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2c789f525 | चुंबकीय क्षेत्र विद्युत धाराओं और चुंबकीय सामग्री का चुंबकीय प्रभाव है। किसी भी बिन्दु पर चुंबकीय क्षेत्र दोनों, दिशा और परिमाण (या शक्ति) द्वारा निर्दिष्ट किया जाता है; इसलिये यह एक सदिश क्षेत्र है। चुम्बकीय क्षेत्र गतिमान विद्युत आवेश और मूलकणों के अंतर्भूत चुंबकीय आघूर्ण द्वारा उत्पादित होता है।
'चुम्बकीय क्षेत्र' शब्द का प्रयोग दो क्षेत्रों के लिये किया जाता है जिनका आपस में निकट सम्बन्ध है, किन्तु दोनों अलग-अलग हैं। इन दो क्षेत्रों को B तथा H, द्वारा निरूपित किया जाता है। H की ईकाई अम्पीयर प्रति मीटर (संकेत: A·m−1 or A/m) है और B की ईकाई टेस्ला (प्रतीक: T) है।
चुम्बकीय क्षेत्र दो प्रकार से उत्पन्न (स्थापित) किया जा सकता है- (१) गतिमान आवेशों के द्वारा (अर्थात, विद्युत धारा के द्वारा) तथा (२) मूलभूत कणों में निहित चुम्बकीय आघूर्ण के द्वारा[1][2] विशिष्ट आपेक्षिकता में, विद्युत क्षेत्र और चुम्बकीय क्षेत्र, एक ही वस्तु के दो पक्ष हैं जो परस्पर सम्बन्धित होते हैं। चुम्बकीय क्षेत्र दो रूपों में देखने को मिलता है, (१) स्थायी चुम्बकों द्वारा लोहा, कोबाल्ट आदि से निर्मित वस्तुओं पर लगने वाला बल, तथा (२) मोटर आदि में उत्पन्न बलाघूर्ण जिससे मोटर घूमती है। आधुनिक प्रौद्योगिकी में चुम्बकीय क्षेत्रों का बहुतायत में उपयोग होता है (विशेषतः वैद्युत इंजीनियरी तथा विद्युतचुम्बकत्व में)। धरती का चुम्बकीय क्षेत्र, चुम्बकीय सुई के माध्यम से दिशा ज्ञान कराने में उपयोगी है। विद्युत मोटर और विद्युत जनित्र में चुम्बकीय क्षेत्र का उपयोग होता है। लॉरेंज बल
{{मुख्य|लॉरेंज किसी तार में उत्पन्न आबेश (q) तथा वेग (v) एवम् चुम्बकीय क्षेत्र(B) के गुणन फल को लोरेंज बल कहेते हैं
F=q v×B
जहा q=आवेश v=वेग B=चुम्बकीय क्षेत्र
सन्दर्भ
इन्हें भी देखें
स्थायी चुम्बक
विद्युतचुम्बकत्व
चुम्बकीय पदार्थ | एक चुंबक के कितने पक्ष होते हैं? | दो | 106 | hindi |
d2aed13da | किसी राज्य द्वारा व्यक्तियों या विविध संस्था से जो अधिभार या धन लिया जाता है उसे कर या टैक्स कहते हैं। राष्ट्र के अधीन आने वाली विविध संस्थाएँ भी तरह-तरह के कर लगातीं हैं। कर प्राय: धन (मनी) के रूप में लगाया जाता है किन्तु यह धन के तुल्य श्रम के रूप में भी लगाया जा सकता है। कर दो तरह के हो सकते हैं - प्रत्यक्ष कर (direct tax) या अप्रत्यक्ष कर (indirect tax)। एक तरफ इसे जनता पर बोझ के रूप में देखा जा सकता है वहीं इसे सरकार को चलाने के लिये आधारभूत आवश्यकता के रूप में भी समझा जा सकता है।
भारत के प्राचीन ऋषि (समाजशास्त्री) कर के बारे में यह मानते थे कि वही कर-संग्रहण-प्रणाली आदर्श कही जाती है, जिससे करदाता व कर संग्रहणकर्ता दोनों को कठिनाई न हो। उन्होंने कहा कि कर-संग्रहण इस प्रकार से होना चाहिये जिस प्रकार मधुमक्खी द्वारा पराग संग्रहण किया जाता है। इस पराग संग्रहण में पुष्प भी पल्लवित रहते हैं और मधुमक्खी अपने लिये शहद भी जुटा लेती है।
इन्हें भी देखें उत्पाद कर (Excise Tax)
इष्टतम् कर (Optimal tax)
लोक वित्त (Public finance)
कर कानून (Tax law)
कर नीति (Tax policy)
सम्पत्ति कर (Wealth tax)
भारत में कराधान (Taxation in India)
बाहरी कड़ियाँ by Seth J. Chandler and by Fiona Maclachlan, Wolfram Demonstrations Project
श्रेणी:वित्त | टैक्स कितने प्रकार के होते है? | दो | 278 | hindi |
26010925a | हाइड्रोजन (उदजन) (अंग्रेज़ी:Hydrogen) एक रासायनिक तत्व है। यह आवर्त सारणी का सबसे पहला तत्व है जो सबसे हल्का भी है। ब्रह्मांड में (पृथ्वी पर नहीं) यह सबसे प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। तारों तथा सूर्य का अधिकांश द्रव्यमान हाइड्रोजन से बना है। इसके एक परमाणु में एक प्रोट्रॉन, एक इलेक्ट्रॉन होता है। इस प्रकार यह सबसे सरल परमाणु भी है।[7] प्रकृति में यह द्विआण्विक गैस के रूप में पाया जाता है जो वायुमण्डल के बाह्य परत का मुख्य संघटक है। हाल में इसको वाहनों के ईंधन के रूप में इस्तेमाल कर सकने के लिए शोध कार्य हो रहे हैं। यह एक गैसीय पदार्थ है जिसमें कोई गंध, स्वाद और रंग नहीं होता है। यह सबसे हल्का तत्व है (घनत्व 0.09 ग्राम प्रति लिटर)। इसकी परमाणु संख्या 1, संकेत (H) और परमाणु भार 1.008 है। यह आवर्त सारणी में प्रथम स्थान पर है। साधारणतया इससे दो परमाणु मिलकर एक अणु (H2) बनाते है। हाइड्रोजन बहुत निम्न ताप पर द्रव और ठोस होता है।[8] द्रव हाइड्रोजन - 253° से. पर उबलता है और ठोस हाइड्रोजन - 258 सें. पर पिघलता है।[9]
उपस्थिति असंयुक्त हाइड्रोजन बड़ी अल्प मात्रा में वायु में पाया जाता है। ऊपरी वायु में इसकी मात्रा अपेक्षाकृत अधिक रहती है। सूर्य के परिमंडल में इसकी प्रचुरता है। पृथ्वी पर संयुक्त दशा में यह जल, पेड़ पौधे, जांतव ऊतक, काष्ठ, अनाज, तेल, वसा, पेट्रालियम, प्रत्येक जैविक पदार्थ में पाया जाता है। अम्लों का यह आवश्यक घटक है। क्षारों और कार्बनिक यौगिकों में भी यह पाया जाता है।
निर्माण प्रयोगशाला में जस्ते पर तनु गंधक अम्ल की क्रिया से यह प्राप्त होता है। युद्ध के कामों के लिए कई सरल विधियों से यह प्राप्त हो सकता है। 'सिलिकोल' विधि में सिलिकन या फेरो सिलिकन पर सोडियम हाइड्राक्साइड की क्रिया से ; 'हाइड्रोलिथ' (जलीय अश्म) विधि में कैलसियम हाइड्राइड पर जल की क्रिया से ; 'हाइड्रिक' विधि में एलुमिनियम पर सोडियम हाइड्राक्साइड की क्रिया से प्राप्त होता है। गर्म स्पंजी लोहे पर भाप की क्रिया से एक समय बड़ी मात्रा में हाइड्रोजन तैयार होता था[10]
आज हाइड्रोजन प्राप्त करने की सबसे सस्ती विधि 'जल गैस' है। जल गैस में हाइड्रोजन और कार्बन मोनोक्साइड विशेष रूप से रहते हैं। जल गैस को ठंडाकर द्रव में परिणत करते हैं। द्रव का फिर प्रभाजक आसवन करते हैं। इससे कार्बन मोनोऑक्साइड (क्वथनांक 191° सें.) और नाइट्रोजन (क्वथनांक 195 सें.) पहले निकल जाते हैं और हाइड्रोजन (क्वथनांक 250° से.) शेष रह जाता है।
जल के वैद्युत अघटन से भी पर्याप्त शुद्ध हाइड्रोजन प्राप्त हो सकता है। एक किलोवाट घंटासे लगभग 7 घन फुट हाइड्रोजन प्राप्त हो सकता है। कुछ विद्युत् अपघटनी निर्माण में जैसे नमक से दाहक सोडा के निर्माण में, उपोत्पाद के रूप में बड़ी मात्रा में हाइड्रोजन प्राप्त होता है।
गुण हाइड्रोजन वायु या ऑक्सीजन में जलता है। जलने का ताप ऊँचा होता है। ज्वाला रंगहीन होती है। जलकर यह जल (H2O) और अत्यल्प मात्रा में हाइड्रोजन पेरॉक्साइड (H2O2) बनाता है। हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के मिश्रण में आग लगाने या विद्युत् स्फुलिंग से बड़े कड़ाके के साथ विस्फोट होता है और जल की बूँदें बनती हैं।
हाइड्रोजन अच्छा अपचायक है। लोहे के मोर्चों को लोहे में और ताँबे के आक्साइड को ताँबे में परिणत कर देता है। यह अन्य तत्वों के साथ संयुक्त हो यौगिक बनाता है। क्लोरीन के साथ क्लोराइड, (HCl), नाइट्रोजन के साथ अमोनिया (NH3) गंधक के साथ हाइड्रोजन सल्फाइड (H2S), फास्फोरस के साथ फास्फोन (PH3) ये सभी द्विअंगी यौगिक हैं। इन्हें हाइड्राइड या उदजारेय कहते है।
हाइड्रोजन एक विचित्र गुणवाला तत्व है। यह है तो अधातु पर अनेक यौगिकों से धातुओं सा व्यवहार करता है। इसके परमाणु में केवल एक प्रोटॉन और एक इलेक्ट्रॉन होते हैं। सामान्य हाइड्रोजन में 0.002 प्रतिशत एक दूसरा हाइड्रोजन होता है जिसको भारी हाइड्रोजन की संज्ञा दी गई है। यह सामान्य परमाणु हाइड्रोजन से दुगुना भारी होता है। इसे 'ड्यूटीरियम' (D) कहते हैं और इसका उत्पत्ति होता है जब हाइड्रोजन (उदजन) को एक अधिक न्यूट्रॉन मिलते है और ऐसे ड्यूटेरियम को हाइड्रोजन का एक समस्थानिक कहते है। ऑक्सीजन के साथ मिलकर यह भारी जल (D2O) बनाता है। हाइड्रोजन के एक अन्य समस्थानिक का भी पत लगा है। इसे ट्रिशियम (Tritium) कहते हैं और इसका उत्पत्ति होता है जब ड्यूटीरियम को एक अधिक न्यूट्रॉन मिलते है। सामान्य हाइड्रोजन से यह तिगुना भारी होता है।
परमाणुवीय हाइड्रोजन हाइड्रोजन के अणु को जब अत्यधिक ऊष्मा में रखते हैं तब वे परमाणुवीय हाइड्रोजन में वियोजित हो जाते हैं। ऐसे हाइड्रोजन का जीवनकाल दबाव पर निर्भर करता और बड़ा अल्प होता है। ऐसा पारमाण्वीय हाइड्रोजनरसायनत: बड़ा सक्रिय होता है और सामान्य ताप पर भी अनेक तत्वों के साथ संयुक्त हो यौगिक बनाता है।
उपयोग हाइड्रोजन के अनेक उपयोग हैं। हेबर विधि में नाइट्रोजन के साथ संयुक्त हो यह अमोनिया बनता है जो उर्वरक के रूप में व्यवहार में आता है। तेल के साथ संयुक्त होकर हाइड्रोजन वनस्पति तेल (ठोस या अर्धठोस वसा) बनाता है। खाद्य के रूप में प्रयुक्त होने के लिए वनस्पति तेल बहुत बड़ी मात्रा (mass scale) में बनती है। अपचायक के रूप में यह अनेक धातुओं के निर्माण में काम आता है। इसकी सहायता से कोयले से संश्लिष्ट पेट्रोलियम भी बनाया जाता है। अनेक ईधंनों में हाइड्रोजन जलकर ऊष्मा उत्पन्न करता है। ऑक्सीहाइड्रोजन ज्वाला का ताप बहुत ऊँचा होता है। वह ज्वाला धातुओं के काटने, जोड़ने और पिघलाने में काम आती है। विद्युत् चाप (electric arc) में हाइड्रोजन के अणु के तोड़ने से परमाण्वीय हाइड्रोजन ज्वाला प्राप्त होती है जिसका ताप 3370° सें. तक हो सकता है।
हल्का होने के कारण गुब्बारा और वायुपोतों में हाइड्रोजन प्रयुक्त होता है तथा इसका स्थान अब हीलियम ले रहा है। अभिक्रियाओं की सूची H2+Cl2 -> 2HCl 2H2+O2 -> 2H2O
संश्लेषण प्राकृतिक गैस को गर्म तथा कुछ अन्य प्रक्रियाओं द्वारा गुज़ारने पर हाइड्रोज़न और कार्बन मोनोऑक्साईड का मिश्रण मिलता है CH4+H2O -> CO + 3H2
चित्रदीर्घा हाइड्रोजन का इलेक्ट्रॉन ढांचा
इन्हें भी देखें भौतिकी
बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:हाइड्रोजन
श्रेणी:रासायनिक तत्व
श्रेणी:द्विपरमाणुक अधातु
श्रेणी:अपचायक
श्रेणी:गैसें
श्रेणी:औद्योगिक गैसें
श्रेणी:नाभिकीय संलयन ईन्धन | पृथ्वी पर सर्वाधिक मात्रा में पाया जाने वाला तत्व कौन सा है? | हाइड्रोजन | 0 | hindi |
02c482c70 | जीव विज्ञान का पिता ग्रीक दार्शनिक अरस्तू (३८४-३२२ ई.पू.) को कहा जाता है। जीवविज्ञान का एक क्रमबद्ध ज्ञान के रूप में विकास उन्हीं के काल में हुआ। उन्होंने सर्वप्रथम पौधों एवं जन्तुओ के जीवन के विभिन्न पक्षों के विषय में अपने विचार प्रकट किये। अरस्तु को जीवविज्ञान की शाखा जंतु विज्ञान का जनक भी कहते हैं।
श्रेणी:जीव विज्ञान | जीव विज्ञान के पिता किसे कहा जाता है? | अरस्तू | 35 | hindi |
e20a030f8 | सोना या स्वर्ण (Gold) अत्यंत चमकदार मूल्यवान धातु है। यह आवर्त सारणी के प्रथम अंतर्ववर्ती समूह (transition group) में ताम्र तथा रजत के साथ स्थित है। इसका केवल एक स्थिर समस्थानिक (isotope, द्रव्यमान 197) प्राप्त है। कृत्रिम साधनों द्वारा प्राप्त रेडियोधर्मी समस्थानिकों का द्रव्यमान क्रमश: 192, 193, 194, 195, 196, 198 तथा 199 है।
परिचय
सोना एक धातु एवं तत्व है। शुद्ध सोना चमकदार पीले रंग का होता है जो कि बहुत ही आकर्षक रंग है। यह धातु बहुत कीमती है और प्राचीन काल से सिक्के बनाने, आभूषण बनाने एवं धन के संग्रह के लिये प्रयोग की जाती रही है। सोना घना, मुलायम, चमकदार, सर्वाधिक संपीड्य (malleable) एवं तन्य (ductile) धातु है। रासायनिक रूप से यह एक तत्व है जिसका प्रतीक (symbol) Au एवं परमाणु क्रमांक ७९ है। यह एक अंतर्ववर्ती धातु है। अधिकांश रसायन इससे कोई क्रिया नहीं करते। सोने के आधुनिक औद्योगिक अनुप्रयोग हैं - दन्त-चिकित्सा में, एलेक्ट्रॉनिकी में।
स्वर्ण के तेज से मनुष्य अत्यंत पुरातन काल से प्रभावित हुआ है क्योंकि बहुधा यह प्रकृति में मुक्त अवस्था में मिलता है। प्राचीन सभ्यताकाल में भी इस धातु को सम्मान प्राप्त था। ईसा से 2500 वर्ष पूर्व सिंधु घाटी की सभ्यताकाल में (जिसके भग्नावशेष मोहनजोदड़ो और हड़प्पा में मिले हैं) स्वर्ण का उपयोग आभूषणों के लिए हुआ करता था। उस समय दक्षिण भारत के मैसूर प्रदेश से यह धातु प्राप्त होती थी। चरकसंहिता में (ईसा से 300 वर्ष पूर्व) स्वर्ण तथा उसके भस्म का औषधि के रूप में वर्णन आया है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में स्वर्ण की खान की पहचान करने के उपाय धातुकर्म, विविध स्थानों से प्राप्त धातु और उसके शोधन के उपाय, स्वर्ण की कसौटी पर परीक्षा तथा स्वर्णशाला में उसके तीन प्रकार के उपयोगों (क्षेपण, गुण और क्षुद्रक) का वर्णन आया है। इन सब वर्णनों से यह ज्ञात होता है कि उस समय भारत में सुवर्णकला का स्तर उच्च था।
इसके अतिरिक्त मिस्र, ऐसीरिया आदि की सभ्यताओं के इतिहास में भी स्वर्ण के विविध प्रकार के आभूषण बनाए जाने की बात कही गई है और इस कला का उस समय अच्छा ज्ञान था।
मध्ययुग के कीमियागरों का लक्ष्य निम्न धातु (लोहे, ताम्र, आदि) को स्वर्ण में परिवर्तन करना था। वे ऐसे पत्थर पारस की खोज करते रहे जिसके द्वारा निम्न धातुओं से स्वर्ण प्राप्त हो जाए। इस काल में लोगों को रासायनिक क्रिया की वास्तविक प्रकृति का ज्ञान न था। अनेक लोगों ने दावे किये कि उन्होंने ऐसे गुर का ज्ञान पा लिया है जिसके द्वारा वे लौह से स्वर्ण बना सकते हैं जो बाद में सदैव मिथ्या सिद्ध हुए।
उपस्थिति
स्वर्ण प्राय: मुक्त अवस्था में पाया जाता है। यह उत्तम (noble) गुण का तत्व है जिसके कारण से उसके यौगिक प्राय: अस्थायी ही होते हैं। आग्नेय (igneous) चट्टानों में यह बहुत सूक्ष्म मात्रा में वितरित रहता है परंतु समय के साथ क्वार्ट्ज नलिकाओं (quartz veins) में इसकी मात्रा में वृद्धि हो गई है। प्राकृतिक क्रियाओं के फलस्वरूप कुछ खनिज पदार्थों में जैसे लौह पायराइट (Fe S2), सीस सल्फाइड (Pb S), चेलकोलाइट (Cu2 S) आदि अयस्कों के साथ स्वर्ण भी कुछ मात्रा में जमा हो गया है। यद्यपि इसकी मात्रा न्यून ही रहती है परंतु इन धातुओं का शोधन करते समय स्वर्ण की समुचित मात्रा मिल जाती है। चट्टानों पर जल के प्रभाव द्वारा स्वर्ण के सूक्ष्म मात्रा में पथरीले तथा रेतीले स्थानों में जमा होने के कारण पहाड़ी जलस्रोतों में कभी कभी इसके कण मिलते हैं। केवल टेल्डूराइल के रूप में ही इसके यौगिक मिलते हैं।
भारत में विश्व का लगभग दो प्रतिशत स्वर्ण प्राप्त होता है। मैसूर की कोलार की खानों से यह सोना निकाला जाता है। कोलार में स्वर्ण की 5 खानें हैं। इन खानों से स्वर्ण पारद के साथ पारदन (amalgamation) तथा सायनाइड विधि द्वारा निकाला जाता है। उत्तर में सिक्किम प्रदेश में भी स्वर्ण अन्य अयस्कों के साथ मिश्रित अवस्था में मिला करता है। बिहार के मानसून और सिंहभूम जिले में सुवर्णरेखा नदी में भी स्वर्ण के कण प्राप्य हैं।
दक्षिण अमरीका के कोलंबिया प्रदेश, मेक्सिको, संयुक्त राष्ट्र अमरीका के केलीफोर्निया तथा अलासका प्रदेश, आस्ट्रेलिया तथा दक्षिण अफ्रीका स्वर्ण उत्पादन के मुख्य केंद्र हैं। ऐसा अनुमान है कि यदि पंद्रहवीं शताब्दी के अंत से आज तक उत्पादित स्वर्ण को सजाकर रखा जाए तो लगभग 20 मीटर लंबा, चौड़ा तथा ऊँचा धन बनेगा। आश्चर्य तो यह है कि इतनी छोटी मात्रा के पदार्थ द्वारा करोड़ों मनुष्यों के भाग्य का नियंत्रण होता रहा है।
निर्माणविधि
स्वर्ण निकालने की पुरानी विधि में चट्टानों की रेतीली भूमि को छिछले तवों पर धोया जाता था। स्वर्ण का उच्च घनत्व होने के कारण वह नीचे बैठ जाता था और हल्की रेत धोवन के साथ बाहर चली जाती थी। हाइड्रालिक विधि (hydraulic mining) में जल की तीव्र धारा को स्वर्णयुक्त चट्टानों द्वारा प्रविष्ट करते हैं जिससे स्वर्ण से मिश्रित रेत जमा हो जाती है।
आधुनिक विधि द्वारा स्वर्णयुक्त क्वार्ट्ज (quartz) को चूर्ण कर पारद की परतदार ताम्र की थालियों पर धोते हैं जिससे अधिकांश स्वर्ण थालियों पर जम जाता है। परत को खुरचकर उसके आसवन (distillation) द्वारा स्वर्ण को पारद से अलग कर सकते हैं। प्राप्त स्वर्ण में अपद्रव्य वर्तमान रहता है। इसपर सोडियम सायनाइड के विलयन द्वारा क्रिया करने से सोडियम ऑरोसायनाइड बनेगा।
4 Au + 8 NaCN + O2 + 2 H2 O = 4 Na [ Au (C N)2] + 4 NaOH
इस क्रिया में वायुमंडल की ऑक्सीजन आक्सीकारक के रूप में प्रयुक्त होती है।
सोडियम ऑरोसायनाइड विलयन के विद्युत् अपघटन द्वारा अथवा यशद धातु की क्रिया से स्वर्ण मुक्त हो जाता है।
Zn + 2 Na [Au (C N)2] = Na2 [ Zn (CN)4] + 2 Au
सायनाइट विधि द्वारा ऐसे अयस्कों से स्वर्ण निकाला जा सकता है जिनमें स्वर्ण की मात्रा न्यूनतम हो। अन्य विधि के अनुसार अयस्क में उपस्थित स्वर्ण को क्लोरीन द्वारा गोल्ड क्लोराइड (Au Cl3) में परिणत कर जल में विलयित कर लिया जाता है। विलयन में हाइड्रोजन सल्फाइड (H2 S) प्रवाहित करने पर गोल्ड सल्फाइड बन जाता है जिसके दहन से स्वर्ण धातु मिल जाती है।
ऊपर बताई क्रियाओं से प्राप्त स्वर्ण में अपद्रव्य उपस्थित रहते हैं। इसके शोधन की आधुनिक विधि विद्युत् अपघटन पर आधारित है। इस विधि में गोल्ड क्लोराइड को तनु (dilute) हाइड्रोक्लोरिक अम्ल में विलयित कर लेते हैं। विलयन में अशुद्ध स्वर्ण के धनाग्र और शुद्ध स्वर्ण के ऋणाग्र के बीच विद्युत् प्रवाह करने पर अशुद्ध स्वर्ण विलयित हो ऋणाग्र पर जम जाता है।
गुणधर्म
स्वर्ण पीले रंग की धातु है। अन्य धातुओं के मिश्रण से इसके रंग में अंतर आ जाता है। इसमें रजत का मिश्रण करने से इसका रंग हल्का पड़ जाता है। ताम्र के मिश्रण से पीला रंग गहरा पड़ जाता है। मिनी गोल्ड में 8.33 प्रतिशत ताम्र रहता है। यह शुद्ध स्वर्ण से अधिक लालिमा लिए रहता है। प्लैटिनम या पेलैडियम के सम्मिश्रण से स्वर्ण में श्वेत छटा आ जाती है।
स्वर्ण अत्यंत कोमल धातु है। स्वच्छ अवस्था में यह सबसे अधिक धातवर्ध्य (malleable) और तन्य (ductile) धातु है। इसे पीटने पर 10-5 मिमी पतले वरक बनाए जा सकते हैं।
स्वर्ण के कुछ विशेष स्थिरांक निम्नांकित हैं:
संकेत (Au),
परमाणुसंख्या 79,
परमाणुभार 196.97,
गलनांक 106° से.,
क्वथनांक 2970° से.
घनत्व 19.3 ग्राम प्रति घन सेमी,
परमाणु व्यास 2.9 एंग्स्ट्राम A°,
आयनीकरण विभव 9.2 इवों,
विद्युत प्रतिरोधकता 2.19 माइक्रोओहम् - सेमी.
स्वर्ण वायुमंडल ऑक्सीजन द्वारा प्रभावित नहीं होता है। विद्युत्वाहक-बल-शृंखला (electromotive series) में स्वर्ण का सबसे नीचा स्थान है। इसके यौगिक का स्वर्ण आयन सरलता से इलेक्ट्रान ग्रहण कर धातु में परिवर्तित हो जाएगा। स्वर्ण दो संयोजकता के यौगिक बनाता है, 1 और 3। 1 संयोजकता के यौगिकों को ऑरस (aurous) और 3 के यौगिकों को ऑरिक (auric) कहते हैं।
स्वर्ण नाइट्रिक, सल्फ्यूरिक अथवा हाइड्रोक्लोरिक अम्ल से नहीं प्रभावित होता परंतु अम्लराज (aqua regia) (3 भाग सांद्र हाइड्रोक्लोरिक अम्ल तथा 1 भाग सांद्र नाइट्रिक अम्ल का सम्मिश्रण) में घुलकर क्लोरोऑरिक अम्ल (H Au Cl4) बनाता है। इसके अतिरिक्त गरम सेलीनिक अम्ल (selenic acid) क्षारीय सल्फाइड अथवा सोडियम थायोसल्फेट में विलेय है।
यौगिक
स्वर्ण के 1 और 3 संयोजी यौगिक प्राप्त हैं। इसके अतिरिक्त इसके अनेक जटिल यौगिक भी बनाए गए हैं जिनमें इसकी संख्या उपसहसंयोजकता (co ordination number) 2 या 4 रहती है।
स्वर्ण का हाइड्रोक्साइड ऑरस हाइड्रोक्साइड (Au O H), ऑरस क्लोराइड (Au Cl) पर तनु पोटैशियम हाइड्राक्साइड (dil KOH) की क्रिया द्वारा प्राप्त होता है। यह गहरे बैंगनी रंग का चूर्ण है जिसे कुछ रासायनिक जलयुक्त ऑक्साइड (Au2 O) कहते हैं। यह स्वर्ण तथा क्रियाक्साइड (Au2 O3) में परिणत हो सकता है। ऑरस हाइड्रोक्साइड में शिथिल क्षारीय गुण वर्तमान हैं। यदि ऑरिक क्लोराइड (Au Cl3) अथवा क्लोरोआरिक अम्ल (HAuCl4) पर क्षारीय हाइड्रोक्साइड की क्रिया की जाए तो ऑरिक हाइड्राक्साइड {Au (OH)3} बनता है जिसे गरम करने पर आराइल हाइड्राक्साइड Au O (O H) आरिक ऑक्साइड (Au2 O3) और (Au2 O2) और तत्पश्चात् स्वर्ण धातु बच रहती है।
हेलोजन तत्वों से स्वर्ण अनेक यौगिक बनाता है। रक्तताप पर स्वर्ण फ्लोरीन से संयुक्त हो गोल्ड फ्लोराइड बनाता है। क्लोरीन के साथ दो यौगिक ऑरस क्लोराड (Au Cl) और ऑरिक क्लोराइड (Au Cl3) ज्ञात हैं। ऑरस क्लोराइड जल द्वारा अपघटित हो स्वर्ण और ऑरिक क्लोराइड (Au Cl) बना है और अधिक उच्च ताप पर पूर्णतय: विघटित हो जाता है। ब्रोमीन के साथ ऑरस ब्रोमाइड (Au Br) और ऑरिक ब्रोमाइड (Au Br3) बनते हैं। इनके गुण क्लोराइड यौगिकों की भाँति हैं। आयोडीन के साथ भी स्वर्ण के दो यौगिक ऑरस आयोडाइड (Au I) और ऑरिक आयोडाइड (Au I3) बनते हैं परंतु वे दोनों अस्थायी होते हैं।
वायु की उपस्थिति में स्वर्ण क्षारीय सायनाइड में विलयित हो जटिल यौगिक ऑरोसाइनाइड [ Au (C N)2] बनता है जिसमें स्वर्ण 1 संयोजी अवस्था में है। त्रिसंयोजी अवस्था के जटिल यौगिक { K Au (C N)4} भी ज्ञात हैं।
ऑरिक ऑक्साइड पर सांद्र अमोनिया की क्रिया से एक काला चूर्ण बनता है जिसे फ्लीमिनेटिंग गोल्ड (2 Au N. N H3. 3 H2 O) कहते हैं। यह सूखी अवस्था में विस्फोटक होता है।
स्वर्ण के कालायडी विलयन (colloidal solution) का रंग कणों के आकार पर निर्भर है। बड़े कणों के विलयन का रंग नीला रहता है। कणों का आकार छोटा होने पर क्रमश: लाल तथा नारंगी हो जाता है। क्लोरोऑरिक अम्ल विलयन में स्टैनश क्लोराइड (Sn Cl2) मिश्रित करने पर एक नीललोहित अवक्षेप प्राप्त होता है। इसे कैसियम नीललोहित (purple of cassius) कहते हैं। यह स्वर्ण का बड़ा संवेदनशील परीक्षण (delicate test) माना जाता है।
उपयोग
दुनिया भर में नये उत्पादित सोने की खपत गहने में लगभग 50%, निवेश में 40%, और इस उद्योग में 10% है
आभूषण
शुद्ध (24K) सोने की कोमलता के कारण, यह आमतौर पर गहने में उपयोग के लिए आधार धातुओं के साथ मिलाया जाता है, आधार धातु में कॉपर सबसे अधिक इस्तेमाल किया जाता है।
अठारह-karat 25% तांबा युक्त सोने प्राचीन और रूस के गहने में पाया जाता है और इसके कारण इसमे गुलाबी रंग आ जाता है।
नीला सोना, लौहे के साथ और बैंगनी रंग सोने एल्यूमीनियम के साथ मिला कर बनाया जा सकता है, हालांकि शायद ही कभी विशेष गहने में छोड़कर अन्य में इनका उपयोग किय जाता हो। ब्लू गोल्ड अधिक भंगुर है और इसलिए गहने बनाते समय अधिक सावधानी के साथ काम किया जाता है। चौदह और अठारह-karat सोना, चांदी के साथ मिश्र कर बनाया जाता है जो कि हल्का हरा-पीला दिखाई देते हैं और हरा-सोना के रूप में जाना जाता है। सफेद सोना, पैलेडियम या निकल के साथ मिश्र कर बनाया जा सकता है। सफेद अठारह-karat सोने मे, 17.3% निकल, जस्ता 5.5% और 2.2% तांबा होता है, ओर दिखने में चांदी सा होता है। यद्द्पि निकेल विषैला होता है, इसीलिये, निकल मिस्रित सफेद सोना,को यूरोप में कानून द्वारा नियंत्रित किया जाता है।
स्वर्ण का मुद्रा तथा आभूषण के निमित्त प्राचीन काल से उपयोग होता रहा है। स्वर्ण अनेक धातुओं से मिश्रित हो मिश्रधातु बनाता है। मुद्रा में प्रयुक्त स्वर्ण में लगभग 90 प्रतिशत स्वर्ण रहता है। आभूषण के लिए प्रयुक्त स्वर्ण में भी न्यून मात्रा में अन्य धातुएँ मिलाई जाती हैं जिससे उसके भौतिक गुण सुधर जाएँ। स्वर्ण का उपयोग दंतकला तथा सजावटी अक्षर बनाने में हो रहा है।
स्वर्ण के यौगिक फोटोग्राफी कला में तथा कुछ रासायनिक क्रियाओं में भी प्रयुक्त हुए हैं।
स्वर्ण की शुद्धता डिग्री अथवा कैरट में मापी जाती है। विशुद्ध स्वर्ण 1000 डिग्री अथवा 24 कैरट होता है।--- (र. चं. क.)
सोने का उत्खनन
सोने का खनन भारत में अत्यंत प्राचीन समय से हो रहा है। कुछ विद्वानों का मत है कि दसवीं शताब्दी के पूर्व पर्याप्त मात्रा में खनन हुआ था। गत तीन शताब्दियों में अनेक भूवेत्ताओं ने भारत के स्वर्णयुक्त क्षेत्रों में कार्य किया किंतु अधिकांशत: वे आर्थिक स्तर पर सोना प्राप्त करने में असफल ही रहे। भारत में उत्पन्न लगभग संपूर्ण सोना मैसूर राज्य के कोलार तथा हट्टी स्वर्णक्षेत्रों से निकलता है। अत्यंत अल्प मात्रा में सोना उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, पंजाब तथा मद्रास राज्यों में भी अनेक नदियों की मिट्टी या रेत में पाया जाता है किंतु इसकी मात्रा साधारणत: इतनी कम है कि इसके आधार पर आधुनिक ढंग का कोई व्यवसाय आर्थिक दृष्टि से प्रारंभ नहीं किया जा सकता। इन क्षेत्रों में कुछ स्थानों पर स्थानीय निवासी अपने अवकाश के समय में इस मिट्टी एवम् रेत को धोकर कभी कभी अल्प सोने की प्राप्ति कर लेते हैं।
कोलार स्वर्णक्षेत्र (Kolar Gold Field)
यह क्षेत्र मैसूर राज्य के कोलार जिले में मद्रास के पश्चिम की ओर 125 मील की दूरी पर स्थित है। समुद्र से 2,800 फुट की ऊँचाई पर यह क्षेत्र एक उच्च स्थली पर है। वैसे तो इस क्षेत्र का विस्तार उत्तर-दक्षिण में 50 मील तक है किंतु उत्पादन योग्य पटिट्का (Vein) की लंबाई लगभग 4 मील ही है। इस क्षेत्र में बालाघाट, नंदी दुर्ग, उरगाम, चैंपियन रीफ (Champion Reef) तथा मैसूर खानें स्थित हैं। खनन के प्रारंभ से मार्च 1951 के अंत तक 2,18,42,902 आउंस स्वर्ण, जिसका मूल्य 169.61 करोड़ रुपया हुआ, प्राप्त हुआ। कोलार क्षेत्र में कुल 30 पट्टिकाएँ हैं जिनकी औसत चौड़ाई 3-4 फुट है। इन पट्टिकाओं में सर्वाधिक स्वर्ण उत्पादक पट्टिका 'चैंपियन रीफ' है। इसमें नीले भूरे वर्ण का, विशुद्ध तथा कणोंवाला स्फटिक प्राप्त होता है। इसी स्फटिक के साहचर्य में सोना भी मिलता है। सोने के साथ ही टुरमेलीन (Tourmaline) भी सहायक खनिज के रूप में प्राप्त होता है। साथ ही साथ पायरोटाइट (Pyrotite), पायराइट, चाल्कोपायराइट, इल्मेनाइट, मैग्नेटाइट तथा शीलाइट (Shilite) आदि भी इस क्षेत्र की शिलाओं में मिलते हैं।
स्वर्ण उद्योग
कोलार (मैसूर) की सोने की खानों में पूर्णत: आधुनिक एवं वैज्ञानिक विधियों से कार्य होता है। यहाँ की चार खानें 'मैसूर', 'नंदीद्रुग', 'उरगाम' और 'चैपियनरीफ' संसार की सर्वाधिक गहरी खानों में से है। इन खानों में से दो तो सतह से लगभग 10,000 फुट की गहराई तक पहुँच चुकी हैं। इन खानों में ताप 148° फारेनहाइड तक चला जाता है अत: शीतोत्पादक यंत्रों की सहायता से ताप 118° फारेनहाइट तक कम करने की व्यवस्था की गई है। सन् 1953 में उरगाम खान बंद कर दी गई है। औसत रूप से कोलार में प्रति टन खनिज में लगभग पौने तीन माशे सोना पाया जाता है। द्वितीय विश्वयुद्ध से पूर्व विपुल मात्रा में सोने का निर्यात किया जाता था। सन् 1939 में 3,14,515 आउंस सोने का उत्पादन हुआ जिसका मूल्य 3,24,34,364 रुपये हुआ किंतु इसके पश्चात् स्वर्ण उत्पादन में अनियमित रूप से कमी होती चली गई है तथा सन् 1947 में उत्पादन घटकर 1,71,795 आउंस रह गया जिसका मूल्य 5,10,69,000 रुपए तक पहुँचा। कोलार स्वर्णक्षेत्र की खानों का राष्ट्रीयकरण हो गया है तथा मैसूर की राज्य सरकार द्वारा संपूर्ण कार्य संचालित होता है। कोलार विश्व का एक अद्वितीय एवं आदर्श खनन नगर है। यहाँ स्वर्ण खानों के कर्मचारियों को लगभग सभी संभव सुविधाएँ प्रदान की गई हैं। खानों में भी आपातकालीन स्थिति का सामना करने के लिए विशेष सुरक्षा दल (Rescue Teams) रहते हैं।
हैदराबाद में हट्टी में भी सोना प्राप्त हुआ है। इसी प्रकार केरल में वायनाड नामक स्थान पर सोना मिला था किंतु ये निक्षेप कार्य योग्य नहीं थे।
सोना चढ़ाना (Gilding)
किसी पदार्थ की सतह पर उसकी सुरक्षा अथवा अलंकरण हेतु यांत्रिक तथा रासायनिक साधनों से सोना चढ़ाया जाता है। यह कला बहुत ही प्राचीन है। मिस्रवासी आदिकाल ही में लकड़ी और हर प्रकार के धातुओं पर सोना चढ़ाने में प्रवीण तथा अभ्यस्त रहे। पुराने टेस्टामेंट में भी गिल्डिंग का उल्लेख मिलता है। रोम तथा ग्रीस आदि देशों में प्राचीन काल से इस कला को पूर्ण प्रोत्साहन मिलता रहा है। प्राचीन काल में अधिक मोटाई की सोने की पत्तियाँ प्रयोग में लाई जाती थीं। अत: इस प्रकार की गिल्डिंग अधिक मजबूत तथा चमकीली होती रही। पूर्वी देशों की सजावट की कला में इसका प्रमुख स्थान है- मंदिरों के गुंबजों तथा राजमहलों की शोभा बढ़ाने के लिए यह कला विशेषत: अपनाई जाती है। भारत में आज भी जिस विधि से सोना चढ़ाया जाता है इसकी प्राचीनता का एक सुंदर उदाहरण है।
आधुनिक गिल्डिंग में तरह तरह की विधियाँ प्रयोग में लाई जाती हैं और इनसे हर प्रकार के सतहों पर सोना चढ़ाया जा सकता है, जैसे तस्वीरों के फ्रेम, अलमारियों, सजावटी चित्रण, घर और महलों की सजावट, किताबों की जिल्दबाजी, धातुओं के अवरण, बटन बनाना, गिल्ड टाव ट्रेड, प्रिंटिग तथा विद्युत् आवरण, मिट्टी के बर्तनों, पोर्सिलेन, काँच तथा काँच की चूड़ियों की सजावट। टेक्सटाइल, चमड़े और पार्चमेंट पर भी सोना चढ़ाया जाता है तथा इन प्रचलित कामों में सोना अधिक मात्रा में उपभुक्त होता है।
सोना चढ़ाने की समस्त विधियाँ यांत्रिक अथवा रासायनिक साधनों पर निर्भर हैं। यांत्रिक साधनों से सोने की बहुत ही बारीक पत्तियाँ बनाते हैं और उसे धातुओं या वस्तुओं की सतह से चिपका देते हैं। इसलिए धातुओं की सतह को भली भाँति खुरचकर साफ कर लेते हैं। और उसे अच्छी तरह पालिश कर देते हैं। फिर ग्रीज तथा दूसरे अपद्रव्यों (Impurities) जो पालिश करते समय रह जाती है, गरम करके हटा देते हैं। बहुधा लाल ताप पर धातुओं की सतह पर बर्निशर से सोने की पत्तियों को दबाकर चिपका देते हैं। इसे फिर गरम करते हैं और यदि आवश्यकता हुई तो और पत्तियाँ रखकर चिपका देते हैं, तत्पश्चात् इसे ठंडा करके बर्निशर से रगड़ कर चमकीला बना देते हैं। दूसरी विधि में पारे का प्रयोग किया जाता है। धातुओं की सतह की पूर्ववत् साफकर अम्ल विलयन में डाल देते हैं। फिर उसे सतह की पूर्ववत् साफकर अम्ल विलयन में डाल देते हैं। फिर उसे बाहर निकालकर सुखाने के बाद झॉवा तथा सुर्खी से रगड़ कर चिकनाहट पैदा कर देते हैं। इस क्रिया के उपरांत सतह पर पारे की एक पतली पर्त पारदन कर देते हैं, तब इसे कुछ समय के लिए पानी में डाल देते हैं और इस प्रकार यह सोना चढ़ाने योग्य बन जाता है। सोने की बारीक पत्तियाँ चिपकाने से ये पारे से मिल जाती हैं। गरम करने के फलस्वरूप पारा उड़ जाता है और सोना भूरेपन की अवस्था में रह जाता है, इसे अगेट वर्निशर से रगड़कर चमकीला बना देते हैं। इस विधि में सोने का प्राय: दुगुना पारा लगता है तथा पारे की पुन: प्राप्ति नहीं होती।
रासायनिक गिल्डिंग में वे विधियाँ शामिल हैं जिनमें प्रयुक्त सोना किसी न किसी अवस्था में रासायनिक यौगिक के रूप में रहता है।
सोना चढ़ाना - चाँदी पर प्राय: सोना चढ़ाने के लिए, सोने का अम्लराज में विलयन बना लेते हैं और कपड़े की सहायता से विलयन को धात्विक सतह पर फैला देते हैं। फिर इसे जला देते हैं और चाँदी से चिपकी काली तथा भारी भस्म को चमड़े तथा अंगुलियों से रगड़कर चमकीला बना लेते हैं। अन्य धातुओं पर सोना चढ़ाने के लिए पहले उसपर चाँदी चढ़ा लेते हैं।
गीली सोनाचढ़ाई - गोल्ड क्लोराइड के पतले विलयन को हाईड्रोक्लोरिक अम्ल की उपस्थिति में पृथक्कारी कीप की मदद से ईथरीय विलयन में प्राप्त कर लेते हैं तथा एक छोटे बुरुश से विलयन को धातुओं की साफ सतह पर फैला देते हैं। ईथर के उड़ जाने पर सोना रह जाता है और गरम करके पालिश करने पर चमकीला रूप धारण कर लेता है।
आग सोनाचढ़ाई (fire Gilding) - इसमें धातुओं के तैयार साफ और स्वच्छ सतह पर पारे की पतली सी परत फैला देते हैं और उसपर सोने का पारदन चढ़ा देते हैं। तत्पश्चात् पारे को गरम कर उड़ा देते हैं और सोने की एक पतली पटल बच जाती है, जिसे पालिश कर सुंदर बना देते हैं। इसमें पारे की अधिक क्षति होती है और काम करनेवालों के लिए पारे का धुआँ अधिक अस्वस्थ्यकर है।
काष्ठ सोनाचढ़ाई - लकड़ी की सतह पर चाक या जिप्सम का लेप चढ़ाकर चिकनाहट पैदा कर देते हैं। फिर पानी में तैरती हुई सोने की बारीक पत्तियों का स्थामी विरूपण कर देते हैं। सूख जाने पर इसे चिपका देते हैं तथा दबाकर समस्थितीकरण कर देते हैं। इसके उपरांत यह सोने की मोटी चद्दरों की तरह दिखाई देने लगती है। दाँतेदार गिल्डिंग से इसमें अधिक चमक आ जाती है।
मिट्टी के बरतनों, पोर्सिलेन तथा क्राँच पर सोना चढ़ाने की कला अधिक लोकप्रिय है। सोने के अम्लराज विलयन को गरम कर पाउडर अवस्था में प्राप्त कर लेते हैं और इसमें बारहवाँ भाग विस्मथ आक्साइड तथा थोड़ी मात्रा में बोराक्स और गन पाउडर मिला देते हैं इस मिश्रण को ऊँट के बालवाले बुरुश से वस्तु पर यथास्थान चढ़ा देते हैं। आग में तपाने पर काले मैले रंग का सोना चिपका रह जाता है, जो अगेट बर्निशर से पालिश कर चमकाया जाता है। और फिर ऐसीटिक अम्ल से इसे साफ कर लेते हैं।
लोहा या इस्पात पर सोना चढ़ाने के लिए सतह को साफ कर खरोचने के पश्चात् उसपर लाइन बना देते हैं। फिर लाल ताप तक गरम कर सोने की पत्तियाँ बिछा देते हैं और ढंडा करने के उपरांत इसको अगेट बर्निशर से रगड़कर पालिश कर देते हैं। इस प्रकार इसमें पूर्ण चमक आ जाती है और इसकी सुंदरता अनुपम हो जाती है।
धातुओं पर विद्युत् आवरण की कला को आजकल अधिक प्रोत्साहन मिल रहा है। एक छोटे से नाद में गोल्ड सायनाइड और सोडियम सायनाइड का विलयन डाल देते हैं तथा सोने का ऐनोड और जिसपर सोना चढ़ाना होता है, उसका कैथोड लटका देते हैं। फिर विद्युत्प्राह से सोने का आवरण कैथोड पर चढ़ जाता है। विद्युत्-आवरणीय सोने का रंग अन्य धातुओं के निक्षेपण पर निर्भर है। अच्छाई, टिकाऊपन, सुंदरता तथा सजावट के लिए निम्न कोटि की धातुओं पर पहले ताँबे का विद्युत् आवरण करके चाँदी चढ़ाते हैं। तत्पश्चात् सोना चढ़ाना उत्तम होता है। इस ढंग से सोने की बारीक से बारीक परत का आवरण चढ़ाया जा सकता है तथा जिस मोटाई का चाहें सोने का विद्युत्आवरण आवश्यकतानुसार चढ़ा सकते हैं। इससे धातुओं की संक्षरण से रक्षा होती है तथा हर प्रकार की वस्तुओं पर सोने की सुंदर चमक आ जाती है।
इन्हें भी देखें
सायनाइड विधि - स्वर्ण निर्माण की धातुकार्मिक तकनीक
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श्रेणी:कीमती धातुएँ | मैसूर में कोलार की खानों से कौन सी धातु प्राप्त की जाती है? | सोना | 0 | hindi |
8922f3835 | जापान, एशिया महाद्वीप में स्थित देश है। जापान चार बड़े और अनेक छोटे द्वीपों का एक समूह है। ये द्वीप एशिया के पूर्व समुद्रतट, यानि प्रशांत महासागर में स्थित हैं। इसके निकटतम पड़ोसी चीन, कोरिया तथा रूस हैं। जापान में वहाँ का मूल निवासियों की जनसंख्या ९८.५% है। बाकी 0.5% कोरियाई, 0.4 % चाइनीज़ तथा 0.6% अन्य लोग है। जापानी अपने देश को निप्पॉन कहते हैं, जिसका मतलब सूर्योदय है। जापान की राजधानी टोक्यो है और उसके अन्य बड़े महानगर योकोहामा, ओसाका और क्योटो हैं। बौद्ध धर्म देश का प्रमुख धर्म है और जापान की जनसंख्या में 96% बौद्ध अनुयायी है।[1][2]
इतिहास जापानी लोककथाओं के अनुसार विश्व के निर्माता ने सूर्य देवी तथा चन्द्र देवी को भी रचा। फिर उसका पोता क्यूशू द्वीप पर आया और बाद में उनकी संतान होंशू द्वीप पर फैल गए।
प्राचीन काल जापान का प्रथम लिखित साक्ष्य ५७ ईस्वी के एक चीनी लेख से मिलता है। इसमें एक ऐसे राजनीतिज्ञ के चीन दौरे का वर्णन है, जो पूर्व के किसी द्वीप से आया था। धीरे-धीरे दोनों देशों के बीच राजनैतिक और सांस्कृतिक सम्बंध स्थापित हुए। उस समय जापानी एक बहुदैविक धर्म का पालन करते थे, जिसमें कई देवता हुआ करते थे। छठी शताब्दी में चीन से होकर बौद्ध धर्म जापान पहुंचा। इसके बाद पुराने धर्म को शिंतो की संज्ञा दी गई जिसका शाब्दिक अर्थ होता है - देवताओं का पंथ। बौद्ध धर्म ने पुरानी मान्यताओं को खत्म नहीं किया पर मुख्य धर्म बौद्ध ही बना रहा। चीन से बौद्ध धर्म का आगमन उसी प्रकार हुआ जिस प्रकार लोग, लिखने की प्रणाली (लिपि) तथा मंदिरो का सांस्कृतिक तथा शैक्षणिक कार्यों के लिए उपयोग।
शिंतो मान्यताओं के अनुसार जब कोई राजा मरता है तो उसके बाद का शासक अपना राजधानी पहले से किसी अलग स्थान पर बनाएगा। बौद्ध धर्म के आगमन के बाद इस मान्यता को त्याग दिया गया। ७१० ईस्वी में राजा ने नॉरा नामक एक शहर में अपनी स्थायी राजधानी बनाई। शताब्दी के अन्त तक इसे हाइरा नामक नगर में स्थानान्तरित कर दिया गया जिसे बाद में क्योटो का नाम दिया गया। सन् ९१० में जापानी शासक फूजीवारा ने अपने आप को जापान की राजनैतिक शक्ति से अलग कर लिया। इसके बाद तक जापान की सत्ता का प्रमुख राजनैतिक रूप से जापान से अलग रहा। यह अपने समकालीन भारतीय, यूरोपी तथा इस्लामी क्षेत्रों से पूरी तरह भिन्न था जहाँ सत्ता का प्रमुख ही शक्ति का प्रमुख भी होता था। इस वंश का शासन ग्यारहवीं शताब्दी के अन्त तक रहा। कई लोगों की नजर में यह काल जापानी सभ्यता का स्वर्णकाल था। चीन से सम्पर्क क्षीण पड़ता गया और जापान ने अपना खुद की पहचान बनाई। दसवी सदी में बौद्ध धर्म का मार्ग अपनाया। इसके बाद से जापान ने अपने आप को एक आर्थिक शक्ति के रूप में सुदृढ़ किया और अभी तकनीकी क्षेत्रों में उसका नाम अग्रणी राष्ट्रों में गिना जाता है।
भूगोल जापान कई द्वीपों से बना देश है। जापान कोई ६८०० द्वीपों से मिलकर बना है। इनमें से केवल ३४० द्वीप १ वर्ग किलोमीटर से बड़े हैं। जापान को प्रायः चार बड़े द्वीपों का देश कहा जाता है। ये द्वीप हैं - होक्काइडो, होन्शू, शिकोकू तथा क्यूशू। जापानी भूभाग का ७६.२ प्रतिशत भूभाग पहाड़ों से घिरा होने के कारण यहां कृषि योग्य भूमि मात्र १३.४ प्रतिशत है, ३.५ प्रतिशत क्षेत्र में पानी है और ४.६ प्रतिशत भूमि आवासीय उपयोग में है। जापान खाद्यान्नों के मामले में आत्मनिर्भर नहीं है। चारों ओर समुद्र से घिरा होने के बावजूद इसे अपनी जरुरत की २८ प्रतिशत मछलियां बाहर से मंगानी पड़ती है।
शासन तथा राजनीति , सरकार यद्यपि ऐसा कहीं लिखा नहीं है पर जापान की राजनैतिक सत्ता का प्रमुख राजा होता है। उसकी शक्तियां सीमित हैं। जापान के संविधान के अनुसार "राजा देश तथा जनता की एकता का प्रतिनिधित्व करता है"। संविधान के अनुसार जापान की स्वायत्तता की बागडोर जापान की जनता के हाथों में है।
विदेश नीति सैनिक रूप से जापान के सम्बन्ध अमेरिका से सामान्य है।
सेना जापान का वर्तमान संविधान इसे दूसरे देशों पर सैनिक अभियान या चढ़ाई करने से मना करता है।
अर्थव्यवस्था एक अनुमान के अनुसार जापान विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है परन्तु जापान की अर्थव्यवस्था स्थिर नहीं है। यहां के लोगो की औसत वार्षिक आय लगभग ५०,०० अमेरिकी डॉलर है जो काफी अधिक है।
1868 से, मीजी काल आर्थिक विस्तार का शुभारंभ किया। मीजी शासकों ने मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था की अवधारणा को गले लगा लिया और मुक्त उद्यम पूंजीवाद के ब्रिटिश और उत्तरी अमेरिका के रूपों को अपनाया। जापानी विदेश में और पश्चिमी विद्वानों का अध्ययन गए थे जापान में पढ़ाने के काम पर रखा है। आज के उद्यमों के कई समय की स्थापना की थी। जापान एशिया में सबसे विकसित राष्ट्र के रूप में उभरा है।
1980 के दशक, समग्र वास्तविक आर्थिक विकास के लिए 1960 से एक "जापानी" चमत्कार बुलाया गया है: 1960 के दशक में एक 10% औसत, 1970 के दशक में एक 5% औसत है और 1980 के दशक में एक 4% औसत। विकास जापानी क्या कॉल के दौरान 1990 के दशक में स्पष्ट रूप से धीमा दशक के बाद बड़े पैमाने पर जापानी परिसंपत्ति मूल्य बुलबुला और घरेलू करने के लिए शेयर और अचल संपत्ति बाजार से सट्टा ज्यादतियों मरोड़ इरादा नीतियों के प्रभाव की वजह से खोया। सरकार को आर्थिक छोटी सफलता के साथ मुलाकात की वृद्धि को पुनर्जीवित करने के प्रयासों थे और आगे 2000 में वैश्विक मंदी से प्रभावित। अर्थव्यवस्था 2005 के बाद वसूली के मजबूत संकेत दिखाया. उस वर्ष के लिए जीडीपी विकास 2.8% था।
2009 के रूप में, जापान दुनिया में दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है पर संयुक्त राज्य अमेरिका के बाद, अमेरिका के आसपास 5 नाममात्र का सकल घरेलू उत्पाद और तीसरे के संदर्भ में खरब डॉलर के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका और शक्ति समता जापान के लोक ऋण की खरीद के 192 प्रतिशत के मामले में चीन यह वार्षिक सकल घरेलू उत्पाद, बैंकिंग, बीमा, रियल एस्टेट, खुदरा बिक्री, परिवहन, दूरसंचार और निर्माण की सभी प्रमुख उद्योगों जापान एक बड़े औद्योगिक क्षमता है और सबसे बड़ा की, प्रमुख और सबसे अधिक प्रौद्योगिकी मोटर वाहन, इलेक्ट्रानिक के उत्पादकों उन्नत करने के लिए घर है उपकरण, मशीन टूल्स, इस्पात और पोतों, रसायन, वस्त्र और प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ सकल घरेलू उत्पाद के तीन तिमाहियों के लिए सेवा क्षेत्र खातो।
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी जापान पिछले कुछ दशकों से विज्ञान के क्षेत्र में अग्रणी हो गया है। जापान के वैज्ञानिक अनुसंधान के क्षेत्रों, विशेष रूप से प्रौद्योगिकी, मशीनरी और जैव चिकित्सा अनुसंधान के क्षेत्र में अग्रणी देशों में से एक है। लगभग 700,000 शोधकर्ताओं शेयर एक अमेरिका में 94 130 अरब डॉलर का अनुसंधान एवं विकास बजट, विश्व में तीसरी सबसे बड़ी [.] जापान मौलिक वैज्ञानिक अनुसंधान में एक विश्व नेता हैं, होने भी भौतिकी में तेरह नोबेल पुरस्कार विजेताओं का उत्पादन किया, रसायन विज्ञान या चिकित्सा, 95 तीन फील्ड्स पदक 96 और एक गॉस पुरस्कार विजेता
जापान के अधिक प्रमुख तकनीकी योगदान के कुछ इलेक्ट्रॉनिक्स, ऑटोमोबाइल के क्षेत्र में, मशीनरी, भूकंप इंजीनियरिंग, औद्योगिक रोबोटिक्स, प्रकाशिकी, रसायन, अर्धचालक और धातुओं पाए जाते हैं। जापान रोबोटिक्स उत्पादन और उपयोग करते हैं, आधे से अधिक रखने (402200 742500 के) दुनिया के औद्योगिक रोबोटों के विनिर्माण के लिए इस्तेमाल किया [98] यह भी QRIO, ASIMO और AIBO का उत्पादन किया। दुनिया में ले जाता है। जापान दुनिया के मोटर वाहन का सबसे बड़ा उत्पादक है 99] [और चार दुनिया की सबसे बड़ी ऑटोमोबाइल पन्द्रह निर्माताओं के लिए घर और आज के रूप में सात दुनिया के बीस सबसे बड़ी अर्धचालक बिक्री नेताओं की
जापान एयरोस्पेस एक्सप्लोरेशन एजेंसी (जाक्सा) जापान की अंतरिक्ष एजेंसी है जो अंतरिक्ष और ग्रह अनुसंधान, उड्डयन अनुसंधान आयोजित करता है और रॉकेट और उपग्रह विकसित करता है। यह अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन में भागीदार है और जापानी प्रयोग मॉड्यूल (Kibo है) किया गया था 2008 में अंतरिक्ष शटल विधानसभा उड़ानों के दौरान अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन में जोड़ा [100.] यह वीनस जलवायु शुरू की परिक्रमा के रूप में अंतरिक्ष की खोज में की योजना बनाई है (ग्रह 2010 में सी), [101] [102 बुध Magnetospheric परिक्रमा विकासशील] 2013 में शुरू किया जाना है, [103] [104] और 2030 से एक moonbase निर्माण
14 सितंबर को, 2007, यह एक एच IIA (मॉडल H2A2022) Tanegashima अंतरिक्ष केंद्र से वाहक रॉकेट को चंद्रमा की कक्षा एक्सप्लोरर "सेलिन" (Selenological एण्ड इंजीनियरिंग एक्सप्लोरर) का शुभारंभ किया। सेलिन भी Kaguya के रूप में जाना जाता है, प्राचीन लोककथा बांस कटर की कथा का चंद्र राजकुमारी। Kaguya अपोलो कार्यक्रम के बाद से सबसे बड़ी जांच चंद्र मिशन है। अपने मिशन से चंद्रमा की उत्पत्ति और विकास पर डेटा इकट्ठा है। यह 4 अक्टूबर के बारे में 100 किमी (62 मील) की ऊंचाई पर चंद्रमा की कक्षा में उड़ान] पर एक चंद्र कक्षा में प्रवेश किया।
संस्कृति कुछ लोग जापान की संस्कृति को चीन की संस्कृति का ही विस्तार समझते हैं। जापानी लोगो ने कई विधाओं में चीन की संस्कृति का अंधानुकरण किया है। बौद्ध धर्म यहां चीनी तथा कोरियाई भिक्षुओं के माध्यम से पहुंचा। जापान की संस्कृति की सबसे खास बात ये हैं कि यहां के लोग अपनी संस्कृति से बहुत लगाव रखते हैं। मार्च का महीना उत्सवों का महीना होता है। जापानी संगीत उदार है,
होने उपकरणों तराजू, पड़ोसी संस्कृतियों और शैलियों से उधार लिया। Koto जैसे कई उपकरणों, नौवें और दसवें शताब्दियों में पेश किए गए। चौदहवें शताब्दी और लोकप्रिय लोक संगीत से Noh नाटक तारीखों के साथ भाषण, गिटार की तरह shamisen के साथ, सोलहवीं से [144] पश्चिमी शास्त्रीय संगीत, देर से उन्नीसवीं सदी में शुरू की। अब का एक अभिन्न अंग संस्कृति. युद्ध के बाद जापान भारी कर दिया गया है अमेरिकी और यूरोपीय आधुनिक संगीत, जो लोकप्रिय बैंड जम्मू, पॉप संगीत बुलाया के विकास के लिए नेतृत्व किया गया है द्वारा प्रभावित किया।
कराओके सबसे व्यापक रूप से सांस्कृतिक गतिविधि अभ्यास है। सांस्कृतिक मामलों एजेंसी द्वारा एक नवंबर 1993 सर्वेक्षण में पाया गया कि अधिक जापानी कराओके गाया था कि वर्ष की तुलना में परंपरागत सांस्कृतिक गतिविधियों में व्यवस्था या चाय समारोह के फूल के रूप में भाग लिया था।
जापानी साहित्य की जल्द से जल्द काम दो इतिहास की पुस्तकों में शामिल हैं और Kojiki Nihon Shoki और आठवीं शताब्दी कविता पुस्तक Man'yōshū, मान्योशू सभी चीनी अक्षरों में लिखा है। हीयान काल के शुरुआती दिनों में, के रूप में जाना प्रतिलेखन की व्यवस्था काना (हीरागाना और काताकाना) phonograms के रूप में बनाया गया था। बांस कटर की कथा पुराना जापानी कथा माना जाता है हीयान अदालत जीवन के एक खाते. है तकिया सेई Shōnagon द्वारा लिखित पुस्तक के द्वारा दिया है, जबकि लेडी मुरासाकी द्वारा गेंजी की कथा अक्सर दुनिया के पहले उपन्यास के रूप में वर्णित है।
ईदो अवधि के दौरान, साहित्य इतना chōnin की है कि के रूप में सामुराई शिष्टजन का मैदान नहीं बन गया, साधारण लोग हैं। Yomihon, उदाहरण के लिए, लोकप्रिय बन गया है और पाठकों और ग्रन्थकारिता में इस गहरा बदलाव का पता चलता है [148] मीजी युग पारंपरिक साहित्यिक रूपों, जिसके दौरान जापानी साहित्य पश्चिमी प्रभाव एकीकृत की गिरावट देखी.. Natsume Sōseki और मोरी Ōgai पहली "जापान के आधुनिक 'उपन्यासकार, Ryūnosuke Akutagawa, Jun'ichirō Tanizaki, Yasunari Kawabata, युकिओ मिशिमा और, द्वारा और अधिक हाल ही में पीछा किया, Haruki Murakami थे। जापान के दो नोबेल पुरस्कार विजेता लेखक-Yasunari Kawabata (1968) और Kenzaburo ँ (1994) है।
साहित्य और धर्म
मान्योशू जापान का सबसे पुराना काव्य संकलन है। हाइकु जापान की प्रसिद्ध काव्य विधा रही है तथा मात्सुओ बाशो जापानी हाइकु कविता के प्रसिद्ध कवि हैं।
धर्म जापान की 96 प्रतिशत जनता बौद्ध धर्म का अनुसरण करती है। चीन के बाद बौद्ध आबादी वाला जापान सबसे बड़ा देश है। शिंतो धर्म भी यहाँ काफी प्रसिद्ध है, इस धर्म के अधिकतर लोग बौद्ध धर्म का ही पालन करते है। ताओ धर्म, कन्फ्यूशीवाद और बौद्ध धर्म चीन से भी जापानी विश्वासों और सीमा शुल्क को प्रभावित किया है। जापान में धर्म प्रकृति में समधर्मी हो जाता है और प्रथाओं का एक माता पिता, परीक्षा से पहले प्रार्थना छात्रों मना बच्चों के रूप में ऐसी किस्म, में यह परिणाम, जोड़ों एक क्रिश्चियन चर्च पर एक शादी पकड़ होने के बौद्ध मंदिर में आयोजित किया। एक अल्पसंख्यक (2,595,397 या 2.04%) ईसाई धर्म को पेशे के अलावा है, क्योंकि 19 वीं सदी के मध्य, कई धार्मिक संप्रदायों (Shinshūkyō) जापान में Tenrikyo और Aum (शिनरिक्यो या Aleph) जैसे उभरा है।
भाषा लगभग ९९% जनता जापानी भाषा बोलती है। लेखन प्रणाली कांजी (चीनी अक्षर) और काना के दो सेट के रूप में अच्छी तरह से लैटिन वर्णमाला और अरबी अंकों का उपयोग करता है। भाषाओं में भी जापान भाषा परिवार का हिस्सा है जो जापानी अंतर्गत आता है, ओकिनावा में बोली जाती हैं, लेकिन कुछ बच्चों को इन भाषाओं के लिए सीख लो. भाषा मरणासन्न केवल कुछ बुजुर्ग होकाईदो में शेष देशी वक्ताओं के साथ है। अधिकांश सार्वजनिक और निजी स्कूलों के छात्रों को दोनों जापानी और अंग्रेजी में पाठ्यक्रमों लेने के लिए आवश्यकता होती है।
जनजीवन अपनी जापान यात्रा के बाद निशिकांत ठाकुर लिखते हैं - "आज जापान में हर व्यक्ति के पास रंगीन टेलीविजन है, करीब 83 प्रतिशत लोगों के पास कार है, 80 प्रतिशत घरों में एयरकंडीशन लगे हैं, 76 प्रतिशत लोगों के पास वीसीआर हैं, 91 प्रतिशत घरों में माइक्रोवेव ओवन हैं और करीब 25 प्रतिशत लोगों के पास पर्सनल कम्प्यूटर हैं। यह है विकास और ऊंचे जीवन स्तर की एक झलक। आम जापानी स्वभाव से शर्मीला, विनम्र, ईमानदार, मेहनती और देशभक्त होता है। यही कारण है कि विकसित देशों की तुलना में जापान में अपराध दर कम है।" जापान में दुनिया के सबसे ज्यादा बुजुर्ग लोग रहते हैं। जापान तकनीक क्षेत्र में बहुत आगे है
खेल-कूद परंपरागत रूप से, सूमो जापान के राष्ट्रीय खेल माना जाता हैऔर यह जापान में एक लोकप्रिय दर्शक खेल है। जूडो जैसे मार्शल आर्ट, कराटे और आधुनिक Kendo भी व्यापक रूप से प्रचलित है और देश में दर्शकों ने आनंद उठाया. मीजी पुनरुद्धार के बाद कई पश्चिमी खेल जापान में शुरू किया गया और शिक्षा प्रणाली के माध्यम से फैल शुरू किया।
जापान में पेशेवर बेसबॉल लीग 1936 में स्थापित किया गया था आज बेसबॉल सबसे लोकप्रिय देश में दर्शक खेल है।. एक के सबसे प्रसिद्ध जापानी बेसबॉल खिलाड़ियों के Ichiro सुजुकी, जो 1994 में जापान की सबसे मूल्यवान प्लेयर अवार्ड, 1995 और 1996 है, अब उत्तर अमेरिकी मेजर लीग बेसबॉल के सिएटल Mariners के लिए खेलता है जीत रही है। उसके पहले, Sadaharu ओह अच्छी तरह से किया गया था जापान के बाहर जाना जाता है, कर अधिक घर मारा अपने समकालीन, हांक हारून, संयुक्त राज्य अमेरिका में किया था की तुलना में अपने कैरियर के दौरान जापान में चलाता है।
1992 में जापान प्रोफेशनल फुटबॉल लीग की स्थापना, एसोसिएशन फुटबॉल (सॉकर) के बाद से भी एक विस्तृत निम्नलिखित प्राप्त किया है] जापान। 1981 से इंटरकांटिनेंटल कप के एक स्थल 2004 से था और सह मेजबानी 2002 फीफा विश्व कप दक्षिण के साथ कोरिया. जापान एक सबसे सफल एशिया में फुटबॉल टीमों में से एक है, एशियाई कप जीतने तीन बार.
गोल्फ भी जापान, के रूप में लोकप्रिय है सुपर जी.टी. स्पोर्ट्स कार श्रृंखला और निप्पॉन फॉर्मूला फार्मूला रेसिंग के रूप में ऑटो रेसिंग के रूप हैं जुड़वा अँगूठी Motegi था होंडा द्वारा 1997 में पूरा करने के लिए IndyCar लाने के लिए दौड़ जापान.
जापान में टोक्यो में 1964 में ग्रीष्मकालीन ओलंपिक की मेजबानी की। जापान के शीतकालीन ओलंपिक की मेजबानी की है दो बार, नागानो में 1998 में और 1972 में साप्पोरो
विदेशी संबंधों और सैन्य जापान के पास रखता आर्थिक और सैन्य संबंधों इसके प्रमुख सहयोगी अमेरिका के साथ, अमेरिका और जापान सुरक्षा अपनी विदेश नीति के आधार के रूप में सेवा के साथ गठबंधन 1956 के बाद से संयुक्त राष्ट्र के एक सदस्य राज्य, जापान के रूप में सेवा की है एक गैर 19 साल की कुल के लिए स्थायी सुरक्षा परिषद के सदस्य, 2009 और 2010 के लिए सबसे हाल ही में. यह भी एक G4 सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता की मांग देशों की
जी -8, APEC, "आसियान प्लस तीन और पूर्व एशिया शिखर बैठक में एक भागीदार के एक सदस्य के रूप में, जापान सक्रिय रूप से अंतरराष्ट्रीय मामलों में भाग लेता है और दुनिया भर में अपने महत्वपूर्ण सहयोगी के साथ राजनयिक संबंधों को बढ़ाती है। जापान मार्च 2007 और भारत के साथ अक्टूबर 2008 में ऑस्ट्रेलिया के साथ एक सुरक्षा समझौतेयह भी दुनिया की सरकारी विकास सहायता का तीसरा सबसे बड़ा दाता है पर हस्ताक्षर किए। होने के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका और यूनाइटेड किंगडम, अमेरिका 2004 में 8,86 अरब डॉलर का दान. जापान इराक युद्ध करने के लिए गैर लड़नेवाला सैनिक भेजे हैं, लेकिन बाद में इराक से अपनी सेना वापस ले लिया जापानी समुद्री सेल्फ डिफेंस फोर्स. RIMPAC समुद्री अभ्यास में एक नियमित रूप से भागीदार है।
जापान ने भी जापानी नागरिकों और अपने परमाणु हथियार और मिसाइल कार्यक्रम के अपने अपहरण पर एक उत्तरी कोरिया के साथ चल रहेविवाद के चेहरे (देखें भी छह पक्षीय वार्ता). कुरील द्वीप विवाद का एक परिणाम के रूप में, जापान तकनीकी रूप से अब भी रूस के साथ युद्ध में कोई मुद्दा सुलझाने संधि पर हस्ताक्षर किए गए थे के बाद से कभी भी है।
जापान की सेना द्वारा प्रतिबंधित है अनुच्छेद 9 जापानी संविधान है, जो जापान के युद्ध की घोषणा करने के लिए या अंतर्राष्ट्रीय विवादों के समाधान का एक साधन के रूप में सैन्य बल के प्रयोग का अधिकार त्याग की। जापान के सैन्य रक्षा मंत्रालय द्वारा संचालित है और मुख्य रूप से जापान ग्राउंड सेल्फ डिफेंस फोर्स (JGSDF) के होते हैं, जापान मेरीटाइम सेल्फ डिफेंस (JMSDF) सेना और जापान एयर सेल्फ डिफेंस फोर्स (JASDF). सेना ने हाल ही में आपरेशन किया गया है शांति और जापानी सैनिकों की इराक में तैनाती में प्रयुक्त विश्व युद्ध के द्वितीय के बाद से पहली बार अपने सैन्य उपयोग के विदेशी चिह्नित
इन्हें भी देखें जापान का इतिहास
जापानी साम्राज्य
जापान के क्षेत्र
जापान के प्रांत
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
श्रेणी:एशिया के देश
श्रेणी:जापान | जापान की राजधानी क्या है? | टोक्यो | 392 | hindi |
5f43d5e15 | Main Page
प्रेम रतन धन पायो बॉलीवुड में बनी हिन्दी भाषा की एक फिल्म है।[3][4][5] इस फिल्म के मुख्य किरदार में सलमान खान और सोनम कपूर हैं।[6][7] यह फिल्म 12 नवम्बर 2015 को सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई। [8][9]
[10]
कहानी
युवराज विजय सिंह (सलमान खान) प्रीतमपुर का राजकुमार होता है, जिसे जल्द ही ताज पहना कर वहाँ का राजा बनाया जाने वाला रहता है। उसकी मंगनी राजकुमारी मैथिली (सोनम कपूर) से हो जाती है। लेकिन उसके कठोर और जिद्दीपन के कारण उसे कई परेशानी का सामना करना पड़ता है। उसकी सौतेली बहने अलग स्थान पर रहते हैं। वहीं उसका सौतेला भाई युवराज अजय सिंह (नील नितिन मुकेश) उसे मारकर ताज खुद पहनना चाहता है। चिराग सिंह (अरमान कोहली) उसे गलत राह पर ले जाता है। वह दोनों मिल कर युवराज विजय को मारने की योजना बनाते हैं। लेकिन विजय उससे निकल जाता है।
वहीं प्रेम दिलवाले (सलमान खान) जो युवराज विजय के जैसे दिखता है, वह राजकुमारी मैथिली को देख कर उससे मिलने प्रीतमपुर आ जाता है। युवराज अजय और चिराग मिलकर युवराज विजय का अपहरण कर लेते हैं। चिराग यह तय करता है कि वह अजय को धोका देगा, इस लिए वह विजय को छोड़ देता है और उसे अजय और प्रेम के बारे में बता कर भड़का देता है। विजय और अजय में तलवार से लड़ाई होने लगती है और उस समय प्रेम और कन्हैया मिल कर इस पूरे घटना के बारे में जान जाते हैं। चिराग उन्हें गोली मारना चाहता है, लेकिन उसकी मौत हो जाती है।
अजय को कर्मों का पछतावा होता है, वहीं विजय अपने परिवार से मिल जाता है। मैथिली प्रेम और विजय के बारे में जान कर चौंक जाती है। प्रेम अपने घर चला जाता है। मैथिली को एहसास होता है कि वह प्रेम से प्यार करती है। पूरा परिवार प्रेम और मैथिली को एक करने के लिए प्रेम के घर चले जाता है और कहानी समाप्त हो जाती है।
रिकॉर्ड
एक भारतीय समाचार चैनल नवभारत टाइम्स के मुताबिक इस फ़िल्म ने थ्री ईडियट्स का रिकॉर्ड्स तोड़ दिया। [11]
कलाकार 2
सलमान खान - प्रेम दिलवाला / युवराज विजय सिंह, प्रीतमपुर के राजकुमार सोनम कपूर - राजकुमारी मैथिली देवी नील नितिन मुकेश - युवराज अजय सिंह, विजय के सौतेले भाई स्वरा भास्कर - राजकुमारी चन्द्रिका, विजय की सौतेली बहन
अरमान कोहली - चिराग सिंह, प्रीतमपुर राज्य के सी.ई.ओ। संजय मिश्रा - चौबे जी (रामलीला टोली के प्रमुख)
दीपक डोबरियाल - कन्हैया / फोटोग्राफ़र
अनुपम खेर - दीवान साहब / बापू समैरा राव - समीरा
संगीत
प्रेम रतन धन पायो का संगीत हिमेश रेशमिया ने दिया है और बोल इरशाद कामिल ने लिखे हैं। फिल्म में कुल १० गाने हैं। संजय चौधरी ने फिल्म का पाश्र्व संगीत बनाया है। फिल्म के संगीत अधिकारों का टी-सीरीज़ ने अधिग्रहण किया है। फिल्म का पहला गाना "प्रेम लीला" 7 अक्टूबर 2015 को रिलीज़ किया गया था। फिल्म की पूर्ण संगीत एलबम 10 अक्टूबर 2015 को रिलीज़ की गयी।
No.TitleगायकLength1."प्रेम लीला"अमन त्रिखा, विनीत सिंह३:४१2."प्रेम रतन धन पायो"पलक मुच्छल५:१९3."जलते दिये"अन्वेषा, हर्षदीप कौर, विनीत सिंह, शबाब सबरी५:३६4."आज उनसे मिलना हैं"शान४:०३5."जब तुम चाहो"पलक मुच्छल, मोहम्मद इरफान अली, दर्शन रावल५:०७6."हालो रे"अमन त्रिखा३:१८7."तोड़ तडैय्या"नीरज श्रीधर, नीति मोहन४:२४8."बचपन कहाँ"हिमेश रेशमिया४:०२9."मुरली की तानों सी"शान१:२९10."आज उनसे कहना है"ऐश्वर्या मजूमदार, पलक मुच्छल, शान२:०८Total length:39:07
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
at IMDb
श्रेणी:2015 में बनी हिन्दी फ़िल्म
श्रेणी:हिन्दी फ़िल्में
श्रेणी:राजश्री प्रोडक्शन्स | प्रेम रतन धन पायो फिल्म में मुख्य अभिनेता कौन थे? | सलमान खान और सोनम कपूर | 110 | hindi |
a483eb024 | लहू या रक्त या खून एक शारीरिक तरल (द्रव) है जो लहू वाहिनियों के अन्दर विभिन्न अंगों में लगातार बहता रहता है। रक्त वाहिनियों में प्रवाहित होने वाला यह गाढ़ा, कुछ चिपचिपा, लाल रंग का द्रव्य, एक जीवित ऊतक है। यह प्लाज़मा और रक्त कणों से मिल कर बनता है। प्लाज़मा वह निर्जीव तरल माध्यम है जिसमें रक्त कण तैरते रहते हैं। प्लाज़मा के सहारे ही ये कण सारे शरीर में पहुंच पाते हैं और वह प्लाज़मा ही है जो आंतों से शोषित पोषक तत्वों को शरीर के विभिन्न भागों तक पहुंचाता है और पाचन क्रिया के बाद बने हानिकारक पदार्थों को उत्सर्जी अंगो तक ले जा कर उन्हें फिर साफ़ होने का मौका देता है। रक्तकण तीन प्रकार के होते हैं, लाल रक्त कणिका, श्वेत रक्त कणिका और प्लैटलैट्स। लाल रक्त कणिका श्वसन अंगों से आक्सीजन ले कर सारे शरीर में पहुंचाने का और कार्बन डाईआक्साईड को शरीर से श्वसन अंगों तक ले जाने का काम करता है। इनकी कमी से रक्ताल्पता (अनिमिया) का रोग हो जाता है। श्वैत रक्त कणिका हानीकारक तत्वों तथा बिमारी पैदा करने वाले जिवाणुओं से शरीर की रक्षा करते हैं। प्लेटलेट्स रक्त वाहिनियों की सुरक्षा तथा खून बनाने में सहायक होते हैं।
मनुष्य-शरीर में करीब पाँच लिटर लहू विद्यमान रहता है। लाल रक्त कणिका की आयु कुछ दिनों से लेकर १२० दिनों तक की होती है। इसके बाद इसकी कोशिकाएं तिल्ली में टूटती रहती हैं। परन्तु इसके साथ-साथ अस्थि मज्जा (बोन मैरो) में इसका उत्पादन भी होता रहता है। यह बनने और टूटने की क्रिया एक निश्चित अनुपात में होती रहती है, जिससे शरीर में खून की कमी नहीं हो पाती।
मनुष्यों में लहू ही सबसे आसानी से प्रत्यारोपित किया जा सकता है। एटीजंस से लहू को विभिन्न वर्गों में बांटा गया है और रक्तदान करते समय इसी का ध्यान रखा जाता है। महत्वपूर्ण एटीजंस को दो भागों में बांटा गया है। पहला ए, बी, ओ तथा दुसरा आर-एच व एच-आर। जिन लोगों का रक्त जिस एटीजंस वाला होता है उसे उसी एटीजंस वाला रक्त देते हैं। जिन पर कोई एटीजंस नहीं होता उनका ग्रुप "ओ" कहलाता है। जिनके रक्त कण पर आर-एच एटीजंस पाया जाता है वे आर-एच पाजिटिव और जिनपर नहीं पाया जाता वे आर-एच नेगेटिव कहलाते हैं। ओ-वर्ग वाले व्यक्ति को सर्वदाता तथा एबी वाले को सर्वग्राही कहा जाता है। परन्तु एबी रक्त वाले को एबी रक्त ही दिया जाता है। जहां स्वस्थ व्यक्ति का रक्त किसी की जान बचा सकता है, वहीं रोगी, अस्वस्थ व्यक्ति का खून किसी के लिये जानलेवा भी साबित हो सकता है। इसीलिए खून लेने-देने में बहुत सावधानी की आवश्यकता होती है। लहू का pH मान 7.4 होता है
कार्य ऊतकों को आक्सीजन पहुँचाना।
पोषक तत्वों को ले जाना जैसे ग्लूकोस, अमीनो अम्ल और वसा अम्ल (रक्त में घुलना या प्लाज्मा प्रोटीन से जुडना जैसे- रक्त लिपिड)।
उत्सर्जी पदार्थों को बाहर करना जैसे- यूरिया कार्बन, डाई आक्साइड, लैक्टिक अम्ल आदि।
प्रतिरक्षात्मक कार्य।
संदेशवाहक का कार्य करना, इसके अन्तर्गत हार्मोन्स आदि के संदेश देना।
शरीर पी. एच नियंत्रित करना।
शरीर का ताप नियंत्रित करना।
शरीर के एक अंग से दूसरे अंग तक जल का वितरण रक्त द्वारा ही सम्पन होता है
सम्पादन सारांश रहित
लहू एक शारीरिक तरल ( संयोजी ऊतक द्रव ) है जो रक्त वाहिनियों के अन्दर विभिन्न अंगों में लगातार बहता रहता है। रक्त वाहिनियों में प्रवाहित होने वाला यह गाढ़ा, कुछ चिपचिपा, लाल रंग का द्रव्य, एक जीवित ऊतक है। यह प्लाज़मा और रक्त कणों से मिल कर बनता है। प्लाज़मा वह निर्जीव तरल माध्यम है जिसमें रक्त कण तैरते रहते हैं। प्लाज़मा के सहारे ही ये कण सारे शरीर में पहुंच पाते हैं और वह प्लाज़मा ही है जो आंतों से शोषित पोषक तत्वों को शरीर के विभिन्न भागों तक पहुंचाता है और पाचन क्रिया के बाद बने हानीकारक पदार्थों को उत्सर्जी अंगो तक ले जा कर उन्हें फिर साफ़ होने का मौका देता है। रक्तकण तीन प्रकार के होते हैं, लाल रक्त कणिका, श्वेत रक्त कणिका और प्लैटलैट्स। लाल रक्त कणिका श्वसन अंगों से आक्सीजन ले कर सारे शरीर में पहुंचाने का और कार्बन डाईआक्साईड को शरीर से श्वसन अंगों तक ले जाने का काम करता है। इनकी कमी से रक्ताल्पता ( एनिमिया) का रोग हो जाता है। श्वैत रक्त कणिका हानीकारक तत्वों तथा बिमारी पैदा करने वाले जिवाणुओं से शरीर की रक्षा करते हैं। प्लेटलेट्स रक्त वाहिनियों की सुरक्षा तथा खून बनाने में सहायक होते हैं।
मनुष्य-शरीर में करीब पाँच लिटर लहू विद्यमान रहता है। लाल रक्त कणिका की आयु कुछ दिनों से लेकर १२० दिनों तक की होती है। इसके बाद इसकी कोशिकाएं तिल्ली में टूटती रहती हैं। परन्तु इसके साथ-साथ अस्थि मज्जा (बोन मैरो) में इसका उत्पादन भी होता रहता है। यह बनने और टूटने की क्रिया एक निश्चित अनुपात में होती रहती है, जिससे शरीर में खून की कमी नहीं हो पाती।
इन्हें भी देखें
रक्तदान
सन्दर्भ
श्रेणी:शारीरिक द्रव
श्रेणी:प्राणी शारीरिकी
* | मानव शरीर में कितना खून होता है? | पाँच लिटर | 1,032 | hindi |
a2690fe4c | क़ुस्तुंतुनिया या कांस्टैंटिनोपुल (यूनानी: Κωνσταντινούπολις कोन्स्तान्तिनोउपोलिस या Κωνσταντινούπολη कोन्स्तान्तिनोउपोली; लातीनी: Constantinopolis कोन्स्तान्तिनोपोलिस; उस्मानी तुर्कीयाई: قسطنطینية, Ḳosṭanṭīnīye कोस्तान्तिनिये), बोस्पोरुस जलसन्धि और मारमरा सागर के संगम पर स्थित एक ऐतिहासिक शहर है, जो रोमन, बाइज़ेंटाइन, और उस्मानी साम्राज्य की राजधानी थी। 324 ई. में प्राचीन बाइज़ेंटाइन सम्राट कोन्स्टान्टिन प्रथम द्वारा रोमन साम्राज्य की नई राजधानी के रूप में इसे पुनर्निर्मित किया गया, जिसके बाद इन्हीं के नाम पर इसे नामित किया गया।
परिचय
इस शहर की स्थापना रोमन सम्राट कोन्स्टान्टिन महान ने 328 ई. में प्राचीन शहर बाइज़ेंटाइन को विस्तृत रूप देकर की थी। नवीन रोमन साम्राज्य की राजधानी के रूप में इसका आरंभ 11 मई 330 ई. को हुआ था। यह शहर भी रोम के समान ही सात पहाड़ियों के बीच एक त्रिभुजाकार पहाड़ी प्रायद्वीप पर स्थित है और पश्चिमी भाग को छोड़कर लगभग सभी ओर जल से घिरा हुआ है। रूम सागर और काला सागर के मध्य स्थित बृहत् जलमार्ग पर होने के कारण इस शहर की स्थिति बड़ी महत्वपूर्ण रही है। इसके यूरोप को एशिया से जोड़ने वाली एक मात्र भूमि-मार्ग पर स्थित होने से इसका सामरिक महत्व था। प्रकृति ने दुर्ग का रूप देकर उसे व्यापारिक, राजनीतिक और युद्धकालिक दृष्टिकोण से एक महान साम्राज्य की सुदृढ़ और शक्तिशाली राजधानी के अनुरूप बनने में पूर्ण योग दिया था। निरंतर सोलह शताब्दियों तक एक महान साम्राज्य की राजधानी के रूप में इसकी ख्याति बनी हुई थी। सन् 1930 में इसका नया तुर्कीयाई नाम इस्तानबुल रखा गया। अब यह शहर प्रशासन की दृष्टि से तीन भागों में विभक्त हो गया है इस्तांबुल, पेरा-गलाटा और स्कूतारी। इसमें से प्रथम दो यूरोपीय भाग में स्थित हैं जिन्हें बासफोरस की 500 गज चौड़ी गोल्डेन हॉर्न नामक सँकरी शाखा पृथक् करती है। स्कूतारी तुर्की के एशियाई भाग पर बासफोरस के पूर्वी तट पर स्थित है। यहाँ के उद्योगों में चमड़ा, शस्त्र, इत्र और सोनाचाँदी का काम महत्वपूर्ण है। समुद्री व्यापार की दृष्टि से यह अत्युत्तम बंदरगाह माना जाता है। गोल्डेन हॉर्न की गहराई बड़े जहाजों के आवागमन के लिए भी उपयुक्त है और यह आँधी, तूफान इत्यादि से पूर्णतया सुरक्षित है। आयात की जानेवाली वस्तुएँ मक्का, लोहा, लकड़ी, सूती, ऊनी और रेशमी कपड़े, घड़ियाँ, कहवा, चीनी, मिर्च, मसाले इत्यादि हैं; और निर्यात की वस्तुओं में रेशम का सामान, दरियाँ, चमड़ा, ऊन आदि मुख्य हैं।
इतिहास
स्थापना
क़ुस्तुंतुनिया की स्थापना ३२४ में रोमन सम्राट कोन्स्टान्टिन प्रथम (२७२-३३७ ई) ने पहले से ही विद्यमान शहर, बायज़ांटियम के स्थल पर की थी,[1] जो यूनानी औपनिवेशिक विस्तार के शुरुआती दिनों में लगभग ६५७ ईसा पूर्व में, शहर-राज्य मेगारा के उपनिवेशवादियों द्वारा स्थापित किया गया था।[2] इससे पूर्व यह शहर फ़ारसी, ग्रीक, अथीनियन और फिर ४११ ईसापूर्व से स्पार्टा के पास रही।[3] १५० ईसापूर्व रोमन के उदय के साथ ही इस पर इनका प्रभाव रहा और ग्रीक और रोमन के बीच इसे लेकर सन्धि हुई,[4] सन्धि के अनुसार बायज़ांटियम उन्हें लाभांश का भुगतान करेगा बदले में वह अपनी स्वतंत्र स्थिति रख सकेगा जोकि लगभग तीन शताब्दियों तक चला।[5]
क़ुस्तुंतुनिया का निर्माण ६ वर्षों तक चला, और ११ मई ३३० को इसे प्रतिष्ठित किया गया।[1][6] नये भवनें का निर्माण बहुत तेजी से किया गया था: इसके लिये स्तंभ, पत्थर, दरवाजे और खपरों को साम्राज्य के मंदिरों से नए शहर में लाया गया था।
महत्त्व
संस्कृति
पूर्वी रोमन साम्राज्य के अंत के दौरान पूर्वी भूमध्य सागर में कांस्टेंटिनोपल सबसे बड़ा और सबसे अमीर शहरी केंद्र था, मुख्यतः ईजियन समुद्र और काला सागर के बीच व्यापार मार्गों के बीच अपनी रणनीतिक स्थिति के परिणामस्वरूप इसका काफ़ी महत्त्व बढ़ गया। यह एक हजार वर्षों से पूर्वी, यूनानी-बोलने वाले साम्राज्य की राजधानी रही। मोटे तौर पर मध्य युग की तुलना में अपने शिखर पर, यह सबसे धनी और सबसे बड़ा यूरोपीय शहर था, जोकि एक शक्तिशाली सांस्कृतिक उठ़ाव और भूमध्यसागरीय क्षेत्र में आर्थिक जीवन पर प्रभावी रहा। आगंतुक और व्यापारी विशेषकर शहर के खूबसूरत मठों और चर्चों को, विशेष रूप से, हागिया सोफिया, या पवित्र विद्वान चर्च देख कर दंग रह जाते थे।
इसके पुस्तकालय, ग्रीक और लैटिन लेखकों के पांडुलिपियों के संरक्षण हेतु विशेष रूप से महत्वपूर्ण रहे, जिस समय अस्थिरता और अव्यवस्था से पश्चिमी यूरोप और उत्तर अफ्रीका में उनका बड़े पैमाने पर विनाश हो रहा था। शहर के पतन के समय, हजारों शरणार्थियों द्वारा यह पांडुलिपी इटली लाये गये, और पुनर्जागरण काल से लेकर आधुनिक दुनिया में संक्रमण तक इसने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके अस्तित्व से कई शताब्दियों तक, पश्चिम पर इस शहर का बढ़ता हुआ प्रभाव अतुलनीय रहा है। प्रौद्योगिकी, कला और संस्कृति के संदर्भ में, और इसके विशाल आकार के साथ, यूरोप में हजार वर्षो तक कोई भी क़ुस्तुंतुनिया के समानांतर नहीं था।
वास्तु-कला
बाइज़ेंटाइन साम्राज्य ने रोमन और यूनानी वास्तुशिल्प प्रतिरूप और शैलियों का इस्तेमाल किया था ताकि अपनी अनोखी शैली का निर्माण किया जा सके। बाइज़ेंटाइन वास्तु-कला और कला का प्रभाव पूरे यूरोप में कि प्रतियों में देखा जा सकता है। विशिष्ट उदाहरणों में वेनिस का सेंट मार्क बेसिलिका, रेवेना के बेसिलिका और पूर्वी स्लाव में कई चर्च शामिल हैं। इसकी शहर की दीवारों की नकल बहुत ज्यादा की गई (उदाहरण के लिए, कैरर्नफॉन कैसल देखें) और रोमन साम्राज्य की कला, कौशल और तकनीकी विशेषज्ञता को जिंदा रखते हुए इसके शहरी बुनियादी ढांचे को मध्य युग में एक आश्चर्य के रूप में रहा। तुर्क काल में इस्लामिक वास्तुकला और प्रतीकों का इस्तेमाल किया हुआ।
धर्म
कॉन्स्टेंटाइन की नींव ने क़ुस्तुंतुनिया को बिशप की प्रतिष्ठा दी, जिसे अंततः विश्वव्यापी प्रधान के रूप में जाना जाने लगा और रोम के साथ ईसाई धर्म का एक प्रमुख केंद्र बना गया। इसने पूर्वी और पश्चिमी ईसाई धर्म के बीच सांस्कृतिक और धार्मिक मतभेद बढ़ाने में योगदान दिया और अंततः बड़े विवाद का कारण बना, जिसके कारण 1054 के बाद से पूर्वी रूढ़िवादी से पश्चिमी कैथोलिक धर्म विभाजित हो गये। क़ुस्तुंतुनिया, इस्लाम के लिए भी महान धार्मिक महत्व का है, क्योंकि क़ुस्तुंतुनिया पर विजय, इस्लाम में अंत समय के संकेतों में से एक था।
इन्हें भी देखें
इस्तानबुल
उस्मानी साम्राज्य
कुस्तुन्तुनिया विजय
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ , from History of the Later Roman Empire, by J.B. Bury
from the "New Advent Catholic Encyclopedia."
- Pantokrator Monastery of Constantinople
Select internet resources on the history and culture
from the Foundation for the Advancement of Sephardic Studies and Culture
, documenting the monuments of Byzantine Constantinople
, a project aimed at creating computer reconstructions of the Byzantine monuments located in Constantinople as of the year 1200 AD.
कुस्तुंतुनिया | क़ुस्तुंतुनिया शहर का नया तुर्कीयाई नाम क्या है? | इस्तांबुल | 1,455 | hindi |
e397be902 | उपसौर और अपसौर (Perihelion and Aphelion), किसी ग्रह, क्षुद्रग्रह या धूमकेतु की अपनी कक्षा पर सूर्य से क्रमशः न्यूनतम और अधिकतम दूरी है।
सौरमंडल में ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते है, कुछ ग्रहों की कक्षाएं करीब-करीब पूर्ण वृत्ताकार होती है, लेकिन कुछ की नहीं।| कुछ कक्षाओं के आकार अंडाकार जैसे ज्यादा है या इसे हम एक खींचा या तना हुआ वृत्त भी कह सकते है। वैज्ञानिक इस अंडाकार आकार को "दीर्घवृत्त" कहते है। यदि एक ग्रह की कक्षा वृत्त है, तो सूर्य उस वृत्त के केंद्र पर है। यदि, इसके बजाय, कक्षा दीर्घवृत्त है, तो सूर्य उस बिंदु पर है जिसे दीर्घवृत्त की "नाभि" कहा जाता है, यह इसके केंद्र से थोड़ा अलग है। एक दीर्घवृत्त में दो नाभीयां होती है। चूँकि सूर्य दीर्घवृत्त कक्षा के केंद्र पर नहीं है, ग्रह जब सूर्य का चक्कर लगाते है, कभी सूर्य की तरफ करीब चले आते है तो कभी उससे परे दूर चले जाते है। वह स्थान जहां से ग्रह सूर्य से सबसे नजदीक होता है उपसौर कहलाता है। जब ग्रह सूर्य से परे सबसे दूर होता है, यह अपसौर पर होता है। जब पृथ्वी उपसौर पर होती है, यह सूर्य से लगभग १४.७ करोड़ कि॰मी॰(3janwari) (९.१ करोड़ मील) दूर होती है। जब अपसौर पर होती है, सूर्य से १५.२ करोड़ कि॰मी॰ (९.५ करोड़ मिल) दूर होती है। पृथ्वी, अपसौर (4 July)पर उपसौर पर की अपेक्षा सूर्य से ५० लाख कि॰मी॰ (३० लाख मील) ज्यादा दूर होती है।उपसौर की स्थिति 3जनवरी को होती है।[1]
शब्दावली यदि निकाय सूर्य के अलावा किसी अन्य की परिक्रमा करता है, तब उपसौर और अपसौर शब्दों का प्रयोग नहीं करते है। पृथ्वी का चक्कर लगाते कृत्रिम उपग्रह (साथ ही चन्द्रमा भी) का नजदीकी बिंदु उपभू (perigee) और दूरस्थ बिंदु अपभू (apogee) कहलाता है। अन्य पिंडों का चक्कर लगाते निकाय के लिए इस सम्बन्ध में प्रयोगात्मक शब्द इस प्रकार है:-
सन्दर्भ इन्हें भी देखें अपसौरिका
अयनान्त
श्रेणी:खगोलशास्त्र
श्रेणी:सूर्य
श्रेणी:कक्षाएँ (भौतिकी) | जब सूर्य से पृथ्वी की दुरी अधिकतम होती है उसी क्या कहा जाता है? | अपसौर | 9 | hindi |
28d9aa6ed | अतलास पर्वत या ऐटलस पर्वत (बर्बर: इदुरार न वतलास; अरबी: ur, जबाल अल-अतलास; अंग्रेजी: Atlas Mountains) पशिमोत्तरी अफ़्रीका में स्थित एक २,५०० किमी लम्बी पर्वत शृंखला है। यह मोरक्को, अल्जीरिया और तूनीसीया के देशों से निकलती है और इसका सबसे ऊँचा पहाड़ दक्षिण-पश्चिमी मोरक्को में स्थित ४,१६७ मीटर (१३,६७१ फ़ुट) लम्बा तूबक़ाल (Toubkal) पर्वत है। अतलास पर्वतों की श्रेणियाँ भूमध्य सागर और अंध महासागर के साथ लगे तटीय क्षेत्र को सहारा रेगिस्तान से बांटती हैं। इस पर्वतीय इलाके में रहने वाले लोग मुख्य रूप से बर्बर जाति के हैं।[1]
अतलास पर्वतों में बहुत सी ऐसी जानवरों और वृक्षों-पौधों की जातियाँ हैं जो अफ़्रीका के अन्य भागों से बिलकुल अलग हैं और यूरोप से मिलती जुलती हैं। पूर्वकाल में ऐसी भी कुछ जातियाँ थी जो अब विलुप्त हो चुकी हैं। इनमें बर्बरी मकाक (बन्दर), अतलास भालू (अफ़्रीका की इकलौती भालूओं की जाति जो अब विलुप्त हो चुकी है), बर्बरी तेंदुआ, बर्बरी हिरण, बर्बरी भेड़, बर्बरी सिंह, अफ़्रीकी औरोक्स (विलुप्त), उत्तरी गंजी आइबिस (चिड़िया), अतलास पहाड़ी वाइपर (सांप), यूरोपीय काला चीड़, अतलास सीडर (एक प्रकार का देवदार) व अल्जीरियाई बलूत शामिल हैं।[2]
कुछ सम्बंधित तस्वीरें तूबक़ाल इस शृंखला का सबसे ऊँचा पहाड़ है
दादैस तंग घाटी
अतलास में एक बर्बर गाँव
इन्हें भी देखें उत्तर अफ़्रीका
बर्बर
सन्दर्भ श्रेणी:उत्तर अफ़्रीका
श्रेणी:अफ़्रीका के पर्वत
श्रेणी:मोरक्को की पर्वतमालाएँ
श्रेणी:अफ़्रीका की पर्वतमालाएँ
श्रेणी:पर्वतमालाएँ
श्रेणी:विश्व की प्रमुख पर्वत श्रेणियां | एटलस पहाड़ों की ऊँचाई कितनी है? | २,५०० किमी लम्बी | 135 | hindi |
a75af54c6 | रिक्टर पैमाना (अंग्रेज़ी:Richter magnitude scale) भूकंप की तरंगों की तीव्रता मापने का एक गणितीय पैमाना है। किसी भूकम्प के समय भूमि के कम्पन के अधिकतम आयाम और किसी यादृच्छ (आर्बिट्रेरी) छोटे आयाम के अनुपात के साधारण लघुगणक को 'रिक्टर पैमाना' कहते हैं। रिक्टर पैमाने का विकास १९३० के दशक में किया गया था। १९७० के बाद से भूकम्प की तीव्रता के मापन के लिये रिक्टर पैमाने के स्थान पर 'आघूर्ण परिमाण पैमाना' (Moment Magnitude Scale (MMS)) का उपयोग किया जाने लगा।
'रिक्तर पैमाने' का पूरा नाम रिक्टर परिमाण परीक्षण पैमाना (रिक्टर मैग्नीट्यूड टेस्ट स्केल) है और लघु रूप में इसे स्थानिक परिमाण (लोकल मैग्नीट्यूड) (
M
L
{\displaystyle M_{L}}
) लिखते हैं। परिचय
इस पैमाने पर भूकंप से निकली हुई भूगर्भीय ऊर्जा की मात्रा के मापन हेतु एक संख्या से दर्शाया जाता है। यह आधार-दस का लघुगणक आधारित पैमाना होता है, जो वुड-एंडर्सन टॉर्ज़न भूकम्पमापी के आउटपुट के सर्वाधिक विस्थापन का संयुक्त क्षैतिज आयाम (एम्प्लिट्यूड) का लघुगणक निकालने पर मिलता है।
M
L
=
log
10
(
A
max
A
0
)
{\displaystyle M_{\mathrm {L} }=\log _{10}\left({\frac {A_{\max }}{A_{0}}}\right)}
,
उदाहरण के लिए रिक्टर पैमाने पर मापे गये ५.० तीव्रता के एक भूकम्प का कंपन आयाम उसी पैमाने पर आंके गये ४.० तीव्रता के भूकंप के आयाम का दस गुणा अधिक होगा। स्थानिक परिमाण यानि लोकल मैग्नीट्यूड (
M
L
{\displaystyle M_{L}}
) की प्रभावी मापन सीमा लगभग ६.८ होती है। भूकंप की तरंगों को रिक्टर स्केल १ से ९ तक के अपने मापक पैमाने के आधार पर मापता है। भूकंप द्वारा उत्सर्जित ऊर्जा, जो उसके द्वारा किये गये विध्वंस से सीधे संबंधित होती है, कंपन आयाम की ३⁄२ पावर के अनुपात में होती है। अतः परिमाण में १.० का अंतर ३१.६ (
=
(
10
1.0
)
(
3
/
2
)
{\displaystyle =({10^{1.0}})^{(3/2)}}
) गुणा उत्सर्जित ऊर्जा के सदृश होता है। इसी प्रकार परिमाण में २.० का अंतर १००० (
=
(
10
2.0
)
(
3
/
2
)
{\displaystyle =({10^{2.0}})^{(3/2)}}
) उत्सर्जित ऊर्जा के समान होता है।[1]
अभी तक भूकंप की तीव्रता की अधिकतम सीमा तय नहीं की गई है। रिक्टर स्केल पर ७.० या उससे अधिक की तीव्रता वाले भूकंप को सामान्य से कहीं अधिक खतरनाक माना जाता है। इसी पैमाने पर २.० या इससे कम तीव्रता वाला भूकंप सूक्ष्म भूकंप कहलाता हैं, जो सामान्यतः महसूस नहीं होते। ४.५ की तीव्रता वाले भूकंप घरों और अन्य रचनाओं को क्षतिग्रस्त कर सकते हैं। रिक्टर पैमाने का विकास १९३५ में कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के चार्ल्स रिक्टर ेऔर बेनो गुटेनबर्ग ने मिलकर किया था। अब तक का सबसे बड़ा भूकंप २२ मई १९६० को ग्रेट चिली में आया था। इसकी रिक्टर पैमाने पर तीव्रता ९.५ दर्ज की गई थी। २१ सितंबर, २००९ को हिमालय क्षेत्र में आए भूकंप की रिक्टर पैमाने पर तीव्रता ६.३ मापी गई। इस भूकंप का केंद्र गुवाहाटी से उत्तर दिशा में १२५ किलोमीटर दूर मोगार में जमीन के भीतर ७.२ किलोमीटर पर केंद्रित था। हैती में १२ जनवरी, २०१० को आए भूकंप की तीव्रता रिक्टर स्केल पर ७.८ मापी गई थी।[2]
रिक्टर परिमाण निम्न सारणी विभिन्न परिमाणों के भूकंपों का केन्द्र (एपिसेंटर) के निकट प्रभाव को दर्शाती है। इस सारणी की सूचना में तीव्रता और उससे प्रभावित भूमि पर प्रभाव केवल परिमाण पर ही नहीं, वरन केन्द्र से दूरी, केन्द्र के नीचे भूकंप-बिन्दु की गहरायी एवं भूगर्भीय स्थिति (कई भूगर्भीय क्षेत्र भूकम्पीय तरंग संकेतों को बढ़ा भी सकते हैं) पर भी निर्भर करते हैं।
(संयुक्त राज्य भूगर्भ सर्वेक्षण अभिलेखों पर आधारित)[3]
महान भूकंप औसतन प्रतिवर्ष एक बार आते हैं। सर्वाधिक तीव्रता वाले दर्ज भूकंप २२ मई, १९६० में ग्रेट चिली में दर्ज तीव्रता (MW) ९.५ थी।[4]
इन्हें भी देखें भूकम्पमापी
क्षणिक परिमाण परिमाप
मेर्साली तीव्रता परिमाप
सन्दर्भ २००८, पाकिस्तान भुकंप
८ सितंबर, २००९ जॉर्जिया भूकंप
१९५२ भूकंप, जापान
२००१ गुजरात भूकंप
हैती भूकंप २०१० की क्षति
बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:भूकम्प
श्रेणी:भूगर्भ विज्ञान
श्रेणी:भूगर्भभौतिकी
श्रेणी:हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना
श्रेणी:भूकम्प विज्ञान
श्रेणी:भौतिक भूगोल | भूकंप को किस इकाई द्वारा मापा जाता है? | रिक्टर पैमाना | 0 | hindi |
656327e9c | ऋतुविज्ञान या मौसम विज्ञान (Meteorology) कई विधाओं को समेटे हुए विज्ञान है जो वायुमण्डल का अध्ययन करता है। मौसम विज्ञान में मौसम की प्रक्रिया एवं मौसम का पूर्वानुमान अध्ययन के केन्द्रबिन्दु होते हैं। मौसम विज्ञान का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है किन्तु अट्ठारहवीं शती तक इसमें खास प्रगति नहीं हो सकी थी। उन्नीसवीं शती में विभिन्न देशों में मौसम के आकड़ों के प्रेक्षण से इसमें गति आयी। बीसवीं शती के उत्तरार्ध में मौसम की भविष्यवाणी के लिये कम्प्यूटर के इस्तेमाल से इस क्षेत्र में क्रान्ति आ गयी। मौसम विज्ञान के अध्ययन में पृथ्वी के वायुमण्डल के कुछ चरों (variables) का प्रेक्षण बहुत महत्व रखता है; ये चर हैं - ताप, हवा का दाब, जल वाष्प या आर्द्रता आदि। इन चरों का मान व इनके परिवर्तन की दर (समय और दूरी के सापेक्ष) बहुत हद तक मौसम का निर्धारण करते हैं। परिचय ऋतुविज्ञान वायुमंडल का विज्ञान है। आधुनिक ऋतुविज्ञान में वायुमंडल में होनेवाली भौतिक घटनाओं का तथा उनसे संबद्ध उपलगोले (लिथोस्फ़ियर) और जलगोले (हाइड्रोस्फ़ियर) की घटनाओं का अध्ययन किया जाता है। ऋतुविज्ञान के विषय का वर्णन, जहाँ तक उसका संबंध निचले वायुमंडल की मौसमी घटनाओं से हैं, अधिकतम सुविधापूर्वक निम्नलिखित चार भागों में किया जा सकता है:
(1) यांत्रिक ऋतुविज्ञान (फ़िजिकल और डाइनैमिकल मीटिअरॉलोजी) जिसका संबंध उन प्रेक्षणयंत्रों तथा प्रेक्षणविधियों से है जिनके द्वारा वायुमंडल की ऋतुप्रभावक अवस्थाओं की सूचना प्राप्त की जाती है।
(2) भौतिक तथा गतिक ऋतुविज्ञान (फ़िजिकल और डाइनैमिकल मीटिअरॉलोजी) जिसमें प्रेक्षित ऋतु संबंधी घटनाओं का गुणात्मक तथा पारिमाणिक (क्वांटिटेटिव) विवेचन किया जाता है।
(3) संक्षिप्त ऋतुविज्ञान (सिनॉष्टिक मीटिअरॉलोजी) जो मुख्यत: ऋतु के पूर्वानुमान के लिए संक्षिप्त आर्तव (ऋतु संबंधी) मानचित्रों द्वारा संक्षिप्त आर्तव प्रेक्षणों के अध्ययन से संबंध रखता है।
(4) जलवायु-तत्व (क्लाइमैटॉलोजी) जिसमें संसार के सब भागों के आर्तव प्रेक्षणों का सांख्यिकीय (स्टैटिस्टिकल) अध्ययन होता है और उसके द्वारा उन प्रसामान्य तथा मध्यमान (औसत) परिस्थितियों का ठीक-ठीक पता लगाया जाता है जिसके द्वारा जलवायु का वर्णन किया जा सकता है।
ऋतुवैज्ञानिक तत्व (एलिमेंट्स) ऋतु संबंधी प्रेक्षणों में, जिनसे वायुमंडल की दशा का ज्ञान मिलता है, निम्नलिखित बातें देखी जाती हैं:
ताप वायु का ताप तापमापी (थरमामीटर) द्वारा नापा जाता है। इस थरमामीटर को सौर विकिरणों से अप्रभावित रखा जाता है। वायु की आर्द्रता ज्ञात करने के लिए गीले तापमापी (वेट बल्ब थरमामीटर) का उपयोग किया जाता है। इस थरमामीटर के बल्ब पर गीले मलमल के कपड़े की इकहरी तह लिपटी रहती है। आर्द्रता की मात्रा सूखे थरमामीटर तथा गीले थरमामीटर के पाठयांकों से निकाली जाती है।
वायुदाब यह वायुदाबमापी (बैरोमीटर) द्वारा मापा जाता है और इससे पृथ्वी पर वायु का भार (प्रति इकाई क्षेत्रफल) विदित होता है।
पवन पवन की दिशा तथा वेग का प्रेक्षण किया जाता है। दिशा वह ली जाती है जिस ओर से पवन आता है और दिक्सूचक के 16 अथवा 32 बिंदुओं में अंकित की जाती है। वेग पवन-वेगमापी (ऐनिमोमीटर) द्वारा मापा जाता है और मील प्रति घंटा या किलोमीटर प्रति घंटा या मीटर प्रति सेकंड में व्यक्त किया जाता है।
आर्द्रता आर्द्रता से वायुमंडल में जलवाष्प की मात्रा का ज्ञान होता है और, जैसा पहले कहा जा चुका है, यह सूखे तथा गीले थरमामीटरों द्वारा नापी जाती है।
संघनन के रूप (कंडेंसेशन फार्म्स) इसमें वायुमंडलीय संघनन के सब प्रकार के द्रव एवं ठोस उत्पादन संमिलित हैं। बादलों की मात्रा तथा उनके प्रकार, कुहरा तथा वर्षा, हिम (बर्फ), ओला आदि, का प्रेक्षण किया जाता है। प्रत्येक प्रकार का बादल आकाश के जितने भाग में व्याप्त हो उतने को पूरे आकाश के दशांशों में व्यक्त किया जाता है। जो संघनन कण काफी बड़े होते हैं वे वर्षा के रूप में पृथ्वी पर गिरते हैं।
दृश्यता (विज़िबिलिटी) उस क्षैतिज दूरी को कहते हैं जहाँ तक की बड़ी और स्पष्ट वस्तुएँ दिखाई दे सकती हों।
छादन (सीलिंग) ऊर्ध्वाधर दृश्यता (वर्टिकल विज़िबिलिटी) से संबंध रखती है और मेघतल की ऊँचाई से मापी जाती है।
इतिहास प्राचीन काल से ही मनुष्य ऋतु तथा जलवायु की अनेक घटनाओं से प्रभावित होता रहा है। वायुविज्ञान के प्राचीनतम ग्रंथ ऐरिस्टॉटल (384-322 ई.पू.) रचित 'मीटिअरोलॉजिका' तथा उनके शिष्यों की पवन तथा ऋतु संबंधी रचनाएँ हैं। ऐरिस्टॉटल के पश्चात् अगले दो हजार वर्षो में ऋतुविज्ञान की अधिक प्रगति नहीं हुई। 17वीं तथा 18वीं शताब्दी में मुख्यत: यंत्रप्रयोग तथा गैस आदि के नियम स्थापित हुए। इसी काल में तापमापी का आविष्कार सन् 1607 में गैलीलियों गेलीली ने किया और एवेंजीलिस्टा टॉरीसेली ने सन् 1643 में वायु दाबमापी यंत्र का आविष्कार किया। इन आविष्कारों के पश्चात् सन् 1659 में वायल के नियम का आविष्कार हुआ। सन् 1735 में जार्ज हैडले ने व्यापारिक वायु (ट्रैड विंड) की व्याख्या प्रस्तुत की तथा उसमें हैडले ने व्यापारिक वायु (ट्रेड विंड) की व्याख्या प्रस्तुत की तथा उसमें सबसे पहले वायुमंडलीय पवनों पर पृथ्वी के चक्कर के प्रभाव को सम्मिलित किया। जब सन् 1783 में ऐंटोनी लेवोसिए ने वायुंमडल की वास्तविक प्रकृति का ज्ञान प्राप्त कर लिया और सन् 1800 में जॉन डॉल्टन ने वायुमंडल में जलवाष्प के परिवर्तनों पर और वायु के प्रसार तथा वायुमंडलीय संघनन के संबंध पर प्रकाश डाला तभी आधुनिक ऋतुविज्ञान का आधार स्थापित हो गया। 19वीं शताब्दी में विकास अधिकतर संक्षिप्त ऋतुविज्ञान के क्षेत्र में हुआ। अनेक देशों ने ऋतुवैज्ञानिक संस्थाएँ स्थापित की और ऋतु वेधशालाएँ खोलीं। इस काल में ऋतु पूर्वानुमान की दिशा में भी पर्याप्त विकास हुआ। 20 वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में 20 किलोमीटर की ऊँचाई तक वायु के वेग तथा दिशा आदि के प्रेक्षणों के बढ़ जाने के कारण जो सूचनाएँ ऋतुविशेषज्ञों को प्राप्त होने लगीं उनसे ऋतुविज्ञान की अधिक उन्नति हुई। ऊपरी वायु के ऐसे प्रेक्षणों से ऋतुविज्ञान की अनेक समस्याओं को समझने में बहुत अधिक सहायता मिली।
प्रथम विश्वयुद्ध काल में वायुमंडलीय स्थितियों के अधिक और शीघ्रतम प्रेक्षणों की आवश्यकता हुई जिसकी पूर्ति के लिए वायुयान द्वारा ऋतुलेखी यंत्र (मीटिअरोग्राफ़) ऊपर ले जाने की व्यवस्था की गई। अन्य महत्वपूर्ण प्रगतियाँ जो प्रथम विश्वयुद्ध काल में हुई वे नॉर्वे देश के ऋतुविशेषज्ञ वी.बरकनीज़ एच. सोलवर्ग तथा जे. बरकनीज़ द्वारा ध्रवीय अग्रसिद्धांत (पोलर फ्रंट थ्योरी) के तथा चक्रवातों की उत्पत्ति के तरंग सिद्धांत के परिणाम हैं।
द्वितीय विश्वयुद्ध काल में मुख्यत: अधिक ऊँचाई पर उड़नेवाले वायुयानों के उपयोग के लिए ऋतु संबंधी सूचनाओं की माँग और बढ़ गई और इस माँग की पूर्ति के निर्मित्त विभिन्न ऊँचाइयों पर वायु के वेग तथा दिशा आदि के ज्ञान के लिए राडार प्रविधि (राडार टेकनीक) का विकास हुआ।
वायुमंडल की रचना तथा ऊर्ध्वाधर विभाजन निचले वायुमंडल की सूखी वायु में अनेक गैसों का मिश्रण होता है जिनमें मुख्यत: नाइट्रोजन 78 प्रतिशत, आक्सिजन 21 प्रतिशत, आरगन 0.93 प्रतिशत और कार्बन डाइआक्साइड 0.03 प्रतिशत होती हैं। इन गैसों के अतिरिक्त कुछ अन्य गैसें भी होती हैं, जैसे हाइड्रोजन तथा ओज़ोन। पवनों द्वारा निचले वायुमंडल के लगातार मिश्रण से तथा ऊर्ध्वाधर संवहन (कनवेक्शन) से सूखी हवा का मिश्रण इतना अपरिवर्ती रहता है कि कम से कम 20 किलोमीटर की ऊँचाई तक तो सूखी हवा का अणुभार 28.96 पर स्थिर रहता है; अर्थात् वायु का घनत्व 1.276 (10)3 ग्राम प्रति घन सें. होता है, जब वायु दाब 1,000 मिलीबार हो और ताप 0° सेंटीग्रेड हो।
वायुमंडल में ओज़ोन की उपस्थिति फ़ाउलर तथा स्ट्रट ने वर्णक्रमदर्शी यंत्र (स्पेक्ट्रॉस्कोप) द्वारा प्रमाणित की थी। डॉबसन के प्रेक्षणों से भी यह बात सिद्ध हो गई है तथा यह ज्ञान भी प्राप्त हुआ है कि ओज़ोन भूतल से लगभग 30 से 40 किलोमीटर की ऊँचाई पर एक सीमित स्तर में पाई जाती है। इन ऊँचाई पर ओज़ोन की उपस्थिति मौसमी परिस्थितियों के लिए कुछ महत्वपूर्ण है। डॉबसन की खोज से पता लगा है कि 10 किलोमीटर ऊँचाई पर की वायुदाब में और ओज़ोन की मात्रा में घनिष्ठ संबंध है।
वायुमंडल में जलवाष्प वायुमंडल में केवल जलवाष्प ही ऐसा अवयव है जिसकी भौतिक अवस्था का परिवर्तन सामान्य वायुमंडलीय परिस्थितियों में होता रहता है। अत: वायुमंडल में जलवाष्प की प्रतिशत आयतन मात्रा बहुत घटती बढ़ती रहती है। वायुमंडल में जलवाष्प का घटना बढ़ना ऋतुविज्ञान के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। जल का वाष्पीकरण तथा संघनन इसलिए महत्वपूर्ण है कि न केवल इनसे एक स्थान से दूसरे स्थान को जल का परिवहन होता है, वरन् इसलिए भी कि जल के वाष्पीकरण के लिए गुप्त उष्मा के अवशोषण की आवश्यकता होती है। यह अंत में पुन: प्रकट होकर वायु को तब उष्ण करने के काम में आती है जब जलवाष्प का फिर से जलबिंदु तथा हिम में संघनन होता है।
यद्यपि नाइट्रोजन गैस अमोनिया, नाइट्रिक अम्ल तथा नाइट्रेटों का मुख्य अवयव है और ये पदार्थ बारूद आदि में बहुत महत्व रखते हैं, तथापि वायुमंडल में यह गैस बिलकुल निष्क्रिय रहती है। यह तो वायुमंडल के अधिक महत्वपूर्ण अवयव आक्सिजन गैस को, जो वायुमंडल का लगभग पाँचवाँ भाग होती है, केवल तनु कर देती है।
वायुमंडलीय दाब का ऊँचाई के साथ घटना-बढ़ना किसी भी स्थान की वायुदाब वहाँ के ऊपर की वायु के भार से उत्पन्न होती है, इसलिए दो विभिन्न ऊँचाइयों की वायुदाबों का अंतर इन दोनों ऊँचाइयों के बीच की हवा के एकांक अनुप्रस्थ काट (क्रॉस सेक्शन) के भार के बराबर होता है। यदि यह दाब का अंतर बीच की हवा के भार से यथार्थ रूप में संतुलित न हो तो उस वायुस्तर को ऊपर की ओर या नीचे की ओर त्वरण (ऐक्सेलरेशन) प्राप्त होता है। जिस परिस्थिति में दाब का अंतर और वायु का भार संतुलित हो, अथवा यों कहिए कि गुरुत्वजनित त्वरण के अतिरिक्त कोई अन्य ऊर्ध्वाधर त्वरण विद्यमान न हो, वह द्रवस्थैतिक संतुलन (हाइड्रोस्टैटिक ईक्विलिब्रियम) की परिस्थिति कहलाती है। यह परिस्थिति किसी भी स्तर पर ऊँचाई के साथ दाबपरिवर्तन की दर का परिचय देती है। यदि दो दाबस्तरों के बीच का दाब अंतर (dp) हो और दोनों स्तरों के बीच ऊर्ध्वाधर दूरी (dz) हो, घनत्व (p) हो और गुरुत्वजनित त्वरण (g) हो, तो
dp/dz = -pMg/(RT)
इस समीकरण को द्रवस्थैतिक समीकरण कहते हैं।
दाब ऊँचाई सूत्र गुरुत्वजनित त्वरण विभिन्न अक्षांश (लैटिटयूड) तथा ऊँचाई के कारण थोड़ा सा ही घटता बढ़ता है, किंतु दाब, ताप तथा नमी के कारण वायु का घनत्व अधिक मात्रा में घटता बढ़ता है। इसलिए वायुमंडल में ऊर्ध्वाधर दाबप्रवणता (वर्टिकल प्रेशर ग्रेडियंट) अत्यंत परिवर्तनशील होती है। ६८ किमी के नीचे दाब की गनना के लिये दो सूत्र प्रयोग में लाये जाते हैं। पहले सूत्र का प्रयोग तब किया जाता है जब मानक तापमान लेस्प दर (Lapse Rate) शून्य न हो। दूसरे का प्रयोग तब करते हैं जब मानक ताप लेप्स दर (standard temperature lapse rate) शून्य हो।
पहला समीकरण:
P
=
P
b
⋅
[
T
b
T
b
+
L
b
⋅
(
h
−
h
b
)
]
g
0
⋅
M
R
∗
⋅
L
b
{\displaystyle {P}=P_{b}\cdot \left[{\frac {T_{b}}{T_{b}+L_{b}\cdot (h-h_{b})}}\right]^{\textstyle {\frac {g_{0}\cdot M}{R^{*}\cdot L_{b}}}}}
दूसरा समीकरण:
P
=
P
b
⋅
exp
[
−
g
0
⋅
M
⋅
(
h
−
h
b
)
R
∗
⋅
T
b
]
{\displaystyle P=P_{b}\cdot \exp \left[{\frac {-g_{0}\cdot M\cdot (h-h_{b})}{R^{*}\cdot T_{b}}}\right]}
जहाँ
P
b
{\displaystyle P_{b}}
= Static pressure (pascals)
T
b
{\displaystyle T_{b}}
= Standard temperature (K)
L
b
{\displaystyle L_{b}}
= Standard temperature lapse rate -0.0065 (K/m) in ISA
h
{\displaystyle h}
= Height above sea level (meters)
h
b
{\displaystyle h_{b}}
= Height at bottom of layer b (meters; e.g., = 11,000 meters)
= Universal gas constant for air: 8.31432N·m /(mol·K)
= Gravitational acceleration (9.80665m/s2)
= Molar mass of Earth's air (0.0289644kg/mol)
Or converted to English units:[1]
जहाँ
P
b
{\displaystyle P_{b}}
= Static pressure (inches of mercury, inHg)
T
b
{\displaystyle T_{b}}
= Standard temperature (K)
L
b
{\displaystyle L_{b}}
= Standard temperature lapse rate (K/ft)
h
{\displaystyle h}
= Height above sea level (ft)
h
b
{\displaystyle h_{b}}
= Height at bottom of layer b (feet; e.g., = 36,089ft)
= Universal gas constant; using feet, kelvins, and (SI) moles: 8.9494596×104lb·ft2/(lbmol·K·s2)
= Gravitational acceleration (32.17405ft/s2)
= Molar mass of Earth's air (28.9644lb/lbmol)
ऊँचाई मापने की विधि ऊँचाई मापने की प्रामणिक विधि यह है कि ऊपर दिए हुए सूत्र द्वारा दाब तथा ताप मापकर ऊँचाई का अंतर प्राप्त किया जाए और यदि यथार्थता की आवश्यकता हो तो आर्द्रता की मात्रा को भी काम में लाया जाए। प्रामाणिक तुंगतामापी (आल्टिमीटर) इसी सूत्र पर आधारित है।
ताप का दैनिक परिवर्तन दिन के समय सूर्य से गरमी मिलने और रात में विकिरण द्वारा पृथ्वी के ठंडी होने से वायु के ताप में दैनिक परिवर्तन उत्पन्न होता है। न्यूनतम ताप सूर्योदय से कुछ पहले होता है और अधिकतम ताप तीसरे पहर में होता है। वायु के ताप का यह दैनिक परिवर्तन भूतल के ऊपर से मुक्त वायुमंडल में शीघ्रता से घटता है। पृथ्वी के अधिकतर भागों में 5,000 फुट से अधिक की ऊँचाइयों पर तथा रेगिस्तानी प्रदेशों में 10,000 फुट की ऊँचाई पर ताप का दैनिक परास (रेंज) 2° या 3° सेंटीग्रेड से अधिक नहीं पाया गया है।
वायुमंडल का उष्मासंतुलन भूतल तथा वायुमंडल को गरमी लगभग पूर्णतया सूर्यविकिरण से ही मिलती है। अन्य आकाशीय पिंडों से गरमी बहुत ही कम मात्रा में मिलती है। सौर ऊर्जा की मापें स्मिथसोनियन संस्था की तारा-भौतिकी-वेधशाला में तथा अन्य कई पर्वतशिखरों पर स्थित वेधशालाओं में नियमित रूप से की जाती है और इन मापों की यथार्थता एक प्रतिशत से उत्कृष्ट होती है। पृथ्वी और सूर्य की मध्यमानसौर दूरी पर यह सौर आतपन ऊर्जा वायुमंडल में प्रविष्ट होकर अंशत: अवशेषित होने के पहले लगभग 1.94 ग्राम कलरी प्रति मिनट वर्ग सेंटीमीटर होती है; यहाँ प्रतिबंध यह है कि सूर्य की किरणें उस वर्ग सेंटीमीटर पर अभिलंबत: पड़ें। इस मात्रा को सौर नियतांक (सोलर कॉन्स्टैंट) कहते हैं। सौर नियतांक के मान में पाई गई अनियमित घट बढ़ एक प्रतिशत से भी कम रहती हैं; ये प्रेक्षणत्रुटियों के कारण हो सकती हैं। इन अनियमित उच्चावचनों के अतिरिक्त एक वास्तविक और बड़ा उच्चावचन भी पाया गया है जो ग्यारह वर्षीय सूर्य-कलंक-चक्र में लगभग प्रतिशत तक का दीर्घकालिक उच्चावचन और भी हो सकता है। परंतु ये सब उच्चावचन इतने लघु हैं कि वायुमंडलीय उष्म संतुलन के संबंध में यह मान लिया जा सकता है कि पृथ्वी पर सौर ऊर्जा 1.94 ग्राम कलरी प्रति वर्ग सेंटीमीटर प्रति मिनट पड़ती है। अनुमान किया गया है कि सौर ऊर्जा का 43 प्रतिशत भाग परावर्तित तथा प्रकीर्णित तथा प्रकीर्णन करने की सम्मिलित शक्ति को ऐलबेडो कहते हैं। यह 43 प्रतिशत है। शेष 57 प्रतिशत ऊर्जा, जो प्रभावकारी आतपन है, भूतल तथा वायुमंडल को औसतन 57 उष्मा इकाइयाँ प्रदान करता है। इन 57 उष्मा इकाइयों में से केवल एक लघु भाग का (अधिक से अधिक 14 इकाइयों का) वायुमंडल, मुख्यत: निचले स्तरों में जलवाष्प द्वारा और कुछ कम परिमाण में ऊपरी समताप मंडल (स्ट्रैटोस्फ़ियर) में ओज़ोन द्वारा, अवशोषण कर लेता है।
वायुमंडल में वाष्पन तथा संघनन वायुमंडल में वाष्पन तथा संघनन का कारण है वायु की जलवाष्प ग्रहण करने की शक्ति में कमी बेशी, अर्थात् आर्द्र वायु का गरम या शीतल होना। साधारणत: वायुमंडल में जलवाष्प-मात्रा संतृप्त मात्रा से कम होती है, विशेषकर भूतल के समीप जहाँ वायुमंडल का प्रभावकारी आतपन अधिकतम होता है।
वाष्पन वायु में नमी का अधिक भाग, जो वायुमंडल में जलवाष्पचक्र को चलाता रहता है, वाष्पन से प्राप्त होता है। जैसे-जैसे जल वाष्पित होता है, तैसे तैसे वह वायुमंडल में विसरित होता रहता है। वायुमंडल में वाष्पन द्वारा होनेवाली मौसमी क्रियाएँ अपेक्षाकृत महत्वपूर्ण नहीं होतीं। दृश्य भाप की उत्तपति भी वाष्पन द्वारा होनेवाली मौसमी क्रिया है। गरम जल की सतह से शीघ्रतापूर्वक वाष्पन होने के कारण बहुत ठंडी अथवा अपेक्षाकृत ठंडी आर्द्र वायु एकदम अति संतृप्त हो जाती है। इसका परिणाम यह होता है कि दृश्य भाप के रूप में नमी का तुरंत संघनन हो जाता है जिसके कारण स्थिर हवा में घना कोहरा बन जाता है।
वायुमंडलीय संघनन संघनन किसी खुली सतह पर उस समय होता है जब उस सतह का ताप आसपास की वायु के ओसांक (डयू पॉइंट) के ताप से कम होता है। इस प्रकार के संघनन के उदाहरण गरम मौसम में पाए जाते हैं। जैसे, यद्यपि वायु की आपेक्षिक आर्द्रता सौ प्रतिशत से पर्याप्त कम रहने पर भी बर्फ के पानी से भरे गिलास के बाहर वायु का वाष्प संघनित हो जाता है उसी प्रकार स्वच्छ प्रशांत रात्रि में ओस का संघनन उन भूतलस्थित वस्तुओं पर हो जाता है जो अपनी ऊष्मा के विकिरण के कारण आसपास की वायु के ओसांक से निम्न ताप तक ठंडी हो जाती हैं, पाला उन सतहों पर जमता है जो हिंमाक से भी अधिक ठंडी हो जाती हैं, चाहे मुक्त वायु का ताप हिमांक से काफी ऊँचा की क्यों न हो।
जब वायुमंडल के भीतर छोटे छोट जलबिंदुओं के रूप में संघनन होता है तो प्रश्न यह उठता है कि यह प्रक्रम किस प्रकार प्रारंभ होता है। प्रयोग से सिद्ध हुआ है कि पूर्णत: अशुद्धिहीन वायु में संघनन जलबिंदु के रूप में नहीं होता, चाहे उसमें वाष्पदाब संतृप्ति दाब से दस गुनी ही क्यों न हो। प्रतीत होता है कि जलवाष्प का संघनन प्रारंभ करने के लिए किसी प्रकार के कणों की आवश्यकता होती है जो शुद्ध वायु में उपस्थित नहीं होते। इस प्रकार के कण को संघनन नाभिक कहते हैं। परीक्षण से ज्ञात हुआ है कि वायु में जलाकर्षी पदार्थों के नन्हें कण, जैसे समुद्री नमक के कण, संघनन नाभिकों का कार्य करते हैं। जिन स्थानों में कारखानों का धुआँ वायुमंडल को दूषित कर देता है, वहाँ धुएँ के गंधक, फासफोरस आदि पदार्थो के आक्साइड के नन्हें कण संघनन नाभिक बन जाते हैं।
साधारणत: निचले क्षोभमंडल (ट्रॉपोस्फ़ियर) के कुहरे और बादलों में प्रति घन सेंटीमीटर सौ से दस हजार तक नन्हें जलबिंदु होते हैं। बादलों में वषबिंदु अथवा दूसरे वर्षणकण किस प्रकार निर्मित होते हैं, यह विषय अभी संशययुक्त है। कदाचित् ये बहुत से छोटे-छोटे मेघकणों के संयोजन द्वारा बनते हैं। संयोजन वायु की धाराओं के मिलने और वायु के मथ उठने से होता होगा। बड़े बड़े बिंदुओंवाली तीव्र वर्षा के बारे में स्वीकृत सिद्धांत यह है कि ये बिंदु तब बनते हैं जब हिममणिभ बादलों के ऊपरी भागों में पहुँच जाते हैं जहाँ अति शीत (सूपरकूल्ड) जलकरण विद्यमान रहते हैं। इस सिद्धांत का प्रतिपादन टी वर्गरान ने किया था।
वायुमंडल का सामान्य संचार मूलत: वायुमंडल का सामान्य संचार भूमध्यीय तथा ध्रवीय देशों के बीच क्षैतिज तापप्रवणता (ग्रेडियंट) के कारण उत्पन्न होता है। एक प्रकार के वायुमंडल का सामान्य संचार वायुमंडल की हलचल का तथा उसकी क्रियाओं का एक व्यापक विहंगम चित्र है। यदि दीर्घकाल के दैनिक मौसमी नक्शों का परीक्षण किया जाए तो यह ज्ञात होता है कि उनमें प्रवाह के रूप दो प्रकार के होते हैं:
(1) अल्पजीवी शीघ्रगामी प्रतिचक्रवात (ऐंटिसाइक्लोन) तथा अवदाब (डिप्रेशन)। इस प्रकार के भँवर प्रारंभ होने के बाद एक दिन से लेकर एक मास तक के काल में समाप्त होते हैं और फिर नक्शों से बिल्कुल अदृश्य हो जाते हैं। ये गौण संचार नाम से प्रसिद्ध हैं।
(2) दीर्घजीवी तथा धीरे-धीरे चलनेवाले भँवर। ये भी प्रतिचक्रवर्ती अथवा चक्रवाती प्रकार के होते हैं, परंतु दीर्घ काल तक लगभग निश्चल रहते हैं। ये प्राथमिक संचार कहलाते हैं। चित्र 1 और 2 में जनवरी और जुलाई के महीनों में पृथ्वी पर औसत समुद्रस्तरीय दाबरेखाएँ दी गई हैं। यह स्पष्ट है कि दोनों चित्रों में दक्षिणी गोलार्ध की कुछ बातें एक जैसी हैं।
(क) दोनों महीनों में पृथ्वी के समस्त भूमध्यरेखीय प्रदेश में एक अपेक्षाकृत अल्प, किंतु अत्यंत एकसमान, दाब का अखंड कटिबंध है। जनवरी
मास में यह कटिबंध भूमध्यरेखा के कुछ उत्तर की ओर है, परंतु जुलाई मास में या तो ठीक उस रेखा पर है या थोड़ा दक्षिण की ओर। यह अल्प-दाब-कटिबंध प्रशांत तथा उष्ण मौसम का कटिबंध है जो समुद्र पर डोल्ड्रम के नाम से प्रसिद्ध है। इस पूरे कटिबंध को हम भूमध्यरेखीय अल्प-दाब-कटिबंध कह सकते हैं।
(ख) उपोष्ण (सब-ट्रॉपिकल) देशों में (लगभग 30° दक्षिण अक्षांश के निकट) एच चौड़ा अखंड अधिक दाब का कटिबंध जनवरी और जुलाई दोनों ही मासों में होता है, परंतु जनवरी मास में आस्ट्रेलिया तथा दक्षिण अफ्रीका के ऊपर यह छोटे छोटे अल्पदाब क्षेत्रों द्वारा थोड़ा विच्छिन्न हो जाता है। यह चौड़ा कटिबंध उपोष्णवलयिक अधिदाब कटिबंध कहलाता है जो दोनों गोलार्धो में सामान्य संचार का एक स्थायी स्वरूप है।
(ग) उपोष्णवलयिक अधिदाब कटिबंध के दक्षिण में वायुदाब दक्षिण की ओर बराबर गिरती जाती है और अंटार्कटिका महाद्वीप के ऊपर न्यूनतम हो जाती है।
उत्तरी गोलार्ध में निम्नलिखित तीन प्राथमिक दाबक्षेत्रों का परिचय मिलता है:
(1) भूमध्यरेखीय अल्पदाब कटिंबध, जो दोनों गोलार्धों में समान रूप से विद्यमान रहता है।
(2) उपोष्णवलयिक अधि-दाब-कटिबंध इस गोलार्ध में पूर्णतया भिन्न प्रकार का है। जनवरी मास में यह समुद्रों पर लगभग 25°-35° उत्तर में रहता है। परंतु महाद्वीपों के ऊपर ऊँचे अक्षांशों में इसका संबंध बहुत अधिक दाब की प्रणालियों से रहता है। ये दाबप्रणालियाँ लक्षण में एकदम भिन्न होती हैं और इसलिए उपोष्णवलयिक अधि-दाब-कटिबंध को समुद्रों तक ही सीमित समझना उचित है।
(3) जनवरी मास के नक्शे पर उपोत्तरध्रुवीय (सब-आर्कटिक) अल्पदाब-कटिबंध स्पष्टतया दिखाई देता है। इस कटिबंध में दो बड़े अल्पदाब क्षेत्र आइसलैंड तथा अलूशियन द्वीपों पर हैं, जो क्रमानुसार उत्तरतम अटलांटिक महासागर पर तथा उत्तरतम पैसिफिक महासागर पर विस्तृत हैं। इन दोनों क्षेत्रों के बीच में ध्रुव पर अपेक्षतया अधिक दाब का एक क्षेत्र है। ग्रीष्म ऋतु में ये अल्पदाब बहुत क्षीण होते हैं। अलूशियन क्षेत्र तो गायब हो जाता है। ध्रुवों पर वायुदाब अपेक्षाकृत अधिक रहती है। उपोष्णवलयिक अधिदाब कटिबंध तथा उपध्रुवीय अल्पदाब कटिबंध की अखंडता में विच्छिन्नता नवीन तथा अज्ञात तत्वों के कारण होती है जिनका दक्षिणी गोलार्ध में अभाव है।
गौण संचार गौण संचार चाहे प्रतिचक्रवाती हों या चक्रवाती, उनका लक्षण यह है कि एक या अधिक समदाब रेखाएँ अधिदाब केंद्रों या अल्पदाब केंद्रों को चारों ओर से घेरकर बंद कर देती हैं। इस प्रकार अधिदाब क्षेत्र तथा अल्पदाब क्षेत्र क्रमानुसार वायुमंडल के भार की अधिकता अथवा न्यूनता के स्थानीय क्षेत्र होते हैं। गौण संचार दो प्रकार के होते हैं: (1) प्रत्यक्षत: उष्मीय (थर्मली डाइरेक्ट) और (2) गतिक (डाइनैमिक) अथवा प्रणोदित (फ़ोर्स्ड)। प्रत्यक्षत: उष्मीय अधिदाब तथा अल्पदाब निचले वायुमंडल के किसी स्थानविशेष के ठंडा या गरम होने से निर्मित होते हैं। गतिक अधिदाब तथा अल्पदाब दोनों ही सामान्य संचार की वायुधाराओं की पारस्परिक यांत्रिक (मिकैनिकल) क्रियाओं के कारण निर्मित होते हैं। प्रत्यक्षत: उष्मीय गौण संचारों में पावस (मानसून) तथा उष्णवलयिक प्रभंजन (हरीकेन) संम्मिलित हैं।
पावससंचार मानसून शब्द ऋतुसूचक अरबी शब्द से निकला है और आरंभ में अरब समुद्र के उन पवनों के लिए इसका व्यवहार किया जाता था जो लगभग छह महीने उत्तर-पूर्व से और छह महीने दक्षिण-पश्चिम से चलती हैं। अब यह शब्द कुछ अन्य पवनों के लिए भी लागू हो गया है जो वर्ष की विभिन्न दिशाओं में प्रतिकूल दिशाओं से दीर्घकालिक तथा नियमित रूप से चलती हैं। इन पवनों के चलने का प्राथमिक कारण थल तथा समुद्री क्षेत्रों के तापों का ऋतुजनित अंतर है। ये पवन थलसमीर तथा जलसमीर के सदृश ही होते हैं परंतु इनकी अवधि एक दिन के बजाए एक वर्ष की होती है और ये सीमित क्षेत्रों के बजाए बहुत विस्तृत क्षेत्रों पर चलते हैं। मानसून को हिंदी में पावस कहते हैं।
भूमध्यरेखा के समीप ताप के ऋतुजनित परिवर्तन सामान्यत: पावस के विकास के लिए बहुत छोटे होते हैं। ऊँचे अक्षांशों में, जहाँ पछुवा पवन चलता है और ध्रुवीय प्रदेशों में, थल और समुद्र के ताप की विभिन्नता से बने वातघट (कविंड कॉम्पोनेंट) पृथ्वीव्यापी पवनसंचारों को केवल थोड़ा सा ही बदलने में समर्थ होते हैं। ऐसी परिस्थिति में पावस के विकास के लिए सबसे अधिक अनुकूल प्रदेश उष्णावलय के समीप मध्य अक्षांशों में होते हैं। स्थल की ओर चलनेवाले पवनों में विद्यमान आर्द्रता की मात्रा का तथा स्थल की रूपरेखा का पावसवर्षा पर अत्यंत प्रभाव पड़ता है। विभिन्न घटनाओं की उपर्युक्त संगति के कारण पावस का अधिकतम विकास पूर्व तथा दक्षिण एशिया पर होता है और इन प्रदेशों के बहुत से भागों में दक्षिण-पश्चिम से चलनेवाले ग्रीष्म ऋतु के वृष्टिमान पावसपवन जलवायु के महत्वपूर्ण अंग हैं। पावसपरिस्थिति उत्तर आस्ट्रेलिया में, पश्चिमी, दक्षिणी तथा पूर्वी अफ्रीका के भागों में और उत्तरी अफ्रीका तथा चिली के भागों में भी उत्पन्न होती है, परंतु बहुत कम मात्रा में।
भारत में पावस अचानक तथा नाटकीय रूप से आता है। इसकी उत्पत्ति दक्षिण भारतीय व्यापारिक पवनों से होती है। ये जून मास के आरंभ में भूमध्यरेखा के आरपार चलना आरंभ कर देते हैं और मुख्यत: रेखांश 80° पूर्व के तथा लगभग रेखांश 5° उत्तर पर भारत देश की ओर मुड़ जाते हैं। जून मास के मध्य में भारत के पश्चिमी किनारे पर पहुँचकर पावस दक्षिण प्रदेश को पार कर लेता है और फिर भारतवर्ष, बर्मा तथा बंगाल की खाड़ी के सब भागों में पहुँच जाता है। दक्षिण प्रदेश के दक्षिणी भागों के अतिरिक्त, जहाँ पश्चिमी घाटों की पहाड़ियों की आड़ के कारण ये पवन पहुँच नहीं पाते, मानसून काल में भारत के सब भागों में भारी वर्षा होती है। यह वर्षा लगभग पूर्णतया संवहनीय (कनवेक्टिव) होती है। इसकी प्रगति के लिए मुख्यत: भूतल की तपन तथा उसकी ऊँचाई से वाष्प का जल में रूपांतरित होना नियंत्रित होता है। भूमितल की उठान का प्रभाव पश्चिमी घाटों में, खासी की पहाड़ियों में, अराकान की चोटियों में तथा हिमालय पर्वत पर भली भाँति दिखाई पड़ता है। इन भागों में अत्यधिक वर्षा होती है। कभी कभी गंगाघाटी की द्रोणी में बहुत देर तक विस्तृत वर्षा होती रहती है। यह लगातार वर्षा प्राय: उन उथले अवदाबों के कारण होती है जो मुख्य पावसी अल्पदाब की ओर पश्चिम दिशा में मंद गति से चलती हैं। भारतीय पावस की शक्ति बहुत घटती बढ़ती रहती है। जब पावस तीव्र होता है तो भारत के अधिकतम भागों में वर्षा औसत से बहुत अधिक हो जाती है और जब पावस हल्का होता है तो वर्षा न्यून होती है। पावस का उत्तर की ओर बढ़ना हिमालय पहाड़ के कारण सीमित हो जाता है, परंतु पावस का प्रवाह बर्मा, थाइलैंड, इंडोचीन तथा दक्षिण चीन में बहुत प्रविच्छिन्न रहता है। इस प्रायद्वीप के अक्ष के निकट स्थित ऊँची पहाड़ियाँ (जो भारत-यूनन-वायुमार्ग पर कूबड़ के नाम से कुख्यात है) घने संवहन बादलों से ढकी रहती हैं और यहाँ बहुधा वर्षा होती रहती है।
पावस के आरंभकाल में वर्षा की मात्रा और बारंबारता में भारी उत्तार चढ़ाव होते रहते हैं जो भारतीय कृषक जीवन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। इसलिए इस देश में सांख्यिकीय दीर्घपरास ऋतु पूर्वानुमान (स्टैटिस्टिकल लॉङरेंज फ़ोरकास्टिंग) के विकास की ओर अधिक ध्यान दिया गया है और सांख्यिकीय रीतियों का भारतीय पावस के अल्पकालिक परिवर्तनों के संबंध में उपयोग किया जा रहा है। भारत में इस प्रकार से किए हुए ऋतु विषयक पूर्वानुमान हाल के वर्षो में पर्याप्त रूप से ठीक सिद्ध हुए हैं।
सन्दर्भ ग्रंथ आर.डब्ल्यू. लॉङली: मीटिओरॉलोजी, थ्योरटिकल ऐंड अप्लायड (1944);
एच.सी.विलेट: डेस्क्रिप्टिव मीटिओरॉलोजी (1944)
इन्हें भी देखें मौसम
जलवायु
मौसम का पूर्वानुमान
बाहरी कड़ियाँ (हिन्दी में)
(पुराना लिंक)
[ मौसम विज्ञान का विकास, आदिकाल से आधुनिक काल तक)
- Online course that introduces the basic concepts of meteorology and air quality necessary to understand meteorological computer models. Written at a bachelor's degree level.
- (Global Learning and Observations to Benefit the Environment) An international environmental science and education program that links students, teachers, and the scientific research community in an effort to learn more about the environment through student data collection and observation.
- From the American Meteorological Society, an excellent reference of nomenclature, equations, and concepts for the more advanced reader.
