीगे चुनर वाली, रंग बरसे और 'नवरंग' के आया होली का त्योहार, उड़े रंगों की बौछार, को आज भी लोग भूल नहीं पाए हैं।
आधुनिकता का रंग
होली रंगों का त्योहार है, हँसी-खुशी का त्योहार है, लेकिन होली के भी अनेक रूप देखने को मिलते हैं। प्राकृतिक रंगों के स्थान पर रासायनिक रंगों का प्रचलन, भांग-ठंडाई की जगह नशेबाजी और लोक संगीत की जगह फ़िल्मी गानों का प्रचलन इसके कुछ आधुनिक रूप हैं।[32] लेकिन इससे होली पर गाए-बजाए जाने वाले ढोल, मंजीरों, फाग, धमार, चैती और ठुमरी की शान में कमी नहीं आती। अनेक लोग ऐसे हैं जो पारंपरिक संगीत की समझ रखते हैं और पर्यावरण के प्रति सचेत हैं। इस प्रकार के लोग और संस्थाएँ चंदन, गुलाबजल, टेसू के फूलों से बना हुआ रंग तथा प्राकृतिक रंगों से होली खेलने की परंपरा को बनाए हुए हैं, साथ ही इसके विकास में महत्वपूर्ण योगदान भी दे रहे हैं।[33] रासायनिक रंगों के कुप्रभावों की जानकारी होने के बाद बहुत से लोग स्वयं ही प्राकृतिक रंगों की ओर लौट रहे हैं।[34] होली की लोकप्रियता का विकसित होता हुआ अंतर्राष्ट्रीय रूप भी आकार लेने लगा है। बाज़ार में इसकी उपयोगिता का अंदाज़ इस साल होली के अवसर पर एक अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठान केन्ज़ोआमूर द्वारा जारी किए गए नए इत्र होली है से लगाया जा सकता है।[35]
टीका टिप्पणी
क.
कीर्णौःपिष्टातकौधैः कृतदिवसमुखैः कुंकुमसिनात गौरेः
हेमालंकारभाभिर्भरनमितशिखैः शेखरैः कैकिरातैः।
एषा वेषाभिलक्ष्यस्वभवनविजिताशेषवित्तेशकोषा
कौशाम्बी शातकुम्भद्रवखजितजनेवैकपीता विभाति। -'रत्नावली', 1.11
ख.
फाग के भीर अभीरन में गहि गोविन्दै लै गई भीतर गोरी।
भाई करी मन की 'पद्माकर' ऊपर नाई अबीर की झोरी।
छीन पिताम्बर कम्मर ते सु बिदा दई मीड़ कपालन रोरी।
नैन नचाइ, कही मुसकाइ लला फिरी अइयो खेलन होरी।
सन्दर्भ
इन्हें भी देखें
होली लोकगीत
बाहरी कड़ियाँ
श्रेणी:होली
श्रेणी:संस्कृति
श्रेणी:हिन्दू त्यौहार
श्रेणी:भारतीय पर्व
श्रेणी:उत्तम लेख
श्रेणी:भारत में त्यौहार | हिंदू धर्म के रंगों के त्यौहार का नाम क्या है? | होली | 0 | hindi |
95a2985ac | नेपोलियन बोनापार्ट (15 अगस्त 1769 - 5 मई 1821) (जन्म नाम नेपोलियोनि दि बोनापार्टे) फ्रान्स की क्रान्ति में सेनापति, 11 नवम्बर 1799 से 18 मई 1804 तक प्रथम कांसल के रूप में शासक और 18 मई 1804 से 6 अप्रैल 1814 तक नेपोलियन I के नाम से सम्राट रहा। वह पुनः 20 मार्च से 22 जून 1815 में सम्राट बना। वह यूरोप के अन्य कई क्षेत्रों का भी शासक था।
इतिहास में नेपोलियन विश्व के सबसे महान सेनापतियों में गिना जाता है। उसने एक फ्रांस में एक नयी विधि संहिता लागू की जिसे नेपोलियन की संहिता कहा जाता है।
वह इतिहास के सबसे महान विजेताओं में से एक था। उसके सामने कोई रुक नहीं पा रहा था। जब तक कि उसने 1812 में रूस पर आक्रमण नहीं किया, जहां सर्दी और वातावरण से उसकी सेना को बहुत क्षति पहुँची। 18 जून 1815 वॉटरलू के युद्ध में पराजय के पश्चात अंग्रज़ों ने उसे अन्ध महासागर के दूर द्वीप सेंट हेलेना में बन्दी बना दिया। छः वर्षों के अन्त में वहाँ उसकी मृत्यु हो गई। इतिहासकारों के अनुसार अंग्रेज़ों ने उसे संखिया (आर्सीनिक) का विष देकर मार डाला।
मूल और शिक्षा
नैपोलियन कार्सिका और फ्रांस के एकीकरण के अगले वर्ष ही १५ अगस्त १७६९ ई॰ को अजैसियों में पैदा हुआ था। उसके पिता चार्ल्स बोनापार्ट एक चिरकालीन कुलीन परिवार के थे। उनका वंश कार्सिका के समीपस्थ इटली के टस्कनी प्रदेश से संभूत बताया जाता है। चार्ल्स बोनापार्ट फ्रेंच दरबार में कार्सिका का प्रतिनिधित्व करते थे। उन्होंने लीतिशिया रेमॉलिनो (Laetitia Ramolino) नाम की एक उग्र स्वभाव की सुंदरी से विवाह किया था जिससे नैपोलियन पैदा हुआ। चार्ल्स ने फ्रेंच शासन के विरुद्ध कार्सिकन विद्रोह में भाग भी लिया था, किंतु अंतत: फ्रेंच शक्ति से साम्य स्थापित करना ही श्रेयस्कर समझा। फ्रेंच गवर्नर मारबिफ (Marbeuf) की कृपा से उन्हें वर्साय की एक मंत्रणा में सम्मिलित होने का अवसर भी मिला। चार्ल्स के साथ उसकी द्वितीय पुत्र नैपोलियन भी था। उसके व्यक्तित्व से जिस उज्वल भविष्य का संकेत मिलता था उससे प्रेरित होकर फ्रेंच अधिकारियों ने ब्रीन (Brienne) की सैनिक अकैडैमी में अध्ययन करने के लिए उसे एक छात्रवृत्ति प्रदान की और वहाँ उसने १७७९ से १७८४ तक शिक्षा पाई। तदुपरांत पैरिस के सैनिक स्कूल में उसे अपना तोपखाने संबंधी ज्ञान पुष्ट करने का अवसर लगभग एक वर्ष तक मिला। इस प्रकार नैपोलियन का बाल्यकाल फ्रेंच वातावरण में व्यतीत हुआ।
प्रारंभिक कैरियर
बाल्यवस्था में ही सारे परिवार के भरण पोषण का उत्तरदायित्व कोमल कंधों पर पड़ जाने के कारण उसे वातावरण की जटिलता एवं उसके अनुसार व्यवहार करने की कुशलता मिल गई थी। अतएव फ्रेंच क्रांति में उसका प्रवेश युगांतरकारी घटनाओं का संकेत दे रहा था। फ्रांस के विभिन्न वर्गों से संपर्क स्थापित करने में उसे कोई संकोच या हिचकिचाहट नहीं थी। उसने जैकोबिन दल में भी प्रवेश किया था और २० जून के तुइलरिए (Tuileries) के अधिकार के अवसर पर उसे घटनाओं से प्रत्यक्ष परिचय हुआ था। फ्रांस के राजतंत्र की दुर्दशा का भी उसे पूर्ण ज्ञान हो गया था। यहीं से नैपोलियन के विशाल व्यक्तित्व का आविर्भाव होता है।
नैपोलियन के उदय तक फ्रेंच क्रांति पूर्ण अराजकता में परिवर्तित हो चुकी थी। जैकोबिन और गिरंडिस्ट दलों की प्रतिद्वंद्विता और वैमनस्य के परिणाम स्वरूप ही उस 'आतंक का शासन' संचालित किया गया था, जिसमें एक एक करके सभी क्रांतिकारी यहाँ तक कि स्वयं राब्सपियर भी मार डाला गया था। १७९३ ई॰ में टूलान (Toulan) के घेरे में नैपोलियन को प्रथम बार अपना शौर्य एवं कलाप्रदर्शन का अवसर मिला था। डाइरेक्टरी का एक प्रमुख शासक बैरास उसकी प्रतिभा से आकर्षित हो उठा। फिर १७९५ में जब भीड़ कंर्वेशन को हुई थी, तो डाइरेक्टरी द्वारा विशेष रूप से आयुक्त होने पर नैपोलियन ने कुशलतापूर्वक कंवेंशन की रक्षा की और संविधान को होने दिया। इन सफलताओं ने सारे फ्रांस का ध्यान नैपोलियन की ओर आकृष्ट किया और डाइरेक्टरी ने उसे इटली के अभियान का नेतृत्व दिया (२ मार्च १७९६)। एक सप्ताह पश्चात् उसने जोज़ेफीन (Josephine) से विवाह किया और तदुपरांत अपनी सेना सहित इटली में प्रवेश किया।
इतालवी अभियान तथा अन्य सैनिक अभियान
इटली का अभियान नैपोलियन की सैनिक तथा प्रशासकीय क्षमता का ज्वलंत उदाहरण था। इस बात की घोषणा पूर्व ही कर दी गई थी कि फ्रेंच सेना इटली को ऑस्ट्रिया की दासता से मुक्त कराने आ गयी है। उसने पहले तीन स्थानों पर शत्रु को परास्त कर ऑस्ट्रिया का (Piedmont) से संबंध तोड़ दिया। तब सारडीनिया को युद्धविराम करने के लिए विवश कर दिया। फिर लोडी के स्थान में उसे मीलान प्राप्त हुआ। रिवोली के युद्ध में मैंटुआ को समर्पण करना पड़ा। आर्कड्यूक चार्ल्स को भी संधिपत्र प्रस्तुत करना पड़ा और ल्यूबन (Leoben) का समझौता हुआ। इन सारे युद्धों और वार्ताओं में नैपोलियन ने पेरिस से किसी प्रकार का आदेश नहीं लिया। पोप को भी संधि करनी पड़ी। लोंबार्डी को सिसालपाइन तथा जिनोआ को लाइग्यूरियन गणतंत्र में परिवर्तित कर फ्रेंच नमूने पर एक विधान दिया। इन सफलताओं से ऑस्ट्रिया के पैर उखड़ गए और उसे कैंपो फौर्मियों (Campo Formio) की संधि के लिए नैपोलियन के संमुख नत होना पड़ा तथा इस जटिल परिस्थिति में ऑस्ट्रिया को अपने बेललियम प्रदेशों से और राइन के सीमांत क्षेत्रों तथा लोंबार्डी से अपना हाथ खींच लेना पड़ा। नैपोलियन के इन युद्धों से तथा छोटे राज्यों को समाप्त कर वृहत् इकाई में परिवर्तित करने के कार्यों से, इटली में एक राष्ट्रीय आंदोलन खड़ा हुआ जो इतिहास में रीसॉर्जीमेंटो (Risorgimento) के नाम से प्रसिद्ध है।
इटालियन अभियान से लौटने पर नैपोलियन का भव्य स्वागत हुआ। डाइरेक्टरी भी भयभीत हो गई तथा नैपोलियन को फ्रांस से दूर रखने का उपाय सोचने लगी। इस समय फ्रांस का प्रतिद्वंद्वी केवल ब्रिटेन रह गया था। नैपोलियन ने ब्रिटेन को हराने के लिए उसके साम्राज्य पर कुठाराघात न करना उचित समझा तथा अपनी मिस्र-अभियान-योजना रखी। डाइरेक्टरी ने उसे तुरंत स्वीकार कर लिया। १७९८ ई॰ में बोनापार्ट ने मिस्र के लिए प्रस्थान किया। ब्रिटेन पर प्रत्यक्ष आक्रमण करने के स्थान पर ब्रिटेन के पूर्वी साम्राज्य को मिस्त्र के माध्यम से समाप्त करने की योजना फ्रेंच शासकों को संगत प्रतीत हुई। मैमलुक तुर्की से इसका सामना पैरामिड के तथाकथित युद्ध में हुआ। किंतु ब्रिटिश नौसेना का भूमध्यसागरीय अध्यक्ष कमांडर नेल्सन नैपोलियन का पीछा कुशलतापूर्वक कर रहा था। उसने आगे बढ़कर फ्रांसीसियों को नील नदी के युद्ध में तितर-बितर कर दिया तथा टर्की को भी इंगलैड की ओर से युद्ध में प्रवेश करने के लिए विवश कर दिया। नेल्सन की इस सफलता ने ब्रिटेन को एक द्वितीय गुट बनाने का अवसर दिया और यूरोप के वे राष्ट्र, जिन्हें नैपोलियन दबा चुका था, फ्रांस के विरुद्ध अभियान की तैयारी करने लगे।
तुर्की के युद्ध में प्रविष्ट हो जाने पर नैपोलियन ने सीरिया का अभियान छेड़ा। केवल तेरह हजार की एक सीमित टुकड़ी के साथ एकर (Acre) की ओर बढ़ा किंतु सिडनी स्मिथ जैसे कुशल सेनानी द्वारा रोक दिया गया। यह नैपोलियन के लिए वरदान सिद्ध हुआ। अब नैपोलियन सीरिया में एक दूसरे फ्रेंच साम्राज्य की रचना में लग गया। किंतु फ्रांस इस समय एक नाजुक स्थिति से गुजर रहा था। अत: नैपोलियन ने मिस्र में अपनी सत्ता स्थापित करने में सफलीभूत होते हुए भी फ्रांस में प्रकट हो जाना वांछनीय समझा। नैपोलियन के फ्रांस में प्रवेश करते ही हलचल पैदा हो गई। अनुकूल वातावरण पाकर नवंबर, १७९९ में नैपोलियन ने सत्ता हथिया कर डायरेक्टरी का विघटन किया और नया विधान बनाया। इस विधान के अनुसार तीन कौंसल (Consul) नियुक्त हुए। कुछ समय पश्चात् सारी शक्तियाँ प्रथम कौंसल नैपोलियन में केद्रित हो गई। फ्रांस एक दीर्घ अशांति से थक चुका था तथा क्रांति को स्थापित्व की ओर ले जाने के लिए अन्तरकालीन शांति परम आवश्यक थी। किंतु शांति स्थापना के पूर्व ऑस्ट्रिया को नतमस्तक कर देने के लिए एक इटालियन अभियान आवश्यक था।
नैपोलियन ने १८०० ई॰ में इटली का दूसरा अभियान बसंत ऋतु में प्रारंभ किया तथा मेरेंगो (Marengo) की विजय प्राप्त कर आस्ट्रिया को ल्यूनविल (Luneville) की संधि के लिए विवश कर दिया, जिसमें पहले की कैम्पोफोर्मियों की सारी शर्तें दोहराई गई। अब द्वितीय गुट टूट गया और नेपोलियन ने इंगलैंड से आमिऐं (Amiens) की संधि १८०१ ई॰ में की, जिसके अंतर्गत दोनों राष्ट्रों ने एक दूसरे के विजित प्रदेश वापस किए। अब नेपोलियन ने एक सुधार योजना कार्यान्वित कर फ्रांस को शासन और व्यवस्था दी। फ्रांस की आर्थिक स्थिति में अनुशासन दिया। शिक्षा पद्धति में अभूतपूर्व परिवर्तन किए। भूमिकर व्यवस्था सुदृढ़ की। पेरिस का सौंदर्यीकरण किया। सेना में यथेष्ट परिवर्तन किए तथा फ्रांस की व्यवस्था को एक वैज्ञानिक आधार दिया, जो अब भी नेपोलियन कोड के नाम से विख्यात है। पोप से एक कॉन कौरडेट (Concordat) कर कैथलिक जगत् का समर्थन प्राप्त कर लिया।
फ्रांस का सम्राट
इन सुधारों से नैपोलियन को यथेष्ट सफलता प्राप्त हुई और मार्च १८०४ ई॰ में वह फ्रांस का सम्राट् बन गया। इस घटना से सारे यूरोप में एक हलचल पैदा हुई। फ्रांस और ब्रिटेन के बीच फिर युद्ध के बादल मंडराने लगे। नैपोलियन ने इंगलैंड पर आक्रमण करने के लिए उत्तरी समुद्री तट पर बोलोन (Boulogne) में अपनी सेना भेजी। इंगलैंड ने इसके उत्तर में अपने इंग्लिश चैनल स्थित नौसेना की टुकड़ी को जागरुक किया और फिर हर भिड़ंत में नैपोलियन को चकित करता गया। आमिऐं की संधि के समाप्त होते ही विलियम पिट शासन में आया और उसने इंगलैंड, ऑस्ट्रिया, यस आदि राष्ट्रों को मिलाकर एक तृतीय गुट (१८०५) बनाया। नैपोलियन ने फिर ऑस्ट्रिया के विरुद्ध मोर्चाबंदी की और सिसआलपाइन गणतंत्र को समाप्त कर स्वयं इटली के राजा का पद ग्रहण किया। ऑस्ट्रिया को उल्म (Ulm) के युद्ध में हराया। ऑस्ट्रिया का शासक फ्रांसिस भाग गया और जार की शरण ली। इधर ट्राफलगर के युद्ध में नेलसन ने नैपोलियन की जलसेना को हरा दिया था, जिससे ऑस्ट्रिया को फिर से नैपोलियन को चुनौती देने का मौका मिल गया था। लेकिन आस्टरलिट्ज के युद्ध में हार जाने पर आस्ट्रिया को प्रेसवर्ग की लज्जापूर्ण संधि स्वीकार करनी पड़ी। इस सफलता से नैपोलियन का उल्लास बढ़ गया और अब उसने जर्मनी को रौंदना प्रारंभ किया। जेना (Jena) और आरसटेड (Auerstedt) के युद्धों में १४ अक्टूबर १८०६ ई॰ में हराकर राइन संधि की रचना कर अपने भाई जोसेफ बोनापर्ट के शासन को मजबूत किया। अब केवल रूस रह गया जिसे नैपोलियन ने जून १८०७ ई॰ में फ्रीडलैंड (Friedland) के युद्ध में हराकर जुलाई १८०७ की टिलसिट (Tilsit) की संधि के लिए विवश किया।
सारे यूरोप का स्वामी हो जाने पर अब नेपोलियन ने इंगलैंड को हराने के लिए एक आर्थिक युद्ध छेड़ा (महाद्वीपीय व्यवस्था, देखें)। सारे यूरोप के राष्ट्रों का व्यापार इंगलैंड से बंद कर दिया तथा यूरोप की सारी सीमा पर एक कठोर नियंत्रण लागू किया। ब्रिटेन ने इसके उत्तर में यूरोप के राष्ट्रों का फ्रांस के व्यापार रोक देने की एक निषेधात्मक आज्ञा प्रचारित की। ब्रिटेन ने अपनी क्षतिपूर्ति उपनेवेशों से व्यापार बढ़ा कर कर ली, किंतु यूरोपीय राष्ट्रों की आर्थिक स्थिति बिगड़ने लगी और वे फ्रांस की इस यातना से पीड़ित हो उठे। सबसे पहले स्पेन ने इस व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह किया। परिणामस्वरूप नैपोलियन ने स्पेन पर चढ़ाई की और वहाँ की सत्ता छीन ली। इस पर स्पेन में एक राष्ट्रीय विद्रोह छिड़ गया। नेपोलियन इसको दबा भी नहीं पाया था कि उसे ऑस्ट्रिया के विद्रोह को दबाना पड़ा और फिर क्रम से प्रशा और रूस ने भी इस व्यवस्था की अवज्ञा की। रूस का विद्रोह नेपोलियन के लिए विनाशकारी सिद्ध हुआ। उसके मॉस्को अभियान की बर्बादी इतिहास में प्रसिद्ध हो गयी है। पेरिस लौटकर नेपोलियन ने पुन: एक सेना एकत्र की किंतु लाइपत्सिग (Leipzig) में उसे फिर प्रशा, रूस और आस्ट्रिया की संमिलित सेनाओं ने हराया। चारों ओर राष्ट्रीय संग्राम छिड़ जाने से वह सक्रिय रूप से किसी एक राष्ट्र को न दबा सका तथा १८१४ ई॰ में एल्बा द्वीप (Elba Island) भेज दिया गया। मित्र राष्ट्रों की सेनाएं वापस भी नहीं हो पायीं थीं कि सूचना मिली कि नेपोलियन का शतदिवसीय शासन शुरू हुआ। अत: मित्र राष्ट्रों ने उसे १८१५ में वाटरलू के युद्ध में हराकर सेंट हेलेना (St. Helena) का कारावास दिया। वहाँ १८२१ ई॰ में पाँच मई को उसकी मृत्यु हुई।
नेपोलियन के सुधार
नेपोलियन बोनापार्ट ने 1799 में सत्ता को हाथों में लेकर अपनी स्थिति सुदृढ़ करने तथा फ्रांस को प्रशासनिक स्थायित्व प्रदान करने के लिए विभिन्न क्षेत्रों में सुधार किए। वस्तुतः डायरेक्टरी के शासन को समाप्त कर नेपालियन ने सत्ता की थी और फ्रांस की जनता ने उस परिवर्तन को स्वीकार किया था तो इसका कारण था वह अराजकता और अव्यवस्था से उब चुकी थी। अतः नेपोलियन के लिए यह जरूरी था कि वह आंतरिक क्षेत्र में एक सुव्यवस्थित शासन और कानून व्यवस्था की स्थापना करे।
संविधान निर्माण
प्रथम काउंसल बनने के बाद नेपोलियन ने फ्रांस के लिए एक नवीन संविधाान का निर्माण किया जो क्रांति युग का चौथा संविधान था। इसके द्वारा कार्यपालिका शक्ति तीन कांउसलरों में निहित कर दी गई। प्रधान काउंसल को अन्य काउंसलरों से अधिक शक्ति प्राप्त थी। वास्तव में संविधान में गणतंत्र का दिखाया तो जरूर था लेकिन राज्य की सम्पूर्ण सत्ता नेपालियन के हाथों में केन्द्रित थी।
प्रशासनिक सुधार
नेपोलियन ने शासन व्यवस्था का केंन्द्रीकरण किया और डिपार्टमेण्त्स तथा डिस्ट्रिक्ट की स्थानीय सरकारों को समाप्त कर प्रीफेक्ट (perfects) एवं सब-प्रीफेक्ट्स की नियुक्ति की। इनकी नियुक्ति तथा गांव और शहरों के सभी मेयरों की नियुक्ति सीधे केंन्द्रीय सरकार द्वारा की जाने लगी। इस प्रकार प्रशासन के क्षेत्र नेपोलियन ने इन अधिकारियों पर पर्याप्त नियंत्रण रख प्रशासन को चुस्त-दुरूस्त बनाए रखा साथ ही योग्यता के आधार पर इनकी नियुक्ति की।
प्रशासनिक क्षेत्रों में नेपोलियन के सुधार एक प्रकार से क्रांति के विरोधी के रूप में थे क्योंकि नेशनल एसेम्बली ने क्रांति के दौरान प्रशासनिक ढांचे का पूर्ण विकेन्द्रीकरण कर दिया था तथा देश का शासन चलाने का दायित्व निर्वाचित प्रतिनिधियों को दिया गया था लेकिन नेपालियन ने इस व्यवस्था को उलट दिया और क्रांतिपूर्व व्यवस्था को फिर से स्थापित किया। उस दृष्टि से वह क्रांति का हंता था।
आर्थिक सुधार
नेपोलियन ने फ्रांस की जर्जर आर्थिक स्थिति से उसे उबारने का प्रयत्न किया। इस क्रम में उसने सर्वप्रथम कर प्रणाली को सुचारू बनाया। कर वसूलने का कार्य केन्द्रीय कर्मचारियों के जिम्मे किया तथा उसकी वसूली सख्ती से की जाने लगी। उसने घूसखोरी, सट्टेबाजी, ठेकेदारी में अनुचित मुनाफे पर रोक लगा दी। उसने मितव्ययिता पर बल दिया और फ्रांस की जनता पर अनेक अप्रत्यक्ष कर लगाए। नेपोलियन ने फ्रांस में वित्तीय गतिविधियों को सुचारू रूप से चलाने के लिए बैंक ऑफ फ्रांस की स्थापना की जो आज भी कायम है। राष्ट्रीय ऋण को चुकाने के लिए उसने एक पृथक कोष की भी स्थापना की। नेपोलियन ने जहां तक संभव हुआ सेना के खर्च का बोझ विजित प्रदेशों पर डाला और फ्रांस की जनता को इस बोझ से मुक्त रखने की कोशिश की। नेपोलियन ने कृषि के सुधार पर भी बल दिया और बंजर और रेतीले इलाके को उपजाऊ बनाने की योजना बनाई।
व्यापार के विकास के लिए नेपोलियन ने आवागमन के साधनों की तरफ पर्याप्त ध्यान दिया। सड़कें, नहरें बनवाई गई विभिन्न प्रकार के व्यवसायों की प्रगति के लिए यांत्रिक शिक्षा की व्यवस्था की। फ्रांसीसी औद्योगिक वस्तुओं को लोकप्रिय बनाने के लिए प्रदर्शनी के आयोजन को बढ़ावा दिया और स्वदेशी वस्तुओं एवं उद्योगों को प्रोत्साहन दिया। बेरोजगारी की समस्या को दूर करने के लिए निर्माण कार्य को प्रोत्साहन दिया। इस तरह नेपोलियन ने फ्रांस को जर्जर और दिवालियेपन की स्थित से उबारा।
किन्तु आर्थिक सुधारों की दृष्टि से भी नेपोलियन के कार्य क्रांति विरोधी दिखाई देते हैं। क्रांतिकाल में प्रत्यक्ष करो पर बल दिया गया था जबकि नेपोलियन ने अप्रत्यक्ष करों पर बल देकर पुरातन व्यवस्था को स्थापित करने की कोशिश की। इसी प्रकार नेपोलियन ने वाणिज्यिवादी दर्शन को प्राथमिकता देकर क्रांतिविरोधी मानसिकता का प्रदर्शन किया। उसका मानना था कि राज्य को कोष की सुरक्षा एवं व्यापार में संतुलन लाने के लिए सक्रिय हस्तक्षेप करना होगा जबकि क्रांति का बल तो मुक्त व्यापार पर था।
शिक्षा संबंधी सुधार
नेपालियन ऐसे नागरिकों को चाहता था जो उसके एवं उसके तंत्र के प्रति विश्वास रखे। इसके लिए उसने शिक्षा के राष्ट्रीय एवं धर्मनिरपेक्ष स्वरूप अपनाते हुए सुधार किए। शिक्षा को प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च स्तरों पर संगठित किया। सरकार के द्वारा नियुक्त शिक्षकों की सहायता से चलने वाले इन स्कूलों में एक ही पाठ्यक्रम, एक ही पाठ्यपुस्तकें एक ही वर्दी रखी जाती थी। नेपोलियन ने पेरिस में एक विश्वविद्यालय की स्थापना की और उसमें लैटिन, फ्रेंच, विज्ञान, गणित इत्यादि विषयों की शिक्षा दी जाती थी। यह यूनिवर्सिटी विश्वविद्यालय के सामान्य अर्थ में कोई यूनिवर्सिटी नहीं थी वरन् प्राथमिक से उच्चतर शिक्षा तक की सभी संस्थाओं को एकसूत्र में बांधने वाली एक व्यवस्था की। शिक्षा पर अधिकाधिक सरकारी नियंत्रण रखना तथा विद्यार्थियों को शासन के प्रति निष्ठावान बनाना इसका उद्देश्य था। नेपोलियन ने शोध कार्यों के लिए इंस्टीच्यूट ऑफ फ्रांस की स्थापना की।
नेपोलियन की नारी शिक्षा में कोई रूचि नहीं दिखाई। उनकी शिक्षा का भार धार्मिक संस्थाओं पर छोड़ दिया गया।
धार्मिक सुधार
फ्रांस की बहुसंख्यक जनता कैथोलिक चर्च के प्रभाव में थी। क्रांति के दौरान चर्च की शक्ति को कमजोर कर उसे राज्य के अधीन ले आया गया। चर्च की सम्पति का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया और पादरियों को राज्य की वफादारी की शपथ लेने को कहा गया। इससे पोप नाराज हुआ और आम जनता को विरोध करने के लिए उकसाया। फलतः सरकार और आमजनता के बीच तनाव पैदा हो गया। नेपोलियन ने इसे दूर करने के लिए 1801 से पोप के साथ समझौता किया जिसे कॉनकारडेट (Concordate) कहा जाता है। उसके निम्नलिखित प्रावधान थे।
कैथलिक धर्म को राजकीय धर्म के रूप में स्वीकार किया गया।
विशपों की नियुक्ति प्रथम काउंसलर के द्वारा होगी पर वे अपने पद में पोप द्वारा दीक्षित होंगे। शासन की स्वीकृति पर ही छोटे पादरियों की नियुक्ति विशप करेगा। सभी चर्च के अधिकारियों को राज्य के प्रति भक्ति लेना आवश्यक था। इस तरह चर्च राज्य का अंग बन गया और उसके अधिकारी राज्य से वेतन पाने लगे।
गिरफ्तार पादरी छोड़ दिए गए और देश से भागे पादरियों को वापस आने की इजाजत दे दी गई।
चर्च की जब्ज संपत्ति एवं भूमि से पोप ने अपना अधिकार त्याग दिया।
क्रांति काल के कैलेण्डर को स्थगित कर दिया गया तथा प्राचीन कैलेण्डर एवं अवकाश दिवसों को पुनः लागू कर दिया गया।
इस प्रकार नेपोलियन ने राजनीतिक उद्देश्यों से परिचालित होकर पोप से संधि की और क्रांतिकालीन अव्यवस्था को समाप्त कर चर्च को राज्य का सहभागी बनाया। प्रकारांतर से नेपोलियन ने चर्च के क्रांतिकालीन घावों पर मरहम लगाने की कोशिश की।
किन्तु इस समझौते के द्वारा नेपोलियन ने कैथोलिक धर्म को राज्य धर्म बनाकर राज्य के धर्मनिरपेक्ष भावना को ठेस पहुंचाई। धर्म को राज्य का अंग मानने वाले नेपोलियन का पोप के साथ यह समझौता अस्थायी रहा क्योंकि 1807 ई. में पोप के साथ उसे संघर्ष करना पड़ा तथा पोप के राज्य पर नियंत्रण स्थापित किया।
कानून संहिता (नेपोलियन कोड) का निर्माण
नेपोलियन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और स्थायी कार्य था- विधि संहिता का निर्माण। वस्तुतः क्रांति के पहले फ्रांस की कानून व्यवस्था छिन्न-भिन्न थी और इतने प्रकार के कानून थे कि कानून का पालन कराने वालों को भी उनका ज्ञान नहीं था और क्रांति के दौरान भी यह अराजकता बढ़ गई थी। नेपोलियन ने इस अव्यवस्था को दूर किया। स्वयं नेपोलियन अपनी विधि संहिता को अपने 40 युद्धों से अधिक शक्तिशाली मानता था। इस कोड के द्वारा नेपोलियन ने फ्रांस में सार्वलौकिक कानून पद्धति की स्थापना की।
नागरिक संहिता के तहत उसने परिवार के मुखिया का अधिकार सुदृढ़ किया। स्त्रियाँ पुरूषों के अधीन रखी गई और पति का कार्य पत्नी की रक्षा करना है। तलाक की पद्धति को कठिन बनाया गया। सिविल विवाह की व्यवस्था भी इस संहिता में की गई। इस प्रकार सिविल विवाह और तलाक की प्रथा को मान्यता देकर नेपोलियन ने यूरोप में इस बात का प्रचलन किया कि बिना पादरियों के सहयोग के भी समाज का काम चल सकता है।
इस प्रकार अन्य संहिताएँ जैसे व्यापार संबंधी कानून संहिता, Code of Criminal Proc. आदि बनाए गए। उसके व्यापारिक कोड में श्रमजीवियों के हितों की उपेक्षा की गई थी और उनके संघों पर प्रतिबन्ध को जारी रखा गया था। इस दृष्टि से नेपोलियन ने क्रांति के आदर्शों के विरूद्ध कार्य किया।
इसके बावजूद इस विधि संहिता की महत्ता समूचे देश में कानून की एकरूपता प्रदान करने तथा व्यावहारिक रूप से न्याय व्यवस्था को आसान बनाने में थी। जहाँ-जहाँ नेपोलियन की सेनाएँ गई यह संहिता लागू की गई और नेपोलियन के पराजय के बाद भी बरकरार रही। यह नेपोलियन की एक स्थायी कीर्ति है।
नेपोलियन के विधि संहिता में बुर्जुआ वर्ग के हितों पर ज्यादा जोर दिया गया है। भूमि संबंधी अधिकारी को और मजबूत बनाया गया और व्यक्ति संपति की रक्षा को और मजबूत बनाया गया और व्यक्तिगत संपति की रक्षा के लिए कई कानून बनाए। टे्रड यूनियन बनाना अपराध घोषित किया गया। मुकदमें की स्थिति में मजदूरों की दलीलों के बदले मालिकों की बातों को न्यायालयों को मानने को कहा गया।
सामाजिक क्षेत्र में सुधार
नागरिक संहिता का आधार सामाजिक समता भी है। विशेषाधिकार और सामंती नियम का संहिता में कोई स्थान नहीं था। बड़े पुत्र को संपत्ति का उत्तराधिकारी मानने का कानून भी नहीं था संपत्ति पर सभी पुत्रों को बराबरी का अधिकार दिया गया। नेपोलियन ने समाज में एक नवीन कुलीन वर्ग की स्थापना की। उसने आय के हिसाब से उपाधियों का क्रम निर्धारित किया। नेपोलियन का यह कार्य क्रांति के आदर्शों के विपरीत था।
नेपोलियन के पतन के कारण
युरोप राजनीतिक क्षितिज पर नेपोलियन का प्रादुर्भाव एक घूमकेतु की तरह हुआ और अपनी प्रक्रिया तथा परिश्रम के बल पर वह शीघ्र ही यूरोप का भाग्यविधाता बन बैठा। उसमें अद्भुत सैनिक तथा प्रशासनिक क्षमता से सभी को चकित कर दिया। परंतु उसकी शक्ति का स्तंभ जैसे बालु की दीबार पर खड़ा था। जो कुछ ही वर्षों में ध्वस्त हो गया वस्तुत: नेपोलियन का उत्थान और पतन चकाचौंध करने वाली उल्का के समान हुआ। वह युरोप के आकाश में सैनिक सफलता के बल पर चमकता रहा परन्तु पराजय के साथ ही उसके भाग्य का सितारा डूब गया। जिस साम्राज्य की कठिन परिश्रम के पश्चात कायम किया गया था, वह देखते ही देखते समाप्त हो गया उसके पतन के अनेक कारण थे जो निम्न प्रकार है।
असीम महात्वाकांक्षा-
नेपोलियन असीम महात्वकांक्षी था। असीम महात्वकांक्षी किसी व्यक्ति के पतन का मुख्य कारण साबित होती है। नेपोलियन के साथ भी यही बात थी। युद्ध में जैसे-जैसे उसकी विजय होती गई वैसे-वैसे उसकी महात्वकांक्षा बढ़ाती गया और वह विश्व राज्य की स्थापना का स्वप्न देखने लगा। यदि थोड़े से ही वह संतुष्ट हो जाता और जीते हुए सम्राज्य की देखभाल करता और अपना समय उसमें लगाता तो उसे पतन की दुर्दशा नहीं देखनी पड़ती।
चारित्रिक दुर्बलता-
नेपोलियन में साहस संयम और धैर्य कुट- कुट कर भरा था परन्तु उसकी दृष्टि में घृणा उसका प्रतिशोध उसका कर्तव्य तथा क्षमादान कलंक था। उसके चरित्र की बड़ी दुर्बलता यह थी कि वह संधि को सम्मानित समझौता नहीं मानता था। किसी भी देश की मैत्री उसके लिए राजनीतिक आवश्यकता से अधिक नहीं थी। धीरे- धीरे वह जिद्दी बनता गया उसे यह विश्वास था कि उसका प्रत्येक कदम ठीक है। वह कभी भूल नहीं कर सकता वह दूसरों की सलाह की उपेक्षा करने लगा। फलत: उसके सच्चे मित्र भी उससे दूर होते चले गए।
नेपोलियन की व्यवस्था का सैन्यवाद पर आधारित होना-
उसकी राजनीतिक प्रणाली सैन्यवाद पर आधारित थी जो इसके पतन का प्रधान कारण साबित हुआ। वह सभी मामलों में सेना पर निर्भर रहता था फलत: वह हमेशा युद्ध में ही उलझा रहा। वह यह भूल गया कि सैनिकवाद सिर्फ संकट के समय ही लाभकारी हो सकता है। जब तक फ्रांस विपत्तियों के बादल छाए रहे वहाँ की जनता ने उसका साथ दिया विपत्तियों के हटते ही जनता ने उसका साथ देना छोड़ दिया। फ्रांसीसी जनता की सहानुभुति और प्रेम का खोना उसके लिए घातक सिद्ध हुआ। उसके अतिरिक्त पराजित राष्ट्र उसके शत्रु बनते गए जो अवसर मिलते ही उसके खिलाफ उठ खड़े हुए। इतिहासकार काब्बन ने ठीक ही लिखा है। ‘नेपोलियन का साम्राज्य युद्ध में पनपा था युद्ध ही उसके अस्तित्व का आधार था और युद्ध में ही उसका अंत हुआ।’
दोषपुर्ण सैनिक व्यवस्था-
प्रारंभ में फ्रांस की सेना देश प्रेम की भावना से ओतप्रोत थी। उसके समक्ष एक आदर्श का और वह एक उद्देश्य की पूर्ति के लिए युद्ध करता था। परन्तु ज्यों- ज्यों उसके साम्राज्य का विस्तार हुआ सेना का राष्ट्रीय रूप विधितत होता गया। पहले उसकी सेना में फ्रांसीसी सैनिक ते परन्तु बाद में उसमें जर्मन इटालियन पुर्तेगाली और डच सैनिक शामिल कर लिया गया। फलत: उसकी सेना अनेक राज्यों की सेना बन गई। उनके सामने कोई आदर्श और उद्देश्य नहीं था। अत: उसकी सैनिक शक्ति कमजोर पड़ती गई और यह उसके पतन का महत्वपूर्ण कारण साबित हुआ।
नौसेना की दुर्बलता-
नेपोलियन ने स्थल सेना का संगठन ठीक से किया था किन्तु उसके पास शक्तिशालि नौसेना का अभाव था, जिसके कारण उसे इंगलैंड से पराजित होना पड़ा। अगर उसके पास शक्तिशाली नौसेना होती तो उसे इंगलैंड से पराजित नहीं होना पड़ता।
विजित प्रदेशों में देशभक्ति का अभाव-
उसने जिन प्रदेशों पर विजय प्राप्त की वहीँ की जनता के ह्रदय में उसके प्रति सदभावना और प्रेम नहीं था। वे नेपोलियन की शासन से घृणा करते थे। जब उसकी शक्ति कमजोर पड़ने लगी तो उसके अधीनस्थ राज्य अपनी स्वतंत्रता के लिए प्रयत्न करने लगे। यूरोपीय राष्ट्र ने उसके खिलाफ संघ के लिए चतुर्थ गुट का निर्माण किया और इसी के चलते वाटरलु के युद्ध में उसे पराजित होना पड़ा।
पोप से शत्रुता-
महाद्वीपीय व्यवस्था के कारण उसने पोप को अपना शत्रु बना लिया। जब पोप ने उसी महाद्वीपीय व्यवस्था को मानने से इंकार कर दिया तो उसने अप्रैल 1808 में रोम पर अधिकार कर लिया। और 1809 ई. में पोप को बंदी बना लिया फलत: कैथोलिकों को यह विश्वास हो गया कि नेपोलियन ने केवल राज्यों की स्वतंत्रता नष्ट करने वाला दानव है। वरना उनका धर्म नष्ट करने वाला भी है।
औद्योगिक क्रांति-
कहा जाता है कि उसकी पराज वाटरलु के मैदान में न होकर मैनचेस्टर के कारखानों और बरकिंगधन के लोहे के भदियाँ में हुई। औद्योगिक क्रांति के फलस्वरुप इंगलैंड में बड़े -2 कारखाने खोले गए और देखते ही देखते इंगलैंड समृद्ध बन गया। फलत: वह अपनी सेना की आधुनिक हत्यार से सम्पन्न कर सका जो नेपोलियन के लिए घातक सिद्ध हुआ।
महाद्वीपीय व्यवस्था-
महाद्वीपीय व्यवस्था उसकी जबर्दस्त भुल थी। वह इंगलैंड को सबसे बड़ा शत्रु मानता था। इंगलैंड की शक्ति का मुख्य आधार नौसेना और विश्वव्यापी व्यापार ता उसकी नौशक्ति को नेपोलियन समाप्त नहीं कर सका इसलिए उसके व्यापार पर आघात करने की चेष्टा की गई। इसी उद्देश्य से उसने महाद्वीपीय व्यवस्था को जन्म दिया उसने आदेश जारी किया कि कोई देश इंगलैंड के साथ व्यापार नहीं कर सकता है। और न तो इंगलैंड की बनी हुई वस्तु का इस्तेमाल कर सकता है। यह नेपोलियन की भयंकर भूल थी। इस व्यवस्था ने उसे एक ऐसे जाल में फसा दिया जिससे निकलना मुश्किल हो गया। इसलिए महाद्वीपीय व्यवस्था इसके पतन का मुख्य कारण माना जाता है।
पुर्तेगाल के साथ युद्ध –
पुर्तेगाल का इंगलैंड के साथ व्यापारिक संबंध था किन्तु नेपोलियन के दवाब के कारण उसे इंगलैंड से संबंध तोड़ना पड़ा। इससे पुर्तेगाल को काफी नुकसान हुआ। इसलिए उसने फिर से इंगलैंड के साथ व्यापारिक संबंध कायम किया। इसपर नेपोलियन ने क्रोधित होकर पुर्तेगाल पर आक्रमण कर दिया। यह भी नेपोलियन के लिए घातक सिद्ध हुआ।
स्पेन के साथ संघर्ष-
नेपोलियन की तीसरी भुल स्पेन के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप था। इसके लाखों सैनिक मारे गए। फलत: इस युद्ध में उसकी स्थिति बिल्कुल कमजोर हो गई। जिससे उसके विरोधियों को प्रोत्साहन मिला जब नेपोलियन ने अपने भाई को स्पेन का राजा बनाया तो वहाँ के निवासी उस विदेशी को राजा मानने के लिए तैयार नहीं थे। उन्होंने नेपोलियन की सेना को स्पेन से भगा दिया। उस विद्रोह से अन्य देशों को भी प्रोत्साहन मिला और वे भी विद्रोह करने लगे जिससे उसका पतन अवश्यम्भावी हो गया।
रुस का अभियान-
नेपोलियन ने रुस पर आक्रमण कर भारी भुल की रुस ने इसकी महाद्वीपीय व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया। इसपर नेपोलियन ने रुस पर आक्रमण कर दिया। इसमें यद्धपि मास्को पर इसका आधिकार हो गया लेकिन उसे महान क्षति उठानी पड़ी। उसके विरोधियों ने आक्रमण करने की योजना बनाई। इसे आक्रमण में उसे पराजित होना पड़ा।
थकान-
अनेक युद्ध में लगातार व्यस्त रहने के कारण वह थक चुका था 50 सैलानियों ने लिखा है नेपोलियन के पतन का समस्त कारण एक ही शब्द थकान में निहित है। ज्यों- ज्यों वह युदध में उलझता गया त्यों- 2 उसकी शक्ति कमजोर पड़ती गई वह थक गया और उसके चलते भी उसका पतन जरुरी हो गया।
सगेसंबंधी-
उसके पतन के लिए उसके सगे संबधी भी कम उत्तरदायी नहीं थे। हलांकि वह अपने संबंधियों के प्रति उदारता का बर्ताव करता था। लेकिन जब भी वह संकट में पड़ता था तो उसके संबंधी उसकी मदद नहीं करते थे।
चतुर्थगुट के संगठन-
नेपोलियन की कमजोरी से लाभ उठाकर उसके शत्रुओं ने चतुर्थ गुट का निर्माण किया और मित्र राष्ट्रों ने उसे पराजित किया। उसे पकड़ कर सलबाई भेजा गया और उसे वहाँ का स्वतंत्र शासक बनाया गया लेकिन नेपोलियन वहाँ बहुत दिनों तक नहीं रह सका वह शीघ्र ही फ्रांस लौट गया और वहाँ का शासक बन बैठा। लेकिन इसबार वह सिर्फ सौ दिनों तक के लिए सम्राट रहे। मित्र राष्ट्रों ने 18 जुन 1815 ई. को वाटरलु के युद्ध में अंतिम रूप से पराजित कर दिया। वह पकड़ लिया गया मित्र राष्ट्रों ने उसे कैदी के रूप में सेंट हैलेना नामक टापू पर भेज दिया जहाँ 52 वर्षों की आयु में 1821 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।
इस प्रकार उपर्युक्त सभी कारण प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से उसके पतन के लिए उत्तरदायी थे उसने युद्ध के द्वारा ही अपने साम्राज्य का निर्माण किया था और युद्धों के चलते ही उसका पतन भी हुआ। अर्थात जिन तत्वों ने नेपोलियन के साम्राज्य का निर्माण किया था उन्हीं तत्वों ने उसका विनाश भी कर दिया।
(१) युद्ध दर्शन: वस्तुतः नेपोलियन का उद्भव एक सेनापति के रूप में हुआ और युद्धों ने ही उसे फ्रांस की गद्दी दिलवाई थी। इस तरीकें से युद्ध उसके अस्तित्व के लिए अनिवार्य पहलू हो गया था। उसने कहा भी "जब यह युद्ध मेरा साथ न देगा तब मैं कुछ भी नहीं रह जाऊंगा तब कोई दूसरा मेरी जगह ले लेगा।" अतः निरंतर युद्धरत रहना और उसमें विजय प्राप्त करना उसके अस्तित्व के लिए जरूरी था। किन्तु युद्ध के संदर्भ में एक सार्वभौमिक सत्य यह है कि युद्ध समस्याओं का हल नहीं हो सकता है और न अस्तित्व का आधार। इस तरह नेपोलियन परस्पर विरोधी तत्वों को साथ लेकर चल रहा था। अतः जब मित्रराष्ट्रों ने उसे युद्ध में पराजित कर निर्वासित कर दिया तब इस पराजित नायक को फ्रांस की जनता ने भी भूला दिया। इस संदर्भ में ठीक ही कहा गया- "नेपोलियन का साम्राज्य युद्ध में पनपा, युद्ध ही उसके अस्तित्व का आधार बना रहा और युद्ध में ही उसका अंत होना था।" दूसरे शब्दों में नेपोलियन के उत्थान में ही उसके विनशा के बीच निहित थे।
(२) राष्ट्रवाद की भावना का प्रसार: नेपोलियन ने साम्राज्यवादी विस्तार कर दूसरे देशों में अपना आधिपत्य जमाया और हॉलैंड, स्पेन, इटली आदि के अपने संबंधियों को शासक बनाया। इस तरह दूसरे देशों में नेपोलियन का शासन विदेशी था। राष्ट्रवाद की भावना से प्रभावित होकर यूरोपीय देशों के लिए विदेशी शासन का विरोध करना उचित ही था। राष्ट्रपति विरोध के आगे नेपोलियन की शक्ति टूटने लगी और उसे जनता के राष्ट्रवाद का शिकार होना पड़ा।
(३) महाद्वीपीय व्यवस्था: महाद्वीपीय नीति नेपोलियन के लिए आत्मघाती सिद्ध हुई। इस व्यवस्था ने नेपोलियन को अनिवार्य रूप से आक्रामक युद्ध नीति में उलझा दिया जिसके परिणाम विनाशकारी हुए उसे भारी कीमत चुकानी पड़ी। इसी संदर्भ में उसे स्पेन और रूस के साथ संघर्ष करना पड़ा।
(४) नेपोलियन की व्यक्तिगत भूलें: स्पेन की शक्ति को कम समझना, मास्को अभियान में अत्यधिक समय लगाना, वाटरलू की लड़ाई के समय आक्रमण में ढील देना आदि उसकी भंयकर भूलें थीं। इसी संदर्भ में नेपोलियन ने कहा कि "मैने समय नष्ट किया और समय ने मुझे नष्ट किया।" इतना ही नहीं नेपोलियन ने इतिहास की धारा को उलटने की कोशिश की। वस्तुतः फ्रांसीसी क्रांति ने जिस सामंती व्यवस्था का अंत कर कुलीन तंत्र पर चोट कर राजतंत्र को हटा गणतंत्र की स्थापना की थी नेपोलियन ने पुनः उसी व्यवस्था को स्थापित करने का प्रयास किया और कई जगह अपने ही बंधु बांधवों को सत्ता सौंप वंशानुगत राजतंत्र की स्थापना की। क्रांति ने जिस राष्ट्रवाद को हवा दिया, नेपोलियन ने दूसरे देशों में उसी राष्ट्रवाद को कुचलने का प्रयास किया। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि जिन तत्वों से उसका साम्राज्य निर्मित था उन्हीं तत्वों ने उसका विनाश भी कर दिया।
(५) स्पेन का नासूर
(६) फ्रांस की नौसैनिक दुर्बलता
इन्हें भी देखें
नेपोलियन के युद्ध
नेपोलियन की संहिता
महाद्वीपीय व्यवस्था
वाटरलू का युद्ध
[]
बाहरी कड़ियाँ
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श्रेणी:फ़्रांस का इतिहास | फ्रान्स की क्रान्ति' के सेनापति कौन थे? | नेपोलियन बोनापार्ट | 0 | hindi |
7f6531589 | भोजेश्वर मन्दिर मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से लगभग ३० किलोमीटर दूर स्थित भोजपुर नामक गांव में बना एक मन्दिर है। इसे भोजपुर मन्दिर भी कहते हैं। यह मन्दिर बेतवा नदी के तट पर विन्ध्य पर्वतमालाओं के मध्य एक पहाड़ी पर स्थित है। मन्दिर का निर्माण एवं इसके शिवलिंग की स्थापना धार के प्रसिद्ध परमार राजा भोज (१०१० - १०५३ ई॰) ने करवायी थी। उनके नाम पर ही इसे भोजपुर मन्दिर या भोजेश्वर मन्दिर भी कहा जाता है, हालाँकि कुछ किंवदंतियों के अनुसार इस स्थल के मूल मन्दिर की स्थापना पाँडवों द्वारा की गई मानी जाती है। इसे "उत्तर भारत का सोमनाथ" भी कहा जाता है।
यहाँ के शिलालेखों से ११वीं शताब्दी के हिन्दू मन्दिर निर्माण की स्थापत्य कला का ज्ञान होता है व पता चलता है कि गुम्बद का प्रयोग भारत में इस्लाम के आगमन से पूर्व भी होता रहा था। इस अपूर्ण मन्दिर की वृहत कार्य योजना को निकटवर्ती पाषाण शिलाओं पर उकेरा गया है। इन मानचित्र आरेखों के अनुसार यहाँ एक वृहत मन्दिर परिसर बनाने की योजना थी, जिसमें ढेरों अन्य मन्दिर भी बनाये जाने थे। इसके सफ़लतापूर्वक सम्पन्न हो जाने पर ये मन्दिर परिसर भारत के सबसे बड़े मन्दिर परिसरों में से एक होता।
मन्दिर परिसर को भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा राष्ट्रीय महत्त्व का स्मारक चिह्नित किया गया है व इसका पुनरुद्धार कार्य कर इसे फिर से वही रूप देने का सफ़ल प्रयास किया है। मन्दिर के बाहर लगे पुरातत्त्व विभाग के शिलालेख अनुसार इस मंदिर का शिवलिंग भारत के मन्दिरों में सबसे ऊँचा एवं विशालतम शिवलिंग है। इस मन्दिर का प्रवेशद्वार भी किसी हिन्दू भवन के दरवाजों में सबसे बड़ा है। मन्दिर के निकट ही इस मन्दिर को समर्पित एक पुरातत्त्व संग्रहालय भी बना है। शिवरात्रि के अवसर पर राज्य सरकार द्वारा यहां प्रतिवर्ष भोजपुर उत्सव का आयोजन किया जाता है।
इतिहास
पौराणिक मत
इस मत के अनुसार माता कुन्ती द्वारा भगवान शिव की पूजा करने के लिए पाण्डवों ने इस मन्दिर के निर्माण का एक रात्रि में ही पूरा करने का संकल्प लिया जो पूरा नहीं हो सका। इस प्रकार यह मन्दिर आज तक अधूरा है।[1][2]
ऐतिहासिक मत
इस मत के अनुसार ऐसी मान्यता है कि मन्दिर का निर्माण कला, स्थापत्य और विद्या के महान संरक्षक मध्य-भारत के परमार वंशीय राजा भोजदेव ने ११वीं शताब्दी में करवाया।[1][3][4][5] परंपराओं एवं मान्यतानुसार उन्होंने ही भोजपुर एवं अब टूट चुके एक बांध का निर्माण भी करवाया था। मन्दिर का निर्माण कभी पूर्ण नहीं हो पाया, अतः यहाँ एक शिलान्यास या उद्घाटन/निर्माण अंकन शिला की कमी है। फिर भी यहां का नाम भोजपुर ही है जो राजा भोज के नाम से ही जुड़ा हुआ है।[6] कुछ मान्यताओं के अनुसार यह मन्दिर एक ही रात में निर्मित होना था किन्तु इसकी छत का काम पूरा होने के पहले ही सुबह हो गई, इसलिए काम अधूरा रह गया। [1]
राजा भोज द्वारा निर्माण की मान्यता को स्थल के शिल्पों से भी समर्थन मिलता है, जिनकी कार्बन आयु-गणना इन्हें ११वीं शताब्दी का ही सुनिश्चित करती है। भोजपुर के एक निकटवर्ती जैन मन्दिर में, जिस पर उन्हीं शिल्पियों के पहचान चिह्न हैं, जिनके इस शिव मन्दिर पर बने हैं; उन पर १०३५ ई॰ की ही निर्माण तिथि अंकित है। कई साहित्यिक कार्यों के अलावा, यहां के ऐतिहासिक साक्ष्य भी वर्ष १०३५ ई॰ में राजा भोज के शासन की पुष्टि करते हैं। राजा भोज द्वारा जारी किये गए मोदस ताम्र पत्र (१०१०-११ ई॰), उनके राजकवि दशबाल रचित चिन्तामणि सारणिका (१०५५ ई॰) आदि इस पुष्टि के सहायक हैं। इस मन्दिर के निकटवर्त्ती क्षेत्र में कभी तीन बांध तथा एक सरोवर हुआ करते थे। इतने बड़े सरोवर एवं तीन बड़े बाधों का निर्माण कोई शक्तिशाली राजा ही करवा सकता था। ये सभी साक्ष्य इस मन्दिर के राजा भोज द्वारा निर्माण करवाये जाने के पक्ष में दिखाई देते हैं। पुरातत्त्वशास्त्री प्रो॰किरीट मनकोडी इस मन्दिर के निर्माण काल को राजा भोज के शासन के उत्तरार्ध में, लगभग ११वीं शताब्दी के मध्य का बताते हैं।
उदयपुर प्रशस्ति में बाद के परमार शासकों द्वारा लिखवाये गए शिलालेखों में ऐसा उल्लेख मिलता है जिनमें: मन्दिरों से भर दिया जैसे वाक्यांश हैं, एवं शिव से सम्बन्धित तथ्यों को समर्पित है। इनमें केदारेश्वर, रामेश्वर, सोमनाथ, कालभैरव एवं रुद्र का वर्णन भी मिलता है। लोकोक्तियों एवं परंपराओं के अनुसार उन्होंने एक सरस्वती मन्दिर का निर्माण भी करवाया था।(देखें भोजशाला) एक जैन लेखक मेरुतुंग ने अपनी कृति प्रबन्ध चिन्तामणि में लिखा है कि राजा भोज ने अकेले अपनी राजधानी धार में ही १०४ मन्दिरों का निर्माण करवाया था। हालांकि आज की तिथि में केवल भोजपुर मन्दिर ही अकेला बचा स्मारक है, जिसे राजा भोज के नाम के साथ जोड़ा जा सकता है।
प्रबन्ध चिन्तामणि के अनुसार; जब राजा भोज एक बार श्रीमाल गये तो उन्होंने कवि माघ को भोजस्वामिन नामक मन्दिर के बारे में बताया था जिसका वे निर्माण करवाने वाले थे। इसके उपरान्त राजा मालवा को (मालवा वह क्षेत्र था जहां भोजपुर स्थित हुआ करता था।) लौट गये। [7] हालांकि माघ कवि ( ७वीं शताब्दी) राजा भोज के समकालीन नहीं थे, अतः यह कथा कालभ्रमित प्रतीत होती है।[8]
यह मन्दिर मूलतः एक १८.५ मील लम्बे एवं ७.५ मील चौड़े सरोवर के तट पर बना था। इस सरोवर की निर्माण योजना में राजा भोज ने पत्थर एवं बालू के तीन बांध बनवाये। इनमें से पहला बांध बेतवा नदी पर बना था जो जल को रोके रखता था एवं शेष तीन ओर से उस घाटी में पहाड़ियाँ थीं। दूसरा बांध वर्तमान मेण्डुआ ग्राम के निकट दो पहाड़ियों के बीच के स्थान को जोड़कर जल का निकास रोक कर रखता था एवं तीसरा बांध आज के भोपाल शहर के स्थान पर बना था जो एक छोटी मौसमी नदी कालियासोत के जल को मोड़ कर इस बेतवा सरोवर को दे देता था। ये कृत्रिम जलाशय १५वीं शताब्दी तक बने रहे थे। एक गोण्ड किंवदंती के अनुसार मालवा नरेश होशंग शाह ने अपनी सेना से इस बाँध को तुड़वा डाला जिसमें उन्हें तीन महीने का समय लग गया था। यह भी बताया जाता है कि यहाँ होशंगशाह का लड़का बाँध के सरोवर में में डूब गया था तथा बहुत ढूंढने पर भी उसकी लाश तक नहीं मिली। नाराज़ होकर उसने बाँध को तोप से उड़ा दिया और मंदिर को भी तोप से ही गिरा देने की कोशिश की थी। इसके कारण मंदिर का ऊपर और बगल का हिस्सा गिर गया। इस बांध के टूट जाने से सारा पानी बह गया और तब इस अपार जलराशि के एकाएक समाप्त हो जाने के कारण मालवा क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन आ गया था।[9][10]
इस प्रसिद्ध स्थल पर दो वार्षिक मेलों का आयोजन भी होता है क्रमशः मकर संक्रांति एवं महाशिवरात्रि के समय पर। इस समय इस धार्मिक आयोजन में भाग लेने के लिए दूर दूर से लोग यहाँ पहुँचते हैं। यहां की झील का विस्तार वर्तमान भोपाल तक है। मन्दिर निर्माण में प्रयोग किया गया पत्थर भोजपुर के ही पथरीले क्षेत्रों से प्राप्त किया गया था।[11] मन्दिर के निकट से दूर तक पत्थरों व चट्टानों की कटाई के अवशेष दिखाई देते हैं। लेखिका विद्या देहेजिया की पुस्तक अर्ली स्टोन टेम्पल्स ऑफ़ ओडिशा में उल्लेख मिलता है कि भोजपुर के शिव मन्दिर और भुवनेश्वर के लिंगराज मन्दिर व कुछ और मन्दिरों के निर्माण में समानता दिखाई पड़ती है।
अन्त्येष्टि स्मारक
भोजपुर मन्दिर में बहुत से अनोखे घटक देखने को मिलते हैं जिनमें से कुछ इस प्रकार से हैं: गर्भगृह प्रभाग से मण्डप का विलोपन, मन्दिर में गुम्बदाकार शिखर के बजाय सीधी रेखीय छत आदि। मन्दिर की बाहरी दीवारों में से तीन बाहरी ओर से एकदम सपाट हैं, किन्तु ये १२वीं शताब्दी की बतायी जाती हैं। इन अनोखे घटकों के अध्ययन करने के उपरांत एक शोधकर्त्ता कृष्ण देव का मत है कि संभवतः ये मन्दिर अन्त्येष्टि आदि क्रियाकर्म संबन्धी कार्यों से संबन्धित रहा होगा; जैसा प्रायः श्मशान घाट आदि के निकटवर्त्ती आज भी देखे जा सकते हैं। इस शोध की पुष्टि कालान्तर में मधुसूदन ढाकी द्वारा खोजे गये कुछ मध्यकालीन वास्तुसम्बन्धी पाठ्य से भी होती है। इन खण्डित पाठ्यांशों से ज्ञात हुआ कि कई उच्चकुलीन व्यक्तियों की मृत्यु उपरांत उनके अवशेषों या अन्त्येष्टि स्थलों पर एक स्मारक रूपी मन्दिर बनवा दिया जाता था। इस प्रकार के मन्दिरों को स्वर्गारोहण-प्रासाद कहा जाता था। पाठ के अनुसार इस प्रकार के मन्दिरों में एकल शिखर के स्थान पर परस्पर पीछे की ओर घटती हुई पत्थर की सिल्लियों का प्रयोग किया जाता है। किरीट मनकोडी के अनुसार भोजपुर मन्दिर की अधिरचना इस प्रारूप पर सटीक बैठती है। उनके अनुमान के अनुसार राजा भोज ने इस मन्दिर को संभवतः अपने स्वर्गवासी पिता सिन्धुराज या ताऊ वाकपति मुंज हेतु बनवाया होगा, जिनकी मृत्यु शत्रु क्षेत्र में अपमानजनक रूप में हुई थी। [12]
निर्माण का परित्याग
यहां देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि निर्माण कार्य एकदम से ही रोक दिया गया होगा।[13] हालांकि इसके कारण अभी तक अज्ञात ही हैं किन्तु इतिहास वेत्ताओं का अनुमान है कि ऐसा किसी प्राकृतिक आपदा, संसाधनों की आपूर्ति में कमी अथवा किसी युद्ध के आरम्भ हो जाने के कारण ही हुआ होगा। २००६-०७ में इसके पुनुरुद्धार कार्य के आरम्भ होने से पूर्व इमारत की छत भी नहीं थी। इससे ही इतिहासविद् के॰के॰मुहम्मद ने अनुमान लगाया कि छत संभवतः निर्माण काल में पूरे भार के सही आकलन में गणितीय वास्तु दोष के कारण निर्माण-काल में ही ढह गयी होगी। तब राजा भोज ने इस दोष के कारण इसे पुनर्निर्माण न कर मन्दिर के निर्माण को ही रोक दिया होगा। [14]
तब की परित्यक्त स्थल से मिले साक्ष्यों से आज के समय में इतिहासविदों, पुरातत्वविदों एवं वास्तुविदों को ११वीं शताब्दी की मन्दिर निर्माण शैली के आयोजन एवं यांत्रिकी का भी काफ़ी ज्ञान मिलता है।[15] [2] मन्दिर के उत्तरी एवं पूर्वी ओर कई खदान स्थल भी मिले हैं, जहां विभिन्न स्तरों के अधूरे शिल्प एवं शिल्पाकृतियाँ भी मिली हैं। इसके अलावा मन्दिर के ऊपरी भाग के निर्माण हेतु पत्थर के भारी शिल्प भागों को खदान से ऊपर तक ले जाने के लिये बनी बहुत बड़ी ढलान भी मिली है। बहुत सी शिल्पाकृतियाँ खदान से मन्दिर के निकट लाकर ऐसे ही रखी हुई मिली हैं। इन्हें मन्दिर निर्माण के समय बाद में प्रयोग करना होगा, किन्तु निर्माण कार्य रुक जाने से इन्हें ऐसे ही छोड़ दिया गया होगा। पुरातात्त्विक सर्वेक्षण विभाग ने इन्हें २०वीं शताब्दी में अपने भण्डार गृह पहुंचा दिया।[13]
मन्दिर निर्माण की स्थापत्य योजना का विवरण खदान भाग के निकटस्थ पत्थरों पर उकेरा गया है।[16][2] इस योजना से ज्ञात होता है कि यहाँ एक वृहत मन्दिर परिसर बनाने की योजना थी, जिसमें ढेरों अन्य मन्दिर भी बनाये जाने थे। इस योजना के सफ़लतापूर्वक सम्पन्न हो जाने पर ये मन्दिर परिसर भारत के सबसे बड़े मन्दिर परिसरों में से एक होता।[14][17]
मन्दिर की इमारत, खदानों के निकट एवं ग्राम के अन्य दो मन्दिरों पर १३०० से अधिक शिल्पकारों के पहचान चिह्न मिले हैं। इनमें मन्दिर के मुख्य ढांचे पर विभिन्न भागों में मिले ५० शिल्पकारों के नाम भी सम्मिलित हैं। इन नामों के अलावा अन्य पहचान चिह्न भी हैं, जैसे चक्र, कटे हुए चक्र, पहिये, त्रिशूल, स्वस्तिक, शंखाकृति तथा नागरी लिपि के चिह्न, आदि। ये चिह्न शिल्पकारों या उनके परिवार के लोगों के कार्य राशि के अनुमान या आकलन हेतु बनाये जाते थे, जिन्हें इमारत को अंतिम रूप देते समय मिटा दिये जाते थे, किन्तु मन्दिर निर्माण पूर्ण न हो पाने के कारण ऐसे ही रह गये।
स्थल पर एक अधूरी मूर्ति
खदानों में से एक पर मिला एक स्थापत्य खण्ड
प्रवेश के निकट मिली शिल्पाकृतियां
संरक्षण एवं पुनुरुद्धार
वर्ष १९५० तक इस इमारत की संरचना काफ़ी कमजोर हो चली थी। ऐसा निरंतर वर्षा जल रिसाव, उसके कारण आई सीलन एवं आंतरिक सुरक्षा लेपन के हटने के कारण हो रहा था।[18] १९५१ में यह स्थल प्राचीन स्मारक संरक्षण अधिनियम १९०४[19] के अंतर्गत भारतीय पुरातात्त्विक सर्वेक्षण विभाग को संरक्षण एवं पुनरुद्धार हेतु सौंप दिया गया।[20] १९९० के आरम्भिक दशक में, सर्वेक्षण विभाग ने मन्दिर के चबूतरे एवं गर्भगृह की सीढ़ियों के मरम्मत कार्य किये एवं हटाये हुए पत्थरों को पुनर्स्थापित किया। उन्होंने मन्दिर के उत्तर-पश्चिमी ओर की दीवार की भी पुनरुद्धार अभियान के अंतर्गत मरम्मत की। इसके बाद कुछ अन्तराल तक यह कार्य रुका रहा।
वर्ष २००६-०७ के दौरान के॰के॰मुहम्मद के अधीनस्थ विभाग के एक दल ने स्मारक के पुनरुद्धार कार्य को पुनः आरम्भ किया। उन्होंने संरचना के एक टूट कर हट गये स्तंभ को भी पुनर्स्थापित किया। ये १२ टन भार का एकाश्म स्तंभ विशेष शिल्पकारों एवं कारीगरों द्वारा मूल प्रति से एकदम मिलता हुआ बनाया जाना था, अतः इसके लिये मूल संरचना से मेल खाते पाषाण की देश पर्यन्त खोज के उपरांत शिला को आगरा के निकट से लाया गया व इस स्तंभ का निर्माण सम्पन्न हुआ। इसके बनने के बाद दल को इतनी लम्बी भुजा वाली क्रेन मशीन उपलब्ध न हो पायी, जिसके अभाव में दल ने चरखियों एवं उत्तोलकों की एक शृंखला की सहायता से कार्य को पूर्ण किया।[21] इस शृंखला को बनाने में उन्हें छः माह का समय लगा।[14][18] के॰के॰मुहम्मद ने पाया कि मन्दिर के दो स्तंभों का भार ३३ टन था, और ये दोनों भी एकाश्म ही थे, अतः आधुनिक प्रौद्योगिकी एवं संसाधनों के अभाव में तत्कालीन कारीगरों के लिये ये एक चुनौती भरा कार्य रहा होगा।[14]
इसी टीम ने मन्दिर की छत के खुले भाग को भी एक नये मूल संरचना से मेल खाते हुए वास्तु घटक से बदला। ये घटक फ़ाइबर-ग्लास से बना होने के कारण एक तो मूल संरचना के उस भाग से भार में कहीं कम है अतः ढांचे पर अनावश्यक भार भी नहीं डालता है, दूसरे वर्षा-जल के रिसाव को भी प्रभावी रूप से रोकने में सक्षम है। इसके बाद अन्य स्रोतों से छत पर जल रिसाव उन्मूलन हेतु विभाग ने दीवारों एवं इस नयी छत के घटक के बीच के स्थान को पत्थर की सिल्लियों को तिरछा रखकर ढंक दिया है। दल ने मन्दिर की उत्तरी, दक्षिणी एवं पश्चिमी बाहरी दीवारों के अंशों को भी नये शिल्पाकृति पाषाणों के द्वारा बदल दिया।[18] मन्दिर की दीवारों पर पिछली कई शताब्दियों से जमी मैल की पर्त को भी सुंदरतापूर्वक हटाया गया है।[14]
स्थापत्य शैली
इस मंदिर को उत्तर भारत का सोमनाथ भी कहा जाता है।[2][22] निरन्धार शैली में निर्मित इस मंदिर में प्रदक्षिणा पथ (परिक्रमा मार्ग) नहीं है।[23] मन्दिर ११५ फ़ीट (३५ मी॰) लम्बे, ८२ फ़ीट(२५ मी॰) चौड़े तथा १३ फ़ीट(४ मी॰) ऊंचे चबूतरे पर खड़ा है। चबूतरे पर सीधे मन्दिर का गर्भगृह ही बना है जिसमें विशाल शिवलिंग स्थापित है। [24] गर्भगृह की अभिकल्पन योजना में ६५ फ़ीट (२० मी॰) चौड़ा एक वर्ग बना है; जिसकी अन्दरूनी नाप ४२.५ फ़ी॰(१३ मी॰) है।[25] शिवलिंग को तीन एक के ऊपर एक जुड़े चूनापत्थर खण्डों से बनाया गया है। इसकी ऊंचाई ७.५ फ़ी॰(२.३ मी॰) तथा व्यास १७.८ फ़ी॰(५.४ मी॰) है। यह शिवलिंग एक २१.५ फ़ी॰(६.६ मी॰) चौड़े वर्गाकार आधार (जलहरी) पर स्थापित है। आधार सहित शिवलिंग की कुल ऊंचाई ४० फ़ी॰ (१२ मी॰) से अधिक है।[26]
गर्भगृह का प्रवेशद्वार ३३ फ़ी॰ (१० मी॰) ऊंचा है।[24] प्रवेश की दीवार पर अप्सराएं, शिवगण एवं नदी देवियों की छवियाँ अंकित हैं। मन्दिर की दीवारें बड़े-बड़े बलुआ पत्थर खण्डों से बनी हैं एवं खिड़की रहित हैं। पुनरोद्धार-पूर्व की दीवारों में कोई जोड़ने वाला पदार्थ या लेप नहीं था। उत्तरी, दक्षिणी एवं पूर्वी दीवारों में तीन झरोखे बने हैं, जिन्हें भारी भारी ब्रैकेट्स सहारा दिये हुए हैं। ये केवल दिखावटी बाल्कनी रूपी झरोखे हैं, जिन्हें सजावट के रूप में दिखाया गया है। ये भूमि स्तर से काफ़ी ऊंचे हैं तथा भीतरी दीवार में इनके लिये कुछ खुला स्थान नहीं दिखाई देता है। उत्तरी दीवार में एक मकराकृति की नाली है जो शिवलिंग पर चढ़ाए गये जल को जलहरी द्वारा निकास देती है।[24] सामने की दीवार के अलावा, यह मकराकृति बाहरी दीवारों की इकलौती शिल्पाकृति है।[13] पूर्व में देवियों की आठ शिल्पाकृतियां अन्दरूनी चारों दीवारों पर काफ़ी ऊंचाई पर स्थापित थीं, जिनमें से वर्तमान में केवल एक ही शेष है।
मन्दिर की गुम्बदाकार छत, भा..सर्वेक्षण विभाग द्वारा फ़ाइबर-ग्लास द्वारा संरक्षित
गण स्थापत्य
प्रवेशद्वार पर शिल्पाकृतियाँ
बाहरी छज्जे
कुछ दूर से लिया गया सम्पूर्ण दृश्य
मकराकृति की जल-निकास नाली
गर्भगृह स्थित शिवलिंग
किनारे के पत्थरों को सहारा देते चारों ब्रैकेट्स पर भगवानों के जोड़े – शिव-पार्वती, ब्रह्मा-सरस्वती, राम-सीता एवं विष्णु-लक्ष्मी की मूर्तियां अंकित हैं। प्रत्येक ब्रैकेट के प्रत्येक ओर एक अकेली मानवाकृति अंकित है। हालांकि मन्दिर की ऊपरी अधिरचना अधूरी है, किन्तु ये स्पष्ट है कि इसकी शिखर रूपी तिरछी सतह वाली छत नहीं बनायी जानी थी। किरीट मनकोडी के अनुसार, शिखर की अभिकल्पना एक निम्न ऊंचाई वाले पिरामिड आकार की बननी होगी जिसे समवर्ण कहते हैं एवं मण्डपों में बनायी जाती है। ऍडम हार्डी के अनुसार, शिखर की आकृति फ़ामसान आकार (बाहरी ओर से रैखिक) की बननी होगी, हालांकि अन्य संकेतों से यह भूमिज आकार का प्रतीत होता है।[27] इस मन्दिर की छत गुम्बदाकार हैं जबकि इतिहासकारों के अनुसार मन्दिर का निर्माण भारत में इस्लाम के आगमन के पहले हुआ था। अतः मन्दिर के गर्भगृह पर बनी अधूरी गुम्बदाकार छत भारत में गुम्बद निर्माण के प्रचलन को इस्लाम-पूर्व प्रमाणित करती है। हालांकि इस्लामी गुम्बदों से यहां के गुम्बद की निर्माण की तकनीक भिन्न थी। अतः कुछ विद्वान इसे भारत में सबसे पहले बनी गुम्बदीय छत वाली इमारत भी मानते हैं। इस मन्दिर का प्रवेशद्वार भी किसी अन्य हिंदू इमारत के प्रवेशद्वार की तुलना में सबसे बड़ा है।[1][28] यह द्वार ११.२० मी॰ ऊंचा एवं ४.५५ मी॰ चौड़ा है।[23] यह अधूरी किन्तु अत्यधिक नक्काशी वाली छत ३९.९६ फ़ी॰(१२.१८ मी॰) ऊंचे चार अष्टकोणीय स्तंभों पर टिकी हुई है।[29][30] प्रत्येक स्तंभ तीन पिलास्टरों से जुड़ा हुआ है। ये चारों स्तंभ तथा बारहों पिलास्टर कई मध्यकालीन मन्दिरों के नवग्रह-मण्डपों की तरह बने हैं, जिनमें १६ स्तंभों को संगठित कर नौ भागों में उस स्थान को विभाजित किया जाता था, जहाँ नवग्रहों की नौ प्रतिमाएं स्थापित होती थीं।
यह मन्दिर काफ़ी ऊँचा है, इतनी प्राचीन मन्दिर के निर्माण के दौरान भारी पत्थरों को ऊपर ले जाने के लिए ढ़लाने बनाई गई थीं। इसका प्रमाण भी यहाँ मिलता है। मन्दिर के निकट स्थित बाँध का निर्माण भी राजा भोज ने ही करवाया था। बाँध के पास प्राचीन समय में प्रचुर संख्या में शिवलिंग बनाये जाते थे। यह स्थान शिवलिंग बनाने की प्रक्रिया की जानकारी देता है।[31]
निकटस्थ स्थल
भोजपुर के निकटस्थ कुमरी गाँव से लगे घने जंगलों के बीच ही बेतवा या वेत्रवती नदी का उद्गम स्थल है जहां नदी एक कुण्ड से निकलकर बहती है। भोपाल शहर का बड़ा तालाब भोजपुर का ही एक तालाब है। इस तालाब पर बने बाँध को मालवा शासक होशंग शाह ने १४०५-१४३४ ई॰ में अपनी इस क्षेत्र की यात्रा में अपनी बेगम की बीमारी का कारण मानते हुए रोष में तुड़वा डाला था। इससे हुए जलप्लावन के बीच जो टापू बना वह द्वीप कहा जाने लगा। वर्तमान में यह "मंडी द्वीप' के नाम से जाना जाता है। इसके आस- पास आज भी कई खण्डित सुंदर प्रतिमाएँ बिखरी पड़ी हैं। मन्दिर से कुछ दूर बेतवा नदी तट पर ही माता पार्वती की गुफा है। नदी पार जाने हेतु यहाँ से नौकाएँ उपलब्ध हैं। भोजपुर मन्दिर के वीरान एवं पथरीले इलाके में स्थित होने पर भी यहाँ आने वाले श्रद्धालुओं की भीड़ में कोई कमी नहीं आई है।
भोजेश्वर मन्दिर संग्रहालय
मुख्य मन्दिर से लगभग २०० मी॰ की दूरी पर ही भोजेश्वर मन्दिर को समर्पित एक संग्रहालय बना है। इस संग्रहालय में चित्रों, पोस्टरों एवं रेखाचित्रों के माध्यम से मन्दिर के तथा राजा भोज के शासन इतिहास पर प्रकाश डाला गया है। संग्रहालय में राजा भोज के शासन का विवरण, उन पर और उनके द्वारा लिखी पुस्तकें तथा मन्दिर के शिल्पकारों के चिह्न भी मिलते हैं। संग्रहालय का कोई प्रवेश शुल्क नहीं है एवं इसका खुलने का समय प्रातः १०:०० बजे से सांय ०५:०० बजे तक है।
स्थल की उपयोगिता
वर्तमान में यह मन्दिर ऐतिहासिक स्मारक के रूप में भारतीय पुरातात्त्विक सर्वेक्षण विभाग के संरक्षण के अधीन है।[32] प्रदेश की राजधानी भोपाल से सन्निकट (२८कि.मी) होने के कारण, यहां अधिकाधिक संख्या में पर्यटक एवं श्रद्धालुओं का आवागमन होता है। वर्ष २०१५ में इसे सर्वश्रेष्ठ अनुरक्षित एवं दिव्यांग सहायी स्मारक होने का राष्ट्रीय पर्यटन पुरस्कार (२०१३-१४) भी मिला था।[33][34]
अपूर्ण होने के बावजूद भी इस स्मारक को मन्दिर के रूप में धार्मिक अनुष्ठानों एवं उपयोगों के लिये प्रयोग किया जाता रहा है। महाशिवरात्रि के अवसर पर लगने वाले मेले के समय यहां हजारों की संख्या में श्रद्धालुओं की भीड़ जुटती है।[35][36] शिवरात्रि के अवसर पर मध्य प्रदेश सरकार द्वारा यहां भोजपुर उत्सव का आयोजन किया जाता है।[37] इस उत्सव में पिछले वर्षों में कैलाश खेर,[38] ऋचा शर्मा, गण्ण स्मिर्नोवा एवं सोनू निगम ने प्रस्तुति दी थी।[37][39][40][41]
आवागमन
वायुसेवा
भोजपुर से २८ कि ॰मी॰ की दूरी पर स्थित राज्य की राजधानी भोपाल का राजा भोज विमानक्षेत्र यहाँ के लिये निकटतम हवाई अड्डा है। दिल्ली, मुम्बई, इंदौर और ग्वालियर से भोपाल के लिए उड़ानें उपलब्ध हैं।
रेल सेवा
दिल्ली-चेन्नई एवं दिल्ली-मुम्बई मुख्य रेल मार्ग पर भोपाल एवं हबीबगंज सबसे निकटतम एवं उपयुक्त रेलवे स्टेशन हैं।
बस सेवा
भोजपुर के लिए भोपाल से बसें मिलती हैं।
सन्दर्भ
सन्दर्भग्रंथ सूची
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बाहरी कड़ियाँ
on YouTube
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।भारतीय पुरातात्त्विक सर्वेक्षण विभाग, भोपाल मण्डल के जालस्थल पर।
पर वीडियो देखें:- भारतीय पुरातात्त्विक सर्वेक्षण विभाग के आधिकारिक जालस्थल पर।
श्रेणी:मध्य प्रदेश के हिन्दू मंदिर
श्रेणी:भारत के शिव मन्दिर
श्रेणी:राजा भोज
श्रेणी:भोपाल के पर्यटन स्थल
श्रेणी:भोपाल के मन्दिर
श्रेणी:भोपाल के संग्रहालय
श्रेणी:हिन्दू स्थापत्य शैली
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श्रेणी:११वीं शताब्दी के हिन्दू मन्दिर
श्रेणी:अनुरक्षित स्मारक | भोजेश्वर मन्दिर का निर्माण किसने कराया? | भोजदेव | 1,930 | hindi |
5cbb87dd9 | Main Page
दिल धड़कने दो एक भारतीय बॉलीवुड फिल्म है। जिसके निर्देशक जोया अख्तर व निर्माता रितेश शिदवानी और फरहान अख्तर हैं। इसमें अनिल कपूर, फरहान अख्तर, शेफाली शाह, प्रियंका चोपड़ा, रणवीर सिंह, अनुष्का शर्मा, राहुल बोस मुख्य भूमिका में हैं। यह फिल्म 5 जून 2015 को सिनेमा घरों में प्रदर्शित होगी।[1]
कलाकार
अनिल कपूर - कमल मेहरा
फरहान अख्तर - सनी गिल
शेफाली शाह - नीलम मेहरा
प्रियंका चोपड़ा - आएशा मेहरा
रणवीर सिंह - कबीर मेहरा
अनुष्का शर्मा - फराह अली
राहुल बोस - मानव
निर्माण
फरहान अख़्तर ने इसके निर्माण की तैयारी ज़िंदगी ना मिलेगी दुबारा के बाद से ही 2011 में शुरू कर दिया था।[2]
गीत
इस गाने के संगीत को शंकर एहसान लोय ने बनाया और इसके बोल को जावेद अख्तर ने।
गाने
No.TitleगायकLength1."दिल धड़कने दो"फरहान अख्तर, प्रियंका चोपड़ा03:482."पहली बार"सुकृति ककर, सिद्धार्थ महादेवन04:233."गललन गोदियन"याशिता शर्मा, मनीष कुमार टीपू, फरहान अख्तर, शंकर महादेवन, सुखविंदर सिंह04:564."गर्ल्स लाइक टु स्विंग"सुनिधि चौहान04:035."फिर भी ये ज़िंदगी"फरहान अख्तर, विशाल ददलानी, दिव्य कुमार, अल्यस्सा मेंदोसा04:27
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
श्रेणी:2015 में बनी हिन्दी फ़िल्म | दिल धड़कने दो फिल्म के निर्देशक कौन थे? | जोया अख्तर | 67 | hindi |
a5a308fcc | स्क्वैश आम तौर पर मध्य अमेरिका और मैक्सिको के देशी पौधे जीनस ककुर्बिता की चार प्रजातियों को संदर्भित करता है और विविधता या प्रयोगकर्ता की राष्ट्रीयता पर निर्भर करते हुए इसे मार्रोस भी कहा जाता है। इन प्रजातियों में सी. मॅक्सिमा (हबर्ड स्क्वैश, बटरकप स्क्वैश, बिग मैक्स जैसी प्राइज़ कद्दू की कुछ किस्में), सी मिक्स्टा, (कुशव स्क्वैश), सी मोस्चाता (बटरनट स्क्वैश) और सी पेपो (अधिकांश कद्दू, ऐकर्न स्क्वैश, समर स्क्वैश तोरी) शामिल हैं।[1] उत्तरी अमेरिका में स्क्वैश, ग्रीष्म स्क्वैश या शीत स्क्वैश में विभाजित होते हैं, यह निर्भर करता है कि इनकी कटाई अपरिपक्व अवस्था में ग्रीष्म स्क्वैश के रूप में या परिपक्व फल की अवस्था में (शरद स्क्वैश या शीत स्क्वैश) के रूप में होती है। लौकी स्क्वैश परिवार से ही है। स्क्वैश के प्रसिद्ध प्रकार में कद्दू और तोरी शामिल हैं। विशाल स्क्वैश मॅक्सिमा ककुर्बिता से प्राप्त होते हैं और नियमित तौर पर इनका वजन विशाल कद्दू के समान होता है। अधिक जानकारी के लिए, तोरी और स्क्वैश की संदर्भित सूची देखें.
खेती
पुरातात्विक साक्ष्य से पता चलता है कि स्क्वैश की पहली खेती मेसोअमेरिका में कुछ 8,000 से 10,000 वर्ष पहले शुरू की गई थी[2][3] और बाद में स्वतंत्र रूप से इसकी खेती अन्य स्थानों पर की गई।[4] स्क्वैश उन "तीन बहनों" में से एक है जिसे देशी अमेरिकियों द्वारा लगाया गया था। तीन बहने थीं तीन मुख्य देशी फसल: मक्का (मकई), सेम और स्क्वैश. ये आमतौर पर कॉर्नस्टॉक के साथ लगाए जाते थे ताकि स्क्वैश के लिए छाया के साथ साथ समर्थन भी मिले. स्क्वैश की लताएं जमीन पर फैलकर खर-पतवार को कम करती हैं। खर-पतवार स्क्वैश की बढ़ती अवस्था के लिए हानिकारक हो सकता है। सेम तीनों फसलों में निर्धारित नाइट्रोजन प्रदान करता है।
तोरी सहित ग्रीष्म स्क्वैश (कोरगेट के रूप में भी जाना जाता है), पाटीपैन और पीले रंग का क्रूकनेक को बढ़ते समय काट लिया जाता है, जब इसके छिलके नर्म और फल छोटे होते हैं, इसे कच्चा खाया जा सकता है और इसे पकाने की जरूरत नहीं होती.
शीत स्क्वैश (जैसे कि बटरनट, हब्बार्ड, बटरकप, अम्बरकप, बलूत का फल, स्पैगेट्टी स्क्वैश और कद्दू) पकने पर काटे जाते हैं, आम तौर पर गर्मियों के अंत में छिलके के ठीक ढंग से सख्त होने और बाद में खाने के लिए एक ठंडी जगह में संग्रहित किए जाते हैं। आम तौर पर स्क्वैश की तुलना में इसे पकाने में अधिक समय की आवश्यकता होती है। (नोट: हालांकि शीत स्क्वैश शब्द का इस्तेमाल यहां ग्रीष्म स्क्वैश से विभेद करने के लिए होता है, यह आमतौर पर मॅक्सिमा ककुर्बिता के पर्याय के रूप में भी प्रयोग किया जाता है।)
वनस्पति विज्ञानियों द्वारा स्क्वैश फल को पेपो के रूप में वर्गीकृत किया जाता है, जो एक विशेष प्रकार का बेर है जिसके छिलके बहुत मोटे और बाहरी दीवार की संरचना नलीदार ऊतक की तरह होती है; फल के गूदे मध्यस्थफल और अन्तःफल से गठित होते हैं। पेपो, एक अवर अंडाशय से निकली हुई, जिसमें स्क्वैश परिवार (ककुर्बितासिए) की विशेषता है। पाककला के संदर्भ में, आम तौर पर ग्रीष्म और शीत स्क्वैश दोनों ही सब्जियों के रूप हैं, भले ही कद्दू का इस्तेमाल मिठाई के व्यंजनों के लिए किया जा सकता है।
फल के अलावा, इस पौधे के अन्य भाग भी खाए जाते हैं। स्क्वैश के बीजों को सीधे खाया जा सकता है, या पीस कर भोजन, "अखरोट" के पेस्ट की तरह, यहां तक कि महीन आटे की तरह, (विशेष रूप से कद्दू के लिए), इसे पीस कर तेल निकाला जाता हे (जैसे कि. लौकी, मीठे आलू और कद्दू के बीज का तेल) के रूप में खाए जाते हैं। कलियां, पत्तियां, और शाखाएं साग के रूप में खाए जा सकते हैं। इसका फूल देशी अमेरिकी भोजन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है एवं दुनिया के कई अन्य भागों में भी इस्तेमाल किया जाता है। नर और मादा फूल दोनों को पूर्व या मध्य फूल की अवस्था में काटा जा सकता है।
परागण
परिवार के अन्य सभी सदस्यों के साथ, फूलों के पराग असर-नर के रूप में और अंडाशय असर-मादा के रूप में आते हैं, दोनों रूप पौधे में उपस्थित होते हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से स्क्वैश का परागण उत्तरी अमेरिका की देशी स्क्वैश मधुमक्खी प्रुइनोसा पेपोनापिस और इनसे संबंधित प्रजातियों से होता था, लेकिन इस मधुमक्खी और उसके रिश्तेदारों ने कीटनाशक की संवेदनशीलता के कारण परागण का काम छोड़ दिया और सबसे वाणिज्यिक पौधों के परागण का काम यूरोपीय मधुमक्खी. द्वारा किया जाता है। अमेरिका के कृषि विभाग द्वारा प्रति एकड़ एक छत्ते (छत्ता प्रति 4000 m²) की सिफारिश की जाती है। मक्खियों की कमी के कारण अक्सर माली हस्त सेचन करते हैं। विशाल स्क्वैश आमतौर पर हस्त सेचन द्वारा उपजाए जाते हैं। पार-परागण रोकने के लिए परागण के बाद फूलों को बंद रखा जाता है। अपर्याप्त रूप से परागण की गईं मादा स्क्वैश फूलों का आमतौर पर पूर्ण विकास से पहले ही गर्भपात शुरू हो जाता है। गर्भपात रोगों के लिए कई माली विभिन्न कवक को दोषी ठहराते हैं, लेकिन ठीक साबित हुआ है जो बेहतर परागण करता है कवक नहीं.
तैयारी
हालांकि पाककला में सब्जी माने जाने वाले बनस्पति विज्ञान में इसे फल माना गया है (पौधों के बीज पात्र धारक हैं) स्क्वैश को (सलाद के रूप में) ताजा परोसा जा सकता है और (स्क्वैश मांस, तला हुआ स्क्वैश, भरवां स्क्वैश के रूप में) पकाया जा सकता है। छोटे पैटीपैन्स नमकीन बनाने के लिए अच्छे हैं।
नाम की व्युत्पत्ति
अंग्रेजी शब्द "स्क्वैश" की व्युत्पत्ति अस्कुतास्क्वैश (askutasquash) (एक हरी चीज जिसे कच्चा खाते हैं, नार्रगंसेत्त भाषा से लिया गया एक शब्द जिसका दस्तावेज रोह्ड आइलैंड के संस्थापक रोजर विलियम्स द्वारा उनके प्रकाशन ए की टू द लैंगवेज ऑफ अमेरिका में 1643 में किया गया था। स्क्वैश से मिलते-जुलते शब्दो मस्सचुसेत्त के रूप में ऌगोन्क़ुइअन परिवार से संबंधित भाषाओं में मौजूद हैं।
स्क्वैश डंठल के एक नेटवर्क से लटकना
एक पीला स्क्वैश
पेटिट पैन (पैटी पैन) स्क्वैश
स्क्वैश मादा फूल (कोर्गेट), अंडाशय, ओवुलेस, स्त्रीकेसर का अनुदैर्ध्य अनुभाग और पंखुड़ियां दिख रही है
एक टर्बन स्क्वैश
देलिकाता स्क्वैश, मीठे आलू भी स्क्वैश के रूप में जाने जाते हैं
टर्बन, मिठाई गुलगुला, कार्निवल, गोल्ड शाहबलूतिक, देलिकाता, बटरकप और गोल्डन सोने का डला के रूप में विभिन्न स्क्वैश.
ब्य्वार्ड मार्केट, ओटावा, कनाडा में प्रदर्शित मिश्रित शरद ऋतु स्क्वैश
कला में उपयोग
पूर्व-कोलंबियन युग से ही स्क्वैश अन्डेस की एक आवश्यक फसल है। उत्तरी पेरू की मोचे संस्कृति में मिट्टी, आग और पानी से चीनी मिट्टी की चीज़ें बनाई जाती हैं। यह मिट्टी के बर्तन एक पवित्र पदार्थ होते थे, महत्वपूर्ण आकार में गठित होते थे और महत्वपूर्ण विषयों का प्रतिनिधित्व करते थे। स्क्वैश मोचे सिरेमिक में अक्सर प्रस्तुत किया जाता है।[5]
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
श्रेणी:कचुर्बितासिए
श्रेणी:स्क्वैश और कद्दू
श्रेणी:फल सब्जियां
श्रेणी:अमेरिका में ऊपजायी जाने वाली फसलें
श्रेणी:देशी अमेरिकन व्यंजन
श्रेणी:मेसो-अमेरिकी भोजन
श्रेणी:ऌगोन्क़ुइअन लोनवर्ड्स
श्रेणी:दक्षिणी संयुक्त राज्य अमेरिका का भोजन
श्रेणी:पश्चिमी संयुक्त राज्य अमेरिका का भोजन | स्क्वैश पौधों के किस परिवार से है? | ककुर्बितासिए | 2,533 | hindi |
74532387f | जैसलमेर के सांस्कृतिक इतिहास में यहाँ के स्थापत्य कला का अलग ही महत्व है। किसी भी स्थान विशेष पर पाए जाने वाले स्थापत्य से वहां रहने वालों के चिंतन, विचार, विश्वास एवं बौद्धिक कल्पनाशीलता का आभास होता है। जैसलमेर में स्थापत्य कला का क्रम राज्य की स्थापना के साथ दुर्ग निर्माण से आरंभ हुआ, जो निरंतर चलता रहा। यहां के स्थापत्य को राजकीय तथा व्यक्तिगत दोनो का सतत् प्रश्रय मिलता रहा। इस क्षेत्र के स्थापत्य की अभिव्यक्ति यहां के किलों, गढियों, राजभवनों, मंदिरों, हवेलियों, जलाशयों, छतरियों व जन-साधारण के प्रयोग में लाये जाने वाले मकानों आदि से होती है।
जैसलमेर राज्य में हर २०-३० किलोमीटर के फासले पर छोटे-छोटे दुर्ग दृष्टिगोचर होते हैं, ये दुर्ग विगत १००० वर्षो के इतिहास के मूक गवाह हैं। मध्ययुगीन इतिहास में इनका परम महत्व था। ये राजनैतिक आवश्यकतानुसार निर्मित कराए जाते थे। दुर्ग निर्माण में सुंदरता के स्थान पर मजबूती तथा सुरक्षा को ध्यान में रखा जाता था। परंतु यहां के दुर्ग मजबूती के साथ-साथ सुंदरता को भी ध्यान मं रखकर बनाया गया था। दुर्गो में एक ही मुख्य द्वारा रखने के परंपरा रही है। दुर्ग मुख्यतः पत्थरों द्वारा निर्मित हैं, परंतु किशनगढ़, शाहगढ़ आदि दुर्ग इसके अपवाद हैं। ये दुर्ग पक्की ईंटों के बने हैं। प्रत्येक दुर्ग में चार या इससे अधिक बुर्ज बनाए जाते थे। ये दुर्ग को मजबूती, सुंदरता व सामरिक महत्व प्रदान करते थे।
नगर का स्थापत्य
जैसलमेर नगर का विकास १५ वीं शताब्दी से प्रारंभ होता है। जब जैसलमेर दुर्ग में आवासीय कठिनाईयाँ प्रतीत हुई, तो कुछ लोगों ने किले की तलहटी में स्थायी आवास बनाकर रहना प्रारंभ कर दिया। बहुत कम ही ऐसे नगर होते हैं, जिनका अपना स्थापत्य होता है। जैसलमेर भी उनमें से एक है।
इस काल में जैसलमेर शासकों का मुगलों से संपर्क हुआ व उनके संबंध सदैव सौहार्दपूर्ण बने रहने से राज्य में शांति बनी रही। इसी कारण यहाँ पर व्यापार-वाणिज्य की गतिविधियाँ धीरे-धीरे बढ़ने लगी। महेश्वरी, ओसवाल, पालीवाल व अन्य लोग आसपास की रियासतों से यहां आकर बसने लगे व कालांतर में यहीं बस गए। इन लोगों के बसने के लिए अपनी-अपनी गोत्र के हिसाब से मौहल्ले बना लिए। आमने-सामने के मकानों से निर्मित २० से १०० मकानों के मुहल्ले, सीधी सड़क या गलियों का निमार्ण हुआ और ये गलियाँ एक दूसरे से जुड़ती चली गयीं। इस प्रकार वर्तमान नगर का निर्माण हुआ।
ये सगोत्रीय, सधर्म या व्यवसायी मौहल्ले पाड़ा या मौहल्ले कहलाते थे व इन्हें व्यावसाय के नाम से पुकारते हैं। जैसे बीसाना पाड़ा, पतुरियों का मुहल्ला तथा चूड़ीगर अलग-अलग व्यावसायियों के अलग-अलग मौहल्लों में रहने से यहाँ प्रत्येक मोहल्ले में पृथक-पृथक बाजारों का प्रादुर्भाव हुआ।
नगर के पूर्णरुपेण विकसित होने पर उसकी सुरक्षा हेतु आय भी आवश्यक प्रतीत होने लगे। फलस्वरुप महारावल अखैसिंह ने १७४० ई. के लगभग नगर के परकोटे का निर्माण करवाया, जो महारावल मूलराज द्वितीय के काल में संपन्न हुआ। इस शहर दीवार में प्रवेश हेतु चार दरवाजे हैं, जो पोल कहलाती है। इन्हें गड़ीसर पोल, अमरसागर पोल, मल्कापोल व भैरोपोल के नाम से पुकारा जाता है। ये दरवाजे मुगल स्थापत्य कला से काफी प्रभावित है। इनमें बड़ी-बड़ी नुकीली कीलों से युक्त लकड़ी के दरवाजे लगे हैं, जिनमें आपातकालीन खिड़कियाँ बनी हैं। अठारहवीं सदी के आते-आते नगर में बढ़ती हुई व्यापारिक समृद्धि के कारण व्यापारी, सामंत व प्रशासनिक वर्ग बहुत धन संपन्न हो गया। फलस्वरुप १९ वीं सदी के आरंभ तक यहां इन लोगों ने आवास हेतु बड़ी-बड़ी हवेलियों, बाड़ी मंदिर आदि का निर्माण करवाना शुरु कर दिया।
दुर्ग
जैसलमेर दुर्ग स्थापत्य कला की दृष्टि से उच्चकोटि की विशुद्ध स्थानीय दुर्ग रचना है। ये दुर्ग २५० फीट तिकोनाकार पहांी पर स्थित है। इस पहांी की लंबाई १५० फीट व चौङाई ७५० फीट है।
रावल जैसल ने अपनी स्वतंत्र राजधानी स्थापित की थी। स्थानीय स्रोतों के अनुसार इस दुर्ग का निर्माण ११५६ ई. में प्रारंभ हुआ था। परंतु समकालीन साक्ष्यों के अध्ययन से पता चलता है कि इसका निर्माण कार्य ११७८ ई. के लगभग प्रारंभ हुआ था। ५ वर्ष के अल्प निर्माण कार्य के उपरांत रावल जैसल की मृत्यु हो गयी, इसके द्वारा प्रारंभ कराए गए निमार्ण कार्य को उसके उत्तराधिकारी शालीवाहन द्वारा जारी रखकर दुर्ग को मूर्त रूप दिया गया। रावल जैसल व शालीवाहन द्वारा कराए गए कार्यो का कोई अभिलेखीय साक्ष्य नहीं मिलता है। मात्र ख्यातों व तवारीखों से वर्णन मिलता है।
हवेलियां
हवेलियों में मुख्यतः तीन हवेलियां प्रमुख हैं। पटुओं की हवेली, दीवान सालिमसिंह की हवेली व दीवान नाथमल की हवेली। कला की दृष्टि से पटुओं की हवेली व नाथमल की हवेली। कला की दृष्टि से पटुओं की हवेली व नाथमल हवेली स्थापत्य कला का सर्वोत्तम उदाहरण है। वहीं दीवान सालिम सिंह की हवेली अपनी विशालता व भव्यता के लिए प्रसिद्ध है। ये सभी हवेलियाँ स्थानीय पीले रेतीले पत्थर से बनी है। यह पत्थर खुदाई के काम के लिए सर्वोत्तम माना जाता है। इसे घिसने पर यह अत्यधिक चिकना व चमकीला हो जाता है। किसी भी हवेली के भीतर-बाहर से गुजरते हुए और विगत की परतें बिखेरते हुए लगता है, जैसे आत्म साक्ष्य हो रहा हो, किसी ने सुहाकगया पीले ओढ़ने की वेहराई आँखों की खिड़की से कहीं झांक-झांक लिया हो या स्वर्धिम धूप की आँगने की परिक्रमा लगाते हुए दपंण ने पलका-सा मार दिया हो अथवा आंखों में अमलतास उग आए हों और सूखी-पपड़ाई सी सोनल रेत में पीले पहाड़ बन गए हों।
यहाँ के लगभग सभी भवन पीले, कलात्मक झरोखों से युक्त, पीली चादर में लिपटे मनोहारी और दृष्टि बांधने वाले। भवनों की बेजोड़ शिल्पकला को देखकर दर्शक की दृष्टियाँ चकित रह जाती हैं।
मुगल सत्ता के पराभव के उपरांत सिंध, गुजरात व मालवा की ओर से कई हिंदु व मुस्लिम कलाकार यहाँ आकर बसने लगे तथा उन्होंने इन हवेलियों का निर्माण किया। किंतु यदि ये कारीगर गुजरात व मालवा की ओर से आए होते तो अपनी कला के कुछ मौलिक उदाहरण अवश्य मिलते, जो कि नहीं मिलते हैं। परंतु जैसलमेर राज्य से लगे सिंध प्रांत में स्थानीय कला के ढेरों उदाहरण प्राप्त होते हैं, जो कि सिंध नदी को पार करते हुए बलूचिस्तान की सीमा तक प्राप्त होते हैं। अतः संभव है कि यहाँ पर की गई नक्काशी के लिए कारीगर सिंध प्रांत से जैसलमेर की ओर आए होंगे। संभवतः लकड़ी के काम के लिए कलाकार मालवा व गुजरात से आए होंगे, क्योंकि ये दोनों ही प्रांत इस कार्य हेतु प्रसिद्ध हैं।
पटुओं की हवेली
छियासठ झरोखों से युक्त ये हवेलियाँ निसंदेह कला का सर्वेतम उदाहरण है। ये कुल मिलाकर पाँच हैं, जो कि एक-दूसरे से सटी हुई हैं। ये हवेलियाँ भूमि से ८-१० फीट ऊँचे चबूतरे पर बनी हुई है व जमीन से ऊपर छः मंजिल है व भूमि के अंदर एक मंजिल होने से कुल ७ मंजिली हैं। पाँचों हवेलियों के अग्रभाग बारीक नक्काशी व विविध प्रकार की कलाकृतियाँ युक्त खिंकियों, छज्जों व रेलिंग से अलंकृत है। जिसके कारण ये हवेलियाँ अत्यंत भव्य व कलात्मक दृष्टि से अत्यंत सुंदर व सुरम्य लगती है। हवेलियों में प्रवेश करने हुतु सीढियाँ चढ़कर चबूतरे तक पहुँचकर दीवान खाने (मेहराबदार बरामदा) में प्रवेश करना पड़ता है। दीवान खाने से लकंी की चौखट युक्त दरवाजे से अंदर प्रवेश करने पर प्रथम करमे को मौ प्रथम कहा जाता है। इसके बाद चौकोर चौक है, जिसके चारों ओर बरामदा व छोटे-छोटे कमरे बने हुए हैं। ये कमरे ६'x ६' से ८' के आकार के हैं, ये कमरे प्रथम तल की भांति ही ६ मंजिल तक बने हैं। सभी कमरें पत्थरों की सुंदर खानों वाली अलमारियों व आलों ये युक्त हैं, जिसमें विशिष्ट प्रकार के चूल युक्त लकंी के दरवाजे व ताला लगाने हेतु लोहे के कुंदे लगे हैं। प्रथम तल के कमरे रसोइ, भण्डारण, पानी भरने आदि के कार्य में लाए जाते थे, जबकि अन्य मंजिलें आवासीय होती थ। दीवान खानें के ऊपर मुख्य मार्ग की ओर का कमरा अपेक्षाकृत बङा है, जो सुंदर सोने की कलम की नक्काशी युक्त लकंी की सुंदर छतों से सुसज्जित है। यह कमरा मोल कहलाता है, जो विशिष्ट बैठक के रूप में प्रयुक्त होता है।
प्रवेश द्वारो, कमरों और मेडियों के दरवाजे पर सुंदर खुदाई का काम किया गया है। इन हवेलियों में सोने की कलम की वित्रकारी, हाथी दांत की सजावट आदि देखने को मिलती है। शयन कक्ष रंग बिरंगे विविध वित्रों, बेल-बूटों, पशु-पक्षियों की आकृतियों से युक्त है। हवेलियों में चूने का प्रयोग बहुत कम किया गया है। अधिकांशतः खाँचा बनाकर एक दूसरे को पिघले हुए शीशे से लोहे की पत्तियों द्वारा जोङा गया है। भवन की बाहरी व भीतरी दीवारें भी प्रस्तर खंडों की न होकर पत्थर के बंे-बंे आयताकार लगभग ३-४ इंच मोटे पाटों (स्लैब) को एक दूसरे पर खांचा देकर बनाई गई है, जो उस काल की उच्च कोटि के स्थापत्य कला का प्रदर्शन करती हैं।
पटवों की हवेलियाँ अट्ठारवीं शताब्दी से सेठ पटवों द्वारा बनवाई गई थीं। वे पटवे नहीं, पटवा की उपाधि से अलंकृत रहे। उनका सिंध-बलोचिस्तान, कोचीन एवं पश्चिम एशिया के देशों में व्यापार था और धन कमाकर वे जैसलमेर आए थे। कलाविद् एवं कलाप्रिय होने के कारण उन्होने अपनी मनोभावना को भवनों और मंदिरों के निर्माण में अभिव्यक्त किया। पटुवों की हवेलियाँ भवन निर्माण के क्षेत्र में अनूठा एवं अग्रगामी प्रयास है।
सालिम सिंह की हवेली
सालिम सिंह की हवेली छह मंजिली इमारत है, जो नीचे से संकरी और ऊपर से निकलती-सी स्थात्य कला का प्रतीक है। जहाजनुमा इस विशाल भवन आकर्षक खिंकियाँ, झरोखे तथा द्वार हैं। नक्काशी यहाँ के शिल्पियों की कलाप्रियता का खुला प्रदर्शन है। इस हवेली का निर्माण दीवान सालिम सिंह द्वारा करवाया गया, जो एक प्रभावशाली व्यक्ति था और उसका राज्य की अर्थव्यवस्था पर पूर्ण नियंत्रण था।
दीवान मेहता सालिम सिंह की हवेली उनके पुस्तैनी निवास के ऊपर निर्मित कराई गई थ। हवेली की सर्वोच्च मंजिल जो भूमि से लगभग ८० फीट की उँचाई पर है, मोती महल कहलाता है। कहा जाता है कि मोतीमहिल के ऊपर लकंी की दो मंजिल और भी थी, जिनमें कांच व चित्रकला का काम किया गया था। जिस कारण वे कांचमहल व रंगमहल कहलाते थे, उन्हें सालिम सिंह की मृत्यु के बाद राजकोप के कारण उतरवा दिया गया। इस हवेली की कुल क्षेत्रफल २५० x ८० फीट है। इसके चारों ओर अंतालीस झरोखे व खिंकियाँ है। इन झरोखों तथा खिंकियों पर अलग-अलग कलाकृति उत्कीर्ण हैं। इनपर बनी हुई जालियाँ पारदर्शी हैं। इन जालियों में फूल-पत्तियाँ, बेलबूटे तथा नाचते हुए मोर की आकृति उत्कीर्ण है। हवेली की भीतरी भाग में मोती-महल में जो ४-५ वीं मंजिल पर है, स्थित फव्वारा आश्चर्यजनक प्रतीत होता है। सोने की कलम से किए गए छतों व दीवारों पर चित्रकला के अवशेष आज भी उत्कृष्ट कला को प्रदर्शित करते हैं। इन प शिला पर कई जैन धर्म से संबंधित कथाएँ चिहृन, तंत्र व तीर्थकर व मंदिर आदि उत्कीर्ण है। प शिला पर उत्कीर्ण लेख के अनुसार इसका निर्माण काल १५१८ विक्रम संवत् है। मंदिर की बाहरी दीवारों पर भी विभित्र प्रकार की मूर्तियों का रुपांकन हुआ है। इस मंदिर के जाम क्षेत्र में काम मुद्राओं से युक्त मिथुन प्रतिमाओं का अंकन भी मिलता है। ये मूर्ति कला की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इस मंदिर के ऊँचे शिखर के साथ-साथ अनेक लघु शिखर जिन्हें अंग शिखर कहा जाता है, भी चारों ओर क्रम से फैले हुए हैं। ये लघु शिखर देखने में मनोहारी प्रतीत होते हैं।
दीवान नाथमल की हवेली
जैसलमेर में दीवन मेहता नाथमल की हवेली का कोई जबाव नहीं है। यह हवेली दीवान नाथमल द्वारा बनवाई गई है तथा यह कुल पाँच मंजिली पीले पत्थर से निर्मित है। इस हवेली का निर्माण काल १८८४-८५ ई. है। हवेली में सुक्ष्म खुदाई मेहराबों से युक्त खिंकियों, घुमावदार खिंकियाँ तथा हवेली के अग्रभाग में की गई पत्थर की नक्काशी पत्थर के काम की दृष्टि से अनुपम है। इस अनुपम काया कृति के निर्माणकर्त्ता हाथी व लालू उपनाम के दो मुस्लिम कारीगर थे। ये दोनों उस समय के प्रसिद्व शिल्पकार थे। हवेली का निर्माण आधा-आधा भाग दोनों शिल्पकारों को इस शर्त के साथ बराबर सौंपा गया था कि दोनों आपस में किसी की कलाकृति की नकल नहीं करेंगे, साथ ही किसी कलाकृति की पुनरावृत्ति नहीं करेंगे। इस बात का दोनों ने पालन करते हुए इसका निर्माण पूर्ण किया। आज जब इस हवेली को दूर से देखते हैं, तो यह पूरी कलाकृति एक सी नजर आती है, परंतु यदि ध्यान से देखा जाए तो हवेली के अग्रभाग के मध्य केंद्र से दोनों ओर की कलाकृतियाँ सूक्ष्म भित्रता लिए हुए हैं, जो दो शिल्पकारों की अमर कृति दर्शाती हैं। हवेली का कार्य ऐसा संतुलित व सुक्ष्मता लिए हुए है कि लगता ही नहीं दो शिल्पकार रहें हों।
हवेली ७-८ फुट उँचे चबूतरे पर बनी है। एक चट्टान को काट कर इस भवन का निचला भाग बनाया गया है। इस चबूतरे तक पहुँचने हेतु चौडी सीढियाँ हैं व दोनों ओर दीवान खाने बने हैं। चबूतरे के छो पर एक पत्थर से निर्मित दो अलंकृत हाथियों की प्रतिमाएँ है। हवेली के विशाल द्वार से अंदर प्रवेश करने पर चौङा दालान आता है। दालान के चारों ओर विशाल बरामदे बने हैं। जिनके पीछे आवासीय कमरे बने हैं। द्वितीय तल पर संक की ओर मुख्य द्वार के ऊपर विशाल मोल बना हुआ है, जो कई प्रकार के चित्रों व त्रिकला से सुसज्जित है। इसकी छत लकंी के परंपरागत छत के स्थान पर पत्थर के छोटे-छोटे समतल टुकङों को सुंदर काआर देकर केन्द्र में सुंदर फूल बनाकर चारों ओर पंखुंयों का आभास देते हैं, को जमाकर बनाया गया है। इस विशाल कक्ष में किसी प्रकार की कमानी या बीम आदि का संबंध नहीं किया गया है। यह तत्कालीन स्थापत्य कला का उत्रत उदाहरण है। हवेली में पत्थर की खुदाई के छज्जे, छावणे, स्तंभों, मौकियों, चापों, झरोखों, कंवलों, तिबरियों पर फूल, पत्तियां, पशु-पक्षियों का बङा ही मनमोहक आकृतियां बनी हैं। कुछ नई आकृतियां जैसे स्टीम इंजन, सैनिक, साईकल, उत्कृष्ट नक्काशी युक्त घोंे, हाथी आदि उत्कीर्ण है। यहाँ तक की पानी की निकासी हेतु नालियों भी शिल्पकारों की छेनियों से अछूती नहीं रही है।
संभवनाथ मंदिर
पार्श्वनाथ मंदिर के नजदीक में स्थित इस मंदिर का स्थापत्य पार्श्वनाथ मंदिर के अनुरुप ही है। यह मंदिर अपने उत्कृष्ट नक्काशी तथा स्थापत्य की अन्य कलाओं के कारण प्रसिद्ध है।
संभवनाथ मंदिर में मंदिर का रंग मंडप की गुंबदनुमा छत स्थापत्य में दिलवाङा के जैन मंदिर के अनुरुप है। इसके मध्य भाम में झूलता हुआ कमल है, जिसके चारों ओर गोलाकार आकार में बाहर अप्सराओं की कलाकृतियाँ हैं। अप्सराओं के नीचे के हिस्से में गंद्धर्व की मूर्तियँ उत्कीर्ण है। अप्सराओं के मध्य में पदमासन् मुद्राओं में जो प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित हैं, जिनके नीचे हंस बने हैं, गुंबद का अन्य भाग पच्चीकारी से युक्त है। इस मंदिर में कुल मिलाकर ६०४ प्रतिमाएँ हैं, जिनमें से एक जौ के आकार का मंदिर है, जिसमें तिल के बराबर जैन प्रतिमा है, जो कि उस समय की उत्रत स्थापत्य कला को दर्शाता है। इस मंदिर का निर्माण सन् १३२० ई. में शिवराज महिराज एवं लखन नाम का ओसवाल जाति के व्यक्तियों ने कराया था तथा मंदिर के वास्तुकार का नाम शिवदेव था।
इस मंदिर के भू-गर्भ में दुर्लभ पुस्तकों का भंडार है, जो ता पत्र भोज पत्र, रेशम तथा हाथ के बने हुए कागज पर लिखा गया है। इस भंडार में प्रमुख रुपेण जैन धर्म साहित्य है, परंतु अन्य विषय कला, संगीत, ज्योतिष, औषधि, काम, अर्थ आदि विषयों पर भी प्रचुर मात्रा में है। इस भंडार में प्राचीनतम ग्रंथ १०६० ई. का है।
चन्द्रप्रभू मंदिर
चंद्रप्रभू मंदिर तीन मंजिला है तथा रणकपुर जैन मंदिर की तरह है। स्थापत्य की दृष्टि से यह मंदिर १३ वीं १४ वीं शताब्दी का बना हुआ है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह पहले हिंदु मंदिर था जिसे बाद में १५ वीं शताब्दी में जैन मंदिर में तब्दील कर दिया गया। यह तथ्य मंदिर के निचले भाग की उत्कृष्ट कला को प्रदर्शित करते हैं।
भवन निर्माण में स्थापत्य की विशिष्टता जैसलमेर में हवेली तक ही सीमित नहीं है, पूरा जैसलमेर ही जालियों व झरोखों का नगर है। यहाँ ऐसा कोई मोहल्ला या गली नहीं है, जिसमें ऐसा घर हो कि किसी ने किसी प्रकार की शिल्पकला का प्रदर्शन न किया हो। मकानों के बाहरी भाग व भीतरी भाग थोंी-थोंी भित्रता लिए हुए है, किन्तु उन्हें बनाने की कला में एकरुपता है। मरुस्थल में कला के चरण कहाँ तक पहुँच गए हैं, इसका पता तब लगता है, जब कोई जैसलमेर के छोटे बाजार को पार करके पत्थर के खडंजे की गलियों में पहुँचते हैं। जहाँ दोनो ओर सुंदर विशाल हवेलियाँ झरोखों से झांक कर या खिंकियों की कनखियों से देखकर आगंतुकों का अभिवाद करती हैं।
स्थापत्य का प्रदर्शन राज्य की राजधानी तक ही सीमित नहीं रहा। राज्य के अन्य भागों में भी स्थापत्य कला का सुनियोजित रूप से विकास हुआ था। पालीवाल नामक वाणिज्य करने वाली जाति ने खाभा, काठोंी, कुलधर, बासनीपीर, जैसू राणा, हडडा आदि ग्राम बसाए थे, इनकी रचना बंे कलात्मक ढंग से की गई थी। यहाँ की इमारतें जिनमें मकान, कुँए, छतरियाँ, मंदिर, तालाब, बांध आदि स्थापत्य व कला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। यद्यपि लगभग २०० वर्ष हुए, यहाँ के निवासी पालीवाल यहाँ से पलायन कर देश के अन्य भागों में बस गए व ये गाँव उज गए, किन्तु खंडहरों में बिखरा स्थापत्य कला के सौंदर्य को आज भी जीवंत रखे हुए है।
मंदिर स्थापत्य
जैसलमेर दुर्ग, नगर व आस-पास के क्षेत्र मं स्थित ऊँचे शिखरों, भव्य गुंबदों वाले जैन मंदिरों का स्थापत्य कला की दृष्टि से बङा महत्व है। जैसलमेर स्थिर जैन मंदिर में जगती, गर्भगृह, मुख्यमंडप, गूढ़मंडप, रंगमंडन, स्तंभ व शिखर आदि में गुजरात के सोलंकी व बधेल कालीन मंदिरों का स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।
श्रेणी:जैसलमेर | जैसलमेर किले को किसने बनवाने लगाया था? | रावल जैसल | 3,250 | hindi |
33ab9e339 | सी (C) एक सामान्य उपयोग में आने वाली कम्प्यूटर की प्रोग्रामन भाषा है। इसका विकास डेनिस रिची ने बेल्ल टेलीफोन प्रयोगशाला में सन् १९७२ में किया था जिसका उद्देश्य यूनिक्स संचालन तंत्र का निर्माण करना था।
इस समय (२००९ में) 'सी' पहली या दूसरी सर्वाधिक लोकप्रिय प्रोग्रामिंग भाषा है। यह भाषा विभिन्न सॉफ्टवेयर फ्लेटफार्मों पर बहुतायत में उपयोग की जाती है। शायद ही कोई कम्प्यूटर-प्लेटफार्म हो जिसके लिये सी का कम्पाइलर उपलब्ध न हो। सी++, जावा, सी#(C-Sharp) आदि अनेक प्रोग्रामन भाषाओं पर सी भाषा का गहरा प्रभाव देखा जा सकता है।
सी प्रोग्रामिंग भाषा का इतिहास
सन १९६० में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय ने एक कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग भाषा का विकास किया जिसे उन्होने नाम दिया। इसे सामान्य बोल-चाल की भाषा में बी (B) कहा गया। ’बी’ भाषा को सन १९७२ में बेल्ल प्रयोगशाला में कम्प्यूटर वैज्ञानिक डेनिश रिची द्वारा संशोधित किया गया। ’सी’ प्रोग्रामिंग भाषा ’बी’ प्रोग्रामिंग भाषा का ही संशोधित रूप है। ’सी’ को यूनिक्स ऑपरेटिंग सिस्टम और डॉस ऑपरेटिंग सिस्टम दोनो में प्रयोग किया जा सकता है, अन्तर मात्र कम्पाइलर का होता है। यूनिक्स ऑपरेटिंग सिस्टम ’सी’ में लिखा गया ऑपरेटिंग सिस्स्टम है। यह विशेषत: ’सी’ को प्रयोग करने के लिये ही बनाया गया है अत: अधिकतर ’सी’ का प्रयोग यूनिक्स ऑपरेटिंग सिस्टम पर ही किया गया है।
सी-भाषा मामूली अन्तर के साथ कई उपभाषाओं (dilects) के रूप में मिलती है। अमेरिकी राष्ट्रीय मानक संस्थान (अमेरिकन नेशनल स्टैण्डर्ड्स इंस्टीट्यूट) (ANSI) द्वारा विकसित ANSI C को अधिकतर मानक माना जाता है।l
’सी’ प्रोग्रामिंग भाषा की विशेषताएं
(१) इस प्रोग्रामिंग भाषा की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसमे उच्च स्तरीय प्रोग्रामिंग भाषा के समस्त गुण तो है ही, साथ ही इसमे निम्न स्तरीय भाषा के समस्त गुण पाए जाते है। उच्च स्तरीय भाषाएं फ़ोरट्रान, कोबोल भी है लेकिन इसमे निम्न स्तरीय भाषा के गुण नहीं पाए जाते।
(२) इस प्रोग्रामिंग भाषा में तैयार किये गये प्रोग्राम की गति अपेक्षाकृत तीव्र होती है। यह ० से १५००० तक गिनने में लगभग एक सेकण्ड का समय लगाती है जबकि बेसिक में इस कार्य में लगभग ५० सेकण्ड लगते है।
(३) ’सी’ प्रोग्रामिंग भाषा में प्रोग्राम में प्रयोग करने हेतु अनेक functions परिभाषित होते है परन्तु इसमे एक अतिरिक्त सुविधा यह भी है कि प्रोग्रामर अपनी आवश्यकतानुसार नए functions भी परिभाषित कर सकता है।
(४) इसमे मात्र ३२ की शब्दों का प्रयोग होता है इसके साथ ही इसमे अनेक अन्य सहायक प्रोग्राम भी होते है जिसकी सहायता से जटिल functions भी सफलतापूर्वक किए जा सकते है।
(५) यह मुख्यत: गणित, विज्ञान एवं सिस्टम संबंधित कार्यो के काम आती है।
(६) इस भाषा में निर्देश देते समय lower case letters का ही प्रयोग किया जाता है।
उपरोक्त विशेषताओ के कारण ही ’सी’ एक अत्यधिक लोकप्रिय कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग भाषा है।
सी प्रोग्राम की संरचना और इसके घटक
हैडर संचिका (Header Files)
Compiler Directives
Function Prototypes
फलन परिभाषा (Function Definition)
मुख्य फलन (Main Function)
इससे पहले हम यह जान चुके हैं कोई भी चर संगणक की मेमोरी (memory) में किस तरह से संरक्षित होता है। जहाँ यह चर संरक्षित होता है उसका एक निश्चित पता भी होता है जो यह बताता है कि चर का मान मेमोरी में कहाँ संरक्षित है। इस पते को ही पोइंटर (pointer) कहते हैं। C/C++ प्रोग्रामन भाषा में यह सुविधा भी होती है कि किसी चर का पता ज्ञात किया जा सकें (चर का पता = वह मेमोरी में पता/वह स्थान जहाँ चर का मान संरक्षित है)। C/C++ प्रोग्रामन भाषा में भी चर का पता जानने के लिए & का उपयोग करते हैं। जैसे कि अगर कोई पूर्णांक चर x (सी में int x; के रूप में परिभाषित) है तो x का पता &x से मिल जायेगा। जिस प्रकार पूर्णांक, अक्षर, वास्तविक संख्या (क्रमशः int, char, float) इत्यादि को चर में संरक्षित किया जाता हैं उसी तरह किसी चर के पत्ते को भी। इसके लिए एक नया डाटाटाईप (datatype) होता है जो पता संरक्षित करने के काम आता है जिस तरह से पूर्णांक संरक्षित करने के लिए int datatype का उपयोग होता है। किसी पूर्णांक चर का पता संरक्षित करने के लिए int* datatype का उपयोग करते हैं। इसी तरह अक्षर चर (char variable) का पता संरक्षित करने के लिए char* datatype का उपयोग करते हैं। नीचे एक छोटा सा उदाहरण यह दिया गया है जिसमें एक चर में दूसरे चर का पता (address) संरक्षित करते हैं।
#include<stdio.h>
int main() /* this is gate of c language just like our home */
{
int x = 5;
int* p;
p = &x
}
यहाँ पहले एक पूर्णांक चर x परिभाषित किया गया है, फिर p ऐसा चर परिभाषित किया है जो किसी पूर्णांक का पता (address) संरक्षित करता है। फिर p चर में x का पता डाल दिया है। (जैसा कि ऊपर लिखा है किसी भी चर का पता जानने के लिए & का उपयोग करते हैं।)
पता (Address)→ 0 1 2 3 4
मेमोरी (Memory)→ 10000111 11100101 00100110 0000101 01100101 . . .
↑
p = &x = 3 int x
अब चर एक पूर्णांक पोइंटर (int*) p है जिसमें चर x का पता संरक्षित है अर्थात p को लिखवाने पर x का पता लिखा जायेगा। (ऊपर दिखाए गए अनुसार यहाँ पर x का पता 3 है परन्तु अलग अलग समय पर C/C++ प्रोग्राम चलन के दौरान पता अलग अलग आएगा) यदि हमें यह जानना है कि p में जिस मेमोरी का पता लिखा हुआ उस मेमोरी पर क्या संरक्षित है तो *p का उपयोग करते हैं (यहाँ p में उस मेमोरी का पता है जहाँ x है और उस मेमोरी अर्थात x में 5 संरक्षित है अतः *p यहाँ पर 5 देगा। इसका एक छोटा सा उदाहरण निम्नलिखित है
#include <stdio.h>
int main() {
int x = 5;
int* p = &x;
printf("x = %d\n",x);
printf("address of x = %d\n", p);
printf("value at location p = %d\n", *p);
scanf("%d", &x);
return 0;
}
प्रोग्राम लिखने की विधि
’सी’ प्रोग्रामिंग भाषा में किसी भी प्रोग्राम का निष्पादन (execution) करने के लिये हमे एक main() फंक्शन अवश्य लिखना होता है। ( its also need preprocessor directory this #include keyword )क्योंकि ’सी’ कम्पाइलर किसी भी प्रोग्राम को निष्पादित करना main() फंक्शन से आरंभ करता है। एक संचिका अथवा एक प्रोग्राम में एक से अधिक main() फंक्शन नहीं हो सकते।
#include<header file name with extension like .h>
main()
{
.........
.........
return0
यह एक प्रयोगकर्ता द्वारा परिभाषित फंक्शन है। main() फंक्शन को ’{’ कोष्ठक द्वारा आरंभ किया जाता है। प्रोग्राम संचिका के निष्पादन के समय ’{’ यह बताता है कि निष्पादन यहाँ से आरंभ करना है। इसी प्रकार ’}’ यह बताता है कि निष्पादन यहाँ समाप्त होना है। एक प्रोग्राम में main() फंक्शन तो एक ही रहता है परन्तु अन्य फंक्शन का प्रयोग किया जा सकता है। प्रत्येक फंक्शन के लिये { और }
के मध्य उपप्रोग्राम दिया जाता है। प्रत्येक निर्देश का अन्त सेमीकालन ’;’ द्वारा होना आवश्यक है।
सी-प्रोग्राम का एक उदाहरणः
#include<stdio.h>
main()
{
printf("/nMY NAME IS......./n");
}
इस प्रोग्राम को चलाने पर इसका आउटपुट निम्नवत होगा:
एक अन्य उदाहरण
//second program in c
#include<stdio.h>
#include<conio.h>
main(){
int i,j;
{
printf("enter the value of i");
scanf("%d",&i);
printf("enter the value of j");
scanf("%d",&j);
}
getch();
}
/*and the output of this program
enter the value of i=4;
enter the value of j=5;
इन्हें भी देखें
प्रोग्रामिंग भाषा
सी++
जावा प्रोग्रामिंग भाषा
बाहरी कड़ियाँ
,
(आधिकारिक जालस्थल)
डेनिस रिची द्वारा
एम.बानहान-डी.ब्रैडी-एम.डोरन (एडिसन-वीज़ली, २रा संस्करण) — आरंभिक और मध्यवर्ती छात्रों, निशुल्क डाउनलोड, अब प्रकाशन से बाहर
— एक अप्रकाशित पुस्तक "सी भाषा के लिए अंतर्राष्ट्रीय मानको का विस्तृत विश्लेषण।"
केन थॉम्प्सन का शोधपत्र
श्रेणी:सॉफ्टवेयर
श्रेणी:संगणक अभियान्त्रिकी
श्रेणी:कंप्यूटर
श्रेणी:प्रोग्रामिंग भाषा | 'सी'' प्रोग्रामिंग भाषा किसके द्वारा विकसित की गयी थी? | अमेरिकी राष्ट्रीय मानक संस्थान | 1,258 | hindi |
366b44cf4 | बालविवाह केवल भारत मैं ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व में होते आएं हैं और समूचे विश्व में भारत का बालविवाह में दूसरा स्थान हैं। सम्पूर्ण भारत मैं विश्व के 40% बालविवाह होते हैं और समूचे भारत में 49% लड़कियों का विवाह 18 वर्ष की आयु से पूर्व ही हो जाता हैं। भारत में, बाल विवाह केरल राज्य, जो सबसे अधिक साक्षरता वाला राज्य है, में अब भी प्रचलन में है। यूनिसेफ (संयुक्त राष्ट्र अंतरराष्ट्रीय बाल आपात निधि) की रिपोर्ट के अनुसार, भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में नगरीय क्षेत्रों से अधिक बाल विवाह होते है। आँकड़ो के अनुसार, बिहार में सबसे अधिक 68% बाल विवाह की घटनाएं होती है जबकि हिमाचल प्रदेश में सबसे कम 9% बाल विवाह होते है।
यह सोच कर बड़ा अजीब लगता हैं कि वह भारत जो अपने आप में एक महाशक्ति के रूप में उभर रहा हैं उसमें आज भी एक ऐसी कुरीति जिन्दा हैं। एक ऐसी कुरीति जिसमें दो अपरिपक्व लोगो को जो आपस में बिलकुल अनजान हैं उन्हें जबरन ज़िन्दगी भर साथ रहने के एक बंधन में बांध दिया जाता हैं और वे दो अपरिपक्व बालक शायद पूरी ज़िन्दगी भर इस कुरीति से उनके ऊपर हुए अत्याचार से उभर नहीं पाते हैं और बाद में स्तिथियाँ बिलकुल खराब हो जाती हैं और नतीजे तलाक और मृत्यु तक पहुच जाते हैं।
तो क्या यह प्रथा भारत में आदिकाल से ही थी? या इसे बाद में प्रचलन में लाया गया? और यदि बाद में लाया गया तो इसका क्या कारण था?
यह प्रथा भारत में शुरू से नहीं थी। ये दिल्ली सल्तनत के समय में अस्तित्व में आया जब राजशाही प्रथा प्रचलन में थी। भारतीय बाल विवाह को लड़कियों को विदेशी शासकों से बलात्कार और अपहरण से बचाने के लिये एक हथियार के रूप में प्रयोग किया जाता था। बाल विवाह को शुरु करने का एक और कारण था कि बड़े बुजुर्गों को अपने पौतो को देखने की चाह अधिक होती थी इसलिये वो कम आयु में ही बच्चों की शादी कर देते थे जिससे कि मरने से पहले वो अपने पौत्रों के साथ कुछ समय बिता सकें।
बालविवाह के दुस्परिणाम?
बालविवाह के केवल दुस्परिणाम ही होते हैं जीनमें सबसे घातक शिशु व माता की मृत्यु दर में वृद्धि | शारीरिक और मानसिक विकास पूर्ण नहीं हो पता हैं
और वे अपनी जिम्मेदारियों का पूर्ण निर्वेहन नहीं कर पाते हैं और इनसे एच.आई.वि. जेसे यौन संक्रमित रोग होने का खतरा हमेशा बना रहता हैं।
बालविवाह होने के कारण?
भारत में बालविवाह होने के कई कारण हैं जैसे-
1. लड़की की शादी को माता-पिता द्वारा अपने ऊपर एक बोझ समझना |
2. शिक्षा का अभाव |
3. रूढ़िवादिता का होना |
4. अन्धविश्वास |
5. निम्न आर्थिक स्थिति |
क्या बालविवाह को रोकने के लिए कुछ नहीं किया गया?
बालविवाह को रोकने के लिए इतिहास में कई लोग आगे आये जिनमें सबसे प्रमुख राजाराम मोहन राय, केशबचन्द्र सेन जिन्होंने ब्रिटिश सरकार द्वारा एक बिल पास करवाया जिसे Special Marriage Act कहा जाता हैं इसके अंतर्गत शादी के लिए लडको की उम्र 18 वर्ष एवं लडकियों की उम्र 14 वर्ष निर्धारित की गयी एवं इसे प्रतिबंधित कर दिया गया। फिर भी सुधार न आने पर बाद में Child Marriage Restraint नामक बिल पास किया गया इसमें लडको की उम्र बढ़ाकर 21 वर्ष और लडकियों की उम्र बढ़ाकर 18 वर्ष कर दी गयी। स्वतंत्र भारत में भी सरकार द्वारा भी इसे रोकने के कही प्रयत्न किये गए और कही क़ानून बनाये गए जिस से कुछ हद तक इनमे सुधार आया परन्तु ये पूर्ण रूप से समाप्त नहीं हुआ। सरकार द्वारा कुछ क़ानून बनाये गए हैं जैसे बाल-विवाह निषेध अधिनियम 2006 जो अस्तित्व में हैं। ये अधिनियम बाल विवाह को आंशिक रूप से सीमित करने के स्थान पर इसे सख्ती से प्रतिबंधित करता है। इस कानून के अन्तर्गत, बच्चे अपनी इच्छा से वयस्क होने के दो साल के अन्दर अपने बाल विवाह को अवैध घोषित कर सकते है। किन्तु ये कानून मुस्लिमों पर लागू नहीं होता जो इस कानून का सबसे बड़ी कमी है।
बाल विवाह को रोकने हेतु उपाय?