- National Weather Service
- Weather Tutorials and News at About.com
- The COMET Program
The University of Illinois at Urbana-Champaign
Plot and download archived data from thousands of worldwide weather stations
श्रेणी:मौसम विज्ञान | मौसम के अध्ययन को क्या कहा जाता है? | ऋतुविज्ञान या मौसम विज्ञान | 0 | hindi |
635025886 | ज़हिर उद-दिन मुहम्मद बाबर (14 फ़रवरी 1483 - 26 दिसम्बर 1530) जो बाबर के नाम से प्रसिद्ध हुआ, एक मुगल शासक था,बाबर एक लुटेरा,आतंकी था.जो भारत को लूटता था. जिनका मूल मध्य एशिया था। वह भारत में मुगल वंश का संस्थापक था। वो तैमूर लंग के परपोते था, और विश्वास रखते था कि चंगेज़ ख़ान उनके वंश के पूर्वज था। मुबईयान नामक पद्य शैली का जन्मदाता बाबर को ही माना जाता है। 1504 ई.काबुल तथा 1507 ई में कंधार को जीता था तथा बादशाह (शाहों का शाह) की उपाधि धारण की 1519 से 1526 ई. तक भारत पर उसने 5 बार आक्रमण किया तथा सफल हुआ 1526 में उसने पानीपत के मैदान में दिल्ली सल्तनत के अंतिम सुल्तान इब्राहिम लोदी को हराकर मुगल वंश की नींव रखी उसने 1527 में खानवा 1528 मैं चंदेरी तथा 1529 में आगरा की लड़कियों को जीतकर अपने राज्य को सफल बना दिया 1530 ई० में उसकी मृत्यु हो गई
आरंभिक जीवन बाबर का जन्म फ़रगना घाटी के अन्दीझ़ान नामक शहर में हुआ था जो अब उज्बेकिस्तान में है। वो अपने पिता उमर शेख़ मिर्ज़ा, जो फरगना घाटी के शासक थे तथा जिसको उसने एक ठिगने कद के तगड़े जिस्म, मांसल चेहरे तथा गोल दाढ़ी वाले व्यक्ति के रूप में वर्णित किया है, तथा माता कुतलुग निगार खानम का ज्येष्ठ पुत्र था। हालाँकि बाबर का मूल मंगोलिया के बर्लास कबीले से सम्बन्धित था पर उस कबीले के लोगों पर फारसी तथा तुर्क जनजीवन का बहुत असर रहा था, वे इस्लाम में परिवर्तित हुए तथा उन्होने तुर्केस्तान को अपना वासस्थान बनाया। बाबर की मातृभाषा चग़ताई भाषा थी पर फ़ारसी, जो उस समय उस स्थान की आम बोलचाल की भाषा थी, में भी वो प्रवीण था। उसने चगताई में बाबरनामा के नाम से अपनी जीवनी लिखी।
मंगोल जाति (जिसे फ़ारसी में मुगल कहते थे) का होने के बावजूद उसकी जनता और अनुचर तुर्क तथा फ़ारसी लोग थे। उसकी सेना में तुर्क, फारसी, पश्तो के अलावा बर्लास तथा मध्य एशियाई कबीले के लोग भी थे। कहा जाता है कि बाबर बहुत ही तगड़ा और शक्तिशाली था। ऐसा भी कहा जाता है कि सिर्फ़ व्यायाम के लिए वो दो लोगों को अपने दोनो कंधों पर लादकर उन्नयन ढाल पर दौड़ लेता था। लोककथाओं के अनुसार बाबर अपने राह में आने वाली सभी नदियों को तैर कर पार करता था। उसने गंगा को दो बार तैर कर पार किया।[1]
नाम बाबर के चचेरे भाई मिर्ज़ा मुहम्मद हैदर ने लिखा है कि उस समय, जब चागताई लोग असभ्य तथा असंस्कृत थे तब उन्हे ज़हिर उद-दिन मुहम्मद का उच्चारण कठिन लगा। इस कारण उन्होंने इसका नाम बाबर रख दिया।
बाबर मुग़ल काल का क्रूर शाशक था,जिसने हिन्दुतान पर आक्रमण किया तथा हिन्दुस्तान की परम्परा को छति पहुंचाई
सैन्य जीवन सन् 1494 में 12वर्ष की आयु में ही उसे फ़रगना घाटी के शासक का पद सौंपा गया। उसके चाचाओं ने इस स्थिति का फ़ायदा उठाया और बाबर को गद्दी से हटा दिया। कई सालों तक उसने निर्वासन में जीवन बिताया जब उसके साथ कुछ किसान और उसके सम्बंधी ही थे। 1496 में उसने उज़्बेक शहर समरकंद पर आक्रमण किया और 7 महीनों के बाद उसे जीत भी लिया। इसी बीच, जब वह समरकंद पर आक्रमण कर रहा था तब, उसके एक सैनिक सरगना ने फ़रगना पर अपना अधिपत्य जमा लिया। जब बाबर इसपर वापस अधिकार करने फ़रगना आ रहा था तो उसकी सेना ने समरकंद में उसका साथ छोड़ दिया जिसके फलस्वरूप समरकंद और फ़रगना दोनों उसके हाथों से चले गए। सन् 1501 में उसने समरकंद पर पुनः अधिकार कर लिया पर जल्द ही उसे उज़्बेक ख़ान मुहम्मद शायबानी ने हरा दिया और इस तरह समरकंद, जो उसके जीवन की एक बड़ी ख्वाहिश थी, उसके हाथों से फिर वापस निकल गया।
फरगना से अपने चन्द वफ़ादार सैनिकों के साथ भागने के बाद अगले तीन सालों तक उसने अपनी सेना बनाने पर ध्यान केन्द्रित किया। इस क्रम में उसने बड़ी मात्रा में बदख़्शान प्रांत के ताज़िकों को अपनी सेना में भर्ती किया। सन् 1504 में हिन्दूकुश की बर्फ़ीली चोटियों को पार करके उसने काबुल पर अपना नियंत्रण स्थापित किया। नए साम्राज्य के मिलने से उसने अपनी किस्मत के सितारे खुलने के सपने देखे। कुछ दिनों के बाद उसने हेरात के एक तैमूरवंशी हुसैन बैकरह, जो कि उसका दूर का रिश्तेदार भी था, के साथ मुहम्मद शायबानी के विरुद्ध सहयोग की संधि की। पर 1506 में हुसैन की मृत्यु के कारण ऐसा नहीं हो पाया और उसने हेरात पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। पर दो महीनों के भीतर ही, साधनों के अभाव में उसे हेरात छोड़ना पड़ा। अपनी जीवनी में उसने हेरात को "बुद्धिजीवियों से भरे शहर" के रूप में वर्णित किया है। वहाँ पर उसे युईगूर कवि मीर अली शाह नवाई की रचनाओं के बारे में पता चला जो चागताई भाषा को साहित्य की भाषा बनाने के पक्ष में थे। शायद बाबर को अपनी जीवनी चागताई भाषा में लिखने की प्रेरणा उन्हीं से मिली होगी।
काबुल लौटने के दो साल के भीतर ही एक और सरगना ने उसके ख़िलाफ़ विद्रोह किया और उसे काबुल से भागना पड़ा। जल्द ही उसने काबुल पर पुनः अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। इधर सन् 1510 में फ़ारस के शाह इस्माईल प्रथम, जो सफ़ीवी वंश का शासक था, ने मुहम्मद शायबानी को हराकर उसकी हत्या कर डाली। इस स्थिति को देखकर बाबर ने हेरात पर पुनः नियंत्रण स्थापित किया। इसके बाद उसने शाह इस्माईल प्रथम के साथ मध्य एशिया पर मिलकर अधिपत्य जमाने के लिए एक समझौता किया। शाह इस्माईल की मदद के बदले में उमने साफ़वियों की श्रेष्ठता स्वीकार की तथा खुद एवं अपने अनुयायियों को साफ़वियों की प्रभुता के अधीन समझा। इसके उत्तर में शाह इस्माईल ने बाबर को उसकी बहन ख़ानज़दा से मिलाया जिसे शायबानी, जिसे शाह इस्माईल ने हाल ही में हरा कर मार डाला था, ने कैद में रख़ा हुआ था और उससे विवाह करने की बलात कोशिश कर रहा था। शाह ने बाबर को ऐश-ओ-आराम तथा सैन्य हितों के लिये पूरी सहायता दी जिसका ज़बाब बाबर ने अपने को शिया परम्परा में ढाल कर दिया। उसने शिया मुसलमानों के अनुरूप वस्त्र पहनना आरंभ किया। शाह इस्माईल के शासन काल में फ़ारस शिया मुसलमानों का गढ़ बन गया और वो अपने आप को सातवें शिया इमाम मूसा अल क़ाज़िम का वंशज मानता था। वहाँ सिक्के शाह के नाम में ढलते थे तथा मस्ज़िद में खुतबे शाह के नाम से पढ़े जाते थे हालाँकि क़ाबुल में सिक्के और खुतबे बाबर के नाम से ही थे। बाबर समरकंद का शासन शाह इस्माईल के सहयोगी की हैसियत से चलाता था।
शाह की मदद से बाबर ने बुखारा पर चढ़ाई की। वहाँ पर बाबर, एक तैमूरवंशी होने के कारण, लोगों की नज़र में उज़्बेकों से मुक्तिदाता के रूप में देखा गया और गाँव के गाँव उसको बधाई देने के लिए खाली हो गए। इसके बाद फारस के शाह की मदद को अनावश्यक समझकर उसने शाह की सहायता लेनी बंद कर दी। अक्टूबर 1511 में उसने समरकंद पर चढ़ाई की और एक बार फिर उसे अपने अधीन कर लिया। वहाँ भी उसका स्वागत हुआ और एक बार फिर गाँव के गाँव उसको बधाई देने के लिए खाली हो गए। वहाँ सुन्नी मुलसमानों के बीच वह शिया वस्त्रों में एकदम अलग लग रहा था। हालाँकि उसका शिया हुलिया सिर्फ़ शाह इस्माईल के प्रति साम्यता को दर्शाने के लिए थी, उसने अपना शिया स्वरूप बनाए रखा। यद्यपि उसने फारस के शाह को खुश करने हेतु सुन्नियों का नरसंहार नहीं किया पर उसने शिया के प्रति आस्था भी नहीं छोड़ी जिसके कारण जनता में उसके प्रति भारी अनास्था की भावना फैल गई। इसके फलस्वरूप, 8 महीनों के बाद, उज्बेकों ने समरकंद पर फिर से अधिकार कर लिया।
उत्तर भारत पर चढ़ाई दिल्ली सल्तनत पर ख़िलज़ी राजवंश के पतन के बाद अराजकता की स्थिति बनी हुई थी। तैमूरलंग के आक्रमण के बाद सैय्यदों ने स्थिति का फ़ायदा उठाकर दिल्ली की सत्ता पर अधिपत्य कायम कर लिया। तैमुर लंग के द्वारा पंजाब का शासक बनाए जाने के बाद खिज्र खान ने इस वंश की स्थापना की थी। बाद में लोदी राजवंश के अफ़ग़ानों ने सैय्यदों को हरा कर सत्ता हथिया ली थी। इब्राहिम लोदी बाबर को लगता था कि दिल्ली की सल्तनत पर फिर से तैमूरवंशियों का शासन होना चाहिए। एक तैमूरवंशी होने के कारण वो दिल्ली सल्तनत पर कब्ज़ा करना चाहता था। उसने सुल्तान इब्राहिम लोदी को अपनी इच्छा से अवगत कराया (स्पष्टीकरण चाहिए)। इब्राहिम लोदी के जबाब नहीं आने पर उसने छोटे-छोटे आक्रमण करने आरंभ कर दिए। सबसे पहले उसने कंधार पर कब्ज़ा किया। इधर शाह इस्माईल को तुर्कों के हाथों भारी हार का सामना करना पड़ा। इस युद्ध के बाद शाह इस्माईल तथा बाबर, दोनों ने बारूदी हथियारों की सैन्य महत्ता समझते हुए इसका उपयोग अपनी सेना में आरंभ किया। इसके बाद उसने इब्राहिम लोदी पर आक्रमण किया। पानीपत में लड़ी गई इस लड़ाई को पानीपत का प्रथम युद्ध के नाम से जानते हैं। यह युद्ध बाबरनामा के अनुसार 21 अप्रैल 1526 को लड़ा गया था। इसमें बाबर की सेना इब्राहिम लोदी की सेना के सामने बहुत छोटी थी। पर सेना में संगठन के अभाव में इब्राहिम लोदी यह युद्ध बाबर से हार गया। इसके बाद दिल्ली की सत्ता पर बाबर का अधिकार हो गया और उसने सन १५२६ में मुगलवंश की नींव डाली।
राजपूत राणा सांगा के नेतृत्व में राजपूत काफी संगठित तथा शक्तिशाली हो चुके थे। राजपूतों ने एक बड़ा-सा क्षेत्र स्वतंत्र कर लिया था और वे दिल्ली की सत्ता पर काबिज़ होना चाहते थे। बाबर की सेना राजपूतों की आधी भी नहीं थी। 17 मार्च 1527 में खानवा की लड़ाई राजपूतों तथा बाबर की सेना के बीच लड़ी गई। राजपूतों का जीतना निश्चित लग रहा था। पर युद्ध के दौरान ने राणा सांगा का साथ छोड़ दिया और बाबर से जा मिले। इसके बाद राणा सांगा घायल अवस्था मे उनके साथियो ने युद्ध से बाहर कर दिया और एक आसान-सी लग रही जीत उसके हाथों से निकल गई। इसके एक साल के बाद किसी मंत्री द्वारा ज़हर खिलाने कारण राणा सांगा की 30 जनवरी 1528 को मौत हो गई और बाबर का सबसे बड़ा डर उसके माथे से टल गया। इसके बाद बाबर दिल्ली की गद्दी का अविवादित अधिकारी बन गया। आने वाले दिनों में मुगल वंश ने भारत की सत्ता पर 300 सालों तक राज किया।
बाबर के द्वारा मुगलवंश की नींव रखने के बाद मुगलों ने भारतीय संस्कृति को समाप्त करने की कोशिश की खानवा का युद्ध 17 मार्च 1527 में मेवाड़ के शासक राणा सांगा और बाबर के मध्य हुआ था। इस में इब्राहिम लोदी के भाई मेहमूद लोदी ने राणा का साथ दिया दिया था इसमें राणा सांगा की हार हुई थी और बाबर की विजय हुई थी। यही से बाबर ने भारत में रहने का निश्चय किया इस युद्ध में हीं प्रथम बार बाबर ने धर्म युद्ध जेहाद का नारा दिया इसी युद्ध के बाद बाबर ने गाजी अर्थात दानी की उपाधि ली थी। ।
चंदेरी पर आक्रमण मेवाड़ विजय के पश्चात बाबर ने अपने सैनिक अधिकारियों को पूर्व में विद्रोहियों का दमन करने के लिए भेजा क्योंकि पूरब में बंगाल के शासक नुसरत शाह ने अफ़गानों का स्वागत किया था और समर्थन भी प्रदान किया था इससे उत्साहित होकर अपनों ने अनेक स्थानों से मुगलों को निकाल दिया था बाबर को भरोसा था कि उसका अधिकारी अफगान विद्रोहियों का दमन करेंगे अतः उसने चंदेरी पर आक्रमण करने का निश्चित कर लिया चंदेरी का राजपूत शासक मेदनी राय हवा में राणा सांगा की ओर से लड़ा था और अब चंदेरी मैं राजपूत सत्य का पुनर्गठन हो रहा था चंदेरी पर आक्रमण करने के निश्चय से ज्ञात होता है कि बाबर की दृष्टि में राजपूत संगठन गानों की अपेक्षा अधिक गंभीर था अतः वह राजपूत शक्ति को नष्ट करना अधिक आवश्यक समझता था चंदेरी का व्यापारिक तथा सैनिक महत्व था वह मालवा तथा राजपूताने में प्रवेश करने के लिए उपयुक्त स्थान था बाबर ने सेना चंदेरी पर आक्रमण करने के लिए भेजी थी उसे राजपूतों ने पराजित कर दिया इससे बाबा ने स्वयं चंदेरी जाने का निश्चय किया क्योंकि यह संभव है कि चंदेरी राजपूत शक्ति का केंद्र ना बन जाए है कि उनके अनुसार हुआ चंदेरी के विरुद्ध लड़ने के लिए 21 जनवरी 1528 को भी घोषित किया क्योंकि इस घोषणा से उसे चंदेरी की मुस्लिम जनता का जो बड़ी संख्या में से समर्थन प्राप्त होने की आशा थी और जिहाद के द्वारा राजपूतों तथा इन मुस्लिमों का सहयोग रोका जा सकता था उसने मेदनी राय के पास संदेश भेजा कि वह शांति पूर्ण रूप से चंदेरी का समर्पण कर दे तो उसे शमशाबाद की जागीर दी जा सकती है मेदनी राय नया प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया राजपूत स्त्रियों ने जौहर किया और राजपूतों ने भयंकर युद्ध किया लेकिन बाबर के अनुसार उसने तो खाने की मदद से एक ही घंटे मेंचंदेरी पर अधिकार कर लिया उसने चंदेरी का राज्य मालवा सुल्तान के वंशज अहमद शाह को दे दिया और उसे आदेश दिया कि वह 20 लाख दाम प्रति वर्ष शाही कोष में जमा करें
घाघरा का युद्ध
बीच में महमूद का लोधी बिहार बहुत गया और उसके नेतृत्व में एक लाख बार सैनिक एकत्रित हो गए इसके बाद अखबारों ने पूर्वी क्षेत्रों पर आक्रमण कर दिया महमूद का लोधी चुनार तक आया ऐसी स्थिति में बाबर ने उनसे युद्ध करने के साथ जनवरी 1529 ईस्वी में आगरा से प्रस्थान किया अनेक अफगान सरदारों ने उनकी आधा स्वीकार कर ली लेकिन मुख्य अफगान सेना जैसे बंगाल के शासक नुसरत शाह का समर्थन प्राप्त था गंडक नदी के पूर्वी तट पर थी बाबर ने गंगा नदी पार करके घाघरा नदी के पास आफ गानों से घमासान युद्ध करके उन्हें पराजित किया बाबर ने नुसरत सा से संधि की जिसके अनुसार अनुसार शाह ने अफगान विद्रोहियों को शरण ना देने का वचन दिया बाबर ने अफगान जलाल खान को अपने अधीन था मैं बिहार का शासक स्वीकार कर लिया और उसे आदेश दिया कि वह शेर खा को अपना मंत्री रखें
बाबर ने भारतीय संस्कृति को समाप्त करने की पूर्ण कोशिश की थी. बाबर एक लूटेरा था. जिसने भारत के धर्म,संस्कृति पर आक्रमण किया
अन्तिम दिन कहा जाता है कि अपने पुत्र हुमायुं के बीमार पड़ने पर उसने अल्लाह से हुमायुँ को स्वस्थ्य करने तथा उसकी बीमारी खुद को दिये जाने की प्रार्थना की थी। इसके बाद बाबर का स्वास्थ्य बिगड़ गया और अंततः वो 1530 में 48 वर्ष की उम्र में मर गया। उसकी इच्छा थी कि उसे काबुल में दफ़नाया जाए पर पहले उसे आगरा में दफ़नाया गया। लगभग नौ वर्षों के बाद हुमायू ने उसकी इच्छा पूरी की और उसे काबुल में दफ़ना दिया।[2][3]
मुग़ल सम्राटों का कालक्रम इन्हें भी देखें मुग़ल राजवंश
फ़रग़ना घाटी
तैमूरी राजवंश
हुमायुं
सन्दर्भ श्रेणी:बाबर (मुग़ल सम्राट)
श्रेणी:मुग़ल साम्राज्य
श्रेणी:इतिहास
श्रेणी:भारत का इतिहास
श्रेणी:1483 में जन्मे लोग
श्रेणी:१५३० मृत्यु
श्रेणी:मुगल बादशाह | बाबर की मातृभाषा क्या थी? | चग़ताई | 1,282 | hindi |
3ba572984 | टेनिस खेल 2 टीमों के बीच गेंद से खेले जाने वाला एक खेल है जिसमें कुल 2 खिलाडी (एकल मुकाबला) या ४ खिलाड़ी (युगल) होते हैं। टेनिस के बल्ले को टेनिस रैकट और मैदान को टेनिस कोर्ट कहते है। खिलाडी तारो से बुने हुए टेनिस रैकट के द्वारा टेनिस गेंद जोकि रबर की बनी, खोखली और गोल होती है एवम जिस के ऊपर महीन रोए होते है को जाल के ऊपर से विरोधी के कोर्ट में फेकते है।
टेनिस की शुरूआत फ्रांस में मध्य काल में हुई मानी जाती है। उस समय यह खेल इन-डोर यानि छत के नीचे हुआ करता था। इंगलैड में 19वीं शताब्दी के अंतिम वर्षो में लान टेनिस, यानि छत से बाहर उद्यान में खेले जाने वाले का जन्म हुआ और बाद में सारे विश्व में लोकप्रिय हुआ। आज यह खेल ओलम्पिक में शामिल है और विश्व के सभी प्रमुख देशों के करोड़ों लोगो में काफी लोकप्रिय है। टेनिस की विश्व स्तर पर चार प्रमुख स्पर्धाए होती है जिन्हे ग्रेन्ड स्लेम कहा जाता है - हर साल जनवरी में ऑस्ट्रेलिया की ऑस्ट्रेलियन ओपन, मई में फ़्रांस की फ़्रेन्च ओपन और उसके दो हफ़्तों के बाद लंदन की विम्बलडन, सितम्बर में अमेरिका में होने वाली स्पर्धा को अमेरिकन ओपन (संक्षेप में यूएस ओपन) कहा जाता है। विम्बलडन एक घास के कोर्ट पर खेला जाता है। फ्रेंच ओपन मिट्टी के आंगन (क्ले कोर्ट) पर खेला जाता है। यूएस ओपन और ऑस्ट्रेलियन ओपन के मिश्रित कोर्ट
इतिहास
पूर्ववर्तियाँ
इतिहासकार टेनिस खेल का मूल 12 वीं शताब्दी के उत्तरी फ्रांस में मानते है, जहां एक खेल गेंद को हाथ की हथेली के साथ मार कर खेला जाता था।[1] उस समय खेल को "जिउ दी पौमे" (हथेली का खेल) कहा जाता था। रैकेट 16 वीं सदी में प्रयोग में आया और खेल को "टेनिस" कहा जाने लगा, पुरानी फ्रांसीसी शब्द टेनेज़ से, जो "पकड़", "ले" के रूप में अनूदित किया जा सकता है।[2] यह इंग्लैंड और फ्रांस में लोकप्रिय था, हालांकि खेल केवल घर के अंदर खेला जाता था जहाँ गेंद दीवार से मारी जा सकती थी। इंग्लैंड के हेनरी अष्टम इस खेल के एक बड़े प्रशंसक थे, जो अब असली टेनिस (रियल टेनिस) के रूप में जाना जाता है।[3]
उपकरण
रैकेट
एक टेनिस रैकेट के घटक एक हैंडल शामिल हैं, जो पकड़ के रूप में जाना जाता है, गर्दन से जुड़ा हुआ जो कि मोटे तौर पर एक अण्डाकार फ्रेम में मिलती है जो कसकर खींचा तार का एक मैट्रिक्स होता है। आधुनिक खेल के पहले 100 वर्षों के लिए, रैकेट, लकड़ी के और मानक आकार के थे और तार पशु आंत के थे। पर्ती लकड़ी से 20 वीं सदी में बनने शुरु हुए, फिर धातु से और फिर कार्बन ग्रेफाइट की कंपोजिट से, जबतक चीनी मिट्टी और टाइटेनियम जैसी हल्की धातुओं से बनने शुरु हुए।
टेनिस के आधुनिक नियमों के तहत रैकेट को निम्नलिखित दिशा निर्देशों का पालन करना होगा;[4]
तार से बना मारने का क्षेत्र, फ्लैट और आम तौर पर एक समान होना चाहिए।
मारने के क्षेत्र के फ्रेम की लंबाई अधिक से अधिक 29 इंच और चौड़ाई 12.5 इंच होनी चाहिए।
पूरे रैकेट को एक निश्चित आकृती, आकार, वजन, और वजन वितरण का होना चाहिए। रैकेट में कोई भी ऊर्जा स्रोत निर्मित नहीं हो सकता है।
रैकेट से मैच के दौरान खिलाड़ी को किसी भी प्रकार का संचार, शिक्षा या सलाह प्रदान नहीं करना चाहिए।
गेंद
टेनिस की गेंदों ने धागे के साथ कपड़े सिल कर बनाए जाने से एक लंबा सफर तय किया है। टेनिस की गेंदें महसूस करने लायक कोटिंग के साथ खोखले रबर के बने होते हैं। परंपरागत रूप से सफेद, दृश्यता सुधार के लिए प्रमुख रंग धीरे धीरे 20 वीं सदी के उत्तरार्द्ध में हल्का पीला कर दिया गया था। विनियमन खेलने की मंजूरी के लिए टेनिस की गेंदें को आकार, वजन, विरूपण, और उछाल के लिए कुछ मानदंडों का पालन करना चाहिए। अंतर्राष्ट्रीय टेनिस महासंघ (आईटीएफ) ने 65.41-68.58 मिमी (2.575-2.700 इंच) को सरकारी व्यास के रूप में परिभाषित किया है। गेंदें 56.0 और 59.4 ग्राम (1.975-2.095 औंस) के बीच होनी चाहिए।
प्रमुख प्रतियोगीताए टेनिस की 4 प्रमुख वार्षिक प्रतियोगिताओं को ग्रैंड स्लैम कहते है।
आस्ट्रेलियाई ओपन
फ्रेंच ओपन
विबंलडन
यूएस ओपन
साल भर और भी कई स्पर्धाएं खेली जाती हैं जिनमें ग्रैंड स्लेम के मुकाबले कम प्रतियोगी और पुरस्कार राशि भी कम होती है। अन्य कुछ प्रतियोगिताएं हैं
रोम
मैड्रिड
मयामी
चेन्नई
दोहा
खेल के नियम खेल मुख्यतः गेंद को विरोधी सतह पर एक टप्पा खिलाने के उद्देश्य से खेला जाता है। अगर विरोधी उसको वापस मारने (यानि प्रतिद्वंदी के भाग में, जाल के उस पार) में असफल होता है जो अंक गंवा बैठता है।
एक बार इस तरह १५ अंक (प्वाइंट) मिलते हैं। ४० से अधिक अंक मिलने पर एक गेम जीता जाता है और ६ से अधिक गेम जीतने पर एक सेट। दो (ठोटी प्रतियोगिताओं में) या तीन सेट पहले जीतने वाले को मैच विजेता मानते हैं।
प्रमुख पुरूष खिलाडी़ वर्तमान रॉजर फ़ेडरर
रफ़ाएल नडाल
नोवाक जोकोविच
लिएडंर पेस
महेश भूपति
पूर्व आंद्रे अागसी
बोरिस बेकर
जॉन मेकनरॉ
पीट संप्रास
जिमी कॉनर्स
एशले कूपर्स
मारत साफ़िन
इवान लेंडल
रॉड लेवर
कार्लोस मोया
ऑर्थर ऐश
ब्योर्न बोर्ग
प्रमुख महिला खिलाडी़ जस्टिन हेनिन हडेन
मारिया शारापोवा
एमेली मरस्मो
स्वेतलाना कुत्जेनेत्सेवा
नाडिया पेट्रोवा
किम क्लिस्टर्स
मार्टीना हिंगिस
एलीना डिमिन्टीवा
सानिया मिर्ज़ा
सेरेना विलियम्स
सन्दर्भ
श्रेणी:टेनिस
श्रेणी:खेल
श्रेणी:रैकेट वाले खेल | टेनिस की शुरुआत कहाँ हुई? | फ्रांस | 373 | hindi |
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खिलौना १९७० में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। इस फ़िल्म के निर्देशक हैं चंदर वोहरा। इस फ़िल्म को फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कारों में छः श्रेणियों में नामांकित किया गया था और इसने दो श्रेणियों में पुरस्कार जीते।
संक्षेप ठाकुर सूरज सिंह एक अमीर आदमी हैं। उनके परिवार में उनकी पत्नी (दुर्गा खोटे) हैं और तीन लड़के हैं, किशोर (रमेश देओ), विजयकमल (संजीव कुमार) और मोहन (जितेन्द्र) और एक अविवाहित बेटी राधा है। किशोर की पत्नी लक्ष्मी और दो बच्चे पप्पू और लाली हैं। किशोर परिवार का कारोबार देखता है, विजयकमल एक प्रसिद्ध कवि है और मोहन शहर में शिक्षा ग्रहण कर रहा है। विजयकमल सपना नाम की लड़की से प्यार करता है लेकिन उनका पड़ोसी बिहारी (शत्रुघन सिन्हा) अपने पैसों के दम पर उससे ज़बरदस्ती शादी कर लेता है और शादी की महफ़िल में ही सपना आत्महत्या कर लेती है। विजयकमल यह सब देखकर पागल हो जाता है।
ठाकुर की पत्नी को विजयकमल को पागलखाने भेजना गवारा नहीं है, इसलिए उसे घर की छत पर एक कमरे में बन्द रखा जाता है। डाक्टरों के यह कहने पर कि अगर उसकी शादी करा दी जाय तो शायद उसकी याददाश्त वापिस आ सकती है, ठाकुर हीराबाई नाम की तवायफ़ के कोठे में जाकर हीराबाई की लड़की चांद (मुमताज़) से अपने बेटे के साथ झूठी शादी रचाने की मिन्नत करता है और बदले में हज़ार रुपये महीना देने की पेशकश करता है। चांद मान जाती है और ठाकुर के घर आकर विजयकमल की देखभाल करने लगती है। विजयकमल की हालत धीरे धीरे सुधरने लगती है लेकिन इस बीच विजयकमल के द्वारा चांद का बलात्कार होता है, बिहारी भी चांद से ज़बरदस्ती करने की कोशिश करता है और मोहन चांद को अपना बनाने के ख़्वाब संजोने लगता है। चांद गर्भवती हो जाती है। इसी बीच यह बात भी उजागर होती है कि चांद हीराबाई की नहीं बल्कि एक सामाजिक कार्यकर्ता (नारी सभा के प्रैसिडैन्ट) की बेटी है लेकिन यह बात हीराबाई, सामाजिक कार्यकर्ता और चांद (जो छुपकर सारी बात सुनती है) के अलावा किसी को मालूम नहीं है। एक हादसे में विजयकमल के साथ हाथापायी के दौरान बिहारी छत से गिर कर मर जाता है और विजयकमल की याद्दाश्त वापिस लौट आती है लेकिन अब वो चाँद को पहचानता तक नहीं है। ठाकुर के परिवारवाले अब चाँद से चले जाने को कहते हैं और जब चाँद उनको यह बताती है कि वह विजयकमल के बच्चे की माँ बनने वाली है तो उसे बहुत दुत्कारते हैं। फ़िल्म के अन्त में मोहन आकर सारा मसला सुलझा लेता है और चाँद को ठाकुर के घर में अपना लिया जाता है।
चरित्र मुख्य कलाकार संजीव कुमार - विजयकमल एस सिंह
मुमताज़ - चाँद
जितेन्द्र - मोहन एस सिंह
शत्रुघन सिन्हा - बिहारी
दुर्गा खोटे - ठकुराइन सूरज सिंह
बिपिन गुप्ता - सूरज सिंह
जगदीप - महेश
दल संगीत इस फ़िल्म के गीत लिखे हैं आनन्द बख़्शी ने और संगीत दिया है लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने।
रोचक तथ्य परिणाम बौक्स ऑफिस यह फ़िल्म बॉक्स ऑफ़िस में हिट थी।
समीक्षाएँ नामांकन और पुरस्कार १८वें फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार में इस फ़िल्म को छ: श्रेणियों में नामांकित किया गया था जो कि इस प्रकार है:-
फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म पुरस्कार
फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार - संजीव कुमार
फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री पुरस्कार - मुमताज़
फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ हास्य अभिनेता पुरस्कार - जगदीप
फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ कथा पुरस्कार - गुलशन नन्दा
फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायक पुरस्कार - मोहम्मद रफ़ी
इनमें से इस फ़िल्म ने सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म तथा सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के पुरस्कार जीते।
बाहरी कड़ियाँ at IMDb
श्रेणी:1970 में बनी हिन्दी फ़िल्म
श्रेणी:फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म पुरस्कार विजेता | खिलौना हिंदी फिल्म के निदेशक कौन थे? | चंदर वोहरा | 81 | hindi |
04d1fce46 | जापान के प्राचीन इतिहास के संबंध में कोई निश्चयात्मक जानकारी नहीं प्राप्त है। जापानी लोककथाओं के अनुसार विश्व के निर्माता ने सूर्य देवी तथा चन्द्र देवी को भी रचा। फिर उसका पोता क्यूशू द्वीप पर आया और बाद में उनकी संतान होंशू द्वीप पर फैल गए। हँलांकि यह लोककथा है पर इसमें कुछ सच्चाई भी नजर आती है। पौराणिक मतानुसार जिम्मू नामक एक सम्राट् ९६० ई. पू. राज्यसिंहासन पर बैठा और वहीं से जापान की व्यवस्थित कहानी आरंभ हुई। अनुमानत: तीसरी या चौथी शताब्दी में 'ययातों' नामक जाति ने दक्षिणी जापान में अपना आधिपत्य स्थापित किया ५ वीं शताब्दी में चीन और कोरिया से संपर्क बढ़ने पर चीनी लिपि, चिकित्साविज्ञान और बौद्धधर्म जापान को प्राप्त हुए। जापानी नेताओं शासननीति चीन से सीखी किंतु सत्ता का हस्तांतरण परिवारों तक ही सीमित रहा। ८वीं शताब्दी में कुछ काल तक राजधानी नारा में रखने के बाद क्योटो में स्थापित की गई जो १८६८ तक रही।
'मिनामोतो' जाति के एक नेता योरितोमें ने ११९२ में कामाकुरा में सैनिक शासन स्थापित किया। इससे सामंतशाही का उदय हुआ, जो लगभग ६०० वर्ष चली। इसमें शासन सैनिक शक्ति के हाथ रहता था, राजा नाममात्र का ही होता था।
१२७४ और १२८१ में मंगोल आक्रमणों से जापान के तात्कालिक संगठन को धक्का लगा, इससे धीरे धीरे गृहयुद्ध पनपा। १५४३ में कुछ पुर्तगाली और उसके बाद स्पेनिश व्यापारी जापान पहुँचे। इसी समय सेंट फ्रांसिस जैवियर ने यहॉ ईसाई धर्म का प्रचार आरंभ किया।
१५९० तक हिदेयोशी तोयोतोमी के नेतृत्व में जापान में शांति और एकता स्थापित हुई। १६०३ में तोगुकावा वंश का आधिपत्य आरंभ हुआ, जो १८६८ तक स्थापित रहा। इस वंश ने अपनी राजधानी इदो (वर्तमान टोक्यो) में बनाई, बाह्य संसार से संबंध बढ़ाए और ईसाई धर्म की मान्यता समाप्त कर दी। १६३९ तक चीनी और डच व्यापारियों की संख्या जापान में अत्यंत कम हो गई। अगले २५० वर्षो तक वहाँ आंतरिक सुव्यवस्था रही। गृह उद्योगों में उन्नति हुई।
१८८५ में अमरीका के कमोडोर मैथ्यू पेरो के आगमन से जापान बाह्य देशों यथा अमेरिका, रूस, ब्रिटेन और नीदरलैंडस की शांतिसंधि में समिलित हुआ। लगभग १० वर्षो के बाद दक्षिणी जातियों ने सफल विद्रोह करके सम्राटतंत्र स्थापित किया, १८६८ में सम्राट मीजी ने अपनी संप्रभुता स्थापित की।
१८९४-९५ में कोरिया के प्रश्न पर चीन से और १९०४-५ में रूस द्वारा मंचूरिया और कोरिया में हस्तक्षेप किए जाने से रूस के विरुद्ध जापान को युद्ध करना पड़ा। दोनों युद्धों में जापान के अधिकार में आ गए। मंचूरिया और कोरिया में उसका प्रभाव भी बढ़ गया।
प्रथम विश्वयुद्ध में सम्राट् ताइशो ने बहुत सीमित रूप से भाग लिया। इसके बाद जापान की अर्थव्यवस्था द्रुतगति से परिवर्तित हुई। उद्योगीकरण का विस्तार किया गया।
१९३६ तक देश की राजनीति सैनिक अधिकारियों के हाथ में आ गई और दलगत सत्ता का अस्तित्व समाप्त हो गया। जापान राष्ट्रसंघ से पृथक् हो गया। जर्मनी और इटली से संधि करके उसने चीन पर आक्रमण शुरू कर दिया। १९४१ में जापान ने रूस से शांतिसंधि की। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अगस्त, १९४५ में जापान ने मित्र राष्ट्रो के सामने विना शर्त आत्मसमर्पण किया। इस घटना से सम्राट जो अब तक राजनीति में महत्वहीन थे, पुन: सक्रिय हुए। मित्र राष्ट्रों के सर्वोच्च सैनिक कमांडर डगलस मैकआर्थर के निर्देश में जापान में अनेक सुधार हुए। संसदीय सरकार का गठन, भूमिसुधार, ओर स्थानीय स्वायत्त शासन निकाय नई शासन निकाय नई शासनव्यवस्था के रूप थे। १९४७ में नया संविधान लागू रहा। १९५१ में सेनफ्रांसिस्को में अन्य ५५ राष्ट्रों के साथ शांतिसंधि में जापान ने भी भाग लिया। जापान ने संयुक्त राज्य अमरीका के साथ सुरक्षात्मक संधि की जिसमें जापान को केवल प्रतिरक्षा के हेतु सेना रखने की शर्त थी। १९५६ में रूस के साथ हुई संधि से परस्पर युद्ध की स्थिति समाप्त हुई। उसी वर्ष जापान संयुक्त राष्ट्रसंघ का सदस्य हुआ।
प्राचीन काल जापान का प्रथम लिखित साक्ष्य 57 ईस्वी के एक चीनी लेख से मिलता है। इसमें एक ऐसे राजनीतिज्ञ के चीन दौरे का वर्णन है जो पूरब के किसी द्वीप से आया था। धीरे-धीरे दोनो देशों के बीच राजनैतिक और सांस्कृतिक सम्बंध स्थापित हुए। उस समय जापानी एक बहुदैविक धर्म का पालन करते थे जिसमें कई देवता हुआ करते थे। छठी शताब्दी में चीन से होकर बौद्ध धर्म जापान पहुंचा। इसके बाद पुराने धर्म को शिंतो की संज्ञा दी गई जिसका शाब्दिक अर्थ होता है - देवताओं का पंथ। बौद्ध धर्म ने पुरानी मान्यताओं को खत्म नहीं किया पर मुख्य धर्म बौद्ध ही बना रहा। बौद्ध धर्म के आगमान के साथ साथ लोग, लिखने की प्रणाली (लिपि) तथा मंदिरो का सांस्कृतिक तथा शैक्षणिक कार्यों के लिए उपयोग भी जापान में चीन से आया।
शिंतो मान्यताओं के अनुसार जब कोई राजा मरता है तो उसके बाद का शासक अपना राजधानी पहले से किसी अलग स्थान पर बनाएगा। बौद्ध धर्म के आगमन के बाद इस मान्यता को त्याग दिया गया। 710 ईस्वी में राजा ने नॉरा नामक एक शहर में अपनी स्थायी राजधानी बनाई। शताब्दी के अन्त तक इसे हाइरा नामक नगर में स्थानान्तरित कर दिया गया जिसे बाद में क्योटो का नाम दिया गया। सन् 910 में जापानी शासक फूजीवारा ने अपने आप को जापान की राजनैतिक शक्ति से अलग कर लिया। इसके बाद तक जापान की सत्ता का प्रमुख राजनैतिक रूप से जापान से अलग रहा। यह अपने समकालीन भारतीय, यूरोपी तथा इस्लामी क्षेत्रों से पूरी तरह भिन्न था जहाँ सत्ता का प्रमुख ही शक्ति का प्रमुख भी होता था। इस वंश का शासन ग्यारहवीं शताब्दी के अन्त तक रहा। कई लोगों की नजर में यह काल जापानी सभ्यता का स्वर्णकाल था। चीन से सम्पर्क क्षीण पड़ता गया और जापान ने अपना खुद की पहचान बनाई। दसवी सदी में बौद्ध धर्म का मार्ग चीन और जापान में लोकप्रिय हुआ। जापान मे कई पैगोडाओं का निर्माण हुआ। लगभग सभी जापानी पैगोडा में विषम संख्या में तल्ले थे।
मध्यकाल मध्यकाल मे जापान में सामंतवाद का जन्म हुआ। जापानी सामंतों को समुराई कहते थे। जापानी सामंतो ने कोरिया पर दो बार चढ़ाई की पर उन्हें कोरिया तथा चीन के मिंग शासको ने हरा दिया। कुबलय खान तेरहवीं शताब्दी में कुबलय खान मध्य एशिया के सबसे बड़े सम्राट के रूप में उभरा जिसका साम्राज्य पश्चिम में फारस, बाल्कन तथा पूर्व में चीन तथा कोरिया तक फैला था। 1268 में उसने जापान के समुराईयों के सरगना के पास एक कूटनीतिक पत्र क्योटो भैजा जिसमें भारी धनराशि भैंट करने को कहा गया था, अन्यथा वीभत्स परिणामों की धमकी दी गई। जापानियों ने इसका कोई उत्तर नहीं दिया। युद्ध को रोका न जा सका। सन् 1274 में कुबलय खान ने लगभग 35,000 चीनी तथा कोरियाई सैनिकों तथा उनके मंगोल प्रधानो के साथ जापान की ओर 800 जहाजों में प्रस्थान किया। पर रास्ते में समुद्र में भीषण तूफान आने की वज़ह से उसे लौटना पड़ा। पर, 1281 में पुनः, कुबलय खान ने जापान पर चढ़ाई की। इस बार उसके पास लगभग 1,50.000 सैनिक थे और वह जापान के दक्षिणी पश्चिमी तट पर पहुंचा। दो महीनो के भीषण संघर्ष के बाद जापानियों को पीछे हटना पड़ा। धीरे धीरे कुबलय खान की सेना जापानियों को अन्दर धकेलती गई और लगभग पूरे जापान को कुबलय खान ने जीत लिया। पर, एक बार फिर मौसम ने जापानियों का साथ दिया और समुद्र में पुनः भयंकर तूफान आया। मंगोलो के तट पर खड़े पोतो को बहुत नुकसान पहुंचा और वे विचलित हो वापस भागने लगे। इसके बाद बचे मंगोल लड़कों का जापानियों ने निर्दयतापूर्वक कत्ल कर दिया। जापानियों की यह जीत निर्णायक साबित हुई और द्विताय विश्वयुद्ध से पहले किसी विदेशी सेना ने जापान की धरती पर कदम नहीं रखा। इन तूफानो ने जापानियों को इतना फायदा पहुंचाया कि इनके नाम से एक पद जापान में काफी लोकप्रिय हुआ - कामिकाजे, जिसका शाब्दिक अर्थ है - अलौकिक पवन।
यूरोपीय प्रादुर्भाव सोलहवीं सदी में यूरोप के पुर्तगाली व्यापारियों तथा मिशनरियों ने जापान में पश्चिमी दुनिया के साथ व्यापारिक तथा सांस्कृतिक तालमेल की शुरूआत की। जापानी लोगों ने यूपोरीय देशों के बारूद तथा हथियारों को बहुत पसन्द किया। यूरोपीय शक्तियों ने इसाई धर्म का भी प्रचार किया। 1549 में पहली बार जापान में इसाई धर्म का आगमन हुआ। दो वर्षों के भीतर जापान में करीब तीन लाख लोग ऐसे थे जिन्होनें ईसा मसीह के शब्दों को अंगीकार कर लिया। ईसाई धर्म जापान में उसी प्रकार लोकप्रिय हुआ जिस प्रकार सातवीं सदी में बौद्ध धर्म। उस समय यह आवश्यक नहीं था कि यह नया धार्मिक सम्प्रदाय पुराने मतों से पूरी तरह अलग होगा। पर ईसाई धर्म के प्रचारकों ने यह कह कर लोगो को थोड़ा आश्चर्यचकित किया कि ईसाई धर्म को स्वीकार करने के लिए उन्हें अपने अन्य धर्म त्यागने होंगे। यद्यपि इससे जापानियों को थोड़ा अजीब लगा, फिर भी धीरे-धीरे ईसाई धर्मावलम्बियो की संख्या में वृद्धि हुई। 1615 ईस्वी तक जापान में लगभग पाँच लाख लोगो ने ईसाई धर्म को अपना लिया। 1615 में समुराई सरगना शोगुन्ते को संदेह हुआ कि यूरोपीय व्यापारी तथा मिशनरी, वास्तव में, जापान पर एक सैन्य तथा राजनैतिक अधिपत्य के अग्रगामी हैं। उसने विदेशियों पर कड़े प्रतिबंध लगा दिए तथा उनका व्यापार एक कृत्रिम द्वीप (नागासाकी के पास) तक सीमित कर दिया। ईसाई धर्म पर प्रतिबंध लगा दिया गया और लगभग 25 सालों तक ईसाईयों के खिलाफ प्रताड़ना तथा हत्या का सिलसिला जारी रहा। 1638 में, अंततः, बचे हुए 37,000 ईसाईयों को नागासाकी के समीप एक द्वीप पर घेर लिया गया जिनका बाद में नरसंहार कर दिया गया।
आधुनिक काल 1854 में पुनः जापान ने पश्चिमी देशों के साथ व्यापार संबंध स्थापित किया। अपने बढ़ते औद्योगिक क्षमता के संचालन के लिए जापान को प्राकृतिक संसाधनों की आवश्यकता पड़ी जिसके लिए उसने 1894-95 मे चीन तथा 1904-1905 में रूस पर चढ़ाई किया। जापान ने रूस-जापान युद्ध में रूस को हरा दिया। यह पहली बार हुआ जब किसी एशियाई राष्ट्र ने किसी यूरोपीय शक्ति पर विजय हासिल की थी। जापान ने द्वितीय विश्व युद्ध में धुरी राष्ट्रों का साथ दिया पर 1945 में अमेरिका द्वारा हिरोशिमा तथा नागासाकी पर परमाणु बम गिराने के साथ ही जापान ने आत्म समर्पण कर दिया।( कक्षा 10 की इतिहास के अनुसार 14 अगस्त 1945 में जापान ने आत्मसमर्पण कर दिया था।)
इसके बाद से जापान ने अपने आप को एक आर्थिक शक्ति के रूप में सुदृढ़ किया और अभी तकनीकी क्षेत्रों में उसका नाम अग्रणी राष्ट्रों में गिना जाता है।
इन्हें भी देखें
जापानी साम्राज्य
रूस-जापान युद्ध
प्रथम चीन-जापान युद्ध
द्वितीय चीन-जापान युद्ध
बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:जापान का इतिहास
श्रेणी:जापान | जापान का सबसे पहला राजा कौन था? | जिम्मू | 315 | hindi |
29e3cd5f0 | संयुक्त राष्ट्र (English: United Nations) एक अंतरराष्ट्रीय संगठन है, जिसके उद्देश्य में उल्लेख है कि यह अंतरराष्ट्रीय कानून को सुविधाजनक बनाने के सहयोग, अन्तर्राष्ट्रीय सुरक्षा, आर्थिक विकास, सामाजिक प्रगति, मानव अधिकार और विश्व शांति के लिए कार्यरत है। संयुक्त राष्ट्र की स्थापना २४ अक्टूबर १९४५ को संयुक्त राष्ट्र अधिकारपत्र पर 50 देशों के हस्ताक्षर होने के साथ हुई।
द्वितीय विश्वयुद्ध के विजेता देशों ने मिलकर संयुक्त राष्ट्र को अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष में हस्तक्षेप करने के उद्देश्य से स्थापित किया था। वे चाहते थे कि भविष्य में फ़िर कभी द्वितीय विश्वयुद्ध की तरह के युद्ध न उभर आए। संयुक्त राष्ट्र की संरचना में सुरक्षा परिषद वाले सबसे शक्तिशाली देश (संयुक्त राज्य अमेरिका, फ़्रांस, रूस और यूनाइटेड किंगडम) द्वितीय विश्वयुद्ध में बहुत अहम देश थे।
वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र में १९३ देश है, विश्व के लगभग सारे अन्तर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त देश। इस संस्था की संरचन में आम सभा, सुरक्षा परिषद, आर्थिक व सामाजिक परिषद, सचिवालय और अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय सम्मिलित है।
इतिहास प्रथम विश्वयुद्ध के बाद 1929 में राष्ट्र संघ का गठन किया गया था। राष्ट्र संघ काफ़ी हद तक प्रभावहीन था और संयुक्त राष्ट्र का उसकी जगह होने का यह बहुत बड़ा फायदा है कि संयुक्त राष्ट्र अपने सदस्य देशों की सेनाओं को शांति संभालने के लिए तैनात कर सकता है।
संयुक्त राष्ट्र के बारे में विचार पहली बार द्वितीय विश्वयुद्ध के समाप्त होने के पहले उभरे थे। द्वितीय विश्व युद्ध में विजयी होने वाले देशों ने मिलकर कोशिश की कि वे इस संस्था की संरचना, सदस्यता आदि के बारे में कुछ निर्णय कर पाए।
24 अप्रैल 1945 को, द्वितीय विश्वयुद्ध के समाप्त होने के बाद, अमेरिका के सैन फ्रैंसिस्को में अंतराष्ट्रीय संस्थाओं की संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन हुई और यहां सारे 40 उपस्थित देशों ने संयुक्त राष्ट्रिय संविधा पर हस्ताक्षर किया। पोलैंड इस सम्मेलन में उपस्थित तो नहीं थी, पर उसके हस्ताक्षर के लिए खास जगह रखी गई थी और बाद में पोलैंड ने भी हस्ताक्षर कर दिया। सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी देशों के हस्ताक्षर के बाद संयुक्त राष्ट्र की अस्तित्व हुई।
सदस्य वर्ग 2006 तक संयुक्त राष्ट्र में 192 सदस्य देश है। विश्व के लगभग सारी मान्यता प्राप्त देश [1] सदस्य है। कुछ विषेश उपवाद तइवान (जिसकी स्थिति चीन को 1971 में दे दी गई थी), वैटिकन, फ़िलिस्तीन (जिसको दर्शक की स्थिति का सदस्य माना जा [2] सक्ता है), तथा और कुछ देश। सबसे नए सदस्य देश है माँटेनीग्रो, जिसको 28 जून, 2006 को सदस्य बनाया गया।
मुख्यालय संयुक्त राष्ट्र का मुख्यालय अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में पचासी लाख डॉलर के लिए खरीदी भूसंपत्ति पर स्थापित है। इस इमारत की स्थापना का प्रबंध एक अंतर्राष्ट्रीय शिल्पकारों के समूह द्वारा हुआ। इस मुख्यालय के अलावा और अहम संस्थाएं जनीवा, कोपनहेगन आदि में भी है। यह संस्थाएं संयुक्त राष्ट्र के स्वतंत्र अधिकार क्षेत्र तो नहीं हैं, परंतु उनको काफ़ी स्वतंत्रताएं दी जाती है।
भाषाएँ
संयुक्त राष्ट्र ने 6 भाषाओं को "राज भाषा" स्वीकृत किया है (अरबी, चीनी, अंग्रेज़ी, फ़्रांसीसी, रूसी और स्पेनी), परंतु इन में से केवल दो भाषाओं को संचालन भाषा माना जाता है (अंग्रेज़ी और फ़्रांसीसी)।
स्थापना के समय, केवल चार राजभाषाएं स्वीकृत की गई थी (चीनी, अंग्रेज़ी, फ़्रांसीसी, रूसी) और 1973 में अरबी और स्पेनी को भी सम्मिलित किया गया। इन भाषाओं के बारे में विवाद उठता रहता है। कुछ लोगों का मानना है कि राजभाषाओं की संख्या 6 से एक (अंग्रेज़ी) तक घटाना चाहिए, परंतु इनके विरोध है वे जो मानते है कि राजभाषाओं को बढ़ाना चाहिए। इन लोगों में से कई का मानना है कि हिंदी को भी संयुक्त राष्ट्रसंघ की आधिकारिक भाषा बनाया जाना चाहिए।
संयुक्त राष्ट्र अमेरिकी अंग्रेज़ी की जगह ब्रिटिश अंग्रेज़ी का प्रयोग करता है। 1971 तक चीनी भाषा के परम्परागत अक्षर का प्रयोग चलता था क्योंकि तब तक संयुक्त राष्ट्र तईवान के सरकार को चीन का अधिकारी सरकार माना जाता था। जब तईवान की जगह आज के चीनी सरकार को स्वीकृत किया गया, संयुक्त राष्ट्र ने सरलीकृत अक्षर के प्रयोग का प्रारंभ किया।
संयुक्त राष्ट्र में हिन्दी
संयुक्त राष्ट्र में किसी भाषा को आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता दिए जाने के लिए कोई विशिष्ट मानदंड नहीं है। किसी भाषा को संयुक्त राष्ट्र में आधिकारिक भाषा के रूप में शामिल किए जाने की प्रक्रिया में संयुक्त राष्ट्र महासभा में साधारण बहुमत द्वारा एक संकल्प को स्वीकार करना और संयुक्त राष्ट्र की कुल सदस्यता के दो तिहाई बहुमत द्वारा उसे अंतिम रूप से पारित करना होता है। [3]
भारत काफी लम्बे समय से यह कोशिश कर रहा है कि हिंदी भाषा को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषाओं में शामिल किया जाए। भारत का यह दावा इस आधार पर है कि हिन्दी, विश्व में बोली जाने वाली दूसरी सबसे बड़ी भाषा है और विश्व भाषा के रूप में स्थापित हो चुकी है। भारत का यह दावा आज इसलिए और ज्यादा मजबूत हो जाता है क्योंकि आज का भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के साथ-साथ चुनिंदा आर्थिक शक्तियों में भी शामिल हो चुका है।[4]
२०१५ में भोपाल में हुए विश्व हिंदी सम्मेलन के एक सत्र का शीर्षक ‘विदेशी नीतियों में हिंदी’ पर समर्पित था, जिसमें हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा में से एक के तौर पर पहचान दिलाने की सिफारिश की गई थी। हिन्दी को अंतरराष्ट्रीय भाषा के तौर पर प्रतिष्ठित करने के लिए फरवरी 2008 में मॉरिसस में भी विश्व हिंदी सचिवालय खोला गया था।
संयुक्त राष्ट्र अपने कार्यक्रमों का संयुक्त राष्ट्र रेडियो पर हिंदी भाषा में भी प्रसारण करता है। कई अवसरों पर भारतीय नेताओं ने यू एन में हिंदी में वक्तव्य दिए हैं जिनमें १९७७ में अटल बिहारी वाजपेयी का हिन्दी में भाषण, सितंबर, 2014 में 69वीं संयुक्त राष्ट्र महासभा में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का वक्तव्य, सितंबर 2015 में संयुक्त राष्ट्र टिकाऊ विकास शिखर सम्मेलन में उनका संबोधन, अक्तूबर, 2015 में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज द्वारा 70वीं संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधन [5] और सितंबर, 2016 में 71वीं संयुक्त राष्ट्र महासभा को विदेश मंत्री द्वारा संबोधन शामिल है।
उद्देश्य संयुक्त राष्ट्र के व्यक्त उद्देश्य हैं युद्ध रोकना, मानव अधिकारों की रक्षा करना, अंतर्राष्ट्रीय कानून को निभाने की प्रक्रिया जुटाना, सामाजिक और आर्थिक विकास [6] उभारना, जीवन स्तर सुधारना और बिमारियों से लड़ना। सदस्य राष्ट्र को अंतर्राष्ट्रीय चिंताएं और राष्ट्रीय मामलों को सम्हालने का मौका मिलता है। इन उद्देश्य को निभाने के लिए 1948 में मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा प्रमाणित की गई।
मानव अधिकार द्वितीय विश्वयुद्ध के जातिसंहार के बाद, संयुक्त राष्ट्र ने मानव अधिकारों को बहुत आवश्यक समझा था। ऐसी घटनाओं को भविष्य में रोकना अहम समझकर, 1948 में सामान्य सभा ने मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा को स्वीकृत किया। यह अबंधनकारी घोषणा पूरे विश्व के लिए एक समान दर्जा स्थापित करती है, जो कि संयुक्त राष्ट्र समर्थन करने की कोशिश करेगी। 15 मार्च 2006 को, समान्य सभा ने संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकारों के आयोग को त्यागकर संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार परिषद की स्थापना की।
आज मानव अधिकारों के संबंध में सात संघ निकाय स्थापित है। यह सात निकाय हैं:
मानव अधिकार संसद
आर्थिक सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों का संसद
जातीय भेदबाव निष्कासन संसद
नारी विरुद्ध भेदभाव निष्कासन संसद
यातना विरुद्ध संसद
बच्चों के अधिकारों का संसद
प्रवासी कर्मचारी संसद
संयुक्त राष्ट्र महिला (यूएन वूमेन) विश्व में महिलाओं के समानता के मुद्दे को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से विश्व निकाय के भीतर एकल एजेंसी के रूप में संयुक्त राष्ट्र महिला के गठन को ४ जुलाई २०१० को स्वीकृति प्रदान कर दी गयी। वास्तविक तौर पर ०१ जनवरी २०११ को इसकी स्थापना की गयी। मुख्यालय अमेरिका के न्यूयार्क शहर में बनाया गया है। यूएन वूमेन की वर्तमान प्रमुख चिली की पूर्व प्रधानमंत्री सुश्री मिशेल बैशलैट हैं। संस्था का प्रमुख कार्य महिलाओं के प्रति सभी तरह के भेदभाव को दूर करने तथा उनके सशक्तिकरण की दिशा में प्रयास करना होगा। उल्लेखनीय है कि १९५३ में ८वें संयुक्त राष्ट्र महासभा की प्रथम महिला अध्यक्ष होने का गौरव भारत की विजयलक्ष्मी पण्डित को प्राप्त है। संयुक्त राष्ट्र के ४ संगठनों का विलय करके नई इकाई को संयुक्त राष्ट्र महिला नाम दिया गया है। ये संगठन निम्नवत हैं:
संयुक्त राष्ट्र महिला विकास कोष १९७६
महिला संवर्धन प्रभाग १९४६
लिंगाधारित मुद्दे पर विशेष सलाहकार कार्यालय १९९७
महिला संवर्धन हेतु संयुक्त राष्ट्र अंतरराष्ट्रीय शोध और प्रशिक्षण संस्थान १९७६
शांतिरक्षा संयुक्त राष्ट्र के शांतिरक्षक वहां भेजे जाते हैं जहां हिंसा कुछ देर पहले से बंद है ताकि वह शांति संघ की शर्तों को लगू रखें और हिंसा को रोककर रखें। यह दल सदस्य राष्ट्र द्वारा प्रदान होते हैं और शांतिरक्षा कर्यों में भाग लेना वैकल्पिक होता है। विश्व में केवल दो राष्ट्र हैं जिनने हर शांतिरक्षा कार्य में भाग लिया है: कनाडा और पुर्तगाल। संयुक्त राष्ट्र स्वतंत्र सेना नहीं रखती है। शांतिरक्षा का हर कार्य सुरक्षा परिषद द्वारा अनुमोदित होता है।
संयुक्त राष्ट्र के संस्थापकों को ऊंची उम्मीद थी की वह युद्ध को हमेशा के लिए रोक पाएंगे, पर शीत युद्ध (1945 - 1991) के समय विश्व का विरोधी भागों में विभाजित होने के कारण, शांतिरक्षा संघ को बनाए रखना बहुत कठिन था।
संघ की स्वतंत्र संस्थाएं संयुक्त राष्ट्र संघ के अपने कई कार्यक्रमों और एजेंसियों के अलावा १४ स्वतंत्र संस्थाओं से इसकी व्यवस्था गठित होती है। स्वतंत्र संस्थाओं में विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व स्वास्थ्य संगठन शामिल हैं। इनका संयुक्त राष्ट्र संघ के साथ सहयोग समझौता है। संयुक्त राष्ट्र संघ की अपनी कुछ प्रमुख संस्थाएं और कार्यक्रम हैं।[7] ये इस प्रकार हैं:
अंतर्राष्ट्रीय परमाणु उर्जा एजेंसी – विएना में स्थित यह एजेंसी परमाणु निगरानी का काम करती है।
अंतर्राष्ट्रीय अपराध आयोग – हेग में स्थित यह आयोग पूर्व यूगोस्लाविया में युद्द अपराध के सदिंग्ध लोगों पर मुक़दमा चलाने के लिए बनाया गया है।
संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ़) – यह बच्चों के स्वास्थय, शिक्षा और सुरक्षा की देखरेख करता है।
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) – यह ग़रीबी कम करने, आधारभूत ढाँचे के विकास और प्रजातांत्रिक प्रशासन को प्रोत्साहित करने का काम करता है।
संयुक्त राष्ट्र व्यापार और विकास सम्मेलन-यह संस्था व्यापार, निवेश और विकस के मुद्दों से संबंधित उद्देश्य को लेकर चलती है।
संयुक्त राष्ट्र आर्थिक एवं सामाजिक परिषद (ईकोसॉक)- यह संस्था सामान्य सभा को अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक एवं सामाजिक सहयोग एवं विकास कार्यक्रमों में सहायता एवं सामाजिक समस्याओं के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय शांति को प्रभावी बनाने में प्रयासरतहै।
संयुक्त राष्ट्र शिक्षा, विज्ञान और सांस्कृतिक परिषद – पेरिस में स्थित इस संस्था का उद्देश्य शिक्षा, विज्ञान संस्कृति और संचार के माध्यम से शांति और विकास का प्रसार करना है।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) – नैरोबी में स्थित इस संस्था का काम पर्यावरण की रक्षा को बढ़ावा देना है।
संयुक्त राष्ट्र राजदूत – इसका काम शरणार्थियों के अधिकारों और उनके कल्याण की देखरेख करना है। यह जीनिवा में स्थित है।
विश्व खाद्य कार्यक्रम – भूख के विरुद्द लड़ाई के लिए बनाई गई यह प्रमुख संस्था है। इसका मुख्यालय रोम में है।
अंतरराष्ट्रीय श्रम संघ- अंतरराष्ट्रीय आधारों पर मजदूरों तथा श्रमिकों के हितों की रक्षा के लिए नियम वनाता है।
सन्दर्भ बाहरी कडियाँ (गूगल पुस्तक ; लेखक - राधेश्याम चौरसिया)
(दैनिक जागरण)
श्रेणी:संयुक्त राष्ट्र
श्रेणी:अंतर्राष्ट्रीय संगठन
श्रेणी:नोबल शांति पुरस्कार के प्राप्तकर्ता
श्रेणी:नोबेल पुरस्कार सम्मानित संगठन | संयुक्त राष्ट्र संगठन का मुख्यालय कहा पर है? | न्यूयॉर्क | 2,280 | hindi |
a64c4dd2f | भारत के नियन्त्रक एवं महालेखापरीक्षक (अंग्रेजी: Comptroller and Auditor General of India संक्षिप्त नाम: CAG) भारतीय संविधान के अध्याय ५[1] द्वारा स्थापित एक प्राधिकारी है जो भारत सरकार तथा सभी प्रादेशिक सरकारों के सभी तरह के लेखों का अंकेक्षण करता है। वह सरकार के स्वामित्व वाली कम्पनियों का भी अंकेक्षण करता है। उसकी रिपोर्ट पर सार्वजनिक लेखा समितियाँ ध्यान देती है। भारत के नियंत्रक और महालेखापरीक्षक एक सवतंत्र संस्था के रूप में कार्य करते हैं और इस पर सरकार का नियंत्रण नहीं होता| भारत के नियन्त्र और महालेखापरीक्षक की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती हैं|[2] नियन्त्रक एवं महालेखापरीक्षक ही भारतीय लेखा परीक्षा और लेखा सेवा का भी मुखिया होता है। इस समय पूरे भारत की इस सार्वजनिक संस्था में ५८ हजार से अधिक कर्मचारी काम करते हैं।
भारत के नियन्त्रक एवं महालेखापरीक्षक का कार्यालय 10 बहादुर शाह जफर मार्ग पर नई दिल्ली में स्थित है। वर्तमान समय में इस संस्थान के मुखिया राजीव महर्षि हैं। वे भारत के 13</b>वें नियन्त्रक एवं महालेखापरीक्षक हैं। इनका कार्यकाल 6 वर्ष या 65 वर्ष की उम्र, जो भी पहले होगा, की अवधि के लिए राष्टपति द्वारा नियुक्त किया जाता है।केन्द अथवा राज्य सरकार के अनुरोध पर किसी भी सरकारी विभाग की जाँच करता है।
अब तक के नियन्त्रक एवं महालेखापरीक्षक स्रोत:[4]
सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ श्रेणी:भारत सरकार
श्रेणी:भारत की नियामक संस्थाएं
श्रेणी:भारत के नियन्त्रक एवं महालेखापरीक्षक
श्रेणी:भारतीय प्रशासनिक सेवा | भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की नियुक्ति की अवधि कितनी होती है? | 6 वर्ष | 960 | hindi |
10d16b8f5 | प्रदीपक गैसों में पहली गैस "कोयला गैस" थी। कोयला गैस कोयले के भंजक आसवन या कार्बनीकरण से प्राप्त होती है। एक समय कोक बनाने में उपजात के रूप में यह प्राप्त होती थी। पीछे केवल गैस की प्राप्ति के लिये ही कोयले का कार्बनीकरण होता है। आज भी केवल गैस की प्राप्ति के लिये कोयले का कार्बनीकरण होता है।
कोयले का कार्बनीकरण पहले पहल ढालवाँ लोहे के भमके में लगभग 600 डिग्री सें. पर होता था। इससे गैस की उपलब्धि यद्यपि कम होती थी, तथापि उसका प्रदीपक गुण उत्कृष्ट होता था। सामान्य कोयले में एक विशेष प्रकार के कोयले, "कैनेल" कोयला, को मिला देने से प्रदीपक गुण उन्नत हो गया। पीछे अग्नि-मिट्टी और सिलिका के भभकों में उच्च ताप पर कार्बनीकरण से गैस की मात्रा अधिक बनने लगी। अब गैस का उपयोग प्रदीपन के स्थान पर तापन में अधिकाधिक होने लगा। गैस का मूल्य ऊष्मा उत्पन्न करने से आँका जाने लगा और इसके नापने के लिये एक नया मात्रक "थर्म" निकला, जो एक लाख ब्रिटिश ऊष्मा मात्रक के बराबर है।
गैसनिर्माण में जो भभके आज प्रयुक्त होते हैं वे क्षैतिज हो सकते हैं, या उर्ध्वाधर, या 30 डिग्री से लेकर 35 डिग्री तक नत। इन भभकों का वर्णन "कोक" प्रकरण में हुआ है। गैसनिर्माण के लिये वही कोयला उत्तम समझा जाता है जिसमें 30 से लेकर 40 प्रतिशत तक वाष्पशील अंश हो तथा कोयले के टुकड़े एक किस्म के और एक विस्तार के हों।
गैस के लिये कोयले का कार्बनीकरण पहले 1,000 डिग्री सें. पर होता था, पर अब 1,200 डिग्री -1,400 डिग्री सें. पर और कभी कभी 1,500 सें. पर भी, होता है। उच्च ताप पर और अधिक काल तक कार्बनीकरण से गैस अधिक बनती है। उच्च ताप पर प्रति टन कोयले से 10,000 से लेकर 12,500 घन फुट तक, मध्य ताप पर 6,000 से लेकर 10,000 घन फुट तक और निम्न ताप पर 3,000 से लेकर 4,000 घन फुट तक गैस बनती है। विभिन्न तापों पर कार्बनीकरण से गैस के अवयवों में बहुत भिन्नता आ जाती है। प्रमुख गैसों, मेथेन, एथेन, हाइड्रोजन और कार्बन डाइआक्साइड, की मात्राओं में अंतर होता है।
कोयला गैस का संघटन एक सा नहीं होता। कोयले की विभिन्न किस्में होने के कारण और विभिन्न ताप पर कार्बनीकरण से अवयवों में बहुत कुछ भिन्नता आ जाती है, तथापि सामान्यत: कोयला गैस का संघटन इस प्रकार दिया जा सकता है:
अवयव
प्रतिशत आयतन
हाइड्रोजन 57.2
मेथेन 29.2
कार्बनमोनोक्साइड 5.8
एथेन 1.35
एथिलीन 2.50
कार्बन डाइ-आक्साइड 1.5
नाइट्रोजन 1.0
प्रोपेन 0.11
प्रोपिलीन 0.29
हाइड्रोजन सल्फाइड 0.7
ब्यूटेन 0.04
ब्यूटिलीन 0.18
एसीटिलीन 0.05
हलका तेल 0.15
भभके से जो गैस निकलती है उसका ताप ऊँचा होता है। उसमें पर्याप्त अलकतरा, भाप, ऐमोनिया, हाइड्रोजन सल्फाइड, नैपथेलीन, गोंद बनानेवाले पदार्थ और वाष्प रूप में गंधक के कार्बनिक यौगिक रहते हैं। इन अपद्रव्यों को गैस से निकालना जरूरी होता है, विशेषत: जब गैस का उपयोग घरेलू ईंधन के रूप में होता है। कोयला गैस के निर्माण के प्रत्येक कारखाने में इन अपद्रव्यों को पूर्ण रूप से निकालने अथवा उनकी मात्रा इतनी कम करने का प्रबंध रहता है कि उनसे कोई क्षति न हो। सुरक्षा की दृष्टि से ऐसा होना आवश्यक भी है।
भभके से गरम गैसें (ताप 600 डिग्री -700 डिग्री सें.) नलों के द्वारा बाहर निकलती हैं। उष्ण, हलके ऐमोनियम-द्राव के फुहारे से उसे ठंड़ा करते हैं। गैसें ठंड़ी होकर ताप 75 डिग्री -95 डिग्री सें. हो जाता है। अधिकांश अलकतरा यहीं संघनित होकर नीचे बैठ जाता है। यहां से गैसें प्राथमिक शीतक, परोक्ष या प्रत्यक्ष, में जाती हैं, जहाँ ताप और गिरकर 25 डिग्री से 35 डिग्री सें. के बीच हो जाता है। यहाँ जल और अलकतरा संघनित होकर नीचे बैठ जाते हैं। गैस को शीतक में लाने के लिये रेचक पंप का व्यवहार होता है। शीतक से गैस अलकतरा निष्कर्षक या अवक्षेपक में जाती है, जहाँ बिजली से अलकतरे का अवक्षेपण संपन्न होता है। यहाँ से गैस फिर अंतिम शीतक में जाती है जहाँ गैस का नैपथलीन निकाला जाता है। हलके तेलों को निकालने के लिये गैस को मार्जक में ले जाते हैं। यहाँ हाइड्रोजन सल्फाइड को निकालने के लिये बक्स में लोहे के सक्रिय जलीयित आक्साइड रखे रहते हैं।
एक दूसरी विधि "सीबोर्ड विधि" से भी हाइड्रोजन सल्फाइड निकाला जाता है। यहाँ मीनार में सोडियम कार्बोनेट का 3.5 प्रतिशत विलयन रखा रहता है, जिससे धोने से 98 से 99 प्रतिशत हाइड्रोजन सल्फाइड निकाला जा सकता है। यह विधि अपेक्षतया सरल है।
मार्जक में हलके तेल से धोने से कार्बनिक गंधक यौगिक निकल जाते हैं। गैस में अल्प मात्रा में नैफ्थेलीन रहने से कोई हानि नहीं, पर अधिक मात्रा से कठिनाई उत्पन्न हो सकती है। इसे निकालने के लिये पेट्रोलियम का कम श्यानवाला अंश इस्तेमाल होता है। इससे गोंद बननेवाले पदार्थ भी कुछ निकल जाते हैं, पर "कोरोना" विसर्जन से ओर फिर मार्जक में पारित करने से गोंद बननेवाले पदार्थ प्राय: समस्त निकल जाते हैं। अब गैस को कुछ सुखाने की आवश्यकता पड़ती है। गैस न बिलकुल सूखी रहनी चाहिए और न बहुत भीगी। गैस का अनावश्यक जल आर्द्रताग्राही विलयन, या प्रशीतन, या संपीडन द्वारा निकालकर बड़ी-बड़ी गैस-टंकियों में संग्रह करते अथवा सिलिंडरों में दबाव से भरकर उपभोक्ताओं के पास भेजते हैं। टंकियों में गैस नापने के लिये गैसमीटर भी लगे होते हैं।
इन्हें भी देखें
गैसनिर्माण (Gasification)
श्रेणी:गैसें
श्रेणी:ईन्धन
श्रेणी:कोयला | कौन-सी गैस कोयले की खानों में पाई जाती है? | कोयला गैस | 28 | hindi |
3dd3df25e | कोशिका (Cell) सजीवों के शरीर की रचनात्मक और क्रियात्मक इकाई है और प्राय: स्वत: जनन की सामर्थ्य रखती है। यह विभिन्न पदार्थों का वह छोटे-से-छोटा संगठित रूप है जिसमें वे सभी क्रियाएँ होती हैं जिन्हें सामूहिक रूप से हम जीवन कहतें हैं।
'कोशिका' का अंग्रेजी शब्द सेल (Cell) लैटिन भाषा के 'शेलुला' शब्द से लिया गया है जिसका अर्थ 'एक छोटा कमरा' है। कुछ सजीव जैसे जीवाणुओं के शरीर एक ही कोशिका से बने होते हैं, उन्हें एककोशकीय जीव कहते हैं जबकि कुछ सजीव जैसे मनुष्य का शरीर अनेक कोशिकाओं से मिलकर बना होता है उन्हें बहुकोशकीय सजीव कहते हैं। कोशिका की खोज रॉबर्ट हूक ने १६६५ ई० में किया।[1] १८३९ ई० में श्लाइडेन तथा श्वान ने कोशिका सिद्धान्त प्रस्तुत किया जिसके अनुसार सभी सजीवों का शरीर एक या एकाधिक कोशिकाओं से मिलकर बना होता है तथा सभी कोशिकाओं की उत्पत्ति पहले से उपस्थित किसी कोशिका से ही होती है।
सजीवों की सभी जैविक क्रियाएँ कोशिकाओं के भीतर होती हैं। कोशिकाओं के भीतर ही आवश्यक आनुवांशिक सूचनाएँ होती हैं जिनसे कोशिका के कार्यों का नियंत्रण होता है तथा सूचनाएँ अगली पीढ़ी की कोशिकाओं में स्थानान्तरित होती हैं।[2]
कोशिकाओं का विधिवत अध्ययन कोशिका विज्ञान (Cytology) या 'कोशिका जैविकी' (Cell Biology) कहलाता है।
आविष्कार एवं अनुसंधान का इतिहास रॉबर्ट हुक ने 1665 में बोतल की कार्क की एक पतली परत के अध्ययन के आधार पर मधुमक्खी के छत्ते जैसे कोष्ठ देखे और इन्हें कोशा नाम दिया। यह तथ्य उनकी पुस्तक माइक्रोग्राफिया में छपा। राबर्ट हुक ने कोशा-भित्तियों के आधार पर कोशा शब्द प्रयोग किया। 1674 एंटोनी वॉन ल्यूवेन्हॉक ने जीवित कोशा का सर्वप्रथम अध्ययन किया। उन्होंने जीवित कोशिका को दाँत की खुरचनी में देखा था ।
1831 में रॉबर्ट ब्राउन ने कोशिका में 'ककेंद्रक एवं केंद्रिका' का पता लगाया।
तदरोचित नामक वैज्ञानिक ने 1824 में कोशावाद (cell theory) का विचार प्रस्तुत किया, परन्तु इसका श्रेय वनस्पति-विज्ञान-शास्त्री श्लाइडेन (Matthias Jakob Schleiden) और जन्तु-विज्ञान-शास्त्री श्वान (Theodor Schwann) को दिया जाता है जिन्होंने ठीक प्रकार से कोशावाद को (1839 में) प्रस्तुत किया और बतलाया कि 'कोशाएँ पौधों तथा जन्तुओं की रचनात्मक इकाई हैं।'
1855: रुडॉल्फ विर्चो ने विचार रखा कि कोशिकाएँ सदा कोशिकाओं के विभाजन से ही पैदा होती हैं। 1953: वाट्सन और क्रिक (Watson and Crick) ने डीएनए के 'डबल-हेलिक्स संरचना' की पहली बार घोषणा की।
1981: लिन मार्गुलिस (Lynn Margulis) ने कोशिका क्रम विकास में 'सिबियोस' (Symbiosis in Cell Evolution) पर शोधपत्र प्रस्तुत किया।
1888: में वाल्डेयर (Waldeyer) ने गुणसूत्र (Chromosome) का नामकरण किया ।
1883: ईमें स्विम्पर (ने पर्णहरित (Chloroplast) Schimper) का नामकरण किया ।
1892: में वीजमैन (Weissman) ने सोमेटोप्लाज्म (Somatoplasm) एवं जर्मप्लाज्म (Germplasm) के बीच अंतर स्पष्ट किया।
1955: में जी.इ पैलेड (G.E. Palade) ने राइबोसोम (Ribosome) की खोज की। [3]
प्रकार कोशिकाएँ दो प्रकार की होती हैं, प्रोकैरियोटिक कोशिका (prokaryotic cells) तथा यूकैरियोटिक कोशिका (eukaryotic cell)
प्रोकैरियोटिक कोशिकाएँ प्रायः स्वतंत्र होती हैं जबकि यूकैरियोटिक कोशिकाएँ, बहुकोशीय प्राणियों में पायी जाती हैं। प्रोकैरियोटिक कोशिका में कोई स्पष्ट केन्द्रक नहीं होता है। केन्द्रकीय पदार्थ कोशिका द्रव में बिखरे होते हैं। इस प्रकार की कोशिका जीवाणु तथा नीली हरी शैवाल में पायी जाती है। सभी उच्च श्रेणी के पौधों और जन्तुओं में यूकैरियोटिक प्रकार की कोशिका पाई जाती है। सभी यूकैरियोटिक कोशिकाओ में संगठित केन्द्रक पाया जाता है जो एक आवरण से ढका होता है।
कोशिका संरचना कोशिकाएँ सजीव होती हैं तथा वे सभी कार्य करती हैं, जिन्हें सजीव प्राणी करते हैं। इनका आकार अतिसूक्ष्म तथा आकृति गोलाकार, अंडाकार, स्तंभाकार, रोमकयुक्त, कशाभिकायुक्त, बहुभुजीय आदि प्रकार की होती है। ये जेली जैसी एक वस्तु द्वारा घिरी होती हैं। इस आवरण को कोशिकावरण (cell membrane) या कोशिका-झिल्ली कहते हैं यह झिल्ली अवकलीय पारगम्य (selectively permeable) होती है जिसका अर्थ है कि यह झिल्ली किसी पदार्थ (अणु या ऑयन) को मुक्त रूप से पार होने देती है, सीमित मात्रा में पार होने देती है या बिल्कुल रोक देती है। इसे कभी-कभी 'जीवद्रव्य कला' (plasma membrane) भी कहा जाता है। इसके भीतर निम्नलिखित संरचनाएँ पाई जाती हैं:-
(1) केंद्रक एवं केंद्रिका
(2) जीवद्रव्य
(3) गोल्गी सम्मिश्र या गोल्गी यंत्र
(4) कणाभ सूत्र
(5) अंतर्प्रद्रव्य डालिका
(6) गुणसूत्र (पितृसूत्र) एवं जीन
(7) राइबोसोम तथा सेन्ट्रोसोम
(8) लवक
कुछ खास भिन्नताओं को छोड़ सभी प्रकार की कोशिकाओं, पादप एवं जन्तु कोशिका की संरचना लगभग एक जैसी होती है। ये सजीव और निर्जीव दोनों तरह की इकाईयों से मिलकर बनी होती हैं। एक सामान्य कोशिका या प्रारूपिक कोशिका के मुख्य तीन भाग हैं, कोशिकावरण, कोशिका द्रव्य एवं केन्द्रक। कोशिकावरण कोशिका का सबसे बाहर का आवरण या घेरा है। पादप कोशिका में कोशिका भित्ति और कोशिका झिल्ली मिलकर कोशिकावरण का निर्माण करते हैं। जन्तु कोशिका में कोशिका भित्ति नहीं पाई जाती अतः कोशिका झिल्ली ही सबसे बाहरी आवरण है। कोशिका झिल्ली एवं केन्द्रक के बीच के भाग को कोशिका द्रव्य कहा जाता है, इसमें विभिन्न कोशिकांग होते हैं। केन्द्रक कोशिका के अन्दर पाये जाने वाली एक गोल एवं सघन रचना है। केन्द्रक को कोशिका का 'मस्तिष्क' कहा जाता है। जिस प्रकार शरीर के सारे क्रियायों का नियंत्रण मस्तिष्क करता है ठीक उसी प्रकार कोशिका के सारे कार्यों का नियंत्रण केन्द्रक द्वारा होता है।
केंद्रक
एक कोशिका में सामान्यतः एक ही केंद्रक (nucleus) होता है, किंतु कभी-कभी एक से अधिक केंद्रक भी पाए जाते हैं। कोशिका के समस्त कार्यों का यह संचालन केंद्र होता है। जब कोशिका विभाजित होती है तो इसका भी विभाजन हो जाता है। केंद्रक कोशिका के भीतर एक तरल पदार्थ कोशिकाद्रव्य (cytoplasm) में प्राय: तैरता रहता है। इसका यद्यपि कोई निश्चित स्थान नहीं होता, तथापि यह अधिकतर लगभग मध्यभाग में ही स्थित होता है। कुछ कोशिकाओं में इसकी स्थिति आधारीय (basal) और कुछ में सीमांतीय (peripheral) भी होती है। केंद्रक की आकृति गोलाकार, वर्तुलाकार या अंडाकार होती है। तथापि, कभी-कभी यह बेलनाकार, दीर्घवृत्ताकार, सपात, शाखान्वित, नाशपाती जैसा, भालाकार आदि स्वरूपों का भी हो सकता है। इसके भीतर केंद्रकरस (nuclear sap) केंद्रिका (nucleolus) तथा पितृसूत्र (chromosomes) पाए जाते हैं। केंद्रक के आवरण को केंद्रककला (nuclear membrance or nucleolemma) कहते हैं।
केंद्रिका (Nucleolus) प्रत्येक केंद्रक में एक या अधिक केंद्रिकाएँ पाई जाती हैं। कोशिका विभाजन की कुछ विशेष अवस्था में केंद्रिका लुप्त हो जाती, किंतु बाद में पुन: प्रकट हो जाती है। केंद्रिका के भीतर रिबोन्यूक्लीइक अम्ल (ritioncleric acid or RNA) तथा कुछ विशेष प्रकार के एंज़ाइम अधिक मात्रा में पाए जाते हैं। केंद्रिका सूत्रण (mitosis) या सूत्री विभाजन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं।
जीवद्रव्य (protoplasm) यह एक गाढ़ा तरल पदार्थ होता है जो स्थानविशेष पर विशेष नामों द्वारा जाना जाता है; जैसे, द्रव्यकला (plasma membrane) तथा केंद्रक के मध्यवर्ती स्थान में पाए जाने वाले जीवद्रव्य को कोशिकाद्रव्य (cyt plasm) और केंद्रक झिल्ली (nuclear membrane) के भीतर पाए जाने वाले जीवद्रव्य को केंद्रक द्रव्य (nucleoplasm) कहते हैं। कोशिका का यह भाग अत्यंत चैतन्य और कोशिका की समस्त जैवीय प्रक्रियाओं का केंद्र होता है। इसे इसीलिए 'सजीव' (living) कहा जाता है। जीव वैज्ञानिक इसे 'जीवन का भौतिक आधार' (physcial basis of life) नाम से संबोधित करते हैं। आधुनिक जीव वैज्ञानिकों ने जीवद्रव्य का रासायनिक विश्लेषण करके यह तो पता लगा लिया है कि उसका निर्माण किन-किन घटकों द्वारा हुआ है, किंतु आज तक किसी भी वैज्ञानिक को उसमें (जीवद्रव्य) प्राण का संचार करने में सफलता हाथ नहीं लगी है। ऐसा है यह प्रकृति का रहस्यमय पदार्थ।
जीवद्रव्य का निर्माण कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन तथा अनेक कार्बनिक (organic) तथा अकार्बनिक (inorganic) पदार्थो द्वारा हुआ होता है। इसमें जल की मात्रा लगभग 80% प्रोटीन 15%, वसाएँ 3% तथा कार्बोहाइड्रेट 1% और अकार्बनिक लवण की 1 होती है। जीवद्रव्यों के कई प्रकार होते हैं, जैसे कोलाइड (colloid), कणाभ (granular), तंतुमय (fibrillar), जालीदार (reticular), कूपिकाकार (alveolar), आदि।
गोल्गी सम्मिश्र या यंत्र (Golgi complex or apparatus) इस अंग का यह नाम इसके खोजकर्ता कैमिलो गोल्गी, के नाम पर पड़ा है, जिन्होंने 1898 में सर्वप्रथम इसकी खोज की। यह अंग साधारणतः केंद्रक के समीप, अकेले या समूहों में पाया जाता है। इसकी रचना तीन तत्वों (elements) या घटकों (components) द्वारा हुई होती है: सपाट कोश (flattened sacs), बड़ी बड़ी रिक्तिकाएँ (large vacueles) तथा आशय (vesicles)। यह एक प्रकार के जाल (network) जैसा दिखलाई देता है। इनका मुख्य कार्य कोशिकीय स्रवण (cellular secretion) और प्रोटीनों, वसाओं तथा कतिपय किण्वों (enzymes) का भडारण करना (storage) है।
कणाभसूत्र (Mitochondria) ये कणिकाओं (granules) या शलाकाओं (rods) की आकृतिवाले होते हैं। ये अंगक (organelle) कोशिकाद्रव्य (cytoplasm) में स्थित होते हैं। इनकी संख्या विभिन्न जंतुओं में पाँच लाख तक हो सकती है। इनका आकार 1/2 माइक्रॉन से लेकर 2 माइक्रॉन के बीच होता है। विरल उदाहरणों (rare cases) में इनकी लंबाई 40 माइक्रॉन तक हो सकती है। इनके अनेक कार्य बतलाए गए हैं, जो इनकी आकृति पर निर्भर करते हैं। तथापि इनका मुख्य कार्य कोशिकीय श्वसन (cellular respiration) बतलाया जाता है। इन्हें कोशिका का 'पावर प्लांट' (power plant) कहा जाता है, क्योंकि इनसे आवश्यक ऊर्जा (energy) की आपूर्ति होती रहती है।
अंतर्प्रद्रव्य जालिका (fndoplasmic reticulum) यह जालिका कोशिकाद्रव्य (cytoplasm) में आशयों (vesicles) और नलिकाओं (tubules) के रूप में फैली रहती है। इसकी स्थिति सामान्यतः केंद्रकीय झिल्ली (nuclear membrane) तथा द्रव्यकला (plasma membrane) के बीच होती है, किंतु यह अक्सर संपूर्ण कोशिका में फैली रहती है। यह जालिका दो प्रकार की होती है: चिकनी सतहवाली (smooth surfaced) और खुरदुरी सतहवाली (rough surfaced)। इसकी सतह खुरदुरी इसलिए होती है कि इस पर राइबोसोम (ribosomes) के कण बिखरे रहते हैं। इसके अनके कार्य बतलाए गए हैं, जैसे यांत्रिक आधारण (mechanical support), द्रव्यों का प्रत्यावर्तन (exchange of materials), अंत: कोशिकीय अभिगमन (intracellular transport), प्रोटोन संश्लेषण (protein synthesis) इत्यादि।
गुणसूत्र या पितृसूत्र (chromosomes) यह शब्द क्रोम (chrom) तथा सोमा (soma) शब्दों से मिलकर बना है, जिसका अर्थ होता है: रंगीन पिंड (colour bodies)। गुणसूत्र केंद्रकों के भीतर जोड़ों (pairs) में पाए जाते हैं और कोशिका विभाजन के साथ केंद्रक सहित बाँट जाया करते हैं। इनमें स्थित जीवों की पूर्वजों के पैत्रिक गुणों का वाहक कहा जाता है। इनकी संख्या जीवों में निश्चित होती है, जो एक दो जोड़ों से लेकर कई सौ जोड़ों तक हो सकती है। इनका आकार 1 माइक्रॉन से 30 माइक्रॉन तक (लंबा) होता है। इनकी आकृति साधारणतः अंग्रेजी भाषा के अक्षर S जैसी होती हैं। इनमें न्यूक्लिओ-प्रोटीन (nucleoprotein) मुख्य रूप से पाए जाते हैं। पितृसूत्रों के कुछ विशेष प्रकार भी पाए जाते हैं, जिन्हें लैंपब्रश पितृसूत्र (lampbrush chromosomes) और पोलोटीन क्रोमोसोम (polytene chromosomes) की संज्ञा दी गई है। इन्हें W, X, Y, Z, आदि नामों से संबोधित किया जाता है।
जीन (gene) जीनों को पैत्रिक गुणों का वाहक (carriers of hereditary characters) माना जाता है। क्रोमोसोम या पितृसूत्रों का निर्माण हिस्टोन प्रोटीन तथा डिऑक्सीराइबोन्यूक्लिक ऐसिड (DNA) तथा राइबोन्यूक्लिक ऐसिड (RNA) से मिलकर हुआ होता है। जीन का निर्माण इन्हीं में से एक, डी॰ एन॰ ए॰ द्वारा होता है। कोशिका विभाजनों के फलस्वरूप जब नए जीव के जीवन का सूत्रपात होता है, तो यही जीन पैतृक एवं शरीरिक गुणों के साथ माता पिता से निकलकर संततियों में चले जाते हैं। यह आदान प्रदान माता के डिंब (ovum) तथा पिता के शुक्राणु (sperms) में स्थित जीनों के द्वारा संपन्न होता है। सन् 1970 के जून मास में अमरीका स्थित भारतीय वैज्ञानिक श्री हरगोविंद खुराना को कृत्रिम जीन उत्पन्न करने में अभूतपूर्व सफलता मिली थी। इन्हें सन् 1978 में नोबेल पुरस्कार मिला था।
रिबोसोम (ribosomes) सेंट्रोसोम (centrosomes) सूक्ष्म गुलिकाओं के रूप में प्राप्त इन संरचनाओं को केवल इलेक्ट्रॉन माइक्रॉस्कोप के द्वारा ही देखा जा सकता है। इनकी रचना 50% प्रोटीन तथा 50% आर॰ एन॰ ए॰ द्वारा हुई होती है। ये विशेषकर अंतर्प्रद्रव्य जालिका के ऊपर पाए जाते हैं। इनमें प्रोटीनों का संश्लेषण होता है।
सेंट्रोसोम (centrosomes)– ये केंद्रक के समीप पाए जाते हैं। इनके एक विशेष भाग को सेंट्रोस्फीयर (centrosphere) कहते हैं, जिसके भीतर सेंट्रिओलों (centrioles) का एक जोड़ा पाया जाता है। कोशिका विभाजन के समय ये विभाजक कोशिका के ध्रुव (pole) का निर्धारण और कुछ कोशिकाओं में कशाभिका (flagella) जैसी संरचनाओं को उत्पन्न करते हैं।
लवक (plastids) लवक अधिकतर पौधों में ही पाए जाते हैं। ये एक प्रकार के रंजक कण (pigment granules) हैं, जो जीवद्रव्य (protoplasm) में यत्र तत्र बिखरे रहते हैं। क्लोरोफिल (chlorophyll) धारक वर्ण के लवक को हरित् लवक (chloroplas) कहा जाता है। इसी के कारण वृक्षों में हरापन दिखलाई देता है। क्लोरोफिल के ही कारण पेड़ पौधे प्रकाश संश्लेषण (photosynthesis) करते हैं। कुछ वैज्ञानिकों के मतानुसार लवक कोशिकाद्रव्यीय वंशानुगति (cytoplasmic inheritance) के रूप में कोशिका विभाजन के समय संतति कोशिकाओं में सीधे सीधे स्थानांतरित हो जाते हैं।
कार्य वृद्धि तथा चयापचय सृजन प्रोटीन संश्लेषण सन्दर्भ इन्हें भी देखें कोशिका विज्ञान (Cytology)
ऊतक विज्ञान (Histology)
कोशिकांग (organelle)
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ca0341354 | चन्द्रयान (अथवा चंद्रयान-१) भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के चंद्र अन्वेषण कार्यक्रम के अंतर्गत द्वारा चंद्रमा की तरफ कूच करने वाला भारत का पहला अंतरिक्ष यान था। इस अभियान के अन्तर्गत एक मानवरहित यान को २२ अक्टूबर, २००८ को चन्द्रमा पर भेजा गया और यह ३० अगस्त, २००९[1] तक सक्रिय रहा। यह यान ध्रुवीय उपग्रह प्रमोचन यान (पोलर सेटलाईट लांच वेहिकल, पी एस एल वी) के एक संशोधित संस्करण वाले राकेट की सहायता से सतीश धवन अंतरिक्ष केन्द्र से प्रक्षेपित किया गया। इसे चन्द्रमा तक पहुँचने में ५ दिन लगे पर चन्द्रमा की कक्षा में स्थापित करने में १५ दिनों का समय लग गया।[2] चंद्रयान का उद्देश्य चंद्रमा की सतह के विस्तृत नक्शे और पानी के अंश और हीलियम की तलाश करना था। चंद्रयान-प्रथम ने चंद्रमा से १०० किमी ऊपर ५२५ किग्रा का एक उपग्रह ध्रुवीय कक्षा में स्थापित किया। यह उपग्रह अपने रिमोट सेंसिंग (दूर संवेदी) उपकरणों के जरिये चंद्रमा की ऊपरी सतह के चित्र भेजे।
भारतीय अंतरिक्षयान प्रक्षेपण के अनुक्रम में यह २७वाँ उपक्रम था। इसका कार्यकाल लगभग २ साल का होना था, मगर नियंत्रण कक्ष से संपर्क टूटने के कारण इसे उससे पहले बंद कर दिया गया। चन्द्रयान के साथ भारत चाँद को यान भेजने वाला छठा देश बन गया था। इस उपक्रम से चन्द्रमा और मंगल ग्रह पर मानव-सहित विमान भेजने के लिये रास्ता खुला।
हालाँकि इस यान का नाम मात्र चंद्रयान था, किन्तु इसी शृंखला में अगले यान का नाम चन्द्रयान-२ होने से इस अभियान को चंद्रयान-१ कहा जाने लगा। तकनीकी जानकारी भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान केंद्र 'इसरो' के चार चरणों वाले ३१६ टन वजनी और ४४.४ मीटर लंबे अंतरिक्ष यान चंद्रयान प्रथम के साथ ही ११ और उपकरण एपीएसएलवी-सी११ से प्रक्षेपित किए गए जिनमें से पाँच भारत के और छह अमरीका और यूरोपीय देशों के थे।[3] इस परियोजना में इसरो ने पहली बार १० उपग्रह एक साथ प्रक्षेपित किए।
द्रव्यमान - प्रक्षेपण के समय १३८० किलोग्राम और बाद में चन्द्रमा तक पहुँचने पर इसका वजन ५७५ किग्रा हो जाएगा। अपने इम्पैक्टरों को फेंकने के बाद ५२३ किग्रा।
आकार- एक घन के आकार में जिसकी भुजाए १.५ मीटर लम्बी हैं।
संचार- एक्स-बैंड
ऊर्जा- ऊर्जा का मुख्य स्रोत सौर पैनल है जो ७०० वाट की क्षमता का है। इसे लीथियम-आयन बैटरियों में भर कर संचित किया जा सकता है।
अध्ययन के विशिष्ट क्षेत्र
स्थायी रूप से छाया में रहने वाले उत्तर- और दक्षिण-ध्रुवीय क्षेत्रों के खनिज एवं रासायनिक इमेजिंग। सतह या उप-सतह चंद्र पानी-बर्फ की तलाश, विशेष रूप से चंद्र ध्रुवों पर। चट्टानों में रसायनों की पहचान। दूरसंवेदन से और दक्षिणी ध्रुव एटकेन क्षेत्र (एसपीएआर) के द्वारा परत की रासायनिक वर्गीकरण, आंतरिक सामग्री की इमेजिंग। चंद्र सतह की ऊंचाई की भिन्नता का मानचित्रण करना। 10 केवी से अधिक एक्स-रे स्पेक्ट्रम और 5 मी (16 फुट) रिज़ॉल्यूशन के साथ चंद्रमा की सतह के अधिकांश स्टेरिओग्राफिक कवरेज का निरीक्षण। चंद्रमा की उत्पत्ति और विकास को समझने में नई अंतर्दृष्टि प्रदान करना।
घटनाक्रम बुधवार २२ अक्टूबर २००८ को छह बजकर २१ मिनट पर श्रीहरिकोटा के सतीश धवन अंतरिक्ष केन्द्र से चंद्रयान प्रथम छोड़ा गया। इसको छोड़े जाने के लिए उल्टी गिनती सोमवार सुबह चार बजे ही शुरू हो गई थी। मिशन से जुड़े वैज्ञानिकों में मौसम को लेकर थोड़ी चिंता थी, लेकिन सब ठीक-ठाक रहा। आसमान में कुछ बादल जरूर थे, लेकिन बारिश नहीं हो रही थी और बिजली भी नहीं चमक रही थी। इससे चंद्रयान के प्रक्षेपण में कोई दिक्कत नहीं आयी। इसके सफल प्रक्षेपण के साथ ही भारत दुनिया का छठा देश बन गया है, जिसने चांद के लिए अपना अभियान भेजा है।[4] इस महान क्षण के मौके पर वैज्ञानिकों का हजूम 'इसरो' के मुखिया जी माधवन नायर 'इसरो' के पूर्व प्रमुख के कस्तूरीरंगन के साथ मौजूद थे। इन लोगों ने रुकी हुई सांसों के साथ चंद्रयान प्रथम की यात्रा पर सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से लगातार नजर रखी और एक महान इतिहास के गवाह बने।
चंद्रयान के ध्रुवीय प्रक्षेपण अंतरिक्ष वाहन पीएसएलवी सी-११ ने सतीश धवन अंतरिक्ष केन्द्र से रवाना होने के १९ मिनट बाद ट्रांसफर कक्षा में प्रवेश किया। ११ पेलोड के साथ रवाना हुआ चंद्रयान पृथ्वी के सबसे नजदीकी बिन्दु (२५० किलोमीटर) और सबसे दूरस्थ बिन्दु (२३, ००० किलोमीटर) के बीच स्थित ट्रांसफर कक्षा में पहुंच गया। दीर्घवृताकार कक्ष से २५५ किमी पेरिजी और २२ हजार ८६० किमी एपोजी तक उठाया गया था।
गुरुवार २३ अक्टूबर २००८ को दूसरे चरण में अंतरिक्ष यान के लिक्विड इंजिन को १८ मिनट तक दागकर इसे ३७ हजार ९०० किमी एपोजी और ३०५ किमी पेरिजी तक उठाया गया।
शनिवार २५ अक्टूबर २००८ को तीसरे चरण के बाद कक्ष की ऊंचाई बढ़ाकर एपोजी को दोगुना अर्थात ७४ हजार किमी तक सफलतापूर्वक अगली कक्षा में पहुंचा दिया गया। इसके साथ ही यह ३६ हजार किमी से दूर की कक्षा में जाने वाला देश का पहला अंतरिक्ष यान बन गया।[5]
सोमवार २७ अक्टूबर २००८ को चंद्रयान-१ ने सुबह सात बज कर आठ मिनट पर कक्षा बदलनी शुरू की। इसके लिए यान के ४४० न्यूटन द्रव इंजन को साढ़े नौ मिनट के लिए चलाया गया। इससे चंद्रयान-१ अब पृथ्वी से काफी ऊंचाई वाले दीर्घवृत्ताकार कक्ष में पहुंच गया है। इस कक्ष की पृथ्वी से अधिकतम दूरी १६४,६०० किमी और निकटतम दूरी ३४८ किमी है।[6]
बुधवार २९ अक्टूबर २००८ को चौथी बार इसे उसकी कक्षा में ऊपर उठाने का काम किया। इस तरह यह अपनी मंजिल के थोड़ा और करीब पहुंच गया है। सुबह सात बजकर ३८ मिनट पर इस प्रक्रिया को अंजाम दिया गया। इस दौरान ४४० न्यूटन के तरल इंजन को लगभग तीन मिनट तक दागा गया। इसके साथ ही चंद्रयान-१ और अधिक अंडाकार कक्षा में प्रवेश कर गया। जहां इसका एपोजी (धरती से दूरस्थ बिंदु) दो लाख ६७ हजार किमी और पेरिजी (धरती से नजदीकी बिंदु) ४६५ किमी है। इस प्रकार चंद्रयान-1 अपनी कक्षा में चंद्रमा की आधी दूरी तय कर चुका है। इस कक्षा में यान को धरती का एक चक्कर लगाने में करीब छह दिन लगते हैं। इसरो टेलीमेट्री, ट्रैकिंग एंड कमान नेटवर्क और अंतरिक्ष यान नियंत्रण केंद्र, ब्यालालु स्थित भारतीय दूरस्थ अंतरिक्ष नेटवर्क एंटीना की मदद से चंद्रयान-1 पर लगातार नजर रखी जा रही है। इसरो ने कहा कि यान की सभी व्यवस्थाएं सामान्य ढंग से काम कर रही हैं। धरती से तीन लाख ८४ हजार किमी दूर चंद्रमा के पास भेजने के लिए अंतरिक्ष यान को अभी एक बार और उसकी कक्षा में ऊपर उठाया जाएगा।[7]
शनिवार ८ नवंबर २००८ को चन्द्रयान भारतीय समय अनुसार करीब 5 बजे सबसे मुश्किल दौर से गुजरते हुए चन्दमाँ की कक्षा में स्थापित हो गया। अब यह चांद की कक्षा में न्यूनतम 504 और अधिकतम 7502 किमी दूर की अंडाकार कक्षा में परिक्रमा करगा। अगले तीने-चार दिनों में यह दूरी कम होती रहेगी।
शुक्रवार १४ नवंबर २००८ वैज्ञानिक उपकरण मून इंपैक्ट प्रोब (एमआईपी) को चंद्रमा के ध्रुवीय क्षेत्र में शाकेल्टन गड्ढे के पास छोड़ दिया। एमआईपी के चारों ओर भारतीय ध्वज चित्रित है। यह चांद पर भारत की मौजूदगी का अहसास कराएगा।
शनिवार २९ अगस्त २००९ चंद्रयान-1 का नियंत्रण कक्ष से संपर्क टूट गया।
रविवार ३० अगस्त २००९ भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने चंद्रयान प्रथम औपचारिक रूप से समाप्त कर दिया।
चंद्र पानी की खोज
२४ सितंबर २००९ को साइंस (पत्रिका) ने बताया कि चंद्रयान पर चंद्रमा खनिजोग्य मैपर (एम 3) ने चंद्रमा पर पानी की बर्फ होने की पुष्टि की है।[8]
सदी की सबसे महान उपलब्धि भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन [इसरो] ने दावा किया कि चांद पर पानी भारत की खोज है। चंद्रमा पर पानी की मौजूदगी का पता चंद्रयान-1 पर मौजूद भारत के अपने मून इंपैक्ट प्रोब [एमआईपी] ने लगाया। अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के उपकरण ने भी चांद पर पानी होने की पुष्टि की है। चंद्रमा पर पानी की मौजूदगी का पता भारत के अपने एमआईपी ने लगाया है। चंद्रयान-1 के प्रक्षेपण के करीब एक पखवाड़े बाद भारत का एमआईपी यान से अलग होकर चंद्रमा की सतह पर उतरा था। उसने चंद्रमा की सतह पर पानी के कणों की मौजूदगी के पुख्ता संकेत दिए थे। चंद्रयान ने चांद पर पानी की मौजूदगी का पता लगाकर इस सदी की महत्वपूर्ण खोज की है। इसरो के अनुसार चांद पर पानी समुद्र, झरने, तालाब या बूंदों के रूप में नहीं बल्कि खनिज और चंट्टानों की सतह पर मौजूद है। चंद्रमा पर पानी की मौजूदगी पूर्व में लगाए गए अनुमानों से कहीं ज्यादा है।
आंकड़े का सार्वजनिक प्रदर्शन
चंद्रयान-1 द्वारा इकट्ठा किए गए आंकड़े वर्ष 2010 के अंत तक जनता के लिए उपलब्ध कराए गए थे। आंकड़े को दो सत्रों में विभाजित किया गया था जिसमें पहले सत्र 2010 के अंत तक सार्वजनिक हो गया था और दूसरा सत्र 2011 के मध्य तक सार्वजनिक हो गया था। आंकड़ो में चंद्रमा की तस्वीरें और चंद्रमा की सतह के रासायनिक और खनिज मानचित्रण के आंकड़े शामिल हैं।[9]
चंद्रयान-2 इसरो वर्तमान में चंद्रयान-2 नामक एक दूसरे संस्करण पर काम कर रही है। जिसे 2018 में लॉन्च किया जा सकता है।[10] भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) अपने दूसरे चंद्रयान मिशन के हिस्से के रूप में एक रोबोट रोवर को शामिल करने की योजना बना रहा है। चंद्रमा की सतह पर पहियों पर चलने के लिए रोवर डिजाइन किया जाएगा। रोवर ऑन-साइट रासायनिक विश्लेषण करेगा और चंद्रयान-2 ऑर्बिटर के माध्यम से पृथ्वी पर आंकड़े भेजेगा।[11]
बाहरी कड़ियाँ (वेबदुनिया)
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सन्दर्भ श्रेणी:अंतरिक्ष परियोजना
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श्रेणी:भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन
श्रेणी:चंद्र अंतरिक्षयान
श्रेणी:चंद्रयान परियोजना
श्रेणी:भारत के चन्द्र अभियानों की सूची
श्रेणी:हिन्दी सम्पादनोत्सव के अंतर्गत बनाए गए लेख | चन्द्रयान(चंद्रयान-१) को किस वर्ष चन्द्रमा पर भेजा गया? | २२ अक्टूबर, २००८ | 204 | hindi |
8150dcd59 | एफ़िल टॉवर (French: Tour Eiffel, /tuʀ ɛfɛl/) फ्रांस की राजधानी पैरिस में स्थित एक लौह टावर है। इसका निर्माण १८८७-१८८९ में शैम्प-दे-मार्स में सीन नदी के तट पर पैरिस में हुआ था। यह टावर विश्व में उल्लेखनीय निर्माणों में से एक और फ़्रांस की संस्कृति का प्रतीक है। एफ़िल टॉवर की रचना गुस्ताव एफ़िल के द्वारा की गई है और उन्हीं के नाम पर से एफ़िल टॉनर का नामकरन हुआ है। एफ़िल टॉवर की रचना १८८९ के वैश्विक मेले के लिए की गई थी। जब एफ़िल टॉवर का निर्माण हुआ उस वक़्त वह दुनिया की सबसे ऊँची इमारत थी। आज की तारीख में टॉवर की ऊँचाई ३२४ मीटर है, जो की पारंपरिक ८१ मंज़िला इमारत की ऊँचाई के बराबर है। बग़ैर एंटेना शिखर के यह इमारत फ़्रांस के मियो (French: Millau) शहर के फूल के बाद दूसरी सबसे ऊँची इमारत है। यह तीन मंज़िला टॉवर पर्यटकों के लिए साल के ३६५ दिन खुला रहता है। यह टॉवर पर्यटकों द्वारा टिकट खरीदके देखी गई दुनिया की इमारतों में अव्वल स्थान पे है।
अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर ताज महल जैसे भारत की पहचान है, वैसे ही एफ़िल टॉवर फ़्रांस की पहचान है। इतिहास १८८९ में, फ़्रांसीसी क्रांति के शताब्दी महोत्सव के अवसर पर, वैश्विक मेले का आयोजन किया गया था। इस मेले के प्रवेश द्वार के रूप में सरकार एक टावर बनाना चाहती थी। इस टावर के लिए सरकार के तीन मुख्य शर्तें थीं: टावर की ऊँचाई ३०० मिटर होनी चाहिए
टावर लोहे का होना चाहिए
टावर के चारों मुख्य स्थंभ के बीच की दूरी १२५ मिटर होनी चाहिए।
सरकार द्वारा घोषित की गईं तीनों शर्तें पूरी की गई हो ऐसी १०७ योजनाओं में से गुस्ताव एफ़िल की परियोजना मंज़ूर की गई। मौरिस कोच्लिन (French: Maurice Koechlin) और एमिल नुगिएर (French: Émile Nouguier) इस परियोजना के संरचनात्मक इंजिनियर थे और स्ठेफेंन सौवेस्ट्रे (French: Stephen Sauvestre) वास्तुकार थे। ३०० मजदूरों ने मिलके एफ़िल टावर को २ साल, २ महीने और ५ दिनों में बनाया जिसका उद्घाटन ३१ मार्च १८८९ में हुआ और ६ मई से यह टावर लोगों के लिए खुला गया। हालाँकि एफ़िल टावर उस समय की औद्योगिक क्रांति का प्रतीक था और वैश्विक मेले के दौरान आम जनता ने इसे काफी सराया, फिर भी कुछ नामी हस्तियों ने इस इमारत की आलोचना की और इसे "नाक में दम" कहके बुलाया। उस वक़्त के सभी समाचार पत्र पैरिस के कला समुदाय द्वारा लिखे गए निंदा पत्रों से भरे पड़े थे। विडंबना की बात यह है की जिन नामी हस्तियों ने शुरुआती दौर में इस टावर की निंदा की थी, उन में से कई हस्तियाँ ऐसी थीं जिन्होंने बदलते समय के साथ अपनी राय बदली। ऐसी हस्तियों में नामक संगीतकार शार्ल गुनो (French: Charles Gounod) जिन्होंने १४ फ़रवरी १८८७ के समाचार पत्र "Le Temps " में एफ़िल टावर को पैरिस की बेइज़त्ति कहा था, उन्होंने बाद में इससे प्रेरित होकर एक "concerto " (यूरोपीय संगीत का एक प्रकार) की रचना की।
शुरुआती दौर में एफ़िल टावर को २० साल की अवधि के लिए बनाया गया था जिसे १९०९ में नष्ट करना था। लेकिन इन २० साल के दौरान टावर ने अपनी उपयोगिता वैज्ञानिक और तकनीकी क्षेत्र में साबित करने के कारण आज भी एफ़िल टावर पैरिस की शान बनके खड़ा है। प्रथम विश्व युद्ध में हुई मार्न की लड़ाई में भी एफ़िल टावर का बख़ूबी इस्तेमाल पैरिस की टेक्सियों को युद्ध मोर्चे तक भेजने में हुआ था।
आकार एफ़िल टावर एक वर्ग में बना हुआ है जिसके हर किनारे की लंबाई १२५ मीटर है। ११६ ऐटेना समेत टावर की ऊँचाई ३२४ मीटर है और समुद्र तट से ३३,५ मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। भूमितल टावर के चारों स्तंभ चार प्रमुख दिशाओं में बने हुए हैं और उन्हीं दिशाओं के अनुसार स्तंभों का नामकरण किया गया है जैसे कि ः उत्तर स्तंभ, दक्षिण स्तंभ, पूरब स्तंभ और पश्चिम स्तंभ। फ़िलहाल, उत्तर स्तम्भ, दक्षिण स्तम्भ और पूरब स्तम्भ में टिकट घर और प्रवेश द्वार है जहाँ से लोग टिकट ख़रीदार टावर में प्रवेश कर सकते हैं। उत्तर और पूरब स्तंभों में लिफ्ट की सुविधा है और दक्षिण स्तम्भ में सीढ़ियां हैं जो की पहेली और दूसरी मंज़िल तक पहुँचाती हैं। दक्षिण स्तम्भ में अन्य दो निजी लिफ्ट भी हैं जिनमें से एक सर्विस लिफ्ट है और दूसरी लिफ्ट दूसरी मंज़िल पर स्थित ला जुल्स वेर्नेस (French: Le Jules Vernes) नामक रेस्टोरेंट के लिए है। munendra kumar panday
पहली मंज़िल ५७ मीटर की ऊंचाई पर स्थित एफ़िल टावर की प्रथम मंज़िल का क्षेत्रफल ४२०० वर्ग मीटर है जोकि एक साथ ३००० लोगों को समाने की क्षमता रखता है।
मंज़िल की चारों ओर बाहरी तरफ एक जालीदार छज्जा है जिसमें पर्यटकों की सुविधा के लिए पैनोरमिक टेबल ओर दूरबीन रखे हुए हैं जिनसे पर्यटक पैरिस शहर के दूसरी ऐतिहासिक इमारतों का नज़ारा देख सकते हैं। गुस्ताव एफ़िल की ओर से श्रद्धांजलि के रूप में पहली मंज़िल की बाहरी तरफ १८ वीं और १९ वीं सदी के महान वैज्ञानिकों का नाम बड़े स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया है जो नीचे से दिखाई देता है। बच्चों के लिए एक फ़ॉलॉ गस (French: Suivez Gus) नामक प्रदर्शनी है, जिसमें खेल-खेल में बच्चों को एफ़िल टावर के बारे में जानकारी दी जाती है। बड़ों के लिए भी कई तरह के प्रदर्शनों का आयोजन होता है जैसे कि: तस्वीरों का, एफ़िल टावर का इतिहास और कभी-कभी सर्दियों में आइस-स्केटिंग भी होती है। कांच की दीवार वाला 58 Tour Eiffel नामक रेस्टोरेंट भी है, जिनमें से पर्यटक खाते हुए शहर की खूबसूरती का लुत्फ़ उठा सकते हैं। साथ में एक कैफ़ेटेरिया भी है जिसमें ठंडे-गरम खाने पीने की चीजें मिलती हैं।
दूसरी मंज़िल ११५ मी. की ऊंचाई पर स्थित एफ़िल टावर की दूसरी मंज़िल का क्षेत्रफल १६५० वर्ग मिटर है जो कि एक साथ १६०० लोगों को समाने की क्षमता रखता है। दूसरी मंज़िल से पैरिस का सबसे बेहतर नज़ारा देखने को मिलता है, जब मौसम साफ़ हो तब ७० की. मी. तक देख सकते है।
इसी मंज़िल पर एक कैफ़ेटेरिया और सुवनिर खरीदने की दुकान स्थित है।
दूसरी मंज़िल के ऊपर एक उप-मंज़िल भी है जहाँ से तीसरी मंज़िल के लिए लिफ्ट ले सकते है। यहाँ, ला जुल्स वेर्नेस नामक रेस्टोरेंट स्थित है, यहाँ सिर्फ़ एक निजी लिफ्ट के द्वारा ही पहुंचा जा सकता है। जिन प्रवासियों ने दूसरी मंज़िल तक की टिकट खरीदी है ऐसे प्रवासी अगर तीसरी मंज़िल का लुत्फ़ उठाना चाहते हैं तो उनके लिए एक टिकट घर भी है जहाँ से वे तीसरी मंज़िल की टिकट ख़रीद सकते हैं।
तीसरी मंज़िल २७५ मी. की ऊँचाई पर एफ़िल टावर की तीसरी मंज़िल का क्षेत्रफल ३५० वर्ग मिटर है जो कि एक साथ ४०० लोगों को समाने की क्षमता रखता है। दूसरी से तीसरी मंज़िल तक सिर्फ़ लिफ्ट के द्वारा ही जा सकते है। इस मंज़िल को चारों ओर से कांच से बंद किया है। यहाँ गुस्ताव एफ़िल की ऑफ़िस भी स्थित है जिन्हे कांच की कैबिन के रूप में बनाया गया है ताकि प्रवासी इसे बाहर से देख सके। इस ऑफ़िस में गुस्ताव एफ़िल की मोम की मूर्ति रखी है। तीसरी मंज़िल के ऊपर एक उप-मंज़िल है जहाँ पर सीढ़ियों से जा सकते है। इस उप-मंज़िल की चारों ओर जाली लदी हुई है और यहाँ पैरिस की खूबसूरती का नज़ारा लेने के लिए कई दूरबीन रखे हैं। इस के ऊपर एक दूसरी उप मंज़िल है जहाँ जाना निषेध है। यहाँ रेडियो और टेलिविज़न की प्रसारण के ऐन्टेने है। अन्य जानकारी पर्यटक पिछले कई सालों से हर साल तक़रीबन ६५ लाख से ७० लाख प्रवासियों ने एफ़िल टावर की सैर की है। सबसे ज़्यादा २००७ में ६९,६० लाख लोगों ने टावर में प्रवेश किया था। १९६० के दशक से जब से मास टूरिज़म का विकास हुआ है तब से पर्यटकों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। २००९ में हुए सर्वे के अनुसार उस साल जितने पर्यटक आए थे, उनमें से ७५% परदेसी थे जिनमे से ४३% पश्चिम यूरोप से ओर २% एशिया से थे। रात की रोशनी हर रात को अंधेरा होने के बाद १ बजे तक (और गर्मियों में २ बजे तक) एफ़िल टावर को रोशन किया जाता है ताकि दूर से भी टावर दिख सके। ३१ दिसम्बर १९९९ की रात को नई सदी के आगमन के अवसर पर एफ़िल टावर को अन्य २० ००० बल्बों से रोशन किया गया था जिससे हर घंटे क़रीब ५ मिनट तक टावर झिलमिलाता है। चूंकि लोगों ने इस झिलमिलाहट को काफ़ी सराया इसलिए आज की तारीक़ में भी यह झिलमिलाहट अंधेरे होने के बाद हर घंटे हम देख सकते हैं। पहेली मंज़िल का नवीकरण २०१२ से २०१३ तक पहली मंज़िल का नवीकरण की प्रक्रिया होने वाली है जिसके फलस्वरूप वह ज़्यादा आधुनिक और आकर्षिक हो जाएगी। कई तरह के बदलाव होंगे जिनमे से मुख्य आकर्षण यह होगा कि उसके फ़र्श का एक हिस्सा कांच का बनाया जाएगा जिसपर खड़े होकर पर्यटक ६० मिटर नीचे की ज़मीन देख सकेंगे। चित्र दीर्घा ट्रोकैडेरो से दृश्य
तीसरी मंज़िल से।
नीचे से एफ़िल टॉवर की एक नज़र। २००५ में एफ़िल टॉवर की एक नज़र।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, जून १९४५, ट्रोकैडेरो से दृश्य। एफ़िल टॉवर का सूर्योदय की नज़र। बाहरी कड़ियाँ at Structurae
Coordinates: टॉवर, एफिल
टॉवर, एफिल
टॉवर, एफिल
टॉवर, एफिल
टॉवर, एफिल
टॉवर, एफिल
श्रेणी:फ़्रान्स में पर्यटन आकर्षण
श्रेणी:पेरिस में स्थापत्य | एफिल टॉवर यूरोप के किस देश में है? | फ्रांस | 45 | hindi |
bd95d41f8 | सूर्य अथवा सूरज सौरमंडल के केन्द्र में स्थित एक तारा जिसके चारों तरफ पृथ्वी और सौरमंडल के अन्य अवयव घूमते हैं। सूर्य हमारे सौर मंडल का सबसे बड़ा पिंड है और उसका व्यास लगभग १३ लाख ९० हज़ार किलोमीटर है जो पृथ्वी से लगभग १०९ गुना अधिक है। [1] ऊर्जा का यह शक्तिशाली भंडार मुख्य रूप से हाइड्रोजन और हीलियम गैसों का एक विशाल गोला है। परमाणु विलय की प्रक्रिया द्वारा सूर्य अपने केंद्र में ऊर्जा पैदा करता है। सूर्य से निकली ऊर्जा का छोटा सा भाग ही पृथ्वी पर पहुँचता है जिसमें से १५ प्रतिशत अंतरिक्ष में परावर्तित हो जाता है, ३० प्रतिशत पानी को भाप बनाने में काम आता है और बहुत सी ऊर्जा पेड़-पौधे समुद्र सोख लेते हैं। [2] इसकी मजबूत गुरुत्वाकर्षण शक्ति विभिन्न कक्षाओं में घूमते हुए पृथ्वी और अन्य ग्रहों को इसकी तरफ खींच कर रखती है। सूर्य से पृथ्वी की औसत दूरी लगभग १४,९६,००,००० किलोमीटर या ९,२९,६०,००० मील है तथा सूर्य से पृथ्वी पर प्रकाश को आने में ८.३ मिनट का समय लगता है। इसी प्रकाशीय ऊर्जा से प्रकाश-संश्लेषण नामक एक महत्वपूर्ण जैव-रासायनिक अभिक्रिया होती है जो पृथ्वी पर जीवन का आधार है। यह पृथ्वी के जलवायु और मौसम को प्रभावित करता है। सूर्य की सतह का निर्माण हाइड्रोजन, हिलियम, लोहा, निकेल, ऑक्सीजन, सिलिकन, सल्फर, मैग्निसियम, कार्बन, नियोन, कैल्सियम, क्रोमियम तत्वों से हुआ है। [3] इनमें से हाइड्रोजन सूर्य के सतह की मात्रा का ७४ % तथा हिलियम २४ % है। इस जलते हुए गैसीय पिंड को दूरदर्शी यंत्र से देखने पर इसकी सतह पर छोटे-बड़े धब्बे दिखलाई पड़ते हैं। इन्हें सौर कलंक कहा जाता है। ये कलंक अपने स्थान से सरकते हुए दिखाई पड़ते हैं। इससे वैज्ञानिकों ने निष्कर्ष निकाला है कि सूर्य पूरब से पश्चिम की ओर २७ दिनों में अपने अक्ष पर एक परिक्रमा करता है। जिस प्रकार पृथ्वी और अन्य ग्रह सूरज की परिक्रमा करते हैं उसी प्रकार सूरज भी आकाश गंगा के केन्द्र की परिक्रमा करता है। इसको परिक्रमा करनें में २२ से २५ करोड़ वर्ष लगते हैं, इसे एक निहारिका वर्ष भी कहते हैं। इसके परिक्रमा करने की गति २५१ किलोमीटर प्रति सेकेंड है। विशेषताएँ
सूर्य एक G-टाइप मुख्य अनुक्रम तारा है जो सौरमंडल के कुल द्रव्यमान का लगभग 99.86% समाविष्ट करता है। करीब नब्बे लाखवें भाग के अनुमानित चपटेपन के साथ, यह करीब-करीब गोलाकार है,[4] इसका मतलब है कि इसका ध्रुवीय व्यास इसके भूमध्यरेखीय व्यास से केवल 10 किमी से अलग है। [5] जैसा कि सूर्य प्लाज्मा का बना हैं और ठोस नहीं है, यह अपने ध्रुवों पर की अपेक्षा अपनी भूमध्य रेखा पर ज्यादा तेजी से घूमता है। यह व्यवहार अंतरीय घूर्णन के रूप में जाना जाता है और सूर्य के संवहन एवं कोर से बाहर की ओर अत्यधिक तापमान ढलान के कारण पदार्थ की आवाजाही की वजह से हुआ है। यह सूर्य के वामावर्त कोणीय संवेग के एक बड़े हिस्से का वहन करती है, जैसा क्रांतिवृत्त के उत्तरी ध्रुव से देखा गया और इस प्रकार कोणीय वेग पुनर्वितरित होता है। इस वास्तविक घूर्णन की अवधि भूमध्य रेखा पर लगभग 25.6 दिन और ध्रुवों में 33.5 दिन की होती है। हालांकि, सूर्य की परिक्रमा के साथ ही पृथ्वी के सापेक्ष हमारी लगातार बदलती स्थिति के कारण इस तारे का अपनी भूमध्य रेखा पर स्पष्ट घूर्णन करीबन 28 दिनों का है। [6] इस धीमी गति के घूर्णन का केन्द्रापसारक प्रभाव सूर्य की भूमध्य रेखा पर के सतही गुरुत्वाकर्षण से 1.8 करोड़ गुना कमजोर है। ग्रहों के ज्वारीय प्रभाव भी कमजोर है और सूर्य के आकार को खास प्रभावित नहीं करते है। [7]
सूर्य एक पॉपुलेशन I या भारी तत्व युक्त सितारा है। [8] सूर्य का यह गठन एक या एक से अधिक नजदीकी सुपरनोवाओं से निकली धनुषाकार तरंगों द्वारा शुरू किया गया हो सकता है। [9] ऐसा तथाकथित पॉपुलेशन II (भारी तत्व-अभाव) सितारों में इन तत्वों की बहुतायत की अपेक्षा, सौरमंडल में भारी तत्वों की उच्च बहुतायत ने सुझाया है, जैसे कि सोना और यूरेनियम। ये तत्व, किसी सुपरनोवा के दौरान ऊष्माशोषी नाभकीय अभिक्रियाओं द्वारा अथवा किसी दूसरी-पीढ़ी के विराट तारे के भीतर न्यूट्रॉन अवशोषण के माध्यम से रूपांतरण द्वारा, उत्पादित किए गए हो सकने की सर्वाधिक संभवना है। [8]
सूर्य की चट्टानी ग्रहों के माफिक कोई निश्चित सीमा नहीं है। सूर्य के बाहरी हिस्सों में गैसों का घनत्व उसके केंद्र से बढ़ती दूरी के साथ तेजी से गिरता है। [10] बहरहाल, इसकी एक सुपारिभाषित आंतरिक संरचना है जो नीचे वर्णित है। सूर्य की त्रिज्या को इसके केंद्र से लेकर प्रभामंडल के किनारे तक मापा गया है। सूर्य का बाह्य प्रभामंडल दृश्यमान अंतिम परत है। इसके उपर की परते नग्न आंखों को दिखने लायक पर्याप्त प्रकाश उत्सर्जित करने के लिहाज से काफी ठंडी या काफी पतली है। [11] एक पूर्ण सूर्यग्रहण के दौरान, तथापि, जब प्रभामंडल को चंद्रमा द्वारा छिपा लिया गया, इसके चारों ओर सूर्य के कोरोना का आसानी से देखना हो सकता है। सूर्य का आंतरिक भाग प्रत्यक्ष प्रेक्षणीय नहीं है। सूर्य स्वयं ही विद्युत चुम्बकीय विकिरण के लिए अपारदर्शी है। हालांकि, जिस प्रकार भूकम्प विज्ञान पृथ्वी के आंतरिक गठन को प्रकट करने के लिए भूकंप से उत्पन्न तरंगों का उपयोग करता है, सौर भूकम्प विज्ञान En का नियम इस तारे की आंतरिक संरचना को मापने और दृष्टिगोचर बनाने के लिए दाब तरंगों ( पराध्वनी) का इस्तेमाल करता है। [12] इसकी गहरी परतों की खोजबीन के लिए कंप्यूटर मॉडलिंग भी सैद्धांतिक औजार के रूप में प्रयुक्त हुए है। कोर सूर्य का कोर इसके केन्द्र से लेकर सौर त्रिज्या के लगभग 20-25% तक विस्तारित माना गया है। [13] इसका घनत्व 150 ग्राम/सेमी3 तक[14][15] (पानी के घनत्व का लगभग 150 गुना) और तापमान 15.7 करोड़ केल्विन के करीब का है। [15] इसके विपरीत, सूर्य की सतह का तापमान लगभग 5,800 केल्विन है। सोहो मिशन डेटा के हाल के विश्लेषण विकिरण क्षेत्र के बाकी हिस्सों की तुलना में कोर के तेज घूर्णन दर का पक्ष लेते है। [13] सूर्य के अधिकांश जीवन में, ऊर्जा p–p (प्रोटॉन-प्रोटॉन) श्रृंखलाEn कहलाने वाली एक चरणबद्ध श्रृंखला के माध्यम से नाभिकीय संलयन द्वारा उत्पादित हुई है; यह प्रक्रिया हाइड्रोजन को हीलियम में रुपांतरित करती है। [16] सूर्य की उत्पादित ऊर्जा का मात्र 0.8% CNO चक्र En से आता है। [17]
सूर्य में कोर अकेला ऐसा क्षेत्र है जो संलयन के माध्यम से तापीय ऊर्जा की एक बड़ी राशि का उत्पादन करता है; 99% शक्ति सूर्य की त्रिज्या के 24% के भीतर उत्पन्न हुई है, तथा त्रिज्या के 30% द्वारा संलयन लगभग पूरी तरह से बंद कर दिया गया है। इस तारे का शेष उस उर्जा द्वारा तप्त हुआ है जो कोर से लेकर संवहनी परतों के ठीक बाहर तक विकिरण द्वारा बाहर की ओर स्थानांतरित हुई है। कोर में संलयन द्वारा उत्पादित ऊर्जा को फिर उत्तरोत्तर कई परतों से होकर सौर प्रभामंडल तक यात्रा करनी होती है इसके पहले कि वह सूर्य प्रकाश अथवा कणों की गतिज ऊर्जा के रूप में अंतरिक्ष में पलायन करती है। [18][19]
कोर में प्रोटॉन-प्रोटॉन श्रृंखला दरेक सेकंड 9.2×1037 बार पाई जाती है। यह अभिक्रिया चार मुक्त प्रोटॉनों (हाइड्रोजन नाभिक) का प्रयोग करती है, यह हर सेकंड करीब 3.7×1038 प्रोटॉनों को अल्फा कणों (हीलियम नाभिक) में तब्दील करती है (सूर्य के कुल ~8.9×1056 मुक्त प्रोटॉनों में से), या लगभग 6.2× 1011 किलो प्रति सेकंड। [19] हाइड्रोजन से हीलियम संलयन के बाद हीलियम ऊर्जा के रूप में संलयित द्रव्यमान का लगभग 0.7% छोड़ती है,[20] सूर्य 42.6 करोड़ मीट्रिक टन प्रति सेकंड की द्रव्यमान-ऊर्जा रूपांतरण दर पर ऊर्जा छोड़ता है, 384.6 योटा वाट (3.846 × 1026 वाट),[21] या 9.192× 1010 टीएनटी मेगाटनEn प्रति सेकंड। राशि ऊर्जा पैदा करने में नष्ट नहीं हुई है, बल्कि यह राशि बराबर की इतनी ही ऊर्जा में तब्दील हुई है तथा ढोकर उत्सर्जित होने के लिए दूर ले जाई गई, जैसा द्रव्यमान-ऊर्जा तुल्यता अवधारणा का वर्णन हुआ है। कोर में संलयन से शक्ति का उत्पादन सौर केंद्र से दूरी के साथ बदलता रहता है। सूर्य के केंद्र पर, सैद्धांतिक मॉडलों के आकलन में यह तकरीबन 276.5 वाट/मीटर3 होना है,[22]
जीवन चक्र सूर्य आज सबसे अधिक स्थिर अवस्था में अपने जीवन के करीबन आधे रास्ते पर है। इसमें कई अरब वर्षों से नाटकीय रूप से कोई बदलाव नहीं हुआ है, और आगामी कई वर्षों तक यूँ ही अपरिवर्तित बना रहेगा। हालांकि, एक स्थिर हाइड्रोजन-दहन काल के पहले का और बाद का तारा बिलकुल अलग होता है। निर्माण सूर्य एक विशाल आणविक बादल के हिस्से के ढहने से करीब 4.57 अरब वर्ष पूर्व गठित हुआ है जो अधिकांशतः हाइड्रोजन और हीलियम का बना है और शायद इन्ही ने कई अन्य तारों को बनाया है। [23] यह आयु तारकीय विकास के कंप्यूटर मॉडलो के प्रयोग और न्यूक्लियोकोस्मोक्रोनोलोजीEn के माध्यम से आकलित हुई है। [24] परिणाम प्राचीनतम सौरमंडल सामग्री की रेडियोमीट्रिक तिथि के अनुरूप है, 4.567 अरब वर्ष। [25][26] प्राचीन उल्कापातों के अध्ययन अल्पजीवी आइसोटोपो के स्थिर नाभिक के निशान दिखाते है, जैसे कि लौह-60, जो केवल विस्फोटित, अल्पजीवी तारों में निर्मित होता है। यह इंगित करता है कि वह स्थान जहां पर सूर्य बना के नजदीक एक या एक से ज्यादा सुपरनोवा अवश्य पाए जाने चाहिए। किसी नजदीकी सुपरनोवा से निकली आघात तरंग ने आणविक बादल के भीतर की गैसों को संपीडित कर सूर्य के निर्माण को शुरू किया होगा तथा कुछ क्षेत्र अपने स्वयं के गुरुत्वाकर्षण के अधीन ढहने से बने होंगे। [27] जैसे ही बादल का कोई टुकड़ा ढहा कोणीय गति के संरक्षण के कारण यह भी घुमना शुरू हुआ और बढ़ते दबाव के साथ गर्म होने लगा। बहुत बड़ी द्रव्य राशि केंद्र में केंद्रित हुई, जबकि शेष बाहर की ओर चपटकर एक डिस्क में तब्दील हुई जिनसे ग्रह व अन्य सौरमंडलीय निकाय बने। बादल के कोर के भीतर के गुरुत्व व दाब ने अत्यधिक उष्मा उत्पन्न की वैसे ही डिस्क के आसपास से और अधिक गैस जुड़ती गई, अंततः नाभिकीय संलयन को सक्रिय किया। इस प्रकार, सूर्य का जन्म हुआ। मुख्य अनुक्रम सूर्य अपनी मुख्य अनुक्रम अवस्था से होता हुआ करीब आधी राह पर है, जिसके दरम्यान नाभिकीय संलयन अभिक्रियाओ ने हाइड्रोजन को हीलियम में बदला। हर सेकंड, सूर्य की कोर के भीतर चालीस लाख टन से अधिक पदार्थ ऊर्जा में परिवर्तित हुआ है और न्यूट्रिनो व सौर विकिरण का निर्माण किया है। इस दर पर, सूर्य अब तक करीब 100 पृथ्वी-द्रव्यमान जितना पदार्थ ऊर्जा में परिवर्तित कर चुका है। सूर्य एक मुख्य अनुक्रम तारे के रूप में लगभग 10 अरब साल जितना खर्च करेगा। [29]
कोर हाइड्रोजन समापन के बाद सूर्य के पास एक सुपरनोवा के रूप में विस्फोट के लिए पर्याप्त द्रव्यमान नहीं है। बावजुद यह एक लाल दानव चरण में प्रवेश करेगा। सूर्य का तकरीबन 5.4 अरब साल में एक लाल दानव बनने का पूर्वानुमान है। [30] यह आकलन हुआ है कि सूर्य संभवतः पृथ्वी समेत सौरमंडल के आंतरिक ग्रहों की वर्तमान कक्षाओं को निगल जाने जितना बड़ा हो जाएगा। [31]
इससे पहले कि यह एक लाल दानव बनता है, सूर्य की चमक लगभग दोगुनी हो जाएगी और पृथ्वी शुक्र जितना आज है उससे भी अधिक गर्म हो जाएगी। एक बार कोर हाइड्रोजन समाप्त हुई, सूर्य का उपदानव चरण में विस्तार होगा और करीब आधे अरब वर्षों उपरांत आकार में धीरे धीरे दोगुना जाएगा। उसके बाद यह, आज की तुलना में दो सौ गुना बड़ा तथा दसियों हजार गुना और अधिक चमकदार होने तक, आगामी करीब आधे अरब वर्षों से ज्यादा तक और अधिक तेजी से फैलेगा। यह लाल दानव शाखा का वह चरण है, जहां पर सूर्य करीब एक अरब वर्ष बिता चुका होगा और अपने द्रव्यमान का एक तिहाई के आसपास गंवा चुका होगा। [31]
सूर्य के पास अब केवल कुछ लाख साल बचे है, पर वें बेहद प्रसंगपूर्ण है। प्रथम, कोर हीलियम चौंध में प्रचंडतापूर्वक सुलगता है और सूर्य चमक के 50 गुने के साथ, आज की तुलना में थोड़े कम तापमान के साथ, अपने हाल के आकार से 10 गुने के आसपास तक वापस सिकुड़ जाता है। सौर अंतरिक्ष मिशन सूर्य के निरीक्षण के लिए रचे गए प्रथम उपग्रह नासा के पायनियर 5, 6, 7, 8 और 9 थे। यह 1959 और 1968 के बीच प्रक्षेपित हुए थे। इन यानों ने पृथ्वी और सूर्य से समान दूरी की कक्षा में सूर्य परिक्रमा करते हुए सौर वायु और सौर चुंबकीय क्षेत्र का पहला विस्तृत मापन किया। पायनियर 9 विशेष रूप से लंबे अरसे के लिए संचालित हुआ और मई 1983 तक डेटा संचारण करता रहा। [33][34]
1970 के दशक में, दो अंतरिक्ष यान हेलिओस और स्काईलैब अपोलो टेलीस्कोप माउंट En ने सौर वायु व सौर कोरोना के महत्वपूर्ण नए डेटा वैज्ञानिकों को प्रदान किए। हेलिओस 1 और 2 यान अमेरिकी-जर्मनी सहकार्य थे। इसने अंतरिक्ष यान को बुध की कक्षा के भीतर की ओर ले जा रही कक्षा से सौर वायु का अध्ययन किया। [35] 1973 में स्कायलैब अंतरिक्ष स्टेशन नासा द्वारा प्रक्षेपित हुआ। इसने अपोलो टेलीस्कोप माउंट कहे जाने वाला एक सौर वेधशाला मॉड्यूल शामिल किया जो कि स्टेशन पर रहने वाले अंतरिक्ष यात्रियों द्वारा संचालित हुआ था। [36] स्काईलैब ने पहली बार सौर संक्रमण क्षेत्र का तथा सौर कोरोना से निकली पराबैंगनी उत्सर्जन का समाधित निरीक्षण किया। [36] खोजों ने कोरोनल मास एजेक्सन के प्रथम प्रेक्षण शामिल किए, जो फिर "कोरोनल ट्रांजीएंस्ट" और फिर कोरोनल होल्स कहलाये, अब घनिष्ठ रूप से सौर वायु के साथ जुड़े होने के लिए जाना जाता है। [35]
1980 का सोलर मैक्सीमम मिशन नासा द्वारा शुरू किया गया था। यह अंतरिक्ष यान उच्च सौर गतिविधि और सौर चमक के समय के दरम्यान गामा किरणों, एक्स किरणों और सौर ज्वालाओं से निकली पराबैंगनी विकिरण के निरीक्षण के लिए रचा गया था। प्रक्षेपण के बस कुछ ही महीने बाद, हालांकि, किसी इलेक्ट्रॉनिक्स खराबी की वजह से यान जस की तस हालत में चलता रहा और उसने अगले तीन साल इसी निष्क्रिय अवस्था में बिताए। 1984 में स्पेस शटल चैलेंजर मिशन STS-41C ने उपग्रह को सुधार दिया और कक्षा में फिर से छोड़ने से पहले इसकी इलेक्ट्रॉनिक्स की मरम्मत की। जून 1989 में पृथ्वी के वायुमंडल में पुनः प्रवेश से पहले सोलर मैक्सीमम मिशन ने मरम्मत पश्चात सौर कोरोना की हजारों छवियों का अधिग्रहण किया। [37]
1991 में प्रक्षेपित, जापान के योनकोह (सौर पुंज) उपग्रह ने एक्स-रे तरंग दैर्घ्य पर सौर ज्वालाओ का अवलोकन किया। मिशन डेटा ने वैज्ञानिकों को अनेकों भिन्न प्रकार की लपटों की पहचान करने की अनुमति दी, साथ ही दिखाया कि चरम गतिविधि वाले क्षेत्रों से दूर स्थित कोरोना और अधिक गतिशील व सक्रिय थी जैसा कि पूर्व में माना हुआ था। योनकोह ने एक पूरे सौर चक्र का प्रेक्षण किया लेकिन 2001 में जब एक कुंडलाकार सूर्यग्रहण हुआ यह आपातोपयोगी दशा में चला गया जिसकी वजह से इसका सूर्य के साथ जुडाव का नुकसान हो गया। यह 2005 में वायुमंडलीय पुनः प्रवेश दौरान नष्ट हुआ था। [38]
आज दिन तक का सबसे महत्वपूर्ण सौर मिशन सोलर एंड हेलिओस्फेरिक ओब्सर्वेटरी रहा है। 2 दिसंबर1995 को शुरू हुआ यह मिशन यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी और नासा द्वारा संयुक्त रूप से बनाया गया था। [36] मूल रूप से यह दो-वर्षीय मिशन के लिए नियत हुआ था। मिशन की 2012 तक की विस्तारण मंजूरी अक्टूबर 2009 में हुई थी। [39] यह इतना उपयोगी साबित हुआ कि इसका अनुवर्ती मिशन सोलर डायनमिक्स ओब्सर्वेटरी (एसडीओ) फरवरी, 2010 में शुरू किया गया था। [40] यह पृथ्वी और सूर्य के बीच लाग्रंगियन बिंदु (जिस पर दोनों ओर का गुरुत्वीय खींचाव बराबर होता है) पर स्थापित हुआ। सोहो ने अपने प्रक्षेपण के बाद से अनेक तरंगदैर्ध्यों पर सूर्य की निरंतर छवि प्रदान की है। [36] प्रत्यक्ष सौर प्रेक्षण के अलावा, सोहो को बड़ी संख्या में धूमकेतुओं की खोज के लिए समर्थ किया गया है, इनमे से अधिकांश सूर्य के निवाले छोटे धूमकेतुEn है जो सूर्य के पास से गुजरते ही भस्म हो जाते है। [41]
इन सभी उपग्रहों ने सूर्य का प्रेक्षण क्रांतिवृत्त के तल से किया है, इसलिए उसके भूमध्यरेखीय क्षेत्रों मात्र के विस्तार में प्रेक्षण किए गए है। यूलिसिस यान सूर्य के ध्रुवीय क्षेत्रों के अध्ययन के लिए 1990 में प्रक्षेपित हुआ था। इसने सर्वप्रथम बृहस्पति की यात्रा की, इससे पहले इसे क्रांतिवृत्त तल के ऊपर की दूर की किसी कक्षा में बृहस्पति के गुरुत्वीय बल के सहारे ले जाया गया था। संयोगवश, यह 1994 की बृहस्पति के साथ धूमकेतु शूमेकर-लेवी 9 की टक्कर के निरीक्षण के लिए अच्छी जगह स्थापित हुआ था। एक बार यूलिसिस अपनी निर्धारित कक्षा में स्थापित हो गया, इसने उच्च सौर अक्षांशों की सौर वायु और चुंबकीय क्षेत्र शक्ति का निरीक्षण करना शुरू कर दिया और पाया कि उच्च अक्षांशों पर करीब 750 किमी/सेकंड से आगे बढ़ रही सौर वायु उम्मीद की तुलना में धीमी थी, साथ ही पाया गया कि वहां उच्च अक्षांशों से आई हुई बड़ी चुंबकीय तरंगे थी जो कि बिखरी हुई गांगेय कॉस्मिक किरणे थी। [42]
वर्णमंडल की तात्विक बहुतायतता को स्पेक्ट्रोस्कोपी अध्ययनों से अच्छी तरह जाना गया है, पर सूर्य के अंदरूनी ढांचे की समझ उतनी ही बुरी है। सौर वायु नमूना वापसी मिशन, जेनेसिस, खगोलविदों द्वारा सीधे सौर सामग्री की संरचना को मापने के लिए रचा गया था। जेनेसिस 2004 में पृथ्वी पर लौटा, पर पृथ्वी के वायुमंडल में पुनः प्रवेश पर तैनात करते वक्त पैराशूट के विफल होने से यह अकस्मात् अवतरण से क्षतिग्रस्त हो गया था। गंभीर क्षति के बावजूद, कुछ उपयोगी नमूने अंतरिक्ष यान के नमूना वापसी मॉड्यूल से बरामद किए गए हैं और विश्लेषण के दौर से गुजर रहे हैं। [43]
सोलर टेरेस्ट्रियल रिलेशंस ओब्सर्वेटरी (स्टीरियो) मिशन अक्टूबर 2006 में शुरू हुआ था। दो एक सामान अंतरिक्ष यान कक्षाओं में इस तरीके से प्रक्षेपित किए गए जो उनको (बारी बारी से) कहीं दूर आगे की ओर खींचते और धीरे धीरे पृथ्वी के पीछे गिराते। यह सूर्य और सौर घटना के त्रिविम प्रतिचित्रण करने में समर्थ है, जैसे कि कोरोनल मास एजेक्सनEn। [44][45]
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन ने 2015-16 तक आदित्य नामक एक 100 किलो के उपग्रह का प्रक्षेपण निर्धारित किया है। सोलर कोरोना की गतिशीलता के अध्ययन के लिए इसका मुख्य साधन एक कोरोनाग्राफEn होगा। [46]
सन्दर्भ इन्हें भी देखें सूर्य देव
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श्रेणी:जी-प्रकार मुख्य अनुक्रम तारे | सूर्य से पृथ्वी की दुरी कितनी है? | १४,९६,००,००० किलोमीटर | 759 | hindi |
89202cb96 | कोशिका (Cell) सजीवों के शरीर की रचनात्मक और क्रियात्मक इकाई है और प्राय: स्वत: जनन की सामर्थ्य रखती है। यह विभिन्न पदार्थों का वह छोटे-से-छोटा संगठित रूप है जिसमें वे सभी क्रियाएँ होती हैं जिन्हें सामूहिक रूप से हम जीवन कहतें हैं।
'कोशिका' का अंग्रेजी शब्द सेल (Cell) लैटिन भाषा के 'शेलुला' शब्द से लिया गया है जिसका अर्थ 'एक छोटा कमरा' है। कुछ सजीव जैसे जीवाणुओं के शरीर एक ही कोशिका से बने होते हैं, उन्हें एककोशकीय जीव कहते हैं जबकि कुछ सजीव जैसे मनुष्य का शरीर अनेक कोशिकाओं से मिलकर बना होता है उन्हें बहुकोशकीय सजीव कहते हैं। कोशिका की खोज रॉबर्ट हूक ने १६६५ ई० में किया।[1] १८३९ ई० में श्लाइडेन तथा श्वान ने कोशिका सिद्धान्त प्रस्तुत किया जिसके अनुसार सभी सजीवों का शरीर एक या एकाधिक कोशिकाओं से मिलकर बना होता है तथा सभी कोशिकाओं की उत्पत्ति पहले से उपस्थित किसी कोशिका से ही होती है।
सजीवों की सभी जैविक क्रियाएँ कोशिकाओं के भीतर होती हैं। कोशिकाओं के भीतर ही आवश्यक आनुवांशिक सूचनाएँ होती हैं जिनसे कोशिका के कार्यों का नियंत्रण होता है तथा सूचनाएँ अगली पीढ़ी की कोशिकाओं में स्थानान्तरित होती हैं।[2]
कोशिकाओं का विधिवत अध्ययन कोशिका विज्ञान (Cytology) या 'कोशिका जैविकी' (Cell Biology) कहलाता है।
आविष्कार एवं अनुसंधान का इतिहास रॉबर्ट हुक ने 1665 में बोतल की कार्क की एक पतली परत के अध्ययन के आधार पर मधुमक्खी के छत्ते जैसे कोष्ठ देखे और इन्हें कोशा नाम दिया। यह तथ्य उनकी पुस्तक माइक्रोग्राफिया में छपा। राबर्ट हुक ने कोशा-भित्तियों के आधार पर कोशा शब्द प्रयोग किया। 1674 एंटोनी वॉन ल्यूवेन्हॉक ने जीवित कोशा का सर्वप्रथम अध्ययन किया। उन्होंने जीवित कोशिका को दाँत की खुरचनी में देखा था ।
1831 में रॉबर्ट ब्राउन ने कोशिका में 'ककेंद्रक एवं केंद्रिका' का पता लगाया।
तदरोचित नामक वैज्ञानिक ने 1824 में कोशावाद (cell theory) का विचार प्रस्तुत किया, परन्तु इसका श्रेय वनस्पति-विज्ञान-शास्त्री श्लाइडेन (Matthias Jakob Schleiden) और जन्तु-विज्ञान-शास्त्री श्वान (Theodor Schwann) को दिया जाता है जिन्होंने ठीक प्रकार से कोशावाद को (1839 में) प्रस्तुत किया और बतलाया कि 'कोशाएँ पौधों तथा जन्तुओं की रचनात्मक इकाई हैं।'
1855: रुडॉल्फ विर्चो ने विचार रखा कि कोशिकाएँ सदा कोशिकाओं के विभाजन से ही पैदा होती हैं। 1953: वाट्सन और क्रिक (Watson and Crick) ने डीएनए के 'डबल-हेलिक्स संरचना' की पहली बार घोषणा की।
1981: लिन मार्गुलिस (Lynn Margulis) ने कोशिका क्रम विकास में 'सिबियोस' (Symbiosis in Cell Evolution) पर शोधपत्र प्रस्तुत किया।
1888: में वाल्डेयर (Waldeyer) ने गुणसूत्र (Chromosome) का नामकरण किया ।
1883: ईमें स्विम्पर (ने पर्णहरित (Chloroplast) Schimper) का नामकरण किया ।
1892: में वीजमैन (Weissman) ने सोमेटोप्लाज्म (Somatoplasm) एवं जर्मप्लाज्म (Germplasm) के बीच अंतर स्पष्ट किया।
1955: में जी.इ पैलेड (G.E. Palade) ने राइबोसोम (Ribosome) की खोज की। [3]
प्रकार कोशिकाएँ दो प्रकार की होती हैं, प्रोकैरियोटिक कोशिका (prokaryotic cells) तथा यूकैरियोटिक कोशिका (eukaryotic cell)
प्रोकैरियोटिक कोशिकाएँ प्रायः स्वतंत्र होती हैं जबकि यूकैरियोटिक कोशिकाएँ, बहुकोशीय प्राणियों में पायी जाती हैं। प्रोकैरियोटिक कोशिका में कोई स्पष्ट केन्द्रक नहीं होता है। केन्द्रकीय पदार्थ कोशिका द्रव में बिखरे होते हैं। इस प्रकार की कोशिका जीवाणु तथा नीली हरी शैवाल में पायी जाती है। सभी उच्च श्रेणी के पौधों और जन्तुओं में यूकैरियोटिक प्रकार की कोशिका पाई जाती है। सभी यूकैरियोटिक कोशिकाओ में संगठित केन्द्रक पाया जाता है जो एक आवरण से ढका होता है।
कोशिका संरचना कोशिकाएँ सजीव होती हैं तथा वे सभी कार्य करती हैं, जिन्हें सजीव प्राणी करते हैं। इनका आकार अतिसूक्ष्म तथा आकृति गोलाकार, अंडाकार, स्तंभाकार, रोमकयुक्त, कशाभिकायुक्त, बहुभुजीय आदि प्रकार की होती है। ये जेली जैसी एक वस्तु द्वारा घिरी होती हैं। इस आवरण को कोशिकावरण (cell membrane) या कोशिका-झिल्ली कहते हैं यह झिल्ली अवकलीय पारगम्य (selectively permeable) होती है जिसका अर्थ है कि यह झिल्ली किसी पदार्थ (अणु या ऑयन) को मुक्त रूप से पार होने देती है, सीमित मात्रा में पार होने देती है या बिल्कुल रोक देती है। इसे कभी-कभी 'जीवद्रव्य कला' (plasma membrane) भी कहा जाता है। इसके भीतर निम्नलिखित संरचनाएँ पाई जाती हैं:-
(1) केंद्रक एवं केंद्रिका
(2) जीवद्रव्य
(3) गोल्गी सम्मिश्र या गोल्गी यंत्र
(4) कणाभ सूत्र
(5) अंतर्प्रद्रव्य डालिका
(6) गुणसूत्र (पितृसूत्र) एवं जीन
(7) राइबोसोम तथा सेन्ट्रोसोम
(8) लवक
कुछ खास भिन्नताओं को छोड़ सभी प्रकार की कोशिकाओं, पादप एवं जन्तु कोशिका की संरचना लगभग एक जैसी होती है। ये सजीव और निर्जीव दोनों तरह की इकाईयों से मिलकर बनी होती हैं। एक सामान्य कोशिका या प्रारूपिक कोशिका के मुख्य तीन भाग हैं, कोशिकावरण, कोशिका द्रव्य एवं केन्द्रक। कोशिकावरण कोशिका का सबसे बाहर का आवरण या घेरा है। पादप कोशिका में कोशिका भित्ति और कोशिका झिल्ली मिलकर कोशिकावरण का निर्माण करते हैं। जन्तु कोशिका में कोशिका भित्ति नहीं पाई जाती अतः कोशिका झिल्ली ही सबसे बाहरी आवरण है। कोशिका झिल्ली एवं केन्द्रक के बीच के भाग को कोशिका द्रव्य कहा जाता है, इसमें विभिन्न कोशिकांग होते हैं। केन्द्रक कोशिका के अन्दर पाये जाने वाली एक गोल एवं सघन रचना है। केन्द्रक को कोशिका का 'मस्तिष्क' कहा जाता है। जिस प्रकार शरीर के सारे क्रियायों का नियंत्रण मस्तिष्क करता है ठीक उसी प्रकार कोशिका के सारे कार्यों का नियंत्रण केन्द्रक द्वारा होता है।
केंद्रक
एक कोशिका में सामान्यतः एक ही केंद्रक (nucleus) होता है, किंतु कभी-कभी एक से अधिक केंद्रक भी पाए जाते हैं। कोशिका के समस्त कार्यों का यह संचालन केंद्र होता है। जब कोशिका विभाजित होती है तो इसका भी विभाजन हो जाता है। केंद्रक कोशिका के भीतर एक तरल पदार्थ कोशिकाद्रव्य (cytoplasm) में प्राय: तैरता रहता है। इसका यद्यपि कोई निश्चित स्थान नहीं होता, तथापि यह अधिकतर लगभग मध्यभाग में ही स्थित होता है। कुछ कोशिकाओं में इसकी स्थिति आधारीय (basal) और कुछ में सीमांतीय (peripheral) भी होती है। केंद्रक की आकृति गोलाकार, वर्तुलाकार या अंडाकार होती है। तथापि, कभी-कभी यह बेलनाकार, दीर्घवृत्ताकार, सपात, शाखान्वित, नाशपाती जैसा, भालाकार आदि स्वरूपों का भी हो सकता है। इसके भीतर केंद्रकरस (nuclear sap) केंद्रिका (nucleolus) तथा पितृसूत्र (chromosomes) पाए जाते हैं। केंद्रक के आवरण को केंद्रककला (nuclear membrance or nucleolemma) कहते हैं।
केंद्रिका (Nucleolus) प्रत्येक केंद्रक में एक या अधिक केंद्रिकाएँ पाई जाती हैं। कोशिका विभाजन की कुछ विशेष अवस्था में केंद्रिका लुप्त हो जाती, किंतु बाद में पुन: प्रकट हो जाती है। केंद्रिका के भीतर रिबोन्यूक्लीइक अम्ल (ritioncleric acid or RNA) तथा कुछ विशेष प्रकार के एंज़ाइम अधिक मात्रा में पाए जाते हैं। केंद्रिका सूत्रण (mitosis) या सूत्री विभाजन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं।
जीवद्रव्य (protoplasm) यह एक गाढ़ा तरल पदार्थ होता है जो स्थानविशेष पर विशेष नामों द्वारा जाना जाता है; जैसे, द्रव्यकला (plasma membrane) तथा केंद्रक के मध्यवर्ती स्थान में पाए जाने वाले जीवद्रव्य को कोशिकाद्रव्य (cyt plasm) और केंद्रक झिल्ली (nuclear membrane) के भीतर पाए जाने वाले जीवद्रव्य को केंद्रक द्रव्य (nucleoplasm) कहते हैं। कोशिका का यह भाग अत्यंत चैतन्य और कोशिका की समस्त जैवीय प्रक्रियाओं का केंद्र होता है। इसे इसीलिए 'सजीव' (living) कहा जाता है। जीव वैज्ञानिक इसे 'जीवन का भौतिक आधार' (physcial basis of life) नाम से संबोधित करते हैं। आधुनिक जीव वैज्ञानिकों ने जीवद्रव्य का रासायनिक विश्लेषण करके यह तो पता लगा लिया है कि उसका निर्माण किन-किन घटकों द्वारा हुआ है, किंतु आज तक किसी भी वैज्ञानिक को उसमें (जीवद्रव्य) प्राण का संचार करने में सफलता हाथ नहीं लगी है। ऐसा है यह प्रकृति का रहस्यमय पदार्थ।
जीवद्रव्य का निर्माण कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन तथा अनेक कार्बनिक (organic) तथा अकार्बनिक (inorganic) पदार्थो द्वारा हुआ होता है। इसमें जल की मात्रा लगभग 80% प्रोटीन 15%, वसाएँ 3% तथा कार्बोहाइड्रेट 1% और अकार्बनिक लवण की 1 होती है। जीवद्रव्यों के कई प्रकार होते हैं, जैसे कोलाइड (colloid), कणाभ (granular), तंतुमय (fibrillar), जालीदार (reticular), कूपिकाकार (alveolar), आदि।
गोल्गी सम्मिश्र या यंत्र (Golgi complex or apparatus) इस अंग का यह नाम इसके खोजकर्ता कैमिलो गोल्गी, के नाम पर पड़ा है, जिन्होंने 1898 में सर्वप्रथम इसकी खोज की। यह अंग साधारणतः केंद्रक के समीप, अकेले या समूहों में पाया जाता है। इसकी रचना तीन तत्वों (elements) या घटकों (components) द्वारा हुई होती है: सपाट कोश (flattened sacs), बड़ी बड़ी रिक्तिकाएँ (large vacueles) तथा आशय (vesicles)। यह एक प्रकार के जाल (network) जैसा दिखलाई देता है। इनका मुख्य कार्य कोशिकीय स्रवण (cellular secretion) और प्रोटीनों, वसाओं तथा कतिपय किण्वों (enzymes) का भडारण करना (storage) है।
कणाभसूत्र (Mitochondria) ये कणिकाओं (granules) या शलाकाओं (rods) की आकृतिवाले होते हैं। ये अंगक (organelle) कोशिकाद्रव्य (cytoplasm) में स्थित होते हैं। इनकी संख्या विभिन्न जंतुओं में पाँच लाख तक हो सकती है। इनका आकार 1/2 माइक्रॉन से लेकर 2 माइक्रॉन के बीच होता है। विरल उदाहरणों (rare cases) में इनकी लंबाई 40 माइक्रॉन तक हो सकती है। इनके अनेक कार्य बतलाए गए हैं, जो इनकी आकृति पर निर्भर करते हैं। तथापि इनका मुख्य कार्य कोशिकीय श्वसन (cellular respiration) बतलाया जाता है। इन्हें कोशिका का 'पावर प्लांट' (power plant) कहा जाता है, क्योंकि इनसे आवश्यक ऊर्जा (energy) की आपूर्ति होती रहती है।
अंतर्प्रद्रव्य जालिका (fndoplasmic reticulum) यह जालिका कोशिकाद्रव्य (cytoplasm) में आशयों (vesicles) और नलिकाओं (tubules) के रूप में फैली रहती है। इसकी स्थिति सामान्यतः केंद्रकीय झिल्ली (nuclear membrane) तथा द्रव्यकला (plasma membrane) के बीच होती है, किंतु यह अक्सर संपूर्ण कोशिका में फैली रहती है। यह जालिका दो प्रकार की होती है: चिकनी सतहवाली (smooth surfaced) और खुरदुरी सतहवाली (rough surfaced)। इसकी सतह खुरदुरी इसलिए होती है कि इस पर राइबोसोम (ribosomes) के कण बिखरे रहते हैं। इसके अनके कार्य बतलाए गए हैं, जैसे यांत्रिक आधारण (mechanical support), द्रव्यों का प्रत्यावर्तन (exchange of materials), अंत: कोशिकीय अभिगमन (intracellular transport), प्रोटोन संश्लेषण (protein synthesis) इत्यादि।
गुणसूत्र या पितृसूत्र (chromosomes) यह शब्द क्रोम (chrom) तथा सोमा (soma) शब्दों से मिलकर बना है, जिसका अर्थ होता है: रंगीन पिंड (colour bodies)। गुणसूत्र केंद्रकों के भीतर जोड़ों (pairs) में पाए जाते हैं और कोशिका विभाजन के साथ केंद्रक सहित बाँट जाया करते हैं। इनमें स्थित जीवों की पूर्वजों के पैत्रिक गुणों का वाहक कहा जाता है। इनकी संख्या जीवों में निश्चित होती है, जो एक दो जोड़ों से लेकर कई सौ जोड़ों तक हो सकती है। इनका आकार 1 माइक्रॉन से 30 माइक्रॉन तक (लंबा) होता है। इनकी आकृति साधारणतः अंग्रेजी भाषा के अक्षर S जैसी होती हैं। इनमें न्यूक्लिओ-प्रोटीन (nucleoprotein) मुख्य रूप से पाए जाते हैं। पितृसूत्रों के कुछ विशेष प्रकार भी पाए जाते हैं, जिन्हें लैंपब्रश पितृसूत्र (lampbrush chromosomes) और पोलोटीन क्रोमोसोम (polytene chromosomes) की संज्ञा दी गई है। इन्हें W, X, Y, Z, आदि नामों से संबोधित किया जाता है।
जीन (gene) जीनों को पैत्रिक गुणों का वाहक (carriers of hereditary characters) माना जाता है। क्रोमोसोम या पितृसूत्रों का निर्माण हिस्टोन प्रोटीन तथा डिऑक्सीराइबोन्यूक्लिक ऐसिड (DNA) तथा राइबोन्यूक्लिक ऐसिड (RNA) से मिलकर हुआ होता है। जीन का निर्माण इन्हीं में से एक, डी॰ एन॰ ए॰ द्वारा होता है। कोशिका विभाजनों के फलस्वरूप जब नए जीव के जीवन का सूत्रपात होता है, तो यही जीन पैतृक एवं शरीरिक गुणों के साथ माता पिता से निकलकर संततियों में चले जाते हैं। यह आदान प्रदान माता के डिंब (ovum) तथा पिता के शुक्राणु (sperms) में स्थित जीनों के द्वारा संपन्न होता है। सन् 1970 के जून मास में अमरीका स्थित भारतीय वैज्ञानिक श्री हरगोविंद खुराना को कृत्रिम जीन उत्पन्न करने में अभूतपूर्व सफलता मिली थी। इन्हें सन् 1978 में नोबेल पुरस्कार मिला था।
रिबोसोम (ribosomes) सेंट्रोसोम (centrosomes) सूक्ष्म गुलिकाओं के रूप में प्राप्त इन संरचनाओं को केवल इलेक्ट्रॉन माइक्रॉस्कोप के द्वारा ही देखा जा सकता है। इनकी रचना 50% प्रोटीन तथा 50% आर॰ एन॰ ए॰ द्वारा हुई होती है। ये विशेषकर अंतर्प्रद्रव्य जालिका के ऊपर पाए जाते हैं। इनमें प्रोटीनों का संश्लेषण होता है।
सेंट्रोसोम (centrosomes)– ये केंद्रक के समीप पाए जाते हैं। इनके एक विशेष भाग को सेंट्रोस्फीयर (centrosphere) कहते हैं, जिसके भीतर सेंट्रिओलों (centrioles) का एक जोड़ा पाया जाता है। कोशिका विभाजन के समय ये विभाजक कोशिका के ध्रुव (pole) का निर्धारण और कुछ कोशिकाओं में कशाभिका (flagella) जैसी संरचनाओं को उत्पन्न करते हैं।
लवक (plastids) लवक अधिकतर पौधों में ही पाए जाते हैं। ये एक प्रकार के रंजक कण (pigment granules) हैं, जो जीवद्रव्य (protoplasm) में यत्र तत्र बिखरे रहते हैं। क्लोरोफिल (chlorophyll) धारक वर्ण के लवक को हरित् लवक (chloroplas) कहा जाता है। इसी के कारण वृक्षों में हरापन दिखलाई देता है। क्लोरोफिल के ही कारण पेड़ पौधे प्रकाश संश्लेषण (photosynthesis) करते हैं। कुछ वैज्ञानिकों के मतानुसार लवक कोशिकाद्रव्यीय वंशानुगति (cytoplasmic inheritance) के रूप में कोशिका विभाजन के समय संतति कोशिकाओं में सीधे सीधे स्थानांतरित हो जाते हैं।
कार्य वृद्धि तथा चयापचय सृजन प्रोटीन संश्लेषण सन्दर्भ इन्हें भी देखें कोशिका विज्ञान (Cytology)
ऊतक विज्ञान (Histology)
कोशिकांग (organelle)
बाहरी कड़ियाँ (राजस्थान लोकसेवा आयोग पोर्टल)
श्रेणी:कोशिकाविज्ञान
श्रेणी:कोशिका
श्रेणी:हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना | जीवित कोशिका को सर्वप्रथम किसने देखा था? | एंटोनी वॉन ल्यूवेन्हॉक | 1,386 | hindi |
13b256056 | कंबोडिया जिसे पहले कंपूचिया के नाम से जाना जाता था दक्षिण पूर्व एशिया का एक प्रमुख देश है जिसकी आबादी १,४२,४१,६४० (एक करोड़ बयालीस लाख, इकतालीस हज़ार छे सौ चालीस) है। नामपेन्ह इस राजतंत्रीय देश का सबसे बड़ा शहर एवं इसकी राजधानी है। कंबोडिया का आविर्भाव एक समय बहुत शक्तिशाली रहे हिंदू एवं बौद्ध खमेर साम्राज्य से हुआ जिसने ग्यारहवीं से चौदहवीं सदी के बीच पूरे हिन्द चीन (इंडोचायना) क्षेत्र पर शासन किया था। कंबोडिया की सीमाएँ पश्चिम एवं पश्चिमोत्तर में थाईलैंड, पूर्व एवं उत्तरपूर्व में लाओस तथा वियतनाम एवं दक्षिण में थाईलैंड की खाड़ी से लगती हैं। मेकोंग नदी यहाँ बहने वाली प्रमुख जलधारा है।
कंबोडिया की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से वस्त्र उद्योग, पर्यटन एवं निर्माण उद्योग पर आधारित है। २००७ में यहाँ केवल अंकोरवाट मंदिर आनेवाले विदेशी पर्यटकों की संख्या ४० लाख से भी ज्यादा थी। सन २००७ में कंबोडिया के समुद्र तटीय क्षेत्रों में तेल एवं गैस के विशाल भंडार की खोज हुई, जिसका व्यापारिक उत्पादन सन २०११ से होने की उम्मीद है जिससे इस देश की अर्थव्यवस्था में काफी परिवर्तन होने की अपेक्षा की जा रही है।
कंबुज का इतिहास कंबुज या कंबोज कंबोडिया का प्राचीन संस्कृत नाम है। भूतपूर्व इंडोचीन प्रायद्वीप में सर्वप्राचीन भारतीय उपनिवेश की स्थापना फूनान प्रदेश में प्रथम शती ई. के लगभग हुई थी। लगभग 600 वर्षों तक फूनान ने इस प्रदेश में हिंदू संस्कृति का प्रचार एवं प्रसार करने में महत्वपूर्ण योग दिया। तत्पश्चात् इस क्षेत्र में कंबुज या कंबोज का महान् राज्य स्थापित हुआ जिसके अद्भुत ऐश्वर्य की गौरवपूर्ण परंपरा 14वीं सदी ई. तक चलती रही। इस प्राचीन वैभव के अवशेष आज भी अंग्कोरवात, अंग्कोरथोम नामक स्थानों में वर्तमान हैं।
कंबोज की प्राचीन दंतकथाओं के अनुसार इस उपनिवेश की नींव 'आर्यदेश' के राजा कंबु स्वयांभुव ने डाली थी। वह भगवान् शिव की प्रेरणा से कंबोज देश में आए और यहाँ बसी हुई नाग जाति के राजा की सहायता से उन्होंने इस जंगली मरुस्थल में एक नया राज्य बसाया जो नागराज की अद्भुत जादूगरी से हरे भरे, सुंदर प्रदेश में परिणत हो गया। कंबु ने नागराज की कन्या मेरा से विवाह कर लिया और कंबुज राजवंश की नींव डाली। यह भी संभव है कि भारतीय कंबोज (कश्मीर का राजौरी जिला तथा संवर्ती प्रदेश-द्र. 'कंबोज') से भी इंडोचीन में स्थित इस उपनिवेश का संबंध रहा हो। तीसरी शती ई. में भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमा पर बसनेवो मुरुंडों का एक राजदूत फूनान पहुँचा था और संभवत: कंबोज के घोड़े अपने साथ वहाँ लाया था। कंबोज के प्रथम ऐतिहासिक राजवंश का संस्थापक श्रुतवर्मन था जिसने कंबोज देश को फूनान की अधीनता से मुक्त किया। इसके पुत्र श्रेष्ठवर्मन ने अपने नाम पर श्रेष्ठपुर नामक राजधानी बसाई जिसके खंडहर लाओस के वाटफू पहाड़ी (लिंगपर्वत) के पास स्थित हैं। तत्पश्चात् भववर्मन ने, जिसका संबंध फूनान और कंबोज दोनों ही राजवंशों से था, एक नया वंश (ख्मेर) चलाया और अपने ही नाम भवपुर नामक राजधानी बसाई। भववर्मन तथा इसके भाई महेंद्रवर्मन के समय से कंबोज का विकासयुग प्रारंभ होता है। फूनान का पुराना राज्य अब जीर्णशीर्ण हो चुका था और शीघ्र ही इस नए दुर्घर्ष साम्राज्य में विलीन हो गया। महेंद्रवर्मन की मृत्यु के पश्चात् उनका पुत्र ईशानवर्मन गद्दी पर बैठा। इस प्रतापी राजा ने कंबोज राज्य की सीमाओं का दूर-दूर तक विस्तार किया। उसने भारत और चंपा के साथ राजनयिक संबंध स्थापित किए और ईशानपुर नाम की एक नई राजधानी का निर्माण किया। ईशानवर्मन ने चंपा के राजा जगद्धर्म को अपनी पुत्री ब्याही थी जिसका पुत्र प्रकाशधर्म अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् चंपा का राजा हुआ। इससे प्रतीत होता है कि चंपा इस समय कंबोज के राजनीतिक प्रभाव के अंतर्गत था। ईशानवर्मन के बाद भववर्मन् द्वितीय और जयवर्मन् प्रथम कंबोज नरेशों के नाम मिलते हैं। जयवर्मन् के पश्चात् 674 ई. में इस राजवंश का अंत हो गया। कुछ ही समय के उपरांत कंबोज की शक्ति क्षीण होने लगी और धीरे-धीरे 8वीं सदी ई. में जावा के शैलेंद्र राजाओं का कंबोज देश पर आधिपतय स्थापित हो गया। 8वीं सदी ई. का कंबोज इतिहास अधिक स्पष्ट नहीं है किंतु 9वीं सदी का आरंभ होते ही इस प्राचीन साम्राज्य की शक्ति मानों पुन: जीवित हो उठी। इसका श्रेय जयवर्मन् द्वितीय (802-854 ई.) को दिया जाता है। उसने अंगकोर वंश की नींव डाली और कंबोज को जावा की अधीनता से मुक्त किया। उसने संभवत: भारत से हिरण्यदास नामक ब्राह्मण को बुलवाकर अपने राज्य की सुरक्षा के लिए तांत्रिक क्रियाएँ करवाईं। इस विद्वान् ब्राह्मण ने देवराज नामक संप्रदाय की स्थापना की जो शीघ्र ही कंबोज का राजधर्म बन गया। जयवर्मन् ने अपनी राजधानी क्रमश: कुटी, हरिहरालय और अमरेंद्रपुर नामक नगरों में बनाई जिससे स्पष्ट है कि वर्तमान कंबोडिया का प्राय: समस्त क्षेत्र उसके अधीन था और राज्य की शक्ति का केंद्र धीरे-धीरे पूर्व से पश्चिम की ओर बढ़ता हुआ अंतत: अंग्कोर के प्रदेश में स्थापित हो गया था।
जयवर्मन् द्वितीय को अपने समय में कंबुजराजेंद्र और उसकी महरानी को कंबुजराजलक्ष्मी नाम से अभिहित किया जाता था। इसी समय से कंबोडिया के प्राचीन नाम कंबुज या कंबोज का विदेशी लेखकों ने भी प्रयोग करना प्रारंभ कर दिया था। जयवर्मन् द्वितीय के पश्चात् भी कंबोज के साम्राज्य की निरंतर उन्नति और वृद्धि होती गई और कुछ ही समय के बाद समस्त इंडोचीन प्रायद्वीप में कंबोज साम्राज्य का विस्तार हो गया। महाराज इंद्रवर्मन् ने अनेक मंदिरों और तड़ागों का निर्माण करवाया। यशोवर्मन् (889-908 ई.) हिंदू शास्त्रों और संस्कृत काव्यों का ज्ञाता था और उसने अनेक विद्वानों को राजश्रय दिया। उसके समय के अनेक सुंदर संस्कृत अभिलेख प्राप्य हैं। इस काल में हिंदू धर्म, साहित्य और काल की अभूतपूर्व प्रगति हुई। यशोवर्मन् ने कंबुपुरी या यशोधरपुर नाम की नई राजधानी बसाई। धर्म और संस्कृति का विशाल केंद्र अंग्कोर थोम भी इसी नगरी की शोभा बढ़ाता था। 'अंग्कोर संस्कृति' का स्वर्णकाल इसी समय से ही प्रांरभ होता है। 944 ई. में कंबोज का राजा राजेंद्रवर्मन् था जिसके समय के कई बृहद् अभिलेख सुंदर संस्कृत काव्यशैली में लिखे मिलते हैं। 1001 ई. तक का समय कंबोज के इतिहास में महत्वपूर्ण है क्योंकि इस काल में कंबोज की सीमाएँ चीन के दक्षिणी भाग छूती थीं, लाओस उसके अंतर्गत था और उसका राजनीतिक प्रभाव स्याम और उत्तरी मलाया तक फैला हुआ था।
सूर्यवर्मन् प्रथम (मृत्यु 1049 ई.) ने प्राय: समस्त स्याम पर कंबोज का आधिपत्य स्थापित कर दिया और दक्षिण ब्रह्मदेश पर भी आक्रमण किया। वह साहित्य, न्याय और व्याकरण का पंडित था तथा स्वयं बौद्ध होते हुए भी शैव और वैष्णव धर्मों का प्रेमी और संरक्षक था। उसने राज्यासीन होने के समय देश में चले हुए गृहयुद्ध को समाप्त कर राज्य की स्थिति को पुन: सुदृढ़ करने का प्रयत्न किया। उत्तरी चंपा को जीतकर सूर्यवर्मन् ने उसे कंबोज का करद राज्य बना लिया किंतु शीघ्र ही दक्षिण चंपा के राजा जयहरि वर्मन् से हार माननी पड़ी। इस समय कंबोज में गृहयुद्धों और पड़ोसी देशों के साथ अनबन के कारण काफी अशांति रही।
जयवर्मन् सप्तम (अभिषेक 1181) के राज्यकाल में पुन: एक बार कंबोज की प्राचीन यश:पताका फहराने लगी। उसने एक विशाल सेना बनाई जिसमें स्याम और ब्रह्मदेश के सैनिक भी सम्मिलित थे। जयवर्मन् ने अनाम पर आक्रमण कर उसे जीतने का भी प्रयास किया किंतु निरंतर युद्धों के कारण शनै: शनै: कंबोज की सैनिक शक्ति का ह्रास होने लगा, यहाँ तक कि 1220 ई. में कंबोजों को चंपा से हटना पड़ा। किंतु फिर भी जयवर्मन् सप्तम की गणना कंबोज के महान् राज्यनिर्माताओं में की जाती है क्योंक उसमे समय में कंबोज के साम्राज्य का विस्तार अपनीचरम सीमा पर पहुँचा हुआ था। जयवर्मन् सप्तम ने अपनी नई राजधानी वर्तमान अंग्कोरथोम में बनाई थी। इसके खंडहर आज भी संसार के प्रसिद्ध प्राचीन अवशेषों में गिने जाते हैं। नगर के चतुर्दिक् एक ऊँचा परकोटा था और 110 गज चौड़ी एक परिखा थी। इसकी लंबाई साढ़े आठ मील के लगभग थी। नगर के परकोटे के पाँच सिंहद्वार थे जिनसे पाँच विशाल राजपथ (100 फुट चौड़े, 1 मील लंबे) नगर के अंदर जाते थे। ये राजपथ, बेयोन के विराट् हिंदू मंदिर के पास मिलते थे, जो नगर के मध्य में स्थित था। मंदिर में 66,625 व्यक्ति नियुक्त थे और इसके व्यय के लिए 3,400 ग्रामों की आय लगी हुई थी। इस समय के एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि कंबोज में 789 मंदिर तथा 102 चिकित्सालय थे और 121 वाहनी (विश्राम) गृह थे।
जयवर्मन् सप्तम के पश्चात् कंबोज के इतिहास के अनेक स्थल अधिक स्पष्ट नहीं हैं। 13वीं सदी में कंबोज में सुदृढ़ राजनीतिक शक्ति का अभाव था। कुछ इतिहासलेखकों के अनुसार कंबोज ने 13वीं सदी के अंतिम चरण में चीन के सम्राट् कुबले खाँ का आधिपत्य मानने से इनकार कर दिया था। 1296 ई. में चीन से एक दूतमंडल अंग्कोरथोम आया था जिसके एक सदस्य शू-तान-कुआन ने तत्कालीन कंबोज के विषय में विस्तृत तथा मनोरंजक वृत्तांत लिखा है जिसका अनुवाद फ्रांसीसी भाषा में 1902 ई. में हुआ था। 14वीं सदी में कंबोज के पड़ोसी राज्यों में नई राजनीतिक शक्ति का उदय हो रहा था तथा स्याम और चंपा के थाई लोग कंबोज की ओर बढ़ने का निरंतर प्रयास कर रहे थे। परिणाम यह हुआ कि कंबोज पर दो ओर से भारी दबाव पड़ने लगा और वह इन दोनों देशों की चक्की के पाटों के बीच पिसने लगा। धीरे-धीरे कंबोज की प्राचीन महत्ता समाप्त हो गई और अब यह देश इंडोचीन का एक साधारण पिछड़ा हुआ प्रदेश बनकर रह गया। 19वीं सदी में फ्रांसीसी का प्रभाव इंडोचीन में बढ़ चला था; वैसे, वे 16वीं सदी में ही इस प्रायद्वीप में आ गए थे और अपनी शक्ति बढ़ाने के अवसर की ताक में थे। वह अवसर अब और 1854 ई. में कंबोज के निर्बल राजा अंकडुओंग ने अपना देश फ्रांसीसियों के हाथों सौंप दिया। नोरदम (नरोत्तम) प्रथम (1858-1904) ने 11 अगस्त 1863 ई. को इस समझौते को पक्का कर दिया और अगले 80 वर्षों तक कंबोज या कंबोडिया फ्रेंच-इंडोचीन का एक भाग बना रहा। (कंबोडिया, फ्रेंच cambodge का रूपांतर है। फ्रेंच नाम कंबोज या कंबुजिय से बना है।) 1904-41 में स्याम और फ्रांसीसियों के बीच होनेवाले युद्ध में कंबोडिया का कुछ प्रदेश स्याम को दे दिया गया किंतु द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् 1945 ई. में यह भाग उसे पुन: प्राप्त हो गया। इस समय कंबोडिया में स्वतंत्रता आंदोलन भी चल रहा था जिसके परिणामस्वरूप फ्रांस ने कंबोडिया को एक नया संविधान प्रदान किया (मई 6, 1947)। किंतु इससे वहाँ के राष्ट्रप्रेमियों को संतोष न हुआ और उन्होंने 1949 ई. (8 नवंबर) में फ्रांसीसियों को एक नए समणैते पर हस्ताक्षर करने पर विवश कर दिया जिससे उन्होंने कंबोडिया की स्वतंत्र राजनीतिक सत्ता को स्वीकार कर लिया, किंतु अब भी देश को फ्रेंच यूनियन के अंतर्गत ही रखा गया था। इसके विरुद्ध कंबोडिया के प्रभावशाली राजा नोरदम सिंहानुक ने अपना राष्ट्रीय आंदोलन जारी रखा। इनके प्रयत्न से कंबोडिया शीघ्र ही स्वतंत्र राष्ट्र बन गया और ये अपने देश के प्रथम प्रधान मंत्री चुने गए।
धर्म, भाषा, सामाजिक जीवन कंबोज वास्तविक अर्थ में भारतीय उपनिवेश था। वहाँ के निवासियों का धर्म, उनकी संस्कृति एवं सभ्यता, साहित्यिक परंपराएँ, वास्तुकला और भाषा-सभी पर भारतीयता की अमिट छाप थी जिसके दर्शन आज भी कंबोज के दर्शक को अनायास ही हो जाते हैं। हिंदू धर्म और वैष्णव संप्रदाय और तत्पश्चात् (1000 ई. के बाद) बौद्ध धर्म कंबोज के राजधर्म थे और यहाँ के अनेक संस्कृत अभिलेखों को उनकी धार्मिक तथा पौराणिक सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के कारण भारतीय अभिलेखों से अलग करना कठिन ही जान पड़ेगा। उदाहरण के लिए राजेंद्रवर्मन् के एक विशाल अभिलेख का केवल एक अंश यहाँ प्रस्तुत है जिसमें शिव की वंदना की गई है:
रूपं यस्य नवेन्दुमंडितशिखं त्रय्या: प्रतीतं परं
बीजं ब्रह्महरीश्वरोदयकरं भिन्नं कलाभिस्त्रिधा।
साक्षारदक्षरमामनन्ति मुनयो योगोधिगम्यं नमस्
संसिद्ध्यै प्रणवात्मने भगवते तस्मै शिवायास्तु वम्।।
पुराने अरब पर्यटकों ने कंबोज को हिंदू देश के नाम से ठीक ही अभिहित किया। कंबुज की राजभाषा प्राचीन काल में संस्कृत थी, उसका स्थान धीरे-धीरे बौद्ध धर्म के प्रचार के कारण पाली ने ले लिया और आज भी यह धार्मिक क्षेत्र में यहाँ की मुख्य भाषा बनी हुई है। कंबुज भाषा में संस्कृत के हजारों शब्द अपने कंबुजी या ख्मेर रूप में आज भी पाए जाते हैं (जैसे-तेप्दा = देवता, शात्स = शासन, सुओर = स्वर्ग, फीमेअन = विमान)। ख्मेर लिपि दक्षिणी भारत की पल्लव और पूर्वी चालुक्य लिपियों के मेल से बनी है। कंबोज की वास्तुकला, मूर्तिकला तथा चित्रकला पर भारतीय प्रभाव स्पष्ट है। अंग्कोरथोम का बेयोन मंदिर दक्षिण भारत के मंदिरों से बहुत मिलता-जुलता है। इसके शिखर में भी भारतीय मंदिरों के शिखरों की स्पष्ट झलक मिलती है। इस मंदिर और ऐलोरा के कैलास मंदिर के कलातत्व, विशेषत: मूर्तिकारी तथा आलेख्य विषयों और दृश्यों में अद्भुत साम्य है।
कंबोज की सामाजिक दशा का सुंदर चित्रण, शू-तान-कुतान के वर्णन (13वीं सदी का अंत) इस प्रकार है-
विद्वानों को यहाँ पंकि (पंडित), भिक्षुओं को शू-कू (भिक्षु) और ब्राह्मणों को पा-शो-वेई (पाशुपत) कहा जाता है। पंडित अपने कंठ में श्वेत धागा (यज्ञोपवीत) डाले रहते हैं, जिसे वे कभी नहीं हटाते। भिक्षु लोग सिर मुड़ाते और पीत वस्त्र पहनते हैं। वे मांस मछली खाते हैं पर मद्य नहीं पीते। उनकी पुस्तकें तालपत्रों पर लिखी जाती हैं। बौद्ध भिक्षुणियाँ यहाँ नहीं है। पाशुपत अपने केशों को लाल या सफेद वस्त्रों से ढके रहते हैं। कंबोज के सामान्य जन श्याम रंग के तथा हृष्टपुष्ट हैं। राजपरिवार की स्त्रियाँ गौर वर्ण हैं। सभी लोग कटि तक शरीर विवस्त्र रखते हैं और नंगे पाँव घूमते हैं। राजा पटरानी के साथ झरोखे में बैठकर प्रजा को दर्शन देता है।
लिखने के लिए कृष्ण मृग काचमड़ा भी काम में आता है। लोग स्नान के बहुत प्रेमी हैं। यहाँ स्त्रियाँ व्यापार का काम भी करती हैं। गेहूँ, हल्दी, चीनी, रेशम के कपड़े, राँगा, चीनी बर्तन कागज आदि यहाँ व्यापार की मुख्य वस्तुएँ हैं।
गाँवों में प्रबंध करने के लिए एक मुखिया या मयिची रहता है। सड़कों पर यात्रियों के विश्राम करने के लिए आवास बने हुए हैं।
कंबोडिया - कंबोज का अर्वाचीन (आधुनिक) नाम है। यह हिंद चीन प्रायद्वीप का एक देश है जो सन् 1955 ई. में फ्रांसीसी आधिपत्य से मुक्त हुआ है। 19वीं शताब्दी के पूर्व यह प्रदेश ख़्मेर राज्य का अंग था किंतु 1863 ई. में फ्रांसीसियों के आधिपत्य में आ गया। द्वितीय विश्वयुद्ध में कंबोडिया पर जापान का अधिकार था।
कंबोडिया का क्षेत्रफल 1,81,000 वर्ग मील है। इसकी पश्चिमी और उत्तरी सीमा पर स्याम तथा लाओ और पूर्वी सीमा पर दक्षिणी वियतनाम देश हैं। दक्षिण-पश्चिम भाग स्याम की खाड़ी का तट है। कंबोडिया तश्तरी के आकर की एक घाटी है जिसे चारों ओर से पर्वत घेरे हुए हैं। घाटी में उत्तर से दक्षिण की ओर मीकांग नदी बहती है। घाटी के पश्चिमी भाग में तांगले नामक एक छिछली और विस्तृत झील है जो उदाँग नदी द्वारा मीकांग से जुड़ी हुई है।
कंबोडिया की उपजाऊ मिट्टी और मौसमी जलवायु में चावल प्रचुर परिमाण में होता है। अब भी विस्तृत भूक्षेत्र श्रमिकों के अभाव में कृषिविहीन पड़े हैं। यहाँ की अन्य प्रमुख फसलें तुबाकू, कहवा, नील और रबर हैं। पशुपालन का व्यवसाय विकासोन्मुख है। पर्याप्त जनसंख्या मछली पकड़कर अपनी जीविका अर्जित करती है। चावल और मछली कंबोडिया की प्रमुख निर्यात की वस्तुएँ हैं। इस देश का एक विस्तृत भाग बहुमूल्य वनों से आच्छादित है। मीकांग और टोनलेसाप के संगम पर स्थित प्नॉम पेन कंबोडिया की राजधानी है। बड़े-बड़े जलयान इस नगर तक आते हैं। यह नगर कंबोडिया की विभिन्न भागों से सड़कों द्वारा जुड़ा है।
सन्दर्भ इन्हें भी देखें
कम्बोडिया की संस्कृति
बाहरी कड़ियाँ
(पाञ्चजन्य)
(नईदुनिया)
(नई दुनिया)
श्रेणी:कम्बोडिया
श्रेणी:दक्षिण-पूर्व एशियाई देश
श्रेणी:दक्षिण पूर्वी एशियाई राष्ट्रों का संगठन के सदस्य राष्ट्र | कंबोडिया की राजधानी क्या है? | नामपेन्ह | 167 | hindi |
283b2339a | तेन्जिंग नॉरगे (29 मई 1914- 9 मई 1986) एक नेपाली पर्वतारोही थे जिन्होंने एवरेस्ट और केदारनाथ के प्रथम मानव चढ़ाई के लिए जाना जाता है। न्यूजीलैंड एडमंड हिलेरी के साथ वे पहले व्यक्ति हैं जिसने माउंट एवरेस्ट की चोटी पर पहला मानव कदम रखा। इसके पहले पर्वतारोहण के सिलसिले में वो चित्राल और नेपाल में रहे थे। नोरगे को नोरके भी कहा जाता है। इनका मूल नाम नांगयाल वंगड़ी है, जिसका अभिप्राय होता है धर्म का समृद्ध भाग्यवान अनुयायी।
जीवन तेन्जिंग का जन्म उत्तरी नेपाल में थेम नामक स्थान पर 1914 में एक शेरपा बौद्ध परिवार में हुआ था। सन् 1933 में वे कुछ महीनों के लिए एक भिक्षु बनने के बाद नौकरी की तलाश में दार्जीलिंग आ गए जो अब भारतीय बंगाल के उत्तर में स्थित है। एक ब्रिटिश मिशन में शामिल होने के बाद उन्होंने कई एवरेस्ट मिशनों में हिस्सा लिया और अंततः 29 मई सन् 1953 को सातवें प्रयास में उनको सफलता मिली। न्यूज़ीलैंड के सर एडमंड हिलेरी इस मिशन में उनके साथ थे।
तेन्जिंग बौद्ध धर्म के अनुयायी थे और 1933 में वे भारतीय नागरिक बन गये थे। कॉफ़ी उनका प्रिय पेय और कुत्ते पालना उनका मुख्य शौक़ था। बचपन से ही पर्वतारोहण में रुचि होने के कारण वे एक अच्छे एवं कुशल पर्वतारोही बन गये। उनका प्रारम्भिक नाम नामग्याल बांगडी था। वे तेनज़िंग खुमजुंग भूटिया भी कहलाते थे। तेनज़िंग को अपनी सफलताओं के लिए जार्ज मैडल भी प्राप्त हुआ था। 1954 में दार्जिलिंग में 'हिमालय पर्वतारोहण संस्थान' की स्थापना के समय उन्हें इसका प्रशिक्षण निर्देशक बना दिया गया था। तेन्जिंग ने अपने अपूर्व साहस से भारत का नाम हिमालय की ऊँचाइयों पर लिख दिया है, जिसके लिय वे सदैव याद किए जाएंगे।
उपलब्धि बचपन में ही तेन्जिंग एवरेस्ट के दक्षिणी क्षेत्र में स्थित अपने गाँव, जहां शेरपाओं (पर्वतारोहण में निपुण नेपाली लोग, आमतौर पर कुली) का निवास था, से भागकर भारत के पश्चिम बंगाल में दार्जिलिंग में बस गए। 1935 में वे एक कुली के रूप में वह सर एरिक शिपटन के प्रारम्भिक एवरेस्ट सर्वेक्षण अभियान में शामिल हुए। अगले कुछ वर्षों में उन्होने अन्य किसी भी पर्वतारोही के मुक़ाबले एवरेस्ट के सर्वाधिक अभियानों में हिस्सा लिया। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वह कुलियों के संयोजक अथवा सरदार बन गए। और इस हैसियत से वह कई अभियानों पर साथ गए। 1952 में स्वीस पर्वतारोहियों ने दक्षिणी मार्ग से एवरेस्ट पर चढ़ने के दो प्रयास किए और दोनों अभियानों में तेन्जिंग सरदार के रूप में उनके साथ थे। 1953 में वे सरदार के रूप में ब्रिटिश एवरेस्ट के अभियान पर गए और हिलेरी के साथ उन्होने दूसरा शिखर युगल बनाया। दक्षिण-पूर्वी पर्वत क्षेत्र में 8,504 मीटर की ऊंचाई पर स्थित अपने तम्बू से निकलकर वह 29 मई को दिन के 11.30 बजे शिखर पर पहुंचे। उन्होने वहाँ फोटो खींचते और मिंट केक खाते हुए 15 मिनट बिताए और एक श्रद्धालु बौद्ध की तरह चढ़ावे के रूप में प्रसाद अर्पित किया। इस उपलब्धि के बाद उन्हें कई नेपालियों और भर्तियों द्वारा अनश्रुत नायक माना जाता है।[1][2]
तेन्जिंग की इस महान विजय यात्रा में सर एडमंड हिलेरी उनके सहयोगी थे। तेनज़िंग कर्नल जान हण्ट के नेतृत्व में एक ब्रिटिश पर्वतारोही दल के सदस्य के रूप में हिमालय की यात्रा पर गये थे और दृढ़ निश्चय के साथ आगे बढ़ते हुए 29 मई, 1953 को उन्होंने एवरेस्ट के शिखर को स्पर्श किया। तेनज़िंग की इस ऐतिहासिक सफलता ने उन्हें इतिहास में अमर कर दिया है। भारत के अतिरिक्त इंग्लैंड एवं नेपाल की सरकारों ने भी उन्हें सम्मानित किया था। 1959 में उन्हें 'पद्मभूषण' से अलंकृत किया गया। वास्तव में 1936-1953 तक के सभी एवरेस्ट अभियानों में उनका सक्रिय सहयोग रहा था।[3][4]
सम्मान और कीर्ति उनको नेपाल सरकार की ओर सन् १९५३ में सम्मान (सुप्रदीप्त मान्यवर नेपाल तारा) प्रदान किया और उनके एवरेस्ट आरोहण के तुरंत बाद रानी बनी एलिज़ाबेथ ने जार्ज मेडल दिया जो किसी भी विदेशी को दिया जाने वाला सर्वोच्च सम्मान था। सन् १९५९ ने भारत सरकार ने उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया।[5]
एक स्विस कंपनी ने उनके नाम से शेरपा तेनसिंग लोशन और लिप क्रीम बेचा। न्यूज़ीलैंड की एक कार का नाम शेरपा रखा गया।
सन् २००८ में नेपाल के लुकला एयरपोर्ट का नाम बदल कर तेनज़िंग-हिलेरी एयरपोर्ट कर दिया गया।
व्यक्तिगत जीवन उन्होंने तीन शादिया कीं - पहली पत्नी, दावा फुती से उनको तीन संतान हुई। पहला लड़का चार साल की उम्र में मर गया, जबकि जुड़वां बहने - आंग निमा और पेम पेम के जन्म के बाद दावा फुती का निधन (१९४४) हो गया। उसके बाद उन्होंने आंग ल्हामु से शादी की। ल्हामु को तेनज़िंग की पर्वतारोही जिन्दगी का संबल माना जाता है, हाँलांकि उनसे तेन्ज़िंग को कोई संतान नहीं हुई। इसी समय उन्होंने ल्हामु की (च्चेरी) बहन डाकु से शादी की। दाकु की ३ संताने हुईं - नोव्बु, जामलिंग और धामे। उनकी एक संतान जामलिंग ने सन् १९९६ में एवरेस्ट आरोहण में सफलता अर्जित की।
मृत्यु 9 मई, 1986 को इनकी मृत्यु हो गई।
सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ
रॉयल जियोग्राफिकल सोसायटी पर तेनजिंग पर व्यक्तिगत डेटाबेस में 1935 में माउंट एवरेस्ट टोही एरिक शिपटन के नेतृत्व में
श्रेणी:१९५९ पद्म भूषण
श्रेणी:पर्वतारोही
श्रेणी:1914 में जन्मे लोग | माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने वाला सबसे पहला आदमी कौन था? | तेन्जिंग नॉरगे | 0 | hindi |
cd3e52113 | ऋषभदेव जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर हैं। तीर्थंकर का अर्थ होता है जो तीर्थ की रचना करें। जो संसार सागर (जन्म मरण के चक्र) से मोक्ष तक के तीर्थ की रचना करें, वह तीर्थंकर कहलाते हैं। ऋषभदेव जी को आदिनाथ भी कहा जाता है। भगवान ऋषभदेव वर्तमान अवसर्पिणी काल के प्रथम दिगम्बर जैन मुनि थे।[1]
जीवन चरित्र ऋषभदेव का जन्म दर्शाती प्रदर्शनी
ऐरावत हाथी पर इंद्र द्वारा सुमेरु पर्वत पर अभिषेक के लिए बाल ऋषभदेव को ले जाया जाना नीलांजना का नृत्य दिखलाती प्रदर्शनी
भगवान ऋषभदेव का समवशरण
जैन पुराणों के अनुसार अन्तिम कुलकर राजा नाभिराज के पुत्र ऋषभदेव हुये। भगवान ऋषभदेव का विवाह यशावती देवी और सुनन्दा से हुआ। ऋषभदेव के १०० पुत्र और दो पुत्रियाँ थी।[2] उनमें भरत चक्रवर्ती सबसे बड़े थे एवं प्रथम चक्रवर्ती सम्राट हुए जिनके नाम पर इस देश का नाम भारत पडा। दुसरे पुत्र बाहुबली भी एक महान राजा एवं कामदेव पद से बिभूषित थे। इनके आलावा ऋषभदेव के वृषभसेन, अनन्तविजय, अनन्तवीर्य, अच्युत, वीर, वरवीर आदि ९९ पुत्र तथा ब्राम्ही और सुन्दरी नामक दो पुत्रियां भी हुई, जिनको ऋषभदेव ने सर्वप्रथम युग के आरम्भ में क्रमश: लिपिविद्या (अक्षरविद्या) और अंकविद्या का ज्ञान दिया।[3][4] बाहुबली और सुंदरी की माता का नाम सुनंदा था। भरत चक्रवर्ती, ब्रह्मी और अन्य ९८ पुत्रों की माता का नाम सुमंगला था। ऋषभदेव भगवान की आयु ८४ लाख पूर्व की थी जिसमें से २० लाख पूर्व कुमार अवस्था में व्यतीत हुआ और ६३ लाख पूर्व राजा की तरह|[5]
केवल ज्ञान जैन ग्रंथो के अनुसार लगभग १००० वर्षो तक तप करने के पश्चात ऋषभदेव को केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। ऋषभदेव भगवान के समवशरण में निम्नलिखित व्रती थे:[6]
८४ गणधर
२२ हजार केवली
१२,७०० मुनि मन: पर्ययज्ञान ज्ञान से विभूषित [7]
९,००० मुनि अवधी ज्ञान से ४,७५० श्रुत केवली
२०,६०० ऋद्धि धारी मुनि
३,५०,००० आर्यिका माता जी [8]
३,००,००० श्रावक
हिन्दु ग्रन्थों में वर्णन वैदिक धर्म में भी ॠषभदेव का संस्तवन किया गया है। भागवत में अर्हन् राजा के रूप में इनका विस्तृत वर्णन है। इसमें भरत आदि 100 पुत्रों का कथन जैन धर्म की तरह ही किया गया है। अन्त में वे दिगम्बर (नग्न) साधु होकर सारे भारत में विहार करने का भी उल्लेख किया गया है। ॠग्वेद आदि प्राचीन वैदिक साहित्य में भी इनका आदर के साथ संस्तवन किया गया है।
हिन्दूपुराण श्रीमद्भागवत के पाँचवें स्कन्ध के अनुसार मनु के पुत्र प्रियव्रत के पुत्र आग्नीध्र हुये जिनके पुत्र राजा नाभि (जैन धर्म में नाभिराय नाम से उल्लिखित) थे। राजा नाभि के पुत्र ऋषभदेव हुये जो कि महान प्रतापी सम्राट हुये। भागवतपुराण अनुसार भगवान ऋषभदेव का विवाह इन्द्र की पुत्री जयन्ती से हुआ। इससे इनके सौ पुत्र उत्पन्न हुये। उनमें भरत चक्रवर्ती सबसे बड़े एवं गुणवान थे।[9] उनसे छोटे कुशावर्त, इलावर्त, ब्रह्मावर्त, मलय, केतु, भद्रसेन, इन्द्रस्पृक, विदर्भ और कीकट ये नौ राजकुमार शेष नब्बे भाइयों से बड़े एवं श्रेष्ठ थे। उनसे छोटे कवि, हरि, अन्तरिक्ष, प्रबुद्ध, पिप्पलायन, आविर्होत्र, द्रुमिल, चमस और करभाजन ये नौ पुत्र राजकुमार भागवत धर्म का प्रचार करने वाले बड़े भगवद्भक्त थे। इनसे छोटे इक्यासी पुत्र पिता की की आज्ञा का पालन करते हुये पुण्यकर्मों का अनुष्ठान करने से शुद्ध होकर ब्राह्मण हो गये।[10]
प्रतिमा भगवान ऋषभदेव जी की एक ८४ फुट की विशाल प्रतिमा भारत में मध्य प्रदेश राज्य के बड़वानी जिले में बावनगजा नामक स्थान पर उपस्थित है। मांगी तुन्गी ( महाराष्ट्र ) में भगवान ऋषभदेव की 108 फुट की विशाल प्रतिमा है।
बाहरी कड़ियाँ
सन्दर्भ (संस्कृत)
सन्दर्भ ग्रन्थ Check date values in: |year= (help)
श्रेणी:दर्शन
श्रेणी:जैन धर्म
श्रेणी:हिन्दू धर्म
श्रेणी:तीर्थंकर | भगवान ऋषभदेव किस धर्म के प्रथम तीर्थंकर कहलाते है? | जैन धर्म | 7 | hindi |
c696516d7 | बुर्ज ख़लीफ़ा दुबई में आठ अरब डॉलर की लागत से छह साल में निर्मित ८२८ मीटर ऊँची १६८ मंज़िला दुनिया की सबसे ऊँची इमारत है (जनवरी, सन् २०१० में)। इसका लोकार्पण ४ जनवरी, २०१० को भव्य उद्घाटन समारोह के साथ किया गया। इसमें तैराकी का स्थान, खरीदारी की व्यवस्था, दफ़्तर, सिनेमा घर सहित सारी सुविधाएँ मौजूद हैं। इसकी ७६ वीं मंजिल पर एक मस्जिद भी बनायी गयी है। इसे ९६ किलोमीटर दूर से भी साफ़-साफ़ देखा जा सकता है। इसमें लगायी गयी लिफ़्ट दुनिया की सबसे तेज़ चलने वाली लिफ़्ट है। “ऐट द टॉप” नामक एक दरवाज़े के बाहर अवलोकन डेक, 124 वीं मंजिल पर, 5 जनवरी 2010 पर खुला। यह 452 मीटर (1,483 फुट) पर, दुनिया में तीसरे सर्वोच्च अवलोकन डेक और दुनिया में दूसरा सबसे बड़ा दरवाज़े के बाहर अवलोकन डेक है।
निर्माण विशेषता सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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श्रेणी: गगनचुम्बी इमारतें
श्रेणी: सर्वोच्च गगनचुम्बी | बुर्ज खलीफा की लम्बाई कितनी है | ८२८ मीटर | 65 | hindi |
1e735f2bc | पनडुब्बी(अंग्रेज़ी:सबमैरीन) एक प्रकार का जलयान (वॉटरक्राफ़्ट) है जो पानी के अन्दर रहकर काम कर सकता है। यह एक बहुत बड़ा, मानव-सहित, आत्मनिर्भर डिब्बा होता है। पनडुब्बियों के उपयोग ने विश्व का राजनैतिक मानचित्र बदलने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई है। पनडुब्बियों का सर्वाधिक उपयोग सेना में किया जाता रहा है और ये किसी भी देश की नौसेना का विशिष्ट हथियार बन गई हैं। यद्यपि पनडुब्बियाँ पहले भी बनायी गयीं थीं, किन्तु ये उन्नीसवीं शताब्दी में लोकप्रिय हुईं तथा सबसे पहले प्रथम विश्व युद्ध में इनका जमकर प्रयोग हुआ। विश्व की पहली पनडुब्बी एक डच वैज्ञानिक द्वारा सन १६०२ में और पहली सैनिक पनडुब्बी टर्टल १७७५ में बनाई गई। यह पानी के भीतर रहते हुए समस्त सैनिक कार्य करने में सक्षम थी और इसलिए इसके बनने के १ वर्ष बाद ही इसे अमेरिकी क्रान्ति में प्रयोग में लाया गया था। सन १६२० से लेकर अब तक पनडुब्बियों की तकनीक और निर्माण में आमूलचूल बदलाव आया। १९५० में परमाणु शक्ति से चलने वाली पनडुब्बियों ने डीज़ल चलित पनडुब्बियों का स्थान ले लिया। इसके बाद समुद्री जल से आक्सीजन ग्रहण करने वाली पनडुब्बियों का भी निर्माण कर लिया गया। इन दो महत्वपूर्ण आविष्कारों से पनडुब्बी निर्माण क्षेत्र में क्रांति सी आ गई। आधुनिक पनडुब्बियाँ कई सप्ताह या महिनों तक पानी के भीतर रहने में सक्षम हो गई है।
द्वितीय विश्व युद्ध के समय भी पनडुब्बियों का उपयोग परिवहन के लिये सामान को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने के लिए किया जाता था। आजकल इनका प्रयोग पर्यटन के लिये भी किया जाने लगा है। कालपनिक साहित्य संसार और फंतासी चलचित्रों के लिये पनडुब्बियों का कच्चे माल के रूप मे प्रयोग किया गया है। पनडुब्बियों पर कई लेखकों ने पुस्तकें भी लिखी हैं। इन पर कई उपन्यास भी लिखे जा चुके हैं। पनडुब्बियों की दुनिया को छोटे परदे पर कई धारावाहिको में दिखाया गया है। हॉलीवुड के कुछ चलचित्रों जैसे आक्टोपस १, आक्टोपस २, द कोर में समुद्री दुनिया के मिथकों को दिखाने के लिये भी पनडुब्बियो को दिखाया गया है।
आकार पनडुब्बी के भीतर कृत्रिम रूप से जीवन योग्य सुविधाओं की व्यस्था की जाती है। आधुनिक पनडुब्बियाँ अपने चालक दल के लिये प्राणवायु ऑक्सीजन समुद्री जल के विघटन की प्रक्रिया से प्राप्त करती है। पनडुब्बियों में कार्बन डाईऑक्साइड को अवशोषित करने की भी व्यस्था होती है ताकि पनडुब्बी के भीतर कार्बन डाईऑक्साइड ना भर जाए। ऑक्सीजन की पर्याप्त उपलब्धता के लिये पनडुब्बी में एक ऑक्सीजन टंकी भी होती है। आग लगने पर बचाव के लिये भी व्यस्था की जाती है। आग लगने की स्थिति में जिस भाग में आग लगी होती है, उसे शेष पनडुब्बी से विशेष रूप से बने परदों की सहायता से अलग कर दिया जाता है ताकि विषैली गैसें बाकी पनडुब्बी में ना फैले।
भारतीय नौसेना में विश्व की सभी प्रमुख नौसेनाओं के समान ही भारतीय नौसेना ने भी अपने बेड़े में पनडुब्बियों को सम्मिलित किया है। भारतीय नौसेना के बेड़े में वर्तमान में १६ डीज़ल चलित पनडुब्बियाँ हैं। ये सभी पनडुब्बियाँ मुख्य रूप से रुस या जर्मनी में बनीं हुईं हैं। वर्ष २०१०-११ में इस बेड़े मे ६ और पनडुब्बियाँ सम्मिलित कर ली जाएगीं। भारतीय नौसेना पोत (आई एन एस) अरिहंत (अरि: शत्रु हंतः मारना अर्थात शत्रु को मारने वाला) परमाणु शक्ति चालित भारत की प्रथम पनडुब्बी है।[1][2] इस ६००० टन के पोत का निर्माण उन्नत प्रौद्योगिकी पोत (ATV) परियोजना के अंतर्गत पोत निर्माण केंद्र विशाखापत्तनम में २.९ अरब डॉलर की लागत से किया गया है। इसको बनाने के बाद भारत वह छठा देश बन गया जिनके पास इस प्रकार की पनडुब्बियां है।
कुछ रहस्यमयी पनडुब्बियाँ २२ मई १९६८ को, जब वियतनाम युद्ध अपने चरम पर था तब अमेरिका की यू एस एस स्कॉर्पियन नामक पनडुब्बी उत्तरी अटलांटिक महासागर में कहीं खो गई। बड़े खोज अभियान स्वरुप, दुर्घटना के छह महीने बाद नवंबर १९६८ में आयरलैंड के एज़ोरा से ७२५ किमी दूर दक्षिण पश्चिम में यह पनडुब्बी खोज ली गई। यह यहाँ पर तीन टुकड़ों में पाई गई। यह एक परमाणु पनडुब्बी थी जिसपर ९९ लोग सवार थे और सभी मारे गये थे। इसका पिछला भाग इस प्रकार उखड़ा हुआ पाया गया जैसे किसी आंतरिक विस्फोट से उड़ाया गया हो। दुर्घटना के कारण आज भी रहस्य बने हुए हैं।
१९४३ में यू एस एस ट्रिगरफिश नामक पनडुब्बी शत्रुओं के जहाज़ों द्वारा नष्ट कर दी गई। इसका कोई चिन्ह नहीं मिला। ५० वर्षों बाद सन डीगो समुद्र तट पर यह फिर से पाई गई। इसके चालक दल का कोई सुराग नहीं मिला। पचास वर्षों तक यह पनडुब्बी पुरी तरह अज्ञात रही।
स्कॉटलैंड में नवंबर २००६ में आर्कने के समुद्र तट के पास ७० फीट की गहराई में दो रहस्यमयी पनडुब्बियों के अवशेष पाए गए। नवीनतम त्रिआयामी सोनार तकनीक से इन टुकड़ो के चित्र भी लिये गए, लेकिन इन पनडुब्बियों की राष्ट्रीयता नहीं पहचानी जा सकी। इनके चालक दलों का भी कोई चिन्ह नहीं मिला। अनुमान लगाए जा रहें है कि ये जर्मनी की यू बोट हैं जो द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नष्ट हुई होंगी।
सन्दर्भ बाहरी कड़ियाँ - पनडुब्बी के आविष्कारक।
- जॉन हॉलैंड की प्रथम पनडुब्बी के फोटो और उनकी दूसरी पनडुब्बी, फेनियन रैम।
श्रेणी:रक्षा
श्रेणी:जलयान
श्रेणी:हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना
श्रेणी:नौसेना | विश्व की पहली पनडुब्बी किसके द्वारा बनाई गई? | एक डच वैज्ञानिक द्वारा | 529 | hindi |
6e76514a5 | क़ुस्तुंतुनिया या कांस्टैंटिनोपुल (यूनानी: Κωνσταντινούπολις कोन्स्तान्तिनोउपोलिस या Κωνσταντινούπολη कोन्स्तान्तिनोउपोली; लातीनी: Constantinopolis कोन्स्तान्तिनोपोलिस; उस्मानी तुर्कीयाई: قسطنطینية, Ḳosṭanṭīnīye कोस्तान्तिनिये), बोस्पोरुस जलसन्धि और मारमरा सागर के संगम पर स्थित एक ऐतिहासिक शहर है, जो रोमन, बाइज़ेंटाइन, और उस्मानी साम्राज्य की राजधानी थी। 324 ई. में प्राचीन बाइज़ेंटाइन सम्राट कोन्स्टान्टिन प्रथम द्वारा रोमन साम्राज्य की नई राजधानी के रूप में इसे पुनर्निर्मित किया गया, जिसके बाद इन्हीं के नाम पर इसे नामित किया गया।
परिचय
इस शहर की स्थापना रोमन सम्राट कोन्स्टान्टिन महान ने 328 ई. में प्राचीन शहर बाइज़ेंटाइन को विस्तृत रूप देकर की थी। नवीन रोमन साम्राज्य की राजधानी के रूप में इसका आरंभ 11 मई 330 ई. को हुआ था। यह शहर भी रोम के समान ही सात पहाड़ियों के बीच एक त्रिभुजाकार पहाड़ी प्रायद्वीप पर स्थित है और पश्चिमी भाग को छोड़कर लगभग सभी ओर जल से घिरा हुआ है। रूम सागर और काला सागर के मध्य स्थित बृहत् जलमार्ग पर होने के कारण इस शहर की स्थिति बड़ी महत्वपूर्ण रही है। इसके यूरोप को एशिया से जोड़ने वाली एक मात्र भूमि-मार्ग पर स्थित होने से इसका सामरिक महत्व था। प्रकृति ने दुर्ग का रूप देकर उसे व्यापारिक, राजनीतिक और युद्धकालिक दृष्टिकोण से एक महान साम्राज्य की सुदृढ़ और शक्तिशाली राजधानी के अनुरूप बनने में पूर्ण योग दिया था। निरंतर सोलह शताब्दियों तक एक महान साम्राज्य की राजधानी के रूप में इसकी ख्याति बनी हुई थी। सन् 1930 में इसका नया तुर्कीयाई नाम इस्तानबुल रखा गया। अब यह शहर प्रशासन की दृष्टि से तीन भागों में विभक्त हो गया है इस्तांबुल, पेरा-गलाटा और स्कूतारी। इसमें से प्रथम दो यूरोपीय भाग में स्थित हैं जिन्हें बासफोरस की 500 गज चौड़ी गोल्डेन हॉर्न नामक सँकरी शाखा पृथक् करती है। स्कूतारी तुर्की के एशियाई भाग पर बासफोरस के पूर्वी तट पर स्थित है। यहाँ के उद्योगों में चमड़ा, शस्त्र, इत्र और सोनाचाँदी का काम महत्वपूर्ण है। समुद्री व्यापार की दृष्टि से यह अत्युत्तम बंदरगाह माना जाता है। गोल्डेन हॉर्न की गहराई बड़े जहाजों के आवागमन के लिए भी उपयुक्त है और यह आँधी, तूफान इत्यादि से पूर्णतया सुरक्षित है। आयात की जानेवाली वस्तुएँ मक्का, लोहा, लकड़ी, सूती, ऊनी और रेशमी कपड़े, घड़ियाँ, कहवा, चीनी, मिर्च, मसाले इत्यादि हैं; और निर्यात की वस्तुओं में रेशम का सामान, दरियाँ, चमड़ा, ऊन आदि मुख्य हैं।
इतिहास
स्थापना
क़ुस्तुंतुनिया की स्थापना ३२४ में रोमन सम्राट कोन्स्टान्टिन प्रथम (२७२-३३७ ई) ने पहले से ही विद्यमान शहर, बायज़ांटियम के स्थल पर की थी,[1] जो यूनानी औपनिवेशिक विस्तार के शुरुआती दिनों में लगभग ६५७ ईसा पूर्व में, शहर-राज्य मेगारा के उपनिवेशवादियों द्वारा स्थापित किया गया था।[2] इससे पूर्व यह शहर फ़ारसी, ग्रीक, अथीनियन और फिर ४११ ईसापूर्व से स्पार्टा के पास रही।[3] १५० ईसापूर्व रोमन के उदय के साथ ही इस पर इनका प्रभाव रहा और ग्रीक और रोमन के बीच इसे लेकर सन्धि हुई,[4] सन्धि के अनुसार बायज़ांटियम उन्हें लाभांश का भुगतान करेगा बदले में वह अपनी स्वतंत्र स्थिति रख सकेगा जोकि लगभग तीन शताब्दियों तक चला।[5]
क़ुस्तुंतुनिया का निर्माण ६ वर्षों तक चला, और ११ मई ३३० को इसे प्रतिष्ठित किया गया।[1][6] नये भवनें का निर्माण बहुत तेजी से किया गया था: इसके लिये स्तंभ, पत्थर, दरवाजे और खपरों को साम्राज्य के मंदिरों से नए शहर में लाया गया था।
महत्त्व
संस्कृति
पूर्वी रोमन साम्राज्य के अंत के दौरान पूर्वी भूमध्य सागर में कांस्टेंटिनोपल सबसे बड़ा और सबसे अमीर शहरी केंद्र था, मुख्यतः ईजियन समुद्र और काला सागर के बीच व्यापार मार्गों के बीच अपनी रणनीतिक स्थिति के परिणामस्वरूप इसका काफ़ी महत्त्व बढ़ गया। यह एक हजार वर्षों से पूर्वी, यूनानी-बोलने वाले साम्राज्य की राजधानी रही। मोटे तौर पर मध्य युग की तुलना में अपने शिखर पर, यह सबसे धनी और सबसे बड़ा यूरोपीय शहर था, जोकि एक शक्तिशाली सांस्कृतिक उठ़ाव और भूमध्यसागरीय क्षेत्र में आर्थिक जीवन पर प्रभावी रहा। आगंतुक और व्यापारी विशेषकर शहर के खूबसूरत मठों और चर्चों को, विशेष रूप से, हागिया सोफिया, या पवित्र विद्वान चर्च देख कर दंग रह जाते थे।
इसके पुस्तकालय, ग्रीक और लैटिन लेखकों के पांडुलिपियों के संरक्षण हेतु विशेष रूप से महत्वपूर्ण रहे, जिस समय अस्थिरता और अव्यवस्था से पश्चिमी यूरोप और उत्तर अफ्रीका में उनका बड़े पैमाने पर विनाश हो रहा था। शहर के पतन के समय, हजारों शरणार्थियों द्वारा यह पांडुलिपी इटली लाये गये, और पुनर्जागरण काल से लेकर आधुनिक दुनिया में संक्रमण तक इसने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके अस्तित्व से कई शताब्दियों तक, पश्चिम पर इस शहर का बढ़ता हुआ प्रभाव अतुलनीय रहा है। प्रौद्योगिकी, कला और संस्कृति के संदर्भ में, और इसके विशाल आकार के साथ, यूरोप में हजार वर्षो तक कोई भी क़ुस्तुंतुनिया के समानांतर नहीं था।
वास्तु-कला
बाइज़ेंटाइन साम्राज्य ने रोमन और यूनानी वास्तुशिल्प प्रतिरूप और शैलियों का इस्तेमाल किया था ताकि अपनी अनोखी शैली का निर्माण किया जा सके। बाइज़ेंटाइन वास्तु-कला और कला का प्रभाव पूरे यूरोप में कि प्रतियों में देखा जा सकता है। विशिष्ट उदाहरणों में वेनिस का सेंट मार्क बेसिलिका, रेवेना के बेसिलिका और पूर्वी स्लाव में कई चर्च शामिल हैं। इसकी शहर की दीवारों की नकल बहुत ज्यादा की गई (उदाहरण के लिए, कैरर्नफॉन कैसल देखें) और रोमन साम्राज्य की कला, कौशल और तकनीकी विशेषज्ञता को जिंदा रखते हुए इसके शहरी बुनियादी ढांचे को मध्य युग में एक आश्चर्य के रूप में रहा। तुर्क काल में इस्लामिक वास्तुकला और प्रतीकों का इस्तेमाल किया हुआ।
धर्म
कॉन्स्टेंटाइन की नींव ने क़ुस्तुंतुनिया को बिशप की प्रतिष्ठा दी, जिसे अंततः विश्वव्यापी प्रधान के रूप में जाना जाने लगा और रोम के साथ ईसाई धर्म का एक प्रमुख केंद्र बना गया। इसने पूर्वी और पश्चिमी ईसाई धर्म के बीच सांस्कृतिक और धार्मिक मतभेद बढ़ाने में योगदान दिया और अंततः बड़े विवाद का कारण बना, जिसके कारण 1054 के बाद से पूर्वी रूढ़िवादी से पश्चिमी कैथोलिक धर्म विभाजित हो गये। क़ुस्तुंतुनिया, इस्लाम के लिए भी महान धार्मिक महत्व का है, क्योंकि क़ुस्तुंतुनिया पर विजय, इस्लाम में अंत समय के संकेतों में से एक था।
इन्हें भी देखें
इस्तानबुल
उस्मानी साम्राज्य
कुस्तुन्तुनिया विजय
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ , from History of the Later Roman Empire, by J.B. Bury
from the "New Advent Catholic Encyclopedia."
- Pantokrator Monastery of Constantinople
Select internet resources on the history and culture
from the Foundation for the Advancement of Sephardic Studies and Culture
, documenting the monuments of Byzantine Constantinople
, a project aimed at creating computer reconstructions of the Byzantine monuments located in Constantinople as of the year 1200 AD.
कुस्तुंतुनिया | क़ुस्तुंतुनिया शहर की स्थापना किस सम्राट ने की थी? | कोन्स्टान्टिन महान | 573 | hindi |
3f1494af2 | सोना या स्वर्ण (Gold) अत्यंत चमकदार मूल्यवान धातु है। यह आवर्त सारणी के प्रथम अंतर्ववर्ती समूह (transition group) में ताम्र तथा रजत के साथ स्थित है। इसका केवल एक स्थिर समस्थानिक (isotope, द्रव्यमान 197) प्राप्त है। कृत्रिम साधनों द्वारा प्राप्त रेडियोधर्मी समस्थानिकों का द्रव्यमान क्रमश: 192, 193, 194, 195, 196, 198 तथा 199 है।
परिचय
सोना एक धातु एवं तत्व है। शुद्ध सोना चमकदार पीले रंग का होता है जो कि बहुत ही आकर्षक रंग है। यह धातु बहुत कीमती है और प्राचीन काल से सिक्के बनाने, आभूषण बनाने एवं धन के संग्रह के लिये प्रयोग की जाती रही है। सोना घना, मुलायम, चमकदार, सर्वाधिक संपीड्य (malleable) एवं तन्य (ductile) धातु है। रासायनिक रूप से यह एक तत्व है जिसका प्रतीक (symbol) Au एवं परमाणु क्रमांक ७९ है। यह एक अंतर्ववर्ती धातु है। अधिकांश रसायन इससे कोई क्रिया नहीं करते। सोने के आधुनिक औद्योगिक अनुप्रयोग हैं - दन्त-चिकित्सा में, एलेक्ट्रॉनिकी में।
स्वर्ण के तेज से मनुष्य अत्यंत पुरातन काल से प्रभावित हुआ है क्योंकि बहुधा यह प्रकृति में मुक्त अवस्था में मिलता है। प्राचीन सभ्यताकाल में भी इस धातु को सम्मान प्राप्त था। ईसा से 2500 वर्ष पूर्व सिंधु घाटी की सभ्यताकाल में (जिसके भग्नावशेष मोहनजोदड़ो और हड़प्पा में मिले हैं) स्वर्ण का उपयोग आभूषणों के लिए हुआ करता था। उस समय दक्षिण भारत के मैसूर प्रदेश से यह धातु प्राप्त होती थी। चरकसंहिता में (ईसा से 300 वर्ष पूर्व) स्वर्ण तथा उसके भस्म का औषधि के रूप में वर्णन आया है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में स्वर्ण की खान की पहचान करने के उपाय धातुकर्म, विविध स्थानों से प्राप्त धातु और उसके शोधन के उपाय, स्वर्ण की कसौटी पर परीक्षा तथा स्वर्णशाला में उसके तीन प्रकार के उपयोगों (क्षेपण, गुण और क्षुद्रक) का वर्णन आया है। इन सब वर्णनों से यह ज्ञात होता है कि उस समय भारत में सुवर्णकला का स्तर उच्च था।
इसके अतिरिक्त मिस्र, ऐसीरिया आदि की सभ्यताओं के इतिहास में भी स्वर्ण के विविध प्रकार के आभूषण बनाए जाने की बात कही गई है और इस कला का उस समय अच्छा ज्ञान था।
मध्ययुग के कीमियागरों का लक्ष्य निम्न धातु (लोहे, ताम्र, आदि) को स्वर्ण में परिवर्तन करना था। वे ऐसे पत्थर पारस की खोज करते रहे जिसके द्वारा निम्न धातुओं से स्वर्ण प्राप्त हो जाए। इस काल में लोगों को रासायनिक क्रिया की वास्तविक प्रकृति का ज्ञान न था। अनेक लोगों ने दावे किये कि उन्होंने ऐसे गुर का ज्ञान पा लिया है जिसके द्वारा वे लौह से स्वर्ण बना सकते हैं जो बाद में सदैव मिथ्या सिद्ध हुए।
उपस्थिति
स्वर्ण प्राय: मुक्त अवस्था में पाया जाता है। यह उत्तम (noble) गुण का तत्व है जिसके कारण से उसके यौगिक प्राय: अस्थायी ही होते हैं। आग्नेय (igneous) चट्टानों में यह बहुत सूक्ष्म मात्रा में वितरित रहता है परंतु समय के साथ क्वार्ट्ज नलिकाओं (quartz veins) में इसकी मात्रा में वृद्धि हो गई है। प्राकृतिक क्रियाओं के फलस्वरूप कुछ खनिज पदार्थों में जैसे लौह पायराइट (Fe S2), सीस सल्फाइड (Pb S), चेलकोलाइट (Cu2 S) आदि अयस्कों के साथ स्वर्ण भी कुछ मात्रा में जमा हो गया है। यद्यपि इसकी मात्रा न्यून ही रहती है परंतु इन धातुओं का शोधन करते समय स्वर्ण की समुचित मात्रा मिल जाती है। चट्टानों पर जल के प्रभाव द्वारा स्वर्ण के सूक्ष्म मात्रा में पथरीले तथा रेतीले स्थानों में जमा होने के कारण पहाड़ी जलस्रोतों में कभी कभी इसके कण मिलते हैं। केवल टेल्डूराइल के रूप में ही इसके यौगिक मिलते हैं।
भारत में विश्व का लगभग दो प्रतिशत स्वर्ण प्राप्त होता है। मैसूर की कोलार की खानों से यह सोना निकाला जाता है। कोलार में स्वर्ण की 5 खानें हैं। इन खानों से स्वर्ण पारद के साथ पारदन (amalgamation) तथा सायनाइड विधि द्वारा निकाला जाता है। उत्तर में सिक्किम प्रदेश में भी स्वर्ण अन्य अयस्कों के साथ मिश्रित अवस्था में मिला करता है। बिहार के मानसून और सिंहभूम जिले में सुवर्णरेखा नदी में भी स्वर्ण के कण प्राप्य हैं।
दक्षिण अमरीका के कोलंबिया प्रदेश, मेक्सिको, संयुक्त राष्ट्र अमरीका के केलीफोर्निया तथा अलासका प्रदेश, आस्ट्रेलिया तथा दक्षिण अफ्रीका स्वर्ण उत्पादन के मुख्य केंद्र हैं। ऐसा अनुमान है कि यदि पंद्रहवीं शताब्दी के अंत से आज तक उत्पादित स्वर्ण को सजाकर रखा जाए तो लगभग 20 मीटर लंबा, चौड़ा तथा ऊँचा धन बनेगा। आश्चर्य तो यह है कि इतनी छोटी मात्रा के पदार्थ द्वारा करोड़ों मनुष्यों के भाग्य का नियंत्रण होता रहा है।
निर्माणविधि
स्वर्ण निकालने की पुरानी विधि में चट्टानों की रेतीली भूमि को छिछले तवों पर धोया जाता था। स्वर्ण का उच्च घनत्व होने के कारण वह नीचे बैठ जाता था और हल्की रेत धोवन के साथ बाहर चली जाती थी। हाइड्रालिक विधि (hydraulic mining) में जल की तीव्र धारा को स्वर्णयुक्त चट्टानों द्वारा प्रविष्ट करते हैं जिससे स्वर्ण से मिश्रित रेत जमा हो जाती है।
आधुनिक विधि द्वारा स्वर्णयुक्त क्वार्ट्ज (quartz) को चूर्ण कर पारद की परतदार ताम्र की थालियों पर धोते हैं जिससे अधिकांश स्वर्ण थालियों पर जम जाता है। परत को खुरचकर उसके आसवन (distillation) द्वारा स्वर्ण को पारद से अलग कर सकते हैं। प्राप्त स्वर्ण में अपद्रव्य वर्तमान रहता है। इसपर सोडियम सायनाइड के विलयन द्वारा क्रिया करने से सोडियम ऑरोसायनाइड बनेगा।
4 Au + 8 NaCN + O2 + 2 H2 O = 4 Na [ Au (C N)2] + 4 NaOH
इस क्रिया में वायुमंडल की ऑक्सीजन आक्सीकारक के रूप में प्रयुक्त होती है।
सोडियम ऑरोसायनाइड विलयन के विद्युत् अपघटन द्वारा अथवा यशद धातु की क्रिया से स्वर्ण मुक्त हो जाता है।
Zn + 2 Na [Au (C N)2] = Na2 [ Zn (CN)4] + 2 Au
सायनाइट विधि द्वारा ऐसे अयस्कों से स्वर्ण निकाला जा सकता है जिनमें स्वर्ण की मात्रा न्यूनतम हो। अन्य विधि के अनुसार अयस्क में उपस्थित स्वर्ण को क्लोरीन द्वारा गोल्ड क्लोराइड (Au Cl3) में परिणत कर जल में विलयित कर लिया जाता है। विलयन में हाइड्रोजन सल्फाइड (H2 S) प्रवाहित करने पर गोल्ड सल्फाइड बन जाता है जिसके दहन से स्वर्ण धातु मिल जाती है।
ऊपर बताई क्रियाओं से प्राप्त स्वर्ण में अपद्रव्य उपस्थित रहते हैं। इसके शोधन की आधुनिक विधि विद्युत् अपघटन पर आधारित है। इस विधि में गोल्ड क्लोराइड को तनु (dilute) हाइड्रोक्लोरिक अम्ल में विलयित कर लेते हैं। विलयन में अशुद्ध स्वर्ण के धनाग्र और शुद्ध स्वर्ण के ऋणाग्र के बीच विद्युत् प्रवाह करने पर अशुद्ध स्वर्ण विलयित हो ऋणाग्र पर जम जाता है।
गुणधर्म
स्वर्ण पीले रंग की धातु है। अन्य धातुओं के मिश्रण से इसके रंग में अंतर आ जाता है। इसमें रजत का मिश्रण करने से इसका रंग हल्का पड़ जाता है। ताम्र के मिश्रण से पीला रंग गहरा पड़ जाता है। मिनी गोल्ड में 8.33 प्रतिशत ताम्र रहता है। यह शुद्ध स्वर्ण से अधिक लालिमा लिए रहता है। प्लैटिनम या पेलैडियम के सम्मिश्रण से स्वर्ण में श्वेत छटा आ जाती है।
स्वर्ण अत्यंत कोमल धातु है। स्वच्छ अवस्था में यह सबसे अधिक धातवर्ध्य (malleable) और तन्य (ductile) धातु है। इसे पीटने पर 10-5 मिमी पतले वरक बनाए जा सकते हैं।
स्वर्ण के कुछ विशेष स्थिरांक निम्नांकित हैं:
संकेत (Au),
परमाणुसंख्या 79,
परमाणुभार 196.97,
गलनांक 106° से.,
क्वथनांक 2970° से.
घनत्व 19.3 ग्राम प्रति घन सेमी,
परमाणु व्यास 2.9 एंग्स्ट्राम A°,
आयनीकरण विभव 9.2 इवों,
विद्युत प्रतिरोधकता 2.19 माइक्रोओहम् - सेमी.
स्वर्ण वायुमंडल ऑक्सीजन द्वारा प्रभावित नहीं होता है। विद्युत्वाहक-बल-शृंखला (electromotive series) में स्वर्ण का सबसे नीचा स्थान है। इसके यौगिक का स्वर्ण आयन सरलता से इलेक्ट्रान ग्रहण कर धातु में परिवर्तित हो जाएगा। स्वर्ण दो संयोजकता के यौगिक बनाता है, 1 और 3। 1 संयोजकता के यौगिकों को ऑरस (aurous) और 3 के यौगिकों को ऑरिक (auric) कहते हैं।
स्वर्ण नाइट्रिक, सल्फ्यूरिक अथवा हाइड्रोक्लोरिक अम्ल से नहीं प्रभावित होता परंतु अम्लराज (aqua regia) (3 भाग सांद्र हाइड्रोक्लोरिक अम्ल तथा 1 भाग सांद्र नाइट्रिक अम्ल का सम्मिश्रण) में घुलकर क्लोरोऑरिक अम्ल (H Au Cl4) बनाता है। इसके अतिरिक्त गरम सेलीनिक अम्ल (selenic acid) क्षारीय सल्फाइड अथवा सोडियम थायोसल्फेट में विलेय है।
यौगिक
स्वर्ण के 1 और 3 संयोजी यौगिक प्राप्त हैं। इसके अतिरिक्त इसके अनेक जटिल यौगिक भी बनाए गए हैं जिनमें इसकी संख्या उपसहसंयोजकता (co ordination number) 2 या 4 रहती है।
स्वर्ण का हाइड्रोक्साइड ऑरस हाइड्रोक्साइड (Au O H), ऑरस क्लोराइड (Au Cl) पर तनु पोटैशियम हाइड्राक्साइड (dil KOH) की क्रिया द्वारा प्राप्त होता है। यह गहरे बैंगनी रंग का चूर्ण है जिसे कुछ रासायनिक जलयुक्त ऑक्साइड (Au2 O) कहते हैं। यह स्वर्ण तथा क्रियाक्साइड (Au2 O3) में परिणत हो सकता है। ऑरस हाइड्रोक्साइड में शिथिल क्षारीय गुण वर्तमान हैं। यदि ऑरिक क्लोराइड (Au Cl3) अथवा क्लोरोआरिक अम्ल (HAuCl4) पर क्षारीय हाइड्रोक्साइड की क्रिया की जाए तो ऑरिक हाइड्राक्साइड {Au (OH)3} बनता है जिसे गरम करने पर आराइल हाइड्राक्साइड Au O (O H) आरिक ऑक्साइड (Au2 O3) और (Au2 O2) और तत्पश्चात् स्वर्ण धातु बच रहती है।
हेलोजन तत्वों से स्वर्ण अनेक यौगिक बनाता है। रक्तताप पर स्वर्ण फ्लोरीन से संयुक्त हो गोल्ड फ्लोराइड बनाता है। क्लोरीन के साथ दो यौगिक ऑरस क्लोराड (Au Cl) और ऑरिक क्लोराइड (Au Cl3) ज्ञात हैं। ऑरस क्लोराइड जल द्वारा अपघटित हो स्वर्ण और ऑरिक क्लोराइड (Au Cl) बना है और अधिक उच्च ताप पर पूर्णतय: विघटित हो जाता है। ब्रोमीन के साथ ऑरस ब्रोमाइड (Au Br) और ऑरिक ब्रोमाइड (Au Br3) बनते हैं। इनके गुण क्लोराइड यौगिकों की भाँति हैं। आयोडीन के साथ भी स्वर्ण के दो यौगिक ऑरस आयोडाइड (Au I) और ऑरिक आयोडाइड (Au I3) बनते हैं परंतु वे दोनों अस्थायी होते हैं।
वायु की उपस्थिति में स्वर्ण क्षारीय सायनाइड में विलयित हो जटिल यौगिक ऑरोसाइनाइड [ Au (C N)2] बनता है जिसमें स्वर्ण 1 संयोजी अवस्था में है। त्रिसंयोजी अवस्था के जटिल यौगिक { K Au (C N)4} भी ज्ञात हैं।
ऑरिक ऑक्साइड पर सांद्र अमोनिया की क्रिया से एक काला चूर्ण बनता है जिसे फ्लीमिनेटिंग गोल्ड (2 Au N. N H3. 3 H2 O) कहते हैं। यह सूखी अवस्था में विस्फोटक होता है।
स्वर्ण के कालायडी विलयन (colloidal solution) का रंग कणों के आकार पर निर्भर है। बड़े कणों के विलयन का रंग नीला रहता है। कणों का आकार छोटा होने पर क्रमश: लाल तथा नारंगी हो जाता है। क्लोरोऑरिक अम्ल विलयन में स्टैनश क्लोराइड (Sn Cl2) मिश्रित करने पर एक नीललोहित अवक्षेप प्राप्त होता है। इसे कैसियम नीललोहित (purple of cassius) कहते हैं। यह स्वर्ण का बड़ा संवेदनशील परीक्षण (delicate test) माना जाता है।
उपयोग
दुनिया भर में नये उत्पादित सोने की खपत गहने में लगभग 50%, निवेश में 40%, और इस उद्योग में 10% है
आभूषण
शुद्ध (24K) सोने की कोमलता के कारण, यह आमतौर पर गहने में उपयोग के लिए आधार धातुओं के साथ मिलाया जाता है, आधार धातु में कॉपर सबसे अधिक इस्तेमाल किया जाता है।
अठारह-karat 25% तांबा युक्त सोने प्राचीन और रूस के गहने में पाया जाता है और इसके कारण इसमे गुलाबी रंग आ जाता है।
नीला सोना, लौहे के साथ और बैंगनी रंग सोने एल्यूमीनियम के साथ मिला कर बनाया जा सकता है, हालांकि शायद ही कभी विशेष गहने में छोड़कर अन्य में इनका उपयोग किय जाता हो। ब्लू गोल्ड अधिक भंगुर है और इसलिए गहने बनाते समय अधिक सावधानी के साथ काम किया जाता है। चौदह और अठारह-karat सोना, चांदी के साथ मिश्र कर बनाया जाता है जो कि हल्का हरा-पीला दिखाई देते हैं और हरा-सोना के रूप में जाना जाता है। सफेद सोना, पैलेडियम या निकल के साथ मिश्र कर बनाया जा सकता है। सफेद अठारह-karat सोने मे, 17.3% निकल, जस्ता 5.5% और 2.2% तांबा होता है, ओर दिखने में चांदी सा होता है। यद्द्पि निकेल विषैला होता है, इसीलिये, निकल मिस्रित सफेद सोना,को यूरोप में कानून द्वारा नियंत्रित किया जाता है।
स्वर्ण का मुद्रा तथा आभूषण के निमित्त प्राचीन काल से उपयोग होता रहा है। स्वर्ण अनेक धातुओं से मिश्रित हो मिश्रधातु बनाता है। मुद्रा में प्रयुक्त स्वर्ण में लगभग 90 प्रतिशत स्वर्ण रहता है। आभूषण के लिए प्रयुक्त स्वर्ण में भी न्यून मात्रा में अन्य धातुएँ मिलाई जाती हैं जिससे उसके भौतिक गुण सुधर जाएँ। स्वर्ण का उपयोग दंतकला तथा सजावटी अक्षर बनाने में हो रहा है।
स्वर्ण के यौगिक फोटोग्राफी कला में तथा कुछ रासायनिक क्रियाओं में भी प्रयुक्त हुए हैं।
स्वर्ण की शुद्धता डिग्री अथवा कैरट में मापी जाती है। विशुद्ध स्वर्ण 1000 डिग्री अथवा 24 कैरट होता है।--- (र. चं. क.)
सोने का उत्खनन
सोने का खनन भारत में अत्यंत प्राचीन समय से हो रहा है। कुछ विद्वानों का मत है कि दसवीं शताब्दी के पूर्व पर्याप्त मात्रा में खनन हुआ था। गत तीन शताब्दियों में अनेक भूवेत्ताओं ने भारत के स्वर्णयुक्त क्षेत्रों में कार्य किया किंतु अधिकांशत: वे आर्थिक स्तर पर सोना प्राप्त करने में असफल ही रहे। भारत में उत्पन्न लगभग संपूर्ण सोना मैसूर राज्य के कोलार तथा हट्टी स्वर्णक्षेत्रों से निकलता है। अत्यंत अल्प मात्रा में सोना उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, पंजाब तथा मद्रास राज्यों में भी अनेक नदियों की मिट्टी या रेत में पाया जाता है किंतु इसकी मात्रा साधारणत: इतनी कम है कि इसके आधार पर आधुनिक ढंग का कोई व्यवसाय आर्थिक दृष्टि से प्रारंभ नहीं किया जा सकता। इन क्षेत्रों में कुछ स्थानों पर स्थानीय निवासी अपने अवकाश के समय में इस मिट्टी एवम् रेत को धोकर कभी कभी अल्प सोने की प्राप्ति कर लेते हैं।
कोलार स्वर्णक्षेत्र (Kolar Gold Field)
यह क्षेत्र मैसूर राज्य के कोलार जिले में मद्रास के पश्चिम की ओर 125 मील की दूरी पर स्थित है। समुद्र से 2,800 फुट की ऊँचाई पर यह क्षेत्र एक उच्च स्थली पर है। वैसे तो इस क्षेत्र का विस्तार उत्तर-दक्षिण में 50 मील तक है किंतु उत्पादन योग्य पटिट्का (Vein) की लंबाई लगभग 4 मील ही है। इस क्षेत्र में बालाघाट, नंदी दुर्ग, उरगाम, चैंपियन रीफ (Champion Reef) तथा मैसूर खानें स्थित हैं। खनन के प्रारंभ से मार्च 1951 के अंत तक 2,18,42,902 आउंस स्वर्ण, जिसका मूल्य 169.61 करोड़ रुपया हुआ, प्राप्त हुआ। कोलार क्षेत्र में कुल 30 पट्टिकाएँ हैं जिनकी औसत चौड़ाई 3-4 फुट है। इन पट्टिकाओं में सर्वाधिक स्वर्ण उत्पादक पट्टिका 'चैंपियन रीफ' है। इसमें नीले भूरे वर्ण का, विशुद्ध तथा कणोंवाला स्फटिक प्राप्त होता है। इसी स्फटिक के साहचर्य में सोना भी मिलता है। सोने के साथ ही टुरमेलीन (Tourmaline) भी सहायक खनिज के रूप में प्राप्त होता है। साथ ही साथ पायरोटाइट (Pyrotite), पायराइट, चाल्कोपायराइट, इल्मेनाइट, मैग्नेटाइट तथा शीलाइट (Shilite) आदि भी इस क्षेत्र की शिलाओं में मिलते हैं।
स्वर्ण उद्योग
कोलार (मैसूर) की सोने की खानों में पूर्णत: आधुनिक एवं वैज्ञानिक विधियों से कार्य होता है। यहाँ की चार खानें 'मैसूर', 'नंदीद्रुग', 'उरगाम' और 'चैपियनरीफ' संसार की सर्वाधिक गहरी खानों में से है। इन खानों में से दो तो सतह से लगभग 10,000 फुट की गहराई तक पहुँच चुकी हैं। इन खानों में ताप 148° फारेनहाइड तक चला जाता है अत: शीतोत्पादक यंत्रों की सहायता से ताप 118° फारेनहाइट तक कम करने की व्यवस्था की गई है। सन् 1953 में उरगाम खान बंद कर दी गई है। औसत रूप से कोलार में प्रति टन खनिज में लगभग पौने तीन माशे सोना पाया जाता है। द्वितीय विश्वयुद्ध से पूर्व विपुल मात्रा में सोने का निर्यात किया जाता था। सन् 1939 में 3,14,515 आउंस सोने का उत्पादन हुआ जिसका मूल्य 3,24,34,364 रुपये हुआ किंतु इसके पश्चात् स्वर्ण उत्पादन में अनियमित रूप से कमी होती चली गई है तथा सन् 1947 में उत्पादन घटकर 1,71,795 आउंस रह गया जिसका मूल्य 5,10,69,000 रुपए तक पहुँचा। कोलार स्वर्णक्षेत्र की खानों का राष्ट्रीयकरण हो गया है तथा मैसूर की राज्य सरकार द्वारा संपूर्ण कार्य संचालित होता है। कोलार विश्व का एक अद्वितीय एवं आदर्श खनन नगर है। यहाँ स्वर्ण खानों के कर्मचारियों को लगभग सभी संभव सुविधाएँ प्रदान की गई हैं। खानों में भी आपातकालीन स्थिति का सामना करने के लिए विशेष सुरक्षा दल (Rescue Teams) रहते हैं।
हैदराबाद में हट्टी में भी सोना प्राप्त हुआ है। इसी प्रकार केरल में वायनाड नामक स्थान पर सोना मिला था किंतु ये निक्षेप कार्य योग्य नहीं थे।
सोना चढ़ाना (Gilding)
किसी पदार्थ की सतह पर उसकी सुरक्षा अथवा अलंकरण हेतु यांत्रिक तथा रासायनिक साधनों से सोना चढ़ाया जाता है। यह कला बहुत ही प्राचीन है। मिस्रवासी आदिकाल ही में लकड़ी और हर प्रकार के धातुओं पर सोना चढ़ाने में प्रवीण तथा अभ्यस्त रहे। पुराने टेस्टामेंट में भी गिल्डिंग का उल्लेख मिलता है। रोम तथा ग्रीस आदि देशों में प्राचीन काल से इस कला को पूर्ण प्रोत्साहन मिलता रहा है। प्राचीन काल में अधिक मोटाई की सोने की पत्तियाँ प्रयोग में लाई जाती थीं। अत: इस प्रकार की गिल्डिंग अधिक मजबूत तथा चमकीली होती रही। पूर्वी देशों की सजावट की कला में इसका प्रमुख स्थान है- मंदिरों के गुंबजों तथा राजमहलों की शोभा बढ़ाने के लिए यह कला विशेषत: अपनाई जाती है। भारत में आज भी जिस विधि से सोना चढ़ाया जाता है इसकी प्राचीनता का एक सुंदर उदाहरण है।
आधुनिक गिल्डिंग में तरह तरह की विधियाँ प्रयोग में लाई जाती हैं और इनसे हर प्रकार के सतहों पर सोना चढ़ाया जा सकता है, जैसे तस्वीरों के फ्रेम, अलमारियों, सजावटी चित्रण, घर और महलों की सजावट, किताबों की जिल्दबाजी, धातुओं के अवरण, बटन बनाना, गिल्ड टाव ट्रेड, प्रिंटिग तथा विद्युत् आवरण, मिट्टी के बर्तनों, पोर्सिलेन, काँच तथा काँच की चूड़ियों की सजावट। टेक्सटाइल, चमड़े और पार्चमेंट पर भी सोना चढ़ाया जाता है तथा इन प्रचलित कामों में सोना अधिक मात्रा में उपभुक्त होता है।
सोना चढ़ाने की समस्त विधियाँ यांत्रिक अथवा रासायनिक साधनों पर निर्भर हैं। यांत्रिक साधनों से सोने की बहुत ही बारीक पत्तियाँ बनाते हैं और उसे धातुओं या वस्तुओं की सतह से चिपका देते हैं। इसलिए धातुओं की सतह को भली भाँति खुरचकर साफ कर लेते हैं। और उसे अच्छी तरह पालिश कर देते हैं। फिर ग्रीज तथा दूसरे अपद्रव्यों (Impurities) जो पालिश करते समय रह जाती है, गरम करके हटा देते हैं। बहुधा लाल ताप पर धातुओं की सतह पर बर्निशर से सोने की पत्तियों को दबाकर चिपका देते हैं। इसे फिर गरम करते हैं और यदि आवश्यकता हुई तो और पत्तियाँ रखकर चिपका देते हैं, तत्पश्चात् इसे ठंडा करके बर्निशर से रगड़ कर चमकीला बना देते हैं। दूसरी विधि में पारे का प्रयोग किया जाता है। धातुओं की सतह की पूर्ववत् साफकर अम्ल विलयन में डाल देते हैं। फिर उसे सतह की पूर्ववत् साफकर अम्ल विलयन में डाल देते हैं। फिर उसे बाहर निकालकर सुखाने के बाद झॉवा तथा सुर्खी से रगड़ कर चिकनाहट पैदा कर देते हैं। इस क्रिया के उपरांत सतह पर पारे की एक पतली पर्त पारदन कर देते हैं, तब इसे कुछ समय के लिए पानी में डाल देते हैं और इस प्रकार यह सोना चढ़ाने योग्य बन जाता है। सोने की बारीक पत्तियाँ चिपकाने से ये पारे से मिल जाती हैं। गरम करने के फलस्वरूप पारा उड़ जाता है और सोना भूरेपन की अवस्था में रह जाता है, इसे अगेट वर्निशर से रगड़कर चमकीला बना देते हैं। इस विधि में सोने का प्राय: दुगुना पारा लगता है तथा पारे की पुन: प्राप्ति नहीं होती।
रासायनिक गिल्डिंग में वे विधियाँ शामिल हैं जिनमें प्रयुक्त सोना किसी न किसी अवस्था में रासायनिक यौगिक के रूप में रहता है।
सोना चढ़ाना - चाँदी पर प्राय: सोना चढ़ाने के लिए, सोने का अम्लराज में विलयन बना लेते हैं और कपड़े की सहायता से विलयन को धात्विक सतह पर फैला देते हैं। फिर इसे जला देते हैं और चाँदी से चिपकी काली तथा भारी भस्म को चमड़े तथा अंगुलियों से रगड़कर चमकीला बना लेते हैं। अन्य धातुओं पर सोना चढ़ाने के लिए पहले उसपर चाँदी चढ़ा लेते हैं।
गीली सोनाचढ़ाई - गोल्ड क्लोराइड के पतले विलयन को हाईड्रोक्लोरिक अम्ल की उपस्थिति में पृथक्कारी कीप की मदद से ईथरीय विलयन में प्राप्त कर लेते हैं तथा एक छोटे बुरुश से विलयन को धातुओं की साफ सतह पर फैला देते हैं। ईथर के उड़ जाने पर सोना रह जाता है और गरम करके पालिश करने पर चमकीला रूप धारण कर लेता है।
आग सोनाचढ़ाई (fire Gilding) - इसमें धातुओं के तैयार साफ और स्वच्छ सतह पर पारे की पतली सी परत फैला देते हैं और उसपर सोने का पारदन चढ़ा देते हैं। तत्पश्चात् पारे को गरम कर उड़ा देते हैं और सोने की एक पतली पटल बच जाती है, जिसे पालिश कर सुंदर बना देते हैं। इसमें पारे की अधिक क्षति होती है और काम करनेवालों के लिए पारे का धुआँ अधिक अस्वस्थ्यकर है।
काष्ठ सोनाचढ़ाई - लकड़ी की सतह पर चाक या जिप्सम का लेप चढ़ाकर चिकनाहट पैदा कर देते हैं। फिर पानी में तैरती हुई सोने की बारीक पत्तियों का स्थामी विरूपण कर देते हैं। सूख जाने पर इसे चिपका देते हैं तथा दबाकर समस्थितीकरण कर देते हैं। इसके उपरांत यह सोने की मोटी चद्दरों की तरह दिखाई देने लगती है। दाँतेदार गिल्डिंग से इसमें अधिक चमक आ जाती है।
मिट्टी के बरतनों, पोर्सिलेन तथा क्राँच पर सोना चढ़ाने की कला अधिक लोकप्रिय है। सोने के अम्लराज विलयन को गरम कर पाउडर अवस्था में प्राप्त कर लेते हैं और इसमें बारहवाँ भाग विस्मथ आक्साइड तथा थोड़ी मात्रा में बोराक्स और गन पाउडर मिला देते हैं इस मिश्रण को ऊँट के बालवाले बुरुश से वस्तु पर यथास्थान चढ़ा देते हैं। आग में तपाने पर काले मैले रंग का सोना चिपका रह जाता है, जो अगेट बर्निशर से पालिश कर चमकाया जाता है। और फिर ऐसीटिक अम्ल से इसे साफ कर लेते हैं।
लोहा या इस्पात पर सोना चढ़ाने के लिए सतह को साफ कर खरोचने के पश्चात् उसपर लाइन बना देते हैं। फिर लाल ताप तक गरम कर सोने की पत्तियाँ बिछा देते हैं और ढंडा करने के उपरांत इसको अगेट बर्निशर से रगड़कर पालिश कर देते हैं। इस प्रकार इसमें पूर्ण चमक आ जाती है और इसकी सुंदरता अनुपम हो जाती है।
धातुओं पर विद्युत् आवरण की कला को आजकल अधिक प्रोत्साहन मिल रहा है। एक छोटे से नाद में गोल्ड सायनाइड और सोडियम सायनाइड का विलयन डाल देते हैं तथा सोने का ऐनोड और जिसपर सोना चढ़ाना होता है, उसका कैथोड लटका देते हैं। फिर विद्युत्प्राह से सोने का आवरण कैथोड पर चढ़ जाता है। विद्युत्-आवरणीय सोने का रंग अन्य धातुओं के निक्षेपण पर निर्भर है। अच्छाई, टिकाऊपन, सुंदरता तथा सजावट के लिए निम्न कोटि की धातुओं पर पहले ताँबे का विद्युत् आवरण करके चाँदी चढ़ाते हैं। तत्पश्चात् सोना चढ़ाना उत्तम होता है। इस ढंग से सोने की बारीक से बारीक परत का आवरण चढ़ाया जा सकता है तथा जिस मोटाई का चाहें सोने का विद्युत्आवरण आवश्यकतानुसार चढ़ा सकते हैं। इससे धातुओं की संक्षरण से रक्षा होती है तथा हर प्रकार की वस्तुओं पर सोने की सुंदर चमक आ जाती है।
इन्हें भी देखें
सायनाइड विधि - स्वर्ण निर्माण की धातुकार्मिक तकनीक
श्रेणी:धातु
श्रेणी:रासायनिक तत्व
श्रेणी:संक्रमण धातु
श्रेणी:कीमती धातुएँ | सोने का परमाणु द्रव्यमान क्या है? | 196.97 | 6,072 | hindi |
9c63202f3 | कैमरा एक प्रकाशीय युक्ति है जिसकी सहायता से कोई स्थिर छवि (फोटोग्राफ) या चलचित्र (मूवी या विडियो) खींचा जा सकता है। चलचित्र वस्तुतः किसी परिवर्तनशील या चलायमान वस्तु के बहुत छोटे समयान्तरालों पर खींची गयी बहुत से छवियों का एक क्रमिक समूह होता है।
कैमरा शब्द लैटिन के कैमरा ऑब्स्क्योरा से आया है जिसका अर्थ अंधेरा कक्ष होता है। ध्यान रखने योग्य है कि सबसे पहले फोटो लेने के लिये एक पूरे कमरे का प्रयोग होता था, जो अंधकारमय होता था।
इतिहास कैमरा सबसे पहले कैमरा ऑब्स्क्योरा के रूप में आया। इसका आविष्कार ईराकी वैज्ञानिक इब्न-अल-हज़ैन (१०१५-१०२१) ने की। इसके बाद अंग्रेज वैज्ञानिक राबर्ट बॉयल एवं उनके सहायक राबर्ट हुक ने सन १६६० के दशक में एक सुवाह्य (पोर्टेबल) कैमरा विकसित किया। सन १६८५ में जोहन जान (Johann Zahn) ने ऐसा कैमरा विकसित किया जो सुवाह्य था और तस्वीर खींचने के लिये व्यावहारिक था।
विविध प्रकार के कैमरे अंकीय एकतालीय प्रतिबिम्ब कैमरा (Digital single-lens reflex camera)
मूवी कैमरा
एकतालीय प्रतिबिम्ब कैमरा (single-lens reflex camera)
खिलौना कैमरा (Toy camera)
द्वितालीय प्रतिबिम्ब कैमरा (Twin-lens reflex camera)
विडियो कैमरा (Video camera)
बाहरी कड़ियाँ - कैमरा के बारे में मुक्त ज्ञानकोश
(How stuff works)
कैमरा
कैमरा
कैमरा | कैमरा का आविष्कार किसने किया? | इब्न-अल-हज़ैन | 518 | hindi |
bf9982788 | प्रथम विश्वयुद्ध प्रथम विश्वयुद्ध के समय के कुछ प्रमुख घटनाओं के चित्र तारीख़ 28 जुलाई 1914 से 11 नवंबर 1918 तक स्थानयुरोप, अफ़्रीका और मध्य पूर्व (आंशिक रूप में चीन और प्रशान्त द्वीप समूह) परिणाम गठबन्धन सेना की विजय। जर्मनी, रुसी, ओट्टोमनी और आस्ट्रिया-हंगरी साम्राज्य का अन्त। युरोप तथा मध्य पूर्व में नये देशों की स्थापना। जर्मन-उपनिवेशों में अन्य शक्तियों द्वारा कब्जा। लीग ऑफ नेशनस की स्थापना। लडाई में सहभागी गठबन्धन देश लडाई में सहभागी केन्द्रीय शक्ति (Central Power) देश ब्रिटेन
फ़्रांस
अमेरिका
रूस
इटली और अन्य आस्ट्रिया-हंगरी
जर्मनी
खिलाफत ए उस्मानिया
बल्गारिया
और अन्यमारे गए सैनिकों की संख्या: 5,525,000मारे गए सैनिकों की संख्या: 4,386,000घायल सैनिकों की संख्या 12,831,500घायल सैनिकों की संख्या 8,388,000 लापता सैनिक संख्या
4,121,000 लापता सैनिक संख्या
3,629,000कुल 22,477,500 कुल
16,403,000
पहला विश्व युद्ध 1914 से 1918 तक मुख्य तौर पर यूरोप में व्याप्त महायुद्ध को कहते हैं। यह महायुद्ध यूरोप, एशिया व अफ़्रीका तीन महाद्वीपों और समुंदर, धरती और आकाश में लड़ा गया। इसमें भाग लेने वाले देशों की संख्या, इसका क्षेत्र (जिसमें यह लड़ा गया) तथा इससे हुई क्षति के अभूतपूर्व आंकड़ों के कारण ही इसे विश्व युद्ध कहते हैं।
पहला विश्व युद्ध लगभग 52 माह तक चला और उस समय की पीढ़ी के लिए यह जीवन की दृष्टि बदल देने वाला अनुभव था। क़रीब आधी दुनिया हिंसा की चपेट में चली गई और इस दौरान अंदाज़न एक करोड़ लोगों की जान गई और इससे दोगुने घायल हो गए। इसके अलावा बीमारियों और कुपोषण जैसी घटनाओं से भी लाखों लोग मरे।
विश्व युद्ध ख़त्म होते-होते चार बड़े साम्राज्य रूस, जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी (हैप्सबर्ग) और उस्मानिया ढह गए। यूरोप की सीमाएँ फिर से निर्धारित हुई और अमेरिका निश्चित तौर पर एक 'महाशक्ति ' बन कर उभरा।
घटनाएँ औद्योगिक क्रांति के कारण सभी बड़े देश ऐसे उपनिवेश चाहते थे जहाँ से वे कच्चा माल पा सकें और सभी उनके देश में बनाई तथा मशिनों से बनाई हुई चीज़ें बेच सकें। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए हर देश दूसरे देश पर साम्राज्य करने कि चाहत रखने लगा और इस के लिये सैनिक शक्ति बढ़ाई गई और गुप्त कूटनीतिक संधियाँ की गईं। इससे राष्ट्रों में अविश्वास और वैमनस्य बढ़ा और युद्ध अनिवार्य हो गया। ऑस्ट्रिया के सिंहासन के उत्तराधिकारी आर्चड्युक फर्डिनेंड और उनकी पत्नी का वध इस युद्ध का तात्कालिक कारण था। यह घटना 28 जून 1914, को सेराजेवो में हुई थी। एक माह के बाद ऑस्ट्रिया ने सर्बिया के विरुद्ध युद्ध घोषित किया। रूस, फ़्रांस और ब्रिटेन ने सर्बिया की सहायता की और जर्मनी ने आस्ट्रिया की। अगस्त में जापान, ब्रिटेन आदि की ओर से और कुछ समय बाद उस्मानिया, जर्मनी की ओर से, युद्ध में शामिल हुए।
जून 1914 में, ऑस्ट्रिया के आर्कड्यूक फ़्रांज़ फ़र्डिनेंड की बोस्निया राजधानी की साराजेवो में एक सर्बियाई राष्ट्रवादी द्वारा हत्या कर दी गई जिसके फलस्वरूप ऑस्ट्रिया-हंगरी ने 28 जुलाई को सर्बिया के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी गयी जिसमें रूस ऑस्ट्रिया-हंगरी के साथ आ गया। जर्मनी ने फ़्रांस की ओर बढ़ने से पूर्व तटस्थ बेल्जियम और लक्ज़मबर्ग पर आक्रमण कर दिया जसके कारण ब्रिटेन ने जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी
जर्मनी, ऑस्ट्रिया, हंगरी और उस्मानिया (तथाकथित केन्द्रीय शक्तियाँ) द्वारा ग्रेट ब्रिटेन , फ्रांस, रूस, इटली और जापान के ख़िलाफ़ (मित्र देशों की शक्तियों) अगस्त के मध्य तक लामबंद हो गए और १९१७ के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका मित्र राष्ट्रों की ओर शामिल हो गया था।
यह युद्ध यूरोप, एशिया व अफ़्रीका तीन महाद्वीपों और जल, थल तथा आकाश में लड़ा गया। प्रारंभ में जर्मनी की जीत हुई। 1917 में जर्मनी ने अनेक व्यापारी जहाज़ों को डुबोया। एक बार जर्मनी ने इंगलैण्ड की लुसिटिनिया जहाज़ अपने पनडुब्बी से डूबा दी। जिसमे कुछ अमेरिकी नागरिक संवार थे इससे अमरीका ब्रिटेन की ओर से युद्ध में कूद पड़ा लेकिन रूसी क्रांति के कारण रूस महायुद्ध से अलग हो गया। 1918 ई. में ब्रिटेन , फ़्रांस और अमरीका ने जर्मनी आदि राष्ट्रों को पराजित किया। जर्मनी और आस्ट्रिया की प्रार्थना पर 11 नवम्बर 1918 को युद्ध की समाप्ति हुई।
लड़ाइयाँ इस महायुद्ध के अंतर्गत अनेक लड़ाइयाँ हुई। इनमें से टेनेनबर्ग (26 से 31 अगस्त 1914), मार्नं (5 से 10 सितंबर 1914), सरी बइर (Sari Bair) तथा सूवला खाड़ी (6 से 10 अगस्त 1915), वर्दूं (21 फ़रवरी 1916 से 20 अगस्त 1917), आमिऐं (8 से 11 अगस्त 1918), एव वित्तोरिओ बेनेतो (23 से 29 अक्टूबर 1918) इत्यादि की लड़ाइयों को अपेक्षाकृत अधिक महत्व दिया गया है। यहाँ केवल दो का ही संक्षिप्त वृत्तांत दिया गया है।
जर्मनी द्वारा किए गए 1916 के आक्रमणों का प्रधान लक्ष्य बर्दूं था। महाद्वीप स्थित मित्र राष्ट्रों की सेनाओं का विघटन करने के लिए फ़्रांस पर आक्रमण करने की योजनानुसार जर्मनी की ओर स 21 फ़रवरी 1916 ई. को बर्दूं युद्धमाला का श्रीगणेश हुआ। नौ जर्मन डिवीज़न ने एक साथ मॉज़ेल (Moselle) नदी के दाहिने किनारे पर आक्रमण किया तथा प्रथम एवं द्वितीय युद्ध मोर्चों पर अधिकार किया। फ्रेंच सेना का ओज जनरल पेतैं (Petain) की अध्यक्षता में इस चुनौती का सामना करने के लिए बढ़ा। जर्मन सेना 26 फ़रवरी को बर्दूं की सीमा से केवल पाँच मील दूर रह गई। कुछ दिनों तक घोर संग्राम हुआ। 15 मार्च तक जर्मन आक्रमण शिथिल पड़ने लगा तथा फ्रांस को अपनी व्यूहरचना तथा रसद आदि की सुचारु व्यवस्था का अवसर मिल गया। म्यूज के पश्चिमी किनारे पर भी भीषण युद्ध छिड़ा जो लगभग अप्रैल तक चलता रहा। मई के अंत में जर्मनी ने नदी के दोनों ओर आक्रमण किया तथा भीषण युद्ध के उपरांत 7 जून को वाक्स (Vaux) का किला लेने में सफलता प्राप्त की। जर्मनी अब अपनी सफलता के शिखर पर था। फ्रेंच सैनिक मार्ट होमे (Mert Homme) के दक्षिणी ढालू स्थलीय मोर्चों पर डटे हुए थे। संघर्ष चलता रहा। ब्रिटिश सेना ने सॉम (Somme) पर आक्रमण कर बर्दूं को छुटकारा दिलाया। जर्मनी का अंतिम आक्रमण 3 सितंबर को हुआ था। जनरल मैनगिन (Mangin) के नेतृत्व में फ्रांस ने प्रत्याक्रमण किया तथा अधिकांश खोए हुए स्थल विजित कर लिए। 20 अगस्त 1917 के बर्दूं के अंतिम युद्ध के उपरांत जर्मनी के हाथ्प में केवल ब्यूमांट (Beaumont) रह गया। युद्धों ने फ्रैंच सेना को शिथिल कर दिया था, जब कि आहत जर्मनों की संख्या लगभग तीन लाख थी और उसका जोश फीका पड़ गया था।
आमिऐं (Amiens) के युद्धक्षेत्र में मुख्यत: मोर्चाबंदी अर्थात् खाइयों की लड़ाइयाँ हुईं। 21 मार्च से लगभग 20 अप्रैल तक जर्मन अपने मोर्चें से बढ़कर अंग्रेजी सेना को लगभग 25 मील ढकेल आमिऐं के निकट ले आए। उनका उद्देश्य वहाँ से निकलनेवाली उस रेलवे लाइन पर अधिकार करना था, जो कैले बंदरगाह से पेरिस जाती है और जिससे अंग्रेजी सेना और सामान फ्रांस की सहायता के लिए पहुँचाया जाता था।
लगभग 20 अप्रैल से 18 जुलाई तक जर्मन आमिऐं के निकट रुके रहे। दूसरी ओर मित्र देशों ने अपनी शक्ति बहुत बढ़ाकर संगठित कर ली, तथा उनकी सेनाएँ जो इससे पूर्व अपने अपने राष्ट्रीय सेनापतियों के निर्देशन में लड़ती थीं, एक प्रधान सेनापति, मार्शल फॉश के अधीन कर दी गईं।
जुलाई, 1918 के उपरांत जनरल फॉश के निर्देशन में मित्र देशों की सेनाओं ने जर्मनों को कई स्थानों में परास्त किया।
जर्मन प्रधान सेनापति लूडेनडार्फ ने उस स्थान पर अचानक आक्रमण किया जहाँ अंग्रेज़ी तथा फ़्रांसीसी सेनाओं का संगम था। यह आक्रमण 21 मार्च को प्रात: 4।। बजे, जब कोहरे के कारण सेना की गतिविधि का पता नहीं चल सकता था, 4000 तोपों की गोलाबारी से आरंभ हुआ। 4 अप्रैल को जर्मन सेना कैले-पेरिस रेलवे से केवल दो मील दूर थी। 11-12 अप्रैल को अंग्रेजी सेनापतियों ने सैनिकों से लड़ मरने का अनुरोध किया।
तत्पश्चात् एक सप्ताह से अधिक समय तक जर्मनों ने आमिऐं के निकट लड़ाई जारी रखी, पर वे कैले-पैरिस रेल लाइन पर अधिकार न कर सके। उनका अंग्रेजों को फ्रांसीसियों से पृथक् करने का प्रयास असफल रहा।
20 अप्रैल से लगभग तीन महीने तक जर्मन मित्र देशों को अन्य क्षेत्रों में परास्त करने का प्रयत्न करते रहे और सफल भी हुए। किंतु इस सफलता से लाभ उठाने का अवसर उन्हें नहीं मिला। मित्र देशों ने इस भीषण स्थिति में अपनी शक्ति बढ़ाने के प्रबंध कर लिए थे।
25 मार्च को जेनरल फॉश इस क्षेत्र में मित्र देशों की सेनाओं के सेनापति नियुक्त हुए। ब्रिटेन की पार्लमेंट ने अप्रैल में सैनिक सेवा की उम्र बढ़ाकर 50 वर्ष कर दी और 3,55,000 सैनिक अप्रैल मास के भीतर ही फ्रांस भेज दिए। अमरीका से भी सैनिक फ्रांस पहुंचने लगे थे और धीरे धीरे उनकी संख्या 6,00,000 पहुंच गई। नए अस्त्रों तथा अन्य आविष्कारों के कारण मित्र देशों की वायुसेना प्रबल हो गई। विशेषकर उनके टैक बहुत कार्यक्षम हो गए।
15 जुलाई को जर्मनों ने अपना अंतिम आक्रमण मार्न नदी पर पेरिस की ओर बढ़ने के प्रयास में किया। फ्रांसीसी सेना ने इसे रोकर तीन दिन बाद जर्मनों पर उसी क्षेत्र में शक्तिशाली आक्रमण कर 30,000 सैनिक बंदी किए। फिर 8 अगस्त को आमिऐं के निकट जनरल हेग की अध्यक्षता में ब्रिटिश तथा फ्रांसीसी सेना ने प्रात: साढे चार बजे कोहरे की आड़ में जर्मनों पर अचानक आक्रमण किया। इस लड़ाई में चार मिनट तोपों से गोले चलाने के बाद, सैकड़ों टैंक सेना के आगे भेज दिए गए, जिनके कारण जर्मन सेना में हलचल मच गई। आमिऐं के पूर्व आब्र एवं सॉम नदियों के बीच 14 मील के मोरचे पर आक्रमण हुआ और उस लड़ाई में जर्मनों की इतनी क्षति हुई कि सूडेनडोर्फ ने इस दिन का नामकरण जर्मन सेना के लिए काला दिन किया।
वर्साय की सन्धि में जर्मनी पर कड़ी शर्तें लादी गईं। इसका बुरा परिणाम दूसरा विश्व युद्ध के रूप में प्रकट हुआ और राष्ट्रसंघ की स्थापना के प्रमुख उद्देश्य की पूर्ति न हो सकी।
पहला विश्व युद्ध और भारत जब यह युद्ध आरम्भ हुआ था उस समय भारत औपनिवेशिक शासन के अधीन था। यह काल भारतीय राष्ट्रवाद का परिपक्वता काल था। प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटेन की भागेदारी के प्रति राष्ट्रवादियों का प्रत्युत्तर तीन अलग-अलग प्रकार का था-[1]
(१) उदारवादियों ने इस युद्ध में ब्रिटेन का समर्थन ताज के प्रति निष्ठा का कार्य समझा तथा उसे पूर्ण समर्थन दिया।
(२) उग्रवादियों, (जिनमें तिलक भी सम्मिलित थे) ने भी युद्ध में ब्रिटेन का समर्थन किया क्योंकि उन्हें आशा थी कि युद्ध के पश्चात ब्रिटेन भारत में स्वशासन के संबंध में ठोस कदम उठायेगा।
(३) जबकि क्रांतिकारियों का मानना था कि यह युद्ध ब्रिटेन के विरुद्ध आतंकतवादी गतिविधियों को संचालित करने का अच्छा अवसर है तथा उन्हें इस सुअवसर का लाभ उठाकर साम्राज्यवादी सत्ता को उखाड़ फेंकना चाहिए।
इस युद्ध में भारतीय सिपाही सम्पूर्ण विश्व में अलग-अलग लड़ाईयों में लड़े। भारत ने युद्ध के प्रयासों में जनशक्ति और सामग्री दोनों रूप से भरपूर योगदान किया। भारत के सिपाही फ्रांस और बेल्जियम , एडीन, अरब, पूर्वी अफ्रीका, गाली पोली, मिस्र, मेसोपेाटामिया, फिलिस्तीन, पर्सिया और सालोनिका में बल्कि पूरे विश्व में विभिन्न लड़ाई के मैदानों में बड़े पराक्रम के साथ लड़े। गढ़वाल राईफल्स रेजिमेण्ट के दो सिपाहियों को संयुक्त राज्य का उच्चतम पदक विक्टोरिया क्रॉस भी मिला था।
युद्ध आरम्भ होने के पहले जर्मनों ने पूरी कोशिश की थी कि भारत में ब्रिटेन के विरुद्ध आन्दोलन शुरू किया जा सके। बहुत से लोगों का विचार था कि यदि ब्रिटेन युद्ध में लग गया तो भारत के क्रान्तिकारी इस अवसर का लाभ उठाकर देश से अंग्रेजों को उखाड़ फेंकने में सफल हो जाएंगे।[2] किन्तु इसके उल्टा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेताओं का मत था स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए इस समय ब्रिटेन की सहायता की जानी चाहिए। और जब 4 अगस्त को युद्ध आरम्भ हुआ तो ब्रिटेन भारत के नेताओं को अपने पक्ष में कर लिया। रियासतों के राजाओं ने इस युद्ध में दिल खोलकर ब्रिटेन की आर्थिक और सैनिक सहायता की।
कुल 8 लाख भारतीय सैनिक इस युद्ध में लड़े जिसमें कुल 47746 सैनिक मारे गये और 65000 घायल हुए। इस युद्ध के कारण भारत की अर्थव्यवस्था लगभग दिवालिया हो गयी थी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बड़े नेताओं द्वारा इस युद्ध में ब्रिटेन को समर्थन ने ब्रिटिश चिन्तकों को भी चौंका दिया था। भारत के नेताओं को आशा थी कि युद्ध में ब्रिटेन के समर्थन से ख़ुश होकर अंग्रेज भारत को इनाम के रूप में स्वतंत्रता दे देंगे या कम से कम स्वशासन का अधिकार देंगे किन्तु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। उलटे अंग्रेज़ों ने जलियाँवाला बाग नरसंहार जैसे घिनौने कृत्य से भारत के मुँह पर तमाचा मारा।
सन्दर्भ
इन्हें भी देखें प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भारतीय सेना
दूसरा विश्व युद्ध
विश्वयुद्ध
बाल्कन युद्ध
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श्रेणी:विश्वयुद्ध
श्रेणी:विश्व का इतिहास
श्रेणी:विश्व के युद्ध | प्रथम विश्व युद्ध कब शुरू हुआ था? | 1914 | 87 | hindi |
7d00eb9fb | सूर्य या किसी अन्य तारे के चारों ओर परिक्रमा करने वाले खगोल पिण्डों को ग्रह कहते हैं। अंतर्राष्ट्रीय खगोलीय संघ के अनुसार हमारे सौर मंडल में आठ ग्रह हैं - बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल, बृहस्पति, शनि, युरेनस और नेप्चून। इनके अतिरिक्त तीन बौने ग्रह और हैं - सीरीस, प्लूटो और एरीस। प्राचीन खगोलशास्त्रियों ने तारों और ग्रहों के बीच में अन्तर इस तरह किया- रात में आकाश में चमकने वाले अधिकतर पिण्ड हमेशा पूरब की दिशा से उठते हैं, एक निश्चित गति प्राप्त करते हैं और पश्चिम की दिशा में अस्त होते हैं। इन पिण्डों का आपस में एक दूसरे के सापेक्ष भी कोई परिवर्तन नहीं होता है। इन पिण्डों को तारा कहा गया। पर कुछ ऐसे भी पिण्ड हैं जो बाकी पिण्डों के सापेक्ष में कभी आगे जाते थे और कभी पीछे - यानी कि वे घुमक्कड़ थे। Planet एक लैटिन का शब्द है, जिसका अर्थ होता है इधर-उधर घूमने वाला। इसलिये इन पिण्डों का नाम Planet और हिन्दी में ग्रह रख दिया गया। शनि के परे के ग्रह दूरबीन के बिना नहीं दिखाई देते हैं, इसलिए प्राचीन वैज्ञानिकों को केवल पाँच ग्रहों का ज्ञान था, पृथ्वी को उस समय ग्रह नहीं माना जाता था।
ज्योतिष के अनुसार ग्रह की परिभाषा अलग है। भारतीय ज्योतिष और पौराणिक कथाओं में नौ ग्रह गिने जाते हैं, सूर्य, चन्द्रमा, बुध, शुक्र, मंगल, गुरु, शनि, राहु और केतु।
ग्रहों से सम्बंधित आंकड़े श्रेणी:खगोलशास्त्र
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श्रेणी:ग्रह विज्ञान | सौर मंडल में कितने ग्रह है? | आठ | 141 | hindi |
24e4538fa | सारगैसो सागर (अंग्रेजी:Sargasso Sea) उत्तरी अटलांटिक महासागर में २०° से ४०° उत्तरी अक्षांशों तथा ३५° से ७५° पश्चिमी देशान्तरों के मध्य चारों ओर [1] प्रवाहित होने वाली जलधाराओं के मध्य स्थित शांत एवं स्थिर जल के क्षेत्र को सारगैसो सागर कहा जाता है। [2] यह गल्फ स्ट्रीम ,कनारी तथा उत्तरी विषुवतीय धाराओं के चक्र के बीच स्थित शांत जल क्षेत्र है। इसके तट पर मोटी समुद्री घास तैरती है। इस घास को पुर्तगाली भाषा में सारगैसम (Sargassum) कहते हैं ,जिसके नाम पर ही इसका नाम सारगैसो सागर रखा गया। सन्दर्भ
श्रेणी:सागर
श्रेणी:अटलांटिक महासागर के सागर | सरगासो समुद्र किस सागर का हिस्सा है? | उत्तरी अटलांटिक महासागर | 37 | hindi |
422fd74bf | इन्फोसिस लिमिटेड (BSE:, Nasdaq:) एक बहुराष्ट्रीय सूचना प्रौद्योगिकी सेवा कंपनी मुख्यालय है जो बेंगलुरु, भारत में स्थित है। यह एक भारत की सबसे बड़ी आईटी कंपनियों में से एक है जिसके पास 30 जून 2008 को (सहायकों सहित) 94,379 से अधिक पेशेवर हैं। इसके भारत में 9 विकास केन्द्र हैं और दुनिया भर में 30 से अधिक कार्यालय हैं। वित्तीय वर्ष|वित्तीय वर्ष २००७-२००८ के लिए इसका वार्षिक राजस्व US$4 बिलियन से अधिक है, इसकी बाजार पूंजी US$30 बिलियन से अधिक है।
इतिहास इन्फोसिस की स्थापना २ जुलाई, १९८१ को पुणे में एन आर नारायण मूर्ति के द्वारा की गई। इनके साथ और छह अन्य लोग थे: नंदन निलेकानी, एनएसराघवन, क्रिस गोपालकृष्णन, एस डी.शिबुलाल, के दिनेश और अशोक अरोड़ा,[2] राघवन के साथ आधिकारिक तौर पर कंपनी के पहले कर्मचारी.मूर्ति ने अपनी पत्नी सुधा मूर्ति (Sudha Murthy) से 10,000 आई एन आर लेकर कम्पनी की शुरुआत की। कम्पनी की शुरुआत उत्तर मध्य मुंबई में माटुंगा में राघवन के घर में "इन्फोसिस कंसल्टेंट्स प्रा लि" के रूप में हुई जो एक पंजीकृत कार्यालय था।
2001 में इसे बिजनेस टुडे के द्वारा "भारत के सर्वश्रेष्ठ नियोक्ता " की श्रेणी में रखा गया।[3] इन्फोसिस ने वर्ष 2003, 2004 और 2005, के लिए ग्लोबल मेक (सर्वाधिक प्रशंसित ज्ञान एंटरप्राइजेज) पुरस्कार जीता। यह पुरस्कार जीतने वाली यह एकमात्र कम्पनी बन गई और इसके लिए इसे ग्लोबल हॉल ऑफ फेम में प्रोत्साहित किया गया।[4][5]
समयसीमा 1981: को स्थापना की गई।
1983: इसके मुख्यालय को कर्नाटक की राजधानी बैंगलोर में स्थापित कर दिया गया।
1987: इसे अपना पहला विदेशी ग्राहक मिला, यह था संयुक्त राज्य अमेरिका से डाटा बेसिक्स कोर्पोरेशन.
1992: इसने बोस्टन में अपना पहला ओवरसीज बिक्री कार्यालय खोला.
1993: यह भारत में 13 करोड़ रुपए के प्रारंभिक सार्वजनिक प्रस्ताव के साथ एक पब्लिक लिमिटेड कंपनी बन गई। 1996: यूरोप मिल्टन केंस , ब्रिटेन में प्रथम कार्यालय.
1997: टोरंटो, कनाडा में कार्यालय.
1999: NASDAQ पर सूचीबद्ध.
1999: इसने स्तर 5 की SEI-CMM रैंकिंग प्राप्त की और NASDAQ पर सूचीबद्ध होने वाली पहली भारतीय कम्पनी बन गई।
2000: फ्रांस और हांगकांग में कार्यालय खोले.
2001: संयुक्त अरब अमीरात और अर्जेन्टीना में कार्यालय खोले.
2002: नीदरलैंड, सिंगापुर और स्विट्ज़रलैंड में नए कार्यालय खोले.
2002: बिज़नस वर्ल्ड ने इन्फोसिस को "भारत की सबसे सम्मानित कंपनी" कहा।
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2002: इसने अपने बीपीओ (बिजनेस प्रोसेस आउटसोर्सिंग) सहायक Progeon (Progeon) की शुरुआत की.[6]
2003: इसने एक्सपर्ट इन्फोर्मेशन सर्विसेज Pty लिमिटेड, ऑस्ट्रेलिया की 100% इक्विटी प्राप्त की और अपने नाम को बदल कर इन्फोसिस ऑस्ट्रेलिया Pty लिमिटेड कर दिया.
2004: इन्फोसिस परामर्श इन्कोर्पोरेशन की स्थापना की, यह कैलिफोर्निया, अमेरिका में अमेरिका परामर्श सहायक है।
2006: NASDAQ शेयर बाजार ओपनिंग बेल को घेरने वाली पहली भारतीय कम्पनी बन गई।
2006: अगस्त 20, एनआरनारायण मूर्ति अपने कार्यकारी अध्यक्ष के पद से सेवानिवृत हो गए।[7]
2006: सिटी बैंक बीपीओ शाखा Progeon में 23% हिस्सेदारी अर्जित की, इससे यह इन्फोसिस की पूर्ण स्वामित्व वाली सहायक बन गई और इसका नाम बदल कर इन्फोसिस बीपीओ लिमिटेड)[8]
2006: दिसम्बर, इसे Nasdaq 100 बनाने वाली पहली भारतीय कम्पनी बन गयी।[9]
2007: 13 अप्रैल नंदन निलेकानी सीईओ के पद पर आ गए। और जून 2007 में क्रिस गोपालकृष्णन के लिए उनकी कुर्सी पर कब्जा करने के लिए रास्ता बना दिया.
2007:25 जुलाई रोयल फिलिप्स इलेक्ट्रोनिक्स (Royal Philips Electronics) से इन्फोसिस फायनांस व एकाउंटिंग क्षेत्र की सेवा में अपने यूरोपियन परिचालन को मजबूत बनाने के लिए कई अरब डॉलर में करार करता है। 2007: सितम्बर, इन्फोसिस ने एक पूर्णतः स्वामित्व वाली लैटिन अमेरिकन (Latin America) सहायक इन्फोसिस टेक्नोलॉजीज एस डी आर की स्थापना की.L. de C.वी. और मॉन्टेरी (Monterrey), मेक्सिको में लैटिन अमेरिका (Latin America) में अपना पहला सॉफ्टवेयर विकास केन्द्र खोला.
1993 से 2007 तक 14 साल की अवधि में, इन्फोसिस शेयर के जारी होने के मूल्य में तीन हज़ार गुना वृद्धि हुई है। इसमें वे डिविडेंट शामिल नहीं हैं जो कम्पनी ने इस अवधि के दौरान चुकाए हैं।
प्रमुख उद्योग इन्फोसिस अपनी औद्योगिक व्यापार इकाइयों (IBU) के माध्यम से विभिन्न उद्योगों की सेवाएं प्रदान करता है, जैसे:
बैंकिंग एवं पूंजी बाजार (बी सी एम)
संचार मीडिया और मनोरंजन (सीएमई)
एयरोस्पेस और एविओनिक्स ऊर्जा, सुविधाएँ और सेवाएँ (EUS)
बीमा, हेल्थकेयर और जीवन विज्ञान (IHL)
विनिर्माण (MFG)
खुदरा, उपभोक्ता उत्पाद सामान और रसद (RETL)
नए विकास इंजन (NGE)
भारत बिजनेस ईकाई (इंडस्ट्रीज़)
इन के अलावा, कई क्षैतिज व्यावसायिक इकाइयां (HBUs) हैं।
परामर्श
एंटरप्राइज समाधान (ई एस) (ESAP & ESX)
बुनियादी प्रबंधन सेवायें (IMS)
उत्पाद इंजीनियरिंग और मान्यकरण सेवाएं (PEVS)
सिस्टम एकीकरण (SI)
पहल 1996 में, इन्फोसिस ने कर्नाटक राज्य में इन्फोसिस संस्थान बनाया. जो स्वास्थ्य रक्षा (health care), सामाजिक पुनर्वास और ग्रामीण उत्थान, शिक्षा, कला और संस्कृति के क्षेत्रों में कार्य कर रहा है। तब से, यह संस्थान (foundation) भारत के तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा और पंजाब राज्यों में फ़ैल गया है। इन्फोसिस संस्थान का नेतृत्व श्रीमती सुधा मूर्ति (Sudha Murthy) कर रही हैं, जो अध्यक्ष नारायण मूर्ति की पत्नी हैं।
2004 के बाद से, इन्फोसिस ने AcE - Academic Entente नमक कार्यक्रम के अंतर्गत दुनिया भर में अपने अकादमिक रिश्तों को मजबूत और औपचारिक बनाने की पहल की है। कम्पनी मामले का अध्ययन लेखन, शैक्षणिक सम्मेलनों और विश्वविद्यालय के कार्यक्रमों में भाग लेना, अनुसंधान में सहयोग, इन्फोसिस विकास केन्द्रों के लिए अध्ययन यात्राओं की मेजबानी करना और इन्स्टेप ग्लोबल इंटर्नशिप कार्यक्रम चलाना आदि के माध्यम से महत्वपूर्ण दावेदारों के साथ संचार करती है।
इन्फोसिस का ग्लोबल इंटर्नशिप कार्यक्रम जो इनस्टेप के नाम से जाना जाता है, अकादमिक एंटिटी पहल के मुख्य अव्यवों में से एक है। यह दुनिया भर में विश्वविद्यालयों से इन्टर्नस के लिए लाइव परयोजनाएं प्रस्तुत करता है। इनस्टेप व्यापार, तकनीक और उदार कला विश्वविद्यालयों से स्नातक, अधो स्नातक और पी एच डी विद्यार्थियों की भर्ती करता है, जो किसी भी एक इन्फोसिस ग्लोबल कार्यालय में 8 से 24 सप्ताह की इंटर्नशिप में भाग लेते हैं। इनस्टेप इन्टर्नस को इन्फोसिस में करियर में भी अवसर प्रदान किए जाते हैं।
1997 में, इन्फोसिस ने "Catch them Young Programme" की शुरुआत की, जिसमें एक गर्मी की छुट्टीयों के कार्यक्रम के आयोजन के द्वारा शहरी युवाओं को सूचना प्रौद्योगिकी की दुनिया के लिए आगे बढ़ने का मौका दिया गया। इस कार्यक्रम का उद्देश्य था कंप्यूटर विज्ञान (computer science) और सूचना प्रौद्योगिकी के बारे में समझ और रूचि विकसित करना.इस कार्यक्रम में श्रेणी IX के स्तर के छात्रों को लक्ष्य बनाया गया।[10]
2002 में, पेनसिल्वेनिया विश्वविद्यालय के (University of Pennsylvania) व्हार्टन बिजनेस स्कूल (Wharton Business School) और इन्फोसिस ने व्हार्टन इन्फोसिस व्यवसाय रूपांतरण पुरस्कार (Wharton Infosys Business Transformation Award) की शुरुआत की। यह तकनीकी पुरस्कार उन व्यक्तियों और एंटरप्राइजेज को मान्यता देता है जिन्होंने अपने व्यापार और समाज की सूचना प्रौद्योगिकी को रूपांतरित कर दिया है। पिछले विजेताओं में शामिल हैं सैमसंग (Samsung), Amazon.com (Amazon.com), केपिटल वन (Capital One), आरबीएस (RBS) और ING प्रत्यक्ष (ING Direct).
अनुसंधान अनुसंधान के मामले में इन्फोसिस के द्वारा की गई एक मुख्य पहल यह है कि इसने एक कोर्पोरेट R&D (R&D) विंग का विकास किया है जो सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग तथा प्रौद्योगिकी प्रयोगशाला (SETLabs) कहलाती है। SETLabs की स्थापना 2000 में हुई। इसे प्रक्रिया में विकास के लिए अनुसंधान हेतु, प्रभावी ग्राहक आवश्यकताओं के लिए ढांचों और विधियों हेतु और एक परियोजना के जीवन चक्र के दौरान सामान्य जटिल मुद्दों को सुलझाने के लिए स्थापित किया गया।
इन्फोसिस समान स्तर के समूहों की समीक्षा का त्रैमासिक जर्नल प्रकाशित करती है जो SETLabs Briefings कहलाता है, इसमें SETLabs के शोधकर्ताओं के द्वारा विभिन्न वर्तमान और भविष्य की व्यापार रूपांतरण तकनीक प्रबंधन विषय पर लेख लिखे जाते हैं। इन्फोसिस के पास एक आर एफ आई डी और व्यापक कम्प्यूटिंग प्रौद्योगिकी प्रथा है जो अपने ग्राहकों को आरएफआईडी (RFID) और बेतार सेवाएं उपलब्ध कराती हैं।[11] इन्फोसिस ने मोटोरोला के साथ Paxar के लिए एक आरएफआईडी इंटरैक्टिव बिम्ब का विकास किय है।[12][13]
SETLabs ने व्यापार मॉडलिंग, प्रौद्योगिकी और उत्पाद नवीनता के क्षेत्रों में पाँच से छः आधारभूत ढांचों का निर्माण किया है।[14]
वैश्विक कार्यालय एशिया प्रशांत भारत: बेंगलुरु, पुणे, हैदराबाद, चेन्नई, भुवनेश्वर, मेंगलोर, मैसूर, मोहाली (Mohali), तिरुवनंतपुरम, चंडीगढ़, कोलकाता (प्रस्तास्वित और अब सुनिश्चित), विशाखापटनम (Vishakapatnam) (प्रस्तावित)[15]
ऑस्ट्रेलिया: मेलबॉर्न, सिडनी
चीन: बीजिंग, शंघाई
हांगकांग: हांगकांग
जापान: टोक्यो
मॉरीशस: मॉरीशस
संयुक्त अरब अमीरात: शारजाह (Sharjah)
फिलीपींस: Taguig City (Taguig City)
उत्तरी अमेरिका कनाडा: टोरंटो (Toronto)
संयुक्त राज्य अमरीका: अटलांटा (GA), Bellevue (WA) (Bellevue (WA)), Bridgewater (NJ) (Bridgewater (NJ)), चारलोटे (NC) (Charlotte (NC)), साउथ फील्ड (MI) (Southfield (MI)), फ्रेमोंट (CA) (Fremont (CA)), हौस्टन (TX), ग्लेसटोनबरी (CT) (Glastonbury (CT)), लेक फॉरेस्ट (CA) (Lake Forest (CA)), Lisle (IL) (Lisle (IL)), New York, Phoenix (AZ) (Phoenix (AZ)), Plano (TX) (Plano (TX)), Quincy (MA) (Quincy (MA)), Reston (VA) (Reston (VA))
मैक्सिको: मॉन्टेरी (Monterrey)
यूरोप बेल्जियम: ब्रसेल्स (Brussels)
डेनमार्क: कोपेनहेगन
फिनलैंड: हेलसिंकी (Helsinki)
फ़्रांस: पेरिस
जर्मनी: फ़्रैंकफ़र्ट (Frankfurt), स्टटगार्ट (Stuttgart)
इटली: मिलानो
नॉर्वे: ओस्लो
पोलैंड: Łódź (Łódź)
नीदरलैंड: Utrecht (Utrecht)
स्पेन: मैड्रिड, Burgos (Burgos)
स्वीडन: स्टॉकहोम
स्विटज़रलैंड: Zürich
ब्रिटेन: कैनरी वार्फ (Canary Wharf), लन्दन
इन्फोसिस बैंगलोर परिसर
इन्फोसिस मैसूर परिसर
इलेक्ट्रॉनिक्स सिटी परिसर में पिरामिड के आकार की इमारत इन्फोसिस के अंदर साइकिल चालन
एक "बारिश के दिन" इन्फोसिस पुणे खाद्य कोर्ट
इन्फोसिस, पुणे डीसी, निर्माण के तहत ई सी सी ने SDB-4 पर प्रतिबिंबित किया है।
इन्हें भी देखें
एक्सेंचर
टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज
हेच -1बी वीज़ा
सन्दर्भ CS1 maint: discouraged parameter (link)
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बाहरी सम्बन्ध Reuters पर
गूगल फाइनेंस पर
Template:बीएसई सेंसेक्स
Template:प्रमुख भारतीय कंपनियाँ
श्रेणी:बीएसई सेंसेक्स
श्रेणी:भारतीय सॉफ्टवेयर कम्पनियाँ
श्रेणी:Companies listed on the Bombay Stock Exchange
श्रेणी:Companies established in 1981
श्रेणी:Economy of Bangalore
श्रेणी:Outsourcing companies
श्रेणी:बेंगलुरु में आधारित कम्पनियाँ
श्रेणी:International information technology consulting firms | ´इन्फोसिस लिमिटेड´ संस्थापक कौन है? | इन्फोसिस की स्थापना २ जुलाई, १९८१ को पुणे में एन आर नारायण मूर्ति के द्वारा की गई। इनके साथ और छह अन्य लोग थे: नंदन निलेकानी, एनएसराघवन, क्रिस गोपालकृष्णन, एस डी.शिबुलाल, के दिनेश और अशोक अरोड़ा | 453 | hindi |
86c77b886 | आर्यभट (४७६-५५०) प्राचीन भारत के एक महान ज्योतिषविद् और गणितज्ञ थे। इन्होंने आर्यभटीय ग्रंथ की रचना की जिसमें ज्योतिषशास्त्र के अनेक सिद्धांतों का प्रतिपादन है।[1] इसी ग्रंथ में इन्होंने अपना जन्मस्थान कुसुमपुर और जन्मकाल शक संवत् 398 लिखा है। बिहार में वर्तमान पटना का प्राचीन नाम कुसुमपुर था लेकिन आर्यभट का कुसुमपुर दक्षिण में था, यह अब लगभग सिद्ध हो चुका है।
एक अन्य मान्यता के अनुसार उनका जन्म महाराष्ट्र के अश्मक देश में हुआ था। उनके वैज्ञानिक कार्यों का समादर राजधानी में ही हो सकता था। अतः उन्होंने लम्बी यात्रा करके आधुनिक पटना के समीप कुसुमपुर में अवस्थित होकर राजसान्निध्य में अपनी रचनाएँ पूर्ण की।
आर्यभट का जन्म-स्थान यद्यपि आर्यभट के जन्म के वर्ष का आर्यभटीय में स्पष्ट उल्लेख है, उनके जन्म के वास्तविक स्थान के बारे में विवाद है। कुछ मानते हैं कि वे नर्मदा और गोदावरी के मध्य स्थित क्षेत्र में पैदा हुए थे, जिसे अश्माका के रूप में जाना जाता था और वे अश्माका की पहचान मध्य भारत से करते हैं जिसमे महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश शामिल है, हालाँकि आरंभिक बौद्ध ग्रन्थ अश्माका को दक्षिण में, दक्षिणापथ या दक्खन के रूप में वर्णित करते हैं, जबकि अन्य ग्रन्थ वर्णित करते हैं कि अश्माका के लोग अलेक्जेंडर से लड़े होंगे, इस हिसाब से अश्माका को उत्तर की तरफ और आगे होना चाहिए। [2]
एक ताजा अध्ययन के अनुसार आर्यभट, केरल के चाम्रवत्तम (१०उत्तर५१, ७५पूर्व४५) के निवासी थे। अध्ययन के अनुसार अस्मका एक जैन प्रदेश था जो कि श्रवणबेलगोल के चारों तरफ फैला हुआ था और यहाँ के पत्थर के खम्बों के कारण इसका नाम अस्मका पड़ा। चाम्रवत्तम इस जैन बस्ती का हिस्सा था, इसका प्रमाण है भारतापुझा नदी जिसका नाम जैनों के पौराणिक राजा भारता के नाम पर रखा गया है। आर्यभट ने भी युगों को परिभाषित करते वक्त राजा भारता का जिक्र किया है- दसगीतिका के पांचवें छंद में राजा भारत के समय तक बीत चुके काल का वर्णन आता है। उन दिनों में कुसुमपुरा में एक प्रसिद्ध विश्वविद्यालय था जहाँ जैनों का निर्णायक प्रभाव था और आर्यभट का काम इस प्रकार कुसुमपुरा पहुँच सका और उसे पसंद भी किया गया।[3]
हालाँकि ये बात काफी हद तक निश्चित है कि वे किसी न किसी समय कुसुमपुरा उच्च शिक्षा के लिए गए थे और कुछ समय के लिए वहां रहे भी थे।[4] भास्कर I (६२९ ई.) ने कुसुमपुरा की पहचान पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) के रूप में की है। गुप्त साम्राज्य के अन्तिम दिनों में वे वहां रहा करते थे। यह वह समय था जिसे भारत के स्वर्णिम युग के रूप में जाना जाता है, विष्णुगुप्त के पूर्व बुद्धगुप्त और कुछ छोटे राजाओं के साम्राज्य के दौरान उत्तर पूर्व में हूणों का आक्रमण शुरू हो चुका था।
आर्यभट अपनी खगोलीय प्रणालियों के लिए सन्दर्भ के रूप में श्रीलंका का उपयोग करते थे और आर्यभटीय में अनेक अवसरों पर श्रीलंका का उल्लेख किया है। कृतियाँ आर्यभट द्वारा रचित तीन ग्रंथों की जानकारी आज भी उपलब्ध है। दशगीतिका, आर्यभटीय और तंत्र। लेकिन जानकारों के अनुसार उन्होने और एक ग्रंथ लिखा था- 'आर्यभट सिद्धांत'। इस समय उसके केवल ३४ श्लोक ही उपलब्ध हैं। उनके इस ग्रंथ का सातवे शतक में व्यापक उपयोग होता था। लेकिन इतना उपयोगी ग्रंथ लुप्त कैसे हो गया इस विषय में कोई निश्चित जानकारी नहीं मिलती।[5]
उन्होंने आर्यभटीय नामक महत्वपूर्ण ज्योतिष ग्रन्थ लिखा, जिसमें वर्गमूल, घनमूल, समान्तर श्रेणी तथा विभिन्न प्रकार के समीकरणों का वर्णन है। उन्होंने अपने आर्यभटीय नामक ग्रन्थ में कुल ३ पृष्ठों के समा सकने वाले ३३ श्लोकों में गणितविषयक सिद्धान्त तथा ५ पृष्ठों में ७५ श्लोकों में खगोल-विज्ञान विषयक सिद्धान्त तथा इसके लिये यन्त्रों का भी निरूपण किया।[6] आर्यभट ने अपने इस छोटे से ग्रन्थ में अपने से पूर्ववर्ती तथा पश्चाद्वर्ती देश के तथा विदेश के सिद्धान्तों के लिये भी क्रान्तिकारी अवधारणाएँ उपस्थित कींं।
उनकी प्रमुख कृति, आर्यभटीय, गणित और खगोल विज्ञान का एक संग्रह है, जिसे भारतीय गणितीय साहित्य में बड़े पैमाने पर उद्धृत किया गया है और जो आधुनिक समय में भी अस्तित्व में है। आर्यभटीय के गणितीय भाग में अंकगणित, बीजगणित, सरल त्रिकोणमिति और गोलीय त्रिकोणमिति शामिल हैं। इसमे सतत भिन्न (कँटीन्यूड फ़्रेक्शन्स), द्विघात समीकरण (क्वाड्रेटिक इक्वेशंस), घात श्रृंखला के योग (सम्स ऑफ पावर सीरीज़) और ज्याओं की एक तालिका (Table of Sines) शामिल हैं।
आर्य-सिद्धांत, खगोलीय गणनाओं पर एक कार्य है जो अब लुप्त हो चुका है, इसकी जानकारी हमें आर्यभट के समकालीन वराहमिहिर के लेखनों से प्राप्त होती है, साथ ही साथ बाद के गणितज्ञों और टिप्पणीकारों के द्वारा भी मिलती है जिनमें शामिल हैं ब्रह्मगुप्त और भास्कर I. ऐसा प्रतीत होता है कि ये कार्य पुराने सूर्य सिद्धांत पर आधारित है और आर्यभटीय के सूर्योदय की अपेक्षा इसमें मध्यरात्रि-दिवस-गणना का उपयोग किया गया है। इसमे अनेक खगोलीय उपकरणों का वर्णन शामिल है, जैसे कि नोमोन(शंकु-यन्त्र), एक परछाई यन्त्र (छाया-यन्त्र), संभवतः कोण मापी उपकरण, अर्धवृत्ताकार और वृत्ताकार (धनुर-यन्त्र / चक्र-यन्त्र), एक बेलनाकार छड़ी यस्ती-यन्त्र, एक छत्र-आकर का उपकरण जिसे छत्र- यन्त्र कहा गया है और कम से कम दो प्रकार की जल घड़ियाँ- धनुषाकार और बेलनाकार.[2]
एक तीसरा ग्रन्थ जो अरबी अनुवाद के रूप में अस्तित्व में है, अल न्त्फ़ या अल नन्फ़ है, आर्यभट के एक अनुवाद के रूप में दावा प्रस्तुत करता है, परन्तु इसका संस्कृत नाम अज्ञात है।
संभवतः ९ वी सदी के अभिलेखन में, यह फारसी विद्वान और भारतीय इतिहासकार अबू रेहान अल-बिरूनी द्वारा उल्लेखित किया गया है।[2]
आर्यभटीय मुख्य लेख आर्यभटीय
आर्यभट के कार्य के प्रत्यक्ष विवरण सिर्फ़ आर्यभटीय से ही ज्ञात हैं। आर्यभटीय नाम बाद के टिप्पणीकारों द्वारा दिया गया है, आर्यभट ने स्वयं इसे नाम नहीं दिया होगा; यह उल्लेख उनके शिष्य भास्कर प्रथम ने अश्मकतंत्र या अश्माका के लेखों में किया है। इसे कभी कभी आर्य-शत-अष्ट (अर्थात आर्यभट के १०८)- जो की उनके पाठ में छंदों की संख्या है- के नाम से भी जाना जाता है। यह सूत्र साहित्य के समान बहुत ही संक्षिप्त शैली में लिखा गया है, जहाँ प्रत्येक पंक्ति एक जटिल प्रणाली को याद करने के लिए सहायता करती है। इस प्रकार, अर्थ की व्याख्या टिप्पणीकारों की वजह से है। समूचे ग्रंथ में १०८ छंद है, साथ ही परिचयात्मक १३ अतिरिक्त हैं, इस पूरे को चार पदों अथवा अध्यायों में विभाजित किया गया है:
(1) गीतिकपाद: (१३ छंद) समय की बड़ी इकाइयाँ - कल्प, मन्वन्तर, युग, जो प्रारंभिक ग्रंथों से अलग एक ब्रह्माण्ड विज्ञान प्रस्तुत करते हैं जैसे कि लगध का वेदांग ज्योतिष, (पहली सदी ईसवी पूर्व, इनमेंं जीवाओं (साइन) की तालिका ज्या भी शामिल है जो एक एकल छंद में प्रस्तुत है। एक महायुग के दौरान, ग्रहों के परिभ्रमण के लिए ४.३२ मिलियन वर्षों की संख्या दी गयी है।
(२) गणितपाद (३३ छंद) में क्षेत्रमिति (क्षेत्र व्यवहार), गणित और ज्यामितिक प्रगति, शंकु/ छायाएँ (शंकु -छाया), सरल, द्विघात, युगपत और अनिश्चित समीकरण (कुट्टक) का समावेश है।
(३) कालक्रियापाद (२५ छंद): समय की विभिन्न इकाइयाँ और किसी दिए गए दिन के लिए ग्रहों की स्थिति का निर्धारण करने की विधि। अधिक मास की गणना के विषय में (अधिकमास), क्षय-तिथियां। सप्ताह के दिनों के नामों के साथ, एक सात दिन का सप्ताह प्रस्तुत करते हैं।
(४) गोलपाद (५० छंद): आकाशीय क्षेत्र के ज्यामितिक /त्रिकोणमितीय पहलू, क्रांतिवृत्त, आकाशीय भूमध्य रेखा, आसंथि, पृथ्वी के आकार, दिन और रात के कारण, क्षितिज पर राशिचक्रीय संकेतों का बढ़ना आदि की विशेषताएं।
इसके अतिरिक्त, कुछ संस्करणों अंत में कृतियों की प्रशंसा आदि करने के लिए कुछ पुष्पिकाएं भी जोड़ते हैं।
आर्यभटीय ने गणित और खगोल विज्ञान में पद्य रूप में, कुछ नवीनताएँ प्रस्तुत की, जो अनेक सदियों तक प्रभावशाली रही। ग्रंथ की संक्षिप्तता की चरम सीमा का वर्णन उनके शिष्य भास्कर प्रथम (भाष्य , ६०० और) द्वारा अपनी समीक्षाओं में किया गया है और अपने आर्यभटीय भाष्य (१४६५) में नीलकंठ सोमयाजी द्वारा।
आर्यभट का योगदान भारतके इतिहास में जिसे 'गुप्तकाल' या 'स्वर्णयुग' के नाम से जाना जाता है, उस समय भारत ने साहित्य, कला और विज्ञान क्षेत्रों में अभूतपूर्व प्रगति की। उस समय मगध स्थित नालन्दा विश्वविद्यालय ज्ञानदान का प्रमुख और प्रसिद्ध केंद्र था। देश विदेश से विद्यार्थी ज्ञानार्जन के लिए यहाँ आते थे। वहाँ खगोलशास्त्र के अध्ययन के लिए एक विशेष विभाग था। एक प्राचीन श्लोक के अनुसार आर्यभट नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति भी थे।
आर्यभट का भारत और विश्व के ज्योतिष सिद्धान्त पर बहुत प्रभाव रहा है। भारत में सबसे अधिक प्रभाव केरल प्रदेश की ज्योतिष परम्परा पर रहा। आर्यभट भारतीय गणितज्ञों में सबसे महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इन्होंने 120 आर्याछंदों में ज्योतिष शास्त्र के सिद्धांत और उससे संबंधित गणित को सूत्ररूप में अपने आर्यभटीय ग्रंथ में लिखा है।
उन्होंने एक ओर गणित में पूर्ववर्ती आर्किमिडीज़ से भी अधिक सही तथा सुनिश्चित पाई के मान को निरूपित किया तो दूसरी ओर खगोलविज्ञान में सबसे पहली बार उदाहरण के साथ यह घोषित किया गया कि स्वयं पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है।
आर्यभट ने ज्योतिषशास्त्र के आजकल के उन्नत साधनों के बिना जो खोज की थी,यह उनकी महत्ता है। कोपर्निकस (1473 से 1543 ई.) ने जो खोज की थी उसकी खोज आर्यभट हजार वर्ष पहले कर चुके थे। "गोलपाद" में आर्यभट ने लिखा है "नाव में बैठा हुआ मनुष्य जब प्रवाह के साथ आगे बढ़ता है, तब वह समझता है कि अचर वृक्ष, पाषाण, पर्वत आदि पदार्थ उल्टी गति से जा रहे हैं। उसी प्रकार गतिमान पृथ्वी पर से स्थिर नक्षत्र भी उलटी गति से जाते हुए दिखाई देते हैं।" इस प्रकार आर्यभट ने सर्वप्रथम यह सिद्ध किया कि पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती है। इन्होंने सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग को समान माना है। इनके अनुसार एक कल्प में 14 मन्वंतर और एक मन्वंतर में 72 महायुग (चतुर्युग) तथा एक चतुर्युग में सतयुग, द्वापर, त्रेता और कलियुग को समान माना है।
आर्यभट के अनुसार किसी वृत्त की परिधि और व्यास का संबंध 62,832: 20,000 आता है जो चार दशमलव स्थान तक शुद्ध है।
आर्यभट ने बड़ी-बड़ी संख्याओं को अक्षरों के समूह से निरूपित करने कीत्यन्त वैज्ञानिक विधि का प्रयोग किया है।
गणित स्थानीय मान प्रणाली और शून्य स्थान-मूल्य अंक प्रणाली, जिसे सर्वप्रथम तीसरी सदी की बख्शाली पाण्डुलिपि में देखा गया, उनके कार्यों में स्पष्ट रूप से विद्यमान थी।[7] उन्होंने निश्चित रूप से प्रतीक का उपयोग नहीं किया, परन्तु फ्रांसीसी गणितज्ञ जार्ज इफ्रह के मतानुसार- रिक्त गुणांक के साथ, दस की घात के लिए एक स्थान धारक के रूप में शून्य का ज्ञान आर्यभट के स्थान-मूल्य अंक प्रणाली में निहित था।[8]
हालांकि, आर्यभट ने ब्राह्मी अंकों का प्रयोग नहीं किया था; वैदिक काल से चली आ रही संस्कृत परंपरा को निरंतर रखते हुए उन्होंने संख्या को निरूपित करने के लिए वर्णमाला के अक्षरों का उपयोग किया,
मात्राओं (जैसे ज्याओं की तालिका) को स्मरक के रूप में व्यक्त करना।
[9]
अपरिमेय (इर्रेशनल) के रूप में π आर्यभट ने पाई () के सन्निकटन पर कार्य किया और संभवतः उन्हें इस बात का ज्ञान हो गया था कि पाई इर्रेशनल है। आर्यभटीयम् (गणितपाद) के दूसरे भाग में वे लिखते हैं:
चतुराधिकं शतमष्टगुणं द्वाषष्टिस्तथा सहस्राणाम्।
अयुतद्वयस्य विष्कम्भस्यासन्नो वृत्तपरिणाहः॥
१०० में चार जोड़ें, आठ से गुणा करें और फिर ६२००० जोड़ें। इस नियम से २०००० परिधि के एक वृत्त का व्यास ज्ञात किया जा सकता है। (१०० + ४) * ८ + ६२०००/२०००० = ३.१४१६ इसके अनुसार व्यास और परिधि का अनुपात ((४ + १००) × ८ + ६२०००) / २०००० = ३.१४१६ है, जो पाँच महत्वपूर्ण आंकडों तक बिलकुल सटीक है।[10]
आर्यभट ने आसन्न (निकट पहुंचना), पिछले शब्द के ठीक पहले आने वाला, शब्द की व्याख्या की व्याख्या करते हुए कहा है कि यह न केवल एक सन्निकटन है, वरन यह कि मूल्य अतुलनीय (या इर्रेशनल) है। यदि यह सही है, तो यह एक अत्यन्त परिष्कृत दृष्टिकोण है, क्योंकि यूरोप में पाइ की तर्कहीनता का सिद्धांत लैम्बर्ट द्वारा केवल १७६१ में ही सिद्ध हो पाया था।[11]
आर्यभटीय के अरबी में अनुवाद के पश्चात् (पूर्व.८२० ई.) बीजगणित पर मुहम्मद इब्न मूसा अल-ख़्वारिज़्मी की पुस्तक में इस सन्निकटन का उल्लेख किया गया था।[2]
क्षेत्रमिति और त्रिकोणमिति गणितपाद ६ में, आर्यभट ने त्रिकोण के क्षेत्रफल को इस प्रकार बताया है-
त्रिभुजस्य फलशरीरं समदलकोटि भुजार्धसंवर्गः
इसका अनुवाद यह है: किसी त्रिभुज का क्षेत्रफल, लम्ब के साथ भुजा के आधे के (गुणनफल के) परिणाम के बराबर होता है।[12]
आर्यभट ने अपने काम में द्विज्या (साइन) के विषय में चर्चा की है और उसको नाम दिया है अर्ध-ज्या इसका शाब्दिक अर्थ है "अर्ध-तंत्री"। आसानी की वजह से लोगों ने इसे ज्या कहना शुरू कर दिया। जब अरबी लेखकों द्वारा उनके काम का संस्कृत से अरबी में अनुवाद किया गया, तो उन्होंने इसको जिबा कहा (ध्वन्यात्मक समानता के कारणवश)। चूँकि, अरबी लेखन में, स्वरों का इस्तेमाल बहुत कम होता है, इसलिए इसका और संक्षिप्त नाम पड़ गया ज्ब। जब बाद के लेखकों को ये समझ में आया कि ज्ब जिबा का ही संक्षिप्त रूप है, तो उन्होंने वापिस जिबा का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। जिबा का अर्थ है "खोह" या "खाई" (अरबी भाषा में जिबा का एक तकनीकी शब्द के आलावा कोई अर्थ नहीं है)। बाद में बारहवीं सदी में, जब क्रीमोना के घेरार्दो ने इन लेखनों का अरबी से लैटिन भाषा में अनुवाद किया, तब उन्होंने अरबी जिबा की जगह उसके लेटिन समकक्ष साइनस को डाल दिया, जिसका शाब्दिक अर्थ "खोह" या खाई" ही है। और उसके बाद अंग्रेजी में, साइनस ही साइन बन गया।[13]
अनिश्चित समीकरण प्राचीन कल से भारतीय गणितज्ञों की विशेष रूचि की एक समस्या रही है उन समीकरणों के पूर्णांक हल ज्ञात करना जो ax + b = cy स्वरूप में होती है, एक विषय जिसे वर्तमान समय में डायोफैंटाइन समीकरण के रूप में जाना जाता है। यहाँ आर्यभटीय पर भास्कर की व्याख्या से एक उदाहरण देते हैं:
वह संख्या ज्ञात करो जिसे ८ से विभाजित करने पर शेषफल के रूप में ५ बचता है, ९ से विभाजित करने पर शेषफल के रूप में ४ बचता है, ७ से विभाजित करने पर शेषफल के रूप में १ बचता है।
अर्थात, बताएं N = 8x+ 5 = 9y +4 = 7z +1. इससे N के लिए सबसे छोटा मान ८५ निकलता है। सामान्य तौर पर, डायोफैंटाइन समीकरण कठिनता के लिए बदनाम थे। इस तरह के समीकरणों की व्यापक रूप से चर्चा प्राचीन वैदिक ग्रन्थ सुल्ब सूत्र में है, जिसके अधिक प्राचीन भाग ८०० ई.पू. तक पुराने हो सकते हैं। ऐसी समस्याओं के हल के लिए आर्यभट की विधि को कुट्टक विधि कहा गया है। कुुट्टक का अर्थ है पीसना, अर्थात छोटे छोटे टुकडों में तोड़ना और इस विधि में छोटी संख्याओं के रूप में मूल खंडों को लिखने के लिए एक पुनरावर्ती कलनविधि का समावेश था। आज यह कलनविधि, ६२१ ईसवी पश्चात में भास्कर की व्याख्या के अनुसार, पहले क्रम के डायोफैंटाइन समीकरणों को हल करने के लिए मानक पद्धति है,
और इसे अक्सर आर्यभट एल्गोरिद्म के रूप में जाना जाता है।[14] डायोफैंटाइन समीकरणों का इस्तेमाल क्रिप्टोलौजी में होता है और आरएसए सम्मलेन, २००६ ने अपना ध्यान कुट्टक विधि और सुल्वसूत्र के पूर्व के कार्यों पर केन्द्रित किया।
बीजगणित आर्यभटीय में आर्यभट ने वर्गों और घनों की श्रेणी के रोचक परिणाम प्रदान किये हैं।[15]
और
खगोल विज्ञान आर्यभट की खगोल विज्ञान प्रणाली औदायक प्रणाली कहलाती थी, (श्रीलंका, भूमध्य रेखा पर उदय, भोर होने से दिनों की शुरुआत होती थी।) खगोल विज्ञान पर उनके बाद के लेख, जो सतही तौर पर
एक द्वितीय मॉडल (अर्ध-रात्रिका, मध्यरात्रि), प्रस्तावित करते हैं, खो गए हैं, परन्तु इन्हे आंशिक रूप से ब्रह्मगुप्त के खण्डखाद्यक में हुई चर्चाओं से पुनः निर्मित किया जा सकता है। कुछ ग्रंथों में वे पृथ्वी के घूर्णन को आकाश की आभासी गति का कारण बताते हैं।
सौर प्रणाली की गतियाँ प्रतीत होता है कि आर्यभट यह मानते थे कि पृथ्वी अपनी धुरी की परिक्रमा करती है। यह श्रीलंका को सन्दर्भित एक कथन से ज्ञात होता है, जो तारों की गति का पृथ्वी के घूर्णन से उत्पन्न आपेक्षिक गति के रूप में वर्णन करता है।
अनुलोम-गतिस् नौ-स्थस् पश्यति अचलम् विलोम-गम् यद्-वत्। अचलानि भानि तद्-वत् सम-पश्चिम-गानि लंकायाम् ॥ (आर्यभटीय गोलपाद ९)
जैसे एक नाव में बैठा आदमी आगे बढ़ते हुए स्थिर वस्तुओं को पीछे की दिशा में जाते देखता है, बिल्कुल उसी तरह श्रीलंका में (अर्थात भूमध्य रेखा पर) लोगों द्वारा स्थिर तारों को ठीक पश्चिम में जाते हुए देखा जाता है।
अगला छंद तारों और ग्रहों की गति को वास्तविक गति के रूप में वर्णित करता है: उदय-अस्तमय-निमित्तम् नित्यम् प्रवहेण वायुना क्षिप्तस्।
लंका-सम-पश्चिम-गस् भ-पंजरस् स-ग्रहस् भ्रमति ॥ (आर्यभटीय गोलपाद १०)
"उनके उदय और अस्त होने का कारण इस तथ्य की वजह से है कि प्रोवेक्टर हवा द्वारा संचालित गृह और एस्टेरिस्म्स चक्र श्रीलंका में निरंतर पश्चिम की तरफ चलायमान रहते हैं।
लंका (श्रीलंका) यहाँ भूमध्य रेखा पर एक सन्दर्भ बिन्दु है, जिसे खगोलीय गणना के लिए मध्याह्न रेखा के सन्दर्भ में समान मान के रूप में ले लिया गया था।
आर्यभट ने सौर मंडल के एक भूकेंद्रीय मॉडल का वर्णन किया है, जिसमे सूर्य और चन्द्रमा गृहचक्र द्वारा गति करते हैं, जो कि परिक्रमा करता है
पृथ्वी की। इस मॉडल में, जो पाया जाता है पितामहसिद्धान्त (ई. 425), प्रत्येक ग्रहों की गति दो ग्रहचक्रों द्वारा नियंत्रित है, एक छोटा मंद (धीमा) ग्रहचक्र और एक बड़ा शीघ्र (तेज) ग्रहचक्र।
[16] पृथ्वी से दूरी के अनुसार ग्रहों का क्रम इस प्रकार है: चंद्रमा, बुध, शुक्र, सूरज, मंगल,
बृहस्पति, शनि और नक्षत्र[2]
ग्रहों की स्थिति और अवधि की गणना समान रूप से गति करते हुए बिन्दुओं से सापेक्ष के रूप में की गयी थी, जो बुध और शुक्र के मामले में, जो पृथ्वी के चारों ओर औसत सूर्य के समान गति से घूमते हैं और मंगल, बृहस्पति और शनि के मामले में, जो राशिचक्र में पृथ्वी के चारों ओर अपनी विशिष्ट गति से गति करते हैं। खगोल विज्ञान के अधिकांश इतिहासकारों के अनुसार यह द्वि ग्रहचक्र वाला मॉडल टॉलेमी के पहले के ग्रीक खगोल विज्ञानके तत्वों को प्रदर्शित करता है।[17] आर्यभट के मॉडल के एक अन्य तत्व सिघ्रोका, सूर्य के संबंध में बुनियादी ग्रहों की अवधि, को कुछ इतिहासकारों द्वारा एक अंतर्निहित सूर्य केन्द्रित मॉडल के चिन्ह के रूप में देखा जाता है।[18]
ग्रहण उन्होंने कहा कि चंद्रमा और ग्रह सूर्य के परावर्तित प्रकाश से चमकते हैं। मौजूदा ब्रह्माण्डविज्ञान से अलग, जिसमे ग्रहणों का कारक छद्म ग्रह निस्पंद बिन्दु राहू और केतु थे, उन्होंने ग्रहणों को पृथ्वी द्वारा डाली जाने वाली और इस पर गिरने वाली छाया से सम्बद्ध बताया। इस प्रकार चंद्रगहण तब होता है जब चंद्रमा पृथ्वी की छाया में प्रवेश करता है (छंद गोला. ३७) और पृथ्वी की इस छाया के आकार और विस्तार की विस्तार से चर्चा की (छंद गोला. ३८-४८) और फिर ग्रहण के दौरान ग्रहण वाले भाग का आकार और इसकी गणना। बाद के भारतीय खगोलविदों ने इन गणनाओं में सुधार किया, लेकिन आर्यभट की विधियों ने प्रमुख सार प्रदान किया था। यह गणनात्मक मिसाल इतनी सटीक थी कि 18 वीं सदी के वैज्ञानिक गुइलौम ले जेंटिल ने, पांडिचेरी की अपनी यात्रा के दौरान, पाया कि भारतीयों की गणना के अनुसार १७६५-०८-३० के चंद्रग्रहण की अवधि ४१ सेकंड कम थी, जबकि उसके चार्ट (द्वारा, टोबिअस मेयर, १७५२) ६८ सेकंड अधिक दर्शाते थे।[2]
आर्यभट कि गणना के अनुसार पृथ्वी की परिधि ३९,९६८.०५८२ किलोमीटर है, जो इसके वास्तविक मान ४०,०७५.०१६७ किलोमीटर से केवल ०.२% कम है। यह सन्निकटन यूनानी गणितज्ञ, एराटोसथेंनस की संगणना के ऊपर एक उल्लेखनीय सुधार था,२०० ई.) जिनकी गणना का आधुनिक इकाइयों में तो पता नहीं है, परन्तु उनके अनुमान में लगभग ५-१०% की एक त्रुटि अवश्य थी।[19]
नक्षत्रों के आवर्तकाल समय की आधुनिक अंग्रेजी इकाइयों में जोड़ा जाये तो, आर्यभट की गणना के अनुसार पृथ्वी का आवर्तकाल (स्थिर तारों के सन्दर्भ में पृथ्वी की अवधि)) २३ घंटे ५६ मिनट और ४.१ सेकंड थी; आधुनिक समय २३:५६:४.०९१ है। इसी प्रकार, उनके हिसाब से पृथ्वी के वर्ष की अवधि ३६५ दिन ६ घंटे १२ मिनट ३० सेकंड, आधुनिक समय की गणना के अनुसार इसमें ३ मिनट २० सेकंड की त्रुटि है। नक्षत्र समय की धारण उस समय की अधिकतर अन्य खगोलीय प्रणालियों में ज्ञात थी, परन्तु संभवतः यह संगणना उस समय के हिसाब से सर्वाधिक शुद्ध थी।
सूर्य केंद्रीयता आर्यभट का दावा था कि पृथ्वी अपनी ही धुरी पर घूमती है और उनके ग्रह सम्बन्धी ग्रहचक्र मॉडलों के कुछ तत्व उसी गति से घूमते हैं जिस गति से सूर्य के चारों ओर ग्रह घूमते हैं। इस प्रकार ऐसा सुझाव दिया जाता है कि आर्यभट की संगणनाएँ अन्तर्निहित सूर्य केन्द्रित मॉडल पर आधारित थीं, जिसमे ग्रह सूर्य का चक्कर लगाते हैं।[20][21] एक समीक्षा में इस सूर्य केन्द्रित व्याख्या का विस्तृत खंडन है। यह समीक्षा बी.एल. वान डर वार्डेन की एक किताब का वर्णन इस प्रकार करती है "यह किताब भारतीय गृह सिद्धांत के विषय में अज्ञात है और यह आर्यभट के प्रत्येक शब्द का सीधे तौर पर विरोध करता है,".[22] हालाँकि कुछ लोग यह स्वीकार करते हैं कि आर्यभट की प्रणाली पूर्व के एक सूर्य केन्द्रित मॉडल से उपजी थी जिसका ज्ञान उनको नहीं था।[23] यह भी दावा किया गया है कि वे ग्रहों के मार्ग को अंडाकार मानते थे, हालाँकि इसके लिए कोई भी प्राथमिक साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया गया है।[24] हालाँकि सामोस के एरिस्तार्चुस (तीसरी शताब्दी ई.पू.) और कभी कभार पोन्टस के हेराक्लिड्स(चौथी शताब्दी ई.पू.) को सूर्य केन्द्रित सिद्धांत की जानकारी होने का श्रेय दिया जाता है, प्राचीन भारत में ज्ञात ग्रीक खगोलशास्त्र(पौलिसा सिद्धांत - संभवतः अलेक्ज़न्द्रिया के किसी पॉल द्वारा) सूर्य केन्द्रित सिद्धांत के विषय में कोई चर्चा नहीं करता है।
विरासत भारतीय खगोलीय परंपरा में आर्यभट के कार्य का बड़ा प्रभाव था और अनुवाद के माध्यम से इन्होंने कई पड़ोसी संस्कृतियों को प्रभावित किया। इस्लामी स्वर्ण युग (ई. ८२०), के दौरान इसका अरबी अनुवाद विशेष प्रभावशाली था। उनके कुछ परिणामों को अल-ख्वारिज्मी द्वारा उद्धृत किया गया है और १० वीं सदी के अरबी विद्वान अल-बिरूनी द्वारा उन्हें सन्दर्भित किया गया गया है, जिन्होंने अपने वर्णन में लिखा है कि आर्यभट के अनुयायी मानते थे कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है।
साइन (ज्या), कोसाइन (कोज्या) के साथ ही, वरसाइन (उक्रमाज्या) की उनकी परिभाषा,
और विलोम साइन (उत्क्रम ज्या), ने त्रिकोणमिति की उत्पत्ति को प्रभावित किया। वे पहले व्यक्ति भी थे जिन्होंने साइन और वरसाइन (१ - कोसएक्स) तालिकाओं को, ० डिग्री से ९० डिग्री तक ३.७५ ° अंतरालों में, 4 दशमलव स्थानों की सूक्ष्मता तक निर्मित किया।
वास्तव में "साइन " और "कोसाइन " के आधुनिक नाम आर्यभट द्वारा प्रचलित ज्या और कोज्या शब्दों के गलत (अपभ्रंश) उच्चारण हैं। उन्हें अरबी में जिबा और कोजिबा के रूप में उच्चारित किया गया था। फिर एक अरबी ज्यामिति पाठ के लैटिन में अनुवाद के दौरान क्रेमोना के जेरार्ड द्वारा इनकी गलत व्याख्या की गयी; उन्होंने जिबा के लिए अरबी शब्द 'जेब' लिया जिसका अर्थ है "पोशाक में एक तह", एल साइनस (सी.११५०).[25]
आर्यभट की खगोलीय गणना की विधियां भी बहुत प्रभावशाली थी। त्रिकोणमितिक तालिकाओं के साथ, वे इस्लामी दुनिया में व्यापक रूप से इस्तेमाल की जाती थी।
और अनेक अरबी खगोलीय तालिकाओं (जिज) की गणना के लिए इस्तेमाल की जाती थी। विशेष रूप से, अरबी स्पेन वैज्ञानिक अल-झर्काली (११वीं सदी) के कार्यों में पाई जाने वाली खगोलीय तालिकाओं का लैटिन में तोलेडो की तालिकाओं (१२वीं सदी) के रूप में अनुवाद किया गया और ये यूरोप में सदियों तक सर्वाधिक सूक्ष्म पंचांग के रूप में इस्तेमाल में रही।
आर्यभट और उनके अनुयायियों द्वारा की गयी तिथि गणना पंचांग अथवा हिंदू तिथिपत्र निर्धारण के व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए भारत में निरंतर इस्तेमाल में रही हैं, इन्हे इस्लामी दुनिया को भी प्रेषित किया गया, जहाँ इनसे जलाली तिथिपत्र का आधार तैयार किया गया जिसे १०७३ में उमर खय्याम सहित कुछ खगोलविदों ने प्रस्तुत किया,[26] जिसके संस्करण (१९२५ में संशोधित) आज ईरान और अफगानिस्तान में राष्ट्रीय कैलेंडर के रूप में प्रयोग में हैं। जलाली तिथिपत्र अपनी तिथियों का आंकलन वास्तविक सौर पारगमन के आधार पर करता है, जैसा आर्यभट (और प्रारंभिक सिद्धांत कैलेंडर में था).इस प्रकार के तिथि पत्र में तिथियों की गणना के लिए एक पंचांग की आवश्यकता होती है।
यद्यपि तिथियों की गणना करना कठिन था, पर जलाली तिथिपत्र में ग्रेगोरी तिथिपत्र से कम मौसमी त्रुटियां थी।
भारत के प्रथम उपग्रह आर्यभट, को उनका नाम दिया गया।चंद्र खड्ड आर्यभट का नाम उनके सम्मान स्वरुप रखा गया है। खगोल विज्ञान, खगोल भौतिकी और वायुमंडलीय विज्ञान में अनुसंधान के लिए भारत में नैनीताल के निकट एक संस्थान का नाम आर्यभट प्रेक्षण विज्ञान अनुसंधान संस्थान (एआरआईएस) रखा गया है।
अंतर्विद्यालयीय आर्यभट गणित प्रतियोगिता उनके नाम पर है।[27] बैसिलस आर्यभट, इसरो के वैज्ञानिकों द्वारा २००९ में खोजी गयी एक बैक्टीरिया की प्रजाति का नाम उनके नाम पर रखा गया है।[28]
टिप्प्णियाँ क. चतुरधिकं शतमष्टगुणं द्वाषष्टिस्तथा सहस्राणाम।
अयुतद्वयविष्कम्भस्यासन्नो वृत्त-परिणाहः।। (आर्यभटीय, गणितपाद, श्लोक १०)
ख. अनुलोमगतिर्नौस्थः पश्यत्यचलं विलोमगं यद्वत्।
अचलानि भानि तद्वत् समपश्चिमगानि लंकायाम्।। (आर्यभटीय, गोलपाद, श्लोक 9)
(अर्थ-नाव में बैठा हुआ मनुष्य जब प्रवाह के साथ आगे बढ़ता है, तब वह समझता है कि अचर वृक्ष, पाषाण, पर्वत आदि पदार्थ उल्टी गति से जा रहे हैं। उसी प्रकार गतिमान पृथ्वी पर से स्थिर नक्षत्र भी उलटी गति से जाते हुए दिखाई देते हैं।)
इन्हें भी देखें आर्यभटीय
आर्यभट की संख्यापद्धति
आर्यभट की ज्या सारणी
भास्कराचार्य
श्रीनिवास रामानुजन्
आर्यभट द्वितीय
सन्दर्भ अन्य सन्दर्भ वाल्टर यूजीन क्लार्क, द ऑफ , गणित और खगोल विज्ञान पर एक प्राचीन भारतीय कार्य, शिकागो विश्वविद्यालय प्रेस (१९३०); पुनः प्रकाशित: केस्सिंगेर प्रकाशन (२००६), आइएसबीएन ९७८-१४२५४८५९९३.
काक, सुभाष सी.(२०००)'भारतीय खगोल विज्ञान का 'जन्म और प्रारंभिक विकास' में शुक्ला, कृपा शंकर. आर्यभट: भारतीय गणितज्ञ और खगोलविद. नई दिल्ली: भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी, १९७६
बाहरी कड़ियाँ (गूगल पुस्तक ; लेखक-दीनानाथ साहनी)
श्रेणी:५वीं शताब्दी के गणितज्ञ
श्रेणी:६वीं शताब्दी के गणितज्ञ
श्रेणी:भारतीय खगोलविद
श्रेणी:भारतीय गणितज्ञ
श्रेणी:मध्यकालीन खगोलविद
श्रेणी:भारतीय वैज्ञानिक
श्रेणी:हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना | आर्यभट का जन्म भारत के किस शहर में हुआ था? | महाराष्ट्र | 399 | hindi |
89d938493 | कैमरा एक प्रकाशीय युक्ति है जिसकी सहायता से कोई स्थिर छवि (फोटोग्राफ) या चलचित्र (मूवी या विडियो) खींचा जा सकता है। चलचित्र वस्तुतः किसी परिवर्तनशील या चलायमान वस्तु के बहुत छोटे समयान्तरालों पर खींची गयी बहुत से छवियों का एक क्रमिक समूह होता है।
कैमरा शब्द लैटिन के कैमरा ऑब्स्क्योरा से आया है जिसका अर्थ अंधेरा कक्ष होता है। ध्यान रखने योग्य है कि सबसे पहले फोटो लेने के लिये एक पूरे कमरे का प्रयोग होता था, जो अंधकारमय होता था।
इतिहास कैमरा सबसे पहले कैमरा ऑब्स्क्योरा के रूप में आया। इसका आविष्कार ईराकी वैज्ञानिक इब्न-अल-हज़ैन (१०१५-१०२१) ने की। इसके बाद अंग्रेज वैज्ञानिक राबर्ट बॉयल एवं उनके सहायक राबर्ट हुक ने सन १६६० के दशक में एक सुवाह्य (पोर्टेबल) कैमरा विकसित किया। सन १६८५ में जोहन जान (Johann Zahn) ने ऐसा कैमरा विकसित किया जो सुवाह्य था और तस्वीर खींचने के लिये व्यावहारिक था।
विविध प्रकार के कैमरे अंकीय एकतालीय प्रतिबिम्ब कैमरा (Digital single-lens reflex camera)
मूवी कैमरा
एकतालीय प्रतिबिम्ब कैमरा (single-lens reflex camera)
खिलौना कैमरा (Toy camera)
द्वितालीय प्रतिबिम्ब कैमरा (Twin-lens reflex camera)
विडियो कैमरा (Video camera)
बाहरी कड़ियाँ - कैमरा के बारे में मुक्त ज्ञानकोश
(How stuff works)
कैमरा
कैमरा
कैमरा | कैमरा का अविष्कार किसने किया था? | इब्न-अल-हज़ैन | 518 | hindi |
bb393b92e | वितरण ट्रांसफॉर्मर (distribution transformer) या सर्विस ट्रान्सफॉर्मर उस ट्रान्सफॉर्मर को कहते हैं जो सीधे उपभोक्ताओं को बिजली देता है। यह एक स्टेप-डाउन ट्रान्स्फॉर्मर होता है।
इन्हें भी देखें
ट्रांसफॉर्मर
ट्रांसफॉर्मर के प्रकार
श्रेणी:विद्युत शक्ति | वितरण ट्रांसफॉर्मर क्या होता है? | जो सीधे उपभोक्ताओं को बिजली देता है | 99 | hindi |
51c5941c1 | देवनागरी एक भारतीय लिपि है जिसमें अनेक भारतीय भाषाएँ तथा कई विदेशी भाषाएं लिखीं जाती हैं। यह बायें से दायें लिखी जाती है। इसकी पहचान एक क्षैतिज रेखा से है जिसे 'शिरिरेखा' कहते हैं। संस्कृत, पालि, हिन्दी, मराठी, कोंकणी, सिन्धी, कश्मीरी, डोगरी, खस, नेपाल भाषा (तथा अन्य नेपाली भाषाय), तामाङ भाषा, गढ़वाली, बोडो, अंगिका, मगही, भोजपुरी, नागपुरी, मैथिली, संथाली आदि भाषाएँ देवनागरी में लिखी जाती हैं। इसके अतिरिक्त कुछ स्थितियों में गुजराती, पंजाबी, बिष्णुपुरिया मणिपुरी, रोमानी और उर्दू भाषाएं भी देवनागरी में लिखी जाती हैं। देवनागरी विश्व में सर्वाधिक प्रयुक्त लिपियों में से एक है। परिचय
अधिकतर भाषाओं की तरह देवनागरी भी बायें से दायें लिखी जाती है। प्रत्येक शब्द के ऊपर एक रेखा खिंची होती है (कुछ वर्णों के ऊपर रेखा नहीं होती है) इसे शिरोरेखा कहते हैं। देवनागरी का विकास ब्राह्मी लिपि से हुआ है। यह एक ध्वन्यात्मक लिपि है जो प्रचलित लिपियों (रोमन, अरबी, चीनी आदि) में सबसे अधिक वैज्ञानिक है। इससे वैज्ञानिक और व्यापक लिपि शायद केवल अध्वव लिपि है। भारत की कई लिपियाँ देवनागरी से बहुत अधिक मिलती-जुलती हैं, जैसे- बांग्ला, गुजराती, गुरुमुखी आदि। कम्प्यूटर प्रोग्रामों की सहायता से भारतीय लिपियों को परस्पर परिवर्तन बहुत आसान हो गया है।
भारतीय भाषाओं के किसी भी शब्द या ध्वनि को देवनागरी लिपि में ज्यों का त्यों लिखा जा सकता है और फिर लिखे पाठ को लगभग 'हू-ब-हू' उच्चारण किया जा सकता है, जो कि रोमन लिपि और अन्य कई लिपियों में सम्भव नहीं है, जब तक कि उनका विशेष मानकीकरण न किया जाये, जैसे आइट्रांस या आइएएसटी।
इसमें कुल ५२ अक्षर हैं, जिसमें १४ स्वर और ३८ व्यंजन हैं। अक्षरों की क्रम व्यवस्था (विन्यास) भी बहुत ही वैज्ञानिक है। स्वर-व्यंजन, कोमल-कठोर, अल्पप्राण-महाप्राण, अनुनासिक्य-अन्तस्थ-उष्म इत्यादि वर्गीकरण भी वैज्ञानिक हैं। एक मत के अनुसार देवनगर (काशी) मे प्रचलन के कारण इसका नाम देवनागरी पड़ा।
भारत तथा एशिया की अनेक लिपियों के संकेत देवनागरी से अलग हैं पर उच्चारण व वर्ण-क्रम आदि देवनागरी के ही समान हैं, क्योंकि वे सभी ब्राह्मी लिपि से उत्पन्न हुई हैं (उर्दू को छोडकर)। इसलिए इन लिपियों को परस्पर आसानी से लिप्यन्तरित किया जा सकता है। देवनागरी लेखन की दृष्टि से सरल, सौन्दर्य की दृष्टि से सुन्दर और वाचन की दृष्टि से सुपाठ्य है। भारतीय अंकों को उनकी वैज्ञानिकता के कारण विश्व ने सहर्ष स्वीकार कर लिया है।
देवनागरी' शब्द की व्युत्पत्ति
देवनागरी या नागरी नाम का प्रयोग "क्यों" प्रारम्भ हुआ और इसका व्युत्पत्तिपरक प्रवृत्तिनिमित्त क्या था- यह अब तक पूर्णतः निश्चित नहीं है। (क) 'नागर' अपभ्रंश या गुजराती "नागर" ब्राह्मणों से उसका संबंध बताया गया है। पर दृढ़ प्रमाण के अभाव में यह मत संदिग्ध है। (ख) दक्षिण में इसका प्राचीन नाम "नंदिनागरी" था। हो सकता है "नंदिनागर" कोई स्थानसूचक हो और इस लिपि का उससे कुछ संबंध रहा हो। (ग) यह भी हो सकता है कि "नागर" जन इसमें लिखा करते थे, अत: "नागरी" अभिधान पड़ा और जब संस्कृत के ग्रंथ भी इसमें लिखे जाने लगे तब "देवनागरी" भी कहा गया। (घ) सांकेतिक चिह्नों या देवताओं की उपासना में प्रयुक्त त्रिकोण, चक्र आदि संकेतचिह्नों को "देवनागर" कहते थे। कालांतर में नाम के प्रथमाक्षरों का उनसे बोध होने लगा और जिस लिपि में उनको स्थान मिला- वह 'देवनागरी' या 'नागरी' कही गई। इन सब पक्षों के मूल में कल्पना का प्राधान्य है, निश्चयात्मक प्रमाण अनुपलब्ध हैं।
इतिहास भारत देवनागरी लिपि की क्षमता से शताब्दियों से परिचित रहा है। डॉ॰ द्वारिका प्रसाद सक्सेना के अनुसार सर्वप्रथम देवनागरी लिपि का प्रयोग गुजरात के नरेश जयभट्ट (700-800 ई.) के शिलालेख में मिलता है। आठवीं शताब्दी में चित्रकूट, नवीं में बड़ौदा के ध्रुवराज भी अपने राज्यादेशों में इस लिपि का उपयोग किया करते थे।
758 ई का राष्ट्रकूट राजा दन्तिदुर्ग का सामगढ़ ताम्रपट मिलता है जिस पर देवनागरी अंकित है। शिलाहारवंश के गंण्डरादित्य के उत्कीर्ण लेख की लिपि देवनागरी है। इसका समय ग्यारहवीं शताब्दी हैं इसी समय के चोलराजा राजेन्द्र के सिक्के मिले हैं जिन पर देवनागरी लिपि अंकित है। राष्ट्रकूट राजा इंद्रराज (दसवीं शती) के लेख में भी देवनागरी का व्यवहार किया है। प्रतीहार राजा महेंद्रपाल (891-907) का दानपत्र भी देवनागरी लिपि में है।
कनिंघम की पुस्तक में सबसे प्राचीन मुसलमानों सिक्के के रूप में महमूद गजनबी द्वारा चलाये गए चांदी के सिक्के का वर्णन है जिस पर देवनागरी लिपि में संस्कृत अंकित है। मुहम्मद विनसाम (1192-1205) के सिक्कों पर लक्ष्मी की मूर्ति के साथ देवनागरी लिपि का व्यवहार हुआ है। शमशुद्दीन इल्तुतमिश (1210-1235) के सिक्कों पर भी देवनागरी अंकित है। सानुद्दीन फिरोजशाह प्रथम, जलालुद्दीन रजिया, बहराम शाह, अलालुद्दीन मरूदशाह, नसीरुद्दीन महमूद, मुईजुद्दीन, गयासुद्दीन बलवन, मुईजुद्दीन कैकूबाद, जलालुद्दीन हीरो सानी, अलाउद्दीन महमद शाह आदि ने अपने सिक्कों पर देवनागरी अक्षर अंकित किये हैं। अकबर के सिक्कों पर देवनागरी में ‘राम‘ सिया का नाम अंकित है। गयासुद्दीन तुगलक, शेरशाह सूरी, इस्लाम शाह, मुहम्मद आदिलशाह, गयासुद्दीन इब्ज, ग्यासुद्दीन सानी आदि ने भी इसी परम्परा का पालन किया।
ब्राह्मी और देवनागरी लिपि: भाषा को लिपियों में लिखने का प्रचलन भारत में ही शुरू हुआ। भारत से इसे सुमेरियन, बेबीलोनीयन और यूनानी लोगों ने सीखा। प्राचीनकाल में ब्राह्मी और देवनागरी लिपि का प्रचलन था। ब्राह्मी और देवनागरी लिपियों से ही दुनियाभर की अन्य लिपियों का जन्म हुआ। ब्राह्मी लिपि एक प्राचीन लिपि है जिससे कई एशियाई लिपियों का विकास हुआ है। ब्राह्मी भी खरोष्ठी की तरह ही पूरे एशिया में फैली हुई थी। ऐसा कहा जाता है कि ब्राह्मी लिपि 10,000 साल पुरानी है लेकिन यह भी कहा जाता है कि यह लिपि उससे भी ज्यादा पुरानी है।
सम्राट अशोक ने भी इस लिपि को अपनाया: महान सम्राट अशोक ने ब्राह्मी लिपि को धम्मलिपि नाम दिया था। ब्राह्मी लिपि को देवनागरी लिपि से भी प्राचीन माना जाता है। कहा जाता है कि यह प्राचीन सिन्धु-सरस्वती लिपि से निकली लिपि है। हड़प्पा संस्कृति के लोग सिंधु लिपि के अलाव इस लिपि का भी इस्तेमाल करते थे, तब संस्कृत भाषा को भी इसी लिपि में लिखा जाता था।
भाषाविज्ञान की दृष्टि से देवनागरी भाषावैज्ञानिक दृष्टि से देवनागरी लिपि अक्षरात्मक (सिलेबिक) लिपि मानी जाती है। लिपि के विकाससोपानों की दृष्टि से "चित्रात्मक", "भावात्मक" और "भावचित्रात्मक" लिपियों के अनंतर "अक्षरात्मक" स्तर की लिपियों का विकास माना जाता है। पाश्चात्य और अनेक भारतीय भाषाविज्ञानविज्ञों के मत से लिपि की अक्षरात्मक अवस्था के बाद अल्फाबेटिक (वर्णात्मक) अवस्था का विकास हुआ। सबसे विकसित अवस्था मानी गई है ध्वन्यात्मक (फोनेटिक) लिपि की। "देवनागरी" को अक्षरात्मक इसलिए कहा जाता है कि इसके वर्ण- अक्षर (सिलेबिल) हैं- स्वर भी और व्यंजन भी। "क", "ख" आदि व्यंजन सस्वर हैं- अकारयुक्त हैं। वे केवल ध्वनियाँ नहीं हैं अपितु सस्वर अक्षर हैं। अत: ग्रीक, रोमन आदि वर्णमालाएँ हैं। परंतु यहाँ यह ध्यान रखने की बात है कि भारत की "ब्राह्मी" या "भारती" वर्णमाला की ध्वनियों में व्यंजनों का "पाणिनि" ने वर्णसमाम्नाय के 14 सूत्रों में जो स्वरूप परिचय दिया है- उसके विषय में "पतंजलि" (द्वितीय शती ई.पू.) ने यह स्पष्ट बता दिया है कि व्यंजनों में संनियोजित "अकार" स्वर का उपयोग केवल उच्चारण के उद्देश्य से है। वह तत्वत: वर्ण का अंग नहीं है। इस दृष्टि से विचार करते हुए कहा जा सकता है कि इस लिपि की वर्णमाला तत्वत: ध्वन्यात्मक है, अक्षरात्मक नहीं।
देवनागरी वर्णमाला देवनागरी की वर्णमाला में १२ स्वर और ३४ व्यंजन हैं। शून्य या एक या अधिक व्यंजनों और एक स्वर के मेल से एक अक्षर बनता है। स्वर निम्नलिखित स्वर आधुनिक हिन्दी (खड़ी बोली) के लिये दिये गये हैं। संस्कृत में इनके उच्चारण थोड़े अलग होते हैं।
वर्णाक्षर“प” के साथ मात्रा IPA उच्चारण"प्" के साथ उच्चारणIAST समतुल्य हिन्दी में वर्णन अप/ ə // pə /a बीच का मध्य प्रसृत स्वर आपा/ α: // pα: /ā दीर्घ विवृत पश्व प्रसृत स्वर इपि/ i // pi /i ह्रस्व संवृत अग्र प्रसृत स्वर ईपी/ i: // pi: /ī दीर्घ संवृत अग्र प्रसृत स्वर उपु/ u // pu /u ह्रस्व संवृत पश्व वर्तुल स्वर ऊपू/ u: // pu: /ū दीर्घ संवृत पश्व वर्तुल स्वर एपे/ e: /e दीर्घ अर्धसंवृत अग्र प्रसृत स्वर ऐपैai दीर्घ लगभग-विवृत अग्र प्रसृत स्वर ओपोo दीर्घ अर्धसंवृत पश्व वर्तुल स्वर औपौ/ ɔ: // pɔ: /au दीर्घ अर्धविवृत पश्व वर्तुल स्वर <कुछ भी नही><कुछ भी नही><कुछ भी नहीं>ह्रस्व अर्धविवृत अग्र प्रसृत स्वर
संस्कृत में ऐ दो स्वरों का युग्म होता है और "अ-इ" या "आ-इ" की तरह बोला जाता है। इसी तरह औ "अ-उ" या "आ-उ" की तरह बोला जाता है।
इसके अलावा हिन्दी और संस्कृत में ये वर्णाक्षर भी स्वर माने जाते हैं:
ऋ -- आधुनिक हिन्दी में "रि" की तरह
ॠ -- केवल संस्कृत में
ऌ -- केवल संस्कृत में
ॡ -- केवल संस्कृत में
अं -- आधे न्, म्, ं, ं, ण् के लिये या स्वर का नासिकीकरण करने के लिये
अँ -- स्वर का नासिकीकरण करने के लिये
अः -- अघोष "ह्" (निःश्वास) के लिये
ऍ और ऑ -- इनका उपयोग मराठी और और कभी-कभी हिन्दी में अंग्रेजी शब्दों का निकटतम उच्चारण तथा लेखन करने के लिये किया जाता है।
व्यंजन जब किसी स्वर प्रयोग नहीं हो, तो वहाँ पर 'अ' (अर्थात श्वा का स्वर) माना जाता है। स्वर के न होने को हलन्त् अथवा विराम से दर्शाया जाता है। जैसे कि क् ख् ग् घ्। नोट करें -
इनमें से ळ (मूर्धन्य पार्विक अन्तस्थ) एक अतिरिक्त व्यंजन है जिसका प्रयोग हिन्दी में नहीं होता है। मराठी, वैदिक संस्कृत, कोंकणी, मेवाड़ी, इत्यादि में सभी का प्रयोग किया जाता है।
संस्कृत में ष का उच्चारण ऐसे होता था: जीभ की नोक को मूर्धा (मुँह की छत) की ओर उठाकर श जैसी आवाज़ करना। शुक्ल यजुर्वेद की माध्यंदिनि शाखा में कुछ वाक़्यात में ष का उच्चारण ख की तरह करना मान्य था। आधुनिक हिन्दी में ष का उच्चारण पूरी तरह श की तरह होता है।
हिन्दी में ण का उच्चारण ज़्यादातर ड़ँ की तरह होता है, यानि कि जीभ मुँह की छत को एक ज़ोरदार ठोकर मारती है। हिन्दी में क्षणिक और क्शड़िंक में कोई फ़र्क नहीं। पर संस्कृत में ण का उच्चारण न की तरह बिना ठोकर मारे होता था, अन्तर केवल इतना कि जीभ ण के समय मुँह की छत को छूती है।
नुक़्ता वाले व्यंजन हिन्दी भाषा में मुख्यत: अरबी और फ़ारसी भाषाओं से आये शब्दों को देवनागरी में लिखने के लिये कुछ वर्णों के नीचे नुक्ता (बिन्दु) लगे वर्णों का प्रयोग किया जाता है (जैसे क़, ज़ आदि)। किन्तु हिन्दी में भी अधिकांश लोग नुक्तों का प्रयोग नहीं करते। इसके अलावा संस्कृत, मराठी, नेपाली एवं अन्य भाषाओं को देवनागरी में लिखने में भी नुक्तों का प्रयोग नहीं किया जाता है।
वर्णाक्षर (IPA उच्चारण) उदाहरण वर्णन अंग्रेज़ी में वर्णन ग़लत उच्चारणक़ (/ q /) क़त्ल अघोष अलिजिह्वीय स्पर्श Voiceless uvular stop क (/ k /)ख़ (/ x or χ /) ख़ास अघोष अलिजिह्वीय या कण्ठ्य संघर्षी Voiceless uvular or velar fricative ख (/ kh /) ग़ (/ ɣ or ʁ /) ग़ैर घोष अलिजिह्वीय या कण्ठ्य संघर्षी Voiced uvular or velar fricative ग (/ g /) फ़ (/ f /) फ़र्क अघोष दन्त्यौष्ठ्य संघर्षी Voiceless labio-dental fricative फ (/ ph /) ज़ (/ z /) ज़ालिम घोष वर्त्स्य संघर्षी Voiced alveolar fricative ज (/ dʒ /) झ़ (/ ʒ /) टेलेवीझ़न घोष तालव्य संघर्षी Voiced palatal fricative ज (/ dʒ /) थ़ (/ θ /) अथ़्रू अघोष दन्त्य संघर्षी Voiceless dental fricative थ (/ t̪h /) ड़ (/ ɽ /) पेड़ अल्पप्राण मूर्धन्य उत्क्षिप्त Unaspirated retroflex flap - ढ़ (/ ɽh /) पढ़ना महाप्राण मूर्धन्य उत्क्षिप्त Aspirated retroflex flap -
थ़ का प्रयोग मुख्यतः पहाड़ी भाषाओँ में होता है जैसे की डोगरी (की उत्तरी उपभाषाओं) में "आंसू" के लिए शब्द है "अथ़्रू"। हिन्दी में ड़ और ढ़ व्यंजन फ़ारसी या अरबी से नहीं लिये गये हैं, न ही ये संस्कृत में पाये जाये हैं। असल में ये संस्कृत के साधारण ड और ढ के बदले हुए रूप हैं।
विराम-चिह्न, वैदिक चिह्न आदि देवनागरी अंक देवनागरी अंक निम्न रूप में लिखे जाते हैं:
० १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९
देवनागरी संयुक्ताक्षर देवनागरी लिपि में दो व्यंजन का संयुक्ताक्षर निम्न रूप में लिखा जाता है:
ब्राह्मी परिवार की लिपियों में देवनागरी लिपि सबसे अधिक संयुक्ताक्षरों को समर्थन देती है। देवनागरी २ से अधिक व्यंजनों के संयुक्ताक्षर को भी समर्थन देती है। छन्दस फॉण्ट देवनागरी में बहुत संयुक्ताक्षरों को समर्थन देता है।
पुरानी देवनागरी पुराने समय में प्रयुक्त हुई जाने वाली देवनागरी के कुछ वर्ण आधुनिक देवनागरी से भिन्न हैं।
देवनागरी लिपि के गुण भारतीय भाषाओं के लिये वर्णों की पूर्णता एवं सम्पन्नता (५२ वर्ण, न बहुत अधिक न बहुत कम)।
एक ध्वनि के लिये एक सांकेतिक चिह्न -- जैसा बोलें वैसा लिखें।
एक सांकेतिक चिह्न द्वारा केवल एक ध्वनि का निरूपण -- जैसा लिखें वैसा पढ़ें।
उपरोक्त दोनों गुणों के कारण ब्राह्मी लिपि का उपयोग करने वाली सभी भारतीय भाषाएँ 'स्पेलिंग की समस्या' से मुक्त हैं।
स्वर और व्यंजन में तर्कसंगत एवं वैज्ञानिक क्रम-विन्यास - देवनागरी के वर्णों का क्रमविन्यास उनके उच्चारण के स्थान (ओष्ठ्य, दन्त्य, तालव्य, मूर्धन्य आदि) को ध्यान में रखते हुए बनाया गया है। इसके अतिरिक्त वर्ण-क्रम के निर्धारण में भाषा-विज्ञान के कई अन्य पहलुओ का भी ध्यान रखा गया है। देवनागरी की वर्णमाला (वास्तव में, ब्राह्मी से उत्पन्न सभी लिपियों की वर्णमालाएँ) एक अत्यन्त तर्कपूर्ण ध्वन्यात्मक क्रम (phonetic order) में व्यवस्थित है। यह क्रम इतना तर्कपूर्ण है कि अन्तरराष्ट्रीय ध्वन्यात्मक संघ (IPA) ने अन्तर्राष्ट्रीय ध्वन्यात्मक वर्णमाला के निर्माण के लिये मामूली परिवर्तनों के साथ इसी क्रम को अंगीकार कर लिया।
वर्णों का प्रत्याहार रूप में उपयोग: माहेश्वर सूत्र में देवनागरी वर्णों को एक विशिष्ट क्रम में सजाया गया है। इसमें से किसी वर्ण से आरम्भ करके किसी दूसरे वर्ण तक के वर्णसमूह को दो अक्षर का एक छोटा नाम दे दिया जाता है जिसे 'प्रत्याहार' कहते हैं। प्रत्याहार का प्रयोग करते हुए सन्धि आदि के नियम अत्यन्त सरल और संक्षिप्त ढंग से दिए गये हैं (जैसे, आद् गुणः)
देवनागरी लिपि के वर्णों का उपयोग संख्याओं को निरूपित करने के लिये किया जाता रहा है। (देखिये कटपयादि, भूतसंख्या तथा आर्यभट्ट की संख्यापद्धति)
मात्राओं की संख्या के आधार पर छन्दों का वर्गीकरण: यह भारतीय लिपियों की अद्भुत विशेषता है कि किसी पद्य के लिखित रूप से मात्राओं और उनके क्रम को गिनकर बताया जा सकता है कि कौन सा छन्द है। रोमन, अरबी एवं अन्य में यह गुण अप्राप्य है।
उच्चारण और लेखन में एकरुपता लिपि चिह्नों के नाम और ध्वनि मे कोई अन्तर नहीं (जैसे रोमन में अक्षर का नाम “बी” है और ध्वनि “ब” है)
लेखन और मुद्रण मे एकरूपता (रोमन, अरबी और फ़ारसी मे हस्तलिखित और मुद्रित रूप अलग-अलग हैं)
देवनागरी, 'स्माल लेटर" और 'कैपिटल लेटर' की अवैज्ञानिक व्यवस्था से मुक्त है।
मात्राओं का प्रयोग अर्ध-अक्षर के रूप की सुगमता: खड़ी पाई को हटाकर - दायें से बायें क्रम में लिखकर तथा अर्द्ध अक्षर को ऊपर तथा उसके नीचे पूर्ण अक्षर को लिखकर - ऊपर नीचे क्रम में संयुक्ताक्षर बनाने की दो प्रकार की रीति प्रचलित है।
अन्य - बायें से दायें, शिरोरेखा, संयुक्ताक्षरों का प्रयोग, अधिकांश वर्णों में एक उर्ध्व-रेखा की प्रधानता, अनेक ध्वनियों को निरूपित करने की क्षमता आदि।[1]
भारतवर्ष के साहित्य में कुछ ऐसे रूप विकसित हुए हैं जो दायें-से-बायें अथवा बाये-से-दायें पढ़ने पर समान रहते हैं। उदाहरणस्वरूप केशवदास का एक सवैया लीजिये:
मां सस मोह सजै बन बीन, नवीन बजै सह मोस समा। मार लतानि बनावति सारि, रिसाति वनाबनि ताल रमा ॥
मानव ही रहि मोरद मोद, दमोदर मोहि रही वनमा। माल बनी बल केसबदास, सदा बसकेल बनी बलमा ॥
इस सवैया की किसी भी पंक्ति को किसी ओर से भी पढिये, कोई अंतर नही पड़ेगा।
सदा सील तुम सरद के दरस हर तरह खास। सखा हर तरह सरद के सर सम तुलसीदास॥
देवनागरी लिपि के दोष
1.कुल मिलाकर 403 टाइप होने के कारण टंकण, मुंद्रण में कठिनाई। 2.शिरोरेखा का प्रयोग अनावश्यक अलंकरण के लिए।
3.अनावश्यक वर्ण (ऋ, ॠ, लृ, ॡ, ं, ं, ष)— आज इन्हें कोई शुद्ध उच्चारण के साथ उच्चारित नहीं कर पाता। 4.द्विरूप वर्ण (ंप्र अ, ज्ञ, क्ष, त, त्र, छ, झ, रा ण, श)
5.समरूप वर्ण (ख में र व का, घ में ध का, म में भ का भ्रम होना)।
6.वर्णों के संयुक्त करने की कोई निश्चित व्यवस्था नहीं।
7.अनुस्वार एवं अनुनासिकता के प्रयोग में एकरूपता का अभाव।
.त्वरापूर्ण लेखन नहीं क्योंकि लेखन में हाथ बार–बार उठाना पड़ता है। 9.वर्णों के संयुक्तीकरण में र के प्रयोग को लेकर भ्रम की स्थिति। 10.इ की मात्रा (ि) का लेखन वर्ण के पहले पर उच्चारण वर्ण के बाद।
देवनागरी पर महापुरुषों के विचार आचार्य विनोबा भावे संसार की अनेक लिपियों के जानकार थे। उनकी स्पष्ट धारणा थी कि देवनागरी लिपि भारत ही नहीं, संसार की सर्वाधिक वैज्ञानिक लिपि है। अगर भारत की सब भाषाओं के लिए इसका व्यवहार चल पड़े तो सारे भारतीय एक दूसरे के बिल्कुल नजदीक आ जाएंगे। हिंदुस्तान की एकता में देवनागरी लिपि हिंदी से ही अधिक उपयोगी हो सकती है। अनन्त शयनम् अयंगार तो दक्षिण भारतीय भाषाओं के लिए भी देवनागरी की संभावना स्वीकार करते थे। सेठ गोविन्ददास इसे राष्ट्रीय लिपि घोषित करने के पक्ष में थे।
(१) हिन्दुस्तान की एकता के लिये हिन्दी भाषा जितना काम देगी, उससे बहुत अधिक काम देवनागरी लिपि दे सकती है। — आचार्य विनोबा भावे
(२) देवनागरी किसी भी लिपि की तुलना में अधिक वैज्ञानिक एवं व्यवस्थित लिपि है। — सर विलियम जोन्स
(३) मानव मस्तिष्क से निकली हुई वर्णमालाओं में नागरी सबसे अधिक पूर्ण वर्णमाला है। — जान क्राइस्ट
(४) उर्दू लिखने के लिये देवनागरी लिपि अपनाने से उर्दू उत्कर्ष को प्राप्त होगी। — खुशवन्त सिंह
(५) The Devanagri alphabet is a splendid monument of phonological accuracy, in the sciences of language. — मोहन लाल विद्यार्थी - Indian Culture Through the Ages, p.61
(६) एक सर्वमान्य लिपि स्वीकार करने से भारत की विभिन्न भाषाओं में जो ज्ञान का भंडार भरा है उसे प्राप्त करने का एक साधारण व्यक्ति को सहज ही अवसर प्राप्त होगा। हमारे लिए यदि कोई सर्व-मान्य लिपि स्वीकार करना संभव है तो वह देवनागरी है। — एम.सी.छागला
(७) प्राचीन भारत के महत्तम उपलब्धियों में से एक उसकी विलक्षण वर्णमाला है जिसमें प्रथम स्वर आते हैं और फिर व्यंजन जो सभी उत्पत्ति क्रम के अनुसार अत्यंत वैज्ञानिक ढंग से वर्गीकृत किये गए हैं। इस वर्णमाला का अविचारित रूप से वर्गीकृत तथा अपर्याप्त रोमन वर्णमाला से, जो तीन हजार वर्षों से क्रमशः विकसित हो रही थी, पर्याप्त अंतर है।
— ए एल बाशम, "द वंडर दैट वाज इंडिया" के लेखक और इतिहासविद्
भारत के लिये देवनागरी का महत्व बहुत से लोगों का विचार है कि भारत में अनेकों भाषाएँ होना कोई समस्या नहीं है जबकि उनकी लिपियाँ अलग-अलग होना बहुत बड़ी समस्या है। गांधीजी ने १९४० में गुजराती भाषा की एक पुस्तक को देवनागरी लिपि में छपवाया और इसका उद्देश्य बताया था कि मेरा सपना है कि संस्कृत से निकली हर भाषा की लिपि देवनागरी हो।[2]
इस संस्करण को हिंदी में छापने के दो उद्देश्य हैं। मुख्य उद्देश्य यह है कि मैं जानना चाहता हूँ कि, गुजराती पढ़ने वालों को देवनागरी लिपि में पढ़ना कितना अच्छा लगता है। मैं जब दक्षिण अफ्रीका में था तब से मेरा स्वप्न है कि संस्कृत से निकली हर भाषा की एक लिपि हो, और वह देवनागरी हो। पर यह अभी भी स्वप्न ही है। एक-लिपि के बारे में बातचीत तो खूब होती हैं, लेकिन वही ‘बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे’ वाली बात है। कौन पहल करे ! गुजराती कहेगा ‘हमारी लिपि तो बड़ी सुन्दर सलोनी आसान है, इसे कैसे छोडूंगा?’ बीच में अभी एक नया पक्ष और निकल के आया है, वह ये, कुछ लोग कहते हैं कि देवनागरी खुद ही अभी अधूरी है, कठिन है; मैं भी यह मानता हूँ कि इसमें सुधार होना चाहिए। लेकिन अगर हम हर चीज़ के बिलकुल ठीक हो जाने का इंतज़ार करते रहेंगे तो सब हाथ से जायेगा, न जग के रहोगे न जोगी बनोगे। अब हमें यह नहीं करना चाहिए। इसी आजमाइश के लिए हमने यह देवनागरी संस्करण निकाला है। अगर लोग यह (देवनागरी में गुजराती) पसंद करेंगे तो ‘नवजीवन पुस्तक’ और भाषाओं को भी देवनागरी में प्रकाशित करने का प्रयत्न करेगा।
इस साहस के पीछे दूसरा उद्देश्य यह है कि हिंदी पढ़ने वाली जनता गुजराती पुस्तक देवनागरी लिपि में पढ़ सके। मेरा अभिप्राय यह है कि अगर देवनागरी लिपि में गुजराती किताब छपेगी तो भाषा को सीखने में आने वाली आधी दिक्कतें तो ऐसे ही कम हो जाएँगी।
इस संस्करण को लोकप्रिय बनाने के लिए इसकी कीमत बहुत कम राखी गयी है, मुझे उम्मीद है कि इस साहस को गुजराती और हिंदी पढ़ने वाले सफल करेंगे।
इसी प्रकार विनोबा भावे का विचार था कि-
हिन्दुस्तान की एकता के लिये हिन्दी भाषा जितना काम देगी, उससे बहुत अधिक काम देवनागरी लिपि देगी। इसलिए मैं चाहता हूँ कि सभी भाषाएँ देवनागरी में भी लिखी जाएं। सभी लिपियां चलें लेकिन साथ-साथ देवनागरी का भी प्रयोग किया जाये। विनोबा जी "नागरी ही" नहीं "नागरी भी" चाहते थे। उन्हीं की सद्प्रेरणा से 1975 में नागरी लिपि परिषद की स्थापना हुई।
विश्वलिपि के रूप में देवनागरी बौद्ध संस्कृति से प्रभावित क्षेत्र नागरी के लिए नया नहीं है। चीन और जापान चित्रलिपि का व्यवहार करते हैं। इन चित्रों की संख्या बहुत अधिक होने के कारण भाषा सीखने में बहुत कठिनाई होती है। देववाणी की वाहिका होने के नाते देवनागरी भारत की सीमाओं से बाहर निकलकर चीन और जापान के लिए भी समुचित विकल्प दे सकती है। भारतीय मूल के लोग संसार में जहां-जहां भी रहते हैं, वे देवनागरी से परिचय रखते हैं, विशेषकर मारीशस, सूरीनाम, फिजी, गायना, त्रिनिदाद, टुबैगो आदि के लोग। इस तरह देवनागरी लिपि न केवल भारत के अंदर सारे प्रांतवासियों को प्रेम-बंधन में बांधकर सीमोल्लंघन कर दक्षिण-पूर्व एशिया के पुराने वृहत्तर भारतीय परिवार को भी ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय‘ अनुप्राणित कर सकती है तथा विभिन्न देशों को एक अधिक सुचारू और वैज्ञानिक विकल्प प्रदान कर ‘विश्व नागरी‘ की पदवी का दावा इक्कीसवीं सदी में कर सकती है। उस पर प्रसार लिपिगत साम्राज्यवाद और शोषण का माध्यम न होकर सत्य, अहिंसा, त्याग, संयम जैसे उदात्त मानवमूल्यों का संवाहक होगा, असत् से सत्, तमस् से ज्योति तथा मृत्यु से अमरता की दिशा में।
लिपि-विहीन भाषाओं के लिये देवनागरी दुनिया की कई भाषाओं के लिये देवनागरी सबसे अच्छा विकल्प हो सकती है क्योंकि यह यह बोलने की पूरी आजादी देता है। दुनिया की और किसी भी लिपि मे यह नही हो सकता है। इन्डोनेशिया, विएतनाम, अफ्रीका आदि के लिये तो यही सबसे सही रहेगा। अष्टाध्यायी को देखकर कोई भी समझ सकता है की दुनिया मे इससे अच्छी कोई भी लिपि नहीं है। अगर दुनिया पक्षपातरहित हो तो देवनागरी ही दुनिया की सर्वमान्य लिपि होगी क्योंकि यह पूर्णत: वैज्ञानिक है। अंग्रेजी भाषा में वर्तनी (स्पेलिंग) की विकराल समस्या के कारगर समाधान के लिये देवनागरी पर आधारित देवग्रीक लिपि प्रस्तावित की गयी है।
देवनागरी की वैज्ञानिकता विस्तृत लेख देवनागरी की वैज्ञानिकता देखें।
जिस प्रकार भारतीय अंकों को उनकी वैज्ञानिकता के कारण विश्व ने सहर्ष स्वीकार कर लिया वैसे ही देवनागरी भी अपनी वैज्ञानिकता के कारण ही एक दिन विश्वनागरी बनेगी।
देवनागरी लिपि में सुधार देवनागरी का विकास उस युग में हुआ था जब लेखन हाथ से किया जाता था और लेखन के लिए शिलाएँ, ताड़पत्र, चर्मपत्र, भोजपत्र, ताम्रपत्र आदि का ही प्रयोग होता था। किन्तु लेखन प्रौद्योगिकी ने बहुत अधिक विकास किया और प्रिन्टिंग प्रेस, टाइपराइटर आदि से होते हुए वह कम्प्यूटर युग में पहुँच गयी है जहाँ बोलकर भी लिखना सम्भव हो गया है। प्रौद्योगिकी के विकास के साथ किसी भी लिपि के लेखन में समस्याएँ आना प्रत्याशित है। इसी कारण देवनागरी में भी समय-समय पर सुधार या मानकीकरण के प्रयास किए गये।
भारत के स्वाधीनता आंदोलनों में हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा प्राप्त होने के बाद लिपि के विकास व मानकीकरण हेतु कई व्यक्तिगत एवं संस्थागत प्रयास हुए। सर्वप्रथम बाल गंगाधर तिलक ने 'केसरी फॉन्ट' तैयार किया था। आगे चलकर सावरकर बंधुओं ने बारहखड़ी तैयार की। गोरखनाथ ने मात्रा-व्यवस्था में सुधार किया। डॉ. श्यामसुंदर दास ने अनुस्वार के प्रयोग को व्यापक बनाकर देवनागरी के सरलीकरण के प्रयास किये।
देवनागरी के विकास में अनेक संस्थागत प्रयासों की भूमिका भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण रही है। १९३५ में हिंदी साहित्य सम्मेलन ने नागरी लिपि सुधार समिति[3] के माध्यम से बारहखड़ी और शिरोरेखा से संबंधित सुधार किये। इसी प्रकार, १९४७ में नरेन्द्र देव की अध्यक्षता में गठित एक समिति ने बारहखड़ी, मात्रा व्यवस्था, अनुस्वार व अनुनासिक से संबंधित महत्त्वपूर्ण सुझाव दिये।देवनागरी लिपि के विकास हेतु भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय ने कई स्तरों पर प्रयास किये हैं। सन् १९६६ में मानक देवनागरी वर्णमाला प्रकाशित की गई और १९६७ में ‘हिंदी वर्तनी का मानकीकरण’ प्रकाशित किया गया।
देवनागरी के सम्पादित्र व अन्य सॉफ्टवेयर इंटरनेट पर हिन्दी के साधन देखिये। देवनागरी से अन्य लिपियों में रूपान्तरण ITRANS (iTrans) निरूपण, देवनागरी को लैटिन (रोमन) में परिवर्तित करने का आधुनिकतम और अक्षत (lossless) तरीका है। () आजकल अनेक कम्प्यूटर प्रोग्राम उपलब्ध हैं जिनकी सहायता से देवनागरी में लिखे पाठ को किसी भी भारतीय लिपि में बदला जा सकता है। कुछ ऐसे भी कम्प्यूटर प्रोग्राम हैं जिनकी सहायता से देवनागरी में लिखे पाठ को लैटिन, अरबी, चीनी, क्रिलिक, आईपीए (IPA) आदि में बदला जा सकता है। ()
यूनिकोड के पदार्पण के बाद देवनागरी का रोमनीकरण (romanization) अब अनावश्यक होता जा रहा है। क्योंकि धीरे-धीरे कम्प्यूटर पर देवनागरी को (और अन्य लिपियों को भी) पूर्ण समर्थन मिलने लगा है।
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कम्प्यूटर कुंजीपटल पर देवनागरी
center|600px|इंस्क्रिप्ट कुंजीपटल पर देवनागरी वर्ण (Windows, Solaris, Java)
[4]
सन्दर्भ इन्हें भी देखें देवनागरी वर्णमाला
देवनागरी की वैज्ञानिकता
नागरी प्रचारिणी सभा
नागरी संगम पत्रिका
नागरी एवं भारतीय भाषाएँ
गौरीदत्त - देवनागरी के महान प्रचारक
यूनिकोड
इण्डिक यूनिकोड
हिन्दी के साधन इंटरनेट पर
हन्टेरियन लिप्यन्तरण
इंस्क्रिप्ट
इस्की (ISCII)
ब्राह्मी लिपि
ब्राह्मी परिवार की लिपियाँ
भारतीय लिपियाँ
श्वा (Schwa)
सहस्वानिकी
भारतीय संख्या प्रणाली
बाहरी कड़ियाँ - इसमें ब्राह्मी से उत्पन्न लिपियों की समय-रेखा का चित्र दिया हुआ है।
(प्रभासाक्षी)
(प्रभासाक्षी)
(मधुमती)
(डॉ॰ जुबैदा हाशिम मुल्ला ; 02 मई 2012)
(गूगल पुस्तक ; लेखक - भोलानाथ तिवारी)
(James H. Buck, University of Georgia)
(केविन कार्मोदी)
(अम्बा कुलकर्णी, विभागाध्यक्ष ,संस्कृत अध्ययन विभाग, हैदराबाद विश्वविद्यालय)
श्रेणी:देवनागरी
श्रेणी:लिपि
श्रेणी:हिन्दी
श्रेणी:ब्राह्मी परिवार की लिपियाँ | देवताओं की लिपि किसे कहा जाता है? | देवनागरी | 0 | hindi |
5730daa30 | सरस्वती हिन्दू धर्म की प्रमुख देवियों में से एक हैं। वे ब्रह्मा की मानसपुत्री हैं जो विद्या की अधिष्ठात्री देवी मानी गई हैं। इनका नामांतर 'शतरूपा' भी है। इसके अन्य पर्याय हैं, वाणी, वाग्देवी, भारती, शारदा, वागेश्वरी इत्यादि। ये शुक्लवर्ण, श्वेत वस्त्रधारिणी, वीणावादनतत्परा तथा श्वेतपद्मासना कही गई हैं। इनकी उपासना करने से मूर्ख भी विद्वान् बन सकता है। माघ शुक्ल पंचमी को इनकी पूजा की परिपाटी चली आ रही है। देवी भागवत के अनुसार ये ब्रह्मा की स्त्री हैं।
सरस्वती माँ के अन्य नामों में शारदा, शतरूपा, वीणावादिनी, वीणापाणि, वाग्देवी, वागेश्वरी, भारती आदि कई नामों से जाना जाता है। [1]
परिचय
सरस्वती को साहित्य, संगीत, कला की देवी माना जाता है। उसमें विचारणा, भावना एवं संवेदना का त्रिविध समन्वय है। वीणा संगीत की, पुस्तक विचारणा की और मयूर वाहन कला की अभिव्यक्ति है।
लोक चर्चा में सरस्वती को शिक्षा की देवी माना गया है। शिक्षा संस्थाओं में वसंत पंचमी को सरस्वती का जन्म दिन समारोह पूर्वक मनाया जाता है। पशु को मनुष्य बनाने का - अंधे को नेत्र मिलने का श्रेय शिक्षा को दिया जाता है। मनन से मनुष्य बनता है। मनन बुद्धि का विषय है। भौतिक प्रगति का श्रेय बुद्धि-वर्चस् को दिया जाना और उसे सरस्वती का अनुग्रह माना जाना उचित भी है। इस उपलब्धि के बिना मनुष्य को नर-वानरों की तरह वनमानुष जैसा जीवन बिताना पड़ता है। शिक्षा की गरिमा-बौद्धिक विकास की आवश्यकता जन-जन को समझाने के लिए सरस्वती पूजा की परम्परा है। इसे प्रकारान्तर से गायत्री महाशक्ति के अंतगर्त बुद्धि पक्ष की आराधना कहना चाहिए।
पूजकगण
कहते हैं कि महाकवि कालिदास, वरदराजाचार्य, वोपदेव आदि मंद बुद्धि के लोग सरस्वती उपासना के सहारे उच्च कोटि के विद्वान् बने थे। इसका सामान्य तात्पर्य तो इतना ही है कि ये लोग अधिक मनोयोग एवं उत्साह के साथ अध्ययन में रुचिपूवर्क संलग्न हो गए और अनुत्साह की मनःस्थिति में प्रसुप्त पड़े रहने वाली मस्तिष्कीय क्षमता को सुविकसित कर सकने में सफल हुए होंगे। इसका एक रहस्य यह भी हो सकता है कि कारणवश दुर्बलता की स्थिति में रह रहे बुद्धि-संस्थान को सजग-सक्षम बनाने के लिए वे उपाय-उपचार किए गए जिन्हें 'सरस्वती आराधना' कहा जाता है। उपासना की प्रक्रिया भाव-विज्ञान का महत्त्वपूर्ण अंग है। श्रद्धा और तन्मयता के समन्वय से की जाने वाली साधना-प्रक्रिया एक विशिष्ट शक्ति है। मनःशास्त्र के रहस्यों को जानने वाले स्वीकार करते हैं कि व्यायाम, अध्ययन, कला, अभ्यास की तरह साधना भी एक समर्थ प्रक्रिया है, जो चेतना क्षेत्र की अनेकानेक रहस्यमयी क्षमताओं को उभारने तथा बढ़ाने में पूणर्तया समर्थ है। सरस्वती उपासना के संबंध में भी यही बात है। उसे शास्त्रीय विधि से किया जाय तो वह अन्य मानसिक उपचारों की तुलना में बौद्धिक क्षमता विकसित करने में कम नहीं, अधिक ही सफल होती है।
फल
मन्दबुद्धि लोगों के लिए गायत्री महाशक्ति का सरस्वती तत्त्व अधिक हितकर सिद्घ होता है। बौद्धिक क्षमता विकसित करने, चित्त की चंचलता एवं अस्वस्थता दूर करने के लिए सरस्वती साधना की विशेष उपयोगिता है। मस्तिष्क-तंत्र से संबंधित अनिद्रा, सिर दर्द्, तनाव, जुकाम जैसे रोगों में गायत्री के इस अंश-सरस्वती साधना का लाभ मिलता है। कल्पना शक्ति की कमी, समय पर उचित निणर्य न कर सकना, विस्मृति, प्रमाद, दीघर्सूत्रता, अरुचि जैसे कारणों से भी मनुष्य मानसिक दृष्टि से अपंग, असमर्थ जैसा बना रहता है और मूर्ख कहलाता है। उस अभाव को दूर करने के लिए सरस्वती साधना एक उपयोगी आध्यात्मिक उपचार है।
शिक्षा
शिक्षा के प्रति जन-जन के मन-मन में अधिक उत्साह भरने-लौकिक अध्ययन और आत्मिक स्वाध्याय की उपयोगिता अधिक गम्भीरता पूवर्क समझने के लिए भी सरस्वती पूजन की परम्परा है। बुद्धिमत्ता को बहुमूल्य सम्पदा समझा जाय और उसके लिए धन कमाने, बल बढ़ाने, साधन जुटाने, मोद मनाने से भी अधिक ध्यान दिया जाय। इस लोकोपयोगी प्रेरणा को गायत्री महाशक्ति के अंतर्गत एक महत्त्वपूर्ण धारा सरस्वती की मानी गयी है और उससे लाभान्वित होने के लिए प्रोत्साहित किया गया है।
सरस्वती के स्वरूप एवं आसन आदि का संक्षिप्त तात्त्विक विवेचन इस तरह है-
स्वरूप
सरस्वती के एक मुख, चार हाथ हैं। मुस्कान से उल्लास, दो हाथों में वीणा-भाव संचार एवं कलात्मकता की प्रतीक है। पुस्तक से ज्ञान और माला से ईशनिष्ठा-सात्त्विकता का बोध होता है। वाहन मयूर-सौन्दर्य एवं मधुर स्वर का प्रतीक है। इनका वाहन हंस माना जाता है और इनके हाथों में वीणा, वेद और माला होती है। भारत में कोई भी शैक्षणिक कार्य के पहले इनकी पूजा की जाती हैं।
सरस्वती वंदना
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ॥1॥
शुक्लां ब्रह्मविचार सार परमामाद्यां जगद्व्यापिनीं
वीणा-पुस्तक-धारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्।
हस्ते स्फटिकमालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थिताम्
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम्॥2॥
जो विद्या की देवी भगवती सरस्वती कुन्द के फूल, चंद्रमा, हिमराशि और मोती के हार की तरह धवल वर्ण की हैं और जो श्वेत वस्त्र धारण करती हैं, जिनके हाथ में वीणा-दण्ड शोभायमान है, जिन्होंने श्वेत कमलों पर आसन ग्रहण किया है तथा ब्रह्मा, विष्णु एवं शंकर आदि देवताओं द्वारा जो सदा पूजित हैं, वही संपूर्ण जड़ता और अज्ञान को दूर कर देने वाली माँ सरस्वती हमारी रक्षा करें॥1॥
शुक्लवर्ण वाली, संपूर्ण चराचर जगत् में व्याप्त, आदिशक्ति, परब्रह्म के विषय में किए गए विचार एवं चिंतन के सार रूप परम उत्कर्ष को धारण करने वाली, सभी भयों से भयदान देने वाली, अज्ञान के अँधेरे को मिटाने वाली, हाथों में वीणा, पुस्तक और स्फटिक की माला धारण करने वाली और पद्मासन पर विराजमान् बुद्धि प्रदान करने वाली, सर्वोच्च ऐश्वर्य से अलंकृत, भगवती शारदा (सरस्वती देवी) की मैं वंदना करता हूँ॥2॥
अन्य देशों में सरस्वती
दक्षिण एशिया के अलावा थाइलैण्ड, इण्डोनेशिया, जापान एवं अन्य देशों में भी सरस्वती की पूजा होती है।
अन्य भाषाओ/देशों में सरस्वती के नाम-
बर्मा - थुयथदी (သူရဿတီ=सूरस्सती, उच्चारण: [θùja̰ðədì] या [θùɹa̰ðədì])
बर्मा - तिपिटक मेदा Tipitaka Medaw (တိပိဋကမယ်တော်, उच्चारण: [tḭpḭtəka̰ mɛ̀dɔ̀])
चीन - बियानचाइत्यान Biàncáitiān (辯才天)
जापान - बेंजाइतेन Benzaiten (弁才天/弁財天)
थाईलैण्ड - सुरसवदी Surasawadee (สุรัสวดี)
सन्दर्भ
इन्हें भी देखें
सरस्वती नदी
हिन्दू देवी-देवता
शारदा पीठ
वसंत पंचमी
बाहरी कड़ियाँ
श्रेणी:हिन्दू धर्म
श्रेणी:हिन्दू देवियाँ | हिंदू धर्म में सरस्वती किस देवता की पत्नी थी? | ब्रह्मा | 56 | hindi |
2e66a9f2b | नीतिशास्त्र (English: ethics) जिसे व्यवहारदर्शन, नीतिदर्शन, नीतिविज्ञान और आचारशास्त्र भी कहते हैं, दर्शन की एक शाखा हैं। यद्यपि आचारशास्त्र की परिभाषा तथा क्षेत्र प्रत्येक युग में मतभेद के विषय रहे हैं, फिर भी व्यापक रूप से यह कहा जा सकता है कि आचारशास्त्र में उन सामान्य सिद्धांतों का विवेचन होता है जिनके आधार पर मानवीय क्रियाओं और उद्देश्यों का मूल्याँकन संभव हो सके। अधिकतर लेखक और विचारक इस बात से भी सहमत हैं कि आचारशास्त्र का संबंध मुख्यत: मानंदडों और मूल्यों से है, न कि वस्तुस्थितियों के अध्ययन या खोज से और इन मानदंडों का प्रयोग न केवल व्यक्तिगत जीवन के विश्लेषण में किया जाना चाहिए वरन् सामाजिक जीवन के विश्लेषण में भी।
अच्छा और बुरा, सही और गलत, गुण और दोष, न्याय और जुर्म जैसी अवधारणाओं को परिभाषित करके, नीतिशास्त्र मानवीय नैतिकता के प्रश्नों को सुलझाने का प्रयास करता हैं। बौद्धिक समीक्षा के क्षेत्र के रूप में, वह नैतिक दर्शन, वर्णात्मक नीतिशास्त्र, और मूल्य सिद्धांत के क्षेत्रों से भी संबंधित हैं।
नीतिशास्त्र में अभ्यास के तीन प्रमुख क्षेत्र जिन्हें मान्यता प्राप्त हैं:
मेटा-नीतिशास्त्र, जिसका संबंध नैतिक प्रस्थापनाओं के सैद्धांतिक अर्थ और संदर्भ से हैं, और कैसे उनके सत्य मूल्य (यदि कोई हो तो) निर्धारित किये जा सकता हैं
मानदण्डक नीतिशास्त्र, जिसका संबंध किसी नैतिक कार्यपथ के निर्धारण के व्यवहारिक तरीकों से हैं
अनुप्रयुक्त नीतिशास्त्र, जिसका संबंध इस बात से हैं कि किसी विशिष्ट स्थिति या क्रिया के किसी अनुक्षेत्र में किसी व्यक्ति को क्या करना चाहिए (या उसे क्या करने की अनुमति हैं)।
इसमे वकीलो ओर अपने पक्षकार को जो भी सलाह दी जाती है उसी के हिसाब से पक्षकार काम करता है ।
नीतिशास्त्र का परिभाषण
रशवर्थ कीडर कहते हैं कि ""नीतिशास्त्र" की मानक परिभाषाओं में 'आदर्श मानव चरित्र का विज्ञान' या 'नैतिक कर्तव्य का विज्ञान' जैसे वाक्यांश आम तौर पर शामिल रहे हैं।"[1] रिचर्ड विलियम पॉल और लिंडा एल्डर की परिभाषा के अनुसार, नीतिशास्त्र "एक संकल्पनाओं और सिद्धान्तों का समुच्चय हैं, जो, कौनसा व्यवहार संवेदन-समर्थ जीवों की मदद करता हैं या उन्हें नुक़सान पहुँचता हैं, ये निर्धारित करने में हमारा मार्गदर्शन करता हैं"।[2] कैम्ब्रिज डिक्शनरी ऑफ़ फिलोसिफी यह कहती हैं कि नीतिशास्त्र शब्द का "उपयोग सामान्यतः विनिमियी रूप से 'नैतिकता' के साथ होता हैं' और कभी-कभी किसी विशेष परम्परा, समूह या व्यक्ति के नैतिक सिद्धान्तों के अर्थ हेतु इसका अधिक संकीर्ण उपयोग होता हैं"।[3] पॉल और एल्डर कहते हैं कि ज़्यादातर लोग सामजिक प्रथाओं, धार्मिक आस्थाओं और विधि इनके अनुसार व्यवहार करने और नीतिशास्त्र के मध्य भ्रमित हो जाते हैं और नीतिशास्त्र को अकेली संकल्पना नहीं मानते।[2]
"नीतिशास्त्र" शब्द के कई अर्थ होते हैं।[4] इसका सन्दर्भ दार्शनिक नीतिशास्त्र या नैतिक दर्शन (एक परियोजना जो कई तरह के नैतिक प्रश्नों का उत्तर देने 'कारण' का उपयोग करती हो) से हो सकता हैं।
परिचय
मनुष्य के व्यवहार का अध्ययन अनेक शास्त्रों में अनेक दृष्टियों से किया जाता है। मानवव्यवहार, प्रकृति के व्यापारों की भांति, कार्य-कारण-शृंखला के रूप में होता है और उसका कारणमूलक अध्ययन एवं व्याख्या की जा सकती है। मनोविज्ञान यही करता है। किंतु प्राकृतिक व्यापारों को हम अच्छा या बुरा कहकर विशेषित नहीं करते। रास्ते में अचानक वर्षा आ जाने से भीगने पर हम बादलों को कुवाच्य नहीं कहने लगते। इसके विपरीत साथी मनुष्यों के कर्मों पर हम बराबर भले-बुरे का निर्णय देते हैं। इस प्रकार निर्णय देने की सार्वभौम मानवीय प्रवृत्ति ही आचारदर्शन की जननी है। आचारशास्त्र में हम व्यवस्थित रूप से चिंतन करते हुए यह जानने का प्रयत्न करते हैं कि हमारे अच्छाई-बुराई के निर्णयों का बुद्धिग्राह्य आधार क्या है। कहा जाता है, आचारशास्त्र नियामक अथवा आदर्शान्वेषी विज्ञान है, जबकि मनोविज्ञान याथार्थान्वेषी शास्त्र है। निश्चय ही शास्त्रों के इस वर्गीकरण में कुछ तथ्य है, पर वह भ्रामक भी हो सकता है। उक्त वर्गीकरण यह धारणा उत्पन्न कर सकता है कि आचारदर्शन का काम नैतिक व्यवहार के नियमों का अन्वेषण तथा उद्घाटन नहीं है, अपितु कृत्रिम ढंग से वैसे नियमों को मानव समाज पर लाद देना है। किंतु यह धारणा गलत है। नीतिशास्त्र जिन नैतिक नियमों की खोज करता है वे स्वयं मनुष्य की मूल चेतना में निहित हैं। अवश्य ही यह चेतना विभिन्न समाजों तथा युगों में विभिन्न रूप धारण करती दिखाई देती है। इस अनेकरूपता का प्रधान कारण मानव प्रकृति की जटिलता तथा मानवीय श्रेय की विविधरूपता है। विभिन्न देशकालों के विचारक अपने समाजों के प्रचलित विधिनिषेधों में निहित नैतिक पैमानों का ही अन्वेषण करते हैं। हमारे अपने युग में ही, अनेक नई पुरानी संस्कृतियों के सम्मिलन के कारण, विचारकों के लिए यह संभव हो सकता है कि वे अनगिनत रूढ़ियों तथा सापेक्ष्य मान्यताओं से ऊपर उठकर वस्तुत: सार्वभौम नैतिक सिद्धांतों के उद्घाटन की ओर अग्रसर हों।
मेटा-नीतिशास्त्र
मेटा-नीतिशास्त्र यह पूछता हैं कि हम इससे कैसे समझते हैं, इसके बारे में कैसे जानते हैं और इसका क्या अर्थ निकालते हैं, जब हम 'क्या सही हैं' और 'क्या ग़लत हैं' की बात करते हैं। यह मन में चल रही उलझनों का एक सकारात्मक निचोड़ है।
मानदण्डक नीतिशास्त्र
मानदण्डक नीतिशास्त्र नीतिशास्त्रीय क्रिया का अध्ययन हैं। यह नीतिशास्त्र की वह शाखा हैं, जो उन प्रश्नों के सम्मुचय की जाँच करती हैं, जिनका उद्गम यह सोचते वक़्त होता हैं कि नैतिक रूप से किसी को कैसे काम करना चाहिये। मानदण्डक नीतिशास्त्र मेटा-नीतिशास्त्र से अलग हैं, क्योंकि यह कार्यों के सही या ग़लत होने के मानकों का परिक्षण करता हैं, जबकि मेटा-नीतिशास्त्र नैतिक भाषा के अर्थ और नैतिक तथ्यों के तत्त्वमीमांसा का अध्ययन करता हैं।[5] मानदण्डक नीतिशास्त्र वर्णात्मक नीतिशास्त्र से भी भिन्न हैं, क्योंकि पश्चात्काथित लोगों की नैतिक आस्थाओं की अनुभवसिद्ध जाँच हैं। अन्य शब्दों में, वर्णात्मक नीतिशास्त्र का सम्बन्ध यह निर्धारित करने से हैं कि किस अनुपात के लोग मानते हैं कि हत्या सदैव गलत हैं, जबकि मानदण्डक नीतिशास्त्र का सम्बन्ध इस बात से हैं कि क्या यह मान्यता रखनी गलत हैं। अतः, कभी-कभी मानदण्डक नीतिशास्त्र को वर्णात्मक के बजाय निर्देशात्मक कहा जाता हैं। हालांकि, मेटा-नीतिशास्त्रीय दृष्टि के कुछ संस्करणों में जिन्हें नैतिक यथार्थवाद कहा जाता हैं, नैतिक तथ्य एक ही वक़्त पर, दोनों वर्णात्मक और निर्देशात्मक होते हैं।[6]
परम्परागत, मानदण्डक नीतिशास्त्र (जिसे नैतिक सिद्धान्त भी कहा जाता हैं) इस बात का अध्ययन था कि वह क्या हैं जो किसी क्रिया को क्या सही या ग़लत बनाता हैं। ये सिद्धान्त मुश्किल नैतिक निर्णयों का समाधान करने हेतु व्यापक नैतिक सिद्धान्त प्रदान करते हैं।
गुण नीतिशास्त्र
स्टोइसिसम
समकालीन गुण नीतिशास्त्र
हेडोनिसम
cyrenaic हेडोनिसम
एपिक्योरियनिसम
राज्य परिणामवाद
परिणामवाद/Teleology
उपयोगितावाद
मानव का सदैव से एक प्रमुख दृष्टिकोण उपयोगितावाद रहा है। यह विचारधारा मनुष्य के आचरण के उस पक्ष को परिलक्षित करती है, जिसमें कहा गया है कि
कर्त्तव्यविज्ञान
व्यवहारवादी नीतिशास्त्र
भूमिका नीतिशास्त्र
अराजकतावादी नीतिशास्त्र
उत्तराधुनिक नीतिशास्त्र
अनुप्रयुक्त नीतिशास्त्र
अनुप्रयोग के विशिष्ट क्षेत्र
जैवनीतिशास्त्र
व्यवसाय नीतिशास्त्र
मशीन नीतिशास्त्र
सैन्य नीतिशास्त्र
राजनीतिक नीतिशास्त्र
राजनीतिक नीतिशास्त्र (जिसे राजनीतिक नैतिकता या सार्वजनिक नैतिकता भी कहते हैं) राजनीतिक कार्रवाई और राजनीतिक एजेंटों के बारे में नैतिक
नैतिक निर्णय लेने की प्रथा है।[7]
सार्वजनिक क्षेत्र नीतिशास्त्र
प्रकाशन नीतिशास्त्र
संबंधी नीतिशास्त्र
पशु नीतिशास्त्र
वर्णात्मक नीतिशास्त्र
वर्णात्मक नीतिशास्त्र वर्णपट के दार्शनिक छोर की ओर कम झुकता है क्योंकि उसका उद्देश्य हैं कैसे लोग जीते हैं इस बारे में खास जानकारी प्राप्त करना और दृष्ट प्रतिमानों (पैटर्न) के आधार पर सामान्य निष्कर्ष निकालना।
नीतिशास्त्र का मूलप्रश्न
नीतिशास्त्र का मूल प्रश्न क्या है, इस संबंध में दो महत्वपर्ण मत पाए जाते हैं। एक मंतव्य के अनुसार नीतिशास्त्र की प्रधान समस्या यह बतलाना है कि मानव जीवन का परम श्रेय (समम बोनम) क्या है। परम श्रेय का बोध हो जाने पर हम शुभ कर्म उन्हें कहेंगे जो उस श्रेय की ओर ले जानेवाले हैं; विपरीत कर्मों को अशुभ कहा जाएगा। दूसरे मंतव्य के अनुसार नीतिशास्त्र का प्रधान कार्य शुभ या धर्मसंमत (राइट) की धारणा को स्पष्ट करना है। दूसरे शब्दों में, नीतिशास्त्र का कार्य उस नियम या नियमसमूह का स्वरूप स्पष्ट करना है जिस या जिनके अनुसार अनुष्ठित कर्म शुभ अथवा धार्मिक होते हैं। ए दो मंतव्य दो भिन्न कोटियों की विचारपद्धतियों को जन्म देते हैं।
परम श्रेय की कल्पना अनेक प्रकार से की गई है; इन कल्पनाओं अथवा सिद्धांतों का वर्णन हम आगे करेंगे। यहाँ हम संक्षेप में यह विमर्श करेंगे कि नैतिकता के नियम-यदि वैसे कोई नियम होते हैं तो-किस कोटि के हो सकते हैं। नियम या कानून की धारणा या तो राज्य के दंडविधान से आती है या भौतिक विज्ञानों से, जहाँ प्रकृति के नियमों का उल्लेख किया जाता है। राज्य के कानून एक प्रकार के शासकों की न्यूनाधिक नियंत्रित इच्छा द्वारा निर्मित होते हैं। वे कभी-कभी कुछ वर्गों के हित के लिए बनाए जाते हैं, उन्हें तोड़ा भी जा सकता है और उनके पालन से भी कुछ लोगों को हानि हो सकती है। इसके विपरीत प्रकृति के नियम अखंडनीय होते हैं। राज्य के नियम बदले जा सकते हैं, किंतु प्रकृति के नियम अपरिवर्तनीय हैं। नीति या सदाचार के नियम अपरिवर्तनीय, पालनकर्ता के लिए कल्याणकर एवं अखंडनीय समझे जाते हैं। इन दृष्टियों से नीतिशास्त्र के नियम स्वास्थ्यविज्ञान के नियमों के पूर्णतया समान होते हैं। ऐसा जान पड़ता है कि मनुष्य अथवा मानव प्रकृति दो भिन्न कोटियों के नियमों के नियंत्रण में व्यापृत होती है। एक ओर तो मनुष्य उन कानूनों का वशवर्ती है जिनका उद्घाटन या निरूपण भौतिक विज्ञान, रसायनशास्त्र, प्राणिशास्त्र, मनोविज्ञान आदि तथ्यान्वेषी (पाज़िटिव) शास्त्रों में होता है और दूसरी ओर स्वास्थ्यविज्ञान, तर्कशास्त्र आदि आदर्शान्वेषी विज्ञानों के नियमों का, जिनसे वह बाध्य तो नहीं होता, पर जिनका पालन उसके सुख तथा उन्नति के लिए आवश्यक है। नीतिशास्त्र के नियम इस दूसरी कोटि के होते हैं।
नीतिशास्त्र की समस्याएँ
नीतिशास्त्र की प्रमुख समस्याएं निम्नलिखित है-
परमशुभ ( summum Bonum ) या नैतिक आदर्श का स्वरूप निर्धरित करना।
यह बताना कि किस तत्व के कारण कोई कर्म उचित या अनुचित, शुभ या अशुभ है।
नैतिक निर्णयों की सूची प्रस्तुत करना।
नैतिक मापदंड (Moral standard) निर्धरित करना।
सदगुणों को स्वरूव निर्धरित करना तथा उनका वर्गीकरण करना।
कर्तव्यों एवं दायित्वों (Moral obligations) की परिभाषा एवं व्याख्या करना।
नैतिक जीवन में सुख का स्थान-निरूपण करना।
व्यक्ति और समाज के संबंधों की व्याख्या करना।
दंड के नैतिक पक्ष की सार्थकता या निरर्थकता प्रमाणिक करना।
व्यक्ति को उसके अधिकारों एवं कर्तव्यों का पाठ सिखाना।
कुछ विशेष मनोवैज्ञानिक, दार्शनिक, सामाजिक तथा राजनीतिक समस्याओं पर विचार करना।
नीतिशास्त्र की समस्याओं को हम तीन वर्गों में बांट सकते हैं:
(1) 'परम श्रेय' का स्वरूप क्या है?
(2) परम श्रेय अथवा शुभ अशुभ के ज्ञान का स्रोत या साधन क्या है?
(3) नैतिक आचार की अनिवार्यता के आधार (सैंक्शंस) क्या हैं?
परम श्रेय के बारे में पूर्व और पश्चिम में अनेक कल्पनाएँ की गई हैं। भारत में प्राय: सभी दर्शन यह मानते हैं कि जीवन का चरम लक्ष्य सुख है, किंतु उनमें से अधिकांश की सुख संबंधी धारणा तथाकथित सौख्यवाद (हेडॉसिनज्म) से नितांत भिन्न है। इस दूसरे या प्रचलित अर्थ में हम केवल चार्वाक दर्शन को सौख्यवादी कह सकते हैं। चार्वाक के नैतिक मंतव्यों का कोई व्यवस्थित वर्णन उपलब्ध नहीं है, किंतु यह समझा जाता है कि उसके सौख्यवाद में स्थूल ऐंद्रिय सुख को ही महत्व दिया गया है। भारत के दूसरे दर्शन जिस आत्यंतिक सुख को जीवन का लक्ष्य कहते हैं उसे अपवर्ग, मुक्ति या मोक्ष अथवा निर्वाण से समीकृत किया गया है। न्याय तथा सांख्य दर्शनों में अपवर्ग या मुक्ति की कल्पना की गई है, उसे भावात्मक सुखरूप नहीं कहा जा सकता किंतु उपनिषदों तथा वेदांत की मुक्तावस्था आनंदरूप कही जा सकती है। वेदांत की मुक्ति तथा बौद्धों का निर्वाण, दोनों ही उस स्थिति के द्योतक हैं जब व्यक्ति की आत्मा सुख दु:ख आदि द्वंद्वों से परे हो जाती है। यह स्थिति जीवनकाल में भी आ सकती है; भगवद्गीता में स्थितप्रज्ञ कहा गया है वह एक प्रकार से जीवन्मुक्त ही कहा जा सकता है। पाश्चात्य दर्शनों में परम श्रेय के संबंध में अनेक मतवाद पाए जाते हैं:
(1) सौख्यवादी सुख को जीवन का ध्एय घोषित करते हैं। सौख्यवाद के दो भेद हैं-व्यक्तिपरक सौख्यवाद तथा सार्वभौम सौख्यवाद। प्रथम के अनुसार व्यक्ति के प्रयत्नों का लक्ष्य स्वयं उसका सुख है। दूसरे के अनुसार हमें सबके सुख अथवा "अधिकांश मनुष्यों के अधिकतम सुख" को लक्ष्य मानकर चलना चाहिए। कुछ विचारकों के अनुसार सुखों में सिर्फ मात्रा का भेद होता है; दूसरों के अनुसार उनमें घटिया बढ़िया का, अर्थात् गुणात्मक अंतर भी रहता है।
(2) अन्य विचारकों के अनुसार जीवन का चरम लक्ष्य एवं परम श्रेय पूर्णत्व है, अर्थात् मनुष्य की विभिन्न क्षमताओं का पूर्ण विकास।
(3) कुछ अध्यात्मवादी अथवा प्रत्ययवादी चिंतकों ने आत्मलाभ (सेल्फरियलाइज़ेशन) को जीवन का ध्येय माना है। उनके अनुसार आत्मलाभ का अर्थ है आत्मा के बौद्धिक एवं सामाजिक अंगों का पूर्ण विकास था उपभोग।
(4) कुछ दार्शनिकों के मत में परम श्रेय कर्तव्यरूप या धर्मरूप है; नैतिक क्रिया का लक्ष्य स्वयं नैतिकता या धर्म ही है।
(5)जीवन का मार्ग सदा अपने कर्तव्यों के निर्वहन में होना चाहिए। की मेरा क्या दायित्व हे पहले अपने परिवार के प्रति फिर अपने गाव, राज्य और देश के प्रति। मानव को समाज ने नहीं बनाया बल्कि मानव ने ही समाज का निर्माण किया हे और समाज से गांव राज्य देश का निर्माण हुआ हे
परम श्रेय अथवा शुभ-अशुभ के ज्ञान का साधन
हमारे परम श्रेय अथवा शुभ-अशुभ के ज्ञान का साधन या स्रोत क्या है, इस संबंध में भी विभिन्न मतवाद हैं। अधिकांश प्रत्ययवादियों के मत में भलाई-बुराई को बोध बुद्धि द्वारा होता है। हेगेल, ब्रैडले आदि का मत यही है और कांट का मंतव्य भी इसका विरोधी नहीं है। कांट मानते हैं कि अंतत: हमारी कृत्यबुद्धि (प्रैक्टिकल रीज़न) ही नैतिक आदर्शों का स्रोत है। अनुभववादियों के अनुसार हमारे शुभ अशुभ के ज्ञान का स्रोत अनुभव ही है। यह मत नैतिक सापेक्ष्यतावाद (एथिकल रिलेटिविटिज्म) को जन्म देता है। तीसरा मत प्रतिभानवाद अथवा अपjhhvhjj ) है। इस मत के अनुसार हमारे भीतर एक ऐसी शक्ति है जो साक्षात् ढंग से शुभ अशुभ को पहचान या जान लेती है। प्रतिभानवाद के अनेक रूप हैं। शैफ़्टसबरी और हचेसन नामक ब्रिटिश दार्शनिकों का विचार था कि रूप रस आदि को ग्रहण करनेवाली इंद्रियों की ही भांति हमारे भीतर एक नैतिक इंद्रिय (मॉरल सेंस) भी होती है जो सीधे भलाई बुराई को देख लेती है। बिशप बटलर नाम के विचारक के मत में हमारे अंदर सदसद्बुद्धि (कांश्यंस) नाम की एक प्रेरक वृत्ति होती है जो स्वार्थ तथा परार्थ के बीच उठनेवाले द्वंद्व का समाधान करती हुई हमें औचित्य का मार्ग दिखलाता है। हमारे आचरण की अनेक प्रेरक वृत्तियाँ हैं; एक वृत्ति आत्मप्रेम (शेल्फ लव) है, दूसरी पर-हित-आकांक्षा (बेनीवोलेंस)। सदसद्बुद्धि का स्थान इन दोनों से ऊपर है, वह इन दोनों के ऊपर निर्णायक रूप में प्रतिष्ठित है। जर्मन विचारक कांट की गणना प्रतिभानवादियों में भी की जाती है। प्रतिभानवादी नैतिक सिद्धांतों का एक सामान्य लक्षण यह है कि वे किसी कार्य की भलाई बुराई के निर्णय के लिए उसके परिणामों पर ध्यान देना आवश्यक नहीं समझते। कोई कर्म इसलिए शुभ या अशुभ नहीं बन जाता कि उसके परिणाम एक या दूसरी कोटि के हैं। या किसी कार्य के समस्त परिणामों की पूर्वकल्पना वैसी ही कठिन है जैसा कि उनपर नियंत्रण कर सकना। कर्म की अच्छाई बुराई उसकी प्रेरणा (मोटिव) से निर्धारित होती है। जिस कर्म के मूल में शुभ प्रेरणा है वह सत् कर्म है, अशुभ प्रेरणा में जन्म लेनेवाला कर्म असत् कर्म या पाप है। कांटे का कथन है कि शुभ संकल्पबुद्धि (गुडविल) एक ऐसी चीज है जो स्वयं श्रेयरूप है, जिसका श्रेयत्व निरपेक्ष एवं निश्चित है; शेष सब वस्तुओं का श्रेयत्व सापेक्ष होता है। केवल शुभ संकल्पशक्ति ही अपनी श्रेयरूप ज्योति से प्रकाशित होती है।
नैतिक शुभ-अशुभ के ज्ञान का स्रोत क्या है, इस संबंध में भारतीय विचारकों ने भी कई मत प्रकट किए हैं। मीमांसा दर्शन के अनुसार श्रुति द्वारा प्रेरित आचार ही धर्म है और श्रुति या वेद द्वारा निषिद्ध कर्म अधर्म। इस प्रकार धर्म एवं अधर्म श्रुतियों के विधि-निषेध-मूलक हैं। भगवद्गीता में निष्काम कर्मयोग की शिक्षा के साथ-साथ यह बतलाया गया है कि कर्तव्या-कर्तव्य की जानकारी के लिए शास्त्र ही प्रमाण है। शास्त्र के अंतर्गत श्रुति तथा स्मृति दोनों का परिगणन होता है। हिंदू धर्म के प्रत्येक वर्ण तथा आश्रम के लिए अलग-अलग कर्तव्यों का निर्देश किया गया है; इन कर्तव्यों का विशद विवेचन धर्मसूत्रों तथा स्मृतिग्रंथों में मिलता है। इस कोटि के कर्तव्यों के अतिरिक्त सामान्य धर्म अथवा सार्वभौम धर्मनियमों के बोध के लिए को भी प्रमाण माना गया है। सज्जनों के आचार को पथप्रदर्शक रूप में स्वीकार किया गया है।
नैतिक आचरण की अनिवार्यता के आधार भी अनेक रूपों में कल्पित हुए हैं। मनुष्य के इतिहास में नैतिकता का सबसे महत्वपूर्ण नियामक धर्म (रिलीजन) रहा है। हमें नैतिक नियमों का पालन करना चाहिए, क्योंकि वैसा ईश्वर या धर्मव्यवस्था को इष्ट है। सदाचार की दूसरी नियामक शक्ति राज्य है। लोगों को अनैतिक कार्यों से विरत करने में राजाज्ञा एक महत्वपूर्ण हेतु होती है। इसी प्रकार समाज का भय भी नैतिक नियमों को शक्ति देता है। काँट के अनुसार हमें स्वयं धर्म के लिए धर्म करना चाहिए; कर्तव्यपालन स्वयं अपने में इष्ट या साध्य वस्तु है। जो विचारक कर्तव्या-कर्तव्य को परमश्रेय की अपेक्षा से रक्षित करते हैं, वे कह सकते हैं कि नैतिक आचारण की प्रेरणा मूलत: आत्मोन्नति की प्रेरणा है। हम शुभ कर्म करते हैं, क्योंकि वैसा करने से हम अपने परम श्रेय की ओर प्रगति करते हैं।
कर्तृ-स्वातंत्र्य बनाम निर्धारणवाद
नीतिशास्त्र की एक महत्वपूर्ण समस्या यह है कि क्या मनुष्य कर्म के लिए स्वतंत्र है? जब हम एक व्यक्ति को उसके किसी कार्य के लिए भला बुरा कहते हैं, तब स्पष्ट ही उसे उस कार्य के लिए उत्तरदायी मान लेते हैं, जिसका मतलब होता है यह प्रच्छन्न विश्वास है कि वह व्यक्ति विचाराधीन कार्य करने न करने के लिए स्वतंत्र था। काँट कहते हैं: चूँकि मुझे करना चाहिए, इसलिए मैं कर सकता हूँ। तात्पर्य यह कि कर्ता की स्वतंत्रता को माने बिना नैतिक जीवन एवं नैतिक मूल्यांकन की व्यवस्था संभव नहीं दीखती। हम प्रकृति के व्यापारों को भला बुरा नहीं कहते, केवल मनुष्य के कर्मों पर ही वैसा निर्णय देते हैं; इससे जान पड़ता है कि प्राकृतिक तथा मानवीय व्यापारों में कुछ अंतर है। यह अंतर मनुष्य की स्वतंत्रता के कारण है। किसी क्रिया के अनुष्ठान को इच्छा का विषय बनाने न बनाने में मनुष्य की संकल्पबुद्धि (विल) स्वतंत्र है।
निर्धारणवाद (डिटरमिनिज्म) के पोषकों को उक्त मत ग्राह्य नहीं है। भौतिक विज्ञान बतलाता है कि विश्वब्रह्मांड में सर्वत्र कार्य-कारण-नियम का अखंड शासन है। प्रत्येक वर्तमान घटना का निर्धारण अतीत हेतुओं (कंडिशंस) से होता है। संपूर्ण विश्व एक बृहत् कार्य-कारण-परंपरा है। सब प्रकार की घटनाएँ अखंड नियमों के अधीन हैं। ऐसी दशा में यह कैसे माना जा सकता है कि मनुष्य संकल्प विकल्प तथा व्यापार अकारण एवं नियमहीन होते हैं? मनुष्य के क्रियाकलापों को विश्व के घटनासमूह में अपवादरूप नहीं माना जा सकता। यदि अनेक अवसरों पर हम मानवीय व्यापारों के संबंध में सफल भविष्यवाणी नहीं कर सकते तो इसका कारण हमारी उन व्यापारों के नियामक नियमों की अपूर्ण जानकारी है, न कि उन व्यापारों की नियमहीनता।
निर्धारणवाद के सिद्धांत को भौतिक शास्त्रों से बल मिला है; उसे प्रकृतिजगत् की यंत्रवादी व्याख्या से भी अवलंब मिलता है। किंतु इसका यह मतलब नहीं कि निर्धारणवाद एक भौतिक सिद्धांत है। कहा गया है कि स्पिनोज़ा तथा हेगेल के दर्शनों में व्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए कोई स्थान नहीं है। सांख्य दर्शन में पुरुष को निर्गुण तथा निष्क्रिय माना गया है। समस्त कर्मों को बुद्धि में आरोपित किया गया है और बुद्धि को तीन गुणों से संचालित बतलाया गया है। गीता में लिखा है-सारे कार्य प्रकृति के तीन गुणों द्वारा किए जाते हें, अहंकारवश मनुष्य अपने को कर्ता मान लेता है। गीता में ही प्रत्येक कर्म के सांख्यसम्मत पाँच कारण गिनाए गए हैं, अर्थात् अधिष्ठान, कत्र्ता, करण, विविध चेष्टाएँ और दैव; ऐसी दशा में केवल कर्म के लिए उत्तरदायी नहीं कहा जा सकता।
मैकेंज़ी (John Stuart Mackenzie) आदि कुछ विचारक उक्त दोनों मतों से भिन्न आत्मनिर्धारणवाद (सेल्फ़-डिटरमिनेशन) के सिद्धांत को मानते हैं। जहाँ मनुष्य स्वतंत्रता की भावना से कर्म करता है, वहाँ कर्म स्वयं उसके व्यक्तित्व में निहित शक्तियों द्वारा निर्धारित होता है। इस अर्थ में मनुष्य स्वतंत्र है। बुरे काम के बाद उत्पन्न होनेवाली पश्चात्ताप की भावना कर्ता की स्वतंत्रता सिद्ध करती है।
इन्हें भी देखें
नीति
समाकालीन नीतिशास्त्र
कॉर्पोरेट सामजिक उत्तरदायित्व
Declaration of Geneva
Declaration of Helsinki
निष्कर्षीय reasoning
वर्णात्मक नीतिशास्त्र
धर्म
नीतिशास्त्रीय आन्दोलन
नीतिशास्त्र पत्र
नीतिशास्त्र लेखों की अनुक्रमणिका— वर्णाक्रमानुसार नीतिशास्त्र-सम्बन्धित लेखों की सूची
नैतिक मनोविज्ञान
नीतिशास्त्र की रूपरेखा—उप-विषयों सहित नीतिशास्त्रत्र-सम्बन्धित लेखों की सूची
व्यवहारिक दर्शन
नैतिकता का विज्ञान
justification का सिद्धान्त
नीतिशास्त्र का इतिहास
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
(गूगल पुस्तक ; लेखक -अशोक कुमार वर्मा)
(गूगल पुस्तक ; लेखक - अनिरुद्ध झा, रामनाथ मिश्र)
by Paul Newall, aimed at beginners.
, 2d ed., 1973. by William Frankena
Open University podcast series podcast exploring ethical dilemmas in everyday life.
(1930) by W. D. Ross
University of San Diego - Ethics glossary Useful terms in ethics discussions
World's largest library for ethical issues in medicine and biomedical research
श्रेणी:दर्शन
श्रेणी:नीतिशास्त्र | नीतिशास्त्र' को अंग्रेज़ी में क्या कहा जाता है? | ethics | 22 | hindi |
bf4a510b4 | गौतम बुद्ध (जन्म 563 ईसा पूर्व – निर्वाण 483 ईसा पूर्व) एक श्रमण थे जिनकी शिक्षाओं पर बौद्ध धर्म का प्रचलन हुआ।[1]
उनका जन्म लुंबिनी में 563 ईसा पूर्व इक्ष्वाकु वंशीय क्षत्रिय शाक्य कुल के राजा शुद्धोधन के घर में हुआ था। उनकी माँ का नाम महामाया था जो कोलीय वंश से थी जिनका इनके जन्म के सात दिन बाद निधन हुआ, उनका पालन महारानी की छोटी सगी बहन महाप्रजापती गौतमी ने किया। सिद्धार्थ विवाहोपरांत एक मात्र प्रथम नवजात शिशु राहुल और पत्नी यशोधरा को त्यागकर संसार को जरा, मरण, दुखों से मुक्ति दिलाने के मार्ग की तलाश एवं सत्य दिव्य ज्ञान खोज में रात में राजपाठ छोड़कर जंगल चले गए। वर्षों की कठोर साधना के पश्चात बोध गया (बिहार) में बोधि वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई और वे सिद्धार्थ गौतम से बुद्ध बन गए।
जीवन वृत्त
उनका जन्म 563 ईस्वी पूर्व के बीच शाक्य गणराज्य की तत्कालीन राजधानी कपिलवस्तु के निकट लुम्बिनी में हुआ था, जो नेपाल में है।[2]
लुम्बिनी वन नेपाल के तराई क्षेत्र में कपिलवस्तु और देवदह के बीच नौतनवा स्टेशन से 8 मील दूर पश्चिम में रुक्मिनदेई नामक स्थान के पास स्थित था। कपिलवस्तु की महारानी महामाया देवी के अपने नैहर देवदह जाते हुए रास्ते में प्रसव पीड़ा हुई और वहीं उन्होंने एक बालक को जन्म दिया। शिशु का नाम सिद्धार्थ रखा गया।[3] गौतम गोत्र में जन्म लेने के कारण वे गौतम भी कहलाए। क्षत्रिय राजा शुद्धोधन उनके पिता थे। परंपरागत कथा के अनुसार सिद्धार्थ की माता का उनके जन्म के सात दिन बाद निधन हो गया था। उनका पालन पोषण उनकी मौसी और शुद्दोधन की दूसरी रानी महाप्रजावती (गौतमी)ने किया। शिशु का नाम सिद्धार्थ दिया गया, जिसका अर्थ है "वह जो सिद्धी प्राप्ति के लिए जन्मा हो"। जन्म समारोह के दौरान, साधु द्रष्टा आसित ने अपने पहाड़ के निवास से घोषणा की- बच्चा या तो एक महान राजा या एक महान पवित्र पथ प्रदर्शक बनेगा।[4] शुद्दोधन ने पांचवें दिन एक नामकरण समारोह आयोजित किया और आठ ब्राह्मण विद्वानों को भविष्य पढ़ने के लिए आमंत्रित किया। सभी ने एक सी दोहरी भविष्यवाणी की, कि बच्चा या तो एक महान राजा या एक महान पवित्र आदमी बनेगा।[4] दक्षिण मध्य नेपाल में स्थित लुंबिनी में उस स्थल पर महाराज अशोक ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व बुद्ध के जन्म की स्मृति में एक स्तम्भ बनवाया था। बुद्ध का जन्म दिवस व्यापक रूप से थएरावदा देशों में मनाया जाता है।[4]
सुद्धार्थ का मन वचपन से ही करुणा और दया का स्रोत था। इसका परिचय उनके आरंभिक जीवन की अनेक घटनाओं से पता चलता है।
घुड़दौड़ में जब घोड़े दौड़ते और उनके मुँह से झाग निकलने लगता तो सिद्धार्थ उन्हें थका जानकर वहीं रोक देता और जीती हुई बाजी हार जाता।
खेल में भी सिद्धार्थ को खुद हार जाना पसंद था क्योंकि किसी को हराना और किसी का दुःखी होना उससे नहीं देखा जाता था।
सिद्धार्थ ने चचेरे भाई देवदत्त द्वारा तीर से घायल किए गए हंस की सहायता की और उसके प्राणों की रक्षा की।
शिक्षा एवं विवाह
सिद्धार्थ ने गुरु विश्वामित्र के पास वेद और उपनिषद् को तो पढ़ा हीं , राजकाज और युद्ध-विद्या की भी शिक्षा ली। कुश्ती, घुड़दौड़, तीर-कमान, रथ हाँकने में कोई उसकी बराबरी नहीं कर पाता।
सोलह वर्ष की उम्र में सिद्धार्थ का कन्या यशोधरा के साथ विवाह हुआ। पिता द्वारा ऋतुओं के अनुरूप बनाए गए वैभवशाली और समस्त भोगों से युक्त महल में वे यशोधरा के साथ रहने लगे जहाँ उनके पुत्र राहुल का जन्म हुआ।
लेकिन विवाहके बाद उनका मन वैराग्यमें चला और सम्यक सुख-शांतिके लिए उन्होंने आपने परिवार का त्याग कर दिया।
विरक्ति
राजा शुद्धोधन ने सिद्धार्थ के लिए भोग-विलास का भरपूर प्रबंध कर दिया। तीन ऋतुओं के लायक तीन सुंदर महल बनवा दिए। वहाँ पर नाच-गान और मनोरंजन की सारी सामग्री जुटा दी गई। दास-दासी उसकी सेवा में रख दिए गए। पर ये सब चीजें सिद्धार्थ को संसार में बाँधकर नहीं रख सकीं। वसंत ऋतु में एक दिन सिद्धार्थ बगीचे की सैर पर निकले। उन्हें सड़क पर एक बूढ़ा आदमी दिखाई दिया। उसके दाँत टूट गए थे, बाल पक गए थे, शरीर टेढ़ा हो गया था। हाथ में लाठी पकड़े धीरे-धीरे काँपता हुआ वह सड़क पर चल रहा था। दूसरी बार कुमार जब बगीचे की सैर को निकला, तो उसकी आँखों के आगे एक रोगी आ गया। उसकी साँस तेजी से चल रही थी। कंधे ढीले पड़ गए थे। बाँहें सूख गई थीं। पेट फूल गया था। चेहरा पीला पड़ गया था। दूसरे के सहारे वह बड़ी मुश्किल से चल पा रहा था। तीसरी बार सिद्धार्थ को एक अर्थी मिली। चार आदमी उसे उठाकर लिए जा रहे थे। पीछे-पीछे बहुत से लोग थे। कोई रो रहा था, कोई छाती पीट रहा था, कोई अपने बाल नोच रहा था। इन दृश्यों ने सिद्धार्थ को बहुत विचलित किया। उन्होंने सोचा कि ‘धिक्कार है जवानी को, जो जीवन को सोख लेती है। धिक्कार है स्वास्थ्य को, जो शरीर को नष्ट कर देता है। धिक्कार है जीवन को, जो इतनी जल्दी अपना अध्याय पूरा कर देता है। क्या बुढ़ापा, बीमारी और मौत सदा इसी तरह होती रहेगी सौम्य? चौथी बार कुमार बगीचे की सैर को निकला, तो उसे एक संन्यासी दिखाई पड़ा। संसार की सारी भावनाओं और कामनाओं से मुक्त प्रसन्नचित्त संन्यासी ने सिद्धार्थ को आकृष्ट किया।
महाभिनिष्क्रमण
सुंदर पत्नी यशोधरा, दुधमुँहे राहुल और कपिलवस्तु जैसे राज्य का मोह छोड़कर सिद्धार्थ तपस्या के लिए चल पड़े। वह राजगृह पहुँचे। वहाँ भिक्षा माँगी। सिद्धार्थ घूमते-घूमते आलार कालाम और उद्दक रामपुत्र के पास पहुँचे। उनसे योग-साधना सीखी। समाधि लगाना सीखा। पर उससे उसे संतोष नहीं हुआ। वह उरुवेला पहुँचे और वहाँ पर तरह-तरह से तपस्या करने लगे।
सिद्धार्थ ने पहले तो केवल तिल-चावल खाकर तपस्या शुरू की, बाद में कोई भी आहार लेना बंद कर दिया। शरीर सूखकर काँटा हो गया। छः साल बीत गए तपस्या करते हुए। सिद्धार्थ की तपस्या सफल नहीं हुई।
शांति हेतु बुद्ध का मध्यम मार्ग: एक दिन कुछ स्त्रियाँ किसी नगर से लौटती हुई वहाँ से निकलीं, जहाँ सिद्धार्थ तपस्या कर रहा थे। उनका एक गीत सिद्धार्थ के कान में पड़ा- ‘वीणा के तारों को ढीला मत छोड़ दो। ढीला छोड़ देने से उनका सुरीला स्वर नहीं निकलेगा। पर तारों को इतना कसो भी मत कि वे टूट जाएँ।’ बात सिद्धार्थ को जँच गई। वह मान गये कि नियमित आहार-विहार से ही योग सिद्ध होता है। अति किसी बात की अच्छी नहीं। किसी भी प्राप्ति के लिए मध्यम मार्ग ही ठीक होता है ओर इसके लिए कठोर तपस्या करनी पड़ती है।
ज्ञान की प्राप्ति
वैशाखी पूर्णिमा के दिन सिद्धार्थ वटवृक्ष के नीचे ध्यानस्थ थे। समीपवर्ती गाँव की एक स्त्री सुजाता को पुत्र हुआ। उसने बेटे के लिए एक वटवृक्ष की मनौती मानी थी। वह मनौती पूरी करने के लिए सोने के थाल में गाय के दूध की खीर भरकर पहुँची। सिद्धार्थ वहाँ बैठा ध्यान कर रहा था। उसे लगा कि वृक्षदेवता ही मानो पूजा लेने के लिए शरीर धरकर बैठे हैं। सुजाता ने बड़े आदर से सिद्धार्थ को खीर भेंट की और कहा- ‘जैसे मेरी मनोकामना पूरी हुई, उसी तरह आपकी भी हो।’
उसी रात को ध्यान लगाने पर सिद्धार्थ की साधना सफल हुई। उसे सच्चा बोध हुआ। तभी से सिद्धार्थ 'बुद्ध' कहलाए। जिस पीपल वृक्ष के नीचे सिद्धार्थ को बोध मिला वह बोधिवृक्ष कहलाया और गया का समीपवर्ती वह स्थान बोधगया।
धर्म-चक्र-प्रवर्तन
वे 80 वर्ष की उम्र तक अपने धर्म का संस्कृत के बजाय उस समय की सीधी सरल लोकभाषा पाली में प्रचार करते रहे। उनके सीधे सरल धर्म की लोकप्रियता तेजी से बढ़ने लगी।
चार सप्ताह तक बोधिवृक्ष के नीचे रहकर धर्म के स्वरूप का चिंतन करने के बाद बुद्ध धर्म का उपदेश करने निकल पड़े। आषाढ़ की पूर्णिमा को वे काशी के पास मृगदाव (वर्तमान में सारनाथ) पहुँचे। वहीं पर उन्होंने सबसे पहला धर्मोपदेश दिया और पहले के पाँच मित्रों को अपना अनुयायी बनाया और फिर उन्हें धर्म प्रचार करने के लिये भेज दिया।
महापरिनिर्वाण
पालि सिद्धांत के महापरिनिर्वाण सुत्त के अनुसार ८० वर्ष की आयु में बुद्ध ने घोषणा की कि वे जल्द ही परिनिर्वाण के लिए रवाना होंगे। बुद्ध ने अपना आखिरी भोजन, जिसे उन्होंने कुन्डा नामक एक लोहार से एक भेंट के रूप में प्राप्त किया था, ग्रहण लिया जिसके कारण वे गंभीर रूप से बीमार पड़ गये। बुद्ध ने अपने शिष्य आनंद को निर्देश दिया कि वह कुन्डा को समझाए कि उसने कोई गलती नहीं की है। उन्होने कहा कि यह भोजन अतुल्य है।[5]
उपदेश
भगवान बुद्ध ने लोगों को मध्यम मार्ग का उपदेश किया। उन्होंने दुःख, उसके कारण और निवारण के लिए अष्टांगिक मार्ग सुझाया। उन्होंने अहिंसा पर बहुत जोर दिया है। उन्होंने यज्ञ और पशु-बलि की निंदा की।
बुद्ध के उपदेशों का सार इस प्रकार है -
महात्मा बुद्ध ने सनातन धरम के कुछ संकल्पनाओं का प्रचार किया, जैसे अग्निहोत्र तथा गायत्री मन्त्र
ध्यान तथा अन्तर्दृष्टि
मध्यमार्ग का अनुसरण
चार आर्य सत्य
अष्टांग मार्ग
बौद्ध धर्म एवं संघ
बुद्ध के धर्म प्रचार से भिक्षुओं की संख्या बढ़ने लगी। बड़े-बड़े राजा-महाराजा भी उनके शिष्य बनने लगे। शुद्धोधन और राहुल ने भी बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। भिक्षुओं की संख्या बहुत बढ़ने पर बौद्ध संघ की स्थापना की गई। बाद में लोगों के आग्रह पर बुद्ध ने स्त्रियों को भी संघ में ले लेने के लिए अनुमति दे दी, यद्यपि इसे उन्होंने उतना अच्छा नहीं माना। भगवान बुद्ध ने ‘बहुजन हिताय’ लोककल्याण के लिए अपने धर्म का देश-विदेश में प्रचार करने के लिए भिक्षुओं को इधर-उधर भेजा। अशोक आदि सम्राटों ने भी विदेशों में बौद्ध धर्म के प्रचार में अपनी अहम् भूमिका निभाई। मौर्यकाल तक आते-आते भारत से निकलकर बौद्ध धर्म चीन, जापान, कोरिया, मंगोलिया, बर्मा, थाईलैंड, हिंद चीन, श्रीलंका आदि में फैल चुका था। इन देशों में बौद्ध धर्म बहुसंख्यक धर्म है।
गौतम बुद्ध - अन्य धर्मों की दृष्टि में
हिन्दू धर्म में
हिन्दू धर्म में भगवान बुद्ध
बुद्ध को विष्णु का अवतार माना जाता है। अनेक पुराणों में उनका उल्लेख है।
सन्दर्भ
स्रोत ग्रन्थ
According to Pali scholar K. R. Norman, a life span for the Buddha of c. 480 to 400 BCE (and his teaching period roughly from c. 445 to 400 BCE) "fits the archaeological evidence better".[6] See also .}}
इन्हें भी देखें
हिन्दू धर्म में भगवान बुद्ध
बुद्धावतार
बाहरी कड़ियाँ
श्रेणी:बौद्ध धर्म
श्रेणी:धर्म प्रवर्तक
श्रेणी:धर्मगुरू
श्रेणी:भारतीय बौद्ध | गौतम बुद्ध की माँ कौन थी? | महामाया | 237 | hindi |
63a735dda | क्लासिक मूलत: प्राचीन यूनान और रोम के लेखकों और उनकी कृतियों, किंतु अब, किसी भी देश और युग के कालजित् कीर्तिलब्ध, सर्वमान्य या प्रतिष्ठित लेखकों और उनकी कृतियों के लिये प्रयुक्त शब्द। वर्तमान अर्थ में इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग ईसा की दूसरी सदी में रोमन लेखक औलस गेलियस ने किया। उसके अनुसार लेखक दो कोटि के होते हैं।
1. क्लासिकल स्क्रिप्तोर अर्थात् वह जिनकी रचना प्रथम कोटि की या कीर्तिमानस्थापक होती है और
2. प्राजीतारियस स्क्रिप्तोर अर्थात् वह जिसकी रचना सर्वहारा की शैली में होने के कारण साधारण कोटि की या कालसापेक्ष होती है।
रोम के छठे राजा सेर्वियस तूलियस ने अपने संवैधानिक सुधारों में संपत्ति के अधिकार पर रोम के नागरिकों के पाँच वर्ग बनाए थे। रोमन समाज के इस वर्गीय विभाजन में सबसे वैभवसंपन्न नागरिक ‘क्लासिक’ (सर्वोच्च या अभिजात) और सबसे निराश्रित और संपत्तिहीन नागरिक ‘प्रालीतारी’ (सर्वहारा) कहे गए थे। लेखकों की उपर्युक्त दो कोटियों का नामकरण इसी सामाजिक विभाजन के अनुकरण के आधार पर हुआ। आधुनिक युग में संगीत, चित्र, पूर्ति, चलचित्र आदि कलाओं के प्रतिष्ठित मेधावियों और उनकी रचनाओं के लिये भी कलासिक शब्द का व्यवहार किया जाने लगा है। क्लासिक शब्द की अर्थसीमा को और भी विस्तृत कर अब जीवन के किसी क्षेत्र में भी विश्रुत या स्थायी कीर्तिमान स्थापित करने वाले व्यक्ति, उसकी दक्षता, शैली या उपलब्धि, अनन्य या विख्यात क्रीड़ाप्रतियोगिताओं इत्यादि को भी क्लासिक कहा जाता है। यथा-क्रिकेट में डब्ल्यू. जी. ग्रेस और रणजी और हाकी में ध्यानचंद को क्लािसिक कहा जाता है। इसी प्रकार विश्वविख्यात घुड़दौड़ प्रतियोगिता डर्बी, नौकादौड़ प्रतियोगिता हेनली रीगैटा, टेनिस प्रतियोगिता ‘विबलडन’ इत्यादि को, उनके व्यावसायिक या अव्यावसायिक रूप को ध्यान में रखे बिना, ‘क्लासिक’ की संज्ञा दी जाती है। टी. एस. ईलियट ने अपने प्रसिद्ध लेख ‘ह्वाट इज़ ए क्लासिक’ में ए गाइड टु द ‘क्लासिक्स’ नामक पुस्तक का उल्लेख किया है, जिसका उद्देश्य पाठकों को प्रतियोगिता के पूर्व ही डर्बी में प्रथम आने वाले घोड़े के विषय में सही अनुमान करने की क्षमता प्रदान करना था। इस प्रकार क्लासिक शब्द के विभिन्न संदर्भो में विभिन्न अर्थ हैं।
जहाँ तक क्लासिक शब्द के साहित्यिक प्रयोग का प्रश्न है, पश्चिम की देन होते हुए भी, इसका प्रचलन अब संसार की सभी भाषाओं और साहित्यों में है। किसी भी प्राचीन भाषा या साहित्य को उससे प्रभावित या विकसित किसी आधुनिक भाषा या साहित्य के संदर्भ में ‘क्लासिक’ कहा जाता है। इस प्रकार संस्कृत को अधिकांश भारतीय भाषाओं या साहित्यों के संदर्भ में या प्राचीन चीनी भाषा और उसके साहित्य को आधुनिक चीनी भाषा और साहित्य के संदर्भ में ‘क्लासिक’ कहा जाता है। दूसरी ओर प्रत्येक भाषा के साहित्य का कालविभाजन कुछ विशेष साहित्यिक मूल्यों के आधार पर ‘क्लासिक’ तथा अन्य शब्दों में व्यक्त किया जाता है। इस प्रकार स्वयं संस्कृत और प्राचीन चीनी साहित्य के भीतर ‘क्लासिक’ काल माने जाते हैं। साथ ही संस्कृत के सापेक्ष हिंदी अ ‘क्लासिक’ भाषा और साहित्य है, किंतु हिंदु में भी अपना ‘क्लासिक काल’ है।
यहाँ ‘क्लासिक’ शब्द और उसके मूल्यों की विवेचना उन्हीं संदर्भो में की गई है जिनमें उनका विकास हुआ।
प्राचीन ग्रीक और रोमन साहित्य
प्राचीन ग्रीस और रोम का साहित्य कालविस्तार, वस्तु और विधाओं की विविधता, शिल्पगत समृद्धि और यूरोपीय साहित्य और संस्कृति की मुख्य प्रेरणात्मक शक्ति की दृष्टि से असाधरण महत्व का है। उसका प्रसार होमर (ल. ९०० ई. पू.) से लेकर जुस्तिनियन (५२७ ई.) तक माना जाता है। १४ सदियों के इस लंबे साहित्यिक इतिहास के तीन कालविभाग किए जाते हैं:
(१) क्लासिकल- होमर से लेकर सम्राट सिकंदर की मृत्यु तक, (ल. ९०० ई. पू.-३२३ ई. पू.),
(२) हेलेनिक (३२३ ई. पू.-१०० ई.),
(३) हेलेनिकोत्तर या ग्रेको-रोमन (१०० ई.-५२९ ई.)।
क्लासिकल काल
इसे अंशत: वीरगाथाकाल कहना अनुचित न होगा, महाकाव्य, गीतिकाव्य, नाटक और गद्य-सभी में नवीन किंतु श्रेष्ठ कृतित्व का काल है। अंधकवि होमर वीरगाथाकाल के साथ साथ यूरोप का आदि कवि भी हैं। उसकी प्रसिद्ध रचनाओं, ‘ईलियद’ और ‘ओदेसी’, में यूनान के चारणों की लंबी मौखिक परंपरा और उसकी व्यक्तिगत प्रतिभा का संगम है। ग्रीक वीरछंद हेक्सामीअर में रचित युद्ध और पराक्रम की ये कथाएँ इतनी लोकप्रिय हुई कि इनके गायकों की ‘होमरीदाई’ (होमर के पुत्र) नामक श्रेणी बन गई। इन्हें होमर के लगभग ३०० वर्ष वाद छठी सदी ई. पू. में लिपिबद्ध किया गया। इसी वीरछंद का प्रयोग आठवीं सदी ई. पू. में हेसिआद ने अपनी नीतिपरक और दार्शनिक कविताओं में किया। बाद में हेसिआद की परंपरा में ही ज़ेजोफेनिज, पारमेनीदीज, एंपिदोक्लीज़ आदि दार्शनिक कवि हुए।
सातवीं सदी ई. पू. में ग्रीक लिरिक या गीतिकाव्य का जन्म हुआ। ‘लीरे’ नामक तंत्री वाद्ययंत्र के स्वर पर गाए जानेवाले इनगीतों का प्रारंभ राजनीतिक विष्यवस्तु से हुआ लेकिन बाद में उन्होंने प्रधानत: प्रयाणनिवेदन या मरसिया (ऐलेजी) का रूप ग्रहण किया। इनकी रचना आइएंबिक छंदों में होती थी। व्यक्तिगत गायन के लिये रचित इन गीतों के क्षेत्र में सबसे प्रसिद्ध नाम आल्कीयस और कवयित्री सैफ़ो के हैं। इन व्यक्तिगत गीतों के अतिरिक्त सामूहिक (कोरस) गीतों का भी उदय हुआ। इनका चरमोत्कर्ष छठी-पाँचवी सदी ई. पू. में पिंदार की रचनाओं में हुआ।
धार्मिक कृत्यों के अवसर पर साधारण जन द्वारा गाए जानेवाले ‘कोरस’ गीतों से पाँचवीं सदी ई. पू. में प्राचीन यूनानी साहित्य में नाटकों का अत्यंत महत्वपूर्ण विकास हुआ। त्राजेदी (दु:खांत नाटक) के क्षेत्र में ईस्किलस, सोफ़ोक्लीज़ और यूरीपीदीज़ और कामेदी (सुखांत नाटक) के क्षेत्र में अरिस्तोफ़नीज के नाम विख्यात हैं।
गद्य का विकास साहित्य की अन्य विधाओं के बाद, प्राय: चौथी सदी ई. पू. में हुआ। तीन मुख्य दिशाएँ थीं: वक्तृता, जिसमें सबसे प्रसिद्ध नाम दिमास्थेनीज़ का है, इतिहास जिसमें सबसे प्रसिद्ध नाम हेरीदोतस, यूकिदीदीज़ (यूसिडाइडीज़) और ज़ेनोफ़ोन के हैं।
हेलेनिक काल
इस काल के साहित्य में मौलिक प्रयोगों के स्थान पर अनुकरण और विद्वत्ता की प्रवृति अधिक है। इस काल की कविताएँ प्राय: प्रेमविषयक, लघु और परिमार्जित हैं। अपोलोनियस रोदियस ने प्राचीन वीरकाव्य की परंपरा को जीवित रखने और लोकप्रिय बनाने का असफल प्रयत्न किया। कालीमाखस के नेतृत्व में स्फुट प्रेमविषयक कविताओं का प्रचलन अधिक हुआ। अन्य कवियों में एरातस और निकांदर उल्लेखनीय हैं।
यह नाटक का ह्रासकाल था। दु:खांत नाटक के क्षेत्र में इस काल का सबसे प्रसिद्ध लेखक ली क्फ्ऱोन है।
इस काल की कविता में विकास की एक नई दिशा के रूप में थियोक्रितस, बियोन और मौस्कस के पशुचारण, शोकगीतों, ग्वालगीतों का महत्वपूर्ण स्थान है।
वस्तुत: यह कान गद्य में अधिक समृध है। गणित, ज्योतिष, इतिहास, भूगोल, आलोचना, व्याकरण, भाषाशास्त्र आदि के संबंध में रचनाएँ प्रस्तुत हुई। इस काल के इतिहासकारों में पोलीबियस, स्त्रावो और प्लूतार्क विशेष प्रसिद्ध हैं।
हेलेनिकोत्तर काल
रोम द्वारा यूनान पर विजय के बाद का, अर्थात् ग्रेको-रोमन साहित्य गद्य में इतिहास और आलोचना शास्त्र की दृष्टि से ही महत्वपूर्ण है। रोम के ईसाई धर्म में दीक्षित होने के बाद प्रकृतिपूजक ग्रीस के साहित्य और संस्कृति को बहुत चोट पहुंची। फिर इस युग में प्लूतार्क और लूसियन जैसे इतिहासकार और दियोनीसियस तथा लाजिनस जैसे आलोचनाशात्री हुए।
प्राचीन रोमन या लातीनी साहित्य प्रसार और समृद्धि दोनों ही दृष्टियों से प्राचीन ग्रीक साहित्य से घटकर है। इसके भी तीन विभाजन किए जाते हैं:
(१) रिपब्लिक या गणतंत्र युग (२५०-२७ ई. पू.),
(२) आगस्तस युग (२७ ई. पू.- १४ ई.),
(३) साम्राज्य युग (१४ ई.-५२४ ई.)।
1. रिपब्लिक युग में प्रहसन, नाटक गद्य कविता के क्षेत्र में विशेष कार्य हुआ। प्रहसन में माक्कियस प्लातस, स्तातियस और तेरेंस या तेरेंतियस आफ़ेर, गद्य में वारे और प्रसिद्ध वक्ता तथा राजनीतिज्ञ सिसरो और कविता में लुक्रिशियस तथा कातुलस इस युग के प्रसिद्ध साहित्यकार हैं।
इन सभी लेखकों की विष्यवस्तु रोम के जीवन से संबद्ध थी, लेकिन इनकी रचनाओं के रूप पर प्राचीन ग्रीक साहित्य का गहरा असर है।
2. आगस्तस काल लातीनी साहित्य का स्वर्णयुग माना जाता है। इसके साथ लातीनी कविता के सबसे महान कवि वर्जिल का नाम जुड़ा हुआ है। गड़ेरिया जीवन संबंधी दस कविताओं, एक्लोग्ज़ और ग्रीक योद्धा इस के जीवन पर आधारित महाकाव्य, ज्योर्जिक्स के लिये प्रसिद्ध है। उसके साहित्य में ग्रीक और रोमन सांस्कृतिक परंपराओं, रोमन साम्राज्य के तत्कालीन गौरव और एक महान यूरोपीय सभ्यता के उदय के स्वप्न की अत्यंत प्रौढ़, परिमार्जित और समन्वित अभिव्यक्ति है। उसके दृष्टिकोण की सार्वभैम व्यापकता और उदारता और उसकी कविता में ग्रीक और लातीनी कविता की रूपगत शालीनता और सौंदर्य के चरमोत्कर्ष का उल्लेख करते हुए टी. एस. ईलियट ने कहा है: ‘हमारा कलासिक, समसत यूरोप का क्लासिक, वर्जिल है’।
इस युग के दो अन्य विख्यात कवियों में होरेस और ओविद हैं। पहला अपनी व्यंग्य और कटाक्षपूर्ण रचनाओं और कसीदों (ओडों) के लिये और दूसरा प्रणयकविताओं और मरसियों के लिये प्रसिद्ध है।
लिवियस या लिवी इस यु ग का प्रसिद्ध इतिहासकार है। उसने रोम का इतिहास लिखा।
3. साम्राज्यकाल के दो उपविभाजन किए जाते हैं:
(अ) रजत काल (१४ ई.-११७ ई.),
(ब) ईसाई काल (११७ ई.-५२४ ई.)।
रजतकान के प्रसिद्ध साहित्यकारों में सेनेका ने ग्रीक परंपरा में त्राजेदी, ल्यूकन ने महाकाव्य, फ्लाकस और जुवेनाल व्यंग्य और कटाक्ष, प्लिनी ने इतिहास, क्विंतिलियन ने साहित्यालाचन और इतिहास तथा तासितस ने जीवनचरित, इतिहास, साहित्यिक आलोचना इत्यादि की रचना से लातीनी साहित्य को समृद्ध किया। विद्वानों के मतानुसार वास्तव में रजतयुग के साथ लातीनी साहित्य के क्लासिकल युग की अंत हो जाता है, क्योंकि इसके बादवाले लातीनी साहित्य में भाषा और भाव की शालीनता का उत्तरोत्तर क्षय होता गया।
दूसरी सदी के बाद लातीनी साहित्य पर ईसाई धर्म की प्रभुता स्थापित हो गई। इस साहित्य में प्राचीन ग्रीक और लातीनी मूर्ति और प्रकृतिपूजक परंपरा और ईसाई धर्म की मान्यताओं के बीच तीव्र द्वंद्व की अभिवयक्ति हुई। इस युग के उल्लेखनीय साहित्यकारों में तरतूलियन, मिनूसियस फ़लिक्स, लाक्तांतियस, संत जेरोम, संत आगुस्तिन, बोएथियम, कासियादोरस, संत बेनेदिक्त, ग्रेगरी महान्, संत इसीदार आदि हैं।
ईसा की छठी सदी से लेकर पूरे मध्य युग तक लातीनी साहित्य की रचना होती रही। चर्च का सारा कार्य लातीनी में होता ही था, इसके अतिरिक्त लौकिक साहित्य, दर्शन और शिक्षा के क्षेत्र में भी इस भाषा का प्रमुख स्थान था। इस लंबे काल के रचनाकारों में कुछ प्रसिद्ध नाम ये हैं: कोलंबानस (५४३-६१५), बीड (६७३-७३५), अल्कुइन (७३५-८०४), संत बर्नार्ड (१०९०-११५३), संत तोमस अक्विनस (१२२४-७४), दांते (१२६५-१३२१)। इस युग में लातीनी की महत्वपूर्ण भूमिका का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि इसके साहित्यकार ने केवल इटली या रोम के थे, बल्कि आयलैंड, इंग्लैंड और पश्चिमी यूरोप के अनेक देशों के भी थे।
पुनर्जागरण (रेनेसाँ ; १४५०-१५५०)
पुनर्जागरण यूरोप में ग्रीक और रोमन साहित्य, कला और दर्शन के प्रति नई सजगता और अभिरूचि का काल है। रैनेसाँ का उदय अधिकतर विद्वान् १४५३ ई. के बाद से मानते हैं, जब तुर्को ने कुस्तुनतुनिया पर विजय प्राप्तकर ग्रीकरोमन सभ्यता को पश्चिम की ओर इटली में शनण लेने के लिये विवश किया। कुछ इसका प्रारंभ १४४० ई. में मुद्रण के आविष्कार से मानते हैं। इससे भी पूर्व १०वीं और १२वीं सदियों में नवस्फुरण के संकेत मिलते हैं। १५वीं सदी के पहले और उसके पूर्वार्ध में ही इस जागरण की पूर्वपीठिका इटली के अनेक नगरों में, जिनमें रोम और फ्लोरेंस प्रधान थे, तैयार हो चुकी थी। इसका नेतृत्व करनेवालों में दांते, पेत्रार्क: (१३०४-७४), बोक्काचो (१३१३-७५), कोजीमो मेदिची (१३८९-१४६४) इत्यादि प्रमुख थे। किंतु १५वीं सदी के मध्य से यह प्रक्रिया इतनी वेगवती और व्यापक हो गई कि यहां से मध्य युगीन यूरोप का आधुनिकता में संक्रमण माना जाता है। इस संक्रमण के साथ ग्रीक और रोमन साहित्य, संस्कृति और कला के उदार लौकिक एवं मानवतावादी दृष्टिकोण ने मध्ययुगीन यूरोप की संकुचित तथा रूढ़ धर्मिकता और परलोकपरायण्ता एवं उनके सहयोगी व्यक्ति-स्वातंत्रय-विरोधी सामंती अंकुशों को नि:सत्व कर दिया। पुनर्जागरण ने आदिपाप और हीनता के सिद्धांत के स्थान पर मानव काया की पवित्रता और व्यक्ति के विकास की अमित संभावनाओं में आस्था की प्रतिष्ठा की। यह प्रवृति इतनी प्रबल थी कि स्वयं चर्च को इसके साथ समझौता करना पड़ा। फ्रेंच विद्वान जसराँ के अनुसार लौकिकता और मानवतावाद की इस असंदिग्ध विजय का प्रतीक कांसे की बनी औरत की वह नंगी मूर्ति थी जो पुनर्जागरण के बाद स्वयं एक पोप की समाधि पर स्थापित की गई।
पुनर्जागरण ने मानवतावाद के साथ साथ प्राचीन ग्रीक और रोमन साहित्यिक परंपरा को भी पुनरुज्जीवित किया, जिसके फलस्वरूप इतालवी साहित्य को काव्य, ताटक, आख्यायिका, इतिहास आदि की वस्तु और रचना के आदर्श विधान प्राप्त हुए। प्राचीन ग्रीक और लातीनी साहित्यकारों की रचनाओं से प्रेरणा ग्रहण करने के अतिरिक्त १६वीं सदी के इतालवी साहित्यकारों ने अरस्तु और होरेस की पोएतिक्स और आर्स पोएतिका नामक रचनाओं को काव्य के लक्षण ग्रंथ के रूप में स्वीकृत किया। पुनर्जागरण ने ही फ्लोरेंस में लोरेंत्सों मेदिची के नेतृत्व में नवअफ़लातूनवाद को भी जन्म दिया, जिसका गहरा असर इटली और यूरोप के अन्य देशों की प्रेमसंबंधी कविताओं पर पड़ा।
इटली की सीमाओं को लाँघकर क्लासिकल नवजागृति १५वीं १६वीं सदी में ्फ्रांस में और १६वीं सदी में स्पेन, जर्मनी और इंग्लैंड में पहूंची। इस नवजाग्रति ने रोमन कैथोलिक चर्च के अंतर्गत यूरोप की एकसूत्रता भंगकर इन देशों की निजी प्रतिभा को उन्मुक्त किया। इसलिये इनमें से हर देश ने इस नई चेतना को अपने अपने साँचों में ढाला। धर्म, संस्कृति, साहित्य, कला, विज्ञान, शिक्षा, सभी पर इस जागृति की छाप पड़ी। इस आंदोलन के संदेश को इटली के अग्रणियों ने यूरोप के देशों में पहुंचाया और उसे ग्रहण करने के लिये यूरोप के देशों के अग्रणी इटली पहुँचे। इटली के लियोनार्दो दा विंसी और अलामन्नी ्फ्रांस और कास्तिग्लिओने स्पेन पहुंचे। पश्चिमी यूरोप से महान् धार्मिक नेता लूथर (१४८३-१५४६) और मेधावी मानवतावादी इरैस्मस (१४४६-६७-१५३६) इटली पहुंचे। ्फ्रांस के प्लेइया (Pleiad) के कवियों, जर्मनी के धर्मसुधार आंदोलन (रिफ़र्मेशन), स्पेन की लिरिक काव्यधारा, इंग्लैंड के एलिज़ाबेथयुगीन साहित्य की मूल प्रेरणा यही नवजागृति थी।
इस नवजागृति की विशेषता यह थी कि उसने जहाँ एक ओर अपने प्राचीन क्लासिकल आदर्श उपस्थित किए, वहां दूसरी ओर व्यक्ति की चेतना को मुक्तकर उसे प्रयोग और सृजन की नई दिशाओं में जाने का साहस भी दिया।
१७वीं और १८वीं सदियों में इन्हीं आदर्शो के रूढ़ि बन जाने के बाद इस रचनात्मक स्फूर्ति का भी लाप हो गया। प्राचीन क्लासिकों के प्रवाह को रीति के कुंड में बांध कर एक नए वाद ने जन्म लिया, जिसे नियोक्लासिसिज्म कहा जाता है। अक्सर ‘क्लासिसिज्म’ और ‘नियो-क्लासिसिज्म’ पर्याय के रूप में प्रयुक्त होते हैं, किंतु पुराने क्लासिकों के आदर्श और वाद में बंध जाने के बाद क्लासिसिज्म या नियो-क्लासिसिज्म के आदर्शो के भेद को समझना आवश्यक है।
क्लासिसिज्म या नियो-क्लासिसिज्म (रीतिवाद)
यूरोप मेंनियो क्लासिसिज्म को प्रतिष्ठित करने में मुख्य भूमिका १७वीं सदी के फ्रेंच साहित्यकारों और आलोचकों की थी, जिन्होंने १६वीं सदी के इतालवी आलोचकों द्वारा अरस्तु, होरेस आदि प्राचीन ग्रीक और रोमन साहित्यचिंतकों के सिद्धांतों पर किए गए मतैक्यहीन विचारविमर्श को कठोर व्यवस्थित और प्राय: निर्जीव रीति का रूप दे दिया। ्फ्रेंच आलोचनाशास्त्री प्राचीन ग्रीक और रोमन चिंतकों के पास सीधे न पहुंचकर अपनी रुचि के इतालवी आलोचनाशास्त्रियों के माध्यम से पहुँचे, जिसके फलस्वरूप उन्होंने काफी स्वच्छंदता के साथ प्राचीन क्लासिको, विशेषत: अरस्तू के सिद्धांतों पर अपनी रीति-अरीति आरोपित कर दी।
आलोचना में इस रीतिवाद का प्रथम महत्वपूर्ण प्रचारक मैलर्ब (१५५५-१६२८) हुआ। १६३० से १६६० के बीच इस रीतिवाद का प्रसार और भी हुआ। यह कार्य शाप्लें (१५९४-१६७४), ब्वायलो (१६३६-१७११), रापैं, ले बोस्सू इत्यादि के द्वारा संपन्न हुआ और इसमें उन्हें लुई के दरबार के संरक्षण में संस्थापित ्फ्रेंच अकादमी, देकार्त के बुद्धिवाद और कैथोलिक चर्च से प्रेरणा और समर्थन प्राप्त हुआ।
नियो-क्लासिकल आलोचनाशास्त्र का ध्यान कविता, जिसमें महाकाव्य और दु:खांत तथा सुखांत रूपक भी शामिल थे, की ओर हो गया। उसके कुछ साधारण सिद्धांत थे, जैसे, कविता का लक्ष्य मनोरंजन से अधिक नैतिक शिक्षा है; काव्यशास्त्र या रीति का ज्ञान प्रतिभा से अधिक आवश्यक है; रीति का अर्थ कलासिकों का अनुकरण है: काव्य की वस्तु में ‘सत्य’ सर्वोपरि है और सत्य का अर्थ है मानव द्वारा अनुभूत सार्वभौम सत्य; और कल्पना के उद्वेग के स्थान पर बौद्धिक संयम और संतुलन होना चाहिए; अभिव्यक्ति में स्पष्टता और लाघव होना चाहिए; रचनाविधान में व्यवस्था, अनुपान और संतुलन का सम्यक् निर्वाह होना चाहिए। संक्षेप में, इन साधारण नियमों की तीन धुरियाँ थी, बुद्धि, नीर-क्षीर-विवेक और कलात्मक अभिरूचि।
जहाँ तक काव्यरूपों का प्रश्न था, नियो-क्लासिकल आलोचना शास्त्रियों के अनुसार प्रत्येक रूप के विषय, लक्ष्य, प्रभाव और शैलियाँ प्राचीनों ने निश्चित कर दी थी। इसी आधार पर उन्होंने महाकाव्य और सुखांत नाटकों के रचनाविधान को रीतिबद्ध किया। उन्होंने दु:खांत में प्रहसन और प्रहसन में दु:खांत के तत्वों के सम्मिश्रण की निंदा की और काल, देश एवं घटना के संधित्रय को रूपक के रचनाविधान का केंद्रीय सिद्धांत माना।
नियो-क्लासिकल सिद्धांतों का गहरा असर तत्कालीन यूरोपीय साहित्य पर पड़ा क्योंकि १४वें लुई का ्फ्रांस यूरोप का सांस्कृतिक केंद्र था। १८वीं सदी का अंग्रेजी साहित्य नियो-क्लासिकल आदर्शो का प्रतिबिंब है।
स्पष्ट है कि प्राचीन ग्रीक और लातीनी क्लासिकों और रेनेसाँ के उनके अनुयायियों को नियो-क्लासिकल साहित्यकारों से एक नहीं किया जा सकता। एक ओर अन्वेषण या परंपरानुमोदित अन्वेषण है, दूसरी ओर इस अन्वेषण की उपलब्धि को रूढ़ि में बदल देने का प्रयत्न। टी. एस. ईलियट ने वर्जिल पर लिखे गए अपने लेख ‘ह्वाटइज़ क्लासिक’ में क्लासिसिज्म़ की जिन विशेषताओं का उल्लेख किया है वे संक्षिप्त रूप में इस प्रकार हैं: चिंतन और लोकव्यवहार की प्रौढ़ता की अभिव्यक्ति, इतिहास, परंपरा और सामाजिक नियति का बोध, भाषा या शैली में साधारणीकरण, दृष्टिकोण की उदार और व्यापक ग्रहणशीलता, सार्वभौमिकता। प्राचीन क्लासिकों ने अपना कार्य साहित्य, सामाजिक जीवन और चिंतन की महान् परंपराओं के संदर्भ से संपन्न किया। नियो-क्लासिकल साहित्यकारों में भी यह बोध था, किंतु उनके सामने ये महान् संदर्भ नहीं थे। नियो-क्लासिसिज्म ऐसे युग की उपज है जब समाज किसी विकास के दौर से गुजर कर जड़ता की स्थिति में आ जाता है, जब वह बंद गली के छोर पर पहुँचकर रुक जाता हैं। ऐसे समय साहित्य में वस्तु का स्थान गौण और रूप का स्थान प्रधान हो जाता है। यह रूपाशक्ति साहित्य में रूढ़ि या रीतिवाद की अत्यंत उर्वर भूमि है। यह आश्यर्च की बात नहीं कि पश्चिमी यूरोप के सांस्कृतिक संकट के इस युग में अंग्रेजी और अन्य साहित्य में निया-क्लासिसिज्म का पुनरूद्धार हुआ। आधुनिक अंग्रेजी कविता के प्रसिद्ध प्रवर्तक और सिद्धांतकार एजरा पाउंड टी. ई. हुल्श और टी. एस. ईलियट ने रेनेसाँ की मानवतावादी परंपरा के आधार पर विकसित रोमंटिक साहित्यधारा की तुलना में १८वीं सदी की नियो-क्लासिकल अंग्रेजी कविता को अधिक महत्व दिया है। हुल्श के अनुसार ‘मनुष्य असाधारण रूप से स्थित और सीमित जीवधारी है, जिसकी प्रकृति सर्वथा अपरिवर्तनीय है। केवल परंपरा और संगठन के द्वारा ही उसके हाथों किसी अच्छी चीज का निर्माण हो सकता है’। ‘मनुष्य अनंत संभावनाओं का स्रोत है’। -इस रोमंटिक आस्था को मानसिक व्याधि और इसलिये त्याज्य बतलाते हुए उसका कहना है: ‘मेरी भविष्यवाणी है कि शुष्क, कठोर, क्लासिकल कविता का युग आ रहा है’। जिसमें कल्पना से अधिक महत्व चित्रकौशल (फ़ैंसी) का होगा। इस प्रकार रोमांटिसिज्म और क्लासिसिज्म का संघर्ष केवल साहित्यिक संघर्ष ही नहीं बल्कि राजनीतिक और सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति प्रगति और रूढ़ि के दृष्टिकोणें का संघर्ष भी है।
भारतीय क्लासिक साहित्य
‘क्लासिक’ की रूढ़ परिभाषा के अंतर्गत यूनानी और रोमन साहित्य और उनके परिप्रेक्ष्य में यूरोपीय साहित्य की ही चर्चा ऊपर की गई है। उपर्युक्त साहित्य के संदर्भ में ह्यूम ने यह प्रश्न उठाया कि होमर आज से हजार-दो हजार साल पूर्व रोम और एथेंस पढ़े जाते थे और आज भी वे लंदन और पेरिस में पढ़े जाते हैं। अनेक विभिन्नताओं और परिवर्तनों के होते हुए भी आज तक उनका महत्व बना हुआ है इसका क्या कारण है? इस प्रश्न के उत्तर में यह अनुभव किया गया कि जो साहित्य काल की कसौटी पर खरा उतरे वही ‘क्लासिक' है। अतएव अब यह समझा जाने लगा है कि क्लासिक साहित्य वह है जिसमें जीवन के उन तत्वों का समावेश निश्चित रूप से हो जिनकी उपयोगिता और सार्थकता प्रत्येक युग और देश के लिये अपरिहार्य है।
भारतीय साहित्य को ‘क्लासिक’ की इसी परिभाषा की दृष्टि से देखा जा सकता है। इस दृष्टि से देखने पर रामायण और महाभारत तो क्लासिक की कोटि में आते ही हैं। संस्कृत के अनेक काव्यों और महाकाव्यों की गणना उसके अंतर्गत की जा सकती है। कालिदास का समग्र साहित्य अपने आप में क्लासिक है किंतु ‘रघुवंश’ और ‘अभिज्ञान शाकुतंल’ सर्वोपरि हैं।
हिंदी का साहित्यिक इतिहास अभी कुछ ही सौ बरसों का है। इस बीच जिस प्रकार का साहित्य रचा गया उसने अधिकांशत: संस्कृत के साहित्यशास्त्र के उन्हीं केंद्र बिंदुओं को अपनाया जिन्हें रस, ध्वनि, वक्रोक्ति, रीति और अलंकार कहते हैं। इस काल के लेखकों के प्रेरणास्रोत थे संस्कृत के ह्रासोन्मुख साहित्यिक आचार्य। अत: उस काल में ऐसा बहुत नहीं है जिसे क्लासिक कहा जाय। अकेले तुलसीदास के रामचरितमानस को इस कोटि में रखा जा सकता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने यों सूर और जायसी की रचनाओं का क्लासिक माना है। निओ-क्लासिक के रूप में प्रेमचंद के गोदान और जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ की गणना की जा सकती है।
श्रेणी:साहित्य | क्लासिक' शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग किस रोमन लेखक ने किया था? | औलस गेलियस | 261 | hindi |
4b6c63fe6 | मोहनदास करमचंद गांधी की हत्या 30 जनवरी 1948 की शाम को नई दिल्ली स्थित बिड़ला भवन में गोली मारकर की गयी थी। वे रोज शाम को प्रार्थना किया करते थे। 30 जनवरी 1948 की शाम को जब वे संध्याकालीन प्रार्थना के लिए जा रहे थे तभी नाथूराम गोडसे नाम के व्यक्ति ने पहले उनके पैर छुए और फिर सामने से उन पर बैरेटा पिस्तौल से तीन गोलियाँ दाग दीं। उस समय गान्धी अपने अनुचरों से घिरे हुए थे।
इस मुकदमे में नाथूराम गोडसे सहित आठ लोगों को हत्या की साजिश में आरोपी बनाया गया था। इन आठ लोगों में से तीन आरोपियों शंकर किस्तैया, दिगम्बर बड़गे, वीर सावरकर, में से दिगम्बर बड़गे को सरकारी गवाह बनने के कारण बरी कर दिया गया। शंकर किस्तैया को उच्च न्यायालय में अपील करने पर माफ कर दिया गया। वीर सावरकर के खिलाफ़ कोई सबूत नहीं मिलने की वजह से अदालत ने जुर्म से मुक्त कर दिया। बाद में सावरकर के निधन पर भारत सरकार ने उनके सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया।
और अन्त में बचे पाँच अभियुक्तों में से तीन - गोपाल गोडसे, मदनलाल पाहवा और विष्णु रामकृष्ण करकरे को आजीवन कारावास हुआ तथा दो- नाथूराम गोडसे व नारायण आप्टे को फाँसी दे दी गयी।
हत्या के दिन
बिड़ला भवन में शाम पाँच बजे प्रार्थना होती थी लेकिन गान्धीजी सरदार पटेल के साथ मीटिंग में व्यस्त थे। तभी सवा पाँच बजे उन्हें याद आया कि प्रार्थना के लिए देर हो रही है। 30 जनवरी 1948 की शाम जब बापू आभा और मनु के कन्धों पर हाथ रखकर मंच की तरफ बढ़े कि उनके सामने नाथूराम गोडसे आ गया। उसने हाथ जोड़कर कहा - "नमस्ते बापू!" गान्धी के साथ चल रही मनु ने कहा - "भैया! सामने से हट जाओ, बापू को जाने दो। बापू को पहले ही देर हो चुकी है।" लेकिन गोडसे ने मनु को धक्का दे दिया और अपने हाथों में छुपा रखी छोटी बैरेटा पिस्टल से गान्धी के सीने पर एक के बाद एक तीन गोलियाँ दाग दीं। दो गोली बापू के शरीर से होती हुई निकल गयीं जबकि एक गोली उनके शरीर में ही फँसी रह गयी। 78 साल के महात्मा गान्धी की हत्या हो चुकी थी। बिड़ला हाउस में गान्धी के शरीर को ढँककर रखा गया था। लेकिन जब उनके सबसे छोटे बेटे देवदास गान्धी वहाँ पहुँचे तो उन्होंने बापू के शरीर से कपड़ा हटा दिया ताकि दुनिया शान्ति और अहिंसा के पुजारी के साथ हुई हिंसा को देख सके।[1]
न्यायालय में नाथूराम गोडसे द्वारा दिये गये बयान के अनुसार जिस पिस्तौल से गान्धी जी को निशाना बनाया गया वह उसने दिल्ली में एक शरणार्थी से खरीदी थी।[2]
षड्यन्त्रकारी
गान्धी की हत्या करने के मामले में मुख्य अभियुक्त नाथूराम गोडसे सहित कुल आठ व्यक्तियों को आरोपी बनाकर मुकदमा चलाया गया था। उन सबके नाम इस प्रकार हैं:
वीर सावरकर, सबूत नहीं मिलने की वजह से अदालत ने जुर्म से मुक्त
शंकर किस्तैया, उच्च न्यायालय ने अपील करने पर छोड़ने का निर्णय दिया।
दिगम्बर बड़गे, सरकारी गवाह बनने के कारण बरी
गोपाल गौड़से, आजीवन कारावास हुआ
मदनलाल पाहवा, आजीवन कारावास हुआ
विष्णु रामकृष्ण करकरेआजीवन कारावास हुआ
नारायण आप्टे,फाँसी दे दी गयी
नाथूराम विनायक गोडसे फाँसी दे दी गयी और
पिछले प्रयास
बिड़ला भवन में प्रार्थना सभा के दौरान गान्धी पर 10 दिन पहले भी हमला हुआ था। मदनलाल पाहवा नाम के एक पंजाबी शरणार्थी ने गान्धी को निशाना बनाकर बम फेंका था लेकिन उस वक्त गान्धी बाल-बाल बच गये। बम सामने की दीवार पर फटा जिससे दीवार टूट गयी। गान्धी ने कभी नहीं सोचा होगा कि कोई उन्हें जान से मारना चाहता है। गान्धी ने दिल्ली में अपना पहला आमरण अनशन शुरू किया था जिसमें साम्प्रदायिक हिंसा को तत्काल समाप्त करने और पाकिस्तान को 50 करोड़ रुपये का भुगतान करने के लिये कहा गया था। गान्धी जी को डर था कि पाकिस्तान में अस्थिरता और असुरक्षा से भारत के प्रति उनका गुस्सा और बढ़ जायेगा तथा सीमा पर हिंसा फैल जायेगी। गान्धी की जिद को देखते हुए सरकार ने इस रकम का भुगतान कर दिया लेकिन हिन्दू संगठनों को लगा कि गान्धी जी मुसलमानों को खुश करने के लिये चाल चल रहे हैं। बम ब्लास्ट की इस घटना को गान्धी के इस फैसले से जोड़कर देखा गया।[3] नाथूराम इससे पहले भी बापू के हत्या की तीन बार (मई 1934 और सितम्बर 1944 में) कोशिश कर चुका था, लेकिन असफल होने पर वह अपने दोस्त नारायण आप्टे के साथ वापस बम्बई चला गया। इन दोनों ने दत्तात्रय परचुरे और गंगाधर दंडवते के साथ मिलकर बैरेटा (Beretta) नामक पिस्टल खरीदी। असलहे के साथ ये दोनों 29 जनवरी 1948 को वापस दिल्ली पहुँचे और दिल्ली स्टेशन के रिटायरिंग रूम नम्बर 6 में ठहरे।[1]
सरदार पटेल से आखिरी मुलाकात
देश को आजाद हुए अभी महज पाँच महीने ही बीते थे कि मीडिया में पण्डित नेहरू और सरदार पटेल के बीच मतभेदों की खबर आने लगी थी। गान्धी ऐसी खबरें सामने आने से बेहद दुखी थे और वे इसका जवाब देना चाहते थे। वह तो यहाँ तक चाहते थे कि वे स्वयं सरदार पटेल को इस्तीफा देने को कह दें ताकि नेहरू ही सरकार का पूरा कामकाज देखें। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। उन्होंने 30 जनवरी 1948 को पटेल को बातचीत के लिये चार बजे शाम को बुलाया और प्रार्थना खत्म होने के बाद इस मसले पर बातचीत करने को कहा। लेकिन नियति को यह मंजूर नहीं था। पटेल अपनी बेटी मणिबेन के साथ तय समय पर गांन्धी के पास पहुँच गये थे। पटेल के साथ मीटिंग के बाद प्रार्थना के लिये जाते समय गान्धी गोडसे की गोलियों का शिकार हो गये।[3]
सुरक्षा
गान्धी कहा करते थे कि उनकी जिन्दगी ईश्वर के हाथ में है और यदि उन्हें मरना हुआ तो कोई बचा नहीं सकता है। उन्होंने एक बार कहा था-"जो आज़ादी के बजाय सुरक्षा चाहते हैं उन्हें जीने का कोई हक नहीं है।" हालांकि बिड़ला भवन के गेट पर एक पहरेदार जरूर रहता था। तत्कालीन गृह मन्त्री सरदार पटेल ने एहतियात के तौर पर बिड़ला हाउस पर एक हेड कांस्टेबल और चार कांस्टेबलों की तैनाती के आदेश दिये थे। गान्धी की प्रार्थना के वक्त बिड़ला भवन में सादे कपड़ों में पुलिस तैनात रहती थी जो हर संदिग्ध व्यक्ति पर नजर रखती थी। हालांकि पुलिस ने सोचा कि एहतियात के तौर पर यदि प्रार्थना सभा में हिस्सा लेने के लिए आने वाले लोगों की तलाशी लेकर उन्हें बिड़ला भवन के परिसर में घुसने की इजाजत दी जाये तो बेहतर रहेगा। लेकिन गान्धी जी को पुलिस का यह आइडिया पसन्द नहीं आया। पुलिस के डीआईजी लेवल के एक अफसर ने भी गान्धी से इस बारे में बात की और कहा कि उनकी जान को खतरा हो सकता है लेकिन गान्धी नहीं माने।
बापू की हत्या के बाद नन्दलाल मेहता द्वारा दर्ज़ एफआईआर के मुताबिक़ उनके मुख से निकला अन्तिम शब्द 'हे राम' था। लेकिन स्वतन्त्रता सेनानी और गान्धी के निजी सचिव के तौर पर काम कर चुके वी० कल्याणम् का दावा है कि यह बात सच नहीं है।[3] उस घटना के वक़्त गान्धी के ठीक पीछे खड़े कल्याणम् ने कहा कि गोली लगने के बाद गान्धी के मुँह से एक भी शब्द निकलने का सवाल ही नहीं था। हालांकि गान्धी अक्सर कहा जरूर करते थे कि जब वह मरेंगे तो उनके होठों पर राम का नाम ही होगा। यदि वह बीमार होते या बिस्तर पर पड़े होते तो उनके मुँह से जरूर 'राम' निकलता। गान्धी की हत्या की जाँच के लिये गठित आयोग ने उस दिन राष्ट्रपिता के सबसे करीब रहे लोगों से पूछताछ करने की जहमत भी नहीं उठायी। फिर भी यह दुनिया भर में मशहूर हो गया कि गान्धी के मुँह से निकले आखिरी शब्द 'हे राम' थे। लेकिन इसे कभी साबित नहीं किया जा सका।[3] इस बात की भी कोई जानकारी नहीं मिलती कि गोली लगने के बावजूद उन्हें अस्पताल ले जाने के बजाय बिरला हाउस में ही वापस क्यों ले जाया गया?[1]
यह भी माना जाता है कि महात्मा गान्धी के एक पारिवारिक मित्र ने उनकी अस्थियाँ लगभग 62 साल तक गोपनीय जगह पर रखीं जिसे 30 जनवरी 2010 को डरबन के समुद्र में प्रवाहित किया गया।[1]
अधूरी रह गयी आइंस्टीन की ख्वाहिश
दुनिया को परमाणु क्षमता से रू-ब-रू कराने के बाद इसकी विध्वंसक शक्ति के दुरुपयोग की आशंका से परेशान अल्बर्ट आइंस्टीन अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी से मिलने को बेताब थे। परन्तु उनकी यह इच्छा पूरी नहीं हो सकी। अल्बानो मुलर के संकलन के अनुसार 1931 में बापू को लिखे एक पत्र में आइंस्टीन ने उनसे मिलने की इच्छा जताई थी। आइंस्टीन ने पत्र में लिखा था-"आपने अपने काम से यह साबित कर दिया है कि ऐसे लोगों के साथ भी अहिंसा के जरिये जीत हासिल की जा सकती है जो हिंसा के मार्ग को खारिज नहीं करते। मैं उम्मीद करता हूँ कि आपका उदाहरण देश की सीमाओं में बँधा नहीं रहेगा बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित होगा। मैं उम्मीद करता हूँ कि एक दिन मैं आपसे मुलाकात कर पाऊँगा।"[3]
आइंस्टीन ने बापू के बारे में लिखा है कि महात्मा गान्धी की उपलब्धियाँ राजनीतिक इतिहास में अद्भुत हैं। उन्होंने देश को दासता से मुक्त कराने के लिये संघर्ष का ऐसा नया मार्ग चुना जो मानवीय और अनोखा है। यह एक ऐसा मार्ग है जो पूरी दुनिया के सभ्य समाज को मानवता के बारे में सोचने को मजबूर करता है। उन्होंने लिखा कि हमें इस बात पर प्रसन्न होना चाहिये कि तकदीर ने हमें अपने समय में एक ऐसा व्यक्ति तोहफे में दिया जो आने वाली पीढ़ियों के लिये पथ प्रदर्शक बनेगा।[3]
कांग्रेस
कांग्रेस गान्धी को अपना आदर्श बताते नहीं थकती जबकि उसी पार्टी के लोग गान्धी के जीते जी उनका निरादर किया करते थे। बिहार के तत्कालीन गवर्नर मॉरिस हैलेट के एक नोट से यह बात साफ हो जाती है।[3]
"अगर मुझे किसी पागल आदमी की गोली से भी मरना हो तो मुझे मुस्कराते हुए मरना चाहिये। मेरे दिलो-जुबान पर सिर्फ़ भगवान का ही नाम होना चाहिये। और अगर ऐसा कुछ होता है तो तुम लोगों को आँसू का एक कतरा भी नहीं बहाना।" (अंग्रेजी: If I’m to die by the bullet of a mad man, I must do so smiling. God must be in my heart and on my lips. And if anything happens, you are not to shed a single tear.)—मोहनदास करमचन्द गान्धी 28 जनवरी 1948
पत्र
अपने सम्पूर्ण जीवनकाल में महात्मा गान्धी ने करीब 35 हजार पत्र लिखे। इन पत्रों में बापू अपने सहयोगियों, शिष्यों, मित्रों, सम्बन्धियों आदि को उनके छद्म नाम से सम्बोधित करते थे। मसलन, सरोजिनी नायडू को बापू "माई डियर पीसमेकर!", "सिंगर एंड गार्डियन ऑफ माई सोल!", "माई डियर फ्लाई!" आदि से सम्बोधित करते थे, जबकि राजकुमारी अमृत कौर को "माई डियर रेबल!" कहते थे। लियो टॉल्सटाय को बापू सर और एडोल्फ हिटलर व एल्बर्ट आइंस्टीन को "माई डियर फेंड!" कहते थे।[3]
कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गान्धी वॉल्यूम-54 के अनुसार महात्मा गान्धी ने आइंस्टीन के पत्र का जवाब 18 अक्टूबर 1931 को दिया था। जवाब में उन्होंने लिखा - "सुन्दरम् (गान्धी जी के दोस्त) के माध्यम से मुझे आपका सुन्दर पत्र मिला। मुझे इस बात की सन्तुष्टि मिली कि जो काम मैं कर रहा हूँ वह आपकी दृष्टि में सही है। मैं उम्मीद करता हूँ कि भारत में मेरे आश्रम में आपसे मेरी आमने सामने मुलाकात होगी।"[3]
नेहरू व पटेल भी दोषी
क्या यह दायित्व जवाहर लाल नेहरू जो देश के प्रधान मन्त्री थे, अथवा सरदार पटेल, जो गृह मन्त्री थे उनका नहीं था? आखिर 20 जनवरी 1948 को पाहवा द्वारा गान्धीजी की प्रार्थना-सभा में बम-विस्फोट के ठीक 10 दिन बाद उसी प्रार्थना सभा में उसी समूह के एक सदस्य नाथूराम गोडसे ने गान्धी के सीने में 3 गोलियाँ उतार कर उन्हें सदा सदा के लिये समाप्त कर दिया। हत्यारिन राजनीति[4] शीर्षक से लिखित एक कविता में यह सवाल ("साजिश का पहले-पहल शिकार सुभाष हुए, जिनको विमान-दुर्घटना में था मरवाया; फिर मत-विभेद के कारण गान्धी का शरीर, गोलियाँ दागकर किसने छलनी करवाया?") बहुत पहले इन्दिरा गान्धी की मृत्यु के पश्चात् सन् 1984[5][6] में ही उठाया गया था जो आज तक अनुत्तरित है।
मुकदमे का फैसला
इस मुकदमे में शंकर किस्तैया, गोपाल गौड़से, मदनलाल पाहवा, दिगम्बर बड़गे, नारायण आप्टे, वीर सावरकर, नाथूराम गोडसे और विष्णु रामकृष्ण करकरे कुल आठ लोगों को हत्या की साजिश में आरोपी बनाया गया था। इन आठ लोगों में से दिगम्बर बड़गे सरकारी गवाह बनने के कारण बरी कर दिया गया। वीर सावरकर के खिलाफ़ कोई सबूत नहीं जुटाया जा सका अत: उन्हें भी अदालत ने जुर्म से मुक्त कर दिया। शंकर किश्तैया को निचली अदालत से आजीवन कारावास का हुक्म हुआ था परन्तु बड़ी अदालत ने अपील करने पर उसकी सजा माफ कर दी।
और अन्त में बचे पाँच अभियुक्तों में से गोपाल गौड़से, मदनलाल पाहवा और विष्णु रामकृष्ण करकरे को आजीवन कारावास तथा नाथूराम गोडसे व नारायण आप्टे को फाँसी की सजा दी गयी।
बाहरी कड़ियाँ
- एफआईआर उर्दू में
- अंग्रेजी में (किरन बेदी)
- महात्मा की हत्या का प्रयास
- एक समाचार (द हिन्दू)
- हिन्दी विकीस्रोत पर
- हिन्दी में वेबदुनिया
इन्हें भी देखें
मदनलाल पाहवा
सन्दर्भ
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श्रेणी:1948 में हत्याएं
श्रेणी:1948 में भारत
श्रेणी:स्वतंत्र भारत
मोहनदास करमचंद गांधी की हत्या | महात्मा गाँधी की मृत्यु किस वर्ष में हुई थी? | 1948 | 39 | hindi |
86706c0f2 | भारत भारती, मैथिलीशरण गुप्तजी की प्रसिद्ध काव्यकृति है जो १९१२-१३ में लिखी गई थी। यह स्वदेश-प्रेम को दर्शाते हुए वर्तमान और भावी दुर्दशा से उबरने के लिए समाधान खोजने का एक सफल प्रयोग है। भारतवर्ष के संक्षिप्त दर्शन की काव्यात्मक प्रस्तुति "भारत-भारती" निश्चित रूप से किसी शोध कार्य से कम नहीं है। गुप्तजी की सृजनता की दक्षता का परिचय देनेवाली यह पुस्तक कई सामाजिक आयामों पर विचार करने को विवश करती है। भारतीय साहित्य में भारत-भारती सांस्कृतिक नवजागरण का ऐतिहासिक दस्तावेज है।
मैथिलीशरण गुप्त जिस काव्य के कारण जनता के प्राणों में रच-बस गए और 'राष्ट्रकवि' कहलाए, वह कृति भारत भारती ही है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में पहले पहल हिंदीप्रेमियों का सबसे अधिक ध्यान खींचने वाली पुस्तक भी यही है। इसकी लोकप्रियता का आलम यह रहा है कि इसकी प्रतियां रातोंरात खरीदी गईं। प्रभात फेरियों, राष्ट्रीय आंदोलनों, शिक्षा संस्थानों, प्रात:कालीन प्रार्थनाओं में भारत भारती के पद गांवों-नगरों में गाये जाने लगे। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सरस्वती पत्रिका में कहा कि यह काव्य वर्तमान हिंदी साहित्य में युगान्तर उत्पन्न करने वाला है। इसमें यह संजीवनी शक्ति है जो किसी भी जाति को उत्साह जागरण की शक्ति का वरदान दे सकती है। 'हम कौन थे क्या हो गये हैं और क्या होंगे अभी' का विचार सभी के भीतर गूंज उठा।
यह काव्य 1912 में रचा गया और संशोधनों के साथ 1914 में प्रकाशित हुआ। यह अपूर्व काव्य मौलाना हाली के 'मुसद्दस' के ढंग का है। राजा रामपाल सिंह और रायकृष्णदास इसकी प्रेरणा में हैं। भारत भारती की इसी परम्परा का विकास माखनलाल चतुर्वेदी, नवीन जी, दिनकर जी, सुभद्राकुमारी चौहान, प्रसाद-निराला जैसे कवियों में हुआ।
प्रयोजन
गुप्त जी ने 'भारत भारती' क्यों लिखी, इसका उत्तर उन्होने स्वयं 'भारत भारती' की प्रस्तावना में दिया है-
यह बात मानी हुई है कि भारत की पूर्व और वर्तमान दशा में बड़ा भारी अन्तर है। अन्तर न कहकर इसे वैपरीत्य कहना चाहिए। एक वह समय था कि यह देश विद्या, कला-कौशल और सभ्यता में संसार का शिरोमणि था और एक यह समय है कि इन्हीं बातों का इसमें शोचनीय अभाव हो गया है। जो आर्य जाति कभी सारे संसार को शिक्षा देती थी वही आज पद-पद पर पराया मुँह ताक रही है! ठीक है, जिसका जैसा उत्थान, उसका वैसा हीं पतन! परन्तु क्या हम लोग सदा अवनति में हीं पड़े रहेंगे? हमारे देखते-देखते जंगली जातियाँ तक उठकर हमसे आगे बढ जाएँ और हम वैसे हीं पड़े रहेंगे? क्या हम लोग अपने मार्ग से यहाँ तक हट गए हैं कि अब उसे पा हीं नहीं सकते? संसार में ऐसा कोई काम नहीं जो सचमुच उद्योग से सिद्ध न हो सके। परन्तु उद्योग के लिए उत्साह की आवश्यकता होती है। इसी उत्साह को, इसी मानसिक वेग को उत्तेजित करने के लिए कविता एक उत्तम साधन है। परन्तु बड़े खेद की बात है कि हम लोगों के लिए हिन्दी में अभी तक इस ढंग की कोई कविता-पुस्तक नहीं लिखी गई जिसमें हमारी प्राचीन उन्नति और अर्वाचीन अवनति का वर्णन भी हो और भविष्य के लिए प्रोत्साहन भी। इस अभाव की पूर्त्ति के लिए मैंने इस पुस्तक के लिखने का साहस किया।
ग्रंथ की संरचना
यह ग्रंथ तीन भागों में बाँटा गया है - अतीत खण्ड, वर्तमान खण्ड तथा भविष्यत् खण्ड।
अतीत खण्ड का मंगलाचरण द्रष्टव्य है -
मानस भवन में आर्यजन जिसकी उतारें आरतीं-
भगवान् ! भारतवर्ष में गूँजे हमारी भारती।
हो भद्रभावोद्भाविनी वह भारती हे भवगते।
सीतापते! सीतापते !! गीतामते! गीतामते !! ॥१॥
इसी प्रकार उपक्रमणिका भी अत्यन्त "सजीव" है-
हाँ, लेखनी ! हृत्पत्र पर लिखनी तुझे है यह कथा,
दृक्कालिमा में डूबकर तैयार होकर सर्वथा ॥१॥
स्वच्छन्दता से कर तुझे करने पड़ें प्रस्ताव जो,
जग जायँ तेरी नोंक से सोये हुए हों भाव जो। ॥२॥
संसार में किसका समय है एक सा रहता सदा,
हैं निशि दिवा सी घूमती सर्वत्र विपदा-सम्पदा।
जो आज एक अनाथ है, नरनाथ कल होता वही;
जो आज उत्सव मग्न है, कल शोक से रोता वही ॥३॥
इन्हें भी देखें
साकेत
जयद्रथ-वध
बाहरी कड़ियाँ
(भारतदर्शन)
(गूगल पुस्तक)
(सृजनगाथा)
(कविता कोश)
(जागरण)
(डॉ॰ राजकुमारी शर्मा)
श्रेणी:मैथिलीशरण गुप्त
श्रेणी:हिन्दी ग्रंथ
श्रेणी:हिन्दी साहित्य | 'भारत भारती'' काव्यरचना को कितने भागों में बाँटा गया है? | तीन | 2,677 | hindi |
8774f8485 | लक्षद्वीप (संस्कृत: लक्ष: लाख, + द्वीप) भारत के दक्षिण-पश्चिम में अरब सागर में स्थित एक भारतीय द्वीप-समूह है। इसकी राजधानी कवरत्ती है।
समस्त केन्द्र शासित प्रदेशों में लक्षद्वीप सब से छोटा है। लक्षद्वीप द्वीप-समूह की उत्तपत्ति प्राचीनकाल में हुए ज्वालामुखीय विस्फोट से निकले लावा से हुई है। यह भारत की मुख्यभूमि से लगभग 300 कि॰मी॰ दूर पश्चिम दिशा में अरब सागर में अवस्थित है।
लक्षद्वीप द्वीप-समूह में कुल 36 द्वीप है परन्तु केवल 7 द्वीपों पर जनजीवन है। देशी पयर्टकों को 6 द्वीपों पर जाने की अनुमति है जबकि विदेशी पयर्टकों को केवल 2 द्वीपों (अगाती व बंगाराम) पर जाने की अनुमति है।
मुख्य द्वीप
कठमठ
मिनीकॉय
कवरत्ती
बंगाराम
कल्पेनी
अगाती
अन्दरोत
अन्दरोत पर पयर्टकों को जाने की अनुमति नहीं है।
इन्हें भी देखें
द्वीपसमूह
श्रेणी:भारत के केन्द्र शासित प्रदेश
श्रेणी:भारत के द्वीपसमूह
श्रेणी:लक्षद्वीप
श्रेणी:अरब सागर के द्वीप
श्रेणी:एशिया के द्वीप
श्रेणी:भारत के एटोल | भारत का सबसे छोटा केंद्रशासित प्रदेश का क्या नाम है? | लक्षद्वीप | 0 | hindi |
a4bccea58 | २७ अगस्त २०१३ मुज़फ़्फ़र नगर जिले के कवाल गाँव में जाट -मुस्लिम हिंसा के साथ यह दंगा शुरू हुआ जिसके कारण अब तक ४३ जाने जा चुकी है और ९३ हताहत हुए हैं। १७ सितम्बर को दंगा प्रभावित हर स्थानों से कर्फ्यु हटा लिया गया और सेना वापस बुला ली गयी।[5]
शुरुआती झड़पें
जाट और मुस्लिम समुदाय के बीच २७ अगस्त २०१३ से प्रारंभ हुई। कवाल गाँव में कथित तौर पर एक जाट समुदाय लड़की के साथ एक मुस्लिम युवक की छेड़खानी के साथ यह मामला शुरू हुआ।[6] उसके बाद लड़की के परिवार के दो ममेरे भाइयों गौरव और सचिन ने शाहनवाज नाम के युवक को पीट-पीट कर मार डाला को मार डाला। उसके बाद मुस्लिमों ने दोनों युवकों को जान से मार डाला। इसके बाद पुलिस ने दोनों तरफ के लोगों को गिरफ्तार कर लिया। [7]
इस खबर के फैलते ही मुज़फ़्फ़र नगर, शामली, बागपत, सहारनपुर में दंगा फ़ैल गया।[8]
जनसभा
इसके दोनों तरफ से राजनीति शुरु हो गई। मारे गए दोनों जाटो युवकों के इंसाफ के लिए एक महापंचायत बुलाई गई। इसके बाद मुस्लिमों की तरफ से ३० अगस्त को हुई मुस्लिम महापंचायत हुई। उसके जवाब में हुई नंगला मंदौड़ में हुई महापंचायत में भारतीय जनता पार्टी के स्थानीय नेताओं पर यह आरोप लगा की उन्होंने जाट समुदाय को बदला लेने को उकसाया।इस महापंचायत में शान्तिपूर्ण प्रदर्शन किया गया। मुस्लिम बस्तियों से गुजरते हुए गोलियां चल रही थी। [9]
जौली नहर कांड
७ सितम्बर को दो समुदाय की हुई झड़प में महापंचायत से लौट रहे किसानों पर जौली नहर के पास दंगाइयों घात लगाकर हमला किया। दंगाइयों ने किसानों के १८ ट्रैक्टर और ३ मोटरसाइकिलें फूक दी। प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक उन लोगो ने शवों को नहर में फेक दिया। अब तक ६ शवों को ढूँढ लिया गया है इस दंगे में एक फोटोग्राफर और पत्रकार समेत ४३ लोगों की मौत हो चुकी है।[10]
कार्यवाही
दंगा फैलते ही शहर में कर्फ्यु लगा दिया गया और सेना के हवाले शहर कर दिया गया। १००० सेना के जवान, १०००० पी.ए.सी. के जवान, १३०० सी.आर.पी.एफ. के जवान और १२०० रैपिड एक्शन फोर्स के जवानों को शहर की स्थितियों पर नियंत्रण करने के लिए तैनात कर दिया गया।[11]
११ सितम्बर २०१३ तक लगभग १० से १२ लोगों को पुलिस ने गिरफ्तार किया। २३०० शस्त्र लाइसेंस रद्द किये और ७ लोगों पर रा.सु.का के अन्तर्गत मुकदमा दर्ज हुआ।[3]
जाँच
सत्रह लोगों पर प्राथमिकी दर्ज हुई जिसमे भाजपा और भारतीय किसान यूनियन के नेता शामिल है।[12] उत्तर प्रदेश सरकार ने सेवानिवृत्त जज विष्णु सहाय के नेतृत्व में एक समितीय न्यायिक कमिटी गठन की घोषणा की।[13] उत्तर प्रदेश सरकार ने ५ वरिष्ठ पुलिस अफसरों का मुज़फ्फरनगर से तबादला कर दिया।[14]
स्टिंग ऑपरेशन
चैनल आज तक के द्वारा कराये गए स्टिंग ऑपरेशन में दिखाया गया कि उत्तर प्रदेश के मंत्री आज़म खान के आदेश पर पुलिस अफसरों ने कई मुस्लिम समुदाय के दोषी लोगो को छोड़ दिया गया।[15] लेकिन आज़म खान ने इन आरोपों को ख़ारिज कर दिया।[16]
प्रतिक्रिया
विपक्षी दलों जैसे बहुजन समाज पार्टी,[17] भारतीय जनता पार्टी,[18] राष्ट्रीय लोकदल[19] और मुस्लिम संगठन जैसे जमात उलेमा-ए-हिंद[20] ने समाजवादी पार्टी की सरकार को बर्खास्त करके राष्ट्रपति शासन की माँग की।
गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने कहा कि गृह मंत्रालय ने उत्तर प्रदेश सरकार को पहले ही इस तरह की घटनाओं की चेतावनी दी थी।[21]
राजनितिक असर
आज़म खान की नाराजगी
वरिष्ठ समाजवादी पार्टी नेता और कबिना मंत्री आज़म खान पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक से गैर मौजूद रहे, जो कि आगरा में हो रही थी। सूत्रों के अनुसार वह मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से दंगों से निपटने में लाचारगी से नाराज थे।[22]
सोमपाल शास्त्री का मना करना
सोमपाल शास्त्री, जो कि बागपत लोक सभा क्षेत्र से सपा के उम्मीदवार थे, ने पार्टी के चिह्न पर लोकसभा लड़ने से इंकार कर दिया। उन्होंने कहा कि शामली, बागपत और मुज़फ़्फ़र नगर में फैली हिंसा दुर्भाग्यपूर्ण है।[23]
सरधना महापंचायत
यहाँ पर हुए दंगों में आरोपी विधायक संगीत सोम की गिरफ्तारी के विरोध में २९ सितम्बर २०१३ को मेरठ जिले की सरधना तहसील में महापंचायत का आयोजन किया गया। शासन द्वारा इस पर पहले से ही रोक लगा दी गई थी। इसमें शामिल होने आये लोगो पुलिस ने जबरन लाठियाँ बरसाई। इससे उत्तेजित भीड़ ने कमिश्नर, डीआईजी, डीएम और एसएसपी के वाहन फूँक डाले।[24]
सन्दर्भ
श्रेणी:भारत
श्रेणी:2013 | मुज़फ़्फ़र नगर दंगा कब से कब तक चला था? | २७ अगस्त २०१३ मुज़फ़्फ़र नगर जिले के कवाल गाँव में जाट -मुस्लिम हिंसा के साथ यह दंगा शुरू हुआ जिसके कारण अब तक ४३ जाने जा चुकी है और ९३ हताहत हुए हैं। १७ सितम्बर को दंगा प्रभावित हर स्थानों से कर्फ्यु हटा लिया गया और सेना वापस बुला ली गयी। | 0 | hindi |
71ffb15bf | सीवी रमन (तमिल: சந்திரசேகர வெங்கட ராமன்) (७ नवंबर, १८८८ - २१ नवंबर, १९७०) भारतीय भौतिक-शास्त्री थे। प्रकाश के प्रकीर्णन पर उत्कृष्ट कार्य के लिये वर्ष १९३० में उन्हें भौतिकी का प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार दिया गया। उनका आविष्कार उनके ही नाम पर रामन प्रभाव के नाम से जाना जाता है।[1] १९५४ ई. में उन्हें भारत सरकार द्वारा भारत रत्न की उपाधि से विभूषित किया गया तथा १९५७ में लेनिन शान्ति पुरस्कार प्रदान किया था।
परिचय
चन्द्रशेखर वेंकटरमन का जन्म ७ नवम्बर सन् १८८८ ई. में तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली नामक स्थान में हुआ था। आपके पिता चन्द्रशेखर अय्यर एस. पी. जी. कॉलेज में भौतिकी के प्राध्यापक थे। आपकी माता पार्वती अम्मल एक सुसंस्कृत परिवार की महिला थीं। सन् १८९२ ई. मे आपके पिता चन्द्रशेखर अय्यर विशाखापतनम के श्रीमती ए. वी.एन. कॉलेज में भौतिकी और गणित के प्राध्यापक होकर चले गए। उस समय आपकी अवस्था चार वर्ष की थी। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा विशाखापत्तनम में ही हुई। वहाँ के प्राकृतिक सौंदर्य और विद्वानों की संगति ने आपको विशेष रूप से प्रभावित किया।
शिक्षा
आपने बारह वर्ष की अल्पावस्था में ही मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी। तभी आपको श्रीमती एनी बेसेंट के भाषण सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उनके लेख पढ़ने को मिले। आपने रामायण, महाभारत जैसे धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन किया। इससे आपके हृदय पर भारतीय गौरव की अमिट छाप पड़ गई। आपके पिता उच्च शिक्षा के लिए विदेश भेजने के पक्ष में थे; किन्तु एक ब्रिटिश डॉक्टर ने आपके स्वास्थ्य को देखते हुए विदेश न भेजने का परामर्श दिया। फलत: आपको स्वदेश में ही अध्ययन करना पड़ा। आपने सन् १९०३ ई. में चेन्नै के प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रवेश ले लिया। यहाँ के प्राध्यापक आपकी योग्यता से इतने प्रभावित हुए कि आपको अनेक कक्षाओं में उपस्थित होने से छूट मिल गई। आप बी.ए. की परीक्षा में विश्वविद्यालय में अकेले ही प्रथम श्रेणी में आए। आप को भौतिकी में स्वर्णपदक दिया गया। आपको अंग्रेजी निबंध पर भी पुरस्कृत किया गया। आपने १९०७ में मद्रास विश्वविद्यालय से गणित में प्रथम श्रेणी में एमए की डिग्री विशेष योग्यता के साथ हासिल की। आपने इस में इतने अंक प्राप्त किए थे, जितने पहले किसी ने नहीं लिए थे।[2]
युवा विज्ञानी
आपने शिक्षार्थी के रूप में कई महत्त्वपूर्ण कार्य किए। सन् १९०६ ई. में आपका प्रकाश विवर्तन पर पहला शोध पत्र लंदन की फिलसोफिकल पत्रिका में प्रकाशित हुआ। उसका शीर्षक था - 'आयताकृत छिद्र के कारण उत्पन्न असीमित विवर्तन पट्टियाँ'। जब प्रकाश की किरणें किसी छिद्र में से अथवा किसी अपारदर्शी वस्तु के किनारे पर से गुजरती हैं तथा किसी पर्दे पर पड़ती हैं, तो किरणों के किनारे पर मद-तीव्र अथवा रंगीन प्रकाश की पट्टियां दिखाई देती है। यह घटना `विवर्तन' कहलाती है। विवर्तन गति का सामान्य लक्षण है। इससे पता चलता है कि प्रकाश तरगों में निर्मित है।
वृत्ति एवं शोध
उन दिनों आपके समान प्रतिभाशाली व्यक्ति के लिए भी वैज्ञानिक बनने की सुविधा नहीं थी। अत: आप भारत सरकार के वित्त विभाग की प्रतियोगिता में बैठ गए। आप प्रतियोगिता परीक्षा में भी प्रथम आए और जून, १९०७ में आप असिस्टेंट एकाउटेंट जनरल बनकर कलकत्ते चले गए। उस समय ऐसा प्रतीत होता था कि आपके जीवन में स्थिरता आ गई है। आप अच्छा वेतन पाएँगे और एकाउँटेंट जनरल बनेंगे। बुढ़ापे में उँची पेंशन प्राप्त करेंगे। पर आप एक दिन कार्यालय से लौट रहे थे कि एक साइन बोर्ड देखा, जिस पर लिखा था 'वैज्ञानिक अध्ययन के लिए भारतीय परिषद (इंडियन अशोसिएशन फार कल्टीवेशन आफ़ साईंस)'। मानो आपको बिजली का करेण्ट छू गया हो। तभी आप ट्राम से उतरे और परिषद् कार्यालय में पहुँच गए। वहाँ पहुँच कर अपना परिचय दिया और परिषद् की प्रयोगशाला में प्रयोग करने की आज्ञा पा ली।
तत्पश्चात् आपका तबादला पहले रंगून को और फिर नागपुर को हुआ। अब आपने घर में ही प्रयोगशाला बना ली थी और समय मिलने पर आप उसी में प्रयोग करते रहते थे। सन् १९११ ई. में आपका तबादला फिर कलकत्ता हो गया, तो यहाँ पर परिषद् की प्रयोगशाला में प्रयोग करने का फिर अवसर मिल गया। आपका यह क्रम सन् १९१७ ई. में निर्विघ्न रूप से चलता रहा। इस अवधि के बीच आपके अंशकालिक अनुसंधान का क्षेत्र था - ध्वनि के कम्पन और कार्यों का सिद्धान्त। आपका वाद्यों की भौतिकी का ज्ञान इतना गहरा था कि सन् १९२७ ई. में जर्मनी में प्रकाशित बीस खण्डों वाले भौतिकी विश्वकोश के आठवें खण्ड के लिए वाद्ययंत्रों की भौतिकी का लेख आपसे तैयार करवाया गया। सम्पूर्ण भौतिकी कोश में आप ही ऐसे लेखक हैं जो जर्मन नहीं है।
कलकत्ता विश्वविद्यालय में सन् १९१७ ई में भौतिकी के प्राध्यापक का पद बना तो वहाँ के कुलपति आशुतोष मुखर्जी ने उसे स्वीकार करने के लिए आपको आमंत्रित किया। आपने उनका निमंत्रण स्वीकार करके उच्च सरकारी पद से त्याग-पत्र दे दिया।
कलकत्ता विश्वविद्यालय में आपने कुछ वर्षों में वस्तुओं में प्रकाश के चलने का अध्ययन किया। इनमें किरणों का पूर्ण समूह बिल्कुल सीधा नहीं चलता है। उसका कुछ भाग अपनी राह बदलकर बिखर जाता है। सन् १९२१ ई. में आप विश्वविद्यालयों की कांग्रेस में प्रतिनिधि बन गए आक्सफोर्ड गए। वहां जब अन्य प्रतिनिधि लंदन में दर्शनीय वस्तुओं को देख अपना मनोरंजन कर रहे थे, वहाँ आप सेंट पाल के गिरजाघर में उसके फुसफुसाते गलियारों का रहस्य समझने में लगे हुए थे। जब आप जलयान से स्वदेश लौट रहे थे, तो आपने भूमध्य सागर के जल में उसका अनोखा नीला व दूधियापन देखा। कलकत्ता विश्वविद्यालय पहुँच कर आपने पार्थिव वस्तुओं में प्रकाश के बिखरने का नियमित अध्ययन शुरु कर दिया। इसके माध्यम से लगभग सात वर्ष उपरांत, आप अपनी उस खोज पर पहुँचें, जो 'रामन प्रभाव' के नाम से विख्यात है। आपका ध्यान १९२७ ई. में इस बात पर गया कि जब एक्स किरणें प्रकीर्ण होती हैं, तो उनकी तरंग लम्बाइया बदल जाती हैं। तब प्रश्न उठा कि साधारण प्रकाश में भी ऐसा क्यों नहीं होना चाहिए?