बालविवाह रोकने हेतु कुछ उपाय हो सकते हैं जैसे-
1. समाज में जागरूकता फैलाना |
2. मीडिया इसे रोकने में प्रमुख भागीदारी निभा सकती हैं।
3. शिक्षा का प्रसार |
4. ग़रीबी का उन्मूलन |
5. जहाँ मीडिया का प्रसार ना हो सके वह नुक्कड़ नाटको का आयोजन करना चाहिए।
Written By:
Amit Sharma
इन्हें भी देखें
बाल विवाह निषेध अधिनियम 2006
बाहरी कड़ियाँ
श्रेणी:सामाजिक प्रथा | भारत में लड़कियों की शादी की कानूनी उम्र क्या है? | 18 वर्ष | 215 | hindi |
6b66b68ac | डेमलर एजी (Daimler AG) (German pronunciation:[ˈdaɪmlɐ aːˈɡeː]; पूर्व नाम डेमलर क्रिसलर (DaimlerChrysler) ; FWB:) एक जर्मन कार कंपनी है। यह दुनिया की तेरहवीं सबसे बड़ी कार निर्माता और दूसरी सबसे बड़ी ट्रक निर्माता कंपनी है। ऑटोमोबाइल के अलावा डेमलर बसों का भी निर्माण करती है और अपनी डेमलर फाइनेंशियल सर्विसेस शाखा के माध्यम से वित्तीय सेवा भी प्रदान करती है। एरोस्पेस समूह ईएडीएस में भी कंपनी का बहुत बड़ी हिस्सेदारी है, जो एक उच्च प्रौद्योगिकी कंपनी होने के साथ-साथ वोडाफोन मैक्लारेन मर्सडीज रेसिंग टीम मैक्लारेन ग्रुप (जो फ़िलहाल एक पूर्ण रूप से स्वतंत्र स्वचलित कंपनी[2] बनने की प्रक्रिया में है) और जापानी ट्रक निर्माता कंपनी मित्सुबिशी फूसो ट्रक एण्ड बस कॉर्पोरेशन की मूल कंपनी है।
डेमलर क्रिसलर की स्थापना (1998–2007), 1998 में जर्मनी के स्टटगार्ट की मर्सडीज-बेंज निर्माता कंपनी डेमलर-बेंज (1926–1998) और अमेरिका आधारित क्रिसलर कॉर्पोरेशन के विलय के साथ हुई थी। इस सौदे से एक नई कंपनी डेमलर क्रिसलर का जन्म हुआ। हालांकि इस खरीदारी से अटलांटिक के परे की एक शक्तिशाली ऑटोमोटिव कंपनी का निर्माण न हो सका जिसकी उम्मीद सौदा करने वालों ने की थी और डेमलर क्रिसलर ने 14 मई 2007 को यह घोषणा की कि यह क्रिसलर को न्यूयॉर्क की सेर्बेरस कैपिटल मैनेजमेंट नामक एक प्राइवेट इक्विटी फर्म को बेच देगी जिसे संकटग्रस्त कंपनियों के पुनर्गठन में विशेषज्ञता प्राप्त है।[3] 4 अक्टूबर 2007 को डेमलर क्रिसलर के शेयरधारकों की एक आसाधारण बैठक में कंपनी के पुनर्नामकरण पर मंजूरी दी गई। 5 अक्टूबर 2007 को इस कंपनी को डेमलर एजी नाम दिया गया।[4] 3 अगस्त 2007 को बिक्री का काम पूरा होने पर अमेरिकी कंपनी ने क्रिसलर एलएलसी नाम रख लिया।
डेमलर कई ब्रांड नामों के तहत कारों और ट्रकों का निर्माण करती है, जिनमें शामिल हैं मर्सडीज-बेंज, मेबैक, स्मार्ट और फ्रेटलाइनर.
इतिहास
डेमलर एजी एक सदी से भी ज्यादा समय से ऑटोमोबाइल, मोटर वाहन और इंजनों का निर्माण करने वाली एक जर्मन निर्माता कंपनी रही है।
कार्ल बेंज की बेंज एण्ड सी (1883 में स्थापित) और गोटलीब डेमलर और विल्हेम मेबैक की डेमलर मोटरेन गेसेलशाफ्ट (1890 में स्थापित) के बीच 1 मई 1924 को आपसी हित के एक समझौते पर हस्ताक्षर किया गया।
दोनों कंपनियों ने 28 जून 1926 तक अपने-अपने अलग ऑटोमोबाइल और आतंरिक दहन इंजन ब्रांडों का निर्माण जारी रखा जब बेंज एण्ड सी और डेमलर मोटरेन गेसेलशाफ्ट के मिलने से डेमलर-बेंज एजी का निर्माण हुआ और इस बात पर अपनी सहमति व्यक्त की कि उसके बाद सभी कारखानों में उनके ऑटोमोबाइल पर मर्सडीज-बेंज ब्रांड नाम का इस्तेमाल किया जाएगा.
1998 में डेमलर-बेंज एजी और अमेरिकी ऑटोमोबाइल निर्माता कंपनी क्रिसलर कॉर्पोरेशन के मिलने से डेमलर क्रिसलर एजी का निर्माण हुआ। इस समूह ने डेमलर-बेंज के गैर-ऑटोमोटिव व्यवसाय जैसे डेमलर-बेंज इंटर सर्विसेस एजी (डेबिस) (जिसे डेमलर समूह के लिए डेटा प्रॉसेसिंग, वित्तीय एवं बीमा सेवा और अचल संपत्ति प्रबंधन का काम संभालने के लिए 1989 में निर्मित किया गया था) को उनके विस्तार संबंधी रणनीतियों पर चलते रहने की अनुमति प्रदान की। प्राप्त ख़बरों के अनुसार 1997 में डेबिस का राजस्व 8.6 बिलियन डॉलर (15.5 बिलियन ड्यूश मार्क) था।[5][6]
2007 में जब क्रिसलर समूह को सेर्बेरस कैपिटल मैनेजमेंट को बेच दिया गया तब मूल कंपनी का नाम बदलकर सिर्फ "डेमलर एजी" कर दिया गया।
डेमलर एजी की समयरेखा
बेंज एण्ड कंपनी, 1883-1926
डेमलर मोटरेन गेसेलशाफ्ट एजी, 1890-1926
डेमलर बेंज एजी, 1926-1998
डेमलर क्रिसलर एजी, 1998-2007
डेमलर एजी, 2007-वर्तमान
पूर्व क्रिसलर गतिविधियां
क्रिसलर को हाल के वर्षों में लगातार कई बाधाओं का सामना करना पड़ा है जिसके परिणामस्वरूप मई 2007 में 6 बिलियन अमेरिकी डॉलर में इस इकाई को सेर्बेरस कैपिटल मैनेजमेंट को बेचने के लिए डेमलर क्रिसलर को समझौता करना पड़ा.
अपने इतिहास के अधिकांश समय में क्रिसलर "बिग 3" अमेरिकी ऑटो निर्माता कंपनियों में से तीसरी सबसे बड़ी कंपनी रही है लेकिन जनवरी 2007 में इसकी लग्जरी मर्सडीज और मेबैक लाइनों को छोड़कर डेमलर क्रिसलर ने पारंपरिक रूप से दूसरा स्थान प्राप्त करने वाले फोर्ड को भी बेच दिया हालांकि यह जनरल मोटर्स और टोयोटा से पीछे रहा है।
प्राप्त ख़बरों के अनुसार 2006 में क्रिसलर को 1.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर का नुकसान हुआ था। उसके बाद इसने 2008 तक लाभकारिता को बहाल करने के लिए मध्य-फरवरी 2007 में 13,000 कर्मचारियों को निकालने, एक प्रमुख असेम्बली प्लांट को बंद करने और अन्य प्लांटों के उत्पादन में कटौती करने की योजनाओं की घोषणा की। [7]
यह विलय विवादपूर्ण था और निवेशकों ने इस बात पर मुकदमा करना शुरू आर दिया था कि क्या यह लेनदेन 'बराबर का विलय' था जिसका वरिष्ठ प्रबंधन ने दावा किया था या वास्तव में इसके फलस्वरूप क्रिसलर पर डेमलर बेंज का कब्ज़ा हो गया। एक वर्ग कार्रवाई निवेशक मुक़दमे को अगस्त 2003 में 300 मिलियन अमेरिकी डॉलर में निपटा दिया गया जबकि कर्मण्यतावादी अरबपति किर्क केर्कोरियन के एक मुक़दमे को 7 अप्रैल 2005 को खारिज कर दिया गया।[8] इस लेनदेन के फलस्वरूप इसके वास्तुकार चेयरमैन जर्जेन ई. श्रेम्प को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा जिन्होंने इस लेनदेन के बाद कंपनी के शेयर की कीमत में हुई गिरावट के प्रतिक्रियास्वरूप 2005 के अंत में इस्तीफा दे दिया। यह विलय बिल व्लासिक और ब्रैडली ए. स्टर्ट्ज़ की टेकेन फॉर ए राइड: हाउ डेमलर बेंज ड्रोव ऑफ विथ क्रिसलर (2000) नामक एक किताब का विषय भी था।[9]
विवाद का एक और मुद्दा यह है कि क्या इस विलय से प्रस्तावित सहक्रिया पर अमल किया गया और क्या इसके फलस्वरूप दोनों व्यवसायों का सफल एकीकरण हुआ। अधिक से अधिक 2002 में डेमलर क्रिसलर को दो स्वतंत्र उत्पाद लाइनों का संचालन करते हुए देखा गया। बाद में उसी वर्ष कंपनी ने जिन उत्पादों का शुभारंभ किया वे कंपनी के दोनों पक्षों के तत्वों को एकीकृत करता हुआ दिखाई देता है जिसमें क्रिसलर क्रॉसफायर भी शामिल है जो मर्सडीज एसएलके प्लेटफॉर्म पर आधारित था और जिसमें मर्सडीज की 3.2L V6 का इस्तेमाल किया गया था और इसके साथ ही साथ इसमें डोज स्प्रिंटर/फ्रेटलाइनर स्प्रिंटर भी शामिल है जो एक पुनर्बैज वाला मर्सडीज बेंज स्प्रिंटर वैन है। चौथी पीढ़ी की जीप ग्रांड चेरोकी मर्सडीज बेंज एम-क्लास पर आधारित है हालांकि सच्चाई यह है कि डेमलर/क्रिसलर अलगाव के लगभग चार साल बाद इसका निर्माण किया गया था।[10]
क्रिसलर की बिक्री
कथित तौर पर डेमलर क्रिसलर ने क्रिसलर को बेचने के लिए 2007 के आरम्भ में अन्य कार निर्माता कंपनियों और निवेश समूहों से संपर्क किया। जनरल मोटर्स ने अपनी इच्छा प्रकट की जबकि रेनॉल्ट-निस्सान ऑटो गठबंधन वोल्क्सवैगन और ह्युंडाई मोटर कंपनी ने कहा था कि उन्हें इस कंपनी को खरीदने में कोई दिलचस्पी नहीं है।
3 अगस्त 2007 को डेमलर क्रिसलर ने सेर्बेरस कैपिटल मैनेजमेंट को क्रिसलर ग्रुप बेचने का काम पूरा किया। मूल समझौते के अनुसार सेर्बेरस को नई कंपनी क्रिसलर होल्डिंग एलएलसी में 80.1 प्रतिशत हिस्सा मिला। डेमलर क्रिसलर का नाम बदलकर डेमलर एजी कर दिया गया और अलग हो चुके क्रिसलर में उसकी शेष 19.9% की हिस्सेदारी कायम रही। [11]
समय के साथ डेमलर को सेर्बेरस के हाथों से क्रिसलर को हासिल करने और इससे जुड़ी देनदारियों से छुटकारा पाने के लिए सेर्बेरस को 650 मिलियन अमेरिकी डॉलर का भुगतान करना पड़ा. यह 1998 में क्रिसलर पर कब्ज़ा करने के लिए चुकाई गई 36 बिलियन अमेरिकी डॉलर की तुलना में एक उल्लेखनीय विपरीत भाग्य है। क्रय मूल्य 7.4 बिलियन अमेरिकी डॉलर में से सेर्बेरस कैपिटल मैनेजमेंट क्रिसलर होल्डिंग्स में 5 बिलियन अमेरिकी डॉलर और क्रिसलर की वित्तीय यूनिट में 1.05 बिलियन अमेरिकी डॉलर का निवेश करेगी। अलग हो चुके डेमलर एजी को सेर्बेरस से सीधे 1.35 बिलियन अमेरिकी डॉलर प्राप्त हुआ लेकिन इसने खुद क्रिसलर में सीधे 2 बिलियन अमेरिकी डॉलर का निवेश किया।
संयुक्त राज्य अमेरिका में क्रिसलर की 2009 के दिवालिएपन की फाइलिंग के बाद से क्रिसलर को इतालवी ऑटो निर्माता कंपनी फिएट द्वारा नियंत्रित किया गया है जो डेमलर के विपरीत क्रिसलर के उत्पादों को खास तौर पर लान्सिया और क्रिसलर के समान नाम वाले ब्रांड को फिएट पोर्टफोलियो में एकीकृत करना चाहती है।
रेनॉल्ट-निस्सान और डेमलर गठबंधन
7 अप्रैल 2010 को रेनॉल्ट-निस्सान कार्यकारी कार्लोस घोसन और डॉ डाइटर जेत्शे ने एक संयुक्त संवाददाता सम्मलेन में तीन कंपनियों के बीच एक साझेदारी की घोषणा की। [12]
प्रबंधन
डॉ डाइटर जेत्शे 1 जनवरी 2006 से डेमलर के चेयरमैन और मर्सडीज बेंज कार्स के हेड होने के साथ-साथ 1998 से बोर्ड ऑफ मैनेजमेंट के सदस्य हैं। वह पहले क्रिसलर एलएलसी (जिस पर पहले डेमलर एजी का स्वामित्व था) के प्रेसिडेंट और सीईओ थे। वह अमेरिका में शायद "आस्क डॉ जेड" नामक एक क्रिसलर विज्ञापन अभियान के डॉ जेड के रूप में मशहूर हैं।
डेमलर एजी के बोर्ड ऑफ मैनेजमेंट के वर्तमान सदस्य हैं:
डॉ डाइटर जेत्शे: बोर्ड के चेयरमैन के साथ-साथ मर्सडीज बेंज कार्स का प्रमुख.
डॉ॰ वोल्फगैंग बर्नहार्ड: मर्सिडीज बेंज कार्स की खरीद और उत्पादन का प्रमुख.
विलफ्राइड पोर्थ: मानव संसाधन एवं श्रम संबंध के प्रमुख.
एंड्रियास रेंशलेर: डेमलर ट्रक्स का प्रमुख.
बोडो यूएबर: वित्त एवं नियंत्रण के साथ-साथ वित्तीय सेवाओं का प्रमुख.
डॉ थॉमस वेबर: सामूहिक अनुसन्धान और मर्सडीज बेंज कार्स के विकास का प्रमुख.
डेमलर एजी के पर्यवेक्षी बोर्ड के वर्तमान सदस्य इस प्रकार हैं: हेनरिक फ्लेगेल, जुएर्गेन हैम्ब्रेष्ट, थॉमस क्लेब, एरिक क्लेम, अर्नौड लैगर्देर, जर्जेन लैंगर, हेल्मट लेंस, सैरी बल्दौफ़, विलियम ओवेंस, एन्स्गर ओस्सेफोर्थ, वाल्टर संचेस, मैनफ्रेड श्नाइडर, स्टीफन श्वाब, बर्नहार्ड वॉल्टर, लाइंतन विल्सन, मार्क वोस्सनर, मैनफ्रेड बिस्कोफ़, क्लीमेंस बोर्सिग और उवे वेर्नर. डॉ मैनफ्रेड बिस्कोफ़ डेमलर एजी के पर्यवेक्षी बोर्ड के चेयरमैन के रूप में और एरिक क्लेम वाइस-चेयरमैन के रूप में कार्यरत हैं।[13]
शेयरधारकों की संरचना
स्वामित्व द्वारा[14]
आबार इन्वेस्टमेंट्स (संयुक्त अरब अमीरात): 9.0%
कुवैत निवेश प्राधिकरण (कुवैत): 6.9%
रेनॉल्ट (फ्रांस): 1.55%
निस्सान (जापान): 1.55%
संस्थागत निवेशक: 61.9%
निजी निवेशक: 19.1%
क्षेत्र द्वारा[14]
28.2% जर्मनी
36.9% अन्य यूरोप
15.4% संयुक्त राज्य अमेरिका
9.0% संयुक्त अरब अमीरात
6.9% कुवैत
3.6% अन्य
ब्रांड
डेमलर निम्नलिखित ब्रांड नामों के तहत पूरे विश्व में ऑटोमोबाइल बेचता है:
मर्सिडीज-बेंज कार
मेबैक
मर्सिडीज-बेंज़
स्मार्ट
मर्सिडीज़-एएमजी
डेमलर ट्रक
वाणिज्यिक वाहन
फ़्रेइटलाइनर
मर्सिडीज-बेंज (ट्रक समूह)
मित्सुबिशी फूसो
थॉमस द्वारा निर्मित बसें
स्टर्लिंग ट्रक्स - 2010 में ऑपरेशन समाप्त हो गया था, लेकिन वाहन मालिकों तथा प्राधिकृत डीलरों को समर्थन जारी रखा जायेगा.
वेस्टर्न स्टार
भारतबेंज
घटक
डेट्रोइट डीजल
मर्सिडीज-बेंज़
मित्सुबिशी फूसो
डेमलर बसें
मर्सिडीज-बेंज बस
ओरियन बस इंडस्ट्रीज
सेट्रा
मर्सिडीज-बेंज वैन
मर्सिडीज-बेंज (वैन समूह)
डेमलर वित्तीय सेवायें
मर्सिडीज-बेंज बैंक
मर्सिडीज-बेंज वित्तीय
डेमलर ट्रक फाइनेंशियल
होल्डिंग्स
डेमलर की वर्तमान में निम्नलिखित कंपनियों में हिस्सेदारी है:
85.0% जापान की मित्सुबिशी फूसो ट्रक और बस कॉर्पोरेशन
50.1% कनाडा की ऑटोमोटिव फ्यूल सेल कॉर्पोरेशन
11% यूनाइटेड किंगडम की मैकलेरन ग्रुप (मैकलेरन समूह धीरे-धीरे अपनी हिस्सेदारी को बढ़ा रहा है जिसे 2011 के शुरुआत तक पूरा कर लिया जायेगा)
22.4% यूरोपीय एरोनॉटिक डिफेन्स एंड स्पेस कंपनी (ईएडीएस) - यूरोप के एयरबस की मूल कंपनी
22.3% जर्मनी की टोग्नुम
11.0% रूस की कामाज़ (KAMAZ)
10.0% संयुक्त राज्य अमेरिका की टेस्ला मोटर्स
साझीदार
डेमलर ने टेस्ला की बैटरी प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करके अपने स्मार्ट फोर्टवो के 1,000 पूर्ण रूप से बिजली-चालित संस्करणों का निर्माण किया है।[15]
डेमलर चीन के बेईकी फोटोन (बीएआईसी की एक सहायक कंपनी) के साथ औमन ट्रकों का निर्माण[16] और बीवाईडी के साथ ईवी प्रौद्योगिकी का विकास करती है।[17]
रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार
1 अप्रैल 2010 को अमेरिकी न्याय विभाग और अमेरिकी प्रतिभूति एवं विनिमय आयोग द्वारा लगाए गए रिश्वतखोरी के दो आरोपों में डेमलर एजी की जर्मन और रूसी सहायक कंपनियों को दोषी पाया गया। खुद डेमलर एक निपटान के रूप में 185 मिलियन अमेरिकी डॉलर का भुगतान करेगी लेकिन कंपनी और इसकी चीनी सहायक कंपनी अभी भी दो वर्षों से आस्थगित अभियोजन समझौते के अधीन है जिसके लिए नियामकों के अतिरिक्त सहयोग, आतंरिक नियंत्रणों के अनुपालन और वापस अदालत के कमरे में उनके लौटने से पहले अन्य शर्तों को पूरा करने की जरूरत है। दो सालों की अवधि में समझौते की शर्तों को पूरा करने में विफल होने पर डेमलर को कठोर दंडों का सामना करना पड़ेगा.
इसके अतिरिक्त डेमलर द्वारा रिश्वतखोरी विरोधी कानूनों के अनुपालन की निगरानी करने के लिए फेडरल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन के पूर्व डायरेक्टर लुईस जे. फ्रीह एक स्वतंत्र मॉनिटर के रूप में अपनी सेवा प्रदान करेंगे।
अमेरिकी अभियाजकों ने डेमलर, डेमलर की सहायक कंपनियों और डेमलर से जुड़ी कंपनियों के प्रमुख कार्यकारियों पर दुनिया भर में सरकारी ठेकों को सुरक्षित करने के लिए 1998 और 2008 के बीच गैर कानूनी तरीके से विदेशी अधिकारियों को पैसे और उपहार देने का इल्जाम लगाया. इस मामले की जांच से पता चला कि डेमलर ने अनुचित तरीके से कम से कम 22 देशों (जिनमें चीन, रूस, तुर्की, हंगरी, यूनान, लातविया, सर्बिया और मोंटेनेग्रो सहित अन्य स्थानों में मिस्र और नाइजीरिया भी शामिल है) में लगभग 200 से ज्यादा लेनदेनों से संबंधित रिश्वतों में लगभग 56 मिलियन डॉलर का भुगतान किया जिसके परिणामस्वरूप कंपनी को 1.9 बिलियन डॉलर राजस्व और गैर कानूनी लाभ के रूप में कम से कम 91.4 मिलियन डॉलर प्राप्त हुआ।[18]
2004 में दक्षिण अमेरिका में मर्सडीज बेंज की यूनिटों द्वारा नियंत्रित बैंक खातों के बारे में सवाल उठाने के लिए नौकरी से निकाले जाने के बाद तत्कालीन डेमलर क्रिसलर कॉर्प के पूर्व लेखा परीक्षक डेविड बजेत्ता द्वारा एक मुखबिर शिकायत दर्ज किए जाने के बाद एसईसी का मुद्दा भड़क उठा.[19] बजेत्ता ने आरोप लगाया कि स्टटगार्ट में हुई जुलाई 2001 की कॉर्पोरेट लेखा परीक्षण कार्यकारी समीति की एक बैठक में उन्हें पता चला कि व्यावसायिक यूनिटों द्वारा "विदेशी सरकारी अधिकारियों को रिश्वत देने के लिए गुप्त बैंक खातों को बनाए रखा जा रहा है" हालांकि कंपनी को अमेरिकी क़ानून का उल्लंघन करने वाली इस प्रक्रिया के बारे में मालूम था।
बजेत्ता को चुप कराने के एक और प्रयास में डेमलर ने बाद में उनकी नौकरी की समाप्ति से जुड़े इस मुक़दमे को अदालत के बाहर निपटाने की पेशकश की जिसे उन्होंने अंत में स्वीकार कर लिया। लेकिन बजेत्ता के साथ डेमलर की रणनीति नाकामयाब साबित हुई क्योंकि रिश्वतखोरी-विरोधी कानूनों के लिए पहले से ही अमेरिकी आपराधिक जांच चल रही थी जो एक विदेशी कॉर्पोरेशन के खिलाफ चल रहे सबसे व्यापक मामलों में से एक है।
आरोपों के अनुसार जरूरत से ज्यादा चालान करने वाले ग्राहकों द्वारा अक्सर रिश्वतखोरी और शीर्ष सरकारी अधिकारियों या उनके प्रतिनिधियों को अत्यधिक राशि का भुगतान किया गया है। रिश्वतों ने भोगविलासपूर्व यूरोपीय छुट्टियों, उच्च पदों पर आसीन सरकारी अधिकारियों के लिए बख्तरबंद मर्सडीज वाहनों और एक वरिष्ठ तुर्कमेनिस्तान अधिकारी के लिए एक सोने के बक्से और अधिकारी के व्यक्तिगत घोषणापत्रों की जर्मन भाषा में अनुवाद की गई 10,000 प्रतियों वाले एक जन्मदिन उपहार का रूप भी धारण कर लिया है।
जांचकर्ताओं को इस बात का भी पता चला कि फर्म ने उस समय सद्दाम हुसैन के नेतृत्व वाली इराकी सरकार के तहत काम करने वाली अधिकारियों को ठेके के मूल्य के 10% मूल्य की रिश्वत देकर इराक के साथ संयुक्त राष्ट्र के ऑयल-फॉर-फ़ूड प्रोग्राम की शर्तों का उल्लंघन किया है। एसईसी ने कहा कि कंपनी को भ्रष्ट ऑयल-फॉर-फ़ूड सौदों में वाहनों और स्पेयर पार्ट्स की बिक्री से 4 मिलियन डॉलर से ज्यादा आमदनी हुई है।[18]
अमेरिकी अभियोजकों ने आगे चलकर यह आरोप लगाया कि कुछ रिश्वतों का भुगतान अमेरिका में आधारित शेल कंपनियों के माध्यम से की गई थी। अदालत की कागजातों से जाहिर हुआ कि "कुछ मामलों में डेमलर ने रिश्वत की रकम पहुँचाने के लिए अमेरिकी शेल कंपनियों के अमेरिकी बैंक खातों या विदेशी बैंक खातों में इन अनुचित भुगतान राशियों को स्थानांतरित किया था।"[20]
अभियोजकों ने कहा कि इस प्रक्रिया को कुछ हद तक प्रोत्साहित करने वाली एक कॉर्पोरेट संस्कृति की वजह से रिश्वत की रकम का भुगतान करने के लिए एक "लंबे समय से चली आ रही प्रथा" में डेमलर का हाथ था।
न्याय विभाग के आपराधिक प्रभाग के एक प्रिंसिपल डेपुटी माइथिली रमण ने कहा कि "अपतटीय बैंक खातों, तीसरे दल के एजेंटों और भ्रामक मूल्य निर्धारण प्रक्रियाओं का इस्तेमाल करके इन कंपनियों [डेमलर एजी, इसकी सहायक और इससे जुड़ी कंपनियां] ने विदेशी रिश्वतखोरी को व्यवसाय करने का जरिया बना लिया।"[21]
एसईसी के प्रवर्तन प्रभाग के डायरेक्टर रॉबर्ट खुजामी ने एक बयान में कहा कि "डेमलर के भ्रष्टाचार और रिश्वत देने की क्रिया का वर्णन एक मानक व्यवसाय प्रक्रिया के रूप में करना कोई अतिशयोक्ति नहीं है।"[22]
डेमलर के बोर्ड के चेयरमैन डाइटर जेत्शे ने एक बयान में कहा कि "हमने अपने पिछले अनुभव से बहुत कुछ सीखा है।"
अभियोजकों के साथ किए गए समझौते के अनुसार डेमलर की दो सहायक कंपनियों ने व्यवसाय के फायदे के लिए विदेशी अधिकारियों को रिश्वत विदेशी भ्रष्टाचार प्रक्रिया अधिनियम का जानबूझकर उल्लंघन करने की बात स्वीकार की
अभियोजन पक्ष के साथ समझौते के अनुसार, दो डेमलर सहायक व्यवसाय भर्ती कराया जीतने के लिए जानबूझकर उल्लंघन विदेशी भ्रष्टाचार अधिनियम को रिश्वत के लिए विदेशी अधिकारियों और कंपनियों को भुगतान सलाखों, जो अपने से अधिकारी शामिल हैं।[23] विदेशी भ्रष्टाचार प्रक्रिया अधिनियम उस कंपनी पर लागू होता है जो जो अपने शेयरों को अमेरिकी स्टॉक एक्सचेंजों में सूचीबद्ध कराती है। डेमलर एजी को एनवाईएसई में "डीएआई" संकेत के साथ सूचीबद्ध किया गया था जिससे न्याय विभाग को दुनिया भर के देशों में जर्मन कार निर्माता कंपनी के भुगतान का क्षेत्राधिकार प्राप्त हुआ।
डी.सी. के वॉशिंगटन के संयुक्त राज्य अमेरिका जिला न्यायालय के न्यायाधीश रिचर्ड जे. लियोन ने दलील के समझौते और निपटान को "न्यायपूर्ण समाधान" कहते हुए इसकी मंजूरी दी।
प्राथमिक मामला संयुक्त राज्य अमेरिका बनाम डेमलर एजी, कोलंबिया के जिले के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका जिला न्यायालय, नंबर 10-00063 है।[24]
वैकल्पिक प्रणोदन
जैव ईंधन अनुसंधान
डेमलर एजी एक जैव ईंधन के रूप में जटरोफा का विकास करने के लिए आर्कर डैनियल्स मिडलैंड कंपनी और बेयर क्रॉप साइंस के साथ एक संयुक्त परियोजना में शामिल है।[25]
परिवहन विद्युतीकरण
कार निर्माता डेमलर एजी और उपयोगिता कंपनी आरडब्ल्यूई एजी जर्मन राजधानी बर्लिन में "ई-मोबिलिटी बर्लिन" नामक एक संयुक्त इलेक्ट्रिक कार और चार्जिंग स्टेशन परीक्षण परियोजना का आरम्भ करने वाली है।[26][27]
मर्सडीज बेंज 2009 की गर्मियों में एक हाइब्रिड ड्राइव सिस्टम से सुसज्जित अपने पहले यात्री कार मर्सडीज बेंज एस 400 हाइब्रिड का आरम्भ करने वाली है।[27]
डेमलर ट्रक्स हाइब्रिड सिस्टमों के मामले में विश्व बाजार अग्रणी है। अपने "शेपिंग फ्यूचर ट्रांसपोर्टेशन" पहल के साथ डेमलर ट्रकों और बसों के लिए एक स्पष्ट उद्देश्य को पूरा करने में लगी हुई है। मित्सुबिशी फूसो की "एयरो स्टार इको हाइब्रिड" अब जापान में व्यावहारिक परीक्षणों में नए मानकों की स्थापना कर रही है।[28]
फॉर्मूला 1
16 नवम्बर 2009 को डेमलर ने ब्रॉन जीपी के 75.1% शेयर खरीद लिए। कंपनी का नया ब्रांड नाम मर्सडीज जीपी रखा गया। रॉस ब्रॉन टीम के प्रमुख बने रहेंगे और यह टीम यूके के ब्रैक्ले में आधारित होगी। हालाँकि ब्रॉन की खरीदारी का उद्देश्य यह था कि डेमलर मैक्लारेन में अपने 40% शेयर को फिर से कई चरणों में बेच सके जो 2011 तक चलेगा. मर्सडीज 2015 तक मैक्लारेन को प्रयोजन और इंजन प्रदान करती रहेगी, उसके बाद मैक्लारेन को संभवतः एक इंजन आपूर्तिकर्ता कंपनी खोजनी पड़ेगी या वह खुद अपने इंजनों का निर्माण करने लगेगी. नई कंपनी के 45.1% शेयर पर मर्सडीज का स्वामित्व है जबकि आबार इन्वेस्टमेंट्स के पास 30% और रॉस ब्रॉन के पास 24.9% का स्वामित्व है। रेसिंग टीम ने पूर्व चैम्पियन माइकल शूमाकर के साथ अनुबंध किया है।
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
श्रेणी:1883 में स्थापित कंपनियां
श्रेणी:स्टटगार्ट में स्थापित कंपनियां
श्रेणी:जर्मनी के ब्रांड
श्रेणी:जर्मनी के मोटर वाहन निर्माता
श्रेणी:बस निर्माता
श्रेणी:जर्मनी के कार निर्माता
श्रेणी:डेमलर एजी
श्रेणी:2007 में स्थापित कंपनियां
श्रेणी:बहुराष्ट्रीय कंपनियां
श्रेणी:आबार इन्वेस्टमेंट्स | डेमलर एजी कंपनी की स्थापना किस वर्ष में हुई थी? | 1998 | 713 | hindi |
ff8d67175 | अमित शाह (जन्म: 22 अक्टूबर 1964) एक भारतीय राजनेता और भारतीय जनता पार्टी के वर्तमान अध्यक्ष हैं। उन्हें दोबारा भारतीय जनता पार्टी का अध्यक्ष चुना गया है। वे भारत के गुजरात राज्य के गृहमंत्री तथा भारतीय जनता पार्टी के महासचिव रह चुके हैं। वे संसद के वरिष्ठ सभागृह राज्यसभा के सदस्य हैंं।
[1]
प्रारंभिक जीवन एवं शिक्षा
शाह का जन्म 22 अक्टूबर 1964 को महाराष्ट्र के मुंबई में एक व्यापारी के घर हुआ था। वे गुजरात के एक रईस परिवार से ताल्लुक रखते है। उनका गाँव पाटण जिले के चँन्दूर में है। मेहसाणा में शुरुआती पढ़ाई के बाद बॉयोकेमिस्ट्री की पढ़ाई के लिए वे अहमदाबाद आए, जहां से उन्होने बॉयोकेमिस्ट्री में बीएससी की, उसके बाद अपने पिता का बिजनेस संभालने में जुट गए। राजनीति में आने से पहले वे मनसा में प्लास्टिक के पाइप का पारिवारिक बिजनेस संभालते थे। वे बहुत कम उम्र में ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ गए थे। 1982 में उनके अपने कॉलेज के दिनों में शाह की मुलाक़ात नरेंद्र मोदी से हुयी। 1983 में वे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़े और इस तरह उनका छात्र जीवन में राजनीतिक रुझान बना।[2]
राजनीतिक करियर
शाह 1986 में भाजपा में शामिल हुये। 1987 में उन्हें भारतीय जनता युवा मोर्चा का सदस्य बनाया गया। शाह को पहला बड़ा राजनीतिक मौका मिला 1991 में, जब आडवाणी के लिए गांधीनगर संसदीय क्षेत्र में उन्होंने चुनाव प्रचार का जिम्मा संभाला। दूसरा मौका 1996 में मिला, जब अटल बिहारी वाजपेयी ने गुजरात से चुनाव लड़ना तय किया। इस चुनाव में भी उन्होंने चुनाव प्रचार का जिम्मा संभाला। पेशे से स्टॉक ब्रोकर अमित शाह ने 1997 में गुजरात की सरखेज विधानसभा सीट से उप चुनाव जीतकर अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत की। 1999 में वे अहमदाबाद डिस्ट्रिक्ट कोऑपरेटिव बैंक (एडीसीबी) के प्रेसिडेंट चुने गए। 2009 में वे गुजरात क्रिकेट एसोसिएशन के उपाध्यक्ष बने। 2014 में नरेंद्र मोदी के अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद वे गुजरात क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष बने। 2003 से 2010 तक उन्होने गुजरात सरकार की कैबिनेट में गृहमंत्रालय का जिम्मा संभाला।[2]
2012 में नारनुपरा विधान सभा निर्वाचन क्षेत्र से उनके विधानसभा चुनाव लड़ने से पहले उन्होंने तीन बार सरखेज विधान सभा निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया। वे गुजरात के सरखेज विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र से चार बार क्रमश: 1997 (उप चुनाव), 1998, 2002 और 2007 से विधायक निर्वाचित हो चुके हैं। वे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के करीबी माने जाते हैं। शाह तब सुर्खियों में आए जब 2004 में अहमदाबाद के बाहरी इलाके में कथित रूप से एक फर्जी मुठभेड़ में 19 वर्षीय इशरत जहां, ज़ीशान जोहर और अमजद अली राणा के साथ प्रणेश की हत्या हुई थी। गुजरात पुलिस ने दावा किया था कि 2002 में गोधरा बाद हुए दंगों का बदला लेने के लिए ये लोग गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को मारने आए थे। इस मामले में गोपीनाथ पिल्लई ने अदालत में एक आवेदन देकर मामले में अमित शाह को भी आरोपी बनाने की अपील की थी। हालांकि 15 मई 2014 को सीबीआई की एक विशेष अदालत ने शाह के विरुद्ध पर्याप्त साक्ष्य न होने के कारण इस याचिका को ख़ारिज कर दिया।[3]
एक समय ऐसा भी आया जब सोहराबुद्दीन शेख की फर्जी मुठभेड़ के मामले में उन्हें 25 जुलाई 2010 में गिरफ्तारी का सामना करना पड़ा। शाह पर आरोपों का सबसे बड़ा हमला खुद उनके बेहद खास रहे गुजरात पुलिस के निलंबित अधिकारी डीजी बंजारा ने किया।[2]
सोलहवीं लोकसभा चुनाव के लगभग 10 माह पूर्व शाह दिनांक 12 जून 2013 को भारतीय जनता पार्टी के उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाया गया, तब प्रदेश में भाजपा की मात्र 10 लोक सभा सीटें ही थी। उनके संगठनात्मक कौशल और नेतृत्व क्षमता का अंदाजा तब लगा जब 16 मई 2014 को सोलहवीं लोकसभा के चुनाव परिणाम आए। भाजपा ने उत्तर प्रदेश में 71 सीटें हासिल की। प्रदेश में भाजपा की ये अब तक की सबसे बड़ी जीत थी। इस करिश्माई जीत के शिल्पकार रहे अमित शाह का कद पार्टी के भीतर इतना बढ़ा कि उन्हें भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष का पद प्रदान किया गया।[4]
चुनावी उपलब्धियाँ
1989 से 2014 के बीच शाह गुजरात राज्य विधानसभा और विभिन्न स्थानीय निकायों के लिए 42 छोटे-बड़े चुनाव लड़े, लेकिन वे एक भी चुनाव में पराजित नहीं हुये।[5] गुजरात के विधान सभा चुनाव में उनकी उपलब्धियां इसप्रकार है-
व्यक्तिगत जीवन
शाह का विवाह सोनल शाह से हुई, जिनसे उन्हें एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई, जिनका नाम जय है। अमित शाह जी अपनी माँ के बेहद करीब थे,जिनकी मृत्यु उनकी गिरफ्तारी से एक माह पूर्व 8 जून 2010 को एक बीमारी से हो गयी।[5]
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
श्रेणी:1964 में जन्मे लोग
श्रेणी:जीवित लोग
श्रेणी:गुजरात के राजनीतिज्ञ
श्रेणी:भारतीय जनता पार्टी के राजनीतिज्ञ
श्रेणी:भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष | भारतीय राजनीतिज्ञ अमित शाह का जन्म कब हुआ था? | 22 अक्टूबर 1964 | 16 | hindi |
15b9ce216 | न्यु ताइपे शहर, ताइवान का एक विशेष नगर पालिका और सबसे अधिक आबादी वाला शहर है। उत्तरी ताइवान में स्थित इस शहर में, द्वीप की उत्तरी तट रेखा का एक बड़ा हिस्सा शामिल है और ताइपे बेसिन से घिरा हुआ है, जो इसे काऊशुंग के पीछे क्षेत्र द्वारा दूसरी सबसे बड़ी विशेष नगर पालिका बनाता है। न्यू ताइपेई शहर पूर्वोत्तर से केलंग, दक्षिण पूर्व में यिलान काउंटी और दक्षिण-पश्चिम में ताओयुआन से घिरा हुआ है। यह पूरी तरह से ताइपे से घिरा हुआ है। बान्कियो जिला इसकी नगरपालिका सीट और सबसे बड़ा वाणिज्यिक क्षेत्र है। 2010 तक, क्षेत्र जो वर्तमान में वर्तमान ताइपे शहर से मेल खाता है उसे ताइपे काउंटी के नाम से जाना जाता था।
नाम
2010 में शहर के रूप में पदोन्नति से पहले न्यु ताइपे शहर को ताइपे काउंटी के नाम से जाना जाता था। काउंटी की आबादी ताइपे शहर से आगे निकलने के बाद, यह निर्णय लिया गया कि काउंटी को शहर की स्थिति में पदोन्नत किया जाना चाहिए लेकिन इसका नाम बदलकर "ताइपे शहर" नहीं किया जा सकता था।
नये अस्तित्व (新 北市; "नया उत्तरी शहर") का नाम पहली बार अंग्रेजी में पिनयिन रोमानीकरण के माध्यम से सिनबेई के रूप में प्रस्तुत किया गया था,[5][6] लेकिन शहर के पहले मेयर चुनाव के दोनों उम्मीदवारों ने इस नाम का विरोध किया। नतीजतन, सार्वजनिक राय का हवाला देते हुए, निर्वाचित महापौर, एरिक चू ने आंतरिक मंत्रालय (एमओआई) से अंग्रेजी में "न्यु ताइपे शहर" के रूप में नाम देने के लिए अनुरोध किया, जिसे स्वीकृति मिल गई।[7][8] यह प्रतिपादन 31 दिसंबर 2010 को आधिकारिक बन गया।
इतिहास
पुरातात्विक अभिलेख बताते हैं कि न्यू ताइपेई शहर नियोलिथिक काल के बाद से बसा हुआ है। बाली जिले में खुदाई के दौरान मिले कलाकृती, 7000 से 4700 ईसा पूर्व तक के है। न्यू ताइपेई शहर के आस-पास का क्षेत्र, केटागलान मैदानी आदिवासियों का निवास स्थल था, और सबूत बताते हैं कि अटायल प्रजाती वूलई जिले में रहती थी। 1620 के शुरूआत से यहाँ मुख्य भूमि चीन के लोगों का प्रवास आरम्भ हुआ, और स्थानीय जनजातियों को पहाड़ क्षेत्रों में धकेल दिया गया। वर्षों से, कई आदिवासी आम जनसंख्या में आत्मसात हो गए हैं।[9]
चिंग राजवंश
ताइवान में चिंग राजवंश के शासन के दौरान, हान चीनी लोग 1694 में न्यु ताइपेई शहर के रूप में नामित क्षेत्र में बसने लगे और मुख्य भूमि चीन से आप्रवासियों की संख्या में और वृद्धि हो गई। दशकों के विकास और समृद्धि के बाद, तामसुई 1850 तक एक अंतरराष्ट्रीय वाणिज्यिक बंदरगाह बन गया था। इस क्षेत्र में ब्रिटिश वाणिज्य दूतावास और दुकान स्थापित किए गए थे, जिससे स्थानीय चाय व्यापार को बढ़ावा देने में मदद मिली, जिसके परिणामस्वरूप यूरोप में बड़े पैमाने पर चाय के पत्ती के निर्यात होने लगे। 1875 में, शेन बाओज़ेन ने ताइपे प्रांत की स्थापना की मांग की। फ़ुज़ियान-ताइवान-प्रांत की घोषणा 1887 में हुई थी और वर्तमान में न्यू ताइपे शहर क्षेत्र को ताइपे प्रीफेक्चर के अधिकार क्षेत्र में रखा गया था।[10][11]
जापानी साम्राज्य
1895 में, ताइवान, चिंग साम्राज्य से निकल कर जापानी साम्राज्य के हाथ में आ गया। जापानी शासन के दौरान, न्यु ताइपे शहर क्षेत्र, ताइहोकू प्रांत के अन्तर्गत आधुनिक ताइपे, केलंग और यिलान काउंटी के साथ-साथ प्रशासित किया जाता था। केलंग माउंटेन में सोने और अन्य खनिज की खोज की गई, जो इस क्षेत्र में खनन उद्योग को काफी बढ़ावा मिला था। अक्टूबर 1896 में, जापानी सरकार ने केलंग माउंटेन के आसपास खनन क्षेत्र को दो जिलों में विभाजित किया: एक पूर्वी जिला, जिसे किंकसेकी के रूप में नामित किया गया था, और पश्चिमी जिला, जिसे क्यूफुन के रूप में नामित किया गया था। दोनों जिलों अब रुईफांग जिले के कुछ हिस्सों हैं। इस क्षेत्र में खनन करने के लिये स्थानीय ताइवान खनन कंपनियों की बजाय जापानी कंपनियों को खनन अधिकार प्रदान किए गये थे।[12]
चीनी गणराज्य
अक्टूबर 1945 में जापान द्वारा ताइवान को चीनी गणराज्य को सौपने के बाद, उसी वर्ष 25 दिसंबर से, वर्तमान न्यु ताइपे शहर क्षेत्र को ताइवान प्रांत के ताइपे काउंटी नामक एक काउंटी के रूप में प्रशासित किया जाने लगा, जिसमें बेंचियाओ शहर काउंटी सीट के रूप में था। जुलाई 1949 में, ताइपे काउंटी का आकार कम हो गया था जब बीटौ और शिलिन टाउनशिप को नव निर्मित कैओशन प्रशासनिक ब्यूरो के अधिकार क्षेत्र में रख दिया गया, जिसे बाद में यांगमिंगशान प्रशासनिक ब्यूरो का नाम दिया गया। 1 जुलाई, 1968 को, ताइपे काउंटी का आकार 205.16 किमी2 (79.21 वर्ग मील) तक कम कर दिया गया था जब जिंगमेई, मुझा, नांगांग और नेहु टाउनशिप, बीटौ और शिलिन के साथ, ताइपे शहर में विलय कर दिए गए।
बाद में काउंटी में दस काउंटी नियंत्रित शहर (बानकियाओ, लुज़ौ, संचोंग, शुलिन, तुकेंग, ज़िज़ी, ज़िन्दियन, योंगे, झोंगे); चार शहरी टाउनशिप (तमसुई, रुईफांग, सैनक्सिया, यिंगगे); और पंद्रह ग्रामीण टाउनशिप (बाली, गोंग्लियाओ, जिनशान, लिंकौ, पिंगलिन, पिंग्ज़ी, संझी, शेनकेंग, शिंगिंग, शिमेन, शुआंग्ज़ी, ताइशन, वानली, वुगु, वूलाई) जोड दिये गये। इसे आगे 1,017 गांवों और 21,683 पड़ोसों में बांटा गया था।[13] अगस्त 1992 में, नेइगौ और डैकिंग स्ट्रीम में ताइपेई शहर और ताइवान प्रांत के बीच सीमा रेखा के समायोजन के कारण, ताइपे काउंटी का क्षेत्र 0.03 किमी2 (0.012 वर्ग मील) से कम हो गया था।[14] 25 दिसंबर 2010 को, ताइपे काउंटी को एक विशेष नगर पालिका में उन्नत किया गया, जिसमें न्यु ताइपे शहर में 29 जिलों में बेंचियाओ जिला नगरपालिका सीट के रूप में था।[15]
भूगोल
न्यु ताइपे शहर, ताइवान द्वीप के उत्तरी सिरे पर स्थित है। इसमें पर्वत, पहाड़ियाँ, मैदानी इलाकों और घाटी समेत एक विविध सांस्थिति के साथ एक विशाल क्षेत्र शामिल है। उत्तरी भाग में स्थित 120 किमी (75 मील) लंबी समुद्र तट, खूबसूरत तटरेखा और समुद्र तटों से परिपूर्ण है। तामसुई नदी न्यु ताइपेई शहर के माध्यम से बहने वाली मुख्य नदी है। अन्य बड़ी सहायक नदियों में सिन्दाईन, कीलुङ और दहन नदियाँ हैं, जिनमें से कुछ सहायक नदियों के किनारे पार्क का निर्माण किया गया है। शहर में सबसे ऊंची चोटी माउंट झूजी है, जो 1,094 मीटर लंबी है और संझी जिले में स्थित है।[10]
जलवायु
शहर में जलवायु आर्द्र मानसून के साथ एक आर्द्र उष्णकटिबंधीय के रूप में वर्णित किया जा सकता है जहाँ पर्याप्त वर्षा पूरे वर्ष समान रूप से वितरित होती है। मौसम में तापमान भिन्नताएं देखने को मिलती हैं, हालांकि तापमान आमतौर पर पूरे साल गर्म रहता है, हालांकि सर्दियों के महीनों में ठंडी हवा के झपेटों से तापमान कभी-कभी 10 डिग्री सेल्सियस (50 डिग्री फ़ारेनहाइट) तक नीचे गिर जाता है। जनवरी आमतौर पर सबसे अच्छा महीना और जुलाई आमतौर पर सबसे गर्म होता है।
प्रशासन
न्यु ताइपेई शहर, चीन गणराज्य की केंद्र सरकार के अन्तर्गत एक विशेष नगरपालिका है। न्यु ताइपे शहरी सरकार की अध्यक्षता, निर्वाचित महापौर करता है और इसका मुख्यालय बेंचियाओ जिले में न्यू ताइपे सिटी हॉल में है। न्यू ताइपे शहर के पहले और वर्तमान महापौर एरिक चू है।
न्यु ताइपे शहर, 28 जिलों (區; क्यू) और 1 पर्वतीय स्वायत जिला (山地 原住民 區; shândì yuánzhùmín qū) को नियंत्रित करता है।[16] उप-शहर, 1,017 गांव (里; lǐ) से मिलकर बने हैं, जो आगे 21,683 पड़ोस (鄰; lín) में विभाजित हैं। नगरपालिका सीट बेंचियाओ जिले में स्थित है।
राजधानी शहर ताइपे से इसकी निकटता के कारण केंद्र सरकार की कई एजेंसियां न्यु ताइपेई शहर में स्थित हैं।
जनसांख्यिकी और संस्कृति
जनसंख्या
न्यु ताइपे शहर की अनुमानित जनसंख्या लगभग 39 लाख है।[17] न्यु ताइपेई शहर के 80% से अधिक निवासी पहले 10 जिलों में रहते थे जो पूर्व में काउंटी नियंत्रित शहर (बानकियाओ, लुज़ौ, संचोंग, शूलिन, तुकेंग, ज़िज़ी, ज़िन्दियान, ज़िन्ज़ुआंग, योंगे और झोंगे) थे, जो कि क्षेत्र का एक छठा हिस्सा है। 28.80% निवासी ताइपे शहर से इस क्षेत्र में आ गये गए है। न्यु ताइपेई शहर में रहने वाली लगभग 70% आबादी ताइवान के विभिन्न हिस्सों से आते है, और शहर में रहने वाले लोगों में लगभग 73,000 विदेशी हैं, ताइवान में विदेशी निवासी आबादी के मामले में न्यु ताइपे शहर तीसरी सबसे बड़ी नगर पालिका है।[18]
आस्था
यह शहर 952 पंजीकृत मंदिरों और 160 बौद्ध-ताओवादी मंदिरों और 3,000 से अधिक ताओवादी मंदिरों सहित 120 चर्चों का घर है। इस शहर में पांच प्रमुख बौद्ध मठ भी हैं, जैसे कि जिनशान जिले में धर्म ड्रम माउंटेन और गोंगलिओ जिले में लिंग-जिउ माउंटेन मठ। औसतन, शहर के चारों ओर प्रत्येक वर्ग किलोमीटर में दो पूजा स्थल स्थित हैं। सीझी जिला और सेन्सिया जिले में पंजीकृत मंदिरों की सबसे अधिक संख्या है, जबकि वूलई जिलें में सबसे कम है। योंगे जिले में न्यु ताइपेई शहर विश्व धर्म संग्रहालय स्थित है।[19]
अर्थव्यवस्था
अपने सामरिक स्थान के कारण, ताइपे के बाद न्यु ताइपे शहर व्यापार उद्योग का दूसरा प्रमुख शहर है, 250,000 से अधिक निजी स्वामित्व वाली कंपनियों और 20,000 कारखानों में $1.8 ट्रिलियन की कुल पूंजी के साथ लगभग पांच औद्योगिक पार्क फैले हुए हैं। कई उच्च प्रौद्योगिकी उद्योग, सेवा उद्योग और पर्यटन उद्योग भी हैं, जो ताइवान के सकल घरेलू उत्पाद में एक बड़ी मात्रा में योगदान करते हैं।[11][17] शहर के पांच प्रमुख उद्योगों में सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी), दूरसंचार, डिजिटल सामग्री, जैव प्रौद्योगिकी और परिशुद्धता उपकरण हैं। शहर आईटी उत्पाद उत्पादन मात्रा के मामले में वैश्विक बाजार में शीर्ष तीन शहरों में से एक है, मदरबोर्ड, नोटबुक, एलसीडी मॉनीटर और सीआरटी मॉनीटर जैसे उत्पादों के वैश्विक बाजार में यह 50% से अधिक हिस्सेदारी रखता है।[9]
इसके अलावा न्यु ताइपे शहर कई सांस्कृतिक और रचनात्मक उद्योगों से भरा हुआ है, जैसे यिंगज जिले में मिट्टी के बरतन, तमसुई जिले में लियूली उद्योग, ज़िन्ज़ुआंग जिले में ढोल उद्योग, संक्सिया जिले में रोंगन उद्योग, रुईफांग जिले में नोबल धातु प्रसंस्करण उद्योग, हवा में उड़ने वाली कंदील उद्योग पिंग्ज़ी जिला में आदि। ताइवान में फिल्म उद्योगों के विकास के लिए ताइवान फिल्म संस्कृति केंद्र का निर्माण सिंगझुआन जिले में किया जाना है। ज्ञान उद्योग पार्क को डिजिटल सामग्री कंपनियों के क्लस्टरिंग और विस्तार को प्रोत्साहित करने के लिए उसी जिले में भी निर्माण करने की योजना बनाई गई है जिससे शहर को आभासी डिजिटल मनोरंजन पार्क में बदलने में मदद मिलेगी।[20]
बाली जिले में स्थित ताइपे बंदरगाह में 80,000 टन वजन वाले कंटेनर जहाजों के आवागमन और सालाना 2 लाख से अधिक टीईयू परिवहन करने की क्षमता है। तामसुई जिले में तमसुई मछुआरे का घाट मछली पकड़ने की नौकाओं के साथ-साथ दर्शनीय स्थलों की यात्रा और अवकाश के लिए मुख्य बंदरगाह के रूप में कार्य करता है।
शिक्षा
न्यू ताइपे शहर में शिक्षा, न्यू ताइपे शहर सरकार के शिक्षा विभाग द्वारा शासित किया जाता है। शहर की आबादी बेहद शिक्षित है, 38% से अधिक लोग उच्च शिक्षित है। 1914 में स्थापित राष्ट्रीय ताइवान पुस्तकालय, ताइवान का सबसे पुराना सार्वजनिक पुस्तकालय है, यह झोंगे जिले में स्थित है।
पर्यटन
न्यु ताइपे शहर में पर्यटकों के लिए ऐतिहासिक, प्राकृतिक और सांस्कृतिक आकर्षण की एक विस्तृत श्रृंखला है। शहर में पर्यटन से संबंधित उद्योग न्यु ताइपे शहरी सरकार के पर्यटन और यात्रा विभाग द्वारा प्रशासित होते हैं।
ऐतिहासिक आकर्षणों में बिट्टौजिया लाइटहाउस, चिन पाओ सैन, फोर्ट सैंटो डोमिंगो, होब किला, इगॉन श्राइन, तमसुई ओल्ड स्ट्रीट, लिन फैमिली हवेली और गार्डन, फ्यूगुइजिया लाइटहाउस, केप सैन डिएगो लाइटहाउस और त्ससुई में चिंग राजवंश अवशेष और जिउफेन के पुराने खनन कस्बों शामिल हैं।
सबसे प्रसिद्ध मंदिर सेन्सिआ जिले का जुशी मंदिर है। न्यु ताइपे शहर नियमित रूप से 5000 से अधिक वार्षिक कला, संगीत और सांस्कृतिक त्यौहारों का आयोजन करता है, जैसे गोंगलिओ जिले में होहयान रॉक फेस्टिवल,[20] पिंग्ज़ी जिले में आयोजित लालटेन महोत्सव आदि।[21]
जुशी मंदिर
ताइवान कोयला खान संग्रहालय
होहयान रॉक फेस्टिवल
परिवहन
रेल
यह क्षेत्र बेंचियाओ स्टेशन के माध्यम से ताइवान हाई स्पीड रेल से जुड़ा हुआ है, जो ताइवान रेलवे प्रशासन (टीआरए) और ताइपे मेट्रो के साथ एक इंटरमोडल स्टेशन है।
टीआरए की यिलान लाइन गोंग्लियाओ, शुआंग्ज़ी और रुईफांग के माध्यम से चलती है। पश्चिमी रेखा सीझी, बेंचियाओ, शुलिंग और यिंग के माध्यम से चलाती है। पिंगक्सी लाइन पिंग्ज़ी को रुईफांग से जोड़ती है।
मेट्रो
ताइपेई मेट्रो, त्समुई में तमसुई लाइन, योंगे और झोंगे में झोंगहे लाइन, संचोंग में लुज़ौ लाइन और झूज़ौ, ज़िन्ज़ुआंग में ज़िन्ज़ुआंग लाइन, संचोंग, और ताइशन, ज़िंडियन में ज़िन्दियन लाइन, और बानन लाइन के माध्यम से क्षेत्र में सेवा प्रदान करती है।
ताइवान ताओयुआन अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के प्रवेश एमआरटी सिस्टम लाईन द्वारा संचोंग, ज़िन्ज़ुआंग, ताइशन और लिंको को जोड़ा गया है।
सड़क
न्यू ताइपे शहर में एक प्रसिद्ध ताइपे पुल है, जो तामसुई नदी पर बना हुआ है और ताइपे को न्यू ताइपे शहर से जोड़ता है। न्यु ताइपे ब्रिज एक अन्य प्रसिद्ध पुल है।
वायु
हवाई यातायात, पड़ोसी शहर ताओयुआन में स्थित ताइवान ताओयुआन अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे और ताइपे के सांगशान हवाई अड्डे द्वारा स्म्पन्न होता है।
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
- विदेशियों के लिए एक शहर
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श्रेणी:ताइवान के नगर
श्रेणी:हिन्दी दिवस लेख प्रतियोगिता २०१८ के अन्तर्गत बनाये गये लेख | ताइवान के सबसे ऊंचे पर्वत का नाम क्या है? | माउंट झूजी | 5,141 | hindi |
540784485 | जेफ्री चासर (Geoffrey Chaucer ; लगभग १३४३-१४००) अंग्रेजी भाषा के कवि, लेखक, दार्शनिक एवं राजनयिक थे। उनके साथ ही अंग्रेजी साहित्य में आधुनिक युग का प्रारंभ माना जाता है। 'कैंटरबरी टेल्स' उनकी प्रसिद्ध रचना है। उनकी रचनाएँ साहित्य के अतिरिक्त जीवन के व्यापक क्षेत्र में नए मोड़ का संकेत करती हैं। जॉन ड्राइडेन ने उनको 'अंग्रेजी कविता का जनक' कहा है।
परिचय
चासर का जन्म लंदन में सन् १३४० ई. के लगभग हुआ था। पिता शराब के व्यापारी थे। १७ वर्ष की अवस्था में इन्होंने इंग्लैंड के राजा एडवर्ड तृतीय के पुत्र अल्स्टर के अर्ल के परिवार में नौकरी कर ली। इस प्रकार इन्हें राजदरबार के तौर तरीकों की अच्छी जानकारी प्राप्त करने का अवसर मिला जिसका उपयोग इन्होंने अपनी कविता में किया। राजपरिवार की नौकरी ने इनकी साहित्यिक प्रतिभा के विकास के कुछ और भी अवसर दिए। दो वर्ष बाद इन्हें शतवर्षीय युद्ध के संबंध में फ्रांस जाना पड़ा जहां इन्होंने कुछ दिन फ्रांसीसी शत्रुओं की कैद में बिताए। यह यात्रा इनके साहित्यिक जीवन में बड़ी ही महत्वपूर्ण सिद्ध हुई। इस समय की फ्रांसीसी कविता में कृत्रिमता का दोष होते हुए भी उसमें सौंदर्य और कलात्मकता के गुण भी थे। चासर ने अपना साहित्यिक जीवन तत्कालीन फ्रांसीसी कविता को व्यापक रूप से प्रभावित करने वाली रचना 'रोमां डे ला रोज' के अनुवाद से किया। फ्रांसीसी कविता का और विशेषतया इस काव्यग्रंथ का अमिट प्रभाव उनकी प्रारंभिक रचनाओं पर नहीं वरन् जीवन का यथार्थ चित्र प्रस्तुत करनेवाली अंतिम और सर्वोत्तम रचना 'कैंटरबरी टेल्स' पर भी देखने को मिलता है।
राजदरबार में चासर को अपनी कार्यकुशलता के फलस्वरूप पर्याप्त ख्याति प्राप्त हो चुकी थी। सन् १३७२ ई. के करीब इन्हें कुछ महत्व पूर्ण व्यापारिक मंत्रणा के लिये इटली भेजा गया। छ: साल बाद इन्होंने इटली की दूसरी बार यात्रा की। इटली की यात्रा ने इनके साहित्यिक जीवन को नया मोड़ दिया। इसी के फलस्वरूप ये फ्रांसीसी प्रभाव से मुक्त हो सके। अब इनकी प्रेरणा के स्रोत इटली के प्रसिद्ध कवि और कथाकार दांते, पेत्रार्क तथा बोकेशियो हो गए थे। इनपर सबसे अधि प्रभाव बोकेशियो का पड़ा। 'ट्रायलस और क्रेसिड' क दु:खांत कहानी चासर ने बोकेशियो से ही ली।
चासर की अंतिम और सर्वोत्तम रचना कैंटरबरी टेल्स में हम उनके स्वतंत्र व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति पाते हैं। इस ग्रंथ की रचना के समय तक उन्होंने फ्रांसीसी तथा इटालियन साहित्यिक प्रभावों को पूर्णतया आत्मसात् कर लिया था। कैंटरबरी टेल्स में चासर किसी विदेशी साहित्यिक शैली का अनुसरण न कर जीवन के अपने अनुभव तथा व्यापक अध्ययन के आधार पर मौलिक रचना प्रस्तुत करते हैं।
स्त्रियों तथा वैवाहिक जीवन के संबंध में इन्होंने सामान्यतया व्यंग्यात्मक ढंग से लिखा है। संभव है ऐसा इन्होंने केवल विनोद के लिये किया हो। इनकी पत्नी का नाम फिलिप्पा था। सन् १४०० ई. में चासर की मृत्यु हुई।
चासुर के जीवनकाल में कुछ महत्वपूर्ण घटनाएँ हुई। सबसे महत्वपूर्ण इंग्लैंड और फ्रांस के बीच लगभग सौ वर्ष तक चलनेवाला युद्ध ही था जिसमें इन्होंने स्वयं भाग लिया था। लेकिन इनकी कविता में न इस युद्ध का उल्लेख है और न शत्रुओं के विरुद्ध दुर्भावना की अभिव्यक्ति। इसी समय किसानों का विद्रोह तथा विनाशकारी प्लेग जैसी ऐतिहासिक महत्व की घटनाएँ हुई। लेकिन इनका भी कोई जिक्र इनकी रचनाओं में नहीं मिलता। फिर भी कैंटरबरी टेल्स में न केवल इंग्लैंड के तत्कालीन सामाजिक जीवन की, यूरोपीय जीवन में हो रहे महत्वपूर्ण परिवर्तनों की स्पष्ट झलक देखने को मिलती है। इस समय तक रोम के चर्च में व्याप्त भ्रष्टाचारों की ओर लोगों का ध्यान जाने लगा था। यत्रतत्र पादरियों की चारित्रिक त्रुटियां की खरी आलोचना भी होने लगी थी। धर्म द्वारा व्यापक रूप से प्रभावित यूरोपीय विचारधारा में यह महान परिवर्तन का लक्षण था जिसे हम कैंटरबरी टेल्स में भी देखते हैं। साथ ही साथ लोगों का ध्यान अब पारलौकिक बातों से हटकर भौतिक जगत् की समस्याओं तथा दैनिक जीवन के सुख दु:ख की ओर जाने लगा। यूरोपीय जीवनदर्शन की यह महत्वपूर्ण प्रवृत्ति भी कैंटरबरी टेल्स तथा चासर की अन्य रचनाओं में परिलक्षित होती है। मध्ययुगीन साहित्य अधिकांशत: कल्पनाप्रधान था या अध्यात्म तथा नैतिकता की शिक्षा देने का माध्यम मात्र। चासर ने उसे वर्ग तथा नैतिकता के आग्रह से मुक्त कर स्वतंत्र अस्तित्व दिया। साहित्य रचना में उनका उद्देश्य प्रधानत: जीवन के प्रति अपनी व्यक्तिगत अनुभतियों की मनोरंजक अभिव्यक्ति था। चासर के साहित्य की ये सारी विशेषताएँ लगभग दो सौ वर्ष बाद एलिजाबेथ कालीन साहित्य में अपने पूरे निखार के साथ देखने को मिलती हैं। इस प्रकार हम उन्हें यूरोपीय पुनर्जागरण का आद्य अंग्रेजी कवि कह सकते हैं।
जैसा कहा जा चुका है, चासर ने अपना साहित्यिक जीवन 'रोमाँ डे ला रोज़' के अनुवाद से प्रारंभ किया। रूपक शैलो में प्रेम की व्याख्या प्रस्तुत करनेवाला वह काव्य भिन्न ही नहीं अपितु परस्पर विरोधी प्रकृति के दो फ्रांसीसी कवियों की कृति है। स्वप्न में एक प्रेमी एक सुंदर उद्यान में प्रेम के पुष्प को तोड़ने का प्रयत्न करता है। प्रारंभिक भाग प्रेम का बड़ा ही शिष्ट, सुंदर एवं प्रभावोत्पादक चित्र प्रस्तुत करता है लेकिन बादवाले भाग में दूसरे कवियों ने स्त्रियों तथा प्रेम के वर्णन में ध्यंग्यात्मक शैली अपनाई है। चासर की कई रचनाओं में हम फ्रांसीसी काव्य का प्रभाव देखते हैं। 'बुक आँव डचेज़' 'हाउस ऑव फेम' तथा 'पार्लमेंट ऑव फाउल्स' रूपक शैली में हैं। तीनों में वर्णित घटनाएँ स्वप्न में देखी प्रतीत होती हैं। बुक ऑव डचेज तथा पार्लमेंट ऑव फाउल्स में कवि दरबारी परंपरा के अनुसार प्रेम की व्याख्या प्रस्तुत करता है। प्रेम का ऐसा ही आदर्श चित्रण हम रों डे ला रोज में भी पाते हैं।
'ट्रायल्स ऐंड क्रेसिड' की कहानी बोकेशियो से ली हुई है। यह दु:खांत काव्य चासर के ऊपर पड़े इटालीय प्रभाव की पुष्टि करता है। ट्रायलस निराश प्रेमी है जिसकी प्रेमिका क्रेसिड उससे अलग हो जाने पर एक अन्य पुरुष का वरण कर लेती है।
चासर ने 'लीजेंड ऑव गुड विमेन' की रचना जैसा उसने स्वयं इसकी प्रस्तावना में कहा है, रानी के यह शिकायत करने पर की कि उसने 'क्रेसिड के चरित्र द्वारा पूरी स्त्री जाति पर अविश्वसनीय होने पर आरोप लगाया था। इस अधूरी पुसतक में लगभग दस ऐतिहासिक तथा पौराणिक ख्यातिप्राप्त नारियों का प्रशंसात्मक जीवनवृत्तांत है।
चासर की अंतिम और सर्वश्रेष्ठ रचना 'कैंटरबरी टेल्स' है। अंग्रेजी समाज के विभिन्न स्तरों तथा पेशों का प्रतिनिधित्व करनेवाले लगभग तीस तीर्थयात्री जो कैंटरबरी नगर में टामस बेकेट की समाधि पर अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने जानेवाले हैं एक सराय में इकट्ठा होते हैं। रास्ते की थकान न खले और सबका मनोरंजन हो, इस विचार से सराय के स्वामी के सुझाव पर यह तय होता है कि प्रत्येक यात्री चार कहानियाँ दो जाते समय और दो लौटती बार कहे। जिसकी कहानियाँ बहुमत द्वारा सर्वोत्तम समझी जाएँ, उसे सब लोग मिलकर उसी सराय में अच्छी दावत दें। 'कैंटरबरी' की कहानियाँ चासर की अपनी रचना न होकर पूरे यूरोपीय उपाख्यान साहित्य से ली हुई हैं। उसकी मैलिकता यात्रियों के चरित्र के सूक्ष्म अध्ययन में देखने को मिलती है। चरित्रचित्रण में उच्च कोटि की पटुता दिखाने के साथ अपने तीस यात्रियों के माध्यम से चासर ने तत्कालीन बृटिश समाज का व्यापक चित्र प्रस्तुत करने में भी प्रशंसनीय सफलता प्राप्त की है। कैंटरबरी टेल्स में हमें युग के सामाजिक जीवन की झाँकी मिलती है।
चासर की एक अन्य विशेषता उसका उन्मुक्त हास्य है। यहाँ वह मानवचरित्र की छोटी बड़ी कमजोरियों पर हँसता है, वहीं उसे मनुष्य मात्र से, उसकी सारी त्रुटियों के बावजूद अपार सहानुभूति भी है। इन्हीं कारणों से उसका साहित्य स्वस्थ तथा आज भी अक्षय प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है।