आपने पारद आर्क के प्रकाश का स्पेक्ट्रम स्पेक्ट्रोस्कोप में निर्मित किया। इन दोनों के मध्य विभिन्न प्रकार के रासायनिक पदार्थ रखे तथा पारद आर्क के प्रकाश को उनमें से गुजार कर स्पेक्ट्रम बनाए। आपने देखा कि हर एक स्पेक्ट्रम में अन्तर पड़ता है। हरएक पदार्थ अपनी-अपनी प्रकार का अन्तर डालता है। तब श्रेष्ठ स्पेक्ट्रम चित्र तैयार किए गए, उन्हें मापकर तथा गणित करके उनकी सैद्धान्तिक व्याख्या की गई। प्रमाणित किया गया कि यह अन्तर पारद प्रकाश की तरगं लम्बाइयों में परिवर्तित होने के कारण पड़ता है। रामन् प्रभाव का उद्घाटन हो गया। आपने इस खोज की घोषणा २९ फ़रवरी सन् १९२८ ई. को की।
सम्मान
आप सन् १९२४ ई. में अनुसंधानों के लिए रॉयल सोसायटी, लंदन के फैलो बनाए गए। रामन प्रभाव के लिए आपको सन् १९३० ई. मे नोबेल पुरस्कार दिया गया। रामन प्रभाव के अनुसंधान के लिए नया क्षेत्र खुल गया।
१९४८ में सेवानिवृति के बाद उन्होंने रामन् शोध संस्थान की बैंगलोर में स्थापना की और इसी संस्थान में शोधरत रहे। १९५४ ई. में भारत सरकार द्वारा भारत रत्न की उपाधि से विभूषित किया गया। आपको १९५७ में लेनिन शान्ति पुरस्कार भी प्रदान किया था।
२८ फरवरी १९२८ को चन्द्रशेखर वेंकट रामन् ने रामन प्रभाव की खोज की थी जिसकी याद में भारत में इस दिन को प्रत्येक वर्ष 'राष्ट्रीय विज्ञान दिवस' के रूप में मनाया जाता है।
सन्दर्भ
इन्हें भी देखें
रामन् प्रभाव
रामन अनुसन्धान संस्थान, बंगलुरु
इण्डियन एसोसियेशन फॉर द कल्टिवेशन ऑफ साईन्स
राष्ट्रीय विज्ञान दिवस
नोबेल पुरस्कार विजेताओं की सूची
बाहरी कड़ियाँ
श्रेणी:नोबेल पुरस्कार विजेता भौतिक विज्ञानी
श्रेणी:भारतीय वैज्ञानिक
श्रेणी:हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना
श्रेणी:भारत रत्न सम्मान प्राप्तकर्ता
श्रेणी:1888 में जन्मे लोग
श्रेणी:१९७० में निधन | चंद्रशेखर वेंकट रमन के पिता कौन थे? | चन्द्रशेखर अय्यर एस. पी. जी. | 529 | hindi |
c3ad4d7c1 | नेस्ले या Nestlé S.A. एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी है, जो डिब्बाबंद खाद्य उत्पादों का उत्पादन करती है। कम्पनी का मुख्यालय स्विटज़रलैंड के वेवे शहर मे स्थित है। कम्पनी का सालाना कारोबार लगभग ८७ अरब स्विस फ्रेंक का है। कम्पनी SWX स्विस एक्सचेंज में सूचीबद्ध है। सन १९०५ मे कम्पनी की स्थापना, एंग्लो-स्विस मिल्क कम्पनी जो एक दुग्ध-उत्पाद कम्पनी थी और फरीन लैक्टी हेनरी नेस्ले कम्पनी जो शिशु आहार बनाती थी, के विलय का परिणाम थी। दोने विश्वयुद्धों ने इसके व्यापार को प्रभावित किया जहां पहले विश्व युद्ध के दौरान इसके द्वारा प्रसंस्कृत शुष्क दूध की बिक्री बढ़ गयी वहीं दूसरे विश्व युद्ध के दौरान इसका लाभ ७०% तक गिर गया। इसकी तत्क्षण कॉफी नेस्कॅफे की बिक्री को अमेरिकी सेना के प्रयोग ने काफी बढा़ दिया। युद्धों के बाद नेस्ले ने अपना आधार बढा़या और कई प्रसिद्ध ब्रांडों का अधिग्रहण किया, अब इसके ब्रांडों मे मैगी और नेस्कॅफे जैसे विश्वप्रसिद्ध ब्रांड हैं। यह विश्व की सबसे बड़ी खाद्य प्रसंस्करण कम्पनी है, इसके बाद क्राफ्ट फूड दूसरे स्थान पर है।[2]
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ | नेस्ले कंपनी का मुख्यालय कहाँ स्थित है? | स्विटज़रलैंड के वेवे शहर | 116 | hindi |
324eaf048 | महर्षि डॉ॰ धोंडो केशव कर्वे जन्म तारीख: अप्रेल १८, १८५८ म्रुत्यु तारीख: नवंबर ९, १९६२ प्राध्यापक और समाज सुधारक
महर्षि डॉ॰ धोंडो केशव कर्वे (अप्रेल १८, १८५८ - नवंबर ९, १९६२) प्रसिद्ध समाज सुधारक थे। उन्होने महिला शिक्षा और विधवा विवाह मे महत्त्वपूर्ण योगदान किया। उन्होने अपना जीवन महिला उत्थान को समर्पित कर दिया। उनके द्वारा मुम्बई में स्थापित एस एन डी टी महिला विश्वविघालय भारत का प्रथम महिला विश्वविघालय है। वे वर्ष १८९१ से वर्ष १९१४ तक पुणे के फरगुस्सन कालेज में गणित के अध्यापक थे। उन्हे वर्ष १९५८ में भारत रत्न से सम्मनित किया गया।
जीवनी
उनका जन्म महाराष्ट्र के मुरुड नामक कस्बे (शेरावाली, जिला रत्नागिरी), मे एक गरीब परिवार में हुआ था। पिता का नाम केशवपंत और माता का लक्ष्मीबाई। आरंभिक शिक्षा मुरुड में हुई। पश्चात् सतारा में दो ढाई वर्ष अध्ययन करके मुंबई के राबर्ट मनी स्कूल में दाखिल हुए। 1884 ई. में उन्होंने मुंबई विश्वविद्यालय से गणित विषय लेकर बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। बी.ए. करने के बाद वे एलफिंस्टन स्कूल में अध्यापक हो गए। कर्वे का विवाह 15 वर्ष की आयु में ही हो गया था और बी.ए. पास करने तक उनके पुत्र की अवस्था ढाई वर्ष हो चुकी थी। अत: खर्च चलाने के लिए स्कूल की नौकरी के साथ-साथ लड़कियों के दो हाईस्कूलों में वे अंशकालिक काम भी करते थे। गोपालकृष्णन गोखले के निमंत्रण पर 1891 ई. में वे पूना के प्रख्यात फ़र्ग्युसन कालेज में प्राध्यापक बन गए। यहाँ लगातार 23 वर्ष तक सेवा करने के उपरांत 1914 ई. में उन्होंने अवकाश ग्रहण किया।
भारत में हिंदू विधवाओं की दयनीय और शोचनीय दशा देखकर कर्वे, मुंबई में पढ़ते समय ही, विधवा विवाह के समर्थक बन गए थे। उनकी पत्नी का देहांत भी उनके मुंबई प्रवास के बीच हो चुका था। अत: 11 मार्च 1893 ई. को उन्होंने गोड़बाई नामक विधवा से विवाह कर, विधवा विवाह संबंधी प्रतिबंध को चुनौती दी। इसके लिए उन्हें घोर कष्ट सहने पड़े। मुरुड में उन्हें समाजबहिष्कृत घोषित कर दिया गया। उनके परिवार पर भी प्रतिबंध लगाए गए। कर्वे ने "विधवा विवाह संघ" की स्थापना की। किंतु शीघ्र ही उन्हें पता चल गया कि इक्के-दुक्के विधवा विवाह करने अथवा विधवा विवाह का प्रचार करने से विधवाओं की समस्या हल होनेवाली नहीं है। अधिक आवश्यक यह है कि विधवाओं को शिक्षित बनाकर उन्हें अपने पैरों पर खड़ा किया जाए ताकि वे सम्मानपूर्ण जीवन बिता सकें। अत: 1896 ई. में उन्होंने "अनाथ बालिकाश्रम एसोसिएशन" बनाया और जून, 1900 ई. में पूना के पास हिंगणे नामक स्थान में एक छोटा सा मकान बनाकर "अनाथ बालिकाश्रम" की स्थापना की गई। 4 मार्च 1907 ई. को उन्होंने "महिला विद्यालय" की स्थापना की जिसका अपना भवन 1911 ई. तक बनकर तैयार हो गया।
काशी के बाबू शिवप्रसाद गुप्त जापान गए थे और वहाँ के महिला विश्वविद्यालय से बहुत प्रभावित हुए थे। जापान से लौटने पर 1915 ई. में गुप्त जी ने उक्त महिला विश्वविद्यालय से संबंधित एक पुस्तिका कर्वे को भेजी। उसी वर्ष दिसंबर में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का बंबई में अधिवेशन हुआ। कांग्रेस अधिवेशन के साथ ही "नैशनल सोशल कानफ़रेंस" का अधिवेशन होना था जिसके अध्यक्ष महर्षि कर्वे चुने गए। गुप्त जी द्वारा प्रेषित पुस्तिका से प्रेरणा पाकर कर्वे ने अपने अध्यक्षीय भाषण का मुख्य विषय "महाराष्ट्र में महिला विश्वविद्यालय" को बनाया। महात्मा गांधी ने भी महिला विश्वविद्यालय की स्थापना और मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा देने के विचार का स्वागत किया। फलस्वरूप 1916 ई. में, कर्वे के अथक प्रयासों से, पूना में महिला विश्वविद्यालय की नींव पड़ी, जिसका पहला कालेज "महिला पाठशाला" के नाम से 16 जुलाई 1916 ई. को खुला। महर्षि कर्वे इस पाठशाला के प्रथम प्रिंसिपल बने। लेकिन धन की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए, उन्होंने अपना पद त्याग दिया और धनसंग्रह के लिए निकल पड़े। चार वर्ष में ही सारे खर्च निकालकर उन्होंने विश्वविद्यालय के कोष में दो लाख 16 हजार रुपए से अधिक धनराशि जमा कर दी। इसी बीच बंबई के प्रसिद्ध उद्योगपति सर विठ्ठलदास दामोदर ठाकरसी ने इस विश्वविद्यालय को 15 लाख रुपए दान दिए। अत: विश्वविद्यालय का नाम श्री ठाकरसी की माता के नाम पर "श्रीमती नत्थीबाई दामोदर ठाकरसी (एस.एन.डी.टी.) विश्वविद्यालय रख दिया गया और कुछ वर्ष बाद इसे पूना से मुंबई स्थानांतरित कर दिया गया। 70 वर्ष की आयु में कर्वे उक्त विश्वविद्यालय के लिए धनसंग्रह करने यूरोप, अमरीका और अफ्रीका गए।
सन् 1936 ई. में गांवों में शिक्षा के प्रचार के लिए कर्वे ने "महाराष्ट्र ग्राम प्राथमिक शिक्षा समिति" की स्थापना की, जिसने धीरे-धीरे विभिन्न गाँवों में 40 प्राथमिक विद्यालय खोले। स्वतंत्रताप्राप्ति के बाद यह कार्य राज्य सरकार ने सँभाल लिया।
सन् 1915 ई. में कर्वे द्वारा मराठी भाषा में रचित "आत्मचरित" नामक पुस्तक प्रकाशित हो चुकी थी। 1942 ई. में काशी हिंदू विश्वविद्यालय ने उन्हें डॉ॰ लिट्. की उपाधि प्रदान की। 1954 ई. में उनके अपने महिला विश्वविद्यालय ने उन्हें एल.एल.डी. की उपाधि दी। 1955 ई. में भारत सरकार ने उन्हें "पद्मविभूषण" से अलंकृत किया और 100 वर्ष की आयु पूरी हो जाने पर, 1957 ई. में मुंबई विश्वविद्यालय ने उन्हें एल.एल.डी. की उपाधि से सम्मानित किया। 1958 ई. में भारत के राष्ट्रपति ने उन्हें देश के सर्वोच्च सम्मान "भारतरत्न" से विभूषित किया। भारत सरकार के डाक तार विभाग ने इनके सम्मान में एक डाक टिकट निकालकर इनके प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट की थी। देशवासी आदर से उन्हें महर्षि कहते थे1 9 नवम्बर 1962 ई. को 104 वर्ष की आयु में "महर्षि" कर्वे का शरीरांत हो गया।
श्रेणी:१८५८ जन्म
श्रेणी:१९६२ में निधन
श्रेणी:भारत रत्न सम्मान प्राप्तकर्ता | महर्षि डॉ॰ धोंडो केशव कर्वे के पिता का क्या नाम था? | केशवपंत | 660 | hindi |
9fef585c9 | इमरान ख़ान नियाजी (Urdu: عمران خان نیازی; जन्म 25 नवम्बर 1952) एक पाकिस्तानी राजनीतिज्ञ तथा वर्तमान पाकिस्तान के प्रधानमंत्री और सेवानिवृत्त पाकिस्तानी क्रिकेटर हैं।[5] उन्होंने पाकिस्तानी आम चुनाव, २०१८ में बहुमत जीता।[6] वह 2013 से 2018 तक पाकिस्तान की नेशनल असेंबली के सदस्य थे, जो सीट 2013 के आम चुनावों में जीती थीं। इमरान बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध के दो दशकों में अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट खेला और 1990 के दशक के मध्य से राजनीतिज्ञ हो गए।[7] वर्तमान में, अपनी राजनीतिक सक्रियता के अलावा, ख़ान एक धर्मार्थ कार्यकर्ता और क्रिकेट कमेंटेटर भी हैं।
ख़ान, 1971-1992 तक पाकिस्तानी क्रिकेट टीम के लिए खेले और 1982 से 1992 के बीच, आंतरायिक कप्तान रहे। 1987 के विश्व कप के अंत में, क्रिकेट से संन्यास लेने के बाद, उन्हें टीम में शामिल करने के लिए 1988 में दुबारा बुलाया गया। 39 वर्ष की आयु में ख़ान ने पाकिस्तान की प्रथम और एकमात्र विश्व कप जीत में अपनी टीम का नेतृत्व किया।[8]
उन्होंने टेस्ट क्रिकेट में 3,807 रन और 362 विकेट का रिकॉर्ड बनाया है, जो उन्हें 'आल राउंडर्स ट्रिपल' हासिल करने वाले छह विश्व क्रिकेटरों की श्रेणी में शामिल करता है।[9]
अप्रैल 1996 में ख़ान ने पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (न्याय के लिए आंदोलन) नाम की एक छोटी और सीमांत राजनैतिक पार्टी की स्थापना की और उसके अध्यक्ष बने और जिसके वे संसद के लिए निर्वाचित केवल एकमात्र सदस्य हैं।[10] उन्होंने नवंबर 2002 से अक्टूबर 2007 तक नेशनल असेंबली के सदस्य के रूप में मियांवाली का प्रतिनिधित्व किया।[11] ख़ान ने दुनिया भर से चंदा इकट्ठा कर, 1996 में शौकत ख़ानम मेमोरियल कैंसर अस्पताल और अनुसंधान केंद्र और 2008 में मियांवाली नमल कॉलेज की स्थापना में मदद की।
परिवार, शिक्षा और व्यक्तिगत जीवन
इमरान ख़ान, शौकत ख़ानम और इकरमुल्लाह खान नियाज़ी की संतान हैं, जो लाहौर में एक सिविल इंजीनियर थे। ख़ान, जो अपने युवावस्था में एक शांत और शर्मीली लड़के थे, एक मध्यम वर्गीय परिवार में अपनी चार बहनों के साथ पले-बढे.[12] पंजाब में बसे ख़ान के पिता, मियांवाली के पश्तून नियाज़ी शेरमनखेल जनजाति के वंशज थे।[13] उनकी माता के परिवार में जावेद बुर्की और माजिद ख़ान जैसे सफल क्रिकेटर शामिल हैं।[13] ख़ान ने लाहौर में ऐचीसन कॉलेज, कैथेड्रल स्कूल और इंग्लैंड में रॉयल ग्रामर स्कूल वर्सेस्टर में शिक्षा ग्रहण की, जहां क्रिकेट में उनका प्रदर्शन उत्कृष्ट था। 1972 में, उन्होंने केबल कॉलेज, ऑक्सफोर्ड में दर्शन, राजनीति और अर्थशास्त्र के अध्ययन के लिए दाखिला लिया, जहां उन्होंने राजनीति में दूसरी श्रेणी से और अर्थशास्त्र में तीसरी श्रेणी से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। [14]
16 मई, 1995 को, ख़ान ने अंग्रेज़ उच्च-वर्गीय, रईस जेमिमा गोल्डस्मिथ के साथ विवाह किया, जिसने पेरिस में दो मिनट के इस्लामी समारोह में अपना धर्म परिवर्तन किया। एक महीने बाद, 21 जून को, उन्होंने फिर से इंग्लैंड में रिचमंड रजिस्टर कार्यालय में एक नागरिक समारोह में शादी की, उसके तुरंत बाद गोल्डस्मिथ के सरी में स्थित घर पर स्वागत समारोह का आयोजन किया गया।[15] इस शादी से, जिसे ख़ान ने "कठिन" परिभाषित किया,[13] सुलेमान ईसा (18 नवम्बर 1996 को जन्म) और कासिम (10 अप्रैल, 1999 को जन्म), दो पुत्र हुए.[13] अपनी शादी के समझौते के अनुसार, ख़ान वर्ष के चार महीने इंग्लैंड में व्यतीत करते थे। 22 जून, 2004 को यह घोषणा की गई कि ख़ान दंपत्ति ने तलाक़ ले लिया है, क्योंकि "जेमिमा के लिए पाकिस्तानी जीवन को अपनाना मुश्किल था।"[16]
ख़ान, अब बनी गाला, इस्लामाबाद में रहते हैं जहां उन्होंने अपने लंदन फ्लैट की बिक्री से प्राप्त धन से एक फ़ार्म-हाउस का निर्माण किया है। छुट्टियों के दौरान उनके पास आने वाले दोनों बेटों के लिए एक क्रिकेट मैदान का रख-रखाव करने के साथ-साथ, वे फलों के वृक्ष और गेहूं का उत्पादन भी करते हैं और गायों को पालते हैं।[13] खबरों के अनुसार ख़ान, कथित रूप से उनकी नाजायज़ बेटी, टीरियन जेड ख़ान-व्हाइट के साथ भी नियमित संपर्क में रहते हैं, जिसे उन्होंने सार्वजनिक रूप से कभी स्वीकार नहीं किया।[17]
क्रिकेट कॅरियर
ख़ान ने लाहौर में सोलह साल की उम्र में प्रथम श्रेणी क्रिकेट में एक फीके प्रदर्शन के साथ शुरूआत की। 1970 के दशक के आरंभ से ही उन्होंने अपनी घरेलू टीमों, लाहौर A (1969-70), लाहौर B(1969-70), लाहौर ग्रीन्स (1970-71) और अंततः, लाहौर (1970-71) से खेलना शुरू कर दिया। [18] ख़ान 1973-75 सीज़न के दौरान ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की ब्लूज़ क्रिकेट टीम का हिस्सा थे।[14] वोर्सेस्टरशायर में, जहां उन्होंने 1971 से 1976 तक काउंटी क्रिकेट खेला, उनको सिर्फ़ एक औसत मध्यम तेज़ गेंदबाज के रूप में माना जाता था। इस दशक की ख़ान के प्रतिनिधित्व वाली दूसरी टीमों में शामिल हैं दाऊद इंडस्ट्रीज (1975-76) और पाकिस्तान इंटरनेशनल एयरलाइंस (1975-76 से 1980-81).1983 से 1988 तक, वह ससेक्स के लिए खेले।[9]
1971 में, ख़ान ने बर्मिंघम में इंग्लैंड के खिलाफ़ अपने टेस्ट क्रिकेट का शुभारंभ किया। तीन साल बाद, उन्होंने एक दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय (ODI) मैच का श्री गणेश एक बार फिर नॉटिंघम में प्रूडेंशियल ट्राफ़ी के लिए इंग्लैंड के खिलाफ़ खेल कर किया। ऑक्सफोर्ड से स्नातक बनने और वोर्सेस्टरशायर में अपना कार्यकाल खत्म करने के बाद, वे 1976 में पाकिस्तान लौटे और अपनी देशी राष्ट्रीय टीम में 1976-77 सत्र के आरंभ में ही उन्होंने एक स्थायी स्थान सुरक्षित कर लिया, जिसके दौरान उनको न्यूज़ीलैंड और ऑस्ट्रेलिया का सामना करना पड़ा.[18] ऑस्ट्रेलियाई सीरीज़ के बाद, वे वेस्ट इंडीज के दौरे पर गए, जहां वे टोनी ग्रेग से मिले, जिन्होंने उनको केरी पैकर के 'वर्ल्ड सीरीज़ क्रिकेट' के लिए हस्ताक्षरित किया[9] .उनकी पहचान विश्व के एक तेज़ गेंदबाज़ के रूप में तब बननी शुरू हुई जब 1978 में पर्थ में आयोजित एक तेज़ गेंदबाज़ी समारोह में उन्होंने 139.7km/h की रफ्तार से गेंद फेंकते हुए, जेफ़ थॉमप्सन और माइकल होल्डिंग के पीछे तीसरा स्थान प्राप्त किया, मगर डेनिस लिली, गार्थ ले रौक्स और एंडी रॉबर्ट्स से आगे रहे। [9] . 30 जनवरी 1983 को ख़ान ने भारत के खिलाफ़ 922 अंकों का टेस्ट क्रिकेट बॉलिंग रेटिंग दर्जा हासिल किया। उनका प्रदर्शन जो उस समय का उच्चतम प्रदर्शन था, ICC के ऑल टाइम टेस्ट बॉलिंग रेटिंग पर तीसरे स्थान पर है।[19].
ख़ान ने 75 टेस्ट में (3000 रन और 300 विकेट हासिल करते हुए) आल-राउंडर्स ट्रिपल प्राप्त किया, जो इयान बॉथम के 72 के बाद दूसरा सबसे तेज़ रिकार्ड है। बल्लेबाजी क्रम में छठे स्थान पर खेलते हुए वे 61.86 के साथ द्वितीय सर्वोच्च सार्वकालिक टेस्ट बल्लेबाजी औसत वाले टेस्ट बल्लेबाज के रूप में स्थापित हैं। उन्होंने अपना अंतिम टेस्ट मैच, जनवरी 1992 में पाकिस्तान के लिए श्रीलंका के खिलाफ़ फ़ैसलाबाद में खेला। ख़ान ने इंग्लैंड के खिलाफ़ मेलबोर्न ऑस्ट्रेलिया में खेले गए अपने अंतिम ODI, 1992 विश्व कप के ऐतिहासिक फ़ाइनल के छह महीने बाद क्रिकेट से संन्यास ले लिया।[20] उन्होंने अपने कॅरियर का अंत 88 टेस्ट मैचों, 126 पारियों और 37.69 की औसत से 3,807 रन बना कर किया, जिसमे छह शतक और 18 अर्द्धशतक शामिल हैं। उनका सर्वोच्च स्कोर 136 रन था। एक गेंदबाज के रूप में उन्होंने टेस्ट क्रिकेट में 362 विकेट लिए, ऐसा करने वाले वे पाकिस्तान के पहले और दुनिया के चौथे गेंदबाज हैं।[9] ODI में उन्होंने 175 मैच खेले और 33.41 की औसत से 3,709 रन बनाए। उनका सर्वोच्च स्कोर 102 नाबाद है। उनकी सर्वश्रेष्ठ ODI गेंदबाजी, 14 रन पर 6 विकेट पर दर्ज है।
कप्तानी
1982 में अपने कॅरियर की ऊंचाई पर तीस वर्षीय ख़ान ने जावेद मियांदाद से पाकिस्तानी क्रिकेट टीम की कप्तानी संभाली. इस नई भूमिका को याद करते हुए और उसकी शुरूआती परेशानियों की चर्चा करते हुए उन्होंने बाद में कहा, "जब मैं क्रिकेट टीम का कप्तान बना था, तो मैं इतना शर्मीला था कि सीधे टीम से बात नहीं कर सकता था। मुझे प्रबंधक से कहना पड़ता था, सुनिए क्या आप उनसे बात कर सकते हैं, यह बात है जो मैं उनसे व्यक्त करना चाहता हूं.
मेरे कहने का मतलब है कि मैं इतना शर्मीला और संकोची हुआ करता था कि शुरूआती टीम बैठकों में मैं टीम से बात नहीं कर पाता था।[21] एक कप्तान के रूप में, ख़ान ने 48 टेस्ट मैच खेले, जिसमें से 14 पाकिस्तान ने जीते, 8 में हार गए और बाकी 26 बिना हार-जीत के समाप्त हो गए। उन्होंने 139 एक-दिवसीय मैच भी खेले, जिनमें से 77 में जीत, 57 में हार हासिल हुई और एक बराबर का खेल रहा। [9]
उनके नेतृत्व में टीम के दूसरे मैच में, ख़ान ने उन्हें अंग्रेज़ी धरती पर 28 साल में पहली टेस्ट विजय दिलाई.[22] एक कप्तान के रूप में ख़ान का प्रथम वर्ष, एक तेज़ गेंदबाज़ और एक ऑल राउंडर के रूप में उनकी उपलब्धि के शिखर पर था। उन्होंने अपने कॅरियर की सर्वश्रेष्ठ टेस्ट गेंदबाजी लाहौर में श्रीलंका के खिलाफ़ 1981-82 में 58 रनों में 8 विकेट लेकर दर्ज की। [9] 1982 में इंग्लैंड के खिलाफ़ तीन टेस्ट श्रृंखला में 21 विकेट लेकर और बल्ले से औसत 56 बना कर गेंदबाज़ी और बल्लेबाज़ी दोनों में सर्वश्रेष्ठ रहे। बाद में उसी वर्ष, एक बेहद मज़बूत भारतीय टीम के खिलाफ़ घरेलू सीरीज़ में छह टेस्ट मैचों में 13.95 की औसत से 40 विकेट लेकर एक ज़बरदस्त अभिस्वीकृत प्रदर्शन किया। 1982-83 में इस श्रृंखला के अंत तक, ख़ान ने कप्तान के रूप में एक वर्ष की अवधि में 13 टेस्ट मैचों में 88 विकेट लिए। [18]
बहरहाल, भारत के खिलाफ़ यही टेस्ट सीरीज़, उनकी पिंडली में तनाव फ्रैक्चर का कारण बनी, जिसने उनको दो से अधिक वर्षों के लिए क्रिकेट से बाहर रखा। पाकिस्तानी सरकार द्वारा निधिबद्ध एक प्रयोगात्मक इलाज से 1984 के अंत तक उन्हें ठीक होने में मदद मिली और 1984-85 सीज़न के उत्तरार्द्ध में अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में उन्होंने एक सफल वापसी की। [9]
1987 में ख़ान ने पाकिस्तान की भारत में पहली टेस्ट सीरीज़ जीत और उसके बाद उसी वर्ष इंग्लैंड में पाकिस्तान की पहली श्रृंखला जीत में पाकिस्तान का नेतृत्व किया।[22] 1980 के दशक के दौरान, उनकी टीम ने वेस्ट इंडीज के खिलाफ़ तीन विश्वसनीय ड्रॉ दर्ज किये। 1987 में भारत और पाकिस्तान ने विश्व कप की सह-मेज़बानी की, लेकिन दोनों में से कोई भी सेमी-फ़ाइनल से ऊपर नहीं जा पाया। ख़ान ने विश्व कप के अंत में अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट से संन्यास ले लिया। 1988 में, पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल जिया उल हक ने उन्हें दुबारा कप्तानी संभालने को कहा और 18 जनवरी को उन्होंने टीम में फिर से आने के निर्णय की घोषणा की। [9] कप्तानी में लौटने के तुरंत बाद उन्होंने वेस्ट इंडीज में पाकिस्तान के एक विजयी दौरे का नेतृत्व किया, जिसके बारे में उन्होंने याद करते हुए कहा कि "वास्तव में मैंने पिछली बार अच्छी गेंदबाज़ी की."[13] 1988 में वेस्ट इंडीज़ के खिलाफ़ उनको मैन ऑफ़ द सीरीज़ घोषित किया गया, जब उन्होंने सीरीज़ में 3 टेस्ट मैचों में 23 विकेट लिए। [9]
एक कप्तान और एक क्रिकेटर के रूप में ख़ान के कॅरियर का उच्चतम स्तर तब आया, जब उन्होंने 1992 क्रिकेट विश्व कप में पाकिस्तान की जीत का नेतृत्व किया। एक जल्दी टूटने वाले बल्लेबाज़ी पंक्ति में खेलते हुए, ख़ान ने खुद को शीर्ष क्रम के बल्लेबाज़ के रूप में जावेद मियांदाद के साथ खेलने के लिए पदोन्नत किया, लेकिन एक गेंदबाज़ के रूप में उनका योगदान कम रहा। 39 की उम्र में, ख़ान ने सभी पाकिस्तानी बल्लेबाजों में सबसे ज़्यादा रन बनाए और आखिरी विजय विकेट भी उन्होंने खुद ली। [18] बहरहाल, पाकिस्तानी टीम की ओर से ख़ान द्वारा विश्व कप ट्रॉफी स्वीकार करने की आलोचना भी हुई। यह बताया गया कि ख़ान का अपने स्वीकृति-भाषण में अपनी टीम और अपने देश का उल्लेख ना करने के निर्णय और उनके बजाय खुद पर और अपने आगामी कैंसर अस्पताल पर केंद्रित ध्यान ने कई नागरिकों को "नाराज़ और शर्मिंदा" किया। "इमरान के 'मैं' 'मुझे' और 'मेरा' भाषण ने हर किसी को दुखी किया," डेली नेशन अख़बार के एक संपादकीय में लिखा था, जिसने स्वीकृति भाषण को एक "कर्कश स्वर" का तमगा दिया। [23]
सेवानिवृत्ति के बाद
1994 में ख़ान ने स्वीकार किया कि टेस्ट मैचों के दौरान उन्होंने "कभी-कभी गेंद के किनारे खरोंचे और सीम को उठाया." उन्होंने यह भी जोड़ा कि "केवल एक बार मैंने किसी चीज़ का इस्तेमाल किया। जब ससेक्स 1981 में हैम्पशायर से खेल रहे थे, तब गेंद बिल्कुल भी घूम नहीं रही थी। मैंने 12वें आदमी से बोतल का ढक्कन मंगवाया और वह चारों ओर काफी घूमने लगी."[24] 1996 में, ख़ान ने पूर्व अंग्रेज़ कप्तान और ऑल राउंडर इयान बॉथम और बल्लेबाज़ एलन लैम्ब द्वारा कथित तौर पर ख़ान द्वारा ऊपर उल्लिखित गेंद-छेड़छाड़ के बारे में दो लेखों में की गई टिप्पणी और भारतीय पत्रिका इंडिया टुडे में प्रकाशित एक दूसरे लेख में की गई टिप्पणीयों के लिए की गई एक परिवाद कार्रवाई में सफलतापूर्वक खुद का बचाव किया। उन्होंने दावा किया कि बाद के प्रकाशन में ख़ान ने दोनों क्रिकेटरों को "नस्लवादी, अशिक्षित और निम्न स्तरीय" कहा.ख़ान ने विरोध किया कि उन्हें ग़लत उद्धृत किया गया है, यह कहते हुए कि 18 साल पहले उनके द्वारा एक काउंटी मैच में गेंद के साथ छेड़छाड़ करने की बात स्वीकार करने के बाद वह खुद का बचाव कर रहे थे।[25] ख़ान ने परिवाद मामला निर्णायक मंडल द्वारा 10-2 बहुमत के निर्णय के साथ जीत लिया, जिसे न्यायाधीश ने "एक निरर्थक पूर्ण मेहनत" करार दिया। [25]
सेवानिवृत्त होने के बाद से, ख़ान ने विभिन्न ब्रिटिश और एशियाई समाचार पत्रों के लिए क्रिकेट पर विचारात्मक लेख लिखें हैं, खास कर पाकिस्तान की राष्ट्रीय टीम के बारे में. उनके योगदान भारत की आउटलुक पत्रिका,[26] द गार्जियन[27] द इंडीपेनडेंट और द टेलीग्राफ में प्रकाशित हुए हैं। ख़ान कभी-कभी, BBC उर्दू[28] और स्टार टीवी नेटवर्क सहित एशियाई और ब्रिटिश खेल नेटवर्क पर एक क्रिकेट कमेंटेटर के रूप में प्रस्तुत होते हैं।[29] 2004 में, जब भारतीय क्रिकेट टीम ने 14 वर्षों बाद पाकिस्तान का दौरा किया, तो वे TEN Sports के विशेष सजीव कार्यक्रम, स्ट्रेट ड्राइव,[30] पर एक कमेंटेटर थे, जबकि वे 2005 भारत-पाकिस्तान टेस्ट सीरीज़ के लिए sify.com के स्तंभकार भी थे।[31] वह 1992 के बाद से हर क्रिकेट विश्व कप के लिए विश्लेषण उपलब्ध कराते रहे हैं, जिसमें शामिल है 1999 विश्व कप के दौरान BBC के लिए मैच सारांश प्रदान करना। [31]
सामाजिक कार्य
1992 में क्रिकेट से संन्यास लेने के बाद, चार से अधिक वर्षों तक, ख़ान ने अपने प्रयासों को केवल सामाजिक कार्य पर केंद्रित किया। 1991 तक, वे अपनी मां, श्रीमती शौकत ख़ानम के नाम पर गठित एक धर्मार्थ संगठन, शौकत ख़ानम मेमोरियल ट्रस्ट की स्थापना कर चुके थे। ट्रस्ट के प्रथम प्रयास के रूप में, ख़ान ने पाकिस्तान के पहले और एकमात्र कैंसर अस्पताल की स्थापना की, जिसका निर्माण ख़ान द्वारा दुनिया भर से जुटाए गए $25 मीलियन से अधिक के दान और फंड के प्रयोग से किया गया।[10] उन्होंने अपनी मां की स्मृति से प्रेरित होकर, जिनकी मृत्यु कैंसर से हुई थी, 29 दिसम्बर 1994 को लाहौर में शौकत ख़ानम मेमोरियल कैंसर अस्पताल और अनुसंधान केंद्र, 75 प्रतिशत मुफ्त देखभाल वाला एक धर्मार्थ कैंसर अस्पताल खोला.[13] सम्प्रति ख़ान अस्पताल के अध्यक्ष के रूप में कार्य करते हैं और धर्मार्थ और सार्वजनिक दान के माध्यम से धन जुटाते रहते हैं।[32] 1990 के दशक के दौरान, ख़ान ने UNICEF के लिए, खेलों के विशेष प्रतिनिधि के रूप में कार्य किया[33] और बांग्लादेश, पाकिस्तान, श्रीलंका और थाईलैंड में स्वास्थ्य और टीकाकरण कार्यक्रम को बढ़ावा दिया। [34]
27 अप्रैल 2008 को, ख़ान के दिमाग की उपज, नमल कॉलेज नामक एक तकनीकी महाविद्यालय मियांवाली जिले में उद्घाटित किया गया। नमल कॉलेज, मियांवाली विकास ट्रस्ट (MDT) द्वारा बनाया गया था, जिसके अध्यक्ष ख़ान थे और दिसम्बर 2005 में इसे ब्रैडफ़ोर्ड विश्वविद्यालय का एक सहयोगी कॉलेज बना दिया गया।[35] इस समय, ख़ान अपनी सफल लाहौर संस्था को एक मॉडल के रूप में प्रयोग करते हुए कराची में एक और कैंसर अस्पताल का निर्माण करवा रहे हैं।लंदन में प्रवास के दौरान वे एक क्रिकेट धर्मार्थ संस्था, लॉर्ड्स टेवरनर्स के साथ काम करते हैं।[10]
राजनीतिक कार्य
एक क्रिकेटर के रूप में अपने पेशेवर कॅरियर के अंत के कुछ साल बाद, ख़ान ने यह स्वीकार करते हुए चुनावी राजनीति में प्रवेश किया कि उन्होंने इससे पहले चुनाव में कभी वोट नहीं डाला। [36] तब से उनका सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक कार्य, परवेज़ मुशर्रफ़ और आसिफ़ अली ज़रदारी जैसे सत्ताधारी नेताओं और उनकी अमेरिकी और ब्रिटिश विदेश नीति के विरोध के खिलाफ़ विरोध प्रदर्शन करना रहा है। "पाकिस्तान में ख़ान की राजनीति को गंभीरता से नहीं लिया जाता है और सबसे उचित रूप में उसका मूल्यांकन, अधिकांश अख़बारों में एकल कॉलम की समाचार वस्तु के रूप में किया जाता है।[37] रिपोर्ट और उनकी अपनी स्वीकारोक्ति के अनुसार, ख़ान के सबसे प्रमुख राजनीतिक समर्थक महिलाएं और युवा हैं।[12] उनका राजनैतिक धावा, लेफ्टिनेंट जनरल हामिद गुल से प्रभावित है, पाकिस्तानी गुप्तचर विभाग के पूर्व प्रमुख, जो अफ़गानिस्तान में तालिबान के विस्तार को हवा देने और अपने पश्चिम-विरोधी दृष्टिकोण के लिए प्रसिद्द हैं।[38] पाकिस्तान में उनके राजनैतिक कार्यों के प्रति प्रतिक्रिया को कुछ ऐसा माना गया है, "ख़ाने की मेज़ पर उनके नाम का ज़िक्र कीजिये और सबकी प्रतिक्रिया एक जैसी होती है: लोग अपनी आंखें घुमाते हैं, मंद-मंद मुस्काते हैं और उसके बाद एक दुखःद आह भरते हैं।"[39]
25 अप्रैल, 1996 को ख़ान ने "न्याय, मानवता और आत्म-सम्मान" के प्रस्तावित नारे के साथ पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (PTI) नामक अपनी स्वयं की राजनीतिक पार्टी की स्थापना की। [13] 7 जिलों से चुनाव लड़ने वाले ख़ान और उनकी पार्टी के सदस्य, 1997 के आम चुनावों में सार्वभौमिक रूप से चुनाव में हार गए। ख़ान ने 1999 में जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ के सैन्य तख्ता-पलट का समर्थन किया, लेकिन 2002 के आम चुनावों से कुछ महीने पहले उनके राष्ट्रपति पद की भर्त्सना की। कई राजनीतिक आलोचकों और उनके विरोधियों ने ख़ान के विचार परिवर्तन को एक अवसरवादी क़दम क़रार दिया। "जनमत संग्रह का समर्थन करने का मुझे खेद है। मुझे यह समझाया गया था कि उनकी जीत पर प्रणाली से भ्रष्ट लोगों का सफ़ाया होगा.लेकिन वास्तव में मामला ऐसा नहीं था", उन्होंने बाद में स्पष्टीकरण दिया। [40] 2002 के चुनावी मौसम के दौरान उन्होंने पाकिस्तान द्वारा अमेरिकी सेना को अफ़गानिस्तान में सहाय-सहकार सम्बन्धी समर्थन के खिलाफ़ यह कहते हुए आवाज़ उठाई कि उनका देश "अमेरिका का ग़ुलाम" हो चुका है।[40] 20 अक्टूबर, 2002 विधायी चुनावों में PTI ने लोकप्रिय वोट का 0.8% और 272 खुली सीटों में से एक पर विजय हासिल की। ख़ान को, जो मियांवाली के NA-71 निर्वाचन क्षेत्र से चुने गए थे, 16 नवंबर को एक सांसद के रूप में शपथ दिलाई गई।[41] कार्यालय में एक बार आ जाने के बाद, ख़ान ने 2002 में प्रधानमंत्री पद के लिए मुशर्रफ़ की पसंद को दरकिनार करते हुए, तालिबान समर्थक इस्लामी उम्मीदवार के पक्ष में वोट दिया। [38] एक सांसद के रूप में, वह कश्मीर और लोक लेखा पर स्थायी समितियों के सदस्य थे और उन्होंने विदेश मंत्रालय, शिक्षा और न्याय में विधायी रुचि व्यक्त की। [42]
6 मई, 2005 को ख़ान उन चंद मुस्लिमों में से एक बन गए, जिन्होंने 300 शब्द की न्यूज़वीक की कहानी की आलोचना की, जिसमें कथित तौर पर क्यूबा के ग्वांटनमो की खाड़ी में नौसैनिक अड्डे पर एक अमेरिकी सैन्य जेल में क़ुरान को अपवित्र किया गया। ख़ान ने लेख की निंदा करने के लिए एक प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित की और मांग की कि जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ इस घटना के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डबल्यू. बुश से माफ़ी मंगवाएं.[38] 2006 में उन्होंने कहा, "मुशर्रफ़ यहां बैठे हैं और वह जॉर्ज बुश के जूते चाटते हैं!" बुश प्रशासन के समर्थक मुस्लिम नेताओं की आलोचना करते हुए उन्होंने कहा, "वे मुस्लिम दुनिया पर बैठी कठपुतलियां हैं। हम एक प्रभुसत्ता-संपन्न पाकिस्तान चाहते हैं। हम नहीं चाहते कि राष्ट्रपति, जॉर्ज बुश का एक पूडल (गोद में रखने वाला छोटा कुत्ता) बनें.[21] मार्च 2006 में, जॉर्ज डब्ल्यू. बुश की पाकिस्तान यात्रा के दौरान, ख़ान को उनके विरोध प्रदर्शन आयोजित करने की धमकी के बाद इस्लामाबाद में घर में नज़रबंद रखा गया।[13] जून 2007 में संघीय संसदीय कार्य मंत्री डॉ॰ शेर अफ़गान ख़ान नियाज़ी और मुत्तहिदा कौमी मूवमेंट (MQM) पार्टी ने ख़ान के खिलाफ़ अनैतिकता के आधार पर राष्ट्रीय असेंबली के सदस्य के रूप में उनकी अनर्हता की मांग करते हुए, अलग-अलग अयोग्यता संदर्भ दायर किए. पाकिस्तानी संविधान के अनुच्छेद 62 और 63 के आधार पर दर्ज दोनों ही संदर्भ, 5 सितंबर को खारिज कर दिये गए।[43]
2 अक्टूबर, 2007 को ऑल पार्टीज़ डेमोक्रेटिक मूवमेंट के हिस्से के रूप में, ख़ान ने 85 अन्य सांसदों में शामिल होकर संसद से 6 अक्टूबर को निर्धारित राष्ट्रपति चुनाव के विरोध में इस्तीफ़ा दे दिया, जिसमें जनरल मुशर्रफ़ सेना प्रमुख के रूप में इस्तीफ़ा दिए बिना चुनाव लड़ रहे थे।[11] 3 नवंबर, 2007 को राष्ट्रपति मुशर्रफ़ द्वारा पाकिस्तान में आपातकाल घोषित किये जाने के कुछ घंटों बाद, ख़ान को उनके पिता के घर में नज़रबंद कर दिया गया। आपातकालीन शासन लगाने के बाद ख़ान ने मुशर्रफ़ के लिए मृत्यु दंड की मांग की, जिसे उन्होंने "देशद्रोह" के समकक्ष रखा। अगले दिन, 4 नवंबर को, ख़ान भाग गए और भ्रमणशील आश्रय में छिप गए।[44] अंततः 14 नवंबर को वे पंजाब विश्वविद्यालय में छात्रों के एक विरोध प्रदर्शन में शामिल होने के लिए बाहर आए। [45] रैली में ख़ान को जमात-ए-इस्लामी राजनीतिक दल के छात्रों द्वारा दबोच लिया गया, जिन्होंने दावा किया कि ख़ान रैली में एक बिन बुलाए सरदर्द थे और उन्हें पुलिस को सौंप दिया, जिसने उनके ऊपर हथियार उठाने के लिए लोगों को भड़काने, नागरिक अवज्ञा का आह्वान करने और घृणा फैलाने के लिए कथित तौर पर आतंकवाद अधिनियम के अर्न्तगत दोषारोपण किया।[46] डेरा गाज़ी ख़ान जेल में बंद, ख़ान के रिश्तेदारों को उनके पास जाने की अनुमति थी और जेल में उनके एक सप्ताह के दौरान उन तक चीज़ें पहुंचाने में वे सक्षम थे।19 नवंबर को, PTI सदस्यों और अपने परिवार के माध्यम से यह ख़बर बाहर भेजी कि उन्होंने भूख हड़ताल शुरू की है, पर डेरा गाज़ी ख़ान जेल के उप-अधीक्षक ने इस ख़बर का यह कहते हुए खंडन किया कि ख़ान ने नाश्ते में ब्रेड, अंडे और फल लिए। [47] 21 नवंबर, 2007 को रिहा 3,000 राजनीतिक क़ैदियों में ख़ान भी एक थे।[48]
18 फरवरी, 2008 को उनकी पार्टी ने राष्ट्रीय चुनावों का बहिष्कार किया और इसलिए, 2007 में ख़ान के इस्तीफ़े के बाद, PTI के किसी सदस्य ने संसद में कार्य नहीं किया। संसद के अब सदस्य ना होने के बावजूद, पाकिस्तानी राष्ट्रपति आसिफ़ अली ज़रदारी द्वारा 15 मार्च 2009 को एक क़ानूनी कार्रवाई में ख़ान को सरकार-विरोधी प्रदर्शन के लिए घर में नज़रबंद रखा गया।
२०१८ आम चुनाव
२५ जुलाई २०१८ को 270 सीटों के परिणाम घोषित हुए। इस परिणाम के मुताबिक इमरान ख़ान की पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ यानी पीटीआई को 116 सीटें मिली हैं।[49] पाकिस्तान निर्वाचन आयोग (ईसीपी) के अनुसार पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग-एन (पीएमएल-एन) 64 सीटों के साथ दूसरे नंबर पर तो पूर्व राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) 43 सीटों के साथ तीसरे स्थान पर है। इसके अनुसार 13 सीटों के साथ मुत्तहिदा मज्लिस-ए-अमल (एमएमएपी) चौथे स्थान पर रही। 13 निर्दलीय उम्मीदवारों ने भी जीत दर्ज की है, जिनकी भूमिका अहम होगी क्योंकि पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) को केंद्र में सरकार बनाने के लिये उनके समर्थन की जरूरत होगी।
विचारधारा
ख़ान के घोषित राजनीतिक मंच और घोषणाओं में शामिल हैं: इस्लामिक मूल्य, जिसके प्रति उन्होंने खुद को, नियंत्रण-मुक्त अर्थ-व्यवस्था और एक कल्याणकारी राज्य बनाने के वादे के साथ, 1990 के दशक में पुनर्निर्देशित किया; एक स्वच्छ सरकार को निर्मित और सुनिश्चित करने के लिए अल्प नौकरशाही और भ्रष्टाचार विरोधी क़ानून; एक स्वतंत्र न्यायपालिका की स्थापना; देश की पुलिस व्यवस्था की मरम्मत; और एक लोकतांत्रिक पाकिस्तान के लिए आतंकवाद विरोधी दृष्टि.[20][29]
ख़ान ने राजनीति में अपने प्रवेश के फ़ैसले का श्रेय एक आध्यात्मिक जागरण को दिया है, जो उनके क्रिकेट कॅरियर के अंतिम वर्षों में शुरू हुए इस्लाम के सूफ़ी संप्रदाय के एक फ़कीर के साथ उनकी बातचीत से जागृत हुआ। "मैंने कभी शराब या सिगरेट नहीं पी, लेकिन मैं अपने हिस्से का जश्न मनाया करता था। मेरे आध्यात्मिक विकास में एक अवरोध था," अमेरिका के वाशिंगटन पोस्ट को उन्होंने बताया। एक सांसद के रूप में, ख़ान ने कभी-कभी कट्टरपंथी धार्मिक पार्टियों के खेमे के साथ वोट दिया, जैसे मुत्तहिदा मजलिस-ए-अमल, जिसके नेता मौलाना फ़जल-उर-रहमान का उन्होंने 2002 में प्रधानमंत्री पद के लिए मुशर्रफ की उम्मीदवारी के खिलाफ़ समर्थन किया। रहमान एक तालिबान समर्थक मौलवी हैं, जिन्होंने अमेरिका के खिलाफ़ जेहाद का आह्वान किया है।[29] पाकिस्तान में धर्म पर, ख़ान ने कहा है कि, "जैसे-जैसे समय बीतता है, धार्मिक विचार को भी विकसित करना चाहिए, लेकिन इसका विकास नहीं हो रहा है, यह पश्चिमी संस्कृति के खिलाफ़ प्रतिक्रिया कर रहा है और कई बार इसका विश्वास या धर्म से कोई लेना-देना नहीं होता."
ख़ान ने ब्रिटेन के डेली टेलीग्राफ़ को बताया, "मैं चाहता हूं पाकिस्तान एक कल्याणकारी राज्य और क़ानून के शासन और एक स्वतंत्र न्यायपालिका के साथ एक वास्तविक लोकतंत्र बने."[20] उनके द्वारा व्यक्त अन्य विचारों में शामिल है, सभी छात्रों द्वारा स्नातक स्तर की शिक्षा के बाद ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षण करते हुए एक साल बिताना और नौकरशाही में आवश्यकता से अधिक मौजूद कर्मचारियों को कम कर, उन्हें भी शिक्षण के लिए भेजना.[40] उन्होंने कहा, "क्षेत्रीय स्तर पर लोगों को अधिकार संपन्न बनाने के लिए, हमें विकेंद्रीकरण की ज़रूरत है".[50] जून 2007 में ख़ान ने सार्वजनिक रूप से भारतीय मूल के लेखक सलमान रुश्दी को नाईट की पदवी देने के लिए ब्रिटेन की निंदा की। उन्होंने कहा, "इस लेखक ने अपनी बेहद विवादास्पद पुस्तक द सैटेनिक वर्सेज लिख कर मुस्लिम समुदाय को जो चोट पहुंचाई है, उसके प्रति पश्चिमी सभ्यता को जागरूक रहना चाहिए."[51]
पाकिस्तानी आम चुनाव, 2018 के परिणामस्वरूप, इमरान खान ने कहा कि वह पाकिस्तान बनाने की कोशिश करेंगे जो मोहम्मद अली जिन्नाह की विचारधारा पर आधारित है।[52]
व्यक्तिगत जीवन
1970 और 1980 के दशक के दौरान, ख़ान लंदन के एनाबेल्स और ट्रैम्प जैसे नाइट क्लबों की पार्टियों में निरंतर मशगूल होने के कारण, सोशलाइट के रूप में जाने गए, हालांकि वे दावा करते हैं कि उन्हें अंग्रेजी पबों से नफ़रत है और उन्होंने कभी शराब नहीं पी.[10][13][29][38] उन्होंने सुज़ाना कॉन्सटेनटाइन, लेडी लीज़ा कैम्पबेल जैसे नवोदित युवा कलाकारों और चित्रकार एम्मा सार्जेंट के साथ रोमांस के कारण, लंदन गपशप कॉलमों में ख्याति बटोरी.[13] उनके इन पूर्व गर्लफ्रेंड में से एक और गॉर्डन व्हाइट, हल के सामंत व्हाइट की बेटी ब्रिटिश उत्तराधिकारिणी सीता व्हाइट, कथित रूप से उनकी नाजायज़ बेटी की मां बनीं। अमेरिका में एक न्यायाधीश ने उनका टीरियन जेड व्हाइट के पिता होने को प्रमाणित किया, लेकिन ख़ान ने पितृत्व का खंडन किया है।[53]
16 मई 1995 को, 43 साल की उम्र में, खान ने 21 वर्षीय जेमिमा गोल्डस्मिथ से शादी की, पेरिस में उर्दू में आयोजित दो मिनट के समारोह में।[54] एक महीने बाद, 21 जून को, इंग्लैंड में रिचमंड रजिस्ट्री कार्यालय में एक सिविल समारोह में फिर से विवाह हुआ। जेमीमा इस्लाम में परिवर्तित इस जोड़े के दो बेटे सुलेमान ईसा और कासिम हैं।
अफवाहें फैल गईं कि जोड़े की शादी संकट में थी। गोल्डस्मिथ ने पाकिस्तानी समाचार पत्रों में विज्ञापन प्रकाशित करके अफवाहों से इंकार कर दिया। 22 जून 2004 को, यह घोषणा की गई कि दंपति ने नौ साल की शादी समाप्त कर दी थी क्योंकि यह "जेमिमा पाकिस्तान में जीवन के अनुकूल होने के लिए मुश्किल था"।
जनवरी 2015 में, यह घोषणा की गई कि खान ने इस्लामाबाद में अपने निवास पर एक निजी निकहा समारोह में ब्रिटिश-पाकिस्तानी पत्रकार रेहम खान से विवाह किया था। हालांकि, रेहम खान बाद में अपनी आत्मकथा में कहता है कि वास्तव में उन्होंने अक्टूबर 2014 में शादी कर ली लेकिन घोषणा केवल जनवरी में हुई थी। 22 अक्टूबर को, उन्होंने तलाक के लिए फाइल करने के अपने इरादे की घोषणा की।
2016 के मध्य में, 2017 के अंत और 2018 की शुरुआत में, रिपोर्ट उभरी कि खान ने अपने आध्यात्मिक सलाहकार बुशरा मनेका से विवाह किया था। खान, पीटीआई सहयोगी और बुशरा मनेका परिवार के सदस्य ने अफवाह से इंकार कर दिया। खान ने अफवाह फैलाने के लिए मीडिया को "अनैतिक" कहा, और पीटीआई ने समाचार चैनलों के खिलाफ शिकायत दायर की जिसने इसे प्रसारित किया था। 7 जनवरी 2018 को, हालांकि, केंद्रीय सचिवालय ने एक बयान जारी किया कि खान ने बुशरा मनेका को प्रस्ताव दिया था, लेकिन उसने अभी तक अपना प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया था। 18 फरवरी 2018 को, पीटीआई ने पुष्टि की कि खान ने मणिका से विवाह किया है।
खान बनी गाला में अपने विशाल फार्महाउस में रहते हैं। नवंबर 2009 में, खान ने बाधा को दूर करने के लिए लाहौर के शौकत खानम कैंसर अस्पताल में आपातकालीन सर्जरी की।
छवि और आलोचना
ख़ान को अक्सर एक हल्के राजनीतिक[45] और पाकिस्तान में एक बाहरी सेलिब्रिटी[21] के रूप में खारिज किया जाता है, जहां राष्ट्रीय समाचार पत्र भी उन्हें एक "विघ्नकर्ता राजनेता" के रूप में उद्धृत करते हैं।[55] MQM राजनैतिक पार्टी (?) ने कहा है कि ख़ान "एक बीमार व्यक्ति हैं, जो राजनीति में पूरी तरह विफल रहे हैं और सिर्फ़ मीडिया कवरेज के कारण ज़िंदा हैं".[56] राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि जो भीड़ वे बटोरते हैं वह उनके क्रिकेट सेलिब्रिटी होने के कारण आकर्षित होती है और ख़बरों के अनुसार लोग उन्हें एक गंभीर राजनीतिक प्राधिकारी के बजाय एक मनोरंजक व्यक्ति के रूप में देखते हैं।[40] राजनीतिक शक्ति या एक राष्ट्रीय आधार बनाने में उनकी विफलता के लिए, आलोचकों और पर्यवेक्षकों ने उनकी राजनीतिक परिपक्वता में कमी और भोलेपन को जिम्मेदार ठहराया है।[29] अख़बार के स्तंभकार अयाज़ अमीर ने अमेरिकी वॉशिंगटन पोस्ट को बताया, "[ख़ान] में वह राजनीतिक बात नहीं है, जो आग लगा दे."
इंग्लैंड के द गार्जियन अख़बार ने ख़ान को एक "दयनीय राजनेता" के रूप में वर्णित किया है, यह देखते हुए कि "1996 में राजनीति में प्रवेश करने के बाद से ख़ान के विचार और संबंध, बारिश में एक रिक्शे की तरह विचलित और फिसले हैं।... एक दिन वह लोकतंत्र का उपदेश देते हैं, पर दूसरे ही दिन प्रतिक्रियावादी मुल्लाओं को वोट देते हैं।"[39] ख़ान के खिलाफ़ लगातार उठाया जाने वाला आरोप, पाखंड और अवसरवाद का है, जिसमें वह भी शामिल है, जो उनके जीवन का "प्लेबॉय से शुद्धतावादी U-टर्न" कहलाता है।"[21]
पाकिस्तान के सबसे सम्मानित राजनीतिक आलोचकों में से एक, नजम सेठी ने कहा कि, "इमरान ख़ान की अधिकांश कहानी, उनकी कही गई पिछली बातों पर उलटे पांव लौटने से जुड़ी है और यही वजह है कि यह लोगों को प्रेरित नहीं करती."[21] ख़ान का राजनीतिक आमूल नीति-परिवर्तन, 1999 में मुशर्रफ़ के सैन्य अधिग्रहण के प्रति उनके समर्थन के बाद, उनकी मुखर आलोचना से निर्मित है। इसी तरह, ख़ान, पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ के सत्ता काल में उनके आलोचक थे, जिन्होंने उस समय कहा था: "हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री एक फासीवादी मनोवृत्ति के हैं और संसद के सदस्य, सत्तारूढ़ दल के खिलाफ़ नहीं जा सकते. हमें लगता है कि हर दिन जब वे सत्ता में बने हैं, देश अधिक अराजकता में डूबता जा रहा है।"[57] फिर भी, वे 2008 में शरीफ़ के साथ मुशर्रफ़ के खिलाफ़ एकजुट हो गए। "क्या असली इमरान कृपया खड़े होंगे" शीर्षक के एक कॉलम में पाकिस्तानी स्तंभकार अमीर जिया ने PTI कराची के एक नेता को यह कहते उद्धृत किया, "यहां तक कि हमें भी यह पता लगाना मुश्किल हो रहा है कि असली इमरान कहां हैं। वह जब पाकिस्तान में होता है तो सलवार-कमीज पहनता है और देसी उपदेश और धार्मिक मूल्यों की शिक्षा देता है, लेकिन ब्रिटेन और पश्चिम की दूसरी जगहों पर अभिजात वर्ग के साथ कंधे से कंधा मिलाते वक्त खुद को पूरी तरह से बदल लेता है।[58]
2008 में, 2007 के हॉल ऑफ़ शेम अवार्ड के हिस्से के रूप में, पाकिस्तान की न्यूज़लाइन पत्रिका ने ख़ान को "मीडिया का सबसे अयोग्य दुलारा होने के लिए पेरिस हिल्टन पुरस्कार" दिया गया। ख़ान के प्रशस्ति पत्र पर लिखा था: "वे एक ऐसी पार्टी के नेता हैं, जिसे राष्ट्रीय विधानसभा में एक सीट धारण करने का गौरव प्राप्त है, (और) अपने राजनीतिक प्रभाव के विपरीत मीडिया कवरेज पाते हैं।" ख़ान की सेवानिवृत्ति के बाद की गतिविधियों द्वारा इंग्लैंड में अर्जित कवरेज को वर्णित करते हुए, जहां उन्होंने एक क्रिकेट सितारे और रात्रि क्लब में नियमित रूप से जाने वाले के रूप में अपना नाम बनाया, द गार्जियन ने कहा "ख़तरे से जुड़ा निहायती बकवास है। यह एक महान (और महानतम रूप से दीन) तीसरी दुनिया के देश को एक गपशप-कॉलम से जोड़ता है। ऐसी निरर्थकता से हमारा दम घुट सकता है।"[59]
2008 के आम चुनावों के बाद, राजनीतिक स्तंभकार आजम खलील ने ख़ान को, जो महान क्रिकेट व्यक्तित्व के रूप में आज भी सम्मानित हैं, "पाकिस्तान की राजनीति में अत्यन्त विफल" के रूप में संबोधित किया है।[60] फ्रंटियर पोस्ट में लिखते हुए, खलील ने कहा: "इमरान ख़ान के पास समय है और फिर से उन्होंने अपनी राजनीतिक दिशा परिवर्तित की है और इस समय उनकी कोई राजनैतिक विचारधारा नहीं है और इसलिए जनता के एक बड़े तबके द्वारा गंभीरता से नहीं लिए जाते."
लोकप्रिय संस्कृति में
2010 में, एक पाकिस्तानी उत्पादन घर ने खान के जीवन के आधार पर एक जीवनी फिल्म बनाई, जिसका शीर्षक कप्तान: द मेकिंग ऑफ ए लीजेंड। शीर्षक 'कप्तान' के लिए उर्दू है, जिसमें पाकिस्तान की क्रिकेट टीम के साथ खान की कप्तानी और करियर दर्शाया गया है, जिसने उन्हें 1992 के क्रिकेट विश्व कप में जीत के साथ-साथ घटनाओं को जन्म दिया जो उनके जीवन को आकार देते थे; क्रिकेट में एक प्लेबॉय लेबल करने के लिए उपहासित होने से;[61] पाकिस्तान में पहले कैंसर अस्पताल के निर्माण में अपने प्रयासों और प्रयासों के लिए अपनी मां की दुखद मौत से; नामल विश्वविद्यालय के निर्माण के लिए ब्रैडफोर्ड विश्वविद्यालय के पहले चांसलर होने से।
पुरस्कार और सम्मान
1992 में, ख़ान को पाकिस्तान के प्रतिष्ठित नागरिक पुरस्कार, हिलाल-ए-इम्तियाज़ से सम्मानित किया गया। इससे पहले उन्होंने 1983 में राष्ट्रपति का प्राइड ऑफ़ परफार्मेंस पुरस्कार प्राप्त किया था। ख़ान ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध खिलाड़ियों की सूची में शामिल हैं और ऑक्सफोर्ड केबल कॉलेज के मानद सदस्य रहे हैं।[33] 7 दिसम्बर, 2005 को ख़ान ब्रैडफोर्ड विश्वविद्यालय के पांचवें कुलपति नियुक्त किये गए, जहां वे बॉर्न इन ब्रैडफोर्ड अनुसंधान परियोजना के संरक्षक भी हैं।
अंग्रेज़ प्रथम श्रेणी क्रिकेट में प्रमुख ऑल-राउंडर होने के कारण ख़ान को 1980 और 1976 में द क्रिकेट सोसायटी वेदरऑल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1983 में उन्हें विसडेन क्रिकेटर ऑफ़ द इयर, 1985 में ससेक्स क्रिकेट सोसाइटी प्लेयर ऑफ़ द इयर और 1990 में भारतीय क्रिकेट वर्ष का क्रिकेटर घोषित किया गया।[18] ख़ान को वर्तमान में ESPN लेजेंड्स ऑफ़ क्रिकेट की सार्वकालिक सूची में 8वें स्थान पर रखा गया है। 5 जुलाई, 2008 को कराची में एशियाई क्रिकेट परिषद (ACC) के उद्घाटन पुरस्कार समारोह में विशेष रजत जयंती पुरस्कार प्राप्त करने वाले कई दिग्गज एशियाई क्रिकेटरों में से ख़ान एक थे।[62]
कई अंतर्राष्ट्रीय धर्मार्थ कार्यों के लिए एक सभापति के रूप में और पूरी भावना के साथ और व्यापक तौर पर निधि संचय की गतिविधियों में कार्य करने के लिए 8 जुलाई, 2004 को, लंदन में 2004 के एशियन जुएल अवार्ड में ख़ान को लाइफ़-टाइम एचीवमेंट अवार्ड से सम्मानित किया गया।[63] 13 दिसम्बर, 2007 को पाकिस्तान में पहला कैंसर अस्पताल स्थापित करने में उनके प्रयासों के लिए ख़ान को कुवालालंपुर में एशियाई खेल पुरस्कारों के अर्न्तगत ह्युमेनिटेरियन अवार्ड से नवाज़ा गया।[64] 2009 में, अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट परिषद के शताब्दी उत्सव में ख़ान, उन पचपन क्रिकेट खिलाड़ियों में से एक थे, जिन्हें ICC हॉल ऑफ़ फेम में शामिल किया गया।[65]
ख़ान द्वारा लेखन
ख़ान कभी-कभी क्रिकेट और पाकिस्तानी राजनीति पर ब्रिटेन के समाचार पत्रों के लिए संपादकीय विचारों का योगदान करते हैं। उन्होंने पांच कथेतर साहित्य भी प्रकाशित किए हैं, जिनमें पैट्रिक मर्फी के साथ सह-लिखित एक आत्मकथा भी शामिल है। 2008 में यह उद्घाटित किया गया कि ख़ान ने अपनी दूसरी पुस्तक, इंडस जर्नी: अ पर्सनल व्यू ऑफ़ पाकिस्तान नहीं लिखी है। इसके बजाय, क़िताब के प्रकाशक जेरेमी लुईस ने एक संस्मरण में यह रहस्योद्घाटन किया कि उन्हें ख़ान के लिए क़िताब लिखनी पड़ी.लुईस याद करते हैं कि जब उन्होंने ख़ान को प्रकाशनार्थ अपना लेखन दिखाने के लिए कहा, तो "उन्होंने मुझे एक चमड़े के कवरवाली नोटबुक या डायरी दी, जिसमें थोड़ा-बहुत संक्षेप में लिखे और आत्मकथात्मक अंश थे। मुझे, उसे पढ़ने में ज्यादा से ज्यादा पांच मिनट लगे; और जल्दी ही यह स्पष्ट हो गया कि हमें इतने के साथ ही आगे जाना होगा। [66]
किताबें
लेख
, ख़ान द्वारा राजनैतिक और क्रिकेट कमेंट्री
, 2000 से वर्तमान तक ख़ान द्वारा लिखे खेलकूद संबंधी लेख
, 11 सितंबर के हमलों के बाद इंडीपेनडेंट में ख़ान का संपादकीय
, पाकिस्तान में भुट्टो की वापसी पर, ख़ान की 2007 संपादकीय
सन्दर्भ
अतिरिक्त पठन
बाहरी कड़ियाँ
, ख़ान का राजनीतिक दल
, ब्रैडफ़ोर्ड विश्वविद्यालय में मुखपृष्ठ
|-
|-
|Precededby
दल का गठन
| पाकिस्तान तहरीक-ए-इन्साफ के अध्यक्ष
१९९६ – वर्तमान
| Succeededby
पदस्थ
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!Sporting positions
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|-
|Precededby
ज़हीर अब्बास
ज़हीर अब्बास
अब्दुल क़ादिर
| पाकिस्तानी क्रिकेट कप्तान
1982–1983
1985–1987
1989–1992
| Succeededby
सरफराज नवाज़
अब्दुल क़ादिर
जावेद मियांदाद
|-
श्रेणी:जीवित लोग
श्रेणी:पाकिस्तान के प्रधानमंत्री
श्रेणी:1975 क्रिकेट विश्व कप में क्रिकेट खिलाड़ी
श्रेणी:1979 क्रिकेट विश्व कप में क्रिकेट खिलाड़ी
श्रेणी:1983 क्रिकेट विश्व कप में क्रिकेट खिलाड़ी
श्रेणी:1987 क्रिकेट विश्व कप में क्रिकेट खिलाड़ी
श्रेणी:1992 क्रिकेट विश्व कप में क्रिकेट खिलाड़ी
श्रेणी:आईसीसी क्रिकेट हॉल ऑफ़ फ़ेम में प्रविष्ट लोग
श्रेणी:ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय क्रिकेटर
श्रेणी:केबल कॉलेज, ऑक्सफोर्ड के पूर्व छात्र
श्रेणी:पश्तून लोग
श्रेणी:पाकिस्तान इंटरनेशनल एयरलाइंस के क्रिकेटर
श्रेणी:पाकिस्तान के एकदिवसीय क्रिकेटर
श्रेणी:पाकिस्तान टेस्ट क्रिकेटर
श्रेणी:पाकिस्तानी क्रिकेट कप्तान
श्रेणी:पाकिस्तानी राजनीतिज्ञ
श्रेणी:पाकिस्तानी समाजसेवक
श्रेणी:ब्रैडफोर्ड विश्वविद्यालय के कुलपति
श्रेणी:लाहौर क्रिकेटर
श्रेणी:लाहौर के लोग
श्रेणी:वर्ल्ड सीरीज क्रिकेट खिलाड़ी
श्रेणी:विसडेन वर्ष के क्रिकेटर्स
श्रेणी:गूगल परियोजना
श्रेणी:1952 में जन्मे लोग
श्रेणी:पाकिस्तानी क्रिकेट खिलाड़ी | इमरान ख़ान नियाज़ी की पहली पत्नी का नाम क्या था? | जेमिमा गोल्डस्मिथ | 2,356 | hindi |
09151f722 | भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम १९४७ (Indian Independence Act 1947) युनाइटेड किंगडम की पार्लियामेंट द्वारा पारित वह विधान है जिसके अनुसार ब्रिटेन शासित भारत का दो भागों (भारत तथा पाकिस्तान) में विभाजन किया गया। यह अधिनियम को 18 जुलाई 1947 को स्वीकृत हुआ और १५ अगस्त १९४७ को भारत बंट गया।
माउंटबेटन योजना
लॉर्ड माउंटबेटन, भारत के विभाजन और सत्ता के त्वरित हस्तान्तरण के लिए भारत आये। 3 जून 1947 को माउंटबेटन ने अपनी योजना प्रस्तुत की जिसमे भारत की राजनीतिक समस्या को हल करने के विभिन्न चरणों की रुपरेखा प्रस्तुत की गयी थी। प्रारम्भ में यह सत्ता हस्तांतरण विभाजित भारत की भारतीय सरकारों को डोमिनियन के दर्जे के रूप में दी जानी थीं।
माउंटबेटन योजना के मुख्य प्रस्ताव
भारत को भारत और पाकिस्तान में विभाजित किया जायेगा,
बंगाल और पंजाब का विभाजन किया जायेगा और उत्तर पूर्वी सीमा प्रान्त और असम के सिलहट जिले में जनमत संग्रह कराया जायेगा।
पाकिस्तान के लिए संविधान निर्माण हेतु एक पृथक संविधान सभा का गठन किया जायेगा।
रियासतों को यह छूट होगी कि वे या तो पाकिस्तान में या भारत में सम्मिलित हो जायें या फिर खुद को स्वतंत्र घोषित कर दें।
भारत और पाकिस्तान को सत्ता हस्तान्तरण के लिए 15 अगस्त 1947 का दिन नियत किया गया।
ब्रिटिश सरकार ने भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 को जुलाई 1947 में पारित कर दिया। इसमें ही वे प्रमुख प्रावधान शामिल थे जिन्हें माउंटबेटन योजना द्वारा आगे बढ़ाया गया था।
विभाजन और स्वतंत्रता
सभी राजनीतिक दलों ने माउंटबेटन योजना को स्वीकार कर लिया। सर रेडक्लिफ की अध्यक्षता में दो आयोगों का ब्रिटिश सरकार ने गठन किया जिनका कार्य विभाजन की देख-रेख और नए गठित होने वाले राष्ट्रों की अन्तर्राष्ट्रीय सीमाओं को निर्धारित करना था। स्वतंत्रता के समय भारत में 562 छोटी और बड़ी रियासतें थीं। भारत के प्रथम गृहमंत्री वल्लभभाई पटेल ने इस सन्दर्भ में कठोर नीति का पालन किया। 15 अगस्त 1947 तक जम्मू कश्मीर, जूनागढ़ व हैदराबाद जैसे कुछ अपवादों को छोड़कर सभी रियासतों ने विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए थे। गोवा पर पुर्तगालियों और पुदुचेरी पर फ्रांसीसियों का अधिकार था।
सम्बन्धित कालक्रम
१ सितंबर १९३९ - २ सितम्बर १९४५ - द्वितीय विश्वयुद्ध चला। युद्ध के पश्चात ब्रितानी सरकार ने आजाद हिन्द फौज के अधिकारियों पर मुकद्दमा चलाने की घोषणा की, जिसका भारत में बहुत विरोध हुआ।
जनवरी १९४६ - सशस्त्र सेनाओं में छोटे-बड़े अनेकों विद्रोह हुए।
१८ फरवरी सन् १९४६ - मुम्बई में रायल इण्डियन नेवी के सैनिकों द्वारा पहले एक पूर्ण हड़ताल की गयी और उसके बाद खुला विद्रोह भी हुआ। इसे ही नौसेना विद्रोह या 'मुम्बई विद्रोह' (बॉम्बे म्युटिनी) के नाम से जाना जाता है।
फरवरी 1946 - ब्रितानी प्रधानमंत्री एटली ने भारत में एक तीन सदस्यीय उच्चस्तरीय शिष्टमंडल भेजने की घोषणा की। इस मिशन को विशिष्ट अधिकार दिये गये थे तथा इसका कार्य भारत को शांतिपूर्ण सत्ता हस्तांतरण के लिये, उपायों एवं संभावनाओं को तलाशना था।
१६ मई १९४६ - आरंभिक बातचीत के बाद मिशन ने नई सरकार के गठन का प्रस्ताव रखा जिसमें भारत को बिना बांटे सत्ता हस्तान्तरित करने की बात की गयी थी।
१६ जून १९४६ - अपने १५ मई की घोषणा के उल्टा इस दिन कैबिनेट मिशन ने घोषणा की कि भारत को दो भागों में विभाजित करके दोनों भागों को सत्ता हस्तान्तरित की जाएगी।
20 फरवरी 1947 - ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमन्त्री सर रिचर्ड एडली ने घोषणा की कि ब्रितानी सरकार भारत को जून १९४८ के पहले पूर्ण स्वराज्य का अधिकार दे देगी।
१८ मार्च १९४७ - एडली ने माउन्टबेटन को पत्र लिखा जिसमें देशी राजाओं के भविष्य के बारे में ब्रितानी सरकार के विचार रखे।
3 जून 1947 - माउंटबेटन योजना प्रस्तुत ; इसका प्रमुख बिन्दु यह था कि आगामी १५ अगस्त १९४७ को भारत को दो भागों में विभाजित करके दो पूर्ण प्रभुतासम्पन्न देश (भारत और पाकिस्तान) बनाए जाएंगे।
४ जून १९४७ - माउण्टबैटन ने पत्रकार वार्ता की जिसमें उन्होने ५७० देशी रियासतों के प्रश्न पर अपने विचार रखे।
18 जुलाई 1947 - ब्रिटिश सरकार ने भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम पारित कर दिया।
15 अगस्त 1947 - ब्रितानी भारत का विभाजन / भारत और पाकिस्तान दो स्वतन्त्र राष्ट्र बने।
इन्हें भी देखें
भारत का विभाजन
श्रेणी:भारत का इतिहास
श्रेणी:भारत का विभा | भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम १९४७ को शाही स्वीकृति किस तारीख को मिली थी? | 18 जुलाई 1947 | 219 | hindi |
1d7c68a35 | गाजीपुर भारत के उत्तर प्रदेश प्रान्त का एक शहर है। इसकी स्थापना तुग़लक़ वंश के शासन काल में सैय्यद मसूद ग़ाज़ी द्वारा की गयी थी । ऐतिहासिक दस्तावेजों के मुताबिक ग़ाज़ीपुर के कठउत पृथ्वीराज चौहान के वंशज राजा मांधाता का गढ़ था। राजा मांधाता दिल्ली सुल्तान की अधीनता को अस्वीकार कर स्वतंत्र रूप से शासन कर रहा था। दिल्ली के तुगलक वंश के सुल्तान को इस बात की सूचना दी गई जिसके बाद मुहम्मद बिन तुगलक के सिपहसालार सैयद मसूद अल हुसैनी ने सेना की टुकड़ी के साथ राजा मांधाता के गढ़ पर हमला कर दिया। इस युद्ध में राजा मांधाता की पराजय हुई। जिसके बाद मृत राजा की संपत्ति का उत्तराधिकारी सैयद मसूद अल हुसैनी को बनादिया गया। इस जंग में जीत के बाद दिल्ली सुल्तान की ओर से सैयद मसूद अल हुसैनी को मलिक-अल-सादात गााजी की उपाधि से नवाजा गया। जिसके बाद सैयद मसूद गाजी ने कठउत के बगल में गौसुपर को अपना गढ़ बनाया।[1]
गाजीपुर, अंग्रेजों द्वारा १८२० में स्थापित, विश्व में सबसे बड़े अफीम के कारखाने के लिए प्रख्यात है। यहाँ हथकरघा तथा इत्र उद्योग भी हैं। ब्रिटिश भारत के गवर्नर जनरल लोर्ड कार्नवालिस की मृत्यु यहीं हुई थी तथा वे यहीं दफन हैं। शहर उत्तर प्रदेश - बिहार सीमा के बहुत नजदीक स्थित है। यहाँ की स्थानीय भाषा भोजपुरी एवं हिंदी है। यह पवित्र शहर बनारस के ७० की मी पूर्व में स्थित है।
इतिहास
वैदिक काल में ग़ाज़ीपुर घने वनों से ढका था तथा उस समय यहाँ कई संतों के आश्रम थे। इस स्थान का सम्बन्ध रामायण से भी है। कहा जाता है कि महर्षि परशुराम के पिता जमदग्नि यहाँ रहते थे। प्रसिद्ध गौतम महर्षि तथा च्यवन ने यहीं शिक्षा प्राप्त की। भगवान बुद्ध ने अपना पहला प्रवचन सारनाथ में दिया था जोकि यहाँ से अधिक दूर नहीं है। बहुत से स्तूप उस काल के प्रमाण हैं।
ग़ाज़ीपुर सल्तनत काल से मुग़ल काल तक एक महत्त्वपूर्ण क्षेत्र था। प्रसिद्ध टेलिविजन धारावाहिक "महाभारत" के पटकथा लेखक "राही मासूम रज़ा" का जन्म यहीं के ग्राम "गंगौली" में हुआ था।और यहाँ पर शहीद वीर अब्दुल हमीद का भी जन्म हुआ था।
यह राजा गांधी नगरी रही हैं।
भूगोल
गाजीपुर, उत्तर प्रदेश के पूर्वी भाग में, गंगा नदी के किनारे स्थित है। इसके पश्चिम में बनारस, उत्तर में मऊ, पूर्व में बलिया और पश्चिमोत्तर में जौनपुर दक्षिण मे चंदौली जिला स्थित हैं इसके पास स्थित हैं। गंगा किनारे होने के कारण यहाँ की मिटटी बहुत उपजाऊ है। कृषि यहाँ का प्रमुख व्यवसाय है। गेहूं, धान और गन्ना यहाँ की मुख्य फ़सलें हैं।
गंगा घाट
पवित्र नदी मानी जाने वाली "गंगा नदी" गाजीपुर से होकर बहती है।यह नदी गाजीपुर के सिधौना क्षेत्र से गोमती नदी का संगम करते हुए जिले में प्रवेश करती है| गाजीपुर में वाराणसी के घाटों की तरह कई गंगा घाट हैं जिनमें प्रमुख ददरीघाट, कलेक्टर घाट, स्टीमर घाट, चितनाथ घाट, पोस्ताघाट, रामेश्वर घाट, पक्का घाट, कंकड़िया घाट, महादेव घाट, सिकंदरपुर घाट, श्मशान घाट(सबसे पूर्व दिशा ) तथा मुख्य रूप से सिकन्दरपुर घाट जो करण्डा परगना मे प्रचलित घाटो मे शामिल हैं। अतः इसे "लहुरी काशी" भी कहते हैं।
कामाख्या धाम
यह शहर से 40 किलोमीटर दूर, गहमर पुलिस स्टेशन के तहत एक हिन्दू देवी, माँ कामाख्या का मंदिर है। यह मंदिर गदाईपुर गांव में स्थित है। संरक्षण और तीर्थयात्रियों की सुरक्षा के लिए वहाँ एक पुलिस बूथ स्थापित किया गया है। यह अच्छी तरह से सड़क मार्ग से जुड़ा हुआ है। रामनवमी के समय यहाँ बहुत भीड़ रहती है।
महाहर धाम
यह शहर से 30 किलोमीटर दूर कासिमाबाद क्षेत्र में स्थित शहर का सबसे बड़ा तीर्थस्थल है। माना जाता है कि महाशिवरात्री के दिन काशी विश्वनाथ यहाँ पधारते हैं और निकट स्थित कुंड में स्नान करते हैं। चौरी और कराहिया और हथौरी के पास रेलवे लाइन और खमाया धाम माता मंदिर और वहाँ माँ दुर्गा मन्दिर है द्वारा निकट स्थित है।
यह भी माना जाता है कि भगवान श्री राम के पिता, दशरथ ने इसी स्थान पर श्रवण कुमार को बाण मारा था।
नेहरू स्टेडियम
यह गाजीपुर शहर का एकमात्र स्टेडियम है, जिसका नाम भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नाम पड़ा है। यह एक छोटा तथा सरकारी स्टेडियम है। इसमें एक व्यायामशाला भी है। स्टेडियम आम तौर पर विभिन्न जिला स्तरीय खेलकूद प्रतियोगिताओं के लिए प्रयोग किया जाता है।
रामलीला मैदान
रामलीला मैदान लंका मैदान के नाम से भी जाना जाता है। यह शहर के बीच में स्थित एक मैदान है, जहाँ रामलीला होता है। यह चारदीवारी से घिरा हुआ तथा दो मुख्य गेट के साथ सुव्यवस्थित है। जनसभा एवं प्रदर्शनी इत्यादि भी इसी मैदान में होते हैं। इसके किनारे एक तालाब भी है।
धामुपुर
यह गाजीपुर शहर से 37 किमी दूर एक छोटा सा गाँव है जो परमवीर चक्र विजेता वीर अब्दुल हमीद का जन्म स्थान भी है। वीर अब्दुल हमीद, भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान भारतीय सेना में एक सैनिक थे जिन्होंने पाकिस्तान की कई टैंकों को नष्ट किया था तथा देश की रक्षा के लिए सर्वोच्च बलिदान दिया।
शिक्षा
यहाँ प्रमुख 5 स्नातकोत्तर महाविद्यालय तथा 100 से भी अधिक विद्यालय हैं जब की जनपद गाजीपुर मे 150 स्वपोषित महाविद्यालय है हर वर्ष की तरह गाजीपुर मे शिक्षा मे विद्यालय का अभीष्ट योगदान रहा हैं । गाजीपुर जनपद के कुछ पुराने महाविद्यालयों का नाम इस प्रकार है:
पीजी कॉलेज, रविंद्रपुरी, पीरनगर
स्वामी सहजानन्द पीजी कॉलेज, पीरनगर
महाबीर इंटर कालेज, मलिकपुरा गाज़ीपुर
खरडीहा डिग्री कॉलेज, खरडीहा, गाजीपुर
समता स्नातकोत्तर महाविद्यालय , सादात , गाजीपुर
स्वामी सहजानन्द पीजी कॉलेज, पीरनगर
राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, आमघाट, गाजीपुर
शहीद स्मारक गवर्नमेंट डिग्री कॉलेज, मोहम्मदाबाद, गाजीपुर
एस के बी एम डिग्री कालेज दिलदारनगर गाजीपुर
बी के महिला महाविद्यालय उसिया गाजीपुर
जहान्गिरिया गर्ल्स हाई स्कुल उसिया गाजीपुर
आदर्श इंटर कालेज दिलदारनगर गाजीपुर
राम दास बालिका इंटर कालेज मेदनीपुर करण्डा गाजीपुर
पं. दीनदयाल उपाध्याय राजकीय महाविद्यालय सैदपुर गाजीपुर
मोहन मेमोरियल प्रयाग महाविद्यालय शिवदासीचक बसुचक सैदपुर गाजीपुर
स्व० रामायन सिंह इंटर कालेज गोशन्देपुर करण्डा गाजीपुर
इंटर कालेज करण्डा गाजीपुर
प्रसिद्ध व्यक्ति
दिनेश लाल यादव
राही मासूम रज़ा
विश्वनाथ सिंह गहमरी
सरयू पांडेय
अब्दुल हमीद
रामबहादुर राय ,पत्रकार
विवेकी राय, हिन्दी और भोजपुरी भाषा के साहित्यकार
विनोद राय ,पूर्व नियन्त्रक एवं महालेखापरीक्षक
श्री मनोज सिन्हा(सांसद व रेल राज्य एवं संचार मंत्री)
डॉ॰संगीता बलवंत (विधायक सदर)
श्री नारायण दास (प्र.सदस्य,जिला योजना समिति)
भीतरी (गाँव)
भीतरी, उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले में सैदपुर से उत्तर-पूर्व की ओर लगभग पाँच मील की दूरी पर स्थित ग्राम है। ग्राम से बाहर चुनार के लाल पत्थर से निर्मित एक स्तंभ खड़ा है जिसपर गुप्त शासकों की यशस्वी परंपरा के गुप्त सम्राट स्कंदगुप्त का अभिलेख उत्कीर्ण है। यद्यपि लेख ऋतुघृष्ट है, पत्थर यत्र तत्र टूट गया है तथा बाईं ओर ऊपर से नीचे तक एक दरार सी है तथापि संपूर्ण लेख मूल स्तंभ पर पूर्णतया स्पष्ट है तथा उसका ऐतिहासिक स्वरूप सुरक्षित सा है।
लेख की भाषा संस्कृत है। छठीं पंक्ति के मध्य तक गद्य में है, शेष पद्य में। लेख पर कोई तिथि अकित नहीं है। इसका उद्देश्य शार्ग्ङिन विष्णु की प्रतिमा की स्थापना का अभिलेखन तथा उस ग्राम को, जिसमें स्तंभ खड़ा है, विष्णु को समर्पित करना है। लेख में इस ग्राम के नाम का उल्लेख नहीं है।
भीतरी का स्तंभलेख ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। उसमें गुप्त सम्राज्य पर पुष्पमित्रों तथा हूणों के बर्बर आक्रमण का संकेत है। लेख के अनुसार पुष्पमित्रों ने अपना कोष और अपनी सेना बहुत बढ़ा ली थी और सम्राट कुमारगुप्त की मरणासन्नावस्था में उन्होंने गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण किया। युवराज स्कंदगुप्त ने सेना का सफल नेतृत्व किया। उसने युद्धक्षेत्र में पृथ्वीतल पर शयन किया। पुष्पमित्रों को परास्त कर पिता कुमारगुप्त की मृत्यु के अनंतर स्कंदगुप्त ने अपनी विजय का संदेश साश्रुनेता माता को उसी प्रकार सुनाया जिस प्रकार कृष्ण ने शत्रुओं के मारकर देवकी को सुनाया था।
हूणों की जिस बर्बरता ने रोमन साम्राज्य को चूर चूर कर दिया था वह एक बार यशस्वी स्कंदगुप्त की चोट से थम गई। स्कंदगुप्त की भुजाओं के हूणों के साथ समर में टकरा जाने से भयंकर आवर्त बन गया, धरा काँप गई। स्कंदगुप्त ने उन्हें पराजित किया। परंतु अनवरत हूण आक्रमणों से गुप्त साम्राज्य के जोड़ जोड़ हिल उठे और अंत में साम्राज्य की विशाल अट्टालिका अपनी ही विशालता के खंडहरों में खो गई।
सन्दर्भ
श्रेणी:उत्तर प्रदेश के नगर | ग़ाज़ीपुर शहर, भारत के किस राज्य में स्थित है? | उत्तर प्रदेश | 16 | hindi |
23bef4fae | सोलोमन द्वीप है एक संप्रभु देश मिलकर के छह प्रमुख द्वीपों और 900 से अधिक छोटे द्वीपों में ओशिनिया के लिए झूठ बोल के पूर्व पापुआ न्यू गिनी और नॉर्थवेस्ट के वानुअतु और कवर एक भूमि क्षेत्र के साथ 28,400 वर्ग किलोमीटर (11,000वर्गमील)है। देश की राजधानी होनियारा, द्वीप पर स्थित है के गुआडलकैनाल. देश से उसका नाम लेता है सोलोमन द्वीप द्वीपसमूहहै, जो एक संग्रह Melanesian द्वीप भी शामिल है कि के उत्तर में सोलोमन द्वीप समूह का हिस्सा (पापुआ न्यू गिनी), लेकिन शामिल नहीं दूरस्थ द्वीप, इस तरह के रूप में Rennell और Bellona, और सांताक्रूज द्वीप.
द्वीपों बसे हुए किया गया है वर्षों के हजारों के लिए. 1568 में, स्पेनिश नाविक Álvaro de Mendaña था पहली यूरोपीय यात्रा करने के लिए उन्हें, उन्हें नामकरण के इस्लास Salomón.[1] ब्रिटेन परिभाषित अपनी रुचि के क्षेत्र में सोलोमन द्वीप द्वीपसमूह में जून 1893, जब कप्तान आर. एन गिब्सन की, एचएमएस<i data-parsoid='{"dsr":[1167,1178,2,2]}'>Curacoa</i>घोषित दक्षिणी सोलोमन द्वीप के रूप में एक ब्रिटिश संरक्षित राज्य.[2] के दौरान द्वितीय विश्व युद्ध, के सोलोमन द्वीप अभियान (1942-1945) देखा भीषण लड़ाई के बीच संयुक्त राज्य अमेरिका और जापान के साम्राज्यमें, इस तरह के रूप में गुआडलकैनाल की लड़ाईहै।
आधिकारिक नाम की तो ब्रिटिश विदेशी क्षेत्र से बदल गया था "ब्रिटिश सोलोमन द्वीप संरक्षित करने के लिए" "सोलोमन द्वीप" में 1975. स्वयं सरकार में हासिल किया गया था 1976; स्वतंत्रता प्राप्त हुई थी दो साल बाद. आज, सोलोमन द्वीप है एक संवैधानिक राजशाही के साथ की रानी सोलोमन द्वीप समूह, वर्तमान में महारानी एलिजाबेथ द्वितीयके रूप में, अपने राज्य के प्रमुख. मनश्शे Sogavare है वर्तमान प्रधानमंत्रीहै।
नाम
1568 में, स्पेनिश नाविक Álvaro de Mendaña था पहली यूरोपीय यात्रा करने के लिए सोलोमन द्वीप द्वीपसमूह, यह नामकरण इस्लास Salomón ("सोलोमन द्वीप") के बाद अमीर बाइबिल का राजा सुलैमान.[1] यह कहा जाता है कि वे दिए गए थे, इस नाम में गलत धारणा है कि वे निहित महान धन.[3]
के दौरान सबसे अधिक अवधि में ब्रिटिश शासन के क्षेत्र में किया गया था आधिकारिक तौर पर नामित "ब्रिटिश सोलोमन द्वीप संरक्षित".[4] पर 22 जून, 1975 के क्षेत्र में नाम दिया गया था "सोलोमन द्वीप".[4] जब सोलोमन द्वीप बन गया स्वतंत्र 1978 में वे नाम को बनाए रखा है। निश्चित लेख,"", का हिस्सा नहीं है देश के आधिकारिक नाम है, लेकिन कभी कभी इस्तेमाल किया जाता है, दोनों के भीतर और देश के बाहर.
इतिहास
प्रारंभिक इतिहास
यह माना जाता है कि Papuanबोलने बसने के लिए शुरू किया, आने के आसपास 30,000ई.पू.[5] ऑस्ट्रोनेशियाई वक्ताओं पहुंचे सी.4000ईसा पूर्व में भी लाने सांस्कृतिक तत्वों के रूप में इस तरह के अउटरिगर डोंगी. 1200 के बीच और 800 ई. पू. पूर्वजों के पॉलिनेशियन, Lapita लोगों से पहुंचे बिस्मार्क द्वीपसमूह के साथ उनकी विशेषता चीनी मिट्टी की चीज़ें.[6]
यूरोपीय संपर्क (1568)
पहली यूरोपीय यात्रा करने के लिए द्वीप था स्पेनिश नाविक Álvaro de Mendaña de Neiraसे आ रहा है, पेरू में 1568. के लोगों को सोलोमन द्वीप थे के लिए कुख्यात नौकरी दिलाने और नरभक्षण के आने से पहले गोरों.[7]
मिशनरियों का दौरा शुरू किया सुलैमान में मध्य 19 वीं सदी। वे कम प्रगति हुई पहली बार में, क्योंकि "blackbirding" (अक्सर क्रूर भर्ती या अपहरण के मजदूरों के लिए चीनी वृक्षारोपण में क्वींसलैंड और फिजी) करने के लिए नेतृत्व की एक श्रृंखला reprisals और नरसंहार. बुराइयों के श्रम व्यापार के लिए प्रेरित किया, संयुक्त राज्य घोषित करने के लिए एक संरक्षित राज्य के दक्षिणी सुलैमान जून में 1893.[8]
1898 में और 1899 में, अधिक दूरस्थ द्वीप समूह के लिए जोड़ा गया था संरक्षित; 1900 में शेष द्वीपसमूह के, एक क्षेत्र है कि पहले के तहत जर्मन के अधिकार क्षेत्र मेंस्थानांतरित किया गया था, के लिए ब्रिटिश प्रशासन के अलावा, द्वीपों के Buka और Bougainville, जो बने रहे के तहत जर्मन प्रशासन के भाग के रूप में जर्मन न्यू गिनी. पारंपरिक व्यापार और सामाजिक संभोग के बीच पश्चिमी सोलोमन द्वीप के मोनो और Alu Alu (Shortlands) और पारंपरिक समाज के दक्षिण में Bougainville, हालांकि, जारी रखा बाधा के बिना.
मिशनरियों में बसे सुलैमान के तहत संरक्षित परिवर्तित करने, जनसंख्या के अधिकांश के लिए ईसाई धर्म है। 20 वीं सदी में कई ब्रिटिश और ऑस्ट्रेलियाई कंपनियों के शुरू में बड़े पैमाने पर नारियल का रोपण. आर्थिक विकास धीमा था, हालांकि, और श्रीलंका लाभान्वित कम है.
पत्रकार जो Melvin का दौरा किया 1892 में, के हिस्से के रूप में अपने मुखौटे जांच में blackbirding. 1908 में द्वीपों का दौरा कर रहे थे द्वारा जैक लंदनगया था, जो मंडरा प्रशांत पर अपने नाव, Snark.
द्वितीय विश्व युद्ध के
फैलने के साथ द्वितीय विश्व युद्ध के सबसे बागान मालिकों और व्यापारियों के लिए ले जाया गया, ऑस्ट्रेलिया और अधिकांश खेती रह गए हैं. कुछ सबसे तीव्र लड़ाई के युद्ध में हुई सुलैमान. के सबसे महत्वपूर्ण मित्र देशों की सेनाओं के संचालन के खिलाफ जापानी शाही सेना पर शुरू किया गया था 7 अगस्त 1942 के साथ, एक साथ नौसैनिक बमबारी और द्विधा गतिवाला उतरने पर फ्लोरिडा के द्वीपों पर Tulagi[9] और लाल समुद्र तट पर गुआडलकैनाल.
के गुआडलकैनाल की लड़ाई बन गया एक महत्वपूर्ण और खूनी अभियान लड़ा प्रशांत क्षेत्र में युद्ध के रूप में, मित्र राष्ट्रों के लिए शुरू किया मुकाबला करने के लिए, विस्तार। सामरिक महत्व के युद्ध के दौरान थे coastwatchers ऑपरेटिंग दूरदराज के स्थानों में, अक्सर जापानी द्वीपों आयोजित उपलब्ध कराने, जल्दी चेतावनी और खुफिया के जापानी नौसेना, सेना और विमान आंदोलनों अभियान के दौरान.[10]
हवलदार मेजर याकूब Vouza था एक उल्लेखनीय coastwatcher है, जो कब्जा करने के बाद से इनकार कर दिया प्रकट करने के लिए संबद्ध जानकारी के बावजूद पूछताछ और यातना जापानी शाही सेना. उन्होंने से सम्मानित किया गया एक सिल्वर स्टार पदक अमेरिका, जो संयुक्त राज्य अमेरिका' तीसरी उच्चतम सजावट के लिए वीरता से निपटने में
श्रीलंका Biuku Gasa और Eroni Kumana पहले थे खोजने के लिए shipwrecked जॉन एफ कैनेडी और उसके चालक दल के पीटी-109. वे सुझाव का उपयोग कर एक नारियल लिखने के लिए एक बचाव संदेश द्वारा प्रसव के लिए डोंगी डोंगी किया गया था, जो बाद में पर रखा कैनेडी के डेस्क बन गया जब वह संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपतिहै.
सोलोमन द्वीप समूह में से एक था प्रमुख मचान के क्षेत्रों में दक्षिण प्रशांत और घर गया था के लिए प्रसिद्ध VMF-214 "काली भेड़" स्क्वाड्रन कमान प्रमुख ग्रेग "अब्बा" Boyington. "स्लॉट" के लिए गया था के लिए एक नाम नए जॉर्जिया ध्वनि, जब यह द्वारा इस्तेमाल किया गया था टोक्यो एक्सप्रेस की आपूर्ति करने के लिए जापानी चौकी पर गुआडलकैनाल. के 36,000 से अधिक जापानी पर गुआडलकैनाल के बारे में 26,000 मारे गए थे या लापता, 9,000 बीमारी से मर गया, और 1,000 कब्जा कर लिया गया है। [11]
स्वतंत्रता (1978)
स्थानीय परिषदों की स्थापना 1950 के दशक में द्वीपों के रूप में स्थिर के बाद से द्वितीय विश्व युद्ध के. एक नए संविधान में स्थापित किया गया था, 1970 के चुनाव आयोजित किए गए थे, हालांकि संविधान में चुनाव लड़ा था और एक नया एक में बनाया गया था 1974. 1973 में पहली बार तेल की कीमत झटके हुई है, और वृद्धि की लागत में चल रहा है की एक कॉलोनी बन गया है स्पष्ट करने के लिए ब्रिटिश प्रशासकों.
निम्नलिखित की स्वतंत्रता पड़ोसी पापुआ न्यू गिनी से ऑस्ट्रेलिया में 1975, सोलोमन द्वीप प्राप्त की स्व-सरकार ने 1976 में. स्वतंत्रता दी गई थी पर 7 जुलाई 1978. प्रथम प्रधानमंत्री सर पीटर Kenilorea, और सोलोमन द्वीप बनाए रखा राजशाही है।
जातीय हिंसा (1998-2003)
आमतौर पर संदर्भित करने के लिए के रूप में तनाव या जातीय तनाव, प्रारंभिक नागरिक अशांति गया था मुख्य रूप से विशेषता है, के बीच लड़ाई के Isatabu स्वतंत्रता आंदोलन (रूप में भी जाना जाता गुआडलकैनाल क्रांतिकारी सेना) और Malaita ईगल बल (के रूप में अच्छी तरह के रूप में मारौ ईगल बल)। (हालांकि बहुत संघर्ष के बीच में था Guales और Malaitans, Kabutaulaka (2001)[12] और Dinnen (2002) का तर्क है कि 'जातीय संघर्ष' लेबल है एक अति सरलीकरण है। )
देर से 1998 में, आतंकवादियों के द्वीप पर गुआडलकैनाल एक अभियान शुरू किया की धमकियों और हिंसा के प्रति Malaitan बसने. अगले वर्ष के दौरान, हजारों की Malaitans वापस भाग गए करने के लिए Malaita या करने के लिए, राजधानी होनियारा (जो है, हालांकि पर स्थित गुआडलकैनाल, मुख्य रूप से आबादी Malaitans और सोलोमन आइलैंड अन्य प्रांतों से). 1999 में, Malaita ईगल बल (MEF) में स्थापित किया गया था प्रतिक्रिया.
सुधारवादी सरकार के Bartholomew Ulufa'alu के लिए संघर्ष करने के लिए प्रतिक्रिया की जटिलताओं को यह विकसित हो रहा संघर्ष है। देर से 1999 में, सरकार घोषित एक चार महीने के आपातकाल की स्थिति है। वहाँ भी थे के एक नंबर सुलह के प्रयास करने के लिए, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. Ulufa'alu भी अनुरोध सहायता से ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में 1999 लेकिन उसकी अपील को खारिज कर दिया था।
जून 2000 में, Ulufa'alu द्वारा अपहरण किया गया था मिलिशिया के सदस्यों के MEF जो महसूस किया है कि, हालांकि वह था एक Malaitan, वह पर्याप्त नहीं कर रहा था करने के लिए उनके हितों की रक्षा. Ulufa'alu बाद में इस्तीफा दे दिया है, उनकी रिहाई के बदले में. मनश्शे Sogavareथा, जो पहले किया गया है में वित्त मंत्री Ulufa'alu की सरकार थी लेकिन बाद में शामिल हो गए विपक्ष के रूप में चुना गया प्रधानमंत्री द्वारा 23-21 पर रेव लेस्ली Boseto. हालांकि Sogavare के चुनाव के तुरंत विवाद में डूबा है, क्योंकि छह सांसदों (सोचा जा करने के लिए समर्थकों के Boseto) में असमर्थ थे करने के लिए भाग लेने के लिए संसद के महत्वपूर्ण वोट (मूर 2004, एन.5 पर पी.174).
अक्टूबर 2000 में, टाउन्सविले शांति समझौते,[13] द्वारा हस्ताक्षर किए गए थे Malaita ईगल बल के तत्वों, IFM, और सोलोमन द्वीप सरकार है। इस बारीकी से किया गया था के द्वारा पीछा किया, Marau शांति समझौते फरवरी 2001 में, द्वारा हस्ताक्षर किए मारौ ईगल बल, Isatabu स्वतंत्रता आंदोलन, गुआडलकैनाल प्रांतीय सरकार, और सोलोमन द्वीप सरकार है। हालांकि, एक महत्वपूर्ण Guale उग्रवादी नेता हेरोल्ड Keke, से इनकार कर दिया समझौते पर हस्ताक्षर करने के कारण, एक विभाजन के साथ Guale समूहों. बाद में, Guale समझौते पर हस्ताक्षर करने वालों के नेतृत्व में एंड्रयू ते ' e के साथ शामिल हो गए Malaitan बहुल पुलिस के रूप में करने के लिए 'संयुक्त कार्रवाई बल' है। अगले दो वर्षों के दौरान संघर्ष करने के लिए ले जाया Weathercoast के गुआडलकैनाल के रूप में संयुक्त अभियान असफल कोशिश की पर कब्जा करने के लिए Keke और उनके समूह.
नए चुनाव दिसंबर 2001 में लाया सर एलन Kemakeza में प्रधानमंत्री की कुर्सी के समर्थन के साथ अपने लोगों की गठबंधन पार्टी और संघ के स्वतंत्र सदस्य हैं। कानून और व्यवस्था की खराब की प्रकृति के रूप में संघर्ष स्थानांतरित कर दिया: वहाँ था जारी हिंसा पर Weathercoast जबकि आतंकवादियों होनियारा में तेजी से ध्यान दिया करने के लिए अपराध और जबरन वसूली. वित्त विभाग अक्सर होता है से घिरा हो सशस्त्र आदमी जब धन के कारण था करने के लिए पहुंच जाता है। दिसंबर 2002 में, वित्त मंत्री लॉरी चान के बाद इस्तीफा दे दिया जा रहा है जबरदस्ती बंदूक की नोक पर हस्ताक्षर करने के लिए एक चेक बाहर कर दिया करने के लिए कुछ के आतंकवादियों. संघर्ष भी में बाहर तोड़ दिया पश्चिमी प्रांत के बीच स्थानीय लोगों और Malaitan बसने. पाखण्डी के सदस्यों के Bougainville क्रांतिकारी सेना (ब्रा) में आमंत्रित किया गया था के रूप में एक सुरक्षा बल लेकिन समाप्त हो गया के कारण के रूप में ज्यादा मुसीबत के रूप में वे रोका.
मौजूदा माहौल अराजकता की, बड़े पैमाने पर जबरन वसूली, और अप्रभावी पुलिस प्रेरित एक औपचारिक अनुरोध द्वारा सोलोमन द्वीप सरकार को बाहर से मदद के लिए. के साथ देश दिवालिया और राजधानी में अराजकता, अनुरोध किया गया था सर्वसम्मति से समर्थन किया है संसद में.
जुलाई 2003 में, ऑस्ट्रेलिया और प्रशांत द्वीप के पुलिस और सैनिकों में पहुंचे सोलोमन द्वीप के तत्वावधान में ऑस्ट्रेलियाई के नेतृत्व में क्षेत्रीय सहायता मिशन के लिए सोलोमन द्वीप (RAMSI). एक बड़ा अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा दल के 2,200 पुलिस और सैनिकों के नेतृत्व में ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड, और के प्रतिनिधियों के साथ के बारे में 20 अन्य प्रशांत राष्ट्र है, पहुंचने लगे अगले महीने के तहत आपरेशन Helpem Fren. इस समय के बाद से कुछ टिप्पणीकारों पर विचार किया है देश को एक विफल राष्ट्रहै। [14] हालांकि, अन्य शिक्षाविदों का तर्क है कि जा रहा है के बजाय एक 'असफल राज्य' है, यह एक बेडौल राज्य: एक राज्य है कि कभी नहीं समेकित करने के बाद भी दशकों की आजादी है। [15]
अप्रैल 2006 में, आरोप है कि नव निर्वाचित प्रधानमंत्री स्नाइडर Rini का इस्तेमाल किया था रिश्वत से चीनी व्यापारियों के वोट खरीदने के लिए संसद के सदस्यों का नेतृत्व करने के लिए बड़े पैमाने पर दंगे में राजधानी होनियारा. एक गहरी अंतर्निहित असंतोष के खिलाफ अल्पसंख्यक चीनी व्यापार समुदाय के लिए नेतृत्व के बहुत चीनाटौन शहर में नष्ट किया जा रहा है। [16] तनाव में भी थे की वृद्धि हुई विश्वास है कि पैसे की बड़ी रकम थे होने के नाते चीन को निर्यात किया है। चीन भेजे गए चार्टर्ड विमान खाली करने के लिए सैकड़ों की चीनी भाग गए, जो करने के लिए से बचने के दंगों है। निकासी के ऑस्ट्रेलियाई और ब्रिटिश नागरिक था, एक बहुत छोटे पैमाने पर. अतिरिक्त ऑस्ट्रेलियाई, न्यूजीलैंड और फ़ीजी पुलिस और सैनिकों को भेजा गया था करने के लिए प्रयास करें अशांति को वश में करना है। Rini अंततः इस्तीफा दे दिया है सामना करने से पहले एक प्रस्ताव के आत्मविश्वास में संसद और संसद के निर्वाचित मनश्शे Sogavare प्रधानमंत्री के रूप में.
भूकंप
2 अप्रैल 2007, सोलोमन द्वीप द्वारा मारा गया था एक बड़े भूकंप के बाद एक बड़ी सुनामीहै। प्रारंभिक रिपोर्टों से संकेत दिया है कि सुनामी है, जो मुख्य रूप से प्रभावित छोटे से द्वीप के Gizoथा, कई मीटर से अधिक है (शायद के रूप में उच्च के रूप में 10मीटर (33फुट) कुछ रिपोर्टों के अनुसार, 5मीटर (161/3फुट) के अनुसार, विदेश कार्यालय). सुनामी शुरू हो गया था द्वारा एक 8.0तीव्रता का भूकंप, के साथ एक hypocenter 349 किलोमीटर (217 मील) के उत्तर पश्चिमी द्वीप की राजधानी होनियारामें, Lat -8.453 लंबे 156.957 और एक की गहराई 10किलोमीटर (6.2मील) है। [17]
के अनुसार संयुक्त राज्य अमेरिका भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के भूकंप में 20:39:56 यूटीसी पर रविवार, 1 अप्रैल, 2007. के बाद से प्रारंभिक घटना है और जब तक 22:00:00 यूटीसी पर बुधवार, 4 अप्रैल, 2007, अधिक से अधिक 44 झटकों की एक परिमाण के 5.0 या अधिक से अधिक दर्ज किए गए क्षेत्र में है. से मरने वालों की संख्या जिसके परिणामस्वरूप सुनामी गया था कम से कम 52लोगों को, और सुनामी नष्ट 900 से अधिक घरों को छोड़ दिया और हजारों लोगों को बेघर.[18] भूमि जोर से भूकंप बढ़ा दिया गया है बाहर से shoreline के एक द्वीप, Ranongga, अप करने के लिए 70 मीटर (230फ़ुट) स्थानीय निवासियों के अनुसार.[19] इस छोड़ दिया है कई बार, प्राचीन प्रवाल भित्तियों पर उजागर नवगठित समुद्र तटों.
6 फरवरी, 2013 को सोलोमन द्वीप में भूकंप आपदा में ध्वस्त पंक्तियों के घरों, छोड़ने के अनगिनत पीड़ितों अज्ञात और कथित तौर पर मृतक है. की एक परिमाण के साथ 8.0 इस भूकंप सक्रिय एक मारा कि सुनामी की ऊंचाई अप करने के लिए 1.5 मीटर की दूरी पर है। अग्रणी सप्ताह आपदा के लिए, वहाँ था एक अनुक्रम भूकंप के दस्तावेज पर सांताक्रूज द्वीप समूह की एक परिमाण के साथ 6.0 है.
राजनीति
सोलोमन द्वीप में एक संवैधानिक राजशाही और एक संसदीय प्रणाली की सरकार है। महारानी एलिजाबेथ द्वितीय के सम्राट की सोलोमन द्वीप और राज्य के प्रमुख; वह द्वारा प्रतिनिधित्व किया है के गवर्नर जनरल , जो चुना जाता है के लिए संसद द्वारा एक पांच साल की अवधि. वहाँ एक सभा संसद के 50 सदस्यों के लिए निर्वाचित चार साल की शर्तों के साथ. हालांकि, संसद भंग किया जा सकता है बहुमत द्वारा अपने सदस्यों के पूरा होने से पहले अपने कार्यकाल के.
संसदीय प्रतिनिधित्व के आधार पर एकल सदस्य निर्वाचन क्षेत्रों. मताधिकार सार्वभौमिक है के लिए नागरिकों से अधिक उम्र के 21.[20] की सरकार के सिर है प्रधानमंत्री, जो संसद द्वारा चुने गए है और चुनता है मंत्रिमंडल. प्रत्येक मंत्रालय की अध्यक्षता में मंत्रिमंडल की सदस्य है, जो सहायता के लिए एक स्थायी सचिव, एक कैरियर लोक सेवक जो निर्देशन के कर्मचारियों के मंत्रालय.
सोलोमन द्वीप सरकारों द्वारा characterised रहे हैं कमजोर राजनीतिक दलों (देखें सूची के राजनीतिक दलों में सोलोमन द्वीप) और अत्यधिक अस्थिर संसदीय गठबंधन. वे कर रहे हैं विषय के लिए लगातार वोट की कोई विश्वासकरने के लिए अग्रणी, लगातार परिवर्तन में सरकार का नेतृत्व और कैबिनेट नियुक्तियों.
भूमि के स्वामित्व के लिए आरक्षित है सोलोमन आइलैंड है। कानून प्रदान करता है कि निवासी प्रवासियों, इस तरह के रूप में चीनी और किरिबाती, नागरिकता प्राप्त कर सकते हैं के माध्यम से प्राकृतिक है। भूमि आम तौर पर अभी भी है पर आयोजित एक परिवार या गांव का आधार है और हो सकता है नीचे हाथ से माँ या पिता के अनुसार स्थानीय रिवाज है। श्रीलंका के लिए अनिच्छुक रहे हैं के लिए भूमि उपलब्ध कराने nontraditional आर्थिक उपक्रमों, और इस के परिणामस्वरूप है में निरंतर विवादों भूमि पर स्वामित्व है।
कोई सैन्य बलों द्वारा बनाए रखा सोलोमन द्वीप हालांकि एक पुलिस बल के लगभग 500 में शामिल हैं सीमा सुरक्षा इकाई है। पुलिस भी जिम्मेदार हैं के लिए अग्निशमन सेवा, आपदा राहत, और समुद्री निगरानी. पुलिस बल की अध्यक्षता में एक आयुक्त द्वारा नियुक्त गवर्नर जनरल और के लिए जिम्मेदार प्रधानमंत्री हैं। 27 दिसंबर, 2006, सोलोमन द्वीप सरकार ने कदम को रोकने के लिए देश के ऑस्ट्रेलियाई पुलिस प्रमुख के लिए लौटने से प्रशांत राष्ट्र है। पर 12 जनवरी 2007 में, ऑस्ट्रेलिया की जगह अपने शीर्ष राजनयिक से निष्कासित कर दिया सोलोमन द्वीप के लिए राजनीतिक हस्तक्षेप में एक बातचीत के जरिए समाधान ले जाने के उद्देश्य से सहजता के साथ एक चार महीने के विवाद दोनों देशों के बीच.
13 दिसंबर, 2007 में प्रधानमंत्री ने मनश्शे Sogavare गिरा था एक वोट से कोई विश्वास की संसद में,[21] बाद दलबदल के पांच मंत्रियों के लिए विपक्ष. यह पहली बार एक प्रधानमंत्री को खो दिया था कार्यालय में इस तरह से सोलोमन द्वीप में है। 20 दिसंबर को, संसद के निर्वाचित विपक्ष के उम्मीदवार (और पूर्व मंत्री, शिक्षा) डेरेक Sikua प्रधानमंत्री के रूप में, एक वोट के 32 करने के लिए 15.[22][23]
न्यायपालिका
गवर्नर जनरल की नियुक्ति मुख्य न्यायाधीश की सुप्रीम कोर्ट की सलाह पर प्रधानमंत्री और विपक्ष की नेता हैं। गवर्नर जनरल नियुक्त अन्य न्यायाधीश की सलाह के साथ एक न्यायिक आयोग. न्यायिक समिति के प्रिवी परिषद (यूनाइटेड किंगडम में आधारित) के रूप में कार्य करता सर्वोच्च अपीलीय न्यायालय है। वर्तमान मुख्य न्यायाधीश सर अल्बर्ट पामर.
मार्च 2014 से न्याय एडविन Goldsbrough की सेवा करेंगे के रूप में राष्ट्रपति की अपील की कोर्ट के लिए सोलोमन द्वीप. न्याय Goldsbrough गया है, पहले की सेवा की एक पांच साल के कार्यकाल में एक न्यायाधीश के रूप में उच्च न्यायालय के सोलोमन द्वीप (2006-2011). न्याय एडविन Goldsbrough तो के रूप में सेवा की मुख्य न्यायाधीश के तुर्क और कैकोस द्वीप समूहहै। [24]
विदेशी संबंधों
सोलोमन द्वीप समूह का एक सदस्य है संयुक्त राष्ट्र, राष्ट्रमंडल, प्रशांत द्वीप फोरम, दक्षिण प्रशांत आयोग, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोषऔर यूरोपीय संघ/अफ्रीका, कैरेबियन और प्रशांत (एसीपी) देशों (ईईसी/एसीपी) (Lomé कन्वेंशन).
राजनीतिक मंच के सोलोमन द्वीप प्रभावित किया गया था द्वारा अपनी स्थिति के बारे में चीन के गणराज्य (आरओसी) और पीपुल्स गणतंत्र की चीन (PROC). सोलोमन द्वीप दे दिया राजनयिक मान्यता के लिए चीन के गणराज्य (ताइवान),[25] यह पहचानने के रूप में एकमात्र वैध सरकार के चीन के सभी, इस प्रकार दे ताइवान महत्वपूर्ण वोट में संयुक्त राष्ट्र. आकर्षक निवेश, राजनीतिक धन और ऋण दोनों से चीन के गणराज्य और चीन की पीपुल्स गणराज्य के तेजी से छेड़छाड़ के राजनीतिक परिदृश्य सोलोमन द्वीप.
के साथ संबंधों में पापुआ न्यू गिनीथा, जो तनावपूर्ण हो गई की वजह से शरणार्थियों की बाढ़ से Bougainville विद्रोह और हमलों में उत्तरी द्वीप समूह की सोलोमन द्वीप तत्वों द्वारा पीछा Bougainvillean विद्रोहियों की मरम्मत की गई है. 1998 के एक शांति समझौते पर Bougainville हटाया सशस्त्र खतरा है, और दोनों देशों नियमित सीमा के संचालन में 2004 के एक समझौते.
सैन्य
हालांकि स्थानीय स्तर पर भर्ती ब्रिटिश सोलोमन द्वीप संरक्षित रक्षा बल का हिस्सा था मित्र देशों की सेनाओं में भाग लेने लड़ सुलैमान में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, देश में नहीं था किसी भी नियमित रूप से सैन्य बलों आजादी के बाद से. विभिन्न अर्धसैनिक तत्वों के रॉयल सोलोमन द्वीप पुलिस बल (RSIPF थे) को भंग कर दिया और निरस्त्र में 2003 के हस्तक्षेप के बाद क्षेत्रीय सहायता मिशन के लिए सोलोमन द्वीप (RAMSI). RAMSI एक छोटे से सैन्य टुकड़ी के नेतृत्व में एक ऑस्ट्रेलियाई कमांडर जिम्मेदारियों के साथ सहायता के लिए पुलिस के तत्व RAMSI में आंतरिक और बाहरी सुरक्षा। के RSIPF अभी भी चल रही दो प्रशांत कक्षा गश्ती नौकाओं (RSIPV Auki और RSIPV लता), का गठन जो वास्तविक नौसेना के सोलोमन द्वीप.
लंबे समय में, यह अनुमान है कि RSIPF फिर से शुरू होगा रक्षा की भूमिका देश है। पुलिस बल की अध्यक्षता में एक आयुक्त द्वारा नियुक्त गवर्नर जनरल और जिम्मेदार मंत्री के लिए पुलिस, राष्ट्रीय सुरक्षा और सुधारात्मक सेवा.
पुलिस के बजट में सोलोमन द्वीप किया गया है तनावपूर्ण होने के कारण चार साल के एक नागरिक युद्ध है। निम्नलिखित चक्रवात Zoe's हड़ताल के द्वीपों पर Tikopia और Anuta दिसंबर 2002 में, ऑस्ट्रेलिया को प्रदान किया था सोलोमन द्वीप सरकार के साथ 200,000 सुलैमान डॉलर ($50,000 ऑस्ट्रेलियाई) के लिए ईंधन और आपूर्ति के लिए गश्ती नाव लता पाल करने के लिए राहत के साथ की आपूर्ति. (काम का हिस्सा के RAMSI में शामिल हैं सहायता सोलोमन द्वीप सरकार को स्थिर करने के लिए अपने बजट है। )
प्रशासनिक प्रभाग
स्थानीय सरकार के लिए, देश में बांटा गया है दस प्रशासनिक क्षेत्रों, जिनमें से नौ प्रांतों द्वारा प्रशासित निर्वाचित प्रांतीय विधानसभाओं और दसवीं राजधानी होनियारा, द्वारा प्रशासित होनियारा नगर परिषद.
केंद्रीय
Choiseul
गुआडलकैनाल
इसाबेल
Makira-Ulawa
Malaita
Rennell और Bellona
Temotu
पश्चिमी
Honiara शहर
भूगोल
सोलोमन द्वीप समूह के एक द्वीप राष्ट्र है कि झूठ के पूर्वी पापुआ न्यू गिनी और के होते हैं कई द्वीपों: Choiseul, Shortland द्वीप समूह; नए जॉर्जिया द्वीप समूह; संता इसाबेल; रसेल द्वीप समूह; Nggela ( फ्लोरिडा द्वीप); Malaita; गुआडलकैनाल; Sikaiana; Maramasike; Ulawa; उकी; Makira (सं क्रिस्टबल); संता आना; Rennell और Bellona; सांताक्रूज द्वीप और तीन रिमोट, छोटे outliers, Tikopia, Anuta, और Fatutaka.
देश के द्वीप के बीच झूठ अक्षांश 5° और 13°S, और देशांतर 155 डिग्री और 169°Eहै। के बीच की दूरी के पश्चिमी और पूरबी द्वीप के बारे में है 1,500 किलोमीटर (930mi) है। सांताक्रूज द्वीप समूह (जो की Tikopia हिस्सा है) कर रहे हैं, के उत्तर में स्थित वानुअतु कर रहे हैं और विशेष रूप से अलग-थलग पर अधिक से अधिक 200 किलोमीटर (120मील) से अन्य द्वीपों. Bougainville भौगोलिक दृष्टि से है का हिस्सा सोलोमन द्वीप लेकिन राजनीतिक रूप से भाग के पापुआ न्यू गिनी में।
जलवायु
द्वीपों' सागर-इक्वेटोरियल जलवायु बहुत नम वर्ष के दौरान, के साथ एक मतलब के तापमान 26.5°C (79.7°F) और कुछ के चरम तापमान या मौसम। जून अगस्त के माध्यम से है कूलर की अवधि. हालांकि सत्रों में स्पष्ट नहीं कर रहे हैं, आने हवाओं के नवंबर अप्रैल के माध्यम से लाने के लिए और अधिक लगातार वर्षा होती है और कभी-कभी तूफ़ान या चक्रवात है। वार्षिक वर्षा के बारे में 3,050 millimetres (120in).
पारिस्थितिकी
सोलोमन द्वीप द्वीपसमूह का हिस्सा है, दो अलग-अलग स्थलीय ecoregions. द्वीप के सबसे कर रहे हैं का हिस्सा सोलोमन द्वीप वर्षा वनों ecoregion, जो भी शामिल है के द्वीपों Bougainville और Buka; इन जंगलों दबाव में आ गए हैं से वानिकी गतिविधियों. सांताक्रूज द्वीप समूह का हिस्सा हैं वानुअतु वर्षा वनों ecoregion के साथ एक साथ, पड़ोसी द्वीपसमूह के वानुअतु. मिट्टी की गुणवत्ता पर्वतमाला से बेहद अमीर ज्वालामुखी ( ज्वालामुखी की डिग्री बदलती के साथ गतिविधि के कुछ बड़े द्वीपों के लिए) अपेक्षाकृत बांझ चूना पत्थर. 230 से अधिक किस्मों के ऑर्किड और अन्य उष्णकटिबंधीय फूलों को रोशन परिदृश्य.
द्वीपों के होते हैं कई सक्रिय और निष्क्रिय ज्वालामुखी है। के Tinakula और Kavachi ज्वालामुखियों में से सबसे अधिक सक्रिय हैं।
अर्थव्यवस्था
सोलोमन द्वीप' प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद $600 के रैंकों के रूप में यह एक कम विकसित राष्ट्र है, और अधिक से अधिक 75% के अपने श्रम बल में लगे हुए है, निर्वाह और मछली पकड़ने के. सबसे विनिर्मित वस्तुओं और पेट्रोलियम उत्पादों का आयात किया जाना चाहिए। 1998 तक, जब दुनिया की कीमतों के लिए उष्णकटिबंधीय इमारती लकड़ी तेजी से गिर गया, लकड़ी था सोलोमन द्वीप' मुख्य निर्यात उत्पाद है, और, हाल के वर्षों में, सोलोमन द्वीप के जंगलों थे, खतरनाक तरीके से overexploited.
अन्य महत्वपूर्ण नकदी फसलों और निर्यात शामिल हैं खोपरा और ताड़ के तेल. 1998 में सोने के खनन में शुरू हुआ सोने रिज पर गुआडलकैनाल. खनिज अन्वेषण के अन्य क्षेत्रों में जारी रखा. के मद्देनजर में जातीय हिंसा में जून 2000 में, निर्यात के लिए ताड़ के तेल और सोने के नहीं रह गए हैं, जबकि निर्यात लकड़ी के गिर गया। द्वीपों में अमीर हैं अविकसित खनिज संसाधनों जैसे कि सीसा, जस्ता, निकल और सोना।
सोलोमन द्वीप' मत्स्य पालन भी पेशकश की संभावनाओं के लिए निर्यात और घरेलू आर्थिक विस्तार. एक जापानी संयुक्त उद्यम, सुलैमान Taiyo लिमिटेड, संचालित है जो केवल मछली cannery में, देश में बंद मध्य 2000 के रूप में एक परिणाम के जातीय गड़बड़ी है। हालांकि संयंत्र के तहत फिर से खोल स्थानीय प्रबंधन, निर्यात के टूना शुरू नहीं किया गया है. वार्ता चल रही है हो सकता है कि नेतृत्व करने के लिए अंतिम दोबारा खोलने के सोने रिज खान और प्रमुख तेल हथेली वृक्षारोपण.
पर्यटन, विशेष रूप से डाइविंग, एक महत्वपूर्ण सेवा उद्योग के लिए एक सोलोमन द्वीप. पर्यटन विकास की कमी आड़े आती है, बुनियादी ढांचे और परिवहन सीमाओं.
सोलोमन द्वीप सरकार दिवालिया था, 2002 के द्वारा. के बाद से RAMSI हस्तक्षेप 2003 में, सरकार ने इसकी मरम्मत के बजट में. यह समेकित और फिर से बातचीत की अपने घरेलू ऋण और के साथ समर्थन, अब मांग रहा है renegotiate करने के लिए अपने विदेशी दायित्वों. प्रिंसिपल सहायता दाताओं कर रहे हैं ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, यूरोपीय संघ, जापान, और चीन के गणराज्य.
हाल ही में
, सोलोमन द्वीप कोर्ट के पास फिर से मंजूरी दे दी निर्यात के लाइव डॉल्फिन लाभ के लिए, सबसे हाल ही में करने के लिए दुबई, संयुक्त अरब अमीरात. इस अभ्यास मूल रूप से बंद कर दिया में सरकार द्वारा 2004 के बाद अंतरराष्ट्रीय हंगामे पर एक शिपमेंट के 28 लाइव डॉल्फिन के लिए मेक्सिको. इस कदम के परिणामस्वरूप आलोचना से दोनों ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के रूप में अच्छी तरह के रूप में कई संरक्षण संगठनों.
ऊर्जा
एक टीम के अक्षय ऊर्जा डेवलपर्स के लिए काम कर रहे दक्षिण प्रशांत अनुप्रयुक्त भूविज्ञान आयोग (SOPAC) और द्वारा वित्त पोषित अक्षय ऊर्जा और ऊर्जा दक्षता भागीदारी (REEEP), विकसित किया है एक योजना की अनुमति देता है कि स्थानीय समुदायों का उपयोग करने के लिए अक्षय ऊर्जा जैसे सौर ऊर्जा, पानी और हवा की शक्ति के बिना, की जरूरत है बढ़ाने के लिए पर्याप्त नकदी की रकम है। इस योजना के तहत, श्रीलंका, जो भुगतान करने में असमर्थ हैं के लिए सौर लालटेन नकद में भुगतान कर सकते हैं बजाय वस्तु के रूप में फसलों के साथ.[26]
जनसांख्यिकी
As of 2006, वहाँ थे 552,438लोगों में सोलोमन द्वीप.[27]
जातीय समूहों के
के बहुमत सोलोमन आइलैंड जातीय Melanesian (94.5%). Polynesian (3%) और माइक्रोनेशिअन (1.2%) कर रहे हैं के दो अन्य महत्वपूर्ण समूहों.[27] वहाँ रहे हैं कुछ हजार जातीय चीनी.[16]
भाषाओं
जबकि आधिकारिक भाषा अंग्रेजी है, केवल 1-2% की आबादी अंग्रेजी बोलते हैं। की lingua franca है सुलैमान Pijin.
संख्या के स्थानीय भाषाओं के लिए सूचीबद्ध सोलोमन द्वीप है 74, जिनमें से 70 रह रहे हैं भाषाओं और 4 विलुप्त कर रहे हैं, के अनुसार Ethnologue, दुनिया की भाषाओं</i>में। [28] Melanesian भाषाओं (मुख्य रूप से दक्षिण पूर्व Solomonic समूह) बोली जाती हैं पर केंद्रीय द्वीप.
Polynesian भाषाओं में बात कर रहे हैं पर Rennell और Bellona दक्षिण, Tikopia, Anuta और Fatutaka सुदूर पूर्व के लिए, Sikaiana करने के लिए उत्तर-पूर्व, और Luaniua उत्तर करने के लिए (ओंटोंग जावा एटोलभी जाना जाता है, के रूप में भगवान Howe एटोल). आप्रवासी जनसंख्या के Gilbertese (मैं-किरिबाती) बोलता है, एक माइक्रोनेशिअन भाषाहै।
धर्म
धर्म के सोलोमन द्वीप मुख्य रूप से ईसाई (जिसमें लगभग 92% की आबादी). मुख्य ईसाई मूल्यवर्ग कर रहे हैं: अंगरेज़ी चर्च के सबसे ज्यादा आबादी 35%, रोमन कैथोलिक 19%, दक्षिण सागरों इंजील चर्च 17%, संयुक्त राज्य चर्च में पापुआ न्यू गिनी और सोलोमन द्वीप 11% और सातवें दिन Adventist 10%. एक और 5% का पालन करने के लिए आदिवासी विश्वासों.
शेष का पालन करने के लिए इस्लाम, बहाई आस्था, जेनोवा है गवाहों, और चर्च की यीशु मसीह के बाद के दिन संन्यासी (एलडीएस चर्च). अधिकांश के अनुसार हाल ही में रिपोर्ट, इस्लाम में सोलोमन द्वीप समूह से बना है लगभग 350 मुसलमानों,[29] के सदस्यों सहित अहमदिया मुस्लिम समुदायहै.[30]
स्वास्थ्य
महिला जन्म के समय जीवन प्रत्याशा पर था 66.7 साल और जन्म के समय जीवन प्रत्याशा में 64.9 2007 में.[31] 1990-1995 प्रजनन दर था पर 5.5 जन्मों प्रति महिला है.[31] सरकार व्यय, स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति था पर हमें$99 (पीपीपी).[31] स्वस्थ जन्म के समय जीवन प्रत्याशा पर है 60 साल.[31]
गोरा बालों में पाए जाते हैं 10% जनसंख्या के द्वीपों में.[32] बाद के वर्षों के प्रश्न, अध्ययन के परिणामस्वरूप है की बेहतर समझ के जीन. निष्कर्ष बताते हैं कि बाल विशेषता के कारण है एक एमिनो एसिड बदलने के प्रोटीन TYRP1.[33] यह है, इसलिए, के लिए खातों उच्चतम घटना के सुनहरे बाल, बाहर की दुनिया में प्रभाव है। [34] जब 10% की सोलोमन द्वीप के लोगों के प्रदर्शन के phenotype के बारे में 26% की आबादी ले हटने विशेषता के लिए यह रूप में अच्छी तरह से.[35]
शिक्षा
शिक्षा में सोलोमन द्वीप अनिवार्य नहीं है और केवल 60 प्रतिशत स्कूल उम्र के बच्चों के लिए उपयोग किया है प्राथमिक शिक्षा। [36][37]
1990 से 1994 तक, सकल प्राथमिक स्कूल में नामांकन गुलाब से 84.5 प्रतिशत करने के लिए 96.6 प्रतिशत है। [36] प्राथमिक स्कूल में उपस्थिति दरों के लिए उपलब्ध नहीं थे सोलोमन द्वीप के रूप में 2001 के.[36] जबकि नामांकन की दर से संकेत मिलता है एक प्रतिबद्धता के स्तर, शिक्षा के लिए वे हमेशा नहीं करते प्रतिबिंबित बच्चों की भागीदारी में.[36]
प्रयासों और योजनाओं द्वारा किए गए शिक्षा विभाग और मानव संसाधन विकास का विस्तार करने के लिए शैक्षिक सुविधाओं को और बढ़ाने की नामांकन किया गया है रुकावट द्वारा सरकारी धन की कमी, गुमराह शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रमों, गरीब समन्वय के कार्यक्रम, और एक विफलता के लिए सरकार का भुगतान करने के लिए शिक्षकों.[36] का प्रतिशत सरकार के बजट में आवंटित करने के लिए शिक्षा था 9.7 प्रतिशत, 1998 में नीचे से 13.2 प्रतिशत 1990 में.[36]
पुरुष शिक्षा प्राप्ति के लिए जाता है हो सकता है की तुलना में अधिक महिला शिक्षा प्राप्ति होती है। [37] के विश्वविद्यालय के दक्षिण प्रशांत में एक परिसर में सोलोमन द्वीप जबकि विश्वविद्यालय के पापुआ न्यू गिनी में भी स्थापित किया है एक पैर जमाने पर देश में गुआडलकैनाल.[38]
संस्कृति
की पारंपरिक संस्कृति में सोलोमन द्वीप समूह, उम्र पुराने सीमा शुल्क कर रहे हैं हाथ के नीचे एक पीढ़ी से अगले करने के लिए, से कथित तौर पर पैतृक आत्माओं के लिए, खुद को फार्म के सांस्कृतिक मूल्यों को सोलोमन द्वीप.
मीडिया
रेडियो
रेडियो के सबसे प्रभावशाली मीडिया के प्रकार में सोलोमन द्वीप के कारण, भाषा मतभेद, अशिक्षा,[39] और कठिनाई के टेलीविजन संकेतों को प्राप्त करने में देश के कुछ भागों है। को सोलोमन द्वीप प्रसारण निगम (SIBC) चल रही पब्लिक रेडियो सेवाओं, सहित राष्ट्रीय स्टेशनों रेडियो खुश द्वीपों 1037 डायल पर और Wantok एफएम 96.3, और प्रांतीय स्टेशनों रेडियो खुश लैगून और, पूर्व, रेडियो Temotu. वहाँ रहे हैं दो वाणिज्यिक एफएम स्टेशनों, Z एफएम पर 99.5 में होनियारा लेकिन प्राप्य एक बड़े बहुमत के द्वीप से बाहर होनियारा, और, PAOA एफएम पर 97.7 होनियारा में (भी प्रसारण पर 107.5 में Auki), और, एक सामुदायिक एफएम रेडियो स्टेशन, सोने के रिज पर एफएम 88.7.
वहाँ है एक दैनिक अखबार में सोलोमन स्टार <> और एक दैनिक ऑनलाइन समाचार वेबसाइट सुलैमान बार ऑनलाइन (www.solomontimes.com), 2 साप्ताहिक पत्रों सुलैमान आवाज और सुलैमान बार, और 2 मासिक पत्र Agrikalsa Nius और नागरिक प्रेस.
वहाँ रहे हैं कोई टीवी सेवाओं को कवर किया है कि पूरे सोलोमन द्वीप है, लेकिन उपग्रह टीवी स्टेशनों प्राप्त किया जा सकता है। हालांकि, होनियारा में, वहाँ है एक फ्री-टू-एयर चैनल कहा जाता है, एक टेलीविजन, और rebroadcast एबीसी एशिया प्रशांत (ऑस्ट्रेलिया से एबीसी) और बीबीसी विश्व समाचार. के रूप में के Dec 2010, निवासियों सकता है के लिए सदस्यता लें SATSOL , एक डिजिटल भुगतान टीवी सेवा, पुनः प्रसारण उपग्रह टेलीविजन है।
संगीत
पारंपरिक Melanesian संगीत में सोलोमन द्वीप भी शामिल है दोनों समूह और एकल गायन, भट्ठा-ड्रम और panpipe ensembles. 1920 के दशक में, बांस संगीत प्राप्त की एक निम्नलिखित है। 1950 के दशक में एडविन Nanau Sitori रचित गीत "Walkabout लंबे चाइनाटाउन"किया गया है, जो करने के लिए भेजा के रूप में सरकार द्वारा अनौपचारिक "राष्ट्रीय गीत" के सोलोमन द्वीप.[40] आधुनिक सोलोमन द्वीप लोकप्रिय संगीत के विभिन्न प्रकार शामिल हैं रॉक और रेग के रूप में अच्छी तरह के रूप में द्वीप संगीत.
साहित्य
लेखकों से सोलोमन द्वीप शामिल उपन्यासकार Rexford Orotaloa और जॉन Saunana और कवि Jully Makini.
खेल
रग्बी यूनियन में खेला जाता है, सोलोमन द्वीप. को सोलोमन द्वीप राष्ट्रीय रग्बी यूनियन टीम में खेल रहा है, अंतरराष्ट्रीय 1969 के बाद से. यह में भाग लिया ओशिनिया क्वालीफाइंग टूर्नामेंट के लिए 2003 और 2007 रग्बी विश्व कप, लेकिन असफल रहा अर्हता प्राप्त करने के लिए प्रत्येक अवसर पर.
राष्ट्रीय टीमों में एसोसिएशन फुटबॉल और फुटसल और समुद्र तट फुटबॉल साबित कर दिया है के बीच में सबसे सफल ओशिनिया. को सोलोमन द्वीप राष्ट्रीय फुटबॉल टीम का हिस्सा है ओएफसी परिसंघ फीफा में है। वे वर्तमान में कर रहे हैं स्थान पर रहीं 184th 209 में से टीमों में फीफा विश्व रैंकिंग. टीम पहली टीम बन गई हरा करने के लिए न्यूजीलैंड के लिए योग्यता में एक प्ले ऑफ स्थान के खिलाफ ऑस्ट्रेलिया के लिए योग्यता के लिए विश्व कप 2006. वे हार गए थे 7-0 में ऑस्ट्रेलिया को 2-1 से घर पर है।
14 जून 2008 में, सोलोमन द्वीप राष्ट्रीय फुटसल टीम, Kurukuru जीता, ओशिनिया फुटसल चैम्पियनशिप में फिजी अर्हता प्राप्त करने के लिए उन्हें 2008 में फीफा फुटबॉल विश्व कपआयोजित किया गया था जो ब्राजील में 30 सितंबर से 19 अक्टूबर 2008. सोलोमन द्वीप है फुटसल गत चैंपियन में ओशिनिया क्षेत्र है. 2008 और 2009 में की Kurukuru होंगे ओशिनिया फुटसल चैम्पियनशिप में फिजी है। 2009 में वे पराजित मेजबान देश फिजी, 8-0 करने के लिए, शीर्षक का दावा है। के Kurukuru वर्तमान में पकड़ के लिए विश्व रिकॉर्ड में सबसे तेजी से कभी के लक्ष्य में रन बनाए एक आधिकारिक फुटसल मैच. यह द्वारा स्थापित किया गया था Kurukuru कप्तान इलियट Ragomo, जो के खिलाफ रन बनाए न्यू कैलेडोनिया तीन सेकंड के खेल के रूप में जुलाई 2009 में.[41] वे भी, हालांकि, पकड़ कम गहरी रिकॉर्ड के लिए सबसे खराब हार के इतिहास में फुटसल विश्व कप, 2008 में जब वे थे द्वारा पीटा रूस के साथ दो लक्ष्यों के लिए तीस में से एक है। [42]
को सोलोमन द्वीप' में समुद्र तट फुटबॉल टीम, Bilikiki लड़कों, सांख्यिकीय सबसे सफल टीम ओशिनिया में है। वे जीत लिया है, सभी तीन क्षेत्रीय चैंपियनशिप तिथि करने के लिए, जिससे योग्यता पर प्रत्येक अवसर के लिए फीफा बीच सॉकर विश्व कपहै। के Bilikiki हैं चौदहवें स्थान पर दुनिया में के रूप में 2010 तक
, अधिक से अधिक किसी भी अन्य टीम से ओशिनिया.[43]
इन्हें भी देखें
Lau लैगून
एलजीबीटी अधिकारों में सोलोमन द्वीप
पक्षियों की सूची के सोलोमन द्वीप
की रूपरेखा सोलोमन द्वीप
वीजा की नीति सोलोमन द्वीप
नोट
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श्रेणी:ओशिआनिया के देश
श्रेणी:अंग्रेज़ी-भाषी देश व क्षेत्र
श्रेणी:द्वीप देश
श्रेणी:मॅलानिशिया
श्रेणी:सोलोमन द्वीपसमूह
श्रेणी:ज्वालामुखीय चाप द्वीप | सोलोमन द्वीप की राजधानी का नाम क्या है? | होनियारा | 248 | hindi |
4328dbf57 | वॉनाक्राय रैनसमवेयर (अंग्रेज़ी: WannaCry या WanaCrypt0r 2.0) एक रैनसमवेयर मैलवेयर टूल है जिसका प्रयोग करते हुए मई 2017 में एक वैश्विक रैनसमवेयर हमला हुआ। रैनसम अंग्रेजी शब्द है जिसका अर्थ है- फिरौती। इस साइबर हमले के बाद संक्रमित कंप्यूटरों ने काम करना बंद कर दिया, उन्हें फिर से खोलने के लिए बिटकॉइन के रूप में 300-600 डॉलर तक की फिरौती की मांग की गई।[3] प्रभावित संगठनों ने कंप्यूटर्स के लॉक होने और बिटकॉइन की मांग करने वाले स्क्रीनशॉट्स साझा किए हैं।
ब्रिटेन, अमेरिका, चीन, रूस, स्पेन, इटली, वियतनाम समेत कई अन्य देशों में रेनसमवेयर साइबर हमलों के समाचार प्राप्त हुए हैं। ब्रिटेन की नेशनल हेल्थ सर्विस भी इस हमले से प्रभावित हुई है। साइबर सुरक्षा शोधकर्ता के मुताबिक़ बिटकॉइन मांगने के 36 हज़ार मामलों का पता चला है।[3]
हैकर्स ने अमेरिका की नैशनल सिक्यॉरिटी ऐजेंसी जैसी तकनीक का इस्तेमाल कर इतने बड़े पैमाने पर साइबर अटैक किया। माना जा रहा है कि अमेरिका की नैशनल सिक्यॉरिटी एजेंसी जिस तकनीक का इस्तेमाल करती थी वह इंटरनेट पर लीक हो गई थी और हैकर्स ने उसी तकनीक का इस्तेमाल किया है।[4]
सुरक्षा शोध से जुड़ी एक संस्था ने रविवार को चेतावनी दी कि शुक्रवार को हुए वैश्विक हमले के बाद दूसरा बड़ा साइबर हमला 15 मई 2017 सोमवार को हो सकता है। ब्रिटेन के सुरक्षा शोधकर्ता 'मैलवेयर टेक' ने भविष्यवाणी की है कि दूसरा हमला सोमवार को होने की संभावना है। मैलवेयर टेक ने ही रैनसमवेयर हमले को सीमित करने में मदद की थी।[5]
पृष्ठभूमि
फरवरी 2016 में कैलिफोर्निया के हॉलिवुड प्रेसबिटेरियन मेडिकल सेंटर ने बताया कि उसने अपने कम्प्यूटरों का डेटा फिर से पाने के लिए हैकर्स को 17,000 अमेरिकी डॉलर की फिरौती देनी पड़ी थी। साइबर सिक्यॉरिटी विशेषज्ञ और ब्रिटेन के नैशनल हॉस्पिटल फॉर न्यूरोलॉजी ऐंड न्यूरो सर्जरी में डॉक्टर कृष्णा चिंतापल्ली के मुताबिक ब्रिटेन के अस्पतालों में पुराने ऑपरेटिंग सिस्टम का इस्तेमाल हो रहा है। इस वजह से साइबर हमले का खतरा ज्यादा है। उन्होंने कहा कि ब्रिटेन के कई अस्पताल विंडोज XP सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल कर रहे हैं जिसे 2001 में लॉन्च किया गया था। हेल्थ सर्विस बजट में कमी की वजह से ऑपरेटिंग सिस्टम अपडेट नहीं हुए हैं।[4]
वॉनाक्राय रैनसमवेयर कंप्यूटर पर फ़ाइलों को लॉक करता है और उनको इस तरह से एन्क्रिप्ट करता है कि यूजर द्वारा उन तक नहीं पहुंचा जा सकता।
यह माइक्रोसॉफ्ट के व्यापक रूप से इस्तेमाल किये जाने वाले विंडोज ऑपरेटिंग सिस्टम को लक्ष्य बनाता है।
जब कोई सिस्टम संक्रमित होता है, तो पॉप-अप विंडो $ 300 की फिरौती राशि का भुगतान करने के निर्देशों के साथ दिखाई देती है।
पॉप-अप विंडो में दो उलटी गिनती वाली घड़ियाँ दिखाई देती हैं; एक व्यक्ति को तीन दिन की समयसीमा दिखती हैं जिसके बाद राशि दुगुनी हो कर $600 हो जाती है; दूसरा एक समय सीमा दिखाती है जिसके बाद यूजर हमेशा के लिए अपना डेटा खो देगा। भुगतान को केवल बिटकॉइन में ही स्वीकार किया जाता है।[6]
प्रभाव
ब्रिटेन की नेशनल हेल्थ सर्विस (एनएचएस) इससे बुरी तरह प्रभावित हुई है और मरीजों के ऑनलाइन रिकॉर्ड पहुंच के बाहर हो गए हैं। इन हमलों के बाद हज़ारों जगहों के कंप्यूटर्स लॉक हो गए और पेमेंट नेटवर्क 'बिटकॉइन' के ज़रिये 230 पाउंड (करीब 19 हज़ार रुपये) की फ़िरौती मांगी।[7]
ब्रिटेन की तरह ही स्पेन, पुर्तगाल और रूस में भी साइबर हमले हुए। 90 से ज्यादा देश इस साइबर हमले की चपेट में आए हैं।[4]
भारत में आंध्र प्रदेश के पुलिस थानों के आंकड़े हैक किए गए, भारत में आंध्र प्रदेश में पुलिस विभाग के कंप्यूटरों के एक हिस्से वैश्विक साइबर हमले का निशाना बने।
चित्तूर, कृष्णा, गुंटूर, विशाखापत्तनम और श्रीकुलम जिले के 18 पुलिस इकाइयों के कंप्यूटर साइबर हमले से प्रभावित हुए, हालांकि अधिकारियों ने कहा कि रोजमर्रा के कामों में कोई बाधा नहीं हुई है।[5]
जापान में 600 स्थानों पर 2000 कंप्यूटरों के प्रभावित होने की सूचना प्राप्त हुई है।
निसान मोटर कोर्प ने इस बात की पुष्टि की कि कुछ इकाइयों को निशाना बनाया गया लेकिन हमारे कारोबार पर कोई बड़ा असर नहीं पड़ा। हिताची की प्रवक्ता यूको तैनूची ने कहा कि ईमेल के साथ समस्या आ रही थी, फाइलें खुल नहीं पा रही थीं।कंपनी का कहना था कि हालांकि कोई फिरौती मांगी नहीं गई लेकिन ये समस्याऐं रैनसमवेयर हमले से जुड़ी हैं। समस्याओं को सुलझाने के लिए वे सॉफ्टवेयर डाल रहे हैं।[8]
कंप्यूटर हमलों से निपटने के लिए सहयोग करने वाली गैर सरकारी संस्था द जापान कंप्यूटर इमरजेंसी रिस्पॉन्स टीम कॉर्डिनेशन सेंटर इस मामले को देख रही है।[8]
जर्मनी की राष्ट्रीय रेलवे भी इससे प्रभावित हुई है।[8]
किल स्विच
हमले को रोकनेवाला 22 साल का एक व्यक्ति है जो मैलवेयरटेक उपनाम से जाना जाता है। इस शोधकर्ता ने पहले नोटिस किया कि मैलवेयर एक ख़ास वेब ऐड्रेस से लगातार कनेक्ट होने की कोशिश कर रहा है जिससे नए कंप्यूटर समस्याग्रस्त हो जाते, लेकिन वेब ऐड्रेस के जुड़ने की कोशिश के दौरान- अक्षरों में घालमेल था और ये रजिस्टर्ड नहीं थे। मैलवेयर टेक ने इसे रजिस्टर करने का फ़ैसला किया और उसने 10.69 डॉलर में ख़रीद लिया।
इसे ख़रीदने के बाद उन्होंने देखा कि और किन कंप्यूटरों तक उसकी पहुंच बन रही है। इसी मैलवेयर टेक को आइडिया मिला कि रैनसमवेयर कैसे फैल रहा था। इस मामले में उन्हें अप्रत्याशित रूप से रैनसमवेयर को रोकने में सफलता मिली।[9]
प्रतिक्रिया
ब्रिटेन की प्रधानमंत्री थेरेसा मे ने कहा, "यह नेशनल हेल्थ सर्विस पर ही निशाना नहीं है। यह एक अंतर्राष्ट्रीय हमला है और कई देश और संस्थाएं इससे प्रभावित हुई हैं।"[7]
इन्हें भी देखें
साइबर युद्ध
साइबर-आतंकवाद
सन्दर्भ
श्रेणी:सूचना प्रौद्योगिकी
श्रेणी: रैनसमवेयर
श्रेणी: मई 2017 की घटनाएं
श्रेणी: 2017 के अपराध
श्रेणी:कंप्यूटर सुरक्षा | रैनसम' अंग्रेजी शब्द का क्या अर्थ है? | फिरौती | 194 | hindi |
d41c2ba08 | अफ़ग़ानिस्तान इस्लामी गणराज्य दक्षिणी मध्य एशिया में अवस्थित देश है, जो चारो ओर से जमीन से घिरा हुआ है। प्रायः इसकी गिनती मध्य एशिया के देशों में होती है पर देश में लगातार चल रहे संघर्षों ने इसे कभी मध्य पूर्व तो कभी दक्षिण एशिया से जोड़ दिया है। इसके पूर्व में पाकिस्तान, उत्तर पूर्व में भारत तथा चीन, उत्तर में ताजिकिस्तान, कज़ाकस्तान तथा तुर्कमेनिस्तान तथा पश्चिम में ईरान है।
अफ़ग़ानिस्तान रेशम मार्ग और मानव प्रवास का एक प्राचीन केन्द्र बिन्दु रहा है। पुरातत्वविदों को मध्य पाषाण काल के मानव बस्ती के साक्ष्य मिले हैं। इस क्षेत्र में नगरीय सभ्यता की शुरुआत 3000 से 2,000 ई.पू. के रूप में मानी जा सकती है। यह क्षेत्र एक ऐसे भू-रणनीतिक स्थान पर अवस्थित है जो मध्य एशिया और पश्चिम एशिया को भारतीय उपमहाद्वीप की संस्कृति से जोड़ता है। इस भूमि पर कुषाण, हफ्थलिट, समानी, गजनवी, मोहमद गौरी, मुगल, दुर्रानी और अनेक दूसरे प्रमुख साम्राज्यों का उत्थान हुआ है। प्राचीन काल में फ़ारस तथा शक साम्राज्यों का अंग रहा अफ़्ग़ानिस्तान कई सम्राटों, आक्रमणकारियों तथा विजेताओं की कर्मभूमि रहा है। इनमें सिकन्दर, फारसी शासक दारा प्रथम, तुर्क,मुगल शासक बाबर, मुहम्मद गौरी, नादिर शाह इत्यादि के नाम प्रमुख हैं। ब्रिटिश सेनाओं ने भी कई बार अफ़ग़ानिस्तान पर आक्रमण किया। वर्तमान में अमेरिका द्वारा तालेबान पर आक्रमण किये जाने के बाद नाटो(NATO) की सेनाएं वहां बनी हुई हैं।
अफ़ग़ानिस्तान के प्रमुख नगर हैं- राजधानी काबुल, कंधार। यहाँ कई नस्ल के लोग रहते हैं जिनमें पश्तून (पठान या अफ़ग़ान) सबसे अधिक हैं। इसके अलावा उज्बेक, ताजिक, तुर्कमेन और हज़ारा शामिल हैं। यहाँ की मुख्य भाषा पश्तो है। फ़ारसी भाषा के अफ़गान रूप को दरी कहते हैं।
नाम
अफ़्ग़ानिस्तान का नाम अफगान और स्तान से मिलकर बना है जिसका शाब्दिक अर्थ है अफ़गानों की भूमि। स्तान इस क्षेत्र के कई देशों के नाम में है जैसे- पाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, कज़ाख़स्तान, हिन्दुस्तान इत्यादि जिसका अर्थ है भूमि या देश। अफ़्गान का अर्थ यहां के सबसे अधिक वसित नस्ल (पश्तून) को कहते है। अफ़्गान शब्द को संस्कृत अवगान से निकला हुआ माना जाता है। ध्यान रहे की "अफ़्ग़ान" शब्द में ग़ की ध्वनी है और "ग" की नहीं।
इतिहास
मानव बसाहट १०,००० साल से भी अधिक पुराना हो सकता है। ईसा के १८०० साल पहले आर्यों का आगमन इस क्षेत्र में हुआ। ईसा के ७०० साल पहले इसके उत्तरी क्षेत्र में गांधार महाजनपद था जिसके बारे में भारतीय स्रोत महाभारत तथा अन्य ग्रंथों में वर्णन मिलता है। ईसापूर्व ५०० में फ़ारस के हखामनी शासकों ने इसको जीत लिया। सिकन्दर के फारस विजय अभियान के तहते अफ़गानिस्तान भी यूनानी साम्राज्य का अंग बन गया। इसके बाद यह शकों के शासन में आए। शक स्कीथियों के भारतीय अंग थे। ईसापूर्व २३० में मौर्य शासन के तहत अफ़ग़ानिस्तान का संपूर्ण इलाका आ चुका था पर मौर्यों का शासन अधिक दिनों तक नहीं रहा। इसके बाद पार्थियन और फ़िर सासानी शासकों ने फ़ारस में केन्द्रित अपने साम्राज्यों का हिस्सा इसे बना लिया। सासनी वंश इस्लाम के आगमन से पूर्व का आखिरी ईरानी वंश था। अरबों ने ख़ुरासान पर सन् ७०७ में अधिकार कर लिया। सामानी वंश, जो फ़ारसी मूल के पर सुन्नी थे, ने ९८७ इस्वी में अपना शासन गजनवियों को खो दिया जिसके फलस्वरूप लगभग संपूर्ण अफ़ग़ानिस्तान ग़ज़नवियों के हाथों आ गया। ग़ोर के शासकों ने गज़नी पर ११८३ में अधिकार कर लिया।
मध्यकाल में कई अफ़्गान शासकों ने दिल्ली की सत्ता पर अधिकार किया या करने का प्रयत्न किया जिनमें लोदी वंश का नाम प्रमुख है। इसके अलावा भी कई मुस्लिम आक्रमणकारियों ने अफगान शाहों की मदद से हिन्दुस्तान पर आक्रमण किया था जिसमें बाबर, नादिर शाह तथा अहमद शाह अब्दाली शामिल है। अफ़ग़ानिस्तान के कुछ क्षेत्र दिल्ली सल्तनत के अंग थे।
आधुनिक काल
उन्नीसवीं सदी में आंग्ल-अफ़ग़ान युद्धों के कारण अफ़ग़ानिस्तान का काफी हिस्सा ब्रिटिश इंडिया के अधीन हो गया जिसके बाद अफ़ग़ानिस्तान में यूरोपीय प्रभाव बढ़ता गया। १९१९ में अफ़ग़ानिस्तान ने विदेशी ताकतों से एक बार फिर स्वतंत्रता पाई। आधुनिक काल में १९३३-१९७३ के बाच का काल अफ़ग़ानिस्तान का सबसे अधिक व्यवस्थित काल रहा जब ज़ाहिर शाह का शासन था। पर पहले उसके जीजा तथा बाद में कम्युनिस्ट पार्टी के सत्तापलट के कारण देश में फिर से अस्थिरता आ गई। सोवियत सेना ने कम्युनिस्ट पार्टी के सहयोग के लिए देश में कदम रखा और मुजाहिदीन ने सोवियत सेनाओं के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया और बाद में अमेरिका तथा पाकिस्तान के सहयोग से सोवियतों को वापस जाना पड़ा। ११ सितम्बर २००१ के हमले में मुजाहिदीन के सहयोग होने की खबर के बाद अमेरिका ने देश के अधिकांश हिस्से पर सत्तारुढ़ मुजाहिदीन (तालिबान), जिसको कभी अमेरिका ने सोवियत सेनाओं के खिलाफ लड़ने में हथियारों से सहयोग दिया था, के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया।
नाम की उत्पत्ति
अफगानिस्तान नाम अफ्गान समुदाय की जगह के रूप में प्रयुक्त किया गया है, यह नाम सबसे पहले 10 वीं शताब्दी में हूदूद उल-आलम (विश्व की सीमाएं) नाम की भौगोलिक किताब में आया था इसके रचनाकार का नाम अज्ञात है' साल 2006 में पारित देश के संविधान में अफगानिस्तान के सभी नागरिकों को अफ्गान कहा गया है जो अफगानिस्तान के सभी नागरिक अफ्गान है'
वर्तमान
वर्तमान में (फरवरी २००७) देश में नाटो(NATO) की सेनाएं बनी हैं और देश में लोकतांत्रिक सरकार का शासन है। हालांकि तालिबान ने फिर से कुछ क्षेत्रों पर अधिपत्य जमा लिया है, अमेरिका का कहना है कि तालिबान को पाकिस्तानी जमीन पर फलने-फूलने दिया जा रहा है।
प्रशासनिक विभाग
अफ़ग़ानिस्तान में कुल ३४ प्रशासनिक विभाग हैं। इनके नाम हैं -
बदख़्शान
बदगीश
बाग़लान
बाल्क़
बमयन
दायकुंडी
फ़राह
फ़रयब
ग़ज़नी
ग़ोर
हेलमंद
हेरात
ज़ोजान
क़ाबुल
कांदहार (कांधार)
क़पिसा
ख़ोस्त
कोनार
कुन्दूज
लगमान
लोगर
नांगरहर
निमरूज़
नूरेस्तान
ओरुज़्ग़ान
पक़्तिया
पक़्तिका
पंजशिर
परवान
समंगान
सरे पोल
तक़ार
वारदाक़
ज़बोल
भूगोल
अफ़ग़ानिस्तान चारों ओर से ज़मीन से घिरा हुआ है और इसकी सबसे बड़ी सीमा पूर्व की ओर पाकिस्तान से लगी है। इसे डूरण्ड रेखा भी कहते हैं। केन्द्रीय तथा उत्तरपूर्व की दिशा में पर्वतमालाएँ हैं जो उत्तरपूर्व में ताजिकिस्तान स्थित हिन्दूकुश पर्वतों का विस्तार हैं। अक्सर तापमान का दैनिक अन्तरण अधिक होता है।
यह भी देखिए
अफ़ग़ानिस्तान के युद्ध
अफ़्गानिस्तान के नगरो की सूची
ग़ की ध्वनी
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
(वेद प्रताप वैदिक)
श्रेणी:इस्लामी गणराज्य
अफ़ग़ानिस्तान
अफ़्गानिस्तान
श्रेणी:दक्षिण एशिया के देश
श्रेणी:स्थलरुद्ध देश | अफगानिस्तान की राजधानी क्या है? | काबुल | 1,295 | hindi |
761874dd6 | मुफ़्ती मोहम्मद सईद (12 जनवरी 1936 - 7 जनवरी 2016) भारत के जम्मू और कश्मीर राज्य के मुख्यमंत्री थे। वे जम्मू और कश्मीर पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के अध्यक्ष थे। वे भारत के गृह मंत्री भी रहे।[1] इस पद पर आसीन होने वाले वे पहले मुस्लिम भारतीय थे। ०७ जनवरी २०१६ को दिल्ली में उनका निधन हुआ।[2]
२०१४ के चुनावों में वे अनंतनाग विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र से कांग्रेस के उम्मीदवार हिलाल अहमद शाह को 6028 वोटों के अंतर से हराकर विधायक निर्वाचित हुए।[3] साल १९८९ में इनकी बेटी रूबैया सईद का अपहरण कर लिया गया था। रुबैया के बदले में आतंकवादियों ने अपने पांच साथियों को मुक्त करवा दिया था। इस घटना का विरोध जम्मू कश्मीर के तत्कालीन मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला ने किया था। भारत के गृहमंत्री रहते हुए भी २४ दिसम्बर १९९९ को इन्डियन एयरलाइंस का विमान अपहृत कर लिया गया, परिणाम स्वरूप अजहर मसूद एवं अन्य दो आतंकियों को रिहा करना पड़ा।[4]
आरंभिक जीवन
मुफ़्ती का जन्म 12 जनवरी, 1936 में जम्मू कश्मीर के अनंतनाग जिले में बिजबेहरा नामक स्थान पर हुआ था। उन्होने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से अरब इतिहास की परास्नातक तथा विधि स्नातक की शिक्षा प्राप्त की थी।
राजनीतिक जीवन
मुफ़्ती ने अपना राजनैतिक जीवन 50 के दशक के अन्तिम वर्षों में डेमोक्रेटिक नेशनल कॉन्फ्रेंस के साथ प्रारंभ किया और वर्ष 1962 में पहली बार बिजबेहरा से विधायक चुने गए।[1] वर्ष 1967 में वे इसी सीट पर पुनः निर्वाचित हुए और गुलाम मुहम्मद सादिक़ की सरकार में उपमंत्री बनाये गए। कुछ समय पश्चात वे डेमोक्रेटिक नेशनल कॉन्फ्रेंस से अलग होकर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में सम्मिलित हो गए। वे कुछ उन गिने-चुने लोगों में से एक थे जिन्होंने कांग्रेस को घाटी में महत्वपूर्ण राजनैतिक समर्थन दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया था। वर्ष 1972 में राज्य की कांग्रेस सरकार में उन्हें कैबिनेट मंत्री तथा विधान परिषद में कांग्रेस का नेता बनाया गया। वर्ष 1986 में उन्हें राजीव गांधी सरकार के मंत्रिमंडल में पर्यटन एवं नागरिक उड्डयन विभाग का कैबिनेट मंत्री बनाया गया।[1] वे वर्ष 1987 में विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व वाले जनमोर्चा में सम्मिलित हो गए। वर्ष 1989 में उन्होने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और वी॰पी॰ सिंह के नेतृत्व में बनी केंद्र सरकार में उन्हें केंद्रीय गृहमंत्री बनाया गया। वे देश के गृहमंत्री बनने वाले प्रथम मुस्लिम व्यक्ति थे।[1] उनके मंत्रिकाल में इनकी बेटी रूबैया सईद का आतंकवादियों ने जम्मू-कश्मीर में अपहरण कर लिया।[4] आतंकियों ने पांच आतंकियों को जेल से रिहा करने के पश्चात उनकी बेटी को छोड़ा। पी॰ वी॰ नरसिम्हा राव के कार्यकाल में वे एक बार फिर कांग्रेस के साथ आए लेकिन वे कांग्रेस के साथ अधिक समय तक साथ नहीं रह पाये। वर्ष 1999 में उन्होने कांग्रेस को छोड़कर एक नये क्षेत्रीय राजनैतिक संगठन जम्मू और कश्मीर पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पी॰डी॰पी॰) का गठन किया। वर्ष 2002 में संपन्न जम्मू कश्मीर विधान सभा चुनाव में उनकी पार्टी ने सहभागिता की और विधान सभा की 16 सीटों पर विजय प्राप्त की। इस विजय के पश्चात उन्होने कांग्रेस के साथ गठबंधन सरकार बनायी, जिसमें मुख्यमंत्री के रूप में 2 नवंबर, 2002 से लेकर 2 नवंबर 2005 तक उन्होने पहली बार जम्मू-कश्मीर सरकार का नेतृत्व किया।[1] वर्ष 2015 में संपन्न जम्मू-कश्मीर राज्य के विधान सभा चुनाव में इनके नेतृत्व में पी॰डी॰पी॰ सबसे बड़ी विजेता पार्टी बनी, जिसने भाजपा के साथ गठबंधन करके सरकार बनायी और वे दुबारा मुख्यमंत्री बने।[4]
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
(अंग्रेजी में)
श्रेणी:1936 में जन्मे लोग
श्रेणी:जम्मू और कश्मीर के मुख्यमंत्री
श्रेणी:जम्मू और कश्मीर विधानसभा के सदस्य
श्रेणी:जम्मू और कश्मीर के राजनीतिज्ञ
श्रेणी:भारत के गृह मंत्री
श्रेणी:२०१६ में निधन | मुफ़्ती मोहम्मद सईद का जन्म कब हुआ था? | 12 जनवरी, 1936 | 849 | hindi |
915f023b0 | क्रिया योग की साधना करने वालों के द्वारा इसे एक प्राचीन योग पद्धति के रूप में वर्णित किया जाता है, जिसे आधुनिक समय में महावतार बाबाजी के शिष्य लाहिरी महाशय के द्वारा 1861 के आसपास पुनर्जीवित किया गया और परमहंस योगानन्द की पुस्तक ऑटोबायोग्राफी ऑफ़ ए योगी (एक योगी की आत्मकथा) के माध्यम से जन सामान्य में प्रसारित हुआ।[1] इस पद्धति में प्राणायाम के कई स्तर होते है जो ऐसी तकनीकों पर आधारित होते हैं जिनका उद्देश्य आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया को तेज़ करना[1] और प्रशान्ति और ईश्वर के साथ जुड़ाव की एक परम स्थिति को उत्पन्न करना होता है।[2] इस प्रकार क्रिया योग ईश्वर-बोध, यथार्थ-ज्ञान एवं आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने की एक वैज्ञानिक प्रणाली है।[3]
परमहंस योगानन्द के अनुसार क्रियायोग एक सरल मनःकायिक प्रणाली है, जिसके द्वारा मानव-रक्त कार्बन से रहित तथा ऑक्सीजन से प्रपूरित हो जाता है। इसके अतिरिक्त ऑक्सीजन के अणु जीवन प्रवाह में रूपान्तरित होकर मस्तिष्क और मेरूदण्ड के चक्रों को नवशक्ति से पुनः पूरित कर देते है।[4] प्रत्यक्छ प्राणशक्तिके द्वारा मन को नियन्त्रित करनेवाला क्रियायोग अनन्त तक पहुँचने के लिये सबसे सरल प्रभावकारी और अत्यन्त वैज्ञानिक मार्ग है। बैलगाड़ी के समान धीमी और अनिश्चित गति वाले धार्मिक मार्गों की तुलना में क्रियायोग द्वारा ईश्वर तक पहुँचने के मार्ग को विमान मार्ग कहना उचित होगा। क्रियायोग की प्रक्रिया का आगे विश्लेषण करते हुये वे कहते हैं कि मनुष्य की श्वशन गति और उसकी चेतना की भिन्न भिन्न स्थिति के बीत गणितानुसारी सम्बन्ध होने के अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं। मन की एकाग्रता धीमे श्वसन पर निर्भर है। तेज या विषम श्वास भय, काम क्रोध आदि हानिकर भावावेगों की अवस्था का सहचर है।[5]
क्रिया योग का अभ्यास
जैसा की लाहिरी महाशय द्वारा सिखाया गया, क्रिया योग पारंपरिक रूप से गुरु-शिष्य परंपरा के माध्यम से ही सीखा जाता है।[6][7] उन्होंने स्मरण किया कि, क्रिया योग में उनकी दीक्षा के बाद, "बाबाजी ने मुझे उन प्राचीन कठोर नियमों में निर्देशित किया जो गुरु से शिष्य को संचारित योग कला को नियंत्रित करते हैं।"[8]
जैसा की योगानन्द द्वारा क्रिया योग को वर्णित किया गया है, "एक क्रिया योगी अपनी जीवन उर्जा को मानसिक रूप से नियंत्रित कर सकता है ताकि वह रीढ़ की हड्डी के छः केंद्रों के इर्द-गिर्द ऊपर या नीचे की ओर घूमती रहे (मस्तिष्क, गर्भाशय ग्रीवा, पृष्ठीय, कमर, त्रिक और गुदास्थि संबंधी स्नायुजाल) जो राशि चक्रों के बारह नक्षत्रीय संकेतों, प्रतीकात्मक लौकिक मनुष्य, के अनुरूप हैं। मनुष्य के संवेदनशील रीढ़ की हड्डी के इर्द-गिर्द उर्जा के डेढ़ मिनट का चक्कर उसके विकास में तीव्र प्रगति कर सकता है; जैसे आधे मिनट का क्रिया योग एक वर्ष के प्राकृतिक आध्यात्मिक विकास के एक वर्ष के बराबर होता है।"[9]
स्वामी सत्यानन्द के क्रिया उद्धरण में लिखा है, "क्रिया साधना को ऐसा माना जा सकता है कि जैसे यह "आत्मा में रहने की पद्धति" की साधना है"।[10]
इतिहास
योगानन्द जी के अनुसार, प्राचीन भारत में क्रिया योग भली भांति जाना जाता था, लेकिन अंत में यह खो गया, जिसका कारण था पुरोहित गोपनीयता और मनुष्य की उदासीनता।[11] योगानन्द जी का कहना है कि भगवान कृष्ण ने भगवद गीता में क्रिया योग को संदर्भित किया है:
बाह्यगामी श्वासों में अंतरगामी श्वाशों को समर्पित कर और अंतरगामी श्वासों में बाह्यगामी श्वासों को समर्पित कर, एक योगी इन दोनों श्वासों को तटस्त करता है; ऐसा करके वह अपनी जीवन शक्ति को अपने ह्रदय से निकाल कर अपने नियंत्रण में ले लेता है।[12]
योगानन्द जी ने यह भी कहा कि भगवान कृष्ण क्रिया योग का जिक्र करते हैं जब "भगवान कृष्ण यह बताते है कि उन्होंने ही अपने पूर्व अवतार में अविनाशी योग की जानकारी एक प्राचीन प्रबुद्ध, वैवस्वत को दी जिन्होंने इसे महान व्यवस्थापक मनु को संप्रेषित किया। इसके बाद उन्होंने, यह ज्ञान भारत के सूर्य वंशी साम्राज्य के जनक इक्ष्वाकु को प्रदान किया।"[13] योगानन्द का कहना है कि पतंजलि का इशारा योग क्रिया की ओर ही था जब उन्होंने लिखा "क्रिया योग शारीरिक अनुशासन, मानसिक नियंत्रण और ॐ पर ध्यान केंद्रित करने से निर्मित है।"[14] और फिर जब वह कहते हैं, "उस प्रणायाम के जरिए मुक्ति प्राप्त की जा सकती है जो प्रश्वसन और अवसान के क्रम को तोड़ कर प्राप्त की जाती है।"[15] श्री युक्तेशवर गिरि के एक शिष्य, श्री शैलेंद्र बीजॉय दासगुप्ता ने लिखा है कि, "क्रिया के साथ कई विधियां जुडी हुई हैं जो प्रमाणित तौर पर गीता, योग सूत्र, तन्त्र शास्त्र और योग की संकल्पना से ली गयी हैं।"[16]
नवीनतम इतिहास
लाहिरी महाशय के महावतार बाबाजी से 1861 में क्रिया योग की दीक्षा प्राप्त करने की कहानी का व्याख्यान एक योगी की आत्मकथा में किया गया है।[17] योगानन्द ने लिखा है कि उस बैठक में, महावतार बाबाजी ने लाहिरी महाशय से कहा कि, "यह क्रिया योग जिसे मैं इस उन्नीसवीं सदी में तुम्हारे जरिए इस दुनिया को दे रहा हूं, यह उसी विज्ञान का पुनः प्रवर्तन है जो भगवान कृष्ण ने सदियों पहले अर्जुन को दिया; और बाद में यह पतंजलि और ईसा मसीह, सेंट जॉन, सेंट पॉल और अन्य शिष्यों को ज्ञात हुआ।" योगानन्द जी ने यह भी लिखा कि बाबाजी और ईसा मसीह एक दूसरे से एक निरंतर समागम में रहते थे और दोनों ने साथ, "इस युग के लिए मुक्ति की एक आध्यात्मिक तकनीक की योजना बनाई।"[1][18]
लाहिरी महाशय के माध्यम से, क्रिया योग जल्द ही भारत भर में फैल गया। लाहिरी महाशय के शिष्य स्वामी श्री युक्तेशवर गिरि के शिष्य योगानन्द जी ने, 20वीं शताब्दी के दौरान संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप में क्रिया योग का प्रसार किया।[19]
लाहिरी महाशय के शिष्यों में शामिल थे उनके अपने कनिष्ठ पुत्र श्री तीनकोरी लाहिरी, स्वामी श्री युक्तेशवर गिरी, श्री पंचानन भट्टाचार्य, स्वामी प्रणवानन्द, स्वामी केबलानन्द, स्वामी केशबानन्द और भुपेंद्रनाथ सान्याल (सान्याल महाशय)।[20]
सन्दर्भ
इन्हें भी देखें
श्रेणी:क्रिया
श्रेणी:योग शैलियां
श्रेणी:योग
श्रेणी:ध्यान
श्रेणी:अद्वैत दार्शनिक
श्रेणी:गूगल परियोजना | क्रिया योग के संस्थापक कौन थे? | लाहिरी महाशय | 143 | hindi |
0b23ee82c | श्रम सन्नियमन या श्रम कानून (Labour law या employment law) किसी राज्य द्वारा निर्मित उन कानूनों को कहते हैं जो श्रमिक (कार्मिकों), रोजगारप्रदाताओं, ट्रेड यूनियनों तथा सरकार के बीच सम्बन्धों को पारिभाषित करतीं हैं।
औद्योगिक सन्नियम का आशय उस विधान से है जो औद्योगिक संस्थानों, उनमें कार्यरत श्रमिकों एवं उद्योगपतियों पर लागू होता है। इसे हम दो भागों में बांट सकते हैंः-
उद्योग एवं श्रम सम्बन्धी विधान (Legislation pertaining to Factory and Labour), तथा
सामाजिक सुरक्षा सम्बन्धी विधान (Legislation pertaining to Social Security)
उद्योग तथा श्रम सम्बन्धी विधान में से वे सब अधिनियम आते हैं जो कारखाने तथा श्रमिकों के काम की दशाओं का नियमन (रेगुलेशन) करते हैं तथा कारखानों के मालिकों और श्रमिकों के दायित्व का उल्लेख करते हैं। कारखाना अधिनियम, 1948, औद्योगिक संघर्ष अधिनियम, 1947, भारतीय श्रम संघ अधिनियम, 1926, भृति-भुगतान अधिनियम, 1936, श्रमजीवी क्षतिपूर्ति अधिनियम, 1923 इत्यादि उद्योग तथा श्रम सम्बन्धी विधान की श्रेणी में आते हैं।
सामाजिक सुरक्षा सम्बन्धी विधान के अन्तर्गत वे समस्त अधिनियम आते हैं जो श्रमिकों के लिए विभिन्न सामाजिक लाभों- बीमारी, प्रसूति, रोजगार सम्बन्धी आघात, प्रॉविडेण्ट फण्ड, न्यूनतम मजदूरी इत्यादि-की व्यवस्था करते हैं। इस श्रेणी में कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम, 1948, कर्मचारी प्रॉविडेण्ट फण्ड अधिनियम, 1952, न्यूनतम भृत्ति अधिनियम, 1948, कोयला, खान श्रमिक कल्याण कोष अधिनियम, 1947, भारतीय गोदी श्रमिक अधिनियम, 1934, खदान अधिनियम, 1952 तथा मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961 इत्यादि प्रमुख हैं। भारत में वर्तमान में 128 श्रम तथा औद्योगिक विधान लागू हैं।
वास्तव में श्रम विधान सामाजिक विधान का ही एक अंग है। श्रमिक समाज के विशिष्ट समूह होते हैं। इस कारण श्रमिकों के लिये बनाये गये विधान, सामाजिक विधान की एक अलग श्रेणी में आते हैं। औद्योगगीकरण के प्रसार, मजदूरी अर्जकों के स्थायी वर्ग में
वृद्धि, विभिन्न देशों के आर्थिक एवं सामाजिक जीवन में श्रमिकों के बढ़ते हुये महत्व तथा उनकी प्रस्थिति में सुधार, श्रम संघों के विकास, श्रमिकों में अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता, संघों श्रमिकों के बीच शिक्षा के प्रसार, प्रबन्धकों और नियोजकों के परमाधिकारों में ह्रास तथा कई अन्य कारणों से श्रम विधान की व्यापकता बढ़ती गई है। श्रम विधानों की व्यापकता और उनके बढ़ते हुये महत्व को ध्यान में रखते हुये उन्हें एक अलग श्रेणी में रखना उपयुक्त समझा जाता है।
सिद्धान्तः श्रम विधान में व्यक्तियों या उनके समूहों को श्रमिक या उनके समूह के रूप में देखा जाता है।आधुनिक श्रम विधान के कुछ महत्वपूर्ण विषय है - मजदूरी की मात्रा, मजदूरी का भुगतान, मजदूरी से कटौतियां, कार्य के घंटे, विश्राम अंतराल, साप्ताहिक अवकाश,
सवेतन छुट्टी, कार्य की भौतिक दशायें, श्रम संघ, सामूहिक सौदेबाजी, हड़ताल, स्थायी आदेश, नियोजन की शर्ते, बोनस, कर्मकार क्षतिपूर्ति, प्रसूति हितलाभ एवं कल्याण निधि आदि है।
श्रम विधान के उद्देश्य
श्रम विधान के अग्रलिखित उद्देश्य है -
1. औद्योगिक के प्रसार को बढ़ावा देना,
2. मजदूरी अर्जकों के स्थायी वर्ग में उपयुक्त वृद्धि करना,
3. विभिन्न देशों के आर्थिक एवं सामाजिक जीवन में श्रमिकों के बढ़ते हुये महत्व तथा उनकी प्रस्थिति में सुधार को देखते हुये स्थानीय परिदृश्य में लागू कराना,
4. श्रम संघों का विकास करना,
5. श्रमिकों में अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता फैलाना,
6. संघों श्रमिकों के बीच शिक्षा के प्रसार को बढ़ावा देना,
7. प्रबन्धकों और नियोजकों के परमाधिकारों में ह्रास तथा कई अन्य कारणों से श्रम विधान की व्यापकता को बढ़ाना।
इन्हें भी देखें
भारतीय श्रम कानून
श्रेणी:विधि
* | भारतीय कानून ''मातृत्व लाभ अधिनियम'' किस तारीख को लागू हुआ था? | 1961 | 1,388 | hindi |
a786dd97a | नितिन गडकरी (जन्म: २७ मई १९५७) एक भारतीय राजनीतिज्ञ हैं तथा भारत सरकार में सड़क परिवहन और राजमार्ग, जहाज़रानी, जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्री हैं। इससे पहले २०१०-२०१३ तक वे भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। बावन वर्ष की आयु में भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष बनने वाले वे इस पार्टी के सबसे कम उम्र के अध्यक्ष थे। उनका जन्म महाराष्ट्र के नागपुर ज़िले में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। वे कामर्स में स्नातकोत्तर हैं इसके अलावा उन्होंने कानून तथा बिजनेस मनेजमेंट की पढ़ाई भी की है।[1] वो भारत के एक उद्योगपति हैं।[2]
गडकरी सफल उद्यमी हैं। वह एक बायो-डीज़ल पंप, एक चीनी मिल, एक लाख २० हजार लीटर क्षमता वाले इथानॉल ब्लेन्डिंग संयत्र, २६ मेगावाट की क्षमता वाले बिजली संयंत्र, सोयाबीन संयंत्र और को जनरेशन ऊर्जा संयंत्र से जुड़े हैं। गडकरी ने १९७६ में नागपुर विश्वविद्यालय में भाजपा की छात्र शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से अपने राजनीतिक जीवन की शुरूआत की। बाद में वह २३ साल की उम्र में भारतीय जनता युवा मोर्चा के अध्यक्ष बने।[3] अपने ऊर्जावान व्यक्तित्व और सब को साथ लेकर चलने की ख़ूबी की वजह से वे सदा अपने वरिष्ठ नेताओं के प्रिय बने रहे।[4] १९९५ में वे महाराष्ट्र में शिव सेना- भारतीय जनता पार्टी की गठबंधन सरकार में लोक निर्माण मंत्री बनाए गए और चार साल तक मंत्री पद पर रहे। मंत्री के रूप में वे अपने अच्छे कामों के कारण प्रशंसा में रहे। १९८९ में वे पहली बार विधान परिषद के लिए चुने गए, पिछले २० वर्षों से विधान परिषद के सदस्य हैं और आखिरी बार २००८ में विधान परिषद के लिए चुने गए। वे महाराष्ट्र विधान परिषद में विपक्ष के नेता भी रहे हैं। उन्होंने अपनी पहचान ज़मीन से जुड़े एक कार्यकर्ता के तौर पर बनाई है और वे एक राजनेता के साथ-साथ एक कृषक और एक उद्योगपति भी हैं।[5]
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
श्रेणी:राजनीतिज्ञ
श्रेणी:हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना
श्रेणी:1961 में जन्मे लोग
श्रेणी:जीवित लोग
श्रेणी:भारतीय जनता पार्टी के राजनीतिज्ञ
श्रेणी:नागपुर के लोग
श्रेणी:१६वीं लोक सभा के सदस्य
श्रेणी:भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष | भारतीय राजनीतिज्ञ नितिन गडकरी का जन्म कब हुआ था? | २७ मई १९५७ | 19 | hindi |
e81e5d43a | आचार्य विनोबा भावे (11 सितम्बर 1895 - 15 नवम्बर 1982) भारत के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, सामाजिक कार्यकर्ता तथा प्रसिद्ध गांधीवादी नेता थे। उनका मूल नाम विनायक नारहरी भावे था। उन्हे भारत का राष्ट्रीय आध्यापक और महात्मा गांधी का आध्यातमिक उत्तराधीकारी समझा जाता है। उन्होने अपने जीवन के आखरी वर्ष पोनार, महाराष्ट्र के आश्रम में गुजारे। उन्होंने भूदान आन्दोलन चलाया। इंदिरा गांधी द्वारा घोषित आपातकाल को 'अनुशासन पर्व' कहने के कारण वे विवाद में भी थे।
जीवन परिचय
विनोबा भावे का मूल नाम विनायक नरहरि भावे था। महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र में एक गांव है, गागोदा. यहां के चितपावन ब्राह्मण थे, नरहरि भावे. गणित के प्रेमी और वैज्ञानिक सूझबूझ वाले. रसायन विज्ञान में उनकी रुचि थी। उन दिनों रंगों को बाहर से आयात करना पड़ता था। नरहरि भावे रात-दिन रंगों की खोज में लगे रहते. बस एक धुन थी उनकी कि भारत को इस मामले में आत्मनिर्भर बनाया जा सके। उनकी माता रुक्मिणी बाई विदुषी महिला थीं। उदार-चित्त, आठों याम भक्ति-भाव में डूबी रहतीं. इसका असर उनके दैनिक कार्य पर भी पड़ता था। मन कहीं ओर रमा होता तो कभी सब्जी में नमक कम पड़ जाता, कभी ज्यादा. कभी दाल के बघार में हींग डालना भूल जातीं तो कभी बघार दिए बिना ही दाल परोस दी जाती. पूरा घर भक्ति रस से सराबोर रहता था। इसलिए इन छोटी-मोटी बातों की ओर किसी का ध्यान ही नहीं जाता था। उसी सात्विक वातावरण में 11 सितंबर 1895 को विनोबा का जन्म हुआ। उनका बचपन का नाम था विनायक. मां उन्हें प्यार से विन्या कहकर बुलातीं. विनोबा के अलावा रुक्मिणी बाई के दो और बेटे थे: वाल्कोबा और शिवाजी. विनायक से छोटे वाल्कोबा. शिवाजी सबसे छोटे. विनोबा नाम गांधी जी ने दिया था। महाराष्ट्र में नाम के पीछे ‘बा’ लगाने का जो चलन है, उसके अनुसार. तुकोबा, विठोबा और विनोबा.
मां का स्वभाव विनायक ने भी पाया था। उनका मन भी हमेशा अध्यात्म चिंतन में लीन रहता. न उन्हें खाने-पीने की सुध रहती थी। न स्वाद की खास पहचान थीं। मां जैसा परोस देतीं, चुपचाप खा लेते. रुक्मिणी बाई का गला बड़ा ही मधुर था। भजन सुनते हुए वे उसमें डूब जातीं. गातीं तो भाव-विभोर होकर, पूरे वातावरण में भक्ति-सलिला प्रवाहित होने लगती. रामायण की चैपाइयां वे मधुर भाव से गातीं. ऐसा लगता जैसे मां शारदा गुनगुना रही हो। विनोबा को अध्यात्म के संस्कार देने, उन्हें भक्ति-वेदांत की ओर ले जाने में, बचपन में उनके मन में संन्यास और वैराग्य की प्रेरणा जगाने में उनकी मां रुक्मिणी बाई का बड़ा योगदान था। बालक विनायक को माता-पिता दोनों के संस्कार मिले। गणित की सूझ-बूझ और तर्क-सामथ्र्य, विज्ञान के प्रति गहन अनुराग, परंपरा के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण और तमाम तरह के पूर्वाग्रहों से अलग हटकर सोचने की कला उन्हें पिता की ओर से प्राप्त हुई। जबकि मां की ओर से मिले धर्म और संस्कृति के प्रति गहन अनुराग, प्राणीमात्र के कल्याण की भावना. जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण, सर्वधर्म समभाव, सहअस्तित्व और ससम्मान की कला. आगे चलकर विनोबा को गांधी जी का आध्यात्मिक उत्तराधिकारी माना गया। आज भी कुछ लोग यही कहते हैं। मगर यह विनोबा के चरित्र का एकांगी और एकतरफा विश्लेषण है। वे गांधी जी के ‘आध्यात्मिक उत्तराधिकारी’ से बहुत आगे, स्वतंत्र सोच के स्वामी थे। मुख्य बात यह है कि गांधी जी के प्रखर प्रभामंडल के आगे उनके व्यक्तित्व का स्वतंत्र मूल्यांकन हो ही नहीं पाया।
महात्मा गांधी राजनीतिक जीव थे। उनकी आध्यात्मिक चेतना सुबह-शाम की आरती और पूजा-पाठ तक सीमित थी। जबकि उनकी धर्मिक-चेतना उनके राजनीतिक कार्यक्रमों के अनुकूल और समन्वयात्मक थी। उसमें आलोचना-समीक्षा भाव के लिए कोई स्थान नहीं था। धर्म-दर्शन के मामले में यूं तो विनोबा भी समर्पण और स्वीकार्य-भाव रखते थे। मगर उन्हें जब भी अवसर मिला धर्म-ग्रंथों की व्याख्या उन्होंने लीक से हटकर की। चाहे वह ‘गीता प्रवचन’ हों या संत तुकाराम के अभंगों पर लिखी गई पुस्तक ‘संतप्रसाद’. इससे उसमें पर्याप्त मौलिकता और सहजता है। यह कार्य वही कर सकता था जो किसी के भी बौद्धिक प्रभामंडल से मुक्त हो। एक बात यह भी महात्मा गांधी के सान्न्ध्यि में आने से पहले ही विनोबा आध्यात्मिक ऊंचाई प्राप्त कर चुके थे। आश्रम में आनने के बाद भी वे अध्ययन-चिंतन के लिए नियमित समय निकालते थे। विनोबा से पहली ही मुलाकात में प्रभावित होने पर गांधी जी ने सहज-मन से कहा था—
बाकी लोग तो इस आश्रम से कुछ लेने के लिए आते हैं, एक यही है जो हमें कुछ देने के लिए आया है।
दर्शनशास्त्र उनका प्रिय विषय था। आश्रम में दाखिल होने के कुछ महिनों के भीतर ही दर्शनशास्त्र की आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने एक वर्ष का अध्ययन अवकाश लिया था।
बचपन
विनोबा के यूं तो दो छोटे भाई और भी थे, मगर मां का सर्वाधिक वात्सल्य विनायक को ही मिला। भावनात्मक स्तर पर विनोबा भी खुद को अपने पिता की अपेक्षा मां के अधिक करीब पाते थे। यही हाल रुक्मिणी बाई का था, तीनों बेटों में ‘विन्या’ उनके दिल के सर्वाधिक करीब था। वे भजन-पूजन को समर्पित रहतीं. मां के संस्कारों का प्रभाव. भौतिक सुख-सुविधाओं के प्रति उदासीनता और त्याग की भावना किशोरावस्था में ही विनोबा के चरित्र का हिस्सा बन चुकी थी। घर का निर्जन कोना उन्हें ज्यादा सुकून देता. मौन उनके अंतर्मन को मुखर बना देता. वे घर में रहते, परिवार में सबके बीच, मगर ऐसे कि सबके साथ रहते हुए भी जैसे उनसे अलग, निस्पृह और निरपेक्ष हों. नहीं तो मां के पास, उनके सान्न्ध्यि में. ‘विन्या’ उनके दिल, उनकी आध्यात्मिक मन-रचना के अधिक करीब था। मन को कोई उलझन हो तो वही सुलझाने में मदद करता. कोई आध्यात्मिक समस्या हो तो भी विन्या ही काम आता. यहां तक कि यदि पति नरहरि भावे भी कुछ कहें तो उसमें विन्या का निर्णय ही महत्त्वपूर्ण होता था। ऐसा नहीं है कि विन्या एकदम मुक्त या नियंत्रण से परे था। परिवार की आचार संहिता विनोबा पर भी पूरी तरह लागू होती थी। बल्कि विनोबा के बचपन की एक घटना है। रुक्मिणी बाई ने बच्चों के लिए एक नियम बनाया हुआ था कि भोजन तुलसी के पौघे को पानी देने के बाद ही मिलेगा. विन्या बाहर से खेलकर घर पहुंचते, भूख से आकुल-व्याकुल. मां के पास पहुंचते ही कहते:
‘मां, भूख लगी है, रोटी दो.’
‘रोटी तैयार है, लेकिन मिलेगी तब पहले तुलसी को पानी पिलाओ.’ मां आदेश देती.
‘नहीं मां, बहुत जोर की भूख लगी है।’ अनुनय करते हुए बेटा मां की गोद में समा जाता. मां को उसपर प्यार हो आता. परंतु नियम-अनुशासन अटल—
‘तो पहले तुलसी के पौधे की प्यास बुझा.’ बालक विन्या तुलसी के पौधे को पानी पिलाता, फिर भोजन पाता.
रुक्मिणी सोने से पहले समर्थ गुरु रामदास की पुस्तक ‘दास बोध’ का प्रतिदिन अध्ययन करतीं. उसके बाद ही वे चारपाई पर जातीं. बालक विन्या पर इस असर पड़ना स्वाभाविक ही था। वे उसे संत ज्ञानेश्वर, तुकाराम, नामदेव और शंकराचार्य की कथाएं सुनातीं. रामायण, महाभारत की कहानियां, उपनिषदों के तत्व ज्ञान के बारे में समझातीं. संन्यास उनकी भावनाओं पर सवार रहता. लेकिन दुनिया से भागने के बजाय लोगों से जुड़ने पर वे जोर देतीं. संसार से भागने के बजाय उसको बदलने का आग्रह करतीं. अक्सर कहतीं—‘विन्या, गृहस्थाश्रम का भली-भांति पालन करने से पितरों को मुक्ति मिलती है।’ लेकिन विन्या पर तो गुरु रामदास, संत ज्ञानेश्वर और शंकराचार्य का भूत सवार रहता. इन सभी महात्माओं ने अपनी आध्यात्मिक तृप्ति के लिए बहुत कम आयु में अपने माता-पिता और घर-परिवार का बहिष्कार किया था। वे कहते—
‘मां जिस तरह समर्थ गुरु रामदास घर छोड़कर चले गए थे, एक दिन मुझे भी उसी तरह प्रस्थान कर देना है।’
ऐसे में कोई और मां होती तो हिल जाती. विचारमात्र से रो-रोकर आसमान सिर पर उठा लेती. क्योंकि लोगों की सामान्य-सी प्रवृत्ति बन चुकी है कि त्यागी, वैरागी होना अच्छी बात, महानता की बात, मगर तभी तक जब त्यागी और वैरागी दूसरे के घर में हों. अपने घर में सब साधारण सांसारिक जीवन जीना चाहते हैं। मगर रुक्मिणी बाई तो जैसे किसी और ही मिट्टी की बनी थीं। वे बड़े प्यार से बेटे को समझातीं—
‘विन्या, गृहस्थाश्रम का विधिवत पालन करने से माता-पिता तर जाते हैं। मगर बृह्मचर्य का पालन करने से तो 41 पीढ़ियों का उद्धार होता है।’
बेटा मां के कहे को आत्मसात करने का प्रयास कर ही रहा होता कि वे आगे जोड़ देतीं-
‘विन्या, अगर मैं पुरुष होती तो सिखाती कि वैराग्य क्या होता है।’
बचपन में बहुत कुशाग्र बुद्धि थे विनोबा. गणित उनका प्रिय विषय था। कविता और अध्यात्म चेतना के संस्कार मां से मिले। उन्हीं से जड़ और चेतन दोनों को समान दृष्टि से देखने का बोध जागा. मां बहुत कम पढ़ी-लिखी थीं। पर उन्होने की विन्या को अपरिग्रह, अस्तेय के बारे में अपने आचरण से बताया। संसार में रहते हुए भी उससे निस्पृह-निर्लिप्त रहना सिखाया. मां का ही असर था कि विन्या कविता रचते और और उन्हें आग के हवाले कर देते. दुनिया में जब सब कुछ अस्थाई और क्षणभंगुर है, कुछ भी साथ नहीं जाना तो अपनी रचना से ही मोह क्यों पाला जाए. उनकी मां यह सब देखतीं, सोचतीं, मगर कुछ न कहतीं. मानो विन्या को बड़े से बड़े त्याग के लिए तैयार कर रही हों. विनोबा की गणित की प्रवीणता और उसके तर्क उनके आध्यात्मिक विश्वास के आड़े नहीं आते थे। यदि कभी दोनों के बीच स्पर्धा होती भी तो जीत आध्यात्मिक विश्वास की ही होती. आज वे घटनाएं मां-बेटे के आपसी स्नेह-अनुराग और विश्वास का ऐतिहासिक दस्तावेज हैं।
रुक्मिणी बाई हर महीने चावल के एक लाख दाने दान करती थीं। एक लाख की गिनती करना भी आसान न था, सो वे पूरे महीने एक-एक चावल गिनती रहतीं. नरहरि भावे पत्नी को चावल गिनते में श्रम करते देख मुस्कराते. कम उम्र में ही आंख कमजोर पड़ जाने से डर सताने लगता. उनकी गणित बुद्धि कुछ और ही कहती. सो एक दिन उन्होंने रुक्मिणी बाई को टोक ही दिया—‘इस तरह एक-एक चावल गिनने में समय जाया करने की जरूरत ही क्या है। एक पाव चावल लो. उनकी गिनती कर लो. फिर उसी से एक लाख चावलों का वजन निकालकर तौल लो. कमी न रहे, इसलिए एकाध मुट्ठी ऊपर से डाल लो.’ बात तर्क की थी। लौकिक समझदारी भी इसी में थी कि जब भी संभव हो, दूसरे जरूरी कार्यों के लिए समय की बचत की जाए. रुक्मिणी बाई को पति का तर्क समझ तो आता. पर मन न मानता. एक दिन उन्होंने अपनी दुविधा विन्या के सामने प्रकट करने के बाद पूछा—
‘इस बारे में तेरा क्या कहना है, विन्या?’
बेटे ने सबकुछ सुना, सोचा। बोला, ‘मां, पिता जी के तर्क में दम है। गणित यही कहता है। किंतु दान के लिए चावल गिनना सिर्फ गिनती करना नहीं है। गिनती करते समय हर चावल के साथ हम न केवल ईश्वर का नाम लेते जाते हैं, बल्कि हमारा मन भी उसी से जुड़ा रहता है।’ ईश्वर के नाम पर दान के लिए चावल गिनना भी एक साधना है, रुक्मिणी बाई ने ऐसा पहले कहां सोचा था। अध्यात्मरस में पूरी तरह डूबी रहने वाली रुक्मिणी बाई को ‘विन्या’ की बातें खूब भातीं. बेटे पर गर्व हो आता था उन्हें. उन्होंने आगे भी चावलों की गिनती करना न छोड़ा. न ही इस काम से उनके मन कभी निरर्थकता बोध जागा.
ऐेसी ही एक और घटना है। जो दर्शाती है कि विनोबा कोरी गणितीय गणनाओं में आध्यात्मिक तत्व कैसे खोज लेते थे। घटना उस समय की है जब वे गांधी जी के आश्रम में प्रवेश कर चुके थे तथा उनके रचनात्मक कार्यों में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे थे। आश्रम में सुबह-शाम प्रार्थना सभाएं होतीं. उनमें उपस्थित होने वाले आश्रमवासियों की नियमित गिनती की जाती. यह जिम्मेदारी एक कार्यकर्ता थी। प्रसंग यह है कि एक दिन प्रार्थना सभा के बाद जब उस कार्यकर्ता ने प्रार्थना में उपस्थित हुए आगंतुकों की संख्या बताई तो विनोबा झट से प्रतिवाद करते हुए बोले—
‘नहीं इससे एक कम थी।’
कार्यकर्ता को अपनी गिनती पर विश्वास था, इसलिए वह भी अपनी बात पर अड़ गया। कर्म मंे विश्वास रखने वाले विनोबा आमतौर पर बहस में पड़ने से बचते थे। मगर उस दिन वे भी अपनी बात पर अड़ गए। आश्रम में विवादों का निपटान बापू की अदालत में होता था। गांधी जी को अपने कार्यकर्ता पर विश्वास था। मगर जानते थे कि विनोबा यूं ही बहस में नहीं पड़ने वाले. वास्तविकता जानने के लिए उन्होंने विनोबा की ओर देखा. तब विनोबा ने कहा—‘प्रार्थना में सम्मिलित श्रद्धालुओं की संख्या जितनी इन्होंने बताई उससे एक कम ही थी।’
‘वह कैसे?’
‘इसलिए कि एक आदमी का तो पूरा ध्यान वहां उपस्थित सज्जनों की गिनती करने में लगा था।’
गांधीजी विनोबा का तर्क समझ गए। प्रार्थना के काम में हिसाब-किताब और दिखावे की जरूरत ही क्या. आगे से प्रार्थना सभा में आए लोगों की गिनती का काम रोक दिया गया।
युवावस्था के प्रारंभिक दौर में ही विनोबा आजन्म ब्रह्मचारी रहने की ठान चुके थे। वही महापुरुष उनके आदर्श थे जिन्होंने सत्य की खोज के लिए बचपन में ही वैराग्य ओढ़ लिया था। और जब संन्यास धारण कर ब्रह्मचारी बनना है, गृहस्थ जीवन से नाता ही तोड़ना है तो क्यों न मन को उसी के अनुरूप तैयार किया जाए. क्यों उलझा जाए संबंधों की मीठी डोर, सांसारिक प्रलोभनों में. ब्रह्मचर्य की तो पहली शर्त यही है कि मन को भटकने से रोका जाए. वासनाओं पर नियंत्रण रहे। किशोर विनायक से किसी ने कह दिया था कि ब्रह्मचारी को किसी विवाह के भोज में सम्मिलित नहीं होना चाहिए। वे ऐसे कार्यक्रमों में जाने से अक्सर बचते भी थे। पिता नरहरि भावे तो थे ही, यदि किसी और को ही जाना हुआ तो छोटे भाई चले जाते. विनोबा का तन दुर्बल था। बचपन से ही कोई न कोई व्याधि लगी रहती. मगर मन-मस्तिष्क पूरी तरह चैतन्य. मानो शरीर की सारी शक्तियां सिमटकर दिमाग में समा गई हांे. स्मृति विलक्षण थी। किशोर विनायक ने वेद, उपनिषद के साथ-साथ संत ज्ञानेश्वर, तुकाराम, नामदेव के सैकड़ों पद अच्छी तरह याद कर लिए थे। गीता उन्हें बचपन से ही कंठस्थ थी। आगे चलकर चालीस हजार श्लोक भी उनके मानस में अच्छी तरह रम गए।
विनायक की बड़ी बहन का विवाह तय हुआ तो मानो परीक्षा की घड़ी भी करीब आ गई। उन्होंने तय कर लिया कि विवाह के अवसर पर भोज से दूर रहेंगे. कोई टोका-टाकी न करे, इसलिए उन्होंने उस दिन उपवास रखने की घोषणा कर दी। बहन के विवाह में भाई उपवास रखे, यह भी उचित न था। पिता तो सुनते ही नाराज हो गए। मगर मां ने बात संभाल ली। उन्होंने बेटे को साधारण ‘दाल-भात’ खाने के लिए राजी कर लिया। यही नहीं अपने हाथों से अलग पकाकर भी दिया। धूम-धाम से विवाह हुआ। विनायक ने खुशी-खुशी उसमें हिस्सा लिया। लेकिन अपने लिए मां द्वारा खास तौर पर बनाए दाल-भात से ही गुजारा किया। मां-बेटे का यह प्रेम आगे भी बना रहा। आगे चलकर जब संन्यास के लिए घर छोड़ा तो मां की एक लाल किनारी वाली धोती और उनके पूजाघर से एक मूति साथ ले गए। मूर्ति तो उन्होंने दूसरे को भेंट कर दी थी। मगर मां की धोती जहां भी वे जाते, अपने साथ रखते. सोते तो सिरहाने रखकर. जैसे मां का आशीर्वाद साथ लिए फिरते हों. संन्यासी मन भी मां की स्मृतियों से पीछा नहीं छुटा पाया था। मां के संस्कार ही विनोबा की आध्यात्मिक चेतना की नींव बने। उन्हीं पर उनका जीवनदर्शन विकसित हुआ। आगे चलकर उन्होंने रचनात्मकता और अध्यात्म के क्षेत्र में जो ख्याति अर्जित की उसके मूल में भी मां की ही प्रेरणाएं थीं।
रुक्मिणी बाई कम पढ़ी-लिखीं थीं। संस्कृत समझ नहीं आती थीं। लेकिन मन था कि गीता-ज्ञान के लिए तरसता रहता. एक दिन मां ने अपनी कठिनाई पुत्र के समक्ष रख ही दी—
‘विन्या, संस्कृत की गीता समझ में नहीं आती.’ विनोबा जब अगली बार बाजार गए, गीता के तीन-चार मराठी अनुवाद खरीद लाए. लेकिन उनमें भी अनुवादक ने अपना पांडित्य प्रदर्शन किया था।
‘मां बाजार में यही अनुवाद मिले.’ विन्या ने समस्या बताई. ऐसे बोझिल और उबाऊ अनुवाद अपनी अल्पशिक्षित मां के हाथ में थमाते हुए वे स्वयं दुःखी थे।
‘तो तू नहीं क्यों नहीं करता नया अनुवाद.’ मां ने जैसे चुनौती पेश की. विनोबा उसके लिए पूरी तरह तैयार नहीं थे।
‘मैं, क्या मैं कर सकूंगा?’ विनोबा ने हैरानी जताई. उस समय उनकी अवस्था मात्र 21 वर्ष थी। पर मां को बेटे की क्षमता पर पूरा विश्वास था।
‘तू करेगा...तू कर सकेगा विन्या!’ मां के मुंह से बरबस निकल पड़ा. मानो आशीर्वाद दे रही हो. गीता के प्रति विनोबा का गहन अनुराग पहले भी था। परंतु उसका वे भास्य लिखेंगे और वह भी मराठी में यह उन्होंने कभी नहीं सोचा था। लेकिन मां की इच्छा भी उनके लिए सर्वोपरि थी। धीरे-धीरे उनका आत्मविश्वास बढ़ता गया। गीता पहले भी उन्हें भाती थी। अब तो जैसे हर आती-जाती सांस गीता का पाठ करने लगी. सांस-सांस गीता हो गया। यह सोचकर कि मां मे निमित्त काम करना है। दायित्वभार साधना है। विनोबा का मन गीता हो गया। उसी साल 7 अक्टूबर को उन्होंने अनुवादकर्म के निमित्त कलम उठाई. उसके बाद तो प्रातःकाल स्नानादि के बाद रोत अनुवाद करना, उनकी दिनचर्या का हिस्सा बन गया। यह काम 1931 तक चला. परंतु जिसके लिए वह संकल्प साधा था, वह उस उपलब्धि को देख सकीं. मां रुक्मिणी बाई का निधन 24 अक्टूबर 1918 को ही हो चुका था। विनोबा ने इसे भी ईश्वर इच्छा माना और अनुवादकार्य में लगे रहे.
विनोबा धार्मिक संस्कारों में पाखंड के विरोधी थे। मां के निधन के समय भी विनोबा का अपने पिता और भाइयों से मतभेद हुआ। विनोबा ब्राह्मणों के हाथ से परंपरागत तरीके से दाह-संस्कार का विरोध कर रहे थे। लेकिन परिवार वालों की जिद के आगे उनकी एक न चली. विनोबा भी अपने सिद्धांतों पर अडिग थे। नतीजा यह कि जिस मां को वे सबसे अधिक चाहते थे, जो उनकी आध्यात्मिक गुरु थीं, उनके अंतिम संस्कार से वे दूर ही रहे। मां को उन्होंने भीगी आंखों से मौन विदाई दी। आगे चलकर 29 अक्टूबर 1947 को विनोबा के पिता का निधन हुआ तो उन्होंने वेदों के निर्देश कि ‘मिट्टी पर मिट्टी का ही अधिकार है’ का पालन करते हुए उनकी देह को अग्नि-समर्पित करने के बजाय, मिट्टी में दबाने जोर दिया। तब तक विनोबा संत विनोबा हो चुके थे। गांधी जी का उन्हें आशीर्वाद था। इसलिए इस बार उन्हीं की चली.
मां की गीता में आस्था थी। वे विनोबा को गीता का मराठी में अनुवाद करने का दायित्व सौंपकर गई थीं। विनोबा उस कार्य में मनोयोग से लगे थे। आखिर अनुवाद कर्म पूरा हुआ। पुस्तक का नाम रखा गया- गीताई. गीता़+आई = गीताई. महाराष्ट्र में ‘आई’ का अभिप्राय ‘मां के प्रति’ से है; यानी मां की स्मृति उसके नेह से जुड़ी-रची गीता. पुत्र की कृति को देखने के लिए तो रुक्मिणी बाई जीवित नहीं थीं। मगर उनकी याद और अभिलाषा से जुड़ी गीताई, महाराष्ट्र के घर-घर में माताओं और बहनों के कंठ-स्वर में ढलने लगी। उनकी अध्यात्म चेतना का आभूषण बन गई। गांधी जी ने सुना तो अनुवाद कर्म की भूरि-भूरि प्रशंसा की। जो महिलाएं संस्कृत नहीं जानती थीं, जिन्हें अपनी भाषा का भी आधा-अधूरा ज्ञान था, उनके लिए सहज-सरल भाषा में रची गई ‘गीताई’, गीता की आध्यात्मिकता में डूबने के लिए वरदान बन गई।
संन्यास की साध
विनोबा को बचपन में मां से मिले संस्कार युवावस्था में और भी गाढ़े होते चले गए। युवावस्था की ओर बढ़ते हुए विनोबा न तो संत ज्ञानेश्वर को भुला पाए थे, न तुकाराम को। वही उनके आदर्श थे। संत तुकाराम के अभंग तो वे बड़े ही मनोयोग से गाते. उनका अपने आराध्य से लड़ना-झगड़ना, नाराज होकर गाली देना, रूठना-मनाना उन्हें बहुत अच्छा लगता. संत रामदास का जीवन भी उन्हें प्रेरणा देता. वे न शंकराचार्य को विस्मृत कर पाए थे, न उनके संन्यास को। दर्शन उनका प्रिय विषय था। हिमालय जब से होश संभाला था, तभी से उनकी सपनों में आता था और वे कल्पना में स्वयं को सत्य की खोज में गहन कंदराओं में तप-साधना करते हुए पाते. वहां की निर्जन, वर्फ से ढकी दीर्घ-गहन कंदराओं में उन्हें परमसत्य की खोज में लीन हो जाने के लिए उकसातीं.
1915 में उन्होंने हाई स्कूल की परीक्षा पास की। अब आगे क्या पढ़ा जाए. वैज्ञानिक प्रवृत्ति के पिता और अध्यात्म में डूबी रहने वाली मां का वैचारिक द्वंद्व वहां भी अलग-अलग धाराओं में प्रकट हुआ। पिता ने कहाµ‘फ्रेंच पढ़ो.’ मां बोलीं—‘ब्राह्मण का बेटा संस्कृत न पढ़े, यह कैसे संभव है!’ विनोबा ने उन दोनों का मन रखा। इंटर में फ्रेंच को चुना। संस्कृत का अध्ययन उन्होंने निजी स्तर पर जारी रखा। उन दिनों फ्रेंच ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में हो रही क्रांति की भाषा थी। सारा परिवर्तनकामी साहित्य उसमें रचा जा रहा था। दूसरी ओर बड़ौदा का पुस्तकालय दुर्लभ पुस्तकों, पांडुलिपियों के खजाने के लिए पूरे देश में प्रसिद्ध था। विनोबा ने उस पुस्तकालय को अपना दूसरा ठिकाना बना दिया। विद्यालय से जैसे ही छुट्टी मिलती, वे पुस्तकालय में जाकर अध्ययन में डूब जाते. फ्रांसिसी साहित्य ने विनोबा का परिचय पश्चिमी देशों में हो रही वैचारिक क्रांति से कराया. संस्कृत के ज्ञान ने उन्हें वेदों और उपनिषदों में गहराई से पैठने की योग्यता दी। ज्ञान का स्तर बढ़ा, तो उसकी ललक भी बढ़ी. मगर मन से हिमालय का आकर्षण, संन्यास की साध, वैराग्यबोध न गया।
उन दिनों इंटर की परीक्षा के लिए मुंबई जाना पड़ता था। विनोबा भी तय कार्यक्रम के अनुसार 25 मार्च 1916 को मुंबई जाने वाली रेलगाड़ी में सवार हुए. उस समय उनका मन डावांडोल था। पूरा विश्वास था कि हाईस्कूल की तरह इंटर की परीक्षा भी पास कर ही लेंगे. मगर उसके बाद क्या? क्या यही उनके जीवन का लक्ष्य है? विनोबा को लग रहा था कि अपने जीवन में वे जो चाहते हैं, वह औपचारिक अध्ययन द्वारा संभव नहीं। विद्यालय के प्रमाणपत्र और कालिज की डिग्रियां उनका अभीष्ठ नहीं हैं। रेलगाड़ी अपनी गति से भाग रही थी। उससे सहस्र गुना तेज भाग रहा था विनोबा का मन. आखिर जीत मन की हुई। जैसे ही गाड़ी सूरत पहुंची, विनोबा उससे नीचे उतर आए। गाड़ी आगे बढ़ी पर विनोबा का मन दूसरी ओर खिंचता चला गया। दूसरे प्लेटफार्म पर पूर्व की ओर जाने वाली रेलगाड़ी मौजूद थी। विनोबा को लगा कि हिमालय एक बार फिर उन्हें आमंत्रित कर रहा है। गृहस्थ जीवन या संन्यास. मन में कुछ देर तक संघर्ष चला. ऊहापोह से गुजरते हुए उन्होंने उन्होंने निर्णय लिया और उसी गाड़ी में सवार हो गए। संन्यासी अपनी पसंदीदा यात्रा पर निकल पड़ा. इस हकीकत से अनजान कि इस बार भी जिस यात्रा के लिए वे ठान कर निकले हैं, वह उनकी असली यात्रा नहीं, सिर्फ एक पड़ाव है। जीवन से पलायन उनकी नियति नहीं। उन्हें तो लाखों-करोड़ों भारतीयों के जीवन की साध, उनके लिए एक उम्मीद बनकर उभरना है।
ब्रह्म की खोज, सत्य की खोज, संन्यास लेने की साध में विनोबा भटक रहे थे। उसी लक्ष्य के साथ उन्होंने घर छोड़ा था। हिमालय की ओर यात्रा जारी थी। बीच में काशी का पड़ाव आया। मिथकों के अनुसार भगवान शंकर की नगरी. हजारों वर्षों तक धर्म-दर्शन का केंद्र रही काशी. साधु-संतों और विचारकों का कुंभ. जिज्ञासुओं और ज्ञान-पिपासुओं को अपनी ओर आकर्षित करने वाली पवित्र धर्मस्थली. शंकराचार्य तक खुद को काशी-यात्रा के प्रलोभन से नहीं रोक पाए थे। काशी के गंगा घाट पर जहां नए विचार पनपे तो वितंडा भी अनगिनत रचे जाते रहे। उसी गंगा तट पर विनोबा भटक रहे थे। अपने लिए मंजिल की तलाश में. गुरु की तलाश में जो उन्हें आगे का रास्ता दिखा सके। जिस लक्ष्य के लिए उन्होंने घर छोड़ा था, उस लक्ष्य तक पहुंचने का मार्ग बता सके। भटकते हुए वे एक स्थान पर पहुंचे जहां कुछ सत्य-साधक शास्त्रार्थ कर रहे थे। विषय था अद्वैत और द्वैत में कौन सही. प्रश्न काफी पुराना था। लगभग बारह सौ वर्ष पहले भी इस पर निर्णायक बहस हो चुकी थी। शंकराचार्य और मंडन मिश्र के बीच. उस ऐतिहासिक बहस में द्वैतवादी मंडन मिश्र और उनकी पत्नी को शंकराचार्य ने पराजित किया था। वही विषय फिर उन सत्य-साधकों के बीच आ फंसा था। या कहो कि वक्त काटने के लिए दोनों पक्ष अपने-अपने तर्कों के साथ वितंडा रच रहे थे। और फिर बहस को समापन की ओर ले जाते हुए अचानक घोषणा कर दी गई कि अद्वैतवादी की जीत हुई है। विनोबा चैंके. उनकी हंसी छूट गई—
‘नहीं, अद्वैतवादी ही हारा है।’ विनोबा के मुंह से बेसाख्ता निकल पड़ा. सब उनकी ओर देखने लगे. एक युवा, जिसकी उम्र बीस-इकीस वर्ष की रही होगी, दिग्गज विद्वानों के निर्णय को चुनौती दे रहा था। उस समय यदि महान अद्वैतवादी शंकराचार्य का स्मरण न रहा होता तो वे लोग जरूर नाराज हो जाते. उन्हें याद आया, जिस समय शंकराचार्य ने मंडनमिश्र को पराजित किया, उस समय उनकी उम्र भी लगभग वही थी, जो उस समय विनोबा की थी।
‘यह तुम कैसे कह सकते हो, जबकि द्वैतवादी सबके सामने अपनी पराजय स्वीकार कर चुका है।’
‘नहीं यह अद्वैतवादी की ही पराजय है।’ विनोबा अपने निर्णय पर दृढ़ थे।
‘कैसे?’
‘जब कोई अद्वैतवादी द्वैतवादी से शास्त्रार्थ करना स्वीकार कर ले, तो समझो कि उसने पहले ही हार मान ली है।’ उस समय विनोबा के मन में अवश्य ही शंकराचार्य की छवि रही होगी. उनकी बात भी ठीक थी। जिस अद्वैतमत का प्रतिपादन बारह सौ वर्ष पहले शंकराचार्य मंडनमिश्र को पराजित करके कर चुके थे, उसकी प्रामाणिकता पर पुनः शास्त्रार्थ और वह भी बिना किसी ठोस आधार के. सिर्फ वितंडा के यह और क्या हो सकता है! वहां उपस्थित विद्वानों को विनोबा की बात सही लगी. कुछ साधु विनायक को अपने संघ में शामिल करने को तैयार हो गए। कुछ तो उन्हें अपना गुरु बनाने तक को तैयार थे। पर जो स्वयं भटक रहा हो, जो खुद गुरु की खोज में, नीड़ की तलाश में निकला हो, वह दूसरे को छाया क्या देगा! अपनी जिज्ञासा और असंतोष को लिए विनोबा वहां से आगे बढ़ गए। इस बात से अनजान कि काशी ही उन्हें आगे का रास्ता दिखाएगी और उन्हें उस रास्ते पर ले जाएगी, जिधर जाने के बारे उन्होंने अभी तक सोचा भी नहीं है। मगर जो उनकी वास्तविक मंजिल है।
गांधी से मुलाकात
एक ओर विनोबा संन्यास की साध में, सत्यान्वेषण की ललक लिए काशी की गलियों में, घाटों पर भटक रहे थे। वहीं दूसरी ओर एक और जिज्ञासु भारत को जानने, उसके हृदयप्रदेश की धड़कनों को पहचानने, उससे आत्मीयता भरा रिश्ता कायम करने के लिए भारत-भ्रमण पर निकला हुआ हुआ था। वह कुछ ही महीने पहले दक्षिण अफ्रीका से बेशुमार ख्याति बटोरकर लौटा था। आगे उसकी योजना भारतीय राजनीति में दखल देने की थी। उस साधक का नाम था—मोहनदास करमचंद गांधी. अपने राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले के कहने पर वह भारत की आत्मा को जानने के उद्देश्य से एक वर्ष के भारत-भ्रमण पर निकला हुआ था। आगे चलकर भारतीय राजनीति पर छा जाने, करोड़ों भारतीयों के दिल की धड़कन, भारतीय स्वाधीनता आंदोलन का प्रमुख सूत्रधार, अहिंसक सेनानी बन जाने वाले गांधी उन दिनों अप्रसिद्ध ही थे। ‘महात्मा’ की उपाधि भी उनसे दूर थी। सिर्फ दक्षिण अफ्रीका में छेडे़ गए आंदोलन की पूंजी ही उनके साथ थी। उसी के कारण वे पूरे भारत में जाने जाते थे। उन दिनों उनका पड़ाव भी काशी ही था। मानो दो महान आत्माओं को मिलवाने के लिए समय अपना जादुई खेल रच रहा था।
काशी में महामना मदन मोहन मालवीय द्वारा स्थापित हिंदू विश्वविद्यालय में एक बड़ा जलसा हो रहा था। 4 फ़रवरी 1916, जलसे में राजे-महाराजे, नबाव, सामंत सब अपनी पूरी धज के साथ उपस्थित थे। सम्मेलन की छटा देखते ही बनती थी। उस सम्मेलन में गांधी जी ने ऐतिहासिक भाषण दिया। वह कहा जिसकी उस समय कोई उम्मीद नहीं कर सकता था। वक्त पड़ने पर जिन राजा-सामंतों की खुशामद स्वयं अंग्रेज भी करते थे, जिनके दान पर काशी विश्वविद्यालय और दूसरी अन्य संस्थाएं चला करती थीं, उन राजा-सामंतों की खुली आलोचना करते हुए गांधी जी ने कहा कि अपने धन का सदुपयोग राष्ट्रनिर्माण के लिए करें। उसको गरीबों के कल्याण में लगाएं. उन्होंने आवाह्न किया कि वे व्यापक लोकहित में अपने सारे आभूषण दान कर दें। वह एक क्रांतिकारी अपील थी। सभा में खलबली मच गई। पर गांधी की मुस्कान उसी तरह बनी रही। अगले दिन उस सम्मेलन की खबरों से अखबार रंगे पड़े थे। विनोबा ने समाचारपत्र के माध्यम से ही गांधी जी के बारे में जाना. और उन्हें लगा कि जिस लक्ष्य की खोज में वे घर से निकले हैं, वह पूरी हुई। विनोबा कोरी शांति की तलाश में ही घर से नहीं निकले थे। न वे देश के हालात और अंग्रेजों द्वारा किए जा रहे अमानवीय अत्याचारों से अपरिचित थे। मगर कोई राह मिल ही नहीं रही थी। भाषण पढ़कर उन्हें लगा कि इस व्यक्ति के पास शांति भी है और क्रांति भी. उन्होंने वहीं से गांधी जी के नाम पत्र लिखा. जवाब आया। गांधी जी के आमंत्रण के साथ. विनोबा तो उसकी प्रतीक्षा कर ही रहे थे। वे तुरंत अहमदाबाद स्थित कोचर्ब आश्रम की ओर प्रस्थान कर गए, जहां गांधी जी का आश्रम था।
7 जून 1916 को विनोबा की गांधी से पहली भेंट हुई। उसके बाद तो विनोबा गांधी जी के ही होकर रह गए। गांधी जी ने भी विनोबा की प्रतिभा को पहचान लिया था। इसलिए पहली मुलाकात के बाद ही उनकी टिप्पणी थी कि अधिकांश लोग यहां से कुछ लेने के लिए आते हैं, यह पहला व्यक्ति है, जो कुछ देने के लिए आया है।’ काफी दिन बाद अपनी पहली भेंट को याद करते हुए विनोबा ने कहा था—
जिन दिनों में काशी में था, मेरी पहली अभिलाषा हिमालय की कंदराओं में जाकर तप-साधना करने की थी। दूसरी अभिलाषा थी, बंगाल के क्रांतिकारियों से भेंट करने की. लेकिन इनमें से एक भी अभिलाषा पूरी न हो सकी. समय मुझे गांधी जी तक ले गया। वहां जाकर मैंने पाया कि उनके व्यक्तित्व में हिमालय जैसी शांति है तो बंगाल की क्रांति की धधक भी. मैंने छूटते ही स्वयं से कहा था, मेरे दोनों इच्छाएं पूरी हुईं.
अंगूठाकार|साबरमती आश्रम में विनोबा कुटीर
गांधी और विनोबा की वह मुलाकात क्रांतिकारी थी। गांधी जी को जैसे ही पता चला कि विनोबा अपने माता-पिता को बिना बताए आए हैं, उन्होंने वहीं से विनोबा के पिता के नाम एक पत्र लिखा कि विनोबा उनके साथ सुरक्षित हैं। उसके बाद उनके संबंध लगातार प्रगाढ़ होते चले गए। विनोबा ने खुद को गांधी जी के आश्रम के लिए समर्पित कर दिया। अध्ययन, अध्यापन, कताई, खेती के काम से लेकर सामुदायिक जीवन तक आश्रम की हर गतिविधि में वे आगे रहते. गांधी जी का यह कहना कि यह युवक आश्रमवासियों से कुछ लेने नहीं बल्कि देने आया है, सत्य होता जा रहा था। उम्र से एकदम युवा विनोबा उन्हें अनुशासन और कर्तव्यपरायणता का पाठ तो पढ़ा ही रहे थे। गांधी जी का प्रभाव तेजी से बढ़ रहा था। उतनी ही तेजी से बढ़ रही आश्रम में आने वाले कार्यकर्ताओं की संख्या. कोचरब आश्रम छोटा पड़ने लगा तो अहमदाबाद में साबरमती के किनारे नए आश्रम का काम तेजी से होने लगा. लेकिन आजादी के अहिंसक सैनिक तैयार करने का काम अकेले साबरमती आश्रम से भी संभव भी न था। गांधी वैसा ही आश्रम वर्धा में भी चाहते थे। वहां पर ऐसे अनुशासित कार्यकर्ता की आवश्यकता थी, जो आश्रम को गांधी जी के आदर्शों के अनुरूप चला सके. इसके लिए विनोबा सर्वथा अनुकूल पात्र थे और गांधी जी के विश्वसनीय भी. 8 अप्रैल 1923 को विनोबा वर्धा के लिए प्रस्थान कर गए। वहां उन्होंने ‘महाराष्ट्र धर्म’ मासिक का संपादन शुरू किया। मराठी में प्रकाशित होने वाली इस पत्रिका में विनोबा ने नियमित रूप से उपनिषदों और महाराष्ट्र के संतों पर लिखना आरंभ कर दिया, जिनके कारण देश में भक्ति आंदोलन की शुरुआत हुई थी। पत्रिका को अप्रत्याशित लोकप्रियता प्राप्त हुई, कुछ ही समय पश्चात उसको साप्ताहिक कर देना पड़ा विनोबा अभी तक गांधी जी के शिष्य और सत्याग्रही के रूप में जाने जाते थे। पत्रिका के माध्यम से जनता उनकी आध्यात्मिक पैठ को जानने लगी थी।
द्वितीय विश्व युद्ध में भूमिका
द्वितीय विश्व युद्ध के समय युनाइटेेड किंगडम द्वारा भारत देश को जबरन युद्ध में झोंका जा रहा था जिसके विरुद्ध एक व्यक्तिगत सत्याग्रह 17 अक्तूबर, 1940 को शुरू किया गया था और इसमें गांधी जी द्वारा विनोबा को प्रथम सत्याग्रही बनाया गया था। अपना सत्याग्रह शुरू करने से पहले अपने विचार स्पष्ट करते हुए विनोबा ने एक वक्तव्य जारी किया था। उसमें कहा गया था-
चौबीस वर्ष पहले ईश्वर के दर्शन की कामना लेकर मैंने अपना घर छोड़ा था। आज तक की मेरी जिंदगी जनता की सेवा में समर्पित रही है। इस दृढ़ विश्वास के साथ कि इनकी सेवा भगवान को पाने का सर्वोत्तम तरीका है। मैं मानता हूं और मेरा अनुभव रहा है कि मैंने गरीबों की जो सेवा की है, वह मेरी अपनी सेवा है, गरीबों की नहीं।
आगे उन्होंने इतना और कहा -
मैं अहिंसा में पूरी तरह विश्वास करता हूं और मेरा विचार है कि इसी से मानवजाति की समस्याओं का समाधान हो सकता है। रचनात्मक गतिविधियां, जैसे खादी, हरिजन सेवा, सांप्रदायिक एकता आदि अहिंसा की सिर्फ बाह्य अभिव्यक्तियां हैं। ....युद्ध मानवीय नहीं होता। वह लड़ने वालों और न लड़ने वालों में फर्क नहीं करता। आज का मशीनों से लड़ा जाने वाला युद्ध अमानवीयता की पराकाष्ठा है। यह मनुष्य को पशुता के स्तर पर ढ़केल देता है। भारत स्वराज्य की आराधना करता है जिसका आशय है, सबका शासन। यह सिर्फ अहिंसा से ही हासिल हो सकता है। फासीवाद, नाजीवाद और साम्राज्यवाद में अधिक पर्क नहीं है। लेकिन अहिंसा से इसका मेल नहीं है। यह भयानक खतरे में पड़ी सरकार के लिए और परेशानी पैदा करता है। इसलिए गांधी ने व्यक्तिगत सत्याग्रह का आह्वान किया है। यदि सरकार मुझे गिरफ्तार नहीं करती तो मैं जनता से विनम्र अनुरोध करूंगा कि वे युद्ध में किसी प्रकार की किसी रूप में मदद न करें। मैं उनको अहिंसा का दर्शन समझाऊंगा, वर्तमान युद्ध की विभीषिका भी समझाऊंगा तथा यह बताऊंगा की फासीवाद, नाजीवाद और साम्राज्यवाद एक ही सिक्के के दो अलग-अलग पहलू हैं।
अपने भाषणों में विनोबा लोगों को बताते थे कि नकारात्मक कार्यक्रमों के जरिए न तो शान्ति स्थापित हो सकती है और न युद्ध समाप्त हो सकता है। युद्ध रुग्ण मानसिकता का नतीजा है और इसके लिए रचनात्मक कार्यक्रमों की जरूरत होती है।केवल यूरोप के लोगों को नहीं समस्त मानव जाति को इसका दायित्व उठाना चाहिए।[1]
भूदान आंदोलन
विनोबा और मार्क्स
सितंबर,1951 में के.पी.मशरुवाला की पुस्तक गांधी और मार्क्स प्रकाशित हुई और विनोबा ने इसकी भूमिका लिखी। इसमें विनोबा ने मार्क्स के प्रति काफी सम्मान प्रदर्शित किया था। कार्ल मार्क्स को उन्होंने विचारक माना था। ऐसा विचारक जिसके मन में गरीबों के प्रति सच्ची सहानुभूति थी। वैसे तो मार्क्स कि सोच में विनोबा को खोट दिखी थी और लक्ष्य पर पहुंचने के तरीके को लेकर मार्क्स से उन्होंने अपना मतभेद व्यक्त किया। विनोबा का मानना था कि धनी लोगों की वजह से कम्युनिस्टों का उद्भव हुआ है। विनोबा का विस्वास था कि हर बात में बराबरी का सिद्धांत लागू होना चाहिए। उन्होंने कहा था: कम्युनिस्टों का आतंक दूर करने के लिए पुलिस कार्रवाई मददगार साबित नहीं हो सकती। इसको जड़ से समाप्त किया जाए। चाहे जितने भी दिग्भ्रमित वे क्यों न हो, विनोबा कम्युनिस्टों को विध्वंसक नहीं मानते थे और उनसे तर्कवितर्क करके तथा उनके लक्ष्य के प्रति सक्रिय सहानुभुति प्रकट करके विनोबा उन्हें सही रास्ते पर लाना चाहते थे।[1]
विनोबा और देवनागरी
बीसियों भाषाओं के ज्ञाता विनोबा जी देवनागरी को विश्व लिपि के रूप में देखना चाहते थे। भारत के लिये वे देवनागरी को सम्पर्क लिपि के रूप में विकसित करने के पक्षधर थे। वे कहते थे कि मैं नहीं कहता कि नागरी ही चले, बल्कि मैं चाहता हूं कि नागरी भी चले। उनके ही विचारों से प्रेरणा लेकर नागरी लिपि संगम की स्थापना की गयी है जो भारत के अन्दर और भारत के बाहर देवनागरी को उपयोग और प्रसार करने के लिये कार्य करती है।
विस्तृत जानकारी के लिये नागरी एवं भारतीय भाषाएँ पढें।
सामाजिक एवं रचनात्मक कार्यकर्ता
विनोबाजी सदेव सामाजिक और रचनात्मक कार्यकर्ता रहे। स्वतन्त्रता के पूर्व गान्धिजी के रचानात्म्क कार्यों में सक्रिय रूप से योगदान देते रहे। कार्यधिक्य से उनका स्वास्थ्य गिरने लगा, उन्हें किसी पहाडी स्थान पर जाने की डाक्टर ने सलाह दी। अत: १९३७ ई० में विनोबा भावे पवनार आश्रम में गये। तब से लेकर जीवन पर्यन्त उनके रचनात्मक कार्यों को प्रारंभ करने का यही केन्द्रीय स्थान रहा।
महान स्वतंत्रता सेनानी
रचानात्म्क कार्यों के अतिरित्क वे महान स्वतंत्रता सेनानी भी थे। नागपुर झंडा सत्याग्रह में वे बंदी बनाये गये। १९३७ में गान्धिजी जब लंदन की गोलमेज कांफ्रेंस से खाली हाथ लोटे तो जलगांव में विनोबा भावे ने एक सभा में अंग्रेजों की आलोचना की तो उन्हें बंदी बनाकर छह माह की सजा दी गयी। कारागार से मुक्त होने के बाद गान्धिजी ने उन्हें पहेला सत्याग्रही बनाया। १७ अक्टूबर १९४० को विनोबा भावेजी ने सत्याग्रह किया और वे बंदी बनाये गये तथा उन्हें ३ वर्ष के लिए सश्रम कारावास का दंड मिला। गान्धिजी ने १९४२ को भारत छोडा आंदोलन करने से पूर्व विनोबाजी से परामर्श लिया था।
इन्हें भी देखें
भूदान
पवनार
जयप्रकाश नारायण
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
- आचार्य श्री विनोबाजी के तत्वज्ञान, विचारों तथा कार्यों बारे में समग्र जानकारी
- मुम्बई सर्वोदय मण्डल द्वारा विनोबा के बारे में समग्र जानकारी
(शब्द ब्रह्म)
- श्रीराम शर्मा आचार्य
श्रेणी:1895 में जन्मे लोग
श्रेणी:१९८२ में निधन
श्रेणी:व्यक्तिगत जीवन
श्रेणी:भारतीय समाजसेवी
श्रेणी:महात्मा गांधी
श्रेणी:भारत रत्न सम्मान प्राप्तकर्ता
श्रेणी:भारतीय लेखक
श्रेणी:मैगसेसे पुरस्कार विजेता
श्रेणी:महाराष्ट्र के लोग | विनोबा भावे का जन्म कब हुआ था? | 11 सितम्बर 1895 | 20 | hindi |
758d76680 | रूस (रूसी: Росси́йская Федера́ция / रोस्सिज्स्काया फ़ेदेरात्सिया, Росси́я / रोस्सिया) पूर्वी यूरोप और उत्तर एशिया में स्थित एक विशाल आकार वाला देश। कुल १,७०,७५,४०० किमी२ के साथ यह विश्व का सब्से बड़ा देश है। आकार की दृष्टि से यह भारत से पाँच गुणा से भी अधिक है। इतना विशाल देश होने के बाद भी रूस की जनसंख्या विश्व में सातवें स्थान पर है जिसके कारण रूस का जनसंख्या घनत्व विश्व में सब्से कम में से है। रूस की अधिकान्श जनसंख्या इसके यूरोपीय भाग में बसी हुई है। इसकी राजधानी मॉस्को है। रूस की मुख्य और राजभाषा रूसी है।
रूस के साथ जिन देशों की सीमाएँ मिलती हैं उनके नाम हैं - (वामावर्त) - नार्वे, फ़िनलैण्ड, एस्टोनिया, लातविया, लिथुआनिया, पोलैण्ड, बेलारूस, यूक्रेन, जॉर्जिया, अज़रबैजान, कजाकिस्तान, चीन, मंगोलिया और उत्तर कोरिया।
रूसी साम्राज्य के दिनों से रूस ने विश्व में अपना स्थान एक प्रमुख शक्ति के रूप में किया था। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद सोवियत संघ विश्व का सबसे बड़ा साम्यवादी देश बना। यहाँ के लेखकों ने साम्यवादी विचारधारा को विश्व भर में फैलाया। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद सोवियत संघ एक प्रमुख सामरिक और राजनीतिक शक्ति बनकर उभरा। संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ इसकी वर्षों तक प्रतिस्पर्धा चली जिसमें सामरिक, आर्थिक, राजनैतिक और तकनीकी क्षेत्रों में एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ थी। १९८० के दशक से यह आर्थिक रूप से क्षीण होता चला गया और १९९१ में इसका विघटन हो गया जिसके फलस्वरूप रूस, सोवियत संघ का सबसे बड़ा राज्य बना।
वर्तमान में रूस अपने सोवियत संघ काल के महाशक्ति पद को पुनः प्राप्त करने का प्रयास कर रहा है। यद्यपि रूस अभी भी एक प्रमुख देश है लेकिन यह सोवियत काल के पद से भी बहुत दूर है।
इतिहास
आधुनिक रूसी लोगों को स्लाव मूल के इतिहास से जोड़ा जाता है जो उत्तर और पश्चिम की तरफ से आए थे। हालाँकि इससे पहले यवनों (हेलेनिक) तथा ख़ज़र तुर्कों का साम्राज्य दक्षिणी रूस में रहा था। यद्यपि आज रूस में कई मूल के लोग रहते हैं - रूसी, खज़र, तातर, पोल, कज़ाख, कोस्साक - रूसी मूल के लोगों का इतिहास पूर्वी स्लावों के समय से आरम्भ होता है। तीसरी से आठवीं सदी तक स्लाव साम्राज्य अपने चरम पर था। कीव में स्थापित उनका साम्राज्य ही आज के रूसी लोगों का परवर्ती माना जाता है। कीवी रूसों ने १०वीं सदी में ईसाई धर्म को स्वीकार कर लिया। तेरहवीं सदी में मंगोलों के आक्रमण के कारण किवि रुसों का साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया। पर तेरहवीं सदी के बाद जैसे-जैसे मंगोलों की शक्ति पश्चिम में क्षीण होती गई, रूस भी स्वतंत्र होता गया। इस समय तक रूस सिर्फ यूरोप तक सीमित था - यानि यूराल पर्वत के पश्चिम तक। सन् १३८० में दमित्री ने मॉस्को में रूसी साम्राज्य की स्थापना की जो आधुनिक रूस की आधारशिला कहा जा सकता है। फिर ज़ारों का शासन आया - इस काल में यूरोप और पूर्व की तरफ रूसी साम्राज्य शक्तिशाली हुआ। सन् १७२१ में रूस फिर से एक साम्राज्य के रूप में स्थापित हआ जो धीरे-धीरे औपनिशिक रूप लेता गया। हालाँकि पश्चिमी यूरोप में वैज्ञानिक खोज़ें हुई थीं पर पीटर महान और अन्य शासकों के प्रयासों से रूस का विस्तार पूर्व में हुआ।
उत्तरी चीन के मंगोलों को अधीन करने के बाद रूसी सेना जापान के तट तक जा पहुँची और इसके बाद से ही रूसी साम्राज्य इतना विशाल बना। उसके बाद रूसी साम्राज्य का और विकास हुआ। यद्यपि वैज्ञानिक रूप से यह पिछड़ा रहा पर नेपोलियन (१८१२), ईरान (उन्नीसवीं सदी) और तुर्की (सन् १८५४) से युद्ध जीतते रहने के कारण साम्राज्य स्थिर रहा। उन्नीसवीं सदी में साहित्य और यंत्रों की स्थिति में भी बहुत सुधार आया पर फिर भी रूस पश्चिमी यूरोप से तकनीकी रूप से पिछड़ा रहा।
सन् १९०५ में अपने नवजागरण के बाद महात्वाकांक्षी बने जापान ने रूस को एक लड़ाई में हरा दिया। इससे रूस की जनता के मन में शासक, यानि ज़ार के प्रति क्षोभ उत्पन्न हो गया। सन् १९१७ में यहाँ बोल्शेविक क्रांति हुई जिसके कारण साम्यवादी शासन स्थापित हुआ। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय तक रूसी साम्राज्य मध्य एशिया में फैल चुका था। युद्ध में जर्मनी को हराने के बाद रूसी शक्ति और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में रूस तेजी से हावी हो गया। साम्यवादी नीति, कृषि और अंतरिक्ष तथा यंत्रों के क्षेत्र में हुए अभूतपूर्व प्रगति के कारण रूस दुनिया के तकनीकी और आर्थिक मंडल पर एक बड़ी शक्ति बनकर आया। अमेरिका एक दूसरी प्रतिस्पर्धी शक्ति थी जिससे इनमें तकनीकी और शस्त्रों की होड़ चली। कई वर्षो के निःशस्त्र शीतयुद्ध के बाद १९९१ में सोवियत संघ का विघटन हो गया और रूस इसका उत्तराधिकारी देश बना। इसके बाद से यहाँ एक जनतांत्रिक सरकार का शासन है और यह आर्थिक और राजनीतिक रूप से थोड़ा कम महत्वपूर्ण बन गया।
विभाग
इतने बड़े देश होने के कारण रूस के विभागों के भी कई प्रकार हैं। रूस में गणराज्य, स्वायत्त प्रदेश, केन्द्रीय नगर और स्वायत्त जिले जैसे घटक विभाग हैं। अगर इन्हें संयुक्त रूप से प्रदेश कहें तो रूस के 83 प्रदेश हैं - 46 प्रान्त, 21 गणराज्य (आंशिक रूप से स्वायत्त), 9 स्वायत्त रियासत, 4 स्वायत्त ज़िले, 1 स्वायत्त प्रान्त और 2 केन्द्रशासित नगर - मास्को और सेंट पीटर्सबर्ग।
गणराज्य
रेस्पब्लिक (Республики) आंशिक रूप से स्वायत्त होते हैं। इनके अपने संविधान होते हैं और अपने राष्ट्रपति।
एडिजिया (Адыгея)
अल्ताई (Республика Алтай)
बश्कोरोस्तान (Башкортостан)
ब्यूरेशिया (Бурятия)
दागेस्तान (Дагестан)
इंगुशेतिया (Ингушетия)
काबार्डिनो-बाल्कारिया (Кабардино-Балкария)
8. कालमिकिया (Калмыкия)
9. काराचेय-चेर्केशिया (Карачай-Черкесия)
10. कारेलिया (Карелия)
11. कोम्ली (Республика Коми)
12. मारी इल (Марий Эл)
13. मोर्दोविया (Мордовия)
14. साखा (Республика Саха-Якутия)
15. उत्तरी ओसेथिया-एलैनिया (Северная Осетия-Алания)
16. तातरस्तान (Татарстан)
17. तुवा (Тува, Тыва)
18. उद्मुर्तिया (Удмуртия)
19. खाकाशिया (Хакассия)
20. चेचन्या (Чечня)
21. चुवा (Чувашия)
ओब्लास्ट
ओब्लास्ट (области ओब्लास्टि) की तुलना प्रान्त से की जा सकती है।
1. आमुर (Амурская область)
2. अर्खांगेल्स्क (Архангельск)
3. अस्त्राखान (Астрахань)
4. बेल्गोरोद (Белгород)
5. ब्रियान्स्क (Брянск)
6. चेलियाबिन्स्क (Челябинск)
7. चिता (Чита)
8. इरकुत्स्क (Иркутск)
9. इवानोवो (Иваново)
10. कालिनिनग्राद (Калининград)
11. कालुगा (Калуга)
12. केमेरोवो (Кемерово)
13. किरोव (Киров)
14. कोस्त्रोमा (Кострома)
15. कुर्गान (Курган)
16. कुर्स्क (Курск)
17. लेनिनग्राद (Ленинградская область)
18. लिपेत्स्क (Липецк)
19. मागादान (Магадан)
20. मॉस्को (Москва)
21. मुर्मन्स्क (Мурманск)
22. निज़्नी नॉवग्रोद (Нижний Новгород)
23. नॉवग्रोद (Новгород)
24. नॉवोसिबिरिस्क (Новосибирск)
25. ओम्स्क (Омск)
26. ओरेनबुर्ग (Оренбург)
27. ओरियोल (Орёл)
28. पेन्ज़ा (Пенза)
29. प्स्कोव (Псков)
30. रोस्तोव (Ростов)
31. रियाज़ान (Рязань)
32. साखालिन (Сахалин)
33. समारा (Самара)
34. सरातॉव (Саратов)
35. स्मोलेन्स्क (Смоленск)
36. स्वेर्द्लोव्स्क (Свердловская область)
37. तम्बोव (Тамбов)
38. तोम्स्क (Томск)
39. त्वेर (Тверь)
40. तुला (Тула)
41. त्युमेन (Тюмень)
42. उल्यानोव्स्क (Ульяновск)
43. व्लादिमिर (Владимир)
44. वोल्गोग्राद (Волгоград)
45. वोलोग्दा (Вологда)
46. वोरोनेझ (Воронеж)
47. यारोस्लाव्ल (Ярославль)
प्रदेश
रूस के 9 प्रदेश (края, क्राइ) हैं
अल्ताई प्रदेश (Алтайский край)
कमचात्का प्रदेश (Камчатский край)
खाबारोव्स्क प्रदेश (Хабаровский край)
क्रास्नोदर प्रदेश (Краснодарский край)
क्रास्नोयार्स्क प्रदेश (Красноярский край)
पेर्म प्रदेश (Пермский край)
प्रिमोर्स्की (Приморский край)
स्ताव्रोपोल (Ставропольский край)
ज़बाय्काल्स्की प्रदेश (Забайкальский край)
स्वायत्त ज़िले
रूस में 4 स्वायत्त ज़िले (Автономные округа, औटोनौमिबि ओकरिगा) हैं।
केन्द्रीय नगर
मॉस्को (मोस्कोवा) तथा लेनिनग्राद दो केन्द्रशासित नगर हैं।
स्वायत्त राज्य
यहूदियों के लिए साखालिन के पास एक स्वायत्त राज्य स्तालिन के समय से बना हुआ है।
संस्कृति
साहित्य
उदाहरण के लिए, रूस कई विश्व प्रसिद्ध रूसी कवियों और लेखकों का जन्मस्थान है अलेक्सांद्र पूश्किन, लेव तोलस्तोय, फ़्योदोर दोस्तोयेव्स्की, निकोलाई गोगोल.[1]
संगीत
कई रूसी संगीतकार मान्यता प्राप्त क्लासिक्स बन गए: Alexander Borodin, Pyotr Ilyich Tchaikovsky, Mikhail Glinka.[2]
सिनेमा और वीडियो
3 सोवियत और 1 रूसी फिल्मों ने अकादमी पुरस्कार जीता: युद्ध और शांति (1967)[3], डर्सू उसाला (1975)[4], मास्को आँसू में विश्वास नहीं करता है (1980) और सूर्य द्वारा बर्न (1994)[5]। फ़िल्म द क्रेन फ्लाइंग फ्लामे डी'ऑर जीता.[6]। आधुनिक रूस में वीडियो की कला बहुत लोकप्रिय है। रूस यूट्यूब के लिए प्राथमिक बाजारों में से एक है।[7] रूसी एनिमेटेड टेलीविजन श्रृंखला माशा और भालू के सबसे लोकप्रिय एपिसोड में 3 अरब से अधिक विचार हैं।[8] शो +100500 विशेष रूप से लोकप्रिय है, जो मजाकिया वीडियो के लिए वीडियो समीक्षा होस्ट करता है[9][10] और BadComedian, जो लोकप्रिय फिल्मों के लिए समीक्षा करता है।[11] गोल्डन ट्रेलर अवॉर्ड्स पर कई रूसी फिल्म ट्रेलरों को नामांकित किया गया था।[12][13] ट्रेलर कविताओं और ट्रेलर के संवाद निर्माण के संस्थापक Nikolay Kurbatov के कई वीडियो बड़े यूट्यूब चैनलों पर अपलोड किए गए थे, जिन्हें मुख्य ट्रेलरों के रूप में इस्तेमाल किया गया था और रिकॉर्ड की किताब में प्रवेश किया गया था।[14][15][16]
सन्दर्भ
श्रेणी:एशिया के देश
श्रेणी:यूरोप के देश | रूसी साम्राज्य का संस्थापक कौन था? | दमित्री | 2,298 | hindi |
9878926f3 | अर्जुन देव या गुरू अर्जुन देव (15 अप्रेल 1563 – 30 मई 1606[1]) सिखों के ५वे गुरु थे।
गुरु अर्जुन देव जी शहीदों के सरताज एवं शान्तिपुंज हैं। आध्यात्मिक जगत में गुरु जी को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। उन्हें ब्रह्मज्ञानी भी कहा जाता है। गुरुग्रंथ साहिब में तीस रागों में गुरु जी की वाणी संकलित है। गणना की दृष्टि से श्री गुरुग्रंथ साहिब में सर्वाधिक वाणी पंचम गुरु की ही है।
ग्रंथ साहिब का संपादन गुरु अर्जुन देव जी ने भाई गुरदास की सहायता से 1604में किया। ग्रंथ साहिब की संपादन कला अद्वितीय है, जिसमें गुरु जी की विद्वत्ता झलकती है। उन्होंने रागों के आधार पर ग्रंथ साहिब में संकलित वाणियों का जो वर्गीकरण किया है, उसकी मिसाल मध्यकालीन धार्मिक ग्रंथों में दुर्लभ है। यह उनकी सूझबूझ का ही प्रमाण है कि ग्रंथ साहिब में 36महान वाणीकारोंकी वाणियां बिना किसी भेदभाव के संकलित हुई।
जीवन
अर्जुन देव जी गुरु राम दास के सुपुत्र थे। उनकी माता का नाम बीवी भानी जी था। गोइंदवाल साहिब में उनका जन्म 15अप्रैल 1563को हुआ और विवाह 1579ईसवी में। सिख संस्कृति को गुरु जी ने घर-घर तक पहुंचाने के लिए अथाह प्रयत्न किए। गुरु दरबार की सही निर्माण व्यवस्था में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। 1590ई. में तरनतारनके सरोवर की पक्की व्यवस्था भी उनके प्रयास से हुई।
ग्रंथ साहिब के संपादन को लेकर कुछ असामाजिक तत्वों ने अकबर बादशाह के पास यह शिकायत की कि ग्रंथ में इस्लाम के खिलाफ लिखा गया है, लेकिन बाद में जब अकबर को वाणी की महानता का पता चला, तो उन्होंने भाई गुरदास एवं बाबा बुढ्ढाके माध्यम से 51मोहरें भेंट कर खेद ज्ञापित किया।
जहाँगीर ने लाहौर जो की अब पाकिस्तान में है, में १६ जून १६०६ को अत्यंत यातना देकर उनकी हत्या करवा दी।
स्वभाव
गुरु जी शांत और गंभीर स्वभाव के स्वामी थे। वे अपने युग के सर्वमान्य लोकनायक थे, जो दिन-रात संगत सेवा में लगे रहते थे। उनके मन में सभी धर्मो के प्रति अथाह स्नेह था। मानव-कल्याण के लिए उन्होंने आजीवन शुभ कार्य किए।
अकबर के देहांत के बाद जहांगीर दिल्ली का शासक बना। वह कट्टर-पंथी था। अपने धर्म के अलावा, उसे और कोई धर्म पसंद नहीं था। गुरु जी के धार्मिक और सामाजिक कार्य भी उसे सुखद नहीं लगते थे। कुछ इतिहासकारों का यह भी मत है कि शहजादा खुसरोको शरण देने के कारण जहांगीर गुरु जी से नाराज था। 15मई, 1606ई. को बादशाह ने गुरु जी को परिवार सहित पकडने का हुक्म जारी किया।
तुज्ाके-जहांगीरी के अनुसार उनका परिवार मुरतजाखान के हवाले कर घरबार लूट लिया गया। इस बाद गुरु जी ने शहीदी प्राप्त की। अनेक कष्ट झेलते हुए गुरु जी शांत रहे, उनका मन एक बार भी कष्टों से नहीं घबराया।
तपता तवा उनके शीतल स्वभाव के सामने सुखदाईबन गया। तपती रेत ने भी उनकी निष्ठा भंग नहीं की। गुरु जी ने प्रत्येक कष्ट हंसते-हंसते झेलकर यही अरदास की-
तेरा कीआ मीठा लागे॥
हरि नामु पदारथ नानक मांगे॥
रचनाएं
गुरु अर्जुन देव जी द्वारा रचित वाणी ने भी संतप्त मानवता को शांति का संदेश दिया। सुखमनी साहिब उनकी अमर-वाणी है। करोडों प्राणी दिन चढते ही सुखमनी साहिब का पाठ कर शांति प्राप्त करते हैं। सुखमनी साहिब में चौबीस अष्टपदी हैं। सुखमनी साहिब राग गाउडी में रची गई रचना है। यह रचना सूत्रात्मक शैली की है। इसमें साधना, नाम-सुमिरन तथा उसके प्रभावों, सेवा और त्याग, मानसिक दुख-सुख एवं मुक्ति की उन अवस्थाओं का उल्लेख किया गया है, जिनकी प्राप्ति कर मानव अपार सुखोंकी उपलब्धि कर सकता है। सुखमनी शब्द अपने-आप में अर्थ-भरपूर है। मन को सुख देने वाली वाणी या फिर सुखों की मणि इत्यादि।
सुखमनीसुख अमृत प्रभु नामु।
भगत जनां के मन बिसरामु॥
रचना
सुखमनी साहिब सुख का आनंद देने वाली वाणी है। सुखमनी साहिब मानसिक तनाव की अवस्था का शुद्धीकरण भी करती है। प्रस्तुत रचना की भाषा भावानुकूलहै। सरल ब्रजभाषा एवं शैली से जुडी हुई यह रचना गुरु अर्जुन देव जी की महान पोथी है।
गुरु अर्जुन देव जी की वाणी की मूल- संवेदना प्रेमाभक्तिसे जुडी है। गुरमति-विचारधाराके प्रचार-प्रसार में गुरु जी की भूमिका को भुलाया नहीं जा सकता। गुरु जी ने पंजाबी भाषा साहित्य एवं संस्कृति को जो अनुपम देन दी, उसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। इस अवदान का पहला प्रमाण ग्रंथ साहिब का संपादन है। इस तरह जहां एक ओर लगभग 600वर्षो की सांस्कृतिक गरिमा को पुन:सृजित किया गया, वहीं दूसरी ओर नवीन जीवन-मूल्यों की जो स्थापना हुई, उसी के कारण पंजाब में नवीन-युग का सूत्रपात भी हुआ।
गुरु जी के शहीदी पर्व पर उन्हें याद करने का अर्थ है, उस धर्म- निरपेक्ष विचारधारा को मान्यता देना, जिसका समर्थन गुरु जी ने आत्म-बलिदान देकर किया था। उन्होंने संदेश दिया था कि महान जीवन मूल्यों के लिए आत्म-बलिदान देने को सदैव तैयार रहना चाहिए, तभी कौम और राष्ट्र अपने गौरव के साथ जीवंत रह सकते हैं।
सिखों के दस गुरू हैं।
eBook,
टिप्पणी
सन्दर्भ
Tuzuk-i-Jahagiri or Memoirs of Jahagir, Translated by Alexander Rogers. Edited by Henry Beveridge Published by Low Price Publication. lppindia.com. ISBN 978-81-7536-148-5
History of the Panjab, Syad Muhammad Latif, Published by: Kalyani Publishers, Ludhiana, Punjab, India. ISBN 978-81-7096-245-8
श्रेणी:सिख धर्म
श्रेणी:भारतीय धार्मिक नेता
श्रेणी:भारतीय आध्यात्मिक लेखक
श्रेणी:सिख गुरु
श्रेणी:सिख शहीद
श्रेणी:सिख धर्म का इतिहास | गुरु अर्जन की माँ कौन थी? | बीवी भानी जी | 838 | hindi |
4563d942b | यह लेख इंटरनेट विश्वकोश के बारे में है। विकिपीडिया के मुख पृष्ठ के लिए, विकिपीडिया का मुख्य पृष्ठ देखें। विकिपीडिया के आगंतुक परिचय के लिए, विकिपीडिया के बारे में पृष्ठ देखें।
विकिपीडिया (Wikipedia) एक मुफ्त,[3] वेब आधारित और सहयोगी बहुभाषी विश्वकोश (encyclopedia) है, जो गैर-लाभ विकिमीडिया फाउनडेशन से सहयोग प्राप्त परियोजना में उत्पन्न हुआ। इसका नाम दो शब्दों विकी (wiki) (यह सहयोगी वेबसाइटों के निर्माण की एक तकनीक है, यह एक हवाई शब्द विकी है जिसका अर्थ है "जल्दी") और एनसाइक्लोपीडिया (encyclopedia) का संयोजन है।
दुनिया भर में स्वयंसेवकों के द्वारा सहयोग से विकिपीडिया के 13 मिलियन लेख (2.9 मिलियन अंग्रेजी विकिपीडिया में) लिखे गए हैं और इसके लगभग सभी लेखों को वह कोई भी व्यक्ति संपादित कर सकता है, जो विकिपीडिया वेबसाईट का उपयोग कर सकता है।
[4] इसे जनवरी 2001 में जिम्मी वेल्स और लेरी सेंगर के द्वारा शुरू किया गया,[5] यह वर्तमान में इंटरनेट पर सबसे लोकप्रिय सन्दर्भित कार्य है।
[6][7][8][9]
विकिपीडिया के आलोचक इसे व्यवस्थित पूर्वाग्रह और असंगतियों को दोषी ठहराते हैं,[10] और आरोप लगते हैं कि यह इसकी सम्पादकीय प्रक्रिया में उपलब्धियों पर सहमति का पक्ष लेती है।[11]
[12] विकिपीडिया (Wikipedia) की विश्वसनीयता और सटीकता भी एक मुद्दा है।[13][14] अन्य आलोचनाओं के अनुसार नकली या असत्यापित जानकारी का समावेश और विध्वंसक प्रवृति (vandalism) भी इसके दोष हैं,[15] हालाँकि विद्वानों के द्वारा किये गए कार्य बताते हैं कि विध्वंसक प्रवृति आमतौर पर अल्पकालिक होती है।
[16][17]
न्युयोर्क टाइम्स के जोनाथन डी,[18] और एंड्रयू लिह ने ऑनलाइन पत्रकारिता पर पांचवीं अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में,[19] विकिपीडिया के महत्त्व को न केवल एक विश्वकोश के सन्दर्भ में वर्णित किया बल्कि इसे एक बार बार अद्यतन होने वाले समाचार स्रोत के रूप में भी वर्णित किया क्योंकि यह हाल में हुई घटनाओं के बारे में बहुत जल्दी लेख प्रस्तुत करता है।
जब टाइम पत्रिका ने यू (You) को वर्ष 2006 के लिए पर्सन ऑफ़ द इयर की मान्यता दी और बताया कि दुनिया भर में कई मिलियन उपयोगकर्ताओं के द्वारा इसका उपयोग किया जाता है और ऑनलाइन सहयोग में इसकी बढ़ती सफलता को मान्यता दी, इसने वेब 2.0 सेवाओ के तीन उदाहरणों में विकिपीडिया को यूट्यूब (YouTube) और माइस्पेस (MySpace) के साथ रखा।
[20]
इतिहास
विकिपीडिया, न्यूपीडिया (Nupedia) के लिए एक पूरक परियोजना के रूप में शुरू हुई, जो एक मुफ्त ऑनलाइन अंग्रेजी भाषा की विश्वकोश परियोजना है, जिसके लेखों को विशेषज्ञों के द्वारा लिखा गया और एक औपचारिक प्रक्रिया के तहत इसकी समीक्षा की गयी।
न्यूपीडिया की स्थापना 9 मार्च 2000 को एक वेब पोर्टल कम्पनी बोमिस, इंक के स्वामित्व के तहत की गयी।
इसके मुख्य सदस्य थे, जिम्मी वेल्स, बोमिस CEO और लेरी सेंगर, न्यूपीडिया के एडिटर-इन-चीफ और बाद के विकिपीडिया।
प्रारंभ में न्यूपीडिया को इसके अपने न्यूपीडिया ओपन कंटेंट लाइसेंस के तहत लाइसेंस दिया गया और रिचर्ड स्टालमेन के सुझाव पर विकिपीडिया की स्थापना से पहले इसे GNU के मुफ्त डोक्युमेंटेशन लाइसेंस में बदल दिया गया।
[21]
लैरी सेंगर और जिम्मी वेल्स विकिपीडिया (Wikipedia) के संस्थापक हैं।
[22][23] जहाँ एक ओर वेल्स को सार्वजनिक रूप से संपादन योग्य विश्वकोश के निर्माण के उद्देश्य को परिभाषित करने के श्रेय दिया जाता है,[24][25] सेंगर को आमतौर पर इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए एक विकी की रणनीति का उपयोग करने का श्रेय दिया जाता है।
[26] 10 जनवरी 2001 को, लेरी सेंगर ने न्यूपीडिया के लिए एक "फीडर परियोजना" के रूप में एक विकी का निर्माण करने के लिए न्यूपीडिया मेलिंग सूची की प्रस्तावना दी।
[27]
विकिपीडिया को औपचारिक रूप से 15 जनवरी 2001 को, www.wikipedia.com पर एकमात्र अंग्रेजी भाषा के संस्करण के रूप में शुरू किया गया।[28] ओर इसकी घोषणा न्यूपीडिया मेलिंग सूची पर सेंगर के द्वारा की गयी।
[24] विकिपीडिया की "न्यूट्रल पॉइंट ऑफ़ व्यू"[29] की नीति को इसके प्रारंभिक महीनों में संकेतबद्ध किया गया, ओर यह न्यूपीडिया की प्रारंभिक "पक्षपातहीन" नीति के समान थी।
अन्यथा, प्रारंभ में अपेक्षाकृत कम नियम थे और विकिपीडिया न्यूपीडिया से स्वतंत्र रूप से कार्य करती थी।
[24]
विकिपीडिया ने न्यूपीडिया से प्रारंभिक योगदानकर्ता प्राप्त किये, ये थे स्लेशडॉट पोस्टिंग और सर्च इंजन इंडेक्सिंग।
2001 के अंत तक इसके लगभग 20,000 लेख और 18 भाषाओँ के संस्करण हो चुके थे।
2002 के अंत तक इसके 26 भाषाओँ के संस्करण हो गए, 2003 के अंत तक 46 और 2004 के अंतिम दिनों तक 161 भाषाओँ के संस्करण हो गए।[30] न्यूपीडिया और विकिपीडिया तब तक एक साथ उपस्थित थे जब पहले वाले के सर्वर को स्थायी रूप से 2003 में डाउन कर दिया गया और इसके पाठ्य को विकिपीडिया में डाल दिया गया।
9 सितम्बर 2007 को अंग्रेजी विकिपीडिया 2 मिलियन लेख की संख्या को पार कर गया, यह तब तक का सबसे बड़ा संकलित विश्वकोश बन गया, यहाँ तक कि इसने योंगल विश्वकोश के रिकॉर्ड (1407) को भी तोड़ दिया, जिसने 600 वर्षों के लिए कायम रखा था।
[31]
एक कथित अंग्रेजी केन्द्रित विकिपीडिया में नियंत्रण की कमी और वाणिज्यिक विज्ञापन की आशंका से, स्पेनिश विकिपीडिया के उपयोगकर्ता फरवरी 2002 में Enciclopedia Libre के निर्माण के लिए विकिपीडिया से अलग हो गए।[32] बाद में उसी वर्ष, वेल्स ने घोषित किया कि विकिपीडिया विज्ञापनों का प्रदर्शन नहीं करेगा और इसकी वेबसाईट को wikipedia.org में स्थानांतरित कर दिया गया।
[33] तब से कई अन्य परियोजनाओं को सम्पादकीय कारणों से विकिपीडिया से अलग किया गया है।
विकिइन्फो के लिए किसी उदासीन दृष्टिकोण की आवश्यकता नहीं होती है और यह मूल अनुसंधान की अनुमति देता है।
विकिपीडिया से प्रेरित नयी परियोजनाएं-जैसे सिटीजेंडियम (Citizendium), स्कॉलरपीडिया (Scholarpedia), कंजर्वापीडिया (Conservapedia) और गूगल्स नोल (Knol) -विकिपीडिया की कथित सीमाओं को संबोधित करने के लिए शुरू की गयी हैं, जैसे सहकर्मी समीक्षा, मूल अनुसंधान और वाणिज्यिक विज्ञापनपर इसकी नीतियां।
विकिपीडिया फाउंडेशन का निर्माण 20 जून 2003 को विकिपीडिया और न्यूपीडिया से किया गया।
[34] इसे 17 सितम्बर 2004 को विकिपीडिया को ट्रेडमार्क करने के लिए ट्रेडमार्क कार्यालय और अमेरिकी पेटेंट पर लागू किया गया।
इस मार्क को 10 जनवरी 2006 को पंजीकरण का दर्जा दिया गया। 16 दिसम्बर 2004 को जापान के द्वारा ट्रेडमार्क संरक्षण उपलब्ध कराया गया और 20 जनवरी 2005 को यूरोपीय संघ के द्वारा ट्रेडमार्क संरक्षण उपलब्ध कराया गया।
तकनीकी रूप से एक सर्विस मार्क, मार्क का स्कोप "इंटरनेट के माध्यम से आम विश्वकोश के ज्ञान के क्षेत्र में जानकारी के प्रावधान" के लिए है, कुछ उत्पादों जैसे पुस्तकों और DVDs के लिए विकिपीडिया ट्रेडमार्क के उपयोग को लाइसेंस देने की योजनायें बनायी जा रही हैं।
[35]
विकिपीडिया की प्रकृति
संपादन प्रतिरूप
[[चित्र:Wiki feel stupid v2.ogvIMAGE_OPTIONSIn April 2009, the conducted a Wikipedia usability study, questioning users about the editing mechanism.REF START
पारंपरिक विश्वकोशों जैसे एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका (Encyclopædia Britannica) के विपरीत, विकिपीडिया के लेख किसी औपचारिक सहकर्मी समीक्षा की प्रक्रिया से होकर नहीं गुजरते हैं और लेख में परिवर्तन तुंरत उपलब्ध हो जाते हैं।
किसी भी लेख पर इसके निर्माता या किसी अन्य संपादक का अधिकार नहीं है और न ही किसी मान्यता प्राप्त प्राधिकरण के द्वारा इसका निरीक्षण किया जा सकता है।
कुछ ही ऐसे विध्वंस-प्रवण पेज हैं जिन्हें केवल इनके स्थापित उपयोगकर्ताओं के द्वारा ही संपादित किया जा सकता है, या विशेष मामलों में केवल प्रशासकों के द्वारा संपादित किया जा सकता है, हर लेख को गुमनाम रूप में या एक उपयोगकर्ता के अकाउंट के साथ संपादित किया जा सकता है, जबकि केवल पंजीकृत उपयोगकर्ता ही एक नया लेख बना सकते हैं (केवल अंग्रेजी संस्करण में)।
इसके परिणामस्वरूप, विकिपीडिया अपने अवयवों "की वैद्यता की कोई गारंटी नहीं" देता है।
[36] एक सामान्य सन्दर्भ कार्य होने के कारण, विकिपीडिया में कुछ ऐसी सामग्री भी है जिसे विकिपीडिया के संपादकों सहित कुछ लोग[37] आक्रामक, आपत्तिजनक और अश्लील मानते हैं।
[38] उदाहरण के लिए, 2008 में, विकिपीडिया, ने इस निति को ध्यान में रखते हुए, अपने अंग्रेजी संस्करण में, मुहम्मद के वर्णन को शामिल करने के खिलाफ एक एक ऑनलाइन याचिका को अस्वीकार कर दिया।
विकिपीडिया में राजनीतिक रूप से संवेदनशील सामग्री की उपस्थिति के कारण, पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना ने इस वेबसाइट के कुछ भागों का उपयोग को प्रतिबंधित कर दिया।[39] (यह भी देखें: विकिपीडिया के IWF ब्लॉक)
विकिपीडिया के अवयव फ्लोरिडा में कानून के अधीन हैं (विशेष कॉपीराईट कानून में), जहाँ विकिपीडिया के सर्वरों की मेजबानी की जाती है और कई सम्पादकीय नीतियां और दिशानिर्देश इस बात पर बल देते हैं कि विकिपीडिया एक विश्वकोश है।
विकिपीडिया में प्रत्येक प्रविष्टि एक विषय के बारे में होनी चाहिए जो विश्वकोश से सम्बंधित है और इस प्रकार से शामिल किये जाने के योग्य है।
एक विषय विश्वकोश से सम्बंधित समझा जा सकता है यदि यह विकिपीडिया के शब्दजाल में "उल्लेखनीय" है,[40] अर्थात, यदि इसने उन माध्यमिक विश्वसनीय स्रोतों में महत्वपूर्ण कवरेज़ प्राप्त किया है (अर्थात मुख्यधारा मीडिया या मुख्य अकादमिक जर्नल), जो इस विषय के मामले से स्वतंत्र हैं। दूसरा, विकिपीडिया को केवल उसी ज्ञान को प्रदर्शित करना है जो पहले से ही स्थापित और मान्यता प्राप्त है।[41] दूसरे शब्दों में, उदाहरण के लिए इसे नयी जानकारी और मूल कार्य को प्रस्तुत नहीं करना चाहिए।
एक दावा जिसे चुनौती दी जा सकती है, उसे विश्वसनीय सूत्रों के सन्दर्भ की आवश्यकता होती है।
विकिपीडिया समुदाय के भीतर, इसे अक्सर "verifiability, not truth" के रूप में बताया जाता है, यह इस विचार को व्यक्त करता है कि पाठक खुद लेख में प्रस्तुत होने वाली सामग्री की सच्चाई की जांच कर सकें और इस विषय में अपनी खुद की व्याख्या बनायें.
[42] अंत में, विकिपीडिया एक पक्ष नहीं लेता है।[43] सभी विचार और दृष्टिकोण, यदि बाहरी स्रोतों को निर्दिष्ट कर सकते हैं, उन्हें एक लेख के भीतर कवरेज़ का उपयुक्त हिस्सा मिलना चाहिए।
[44] विकिपीडिया के संपादक एक समुदाय के रूप में उन नीतियों और दिशानिर्देशों को लिखते हैं और संशोधित करते हैं,[45] और उन्हें डिलीट करके उन पर बल देते हैं, टैग लगा कर उनकी व्याख्या करते हैं, या लेख की उस सामग्री में संशोधन करते हैं जो उसकी जरूरतों को पूरा करने में असफल होती हैं।
(डीलीट करना और शामिल करना भी देखें)[46][47]
योगदानकर्ता, चाहे वे पंजीकृत हों या नहीं, सॉफ्टवेयर में उपलब्ध उन सुविधाओं का लाभ उठा सकते हैं, जो विकिपीडिया को प्रबल बनाती हैं।
प्रत्येक लेख से जुड़ा "इतिहास" का पृष्ठ लेख के प्रत्येक पिछले दोहरान का रिकॉर्ड रखता है, हालाँकि अभियोगपत्र के अवयवों, आपराधिक धमकी या कॉपीराइट के उल्लंघन के दोहरान को बाद में हटाया जा सकता है।
[48][49] यह सुविधा पुराने और नए संस्करणों की तुलना को आसान बनाती है, उन परिवर्तनों को अन्डू करने में मदद करती है जो संपादक को अनावश्यक लगते हैं, या खोये हुए अवयवों को रीस्टोर करने में भी मदद करती है।
प्रत्येक लेख से सम्बंधित "डिस्कशन (चर्चा)" के पृष्ठ कई संपादकों के बीच कार्य का समन्वय करने के लिए प्रयुक्त किये जाते हैं।
[50] नियमित योगदानकर्ता अक्सर, अपनी रूचि के लेखों की एक "वॉचलिस्ट" बना कर रखते हैं, ताकि वे उन लेखों में हाल ही में हुए सभी परिवर्तनों पर आसानी से टैब्स रख सकें.
बोट्स नामक कंप्यूटर प्रोग्राम के निर्माण के बाद से ही इसका प्रयोग व्यापक रूप से विध्वंस प्रवृति को हटाने के लिए किया जाता रहा है,[17] इसका प्रयोग गलत वर्तनी और शैलीगत मुद्दों को सही करने के लिए और सांख्यिकीय आंकडों से मानक प्रारूप में भूगोल की प्रविष्टियों जैसे लेख को शुरू करने के लिए किया जाता है।
संपादन मॉडल का खुला स्वभाव विकिपीडिया के अधिकांश आलोचकों के लिए केंद्र बना रहा है।
उदाहरण के लिए, किसी भी अवसर पर, एक लेख का पाठक यह सुनिश्चित नहीं कर सकता कि जिस लेख को वह पढ़ रहा है उसमें विध्वंस प्रवृति शामिल है या नहीं। आलोचक तर्क देते हैं कि गैर विशेषज्ञ सम्पादन गुणवत्ता को कम कर देता है।
क्योंकि योगदानकर्ता आम तौर पर पूरे दोहरान के बजाय एक प्रविष्टि के छोटे हिस्से को पुनः लिखते हैं, एक प्रविष्टि में उच्च और निम्न गुणवत्ता के अवयव परस्पर मिश्रित हो सकते हैं।
इतिहासकार रॉय रोजेनजवीग ने कहा: "कुल मिलाकर, लेखन विकिपीडिया का कमजोर आधार है।
समितियां कभी कभी अच्छा लिखती हैं और विकिपीडिया की प्रविष्टियों की गुणवत्ता अक्सर अस्थिर होती है जो भिन्न लोगों के द्वारा लिखे गए वाक्यों या प्रकरणों के परस्पर मिलने का परिणाम होती हैं। "
[51] ये सभी सटीक सूचना के एक स्रोत के रूप में विकिपीडिया की विश्वसनीयता पर सवाल पैदा करते हैं।
2008 में, दो शोधकर्ताओं ने सिद्धांत दिया कि विकिपीडिया का विकास सतत है।
[52]
विश्वसनीयता और पूर्वाग्रह
विकिपीडिया पर व्यवस्थित पूर्वाग्रह और असंगति प्रदर्शित करने का आरोप लगाया गया है;[14] आलोचकों का तर्क है कि अधिकांश जानकारी के लिए उपयुक्त स्रोतों की कमी और विकिपीडिया का खुला स्वभाव इसे अविश्वसनीय बनाता है।
[53] कुछ टिप्पणीकारों का सुझाव है कि विकिपीडिया आमतौर पर विश्वसनीय है, लेकिन किसी भी दिए गए लेख की विश्वसनीयता हमेशा स्पष्ट नहीं होती है।[12] पारंपरिक सन्दर्भ कार्य जैसे एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका (Encyclopædia Britannica) के सम्पादक, एक विश्वकोश के रूप में परियोजना की उपयोगिता और प्रतिष्ठा पर सवाल उठाते हैं।
[54] विश्वविद्यालयों के कई प्रवक्ता अकादमिक कार्य में किसी भी एनसाइक्लोपीडिया, का प्राथमिक स्रोत के रूप में उपयोग करने से छात्रों को हतोत्साहित करते हैं;[55] कुछ तो विशेष रूप से विकिपीडिया के उपयोग को निषिद्ध करते हैं।[56] सह संस्थापक जिमी वेल्स इस बात पर ज़ोर देते है कि किसी भी प्रकार का विश्वकोश आमतौर पर प्राथमिक स्रोत के रूप में उपयुक्त नहीं हैं और प्राधिकृत के रूप से इस पर भरोसा नहीं किया जाना चाहिए।[57]
उपयोगकर्ताओं की गोपनीयता के परिणामस्वरूप लेखे-जोखे की क्षमता की कमी के सम्बन्ध में भी मुद्दे उठाये गए हैं,[58] साथ ही कृत्रिम सूचना की प्रविष्टि, विध्वंस प्रवृति और इसी तरह की अन्य समस्याएं भी सामने आयी हैं।
विशेष रूप से एक घटना, जिसका बहुत प्रचार हुआ, में अमेरिकी राजनीतिज्ञ जॉन सीजेनथेलर की जीवनी के बारे में गलत जानकारी डाल दी गयी और चार महीने तक इसका पता नहीं लगाया जा सका।
[59]USA टुडे के फाउन्डिंग एडिटोरिअल डायरेक्टर और वेंडरबिल्ट विश्वविद्यालय में फ्रीडम फोरम फर्स्ट अमेरिकन सेंटर के संस्थापक जॉन सीजेनथेलर ने जिमी वेल्स को बुलाया और उससे पूछा, "....
क्या आप.............जानते हैं कि यह किसने लिखा है?""नहीं, हम नहीं जानते", जिमी ने कहा.[60] कुछ आलोचकों का दावा है कि विकिपीडिया की खुली सरंचना के कारण इंटरनेट उत्पीड़क, विज्ञापनदाता और वे लोग जो कोई हमला बोलना चाहते हैं, इसे आसानी से लक्ष्य बनाते हैं।[48][61]अमेरिकी प्रतिनिधि सभा और विशेष हित के समूहों सहित संगठनों के द्वारा दिए गए लेखों में राजनितिक परिप्रेक्ष्य[15] शामिल किया गया है,[62] और संगठन जैसे माइक्रोसोफ्ट ने विशेष लेखों पर काम करने के लिए वित्तीय भत्ते देने का प्रस्ताव रखा है।[63] इन मुद्दों को मुख्य रूप से कोलबर्ट रिपोर्ट में स्टीफन कोलबर्ट के द्वारा ख़राब तरीके से प्रस्तुत किया गया है।
[64]
2009 की पुस्तक द विकिपीडिया रेवोलुशन के लेखक एंड्रयू लिह के अनुसार, "एक विकी में इसकी सभी गतिविधियाँ खुले में होती हैं ताकि इनकी जांच की जा सके......
समुदाय में अन्य लोगों की क्रियाओं के प्रेक्षण के द्वारा भरोसा पैदा किया जाता है, इसके लिए लोगों की सामान और पूरक रुचियों का पता लगाया जाता है।"
[65] अर्थशास्त्री टायलर कोवेन लिखते हैं, "यदि मुझे यह सोचना पड़े कि अर्थशास्त्र पर विकिपीडिया के जर्नल लेख सच हैं या या मीडियन सम्बन्धी लेख सच हैं, तो मैं विकिपीडिया को चुनूंगा, इसके लिए मुझे ज्यादा सोचना नहीं पडेगा."
वह टिप्पणी देते हैं कि नॉन-फिक्शन के कई पारंपरिक स्रोत प्रणालीगत पूर्वाग्रहों से पीड़ित है।
जर्नल लेख में नवीन परिणामों की रिपोर्ट जरुरत से जयादा दी जाती है और प्रासंगिक जानकारी को समाचार रिपोर्ट में से हटा दिया जाता है।
हालाँकि, वे यह चेतावनी भी देते हैं कि इंटरनेट की साइटों पर त्रुटियां अक्सर पायी जाती हैं और शिक्षाविदों तथा विशेषज्ञों को इन्हें सुधारने के लिए सतर्क रहना चाहिए,
[66]
फ़रवरी 2007 में, द हार्वर्ड क्रिमसन अखबार में एक लेख में कहा गया कि हार्वर्ड विश्वविद्यालय में कुछ प्रोफेसर अपने पाठ्यक्रम में विकिपीडिया को शामिल करते हैं, लेकिन विकिपीडिया का उपयोग करने में उनकी अवधारणा में मतभेद है।
[67] जून 2007 में अमेरिकी लाइब्रेरी एसोसिएशन के भूतपूर्व अध्यक्ष माइकल गोर्मनने गूगल के साथ, विकिपीडिया को निंदन किया,[68] और कहा कि वे शिक्षाविद जो विकिपीडिया के उपयोग का समर्थन करते हैं "बौद्धिक रूप से उस आहार विशेषज्ञ के समतुल्य हैं जो सब चीजों के साथ बिग मैक्स के निरंतर आहार की सलाह देते हैं।"
उन्होंने यह भी कहा कि "बौद्धिक रूप से निष्क्रिय लोगों की एक पीढ़ी जो इन्टरनेट से आगे बढ़ने में असमर्थ है", उसे विश्वविद्यालयों में उत्पन्न किया जा रहा है। उनकी शिकायत है कि वेब आधारित स्रोत उस अधिक दुर्लभ पाठ्य को सीखने से रोक रहे हैं जो या तो केवल दस्तावेजों में मिलता है या सबस्क्रिप्शन-ओनली (जिनमें सदस्यता ली जाती है) वेबसाइट्स पर मिलता है।
इसी लेख में जेन्नी फ्राई (ऑक्सफ़ोर्ड इंटरनेट संस्थान में एक अनुसंधान साथी) ने विकिपीडिया की अकादमिक शिक्षा पर टिप्पणी दी कि: "आप यह नहीं कह सकते हैं कि बच्चे बौद्धिक रूप से आलसी हैं क्योंकि वे इंटरनेट का उपयोग कर रहें हैं जबकि दूसरी ओर शिक्षाविद अपने अनुसंधान में सर्च इंजन का उपयोग कर रहे हैं।
अंतर यह है कि उन्हें जो भी उन्हें प्राप्त हो रहा है, वह अधिकारिक है या नहीं और इसके बारे में जटिल होने का उन्हें अधिक अनुभव है। बच्चों को यह बताने की आवश्यकता है कि एक महत्वपूर्ण और उचित तरीके से इंटरनेट का उपयोग कैसे किया जाये। "[68]
विकिपीडिया समुदाय ने विकिपीडिया की विश्वसनीयता को सुधारने की कोशिश की है। अंग्रेजी भाषा के विकिपीडिया ने मूल्यांकन पैमाने की शुरुआत की जिससे लेख की गुणवत्ता की जांच की जाती है;[69] अन्य संस्करणों ने भी इसे अपना लिया है। अंग्रजी में लगभग 2500 लेख "फीचर्ड आर्टिकल" के दर्जे के उच्चतम रैंक तक पहुँचने के लिए मापदंडों के समुच्चय को पास कर चुके हैं;[70] ऐसे लेख अपने विषय में सम्पूर्ण और भली प्रकार से लिखा गया कवरेज़ उपलब्ध कराते हैं, जिन्हें कई सहकर्मी समीक्षा प्रकाशनों के द्वारा समर्थन प्राप्त है।[71] ज़र्मन विकिपीडिया, लेखों के "स्थिर संस्करणों" के रख रखाव की एक प्रणाली का परीक्षण कर रहा है,[72] ताकि यह एक पाठक को लेख के उन संस्करणों को देखने में मदद करे जो विशिष्ट समीक्षाओं से होकर गुजर चुके हैं। अन्य भाषाओँ के संस्करण इस "ध्वजांकित संशोधन" के प्रस्ताव को लागू करने के लिए एक सहमति तक नहीं पहुँचे हैं।[73][74] एक और प्रस्ताव यह है कि व्यक्तिगत विकिपीडिया योगदानकर्ताओं के लिए "ट्रस्ट रेटिंग" बनाने के लिए सॉफ्टवेयर का उपयोग और इन रेटिंग्स का उपयोग यह निर्धारित करने में करना कि कौन से परिवर्तन तुंरत दिखायी देंगे।
[75]
विकिपीडिया समुदाय
विकिपीडिया समुदाय ने "a bureaucracy of sorts" की स्थापना की है, जिसमें "एक स्पष्ट सत्ता सरंचना शामिल है जो स्वयं सेवी प्रशासकों को सम्पादकीय नियंत्रण का अधिकार देती है।
[76][77][78]
विकिपीडिया के समुदाय को "पंथ की तरह (cult-like)" के रूप में भी वर्णित किया गया है,[79] हालाँकि इसे हमेशा पूरी तरह से नकारात्मक अभिधान के साथ इस तरह से वर्णित नहीं किया गया है,[80] और अनुभवहीन उपयोगकर्ताओं को समायोजित करने की असफलता के लिए इसकी आलोचना की जाती है।[81] समुदाय में अच्छी प्रतिष्ठा के सम्पादक स्वयंसेवक स्टेवर्डशिप के कई स्तरों में से एक को चला सकते हैं; यह "प्रशासक" के साथ शुरू होता है,[82][83] विशेषाधिकृत उपयोगकर्ताओं का एक समूह जिसके पास पृष्ठों को डीलीट करने की क्षमता है, विध्वंस प्रवृति या सम्पादकीय विवादों की स्थिति में लेख में परिवर्तन को रोक (lock) देते हैं और उपयोगकर्ताओं के सम्पादन को अवरुद्ध कर देते हैं।
नाम के अलावा, प्रशासक फैसला लेने में किसी भी विशेषाधिकार का उपयोग नहीं करते हैं; इसके बजाय वे अधिकतर उन लेखों के संपादन तक ही सीमित होते हैं, जिनमें परियोजना व्यापक प्रभाव होते हैं और इस प्रकार से ये सामान्य संपादकों को अनुमति नहीं देते हैं और उपयोगकर्ताओं को विघटनकारी संपादन (जैसे विध्वंस प्रवृति) के लिए प्रतिबंधित कर देते हैं।
[84]
चूंकि विकिपीडिया विश्वकोश निर्माण के अपरंपरागत मोडल के साथ विकसित होता है, "विकिपीडिया को कौन लिखता है?" यह परियोजना के बारे में बार बार, अक्सर अन्य वेब 2.0 परियोजनाओं जैसे डिग के सन्दर्भ में पूछे जाने वाले प्रश्नों में से एक बन गया है।
[85] जिमी वेल्स ने एक बार तर्क किया कि केवल "एक समुदाय... कुछ सौ स्वयंसेवकों का एक समर्पित समूह" विकिपीडिया को बहुत अधिक योगदान देता है और इसलिए परियोजना "किसी पारंपरिक संगठन से अधिक मिलती जुलती है"
वेल्स ने एक अध्ययन में पाया कि 50% से अधिक संपादन केवल .7% उपयोगकर्ताओं के द्वारा ही किये जाते हैं, (उस समय पर: 524 लोग)
योगदान के मूल्यांकन की इस विधि पर बाद में आरोन सवार्त्ज़ ने विवाद उठाया उन्होंने नोट किया कि कई लेख जिन पर उन्होंने अध्ययन किया, उनके अवयवों के एक बड़े भाग में उपयोगकर्ताओं ने कम सम्पादन के साथ योगदान दिया था।
[86] 2007 में डार्टमाउथ कॉलेज के शोधकर्ताओं ने अध्ययन में यह पाया कि "विकिपीडिया के गुमनाम और विरले योगदानकर्ता.........ज्ञान के स्रोत के रूप में उतने ही विश्वसनीय हैं, जितने कि वे योगदानकर्ता जो साईट के साथ पंजीकरण करते हैं।"
[87]
हालाँकि कुछ योगदानकर्ता अपने क्षेत्र में प्राधिकारी हैं, विकिपीडिया के लिए यह आवश्यक है कि यहाँ तक कि उनके योगदानकर्ता को प्रकाशित और निरीक्षण के सूत्रों द्वारा समर्थन प्राप्त हो।
परियोजना की योग्यता पर सहमति की प्राथमिकता को "उत्कृष्ट-विरोधी" के रूप में चिन्हित किया गया है।[10]
अगस्त 2007 में, विर्गील ग्रिफ़िथ द्वारा विकसित एक वेबसाईट विकिस्केनर ने विकिपीडिया के खातों के बिना बेनाम संपादकों के द्वारा विकिपीडिया में किये जाने वाले परिवर्तन के स्रोतों का पता लगाना शुरू किया।
इस कार्यक्रम ने प्रकट किया कि कई ऐसे संपादन निगमों या सरकारी एजेंसियों के द्वारा किये गए जिनमें उन से सम्बंधित, उनके कर्मचारियों या उनके कार्यों से सम्बंधित लेखों के अवयवों को बदला गया।[88]
2003 में एक समुदाय के रूप में विकिपीडिया के एक अध्ययन में, अर्थशास्त्र के पी.एच.डी. विद्यार्थी आंद्रे सिफोलिली ने तर्क दिया कि विकी सॉफ्टवेयर में भाग लेने की कम लेन देन लागत सहयोगी विकास के लिए एक उत्प्रेरक का काम करती है और यह कि एक "निर्माणात्मक रचना" दृष्टिकोण भागीदारी को प्रोत्साहित करता है।
[89] ओक्स्फोर्ड इंटरनेट संस्थान और हार्वर्ड लॉ स्कूल्स बर्क्मेन सेंटर फॉर इंटरनेट एंड सोसाइटी के जोनाथन जीटरेन ने अपनी 2008 की पुस्तक द फ्यूचर ऑफ़ द इन्टरनेट एंड हाउ टु स्टाप इट में कहा कैसे खुले सहयोग में एक केस अध्ययन के रूप में विकिपीडिया की सफलता ने वेब में नवाचार को बढ़ावा दिया है।
[90] 2008 में किये गए एक अध्ययन में पाया गया कि विकिपीडिया के उपयोगकर्ता, गैर-विकिपीडिया उपयोगकर्ताओं की तुलना में कम खुले और सहमत होने के कम योग्य थे हालाँकि वे अधिक ईमानदार थे।[91][92]
विकिपीडिया सईनपोस्ट अंग्रेजी विकिपीडिया पर समुदाय अखबार है,[93] और इसकी स्थापना विकिमीडिया फाउंडेशन न्यासी मंडल के वर्तमान अध्यक्ष और प्रशासक माइकल स्नो के द्वारा की गयी।[94] यह साइट से ख़बरों और घटनाओं को शामिल करता है और साथ ही सम्बन्धी परियोजनाओं जैसे विकिमीडिया कोमन्स से मुख्य घटनाओं को भी शामिल करता है।
[95]
ओपरेशन
विकिमिडिया फाउंडेशन और विकिमिडिया अध्याय
विकिपीडिया की मेजबानी और वित्तपोषण विकिमीडिया फाउनडेशन के द्वारा किया जाता है, यह एक गैर लाभ संगठन है जो विकिपीडिया से सम्बंधित परियोजनाओं जैसे विकिबुक्स का भी संचालन करता है।
विकिमीडिया के अध्याय, विकिपीडिया के उपयोगकर्ताओं का स्थानीय सहयोग भी परियोजना की पदोन्नति, विकास और वित्त पोषण में भाग लेता है।
सॉफ्टवेयर और हार्डवेयर
विकिपीडिया का संचालन मीड़याविकी पर निर्भर है। यह एक कस्टम-निर्मित, मुफ्त और खुला स्रोत विकी सॉफ्टवेयर प्लेटफोर्म है, जिसे PHP में लिखा गया है और MySQL डेटाबेस पर बनाया गया है।[96] इस सॉफ्टवेयर में प्रोग्रामिंग विशेषताएं शामिल हैं जैसे मेक्रो लेंग्वेज, वेरिएबल्स, अ ट्रांसक्लुजन सिस्टम फॉर टेम्पलेट्स और URL रीडायरेक्शन.
मीड़याविकी को GNU जनरल पब्लिक लाइसेंस के तहत लाइसेंस प्राप्त है और इसका उपयोग सभी विकिमीडिया परियोजनाओं और कई अन्य विकी परियोजनाओं के द्वारा किया जाता है।
मूल रूप से, विकिपीडिया क्लिफ्फोर्ड एडम्स (पहला चरण) द्वारा पर्ल में लिखे गए यूजमोडविकी पर चलता था, जिसे प्रारंभ में लेख हाइपरलिंक के लिए केमलकेस की आवश्यकता होती थी; वर्तमान डबल ब्रेकेट प्रणाली का समावेश बाद में किया गया।
जनवरी 2002 (द्वितीय चरण) में शुरू होकर, विकिपीडिया ने MySQL डेटाबेस के साथ एक PHP विकी इंजन पर चलना शुरू कर दिया; यह सॉफ्टवेयर माग्नस मांसके के द्वारा विकिपीडिया के लिए कस्टम-निर्मित था।
दूसरे चरण के सॉफ्टवेयर को तीव्र गति से बढ़ती मांग को समायोजित करने के लिए बार बार संशोधित किया गया। जुलाई 2002 (तीसरे चरण) में, विकिपीडिया तीसरी पीढ़ी के सॉफ्टवेयर में स्थानांतरित हो गया, यह मिडिया विकी था जिसे मूल रूप से ली डेनियल क्रोकर के द्वारा लिखा गया था।
[97] मीड़याविकी सॉफ्टवेयर की कार्यक्षमता बढ़ाने के लिए कई मीड़याविकी विस्तार इन्सटाल किये गए हैं।
अप्रैल 2005 में एक ल्युसेन विस्तार[98][99] को मिडिया विकी के बिल्ट-इन सर्च में जोड़ा गया और विकिपीडिया सर्चिंग के लिए MySQL से ल्युसेन में बदल गया।
वर्तमान में ल्युसेन सर्च 2,[100] जो कि जावा में लिखी गयी है और ल्युसेन लायब्रेरी 2.0 पर आधारित है,[101] का प्रयोग किया जाता है।
विकिपीडिया वर्तमान में लिनक्स सर्वर (मुख्य रूप से उबुन्टु), के समर्पित समूहों पर,[102][103] ज़ेड एफ़ एस के लिए कुछ ओपनसोलारिस मशीनों के साथ संचालित है।
फरवरी 2008 में, फ्लोरिडा में 300, एम्स्टरडाम में 26 और 23 याहू! के कोरियाई होस्टिंग सुविधा सियोल में थीं।[104] 2004 तक विकिपीडिया ने एकमात्र सर्वर का प्रयोग किया, इसके बाद सर्वर प्रणाली को एक वितरित बहुस्तरीय वास्तुकला में विस्तृत किया गया। जनवरी 2005 में, यह परियोजना, फ्लोरिडा में स्थित 39 समर्पित सर्वरों पर संचालित थी। इस विन्यास में MySQL चलाने वाला एकमात्र मास्टर डेटाबेस सर्वर, मल्टिपल स्लेव डेटाबेस सर्वर, अपाचे HTTP सर्वर को चलने वाले 21 वेब सर्वर और सात स्क्वीड केचे सर्वर शामिल हैं।
विकिपीडिया दिन के समय के आधार पर प्रति सेकंड 25,000 और 60,000 के बीच पृष्ठ अनुरोधों को प्राप्त करता है।
[105] पृष्ठ अनुरोधों को पहले स्क्वीड कैचिंग सर्वर की सामने के अंत की परत को पास किया जाता है।
[106] जिन अनुरोधों को स्क्वीड केचे से सर्व नहीं किया जा सकता है, उन्हें लिनक्स वर्चुअल सर्वर सॉफ्टवेयर चलाने वाले लोड-बेलेंसिंग सर्वरों को भेज दिया जाता है, जो बदले में डेटाबेस से पृष्ठ प्रतिपादन के लिए अपाचे वेब सर्वरों में से एक को यह अनुरोध भेज देता है।
वेब सर्वर अनुरोध के अनुसार पृष्ठों की डिलीवरी करता है और विकिपीडिया के सभी भाषाओँ के संस्करणों के लिए पृष्ठ प्रतिपादन करता है।
गति को और बढ़ाने के लिए, प्रतिपादित पृष्ठों को एक वितरित स्मृति केचे में अमान्य करने तक रखा जाता है, जिससे अधिकांश आम पृष्ठों के उपयोग के लिए पृष्ठ प्रतिपादन पूरी तरह से चूक जाता है।
नीदरलैंड और कोरिया में दो बड़े समूह अब विकिपीडिया के अधिकांश ट्रेफिक लोड को संभालते हैं।
लाइसेंस और भाषा संस्करण
विकिपीडिया में सभी पाठ्य GNU फ्री डोक्युमेंटेशन लाइसेंस (GFDL) के द्वारा कवर किया गया, यह एक कॉपीलेफ्ट लाइसेंस है जो पुनर्वितरण, व्युत्पन्न कार्यों के निर्माण और अवयवों के वाणिज्यिक उपयोग की अनुमति देता है, जबकि लेखक अपने कार्य के कॉपीराइट को बनाये रखते हैं,[107] जून 2009 तक, जब साईट क्रिएटिव कोमन्स एटरीब्यूशन-शेयर अलाइक (CC-by-SA) 3.0 को स्थानांतरित हो गयी।
[108] विकिपीडिया क्रिएटिव कॉमन्स लाईसेन्स की ओर स्थानान्तरण पर कार्य करती रही है, क्योंकि जो GFDL प्रारंभ में सॉफ्टवेयर मेनवल के लिए डिजाइन की गयी, वह ऑनलाइन सन्दर्भ कार्यों के लिए उपयुक्त नहीं है, ओर क्योंकि दोनों लाइसेंस असंगत थे।
[109] नवम्बर 2008 में विकिमीडिया फाउंडेशन के अनुरोध की प्रतिक्रिया में, फ्री सॉफ्टवेयर फाउंडेशन (FSF) ने GFDL के नए संस्करण को जारी किया, जिसे विशेष रूप से 1 अगस्त 2009 को relicense its content to CC-BY-SA के लिए विकिपीडिया को समायोजित करने के लिए डिजाइन किया गया था।
विकिपीडिया ओर इसकी सम्बन्धी परियोजनाओं ने एक समुदाय व्यापक जनमत संग्रह का आयोजन किया ताकि यह फैसला लिया जा सके कि इस लाइसेंस को बदला जाना चाहिए या नहीं।
[110] यह जनमत संग्रह 9 अप्रैल से 30 अप्रैल तक किया गया।[111] परिणाम थे 75.8% "हाँ", 10.5% "नहीं" और 13.7% "कोई राय नहीं"[112] इस जनमत संग्रह के परिणाम में, विकिमीडिया न्यासी मंडल ने क्रिएटिव कॉमन्स लाईसेन्स को, प्रभावी 15 जून 2009 से बदलने के लिए मतदान किया।[112] यह स्थिति कि विकिपीडिया सिर्फ एक मेजबान सेवा है, इसका उपयोग सफलतापूर्वक अदालत में एक बचाव के रूप में किया गया है।[113][114]
मीडिया फ़ाइलों (उदाहरण छवि फ़ाइलें) की हेंडलिंग का तरीका भाषा संस्करण के अनुसार अलग अलग होता है। कुछ भाषा संस्करण जैसे अंग्रेजी विकिपीडिया में उचित उपयोग सिद्धांत के अर्न्तगत गैर मुफ्त छवि फाइलें शामिल हैं जबकि अन्य में ऐसा नहीं होता है।
यह भिन्न देशों के बीच कॉपीराइट कानूनों में अंतर के कारण आंशिक है; उदाहरण के लिए, उचित उपयोग की धारणा जापानी कॉपीराइट कानून में मौजूद नहीं है।
मुफ्त सामग्री लाइसेंस के द्वारा कवर की जाने वाली मिडिया फाइलें, (उदाहरण क्रिएटिव कोमन्स cc-by-sa) को विकिमीडिया कोमन्स रिपोजिटरी के माध्यम से भाषा संस्करणों में शेयर किया जाता है, यह विकिमीडिया फाउंडेशन द्वारा संचालित परियोजना है।
वर्तमान में विकिपीडिया के 262 भाषा संस्करण हैं; इनमें से 24 भाषाओं में 100,000 से अधिक लेख है और 81 भाषाओं में 1,000 से अधिक लेख है।[1] एलेक्सा के अनुसार, अंग्रेजी उपडोमेन (en.wikipedia.org; अंग्रेजी विकिपीडिया) अन्य भाषाओँ में शेष विभाजन के साथ विकिपीडिया के कुल ट्रेफिक का 52% भाग प्राप्त करता है (स्पेनिश: 19%, फ्रेंच: 5%, पॉलिश: 3%, जर्मन: 3%, जापानी: 3%, पुर्तगाली: 2%).
[6] जुलाई 2008 को, पांच सबसे बड़े भाषा संस्करण हैं (लेख गणना के क्रम में)- अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच, पॉलिश और जापानी विकिपीडिया.[115]
चूंकि विकिपीडिया वेब आधारित है और इसलिए पूरी दुनिया में समान भाषा संस्करण के योगदानकर्ता भिन्न बोलियों का प्रयोग कर सकते हैं या भिन्न देशों से आ सकते हैं (जैसा कि अंग्रेजी संस्करण के मामले में होता है)
इन अंतरों के कारण वर्तनी अंतर (जैसे रंग बनाम रंग)[116] या दृष्टिकोण पर कुछ मतभेद हो सकते हैं।
[117]
हालाँकि वैश्विक नीतियों जैसे "न्यूट्रल पॉइंट ऑफ़ व्यू" के लिए कई भाषाओँ के संस्करण हैं, वे नीति और अभ्यास के कुछ बिन्दुओं पर वितरित हो जाते हैं, सबसे विशेषकर उन छवियों पर जिन्हें मुफ्त लाइसेंस प्राप्त नहीं हुआ है, उनका उपयोग उचित उपयोग के एक दावे के अर्न्तगत किया जा सकता है।
[118][119][120]
जिमी वेल्स ने विकिपीडिया को इस प्रकार से वर्णित किया है, "ग्रह पर हर एक व्यक्ति के लिए उनकी अपनी भाषा में उच्चतम संभव गुणवत्ता का एक मुफ्त विश्वकोश बनाने और वितरित करने का एक प्रयास"।
[121] हालाँकि प्रत्येक भाषा संस्करण कम या अधिक स्वतंत्र रूप से कार्य करता है, उन सब पर निगरानी रखने के लिए कुछ प्रयास किये जाते हैं।
वे आंशिक रूप से मेटा विकी के द्वारा समन्वित किये जाते हैं, विकिमीडिया फाउंडेशन का विकी इसकी सभी परियोजनाओं (विकिपीडिया और अन्य) के रख रखाव के लिए समर्पित है।
[122] उदाहरण के लिए, मेटा-विकी विकिपीडिया के सभी भाषा संस्करणों पर महत्वपूर्ण आंकडे उपलब्ध करता है,[123] और यह हर विकिपीडिया में आवश्यक लेखों की सूची रखता है।[124] यह सूची विषय के अनुसार मूल अवयवों से प्रसंग रखती है: जीवनी, इतिहास, भूगोल, समाज, संस्कृति, विज्ञान, प्रौद्योगिकी, खाद्य पदार्थ और गणित.
शेष के लिए, विशेष भाषा से सम्बंधित लेख के लिए अन्य संस्करणों में समकक्ष न होना दुर्लभ नहीं है।
उदाहरण के लिए, संयुक्त राज्य अमेरिका में छोटे शहरों के बारे में लेख केवल अंग्रेजी में ही उपलब्ध हो सकते हैं।
अनुवादित लेख अधिकांश संस्करणों में लेख के एक छोटे हिस्से का प्रतिनिधित्व करते हैं, क्योंकि लेखों के स्वचालित अनुवाद की अनुमति नहीं होती है।
[125] एक से अधिक भाषा में उपलब्ध लेख "इंटरविकी" लिंक पेश कर सकते हैं, जो अन्य संस्करणों के समकक्ष लेखों से सम्बंधित होते हैं।
विकिपीडिया लेखों के संग्रह ऑप्टिकल डिस्क्स पर प्रकाशित किया गया है। एक अंग्रेजी संस्करण, 2006 विकिपीडिया CD सलेक्शन में लगभग 2,000 लेख शामिल थे।[126][127] पॉलिश संस्करण में लगभग 240,000 लेख शामिल हैं।[128] जर्मन संस्करण भी उपलब्ध हैं।[129]
सांस्कृतिक महत्व
अपने लेखों की संख्या में तार्किक विकास के अलावा,[130] 2001 में अपनी स्थापना के बाद से विकिपीडिया ने एक आम सन्दर्भ वेबसाइट के रूप में दर्जा प्राप्त किया है।[131] अलेक्सा और कॉमस्कोर के अनुसार, दुनिया भर में विकिपीडिया उन अग्रणी दस वेबसाईटों में है जिस पर लोग सबसे ज्यादा जाते हैं।[9][132] शीर्ष दस में से, विकिपीडिया ही एकमात्र गैर लाभ वेबसाइट है। गूगल खोज परिणामों में इसके प्रमुख स्थान द्वारा विकिपीडिया के विकास को प्रोत्साहित किया गया है;[133] विकिपीडिया में आने वाले सर्च इंजन ट्रेफिक का लगभग 50% गूगल से आता है,[134] जिसमें से एक बड़ा भाग अकादमिक अनुसंधान से संबंधित है।[135] अप्रैल 2007 में प्यू इन्टरनेट और अमेरिकन लाइफ परियोजना ने यह पाया कि एक तिहाई अमेरिकी इंटरनेट उपयोगकर्ता विकिपीडिया से सलाह लेते हैं।[136] अक्टूबर 2006 में, साइट का एक काल्पनिक खपत मूल्य अनुमानतः $ 580 मिलियन था, अगर साईट ने विज्ञापन चलाये.[137]
विकिपीडिया के अवयवों को अकादमिक अध्ययन, पुस्क्तकों, सम्मेलनों और अदालत के मामले में प्रयुक्त किया गया है।[138][139][140]कनाडा की संसद की वेबसाइट में, सिविल विवाह अधिनियम के लिए, इसके "आगे पठन" की सूची के "सम्बंधित लिंक्स" सेक्शन में समान लिंग विवाह पर विकिपीडिया के लेख से सम्बन्ध रखती है।[141] विश्वकोश की स्वीकृतियों को संगठनों जैसे यू॰एस॰ फेडरल कोर्ट और विश्व बौद्धिक संपदा संगठन के द्वारा प्रयुक्त किया जाता है[142]- हालाँकि मुख्य रूप से इनका उपयोग मुख्य रूप से एक मामले के लिए जानकारी के फैसले से अधिक जानकारी के समर्थन के लिए होता है।
[143] विकिपीडिया पर प्रकट होने वाले अवयव कुछ अमेरिकी खुफिया एजेंसीयों की रिपोर्ट में एक स्रोत के रूप में उद्धृत किये गए हैं।
[144] दिसम्बर 2008 में वैज्ञानिक पत्रिका RNA बायोलोजी ने RNA अणुओं के वर्ग के वर्णन के लिए एक नया सेक्शन शुरू किया और इसे ऐसे लेखकों की जरुरत होती है जो विकिपीडिया में प्रकाशन के लिए RNA वर्ग पर एक ड्राफ्ट लेख लिखने में मदद करते हैं।
[145]
विकिपीडिया को पत्रकारिता में एक स्रोत के रूप में इस्तेमाल किया गया है,[146] कभी कभी बिना गुणधर्मों के ऐसा किया गया और कई पत्रकारों को विकिपीडिया से नक़ल करने के लिए बर्खास्त किया गया।[147][148][149]
जुलाई 2007 में, विकिपीडियाने बीबीसी रेडियो 4 पर 30 मिनट के एक वृत्तचित्र को प्रस्तुत किया,[150] जिसने तर्क दिया कि, उपयोगिता और जागरूकता के बढ़ने के साथ लोकप्रिय संस्कृति में विकिपीडिया के सन्दर्भ की संख्या इस प्रकार से है कि टर्म 21 वीं सदी की संज्ञाओं के एक चयन बैंड में से एक है जो बहुत लोकप्रिय हैं (गूगल, फेसबुक, यूट्यूब) कि वे उन्हने अधिक व्याख्या की जरुरत नहीं होती है और हूवरिंग और कोक की तरह 20 वीं सदी के टर्म्स के समतुल्य हैं।
कई हास्यास्पद विकिपीडिया का खुलापन, ऑनलाइन विश्वकोश परियोजना लेखों के संशोधन या विध्वंस प्रवृति के पात्रों को दर्शाता हैं।
विशेष रूप से, हास्य अभिनेता स्टीफन कोल्बेर्ट ने अपने शो द कोलबर्ट रिपोर्ट के असंख्य प्रकरणों में विकिपीडिया किए हास्य का प्रयोग किया है और इसके लिए एक शब्द दिया "विकिअलिटी".[64]
इस साइटने मीडिया के कई रूपों पर एक प्रभाव पैदा किया है। कुछ मीडिया स्रोत त्रुटियों के लिए विकिपीडिया की संवेदनशीलता पर व्यंग्य करते हैं, जैसे जुलाई 2006 में द अनियन में मुख पृष्ठ का लेख जिसका शीर्षक था "विकिपीडिया सेलेब्रेट्स 750 इयर्स ऑफ़ अमेरिकन इंडीपेनडेंस."
[151] अन्य विकिपीडिया के बारे में कहते हैं कि कोई भी संपादन कर सकता है जैसे द ऑफिस के एक प्रकरण "द नेगोशिएशन", जिसमें पात्र माइकल स्कॉट ने कहा, "विकिपीडिया एक सबसे अच्छी चीज है".
इस दुनिया में कोई भी किसी भी विषय के बारे में कुछ भी लिख सकता है, इसलिए आप जानते हैं कि आपको सर्वोत्तम संभव जानकारी मिल रही है।" कुछ चयनित विकिपीडिया की नीतियों जैसे xkcd स्ट्रिप को "विकिपिडियन प्रोटेस्टर" नाम दिया गया है।
अप्रैल 2008 में डच फिल्म निर्माता एईजेसब्रांड वॉन वीलेन ने अपने 45 मिनट के टेलीविजन वृत्तचित्र "द ट्रुथ अकार्डिंग टु विकिपीडिया" का प्रसारण किया।[152] विकिपीडिया के बारे में एक और वृत्तचित्र शीर्षक " ट्रुथ इन नंबर्स: द विकिपीडिया स्टोरी" 2009 प्रदर्शन के लिए निर्धारित है। कई महाद्वीपों पर शूट की गयी, यह फिल्म विकिपीडिया के इतिहास और दुनिया भर में विकिपीडिया के संपादकों के साथ किये गए साक्षात्कारों को कवर करेगी। [153][154]
28 सितंबर 2007 को, इतालवी राजनीतिज्ञ फ्रेंको ग्रिल्लिनी ने चित्रमाला की स्वतंत्रता की आवश्यकता के बारे में सांस्कृतिक संसाधन और गतिविधियों के मंत्री के सम्नाक्ष संसदीय प्रश्न उठाया। उन्होंने कहा कि ऐसी आजादी की कमी विकिपीडिया पर दबाव बनाती है," जो सातवीं ऐसी वेबसाईट है जिस पर लोग विजित करते हैं" यह आधुनिक इतालवी इमारतों और कला की सभी छवियों पर रोक लगाती है और दावा किया कि इसने पर्यटन राजस्व को बेहद क्षति पहुँचायी है।
[155]
16 सितंबर 2007 को द वाशिंगटन पोस्ट ने सूचना दी कि विकिपीडिया 2008 अमेरिकी चुनाव अभियान में एक केंद्र बिन्दु बन गया, इसके अनुसार "जब आप गूगल में उम्मीदवार का नाम टाइप करते हैं, एक विकिपीडिया पृष्ठ ही पहला परिणाम होता है, यह इन प्रविष्टियों को उतना ही महत्वपूर्ण बनता है जितना कि एक उम्मीदवार को परिभाषित करना.
पहले से ही, राष्ट्रपति प्रविष्टियों को प्रतिदिन अनगिनत बार संपादित, अवलोकित किया जा रहा है और इस पर विचार-विमर्श किया जा रहा है।"
[156] अक्टूबर 2007 के रायटर्स लेख शीर्षक "विकिपीडिया पेज द लेटेस्ट स्टेटस सिम्बल" में इस घटना पर रिपोर्ट दी गयी कि कैसे एक विकिपीडिया लेख किसी की विख्याति को साबित करता है।[157]
विकिपीडिया ने मई 2004 में दो प्रमुख पुरस्कार जीते। [158] पहला था, वार्षिक प्रिक्स अर्स इलेक्ट्रोनिका प्रतियोगिता में गोल्डन निका फॉर डिजीटल कमयूनिटीस; यह पुरस्कार € 10000 (£ 6588; $ 12,700) अनुदान के साथ आया था और इसके साथ ऑस्ट्रिया में पी ए ई सइबरआर्ट्स समारोह में उस वर्ष दस्तावेज़ करने के लिए एक निमंत्रण भी प्राप्त किया गया था।
दूसरा, "समुदाय" श्रेणी के लिए में न्यायाधीशों का वेब्बी अवार्ड था।[159] विकिपीडिया को "बेस्ट प्रक्टिसस" वेब्बी के लिए मनोनीत किया गया। 26 जनवरी 2007 को, विकिपीडिया को ब्रांडचैनल.कॉम के पाठकों द्वारा सर्वोत्तम चौथी ब्रांड श्रेणी से सम्मानित किया गया था; "किस ब्रांड ने 2006 में हमारे जीवन पर सर्वाधिक प्रभाव डाला" सवाल के जवाब में 15% मतदान प्राप्त किया गया।[160]
सितम्बर 2008 में, विकिपीडिया ने बोरिस टाडिक, एकार्ट होफ्लिंग और पीटर गेब्रियल के साथ वेर्कस्टाट डॉइशलैंड का क्वाडि्ृगा अ मिशन ऑफ़ एनलाइटएनमेंट पुरस्कार प्राप्त किया। यह पुरस्कार जिमी वेल्स को डेविड वेंबेर्गेर द्वारा पेश किया गया।[161]
संबंधित परियोजनायें
जनता द्वारा लिखित इंटरैक्टिव मल्टीमीडिया विश्वकोश की असंख्य प्रविष्टियां, विकिपीडिया की स्थापना से भी लम्बे समय पहले मौजूद थीं। इनमें से पहला था 1986 BBC डोमस्डे प्रोजेक्ट, जिसमें ब्रिटेन के 1 मिलियन से अधिक योगदानकर्ताओं के पाठ्य (BBC माइक्रो कंप्यूटर पर प्रविष्ट) और तस्वीरें शामिल थीं और यह ब्रिटेन के भूगोल, कला और संस्कृति को कवर करता था। यह पहला इंटरैक्टिव मल्टीमीडिया विश्वकोश था (और साथ ही आंतरिक लिंक्स के माध्यम से जुड़ा पहला मुख्य मल्टीमीडिया दस्तावेज़ भी था), इसमें अधिकांश लेख ब्रिटेन के एक इंटरेक्टिव मानचित्र के माध्यम से उपलब्ध थे। उपयोगकर्ता इंटरफ़ेस और डोमस्डे प्रोजेक्ट के अवयवों के एक हिस्से को अब एक वेबसाईट पर डाल दिया गया है।
[162] सबसे सफल प्रारंभिक ऑनलाइन विश्वकोशों में से एक था h2g2 जिस पर जनता के द्वारा प्रविष्टियाँ की जाती थीं, जिसे डगलस एडम्स के द्वारा निर्मित किया गया और इसे BBC के द्वारा चलाया जाता है। h2g2 विश्वकोश तुलनात्मक रूप से हल्का फुल्का था, यह उन लेखों पर ध्यान केन्द्रित करता था जो हास्यपूर्ण भी हों और जानकारीपूर्ण भी हों।
इन दोनों परियोजनाओं में विकिपीडिया के साथ समानता थी, लेकिन दोंनों में से किसी ने भी सार्वजनिक उपयोगकर्ताओं को पूर्ण संपादकीय स्वतंत्रता नहीं दी। ऐसी ही एक गैर-विकी परियोजना GNU पीडिया परियोजना, अपने इतिहास के आरम्भ में न्यूपीडिया के साथ उपस्थित थी; हालाँकि इसे सेवानिवृत्त कर दिया गया है और इसके निर्माता मुफ्त सॉफ्टवेयर व्यक्ति रिचर्ड स्टालमेन ने विकिपीडिया को समर्थन दिया है।
[21]
विकिपीडिया ने कई सम्बन्धी परियोजनाओं का सूत्रपात भी किया है, इन्हें भी विकिमीडिया फाउंडेशन द्वारा संचालित किया जाता है। पहला, "इन मेमोरियम: सितंबर 11 विकी",[163] अक्टूबर 2002 में निर्मित,[164] जो 11 सितंबर के हमलों को विस्तृत किया; इस परियोजना को अक्टूबर 2006 में बंद कर दिया गया था। विकटियोनरी, एक शब्दकोश परियोजना, दिसंबर 2002 में शुरू की गई थी;[165] विकिकोट कोटेशन्स का एक संग्रह, जो विकिमीडिया के उदघाटन के एक सप्ताह बाद शुरू हुआ और विकिबुक्स सहयोग से लिखी गयी मुफ्त पुस्तकों का एक संग्रह.
तब से विकिमीडिया ने कई अन्य परियोजनाएं शुरू की हैं, इसमें विकीवर्सिटी भी शामिल है, यह मुफ्त अध्ययन सामग्री के निर्माण के लिए और ऑनलाइन शिक्षण गतिविधियों का प्रावधान करने की परियोजना है।
[166] हालाँकि, इन में से कोई भी सम्बंधित परियोजना, विकिपीडिया की सफलता प्राप्ति में सहायक नहीं रही है।
विकिपीडिया की जानकारी के कुछ उपसमुच्चय अक्सर विशिष्ट उद्देश्य के लिए अतिरिक्त समीक्षा के साथ विकसित किये गए हैं।
उदाहरण के लिए, विकिपीडीयन्स और SOS बच्चों के द्वारा निर्मित CD /DVD की विकिपीडिया श्रृंखला (उर्फ "विकिपीडिया फॉर स्कूल्स"), एक मुफ्त, हाथ से जांच की गयी, विकिपीडिया से गैर वाणिज्यिक चुनाव है, जो ब्रिटेन के राष्ट्रीय पाठ्यक्रम में लक्षित है और अधिकांश अंग्रेजी भाषी दुनिया के लिए उपयोगी है।
ऑनलाइन उपलब्ध है: एक समकक्ष प्रिंट विश्वकोश के लिए लगभग बीस संस्करणों की आवश्यकता होगी।
ये विकिपीडिया के लेख के एक सलेक्ट सबसेट को एक मुद्रित पुस्तक रूप देने का प्रयास भी किया गया है।
[167]
सहयोगी ज्ञान आधार विकास पर केन्द्रित अन्य वेबसाईटों ने या तो विकिपीडिया से प्रेरणा प्राप्त की है या उसे प्रेरित किया है।
कुछ, जैसे सुस्निंग.नु (Susning.nu), एनसिक्लोपेडिया लीब्रे (Enciclopedia Libre) और विकिज़नानी (WikiZnanie) किसी औपचारिक समीक्षा प्रक्रिया का इस्तेमाल नहीं करते है, जबकि अन्य जैसे एनसाइक्लोपीडिया ऑफ़ लाइफ (Encyclopedia of Life), स्टैनफोर्ड एनसाइक्लोपीडिया ऑफ़ फिलोसोफी (Stanford Encyclopedia of Philosophy), स्कोलरपीडिया (Scholarpedia), h2g2, एव्रीथिंग2 (Everything2), अधिक पारंपरिक सहकर्मी समीक्षा का उपयोग करते है। एक ऑनलाइन विश्वकोश, सिटिज़नडियम को विकिपीडिया के सह-संस्थापक लैरी सेंगर के द्वारा विकिपीडिया के "विशेषज्ञ अनुकूल" का निर्माण करने के प्रयास में शुरू किया गया था।[168][169][170]
यह भी देखिये
विकिपीडिया के बारे में अकादमिक अध्ययन
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सन्दर्भ
नोट्स
अकादमिक अध्ययन
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प्रीडहोर्स्की, रीड, जिलिन चेन, श्योंग (टोनी) के.लॉम, कैथरीन पन्सिएरा, लोरेन तरवीन और जॉन रिएद्ल. प्रोक. ग्रुप 2007, डी ओ आई: 1316624,131663.
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पुस्तकें
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पुस्तक समीक्षायें और अन्य लेख
क्रोवित्ज़, एल गॉर्डन. (मूलतः "वॉल स्ट्रीट जर्नल" ऑनलाइन में प्रकाशित - 6 अप्रैल 2009, 8:34 A.M. ET)
बेकर, निकलसन. द न्यू यार्क रेव्यू ऑफ़ बुक्स 20 मार्च 2008. 17 दिसम्बर 2008 को प्रविष्टि.(जॉन ब्रूटन की द मिस्सिंग मेन्यूल की पुस्तक समीक्षा, जैसा कि ऊपर सूचीबद्ध है।)
रोसेनविग, रॉय. (मूलतः जर्नल ऑफ अमेरिकन हिस्ट्री 93.1 में प्रकाशित (जून 2006): 117-46)
सीखने के स्रोत
स्रोतों को सीखने की विकीवर्सिटी सूची.(संबंधित पाठ्यक्रम, वेब आधारित संगोष्ठीयां, स्लाइड, व्याख्यान नोट्स, पाठ्य पुस्तकें, प्रश्नोत्तरी, शब्दकोश, आदि शामिल है).
मीडिया विवाद
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अन्य मीडिया कवरेज़
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बाहरी संबंध
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श्रेणी:गूगल परियोजना | विकिपीडिया' विश्वकोश की उद्घाटन तिथि क्या थी? | 15 जनवरी 2001 | 3,209 | hindi |
1c9600945 | अन्तरराष्ट्रीय राजनीति तथा अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों पर भूगोल के प्रभावों का अध्ययन भूराजनीति (Geopolitics) कहलाती है। [1] दूसरे शब्दों में, भूराजनीति, विदेश नीति के अध्ययन की वह विधि है जो भौगोलिक चरों के माध्यम से अन्तरराष्ट्रीय राजनैतिक गतिविधियों को समझने, उनकी व्याख्या करने और उनका अनुमान लगाने का कार्य करती है। 'भौगोलिक चर' के अन्तर्गत उस क्षेत्र का क्षेत्रफल, जलवायु, टोपोग्राफी, जनसांख्यिकी, प्राकृतिक संसाधन, तथा अनुप्रयुक्त विज्ञान आदि आते हैं। [2]
यह शब्द सबसे पहले रुडोल्फ ज़ेलेन ने सन् १८९९ में प्रयोग किया था। भूराजनीति का उद्देश्य राज्यों के मध्य संबंध एवं उनकी परस्पर स्थिति के भौगोलिक आयामों के प्रभाव का अध्ययन करना है। इसके अध्ययन के अनेक ऐतिहासिक चरण हैं, जैसे कि औपनिवेशिक काल में ब्रिटिश साम्राज्यवाद एवं रूसी ज़ारशाही के मध्य एशिया में प्रतिस्पर्धा, तदुपरांत शीत युद्ध काल में अमेरिकी साम्राज्यवाद व सोवियत संघ के मध्य स्पर्धा आदि ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जो कि भूराजनीति के महत्वपूर्ण चरण कहे जा सकते हैं।
भूराजनीति के प्रमुख विचारकों में हेल्फोर्ड जॉन मैकिण्डर का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। उनका सन् १९०४ में छपा लेख द जियॉग्राफिकल पॉइवट ऑफ हिस्टरी, भूराजनीति के लेखन में एक अद्भुत मिसाल है। भूराजनीति प्रथम एवं द्वितीय विश्व युद्ध के मध्य तीव्रता से प्रसिद्ध हुई, परंतु जर्मन विचारकों ने इसे स्वयं की साम्राज्यी महत्वाकांक्षाओं का स्रोत बना लिया, जिसके चलते यह अन्वेषी विचारधारा वदनाम हुई। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इसे लगभग नकार दिया गया। शीत युद्ध का ९० के दशक में चरम पर होना व ब्रजेंस्की जैसे विचारकों द्वारा इस चिंतन को पुनः मान्यता देना, भूराजनीति के लिए पुनर्जीवन का आधार साबित हुई।
भूराजनीति के विकास क्रम में शीत युद्ध के अनेक चरणों का महत्व है, जैसे, क्युबा मिसाइल संकट (१९६२), १५ वर्षों तक चलने वाला वियतनाम युद्ध (१९७५), १० वर्षीय अफग़ानिस्तान गृह युद्ध (१९८९), बर्लिन दीवार व जर्मनी एकीकरण (१९८९) तथा सबसे महत्वपूर्ण सोवियत संघ का विघटन (१९८९)।
भूराजनीति की अवधारणा की प्रबलता का संबंध १९वीं शताब्दी के अंत में साम्राज्यवाद में हो रहे गुणात्मक परिवर्तन से भी है। ब्रिटेन के भारत में अनुभव साम्राज्यवाद के अत्यंत महत्वपूर्ण अनुभवों में से एक थे। राजनैतिक शासन की सीमाएँ स्पष्ट रूप से दिखाई देती थी। तथा ब्रितानी सूरज अस्ताचल की ओर गतिमान था। इसका दूरगामी प्रभाव अफ्रीकी मुल्कों पर भी पङा, तथा अनेक देशों ने साम्राज्यवाद के विरुद्ध स्वतंत्रता प्राप्त की। भूराजनीति में इसके महत्व को इस प्रकार से समझा जा सकता है, कि भौगोलिक परिस्थितियों ने साम्राज्यवाद के विरुद्ध चेतना को प्रभावित किया, जैसे कि अफ्रीकी महाद्वीप में रंगभेद औपनिवेशवाद का घटक माना गया, तो दक्षिण एशिया में सांप्रदायिकता को उपनिवेशवाद की उपज माना गया। इस प्रकार महाद्वीपों में राष्ट्रों के निर्माण के बाद उनके महाद्वीपीय संबंध व अंतर-महाद्वीपीय संबंध उनके साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष के अनुभवों से प्रभावित दिखे।
एक और दृष्टिकोण इस संबंध में उद्धृत करना उचित रहेगा। भूराजनीति औपनिवेशिक शक्तियों के अनुभवों से जुङी विश्व व्यवस्था का दिशाबोध है, अतः इसका चिंतन प्रत्येक राष्ट्र के उपनिवेशकाल के अनुभवों का प्रतिबिंब है।
भूराजनीति की एक अन्य महत्वपूर्ण अवधारणा ग्रेट गेम संकल्पना है। यह १९वीं शताब्दी की दो महान शक्तियों के टकराहट की एक रोचक संकल्पना है। ब्रिटेन का सर्वप्रिय उपनिवेश भारतीय उपमहाद्वीप था, उसके संसाधन को चुनौती को विफल करना उस समय ब्रिटेन की प्राथमिकता थी। यूरोपीय शक्तियों में नेपोलियन के नेतृत्व में फ्रांस एक चुनौती प्रतीत हुआ, परंतु यह अवतरित नहीं हो सकी। तत्पश्चात् रूस एक महाद्वीपीय शक्ति के रूप में प्रकट हुआ। यह उपनिवेशकाल के महत्वपूर्ण चरणों में से एक है, कि विश्व व्यवस्था के दो स्पष्ट आधार दिखाई देने लगे। एक व्यवस्था जो कि महासागरों द्वारा पृथ्वी के संसाधनों को नियंत्रित करने की थी, तो दूसरी व्यवस्था एशिया महाद्वीप में सर्वोच्चता के नवीन संघर्ष की ओर प्रवृत थी।
औपनिवेशवाद एक ऐतिहासिक अनुभव है। परंतु राष्ट्रों के निर्माण की प्रक्रिया एवं उनके मध्य व्यवहार का निर्माण एक वैश्विक व्यवस्था को इंगित करती है। संबंधों की परिभाषा वर्गीय चेतना द्वारा निर्धारित होती है। यूरोपीय समाजों के अनुभव, व अन्य समाजों के अनुभवों में तुलनात्मक रूप से अधिक भिन्नता है।
भूराजनीति का एक और महत्वपूर्ण आयाम शीत युद्ध है। शीत युद्ध काल में सोवियत संघ व संयुक्त राज्य अमेरिका के मध्य विचारधारा पर भीषण संघर्ष हुआ है। कम्यूनिझम या मार्क्सवाद की विचारधारा ने नवीन राष्ट्रों में अपनी पहचान बनाई, जिसके चलते पूँजीवादी देशों से टकराहट हुई। यह प्रतिद्वंदिता तीसरी दुनियाँ के देशों में भी फैलती गई। तथा भूराजनीति ऐसे समय में इन देशों को अपनी ओर खींचने की होङ के रूप में प्रकट हुई। इसके परिणाम सकारात्मक एवं नकारात्मक भी रहे। कुछ देशों ने इसे लाभ के अवसर के रूप में देखा, अतः वे अपने आर्थिक विकास के अवसरों को भुनाने लगे। जबकि कुछ देशों के लिए विघटन, युद्ध व अशांति का पर्याय बना।
भूराजनैतिक अवधारणाएँ एवं मूल तत्व
भूराजनीति में चिंतन पद्वत्ति का विशेष महत्व है। समस्त विश्व को एक इकाई मानकर देशों के व्यवहार पर निष्कर्षात्मक वक्तव्य रखना, एक जटिल प्रक्रिया है। यहाँ यह बताना उपयोगी होगा कि भूराजनीति का चरम उद्देश्य राष्ट्र-जीवन की आवश्यक शर्तों की अनुपालना हेतु संसाधनों की निर्बाध आपूर्ति बनाए रखना है। इस पृष्ठभूमि के संदर्भ में विभिन्न भूराजनैतिक अवधारणाओं की समालोचना की जानी चाहिए।
सर् हॉलफोर्ड जॉन मैकिन्डर की १९०४ की संकल्पना द जियॉग्राफिकल पॉइवट ऑफ हिस्टरी एक ऐसी ही अतुलनीय कृति है। इसके मूल में यह निहित है कि चुँकि पृथ्वी के भूपटल पर महाद्वीपों की आकृति-विस्तार व उससे प्रभावित विभिन्न राष्ट्रीय समुदायों के वितरण का ऐतिहासिक बोध, उनके परस्पर स्थानिक व देशीय संबंधों की व्याख्या करने में सक्षम है। अतः भविष्य में भी इन कारकों का राष्ट्रों के मध्य संबंधों पर असर पङेगा। ऐसी ही एक मूलाकृति है, हृदयस्थल या हार्टलैण्ड।
हार्टलैण्ड संकल्पना के अनुसार समुद्री जलमार्गों के व्यापार के प्रयोग से यूरोप-एशिया महाद्वीप के क्षितिज भाग परस्पर संपर्क में आ गए। ये तटीय क्षेत्र मध्य भाग की पारंपरिक व्यवस्था के विकल्प में उभरे। पारंपरिक व्यवस्था से अभिप्राय है, व्यापार का परंपरागत थल मार्गों से कारवाँ के माध्यम से किया जाना। मैकिण्डर के अनुसार इतिहास में कुछ वृहत्तर प्रक्रम हैं, जो कि सामान्य ऐतिहासिक प्रबोध से परे हैं। ऐसा ही एक ऐतिहासिक प्रक्रम था, यूरोप में राष्ट्र-राज्यों की उत्पत्ति। मैकिण्डर के अनुसार, यूरोप का उद्भव, एशियाई आक्रांताओं के निरंतर झंझावातों से उत्पन्न चेतना का परिणाम है। हूणों के क्रूर आक्रमणों ने यूरोप को एशियाई सत्ता व आकार के प्रति सावचेत किया। यही नहीं, अपितु, पूर्वी यूरोप के जातीय ढाँचे में इसके चलते जो परिवर्तन आए, वे एक प्रतिरोधक के रूप में स्थापित हो गए।
यह चिंतन एक विशिष्ट संबंध की व्याख्या करता है। महाद्वीपीय एकांगिकता का बोध महासागरीय प्लवन के माध्यम से ही संभव हो सका है। अतः मैकिण्डर के चिंतन में द्वंद दिखाई देता है।
भूराजनीति एवं भौगोलिक संसाधन
भूराजनीति का एक महत्वपूर्ण अंग भौगोलिक संसाधनों की स्वामित्वता है। यह स्वामित्व सामरिक संसाधनों के क्षेत्र में अत्यंत इच्छित है। उर्जा संसाधन एक ऐसे ही चिह्नित क्षेत्र है।
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
(बोधि बूस्टर)
श्रेणी:रक्षा अध्ययन
श्रेणी:राष्ट्रीय सुरक्षा
श्रेणी:राजनीतिक भूगोल
श्रेणी:भूराजनीति | भूराजनीति' शब्द सबसे पहले किसके द्वारा प्रयोग किया गया था? | रुडोल्फ ज़ेलेन | 478 | hindi |
f6a2352ab | जॉर्ज फ़र्नान्डिस (३ जून १९३० - २९ जनवरी २०१९) एक भारतीय राजनेता थे।[2] वे श्रमिक संगठन के भूतपूर्व नेता, तथा पत्रकार थे।[3] वे राज्यसभा और लोकसभा के सदस्य रह चुके हैं। उन्होंने समता मंच की स्थापना की। वे भारत के केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में रक्षा मंत्री, संचारमंत्री, उद्योगमंत्री, रेलमंत्री आदि के रूप में कार्य कर चुके हैं।[4] लंबे समय तक बीमार रहने के बाद उनका निधन २९ जनवरी २०१९ रोज मंगलवार को हो गया।[5]
चौदहवीं लोकसभा में जॉर्ज फ़र्नान्डिस मुजफ़्फ़रपुर से जनता दल के टिकट पर सांसद चुने गए थे। वे १९९८ से २००४ तक की राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की केन्द्रीय सरकार में रक्षा मंत्री थे।
जीवन परिचय
जॉर्ज फर्नांडीस का जन्म 3 जून 1930 को मैंगलोर के मैंग्लोरिन-कैथोलिक परिवार में हुआ था। वे अपने भाई-बहनों में सबसे बड़े थे। परिवार के नजदीकी सदस्य इन्हें 'गैरी' कहकर बुलाते थे। इन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा मैंगलौर के स्कूल से पूरी की। इसके बाद मैंगलौर के सेंट अल्योसिस कॉलेज से अपनी 12वीं कक्षा पूरी की।
घर की पारम्परा के अनुसार उन्हे 16 वर्ष की आयु में बैंगलोर के सेंट पीटर सेमिनरी में धार्मिक शिक्षा के लिए भेजा गया। 19 वर्ष की आयु में वे सेमिनरी छोड़ भाग गए और मैंगलौर के रोड ट्रांसपोर्ट कंपनी तथा होटल एवं रेस्तरां में काम करने लगे।
1949 में जॉर्ज मैंगलोर छोड़ मुम्बई काम की तलाश में आ गए। मुम्बई में इनका जीवन बहुत कठिनाइयों से भरा रहा। एक समाचारपत्र में प्रूफरीडर की नौकरी मिलने से पहले वे फुटपाथ पर रहा करते थे और चौपाटी स्टैंड की बेंच पर सोया करते थे लेकिन रात में ही एक पुलिस वाला आकर उन्हें उठा देता था जिसके कारण उन्हें जमीन पर सोना पड़ता था।
1950 में वे राममनोहर लोहिया के करीब आए और उनके जीवन से काफी प्रभावित हुए। उसके बाद वे सोशलिस्ट ट्रेड यूनियन के आन्दोलन में शामिल हो गए। इस आन्दोलन में उन्होंने मजदूरों, कम पैसे में कम्पनियों में काम करने वाले कर्मचारियों तथा होटलों और रेस्तरांओं में काम करने वाले मजदूरों के लिए आवाज उठाई। इसके बाद वे 1950 में श्रमिकों की आवाज बन गए।
सन 1961 तथा 1968 में मुम्बई सिविक का चुनाव जीतकर वे मुम्बई महानगरपालिका के सदस्य बन गए। इसके साथ ही वे लगातार निचले स्तर के मजदूरों एवं कर्मचारियों के लिए आवाज उठाते रहे और राज्य में सही तरीकों से कार्य करते रहे। इस तरह के लगातार आन्दोलनों के कारण वे राजनेताओं की नजर में आ गए। 1967 के लोकसभा चुनाव में उन्हें संयुक्त सोसियलिस्ट पार्टी की ओर से मुम्बई दक्षिण की सीट से टिकट दिया गया जिसमें वे 48.5 फीसदी वोटों से जीते। इसके कारण उनका नाम 'जॉर्ज द जेंटकिलर' रख दिया गया। उनके प्रतिद्वन्द्वी पाटिल को यह हार बर्दाश्त नहीं हुई और उन्होंने राजनीति छोड़ दी।
1960 के बाद जॉर्ज मुम्बई में हड़ताल करने वाले लोकप्रिय नेता बने। इसके बाद राजनीति में बहुत बदलाव आया और 1969 में वे संयुक्त सोसियालिस्ट पार्टी के महासचिव चुन लिए गए और 1973 में पार्टी के चेयरमैन बने। 1974 में जॉर्ज ने ऑल इंडिया रेलवे फेडरेशन का अध्यक्ष बनने के बाद भारत की बहुत बड़ी रेलवे के खिलाफ हड़ताल शुरू की। वे 1947 से तीसरे वेतन आयोग को लागू करने की मांग कर रहे थे और आवासीय भत्ता बढ़ाने की भी मांग कर रहे थे।
१९७७ में, आपातकाल हटा दिए जाने के बाद, फ़र्नान्डिस ने अनुपस्थिति में बिहार में मुजफ्फरपुर सीट जीती और उन्हें इंडस्ट्रीज के केंद्रीय मंत्री नियुक्त किया गया। केंद्रीय मंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान, उन्होंने निवेश के उल्लंघन के कारण, अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों आईबीएम और कोका-कोला को देश छोड़ने का आदेश दिया। वह १९८९ से १९९० तक रेल मंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान कोंकण रेलवे परियोजना के पीछे प्रेरणा शक्ति थी। वह राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार (१९९८-२००४) में रक्षा मंत्री थे, जब कारगिल युद्ध भारत और पाकिस्तान और भारत ने पोखरण में परमाणु परीक्षण किए एक अनुभवी समाजवादी, फ़र्नान्डिस को बराक मिसाइल घोटाले और तहलका मामले सहित कई विवादों से डर लगा था। जॉर्ज फ़र्नान्डिस ने १९६७ से २००४ तक ९ लोकसभा चुनाव जीते।
सन्दर्भ
इन्हें भी देखें
भारतीय रेल हड़ताल, १९७४
कांटी थर्मल पावर स्टेशन
आपातकाल (भारत)
बाहरी कड़ियाँ
(२९ जनवरी, २०१८)
श्रेणी:1930 में जन्मे लोग
श्रेणी:२०१९ में निधन
श्रेणी:भारत के रक्षा मंत्री
श्रेणी:भारत के रेल मंत्री
श्रेणी:राज्यसभा सदस्य
श्रेणी:चौथी लोक सभा के सदस्य
श्रेणी:६ठी लोक सभा के सदस्य
श्रेणी:७वीं लोक सभा के सदस्य
श्रेणी:९वीं लोक सभा के सदस्य
श्रेणी:१०वीं लोक सभा के सदस्य
श्रेणी:११वीं लोक सभा के सदस्य
श्रेणी:१२वीं लोक सभा के सदस्य
श्रेणी:१३वीं लोक सभा के सदस्य
श्रेणी:१४वीं लोक सभा के सदस्य
श्रेणी:भारतीय राजनीतिज्ञ
श्रेणी:राजनीतिज्ञ | जॉर्ज फ़र्नान्डिस की मृत्यु किस वर्ष में हुई थी? | २९ जनवरी २०१९ | 32 | hindi |
7996ca37a | जैवमिति या बायोमैट्रिक्स जैविक आंकड़ों एंव तथ्यों की माप और विश्लेषण के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी को कहते हैं। अंग्रेज़ी शब्द बायोमैट्रिक्स दो यूनानी शब्दों बायोस (जीवन) और मैट्रोन (मापन) से मिलकर बना है।[1] नेटवर्किंग, संचार और गत्यात्मकता में आई तेजी से किसी व्यक्ति की पहचान की जांच पड़ताल करने के विश्वसनीय तरीकों की आवश्यकता बढ़ गई है। पहले व्यक्तियों की पहचान उनके चित्र, हस्ताक्षर, हाथ के अंगूठे और अंगुलियों के निशानों से की जाती रही है, किन्तु इनमें हेरा-फेरी होने लगी। इसे देखते हुए वैज्ञानिकों ने जैविक विधि से इस समस्या का समाधान करने का तरीका खोजा है। इसका परिणाम ही बायोमैट्रिक्स है। वेनेजुएला में आम चुनावों के दौरान दोहरे मतदान को रोकने के लिए बायोमैट्रिक कार्ड का प्रयोग किया जाता है।
विश्वसनीय प्रक्रिया
बायोमैट्रिक्स प्रणाली की विश्वसनीयता अत्यधिक मानी जाती है। इसके कई कारण हैं, जैसे प्रत्येक व्यक्ति में पाई जाने वाली बायोमैट्रिक्स विशिष्ट होती है। बायोमैट्रिक खोजों को न तो भुलाया जा सकता है और न ही इनमें फेरबदल आदि संभव है। यदि किसी दुर्घटनावश अंग विकृत हो जाए, तभी इसमें बदलाव संभव है, अन्यथा यह चिह्न व्यक्ति में स्थाई प्रकृति के होते हैं। पहचान बनाये रखने के लिए एकत्रित बायोमैट्रिक आंकड़ों को पहले एन्क्रिप्ट किया जाता है, ताकि उसका क्लोन न बनाया जा सकें। इसके अलावा इस तकनीक को पासवर्ड एवं कार्ड के साथ मिलाकर प्रयुक्त किया जा सकता है। इस प्रकार बायोमेट्रिक प्रणाली की विश्वसनीयता अत्यधिक बताय़ी जाती है।
मानव गुणधर्मों को बायोमेट्रिक्स में निम्न पैरामीटरों के पद में प्रयोग किया जा सकता है, ये समझना संभव है।[2]
सार्वभौमिकता - प्रत्येक व्यक्ति की विशेषता होनी चाहिए।
अद्वितीयता - कितनी सटीकता से बॉयोमेट्रिक दूसरे से भिन्न व्यक्तियों को अलग करता है।
स्थायित्व - कितनी सटीकता से बॉयोमेट्रिक आयु वर्धन और भविष्य में होने वाले अन्य परिवर्तनों से अप्रभावित रहता है।
प्रदर्शन - सटीकता, गति और प्रयुक्त प्रौद्योगिकी की मजबूती।
स्वीकार्यता - एक प्रौद्योगिकी के अनुमोदन की मात्रा।
निवारण - एक विकल्प के उपयोग में आसानी।
एक बॉयोमेट्रिक प्रणाली निम्नलिखित दो रूपों में काम कर सकती हैं:
सत्यापन - एक अभिग्रहीत बॉयोमेट्रिक को संग्रहित टेम्पलेट के साथ एक से एक तुलना करके यह सत्यापित किया जा सकता है कि वह व्यक्ति विशेष जो वह होने का दावा कर रहा है, वह ठीक है या नहीं। एक स्मार्ट कार्ड, उपयोगकर्ता का नाम अथवा परिचय संख्या के साथ संयोजन करके ऐसा किया जा सकता है।
पहचान - एक अज्ञात व्यक्ति की पहचान करने के प्रयास में एक बॉयोमेट्रिक डाटाबेस के साथ कई अभिग्रहित बॉयोमेट्रिक नमूनों की तुलना की जा सकती है। व्यक्ति की पहचान करने में सफलता तभी प्राप्त हो सकती है जब बॉयोमेट्रिक नमूने की तुलना डाटाबेस में टेम्पलेट के साथ पूर्व निर्धारित सीमा के भीतर किया जाये।
प्रयोग
इसमें व्यक्ति के हाथ के अंगूठे के निशान, अंगुलियों, आंखों की पुतलियों, आवाज एवं गुणसूत्र यानि डीएनए के आधार पर उसे पहचाना जाता है, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति की ये चीजें अद्वितीय होती है। ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील, जर्मनी, इराक, जापान, नाईजीरिया, इज़रायल में ये तकनीक अच्छे प्रयोग में है। जापान में बैंक एटीएम मशीनें हाथों की नसों के दबाव पर खुलती है, ब्राजील में पहचान पत्र में इस तकनीक का प्रयोग किया जाता है।[1] आस्ट्रेलिया में जाने वाले पर्यटकों को सर्वप्रथम अपने बायोमैट्रिक प्रमाण जमा करने होते हैं। आस्ट्रेलिया विश्व का प्रथम ऐसा देश था, जिसने बायोमैट्रिक्स प्राइवेसी कोड लागू किया। ब्राजील में भी लॉग आईडी कार्ड का चलन है। ब्राजील के प्रत्येक राज्य को अपना पहचान पत्र छापने की अनुमति है, लेकिन उनका खाका और आंकड़े सर्वदा समान रहते हैं।
प्रकार
बायोमैट्रिक का वर्गीकरण मुख्यत: दो गुणधर्मो के आधार पर किया जाता है: मनोवैज्ञानिक और व्यावहारिक गुण।
मनोवैज्ञानिक आधार में व्यक्ति के शरीर के अंगों की रचना को ध्यान में रखा जाता है, जैसे उसकी उंगलियों की संरचना, अंगूठे के निशान, आदि; जबकि व्यावहारिक वर्गीकरण में व्यक्ति के व्यवहार को आधार माना जाता है। इसका मापन व्यक्ति के हस्ताक्षर, उसकी आवाज आदि के आधार पर करते हैं।[1] कुछ शोधकर्ताओं ने बॉयोमेट्रिक्स के इस वर्ग के लिए शब्द बिहेवियोमेट्रिक्स शब्द गढ़ा है।[3] वर्तमान में व्यक्ति की जांच पड़ताल हेतु दो विधियों का प्रयोग किया जाता है:
धारक-आधारित
ये व्यक्ति के पास उपलब्ध सुरक्षा कार्ड, क्रेडिट कार्ड पर आधारित होता है। इनमें आसानी से फेरबदल किया जा सकता है और क्रेडिट कार्ड की जालसाजी की घटनाएं प्रायः सुनायी देती हैं।
ज्ञान आधारित
फिशिंग एवं हैकिंग में प्रौद्योगिकी के बढ़ते प्रयोग से कोई पासवर्ड अब उतना सुरक्षित नहीं रह गया, जितना पहले हुआ करता था। साथ ही लंबे समय तक प्रयोग न करने पर पासवर्ड भूल जाने की भी समस्या रहती है। ऐसे में व्यक्ति की इन्हीं कमजोरियों का निदान करने में बायोमैट्रिक्स महत्वपूर्ण है। बायोमैट्रिक्स में शरीर और उसके अंग को सुरक्षा का आधार बनाया जाता है। इसके अलावा सुगंध, रेटिना, हाथों की नसों के आधार पर भी इसे जाना जा सकता है।
लगभग सभी बोयामैट्रिक प्रणालियों में मुख्यत: तीन चरण होते हैं।
सबसे पहले बायोमैट्रिक सिस्टम में नामांकन करने पर नामांकन करता है।
दूसरे चरण में इन चीजों को सहेजता है।
इसके बाद तुलना की जाती है।
वर्तमान में बात करने के तरीके, हाथ की नसों, रैटिना, डीएनए के आधार पर भी बायोमैट्रिक कार्ड बनाए जाते है।
सन्दर्भ
अतिरिक्त पठन
अवेयर द्वारा प्रकाशित, Inc, मार्च 2009.
डिलैक, के., ग्रजिक, एम. (2004).
राष्ट्रीय बॉयोमेट्रिक सुरक्षा परियोजना (NBSP) द्वारा प्रकाशित, BTAM बॉयोमेट्रिक प्रौद्योगिकी अनुप्रयोगों पर एक व्यापक संदर्भ मैनुअल है।
अभिगमन तिथि: २ मार्च २००८
। ई-गवर्नमेंट न्यूज। अभिगमन तिथि: ११ जून २००६
। ओएज़कैन, वी. (२००३). हम्बोल्ट विश्वविद्यालय बर्लिन। अभिगमन तिथि: ११ जून २००६
*
श्रेणी:निगरानी
श्रेणी:जीव विज्ञान
श्रेणी:जैव प्रौद्योगिकी
श्रेणी:सुरक्षा
श्रेणी:हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना | बायोमैट्रिक्स प्राइवेसी कोड लागू करनेवाला विश्व का पहला देश कौन सा था? | आस्ट्रेलिया | 2,921 | hindi |
a98baed0e | विलियम ब्रैडली "ब्रैड" पिट[1] (जन्म 18 दिसम्बर 1963) एक अमेरिकी अभिनेता और फिल्म निर्माता हैं। उन्हें दुनिया के सबसे आकर्षक पुरुषों में से एक के रूप में उद्धृत किया गया है, एक ऐसा ठप्पा, जो मीडिया को उनके परदे से बाहर के जीवन पर रिपोर्ट करने के लिए ललचाता है।[2][3] पिट को दो अकादमी पुरस्कार नामांकन और चार गोल्डन ग्लोब पुरस्कार नामांकन प्राप्त हुआ है, जिसमें से उन्होंने एक जीता है।
पिट ने अपने अभिनय कैरियर की शुरूआत टेलीविज़न पर अतिथि भूमिकाओं से की, जिसमें 1987 में CBS धारावाहिक "डल्लास" में एक भूमिका शामिल है। उन्हें 1991 की रोड फ़िल्म थेल्मा एंड लुईस के एक बेपरवाह अनुरोध-यात्री के रूप में पहचान मिली जो जीना डेविस के चरित्र को फुसलाता है। पिट को बड़े बजट के निर्माणों में मुख्य भूमिका अ रिवर रन्स थ्रू इट (1992) और इंटरव्यू विथ द वैमपायर (1994) के माध्यम से मिली.1994 के नाटक लेजेंड्स ऑफ़ द फॉल में उन्हें एंथनी हॉपकिन्स के साथ भूमिका दी गई, जिसके लिए उन्हें पहली बार गोल्डन ग्लोब नामांकन प्राप्त हुआ। 1995 में उन्होंने क्राइम थ्रिलर सेवन और कल्पित विज्ञान फ़िल्म ट्वेल्व मंकीस में समीक्षकों द्वारा प्रशंसित अभिनय किया, जिनमें परवर्ती फ़िल्म के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का गोल्डन ग्लोब पुरस्कार और अकादमी पुरस्कार नामांकन मिला. चार साल बाद 1999 में, पिट ने कल्ट हिट फ़ाइट क्लब में अभिनय किया। इसके बाद 2001 में, उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अत्यधिक सफल फ़िल्म ओशन्स इलेवन और उसके सीक्वेल ओशन्स ट्वेल्व (2004) और ओशन्स थर्टीन (2007) में अभिनय किया। उन्हें अपनी सबसे बड़ी व्यावसायिक सफलता ट्रॉय (2004) और Mr. & Mrs. स्मिथ (2005) से मिली.पिट को 2008 की फ़िल्म द क्यूरिअस केस ऑफ़ बेंजामिन बटन में, शीर्षक भूमिका में अपने प्रदर्शन के लिए दूसरा अकादमी पुरस्कार नामांकन प्राप्त हुआ।
अभिनेत्री गिनिथ पाल्ट्रो के साथ एक प्रभावशाली रिश्ते के बाद, पिट पांच साल तक अभिनेत्री जेनिफ़र एनीस्टन से विवाहित रहे.यथा 2009, वे एंजेलीना जोली के साथ एक ऐसे रिश्ता में जुड़ कर रह रहे हैं, जिसने दुनिया भर में मीडिया का ध्यान आकर्षित किया है।[4] उनके और जोली के तीन दत्तक बच्चे हैं, मैडॉक्स, ज़हारा और पैक्स और उन्होंने तीन जैविक बच्चों, शीलोह, नॉक्स और विविएन को जन्म भी दिया है। पिट प्लान B एंटरटेनमेंट नामक एक निर्माण कंपनी के मालिक हैं, जिसने अन्य फिल्मों के साथ 2007 की सर्वश्रेष्ठ फिल्म के लिए अकादमी पुरस्कार विजेता द डिपार्टेड का निर्माण किया। जोली के साथ अपने रिश्ते की शुरूआत से ही, वे संयुक्त राज्य अमेरिका और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर, सामाजिक मुद्दों में अत्यधिक आवेष्टित हुए हैं।
प्रारंभिक जीवन
जेन एट्टा (जन्मतः हिलहाउस), एक हाईस्कूल काउंसेलर और विलियम एल्विन पिट, एक ट्रक कंपनी के मालिक के बेटे पिट का जन्म शॉनी, ओक्लाहोमा में हुआ।[5] अपने भाई-बहनों डौग (जन्म 1966) और जूली नील (जन्म 1969),[6] के साथ वे स्प्रिंगफ़ील्ड, मिसौरी में पले, जहां उनका परिवार उनके जन्म के तुंरत बाद ही चला गया। बचपन में उनका पालन-पोषण एक रूढ़िवादी दक्षिणी बपतिस्मा के रूप में हुआ।[7]
पिट ने किकापू हाई स्कूल में अध्ययन किया, जहां वे गोल्फ़, टेनिस और तैराकी टीम के सदस्य थे। इसके अलावा, वे स्कूल के मूल सिद्धांत और न्यायिक क्लब, स्कूली वाद-विवाद और संगीत आयोजनों में भाग लेते थे।[8] अपनी स्नातक की पढ़ाई के बाद, पिट ने 1982 में मिसौरी विश्वविद्यालय में दाखिला लिया। सिग्मा ची बिरादरी के सदस्य के रूप में,[5] उन्होंने बिरादरी के कई कार्यक्रमों में अभिनय किया।[9] विज्ञापन पर ध्यान केन्द्रित करते हुए, उन्होंने पत्रकारिता में उपाधि हासिल की.[8] 1985 में, अपनी डिग्री अर्जित करने के दो सप्ताह पहले, पिट ने विश्वविद्यालय छोड़ दिया और अभिनय की शिक्षा लेने के लिए लॉस एंजलिस, कैलिफ़ोर्निया चले गए।[1] जब उनसे पूछा गया कि उन्होंने विश्वविद्यालय क्यों छोड़ दिया, तो पिट का यह जवाब था: "जैसे-जैसे स्नातक नज़दीक आ रहा था, मुझे कुछ निराशा-सी अनुभूति हो रही थी। मैंने अपने दोस्तों को नौकरियां पाते देखा.मैं घर बसाने के लिए तैयार नहीं था। मैं फिल्मों से प्यार करता था। वे मेरे लिए अलग दुनिया में जाने का एक द्वार थीं और मिसौरी वह जगह नहीं थी, जहां फिल्में बनती थीं। तभी अचानक मुझे ख़याल आया: यदि वे मेरे पास नहीं आ सकती हैं, तो मैं उनके पास जाऊंगा."[7]
कैरियर
प्रारंभिक कार्य
लॉस एंजलिस में संघर्ष के दौरान, पिट ने विभिन्न सामयिक नौकरियां की.इन नौकरियों में शोफ़र से लेकर[10], अपनी अभिनय कक्षाओं की फ़ीस के लिए एक एल पोलो लोको चिकन का भेस बनाना शामिल है। उन्होंने प्रशिक्षक रॉय लंदन के साथ अभिनय का अध्ययन शुरू किया।
पिट ने परदे पर अपने अभिनय कैरियर की शुरूआत 1987 में नो वे आउट, नो मैन्स लैंड और लेस दैन ज़ीरो में बिना श्रेय वाले भागों के साथ की.[8] ABC के प्रहसन ग्रोइंग पेन्स में एक अतिथि भूमिका के साथ उन्होंने टेलीविजन पर अभिनय का श्रीगणेश किया।[11] दिसम्बर 1987 और फ़रवरी 1988 के मध्य वे CBS प्राइमटाइम धारावाहिक डैल्लस की चार कड़ियों में प्रस्तुत हुए,[12] जिसमें उन्होंने शैलेन मैकॉल के किरदार चार्ली वेड के प्रेमी रैन्डी की भूमिका निभाई.[1] पिट ने इस किरदार का वर्णन करते हुए कहा कि वह "एक बेवकूफ़ प्रेमी है, जो बिस्तर में पकड़ा जाता है".[13] बाद में उन्होंने मैकॉल के साथ अपने दृश्यों के बारे में कहा: "यह वास्तव में मेरे लिए पसीने से तर हथेलियों का समय था। यह असभ्य-सा था, क्योंकि मैं पहले कभी उससे नहीं मिला था।"[1] बाद में 1988 में पिट ने FOX पुलिस नाटक 21 जम्प स्ट्रीट में अतिथि भूमिका निभाई.[14]
इसके अलावा उसी वर्ष, युगोस्लाविआई-U.S. द्वारा सह निर्मित फ़िल्म द डार्क साइड ऑफ़ द सन में उन्होंने अपनी पहली प्रमुख भूमिका निभाई.उन्होंने एक युवा अमेरिकी का किरदार निभाया, जो अपने परिवार द्वारा त्वचा की अवस्था के लिए एक उपाय खोजने के लिए एड्रियाटिक ले जाया जाता है।[15] फ़िल्म को क्रोएशियाई स्वातंत्र्य संग्राम के छिड़ने के कारण रोक दिया गया और फ़िल्म 1997 तक प्रदर्शित नहीं हुई.[8] 1989 में, पिट दो मोशन पिक्चर्स में दिखाई दिए.पहली, हैप्पी टुगेदर कॉमेडी में एक सहायक भूमिका के रूप में थी और दूसरी, डरावनी फ़िल्म कटिंग क्लास में एक फ़ीचर भूमिका में थी, जो सिनेमा-घरों तक पहुंचने वाली उनकी पहली फ़िल्म थी।[15] उन्होंने टेलीविजन पर हेड ऑफ़ द क्लास, फ्रेडिस नाईटमेयर्स, थर्टीसमथिंग और (दूसरी बार) ग्रोइंग पेन्स में अतिथि भूमिकाएं निभाईं.[14]
1990 में पिट को NBC टेलीविजन फ़िल्म टू यंग टु डाई? में भूमिका दी गई, जो एक अपमानित किशोरी की कहानी थी, जिसे हत्या के जुर्म में मौत की सजा दी गई थी। पिट ने, ड्रग व्यसनी बिलि कैंटन की भूमिका निभाई, जो जूलियट लेविस द्वारा अभिनीत एक भगोड़ी युवती का लाभ उठाता है।[15][16]इंटरटेनमेंट वीकली के एक फ़िल्म समीक्षक ने लिखा: "पिट उसके गुंडे प्रेमी के रूप में एक शानदार घृणित व्यक्ति है; जो आवाज़ और स्वरूप में एक दुष्ट जॉन कौगर मेलेनकैंप की तरह लग रहा है, वह वाक़ई डरावना है।"[16] उस वर्ष, उन्होंने एक छोटी FOX नाटकीय श्रृंखला ग्लोरी डेज़ में सह-अभिनय किया, जो भूमिका छह कड़ियों तक चली,[1] और HBO की टेलीविजन फ़िल्म द इमेज में एक सहायक भूमिका में दिखाई दिए.[15]
परदे पर पिट का अगला अवतरण 1991 की फ़िल्म अक्रॉस द ट्रैक्स के साथ हुआ, जिसमें उन्होंने जो मैलोनी, एक उच्च विद्यालय धावक की भूमिका निभाई.यह किरदार रिकी श्रोडर द्वारा अभिनीत आपराधिक भाई की भूमिका के साथ व्यवहार करता है।[17] 1991 की रोड फ़िल्म थेल्मा एंड लुईस में अपनी सहायक भूमिका के साथ पिट ने जनता का विस्तृत ध्यान आकर्षित किया। उन्होंने छोटे-स्तर के अपराधी J.D. का किरदार निभाया, जो थेल्मा (जीना डेविस) के साथ दोस्ती करता है। उनके डेविस के साथ प्रेम दृश्य को ऐसे क्षण के रूप में उद्धृत किया गया है, जिसने पिट को एक आकर्षक व्यक्तित्व के रूप में परिभाषित किया।[11][18]
थेल्मा एंड लुईस की सफलता के बाद पिट ने कैथरीन कीनर और निक केव के साथ जॉनी स्यूड (1991) में अभिनय किया, जो एक महत्वाकांक्षी रॉक स्टार के बारे में एक छोटे बजट की फ़िल्म थी।[15]रॉबर्ट रेडफ़ोर्ड की 1992 आत्मकथात्मक फ़िल्म अ रिवर रन्स थ्रू इट[19] में पॉल मैकलीन की भूमिका करने से पहले 1992 में, वे कूल वर्ल्ड[15] में दिखे; इसमें पात्र को उन्होंने जिस तरह निभाया, उस अभिनय को उनका "कैरियर बनाने वाला" प्रदर्शन के रूप में वर्णित किया गया है,[20] और उन्होंने यह स्वीकार किया कि फ़िल्म बनाते वक़्त उन्होंने "थोड़ा दबाव" महसूस किया।[21] उन्होंने कहा कि यह उनके "सबसे कमज़ोर प्रदर्शनों में से एक था। .. यह कितनी अजीब बात है कि उसी ने मुझे सबसे ज़्यादा सम्मान दिलाया।"[21] जब रेडफ़ोर्ड के साथ काम करने के बारे में पूछा गया, पिट ने कहा, "यह टेनिस की तरह है: जब आप ख़ुद से बेहतर किसी खिलाड़ी से खेलते हैं, तो आपका खेल बेहतर होता जाता है।"[20]
पिट टु यंग टु डाई? के अपने सह-कलाकार जूलियट लेविस के साथ 1993 की रोड फ़िल्म कैलिफ़ोर्निया में दुबारा साथ आए, जहां उन्होंने एक क्रमिक हत्यारे और लुईस के किरदार के पूर्व-प्रेमी अर्ली ग्रेस की भूमिका निभाई.[15] फ़िल्म की अपनी समीक्षा में, रॉलिंग स्टोन के पीटर ट्रैवर्स ने पिट के प्रदर्शन को "सर्वोत्कृष्ट, सभी बाल-सुलभ आकर्षण और फिर एक घरघराहट, जिससे डर टपकता है" कहा.[22] बाद में उस वर्ष, पिट ने भविष्य का पुरुष सितारा का शोवेस्ट पुरस्कार जीता[23]
महत्वपूर्ण सफलता
वर्ष 1994, फ़ीचर फ़िल्म इंटरव्यू विथ द वैम्पायर में Louis de Pointe du Lac पिशाच के रूप में अभिनय की वजह से, पिट के कैरियर में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। जिसका उत्तरार्ध ऐन राईस के 1976 के इसी नाम के उपन्यास पर आधारित था।[15][24] वे कलाकारों के उस दल से जुड़े थे, जिसमें टॉम क्रूज, क्रिस्टन डन्स्ट, क्रिसटियन स्लेटर और एंटोनियो बेंडेरास शामिल थे।[15][24]1995 समारोह[25] में दो MTV मूवी पुरस्कार जीतने के बावजूद उनका प्रदर्शन अच्छी तरह स्वीकार नहीं किया गया। डालस ऑब्सर्वर के अनुसार,"ब्रैड पिट ... समस्या का एक बड़ा हिस्सा हैं [फिल्म में]. जब निर्देशक उनके अहंकारी, गठीले, मिलनसार रूप को उभारते हैं तो .... उन्हें देखना आनंददायक होता है। लेकिन उनके बारे में ऐसा कुछ नहीं है जो आंतरिक पीड़ा या स्व-जागरूकता को दर्शाए, जो उन्हें एक उबाऊ लुईस बनाता है।"[26]
इंटरव्यू विथ द वैम्पायर के प्रदर्शन के बाद, पिट ने 1994 में लेजेंड्स ऑफ़ द फॉल[27] में अभिनय किया जो बीसवीं सदी के प्रथम चार दशकों में सेट थी। पिट ने कर्नल विलियम लुडलो (एंथनी हॉपकिंस) के पुत्र ट्रीस्टन लुडलो का किरदार निभाया.एडन क्विन और हेनरी थॉमस ने पिट के भाइयों की भूमिकाएं निभाईं. फ़िल्म को आम तौर पर प्रतिकूल स्वीकृति मिली,[28] लेकिन कई फ़िल्म समीक्षकों ने पिट के अभिनय की सराहना की. द न्यूयॉर्क टाइम्स के जेनेट मेस्लिन ने कहा,"पिट का संकोच मिश्रित अभिनय और दृष्टिकोण ऐसी मनभावन पूर्णता उत्पन्न करता है कि यह शर्म की बात है कि फ़िल्म का उथलापन उसके रास्ते में आ जाता है।"[29]डेज़र्ट न्यूज़ ने भविष्यवाणी की कि लेजेंड्स ऑफ़ द फॉल "[पिट के] बड़े-परदे के रोमांटिक मुख्य-कलाकार की हैसियत को मज़बूत करेगा.[30] इस भूमिका के साथ, पिट ने सर्वश्रेष्ठ अभिनेता की श्रेणी में गोल्डन ग्लोब पुरस्कार का अपना पहला नामांकन प्राप्त किया।[31]
1995 में, उन्होंने अपराध फ़िल्म सेवन में मॉर्गन फ़्रीमैन और गिनिथ पैल्ट्रो के साथ पुलिस जासूस डेविड मिल्स का किरदार निभाया, जो केविन स्पासी द्वारा अभिनीत, एक क्रमिक हत्यारे को खोजता है।[32] वेराइटी, पिट के प्रति काफी सम्मानजनक रहा: "यह परदे का सर्वश्रेष्ठ अभिनय है। उत्सुक युवा जासूस के रूप में पिट ने एक ऊर्जावान, विश्वसनीय और भरोसेमंद काम किया है।[33] फ़िल्म को सकारात्मक समीक्षाएं मिलीं और इसने अंतर्राष्ट्रीय बॉक्स ऑफिस पर $327 मीलियन कमाए.[34] सेवन की सफलता के बाद, पिट ने टेरी ग़िलिअम की 1995 की कल्पित-वैज्ञानिक फ़िल्म ट्वेल्व मन्कीस में जेफ़्री गोइन्स की सहायक भूमिका निभाई. फ़िल्म को मुख्य रूप से सकारात्मक समीक्षाएं प्राप्त हुई और पिट की विशेष रूप से सराहना की गई।न्यूयॉर्क टाइम्स के जेनेट मेस्लिन ने कहा कि ट्वेल्व मन्कीस "उग्र और परेशान करने वाली थी" और टिप्पणी की कि पिट ने "विस्मयकारी सनकी प्रदर्शन दिया" और अंत में कहा कि वह "एक अजीब चुंबकत्व से जेफ़्री को चमकाता है, जो बाद में फ़िल्म में महत्वपूर्ण हो जाता है।"[35] पिट को इस फ़िल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का गोल्डन ग्लोब पुरस्कार मिला,[31] और उन्होंने अपना पहला अकादमी पुरस्कार नामांकन प्राप्त किया।[36]
अगले वर्ष, पिट क़ानूनी नाटक स्लीपर्स (1996) में दिखे, जो लोरेंजो कारकटेर्रा के इसी नाम के उपन्यास पर आधारित है; फ़िल्म में केविन बेकन और रॉबर्ट डी नीरो ने अभिनय किया।[37] तथापि, फ़िल्म पूर्ण रूप से विफल रही.[38] 1997 की फ़िल्म द डेविल्स ओन में पिट ने आयरिश रिपब्लिकन आर्मी आतंकवादी रॉरी डेवानी के रूप में हैरिसन फ़ोर्ड के साथ अभिनय किया।[39] पिट को फ़िल्म के लिए आयरिश उच्चारण सीखने की जरुरत पड़ी.[40] उसी वर्ष, जीन जैक्स अनौड की फ़िल्म सेवन इयर्स इन तिब्बत में उन्होंने ऑस्ट्रियाई पर्वतारोही हाइनरिश हारर की मुख्य भूमिका निभाई.[41] पिट ने इस भूमिका के लिए महीनों प्रशिक्षण लिया, जिसके लिए उन्हें पर्याप्त पर्वतारोहण और ट्रेकिंग अभ्यास की आवश्यकता थी, जिसमें अपने सह-कलाकार डेविड थ्युलिस के साथ कैलिफ़ोर्निया और आल्प्स की चट्टानों पर चढ़ना शामिल था।[42]
1998 में, मीट जो ब्लैक में पिट की प्रमुख भूमिका थी। उन्होंने मृत्यु का मानवीकरण अभिनय किया, जो मानव बनने के मायने जानने के लिए एक युवक के शरीर में बसता है।[15][43] फ़िल्म को मिश्रित समीक्षाएं मिलीं और पिट के प्रदर्शन की बहुधा आलोचना हुई.सैन फ़्रासिस्को क्रॉनिकल के मिक लासेल्ल ने निष्कर्ष दिया: "सिर्फ़ ऐसा नहीं है कि पिट का प्रदर्शन ख़राब है। यह दुखदायक है। दर्शकों को यह विश्वास दिलाने के लिए कि वह मृत्यु के सारे रहस्य जानता है, पिट को निष्क्रिय चेहरे और चमकीली आंखों के साथ संघर्षरत देखना दर्दनाक अनुभव है।[44]
1999-2003
1999 की फ़िल्म फ़ाइट क्लब में पिट ने एक सीधे वार करने वाले और करिश्माई योजना बनाने वाले टायलर डरडेन की भूमिका निभाई, जो एक भूमिगत फ़ाइट क्लब चलाता है।[45][46]चक पालानिउक के इसी नाम के उपन्यास पर आधारित यह फ़िल्म, सेवन के निर्देशक डेविड फिन्चर द्वारा निर्देशित की गई।[47] इस भूमिका की तैयारी के लिए पिट ने मुक्केबाजी, ताईक्वानडो और हाथापाई में प्रशिक्षण लिया।[48] अपनी भूमिका के सौंदर्य-प्रसाधनों के लिए, पिट ने स्वेच्छा से अपने सामने के दांत के टुकड़े हटा दिया थे जिसे फ़िल्मांकन की समाप्ति के बाद वापस लगा दिया गया।[49] फ़िल्म के प्रचार के दौरान उन्होंने कहा,"ज़रूरी नहीं कि लड़ाई 'अपने क्रोध को किसी और पर निकालना' हो. विचार बस वहां जाना, अनुभव करना, विशेष रूप से एक मुक्का खाना और देखना कि कैसे आप दूसरे छोर पर बाहर आते हैं।[50] फ़ाइट क्लब, जिसका प्रीमियर 1999 वेनिस अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म समारोह[51] में हुआ, अंततः बॉक्स ऑफिस की उम्मीदों पर नाकाम रही[34] और इसे फ़िल्म आलोचकों से बिल्कुल उल्टी प्रतिक्रिया प्राप्त हुई.[52] लेकिन, DVD जारी होने के बाद यह फ़िल्म एक आराध्य क्लासिक बन गई।[53] फ़िल्म की स्वीकार्यता के बावजूद, पिट का प्रदर्शन आलोचकों द्वारा सराहा गया।CNN के पॉल क्लिंटन ने कहा,"पिट ने साबित कर दिया है कि वह प्रयोग से डरते नहीं हैं और इस बार इसने फल दिया."[54] वेराइटी ने पिट के "थेल्मा एंड लुईस में अपनी सफल भूमिका से चली आ रही "मस्त, करिश्माई और अधिक गतिशील शारीरिक क्षमता" पर टिप्पणी की.[55]
फ़ाइट क्लब के बाद पिट, गाइ रिची द्वारा 2000 में निर्देशित गैंगस्टर फ़िल्म स्नैच में दिखे.[56] एक आयरिश जिप्सी बॉक्सर के रूप में पिट के प्रदर्शन और अस्पष्ट आयरिश उच्चारण ने आलोचना और प्रशंसा दोनों बटोरी.[57] सैन फ़्रांसिस्को क्रॉनिकल के मिक लासेल्ल ने कहा,"[उसे] आदर्श रूप से एक आयरलैंडवासी की भूमिका में रखा गया है, जिसका उच्चारण इतना अस्पष्ट है कि ब्रिटेनवासी भी उसे नहीं समझ सकते. यह फ़िल्म पिट के साथ हमारे पिछले संबंधों को भी भुनाती है। कई साल तक पिट ऐसी भूमिकाओं से जकड़े हुए थे जिसमें गहरे आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता थी, लेकिन हाल ही में उन्होंने अवसादपूर्ण हास्य की अतिचारिता और भड़कीली बहिर्मुखता में अपने आसार देखे."[58]
अगले वर्ष पिट ने जूलिया रॉबर्ट्स के साथ रोमांटिक कॉमेडी द मैक्सिकन (2001) में अभिनय किया।[15] फ़िल्म को नकारात्मक स्वीकार्यता[59] मिली, लेकिन बॉक्स ऑफिस पर वह सफल रही.[34] उन्होंने अगली भूमिका 2001 शीत युद्ध थ्रिलर स्पाई गेम में निभाई, जिसमें वे CIA के विशेष क्रियाकलाप प्रभाग के एक प्रभारी बने.[60] पिट ने रॉबर्ट रेडफ़ोर्ड के साथ काम किया, जो उनके परामर्शदाता की भूमिका में थे।[60] Salon.com ने फ़िल्म का आनंद उठाया, लेकिन महसूस किया कि न तो पिट और ना ही रेडफ़ोर्ड ने "दर्शकों के लिए कोई भावनात्मक संबंध पेश किया।"[61] फ़िल्म ने दुनिया भर में $143 मिलियन की कमाई की.[34] बाद में उस वर्ष, पिट ने लूटपाट फ़िल्म ओशंस इलेवन में रस्टी रायन की भूमिका अदा की, जो 1960 के दशक की रैट पैक की इसी नाम की फ़िल्म का पुनर्निमाण थी। वे कलाकारों के उस दल के सदस्य थे, जिसमें जॉर्ज क्लूनी, मैट डैमन, एंडी गार्सिया और जूलिया रॉबर्ट्स शामिल थे।[62] फिल्म आलोचकों द्वारा सराही गई और बॉक्स ऑफिस पर विश्व भर में $450 मिलियन की कमाई करते हुए सफल रही.[34] 22 नवम्बर 2001 को, पिट, टी.वी. श्रृंखला फ्रेंड्स के आठवें सीज़न में एक अतिथि भूमिका में प्रस्तुत हुए, जहां उन्होंने एक ऐसे आदमी की भूमिका अदा की जो जेनिफ़र एनिस्टन के किरदार के प्रति शत्रुता रखता है, उस वक़्त पिट, एनिस्टन के साथ विवाहित थे।[63] इस प्रदर्शन के लिए उन्हें एम्मी अवार्ड के लिए हास्य श्रृंखला में बेजोड़ अतिथि अभिनेता की श्रेणी में नामित किया गया।[64][65]
जॉर्ज क्लूनी की 2002 में प्रथम निर्देशित फ़िल्म कन्फेशन्स ऑफ़ अ डेंजरस माइंड[66] में पिट की अतिथि भूमिका थी और MTV के कार्यक्रम जैकऐस में वे प्रस्तुत हुए, जहां कई कलाकार सदस्यों के साथ वे जंगली अंदाज़ में गोरिल्ला सूट पहन कर लॉस एंजिलिस की सड़कों पर दौड़े.[67]जैकऐस के बाद की एक कड़ी में पिट ने खुद के मंचीय अपहरण में भाग लिया।[68] 2003 में उन्होंने अपनी पहली स्वर-अभिनीत भूमिका की और ड्रीमवर्क्स की एनिमेटेड फ़िल्म सिनबाद: लीजेंड ऑफ़ द सेवन सीज्[69] के नाममात्र के किरदार के लिए और एनिमेटेड टेलीविजन श्रृंखला किंग ऑफ़ द हिल की एक कड़ी में बूमहौअर के भाई पैच के लिए अपनी आवाज़ दी.[70]
2004-वर्तमान
2004 में, पिट ने दो फिल्मों, ट्रॉय और ओशंस ट्वेल्व में अभिनय किया। इलियड पर आधारित ट्रॉय में उन्होंने नायक अकिलीस की भूमिका निभाई. ट्रॉय के फ़िल्मांकन से पहले पिट ने छह महीने तक तलवारबाज़ी का प्रशिक्षण लिया।[71] सेट पर उन्होंने अपने कंडरापेशी को चोटिल कर लिया, जिससे कई हफ़्तों के लिए निर्माण बाधित हो गया।[72] दुनिया भर में $497 मिलियन के राजस्व के साथ यह फ़िल्म 2008 के अंत तक उनके कैरियर की सबसे अधिक लाभ अर्जित करने वाली फ़िल्म है। फ़िल्म ने U.S. के बाहर $364 मिलियन की कमाई की और इसकी घरेलू कमाई केवल $133 मिलियन थी।[34][73] द वाशिंगटन टाइम्स के स्टीफ़न हंटर ने लिखा: "एक भूमिका जिसमें वास्तविक जीवन से ज्यादा विस्तृत आयामों की आवश्यकता थी, वे खासे उत्कृष्ट रहे."[74] ओशंस इलेवन की सफलता ने पिट को 2004 में इसकी अगली कड़ी ओशंस ट्वेल्व में भूमिका करने के लिए प्रेरित किया।CNN के पॉल क्लिंटन ने विचार व्यक्त किया कि पॉल न्यूमैन और रॉबर्ट रेडफ़ोर्ड के बाद पुरुषों में पिट और क्लूनी की युगलबंदी सबसे बेहतरीन है।[75] दुनिया भर में $362 मिलियन अर्जित करते हुए, यह फिल्म वित्तीय रूप से सफल रही.[34]
अगले वर्ष, पिट ने एक्शन कॉमेडी Mr. & Mrs. स्मिथ (2005) में अभिनय किया। डौग लीमन द्वारा निर्देशित यह फ़िल्म एक ऊबे हुए विवाहित जोड़े की कहानी है, जिन्हें ये पता चलता है कि वे दोनों ही गुप्त हत्यारे हैं और जिन्हें एक दूसरे को मारने के लिए नियत किया गया है। पिट ने जॉन स्मिथ के रूप में एंजेलीना जोली के साथ अभिनय किया। फ़िल्म को मिश्रित समीक्षा मिली, लेकिन आम तौर पर दोनों के बीच की युगलबंदी के लिए इसकी सराहना की गई।स्टार ट्रिब्यून ने कहा,"हालांकि कहानी बेतरतीब लगती है, मगर फ़िल्म मिलनसार आकर्षण, त्वरित ऊर्जा और सितारों की परदे पर तापनाभिकीय युगलबंदी से चलती रहती है।"[76] 2005 की सबसे ज़्यादा सफ़ल फ़िल्मों में से एक बनते हुए, दुनिया भर में इस फ़िल्म ने $478 मिलियन कमाया.[77]
अपनी अगली फीचर फिल्म, Alejandro González Iñárritu's की बहु-कथा नाटक बेबल (2006) में पिट, केट ब्लैनचेट के साथ दिखाई दिए.[78] फ़िल्म में उनका प्रदर्शन आलोचकों द्वारा सराहा गया और सिएटल पोस्ट-ईंटेलीजेंसर का मानना था कि वे "विश्वसनीय" रहे और उन्होंने फ़िल्म को 'स्पष्टता" प्रदान की.[79] पिट ने इसे [अपने] फ़िल्मी कैरियर के सर्वोत्तम निर्णयों में से एक माना."[80] 2006 कान फ़िल्म समारोह[81] में बतौर एक विशेष प्रस्तुति, फ़िल्म को प्रदर्शित किया गया और बाद में 2006 टोरंटो अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म समारोह में प्रदर्शित किया गया।[82] बेबल को सर्वश्रेष्ठ नाटक के लिए गोल्डन ग्लोब पुरस्कार मिला और पिट को सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता के लिए गोल्डन ग्लोब नामांकन प्राप्त हुआ।[31] कुल मिला कर, फ़िल्म ने सात अकादमी पुरस्कार और गोल्डन ग्लोब पुरस्कार नामांकन बटोरे.