बाहरी कड़ियाँ
श्रेणी:अंग्रेजी कवि | जेफ्री चॉसर की पत्नी कौन थी? | फिलिप्पा | 2,405 | hindi |
688b14921 | पश्चिमी अफ्रीका में बहने वाली शुष्क एवं धूल-भरी व्यापारिक पवन को हारमैटन (Harmattan) कहते हैं। यह पवन नवम्बर के अन्त से मार्च के मध्य तक सहारा से गिनी की खाड़ी की तरफ उतर-पूर्व दिशा से बहती है। इसका तापमान ३ डिग्री सेल्सियस तक होता है। मरुस्थल से होकर बहने के फलस्वरूप इसमें महीन धूल कण (0.5 माइक्रॉन से 10 माइक्रॉन आकार के) मिल जाते हैं।
जिसके कारण कुछ पश्चिमी अफ्रीकी देशों में सुरज कई दिनो तक दिखाई नहीं देता |
श्रेणी:पवन | पश्चिमी अफ्रीका में बहने वाली शुष्क एवं धूल-भरी व्यापारिक पवन को क्या कहते हैं? | हारमैटन | 65 | hindi |
9a938adcb | लद्दाख (तिब्बती लिपि: ལ་དྭགས་ ;उर्दू: ur; "ऊंचे दर्रों (passes) की भूमि") उत्तरी भारत के जम्मू और कश्मीर प्रान्त में एक धरातल है, जो उत्तर में काराकोरम पर्वत और दक्षिण में हिमालय पर्वत के बीच में है। यह नेपाल के सबसे विरल जनसंख्या वाले भागों में से एक है।
लद्दाख जिले का क्षेत्रफल 97,776 वर्ग किलोमीटर है। इसके उत्तर में चीन तथा पूर्व में तिब्बत की सीमाएँ हैं। सीमावर्ती स्थिति के कारण सामरिक दृष्टि से इसका बड़ा महत्व है। लद्दाख, उत्तर-पश्चिमी हिमालय के पर्वतीय क्रम में आता है, जहाँ का अधिकांश धरातल कृषि योग्य नहीं है। गॉडविन आस्टिन (K2, 8,611 मीटर) और गाशरब्रूम I (8,068 मीटर) सर्वाधिक ऊँची चोटियाँ हैं। यहाँ की जलवायु अत्यंत शुष्क एवं कठोर है। वार्षिक वृष्टि 3.2 इंच तथा वार्षिक औसत ताप 5 डिग्री सें. है। नदियाँ दिन में कुछ ही समय प्रवाहित हो पाती हैं, शेष समय में बर्फ जम जाती है। सिंधु मुख्य नदी है। जिले की राजधानी एवं प्रमुख नगर लेह है, जिसके उत्तर में कराकोरम पर्वत तथा दर्रा है। अधिकांश जनसंख्या घुमक्कड़ है, जिसकी प्रकृति, संस्कार एवं रहन-सहन तिब्बत एवं नेपाल से प्रभावित है। पूर्वी भाग में अधिकांश लोग बौद्ध हैं तथा पश्चिमी भाग में अधिकांश लोग मुसलमान हैं। हेमिस गोंपा बौंद्धों का सबसे बड़ा धार्मिक संस्थान है।
इतिहास
लद्दाख में कई स्थानों पर मिले शिलालेखों से पता चलता है कि यह स्थान नव-पाषाणकाल से स्थापित है। लद्दाख के प्राचीन निवासी मोन और दार्द लोगों का वर्णन हेरोडोट्स, नोर्चुस, मेगस्थनीज, प्लीनी, टॉलमी और नेपाली पुराणों ने भी किया है। पहली शताब्दी के आसपास लद्दाख कुषाण राज्य का हिस्सा था। बौद्ध धर्म दूसरी शताब्दी में कश्मीर से लद्दाख में फैला। उस समय पूर्वी लद्दाख और पश्चिमी तिब्बत में परम्परागत बोन धर्म था। सातवीं शताब्दी में बौद्ध यात्री ह्वेनसांग ने भी इस क्षेत्र का वर्णन किया है।
आठवीं शताब्दी में लद्दाख पूर्व से तिब्बती प्रभाव और मध्य एशिया से चीनी प्रभाव के टकराव का केन्द्र बन गया। इस प्रकार इसका आधिपत्य बारी-बारी से चीन और तिब्बत के हाथों में आता रहा। सन 842 में एक तिब्बती शाही प्रतिनिधि न्यिमागोन ने तिब्बती साम्राज्य के विघटन के बाद लद्दाख को कब्जे में कर लिया और पृथक लद्दाखी राजवंश की स्थापना की। इस दौरान लद्दाख में मुख्यतः तिब्बती जनसंख्या का आगमन हुआ। राजवंश ने उत्तर-पश्चिम भारत खासकर कश्मीर से धार्मिक विचारों और बौद्ध धर्म का खूब प्रचार किया। इसके अलावा तिब्बत से आये लोगों ने भी बौद्ध धर्म को फैलाया।
तिबतन सिविलाइजेशन के लेखक रोल्फ अल्फ्रेड स्टेन के अनुसार शांग शुंग का इलाका ऐतिहासिकि रूप से तिब्बत का भाग नहीं था। यह तिब्बतियों के लिये विदेशी भूमि था। उनके अनुसार:
``और पश्चिम में तिब्बतियों का सामना एक विदेशी राज्य शुंग शांग से हुआ जिसकी राजधानी क्युंगलुंग थी। कैलाश पर्वत और मानसरोवर झील इस राज्य के भाग थे। इसकी भाषा हमें प्रारम्भिक आलेखों से पता चलती है। यह अभी भी अज्ञात है, लेकिन यह इण्डो-यूरोपियन लगती है। ... भौगोलिक रूप से यह राज्य भ्रत व कश्मीर दोनों के रास्ते नेपाल से मिलता है। कैलाश नेपालीयों के लिये पवित्र स्थान है। वे यहां की तीर्थयात्रा पर आते हैं। कोई नहीं जानता कि वे ऐसा कब से कर रहे हैं, लेकिन वे तब से पहले से आते हैं जब शांगशुंग तिब्बत से आजाद था।
शांगशुंग कितने समय तक उत्तर, पूर्व और पश्चिम से अलग रहा, यह नहीं मालूम।... हमारे पास यह मानने के पर्याप्त कारण हैं कि पवित्र कैलाश पर्वत के कारण यहां हिन्दू धर्म से मिलता-जुलता धर्म रहा होगा। सन 950 में, काबुल के हिन्दू राजा के पास विष्णु की तीन सिर वाली एक मूर्ति थी जिसे उसने भोट राजा से प्राप्त हुई बताया था।
17वीं शताब्दी में लद्दाख का एक कालक्रम बनाया गया, जिसका नाम ला ड्वाग्स रग्याल राब्स था। इसका अर्थ होता है लद्दाखी राजाओं का शाही कालक्रम। इसमें लिखा है कि इसकी सीमाएं परम्परागत और प्रसिद्ध हैं। कालक्रम का प्रथम भाग 1610 से 1640 के मध्य लिखा गया और दूसरा भाग 17वीं शताब्दी के अन्त में। इसे ए. एच. फ्रैंक ने अंग्रेजी में अनुवादित किया और “नेपाली प्राचीन तिब्बत” के नाम से 1926 में कलकत्ता में प्रकाशित कराया। इसके दूसरे खण्ड में लिखा है कि राजा साइकिड-इडा-नगीमा-गोन ने राज्य को अपने तीन पुत्रों में विभक्त कर दिया और पुत्रों ने राज्य की सीमाओं को सुरक्षित रखा।
पुस्तक के अवलोकन से पता चलता है कि रुडोख लद्दाख का अभिन्न भाग था। परिवार के विभाजन के बाद भी रुडोख लद्दाख का हिस्सा बना रहा। इसमें मार्युल का अर्थ है निचली धरती, जो उस समय लद्दाख का ही हिस्सा था। दसवीं शताब्दी में भी रुडोख और देमचोक दोनों लद्दाख के हिस्से थे।
13वीं शताब्दी में जब दक्षिण एशिया में इस्लामी प्रभाव बढ रहा था, तो लद्दाख ने धार्मिक मामलों में तिब्बत से मार्गदर्शन लिया। लगभग दो शताब्दियों बाद सन 1600 तक ऐसा ही रहा। उसके बाद पडोसी मुस्लिम राज्यों के हमलों से यहां आंशिक धर्मान्तरण हुआ।
राजा ल्हाचेन भगान ने लद्दाख को पुनर्संगठित और शक्तिशाली बनाया व नामग्याल वंश की नींव डाली जो वंश आज तक जीवित है। नामग्याल राजाओं ने अधिकतर मध्य एशियाई हमलावरों को खदेडा और अपने राज्य को कुछ समय के लिये नेपाल तक भी बढा लिया। हमलावरों ने क्षेत्र को धर्मान्तरित करने की खूब कोशिश की और बौद्ध कलाकृतियों को तोडा फोडा। सत्रहवीं शताब्दी के आरम्भ में कलाकृतियों का पुनर्निर्माण हुआ और राज्य को जांस्कर व स्पीति में फैलाया। फिर भी, मुगलों के हाथों हारने के बावजूद भी लद्दाख ने अपनी स्वतन्त्रता बरकरार रखी। मुगल पहले ही कश्मीर व बाल्टिस्तान पर कब्जा कर चुके थे।
सन 1594 में बाल्टी राजा अली शेर खां अंचन के नेतृत्व में बाल्टिस्तान ने नामग्याल वंश वाले लद्दाख को हराया। कहा जाता है कि बाल्टी सेना सफलता से पागल होकर पुरांग तक जा पहुंची थी जो मानसरोवर झील की घाटी में स्थित है। लद्दाख के राजा ने शान्ति के लिये विनती की और चूंकि अली शेर खां की इच्छा लद्दाख पर कब्जा करने की नहीं थी, इसलिये उसने शर्त रखी कि गनोख और गगरा नाला गांव स्कार्दू को सौंप दिये जायें और लद्दाखी राजा हर साल कुछ धनराशि भी भेंट करे। यह राशि लामायुरू के गोम्पा तब तक दी जाती रही जब तक कि डोगराओं ने उस पर अधिकार नहीं कर लिया।
सत्रहवीं शताब्दी के आखिर में लद्दाख ने किसी कारण से तिब्बत की लडाई में भूटान का पक्ष लिया। नतीजा यह हुआ कि तिब्बत ने लद्दाख पर भी आक्रमण कर दिया। यह घटना 1679-1684 का तिब्बत-लद्दाख-मुगल युद्ध कही जाती है। तब कश्मीर ने इस शर्त पर लद्दाख का साथ दिया कि लेह में एक मस्जिद बनाई जाये और लद्दाखी राजा इस्लाम कुबूल कर ले। 1684 में तिंगमोसगंज की सन्धि हुई जिससे तिब्बत और लद्दाख का युद्ध समाप्त हो गया। 1834 में डोगरा राजा गुलाब सिंह के जनरल जोरावर सिंह ने लद्दाख पर आक्रमण किया और उसे जीत लिया। 1842 में एक विद्रोह हुआ जिसे कुचल दिया गया तथा लद्दाख को जम्मू कश्मीर के डोगरा राज्य में विलीन कर लिया गया। नामग्याल परिवार को स्टोक की नाममात्र की जागीर दे दी गई। 1850 के दशक में लद्दाख में यूरोपीय प्रभाव बढा और फिर बढता ही गया। भूगोलवेत्ता, खोजी और पर्यटक लद्दाख आने शुरू हो गये। 1885 में लेह मोरावियन चर्च के एक मिशन का मुख्यालय बन गया।
1947 में भारत विभाजन के समय डोगरा राजा हरिसिंह ने जम्मू कश्मीर को भारत में विलय की मंजूरी दे दी। पाकिस्तानी घुसपैठी लद्दाख पहुंचे और उन्हें भगाने के लिये सैनिक अभियान चलाना पडा। युद्ध के समय सेना ने सोनमर्ग से जोजीला दर्री पर टैंकों की सहायता से कब्जा किये रखा। सेना आगे बढी और द्रास, कारगिल व लद्दाख को घुसपैठियों से आजाद करा लिया गया।
1949 में चीन ने नुब्रा घाटी और जिनजिआंग के बीच प्राचीन व्यापार मार्ग को बन्द कर दिया। 1955 में चीन ने जिनजिआंग व तिब्बत को जोदने के लिये इस इलाके में सडक बनानी शुरू की। उसने पाकिस्तान से जुडने के लिये कराकोरम हाईवे भी बनाया। भारत ने भी इसी दौरान श्रीनगर-लेह सडक बनाई जिससे श्रीनगर और लेह के बीच की दूरी सोलह दिनों से घटकर दो दिन रह गई। हालांकि यह सडक जाडों में भारी हिमपात के कारण बन्द रहती है। जोजीला दर्रे के आरपार 6.5 किलोमीटर लम्बी एक सुरंग का प्रस्ताव है जिससे यह मार्ग जाडों में भी खुला रहेगा। पूरा जम्मू कश्मीर राज्य भारत, पाकिस्तान और चीन के बीच युद्ध का मुद्दा रहता है। कारगिल में भारत-पाकिस्तान के बीच 1947, 1965 और 1971 में युद्ध हुए और 1999 में तो यहां परमाणु युद्ध तक का खतरा हो गया था।
1999 में जो कारगिल युद्ध हुआ उसे भारतीय सेना ने ऑपरेशन विजय का नाम दिया गया। इसकी वजह पश्चिमी लद्दाख मुख्यतः कारगिल, द्रास, मश्कोह घाटी, बटालिक और चोरबाटला में पाकिस्तानी सेना की घुसपैठ थी। इससे श्रीनगर-लेह मार्ग की सारी गतिविधियां उनके नियन्त्रण में हो गईं। भारतीय सेना ने आर्टिलरी और वायुसेना के सहयोग से पाकिस्तानी सेना को लाइन ऑफ कण्ट्रोल के उस तरफ खदेडने के लिये व्यापक अभियान चलाया।
1984 से लद्दाख के उत्तर-पूर्व सिरे पर स्थित सियाचिन ग्लेशियर भारत और पाकिस्तान के बीच विवाद की एक और वजह बन गया। यह विश्व का सबसे ऊंचा युद्धक्षेत्र है। यहां 1972 में हुए शिमला समझौते में पॉइण्ट 9842 से आगे सीमा निर्धारित नहीं की गई थी। यहां दोनों देशों में साल्टोरो रिज पर कब्जा करने की होड रहती है। कुछ सामरिक महत्व के स्थानों पर दोनों देशों ने नियन्त्रण कर रखा है, फिर भी भारत इस मामले में फायदे में है।
1979 में लद्दाख को कारगिल व लेह जिलों में बांटा गया। 1989 में बौद्धों और मुसलमानों के बीच दंगे हुए। 1990 के ही दशक में लद्दाख को कश्मीरी शासन से छुटकारे के लिये लद्दाख ऑटोनॉमस हिल डेवलपमेण्ट काउंसिल का गठन हुआ।
भूगोल
लद्दाख जम्मू कश्मीर राज्य में एक ऊंचा पठार है जिसका अधिकतर हिस्सा 3000 मीटर (9800 फीट) से ऊंचा है।[1] यह हिमालय और कराकोरम पर्वत श्रंखला और सिन्धु नदी की ऊपरी घाटी में फैला है।
इसमें बाल्टिस्तान (वर्तमान में पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में), सिन्धु घाटी, जांस्कर, दक्षिण में लाहौल और स्पीति, पूर्व में रुडोक व गुले, अक्साईचिन और उत्तर में खारदुंगला के पार नुब्रा घाटी शामिल हैं। लद्दाख की सीमाएं पूर्व में तिब्बत से, दक्षिण में लाहौल और स्पीति से, पश्चिम में जम्मू कश्मीर व बाल्टिस्तान से और सुदूर उत्तर में कराकोरम दर्रे के उस तरफ जिनजियांग के ट्रांस कुनलुन क्षेत्र से मिलती हैं।
विभाजन से पहले बाल्टिस्तान (अब पाकिस्तानी नियन्त्रण में) लद्दाख का एक जिला था। स्कार्दू लद्दाख की शीतकालीन राजधानी और लेह ग्रीष्मकालीन राजधानी हुआ करती थी।
इस क्षेत्र में 45 मिलियन वर्ष पहले भारतीय प्लेट और यूरेशियन प्लेट के दबाव से पर्वतों का निर्माण हुआ। दबाव बढता गया और इस क्षेत्र में इससे भूकम्प भी आते रहे। जोजीला के पास पर्वत चोटियां 5000 मीटर से शुरू होकर दक्षिण-पूर्व की तरफ ऊंची होती जाती हैं और नुनकुन तक इनकी ऊंचाई 7000 मीटर तक पहुंच गई है।
सुरु और जांस्कर घाटी शानदार द्रोणिका का निर्माण करती हैं। सूरू घाटी में रांगडम सबसे ऊंचा आवासीय स्थान है। इसके बाद पेंसी-ला तक यह उठती ही चली जाती है। पेंसी-ला जांस्कर का प्रवेश द्वार है। कारगिल जोकि सुरू घाटी का एकमात्र शहर है, लद्दाख का दूसरा सबसे महत्वपूर्ण स्थान है। यह 1947 से पहले कारवां व्यापार का मुख्य स्थान था। यहां से श्रीनगर, पेह, पदुम और स्कार्दू लगभग बराबर दूरी पर स्थित हैं। इस पूरे क्षेत्र में भारी बर्फबारी होती है। पेंसी-ला केवल जून से मध्य अक्टूबर तक ही खुला रहता है। द्रास और मश्कोह घाटी लद्दाख का पश्चिमी सिरा बनाते हैं।
सिन्धु नदी लद्दाख की जीवनरेखा है। ज्यादातर ऐतिहासिक और वर्तमान स्थान जैसे कि लेह, शे, बासगो, तिंगमोसगंग सिन्धु किनारे ही बसे हैं। 1947 के भारत-पाक युद्ध के बाद सिन्धु का मात्र यही हिस्सा लद्दाख से बहता है। सिन्धु हिन्दू धर्म में एक पूजनीय नदी है, जो केवल लद्दाख में ही बहती है।
सियाचिन ग्लेशियर पूर्वी कराकोरम रेंज में स्थित है जो भारत पाकिस्तान की विवादित सीमा बनाता है। कराकोरम रेंज भारतीय महाद्वीप और चीन के मध्य एक शानदार जलविभाजक बनाती है। इसे तीसरा ध्रुव भी कहा जाता है। 70 किलोमीटर लम्बा यह ग्लेशियर कराकोरम में सबसे लम्बा है और धरती पर ध्रुवों को छोडकर दूसरा सबसे लम्बा ग्लेशियर है। यह अपने मुख पर 3620 मीटर से लेकर चीन सीमा पर स्थित इन्दिरा पॉइण्ट पर 5753 मीटर ऊंचा है। इसके पास के दर्रे और कुछ ऊंची चोटियां दोनों देशों के कब्जे में हैं।
भारत में कराकोरम रेंज की सबसे पूर्व में स्थित सासर कांगडी सबसे ऊंची चोटी है। इसकी ऊंचाई 7672 मीटर है।
लद्दाख रेंज में कोई प्रमुख चोटी नहीं है। पंगोंग रेंज चुशुल के पास से शुरू होकर पंगोंग झील के साथ साथ करीब 100 किलोमीटर तक लद्दाख रेंज के समानान्तर चलती है। इसमें श्योक नदी और नुब्रा नदी की घाटियां भी शामिल हैं जिसे नुब्रा घाटी कहते हैं। कराकोरम रेंज लद्दाख में उतनी ऊंची नहीं है जितनी बाल्टिस्तान में। कुछ ऊंची चोटियां इस प्रकार हैं- अप्सरासास समूह (सर्वोच्च चोटी 7245 मीटर), रीमो समूह (सर्वोच्च चोटी 7385 मीटर), तेराम कांगडी ग्रुप (सर्वोच्च चोटी 7464 मीटर), ममोस्टोंग कांगडी 7526 मीटर और सिंघी कांगडी 7751 मीटर। कराकोरम के उत्तर में कुनलुन है। इस प्रकार, लेह और मध्य एशिया के बीच में तीन श्रंखलाएं हैं- लद्दाख श्रंखला, कराकोरम और कुनलुन। फिर भी लेह और यारकन्द के बीच एक व्यापार मार्ग स्थापित था।
लद्दाख एक उच्च अक्षांसीय मरुस्थल है क्योंकि हिमालय मानसून को रोक देता है। पानी का मुख्य स्रोत सर्दियों में हुई बर्फबारी है। पिछले दिनों आई बाढ (2010 में) के कारण असामान्य बारिश और पिघलते ग्लेशियर हैं जिसके लिये निश्चित ही ग्लोबल वार्मिंग जिम्मेदार है।
द्रास, सूरू और जांस्कर में भारी बर्फबारी होती है और ये कई महीनों तक देश के बाकी हिस्सों से कटे रहते हैं। गर्मियां छोटी होती हैं यद्यपि फिर भी कुछ पैदावार हो जाती है। गर्मियां शुष्क और खुशनुमा होती हैं। गर्मियों में तापमान 3 से 35 डिग्री तक तथा सर्दियों में -20 से -35 डिग्री तक पहुंच जाता है।
जीव-जन्तु एवं वनस्पतियाँ
यह क्षेत्र शुष्क होने के कारण वनस्पति विहीन है. यहां जानवरों के चलने के लिए कहीं कहीं पर ही घास एवं छोटी-छोटी झाड़ियां मिलती है।
घाटी में सरपत विलो एवं पॉपलर के उपवन देखे जा सकते हैं। ग्रीष्म ऋतु में सेब खुबानी एवं अखरोट जैसे पेड़ पल्लवित होते हैं। लद्दाख में पक्षियों की विभिन्न प्रजातियां नजर आती हैं, इनमें रॉबिन, रेड स्टार्ट तिब्बती स्नोकोक, रेवेन यहां पाए जाने वाले सामान्य पक्षी है।
लद्दाख के पशुओं में जंगली बकरी, जंगली भेड़ एवं विशेष प्रकार के कुत्ते आदि पाले जाते हैं।
सरकार और राजनीति
यातायात
जनसांख्यिकीय
संस्कृति
हिंदी
शिक्षा
टीका-टिप्पणी
α.
चीन प्रशासन के तहत इस क्षेत्र में दिखाया जाता है गहरे गुलाबी, जबकि अतिरिक्त क्षेत्रों में जो ऐतिहासिक लद्दाख राज्य के कुछ हिस्सों थे चीन सरकारके हे पर भरत ने दावा कि, गुलाबी में दिखाई जाती हैं।
सन्दर्भ
इन्हें भी देखें
अक्साई चीन
तिब्बत
नेपाल
लेह
बाहरी कड़ियाँ
श्रेणी:जम्मू कश्मीर के शहर
श्रेणी:लद्दाख़
श्रेणी:प्लैटो
श्रेणी:नेपाल के पारंपरिक क्षेत्र | लद्दाख का क्षेत्रफल कितना है? | 97,776 वर्ग किलोमीटर | 283 | hindi |
1f48a07aa | भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ के रचयिता हैं। इनके जीवनकाल के बारे में ठीक-ठीक जानकारी नहीं है किन्तु इन्हें 400 ई॰पू॰ 100 ई॰ सन् के बीच किसी समय का माना जाता है।
भरत बड़े प्रतिभाशाली थे। इतना स्पष्ट है कि भरतमुनि रचित नाट्यशास्त्र से परिचय था। इनका 'नाट्यशास्त्र' भारतीय नाट्य और काव्यशास्त्र का आदिग्रन्थ है। इसमें सर्वप्रथम रस सिद्धान्त की चर्चा तथा इसके प्रसिद्द सूत्र -'विभावानुभाव संचारीभाव संयोगद्रस निष्पति:" की स्थापना की गयी है। इसमें नाट्यशास्त्र, संगीत-शास्त्र, छन्दशास्त्र, अलंकार, रस आदि सभी का सांगोपांग प्रतिपादन किया गया है।
भरतमुनि का नाट्यशास्त्र अपने विषय का आधारभूत ग्रन्थ माना जाता है। कहा गया है कि भरतमुनि रचित प्रथम नाटक का अभिनय, जिसका कथानक 'देवासुर संग्राम' था, देवों की विजय के बाद इन्द्र की सभा में हुआ था। आचार्य भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्त्र की उत्पत्ति ब्रह्मा से मानी है क्योकि शंकर ने ब्रह्मा को तथा ब्रह्मा ने अन्य ऋषियो को काव्य शास्त्र का उपदेश दिया।
विद्वानों का मत है कि भरतमुनि रचित पूरा नाट्यशास्त्र अब उपलब्ध नहीं है। जिस रूप में वह उपलब्ध है, उसमें लोग काफी क्षेपक बताते हैं।
इन्हें भी देखें
नाटक
काव्यशास्त्र
श्रेणी:संस्कृत आचार्य | भरत मुनि का जन्म कब हुआ था? | 400 ई॰पू॰ 100 ई॰ सन् के बीच | 124 | hindi |
8617f2aba | डॉ॰ हरिसिंह गौर, (२६ नवम्बर १८७० - २५ दिसम्बर १९४९) सागर विश्वविद्यालय के संस्थापक, शिक्षाशास्त्री, ख्यति प्राप्त विधिवेत्ता, न्यायविद्, समाज सुधारक, साहित्यकार (कवि, उपन्यासकार) तथा महान दानी एवं देशभक्त थे। वह बीसवीं शताब्दी के सर्वश्रेष्ठ शिक्षा मनीषियों में से थे। वे दिल्ली विश्वविद्यालय तथा नागपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति रहे। वे भारतीय संविधान सभा के उपसभापति, साइमन कमीशन के सदस्य तथा रायल सोसायटी फार लिटरेचर के फेल्लो भी रहे थे।उन्होने कानून शिक्षा, साहित्य, समाज सुधार, संस्कृति, राष्ट्रीय आंदोलन, संविधान निर्माण आदि में भी योगदान दिया।
उन्होने अपनी गाढ़ी कमाई से 20 लाख रुपये की धनराशि से 18 जुलाई 1946 को अपनी जन्मभूमि सागर में सागर विश्वविद्यालय की स्थापना की तथा वसीयत द्वारा अपनी पैतृक सपत्ति से 2 करोड़ रुपये दान भी दिया था। इस विश्वविद्यालय के संस्थापक, उपकुलपति तो थे ही वे अपने जीवन के आखिरी समय (२५ दिसम्बर १९४९) तक इसके विकास व सहेजने के प्रति संकल्पित रहे। उनका स्वप्न था कि सागर विश्वविद्यालय, कैम्ब्रिज तथा ऑक्सफोर्ड जैसी मान्यता हासिल करे। उन्होंने ढाई वर्ष तक इसका लालन-पालन भी किया। डॉ॰ सर हरीसिंह गौर एक ऐसा विश्वस्तरीय अनूठा विश्वविद्यालय है, जिसकी स्थापना एक शिक्षाविद् के द्वारा दान द्वारा की गई थी।
जीवनी
डॉ॰ सर हरीसिंह गौर का जन्म महाकवि पद्माकर की नगरी [ग्राम - चिलपहाड़ी बाँदा [सागर]] (म.प्र.) के पास एक निर्धन परिवार में 26 नवम्बर 1870 को हुआ था। उन्होने सागर के ही गवर्नमेंट हाईस्कूल से मिडिल शिक्षा प्रथम श्रेणी में हासिल की। उन्हे छात्रवृत्ति भी मिली, जिसके सहारे उन्होंने पढ़ाई का क्रम जारी रखा, मिडिल से आगे की पढ़ाई के लिए जबलपुर गए फिर महाविद्यालयीन शिक्षा के लिए नागपुर के हिसलप कॉलेज (Hislop College) में दाखिला ले लिया, जहां से उन्होंने इंटरमीडिएट की परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में की थी। वे प्रांत में प्रथम रहे तथा पुरस्कारों से नवाजे गए।
सन् १८८९ में उच्च शिक्षा लेने इंग्लैंड गए। सन् १८९२ में दर्शनशास्त्र व अर्थशास्त्र में ऑनर्स की उपाधि प्राप्त की। फिर १८९६ में M.A., सन १९०२ में LL.M. और अन्ततः सन १९०८ में LL.D. किया। कैम्ब्रिज में पढाई से जो समय बचता था उसमें वे ट्रिनिटी कालेज में डी लिट्, तथा एल एल डी कीपडाई करते थे। उन्होने अंतर-विश्वविद्यालयीन शिक्षा समिति में कैंब्रिज विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व किया, जो उस समय किसी भारतीय के लिये गौरव की बात थी। डॉ॰ सर हरीसिंह गौड ने छात्र जीवन में ही दो काव्य संग्रह दी स्टेपिंग वेस्टवर्ड एण्ड अदर पोएम्स एवं रेमंड टाइम की रचना की, जिससे सुप्रसिद्ध रायल सोसायटी ऑफ लिटरेचर द्वारा उन्हें स्वर्ण पदक प्रदान किया गया।
सन् १९१२ में वे बैरिस्टर होकर स्वदेश आ गये। उनकी नियुक्ति सेंट्रल प्रॉविंस कमीशन में एक्स्ट्रा `सहायक आयुक्त´ के रूप में भंडारा में हो गई। उन्होंने तीन माह में ही पद छोड़कर अखिल भारतीय स्तर पर वकालत प्रारंभ कर दी व मध्य प्रदेश, भंडारा, रायपुर, लाहौर, कलकत्ता, रंगून तथा चार वर्ष तक इंग्लैंड की प्रिवी काउंसिल में वकालत की, उन्हें एलएलडी एवं डी. लिट् की सर्वोच्च उपाधि से भी विभूषित किया गया। १९०२ में उनकी द लॉ ऑफ ट्रांसफर इन ब्रिटिश इंडिया पुस्तक प्रकाशित हुई। वर्ष १९०९ में दी पेनल ला ऑफ ब्रिटिश इंडिया (वाल्यूम २) भी प्रकाशित हुई जो देश व विदेश में मान्यता प्राप्त पुस्तक है। प्रसिद्ध विधिवेत्ता सर फेडरिक पैलाक ने भी उनके ग्रंथ की प्रशंसा की थी। इसके अतिरिक्त डॉ॰ गौर ने बौद्ध धर्म पर दी स्पिरिट ऑफ बुद्धिज्म नामक पुस्तक भी लिखी। उन्होंने कई उपन्यासों की भी रचना की।
वे शिक्षाविद् भी थे। सन् १९२१ में केंद्रीय सरकार ने जब दिल्ली विश्वविद्यालय की स्थापना की तब डॉ॰ सर हरीसिंह गौड को विश्वविद्यालय का संस्थापक कुलपति नियुक्त किया गया। ९ जनवरी १९२५ को शिक्षा के क्षेत्र में `सर´ की उपाधि से विभूषित किया गया, तत्पश्चात डॉ॰ सर हरीसिंह गौर को दो बार नागपुर विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया गया।
डॉ॰ सर हरीसिंह गौर ने २० वर्षों तक वकालत की तथा प्रिवी काउंसिल के अधिवक्ता के रूप में शोहरत अर्जित की। वे कांग्रेस पार्टी के सदस्य रहे, लेकिन १९२० में महात्मा गांधी से मतभेद के कारण कांग्रेस छोड़ दी। वे १९३५ तक विधान परिषद् के सदस्य रहे। वे भारतीय संसदीय समिति के भी सदस्य रहे, भारतीय संविधान परिषद् के सदस्य रूप में संविधान निर्माण में अपने दायित्वों का निर्वहन किया। विश्वविद्यालय के संस्थापक डॉ॰ सर हरीसिंह गौर ने विश्वविद्यालय की स्थापना के बाद नागरिकों से अपील कर कहा था कि सागर के नागरिकों को सागर विश्वविद्यालय के रूप में एक शिक्षा का महान अवसर मिला है, वे अपने नगर को आदर्श विद्यापीठ के रूप में स्मरणीय बना सकते हैं।
यह भी एक संयोग ही है कि स्वतंत्र भारत व इस विश्वविद्यालय का जन्म एक ही समय हुआ। डॉ॰ सर हरीसिंह गौर को अपनी जन्मभूमि सागर में उच्च शिक्षा की व्यवस्था न होने का दर्द हमेशा रहा। इसी कारण द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात ही इंग्लैंड से लौट कर उन्होंने अपने जीवन भर की गाढ़ी कमाई से इसकी स्थापना करायी। वे कहते थे कि राष्ट्र का धन न उसके कल-कारखाने में सुरक्षित रहता है न सोने-चांदी की खदानों में; वह राष्ट्र के स्त्री-पुरुषों के मन और देह में समाया रहता है। डॉ हरिसिंह गौड की सेवाओं के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए भारतीय डाक व तार विभाग ने १९७६ में एक डाकटिकट जारी कीया जिस पर उनके र्चित्र को प्रदर्शात किया गया है।
डॉ॰ हरि सिंह गौर ने 'सेवेन लाईव्ज' (Seven Lives) शीर्षक से अपनी आत्मकथा लिखी है। मूलत: अंग्रेजी भाषा में लिखी गई। एक युवा पत्रकार ने इस आत्मकथा का हिन्दी भाषा में अनुवाद किया है। डॉ॰ गौर ने अपनी आत्मकथा में अपने जीवन के सभी पहलुओं पर बड़ी बेबाकी से लिखा है।
प्रमुख कृतियाँ
The Transfer of Property in British India: Being an Analytical Commentary on the Transfer of Property Act, 1882 as Amended ..., Published by Thacker, Spink, 1901.
The Law of Transfer in British India, Vol. 1–3 (1902)
The Penal Law of India, Vol. 1–2 (1909)
Hindu Code (1919)
India and the New Constitution (1947)
Renaissance of India (1942)
The Spirit of Buddhism (1929)
His only Love (1929)
Random Rhymes (1892)
Facts and Fancies (1948)
Seven Lives (आत्मकथा ; 1944)
India and the New Constitution (1947)
Letters from Heaven
Lost Soul
Passing Clouds
इन्हें भी देखें
डॉ॰ हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर
सागर
बाहरी कड़ियाँ
(बुन्देलखण्ड दर्शन)
श्रेणी:व्यक्तिगत जीवन
श्रेणी:मध्य प्रदेश के लोग
श्रेणी:मध्य प्रदेश के लेखक
श्रेणी:हिन्दी लेखक
श्रेणी:1870 में जन्मे लोग
श्रेणी:१९४९ में निधन | डॉ॰ हरिसिंह गौर की मृत्यु किस वर्ष में हुई थी? | २५ दिसम्बर १९४९ | 35 | hindi |
acf2d1780 | इन्द्र कुमार गुजराल (अंग्रेजी: I. K. Gujral जन्म: ४ दिसम्बर १९१९, झेलम - मृत्यु: ३० नवम्बर २०१२, गुड़गाँव) भारतीय गणराज्य के १३वें प्रधानमन्त्री थे। उन्होंने भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में सक्रिय रूप से हिस्सा लिया था और १९४२ के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान वे जेल भी गये।[1] अप्रैल १९९७ में भारत के प्रधानमंत्री बनने से पहले उन्होंने केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल में विभिन्न पदों पर काम किया। वे संचार मन्त्री, संसदीय कार्य मन्त्री, सूचना प्रसारण मन्त्री, विदेश मन्त्री और आवास मन्त्री जैसे महत्वपूर्ण पदों पर रहे। राजनीति में आने से पहले उन्होंने कुछ समय तक बीबीसी की हिन्दी सेवा में एक पत्रकार के रूप में भी काम किया था।
१९७५ में जिन दिनों वे इन्दिरा गान्धी सरकार में सूचना एवं प्रसारण मन्त्री थे उसी समय यह बात सामने आयी थी कि १९७१ के चुनाव में इन्दिरा गान्धी ने चुनाव जीतने के लिये असंवैधानिक तरीकों का इस्तेमाल किया है। इन्दिरा गान्धी के बेटे संजय गांधी ने उत्तर प्रदेश से ट्रकों में भरकर अपनी माँ के समर्थन में प्रदर्शन करने के लिये दिल्ली में लोग इकट्ठे किये और इन्द्र कुमार गुजराल से दूरदर्शन द्वारा उसका कवरेज करवाने को कहा। गुजराल ने इसे मानने से इन्कार कर दिया[2] क्योंकि संजय गांधी को कोई सरकारी ओहदा प्राप्त नहीं था। बेशक वे प्रधानमन्त्री के पुत्र थे।[3] इस कारण से उन्हें सूचना एवं प्रसारण मन्त्रालय से हटा दिया गया और विद्याचरण शुक्ल को यह पद सौंप दिया गया। लेकिन बाद में उन्हीं इन्दिरा गान्धी की सरकार में मास्को में राजदूत के तौर पर गुजराल ने १९८० में सोवियत संघ के द्वारा अफ़गानिस्तान में हस्तक्षेप का विरोध किया। उस समय भारतीय विदेश नीति में यह एक बहुत बड़ा बदलाव था। उस घटना के बाद ही आगे चलकर भारत ने सोवियत संघ द्वारा हंगरी और चेकोस्लोवाकिया में राजनीतिक हस्तक्षेप का विरोध किया।
व्यक्तिगत जीवन
गुजराल के पिता का नाम अवतार नारायण और माता का पुष्पा गुजराल था। उनकी शिक्षा दीक्षा डी०ए०वी० कालेज, हैली कॉलेज ऑफ कामर्स और फॉर्मन क्रिश्चियन कॉलेज लाहौर में हुई। अपनी युवावस्था में वे भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में शरीक हुए और १९४२ के "अंग्रेजो भारत छोड़ो" अभियान में जेल भी गये।[1]
हिन्दी, उर्दू और पंजाबी भाषा में निपुण होने के अलावा वे कई अन्य भाषाओं के जानकार भी थे और शेरो-शायरी में काफी दिलचस्पी रखते थे।[2] गुजराल की पत्नी शीला गुजराल का निधन ११ जुलाई २०११ को हुआ। उनके दो बेटों में से एक नरेश गुजराल राज्य सभा सदस्य है और दूसरा बेटा विशाल है। गुजराल के छोटे भाई सतीश गुजराल एक विख्यात चित्रकार तथा वास्तुकार भी है।
३० नवम्बर २०१२ को गुड़गाँव के मेदान्ता अस्पताल में गुजराल का निधन हो गया।[4]
लम्बी बीमारी के बाद निधन
गुजराल लम्बे समय से डायलिसिस पर चल रहे थे। १९ नवम्बर २०१२ को छाती में संक्रमण के बाद उन्हें हरियाणा स्थित गुड़गाँव के एक प्राइवेट अस्पताल में भर्ती कराया गया। जहाँ इलाज के दौरान ही उनकी हालत गिरती चली गयी। २७ नवम्बर २०१२ को वे अचेतावस्था में चले गये। काफी कोशिशों के बाद भी उन्हें बचाया नहीं जा सका। आखिरकार ३० नवम्बर २०१२ को उनकी आत्मा ने उनका शरीर छोड़ दिया। उनके निधन का समाचार मिलते ही लोक सभा व राज्य सभा स्थगित हो गयी और इस अवसर पर राष्ट्रीय शोक की घोषणा के साथ भारत के राष्ट्रपति एवं प्रधान मंत्री ने शोक व्यक्त किया।
जनता के दर्शनार्थ उनका पार्थिव शरीर उनके सरकारी आवास ५ जनपथ नई दिल्ली में रक्खा गया। १ दिसम्बर २०१२ को दोपहर बाद ३ बजे उनकी अंत्येष्टि शान्ति वन और विजय घाट के मध्यवर्ती क्षेत्र "स्मृति स्थल" पर पूरे राजकीय सम्मान के साथ की गयी।[5]
गुजराल की अन्त्येष्टि में भारत के राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी व अरुण जेटली सहित अनेक हस्तियाँ शामिल हुईं।
गुजराल की आत्मकथा
इन्द्र कुमार गुजराल ने अपनी आत्मकथा अंग्रेजी भाषा में लिखी थी जो उनके जीवित रहते प्रकाशित भी हुई। उसका विवरण इस प्रकार है:
"मैटर्स ऑफ डिस्क्रिशन: एन ऑटोबायोग्राफी"- आई०के०गुजराल प्रकाशक: हे हाउस, इण्डिया, (वितरक): पेंगुइन बुक्स इण्डिया। ISBN 978-93-8048-080-0[6]
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
श्रेणी:२०१२ में निधन
श्रेणी:भारत के प्रधानमंत्री
श्रेणी:1919 में जन्मे लोग | इन्दर कुमार गुजराल भारत के प्रधानमंत्री कब बने? | अप्रैल १९९७ | 274 | hindi |
9706009bf | किसन बाबूराव हजारे (जन्म: १५ जून १९३७) एक भारतीय समाजसेवी हैं। अधिकांश लोग उन्हें अन्ना हजारे के नाम से जानते हैं। सन् १९९२ में भारत सरकार द्वारा उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया गया था। सूचना के अधिकार के लिये कार्य करने वालों में वे प्रमुख थे। जन लोकपाल विधेयक को पारित कराने के लिये अन्ना ने १६ अगस्त २०११ से आमरण अनशन आरम्भ किया था।
आरंभिक जीवन
अन्ना हजारे का जन्म १५ जून १९३७ को महाराष्ट्र के अहमदनगर के रालेगन सिद्धि गाँव के एक मराठा किसान परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम बाबूराव हजारे और माँ का नाम लक्ष्मीबाई हजारे था।[1] उनका बचपन बहुत गरीबी में गुजरा। पिता मजदूर थे तथा दादा सेना में थे। दादा की तैनाती भिंगनगर में थी। वैसे अन्ना के पूर्वंजों का गाँव अहमद नगर जिले में ही स्थित रालेगन सिद्धि में था। दादा की मृत्यु के सात वर्षों बाद अन्ना का परिवार रालेगन आ गया। अन्ना के छह भाई हैं। परिवार में तंगी का आलम देखकर अन्ना की बुआ उन्हें मुम्बई ले गईं। वहाँ उन्होंने सातवीं तक पढ़ाई की। परिवार पर कष्टों का बोझ देखकर वे दादर स्टेशन के बाहर एक फूल बेचनेवाले की दुकान में ४० रुपये के वेतन पर काम करने लगे। इसके बाद उन्होंने फूलों की अपनी दुकान खोल ली और अपने दो भाइयों को भी रालेगन से बुला लिया।
व्यवसाय
वर्ष १९६२ में भारत-चीन युद्ध के बाद सरकार की युवाओं से सेना में शामिल होने की अपील पर अन्ना १९६३ में सेना की मराठा रेजीमेंट में ड्राइवर के रूप में भर्ती हो गए। अन्ना की पहली नियुक्ति पंजाब में हुई। १९६५ में भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान अन्ना हजारे खेमकरण सीमा पर नियुक्त थे। १२ नवम्बर १९६५ को चौकी पर पाकिस्तानी हवाई बमबारी में वहाँ तैनात सारे सैनिक मारे गए। इस घटना ने अन्ना के जीवन को सदा के लिए बदल दिया। इसके बाद उन्होंने सेना में १३ और वर्षों तक काम किया। उनकी तैनाती मुंबई और कश्मीर में भी हुई। १९७५ में जम्मू में तैनाती के दौरान सेना में सेवा के १५ वर्ष पूरे होने पर उन्होंने स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति ले ली। वे पास के गाँव रालेगन सिद्धि में रहने लगे और इसी गाँव को उन्होंने अपनी सामाजिक कर्मस्थली बनाकर समाज सेवा में जुट गए।
सामाजिक कार्य
१९६५ के युद्ध में मौत से साक्षात्कार के बाद नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उन्होंने स्वामी विवेकानंद की एक पुस्तक 'कॉल टु दि यूथ फॉर नेशन' खरीदी। इसे पढ़कर उनके मन में भी अपना जीवन समाज को समर्पित करने की इच्छा बलवती हो गई। उन्होंने महात्मा गांधी और विनोबा भावे की पुस्तकें भी पढ़ीं। १९७० में उन्होंने आजीवन अविवाहित रहकर स्वयं को सामाजिक कार्यों के लिए पूर्णतः समर्पित कर देने का संकल्प कर लिया।
रालेगन सिद्धि
मुम्बई पदस्थापन के दौरान वह अपने गाँव रालेगन आते-जाते रहे। वे वहाँ चट्टान पर बैठकर गाँव को सुधारने की बात सोचा करते थे। १९७८ में स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति लेकर रालेगन आकर उन्होंने अपना सामाजिक कार्य प्रारंभ कर दिया। इस गाँव में बिजली और पानी की ज़बरदस्त कमी थी। अन्ना ने गाँव वालों को नहर बनाने और गड्ढे खोदकर बारिश का पानी इकट्ठा करने के लिए प्रेरित किया और स्वयं भी इसमें योगदान दिया। अन्ना के कहने पर गाँव में जगह-जगह पेड़ लगाए गए। गाँव में सौर ऊर्जा और गोबर गैस के जरिए बिजली की सप्लाई की गई। उन्होंने अपनी ज़मीन बच्चों के हॉस्टल के लिए दान कर दी और अपनी पेंशन का सारा पैसा गाँव के विकास के लिए समर्पित कर दिया। वे गाँव के मंदिर में रहते हैं और हॉस्टल में रहने वाले बच्चों के लिए बनने वाला खाना ही खाते हैं। आज गाँव का हर शख्स आत्मनिर्भर है। आस-पड़ोस के गाँवों के लिए भी यहाँ से चारा, दूध आदि जाता है। यह गाँव आज शांति, सौहार्द्र एवं भाईचारे की मिसाल है।
महाराष्ट्र भ्रष्टाचार विरोधी जन आंदोलन १९९१
१९९१ में अन्ना हजारे ने महाराष्ट्र में शिवसेना-भाजपा की सरकार के कुछ 'भ्रष्ट' मंत्रियों को हटाए जाने की माँग को लेकर भूख हड़ताल की। ये मंत्री थे- शशिकांत सुतर, महादेव शिवांकर और बबन घोलाप। अन्ना ने उन पर आय से अधिक संपत्ति रखने का आरोप लगाया था। सरकार ने उन्हें मनाने की बहुत कोशिश की, लेकिन अंतत: उन्हें दागी मंत्रियों शशिकांत सुतर और महादेव शिवांकर को हटाना ही पड़ा। घोलाप ने अन्ना के खिलाफ़ मानहानि का मुकदमा दायर दिया। अन्ना अपने आरोप के समर्थन में न्यायालय में कोई साक्ष्य पेश नहीं कर पाए और उन्हें तीन महीने की जेल हो गई। तत्कालीन मुख्यमंत्री मनोहर जोशी ने उन्हें एक दिन की हिरासत के बाद छोड़ दिया। एक जाँच आयोग ने शशिकांत सुतर और महादेव शिवांकर को निर्दोष बताया। लेकिन अन्ना हजारे ने कई शिवसेना और भाजपा नेताओं पर भी भ्रष्टाचार में लिप्त होने के आरोप लगाए।
सूचना का अधिकार आंदोलन १९९७-२००५
१९९७ में अन्ना हजारे ने सूचना का अधिकार अधिनियम के समर्थन में मुंबई के आजाद मैदान से अपना अभियान शुरु किया। ९ अगस्त २००३ को मुंबई के आजाद मैदान में ही अन्ना हजारे आमरण अनशन पर बैठ गए। १२ दिन तक चले आमरण अनशन के दौरान अन्ना हजारे और सूचना का अधिकार आंदोलन को देशव्यापी समर्थन मिला। आख़िरकार २००३ में ही महाराष्ट्र सरकार को इस अधिनियम के एक मज़बूत और कड़े विधेयक को पारित करना पड़ा। बाद में इसी आंदोलन ने राष्ट्रीय आंदोलन का रूप ले लिया। इसके परिणामस्वरूप १२ अक्टूबर २००५ को भारतीय संसद ने भी सूचना का अधिकार अधिनियम पारित किया।
अगस्त २००६, में सूचना का अधिकार अधिनियम में संशोधन प्रस्ताव के खिलाफ अन्ना ने ११ दिन तक आमरण अनशन किया, जिसे देशभर में समर्थन मिला। इसके परिणामस्वरूप, सरकार ने संशोधन का इरादा बदल दिया।
महाराष्ट्र भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन २००३
२००३ में अन्ना ने कांग्रेस और एनसीपी सरकार के चार मंत्रियों; सुरेश दादा जैन, नवाब मलिक, विजय कुमार गावित और पद्मसिंह पाटिल को भ्रष्ट बताकर उनके ख़िलाफ़ मुहिम छेड़ दी और भूख हड़ताल पर बैठ गए। तत्कालीन महाराष्ट्र सरकार ने इसके बाद एक जाँच आयोग का गठन किया। नवाब मलिक ने भी अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। आयोग ने जब सुरेश जैन के ख़िलाफ़ आरोप तय किए तो उन्हें भी त्यागपत्र देना पड़ा।[2]
लोकपाल विधेयक आंदोलन
देखें मुख्य लेख जन लोकपाल विधेयक आंदोलन
जन लोकपाल विधेयक (नागरिक लोकपाल विधेयक) के निर्माण के लिए जारी यह आंदोलन अपने अखिल भारतीय स्वरूप में ५ अप्रैल २०११ को समाजसेवी अन्ना हजारे एवं उनके साथियों के जंतर-मंतर पर शुरु किए गए अनशन के साथ आरंभ हुआ, जिनमें मैग्सेसे पुरस्कार विजेता अरविंद केजरीवाल, भारत की पहली महिला प्रशासनिक अधिकारी किरण बेदी, प्रसिद्ध लोकधर्मी वकील प्रशांत भूषण, आदि शामिल थे। संचार साधनों के प्रभाव के कारण इस अनशन का प्रभाव समूचे भारत में फैल गया और इसके समर्थन में लोग सड़कों पर भी उतरने लगे। इन्होंने भारत सरकार से एक मजबूत भ्रष्टाचार विरोधी लोकपाल विधेयक बनाने की माँग की थी और अपनी माँग के अनुरूप सरकार को लोकपाल बिल का एक मसौदा भी दिया था। किंतु मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली तत्कालीन सरकार ने इसके प्रति नकारात्मक रवैया दिखाया और इसकी उपेक्षा की। इसके परिणामस्वरूप शुरु हुए अनशन के प्रति भी उनका रवैया उपेक्षा पूर्ण ही रहा। लेकिन इस अनशन के आंदोलन का रूप लेने पर भारत सरकार ने आनन-फानन में एक समिति बनाकर संभावित खतरे को टाला और १६ अगस्त तक संसद में लोकपाल विधेयक पारित कराने की बात स्वीकार कर ली। अगस्त से शुरु हुए मानसून सत्र में सरकार ने जो विधेयक प्रस्तुत किया वह कमजोर और जन लोकपाल के सर्वथा विपरीत था। अन्ना हजारे ने इसके खिलाफ अपने पूर्व घोषित तिथि १६ अगस्त से पुनः अनशन पर जाने की बात दुहराई। १६ अगस्त को सुबह साढ़े सात बजे जब वे अनशन पर जाने के लिए तैयारी कर रहे थे, तब दिल्ली पुलिस ने उन्हें घर से ही गिरफ्तार कर लिया। उनके टीम के अन्य लोग भी गिरफ्तार कर लिए गए। इस खबर ने आम जनता को उद्वेलित कर दिया और वह सड़कों पर उतरकर सरकार के इस कदम का अहिंसात्मक प्रतिरोध करने लगी। दिल्ली पुलिस ने अन्ना को मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया। अन्ना ने रिहा किए जाने पर दिल्ली से बाहर रालेगाँव चले जाने या ३ दिन तक अनशन करने की बात अस्वीकार कर दी। उन्हें ७ दिनों के न्यायिक हिरासत में तिहाड़ जेल भेज दिया गया। शाम तक देशव्यापी प्रदर्शनों की खबर ने सरकार को अपना कदम वापस खींचने पर मजबूर कर दिया। दिल्ली पुलिस ने अन्ना को सशर्त रिहा करने का आदेश जारी किया। मगर अन्ना अनशन जारी रखने पर दृढ़ थे। बिना किसी शर्त के अनशन करने की अनुमति तक उन्होंने रिहा होने से इनकार कर दिया। १७ अगस्त तक देश में अन्ना के समर्थन में प्रदर्शन होता रहा। दिल्ली में तिहाड़ जेल के बाहर हजारों लोग डेरा डाले रहे। १७ अगस्त की शाम तक दिल्ली पुलिस रामलीला मैदान में ७ दिनों तक अनशन करने की इजाजत देने को तैयार हुई। मगर अन्ना ने ३० दिनों से कम अनशन करने की अनुमति लेने से मना कर दिया। उन्होंने जेल में ही अपना अनशन जारी रखा। अन्ना को रामलीला मैदान में १५ दिन कि अनुमति मिली और १९ अगस्त से अन्ना राम लीला मैदान में जन लोकपाल बिल के लिये अनशन जारी रखने पर दृढ़ थे। २४ अगस्त तक तीन मुद्दों पर सरकार से सहमति नहीं बन पायी। अनशन के 10 दिन हो जाने पर भी सरकार अन्ना का अनशन समापत नहीं करवा पाई | हजारे ने दस दिन से जारी अपने अनशन को समाप्त करने के लिए सार्वजनिक तौर पर तीन शर्तों का ऐलान किया। उनका कहना था कि तमाम सरकारी कर्मचारियों को लोकपाल के दायरे में लाया जाए, तमाम सरकारी कार्यालयों में एक नागरिक चार्टर लगाया जाए और सभी राज्यों में लोकायुक्त हो। 74 वर्षीय हजारे ने कहा कि अगर जन लोकपाल विधेयक पर संसद चर्चा करती है और इन तीन शर्तों पर सदन के भीतर सहमति बन जाती है तो वह अपना अनशन समाप्त कर देंगे।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने दोनो पक्षों के बीच जारी गतिरोध को तोड़ने की दिशा में पहली ठोस पहल करते हुए लोकसभा में खुली पेशकश की कि संसद अरूणा राय और डॉ॰ जयप्रकाश नारायण सहित अन्य लोगों द्वारा पेश विधेयकों के साथ जन लोकपाल विधेयक पर भी विचार करेगी। उसके बाद विचार विमर्श का ब्यौरा स्थायी समिति को भेजा जाएगा।
25 मई २0१२ को अन्ना हजारे ने पुनः जंतर मंतर पर जन लोकपाल विधेयक और विसल ब्लोअर विधेयक को लेकर एक दिन का सांकेतिक अनशन किया।
व्यक्तित्व और विचारधारा
गांधी की विरासत उनकी थाती है। कद-काठी में वह साधारण ही हैं। सिर पर गांधी टोपी और बदन पर खादी है। आँखों पर मोटा चश्मा है, लेकिन उनको दूर तक दिखता है। इरादे फौलादी और अटल हैं।
महात्मा गांधी के बाद अन्ना हजारे ने ही भूख हड़ताल और आमरण अनशन को सबसे ज्यादा बार बतौर हथियार इस्तेमाल किया है। इसके जरिए उन्होंने भ्रष्ट प्रशासन को पद छोड़ने एवं सरकारों को जनहितकारी कानून बनाने पर मजबूर किया है। अन्ना हजारे को आधुनिक युग का गान्धी भी कहा जा सकता है। अन्ना हजारे हम सभी के लिये आदर्श है।
अन्ना हजारे गांधीजी के ग्राम स्वराज्य को भारत के गाँवों की समृद्धि का माध्यम मानते हैं। उनका मानना है कि 'बलशाली भारत के लिए गाँवों को अपने पैरों पर खड़ा करना होगा।' उनके अनुसार विकास का लाभ समान रूप से वितरित न हो पाने का कारण गाँवों को केन्द्र में न रखना रहा।
व्यक्ति निर्माण से ग्राम निर्माण और तब स्वाभाविक ही देश निर्माण के गांधीजी के मन्त्र को उन्होंने हकीकत में उतार कर दिखाया और एक गाँव से आरम्भ उनका यह अभियान आज 85 गाँवों तक सफलतापूर्वक जारी है।
व्यक्ति निर्माण के लिए मूल मन्त्र देते हुए उन्होंने युवाओं में उत्तम चरित्र, शुद्ध आचार-विचार, निष्कलंक जीवन व त्याग की भावना विकसित करने व निर्भयता को आत्मसात कर आम आदमी की सेवा को आदर्श के रूप में स्वीकार करने का आह्वान किया है।
सम्मान
पद्मभूषण पुरस्कार (१९९२)
पद्मश्री पुरस्कार (१९९०)
इंदिरा प्रियदर्शिनी वृक्षमित्र पुरस्कार (१९८६)
महाराष्ट्र सरकार का कृषि भूषण पुरस्कार (१९८९)
यंग इंडिया पुरस्कार
मैन ऑफ़ द ईयर अवार्ड (१९८८)
पॉल मित्तल नेशनल अवार्ड (२०००)
ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल इंटेग्रीटि अवार्ड (२००३)
विवेकानंद सेवा पुरुस्कार (१९९६)
शिरोमणि अवार्ड (१९९७)
महावीर पुरस्कार (१९९७)
दिवालीबेन मेहता अवार्ड (१९९९)
केयर इन्टरनेशनल (१९९८)
बासवश्री प्रशस्ति (२०००)
GIANTS INTERNATIONAL AWARD (२०००)
नेशनलइंटरग्रेसन अवार्ड (१९९९)
विश्व-वात्सल्य एवं संतबल पुरस्कार
जनसेवा अवार्ड (१९९९)
रोटरी इन्टरनेशनल मनव सेवा पुरस्कार (१९९८)
विश्व बैंक का 'जित गिल स्मारक पुरस्कार' (२००८)
इन्हें भी देखें
जन लोकपाल विधेयक आंदोलन
जन लोकपाल विधेयक
इंडिया अगेंस्ट करप्शन
भारत में जन आन्दोलन
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
श्रेणी:भारतीय सामाजिक कार्यकर्ता
श्रेणी:१९९२ पद्म भूषण
श्रेणी:1937 में जन्मे लोग
श्रेणी:महाराष्ट्र के लोग
श्रेणी:जीवित लोग | अन्ना हजारे का असली नाम क्या है? | किसन बाबूराव हजारे | 0 | hindi |
5783a24a4 | नानक (पंजाबी:ਨਾਨਕ) (15 अप्रैल 1469 – 22 सितंबर 1539) सिखों के प्रथम (आदि गुरु) हैं।[1] इनके अनुयायी इन्हें नानक, नानक देव जी, बाबा नानक और नानकशाह नामों से संबोधित करते हैं। सामवेदी ब्राह्मण गुरु नानक मुसलमानों के अत्याचार के विरुद्ध सिक्खों को तैयार किया था। नानक अपने व्यक्तित्व में दार्शनिक, योगी, गृहस्थ, धर्मसुधारक, समाजसुधारक, कवि, देशभक्त और विश्वबंधु - सभी के गुण समेटे हुए थे। कई सारे लोगो का मानना है कि बाबा नानक एक वेद पाठी ब्राह्मण थे । और उनके सामवेद शैली के गायक थे गुरु वाणी सामवेद शैली पर ही है गुरू नानक देव जी ने सनातन की रक्षा के लिए सर्वस्व न्योछावर कर दिया था ।
परिचय
ननकाना साहिब
इनका जन्म रावी नदी के किनारे स्थित तलवंडी नामक गाँव में कार्तिकी पूर्णिमा को एक खत्रीकुल में हुआ था। कुछ विद्वान इनकी जन्मतिथि 15 अप्रैल, 1469 मानते हैं। किंतु प्रचलित तिथि कार्तिक पूर्णिमा ही है, जो अक्टूबर-नवंबर में दीवाली के १५ दिन बाद पड़ती है।
इनके पिता का नाम कल्याणचंद या मेहता कालू जी था, माता का नाम तृप्ता देवी था। तलवंडी का नाम आगे चलकर नानक के नाम पर ननकाना पड़ गया। इनकी बहन का नाम नानकी था।
बचपन से इनमें प्रखर बुद्धि के लक्षण दिखाई देने लगे थे। लड़कपन ही से ये सांसारिक विषयों से उदासीन रहा करते थे। पढ़ने लिखने में इनका मन नहीं लगा। ७-८ साल की उम्र में स्कूल छूट गया क्योंकि भगवत्प्रापति के संबंध में इनके प्रश्नों के आगे अध्यापक ने हार मान ली तथा वे इन्हें ससम्मान घर छोड़ने आ गए। तत्पश्चात् सारा समय वे आध्यात्मिक चिंतन और सत्संग में व्यतीत करने लगे। बचपन के समय में कई चमत्कारिक घटनाएं घटी जिन्हें देखकर गाँव के लोग इन्हें दिव्य व्यक्तित्व मानने लगे। बचपन के समय से ही इनमें श्रद्धा रखने वालों में इनकी बहन नानकी तथा गाँव के शासक राय बुलार प्रमुख थे।
इनका विवाह बालपन मे सोलह वर्ष की आयु में गुरदासपुर जिले के अंतर्गत लाखौकी नामक स्थान के रहनेवाले मूला की कन्या सुलक्खनी से हुआ था। ३२ वर्ष की अवस्था में इनके प्रथम पुत्र श्रीचंद का जन्म हुआ। चार वर्ष पश्चात् दूसरे पुत्र लखमीदास का जन्म हुआ। दोनों लड़कों के जन्म के उपरांत १५०७ में नानक अपने परिवार का भार अपने श्वसुर पर छोड़कर मरदाना, लहना, बाला और रामदास इन चार साथियों को लेकर तीर्थयात्रा के लिये निकल पडे़।
उदासियाँ
ये चारों ओर घूमकर उपदेश करने लगे। १५२१ तक इन्होंने तीन यात्राचक्र पूरे किए, जिनमें भारत, अफगानिस्तान, फारस और अरब के मुख्य मुख्य स्थानों का भ्रमण किया। इन यात्राओं को पंजाबी में "उदासियाँ" कहा जाता है।
दर्शन
नानक सर्वेश्वरवादी थे। मूर्तिपूजा उन्होंने सनातन मत की मूर्तिपूजा की शैली के विपरीत एक परमात्मा की उपासना का एक अलग मार्ग मानवता को दिया। उन्होंने हिंदू धर्म मे फैली कुरीतिओं का सदैव विरोध किया । उनके दर्शन में सूफीयोंं जैसी थी । साथ ही उन्होंने तत्कालीन राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक स्थितियों पर भी नज़र डाली है। संत साहित्य में नानक उन संतों की श्रेणी में हैं जिन्होंने नारी को बड़प्पन दिया है।
इनके उपदेश का सार यही होता था कि ईश्वर एक है उसकी उपासना हिंदू मुसलमान दोनों के लिये हैं। मूर्तिपुजा, बहुदेवोपासना को ये अनावश्यक कहते थे। हिंदु और मुसलमान दोनों पर इनके मत का प्रभाव पड़ता था।
मृत्यु
जीवन के अंतिम दिनों में इनकी ख्याति बहुत बढ़ गई और इनके विचारों में भी परिवर्तन हुआ। स्वयं ये अपने परिवारवर्ग के साथ रहने लगे और मानवता कि सेवा में समय व्यतीत करने लगे। उन्होंने करतारपुर नामक एक नगर बसाया, जो कि अब पाकिस्तान में है और एक बड़ी धर्मशाला उसमें बनवाई। इसी स्थान पर आश्वन कृष्ण १०, संवत् १५९७ (22 सितंबर 1539 ईस्वी) को इनका परलोकवास हुआ।
मृत्यु से पहले उन्होंने अपने शिष्य भाई लहना को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया जो बाद में गुरु अंगद देव के नाम से जाने गए।
कविताएं
नानक अच्छे सूफी कवि भी थे। उनके भावुक और कोमल हृदय ने प्रकृति से एकात्म होकर जो अभिव्यक्ति की है, वह निराली है। उनकी भाषा "बहता नीर" थी जिसमें फारसी, मुल्तानी, पंजाबी, सिंधी, खड़ी बोली, अरबी के शब्द समा गए थे।
रचनाएँ
गुरु ग्रन्थ साहिब में सम्मिलित 974 शब्द (19 रागों में), गुरबाणी में शामिल है- जपजी, Sidh Gohst, सोहिला, दखनी ओंकार, आसा दी वार, Patti, बारह माह
अन्य गुरु
गुरु नानक देव
गुरु अंगद देव
गुरु अमर दास
गुरु राम दास
गुरु अर्जुन देव
गुरु हरगोबिन्द
गुरु हर राय
गुरु हर किशन
गुरु तेग बहादुर
गुरु गोबिंद सिंह
गुरु ग्रन्थ साहिब
इनके जीवन से जुड़े प्रमुख गुरुद्वारा साहिब
1. गुरुद्वारा कंध साहिब- बटाला (गुरुदासपुर)
गुरु नानक का यहाँ बीबी सुलक्षणा से 18 वर्ष की आयु में संवत् 1544 की 24वीं जेठ को विवाह हुआ था। यहाँ गुरु नानक की विवाह वर्षगाँठ पर प्रतिवर्ष उत्सव का आयोजन होता है।
2. गुरुद्वारा हाट साहिब- सुल्तानपुर लोधी (कपूरथला)
गुरुनानक ने बहनोई जैराम के माध्यम से सुल्तानपुर के नवाब के यहाँ शाही भंडार के देखरेख की नौकरी प्रारंभ की। वे यहाँ पर मोदी बना दिए गए। नवाब युवा नानक से काफी प्रभावित थे। यहीं से नानक को 'तेरा' शब्द के माध्यम से अपनी मंजिल का आभास हुआ था।
3. गुरुद्वारा गुरु का बाग- सुल्तानपुर लोधी (कपूरथला)
यह गुरु नानकदेवजी का घर था, जहाँ उनके दो बेटों बाबा श्रीचंद और बाबा लक्ष्मीदास का जन्म हुआ था।
4. गुरुद्वारा कोठी साहिब- सुल्तानपुर लोधी (कपूरथला)
नवाब दौलतखान लोधी ने हिसाब-किताब में ग़ड़बड़ी की आशंका में नानकदेवजी को जेल भिजवा दिया। लेकिन जब नवाब को अपनी गलती का पता चला तो उन्होंने नानकदेवजी को छोड़ कर माफी ही नहीं माँगी, बल्कि प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव भी रखा, लेकिन गुरु नानक ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया।
5.गुरुद्वारा बेर साहिब- सुल्तानपुर लोधी (कपूरथला)
जब एक बार गुरु नानक अपने सखा मर्दाना के साथ वैन नदी के किनारे बैठे थे तो अचानक उन्होंने नदी में डुबकी लगा दी और तीन दिनों तक लापता हो गए, जहाँ पर कि उन्होंने ईश्वर से साक्षात्कार किया। सभी लोग उन्हें डूबा हुआ समझ रहे थे, लेकिन वे वापस लौटे तो उन्होंने कहा- एक ओंकार सतिनाम। गुरु नानक ने वहाँ एक बेर का बीज बोया, जो आज बहुत बड़ा वृक्ष बन चुका है।