पिट ने दुबारा तीसरी ओशंस फ़िल्म ओशंस थर्टीन (2007) में रस्टी रायन की भूमिका निभाई.[83] यह सीक्वेल, यद्यपि पहली दो फ़िल्मों की तरह धनार्जन नहीं कर सकी, तथापि इसने अंतरराष्ट्रीय बॉक्स ऑफिस पर $311 मिलियन कमाए.[34] पिट की अगली फ़िल्म भूमिका 2007 वेस्टर्न नाटक द अस्सेसिनेशन ऑफ़ जेस्सी जेम्स बाई द कावर्ड रॉबर्ट फ़ोर्ड में एक अमेरिकी अपराधी जेस्सी जेम्स की थी, जो रॉन हैनसेन के 1983 के इसी नाम के उपन्यास पर आधारित थी।[84]एंड्रयू डोमिनिक द्वारा निर्देशित और पिट की कंपनी प्लैन बी द्वारा निर्मित इस फ़िल्म का प्रीमियर 2007 वेनिस फ़िल्म समारोह में हुआ।[85] फ़िल्म जर्नल इंटरनेशनल के लुईस बील ने कहा कि कहानी में पिट "डरावने और करिश्माई" हैं।[86] अपने प्रदर्शन के लिए उन्हें वेनिस में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए वोल्पी कप पुरस्कार मिला.[87] हालांकि पिट ने फ़िल्म को बढ़ावा देने के लिए समारोह में भाग लिया, मगर एक प्रशंसक द्वारा उनके अंगरक्षकों को धक्का देकर उन पर हमला किए जाने पर वे वहां से जल्दी चले गए।[88] उन्होंने अंततः एक वर्ष बाद 2008 समारोह में अपना पुरस्कार ग्रहण किया।[89]
पिट 2008 की ब्लैक कॉमेडी बर्न आफ्टर रीडिंग में दिखाई दिए, कोएन भाइयों के साथ यह उनका पहला सहयोग था। फ़िल्म को आलोचकों से सकारात्मक स्वीकृति मिली.द गार्जियन ने फ़िल्म को "एक कस कर बांधी गई, प्रभावशाली कथानक वाली जासूसी कॉमेडी"[90] कहा और टिप्पणी की कि पिट का प्रदर्शन सबसे मजेदार था।[90] बाद में उन्हें डेविड फिन्चर की फ़िल्म द क्यूरियस केस ऑफ़ बेंजामिन बटन (2008) में नायक बेंजामिन बटन की भूमिका दी गई। यह फ़िल्म एफ़.स्कॉट फिट्ज़गेराल्ड की 1921 की इसी नाम की लघु कहानी का आंशिक रूप से रूपांतरित संस्करण है; कहानी एक ऐसे आदमी की है जो अस्सी साल की उम्र वाला पैदा होता है और उल्टे क्रम से उम्रदराज़ होता है।[91] द बाल्टीमोर सन् के माइकल स्रागो ने कहा "पिट के संवेदनशील प्रदर्शन ने 'बेंजामिन बटन' को एक कालजयी कृति बनाने में मदद की.[92] इस भूमिका से पिट ने अपना पहला स्क्रीन एक्टर्स गिल्ड अवार्ड[93] नामांकन अर्जित किया, साथ-ही-साथ चौथा गोल्डन ग्लोब और दूसरा अकादमी पुरस्कार नामांकन भी पाया।[31][94] फ़िल्म को कुल तेरह अकादमी पुरस्कार नामांकन प्राप्त हुए और इसने दुनिया भर में $329 मिलियन अर्जित किए.[34]
2008 के बाद पिट की परियोजनाओं में शामिल हैं अगस्त 2009 में प्रदर्शित क्वेंटिन तरनटिनो की इनग्लोरियस बास्टर्ड्स . 2009 कान फ़िल्म समारोह की एक विशेष प्रस्तुति में फ़िल्म प्रदर्शित हुई.[95] उन्होंने अधिकृत फ़्रांस में नाज़ियों जूझने वाले एक अमेरिकी प्रतिरोधक सेनानी लेफ्टिनेंट अल्डो रेने की भूमिका निभाई.[96] इसके अलावा, वे सीन पेन के साथ सह-अभिनीत और टेरेंस मलिक द्वारा निर्देशित द ट्री ऑफ़ लाइफ़ में प्रस्तुत होंगे.[97] लॉस्ट सिटी ऑफ़ Z में अभिनय के लिए उन्होंने हस्ताक्षर किए हैं, जिसमें वे रहस्यमय अमेज़ान सभ्यता की खोज करने वाले एक ब्रिटिश अन्वेषक की भूमिका निभाएंगे.[98] यह फ़िल्म डेविड ग्रान द्वारा लिखित इसी नाम की पुस्तक पर आधारित है।[98]
अन्य परियोजनाएं
फ़िल्म और टेलीविजन कार्य
जेनिफ़र एनिस्टन और पैरामाउंट पिक्चर्स के CEO ब्रैड ग्रे के साथ मिल कर पिट ने 2002 में फिल्म निर्माण कंपनी प्लान B एंटरटेनमेंट की स्थापना की.[99] 2005 से एनिस्टन और ग्रे भागीदार नहीं रहे.[100][101] कंपनी द्वारा निर्मित फ़िल्मों में जॉनी डेप अभिनीत चार्ली एंड द चॉकलेट फ़ैक्ट्री (2005),[102][103] द अस्सेसिनेशन ऑफ़ जेसी जेम्स बाई द कावर्ड रॉबर्ट (2007) और एंजेलीना जोली अभिनीत अ माइटी हार्ट (2007).[103] इसके अतिरिक्त, 2007 की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म विजेता द डिपार्टेड के निर्माण में प्लान B शामिल थी। परदे पर पिट को एक निर्माता के रूप में श्रेय मिला; तथापि, ऑस्कर में जीत के लिए केवल ग्राहम किंग को पात्र माना गया।[104] साक्षात्कार में पिट, उत्पादन कंपनी की चर्चा के लिए अनिच्छुक रहे हैं।[101]
पिट एक हेनकेन विज्ञापन में दिखाई दिए, जो 2005 सुपर बाउल के दौरान प्रसारित हुआ; यह डेविड फिन्चर द्वारा निर्देशित था, जिन्होंने पिट को तीन फ़ीचर फ़िल्मों में निर्देशित किया, सेवन, फ़ाइट क्लब और द क्यूरियस केस ऑफ़ बेंजामिन बटन .[105] पिट, एशियाई बाज़ार के लिए रूपायित कई टी.वी. विज्ञापनों में दिखे, जिसमें सॉफ़्ट-बैंक और एडविन जीन्स जैसे उत्पाद शामिल थे।[106][107]
लोकोपकारी कार्य
पिट ONE अभियान का समर्थन करते हैं, जिसका उद्देश्य तीसरी दुनिया के देशों में AIDS और ग़रीबी से लड़ना है।[108][109] वे 2005 PBS सार्वजनिक टेलीविजन श्रृंखला Rx फॉर सर्वाइवल: अ ग्लोबल हेल्थ चैलेंज के वर्णनकर्ता थे, जो मौजूदा वैश्विक स्वास्थ्य मुद्दों पर चर्चा करता है।[110] नवम्बर, 2005 में पिट और एंजेलीना जोली ने 2005 कश्मीर भूकंप का प्रभाव देखने के लिए पाकिस्तान की यात्रा की.[111] अगले वर्ष, पिट और जोली, हैती में पैदा हुए एक हिप-हॉप संगीतकार वाईक्लिफ जीन द्वारा स्थापित परोपकारी संस्था Yéle Haïti द्वारा समर्थित स्कूल का दौरा करने हैती गए।[112] मई, 2007 में पिट और जोली ने सूडान के दारफ़ुर क्षेत्र में संकटग्रस्त चाड और दारफ़ुर के तीन राहत संगठनों को $1 मिलियन का दान दिया.[113] क्लूनी, डेमन, डॉन शैडल और जेरी वाइनट्राउब के साथ वे, नॉट ऑन आवर वॉच के संस्थापकों में से एक हैं, एक ऐसा संगठन जो दुनिया का ध्यान और उसके संसाधनों को दारफ़ुर में घटित जैसे नरसंहार को बंद करने और रोकने के लिए केन्द्रित करने का प्रयास करता है।[114]
पिट की वास्तुकला में एक जानकार रूचि है,[115] जिसका इस्तेमाल उन्होंने 2006 में मेक इट राइट फ़ाउंडेशन को बनाने में किया। इस परियोजना के लिए उन्होंने कैटरीना तूफ़ान के बाद न्यू ऑरलियन्स में आवासीय पेशेवरों के एक समूह को, न्यू ऑरलियन्स के नौवें वार्ड में 150 नए घरों के वित्तपोषण और निर्माण के उद्देश्य से एकत्रित किया।[116][117] स्थिरता और वहनीयता पर जोर देते हुए मकानों को तैयार किया जा रहा है। पर्यावरण संगठन ग्लोबल ग्रीन USA के साथ अन्य तेरह वास्तुशिल्प फ़र्म, इस परियोजना में शामिल हैं, जिनमें से कई फ़र्में अपनी सेवाओं को दान कर रहीं हैं।[118][119] पिट और लोकोपकारक स्टीव बिंग, प्रत्येक ने $5 मिलियन का दान दिया है।[120] अक्तूबर 2008 में, प्रथम छह घर पूर्ण हो गए।[121] अपने हरित आवास की अवधारणा को राष्ट्रीय मॉडल के रूप में बढ़ावा देने और संघीय वित्त पोषण की संभावनाओं पर चर्चा करने के लिए पिट ने, मार्च 2009 में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा और हाउस ऑफ़ रिप्रेसेंटेटिव की अध्यक्ष नैन्सी पेलोसी के साथ बैठक की.[122]
सितम्बर, 2006 में पिट और जोली ने दुनिया भर में मानवीय सहायता के निमित्त एक परमार्थ संगठन, द जोली-पिट फाउंडेशन की स्थापना की.[123] संगठन ने अपने प्रारंभिक अनुदान के रूप में ग्लोबल एक्शन फॉर चिल्ड्रेन और डॉक्टर्स विदाउट बोर्डर्स, दोनों को $1 मिलियन का अनुदान दिया.[123] अगले महीने, जोली-पिट फाउंडेशन ने दिवंगत अमेरिकी पत्रकार डेनियल पर्ल की स्मृति में गठित एक संगठन डैनियल पर्ल फाउंडेशन को $100,000 दान किए.[124] संघीय फाइलिंग के अनुसार, 2006 में पिट और जोली ने संगठन में $8.5 मिलियन डाला; जिसने 2006 में $2.4 मिलियन[125] और 2007 में $3.4 मिलियन दान किया।[126] जून 2009 में, जोली-पिट फाउंडेशन ने सैनिकों और तालिबान उग्रवादियों के बीच लड़ाई द्वारा विस्थापित हुए पाकिस्तानियों की मदद के लिए एक U.N. शरणार्थी एजेंसी को $1 मिलियन का अनुदान दिया.[127][128]
मीडिया में
1995 में एम्पायर द्वारा पिट, फ़िल्मी इतिहास में 25 अति आकर्षक सितारों में से एक के रूप में चुने गए।[8] इसके अलावा, उन्हें दो बार, 1995 और 2000 में पीपल द्वारा सर्वाधिक आकर्षक जीवित व्यक्ति करार दिया गया।[2][129] फोर्ब्स की वार्षिक सेलिब्रिटी 100 की सूची में वे 2006, 2007 और 2008 में क्रमशः No. 20, No. 5 और No. 10 पर रहे.[130][131][132] 2007 में, उन्हें टाइम 100 में सूचीबद्ध किया गया, यह विश्व में 100 सबसे अधिक प्रभावशाली लोगों का एक संकलन है, जो टाइम द्वारा सालाना चुने जाते हैं।[133] उन्हें श्रेय दिया जाता है कि उन्होंने "अपने स्टार-पवर से लोगों का ध्यान उन स्थानों और कहानियों की ओर खींचा, जिसे आम तौर पर कैमरा नहीं पकड़ पाते".[133] पिट को एक बार फिर टाइम 100 में शामिल किया गया; हालांकि, उन्हें बिल्डर्स एंड टाइटन की सूची में चयनित किया गया।[134]
अक्तूबर 2004 में पिट ने छात्रों को 2004 अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में मतदान के लिए प्रोत्साहित करने के लिए मिसौरी विश्वविद्यालय का दौरा किया, जिसमें उन्होंने जॉन केरी का समर्थन किया।[135][136] इसके बाद अक्तूबर में उन्होंने भ्रूण मूल कोशिका अनुसंधान के लिए आर्थिक सहायता का सार्वजनिक रूप से समर्थन किया।[137] उन्होंने कहा,"हमें यह सुनिश्चित करना है कि हम इन रास्तों को खोलते हैं, ताकि हमारे सर्वश्रेष्ठ और प्रतिभाशाली उन उपचारों को खोज सकें, जिनके बारे में उन्हें लगता है कि वे खोज सकते हैं।"[137] इसके समर्थन में उन्होंने प्रोपोसिशन 71 का समर्थन किया, जो एक कैलिफ़ोर्निया मतपत्र पहल है, जो मूल-कोशिका अनुसंधान के लिए संघीय सरकार निधीयन प्रदान करेगी.[138]
2005 में शुरू होकर, एंजेलीना जोली के साथ पिट का रिश्ता दुनिया भर में सबसे ज्यादा चर्चित सेलिब्रिटी कहानियों में से एक बन गया। 2006 के प्रारंभ में जोली के गर्भवती होने की खबर की पुष्टि के बाद, उनसे सम्बद्ध अभूतपूर्व मीडिया प्रचार "पागलपन की हद तक पहुंच गया" जैसा कि रायटर ने अपनी कहानी में वर्णित किया "द ब्रेंजलीना फीवर".[4] मीडिया के ध्यान से बचने के लिए, यह जोड़ा अपनी बेटी शिलोह, "यीशु मसीह के बाद सबसे ज़्यादा अपेक्षित शिशु", के जन्म के लिए नामीबिया चले गए।[139] दो वर्ष बाद, जोली की दूसरी गर्भावस्था की पुष्टि ने मीडिया के उन्माद को एक बार फिर भड़काया. दो सप्ताह के दौरान जब जोली समुद्र तट पर स्थित अस्पताल नाइस में थीं, तो पत्रकारों और फोटोग्राफरों ने जन्म पर रिपोर्ट देने के लिए बाहर विचरण-स्थल पर डेरा डाल दिया.[140]
सितम्बर 2008 में, पिट ने कैलिफ़ोर्निया के 2008 मतदान प्रस्ताव प्रोपोसिशन 8 से, जो समलैंगिक विवाह को वैध ठहराने के राज्य सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को बदलने की एक पहल है, मुकदमा लड़ने के लिए $100,000 का अनुदान दिया.[141] अपने रुख़ के लिए पिट ने कारण बताए. "क्योंकि किसी को यह अधिकार नहीं है कि वह दूसरे को उसके जीवन से च्युत करे, भले ही वे इससे असहमत हों, क्योंकि हर किसी को अपनी इच्छानुसार जीवन जीने का अधिकार है यदि वे दूसरे को नुकसान नहीं पहुंचाते और चूंकि अमेरिका में भेदभाव के लिए कोई जगह नहीं है, मेरा वोट समानता के लिए और प्रोपोसिशन 8 के खिलाफ़ होगा.[142]
व्यक्तिगत जीवन
1980 दशक के उत्तरार्ध और 1990 दशक में, पिट अपने कई सह-कलाकारों के साथ सिलसिलेवार रिश्तों में लिप्त थे, जिनमे शामिल हैं रॉबिन गिवेंस (हेड ऑफ़ द क्लास),[143] जिल शोलेन (कटिंग क्लास),[143] और जूलियट लुईस (टू यंग टू डाई?) और केलिफ़ोर्निया), जो डेटिंग के समय सोलह साल की होते हुए उनसे दस साल छोटी थीं।[144] पिट का बहुचर्चित रोमांस और सगाई, सेवन की नायिका गिनिथ पाल्ट्रो के साथ भी हुई, जिसके साथ उन्होंने 1995 से 1997 तक डेटिंग की.[143]
पिट 1998 में फ़्रेंड्स की अभिनेत्री जेनिफ़र एनिस्टन से मिले और मालिबू में एक निजी विवाह समारोह में 29 जुलाई 2000 को उससे विवाह किया।[1][145] वर्षों तक उनकी शादी हॉलीवुड में एक दुर्लभ सफलता के रूप में मानी गई;[1][146] तथापि, जनवरी, 2005, में पिट और एनिस्टन ने घोषणा की कि सात साल साथ रहने के बाद उन्होंने औपचारिक रूप से अलग होने का निर्णय लिया है।[145] दो महीने बाद, एनिस्टन ने असमाधेय मतभेद का हवाला देते हुए, तलाक के लिए अर्जी दी.[147]
जैसे-जैसे एनिस्टन के साथ पिट का विवाह समाप्ति की ओर बढ़ा, Mr. & Mrs. स्मिथ के फिल्मांकन के दौरान अभिनेत्री एंजेलीना जोली के साथ उनका मेल-मिलाप एक पूर्ण प्रचारित हॉलीवुड गप्पेबाज़ी में बदल गया।[148] जहां पिट ने व्यभिचार के दावे से इनकार किया, वहीं उन्होंने स्वीकार किया कि जोली के साथ सेट पर "प्यार हो गया"[149] और कहा कि एनिस्टन के साथ अलगाव के बाद भी Mr. & Mrs. स्मिथ का निर्माण चल रहा था।[150]
अप्रैल, 2005 में, एनिस्टन के तलाक की अर्जी दायर करने के एक महीने बाद, कुछ खोजी तस्वीरों का सेट उभरा; तस्वीरें, जो एक समुद्र तट पर पिट, जोली और उसके बेटे मेडोक्स को केन्या के समुद्र तट पर दिखा रहीं थीं, जिससे पिट और जोली के बीच संबंधों की अफवाहें पुख्ता हो रहीं थीं।[151] गर्मियों के दौरान, दोनों लगातार एक साथ नज़र आने लगे और मनोरंजन मीडिया ने इस युगल को "ब्रैंजलीना' करार दिया.[152] पिट और एनिस्टन के अंतिम तलाक़ के काग़ज़ातों को लॉस एंजलिस सुपीरियर कोर्ट द्वारा 2 अक्टूबर 2005 को मंजूरी दी गई और उनकी शादी ख़त्म हो गई।[147] 11 जनवरी 2006 को, जोली ने पीपल में यह पुष्टि की कि वह पिट के बच्चे की मां बनने वाली है और इस तरह सार्वजनिक रूप से पहली बार अपने संबंधों की पुष्टि की.[153] अक्तूबर 2006 को एस्क्वायर के साथ एक इंटरव्यू में पिट ने कहा कि वह और जोली शादी करेंगे "जब देश में विवाह-इच्छुक प्रत्येक शख्स क़ानूनी रूप से योग्य हो जाएगा."[82]
मीडिया रिपोर्टों के बावजूद कि पिट और एनिस्टन के कटु संबंध हैं, फरवरी 2009 के एक साक्षात्कार में पिट ने कहा कि वह और एनिस्टन 'एक-दूसरे का हाल-चाल जानते रहते हैं" और कहा, "वह मेरे जीवन का एक बड़ा हिस्सा थी और मैं उसके जीवन का."[154]
अक्तूबर 2007 के एक साक्षात्कार में पिट ने ख़ुलासा किया कि वह अब ईसाई नहीं हैं और ना ही पुनर्जन्म में विश्वास रखते हैं। "यह समझने में शांति मिलती है कि मेरे पास केवल एक ही जीवन है, यहां और अभी और मैं जिम्मेदार हूं."[7] जुलाई 2009 में उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा कि वह भगवान में विश्वास नहीं करते और वे "शायद 20 प्रतिशत नास्तिक और 80 प्रतिशत अज्ञेयवादी हैं।"[155]
बच्चे
ब्रैड पिट के बच्चे
मेडोक्स चिवन जोली-पिट
पैक्स थिएन जोली-पिट
ज़हारा मारले जोली-पिट
शिलोह नोवेल जोली-पिट (born मई 27, 2006 in Swakopmund, Namibia)
नॉक्स-लेओन जोली पिट (born जुलाई 12, 2008 in Nice, France)
विविएन मर्शेलीन जोली-पिट (born जुलाई 12, 2008 in Nice, France)
जुलाई 2005 में, पिट, जोली के साथ इथियोपिया गए,[156] जहां जोली ने अपनी दूसरी संतान, ज़हारा नाम की एक छह महीने की लड़की को गोद लिया;[156] जोली ने बाद में कहा कि उसने और पिट ने बच्चे को गोद लेने का फ़ैसला एक साथ लिया।[157] दिसंबर 2005 में, इस बात की पुष्टि हो गई कि पिट क़ानूनी रूप से जोली के दो बच्चों, मेडोक्स और ज़हारा को गोद लेने के इच्छुक हैं।[158] 19 जनवरी 2006 को, कैलिफ़ोर्निया के एक न्यायाधीश ने इस अनुरोध को मंजूरी दे दी और बच्चों का उपनाम औपचारिक रूप से "जोली-पिट" कर दिया गया।[159]
27 मई 2006 को जोली ने स्वकोपमुंड, नामीबिया में एक बेटी को जन्म दिया, शीलोह नोवेल जोली-पिट. पिट ने पुष्टि की है कि उनकी नवजात बेटी का पासपोर्ट नामीबिया का होगा.[160] वितरक गेटी इमेजेज़ के माध्यम से युगल ने शीलोह की पहली तस्वीरें बेचीं. उत्तर-अमेरिकी अधिकारों के लिए पीपल ने $4.1 मिलियन से अधिक का भुगतान किया, जबकि ब्रिटिश पत्रिका हेलो! ने मोटे तौर पर $3.5 मिलियन देकर अंतर्राष्ट्रीय अधिकार प्राप्त किए; दुनिया भर में अधिकारों की कुल बिक्री ने क़रीब $10 मिलियन अर्जित किए.[161] मुनाफ़े को पिट और जोली ने एक अज्ञात परोपकारी संस्था को दान दिया.[162] न्यूयॉर्क में मेडम तुसाड्स ने दो-वर्षीय शिलोह की एक मोम की प्रतिमा का अनावरण किया, जिसने शिलोह को पहला शिशु बना दिया जिसकी मेडम तुसाड्स में एक प्रतिमा है।[163]
15 मार्च 2007 को जोली ने वियतनाम से एक तीन साल के लड़के, पैक्स थिएन जोली-पिट (मूल रूप से पैक्स थिएन जोली) को गोद लिया। चूंकि अनाथालय अविवाहित जोड़ों को गोद लेने की अनुमति नहीं देता, जोली ने एकल अभिभावक के रूप में पैक्स को गोद लिया और पिट ने बाद में उसे संयुक्त राज्य अमेरिका में अपने बेटे के रूप में गोद लिया।[164]
मीडिया द्वारा महीनों अटकलें लगाए जाने के बाद, जोली ने 2008 कान फिल्म समारोह में इसकी पुष्टि की कि वह जुड़वां बच्चों की उम्मीद कर रहीं हैं।[165] 12 जुलाई 2008 को जोली ने युगल के जुड़वां, नॉक्स लियोन नामक लड़के और विविएन मर्शेलीन नामक लड़की को फ्रांस में नाइस के लेनवल अस्पताल में जन्म दिया.[166][167] नॉक्स और विविएन की पहली तस्वीरों का अधिकार संयुक्त रूप से पीपल और हेलो! को $14 मिलियन में बेचा गया- जो किसी भी सेलिब्रिटी की ली गई अब तक की सर्वाधिक महंगी तस्वीरें हैं।[168][169] पैसा जोली-पिट फाउंडेशन में गया।[168][170]
फ़िल्मोग्राफ़ी
निर्माता
वर्ष फ़िल्म टिप्पणियां 2004 ट्रॉय2006 द डिपार्टेड नामित - सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म के लिए BAFTA पुरस्कार रनिंग विथ सिज़र्स 2007 इयर ऑफ़ द डॉग कार्यकारी निर्माता ए माइटी हार्ट सह-निर्माता
नामित - सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म के लिए इंडीपेन्डेंट स्पिरिट पुरस्कार द असासिनेशन ऑफ़ जेसी जेम्स बाई द कॉवर्ड रॉबर्ट फोर्ड 2009 द टाइम ट्रैवेलर्स वाइफ़ 2010 द लॉस्ट सिटी ऑफ़ Z 2011 ईट, प्रे, लव
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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at People.com
- जॉर्ज क्लूनी, ब्रैड पिट, मैट डैमन, डॉन शेडल, जैरी वाइनट्रौब द्वारा स्थापित
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श्रेणी:अमेरिकी अभिनेता
श्रेणी:1963 में जन्मे लोग
श्रेणी:नास्तिक | अंतर्राष्ट्रीय ड्रामा फिल्म 'बैबल' ने किस वर्ष गोल्डन ग्लोब पुरस्कार जीता था? | 2006 | 17,598 | hindi |
b6a100479 | राहुल गांधी (जन्म:19 जून 1970) एक भारतीय नेता और भारत की संसद के सदस्य हैं और भारतीय संसद के निचले सदन लोकसभा में उत्तर प्रदेश में स्थित अमेठी चुनाव क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं।[1]
राहुल गांधी १६ दिसंबर २०१७ को हुई औपचारिक ताजपोशी के बाद अब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष भी हैं।[2] राहुल भारत के प्रसिद्ध गांधी-नेहरू परिवार से हैं।[3] राहुल को 2009 के आम चुनावों में कांग्रेस को मिली बड़ी राजनैतिक जीत का श्रेय दिया गया है। उनकी राजनैतिक रणनीतियों में जमीनी स्तर की सक्रियता पर बल देना, ग्रामीण जनता के साथ गहरे संबंध स्थापित करना और कांग्रेस पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र को मजबूत करने की कोशिश करना प्रमुख हैं।[4]
प्रारम्भिक जीवन
राहुल गांधी का जन्म 19 जून 1970 को नई दिल्ली में भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी और पूर्व काँग्रेस अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी के यहां हुआ था। वह अपने माता-पिता की दो संतानों में बड़े हैं और प्रियंका गांधी वढेरा के बड़े भाई हैं। राहुल गांधी की दादी इंदिरा गांधी भारत की पूर्व प्रधानमंत्री थीं।
राहुल गांधी की प्रारंभिक शिक्षा दिल्ली के सेंट कोलंबस स्कूल में की और इसके बाद वो प्रसिद्ध दून विद्यालय में पढ़ने चले गये जहां उनके पिता ने भी विद्यार्जन किया था। सन 1981-83 तक सुरक्षा कारणों के कारण राहुल गांधी को अपनी पढ़ाई घर से ही करनी पड़ी। राहुल ने हार्वर्ड विश्वविद्यालय के रोलिंस कॉलेज फ्लोरिडा से सन 1994 में कला स्नातक की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद सन 1995 में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के ट्रिनिटी कॉलेज से एम.फिल. की उपाधि प्राप्त की।
कैरियर (व्यवसाय)
शुरूआती कैरियर
स्नातक स्तर तक की पढ़ाई कर चुकने के बाद राहुल गांधी ने प्रबंधन गुरु माइकल पोर्टर की प्रबंधन परामर्श कंपनी मॉनीटर ग्रुप के साथ 3 साल तक काम किया। इस दौरान उनकी कंपनी और सहकर्मी इस बात से पूरी तरह से अनभिज्ञ थे कि वे किसके साथ काम कर रहे हैं क्योंकि वह ाहुल यहां एक छद्म नाम रॉल विंसी के नाम से इस कम्पनी में नियोजित थे। राहुल गाँधी के आलोचक उनके इस कदम को उनके भारतीय होने से उपजी उनकी हीन-भावना मानते हैं जब कि काँग्रेसजन उनके इस कदम को उनकी सुरक्षा से जोड़ कर देखते हैं। सन 2002 के अंत में वह मुंबई में स्थित अभियांत्रिकी और प्रौद्योगिकी से संबंधित एक कम्पनी 'आउटसोर्सिंग कंपनी बैकअप्स सर्विसेस प्राइवेट लिमिटेड' के निदेशक-मंडल के सदस्य बन गये।
राजनीतिक कैरियर
2003 में, राहुल गांधी के राष्ट्रीय राजनीति में आने के बारे में बड़े पैमाने पर मीडिया में अटकलबाजी का बाज़ार गर्म था, जिसकी उन्होंने तब कोई पुष्टि नहीं की। वह सार्वजनिक समारोहों और कांग्रेस की बैठकों में बस अपनी माँ के साथ दिखाई दिए। एक दिवसीय अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट श्रृंखला देखने के लिए सद्भावना यात्रा पर अपनी बहन प्रियंका गाँधी के साथ पाकिस्तान भी गए।[5]
जनवरी 2004 में राजनीति उनके और उनकी बहन के संभावित प्रवेश के बारे में अटकलें बढ़ीं जब उन्होंने अपने पिता के पूर्व निर्वाचन क्षेत्र अमेठी का दौरा किया, जहाँ से उस समय उनकी माँ सांसद थीं। उन्होंने यह कह कर कि "मैं राजनीति के विरुद्ध नहीं हूँ। मैंने यह तय नहीं किया है कि मैं राजनीति में कब प्रवेश करूँगा और वास्तव में, करूँगा भी या नहीं।" एक स्पष्ट प्रतिक्रिया देने से मना कर दिया था। [6]
मार्च 2004 में, मई 2004 का चुनाव लड़ने की घोषणा के साथ उन्होंने भारतीय राजनीति में प्रवेश की घोषणा की, वह अपने पिता के पूर्व निर्वाचन क्षेत्र उत्तर प्रदेश के अमेठी से लोकसभा चुनाव के लिए खड़े हुए, जो भारत की संसद का निचला सदन है।[7] इससे पहले, उनके चाचा संजय गांधी ने, जो एक विमान दुर्घटना के शिकार हुए थे, ने संसद में इसी क्षेत्र का नेतृत्व किया था। तब इस लोकसभा सीट पर उनकी माँ थी, जब तक वह पड़ोस के निर्वाचन-क्षेत्र रायबरेली स्थानान्तरित नहीं हुई थी। उस समय इनकी पार्टी ने राज्य की 80 में से महज़ 10 लोकसभा सीट ही जीतीं थीं और उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का हाल बुरा था।[6] इससे राजनीतिक टीकाकारों को थोड़ा आश्चर्य भी हुआ जिन्होंने राहुल की बहन प्रियंका गाँधी में करिश्मा कर सकने और सफल होने की संभावना देखी थी। पर तब पार्टी के अधिकारियों के पास मीडिया के लिए उनका बायोडेटा तैयार नहीं था। ये अटकलें लगाई गयीं कि भारत के सबसे मशहूर राजनीतिक परिवारों में से एक देश की युवा आबादी के बीच इस युवा सदस्य की उपस्थिति कांग्रेस पार्टी के राजनीतिक भाग्य को पुनर्जीवन देगी। [8] विदेशी मीडिया के साथ अपने पहले इंटरव्यू में, उन्होंने स्वयं को 'देश को जोड़ने वाली शख्सियत' के रूप में पेश किया और भारत की "विभाजनकारी" राजनीति की निंदा की, यह कहते हुए कि वह जातीय और धार्मिक तनाव को कम करने की कोशिश करेंगे।[7] उनकी उम्मीदवारी का स्थानीय जनता ने उत्साह के साथ स्वागत किया, जिनका इस क्षेत्र में इस गाँधी-परिवार से एक लंबा संबंध था।[6]
वह चुनाव विशाल बहुमत से जीते, वोटों में 1,00,000 के अंतर के साथ इन्होंने अपने चुनाव क्षेत्र को परिवार का गढ़ बनाए रखा, जब कांग्रेस ने सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी को अप्रत्याशित रूप से हराया।[9] उनका अभियान उनकी छोटी बहन, प्रियंका गाँधी द्वारा संचालित किया गया था।
2006 तक उन्होंने कोई अन्य पद ग्रहण नहीं किया और मुख्य निर्वाचन क्षेत्र के मुद्दों और उत्तर प्रदेश की राजनीति पर ध्यान केंद्रित किया और भारतीय और अंतरराष्ट्रीय प्रेस में व्यापक रूप से अटकलें थी कि सोनिया गांधी भविष्य में उन्हें एक राष्ट्रीय स्तर का कांग्रेस नेता बनाने के लिए तैयार कर रही हैं, जो बात बाद में सच साबित हुई। [10]
जनवरी 2006 में, हैदराबाद में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एक सम्मेलन में, पार्टी के हजारों सदस्यों ने गांधी को पार्टी में एक और महत्वपूर्ण नेतृत्व की भूमिका के लिए प्रोत्साहित किया और प्रतिनिधियों के संबोधन की मांग की। उन्होंने कहा, "मैं इसकी सराहना करता हूँ और मैं आपकी भावनाओं और समर्थन के लिए आभारी हूँ. मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि मैं आपको निराश नहीं करूँगा" लेकिन उनसे इस बारे में धैर्य रखने को कहा और पार्टी में तुरंत एक उच्च पद लेने से मना कर दिया। [11]
गांधी और उनकी बहन ने 2006 में रायबरेली में पुनः सत्तारूढ़ होने के लिए उनकी माँ सोनिया गाँधी का चुनाव अभियान हाथ में लिया, जो आसानी से 4,00,000 मतों से अधिक अंतर के साथ जीती थीं।[12]
2007 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के लिए एक उच्च स्तरीय कांग्रेस अभियान में उन्होंने प्रमुख भूमिका अदा की ; हालाँकि कांग्रेस ने 8.53% मतदान के साथ केवल 22 सीटें ही जीतीं। इस चुनाव में बहुजन समाज पार्टी को बहुमत मिला, जो पिछड़ी जाति के भारतीयों का प्रतिनिधित्व करती है।[13]
राहुल गांधी को 24 सितंबर 2007 में पार्टी-संगठन के एक फेर-बदल में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति का महासचिव नियुक्त किया गया था।[14] उसी फेर-बदल में, उन्हें युवा कांग्रेस और भारतीय राष्ट्रीय छात्र संघ का कार्यभार भी दिया गया था।[15]
एक युवा नेता के रूप में खुद को साबित करने के उनके प्रयास में नवम्बर 2008 में उन्होंने नई दिल्ली में अपने 12, तुगलक लेन स्थित निवास में कम से कम 40 लोगों को ध्यानपूर्वक चुनने के लिए साक्षात्कार आयोजित किया, जो भारतीय युवा कांग्रेस (IYC) के वैचारिक-दस्ते के हरावल बनेंगे, जब से वह सितम्बर 2007 में महासचिव नियुक्त हुए हैं तब से इस संगठन को परिणत करने के इच्छुक हैं।[16]
2009 चुनाव
2009 के लोकसभा चुनावों में, उन्होंने उनके निकटतम प्रतिद्वंद्वी को 3,33,000 वोटों के अन्तर से पराजित करके अपना अमेठी निर्वाचक क्षेत्र बनाए रखा। इन चुनावों में कांग्रेस ने कुल 80 लोकसभा सीटों में से 21 जीतकर उत्तर प्रदेश में खुद को पुनर्जीवित किया और इस बदलाव का श्रेय भी राहुल गांधी को ही दिया गया है।[17] छह सप्ताह में देश भर में उन्होंने 125 रैलियों में भाषण दिया था।
पार्टी-वृत्त में वह 'आर जी' के नाम से जाने जाते हैं।[18]
राजनीतिक और सामाजिक मत
आलोचना
जब 2006 के आखिर में न्यूज़वीक ने इल्जाम लगाया की उन्होंने हार्वर्ड और कैंब्रिज में अपनी डिग्री पूरी नहीं की थी या मॉनिटर ग्रुप में काम नहीं किया था, तब राहुल गांधी के कानूनी मामलों की टीम ने जवाब में एक कानूनी नोटिस भेजा, जिसके बाद वे जल्दी से मुकर गए या पहले के बयानों का योग्य किया।[19]
राहुल गांधी ने 1971 में पाकिस्तान के टूटने को, अपने परिवार की "सफलताओं" में गिना.इस बयान ने भारत में कई राजनीतिक दलों से साथ ही विदेश कार्यालय के प्रवक्ता सहित पाकिस्तान के उल्लेखनीय लोगों से आलोचना को आमंत्रित किया[20].प्रसिद्ध इतिहासकार इरफान हबीब ने कहा की यह टिप्पणी "..बांग्लादेश आंदोलन का अपमान था।[21]
2007 में उत्तर प्रदेश के चुनाव अभियान के दौरान उन्होंने कहा की "यदि कोई गांधी-नेहरू परिवार से राजनीति में सक्रिय होता तो, बाबरी मस्जिद नहीं गिरी होती".इसे पी वी नरसिंह राव पर हमले के रूप में व्याख्या क्या गया था, जो 1992 में मस्जिद के विध्वंस के दौरान प्रधानमंत्री थे। गांधी के बयान ने भाजपा, समाजवादी पार्टी और वाम के कुछ सदस्यों के साथ विवाद शुरू कर दिया, दोनों "हिन्दू विरोधी" और "मुस्लिम विरोधी" के रूप में उन्हें उपाधि देकर[22].
स्वतंत्रता सेनानियों और नेहरू-गांधी परिवार पर उनकी टिप्पणियों की BJP के नेता वेंकैया नायडू द्वारा आलोचना की गई है, जिन्होंने पुछा की "क्या गांधी परिवार आपातकाल लगाने की जिम्मेदारी लेगा?"[23]
2008 के आखिर में, राहुल गांधी पर लगी एक स्पष्ट रोक से उनकी शक्ति का पता चला। मुख्यमंत्री सुश्री मायावती ने गांधी को चंद्रशेखर आजाद कृषि विश्वविद्यालय में छात्रों को संबोधित करने के लिए सभागार का उपयोग करने से रोक दिया।[24] बाद में, राज्य के राज्यपाल श्री टी.वी.राजेश्वर (जो कुलाधिपति भी थे) ने विश्वविद्यालय के कुलपति वी.के.सूरी को हटा दि या। टी.वी.राजेश्वर गांधी परिवार के समर्थक और श्री सूरी के नियोक्ता थे। इस घटना को शिक्षा की राजनीति के साक्ष्य के रूप में उद्धृत किया गया और अजित निनान द्वारा टाइम्स ऑफ इंडिया में एक व्यंग्यचित्र में लिखा गया: "वंश संबंधित प्रश्न का उत्तर राहुल जी के पैदल सैनिकों द्वारा दिया जा रहा है।"[25]
सेंट स्टीफेंस कॉलेज में उनका दाखिला विवादास्पद था क्योंकि एक प्रतिस्पर्धात्मक पिस्तौल निशानेबाज़ के रूप में उन्हें उनकी क्षमताओं के आधार पर कॉलेज में भर्ती किया गया था, जो विवादित था। उन्होंने शिक्षा के एक वर्ष के बाद 1990 में उस कॉलेज को छोड़ दिया था।
उनका बयान कि अपने कॉलेज सेंट स्टीफंस में उनके एक वर्ष के निवास के दौरान, कक्षा में सवाल पूछने वाले छात्रों को "छोटा समझा जाता था", इस पर कॉलेज प्रशासन की तरफ से एक तीव्र प्रतिक्रिया हुई। कॉलेज-प्रबंधन ने कहा कि जब वह सेंट स्टीफेंस कॉलेज में पढ़ाई कर रहे थे, तब सवाल पूछना कक्षा में अच्छा नहीं माना जाता था और ज्यादा सवाल पूछना तो और भी नीचा माना जाता था। महाविद्यालय के शिक्षकों ने कहा कि राहुल गांधी का बयान ज्यादा से ज्यादा "उनका व्यक्तिगत अनुभव" हो सकता है। सेंट स्टीफेंस में शैक्षिक वातावरण की सामान्यत: ऐसा नहीं है।[26]
जनवरी 2009 में ब्रिटेन के विदेश सचिव डेविड मिलीबैंड के साथ, उत्तर प्रदेश में उनके संसदीय निर्वाचन क्षेत्र में, अमेठी के निकट एक गाँव में, उनकी "गरीबी पर्यटन यात्रा" की गंभीर आलोचना की गई थी। इसके अतिरिक्त,मिलीबैंड द्वारा आतंकवाद और पाकिस्तान पर दी गयी सलाह और श्री प्रणब मुखर्जी तथा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ निजी मुलाकातों में उनके द्वारा किया गया आचरण इनकी "सबसे बड़ी कूटनीतिक भूल" मानी गयी। [27]
जुलाई २०१७ में भारत और चीन के बीच चल रहे डॉकलाम विवाद के बीच राहुल गांधी का चीनी राजदूत से गुपचुप मिलना भी विवाद का विषय बन गया था।[28]
यह भी देखिए
वंशवाद
विश्व के राजनीतिक परिवार
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
गांधी-नेहरू परिवार
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
: Swamy
श्रेणी:1970 में जन्मे लोग
श्रेणी:जीवित लोग
श्रेणी:१४वीं लोक सभा के सदस्य
श्रेणी:१५वीं लोकसभा के सदस्य
श्रेणी:१६वीं लोक सभा के सदस्य
श्रेणी:भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के राजनीतिज्ञ
श्रेणी:गांधी-नेहरू परिवार
श्रेणी:इतालवी वंश के भारतीय
श्रेणी:नई दिल्ली के लोग
श्रेणी:रोलिंस कालेज के भूतपूर्व छात्र
श्रेणी:ट्रिनिटी कॉलेज, कैम्ब्रिज के भूतपूर्व छात्र
श्रेणी:भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस
श्रेणी:भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष
श्रेणी:भारत के प्रधानमंत्री के बच्चे | राहुल गांधी का जन्म कहाँ हुआ था? | नई दिल्ली में भारत | 679 | hindi |
2eeb80498 | [[चित्र:Current notation.svg|right|thumb|250px आवेश प्रवाह की दर को विद्युत धारा (इलेक्ट्रिक करेण्ट) कहते हैं। इसकी SI इकाई एम्पीयर है। एक कूलांम प्रति सेकेण्ड की दर से प्रवाहित विद्युत आवेश को एक एम्पीयर धारा कहेंगे।hiiji
परिभाषा
किसी सतह से जाते हुए, जैसे किसी तांबे के चालक के खंड से विद्युत धारा की मात्रा (एम्पीयर में मापी गई) को परिभाषित किया जा सकता है:-
विद्युत आवेश की मात्रा जो उस सतह से उतने समय में गुजरी हो।
यदि किसी चालक के किसी अनुप्रस्थ काट से Q कूलम्ब का आवेश t समय में निकला; तो औसत धारा
I
=
Q
t
{\displaystyle I={\frac {Q}{t}}}
मापन का समय t को शून्य (rending to zero) बनाकर, हमें तत्क्षण धारा i(t) मिलती है:
i
(
t
)
=
d
Q
d
t
{\displaystyle i(t)={\frac {dQ}{dt}}}
I = Q / t (यदि धारा समय के साथ अपरिवर्ती हो)
एम्पीयर, जो की विद्युत धारा की SI इकाई है। परिपथों की विद्युत धारा मापने के लिए जिस यंत्र का उपयोग करते हैं उसे एमीटर कहते हैं।
एम्पीयर परिभाषा: किसी विद्युत परिपथ में 1 कूलॉम आवेश 1 सेकण्ड में प्रवाहित होता है तो उस परिपथ में विद्युत धारा का मान 1 एम्पीयर है।
उदाहरण
किसी तार में 10 सेकण्ड में 50 कूलॉम आवेश प्रवाहित होता है तो उस तार में प्रवाहित विद्युत धारा का मान 50 कूलॉम / 10 सेकण्ड = 5 एम्पीयर
धारा घनत्व
इकाई क्षेत्रफल से प्रवाहित होने वाली धारा की मात्रा को धारा घनत्व (करेंट डेन्सिटी) कहते हैं। इससे J से प्रदर्शित करते हैं।
यदि किसी चालक से I धारा प्रवाहित हो रही है और धारा के प्रवाह के लम्बवत उस चालक का क्षेत्रफल A हो तो,
धारा घनत्व
J
=
I
A
{\displaystyle J={\frac {I}{A}}}
इसकी इकाई एम्पीयर / वर्ग मीटर होती है।
यहाँ यह मान लिया गया है कि धारा घनत्व, चालक के पूरे अनुप्रस्थ क्षेत्रफल पर एक समान है। किन्तु अधिकांश स्थितियों में ऐसा नहीं होता है। उदाहरण के लिये जब ही चालक से बहुत अधिक आवृति की प्रत्यावर्ती धारा (जैसे १ मेगा हर्ट्स की प्रत्यावर्ती धारा) प्रवाहित होती है तो उसके बाहरी सतक के पास धारा घनत्व अधिक होता है तथा ज्यों-ज्यों सतह से भीतर केन्द्र की ओर जाते हैं, धारा घनत्व कम होता जाता है। इसी कारण अधिक आवृति की धारा के लिये मोटे चालक बनाने के बजाय बहुत ही कम मोटाइ के तार बनाये जाते हैं। इससे तार में नम्यता (फ्लेक्सिबिलिटी) भी आती है।
परंपरागत धारा
धारा के उदाहरण
प्राकृतिक उदाहरण हैं आकाशीय विद्युत या तड़ित (दामिनी) एवं सौर वायु, जो उत्तरीय ध्रुवप्रभा एवं दक्षिणीय ध्रुवप्रभा का कि स्रोत है। धारा का मानवनिर्मित रूप है- धात्वक चालकों में आवेशित इलेक्ट्रॉन का प्रवाह, जैसे शिरोपरि विद्युत प्रसारण तार लम्बे दूरी हेतु, एवं छोटे विद्युत एवं इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों में विद्युत तार। बैटरी के अंदर भी इलैक्ट्रॉन का प्रवाह होता है।
विद्युतचुम्बकत्व
विद्युत प्रवाह चुम्बकीय क्षेत्र बनाता है। चुम्बकीय क्षेत्र को चालक तार को घेरे हुए, घुमावदार क्षेत्रीय रेखाओं द्वारा आभासित किया जा सकता है।
विद्युत धारा को सीधे एमीटर से मापा जा सकता है। परंतु इस प्रक्रिया में परिपथ को तोड़ना पड़ता है। धारा को बिना परिपथ को तोड़े भी, उसके चुम्बकीय क्षेत्र को माप कर, नापा जा सकता है। ये उपकरण हैं, हॉल प्रभाव संवेदक, करंट क्लैम्प, रोगोव्स्की कुण्डली।
विद्युत सुरक्षा
सन्दर्भ
इन्हें भी देखें
प्रत्यावर्ती धारा
धारा घनत्व
एकदिष्ट धारा
विद्युत चालन
SI इकाइयाँ
ओम का नियम
धारामापी
धारा स्रोत (करेण्ट सोर्स)
बाहरी कङियाँ
श्रेणी:विद्युत
श्रेणी:विज्ञान
श्रेणी:विद्युत चुम्बकत्व | विद्युत का एस.आई मात्रक क्या है? | एम्पीयर | 124 | hindi |
324f9e712 | सवायीये महले तीजे के
भले अमरदास गुण तेरे,
तेरी उपमा तोहि बनि आवै॥ १॥ पृष्ठ १३९६
गुरू अमर दास जी सिख पंथ के एक महान प्रचारक थे। जिन्होंने गुरू नानक जी महाराज के जीवन दर्शन को व उनके द्वारा स्थापित धार्मिक विचाराधारा को आगे बढाया। ÷तृतीय नानक' गुरू अमर दास जी का जन्म बसर्के गिलां जो कि अमृतसर में स्थित है, में वैसाख सुदी १४वीं (८वीं जेठ), सम्वत १५३६ को हुआ था। उनके पिता तेज भान भल्ला जी एवं माता बख्त कौर जी एक सनातनी हिन्दू थे और हर वर्ष गंगा जी के दर्शन के लिए हरिद्वार जाया करते थे। गुरू अमर दास जी का विवाह माता मंसा देवी जी से हुआ था। उनकी चार संतानें थी। जिनमें दो पुत्रिायां- बीबी दानी जी एवं बीबी भानी जी थी। बीबी भानी जी का विवाह गुरू रामदास साहिब जी से हुआ था। उनके दो पुत्रा- मोहन जी एवं मोहरी जी थे।
एक बार गुरू अमरदास साहिब जी ने बीबी अमरो जी (गुरू अंगद साहिब की पुत्राी) से गुरू नानक साहिब के शबद् सुने। वे इससे इतने प्रभावित हुए कि गुरू अंगद साहिब से मिलने के लिए खडूर साहिब गये। गुरू अंगददेव साहिब जी की शिक्षा के प्रभाव में आकर गुरू अमर दास साहिब ने उन्हें अपना गुरू बना लिया और वो खडूर साहिब में ही रहने लगे। वे नित्य सुबह जल्दी उठ जाते व गुरू अंगद देव जी के स्नान के लिए ब्यास नदी से जल लाते। और गुरू के लंगर लिए जंगल से लकड़ियां काट कर लाते।
गुरू अंगद साहिब ने गुरू अमरदास साहिब को ÷तृतीय नानक' के रूप में मार्च १५५२ को ७३ वर्ष की आयु में स्थापित किया। गुरू अमरदास साहिब जी की भक्ति एवं सेवा गुरू अंगद साहिब जी की शिक्षा का परिणाम था। गुरू साहिब ने अपने कार्यों का केन्द्र एक नए स्थान गोइन्दवाल को बनाया। यही बाद में एक बड़े शहर के रूप में प्रसिद्ध हुआ। यहां उन्होंने संगत की रचना की और बड़े ही सुनियोजित ढंग से सिख विचारधारा का प्रसार किया। उन्होंने यहां सिख संगत को प्रचार के लिए सुसंगठित किया। विचार के प्रसार के लिए २२ धार्मिक केन्द्रों- ÷मंजियां' की स्थापना की। हर एक केन्द्र या मंजी पर एक प्रचारक प्रभारी को नियुक्त किया। जिसमें एक रहतवान सिख अपने दायित्वों के अनुसार धर्म का प्रचार करता था। गुरु अमरदास जी ने स्वयं एवं सिख प्रचारकों को भारत के विभिन्न भागों में भेजकर सिख पंथ का प्रचार किया।
उन्होंने ÷गुरू का लंगर' की प्रथा को स्थापित किया और हर श्रद्धालु के लिए ÷÷पहले पंगत फिर संगत को अनिवार्य बनाया। एक बार अकबर गुरू साहिब को देखने आये तो उन्हें भी मोटे अनाज से बना लंगर छक कर ही फिर गुरू साहिब का साक्षात्कार करने का मौका मिला।
गुरु अमरदास जी ने सतीप्रथा का प्रबल विरोध किया। उन्होंने विधवा विवाह को बढावा दिया और महिलाओं को पर्दा प्रथा त्यागने के लिए कहा। उन्होंने जन्म, मृत्यू एवं विवाह उत्सवों के लिए सामाजिक रूप से प्रासांगिक जीवन दर्शन को समाज के समक्ष रखा। इस प्रकार उन्होंने सामाजिक धरातल पर एक राष्ट्रवादी व आध्यात्मिक आन्दोलन को उकेरा। इस विचारधारा के सामने मुस्लिम कट्टपंथियों का जेहादी फलसफा था। उन्हें इन तत्वों से विरोध भी झेलना पड़ा। उन्होंने संगत के लिए तीन प्रकार के सामाजिक व सांस्कृतिक मिलन समारोह की संरचना की। ये तीन समारोह थे-दीवाली, वैसाखी एवं माघी।
गुरू अमरदास साहिब जी ने गोइन्दवाल साहिब में बाउली का निर्माण किया जिसमें ८४ सीढियां थी एवं सिख इतिहास में पहली बार गोइन्दवाल साहिब को सिख श्रद्धालू केन्द्र बनाया। उन्होने गुरू नानक साहिब एवं गुरू अंगद साहिब जी के शबदों को सुरक्षित रूप में संरक्षित किया। उन्होने ८६९ शबदों की रचना की। उनकी बाणी में आनन्द साहिब जैसी रचना भी है। गुरू अरजन देव साहिब ने इन सभी शबदों को गुरू ग्रन्थ साहिब में अंकित किया।
गुरू साहिब ने अपने किसी भी पुत्रा को सिख गुरू बनने के लिए योग्य नहीं समझा, इसलिए उन्होंने अपने दामाद गुरू रामदास साहिब को गुरुपद प्रदान किया। यह एक प्रयोग धर्मी निर्णय था। बीबी भानी जी एवं गुरू रामदास साहिब में सिख सिद्धान्तों को समझने एवं सेवा की सच्ची श्रद्धा थी और वो इसके पूर्णतः काबिल थे। यह प्रथा यह बताती है कि गुरूपद किसी को भी दिया जा सकता है। गुरू अमरदास साहिब को देहांत ९५ वर्ष की आयु में भादों सुदी १४ (पहला आसु) सम्वत १६३१ (सितम्बर १, १५७४) को गुरू रामदास साहिब जी को गुरूपद सौंपने के पश्चात गाईन्दवाल साहिब, जो कि अमृतसर के निकट है, में हुआ था।
बाहरी कड़ियाँ
श्रेणी:सिख धर्म
श्रेणी:भारतीय धार्मिक नेता
श्रेणी:सिख गुरु
श्रेणी:सिख धर्म का इतिहास | गुरु अमर दास की माँ कौन थी? | बख्त कौर | 397 | hindi |
6df88eb8e | नेपाली भाषा या खस कुरा नेपाल की राष्ट्रभाषा है। यह भाषा नेपाल की लगभग ४४% लोगों की मातृभाषा भी है। यह भाषा नेपाल के अतिरिक्त भारत के सिक्किम, पश्चिम बंगाल, उत्तर-पूर्वी राज्यों (आसाम, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय) तथा उत्तराखण्ड के अनेक भारतीय लोगों की मातृभाषा है। भूटान, तिब्बत और म्यानमार के भी अनेक लोग यह भाषा बोलते हैं।
नेपाली भाषा साहित्य
नेपाली साहित्य के आदिकवि भानुभक्त आचार्य है। इस भाषा के महाकवि लक्ष्मीप्रसाद देवकोटा है। इस भाषा के प्रमुख लेखक है:-
भानुभक्त आचार्य
लेखनाथ पौड्याल
मोतिराम भट्ट
लक्ष्मीप्रसाद देवकोटा
बालकृष्ण सम
सिद्धिचरण श्रेष्ठ
विश्वेश्वरप्रसाद कोईराला
माधव प्रसाद घिमिरे
भीमनिधि तिवारी
भैरव अर्याल
धर्मराज थापा
धरणीधर कोइराला
सूर्यविक्रम ज्ञवाली
बैरागी काँइला
लीलबहादुर क्षत्री
परशु प्रधान
बानिरा गिरी
गोविन्द गोठाले
तारानाथ शर्मा
सरुभक्त
पारिजात
इन्द्र बहादुर राई
कुछ वाक्य
मलाई नेपाली कुरा/भाषा आउँदैन (हिन्दीः मुझे नेपाली नहीं आती।)
मेरो देश नेपाल हो (हिन्दीः मेरा देश नेपाल है।)
तपाईंलाई/तिमीलाई कस्तो छ? (आप/तुम कैसे हो?)
के छ? हजुर नमस्कार - (नमस्ते जी कैसे हो?) (अनौपचारिक)
संचै हुनुहुन्छ? - (सब ठीक तो है?) (औपचारिक)
खाना खाने ठाउँ कहाँ छ? — (खाने खाने की जगह कहाँ है?)
काठ्माडौँ जाने बाटो धेरै लामो छ — काठमांडू जाने का रास्ता बहुत लम्बा है।
नेपालमा बनेको — नेपाल में निर्मित
म नेपाली हूँ — मैं नेपाली हूँ।
अरु चाहियो? - और चाहाए?
पुग्यो — बस !
इन्हें भी देखें
नेपाली भाषाएँ एवं साहित्य
बाहरी कड़ियाँ
(केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय)
सन्दर्भ
श्रेणी:नेपाल की भाषाएँ
श्रेणी:भारत की भाषाएँ
श्रेणी:सिक्किम की भाषाएँ
श्रेणी:पश्चिम बंगाल की भाषाएँ
श्रेणी:हिन्द-आर्य भाषाएँ
श्रेणी:भाषाएँ
श्रेणी:विश्व की प्रमुख भाषाएं
* | नेपाल की आधिकारिक भाषा क्या है? | नेपाली भाषा या खस कुरा | 0 | hindi |
2a8e39111 | जैसलमेर भारतीय राज्य राजस्थान का एक जिला है।
जिले का मुख्यालय जैसलमेर है।
क्षेत्रफल - 38401 वर्ग कि.मी.
जनसंख्या - 669919(2011 जनगणना)
साक्षरता - 57.2%
एस. टी. डी (STD) कोड - 02992
जिलाधिकारी - (सितम्बर 2006 में)
समुद्र तल से उचाई -
अक्षांश - उत्तर
देशांतर - पूर्व
औसत वर्षा - मि.मी.
जैसलमेर राजस्थान के सुदूर पश्चिम में स्थित एक जिला है, जो क्षेत्रफल की दृष्टि से राजस्थान का सबसे बड़ा जिला है। स्वतंत्रता से पुर्व यहां पर भाटी राजपुतों का राज्य था | इसकी स्थापना भाटी राजा जैसल ने 1178 ई. में की थी|
जैसलमेर को "राजस्थान का अण्डमान" भी कहा जाता है। इस जिले में सबसे कम जनसंख्या निवास करती है। साथ ही साथ यहां का जनसंख्या घनत्व भी सबसे कम है। यहां प्रति वर्ग किमी में औसतन केवल 17 व्यक्ति ही निवास करते हैं। जैसलमेर को 'स्वर्ण नगरी' के नाम से भी जाना जाता है।
जैसलमेर का सोनार का किला अपने स्थापत्य कला के कारण विश्व प्रसिद्ध है। इस किले के निर्माण में पीले पत्थरों का प्रयोग किया गया है। जब सुर्य की किरणें किले पर पड़ती है तो वह सोने के समान चमकता है , इसीलिये इसे सोनार के किले के नाम से जाता है। यहां भारत का सबसे बड़ा मरूस्थल थार का मरूस्थल स्थित है। यहां गर्मियों में गर्मी अधिक व सर्दी में ठंडी अधिक पड़ती है।
बाहरी कड़ियाँ
श्रेणी:राजस्थान के जिले
जैसलमेर में मोहनगढ़ नामक एक उप तहसील है
जैसलमेर जिले के गांव
भाडली
जिला मुख्यालय से 110 किलोमीटर व बाड़मेर जिले की सीमा पर बसा गांव है। यहां पर प्रसिद्ध श्री करनी माता का मंदिर है, जहां हर साल मेला भरता है। यहां पर चमत्कारी बाबा श्री मोतीगिरी का मठ है, सांप डसने पर, जीवन दान के सम्बंध में श्री मोति गिरी के मठ में पूजन किया जाता है, यहां हर साल मेला भरता है, आस पास के गांवो से हर साल हजारो लोग आते है।
गांव में माता रानी भटियाणी का मंदिर, नागणेच्या माताजी का मंदिर,संत जसा रामजी का मंदिर, खेतरपाल का मंदिर, हनुमान मंदिर ठाकुर जी का मंदिर, चमजी एवम रावतिंग डाडा का मंदिर है।
भाडली गांव में मुख्यतः भाटी, राठौड़, चौहान, जैन , दर्जी, सुथार, पुष्करणा ब्राह्मण, मेगवाल, गर्ग, रहते है।
भाडली गांव में विभिन्न समुदायों, जातियों के लोग बसते है, प्रमुख: रूप से
उदयराज भाटी
1 जिजनियाली
2 भाडली
3 देवड़ा
4 कुंडा
5 सिहडार
6 बईया | जैसलमेर भारत के किस राज्य का हिस्सा है? | राजस्थान | 21 | hindi |
2e0ed3b7e | सोनिया गांधी (जन्म ९ दिसम्बर १९४६) एक भारतीय राजनेता और राजीव गांधी की पत्नी हैं। विवाह से पूर्व उनका नाम एंटोनियो माइनो था।
वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष थीं । सम्प्रति वे रायबरेली, उत्तरप्रदेश से सांसद हैं और इसके साथ ही वे १५वीं लोक सभा में न सिर्फ़ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, बल्कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की भी प्रमुख हैं। वे १४वीं लोक सभा में भी यूपीए की अध्यक्ष थीं। श्रीमती गांधी कांग्रेस के १३२ वर्षो के इतिहास में सर्वाधिक लंबे समय तक रहने वाली अध्यक्ष हैं (१९९८ से २०१७)।
व्यक्तिगत जीवन
सोनिया का जन्म वैनेतो, इटली के क्षेत्र में विसेन्ज़ा से २० कि०मी० दूर स्थित एक छोटे से गाँव लूसियाना में हुआ था। विवाह से पूर्व उनका नाम एंटोनियो माइनो था। उनके पिता स्टेफ़िनो मायनो एक फासीवादी सिपाही थे जिनका निधन १९८३ में हुआ। उनकी माता पाओलो मायनों हैं। उनकी दो बहनें हैं। उनका बचपन टूरिन, इटली से ८ कि०मी० दूर स्थित ओर्बसानो में व्यतीत हुआ। १९६४ में वे कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में बेल शैक्षणिक निधि के भाषा विद्यालय में अंग्रेज़ी भाषा का अध्ययन करने गयीं जहाँ उनकी मुलाकात राजीव गांधी से हुई जो उस समय ट्रिनिटी कॉलेज कैम्ब्रिज में पढ़ते थे। १९६८ में दोनों का विवाह हुआ जिसके बाद वे भारत में रहने लगीं। राजीव गांधी के साथ विवाह होने के काफी समय बाद उन्होंने १९८३ में भारतीय नागरिकता स्वीकार की।[1] उनकी दो संतान हैं - एक पुत्र राहुल गांधी और एक पुत्री प्रियंका वाड्रा।
राजनीतिक जीवन
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पति की हत्या होने के पश्चात कांग्रेस के वरिष्ट नेताओं ने सोनिया से पूछे बिना उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष बनाये जाने की घोषणा कर दी परंतु सोनिया ने इसे स्वीकार नहीं किया और राजनीति और राजनीतिज्ञों के प्रति अपनी घृणा और अविश्वास को इन शब्दों में व्यक्त किया कि, "मैं अपने बच्चों को भीख मांगते देख लूँगी, परंतु मैं राजनीति में कदम नहीं रखूँगी।" काफ़ी समय तक राजनीति में कदम न रख कर उन्होंने अपने बेटे और बेटी का पालन-पोषण करने पर अपना ध्यान केंद्रित किया। उधर पी वी नरसिंहाराव के प्रधानमंत्रित्व काल के पश्चात् कांग्रेस १९९६ का आम चुनाव भी हार गई, जिससे कांग्रेस के नेताओं ने फिर से नेहरु-गांधी परिवार के किसी सदस्य की आवश्यकता अनुभव की। उनके दबाव में सोनिया गांधी ने १९९७ में कोलकाता के प्लेनरी सेशन में कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता ग्रहण की और उसके ६२ दिनों के अंदर १९९८ में वो कांग्रेस की अध्यक्ष चुनी गयीं। उन्होंने सरकार बनाने की असफल कोशिश भी की। राजनीति में कदम रखने के बाद उनका विदेश में जन्म हुए होने का मुद्दा उठाया गया। उनकी कमज़ोर हिन्दी को भी मुद्दा बनाया गया। उन पर परिवारवाद का भी आरोप लगा लेकिन कांग्रेसियों ने उनका साथ नहीं छोड़ा और इन मुद्दों को नकारते रहे।
सोनिया गांधी अक्टूबर १९९९ में बेल्लारी, कर्नाटक से और साथ ही अपने दिवंगत पति के निर्वाचन क्षेत्र अमेठी, उत्तर प्रदेश से लोकसभा के लिए चुनाव लड़ीं और करीब तीन लाख वोटों की विशाल बढ़त से विजयी हुईं। १९९९ में १३वीं लोक सभा में वे विपक्ष की नेता चुनी गईं।
२००४ के चुनाव से पूर्व आम राय ये बनाई गई थी कि अटल बिहारी वाजपेयी ही प्रधान मंत्री बनेंगे पर सोनिया ने देश भर में घूमकर खूब प्रचार किया और सब को चौंका देने वाले नतीजों में यूपीए को अनपेक्षित २०० से ज़्यादा सीटें मिली। सोनिया गांधी स्वयं रायबरेली, उत्तर प्रदेश से सांसद चुनी गईं। वामपंथी दलों ने भारतीय जनता पार्टी को सत्ता से बाहर रखने के लिये कांग्रेस और सहयोगी दलों की सरकार का समर्थन करने का फ़ैसला किया जिससे कांग्रेस और उनके सहयोगी दलों का स्पष्ट बहुमत पूरा हुआ। १६ मई २००४ को सोनिया गांधी १६-दलीय गंठबंधन की नेता चुनी गईं जो वामपंथी दलों के सहयोग से सरकार बनाता जिसकी प्रधानमंत्री सोनिया गांधी बनती। सबको अपेक्षा थी की सोनिया गांधी ही प्रधानमंत्री बनेंगी और सबने उनका समर्थन किया। परंतु एन डी ए के नेताओं ने सोनिया गांधी के विदेशी मूल पर आक्षेप लगाए। सुषमा स्वराज और उमा भारती ने घोषणा की कि यदि सोनिया गांधी प्रधानमंत्री बनीं तो वे अपना सिर मुँडवा लेंगीं और भूमि पर ही सोयेंगीं। १८ मई को उन्होने मनमोहन सिंह को अपना उम्मीदवार बताया और पार्टी को उनका समर्थन करने का अनुरोध किया और प्रचारित किया कि सोनिया गांधी ने स्वेच्छा से प्रधानमंत्री नहीं बनने की घोषणा की है। कांग्रेसियों ने इसका खूब विरोध किया और उनसे इस फ़ैसले को बदलने का अनुरोध किया पर उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री बनना उनका लक्ष्य कभी नहीं था। सब नेताओं ने मनमोहन सिंह का समर्थन किया और वे प्रधानमंत्री बने पर सोनिया को दल का तथा गठबंधन का अध्यक्ष चुना गया।
राष्ट्रीय सुझाव समिति का अध्यक्ष होने के कारण सोनिया गांधी पर लाभ के पद पर होने के साथ लोकसभा का सदस्य होने का आक्षेप लगा जिसके फलस्वरूप २३ मार्च २००६ को उन्होंने राष्ट्रीय सुझाव समिति के अध्यक्ष के पद और लोकसभा का सदस्यता दोनों से त्यागपत्र दे दिया। मई २००६ में वे रायबरेली, उत्तरप्रदेश से पुन: सांसद चुनी गईं और उन्होंने अपने समीपस्थ प्रतिद्वंदी को चार लाख से अधिक वोटों से हराया। २००९ के लोकसभा चुनाव में उन्होंने फिर यूपीए के लिए देश की जनता से वोट मांगा। एक बार फिर यूपीए ने जीत हासिल की और सोनिया यूपीए की अध्यक्ष चुनी गईं।
महात्मा गांधी की वर्षगांठ के दिन २ अक्टूबर २००७ को सोनिया गांधी ने संयुक्त राष्ट्र संघ को संबोधित किया।
सन्दर्भ
इन्हें भी देखें
परिवारवाद
वंशवाद
भारतीय राष्ट्रीयता कानून
बाहरी कड़ियाँ
श्रेणी:जीवित लोग
श्रेणी:भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के राजनीतिज्ञ
श्रेणी:नेहरू-गाँधी परिवार
श्रेणी:१५वीं लोकसभा के सदस्य
श्रेणी:१६वीं लोक सभा के सदस्य
श्रेणी:भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस
श्रेणी:भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष
श्रेणी:भारत के प्रधानमंत्री की जीवनसंगी | सोनिया गांधी के पति का नाम क्या था? | राजीव गांधी | 56 | hindi |
713061e10 | कलचुरि प्राचीन भारत का विख्यात राजवंश था। 'कलचुरी ' नाम से भारत में दो राजवंश थे- एक मध्य एवं पश्चिमी भारत (मध्य प्रदेश तथा राजस्थान) में जिसे 'चेदी' 'हैहय' या 'उत्तरी कलचुरि' कहते हैं तथा दूसरा 'दक्षिणी कलचुरी' जिसने वर्तमान कर्नाटक के क्षेत्रों पर राज्य किया।
चेदी प्राचीन भारत के 16 महाजनपदों में से एक था। इसका शासन क्षेत्र मध्य तथा पश्चिमी भारत था। आधुनिक बुंदलखंड तथा उसके समीपवर्ती भूभाग तथा मेरठ इसके आधीन थे। शक्तिमती या संथिवती इसकी राजधानी थी।[1]
कलचुरी शब्द के विभिन्न रूप- कटच्छुरी, कलत्सूरि, कलचुटि, कालच्छुरि, कलचुर्य तथा कलिचुरि प्राप्त होते हैं। विद्वान इसे संस्कृत भाषा न मानकर तुर्की के 'कुलचुर' शब्द से मिलाते हैं जिसका अर्थ उच्च उपाधियुक्त होता है। अभिलेखों में ये अपने को हैहय नरेश अर्जुन का वंशधर बताते हैं। इन्होंने २४८-४९ ई. से प्रारंभ होनेवाले संवत् का प्रयोग किया है जिसे कलचुरी संवत् कहा जाता है। पहले वे मालवा के आसपास रहनेवाले थे। छठी शताब्दी के अंत में बादमी के चालुक्यों के दक्षिण के आक्रमण, गुर्जरों का समीपवर्ती प्रदेशों पर आधिपत्य, मैत्रकों के दबाव तथा अन्य ऐतिहासिक कारणों से पूर्व जबरपुर (जाबालिपुर?) के आसपास बस गए। यहीं लगभग नवीं शताब्दी में उन्होंने एक छोटे से राज्य की स्थापना की। अभिलेखों में कृष्णराज, उसके पुत्र शंकरगण, तथा शंकरगण के पुत्र बुधराज का नाम आता है। उसकी मुद्रओं पर उसे 'परम माहेश्वर' कहा गया है। शंकरगण शक्तिशाली नरेश था। इसने साम्राज्य का कुछ विस्तार भी किया था। बड़ौदा जिले से प्राप्त एक अभिलेख में निरिहुल्लक अपने को कृष्णराज के पुत्र शंकरगण का सांमत बतलाता है। लगभग ५९५ ई. के पश्चात शंकरगण के बाद उसका उतराधिकारी उसका पुत्र बुधराज हुआ। राज्यारोहण के कुछ ही वर्ष बाद उसने मालवा पर अधिकार कर लिया। महाकूट-स्तंभ-लेख से पता चलता है कि चालूक्य नरेश मंगलेश ने इसी बुधराज को पराजित किया था। इस प्रदेश से कलचुरी शासन का ह्रास चालुक्य विनयादित्य (६८१-९६ ई.) के बाद हुआ।
त्रिपुरी के आसपास चंदेल साम्राजय के दक्षिण भी कलचुरियों ने अपना साम्राज्य सथापित किया था। त्रिपुरी के कलचुरियों के वंश का प्रथम व्यक्ति कोकल्स प्रथम था। अपने युग के इस अद्भुत वीर ने भोज प्रथम गुर्जर प्रतीहार तथा उसके सामंतों को दक्षिण नहीं बढ़ने दिया। इनकी निधियों को प्राप्त कर उसने इन्हें भय से मुक्त किया। अरबों को पराजित किया तथा वंग पर धावा किया। इसके १८ पुत्रों का उल्लेख मिलता है किंतु केवल शंकरगण तथा अर्जुन के ही नाम प्राप्त होते हैं। शंकरगण ने मुग्धतुंग, प्रसिद्ध धवल तथा रणविग्रह विरुद्ध धारण किए। इसने राष्ट्रकूट कृष्ण द्वितीय से मिलकर चालुकय विजयादित्य तृतीय पर आक्रमण किया किंतु दोनों को पराजित होना पड़ा। प्रसिद्ध कवि राजशेखर उसके दरबार से भी संबंधित रहे। इसके बाद इसका छोटा भाई युवराज सिंहासनारूढ़ हुआ। विजय के अतिरिक्त शैव साधुओं को धर्मप्रचार करने में सहयता पहुँचाई। युवराज के बाद उसका पुत्र लक्ष्मणराज गद्दी पर बैठा, इसने त्रिपुरी की पुरी को पुननिर्मित करवाया। इसी के राज्यकाल से राज्य में ह्रास होना प्रारंभ हो गया। चालुक्य तैलप द्वितीय और मुंज परमार ने इनकी शक्ति को छिन्न-भिन्न कर दिया। मुंज ने त्रिपुरी पर विजय प्राप्त कर ली। उसके वापस जाने पर मंत्रियों ने युवराज द्वितीय को राजकीय उपाधि नहीं धारण करने दी और उसके पुत्र कोकल्ल द्वितीय को गद्दी पर बैठाया। इसने साम्राज्य की शक्ति को कुछ दृढ़ किया, किंतु उसके बाद धीरे-धीरे राजनीतिक शक्तियों ने त्रिपुरी के कलचुरियों के साम्राज्य का अंत कर दिया।
उत्तर में गोरखपुर जिले के आसपास कोकल्ल द्वितीय के जमाने में कलचुरियों ने एक छोटा सा राज्य स्थापित किया। इस वंश का प्रथम पुरुष राजपुत्र था। इसके बाद शिवराज प्रथम, शंकरगण ने राज्य किया। कुछ दिनों के लिए इस क्षेत्र पर मलयकेतु वंश के तीन राजाओं, जयादित्य, धर्मादित्य, तथा जयादिव्य द्वितीय ने राज किया था। संभवत: भोज प्रथम परिहार ने जयादिव्य को पराजित कर गुणांबोधि को राज्य दिया। गुणांबोधिदेव के पुत्र भामानदेव ने महीपाल गुर्जर प्रतिहार की सहायता की थी। उसके बाद शंकरगण द्वितीय मुग्धतुंग, गुणसागर द्वितीय, शिवराज द्वितीय (भामानदेव), शंकरगण तृतीय तथा भीम ने राज किया। अंतिम महाराजधिराज सोढ़देव के बाद इस कुल का पता नहीं चलता। संभवत: पालों ने इनकी शक्ति को छिन्न-भिन्न कर दिया।
जेजाकभुक्ति के चंदेलों के राज्य के दक्षिण में कलचुरि राजवंश का राज्य था जिसे चेदी राजवंश भी कहते हैं। कलचुरि अपने को कार्तवीर्य अर्जुन का वंशज बतलाते थे और इस प्रकार वे पौराणिक अनुवृत्तों की हैहय जाति की शाखा थे। इनकी राजधानी त्रिपुरी जबलपुर के पास स्थित थी और इनका उल्लेख डाहल-मंडल के नरेशों के रूप में आता है। बुंदेलखंड के दक्षिण का यह प्रदेश 'चेदि देश' के नाम से प्रसिद्ध था इसीलिए इनके राजवंश को कभी-कभी चेदि वंश भी कहा गया है।ओडिसा के सोहपुर नमक स्थान से 27 कलचुरी सिक्को के साथ2500 कौड़िया प्राप्त हुई है।
परिचय
इस वंश का प्रथम ज्ञात शासक कोक्ल्ल प्रथम था जो 845 ई. के लगभग सिंहासन पर बैठा। उसने वैवाहिक संबंधों के द्वारा अपनी शक्ति दृढ़ की। उसका विवाह नट्टा नाम की एक चंदेल राजकुमारी से हुआ था और उसने अपनी पुत्री का विवाह राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण द्वितीय के साथ किया था। इस युग की अव्यवस्थित राजनीतिक स्थित में उसने अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए कई युद्ध किए। उसने प्रतिहार नरेश भोज प्रथम और उसके सांमत कलचुरि शंकरगण, गुहिल हर्षराज और चाहपान गूवक द्वितीय को पराजत किया। कोक्कल्ल के लिए कहा गया है कि उसने इन शासकों के कोष का हरण किया और उन्हें संभवत: फिर आक्रमण न करने के आश्वासन के रूप में भय से मुक्ति दी। इन्हीं युद्धों के संबंध में उसने राजस्थान में तुरुष्कां को पराजित किया जो संभवत: सिंध के अरब प्रांतपाल के सैनिक थे। उसने वंग पर भी इसी प्रकार का आक्रमण किया था। अपने शासनकाल के उत्तरार्द्ध में उसने राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण द्वितीय को पराजित करके उत्तरी कोंकण पर आक्रमण किया था किंतु अंत में उसने राष्ट्रकूटों के साथ संधि कर ली थी। इन युद्धों से कलचुरि राज्य की सीमाओं में कोई वृद्धि नहीं हुई। कोक्कल्ल के 18 पुत्र थे जिनमें से 17 की उसने पृथक पृथक मंडलों का शसक नियुक्त किया; ज्येष्ठ पुत्र शंकरगण उसके बाद सिंहासन पर बैठा। इन 17 पुत्रों में से एक ने दक्षिण कोशल में कलचुरि राजवंश की एक नई शाखा की स्थापना की जिसकी राजधानी पहले तुम्माण और बाद में तृतीय नरेश नत्नराज द्वारा स्थापित रत्नपुर थी। इस शाखा में नौ शासक हुए जिन्होंने 12वीं शताब्दी के अंत तक राज्य किया।
शंकरगण ने कोशल के सोमवंशी नरेश से पालि छीन लिया1 पूर्वी चालुक्य विजयादित्य तृतीय के आक्रमण के विरुद्ध वह राष्ट्रकूट कृष्ण द्वितीय की सहायता के लिए गया किंतु उसके पक्ष की पूर्ण पराजय हुई। उसने अपनी पुत्री लक्ष्मी का विवाह कृष्ण द्वितीय के पुत्र जगत्तुंग के साथ किया था जिनका पुत्र इंद्र तृतीय था। इंद्र तृतीय का विवाह शंकरगण के छोटे भाई अर्जुन की पौत्री से हुआ था।
शंकरगण के बाद पहले उसका ज्येष्ठ पुत्र बालहर्ष और फिर कनिष्ठ पुत्र युवरा प्रथम केयूरवर्ष सिंहासन पर बैठा। युवराज (दसवीं शताब्दी का द्वितीय चरण) ने गौड़ और कलिंग पर आक्रमण किया था। किंतु अपने राज्यकाल के अंत समय में उसे स्वयं आक्रमणों का समना करना पड़ा और चंदेल नरेश यशोवर्मन् के हाथों पराजित होना पड़ा। राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण तृतीय युवराज का दोहित्र था और स्वयं उसकी पत्नी भी कलचुरि वंश की थी। उसने अपने पिता के राज्यकाल में ही एक बार कालंजर पर आक्रमण किया था। सिंहासन पर बैठने के बाद उसने मैहर तक के प्रदेश पर अधिकार कर लिया था किंतु शीघ्र ही युवराज को राष्ट्रकूटों को भगाने में सफलता मिली। कश्मीर और हिमालय तक उसके आक्रमण की बात अतिश्योक्ति लगती है।
युवराज के पुत्र लक्ष्मणराज (10वीं शताब्दी का तृतीय चरण) ने पूर्व में बंगाल, ओड्र और कोसल पर आक्रमण किया। पश्चिम में वह लाट के सामंत शासक और गुर्जर नरेश (संभवत: चालुक्य वंश का मूल राज प्रथम) को पराजित करके सोमनाथ तक पहुँचा था। उसकी कश्मीर और पांड्य की विजय का उल्लेख संदिग्ध मालूम होता है। उसने अपनी पुत्री बोन्थादेवी का विवाह चालुक्य नरेश विक्रमादित्य चतुर्थ से किया था जिनका पुत्र तैल द्वितीय था।
लक्ष्मणराज के दोनों पुत्रों शंकरगण और युवराज द्वितीय में सैनिक उत्साह का अभाव था। युवराज द्वितीय के समय तैज द्वितीय ने भी चेदि देश पर आक्रमण किए। मुंज परमार ने तो कुछ समय के लिए त्रिपुरी पर ही अधिकार कर लिया था। युवराज की कायरता के कारण राज्य के प्रमुख मंत्रियों ने उसके पुत्र कोक्कल्ल द्वितीय को सिंहासन पर बैठाया। कोक्कल्ल के समय में कलचुरि लोगों को अपनी लुप्त प्रतिष्ठा फिर से प्राप्त हुई। उसने गुर्जर देश के शासक को पराजित किया। उसे कुंतल के नरेश (चालुक्य सत्याश्रय) पर भी विजय प्राप्त हुई। उसने गौड़ पर भी आक्रमण किया था।
कोक्कल्ल के पुत्र विक्रमादित्य उपाधिधारी गांगेयदेव के समय में चेदि लोगों ने उत्तरी भारत पर अपनी सार्वभौम सत्ता स्थापित करने की ओर चरण बढ़ाए। उसका राज्यकाल 1019 ई. के कुछ वर्ष पूर्व से 1041 ई. तक था। भोज परमार और राजेंद्र चोल के साथ जो उसने चालुक्य राज्य पर आक्रमण किया उसमें वह असफल रहा। उसने कोसल पर आक्रमण किया और उत्कल को जीतता हुआ वह समुद्र तट तक पहुँच गया। संभवत: इसी विजय के उपलक्ष में उसने त्रिकलिंगाधिपति का विरुद धारण किया। भोज परमार और विजयपाल चंदेल के कारण उसकी साम्राज्य-प्रसार की नीति अवरुद्ध हो गई। उत्तर-पूर्व की ओर उसने बनारस पर अधिकार कर लिया और अंग तक सफल आक्रमण किया किंतु मगध अथवा तीरभुक्ति (तिरहुत) हो वह अपने राज्य में नहीं मिला पाया। 1034 ई. में पंजाब के सूबेदार अहमद नियाल्तिगीन ने बनारस पर आक्रमण कर उसे लूटा। गांगेयदेव ने भी कीर (काँगड़ा) पर, जो मुसलमानों के अधिकार में था, आक्रमण किया था।
गांगेयदेव का पुत्र लक्ष्मीकर्ण अथवा कर्ण कलचुरि वंश का सबसे शक्तिशाली शासक था और उसकी गणना प्राचीन भारतीय इतिहास के महान् विजेताओं में होती है। उसने प्रयाग पर अपना अधिकार कर लिया और विजय करता हुआ वह कीर देश तक पहुँचा था। उसने पाल राज्य पर दो बार आक्रमण किया किंतु अंत में उसने उनसे संधि की और विग्रह पाल तृतीय के साथ अपनी पुत्री यौवनश्री का विवाह किया। राढा के ऊपर भी कुछ समय तक उसका अधिकार रहा। उसने वंग को भी जीता किंतु अंत में उसने वंग के शासक जातवर्मन् के साथ संधि स्थापित की और उसके साथ अपनी पुत्री वीरश्री का विवाह कर दिया। उसने ओड्र और कलिंग पर भी विजय प्राप्त की। उसने कांची पर भी आक्रमण किया था और पल्लव, कुंग, मुरल और पांड्य लोगों को पराजित किया था। कुंतल का नरेश जो उसके हाथों पराजित हुआ, स्पष्ट ही सोमेश्वर प्रथम चालुक्य था। 1051 ई. के बाद उसने कीर्तिवर्मन् चंदेल को पराजित किया किंतु बुंदेलखंड पर उसका अधिकार अधिक समय तक नहीं बना रह सका। उसने मालव के उत्तर-पश्चिम में स्थिति हूणमंडल पर भी आक्रमण किया था। भीम प्रथम चालुक्य के साथ साथ उसने भोज परमार के राज्य की विजय की किंतु चालुक्यों के हस्तक्षेप के कारण उसे विजित प्रदेश का अधिकार छोड़ना पड़ा। बाद में भीम ने कलह उत्पन्न होने पर डाहल पर आक्रमण कर कर्ण को पराजित किया था।
1072 ई. में वृद्धावस्था से अशक्त लक्ष्मीकर्ण ने सिंहासन अपने पुत्र यश:कर्ण को दे दिया। यश:कर्ण ने चंपारण्य (चंपारन, उत्तरी बिहार) और आंध्र देश पर आक्रमण किया था किंतु उसके शासनकाल के अंतिम समय जयसिंह चालुक्य, लक्ष्मदेव परमार और सल्लक्षण वर्मन् चंदेल के आक्रमणों के कारण चेदि राज्य की शक्तिक्षीण हो गई। चंद्रदेव गांहड़वाल ने प्रयाग और बनारस पर अपना अधिकार कर लिया। मदनवर्मन् चंदेल ने उसके पुत्र जयसिंह ने कुमारपाल चालुक्य, बिज्जल कलचुरि और खुसरव मलिक के आक्रमणों का सफल सामना किया। जयसिंह के पुत्र विजयसिंह का डाहल पर 1211 ई. तक अधिकार बना रहा। किंतु 1212 ई. में त्रैलोक्यवर्मन् चंदेल ने ये प्रदेश जीत जिए। इसके बाद इस वंश का इतिहास में केई चिह्न नहीं मिलता। (ल.गो.)
चेदि (कलचुरि) राज्य में सांस्कृतिक स्थिति
कर्ण, यश:कर्ण और जयसिंह ने सम्राट की प्रचलित उपाधियों के अतिरिक्त अश्वपति, गजपति, नरपति और राजत्रयाधिपति की उपाधियाँ धारण की। कोक्कल्ल प्रथम के द्वारा अपने 17 पुत्रों की राज्य के मंडलों में नियुक्ति चेदि राज्य के शासन में राजवंश के व्यक्तियों को महत्वपूर्ण स्थान देने के चलन का उदाहरण है। राज्य को राजवंश का सामूहिक अधिकार माना जाता था। राज्य में महाराज के बाद युवराज अथवा महाराजपुत्र का स्थान था। महारानियाँ भी राज्यकार्य में महत्वपूर्ण स्थान रखती थीं। मंत्रिमुख्यों के अतिरिक्त अभिलेखों में महामंत्रिन्, महामात्य, महासांधिविग्रहिक, महाधर्माधिकरण, महापुरोहित, महाक्षपटलिक, महाप्रतीहार, महासामंत और महाप्रमातृ के उल्लेख मिलते हैं। मंत्रियों का राज्य में अत्यधिक प्रभाव था। कभी-कभी वे सिंहासन के लिए राज्य परिवार में से उचित व्यक्ति का निर्धारण करते थे। राजगुरु का भी राज्य के कार्यों में गौरवपूर्ण महत्व था। सेना के अधिकारियों में महासेनापति के अतिरिक्त महाश्वसाधनिक का उल्लेख आया है जो सेना में अश्वारोहियों के महत्व का परिचायक है। कुछ अन्य अधिकारियों के नाम हैं: धर्मप्रधान, दशमूलिक, प्रमत्तवार, दुष्टसाधक, महादानिक, महाभांडागारिक, महाकरणिक और महाकोट्टपाल। नगर का प्रमुख पुर प्रधान कहलाता था। पद वंशगत नहीं थे, यद्यपि व्यवहार में किसी अधिकारी के वंशजों को राज्य में अपनी योग्यता के कारण विभिन्न पदों पर नियुक्त किया जाता था। धर्माधिकरण के साथ एक पंचकुल (समिति) संयुक्त होता था। संभवत: ऐसी समितियाँ अन्य विभागों के साथ भी संयुक्त है। राज्य के भागों के नामों में मंडल और पत्तला का उल्लेख अधिक थी। चेदि राजाओं का अपने सामंतों पर प्रभावपूर्ण नियंत्रण था। राज्य-करों की सूची में पट्टकिलादाय और दुस्साध्यादाय उल्लेखनीय हैं, ये संभव: इन्हीं नामों के अधिकारियों के वेतन के रूप में एकत्रित किए जाते थे। इसी प्रकार घट्टपति और तरपति भी कर उगाहते थे। शौल्किक शुल्क एकत्रित करनेवाला अधिकारी था। विषयादानिक भी कर एकत्रित करनेवाला अधिकारी था। विक्रय के लिए वस्तुएँ मंडपिका में आती थीं जहाँ उनपर कर लगाया जाता था।
ब्राह्मणों में सवर्ण विवाह का ही चलन था किंतु अनुलोम विवाह अज्ञात नहीं थे। कुछ वैश्य क्षत्रियों के कर्म भी करते थे। कायस्थ भी समाज के महत्वपूर्ण वर्ग थे। कलचुरि नरेश कर्ण ने हूण राजकुमारी आवल्लदेवी से विवाह किया था, उसी की संतानयश: कर्ण था। बहुविवाह का प्रचलन उच्च कुलों में विशेष रूप से था। सती का प्रचलन था किंतु स्त्रियाँ इसके लिए बाध्य नहीं थीं। संयुक्त-परिवार-व्यवस्था के कई प्रमाण मिलते हैं। व्यवसाय और उद्योग श्रेणियों के रूप में संगठित थे। नाप की इकाइयों में खारी, खंडी, गोणी, घटी, भरक इत्यादि के नाम मिलते हैं। गांगेयदेव ने बैठी हुई देवी की शैली के सिक्के चलाए। ये तीनों धातुओं में उपलब्ध हैं। यह शैली उत्तरी भारत की एक प्रमुख शैली बन गई और कई राजवंशों ने इसका अनुकरण किया।
धर्म के क्षेत्र में सामान्य प्रवृत्ति समन्वयवादी और उदार थी। ब्रह्मा, विष्णु ओर रुद्र की समान पूजा होती थी। विष्णु के अवतारों में कृष्ण के स्थान पर बलराम की अंकित किए जाते थे। विष्णु की पूजा का अत्यधिक प्रचलन था किंतु शिव-पूजा उससे भी अधिक जनप्रिय थी। चेदि राजवंश के देवता भी शिव थे। युवराज देव प्रथम के समय में शैवधर्म का महत्व बढ़ा। उसने मत्तमयूर शाखा के कई शैव आचार्यों को चेदि देश में बुलाकर बसाया और शैव मंदिरों और मठों का निर्माण किया। कुछ शैव आचार्य राजगुरु के रूप में राज्य के राजनीतिक जीवन में महत्व रखते थे। गोलकी मठ में 64 योगिनियों और गणपति की मूर्तियाँ थीं। वह मठ दूर-दूर के विद्वानों और धार्मिकों के आकर्षण का केंद्र था और उसकी शाखाएँ भी कई स्थानों में स्थापित हुई थीं। ये मठ शिक्षा के केंद्र थे। इनमें जनकल्याण के लिए सत्र तो थे ही, इनके साथ व्याख्यानशालाओं का भी उल्लेख आता है। गणेश, कार्तिकेय, अंबिका, सूर्य और रेवंत की मूर्तियाँ उपलब्ध होती हैं। बौद्ध और जैन धर्म भी समृद्ध दशा में थे।
चेदि नरेश दूर-दूर के ब्राह्मणों को बुलाकर उनके अग्रहार अथवा ब्रह्मस्तंब स्थापित करते थे। इस राजवंश के नरेश स्वयं विद्वान् थे। मायुराज ने उदात्ताराघव नाम के एक नाटक और संभवम: किसी एक काव्य की भी रचना की थी। भीमट ने पाँच नाटक रचे जिनमें स्वप्नदशानन सर्वश्रेष्ठ था। शंकरगण के कुछ श्लोक सुभाषित ग्रंथों में मिलते हैं। राजशेखर के पूर्वजों में अकालजलद, सुरानंद, तरल और कविराज चेदि राजाओं से ही संबंधित थे। राजशेखर ने भी कन्नौज जाने से पूर्व ही छ: प्रबंधों की रचना की थी और बालकवि की उपाधि प्राप्त की थी। युवराजदेव प्रथम के शासनकाल में वह फिर त्रिपुरी लौटा जहाँ उसने विद्धशालभंजिका और काव्यमीमांसा की रचना की। कर्ण का दरबार कवियों के लिए पसिद्ध था। विद्यापति और गंगाधर के अतिरिक्त वल्लण, कर्पूर और नाचिराज भी उसी के दरबार में थे। बिल्हण भी उसके दरबार में आया था। कर्ण के दरबार में प्राय: समस्यापूरण की प्रतियोगिता होती थी। कर्ण ने प्राकृत के कवियों को भी प्रोत्साहन दिया था।
कलचुरि नरेशों ने, विशेष रूप से युवराजदेव प्रथम, लक्ष्मणराज द्वितीय और कर्ण ने, चेदि देश में अनेक भव्य मंदिर बनवाए। इनके उदाहरण पर कई मंत्रियों और सेनानायकों ने भी शिव के मंदिर निर्मित किए। इनमें से अधिकांश की विशेषता उनका वृत्ताकार गर्भगृह है। इनकी मूर्तियों की कला पर स्थानीय जन का प्रभाव स्पष्ट है। ये मूर्तिफलक विषय की अधिकता और भीड़ से बोझिल से लगते हैं।
सन्दर्भ
वासुदेव विष्णु मिराशी: इंसक्रिप्शंस ऑव दि कलचुरि-चेदि इरा ;
आर.डी.बनर्जी: दि हैहयाज़ ऑव त्रिपुरी ऐंड देयर मान्यूमेंट्स
इन्हें भी देखें
कर्णचेदि
कलचुरि कालीन बुंदेली समाज और संस्कृति
श्रेणी:मध्यकालीन भारत का इतिहास
श्रेणी:भारत के राजवंश | कलचुरी वंश की राजधानी का नाम क्या है? | शक्तिमती या संथिवती | 418 | hindi |
86eff66f2 | फ़ूड एण्ड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (FDA या USFDA) संयुक्त राज्य अमेरिका के स्वास्थ्य एवं मानव सेवा विभाग की एक एजेंसी है, यह विभाग संयुक्त राज्य अमेरिका के संघीय कार्यपालिका विभागों में से एक है, खाद्य सुरक्षा, तम्बाकू उत्पादों, आहार अनुपूरकों, पर्चे और पर्चे-रहित दवाओं(चिकित्सीय औषधि), टीका, जैवऔषधीय, रक्त आधान, चिकित्सा उपकरण, विद्युत चुम्बकीय विकिरण करने वाले उपकरणों (ERED), पशु उत्पादों और सौंदर्य प्रसाधनों के विनियमन और पर्यवेक्षण के माध्यम से सार्वजनिक स्वास्थ्य को बढ़ावा देने के लिए ज़िम्मेदार है।
FDA अन्य कानून भी लागू करती है, विशेष रूप से सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा अधिनियम की धारा 361 और सम्बद्ध विनियम जिनमें से कई खाद्य या औषधि से सीधे संबंधित नहीं है। इनमें अंतर्राज्यीय यात्रा के दौरान स्वच्छता और कुछ पालतू पशुओं से लेकर प्रजनन सहायतार्थ शुक्राणु दान तक के उत्पादों पर रोग नियंत्रण शामिल है।
FDA का नेतृत्व सेनेट की सहमति और सलाह से राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त आयुक्त, खाद्य और औषधि करते हैं। आयुक्त स्वास्थ्य और मानव सेवा के सचिव के नियंत्रणाधीन काम करते हैं। 21वें और वर्तमान आयुक्त हैं डॉ॰ मार्गरेट ए. हैम्बर्ग. वह फरवरी 2009 से आयुक्त के रूप में सेवारत है।
FDA का मुख्यालय सिल्वर स्प्रिंग, मैरीलैंड में है और इसके 50 राज्यों, संयुक्त राज्य अमेरिका वर्जिन द्वीप समूह व पर्टो रीको में स्थित 223 फ़ील्ड ऑफ़िस और 13 प्रयोगशालाएं हैं।[3] 2008 में FDA ने चीन, भारत, कोस्टा रिका, चिली, बेल्जियम और यूनाइटेड किंगडम जैसे विदेशों में कार्यालय खोलने शुरू कर दिए.[4]
संगठन
FDA में कई ऑफ़िस और केंद्र शामिल हैं। वे हैं
ऑफ़िस ऑफ़ द कमिश्नर
सेंटर फ़ॉर बायोलॉजिक्स इवैल्यूएशन एंड रिसर्च
सेंटर फ़ॉर डिवाइसेज़ एंड रेडियोलॉजिक्ल हैल्थ (CDRH)
ऑफ़िस ऑफ़ द सेंटर डायरेक्टर
ऑफ़िस ऑफ़ कम्युनिकेशन, एड्यूकेशन, एंड रेडिएशन प्रोग्राम्स
ऑफ़िस ऑफ़ कम्प्लायन्स
ऑफ़िस ऑफ़ डिवाइस इवैल्यूएशन
ऑफ़िस ऑफ़ इन विट्रो डायग्ऩॉस्टिक डिवाइस इवैल्यूएशन एंड सेफ़्टी
ऑफ़िस ऑफ़ मैनेजमेंट ऑपरेशन्स
ऑफ़िस ऑफ़ साइंस एंड इंजीनियरिंग लेबोरेटरीज़
ऑफ़िस ऑफ़ सर्वेलेन्स एंड बायोमीट्रिक्स
सेंटर फ़ॉर ड्रग इवैल्यूएशन एंड रिसर्च (CDER)
ऑफ़िस ऑफ़ द सेंटर डायरेक्टर
एडवाइज़री कमेटी स्टाफ़
कंट्रोल्ड सबस्टैन्स स्टाफ़
ऑफ़िस ऑफ़ कम्प्लायन्स
डिवीज़न ऑफ़ कम्प्लायन्स रिस्क मैनेजमेन्ट एंड सर्वेलेन्स
डिवीज़न ऑफ़ मैन्युफ़ैक्चरिंग एंड प्रॉडक्ट क्वालिटी
डिवीज़न ऑफ़ न्यू ड्रग्स एंड लेबलिंग कम्प्लायन्स
डिवीज़न ऑफ़ साइंटिफ़िक इन्वेस्टीगेशन्स
ऑफ़िस ऑफ़ मेडिकल पॉलिसी
डिवीज़न ऑफ़ ड्रग मार्केटिंग, एडवरटाइज़िंग एंड कम्युनिकेशन्स
ऑफ़िस ऑफ़ न्यू ड्रग्स
ऑफ़िस ऑफ़ नॉनप्रिस्क्रिपशन्स प्रॉडक्ट्स
ऑफ़िस ऑफ़ ऑनकॉलॉजी ड्रग प्रॉडक्ट्स
रेडियोएक्टिव ड्रग रिसर्च कमेटी (RDRC) प्रोग्राम
ऑफ़िस ऑफ़ फार्मास्युटिकल साइंस
ऑफ़िस ऑफ़ बायोटेक्नॉलॉजी प्रॉडक्ट्स
ऑफ़िस ऑफ़ जेनेरिक ड्रग्स
ऑफ़िस ऑफ़ न्यू ड्रग क्वालिटी असेसमेंट
ऑफ़िस ऑफ़ टेस्टिंग एंड रिसर्च
डिवीज़न ऑफ़ एप्लाइड फार्माकॉलॉजी़ रिसर्च
डिवीज़न ऑफ़ फार्मास्युटिकल एनालसिस
डिवीज़न ऑफ़ प्रॉडक्ट क्वालिटी रिसर्च
इन्फ़ॉरमेटिक्स एंड कम्प्यूटेशनल सेफ़्टी एनालसिस स्टाफ़ (ICSAS)
ऑफ़िस ऑफ़ सर्वेलेन्स एंड एपिडेमॉलॉजी (पूर्व में ऑफ़िस ऑफ़ ड्रग सेफ़्टी)
ऑफ़िस ऑफ़ ट्रांसलेशनल साइंसेज़
ऑफ़िस ऑफ़ बायोस्टैटिक्स
ऑफ़िस ऑफ़ क्लिनिकल फ़ार्माकॉलॉजी
फ़ार्माकॉमेट्रिक्स स्टाफ़
डिवीज़न ऑफ़ ड्रग इन्फॉरमेशन
FDA फ़ार्मेसी स्टुडेंट एक्स्पेरीएन्शल प्रोग्राम
बोटेनिक्ल रिव्यू टीम
मैटरनल हैल्थ टीम
सेंटर फ़ॉर फ़ूड सेफ़्टी एंड एप्लाइड न्यूट्रिशन
सेंटर फ़ॉर टोबैको प्रॉडक्ट्स
सेंटर फ़ॉर वेटरनरी मेडिसिन
नेशनल सेंटर फ़ॉर टॉक्सॉलॉजिक्ल रिसर्च
ऑफ़िस ऑफ़ रेग्युलेटरी अफ़ेअर्स
हाल के वर्षों में एजेंसी ने बड़े पैमाने पर रॉकविल में अपने प्रमुख मुख्यालय और आसपास के क्षेत्र में कई खंडित ऑफ़िस भवनों को सिल्वर स्प्रिंग, मेरीलैंड के व्हाइट ओक क्षेत्र में नेवल ऑर्डनैन्स लेबोरेटरी के पूर्व स्थल वॉशिंगटन मेट्रोपॉलिटन एरिया में संगठित करने का उपक्रम शुरू किया है। जब FDA पहुंचे, स्थल का नाम व्हाइट ओक नेवल सरफ़ेस वॉरफ़ेअर सेंटर से बदलकर फ़ेडरल रिसर्च सेंटर एट व्हाइट ओक रख दिया गया। दिसम्बर 2003 में परिसर में 104 कर्मचारियों के साथ खुला और समर्पित पहला भवन, लाइफ़ साइंसेज लेबोरेटरी था। परियोजना के 2013 तक पूरा होने की उम्मीद है।
जबकि अधिकतर केंद्र मुख्यालय डिवीजनों के भाग के रूप में वाशिंगटन, डीसी के आसपास स्थित हैं, दो कार्यालय- ऑफ़िस ऑफ़ रेग्युलेटरी अफ़ेअर्स (ORA) और ऑफ़िस ऑफ़ क्रीमिनल इन्वेस्टिगेशन्स (OCI) - ऐसे फ़ील्ड कार्यालय हैं जिनका कार्यबल देश भर में फैला है।
ऑफ़िस ऑफ़ रेग्युलेटरी अफ़ेअर्स को एजेंसी की "आँखें और कान" माना जाता है जो
क्षेत्र में FDA का बहुत सा काम संभालती है।
उपभोक्ता सुरक्षा अधिकारी जिन्हें सामान्यतः जांचकर्ता कहा जाता है वे उत्पादन और भंडारण सुविधाओं का निरीक्षण करते हैं, शिकायतों, बीमारियों या प्रकोपों की जांच करते हैं और चिकित्सा उपकरणों, दवाओं, जैविक उत्पादों और अन्य मामलों जिनकी भौतिक जांच करना या जिन उत्पादों का नमूना लेना कठिन होता है, उनके प्रलेखन की समीक्षा करते हैं।
ऑफ़िस ऑफ़ रेग्युलेटरी अफ़ेअर्स पांच क्षेत्रों में बंटा हुआ है, जो आगे 13 जिलों में विभाजित है। जिले मोटे तौर पर संघीय अदालत प्रणाली के भौगोलिक विभाजन पर आधारित हैं। प्रत्येक जिले में शामिल हैं मुख्य जिला ऑफ़िस, कुछ रेंज़िडेंट पोस्ट्स जो एक विशेष भौगोलिक क्षेत्र की सेवा के लिए जिला ऑफ़िस से दूर स्थित FDA कार्यालय ही हैं। ORA में एजेंसी की भौतिक नमूनों का विश्लेषण करने वाली प्रयोगशालाओं का नेटवर्क भी शामिल है। हालांकि आम तौर पर नमूने भोजन से संबंधित होते हैं, कुछ प्रयोगशालाओं में दवाओं, सौंदर्य प्रसाधनों और विकिरण छोड़ने वाले-उपकरणों का विश्लेषण करने की सुविधा भी उपलब्ध है।
आपराधिक मामलों की जांच के लिए ऑफ़िस ऑफ़ क्रीमिनल इन्वेस्टिगेशन्स 1991 में स्थापित किया गया था। ORA जांचकर्ताओं के विपरीत, ओसीआई विशेष एजेंट सशस्त्र होते हैं और वे विनियमित उद्योगों के तकनीकी पहलुओं पर ध्यान नहीं देते. ओसीआई एजेंट आपराधिक कार्रवाई वाले मामलों जैसे झूठे दावे या अंतर्राज्यीय वाणिज्य में जानबूझकर मिलावटी माल भेजना, पर कार्रवाई कर उन्हें आगे बढ़ाते हैं।
कई मामलों में, ओसीआई एफ़डी एंड सी अधिनियम के अध्याय III में परिभाषित निषिद्ध कार्यों के अतिरिक्त टाइटल 18 के उल्लंघन वाले मामले (जैसे षड्यंत्र, झूठे बयान, तार धोखाधड़ी, मेल धोखाधड़ी) आगे बढ़ाते हैं। ओसीआई विशेष एजेंट अक्सर
आपराधिक जांच की पृष्ठभूमि से आते हैं और फ़ेडरल ब्यूरो ऑफ़ इन्वेस्टिगेशन, सहायक अटार्नी जनरल और यहाँ तक कि इंटरपोल के साथ भी मिलकर काम करते हैं।
ओसीआई को कई किस्म के सूत्रों जिनमें ORA, स्थानीय एजेंसियों और एफ़बीआई से मामले प्राप्त होते हैं और किसी मामले के तकनीकी और विज्ञान आधारित पहलुओं को विकसित करने के लिए ORA जांचकर्ताओं के साथ काम करते हैं।
ओसीआई एक छोटी शाखा है जिसमें राष्ट्रव्यापी 200 एजेंट शामिल हैं।
FDA अक्सर अन्य संघीय एजेंसियों के साथ मिलकर काम करता है जिनमें शामिल हैं कृषि विभाग, औषध प्रवर्तन प्रशासन, सीमा शुल्क और सीमा सुरक्षा और उपभोक्ता उत्पाद सुरक्षा आयोग.
अक्सर स्थानीय और राज्य सरकार की एजेंसियां भी विनियामक निरीक्षण और प्रवर्तन कार्रवाई प्रदान करने के लिए FDA के साथ काम करती हैं।
क्षेत्र और निधियन
FDA $1 ट्रिलियन से अधिक की उपभोक्ता वस्तुएं, संयुक्त राज्य अमेरिका में उपभोक्ता खर्च का लगभग 25% नियंत्रित करती है। इसमें $466 अरब की खाद्य बिक्री, $275 अरब की दवाएं, $60 अरब के सौंदर्य प्रसाधन और $18 अरब की विटामिन आपूर्ति शामिल है। अधिकतर व्यय संयुक्त राज्य अमेरिका में आयातित माल के लिए किया जाता है, FDA कुल आयात के एक तिहाई की निगरानी के लिए जिम्मेदार है।[5]
वित्तीय वर्ष (FY) 2008 (अक्टूबर 2007 से सितम्बर 2008 तक) के लिए FDA का
संघीय बजट अनुरोध $2.1 बिलियन था जो वित्तीय वर्ष 2007 से $105.8 मिलियन अधिक था।[6]
फरवरी 2008 में, FDA ने घोषणा की कि बुश प्रशासन में FY 2009 में एजेंसी के लिए बजट अनुरोध $2.4 अरब से थोड़ा कम था: $1.77 अरब बजट प्राधिकार (संघीय वित्त पोषण) और $628 अरब उपयोगकर्ता फीस में.
आवेदित बजट प्राधिकार FY 2008 की निधि से $50.7 मिलियन अधिक था जो तीन प्रतिशत की वृद्धि थी।
जून 2008 में, कांग्रेस ने एजेंसी को FY 2008 के लिए $150 का आपातकालीन विनियोग और FY 2009 के लिए और $150 मिलियन दिए.[5]
कानूनी प्राधिकार
FDA से संबंधित अधिकतर संघीय कानून खाद्य, औषधि और प्रसाधन सामग्री अधिनियम
का हिस्सा हैं,[7](पहले 1938 में पारित होने के बाद बड़े पैमाने पर संशोधित) और
यूनाइटेड स्टेट्स कोड के अध्याय 9, टाइटल 21 में संहिताबद्ध हैं।
FDA द्वारा लागू अन्य महत्वपूर्ण कानून हैं सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा अधिनियम, नियंत्रित पदार्थ अधिनियम का कुछ भाग, फ़ेडरल एंटी टैम्परिंग एक्ट और अन्य.
कई मामलों में ये जिम्मेदारियां अन्य संघीय एजेंसियां भी उठाती हैं।
FDA के लिए महत्वपूर्ण समर्थक विधान हैं:
1902–बायोलॉजिक्स कंट्रोल एक्ट
1906–प्योर फ़ूड एंड ड्रग एक्ट
1938–फ़ेडरल फ़ूड, ड्रग एंड कॉस्मेटिक एक्ट
1944–पब्लिक हेल्थ सर्विस एक्ट
1951–1951 फ़ूड, ड्रग एंड कॉस्मेटिक एक्ट संशोधन PL 82-215
1962–1962 फ़ूड, ड्रग एंड कॉस्मेटिक एक्ट संशोधन PL 87-781
1966–फ़ेयर पैकेजिंग एंड लेबलिंग एक्ट PL 89-755
1976–मेडिकल डिवाइस रेग्युलेशन एक्ट PL 94-295
1987–प्रिस्क्रिप्शन ड्रग मार्केटिंग एक्ट
1988–एंटी-ड्रग एब्यूज़ एक्ट PL 100-690
1990–न्यूट्रीशन लेबलिंग एंड एड्युकेशन एक्ट PL 101-535
1992–प्रिस्क्रिप्शन ड्रग यूज़र फ़ी एक्ट PL 102-571
1994–डायटरी सप्लीमेंट हेल्थ एंड एड्युकेशन एक्ट
1997–फ़ूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन मॉडर्नाइज़ेशन एक्ट 105-115
2002–बायोटेररिज़्म एक्ट 107-188
2002–मेडिकल डिवाइस यूज़र फ़ी एंड मॉडर्नाइज़ेशन एक्ट(MDUFMA) PL 107-250
2003–एनीमल ड्रग यूज़र फ़ी एक्ट PL 108-130
2007–फ़ूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन अमेंडमेंट्स एक्ट ऑफ़ 2007
2009–फ़ैमिली स्मोकिंग प्रीवेन्शन एंड टोबैको कंट्रोल एक्ट
विनियामक कार्यक्रम
सुरक्षा विनियमन के कार्यक्रम व्यापक रूप से उत्पाद के प्रकार, इससे संभावित खतरों और एजेंसी को दी गई विनियामक शक्तियों के अनुसार होते हैं। उदाहरण के लिए, FDA निर्धारित औषधि के लगभग हर पहलू जैसे परीक्षण, विनिर्माण,
लेबलिंग, विज्ञापन, विपणन, प्रभावकारिता और सुरक्षा को नियंत्रित करती है तथापि
सौंदर्य प्रसाधन पर FDA का विनियमन मुख्य रूप से लेबलिंग और सुरक्षा पर केंद्रित है।
संयत्र के मामूली निरीक्षण द्वारा FDA अधिकतर उत्पादों को प्रकाशित मानकों के एक सेट के साथ नियंत्रित करती है।
निरीक्षण टिप्पणियां फ़ॉर्म 483 में प्रलेखित हैं।
खाद्य और आहार अनुपूरक
सेंटर फ़ॉर फ़ूड सेफ़्टी एंड एप्लाइड न्यूट्रिशन FDA की शाखा है जो संयुक्त राज्य अमेरिका में लगभग सभी खाद्य उत्पादों की सुरक्षा और सटीक लेबलिंग सुनिश्चित करने के लिए ज़िम्मेदार है।[8]
एक अपवाद है पशु और मुर्गियों जैसे पारंपरिक पालतू जानवर का मांस जो युनाइटेड स्टेट्स डिपार्टमेंट ऑफ़ एग्रीकल्चर फ़ूड सेफ़्टी एंड इंस्पेक्शन सर्विस के अधिकार क्षेत्र में आते हैं।
जिन उत्पादों में मांस की मात्रा न्यूनतम होती है वे FDA द्वारा विनियमित होते हैं और सटीक सीमाएं दोनो एजेंसियों के बीच हुए एक समझौता ज्ञापन में सूचीबद्ध हैं। हालांकि, सभी पालतू जानवरों को दी जाने वाली दवाएं और अन्य उत्पाद एक विभिन्न शाखा सेंटर फ़ॉर वेटरनरी मेडिसिन के माध्यम से FDA द्वारा विनियमित होते हैं। अन्य उपभोज्य जो FDA द्वारा विनियमित नहीं होते हैं उनमें शामिल हैं 7% से अधिक अल्कोहल वाले पेय (डिपार्टमेंट ऑफ़ जस्टिस में ब्यूरो ऑफ़ अल्कोहल, टोबैको, फ़ायरआर्म्स एंड एक्सप्लोसिव्स द्वारा विनियमित) और खुले में रखा पीने का पानी (युनाइटेड स्टेट्स एनवायरनमेंटल प्रोटेक्शन एजेंसी (EPA) द्वारा विनियमित).
CFSAN की गतिविधियों में शामिल हैं भोजन के मानकों की स्थापना और उनको बनाए रखना जैसे पहचान के मानक (उदाहरणार्थ उत्पाद "दही" के लेबल के लिए क्या आवश्यकताएँ हैं) और अधिकतम स्वीकार्य संदूषण के मानक.
CFSAN अधिकांश खाद्य पदार्थों की पोषण लेबलिंग के लिए आवश्यकताओं को भी निर्धारित करता है। खाद्य मानक और पोषण लेबलिंग दोनों आवश्यकताएं कोड ऑफ़ फ़ेडरल रेग्यूलेशन्स का हिस्सा है।
आहार अनुपूरक स्वास्थ्य और शिक्षा अधिनियम 1994 के अनुसार अनिवार्य है कि FDA दवाओं के बजाय खाद्य पदार्थों जैसे आहार अनुपूरकों को विनियमित करे.
इसलिए आहार अनुपूरक सुरक्षा और प्रभावकारिता परीक्षण के अधीन नहीं हैं और न ही किसी अनुमोदन की आवश्यकता होती है। आहार अनुपूरकों के असुरक्षित सिद्ध होने की स्थिति में ही FDA कार्रवाई कर सकती है।
अनुपूरक आहार के निर्माताओं को स्वास्थ्य लाभ का विशिष्ट दावा करने की अनुमति है इसे उत्पादों के लेबल पर "संरचना या कार्य दावा" कहते हैं।
वे बीमारी के उपचार, निदान, इलाज या इसे रोकने का दावा नहीं कर सकते और लेबल पर अस्वीकरण अवश्य होना चाहिए.[9]
अमेरिका में बोतलबंद पानी FDA द्वारा विनियमित है।[10] राज्य सरकारें भी बोतलबंद पानी को विनियमित करती हैं। नल का पानी राज्य और स्थानीय विनियमों और संयुक्त राज्य अमेरिका EPA के द्वारा विनियमित है। बोतलबंद पानी के संबंध में FDA के नियमों का पालन आमतौर पर EPA द्वारा स्थापित दिशानिर्देशों के अनुसार होता है और नए EPA नियम स्वतः ही बोतलबंद पानी पर लागू हो जाते हैं भले ही FDA ने नए नियम स्पष्ट रूप से जारी नहीं किए हों.[11]
औषधियां
Regulation of therapeutic goods in the United States
Prescription drugs
Over-the-counter drugs
LawFederal Food, Drug, and Cosmetic Act
Comprehensive Drug Abuse Prevention and Control Act of 1970
Controlled Substances Act
Prescription Drug Marketing Act
Drug Price Competition and Patent Term Restoration Act
Hatch-Waxman exemption
Marihuana Tax Act
Government agenciesDepartment of Health and Human Services
Food and Drug Administration
Department of Justice
Drug Enforcement Administration
ProcessDrug discovery
Drug design
Drug development
New drug application
Investigational new drug
Clinical trial (Phase I, II, III, IV)
Randomized controlled trial
Pharmacovigilance
Abbreviated New Drug Application
Fast track approval
Off-label use
International coordinationInternational Conference on Harmonisation of Technical
Requirements for Registration of Pharmaceuticals for Human Use
Uppsala Monitoring Centre
World Health Organization
Council for International Organizations of Medical Sciences
Single Convention on Narcotic Drugs
Non-governmental organizationsInstitute of Medicine
Research on Adverse Drug events And Reports
NORMLvt
तीन मुख्य प्रकार के दवा उत्पादों: नई दवाएं, जेनेरिक दवाएं और काउंटर पर मिलने वाली दवाओं के लिए सेंटर फ़ॉर ड्रग इवैल्यूएशन एंड रिसर्च की आवश्यकताएं भिन्न हैं।
एक दवा को तब "नया" माना जाता है जब इसका निर्माण एक भिन्न निर्माता द्वारा, अलग सामग्री या निष्क्रिय सामग्री के प्रयोग से, अलग उद्देश्य के लिए किया गया हो या इसमें काफ़ी बदलाव आए हों.
सबसे कठोर मानदंड "नया आणविक तत्वों" पर लागू होते हैं: वे दवाएं जो मौजूदा दवाओं पर आधारित नहीं हैं।
नई दवाएं
FDA के अनुमोदन से पहले न्यू ड्रग एप्लिकेशन या NDA नामक प्रक्रिया द्वारा नई दवाओं की व्यापक जांच की जाती है। नई दवाएं केवल पर्चे से ही मिलती है।
ओवर द काउंटर (OTC) में बदले जाने की एक अलग प्रक्रिया है और उससे पहले दवा
NDA से अनुमोदित होनी चाहिए.
अनुमोदित दवा को "निर्देशन के अनुसार प्रयोग किए जाने पर सुरक्षित और प्रभावी" माना जाता है।
विज्ञापन और प्रचार
FDA दवाओं के विज्ञापन व प्रचार की समीक्षा करती है और नियंत्रित करती है। (अन्य प्रकार के विज्ञापन काउंटर पर मिलने वाली दवाओं सहित फेडरल ट्रेड कमीशन द्वारा विनियमित होते हैं).
दवाओं के विज्ञापन के विनियमन की दो आवश्यकताएं हैं।[12] अधिकांश परिस्थितियों में, एक कंपनी किसी दवा को उसके विशिष्ट उपयोग या चिकित्सीय प्रयोग के लिए ही विज्ञापित कर सकती है जिसके लिए उसे अनुमोदित किया गया हो. इसके अलावा, एक विज्ञापन दवा के लाभ और जोखिम के बीच "यथोचित संतुलित" होना चाहिए.
"ऑफ़ लेबल" शब्द का अभिप्राय FDA द्वारा अनुमोदित के अलावा दवा के उपयोग को दर्शाता है।
बाज़ार के बाद सुरक्षा निगरानी
FDA के अनुमोदन के बाद, प्रायोजक को अपनी जानकारी में आए हर रोगी पर दवा के प्रतिकूल अनुभव की समीक्षा करनी चाहिए और रिपोर्ट करनी चाहिए.
अप्रत्याशित गंभीर और घातक दवा की प्रतिकूल घटनाओं के बारे में 15 दिनों के भीतर सूचित किया जाना चाहिए; अन्य घटनाओं के बारे में तिमाही आधार पर.[13]
दवा की प्रतिकूल घटना की जानकारी FDA भी अपने MedWatch कार्यक्रम के माध्यम से सीधे ही प्राप्त करता है।[14]
इन रिपोर्टों को '"सहज रिपोर्टें" कहा जाता है क्योंकि उपभोक्ताओं और स्वास्थ्य पेशेवरों द्वारा रिपोर्टिंग स्वैच्छिक होती है।
जबकि बाज़ार के बाद सुरक्षा निगरानी का यह प्रमुख माध्यम है, मार्केटिंग के बाद
जोखिम प्रबंधन के लिए FDA की अपेक्षाएं बढ़ रही हैं।
अनुमोदन की शर्त के रूप में, प्रायोजक से यह अपेक्षित किया जा सकता है कि वह
अतिरिक्त नैदानिक परीक्षण करवाए इन्हें चतुर्थ चरण के परीक्षण कहा जाता है।
कुछ मामलों में FDA को किन्हीं दवाओं के जोखिम प्रबंधन की योजना की आवश्यकता होती है जिससे अन्य प्रकार के अध्ययन, प्रतिबंध या सुरक्षा निगरानी गतिविधियों की जानकारी मिलती हो.
जेनेरिक औषधियां
जेनेरिक औषधियां ऐसे ब्रांड-नाम वाले रासायनिक पर्याय हैं जिनके पेटेंट की अवधि समाप्त हो गई हो.[15]
आम तौर पर वे अपने ब्रांड-नाम सहयोगियों की तुलना में सस्ते होते हैं, उनका निर्माण और मार्केटिंग अन्य कंपनियों द्वारा की जाती है, 1990 के दशक में, वे संयुक्त राज्य अमेरिका में नुस्खे वाली दवाओं का एक तिहाई का प्रतिनिधित्व कर रह थे।[15]
एक जेनेरिक दवा की स्वीकृति के लिए, अमेरिकी खाद्य एवं औषधि प्रशासन (FDA) को
वैज्ञानिक सबूत की आवश्यकता होती है कि जेनेरिक औषधि मूलतः अनुमोदित औषधि के साथ अन्तर्निमेय है या उपचारात्मक उद्देश्य से उसके समकक्ष है।[16]
इसे "ANDA" (Abbreviated New Drug Application) कहा जाता है।
जेनेरिक औषधि घोटाला
1989 में जनता के इस्तेमाल के लिए जेनेरिक औषधियों को स्वीकृति देने के लिए FDA की प्रक्रियाओं को लेकर एक बड़ा घोटाला हुआ।[15]
जेनेरिक औषधि अनुमोदन में भ्रष्टाचार के आरोप कांग्रेस द्वारा FDA की व्यापक जांच के दौरान पहली बार 1988 में सामने आए. पिट्सबर्ग की माइलेन लेबोरेटरीज़ इंक द्वारा FDA के खिलाफ़ शिकायत के परिणामस्वरूप युनाइटेड स्टेट्स हाउस एनर्जी एंड कॉमर्स कमेटी की निरीक्षण उप समिति अस्तित्व में आई.
जब जेनेरिक्स निर्माण के उनके आवेदन को FDA ने बारम्बार लटकाया तो माइलेन को
विश्वास हो गया कि उनके साथ भेदभाव किया जा रहा है और 1987 में उन्होंने एजेंसी की निजी तौर पर जांच करनी शुरू कर दी.
अंततः माइलेन ने दो पूर्व FDA कर्मचारियों के खिलाफ़ और औषधि विनिर्माण कंपनियों के लिए मुकदमा दायर कर दिया कि संघीय एजेंसी के भीतर भ्रष्टाचार के परिणामस्वरूप
धोखाधड़ी और अविश्वास कानून का उल्लंघन किया जा रहा है।
"औषधि निर्माताओं के आवेदन प्रस्तुत करने से पहले ही FDA कर्मचारियों द्वारा वह प्रक्रिया निर्धारित कर दी जाती थी जिसके अनुसार नई जेनेरिक औषधियां अनुमोदित की जानी होती थी" और माइलेन के अनुसार कुछ कंपनियों को अधिमान्यता देने के लिए इस अवैध प्रक्रिया का पालन किया जाता था। 1989 की गर्मियों के दौरान FDA के तीन अधिकारियों ने जेनेरिक औषधि निर्माताओं से रिश्वत स्वीकार करने के और दो कंपनियों ने रिश्वत देने के आपराधिक आरोपों को स्वीकार किया। इसके अलावा, यह पाया गया कि कई निर्माताओं ने कुछ जेनेरिक औषधियों को बाज़ार में उतारने के लिए FDA की अनुमति प्राप्त करने के लिए ग़लत डेटा प्रस्तुत किया था। न्यूयॉर्क की विटारिन फार्मास्यूटिकल्स जिसने उच्च रक्तदाब की दवा के तौर पर डायाज़ाइड के जेनेरिक रूपांतर के अनुमोदन के लिए FDA के परीक्षणों के लिए इसके जेनेरिक रूपांतर के स्थान पर डायाज़ाइड ही प्रस्तुत कर दी. अप्रैल 1989 में FDA ने अनियमितताओं के लिए 11 निर्माताओं की जांच की और बाद में यह संख्या बढ़कर 13 हो गई। अंततः दर्जनों दवाओं को या तो निर्माताओं द्वारा निलंबित कर दिया गया या वापस ले लिया गया। 1990 के दशक के शुरू में यू.एस.सिक्योरिटीज़ एंड एक्सचेंज कमीशन ने लांग आइलैंड, न्यूयॉर्क में जेनेरिक औषधियों के बड़े निर्माता बोलार फार्मास्यूटिकल्स कंपनी के खिलाफ प्रतिभूति धोखाधड़ी का आरोप दायर किया।[15]
ओवर-द-काउंटर औषधियां
ओवर-द-काउंटर (OTC) औषधियां वे दवाएं और संयोजन हैं जिनके लिए डॉक्टर के पर्चे की आवश्यकता नहीं होती.
FDA के पास लगभग 800 स्वीकृत सामग्री की एक सूची है जिनके विभिन्न तरह के संयोजन से 100.000 से अधिक OTC दवा उत्पाद बनाए जा सकते हैं .
अनेक OTC दवा सामग्री जिन्हें पहले पर्चे के साथ की दवाओं के रूप में मंजूरी दी गई थी अब चिकित्सक के पर्यवेक्षण के बिना उपयोग के लिए पर्याप्त सुरक्षित माना गया है।
[17]
टीके, रक्त और ऊतक उत्पाद और जैव प्रौद्योगिकी
द सेंटर फ़ॉर बायोलॉजिक्स एंड रिसर्च FDA की शाखा है जो जैविक उपचार कारकों की सुरक्षा और प्रभावकारिता सुनिश्चित करने के लिए जिम्मेदार है।[18]
इनमें रक्त और रक्त उत्पाद, टीके, एलरजेनिक्स, सेल और ऊतक आधारित उत्पादों और जीन थेरेपी के उत्पाद शामिल हैं। नई जैविक को औषधि की तरह बाजार-पूर्व अनुमोदन प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता है। जैविक उत्पादों के विनियमन के लिए मूल सरकारी प्राधिकरण की स्थापना 1944 के पब्लिक हेल्थ सर्विस एक्ट द्वारा संस्थापित अतिरिक्त प्राधिकार के साथ बायोलॉजिक्स कंट्रोल एक्ट 1902 के अंतर्गत हुई. इन अधिनियमों के साथ फ़ेडरल फ़ूड, ड्रग और कॉस्मेटिक एक्ट सभी जैविक उत्पादों के लिए लागू होता है।
मूलतः राष्ट्रीय स्वास्थ्य संस्थान जैविक उत्पादों के विनियमन के लिए उत्तरदायी था, 1972 में यह अधिकार FDA को हस्तांतरित कर दिया गया।
चिकित्सीय और विकिरण-उत्सर्जक उपकरण
सेंटर फ़ॉर डिवाइसेज़ एंड रेडियोलॉजिक्ल हेल्थ (CDRH) FDA की शाखा है जो सभी चिकित्सा उपकरणों के बाज़ार-पूर्व अनुमोदन के साथ ही इन उपकरणों के विनिर्माण, कार्यकुशलता और सुरक्षा की निगरानी के लिए उत्तरदायी है।[19]
चिकित्सा उपकरण की परिभाषा एफडी एंड सी एक्ट में दी गई है इसमें टूथब्रश जैसे साधारण उत्पादों से लेकर मस्तिष्क में लगाए जाने वाले पेसमेकर जैसे जटिल उपकरण शामिल हैं।
CDRH विशेष प्रकार के विद्युत चुम्बकीय विकिरण उत्सर्जन करने वाले गैर-चिकित्सीय उपकरणों की सुरक्षा की निगरानी का काम भी करता है।
CDRH द्वारा विनियमित उपकरणों के उदाहरण हैं सेलुलर फोन, हवाई अड्डे के बैगेज स्क्रीनिंग उपकरण, टेलिविज़न रिसीवर, माइक्रोवेव ओवन, टैनिंग बूथ और लेजर उत्पाद.
CDRH विनियामक शक्तियों में शामिल हैं निर्माताओं या विनियमित उत्पादों के आयातकों से
कुछ तकनीकी रिपोर्टें प्राप्त करना, सुनिश्चित करना कि विकिरण उत्सर्जन करने वाले उत्पाद अनिवार्य सुरक्षा कार्यनिष्पादन मानकों को पूरा करते हों, विनियमित दोषपूर्ण उत्पादों की घोषणा करना और दोषपूर्ण या अनुपालन न करने वाले उत्पादों को हटा लेने का आदेश देना.
CDRH भी सीमित मात्रा में प्रत्यक्ष उत्पाद परीक्षण आयोजित करता है।
सौंदर्य प्रसाधन
सौंदर्य प्रसाधन सेंटर फ़ॉर फ़ूड सेफ़्टी एंड एप्लायड न्यूट्रिशन, FDA की उसी शाखा द्वारा विनियमित हैं
आम तौर पर सौंदर्य प्रसाधन के लिए FDA के बाजार-पूर्व अनुमोदन की आवश्यकता नहीं होती जब तक वे "संरचना या कार्य दावा" के द्वारा इन्हें औषधि नहीं बना देते (कॉस्मेसियुटिक्ल देखें).
हालांकि, अमेरिका में बेचे जाने वाले सौंदर्य उत्पादों में शामिल करने से पहले सभी रंग योज्य विशेष रूप से FDA द्वारा अनुमोदित होने चाहिए. सौंदर्य प्रसाधनों की लेबलिंग FDA द्वारा विनियमित है और जो सौंदर्य प्रसाधन पूरी तरह से सुरक्षा के परीक्षणों से नहीं गुज़रे हैं उन पर इस आशय की चेतावनी होनी जरूरी है।
प्रसाधन उत्पाद
हालांकि प्रसाधन उद्योग मुख्यतः अपने उत्पादों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए जिम्मेदार है, FDA के पास भी जनता की रक्षा करने की आवश्यकता पड़ने पर हस्तक्षेप करने की शक्ति है लेकिन बाजार-पूर्व स्वीकृति या परीक्षण की आम तौर पर आवश्यकता नहीं होती. यदि उत्पादों का परीक्षण नहीं किया गया है तो कंपनियों को उन पर एक चेतावनी नोट
लगाना पड़ता है। प्रसाधन सामग्री की समीक्षा के विशेषज्ञ भी सामग्री के उपयोग पर प्रभाव के माध्यम से
सुरक्षा की निगरानी में योगदान देते हैं किन्तु कानूनी प्राधिकार नहीं है।
कुल मिलाकर संगठन ने लगभग 1,200 सामग्री की समीक्षा की है और सुझाव दिया है कि कई सौ प्रतिबंधित किए जाएं लेकिन सुरक्षा के लिए रसायनों की समीक्षा करने के न तो कोई मानक हैं, कोई प्रणालीगत विधि है और न ही'सुरक्षा' की कोई स्पष्ट परिभाषा है जिससे कि सभी रसायनों का परीक्षण एक ही आधार पर किया जा सके.[20]
पशु चिकित्सा संबंधी उत्पाद
द सेंटर फ़ॉर वेटरनरी मेडिसिन (CVM) FDA की शाखा है जो खाद्य, खाद्य योज्य, जानवरों को दी जाने वाली दवाओं और भोज्य जानवर और पालतू पशु को विनियमित करती है।
CVM जानवरों के टीकों को विनियमित नहीं करता है इन्हें युनाइटेड स्टेटस डिपार्टमेंट ऑफ़ एग्रीकल्चर संभालता है।
CVM की प्राथमिकता दवाएं हैं जिनका उपयोग भोज्य पशुओं में किया जाता है और
यह सुनिश्चित करना है कि इससे मानव खाद्य आपूर्ति प्रभावित न हो.
बोवाइन स्पॉन्जिफ़ॉर्म एनसिफ़लॉपैथी को फैलने से रोकने की FDA की आवश्यकता भी फ़ीड निर्माताओं के निरीक्षण के माध्यम से CVM द्वारा प्रशासित होती है।
इतिहास
प्रारंभिक इतिहास
संघीय खाद्य एवं औषधि के विनियमन की उत्पत्ति
20 वीं शताब्दी तक, घरेलू रूप से उत्पादित खाद्य और फार्मास्यूटिकल्स की सामग्री और बिक्री को विनियमित करने वाले संघीय कानून बहुत कम थे, एक अल्पावधि वाले 1813 के वैक्सीन अधिनियम को छोड़कर.
राज्य कानूनों के घालमेल ने खाद्य उत्पादों या चिकित्सात्मक पदार्थों की सामग्री के गलत प्रकटीकरण जैसी अनैतिक बिक्री प्रथाओं के खिलाफ भिन्न सीमा तक की सुरक्षा दी है।
FDA का इतिहास 19 वीं सदी के उत्तरार्ध और यू.एस. डिपार्टमेंट ऑफ़ एग्रीकल्चर्ज़ डिवीजन ऑफ़ कैमिस्ट्री (बाद में ब्यूरो ऑफ़ कैमिस्ट्री) के साथ जोड़ा जा सकता है।
1883 में मुख्य रसायनज्ञ नियुक्त हार्वे वाशिंगटन वाइली के अधीन डिवीजन ने अमेरिकी बाजार में खाद्य और औषधियों की मिलावट और गलत नामकरण संबंधी अनुसंधान शुरू किए.
हालांकि उनके पास कोई विनियामक शक्तियां नहीं थी, डिवीजन ने 1887 से 1902 की अपनी खोज फूड्स एंड फ़ूड एडलट्रैन्टस नामक दस खंडो वाली श्रृंखला में प्रकाशित की.
वाइली ने इन खोजों का इस्तेमाल किया और राज्य नियामक, जनरल फेडरेशन ऑफ़ वुमैन्स क्लब्स और चिकित्सकों और फार्मासिस्ट के राष्ट्रीय संघों जैसे विभिन्न संगठनों के साथ गठबंधन कर, अंतर्राज्यीय वाणिज्य में प्रवेश के लिए खाद्य और औषधियों के एकरूप मानकों के लिए नए संघीय कानून की हिमायत की.
वाइली की इस वकालत के समय जनता कीचड़ उछालने वाले पत्रकारों जैसे अपटन सिनक्लेयर के ज़रिए बाजार के खतरों के प्रति सचेत हो चुकी थी और वह प्रगतिशील युग के दौरान सार्वजनिक सुरक्षा के मामलों में बढ़ते हुए संघीय नियमों का एक सामान्य हिस्सा बन गयी।[21]
जिम नामक घोड़ा जिसे टिटनेस हुआ था और जिसके परिणामस्वरूप अनेक मौतें हुई, उससे डिप्थीरिया प्रतिविष लेने के बाद 1902 बायोलॉजिक्स कंट्रोल एक्ट अस्तित्व में आया।
1906 खाद्य एवं औषधि अधिनियम और FDA का सृजन
1906 जून में, राष्ट्रपति थिओडोर रूजवेल्ट ने खाद्य एवं औषधि अधिनियम जिसे इसके मुख्य अभिवक्ता "वाइली एक्ट" के रूप में भी जाना जाता है, पर हस्ताक्षर किए.[21] अधिनियम माल की जब्ती के दंड के अंतर्गत "मिलावटी" खाद्य इसकी परिभाषा में घटिया "गुणवत्ता या शक्ति" के पूरक, "क्षति या हीनता" के लिए रंग करके छुपाना,
"स्वास्थ्य के लिए हानिकारक" योज्यों का प्रयोग या "गंदे, विघटित, या दुर्गन्धित" पदार्थों का उपयोग शामिल है, के अंतर्राज्यीय परिवहन को निषिद्ध करता है।
अधिनियम "मिलावटी" दवाओं जिनमें सक्रिय सामग्री की "शक्ति, गुणवत्ता या शुद्धता के मानक" न तो स्पष्ट रूप से लेबल पर उल्लिखित हैं अथवा युनाइटेड स्टेट्स फ़ार्माकोपेया या नेशनल फार्मूलरी में सूचीबद्ध है, के अंतर्राज्यीय विपणन पर इसी तरह के दंड लागू करता है।
अधिनियम दवाओं और खाद्य के "गलत नामकरण" को भी प्रतिबंधित करता है।[22] ऐसे "मिलावटी" या "गलत नामकरण" के लिए खाद्य और दवाओं की जांच की जिम्मेदारी
वाइली के USDA ब्यूरो ऑफ़ कैमिस्ट्री को दी गई।[21]
वाइली ने इन नई विनियामक शक्तियों का इस्तेमाल किया रासायनिक योज्यों के साथ खाद्य पदार्थों के निर्माताओं के खिलाफ आक्रामक अभियान को आगे बढ़ाने के लिए लेकिन
कैमिस्ट्री ब्यूरो के प्राधिकारों पर रोक लगाई न्यायिक निर्णयों और USDA के भीतर अलग संगठनों के रूप में 1907 और 1908 में क्रमशः बोर्ड ऑफ़ फ़ूड एंड ड्रग इंस्पेक्शन और रेफरी बोर्ड ऑफ़ कन्सल्टिंग साइंटिफ़िक एक्सपर्ट की स्थापना ने.
1911 में एकउच्चतम न्यायालय ने निर्णय सुनाया कि 1906 अधिनियम, चिकित्सकीय प्रभावकारिता के झूठे दावे पर लागू नहीं होता[23] जिसके जवाब में 1912 के एक संशोधन ने अधिनियम में दी गई "गलत नामकरण" की परिभाषा में
"रोगहर या उपचारात्मक प्रभाव" के लिए "झूठे और धोखाधड़ी" वाले दावों को जोड़ा. हालांकि, इन शक्तियों को अदालततों ने अत्यंत बारीकी से परिभाषित करना जारी रखा हुआ है जो धोखाधड़ी के इरादे से सबूत के लिए उच्च मानकों को प्रतिस्थापित करता है।[21] 1927 में, USDA के एक नए खाद्य, दवा और कीटनाशक संगठन के अंतर्गत
ब्यूरो ऑफ़ कैमिस्ट्री की विनियामक शक्तियों को पुनर्गठित किया गया। तीन साल बाद इस नाम को छोटा करके फ़ूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन FDA कर दिया गया।[24]
1938 खाद्य, औषधि और प्रसाधन सामग्री अधिनियम
1930 के दशक तक, कीचड़ उछालने वाले पत्रकारों, उपभोक्ता संरक्षण संगठनों और संघीय नियामकों ने ऐसे हानिकारक उत्पादों जिन्हें 1906 के कानून के तहत अनुज्ञेय माना गया था जिनमें रेडियोधर्मी पेय पदार्थ, अंधापन पैदा करने वाले सौंदर्य प्रसाधन और मधुमेह व क्षय रोग के लिए बेकार "इलाज" शामिल थे, की सूची प्रकाशित कर एक सशक्त विनियामक प्राधिकारी के लिए अभियान तेज़ कर दिया.
परिणामस्वरूप प्रस्तावित कानून पांच साल तक अमेरिकी कांग्रेस में पारित नहीं हो सका किन्तु 1937 की एलिक्सिर सल्फ़ैनिलामाइड त्रासदी जिसमें विषैले, अपरीक्षित विलायक से बनी दवा का प्रयोग करने से 100 से अधिक लोगों का निधन हो गया, के बाद सार्वजनिक हंगामे के कारण शीघ्र ही कानून बना दिया गया।
एक ही रास्ता जिसके द्वारा FDA उत्पाद जब्त कर सकता था वह था गलत नामकरण, "एलिक्सिर" को इथेनॉल में विलय दवा के रूप में परिभाषित किया गया था न कि एलिक्सिर सल्फ़ैनिलामाइड में प्रयुक्त डाइथिलीन ग्लायकॉल.
राष्ट्रपति फ्रेंकलिन डिलेनो रूजवेल्ट ने जून 24, 1938 को नए खाद्य, औषधि और प्रसाधन सामग्री अधिनियम (FD&C Act) कानून पर हस्ताक्षर किए.
नए कानून ने सभी नई दवाओं की बाजार-पूर्व सुरक्षा की समीक्षा अनिवार्य कर और FDA धोखाधड़ी के इरादे को साबित करे इसकी आवश्यकता के बिना दवाओं की लेबलिंग में झूठे चिकित्सकीय दावा पर प्रतिबंध लगाने को अनिवार्य कर संघीय विनियामक के प्राधिकार में महत्वपूर्ण वृद्धि की.
कानून ने कारखानों के निरीक्षण अधिकृत किए और प्रवर्तन शक्तियों का विस्तार किया, खाद्य पदार्थों के लिए नए नियामक मानक तय किए और सौंदर्य प्रसाधन और चिकित्सकीय उपकरणों को संघीय विनियामक के प्राधिकार में लाया।
भले ही बाद के सालों में इस कानून में बड़े पैमाने पर संशोधन हुए किन्तु आज तक यह FDA विनियामक प्राधिकरण का मूलभूत आधार है।[21]
1938 के बाद मानव दवाओं और चिकित्सा उपकरणों का विनियमन
प्रारंभिक FD&C अधिनियम संशोधन: 1938-1958
अधिनियम 1938 के पारित होने के तुरंत बाद, FDA ने कुछ विशेष दवाओं को केवलमात्र चिकित्सा पेशेवर के पर्यवेक्षण के तहत उपयोग के लिए सुरक्षित करार करना शुरू किया और 'केवल पर्चे' की श्रेणी को डुरैम-हम्फ़्री संशोधन 1951 के द्वारा सुरक्षित रूप से कानून में कूटबद्ध कर दिया गया।[21]
जबकि 1938 FD&C अधिनियम के तहत बाजार-पूर्व दवा का प्रभावकारिता परीक्षण प्राधिकृत नहीं था, तदंतर संशोधन जैसे इंसुलिन संशोधन और पेनिसिलीन संशोधन ने विशिष्ट संजीवनी फार्मास्यूटिकल्स के फार्मूलों के लिए शक्ति परीक्षण को अनिवार्य किया।[24]
FDA ने अपनी नई शक्तियों को उन औषधि निर्माताओं के खिलाफ़ लागू करना शुरू किया जो अपनी दवाओं की प्रभावकारिता के दावे सिद्ध नहीं कर सके, अल्बर्टी फ़ूड प्रॉडक्ट्स कं. बनाम युनाइटेड स्टेट्स (1950) में संयुक्त राज्य अमेरिका अपील न्यायालय के लिए नाइन्थ सर्किट निर्णय में पाया कि दवा के लेबल से दवा के उपयोग को निकाल देने भर से दवा निर्माता 1938 अधिनियम के "झूठे चिकित्सकीय दावा" प्रावधान से नहीं बच सकते.
इन घटनाओं ने अप्रभावी दवाओं को पश्च-विपणन वापस बुला लेने की FDA की व्यापक शक्तियों की पुष्टि की.[21]
इस युग में बतौर विनियामक FDA का अधिकतर ध्यान एम्फ़ेटामाइन्स और बार्बीचुरेट्स के दुरुपयोग की दिशा में केंद्रित था लेकिन एजेंसी 1938 और 1962 के बीच लगभग 13,000 नए दवा आवेदनों की समीक्षा भी की. जबकि इस युग के शुरू में विष विज्ञान अपनी प्रारंभिक अवस्था में था, इस अवधि के दौरान FDA विनियामकों और अन्य के द्वारा खाद्य योज्य और दवा का सुरक्षा परीक्षण की प्रयोगात्मक जांच में तेजी से प्रगति हुई.[21]
बाज़ार-पूर्व अनुमोदन प्रक्रिया का विस्तार: 1959-1985
1959 में, सेनेटर एस्टेस केफ़ॉवर फ़ार्मास्युटिकल ने उद्योग की प्रथाओं के मुद्दों के बारे में सामूहिक सुनवाई शुरू की जैसे कि निर्माताओं द्वारा पदोन्नत कई दवाओं की
उच्च लागत और अनिश्चित प्रभावकारिता.
FDA के अधिकार में विस्तार करने के लिए नए कानून के लिए पर्याप्त विरोध था।
थैलिडोमाइड त्रासदी ने हालात को बदल दिया जिसमें मां द्वारा गर्भधारण के दौरान मिचली के उपचार के लिए बाज़ार में आई दवा के कारण यूरोप में हज़ारों बच्चे विकृत पैदा हुए थे।
एक FDA समीक्षक फ्रांसिस ओल्डम केल्सी की आपत्ति के कारण अमेरिका में थैलिडोमाइड के उपयोग की अनुमति नहीं दी गई थी।
हालांकि, दवा के विकास के "नैदानिक जांच" चरण के दौरान हजारों "परीक्षण के नमूने" अमेरिकी डॉक्टरों को भेजे गए थे जो उस समय FDA द्वारा विनियमित नहीं था। FDA के प्राधिकार के विस्तार का समर्थन करने के लिए कांग्रेस के सदस्यों ने थैलिडोमाइड घटना को
उद्धृत किया।[25]
FD&C अधिनियम में 1962 का केफ़ॉवर-हैरिस संशोधन FDA विनियामक प्राधिकार में क्रांति का प्रतिनिधित्व था।[26] सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन था इस बात की आवश्यकता कि सुरक्षा के पूर्व-विपणन की वर्तमान अपेक्षा के अतिरिक्त, विपणन संकेत के लिए सभी नए दवा अनुप्रयोग दवा की
प्रभावकारिता के "पर्याप्त सबूत" प्रदर्शित करें.
इससे आधुनिक FDA अनुमोदन की प्रक्रिया की शुरुआत हुई. 1938 और 1962 के दौरान स्वीकृत दवाओं की भी प्रभावकारिता और बाजार से उनकी संभावित वापसी की समीक्षा FDA द्वारा की जानी थी। 1962 के संशोधन के अन्य महत्वपूर्ण प्रावधानों में शामिल था कि दवा कंपनियां अपने ट्रेड नाम के साथ किसी दवा के "स्थापित" या "जेनेरिक" नाम का उपयोग करें, FDA स्वीकृत निर्देशों के अनुसार दवाओं के विज्ञापन और दवाओं के निर्माण की सुविधाओं के
निरीक्षण के लिए FDA की शक्तियों का विस्तार.
इन सुधारों का प्रभाव यह हुआ कि किसी दवा को बाजार में उतारने के लिए अपेक्षित समय में वृद्धि हुई.[27] 1970 के दशक के मध्य में 14 में से 13 दवाएं जिन्हें FDA ने अनुमोदन के लिए महत्वपूर्ण समझा था संयुक्त राज्य अमेरिका से पहले अन्य देशों के बाजार में आ चुकी थीं।[27]
आधुनिक अमेरिकी फ़ार्मास्युटिकल बाजार की स्थापना में सबसे महत्वपूर्ण कानूनों में से एक था 1984 ड्रग प्राइस कम्पिटिशन एंड पेटेंट टर्म रेस्टोरेशन एक्ट जिसे सामान्यतः उसके प्रमुख प्रायोजकों के नाम पर "हैच-वैक्समैन अधिनियम" के रूप में जाना जाता है।
इस अधिनियम का उद्देश्य 1962 के संशोधनों द्वारा हुए दो दुर्भाग्यपूर्ण अन्योयक्रिया को सुधारना था नए विनियमन और मौजूदा पेटेंट कानून (जो FDA द्वारा नहीं बल्कि युनाइटेड स्टेट्स पेटेंट एंड ट्रेडमार्क ऑफ़िस द्वारा विनियमित या लागू होता है) को सही करना था।
क्योंकि 1962 के संशोधन द्वारा अनिवार्य बनाए गए अतिरिक्त नैदानिक परीक्षणों के कारण नई दवा के विपणन में काफ़ी देरी हो जाती थी, निर्माता के पेटेंट की अवधि के विस्तार के बिना "अग्रणी" दवा निर्माताओं ने आकर्षक बाजार अनन्यता की घटी हुई अवधि को अनुभव किया।
दूसरी ओर, नए विनियमों के अनुसार अनुमोदित दवाओं की जेनेरिक प्रतियों की पूर्ण सुरक्षा और प्रभावकारिता परीक्षण आवश्यक थे और "अग्रणी" निर्माताओं ने अदालत से फैसले प्राप्त कर लिए जिसने पेटेंट के दौरान दवा के नैदानिक परीक्षण प्रक्रिया को शुरू करने से भी जेनेरिक निर्माताओं को रोका.
हैच-वैक्समैन अधिनियम का आशय "अग्रणी" और जेनेरिक दवा निर्माताओं के बीच एक समझौता करना था जिससे जेनरिक दवाओं को बाजार में लाने की कुल लागत कम होती और आशा थी कि इससे दवा की दीर्घकालिक कीमत कम होगी जबकि नई दवाओं के विकास की समग्र लाभप्रदता सुरक्षित रहती.
अधिनियम ने नई दवाओं की पेटेंट विशिष्टता शर्तों को बढ़ाया और महत्वपूर्ण बात यह कि
इन विस्तारों को, भागों में, प्रत्येक दवा के लिए FDA अनुमोदन प्रक्रिया की अवधि को बढ़ाया है।
जेनेरिक निर्माताओं के लिए, अधिनियम ने एक नया अनुमोदन तंत्र बनाया, एब्रिविएटिड न्यू ड्रग एप्लिकेशन (ANDA) जिसमें जेनेरिक दवा निर्माता को केवल यह प्रदर्शित करने की जरूरत है कि उनके जेनेरिक फ़ार्मूलेशन में समानुरूपी ब्रांड नाम की दवा की तरह वही सक्रिय संघटक, प्रशासन मार्ग, खुराक का प्रकार, शक्ति और फ़ार्माकोकायनेटिक गुण ("बायोइक्विलेन्स") हैं।
इस अधिनियम को आधुनिक जेनेरिक दवा उद्योग के निर्माण का श्रेय दिया गया है।[28]
एड्स के युग में FDA सुधार
एड्स महामारी के शुरू में दवा की लंबी अनुमोदन प्रक्रिया के बारे में चिंता व्यक्त की गई थी।
1980 के मध्य और उत्तरार्ध में, एक्ट-अप और अन्य एचआईवी कार्यकर्ता
संगठनों ने FDA पर एचआईवी और अवसरवादी संक्रमण रोधी दवाओं के अनुमोदन में अनावश्यक देरी का आरोप लगाया और बड़े विरोध प्रदर्शन किए जैसे कि अक्टूबर 11, 1988 को FDA परिसर में जिसमें 180 लोग गिरफ्तार हुए.[29]
अगस्त 1990 में, डॉ॰लुई लसान्या दवा अनुमोदन पर राष्ट्रपति सलाहकार पैनल के तत्कालीन अध्यक्ष का अनुमान है कि कैंसर और एड्स की दवाओं की मंजूरी और विपणन में देरी के कारण हर साल हजारों जानें जाती हैं।[30]
आंशिक रूप से इन आलोचनाओं के जवाब में, FDA ने जानलेवा रोगों की दवाओं के
शीघ्र अनुमोदन के लिए नए नियम जारी कर दिए और सीमित उपचार विकल्प वाले रोगियों के लिए दवाओं की अनुमोदन-पूर्व प्राप्ति को विस्तृत कर दिया.[31]
इन नए नियमों में पहले था "IND छूट" या "उपचार IND" नियम जिसने द्वितीय या तृतीय परीक्षण (या किन्ही विशेष मामलों में इससे पहले भी) चरण से गुज़रने वाली दवा की प्राप्यता को विस्तृत किया अगर यह संभवतः जानलेवा या गंभीर बीमारी के उपचार के लिए उपलब्ध उपचार का सुरक्षित या बेहतर विकल्प प्रदान करती है।
एक दूसरे नए नियम, "समांतर ट्रैक नीति" ने एक दवा कंपनी को एक ऐसे तंत्र की स्थापना की अनुमति दी जिसके तहत एक नई संभावित संजीवनी दवा उपयोग के लिए ऐसे रोगियों को सुलभ होगी जो किन्हीं कारणों से चल रहे चिकित्सीय परीक्षणों में भाग लेने में असमर्थ हों.
"समानांतर ट्रैक" पदनाम IND प्रस्तुतिकरण के समय किया जा सकता है। त्वरित स्वीकृति के नियमों को 1992 में और आगे विस्तार तथा कूटबद्ध किया गया।[32]
एचआईवी/एड्स के इलाज के लिए मंजूर प्रारंभिक दवाएं त्वरित स्वीकृति तंत्र के माध्यम से अनुमोदित की गयी थी। उदाहरणार्थ पहली एचआईवी ड्रग, AZT के लिए 1985 में एक "इलाज IND" जारी किया गया था और मंजूरी दी गई थी दो साल बाद 1987 में.[33] एचआईवी के लिए पहली पांच दवाओं में से तीन की मंजूरी किसी अन्य देश की तुलना में पहले संयुक्त राज्य अमेरिका में दे दी गई थी।
हाल के और जारी सुधार
क्रिटिकल पाथ इनिशिएटिव
विज्ञान के आधुनिकीकरण को प्रोत्साहित करने और सुसाध्य बनाने को राष्ट्रीय प्रयास बनाने का FDA का प्रयास है जिसके द्वारा FDA विनियमित उत्पाद विकसित, मूल्यांकित और निर्मित किए जाते हैं।
इनोवेशन/स्टैगनेशन: चैलेंज एंड ऑपरट्युनिटी ऑन द क्रिटिक्ल पाथ टू न्यू मेडिकल प्रोडक्ट्स नामक रिपोर्ट के जारी होने से मार्च 2004 में सूत्रपात हुआ .
=== अननुमोदित दवाओं की प्राप्ति के लिए मरीजों के अधिकार
===
2006 के अबीगैल एलायंस बनाम वॉन एशनबाख अदालती मामले ने अननुमोदित दवाओं के FDA विनियमन में व्यापक बदलाव लाए होते.
अबीगैल एलायंस का तर्क था कि "आशाहीन निदान" वाले मरणासन्न रूप से बीमार रोगियों द्वारा परीक्षण का पहला चरण पूरा कर लिए जाने के बाद FDA को दवाओं के उपयोग के लिए लाइसेंस दे देना चाहिए.[34]
मई 2006 में प्रारंभिक अपील के मामले में केस की जीत हुई लेकिन यह निर्णय मार्च 2007 की पुनर्सुनवाई द्वारा उलट दिया गया। अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने मामले की सुनवाई से मना कर दिया और अंतिम निर्णय में अननुमोदित दवाओं की प्राप्ति के अधिकार के अस्तित्व से इनकार कर दिया.
पश्च-विपणन औषधि की सुरक्षात्मक निगरानी
वायोक्स एक गैर स्टेरायडल शोथरोधी दवा जिसे अब हज़ारों अमेरिकियों में दिल के दौरे के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाता है, की व्यापक रूप से प्रचारित वापसी ने FDA नियम निर्धारण और सांविधिक स्तरों पर सुरक्षात्मक सुधारों को लागू करने की पुरज़ोर लहर में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
वायोक्स को FDA द्वारा 1999 में अनुमोदित किया गया था और शुरू में इसे आंत्र पथ रक्तस्राव के कम जोखिम के कारण पिछले NSAIDs से अधिक सुरक्षित माना गया था।
हालांकि, अनेक पूर्व और पश्च-विपणन अध्ययन का सुझाव था कि वायोक्स से मायोकार्डियल इन्फ़्रैक्शन का खतरा बढ़ सकता है और 2004 में APPROVe परीक्षणों के
परिणामों से यह निष्कर्ष भी निकला था।[35]
कई मुकदमों के कारण निर्माता ने स्वेच्छा से इसे बाजार से वापस ले लिया। वायोक्स की वापसी का उदाहरण इस चल रही इस सतत बहस में प्रमुख हो गया है कि क्या नई औषधियों का मूल्यांकन उनकी पूर्ण सुरक्षा या किसी स्थिति विशेष में मौजूदा उपचार में उनकी सुरक्षा के आधार पर किया जाए.
वायोक्स वापसी के मद्देनज़र, प्रमुख समाचार पत्रों, चिकित्सा पत्रिकाओं, उपभोक्ता वकालत संगठनों, सांसदों और FDA अधिकारियों ने पूर्व- और पश्च-बाजार दवा सुरक्षा हेतु FDA की प्रक्रिया विनियमनों में सुधार की गुहार लगाई.[36]
2006 में, अमेरिका में फ़ार्मास्युटिकल सुरक्षा विनियमन की समीक्षा करने के लिए और सुधार के लिए सिफारिशें जारी करने के लिए कांग्रेस के अनुरोध पर इंस्टिटयूट ऑफ़ मेडिसिन द्वारा समिति नियुक्त की गयी।
समिति में 16 विशेषज्ञ शामिल थे जिनमें नैदानिक औषधीयचिकित्सा अनुसंधान, अर्थशास्त्र, बायोसांख्यिकी, कानून, सार्वजनिक नीति, जन स्वास्थ्य और सहायक स्वास्थ्य व्यवसायों के अग्रज तथा फ़ार्मास्युटिकल, अस्पताल और स्वास्थ्य बीमा उद्योग के वर्तमान और पूर्व अधिकारी थे।
लेखकों ने अमेरिकी बाजार में दवाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए FDA की वर्तमान व्यवस्था में महत्वपूर्ण कमियां पाईं.
कुल मिलाकर, लेखकों ने विनियामक शक्तियां, निधि और FDA की स्वतंत्रता की मांग की.[37][38] समिति की कुछ सिफारिशें PDUFA IV बिल में शामिल है जिसे 2007 में कानून बना दिया गया।[39]
बाल चिकित्सा औषधि परीक्षण
1990 के दशक से पहले, संयुक्त राज्य अमेरिका में बच्चों के लिए निर्धारित सभी दवाओं में से केवल 20% का बाल चिकित्सा जनसंख्या में सुरक्षा या प्रभावकारिता के लिए परीक्षण किया गया। यह बच्चों के चिकित्सकों की एक प्रमुख चिंता का विषय बन गया जब संचित साक्ष्य से पता चला कि अनेक दवाओं का बच्चों पर शारीरिक प्रभाव वयस्कों मे उन दवाओं की प्रतिक्रिया से काफ़ी भिन्न है। बच्चों में नैदानिक दवा परीक्षण की कमी के अनेक कारण थे। कई दवाओं के लिए, बच्चे संभावित बाजार के एक छोटे से अनुपात का प्रतिनिधित्व करते थे कि दवा निर्माताओं को परीक्षण लागत प्रभावी नहीं लगा. इसके अलावा, क्योंकि बच्चों को नैतिकता की दृष्टि से सोचसमझकर सहमति देनेके लिए उनकी क्षमता को सीमित माना गया है, इन नैदानिक परीक्षणों के अनुमोदन में सरकारी और संस्थागत बाधाओं के साथ कानूनी दायित्व के बारे में चिता उठ खड़ी हुई.
इस प्रकार दशकों तक, अमेरिका में बच्चों के लिए निर्धारित ज्यादातर दवाएं गैर FDA मंजूर थी, "ऑफ़ लेबल" तरीके से, शरीर के वजन और शरीर की सतह क्षेत्र की गणना के माध्यम से वयस्क डेटा से खुराक का "बहिर्वेशन" किया गया।[40]
इस मुद्दे को सुलझाने के लिए FDA द्वारा एक आरंभिक प्रयास था बाल चिकित्सा लेबलिंग और बहि्र्वेशन पर 1994 के FDA अंतिम नियम जो निर्माताओं को लेबल जानकारी जोड़ने की अनुमति देते हैं लेकिन इसके अनुसार आवश्यक था कि जिन दवाओं पर बाल सुरक्षा और प्रभावकारिता के लिए परीक्षण नहीं किया गया था उन पर इस आशय का अस्वीकरण अवश्य हो. हालांकि, यह नियम अतिरिक्त बाल चिकित्सा दवा के परीक्षणों के लिए कई दवा कंपनियों को प्रेरित करने में असफल रहा. 1997 में, FDA ने ऐसे नियम का प्रस्ताव रखा कि नई औषधि अनुप्रयोग के प्रायोजकों से बाल चिकित्सा दवा के परीक्षण आवश्यक हों. हालांकि, इस नए नियम को संघीय अदालत में कारिज कर दिया गया कि यह FDA के सांविधिक प्राधिकार से परे है। हालांकि यह बहस चल रही थी, कांग्रेस ने प्रोत्साहन देने के लिए 1997 के खाद्य एवं औषधि प्रशासन आधुनिकीकरण अधिनियम को इस्तेमाल किया जिसने फ़ार्मास्युटिकल निर्माताओं को बाल चिकित्सा परीक्षण डेटा के साथ प्रस्तुत करने पर नई दवाओं के पेटेंट में छह माह का अवधि विस्तार दिया. इन प्रावधानों को पुनर्प्राधिकृत करने वाला अधिनियम, 2002 बेस्ट फ़ार्मास्युटिकल फ़ॉक चिल्ड्रन एक्ट ने बाल चिकित्सा परीक्षण के लिए NIH- प्रायोजित परीक्षण की अनुमति दी हालांकि इन अनुरोधों के लिए NIH धन की कमी है।
सबसे हाल ही में, इक्विटी रिसर्च अधिनियम 2003 में कांग्रेस ने प्रोत्साहन
और सार्वजनिक रूप से वित्त पोषित तंत्र के अपर्याप्त साबित होने पर "अंतिम उपाय"
के रूप में कुछ दवाओं के लिए निर्माता प्रायोजित बाल चिकित्सा दवा परीक्षण अनिवार्य करने के लिए FDA के अधिकार को कूटबद्ध किया है।[40]
जेनेरिक बायोलॉजिक्स के लिए नियम
1990 के दशक के बाद से, कैंसर, स्व-प्रतिरक्षित रोगों और अन्य कई के उपचार के लिए कई नई कारगर औषधियां प्रोटीन आधारित जैव प्रौद्योगिकी औषधियां हैं जिनका विनियमन सेंटर फ़ॉर बायोलॉजिक्स इवैल्यूएशन एंड रिसर्च द्वारा किया जाता है।
इनमें से कई दवाएं बहुत महंगी हैं, उदाहरणार्थ एक साल के उपचार के लिए कैंसर विरोधी दवा एवास्टिन की कीमत $55,000 होगी जबकि एंजाइम प्रतिस्थापन चिकित्साऔषधि सेरेज़ाइम की कीमत $200,000 वार्षिक होगी और गॉचर रोग के रोगी को जीवन भर लेनी पड़ती है।
जैव प्रौद्योगिकी दवाओं को पारंपरिक दवाओं की तरह सरल, सहज सत्यापन योग्य रासायनिक संरचना सुलभ नही होती और इनका उत्पादन अक्सर ट्रांसजेनिक मेमेलियन सेल कल्चर की जटिल, प्रायः ट्रेडमार्क युक्त तकनीकों के माध्यम से किया जाता है।
इन जटिलताओं के कारण, 1984 के हैच-वैक्समैन अधिनियम में एब्रीविएटिड न्यू ड्रग एप्लिकेशन (ANDA) प्रक्रिया में बायोलॉजिक्स को शामिल नहीं किया गया और जैव प्रौद्योगिकी दवाओं के लिए जेनेरिक दवा की प्रतियोगिता की संभावना को अनिवार्यतः प्रतिबंधित किया गया है।
फरवरी 2007 में, जेनेरिक बायोलॉजिक्स के अनुमोदन के लिए ANDA प्रक्रिया बनाने के लिए सदन में समरूप बिल पेश किये गये थे लेकिन वे पारित नहीं हुए.[41]
आलोचना
FDA के पास वर्तमान में अमेरिकी नागरिकों के स्वास्थ्य और जीवन को प्रभावित करने वाले उत्पादों की बड़ी सरणी पर विनियामक निरीक्षण अधिकार है।[21] इसके परिणामस्वरूप, कई सरकारी और गैर सरकारी संगठनों द्वारा FDA की शक्तियों और निर्णयों पर ध्यान से निगरानी की जाती है। रोगियों, अर्थशास्त्री, विनियामक निकायों और दवा उद्योग से FDA के खिलाफ कई आलोचनाएं और शिकायतें दर्ज हुई हैं। अमेरिकी फ़ार्मास्युटिकल विनियमन पर एक $ 1.8 मिलियन 2006 इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिसिन रिपोर्ट ने अमेरिकी बाजार में दवाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए FDA की वर्तमान प्रणाली में अनेक प्रमुख कमियों को पाया है। कुल मिलाकर, लेखकों ने नियामक शक्तियां, धन और FDA की स्वतंत्रता को बढ़ाने की मांग की है।[42][43]
नौ FDA वैज्ञानिकों ने निर्वाचित-राष्ट्रपति बराक ओबामा राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू. बुश के काल में अनुभव किए गए अति दबावों को लेकर अपील की जो
प्रबंधन से लेकर डेटा में हेरफेर और चिकित्सा उपकरणों की समीक्षा प्रक्रिया के संबंध में है।
"वर्तमान FDA प्रबंधकों द्वारा भ्रष्ट और विरुपित और अमेरिकी लोगों के लिए जोखिमपूर्ण" कहे गए इन विषयों पर एजेंसी पर 2006 की रिपोर्ट[42] में भी प्रकाश डाला गया है।[44]
कुछ FDA प्रशासित प्रतिबंधों के संबंध में आर्थिक तर्क के ताजा विश्लेषण ने पाया कि अर्थशास्त्रियों द्वारा प्रकाशित बयान अधिकतर उदारीकरण का समर्थन करते हैं।
विश्लेषण के तहत तीन FDA प्रतिबंध हैं नई दवाओं और उपकरणों की अनुमति, निर्माता के भाषण का नियंत्रण और डॉक्टर के पर्चे की आवश्यकता को लागू करना. इसके अतिरिक्त, कुछ अर्थशास्त्रियों का कहना है कि जटिल और विविध खाद्य बाजार में खाद्य के विनियमन और निरीक्षण के लिए FDA के पास पर्याप्त संसाधन नहीं हैं।[45]
हालांकि, यह सवाल पूछे जाने पर कि अर्थशास्त्री या मूलभूत आर्थिक तर्क प्रतिबंधों के
उदारीकरण का पक्ष नहीं लेता तो आम सहमति असहमति है।
अर्थशास्त्री डैनियल क्लेन सुझाव देते हैं, "मुद्दे चारों ओर से वर्जनाओं से घिरे हैं, विशेष रूप से बुनियादी बातों की आलोचनात्मक परीक्षा के खिलाफ वर्जनाएं." उनका तर्क है, "प्रतिबंधों के लिए कोई बाजार-विफलता कोई औचित्य नहीं है।" कई अर्थशास्त्री जो FDA के बारे में बयान प्रकाशित करते हैं "एक प्रकार के बौद्धिक पागलपन को प्रदर्शत करते हैं। . अपने दिल में वे इस बात से सहमत हैं कि कोई भी बाजार-विफलता तर्क सम्मानजनक नहीं है।"
शायद, विनियमों के राजनीतिक और सामाजिक संस्कृति के कारक कुछ अर्थशास्त्रियों को
खुलेआम बोलने से रोकते हैं[46]
जीवधारियों का विनियमन
जनवरी 2004 में, बाज़ार-पूर्व अधिसूचना 510(k) 033391 की स्वीकृति के साथ
FDA ने पर्चे के साथ चिकित्सा युक्ति के तौर पर जानवरों या मानवों में उपयोग के लिए मेडिकल मैगट के उत्पादन और विपणन की अनुमति डॉ॰ रोनाल्ड शेरमन को दी.
मेडिकल मैगट ऐसे पहले जीवित जीवधारी का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनके पर्चे वाली दवा के रूप में उत्पादन और विपणन के लिए फ़ूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने अनुमति दी हो.
जून 2004 में, FDA ने चिकित्सा युक्ति के रूप में इस्तेमाल किए जाने के लिए दूसरी रहने वाले जीव के रूप में Hirudo medicinalis (जोंक) को अनुमति दी हो.
इन्हें भी देखें
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खाद्य एवं औषधि प्रशासन की आलोचना
दवा प्रभावकारिता अध्ययन का कार्यान्वयन
यूरोपीय औषधि एजेंसी
खाद्य प्रशासन
खाद्य एवं औषधि प्रशासन अधिनियम संशोधन 2007
मानव उपयोग हेतु औषधि के पंजीकरण के लिए तकनीकी आवश्यकताओं के हारमोनाइजेशन पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन(ICH)
अन्वेषणात्मक डिवाइस छूट
केफ़ॉवर हैरिस संशोधन
दवा और हेल्थकेयर उत्पाद विनियामक एजेंसी(ब्रिटेन)
फ़ार्मास्युटिकल कंपनी
द फ़ूड डिफ़ेक्ट एक्शन लेवल्स एक FDA प्रकाशन
विल्हेम रीच
आपराधिक जांच का ऑफ़िस
सन्दर्भ
आगे पढ़ने के लिए पाठ्य सामग्री
माइकल गिवेल (दिसम्बर 2005) फिलिप मॉरिस FDA गैम्बिट: गुड फ़ॉर पब्लिक हेल्थ? जर्नल ऑफ़ पब्लिक हेल्थ पॉलिसी (26): pp.450–468.
फिलिप जे हिल्टस. प्रोटेक्टिंग अमेरिकाज़ हेल्थ: द FDA, बिज़नेस, एंड वन हंडरड ईयर्स ऑफ़ रेग्युलेशन. न्यू यॉर्क: अल्फ्रेड ई. नॉफ़ न्यूयॉर्क, 2003. ISBN 0-375-40466-X
थॉमस जे मूर. प्रेस्क्रिप्शन फ़ॉर डिसास्टर: द हिडन डेंजर्स इन योर मेडिसिन केबिनेट. न्यू यॉर्क: सिमॉन एंड शुस्टर, 1998. ISBN 0-684-82998-3.
बाहरी कड़ियाँ
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– फ़ूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन होम पेज से
–द सेंटर फ़ॉर ड्रग इवैल्युएशन एंड रिसर्च
श्रेणी:संयुक्त राज्य अमेरिका के चिकित्सा और स्वास्थ्य संगठन
श्रेणी:Regulators of biotechnology products
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श्रेणी:जैव प्रौद्योगिकी उत्पादों के विनियामक
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श्रेणी:श्रेष्ठ लेख योग्य लेख
श्रेणी:गूगल परियोजना | खाद्य एवं औषधि प्रशासन का मुख्यालय कहाँ पर है? | सिल्वर स्प्रिंग, मैरीलैंड | 1,092 | hindi |
773c584a0 | एसिटिलीन (Acetylene ; सिस्टेमैटिक नाम: एथीन (ethyne)) एक रासायनिक यौगिक है जिसका अणुसूत्र C2H2 है। यह एक हाइड्रोकार्बन है तथा सबसे सरल एल्कीन है।
सन्दर्भ
श्रेणी:कार्बनिक यौगिक | ऐसीटिलीन का सूत्र क्या है? | C2H2 | 90 | hindi |
54a10fcde | चिदंबरम मंदिर (Tamil: சிதம்பரம் கோயில்) भगवान शिव को समर्पित एक हिन्दू मंदिर है जो मंदिरों की नगरी चिदंबरम के मध्य में, पौंडीचेरी से दक्षिण की ओर 78 किलोमीटर की दूरी पर और कुड्डालोर जिले के उत्तर की ओर 60 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है, कुड्डालोर जिला भारत के दक्षिणपूर्वीय राज्य तमिलनाडु का पूर्व-मध्य भाग है। संगम क्लासिक्स विडूवेल्वीडुगु पेरुमटक्कन के पारंपरिक विश्वकर्माओं के एक सम्माननीय खानदान की ओर संकेत करता है जो मंदिर पुनर्निर्माण के प्रमुख वास्तुकार थे। मंदिर के इतिहास में कई जीर्णोद्धार हुए हैं, विशेषतः पल्लव/चोल शासकों के द्वारा प्राचीन एवम पूर्व मध्ययुगीन काल के दौरान.
हिन्दू साहित्य में, चिदंबरम पांच पवित्र शिव मंदिरों में से एक है, इन पांच पवित्र मंदिरों में से प्रत्येक मंदिर पांच प्राकृतिक तत्वों में से किसी एक का प्रतिनिधित्व करता है; चिदंबरम आकाश (ऐथर) का प्रतिनिधित्व करता है। इस श्रेणी में आने वाले अन्य चार मंदिर हैं: थिरुवनाईकवल जम्बुकेस्वरा (जल), कांची एकाम्बरेस्वरा (पृथ्वी), थिरुवन्नामलाई अरुणाचलेस्वरा (अग्नि) और कालहस्ती नाथर (वायु).
मंदिर
यह मंदिर का भवन है जो शहर के मध्य में स्थित है और 40 acres (160,000m2) के क्षेत्र में फैला हुआ है। यह भगवान शिव नटराज और भगवन गोविन्दराज पेरुमल को समर्पित एक प्राचीन और ऐतिहासिक मंदिर है, यह उन कुछ मंदिरों में से एक है जहां शैव व वैष्णव दोनों देवता एक ही स्थान पर प्रतिष्ठित हैं।[1]
शैव मत के अनुयायियों या शैव मतावलंबियों के लिए, शब्द कॉइल का अर्थ होता है चिदंबरम. इसी प्रकार, वैष्णव मत का पालन करने वालों के लिए इसका अर्थ होता है श्रीरंगम या थिरुवरंगम .
शब्द का उद्गम
शब्द चिदंबरम चित से लिया गया मालूम होता है, जिसका अर्थ होता है "चेतना" और अम्बरम, का अर्थ होता है "आकाश" (आकासम या आक्यम से लिया गया); यह चिदाकासम की ओर संकेत करता है, चेतना का आकाश, वेदों और धर्म ग्रंथों के अनुसार इसे प्राप्त करना ही अंतिम उद्देश्य होना चाहिए।
एक अन्य सिद्दांत यह है कि इसे चित + अम्बलम से लिया गया है। अम्बलम का अर्थ होता है, कला प्रदर्शन के लिए एक "मंच". चिदाकासम परम आनंद या आनंद की एक अवस्था है और भगवान नटराजर इस परम आनंद या आनंद नतनम के प्रतीक माने जाते हैं। शैव मत वालों क यह विश्वास है कि चिदंबरम में एक बार दर्शन करने से वह मुक्त हो जायेंगे.
एक अन्य सिद्धांत के अनुसार यह नाम चित्राम्बलम से लिया गया है, जिसमे चिथु का अर्थ है "भगवानों का नृत्य या क्रीड़ा" और अम्बलम का अर्थ है "मंच".
विशेष आकर्षण
इस मंदिर की एक अनूठी विशेषता आभूषणों से युक्त नटराज की छवि है। यह भगवान शिव को भरतनाट्यम नृत्य के देवता के रूप में प्रस्तुत करती है और यह उन कुछ मंदिरों में से एक है जहां शिव को प्राचीन लिंगम के स्थान पर मानवरूपी मूर्ति के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। देवता नटराज का ब्रह्मांडीय नृत्य भगवन शिव द्वारा अनवरत न्रह्मांड की गति का प्रतीक है। मंदिर में पांच आंगन हैं।
अरगालुर उदय इरर तेवन पोंपराप्पिननम (उर्फ़ वन्कोवरैय्यन) ने 1213 एडी (AD) के आसपास मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया था। इन्ही बन प्रमुख ने तिरुवन्नामलाई का मंदिर भी बनवाया था।
पारंपरिक रूप से मंदिर का प्रशासन एक अपने ही समूह में विवाह करने वाले दिक्षितर नाम से जाने जाने वाले शैव ब्रह्मण समुदाय द्वारा देखा जाता है, जो मंदिर के पुजारी के रूप में भी पदभार संभालते हैं।
यह तमिलनाडु सरकार और दिक्षितर समुदाय के बीच लम्बे समय से चली आ रही कानूनी लड़ाई की पराकाष्ठा थी। इसकी शुरुआत तब हुई जब सरकार ने गैर-दिक्षितर लोगों को भी 'पवित्र गर्भगृह' (संस्कृत: गर्भगृह) में भगवान शिव की थेवरम स्तुति गाने की अनुमति दे दी, जिस पर दिक्षितर समुदाय ने आपत्ति की और यह दावा किया कि उन्हें नटराज के गर्भगृह में पूजा करने का विशेषधिकार प्राप्त है।
चिदंबरम मंदिर की पौराणिक कथा और इसका महत्व
पौराणिक कथा
चिदंबरम की कथा भगवान शिव की थिलाई वनम में घूमने की पौराणिक कथा के साथ प्रारंभ होती है, (वनम का अर्थ है जंगल और थिलाई वृक्ष - वानस्पतिक नाम एक्सोकोरिया अगलोचा (Exocoeria agallocha), वायुशिफ वृक्षों की एक प्रजाति - जो वर्तमान में चिदंबरम के निकट पिचावरम के आर्द्र प्रदेश में पायी जाती है। मंदिर की प्रतिमाओं में उन थिलाई वृक्षों का चित्रण है जो दूसरी शताब्दी सीइ के काल के हैं).
अज्ञानता का दमन
थिलाई के जंगलों में साधुओं या 'ऋषियों' का एक समूह रहता था जो तिलिस्म की शक्ति में विश्वास रखता था और यह मानता था कि संस्कारों और 'मन्त्रों' या जादुई शब्दों के द्वारा देवता को अपने वश किया जा सकता है। भगवान जंगल में एक अलौकिक सुन्दरता व आभा के साथ भ्रमण करते हैं, वह इस समय एक 'पित्चातंदर' के रूप में होते हैं, अर्थात एक साधारण भिक्षु जो भिक्षा मांगता है। उनके पीछे पीछे उनकी आकर्षक आकृति और सहचरी भी चलती हैं जो मोहिनी रूप में भगवान विष्णु हैं। ऋषिगण और उनकी पत्नियां मोहक भिक्षुक और उसकी पत्नी की सुन्दरता व आभा पर मोहित हो जाती हैं।
अपनी पत्नियों को इस प्रकार मोहित देखकर, ऋषिगण क्रोधित हो जाते हैं और जादुई संस्कारों के आह्वान द्वारा अनेकों 'सर्पों' (संस्कृत: नाग) को पैदा कर देते हैं। भिक्षुक के रूप में भ्रमण करने वाले भगवान सर्पों को उठा लेते हैं और उन्हें आभूषण के रूप में अपने गले, आभारहित शिखा और कमर पर धारण कर लेते हैं। और भी अधिक क्रोधित हो जाने पर, ऋषिगण आह्वान कर के एक भयानक बाघ को पैदा कर देते हैं, जिसकी खाल निकालकर भगवान चादर के रूप में अपनी कमर पर बांध लेते हैं।
पूरी तरह से हतोत्साहित हो जाने पर ऋषिगण अपनी सभी आध्यात्मिक शक्तियों को एकत्र करके एक शक्तिशाली राक्षस मुयालकन का आह्वान करते हैं - जो पूर्ण अज्ञानता और अभिमान का प्रतीक होता है। भगवान एक सज्जनातापूर्ण मुस्कान के साथ उस राक्षस की पीठ पर चढ़ जाते हैं, उसे हिल पाने में असमर्थ कर देते हैं और उसकी पीठ पर आनंद तान्डव (शाश्वत आनंद का नृत्य) करते हुए अपने वास्तविक रूप का प्रदर्शन करते हैं। ऐसा देखकर ऋषिगण यह अनुभव करते हैं कि यह देवता सत्य हैं तथा जादू व संस्कारों से परे हैं और वह समर्पण कर देते हैं।
आनंद तांडव मुद्रा
भगवान शिव की आनंद तांडव मुद्रा एक अत्यंत प्रसिद्ध मुद्रा है जो संसार में अनेकों लोगो द्वारा पहचानी जाती है (यहां तक कि अन्य धर्मों को मानाने वाले भी इसे हिंदुत्व की उपमा देते हैं). यह ब्रह्मांडीय नृत्य मुद्रा हमें यह बताती है कि एक भरतनाट्यम नर्तक/नर्तकी को किस प्रकार नृत्य करना चाहिए।
नटराज के पंजों के नीचे वाला राक्षस इस बात का प्रतीक है कि अज्ञानता उनके चरणों के नीचे है
उनके हाथ में उपस्थित अग्नि (नष्ट करने की शक्ति) इस बात की प्रतीक है कि वह बुराई को नष्ट करने वाले हैं
उनका उठाया हुआ हाथ इस बात का प्रतीक है कि वे ही समस्त जीवों के उद्धारक हैं।
उनके पीछे स्थित चक्र ब्रह्माण्ड का प्रतीक है।
उनके हाथ में सुशोभित डमरू जीवन की उत्पत्ति का प्रतीक है।
यह सब वे प्रमुख वस्तुएं है जिन्हें नटराज की मूर्ति और ब्रह्मांडीय नृत्य मुद्रा चित्रित करते हैं।
मेलाकदाम्बुर मंदिर जो यहां से लगभग 32 किलोमीटर की दूरी पर है वहां एक दुर्लभ तांडव मुद्रा देखने को मिलती है। इस कराकौयल में, एक बैल के ऊपर नृत्य करते हुए नटराज और इसके चारों ओर खड़े हुए देवता चित्रित हैं, यह मंदिर में राखी गयी पाला कला शैली का एक नमूना है।
आनंद तांडव
अधिशेष सर्प, जो विष्णु अवतार में भगवान की शैय्या के रूप में होता है, वह आनंद तांडव के बारे में सुन लेता है और इसे देखने व इसका आनंद प्राप्त करने के लिए अधीर होने लगता है। भगवान उसे आशीर्वाद देते हैं और उसे संकेत देते हैं कि वह 'पतंजलि' का साध्विक रूप धर ले और फिर उसे इस सूचना के साथ थिलाई वन में भेज देते हैं कि वह कुछ ही समय में वहां पर यह नृत्य करेंगे।
पतंजलि जो कि कृत काल में हिमालय में साधना कर रहे थे, वे एक अन्य संत व्यघ्रपथर / पुलिकालमुनि (व्याघ्र / पुलि का अर्थ है "बाघ" और पथ / काल का अर्थ है "चरण" - यह इस कहानी की ओर संकेत करता है कि किस प्रकार वह संत इसलिए बाघ के सामान दृष्टि और पंजे प्राप्त कर सके जिससे कि वह भोर होने के काफी पूर्व ही वृक्षों पर चढ़ सकें और मधुमक्खियों द्वारा पुष्पों को छुए जाने से पहले ही देवता के लिए पुष्प तोड़ कर ला सकें) के साथ चले जाते हैं। ऋषि पतंजलि और उनके महान शिष्य ऋषि उपमन्यु की कहानी विष्णु पुराणं और शिव पुराणं दोनों में ही बतायी गयी है। वह थिलाई वन में घूमते हैं और शिवलिंग के रूप में भगवान शिव की पूजा करते हैं, वह भगवान जिनकी आज थिरुमूलातनेस्वरर (थिरु - श्री, मूलतानम - आदिकालीन या मूल सिद्धांत की प्रकृति में, इस्वरर - देवता) के रूप में पूजा की जाती है। पौराणिक कथाओं के अनुसार यह माना जाता है कि भगवन शिव ने इन दोनों ऋषियों के लिए अपने शाश्वत आनंद के नृत्य (आनंद तांडव) का प्रदर्शन - नटराज के रूप में तमिल माह थाई (जनवरी - फरवरी) में पूसम नक्षत्र के दिन किया।
महत्व
चिदंबरम का उल्लेख कई कृतियों में भी किया गया है जैसे थिलाई (योर के थिलाई वन पर आधारित जहां पर मंदिर स्थित है), पेरुम्पत्रपुलियुर या व्याघ्रपुराणं (ऋषि व्याघ्रपथर के सम्मान में).
ऐसा माना जाता है कि मंदिर ब्रह्माण्ड के कमलरूपी मध्य क्षेत्र में अवस्थित है": विराट हृदया पद्म स्थलम . वह स्थान जहां पर भगवन शिव ने अपने शाश्वत आनद नृत्य का प्रदर्शन किया था, आनंद तांडव - वह ऐसा क्षेत्र है जो "थिरुमूलातनेस्वर मंदिर" के ठीक दक्षिण में है, आज यह क्षेत्र पोंनाम्बलम / पोर्साबाई (पोन का अर्थ है स्वर्ण, अम्बलम /सबाई का अर्थ है मंच) के नाम से जाना जाता है जहां भगवन शिव अपनी नृत्य मुद्रा में विराजते हैं। इसलिए भगवान भी सभानायकर के नाम से जाने जाते हैं, जिसका अर्थ होता है मंच का देवता.
स्वर्ण छत युक्त मंच चिदंबरम मंदिर का पवित्र गर्भगृह है और यहां तीन स्वरूपों में देवता विराजते हैं:
"रूप" - भगवान नटराज के रूप में उपस्थित मानवरूपी देवता, जिन्हें सकल थिरुमेनी कहा जाता है।
"अर्ध-रूप" - चन्द्रमौलेस्वरर के स्फटिक लिंग के रूप में अर्ध मानवरूपी देवता, जिन्हें सकल निष्कला थिरुमेनी कहा जाता है।
"आकाररहित" - चिदंबरा रहस्यम में एक स्थान के रूप में, पवित्र गर्भ गृह के अन्दर एक खाली स्थान, जिसे निष्कला थिरुमेनी कहते हैं।
पंच बूथ स्थल
चिदंबरम पंच बूथ स्थलों में से एक है, जहां भगवान की पूजा उनके अवतार के रूप में होती है, जैसे आकाश या आगयम ("पंच" - अर्थात पांच, बूथ - अर्थात तत्व: पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और अंतरिक्ष और "स्थल" अर्थात स्थान).
अन्य हैं:
कांचीपुरम में एकम्बरेस्वरर मंदिर, जहां भगवान की पूजा उनके पृथ्वी रूप में की जाती है
तिरुचिरापल्ली, थिरुवनाईकवल में जम्बुकेस्वरर मंदिर, जहां भगवान की पूजा उनके जल रूप में की जाती है
तिरुवन्नामलाई में अन्नामलाइयर मंदिर, जहां भगवान की पूजा अग्नि रूप में की जाती है
श्रीकलाहस्थी में कलाहस्ती मंदिर, जहां भगवान की पूजा उनके वायु रूप में की जाती है
चिदंबरम उन पांच स्थलों में से भी एक है जहां के लिए यह कहा जाता है कि भगवान शिव ने इन स्थानों पर नृत्य किया था और इन सभी स्थलों पर मंच / सभाएं हैं। चिदंबरम के अतिरिक्त वह स्थान जहां पोर सभई है, अन्य थिरुवालान्गादु में रतिना सभई (रथिनम - मानिक / लाल), कोर्ताल्लम में चित्र सभई (चित्र - कलाकारी), मदुरई मीनाक्षी अम्मन मंदिर में रजत सभई या वेल्ली अम्बलम (रजत / वेल्ली -चांदी) और तिरुनेलवेली में नेल्लैअप्पर मंदिर में थामिरा सभई (थामिरम - तांबा).
मंदिर के भक्त
संत सुन्दरर अपने थिरुथोंडर थोगाई (भगवान शिव के 63 भक्तों की पवित्र सूची) का प्रारंभ यही से, थिलाई मंदिर के पुजारी का सम्मान करने के द्वारा करते हैं।
थिलाई के पुजारियों के भक्तों के लिए, मैं एक भक्त हूं.
चार कवि संतों ने इस मंदिर और यहां के देवता को अपनी कविताओं में सदा के लिए अमर कर दिया है - थिरुग्नना सम्बंथर, थिरुनावुक्कारसर, सुन्दरामूर्थी नायनर और मनिकाव्यसागर. प्रथम तीनों की संयुक्त कृतियां प्रायः देवाराम के नाम से जानी जाती हैं लेकिन यह गलत है। मात्र अप्पर के (थिरुनावुक्कारसर) गीत देवाराम के नाम से जाने जाते हैं। सम्बंथर के गीत थिरुकड़ाईकप्पू के नाम से जाने जाते हैं। सुन्दरर के गीत थिरुपातु के नाम से जाने जाते हैं।
थिरुग्नना सम्बंथर ने चिदंबरम के भगवान की प्रशंसा में दो गीतों की रचना की थी, थिरुनावुक्कारसर उर्फ़ अप्पर ने नटराज की प्रशंसा में 8 देवाराम की रचना की और सुन्दरर ने भगवान नटराज की प्रशंसा में 1 गीत की रचना की थी।
मनिकाव्यसागर ने दो कृतियों की रचना की थी, पहली का नाम तिरुवसाकम (पवित्र उच्चारण) है जिसेके अधिकांश भाग का पाठ चिदंबरम में किया गया है और तिरुचित्रम्बलाक्कोवैय्यर (उर्फ़ थिरुकोवैय्यर), जिसका पूर्ण पाठ चिदंबरम में किया गया है। ऐसा कहा जाता है कि मनिकाव्यसागर को चिदंबरम में आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति हुई थी।
प्रथम तीन संतों की कृतियां मंदिर में ताड़ पत्रों पर पांडुलिपि के रूप में अंकित कर ली गयी थीं और चोल रजा अरुन्मोज्हीवर्मन द्वारा पुनः प्राप्त की गई थीं, इन्हें नाम्बिंद्रनम्बी के नेतृत्व में अधिक प्रचलित रूप से श्री राजराजा चोल के नाम से जाना जाता था।
मंदिर की वास्तुकला और महत्व
गोपुरम
मंदिर में कुल 9 द्वार हैं जिनमे से 4 पर ऊंचे पगोडा या गोपुरम बने हुए हैं प्रत्येक गोपुरम में पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर की ओर 7 स्तर हैं। पूर्वीय पगोडा में भारतीय नृत्य शैली - भरतनाट्यम की संपूर्ण 108 मुद्रायें (कमम्स) अंकित हैं।
पांच सभाएं
यह 5 सभाएं या मंच या हॉल हैं:
चित सभई, पवित्र गर्भगृह है जहां भगवान नटराज और उनकी सहचरी देवी शिवाग्मासुन्दरी रहती हैं।
कनक सभई - यह चितसभई के ठीक सामने है, जहां से दैनिक संस्कार सम्पादित किये जाते हैं।
नृत्य सभई या नाट्य सभई, यह मंदिर ध्वजा के खम्भे (या कोडी मारम या ध्वजा स्तंभम) के दक्षिण की ओर है, जहां मान्यता के अनुसार भगवान ने देवी काली के साथ नृत्य किया था - शक्ति का मूर्तरूप और उन्हों अपनी प्रतिष्ठा भी स्थापित कर दी थी।
राजा सभई या 1000 स्तंभों वाला हॉल जो हज़ार खम्भों से युक्त कमल या सहस्रराम नामक यौगिक चक्र का प्रतीक है (जो योग में सर के प्रमुख बिंदु पर स्थित एक 'चक्र' होता है और यही वह स्थान होता है जहां आत्मा का परमात्मा से मिलन होता है। इस चक्र को 1000 पंखुरियों वाले कमल के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। ऐसा कहा जाता है कि सहस्र चक्र पर ध्यान लगाने से परमसत्ता से मिलन की अवस्था को प्राप्त किया जा सकता है और यह यौगिक क्रियाओं का सर्वोच्च बिंदु माना जाता है)
देव सभई, जहां पंच मूर्तियां विराजमान हैं (पंच - पांच, मूर्तियां - देवता, इन देवताओं के नाम हैं भगवान गणेश - विघ्नहर्ता, भगवान सोमास्कंद, एक रूप जिसमे भगवान अपनी आभा और सहचरी के साथ बैठी हुई मुद्रा में हैं, भगवान की सहचरी सिवनंदा नायकी, भगवान मुरुगा और भगवान चंडीकेस्वरर - भगवान के भक्तों के प्रमुख).
अन्य धार्मिक स्थल
पांच सभाइयों के अतिरिक्त अन्य स्थल हैं:
वास्तविक शिवलिंगम का वह धार्मिक स्थल जहां ऋषि पतंजलि और व्यघ्रापथर पूजा करते थे - जिसे थिरु आदिमूलानाथर कहते हैं और उनकी सहचरी उमैयाम्माई (உமையம்மை) या उमैया पार्वथी के नाम से जानी जाती हैं।
भगवान शिव के 63 प्रमुख भक्तों का धार्मिक स्थल - या अरुबाथथू मूवर
सिवगामी का धार्मिक स्थल - ज्ञान का एक मूर्तरूप या ज्ञानशक्ति
भगवान गणेश के लिए - उनके विघ्नहर्ता अवतार के रूप में
भगवान मुरुगा या पांडिया नायकन के लिए - ऊजा के तीनों रूपों को धारण करने वाले अवतार के रूप में, इत्चाई या "इच्छा" जिसका प्रतिनिधित्व उनकी सहचरी वल्ली करती हैं, क्रिया या "कर्म" जिसका प्रतिनिधित्व उनकी सहचरी देवयानी करती हैं और ज्ञान या "जानकारी" जिसका प्रतिनिधित्व उनके द्वारा धारण किये जाने वाले भाले से होता है जो अज्ञानता को समाप्त करता है।
मंदिर के परिसर में अन्य कई छोटे धार्मिक स्थल भी हैं।
मंदिर और उसके चारों ओर स्थित जल निकाय
मूर्थी (प्रतिमा), स्थलम (स्थान) और थीर्थम (जल निकाय) एक मंदिर की पवित्रता का प्रतीक होते हैं। चिदंबरम मंदिर के अन्दर और इसके आसपास चारों तरफ अनेकों जल निकाय उपलब्ध हैं।
40 acres (160,000m2)पर स्थित मंदिर भवन में मंदिर का सरोवर भी है - जिसका नाम सिवगंगा (சிவகங்கை). यह विशाल सरोवर मंदिर के तीसरे गलियारे में है जो देवी सिवगामी के धार्मिक स्थल के ठीक विपरीत है।
परमानन्द कूभम चित सभई के पूर्वी दिशा में स्थित एक कुआं है जहां से मंदिर में पूजा के लिए जल लिया जाता है।
कुय्या थीर्थम, बंगाल की खाड़ी के निकट स्थित किल्ली जोकि चिदंबरम के निकट है में अवस्थित है और इसके किनारे को पसामारुथनथुरई कहते हैं।
पुलिमादु चिदंबरम के दक्षिण की ओर लगभग डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर है।
व्य्घ्रापथ थीर्थम चिदंबरम मंदिर की पश्चिमी दिशा में भगवान इलमी अक्किनार के ठीक विपरीत स्थित है।
अनंत थीर्थम चिदंबरम मंदिर के पश्चिम में अनंथारेस्वरार के मंदिर के ठीक सामने स्थित है।
अनंता थीर्थम के पश्चिम में नागसेरी नामक एक सरोवर है।
थिरुकलान्रीजेरी में चिदंबरम मंदिर के उत्तर-दक्षिण दिशा में ब्रह्म थीर्थम स्थित है।
चिदंबरम मंदिर के उत्तर कि ओर सिव पिरियाई नाम का एक सरोवर है यह ब्रह्म चामुंडेस्वरी मंदिर (उर्फ़ थिलाई काली मंदिर) के ठीक विपरीत है।
थिरुपरक्डल, सिव पिरियाई के दक्षिण-पूर्व में स्थित एक सरोवर है।
श्री गोविन्दराज स्वामी मंदिर
चिदंबरम मंदिर के भवन में भगवान गोविन्दराज पेरूमल और उनकी सहचरी पुन्दरीगावाल्ली थाय्यर का भी मंदिर है। यह दावा किया जाता है कि यह मंदिर थिलाई थिरुचित्रकूटम है और 108 दिव्यआदेशों में से एक है - या भगवान विष्णु के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से है, जिसे भगवान विष्णु के प्रमुख भक्तों द्वारा गायी गयी स्तुति (नालायिरा दिव्य प्रबंथनम) द्वारा पवित्र (मंगल सासनम) किया गया है (जिन्हें कहा जाता है अलवर). चित्रकूटम (लेकिन वर्तमान रूप में स्थित गोविन्दराज मंदिर नहीं) को कुलसेकरा अलवर और तिरिमंगाई मन्नन अलवर द्वारा गाया गया था। दोनों अल्वरों ने कहा है कि चिदंबरम ब्रह्मण (दीक्षित समुदाय) ही वह ब्रह्मण हैं जो चित्रकूटम में भगवान की वैदिक एवम उचित पूजा कर रहे थे। हालांकि इस सम्बन्ध में कई विवाद हैं, क्योंकि कई लोग यह मानते हैं कि वह चित्रकूटम जिसकी ओर अलवर लोगों द्वारा संकेत किया जा रहा है वह उत्तरप्रदेश में स्थित चित्रकूट हो सकता है जहां राम ने विश्वामित्र और अत्री जैसे मुनियों के आश्रम में समय व्यतीत किया था। लेकिन इस तरह किये गए सभी दावे व्यर्थ हैं क्योंकि अज्ह्वर्स मंगल्सासनम का बारीकी से अध्ययन करने पर उन धार्मिक स्थलों का पता चलता है जो भौगोलिक अवस्था के आधार पर एक क्रम में रखे गए हैं जैसे, महाबलिपुरम (ममाल्लापुरम), तिरुवयिन्द्रपुरम (कदलौर के निकट), चिदंबरम (तिल्ली तिरुचित्रकूटम), सीर्गाज्ही (काज्हिचिरमा विन्नागरम), तिरुनान्गुर इत्यादि. वैष्णव मतावलंबियों की ओर से ऐसा भी ऐतिहासिक दावा किया गाया है कि मूलरूप से यह मंदिर भगवान श्री गोविन्दराजास्वामी का निवास था और भगवान शिव अपनी सहचरी के साथ उनसे संपर्क करने आये थे जिससे कि वह युगल जोड़े के मध्य नृत्य प्रतिस्पर्धा के निर्णायक बन जायें. भगवान गोविन्दराजास्वामी इस बात पर सहमत हो गए और और शिव एवम पार्वती दोनों के मध्य बराबरी पर नृत्य प्रतिस्पर्धा चलती रही जिसके दौरान भगवान शिव विजयी होने की युक्ति जानने के लिए श्री गोविन्दराजास्वामी के पास गए और उन्होंने संकेत दिया कि वह अपना एक पैर उठायी हुई मुद्रा में नृत्य कर सकते हैं। महिलाओं के लिए, नाट्य अशास्त्र के अनुसार यह मुद्रा वर्जित थी इसीलिए जब अंततः भगवान शिव इस मुद्रा में आ गए तो पार्वती ने पराजय स्वीकार कर ली और इसीलिए इस स्थान पर भगवान शिव की मूर्ति नृत्य मुद्रा में है। नृत्य मंच या खुले मैदान को प्रायः अम्बलम कहा जाता है। भगवान गोविन्दराजास्वामी इस प्रतिस्पर्धा के निर्णयकर्ता और साक्षी दोनों ही थे। लेकिन बाद में शैव धर्मोन्मत्त राजाओं जैसे किरुमी कंदा चोल (द्वीतीय कुलोथुंगन के नाम से भी प्रचलित) आदि के सांस्कृतिक आक्रमण के दौरान इस स्थल को एक शैव धार्मिक स्थल के रूप में अधिक प्रचारित कर दिया गया। धीक्षिता समुदाय को बलपूर्वक शैव अनुयायियों में बदल दिया गया (धीक्षिता समुदाय जो उस समय तक वैदिक प्रणाली का अनुसरण करता था, उसे शैव आगम के बारे में कोई ज्ञान नहीं था क्योंकि यह एक अवैदिक प्रणाली थी, ब्राह्मण होनेके कारण उन्हें अपने ब्राह्मणत्व की प्रतिष्ठा त्याग देने के स्थान पर अपने देवता के स्वरुप में परिवर्तन करना ही उचित लगा और इसीलिए वह दीक्षित संप्रदाय के एकलौते समूह हैं जो शिव मंदिर में वैदिक प्रणालियों का अनुसरण करते हैं).
मंदिर की कलाकारी का महत्व
मंदिर का खाका और वास्तुकला दार्शनिक अर्थों से परिपूर्ण है।
पांच में से तीन पंचबूथस्थल मंदिर, जोकि कालहस्ती, कांचीपुरम और चिदंबरम में हैं वह सभी ठीक 79'43" के पूर्वीय देशांतर पर एक सीध में हैं - जो वास्तव में प्रौद्योगिकी, ज्योतिषीय और भौगोलिक दृष्टि से एक चमत्कार है। अन्य दो मंदिरों में से, तिरुवनाइक्कवल इस पवित्र अक्ष पर दक्षिण की ओर 3 अंश पर और उत्तरी छोर के पश्चिम से 1 अंश पर स्थित है, जबकि तिरुवन्नामलाई लगभग बीच में है (दक्षिण की और 1.5 अंश और पश्चिम की और 0.5 अंश).
इसके 9 द्वार मनुष्य के शरीर के 9 विवरों की ओर संकेत करते हैं।
चितसभई या पोंनाम्बलम, पवित्र गर्भगृह ह्रदय का प्रतीक है जहां पर 5 सीढ़ियों द्वारा पहुंच जाता है इन्हें पंचाटचारा पदी कहते हैं - पंच अर्थात 5, अक्षरा - शाश्वत शब्दांश - "सि वा या ना मा", उच्च पूर्ववर्ती मंच से - कनकसभई. सभई तक पहुंचने का मार्ग मंच के किनारे से है (ना कि सामने से जैसा कि अधिकांश मंदिरों में होता है).
पोंनाम्बलम या पवित्र गर्भ गृह 28 स्तंभों द्वारा खड़ा है - जो 28 आगम या भगवान शिव की पूजा के लिए निर्धारित रीतियों के प्रतीक हैं। छत 64 धरनों के समूह पर आधारित है जो कला के 64 रूपों के प्रतीक हैं इसमें अनेकों आड़ी धरनें भी हैं जो असंख्य रुधिर कोशिकाओं की ओर संकेत करती हैं। छत का निर्माण 21600 स्वर्ण टाइलों के द्वारा किया गया है जिनपर शब्द सिवायनाम लिखा है, यह 21600 श्वासों का प्रतीक है। यह स्वर्ण टाइलें 72000 स्वर्ण कीलों की सहायता से लगायी गयी हैं जो मनुष्य शरीर में उपस्थित नाड़ियों की संख्या का प्रतीक है। छत के ऊपर 9 पवित्र घड़े या कलश स्थापित किये गए हैं, जो ऊर्जा के 9 रूपों के प्रतीक हैं। (उमापति सिवम की कुंचितान्ग्रीस्थवं का सन्दर्भ लें)
सतारा में स्थित श्री नटराज मंदिर इसी मदिर की एक प्रतिकृति है।
मंदिर का रथ
चिदंबरम मंदिर का रथ संभवतः संपूर्ण तमिलनाडु में किसी मंदिर के रथ का सबसे सुन्दर उदहारण है। यह रथ जिस पर भगवान नटराज वर्ष में दो बार बैठते हैं, त्योहारों के दौरान असंख्य भक्तों द्वारा खींची जाती है।
एक आदर्श शिव मंदिर की संरचना - चित्त और अम्बरम की व्याख्या
आगम नियमों के अनुसार एक आदर्श शिव मंदिर में पांच प्रकार या परिक्रमा स्थल होंगे और उनमे से प्रत्येक एक के अन्दर एक दीवार के द्वारा विभाजित होंगे। आतंरिक परिक्रमा पथों को छोड़कर अन्य बाहरी परिक्रमा पथ खुले आकाश के नीचे होंगे। सबसे अन्दर वाले परिक्रमा पथ में प्रधान देवता और अन्य देवता विराजमान होंगे। प्रधान देवता की ठीक सीध में एक काष्ठ का या पत्थर का विशाल ध्वजा स्तम्भ होगा।
सबसे अन्दर के परिक्रमा पथ में पवित्र गर्भ गृह (तमिल में करुवरई) स्थित होगा। इसमें परम प्रभु, शिव विराजमान होंगे।
एक शिव मंदिर की संरचना के पीछे प्रतीकवाद
मंदिर इस प्रकार निर्मित है कि यह अपनी समस्त जटिलताओं सहित मानव शरीर से मिलता है।
एक दूसरे को परिवेष्टित कराती हुई पांच दीवारें मानव अस्तित्व के कोष (आवरण) हैं।
सबसे बाहरी दीवार अन्नामय कोष है, जो भौतिक शरीर का प्रतीक है।
दूसरा प्राणमय कोष है, जो जैविक शक्ति या प्राण के आवरण का प्रतीक है।
तीसरा मनोमय कोष है, जो विचारों, मन के आवरण का प्रतीक है।
चौथा विग्नयाना माया कोष है, जो बुद्धि के आवरण का प्रतीक है।
सबसे भीतरी और पांचवां आनंद माया कोष है, जो आनंद के आवरण का प्रतीक है।
गर्भगृह जो परिक्रमा पथ में है और आनंद माया कोष आवरण का प्रतीक है, उसमे देवता विराजते हैं जो हमारे अन्दर जीव रूप में विद्यमान हैं। यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि गर्भगृह एक प्रकाशरहित स्थान होता है, जैसे वह हमारे ह्रदय के अन्दर स्थित हो जो प्रत्येक दिशा से बाद होता है।
प्रवेश देने वाले गोपुरों की तुलना एक व्यक्ति जो अपने पैर के अंगूठे को ऊपर उठाकर अपनी पीठ के बल पर लेटा हो, से करके उन्हें चरणों की उपमा दी गयी है।
ध्वजा स्तंभ सुषुम्न नाड़ी का प्रतीक है जो मूलाधार (रीड़ की हड्डियो का आधार) से उठती है और सहस्रर (मस्तिष्क की शिखा) तक जाती है।
कुछ मंदिरों में तीन परिक्रमा पथ होते हैं। यहां यह एक मनुष्य के स्थूल, सूक्ष्मांद कर्ण शरीर (शरीरों) को प्रस्तुत करते हैं, कुछ मंदिरों में सिर्फ एक ही परिक्रमा पथ होता है यह पांचों को ही प्रस्तुत करता है।
चिदंबरम मंदिर और उसके प्रतीक
संत थिरुमूलर, जिनकी पौराणिक कथा जटिल रूप से चिदंबरम से जुड़ी हुई है, वह अपनी कृति थिरुमंथिरम में कहते हैं
திருமந்திரம்
மானுடராக்கை வடிவு சிவலிங்கம்
மானுடராக்கை வடிவு சிதம்பரம்
மானுடராக்கை வடிவு சதாசிவம்
மானுடராக்கை வடிவு திருக்கூத்தே
अंग्रेजी के यह शब्द हिंदी शब्दावली में लिखे जाने पर निम्न भाव व्यक्त करते हैं कि:
मनुदारक्कई वादिवु सिवलिंगम
मनुदारक्कई वादिवु चिदंबरम
मनुदारक्कई वादिवु सदासिवं
मनुदारक्कई वादिवु थिरुक्कोथे
"अर्थ: "शिवलिंग मानव शरीर का एक रूप है; इसी प्रकार चिदंबरम भी, इसी प्रकार सदासिवं भी और उनका पवित्र नृत्य भी".
मंदिर में उपरिलिखित पांच परिक्रमा पथ होते हैं जो पांच आवरणों से समानता रखते हैं।
नटराज स्वर्ण छत युक्त चित सभा नमक गर्भगृह से दर्शन देते हैं।
छत 21600 स्वर्ण टाइलों द्वारा बनायी गयी है (चित्र देखें), यह संख्या एक दिन में एक व्यक्ति द्वारा ली गयी श्वासों की संख्या को व्यक्त करती है।
यह टाइलें लकड़ी की छत पर 72,000 कीलों की सहायता से लगायी गयी हैं जो नाड़ियों (अदिश्य नलिकाएं जो शारीर के विभिन्न अंगों में ऊर्जा का संचार करती हैं) की संख्या को व्यक्त करती हैं।
जिस प्रकार ह्रदय शारीर की बायीं और होता है, ठीक उसी प्रकार चिदंबरम में गर्भगृह भी कुछ बायीं तरफ स्थित है।
चित सभा की छत के शिखर पर हमें 9 कलश (तांबे से निर्मित) दिखायी पड़ते हैं जो 9 शक्तियों के प्रतीक हैं।
छत पर 64 आड़ी काष्ठ निर्मित धरन हैं जो 64 कलाओं का प्रतीक हैं।
अर्थ मंडप में 6 खम्भे हैं जो 6 शास्त्रों के प्रतीक हैं।
अर्थ मंडप के बगल वाले मंडप में 18 खम्भे हैं जो 18 पुराणों के प्रतीक हैं।
कनक सभा से चित सभा में जाने के लिए पांच सीढियां हैं जो
पांच अक्षरीय पंचाक्षर मन्त्र की प्रतीक हैं।
चित सभा की छत चार खम्भों की सहायता से खड़ी है जो चार वेदों के प्रतीक हैं।
नटराज स्वामी के प्रतीक
ऐसा कहा जाता है कि नटराज का नृत्य पांच पवित्र कर्मों का चित्रण है जो इस प्रकार हैं:
स्थापना नटराज अपने एक दाहिने हाथ में छोटा सा डमरू लेकर नृत्य करते हैं जिसे डमरूकम कहा जाता है। एस्वारा नाद ब्राह्मण होते हैं। वह सभी प्रकार के स्वरों (नादम) के उत्पत्तिकर्ता हैं। यह बीज (विन्दु) है जिससे ब्रह्माण्ड रुपी वृक्ष उत्पन्न हुआ है।
रक्षात्मक (परिचालन)- अन्य दाहिने हाथों में देवता अभय मुद्रा में हैं, जिसक आर्थ है कि वह दयालु संरक्षणकर्ता हैं।
विनाश; उनके एक बाएं हाथ में अग्नि है, जो विनाश की प्रतीक है। जब सब कुछ आग से नष्ट हो जाता है, केवल राख ही रहेगी जो यहोवा अपने शरीर पर लिप्त है। जब प्रत्येक व्यक्ति अग्नि द्वारा समाप्त कर दिया जाता है, तो सिर्फ रख बचती है जिसे भगवान अपने शरीर पर लगा लेते हैं।
लगाये गए जो चरण हैं वह छिपने की क्रिया की ओर संकेत करते हैं।
उठा हुआ चरण अर्पण का प्रतीक है।
नटराज स्वामी के बायीं तरफ देवी सिवकाम सुंदरी का विग्रह (प्रतिमा) है। यह अर्धनारीश्वर का प्रतीक है, 'वह देवता जिनका अर्ध वाम भाग नारी का है'. उनके दाहिने तरफ एक चित्रपटल है। जब दीप आराधना होती है - तो स्वामी जी को और उनके बायीं तरफ दीपक दिखाया जाता है, चित्रपटल हटा दिया जाता है और हमें स्वर्ण विल्व पत्रों की पांच लम्बी झालरें दिखायी पड़ती हैं। इसके पीछे हमें कुछ नहीं दिखायी पड़ता. सिवकामी सगुण ब्रह्म (आकार युक्त देवता) को प्रदर्शित करती है जो नटराज हैं। सगुण ब्रह्म हमें निर्गुण ब्रह्म की ओर ले जाता है (आकार रहित देवता या ऐसे देवता जिनका आकार ही निराकार है). दिक्षितर समुदाय जो इस मंदिर में पारंपरिक पुजारी है वह इसे 'चिदंबरा रहस्यम' के नाम से बताते हैं।
अनेकों विद्वानों द्वारा शिव के नृत्य को ब्रह्मांडीय नृत्य कहा जाता है। चिदंबरम में इस नृत्य को 'आनंद तांडव' कहा जाता है।
भगवान महा विष्णु ने भी इस नृत्य को देखा था। पास के चित्रकूट नामक मंडप में महा विष्णु हमें अपनी पूर्ण नाग शैय्या पैर लेटी हुई मुद्रा, योग निद्रा में दर्शन देते हैं। यदि कोई नारायण के सामने भूमि के पत्थर पर गढ़े हुए कमल के छोटे पुष्प पर खड़ा होता है तो वह नारायण के साथ साथ इसी समय दाहिनी ओर श्री नटराज के भी दर्शन कर सकता है।
संत पतंजलि और थिरुमूलर ने भी चिदंबरम में नटराज का नृत्य देखा था। यह चित्र चित सभा के चांदी के बने दरवाजों पर अलंकृत किया गया है।
चिदंबरा रहस्यम
चिदंबरम में भगवान शिव के निराकार स्वरुप की पूजा की जाती है। ऐसा कहा जाता है कि भगवान परम आनंद "आनंद तांडव" की अवस्था में अपनी सहचरी शक्ति या ऊर्जा जिन्हें सिवगामी कहते हैं के साथ निरंतर नृत्य कर रहे हैं। एक पर्दा इस स्थान को ढक लेता है जिसे जब डाला जाता है तो स्वर्ण 'विल्व' पत्रों की झालरें दिखायी पड़ती हैं जो भगवान की उपस्थिति का संकेत देती हैं। यह पर्दा अपने बाहरी तरफ से गहरे रंग का (अज्ञानता का प्रतीक) है और अन्दर की ओर से चमकीले लाल रंग का (बुद्धिमत्त और आनंद का प्रतीक) है।
प्रतिदिन के संस्कारों के दौरान, उस दिन के प्रमुख पुजारी स्वयं देवत्व की अवस्था में - शिवोहम भव (शिव - देवता, अपने संधि रूप में - शिवो -, अहम - मैं / हम, भव - मस्तिष्क की अवस्था), परदे को हटाते हैं यह अज्ञानता को हटाने का संकेत होता है और वह स्थान तथा भगवान की उपस्थिति दिखायी पड़ने लगाती है।
इस प्रकार चिदंबरा रहस्य उस काल का प्रतिनिधित्व करता है जब एक व्यक्ति, जो पूर्णतः समर्पित हो, भगवान को हस्तक्षेप और अज्ञानता को हटाने की अनुमति दे देता है, यहां तक कि तब हम उनकी उपस्थिति और आनंद को 'देख कर अनुभव' कर पाते हैं।
मंदिर प्रशासन और दैनिक अनुष्ठान
मंदिर का प्रबंधन और प्रशासन पारंपरिक रूप से चिदंबरम दिक्षितर द्वारा देखा जाता है - यह वैदिक ब्राह्मणों का एक वर्ग है, जो पौराणिक कथाओं के अनुसार, संत पतंजलि द्वारा कैलाश पर्वत से यहां लाये गए थे, मुख्य रूप से दैनिक संस्कारों के संपादन और चिदंबरम मंदिर की देखरेख के लिए।
ऐसा माना जाता है कि दिक्षितर समुदाय के लोगों की संख्या 3000 (वास्तव में 2999, भगवान सहित जोड़ने पर 3000) थी और उन्हें तिल्लई मूवायरम कहा जाता था। आज उनकी संख्या 360 है। यह दिक्षितर शिवाचारियों या अधिसाइवरों के विपरीत वैदिक संस्कारों का पालन करते हैं - जो भगवान शिव की आराधना के लिए आगमिक संस्कारों का पालन करते हैं। मंदिर में निष्पादित संस्कार वेदों से समानुक्रमित हैं और इन्हें पतंजलि द्वारा निर्धारित किया था, जिनके लिए यह माना जाता है कि उन्होंने ही दिक्षितर समुदाय के लोगों को नटराज के रूप में भगवान शिव की आराधना करने के लिए नियुक्त किया था।
आम तौर पर, दीक्षितर परिवार का प्रत्येक विवाहित पुरुष सदस्य मंदिर में संस्कारों को निष्पादित करने का अवसर पाता है और वह उस दिन के प्रमुख पुजारी के रूप में भी कार्य कर सकता है। विवाहित दिक्षितर मंदिर की आय में हिस्सा पाने के अधिकारी भी होते हैं। हालांकि यह माना जाता है कि मंदिर को लगभग 5,000 acres (20km2) उपजाऊ भूमि का दान दिया गया है - और मंदिर अनेक शासकों द्वारा कई शताब्दियों तक संरक्षण भी दिया गया है, आज, इसका प्रबंधन लगभग पूरी तरह से निजी दान के द्वारा हो रहा है।
दिन का आरम्भ उस दिन के प्रमुख पुजारी द्वारा स्वयं को पवित्र करने के संस्कारों के निष्पादन और शिवोहम को ग्रहण करने के साथ होता है, जिसके पश्चात वह दैनिक संस्कारों को करने के लिए मंदिर के अन्दर प्रवेश करते हैं। दिन का आरम्भ सुबह 7 बजे पल्लियराई (या शयनकक्ष) से भगवान की चरणपादुका (पादुकाएं) को एक पालकी में रखकर पवित्र गर्भ गृह में लेन के द्वारा होता है, इस पालकी के पीछे मजीरा, अम्लान्न और मृदंग लिए हुए भक्तगण होते हैं। इसके बाद पुजारी यज्ञ और 'गौ पूजा' (गाय और उसके बछड़े की पूजा) से दैनिक संस्कार शुरू करते हैं।
पूजा दिन में 6 बार की जाती है। प्रत्येक पूजा के पहले, स्फटिक लिंग (क्रिस्टल लिंग) - 'अरु उर्वा' या भगवान शिव के अर्ध साकार रूप का घी, दूध, दही, चावल, चन्दन मिश्रण और पवित्र भश्म द्वारा अभिषेक किया जाता है। इसके बाद भगवान को नैवेद्यम या ताजे बने खाने और मिष्ठान का भोग लगाया जाता है और दीपआराधना की जाती है, यह एक रस्म होती है जिसमे विभिन्न प्रकार के सजावटी दीपक भगवान को दिखाए जाते हैं, संस्कृत में वेदों और पंचपुराणों (तमिल भाषा की 12 कृतियों के एक समूह से लिया गया 5 कविताओं का एक समूह - जिसे पन्नीरु थिरुमुरई कहते हैं) का उच्चारण किया जाता है। पुजारी द्वारा चिदंबरा रहस्यम को प्रकट करने के लिए पवित्र गर्भगृह का पर्दा हटाये जाने के साथ ही पूजा समाप्त हो जाती है।
दूसरी पूजा के पूर्व, नियमित वस्तुओं से स्फटिक के लिंग के अभिषेक के अतिरिक्त, एक माणिक के नटराज देवता (रथिनसभापति) पर भी इन सब वस्तुओं का लेपन किया जाता है। तीसरी पूजा दोपहर में 12 बजे के आसपास होती है जिसके बाद मंदिर 4:30 बजे तक के लिए बंद हो जाता है। चौथी पूजा शाम को 6 बजे की जाती है, पांचवी पूजा रत को 8 बजे की जाती है और दिन की अंतिम पूजा 10 बजे रात में की जाती है, जिसके बाद भगवान की चरणपादुका एक जुलूस के रूप में ले जाई जाती हैं जिससे कि वह रात्रि के लिए 'निवृत्त' हो सकें. रात को पांचवी पूजा से पहले, पुजारी चिदंबरा रहस्य में, जहां उन्होंने सुगन्धित पदार्थों द्वारा यन्त्र पर लेपन किया था और 'नैवेद्यम' अर्पित किया था, वहीं पर कुछ विशेष संस्कारों का निष्पादन करते हैं।
चिदंबरम में अंतिम पूजा, जिसे अर्थजामा पूजा कहते हैं वह विशेष उत्साह के साथ की जाती है। यह माना जाता है कि जब रात में देवता निवृत्त होते हैं तो ब्रह्माण्ड की सभी दैविक शक्तियां उनके अन्दर निवृत्त हो जाती हैं।
अब टी.ऍन. एचआर & सीइ अधिनियम की धारा 45 के अंतर्गत मंदिर पर तमिलनाडु सरकार का अधिकार हो गया है।
हालांकि इस निर्णय को पोडू दिक्षितर समुदाय द्वारा चुनौती दी गयी है। मद्रास उच्च न्यालायाय के 1951 के निर्णय के अनुसार पोडू दिक्षितर समुदाय एक धार्मिक पंथ है। वह मंदिर के प्रशासन को चलाते रहने के अधिकारी हैं क्योंकि भारतीय कानून के अनुच्छेद 26 और टी.ऍन. एचआर और सीइ अधिनियम की धारा 107 सरकार को किसी पंथ के प्रशासन में हस्तक्षेप की आज्ञा नहीं देते. वर्तमान में (अप्रैल 2010) यह मामला भारत के सर्वोच्च न्यायलय में विचाराधीन है। पोधू दिक्षितर समुदाय ने एचआर एंड सीइ आयुक्त द्वारा नियुक्त प्रबंध अधिकारी को सत्ता स्थानांतरित करने से इनकार कर दिया था। प्रबंध अधिकारी ने मंदिर की परम्पराओं के विरुद्ध इस प्राचीन मंदिर में हुण्डीयां लगवा दी हैं। उन्होंने इस धरोहर स्थल पर आधुनिक और ऊंचे स्तम्भ दीपक भी लगवाएं हैं। उनका प्रस्ताव अर्चना टिकट व् दर्शन टिकट चालु चालु करने का है। पोडू दिक्षितरों और भक्तों ने इन सभी कार्यों का विरोध किया है। हालांकि, संस्कारों की प्रक्रिया का प्रबंधन अभी भी दिक्षितरों द्वारा ही किया जाता है।
त्यौहार
ऐसा कहा जाता है कि मनुष्यों का एक पूर्ण वर्ष देवताओं के मात्र एक दिन के बराबर होता है। जिस प्रकार पवित्र गर्भ गृह में दिन में 6 बार पूजा की जाती है, उसी प्रकार प्रमुख देवता - भगवान नटराज के लिए वर्ष में 6 बार अभिषेक का आयोजन किया जाता है।
इनम मर्घज्ही थिरुवाधिराई (दिसंबर - जनवरी में) पहली पूजा के प्रतीक के रूप में, मासी माह (फरवरी - मार्च) के नए चन्द्रमा के चौदह दिन बाद (चतुर्दशी) दूसरी पूजा के प्रतीक के रूप में, चित्तिरै थिरुवोनम (अप्रैल - मई में) तीसरी पूज आया उची कालम के प्रतीक के रूप में, आणि का उठिराम (जून - जुलाई) जिसे आणि थिरुमंजनाम भी कहते हैं यह संध्या की या चौथी पूजा का प्रतीक है, अवनी की चतुर्दशी (अगस्त - सितम्बर) पांचवी पूजा के प्रतीक के रूप में और पुरातासी माह की चतुर्दशी (अक्टूबर - नवम्बर) को, यह अर्थजामा या छठवीं पूजा का प्रतीक है।
इसमें से मर्घज्ही थिरुवाधिराई (दिसंबर - जनवरी) और आनि थिरुनान्जनाम (जून - जुलाई में) सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं। यह प्रमुख त्योहारों के रूप में मनाये जाते हैं जिसमे मुख्या देवता को एक जुलूस के रूप में पवित्र गर्भ गृह से बहार निकाला जाता है, इसमें लम्बे अभिषेक के कार्यक्रम के बाद मंदिर की रथ यात्रा भी शामिल होती है। इस अभिषेक कार्यक्रम को देखने के लिए और जब देवता को वापस गर्भगृह में ले जाया जाता है तो भगवान का पारंपरिक नृत्य देखने के लिए सैकड़ों और हजारों लोग एकत्र होते हैं।
उमापति सिवम की कृति 'कुंचिथान्ग्रीस्थवं' में इस बात के संकेत हैं किमासी त्यौहार के दौरान भी भगवान को जुलूस के रूप में बाहर ले जाया जाता था, हालांकि अब यह प्रचलन में नहीं है।
ऐतिहासिक संदर्भ
उत्पत्ति
दक्षिण के अधिकांश मंदिर 'सजीव' समाधियां हैं, कहने का तात्पर्य यह है कि यह ऐसे स्थल हैं जहां प्रारंभ से ही प्रार्थनाएं की जाती हैं, भक्तों द्वारा नियमित दर्शन किया जाता है और इनकी नियमित देख-रेख भी होती है।
पुराणों में (इतिहास मौखिक रूप से और बाद में लिखित रूप से हस्तांतरित होने लगा) यह उल्लेख है कि संत पुलिकालमुनिवर ने राजा सिम्मवर्मन के माध्यम से मंदिर के अनेकों कार्यों को निर्देशित किया। पल्लव राजाओं में, सिम्मवर्मन नाम के तीन राजा थे (275-300 सीइ, 436-460 सीइ, 550-560 सीइ). चूंकि मंदिर कवि-संत थिरुनावुक्करासर (जिनका काल लगभग 6ठी शताब्दी में अनुमानित है) के समय में पहले से ही प्रसिद्ध था, इसलिए इस बात की अधिक सम्भावना है कि सिम्मवर्मन 430-458 के काल में था, अर्थात सिम्मवर्मन II. कोट्त्रा वंकुदी में ताम्र पत्रों पर की गई पट्टायम या घोषणाएं इस बात को सिद्ध करते हैं। हालांकि, थंदनथोट्टा पट्टायम और पल्लव काल के अन्य पट्टायम इस और संकेत करते हैं कि सिम्मवर्मन का चिदंबरम मंदिर से सम्बन्ध था। अतः यह माना जाता है कि सिम्मवर्मन पल्लव राजवंश के राजकुमार थे जिन्होंने राजसी अधिकारों का त्याग कर दिया था और आकर चिदंबरम में रहने लगे थे। चूंकि ऐसा पाया गया है कि पुलिकाल मुनिवर और सिम्मवर्मन समकालीन थे, इसलिए यह माना जाता है कि मंदिर इसी काल के दौरान निर्मित हुआ था।
हालांकि, यह तथ्य कि संत-कवि मनिकाव्यसागर चिदंबरम में रहे और अलौकिक ज्ञान को पाया किन्तु उनका काल संत-कवि थिरुनावुक्करासर के बहुत पहले का है और जैसा कि भगवान नटराज और उनकी विशिष्ट मुद्रा और प्रस्तुति की तुलना पल्लव वंश के अन्य कार्यों से नहीं की जा सकती क्योंकि यह बहुत श्रेष्ठ है, इसलिए यह संभव है कि मंदिर का अस्तित्व सिम्मवर्मन के समय से हो और बाद के काल में भी कोई पुलिकालमुनिवर नाम के संत हुए हों.