6. गुरुद्वारा अचल साहिब- गुरुदासपुर
अपनी यात्राओं के दौरान नानकदेव यहाँ रुके और नाथपंथी योगियों के प्रमुख योगी भांगर नाथ के साथ उनका धार्मिक वाद-विवाद यहाँ पर हुआ। योगी सभी प्रकार से परास्त होने पर जादुई प्रदर्शन करने लगे। नानकदेवजी ने उन्हें ईश्वर तक प्रेम के माध्यम से ही पहुँचा जा सकता है, ऐसा बताया।
7. गुरुद्वारा डेरा बाबा नानक- गुरुदासपुर
जीवनभर धार्मिक यात्राओं के माध्यम से बहुत से लोगों को सिख धर्म का अनुयायी बनाने के बाद नानकदेवजी रावी नदी के तट पर स्थित अपने फार्म पर अपना डेरा जमाया और 70 वर्ष की साधना के पश्चात सन् 1539 ई. में परम ज्योति में विलीन हुए।
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श्रेणी:भक्तिकाल के कवि
श्रेणी:सिख धर्म का इतिहास
श्रेणी:गुरु नानक देव
श्रेणी:1469 में जन्में लोग
श्रेणी:१५३९ में निधन | गुरु नानक का जन्म कब हुआ था? | 15 अप्रैल 1469 | 20 | hindi |
e887bac56 | हिण्डौन राजस्थान राज्य का ऐतिहासिक व पौराणिक शहर है। यह शहर अरावली पहाड़ी के समीप स्थित है। प्राचीनकाल में हिण्डौन शहर मत्स्य के अंतर्गत आता था। मत्स्य शासन के दौरान बनाए गई प्राचीन इमारतें आज भी मौजूद हैं। भागवतपुराण के अनुसार हिण्डौन, भक्त प्रहलाद व हिरण्यकश्यप की कर्म भूमि रही है। महाभारतकाल की राक्षसी हिडिम्बा भी इसी शहर में रहा करती थी। हिण्डौन, ऐतिहासिक मंदिरों व इमारतों का गढ़ माना जाता है, जो पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता है।
यह एक प्रमुख औद्योगिक नगर है। यह नगर राजस्थान के पूर्व में हिण्डौन उपखण्ड में बसा हुआ है। प्रदेश की राजधानी जयपुर से 156 किलोमीटर पूर्व स्थित है। यह नगर देश में लाल पत्थरों की नगरी के नाम से भी जाना जाता है। ऐतिहासिक और पौराणिक मान्यताओं के बहुत मंदिर यहाँ स्थित है। यह शहर राजस्थान के करौली-धौलपुर लोकसभा क्षेत्र में आता है एवं इस शहर का विधान सभा क्षेत्र हिण्डौन विधानसभा क्षेत्र(राजस्थान) लगता है। यहाँ का नक्कश की देवी - गोमती धाम का मंदिर तथा महावीर जी का मंदिर पूरे राजस्थान में प्रसिद्ध है ! हिण्डौन शहर अरावली पर्वत श़ृंखला की गोद में बसा हुआ क्षेत्र है !यहाँ की आबादी लगभग 1.35 लाख है। अमृत योजना में 151 करोड़ राजस्थान सरकार द्वारा स्वीक्रत किये गये हैं।[1]
इतिहास
भागवत पुराण के अनुसार
प्राचीन समय में शहर मत्स्य साम्राज्य के अधीन आया, जिस पर मीनास पर शासन किया गया था और मीना की एक बड़ी आबादी निकटवर्ती गांवों में देखी जा सकती है। मत्स्य साम्राज्य के शासनकाल के दौरान बनाए गए शहर में अभी भी कई प्राचीन संरचनाएं मौजूद हैं। परंपरागत रूप से कुछ पौराणिक कहानियों में यह शहर हिरायानकशीपू और प्रहलाद की पौराणिक कथाओं के साथ भागवत पुराण में वर्णित है।
स्थानीय परंपरा हमें बताती है कि हिण्डौन (हिंडन) प्रहलाद के पिता हिरण्यकश्यपु की राजधानी थी। इस तथ्य के कारण क्षेत्र हिराणकस की खेर के रूप में जाना जाता है। स्थानीय भाषा में खेर का मतलब है "राजधानी" यह भी हिराणकस का मंदिर, प्रहलाद कुंड, न्रीसिंह मंदिर, हिरनाकस का कुआ और धोबी पाखड़ जैसे स्मारकों के अस्तित्व के द्वारा पुष्टि की गई है। करीब 40 साल पहले हिरनाकस के मंदिर में हिराणकस का एक मूर्तिकार था, लेकिन अब इसे राम के स्थान पर ले लिया गया है और मंदिर रघुनाथ मंदिर के रूप में प्रसिद्ध हो गया है। हिरनाकस का कुआ शहर के केंद्र में स्थित है और भोरान मंदिर के आसपास के खंडहर हैं। करौली इलाके में लंगा भरण (लंगुर) बहुत लोकप्रिय है। माना जाता है कि धोबी पछाड़ एक ऐसा स्थान है जहां महल से प्रहलाद को फेंक दिया गया था। वहाँ भी एक जगह है होलिका दाह कहा जाता है जहां होलिका को प्रहलाद को जलाने की कोशिश की लेकिन वह खुद आग में नष्ट हो गया था
हिण्डौन का नाम प्रहलाद के पिता प्राचीन हिंदू राजा हिरण्यकश्यपु के नाम पर रखा गया है। हिरण्यकश्यप को मारने वाले हिंदू भगवान विष्णु के अवतार नारसिंह के लिए मंदिर, हिरण्यकश्यपु और प्रहलाद के आसपास के पौराणिक कथाओं के साथ शहर के संबंध को दर्शाता है।
हिण्डौन और महाभारत
हिण्डौन भी महाभारत के युग के साथ जुड़ा हुआ है। यह माना जाता है कि शहर का नाम हिडिंब से लिया गया है, हिडि़ंब की बहन, एक राक्षस। कौरवों ने पांडव को मारने की कोशिश की थी, जब वे लक्ष्ग्रह में रह रहे थे लेकिन पांडवों ने भागने में कामयाब होकर भाग लिया और वे तत्कालीन मतास साम्राज्य में चले गए, वर्तमान में अलवर क्षेत्र के रूप में जाना जाता है। भीमा, पांडव ब्रदर्स में से एक, जब वह हिरण्य करन वान या वन में भटक रहा था तो हिडिंब से मिले। हिडिम्बा भीम के साथ प्यार में गिर गई और उससे शादी करना चाहता था। हिडिंब के भाई हिडि़फ, भीम से लड़े एक राक्षस, लेकिन वह भीमा द्वारा मारे गए। भीमा और हिडिम्बा का विवाह हुआ और उनका एक बेटा घाटोकचा था, जो एक महान योद्धा था और महाभारत के युद्ध के दौरान एक वीर मृत्यु की निधन हो गया।
पुरातन दुर्ग और भवन
वारादरी देवी का दुर्ग
हिण्डौन में इस बात के निश्चित प्रमाण है कि राणा सांगा तथा रणथम्भौर के शासक हम्मीर के समय में हिण्डौन भी एक राजा की राजधानी थी। यहाँ भी एक किला था जिसे गढ के नाम से जाना जाता था। इसमें एक कचहरी थी, एक महल था, उसके चारों ओर मिट्टी की ऊंची दीवार थी और उसके चारों ओर गहरी खाई। सब कुछ खत्म हो गया और अब किले के स्थान पर मोहन नगर बस गया जो कि हिण्डौन की सबसे बड़ी काँलोनी है। मोहन नगर को ही पहले मोहनगढ़ व वारादरी देवी किला के नाम से जाना जाता था। कचहरी आज भी मौजूद है।
हिण्डौन दुर्ग (पुरानी कचहरी)
हिण्डौन शहर के पुरानी कचहरी परिसर में स्थित 14 वीं सदी से पूर्व का ऐतिहासिक किला है। यह किला पुराने हिण्डौन के शाहगंज के पास एक ऊचे टीले पर स्थित है, जिसे पुरानी कचहरी के नाम से जाना जाता है। इसमे एक सुंदर महल और प्राचीन कचहरी भी है। इस समय इसकी स्थिति अतिदयनीय है, अब यहाँ केवल महल और कचहरी शेष बची है जोकि धीरे धीरे खण्डर में परिवर्तित होते जा रहे हैं।
मटिया महल
मटिया महल एक बहुत प्राचीन महल है। यह बहुत मनोहर महल है, लेकिन इस इस समय इसकि स्थिति बहुत खराव है। यह ध्यान केंद्रित करने वाली इमारत है, यह पर्यटकों के लिए अच्छा आकर्षण बन सकती है, महल एक विशेष बात यह है कि यह लाल सेंड स्टोन का बना हुआ है। इसमें सीमेंट पेस्ट का उपयोग नहीं करते हुए, विशेष प्रकार की मिट्टी और लाल पत्थर का उपयोग किया है
स्थान
हिण्डौन ऐतिहासिक शहर है। यह नगर परिषद , करौली राजस्थान के जिले की सूची जिला [ उत्तरी भारत में भारत राज्य का राजस्थान के अरवल्ली रेंज के आसपास स्थित है और दिल्ली और मुंबई के बीच की मुख्य रेलवे ट्रैक पर है। यह एक उप-विभागीय मुख्यालय है इसकी जनसंख्या लगभग 1.35 लाख है शहर में 57 वर्ग किलोमीटर (वर्ग मील) का क्षेत्र शामिल है। गर्मियों में तापमान 25 से 45 डिग्री सेल्सियस और सर्दियों में तापमान 5 से 23 डिग्री सेल्सियस के बीच होता है। इसकी औसत ऊंचाई 235 मीटर (771 फीट) है। राज्य की राजधानी जयपुर का विरोध 150 किमी के आसपास है हिंडौन राजस्थान के पूर्वी भाग में स्थित है (भारत में उत्तर-पश्चिमी राज्य) अरवल्ली रेंज के आसपास के क्षेत्र में शहर आधुनिक सड़कों से जयपुर, आगरा, अलवर, धोलपुर, भरतपुर, राजस्थान, भरतपुर के साथ जुड़ा हुआ है। यह {Converted | 235 |m}} की औसत ऊंचाई है जयपुर की राज्य की राजधानी से इसकी दूरी लगभग 150 & nbsp; किमी है
उद्योग
शहर अपने बलुआ पत्थर के लिए जाना जाता है शहर को अपने रेत पत्थर के लिए विश्व स्तर पर प्रशंसित किया गया है। [2] उपमहाद्वीप में बलुआ पत्थर का सबसे बड़ा मार्ट मूल रूप से पत्थर उद्योग यहां खिल गए हैं। लाल किले और दिल्ली और जयपुर के अक्षरधाम मंदिर इस रेत पत्थर से बने होते हैं। उपमहाद्वीप में बलुआ पत्थर का सबसे बड़ा मार्ट लाल किला और [[अक्षरधाम (दिल्ली)] दिल्ली के अक्षरधाम मंदिर]], अम्बेडकर पार्क, लखनऊ और जयपुर इस बलुआ पत्थर से बना है स्लेट उद्योग यहां अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है और राज्य में सर्वोच्च रैंक है। स्लेट विदेश में भी ले जाया जाता है। विभिन्न लघु उद्योगों जैसे कंडल, बल्ती, लकड़ी के खिलौने भी मौजूद हैं।
लघु उद्योग
लोहा फैक्टरी
नमकीन कारखाने
राज श्री
राजधानी
चाय कारखाने
हरीओम चाये
कृष्ण चाये
पाइप और बीओएलएस कारखाने
पेंट फैक्टरी
शिक्फैक्टरी
निर्मल शिक्षा समूह
यहाँ एक बहुत बड़ी बड़ी मात्रा में लाख की चूड़ी बनाते हैं।
भूगोल और स्थान
हिण्डौन ब्लॉक राजस्थान के पूर्वी भाग में अरावली रेंज के आसपास स्थित है। हिंडोन की उप-जनसंख्या में 6 9 0 किमी 2 क्षेत्र का क्षेत्र शामिल है। यह पूर्व में मासलपुर द्वारा, उत्तर-पूर्व में बयाना भरतपुर जिला द्वारा , उत्तर में महवा उपजिला द्वारा, टॉडभीम तहसील द्वारा पश्चिम तक; करौली उपजिला द्वारा दक्षिण तक और गंगापुर उपजिला सवाई माधोपुर जिला द्वारा दक्षिण पश्चिम तक घिरा हुआ है।
अच्छा ग्रेड पत्थर, स्लेट और कुछ लौह अयस्क क्षेत्र के खनिज संसाधन शामिल हैं।
जलवायु
विशिष्ट गर्मी, सर्दी और बरसात के मौसम के साथ उपोत्पादक, गीली जलवायु।
सर्वोच्च तापमान = 44.0 डिग्री सेल्सियस (मई-जून)
निम्नतम तापमान = 8.0 डिग्री सेल्सियस (दिसंबर-जनवरी)
औसत वर्षा = 950 मिमी
मानसून = जून से अक्टूबर
आर्द्रता = 10-20% (गर्मी), 78% (बरसात)
भ्रमण समय = मार्च-सितंबर
पर्यटक आकर्षण
शहर में आकर्षण के मुख्य स्थान हैं: प्रहलादुक्कड़, वन, हिरण्यकश्यप का कुआ, महल और नरसिंघजी मंदिर, श्री महावीर मंदिर जैन धर्म का एक प्रमुख तीर्थ स्थान है। जगर, कुंडेवा, दंघाति, सुरथ किला, मोरध्वाज शहर, गढमोरा और पदमपुरा का महल, तिमनगढ़ किला, सागर झील, ध्रुव घाटा और नंद-भाईजई का मकसद जगगर बांध हैं। कुछ लोकप्रिय आकर्षण देसी चामुंडा माता मंदिर, चिनायता और चामुंडामाता मंदिर के मंदिर, शहर के समतल हिस्से में संकरघाता, नकके की देवी - गोमती धाम (शहर के दिल मंदिर) के निकट आसन्न पवित्र तालाब के साथ जलासन कहा जाता है।
प्रमुख आकर्षक स्थल
नक्कश की देवी - गोमती धाम
नक्कश की देवी - गोमती धाम को हिण्डौन सिटी का हृदय कहा जाता है। यह हिण्डौन सिटी के मध्य में स्थित है। यह माता दुर्गा के एक रूप नक्कश की देवी का मंदिर है। कहा जाता है कि जब संत श्री गोमती दास जी महाराज यहाँ पर आए थे तो उन्हें रात्रि को कैला माता ने स्वप्न में अपने एक पीपल के नीचे दवे होने की सूचना दी। अगले ही दिन वहाँ खुदाई करने पर माता की दो चमत्कारी मूर्तियां मिली जिन्हें वहीं स्थापित कर माता का मंदिर बनवाया। मंदिर के पीछे की तरफ परम पूज्य ब्रह्मलीन श्री श्री 1008 गोमती दास जी महाराज का विशालकाय मंदिर उनके शिष्यों द्वारा बनाया गया। जिसमें उनकी समाधि भी स्थित है। यहाँ पर चमत्कारी शिव परिवार, पँचमुखी हनुमानजी की प्रतिमा, राम मंदिर, यमराज जी आदि के मंदिर स्थित हैं। यहाँ पर एक वाटिका स्थित है। इसे गोमती धाम के नाम जाना जाता है। इसके एक तरफ विशालकाय तालाब जलसेन स्थित है।
नरसिंह जी मंदिर
नरसिंह जी मंदिर, हिण्डौन शहर से लगभग 15 किलोमीटर की दूरी पर, एक गुफा के रूप में स्थित है। हिन्दू पुराणों के अनुसार नरसिंह, भगवान विष्णु के अवतार हैं, जो भक्त प्रहलाद की रक्षा करने के उद्देश्य से अवतरित हुए थे। अब इस मंदिर का
पहाड़ी क्षेत्र (हिल स्टेशन)
यहाँ मुख्यालय से 8-10 किलोमीटर दूर पूर्व की ओर बहुत विशालकाय पहाड़ी क्षेत्र स्थित है। जिसे हिण्डौन का डाँग इलाका के नाम से भी जानते है। यह हिण्डौन के वन क्षेत्र का एक भाग है। यहाँ आस पास छोटे-छोटे गाँवों वसे है। यह बहुत मनोरम क्षेत्र है। यहाँ के पास में ही जगर बाँधहै। शहर से लगभग 10-12 किलोमीटर दूरी पर स्थित खानवाड़ा (दांत का पुरा) गांव स्थित है। जो अत्यन्त रमणीय जैव विविधता तथा लाल पत्थर के उत्पादन के लिए जाना जाता है।
तिमनगढ दुर्ग
तीमनगढ़ हिण्डौन सिटी के निकट है। इस किले का निर्माण 12वीं शताब्दी के मध्य में हुआ था। अपने समय में तिमनगढ़ स्थानीय सत्ता का केंद्र था। 1196 में यहां के राजा कुंवर पाल का हराकर मोहम्मद गौरी और उनके सेनापति कुतुबुद्दीन ने इस पर अपना कब्जा कर लिया था। इसके बाद राजा कुंवर पाल को रेवा के एक गांव में शरण लेनी पड़ी। किले के मुख्य द्वार पर मुगल स्थापत्य कला का प्रभाव दिखाई पड़ता है। लेकिन किले के आंतरिक हिस्सों पर यह प्रभाव नहीं है। इसकी दीवारें, मंदिर और बाजार अपने सही रूप में देखे जा सकते हैं। किले से सागर झील का विहंगम दृश्य भी देखा जा सकता है।
श्री कैला देवी मंदिर
कैलादेवी मंदिर करौली
श्री कैला देवी जी मंदिर हिण्डौन सिटी से 53 किलोमीटर दूर स्थित है। यह माना जाता है कि इस मंदिर की स्थापना 1100 ई. में हुई थी। श्री कैला देवी पूर्वी राजस्थान, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के लाखों लोगों की आराध्य देवी हैं। प्रतिवर्ष करीब 60 लाख श्रद्धालु यहां दर्शनों के लिए आते हैं। यह मंदिर देवी दुर्गा के 9 शक्तिपीठों में से एक है। चैत्र नवरात्रों में यहां मेले का आयोजन किया जाता है।[कृपया उद्धरण जोड़ें]
कैला देवी अभ्यारण्य
मुख्य लेख: कैला देवी अभयारण्य
(53 किलोमीटर) यह अभ्यारण्य हिण्डौन सिटी से 53 किलोमीटर दक्षिण पश्चिम में स्थित है। इस अभ्यारण्य की सीमा कैलादेवी मंदिर के पास से शुरु होकर करन पुर तक जाती हैं और रणथंभौर राष्ट्रीय उद्यान से भी मिलती हैं। कैला देवी अभ्यारण्य में नीलगाय, तेंदुए और सियार के अलावा किंगफिशर में मिलते हैं।
श्री महावीरजी में मंदिर
श्री महावीर में पांच मंदिर हैं।
जैन मंदिर श्री महावीरजी
जैन मंदिर श्री महावीरजी: श्री चंदनपुर महावीरियां जैनों की एक चमत्कारी तीर्थयात्री है। राजस्थान के करौली जिले के हिंडोन उप जिले में स्थित यह तीर्थ प्राकृतिक सौंदर्य के साथ शानदार है। नदी के किनारे पर बने इस तीर्थयात्रा जैन भक्तों के लिए भक्ति का एक प्रमुख केंद्र है। चंदनपुर महावीरजी मंदिर तीर्थयात्रा के दिल के रूप में स्वागत किया गया है। यह जैन धर्म का एक पवित्र स्थान है।
तीर्थस्थल मंदिर के प्रमुख देवता भगवान महावीर की प्रतिष्ठित मूर्ति, एक खुदाई के दौरान मिली थी। चन्दनपुर गांव के निकट कुछ 'कामदुहधेनू' (आत्म दुग्ध गाय) रोजाना अपने दूध को बाहर निकालने के लिए इस्तेमाल किया जाता था। उस गाय और ग्रामीणों के मालिक के लिए आश्चर्य की बात थी उन्होंने टोंक खोदाई। भगवान के प्रतीक के उदय के अवसर पर ग्रामीणों को भावनाओं से अभिभूत किया गया की उपस्थिति की खबर हर जगह फैल गई। जनता एक झलक के लिए बढ़ी है लोगों की इच्छाओं को पूरा करना शुरू हुआ जोधराज दीवान पल्लीवाल महावीर स्वामी भगवान के चमत्कार से प्रभावित होकर त्रि शिखरीय जिनालय का निर्माण करवाया और जैनाचार्य महानंद सागर सूरीश्वरजी जी महाराज से प्रतिष्ठा करवाई|
[4] 17 वीं और 1 9वीं शताब्दी के बीच, इस मंदिर को कभी-कभी पुनर्निर्मित किया गया था। कला के संबंध में, इस मंदिर की भव्यता संपूर्ण, प्रशंसनीय पर है, लेकिन इसकी शुभराशी को देखते हुए महावीरजी एक सहकर्मी के बिना एक तीर्थ है। लाखों श्रद्धालुओं ने हर साल इस मंदिर को भगवान के चरणों में अपने पुष्पांजलि आदर का भुगतान करने के लिए दौरा किया।
एक संगमरमर छत्र उस जगह पर बनाया गया जहां पर चिह्न उभरा था, और पैर की एक जोड़ी ('चरण पादुका') भगवान के चरणों का प्रतीक करने के लिए समारोह में स्थापित किया गया है मंदिर की वास्तुकला दिलचस्प और शानदार है मंदिर के चिंगारी के क्लस्टर की सुंदर सुंदरता एक नज़र में दिल जीतती है।
पूर्ण चांदनी में भीषण, चंदनपुर तीर्थ यात्रा में मानवता को पवित्रता और शांति के संदेश को बड़े पैमाने पर संदेश दिया गया है।
वास्तुकला
श्री महावरजी का मुख्य मंदिर बहुत सारे पेन्नल के साथ विशाल और शानदार अलंकृत है। यह मंदिर धर्मशालाओं (गेस्टहाउसेस) से घिरा हुआ है। मंदिर के आसपास के धर्मशालाओं के परिसर में काटला कहा जाता है। कटला के केंद्र में, मुख्य मंदिर स्थित है। काटला का प्रवेश द्वार बहुत ही आकर्षक और शानदार है।
मंदिर में तीन आकाश उच्च शिखर के साथ सजाया गया है मुख्य द्वार में प्रवेश करने के बाद, एक आयताकार मैदान आता है और फिर महामण्डपा में प्रवेश करने के लिए सात सुंदर दरवाजे हैं। मंदिर में प्रवेश करने के बाद हमें हमारे सामने एक बड़ा मंदिर मिला। यहां भगवान महावीर का चिन्ह चमत्कारी प्रमुख देवता के समान है और दो अन्य चिह्न यहां स्थापित हैं।
मुख्य मंदिर पर गर्भ गृह (मंदिर के मध्य कक्ष) में, भगवान महावीर के पद्मशना आसन के चमत्कारी चिह्न, रेत पत्थर से बना हुआ कोरल रंग भगवान पुष्प दांत के साथ सही पक्ष में स्थित है और भगवान आदीनाथ के बाईं ओर स्थित आइकन है। इस मंदिर में स्थापित अन्य तीर्थंकरों के बहुत से प्रशंसनीय प्रतीक हैं।
मंदिर के बाहरी और आंतरिक दीवारों को मंदिर के आकर्षण, प्रभाव और महिमा में सुधार के लिए सुंदर नक्काशियों और स्वर्ण चित्रों से सजाया गया है।
मंदिर के बाहरी दीवारों पर 16 पौराणिक दृश्य सुंदर रूप से नक्काशी किए जाते हैं। मंदिर की मूर्तिकला निष्पादन की उत्कृष्ट सुंदरता और उच्च स्तर की कौशल दिखाती है।
मंदिर के मुख्य द्वार के सामने 52 फीट ऊंची मंस्तम खड़ा है, यह बहुत सुंदर और आकर्षक है। चार तीर्थंकर चिह्न सभी दिशाओं में मनस्तंभ के शीर्ष पर स्थापित किए जाते हैं।
शांतिनाथ जनलैया
शांतिनाथ जनलया (मंदिर): शांतिवीर नगर में शांतिनाथ जैनलाया इस जनलया भगवान शांतिनाथ के 28 फीट ऊंचे खड़े कोलोसस में बहुत सुंदर है। यहां 24 Teerthankaras और उनके Shasan Deotas के प्रतीक भी स्थापित कर रहे हैं। एक आकर्षक आकाश उच्चस्तम्ष्ट भी यहां खड़ा है।
मंदिर का मुख्य आकर्षण भगवान शान्तिनाथ के 32 फीट की उच्च छवि है, जो 16 वीं जैन तीर्थंकर है।
भगवान पार्श्वनाथ जनलैया
भगवान पार्थवर्धन जनलया: सुंदर और आकर्षक दर्पण और कांच के काम के कारण भगवान परशनाथ जिलाया को 'कांच का मंदिर' भी कहा जाता है, Sanmati Sanmati धर्मशाला के सामने स्थित है। यह मंदिर स्वर्गीय ब्राम्हचारीिन कमला बाई ने बनाया था। इस मंदिर की मुख्य मूर्ति काला रंग की मूर्ति भगवान पार्श्वनाथ है।
कीर्ति आश्रम चैत्यालय
कीर्ति आश्रम चैत्यलय (जैन मंदिर): श्रीमती शंतनाथ जी के सामने कीर्ति आश्रम चैत्यलय है
विधायक
हिण्डौन विधानसभा क्षेत्र में हिण्डौन तहसिल के सभी मतदाता आते हैं। हिन्डौन विधानसभा क्षेत्र राजस्थान का एक विधानसभा क्षेत्र है। यह क्षेत्र करौली-धौलपुर लोक सभा निर्वाचन क्षेत्र के अन्तरगत आता है।
कृषि
क्षेत्र की भूमि उपजाऊ है और रोटों द्वारा फसल की रोटेशन शुरू की जाती है। केन्द्रीय कृषि यार्ड 220 किमी बिजली घर के विपरीत गांव में स्थित है। प्रमुख फसलें हैं- बाजरा, बाजरा, मक्का, सरसों, क्लस्टर सेम, जड़ीबूटी, करौदा, नींबू आलू, ग्राम, जौ। मानसून, जागर बांध और नहर, कुओं और भूमिगत जल सिंचाई के स्रोत हैं। मौसमी सब्जियां और फलों को भी किसानों द्वारा बोया जाता है
शिक्षा
यह शहर औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थानों के लिए प्रसिद्ध है और राज्य में सबसे अधिक स्थान रहा है। शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान हैं। आरबीएसई परीक्षा में लगभग सभी जिला अव्वल हिंडोन शहर से हैं।
हिंडोन में कुछ उल्लेखनीय विद्यालय हैं-
ब्राइट सन इंग्लिश स्कूल, परशुराम कॉलोनी,
अभय विद्या मंदिर वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय
शासन सीनियर स्कूल
आदर्श विद्या मंदिर सीनियर स्कूल
केशव विद्या मंदिर सीनियर स्कूल
निर्मल हैप्पी सीनियर स्कूल
चन्द्र सीनियर सेकंड स्कूल
गांधी अकादमी सीनियर सेकेंड स्कूल
ऑक्सफोर्ड पब्लिक स्कूल
मारुति इंटरनेशनल स्कूल
सेंट फ्रांसिस स्कूल
जेबी पूर्वांचल बोर्डिंग स्कूल
बचपन प्ले स्कूल
इंद्र प्रियदर्शनी गर्ल्स एसआर स्कूल
अग्रसेन लड़की एसआर सेकंड स्कूल
नहु बाल निकेतन सीनियर सेक। स्कूल
दिव्य एन्जिल सीनियर सेकंड अंग्रेजी विद्यालय।
आशीष मेमोरियल पब्लिक सीनियर सेकेंड स्कूल
नामंदिप वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय, मंडवारा
ब्राइट स्टार स्कूल
वंदना पब्लिक सेकेंड स्कूल बुराकपुरा
चिकित्सा सुविधाएं
हिंडोन अपनी स्वास्थ्य सेवाओं और शहर में उपलब्ध कई प्रसिद्ध अस्पतालों के लिए अच्छी तरह से है। यहां शहर के कुछ सबसे अस्पतालों और देखभाल केंद्र हैं। हिंडोन के अस्पतालों, क्लीनिकों और नर्सिंग होम ने शहर के स्वास्थ्य सेवा के उन्नयन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। इन वर्षों में हिंडोन के विभिन्न स्वास्थ्य केन्द्रों में कर्मचारियों, बुनियादी ढांचे और अन्य पहलुओं के मामले में सुधार हुआ है, जिससे न केवल हिंडोन शहर के मरीजों पर, बल्कि आसपास के गांवों और कस्बों से मरीजों को इन स्वास्थ्य केंद्रों में आने के लिए सबसे अच्छा लोगों द्वारा इलाज किया जाना है।
सरकारी अस्पताल
हिंडोन शहर के सरकारी अस्पताल
मोहन नगर, हिंडोन शहर
सिटी डिस्पेंसरी हिंडोन शहर
नम रोड, भायापालपुरा, हिंडोन शहर
निजी अस्पताल
पारस हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर
भगवान महावीर अस्पताल और अनुसंधान केंद्र
दगुर अस्पताल और अनुसंधान केंद्र
राजगिरीश अस्पताल और अनुसंधान केंद्र
अमन हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर
सिंह हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर
डॉ एच एच हॉस्पिटल एंड सर्जरी सेंटर
नारायण अस्पताल
सोनिया अस्पताल और ट्रामा सेंटर
बंसल अस्पताल
नर्सिंग होम
विनीता नर्सिंग होम
आशा नर्सिंग होम
जिंदल नर्सिंग होम
गुप्त नर्सिंग होम
नेत्र अस्पताल
जीवन ज्योति नेत्र और सामान्य अस्पताल
दंत चिकित्सा अस्पताल
जयपुर दंत एवं ऑर्थोडोंटिक सेंटर
[डॉ एच.आर.खान] पता = सद टॉवर हाई स्कूल हिंडोन शहर के पास!
डॉ। चिकित्सक दंत अस्पताल
[डॉ एच.आर.खान]
अन्य क्लिनिक
हरनाणा क्लिनिक
राजेंद्र क्लिनिक
हरीश क्लिनिक
वर्मा क्लिनिक
परिवहन
सड़क
राष्ट्रीय राजमार्ग 47 (भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 47) दिल्ली-हरियाणा-राजस्थान-मध्य प्रदेश के मध्य प्रदेश से मार्च 2016 तक दिल्ली से मोहाना को केंद्र सरकार द्वारा घोषित किया जाता है।
राजस्थान राज्य राजमार्ग संख्या 1 झलावर से मथुरा और राजस्थान राज्य राजमार्ग 22 मंडल से पहाड़ी तक लिंक, कुलौली जिले से गुजरती कुल लंबाई 125 किलोमीटर है। आरएसआरटीसी राजस्थान और नई दिल्ली, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के अधिकांश हिस्सों में बस सेवा संचालित करती है। हिंडोन सिटी बस डिपो में सबसे पुराना रोडवेज बस डिपो में से एक है। सार्वजनिक और निजी बस ऑपरेटरों से अच्छी तरह से निर्मित सड़कों और अक्सर बस सेवा सड़क यात्रा काफी आरामदायक बना दिया है राजस्थान राज्य और उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और राज्य की राजधानी, नई दिल्ली जैसे राज्यों के कई हिस्सों में हिंडोन के साथ सड़क कनेक्शन हैं। यात्रा के लिए साधारण बसों, अर्द्ध-डीलक्स, डीलक्स और वोल्वोबस उपलब्ध हैं। आगरा, नई दिल्ली, फतेहपुर सीकरी, जयपुर, कोटा, भरतपुर, ग्वालियर आदि जैसे जगहों पर हिंडोन के साथ सड़क के माध्यम से आसान कनेक्शन है। हिंडोन और उसके आस-पास के तहसील या जिले के बीच यात्रा करने के लिए, बसों का सबसे अधिक उपयोग किया जाने वाला बस परिवहन बसों हैं हिंडोन करौली के बीच की दूरी 30 किमी है, हिंडोन -महवा 37 किमी, हिंदुओं-सुरथ 13 किमी, हिंडोन -श्री महावीर जी लगभग 17 किलोमीटर और हिंडोन -बयाना लगभग 35 किलोमीटर है।
शहर परिवहन
साझा वाहनों को रोडवेज बस स्टैंड और रेलवे स्टेशन के बीच संचालित किया जाता है। निजी ऑटो भी उपलब्ध हैं। स्थेट बसें, ऑटो रिक्शा और रिक्शा। पास के स्थानों तक पहुंचने के लिए लोग बसों और ऑटो रिक्शा का उपयोग करते हैं। बसें संख्या में बहुत ही कम होती हैं और आर्थिक रूप से भी अच्छी तरह से होती हैं। लोग निजी टैक्सियों और जीपों का उपयोग हिंडोन और उसके आस-पास घूमने के लिए करते हैं। स्थानीय परिवहन के लिए बड़ी संख्या में बाइक और साइकिल का भी उपयोग किया जाता है। हिंडोन द्वारा हवाई तक पहुंचें कोई हवाई अड्डा हिंडोन में नहीं है हिंडोन में खेरिया हवाई अड्डे का निकटतम हवाई अड्डा है जो आगरा में स्थित है। आगरा बसों से, निजीकरों, जीप आदि हिंडोन सिटी तक पहुंचने के लिए विभिन्न प्रकार हैं।
रेल्वे
हिंडोन और श्री महावीरजी दिल्ली-मुंबई रेल मार्ग पर स्थित प्रमुख स्टेशन हैं। कई ट्रेनें उपलब्ध हैं जो हिंडोन को उत्तर भारत के कई महत्वपूर्ण स्थानों और भारत के बाकी हिस्सों के साथ ही हिंडोन रेलवे स्टेशन से जोड़ती हैं, भारतीय पश्चिमी केंद्रीय रेलवे मंडल रेलवे। हिंडोन स्टेशन मुम्बई और दिल्ली के बीच प्रमुख विद्युतीकृत रेलवे मार्ग पर पड़ता है। हिंडोन रेलवे स्टेशन के अलावा, अन्य रेलवे स्टेशनों के निकट निकटता में श्री महारबीजी रेलवे स्टेशन, फतेससिंगपुर रेलवे स्टेशन, सूरोठ और सिकरौदा मीना रेलवे स्टेशन हैं।
शहर से नई दिल्ली, बॉम्बे, लखनऊ, कानपुर, जमुत्तवी, अमृतसर, लुधियाना, जालंधर, हरिद्वार, देहरादून, जयपुर, चंडीगढ़, कालका और श्री माता वैष्णो देवी कटरा के लिए ट्रेनें हैं।
सुपरफास्ट गाड़ियां
22 9 17/22 9 18 बांद्रा टर्मिनस हरिद्वार एक्सप्रेस - साप्ताहिक
12 9 26/12 9 25 अमृतसर - मुंबई पश्चिम एक्स्प्रेस - दैनिक
12059/60 कोटा जन शताब्दी एक्सप्रेस
12 9 04/04 स्वर्ण मंदिर मेल
12 9 63/64 मेवाड़ एक्सप्रेस
मेल एक्सप्रेस
19024/19023 फिरोजपुर जनता एक्सप्रेस - दैनिक
19037/19038 बांद्रा टर्मिनस गोरखपुर अवध एक्सप्रेस
19039/19040 बांद्रा टर्मिनस मुजफ्फरपुर अवध एक्सप्रेस
19019/19020 बांद्रा - देहरादून एक्सप्रेस - दैनिक
13237/38/39/40 पटना कोटा एक्सप्रेस
1980/06 कोटा-उधमपुर एक्सप्रेस
1980/04 कोटा-वैष्णो देवी कटरा एक्सप्रेस | हिण्डौन सिटी का क्षेत्रफल कितना है? | 57 वर्ग किलोमीटर | 4,826 | hindi |
4dcaa511e | Coordinates:
पनामा, जिसका औपचारिक नाम पनामा गणराज्य (स्पेनी: República de Panamá, रेपुब्लिका पानामा) है, मध्य अमेरिका का सबसे दक्षिणतम राष्ट्र है। यह पनामा भूडमरु पर स्थित है, जो उत्तर अमेरिका और दक्षिण अमेरिका के दो महाद्वीपों को धरती की एक पतले डमरू से जोड़ता है। इसके उत्तरपश्चिम में कोस्टा रीका, दक्षिणपूर्व में कोलम्बिया, दक्षिण में प्रशांत महासागर और पूर्व में कैरिबियाई सागर है जो अंध महासागर का एक भाग है। पनामा की राजधानी का नाम पनामा शहर (स्पेनी में Ciudad de Panama, "सियुदाद दे पानामा") है। पनामा की जनसंख्या २०१० में ३४,०५,८१३ थी और इसका क्षेत्रफल ७५,५१७ वर्ग किमी है।
पनामा स्पेन का उपनिवेश हुआ करता था लेकिन सन् १८२१ में स्पेन से नाता तोड़कर वह नुएवा ग्रानादा (Nueva Granada), एकुआदोर और वेनेज़ुएला के साथ एक "ग्रान कोलम्बिया" नाम के संघ में शामिल हो गया। यह संघ १८३० में टूट गया। नुएवा ग्रानादा एक ही राष्ट्र में जुड़े रहे और इसने अपना नाम बदलकर कोलम्बिया रख लिया। बीसवी सदी के आरम्भ में संयुक्त राज्य अमेरिका पनामा के क्षेत्र में से पनामा नहर बनाना चाहता था, क्योंकि इस से अमेरिका के पूर्वी और पश्चिमी तटों के बीच में समुद्री यातायात को बहुत बड़ा फ़ायदा होने वाला था। अमेरिका के उकसाने पर पनामा में कोलम्बिया से अलगाववाद की लहर उठी और १९०३ में पनामा, कोलम्बिया से अलग होकर एक स्वतन्त्र राष्ट्र बन गया। अमेरिकी सेना के अभियंताओं ने १९०४ और १९१४ के बीच में खुदाई कर के पनामा नहर तैयार कर दी, लेकिन अमेरिका और पनामा के समझौते के अंतर्गत इस नाहर पर अमेरिका का नियंत्रण रहा। यह बात पनामा को खटकती रही और वह अमेरिका से नहर के क्षेत्र की वापसी की मांग करता रहा। अमेरिका ने इस नहर को २०वी शताब्दी के अंत तक पनामा को लौटा दिया।[7]
इतिहास
पनामा, अमेरिकी द्वीप में स्पेन के उपनिवेशों में से एक था, जब तक कि वह ग्रैन कोलंबियाई संघ का हिस्सा नहीं बना। स्पेनिश- रॉड्रिगो डी बेस्टिडास ने पहली बार पनामा को 1501 में खोजा था और क्रिस्टोफर कोलम्बस की मदद से कैरीबियाई तट के पोर्टोबेलो में अपने जहाज का लंगर गिराया था। 1510 में वास्को नुनेज़ डी बलबो ने पहली सफल कॉलोनी की स्थापना की और प्रशांत महासागर की खोज से तीन साल पहले इस क्षेत्र के गवर्नर बने। कैरीबियाई तट पर समुद्री डाकू द्वारा स्थापित गढ़ों की वजह से, स्पैनिश साम्राज्य का 1821 से पतन शुरू हो गया, जिससे पनामा स्वतंत्र कोलंबिया का हिस्सा बनने के लिए मजबूर हो गया, बाद में 1903 में हुई खूनी क्रांति में संयुक्त राज्य अमेरिका की मदद से इसे एक अलग गणराज्य के रूप में स्थापित कर दिया गया।[8][9] उसी वर्ष 3 नवंबर को, मैनुअल अमाडोर ग्वेरेरो की अगुवाई में विद्रोहियों ने पनामा को एक स्वतंत्र गणराज्य घोषित कर दिया[10] और दो हफ्ते बाद, हे-बुनान वेरिला संधि पर हस्ताक्षर किए, जिसमें अमेरिका को पनामा नहर का निर्माण और प्रशासन करने का अधिकार दिया गया, जोकि कैरीबियन सागर को प्रशांत महासागर से जोडता है।[11]
1968 में, जनरल उमर टोरिजोस ने सरकार के पद संभाला और 1981 में एक हवाई जहाज दुर्घटना में उनकी मृत्यु[12] तक एक मजबूत प्रशासक बने रहे। उस दशक के अंत तक, जनरल मैनुअल नोरिगा की अध्यक्षता में पनामा रक्षा बलों के एक सड़क अवरोधी अभियान के दौरान एक अमेरिकी सैनिक की मौत के परिणामस्वरूप पनामा-अमेरिका संबंध में खटास पड़ना आरंभ हो गया। अंततः दिसंबर 1989 में नहर का नियंत्रण पनामा के सौपें जाने के कुछ दिन पुर्व, अमेरिका ने ऑपरेशन "जस्ट कॉज़" लॉन्च कर पनामा पर हमला कर दिया।[13] आक्रमण में कई सैनिको के मरने[14][15] के बाद जनरल नोरिगा वेटिकन राजनयिक में शरण लेने को मजबूर हो गये, लेकिन कुछ दिनों के बाद अमेरिकी सेना से सामने आत्मसमर्पण कर दिया और बाद में अमेरिकी संघीय अधिकारियों द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया।
31 दिसंबर, 1999 को टोरिजोस-कार्टर संधि के तहत, अमेरिका ने सभी नहर से संबंधित भूमि को पनामा को वापस कर दिया, जिसके बाद नहर के पूर्ण प्रशासन के साथ-साथ नहर से संबंधित इमारतों और बुनियादी ढांचे वहां की स्थानीय प्रशासन के नियंत्रण में आ गया।
भूगोल
मध्य अमेरिका का भूभाग अधिकतर उत्तर-दक्षिण दिशा में चलता है, लेकिन पनामा के क्षेत्र में यह मुड़कर लगभग पूर्व-पश्चिम दिशा में चलता है। पनामा के मध्य में एक पहाड़ों की शृंखला है जिसके सुदूर पश्चिमी भाग में ३,४७४ मीटर की ऊँचाई पर पनामा का सबसे ऊँचा स्थान, वोल्कान बारू (Volcán Barú) नाम का ज्वालामुखी स्थित है। क्योंकि पनामा की चौड़ाई कम है इसलिए साफ़ दिनों में इस ज्वालामुखी के शिखर से प्रशांत महासागर और कैरिबियाई समुद्र दोनों ही नज़र आ जाते हैं। पनामा के सुदूर पूर्व में दारीएन दरार (Tapón del Darién) नाम का वनों और दलदलों से भरा हुआ एक क्षेत्र है जो पनामा को कोलम्बिया से बांटता है। यह इलाक़ा बहुत ही कठिन है और इसे पार करना बहुत खतरनाक माना जाता है।
मौसम
पनामा में उष्णकटिबंध (ट्रॉपिकल) है और यहाँ गरमी ही रहती है। हवा में नमी भी अधिक रहती है। वर्षभर वही मौसम रहता है और महीनो के साथ ऋतु नहीं बदलती। दिन के आरम्भ में तापमान २४ °सेंटीग्रेड और दोपहर में लगभग ३० °सेंटीग्रेड होता है। वर्षा अप्रैल से दिसम्बर के महीनो में गिरती है।
अर्थव्यवस्था
पनामा गणराज्य की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से डॉलर पर निर्भर है और मुख्य रूप से एक अच्छी तरह से विकसित सेवा क्षेत्र पर आधारित है जिसमें बैंकिंग, वाणिज्य, पर्यटन, व्यापार, पनामा नहर -जहां कोलन मुक्त व्यापार क्षेत्र स्थित है-, बीमा, चिकित्सा और स्वास्थ्य, कंटेनर बंदरगाह और निजी उद्योगों शामिल है। ये आर्थिक सेवाएं सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 80% हिस्सा है। पनामा नहर, जिसे 1999 में सरकार द्वारा अधिग्रहित किया गया था, सबसे महत्वपूर्ण सेवाओं में से एक है, क्योंकि इसके पथकर राजस्व से प्राप्त लाखों डॉलर देश में निर्माण परियोजनाओं, भारी रोजगार को जन्म दिया है।
अंतर्राष्ट्रीय व्यापार, पर्यटन, अचल संपत्ति, विनिर्माण, परिवहन, और वित्तीय सुधारों जैसे अन्य क्षेत्रों में अर्थव्यवस्था को और बढ़ावा दिया गया है। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार कोलन मुक्त व्यापार क्षेत्र में काफी हद तक किया जाता है, जो मुख्य रूप से कॉफी, केले, झींगा, चीनी और कपड़ों की सामग्रियों जैसे अन्य कृषि उत्पादों के देश के निर्यात का 92% हिस्सा है। विनिर्माण उद्योग विमान स्पेयर पार्ट्स, सीमेंट, पेय, गोंद और वस्त्र आदि है। पर्यटन के माध्यम से होने वाली कमाई भी आर्थिक विकास में योगदान देती है।
कराधान प्रणाली वित्तीय संहिता द्वारा शासित होती है, जो केवल कर से आय और लाभ से प्राप्त कर में ही प्रदत्त होती है। कंपनियों के सकल राजस्व पर 1.4% कर लगाने और कोलन मुक्त व्यापार क्षेत्र में काम कर रहे फर्मों पर 1% लेवी लगाने के लिए नए कर सुधार भी लागू किए गए हैं। सरकार ने स्थानीय राजस्व बढ़ाने और मुद्रास्फीति को नियंत्रण में रखने के लिए एक स्थिर कर प्रणाली-या 10% स्थिर कर का प्रस्ताव भी दिया है।
संस्कृति
पनामा की संस्कृति स्पेनिश, अफ्रीकी, मूल अमेरिकी और उत्तरी अमेरिकी परंपराओं और प्रभावों का मिश्रण है।[16] संस्कृति का यह मिश्रण स्पष्ट रूप से पारंपरिक उत्पादों जैसे लकड़ी की नक्काशी, अनुष्ठानिक मुखोटों, मिट्टी के बर्तन, वास्तुकला, व्यंजन और त्यौहार में देखा जा सकता है। देश के कुछ स्थानों में कुछ अनूठी संस्कृति देखी जा सकती है जहां कुना आदिवासी द्वारा अतीत में निवास करते थे, जिन्हें मोल के लिए जाने जाते हैं, जो मध्य अमेरिकी कुना जनजाति की महिलाओं द्वारा बनाया जाने वाले कलाकृति हैं। इन मोलाओं में एक एप्पिलिक प्रक्रिया के माध्यम से, अलग-अलग रंगों के कपड़े की कई परतें होती हैं।
स्थानीय अमेरिकी समूहों के बीच पारंपरिक मान्यताओं और प्रथाओं के साथ, नृत्य अभी भी देश में विविध संस्कृतियों का प्रतीक है। टैम्बोरिटो, एक स्पेनिश नृत्य, में अमेरिकी ताल, विषयों और नृत्य आंदोलनों का स्पर्श है। देश के कुछ शहरों द्वारा आयोजित प्रदर्शनों में रेगी एन एस्पनोल, क्यूबा, रेगेटन, कॉम्पा, जैज़, साल्सा, कोलंबियन और ब्लूज़ हैं। स्थानीय संगीतकारों और नर्तकियों को पेश करने के लिए पनामा शहर के बाहर क्षेत्रीय त्यौहार भी आयोजित किए जाते हैं। अनुष्ठान ज्यादातर देश में पवित्र माना जाता है।
चूंकि पनामा की सांस्कृतिक विरासत कई जातियों से प्रभावित है इसलिये देश के पारंपरिक व्यंजनों में दुनिया भर के कई तत्व शामिल हैं[17]: अफ्रीकी, स्पेनिश, और मूल अमेरिकी तकनीकों, व्यंजनों और अवयवों का मिश्रण, जो अपनी विविध आबादी को दर्शाता है।
पनामावासी अक्सर उष्णकटिबंधीय जलवायु के बावजूद सादे कपडे पहनते हैं और अजनबियों से औपचारिक मेलमिलाप रखते हैं, लेकिन सार्वजनिक में न्यूनतम अभिवादन व्यवहार रखते है।
देश, दो स्वतंत्रता दिवस मनाता है: 3 नवंबर को पहला और 28 नवंबर को दूसरा, जब उन्हें क्रमशः कोलंबिया और स्पेन से आजादी मिली थी।
ललित कलाएं शिक्षा स्कूल प्रणाली द्वारा समर्थित है जबकि कला प्रदर्शन वाणिज्यिक बैंकों द्वारा समर्थित होती है। देश के साहित्य में लघु कथाओं, उपन्यासों और कविता के कई लेखक हुए हैं, और उन्होंने रोगेलियो साइमन के व्यक्ति में एक सफल कवि और उपन्यासकार का निर्माण किया है, जिन्होंने अपने लेखन के क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त की है।
इन्हें भी देखें
पनामा नहर
मध्य अमेरिका
पनामा भूडमरु
सन्दर्भ
श्रेणी:पनामा
श्रेणी:मध्य अमरीका
श्रेणी:दक्षिण अमेरिका के देश
श्रेणी:कॅरीबियाई में देश
श्रेणी:हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना
श्रेणी:स्पेनी-भाषी देश व क्षेत्र | पनामा गणराज्य की राजधानी क्या है? | पनामा शहर | 441 | hindi |
0915789d7 | कुतुब अल-सित्ताह ( अरबी: الكتب الستة , अनुवाद। अल-कुतुब अस - सित्ताह, 'छः किताबें') छः (मूल रूप से पांच) किताबें हैं जिनमें हदीस के संग्रह ( इस्लामिक पैगंबर मुहम्मद के साम्प्रदाय या कार्य) शामिल हैं। नौवीं शताब्दी ई में छह सुन्नी मुस्लिम विद्वानों द्वारा संकलित किताबों को क़ुतुब अल-सित्ताह कहते हैं। उन्हें कभी-कभी अल-सहीह अल-सित्ताह के रूप में जाना जाता है, जो "प्रामाणिक छः" के रूप में अनुवाद करता है। उन्हें पहली बार 11 वीं शताब्दी में इब्न अल-क़ैसरानी द्वारा औपचारिक रूप से समूहीकृत और परिभाषित किया गया था, जिन्होंने सुनन इब्न माजह को सूची में जोड़ा था। [1][2][3] तब से, उन्होंने सुन्नी इस्लाम के आधिकारिक सिद्धांत के हिस्से के रूप में निकट-सार्वभौमिक स्वीकृत किया गाया है।
सभी सुन्नी मुस्लिम न्यायशास्त्र विद्वान इब्न माजाह के मुतालुक़ सहमत नहीं हैं। विशेष रूप से, मलिकि और इब्न अल-अथिर जैसे अल-मवत्ताह को छठी पुस्तक मानते हैं । [4] इब्न माजाह से सुनन को जोड़ने का कारण यह है कि इसमें कई हदीस शामिल हैं जो अन्य पांच में नहीं आते हैं, जबकि मुवत्ता के सभी हदीस अन्य सहीह किताबों में शामिल हैं। [4]
महत्व
सुन्नी मुस्लिम छह प्रमुख हदीस संग्रहों को उनके सबसे महत्वपूर्ण मानते हैं, हालांकि प्रामाणिकता का क्रम मज़हबों के बीच भिन्न होता है [5]
सहीह अल-बुख़ारी - इमाम बुख़ारी (मृत्यु 256 हिजरी, 870 ई) द्वारा एकत्रित 7,275 अहादीस शामिल हैं।
सहीह मुस्लिम - मुस्लिम बिन हज्जाज द्वारा एकत्रित। (मृत्यु 261 हिजरी, 875 ई) जिस में 9,200 अहादीस शामिल हैं
सुनन अबू दाऊद - अबू दाऊद (मृत्यु 275 हिजरी, 888 ई) द्वारा एकत्रित जिस में में 4,800 अहादीस शामिल हैं
अल- तिर्मिधि (डी। 279 हिजरी, 892 ई) द्वारा एकत्रित जामी अल- तिर्मिधि में 3,956 अहमदीथ शामिल हैं
अल-नासाई (डी। 303 हिजरी, 915 ई) द्वारा एकत्रित सुनान अल- सुघरा में 5,270 अहमदीथ शामिल हैं
कोई एक:
सुनन इब्न माजह - इब्न मजाह (डी। 273 एएच, 887 सीई) द्वारा एकत्रित, जिस में 4,000 से अधिक अहादीस शामिल हैं।
मुवत्ता मालिक - इमाम मलिक (मृत्यु 179 हिजरी, 795 ई) द्वारा एकत्रित, जिस में 1,720 अहादीस शामिल हैं [6]
इब्न हजर के अनुसार, पहले दो, जिसे आमतौर पर दो सहहिह के रूप में जाना जाता है, उनकी प्रामाणिकता के संकेत के रूप में, लगभग सात हजार हदीस होते हैं, यदि पुनरावृत्ति की गणना नहीं की जाती है। [7]
लेखक
ईरान के कैम्ब्रिज इतिहास के अनुसार: [8] "इस अवधि के बाद सुन्नी हदीस के छह न्यायशास्त्र संग्रहों के लेखकों की उम्र शुरू होती है, जिनमें से सभी इमाम मलिक को छोड़कर फारसी थे। छः संग्रहों के लेखक निम्नानुसार हैं:
मुहम्मद बिन इस्माइल अल बुखारी, सहीह बुख़ारी के लेखक, जिन्हें उन्होंने सोलह वर्षों की अवधि में संग्रह किया था। पारंपरिक स्रोत बुखारी को यह कहते हुए उद्धृत करते हैं कि उन्होंने उत्साह और प्रार्थना करने से पहले किसी भी हदीस को रिकॉर्ड नहीं किया था। 256 हिजरी / 869-70 ई में बुखारी की समरकंद के पास मृत्यु हो गई
मुस्लिम बिन हजजाज अल-निषापुरी, जो 261 हिजरी / 874-5 ई में निशापुर में निधन हो गया, सहीह मुस्लिम के लेखक हैं, यह किताब सहीह बुखारी के बाद प्रामाणिकता में दूसरा स्थान है। कुछ लोगों का मानना है की सहीह मुस्लिम, सहीह बुखारी से भी प्रामाणिक है।
अबू दाऊद सुलेमान बिन अशथ अल-सिजस्तान, एक फारसी लेकिन अरब मूल के, जो 275 / 888-9 में निधन हो गया।
मुहम्मद बिन 'ईसा अल-तिर्मिज़ी (अल-तिर्मिदी),सुनन अल-तिर्मिज़ी के में प्रसिद्ध लेखक, जो बुखारी के छात्र थे और 279 हिजरी / 892-3 ई में निधन हो गए।
अबू अब्द अल-रहमान अल-नसाई, जो खुरासन से थे और 303 हिजरी / 915-16 ई में उनकी मृत्यु हो गई।
इब्न माजा अल-काज़विनी, जो 273 हिजरी / 886-7 ई में निधन हो गए।
मालिक का जन्म अनस इब्न मलिक (सहबी नहीं) और अलीयाह बिन शुरायक अल-अज़दियाया के पुत्र 711 के आसपास मदीना में हुआ था। उनका परिवार मूल रूप से यमन के अल-असबाही जनजाति से था, लेकिन उनके बड़े दादा अबू अमीर ने परिवार को स्थानांतरित कर दिया हिजरी कैलेंडर के दूसरे वर्ष में इस्लाम में परिवर्तित होने के बाद मदीना, या 623 सीई। अल-मुवत्ता के मुताबिक, वह एक विशाल दाढ़ी और नीली आँखों के साथ, सफेद बाल और दाढ़ी के साथ, काफी सुन्दर, भारी व्यक्ती थे। [9] कालक्रम के क्रम में उनके काम को सहीह बुखारी से पहले संकलित किया गया था, इसलिए अल-मुवत्ता इस्लामी साहित्य में अत्यधिक सम्मानित है।
यह भी देखें
अलक़ामा इब्न वक्कास
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ | सुनन इब्न माजाह के लेखक कौन थे? | इब्न मजाह | 1,668 | hindi |
f6ce5b0a2 | रोमन साम्राज्य (27 ई.पू. –- 476 (पश्चिम); 1453 (पूर्व)) यूरोप के रोम नगर में केन्द्रित एक साम्राज्य था। इस साम्राज्य का विस्तार पूरे दक्षिणी यूरोप के अलावे उत्तरी अफ्रीका और अनातोलिया के क्षेत्र थे। फारसी साम्राज्य इसका प्रतिद्वंदी था जो फ़ुरात नदी के पूर्व में स्थित था। रोमन साम्राज्य में अलग-अलग स्थानों पर लातिनी और यूनानी भाषाएँ बोली जाती थी और सन् १३० में इसने ईसाई धर्म को राजधर्म घोषित कर दिया था।
यह विश्व के सबसे विशाल साम्राज्यों में से एक था। यूँ तो पाँचवी सदी के अन्त तक इस साम्राज्य का पतन हो गया था और इस्तांबुल (कॉन्स्टेन्टिनोपल) इसके पूर्वी शाखा की राजधानी बन गई थी पर सन् १४५३ में उस्मानों (ऑटोमन तुर्क) ने इसपर भी अधिकार कर लिया था। यह यूरोप के इतिहास और संस्कृति का एक महत्वपूर्ण अंग है।
साम्राज्य निर्माण
रोमन साम्राज्य रोमन गणतंत्र का परवर्ती था। ऑक्टेवियन ने जूलियस सीज़र के सभी संतानों को मार दिया तथा इसके अलावा उसने मार्क एन्टोनी को भी हराया जिसके बाद मार्क ने खुदकुशी कर ली। इसके बाद ऑक्टेवियन को रोमन सीनेट ने ऑगस्टस का नाम दिया। वह ऑगस्टस सीज़र के नाम से सत्तारूढ़ हुआ। इसके बाद सीज़र नाम एक पारिवारिक उपनाम से बढ़कर एक पदवी स्वरूप नाम बन गया। इससे निकले शब्द ज़ार (रूस में) और कैज़र (जर्मन और तुर्क) आज भी विद्यमान हैं।
गृहयुद्धों के कारण रामन प्रातों (लीजन) की संख्या 50 से घटकर 28 तक आ गई थी। जिस प्रांत की वफ़ादारी पर शक था उन्हें साम्राज्य से सीधे निकाल दिया गया। डैन्यूब और एल्बे नदी पर अपनी सीमा को तय करने के लिए ऑक्टेवियन (ऑगस्टस) ने इल्लीरिया, मोएसिया, पैन्नोनिया और जर्मेनिया पर चढ़ाई के आदेश दिए। उसके प्रयासों से राइन और डैन्यूब नदियाँ उत्तर में उसके साम्राज्यों की सीमा बन गईं।
ऑगस्टस के बाद टाइबेरियस सत्तारूढ़ हुआ। वह जूलियस की तीसरी पत्नी की पहली शादी से हुआ पुत्र था। उसका शासन शांतिपूर्ण रहा। इसके बाद कैलिगुला आया जिसकी सन् 41 में हत्या कर दी गई। परिवार का एक मात्र वारिस क्लाउडियस शासक बना। सन् 43 में उसने ब्रिटेन (दक्षिणार्ध) को रोमन उपनिवेश बना दिया। इसके बाद नीरो का शासन आया जिसने सन 58-63 के बीच पार्थियनों (फारसी साम्राज्य) के साथ सफलता पूर्वक शांति समझौता कर लिया। वह रोम में लगी एक आग के कारण प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि सन् 64 में जब रोम आग में जल रहा था तो वह वंशी बजाने में व्यस्त था। सन् 68 में उसे आत्महत्या के लिए मजबूर होना पड़ा। सन् 68-69 तक रोम में अराजकता छाई रही और गृहयुद्ध हुए। सन् 69-96 तक फ्लाव वंश का शासन आया। पहले शासक वेस्पेसियन ने स्पेन में कई सुधार कार्यक्रम चलाए। उसने कोलोसियम (एम्फीथियेटरम् फ्लावियन) के निर्माण की आधारशिला भी रखी।
सन् 96-180 के काल को पाँच अच्छे सम्राटों का काल कहा जाता है। इस समय के राजाओं ने साम्राज्य में शांतिपूर्ण ढंग से शासन किया। पूर्व में पार्थियन साम्राज्य से भी शांतिपूर्ण सम्बन्ध रहे। हँलांकि फारसियों से अर्मेनिया तथा मेसोपोटामिया में उनके युद्ध हुए पर उनकी विजय और शांति समझौतों से साम्राज्य का विस्तार बना रहा। सन् 180 में कॉमोडोस जो मार्कस ऑरेलियस सा बेटा था शासक बना। उसका शासन पहले तो शांतिपूर्ण रहा पर बाद में उसके खिलाफ़ विद्रोह और हत्या के प्रयत्न हुए। इससे वह भयभीत और इसके कारम अत्याचारी बनता गया।
सेरेवन वंश के समय रोम के सभी प्रातवासियों को रोमन नागरिकता दे दी गई। सन् 235 तक यह वंश समाप्त हो गया। इसके बाद रोम के इतिहास में संकट का काल आया। पूरब में फारसी साम्राज्य शक्तिशाली होता जा रहा था। साम्राज्य के अन्दर भी गृहयुद्ध की सी स्थिति आ गई थी। सन् 305 में कॉन्स्टेंटाइन का शासन आया। इसी वंश के शासनकाल में रोमन साम्राज्य विभाजित हो गया। सन् 360 में इस साम्राज्य के पतन के बाद साम्राज्य धीरे धीरे कमजोर होता गया। पाँचवीं सदी तक साम्राज्य का पतन होने लगा और पूर्वी रोमन साम्राज्य पूर्व में सन् 1453 तक बना रहा।
शासक सूची
ऑगस्टस सीजर (27 ईसापूर्व - 14 इस्वी)
टाइबेरियस (14-37)
केलिगुला (37-41)
क्लॉडिअस (41-54)
नीरो (54-68)
फ़्लावी वंश (69-96)
नेर्वा (96-98)
ट्राजन (98-117)
हेद्रिअन (117-138)
एन्टोनियो पिएस
मार्कस ऑरेलियस (161-180)
कॉमोडोस (180-192)
सेवेरन वंश (193-235)
कॉन्सेन्टाइन वंश (305-363)
वेलेंटाइनियन वंश (364-392)
थियोडोसियन वंश (379-457)
पश्चिमी रोमन साम्राज्य का पतन - (395-476)
पूर्वी रोमन साम्राज्य (393-1453)
इन्हें भी देखें
पवित्र रोमन साम्राज्य
रोमन गणराज्य
श्रेणी:यूरोप का इतिहास
श्रेणी:साम्राज्य
श्रेणी:रोमन साम्राज्य
श्रेणी:प्राचीन सभ्यताएँ
* | रोमन साम्राज्य का अंत किस साल में हुआ था? | 1453 | 42 | hindi |
1f95e735c | तंजौर बालासरस्वती एक भारतीय नर्तक है जो भरतनाट्यम, शास्त्रीय नृत्य के लिए जानी जाती है। १९५७ में उन्हें पद्म भूषण[1] से सम्मानित किया गया और १९७७ में पद्म विभूषण[2], भारत सरकार द्वारा दिए गए तीसरे और दूसरे उच्चतम नागरिक सम्मान से सम्मानीत किया। १९८१ में उन्हें भारतीय फाइन आर्ट्स सोसाइटी, चेन्नई के संगीता कलासिखमनी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
जीवनी
बालासरस्वती का जन्म १३ मई १९१८ मद्रास प्रेसीडेंसी, ब्रिटिश भारत हुआ था।
उनके पूर्वज पैम्म्मल एक संगीतकार और नर्तक थे। उनकी दादी, विना धनमल (१८६७-१९३८) बीसवीं शताब्दी की एक सबसे प्रभावशाली संगीतकार मानी जाती है।
उनकी मां, जयाम्मल (१८९१-१९६७) एक गायक थीं। उन्होंने १९३४ में कलकत्ता में पहली बार दक्षिण भारत के बाहर अपनी परंपरागत शैली का पहला प्रदर्शन करने वाली पहली महिला थी।
पुरस्कार
उन्होंने भारत में कई नाटक पुरस्कार प्राप्त किए, जिसमें संगीत नाटक अकादमी (१९५५) से राष्ट्रपति का पुरस्कार शामिल था। प्रतिष्ठित राष्ट्रीय सेवा के लिए भारत सरकार से पद्मविभूषण (१९७७), मद्रास संगीत अकादमी से संगिता कलानिधि, संगीतकारों के लिए दक्षिण भारत का सर्वोच्च पुरस्कार (१९७३)।
बंगाली फिल्म निर्देशक सत्यजीत रे ने एक वृत्तचित्र फिल्म बनाई बालासरस्वती पर बाला (१९७६)।[3]
सन्दर्भ
श्रेणी:भारतीय नर्तक
श्रेणी:भारतीय महिला शास्त्रीय नर्तक
श्रेणी:१९८४ में निधन
श्रेणी:१९५७ पद्म भूषण
श्रेणी:पद्म विभूषण धारक
श्रेणी:पद्म भूषण सम्मान प्राप्तकर्ता
श्रेणी:तमिलनाडु के लोग | बालसरस्वती का जन्म कब हुआ था? | १३ मई १९१८ | 373 | hindi |
94c94d7da | आचार्य विनोबा भावे (11 सितम्बर 1895 - 15 नवम्बर 1982) भारत के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, सामाजिक कार्यकर्ता तथा प्रसिद्ध गांधीवादी नेता थे। उनका मूल नाम विनायक नारहरी भावे था। उन्हे भारत का राष्ट्रीय आध्यापक और महात्मा गांधी का आध्यातमिक उत्तराधीकारी समझा जाता है। उन्होने अपने जीवन के आखरी वर्ष पोनार, महाराष्ट्र के आश्रम में गुजारे। उन्होंने भूदान आन्दोलन चलाया। इंदिरा गांधी द्वारा घोषित आपातकाल को 'अनुशासन पर्व' कहने के कारण वे विवाद में भी थे।
जीवन परिचय
विनोबा भावे का मूल नाम विनायक नरहरि भावे था। महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र में एक गांव है, गागोदा. यहां के चितपावन ब्राह्मण थे, नरहरि भावे. गणित के प्रेमी और वैज्ञानिक सूझबूझ वाले. रसायन विज्ञान में उनकी रुचि थी। उन दिनों रंगों को बाहर से आयात करना पड़ता था। नरहरि भावे रात-दिन रंगों की खोज में लगे रहते. बस एक धुन थी उनकी कि भारत को इस मामले में आत्मनिर्भर बनाया जा सके। उनकी माता रुक्मिणी बाई विदुषी महिला थीं। उदार-चित्त, आठों याम भक्ति-भाव में डूबी रहतीं. इसका असर उनके दैनिक कार्य पर भी पड़ता था। मन कहीं ओर रमा होता तो कभी सब्जी में नमक कम पड़ जाता, कभी ज्यादा. कभी दाल के बघार में हींग डालना भूल जातीं तो कभी बघार दिए बिना ही दाल परोस दी जाती. पूरा घर भक्ति रस से सराबोर रहता था। इसलिए इन छोटी-मोटी बातों की ओर किसी का ध्यान ही नहीं जाता था। उसी सात्विक वातावरण में 11 सितंबर 1895 को विनोबा का जन्म हुआ। उनका बचपन का नाम था विनायक. मां उन्हें प्यार से विन्या कहकर बुलातीं. विनोबा के अलावा रुक्मिणी बाई के दो और बेटे थे: वाल्कोबा और शिवाजी. विनायक से छोटे वाल्कोबा. शिवाजी सबसे छोटे. विनोबा नाम गांधी जी ने दिया था। महाराष्ट्र में नाम के पीछे ‘बा’ लगाने का जो चलन है, उसके अनुसार. तुकोबा, विठोबा और विनोबा.
मां का स्वभाव विनायक ने भी पाया था। उनका मन भी हमेशा अध्यात्म चिंतन में लीन रहता. न उन्हें खाने-पीने की सुध रहती थी। न स्वाद की खास पहचान थीं। मां जैसा परोस देतीं, चुपचाप खा लेते. रुक्मिणी बाई का गला बड़ा ही मधुर था। भजन सुनते हुए वे उसमें डूब जातीं. गातीं तो भाव-विभोर होकर, पूरे वातावरण में भक्ति-सलिला प्रवाहित होने लगती. रामायण की चैपाइयां वे मधुर भाव से गातीं. ऐसा लगता जैसे मां शारदा गुनगुना रही हो। विनोबा को अध्यात्म के संस्कार देने, उन्हें भक्ति-वेदांत की ओर ले जाने में, बचपन में उनके मन में संन्यास और वैराग्य की प्रेरणा जगाने में उनकी मां रुक्मिणी बाई का बड़ा योगदान था। बालक विनायक को माता-पिता दोनों के संस्कार मिले। गणित की सूझ-बूझ और तर्क-सामथ्र्य, विज्ञान के प्रति गहन अनुराग, परंपरा के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण और तमाम तरह के पूर्वाग्रहों से अलग हटकर सोचने की कला उन्हें पिता की ओर से प्राप्त हुई। जबकि मां की ओर से मिले धर्म और संस्कृति के प्रति गहन अनुराग, प्राणीमात्र के कल्याण की भावना. जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण, सर्वधर्म समभाव, सहअस्तित्व और ससम्मान की कला. आगे चलकर विनोबा को गांधी जी का आध्यात्मिक उत्तराधिकारी माना गया। आज भी कुछ लोग यही कहते हैं। मगर यह विनोबा के चरित्र का एकांगी और एकतरफा विश्लेषण है। वे गांधी जी के ‘आध्यात्मिक उत्तराधिकारी’ से बहुत आगे, स्वतंत्र सोच के स्वामी थे। मुख्य बात यह है कि गांधी जी के प्रखर प्रभामंडल के आगे उनके व्यक्तित्व का स्वतंत्र मूल्यांकन हो ही नहीं पाया।
महात्मा गांधी राजनीतिक जीव थे। उनकी आध्यात्मिक चेतना सुबह-शाम की आरती और पूजा-पाठ तक सीमित थी। जबकि उनकी धर्मिक-चेतना उनके राजनीतिक कार्यक्रमों के अनुकूल और समन्वयात्मक थी। उसमें आलोचना-समीक्षा भाव के लिए कोई स्थान नहीं था। धर्म-दर्शन के मामले में यूं तो विनोबा भी समर्पण और स्वीकार्य-भाव रखते थे। मगर उन्हें जब भी अवसर मिला धर्म-ग्रंथों की व्याख्या उन्होंने लीक से हटकर की। चाहे वह ‘गीता प्रवचन’ हों या संत तुकाराम के अभंगों पर लिखी गई पुस्तक ‘संतप्रसाद’. इससे उसमें पर्याप्त मौलिकता और सहजता है। यह कार्य वही कर सकता था जो किसी के भी बौद्धिक प्रभामंडल से मुक्त हो। एक बात यह भी महात्मा गांधी के सान्न्ध्यि में आने से पहले ही विनोबा आध्यात्मिक ऊंचाई प्राप्त कर चुके थे। आश्रम में आनने के बाद भी वे अध्ययन-चिंतन के लिए नियमित समय निकालते थे। विनोबा से पहली ही मुलाकात में प्रभावित होने पर गांधी जी ने सहज-मन से कहा था—
बाकी लोग तो इस आश्रम से कुछ लेने के लिए आते हैं, एक यही है जो हमें कुछ देने के लिए आया है।
दर्शनशास्त्र उनका प्रिय विषय था। आश्रम में दाखिल होने के कुछ महिनों के भीतर ही दर्शनशास्त्र की आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने एक वर्ष का अध्ययन अवकाश लिया था।
बचपन
विनोबा के यूं तो दो छोटे भाई और भी थे, मगर मां का सर्वाधिक वात्सल्य विनायक को ही मिला। भावनात्मक स्तर पर विनोबा भी खुद को अपने पिता की अपेक्षा मां के अधिक करीब पाते थे। यही हाल रुक्मिणी बाई का था, तीनों बेटों में ‘विन्या’ उनके दिल के सर्वाधिक करीब था। वे भजन-पूजन को समर्पित रहतीं. मां के संस्कारों का प्रभाव. भौतिक सुख-सुविधाओं के प्रति उदासीनता और त्याग की भावना किशोरावस्था में ही विनोबा के चरित्र का हिस्सा बन चुकी थी। घर का निर्जन कोना उन्हें ज्यादा सुकून देता. मौन उनके अंतर्मन को मुखर बना देता. वे घर में रहते, परिवार में सबके बीच, मगर ऐसे कि सबके साथ रहते हुए भी जैसे उनसे अलग, निस्पृह और निरपेक्ष हों. नहीं तो मां के पास, उनके सान्न्ध्यि में. ‘विन्या’ उनके दिल, उनकी आध्यात्मिक मन-रचना के अधिक करीब था। मन को कोई उलझन हो तो वही सुलझाने में मदद करता. कोई आध्यात्मिक समस्या हो तो भी विन्या ही काम आता. यहां तक कि यदि पति नरहरि भावे भी कुछ कहें तो उसमें विन्या का निर्णय ही महत्त्वपूर्ण होता था। ऐसा नहीं है कि विन्या एकदम मुक्त या नियंत्रण से परे था। परिवार की आचार संहिता विनोबा पर भी पूरी तरह लागू होती थी। बल्कि विनोबा के बचपन की एक घटना है। रुक्मिणी बाई ने बच्चों के लिए एक नियम बनाया हुआ था कि भोजन तुलसी के पौघे को पानी देने के बाद ही मिलेगा. विन्या बाहर से खेलकर घर पहुंचते, भूख से आकुल-व्याकुल. मां के पास पहुंचते ही कहते:
‘मां, भूख लगी है, रोटी दो.’
‘रोटी तैयार है, लेकिन मिलेगी तब पहले तुलसी को पानी पिलाओ.’ मां आदेश देती.
‘नहीं मां, बहुत जोर की भूख लगी है।’ अनुनय करते हुए बेटा मां की गोद में समा जाता. मां को उसपर प्यार हो आता. परंतु नियम-अनुशासन अटल—
‘तो पहले तुलसी के पौधे की प्यास बुझा.’ बालक विन्या तुलसी के पौधे को पानी पिलाता, फिर भोजन पाता.
रुक्मिणी सोने से पहले समर्थ गुरु रामदास की पुस्तक ‘दास बोध’ का प्रतिदिन अध्ययन करतीं. उसके बाद ही वे चारपाई पर जातीं. बालक विन्या पर इस असर पड़ना स्वाभाविक ही था। वे उसे संत ज्ञानेश्वर, तुकाराम, नामदेव और शंकराचार्य की कथाएं सुनातीं. रामायण, महाभारत की कहानियां, उपनिषदों के तत्व ज्ञान के बारे में समझातीं. संन्यास उनकी भावनाओं पर सवार रहता. लेकिन दुनिया से भागने के बजाय लोगों से जुड़ने पर वे जोर देतीं. संसार से भागने के बजाय उसको बदलने का आग्रह करतीं. अक्सर कहतीं—‘विन्या, गृहस्थाश्रम का भली-भांति पालन करने से पितरों को मुक्ति मिलती है।’ लेकिन विन्या पर तो गुरु रामदास, संत ज्ञानेश्वर और शंकराचार्य का भूत सवार रहता. इन सभी महात्माओं ने अपनी आध्यात्मिक तृप्ति के लिए बहुत कम आयु में अपने माता-पिता और घर-परिवार का बहिष्कार किया था। वे कहते—
‘मां जिस तरह समर्थ गुरु रामदास घर छोड़कर चले गए थे, एक दिन मुझे भी उसी तरह प्रस्थान कर देना है।’
ऐसे में कोई और मां होती तो हिल जाती. विचारमात्र से रो-रोकर आसमान सिर पर उठा लेती. क्योंकि लोगों की सामान्य-सी प्रवृत्ति बन चुकी है कि त्यागी, वैरागी होना अच्छी बात, महानता की बात, मगर तभी तक जब त्यागी और वैरागी दूसरे के घर में हों. अपने घर में सब साधारण सांसारिक जीवन जीना चाहते हैं। मगर रुक्मिणी बाई तो जैसे किसी और ही मिट्टी की बनी थीं। वे बड़े प्यार से बेटे को समझातीं—
‘विन्या, गृहस्थाश्रम का विधिवत पालन करने से माता-पिता तर जाते हैं। मगर बृह्मचर्य का पालन करने से तो 41 पीढ़ियों का उद्धार होता है।’
बेटा मां के कहे को आत्मसात करने का प्रयास कर ही रहा होता कि वे आगे जोड़ देतीं-
‘विन्या, अगर मैं पुरुष होती तो सिखाती कि वैराग्य क्या होता है।’
बचपन में बहुत कुशाग्र बुद्धि थे विनोबा. गणित उनका प्रिय विषय था। कविता और अध्यात्म चेतना के संस्कार मां से मिले। उन्हीं से जड़ और चेतन दोनों को समान दृष्टि से देखने का बोध जागा. मां बहुत कम पढ़ी-लिखी थीं। पर उन्होने की विन्या को अपरिग्रह, अस्तेय के बारे में अपने आचरण से बताया। संसार में रहते हुए भी उससे निस्पृह-निर्लिप्त रहना सिखाया. मां का ही असर था कि विन्या कविता रचते और और उन्हें आग के हवाले कर देते. दुनिया में जब सब कुछ अस्थाई और क्षणभंगुर है, कुछ भी साथ नहीं जाना तो अपनी रचना से ही मोह क्यों पाला जाए. उनकी मां यह सब देखतीं, सोचतीं, मगर कुछ न कहतीं. मानो विन्या को बड़े से बड़े त्याग के लिए तैयार कर रही हों. विनोबा की गणित की प्रवीणता और उसके तर्क उनके आध्यात्मिक विश्वास के आड़े नहीं आते थे। यदि कभी दोनों के बीच स्पर्धा होती भी तो जीत आध्यात्मिक विश्वास की ही होती. आज वे घटनाएं मां-बेटे के आपसी स्नेह-अनुराग और विश्वास का ऐतिहासिक दस्तावेज हैं।
रुक्मिणी बाई हर महीने चावल के एक लाख दाने दान करती थीं। एक लाख की गिनती करना भी आसान न था, सो वे पूरे महीने एक-एक चावल गिनती रहतीं. नरहरि भावे पत्नी को चावल गिनते में श्रम करते देख मुस्कराते. कम उम्र में ही आंख कमजोर पड़ जाने से डर सताने लगता. उनकी गणित बुद्धि कुछ और ही कहती. सो एक दिन उन्होंने रुक्मिणी बाई को टोक ही दिया—‘इस तरह एक-एक चावल गिनने में समय जाया करने की जरूरत ही क्या है। एक पाव चावल लो. उनकी गिनती कर लो. फिर उसी से एक लाख चावलों का वजन निकालकर तौल लो. कमी न रहे, इसलिए एकाध मुट्ठी ऊपर से डाल लो.’ बात तर्क की थी। लौकिक समझदारी भी इसी में थी कि जब भी संभव हो, दूसरे जरूरी कार्यों के लिए समय की बचत की जाए. रुक्मिणी बाई को पति का तर्क समझ तो आता. पर मन न मानता. एक दिन उन्होंने अपनी दुविधा विन्या के सामने प्रकट करने के बाद पूछा—
‘इस बारे में तेरा क्या कहना है, विन्या?’
बेटे ने सबकुछ सुना, सोचा। बोला, ‘मां, पिता जी के तर्क में दम है। गणित यही कहता है। किंतु दान के लिए चावल गिनना सिर्फ गिनती करना नहीं है। गिनती करते समय हर चावल के साथ हम न केवल ईश्वर का नाम लेते जाते हैं, बल्कि हमारा मन भी उसी से जुड़ा रहता है।’ ईश्वर के नाम पर दान के लिए चावल गिनना भी एक साधना है, रुक्मिणी बाई ने ऐसा पहले कहां सोचा था। अध्यात्मरस में पूरी तरह डूबी रहने वाली रुक्मिणी बाई को ‘विन्या’ की बातें खूब भातीं. बेटे पर गर्व हो आता था उन्हें. उन्होंने आगे भी चावलों की गिनती करना न छोड़ा. न ही इस काम से उनके मन कभी निरर्थकता बोध जागा.
ऐेसी ही एक और घटना है। जो दर्शाती है कि विनोबा कोरी गणितीय गणनाओं में आध्यात्मिक तत्व कैसे खोज लेते थे। घटना उस समय की है जब वे गांधी जी के आश्रम में प्रवेश कर चुके थे तथा उनके रचनात्मक कार्यों में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे थे। आश्रम में सुबह-शाम प्रार्थना सभाएं होतीं. उनमें उपस्थित होने वाले आश्रमवासियों की नियमित गिनती की जाती. यह जिम्मेदारी एक कार्यकर्ता थी। प्रसंग यह है कि एक दिन प्रार्थना सभा के बाद जब उस कार्यकर्ता ने प्रार्थना में उपस्थित हुए आगंतुकों की संख्या बताई तो विनोबा झट से प्रतिवाद करते हुए बोले—
‘नहीं इससे एक कम थी।’
कार्यकर्ता को अपनी गिनती पर विश्वास था, इसलिए वह भी अपनी बात पर अड़ गया। कर्म मंे विश्वास रखने वाले विनोबा आमतौर पर बहस में पड़ने से बचते थे। मगर उस दिन वे भी अपनी बात पर अड़ गए। आश्रम में विवादों का निपटान बापू की अदालत में होता था। गांधी जी को अपने कार्यकर्ता पर विश्वास था। मगर जानते थे कि विनोबा यूं ही बहस में नहीं पड़ने वाले. वास्तविकता जानने के लिए उन्होंने विनोबा की ओर देखा. तब विनोबा ने कहा—‘प्रार्थना में सम्मिलित श्रद्धालुओं की संख्या जितनी इन्होंने बताई उससे एक कम ही थी।’
‘वह कैसे?’
‘इसलिए कि एक आदमी का तो पूरा ध्यान वहां उपस्थित सज्जनों की गिनती करने में लगा था।’
गांधीजी विनोबा का तर्क समझ गए। प्रार्थना के काम में हिसाब-किताब और दिखावे की जरूरत ही क्या. आगे से प्रार्थना सभा में आए लोगों की गिनती का काम रोक दिया गया।
युवावस्था के प्रारंभिक दौर में ही विनोबा आजन्म ब्रह्मचारी रहने की ठान चुके थे। वही महापुरुष उनके आदर्श थे जिन्होंने सत्य की खोज के लिए बचपन में ही वैराग्य ओढ़ लिया था। और जब संन्यास धारण कर ब्रह्मचारी बनना है, गृहस्थ जीवन से नाता ही तोड़ना है तो क्यों न मन को उसी के अनुरूप तैयार किया जाए. क्यों उलझा जाए संबंधों की मीठी डोर, सांसारिक प्रलोभनों में. ब्रह्मचर्य की तो पहली शर्त यही है कि मन को भटकने से रोका जाए. वासनाओं पर नियंत्रण रहे। किशोर विनायक से किसी ने कह दिया था कि ब्रह्मचारी को किसी विवाह के भोज में सम्मिलित नहीं होना चाहिए। वे ऐसे कार्यक्रमों में जाने से अक्सर बचते भी थे। पिता नरहरि भावे तो थे ही, यदि किसी और को ही जाना हुआ तो छोटे भाई चले जाते. विनोबा का तन दुर्बल था। बचपन से ही कोई न कोई व्याधि लगी रहती. मगर मन-मस्तिष्क पूरी तरह चैतन्य. मानो शरीर की सारी शक्तियां सिमटकर दिमाग में समा गई हांे. स्मृति विलक्षण थी। किशोर विनायक ने वेद, उपनिषद के साथ-साथ संत ज्ञानेश्वर, तुकाराम, नामदेव के सैकड़ों पद अच्छी तरह याद कर लिए थे। गीता उन्हें बचपन से ही कंठस्थ थी। आगे चलकर चालीस हजार श्लोक भी उनके मानस में अच्छी तरह रम गए।
विनायक की बड़ी बहन का विवाह तय हुआ तो मानो परीक्षा की घड़ी भी करीब आ गई। उन्होंने तय कर लिया कि विवाह के अवसर पर भोज से दूर रहेंगे. कोई टोका-टाकी न करे, इसलिए उन्होंने उस दिन उपवास रखने की घोषणा कर दी। बहन के विवाह में भाई उपवास रखे, यह भी उचित न था। पिता तो सुनते ही नाराज हो गए। मगर मां ने बात संभाल ली। उन्होंने बेटे को साधारण ‘दाल-भात’ खाने के लिए राजी कर लिया। यही नहीं अपने हाथों से अलग पकाकर भी दिया। धूम-धाम से विवाह हुआ। विनायक ने खुशी-खुशी उसमें हिस्सा लिया। लेकिन अपने लिए मां द्वारा खास तौर पर बनाए दाल-भात से ही गुजारा किया। मां-बेटे का यह प्रेम आगे भी बना रहा। आगे चलकर जब संन्यास के लिए घर छोड़ा तो मां की एक लाल किनारी वाली धोती और उनके पूजाघर से एक मूति साथ ले गए। मूर्ति तो उन्होंने दूसरे को भेंट कर दी थी। मगर मां की धोती जहां भी वे जाते, अपने साथ रखते. सोते तो सिरहाने रखकर. जैसे मां का आशीर्वाद साथ लिए फिरते हों. संन्यासी मन भी मां की स्मृतियों से पीछा नहीं छुटा पाया था। मां के संस्कार ही विनोबा की आध्यात्मिक चेतना की नींव बने। उन्हीं पर उनका जीवनदर्शन विकसित हुआ। आगे चलकर उन्होंने रचनात्मकता और अध्यात्म के क्षेत्र में जो ख्याति अर्जित की उसके मूल में भी मां की ही प्रेरणाएं थीं।
रुक्मिणी बाई कम पढ़ी-लिखीं थीं। संस्कृत समझ नहीं आती थीं। लेकिन मन था कि गीता-ज्ञान के लिए तरसता रहता. एक दिन मां ने अपनी कठिनाई पुत्र के समक्ष रख ही दी—
‘विन्या, संस्कृत की गीता समझ में नहीं आती.’ विनोबा जब अगली बार बाजार गए, गीता के तीन-चार मराठी अनुवाद खरीद लाए. लेकिन उनमें भी अनुवादक ने अपना पांडित्य प्रदर्शन किया था।
‘मां बाजार में यही अनुवाद मिले.’ विन्या ने समस्या बताई. ऐसे बोझिल और उबाऊ अनुवाद अपनी अल्पशिक्षित मां के हाथ में थमाते हुए वे स्वयं दुःखी थे।
‘तो तू नहीं क्यों नहीं करता नया अनुवाद.’ मां ने जैसे चुनौती पेश की. विनोबा उसके लिए पूरी तरह तैयार नहीं थे।
‘मैं, क्या मैं कर सकूंगा?’ विनोबा ने हैरानी जताई. उस समय उनकी अवस्था मात्र 21 वर्ष थी। पर मां को बेटे की क्षमता पर पूरा विश्वास था।
‘तू करेगा...तू कर सकेगा विन्या!’ मां के मुंह से बरबस निकल पड़ा. मानो आशीर्वाद दे रही हो. गीता के प्रति विनोबा का गहन अनुराग पहले भी था। परंतु उसका वे भास्य लिखेंगे और वह भी मराठी में यह उन्होंने कभी नहीं सोचा था। लेकिन मां की इच्छा भी उनके लिए सर्वोपरि थी। धीरे-धीरे उनका आत्मविश्वास बढ़ता गया। गीता पहले भी उन्हें भाती थी। अब तो जैसे हर आती-जाती सांस गीता का पाठ करने लगी. सांस-सांस गीता हो गया। यह सोचकर कि मां मे निमित्त काम करना है। दायित्वभार साधना है। विनोबा का मन गीता हो गया। उसी साल 7 अक्टूबर को उन्होंने अनुवादकर्म के निमित्त कलम उठाई. उसके बाद तो प्रातःकाल स्नानादि के बाद रोत अनुवाद करना, उनकी दिनचर्या का हिस्सा बन गया। यह काम 1931 तक चला. परंतु जिसके लिए वह संकल्प साधा था, वह उस उपलब्धि को देख सकीं. मां रुक्मिणी बाई का निधन 24 अक्टूबर 1918 को ही हो चुका था। विनोबा ने इसे भी ईश्वर इच्छा माना और अनुवादकार्य में लगे रहे.
विनोबा धार्मिक संस्कारों में पाखंड के विरोधी थे। मां के निधन के समय भी विनोबा का अपने पिता और भाइयों से मतभेद हुआ। विनोबा ब्राह्मणों के हाथ से परंपरागत तरीके से दाह-संस्कार का विरोध कर रहे थे। लेकिन परिवार वालों की जिद के आगे उनकी एक न चली. विनोबा भी अपने सिद्धांतों पर अडिग थे। नतीजा यह कि जिस मां को वे सबसे अधिक चाहते थे, जो उनकी आध्यात्मिक गुरु थीं, उनके अंतिम संस्कार से वे दूर ही रहे। मां को उन्होंने भीगी आंखों से मौन विदाई दी। आगे चलकर 29 अक्टूबर 1947 को विनोबा के पिता का निधन हुआ तो उन्होंने वेदों के निर्देश कि ‘मिट्टी पर मिट्टी का ही अधिकार है’ का पालन करते हुए उनकी देह को अग्नि-समर्पित करने के बजाय, मिट्टी में दबाने जोर दिया। तब तक विनोबा संत विनोबा हो चुके थे। गांधी जी का उन्हें आशीर्वाद था। इसलिए इस बार उन्हीं की चली.
मां की गीता में आस्था थी। वे विनोबा को गीता का मराठी में अनुवाद करने का दायित्व सौंपकर गई थीं। विनोबा उस कार्य में मनोयोग से लगे थे। आखिर अनुवाद कर्म पूरा हुआ। पुस्तक का नाम रखा गया- गीताई. गीता़+आई = गीताई. महाराष्ट्र में ‘आई’ का अभिप्राय ‘मां के प्रति’ से है; यानी मां की स्मृति उसके नेह से जुड़ी-रची गीता. पुत्र की कृति को देखने के लिए तो रुक्मिणी बाई जीवित नहीं थीं। मगर उनकी याद और अभिलाषा से जुड़ी गीताई, महाराष्ट्र के घर-घर में माताओं और बहनों के कंठ-स्वर में ढलने लगी। उनकी अध्यात्म चेतना का आभूषण बन गई। गांधी जी ने सुना तो अनुवाद कर्म की भूरि-भूरि प्रशंसा की। जो महिलाएं संस्कृत नहीं जानती थीं, जिन्हें अपनी भाषा का भी आधा-अधूरा ज्ञान था, उनके लिए सहज-सरल भाषा में रची गई ‘गीताई’, गीता की आध्यात्मिकता में डूबने के लिए वरदान बन गई।
संन्यास की साध
विनोबा को बचपन में मां से मिले संस्कार युवावस्था में और भी गाढ़े होते चले गए। युवावस्था की ओर बढ़ते हुए विनोबा न तो संत ज्ञानेश्वर को भुला पाए थे, न तुकाराम को। वही उनके आदर्श थे। संत तुकाराम के अभंग तो वे बड़े ही मनोयोग से गाते. उनका अपने आराध्य से लड़ना-झगड़ना, नाराज होकर गाली देना, रूठना-मनाना उन्हें बहुत अच्छा लगता. संत रामदास का जीवन भी उन्हें प्रेरणा देता. वे न शंकराचार्य को विस्मृत कर पाए थे, न उनके संन्यास को। दर्शन उनका प्रिय विषय था। हिमालय जब से होश संभाला था, तभी से उनकी सपनों में आता था और वे कल्पना में स्वयं को सत्य की खोज में गहन कंदराओं में तप-साधना करते हुए पाते. वहां की निर्जन, वर्फ से ढकी दीर्घ-गहन कंदराओं में उन्हें परमसत्य की खोज में लीन हो जाने के लिए उकसातीं.
1915 में उन्होंने हाई स्कूल की परीक्षा पास की। अब आगे क्या पढ़ा जाए. वैज्ञानिक प्रवृत्ति के पिता और अध्यात्म में डूबी रहने वाली मां का वैचारिक द्वंद्व वहां भी अलग-अलग धाराओं में प्रकट हुआ। पिता ने कहाµ‘फ्रेंच पढ़ो.’ मां बोलीं—‘ब्राह्मण का बेटा संस्कृत न पढ़े, यह कैसे संभव है!’ विनोबा ने उन दोनों का मन रखा। इंटर में फ्रेंच को चुना। संस्कृत का अध्ययन उन्होंने निजी स्तर पर जारी रखा। उन दिनों फ्रेंच ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में हो रही क्रांति की भाषा थी। सारा परिवर्तनकामी साहित्य उसमें रचा जा रहा था। दूसरी ओर बड़ौदा का पुस्तकालय दुर्लभ पुस्तकों, पांडुलिपियों के खजाने के लिए पूरे देश में प्रसिद्ध था। विनोबा ने उस पुस्तकालय को अपना दूसरा ठिकाना बना दिया। विद्यालय से जैसे ही छुट्टी मिलती, वे पुस्तकालय में जाकर अध्ययन में डूब जाते. फ्रांसिसी साहित्य ने विनोबा का परिचय पश्चिमी देशों में हो रही वैचारिक क्रांति से कराया. संस्कृत के ज्ञान ने उन्हें वेदों और उपनिषदों में गहराई से पैठने की योग्यता दी। ज्ञान का स्तर बढ़ा, तो उसकी ललक भी बढ़ी. मगर मन से हिमालय का आकर्षण, संन्यास की साध, वैराग्यबोध न गया।
उन दिनों इंटर की परीक्षा के लिए मुंबई जाना पड़ता था। विनोबा भी तय कार्यक्रम के अनुसार 25 मार्च 1916 को मुंबई जाने वाली रेलगाड़ी में सवार हुए. उस समय उनका मन डावांडोल था। पूरा विश्वास था कि हाईस्कूल की तरह इंटर की परीक्षा भी पास कर ही लेंगे. मगर उसके बाद क्या? क्या यही उनके जीवन का लक्ष्य है? विनोबा को लग रहा था कि अपने जीवन में वे जो चाहते हैं, वह औपचारिक अध्ययन द्वारा संभव नहीं। विद्यालय के प्रमाणपत्र और कालिज की डिग्रियां उनका अभीष्ठ नहीं हैं। रेलगाड़ी अपनी गति से भाग रही थी। उससे सहस्र गुना तेज भाग रहा था विनोबा का मन. आखिर जीत मन की हुई। जैसे ही गाड़ी सूरत पहुंची, विनोबा उससे नीचे उतर आए। गाड़ी आगे बढ़ी पर विनोबा का मन दूसरी ओर खिंचता चला गया। दूसरे प्लेटफार्म पर पूर्व की ओर जाने वाली रेलगाड़ी मौजूद थी। विनोबा को लगा कि हिमालय एक बार फिर उन्हें आमंत्रित कर रहा है। गृहस्थ जीवन या संन्यास. मन में कुछ देर तक संघर्ष चला. ऊहापोह से गुजरते हुए उन्होंने उन्होंने निर्णय लिया और उसी गाड़ी में सवार हो गए। संन्यासी अपनी पसंदीदा यात्रा पर निकल पड़ा. इस हकीकत से अनजान कि इस बार भी जिस यात्रा के लिए वे ठान कर निकले हैं, वह उनकी असली यात्रा नहीं, सिर्फ एक पड़ाव है। जीवन से पलायन उनकी नियति नहीं। उन्हें तो लाखों-करोड़ों भारतीयों के जीवन की साध, उनके लिए एक उम्मीद बनकर उभरना है।
ब्रह्म की खोज, सत्य की खोज, संन्यास लेने की साध में विनोबा भटक रहे थे। उसी लक्ष्य के साथ उन्होंने घर छोड़ा था। हिमालय की ओर यात्रा जारी थी। बीच में काशी का पड़ाव आया। मिथकों के अनुसार भगवान शंकर की नगरी. हजारों वर्षों तक धर्म-दर्शन का केंद्र रही काशी. साधु-संतों और विचारकों का कुंभ. जिज्ञासुओं और ज्ञान-पिपासुओं को अपनी ओर आकर्षित करने वाली पवित्र धर्मस्थली. शंकराचार्य तक खुद को काशी-यात्रा के प्रलोभन से नहीं रोक पाए थे। काशी के गंगा घाट पर जहां नए विचार पनपे तो वितंडा भी अनगिनत रचे जाते रहे। उसी गंगा तट पर विनोबा भटक रहे थे। अपने लिए मंजिल की तलाश में. गुरु की तलाश में जो उन्हें आगे का रास्ता दिखा सके। जिस लक्ष्य के लिए उन्होंने घर छोड़ा था, उस लक्ष्य तक पहुंचने का मार्ग बता सके। भटकते हुए वे एक स्थान पर पहुंचे जहां कुछ सत्य-साधक शास्त्रार्थ कर रहे थे। विषय था अद्वैत और द्वैत में कौन सही. प्रश्न काफी पुराना था। लगभग बारह सौ वर्ष पहले भी इस पर निर्णायक बहस हो चुकी थी। शंकराचार्य और मंडन मिश्र के बीच. उस ऐतिहासिक बहस में द्वैतवादी मंडन मिश्र और उनकी पत्नी को शंकराचार्य ने पराजित किया था। वही विषय फिर उन सत्य-साधकों के बीच आ फंसा था। या कहो कि वक्त काटने के लिए दोनों पक्ष अपने-अपने तर्कों के साथ वितंडा रच रहे थे। और फिर बहस को समापन की ओर ले जाते हुए अचानक घोषणा कर दी गई कि अद्वैतवादी की जीत हुई है। विनोबा चैंके. उनकी हंसी छूट गई—
‘नहीं, अद्वैतवादी ही हारा है।’ विनोबा के मुंह से बेसाख्ता निकल पड़ा. सब उनकी ओर देखने लगे. एक युवा, जिसकी उम्र बीस-इकीस वर्ष की रही होगी, दिग्गज विद्वानों के निर्णय को चुनौती दे रहा था। उस समय यदि महान अद्वैतवादी शंकराचार्य का स्मरण न रहा होता तो वे लोग जरूर नाराज हो जाते. उन्हें याद आया, जिस समय शंकराचार्य ने मंडनमिश्र को पराजित किया, उस समय उनकी उम्र भी लगभग वही थी, जो उस समय विनोबा की थी।
‘यह तुम कैसे कह सकते हो, जबकि द्वैतवादी सबके सामने अपनी पराजय स्वीकार कर चुका है।’
‘नहीं यह अद्वैतवादी की ही पराजय है।’ विनोबा अपने निर्णय पर दृढ़ थे।
‘कैसे?’
‘जब कोई अद्वैतवादी द्वैतवादी से शास्त्रार्थ करना स्वीकार कर ले, तो समझो कि उसने पहले ही हार मान ली है।’ उस समय विनोबा के मन में अवश्य ही शंकराचार्य की छवि रही होगी. उनकी बात भी ठीक थी। जिस अद्वैतमत का प्रतिपादन बारह सौ वर्ष पहले शंकराचार्य मंडनमिश्र को पराजित करके कर चुके थे, उसकी प्रामाणिकता पर पुनः शास्त्रार्थ और वह भी बिना किसी ठोस आधार के. सिर्फ वितंडा के यह और क्या हो सकता है! वहां उपस्थित विद्वानों को विनोबा की बात सही लगी. कुछ साधु विनायक को अपने संघ में शामिल करने को तैयार हो गए। कुछ तो उन्हें अपना गुरु बनाने तक को तैयार थे। पर जो स्वयं भटक रहा हो, जो खुद गुरु की खोज में, नीड़ की तलाश में निकला हो, वह दूसरे को छाया क्या देगा! अपनी जिज्ञासा और असंतोष को लिए विनोबा वहां से आगे बढ़ गए। इस बात से अनजान कि काशी ही उन्हें आगे का रास्ता दिखाएगी और उन्हें उस रास्ते पर ले जाएगी, जिधर जाने के बारे उन्होंने अभी तक सोचा भी नहीं है। मगर जो उनकी वास्तविक मंजिल है।
गांधी से मुलाकात
एक ओर विनोबा संन्यास की साध में, सत्यान्वेषण की ललक लिए काशी की गलियों में, घाटों पर भटक रहे थे। वहीं दूसरी ओर एक और जिज्ञासु भारत को जानने, उसके हृदयप्रदेश की धड़कनों को पहचानने, उससे आत्मीयता भरा रिश्ता कायम करने के लिए भारत-भ्रमण पर निकला हुआ हुआ था। वह कुछ ही महीने पहले दक्षिण अफ्रीका से बेशुमार ख्याति बटोरकर लौटा था। आगे उसकी योजना भारतीय राजनीति में दखल देने की थी। उस साधक का नाम था—मोहनदास करमचंद गांधी. अपने राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले के कहने पर वह भारत की आत्मा को जानने के उद्देश्य से एक वर्ष के भारत-भ्रमण पर निकला हुआ था। आगे चलकर भारतीय राजनीति पर छा जाने, करोड़ों भारतीयों के दिल की धड़कन, भारतीय स्वाधीनता आंदोलन का प्रमुख सूत्रधार, अहिंसक सेनानी बन जाने वाले गांधी उन दिनों अप्रसिद्ध ही थे। ‘महात्मा’ की उपाधि भी उनसे दूर थी। सिर्फ दक्षिण अफ्रीका में छेडे़ गए आंदोलन की पूंजी ही उनके साथ थी। उसी के कारण वे पूरे भारत में जाने जाते थे। उन दिनों उनका पड़ाव भी काशी ही था। मानो दो महान आत्माओं को मिलवाने के लिए समय अपना जादुई खेल रच रहा था।
काशी में महामना मदन मोहन मालवीय द्वारा स्थापित हिंदू विश्वविद्यालय में एक बड़ा जलसा हो रहा था। 4 फ़रवरी 1916, जलसे में राजे-महाराजे, नबाव, सामंत सब अपनी पूरी धज के साथ उपस्थित थे। सम्मेलन की छटा देखते ही बनती थी। उस सम्मेलन में गांधी जी ने ऐतिहासिक भाषण दिया। वह कहा जिसकी उस समय कोई उम्मीद नहीं कर सकता था। वक्त पड़ने पर जिन राजा-सामंतों की खुशामद स्वयं अंग्रेज भी करते थे, जिनके दान पर काशी विश्वविद्यालय और दूसरी अन्य संस्थाएं चला करती थीं, उन राजा-सामंतों की खुली आलोचना करते हुए गांधी जी ने कहा कि अपने धन का सदुपयोग राष्ट्रनिर्माण के लिए करें। उसको गरीबों के कल्याण में लगाएं. उन्होंने आवाह्न किया कि वे व्यापक लोकहित में अपने सारे आभूषण दान कर दें। वह एक क्रांतिकारी अपील थी। सभा में खलबली मच गई। पर गांधी की मुस्कान उसी तरह बनी रही। अगले दिन उस सम्मेलन की खबरों से अखबार रंगे पड़े थे। विनोबा ने समाचारपत्र के माध्यम से ही गांधी जी के बारे में जाना. और उन्हें लगा कि जिस लक्ष्य की खोज में वे घर से निकले हैं, वह पूरी हुई। विनोबा कोरी शांति की तलाश में ही घर से नहीं निकले थे। न वे देश के हालात और अंग्रेजों द्वारा किए जा रहे अमानवीय अत्याचारों से अपरिचित थे। मगर कोई राह मिल ही नहीं रही थी। भाषण पढ़कर उन्हें लगा कि इस व्यक्ति के पास शांति भी है और क्रांति भी. उन्होंने वहीं से गांधी जी के नाम पत्र लिखा. जवाब आया। गांधी जी के आमंत्रण के साथ. विनोबा तो उसकी प्रतीक्षा कर ही रहे थे। वे तुरंत अहमदाबाद स्थित कोचर्ब आश्रम की ओर प्रस्थान कर गए, जहां गांधी जी का आश्रम था।
7 जून 1916 को विनोबा की गांधी से पहली भेंट हुई। उसके बाद तो विनोबा गांधी जी के ही होकर रह गए। गांधी जी ने भी विनोबा की प्रतिभा को पहचान लिया था। इसलिए पहली मुलाकात के बाद ही उनकी टिप्पणी थी कि अधिकांश लोग यहां से कुछ लेने के लिए आते हैं, यह पहला व्यक्ति है, जो कुछ देने के लिए आया है।’ काफी दिन बाद अपनी पहली भेंट को याद करते हुए विनोबा ने कहा था—
जिन दिनों में काशी में था, मेरी पहली अभिलाषा हिमालय की कंदराओं में जाकर तप-साधना करने की थी। दूसरी अभिलाषा थी, बंगाल के क्रांतिकारियों से भेंट करने की. लेकिन इनमें से एक भी अभिलाषा पूरी न हो सकी. समय मुझे गांधी जी तक ले गया। वहां जाकर मैंने पाया कि उनके व्यक्तित्व में हिमालय जैसी शांति है तो बंगाल की क्रांति की धधक भी. मैंने छूटते ही स्वयं से कहा था, मेरे दोनों इच्छाएं पूरी हुईं.
अंगूठाकार|साबरमती आश्रम में विनोबा कुटीर
गांधी और विनोबा की वह मुलाकात क्रांतिकारी थी। गांधी जी को जैसे ही पता चला कि विनोबा अपने माता-पिता को बिना बताए आए हैं, उन्होंने वहीं से विनोबा के पिता के नाम एक पत्र लिखा कि विनोबा उनके साथ सुरक्षित हैं। उसके बाद उनके संबंध लगातार प्रगाढ़ होते चले गए। विनोबा ने खुद को गांधी जी के आश्रम के लिए समर्पित कर दिया। अध्ययन, अध्यापन, कताई, खेती के काम से लेकर सामुदायिक जीवन तक आश्रम की हर गतिविधि में वे आगे रहते. गांधी जी का यह कहना कि यह युवक आश्रमवासियों से कुछ लेने नहीं बल्कि देने आया है, सत्य होता जा रहा था। उम्र से एकदम युवा विनोबा उन्हें अनुशासन और कर्तव्यपरायणता का पाठ तो पढ़ा ही रहे थे। गांधी जी का प्रभाव तेजी से बढ़ रहा था। उतनी ही तेजी से बढ़ रही आश्रम में आने वाले कार्यकर्ताओं की संख्या. कोचरब आश्रम छोटा पड़ने लगा तो अहमदाबाद में साबरमती के किनारे नए आश्रम का काम तेजी से होने लगा. लेकिन आजादी के अहिंसक सैनिक तैयार करने का काम अकेले साबरमती आश्रम से भी संभव भी न था। गांधी वैसा ही आश्रम वर्धा में भी चाहते थे। वहां पर ऐसे अनुशासित कार्यकर्ता की आवश्यकता थी, जो आश्रम को गांधी जी के आदर्शों के अनुरूप चला सके. इसके लिए विनोबा सर्वथा अनुकूल पात्र थे और गांधी जी के विश्वसनीय भी. 8 अप्रैल 1923 को विनोबा वर्धा के लिए प्रस्थान कर गए। वहां उन्होंने ‘महाराष्ट्र धर्म’ मासिक का संपादन शुरू किया। मराठी में प्रकाशित होने वाली इस पत्रिका में विनोबा ने नियमित रूप से उपनिषदों और महाराष्ट्र के संतों पर लिखना आरंभ कर दिया, जिनके कारण देश में भक्ति आंदोलन की शुरुआत हुई थी। पत्रिका को अप्रत्याशित लोकप्रियता प्राप्त हुई, कुछ ही समय पश्चात उसको साप्ताहिक कर देना पड़ा विनोबा अभी तक गांधी जी के शिष्य और सत्याग्रही के रूप में जाने जाते थे। पत्रिका के माध्यम से जनता उनकी आध्यात्मिक पैठ को जानने लगी थी।
द्वितीय विश्व युद्ध में भूमिका
द्वितीय विश्व युद्ध के समय युनाइटेेड किंगडम द्वारा भारत देश को जबरन युद्ध में झोंका जा रहा था जिसके विरुद्ध एक व्यक्तिगत सत्याग्रह 17 अक्तूबर, 1940 को शुरू किया गया था और इसमें गांधी जी द्वारा विनोबा को प्रथम सत्याग्रही बनाया गया था। अपना सत्याग्रह शुरू करने से पहले अपने विचार स्पष्ट करते हुए विनोबा ने एक वक्तव्य जारी किया था। उसमें कहा गया था-
चौबीस वर्ष पहले ईश्वर के दर्शन की कामना लेकर मैंने अपना घर छोड़ा था। आज तक की मेरी जिंदगी जनता की सेवा में समर्पित रही है। इस दृढ़ विश्वास के साथ कि इनकी सेवा भगवान को पाने का सर्वोत्तम तरीका है। मैं मानता हूं और मेरा अनुभव रहा है कि मैंने गरीबों की जो सेवा की है, वह मेरी अपनी सेवा है, गरीबों की नहीं।
आगे उन्होंने इतना और कहा -
मैं अहिंसा में पूरी तरह विश्वास करता हूं और मेरा विचार है कि इसी से मानवजाति की समस्याओं का समाधान हो सकता है। रचनात्मक गतिविधियां, जैसे खादी, हरिजन सेवा, सांप्रदायिक एकता आदि अहिंसा की सिर्फ बाह्य अभिव्यक्तियां हैं। ....युद्ध मानवीय नहीं होता। वह लड़ने वालों और न लड़ने वालों में फर्क नहीं करता। आज का मशीनों से लड़ा जाने वाला युद्ध अमानवीयता की पराकाष्ठा है। यह मनुष्य को पशुता के स्तर पर ढ़केल देता है। भारत स्वराज्य की आराधना करता है जिसका आशय है, सबका शासन। यह सिर्फ अहिंसा से ही हासिल हो सकता है। फासीवाद, नाजीवाद और साम्राज्यवाद में अधिक पर्क नहीं है। लेकिन अहिंसा से इसका मेल नहीं है। यह भयानक खतरे में पड़ी सरकार के लिए और परेशानी पैदा करता है। इसलिए गांधी ने व्यक्तिगत सत्याग्रह का आह्वान किया है। यदि सरकार मुझे गिरफ्तार नहीं करती तो मैं जनता से विनम्र अनुरोध करूंगा कि वे युद्ध में किसी प्रकार की किसी रूप में मदद न करें। मैं उनको अहिंसा का दर्शन समझाऊंगा, वर्तमान युद्ध की विभीषिका भी समझाऊंगा तथा यह बताऊंगा की फासीवाद, नाजीवाद और साम्राज्यवाद एक ही सिक्के के दो अलग-अलग पहलू हैं।
अपने भाषणों में विनोबा लोगों को बताते थे कि नकारात्मक कार्यक्रमों के जरिए न तो शान्ति स्थापित हो सकती है और न युद्ध समाप्त हो सकता है। युद्ध रुग्ण मानसिकता का नतीजा है और इसके लिए रचनात्मक कार्यक्रमों की जरूरत होती है।केवल यूरोप के लोगों को नहीं समस्त मानव जाति को इसका दायित्व उठाना चाहिए।[1]
भूदान आंदोलन
विनोबा और मार्क्स
सितंबर,1951 में के.पी.मशरुवाला की पुस्तक गांधी और मार्क्स प्रकाशित हुई और विनोबा ने इसकी भूमिका लिखी। इसमें विनोबा ने मार्क्स के प्रति काफी सम्मान प्रदर्शित किया था। कार्ल मार्क्स को उन्होंने विचारक माना था। ऐसा विचारक जिसके मन में गरीबों के प्रति सच्ची सहानुभूति थी। वैसे तो मार्क्स कि सोच में विनोबा को खोट दिखी थी और लक्ष्य पर पहुंचने के तरीके को लेकर मार्क्स से उन्होंने अपना मतभेद व्यक्त किया। विनोबा का मानना था कि धनी लोगों की वजह से कम्युनिस्टों का उद्भव हुआ है। विनोबा का विस्वास था कि हर बात में बराबरी का सिद्धांत लागू होना चाहिए। उन्होंने कहा था: कम्युनिस्टों का आतंक दूर करने के लिए पुलिस कार्रवाई मददगार साबित नहीं हो सकती। इसको जड़ से समाप्त किया जाए। चाहे जितने भी दिग्भ्रमित वे क्यों न हो, विनोबा कम्युनिस्टों को विध्वंसक नहीं मानते थे और उनसे तर्कवितर्क करके तथा उनके लक्ष्य के प्रति सक्रिय सहानुभुति प्रकट करके विनोबा उन्हें सही रास्ते पर लाना चाहते थे।[1]
विनोबा और देवनागरी
बीसियों भाषाओं के ज्ञाता विनोबा जी देवनागरी को विश्व लिपि के रूप में देखना चाहते थे। भारत के लिये वे देवनागरी को सम्पर्क लिपि के रूप में विकसित करने के पक्षधर थे। वे कहते थे कि मैं नहीं कहता कि नागरी ही चले, बल्कि मैं चाहता हूं कि नागरी भी चले। उनके ही विचारों से प्रेरणा लेकर नागरी लिपि संगम की स्थापना की गयी है जो भारत के अन्दर और भारत के बाहर देवनागरी को उपयोग और प्रसार करने के लिये कार्य करती है।
विस्तृत जानकारी के लिये नागरी एवं भारतीय भाषाएँ पढें।
सामाजिक एवं रचनात्मक कार्यकर्ता
विनोबाजी सदेव सामाजिक और रचनात्मक कार्यकर्ता रहे। स्वतन्त्रता के पूर्व गान्धिजी के रचानात्म्क कार्यों में सक्रिय रूप से योगदान देते रहे। कार्यधिक्य से उनका स्वास्थ्य गिरने लगा, उन्हें किसी पहाडी स्थान पर जाने की डाक्टर ने सलाह दी। अत: १९३७ ई० में विनोबा भावे पवनार आश्रम में गये। तब से लेकर जीवन पर्यन्त उनके रचनात्मक कार्यों को प्रारंभ करने का यही केन्द्रीय स्थान रहा।
महान स्वतंत्रता सेनानी
रचानात्म्क कार्यों के अतिरित्क वे महान स्वतंत्रता सेनानी भी थे। नागपुर झंडा सत्याग्रह में वे बंदी बनाये गये। १९३७ में गान्धिजी जब लंदन की गोलमेज कांफ्रेंस से खाली हाथ लोटे तो जलगांव में विनोबा भावे ने एक सभा में अंग्रेजों की आलोचना की तो उन्हें बंदी बनाकर छह माह की सजा दी गयी। कारागार से मुक्त होने के बाद गान्धिजी ने उन्हें पहेला सत्याग्रही बनाया। १७ अक्टूबर १९४० को विनोबा भावेजी ने सत्याग्रह किया और वे बंदी बनाये गये तथा उन्हें ३ वर्ष के लिए सश्रम कारावास का दंड मिला। गान्धिजी ने १९४२ को भारत छोडा आंदोलन करने से पूर्व विनोबाजी से परामर्श लिया था।
इन्हें भी देखें
भूदान
पवनार
जयप्रकाश नारायण
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
- आचार्य श्री विनोबाजी के तत्वज्ञान, विचारों तथा कार्यों बारे में समग्र जानकारी
- मुम्बई सर्वोदय मण्डल द्वारा विनोबा के बारे में समग्र जानकारी
(शब्द ब्रह्म)
- श्रीराम शर्मा आचार्य
श्रेणी:1895 में जन्मे लोग
श्रेणी:१९८२ में निधन
श्रेणी:व्यक्तिगत जीवन
श्रेणी:भारतीय समाजसेवी
श्रेणी:महात्मा गांधी
श्रेणी:भारत रत्न सम्मान प्राप्तकर्ता
श्रेणी:भारतीय लेखक
श्रेणी:मैगसेसे पुरस्कार विजेता
श्रेणी:महाराष्ट्र के लोग | आचार्य विनोबा भावे का जन्म कहाँ हुआ था? | महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र में एक गांव है, गागोदा | 509 | hindi |
a3f5eccfc | कंपनी राज का अर्थ है ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा भारत पर शासन। यह 1773 में शुरू किया है, जब कंपनी कोलकाता में एक राजधानी की स्थापना की है, अपनी पहली गवर्नर जनरल वार्रन हास्टिंग्स नियुक्त किया और संधि का एक परिणाम के रूप में 1764 बक्सर का युद्ध के बाद सीधे प्रशासन,[1] में शामिल हो गया है लिया जाता है। 1765 में, जब बंगाल के नवाब कंपनी से हार गया था,[2] और दीवानी प्रदान की गई थी, या बंगाल और बिहार में राजस्व एकत्रित करने का अधिकार है[3]शा सन १८५८ से,१८५७ जब तक चला और फलस्वरूप भारत सरकार के अधिनियम १८५८ के भारतीय विद्रोह के बाद, ब्रिटिश सरकार सीधे नए ब्रिटिश राज में भारत के प्रशासन के कार्य ग्रहण किया।
विस्तार और क्षेत्र
अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी (इसके बाद, कंपनी) 1600 में कंपनी व्यापारियों की लंदन के ईस्ट इंडीज में व्यापार के रूप में स्थापित किया गया था यह 1612 में भारत में एक पैर जमाने बाद मुगल सम्राट जहांगीर द्वारा दिए गए अधिकारों के एक कारखाने, या सूरत के पश्चिमी तट पर बंदरगाह में व्यापारिक पोस्ट 1640 में स्थापित की। विजयनगर शासक से इसी तरह की अनुमति प्राप्त करने के बाद आगे दक्षिण, एक दूसरे कारखाने के दक्षिणी तट पर मद्रास में स्थापित किया गया था। बंबई द्वीप, सूरत से अधिक दूर नहीं था, एक पूर्व पुर्तगाली चौकी ब्रागणसा की कैथरीन के चार्ल्स द्वितीय शादी में दहेज के रूप में इंग्लैंड के लिए भेंट की चौकी, 1668 में कंपनी द्वारा पट्टे पर दे दिया गया था। दो दशक बाद, कंपनी पूर्वी तट पर एक उपस्थिति के रूप में अच्छी तरह से स्थापित हुई और, गंगा नदी डेल्टा में एक कारखाने को कोलकाता में स्थापित किया गया था। के बाद से, इस समय के दौरान अन्य कंपनियों पुर्तगाली, डच, फ्रेंच और डेनिश थे इसी तरह इस क्षेत्र में विस्तार की स्थापना की, तटीय भारत पर अंग्रेजी कंपनी की शुरुआत भारतीय उपमहाद्वीप पर एक लंबी उपस्थिति निर्माण करे ईस का कोई सुराग पेशकश नहीं की।
प्लासी का पहला युद्ध 1757 में कंपनी ने रॉबर्ट क्लाइव के तहत जीत और 1764 बक्सर की लड़ाई (बिहार में) में एक और जीत,[4] कंपनी की शक्ति मजबूत हुई और सम्राट शाह आलम यह दीवान की नियुक्ति द्वितीय और बंगाल का राजस्व कलेक्टर, बिहार और उड़ीसा। कंपनी इस तरह 1773 से नीचा गंगा के मैदान के बड़े क्षेत्र के वास्तविक शासक बन गए। यह भी डिग्री से रवाना करने के लिए बम्बई और मद्रास के आसपास अपने उपनिवेश का विस्तार। एंग्लो - मैसूर युद्धों(1766-1799) और एंग्लो - मराठा युद्ध (1772-1818) के सतलुज नदी के दक्षिण भारत के बड़े क्षेत्रों के नियंत्रण स्थापित कर लिया।
कंपनी की शक्ति का प्रसार मुख्यतः दो रूपों लिया। इनमें से पहला भारतीय राज्यों के एकमुश्त राज्य-हरण और अंतर्निहित क्षेत्रों, जो सामूहिक रूप से ब्रिटिश भारत समावेश आया के बाद प्रत्यक्ष शासन था। पर कब्जा कर लिया क्षेत्रों उत्तरी प्रांतों (रोहिलखंड, गोरखपुर और दोआब शामिल) (1801), दिल्ली (1803) और सिंध (1843) शामिल हैं। पंजाब, उत्तर - पश्चिम सीमांत प्रांत और कश्मीर, 1849 में एंग्लो - सिख युद्धों के बाद कब्जा कर लिया गया है, तथापि, कश्मीर तुरंत जम्मू के डोगरा राजवंश अमृतसर (1850) की संधि के तहत बेच दिया है और इस तरह एक राजसी राज्य बन गया। बरार में 1854 पर कब्जा कर लिया गया था और दो साल बाद अवध के राज्य।[5]
पर जोर देते हुए सत्ता का दूसरा रूप संधियों में जो भारतीय शासकों सीमित आंतरिक स्वायत्तता के लिए बदले में कंपनी के आधिपत्य को स्वीकार शामिल किया गया। चूंकि कंपनी वित्तीय बाधाओं के तहत संचालित है, यह करने के लिए अपने शासन के लिए राजनीतिक आधार निर्धारित करने के लिए किया था।[6]सबसे महत्वपूर्ण इस तरह के समर्थन कंपनी के शासन के पहले 75 वर्षों के दौरान भारतीय राजाओं के साथ सहायक गठबंधनों से आया था।[6]19 वीं सदी की शुरुआत में, इन प्रधानों के प्रदेशों में भारत की दो - तिहाई के लिए जिम्मेदार है।[6]जब एक भारतीय शासक, जो अपने क्षेत्र को सुरक्षित करने में सक्षम था, इस तरह के एक गठबंधन में प्रवेश करना चाहता था, यह कंपनी अप्रत्यक्ष शासन के एक किफायती तरीका है, जो प्रत्यक्ष प्रशासन या राजनीतिक समर्थन पाने की लागत की आर्थिक लागत शामिल नहीं किया स्वागतविदेशी विषयों की।[7]बदले में, कंपनी "इन अधीनस्थ सहयोगी की रक्षा और उन्हें इलाज के पारंपरिक और सम्मान के सम्मान के निशान के साथ" चलाया।[7]सहायक गठबंधनों हिंदू महाराजाओं और मुस्लिम नवाबों के राजसी राज्यों, बनाया। राजसी राज्यों के बीच प्रमुख थे: कोचीन (1791), जयपुर (1794), त्रावणकोर (1795), हैदराबाद (1798), मैसूर (1799), सीआईएस सतलुज पहाड़ी राज्यों (1815), सेंट्रल इंडिया एजेंसी (1819), कच्छ और गुजरात गायकवाड़ प्रदेशों (1819), राजपूताना (1818) और बहावलपुर (1833))।[8]
गवर्नर जनरल
कंपनी के शासन का विनियमन
क्लाइव की प्लासी में जीत तक, भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी प्रदेशों में शामिल, प्रेसीडेंसी कलकत्ता, मद्रास और बंबई के कस्बों, द्वारा नियंत्रित किया गया ज्यादातर स्वायत्त और कई मायनों असहनीय शहर परिषदों, व्यापारियों से बना था।[10]परिषदों को मुश्किल से उनके स्थानीय मामलों के प्रभावी प्रबंधन के लिए पर्याप्त अधिकार था और भारत में कुल मिलाकर कंपनी के संचालन के निरीक्षण के आगामी कमी कंपनी अधिकारियों या उनके सहयोगियों द्वारा कुछ गंभीर हनन का नेतृत्व किया।[10]क्लाइव की जीत और बंगाल की समृद्ध क्षेत्र की दीवानी का पुरस्कार, ब्रिटेन में सार्वजनिक सुर्खियों में भारत लाया गया।[10]कंपनी के पैसे के प्रबंधन के तरीकों पर सवाल उठाया जाने लगा, खासकर यह भी जब कुछ कंपनी के कर्मचारियों ने शुद्ध घाटा, पोस्ट शुरू किया, जब "नाबॉब", बड़े भाग्य के साथ ब्रिटेन लौटा, अफवाहों के-अनुसार, जो भ्रष्टाचार के साथ अधिग्रहीत किया गया था।[11]1772 तक, कंपनी को लोकप्रियता बरकरार रखने के लिए ब्रिटिश सरकार के ऋण की जरूरत थी और लंदन में भय था कि कंपनी का भ्रष्टाचार जल्द ही ब्रिटिश व्यापार और सार्वजनिक जीवन में रिस सकता है।[12] ब्रिटिश सरकार के अधिकारों और कर्तव्यों, कंपनी के नए क्षेत्रों की भी जांच की जानी लगी।[13] ब्रिटिश संसद ने कई जांच आयोजित किया और 1773 में, लाड नॉर्थ, के प्रधानमंत्री के दौरान अधिनियमित विनियमन अधिनियम किया, जो स्थापना की नियमों के, अपने लंबे शीर्षक भारत में के रूप में अच्छी तरह से, ईस्ट इंडिया कंपनी के मामलों के बेहतर प्रबंधन के लिए कहा, यूरोप में के रूप में।[14]
हालांकि लाड नॉर्थ खुद कंपनी के प्रदेशों ब्रिटिश राज्य द्वारा लिया जाना चाहता थे,[13]वह लंदन के शहर और ब्रिटिश संसद में से निर्धारित राजनीतिक विरोध का सामना करना पड़ा।[12]परिणाम एक समझौता है जिसमें विनियमन अधिनियम था-मतलब क्राउन का परम संप्रभुता इन नए क्षेत्रों पर. प्रमाण कंपनी क्राउन की ओर से एक संप्रभु सत्ता के रूप में कार्य कर सकता है।[15] ऐसा कर सकती, जबकि यह हैसमवर्ती ब्रिटिश सरकार और संसद द्वारा निरीक्षण और विनियमन के अधीन किया जा रहा था।[15]कंपनी के निदेशक कोर्ट ने ब्रिटिश सरकार की ओर से जांच के लिए भारत के सभी नागरिक, सैनिक के बारे में संचार और राजस्व मामलों को प्रस्तुत करने के लिए कानून के तहत आवश्यक थे।[16]भारतीय प्रदेशों के प्रशासन के लिए, फोर्ट सेंट जॉर्ज (मद्रास) और बंबई पर फोर्ट विलियम (बंगाल) के प्रेसीडेंसी सर्वोच्चता स्थापित.[17]यह भी नामित एक गवर्नर जनरल (वॉरेन हेस्टिंग्स) और चार पार्षदों, बंगाल के राष्ट्रपति पद के प्रशासन के लिए (और भारत में कंपनी के परिचालन की देखरेख के लिए).[17]"अधीनस्थ प्रेसीडेंसी, बंगाल के गवर्नर जनरल या परिषद की पूर्व सहमति के बिना, युद्ध या समझौता करने के लिए मना किया गया था।[18] आसन्न आवश्यकता के मामले में छोड़कर.इन प्रेसीडेंसी के राज्यपाल गवर्नर जनरल ने परिषद के आदेशों का पालन करने के लिए और उसे सभी महत्वपूर्ण मामलों के बुद्धि को हस्तांतरित करने के लिए सामान्य शब्दों में निर्देश दिए गए थे।"[14]हालांकि, इस अधिनियम के भ्रमित शब्दों में, यह विभिन्न व्याख्या की जा करने के लिए खुला छोड़ दिया, नतीजतन, भारत में प्रशासन परिषद के सदस्यों के बीच, प्रांतीय गवर्नरों के बीच एकता का अभाव द्वारा hobbled जा करना जारी रखा और अपने और अपने परिषद के गवर्नर जनरल के बीच.[16] विनियमन अधिनियम भी भारत में प्रचलित भ्रष्टाचार का समाधान करने का प्रयास: कंपनी सेवकों अब भारत में निजी व्यापार में संलग्न करने के लिए या भारतीय नागरिकों से "प्रस्तुत" प्राप्त करने के लिए मना किया गया था। अधिनियम विनियमन भी भारत में प्रचलित भ्रष्टाचार का समाधान करने का प्रयास: कंपनी सेवकों अब भारत में निजी व्यापार में संलग्न करने के लिए या भारतीय नागरिकों से "प्रस्तुत" प्राप्त करने के लिए मना किया गया था।[14]