सामायिक अंतरालों (साधारणतया 12 वर्ष) पर बड़े स्तर पर मरम्मत और नवीनीकरण कार्य कराये जाते हैं, नयी सुविधाएं जोड़ी और प्रतिष्ठित की जाती हैं। अधिकांश प्राचीन मंदिर भी समय के साथ व नयी सुवुधाओं के द्वारा 'विकसित' हो गए हैं, वह शासक जिन्होंने मंदिर को संरक्षण दिया, उनके द्वार और अधिक बाहरी गलियारे और गोपुरम (पगोडा) का निर्माण करवाया गया। यद्यपि इस प्रक्रिया ने पूजा स्थलों के रूप में मंदिरों के अस्तित्व को बने रहने में सहायता की, किन्तु एक पूर्ण पुरातात्विक या ऐतिहासिक दृष्टि से इन नावीनिकर्नों ने बिना मंशा के ही अम्न्दिर के मूल ववास्तविक कार्यों को नष्ट कर दिया - जो बाद की भव्य मंदिर योजनाओं से समानता नहीं रखते थे।
चिदंबरम मंदिर भी इस आम चलन का अपवाद नहीं है। अतः मंदिर की उत्पत्ति और विकास काफी हद तक साहित्यिक और काव्यात्मक कार्यों के सम्बंधित सन्दर्भ द्वारा निष्कर्षित है, मौखिक जानकारियो दिक्षितर समुदाय द्वारा और अब शेष रह गयी अत्यंत अल्प पांडुलिपियों व शिलालेखों के माध्यम से पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती गयी।
संगम साहित्य के माध्यम से हम यह जानते हैं कि कि चोल वंश के शासक इस प्राचीन धार्मिक स्थल के महान भक्त थे। चोल राजा कोचेंगंनन के बारे में यह कहा जाता है कि उनका जन्म राजा सुभदेवन और कमलादेवी के बाद हुआ था, जिनकी थिलाई स्वर्ण हॉल में पूजा की जाती है। अतः इस बात कि सम्भावना है कि स्वर्ण हॉल सहित यह मंदिर आज से हजारों वर्ष पूर्व से अस्तित्व में है।
मंदिर की वास्तुकला - विशेषकर पवित्र गर्भ गृह की वास्तुकला चोल वंश, पण्डे वंश या पल्लव वंश के अन्य किसी भी मंदिर की वास्तुकला से मेल भी नहीं करती है। एक सीमा तक, मंदिर के इस रूप में कुछ निश्चित समानताएं है जो चेरा वंश के मंदिर के रूपों से मेल करती हैं लेकिन चेरा राजवंश का सबसे प्राचीन सन्दर्भ जो उपलब्ध है वह कवि-संत सुन्दरर (सिर्का 12 वीं शताब्दी) के काल का है। दुर्भाग्यवश चिदंबरम मंदिर या इससे सम्बंधित कार्य के उपलब्ध प्रमाण 10 वीं शताब्दी और उसके बाद के हैं।
शिलालेख
चिदंबरम मंदिर से सम्बंधित कई शिलालेख आसपास के क्षेत्रों में और स्वयं मंदिर में भी उपलब्ध हैं।
अधिकांश उपलब्ध शिलालेख निम्न कालों से सम्बंधित हैं:
बाद के चोल राजा
राजराजा चोल I 985-1014 सीइ, जिसने तंजौर का विशाल मंदिर बनवाया.
राजेंद्र चोल I 1012-1044 सीइ, जिन्होंने जयमकोंदम में गंगईकोंडाचोलपुरम मंदिर का निर्माण करवाया
कुलोथुंगा चोल I 1070-1120 सीइ
विक्रम चोल 1118-1135 सीइ
राजथिराजा चोल II 1163-1178 सीइ
कुलोथुंगा चोल III 1178-1218 सीइ
राजराजा चोल III 1216-1256 सीइ
पंड्या राजा
थिरुभुवन चक्रवर्थी वीरापांडियन
जतावार्मन थिरुभुवन चक्रवार्थि सुन्दरपांडियन 1251-1268 सीइ
मारवर्मन थिरुभुवन चक्रवर्थी वीराकेरालानाजिया कुलशेकरा पांडियन 1268-1308 सीइ
पल्लव राजा
अवनी आला पिरंधान को-प्पेरुम-सिंघ 1216-1242 सीइ
(संसार पर अधिपत्य करने के लिए जन्मे, महान-शाही- सिंह देवता)
विजयनगर के राजा
वीरप्रथाप किरुत्तिना थेवा महारायर 1509-1529 सीइ
वीरप्रथाप वेंकट देवा महारायर
श्री रंगा थेवा महारायर
अत्च्युथा देवा महारायर (1529-1542 सीइ)
वीरा भूपथिरायर
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चेरा
चेरामान पेरूमल नयनार, रामवर्मा महाराजा के वंशज.
गोपुरम
दक्षिण गोपुरम राजा पंड्या द्वारा निर्मित था। इसका प्रमाण पंड्या राजवंश के मछली के प्रतीक द्वारा मिलता है जो छत पट गढ़ा गया है। ऐतिहासिक दृष्टि से, यह मन जाता है कि गोपीराम का निर्माण पूर्ण होने पर पंड्या राजवंश ने वहां पर एक दूसरे की और सम्मुख दो मछलियों को गढ़वाया था (और एक ही मछली उसी अवस्था में छोड़ी जाती थी, यदि निर्माण अधूरा रह गया हो). दक्षिण गोपुरम में पंड्या राजवंश का दो मछलियों वाला प्रतीक चिन्ह है।
ऐसा लगता है कि इसके बाद गोपुरम को पल्लव राजा कोपेरुन्सिंगन I 1216-1242 सीइ ने पुनः बनवाया, प्रथम स्तर को पूर्ण करने के उपरान्त. गोपुरम को सोक्कासीयां थिरुनिलाई एज्हुगोपुरम कहते हैं।
पश्चिमी गोपुरम जादववर्मन सुंदर पांड्यन I 1251-1268 द्वारा बनवाया गया था।
उत्तरी गोपुरम विजय नगर के राजा कृष्णदेवरायर 1509-1529 सीइ द्वारा बनवाया गया था।
पूर्वीय गोपुरम सबसे पहले पल्लव राजा कोपेरुन्सिंगन II 1243-1279 द्वारा बनवाया गया था।
इसके बाद भी मरम्मत का कार्य सुब्बाम्मल द्वारा करवाया गया जोकि प्रसिद्द परोपकारी व्यक्ति पुचाईअप्पा मुलादियर की सास थीं। पचाईअप्पा मुलादियर और उनकी पत्नी इयालाम्मल की मूर्ति पूर्वीय गोपुरम में गढ़ी गयी है। आज तक पचाईअप्पा ट्रस्ट मंदिर के विभिन्न कार्यों के लिए उतरदायी है और मंदिर के रथ का भी रखरखाव करती है।
ऐसा कहा जाता है कि चितसभा की स्वर्ण युक्त छत चोल राजा परंटका I (907-950 सीइ) ("थिलाईयम्बलाठुक्कू पोन कूरै वैयंथा थेवान") द्वारा डलवायी गयी थी। राजा परंटका II, राजराजा चोल I, कुलोथुंगा चोल I ने मंदिर के निमित्त महत्त्वपूर्ण दान किया। राजराजा चोल की बेटी कुंदावाई II भी मंदिर को स्वर्ण और धन संपत्ति दान करने के लिए जानी जाती हैं। बाद में चोल राजा विक्रम चोल ने (एडी 1118-1135) भी दैनिक संस्कारों के करने के लिए मंदिर को काफी दान दिया।
मंदिर को अनेकों राजाओं, शासकों और संरक्षकों द्वारा स्वर्ण और आभूषण दान किये गए, - जिसमे पुदुकोट्टई के महाराज शेरी सेथुपथी (पन्ने का यह आभूषण अभी भी देवता द्वारा पहना जाता है), ब्रिटिश आदि थे।
आक्रमण
उत्तरी भारत के अनेकों मंदिर जिन पर अनेकों विदेशी आक्रमणकारियों ने हमले किये थे, उनके विपरीत दक्षिण भारत के मंदिरों का अस्तित्व कई युगों से शांतिपूर्ण रहा है। दक्षिण भारत में मंदिरों के फलने-फूलने के पीछे प्रायः यही कारण बताया जाता है। हालांकि, यह शांतिपूर्ण इतिहास भी हलकी फुलकी मुठभेड़ों से अछूता नहीं रहा है। एक घटना जब मंदिर के दिक्षितर समुदाय को 1597 सी.इ. में में विजयनगर साम्राज्य के सेनापति के द्वारा जबरन गोविनदराजा मंदिर के विस्तारीकरण की समस्या का सामना करना पड़ा था, के सम्बन्ध में कुछ ऐतिहासिक प्रमाण हैं। इस घटना के दौरान कई दिक्षितर ऊंचे पगोडा दुर्ग से कूद गए और अपना जीवन समाप्त कर लिया, उन्हें अपन पवित्र और अत्यंत प्रिय मंदिर को नष्ट होते देखने के स्थान पर मृत्यु को स्वीकारना ही अधिक उचित लगा। यह घटना एक यात्री जेसुइट धर्माचार्य पिमेंता द्वारा अभिलिखित है।
ऐसा बताया जाता है कि कई अवसरों पर, आक्रमणों से बचने के लिए, दिक्षितर समुदाय मंदिर पर ताला लगा देता था और अत्यंत सुरक्षा पूर्वक देवताओं को केरल के अलापुज़हा में पहुंचा देता था। आक्रमण का भय समाप्त हो जाने पर उन्हें शीघ्र ही वापस ले आया जाता था।
संदर्भ, नोट्स, संबंधित लिंक
विस्तृत वास्तुकला और दार्शनिक अर्थ के सन्दर्भ श्री उमपथी सिवम की 'कुचिथान्ग्रीस्थवं' से लिए गए हैं, जैसा कि नटराजस्थवंजरी में वर्णन किया गया है, यह चिदंबरम और भगवान नटराज पर किये गए उत्कृष्ट कार्यों का संग्रह है।
चिदंबरम के ब्रह्मांडीय नर्तक के रूप में भगवान शिव के इतिहास और विस्तृत जानकारी के सन्दर्भ 'अदाल्वाल्लन- अदाल्वाल्लन का विश्वकोश पुराणों में - यंत्रों, पूजा- शिल्प और नाट्य शास्त्र, अधीन महाविध्वन श्री एस धदपनी देसीकर द्वारा संकलित और द थ्रिवावादुठुराई अधीनम, सरस्वती महल लाइब्रेरी एंड रिसर्च सेंटर, थिरुवावादुठुराई, तमिलनाडु, भारत 609803 द्वारा प्रकाशित.
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श्रेणी:शिव के मंदिर
श्रेणी:तमिलनाडु में हिंदू मंदिर | चिदंबरम मंदिर, किस भगवान को समर्पित है? | शिव | 46 | hindi |
ee9e24c90 | राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डा. केशव राव बलीराम हेडगेवार (Keshav Baliram Hedgewar) का जन्म 1 अप्रैल 1889 को नागपुर के एक गरीब ब्राह्मण परिवार में हुआ था | वह बचपन से ही क्रांतिकारी प्रवृति के थे और उन्हें अंग्रेज शासको से घृणा थी | अभी स्कूल में ही पढ़ते थे कि अंग्रेज इंस्पेक्टर के स्कूल में निरिक्षण के लिए आने पर केशव राव (Keshav Baliram Hedgewar) ने अपने कुछ सहपाठियों के साथ उनका “वन्दे मातरम” जयघोष से स्वागत किया जिस पर वह बिफर गया और उसके आदेश पर केशव राव को स्कूल से निकाल दिया गया | तब उन्होंने मैट्रिक तक अपनी पढाई पूना के नेशनल स्कूल में पूरी की |
1910 में जब डॉक्टरी की पढाई के लिए कोलकाता गये तो उस समय वहा देश की नामी क्रांतिकारी संस्था अनुशीलन समिति से जुड़ गये | 1915 में नागपुर लौटने पर वह कांग्रेस में सक्रिय हो गये और कुछ समय में विदर्भ प्रांतीय कांग्रेस के सचिव बन गये | 1920 में जब नागपुर में कांग्रेस का देश स्तरीय अधिवेशन हुआ तो डा. केशव राव बलीराम हेडगेवार (Keshav Baliram Hedgewar) ने कांग्रेस में पहली बार पूर्ण स्वतंत्रता को लक्ष्य बनाने के बारे में प्रस्ताव प्रस्तुत किया तो तब पारित नही किया गया | 1921 में कांग्रेस के असहयोग आन्दोलन में सत्याग्रह कर गिरफ्तारी दी और उन्हें एक वर्ष की जेल हुयी | तब तक वह इतने लोकप्रिय हो चुके थे कि उनकी रिहाई पर उनके स्वागत के लिए आयोजित सभा को पंडित मोतीलाल नेहरु और हकीम अजमल खा जैसे दिग्गजों ने संबोधित किया |
कांग्रेस में पुरी तन्मन्यता के साथ भागीदारी और जेल जीवन के दौरान जो अनुभव पाए ,उससे वह यह सोचने को प्रवृत हुए कि समाज में जिस एकता और धुंधली पड़ी देशभक्ति की भावना के कारण हम परतंत्र हुए है वह केवल कांग्रेस के जन आन्दोलन से जागृत और पृष्ट नही हो सकती | जन-तन्त्र के परतंत्रता के विरुद्ध विद्रोह की भावना जगाने का कार्य बेशक चलता रहे लेकिन राष्ट्र जीवन में गहरी हुयी विघटनवादी प्रवृति को दूर करने के लिए कुछ भिन्न उपाय की जरूरत है | डा. केशव राव बलीराम हेडगेवार (Keshav Baliram Hedgewar) के इसी चिन्तन एवं मंथन का प्रतिफल थी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नाम से संस्कारशाला के रूप में शाखा पद्दति की स्थापना जो दिखने में साधारण किन्तु परिणाम में चमत्कारी सिद्ध हुयी |
1925 में विजयदशमी के दिन संघ कार्य की शुरुवात के बाद भी उनका कांग्रेस और क्रांतिकारीयो के प्रति रुख सकारात्मक रहा | यही कारण था कि दिसम्बर 1930 में जब महात्मा गांधी द्वारा नमक कानून विरोधी आन्दोलन छेड़ा गया तो उसमे भे उन्होंने संघ प्रमुख (सरसंघ चालक) की जिम्मेदारी डा.परापंजे को सौप क्र व्यक्तिगत रूप से अपने एक दर्जन सहयोगियों के साथ भाग दिया जिसमे उन्हें 9 माह की कैद हुयी | इसी तरह 1929 में जब लाहौर में हुए कांग्रेस अधिवेशन में पूर्व स्वराज का प्रस्ताव पास किया गया और 26 जनवरी 1930 को देश भर में तिरंगा फहराने का आह्वान किया तो डा.हेडगेवार डा. केशव राव बलीराम हेडगेवार (Keshav Baliram Hedgewar) के निर्देश पर सभी संघ शाखाओं में 30 जनवरी को तिरंगा फहराकर पूर्ण स्वराज प्राप्ति का संकल्प किया गया |
इसी तरह क्रांतिकारीयो से भी उनके संबध चलते रहे | जब 1928 में लाहौर में उप कप्तान सांडर्स की हत्या के बाद भगतसिंह ,राजगुरु और सुखदेव फरार हुए तो राजगुरु फरारी के दौरान नागपुर में डा.हेडगेवार डा. केशव राव बलीराम हेडगेवार (Keshav Baliram Hedgewar) के पास पहुचे थे जिन्होंने उमरेड में एक प्रमुख संघ अधिकारी भय्या जी ढाणी के निवास पर ठहरने की व्वयस्था की थी | ऐसे युगपुरुष थे डा.हेडगेवार डा. केशव राव बलीराम हेडगेवार (Keshav Baliram Hedgewar) जिनका जून 1940 को निधन हो गया था किन्तु संघ कार्य अविरल चल रहा है |
डॉ॰केशवराव बलिरामराव हेडगेवार (Marathi: डॉ॰केशव बळीराम हेडगेवार; जन्म: 1 अप्रैल 1889 - मृत्यु: 21 जून 1940) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक एवं प्रकाण्ड क्रान्तिकारी थे।[1] उनका जन्म हिन्दू वर्ष प्रतिपदा के दिन हुआ था।[2] घर से कलकत्ता गये तो थे डाक्टरी पढने परन्तु वापस आये उग्र क्रान्तिकारी बनकर। कलकत्ते में श्याम सुन्दर चक्रवर्ती के यहाँ रहते हुए बंगाल की गुप्त क्रान्तिकारी संस्था अनुशीलन समिति के सक्रिय सदस्य बन गये। सन् १९१६ के कांग्रेस अधिवेशन में लखनऊ गये। वहाँ संयुक्त प्रान्त (वर्तमान यू०पी०) की युवा टोली के सम्पर्क में आये। बाद में कांग्रेस से मोह भंग हुआ और नागपुर में संघ की स्थापना कर डाली। मृत्युपर्यन्त सन् १९४० तक वे इस संगठन के सर्वेसर्वा रहे।
संक्षिप्त जीवन परिचय
डॉ॰ हेडगेवार का जन्म १ अप्रैल, १८८९ को महाराष्ट्र के नागपुर जिले में पण्डित बलिराम पन्त हेडगेवार के घर हुआ था। इनकी माता का नाम रेवतीबाई था। माता-पिता ने पुत्र का नाम केशव रखा। केशव का बड़े लाड़-प्यार से लालन-पालन होता रहा। उनके दो बड़े भाई भी थे, जिनका नाम महादेव और सीताराम था। पिता बलिराम वेद-शास्त्र एवं भारतीय दर्शन के विद्वान थे एवं वैदिक कर्मकाण्ड (पण्डिताई) से परिवार का भरण-पोषण चलाते थे।
बडे भाई से प्रेरणा
केशव के सबसे बड़े भाई महादेव भी शास्त्रों के अच्छे ज्ञाता तो थे ही मल्ल-युद्ध की कला में भी बहुत माहिर थे। वे रोज अखाड़े में जाकर स्वयं तो व्यायाम करते ही थे गली-मुहल्ले के बच्चों को एकत्र करके उन्हें भी कुश्ती के दाँव-पेंच सिखलाते थे। महादेव भारतीय संस्कृति और विचारों का बड़ी सख्ती से पालन करते थे। केशव के मानस-पटल पर बड़े भाई महादेव के विचारों का गहरा प्रभाव था। किन्तु वे बड़े भाई की अपेक्षा बाल्यकाल से ही क्रान्तिकारी विचारों के थे। जिसका परिणाम यह हुआ कि वे डॉक्टरी पढ़ने के लिये कलकत्ता गये और वहाँ से उन्होंने कलकत्ता मेडिकल कॉलेज से प्रथम श्रेणी में डॉक्टरी की परीक्षा भी उत्तीर्ण की; परन्तु घर वालों की इच्छा के विरुद्ध देश-सेवा के लिए नौकरी का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। डॉक्टरी करते करते ही उनकी तीव्र नेतृत्व प्रतिभा को भांप कर उन्हें हिन्दू महासभा बंगाल प्रदेश का उपाध्यक्ष मनोनीत किया गया l[2]
क्रान्ति का बीजारोपण
कलकत्ते में पढाई करते हुए उनका मेल-मिलाप बंगाल के क्रान्तिकारियों से हुआ। केशव चूँकि कलकत्ता में अपने बड़े भाई महादेव के मित्र श्याम सुन्दर चक्रवर्ती[3] के घर रहते थे अत: वहाँ के स्थानीय लोग उन्हें केशव चक्रवर्ती के नाम से ही जानते व सम्बोधित करते थे। उनकी असाधारण योग्यता को मद्देनजर रखते हुए उन्हें पहले अनुशीलन समिति का साधारण सदस्य बनाया गया। उसके बाद जब वे कार्यकुशलता की कसौटी पर खरे उतरे तो उन्हें समिति का अन्तरंग सदस्य भी बना लिया गया। उनकी तीव्र नेतृत्व प्रतिभा को देख कर उन्हें हिन्दू महासभा बंगाल प्रदेश का उपाध्यक्ष भी बनाया गया l इस प्रकार क्रान्तिकारियों की समस्त गतिविधियों का ज्ञान और संगठन-तन्त्र कलकत्ते से सीखकर वे नागपुर लौटे।[1]
कांग्रेस और हिन्दू महासभा में भागीदारी
सन् १९१६ के कांग्रेस अधिवेशन में लखनऊ गये। वहाँ संयुक्त प्रान्त (वर्तमान यू०पी०) की युवा टोली के सम्पर्क में आये। बाद में आपका कांग्रेस से मोह भंग हुआ और नागपुर में संघ की स्थापना कर डाली।
लोकमान्य तिलक की मृत्यु के बाद केशव कॉग्रेस और हिन्दू महासभा दोनों में काम करते रहे। गांधीजी के अहिंसक असहयोग आन्दोलन और सविनय अवज्ञा आन्दोलनों में भाग लिया, परन्तु ख़िलाफ़त आंदोलन की जमकर आलोचना की। ये गिरफ्तार भी हुए और सन् १९२२ में जेल से छूटे। नागपुर में १९२३ के दंगों के दौरान इन्होंने डॉक्टर मुंजे के साथ सक्रिय सहयोग किया। अगले साल सावरकर के पत्र हिन्दुत्व का संस्करण निकला जिसमें इनका योगदान भी था। इसकी मूल पांडुलिपि इन्हीं के पास थी[4]।
व्यक्तित्व व कृतित्व
१९२१ ई. में अंग्रेजो ने तुर्की को परास्त कर, वहां के सुल्तान को गद्दी से उतार दिया था, वही सुल्तान मुसलमानों के खलीफा/मुखिया भी कहलाते थे, ये बात भारत व अन्य मुस्लिम देशों के मुसलमानों को नागवार गुजरी जिससे जगह-जगह आन्दोलन हुए l हिन्दुस्थान में खासकर केरल के मालाबार जिले में आन्दोलन ने उग्र रूप ले लिया l
१९२२ ई. में भारत के राजनीतिक पटल पर गांधी के आने के पश्चात ही मुस्लिम सांप्रदायिकता ने अपना सिर उठाना प्रारंभ कर दिया। खिलाफत आंदोलन को गांधी जी का सहयोग प्राप्त था - तत्पश्चात नागपुर व अन्य कई स्थानों पर हिन्दू, मुस्लिम दंगे प्रारंभ हो गये तथा नागपुर के कुछ हिन्दू नेताओं ने समझ लिया कि हिन्दू एकता ही उनकी सुरक्षा कर सकती है। ऐसी स्थिति में कई हिंदू नेता केरल की स्थिती जानने एवं वहां के लूटे पिटे हिंदुओं की सहायता के लिए मालाबार-केरल गये, इनमें नागपुर के प्रमुख हिंदू महासभाई नेता डॉ॰ बालकृष्ण शिवराम मुंजे, डॉ॰ हेडगेवार, आर्य समाज के नेता स्वामी श्रद्धानंद जी आदि थे, उसके थोड़े समय बाद नागपुर तथा अन्य कई शहरों में भी हिंदू-मुस्लिम दंगे हुए l ऐसी घटनाओं से विचलित होकर नागपुर में डॉ॰ मुंजे ने कुछ प्रसिद्ध हिंदू नेताओं की बैठक बुलाई, जिनमें डॉ॰ हेडगेवार एवं डॉ॰ परांजपे भी थे, इस बैठक में उन्होंने एक हिंदू-मिलीशिया बनाने का निर्णय लिया, उद्देश्य था “हिंदुओं की रक्षा करना एवं हिन्दुस्थान को एक सशक्त हिंदू राष्ट्र बनाना”l इस मिलीशिया को खड़े करने की जिम्मेवारी धर्मवीर डॉ॰ मुंजे ने डॉ॰ केशव बलीराम हेडगेवार को दी l
डॉ॰साहब ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने व्यक्ति की क्षमताओं को उभारने के लिये नये-नये तौर-तरीके विकसित किये। हालांकि प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की असफल क्रान्ति और तत्कालीन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए उन्होंने एक अर्ध-सैनिक संगठन की नींव रखी। इस प्रकार 28/9/1925 (विजयदशमी दिवस) को अपने पिता-तुल्य गुरु डॉ॰ बालकृष्ण शिवराम मुंजे, उनके शिष्य डॉ॰ हेडगेवार, श्री परांजपे और बापू साहिब सोनी ने एक हिन्दू युवक क्लब की नींव डाली, जिसका नाम कालांतर में राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ दिया गया l
यहाँ पर उल्लेखनीय है कि इस मिलीशिया का आधार बना - वीर सावरकर का राष्ट्र दर्शन ग्रन्थ (हिंदुत्व) जिसमे हिंदू की परिभाषा यह की गई थी-
आ सिंधु-सिंधु पर्यन्ता, यस्य भारत भूमिका l
पितृभू-पुण्यभू भुश्चेव सा वै हिंदू रीती स्मृता ll
इस श्लोक के अनुसार “भारत के वह सभी लोग हिंदू हैं जो इस देश को पितृभूमि-पुण्यभूमि मानते हैं”l इनमे सनातनी, आर्यसमाजी, जैन, बौद्ध, सिख आदि पंथों एवं धर्म विचार को मानने वाले व उनका आचरण करने वाले समस्त जन को हिंदू के व्यापक दायरे में रखा गया था l मुसलमान व ईसाई इस परिभाषा में नहीं आते थे अतः उनको इस मिलीशिया में ना लेने का निर्णय लिया गया और केवल हिंदुओं को ही लिया जाना तय हुआ, मुख्य मन्त्र था “अस्पष्टता निवारण एवं हिंदुओं का सैनिकी कारण”l
ऐसी मिलीशिया को खड़ा करने के लिए स्वंयसेवको की भर्ती की जाने लगी, सुबह व शाम एक-एक घंटे की शाखायें लगाई जाने लगी| इसे सुचारू रूप से चलाने के लिए शिक्षक, मुख्य शिक्षक, घटनायक आदि पदों का सृजन किया गया l इन शाखाओं में व्यायाम, शारीरिक श्रम, हिंदू राष्ट्रवाद की शिक्षा के साथ- साथ वरिष्ठ स्वंयसेवकों को सैनिक शिक्षा भी दी जानी तय हुई l बाद में यदा कदा रात के समय स्वंयसेवकों की गोष्ठीयां भी होती थी, जिनमें महराणा प्रताप, वीर शिवाजी, गुरु गोविंद सिंह, बंदा बैरागी, वीर सावरकर, मंगल पांडे, तांत्या टोपे आदि की जीवनियाँ भी पढ़ी जाती थीं l वीर सावरकर द्वारा रचित पुस्तक (हिंदुत्व) के अंश भी पढ़ कर सुनाये जाते थे l
थोड़े समय बाद इस मिलीशिया को नाम दिया गया राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ- जो आर.एस.एस. के नाम से प्रसिद्ध हुआ l प्रार्थना भी मराठी की बजाय संस्कृत भाषा में होने लगी l वरिष्ठ स्वंयसेवकों के लिए ओ.टी.सी. कैम्प लगाये जाने लगे, जहाँ उन्हें अर्धसैनिक शिक्षा भी दी जाने लगी l इन सब कार्यों के लिए एक अवकाश प्राप्त सैनिक अधिकारी श्री मारतंडे राव जोग की सेवाएं ली गईं l सन् १९३५-३६ तक ऐसी शाखाएं केवल महाराष्ट्र तक ही सीमित थी और इसके स्वंयसेवकों की संख्या कुछ हज़ार तक ही थी, पर सरसंघचालक और स्वंयसेवकों का उत्साह देखने लायक था l स्वयं डॉ॰ हेडगेवार इतने उत्साहित थे कि अपने एक उदबोधन में उन्होंने कहा की:-
“संघ के जन्मकाल के समय की परिस्थिति बड़ी विचित्र सी थी, हिंदुओं का हिन्दुस्थान कहना उस समय निरा पागलपन समझा जाता था और किसी संगठन को हिंदू संगठन कहना देश द्रोह तक घोषित कर दिया जाता था” l (राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ तत्व और व्यवहार पृष्ठ ६४)
डॉ॰ हेडगेवार ने जिस दुखद स्थिति को व्यक्त किया, उसमें नवसर्जित राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ और हिंदू महासभा के नेतृत्व के प्रयास से- हिंदू युवाओं में साहस के साथ यह नारा गूंजने लगा “हिन्दुस्थान हिंदुओं का- नहीं किसी के बाप का” इस कथन की विवेचना डॉ॰ हेडगेवार ने इन शब्दों में की:-
“कई सज्जन यह कहते हुए भी नहीं हिचकिचाते की हिन्दुस्थान केवल हिन्दुओ का ही कैसे? यह तो उन सभी लोगों का है जो यहाँ बसते हैं l खेद है की इस प्रकार का कथन/आक्षेप करने वाले सज्जनों को राष्ट्र शब्द का अर्थ ही ज्ञात नहीं l केवल भूमि के किसी टुकड़े को राष्ट्र नहीं कहते l एक विचार-एक आचार-एक सभ्यता एवं परम्परा में जो लोग पुरातन काल से रहते चले आए हैं उन्हीं लोगों की संस्कृति से राष्ट्र बनता है l इस देश को हमारे ही कारण हिन्दुस्थान नाम दिया गया है l दूसरे लोग यदि समोपचार से इस देश में बसना चाहते हैं तो अवश्य बस सकते हैं l हमने उन्हें न कभी मना किया है न करेंगे l किंतु जो हमारे घर अतिथि बन कर आते हैं और हमारे ही गले पर छुरी फेरने पर उतारू हो जाते हैं उनके लिए यहाँ रत्ती भर भी स्थान नहीं मिलेगा l संघ की इस विचारधारा को पहले आप ठीक ठाक समझ लीजिए l” (राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ पृष्ठ १४)
एक अन्य अवसर पर डॉ॰ हेडगेवार ने कहा था “संघ तो केवल, हिन्दुस्थान हिंदुओं का- इस ध्येय वाक्य को सच्चा कर दिखाना चाहता है l” दूसरे देशों के सामान, “यह हिंदुओं का होने के कारण”- इस देश में हिंदू जो कहेंगे वही पूर्व दिशा होगी (अर्थात वही सही माना जाएगा) l यही एक बात है जो संघ जानता है, राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के कार्यकर्ताओं के लिए किसी भी अन्य पचड़े में पड़ने की आवश्कता नहीं है l”(तदैव पृष्ठ ३८)
जब वीर सावरकर रत्नागिरी में दृष्टि बंद (नजरबंद) थे, तब डॉ॰ हेडगेवार वहां उनसे मिलने गये। तब तक वह वीर सावरकर रचित पुस्तक हिन्दुत्व भी पढ़ चुके थे। डॉ॰ हेडगेवार उस पुस्तक के विचारों से बहुत प्रभावित हुए और उसकी सराहना करते हुए बोले कि “वीर सावरकर एक आदर्श व्यक्ति है”।
दोनों (सावरकर एवं हेडगेवार) का विश्वास था कि जब तक हिन्दू अंध विश्वास, पुरानी रूढ़िवादी सोच, धार्मिक आडम्बरों को नहीं छोडेंगे तब तक हिन्दू-जातीवाद, छूत-अछूत, शहरी-बनवासी और छेत्रवाद इत्यादि में बंटा रहेगा और जब तक वह संगठित एवं एक जुट नहीं होगा, तब तक वह संसार में अपना उचित स्थान नहीं ले सकेगा।
सन् 1937 में वीर सावरकर की दृष्टिबंदी (नजरबंदी) समाप्त हो गयी और उसके बाद वे राजनीति में भाग ले सकते थे। उसी वर्ष वे हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चुने गये जिसके उपाध्यक्ष डॉ॰ हेडगेवार थे। 1937 में हिन्दू महासभा का अधिवेशन कर्णावती (अहमदाबाद) में हुआ। इस अधिवेशन में वीर सावरकर के अध्यक्षीय भाषण को “हिन्दू राष्ट्र दर्शन” के नाम से जाना जाता है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापकों में से दो मुख्य व्यक्ति डॉ॰ मुंजे एवं डॉ॰ हेडगेवार हिन्दू महासभाई थे और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने वीर सावरकर द्वारा प्रतिपादित हिन्दू एवं हिन्दू राष्ट्रवाद की व्याख्या को ही अपना आधार बनाया था, साथ ही वीर सावरकर के मूलमंत्र- अस्पर्श्यता निवारण और हिन्दुओं के सैनिकीकरण आदि सिद्धांत को मान्य किया था l
इसी परिपेक्ष्य में हिन्दू महासभा ने भी उस समय एक प्रस्ताव पास कर अपने कार्यकर्ताओ एवं सदस्यों को निर्देश दिया कि वे अपने बच्चों को संघ की शाखा में भेजें एवं संघ के विस्तार में सहयोग दें। आर.एस.एस. की विस्तार योजना के अनुसार उसके नागपुर कार्यालय से बड़ी संख्या में युवक, दो जोड़ी धोती एवं कुर्ता ले कर संघ शाखाओ की स्थापना हेतु दिल्ली, लाहौर, पेशावर, क्वेटा, मद्रास, गुवाहाटी आदि विभिन्न शहरों में भेजे गये।
दिल्ली में पहली शाखा हिन्दू महासभा भवन, मंदिर मार्ग नयी दिल्ली के प्रांगण में हिन्दू सभाई नेता प्राध्यापक राम सिंह की देख रेख में श्री बसंत राव ओक द्वारा संचालित की गयी। लाहौर में शाखा हिन्दू महासभा के प्रसिद्द नेता डॉ॰ गोकुल चंद नारंग की कोठी में लगायी जाती थी, जिसका संचालन श्री मुले जी एवं धर्मवीर जी (जो महान हिन्दू सभाई नेता देवता स्वरुप भाई परमानन्द जी के दामाद थे) द्वारा किया जाता था। पेशावर में आर.एस.एस. की शाखा सदर बाजार से सटी गली के अंदर हिन्दू महासभा कार्यालय में लगायी जाती थी जिसकी देख रेख श्री मेहर चंद जी खन्ना- तत्कालिक सचिव हिन्दू महासभा करते थे।
वीर सावरकर के बड़े भाई श्री बाबाराव सावरकर ने अपने युवा संघ जिसके उस समय लगभग 8,000 सदस्य थे ने, उस संगठन को आर.एस.एस. में विलय कर दिया। वीर सावरकर के मित्र एवं हजारों ईसाईयों को शुद्धि द्वारा दोबारा हिन्दू धर्म में लाने वाले संत पान्च्लेगाँवकर ने उस समय अपने 5,000 सदस्यों वाले संगठन “मुक्तेश्वर दल” को भी आर.एस.एस. में विलय करा दिया। उद्देश्य था कि हिन्दुओ का एक ही युवा शक्तिशाली संगठन हो। इस प्रकार संघ की नीतियों, पर हिंदू महासभा व वीर सावरकर के हिन्दुवाद का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था l
इस तरह डॉ॰ हेडगेवार के कुशल निर्देशन, हिन्दू महासभा के सहयोग एवं नागपुर से भेजे गये प्रचारकों के अथक परिश्रम एवं तपस्या के कारण संघ का विस्तार होता गया और 1946 के आते-आते संघ के युवा स्वयंसेवकों की संख्या करीब सात लाख हो गयी। उन प्रचारको की लगन सराहनीय थी। इनके पास महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, गुरु गोविन्द सिंह, बन्दा बैरागी की जीवनी की छोटी छोटी पुस्तके एवं वीर सावरकर द्वारा रचित पुस्तक हिंदुत्व रहती थी।
1938 में वीर सावरकर दूसरी बार हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चुने गये और यह अधिवेशन नागपुर में रखा गया। इस अधिवेशन का उत्तरदायित्व पूरी तरह से आर.एस.एस. के स्वयंसेवको द्वारा उठाया गया। इसका नेतृत्व उनके मुखिया डॉ॰ हेडगेवार ने किया था। उन्होंने उस अवसर पर वीर सावरकर के लिए असीम श्रद्धा जताई। पूरे नागपुर शहर में एक विशाल जलूस निकाला गया, जिसमे आगे-आगे श्री भाऊराव देवरस जो आर.एस.एस. के उच्चतम श्रेणी के स्वयंसेवक थे, वे हाथी पर अपने हाथ में भगवा ध्वज ले कर चल रहे थे।
हैदराबाद (दक्षिण) के मुस्लिम शासक निजाम ने वहाँ के हिन्दुओ का जीना दूभर कर रखा था। यहाँ तक कि कोई हिन्दू मंदिर नहीं बना सकता था और यज्ञ आदि करने पर भी प्रतिबन्ध था। 1938 में आर्य समाज ने निजाम हैदराबाद के जिहादी आदेशो के विरुद्ध आन्दोलन करने की ठानी। गाँधीजी ने आर्य समाज को आन्दोलन ना करने की सलाह दी। वीर सावरकर ने कहा कि अगर आर्य समाज आन्दोलन छेड़ता है तो हिन्दू महासभा उसे पूरा-पूरा समर्थन देगी।
आंदोलन चला, लगभग 25,000 सत्याग्रही देश के विभिन्न भागों से आये। निजाम की पुलिस और वहाँ के रजाकारो द्वारा उन सत्याग्रहियों की जेल में बेदर्दी से पिटाई की जाती थी। बीसियों सत्याग्रहियों की रजाकारों की निर्मम पिटाई से मृत्यु तक हो गयी। इन सत्याग्रहियों में लगभग 12,000 हिन्दू महासभाई थे। वीर सावरकर ने स्वयं पूना जा कर कई जत्थे हैदराबाद भिजवाये। पूना से सबसे बड़ा जत्था हुतात्मा नाथूराम गोडसे के नेतृत्व में हैदराबाद भिजवाया, इनमे हिन्दू महासभा कार्यकर्ताओं के अतिरिक्त संघ के भी कई स्वयंसेवक थे। इस तरह 1940 तक- जब तक डॉ॰ हेडगेवार जीवित थे, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को हिन्दू महासभा का युवा संगठन ही माना जाता था।
धर्मवीर डाक्टर मुंजे और वीर सावरकर के सान्निध्य में डाक्टर हेडगेवार ने भारत की गुलामी के कारणों को बडी बारीकी से पहचाना और इसके स्थाई समाधान हेतु संघ कार्य प्रारम्भ किया। इन्होंने सदैव यही बताने का प्रयास किया कि नई चुनौतियों का सामना करने के लिए हमें नये तरीकों से काम करना पड़ेगा और स्वयं को बदलना होगा, अब ये पुराने तरीके काम नहीं आएंगे।[2] डॉ॰साहब १९२५ से १९४० तक, यानि मृत्यु पर्यन्त राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक रहे। २१ जून,१९४० को इनका नागपुर में निधन हुआ। इनकी समाधि रेशम बाग नागपुर में स्थित है, जहाँ इनका अंत्येष्टि संस्कार हुआ था।
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
-SanghParivar.org
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श्रेणी:हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना परीक्षित लेख | केशव बलिराम हेडगेवार का जन्म कब हुआ था? | 1 अप्रैल 1889 | 99 | hindi |
1a2160a69 | एडम स्मिथ (५जून १७२३ से १७ जुलाई १७९०) एक ब्रिटिश नीतिवेत्ता, दार्शनिक और राजनैतिक अर्थशास्त्री थे। उन्हें अर्थशास्त्र का पितामह भी कहा जाता है।आधुनिक अर्थशास्त्र के निर्माताओं में एडम स्मिथ (जून 5, 1723—जुलाई 17, 1790) का नाम सबसे पहले आता है. उनकी पुस्तक ‘राष्ट्रों की संपदा(The Wealth of Nations) ने अठारहवीं शताब्दी के इतिहासकारों एवं अर्थशास्त्रियों को बेहद प्रभावित किया है. कार्ल मार्क्स से लेकर डेविड रिकार्डो तक अनेक ख्यातिलब्ध अर्थशास्त्री, समाजविज्ञानी और राजनेता एडम स्मिथ से प्रेरणा लेते रहे हैं. बीसवीं शताब्दी के अर्थशास्त्रियों में, जिन्होंने एडम स्मिथ के विचारों से प्रेरणा ली है, उनमें मार्क्स, एंगेल्स, माल्थस, मिल, केंस(Keynes) तथा फ्राइडमेन(Friedman) के नाम उल्लेखनीय हैं. स्वयं एडम स्मिथ पर अरस्तु, जा॓न ला॓क, हा॓ब्स, मेंडविले, फ्रांसिस हचसन, ह्यूम आदि विद्वानों का प्रभाव था. स्मिथ ने अर्थशास्त्र, राजनीति दर्शन तथा नीतिशास्त्र के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया. किंतु उसको विशेष मान्यता अर्थशास्त्र के क्षेत्र में ही मिली. आधुनिक बाजारवाद को भी एडम स्मिथ के विचारों को मिली मान्यता के रूप में देखा जा सकता है.
एडम स्मिथ के जन्म की तिथि सुनिश्चित नहीं है. कुछ विद्वान उसका जन्म पांच जून 1723 को तथा कुछ उसी वर्ष की 16 जून को मानते हैं. जो हो उसका जन्म ब्रिटेन के एक गांव किर्काल्दी(Kirkaldy, Fife, United Kingdom) में हुआ था. एडम के पिता कस्टम विभाग में इंचार्ज रह चुके थे. किंतु उनका निधन स्मिथ के जन्म से लगभग छह महीने पहले ही हो चुका था. एडम अपने माता–पिता की संभवतः अकेली संतान था. वह अभी केवल चार ही वर्ष का था कि आघात का सामना करना पड़ा. जिप्सियों के एक संगठन द्वारा एडम का अपहरण कर लिया गया. उस समय उसके चाचा ने उसकी मां की सहायता की. फलस्वरूप एडम को सुरक्षित प्राप्त कर लिया गया. पिता की मृत्यु के पश्चात स्मिथ को उसकी मां ने ग्लासगो विश्वविद्यालय में पढ़ने भेज दिया. उस समय स्मिथ की अवस्था केवल चौदह वर्ष थी. प्रखर बुद्धि होने के कारण उसने स्कूल स्तर की पढ़ाई अच्छे अंकों के साथ पूरी की, जिससे उसको छात्रवृत्ति मिलने लगी. जिससे आगे के अध्ययन के लिए आ॓क्सफोर्ड विश्वविद्यालय जाने का रास्ता खुल गया. वहां उसने प्राचीन यूरोपीय भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया. उस समय तक यह तय नहीं हो पाया था कि भाषा विज्ञान का वह विद्यार्थी आगे चलकर अर्थशास्त्र के क्षेत्र में न केवल नाम कमाएगा, बल्कि अपनी मौलिक स्थापनाओं के दम पर वैश्विक अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में युगपरिवर्तनकारी योगदान भी देगा.
सन 1738 में स्मिथ ने सुप्रसिद्ध विद्वान–दार्शनिक फ्रांसिस हचीसन के नेतृत्व में नैतिक दर्शनशास्त्र में स्नातक की परीक्षा पास की. वह फ्रांसिस की मेधा से अत्यंत प्रभावित था तथा उसको एवं उसके अध्यापन में बिताए गए दिनों को, अविस्मरणीय मानता था. अत्यंत मेधावी होने के कारण स्मिथ की प्रतिभा का॓लेज स्तर से ही पहचानी जाने लगी थी. इसलिए अध्ययन पूरा करने के पश्चात युवा स्मिथ जब वापस अपने पैत्रिक नगर ब्रिटेन पहुंचा, तब तक वह अनेक महत्त्वपूर्ण लेक्चर दे चुका था, जिससे उसकी ख्याति फैलने लगी थी. वहीं रहते हुए 1740 में उसने डेविड ह्यूम की चर्चित कृति A Treatise of Human Nature का अध्ययन किया, जिससे वह अत्यंत प्रभावित हुआ. डेविड ह्यूम उसके आदर्श व्यक्तियों में से था. दोनों में गहरी दोस्ती थी. स्वयं ह्यूम रूसो की प्रतिभा से बेहद प्रभावित थे. दोनों की दोस्ती के पीछे एक घटना का उल्लेख मिलता है. जिसके अनुसार ह्यूम ने एक बार रूसो की निजी डायरी उठाकर देखी तो उसमें धर्म, समाज, राजनीति, अर्थशास्त्र आदि को लेकर गंभीर टिप्पणियां की गई थीं. उस घटना के बाद दोनों में गहरी मित्रता हो गई. ह्यूम एडम स्मिथ से लगभग दस वर्ष बड़ा था. डेविड् हयूम के अतिरिक्त एडम स्मिथ के प्रमुख दोस्तों में जा॓न होम, ह्यूज ब्लेयर, लार्ड हैलिस, तथा प्रंसिपल राबर्टसन आदि के नाम नाम उल्लेखनीय हैं.अपनी मेहनत एवं प्रतिभा का पहला प्रसाद उसको जल्दी मिल गया. सन 1751 में स्मिथ को ग्लासगा॓ विश्वविद्यालय में तर्कशास्त्र के प्रवक्ता के पद पर नौकरी मिल गई. उससे अगले ही वर्ष उसको नैतिक दर्शनशास्त्र का विभागाध्यक्ष बना दिया गया. स्मिथ का लेखन और अध्यापन का कार्य सतत रूप से चल रहा था. सन 1759 में उसने अपनी पुस्तक ‘नैतिक अनुभूतियों का सिद्धांत’ (Theory of Moral Sentiments) पूरी की. यह पुस्तक अपने प्रकाशन के साथ ही चर्चा का विषय बन गई. उसके अंग्रेजी के अलावा जर्मनी और फ्रांसिसी संस्करण हाथों–हाथ बिकने लगे. पुस्तक व्यक्ति और समाज के अंतःसंबंधों एवं नैतिक आचरण के बारे में थी. उस समय तक स्मिथ का रुझान राजनीति दर्शन एवं नीतिशास्त्र तक सीमित था. धीरे–धीरे स्मिथ विश्वविद्यालयों के नीरस और एकरस वातावरण से ऊबने लगा. उसे लगने लगा कि जो वह करना चाहता है वह का॓लेज के वातावरण में रहकर कर पाना संभव नहीं है.
इस बीच उसका रुझान अर्थशास्त्र के प्रति बढ़ा था. विशेषकर राजनीतिक दर्शन पर अध्यापन के दौरान दिए गए लेक्चरर्स में आर्थिक पहलुओं पर भी विचार किया गया था. उसके विचारों को उसी के एक विद्यार्थी ने संकलित किया, जिन्हें आगे चलकर एडविन केनन ने संपादित किया. उन लेखों में ही ‘वैल्थ आ॓फ नेशनस्’ के बीजतत्व सुरक्षित थे. करीब बारह वर्ष अध्यापन के क्षेत्र में बिताने के पश्चात स्मिथ ने का॓लेज की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और जीविकोपार्जन के लिए ट्यूशन पढ़ाने लगा. इसी दौर में उसने फ्रांस तथा यूरोपीय देशों की यात्राएं कीं तथा समकालीन विद्वानों डेविड ह्यूम, वाल्तेयर, रूसो, फ्रांसिस क्वेसने (François Quesnay), एनी राबर्ट जेकुइस टुरगोट(Anne-Robert-Jacques Turgot) आदि से मिला. इस बीच उसने कई शोध निबंध भी लिखे, जिनके कारण उसकी प्रष्तिठा बढ़ी. कुछ वर्ष पश्चात वह वह किर्काल्दी वापस लौट आया.
अपने पैत्रिक गांव में रहते हुए स्मिथ ने अपनी सर्वाधिक चर्चित पुस्तक The Wealth of Nations पूरी की, जो राजनीतिविज्ञान और अर्थशास्त्र पर अनूठी पुस्तक है. 1776 में पुस्तक के प्रकाशन के साथ ही एडम स्मिथ की गणना अपने समय के मूर्धन्य विद्वानों में होने लगी. इस पुस्तक पर दर्शनशास्त्र का प्रभाव है. जो लोग स्मिथ के जीवन से परिचित नहीं हैं, उन्हें यह जानकर और भी आश्चर्य होगा कि स्मिथ ने इस पुस्तक की रचना एक दर्शनशास्त्र का प्राध्यापक होने के नाते अपने अध्यापन कार्य के संबंध में की थी. उन दिनों विश्वविद्यालयों में इतिहास और दर्शनशास्त्र की पुस्तकें ही अधिक पढ़ाई जाती थीं, उनमें एक विषय विधिवैज्ञानिक अध्ययन भी था. विधिशास्त्र के अध्ययन का सीधा सा तात्पर्य है, स्वाभाविक रूप से न्यायप्रणालियों का विस्तृत अध्ययन. प्रकारांतर में सरकार और फिर राजनीति अर्थव्यवस्था का चिंतन. इस तरह यह साफ है कि अपनी पुस्तक ‘राष्ट्रों की संपदा’ में स्मिथ ने आर्थिक सिद्धांतों की दार्शनिक विवेचनाएं की हैं. विषय की नवीनता एवं प्रस्तुतीकरण का मौलिक अंदाज उस पुस्तक की मुख्य विशेषताएं हैं.
स्मिथ पढ़ाकू किस्म का इंसान था. उसके पास एक समृद्ध पुस्तकालय था, जिसमें सैंकड़ों दुर्लभ ग्रंथ मौजूद थे. रहने के लिए उसको शांत एवं एकांत वातावरण पसंद था, जहां कोई उसके जीवन में बाधा न डाले. स्मिथ आजीवन कुंवारा ही रहा. जीवन में सुख का अभाव एवं अशांति की मौजूदगी से कार्य आहत न हों, इसलिए उसका कहना था कि समाज का गठन मनुष्यों की उपयोगिता के आधार पर होना चाहिए, जैसे कि व्यापारी समूह गठित किए जाते हैं; ना कि आपसी लगाव या किसी और भावनात्मक आधार पर.
अर्थशास्त्र के क्षेत्र में एडम स्मिथ की ख्याति उसके सुप्रसिद्ध सिद्धांत ‘लेजे फेयर (laissez-faire) के कारण है, जो आगे चलकर उदार आर्थिक नीतियों का प्रवर्तक सिद्धांत बना. लेजे फेयर का अभिप्राय था, ‘कार्य करने की स्वतंत्रता’ अर्थात आर्थिक गतिविधियों के क्षेत्र में सरकार का न्यूनतम हस्तक्षेप. आधुनिक औद्योगिक पूंजीवाद के समर्थक और उत्पादन व्यवस्था में क्रांति ला देने वाले इस नारे के वास्तविक उदगम के बारे में सही–सही जानकारी का दावा तो नहीं किया जाता. किंतु इस संबंध में एक बहुप्रचलित कथा है, जिसके अनुसार इस उक्ति का जन्म 1680 में, तत्कालीन प्रभावशाली फ्रांसिसी वित्त मंत्री जीन–बेपटिस्ट कोलबार्ट की अपने ही देश के व्यापरियों के साथ बैठक के दौरान हुआ था. व्यापारियों के दल का नेतृत्व एम. ली. जेंड्री कर रहे थे. व्यापारियों का दल कोलबार्ट के पास अपनी समस्याएं लेकर पहुंचा था. उन दिनों व्यापारीगण एक ओर तो उत्पादन–व्यवस्था में निरंतर बढ़ती स्पर्धा का सामना कर रहे थे, दूसरी ओर सरकारी कानून उन्हें बाध्यकारी लगते थे. उनकी बात सुनने के बाद कोलबार्ट ने किंचित नाराजगी दर्शाते हुए कहा—
‘इसमें सरकार व्यापारियों की भला क्या मदद कर सकती है?’ इसपर ली. जेंड्री ने सादगी–भरे स्वर में तत्काल उत्तर दिया—‘लीजेज–नाउज फेयर [Laissez-nous faire (Leave us be, Let us do)].’ उनका आशय था, ‘आप हमें हमारे हमारे हाल पर छोड़ दें, हमें सिर्फ अपना काम करने दें.’ इस सिद्धांत की लोकप्रियता बढ़ने के साथ–साथ, एडम स्मिथ को एक अर्थशास्त्री के रूप में पहचान मिलती चली गई. उस समय एडम स्मिथ ने नहीं जानता था कि वह ऐसे अर्थशास्त्रीय सिद्धांत का निरूपण कर रहा है, जो एक दिन वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए क्रांतिकारी सिद्ध होगा.
‘राष्ट्रों की संपदा’ नामक पुस्तक के प्रकाशन के दो वर्ष बाद ही स्मिथ को कस्टम विभाग में आयुक्त की नौकरी मिल गई. उसी साल उसे धक्का लगा जब उसके घनिष्ट मित्र और अपने समय के जानेमाने दार्शनिक डेविड ह्यूम की मृत्यु का समाचार उसको मिला. कस्टम आयुक्त का पद स्मिथ के लिए चुनौती–भरा सिद्ध हुआ. उस पद पर रहते हुए उसे तस्करी की समस्या से निपटना था; जिसे उसने अपने ग्रंथ राष्ट्रों की संपदा में ‘अप्राकृतिक विधान के चेहरे के पीछे सर्वमान्य कर्म’ (Legitimate activity in the face of ‘unnatural’ legislation) के रूप में स्थापित किया था. 1783 में एडिनवर्ग रा॓यल सोसाइटी की स्थापना हुई तो स्मिथ को उसका संस्थापक सदस्य मनोनीत किया गया. अर्थशास्त्र एवं राजनीति के क्षेत्र में स्मिथ की विशेष सेवाओं के लिए उसको ग्ला॓स्ग विश्वविद्यालय का मानद रेक्टर मनोनीत किया गया. वह आजीवन अविवाहित रहा. रात–दिन अध्ययन–अध्यापन में व्यस्त रहने के कारण उसका स्वास्थ्य गड़बड़ाने लगा था. अंततः 19 जुलाई 1790 को, मात्र सढ़सठ वर्ष की अवस्था में एडिनबर्ग में उसकी मृत्यु हो गई.
वैचारिकी
एडम स्मिथ को आधुनिक अर्थव्यवस्था के निर्माताओं में से माना जाता है. उसके विचारों से प्रेरणा लेकर जहां कार्ल मार्क्स, एंगेल्स, मिल, रिकार्डो जैसे समाजवादी चिंतकों ने अपनी विचारधारा को आगे बढ़ाया, वहीं अत्याधुनिक वैश्विक अर्थव्यवस्था के बीजतत्व भी स्मिथ के विचारों में निहित हैं. स्मिथ का आर्थिक सामाजिक चिंतन उसकी दो पुस्तकों में निहित है. पहली पुस्तक का शीर्षक है— नैतिक अनुभूतियों के सिद्धांत’ जिसमें उसने मानवीय व्यवहार की समीक्षा करने का प्रयास किया है. पुस्तक पर स्मिथ के अध्यापक फ्रांसिस हचसन का प्रभाव है. पुस्तक में नैतिक दर्शन को चार वर्गों—नैतिकता, सदगुण, व्यक्तिगत अधिकार की भावना एवं स्वाधीनता में बांटते हुए उनकी विवेचना की गई है. इस पुस्तक में स्मिथ ने मनुष्य के संपूर्ण नैतिक आचरण को निम्नलिखित दो हिस्सों में वर्गीकृत किया है—
1. नैतिकता की प्रकृति (Nature of morality)
२. नैतिकता का लक्ष्य (Motive of morality)
नैतिकता की प्रकृति में स्मिथ ने संपत्ति, कामनाओं आदि को सम्मिलित किया है. जबकि दूसरे वर्ग में स्मिथ ने मानवीय संवेदनाओं, स्वार्थ, लालसा आदि की समीक्षा की है. स्मिथ की दूसरी महत्त्वपूर्ण पुस्तक है—‘राष्ट्रों की संपदा की प्रकृति एवं उसके कारणों की विवेचना’ यह अद्वितीय ग्रंथ पांच खंडों में है. पुस्तक में राजनीतिविज्ञान, अर्थशास्त्र, मानव व्यवहार आदि विविध विषयों पर विचार किया गया है, किंतु उसमें मुख्य रूप से स्मिथ के आर्थिक विचारों का विश्लेषण है. स्मिथ ने मुक्त अर्थव्यवस्था का समर्थन करते हुए दर्शाया है कि ऐसे दौर में अपने हितों की रक्षा कैसे की जा सकती है, किस तरह तकनीक का अधिकतम लाभ कमाया जा सकता है, किस प्रकार एक कल्याणकारी राज्य को धर्मिकता की कसौटी पर कसा जा सकता है और कैसे व्यावसायिक स्पर्धा से समाज को विकास के रास्ते पर ले जाया जा सकाता है. स्मिथ की विचारधारा इसी का विश्लेषण बड़े वस्तुनिष्ठ ढंग से प्रस्तुत करती है. इस पुस्तक के कारण स्मिथ पर व्यक्तिवादी होने के आरोप भी लगते रहे हैं. लेकिन जो विद्वान स्मिथ को निरा व्यक्तिवादी मानते हैं, उन्हें यह तथ्य चौंका सकता है कि उसका अधिकांश कार्य मानवीय नैतिकता को प्रोत्साहित करने वाला तथा जनकल्याण पर केंद्रित है. अपनी दूसरी पुस्तक ‘नैतिक अनुभूतियों का सिद्धांत’ में स्मिथ लिखता है—
‘पूर्णतः स्वार्थी व्यक्ति की संकल्पना भला कैसे की जा सकती है. प्रकृति के निश्चित ही कुछ ऐसे सिद्धांत हैं, जो उसको दूसरों के हितों से जोड़कर उनकी खुशियों को उसके लिए अनिवार्य बना देते हैं, जिससे उसे उन्हें सुखी–संपन्न देखने के अतिरिक्त और कुछ भी प्राप्त नहीं होता.’
स्मिथ के अनुसार स्वार्थी और अनिश्चितता का शिकार व्यक्ति सोच सकता है कि प्रकृति के सचमुच कुछ ऐसे नियम हैं जो दूसरे के भाग्य में भी उसके लिए लाभकारी सिद्ध हो सकते हैं तथा उसके लिए खुशी का कारण बन सकते हैं. जबकि यह उसका सरासर भ्रम ही है. उसको सिवाय ऐसा सोचने के कुछ और हाथ नहीं लग पाता. मानव व्यवहार की एकांगिकता और सीमाओं का उल्लेख करते हुए एक स्थान पर स्मिथ ने लिखा है कि—
‘हमें इस बात का प्रामाणिक अनुभव नहीं है कि दूसरा व्यक्ति क्या सोचता है. ना ही हमें इस बात का कोई ज्ञान है कि वह वास्तव में किन बातों से प्रभावित होता है. सिवाय इसके कि हम स्वयं को उन परिस्थितियों में होने की कल्पना कर कुछ अनुमान लगा सकें. छज्जे पर खडे़ अपने भाई को देखकर हम निश्चिंत भी रह सकते हैं, बिना इस बात की परवाह किए कि उसपर क्या बीत रही है. हमारी अनुभूतियां उसकी स्थिति के बारे में प्रसुप्त बनी रहती हैं. वे हमारे ‘हम’ से परे न तो जाती हैं, न ही जा सकती हैं; अर्थात उसकी वास्तविक स्थिति के बारे में हम केवल अनुमान ही लगा पाते हैं. न उसकी चेतना में ही वह शक्ति है जो हमें उसकी परेशानी और मनःस्थिति का वास्तविक बोध करा सके, उस समय तक जब तक कि हम स्वयं को उसकी परिस्थितियों में रखकर नहीं सोचते. मगर हमारा अपना सोच केवल हमारा सोच और संकल्पना है, न कि उसका. कल्पना के माध्यम से हम उसकी स्थिति का केवल अनुमान लगाने में कामयाब हो पाते हैं.’
उपर्युक्त उद्धरण द्वारा स्मिथ ने यथार्थ स्थिति बयान की है. हमारा रोजमर्रा का बहुत–सा व्यवहार केवल अनुमान और कल्पना के सहारे ही संपन्न होता है.
भावुकता एवं नैतिकता के अनपेक्षित दबावों से बचते हुए स्मिथ ने व्यक्तिगत सुख–लाभ का पक्ष भी बिना किसी झिझक के लिया है. उसके अनुसार खुद से प्यार करना, अपनी सुख–सुविधाओं का खयाल रखना तथा उनके लिए आवश्यक प्रयास करना किसी भी दृष्टि से अकल्याणकारी अथवा अनैतिक नहीं है. उसका कहना था कि जीवन बहुत कठिन हो जाएगा यदि हमारी कोमल संवेदनाएं और प्यार, जो हमारी मूल भावना है, हर समय हमारे व्यवहार को नियंत्रित करने लगे, और उसमें दूसरों के कल्याण की कोई कामना ही न हो; या वह अपने अहं की रक्षा को ही सर्वस्व मानने लगे, और दूसरों की उपेक्षा ही उसका धर्म बन जाए. सहानुभूति तथा व्यक्तिगत लाभ एक दूसरे के विरोधी न होकर परस्पर पूरक होते हैं. दूसरों की मदद के सतत अवसर मनुष्य को मिलते ही रहते हैं.
स्मिथ ‘राष्ट्रों की संपदा’ नामक ग्रंथ में परोपकार और कल्याण की व्याख्या बड़े ही वस्तुनिष्ट ढंग से करता है. स्मिथ के अनुसार अभ्यास की कमी के कारण हमारा मानस एकाएक ऐसी मान्यताओं को स्वीकारने को तैयार नहीं होता, हालांकि हमारा आचरण निरंतर उसी ओर इंगित करता रहता है. हमारे अंतर्मन में मौजूद द्वंद्व हमें निरंतर मथते रहते हैं. एक स्थान पर वह लिखता है कि केवल धर्म अथवा परोपकार के बल पर आवश्यकताओं की पूर्ति असंभव है. उसके लिए व्यक्तिगत हितों की उपस्थिति भी अनिवार्य है. वह लिखता है—
‘हमारा भोजन किसी कसाई, शराब खींचनेवाले या तंदूरवाले की दयालुता की सौगात नहीं है. यह उनके निहित लाभ के लिए, स्वयं के लिए किए गए कार्य का प्रतिफल है.’
स्मिथ के अनुसार यदि कोई आदमी धनार्जन के लिए परिश्रम करता है तो यह उसका अपने सुख के लिए किया गया कार्य है. लेकिन उसका प्रभाव स्वयं उस तक ही सीमित नहीं रहता. धनार्जन की प्रक्रिया में वह किसी ने किसी प्रकार दूसरों से जुड़ता है. उनका सहयोग लेता है तथा अपने उत्पाद के माध्यम से अपने साथ–साथ अपने समाज की आवश्यकताएं पूरी करता है. स्पर्धा के बीच कुछ कमाने के लिए उसे दूसरों से अलग, कुछ न कुछ उत्पादन करना ही पड़ता है. उत्पादन तथा उत्पादन के लिए प्रयुक्त तकनीक की विशिष्टता का अनुपात ही उसकी सफलता तय करता है. ‘राष्ट्रों की संपदा’ नामक ग्रंथ में स्मिथ लिखता है कि—
‘प्रत्येक उद्यमी निरंतर इस प्रयास में रहता है कि वह अपनी निवेश राशि पर अधिक से अधिक लाभ अर्जित कर सके. यह कार्य वह अपने लिए, केवल अपने भले की कामना के साथ करता है, न कि समाज के कल्याण की खातिर. यह भी सच है कि अपने भले के लिए ही वह अपने व्यवसाय को अधिक से अधिक आगे ले जाने, उत्पादन और रोजगार के अवसरों को ज्यादा से ज्यादा विस्तार देने का प्रयास करता है. किंतु इस प्रक्रिया में देर–सवेर समाज का भी हित–साधन होता है.’
पांच खंडों में लिखी गई पुस्तक ‘राष्ट्रों की संपदा’ में स्मिथ किसी राष्ट्र की समृद्धि के कारणों और उनकी प्रकृति को स्पष्ट करने का प्रयास भी किया है. किंतु उसका आग्रह अर्थव्यवस्था पर कम से कम नियंत्रण के प्रति रहा है. स्मिथ के अनुसार समृद्धि का पहला कारण श्रम का अनुकूल विभाजन है. यहां अनुकूलता का आशय किसी भी व्यक्ति की कार्यकुशलता का सदुपयोग करते हुए उसे अधिकतम उत्पादक बनाने से है. इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिए स्मिथ का एक उदाहरण बहुत ही चर्चित रहा है—
‘कल्पना करें कि दस कारीगर मिलकर एक दिन में अड़तालीस हजार पिन बना सकते हैं, बशर्ते उनकी उत्पादन प्रक्रिया को अलग–अलग हिस्सों में बांटकर उनमें से हर एक को उत्पादन प्रक्रिया का कोई खास कार्य सौंप दिया जाए. किसी दिन उनमें से एक भी कारीगर यदि अनुपस्थित रहता है तो; उनमें से एक कारीगर दिन–भर में एक पिन बनाने में भी शायद ही कामयाब हो सके. इसलिए कि किसी कारीगर विशेष की कार्यकुशलता उत्पादन प्रक्रिया के किसी एक चरण को पूरा कर पाने की कुशलता है.’
स्मिथ मुक्त व्यापार के पक्ष में था. उसका कहना था कि सरकारों को वे सभी कानून उठा लेने चाहिए जो उत्पादकता के विकास के आड़े आकर उत्पादकों को हताश करने का कार्य करते हैं. उसने परंपरा से चले आ रहे व्यापार–संबंधी कानूनों का विरोध करते हुए कहा कि इस तरह के कानून उत्पादकता पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं. उसने आयात के नाम पर लगाए जाने वाले करों एवं उसका समर्थन करने वाले कानूनों का भी विरोध किया है. अर्थशास्त्र के क्षेत्र में उसका सिद्धांत ‘लैसे फेयर’ के नाम से जाना जाता है. जिसका अभिप्रायः है—उन्हें स्वेच्छापूर्वक कार्य करने दो (let them do). दूसरे शब्दों में स्मिथ उत्पादन की प्रक्रिया की निर्बाधता के लिए उसकी नियंत्रणमुक्ति चाहता था. वह उत्पादन–क्षेत्र के विस्तार के स्थान पर उत्पादन के विशिष्टीकरण के पक्ष में था, ताकि मशीनी कौशल एवं मानवीय श्रम का अधिक से अधिक लाभ उठाया जाए. उत्पादन सस्ता हो और वह अधिकतम तक पहुंच सके. उसका कहना था कि—
‘किसी वस्तु को यदि कोई देश हमारे देश में आई उत्पादन लागत से सस्ती देने को तैयार है तो यह हमारा कर्तव्य है कि उसको वहीं से खरीदें. तथा अपने देश के श्रम एवं संसाधनों का नियोजन इस प्रकार करें कि वह अधिकाधिक कारगर हो सकें तथा हम उसका उपयुक्त लाभ उठा सकें.’
स्मिथ का कहना था कि समाज का गठन विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों, अनेक सौदागरों के बीच से होना चाहिए. बगैर किसी पारस्पिरिक लाभ अथवा कामना के होना चाहिए. उत्पादन की इच्छा ही उद्यमिता की मूल प्रेरणाशक्ति है. लेकिन उत्पादन के साथ लाभ की संभावना न हो, यदि कानून मदद करने के बजाय उसके रास्ते में अवरोधक बनकर खड़ा हो जाए, तो उसकी इच्छा मर भी सकती है. उस स्थिति में उस व्यक्ति और राष्ट्र दोनों का ही नुकसान है. स्मिथ के अनुसार—
‘उपभोग का प्रत्यक्ष संबंध उत्पादन से है. कोई भी व्यक्ति इसलिए उत्पादन करता करता है, क्योंकि वह उत्पादन की इच्छा रखता है. इच्छा पूरी होने पर वह उत्पादन की प्रक्रिया से किनारा कर सकता है अथवा कुछ समय के लिए उत्पादन की प्रक्रिया को स्थगित भी कर सकता है. जिस समय कोई व्यक्ति अपनी आवश्यकता से अधिक उत्पादन कर लेता है, उस समय अतिरिक्त उत्पादन को लेकर उसकी यही कामना होती है कि उसके द्वारा वह किसी अन्य व्यक्ति से, किसी और वस्तु की फेरबदल कर सके. यदि कोई व्यक्ति कामना तो किसी वस्तु की करता है तथा बनाता कुछ और है, तब उत्पादन को लेकर उसकी यही इच्छा हो सकती है कि वह उसका उन वस्तुओं के साथ विनिमय कर सके, जिनकी वह कामना करता है और उन्हें उससे भी अच्छी प्रकार से प्राप्त कर सके, जैसा वह उन्हें स्वयं बना सकता था.’
स्मिथ ने कार्य–विभाजन को पूर्णतः प्राकृतिक मानते हुआ उसका मुक्त स्वर में समर्थन किया है. यह उसकी वैज्ञानिक दृष्टि एवं दूरदर्शिता को दर्शाता है. उसके विचारों के आधार पर अमेरिका और यूरोपीय देशों ने मुक्त अर्थव्यवस्था को अपनाया. शताब्दियों बाद भी उसके विचारों की प्रासंगिकता यथावत बनी हुई है. औद्योगिक स्पर्धा में बने रहने के लिए चीन और रूस जैसे कट्टर साम्यवादी देश भी मुक्त अर्थव्यवस्था के समर्थक बने हुए हैं. उत्पादन के भिन्न–भिन्न पहलुओं का विश्लेषण करते हुए स्मिथ ने कहा कि उद्योगों की सफलता में मजदूर और कारीगर का योगदान भी कम नहीं होता. वे अपना श्रम–कौशल निवेश करके उत्पादन में सहायक बनते हैं.
स्मिथ का यह भी लिखा है ऐसे स्थान पर जहां उत्पादन की प्रवृत्ति को समझना कठिन हो, वहां पर मजदूरी की दरें सामान्य से अधिक हो सकती हैं. इसलिए कि लोग, जब तक कि उन्हें अतिरिक्त रूप से कोई लाभ न हो, सीखना पसंद ही नहीं करेंगे. अतिरिक्त मजदूरी अथवा सामान्य से अधिक अर्जन की संभावना उन्हें नई प्रविधि अपनाने के लिए प्रेरित करती हैं. इस प्रकार स्मिथ ने सहज मानववृत्ति के विशिष्ट लक्षणों की ओर संकेत किया है. इसी प्रकार ऐसे कार्य जहां व्यक्ति को स्वास्थ्य की दृष्टि से प्रतिकूल स्थितियों में कार्य करना पड़े अथवा असुरक्षित स्थानों पर चल रहे कारखानों में मजदूरी की दरें सामान्य से अधिक रखनी पड़ेंगी. नहीं तो लोग सुरक्षित और पसंदीदा ठिकानों की ओर मजदूरी के लिए भागते रहेंगे और वैसे कारखानों में प्रशिक्षित कर्मियों का अभाव बना रहेगा.
स्मिथ ने तथ्यों का प्रत्येक स्थान पर बहुत ही संतुलित तथा तर्कसंगत ढंग से उपयोग किया है. अपनी पुस्तक ‘राष्ट्रों की संपदा’ में वह स्पष्ट करता है कि कार्य की प्रवृत्ति के अंतर को वेतन के अंतर से संतुलित किया जा सकता है. उसके लेखन की एक विशेषता यह भी है कि वह बात को समझाने के लिए लंबे–लंबे वर्णन के बजाए तथ्यों एवं तर्कों का सहारा लेता है. उत्पादन–व्यवस्था के अंतरराष्ट्रीयकरण को लेकर भी स्मिथ के विचार आधुनिक अर्थचिंतन की कसौटी पर खरे उतरते हैं. इस संबंध में उसका मत था कि—
‘यदि कोई विदेशी मुल्क हमें किसी उपभोक्ता सामग्री को अपेक्षाकृत सस्ता उपलब्ध कराने को तैयार है तो उसे वहीं से मंगवाना उचित होगा. क्योंकि उसी के माध्यम से हमारे देश की कुछ उत्पादक शक्ति ऐसे कार्यों को संपन्न करने के काम आएगी जो कतिपय अधिक महत्त्वपूर्ण एवं लाभकारी हैं. इस व्यवस्था से अंततोगत्वा हमें लाभ ही होगा.’
विश्लेषण के दौरान स्मिथ की स्थापनाएं केवल पिनों की उत्पादन तकनीक के वर्णन अथवा एक कसाई तथा रिक्शाचालक के वेतन के अंतर को दर्शाने मात्र तक सीमित नहीं रहतीं. बल्कि उसके बहाने से वह राष्ट्रों के जटिल राजनीतिक मुद्दों को सुलझाने का भी काम करता है. अर्थ–संबंधों के माध्यम से अंतरराष्ट्रीय रणनीति बनाने का चलन आजकल आम हो चला है. संपन्न औद्योगिक देश यह कार्य बड़ी कुशलता के साथ करते हैं. मगर उसके बीजतत्व स्मिथ के चिंतन में अठारहवीं शताब्दी से ही मौजूद हैं.
‘राष्ट्रों की संपदा’ शृंखला की चैथी पुस्तक में सन 1776 में स्मिथ ने ब्रिटिश सरकार से साफ–साफ कह दिया था कि उसकी अमेरिकन कालोनियों पर किया जाने व्यय, उनके अपने मूल्य से अधिक है. इसका कारण स्पष्ट करते हुए उसने कहा था कि ब्रिटिश राजशाही बहुत खर्चीली व्यवस्था है. उसने आंकड़ों के आधार पर यह सिद्ध किया था कि राजनीतिक नियंत्रण के स्थान पर एक साफ–सुथरी अर्थनीति, नियंत्रण के लिए अधिक कारगर व्यवस्था हो सकती है. वह आर्थिक मसलों से सरकार को दूर रखने का पक्षधर था. इस मामले में स्मिथ कतिपय आधुनिक अर्थनीतिकारों से कहीं आगे था. लेकिन यदि सबकुछ अर्थिक नीतियों के माध्यम से पूंजीपतियों अथवा उनके सहयोग से बनाई गई व्यवस्था द्वारा ही संपन्न होना है तब सरकार का क्या दायित्व है? अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए वह क्या कर सकती है?
इस संबंध में स्मिथ का एकदम स्पष्ट मत था कि सरकार पेटेंट कानून, कांट्रेक्ट, लाइसेंस एवं का॓पीराइट जैसी व्यवस्थाओं के माध्यम से अपना नियंत्रण बनाए रख सकती है. यही नहीं सरकार सार्वजनिक महत्त्व के कार्यों जैसे कि पुल, सड़क, विश्रामालय आदि बनाने का कार्य अपने नियंत्रण में रखकर जहां राष्ट्र की समृद्धि का लाभ जन–जन पहुंचा सकती है. प्राथमिकता के क्षेत्रों में, ऐसे क्षेत्रों में जहां उद्यमियों की काम करने की रुचि कम हो, विकास की गति बनाए रखकर सरकार अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर सकती है. पूंजीगत व्यवस्था के समर्थन में स्मिथ के विचार कई स्थान पर व्यावहारिक हैं तो कई बार वे अतिरेक की सीमाओं को पार करते हुए नजर आते हैं. वह सरकार को एक स्वयंभू सत्ता के बजाय एक पूरक व्यवस्था में बदल देने का समर्थक था. जिसका कार्य उत्पादकता में यथासंभव मदद करना है. उसका यह भी विचार था कि नागरिकों को सुविधाओं के उपयोग के अनुपात में निर्धारित शुल्क का भुगतान भी करना चाहिए. लेकिन इसका अभिप्राय यह नहीं है कि स्मिथ सरकारों को अपने नागरिकों के कल्याण की जिम्मेदारी से पूर्णतः मुक्त कर देना चाहता था. उसका मानना था कि—
‘कोई भी समाज उस समय तक सुखी एवं समृद्ध नहीं माना जा सकता, जब तक कि उसके सदस्यों का अधिकांश, गरीब, दुखी एवं अवसादग्रस्त हो.’
व्यापार और उत्पादन तकनीक के मामले में स्मिथ मुक्त स्पर्धा का समर्थक था. उसका मानना था कि अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में स्पर्धा का आगमन ‘प्राकृतिक नियम’ के अनुरूप होगा. स्मिथ का प्राकृतिक नियम निश्चित रूप से जंगल के उस कानून का ही विस्तार है, जिसमें जीवन की जिजीविषा संघर्ष को अनिवार्य बना देती है. स्मिथ के समय में सहकारिता की अवधारणा का जन्म नहीं हुआ था, समाजवाद का विचार भी लोकचेतना के विकास के गर्भ में ही था. उसने एक ओर तो उत्पादन को स्पर्धा से जोड़कर उसको अधिक से अधिक लाभकारी बनाने पर जोर दिया. दूसरी ओर उत्पादन और नैतिकता को परस्पर संबद्ध कर उत्पादन–व्यवस्था के चेहरे को मानवीय बनाए रखने का रास्ता दिखाया. हालांकि अधिकतम मुनाफे को ही अपना अभीष्ठ मानने वाला पूंजीपति बिना किसी स्वार्थ के नैतिकता का पालन क्यों करे, उसकी ऐसी बाध्यता क्योंकर हो? इस ओर उसने कोई संकेत नहीं किया है. तो भी स्मिथ के विचार अपने समय में सर्वाधिक मौलिक और प्रभावशाली रहे हैं.
स्मिथ ने आग्रहपूर्वक कहा था कि—
‘किसी भी सभ्य समाज में मनुष्य को दूसरों के समर्थन एवं सहयोग की आवश्यकता प्रतिक्षण पड़ती है. जबकि चंद मित्र बनाने के लिए मनुष्य को एक जीवन भी अपर्याप्त रह जाता है. प्राणियों में वयस्कता की ओर बढ़ता हुआ कोई जीव आमतौर पर अकेला और स्वतंत्र रहने का अभ्यस्त हो चुका होता है. दूसरों की मदद करना उसके स्वभाव का हिस्सा नहीं होता. किंतु मनुष्य के साथ ऐसा नहीं है. उसको अपने स्वार्थ के लिए हर समय अपने भाइयों एवं सगे–संबंधियों के कल्याण की चिंता लगी रहती है. जाहिर है मनुष्य अपने लिए भी यही अपेक्षा रखता है. क्योंकि उसके लिए केवर्ल शुभकामनाओं से काम चलाना असंभव ही है. वह अपने संबंधों को और भी प्रगाढ़ बनाने का कार्य करेगा, यदि वह उनकी सुख–लालसाओं में अपने लिए स्थान बना सके. वह यह भी जताने का प्रयास करेगा कि यह उनके अपने भी हित में है कि वे उन सभी कार्यों को अच्छी तरह अंजाम दें, जिनकी वह उनसे अपेक्षा रखता है. मनुष्य दूसरों के प्रति जो भी कर्तव्य निष्पादित करता है, वह एक तरह की सौदेबाजी ही है– यानी तुम मुझको वह दो जिसको मैं चाहता हूं, बदले में तुम्हें वह सब मिलेगा जिसकी तुम कामना करते हो. किसी को कुछ देने का यही सिद्धांत है, यही एक रास्ता है, जिससे हमारे सामाजिक संबंध विस्तार पाते हैं और जिनके सहारे यह संसार चलता है. हमारा भोजन किसी कसाई, शराब खींचनेवाले या तंदूरवाले की दयालुता की सौगात नहीं है. यह उनके निहित लाभ के लिए, स्वयं के लिए किए गए कार्य का प्रतिफल है.’
इस प्रकार हम देखते हैं कि एडम स्मिथ के अर्थनीति संबंधी विचार न केवल व्यावहारिक, मौलिक और दूरदर्शितापूर्ण हैं; बल्कि आज भी अपनी प्रासंकगिता को पूर्ववत बनाए हुए हैं. शायद यह कहना ज्यादा उपयुक्त होगा कि वे पहले की अपेक्षा आज कहीं अधिक प्रासंगिक हैं. उसकी विचारधारा में हमें कहीं भी विचारों के भटकाव अथवा असंमजस के भाव नहीं दिखते. स्मिथ को भी मान्यताओं पर पूरा विश्वास था, यही कारण है कि वह अपने तर्क के समर्थन में अनेक तथ्य जुटा सका. यही कारण है कि आगे आने वाले अर्थशास्त्रियों को जितना प्रभावित स्मिथ ने किया; उस दौर का कोई अन्य अर्थशास्त्री वैसा नहीं कर पाया.
हालांकि अपने विचारों के लिए एडम स्मिथ को लोगों की आलोचनाओं का सामना भी करना पड़ा. कुछ विद्वानों का विचार है कि उसके विचार एंडरर्स चांडिनिअस(Anders Chydenius) की पुस्तक ‘दि नेशनल गेन (The National Gain, 1765) तथा डेविड ह्यूम आदि से प्रभावित हैं. कुछ विद्वानों ने उसपर अराजक पूंजीवाद को बढ़ावा देने के आरोप भी लगाए हैं. मगर किसी भी विद्वान के विचारों का आकलन उसकी समग्रता में करना ही न्यायसंगत होता है. स्मिथ के विचारों का आकलन करने वाले विद्वान अकसर औद्योगिक उत्पादन संबंधी विचारों तक ही सिमटकर रह जाते हैं, वे भूल जाते हैं कि स्मिथ की उत्पादन संबंधी विचारों में सरकार और नागरिकों के कर्तव्य भी सम्मिलित हैं. जो भी हो, उसकी वैचारिक प्रखरता का प्रशंसा उसके तीव्र विरोधियों ने भी की है. दुनिया के अनेक विद्वान, शोधार्थी आज भी उसके आर्थिक सिद्धांतों का विश्लेषण करने में लगे हैं. एक विद्वान के विचारों की प्रासंगिकता यदि शताब्दियों बाद भी बनी रहे तो यह निश्चय ही उसकी महानता का प्रतीक है. जबकि स्मिथ ने तो विद्वानों की पीढ़ियों को न केवल प्रभावित किया, बल्कि अर्थशास्त्रियों की कई पीढ़ियां तैयार भी की हैं.
कार्य एवं महत्व
आडम स्मिथ मुख्यतः अपनी दो रचनाओं के लिये जाने जाते हैं-
थिअरी ऑफ मोरल सेंटिमेन्ट्स (The Theory of Moral Sentiments (1759)) तथा
ऐन इन्क्वायरी इन्टू द नेचर ऐण्ड काजेज ऑफ द वेल्थ ऑफ नेशन्स (An Inquiry into the Nature and Causes of the Wealth of Nations)
वाह्य सूत्र
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श्रेणी:अर्थशास्त्री
श्रेणी:व्यक्तिगत जीवन | दार्शनिक एडम स्मिथ का जन्म कहाँ हुआ था? | ५जून १७२३ | 11 | hindi |
c6ea169b2 | आचार्य विनोबा भावे (11 सितम्बर 1895 - 15 नवम्बर 1982) भारत के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, सामाजिक कार्यकर्ता तथा प्रसिद्ध गांधीवादी नेता थे। उनका मूल नाम विनायक नारहरी भावे था। उन्हे भारत का राष्ट्रीय आध्यापक और महात्मा गांधी का आध्यातमिक उत्तराधीकारी समझा जाता है। उन्होने अपने जीवन के आखरी वर्ष पोनार, महाराष्ट्र के आश्रम में गुजारे। उन्होंने भूदान आन्दोलन चलाया। इंदिरा गांधी द्वारा घोषित आपातकाल को 'अनुशासन पर्व' कहने के कारण वे विवाद में भी थे।
जीवन परिचय
विनोबा भावे का मूल नाम विनायक नरहरि भावे था। महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र में एक गांव है, गागोदा. यहां के चितपावन ब्राह्मण थे, नरहरि भावे. गणित के प्रेमी और वैज्ञानिक सूझबूझ वाले. रसायन विज्ञान में उनकी रुचि थी। उन दिनों रंगों को बाहर से आयात करना पड़ता था। नरहरि भावे रात-दिन रंगों की खोज में लगे रहते. बस एक धुन थी उनकी कि भारत को इस मामले में आत्मनिर्भर बनाया जा सके। उनकी माता रुक्मिणी बाई विदुषी महिला थीं। उदार-चित्त, आठों याम भक्ति-भाव में डूबी रहतीं. इसका असर उनके दैनिक कार्य पर भी पड़ता था। मन कहीं ओर रमा होता तो कभी सब्जी में नमक कम पड़ जाता, कभी ज्यादा. कभी दाल के बघार में हींग डालना भूल जातीं तो कभी बघार दिए बिना ही दाल परोस दी जाती. पूरा घर भक्ति रस से सराबोर रहता था। इसलिए इन छोटी-मोटी बातों की ओर किसी का ध्यान ही नहीं जाता था। उसी सात्विक वातावरण में 11 सितंबर 1895 को विनोबा का जन्म हुआ। उनका बचपन का नाम था विनायक. मां उन्हें प्यार से विन्या कहकर बुलातीं. विनोबा के अलावा रुक्मिणी बाई के दो और बेटे थे: वाल्कोबा और शिवाजी. विनायक से छोटे वाल्कोबा. शिवाजी सबसे छोटे. विनोबा नाम गांधी जी ने दिया था। महाराष्ट्र में नाम के पीछे ‘बा’ लगाने का जो चलन है, उसके अनुसार. तुकोबा, विठोबा और विनोबा.
मां का स्वभाव विनायक ने भी पाया था। उनका मन भी हमेशा अध्यात्म चिंतन में लीन रहता. न उन्हें खाने-पीने की सुध रहती थी। न स्वाद की खास पहचान थीं। मां जैसा परोस देतीं, चुपचाप खा लेते. रुक्मिणी बाई का गला बड़ा ही मधुर था। भजन सुनते हुए वे उसमें डूब जातीं. गातीं तो भाव-विभोर होकर, पूरे वातावरण में भक्ति-सलिला प्रवाहित होने लगती. रामायण की चैपाइयां वे मधुर भाव से गातीं. ऐसा लगता जैसे मां शारदा गुनगुना रही हो। विनोबा को अध्यात्म के संस्कार देने, उन्हें भक्ति-वेदांत की ओर ले जाने में, बचपन में उनके मन में संन्यास और वैराग्य की प्रेरणा जगाने में उनकी मां रुक्मिणी बाई का बड़ा योगदान था। बालक विनायक को माता-पिता दोनों के संस्कार मिले। गणित की सूझ-बूझ और तर्क-सामथ्र्य, विज्ञान के प्रति गहन अनुराग, परंपरा के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण और तमाम तरह के पूर्वाग्रहों से अलग हटकर सोचने की कला उन्हें पिता की ओर से प्राप्त हुई। जबकि मां की ओर से मिले धर्म और संस्कृति के प्रति गहन अनुराग, प्राणीमात्र के कल्याण की भावना. जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण, सर्वधर्म समभाव, सहअस्तित्व और ससम्मान की कला. आगे चलकर विनोबा को गांधी जी का आध्यात्मिक उत्तराधिकारी माना गया। आज भी कुछ लोग यही कहते हैं। मगर यह विनोबा के चरित्र का एकांगी और एकतरफा विश्लेषण है। वे गांधी जी के ‘आध्यात्मिक उत्तराधिकारी’ से बहुत आगे, स्वतंत्र सोच के स्वामी थे। मुख्य बात यह है कि गांधी जी के प्रखर प्रभामंडल के आगे उनके व्यक्तित्व का स्वतंत्र मूल्यांकन हो ही नहीं पाया।
महात्मा गांधी राजनीतिक जीव थे। उनकी आध्यात्मिक चेतना सुबह-शाम की आरती और पूजा-पाठ तक सीमित थी। जबकि उनकी धर्मिक-चेतना उनके राजनीतिक कार्यक्रमों के अनुकूल और समन्वयात्मक थी। उसमें आलोचना-समीक्षा भाव के लिए कोई स्थान नहीं था। धर्म-दर्शन के मामले में यूं तो विनोबा भी समर्पण और स्वीकार्य-भाव रखते थे। मगर उन्हें जब भी अवसर मिला धर्म-ग्रंथों की व्याख्या उन्होंने लीक से हटकर की। चाहे वह ‘गीता प्रवचन’ हों या संत तुकाराम के अभंगों पर लिखी गई पुस्तक ‘संतप्रसाद’. इससे उसमें पर्याप्त मौलिकता और सहजता है। यह कार्य वही कर सकता था जो किसी के भी बौद्धिक प्रभामंडल से मुक्त हो। एक बात यह भी महात्मा गांधी के सान्न्ध्यि में आने से पहले ही विनोबा आध्यात्मिक ऊंचाई प्राप्त कर चुके थे। आश्रम में आनने के बाद भी वे अध्ययन-चिंतन के लिए नियमित समय निकालते थे। विनोबा से पहली ही मुलाकात में प्रभावित होने पर गांधी जी ने सहज-मन से कहा था—
बाकी लोग तो इस आश्रम से कुछ लेने के लिए आते हैं, एक यही है जो हमें कुछ देने के लिए आया है।
दर्शनशास्त्र उनका प्रिय विषय था। आश्रम में दाखिल होने के कुछ महिनों के भीतर ही दर्शनशास्त्र की आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने एक वर्ष का अध्ययन अवकाश लिया था।
बचपन
विनोबा के यूं तो दो छोटे भाई और भी थे, मगर मां का सर्वाधिक वात्सल्य विनायक को ही मिला। भावनात्मक स्तर पर विनोबा भी खुद को अपने पिता की अपेक्षा मां के अधिक करीब पाते थे। यही हाल रुक्मिणी बाई का था, तीनों बेटों में ‘विन्या’ उनके दिल के सर्वाधिक करीब था। वे भजन-पूजन को समर्पित रहतीं. मां के संस्कारों का प्रभाव. भौतिक सुख-सुविधाओं के प्रति उदासीनता और त्याग की भावना किशोरावस्था में ही विनोबा के चरित्र का हिस्सा बन चुकी थी। घर का निर्जन कोना उन्हें ज्यादा सुकून देता. मौन उनके अंतर्मन को मुखर बना देता. वे घर में रहते, परिवार में सबके बीच, मगर ऐसे कि सबके साथ रहते हुए भी जैसे उनसे अलग, निस्पृह और निरपेक्ष हों. नहीं तो मां के पास, उनके सान्न्ध्यि में. ‘विन्या’ उनके दिल, उनकी आध्यात्मिक मन-रचना के अधिक करीब था। मन को कोई उलझन हो तो वही सुलझाने में मदद करता. कोई आध्यात्मिक समस्या हो तो भी विन्या ही काम आता. यहां तक कि यदि पति नरहरि भावे भी कुछ कहें तो उसमें विन्या का निर्णय ही महत्त्वपूर्ण होता था। ऐसा नहीं है कि विन्या एकदम मुक्त या नियंत्रण से परे था। परिवार की आचार संहिता विनोबा पर भी पूरी तरह लागू होती थी। बल्कि विनोबा के बचपन की एक घटना है। रुक्मिणी बाई ने बच्चों के लिए एक नियम बनाया हुआ था कि भोजन तुलसी के पौघे को पानी देने के बाद ही मिलेगा. विन्या बाहर से खेलकर घर पहुंचते, भूख से आकुल-व्याकुल. मां के पास पहुंचते ही कहते:
‘मां, भूख लगी है, रोटी दो.’
‘रोटी तैयार है, लेकिन मिलेगी तब पहले तुलसी को पानी पिलाओ.’ मां आदेश देती.
‘नहीं मां, बहुत जोर की भूख लगी है।’ अनुनय करते हुए बेटा मां की गोद में समा जाता. मां को उसपर प्यार हो आता. परंतु नियम-अनुशासन अटल—
‘तो पहले तुलसी के पौधे की प्यास बुझा.’ बालक विन्या तुलसी के पौधे को पानी पिलाता, फिर भोजन पाता.
रुक्मिणी सोने से पहले समर्थ गुरु रामदास की पुस्तक ‘दास बोध’ का प्रतिदिन अध्ययन करतीं. उसके बाद ही वे चारपाई पर जातीं. बालक विन्या पर इस असर पड़ना स्वाभाविक ही था। वे उसे संत ज्ञानेश्वर, तुकाराम, नामदेव और शंकराचार्य की कथाएं सुनातीं. रामायण, महाभारत की कहानियां, उपनिषदों के तत्व ज्ञान के बारे में समझातीं. संन्यास उनकी भावनाओं पर सवार रहता. लेकिन दुनिया से भागने के बजाय लोगों से जुड़ने पर वे जोर देतीं. संसार से भागने के बजाय उसको बदलने का आग्रह करतीं. अक्सर कहतीं—‘विन्या, गृहस्थाश्रम का भली-भांति पालन करने से पितरों को मुक्ति मिलती है।’ लेकिन विन्या पर तो गुरु रामदास, संत ज्ञानेश्वर और शंकराचार्य का भूत सवार रहता. इन सभी महात्माओं ने अपनी आध्यात्मिक तृप्ति के लिए बहुत कम आयु में अपने माता-पिता और घर-परिवार का बहिष्कार किया था। वे कहते—
‘मां जिस तरह समर्थ गुरु रामदास घर छोड़कर चले गए थे, एक दिन मुझे भी उसी तरह प्रस्थान कर देना है।’
ऐसे में कोई और मां होती तो हिल जाती. विचारमात्र से रो-रोकर आसमान सिर पर उठा लेती. क्योंकि लोगों की सामान्य-सी प्रवृत्ति बन चुकी है कि त्यागी, वैरागी होना अच्छी बात, महानता की बात, मगर तभी तक जब त्यागी और वैरागी दूसरे के घर में हों. अपने घर में सब साधारण सांसारिक जीवन जीना चाहते हैं। मगर रुक्मिणी बाई तो जैसे किसी और ही मिट्टी की बनी थीं। वे बड़े प्यार से बेटे को समझातीं—
‘विन्या, गृहस्थाश्रम का विधिवत पालन करने से माता-पिता तर जाते हैं। मगर बृह्मचर्य का पालन करने से तो 41 पीढ़ियों का उद्धार होता है।’
बेटा मां के कहे को आत्मसात करने का प्रयास कर ही रहा होता कि वे आगे जोड़ देतीं-
‘विन्या, अगर मैं पुरुष होती तो सिखाती कि वैराग्य क्या होता है।’
बचपन में बहुत कुशाग्र बुद्धि थे विनोबा. गणित उनका प्रिय विषय था। कविता और अध्यात्म चेतना के संस्कार मां से मिले। उन्हीं से जड़ और चेतन दोनों को समान दृष्टि से देखने का बोध जागा. मां बहुत कम पढ़ी-लिखी थीं। पर उन्होने की विन्या को अपरिग्रह, अस्तेय के बारे में अपने आचरण से बताया। संसार में रहते हुए भी उससे निस्पृह-निर्लिप्त रहना सिखाया. मां का ही असर था कि विन्या कविता रचते और और उन्हें आग के हवाले कर देते. दुनिया में जब सब कुछ अस्थाई और क्षणभंगुर है, कुछ भी साथ नहीं जाना तो अपनी रचना से ही मोह क्यों पाला जाए. उनकी मां यह सब देखतीं, सोचतीं, मगर कुछ न कहतीं. मानो विन्या को बड़े से बड़े त्याग के लिए तैयार कर रही हों. विनोबा की गणित की प्रवीणता और उसके तर्क उनके आध्यात्मिक विश्वास के आड़े नहीं आते थे। यदि कभी दोनों के बीच स्पर्धा होती भी तो जीत आध्यात्मिक विश्वास की ही होती. आज वे घटनाएं मां-बेटे के आपसी स्नेह-अनुराग और विश्वास का ऐतिहासिक दस्तावेज हैं।
रुक्मिणी बाई हर महीने चावल के एक लाख दाने दान करती थीं। एक लाख की गिनती करना भी आसान न था, सो वे पूरे महीने एक-एक चावल गिनती रहतीं. नरहरि भावे पत्नी को चावल गिनते में श्रम करते देख मुस्कराते. कम उम्र में ही आंख कमजोर पड़ जाने से डर सताने लगता. उनकी गणित बुद्धि कुछ और ही कहती. सो एक दिन उन्होंने रुक्मिणी बाई को टोक ही दिया—‘इस तरह एक-एक चावल गिनने में समय जाया करने की जरूरत ही क्या है। एक पाव चावल लो. उनकी गिनती कर लो. फिर उसी से एक लाख चावलों का वजन निकालकर तौल लो. कमी न रहे, इसलिए एकाध मुट्ठी ऊपर से डाल लो.’ बात तर्क की थी। लौकिक समझदारी भी इसी में थी कि जब भी संभव हो, दूसरे जरूरी कार्यों के लिए समय की बचत की जाए. रुक्मिणी बाई को पति का तर्क समझ तो आता. पर मन न मानता. एक दिन उन्होंने अपनी दुविधा विन्या के सामने प्रकट करने के बाद पूछा—
‘इस बारे में तेरा क्या कहना है, विन्या?’
बेटे ने सबकुछ सुना, सोचा। बोला, ‘मां, पिता जी के तर्क में दम है। गणित यही कहता है। किंतु दान के लिए चावल गिनना सिर्फ गिनती करना नहीं है। गिनती करते समय हर चावल के साथ हम न केवल ईश्वर का नाम लेते जाते हैं, बल्कि हमारा मन भी उसी से जुड़ा रहता है।’ ईश्वर के नाम पर दान के लिए चावल गिनना भी एक साधना है, रुक्मिणी बाई ने ऐसा पहले कहां सोचा था। अध्यात्मरस में पूरी तरह डूबी रहने वाली रुक्मिणी बाई को ‘विन्या’ की बातें खूब भातीं. बेटे पर गर्व हो आता था उन्हें. उन्होंने आगे भी चावलों की गिनती करना न छोड़ा. न ही इस काम से उनके मन कभी निरर्थकता बोध जागा.
ऐेसी ही एक और घटना है। जो दर्शाती है कि विनोबा कोरी गणितीय गणनाओं में आध्यात्मिक तत्व कैसे खोज लेते थे। घटना उस समय की है जब वे गांधी जी के आश्रम में प्रवेश कर चुके थे तथा उनके रचनात्मक कार्यों में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे थे। आश्रम में सुबह-शाम प्रार्थना सभाएं होतीं. उनमें उपस्थित होने वाले आश्रमवासियों की नियमित गिनती की जाती. यह जिम्मेदारी एक कार्यकर्ता थी। प्रसंग यह है कि एक दिन प्रार्थना सभा के बाद जब उस कार्यकर्ता ने प्रार्थना में उपस्थित हुए आगंतुकों की संख्या बताई तो विनोबा झट से प्रतिवाद करते हुए बोले—
‘नहीं इससे एक कम थी।’
कार्यकर्ता को अपनी गिनती पर विश्वास था, इसलिए वह भी अपनी बात पर अड़ गया। कर्म मंे विश्वास रखने वाले विनोबा आमतौर पर बहस में पड़ने से बचते थे। मगर उस दिन वे भी अपनी बात पर अड़ गए। आश्रम में विवादों का निपटान बापू की अदालत में होता था। गांधी जी को अपने कार्यकर्ता पर विश्वास था। मगर जानते थे कि विनोबा यूं ही बहस में नहीं पड़ने वाले. वास्तविकता जानने के लिए उन्होंने विनोबा की ओर देखा. तब विनोबा ने कहा—‘प्रार्थना में सम्मिलित श्रद्धालुओं की संख्या जितनी इन्होंने बताई उससे एक कम ही थी।’
‘वह कैसे?’
‘इसलिए कि एक आदमी का तो पूरा ध्यान वहां उपस्थित सज्जनों की गिनती करने में लगा था।’
गांधीजी विनोबा का तर्क समझ गए। प्रार्थना के काम में हिसाब-किताब और दिखावे की जरूरत ही क्या. आगे से प्रार्थना सभा में आए लोगों की गिनती का काम रोक दिया गया।
युवावस्था के प्रारंभिक दौर में ही विनोबा आजन्म ब्रह्मचारी रहने की ठान चुके थे। वही महापुरुष उनके आदर्श थे जिन्होंने सत्य की खोज के लिए बचपन में ही वैराग्य ओढ़ लिया था। और जब संन्यास धारण कर ब्रह्मचारी बनना है, गृहस्थ जीवन से नाता ही तोड़ना है तो क्यों न मन को उसी के अनुरूप तैयार किया जाए. क्यों उलझा जाए संबंधों की मीठी डोर, सांसारिक प्रलोभनों में. ब्रह्मचर्य की तो पहली शर्त यही है कि मन को भटकने से रोका जाए. वासनाओं पर नियंत्रण रहे। किशोर विनायक से किसी ने कह दिया था कि ब्रह्मचारी को किसी विवाह के भोज में सम्मिलित नहीं होना चाहिए। वे ऐसे कार्यक्रमों में जाने से अक्सर बचते भी थे। पिता नरहरि भावे तो थे ही, यदि किसी और को ही जाना हुआ तो छोटे भाई चले जाते. विनोबा का तन दुर्बल था। बचपन से ही कोई न कोई व्याधि लगी रहती. मगर मन-मस्तिष्क पूरी तरह चैतन्य. मानो शरीर की सारी शक्तियां सिमटकर दिमाग में समा गई हांे. स्मृति विलक्षण थी। किशोर विनायक ने वेद, उपनिषद के साथ-साथ संत ज्ञानेश्वर, तुकाराम, नामदेव के सैकड़ों पद अच्छी तरह याद कर लिए थे। गीता उन्हें बचपन से ही कंठस्थ थी। आगे चलकर चालीस हजार श्लोक भी उनके मानस में अच्छी तरह रम गए।
विनायक की बड़ी बहन का विवाह तय हुआ तो मानो परीक्षा की घड़ी भी करीब आ गई। उन्होंने तय कर लिया कि विवाह के अवसर पर भोज से दूर रहेंगे. कोई टोका-टाकी न करे, इसलिए उन्होंने उस दिन उपवास रखने की घोषणा कर दी। बहन के विवाह में भाई उपवास रखे, यह भी उचित न था। पिता तो सुनते ही नाराज हो गए। मगर मां ने बात संभाल ली। उन्होंने बेटे को साधारण ‘दाल-भात’ खाने के लिए राजी कर लिया। यही नहीं अपने हाथों से अलग पकाकर भी दिया। धूम-धाम से विवाह हुआ। विनायक ने खुशी-खुशी उसमें हिस्सा लिया। लेकिन अपने लिए मां द्वारा खास तौर पर बनाए दाल-भात से ही गुजारा किया। मां-बेटे का यह प्रेम आगे भी बना रहा। आगे चलकर जब संन्यास के लिए घर छोड़ा तो मां की एक लाल किनारी वाली धोती और उनके पूजाघर से एक मूति साथ ले गए। मूर्ति तो उन्होंने दूसरे को भेंट कर दी थी। मगर मां की धोती जहां भी वे जाते, अपने साथ रखते. सोते तो सिरहाने रखकर. जैसे मां का आशीर्वाद साथ लिए फिरते हों. संन्यासी मन भी मां की स्मृतियों से पीछा नहीं छुटा पाया था। मां के संस्कार ही विनोबा की आध्यात्मिक चेतना की नींव बने। उन्हीं पर उनका जीवनदर्शन विकसित हुआ। आगे चलकर उन्होंने रचनात्मकता और अध्यात्म के क्षेत्र में जो ख्याति अर्जित की उसके मूल में भी मां की ही प्रेरणाएं थीं।
रुक्मिणी बाई कम पढ़ी-लिखीं थीं। संस्कृत समझ नहीं आती थीं। लेकिन मन था कि गीता-ज्ञान के लिए तरसता रहता. एक दिन मां ने अपनी कठिनाई पुत्र के समक्ष रख ही दी—
‘विन्या, संस्कृत की गीता समझ में नहीं आती.’ विनोबा जब अगली बार बाजार गए, गीता के तीन-चार मराठी अनुवाद खरीद लाए. लेकिन उनमें भी अनुवादक ने अपना पांडित्य प्रदर्शन किया था।
‘मां बाजार में यही अनुवाद मिले.’ विन्या ने समस्या बताई. ऐसे बोझिल और उबाऊ अनुवाद अपनी अल्पशिक्षित मां के हाथ में थमाते हुए वे स्वयं दुःखी थे।
‘तो तू नहीं क्यों नहीं करता नया अनुवाद.’ मां ने जैसे चुनौती पेश की. विनोबा उसके लिए पूरी तरह तैयार नहीं थे।
‘मैं, क्या मैं कर सकूंगा?’ विनोबा ने हैरानी जताई. उस समय उनकी अवस्था मात्र 21 वर्ष थी। पर मां को बेटे की क्षमता पर पूरा विश्वास था।
‘तू करेगा...तू कर सकेगा विन्या!’ मां के मुंह से बरबस निकल पड़ा. मानो आशीर्वाद दे रही हो. गीता के प्रति विनोबा का गहन अनुराग पहले भी था। परंतु उसका वे भास्य लिखेंगे और वह भी मराठी में यह उन्होंने कभी नहीं सोचा था। लेकिन मां की इच्छा भी उनके लिए सर्वोपरि थी। धीरे-धीरे उनका आत्मविश्वास बढ़ता गया। गीता पहले भी उन्हें भाती थी। अब तो जैसे हर आती-जाती सांस गीता का पाठ करने लगी. सांस-सांस गीता हो गया। यह सोचकर कि मां मे निमित्त काम करना है। दायित्वभार साधना है। विनोबा का मन गीता हो गया। उसी साल 7 अक्टूबर को उन्होंने अनुवादकर्म के निमित्त कलम उठाई. उसके बाद तो प्रातःकाल स्नानादि के बाद रोत अनुवाद करना, उनकी दिनचर्या का हिस्सा बन गया। यह काम 1931 तक चला. परंतु जिसके लिए वह संकल्प साधा था, वह उस उपलब्धि को देख सकीं. मां रुक्मिणी बाई का निधन 24 अक्टूबर 1918 को ही हो चुका था। विनोबा ने इसे भी ईश्वर इच्छा माना और अनुवादकार्य में लगे रहे.
विनोबा धार्मिक संस्कारों में पाखंड के विरोधी थे। मां के निधन के समय भी विनोबा का अपने पिता और भाइयों से मतभेद हुआ। विनोबा ब्राह्मणों के हाथ से परंपरागत तरीके से दाह-संस्कार का विरोध कर रहे थे। लेकिन परिवार वालों की जिद के आगे उनकी एक न चली. विनोबा भी अपने सिद्धांतों पर अडिग थे। नतीजा यह कि जिस मां को वे सबसे अधिक चाहते थे, जो उनकी आध्यात्मिक गुरु थीं, उनके अंतिम संस्कार से वे दूर ही रहे। मां को उन्होंने भीगी आंखों से मौन विदाई दी। आगे चलकर 29 अक्टूबर 1947 को विनोबा के पिता का निधन हुआ तो उन्होंने वेदों के निर्देश कि ‘मिट्टी पर मिट्टी का ही अधिकार है’ का पालन करते हुए उनकी देह को अग्नि-समर्पित करने के बजाय, मिट्टी में दबाने जोर दिया। तब तक विनोबा संत विनोबा हो चुके थे। गांधी जी का उन्हें आशीर्वाद था। इसलिए इस बार उन्हीं की चली.
मां की गीता में आस्था थी। वे विनोबा को गीता का मराठी में अनुवाद करने का दायित्व सौंपकर गई थीं। विनोबा उस कार्य में मनोयोग से लगे थे। आखिर अनुवाद कर्म पूरा हुआ। पुस्तक का नाम रखा गया- गीताई. गीता़+आई = गीताई. महाराष्ट्र में ‘आई’ का अभिप्राय ‘मां के प्रति’ से है; यानी मां की स्मृति उसके नेह से जुड़ी-रची गीता. पुत्र की कृति को देखने के लिए तो रुक्मिणी बाई जीवित नहीं थीं। मगर उनकी याद और अभिलाषा से जुड़ी गीताई, महाराष्ट्र के घर-घर में माताओं और बहनों के कंठ-स्वर में ढलने लगी। उनकी अध्यात्म चेतना का आभूषण बन गई। गांधी जी ने सुना तो अनुवाद कर्म की भूरि-भूरि प्रशंसा की। जो महिलाएं संस्कृत नहीं जानती थीं, जिन्हें अपनी भाषा का भी आधा-अधूरा ज्ञान था, उनके लिए सहज-सरल भाषा में रची गई ‘गीताई’, गीता की आध्यात्मिकता में डूबने के लिए वरदान बन गई।
संन्यास की साध
विनोबा को बचपन में मां से मिले संस्कार युवावस्था में और भी गाढ़े होते चले गए। युवावस्था की ओर बढ़ते हुए विनोबा न तो संत ज्ञानेश्वर को भुला पाए थे, न तुकाराम को। वही उनके आदर्श थे। संत तुकाराम के अभंग तो वे बड़े ही मनोयोग से गाते. उनका अपने आराध्य से लड़ना-झगड़ना, नाराज होकर गाली देना, रूठना-मनाना उन्हें बहुत अच्छा लगता. संत रामदास का जीवन भी उन्हें प्रेरणा देता. वे न शंकराचार्य को विस्मृत कर पाए थे, न उनके संन्यास को। दर्शन उनका प्रिय विषय था। हिमालय जब से होश संभाला था, तभी से उनकी सपनों में आता था और वे कल्पना में स्वयं को सत्य की खोज में गहन कंदराओं में तप-साधना करते हुए पाते. वहां की निर्जन, वर्फ से ढकी दीर्घ-गहन कंदराओं में उन्हें परमसत्य की खोज में लीन हो जाने के लिए उकसातीं.
1915 में उन्होंने हाई स्कूल की परीक्षा पास की। अब आगे क्या पढ़ा जाए. वैज्ञानिक प्रवृत्ति के पिता और अध्यात्म में डूबी रहने वाली मां का वैचारिक द्वंद्व वहां भी अलग-अलग धाराओं में प्रकट हुआ। पिता ने कहाµ‘फ्रेंच पढ़ो.’ मां बोलीं—‘ब्राह्मण का बेटा संस्कृत न पढ़े, यह कैसे संभव है!’ विनोबा ने उन दोनों का मन रखा। इंटर में फ्रेंच को चुना। संस्कृत का अध्ययन उन्होंने निजी स्तर पर जारी रखा। उन दिनों फ्रेंच ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में हो रही क्रांति की भाषा थी। सारा परिवर्तनकामी साहित्य उसमें रचा जा रहा था। दूसरी ओर बड़ौदा का पुस्तकालय दुर्लभ पुस्तकों, पांडुलिपियों के खजाने के लिए पूरे देश में प्रसिद्ध था। विनोबा ने उस पुस्तकालय को अपना दूसरा ठिकाना बना दिया। विद्यालय से जैसे ही छुट्टी मिलती, वे पुस्तकालय में जाकर अध्ययन में डूब जाते. फ्रांसिसी साहित्य ने विनोबा का परिचय पश्चिमी देशों में हो रही वैचारिक क्रांति से कराया. संस्कृत के ज्ञान ने उन्हें वेदों और उपनिषदों में गहराई से पैठने की योग्यता दी। ज्ञान का स्तर बढ़ा, तो उसकी ललक भी बढ़ी. मगर मन से हिमालय का आकर्षण, संन्यास की साध, वैराग्यबोध न गया।
उन दिनों इंटर की परीक्षा के लिए मुंबई जाना पड़ता था। विनोबा भी तय कार्यक्रम के अनुसार 25 मार्च 1916 को मुंबई जाने वाली रेलगाड़ी में सवार हुए. उस समय उनका मन डावांडोल था। पूरा विश्वास था कि हाईस्कूल की तरह इंटर की परीक्षा भी पास कर ही लेंगे. मगर उसके बाद क्या? क्या यही उनके जीवन का लक्ष्य है? विनोबा को लग रहा था कि अपने जीवन में वे जो चाहते हैं, वह औपचारिक अध्ययन द्वारा संभव नहीं। विद्यालय के प्रमाणपत्र और कालिज की डिग्रियां उनका अभीष्ठ नहीं हैं। रेलगाड़ी अपनी गति से भाग रही थी। उससे सहस्र गुना तेज भाग रहा था विनोबा का मन. आखिर जीत मन की हुई। जैसे ही गाड़ी सूरत पहुंची, विनोबा उससे नीचे उतर आए। गाड़ी आगे बढ़ी पर विनोबा का मन दूसरी ओर खिंचता चला गया। दूसरे प्लेटफार्म पर पूर्व की ओर जाने वाली रेलगाड़ी मौजूद थी। विनोबा को लगा कि हिमालय एक बार फिर उन्हें आमंत्रित कर रहा है। गृहस्थ जीवन या संन्यास. मन में कुछ देर तक संघर्ष चला. ऊहापोह से गुजरते हुए उन्होंने उन्होंने निर्णय लिया और उसी गाड़ी में सवार हो गए। संन्यासी अपनी पसंदीदा यात्रा पर निकल पड़ा. इस हकीकत से अनजान कि इस बार भी जिस यात्रा के लिए वे ठान कर निकले हैं, वह उनकी असली यात्रा नहीं, सिर्फ एक पड़ाव है। जीवन से पलायन उनकी नियति नहीं। उन्हें तो लाखों-करोड़ों भारतीयों के जीवन की साध, उनके लिए एक उम्मीद बनकर उभरना है।
ब्रह्म की खोज, सत्य की खोज, संन्यास लेने की साध में विनोबा भटक रहे थे। उसी लक्ष्य के साथ उन्होंने घर छोड़ा था। हिमालय की ओर यात्रा जारी थी। बीच में काशी का पड़ाव आया। मिथकों के अनुसार भगवान शंकर की नगरी. हजारों वर्षों तक धर्म-दर्शन का केंद्र रही काशी. साधु-संतों और विचारकों का कुंभ. जिज्ञासुओं और ज्ञान-पिपासुओं को अपनी ओर आकर्षित करने वाली पवित्र धर्मस्थली. शंकराचार्य तक खुद को काशी-यात्रा के प्रलोभन से नहीं रोक पाए थे। काशी के गंगा घाट पर जहां नए विचार पनपे तो वितंडा भी अनगिनत रचे जाते रहे। उसी गंगा तट पर विनोबा भटक रहे थे। अपने लिए मंजिल की तलाश में. गुरु की तलाश में जो उन्हें आगे का रास्ता दिखा सके। जिस लक्ष्य के लिए उन्होंने घर छोड़ा था, उस लक्ष्य तक पहुंचने का मार्ग बता सके। भटकते हुए वे एक स्थान पर पहुंचे जहां कुछ सत्य-साधक शास्त्रार्थ कर रहे थे। विषय था अद्वैत और द्वैत में कौन सही. प्रश्न काफी पुराना था। लगभग बारह सौ वर्ष पहले भी इस पर निर्णायक बहस हो चुकी थी। शंकराचार्य और मंडन मिश्र के बीच. उस ऐतिहासिक बहस में द्वैतवादी मंडन मिश्र और उनकी पत्नी को शंकराचार्य ने पराजित किया था। वही विषय फिर उन सत्य-साधकों के बीच आ फंसा था। या कहो कि वक्त काटने के लिए दोनों पक्ष अपने-अपने तर्कों के साथ वितंडा रच रहे थे। और फिर बहस को समापन की ओर ले जाते हुए अचानक घोषणा कर दी गई कि अद्वैतवादी की जीत हुई है। विनोबा चैंके. उनकी हंसी छूट गई—
‘नहीं, अद्वैतवादी ही हारा है।’ विनोबा के मुंह से बेसाख्ता निकल पड़ा. सब उनकी ओर देखने लगे. एक युवा, जिसकी उम्र बीस-इकीस वर्ष की रही होगी, दिग्गज विद्वानों के निर्णय को चुनौती दे रहा था। उस समय यदि महान अद्वैतवादी शंकराचार्य का स्मरण न रहा होता तो वे लोग जरूर नाराज हो जाते. उन्हें याद आया, जिस समय शंकराचार्य ने मंडनमिश्र को पराजित किया, उस समय उनकी उम्र भी लगभग वही थी, जो उस समय विनोबा की थी।
‘यह तुम कैसे कह सकते हो, जबकि द्वैतवादी सबके सामने अपनी पराजय स्वीकार कर चुका है।’
‘नहीं यह अद्वैतवादी की ही पराजय है।’ विनोबा अपने निर्णय पर दृढ़ थे।
‘कैसे?’
‘जब कोई अद्वैतवादी द्वैतवादी से शास्त्रार्थ करना स्वीकार कर ले, तो समझो कि उसने पहले ही हार मान ली है।’ उस समय विनोबा के मन में अवश्य ही शंकराचार्य की छवि रही होगी. उनकी बात भी ठीक थी। जिस अद्वैतमत का प्रतिपादन बारह सौ वर्ष पहले शंकराचार्य मंडनमिश्र को पराजित करके कर चुके थे, उसकी प्रामाणिकता पर पुनः शास्त्रार्थ और वह भी बिना किसी ठोस आधार के. सिर्फ वितंडा के यह और क्या हो सकता है! वहां उपस्थित विद्वानों को विनोबा की बात सही लगी. कुछ साधु विनायक को अपने संघ में शामिल करने को तैयार हो गए। कुछ तो उन्हें अपना गुरु बनाने तक को तैयार थे। पर जो स्वयं भटक रहा हो, जो खुद गुरु की खोज में, नीड़ की तलाश में निकला हो, वह दूसरे को छाया क्या देगा! अपनी जिज्ञासा और असंतोष को लिए विनोबा वहां से आगे बढ़ गए। इस बात से अनजान कि काशी ही उन्हें आगे का रास्ता दिखाएगी और उन्हें उस रास्ते पर ले जाएगी, जिधर जाने के बारे उन्होंने अभी तक सोचा भी नहीं है। मगर जो उनकी वास्तविक मंजिल है।
गांधी से मुलाकात
एक ओर विनोबा संन्यास की साध में, सत्यान्वेषण की ललक लिए काशी की गलियों में, घाटों पर भटक रहे थे। वहीं दूसरी ओर एक और जिज्ञासु भारत को जानने, उसके हृदयप्रदेश की धड़कनों को पहचानने, उससे आत्मीयता भरा रिश्ता कायम करने के लिए भारत-भ्रमण पर निकला हुआ हुआ था। वह कुछ ही महीने पहले दक्षिण अफ्रीका से बेशुमार ख्याति बटोरकर लौटा था। आगे उसकी योजना भारतीय राजनीति में दखल देने की थी। उस साधक का नाम था—मोहनदास करमचंद गांधी. अपने राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले के कहने पर वह भारत की आत्मा को जानने के उद्देश्य से एक वर्ष के भारत-भ्रमण पर निकला हुआ था। आगे चलकर भारतीय राजनीति पर छा जाने, करोड़ों भारतीयों के दिल की धड़कन, भारतीय स्वाधीनता आंदोलन का प्रमुख सूत्रधार, अहिंसक सेनानी बन जाने वाले गांधी उन दिनों अप्रसिद्ध ही थे। ‘महात्मा’ की उपाधि भी उनसे दूर थी। सिर्फ दक्षिण अफ्रीका में छेडे़ गए आंदोलन की पूंजी ही उनके साथ थी। उसी के कारण वे पूरे भारत में जाने जाते थे। उन दिनों उनका पड़ाव भी काशी ही था। मानो दो महान आत्माओं को मिलवाने के लिए समय अपना जादुई खेल रच रहा था।
काशी में महामना मदन मोहन मालवीय द्वारा स्थापित हिंदू विश्वविद्यालय में एक बड़ा जलसा हो रहा था। 4 फ़रवरी 1916, जलसे में राजे-महाराजे, नबाव, सामंत सब अपनी पूरी धज के साथ उपस्थित थे। सम्मेलन की छटा देखते ही बनती थी। उस सम्मेलन में गांधी जी ने ऐतिहासिक भाषण दिया। वह कहा जिसकी उस समय कोई उम्मीद नहीं कर सकता था। वक्त पड़ने पर जिन राजा-सामंतों की खुशामद स्वयं अंग्रेज भी करते थे, जिनके दान पर काशी विश्वविद्यालय और दूसरी अन्य संस्थाएं चला करती थीं, उन राजा-सामंतों की खुली आलोचना करते हुए गांधी जी ने कहा कि अपने धन का सदुपयोग राष्ट्रनिर्माण के लिए करें। उसको गरीबों के कल्याण में लगाएं. उन्होंने आवाह्न किया कि वे व्यापक लोकहित में अपने सारे आभूषण दान कर दें। वह एक क्रांतिकारी अपील थी। सभा में खलबली मच गई। पर गांधी की मुस्कान उसी तरह बनी रही। अगले दिन उस सम्मेलन की खबरों से अखबार रंगे पड़े थे। विनोबा ने समाचारपत्र के माध्यम से ही गांधी जी के बारे में जाना. और उन्हें लगा कि जिस लक्ष्य की खोज में वे घर से निकले हैं, वह पूरी हुई। विनोबा कोरी शांति की तलाश में ही घर से नहीं निकले थे। न वे देश के हालात और अंग्रेजों द्वारा किए जा रहे अमानवीय अत्याचारों से अपरिचित थे। मगर कोई राह मिल ही नहीं रही थी। भाषण पढ़कर उन्हें लगा कि इस व्यक्ति के पास शांति भी है और क्रांति भी. उन्होंने वहीं से गांधी जी के नाम पत्र लिखा. जवाब आया। गांधी जी के आमंत्रण के साथ. विनोबा तो उसकी प्रतीक्षा कर ही रहे थे। वे तुरंत अहमदाबाद स्थित कोचर्ब आश्रम की ओर प्रस्थान कर गए, जहां गांधी जी का आश्रम था।
7 जून 1916 को विनोबा की गांधी से पहली भेंट हुई। उसके बाद तो विनोबा गांधी जी के ही होकर रह गए। गांधी जी ने भी विनोबा की प्रतिभा को पहचान लिया था। इसलिए पहली मुलाकात के बाद ही उनकी टिप्पणी थी कि अधिकांश लोग यहां से कुछ लेने के लिए आते हैं, यह पहला व्यक्ति है, जो कुछ देने के लिए आया है।’ काफी दिन बाद अपनी पहली भेंट को याद करते हुए विनोबा ने कहा था—
जिन दिनों में काशी में था, मेरी पहली अभिलाषा हिमालय की कंदराओं में जाकर तप-साधना करने की थी। दूसरी अभिलाषा थी, बंगाल के क्रांतिकारियों से भेंट करने की. लेकिन इनमें से एक भी अभिलाषा पूरी न हो सकी. समय मुझे गांधी जी तक ले गया। वहां जाकर मैंने पाया कि उनके व्यक्तित्व में हिमालय जैसी शांति है तो बंगाल की क्रांति की धधक भी. मैंने छूटते ही स्वयं से कहा था, मेरे दोनों इच्छाएं पूरी हुईं.
अंगूठाकार|साबरमती आश्रम में विनोबा कुटीर
गांधी और विनोबा की वह मुलाकात क्रांतिकारी थी। गांधी जी को जैसे ही पता चला कि विनोबा अपने माता-पिता को बिना बताए आए हैं, उन्होंने वहीं से विनोबा के पिता के नाम एक पत्र लिखा कि विनोबा उनके साथ सुरक्षित हैं। उसके बाद उनके संबंध लगातार प्रगाढ़ होते चले गए। विनोबा ने खुद को गांधी जी के आश्रम के लिए समर्पित कर दिया। अध्ययन, अध्यापन, कताई, खेती के काम से लेकर सामुदायिक जीवन तक आश्रम की हर गतिविधि में वे आगे रहते. गांधी जी का यह कहना कि यह युवक आश्रमवासियों से कुछ लेने नहीं बल्कि देने आया है, सत्य होता जा रहा था। उम्र से एकदम युवा विनोबा उन्हें अनुशासन और कर्तव्यपरायणता का पाठ तो पढ़ा ही रहे थे। गांधी जी का प्रभाव तेजी से बढ़ रहा था। उतनी ही तेजी से बढ़ रही आश्रम में आने वाले कार्यकर्ताओं की संख्या. कोचरब आश्रम छोटा पड़ने लगा तो अहमदाबाद में साबरमती के किनारे नए आश्रम का काम तेजी से होने लगा. लेकिन आजादी के अहिंसक सैनिक तैयार करने का काम अकेले साबरमती आश्रम से भी संभव भी न था। गांधी वैसा ही आश्रम वर्धा में भी चाहते थे। वहां पर ऐसे अनुशासित कार्यकर्ता की आवश्यकता थी, जो आश्रम को गांधी जी के आदर्शों के अनुरूप चला सके. इसके लिए विनोबा सर्वथा अनुकूल पात्र थे और गांधी जी के विश्वसनीय भी. 8 अप्रैल 1923 को विनोबा वर्धा के लिए प्रस्थान कर गए। वहां उन्होंने ‘महाराष्ट्र धर्म’ मासिक का संपादन शुरू किया। मराठी में प्रकाशित होने वाली इस पत्रिका में विनोबा ने नियमित रूप से उपनिषदों और महाराष्ट्र के संतों पर लिखना आरंभ कर दिया, जिनके कारण देश में भक्ति आंदोलन की शुरुआत हुई थी। पत्रिका को अप्रत्याशित लोकप्रियता प्राप्त हुई, कुछ ही समय पश्चात उसको साप्ताहिक कर देना पड़ा विनोबा अभी तक गांधी जी के शिष्य और सत्याग्रही के रूप में जाने जाते थे। पत्रिका के माध्यम से जनता उनकी आध्यात्मिक पैठ को जानने लगी थी।
द्वितीय विश्व युद्ध में भूमिका
द्वितीय विश्व युद्ध के समय युनाइटेेड किंगडम द्वारा भारत देश को जबरन युद्ध में झोंका जा रहा था जिसके विरुद्ध एक व्यक्तिगत सत्याग्रह 17 अक्तूबर, 1940 को शुरू किया गया था और इसमें गांधी जी द्वारा विनोबा को प्रथम सत्याग्रही बनाया गया था। अपना सत्याग्रह शुरू करने से पहले अपने विचार स्पष्ट करते हुए विनोबा ने एक वक्तव्य जारी किया था। उसमें कहा गया था-
चौबीस वर्ष पहले ईश्वर के दर्शन की कामना लेकर मैंने अपना घर छोड़ा था। आज तक की मेरी जिंदगी जनता की सेवा में समर्पित रही है। इस दृढ़ विश्वास के साथ कि इनकी सेवा भगवान को पाने का सर्वोत्तम तरीका है। मैं मानता हूं और मेरा अनुभव रहा है कि मैंने गरीबों की जो सेवा की है, वह मेरी अपनी सेवा है, गरीबों की नहीं।
आगे उन्होंने इतना और कहा -
मैं अहिंसा में पूरी तरह विश्वास करता हूं और मेरा विचार है कि इसी से मानवजाति की समस्याओं का समाधान हो सकता है। रचनात्मक गतिविधियां, जैसे खादी, हरिजन सेवा, सांप्रदायिक एकता आदि अहिंसा की सिर्फ बाह्य अभिव्यक्तियां हैं। ....युद्ध मानवीय नहीं होता। वह लड़ने वालों और न लड़ने वालों में फर्क नहीं करता। आज का मशीनों से लड़ा जाने वाला युद्ध अमानवीयता की पराकाष्ठा है। यह मनुष्य को पशुता के स्तर पर ढ़केल देता है। भारत स्वराज्य की आराधना करता है जिसका आशय है, सबका शासन। यह सिर्फ अहिंसा से ही हासिल हो सकता है। फासीवाद, नाजीवाद और साम्राज्यवाद में अधिक पर्क नहीं है। लेकिन अहिंसा से इसका मेल नहीं है। यह भयानक खतरे में पड़ी सरकार के लिए और परेशानी पैदा करता है। इसलिए गांधी ने व्यक्तिगत सत्याग्रह का आह्वान किया है। यदि सरकार मुझे गिरफ्तार नहीं करती तो मैं जनता से विनम्र अनुरोध करूंगा कि वे युद्ध में किसी प्रकार की किसी रूप में मदद न करें। मैं उनको अहिंसा का दर्शन समझाऊंगा, वर्तमान युद्ध की विभीषिका भी समझाऊंगा तथा यह बताऊंगा की फासीवाद, नाजीवाद और साम्राज्यवाद एक ही सिक्के के दो अलग-अलग पहलू हैं।
अपने भाषणों में विनोबा लोगों को बताते थे कि नकारात्मक कार्यक्रमों के जरिए न तो शान्ति स्थापित हो सकती है और न युद्ध समाप्त हो सकता है। युद्ध रुग्ण मानसिकता का नतीजा है और इसके लिए रचनात्मक कार्यक्रमों की जरूरत होती है।केवल यूरोप के लोगों को नहीं समस्त मानव जाति को इसका दायित्व उठाना चाहिए।[1]
भूदान आंदोलन
विनोबा और मार्क्स
सितंबर,1951 में के.पी.मशरुवाला की पुस्तक गांधी और मार्क्स प्रकाशित हुई और विनोबा ने इसकी भूमिका लिखी। इसमें विनोबा ने मार्क्स के प्रति काफी सम्मान प्रदर्शित किया था। कार्ल मार्क्स को उन्होंने विचारक माना था। ऐसा विचारक जिसके मन में गरीबों के प्रति सच्ची सहानुभूति थी। वैसे तो मार्क्स कि सोच में विनोबा को खोट दिखी थी और लक्ष्य पर पहुंचने के तरीके को लेकर मार्क्स से उन्होंने अपना मतभेद व्यक्त किया। विनोबा का मानना था कि धनी लोगों की वजह से कम्युनिस्टों का उद्भव हुआ है। विनोबा का विस्वास था कि हर बात में बराबरी का सिद्धांत लागू होना चाहिए। उन्होंने कहा था: कम्युनिस्टों का आतंक दूर करने के लिए पुलिस कार्रवाई मददगार साबित नहीं हो सकती। इसको जड़ से समाप्त किया जाए। चाहे जितने भी दिग्भ्रमित वे क्यों न हो, विनोबा कम्युनिस्टों को विध्वंसक नहीं मानते थे और उनसे तर्कवितर्क करके तथा उनके लक्ष्य के प्रति सक्रिय सहानुभुति प्रकट करके विनोबा उन्हें सही रास्ते पर लाना चाहते थे।[1]
विनोबा और देवनागरी
बीसियों भाषाओं के ज्ञाता विनोबा जी देवनागरी को विश्व लिपि के रूप में देखना चाहते थे। भारत के लिये वे देवनागरी को सम्पर्क लिपि के रूप में विकसित करने के पक्षधर थे। वे कहते थे कि मैं नहीं कहता कि नागरी ही चले, बल्कि मैं चाहता हूं कि नागरी भी चले। उनके ही विचारों से प्रेरणा लेकर नागरी लिपि संगम की स्थापना की गयी है जो भारत के अन्दर और भारत के बाहर देवनागरी को उपयोग और प्रसार करने के लिये कार्य करती है।
विस्तृत जानकारी के लिये नागरी एवं भारतीय भाषाएँ पढें।
सामाजिक एवं रचनात्मक कार्यकर्ता
विनोबाजी सदेव सामाजिक और रचनात्मक कार्यकर्ता रहे। स्वतन्त्रता के पूर्व गान्धिजी के रचानात्म्क कार्यों में सक्रिय रूप से योगदान देते रहे। कार्यधिक्य से उनका स्वास्थ्य गिरने लगा, उन्हें किसी पहाडी स्थान पर जाने की डाक्टर ने सलाह दी। अत: १९३७ ई० में विनोबा भावे पवनार आश्रम में गये। तब से लेकर जीवन पर्यन्त उनके रचनात्मक कार्यों को प्रारंभ करने का यही केन्द्रीय स्थान रहा।
महान स्वतंत्रता सेनानी
रचानात्म्क कार्यों के अतिरित्क वे महान स्वतंत्रता सेनानी भी थे। नागपुर झंडा सत्याग्रह में वे बंदी बनाये गये। १९३७ में गान्धिजी जब लंदन की गोलमेज कांफ्रेंस से खाली हाथ लोटे तो जलगांव में विनोबा भावे ने एक सभा में अंग्रेजों की आलोचना की तो उन्हें बंदी बनाकर छह माह की सजा दी गयी। कारागार से मुक्त होने के बाद गान्धिजी ने उन्हें पहेला सत्याग्रही बनाया। १७ अक्टूबर १९४० को विनोबा भावेजी ने सत्याग्रह किया और वे बंदी बनाये गये तथा उन्हें ३ वर्ष के लिए सश्रम कारावास का दंड मिला। गान्धिजी ने १९४२ को भारत छोडा आंदोलन करने से पूर्व विनोबाजी से परामर्श लिया था।
इन्हें भी देखें
भूदान
पवनार
जयप्रकाश नारायण
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
- आचार्य श्री विनोबाजी के तत्वज्ञान, विचारों तथा कार्यों बारे में समग्र जानकारी
- मुम्बई सर्वोदय मण्डल द्वारा विनोबा के बारे में समग्र जानकारी
(शब्द ब्रह्म)
- श्रीराम शर्मा आचार्य
श्रेणी:1895 में जन्मे लोग
श्रेणी:१९८२ में निधन
श्रेणी:व्यक्तिगत जीवन
श्रेणी:भारतीय समाजसेवी
श्रेणी:महात्मा गांधी
श्रेणी:भारत रत्न सम्मान प्राप्तकर्ता
श्रेणी:भारतीय लेखक
श्रेणी:मैगसेसे पुरस्कार विजेता
श्रेणी:महाराष्ट्र के लोग | आचार्य विनोबा भावे की मृत्यु कब हुई थी | 15 नवम्बर 1982 | 38 | hindi |
0f8751510 | तारा सुतारिया (जन्म-१९ नवम्बर,१९९५) एक भारतीय गायक, अभिनेत्री, व नृत्यक हैं।
प्रारंभिक जीवन
तारा सुतारिया का जन्म भारत में मुंबई में हुआ था। उन्होंने शास्त्रीय बैले, आधुनिक नृत्य, और लैटिन अमरीकी नृत्य में पश्चिमी नृत्य, रॉयल अकादमी ऑफ़ डांस, यू.के.और आई.एस.टी.डी.से प्रशिक्षण लिया हैं। वह ७ वर्ष की आयु से ही गायन क्षेत्र में हैं, ओपेरा और कई प्रतियोगीताओ में भाग ले चुकी हैं।
करियर
तारा ने बतौर वी.जे.डिसनी चैनल से जुडी और और काफी साल जुडी रही। उन्होंने भारत, और दुनिया भर में फिल्मो व विज्ञापनों के लिए अपना संगीत रिकॉर्ड किया हैं। तारा ने प्रशंसित फिल्मो जैसे "तारे ज़मीन पर", "गुज़ारिश" और "डेविड" जैसी फिल्मो के लिए गाना गया हैं।
उन्होंने लन्दन, टोक्यो, लवासा, और मुंबई में एकल संगीत कार्यक्रमों को को रिकॉर्ड और प्रस्तुत किया हैं और डिसनी चैनल के वी.जे.और राजदूत के रूप में भारत का दौरा किया।
उन्हे भारतीय मायली सायरस के रूप में भी जाना जाता हैं बतौर ओपेरा सिंगर।
टेलीविज़न
बिग बड़ा बूम (बतौर वी.जे.डिसनी चैनल पर)
द सुइट लाइफ ऑफ़ कारण एंड कबीर-२०१२ (बतौर विन्नी)[1]
ओय जस्सी (बतौर जस्सी)[2]
शेक इट अप (बतौर नृत्यांगना)
सन्दर्भ
श्रेणी:टेलिविज़न अभिनेत्री
श्रेणी:भारतीय महिला | अभिनेत्री तारा सुतारिया का जन्म कब हुआ था? | १९ नवम्बर,१९९५ | 20 | hindi |
1b4bcd107 | सर आर्थर इग्नाशियस कॉनन डॉयल, डीएल (22 मई 1859 - जुलाई 7, 1930[1]) एक स्कॉटिश[2] चिकित्सक और लेखक थे जिन्हें अधिकतर जासूस शरलॉक होम्स की उनकी कहानियों (इन कहानियों को आम तौर पर काल्पनिक अपराध कथा के क्षेत्र में एक प्रमुख नवप्रवर्तन के तौर पर देखा जाता है) और प्रोफ़ेसर चैलेंजर के साहसिक कारनामों के लिए जाना जाता है।
वह विज्ञान कल्पना कथाएँ, ऐतिहासिक उपन्यासों, नाटकों और रोमांस, कविता और विभिन्न कल्पना साहित्य के एक विपुल लेखक थे। वे एक सफल लेखक थे जिनकी अन्य रचनाओं में काल्पनिक विज्ञान कथाएं, ऐतिहासिक उपन्यास, नाटक एवं रोमांस, कविता और गैर-काल्पनिक कहानियां शामिल हैं।
जीवन
प्रारंभिक जीवन
आर्थर कॉनन डॉयल का जन्म 22 मई 1859 को स्कॉटलैंड के एडिनबर्ग में हुआ था; अपने दस भाइयों-बहनों में वे तीसरे नंबर पर थे।[3] उनके पिता चार्ल्स अल्टामोंट डॉयल का जन्म इंग्लैंड में आयरिश वंश में हुआ था और उनकी माँ, जन्म नाम मेरी फोली, भी आयरिश थीं। डॉयल के पिता की मृत्यु कई वर्षों तक मनोरोग से पीड़ित रहने के बाद 1893 में क्रिकटन रॉयल, डम्फ़्राइज में हुई थी। उनके माता-पिता की शादी 1855 में हुई थी।[4]
हालांकि अब उन्हें "कॉनन डॉयल" के रूप में संदर्भित किया जाता है लेकिन इस संयुक्त उपनाम (अगर इसी रूप में वे इसे समझाना चाहते थे) का मूल अनिश्चित है। वह प्रविष्टि जिसमें उनका नामकरण एडिनबर्ग में सैंट मैरी कैथेड्रल की पंजी में दर्ज है, उनके ईसाई नाम के रूप में "आर्थर इग्नाशियस कॉनन" और उनके उपनाम के रूप में सिर्फ "डॉयल" ही लिखा गया है। यहां उनके धर्मपिता के रूप में माइकल कॉनन का नाम भी दर्ज है।[5]
कॉनन डॉयल को नौ वर्ष की उम्र में रोमन कैथोलिक जेसुइट प्रारंभिक स्कूल होडर प्लेस, स्टोनीहर्स्ट में भेजा गया था। उसके बाद वे 1875 तक स्टोनीहर्स्ट कॉलेज में गए।
1876 से 1881 तक उन्होंने एडिनबर्ग विश्वविद्यालय में चिकित्सा विज्ञान का अध्ययन किया, जहां उन्होंने एस्टन शहर (जो अब बर्मिंघम का एक जिला है) और शेफील्ड में कार्य भी किया था।[6] अध्ययन के दौरान कॉनन डॉयल ने लघु कथाओं का लेखन भी शुरू कर दिया था; उनकी पहली प्रकाशित कहानी चैम्बर्स एडिनबर्ग जर्नल में उस समय छपी जब उनकी उम्र 20 वर्ष थी।[7] विश्वविद्यालय में अपने अध्ययन काल के बाद उन्हें पश्चिम अफ्रीकी तट के लिए एक समुद्री यात्रा के दौरान एसएस मायुम्बा पर एक शिप के डॉक्टर के रूप में नियुक्त किया गया था। उन्होंने अपनी डॉक्टर की उपाधि टैबीज़ डोरसैलिस के विषय पर 1885 में पूरी की। [8]
शरलॉक होम्स की उत्पत्ति
1882 में वे अपने पूर्व सहपाठी जॉर्ज बड के सहयोगी के रूप में प्लायमाउथ[9] में एक मेडिकल प्रैक्टिस में शामिल हो गए, लेकिन उनका संबंध मुश्किल साबित हुआ और कॉनन डॉयल ने जल्दी ही उनका साथ छोड़कर स्वतंत्र प्रैक्टिस शुरू कर दिया। [10] उसी वर्ष जून में अपने नाम पर 10 पाउंड से भी कम रकम के साथ पोर्ट्समाउथ में आकर उन्होंने साउथसी के एल्म ग्रोव में 1 बुश विला में एक मेडिकल प्रैक्टिस की व्यवस्था की। [11] प्रैक्टिस शुरुआत में बहुत सफल नहीं रही, मरीजों की प्रतीक्षा करते हुए कॉनन डॉयल ने फिर से कहानियां लिखना शुरू कर दिया। उनकी पहली महत्वपूर्ण रचना ए स्टडी इन स्कारलेट 1887 के बीटन्स क्रिसमस एनुअल में दिखाई दी। इसमें शरलॉक होम्स की पहली उपस्थिति दिखाई गयी थी जिन्हें उनके पूर्व विश्वविद्यालय शिक्षक जोसेफ बेल के नाम पर आंशिक रूप से रूपांतरित किया गया था। कॉनन डॉयल ने उन्हें लिखा, "शरलॉक होम्स के लिए मैं मुख्य रूप से आपका ही आभारी हूँ... मैंने आपके द्वारा सिखाए गए अनुमान, निष्कर्ष और अवलोकन के पाठ के आधार पर ही एक व्यक्ति का निर्माण करने की कोशिश की है।"[12] शरलॉक होम्स को दर्शाने वाली अगली लघु कथाएं अंगरेजी स्ट्रैंड मैगजीन में प्रकाशित हुई थीं। रॉबर्ट लुईस स्टीवेंसन काफी दूर समोआ में होने के बावजूद भी जोसेफ बेल और शरलॉक होम्स के बीच मजबूत समानता की पहचान करने में सक्षम थे: "शरलॉक होम्स के बारे में आपके अत्यंत सरल और अत्यंत रोचक साहसिक कार्यों पर मेरी शिकायतें... क्या यह मेरा पुराना मित्र जो बेल हो सकता है?"[13] अन्य लेखक कभी-कभी अतिरिक्त प्रभावों के बारे में बताते हैं--उदाहरण के लिए प्रसिद्ध एडगर एलन पो के पात्र सी. ऑगस्टे डुपिन.[14]
साउथसी में रहने के क्रम में उन्होंने छद्म नाम ए.सी. स्मिथ के तहत एक शौकिया दल पोर्ट्समाउथ एसोसिएशन फुटबॉल क्लब के लिए एक गोलकीपर के रूप में फुटबॉल खेला था।[15] (1894 में भंग हुए इस क्लब का वर्तमान-समय के पोर्ट्समाउथ एफसी के साथ कोई संबंध नहीं था जिसे 1898 में स्थापित किया गया था)। कॉनन डॉयल एक तेज क्रिकेटर भी थे, 1899 और 1907 के बीच उन्होंने मैरीलिबोन क्रिकेट क्लब (एमसीसी) के लिए 10 प्रथम श्रेणी मैच भी खेले थे। उनका उच्चतम स्कोर 1902 में लंदन काउंटी के खिलाफ 43 था। वे एक सामयिक गेंदबाज थे जिन्होंने सिर्फ एक प्रथम-श्रेणी का विकेट लिया था (हालांकि यह एक उच्च श्रेणी का था -- यह डब्ल्यू. जी. ग्रेस थे)। [16] इसके अलावा एक शानदार गोल्फर, कॉनन डॉयल को 1910 के लिए क्रोबोरो बीकन गोल्फ क्लब, ईस्ट ससेक्स का कप्तान चुना गया था। वे अपनी दूसरी पत्नी जीन लेकी और उनके परिवार के साथ 1907 से जुलाई 1930 में अपनी मृत्यु तक क्रोबोरो में लिटिल विंडलेशम हाउस चले गए थे।
विवाह और परिवार
1885 में कॉनन डॉयल ने लुईसा (या लुईसी) हॉकिन्स से शादी की जिन्हें "टोई" के रूप में जाना जाता है। वे तपेदिक से पीड़ित थीं और 4 जुलाई 1906 को उनकी मृत्यु हो गई।[17] अगले साल उन्होंने जीन एलिजाबेथ लेकी से शादी की जिनसे उनकी पहली मुलाकात 1897 में हुई थी और तभी उनसे प्यार हो गया था। उन्होंने अपनी लुईसा के प्रति निष्ठा बनाए रखते हुए उनके जीवित रहते जीन के साथ एक आध्यात्मिक संबंध बनाए रखा था। जीन का निधन 27 जून 1940 को लंदन में हो गया।
कॉनन डॉयल पांच बच्चों के पिता बने। पहली पत्नी से उनके दो बच्चे थे - मैरी लुईस (28 जनवरी 1889 - 12 जून 1976) और आर्थर एलीने किंग्सले, जिन्हें किंग्सले (15 नवम्बर 1982 - 28 अक्टूबर 1918) के नाम से जाना जाता है -- और दूसरी पत्नी से उनके तीन बच्चे थे - डेनिस पर्सी स्टीवर्ट (17 मार्च 1909 - 9 मार्च 1955) जो जॉर्जियाई राजकुमारी नीना मिदिवानी (1910 के आस-पास - 19 फ़रवरी 1987; बारबरा हटन की पूर्व साली) के 1936 में दूसरे पति; एड्रियन मैल्कम (19 नवम्बर 1910 - 3 जून 1970) और जीन लेना एनेट (21 दिसम्बर 1912-18 नवम्बर 1997)।
शरलॉक होम्स की "मौत"
1890 में कॉनन डॉयल ने वियना में नेत्र विज्ञान का अध्ययन किया और 1891 में एक नेत्र रोग विशेषज्ञ के रूप में प्रैक्टिस करने के लिए लंदन चले गए। अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा है कि एक भी मरीज उनके दरवाजे के पार नहीं आया। इस स्थिति ने उन्हें लिखने के लिए और अधिक समय दिया और नवंबर 1891 में उन्होंने अपनी माँ को लिखा था: "मैं सदैव के लिए होम्स की जीवनलीला के समापन के बारे में सोच रहा हूँ. वह बेहतर चीजों से मेरे मन को अलग करता है।" उसकी माँ ने कहा, "जो तुम्हें ठीक लगता है तुम वैसा कर सकते हो लेकिन लोग इसे हल्के में नहीं लेंगे."