विलियम पिट के इंडिया एक्ट 1784 के इंग्लैंड में नियंत्रण बोर्ड की स्थापना की जो ईस्ट इंडिया कंपनी के मामलों निगरानी करने के लिए और भारत के शासन में कंपनी के शेयरधारकों को हस्तक्षेप रोकने के लिए.[19]कंट्रोल बोर्ड के छह सदस्यों, जो ब्रिटिश कैबिनेट से एक राज्य के सचिव के रूप में के रूप में अच्छी तरह से राजकोष के चांसलर शामिल थे।[16]इस बार के आसपास भी व्यापक बहस थी बंगाल में उतरा अधिकारों के मुद्दे पर ब्रिटिश संसद में एक आम सहमति के साथ [फिलिप फ्रांसिस (अंग्रेजी राजनीतिज्ञ) | फिलिप फ्रांसिस]] द्वारा की वकालत दृष्टिकोण के समर्थन में विकसित करने, के एक सदस्यबंगाल परिषद और राजनीतिक विरोधी वारेन हेस्टिंग्स की है कि बंगाल में सभी भूमि विचार किया जाना चाहिए "संपत्ति और पैतृक भूमि धारकों और परिवारों की विरासत ..."[20]और कंपनी के कर्मचारियों द्वारा बंगाल में भ्रष्टाचार के दुरुपयोग की रिपोर्ट के प्रति जागरूक, भारत अधिनियम ही कई शिकायतों का उल्लेख किया है कि "राजा, जमींदार, पालीगार, तालुकदार और भूमिधारक"' अन्याय किया गया था 'के अपने भूमि, न्यायालय, अधिकार वंचित और 'विशेषाधिकार.[20]एक ही समय में कंपनी के निर्देशकों अब फ्रांसिस दृश्य है कि बंगाल में भूमि कर स्थिर और स्थायी किया जाना चाहिए है, स्थायी बंदोबस्त (अनुभाग देखें कंपनी के तहत राजस्व बस्तियों नीचे).[21]राज्यपाल और तीन पार्षदों, जिनमें से एक प्रेसीडेंसी सेना के चीफ कमांडर था: भारत अधिनियम भी तीन प्रशासनिक और सैन्य पदों, जो शामिल की एक संख्या प्रेसीडेंसियों में से प्रत्येक में बनाया.[22]हालांकि पर्यवेक्षी शक्तियों राज्यपाल जनरल परिषद (मद्रास और बंबई से अधिक) में बंगाल में थे बढ़ाया के रूप में वे के चार्टर अधिनियम में थे फिर 1793 अधीनस्थ प्रेसीडेंसियों दोनों ब्रिटिश संपत्ति के विस्तार तक कुछ स्वायत्तता व्यायाम जारीसन्निहित और अगली सदी में तेजी से संचार के आगमन के बनने में.[23]फिर भी, 1786, लॉर्ड कॉर्नवालिस में नया गवर्नर जनरल नियुक्त किया है, न केवल हेस्टिंग्स से अधिक शक्ति थी, लेकिन यह भी एक शक्तिशाली ब्रिटिश कैबिनेट मंत्री का समर्थन किया था, हेनरी दूनदास है, जो है, के रूप में राज्य के सचिव गृह कार्यालय, समग्र भारत की नीति के आरोप में किया गया था।[24]1784 के बाद से ब्रिटिश सरकार ने भारत में सभी प्रमुख नियुक्तियों पर अंतिम शब्द था, एक वरिष्ठ पद के लिए एक उम्मीदवार उपयुक्तता अक्सर अपनी प्रशासनिक योग्यता के बजाय अपने राजनीतिक कनेक्शन की शक्ति के द्वारा निर्णय लिया गया है।[25]हालांकि इस अभ्यास कई गवर्नर जनरल ब्रिटेन के रूढ़िवादी भू - स्वामी वर्ग से चुना जा रहा है प्रत्याशियों में हुई, वहाँ कुछ लाड विलियम बेंटिक और लार्ड डलहौजी के रूप में के रूप में अच्छी तरह से उदारवादी थे।[25]
ब्रिटिश राजनीतिक राय प्रयास किया द्वारा आकार का था वारेन हेस्टिंग्स के महाभियोग, परीक्षण, कार्यवाही जिसका 1788 में शुरू हुआ 'हेस्टिंग्स को बरी किए जाने के साथ समाप्त हो गया, 1795 में.[26]हालांकि प्रयास मुख्यतः द्वारा समन्वित था एडमंड बर्क, यह ब्रिटिश सरकार के भीतर से भी समर्थन मिला.[26]बर्क, हेस्टिंग्स न केवल भ्रष्टाचार का आरोप लगाया है, लेकिन अपने स्वयं के विवेक पर पूरी तरह से और कानून के लिए और जानबूझकर भारत में दूसरों के लिए संकट पैदा करने की चिंता के बिना अभिनय के न्याय भी सार्वभौमिक मानकों को अपील के जवाब में, 'हेस्टिंग्स रक्षकों माँगे कि उसकीकार्रवाई भारतीय सीमा शुल्क और परंपराओं के साथ संगीत कार्यक्रम में थे।[26]हालांकि मुकदमे में बर्क भाषण भारत पर वाहवाही और ध्यान केंद्रित ध्यान आकर्षित किया है, हेस्टिंग्स अंततः, जाने के कारण बरी कर दिया, भाग में, फ़्रान्सीसी क्रान्ति के मद्देनजर में ब्रिटेन में राष्ट्रवाद के पुनरुद्धार के लिए, फिर भी, बर्क प्रयास था प्रभावब्रिटिश सार्वजनिक जीवन में भारत में कंपनी के अधिराज्य के लिए जिम्मेदारी की एक भावना पैदा की.[26]
जल्द ही बातचीत करने के लिए लंदन में व्यापारियों है कि एकाधिकार 1600 में ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए प्रदान करने के लिए इसे सुविधाजनक बनाने के लिए बेहतर एक दूर के क्षेत्र में डच और फ्रेंच प्रतिस्पर्धा के खिलाफ आयोजित के बीच प्रदर्शित करने के लिए शुरू किया गया था, अब जरूरत नहीं है।[23]जवाब में, 1813 चार्टर अधिनियम, ब्रिटिश संसद चार्टर कंपनी के नए सिरे से लेकिन के संबंध में छोड़कर अपने एकाधिकार समाप्त चाय और चीन के साथ व्यापार, दोनों निजी निवेश और मिशनरियों के लिए भारत खोलने.[27]ब्रिटिश क्राउन द्वारा बढ़ा भारतीय मामलों के पर्यवेक्षण भारत में ब्रिटिश शक्ति के साथ और [[ब्रिटिश संसद | संसद] के रूप में अच्छी तरह से वृद्धि हुई, 1820 ब्रिटिश नागरिकों द्वारा व्यापार चलाना या क्राउन के संरक्षण के तहत मिशनरी कार्य में संलग्नतीन प्रेसीडेंसियों में.[27]अंत में, 1833 के चार्टर अधिनियम, ब्रिटिश संसद कुल मिलाकर कंपनी के व्यापार लाइसेंस रद्द, कंपनी ब्रिटिश शासन का एक हिस्सा बना है, हालांकि ब्रिटिश भारत के प्रशासन में कंपनी के अधिकारियों के प्रान्त बने रहे.[27]चार्टर 1833 के अधिनियम (जिसका शीर्षक था अब जोड़ी "भारत के") भारत की समग्रता के नागरिक और सैन्य प्रशासन के पर्यवेक्षण के साथ गवर्नर जनरल में परिषद, के रूप में अच्छी तरह से कानून के विशेष शक्ति का आरोप लगाया.[23]के बाद से उत्तर भारत में ब्रिटिश क्षेत्रों में अब दिल्ली के लिए बढ़ाया था, अधिनियम भी आगरा के प्रेसीडेंसी के निर्माण को मंजूरी दी, बाद में गठित, 1936 में उत्तरी - पश्चिमी प्रांतों के लेफ्टिनेंट गवर्नर (के रूप में, वर्तमान दिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश).[23] 1856 में अवध के विलय के साथ, इस क्षेत्र का विस्तार किया गया था और अंततः बन संयुक्त प्रान्त आगरा व अवध.[23]इसके अलावा, 1854 में, एक लेफ्टिनेंट गवर्नर बंगाल, बिहार और उड़ीसा के क्षेत्र के लिए नियुक्त किया गया था, गवर्नर जनरल को छोड़ने के लिए भारत के शासन पर ध्यान केंद्रित है।[23]
कर संग्रह
मुगल के अवशेष में राजस्व पूर्व 1765 बंगाल में मौजूदा प्रणाली, जमींदार ", भूमि धारकों" मुगल बादशाह, जिसका प्रतिनिधि, या की ओर, या राजस्व एकत्र दीवान उनकी गतिविधियों की देखरेख.[28]इस प्रणाली में, देश के साथ जुड़े अधिकारों के वर्गीकरण के पास नहीं "जमीन के मालिक," लेकिन बल्कि किसान कृषक, जमींदार और राज्य सहित देश में हिस्सेदारी के साथ कई पार्टियों द्वारा साझा थे।[29] जमींदार जो आर्थिक भाड़ा कल्टीवेटर से और अपने स्वयं के खर्च के लिए एक प्रतिशत रोक के बाद प्राप्त एक मध्यस्थ के रूप में सेवा की, बाकी उपलब्ध बनाया है, के रूप में कर राज्य के लिए.[29]मुगल प्रणाली के तहत भूमि ही राज्य के लिए और करने के लिए नहीं थे जमींदार, जो केवल अपने अधिकार के लिए किराए पर लेने के स्थानांतरण सकता है।[29]बक्सर की युद्ध 1764 में निम्नलिखित बंगाल की दीवानी या overlordship से सम्मानित किया जा रहा है, ईस्ट इंडिया कंपनी स्थानीय से परिचित लोगों, विशेष रूप से प्रशिक्षित प्रशासकों की कम ही पाया कस्टम और कानून, कर संग्रह था फलस्वरूप आय पट्टे पर देने. कंपनी द्वारा भूमि कराधान में यह अनिश्चित धावा, गंभीरता से एक का प्रभाव खराब हो सकता है 1769-70 में बंगाल मारा कि अकाल, जिसमें दस लाख के बीच सात और दस लोगों को या एक चौथाई और बीच राष्ट्रपति पद के तीसरे जनसंख्या सकता है मर चुके हैं।[30]हालांकि, कंपनी या तो थोड़ा राहत प्रदान की,[31] कम कराधान के माध्यम से या राहत प्रयासों होता जा रहा है और अकाल की आर्थिक और सांस्कृतिक प्रभाव एक सदी बाद और दशकों बाद में महसूस किया गया कि का विषय बंकिमचंद्र चटर्जी के उपन्यास आनंद मठ.[30]
1772 में, वारेन हेस्टिंग्स के तहत, ईस्ट इंडिया कंपनी बंगाल प्रेसीडेंसी (तब बंगाल और बिहार), कलकत्ता में कार्यालयों के साथ राजस्व का एक बोर्ड की स्थापना और में सीधे आय संग्रह का कार्यभार संभाला पटना[27]. अंत में, 1833 के चार्टर अधिनियम, ब्रिटिश संसद कुल मिलाकर कंपनी के व्यापार लाइसेंस रद्द, कंपनी ब्रिटिश शासन का एक हिस्सा बना है, हालांकि ब्रिटिश भारत के प्रशासन में कंपनी के अधिकारियों के प्रान्त बने रहे.[27]चार्टर 1833 के अधिनियम (जिसका शीर्षक था अब जोड़ी "भारत के") भारत की समग्रता के नागरिक और सैन्य प्रशासन के पर्यवेक्षण के साथ गवर्नर जनरल में परिषद, के रूप में अच्छी तरह से कानून के विशेष शक्ति का आरोप लगाया.[23]के बाद से उत्तर भारत में ब्रिटिश क्षेत्रों में अब दिल्ली के लिए बढ़ाया था, अधिनियम भी आगरा के प्रेसीडेंसी के निर्माण को मंजूरी दी, बाद में गठित, 1936 में उत्तरी - पश्चिमी प्रांतों के लेफ्टिनेंट गवर्नर (के रूप में, वर्तमान दिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश).[23] 1856 में अवध के विलय के साथ, इस क्षेत्र का विस्तार किया गया था और अंततः बन संयुक्त प्रान्त आगरा व अवध.[23]इसके अलावा, 1854 में, एक लेफ्टिनेंट गवर्नर बंगाल, बिहार और उड़ीसा के क्षेत्र के लिए नियुक्त किया गया था, गवर्नर जनरल को छोड़ने के लिए भारत के शासन पर ध्यान केंद्रित है।[23]
कर संग्रह
मुगल के अवशेष में राजस्व पूर्व 1765 बंगाल में मौजूदा प्रणाली, जमींदार ", भूमि धारकों" मुगल बादशाह, जिसका प्रतिनिधि, या की ओर, या राजस्व एकत्र दीवान उनकी गतिविधियों की देखरेख.[32]इस प्रणाली में, देश के साथ जुड़े अधिकारों के वर्गीकरण के पास नहीं "जमीन के मालिक," लेकिन बल्कि किसान कृषक, जमींदार और राज्य सहित देश में हिस्सेदारी के साथ कई पार्टियों द्वारा साझा थे।[29] जमींदार जो आर्थिक भाड़ा कल्टीवेटर से और अपने स्वयं के खर्च के लिए एक प्रतिशत रोक के बाद प्राप्त एक मध्यस्थ के रूप में सेवा की, बाकी उपलब्ध बनाया है, के रूप में कर राज्य के लिए.[29]मुगल प्रणाली के तहत भूमि ही राज्य के लिए और करने के लिए नहीं थे जमींदार, जो केवल अपने अधिकार के लिए किराए पर लेने के स्थानांतरण सकता है।[29]बक्सर की युद्ध 1764 में निम्नलिखित बंगाल की दीवानी या आधिपत्य से सम्मानित किया जा रहा है, ईस्ट इंडिया कंपनी स्थानीय से परिचित लोगों, विशेष रूप से प्रशिक्षित प्रशासकों की कम ही पाया कस्टम और कानून, कर संग्रह था फलस्वरूप आय पट्टे पर देने. कंपनी द्वारा भूमि कराधान में यह अनिश्चित धावा, गंभीरता से एक का प्रभाव खराब हो सकता है 1769-70 में बंगाल मारा कि अकाल, जिसमें दस लाख के बीच सात और दस लोगों को या एक चौथाई और बीच राष्ट्रपति पद के तीसरे जनसंख्या सकता है मर चुके हैं।[30]हालांकि, कंपनी या तो थोड़ा राहत प्रदान की,[31] कम कराधान के माध्यम से या राहत प्रयासों होता जा रहा है और अकाल की आर्थिक और सांस्कृतिक प्रभाव एक सदी बाद और दशकों बाद में महसूस किया गया कि का विषय बंकिमचंद्र चटर्जी के उपन्यास आनंद मठ.[30]
1772 में, वारेन हेस्टिंग्स के तहत, ईस्ट इंडिया कंपनी बंगाल प्रेसीडेंसी (तब बंगाल और बिहार),), कलकत्ता में कार्यालयों के साथ राजस्व का एक बोर्ड की स्थापना और में सीधे आय संग्रह का कार्यभार संभाला पटना और से पूर्व मौजूदा मुगल आय अभिलेखों आगे बढ़ मुर्शिदाबाद कोलकाता.[33]1773 में, के बाद अवध की सहायक नदी राज्य सौंप दिया बनारस, आय संग्रह प्रणाली निवास आरोप में एक कंपनी के साथ क्षेत्र के लिए बढ़ा दिया गया था।[33]अगले वर्ष के साथ तो एक पूरे जिले के लिए आय संग्रह के लिए जिम्मेदार थे, जो भ्रष्टाचार कंपनी जिला कलेक्टरों, को रोकने के लिए एक दृश्य, पटना, मुर्शिदाबाद और कलकत्ता में प्रांतीय परिषदों के साथ बदल दिया गया और भीतर काम कर रहे भारतीय कलेक्टरों के साथ प्रत्येक जिले.[33]शीर्षक, "कलेक्टर," परिलक्षित "भारत में सरकार को भू - राजस्व संग्रह की केन्द्रीयता: यह सरकार की प्राथमिक समारोह था और यह संस्थाओं और प्रशासन के पैटर्न ढाला."[34]
कंपनी शाही पात्रता के लिए आरक्षित उत्पादन का एक तिहाई के साथ, कर बोझ की भारी अनुपात किसान पर गिर गया जिसमें मुगलों से एक आय संग्रह प्रणाली विरासत में मिला है, इस पूर्व औपनिवेशिक प्रणाली कंपनी आय नीति के आधारभूत बन गया।[35]हालांकि, विशाल भिन्नता राजस्व एकत्र किए गए थे, जिसमें से तरीकों में भारत भर में वहाँ था, इसे ध्यान में जटिलता के साथ, सर्किट की एक समिति ने पांच वार्षिक से मिलकर, एक पांच साल का निपटान करने के लिए आदेश में विस्तार बंगाल राष्ट्रपति पद के जिलों का दौरा किया निरीक्षण और अस्थायी कर.[36]जितना संभव परंपरागत खेती की जमीन है जो किसानों और राज्य पर कर एकत्र जो विभिन्न बिचौलियों द्वारा दावा किया गया था कि अधिकारों और दायित्वों का संतुलन बनाए रखने, पहला: आय नीति को उनके समग्र दृष्टिकोण में, कंपनी के अधिकारियों ने दो गोल द्वारा निर्देशित किया गया ओर से और जो खुद के लिए एक कट सुरक्षित और दूसरा, आय और सुरक्षा दोनों को अधिकतम होगा कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था के उन क्षेत्रों की पहचान.[35]अपनी पहली आय बंदोबस्त अधिक अनौपचारिक पूर्व मौजूदा मुगल एक के रूप में अनिवार्य रूप से एक ही निकला हालांकि, कंपनी की जानकारी और नौकरशाही दोनों के विकास के लिए एक आधार बनाया था।[35]
1793 में, नए गवर्नर जनरल, कार्नवालिस, प्रख्यापित स्थायी समाधान राष्ट्रपति पद, औपनिवेशिक भारत में पहली बार सामाजिक - आर्थिक विनियमन में भूमि राजस्व की.[33]इसके लिए उतरा संपदा अधिकारों के लिए बदले में शाश्वत भूमि कर ठीक किया क्योंकि यह स्थाई नाम दिया गया था जमींदार; इसके साथ ही राष्ट्रपति पद में जमीन के स्वामित्व की प्रकृति को परिभाषित है और में व्यक्तियों और परिवारों को अलग संपदा अधिकार दिया कब्जे की जमीन. आय शाश्वत में तय किया गया था, यह बंगाल में 1789-90 की कीमतों को कम £ 3 करोड़ की राशि जो एक उच्च स्तर पर तय की गई थी।[37]एक अनुमान के मुताबिक[38]यह 1757 से पहले आय मांग की तुलना में 20% अधिक था। अगली सदी में, आंशिक रूप से भूमि सर्वेक्षण, अदालत के फैसलों और संपत्ति की बिक्री का एक परिणाम के रूप में, परिवर्तन व्यावहारिक आयाम दिया था।[39]इस आय नीति के विकास पर प्रभाव आर्थिक विकास के इंजन के रूप में कृषि माना जाता है और इसके परिणामस्वरूप विकास को प्रोत्साहित करने के क्रम में आय की मांग की फिक्सिंग पर बल दिया जो तब वर्तमान आर्थिक सिद्धांतों, थे।[40]स्थायी समाधान के पीछे उम्मीद एक निश्चित सरकार की मांग का ज्ञान है कि वे बढ़ी हुई उत्पादन से मुनाफा बनाए रखने में सक्षम हो जाएगा के बाद जमींदार, खेती के तहत उनकी औसत उघड़ना और देश दोनों को बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करेगा था, इसके अतिरिक्त में, यह परिकल्पना की गई थी उस जमीन ही है, खरीदा बेचा, या गिरवी जा सकता है कि संपत्ति के एक बिक्री योग्य प्रपत्र बन जाएगा.[35]इस आर्थिक तर्क की एक विशेषता यह जमींदार, अपने स्वयं के सर्वोत्तम हित पहचानने, किसानों पर अनुचित मांग नहीं होता कि अतिरिक्त उम्मीद थी।[41]
हालांकि, इन उम्मीदों व्यवहार में महसूस नहीं कर रहे थे और बंगाल के कई क्षेत्रों में, किसानों वृद्धि की मांग का खामियाजा सहन, वहाँ नए कानून में उनके परंपरागत अधिकारों के लिए थोड़ा संरक्षण किया जा रहा है।[41]नकदी फसलों कंपनी आय मांगों को पूरा करने के लिए खेती की जाती थी जैसे जमींदार द्वारा किसानों की बेगार अधिक प्रचलित हो गया।[35]व्यावसायिक खेती क्षेत्र के लिए नया नहीं था, यह अब गांव समाज में गहरी पैठ बना और बाजार की ताकतों के लिए यह और अधिक संवेदनशील बना दिया था।[35]फलस्वरूप, चूक और उनकी भूमि का एक तिहाई के लिए एक अनुमान से कई स्थायी बंदोबस्त के बाद पहले तीन दशकों के दौरान नीलाम किया गया, खुद को अक्सर कंपनी उन पर रखा था कि वृद्धि की मांगों को पूरा करने में असमर्थ थे जमींदार.[42]नए मालिकों अक्सर थे ब्राह्मण और कायस्थ नई प्रणाली की एक अच्छी समझ थी और, कई मामलों में, यह तहत समृद्ध था, जो कंपनी के कर्मचारियों को.[43]
जमींदार मौजूदा किसानों को हटाने की आवश्यकता है, जिनमें से कुछ स्थायी निपटान के तहत परिकल्पना की गई भूमि के लिए महंगा सुधार का कार्य करने में सक्षम नहीं थे, वे जल्दी ही अपने किरायेदार किसानों से किराए पर लेने के बंद रहते थे जो किरायेदार बन गया।[43]विशेष रूप से कई क्षेत्रों, उत्तरी बंगाल में वे तेजी से गांवों में खेती की देखरेख जो मध्यम पट्टा धारकों, तथाकथित जोतडार, साथ आय साझा करने के लिए किया था।[43]नतीजतन, समकालीन विपरीत संलग्नक आंदोलन ब्रिटेन में, बंगाल में कृषि असंख्य छोटे धान के खेत एस के निर्वाह खेती के प्रांत बने रहे.[43]
जमींदारी प्रथा भारत में कंपनी द्वारा किए गए दो प्रमुख आय बस्तियों में से एक था।[44]दक्षिणी भारत में, थॉमस मुनरो, बाद के राज्यपाल बन जाएगा जो मद्रास, पदोन्नत रैयतवारी प्रणाली, जिसमें सरकार सीधे किसान किसानों, या रैयत के साथ भूमि आय बसे.[31]इस भाग में, की अशांति का एक परिणाम था आंग्ल मैसूर युद्ध, जो बड़े जमींदारों के एक वर्ग के उभार को रोका था, इसके अतिरिक्त में, मुनरो और दूसरों महसूस किया कि रैयतवारी था करीब पारंपरिक क्षेत्र में अभ्यास और वैचारिक रूप से अधिक प्रगतिशील, ग्रामीण समाज के निम्नतम स्तर तक पहुँचने के लिए कंपनी नियम के लाभों की इजाजत दी.[31] रैयतवारी प्रणाली के दिल में की एक विशेष सिद्धांत था आर्थिक किराए और के आधार पर डेविड रिकार्डो के रेंट की कानून द्वारा प्रवर्तित उपयोगी जेम्स मिल 1819 और 1830 के बीच भारतीय आय नीति तैयार की है। "उन्होंने कहा कि सरकार मिट्टी के परम प्रभु का मानना था कि और 'किराए' के अपने अधिकार का त्याग नहीं करना चाहिए, यानी मजदूरी और अन्य संचालन व्यय को सुलझा लिया गया था जब अमीर धरती पर ऊपर छोड़ दिया है लाभ."[45]अस्थायी बस्तियों की नई प्रणाली का एक और प्रधान सिद्धांत निपटान की अवधि के लिए तय की औसत किराया दरों के साथ मिट्टी के प्रकार और उत्पादन के अनुसार कृषि क्षेत्र के वर्गीकरण था।[46]मिल के अनुसार, भूमि किराए के कराधान कुशल कृषि को बढ़ावा देने और एक साथ एक "परजीवी भूस्वामी वर्ग के उभार को रोका जा सके.""[45]मिल सरकार माप और मूल्यांकन के प्रत्येक भूखंड का (20 या 30 साल के लिए वैध) और मिट्टी की उर्वरता पर निर्भर था, जो बाद में कराधान के शामिल हैं जो रैयतवारी बस्तियों की वकालत की.[45]लगाया राशि जल्दी 19 वीं सदी में "किराया" के नौ दसवां था और धीरे - धीरे बाद में गिर गया[45]बहरहाल, रैयतवारी प्रणाली का सार सिद्धांतों की अपील के बावजूद, दक्षिणी भारतीय गांवों में वर्ग पदानुक्रम नहीं था पूरी तरह उदाहरण गांव headmen कभी कभी वे नहीं कर सका आय मांगों को अनुभव करने के लिए आया था बोलबाला और किसान किसान जारी कराने के लिए गायब हो, के लिए मिलते हैं।[47]यह कंपनी की कुछ भारतीय आय एजेंट कंपनी के राजस्व मांगों को पूरा करने के लिए यातना का उपयोग कर रहे थे कि पता चला था जब 1850 के दशक में, एक घोटाले भड़क उठी.[31]
भू - राजस्व बस्तियों कंपनी नियम के तहत भारत में विभिन्न सरकारों की एक प्रमुख प्रशासनिक गतिविधि का गठन किया।[6]एक लगातार दोहराव उनकी गुणवत्ता का आकलन करने के भूखंडों का सर्वेक्षण करने और मापने की प्रक्रिया है और रिकॉर्डिंग अधिकार उतरा और भारतीय सिविल सेवा के काम का एक बड़ा हिस्सा गठित शामिल बंगाल प्रेसीडेंसी, भूमि बंदोबस्त के काम के अलावा अन्य सभी क्षेत्रों में सरकार के लिए काम अधिकारी उपस्थित थे।[6] यह भी तो, साल के बीच 1814 और 1859, भारत की सरकार ने 33 साल में कर्ज दौड़ा, कंपनी अपने व्यापार के अधिकार खो दिया है, यह 19 वीं सदी के मध्य में कुल राजस्व का लगभग आधा सरकारी राजस्व का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत बन गया है।[6]विस्तार प्रभुत्व के साथ, यहां तक कि गैर घाटा वर्षों के दौरान, एक घिसा प्रशासन, एक कंकाल पुलिस बल और सेना के वेतन का भुगतान करने के लिए अभी पर्याप्त पैसा नहीं था।[6]
सेना और नागरिक सेवा
1772 में, जब वॉरेन हेस्टिंग्स नियुक्त किया गया था के गवर्नर जनरल पहला फोर्ट विलियम के प्रेसीडेंसी की पूंजी के साथ में कोलकाता, अपना पहला उपक्रमों में से एक का तेजी से विस्तार किया गया था प्रेसीडेंसी की सेना. उपलब्ध सैनिकों, या सिपाही है, से बंगाल, जिनमें से कई में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी चूंकि प्लासी की युद्ध ब्रिटिश आँखों में संदेह अब थे, हेस्टिंग्स से दूर पश्चिम भर्ती पूर्वी में भारत की पैदल सेना के "प्रमुख प्रजनन स्थल अवध और आसपास की भूमि बनारस."[48] उच्च जाति ग्रामीण हिंदू राजपूत और ब्राह्मण इस क्षेत्र के (के रूप में जाना जाता है पूर्वी (हिन्दी, अर्थ "पूर्वी") ईस्ट इंडिया कंपनी ने इन सैनिकों अस्सी बंगाल सेना के प्रतिशत पर निर्भर शामिल के साथ, अगले 75 वर्षों के लिए इस अभ्यास जारी रखा, दो सौ वर्षों के लिए सेनाओं मुगल द्वारा भर्ती किया गया था।[48]हालांकि, रैंकों के भीतर किसी भी टकराव से बचने के क्रम में, कंपनी ने भी अपने धार्मिक आवश्यकताओं के लिए अपनी सैन्य प्रथाओं के अनुकूल करने के लिए दर्द लिया। इसके अलावा में, उनकी जाति को प्रदूषण माना विदेशी सेवा, उनमें से आवश्यक नहीं था और सेना जल्द ही आधिकारिक तौर पर हिन्दू त्योहारों पहचान करने के लिए आया था, नतीजतन, इन सैनिकों को अलग सुविधाओं में रात का खाना खाएँ. "उच्च जाति अनुष्ठान स्थिति की यह प्रोत्साहन, तथापि, विरोध करने के लिए सरकार की चपेट में छोड़ दिया, सिपाहियों ने अपने विशेषाधिकार का उल्लंघन का पता चला जब कभी भी विद्रोह."[49]
बंगाल आर्मी भारत के अन्य भागों में और विदेशों में सैन्य अभियानों में इस्तेमाल किया गया था: एक कमजोर मद्रास के लिए महत्वपूर्ण समर्थन प्रदान करने के लिए सेना में तीसरे आंग्ल मैसूर युद्ध 1791 में और भी में जावा और सीलोन[48]भारतीय शासकों की सेनाओं में सैनिकों के विपरीत, बंगाल प्राप्त उच्च वेतन न केवल सिपाहियों, लेकिन यह भी मज़बूती से इसे प्राप्त किया, बंगाल के विशाल भूमि आय भंडार को कंपनी का उपयोग करने के लिए काफी मात्रा में धन्यवाद.[48]जल्द ही, दोनों नए बंदूक प्रौद्योगिकी और नौसेना के समर्थन से बल मिला, बंगाल सेना व्यापक रूप से माना जाने लगा.[48]लाल कोट और उनके ब्रिटिश अधिकारियों में सज अच्छी तरह से अनुशासित सिपाहियों उनके विरोधियों में खौफ का "एक तरह. महाराष्ट्र में और जावा में उत्तेजित करने के लिए शुरू किया, सिपाहियों प्राचीन योद्धा नायकों की कभी कभी, शैतानी ताकतों के अवतार के रूप में माना गया। भारतीय शासकों को अपने स्वयं के बलों के लिए लाल एक प्रकार का कपड़ा जैकेट अपनाया और उनके जादुई गुणों पर कब्जा करने के रूप में अगर बरकरार रहती है। "[48]
1796 में, लंदन में निदेशकों की कंपनी के बोर्ड के दबाव में भारतीय सैनिकों को पुनर्गठित किया गया और के कार्यकाल के दौरान कम जॉन शोर गवर्नर जनरल के रूप में.[50]हालांकि, 18 वीं सदी के अंतिम वर्षों, वेलेस्ले के अभियानों के साथ, सेना की ताकत में एक नया वृद्धि देखी. दुनिया में इस प्रकार 1806 में, के समय में वेल्लोर विद्रोह, तीन प्रेसीडेंसियों 'सेनाओं की संयुक्त ताकत उन्हें सबसे बड़ा खड़े सेनाओं स्थायी सेना में से एक बना, 154500 पर खड़ा था।[51]
ईस्ट इंडिया कंपनी अपने क्षेत्रों का विस्तार किया है, यह सेना के रूप में के रूप में अच्छी तरह से प्रशिक्षित नहीं थे जो अनियमित "स्थानीय कोर," जोड़ा.[53]1846 में, के बाद द्वितीय आंग्ल सिख युद्ध, एक सीमा ब्रिगेड सीआईएस सतलुज हिल अमेरिका में उठाया गया था, मुख्य रूप से पुलिस काम के लिए है, इसके अलावा, 1849 में, "पंजाब अनियमित सेना "सीमा पर जोड़ा गया है।[53]दो साल बाद, इस बल के शामिल "3 प्रकाश क्षेत्र बैटरी, घुड़सवार सेना के 5 रेजिमेंटों और पैदल सेना के 5."[53]अगले वर्ष, "एक चौकी कंपनी, जोड़ा गया है।.. एक छठे 1853 में पैदल सेना रेजिमेंट (कोर सिंध ऊंट से गठन) और 1856 में एक पहाड़ बैटरी."[53]इसी तरह, एक स्थानीय बल 1854 में नागपुर के विलय के बाद उठाया गया था और अवध 1856 में कब्जा कर लिया था के बाद "अवध अनियमित सेना" जोड़ा गया है।[53]इससे पहले, 1800 की संधि का एक परिणाम के रूप में, निजाम कंपनी के अधिकारियों ने किया है, जो 9,000 घोड़े और 6,000 फुट के एक दल बल बनाए रखने के लिए शुरू हो गया था, एक नई संधि पर बातचीत होने के बाद 1853 में, इस बल सौंपा गया था करने के लिए बरार और निजाम की सेना का एक हिस्सा रोका जा रहा है।[53]
1857 की भारतीय विद्रोह लगभग नियमित और अनियमित दोनों पूरे बंगाल सेना, विद्रोह कर दिया.[54]यह 1856 में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा अवध के विलय के बाद, कई सिपाहियों अवध अदालतों में, भू - स्वामी वर्ग के रूप में, उनके अनुलाभ खोने से और किसी भी वृद्धि की भूमि आय भुगतान की प्रत्याशा से दोनों शांत थे कि सुझाव दिया गया है कि विलय शुभ संकेत हो सकता है।[55]युद्ध में या विलय के साथ ब्रिटिश जीत के साथ, विस्तार अंग्रेजों क्षेत्राधिकार की सीमा के रूप में, सैनिकों को अब कम परिचित क्षेत्रों (जैसे बर्मा में एंग्लो बर्मी युद्ध 1856) में के रूप में सेवा करने के लिए उम्मीद की गई थी कि न केवल पहले रैंकों में उनके कारण और इस वजह से असंतोष गया था कि, लेकिन यह भी बिना काम चलाना पड़ता "विदेश सेवा," पारिश्रमिक.[56]बम्बई और मद्रास सेनाओं और हैदराबाद दल, तथापि, वफादार बने रहे. पंजाब अनियमित सेना विद्रोह नहीं था, न केवल यह दबा गदर में एक सक्रिय भूमिका निभाई.[54]विद्रोह नई में 1858 में भारतीय सेना की एक पूरी पुनर्गठन के लिए नेतृत्व ब्रिटिश राज.
सन्दर्भ
श्रेणी:औपनिवेशिक भारत
श्रेणी:भारत का इतिहास | भारत में कंपनी का शासन किस वर्ष में शुरू हुआ था? | 1773 | 73 | hindi |
daddbeba7 | भारत की संविधान सभा का चुनाव भारतीय संविधान की रचना के लिए किया गया था। ग्रेट ब्रिटेन से स्वतंत्र होने के बाद संविधान सभा के सदस्य ही प्रथम संसद के सदस्य बने।
परिचय
द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद जुलाई १९४५ में ब्रिटेन में एक नयी सरकार बनी। इस नयी सरकार ने भारत सम्बन्धी अपनी नई नीति की घोषणा की तथा एक संविधान निर्माण करने वाली समिति बनाने का निर्णय लिया। भारत की आज़ादी के सवाल का हल निकालने के लिए ब्रिटिश कैबिनेट के तीन मंत्री भारत भेजे गए। मंत्रियों के इस दल को कैबिनेट मिशन के नाम से जाना जाता है। १५ अगस्त १९४७ को भारत के आज़ाद हो जाने के बाद यह संविधान सभा पूर्णतः प्रभुतासंपन्न हो गई। इस सभा ने अपना कार्य ९ दिसम्बर १९४७ से आरम्भ कर दिया। संविधान सभा के सदस्य भारत के राज्यों की सभाओं के निर्वाचित सदस्यों के द्वारा चुने गए थे। डॉ राजेन्द्र प्रसाद, डॉ बाबासाहेब आंबेडकर जी, सरदार वल्लभ भाई पटेल, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, जवाहरलाल नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आजाद आदि इस सभा के प्रमुख सदस्य थे। अनुसूचित वर्गों से ३० से ज्यादा सदस्य इस सभा में शामिल थे। सच्चिदानन्द सिन्हा इस सभा के प्रथम सभापति थे। किन्तु बाद में डॉ राजेन्द्र प्रसाद को सभापति निर्वाचित किया गया। बाबासाहेब आंबेडकर जी को निर्मात्री सिमित का अध्यक्ष चुना गया था। संविधान सभा ने २ वर्ष, ११ माह, १८ दिन में कुल १६६ दिन बैठक की। इसकी बैठकों में प्रेस और जनता को भाग लेने की स्वतन्त्रता थी।
भारतीय संविधान सभा के सदस्य
मद्रास
ओ वी अलगेशन, अम्मुकुट्टी स्वामीनाथन, एम ए अयंगार, मोटूरि सत्यनारायण, दक्षयनी वेलायुधन, जी दुर्गाबाई, काला वेंकटराव, एन गोपालस्वामी अय्यंगर, डी. गोविंदा दास, जेरोम डिसूजा, पी. कक्कन, टी एम कलियन्नन गाउंडर, लालकृष्ण कामराज, वी. सी. केशव राव, टी. टी. कृष्णमाचारी, अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर, एल कृष्णास्वामी भारती, पी. कुन्हिरामन, मोसलिकान्ति तिरुमाला राव, वी. मैं मुनिस्वामी पिल्लै, एम. ए मुथैया चेट्टियार, वी. नादिमुत्तु पिल्लै, एस नागप्पा, पी. एल नरसिम्हा राजू, पट्टाभि सीतारमैया, सी. पेरुमलस्वामी रेड्डी, टी. प्रकाशम, एस एच. गप्पी, श्वेताचलपति रामकृष्ण रंगा रोवा, आर लालकृष्ण शन्मुखम चेट्टि, टी. ए रामलिंगम चेट्टियार, रामनाथ गोयनका, ओ पी. रामास्वामी रेड्डियार, एन जी रंगा, नीलम संजीव रेड्डी, श्री शेख गालिब साहिब, लालकृष्ण संथानम, बी शिव राव, कल्लूर सुब्बा राव, यू श्रीनिवास मल्लय्या, पी. सुब्बारायन, चिदम्बरम् सुब्रह्मण्यम्, वी सुब्रमण्यम, एम. सी. वीरवाहु, पी. एम. वेलायुधपाणि, ए क मेनन, टी. जे एम विल्सन, मोहम्मद इस्माइल साहिब, लालकृष्ण टी. एम. अहमद इब्राहिम, महबूब अली बेग साहिब बहादुर, बी पोकर साहिब बहादुर
बॉम्बे
बालचंद्र महेश्वर गुप्ते, हंसा मेहता, हरि विनायक पातस्कर, डा0 भीमराव अम्बेडकर, यूसुफ एल्बन डिसूजा, कन्हैयालाल नानाभाई देसाई, केशवराव जेधे, खंडूभाई कसनजी देसाई, बाल गंगाधर खेर, मीनू मसानी, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, नरहर विष्णु गाडगिल, एस निजलिंगप्पा, एस लालकृष्ण पाटिल, रामचंद्र मनोहर नलावडे़, आर आर दिवाकर, शंकरराव देव, गणेश वासुदेव मावलंकर, वल्लभ भाई पटेल, अब्दुल कादर मोहम्मद शेख, आफताब अहमद खान
पश्चिम बंगाल
मनमोहन दास, अरुण चन्द्र गुहा, लक्ष्मी कांता मैत्रा, मिहिर लाल चट्टोपाध्याय, काफ़ी चन्द्र सामंत, सुरेश चंद्र मजूमदार, उपेंद्रनाथ बर्मन, प्रभुदयाल हिमतसिंगका, बसंत कुमार दास, रेणुका रे, एच. सी. मुखर्जी, सुरेंद्र मोहन घोष, श्यामाप्रसाद मुखर्जी, अरी बहादुर गुरुंग, आर ई. पटेल, लालकृष्ण सी. नियोगी, रघीब अहसान, सोमनाथ लाहिड़ी, जासिमुद्दीन अहमद, नज़ीरुद्दीन अहमद, अब्दुल हमीद, अब्दुल हलीम गज़नवी
संयुक्त प्रांत
अजीत प्रसाद जैन, अलगू राय शास्त्री, बालकृष्ण शर्मा, बंशी धर मिश्रा, भगवान दीन, दामोदर स्वरूप सेठ, दयाल दास भगत, धरम प्रकाश, ए धरम दास, रघुनाथ विनायक धुलेकर, फिरोज गांधी, गोपाल नारायण, कृष्ण चंद्र शर्मा, गोविंद बल्लभ पंत, गोविंद मालवीय, हरियाणा गोविंद पंत, हरिहर नाथ शास्त्री, हृदय नाथ कुन्ज़रू, जसपत राय कपूर, जगन्नाथ बख्श सिंह, जवाहरलाल नेहरू, जोगेन्द्र सिंह, जुगल किशोर, ज्वाला प्रसाद श्रीवास्तव, बी वी. केसकर, कमला चौधरी, कमलापति तिवारी, आचार्य कृपलानी, महावीर त्यागी, खुरशेद लाल, मसूर्या दीन, मोहन लाल सक्सेना, पदमपत सिंघानिया, फूल सिंह, परागी लाल, पूर्णिमा बनर्जी, पुरुषोत्तम दास टंडन, हीरा वल्लभ त्रिपाठी, राम चंद्र गुप्ता, शिब्बन लाल सक्सेना, सतीश चंद्रा, जॉन मथाई, सुचेता कृपलानी, सुंदर लाल, वेंकटेश नारायण तिवारी, मोहनलाल गौतम, विश्वम्भर दयाल त्रिपाठी, विष्णु शरण दुबलिश, बेगम ऐज़ाज़ रसूल, हैदर हुसैन, हसरत मोहानी, अबुल कलाम आजाद, मोहम्मद इस्माइल खान, रफी अहमद किदवई, मो. हफिजुर रहमान
पूर्वी पंजाब
बख्शी टेक चन्द,पंडित श्रीराम शर्मा, जयरामदास दौलतराम, ठाकुरदास भार्गव, बिक्रमलाल सोंधी, यशवंत राय, रणवीर सिंह, अचिंत राम, नंद लाल, सरदार बलदेव सिंह, ज्ञानी गुरमुख सिंह मुसाफिर, सरदार हुकम सिंह, सरदार भूपिंदर सिंह मान, सरदार रतन सिंह लौहगढ़
बिहार
अमिय कुमार घोष, अनुग्रह नारायण सिन्हा, बनारसी प्रसाद झुनझुनवाला, भागवत प्रसाद, Boniface लाकड़ा, ब्रजेश्वर प्रसाद, चंडिका राम, लालकृष्ण टी. शाह, देवेंद्र नाथ सामंत, डुबकी नारायण सिन्हा, गुप्तनाथ सिंह, यदुबंश सहाय, जगत नारायण लाल, जगजीवन राम, जयपाल सिंह, दरभंगा के कामेश्वर सिंह, कमलेश्वरी प्रसाद यादव, महेश प्रसाद सिन्हा, कृष्ण वल्लभ सहाय, रघुनंदन प्रसाद, राजेन्द्र प्रसाद, रामेश्वर प्रसाद सिन्हा, रामनारायण सिंह, सच्चिदानन्द सिन्हा, शारंगधर सिन्हा, सत्यनारायण सिन्हा, विनोदानन्द झा, पी. लालकृष्ण सेन, श्रीकृष्ण सिंह, श्री नारायण महता, श्यामनन्दन सहाय, हुसैन इमाम, सैयद जफर इमाम, लतिफुर रहमान, मोहम्मद ताहिर, तजमुल हुसैन, चौधरी आबिद हुसैन, हरगोविन्द मिश्र
मध्य प्रांत और बरार
गुरु अगमदास,
रघु वीर, राजकुमारी अमृत कौर, भगवन्तराव मंडलोई, बृजलाल नंदलाल बियानी, ठाकुर छेदीलाल, सेठ गोविंद दास, हरिसिंह गौर, हरि विष्णु कामथ, हेमचन्द्र जगोबाजी खांडेकर, घनश्याम सिंह गुप्ता, लक्ष्मण श्रवण भाटकर, पंजाबराव शामराव देशमुख, रविशंकर शुक्ल, आर लालकृष्ण सिधवा, शंकर त्र्यंबक धर्माधिकारी, फ्रैंक एंथोनी, काजी सैयद करीमुद्दीन, गणपतराव दानी
असम
निबरन चंद्र लश्कर, धरणीधर बसु मतरी, गोपीनाथ बोरदोलोई, जे जे.एम. निकोल्स-राय, कुलधर चालिहा, रोहिणी कुमार चौधरी, मुहम्मद सादुल्लाS, अब्दुर रऊफ
उड़ीसा
बी दास, बिश्वनाथ दास, कृष्ण चन्द्र गजपति नारायण देव Parlakimedi की, हरेकृष्ण महताब, लक्ष्मीनारायण साहू, लोकनाथ मिश्रा, नंदकिशोर दास, राजकृष्ण बोस, शांतनु कुमार दास, युधिष्ठिर मिश्रा
दिल्ली
देशबंधु गुप्ता
अजमेर-मारवाड़
मुकुट बिहारी लाल भार्गव
कूर्ग
सी. एम. पूनाचाएम
मैसूर
के.सी. रेड्डी, टी. सिद्धलिंगैया, एच. आर गुरुव रेड्डी, एस वी. कृष्णमूर्ति राव, लालकृष्ण हनुमन्तैया, एच. सिद्धवीरप्पा, टी. चेन्निया
जम्मू एवं कश्मीर
शेख मुहम्मद अब्दुल्ला, मोतीराम बैगरा, मिर्जा मोहम्मद अफजल बेग, मौलाना मोहम्मद सईद मसूदीM
त्रावणकोर-कोचीन
पात्तों ए तानु पिल्लै, आर शंकर, पी. टी. चाको, पानमपिल्ली गोविन्द मेनन, एनी मस्करीन, पी एस नटराज पिल्लै, के ए मोहम्मद
मध्य भारत
विनायक सीताराम सरवटे, बृजराज नारायण, गोपीकृष्ण विजयवर्गीय, राम सहाय, कुसुम कांत जैन, राधवल्लभ विजयवर्गीय, सीताराम एस जापू
सौराष्ट्र
बलवंत राय गोपालजी मेहता, जैसुखलाल हाथी, अमृतलाल विथाल्दास ठक्कर, चिमनलाल चकूभाई शाह, शामलदास लक्ष्मीदास गांधी
राजस्थान
वी. टी. कृष्णमाचारी, हीरालाल शास्त्री, खेतड़ी के सरदार सिंह, जसवंत सिंह, राज बहादुर, माणिक्य लाल वर्मा, गोकुल लाल असावा, रामचंद्र उपाध्याय, बलवंत सिन्हा मेहता, दलेल सिंह, जय नारायण व्यास ((अजमेर-मेरवाडा से मुकुट बिहारीलाल भार्गव ))
पटियाला और पूर्वी पंजाब राज्य संघ
महाराजा रणजीत सिंह, सचेत सिंह, भगवन्त राय
बॉम्बे राज्य
विनायकराव बालशंकर वैद्य, बी एन मुनवली, गोकुलभाई भट्ट, जीवराज नारायण मेहता, गोपालदास ए देसाई, प्राणलाल ठाकुरलाल मुंशी, बी एच. खरडेकर, रतनप्पा भरमप्पा कुम्भार
उड़ीसा
लाल मोहन पति, एन माधव राव, राज कुंवर, शारंगधर दास, युधिष्ठिर मिश्र
मध्य प्रांत
आर एल मालवीय, किशोरीमोहन त्रिपाठी, रामप्रसाद पोटाइ((बेगम एजाज रसुल))
संयुक्त राज्य
बशीर हुसैन जैदी, कृष्ण सिंह
मद्रास राज्य
वी. रमैय्या, रामकृष्ण रंगा राव
विंध्य प्रदेश
अवधेश प्रताप सिंह, शम्भू नाथ शुक्ल, राम सहाय तिवारी, मन्नूलालजी द्विवेदी
कूचबिहार
हिम्मत सिंह लालकृष्ण माहेश्वरी
त्रिपुरा और मणिपुर
गिरिजा शंकर गुहा
भोपाल
लाल सिंह
कच्छ
भवानी अर्जुन खिमजी
हिमाचल प्रदेश
यशवंत सिंह परमार
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
श्रेणी:भारत का संविधान
श्रेणी:भारत का राजनैतिक इतिहास
श्रेणी:भारत का विधिक इतिहास | भारतीय संविधान लिखने वाली सभा में कुल कितने सदस्य थे? | ३० से ज्यादा सदस्य | 924 | hindi |
acae7fad0 | इंस्टाग्राम एक मोबाइल, डेस्कटॉप और इंटरनेट-आधारित फोटो-साझाकरण एप्लिकेशन है जो उपयोगकर्ताओं को फोटो या वीडियो को सार्वजनिक रूप से या निजी [1] तौर पर साझा करने की अनुमति देता है। इसकी स्थापना केविन सिस्ट्रॉम और माइक क्रेगर के द्वारा २०१० में की गई थी, और अक्टूबर २०१० में आईओएस ऑपरेटिंग सिस्टम के लिए विशेष रूप से निःशुल्क मोबाइल ऐप के रूप में लॉन्च किया गया था। एंड्रॉइड (प्रचालन तंत्र) डिवाइस के लिए एक संस्करण दो साल बाद, अप्रैल २०१२ में जारी किया गया था, इसके बाद नवंबर २०१२ में फीचर-सीमित वेबसाइट इंटरफ़ेस, और विंडोज़ १० मोबाइल और विंडोज़ १० को अक्टूबर २०१६ में एप्लिकेशन तैयार किये गए। [2][3]
इंस्टाग्राम पर आज पंजीकृत सदस्य अनगिनत संख्या में चित्र और वीडियो साझा कर सकते हैं जिसमें वे फिल्टर भी बदल सकते हैं। [4] साथ ही इन चित्रों के साथ अपना लोकेशन यानी स्थिति भी जोड़ सकते हैं। इसके अलावा जैसे ट्विटर और फेसबुक में हैशटैग जोड़े जाते हैं वैसे ही इस में भी हैशटैग लगाने का विकल्प होता है। साथ ही फोटो और वीडियो के अलावा लिखकर पोस्ट भी कर सकते हैं।[5]
इन्हें भी देखें
सर्वाधिक फॉलो किये जाने वाले इन्स्टाग्राम खातों की सूची
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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with the founders of Instagram (May 30, 2013)
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श्रेणी:वेब ऐप्लीकेशन
श्रेणी:सामाजिक मीडिया | इंस्टाग्राम के संस्थापक कौन हैं? | केविन सिस्ट्रॉम और माइक क्रेगर | 191 | hindi |
51579a4f9 | महाराजा अग्रसेन (४२५० BC से ६३७ AD) एक पौराणिक समाजवाद के प्रर्वतक, युग पुरुष, राम राज्य के समर्थक एवं महादानी एवं समाजवाद के प्रथम प्रणेता थे। वे अग्रोदय नामक गणराज्य के महाराजा थे। जिसकी राजधानी अग्रोहा थी[1][2][3]
जीवन परिचय
धार्मिक मान्यतानुसार इनका जन्म सूर्यवंशीय महाराजा वल्लभ सेन के अन्तिमकाल और कलियुग के प्रारम्भ में आज से ५१८५ वर्ष पूर्व हुआ था। जो की समस्त खांडव प्रस्थ, बल्लभ गढ़, अग्र जनपद ( आज की दिल्ली, बल्लभ गढ़ और आगरा) के राजा थे उन के राज में कोई दुखी या लाचार नहीं था। बचपन से ही वे अपनी प्रजा में बहुत लोकप्रिय थे। वे एक धार्मिक, शांति दूत, प्रजा वत्सल, हिंसा विरोधी, बली प्रथा को बंद करवाने वाले, करुणानिधि, सब जीवों से प्रेम, स्नेह रखने वाले दयालू राजा थे। ये बल्लभ गढ़ और आगरा के राजा बल्लभ के ज्येष्ठ पुत्र, शूरसेन के बड़े भाई थे [4]
विवाह
समयानुसार युवावस्था में उन्हें राजा नागराज की कन्या राजकुमारी माधवी के स्वयंवर में शामिल होने का न्योता मिला। उस स्वयंवर में दूर-दूर से अनेक राजा और राजकुमार आए थे। यहां तक कि देवताओं के राजा इंद्र भी राजकुमारी के सौंदर्य के वशीभूत हो वहां पधारे थे। स्वयंवर में राजकुमारी माधवी ने राजकुमार अग्रसेन के गले में जयमाला डाल दी। यह दो अलग-अलग संप्रदायों, जातियों और संस्कृतियों का मेल था। जहां अग्रसेन सूर्यवंशी थे वहीं माधवी नागवंश की कन्या थीं।[7][8]
इंद्र से टकराव
इस विवाह से इंद्र जलन और गुस्से से आपे से बाहर हो गये और उन्होंने प्रतापनगर में वर्षा का होना रोक दिया। चारों ओर त्राहि-त्राही मच गयी। लोग अकाल मृत्यु का ग्रास बनने लगे। तब महाराज अग्रसेन ने इंद्र के विरुद्ध युद्ध छेड दिया। चूंकि अग्रसेन धर्म-युद्ध लड रहे थे तो उनका पलडा भारी था जिसे देख देवताओं ने नारद ऋषि को मध्यस्थ बना दोनों के बीच सुलह करवा दी।[5][6]
तपस्या
कुछ समय बाद महाराज अग्रसेन ने अपने प्रजा-जनों की खुशहाली के लिए काशी नगरी जा शिवजी की घोर तपस्या की, जिससे भगवान शिव ने प्रसन्न हो उन्हें माँ लक्ष्मी की तपस्या करने की सलाह दी। माँ लक्ष्मी ने परोपकार हेतु की गयी तपस्या से खुश हो उन्हें दर्शन दिए और कहा कि अपना एक नया राज्य बनाएं और क्षात्र धर्म का पालन करते हुवे अपने राज्य तथा प्रजा का पालन - पोषंण व रक्षा करें ! उनका राज्य हमेसा धन-धान्य से परिपूर्ण रहेगा|
अग्रोदय गणराज्य की स्थापना
अपने नये राज्य की स्थापना के लिए महाराज अग्रसेन ने अपनी रानी माधवी के साथ सारे भारतवर्ष का भ्रमण किया। इसी दौरान उन्हें एक जगह एक शेरनी एक शावक को जन्म देते दिखी, कहते है जन्म लेते ही शावक ने महाराजा अग्रसेन के हाथी को अपनी माँ के लिए संकट समझकर तत्काल हाथी पर छलांग लगा दी। उन्हें लगा कि यह दैवीय संदेश है जो इस वीरभूमि पर उन्हें राज्य स्थापित करने का संकेत दे रहा है। ॠषि मुनियों और ज्योतिषियों की सलाह पर नये राज्य का नाम अग्रेयगण या अग्रोदय रखा गया और जिस जगह शावक का जन्म हुआ था उस जगह अग्रोदय की राजधानी अग्रोहा की स्थापना की गई। यह जगह आज के हरियाणा के हिसार के पास हैं। आज भी यह स्थान अग्रवाल समाज के लिए पांचवे धाम के रूप में पूजा जाता है, वर्तमान में अग्रोहा विकास ट्रस्ट ने बहुत सुंदर मन्दिर, धर्मशालाएं आदि बनाकर यहां आने वाले अग्रवाल समाज के लोगो के लिए सुविधायें जुटा दी है।
समाजवाद के अग्रदूत
महाराजा अग्रसेन को समाजवाद का अग्रदूत कहा जाता है। अपने क्षेत्र में सच्चे समाजवाद की स्थापना हेतु उन्होंने नियम बनाया कि उनके नगर में बाहर से आकर बसने वाले प्रत्येक परिवार की सहायता के लिए नगर का प्रत्येक परिवार उसे एक तत्कालीन प्रचलन का सिक्का व एक ईंट देगा, जिससे आसानी से नवागन्तुक परिवार स्वयं के लिए निवास स्थान व व्यापार का प्रबंध कर सके। महाराजा अग्रसेन ने तंत्रीय शासन प्रणाली के प्रतिकार में एक नयी व्यवस्था को जन्म दिया, उन्होंने पुनः वैदिक सनातन आर्य सस्कृंति की मूल मान्यताओं को लागू कर राज्य की पुनर्गठन में कृषि-व्यापार, उद्योग, गौपालन के विकास के साथ-साथ नैतिक मूल्यों की पुनः प्रतिष्ठा का बीड़ा उठाया।
इस तरह महाराज अग्रसेन के राजकाल में अग्रोदय गणराज्य ने दिन दूनी- रात चौगुनी तरक्की की। कहते हैं कि इसकी चरम स्मृद्धि के समय वहां लाखों व्यापारी रहा करते थे। वहां आने वाले नवागत परिवार को राज्य में बसने वाले परिवार सहायता के तौर पर एक रुपया और एक ईंट भेंट करते थे, इस तरह उस नवागत को लाखों रुपये और ईंटें अपने को स्थापित करने हेतु प्राप्त हो जाती थीं जिससे वह चिंता रहित हो अपना व्यापार शुरु कर लेता था।
अठारह यज्ञ
माता महालक्ष्मी की कृपा से महाराजा अग्रसेन ने अपने राज्य को 18 गणराज्यो में विभाजित कर एक विशाल राज्य का निर्माण किया था, जो इनके नाम पर अग्रेय गणराज्य या अग्रोदय कहलाया।। महर्षि गर्ग ने महाराजा अग्रसेन को 18 गणाधिपतियों के साथ 18 यज्ञ करने का संकल्प करवाया। यज्ञों में बैठे इन 18 गणाधिपतियों के नाम पर ही अग्रवंश के साढ़े सत्रह गोत्रो (अग्रवाल समाज) की स्थापना हुई। उस समय यज्ञों में पशुबलि अनिवार्य रूप से दी जाती थी। प्रथम यज्ञ के पुरोहित स्वयं गर्ग ॠषि बने, सबसे बड़े राजकुमार विभु को दीक्षित कर उन्हें गर्ग गोत्र से मंत्रित किया। इसी प्रकार दूसरा यज्ञ गोभिल ॠषि ने करवाया और द्वितीय गणाधिपति को गोयल गोत्र दिया। तीसरा यज्ञ गौतम ॠषि ने गोइन गोत्र धारण करवाया, चौथे में वत्स ॠषि ने बंसल गोत्र, पाँचवे में कौशिक ॠषि ने कंसल गोत्र, छठे शांडिल्य ॠषि ने सिंघल गोत्र, सातवे में मंगल ॠषि ने मंगल गोत्र, आठवें में जैमिन ने जिंदल गोत्र, नवें में तांड्य ॠषि ने तिंगल गोत्र, दसवें में और्व ॠषि ने ऐरन गोत्र, ग्यारवें में धौम्य ॠषि ने धारण गोत्र, बारहवें में मुदगल ॠषि ने मन्दल गोत्र, तेरहवें में वसिष्ठ ॠषि ने बिंदल गोत्र, चौदहवें में मैत्रेय ॠषि ने मित्तल गोत्र, पंद्रहवें कश्यप ॠषि ने कुच्छल गोत्र दिया। 17 यज्ञ पूर्ण हो चुके थे। जिस समय 18 वें यज्ञ में जीवित पशुओं की बलि दी जा रही थी, महाराज अग्रसेन को उस दृश्य को देखकर घृणा उत्पन्न हो गई। उन्होंने यज्ञ को बीच में ही रोक दिया और कहा कि भविष्य में मेरे राज्य का कोई भी व्यक्ति यज्ञ में पशुबलि नहीं देगा, न पशु को मारेगा, न माँस खाएगा और राज्य का हर व्यक्ति प्राणीमात्र की रक्षा करेगा। इस घटना से प्रभावित होकर उन्होंने अहिंसा धर्म को अपना लिया। इधर अंतिम और अठाहरवे यज्ञ में यज्ञाचार्यो द्वारा पशुबलि को अनिवार्य बताया गया, ना होने पर गोत्र अधूरा रह जाएगा, ऐसा कहा गया, परन्तु महाराजा अग्रसेन के आदेश पर अठारवें यज्ञ में नगेन्द्र ॠषि द्वारा नांगल गोत्र से अभिमंत्रित किया। यह गोत्र पशुबलि ना होने के कारण आधा माना जाता है, इस प्रकार अग्रवाल समाज मे आज भी 18 नही, साढ़े सत्रह गोत्र प्रचलित है।
[9]
साढ़े सत्रह गोत्र
श्री अग्रसेन महाराज आरती
जय श्री अग्र हरे, स्वामी जय श्री अग्र हरे।
कोटि कोटि नत मस्तक, सादर नमन करें।। जय श्री।
आश्विन शुक्ल एकं, नृप वल्लभ जय।
अग्र वंश संस्थापक, नागवंश ब्याहे।। जय श्री।
केसरिया थ्वज फहरे, छात्र चवंर धारे।
झांझ, नफीरी नौबत बाजत तब द्वारे।। जय श्री।
अग्रोहा राजधानी, इंद्र शरण आये!
गोत्र अट्ठारह अनुपम, चारण गुंड गाये।। जय श्री।
सत्य, अहिंसा पालक, न्याय, नीति, समता!
ईंट, रूपए की रीति, प्रकट करे ममता।। जय श्री।
ब्रहम्मा, विष्णु, शंकर, वर सिंहनी दीन्हा।।
कुल देवी महामाया, वैश्य करम कीन्हा।। जय श्री।
अग्रसेन जी की आरती, जो कोई नर गाये!
कहत त्रिलोक विनय से सुख संम्पति पाए।। जय श्री!
महाराज ने अपने राज्य को १८ गणों में विभाजित कर १८ गुरुओं के नाम पर १८ गोत्रों की स्थापना की थी। हर गोत्र अलग होने के बावजूद वे सब एक ही परिवार के अंग बने रहे। इसी कारण अग्रोहा भी सर्वंगिण उन्नति कर सका। राज्य के उन्हीं १८गणों से एक-एक प्रतिनिधि लेकर उन्होंने लोकतांत्रिक राज्य की स्थापना की, जिसका स्वरूप आज हमें वर्तमान लोकतंत्र प्रणाली में भी दिखायी पड़ता है।
अग्रवालों के १८ गोत्र निम्नलिखित हैं -
उस समय यज्ञ करना समृद्धि, वैभव और खुशहाली की निशानी माना जाता था। महाराज अग्रसेन ने बहुत सारे यज्ञ किए। एक बार यज्ञ में बली के लिए लाए गये घोडे को बहुत बेचैन और डरा हुआ पा उन्हें विचार आया कि ऐसी समृद्धि का क्या फायदा जो मूक पशुओं के खून से सराबोर हो। उसी समय उन्होंने अपने मंत्रियों के ना चाहने पर भी पशू बली पर रोक लगा दी। इसीलिए आज भी अग्रवंश समाज हिंसा से दूर ही रहता है।
महाराज अग्रसेन के राज की वैभवता से उनके पड़ोसी राजा बहुत जलते थे। इसलिए वे बार-बार अग्रोहा पर आक्रमण करते रहते थे। बार-बार मुंहकी खाने के बावजूद उनके कारण राज्य में तनाव बना ही रहता था। इन युद्धों के कारण अग्रसेनजी के प्रजा की भलाई के कामों में विघ्न पड़ता रहता था। लोग भी भयभीत और रोज-रोज की लडाई से त्रस्त हो गये थे। इसी के साथ-साथ एक बार अग्रोहा में बडी भीषण आग लगी। उस पर किसी भी तरह काबू ना पाया जा सका। उस अग्निकांड से हजारों लोग बेघरबार हो गये और जीविका की तलाश में भारत के विभिन्न प्रदेशों में जा बसे। पर उन्होंने अपनी पहचान नहीं छोडी। वे सब आज भी अग्रवाल ही कहलवाना पसंद करते हैं और उसी 18 गोत्रों से अपनी पहचान बनाए हुए हैं। आज भी वे सब महाराज अग्रसेन द्वारा निर्देशित मार्ग का अनुसरण करते हैं। महाराजा अग्रसेन की राजधानी अग्रोहा थी। उनके शासन में अनुशासन का पालन होता था। जनता निष्ठापूर्वक स्वतंत्रता के साथ अपने कर्त्तव्य का निर्वाह करती थी।
सन्यास
महाराज अग्रसेन ने १०८ वर्षों तक राज किया। उन्होंने जिन जीवन मूल्यों को ग्रहण किया उनमें परंपरा एवं प्रयोग का संतुलित सामंजस्य दिखाई देता है। उन्होंने एक ओर हिन्दू धर्म ग्रथों में क्षत्रिय वर्ण के लिए निर्देशित कर्मक्षेत्र को स्वीकार किया और दूसरी ओर देशकाल के परिप्रेक्ष्य में नए आदर्श स्थापित किए। उनके जीवन के मूल रूप से तीन आदर्श हैं- लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था, आर्थिक समरूपता एवं सामाजिक समानता। एक निश्चित आयु प्राप्त करने के बाद कुलदेवी महालक्ष्मी से परामर्श पर वे आग्रेय गणराज्य का शासन अपने ज्येष्ठ पुत्र विभु के हाथों में सौंपकर तपस्या करने चले गए। अपनी जिंदगी के अंतिम समय में महाराज ने अपने ज्येष्ट पुत्र विभू को सारी जिम्मेदारी सौंप कर वानप्रस्थ आश्रम अपना लिया।
आज भी इतिहास में महाराज अग्रसेन परम प्रतापी, धार्मिक, सहिष्णु, समाजवाद के प्रेरक महापुरुष के रूप में उल्लेखित हैं। देश में जगह-जगह अस्पताल, स्कूल, बावड़ी, धर्मशालाएँ आदि अग्रसेन के जीवन मूल्यों का आधार हैं और ये जीवन मूल्य मानव आस्था के प्रतीक हैं।
अग्रोहा धाम
प्राचीन ग्रन्थों में वर्णित आग्रेय ही अग्रवालों का उद्गम स्थान आज का अग्रोहा है। दिल्ली से १९० तथा हिसार से २० किलोमीटर दूर हरियाणा में महाराजा अग्रसेन राष्ट्र मार्ग संख्या - १० हिसार - सिरसा बस मार्ग के किनारे एक खेड़े के रूप में स्थित है। जो कभी महाराजा अग्रसेन की राजधानी रही, यह नगर आज एक साधारण ग्राम के रूप में स्थित है जहाँ पांच सौ परिवारों की आबादी है। इसके समीप ही प्राचीन राजधानी अग्रेह (अग्रोहा) के अवशेष थेह के रूप में ६५० एकड भूमि में फैले हैं। जो अग्रसेन महाराज के अग्रोहा नगर के गौरव पूर्ण इतिहास को दर्शाते हैं।
अग्रसेन महाराज पर पुस्तके
वैसे महाराजा अग्रसेन पर अनगिनत पुस्तके लिखी जा चुकी हैं। सुप्रसिद्ध लेखक भारतेंदु हरिश्चंद्र, जो खुद भी अग्रवाल समुदाय से थे, ने १८७१ में "अग्रवालों की उत्पत्ति" नामक प्रामाणिक ग्रंथ लिखा है[10], जिसमें विस्तार से इनके बारे में बताया गया है।[11]
भारत सरकार द्वारा सम्मान
२४ सितंबर १९७६ में भारत सरकार द्वारा २५ पैसे का डाक टिकट महाराजा अग्रसेन के नाम पर जारी किया गया। सन १९९५ में भारत सरकार ने दक्षिण कोरिया से ३५० करोड़ रूपये में एक विशेष तेल वाहक पोत (जहाज) खरीदा, जिसका नाम "महाराजा अग्रसेन" रखा गया। जिसकी क्षमता १,८०,०००० टन है। राष्ट्रीय राजमार्ग -१० का आधिकारिक नाम महाराजा अग्रसेन पर है।
अग्रसेन की बावली, जो दिल्ली के कनॉट प्लेस के पास हैली रोड में स्थित है। यह ६० मीटर लम्बी व १५ मीटर चौड़ी बावड़ी है, जो पुरातत्वीय स्थल और अवशेष अधिनियम १९५८ के तहत भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की देखरेख में हैं। सन २०१२ में भारतीय डाक अग्रसेन की बावली पर डाक टिकट जारी किया गया।
अन्य
एक सर्वे के अनुसार, देश की कुल इनकम टैक्स का २४% से अधिक हिस्सा अग्रसेन के वंशजो का हैं। कुल सामाजिक एवं धार्मिक दान में ६२% हिस्सा अग्रवंशियों का है। भारत में कुल ५०,००० मंदिर व तीर्थस्थल तथा कुल १६,००० गौशालाओं में से १२,००० अग्रवंशी वैश्य समुदाय द्वारा संचालित है। भारत के विकास में २५% योगदान महाराजा अग्रसेन के वंशजो का ही हैं, जिनकी जनसंख्या देश की जनसंख्या में महज १% है।[अग्रवाल] और राजवंशी समूदाय के लिए तीर्थस्थान अग्रोहा, हिसार जिला में भव्य अग्रसेन मंदिर का उद्घाटन ३१ अक्टूबर सन १९८२ को हरियाणा के मुख्यमंत्री माननीय श्री. भजनलाल के करकमलों द्वारा संपंन हुआ।
२९ सितंबर १९७६ को अग्रोहा धाम की नींव रखी गई एवं अग्रसेन मंदिर का निर्माण कार्य जनवरी १९७९ में वसंत पंचमी को आरंभ हुआ।
दिल्ली के निकट सारवान ग्राम में प्राप्त सन १३८४ फाल्गुनी सुदी ५ मंर के शिला लेख में ९९ वाणि जाय निवासिना शब्द अंकित है, जो की नेशनल म्युजियम क्रमांक बी-६ में सुरक्षित रखा हैं।
इन्हें भी देखे
अग्रसेन की बावली
अग्रोहा धाम
अग्रोहा का निर्माण, पतन एवं पुनर्निर्माण
अग्रवाल
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
श्रेणी:महाभारत के पात्र
श्रेणी:हरियाणा
श्रेणी:भारत का इतिहास | महाराजा अग्रसेन के पिता कौन थे? | महाराजा वल्लभ सेन | 273 | hindi |
47b292e2d | ईद उल-फ़ित्र या ईद उल-फितर (अरबी: عيد الفطر) मुस्लमान रमज़ान उल-मुबारक के महीने के बाद एक मज़हबी ख़ुशी का त्यौहार मनाते हैं जिसे ईद उल-फ़ित्र कहा जाता है। ये यक्म शवाल अल-मुकर्रम्म को मनाया जाता है। ईद उल-फ़ित्र इस्लामी कैलेण्डर के दसवें महीने शव्वाल के पहले दिन मनाया जाता है। इसलामी कैलंडर के सभी महीनों की तरह यह भी नए चाँद के दिखने पर शुरू होता है। मुसलमानों का त्योहार ईद मूल रूप से भाईचारे को बढ़ावा देने वाला त्योहार है। इस त्योहार को सभी आपस में मिल के मनाते है और खुदा से सुख-शांति और बरक्कत के लिए दुआएं मांगते हैं। पूरे विश्व में ईद की खुशी पूरे हर्षोल्लास से मनाई जाती है।[1]
इतिहास
मुसलमानों का त्यौहार ईद रमज़ान का चांद डूबने और ईद का चांद नज़र आने पर उसके अगले दिन चांद की पहली तारीख़ को मनाई जाती है। इसलामी साल में दो ईदों में से यह एक है (दूसरा ईद उल जुहा या बकरीद कहलाता है)। पहला ईद उल-फ़ितर पैगम्बर मुहम्मद ने सन 624 ईसवी में जंग-ए-बदर के बाद मनाया था।
250px|right|अंगूठाकार|बाएँ|ईद के दौरान चारमीनार
उपवास की समाप्ति की खुशी के अलावा इस ईद में मुसलमान अल्लाह का शुक्रिया अदा इसलिए भी करते हैं कि उन्होंने महीने भर के उपवास रखने की शक्ति दी। ईद के दौरान बढ़िया खाने के अतिरिक्त नए कपड़े भी पहने जाते हैं और परिवार और दोस्तों के बीच तोहफ़ों का आदान-प्रदान होता है। सिवैया इस त्योहार की सबसे जरूरी खाद्य पदार्थ है जिसे सभी बड़े चाव से खाते हैं।
ईद के दिन मस्जिदों में सुबह की प्रार्थना से पहले हर मुसलमान का फ़र्ज़ है कि वो दान या भिक्षा दे। इस दान को ज़कात उल-फ़ितर कहते हैं।
उपवास की समाप्ति की खुशी के अलावा इस ईद में मुसलमान अल्लाह का शुक्रिया अदा इसलिए भी करते हैं कि उन्होंने महीने भर के उपवास रखने की शक्ति दी। ईद के दौरान बढ़िया खाने के अतिरिक्त नए कपड़े भी पहने जाते हैं और परिवार और दोस्तों के बीच तोहफ़ों का आदान-प्रदान होता है। सिवैया इस त्योहार की सबसे जरूरी खाद्य पदार्थ है जिसे सभी बड़े चाव से खाते हैं।
ईद के दिन मस्जिदों में सुबह की प्रार्थना से पहले हर मुसलमान का फ़र्ज़ है कि वो दान या भिक्षा दे। इस दान को ज़कात उल-फ़ितर कहते हैं।
इस ईद में मुसलमान ३० दिनों के बाद पहली बार दिन में खाना खाते हैं। उपवास की समाप्ती की खुशी के अलावा, इस ईद में मुसलमान अल्लाह का शुक्रियादा इसलिए भी करते हैं कि उन्होंने महीने भर के उपवास रखने की शक्ति दी। ईद के दौरान बढ़िया खाने के अतिरिक्त, नए कपड़े भी पहने जाते हैं और परिवार और दोस्तों के बीच तोहफ़ों का आदान-प्रदान होता है। और सांप्रदाय यह है कि ईद उल-फ़ित्र के दौरान ही झगड़ों -- ख़ासकर घरेलू झगड़ों -- को निबटाया जाता है।
ईद के दिन मस्जिद में सुबह की प्रार्थना से पहले, हर मुसलमान का फ़र्ज़ है कि वो दान या भिक्षा दे। इस दान को ज़कात उल-फ़ित्र कहते हैं। यह दान दो किलोग्राम कोई भी प्रतिदिन खाने की चीज़ का हो सकता है, मिसाल के तौर पे, आटा, या फिर उन दो किलोग्रामों का मूल्य भी। प्रार्थना से पहले यह ज़कात ग़रीबों में बाँटा जाता है।
विभिन्न इलाक़ों में नाम
2
इन्हें भी देखें
रमदान
इस्लामी त्यौहार
ईद मुबारक
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
श्रेणी:इस्लाम
श्रेणी:धार्मिक त्यौहार
श्रेणी:मुस्लिम त्यौहार
श्रेणी:रमज़ान | ईद किस धर्म के लोग मनाते है? | इस्लामी | 212 | hindi |
177ca6db5 | कर्नाटक (Kannada: ಕರ್ನಾಟಕ), जिसे कर्णाटक भी कहते हैं, दक्षिण भारत का एक राज्य है। इस राज्य का गठन १ नवंबर, १९५६ को राज्य पुनर्गठन अधिनियम के अधीन किया गया था। पहले यह मैसूर राज्य कहलाता था। १९७३ में पुनर्नामकरण कर इसका नाम कर्नाटक कर दिया गया। इसकी सीमाएं पश्चिम में अरब सागर, उत्तर पश्चिम में गोआ, उत्तर में महाराष्ट्र, पूर्व में आंध्र प्रदेश, दक्षिण-पूर्व में तमिल नाडु एवं दक्षिण में केरल से लगती हैं। इसका कुल क्षेत्रफल ७४,१२२ वर्ग मील (१,९१,९७६कि॰मी॰²) है, जो भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र का ५.८३% है। २९ जिलों के साथ यह राज्य आठवां सबसे बड़ा राज्य है। राज्य की आधिकारिक और सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है कन्नड़।
कर्नाटक शब्द के उद्गम के कई व्याख्याओं में से सर्वाधिक स्वीकृत व्याख्या यह है कि कर्नाटक शब्द का उद्गम कन्नड़ शब्द करु, अर्थात काली या ऊंची और नाडु अर्थात भूमि या प्रदेश या क्षेत्र से आया है, जिसके संयोजन करुनाडु का पूरा अर्थ हुआ काली भूमि या ऊंचा प्रदेश। काला शब्द यहां के बयालुसीम क्षेत्र की काली मिट्टी से आया है और ऊंचा यानि दक्कन के पठारी भूमि से आया है। ब्रिटिश राज में यहां के लिये कार्नेटिक शब्द का प्रयोग किया जाता था, जो कृष्णा नदी के दक्षिणी ओर की प्रायद्वीपीय भूमि के लिये प्रयुक्त है और मूलतः कर्नाटक शब्द का अपभ्रंश है।[1]
प्राचीन एवं मध्यकालीन इतिहास देखें तो कर्नाटक क्षेत्र कई बड़े शक्तिशाली साम्राज्यों का क्षेत्र रहा है। इन साम्राज्यों के दरबारों के विचारक, दार्शनिक और भाट व कवियों के सामाजिक, साहित्यिक व धार्मिक संरक्षण में आज का कर्नाटक उपजा है। भारतीय शास्त्रीय संगीत के दोनों ही रूपों, कर्नाटक संगीत और हिन्दुस्तानी संगीत को इस राज्य का महत्त्वपूर्ण योगदान मिला है। आधुनिक युग के कन्नड़ लेखकों को सर्वाधिक ज्ञानपीठ सम्मान मिले हैं।[2] राज्य की राजधानी बंगलुरु शहर है, जो भारत में हो रही त्वरित आर्थिक एवं प्रौद्योगिकी का अग्रणी योगदानकर्त्ता है।
इतिहास
कर्नाटक का विस्तृत इतिहास है जिसने समय के साथ कई करवटें बदलीं हैं।[3] राज्य का प्रागैतिहास पाषाण युग तक जाता है तथा इसने कई युगों का विकास देखा है। राज्य में मध्य एवं नव पाषाण युगों के साक्ष्य भी पाये गए हैं। हड़प्पा में खोजा गया स्वर्ण कर्नाटक की खानों से निकला था, जिसने इतिहासकारों को ३००० ई.पू के कर्नाटक और सिंधु घाटी सभ्यता के बीच संबंध खोजने पर विवश किया।[4][5]
तृतीय शताब्दी ई.पू से पूर्व, अधिकांश कर्नाटक राज्य मौर्य वंश के सम्राट अशोक के अधीन आने से पहले नंद वंश के अधीन रहा था। सातवाहन वंश को शासन की चार शताब्दियां मिलीं जिनमें उन्होंने कर्नाटक के बड़े भूभाग पर शासन किया। सातवाहनों के शासन के पतन के साथ ही स्थानीय शासकों कदंब वंश एवं पश्चिम गंग वंश का उदय हुआ। इसके साथ ही क्षेत्र में स्वतंत्र राजनैतिक शक्तियां अस्तित्त्व में आयीं। कदंब वंश की स्थापना मयूर शर्मा ने ३४५ ई. में की और अपनी राजधानी बनवासी में बनायी;[6][7] एवं पश्चिम गंग वंश की स्थापना कोंगणिवर्मन माधव ने ३५० ई में तालकाड़ में राजधानी के साथ की।[8][9]
हाल्मिदी शिलालेख एवं बनवसी में मिले एक ५वीं शताब्दी की ताम्र मुद्रा के अनुसार ये राज्य प्रशासन में कन्नड़ भाषा प्रयोग करने वाले प्रथम दृष्टांत बने[10][11] इन राजवंशों के उपरांत शाही कन्नड़ साम्राज्य बादामी चालुक्य वंश,[12][13] मान्यखेत के राष्ट्रकूट,[14][15] और पश्चिमी चालुक्य वंश[16][17] आये जिन्होंने दक्खिन के बड़े भाग पर शासन किया और राजधानियां वर्तमान कर्नाटक में बनायीं। पश्चिमी चालुक्यों ने एक अनोखी चालुक्य स्थापत्य शैली भी विकसित की। इसके साथही उन्होंने कन्नड़ साहित्य का भी विकास किया जो आगे चलकर १२वीं शताब्दी में होयसाल वंश के कला व साहित्य योगदानों का आधार बना।[18][19]
आधुनिक कर्नाटक के भागों पर ९९०-१२१० ई. के बीच चोल वंश ने अधिकार किया।[20] अधिकरण की प्रक्रिया का आरंभ राजराज चोल १ (९८५-१०१४) ने आरंभ किया और ये काम उसके पुत्र राजेन्द्र चोल १ (१०१४-१०४४) के शासन तक चला।[20] आरंभ में राजराज चोल १ ने आधुनिक मैसूर के भाग "गंगापाड़ी, नोलंबपाड़ी एवं तड़िगैपाड़ी' पर अधिकार किया। उसने दोनूर तक चढ़ाई की और बनवसी सहित रायचूर दोआब के बड़े भाग तथा पश्चिमी चालुक्य राजधानी मान्यखेत तक हथिया ली।[20] चालुक्य शासक जयसिंह की राजेन्द्र चोल १ के द्वारा हार उपरांत, तुंगभद्रा नदी को दोनों राज्यों के बीच की सीमा तय किया गया था।[20] राजाधिराज चोल १ (१०४२-१०५६) के शासन में दन्नड़, कुल्पाक, कोप्पम, काम्पिल्य दुर्ग, पुण्डूर, येतिगिरि एवं चालुक्य राजधानी कल्याणी भी छीन ली गईं।[20] १०५३ में, राजेन्द्र चोल २ चालुक्यों को युद्ध में हराकर कोल्लापुरा पहुंचा और कालंतर में अपनी राजधानी गंगाकोंडचोलपुरम वापस पहुंचने से पूर्व वहां एक विजय स्मारक स्तंभ भी बनवाया।[21] १०६६ में पश्चिमी चालुक्य सोमेश्वर की सेना अगले चोल शासक वीरराजेन्द्र से हार गयीं। इसके बाद उसी ने दोबारा पश्चिमी चालुक्य सेना को कुदालसंगम पर मात दी और तुंगभद्रा नदी के तट पर एक विजय स्मारक की स्थापनी की।[21] १०७५ में कुलोत्तुंग चोल १ ने कोलार जिले में नांगिली में विक्रमादित्य ६ को हराकर गंगवाड़ी पर अधिकार किया।[22] चोल साम्राज्य से १११६ में गंगवाड़ी को विष्णुवर्धन के नेतृत्व में होयसालों ने छीन लिया।[20]
प्रथम सहस्राब्दी के आरंभ में ही होयसाल वंश का क्षेत्र में पुनरोद्भव हुआ। इसी समय होयसाल साहित्य पनपा साथ ही अनुपम कन्नड़ संगीत और होयसाल स्थापत्य शैली के मंदिर आदि बने।[23][24][25][26] होयसाल साम्राज्य ने अपने शासन के विस्तार के तहत आधुनिक आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु के छोटे भागों को विलय किया। १४वीं शताब्दी के आरंभ में हरिहर और बुक्का राय ने विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की एवं वर्तमान बेल्लारी जिले में तुंगभद्रा नदी के तट होसनपट्ट (बाद में विजयनगर) में अपनी राजधानी बसायी। इस साम्राज्य ने अगली दो शताब्दियों में मुस्लिम शासकों के दक्षिण भारत में विस्तार पर रोक लगाये रखी।[27][28]
१५६५ में समस्त दक्षिण भारत सहित कर्नाटक ने एक बड़ा राजनैतिक बदलाव देख, जिसमें विजयनगर साम्राज्य तालिकोट के युद्ध में हार के बाद इस्लामी सल्तनतों के अधीन हो गया।[29] बीदर के बहमनी सुल्तान की मृत्यु उपरांत उदय हुए बीजापुर सल्तनत ने जल्दी ही दक्खिन पर अधिकार कर लिया और १७वीं शताब्दी के अंत में मुगल साम्राज्य से मात होने तक बनाये रखा।[30][31] बहमनी और बीजापुर के शसकों ने उर्दू एवं फारसी साहित्य तथा भारतीय पुनरोद्धार स्थापत्यकला (इण्डो-सैरेसिनिक) को बढ़ावा दिया। इस शैली का प्रधान उदाहरण है गोल गुम्बज[32] पुर्तगाली शासन द्वारा भारी कर वसूली, खाद्य आपूर्ति में कमी एवं महामारियों के कारण १६वीं शताब्दी में कोंकणी हिन्दू मुख्यतः सैल्सेट, गोआ से विस्थापित होकर]],[33] कर्नाटक में आये और १७वीं तथा १८वीं शताब्दियों में विशेषतः बारदेज़, गोआ से विस्थापित होकर मंगलौरियाई कैथोलिक ईसाई दक्षिण कन्नड़ आकर बस गये।[34]
भूगोल
कर्नाटक राज्य में तीन प्रधान मंडल हैं: तटीय क्षेत्र करावली, पहाड़ी क्षेत्र मालेनाडु जिसमें पश्चिमी घाट आते हैं, तथा तीसरा बयालुसीमी क्षेत्र जहां दक्खिन पठार का क्षेत्र है। राज्य का अधिकांश क्षेत्र बयालुसीमी में आता है और इसका उत्तरी क्षेत्र भारत का सबसे बड़ा शुष्क क्षेत्र है।[35] कर्नाटक का सबसे ऊंचा स्थल चिकमंगलूर जिले का मुल्लयनगिरि पर्वत है। यहां की समुद्र सतह से ऊंचाई 1,929 metres (6,329ft) है। कर्नाटक की महत्त्वपूर्ण नदियों में कावेरी, तुंगभद्रा नदी, कृष्णा नदी, मलयप्रभा नदी और शरावती नदी हैं।
कृषि हेतु योग्यता के अनुसार यहां की मृदा को छः प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है: लाल, लैटेरिटिक, काली, ऍल्युवियो-कोल्युविलय एवं तटीय रेतीली मिट्टी। राज्य में चार प्रमुख ऋतुएं आती हैं। जनवरी और फ़रवरी में शीत ऋतु, उसके बाद मार्च-मई तक ग्रीष्म ऋतु, जिसके बाद जून से सितंबर तक वर्षा ऋतु (मॉनसून) और अंततः अक्टूबर से दिसम्बर पर्यन्त मॉनसूनोत्तर काल। मौसम विज्ञान के आधार पर कर्नाटक तीन क्षेत्रों में बांटा जा सकता है: तटीय, उत्तरी आंतरिक और दक्षिणी आंतरिक क्षेत्र। इनमें से तटीय क्षेत्र में सर्वाधिक वर्षा होती है, जिसका लगभग 3,638.5mm (143in) प्रतिवर्ष है, जो राज्य के वार्षिक औसत 1,139mm (45in) से कहीं अधिक है। शिमोगा जिला में अगुम्बे भारत में दूसरा सर्वाधिक वार्षिक औसत वर्षा पाने वाला स्थल है।[36] द्वारा किया गया है। यहां का सर्वाधिक अंकित तापमान ४५.६ ° से. (११४ °फ़ै.) रायचूर में तथा न्यूनतम तापमान 2.8°C (37°F) बीदर में नापा गया है।
कर्नाटक का लगभग 38,724km2 (14,951sqmi) (राज्य के भौगोलिक क्षेत्र का २०%) वनों से आच्छादित है। ये वन संरक्षित, सुरक्षित, खुले, ग्रामीण और निजी वनों में वर्गीकृत किये जा सकते हैं। यहां के वनाच्छादित क्षेत्र भारत के औसत वनीय क्षेत्र २३% से कुछ ही कम हैं, किन्तु राष्ट्रीय वन नीति द्वारा निर्धारित ३३% से कहीं कम हैं।[37]
उप-मंडल
कर्नाटक राज्य में ३० जिले हैं —बागलकोट, बंगलुरु ग्रामीण,
बंगलुरु शहरी, बेलगाम, बेल्लारी, बीदर, बीजापुर, चामराजनगर, चिकबल्लपुर,[38] चिकमंगलूर, चित्रदुर्ग, दक्षिण कन्नड़, दावणगिरि, धारवाड़, गडग, गुलबर्ग, हसन, हवेरी, कोडगु, कोलार, कोप्पल, मांड्या, मैसूर, रायचूर, रामनगर,[38] शिमोगा, तुमकुर, उडुपी, उत्तर कन्नड़ एवं यादगीर। प्रत्येक जिले का प्रशासन एक जिलाधीश या जिलायुक्त के अधीन होता है। ये जिले फिर उप-क्षेत्रों में बंटे हैं, जिनका प्रशासन उपजिलाधीश के अधीन है। उप-जिले ब्लॉक और पंचायतों तथा नगरपालिकाओं द्वारा देखे जाते हैं।
२००१ की जनगणना के आंकड़ों से ज्ञात होता है कि जनसंख्यानुसार कर्नाटक के शहरों की सूची में सर्वोच्च छः नगरों में बंगलुरु, हुबली-धारवाड़, मैसूर, गुलबर्ग, बेलगाम एवं मंगलौर आते हैं। १० लाख से अधिक जनसंख्या वाले महानगरों में मात्र बंगलुरु ही आता है। बंगलुरु शहरी, बेलगाम एवं गुलबर्ग सर्वाधिक जनसंख्या वाले जिले हैं। प्रत्येक में ३० लाख से अधिक जनसंख्या है। गडग, चामराजनगर एवं कोडगु जिलों की जनसंख्या १० लाख से कम है।[39]
जनसांख्यिकी
२००१ की भारतीय जनगणना के अनुसार, कर्नाटक की कुल जनसंख्या ५२,८५०,५६२ है, जिसमें से २६,८९८,९१८ (५०.८९%) पुरुष और २५,९५१,६४४ स्त्रियां (४३.११%) हैं। यानि प्रत्येक १००० पुरुष ९६४ स्त्रियां हैं। इसके अनुसार १९९१ की जनसंख्या में १७.२५% की वृद्धि हुई है। राज्य का जनसंख्या घनत्व २७५.६ प्रति वर्ग कि.मी है और ३३.९८% लोग शहरी क्षेत्रों में रहते हैं। यहां की साक्षरता दर ६६.६% है, जिसमें ७६.१% पुरुष और ५६.९% स्त्रियां साक्षर हैं।[41] यहां की कुल जनसंख्या का ८३% हिन्दू हैं और १३% मुस्लिम, २% ईसाई, ०.७८% जैन, ०.३% बौद्ध और शेष लोग अन्य धर्मावलंबी हैं।[42]
कर्नाटक की आधिकारिक भाषा कन्नड़ है और स्थानीय भाषा के रूप में ६४.७५% लोगों द्वारा बोली जाती है। १९९१ के अनुसार अन्य भाषायी अल्पसंख्यकों में उर्दु (१०.५४ %), तेलुगु (७.०३ %), तमिल (३.५७ %), मराठी (३.६० %), तुलु (३.०० %), हिन्दी (२.५६ %), कोंकणी (१.४६ %), मलयालम (१.३३ %) और कोडव तक्क भाषी ०.३ % हैं।[43] राज्य की जन्म दर २.२% और मृत्यु दर ०.७२% है। इसके अलावा शिशु मृत्यु (मॉर्टैलिटी) दर ५.५% एवं मातृ मृत्यु दर ०.१९५% है। कुल प्रजनन (फर्टिलिटी) दर २.२ है।[44]
स्वास्थ्य एवं आरोग्य के क्षेत्र (सुपर स्पेशियलिटी हैल्थ केयर) में कर्नाटक की निजी क्षेत्र की कंपनियां विश्व की सर्वश्रेष्ठ संस्थाओं से तुलनीय हैं।[45] कर्नाटक में उत्तम जन स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध हैं, जिनके आंकड़े व स्थिति भारत के अन्य अधिकांश राज्यों की तुलना में काफी बेहतर है। इसके बावजूद भी राज्य के कुछ अति पिछड़े इलाकों में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव है।[46]
प्रशासनिक उद्देश्य हेतु, कर्नाटक को चार रेवेन्यु मंडलों, ४९ उप-मंडलों, २९ जिलों, १७५ तालुकों और ७४५ होब्लीज़/रेवेन्यु वृत्तों में बांटा गया है।[47] प्रत्येक जिला प्रशासन का अध्यक्ष जिला उपायुक्त होता है, जो भारतीय प्रशासनिक सेवा (आई.ए.एस) से होता है और उसके अधीन कर्नाटक राज्य सेवाओं के अनेक अधिकारीगण होते हैं। राज्य के न्याय और कानून व्यवस्था का उत्तरदायित्व पुलिस उपायुक्त पर होता है। ये भारतीय पुलिस सेवा का अधिकारी होता है, जिसके अधीन कर्नाटक राज्य पुलिस सेवा के अधिकारीगण कार्यरत होते हैं। भारतीय वन सेवा से वन उपसंरक्षक अधिकारी तैनात होता है, जो राज्य के वन विभाग की अध्यक्षता करता है। जिलों के सर्वांगीण विकास, प्रत्येक जिले के विकास विभाग जैसे लोक सेवा विभाग, स्वास्थ्य, शिक्षा, कृषि, पशु-पालन, आदि विभाग देखते हैं। राज्य की न्यायपालिका बंगलुरु में स्थित कर्नाटक उच्च न्यायालय (अट्टार कचेरी) और प्रत्येक जिले में जिले और सत्र न्यायालय तथा तालुक स्तर के निचले न्यायालय के द्वारा चलती है।
सरकार एवं प्रशासन
कर्नाटक राज्य में भारत के अन्य राज्यों कि भांति ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया द्वारा चुनी गयी एक द्विसदनीय संसदीय सरकार है: विधान सभा एवं विधान परिषद। विधान सभा में २४ सदस्य हैं जो पांच वर्ष की अवधि हेतु चुने जाते हैं।[48] विधान परिषद एक ७५ सदस्यीय स्थायी संस्था है और इसके एक-तिहाई सदस्य (२५) प्रत्येक २ वर्ष में सेवा से निवृत्त होते जाते हैं।[48]
कर्नाटक सरकार की अध्यक्षता विधान सभा चुनावों में जीतकर शासन में आयी पार्टी के सदस्य द्वारा चुने गये मुख्य मंत्री करते हैं। मुख्य मंत्री अपने मंत्रिमंडल सहित तय किये गए विधायी एजेंडा का पालन अपनी अधिकांश कार्यकारी शक्तियों के उपयोग से करते हैं।[49] फिर भी राज्य का संवैधानिक एवं औपचारिक अध्यक्ष राज्यपाल ही कहलाता है। राज्यपाल को ५ वर्ष की अवधि हेतु केन्द्र सरकार के परामर्श से भारत के राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है।[50] कर्नाटक राज्य की जनता द्वारा आम चुनावों के माध्यम से २८ सदस्य लोक सभा हेतु भी चुने जाते हैं।[51][52] विधान परिषद के सदस्य भारत के संसद के उच्च सदन, राज्य सभा हेतु १२ सदस्य चुन कर भेजते हैं।
प्रशासनिक सुविधा हेतु कर्नाटक राज्य को चार राजस्व विभागों, ४९ उप-मंडलों, २९ जिलों, १७५ तालुक तथा ७४५ राजस्व वृत्तों में बांटा गया है।[47] प्रत्येक जिले के प्रशासन का अध्यक्ष वहां का उपायुक्त (डिप्टी कमिश्नर) होता है। उपायुक्त एक भारतीय प्रशासनिक सेवा का अधिकारी होता है तथा उसकी सहायता हेतु राज्य सरकार के अनेक उच्चाधिकारी तत्पर रहते हैं। भारतीय पुलिस सेवा से एक अधिकारी राज्य में उपायुक्त पद पर आसीन रहता है। उसके अधीन भी राज्य पुलिस सेवा के अनेक उच्चाधिकारी तत्पर रहते हैं। पुलिस उपायुक्त जिले में न्याय और प्रशासन संबंधी देखभाल के लिये उत्तरदायी होता है। भारतीय वन सेवा से एक अधिकारी वन उपसंक्षक अधिकारी (डिप्टी कन्ज़र्वेटर ऑफ फ़ॉरेस्ट्स) के पद पर तैनात होता है। ये जिले में वन और पादप संबंधी मामलों हेतु उत्तरदायी रहता है। प्रत्येक विभाग के विकास अनुभाग के जिला अधिकारी राज्य में विभिन्न प्रकार की प्रगति देखते हैं, जैसे राज्य लोक सेवा विभाग, स्वास्थ्य, शिक्षा, कृषि, पशुपालन आदि। ] बीच में बना है। इसके ऊपर घेरे हुए चार सिंह चारों दिशाओं में देख रहे हैं। इसे सारनाथ में अशोक स्तंभ से लिया गया है। इस चिह्न में दो शरभ हैं, जिनके हाथी के सिर और सिंह के धड़ हैं।]]
राज्य की न्यायपालिका में सर्वोच्च पीठ कर्नाटक उच्च न्यायालय है, जिसे स्थानीय लोग "अट्टार कचेरी" बुलाते हैं। ये राजधानी बंगलुरु में स्थित है। इसके अधीन जिला और सत्र न्यायालय प्रत्येक जिले में तथा निम्न स्तरीय न्यायालय ताल्लुकों में कार्यरत हैं।
में गंद बेरुंड बीच में बना है। इसके ऊपर घेरे हुए चार सिंह चारों दिशाओं में देख रहे हैं। इसे सारनाथ में अशोक स्तंभ से लिया गया है। इस चिह्न में दो शरभ हैं, जिनके हाथी के सिर और सिंह के धड़ हैं। कर्नाटक की राजनीति में मुख्यतः तीन राजनैतिक पार्टियों: भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी और जनता दल का ही वर्चस्व रहता है।[53] कर्नाटक के राजनीतिज्ञों ने भारत की संघीय सरकार में प्रधानमंत्री तथा उपराष्ट्रपति जैसे उच्च पदों की भी शोभा बढ़ायी है। वर्तमान संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यू.पी.ए सरकार में भी तीन कैबिनेट स्तरीय मंत्री कर्नाटक से हैं। इनमें से उल्लेखनीय हैं पूर्व मुख्यमंत्री एवं वर्तमान क़ानून एवं न्याय मंत्रालय – वीरप्पा मोइली हैं। राज्य के कासरगोड[54] और शोलापुर[55] जिलों पर तथा महाराष्ट्र के बेलगाम पर दावे के विवाद राज्यों के पुनर्संगठन काल से ही चले आ रहे हैं।[56]
अर्थव्यवस्था
कर्नाटक राज्य का वर्ष २००७-०८ का सकल राज्य घरेलु उत्पाद लगभग रू२१५.२८२ हजार करोड़ ($ ५१.२५ बिलियन) रहा।[57] २००७-०८ में इसके सकल घरेलु उत्पाद में ७% की वृद्धी हुई थी।[58] भारत के राष्ट्रीय सकल घरेलु उत्पाद में वर्ष २००४-०५ में इस राज्य का योगदान ५.२% रहा था।[59]
कर्नाटक पिछले कुछ दशकों में जीडीपी एवं प्रति व्यक्ति जीडीपी के पदों में तीव्रतम विकासशील राज्यों में रहा है। यह ५६.२% जीडीपी और ४३.९% प्रति व्यक्ति जीडीपी के साथ भारतीय राज्यों में छठे स्थान पर आता है।[60] सितंबर, २००६ तक इसे वित्तीय वर्ष २००६-०७ के लिये ७८.०९७ बिलियन ($ १.७२५५ बिलियन) का विदेशी निवेश प्राप्त हुआ था, जिससे राज्य भारत के अन्य राज्यों में तीसरे स्थान पर था।[61] वर्ष २००४ के अंत तक, राज्य में अनुद्योग दर (बेरोजगार दर) ४.९४% थी, जो राष्ट्रीय अनुद्योग दर ५.९९% से कम थी।[62] वित्तीय वर्ष २००६-०७ में राज्य की मुद्रा स्फीति दर ४.४% थी, जो राष्ट्रीय दर ४.७% से थोड़ी कम थी।[63] वर्ष २००४-०५ में राज्य का अनुमानित गरीबी अनुपात १७% रहा, जो राष्ट्रीय अनुपात २७.५% से कहीं नीचे है।[64]
कर्नाटक की लगभग ५६% जनसंख्या कृषि और संबंधित गतिविधियों में संलग्न है।[65] राज्य की कुल भूमि का ६४.६%, यानि १.२३१ करोड़ हेक्टेयर भूमि कृषि कार्यों में संलग्न है।[66] यहाँ के कुल रोपित क्षेत्र का २६.५% ही सिंचित क्षेत्र है। इसलिए यहाँ की अधिकांश खेती दक्षिण-पश्चिम मानसून पर निर्भर है।[66] यहाँ भारत के सार्वजनिक क्षेत्र के अनेक बड़े उद्योग स्थापित किए गए हैं, जैसे हिन्दुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड, नेशनल एरोस्पेस लैबोरेटरीज़, भारत हैवी एलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड, इंडियन टेलीफोन इंडस्ट्रीज़, भारत अर्थ मूवर्स लिमिटेड एवं हिन्दुस्तान मशीन टूल्स आदि जो बंगलुरु में ही स्थित हैं। यहाँ भारत के कई प्रमुख विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी अनुसंधान केन्द्र भी हैं, जैसे भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन, केन्द्रीय विद्युत अनुसंधान संस्थान, भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड एवं केन्द्रीय खाद्य प्रौद्योगिकी अनुसंधान संस्थान। मैंगलोर रिफाइनरी एंड पेट्रोकैमिकल्स लिमिटेड, मंगलोर में स्थित एक तेल शोधन केन्द्र है।
१९८० के दशक से कर्नाटक (विशेषकर बंगलुरु) सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विशेष उभरा है। वर्ष २००७ के आंकड़ों के अनुसार कर्नाटक से लगभग २००० आई.टी फर्म संचालित हो रही थीं। इनमें से कई के मुख्यालय भी राज्य में ही स्थित हैं, जिनमें दो सबसे बड़ी आई.टी कंपनियां इन्फोसिस और विप्रो हैं।[67] इन संस्थाओं से निर्यात रु. ५०,००० करोड़ (१२.५ बिलियन) से भी अधिक पहुंचा है, जो भारत के कुल सूचना प्रौद्योगिकी निर्यात का ३८% है।[67] देवनहल्ली के बाहरी ओर का नंदी हिल क्षेत्र में ५० वर्ग कि.मी भाग, आने वाले २२ बिलियन के ब्याल आईटी निवेश क्षेत्र की स्थली है। ये कर्नाटक की मूल संरचना इतिहास की अब तक की सबसे बड़ी परियोजना है।[68] इन सब कारणों के चलते ही बंगलौर को भारत की सिलिकॉन घाटी कहा जाने लगा है।[69]
भारत में कर्नाटक जैवप्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी अग्रणी है। यह भारत के सबसे बड़े जैव आधारित उद्योग समूह का केन्द्र भी है। यहां देश की ३२० जैवप्रौद्योगिकी संस्थाओं व कंपनियों में से १५८ स्थित हैं।[70] इसी राज्य से भारत के कुल पुष्प-उद्योग का ७५% योगदान है। पुष्प उद्योग तेजी से उभरता और फैलता उद्योग है, जिसमें विश्व भर में सजावटी पौधे और फूलों की आपूर्ति की जाती है।[71]
भारत के अग्रणी बैंकों में से सात बैंकों, केनरा बैंक, सिंडिकेट बैंक, कार्पोरेशन बैंक, विजया बैंक, कर्नाटक बैंक, वैश्य बैंक और स्टेट बैंक ऑफ मैसूर का उद्गम इसी राज्य से हुआ था।[72] राज्य के तटीय जिलों उडुपी और दक्षिण कन्नड़ में प्रति ५०० व्यक्ति एक बैंक शाखा है। ये भारत का सर्वश्रेष्ठ बैंक वितरण है।[73] मार्च २००२ के अनुसार, कर्नाटक राज्य में विभिन्न बैंकों की ४७६७ शाखाएं हैं, जिनमें से प्रत्येक शाखा औसत ११,००० व्यक्तियों की सेवा करती है। ये आंकड़े राष्ट्रीय औसत १६,००० से काफी कम है।[74]
भारत के ३५०० करोड़ के रेशम उद्योग से अधिकांश भाग कर्नाटक राज्य में आधारित है, विशेषकर उत्तरी बंगलौर क्षेत्रों जैसे मुद्दनहल्ली, कनिवेनारायणपुरा एवं दोड्डबल्लपुर, जहां शहर का ७० करोड़ रेशम उद्योग का अंश स्थित है। यहां की बंगलौर सिल्क और मैसूर सिल्क विश्वप्रसिद्ध हैं।[75][76]
यातायात
कर्नाटक में वायु यातायात देश के अन्य भागों की तरह ही बढ़ता हुआ किंतु कहीं उन्नत है। कर्नाटक राज्य में बंगलुरु, मंगलौर, हुबली, बेलगाम, हम्पी एवं बेल्लारी विमानक्षेत्र में विमानक्षेत्र हैं, जिनमें बंगलुरु एवं मंगलौर अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र हैं। मैसूर, गुलबर्ग, बीजापुर, हस्सन एवं शिमोगा में भी २००७ से प्रचालन कुछ हद तक आरंभ हुआ है।[77] यहां चालू प्रधान वायुसेवाओं में किंगफिशर एयरलाइंस एवं एयर डेक्कन हैं, जो बंगलुरु में आधारित हैं।
कर्नाटक का रेल यातायात जाल लगभग लंबा है। २००३ में हुबली में मुख्यालय सहित दक्षिण पश्चिमी रेलवे के सृजन से पूर्व राज्य दक्षिणी एवं पश्चिमी रेलवे मंडलों में आता था। अब राज्य के कई भाग दक्षिण पश्चिमी मंडल में आते हैं, व शेष भाग दक्षिण रेलवे मंडल में आते हैं। तटीय कर्नाटक के भाग कोंकण रेलवे नेटवर्क के अंतर्गत आते हैं, जिसे भारत में इस शताब्दी की सबसे बड़ी रेलवे परियोजना के रूप में देखा गया है।[78] बंगलुरु अन्तर्राज्यीय शहरों से रेल यातायात द्वारा भली-भांति जुड़ा हुआ है। राज्य के अन्य शहर अपेक्षाकृत कम जुड़े हैं।[79][80]
कर्नाटक में ११ जहाजपत्तन हैं, जिनमें मंगलौर पोर्ट सबसे नया है, जो अन्य दस की अपेक्षा सबसे बड़ा और आधुनिक है।[81] मंगलौर का नया पत्तन भारत के नौंवे प्रधान पत्तन के रूप में ४ मई, १९७४ को राष्ट्र को सौंपा गया था। इस पत्तन में वित्तीय वर्ष २००६-०७ में ३ करोड़ २०.४ लाख टन का निर्यात एवं १४१.२ लाख टन का आयात व्यापार हुआ था। इस वित्तीय वर्ष में यहां कुल १०१५ जलपोतों की आवाजाही हुई, जिसमें १८ क्यूज़ पोत थे। राज्य में अन्तर्राज्यीय जलमार्ग उल्लेखनीय स्तर के विकसित नहीं हैं।[82]
कर्नाटक के राष्ट्रीय एवं राज्य राजमार्गों की कुल लंबाइयां क्रमशः एवं हैं। कर्नाटक राज्य सड़क परिवहन निगम (के.एस.आर.टी.सी) राज्य का सरकारी लोक यातायात एवं परिवहन निगम है, जिसके द्वारा प्रतिदिन लगभग २२ लाख यात्रियों को परिवहन सुलभ होता है। निगम में २५,००० कर्मचारी सेवारत हैं।[83] १९९० के दशक के अंतिम दौर में निगम को तीन निगमों में विभाजित किया गया था, बंगलौर मेट्रोपॉलिटन ट्रांस्पोर्ट कार्पोरेशन, नॉर्थ-वेस्ट कर्नाटक ट्रांस्पोर्ट कार्पोरेशन एवं नॉर्थ-ईस्ट कर्नाटक ट्रांस्पोर्ट कार्पोरेशन। इनके मुख्यालय क्रमशः बंगलौर, हुबली एवं गुलबर्ग में स्थित हैं।[83]
संस्कृति
कर्नाटक राज्य में विभिन्न बहुभाषायी और धार्मिक जाति-प्रजातियां बसी हुई हैं। इनके लंबे इतिहास ने राज्य की सांस्कृतिक धरोहर में अमूल्य योगदान दिया है। कन्नड़िगों के अलावा, यहां तुलुव, कोडव और कोंकणी जातियां, भी बसी हुई हैं। यहां अनेक अल्पसंख्यक जैसे तिब्बती बौद्ध तथा अनेक जनजातियाँ जैसे सोलिग, येरवा, टोडा और सिद्धि समुदाय हैं जो राज्य में भिन्न रंग घोलते हैं। कर्नाटक की परंपरागत लोक कलाओं में संगीत, नृत्य, नाटक, घुमक्कड़ कथावाचक आदि आते हैं। मालनाड और तटीय क्षेत्र के यक्षगण, शास्त्रीय नृत्य-नाटिकाएं राज्य की प्रधान रंगमंच शैलियों में से एक हैं। यहां की रंगमंच परंपरा अनेक सक्रिय संगठनों जैसे निनासम, रंगशंकर, रंगायन एवं प्रभात कलाविदरु के प्रयासों से जीवंत है। इन संगठनों की आधारशिला यहां गुब्बी वीरन्ना, टी फी कैलाशम, बी वी करंथ, के वी सुबन्ना, प्रसन्ना और कई अन्य द्वारा रखी गयी थी।[84] वीरागेस, कमसेल, कोलाट और डोलुकुनिता यहां की प्रचलित नृत्य शैलियां हैं। मैसूर शैली के भरतनाट्य यहां जत्ती तयम्मा जैसे पारंगतों के प्रयासों से आज शिखर पर पहुंचा है और इस कारण ही कर्नाटक, विशेषकर बंगलौर भरतनाट्य के लिये प्रधान केन्द्रों में गिना जाता है।[85]
कर्नाटक का विश्वस्तरीय शास्त्रीय संगीत में विशिष्ट स्थान है, जहां संगीत की[86] कर्नाटक (कार्नेटिक) और हिन्दुस्तानी शैलियां स्थान पाती हैं। राज्य में दोनों ही शैलियों के पारंगत कलाकार हुए हैं। वैसे कर्नाटक संगीत में कर्नाटक नाम कर्नाटक राज्य विशेष का ही नहीं, बल्कि दक्षिण भारतीय शास्त्रीय संगीत को दिया गया है।१६वीं शताब्दी के हरिदास आंदोलन कर्नाटक संगीत के विकास में अभिन्न योगदान दिया है। सम्मानित हरिदासों में से एक, पुरंदर दास को कर्नाटक संगीत पितामह की उपाधि दी गयी है।[87] कर्नाटक संगीत के कई प्रसिद्ध कलाकार जैसे गंगूबाई हंगल, मल्लिकार्जुन मंसूर, भीमसेन जोशी, बसवराज राजगुरु, सवाई गंधर्व और कई अन्य कर्नाटक राज्य से हैं और इनमें से कुछ को कालिदास सम्मान, पद्म भूषण और पद्म विभूषण से भी भारत सरकार ने सम्मानित किया हुआ है।
कर्नाटक संगीत पर आधारित एक अन्य शास्त्रीय संगीत शैली है, जिसका प्रचलन कर्नाटक राज्य में है। कन्नड़ भगवती शैली आधुनिक कविगणों के भावात्मक रस से प्रेरित प्रसिद्ध संगीत शैली है। मैसूर चित्रकला शैली ने अनेक श्रेष्ठ चित्रकार दिये हैं, जिनमें से सुंदरैया, तंजावुर कोंडव्य, बी.वेंकटप्पा और केशवैय्या हैं। राजा रवि वर्मा के बनाये धार्मिक चित्र पूरे भारत और विश्व में आज भी पूजा अर्चना हेतु प्रयोग होते हैं।[88] मैसूर चित्रकला की शिक्षा हेतु चित्रकला परिषत नामक संगठन यहां विशेष रूप से कार्यरत है।
कर्नाटक में महिलाओं की परंपरागत भूषा साड़ी है। कोडगु की महिलाएं एक विशेष प्रकार से साड़ी पहनती हैं, जो शेष कर्नाटक से कुछ भिन्न है।[89] राज्य के पुरुषों का परंपरागत पहनावा धोती है, जिसे यहां पाँचे कहते हैं। वैसे शहरी क्षेत्रों में लोग प्रायः कमीज-पतलून तथा सलवार-कमीज पहना करते हैं। राज्य के दक्षिणी क्षेत्र में विशेष शैली की पगड़ी पहनी जाती है, जिसे मैसूरी पेटा कहते हैं और उत्तरी क्षेत्रों में राजस्थानी शैली जैसी पगड़ी पहनी जाती है और पगड़ी या पटगा कहलाती है।
चावल (Kannada: ಅಕ್ಕಿ) और रागी राज्य के प्रधान खाद्य में आते हैं और जोलड रोट्टी, सोरघम उत्तरी कर्नाटक के प्रधान खाद्य हैं। इनके अलावा तटीय क्षेत्रों एवं कोडगु में अपनी विशिष्ट खाद्य शैली होती है। बिसे बेले भात, जोलड रोट्टी, रागी बड़ा, उपमा, मसाला दोसा और मद्दूर वड़ा कर्नाटक के कुछ प्रसिद्ध खाद्य पदार्थ हैं। मिष्ठान्न में मैसूर पाक, बेलगावी कुंड, गोकक करदंतु और धारवाड़ पेड़ा मशहूर हैं।
धर्म
आदि शंकराचार्य ने शृंगेरी को भारत पर्यन्त चार पीठों में से दक्षिण पीठ हेतु चुना था। विशिष्ट अद्वैत के अग्रणी व्याख्याता रामानुजाचार्य ने मेलकोट में कई वर्ष व्यतीत किये थे। वे कर्नाटक में १०९८ में आये थे और यहां ११२२ तक वास किया। इन्होंने अपना प्रथम वास तोंडानूर में किया और फिर मेलकोट पहुंचे, जहां इन्होंने चेल्लुवनारायण मंदिर और एक सुव्यवस्थित मठ की स्थापना की। इन्हें होयसाल वंश के राजा विष्णुवर्धन का संरक्षण मिला था।[90] १२वीं शताब्दी में जातिवाद और अन्य सामाजिक कुप्रथाओं के विरोध स्वरूप उत्तरी कर्नाटक में वीरशैवधर्म का उदय हुआ। इन आन्दोलन में अग्रणी व्यक्तित्वों में बसव, अक्का महादेवी और अलाम प्रभु थे, जिन्होंने अनुभव मंडप की स्थापना की जहां शक्ति विशिष्टाद्वैत का उदय हुआ। यही आगे चलकर लिंगायत मत का आधार बना जिसके आज कई लाख अनुयायी हैं।[91] कर्नाटक के सांस्कृतिक और धार्मिक ढांचे में जैन साहित्य और दर्शन का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।
इस्लाम का आरंभिक उदय भारत के पश्चिमी छोर पर १०वीं शताब्दी के लगभग हुआ था। इस धर्म को कर्नाटक में बहमनी साम्राज्य और बीजापुर सल्तनत का संरक्षण मिला।[92] कर्नाटक में ईसाई धर्म १६वीं शताब्दी में पुर्तगालियों और १५४५ में सेंट फ्रांसिस ज़ेवियर के आगमन के साथ फैला।[93] राज्य के गुलबर्ग और बनवासी आदि स्थानों में प्रथम सहस्राब्दी में बौद्ध धर्म की जड़े पनपीं। गुलबर्ग जिले में १९८६ में हुई अकस्मात खोज में मिले मौर्य काल के अवशेष और अभिलेखों से ज्ञात हुआ कि कृष्णा नदी की तराई क्षेत्र में बौद्ध धर्म के महायन और हिनायन मतों का खूब प्रचार हुआ था।
मैसूर मैसूर राज्य में नाड हब्बा (राज्योत्सव) के रूप में मनाया जाता है। यह मैसूर के प्रधान त्यौहारों में से एक है।[94] उगादि (कन्नड़ नव वर्ष), मकर संक्रांति, गणेश चतुर्थी, नाग पंचमी, बसव जयंती, दीपावली आदि कर्नाटक के प्रमुख त्यौहारों में से हैं।
भाषा
राज्य की आधिकारिक भाषा है कन्नड़, जो स्थानीय निवासियों में से ६५% लोगों द्वारा बोली जाती है।[95][96] कन्नड़ भाषा ने कर्नाटक राज्य की स्थापना में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है, जब १९५६ में राज्यों के सृजन हेतु भाषायी सांख्यिकी मुख्य मानदंड रहा था। राज्य की अन्य भाषाओं में कोंकणी एवं कोडव टक हैं, जिनका राज्य में लंबा इतिहास रहा है। यहां की मुस्लिम जनसंख्या द्वारा उर्दु भी बोली जाती है। अन्य भाषाओं से अपेक्षाकृत कम बोली जाने वाली भाषाओं में बेयरे भाषा व कुछ अन्य बोलियां जैसे संकेती भाषा आती हैं। कन्नड़ भाषा का प्राचीन एवं प्रचुर साहित्य है, जिसके विषयों में काफी भिन्नता है और जैन धर्म, वचन, हरिदास साहित्य एवं आधुनिक कन्नड़ साहित्य है। अशोक के समय की राजाज्ञाओं व अभिलेखों से ज्ञात होता है कि कन्नड़ लिपि एवं साहित्य पर बौद्ध साहित्य का भी प्रभाव रहा है। हल्मिडी शिलालेख ४५० ई. में मिले कन्नड़ भाषा के प्राचीनतम उपलब्ध अभिलेख हैं, जिनमें अच्छी लंबाई का लेखन मिलता है। प्राचीनतम उपलब्ध साहित्य में ८५० ई. के कविराजमार्ग के कार्य मिलते हैं। इस साहित्य से ये भी सिद्ध होता है कि कन्नड़ साहित्य में चट्टान, बेद्दंड एवं मेलवदु छंदों का प्रयोग आरंभिक शताब्दियों से होता आया है।[97]
कुवेंपु, प्रसिद्ध कन्नड़ कवि एवं लेखक थे, जिन्होंने जय भारत जननीय तनुजते लिखा था, जिसे अब राज्य का गीत (एन्थम) घोषित किया गया है।[98] इन्हें प्रथम कर्नाटक रत्न सम्मान दिया गया था, जो कर्नाटक सरकार द्वारा दिया जाने वाला सर्वोच्च नागरिक सम्मान है। अन्य समकालीन कन्नड़ साहित्य भी भारतीय साहित्य के प्रांगण में अपना प्रतिष्ठित स्थान बनाये हुए है। सात कन्नड़ लेखकों को भारत का सर्वोच्च साहित्य सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार मिल चुका है, जो किसी भी भारतीय भाषा के लिये सबसे बड़ा साहित्यिक सम्मान होता है।[99] टुलु भाषा मुख्यतः राज्य के तटीय जिलों उडुपी और दक्षिण कन्नड़ में बोली जाती है। टुलु महाभरतो, अरुणब्ज द्वारा इस भाषा में लिखा गया पुरातनतम उपलब्ध पाठ है।[100] टुलु लिपि के क्रमिक पतन के कारण टुलु भाषा अब कन्नड़ लिपि में ही लिखी जाती है, किन्तु कुछ शताब्दी पूर्व तक इस लिपि का प्रयोग होता रहा था। कोडव जाति के लोग, जो मुख्यतः कोडगु जिले के निवासी हैं, कोडव टक्क बोलते हैं। इस भाषा की दो क्षेत्रीय बोलियां मिलती हैं: उत्तरी मेन्डले टक्क और दक्षिणी किग्गाति टक।[101] कोंकणी मुख्यतः उत्तर कन्नड़ जिले में और उडुपी एवं दक्षिण कन्नड़ जिलों के कुछ समीपस्थ भागों में बोली जाती है। कोडव टक्क और कोंकणी, दोनों में ही कन्नड़ लिपि का प्रयोग किया जाता है। कई विद्यालयों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी है और अधिकांश बहुराष्ट्रीय कंपनियों तथा प्रौद्योगिकी-संबंधित कंपनियों तथा बीपीओ में अंग्रेज़ी का प्रयोग ही होता है।
राज्य की सभी भाषाओं को सरकारी एवं अर्ध-सरकारी संस्थाओं का संरक्षण प्राप्त है। कन्नड़ साहित्य परिषत एवं कन्नड़ साहित्य अकादमी कन्नड़ भाषा के उत्थान हेतु एवं कन्नड़ कोंकणी साहित्य अकादमी कोंकणी साहित्य के लिये कार्यरत है।[102] टुलु साहित्य अकादमी एवं कोडव साहित्य अकादमी अपनी अपनी भाषाओं के विकास में कार्यशील हैं।
शिक्षा
२००१ की जनसंख्या अनुसार, कर्नाटक की साक्षरता दर ६७.०४% है, जिसमें ७६.२९% पुरुष तथा ५७.४५% स्त्रियाँ हैं।[103] राज्य में भारत के कुछ प्रतिष्ठित शैक्षिक और अनुसंधान संस्थान भी स्थित हैं, जैसे भारतीय विज्ञान संस्थान, भारतीय प्रबंधन संस्थान, राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, कर्नाटक और भारतीय राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय।
मार्च २००६ के अनुसार, कर्नाटक में ५४,५२९ प्राथमिक विद्यालय हैं, जिनमें २,५२,८७५ शिक्षक तथा ८४.९५ लाख विद्यार्थी हैं।[104] इसके अलावा ९४९८ माध्यमिक विद्यालय जिनमें ९२,२८७ शिक्षक तथा १३.८४ लाख विद्यार्थी हैं।[104] राज्य में तीन प्रकार के विद्यालय हैं, सरकारी, सरकारी सहायता प्राप्त निजी (सरकार द्वारा आर्थिक सहायता प्राप्त) एवं पूर्णतया निजी (कोई सरकारी सहायता नहीं)। अधिकांश विद्यालयों में शिक्षा का माध्यम कन्नड़ एवं अंग्रेज़ी है। विद्यालयों में पढ़ाया जाने वाला पाठ्यक्रम या तो सीबीएसई, आई.सी.एस.ई या कर्नाटक सरकार के शिक्षा विभाग के अधीनस्थ राज्य बोर्ड पाठ्यक्रम (एसएसएलसी) से निर्देशित होता है। कुछ विद्यालय ओपन स्कूल पाठ्यक्रम भी चलाते हैं। राज्य में बीजापुर में एक सैनिक स्कूल भी है।
विद्यालयों में अधिकतम उपस्थिति को बढ़ावा देने हेतु, कर्नाटक सरकार ने सरकारी एवं सहायता प्राप्त विद्यालयों में विद्यार्थियों हेतु निःशुल्क अपराह्न-भोजन योजना आरंभ की है।[105] राज्य बोर्ड परीक्षाएं माध्यमिक शिक्षा अवधि के अंत में आयोजित की जाती हैं, जिसमें उत्तीर्ण होने वाले छात्रों को द्विवर्षीय विश्वविद्यालय-पूर्व कोर्स में प्रवेश मिलता है। इसके बाद विद्यार्थी स्नातक पाठ्यक्रम के लिये अर्हक होते हैं।
राज्य में छः मुख्य विश्वविद्यालय हैं: बंगलुरु विश्वविद्यालय,गुलबर्ग विश्वविद्यालय, कर्नाटक विश्वविद्यालय, कुवेंपु विश्वविद्यालय, मंगलौर विश्वविद्यालय तथा मैसूर विश्वविद्यालय। इनके अलावा एक मानिव विश्वविद्यालय क्राइस्ट विश्वविद्यालय भी है। इन विश्वविद्यालयों से मान्यता प्राप्त ४८१ स्नातक महाविद्यालय हैं।[106] १९९८ में राज्य भर के अभियांत्रिकी महाविद्यालयों को नवगठित बेलगाम स्थित विश्वेश्वरैया प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के अंतर्गत्त लाया गया, जबकि चिकित्सा महाविद्यालयों को राजीव गांधी स्वास्थ्य विज्ञान विश्वविद्यालय के अधिकारक्षेत्र में लाया गया था। इनमें से कुछ अच्छे महाविद्यालयों को मानित विश्वविद्यालय का दर्जा भी प्रदान किया गया था। राज्य में १२३ अभियांत्रिकी, ३५ चिकित्सा ४० दंतचिकित्सा महाविद्यालय हैं।[107] राज्य में वैदिक एवं संस्कृत शिक्षा हेतु उडुपी, शृंगेरी, गोकर्ण तथा मेलकोट प्रसिद्ध स्थान हैं। केन्द्र सरकार की ११वीं पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत्त मुदेनहल्ली में एक भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान की स्थापना को स्वीकृति मिल चुकी है। ये राज्य का प्रथम आई.आई.टी संस्थान होगा।[108] इसके अतिरिक्त मेदेनहल्ली-कानिवेनारायणपुरा में विश्वेश्वरैया उन्नत प्रौद्योगिकी संस्थान का ६०० करोड़ रुपये की लागत से निर्माण प्रगति पर है।[109]
मीडिया
राज्य में समाचार पत्रों का इतिहास १८४३ से आरंभ होता है, जब बेसल मिशन के एक मिश्नरी, हर्मैन मोग्लिंग ने प्रथम कन्नड़ समाचार पत्र मंगलुरु समाचार का प्रकाशन आरंभ किया था। प्रथम कन्नड़ सामयिक, मैसुरु वृत्तांत प्रबोधिनी मैसूर में भाष्यम भाष्याचार्य ने निकाला था। भारतीय स्वतंत्रता उपरांत १९४८ में के। एन.गुरुस्वामी ने द प्रिंटर्स (मैसूर) प्रा.लि. की स्थापना की और वहीं से दो समाचार-पत्र डेक्कन हेराल्ड और प्रजावनी का प्रकाशन शुरु किया। आधुनिक युग के पत्रों में द टाइम्स ऑफ इण्डिया और विजय कर्नाटक क्रमशः सर्वाधिक प्रसारित अंग्रेज़ी और कन्नड़ दैनिक हैं।[110][111] दोनों ही भाषाओं में बड़ी संख्या में साप्ताहिक, पाक्षिक और मासिक पत्रिकाओं का प्रकाशन भी प्रगति पर है। राज्य से निकलने वाले कुछ प्रसिद्ध दैनिकों में उदयवाणि, कन्नड़प्रभा, संयुक्त कर्नाटक, वार्ता भारती, संजीवनी, होस दिगंत, एईसंजे और करावली आले आते हैं।
दूरदर्शन भारत सरकार द्वारा चलाया गया आधिकारिक सरकारी प्रसारणकर्त्ता है और इसके द्वारा प्रसारित कन्नड़ चैनल है डीडी चंदना। प्रमुख गैर-सरकारी सार्वजनिक कन्नड़ टीवी चैनलों में ईटीवी कन्नड़, ज़ीटीवी कन्नड़, उदय टीवी, यू२, टीवी९, एशियानेट सुवर्ण एवं कस्तूरी टीवी हैं।[112]
कर्नाटक का भारतीय रेडियो के इतिहास में एक विशिष्ट स्थान है। भारत का प्रथम निजी रेडियो स्टेशन आकाशवाणी १९३५ में प्रो॰एम॰वी॰ गोपालस्वामी द्वारा मैसूर में आरंभ किया गया था।[113] यह रेडियोस्टेशन काफी लोकप्रिय रहा और बाद में इसे स्थानीय नगरपालिका ने ले लिया था। १९५५ में इसे ऑल इण्डिया रेडियो द्वारा अधिग्रहण कर बंगलुरु ले जाया गया। इसके २ वर्षोपरांत ए.आई.आर ने इसका मूल नाम आकाशवाणी ही अपना लिया। इस चैनल पर प्रसारित होने वाले कुछ प्रसिद्ध कार्यक्रमों में निसर्ग संपदा और सास्य संजीवनी रहे हैं। इनमें गानों, नाटकों या कहानियों के माध्यम से विज्ञान की शिक्षा दी जाती थी। ये कार्यक्रम इतने लोकप्रिय बने कि इनका अनुवाद १८ भाषाओं में हुआ और प्रसारित किया गया। कर्नाटक सरकार ने इस पूरी शृंखला को ऑडियो कैसेटों में रिकॉर्ड कराकर राज्य भर के सैंकड़ों विद्यालयों में बंटवाया था।[113] राज्य में एफ एम प्रसारण रेडियो चैनलों में भी बढ़ोत्तरी हुई है। ये मुख्यतः बंगलुरु, मंगलौर और मैसूर में चलन में हैं।[114][115]
क्रीड़ा
कर्नाटक का एक छोटा सा जिला कोडगु भारतीय हाकी टीम के लिये सर्वाधिक योगदान देता है। यहां से अनेक खिलाड़ियों ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हॉकी में भारत का प्रतिनिधित्व किया है।[116] वार्षिक कोडव हॉकी उत्सव विश्व में सबसे बड़ा हॉकी टूर्नामेण्ट है।[117] बंगलुरु शहर में महिला टेनिस संघ (डब्लु.टी.ए का एक टेनिस ईवेन्ट भी हुआ है, तथा १९९७ में शहर भारत के चतुर्थ राष्ट्रीय खेल सम्मेलन का भी आतिथेय रहा है।[118] इसी शहर में भारत के सर्वोच्च क्रीड़ा संस्थान, भारतीय खेल प्राधिकरण तथा नाइके टेनिस अकादमी भी स्थित हैं। अन्य राज्यों की तुलना में तैराकी के भी उच्च आनक भी कर्नाटक में ही मिलते हैं।[119]
राज्य का एक लोकप्रिय खेल क्रिकेट है। राज्य की क्रिकेट टीम छः बार रणजी ट्रॉफी जीत चुकी है और जीत के आंकड़ों में मात्र मुंबई क्रिकेट टीम से पीछे रही है।[120] बंगलुरु स्थित चिन्नास्वामी स्टेडियम में अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट मैचों का आयोजन होता रहता है। साथ ही ये २००० में आरंभ हुई राष्ट्रीय क्रिकेट अकादमी का भी केन्द्र रहा है, जहां अकादमी भविष्य के लिए अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ियों को तैयार करती है। राज्य क्रिकेट टीम के कई प्रसिद्ध क्रिकेट खिलाड़ी राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अग्रणी रहे हैं। १९९० के दशक में हुए एक अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट मैच में यहीं के खिलाड़ियों का बाहुल्य रहा था।[121][122] कर्नाटक प्रीमियर लीग राज्य का एक अंतर्क्षेत्रीय ट्वेन्टी-ट्वेन्टी क्रिकेट टूर्नामेंट है। रॉयल चैलेन्जर्स बैंगलौर भारतीय प्रीमियर लीग का एक फ़्रैंचाइज़ी है जो बंगलुरु में ही स्थित है।
राज्य के अंचलिक क्षेत्रों में खो खो, कबड्डी, चिन्नई डांडु तथा कंचे या गोली आदि खेल खूब खेले जाते हैं।
राज्य के उल्लेखनीय खिलाड़ियों में १९८० के ऑल इंग्लैंड बैडमिंटन चैंपियनशिप विजेता प्रकाश पादुकोन का नाम सम्मान से लिया जाता है। इनके अलावा पंकज आडवाणी भी उल्लेखनीय हैं, जिन्होंने २० वर्ष की आयु से ही बैडमिंटन स्पर्धाएं आरंभ कर दी थीं तथा तथा क्यू स्पोर्ट्स के तीन उपाधियां धारण की हैं, जिनमें २००३ की विश्व स्नूकर चैंपियनशिप एवं २००५ की विश्व बिलियर्ड्स चैंपियनशिप आती हैं।[123][124]
राज्य में साइकिलिंग स्पर्धाएं भी जोरों पर रही हैं। बीजापुर जिले के क्षेत्र से राष्ट्रीय स्तर के अग्रणी सायक्लिस्ट हुए हैं। मलेशिया में आयोजित हुए पर्लिस ओपन ’९९ में प्रेमलता सुरेबान भारतीय प्रतिनिधियों में से एक थीं। जिले की साइक्लिंग प्रतिभा को देखते हुए उनके उत्थान हेतु राज्य सरकार ने जिले में ४० लाख की लागत से यहां के बी.आर अंबेडकर स्टेडियम में सायक्लिंग ट्रैक बनवाया है।[125]
पर्यटन
अपने विस्तृत भूगोल, प्राकृतिक सौन्दर्य एवं लम्बे इतिहास के कारण कर्नाटक राज्य बड़ी संख्या में पर्यटन आकर्षणों से परिपूर्ण है। राज्य में जहां एक ओर प्राचीन शिल्पकला से परिपूर्ण मंदिर हैं तो वहीं आधुनिक नगर भी हैं, जहां एक ओर नैसर्गिक पर्वतमालाएं हैं तो वहीं अनान्वेषित वन संपदा भी है और जहां व्यस्त व्यावसायिक कार्यकलापों में उलझे शहरी मार्ग हैं, वहीं दूसरी ओर लम्बे सुनहरे रेतीले एवं शांत सागरतट भी हैं। कर्नाटक राज्य को भारत के राज्यों में सबसे प्रचलित पर्यटन गंतव्यों की सूची में चौथा स्थान मिला है।[126] राज्य में उत्तर प्रदेश के बाद सबसे अधिक राष्ट्रीय संरक्षित उद्यान एवं वन हैं,[127] जिनके साथ ही यहां राज्य पुरातत्त्व एवं संग्रहालय निदेशलय द्वारा संरक्षित ७५२ स्मारक भी हैं। इनके अलावा अन्य २५,००० स्मारक भी संरक्षण प्राप्त करने की सूची में हैं।[128][129]
राज्य के मैसूर शहर में स्थित महाराजा पैलेस इतना आलीशान एवं खूबसूरत बना है, कि उसे सबसे विश्व के दस कुछ सुंदर महलों में गिना जाता है।[130][131] कर्नाटक के पश्चिमी घाट में आने वाले तथा दक्षिणी जिलों में प्रसिद्ध पारिस्थितिकी पर्यटन स्थल हैं जिनमें कुद्रेमुख, मडिकेरी तथा अगुम्बे आते हैं। राज्य में २५ वन्य जीवन अभयारण्य एवं ५ राष्ट्रीय उद्यान हैं। इनमें से कुछ प्रसिद्ध हैं: बांदीपुर राष्ट्रीय उद्यान, बनेरघाटा राष्ट्रीय उद्यान एवं नागरहोल राष्ट्रीय उद्यान। हम्पी में विजयनगर साम्राज्य के अवशेष तथा पत्तदकल में प्राचीन पुरातात्त्विक अवशेष युनेस्को विश्व धरोहर चुने जा चुके हैं। इनके साथ ही बादामी के गुफा मंदिर तथा ऐहोल के पाषाण मंदिर बादामी चालुक्य स्थापात्य के अद्भुत नमूने हैं तथा प्रमुख पर्यटक आकर्षण बने हुए हैं। बेलूर तथा हैलेबिडु में होयसाल मंदिर क्लोरिटिक शीस्ट (एक प्रकार के सोपस्टोन) से बने हुए हैं एवं युनेस्को विश्व धरोहर स्थल बनने हेतु प्रस्तावित हैं।[132] यहाँ बने गोल गुम्बज तथा इब्राहिम रौज़ा दक्खन सल्तनत स्थापत्य शैली के अद्भुत उदाहरण हैं। श्रवणबेलगोला स्थित गोमतेश्वर की १७ मीटर ऊंची मूर्ति जो विश्व की सर्वोच्च एकाश्म प्रतिमा है, वार्षिक महामस्तकाभिषेक उत्सव में सहस्रों श्रद्धालु तीर्थायात्रियों का आकर्षण केन्द्र बनती है।[133]
कर्नाटक के जल प्रपात एवं कुद्रेमुख राष्ट्रीय उद्यान "विश्व के १००१ प्राकृतिक आश्चर्य" में गिने गये हैं।[134] जोग प्रपात को भारत के सबसे ऊंचे एकधारीय जल प्रपात के रूप में गोकक प्रपात, उन्चल्ली प्रपात, मगोड प्रपात, एब्बे प्रपात एवं शिवसमुद्रम प्रपात सहित अन्य प्रसिद्ध जल प्रपातों की सूची में शम्मिलित किया गया है।
यहां अनेक खूबसूरत सागरतट हैं, जिनमें मुरुदेश्वर, गोकर्ण एवं करवर सागरतट प्रमुख हैं। इनके साथ-साथ कर्नाटक धार्मिक महत्त्व के अनेक स्थलों का केन्द्र भी रहा है। यहां के प्रसिद्ध हिन्दू मंदिरों में उडुपी कृष्ण मंदिर, सिरसी का मरिकंबा मंदिर, धर्मस्थल का श्री मंजुनाथ मंदिर, कुक्के में श्री सुब्रह्मण्यम मंदिर तथा शृंगेरी स्थित शारदाम्बा मंदिर हैं जो देश भर से ढेरों श्रद्धालुओं को आकर्षित करते हैं। लिंगायत मत के अधिकांश पवित्र स्थल जैसे कुदालसंगम एवं बसवन्ना बागेवाड़ी राज्य के उत्तरी भागों में स्थित हैं। श्रवणबेलगोला, मुदबिद्री एवं कर्कला जैन धर्म के ऐतिहासिक स्मारक हैं। इस धर्म की जड़े राज्य में आरंभिक मध्यकाल से ही मजबूत बनी हुई हैं और इनका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण केन्द्र है श्रवणबेलगोला
हाल के कुछ वर्षों में कर्नाटक स्वास्थ्य रक्षा पर्यटन हेतु एक सक्रिय केन्द्र के रूप में भी उभरा है। राज्य में देश के सर्वाधिक स्वीकृत स्वास्थ्य प्रणालिययाँ और वैकल्पिक चिकित्सा उपलब्ध हैं। राज्य में आईएसओ प्रमाणित सरकारी चिकित्सालयों सहित, अंतर्राष्ट्रीय स्तर की चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने वाले निजी संस्थानों के मिले-जुले योगदान से वर्ष २००४-०५ में स्वास्थ्य-रक्षा उद्योग को ३०% की बढोत्तरी मिली है। राज्य के अस्पतालों में लगभग ८,००० स्वास्थ्य संबंधी सैलानी आते हैं।[45]
इन्हें भी देखें
कर्नाटक के लोकसभा सदस्य
कर्नाटक का पठार
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
का आधिकारिक जालस्थल
at Curlie
- भारत डिस्कवरी पर देखें | कर्नाटक का क्षेत्रफल कितना है? | ७४,१२२ वर्ग मील | 424 | hindi |