दिसम्बर 1893 में अधिक "महत्वपूर्ण" कार्यों में अपना समय देने के लिए (अर्थात उनके ऐतिहासिक उपन्यास)
कॉनन डॉयल ने द फाइनल प्रॉब्लम की कहानी में स्पष्ट रूप से होम्स और प्रोफेसर मोरियार्टी को रीचेनबाक फॉल्स में एक साथ छलांग लगाकर मरते हुए दर्शाया है। हालांकि सार्वजनिक विरोध के कारण उन्हें 1901 में इस पात्र को द हाउंड ऑफ द बास्करविलेस में वापस लाना पड़ा. "एडवेंचर ऑफ द एम्प्टी हाउस" में यह स्पष्ट किया गया था कि केवल मोरियार्टी ही उसमें गिरी थी; लेकिन चूँकि होम्स के अन्य खतरनाक दुश्मन भी थे -- विशेष रूप से कर्नल सेबस्टियन मोरन - उन्होंने अस्थायी रूप से "मृत" दिखने की व्यवस्था की थी। होम्स को अंततः कुल मिलाकर 56 लघु कथाओं और कॉनन डॉयल के चार उपन्यासों में दिखाया गया था और तब से उसे अन्य लेखकों के कई उपन्यासों और कहानियों में देखा गया है।
राजनीतिक प्रचार
20वीं सदी के आगमन पर दक्षिण अफ्रीका में बोअर वार और युनाइटेड किंगडम की कार्यवाही पर दुनिया भर में निंदा के बाद कॉनन डॉयल ने द वार इन साउथ अफ्रीका: इट्स कॉज एंड कंडक्ट शीर्षक से एक लघु पुस्तिका (पम्पलेट) लिखी जिसमें बोअर वार में यूके की भूमिका को सही ठहराया गया था और इसका व्यापक रूप से अनुवाद किया गया था। डॉयल ने मार्च और जून 1900 के बीच ब्लॉमफ़ोन्टेन में लैंगमैन फील्ड हॉस्पिटल में एक स्वयंसेवी चिकित्सक की भूमिका निभाई थी।[18]
कॉनन डॉयल का मानना था कि यही वह पुस्तिका थी जिसके परिणाम स्वरूप 1902 में उन्हें नाईट की उपाधि प्रदान की गयी थी और सरे का डिपुटी-लेफ्टिनेंट नियुक्त किया गया था। इसके अलावा 1900 में उन्होंने एक लंबी पुस्तक द ग्रेट बोअर वार की रचना की। 20वीं सदी के प्रारंभिक वर्षों के दौरान सर आर्थर ने लिबरल यूनियनिस्ट के रूप में दो बार संसद में प्रवेश के लिए प्रयास किया -- एक बार एडिनबर्ग से और एक बार हैविक बर्ग्स में -- लेकिन हालांकि उन्हें एक सम्मानजनक मत प्राप्त हुआ था लेकिन वे निर्वाचित नहीं हो सके थे।
कॉनन डॉयल पत्रकार ई.डी. मोरेल और राजनयिक रोजर केसमेंट के नेतृत्व में कांगो फ्री स्टेट के सुधार के लिए प्रचार अभियान में शामिल थे। 1909 के दौरान उन्होंने द क्राइम ऑफ द कांगो की रचना की जो एक लंबी पुस्तिका थी जिसमें उन्होंने उस देश में भयावहता की भर्त्सना की थी। वे मोरेल और केसमेंट से परिचित हुए और यह संभव है कि बेरट्रम फ्लेचर रॉबिन्सन[19] के साथ उन्होंने 1912 के उपन्यास द लॉस्ट वर्ल्ड में कई पात्रों को प्रेरित किया था।
दोनों के साथ उनका संबंध टूट गया जब प्रथम विश्व युद्ध के दौरान मोरेल शांतिवादी आंदोलन के नेताओं में से एक बने और जब केसमेंट को ईस्टर विद्रोह के दौरान ब्रिटेन के खिलाफ राजद्रोह का दोषी पाया गया। कॉनन डॉयल ने इस तर्क के साथ केसमेंट को मृत्यु दंड से बचाने की असफल कोशिश की कि वे पागल हो गए थे और अपने कृत्यों के लिए जिम्मेदार नहीं थे।
अन्याय का विरोध
कॉनन डॉयल न्याय के एक उत्कट अधिवक्ता भी थे और उन्होंने दो बंद मामलों की व्यक्तिगत रूप से जांच की थी, जिसके कारण दो व्यक्तियों को उन अपराधों से बरी कर दिया गया था जिसके लिए उन्हें दोषी ठहराया गया था। पहला मामला 1906 में जॉर्ज एडल्जी नामक एक शर्मीले आधे-ब्रिटिश, आधे-भारतीय वकील से संबंधित था जिसने कथित रूप से धमकी भरे पत्र लिखने और जानवरों को विकृत करने का काम किया था। अपराधी ठहराए जाने के बाद एडल्जी पर पुलिस का पहरा लगा दिया गया, संदिग्ध व्यक्ति को जेल भेज दिए जाने के बावजूद भी विकृत करने का सिलसिला जारी रहा।
आंशिक रूप से इस मामले के परिणाम स्वरूप 1907 में क्रिमिनल अपील की अदालत का गठन किया गया, इस प्रकार कॉनन डॉयल ने ना केवल जॉर्ज एडल्जी की मदद की बल्कि उनकी रचनाओं ने अन्य न्याय की निष्फलताओं को ठीक करने के लिए एक रास्ता बनाने में सहायता की। कॉनन डॉयल और एडल्जी की कहानी का जूलियन बार्न्स के 2005 के उपन्यास जॉर्ज एंड आर्थर में काल्पनिक चित्रण किया गया था। निकोलस मेयर की मिश्र रचना द वेस्ट एंड हॉरर (1976) में होम्स शर्मीले पारसी भारतीय पात्र के नाम को स्पष्ट करने में मदद करने में सक्षम होते हैं जिसे अंग्रेजी न्याय प्रणाली द्वारा गलत तरीके से प्रयोग किया गया था। एडल्जी स्वयं एक पारसी थे।
दूसरा मामला एक जर्मन यहूदी और जुआ-घर के संचालक ऑस्कर स्लेटर का था जो 1908 में ग्लासगो में एक 82-वर्षीय-महिला की पिटाई करने के मामले में सजायाफ्ता थे, इस मामले ने अभियोजन के मामले में विसंगतियों और स्लेटर के दोषी नहीं होने की एक आम समझ के कारण कॉनन डॉयल की जिज्ञासा को बढ़ा दिया। उन्होंने 1928 में स्लेटर की सफल अपील के लिए अधिकांश लागत के भुगतान पर मामले को समाप्त किया।[20]
अध्यात्मवाद
1906 में अपनी पत्नी लुईसा की मृत्यु, प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति से ठीक पहले अपने बेटे किंग्सले की मौत और अपने भाई इनेस, अपने दो सालों (जिनमें से एक साहित्यिक पात्र रैफल्स के रचनाकार ई. डब्ल्यू. हॉर्नंग थे) और युद्ध के कुछ ही दिनों बाद अपने दो भतीजों की मृत्यु के पश्चात कॉनन डॉयल अवसाद में डूब गए। अध्यात्मवाद और कब्र से आगे जीवन के अस्तित्व के प्रमाण का पता लगाने की इसकी कोशिश के समर्थन से उन्हें सांत्वना मिली। विशेष रूप से कुछ लोगों के अनुसार[21] वे ईसाई आध्यात्म को पसंद करते थे और आठवें परसेप्ट - जो नजारथ के जीसस की शिक्षाओं और उदाहरण का पालन करना था, को स्वीकार करने में स्पिरिचुअलिस्ट्स नेशनल यूनियन को प्रोत्साहित किया था। वे प्रसिद्ध असाधारण संगठन द घोस्ट क्लब के एक सदस्य भी थे। उस समय और अब इसका ध्यान असाधारण घटना के अस्तित्व को साबित (या खंडन) करने के क्रम में कथित असाधारण गतिविधियों के वैज्ञानिक अध्ययन पर केंद्रित था।
28 अक्टूबर 1918 को निमोनिया के कारण किंग्सले डॉयल का निधन हो गया, जिसकी चपेट में वे 1916 में सोम्मे के युद्ध के दौरान गंभीर रूप से घायल हो जाने के बाद अपने स्वास्थ्य लाभ के क्रम में आ गए थे। फरवरी 1919 में ब्रिगेडियर जनरल इन्नेस डॉयल की मृत्यु भी निमोनिया से हुई थी। सर आर्थर आध्यात्म के साथ इस कदर जुड़ गए थे कि उन्होंने इस विषय पर प्रोफेसर चैलेंजर पर आधारित एक उपन्यास, द लैंड ऑफ मिस्ट लिख डाला था।
उनकी पुस्तक द कमिंग ऑफ फेयरीज (1921 से पता चलता है कि वे पांच कोटिंगले परियों की तस्वीरों (जिनका खुलासा दशकों के बाद एक झांसे के रूप में हुआ) की सच्चाई को प्रत्यक्ष रूप से स्वीकार करते थे। उन्होंने परियों और आत्माओं के स्वभाव और अस्तित्व के बारे में सिद्धांतों के साथ उन्हें पुस्तक में पुनर्प्रस्तुत किया। हिस्ट्री ऑफ स्पिरिचुअलिज्म (1926) में कॉनन डॉयल ने यूसैपिया पैलेडिनो और मीना "मार्गरी" क्रैंडन द्वारा प्रस्तुत मानसिक पद्धति और आत्मा के मूर्त रूप की प्रशंसा की। [22] इस विषय पर उनकी रचना उनके लघु-कथा संग्रहों में से एक, द एडवेंचर्स ऑफ शरलॉक होम्स के कारणों में से एक थी जिसे तथाकथित गुह्यविद्या के कारण 1929 में सोवियत संघ में प्रतिबंधित बार दिया गया था। इस प्रतिबंध को बाद में हटा लिया गया था। रूसी अभिनेता वैसिली लिवानोव ने शरलॉक होम्स के अपने चित्रण के लिए एक ऑर्डर ऑफ द ब्रिटिश एम्पायर का सम्मान प्राप्त किया था।
कॉनन डॉयल एक समय के लिए अमेरिकी जादूगर हैरी हुडिनी के मित्र रहे थे जो स्वयं अपनी प्रिय माँ की मृत्यु के बाद 1920 के दशक में अध्यात्मवादी आंदोलन के विरोधी बन गए थे। हालांकि हुडिनी ने जोर देकर कहा कि अध्यात्मवादी माध्यमों में प्रवंचना का प्रयोग होता था (और लगातार उन्हें धोखाधड़ी के रूप में बताया), कॉनन डॉयल ने स्वीकार किया कि हुडिनी में स्वयं अलौकिक शक्तियां थीं -- यह दृष्टिकोण कॉनन डॉयल की द एज ऑफ द अननोन में व्यक्त किया गया था। हुडिनी जाहिर तौर पर कॉनन डॉयल को यह समझाने में असमर्थ रहे कि उनके करतब सीधे तौर पर भ्रम हैं, जो दोनों के बीच एक कड़वे सार्वजनिक बहस का कारण बना गया।[22]
विज्ञान के एक अमेरिकी इतिहासकार रिचर्ड मिलनर ने एक ऐसा मामला प्रस्तुत किया है जिसमें कॉनन डॉयल 1912 के पिल्टडाउन मैन के झांसे के अपराधी रहे हो सकते हैं जब उन्होंने कल्पित होमिनिड जीवाश्म की रचना कर वैज्ञानिक जगत को 40 वर्षों से भी अधिक समय से मूर्ख बनाए रखा। मिलनर का कहना है कि कॉनन डॉयल का एक मकसद था -- अर्थात उनके पसंदीदा मनोविज्ञानों में से एक का असली रूप दिखाने के लिए वैज्ञानिक प्रतिष्ठान से बदला लेना -- और यह कि द लॉस्ट वर्ल्ड में झांसे में उनके शामिल होने के संबंध में कई कूटभाषित सुराग मौजूद हैं।[23]
शैमुअल रोजेनबर्ग की 1974 की पुस्तक नेकेड इज द बेस्ट डिसगाइज यह व्याख्या करने का दावा करती है कि अपनी संपूर्ण लेखनी में कॉनन डॉयल ने अपनी मानसिकता के छिपे हुए और दबे हुए पहलुओं से संबंधित खुले सुराग छोड़े हैं।
मृत्यु
कॉनन डॉयल को 7 जुलाई 1930 को ईस्ट ससेक्स के क्रोबोरो में अपने घर, विंडलेशाम के हॉल में अपनी छाती को मुट्ठी से दबाए पाया गया। उनकी मृत्यु 71 साल की उम्र में दिल का दौरा पड़ने से हो गई थी। उनके अंतिम शब्द अपनी पत्नी की ओर निर्देशित थे: "तुम अद्भुत हो."[24] हैम्पशायर के न्यू फॉरेस्ट में मिनस्टीड के क़ब्रिस्तान में उनकी कब्र के पत्थर पर मौजूद स्मृति-लेख इस प्रकार है:
' स्टील ट्रू ब्लेड स्ट्रेट<big data-parsoid='{"stx":"html","dsr":[20552,20578,5,6]}'>आर्थर कॉनन डॉयल</big>नाईटपैट्रियट, फिजिशियन एंड मैन ऑफ लेटर्स'
लंदन के दक्षिण हाइंडहेड के पास का घर, अंडरशॉ जिसे कॉनन डॉयल ने बनाया था और कम से एक दशक तक उसमें रहे थे, वह 1924 से लेकर 2004 तक एक होटल और रेस्तरां रहा था। इसके बाद इसे एक डेवलपर ने खरीद लिया और तब से यह खाली है जबकि संरक्षणवादी और कॉनन डॉयल के प्रशंसक इसे संरक्षित करने की लड़ाई लड़ रहे हैं।[17]
कॉनन डॉयल के सम्मान में एक मूर्ति क्रोबोरो में क्रोबोरो क्रॉस पर बनी है जहां कॉनन डॉयल 23 वर्षों तक रहे थे। शरलॉक होम्स की भी एक मूर्ति एडिनबर्ग के पिकार्डी प्लेस में उस घर के निकट भी मौजूद है जहां कॉनन डॉयल का जन्म हुआ था।
संदर्भग्रंथ
इन्हें भी देखें
चिकित्सक लेखक
विलियम गिलेट, एक निजी दोस्त जिसने शरलॉक होम्स के सर्वाधिक प्रसिद्ध मंच-संस्करण का प्रदर्शन किया था
सन्दर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
- उनका जीवन, उनके सभी कार्य और अन्य
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, एम्बेड ऑडियो के साथ फुल टेक्स्ट ()।
श्रेणी:आर्थर कॉनन डॉयल
श्रेणी:सरे के डिपुटी-लेफ्टिनेंट
श्रेणी:1914 से पहले के फुटबॉल खिलाड़ी
श्रेणी:एमसीसी क्रिकेटर
श्रेणी:एडिनबर्ग विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र
श्रेणी:पुराने स्टोनीहर्स्ट
श्रेणी:स्कॉटलैंड के रोमन कैथोलिक
श्रेणी:एडिनबर्ग के लोग
श्रेणी:प्लायमाउथ से जुड़े लोग
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श्रेणी:स्कॉटलैंड के बच्चों के लेखक
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श्रेणी:ऑर्डर ऑफ सेंट जॉन का नाइट्स ऑफ ग्रेस
श्रेणी:स्कॉटलैंड के क्रिकेटर
श्रेणी:प्रसिद्धि इंडक्टीज का साइंस फिक्शन हॉल
श्रेणी:लोकगीतों के लेखक | आर्थर कॉनन डॉयल का देहांत किस वर्ष में हुआ था? | जुलाई 7, 1930 | 49 | hindi |
092e54e66 | कार्तिकेय या मुरुगन (तमिल: முருகன்), एक लोकप्रिय हिन्दु देव हैं और इनके अधिकतर भक्त तमिल हिन्दू हैं। इनकी पूजा मुख्यत: भारत के दक्षिणी राज्यों और विशेषकर तमिल नाडु में की जाती है इसके अतिरिक्त विश्व में जहाँ कहीं भी तमिल निवासी/प्रवासी रहते हैं जैसे कि श्रीलंका, मलेशिया, सिंगापुर आदि में भी यह पूजे जाते हैं। इनके छ: सबसे प्रसिद्ध मंदिर तमिल नाडु में स्थित हैं। तमिल इन्हें तमिल कडवुल यानि कि तमिलों के देवता कह कर संबोधित करते हैं। यह भारत के तमिल नाडु राज्य के रक्षक देव भी हैं।
कार्तिकेय जी भगवान शिव और भगवती पार्वती के पुत्र हैं तथा सदैव बालक रूप ही रहते हैं। परंतु उनके इस बालक स्वरूप का भी एक रहस्य है।
भगवान कार्तिकेय छ: बालकों के रूप में जन्मे थे तथा इनकी देखभाल कृतिका (सप्त ऋषि की पत्निया) ने की थी, इसीलिए उन्हें कार्तिकेय धातृ भी कहते हैं।
कार्तिकेय के जन्म की कथा
स्कंद पुराण के अनुसार भगवान शिव के दिये वरदान के कारण अधर्मी राक्षस तारकासुर अत्यंत शक्तिशाली हो चुका था। वरदान के अनुसार केवल शिवपुत्र ही उसका वध कर सकता था। और इसी कारण वह तीनों लोकों में हाहाकार मचा रहा था। इसीलिए सारे देवता भगवान विष्णु के पास जा पहुँचे। भगवान विष्णु ने उन्हें सुझाव दिया की वे कैलाश जाकर भगवान शिव से पुत्र उत्पन्न करने की विनती करें। विष्णु की बात सुनकर समस्त देवगण जब कैलाश पहुंचे तब उन्हें पता चला कि शिवजी और माता पार्वती तो विवाह के पश्चात से ही देवदारु वन में एकांतवास के लिए जा चुके हैं।
विवश व निराश देवता जब देवदारु वन जा पहुंचे तब उन्हें पता चला की शिवजी और माता पार्वती वन में एक गुफा में निवास कर रहे हैं।
देवताओं ने शिवजी से मदद की गुहार लगाई किंतु कोई लाभ नहीं हुआ, भोलेभंडारी तो कामपाश में बंधकर अपनी अर्धांगिनी के साथ सम्भोग करने में रत थे। उनको जागृत करने के लिए अग्नि देव ने उनकी कामक्रीड़ा में विघ्न उत्पन्न करने की ठान ली। अग्निदेव जब गुफा के द्वार तक पहुंचे तब उन्होने देखा की शिव शक्ति कामवासना में लीन होकर सहवास में तल्लीन थे, किंतु अग्निदेव के आने की आहट सुनकर वे दोनों सावधान हो गए।
सम्भोग के समय परपुरुष को समीप पाकर देवी पार्वती ने लज्जा से अपना सुंदर मुख कमलपुष्प से ढक लिया। देवी का वह रूप लज्जा गौरी के नाम से प्रसिद्द हो गया।
कामक्रीड़ा में मग्न शिव जी ने जब अग्निदेव को देखा तब उन्होने भी सम्भोग क्रीड़ा त्यागकर अग्निदेव के समक्ष आना पड़ा। लेकिन इतने में कामातुर शिवजी का अनजाने में ही वीर्यपात हो गया। अग्निदेव ने उस अमोघ वीर्य को कबूतर का रूप धारण करके ग्रहण कर लिया व तारकासुर से बचाने के लिए उसे लेकर जाने लगे। किंतु उस वीर्य का ताप इतना अधिक था की अग्निदेव से भी सहन नहीं हुआ। इस कारण उन्होने उस अमोघ वीर्य को गंगादेवी को सौंप दिया। जब देवी गंगा उस दिव्य अंश को लेकर जाने लगी तब उसकी शक्ति से गंगा का पानी उबलने लगा। भयभीत गंगादेवी ने उस दिव्य अंश को शरवण वन में लाकर स्थापित कर दिया
किंतु गंगाजल में बहते बहते वह दिव्य अंश छह भागों में विभाजित हो गया था। भगवान शिव के शरीर से उत्पन्न वीर्य के उन दिव्य अंशों से छह सुंदर व सुकोमल शिशुओं का जन्म हुआ।
उस वन में विहार करती छह कृतिका कन्याओं की दृष्टि जब उन बालकों पर पडी तब उनके मन में उन बालकों के प्रति मातृत्व भाव जागा। और वो सब उन बालकों को लेकर उनको अपना स्तनपान कराने लगी। उसके पश्चात वे सब उन बालकोँ को लेकर कृतिकालोक चली गई व उनका पालन पोषण करने लगीं। जब इन सबके बारे में नारद जी ने शिव पार्वती को बताया तब वे दोनों अपने पुत्र से मिलने के लिए व्याकुल हो उठे, व कृतिकालोक चल पड़े। जब माँ पार्वती ने अपने छह पुत्रों को देखा तब वो मातृत्व भाव से भावुक हो उठी, और उन्होने उन बालकों को इतने ज़ोर से गले लगा लिया की वे छह शिशु एक ही शिशु बन गए जिसके छह शीश थे। तत्पश्चात शिव पार्वती ने कृतिकाओं को सारी कहानी सुनाई और अपने पुत्र को लेकर कैलाश वापस आ गए। कृतिकाओं के द्वारा लालन पालन होने के कारण उस बालक का नाम कार्तिकेय पड़ गया। कार्तिकेय ने बड़ा होकर राक्षस तारकासुर का संहार किया।
विविध
षण्मुख, द्विभुज, शक्तिघर, मयूरासीन देवसेनापति कुमार कार्तिक की आराधना दक्षिण भारत में बहुत प्रचलित हैं ये ब्रह्मपुत्री देवसेना-षष्टी देवी के पति होने के कारण सन्तान प्राप्ति की कामना से तो पूजे ही जाते हैं, इनको नैष्ठिक रूप से आराध्य मानने वाला सम्प्रदाय भी है।
तारकासुर के अत्याचार से पीड़ित देवताओं पर प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने पार्वती जी का पाणिग्रहण किया। भगवान शंकर भोले बाबा ठहरे। उमा के प्रेम में वे एकान्तनिष्ठ हो गये। अग्निदेव सुरकार्य का स्मरण कराने वहाँ उज्ज्वल कपोत वेश से पहुँचे। उन अमोघ वीर्य का रेतस धारण कौन करे? भूमि, अग्नि, गंगादेवी सब क्रमश: उसे धारण करने में असमर्थ रहीं। अन्त में शरवण (कास-वन) में वह निक्षिप्त होकर तेजोमय बालक बना। कृत्तिकाओं ने उसे अपना पुत्र बनाना चाहा। बालक ने छ: मुख धारण कर छहों कृत्तिकाओं का स्तनपान किया। उसी से षण्मुख कार्तिकेय हुआ वह शम्भुपुत्र। देवताओं ने अपना सेनापतित्व उन्हें प्रदान किया। तारकासुर उनके हाथों मारा गया।
स्कन्द पुराण के मूल उपदेष्टा कुमार कार्तिकेय (स्कन्द) ही हैं। समस्त भारतीय तीर्थों का उसमें माहात्म्य आ गया है। पुराणों में यह सबसे विशाल है।
स्वामी कार्तिकेय सेनाधिप हैं। सैन्यशक्ति की प्रतिष्ठा, विजय, व्यवस्था, अनुशासन इनकी कृपा से सम्पन्न होता है। ये इस शक्ति के अधिदेव हैं। धनुर्वेद पद इनकी एक संहिता का नाम मिलता है, पर ग्रन्थ प्राप्य नहीं है।
कार्तिकेय के नाम
संस्कृत ग्रंथ अमरकोष के अनुसार कार्तिकेय के निम्न नाम हैं:
1. कार्तिकेय
2. महासेन
3. शरजन्मा
4. षडानन
5. पार्वतीनन्दन
6. स्कन्द
7. सेनानी
8. अग्निभू
9. गुह
10. बाहुलेय
11. तारकजित्
12. विशाख
13. शिखिवाहन
14. शक्तिश्वर
15. कुमार
16. क्रौंचदारण
17. कार्तिकेय (मोहन्याल) डोटी नेपालमे कार्तिकेयको मोहन्याल कहते है ।
परिवार
पिता - भगवान शिव
माता - भगवती पार्वती
, भगवती सती
भाई - गणेश (छोटे भाई)
बहन - अशोकसुन्दरी (छोटी बहन)
पत्नी - देवसेना (षष्ठी देवी,ब्रह्मा की मानस पुत्री या कुमारी)
वाहन - मोर (संस्कृत - शिखि)
बालपन में इनकी देखभाल कृतिका (सप्तर्षि की पत्नियाँ) ने की थी।
विश्व में उपस्थिति
बातू गुफाएँ जो की मलेशिया के गोम्बैक जिले में स्थित एक चूना पत्थर की पहाड़ी है वहां, भगववान मुरुगन की विश्व में सर्वाधिक ऊंची प्रतिमा स्थित है जिसकी ऊंचाई 42.7 मीटर (140 फिट) है।
श्रेणी:हिन्दू देवता
श्रेणी:शिव
श्रेणी:कॉमन्स पर निर्वाचित चित्र युक्त लेख | कार्तिकेय के पिता का नाम क्या था? | भगवान शिव | 497 | hindi |
e04ec34ed | मस्तिष्क जन्तुओं के केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र का नियंत्रण केन्द्र है। यह उनके आचरणों का नियमन एंव नियंत्रण करता है। स्तनधारी प्राणियों में मस्तिष्क सिर में स्थित होता है तथा खोपड़ी द्वारा सुरक्षित रहता है। यह मुख्य ज्ञानेन्द्रियों, आँख, नाक, जीभ और कान से जुड़ा हुआ, उनके करीब ही स्थित होता है। मस्तिष्क सभी रीढ़धारी प्राणियों में होता है परंतु अमेरूदण्डी प्राणियों में यह केन्द्रीय मस्तिष्क या स्वतंत्र गैंगलिया के रूप में होता है। कुछ जीवों जैसे निडारिया एंव तारा मछली में यह केन्द्रीभूत न होकर शरीर में यत्र तत्र फैला रहता है, जबकि कुछ प्राणियों जैसे स्पंज में तो मस्तिष्क होता ही नही है। उच्च श्रेणी के प्राणियों जैसे मानव में मस्तिष्क अत्यंत जटिल होते हैं। मानव मस्तिष्क में लगभग १ अरब (१,००,००,००,०००) तंत्रिका कोशिकाएं होती है, जिनमें से प्रत्येक अन्य तंत्रिका कोशिकाओं से १० हजार (१०,०००) से भी अधिक संयोग स्थापित करती हैं। मस्तिष्क सबसे जटिल अंग है।[1]
मस्तिष्क के द्वारा शरीर के विभिन्न अंगो के कार्यों का नियंत्रण एवं नियमन होता है। अतः मस्तिष्क को शरीर का मालिक अंग कहते हैं। इसका मुख्य कार्य ज्ञान, बुद्धि, तर्कशक्ति, स्मरण, विचार निर्णय, व्यक्तित्व आदि का नियंत्रण एवं नियमन करना है। तंत्रिका विज्ञान का क्षेत्र पूरे विश्व में बहुत तेजी से विकसित हो रहा है। बडे-बड़े तंत्रिकीय रोगों से निपटने के लिए आण्विक, कोशिकीय, आनुवंशिक एवं व्यवहारिक स्तरों पर मस्तिष्क की क्रिया के संदर्भ में समग्र क्षेत्र पर विचार करने की आवश्यकता को पूरी तरह महसूस किया गया है। एक नये अध्ययन में निष्कर्ष निकाला गया है कि मस्तिष्क के आकार से व्यक्तित्व की झलक मिल सकती है। वास्तव में बच्चों का जन्म एक अलग व्यक्तित्व के रूप में होता है और जैसे जैसे उनके मस्तिष्क का विकास होता है उसके अनुरुप उनका व्यक्तित्व भी तैयार होता है।[2]
मस्तिष्क (Brain), खोपड़ी (Skull) में स्थित है। यह चेतना (consciousness) और स्मृति (memory) का स्थान है। सभी ज्ञानेंद्रियों - नेत्र, कर्ण, नासा, जिह्रा तथा त्वचा - से आवेग यहीं पर आते हैं, जिनको समझना अर्थात् ज्ञान प्राप्त करना मस्तिष्क का काम्र है। पेशियों के संकुचन से गति करवाने के लिये आवेगों को तंत्रिकासूत्रों द्वारा भेजने तथा उन क्रियाओं का नियमन करने के मुख्य केंद्र मस्तिष्क में हैं, यद्यपि ये क्रियाएँ मेरूरज्जु में स्थित भिन्न केन्द्रो से होती रहती हैं। अनुभव से प्राप्त हुए ज्ञान को सग्रह करने, विचारने तथा विचार करके निष्कर्ष निकालने का काम भी इसी अंग का है।
मस्तिष्क की रचना
मस्तिष्क में ऊपर का बड़ा भाग प्रमस्तिष्क (hemispheres) कपाल में स्थित हैं। इनके पीछे के भाग के नचे की ओर अनुमस्तिष्क (cerebellum) के दो छोटे छोटे गोलार्घ जुड़े हुए दिखाई देते हैं। इसके आगे की ओर वह भाग है, जिसको मध्यमस्तिष्क या मध्यमस्तुर्लुग (midbrain or mesencephalon) कहते हैं। इससे नीचे को जाता हुआ मेरूशीर्ष, या मेदुला औब्लांगेटा (medulla oblongata), कहते है।
प्रमस्तिष्क और अनुमस्तिष्क झिल्लियों से ढके हुए हैं, जिनको तानिकाएँ कहते हैं। ये तीन हैं: दृढ़ तानिका, जालि तानिका और मृदु तानिका। सबसे बाहरवाली दृढ़ तानिका है। इसमें वे बड़ी बड़ी शिराएँ रहती हैं, जिनके द्वारा रक्त लौटता है। कलापास्थि के भग्न होने के कारण, या चोट से क्षति हो जाने पर, उसमें स्थित शिराओं से रक्त निकलकर मस्तिष्क मे जमा हो जाता है, जिसके दबाव से मस्ष्तिष्क की कोशिकाएँ बेकाम हो जाती हैं तथा अंगों का पक्षाघात (paralysis) हो जाता है। इस तानिका से एक फलक निकलकर दोनों गोलार्धो के बीच में भी जाता है। ये फलक जहाँ तहाँ दो स्तरों में विभक्त होकर उन चौड़ी नलिकाओं का निर्माण करते हैं, जिनमें से हाकर लौटनेवाला रक्त तथा कुछ प्रमस्तिष्क मेरूद्रव भी लौटते है।
प्रमस्तिष्क
इसके दोनों गोलार्घो का अन्य भागों की अपेक्षा बहुत बड़ा होना मनुष्य के मस्तिष्क की विशेषता है। दोनों गोलार्ध कपाल में दाहिनी और बाईं ओर सामने ललाट से लेकर पीछे कपाल के अंत तक फैले हुए हैं। अन्य भाग इनसे छिपे हुए हैं। गोलार्धो के बीच में एक गहरी खाई है, जिसके तल में एक चौड़ी फीते के समान महासंयोजक (Corpus Callosum) नामक रचना से दोनों गोलार्ध जुरे हुए हैं। गोलार्धो का रंग ऊपर से घूसर दिखाई देता है।
गोलार्धो के बाह्य पृष्ठ में कितने ही गहरे विदर बने हुए हैं, जहाँ मस्तिष्क के बाह्य पृष्ठ की वस्तु उसके भीतर घुस जाती है। ऐसा प्रतीत होता है, मानो पृष्ठ पर किसी वस्तु की तह को फैलाकर समेट दिया गया है, जिससे उसमें सिलवटें पड़ गई हैं। इस कारण मस्तिष्क के पृष्ठ पर अनेक बड़ी छोटी खाइयाँ बन जाती हैं, जो परिखा (Sulcus) कहलाती हैं। परिखाओं के बीच धूसर मस्तिष्क पृष्ठ के मुड़े हुए चक्रांशवतद् भाग कर्णक (Gyrus) कहलाते हैं, क्योंकि वे कर्णशुष्कली के समान मुडे हुए से हैं। बडी और गहरी खाइयॉ विदर (Fissure) कहलाती है और मस्तिष्क के विशिष्ट क्षेत्रों को पृथक करती है। मस्तिष्क के सामने, पार्श्व तथा पीछे के बड़े-बड़े भाग को उनकी स्थिति के अनुसार खांड (Lobes) तथा खांडिका (Lobules) कहा गया है। गोलार्ध के सामने का खंड ललाटखंड (frontal lobe) है, जो ललाटास्थि से ढँका रहता है। इसी प्रकार पार्श्विका (Parietal) खंड तथा पश्चकपाल (Occipital) खंड तथा शंख खंड (temporal) हैं। इन सब पर परिशखाएँ और कर्णक बने हुए हैं। कई विशेष विदर भी हैं। चित्र 2. और 3 में इनके नाम और स्थान दिखाए गए हैं। कुछ विशिष्ट विदरों तथा परिखाओं की विवेचना यहाँ की जाती है। पार्शिवक खंड पर मध्यपरिखा (central sulcus), जो रोलैडो का विदर (Fissure of Rolando) भी कहलाती है, ऊपर से नीचे और आगे को जाती है। इसके आगे की ओर प्रमस्तिष्क का संचालन भाग है, जिसकी क्रिया से पेशियाँ संकुचित होती है। यदि वहाँ किसी स्थान पर विद्युतदुतेजना दी जाती है तो जिन पेशियों को वहाँ की कोशिकाओं से सूत्र जाते हैं उनका संकोच होने लगता है। यदि किसी अर्बुद, शोथ दाब आदि से कोशिकाएँ नष्ट या अकर्मणय हो जाती हैं, तो पेशियाँ संकोच नहीं, करतीं। उनमें पक्षघात हो जाता है। दस विदर के पीछे का भाग आवेग क्षेत्र है, जहाँ भिन्न भिन्न स्थानों की त्वचा से आवेग पहुँचा करते हैं। पीछे की ओर पश्चकपाल खंड में दृष्टिक्षेत्र, शूक विदर (calcarine fissure) दृष्टि का संबंध इसी क्षेत्र से है। दृष्टितंत्रिका तथा पथ द्वारा गए हुए आवेग यहाँ पहुँचकर दृष्ट वस्तुओं के (impressions) प्रभाव उत्पन्न करते हैं।
नीचे की ओर शंखखंड में विल्वियव के विदर के नीचे का भाग तथा प्रथम शंखकर्णक श्रवण के आवेगों को ग्रहण करते हैं। यहाँ श्रवण के चिह्रों की उत्पत्ति होती है। यहाँ की कोशिकाएँ शब्द के रूप को समझती हैं। शंखखंड के भीतरी पृष्ठ पर हिप्पोकैंपी कर्णक (Hippocampal gyrus) है, जहाँ गंध का ज्ञान होता है। स्वाद का क्षेत्र भी इससे संबंधित है। गंध और स्वाद के भाग और शक्तियाँ कुछ जंतुओं में मनुष्य की अपेक्षा बहुत विकसित हैं। यहीं पर रोलैंडो के विदर के पीछे स्पर्शज्ञान प्राप्त करनेवाला बहुत सा भाग है।
ललाटखंड अन्य सब जंतुओं की अपेक्षा मनुष्य में बढ़ा हुआ है, जिसके अग्रिम भाग का विशेष विकास हुआ है। यह भाग समस्त प्रेरक और आवेगकेंद्रों से संयोजकसूत्रों (association fibres) द्वारा संबद्ध है, विशेषकर संचालक क्षेत्र के समीप स्थित उन केंद्रों से, जिनका नेत्र की गति से संबंध है। इसलिये यह माना जाता है कि यह भाग सूक्ष्म कौशलयुक्त क्रियाओं का नियमन करता है, जो नेत्र में पहुँचे हुए आवेगों पर निर्भर करती हैं और जिनमें स्मृति तथा अनुभाव की आवश्यकता होती है। मनुष्य के बोलने, लिखने, हाथ की अँगुलियों से कला की वस्तुएँ तैयार करने आदि में जो सूक्ष्म क्रियाएँ होती हैं, उनका नियंत्रण यहीं से होता है।
प्रमस्तिष्क उच्च भावनाओं का स्थान माना जाता है। मनुष्य के जो गुण उसे पशु से पृथक् कते हैं, उन सबका स्थान प्रमस्तिष्क है।
पार्श्व निलय (Lateral Ventricles) - यदि गोलार्धो को अनुप्रस्थ दिशा में काटा जाय तो उसके भीतर खाली स्थान या गुहा मिलेगी। दोनों गोलार्धो में यह गुहा है, जिसको निलय कहा जाता है। ये गोलार्धो के अग्रिम भाग ललाटखंड से पीछे पश्चखंड तक विस्तृत हैं। इनके भीतर मस्तिष्क पर एक अति सूक्ष्म कला आच्छादित है, जो अंतरीय कहलाती है। मृदुतानिका की जालिका दोनों निलयों में स्थित है। इन गुहाओं में प्रमस्तिष्क मेरूद्रव भरा रहता है, जो एक सूक्ष्म छिद्र क्षरा, जिसे मुनरो का छिद्र (Foramen of Munro) कहते हैं, दृष्टिचेतकां (optic thalamii) के बीच में स्थित तृतीय निलय में जाता रहता है।
प्रमस्तिष्क प्रांतस्था (Cerebral Cortex)- प्रमस्तिष्क के पृष्ठ पर जो धूसर रंग के पदार्थ का मोटा स्तर चढ़ा हुआ है, वह प्रांतस्था कहलाता है। इसके नीचे श्वेत रंग का अंतस्थ (medulla) भाग है। उसमें भी जहाँ तहाँ धूसर रंग के द्वीप और कई छोटी छोटी द्वीपिकाएँ हैं। इनको केंद्रक (nucleus) कहा जाता है।
प्रांतस्था स्तर विशेषकर तंत्रिका कोशिकाओं का बना हुआ है, यद्यपि उसमें कोशिकाओं से निकले हुए सूत्र और न्यूरोम्लिया नामक संयोजक ऊतक भी रहते हैं, किंतु इस स्तर में कोशिकाओं की ही प्रधानता होती है।
स्वयं प्रांतस्था में कई स्तर हाते हैं। सूत्रों के स्तर में दो प्रकार के सूत्र हैं: एक वे जो भिन्न भिन्न केंद्रों को आपस में जोड़े हुए हैं (इनमें से बहुत से सूत्र नीचे मेरूशीर्ष या मे डिग्री के केंद्रों तथा अनुमस्तिष्क से आते हैं, कुछ मस्तिष्क ही में स्थित केंद्रों से संबंध स्थापित करते हैं); दूरे वे सत्र हैं जे वहाँ की कोशिकाओं से निकलकर नीचे अंत:-संपुट में चे जाते हैं और वहाँ पिरामिडीय पथ (pyramidial tract) में एकत्र हाकर मे डिग्री में पहुँचते हैं।
मनुष्य तथा उच्च श्रेणी के पशुओं, जैसे एप, गारिल्ला आदि में, प्रांतस्था में विशिष्ट स्तरों का बनना विकास की उन्नत सीमा का द्योतक है। निम्न श्रेणी के जंतुओं में न प्रांतस्था का स्तरीभवन ही मिलता है और न प्रमस्तिष्क का इतना विकास होता है।
अंततस्था - यह विशेषतया प्रांतस्था की काशिकाओं से निकले हुए अपवाही तथा उनमें जनेवाले अभिवाही सूत्रों का बना हुआ है। इन सूत्रपुंजों के बीच काशिकाओं के समूह जहाँ तहाँ स्थित हैं और उनका रंग धूसर है। अंंतस्था श्वेत रंग का है।
अनुमस्तिष्क
मस्तिष्क के पिछले भाग के नीचे अनुमस्तिष्क स्थित है। उसके सामने की ओर मघ्यमस्तिष्क है, जिसके तीन स्तंभों द्वारा वह मस्तिष्क से जुड़ा हुआ है। बाह्य पृष्ठ धूसर पदार्थ से आच्छादित होने के कारण इसका रंग भी धूसर है और प्रमस्तिष्क की ही भाँति उसके भीतर श्वेत पदार्थ है। इसमें भी दो गोलार्ध हैं, जिनका काटने से बीच में श्वेत रंग की, वृक्ष की शाखाओं की सी रचना दिखाई देती है। अनुमस्तिष्क में विदरों के गहरे होने से वह पत्रकों (lamina) में विभक्त हे गया है। ऐसी रचना प्रशाखारूपिता (Arber vitae) कहलाती है।
अनुमस्तिष्क का संबंध विशेषकर अंत:कर्ण से और पेशियों तथा संधियों से है। अन्य अंगों से संवेदनाएँ यहाँ आती रहती हैं। उन सबका सामंजस्य करना इस अंग का काम है, जिससे अंगों की क्रियाएँ सम रूप से होती रहें। शरीर को ठीक बनाए रखना इस अंग का विशेष कर्म है। जिन सूत्रों द्वारा ये संवेग अनुमतिष्क की अंतस्था में पहुँचते हैं, वे प्रांतस्था से गोलार्ध के भीतर स्थित दंतुर केंद्रक (dentate nucleus) में पहुँचते हैं, जो घूसर पदार्थ, अर्थात् कोशिकाओं, का एक बड़ा पुंज है। वहाँ से नए सूत्र मध्यमस्तिष्क में दूसरी ओर स्थित लाल केंद्रक (red nucleus) में पहुँचते हैं। वहाँ से संवेग प्रमस्तिष्क में पहुँच जाते हैं।
मध्यमस्तिष्क (Mid-brain)
अनुमस्तिष्क के सामने का ऊपर का भाग मध्यमस्तिक और नीचे का भाग मेरूशीर्ष (Medulla oblongata) है। अनुमस्तिष्क और प्रमस्तिष्क का संबंध मध्यमस्तिष्क द्वारा स्थापित होता है। मघ्यमस्तिष्क में होते हुए सूत्र प्रमस्तिष्क में उसी ओर, या मध्यरेखा को पार करके दूसरी ओर को, चले जाते हैं।
मध्यमस्तिष्क के बीच में सिल्वियस की अणुनलिका है, जो तृतिय निलय से चतुर्थ निलय में प्रमस्तिष्क मेरूद्रव को पहुँचाती है। इसके ऊपर का भाग दो समकोण परिखाओं द्वारा चार उत्सेधों में विभक्त है, जो चतुष्टय काय या पिंड (Corpora quadrigemina) कहा जाता है। ऊपरी दो उत्सेधों में दृष्टितंत्रिका द्वारा नेत्र के रेटिना पटल से सूत्र पहुँचते हैं। इन उत्सेधों से नेत्र के तारे में होनेवाली उन प्रतिवर्त क्रियाओं का नियमन होता है, जिनसे तारा संकुचित या विस्तृत होता है। नीचे के उत्सेधों में अंत:कर्ण के काल्कीय भाग से सूत्र आते हैं और उनके द्वारा आए हुए संवेगों को यहाँ से नए सूत्र प्रमस्तिष्क के शंखखंड के प्रतिस्था में पहुँचाते हैं।
मेरूरज्जु से अन्य सूत्र भी मध्यमस्तिष्क में आते हैं। पीड़ा, शीत, उष्णता आदि के यहाँ आकर, कई पुंजो में एकत्र होकर, मेरूशीर्ष द्वारा उसी ओर को, या दूसरी ओर पार होकर, पौंस और मध्यमस्तिष्क द्वारा थैलेमस में पहुँचते हैं और मस्तिष्क में अपने निर्दिष्ट केंद्र को, या प्रांतस्या में, चले जाते हैं।
अणुनलिका के सामने यह नीचे के भाग द्वारा भी प्रेरक तथा संवेदनसूत्र अनेक भागों को जाते हैं। संयोजनसूत्र भी यहाँ पाए जाते हैं।
पौंस वारोलिआइ (Pons varolii)- यह भाग मेरूशीर्ष और मध्यमस्तिष्क के बीच में स्थित है और दोनों अनुमस्तिष्क के गोलार्धों को मिलाए रहता है। चित्र में यह गोल उरूत्सेध के रूप में सामने की ओर निकला हुआ दिखाई देता है। मस्तिष्क की पीरक्षा करने पर उसपर अनुप्रस्थ दिशा में जाते हुए सूत्र छाए हुए दिखाई देते हैं। ये सूत्र अंत:संपुट और मध्यमस्तिष्क से पौंस में होते हुए मेरूशीर्ष में चले जाते हैं। सब सूत्र इतने उत्तल नहीं हैं। कुछ गहरे सूत्र ऊ पर से आनेवाले पिरामिड पथ के सूत्रों के नीचे रहते हैं। पिरामिड पथों के सूत्र विशेष महत्व के हैं, जो पौंस में होकर जाते हैं। अन्य कई सूत्रपुंज भी पौंस में होकर जाते हैं, जो अनुदैर्ध्य, मध्यम और पार्श्व पंज कहलाते हैं। इस भाग में पाँचवीं, छठी, सातवीं और आठवीं तंत्रिकाओं के केंद्रक स्थित हैं।
मेरूशीर्ष (Medulla oblongata) - देखने से यह मे डिग्री का भाग ही दिखाई देता है, जो ऊपर जाकर मध्यमस्तिष्क और पौंस में मिल जाता है; किंतु इसकी रचना मेरूरज्जु से भिन्न है। इसके पीछे की ओर अनुमस्तिष्क है। यहाँ इसका आकार मेरुरज्जु से दुगना हो जाता है। इसके चौड़े और चपटे पृष्ठभाग पर एक चौकोर आकार का खात बन गया है, जिसपर एक झिल्ली छाई रहती है। यह चतुर्थ निलय (Fourth ventricle) कहलाता है, जिसमें सिलवियस की नलिका द्वारा प्रमस्तिष्क मेरूद्रव आता रहता है। इसके पीछे की ओर अनुमस्तिष्क है।
मेरूशीर्षक अत्यंत महत्व का अंग है। हृत्संचालक केंद्र, श्वासकेंद्र तथा रक्तसंचालक केन्द्र चतुर्थ निलय में निचले भाग में स्थित हैं, जो इन क्रियाओं का नियंत्रण करते हैं। इसी भाग में आठवीं, नवीं, दसवीं, ग्यारहवीं और बारहवीं मस्तिष्कीय तंत्रिकाओं के केन्द्र भी स्थित हैं। यह भाग प्रमस्तिष्क, अनुमस्तिष्क तथा मध्यमस्तिष्क से अनेक सूत्रों द्वारा जुड़ा हुआ है और अनेक सूत्र मेरूरज्जु में जाते और वहाँ से आते हैं। ये सूत्र पुंजों में समूहित हैं। ये विशेष सूत्रपुंज हैं:
1. पिरामिड पथ (Pyramidal tract), 2. मध्यम अनुदैर्ध्यपुंज (Median Longitudinal bundles), तथा 3. मध्यम पुंजिका (Median filler)।
पिरामिड पथ में केवल प्रेरक (motor) सूत्र हैं, जो प्रमस्तिष्क के प्रांतस्था की प्रेरक कोशिकाओं से निकलकर अंत:संपुट में होते हुए, मध्यमस्तिष्क और पौंस से निकलकर, मेरूशीर्षक में आ जाते हैं और दो पुंजों में एकत्रित होकर रज्जु की मध्य परिखा के सामने और पीछे स्थित होकर नीचे को चले जाते हैं। नीचे पहुँचकर कुछ सूत्र दूसरी ओर पार हो जाते हैं और कुछ उसी ओर नीचे जाकर तब दूसरी ओर पार होते हैं, किंतु अंत में सस्त सूत्र दूसरी ओर चले जाते हैं। जहाँ वे पेशियों आदि में वितरित होते हैं। इसी कारण मस्तिष्क पर एक ओर चोट लगने से, या वहाँ रक्तस्राव होने से, उस ओर की कोशिकाआं के अकर्मणय हो जाने पर शरीर के दूसरी ओर की पेशियों का संस्तंभ होता है।
मध्यम अनुदैर्ध्य पुंजों के सूत्र मघ्यमस्तिष्क और पौंस में होते हुए मेरूशीर्ष में आते हैं और कई तंत्रिकाआं के केंद्र को उस ओर तथा दूसरी ओर भी जोड़ते हैं, जिससे दोनों ओर की तंत्रिकाओं की क्रियाओं का नियमन सभव होता है।
'मध्यम पुंजिका में केवल संवेदन सूत्र हैं। चह पुंजिका उपर्युक्त दोनों पुंजों के बीच में स्थित है। ये सूत्र मेरुरज्जु से आकर, पिरामिड सूत्रों के आरपार होने से ऊपर जाकर, दूसरी ओर के दाहिने सूत्र बाईं ओर और वाम दिशा के सूत्र दाहिनी ओर को प्रमस्तिष्क में स्थित केंद्रो में चले जाते हैं।
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
(Head Injury Care Manual)
श्रेणी:शारीरिकी
श्रेणी:अंग
श्रेणी:प्राणी विज्ञान
श्रेणी:मस्तिष्क
श्रेणी:हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना | मानव मस्तिष्क में लगभग कितनी तंत्रिका कोशिकाएं होती है? | १ अरब | 684 | hindi |
8bce07205 | नरेन्द्र दामोदरदास मोदी (उच्चारण, Gujarati: નરેંદ્ર દામોદરદાસ મોદી; जन्म: १७ सितम्बर १९५०) २०१४ से भारत के १४वें प्रधानमन्त्री तथा वाराणसी से सांसद हैं।[2][3] वे भारत के प्रधानमन्त्री पद पर आसीन होने वाले स्वतंत्र भारत में जन्मे प्रथम व्यक्ति हैं। इससे पहले वे 7 अक्तूबर २००१ से 22 मई २०१४ तक गुजरात के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। मोदी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सदस्य हैं।
वडनगर के एक गुजराती परिवार में पैदा हुए, मोदी ने अपने बचपन में चाय बेचने में अपने पिता की मदद की, और बाद में अपना खुद का स्टाल चलाया। आठ साल की उम्र में वे आरएसएस से जुड़े, जिसके साथ एक लंबे समय तक सम्बंधित रहे। स्नातक होने के बाद उन्होंने अपने घर छोड़ दिया। मोदी ने दो साल तक भारत भर में यात्रा की, और कई धार्मिक केंद्रों का दौरा किया। 1969 या 1970 वे गुजरात लौटे और अहमदाबाद चले गए। 1971 में वह आरएसएस के लिए पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गए। 1975 में देश भर में आपातकाल की स्थिति के दौरान उन्हें कुछ समय के लिए छिपना पड़ा। 1985 में वे बीजेपी से जुड़े और 2001 तक पार्टी पदानुक्रम के भीतर कई पदों पर कार्य किया, जहाँ से वे धीरे धीरे सचिव के पद पर पहुंचे।
गुजरात भूकंप २००१, (भुज में भूकंप) के बाद गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल के असफल स्वास्थ्य और ख़राब सार्वजनिक छवि के कारण नरेंद्र मोदी को 2001 में गुजरात के मुख्यमंत्री नियुक्त किया गया। मोदी जल्द ही विधायी विधानसभा के लिए चुने गए। 2002 के गुजरात दंगों में उनके प्रशासन को कठोर माना गया है, इस दौरान उनके संचालन की आलोचना भी हुई।[4] हालांकि सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त विशेष जांच दल (एसआईटी) को अभियोजन पक्ष की कार्यवाही शुरू करने के लिए कोई सबूत नहीं मिला। [5] मुख्यमंत्री के तौर पर उनकी नीतियों को आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करने के लिए श्रेय दिया गया।[6]
उनके नेतृत्व में भारत की प्रमुख विपक्षी पार्टी भारतीय जनता पार्टी ने 2014 का लोकसभा चुनाव लड़ा और 282 सीटें जीतकर अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की।[7]
एक सांसद के रूप में उन्होंने उत्तर प्रदेश की सांस्कृतिक नगरी वाराणसी एवं अपने गृहराज्य गुजरात के वडोदरा संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ा और दोनों जगह से जीत दर्ज़ की।[8][9] उनके राज में भारत का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश एवं बुनियादी सुविधाओं पर खर्च तेज़ी से बढ़ा। उन्होंने अफसरशाही में कई सुधार किये तथा योजना आयोग को हटाकर नीति आयोग का गठन किया।
इससे पूर्व वे गुजरात राज्य के 14वें मुख्यमन्त्री रहे। उन्हें उनके काम के कारण गुजरात की जनता ने लगातार 4 बार (2001 से 2014 तक) मुख्यमन्त्री चुना। गुजरात विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर डिग्री प्राप्त नरेन्द्र मोदी विकास पुरुष के नाम से जाने जाते हैं और वर्तमान समय में देश के सबसे लोकप्रिय नेताओं में से हैं।।[10] माइक्रो-ब्लॉगिंग साइट ट्विटर पर भी वे सबसे ज्यादा फॉलोअर (4.5करोड़+, जनवरी 2019) वाले भारतीय नेता हैं। उन्हें 'नमो' नाम से भी जाना जाता है। [11] टाइम पत्रिका ने मोदी को पर्सन ऑफ़ द ईयर 2013 के 42 उम्मीदवारों की सूची में शामिल किया है।[12]
अटल बिहारी वाजपेयी की तरह नरेन्द्र मोदी एक राजनेता और कवि हैं। वे गुजराती भाषा के अलावा हिन्दी में भी देशप्रेम से ओतप्रोत कविताएँ लिखते हैं।[13][14]
निजी जीवन
नरेन्द्र मोदी का जन्म तत्कालीन बॉम्बे राज्य के महेसाना जिला स्थित वडनगर ग्राम में हीराबेन मोदी और दामोदरदास मूलचन्द मोदी के एक मध्यम-वर्गीय परिवार में १७ सितम्बर १९५० को हुआ था।[15] वह पैदा हुए छह बच्चों में तीसरे थे। मोदी का परिवार 'मोध-घांची-तेली' समुदाय से था,[16][17] जिसे भारत सरकार द्वारा अन्य पिछड़ा वर्ग के रूप में वर्गीकृत किया जाता है।[18] वह पूर्णत: शाकाहारी हैं।[19] भारत पाकिस्तान के बीच द्वितीय युद्ध के दौरान अपने तरुणकाल में उन्होंने स्वेच्छा से रेलवे स्टेशनों पर सफ़र कर रहे सैनिकों की सेवा की।[20] युवावस्था में वह छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में शामिल हुए | उन्होंने साथ ही साथ भ्रष्टाचार विरोधी नव निर्माण आन्दोलन में हिस्सा लिया। एक पूर्णकालिक आयोजक के रूप में कार्य करने के पश्चात् उन्हें भारतीय जनता पार्टी में संगठन का प्रतिनिधि मनोनीत किया गया।[21] किशोरावस्था में अपने भाई के साथ एक चाय की दुकान चला चुके मोदी ने अपनी स्कूली शिक्षा वड़नगर में पूरी की।[15] उन्होंने आरएसएस के प्रचारक रहते हुए 1980 में गुजरात विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर परीक्षा दी और एम॰एससी॰ की डिग्री प्राप्त की।[22]
अपने माता-पिता की कुल छ: सन्तानों में तीसरे पुत्र नरेन्द्र ने बचपन में रेलवे स्टेशन पर चाय बेचने में अपने पिता का भी हाथ बँटाया।[23][24] बड़नगर के ही एक स्कूल मास्टर के अनुसार नरेन्द्र हालाँकि एक औसत दर्ज़े का छात्र था, लेकिन वाद-विवाद और नाटक प्रतियोगिताओं में उसकी बेहद रुचि थी।[23] इसके अलावा उसकी रुचि राजनीतिक विषयों पर नयी-नयी परियोजनाएँ प्रारम्भ करने की भी थी।[25]
13 वर्ष की आयु में नरेन्द्र की सगाई जसोदा बेन चमनलाल के साथ कर दी गयी और जब उनका विवाह हुआ,[26] वह मात्र 17 वर्ष के थे। फाइनेंशियल एक्सप्रेस की एक खबर के अनुसार पति-पत्नी ने कुछ वर्ष साथ रहकर बिताये।[27] परन्तु कुछ समय बाद वे दोनों एक दूसरे के लिये अजनबी हो गये क्योंकि नरेन्द्र मोदी ने उनसे कुछ ऐसी ही इच्छा व्यक्त की थी।[23] जबकि नरेन्द्र मोदी के जीवनी-लेखक ऐसा नहीं मानते। उनका कहना है:[28]
"उन दोनों की शादी जरूर हुई परन्तु वे दोनों एक साथ कभी नहीं रहे। शादी के कुछ बरसों बाद नरेन्द्र मोदी ने घर त्याग दिया और एक प्रकार से उनका वैवाहिक जीवन लगभग समाप्त-सा ही हो गया।"
पिछले चार विधान सभा चुनावों में अपनी वैवाहिक स्थिति पर खामोश रहने के बाद नरेन्द्र मोदी ने कहा कि अविवाहित रहने की जानकारी देकर उन्होंने कोई पाप नहीं किया। नरेन्द्र मोदी के मुताबिक एक शादीशुदा के मुकाबले अविवाहित व्यक्ति भ्रष्टाचार के खिलाफ जोरदार तरीके से लड़ सकता है क्योंकि उसे अपनी पत्नी, परिवार व बालबच्चों की कोई चिन्ता नहीं रहती।[29] हालांकि नरेन्द्र मोदी ने शपथ पत्र प्रस्तुत कर जसोदाबेन को अपनी पत्नी स्वीकार किया है।[30]
दामोदरदास मोदीहीराबेन
सोमाभाई मोदीअमृत मोदीनरेन्द्र मोदीयसोदाबेनप्रह्लाद मोदीपंकज मोदीवासंती
प्रारम्भिक सक्रियता और राजनीति
नरेन्द्र जब विश्वविद्यालय के छात्र थे तभी से वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में नियमित जाने लगे थे। इस प्रकार उनका जीवन संघ के एक निष्ठावान प्रचारक के रूप में प्रारम्भ हुआ[22][31] उन्होंने शुरुआती जीवन से ही राजनीतिक सक्रियता दिखलायी और भारतीय जनता पार्टी का जनाधार मजबूत करने में प्रमुख भूमिका निभायी। गुजरात में शंकरसिंह वाघेला का जनाधार मजबूत बनाने में नरेन्द्र मोदी की ही रणनीति थी।
अप्रैल १९९० में जब केन्द्र में मिली जुली सरकारों का दौर शुरू हुआ, मोदी की मेहनत रंग लायी, जब गुजरात में १९९५ के विधान सभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने अपने बलबूते दो तिहाई बहुमत प्राप्त कर सरकार बना ली। इसी दौरान दो राष्ट्रीय घटनायें और इस देश में घटीं। पहली घटना थी सोमनाथ से लेकर अयोध्या तक की रथयात्रा जिसमें आडवाणी के प्रमुख सारथी की मूमिका में नरेन्द्र का मुख्य सहयोग रहा। इसी प्रकार कन्याकुमारी से लेकर सुदूर उत्तर में स्थित काश्मीर तक की मुरली मनोहर जोशी की दूसरी रथ यात्रा भी नरेन्द्र मोदी की ही देखरेख में आयोजित हुई। इसके बाद शंकरसिंह वाघेला ने पार्टी से त्यागपत्र दे दिया, जिसके परिणामस्वरूप केशुभाई पटेल को गुजरात का मुख्यमन्त्री बना दिया गया और नरेन्द्र मोदी को दिल्ली बुला कर भाजपा में संगठन की दृष्टि से केन्द्रीय मन्त्री का दायित्व सौंपा गया।
१९९५ में राष्ट्रीय मन्त्री के नाते उन्हें पाँच प्रमुख राज्यों में पार्टी संगठन का काम दिया गया जिसे उन्होंने बखूबी निभाया। १९९८ में उन्हें पदोन्नत करके राष्ट्रीय महामन्त्री (संगठन) का उत्तरदायित्व दिया गया। इस पद पर वह अक्टूबर २००१ तक काम करते रहे। भारतीय जनता पार्टी ने अक्टूबर २००१ में केशुभाई पटेल को हटाकर गुजरात के मुख्यमन्त्री पद की कमान नरेन्द्र मोदी को सौंप दी।
गुजरात के मुख्यमन्त्री के रूप में
2001 में केशुभाई पटेल (तत्कालीन मुख्यमंत्री) की सेहत बिगड़ने लगी थी और भाजपा चुनाव में कई सीट हार रही थी।[32] इसके बाद भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुख्यमंत्री के रूप में मोदी को नए उम्मीदवार के रूप में रखते हैं। हालांकि भाजपा के नेता लालकृष्ण आडवाणी, मोदी के सरकार चलाने के अनुभव की कमी के कारण चिंतित थे। मोदी ने पटेल के उप मुख्यमंत्री बनने का प्रस्ताव ठुकरा दिया और आडवाणी व अटल बिहारी वाजपेयी से बोले कि यदि गुजरात की जिम्मेदारी देनी है तो पूरी दें अन्यथा न दें। 3 अक्टूबर 2001 को यह केशुभाई पटेल के जगह गुजरात के मुख्यमंत्री बने। इसके साथ ही उन पर दिसम्बर 2002 में होने वाले चुनाव की पूरी जिम्मेदारी भी थी।[33]
2001-02
नरेन्द्र मोदी ने मुख्यमंत्री का अपना पहला कार्यकाल 7 अक्टूबर 2001 से शुरू किया। इसके बाद मोदी ने राजकोट विधानसभा चुनाव लड़ा। जिसमें काँग्रेस पार्टी के आश्विन मेहता को 14,728 मतों से हरा दिया।
नरेन्द्र मोदी अपनी विशिष्ट जीवन शैली के लिये समूचे राजनीतिक हलकों में जाने जाते हैं। उनके व्यक्तिगत स्टाफ में केवल तीन ही लोग रहते हैं, कोई भारी-भरकम अमला नहीं होता। लेकिन कर्मयोगी की तरह जीवन जीने वाले मोदी के स्वभाव से सभी परिचित हैं इस नाते उन्हें अपने कामकाज को अमली जामा पहनाने में कोई दिक्कत पेश नहीं आती।
[34] उन्होंने गुजरात में कई ऐसे हिन्दू मन्दिरों को भी ध्वस्त करवाने में कभी कोई कोताही नहीं बरती जो सरकारी कानून कायदों के मुताबिक नहीं बने थे। हालाँकि इसके लिये उन्हें विश्व हिन्दू परिषद जैसे संगठनों का कोपभाजन भी बनना पड़ा, परन्तु उन्होंने इसकी रत्ती भर भी परवाह नहीं की; जो उन्हें उचित लगा करते रहे।[35] वे एक लोकप्रिय वक्ता हैं, जिन्हें सुनने के लिये बहुत भारी संख्या में श्रोता आज भी पहुँचते हैं। कुर्ता-पायजामा व सदरी के अतिरिक्त वे कभी-कभार सूट भी पहन लेते हैं। अपनी मातृभाषा गुजराती के अतिरिक्त वह हिन्दी में ही बोलते हैं।[36]
मोदी के नेतृत्व में २०१२ में हुए गुजरात विधान सभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने स्पष्ट बहुमत प्राप्त किया। भाजपा को इस बार ११५ सीटें मिलीं।
गुजरात के विकास की योजनाएँ
मुख्यमन्त्री के रूप में नरेन्द्र मोदी ने गुजरात के विकास[37] के लिये जो महत्वपूर्ण योजनाएँ प्रारम्भ कीं व उन्हें क्रियान्वित कराया, उनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-
पंचामृत योजना[38] - राज्य के एकीकृत विकास की पंचायामी योजना,
सुजलाम् सुफलाम् - राज्य में जलस्रोतों का उचित व समेकित उपयोग, जिससे जल की बर्बादी को रोका जा सके,[39]
कृषि महोत्सव – उपजाऊ भूमि के लिये शोध प्रयोगशालाएँ,[39]
चिरंजीवी योजना – नवजात शिशु की मृत्युदर में कमी लाने हेतु,[39]
मातृ-वन्दना – जच्चा-बच्चा के स्वास्थ्य की रक्षा हेतु,[40]
बेटी बचाओ – भ्रूण-हत्या व लिंगानुपात पर अंकुश हेतु,[39]
ज्योतिग्राम योजना – प्रत्येक गाँव में बिजली पहुँचाने हेतु,[41][42]
कर्मयोगी अभियान – सरकारी कर्मचारियों में अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठा जगाने हेतु,[39]
कन्या कलावाणी योजना – महिला साक्षरता व शिक्षा के प्रति जागरुकता,[39]
बालभोग योजना – निर्धन छात्रों को विद्यालय में दोपहर का भोजन,[43]
मोदी का वनबन्धु विकास कार्यक्रम
उपरोक्त विकास योजनाओं के अतिरिक्त मोदी ने आदिवासी व वनवासी क्षेत्र के विकास हेतु गुजरात राज्य में वनबन्धु विकास[44] हेतु एक अन्य दस सूत्री कार्यक्रम भी चला रखा है जिसके सभी १० सूत्र निम्नवत हैं:
१-पाँच लाख परिवारों को रोजगार, २-उच्चतर शिक्षा की गुणवत्ता, ३-आर्थिक विकास, ४-स्वास्थ्य, ५-आवास, ६-साफ स्वच्छ पेय जल, ७-सिंचाई, ८-समग्र विद्युतीकरण, ९-प्रत्येक मौसम में सड़क मार्ग की उपलब्धता और १०-शहरी विकास।
श्यामजीकृष्ण वर्मा की अस्थियों का भारत में संरक्षण
नरेन्द्र मोदी ने प्रखर देशभक्त श्यामजी कृष्ण वर्मा व उनकी पत्नी भानुमती की अस्थियों को भारत की स्वतन्त्रता के ५५ वर्ष बाद २२ अगस्त २००३ को स्विस सरकार से अनुरोध करके जिनेवा से स्वदेश वापस मँगाया[45]
और माण्डवी (श्यामजी के जन्म स्थान) में क्रान्ति-तीर्थ के नाम से एक पर्यटन स्थल बनाकर उसमें उनकी स्मृति को संरक्षण प्रदान किया।[46] मोदी द्वारा १३ दिसम्बर २०१० को राष्ट्र को समर्पित इस क्रान्ति-तीर्थ को देखने दूर-दूर से पर्यटक गुजरात आते हैं।[47] गुजरात सरकार का पर्यटन विभाग इसकी देखरेख करता है।[48]
आतंकवाद पर मोदी के विचार
१८ जुलाई २००६ को मोदी ने एक भाषण में आतंकवाद निरोधक अधिनियम जैसे आतंकवाद-विरोधी विधान लाने के विरूद्ध उनकी अनिच्छा को लेकर भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की आलोचना की।
मुंबई की उपनगरीय रेलों में हुए बम विस्फोटों के मद्देनज़र उन्होंने केंद्र सरकार से राज्यों को सख्त कानून लागू करने के लिए सशक्त करने की माँग की।[49] उनके शब्दों में -
"आतंकवाद युद्ध से भी बदतर है। एक आतंकवादी के कोई नियम नहीं होते। एक आतंकवादी तय करता है कि कब, कैसे, कहाँ और किसको मारना है। भारत ने युद्धों की तुलना में आतंकी हमलों में अधिक लोगों को खोया है।"[49]
नरेंद्र मोदी ने कई अवसरों पर कहा था कि यदि भाजपा केंद्र में सत्ता में आई, तो वह सन् २००४ में उच्चतम न्यायालय द्वारा अफज़ल गुरु को फाँसी दिए जाने के निर्णय का सम्मान करेगी। भारत के उच्चतम न्यायालय ने अफज़ल को २००१ में भारतीय संसद पर हुए हमले के लिए दोषी ठहराया था एवं ९ फ़रवरी २०१३ को तिहाड़ जेल में उसे फाँसी पर लटकाया गया।
[50]
विवाद एवं आलोचनाएँ
2002 के गुजरात दंगे
27 फ़रवरी 2002 को अयोध्या से गुजरात वापस लौट कर आ रहे कारसेवकों को गोधरा स्टेशन पर खड़ी ट्रेन में मुसलमानों की हिंसक भीड़ द्वारा आग लगा कर जिन्दा जला दिया गया। इस हादसे में 59 कारसेवक मारे गये थे।[51] रोंगटे खड़े कर देने वाली इस घटना की प्रतिक्रिया स्वरूप समूचे गुजरात में हिन्दू-मुस्लिम दंगे भड़क उठे। मरने वाले 1180 लोगों में अधिकांश संख्या अल्पसंख्यकों की थी। इसके लिये न्यूयॉर्क टाइम्स ने मोदी प्रशासन को जिम्मेवार ठहराया।[36] कांग्रेस सहित अनेक विपक्षी दलों ने नरेन्द्र मोदी के इस्तीफे की माँग की।[52][53] मोदी ने गुजरात की दसवीं विधानसभा भंग करने की संस्तुति करते हुए राज्यपाल को अपना त्यागपत्र सौंप दिया। परिणामस्वरूप पूरे प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू हो गया।[54][55] राज्य में दोबारा चुनाव हुए जिसमें भारतीय जनता पार्टी ने मोदी के नेतृत्व में विधान सभा की कुल १८२ सीटों में से १२७ सीटों पर जीत हासिल की।
अप्रैल २००९ में भारत के उच्चतम न्यायालय ने विशेष जाँच दल भेजकर यह जानना चाहा कि कहीं गुजरात के दंगों में नरेन्द्र मोदी की साजिश तो नहीं।[36] यह विशेष जाँच दल दंगों में मारे गये काँग्रेसी सांसद ऐहसान ज़ाफ़री की विधवा ज़ाकिया ज़ाफ़री की शिकायत पर भेजा गया था।[56] दिसम्बर 2010 में उच्चतम न्यायालय ने एस॰ आई॰ टी॰ की रिपोर्ट पर यह फैसला सुनाया कि इन दंगों में नरेन्द्र मोदी के खिलाफ़ कोई ठोस सबूत नहीं मिला है।[57]
उसके बाद फरवरी 2011 में टाइम्स ऑफ इंडिया ने यह आरोप लगाया कि रिपोर्ट में कुछ तथ्य जानबूझ कर छिपाये गये हैं[58] और सबूतों के अभाव में नरेन्द्र मोदी को अपराध से मुक्त नहीं किया जा सकता।[59][60] इंडियन एक्सप्रेस ने भी यह लिखा कि रिपोर्ट में मोदी के विरुद्ध साक्ष्य न मिलने की बात भले ही की हो किन्तु अपराध से मुक्त तो नहीं किया।[61] द हिन्दू में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार नरेन्द्र मोदी ने न सिर्फ़ इतनी भयंकर त्रासदी पर पानी फेरा अपितु प्रतिक्रिया स्वरूप उत्पन्न गुजरात के दंगों में मुस्लिम उग्रवादियों के मारे जाने को भी उचित ठहराया।[62]
भारतीय जनता पार्टी ने माँग की कि एस॰ आई॰ टी॰ की रिपोर्ट को लीक करके उसे प्रकाशित करवाने के पीछे सत्तारूढ़ काँग्रेस पार्टी का राजनीतिक स्वार्थ है इसकी भी उच्चतम न्यायालय द्वारा जाँच होनी चाहिये।[63]
सुप्रीम कोर्ट ने बिना कोई फैसला दिये अहमदाबाद के ही एक मजिस्ट्रेट को इसकी निष्पक्ष जाँच करके अविलम्ब अपना निर्णय देने को कहा।[64] अप्रैल 2012 में एक अन्य विशेष जाँच दल ने फिर ये बात दोहरायी कि यह बात तो सच है कि ये दंगे भीषण थे परन्तु नरेन्द्र मोदी का इन दंगों में कोई भी प्रत्यक्ष हाथ नहीं।[65] 7 मई 2012 को उच्चतम न्यायालय द्वारा नियुक्त विशेष जज राजू रामचन्द्रन ने यह रिपोर्ट पेश की कि गुजरात के दंगों के लिये नरेन्द्र मोदी पर भारतीय दण्ड संहिता की धारा 153 ए (1) (क) व (ख), 153 बी (1), 166 तथा 505 (2) के अन्तर्गत विभिन्न समुदायों के बीच बैमनस्य की भावना फैलाने के अपराध में दण्डित किया जा सकता है।[66] हालांकि रामचन्द्रन की इस रिपोर्ट पर विशेष जाँच दल (एस०आई०टी०) ने आलोचना करते हुए इसे दुर्भावना व पूर्वाग्रह से परिपूर्ण एक दस्तावेज़ बताया।[67]
26 जुलाई 2012 को नई दुनिया के सम्पादक शाहिद सिद्दीकी को दिये गये एक इण्टरव्यू में नरेन्द्र मोदी ने साफ शब्दों में कहा - "2004 में मैं पहले भी कह चुका हूँ, 2002 के साम्प्रदायिक दंगों के लिये मैं क्यों माफ़ी माँगूँ? यदि मेरी सरकार ने ऐसा किया है तो उसके लिये मुझे सरे आम फाँसी दे देनी चाहिये।" मुख्यमन्त्री ने गुरुवार को नई दुनिया से फिर कहा- “अगर मोदी ने अपराध किया है तो उसे फाँसी पर लटका दो। लेकिन यदि मुझे राजनीतिक मजबूरी के चलते अपराधी कहा जाता है तो इसका मेरे पास कोई जवाब नहीं है।"
यह कोई पहली बार नहीं है जब मोदी ने अपने बचाव में ऐसा कहा हो। वे इसके पहले भी ये तर्क देते रहे हैं कि गुजरात में और कब तक गुजरे ज़माने को लिये बैठे रहोगे? यह क्यों नहीं देखते कि पिछले एक दशक में गुजरात ने कितनी तरक्की की? इससे मुस्लिम समुदाय को भी तो फायदा पहुँचा है।
लेकिन जब केन्द्रीय क़ानून मन्त्री सलमान खुर्शीद से इस बावत पूछा गया तो उन्होंने दो टूक जवाब दिया - "पिछले बारह वर्षों में यदि एक बार भी गुजरात के मुख्यमन्त्री के खिलाफ़ एफ॰ आई॰ आर॰ दर्ज़ नहीं हुई तो आप उन्हें कैसे अपराधी ठहरा सकते हैं? उन्हें कौन फाँसी देने जा रहा है?"[68]
बाबरी मस्जिद के लिये पिछले 45 सालों से कानूनी लड़ाई लड़ रहे 92 वर्षीय मोहम्मद हाशिम अंसारी के मुताबिक भाजपा में प्रधानमन्त्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी के प्रान्त गुजरात में सभी मुसलमान खुशहाल और समृद्ध हैं। जबकि इसके उलट कांग्रेस हमेशा मुस्लिमों में मोदी का भय पैदा करती रहती है।[69]
सितंबर 2014 की भारत यात्रा के दौरान ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री टोनी एबॉट ने कहा कि नरेंद्र मोदी को 2002 के दंगों के लिए गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर जिम्मेदार नहीं ठहराना चाहिए क्योंकि वह उस समय मात्र एक 'पीठासीन अधिकारी' थे जो 'अनगिनत जाँचों' में पाक साफ साबित हो चुके हैं।[70]
२०१४ लोकसभा चुनाव
प्रधानमन्त्री पद के उम्मीदवार
गोआ में भाजपा कार्यसमिति द्वारा नरेन्द्र मोदी को 2014 के लोक सभा चुनाव अभियान की कमान सौंपी गयी थी।[71] १३ सितम्बर २०१३ को हुई संसदीय बोर्ड की बैठक में आगामी लोकसभा चुनावों के लिये प्रधानमन्त्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया गया। इस अवसर पर पार्टी के शीर्षस्थ नेता लालकृष्ण आडवाणी मौजूद नहीं रहे और पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने इसकी घोषणा की।[72][73] मोदी ने प्रधानमन्त्री पद का उम्मीदवार घोषित होने के बाद चुनाव अभियान की कमान राजनाथ सिंह को सौंप दी। प्रधानमन्त्री पद का उम्मीदवार बनाये जाने के बाद मोदी की पहली रैली हरियाणा प्रान्त के रिवाड़ी शहर में हुई।[74]
एक सांसद प्रत्याशी के रूप में उन्होंने देश की दो लोकसभा सीटों वाराणसी तथा वडोदरा से चुनाव लड़ा और दोनों निर्वाचन क्षेत्रों से विजयी हुए।[8][9][75]
लोक सभा चुनाव २०१४ में मोदी की स्थिति
न्यूज़ एजेंसीज व पत्रिकाओं द्वारा किये गये तीन प्रमुख सर्वेक्षणों ने नरेन्द्र मोदी को प्रधान मन्त्री पद के लिये जनता की पहली पसन्द बताया था।[76][77][78] एसी वोटर पोल सर्वे के अनुसार नरेन्द्र मोदी को पीएम पद का प्रत्याशी घोषित करने से एनडीए के वोट प्रतिशत में पाँच प्रतिशत के इजाफ़े के साथ १७९ से २२० सीटें मिलने की सम्भावना व्यक्त की गयी।[78] सितम्बर २०१३ में नीलसन होल्डिंग और इकोनॉमिक टाइम्स ने जो परिणाम प्रकाशित किये थे उनमें शामिल शीर्षस्थ १०० भारतीय कार्पोरेट्स में से ७४ कारपोरेट्स ने नरेन्द्र मोदी तथा ७ ने राहुल गान्धी को बेहतर प्रधानमन्त्री बतलाया था।[79][80] नोबल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन मोदी को बेहतर प्रधान मन्त्री नहीं मानते ऐसा उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा था। उनके विचार से मुस्लिमों में उनकी स्वीकार्यता संदिग्ध हो सकती है जबकि जगदीश भगवती और अरविन्द पानगढ़िया को मोदी का अर्थशास्त्र बेहतर लगता है।[81] योग गुरु स्वामी रामदेव व मुरारी बापू जैसे कथावाचक ने नरेन्द्र मोदी का समर्थन किया।[82]
पार्टी की ओर से पीएम प्रत्याशी घोषित किये जाने के बाद नरेन्द्र मोदी ने पूरे भारत का भ्रमण किया। इस दौरान तीन लाख किलोमीटर की यात्रा कर पूरे देश में ४३७ बड़ी चुनावी रैलियाँ, ३-डी सभाएँ व चाय पर चर्चा आदि को मिलाकर कुल ५८२७ कार्यक्रम किये। चुनाव अभियान की शुरुआत उन्होंने २६ मार्च २०१४ को मां वैष्णो देवी के आशीर्वाद के साथ जम्मू से की और समापन मंगल पांडे की जन्मभूमि बलिया में किया। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात भारत की जनता ने एक अद्भुत चुनाव प्रचार देखा।[83] यही नहीं, नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी ने २०१४ के चुनावों में अभूतपूर्व सफलता भी प्राप्त की।
परिणाम
चुनाव में जहाँ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ३३६ सीटें जीतकर सबसे बड़े संसदीय दल के रूप में उभरा वहीं अकेले भारतीय जनता पार्टी ने २८२ सीटों पर विजय प्राप्त की। काँग्रेस केवल ४४ सीटों पर सिमट कर रह गयी और उसके गठबंधन को केवल ५९ सीटों से ही सन्तोष करना पड़ा।[7] नरेन्द्र मोदी स्वतन्त्र भारत में जन्म लेने वाले ऐसे व्यक्ति हैं जो सन २००१ से २०१४ तक लगभग १३ साल गुजरात के १४वें मुख्यमन्त्री रहे और भारत के १४वें प्रधानमन्त्री बने।
एक ऐतिहासिक तथ्य यह भी है कि नेता-प्रतिपक्ष के चुनाव हेतु विपक्ष को एकजुट होना पड़ेगा क्योंकि किसी भी एक दल ने कुल लोकसभा सीटों के १० प्रतिशत का आँकड़ा ही नहीं छुआ।
भाजपा संसदीय दल के नेता निर्वाचित
२० मई २०१४ को संसद भवन में भारतीय जनता पार्टी द्वारा आयोजित भाजपा संसदीय दल एवं सहयोगी दलों की एक संयुक्त बैठक में जब लोग प्रवेश कर रहे थे तो नरेन्द्र मोदी ने प्रवेश करने से पूर्व संसद भवन को ठीक वैसे ही जमीन पर झुककर प्रणाम किया जैसे किसी पवित्र मन्दिर में श्रद्धालु प्रणाम करते हैं। संसद भवन के इतिहास में उन्होंने ऐसा करके समस्त सांसदों के लिये उदाहरण पेश किया। बैठक में नरेन्द्र मोदी को सर्वसम्मति से न केवल भाजपा संसदीय दल अपितु एनडीए का भी नेता चुना गया। राष्ट्रपति ने नरेन्द्र मोदी को भारत का १५वाँ प्रधानमन्त्री नियुक्त करते हुए इस आशय का विधिवत पत्र सौंपा। नरेन्द्र मोदी ने सोमवार २६ मई २०१४ को प्रधानमन्त्री पद की शपथ ली।[3]
वडोदरा सीट से इस्तीफ़ा दिया
नरेन्द्र मोदी ने २०१४ के लोकसभा चुनाव में सबसे अधिक अन्तर से जीती गुजरात की वडोदरा सीट से इस्तीफ़ा देकर संसद में उत्तर प्रदेश की वाराणसी सीट का प्रतिनिधित्व करने का फैसला किया और यह घोषणा की कि वह गंगा की सेवा के साथ इस प्राचीन नगरी का विकास करेंगे।[84]
प्रधानमन्त्री के रूप में
ऐतिहासिक शपथ ग्रहण समारोह
नरेन्द्र मोदी का २६ मई २०१४ से भारत के १५वें प्रधानमन्त्री का कार्यकाल राष्ट्रपति भवन के प्रांगण में आयोजित शपथ ग्रहण के पश्चात प्रारम्भ हुआ।[85] मोदी के साथ ४५ अन्य मन्त्रियों ने भी समारोह में पद और गोपनीयता की शपथ ली।[86] प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी सहित कुल ४६ में से ३६ मन्त्रियों ने हिन्दी में जबकि १० ने अंग्रेज़ी में शपथ ग्रहण की।[87]
समारोह में विभिन्न राज्यों और राजनीतिक पार्टियों के प्रमुखों सहित सार्क देशों के राष्ट्राध्यक्षों को आमंत्रित किया गया।[88][89] इस घटना को भारतीय राजनीति की राजनयिक कूटनीति के रूप में भी देखा जा रहा है।
सार्क देशों के जिन प्रमुखों ने समारोह में भाग लिया उनके नाम इस प्रकार हैं।[90]
– राष्ट्रपति हामिद करज़ई[91]
– संसद की अध्यक्ष शिरीन शर्मिन चौधरी[92][93]
– प्रधानमन्त्री शेरिंग तोबगे[94]
– राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन अब्दुल गयूम[95][96]
– प्रधानमन्त्री नवीनचन्द्र रामगुलाम[97]
– प्रधानमन्त्री सुशील कोइराला[98]
– प्रधानमन्त्री नवाज़ शरीफ़[99]
– प्रधानमन्त्री महिन्दा राजपक्षे[100]
ऑल इण्डिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (अन्ना द्रमुक) और राजग का घटक दल मरुमलार्ची द्रविड़ मुनेत्र कझगम (एमडीएमके) नेताओं ने नरेन्द्र मोदी सरकार के श्रीलंकाई प्रधानमंत्री को आमंत्रित करने के फैसले की आलोचना की।[101][102] एमडीएमके प्रमुख वाइको ने मोदी से मुलाकात की और निमंत्रण का फैसला बदलवाने की कोशिश की जबकि कांग्रेस नेता भी एमडीएमके और अन्ना द्रमुक आमंत्रण का विरोध कर रहे थे।[103] श्रीलंका और पाकिस्तान ने भारतीय मछुवारों को रिहा किया। मोदी ने शपथ ग्रहण समारोह में आमंत्रित देशों के इस कदम का स्वागत किया।[104]
इस समारोह में भारत के सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को आमंत्रित किया गया था। इनमें से कर्नाटक के मुख्यमंत्री, सिद्धारमैया (कांग्रेस) और केरल के मुख्यमंत्री, उम्मन चांडी (कांग्रेस) ने भाग लेने से मना कर दिया।[105] भाजपा और कांग्रेस के बाद सबसे अधिक सीटों पर विजय प्राप्त करने वाली तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने समारोह में भाग न लेने का निर्णय लिया जबकि पश्चिम बंगाल के मुख्यमन्त्री ममता बनर्जी ने अपनी जगह मुकुल रॉय और अमित मिश्रा को भेजने का निर्णय लिया।[106][107]
वड़ोदरा के एक चाय विक्रेता किरण महिदा, जिन्होंने मोदी की उम्मीदवारी प्रस्तावित की थी, को भी समारोह में आमन्त्रित किया गया। अलवत्ता मोदी की माँ हीराबेन और अन्य तीन भाई समारोह में उपस्थित नहीं हुए, उन्होंने घर में ही टीवी पर लाइव कार्यक्रम देखा।[108]
भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण उपाय
भ्रष्टाचार से सम्बन्धित विशेष जाँच दल (SIT) की स्थापना
योजना आयोग की समाप्ति की घोषणा।
समस्त भारतीयों के अर्थव्यवस्था की मुख्य धारा में समावेशन हेतु प्रधानमंत्री जन धन योजना का आरम्भ।
रक्षा उत्पादन क्षेत्र में विदेशी निवेश की अनुमति
४५% का कर देकर काला धन घोषित करने की छूट
सातवें केन्द्रीय वेतन आयोग की सिफारिसों की स्वीकृति
रेल बजट प्रस्तुत करने की प्रथा की समाप्ति
काले धन तथा समान्तर अर्थव्यवस्था को समाप्त करने के लिये ८ नवम्बर २०१६ से ५०० तथा १००० के प्रचलित नोटों को अमान्य करना
भारत के अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध
शपथग्रहण समारोह में समस्त सार्क देशों को आमंत्रण
सर्वप्रथम विदेश यात्रा के लिए भूटान का चयन
ब्रिक्स सम्मेलन में नए विकास बैंक की स्थापना
नेपाल यात्रा में पशुपतिनाथ मंदिर में पूजा
अमेरिका व चीन से पहले जापान की यात्रा
पाकिस्तान को अन्तरराष्ट्रीय जगत में अलग-थलग करने में सफल
जुलाई २०१७ में इजराइल की यात्रा, इजराइल के साथ सम्बन्धों में नये युग का आरम्भ
सूचना प्रौद्योगिकी
स्वास्थ्य एवं स्वच्छता
भारत के प्रधानमन्त्री बनने के बाद 2 अक्टूबर 2014 को नरेन्द्र मोदी ने देश में साफ-सफाई को बढ़ावा देने के लिए स्वच्छ भारत अभियान का शुभारम्भ किया। उसके बाद पिछले साढे चार वर्षों में मोदी सरकार ने कई ऐसी पहलें की जिनकी जनता के बीच खूब चर्चा रही। स्वच्छता भारत अभियान भी ऐसी ही पहलों में से एक हैं। सरकार ने जागरुकता अभियान के तहत लोगों को सफाई के लिए प्रेरित करने की दिशा में कदम उठाए। देश को खुले में शौच मुक्त करने के लिए भी अभियान के तहत प्रचार किया। साथ ही देश भर में शौचालयों का निर्माण भी कराया गया। सरकार ने देश में साफ सफाई के खर्च को बढ़ाने के लिए स्वच्छ भारत चुंगी (सेस) की भी शुरुआत की।
स्वच्छ भारत मिशन का प्रतीक गांधी जी का चश्मा रखा गया और साथ में एक 'एक कदम स्वच्छता की ओर' टैग लाइन भी रखी गई।
स्वच्छ भारत अभियान के सफल कार्यान्वयन हेतु भारत के सभी नागरिकों से इस अभियान से जुड़ने की अपील की। इस अभियान का उद्देश्य पांच वर्ष में स्वच्छ भारत का लक्ष्य प्राप्त करना है ताकि बापू की 150वीं जयंती को इस लक्ष्य की प्राप्ति के रूप में मनाया जा सके। स्वच्छ भारत अभियान सफाई करने की दिशा में प्रतिवर्ष 100 घंटे के श्रमदान के लिए लोगों को प्रेरित करता है।
प्रधानमंत्री ने मृदुला सिन्हा, सचिन तेंदुलकर, बाबा रामदेव, शशि थरूर, अनिल अम्बानी, कमल हसन, सलमान खान, प्रियंका चोपड़ा और तारक मेहता का उल्टा चश्मा की टीम जैसी नौ नामचीन हस्तियों को आमंत्रित किया कि वे भी स्वच्छ भारत अभियान में अपना सहयोग प्रदान करें। लोगों से कहा गया कि वे सफाई अभियानों की तस्वीरें सोशल मीडिया पर साझा करें और अन्य नौ लोगों को भी अपने साथ जोड़ें ताकि यह एक शृंखला बन जाए। आम जनता को भी सोशल मीडिया पर हैश टैग #MyCleanIndia लिखकर अपने सहयोग को साझा करने के लिए कहा गया।
एक कदम स्वच्छता की ओर: मोदी सरकार ने एक ऐसा रचनात्मक और सहयोगात्मक मंच प्रदान किया है जो राष्ट्रव्यापी आंदोलन की सफलता सुनिश्चित करता है। यह मंच प्रौद्योगिकी के माध्यम से नागरिकों और संगठनों के अभियान संबंधी प्रयासों के बारे में जानकारी प्रदान करता है। कोई भी व्यक्ति, सरकारी संस्था या निजी संगठन अभियान में भाग ले सकते हैं। इस अभियान का उद्देश्य लोगों को उनके दैनिक कार्यों में से कुछ घंटे निकालकर भारत में स्वच्छता संबंधी कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करना है।
स्वच्छता ही सेवा: प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने 15 सितम्बर २०१८ को 'स्वच्छता ही सेवा' अभियान आरम्भ किया और जन-मानस को इससे जुड़ने का आग्रह किया। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के 150 जयंती वर्ष के औपचारिक शुरुआत से पहले 15 सितम्बर से 2 अक्टूबर तक स्वच्छता ही सेवा कार्यक्रम का बड़े पैमाने पर आयोजन किया जा रहा है। इससे पहले मोदी ने समाज के विभिन्न वर्गों के करीब 2000 लोगों को पत्र लिख कर इस सफाई अभियान का हिस्सा बनने के लिए आमंत्रित किया, ताकि इस अभियान को सफल बनाया जा सके।
रक्षा नीति
भारतीय सशस्त्र बलों को आधुनिक बनाने एवं उनका विस्तार करने के लिये मोदी के नेतृत्व वाली नई सरकार ने रक्षा पर खर्च को बढ़ा दिया है। सन २०१५ में रक्षा बजट ११% बढ़ा दिया गया। सितम्बर २०१५ में उनकी सरकार ने समान रैंक समान पेंशन (वन रैंक वन पेन्शन) की बहुत लम्बे समय से की जा रही माँग को स्वीकार कर लिया।
मोदी सरकार ने पूर्वोत्तर भारत के नागा विद्रोहियों के साथ शान्ति समझौता किया जिससे १९५० के दशक से चला आ रहा नागा समस्या का समाधान निकल सके।
२९ सितम्बर, २०१६ को नियन्त्रण रेखा के पार सर्जिकल स्ट्राइक
सीमा पर चीन की मनमानी का कड़ा विरोध और प्रतिकार (डोकलाम विवाद 2017 देखें)
घरेलू नीति
हजारों एन जी ओ का पंजीकरण रद्द करना
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को 'अल्पसंख्यक विश्वविद्यालय' न मानना
तीन बार तलाक कहकर तलाक देने के विरुद्ध निर्णय
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली में राष्ट्रविरोधी गतिविधियों पर लगाम
आमजन से जुड़ने की मोदी की पहल
देश की आम जनता की बात जाने और उन तक अपनी बात पहुंचाने के लिए नरेंद्र मोदी ने 'मन की बात' कार्यक्रम की शुरुआत की। इस कार्यक्रम के माध्यम से मोदी ने लोगों के विचारों को जानने की कोशिश की और साथ ही साथ उन्होंने लोगों से स्वच्छता अभियान सहित विभिन्न योजनाओं से जुड़ने की अपील की।[109]
अन्य
७० वर्ष से अधिक उम्र के सांसदों एवं विधायकों को मंत्रिपद न देने का कड़ा निर्णय
ग्रन्थ
नरेन्द्र मोदी के बारे में
कुशल सारथी नरंद्र मोदी (लेखक - डॉ. भगवान अंजनीकर)
दूरद्रष्टा नरेन्द्र मोदी (पंकज कुमार) (हिंदी)
नरेन्द्र मोदी - एक आश्वासक नेतृत्व (लेखक - डॉ. रविकांत पागनीस, शशिकला उपाध्ये)
नरेन्द्र मोदी - एक झंझावात (लेखक - डॉ. दामोदर)
नरेन्द्र मोदी का राजनैतिक सफर (तेजपाल सिंह) (हिंदी)
Narendra Modi: The Man The Times (लेखक: निलंजन मुखोपाध्याय)
Modi's World: Expanding Sphere of Influence (लेखक: सी. राजा मोहन)
स्पीकिंग द मोदी वे (लेखक विरेंदर कपूर)
स्वप्नेर फेरावाला (बंगाली, लेखक: पत्रकार सुजित रॉय)
नरेन्द्रायण - व्यक्ती ते समष्टी, एक आकलन (मूळ मराठी. लेखक डॉ. गिरीश दाबके)
नरेन्द्र मोदी: एका कर्मयोग्याची संघर्षगाथा (लेखक - विनायक आंबेकर)
मोदीच का? (लेखक भाऊ तोरसेकर)- मोरया प्रकाशन
एक्जाम वॉरियर्स
द नमो स्टोरी, अ पोलिटिकल लाइफ
नरेन्द्र मोदी द्वारा रचित
सेतुबन्ध - राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता लक्ष्मणराव इनामदार की जीवनी के सहलेखक (२००१ में)
आँख आ धन्य छे (गुजराती कविताएँ)
कर्मयोग
आपातकाल में गुजरात (हिंदी)
एक भारत श्रेष्ठ भारत (नरेंद्र मोदी के भाषणों का संकलन ; संपादक प्रदीप पंडित)
ज्योतिपुंज (आत्मकथन - नरेंद्र मोदी)
सामाजिक समरसता (नरेंद्र मोदी के लेखों का संकलन)
सम्मान और पुरस्कार
अप्रैल २०१६ में नरेन्द्र मोदी सउदी अरब के उच्चतम नागरिक सम्मान 'अब्दुलअजीज अल सऊद के आदेश' (The Order of Abdulaziz Al Saud) से सम्मानित किये गये हैं।[110][111]
जून 2016 में अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अफगानिस्तान के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार अमीर अमानुल्ला खान अवॉर्ड से सम्मानित किया।[112]
सितम्बर २०१८: ' चैंपियंस ऑफ द अर्थ अवार्ड ' -- प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को यह सम्मान अन्तरराष्ट्रीय सौर गठबंधन और एक ही बार इस्तेमाल किए जाने वाले प्लास्टिक से देश को मुक्त कराने के संकल्प के लिए दिया गया। [113]
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम ने एक बयान जारी कर कहा है कि-
इस साल के पुरस्कार विजेताओं को आज के समय के कुछ बेहद अत्यावश्यक पर्यावरणीय मुद्दों से निपटने के लिये साहसी, नवोन्मेष और अथक प्रयास करने के लिये सम्मानित किया जा रहा है।' नीतिगत नेतृत्व की श्रेणी में फ्रांस के राष्ट्रपति एमैनुअल मैक्रों और नरेंद्र मोदी को संयुक्त रूप से इस सम्मान के लिये चुना गया है।
वैश्विक छवि
२०१४: फ़ोर्ब्स पत्रिका में विश्व के शक्तिशाली व्यक्तियों में १४ वां स्थान।
२०१५: विश्व के शक्तिशाली व्यक्तियों में ९ वां स्थान फोर्ब्स पत्रिका के सर्वे में। [114]
२०१६: विश्व प्रसिद्ध फ़ोर्ब्स पत्रिका में विश्व के शक्तिशाली व्यक्तियों में मोदी का ९ वां स्थान। [114][115][116]
सन्दर्भ
इन्हें भी देखें
भारतीय आम चुनाव, 2014
वस्तु एवं सेवा कर (भारत)
भारत के 500 और 1000 रुपये के नोटों का विमुद्रीकरण
आधार (परियोजना)
डोकलाम विवाद 2017
नेशनल पेंशन सिस्टम
मन की बात
मेक इन इंडिया
नोटबंदी
बाहरी कड़ियाँ
आधिकारिक
- आधिकारिक तथा सत्यापित ट्विटर खाता
- आधिकारिक फेसबुक खाता
- आधिकारिक जालस्थल
- निजी ब्लॉग
श्रेणी:1950 में जन्मे लोग
श्रेणी:जीवित लोग
श्रेणी:भारत के प्रधानमंत्री
श्रेणी:गुजरात के मुख्यमंत्री
श्रेणी:भारतीय जनता पार्टी के राजनीतिज्ञ
श्रेणी:गुजरात के लोग
श्रेणी:१६वीं लोक सभा के सदस्य
श्रेणी:नरेन्द्र मोदी
श्रेणी:दलित नेता
श्रेणी:भारतीय जनता पार्टी के मुख्यमंत्री | नरेन्द्र मोदी का जन्म कब हुआ? | १७ सितम्बर १९५० | 74 | hindi |
8641ad595 | नरेन्द्र दामोदरदास मोदी (उच्चारण, Gujarati: નરેંદ્ર દામોદરદાસ મોદી; जन्म: १७ सितम्बर १९५०) २०१४ से भारत के १४वें प्रधानमन्त्री तथा वाराणसी से सांसद हैं।[2][3] वे भारत के प्रधानमन्त्री पद पर आसीन होने वाले स्वतंत्र भारत में जन्मे प्रथम व्यक्ति हैं। इससे पहले वे 7 अक्तूबर २००१ से 22 मई २०१४ तक गुजरात के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। मोदी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सदस्य हैं।
वडनगर के एक गुजराती परिवार में पैदा हुए, मोदी ने अपने बचपन में चाय बेचने में अपने पिता की मदद की, और बाद में अपना खुद का स्टाल चलाया। आठ साल की उम्र में वे आरएसएस से जुड़े, जिसके साथ एक लंबे समय तक सम्बंधित रहे। स्नातक होने के बाद उन्होंने अपने घर छोड़ दिया। मोदी ने दो साल तक भारत भर में यात्रा की, और कई धार्मिक केंद्रों का दौरा किया। 1969 या 1970 वे गुजरात लौटे और अहमदाबाद चले गए। 1971 में वह आरएसएस के लिए पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गए। 1975 में देश भर में आपातकाल की स्थिति के दौरान उन्हें कुछ समय के लिए छिपना पड़ा। 1985 में वे बीजेपी से जुड़े और 2001 तक पार्टी पदानुक्रम के भीतर कई पदों पर कार्य किया, जहाँ से वे धीरे धीरे सचिव के पद पर पहुंचे।
गुजरात भूकंप २००१, (भुज में भूकंप) के बाद गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल के असफल स्वास्थ्य और ख़राब सार्वजनिक छवि के कारण नरेंद्र मोदी को 2001 में गुजरात के मुख्यमंत्री नियुक्त किया गया। मोदी जल्द ही विधायी विधानसभा के लिए चुने गए। 2002 के गुजरात दंगों में उनके प्रशासन को कठोर माना गया है, इस दौरान उनके संचालन की आलोचना भी हुई।[4] हालांकि सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त विशेष जांच दल (एसआईटी) को अभियोजन पक्ष की कार्यवाही शुरू करने के लिए कोई सबूत नहीं मिला। [5] मुख्यमंत्री के तौर पर उनकी नीतियों को आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करने के लिए श्रेय दिया गया।[6]
उनके नेतृत्व में भारत की प्रमुख विपक्षी पार्टी भारतीय जनता पार्टी ने 2014 का लोकसभा चुनाव लड़ा और 282 सीटें जीतकर अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की।[7]
एक सांसद के रूप में उन्होंने उत्तर प्रदेश की सांस्कृतिक नगरी वाराणसी एवं अपने गृहराज्य गुजरात के वडोदरा संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ा और दोनों जगह से जीत दर्ज़ की।[8][9] उनके राज में भारत का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश एवं बुनियादी सुविधाओं पर खर्च तेज़ी से बढ़ा। उन्होंने अफसरशाही में कई सुधार किये तथा योजना आयोग को हटाकर नीति आयोग का गठन किया।
इससे पूर्व वे गुजरात राज्य के 14वें मुख्यमन्त्री रहे। उन्हें उनके काम के कारण गुजरात की जनता ने लगातार 4 बार (2001 से 2014 तक) मुख्यमन्त्री चुना। गुजरात विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर डिग्री प्राप्त नरेन्द्र मोदी विकास पुरुष के नाम से जाने जाते हैं और वर्तमान समय में देश के सबसे लोकप्रिय नेताओं में से हैं।।[10] माइक्रो-ब्लॉगिंग साइट ट्विटर पर भी वे सबसे ज्यादा फॉलोअर (4.5करोड़+, जनवरी 2019) वाले भारतीय नेता हैं। उन्हें 'नमो' नाम से भी जाना जाता है। [11] टाइम पत्रिका ने मोदी को पर्सन ऑफ़ द ईयर 2013 के 42 उम्मीदवारों की सूची में शामिल किया है।[12]
अटल बिहारी वाजपेयी की तरह नरेन्द्र मोदी एक राजनेता और कवि हैं। वे गुजराती भाषा के अलावा हिन्दी में भी देशप्रेम से ओतप्रोत कविताएँ लिखते हैं।[13][14]
निजी जीवन
नरेन्द्र मोदी का जन्म तत्कालीन बॉम्बे राज्य के महेसाना जिला स्थित वडनगर ग्राम में हीराबेन मोदी और दामोदरदास मूलचन्द मोदी के एक मध्यम-वर्गीय परिवार में १७ सितम्बर १९५० को हुआ था।[15] वह पैदा हुए छह बच्चों में तीसरे थे। मोदी का परिवार 'मोध-घांची-तेली' समुदाय से था,[16][17] जिसे भारत सरकार द्वारा अन्य पिछड़ा वर्ग के रूप में वर्गीकृत किया जाता है।[18] वह पूर्णत: शाकाहारी हैं।[19] भारत पाकिस्तान के बीच द्वितीय युद्ध के दौरान अपने तरुणकाल में उन्होंने स्वेच्छा से रेलवे स्टेशनों पर सफ़र कर रहे सैनिकों की सेवा की।[20] युवावस्था में वह छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में शामिल हुए | उन्होंने साथ ही साथ भ्रष्टाचार विरोधी नव निर्माण आन्दोलन में हिस्सा लिया। एक पूर्णकालिक आयोजक के रूप में कार्य करने के पश्चात् उन्हें भारतीय जनता पार्टी में संगठन का प्रतिनिधि मनोनीत किया गया।[21] किशोरावस्था में अपने भाई के साथ एक चाय की दुकान चला चुके मोदी ने अपनी स्कूली शिक्षा वड़नगर में पूरी की।[15] उन्होंने आरएसएस के प्रचारक रहते हुए 1980 में गुजरात विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर परीक्षा दी और एम॰एससी॰ की डिग्री प्राप्त की।[22]
अपने माता-पिता की कुल छ: सन्तानों में तीसरे पुत्र नरेन्द्र ने बचपन में रेलवे स्टेशन पर चाय बेचने में अपने पिता का भी हाथ बँटाया।[23][24] बड़नगर के ही एक स्कूल मास्टर के अनुसार नरेन्द्र हालाँकि एक औसत दर्ज़े का छात्र था, लेकिन वाद-विवाद और नाटक प्रतियोगिताओं में उसकी बेहद रुचि थी।[23] इसके अलावा उसकी रुचि राजनीतिक विषयों पर नयी-नयी परियोजनाएँ प्रारम्भ करने की भी थी।[25]
13 वर्ष की आयु में नरेन्द्र की सगाई जसोदा बेन चमनलाल के साथ कर दी गयी और जब उनका विवाह हुआ,[26] वह मात्र 17 वर्ष के थे। फाइनेंशियल एक्सप्रेस की एक खबर के अनुसार पति-पत्नी ने कुछ वर्ष साथ रहकर बिताये।[27] परन्तु कुछ समय बाद वे दोनों एक दूसरे के लिये अजनबी हो गये क्योंकि नरेन्द्र मोदी ने उनसे कुछ ऐसी ही इच्छा व्यक्त की थी।[23] जबकि नरेन्द्र मोदी के जीवनी-लेखक ऐसा नहीं मानते। उनका कहना है:[28]
"उन दोनों की शादी जरूर हुई परन्तु वे दोनों एक साथ कभी नहीं रहे। शादी के कुछ बरसों बाद नरेन्द्र मोदी ने घर त्याग दिया और एक प्रकार से उनका वैवाहिक जीवन लगभग समाप्त-सा ही हो गया।"
पिछले चार विधान सभा चुनावों में अपनी वैवाहिक स्थिति पर खामोश रहने के बाद नरेन्द्र मोदी ने कहा कि अविवाहित रहने की जानकारी देकर उन्होंने कोई पाप नहीं किया। नरेन्द्र मोदी के मुताबिक एक शादीशुदा के मुकाबले अविवाहित व्यक्ति भ्रष्टाचार के खिलाफ जोरदार तरीके से लड़ सकता है क्योंकि उसे अपनी पत्नी, परिवार व बालबच्चों की कोई चिन्ता नहीं रहती।[29] हालांकि नरेन्द्र मोदी ने शपथ पत्र प्रस्तुत कर जसोदाबेन को अपनी पत्नी स्वीकार किया है।[30]
दामोदरदास मोदीहीराबेन
सोमाभाई मोदीअमृत मोदीनरेन्द्र मोदीयसोदाबेनप्रह्लाद मोदीपंकज मोदीवासंती
प्रारम्भिक सक्रियता और राजनीति
नरेन्द्र जब विश्वविद्यालय के छात्र थे तभी से वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में नियमित जाने लगे थे। इस प्रकार उनका जीवन संघ के एक निष्ठावान प्रचारक के रूप में प्रारम्भ हुआ[22][31] उन्होंने शुरुआती जीवन से ही राजनीतिक सक्रियता दिखलायी और भारतीय जनता पार्टी का जनाधार मजबूत करने में प्रमुख भूमिका निभायी। गुजरात में शंकरसिंह वाघेला का जनाधार मजबूत बनाने में नरेन्द्र मोदी की ही रणनीति थी।
अप्रैल १९९० में जब केन्द्र में मिली जुली सरकारों का दौर शुरू हुआ, मोदी की मेहनत रंग लायी, जब गुजरात में १९९५ के विधान सभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने अपने बलबूते दो तिहाई बहुमत प्राप्त कर सरकार बना ली। इसी दौरान दो राष्ट्रीय घटनायें और इस देश में घटीं। पहली घटना थी सोमनाथ से लेकर अयोध्या तक की रथयात्रा जिसमें आडवाणी के प्रमुख सारथी की मूमिका में नरेन्द्र का मुख्य सहयोग रहा। इसी प्रकार कन्याकुमारी से लेकर सुदूर उत्तर में स्थित काश्मीर तक की मुरली मनोहर जोशी की दूसरी रथ यात्रा भी नरेन्द्र मोदी की ही देखरेख में आयोजित हुई। इसके बाद शंकरसिंह वाघेला ने पार्टी से त्यागपत्र दे दिया, जिसके परिणामस्वरूप केशुभाई पटेल को गुजरात का मुख्यमन्त्री बना दिया गया और नरेन्द्र मोदी को दिल्ली बुला कर भाजपा में संगठन की दृष्टि से केन्द्रीय मन्त्री का दायित्व सौंपा गया।
१९९५ में राष्ट्रीय मन्त्री के नाते उन्हें पाँच प्रमुख राज्यों में पार्टी संगठन का काम दिया गया जिसे उन्होंने बखूबी निभाया। १९९८ में उन्हें पदोन्नत करके राष्ट्रीय महामन्त्री (संगठन) का उत्तरदायित्व दिया गया। इस पद पर वह अक्टूबर २००१ तक काम करते रहे। भारतीय जनता पार्टी ने अक्टूबर २००१ में केशुभाई पटेल को हटाकर गुजरात के मुख्यमन्त्री पद की कमान नरेन्द्र मोदी को सौंप दी।
गुजरात के मुख्यमन्त्री के रूप में
2001 में केशुभाई पटेल (तत्कालीन मुख्यमंत्री) की सेहत बिगड़ने लगी थी और भाजपा चुनाव में कई सीट हार रही थी।[32] इसके बाद भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुख्यमंत्री के रूप में मोदी को नए उम्मीदवार के रूप में रखते हैं। हालांकि भाजपा के नेता लालकृष्ण आडवाणी, मोदी के सरकार चलाने के अनुभव की कमी के कारण चिंतित थे। मोदी ने पटेल के उप मुख्यमंत्री बनने का प्रस्ताव ठुकरा दिया और आडवाणी व अटल बिहारी वाजपेयी से बोले कि यदि गुजरात की जिम्मेदारी देनी है तो पूरी दें अन्यथा न दें। 3 अक्टूबर 2001 को यह केशुभाई पटेल के जगह गुजरात के मुख्यमंत्री बने। इसके साथ ही उन पर दिसम्बर 2002 में होने वाले चुनाव की पूरी जिम्मेदारी भी थी।[33]
2001-02
नरेन्द्र मोदी ने मुख्यमंत्री का अपना पहला कार्यकाल 7 अक्टूबर 2001 से शुरू किया। इसके बाद मोदी ने राजकोट विधानसभा चुनाव लड़ा। जिसमें काँग्रेस पार्टी के आश्विन मेहता को 14,728 मतों से हरा दिया।
नरेन्द्र मोदी अपनी विशिष्ट जीवन शैली के लिये समूचे राजनीतिक हलकों में जाने जाते हैं। उनके व्यक्तिगत स्टाफ में केवल तीन ही लोग रहते हैं, कोई भारी-भरकम अमला नहीं होता। लेकिन कर्मयोगी की तरह जीवन जीने वाले मोदी के स्वभाव से सभी परिचित हैं इस नाते उन्हें अपने कामकाज को अमली जामा पहनाने में कोई दिक्कत पेश नहीं आती।
[34] उन्होंने गुजरात में कई ऐसे हिन्दू मन्दिरों को भी ध्वस्त करवाने में कभी कोई कोताही नहीं बरती जो सरकारी कानून कायदों के मुताबिक नहीं बने थे। हालाँकि इसके लिये उन्हें विश्व हिन्दू परिषद जैसे संगठनों का कोपभाजन भी बनना पड़ा, परन्तु उन्होंने इसकी रत्ती भर भी परवाह नहीं की; जो उन्हें उचित लगा करते रहे।[35] वे एक लोकप्रिय वक्ता हैं, जिन्हें सुनने के लिये बहुत भारी संख्या में श्रोता आज भी पहुँचते हैं। कुर्ता-पायजामा व सदरी के अतिरिक्त वे कभी-कभार सूट भी पहन लेते हैं। अपनी मातृभाषा गुजराती के अतिरिक्त वह हिन्दी में ही बोलते हैं।[36]
मोदी के नेतृत्व में २०१२ में हुए गुजरात विधान सभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने स्पष्ट बहुमत प्राप्त किया। भाजपा को इस बार ११५ सीटें मिलीं।
गुजरात के विकास की योजनाएँ
मुख्यमन्त्री के रूप में नरेन्द्र मोदी ने गुजरात के विकास[37] के लिये जो महत्वपूर्ण योजनाएँ प्रारम्भ कीं व उन्हें क्रियान्वित कराया, उनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-
पंचामृत योजना[38] - राज्य के एकीकृत विकास की पंचायामी योजना,
सुजलाम् सुफलाम् - राज्य में जलस्रोतों का उचित व समेकित उपयोग, जिससे जल की बर्बादी को रोका जा सके,[39]
कृषि महोत्सव – उपजाऊ भूमि के लिये शोध प्रयोगशालाएँ,[39]
चिरंजीवी योजना – नवजात शिशु की मृत्युदर में कमी लाने हेतु,[39]
मातृ-वन्दना – जच्चा-बच्चा के स्वास्थ्य की रक्षा हेतु,[40]
बेटी बचाओ – भ्रूण-हत्या व लिंगानुपात पर अंकुश हेतु,[39]
ज्योतिग्राम योजना – प्रत्येक गाँव में बिजली पहुँचाने हेतु,[41][42]
कर्मयोगी अभियान – सरकारी कर्मचारियों में अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठा जगाने हेतु,[39]
कन्या कलावाणी योजना – महिला साक्षरता व शिक्षा के प्रति जागरुकता,[39]
बालभोग योजना – निर्धन छात्रों को विद्यालय में दोपहर का भोजन,[43]
मोदी का वनबन्धु विकास कार्यक्रम
उपरोक्त विकास योजनाओं के अतिरिक्त मोदी ने आदिवासी व वनवासी क्षेत्र के विकास हेतु गुजरात राज्य में वनबन्धु विकास[44] हेतु एक अन्य दस सूत्री कार्यक्रम भी चला रखा है जिसके सभी १० सूत्र निम्नवत हैं:
१-पाँच लाख परिवारों को रोजगार, २-उच्चतर शिक्षा की गुणवत्ता, ३-आर्थिक विकास, ४-स्वास्थ्य, ५-आवास, ६-साफ स्वच्छ पेय जल, ७-सिंचाई, ८-समग्र विद्युतीकरण, ९-प्रत्येक मौसम में सड़क मार्ग की उपलब्धता और १०-शहरी विकास।
श्यामजीकृष्ण वर्मा की अस्थियों का भारत में संरक्षण
नरेन्द्र मोदी ने प्रखर देशभक्त श्यामजी कृष्ण वर्मा व उनकी पत्नी भानुमती की अस्थियों को भारत की स्वतन्त्रता के ५५ वर्ष बाद २२ अगस्त २००३ को स्विस सरकार से अनुरोध करके जिनेवा से स्वदेश वापस मँगाया[45]
और माण्डवी (श्यामजी के जन्म स्थान) में क्रान्ति-तीर्थ के नाम से एक पर्यटन स्थल बनाकर उसमें उनकी स्मृति को संरक्षण प्रदान किया।[46] मोदी द्वारा १३ दिसम्बर २०१० को राष्ट्र को समर्पित इस क्रान्ति-तीर्थ को देखने दूर-दूर से पर्यटक गुजरात आते हैं।[47] गुजरात सरकार का पर्यटन विभाग इसकी देखरेख करता है।[48]
आतंकवाद पर मोदी के विचार
१८ जुलाई २००६ को मोदी ने एक भाषण में आतंकवाद निरोधक अधिनियम जैसे आतंकवाद-विरोधी विधान लाने के विरूद्ध उनकी अनिच्छा को लेकर भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की आलोचना की।
मुंबई की उपनगरीय रेलों में हुए बम विस्फोटों के मद्देनज़र उन्होंने केंद्र सरकार से राज्यों को सख्त कानून लागू करने के लिए सशक्त करने की माँग की।[49] उनके शब्दों में -
"आतंकवाद युद्ध से भी बदतर है। एक आतंकवादी के कोई नियम नहीं होते। एक आतंकवादी तय करता है कि कब, कैसे, कहाँ और किसको मारना है। भारत ने युद्धों की तुलना में आतंकी हमलों में अधिक लोगों को खोया है।"[49]
नरेंद्र मोदी ने कई अवसरों पर कहा था कि यदि भाजपा केंद्र में सत्ता में आई, तो वह सन् २००४ में उच्चतम न्यायालय द्वारा अफज़ल गुरु को फाँसी दिए जाने के निर्णय का सम्मान करेगी। भारत के उच्चतम न्यायालय ने अफज़ल को २००१ में भारतीय संसद पर हुए हमले के लिए दोषी ठहराया था एवं ९ फ़रवरी २०१३ को तिहाड़ जेल में उसे फाँसी पर लटकाया गया।
[50]
विवाद एवं आलोचनाएँ
2002 के गुजरात दंगे
27 फ़रवरी 2002 को अयोध्या से गुजरात वापस लौट कर आ रहे कारसेवकों को गोधरा स्टेशन पर खड़ी ट्रेन में मुसलमानों की हिंसक भीड़ द्वारा आग लगा कर जिन्दा जला दिया गया। इस हादसे में 59 कारसेवक मारे गये थे।[51] रोंगटे खड़े कर देने वाली इस घटना की प्रतिक्रिया स्वरूप समूचे गुजरात में हिन्दू-मुस्लिम दंगे भड़क उठे। मरने वाले 1180 लोगों में अधिकांश संख्या अल्पसंख्यकों की थी। इसके लिये न्यूयॉर्क टाइम्स ने मोदी प्रशासन को जिम्मेवार ठहराया।[36] कांग्रेस सहित अनेक विपक्षी दलों ने नरेन्द्र मोदी के इस्तीफे की माँग की।[52][53] मोदी ने गुजरात की दसवीं विधानसभा भंग करने की संस्तुति करते हुए राज्यपाल को अपना त्यागपत्र सौंप दिया। परिणामस्वरूप पूरे प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू हो गया।[54][55] राज्य में दोबारा चुनाव हुए जिसमें भारतीय जनता पार्टी ने मोदी के नेतृत्व में विधान सभा की कुल १८२ सीटों में से १२७ सीटों पर जीत हासिल की।
अप्रैल २००९ में भारत के उच्चतम न्यायालय ने विशेष जाँच दल भेजकर यह जानना चाहा कि कहीं गुजरात के दंगों में नरेन्द्र मोदी की साजिश तो नहीं।[36] यह विशेष जाँच दल दंगों में मारे गये काँग्रेसी सांसद ऐहसान ज़ाफ़री की विधवा ज़ाकिया ज़ाफ़री की शिकायत पर भेजा गया था।[56] दिसम्बर 2010 में उच्चतम न्यायालय ने एस॰ आई॰ टी॰ की रिपोर्ट पर यह फैसला सुनाया कि इन दंगों में नरेन्द्र मोदी के खिलाफ़ कोई ठोस सबूत नहीं मिला है।[57]
उसके बाद फरवरी 2011 में टाइम्स ऑफ इंडिया ने यह आरोप लगाया कि रिपोर्ट में कुछ तथ्य जानबूझ कर छिपाये गये हैं[58] और सबूतों के अभाव में नरेन्द्र मोदी को अपराध से मुक्त नहीं किया जा सकता।[59][60] इंडियन एक्सप्रेस ने भी यह लिखा कि रिपोर्ट में मोदी के विरुद्ध साक्ष्य न मिलने की बात भले ही की हो किन्तु अपराध से मुक्त तो नहीं किया।[61] द हिन्दू में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार नरेन्द्र मोदी ने न सिर्फ़ इतनी भयंकर त्रासदी पर पानी फेरा अपितु प्रतिक्रिया स्वरूप उत्पन्न गुजरात के दंगों में मुस्लिम उग्रवादियों के मारे जाने को भी उचित ठहराया।[62]
भारतीय जनता पार्टी ने माँग की कि एस॰ आई॰ टी॰ की रिपोर्ट को लीक करके उसे प्रकाशित करवाने के पीछे सत्तारूढ़ काँग्रेस पार्टी का राजनीतिक स्वार्थ है इसकी भी उच्चतम न्यायालय द्वारा जाँच होनी चाहिये।[63]
सुप्रीम कोर्ट ने बिना कोई फैसला दिये अहमदाबाद के ही एक मजिस्ट्रेट को इसकी निष्पक्ष जाँच करके अविलम्ब अपना निर्णय देने को कहा।[64] अप्रैल 2012 में एक अन्य विशेष जाँच दल ने फिर ये बात दोहरायी कि यह बात तो सच है कि ये दंगे भीषण थे परन्तु नरेन्द्र मोदी का इन दंगों में कोई भी प्रत्यक्ष हाथ नहीं।[65] 7 मई 2012 को उच्चतम न्यायालय द्वारा नियुक्त विशेष जज राजू रामचन्द्रन ने यह रिपोर्ट पेश की कि गुजरात के दंगों के लिये नरेन्द्र मोदी पर भारतीय दण्ड संहिता की धारा 153 ए (1) (क) व (ख), 153 बी (1), 166 तथा 505 (2) के अन्तर्गत विभिन्न समुदायों के बीच बैमनस्य की भावना फैलाने के अपराध में दण्डित किया जा सकता है।[66] हालांकि रामचन्द्रन की इस रिपोर्ट पर विशेष जाँच दल (एस०आई०टी०) ने आलोचना करते हुए इसे दुर्भावना व पूर्वाग्रह से परिपूर्ण एक दस्तावेज़ बताया।[67]
26 जुलाई 2012 को नई दुनिया के सम्पादक शाहिद सिद्दीकी को दिये गये एक इण्टरव्यू में नरेन्द्र मोदी ने साफ शब्दों में कहा - "2004 में मैं पहले भी कह चुका हूँ, 2002 के साम्प्रदायिक दंगों के लिये मैं क्यों माफ़ी माँगूँ? यदि मेरी सरकार ने ऐसा किया है तो उसके लिये मुझे सरे आम फाँसी दे देनी चाहिये।" मुख्यमन्त्री ने गुरुवार को नई दुनिया से फिर कहा- “अगर मोदी ने अपराध किया है तो उसे फाँसी पर लटका दो। लेकिन यदि मुझे राजनीतिक मजबूरी के चलते अपराधी कहा जाता है तो इसका मेरे पास कोई जवाब नहीं है।"
यह कोई पहली बार नहीं है जब मोदी ने अपने बचाव में ऐसा कहा हो। वे इसके पहले भी ये तर्क देते रहे हैं कि गुजरात में और कब तक गुजरे ज़माने को लिये बैठे रहोगे? यह क्यों नहीं देखते कि पिछले एक दशक में गुजरात ने कितनी तरक्की की? इससे मुस्लिम समुदाय को भी तो फायदा पहुँचा है।
लेकिन जब केन्द्रीय क़ानून मन्त्री सलमान खुर्शीद से इस बावत पूछा गया तो उन्होंने दो टूक जवाब दिया - "पिछले बारह वर्षों में यदि एक बार भी गुजरात के मुख्यमन्त्री के खिलाफ़ एफ॰ आई॰ आर॰ दर्ज़ नहीं हुई तो आप उन्हें कैसे अपराधी ठहरा सकते हैं? उन्हें कौन फाँसी देने जा रहा है?"[68]
बाबरी मस्जिद के लिये पिछले 45 सालों से कानूनी लड़ाई लड़ रहे 92 वर्षीय मोहम्मद हाशिम अंसारी के मुताबिक भाजपा में प्रधानमन्त्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी के प्रान्त गुजरात में सभी मुसलमान खुशहाल और समृद्ध हैं। जबकि इसके उलट कांग्रेस हमेशा मुस्लिमों में मोदी का भय पैदा करती रहती है।[69]
सितंबर 2014 की भारत यात्रा के दौरान ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री टोनी एबॉट ने कहा कि नरेंद्र मोदी को 2002 के दंगों के लिए गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर जिम्मेदार नहीं ठहराना चाहिए क्योंकि वह उस समय मात्र एक 'पीठासीन अधिकारी' थे जो 'अनगिनत जाँचों' में पाक साफ साबित हो चुके हैं।[70]
२०१४ लोकसभा चुनाव
प्रधानमन्त्री पद के उम्मीदवार
गोआ में भाजपा कार्यसमिति द्वारा नरेन्द्र मोदी को 2014 के लोक सभा चुनाव अभियान की कमान सौंपी गयी थी।[71] १३ सितम्बर २०१३ को हुई संसदीय बोर्ड की बैठक में आगामी लोकसभा चुनावों के लिये प्रधानमन्त्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया गया। इस अवसर पर पार्टी के शीर्षस्थ नेता लालकृष्ण आडवाणी मौजूद नहीं रहे और पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने इसकी घोषणा की।[72][73] मोदी ने प्रधानमन्त्री पद का उम्मीदवार घोषित होने के बाद चुनाव अभियान की कमान राजनाथ सिंह को सौंप दी। प्रधानमन्त्री पद का उम्मीदवार बनाये जाने के बाद मोदी की पहली रैली हरियाणा प्रान्त के रिवाड़ी शहर में हुई।[74]
एक सांसद प्रत्याशी के रूप में उन्होंने देश की दो लोकसभा सीटों वाराणसी तथा वडोदरा से चुनाव लड़ा और दोनों निर्वाचन क्षेत्रों से विजयी हुए।[8][9][75]
लोक सभा चुनाव २०१४ में मोदी की स्थिति
न्यूज़ एजेंसीज व पत्रिकाओं द्वारा किये गये तीन प्रमुख सर्वेक्षणों ने नरेन्द्र मोदी को प्रधान मन्त्री पद के लिये जनता की पहली पसन्द बताया था।[76][77][78] एसी वोटर पोल सर्वे के अनुसार नरेन्द्र मोदी को पीएम पद का प्रत्याशी घोषित करने से एनडीए के वोट प्रतिशत में पाँच प्रतिशत के इजाफ़े के साथ १७९ से २२० सीटें मिलने की सम्भावना व्यक्त की गयी।[78] सितम्बर २०१३ में नीलसन होल्डिंग और इकोनॉमिक टाइम्स ने जो परिणाम प्रकाशित किये थे उनमें शामिल शीर्षस्थ १०० भारतीय कार्पोरेट्स में से ७४ कारपोरेट्स ने नरेन्द्र मोदी तथा ७ ने राहुल गान्धी को बेहतर प्रधानमन्त्री बतलाया था।[79][80] नोबल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन मोदी को बेहतर प्रधान मन्त्री नहीं मानते ऐसा उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा था। उनके विचार से मुस्लिमों में उनकी स्वीकार्यता संदिग्ध हो सकती है जबकि जगदीश भगवती और अरविन्द पानगढ़िया को मोदी का अर्थशास्त्र बेहतर लगता है।[81] योग गुरु स्वामी रामदेव व मुरारी बापू जैसे कथावाचक ने नरेन्द्र मोदी का समर्थन किया।[82]
पार्टी की ओर से पीएम प्रत्याशी घोषित किये जाने के बाद नरेन्द्र मोदी ने पूरे भारत का भ्रमण किया। इस दौरान तीन लाख किलोमीटर की यात्रा कर पूरे देश में ४३७ बड़ी चुनावी रैलियाँ, ३-डी सभाएँ व चाय पर चर्चा आदि को मिलाकर कुल ५८२७ कार्यक्रम किये। चुनाव अभियान की शुरुआत उन्होंने २६ मार्च २०१४ को मां वैष्णो देवी के आशीर्वाद के साथ जम्मू से की और समापन मंगल पांडे की जन्मभूमि बलिया में किया। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात भारत की जनता ने एक अद्भुत चुनाव प्रचार देखा।[83] यही नहीं, नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी ने २०१४ के चुनावों में अभूतपूर्व सफलता भी प्राप्त की।
परिणाम
चुनाव में जहाँ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ३३६ सीटें जीतकर सबसे बड़े संसदीय दल के रूप में उभरा वहीं अकेले भारतीय जनता पार्टी ने २८२ सीटों पर विजय प्राप्त की। काँग्रेस केवल ४४ सीटों पर सिमट कर रह गयी और उसके गठबंधन को केवल ५९ सीटों से ही सन्तोष करना पड़ा।[7] नरेन्द्र मोदी स्वतन्त्र भारत में जन्म लेने वाले ऐसे व्यक्ति हैं जो सन २००१ से २०१४ तक लगभग १३ साल गुजरात के १४वें मुख्यमन्त्री रहे और भारत के १४वें प्रधानमन्त्री बने।
एक ऐतिहासिक तथ्य यह भी है कि नेता-प्रतिपक्ष के चुनाव हेतु विपक्ष को एकजुट होना पड़ेगा क्योंकि किसी भी एक दल ने कुल लोकसभा सीटों के १० प्रतिशत का आँकड़ा ही नहीं छुआ।
भाजपा संसदीय दल के नेता निर्वाचित
२० मई २०१४ को संसद भवन में भारतीय जनता पार्टी द्वारा आयोजित भाजपा संसदीय दल एवं सहयोगी दलों की एक संयुक्त बैठक में जब लोग प्रवेश कर रहे थे तो नरेन्द्र मोदी ने प्रवेश करने से पूर्व संसद भवन को ठीक वैसे ही जमीन पर झुककर प्रणाम किया जैसे किसी पवित्र मन्दिर में श्रद्धालु प्रणाम करते हैं। संसद भवन के इतिहास में उन्होंने ऐसा करके समस्त सांसदों के लिये उदाहरण पेश किया। बैठक में नरेन्द्र मोदी को सर्वसम्मति से न केवल भाजपा संसदीय दल अपितु एनडीए का भी नेता चुना गया। राष्ट्रपति ने नरेन्द्र मोदी को भारत का १५वाँ प्रधानमन्त्री नियुक्त करते हुए इस आशय का विधिवत पत्र सौंपा। नरेन्द्र मोदी ने सोमवार २६ मई २०१४ को प्रधानमन्त्री पद की शपथ ली।[3]
वडोदरा सीट से इस्तीफ़ा दिया
नरेन्द्र मोदी ने २०१४ के लोकसभा चुनाव में सबसे अधिक अन्तर से जीती गुजरात की वडोदरा सीट से इस्तीफ़ा देकर संसद में उत्तर प्रदेश की वाराणसी सीट का प्रतिनिधित्व करने का फैसला किया और यह घोषणा की कि वह गंगा की सेवा के साथ इस प्राचीन नगरी का विकास करेंगे।[84]
प्रधानमन्त्री के रूप में
ऐतिहासिक शपथ ग्रहण समारोह
नरेन्द्र मोदी का २६ मई २०१४ से भारत के १५वें प्रधानमन्त्री का कार्यकाल राष्ट्रपति भवन के प्रांगण में आयोजित शपथ ग्रहण के पश्चात प्रारम्भ हुआ।[85] मोदी के साथ ४५ अन्य मन्त्रियों ने भी समारोह में पद और गोपनीयता की शपथ ली।[86] प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी सहित कुल ४६ में से ३६ मन्त्रियों ने हिन्दी में जबकि १० ने अंग्रेज़ी में शपथ ग्रहण की।[87]
समारोह में विभिन्न राज्यों और राजनीतिक पार्टियों के प्रमुखों सहित सार्क देशों के राष्ट्राध्यक्षों को आमंत्रित किया गया।[88][89] इस घटना को भारतीय राजनीति की राजनयिक कूटनीति के रूप में भी देखा जा रहा है।
सार्क देशों के जिन प्रमुखों ने समारोह में भाग लिया उनके नाम इस प्रकार हैं।[90]
– राष्ट्रपति हामिद करज़ई[91]
– संसद की अध्यक्ष शिरीन शर्मिन चौधरी[92][93]
– प्रधानमन्त्री शेरिंग तोबगे[94]
– राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन अब्दुल गयूम[95][96]
– प्रधानमन्त्री नवीनचन्द्र रामगुलाम[97]
– प्रधानमन्त्री सुशील कोइराला[98]
– प्रधानमन्त्री नवाज़ शरीफ़[99]
– प्रधानमन्त्री महिन्दा राजपक्षे[100]
ऑल इण्डिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (अन्ना द्रमुक) और राजग का घटक दल मरुमलार्ची द्रविड़ मुनेत्र कझगम (एमडीएमके) नेताओं ने नरेन्द्र मोदी सरकार के श्रीलंकाई प्रधानमंत्री को आमंत्रित करने के फैसले की आलोचना की।[101][102] एमडीएमके प्रमुख वाइको ने मोदी से मुलाकात की और निमंत्रण का फैसला बदलवाने की कोशिश की जबकि कांग्रेस नेता भी एमडीएमके और अन्ना द्रमुक आमंत्रण का विरोध कर रहे थे।[103] श्रीलंका और पाकिस्तान ने भारतीय मछुवारों को रिहा किया। मोदी ने शपथ ग्रहण समारोह में आमंत्रित देशों के इस कदम का स्वागत किया।[104]
इस समारोह में भारत के सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को आमंत्रित किया गया था। इनमें से कर्नाटक के मुख्यमंत्री, सिद्धारमैया (कांग्रेस) और केरल के मुख्यमंत्री, उम्मन चांडी (कांग्रेस) ने भाग लेने से मना कर दिया।[105] भाजपा और कांग्रेस के बाद सबसे अधिक सीटों पर विजय प्राप्त करने वाली तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने समारोह में भाग न लेने का निर्णय लिया जबकि पश्चिम बंगाल के मुख्यमन्त्री ममता बनर्जी ने अपनी जगह मुकुल रॉय और अमित मिश्रा को भेजने का निर्णय लिया।[106][107]
वड़ोदरा के एक चाय विक्रेता किरण महिदा, जिन्होंने मोदी की उम्मीदवारी प्रस्तावित की थी, को भी समारोह में आमन्त्रित किया गया। अलवत्ता मोदी की माँ हीराबेन और अन्य तीन भाई समारोह में उपस्थित नहीं हुए, उन्होंने घर में ही टीवी पर लाइव कार्यक्रम देखा।[108]
भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण उपाय
भ्रष्टाचार से सम्बन्धित विशेष जाँच दल (SIT) की स्थापना
योजना आयोग की समाप्ति की घोषणा।
समस्त भारतीयों के अर्थव्यवस्था की मुख्य धारा में समावेशन हेतु प्रधानमंत्री जन धन योजना का आरम्भ।
रक्षा उत्पादन क्षेत्र में विदेशी निवेश की अनुमति
४५% का कर देकर काला धन घोषित करने की छूट
सातवें केन्द्रीय वेतन आयोग की सिफारिसों की स्वीकृति
रेल बजट प्रस्तुत करने की प्रथा की समाप्ति
काले धन तथा समान्तर अर्थव्यवस्था को समाप्त करने के लिये ८ नवम्बर २०१६ से ५०० तथा १००० के प्रचलित नोटों को अमान्य करना
भारत के अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध
शपथग्रहण समारोह में समस्त सार्क देशों को आमंत्रण
सर्वप्रथम विदेश यात्रा के लिए भूटान का चयन
ब्रिक्स सम्मेलन में नए विकास बैंक की स्थापना
नेपाल यात्रा में पशुपतिनाथ मंदिर में पूजा
अमेरिका व चीन से पहले जापान की यात्रा
पाकिस्तान को अन्तरराष्ट्रीय जगत में अलग-थलग करने में सफल
जुलाई २०१७ में इजराइल की यात्रा, इजराइल के साथ सम्बन्धों में नये युग का आरम्भ
सूचना प्रौद्योगिकी
स्वास्थ्य एवं स्वच्छता
भारत के प्रधानमन्त्री बनने के बाद 2 अक्टूबर 2014 को नरेन्द्र मोदी ने देश में साफ-सफाई को बढ़ावा देने के लिए स्वच्छ भारत अभियान का शुभारम्भ किया। उसके बाद पिछले साढे चार वर्षों में मोदी सरकार ने कई ऐसी पहलें की जिनकी जनता के बीच खूब चर्चा रही। स्वच्छता भारत अभियान भी ऐसी ही पहलों में से एक हैं। सरकार ने जागरुकता अभियान के तहत लोगों को सफाई के लिए प्रेरित करने की दिशा में कदम उठाए। देश को खुले में शौच मुक्त करने के लिए भी अभियान के तहत प्रचार किया। साथ ही देश भर में शौचालयों का निर्माण भी कराया गया। सरकार ने देश में साफ सफाई के खर्च को बढ़ाने के लिए स्वच्छ भारत चुंगी (सेस) की भी शुरुआत की।
स्वच्छ भारत मिशन का प्रतीक गांधी जी का चश्मा रखा गया और साथ में एक 'एक कदम स्वच्छता की ओर' टैग लाइन भी रखी गई।
स्वच्छ भारत अभियान के सफल कार्यान्वयन हेतु भारत के सभी नागरिकों से इस अभियान से जुड़ने की अपील की। इस अभियान का उद्देश्य पांच वर्ष में स्वच्छ भारत का लक्ष्य प्राप्त करना है ताकि बापू की 150वीं जयंती को इस लक्ष्य की प्राप्ति के रूप में मनाया जा सके। स्वच्छ भारत अभियान सफाई करने की दिशा में प्रतिवर्ष 100 घंटे के श्रमदान के लिए लोगों को प्रेरित करता है।
प्रधानमंत्री ने मृदुला सिन्हा, सचिन तेंदुलकर, बाबा रामदेव, शशि थरूर, अनिल अम्बानी, कमल हसन, सलमान खान, प्रियंका चोपड़ा और तारक मेहता का उल्टा चश्मा की टीम जैसी नौ नामचीन हस्तियों को आमंत्रित किया कि वे भी स्वच्छ भारत अभियान में अपना सहयोग प्रदान करें। लोगों से कहा गया कि वे सफाई अभियानों की तस्वीरें सोशल मीडिया पर साझा करें और अन्य नौ लोगों को भी अपने साथ जोड़ें ताकि यह एक शृंखला बन जाए। आम जनता को भी सोशल मीडिया पर हैश टैग #MyCleanIndia लिखकर अपने सहयोग को साझा करने के लिए कहा गया।
एक कदम स्वच्छता की ओर: मोदी सरकार ने एक ऐसा रचनात्मक और सहयोगात्मक मंच प्रदान किया है जो राष्ट्रव्यापी आंदोलन की सफलता सुनिश्चित करता है। यह मंच प्रौद्योगिकी के माध्यम से नागरिकों और संगठनों के अभियान संबंधी प्रयासों के बारे में जानकारी प्रदान करता है। कोई भी व्यक्ति, सरकारी संस्था या निजी संगठन अभियान में भाग ले सकते हैं। इस अभियान का उद्देश्य लोगों को उनके दैनिक कार्यों में से कुछ घंटे निकालकर भारत में स्वच्छता संबंधी कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करना है।
स्वच्छता ही सेवा: प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने 15 सितम्बर २०१८ को 'स्वच्छता ही सेवा' अभियान आरम्भ किया और जन-मानस को इससे जुड़ने का आग्रह किया। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के 150 जयंती वर्ष के औपचारिक शुरुआत से पहले 15 सितम्बर से 2 अक्टूबर तक स्वच्छता ही सेवा कार्यक्रम का बड़े पैमाने पर आयोजन किया जा रहा है। इससे पहले मोदी ने समाज के विभिन्न वर्गों के करीब 2000 लोगों को पत्र लिख कर इस सफाई अभियान का हिस्सा बनने के लिए आमंत्रित किया, ताकि इस अभियान को सफल बनाया जा सके।
रक्षा नीति
भारतीय सशस्त्र बलों को आधुनिक बनाने एवं उनका विस्तार करने के लिये मोदी के नेतृत्व वाली नई सरकार ने रक्षा पर खर्च को बढ़ा दिया है। सन २०१५ में रक्षा बजट ११% बढ़ा दिया गया। सितम्बर २०१५ में उनकी सरकार ने समान रैंक समान पेंशन (वन रैंक वन पेन्शन) की बहुत लम्बे समय से की जा रही माँग को स्वीकार कर लिया।
मोदी सरकार ने पूर्वोत्तर भारत के नागा विद्रोहियों के साथ शान्ति समझौता किया जिससे १९५० के दशक से चला आ रहा नागा समस्या का समाधान निकल सके।
२९ सितम्बर, २०१६ को नियन्त्रण रेखा के पार सर्जिकल स्ट्राइक
सीमा पर चीन की मनमानी का कड़ा विरोध और प्रतिकार (डोकलाम विवाद 2017 देखें)
घरेलू नीति
हजारों एन जी ओ का पंजीकरण रद्द करना
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को 'अल्पसंख्यक विश्वविद्यालय' न मानना
तीन बार तलाक कहकर तलाक देने के विरुद्ध निर्णय
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली में राष्ट्रविरोधी गतिविधियों पर लगाम
आमजन से जुड़ने की मोदी की पहल
देश की आम जनता की बात जाने और उन तक अपनी बात पहुंचाने के लिए नरेंद्र मोदी ने 'मन की बात' कार्यक्रम की शुरुआत की। इस कार्यक्रम के माध्यम से मोदी ने लोगों के विचारों को जानने की कोशिश की और साथ ही साथ उन्होंने लोगों से स्वच्छता अभियान सहित विभिन्न योजनाओं से जुड़ने की अपील की।[109]
अन्य
७० वर्ष से अधिक उम्र के सांसदों एवं विधायकों को मंत्रिपद न देने का कड़ा निर्णय
ग्रन्थ
नरेन्द्र मोदी के बारे में
कुशल सारथी नरंद्र मोदी (लेखक - डॉ. भगवान अंजनीकर)
दूरद्रष्टा नरेन्द्र मोदी (पंकज कुमार) (हिंदी)
नरेन्द्र मोदी - एक आश्वासक नेतृत्व (लेखक - डॉ. रविकांत पागनीस, शशिकला उपाध्ये)
नरेन्द्र मोदी - एक झंझावात (लेखक - डॉ. दामोदर)
नरेन्द्र मोदी का राजनैतिक सफर (तेजपाल सिंह) (हिंदी)
Narendra Modi: The Man The Times (लेखक: निलंजन मुखोपाध्याय)
Modi's World: Expanding Sphere of Influence (लेखक: सी. राजा मोहन)
स्पीकिंग द मोदी वे (लेखक विरेंदर कपूर)
स्वप्नेर फेरावाला (बंगाली, लेखक: पत्रकार सुजित रॉय)
नरेन्द्रायण - व्यक्ती ते समष्टी, एक आकलन (मूळ मराठी. लेखक डॉ. गिरीश दाबके)
नरेन्द्र मोदी: एका कर्मयोग्याची संघर्षगाथा (लेखक - विनायक आंबेकर)
मोदीच का? (लेखक भाऊ तोरसेकर)- मोरया प्रकाशन
एक्जाम वॉरियर्स
द नमो स्टोरी, अ पोलिटिकल लाइफ
नरेन्द्र मोदी द्वारा रचित
सेतुबन्ध - राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता लक्ष्मणराव इनामदार की जीवनी के सहलेखक (२००१ में)
आँख आ धन्य छे (गुजराती कविताएँ)
कर्मयोग
आपातकाल में गुजरात (हिंदी)
एक भारत श्रेष्ठ भारत (नरेंद्र मोदी के भाषणों का संकलन ; संपादक प्रदीप पंडित)
ज्योतिपुंज (आत्मकथन - नरेंद्र मोदी)
सामाजिक समरसता (नरेंद्र मोदी के लेखों का संकलन)
सम्मान और पुरस्कार
अप्रैल २०१६ में नरेन्द्र मोदी सउदी अरब के उच्चतम नागरिक सम्मान 'अब्दुलअजीज अल सऊद के आदेश' (The Order of Abdulaziz Al Saud) से सम्मानित किये गये हैं।[110][111]
जून 2016 में अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अफगानिस्तान के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार अमीर अमानुल्ला खान अवॉर्ड से सम्मानित किया।[112]
सितम्बर २०१८: ' चैंपियंस ऑफ द अर्थ अवार्ड ' -- प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को यह सम्मान अन्तरराष्ट्रीय सौर गठबंधन और एक ही बार इस्तेमाल किए जाने वाले प्लास्टिक से देश को मुक्त कराने के संकल्प के लिए दिया गया। [113]
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम ने एक बयान जारी कर कहा है कि-
इस साल के पुरस्कार विजेताओं को आज के समय के कुछ बेहद अत्यावश्यक पर्यावरणीय मुद्दों से निपटने के लिये साहसी, नवोन्मेष और अथक प्रयास करने के लिये सम्मानित किया जा रहा है।' नीतिगत नेतृत्व की श्रेणी में फ्रांस के राष्ट्रपति एमैनुअल मैक्रों और नरेंद्र मोदी को संयुक्त रूप से इस सम्मान के लिये चुना गया है।
वैश्विक छवि
२०१४: फ़ोर्ब्स पत्रिका में विश्व के शक्तिशाली व्यक्तियों में १४ वां स्थान।
२०१५: विश्व के शक्तिशाली व्यक्तियों में ९ वां स्थान फोर्ब्स पत्रिका के सर्वे में। [114]
२०१६: विश्व प्रसिद्ध फ़ोर्ब्स पत्रिका में विश्व के शक्तिशाली व्यक्तियों में मोदी का ९ वां स्थान। [114][115][116]
सन्दर्भ
इन्हें भी देखें
भारतीय आम चुनाव, 2014
वस्तु एवं सेवा कर (भारत)
भारत के 500 और 1000 रुपये के नोटों का विमुद्रीकरण
आधार (परियोजना)
डोकलाम विवाद 2017
नेशनल पेंशन सिस्टम
मन की बात
मेक इन इंडिया
नोटबंदी
बाहरी कड़ियाँ
आधिकारिक
- आधिकारिक तथा सत्यापित ट्विटर खाता
- आधिकारिक फेसबुक खाता
- आधिकारिक जालस्थल
- निजी ब्लॉग
श्रेणी:1950 में जन्मे लोग
श्रेणी:जीवित लोग
श्रेणी:भारत के प्रधानमंत्री
श्रेणी:गुजरात के मुख्यमंत्री
श्रेणी:भारतीय जनता पार्टी के राजनीतिज्ञ
श्रेणी:गुजरात के लोग
श्रेणी:१६वीं लोक सभा के सदस्य
श्रेणी:नरेन्द्र मोदी
श्रेणी:दलित नेता
श्रेणी:भारतीय जनता पार्टी के मुख्यमंत्री | नरेन्द्र मोदी ने मुख्यमंत्री का अपना पहला कार्यकाल कब से शुरू किया? | 7 अक्टूबर 2001 | 7,637 | hindi |
25a4ae519 | आर्मीनिया (आर्मेनिया) पश्चिम एशिया और यूरोप के काकेशस क्षेत्र में स्थित एक पहाड़ी देश है जो चारों तरफ़ ज़मीन से घिरा है। १९९० के पूर्व यह सोवियत संघ का एक अंग था जो एक राज्य के रूप में था। सोवियत संघ में एक जनक्रान्ति एवं राज्यों के आजादी के संघर्ष के बाद आर्मीनिया को २३ अगस्त १९९० को स्वतंत्रता प्रदान कर दी गई, परन्तु इसके स्थापना की घोषणा २१ सितंबर, १९९१ को हुई एवं इसे अंतर्राष्ट्रीय मान्यता २५ दिसंबर को मिली। इसकी राजधानी येरेवन है।
अर्मेनियाई मूल की लिपि आरामाईक एक समय (ईसा पूर्व ३००) भारत से लेकर भूमध्य सागर के बीच प्रयुक्त होती थी। पूर्वी रोमन साम्राज्य और फ़ारस तथा अरब दोनों क्षेत्रों के बीच अवस्थित होने के कारण मध्य काल से यह विदेशी प्रभाव और युद्ध की भूमि रहा है जहाँ इस्लाम और ईसाइयत के कई आरंभिक युद्ध लड़े गए थे। आर्मेनिया प्राचीन ऐतिहासिक सांस्कृतिक धरोहर वाला देश है। आर्मेनिया के राजा ने चौथी शताब्दी में ही ईसाई धर्म ग्रहण कर लिया था। इस प्रकार आर्मेनिया राज्य ईसाई धर्म ग्रहण करने वाला प्रथम राज्य है।[1] देश में आर्मेनियाई एपोस्टलिक चर्च सबसे बड़ा धर्म है।[2] इसके अलावा यहाँ ईसाईयों, मुसलमानों और अन्य संप्रदायों का छोटा समुदाय है।
आर्मेनिय़ा का कुल क्षेत्रफल २९,८०० कि.मी² (११,५०६ वर्ग मील) है जिसका ४.७१% जलीय क्षेत्र है। अनुमानतः (जुलाई २००८) यहाँ की जनसंख्या ३२,३१,९०० है एवं वर्ग किमी घनत्व १०१ व्यक्ति है। इसकी सीमाएँ तुर्की, जॉर्जिया, अजरबैजान और ईरान से लगी हुई हैं। आज यहाँ ९७.९ प्रतिशत से अधिक आर्मीनियाई जातीय समुदाय के अलावा १.३% यज़िदी, ०.५% रूसी और अन्य अल्पसंख्यक निवास करते हैं। यहां की जनसंख्या का १०.६% भाग अंतर्राष्ट्रीय गरीबी रेखा (अमरीकी डालर १.२५ प्रतिदिन) से नीचे निवास करता है।[3] आर्मेनिया ४० से अधिक अंतर्राष्ट्रीय संगठनों का सदस्य है। इसमें संयुक्त राष्ट्र, यूरोप परिषद, एशियाई विकास बैंक, स्वतंत्र देशों का राष्ट्रकुल, विश्व व्यापार संगठन एवं गुट निरपेक्ष संगठन आदि प्रमुख हैं।
नाम
अर्मेनियाई मूल के लोग अपने को हयक का वंशज मानते हैं जो नूह (इस्लाम ईसाईयत और यहूदियों में पूज्य) का पर-परपोता था। कुछ ईसाईयों की मान्यता है कि नोआ (इस्लाम में नूह) और उसका परिवार यहीं आकर बस गया था। आर्मीनिया का अर्मेनियाई भाषा में नाम हयस्तान है जिसका अर्थ हायक की जमीन है। हायक नोह के पर-परपोते का नाम था।
इतिहास
इस्लाम, ईसाई और यहूदी धर्म की उभय मान्यताओं के अनुसार पौराणिक महाप्रलय की बाढ़ से बचाने वाले नोआ (अरबी में नूह, हिन्दू मत्स्यावतार से मेल खाता) का नाव यरावन की पहाड़ियों के पास आकर रुक गया था। अर्मेनियाई अपने को नोहे के परपोते के पोते हयक का वंशज मानते हैं। कांस्य युग में हिट्टी तथा मितन्नी जैसे साम्राज्यों की भूमि रहा है। लौह काल में अरामे के उरातु साम्राज्य ने सभी शक्तियों को एक किया और उसी के नाम पर इस क्षेत्र का नाम अर्मेनिया पड़ा।
इतिहास के पन्नों पर आर्मीनिया का आकार कई बार बदला है। ८० ई.पू. में आर्मेनिया राजशाही के अंतर्गत वर्तमान तुर्की का कुछ भू-भाग, सीरिया, लेबनान, ईरान, इराक, अज़रबैजान और वर्तमान आर्मीनिया के भू-भाग सम्मिलित थे। रोमन काल में अर्मेनिया फ़ारस और रोम के बीच बंटा रहा। ईसाई धर्म का प्रचार यूरोप और ख़ुद अर्मेनिया में इसी समय हुआ। सन ५९१ में बिज़ेन्टाईनों ने पारसियों को हरा दिया पर ६४५ में वे ख़ुद दक्षिण में शक्तिशाली हो रहे मुस्लिम अरबों से हार गए। इसके बाद यहाँ इस्लाम के भी प्रचार हुआ। ईरान के सफ़वी वंश के समय (१५०१-१७३०) यह चार बार इस्तांबुल के उस्मानी तुर्कों और इस्फ़हान के शिया सफ़वी शासकों के बीच हस्तांतरित होता रहा। १९२० से लेकर १९९१ तक आर्मीनिया एक साम्यवादी देश था। यह सोवियत संघ का एक सदस्य था। आज आर्मीनिया की तुर्की और अज़रबैजान से लगती सीमा संघर्ष की वजह से बंद रहती हैं। नागोर्नो-काराबाख पर आधिपत्य को लेकर १९९२ में आर्मेनिया और अज़रबैजान के बीच लड़ाई हुई थी जो १९९४ तक चली थी। आज इस जमीन पर आर्मीनिया का अधिकार है लेकिन अजरबैजान अभी भी जमीन पर अपना अधिकार बताता है।
प्रशासनिक खंड
आर्मेनिया दस प्रांतों (मर्ज़) में बंटा हुआ है। प्रत्येक प्रांत का मुख्य कार्यपालक (मार्ज़पेट) आर्मेनिया सरकार द्वारा नियुक्त किया जाता है। इनमें येरवान कों राजधानी शहर (कघाक़) (Երևան) होने से विशिष्ट दर्जा मिला है। येरवान का मुख्य कार्यपालक महापौर होता है, एवं राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है। हरेक प्रांत में स्व-शासित समुदाय (हमायन्क) होते हैं। वर्ष २००७ के आंकड़ों के अनुसार आर्मेनिया में ९१५ समुदाय थे, जिनमें से ४९ शहरी एवं ८६६ ग्रामीण हैं। राजधानी येरवान शहरी समुदाय है,[4] जो १२ अर्ध-स्वायत्त जिलों में भी बंटा हुआ है।
अरारत पर्वत
१९१९ में यूरोप में आर्मेनियाई साम्राज्य
आर्मेनियाई सेना
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
आर्मीनिया (विक्षनरी)
CIS
श्रेणी:आर्मेनिया
श्रेणी:कॉकस
श्रेणी:यूरोप के देश
श्रेणी:एशिया के देश
श्रेणी:नैऋत्य जंबुद्वीप
श्रेणी:हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना
श्रेणी:स्थलरुद्ध देश
श्रेणी:पश्चिमी एशिया | येरवान' किस देश की राजधानी है? | आर्मीनिया | 0 | hindi |
ce5209348 | आपातकालीन प्रबंधन एक अंतःविषयक क्षेत्र का सामान्य नाम है जो किसी संगठन की महत्वपूर्ण आस्तियों की आपदा या विपत्ति उत्पन्न करने वाले खतरनाक जोखिमों से रक्षा करने और सुनियोजित
जीवनकाल में उनकी निरंतरता सुनिश्चित करने के लिए प्रयुक्त सामरिक संगठनात्मक प्रबंधन प्रक्रियाओं से संबंधित है।[1] आस्तियां सजीव, निर्जीव, सांस्कृतिक या आर्थिक के रूप में वर्गीकृत हैं। खतरों को प्राकृतिक या मानव-निर्मित कारणों के द्वारा वर्गीकृत किया जाता है। प्रक्रियाओं की पहचान के उद्देश्य से संपूर्ण सामरिक प्रबंधन की प्रक्रिया को चार क्षेत्रों में बांटा गया है। ये चार क्षेत्र सामान्य रूप से जोखिम न्यूनीकरण, खतरे का सामना करने के लिए संसाधनों को तैयार करने, खतरे की वजह से हुए वास्तविक नुकसान का उत्तर देने और आगे के नुकसान को सीमित करने (जैसे आपातकालीन निकासी, संगरोध, जन परिशोधन आदि) और यथासंभव खतरे की घटना से यथापू्र्व स्थिति में लौटने से संबंधित हैं। क्षेत्र सार्वजनिक और निजी दोनों में होता है, प्रक्रिया एक सी सांझी होती है लेकिन ध्यान केंद्र विभिन्न होते हैं। आपातकालीन प्रबंधन प्रक्रिया एक नीतिगत प्रक्रिया न होकर एक रणनीतिक प्रक्रिया है अतः यह आमतौर पर संगठन में कार्यकारी स्तर तक ही सीमित रहती है। सामान्य रूप से इसकी कोई प्रत्यक्ष शक्ति नहीं है लेकिन यह सुनिश्चित करने के लिए कि एक संगठन के सभी भाग एक सांझे लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करें, यह सलाहकार के रूप में या कार्यों के समन्वय के लिए कार्य करता है। प्रभावी आपात प्रबंधन संगठन के सभी स्तरों पर आपातकालीन योजनाओं के संपूर्ण एकीकरण और इस समझ पर निर्भर करता है कि संगठन के निम्नतम स्तर आपात स्थिति के प्रबंधन और ऊपरी स्तर से अतिरिक्त संसाधन और सहायता प्राप्त करने के लिए जिम्मेदार हैं।
कार्यक्रम का संचालन करने वाले संगठन के सबसे वरिष्ठ व्यक्ति को सामान्य रूप से एक आपातकालीन प्रबंधक या क्षेत्र में प्रयुक्त शब्द से व्युत्पन्न पर आधारित (अर्थात् व्यापार निरंतरता प्रबंधक) कहा जाता है।
इस परिभाषा के अंतर्गत शामिल क्षेत्र हैं:
सिविल डिफ़ेंस (शीत युद्ध के दौरान परमाणु हमले से सुरक्षा के लिए संयुक्त राज्य द्वारा प्रयुक्त)
नागरिक सुरक्षा (यूरोपीय संघ द्वारा व्यापक रूप से प्रयुक्त)
संकट प्रबंधन (नागरिक जनसंख्या की तत्काल जरूरतों को संतुष्ट करने के उपायों की अपेक्षा राजनैतिक और सुरक्षा आयाम पर जोर देता है।)[2]
आपदा जोखिम न्यूनीकरण (आपात स्थिति चक्र के क्षति को कम करने और तत्परता पहलुओं पर केंद्रित.) (नीचे तत्परता को देखें)
होमलैंड सिक्योरिटी (आतंकवाद की रोकथाम पर ध्यान देते हुए संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रयुक्त.)
व्यापार निरंतरता और व्यापार निरंतरता योजना (उधोन्मुख निरंतर आय सुनिश्चित करने पर केंद्रित.))
सरकार की निरंतरता
चरण और व्यावसायिक गतिविधियां
प्रबंधन की प्रकृति स्थानीय आर्थिक और सामाजिक स्थिति पर निर्भर करती है। फ्रेड कनी जैसे कुछ आपदा राहत विशेषज्ञों ने उल्लेख किया है कि एक तरह से एकमात्र असली आपदा आर्थिक होती है।[3] कनी जैसे विशेषज्ञों ने बहुत पहले नोट किया कि आपातकालीन प्रबंधन चक्र में बुनियादी ढांचे, सार्वजनिक जागरूकता और यहाँ तक कि मानव न्याय के मुद्दों पर दीर्घकालिक काम को शामिल करना चाहिए।
आपातकालीन प्रबंधन की प्रक्रिया के चार चरण हैं: न्यूनीकरण, तत्परता, प्रतिक्रिया और उबरना.
हाल ही में होमलैंड सिक्योरिटी विभाग और फ़ेमा ने EM के प्रतिमान के भाग के रूप में "समुत्थान" और "रोकथाम" शब्दों को अपनाया है। दूसरे शब्द को PKEMA 2006 ने अक्टूबर 2006 में अधिनियम के द्वारा कानून के रूप में लागू किया और 31 मार्च 2007 से प्रभावी बनाया है। दोनों शब्दों की परिभाषाएं अलग चरणों के रूप में सरलता से उपयुक्त नहीं होती है। परिभाषा के अनुसार रोकथाम 100% शमन है।[4] समुत्थान चार चरणों के लक्ष्य का वर्णन करता है: दुर्भाग्य से आसानी से उबरने या परिवर्तन से ताल-मेल बिठाने की क्षमता[5]
न्यूनीकरण
खतरों को आपदाओं में पूरी तरह विकसित होने से रोकने या घटित होने की स्थिति में आपदाओं के प्रभाव को कम करने का प्रयास न्यूनीकरण कार्रवाई है। न्यूनीकरण चरण अन्य चरणों से भिन्न है क्योंकि यह जोखिम को कम करने या नष्ट करने के लिए दीर्घकालीन उपायों पर केंद्रित होता है।[1] आपदा घटित होने का बाद लागू करने पर, न्यूनीकरण रणनीतियों के कार्यान्वयन को उबरने की प्रक्रिया का हिस्सा माना जा सकता है।[1] न्यूनीकरण उपाय संरचनात्मक या गैर-संरचनात्मक हो सकते हैं। संरचनात्मक उपाय बाढ़ बांधों की तरह तकनीकी समाधान का उपयोग करते हैं। गैर-संरचनात्मक उपायों में शामिल हैं कानून, भूमि-उपयोग योजना (अर्थात् पार्क जैसी गैर-ज़रूरी भूमि को बाढ़ क्षेत्रों के रूप में इस्तेमाल किए जाने के लिए नामोद्दिष्ट करना) और बीमा.[6] खतरों के प्रभाव को कम करने के लिए न्यूनीकरण सबसे अधिक लागत प्रभावी तरीका है लेकिन यह हमेशा उपयुक्त नहीं होता। न्यूनीकरण में शामिल हैं निकासी के संबंध में विनियमों की व्यवस्था करना,
विनियमों (जैसे अनिवार्य निकासी) के पालन का विरोध करने वालों के खिलाफ़ प्रतिबंध लगाना और जनता को संभावित जोखिमों की जानकारी देना.[7] कुछ संरचनात्मक न्यूनीकरण उपायों से पारिस्थितिकीतंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।
न्यूनीकरण की पूर्ववर्ती गतिविधि जोखिम की पहचान है। भौतिक जोखिम मूल्यांकन खतरों की पहचान और मूल्यांकन की प्रक्रिया को संदर्भित करता है।[1] खतरा-विशेष जोखिम (
R
h
{\displaystyle R_{h}}
) किसी विशिष्ट खतरे की संभावना और प्रभाव के स्तर दोनों को जोड़ता है। निम्न समीकरण के अनुसार खतरा और उस खतरे से जनसंख्या की अरक्षितता को गुणा करने से जोखिम तबाही मॉडलिंग पैदा होती है। जितना उच्च जोखिम उतना अधिक ज़रूरी है कि खतरा विशिष्ट अरक्षितताएं न्यूनीकरण और तत्परता के प्रयासों से लक्षित हैं। हालांकि, अरक्षितता नहीं तो खतरा नहीं उदाहरण के लिए निर्जन रेगिस्तान में घटनेवाला भूकंप.
R
h
=
H
×
V
h
{\displaystyle \mathbf {R_{h}} =\mathbf {H} \times \mathbf {V_{h}} \,}
तत्परता
प्राकृतिक आपदाओं, आतंकवादी कृत्यों और अन्य मानव निर्मित आपदाओं की रोकथाम और इनसे सुरक्षा, प्रत्युत्तर, उबरने और प्रभावों को कम करने के लिए प्रभावी समन्वय और क्षमताओं में वृद्धि सुनिश्चित करने के लिए योजना, आयोजन, प्रशिक्षण, लैस करना, अभ्यास, मूल्यांकन और सुधार गतिविधियों का सतत चक्र तत्परता है।[8]
तत्परता चरण में, आपात प्रबंधक जोखिम के प्रबंधन और उसका सामना करने के लिए कार्रवाई की योजना बनाते हैं और इस तरह की योजनाओं को लागू करने के लिए आवश्यक क्षमताओं का निर्माण करने के लिए ज़रूरी कार्रवाई करते हैं। आम तत्परता उपायों में शामिल हैं:
आसानी से समझ में आने वाली शब्दावली और तरीकों वाली संप्रेषण योजना.
सामुदायिक आपात प्रत्युत्तर टीमों जैसे बड़े पैमाने के मानव संसाधनों सहित आपात सेवाओं का उचित रखरखाव और प्रशिक्षण.
आपातकालीन आश्रय और निकासी योजना के साथ जनसंख्या को आपातकालीन चेतावनी देने संबंधी विधियों का विकास और अभ्यास.
एकत्रीकरण, सूची और आपदा आपूर्ति और उपकरणों को बनाए रखना[9]
नागरिक आबादी में से प्रशिक्षित स्वयंसेवकों के संगठनों का विकास करना। बड़े पैमाने पर आपातकाल में पेशेवर कार्यकर्ता तेजी से अभिभूत हो जाते हैं इसलिए प्रशिक्षित, संगठित, ज़िम्मेदार स्वयंसेवक अत्यंत मूल्यवान होते हैं। कम्युनिटी एमरजेंसी रिस्पांस टीम और रेड क्रॉस जैसे संगठन प्रशिक्षित स्वयंसेवकों के तैयार स्रोत हैं। रेड क्रॉस की आपातकालीन प्रबंधन प्रणाली को कैलिफ़ोर्निया और फ़ेडरल एमरजेंसी मेनेजमेंट एजेंसी प्रबंधन (फ़ेमा) दोनों से उच्च रेटिंग मिली है।
किसी एक घटना से होने वाली प्रत्याशित मौतों या घायलों की संख्या का अध्ययन, हताहत भविष्यवाणी तत्परता का एक अन्य पहलू है। इससे योजनाकारों को अनुमान हो जाता है कि किसी विशेष प्रकार की घटना के प्रत्युत्तर में क्या क्या संसाधन तैयार होने चाहिए।
योजना चरण में आपातकालीन प्रबंधकों को लचीला और व्यापक होना चाहिए - वे अपने संबंधित क्षेत्रों में सावधानी से जोखिम और अरक्षितता को पहचानें और समर्थन के अपरंपरागत व असामान्य साधन नियोजित करें। नगर निगम, या निजी - क्षेत्र के अनुसार आपातकालीन सेवाओं को कम किया जा सकता है या भारी कर लगाया जा सकता है। गैर सरकारी संगठनों द्वारा प्रदत्त वांछित संसाधन जैसे कि स्थानीय जिला स्कूल बसों द्वारा विस्थापित गृहस्वामियों का परिवहन, अग्नि विभागों और बचाव दस्तों के बीच आपसी सहयोगी समझौतों द्वारा बाढ़ पीड़ितों की निकासी निष्पादित करना, की पहचान योजना चरणों में ही की जानी चाहिए और नियमित रूप से इनके साथ अभ्यास किया जाना चाहिए।
प्रतिक्रिया
प्रतिक्रिया चरण में आपदा क्षेत्र में आवश्यक आपातकालीन सेवाओं और पहले उत्तर देने वाले का जुगाड़ करना शामिल है। इसमें अग्निशामक, पुलिस और एम्बुलेंस दल जैसी पहले स्तर की घोर आपातकालीन सेवाओं को शामिल करने की संभावना है। सैन्य अभियान के तौर पर किए जाने पर इसे आपदा राहत अभियान (DRO) कहा जाता है और यह बिना लड़ाई के निकासी अभियान का अनुवर्ती हो सकता है। इन्हें विशेषज्ञ बचाव दल जैसी अनेक गौण आपातकालीन सेवाओं का समर्थन मिल सकता है।
एक अच्छी तरह से दोहरायी गयी आपातकालीन योजना को तत्परता चरण के भाग के रूप में विकसित करने से बचाव का कुशल समन्वयन होता है।
आवश्यकता पड़ने पर खोज और बचाव को प्रयास की प्रारम्भिक अवस्था में ही शुरू किया जा सकता है। घायलों के जख्म, बाहरी तापमान, पीड़ितों को हवा और पानी की सुलभता के दृष्टिगत आपदा के अधिकांश शिकार संघात के बाद 72 घंटे के भीतर मर जाएंगे.[10]
किसी भी संगीन आपदा - प्राकृतिक या आतंकवादी जनित - के लिए संगठनात्मक प्रतिक्रिया मौजूदा आपातकालीन प्रबंधन संगठनात्मक प्रणालियों और प्रक्रियाओं: फ़ेडरल रिस्पांस प्लान (FRP) और इंसीडेंस कमांड सिस्टम (आईसीएस) पर आधारित होता है। इन प्रणालियों को एकीकृत कमान (UC) और आपसी सहायता (एमए) के सिद्धांतों के माध्यम से सशक्त किया जाता है।
किसी भी आपदा का जवाब देने के लिए अनुशासन (संरचना, सिद्धांत, प्रक्रिया) और चपलता (रचनात्मकता, आशुरचना, अनुकूलनशीलता) दोनों की जरूरत होती है।[11] पहले उत्तरदाता के नियंत्रण से परे बढ़ने वाले प्रयासों का शीघ्रता से समन्वय और प्रबंधन करने के लिए उच्च कामकाजी नेतृत्व टीम को शामिल करने और बनाने की आवश्यकता, एक अनुशासित, पारस्परिक प्रतिक्रिया वाले योजनाओं के सेट को बनाने और लागू करने के लिए एक नेता और उसके दल की आवश्यकता को इंगित करती है। इससे टीम समन्वित, अनुशासित प्रतिक्रियाओं के साथ आगे बढ़ सकती है जो कमोबेश सही हों और नई जानकारी व बदलती परिस्थितियों के अनुसार ढल सकें.[12]
उबरना
उबरने वाले चरण का उद्देश्य प्रभावित क्षेत्र को यथापूर्व स्थिति में बहाल करना है। इसका लक्ष्य प्रतिक्रिया चरण से भिन्न है, उबरने के प्रयास उन मुद्दों और निर्णयों से संबंधित हैं जो तत्काल आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद किए जाने चाहिए। [1] उबरने के प्रयास मुख्य रूप से नष्ट संपत्ति, पुनर्रोजगार और अन्य आवश्यक बुनियादी ढांचे की मरम्मत संबंधी कार्य हैं।[1] समुदाय और बुनियादी ढांचे में आपदा पूर्व निहित जोखिम को कम करने के उद्देश्य से "वापस बेहतर बनाने" के प्रयास किए जाने चाहिए। अन्यथा अलोकप्रिय न्यूनीकरण उपायों के कार्यान्वयन के लिए 'अल्पकालीन अवसर'[13] का लाभ उठाना, उबरने के प्रभावी प्रयासों का एक महत्वपूर्ण पहलू है। आपदा की स्मृति ताज़ा रहने पर प्रभावित क्षेत्र के नागरिकों द्वारा अधिक न्यूनीकरण परिवर्तनों को स्वीकार किए जाने की अधिक संभावना है।
संयुक्त राज्य अमेरिका में, नेशनल रिस्पांस प्लान दर्शाता है कि कैसे 2002 के होमलैंड सिक्योरिटी अधिनियम द्वारा प्रावधान किए गए संसाधनों का उपयोग उबरने के प्रयासों में किया जाएगा.[1] अमेरिका में उबरने के प्रयासों में अत्याधिक तकनीकी और वित्तीय सहायता अधिकतर संघीय सरकार द्वारा प्रदान की जाती है।[1]
चरण और व्यक्तिगत गतिविधियां
न्यूनीकरण
अनावश्यक जोखिम की जानकारी और उससे परहेज ही मुख्य रूप से व्यक्तिगत न्यूनीकरण है। निजी/पारिवारिक स्वास्थ्य और निजी संपत्ति को संभव जोखिम का मूल्यांकन इसमें शामिल है।
न्यूनीकरण का एक उदाहरण यह होगा कि खतरे वाली जगह जैसे बाढ़ वाले मैदान, अवतलन या भूस्खलन वाले क्षेत्रों में संपत्ति न खरीदना. हो सकता है कि घटित होने तक घर के मालिक को संपत्ति को होने वाले खतरे के बारे में पता न हो। हालांकि, जोखिम की पहचान और मूल्यांकन सर्वेक्षण के लिए विशेषज्ञों को काम पर रखा जा सकता है। प्रमुख रूप से अवगत जोखिम के लिए बीमा खरीदना एक आम उपाय है।
भूकंप प्रवण क्षेत्रों में निजी संरचनात्मक न्यूनीकरण में शामिल हैं किसी संपत्ति में प्राकृतिक गैस की आपूर्ति को तुरन्त बंद करने के लिए एक भूकंप वाल्व लगाना, संपत्ति में पुराने भूकंपीय उपकरणों के स्थान पर नए लगाना और घरेलू भूकंपीय सुरक्षा बढ़ाने के लिए इमारत के अंदर के सामान की रक्षा करना। सामान की रक्षा में फ़र्नीचर, रेफ्रिजरेटर, पानी के हीटर और भंजनीय सामान को
दीवारों पर लगाने के अलावा कैबिनेट में और सिटकनियां लगवाना शामिल हो सकता है। बाढ़ प्रवण क्षेत्रों में दक्षिणी एशिया की तरह मकान खंभे /बांसों पर बनाए जा सकते हैं। जिन क्षेत्रों में बिजली लंबे समय तक गुल रहती है वहां जनरेटर का लगाया जाना इष्टतम संरचनात्मक न्यूनीकरण का उदाहरण होगा। तूफ़ान तहखाने और भूमिगत आश्रय का निर्माण ऐसे ही और उदाहरण है।
आपदाओं के प्रभाव को सीमित करने के लिए किए गए संरचनात्मक और गैर संरचनात्मक उपाय न्यूनीकरण के तहत आते हैं।
संरचनात्मक न्यूनीकरण: -
इसमें विशेष रूप से इसे आपदा-प्रतिरोधी बनाने के लिए भवन का उचित अभिन्यास शामिल है।
गैर संरचनात्मक न्यूनीकरण: -
इसमें भवन की संरचना में सुधार के अलावा अन्य उपाय शामिल है।
तत्परता
तत्परता का उद्देश्य आपदा को रोकना है जबकि व्यक्तिगत तत्परता आपदा घटित होने पर उपकरण और प्रक्रियाओं की तैयारी अर्थात् योजना पर केंद्रित है। आश्रयों के निर्माण, चेतावनी उपकरणों की स्थापना, समर्थक जीवन-रेखा सेवाओं (जैसे बिजली, पानी, सीवेज) के निर्माण और निकासी योजनाओं के पूर्वाभ्यास सहित तत्परता उपायों के कई रूप हो सकते हैं। दो सरल उपाय आवश्यकतानुसार घटना से निपटने या निकासी में मदद कर सकते हैं। निकासी के लिए, एक आपदा आपूर्ति किट तैयार की जा सकती है और आश्रय उद्देश्यों के लिए आपूर्ति का भंडार बनाया जा सकता है। अधिकारी उत्तरजीविता किट जैसे "72 -घंटे की किट" तैयार करने की अक्सर वकालत करते हैं। इस किट में भोजन, दवाइयां, टॉर्च, मोमबत्तियां और धन हो सकते हैं। इसके अलावा, मूल्यवान वस्तुओं को सुरक्षित स्थान पर रखने की भी सिफ़ारिश की जाती है।
प्रतिक्रिया
किसी आपातकाल का प्रतिक्रिया चरण खोज और बचाव से शुरू हो सकता है लेकिन सभी मामलों में ध्यान जल्दी से प्रभावित आबादी की बुनियादी मानवीय ज़रूरतें
पूरा करने की ओर पलट जाएगा. यह सहायता राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों और संगठनों द्वारा प्रदान की जा सकती है। आपदा सहायता का प्रभावी समन्वयन अक्सर महत्वपूर्ण होता है, खासकर जब अनेक संगठन जवाब दें और स्थानीय आपातकालीन प्रबंधन एजेंसी (LEMA) की क्षमता ज़रूरत से परे या आपदा के कारण कम हो गई हो।
निजी स्तर पर प्रतिक्रिया किसी जगह पर आश्रय या निकासी का रूप ले सकती है। जगह-में-आश्रय परिदृश्य में, एक परिवार को उनके ही घर में किसी भी रूप में बाहरी समर्थन के बिना कई दिनों तक रहने के लिए तैयार किया जाएगा. निकासी में, एक परिवार ऑटोमोबाइल या परिवहन के अन्य साधन द्वारा क्षेत्र छोड़ देता है और जितना सामान ले जा सकता है संभवतः. आश्रय के लिए एक तम्बू सहित, अपने साथ ले लेता है। अगर यांत्रिक परिवहन उपलब्ध नहीं है तो पैदल निकासी में आम तौर पर कम से कम तीन दिन की आपूर्ति और बारिश-प्रतिरोधी बिस्तर होगा, तिरपाल और कंबल तो अवश्य ही होंगे।
उबरना
मनुष्य के जीवन को तत्काल खतरा कम हो जाने पर उबरने का चरण शुरू होता है। पुनर्निर्माण के दौरान संपत्ति का स्थान या निर्माण सामग्री पर विचार करने की सिफ़ारिश की जाती है।
सबसे चरम गृह कारावास परिदृश्यों में शामिल हैं युद्ध, अकाल और महामारी, और यह एक साल या अधिक के लिए हो सकता है। तब घर के भीतर ही उबरना होगा। इन घटनाओं के योजनाकार आमतौर पर थोक में खाद्य पदार्थ, उचित भंडारण और तैयारी के उपकरण खरीदते हैं और सामान्य जीवन की तरह खाना खाते हैं। विटामिन की गोलियाँ, गेहूं, सेम, सूखे दूध, मक्का और खाना पकाने का तेल से एक साधारण संतुलित आहार तैयार किया जा सकता है।[14] जब भी संभव हो सब्जियां, फल, मसाले और मांस, तैयार और ताज़ा दोनों ही शामिल करने चाहिए।
एक पेशे के रूप में
आपातकालीन प्रबंधकों को विविध क्षेत्रों में प्रशिक्षित किया जाता है जिससे उन्हें पूरे आपातकालीन जीवन-चक्र में सहायता मिलती है। पेशेवर आपातकालीन प्रबंधक सरकारी और सामुदायिक तैयारियों (अभियान की निरंतरता/ सरकारी योजना की निरंतरता), या निजी व्यापार तत्परता (व्यापार निरंतरता प्रबंधन योजना) पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं। प्रशिक्षण स्थानीय, राज्य, संघीय और निजी संगठनों द्वारा प्रदान किया जाता है और इसमें सार्वजनिक सूचना और मीडिया संबंधों से लेकर उच्च स्तर की घटना होने पर आदेश देने और रणनीतिक कौशल जैसे आतंकवाद बम विस्फोट स्थल का अध्ययन या एक आपात स्थिति के दृश्य को नियंत्रित करना, तक शामिल होता है।
अतीत में, आपातकालीन प्रबंधन के क्षेत्र में सेना या प्रथम रिस्पॉन्डर की पृष्ठभूमि वाले लोगों की भरमार रही है। वर्तमान में, इस क्षेत्र में अधिक विविध जनसंख्या है अनेक विशेषज्ञ सेना या प्रथम रिस्पॉन्डर इतिहास से इतर विभिन्न प्रकार की पृष्ठभूमि से हैं। आपातकालीन प्रबंधन या इससे संबंधित क्षेत्र में स्नातकपूर्व और स्नातक डिग्री प्राप्त करने वालों के लिए शिक्षा के अवसर बढ़ रहे हैं। अमेरिका के 180 से अधिक स्कूलों में आपात प्रबंधन से संबंधित कार्यक्रम हैं लेकिन विशिष्ट रूप से आपात प्रबंधन में डॉक्टरेट का एक ही कार्यक्रम है।[15]
जैसे जैसे आपात प्रबंधन समुदाय द्वारा विशेष रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका में, उच्च पेशेवर मानकों की आवश्यकता को मान्यता दी जाने लगी है, और प्रमाणित व्यापार निरंतरता प्रोफ़ेशनल (CBCP) जैसे व्यावसायिक प्रमाणपत्र आम बनते जा रहे हैं।
आपातकालीन प्रबंधन के सिद्धांत
2007 में फ़ेमा आपातकालीन प्रबंधन उच्च शिक्षा परियोजना के डॉ॰ वेन ब्लोन्शॉ ने आपात प्रबंधन के सिद्धांतों पर विचार करने के लिए फ़ेमा आपातकालीन प्रबंधन संस्थान के अधीक्षक, डॉ॰ कोरतेज़ लॉरेंस के निर्देशन में आपात प्रबंधन वृत्तिकों और शिक्षाविदों का एक कार्यदल बुलाया। यह परियोजना इस बोध से प्रेरित हुई कि "आपातकालीन प्रबंधन के सिद्धांतों" पर असंख्य किताबें, लेख और निबन्ध उपलब्ध तो हैं लेकिन साहित्य की इतनी विशाल सारणी में इन सिद्धांतों की सर्वमान्य परिभाषा कहीं नहीं है। समूह आठ सिद्धांतों पर सहमत हुआ जो आपातकालीन प्रबंधन के सिद्धांत के विकास के लिए एक मार्गदर्शी के तौर पर प्रयुक्त होंगे। नीचे दिया गया सारांश इन आठ सिद्धांतों की सूची है और प्रत्येक का संक्षिप्त विवरण दिया गया है।
सिद्धांत: आपातकालीन प्रबंधन होना चाहिए:
व्यापक - आपातकालीन प्रबंधक आपदाओं से संबंधित सभी खतरों, सभी चरणों, सभी हितधारकों और सब प्रभावों पर विचार करते हैं और ध्यान में रखते हैं।
प्रगतिशील - आपातकालीन प्रबंधक भावी आपदाओं का पूर्वानुमान लगाते हैं और आपदा-प्रतिरोधी और आपदा-समुत्थान समुदायों के निर्माण के लिए निवारक और तत्परता उपाय करते हैं।
जोखिम उन्मुख - प्राथमिकताओं और संसाधनों के समनुदेशन में आपातकालीन प्रबंधक उपयुक्त जोखिम प्रबंधन के सिद्धांतों (खतरे की पहचान, जोखिम विश्लेषण और प्रभाव विश्लेषण) का उपयोग करते हैं।
एकीकृत - आपातकालीन प्रबंधक सरकार के सभी स्तरों और एक समुदाय के सभी तत्वों के बीच में प्रयास की एकता सुनिश्चित करते हैं।
सहयोगी - आपातकालीन प्रबंधक व्यक्तियों और संगठनों के बीच व्यापक और सत्यनिष्ठ संबंध बनाते हैं ताकि विश्वास, एक टीम के वातावरण, आम सहमति और संप्रेषण को प्रोत्साहन मिले।
समन्वित - एक आम उद्देश्य की प्राप्ति के लिए आपातकालीन प्रबंधक सभी सम्बद्ध हितधारकों की गतिविधियों को समकालिक बनाते हैं।
लचीला - आपदा चुनौतियों को हल करने में आपातकालीन प्रबंधक रचनात्मक और नवीन उपायों का उपयोग करते हैं।
पेशेवर - आपातकालीन प्रबंधक शिक्षा, प्रशिक्षण, अनुभव, नैतिक आचरण, सार्वजनिक नेतृत्व और सतत सुधार पर आधारित विज्ञान और ज्ञान-आधारित उपाय को महत्व देते हैं।
इन सिद्धांतों का विस्तृत वर्णन पर उपलब्ध है।
उपकरण
हाल के वर्षों में आपातकालीन प्रबंधन की निरंतरता की विशेषता के परिणामस्वरूप आपातकालीन प्रबंधन सूचना सिस्टम (EMIS) की नई अवधारणा ने जन्म लिया है। आपातकालीन प्रबंधन हितधारकों के बीच निरंतरता और अन्तरसंक्रियता के लिए, सरकारी और गैर सरकारी भागीदारी के सभी स्तरों पर आपात योजना को एकीकृत करने वाली संरचना प्रदान करके और आपात स्थितियों के सभी चार चरणों के लिए सभी संबंधित संसाधनों (मानव और अन्य संसाधनों सहित) का उपयोग करके EMIS आपातकालीन प्रबंधन प्रक्रिया का समर्थन करता है। स्वास्थ्य देखभाल के क्षेत्र में, अस्पताल HICS (अस्पताल हादसा कमान प्रणाली) का उपयोग करते हैं जो प्रत्येक प्रभाग के लिए ज़िम्मेदारियों के सेट के साथ स्पष्ट रूप से परिभाषित कमान श्रृंखला में संरचना और संगठन प्रदान करती है।
अन्य व्यवसायों के भीतर
क्षेत्र की परिपक्वता के साथ साथ आपात प्रबंधन (आपदा तत्परता) के वृत्तिक विविध पृष्ठभूमि से आने लगे हैं। स्मृति संस्थानों (जैसे संग्रहालय, ऐतिहासिक समाज, पुस्तकालय और अभिलेखागार) के पेशेवर सांस्कृतिक विरासत - अपने संग्रह में रखी वस्तुओं और रिकॉर्ड के संरक्षण के प्रति समर्पित हैं। 2001 में सितंबर 11 के हमलों, 2005 के तूफ़ान और कोलोन अभिलेखागार के पतन के बाद आई उच्च जागरूकता के परिणामस्वरूप यह इन क्षेत्रों के भीतर तेजी से बढ़ता प्रमुख घटक है।
बहुमूल्य अभिलेखों की सफल पुनः प्राप्ति के अवसर बढ़ाने के लिए, एक सुस्थापित और अच्छी तरह से परीक्षित योजना विकसित किया जाना चाहिए। योजना बहुत जटिल नहीं होनी चाहिए बल्कि प्रतिक्रिया और बहाली में सहायता करने के लिए
सादगी पर ज़ोर दिया जाना चाहिए। सादगी के एक उदाहरण के रूप में, प्रतिक्रिया और बहाली चरण में कर्मचारियों को उसी तरह के कार्य करने चाहिए जो वे सामान्य परिस्थितियों में करते हैं। इसमें न्यूनीकरण रणनीतियों जैसे संस्था में छिड़काव यंत्रों की स्थापना, को भी शामिल करना चाहिए। इस कार्य के लिए अनुभवी अध्यक्ष के नेतृत्व वाली सुगठित समिति के सहयोग की आवश्यकता होती है।[16] जोखिम को कम करने और अधिकतम पुनः प्राप्ति के लिए व्यक्तियों को प्रचलित उपकरणों और संसाधनों की अद्यतन जानकारी देने के लिए पेशेवर संगठन नियमित कार्यशालाएं और वार्षिक सम्मेलनों में ध्यान सत्र आयोजित करते हैं।
उपकरण
आपदा तैयारी और बहाली योजनाओं में पेशेवरों की सहायता के लिए पेशेवर एसोसिएशन और सांस्कृतिक विरासत संस्थाओं के संयुक्त प्रयासों के परिणामस्वरूप कई विभिन्न प्रकार के उपकरणों का विकास हुआ है। कई मामलों में, ये उपकरण बाहरी उपयोगकर्ताओं को उपलब्ध कराए जाते हैं। इसके अतिरिक्त मौजूदा संगठनों द्वारा रचित योजना नमूने भी अक्सर वेबसाइटों पर उपलब्ध होते हैं जो आपदा योजना तैयार करने वाली या एक मौजूदा योजना को अद्यतन कर रही किसी भी समिति या समूह के लिए सहायक हो सकते हैं। जबकि प्रत्येक संगठन को अपनी विशेष ज़रूरतों को पूरा करने वाली योजना और उपकरण बनाने की ज़रूरत होगी फिर भी ऐसे उपकरणों के कुछ उदाहरण हैं जो संभवतः योजना प्रक्रिया में
उपयोगी प्रारंभिक बिंदुओं का प्रतिनिधित्व करे. इन्हें बाह्य कड़ियां अनुभाग में शामिल किया गया है।
2009 में, आपदाओं से प्रभावित आबादी के आकलन के लिए अंतर्राष्ट्रीय विकास एजेंसी अमेरिका ने वेब-आधारित एक उपकरण बनाया। के नाम से विख्यात यह उपकरण विश्व के सभी देशों में 1km2 के रेज़्युलेशन में जनसंख्या को वितरित करने के लिए ओक रिज राष्ट्रीय प्रयोगशाला द्वारा विकसित Landscan आबादी डेटा का उपयोग करता है। आबादी की अतिसंवेदनशीलता और या भोजन की असुरक्षा के प्रभाव का अनुमान लगाने के लिए
यूएसएड की FEWS NET परियोजना द्वारा प्रयुक्त पॉपुलेशन एक्सप्लोरर का आपातकालीन विश्लेषण और प्रतिक्रिया कार्रवाई में व्यापक प्रयोग बढ़ता जा रहा है, इसमें मध्य अमेरिका में बाढ़ और प्रशांत महासागर में 2009 में सुनामी घटना से प्रभावित आबादी का आकलन भी शामिल है।
2007 में, आपातकालीन प्रतिक्रिया में भाग लेने पर विचार कर रहे पशु चिकित्सकों के लिए एक जांचसूची अमेरिकन वेटरनरी मेडिकल एसोसिएशन के जर्नल में प्रकाशित हुई थी, इसमें सवालों के दो खंड थे जो आपात स्थिति में सहायता करने से पहले किसी पेशेवर को स्वयं से पूछने थे:
भागीदारी के लिए निरपेक्ष अपेक्षाएं: क्या मैंने भाग के लिए चुना है?, क्या मैंने आईसीएस प्रशिक्षण लिया है?, क्या मैंने अन्य आवश्यक पृष्ठभूमि पाठ्यक्रम लिए हैं?, क्या मैंने अपने तैनाती के अभ्यास की तैयारी कर ली है?, क्या मैंने अपने परिवार के साथ व्यवस्था कर ली है?
घटना भागीदारी:? क्या मुझे भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया है?, क्या मेरे कौशल मिशन के लिए उपयुक्त हैं?, क्या मैं कौशल को ताज़ा करने या आवश्यक नए कौशल पाने के लिए यथासमय प्रशिक्षण ले सकता हूं? क्या यह एक स्वतः-सहायता मिशन है? क्या अपने स्वयं के समर्थन के लिए मेरे पास तीन से पांच दिनों तक की आवश्यक आपूर्ति है?
जबकि यह लिखा हुआ है कि यह पशु चिकित्सकों के लिए है लेकिन किसी भी आपात स्थिति में
सहायता करने से पहले हर पेशेवर को इस सूची पर गौर करना चाहिए। [17]
अंतर्राष्ट्रीय संगठन
आपातकालीन प्रबंधकों की अंतर्राष्ट्रीय एसोसिएशन
आपातकालीन प्रबंधकों की अंतर्राष्ट्रीय एसोसिएशन (IAEM) आपात स्थिति और आपदाओं के दौरान जान और माल की सुरक्षा को बढ़ावा देने के लक्ष्यों को समर्पित
लाभ रहित शैक्षिक संगठन है। IAEM का उद्देश्य जानकारी, नेटवर्किंग और पेशेवर अवसर प्रदान करके अपने सदस्यों की सेवा करना और आपातकालीन प्रबंधन पेशे को उन्नत बनाना है।
इस समय दुनिया भर में इसकी सात परिषदें है:, , , , , और
व्यवसाय की ओर से IAEM निम्नलिखित प्रोग्राम का भी प्रबंधन करती है:
(CEM)
वायु सेना की आपातकालीन प्रबंधन एसोसिएशन (www.af-em.org और www.3e9x1.com), सदस्यता के द्वारा IAEM से अस्पष्ट रूप से संबद्ध है और यह अमेरिकी वायु सेना आपातकालीन प्रबंधकों को आपातकालीन प्रबंधन की जानकारी और नेटवर्किंग प्रदान करती है।
रेड क्रॉस/रेड क्रेसन्ट
आपात स्थिति का जवाब देने में राष्ट्रीय रेड क्रॉस/रेड क्रेसन्ट सोसायटी ने अक्सर निर्णायक भूमिका निभायी है। इसके अतिरिक्त, राष्ट्रीय रेड क्रॉस या रेड क्रेसन्ट सोसायटी द्वारा अनुरोध किए जाने पर रेड क्रॉस और रेड क्रेसन्ट सोसायटी की इंटरनेशनल फ़ेडरेशन (IFRC, या "द फ़ेडरेशन") प्रभावित देश को मूल्यांकन टीमें (अर्थात )
तैनात कर सकते हैं। आवश्यकता का मूल्यांकन करने के बाद प्रभावित देश या क्षेत्र में तैनात की जा सकती हैं। वे आपातकालीन प्रबंधन ढांचे के प्रतिक्रिया घटक के विशेषज्ञ हैं।
संयुक्त राष्ट्र
संयुक्त राष्ट्रसंयुक्त राष्ट्र/0} तंत्र में आपातकालीन प्रतिक्रिया की ज़िम्मेदारी प्रभावित देश में रेज़िडेंट समन्वयक की है। हालांकि प्रभावित देश के अनुरोध पर अंतर्राष्ट्रीय प्रतिक्रिया का समन्वयन व्यावहारिक तौर पर, संयुक्त राष्ट्र के मानवीय मामलों के समन्वयन कार्यालय (संयुक्त राष्ट्र-OCHA) द्वारा संयुक्त राष्ट्र आपदा आकलन और समन्वयन (UNDAC) टीम तैनात करके किया जाता है।
विश्व बैंक
1980 के बाद से, विश्व बैंक ने आपदा प्रबंधन से संबंधित अमेरिकी $40 बिलियन से अधिक की राशि के 500 से अधिक प्रचालनों को मंज़ूरी दी है। इनमें शामिल हैं आपदा के बाद पुनर्निर्माण परियोजनाएं, साथ ही अर्जेन्टीना, बांग्लादेश, कोलंबिया, हैती, भारत, मेक्सिको, तुर्की और वियतनाम जैसे कुछेक देशों में आपदा प्रभावों
की रोकथाम और न्यूनीकरण के उद्देश्य वाले घटकों की परियोजनाएं.[18]
दावानल की रोकथाम के उपाय, जैसे कि पूर्व चेतावनी उपाय और किसानों को हतोत्साहित करना कि वे कृषिभूमि के लिए जंगल को न जलाएं जिससे दावानल शुरू होती है, तूफ़ान के आगमन की पूर्व चेतावनी प्रणाली, बाढ़ की रोकथाम के तंत्र, ग्रामीण क्षेत्रों में तटीय सुरक्षा और टेरसिंग से लेकर उत्पादन के अनुकूलन तक और भूकंप के अनुकूल निर्माण, रोकथाम और न्यूनीकरण परियोजनाओं के सामान्य केंद्रबिंदु हैं।[19]
प्रोवेन्शन कंसोर्टियम के संरक्षण में विश्व बैंक ने कोलंबिया विश्वविद्यालय के साथ एक संयुक्त उद्यम प्राकृतिक आपदा के आकर्षण-केंद्रों का विश्वव्यापी जोखिम विश्लेषण की स्थापना की है।[20]
जून 2006 में विश्व बैंक ने विकास में आपदा जोखिम न्यूनीकरण को मुख्य धारा से जोड़कर आपदा हानि को कम करने के लिए हयोगो फ़्रेमवर्क ऑफ़ एक्शन के समर्थन में अन्य दाताओं के साथ एक दीर्घकालिक साझेदारी, आपदा न्यूनीकरण और बहाली (GFDRR) के लिए विश्वव्यापी सुविधा की स्थापना की। यह सुविधा उन विकास परियोजनाओं और कार्यक्रमों के वित्तपोषण में विकासशील देशों की मदद करती है जो आपदा रोकथाम और आपातकालीन तत्परता के लिए स्थानीय क्षमता बढ़ाने के लिए हों.[21]
यूरोपीय संघ
2001 के बाद से यूरोपीय संघ ने नागरिक सुरक्षा के लिए सामुदायिक प्रक्रिया को अपनाया है जिसने वैश्विक परिदृश्य में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभानी शुरू कर दी है। प्रमुख आपात स्थितियां जिनके लिए तत्काल प्रतिक्रिया की आवश्यकता हो, घटित होने पर नागरिक सुरक्षा सहायता उपायों को सुसाध्य बनाना इस प्रक्रिया की मुख्य भूमिका है। यह उन परिस्थितियों के लिए भी लागू होती है जहां ऐसी प्रमुख आपात स्थितियों का आसन्न खतरा हो सकता है।
इस प्रक्रिया का मूल निगरानी और सूचना केन्द्र है। यह यूरोपीय आयोग के मानवीय सहायता एवं नागरिक सुरक्षा के महानिदेशालय का हिस्सा है और दिन में 24 घंटे सुलभ है। यह देशों को एक मंच उपलब्ध करवाता है, भाग लेने वाली सभी सरकारों को एक जगह सुलभ नागरिक सुरक्षा के साधनों का केंद्र है। एक बड़ी आपदा से प्रभावित संघ के अंदर या बाहर का कोई भी देश के MIC के माध्यम से सहायता के लिए अपील कर सकता है। यह भाग लेने वाली सरकारों, प्रभावित देश और भेजे गए क्षेत्रीय विशेषज्ञों के बीच मुख्यालय स्तर पर संचार केन्द्र के रूप में कार्य करता है। यह चल रही आपात स्थिति की वास्तविक स्थिति पर उपयोगी और अद्यतन जानकारी भी प्रदान करता है।[22]
अंतर्राष्ट्रीय बहाली मंच
अंतर्राष्ट्रीय बहाली मंच (IRP) की स्थापना जनवरी 2005 में कोबे, हयोगे, जापान में आपदा न्यूनीकरण (WCDR) पर विश्व सम्मेलन में की गई थी। आपदा न्यूनीकरण प्रणाली (ISDR) के लिए अंतर्राष्ट्रीय नीति के एक विषयगत मंच के रूप में, IRP हयोगे फ़्रेमवर्क फ़ॉर एक्शन (HFA) 2005-2015 के लिए एक महत्वपूर्ण स्तंभ है: आपदा के प्रति राष्ट्रों और समुदायों के समुत्थान का निर्माण, एक दशक के लिए आपदा जोखिम कम करने के लिए WCDR में 168 सरकारों द्वारा अपनाई गई एक वैश्विक योजना.
आपदा के बाद बहाली में आए अंतराल और बाधाओं को पहचानना और समुत्थान बहाली के लिए उपकरणों, संसाधनों और क्षमता के विकास के लिए उत्प्रेरक के रूप में कार्य करना IRP की महत्वपूर्ण भूमिका है। IRP का उद्देश्य अच्छी बहाली प्रक्रिया के लिए ज्ञान का अंतर्राष्ट्रीय स्रोत बनना है।
राष्ट्रीय संगठन
ऑस्ट्रेलिया
ऑस्ट्रेलिया में आपातकालीन प्रबंधन ऑस्ट्रेलिया (EMA) आपात स्थिति प्रबंधन के लिए मुख्य संघीय समन्वय और सलाहकार निकाय है। पांच राज्यों और दो प्रदेशों की अपनी अपनी राज्य आपातकालीन सेवा है। आपातकालीन फ़ोन सेवा राज्य पुलिस, अग्निशमन और एम्बुलेंस सेवाओं से संपर्क करने के लिए
एक राष्ट्रीय 000 आपातकालीन टेलीफोन नंबर प्रदान करता है। राज्य और संघीय सहयोग के लिए व्यवस्था है।
कनाडा
कनाडा सार्वजनिक सुरक्षा कनाडा की राष्ट्रीय आपात प्रबंधन एजेंसी है। प्रत्येक प्रांत से अपेक्षित है कि आपात स्थिति से निपटने के लिए कानून बनाए और साथ ही अपनी स्वयं की आपातकालीन प्रबंधन एजेंसियों की स्थापना करे जिन्हें आमतौर पर "आपातकालीन उपाय संगठन" (ईएमओ) कहा जाता है और जो नगर निगम और संघीय स्तर से प्राथमिक संपर्क के रूप कार्य करती हैं।
कनाडा जन सुरक्षा राष्ट्रीय सुरक्षा और कनाडावासियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने वाले संघीय संगठनों के प्रयासों का समन्वयन और समर्थन करती है। वे सरकार के अन्य स्तरों, पहले रिस्पॉन्डर्स, सामुदायिक समूहों, निजी क्षेत्र (महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे के ऑपरेटर) और अन्य राष्ट्रों के साथ भी काम करती हैं।
पीएस की शक्तियां, कर्त्तव्य और कार्य परिभाषित करने वाले जन सुरक्षा और आपातकालीन तत्परता अधिनियम के माध्यम से कनाडा जन सुरक्षा का काम नीतियों और कानून की व्यापक रेंज पर आधारित है। अन्य अधिनियम सुधार, आपातकालीन प्रबंधन, कानून प्रवर्तन और राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे क्षेत्रों के लिए विशिष्ट हैं।
जर्मनी
जर्मनी में जर्मन Katastrophenschutz (आपदा राहत) और Zivilschutz (नागरिक सुरक्षा) कार्यक्रम संघीय सरकार के नियंत्रणाधीन हैं। जर्मन अग्नि विभाग की स्थानीय इकाइयां और Technisches Hilfswerk (तकनीकी राहत के लिए संघीय एजेंसी,Thw) इन कार्यक्रमों का हिस्सा हैं। जर्मन सशस्त्र बल (बुंडेसवेह्) जर्मन संघीय पुलिस और 16 राज्य पुलिस बल (Länderpolizei) सभी को आपदा राहत अभियानों के लिए तैनात किया गया है। जर्मन रेड क्रॉस के अलावा Johanniter-Unfallhilfe, सेंट जॉन एम्बुलेंस का जर्मन पर्याय, Malteser-Hilfsdienst, Arbeiter-Samariter-Bund, और अन्य निजी संगठनों द्वारा मानवीय सहायता सुलभ करायी जाती है जो बड़े पैमाने पर आपात स्थिति से निपटने के लिए सक्षम सबसे बड़ा राहत संगठन है। 2006 की स्थिति के अनुसार बॉन विश्वविद्यालय में एक संयुक्त पाठ्यक्रम है जिसके बाद
"आपदा रोकथाम और जोखिम संचालन में मास्टर" डिग्री ली जा सकती है।[23]
भारत
भारत में आपातकाल प्रबंधन की भूमिका गृह मंत्रालय के अधीनस्थ सरकारी एजेंसी
भारतीय राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के कंधों पर आती है।
हाल के वर्षों में महत्व में बदलाव आया है, प्रतिक्रिया और उबरने से रणनीतिक जोखिम प्रबंधन और न्यूनीकरण तथा सरकारी केंद्रित दृष्टिकोण से विकेन्द्रीकृत समुदाय की भागीदारी की ओर. विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय एक आंतरिक एजेंसी का समर्थन करता है जो आपात प्रबंधन की प्रक्रिया में भू वैज्ञानिकों के शैक्षणिक ज्ञान और विशेषज्ञता को शामिल कर अनुसंधान को सुसाध्य बनाती है।
हाल ही में भारत सरकार ने सार्वजनिक / निजी भागीदारी का प्रतिनिधित्व करने वाले समूह का
गठन किया है। यह मुख्य रूप से भारत-आधारित एक बड़ी कंप्यूटर कंपनी द्वारा वित्त पोषित है और इसका उद्देश्य आपदाओं के रूप में वर्णित घटनाओं के अलावा आपात स्थितियों के प्रति समुदायों की सामान्य प्रतिक्रिया में सुधार लाना है। प्रथम रिस्पॉन्डर्स के लिए आपात प्रबंधन प्रशिक्षण (भारत में पहली बार), एकल आपातकालीन टेलीफोन नंबर की रचना और ईएमएस स्टाफ़ के लिए मानक, उपकरण और प्रशिक्षण की स्थापना का प्रावधान समूह के शुरुआती कुछेक प्रयासों में शामिल हैं। वर्तमान में यह तीन राज्यों में प्रचालित है, हालांकि इसे राष्ट्रव्यापी प्रभावी समूह बनाने के प्रयास जारी हैं।
नीदरलैंड्स
नीदरलैंड्स में राष्ट्रीय स्तर पर आपातकालीन तत्परता और आपात प्रबंधन के लिए आंतरिक और साम्राज्य संबंधों का मंत्रालय उत्तरदायी है और यह राष्ट्रीय संकट केन्द्र (एनसीसी) का संचालन करता है। देश 25 सुरक्षा क्षेत्रों (veiligheidsregio) में विभाजित है। प्रत्येक सुरक्षा क्षेत्र तीन सेवाओं: पुलिस, अग्नि और एम्बुलेंस से लैस है। सभी क्षेत्र समन्वित क्षेत्रीय घटना प्रबंधन प्रणाली के अनुसार संचालित होते हैं। रक्षा मंत्रालय, जलमंडल, Rijkswaterstaat आदि जैसी अन्य सेवाएं
आपात प्रबंधन की प्रक्रिया में सक्रिय भूमिका निभा सकती हैं।
न्यूज़ीलैंड
न्यूज़ीलैंड में आपातकालीन स्थिति की प्रकृति या जोखिम न्यूनीकरण कार्यक्रम के आधार पर आपातकालीन प्रबंधन का दायित्व स्थानीय से राष्ट्रीय रूप धारण करता है। एक गंभीर तूफ़ान का सामना एक क्षेत्र विशेष के भीतर किया जा सकता है जबकि राष्ट्रीय सार्वजनिक शिक्षा अभियान केंद्र सरकार द्वारा ही निर्देशित किया जाएगा. प्रत्येक क्षेत्र के भीतर स्थानीय सरकारें 16 सिविल डिफ़ेन्स एमरजेंसी मैनेजमैंट ग्रुपों (CDEMGs) में एकीकृत हैं। प्रत्येक CDEMG का उत्तरदायित्व है कि वह सुनिश्चित करे कि स्थानीय आपातकालीन प्रबंधन यथासंभव सशक्त हो। चूंकि आपात स्थिति में स्थानीय बंदोबस्त कम पड़ जाते हैं, पहले से मौजूद परस्पर-समर्थित बंदोबस्त सक्रिय कर दिए जाते हैं। जैसाकि निश्चित है, नागरी रक्षा एवं आपातकाल प्रबंधन मंत्रालय (MCDEM) द्वारा संचालित राष्ट्रीय संकट प्रबंधन केंद्र (NCMC) के माध्यम से प्रतिक्रिया के समन्वयन का प्राधिकार केन्द्र सरकार के पास है। विनियमन इन संरचनाओं को परिभाषित करते हैं[24] और लगभग अमेरिकी फ़ेडरल आपातकालीन प्रबंधन एजेंसी के नेशनल रिस्पांस फ़्रेमवर्क के समतुल्य द गाइड टू द नेशनल सिविल डिफ़ेन्स एमरजेंसी प्लान 2006 में इनका बेहतर वर्णन है।
पारिभाषिक शब्दावली
आपातकालीन प्रबंधन के लिए न्यूज़ीलैंड अंग्रेज़ी-भाषी शेष विश्व के लिए अद्वितीय शब्दावली का उपयोग करता है।
4Rs शब्द का इस्तेमाल स्थानीय रूप से आपात प्रबंधन चक्र का वर्णन करने के लिए किया जाता है। न्यूज़ीलैंड में चार चरणों को निम्न रूप से जाना जाता है:[25]
कम करना = न्यूनीकरण
तैयारी = तत्परता
प्रतिक्रिया
उबरना
आपातकालीन प्रबंधन का प्रयोग स्थानीय स्तर पर शायद ही कभी किया जाता है, कई सरकारी प्रकाशन नागरी रक्षा शब्द का प्रयोग करते हैं।[26] उदाहरण के लिए, केंद्र सरकार की आपातकालीन प्रबंधन एजेंसी की ज़िम्मेदारी नागरी रक्षा मंत्री MCDEM पर है।
सिविल डिफ़ेन्स एमरजेंसी मैनेजमैंट अपने आप में एक शब्द है। अक्सर CDEM के रूप में संक्षिप्त, इसे कानून द्वारा आपदाओं से होने वाले नुकसान को रोकने वाले ज्ञान के रूप में परिभाषित किया गया है।[27]
आधिकारिक प्रकाशनों में आपदा बहुत कम आता है। न्यूज़ीलैंड के संदर्भ में आपातकाल और घटना शब्द आमतौर पर तब इस्तेमाल होते हैं जब सामान्य तौर पर आपदाओं के बारे में बात हो रही हो.[28] जब किसी आपात स्थिति की आधिकारिक प्रतिक्रिया होती है तो उसका ज़िक्र करते समय घटना शब्द का भी प्रयोग किया जाता है। उदाहरण के लिए, प्रकाशन "कैंटरबरी शो घटना 2002" का उल्लेख करते हैं।[29]
रूस
रूस में आपातकालीन परिस्थिति मंत्रालय (EMERCOM) अग्नि शमन, नागरी रक्षा, बचाव और खोज में कार्यरत है जिसमें प्राकृतिक और मानव-रचित आपदाओं के बाद बचाव सेवाएं भी शामिल हैं।
युनाइटेड किंगडम
2000 में यूके ईंधन विरोध, उसी वर्ष गंभीर बाढ़ और 2001 यूनाइटेड किंगडम पैर-और-मुंह संकट के बाद यूनाइटेड किंगडम ने आपात प्रबंधन की ओर अपना ध्यान केंद्रित किया। इसके परिणामस्वरूप सिविल आकस्मिकता अधिनियम 2004 (सीसीए) की रचना हुई जिसने कुछ संगठनों को रिस्पॉन्डर 1 और 2 के रूप में परिभाषित किया। कानून के तहत आपातकालीन तत्परता और प्रतिक्रिया के संबंध में इन रिस्पॉन्डर्स को उत्तरदायित्व सौंपे गए हैं। सीसीए का प्रबंधन क्षेत्रीय समुत्थान मंच के माध्यम से और स्थानीय प्राधिकरण स्तर पर सिविल आकस्मिकता सचिवालय द्वारा किया जाता है।
आपदा प्रबंधन प्रशिक्षण का आयोजन आम तौर पर किसी भी प्रतिक्रिया में शामिल संगठनों द्वारा स्थानीय स्तर पर किया जाता है। इसे आपातकालीन योजना कॉलेज में व्यावसायिक पाठ्यक्रम के माध्यम से समेकित किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त डिप्लोमा, पूर्वस्नातक और स्नातकोत्तर अर्हता देश भर में प्राप्त की जा सकती है - इस प्रकार का पहला पाठ्यक्रम 1994 में कोवेन्ट्री विश्वविद्यालय द्वारा चलाया गया था। सरकार, मीडिया और वाणिज्यिक क्षेत्रों के लिए परामर्श सेवाएं प्रदान कर रहा, 1996 में स्थापित आपातकालीन प्रबंधन संस्थान धर्माथ है।
आपातकालीन योजना सोसायटी आपातकालीन योजनाकारों की व्यावसायिक सोसायटी है।[30]
ब्रिटेन के सबसे बड़े में से एक आपातकालीन अभ्यास 20 मई 2007 को बेलफ़ास्ट के पास उत्तरी आयरलैंड में किया गया जिसमें बेलफ़ास्ट अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे में एक विमान दुर्घटना लैंडिंग का परिदृश्य शामिल था। पांच अस्पतालों और तीन हवाई अड्डों के कर्मचारियों ने इस ड्रिल में भाग लिया और लगभग 150 अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों ने इसकी प्रभावशीलता का मूल्यांकन किया।[31]
संयुक्त राज्य अमेरिका
होमलैंड सिक्योरिटी विभाग (DHS) के तहत संघीय आपात प्रबंधन एजेंसी (फ़ेमा) आपात प्रबंधन के लिए अग्रणी एजेंसी है। जोखिम मूल्यांकन प्रक्रिया में फ़ेमा द्वारा विकसित HAZUS सॉफ़्टवेयर पैकेज देश में प्रमुख है। अमेरिका और उसके क्षेत्र आपात प्रबंधन प्रयोजनों के लिए फ़ेमा के दस क्षेत्रों में से एक के अधीन आते हैं। आदिवासी, राज्य, काउंटी और स्थानीय सरकारें आपातकालीन प्रबंधन कार्यक्रम/विभाग विकसित करते हैं और प्रत्येक क्षेत्र के भीतर पदानुक्रम रूप से कार्य करते हैं। आपात स्थिति समीपवर्ती अधिकार-क्षेत्र के साथ आपसी सहायता समझौतों का उपयोग करते हुए यथासंभव स्थानीय स्तर पर संभाली जाती है। अगर आपात स्थिति आतंकवाद से संबंधित है या फिर "राष्ट्रीय महत्व की घटना" घोषित हो जाए, होमलैंड सिक्योरिटी के सचिव नेशनल रिस्पांस फ़्रेमवर्क (एनआरएफ़) आरंभ कर देंगे। इस योजना के तहत स्थानीय, काउंटी, राज्य या आदिवासी संस्थाओं के साथ मिलकर संघीय संसाधन की भागीदारी को संभव बनाया जाएगा. नेशनल इंसिडेंट मैनेजमैंट सिस्टम (एन आई एम एस) का उपयोग करते हुए यथासंभव
निम्नतर स्तर पर प्रबंधन को संभाला जाता रहेगा.
सिटीज़न कॉर्प्स स्थानीय रूप से प्रशासित और राष्ट्रीय स्तर पर DHS द्वारा समन्वित स्वयंसेवक सेवा कार्यक्रम का संगठन है जो सार्वजनिक शिक्षा, प्रशिक्षण और पहुँच के माध्यम से
जनता को आपातकालीन प्रतिक्रिया के लिए तैयार करता है। सिटीज़न कॉर्प्स का आपदा तत्परता और बुनियादी आपदा प्रतिक्रिया सिखाने पर केंद्रित एक कार्यक्रम कम्युनिटी एमरजेंसी रिस्पांस टीम है। जब आपदा के कारण पारंपरिक आपातकालीन सेवाएं शिथिल पड़ जाती हैं तब इन स्वयंसेवी टीमों का उपयोग आपातकालीन सहायता प्रदान करने के लिए किया जाता है।
अमेरिकी कांग्रेस ने प्रशांत एशिया क्षेत्र में आपदा तत्परता और सामाजिक समुत्थान को बढ़ावा देने के लिए मुख्य एजेंसी के रूप में आपदा प्रबंधन और मानवीय सहायता (COE) में उत्कृष्टता केंद्र की स्थापना की। घरेलू, विदेशी और अंतर्राष्ट्रीय योग्यता और क्षमता विकसित करने के लिए COE अपने जनादेश के भाग के रूप में आपदा तत्परता, परिणाम प्रबंधन और स्वास्थ्य सुरक्षा में शिक्षा और प्रशिक्षण को सुकर बनाता है।
इन्हें भी देखें
ब्रिटिश मानवतावादी एजेंसियों का संघ
आपदा जवाबदेही परियोजना (डीएपी)
अंतर्राष्ट्रीय आपदा आपातकालीन सेवा (इ डी इ एस)
नेटहोप
पूरक प्राकृतिक आपदा संरक्षण
जल सुरक्षा और आपातकालीन तत्परता
= सन्दर्भ =
इसे भी पढ़ें
आपातकालीन प्रबंधन का अंतर्राष्ट्रीय जर्नल, ISSN (इलेक्ट्रानिक) ISSN (लेख), इंडरसाइंस प्रकाशक
ISSN, बीप्रेस
(इलेक्ट्रानिक) (लेख), आपातकालीन प्रबंधन ऑस्ट्रेलिया
, स्वचालित आपदा प्रबंधन उपकरण विकसित करने वाले विश्वविद्यालयों का संघ
बाहरी कड़ियाँ
द एमरजेंसी रिस्पांस एंड सैल्वेज़ व्हील टूल
-विद्वानों के लिए जून 2008 में वुडरो विल्सन इंटरनेशनल सेंटर में आयोजित घटना का वीडियो, प्रस्तुतियां और सारांश
राष्ट्रीय अकादमियों द्वारा आयोजित आपदा गोलमेज़ कार्यशाला
- ब्रिटेन सरकार की सार्वजनिक जानकारी की साइट
व्यावसायिक सुरक्षा और स्वास्थ्य के लिए राष्ट्रीय संस्थान
आपात स्थिति प्रबंधन के लिए सूचना और संचार प्रौद्योगिकी (आईसीटी) उपयोग को समर्पित
स्टेट ऑफ़ अमेरिकाज़ क्लेक्शन्स पर 2005 की रिपोर्ट.
. आपातकालीन प्रबंधकों के लिए ऑनलाइन संसाधन.
.
श्रेणी:आपातकालीन प्रबंधन
श्रेणी:आपदा तत्परता
श्रेणी:व्यावसायिक सुरक्षा और स्वास्थ्य | संयुक्त राज्य द्वारा 'सिविल डिफ़ेंस' किस हमले से सुरक्षा के लिए प्रयुक्त किया गया था? | शीत युद्ध के दौरान परमाणु हमले से | 1,783 | hindi |
b99bb2cea | मलिक मुहम्मद जायसी (१४७७-१५४२) हिन्दी साहित्य के भक्ति काल की निर्गुण प्रेमाश्रयी धारा के कवि हैं। वे अत्यंत उच्चकोटि के सरल और उदार सूफ़ी महात्मा थे। जायसी मलिक वंश के थे। मिस्रमें सेनापति या प्रधानमंत्री को मलिक कहते थे। दिल्ली सल्तनत में खिलजी वंश राज्यकाल में अलाउद्दीन खिलजी ने अपने चाचा को मरवाने के लिए बहुत से मलिकों को नियुक्त किया था जिसके कारण यह नाम उस काल से काफी प्रचलित हो गया था। इरान में मलिक जमींदार को कहा जाता था व इनके पूर्वज वहां के निगलाम प्रान्त से आये थे और वहीं से उनके पूर्वजों की पदवी मलिक थी। मलिक मुहम्मद जायसी के वंशज अशरफी खानदान के चेले थे और मलिक कहलाते थे। फिरोज शाह तुगलक के अनुसार बारह हजार सेना के रिसालदार को मलिक कहा जाता था।[1] जायसी ने शेख बुरहान और सैयद अशरफ का अपने गुरुओं के रूप में उल्लेख किया है।[2]
जीवन
जायसी का जन्म सन १५०० के आसपास माना जाता है। वे उत्तर प्रदेश के जायस नामक स्थान के रहनेवाले थे।[3] उनके नाम में जायसी शब्द का प्रयोग, उनके उपनाम की भांति, किया जाता है। यह भी इस बात को सूचित करता है कि वे जायस नगर के निवासी थे। इस संबंध में उनका स्वयं भी कहना है-
जायस नगर मोर अस्थानू।
नगरक नांव आदि उदयानू।
तहां देवस दस पहुने आएऊं।
भा वैराग बहुत सुख पाएऊं॥ [4]
इससे यह पता चलता है कि उस नगर का प्राचीन नाम उदयान था, वहां वे एक पहुने जैसे दस दिनों के लिए आए थे, अर्थात उन्होंने अपना नश्वर जीवन प्रारंभ किया था अथवा जन्म लिया था और फिर वैराग्य हो जाने पर वहां उन्हें बहुत सुख मिला था। जायस नाम का एक नगर उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले में आज भी वर्तमान है, जिसका एक पुराना नाम उद्याननगर 'उद्यानगर या उज्जालिक नगर' बतलाया जाता है तथा उसके कंचाना खुर्द नामक मुहल्ले में मलिक मुहम्मद जायसी का जन्म-स्थान होना भी कहा जाता है।[1] कुछ लोगों की धारणा कि जायसी की किसी उपलब्ध रचना के अंतर्गत उसकी निश्चित जन्म-तिथि अथवा जन्म-संवत का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं पाया जाता। एक स्थल पर वे कहते हैं,
भा अवतार मोर नौ सदी।
तीस बरिख ऊपर कवि बदी॥ [5]
जिसके आधार पर केवल इतना ही अनुमान किया जा सकता है कि उनका जन्म संभवतः ८०० हि० एवं ९०० हि० के मध्य, तदनुसार सन १३९७ ई० और १४९४ ई० के बीच किसी समय हुआ होगा तथा तीस वर्ष की अवस्था पा चुकने पर उन्होंने काव्य-रचना का प्रारंभ किया होगा। पद्मावत का रचनाकाल उन्होंने ९४७ हि० [6] अर्थात १५४० ई० बतलाया है। पद्मावत के अंतिम अंश (६५३) के आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि उसे लिखते समय तक वे वृद्ध हो चुके थे।
उनके पिता का नाम मलिक राजे अशरफ़ बताया जाता है और कहा जाता है कि वे मामूली ज़मींदार थे और खेती करते थे। स्वयं जायसी का भी खेती करके जीविका-निर्वाह करना प्रसिद्ध है।
जायसी ने अपनी कुछ रचनाओं में अपनी गुरु-परंपरा का भी उल्लेख किया है। उनका कहना है, सैयद अशरफ़, जो एक प्रिय संत थे मेरे लिए उज्ज्वल पंथ के प्रदर्शक बने और उन्होंने प्रेम का दीपक जलाकर मेरा हृदय निर्मल कर दिया।। जायसी कुरुप व काने थे थे। एक मान्यता अनुसार वे जन्म से ऐसे ही थे किन्तु अधिकतर लोगों का मत है कि शीतला रोग के कारण उनका शरीर विकृत हो गया था। अपने काने होने का उल्लेख जायसी ने स्वयं ही इस प्रकार किया है - एक नयन कवि मुहम्मद गुनी। अब उनकी दाहिनी या बाईं कौन सी आंख फूटी थी, इस बारे में उन्हीं के इस दोहे को सन्दर्भ लिया जा सकता है:
मुहमद बाईं दिसि तजा, एक सरवन एक ऑंखि।
इसके अनुसार यह भी प्रतीति होती है कि उन्हें बाएँ कान से भी उन्हें कम सुनाई पड़ता था। जायस में एक कथा सुनने को मिलती है कि जायसी एक बार जब शेरशाह के दरबार में गए तो वह इन्हें देखकर हँस पड़ा। तब इन्होंने शांत भाव से पूछा - मोहिका हससि, कि कोहरहि? यानि तू मुझ पर हँसा या उस कुम्हार (ईश्वर) पर? तब शेरशाह ने लज्जित हो कर क्षमा माँगी। एक अन्य मान्यता अनुसार वे शेरशाह के दरबार में नहीं गए थे, बल्कि शेरशाह ही उनका नाम सुन कर उनके पास आया था। [7]
स्थानीय मान्यतानुसार जायसी के पुत्र दुर्घटना में मकान के नीचे दब कर मारे गए जिसके फलस्वरूप जायसी संसार से विरक्त हो गए और कुछ दिनों में घर छोड़ कर यहां वहां फकीर की भांति घूमने लगे। अमेठी के राजा रामसिंह उन्हें बहुत मानते थे। अपने अंतिम दिनों में जायसी अमेठी से कुछ दूर एक घने जंगल में रहा करते थे। लोग बताते हैं कि अंतिम समय निकट आने पर उन्होंने अमेठी के राजा से कह दिया कि मैं किसी शिकारी के तीर से ही मरूँगा जिस पर राजा ने आसपास के जंगलों में शिकार की मनाही कर दी। जिस जंगल में जायसी रहते थे, उसमें एक शिकारी को एक बड़ा बाघ दिखाई पड़ा। उसने डर कर उस पर गोली चला दी। पास जा कर देखा तो बाघ के स्थान पर जायसी मरे पड़े थे। जायसी कभी कभी योगबल से इस प्रकार के रूप धारण कर लिया करते थे।[7]
काजी नसरुद्दीन हुसैन जायसी ने, जिन्हें अवध के नवाब शुजाउद्दौला से सनद मिली थी, मलिक मुहम्मद का मृत्युकाल रज्जब ९४९ हिजरी (सन् १५४२ ई.) बताया है। इसके अनुसार उनका देहावसान ४९ वर्ष से भी कम अवस्था में सिद्ध होता है किन्तु जायसी ने 'पद्मावत' के उपसंहार में वृद्धावस्था का जो वर्णन किया है वह स्वत: अनुभूत - प्रतीत होता है। जायसी की कब्र अमेठी के राजा के वर्तमान महल से लगभग तीन-चैथाई मील के लगभग है। यह वर्तमान किला जायसी के मरने के बहुत बाद बना है। अमेठी के राजाओं का पुराना किला जायसी की कब्र से डेढ़ कोस की दूरी पर था। अत: यह धारणा प्रचलित है कि अमेठी के राजा को जायसी की दुआ से पुत्र हुआ और उन्होंने अपने किले के समीप ही उनकी कब्र बनवाई, निराधार है। इस बात के भी प्रमाण मिलते हैं कि अमेठी नरेश इनके संरक्षक थे। एक अन्य मान्यता अनुसार उनका देहांत १५५८ में हुआ।
कृतियाँ
उनकी २१ रचनाओं के उल्लेख मिलते हैं जिसमें पद्मावत, अखरावट, आख़िरी कलाम, कहरनामा, चित्ररेखा आदि प्रमुख हैं। पर उनकी ख्याति का आधार पद्मावत ग्रंथ ही है।[8] इसमें पद्मिनी की प्रेम-कथा का रोचक वर्णन हुआ है।[9] रत्नसेन की पहली पत्नी नागमती के वियोग का अनूठा वर्णन है।[10] इसकी भाषा अवधी है और इसकी रचना-शैली पर आदिकाल के जैन कवियों की दोहा चौपाई पद्धति का प्रभाव पड़ा है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने मध्यकालीन कवियों की गिनती में जायसी को एक प्रमुख कवि के रूप में स्थान दिया है। शिवकुमार मिश्र के अनुसार शुक्ल जी की दृष्टि जब जायसी की कवि प्रतिभा की ओर गई और उन्होंने जायसी ग्रंथावली का संपादन करते हुए उन्हें प्रथम श्रेणी के कवि के रूप में पहचाना, उसके पहले जायसी को इस रूप में नहीं देखा और सराहा गया था।[11] इसके अनुसार यह स्वाभाविक ही लगता है कि जायसी की काव्य प्रतिभा इन्हें मध्यकाल के दिग्गज कवि गोस्वामी तुलसीदास के स्तर कि लगती है। इसी कारण से उन्हें तुलसी के समक्ष जायसी से बड़ा कवि नहीं दिखा। शुक्ल जी के अनुसार जायसी का क्षेत्र तुलसी की अपेक्षा परिमित है, पर प्रेमवेदना अत्यंत गूढ़ है। [12][13]
इन्हें भी देखें
पद्मावत
भक्ति काल
भक्त कवियों की सूची
जायसी का बारहमासा
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
(इग्नका)
(कविता कोश में)
(भारत डिस्कवरी पर)
श्रेणी:लेखक
श्रेणी:हिन्दी साहित्य
श्रेणी:प्रेमाश्रयी शाखा के कवि | मलिक मुहम्मद जायसी ने पद्मावत पुस्तक किस साल में लिखी थी? | १५४० ई० | 2,060 | hindi |
77f84fbac | गुरु गोबिन्द सिंह (जन्म: 05 जनवरी 1666सिखों के दसवें गुरु थे। उनके पिता गुरू तेग बहादुर की मृत्यु के उपरान्त ११ नवम्बर सन १६७५ को वे गुरू बने। वह एक महान योद्धा, कवि, भक्त एवं आध्यात्मिक नेता थे। सन १६९९ में बैसाखी के दिन उन्होने खालसा पन्थ की स्थापना की जो सिखों के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण घटना मानी जाती है।
गुरू गोबिन्द सिंह ने सिखों की पवित्र ग्रन्थ गुरु ग्रंथ साहिब को पूरा किया तथा उन्हें गुरु रूप में सुशोभित किया। बिचित्र नाटक को उनकी आत्मकथा माना जाता है। यही उनके जीवन के विषय में जानकारी का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत है। यह दसम ग्रन्थ का एक भाग है। दसम ग्रन्थ, गुरू गोबिन्द सिंह की कृतियों के संकलन का नाम है।
उन्होने मुगलों या उनके सहयोगियों (जैसे, शिवालिक पहाडियों के राजा) के साथ १४ युद्ध लड़े। धर्म के लिए समस्त परिवार का बलिदान उन्होंने किया, जिसके लिए उन्हें 'सर्वस्वदानी' भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त जनसाधारण में वे कलगीधर, दशमेश, बाजांवाले आदि कई नाम, उपनाम व उपाधियों से भी जाने जाते हैं।
गुरु गोविंद सिंह जहां विश्व की बलिदानी परम्परा में अद्वितीय थे, वहीं वे स्वयं एक महान लेखक, मौलिक चिंतक तथा संस्कृत सहित कई भाषाओं के ज्ञाता भी थे। उन्होंने स्वयं कई ग्रंथों की रचना की। वे विद्वानों के संरक्षक थे। उनके दरबार में ५२ कवियों तथा लेखकों की उपस्थिति रहती थी, इसीलिए उन्हें 'संत सिपाही' भी कहा जाता था। वे भक्ति तथा शक्ति के अद्वितीय संगम थे।
उन्होंने सदा प्रेम, एकता, भाईचारे का संदेश दिया। किसी ने गुरुजी का अहित करने की कोशिश भी की तो उन्होंने अपनी सहनशीलता, मधुरता, सौम्यता से उसे परास्त कर दिया। गुरुजी की मान्यता थी कि मनुष्य को किसी को डराना भी नहीं चाहिए और न किसी से डरना चाहिए। वे अपनी वाणी में उपदेश देते हैं भै काहू को देत नहि, नहि भय मानत आन। वे बाल्यकाल से ही सरल, सहज, भक्ति-भाव वाले कर्मयोगी थे। उनकी वाणी में मधुरता, सादगी, सौजन्यता एवं वैराग्य की भावना कूट-कूटकर भरी थी। उनके जीवन का प्रथम दर्शन ही था कि धर्म का मार्ग सत्य का मार्ग है और सत्य की सदैव विजय होती है। इस बार सन् 2019 में 13जनवरी को गुरु गोविंद सिंह जी का जन्म दिन मनाया जाएगा।
गुरु गोबिन्द सिंह का जन्म
गुरु गोविंद सिंह का जन्म नौवें सिख गुरु गुरु तेगबहादुर और माता गुजरी के घर पटना में 05 जनवरी १६६६ को हुआ था। जब वह पैदा हुए थे उस समय उनके पिता असम में धर्म उपदेश को गये थे। उनके बचपन का नाम गोविन्द राय था। पटना में जिस घर में उनका जन्म हुआ था और जिसमें उन्होने अपने प्रथम चार वर्ष बिताये थे, वहीं पर अब तखत श्री पटना साहिब स्थित है।
१६७० में उनका परिवार फिर पंजाब आ गया। मर्च १६७२ में उनका परिवार हिमालय के शिवालिक पहाड़ियों में स्थित चक्क नानकी नामक स्थान पर आ गया। यहीं पर इनकी शिक्षा आरम्भ हुई। उन्होंने फारसी, संस्कृत की शिक्षा ली और एक योद्धा बनने के लिए सैन्य कौशल सीखा। चक नानकी ही आजकल आनन्दपुर साहिब कहलता है।
गोविन्द राय जी नित्य प्रति आनंदपुर साहब में आध्यात्मिक आनंद बाँटते, मानव मात्र में नैतिकता, निडरता तथा आध्यात्मिक जागृति का संदेश देते थे। आनंदपुर वस्तुतः आनंदधाम ही था। यहाँ पर सभी लोग वर्ण, रंग, जाति, संप्रदाय के भेदभाव के बिना समता, समानता एवं समरसता का अलौकिक ज्ञान प्राप्त करते थे। गोविन्द जी शांति, क्षमा, सहनशीलता की मूर्ति थे।
काश्मीरी पण्डितों का जबरन धर्म परिवर्तन करके मुसलमान बनाये जाने के विरुद्ध शिकायत को लेकर तथा स्वयं इस्लाम न स्वीकारने के कारण ११ नवम्बर १६७५ को औरंगजेब ने दिल्ली के चांदनी चौक में सार्वजनिक रूप से उनके पिता गुरु तेग बहादुर का सिर कटवा दिया। इसके पश्चात वैशाखी के दिन २९ मार्च १६७६ को गोविन्द सिंह सिखों के दसवें गुरु घोषित हुए।
१०वें गुरु बनने के बाद भी आपकी शिक्षा जारी रही। शिक्षा के अन्तर्गत लिखना-पढ़ना, घुड़सवारी तथा धनुष चलाना आदि सम्मिलित था। १६८४ में उन्होने चंडी दी वार कि रचना की। १६८५ तक आप यमुना नदी के किनारे पाओंटा नामक स्थान पर रहे।
गुरु गोबिन्द सिंह की तीन पत्नियाँ थीं। 21जून, 1677 को 10 साल की उम्र में उनका विवाह माता जीतो के साथ आनंदपुर से 10 किलोमीटर दूर बसंतगढ़ में किया गया। उन दोनों के 3 पुत्र हुए जिनके नाम थे – जुझार सिंह, जोरावर सिंह, फ़तेह सिंह। 4 अप्रैल, 1684 को 17 वर्ष की आयु में उनका दूसरा विवाह माता सुंदरी के साथ आनंदपुर में हुआ। उनका एक बेटा हुआ जिसका नाम था अजित सिंह। 15 अप्रैल, 1700 को 33 वर्ष की आयु में उन्होंने माता साहिब देवन से विवाह किया। वैसे तो उनका कोई संतान नहीं था पर सिख धर्म के पन्नों पर उनका दौर भी बहुत प्रभावशाली रहा।[1]
आनन्दपुर साहिब को छोड़कर जाना और वापस आना
अप्रैल 1685 में, सिरमौर this Sirmour belongs to Himanchal pradesh के राजा मत प्रकाश के निमंत्रण पर गुरू गोबिंद सिंह ने अपने निवास को सिरमौर राज्य के पांवटा शहर में स्थानांतरित कर दिया। सिरमौर राज्य के गजट के अनुसार, राजा भीम चंद के साथ मतभेद के कारण गुरु जी को आनंदपुर साहिब छोड़ने के लिए मजबूर किया गया था और वे वहाँ से टोका शहर चले गये। मत प्रकाश ने गुरु जी को टोका से सिरमौर की राजधानी नाहन के लिए आमंत्रित किया। नाहन से वह पांवटा के लिए रवाना हुऐ| मत प्रकाश ने गढ़वाल के राजा फतेह शाह के खिलाफ अपनी स्थिति मजबूत करने के उद्देश्य से गुरु जी को अपने राज्य में आमंत्रित किया था। राजा मत प्रकाश के अनुरोध पर गुरु जी ने पांवटा में बहूत कम समय में उनके अनुयायियों की मदद से एक किले का निर्माण करवाया। गुरु जी पांवटा में लगभग तीन साल के लिए रहे और कई ग्रंथों की रचना की। <ग्रंथों की सूची >
सन 1687 में नादौन की लड़ाई में, गुरु गोबिंद सिंह, भीम चंद, और अन्य मित्र देशों की पहाड़ी राजाओं की सेनाओं ने अलिफ़ खान और उनके सहयोगियों की सेनाओ को हरा दिया था। विचित्र नाटक (गुरु गोबिंद सिंह द्वारा रचित आत्मकथा) और भट्ट वाहिस के अनुसार, नादौन पर बने व्यास नदी के तट पर गुरु गोबिंद सिंह आठ दिनों तक रहे और विभिन्न महत्वपूर्ण सैन्य प्रमुखों का दौरा किया।
भंगानी के युद्ध के कुछ दिन बाद, रानी चंपा (बिलासपुर की विधवा रानी) ने गुरु जी से आनंदपुर साहिब (या चक नानकी जो उस समय कहा जाता था) वापस लौटने का अनुरोध किया जिसे गुरु जी ने स्वीकार किया। वह नवंबर 1688 में वापस आनंदपुर साहिब पहुंच गये।
1695 में, दिलावर खान (लाहौर का मुगल मुख्य) ने अपने बेटे हुसैन खान को आनंदपुर साहिब पर हमला करने के लिए भेजा। मुगल सेना हार गई और हुसैन खान मारा गया। हुसैन की मृत्यु के बाद, दिलावर खान ने अपने आदमियों जुझार हाडा और चंदेल राय को शिवालिक भेज दिया। हालांकि, वे जसवाल के गज सिंह से हार गए थे। पहाड़ी क्षेत्र में इस तरह के घटनाक्रम मुगल सम्राट औरंगज़ेब लिए चिंता का कारण बन गए और उसने क्षेत्र में मुगल अधिकार बहाल करने के लिए सेना को अपने बेटे के साथ भेजा।
खालसा पंथ की स्थापना
गुरु गोबिंद सिंह जी का नेतृत्व सिख समुदाय के इतिहास में बहुत कुछ नया ले कर आया। उन्होंने सन 1699 में बैसाखी के दिन खालसा जो की सिख धर्म के विधिवत् दीक्षा प्राप्त अनुयायियों का एक सामूहिक रूप है उसका निर्माण किया।
सिख समुदाय के एक सभा में उन्होंने सबके सामने पुछा – "कौन अपने सर का बलिदान देना चाहता है"? उसी समय एक स्वयंसेवक इस बात के लिए राज़ी हो गया और गुरु गोबिंद सिंह उसे तम्बू में ले गए और कुछ देर बाद वापस लौटे एक खून लगे हुए तलवार के साथ। गुरु ने दोबारा उस भीड़ के लोगों से वही सवाल दोबारा पुछा और उसी प्रकार एक और व्यक्ति राज़ी हुआ और उनके साथ गया पर वे तम्बू से जब बहार निकले तो खून से सना तलवार उनके हाथ में था। उसी प्रकार पांचवा स्वयंसेवक जब उनके साथ तम्बू के भीतर गया, कुछ देर बाद गुरु गोबिंद सिंह सभी जीवित सेवकों के साथ वापस लौटे और उन्होंने उन्हें पंज प्यारे या पहले खालसा का नाम दिया।
उसके बाद गुरु गोबिंद जी ने एक लोहे का कटोरा लिया और उसमें पानी और चीनी मिला कर दुधारी तलवार से घोल कर अमृत का नाम दिया। पहले 5 खालसा के बनाने के बाद उन्हें छठवां खालसा का नाम दिया गया जिसके बाद उनका नाम गुरु गोबिंद राय से गुरु गोबिंद सिंह रख दिया गया। उन्होंने पांच क</b>कारों का महत्व खालसा के लिए समझाया और कहा – केश, कंघा, कड़ा, किरपान, कच्चेरा।[2]
इधर 27 दिसम्बर सन् 1704 को दोनों छोटे साहिबजादे और जोरावतसिंह व फतेहसिंहजी को दीवारों में चुनवा दिया गया। जब यह हाल गुरुजी को पता चला तो उन्होंने औरंगजेब को एक जफरनामा (विजय की चिट्ठी) लिखा, जिसमें उन्होंने औरगंजेब को चेतावनी दी कि तेरा साम्राज्य नष्ट करने के लिए खालसा पंथ तैयार हो गया है।
8 मई सन् 1705 में 'मुक्तसर' नामक स्थान पर मुगलों से भयानक युद्ध हुआ, जिसमें गुरुजी की जीत हुई। अक्टूबर सन् 1706 में गुरुजी दक्षिण में गए जहाँ पर आपको औरंगजेब की मृत्यु का पता लगा। औरंगजेब ने मरते समय एक शिकायत पत्र लिखा था। हैरानी की बात है कि जो सब कुछ लुटा चुका था, (गुरुजी) वो फतहनामा लिख रहे थे व जिसके पास सब कुछ था वह शिकस्त नामा लिख रहा है। इसका कारण था सच्चाई। गुरुजी ने युद्ध सदैव अत्याचार के विरुद्ध किए थे न कि अपने निजी लाभ के लिए।
औरंगजेब की मृत्यु के बाद आपने बहादुरशाह को बादशाह बनाने में मदद की। गुरुजी व बहादुरशाह के संबंध अत्यंत मधुर थे। इन संबंधों को देखकर सरहद का नवाब वजीत खाँ घबरा गया। अतः उसने दो पठान गुरुजी के पीछे लगा दिए। इन पठानों ने गुरुजी पर धोखे से घातक वार किया, जिससे 7 अक्टूबर 1708 में गुरुजी (गुरु गोबिन्द सिंह जी) नांदेड साहिब में दिव्य ज्योति में लीन हो गए। अंत समय आपने सिक्खों को गुरु ग्रंथ साहिब को अपना गुरु मानने को कहा व खुद भी माथा टेका। गुरुजी के बाद माधोदास ने, जिसे गुरुजी ने सिक्ख बनाया बंदासिंह बहादुर नाम दिया था, सरहद पर आक्रमण किया और अत्याचारियों की ईंट से ईंट बजा दी।
गुरु गोविंदजी के बारे में लाला दौलतराय, जो कि कट्टर आर्य समाजी थे, लिखते हैं 'मैं चाहता तो स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद, परमहंस आदि के बारे में काफी कुछ लिख सकता था, परंतु मैं उनके बारे में नहीं लिख सकता जो कि पूर्ण पुरुष नहीं हैं। मुझे पूर्ण पुरुष के सभी गुण गुरु गोविंदसिंह में मिलते हैं।' अतः लाला दौलतराय ने गुरु गोविंदसिंहजी के बारे में पूर्ण पुरुष नामक एक अच्छी पुस्तक लिखी है।
इसी प्रकार मुहम्मद अब्दुल लतीफ भी लिखता है कि जब मैं गुरु गोविंदसिंहजी के व्यक्तित्व के बारे में सोचता हूँ तो मुझे समझ में नहीं आता कि उनके किस पहलू का वर्णन करूँ। वे कभी मुझे महाधिराज नजर आते हैं, कभी महादानी, कभी फकीर नजर आते हैं, कभी वे गुरु नजर आते हैं।
सिखों के दस गुरू हैं।
एक हत्यारे से युद्ध करते समय गुरु गोबिंद सिंह जी के छाती में दिल के ऊपर एक गहरी चोट लग गयी थी। जिसके कारण 18 अक्टूबर, 1708 को 42 वर्ष की आयु में नान्देड में उनकी मृत्यु हो गयी। [3]
रचनायें
जाप साहिब: एक निरंकार के गुणवाचक नामों का संकलन
अकाल उस्तत: अकाल पुरख की अस्तुति एवं कर्म काण्ड पर भारी चोट
बचित्र नाटक: गोबिन्द सिंह की सवाई जीवनी और आत्मिक वंशावली से वर्णित रचना
चण्डी चरित्र - ४ रचनाएँ - अरूप-आदि शक्ति चंडी की स्तुति। इसमें चंडी को शरीर औरत एवंम मूर्ती में मानी जाने वाली मान्यताओं को तोड़ा है। चंडी को परमेशर की शक्ति = हुक्म के रूप में दर्शाया है। एक रचना मार्कण्डेय पुराण पर आधारित है।
शास्त्र नाम माला: अस्त्र-शस्त्रों के रूप में गुरमत का वर्णन।
अथ पख्याँ चरित्र लिख्यते: बुद्धिओं के चाल चलन के ऊपर विभिन्न कहानियों का संग्रह।
ज़फ़रनामा: मुगल शासक औरंगजेब के नाम पत्र।
खालसा महिमा: खालसा की परिभाषा और खालसा के कृतित्व।
सन्दर्भ
इन्हें भी देखें
खालसा
दशम ग्रन्थ
तखत श्री पटना साहिब
हजूर साहिब (नान्देड)
बाहरी कड़ियाँ
(सरदार गुरचरन सिंह गिल)
- ६ गुरुओं, ३० संतों एवं ३ गुरुघर के श्रद्धालुओ की बाणी का संग्रह
श्रेणी:सिख धर्म
श्रेणी:सिख धर्म का इतिहास
श्रेणी:व्यक्तिगत जीवन
श्रेणी:गुरु गोविंद सिंह | गुरु गोबिंद सिंह के पिता कौन थे? | तेग बहादुर | 77 | hindi |
7ef9a1305 | ब्लेक लिवली (जन्म 25 अगस्त 1987) एक अमरीकी फिल्म एवं टेलीविजन अभिनेत्री हैं। वह पुस्तक-आधिरित टी.वी. श्रृंखला गोसिप गर्ल में सेरेना वैन डेर वुड्सन के चित्रण के लिए जानी जाती हैं। उन्होंने एक्सेप्टेड एवं द सिस्टरहुड ऑफ़ द ट्रेवलिंग पेंट्स, साथ ही इसकी अगली कड़ी द सिस्टरहुड ऑफ़ द ट्रेवलिंग पैंट्स 2 जैसी फिल्मों में काम किया है।
प्रारंभिक जीवन
लिवली का जन्म लॉस एंजिल्स में हुआ था तथा अभिनेत्री एलेन एवं अभिनेताएर्नी उनके माता-पिता हैं। उनका पालन-पोषण एक दक्षिणी बपतिस्मा-दाता[1] की तरह हुआ। लिवली पांच भाई-बहनों में सबसे छोटी हैं,[2] उनका एरिक नाम का एक भाई, लोरी और रोबिन नाम की दो सौतेली बहिनें और एक सौतेला भाई जेसन है। उनके माता-पिता एवं सभी भाई-बहन मनोरंजन क्षेत्र से जुड़े हुए हैं।[3] बचपन में उनके माता-पिता उन्हें दाई के साथ नहीं छोड़ना चाहते थे इसीलिए लिवली को अपने साथ उन अभिनय कक्षाओं में ले जाते थे जहां वो अभिनय की शिक्षा दिया करते थे।[3] लिवली बताती हैं कि अपने माता-पिता को अभिनय सिखाते हुए देखने से बढे होने पर उन्हें अभिनय की बारीकियां सीखने एवं आत्मविश्वास पैदा करने में बहुत मदद मिली.[2][3] लिवली बताती हैं कि बचपन में उनकी माँ सप्ताह में दो बार उन्हें डिजनीलैंड ले जाती थीं जो उनके लिए "बच्चों के करीब आने के लिए एक अतिरिक्त अवसर" की तरह था वहाँ बिताये गए समय के कारण उन्होंने महसूस किया कि जैसे वह डिजनीलैंड में बड़ी हुई हैं।[2]
बचपन में कपड़ों के प्रति रूचि के लिए उनकी माँ ने उन्हें प्रेरित किया, जोकि जॉर्जिया की एक पूर्व मॉडल थीं।[4] बचपन में उनकी माँ उनके लिए कपड़े सिलती थीं और बुटीक्स और पुरानी दुकानों से कपडे लाकर पहनाती थीं। वे बड़े कपड़ों को उसके नाप का बना दिया करती थीं। लिवली बताती हैं कि वह ऐसा इसीलिए करती थीं क्योंकि वह बहुत रचनात्मक थीं और इसलिए क्योंकि वह नहीं चाहती थीं कि मैं अन्य बच्चों कि तरह प्लास्टिक क्लिप के साथ कसी हुई बड़ी-बड़ी टी-शर्ट पहनूं.[4] लिवली ने बताया कि जब उन्होंने अपने जीवन में पहली और एकमात्र बार लॉस एंजिल्स के एक निजी स्कूल में दूसरे दर्जे में दाखिला लिया था तो अपने कपड़ों की वजह से वे स्कूल में फिट नहीं हो सकीं थीं। वे बताती हैं "वह एक अकेला स्कूल था जहां मेरे लिए लोग एकदम बुरे थे मतलब [...] वे मेरा मजाक उड़ाते थे, क्योंकि मैं अन्य बच्चों से अलग कपडे पहनती थी।"[4]
बचपन में, लिवली ने 13 विभिन्न स्कूलों में दाखिला लिया। जब वह तीन साल की थीं तब उनकी माँ ने उन्हें पहली कक्षा में दाखिला दिलाया क्योंकि लिवली का बड़ा भाई स्कूल शुरू करने वाला था और वह अकेले नहीं जाना चाहता था। लिवली की लम्बाई अधिक होने की वजह से लिवली कि माँ ने स्कूलवालों को उनकी उम्र छह साल बताई.[2] लिवली बताती हैं कि कुछ हफ्तों के बाद, मेरे शिक्षकों ने मुझे मानसिक रूप से विकलांग बच्चों की कक्षाओं में बिठाने की बात कही क्योंकि मैं अन्य बच्चों की गति के साथ नहीं चल पा रही थी, जिस कारण उन्होंने सोचा कि मैं धीमी हूँ क्योंकि जब अन्य बच्चे उनके प्रोजेक्ट कर रहे होते थे तब मैं सिर्फ सोना चाहती थी। बाद में शीघ्र ही लिवली की माँ ने उन्हें स्कूल से निकाल लिया।[2] लिवली ने बुरबंक के बुरबंक हाई स्कूल में दाखिला लिया; स्कूल में उन्होंने बुरबंक हाई स्कूल के गायक-मंडली प्रदर्शन, इन सिंक (In Sync) में हिस्सा लिया और जिसमें वे चीयरलीडर बनीं.[5] अभिनय पेशे को अपनाने का निर्णय लेने के पूर्व लिवली ने हाई स्कूल पूरा करने के बाद स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय में दाखिला लेने की योजना बनाई थी।[3] जब ब्लेक पंद्रह साल की थीं तब उनका बड़ा भाई एरिक दो महीने के यूरोप के भव्य दौरे के लिए उन्हें उसे स्कूल से बाहर ले गया। यात्रा के समय ज्यादातर समय एरिक ने यही बात करने की कोशिश में बिताया कि लिवली को अभिनय पेशा अपनाना चाहिए.[3]
ब्लेक लिवली की अभिनय में कोई दिलचस्पी नहीं थी, लेकिन उनकी जूनियर और सीनियर वर्षों की गर्मियों के दौरान, उनके भाई एरिक ने अपने एजेंट की मदद से कुछ ऑडिशन्स के लिए कुछ महीनों के लिए लिवली को बाहर भेजा और उन ऑडिशन्स में से एक में उन्हें चुन लिया गया और द सिस्टरहुड ऑफ़ द ट्रेवलिंग पेंट्स में उन्हें ब्रिड्गेत का किरदार मिला.[6] द सिस्टरहुड ऑफ़ द ट्रेवलिंग पैंट्स में अपने फ़िल्मी दृश्यों को लिवली ने बुरबंक हाई स्कूल में अपने जूनियर और सीनियर वर्षों के बीच फिल्माया.[6] 2008 में लिवली ने कहा था कि, हालांकि "गोस्सिप गर्ल " फिल्माने की प्रतिबद्धता के कारण निकट भविष्य में स्टैनफोर्ड नहीं जा सकेंगी पर उन्होंने विश्वविद्यालय की शिक्षा का विचार पूरी तरह से त्यागा नहीं है।[6] उन्होंने कहा था कि सप्ताह में एक दिन कोलंबिया विश्वविद्यालय जाने की संभावना है और स्कूल जाने के लिए सक्षम होने का विकल्प ही गोस्सिप गर्ल में उनका किरदार स्वीकार करने का एक कारण था; हालांकि अभी तक उन्होंने किसी भी कक्षा में दाखिला नहीं लिया है।[6]
पेशा
लिवली ने 11 साल की उम्र में अपने अभिनय पेशे की शुरुआत की, उनकी पहली फिल्म सेंडमेन थी जो 1998 में बनी थी और जिसे उनके पिता द्वारा निर्देशित किया गया था। लिवली बताती हैं कि इस फिल्म में उनका रोल बहुत छोटा था।[7] लगभग सात साल तक अभिनय से दूर रहने के बाद, 2005 में लिवली उसी नाम के उपन्यास द सिस्टरहुड ऑफ़ द ट्रेवलिंग पैंट्स के फिल्म रूपांतर में दिखाई दीं. लिवली ने इस फिल्म में अमेरिका फेरेरा, अम्बर टेम्ब्लिन एवं अलेक्सिस ब्लेडेल के साथ चार भूमिकाओं में से एक मुख्य भूमिका "ब्रिड्गेत" के किरदार को निभाया. फिल्म में अच्छे प्रदर्शन के कारण लिवली ने "च्वाइस मूवी ब्रेकआउट-महिला" के लिए टीन चोइइस पुरस्कार के लिए नामांकन अर्जित किया। $ 42 लाख बॉक्स ऑफिस राजस्व के साथ, यह फिल्म लिवली की सबसे बड़ी वाणिज्यिक सफल फिल्म थी जब तक कि इसी फिल्म की अगली कड़ी ने इसे कमाई में पीछे नहीं किया।[8]
2006 में, उन्होंने "एक्सेप्टेड " में जस्टिन लांग के साथ उनकी सहनायिका का किरदार निभाया एवं "साइमन सेज " हॉरर फिल्म में वे रोबिन, एर्नी और लोरी नाम के अपने बड़े भाई-बहन के साथ छोटी भूमिकाओं में नजर आयीं. जबकि एक्सेप्टेड को आलोचकों की उतनी सराहना नहीं मिली परन्तु लिवली को फिल्म में अच्छे प्रदर्शन के लिए "ब्रेक्थ्रू पुरस्कार" की श्रेणी में होलीवुड जीवन द्वारा पुरुस्कृत किया गया। 2007 में, एल्विस एंड अनाबेल्ले फिल्म में लिवली ने फिल्म के दो मुख्य किरदारों में से एक "अनाबेल्ले" की भूमिका निभाई, जिसका किरदार एक बुलिमिक लड़की का था और जो एक सौंदर्य प्रतियोगिता जीतना चाहती थी। उस भूमिका के चरित्र में उतरने के लिए लिवली को बहुत ज्यादा वजन कम करने को कहा गया, ताकि अच्छी तरह से उस चरित्र की ऊंचाई दर्शाई जा सके. उनके अनुसार "मैंने सोचा कि ब्यूटी क्वीन्स हमेशा स्वस्थ दिखती हैं [...] इसलिए मैंने वजन घटाया और मैं स्वस्थ दिखने लगी. इतनी स्वस्थ मैं पहले कभी नहीं थी। मैंने सभी खाद्य पदार्थों को खाना छोड़ दिया था और एस्पेरागस और ब्रोकोली के साथ जॉर्ज फोरमैन ग्रिल पर पकाए गए मुर्ग-स्तनों को खाती थी।"[9] लिवली ने बताया कि उनके लिए यह प्रक्रिया मुश्किल थी क्योंकि भोजन उनके जीवन का पहला प्यार था।[9] मूवीलाइन डोट कॉम (MovieLine.Com) ने इस फिल्म में उनके प्रदर्शन की प्रशंसा की और उनकी भूमिका को उत्कृष्ट-भूमिका के रूप में आकलित किया।[10]
लिवली को सी.डब्ल्यू.(CW) की श्रृंखला गोसिप गर्ल के लिए चुना गया, जिसका सितंबर 2007 में प्रीमियर हुआ था। उन्होंने किशोरों पर आधारित इस नाटक में सेरेना वैन डेर वुडसेन की भूमिका निभाई.[11] जबकि गोसिप गर्ल के सितारों के बीच अंदरूनी झगडे की अफवाहें पत्रिकाओं में परिचालित हुईं हैं, परन्तु लिवली ऐसी किसी अमित्रवत प्रतिस्पर्धा के होने का खंडन करती हैं। उनका कहना हैं कि "मीडिया हमेशा हमें एक दूसरे के खिलाफ भड़काने की कोशिश में लगी रहती है" क्यूंकि मुझे लगता है कि यह कहना उतना दिलचस्प नहीं लगता है कि 'सब साथ रहते हैं; दिन के 18 घंटे काम करते हैं और फिर घर जाकर सो जाते हैं। मुझे लगता है यह पढ़कर लोगों को मजा नहीं आता.[3] कॉस्मो गर्ल पत्रिका, पहली पत्रिका थी जिसने अपने नवंबर 2007 के अंक के कवर पर उनका फोटो छापा था और जहाँ उन्होंने हाई स्कूल में अपने समय एवं गोसिप गर्ल से पहले के कैरियर के बारे में बताया था।[12]
2008 में, द सिस्टरहुड ऑफ़ द ट्रेवलिंग पैंट्स की अगली कड़ी द सिस्टरहुड ऑफ़ द ट्रेवलिंग पैंट्स 2 में लिवली ने फेरेरा, ब्लेडेल एवं टेम्ब्लिन के साथ अपनी भूमिका को दुहराया. पूर्ववर्ती फिल्म की तरह लिवली, उनकी तीन सह-अभिनेत्रियों और फिल्म के प्रति आलोचकों की सकारात्मक प्रतिक्रिया रही.[13][14] जैसा कि नवम्बर 2009 तक, फिल्म की बॉक्स ऑफिस पर कमाई $ 44 लाख से अधिक थी जोकि इसकी पूर्ववर्ती से थोडा ज्यादा थी, जिस कारण यह लिवली की अब तक की सबसे अधिक व्यवसायिक सफल फिल्म बन गई है।[15] 2009 में, लिवली एक हास्य फिल्म न्यूयोर्क, आई लव यू में गेब्रिएल डिमार्को की छोटी सी भूमिका में बहुत सारे कलाकारों के साथ नजर आईं थीं, जो 2006 में बनी फिल्म पेरिस जे टेम (Paris, je t'aime) की अगली कड़ी थी। अन्य कलाकारों में शिया लाबौफ, नेटली पोर्त्मान, हैडन क्रिसटेंसन, रशेल बिलसन और ऑरलैंडो ब्लूम शामिल थे। इसी की पूर्ववर्ती फिल्म की तरह यह भी लघु फिल्मों को जोड़कर एवं प्यार को तलाशने के विषय पर है बनाई गई थी।[16] आलोचकों की सकारात्मक प्रतिक्रिया के बावजूद, बॉक्स ऑफिस पर इस फिल्म का प्रदर्शन कमजोर रहा.[16][17]
लिवली द्वारा अब तक की सबसे अधिक प्रशंसित भूमिका द प्राइवेट लाइव्स ऑफ़ द पिप्पा ली (2009) में उनके द्वारा की गई सहायक भूमिका है, जिसमें उन्होंने मुख्य किरदार के युवा-संस्करण की भूमिका की है।[18] ब्रिसबेन टाइम्स (BrisbaneTimes) के पॉल ब्य्र्नेस ने फिल्म में लिवली के प्रदर्शन को "संवेदनात्मक" बताया.[19] फिल्म में कीनू रीव्स, विनोना राइडर और रॉबिन राइट पेन्न को भी अभिनीत किया गया है। इसे पहली बार टोरंटो अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में दिखाया गया था और 27 नवम्बर को संयुक्त राज्य अमेरिका में सीमित रूप से इसके रिलीज की योजना है।[20] 2010 में आने वाली चुक होगन के उपन्यास: प्रिंस ऑफ़ थीव्स पर आधारित फिल्म द टाउन के लिए, लिवली ने कफलिन क्रिस्टा के रूप में अपनी भूमिका के लिए अक्टूबर 2009 में दृश्य फिल्माने शुरू कर दिए थे।[21] इस फिल्म में लिवली का किरदार जेम की बहिन और डफ की पुरानी प्रेमिका का है जो एक 19 महीने की बेटी शाइन की मां भी है।[22] इस फिल्म में, बेन अफलेक को भी लिया गया है, फिल्म वर्तमान में निर्माणाधीन है एवं सितंबर 2010 में रिलीज होगी. मेरी क्लेयर के साथ एक साक्षात्कार में लिवली ने कहा था कि अभिनेत्री के रूप में उनके पेशे पर उने भरोसा नहीं है, इसीलिए वापसी पर विकल्प के तौर पर वो खुद की इंटीरियर डेकोरेटिंग फर्म खोलना चाहती हैं क्यूंकि उन्हें रंग, डिजाइन और परती सामान बहुत आकर्षित करते हैं।[2][23] जनवरी 2010 में लिवली के सुपर हीरो फिल्म ग्रीन लेन्टर्न में करोल फेरिस की भूमिका में अभिनीत होने की घोषणा की गई जो 2011 में रिलीज होगी.[24]
निजी जीवन
ब्लेक लिवली और अभिनेता केली ब्लेत्ज़ के बीच 2004 से 2007 तक प्रेम सम्बन्ध रहे, दोनों बचपन के दोस्त हैं।[25] 2007 के अंत में, लिवली के गोसिप गर्ल सह-अभिनेता एवं उनके बचपन के सहपाठी पेन बडग्ली के साथ प्रेम सम्बन्ध होने की भी अफवाहें फैलीं.[26] मई 2008 में प्यूपिल पत्रिका (People magazine) द्वारा मैक्सिको में छुट्टी के समय दोनों के चुम्बन के फोटो प्रकाशित होने के बाद से उनके रिश्ते में और अधिक खुलापन आ गया है।[27][28] यथा 2007 से दोनों के बीच प्रेम सम्बन्ध हैं। लिवली को खाना पकाना बहुत अच्चा लगता है और वे उसे अपना शौंक समझती हैं।[4][7] नवंबर 2009 तक, लिवली तांबे के रंग के मल्टीपू नस्ल के एक पालतू कुत्ते की मालकिन हैं जिसका नाम पेनी है।[3][4]
लिवली प्रतिवर्ष कई मुख्य पत्रिकाओं के कवर पर दिखाई दी हैं। 2007 की सूची में कोस्मो गर्ल (नवंबर).[5] 2008 की सूची में ; लकी (जनवरी), टीन वोग (मार्च), नायलॉन (मई;गोसिप गर्ल की सहनायिका मीस्टर के साथ), सेवनटीन (अगस्त), गर्ल्स लाइफ (अगस्त; द सिस्टरहुड ऑफ़ द ट्रेवलिंग पैंट्स के सह-कलाकार टेम्ब्लिन, ब्लेडेल एवं फेरेरा के साथ), वैनिटी फेयर (अगस्त; क्रिस्टिन स्टीवर्ट, अमांडा सेफ्रिड एवं एम्मा रोबर्ट्स के साथ)[29] और कॉस्मोपॉलिटन (सितम्बर) पत्रिकाएं शामिल हैं।[5] 2009 में सूची में सम्मिलित पत्रिकाओं के नाम: वोग (फरवरी कवर),[4] अल्लुरे (मई),[7] रॉलिंग स्टोन (अप्रैल),[5] यू॰के॰ग्लैमर (अगस्त),[30] नायलॉन (नवंबर) और मेरी क्लेयर (दिसंबर) हैं।[2] जनवरी 2009 में, यू॰के॰ग्लैमर द्वारा लिवली को "35 मोस्ट स्टाइलिश वोमेन टु लुक आउट फॉर" के लिए सर्वश्रेष्ट 35 में से एक चुना गया था।[31] मैक्सिम पत्रिका ने लिवली को हॉट 100 की सूची में 2009 में 33 वें एवं 2010 में चौथे स्थान पर रखा.[32]
2008 में संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव के दौरान लिवली ने जॉन मेकेन के विरुद्ध बेरक ओबामा के लिए समर्थन व्यक्त किया। लिवली और बेडग्ली, बेरक ओबामा-समर्थक एक विज्ञापन में दिखाई दिए, जो कि मूव ओन'स युवा मत कार्यक्रम का एक हिस्सा था। डफ लिमोन द्वारा निर्देशित यह विज्ञापन गोसिप गर्ल के दौरान सी.डब्ल्यु.(CW), एमटीवी (MTV) और कॉमेडी सेंट्रल Comedy Central) पर प्रसारित किया जाता था।[33] बेवकूफ के रूप में लिवली की तुलना पेरिस हिल्टन से की जाती है। जिसके बारे में लिवली का कहना है कि उनके और पेरिस हिल्टन के बीच केवल यही समानता है कि हम दोनों के पास एक छोटा कुत्ता है और हम दोनों के बाल सुनहरे हैं, बाकी कुछ भी सामान नहीं है, क्यूंकि उन्हें हिल्टन की तरह क्लब, पार्टियों में जाना, टेबल पर डांस करना और सेक्स टेप पसंद नहीं हैं।[34] उनके अनुसार वे दूसरों के लिए बहुत प्यार करने वाली और भरोसेमंद इन्सान हैं; जो उनके और गोसिप गर्ल में उनके चरित्र सेरेना के बीच सामानता रखने वाली अन्य बातों में से एक है।[34]
अगस्त 2009 के दौरान यू॰के॰ग्लैमर के साथ एक साक्षात्कार में लिवली ने कहा था कि वे अपनी सुन्दरता और वजन की चिंता सबसे ज्यादा तब करती हैं जब उन्हें कोई कपडे दिखाने वाला दृश्य फिल्माना होता है-क्यूंकि वो खाने से सम्बंधित कोई परहेज नहीं करतीं. उन्होंने यू॰के॰ग्लैमर के अगस्त अंक में कहा: "मैं बहुत तंग कपड़े पहनने से डरती हूँ, मुझमें इच्छाशक्ति की कमी है।" "मुझे दो सालों में पहली बार ब्रा और शॉर्ट्स में एक दृश्य करना था [...] शूटिंग के दिन, खाने में मैंने एक पोर्क बुरितो, चिप्स और कोक लिया। बाद में मैंने सोचा, 'शायद मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था' लेकिन कोई बात नहीं"[30] लिवली ने उसी साक्षात्कार में यह भी कहा कि "मैंने कभी व्यायाम नहीं किया" पर सोचती हूँ कि अगर मैंने किया होता तो मैं "बेहतर" महसूस कर पाती और कहा कि "वे एक ट्रेनर रखने की योजना बना रही हैं".[30]
फिल्मोग्राफी (फिल्मों की सूची)
पुरस्कार
पुरस्कार वर्ष परिणाम पुरस्कार श्रेणी नामांकित कार्य 2005Nominated टीन च्वाइस पुरुस्कार च्वाइस फ़िल्म: ब्रेकआउट महिला द सिस्टरहुड ऑफ़ द ट्रेवलिंग पैंट्स 2008 च्वाइस आकर्षक महिला हरसेल्फWon च्वाइस टीवी एक्ट्रेस ड्रामा गोसिप गर्ल च्वाइस टी.वी. ब्रेकआउट स्टार-महिला न्यूपोर्ट बीच फिल्म समारोह उपलब्धि पुरस्कार- ब्रेकआउट प्रदर्शन एल्विस एंड अनाबेल्ले 2009Nominated प्रिस्म पुरस्कार एक नाटक प्रकरण में प्रदर्शन गोसिप गर्ल टीन च्वाइस पुरस्कार च्वाइस टीवी एक्ट्रेस ड्रामा 2010 पीपल्स चोइस पुरस्कार फेवरिट टीवी ड्रामा एक्ट्रेस टीन च्वाइस पुरस्कार च्वाइस टीवी एक्ट्रेस ड्रामा
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
CW पर
गाइड टीवी पर
श्रेणी:1987 में जन्मे लोग
श्रेणी:कैलिफ़ोर्निया की अभिनेत्री
श्रेणी:अमेरिकी फिल्म कलाकार
श्रेणी:अमेरिकी टेलीविज़न कलाकार
श्रेणी:अमेरिकी ईसाई
श्रेणी:संयुक्त राज्य अमेरिका के बैप्टिस्ट
श्रेणी:जीवित लोग
श्रेणी:तर्ज़ाना, लॉस एंजिल्स के लोग
श्रेणी:सैन फरनान्डो घाटी के लोग
श्रेणी:गूगल परियोजना | अभिनेत्री ब्लेक लिवली की माता का क्या नाम है? | एलेन | 398 | hindi |
57034a549 | दीपावली या दीवाली अर्थात "रोशनी का त्योहार" शरद ऋतु (उत्तरी गोलार्द्ध) में हर वर्ष मनाया जाने वाला एक प्राचीन हिंदू त्योहार है।[1][2] दीवाली भारत के सबसे बड़े और प्रतिभाशाली त्योहारों में से एक है। यह त्योहार आध्यात्मिक रूप से अंधकार पर प्रकाश की विजय को दर्शाता है।[3][4][5]
भारतवर्ष में मनाए जाने वाले सभी त्यौहारों में दीपावली का सामाजिक और धार्मिक दोनों दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व है। इसे दीपोत्सव भी कहते हैं। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ अर्थात् ‘अंधेरे से ज्योति अर्थात प्रकाश की ओर जाइए’ यह उपनिषदों की आज्ञा है। इसे सिख, बौद्ध तथा जैन धर्म के लोग भी मनाते हैं। जैन धर्म के लोग इसे महावीर के मोक्ष दिवस के रूप में मनाते हैं[6][7] तथा सिख समुदाय इसे बन्दी छोड़ दिवस के रूप में मनाता है।
माना जाता है कि दीपावली के दिन अयोध्या के राजा राम अपने चौदह वर्ष के वनवास के पश्चात लौटे थे।[8] अयोध्यावासियों का ह्रदय अपने परम प्रिय राजा के आगमन से प्रफुल्लित हो उठा था। श्री राम के स्वागत में अयोध्यावासियों ने घी के दीपक जलाए। कार्तिक मास की सघन काली अमावस्या की वह रात्रि दीयों की रोशनी से जगमगा उठी। तब से आज तक भारतीय प्रति वर्ष यह प्रकाश-पर्व हर्ष व उल्लास से मनाते हैं। यह पर्व अधिकतर ग्रिगेरियन कैलन्डर के अनुसार अक्टूबर या नवंबर महीने में पड़ता है। दीपावली दीपों का त्योहार है। भारतीयों का विश्वास है कि सत्य की सदा जीत होती है झूठ का नाश होता है। दीवाली यही चरितार्थ करती है- असतो माऽ सद्गमय, तमसो माऽ ज्योतिर्गमय। दीपावली स्वच्छता व प्रकाश का पर्व है। कई सप्ताह पूर्व ही दीपावली की तैयारियाँ आरंभ हो जाती हैं। लोग अपने घरों, दुकानों आदि की सफाई का कार्य आरंभ कर देते हैं। घरों में मरम्मत, रंग-रोगन, सफ़ेदी आदि का कार्य होने लगता है। लोग दुकानों को भी साफ़ सुथरा कर सजाते हैं। बाज़ारों में गलियों को भी सुनहरी झंडियों से सजाया जाता है। दीपावली से पहले ही घर-मोहल्ले, बाज़ार सब साफ-सुथरे व सजे-धजे नज़र आते हैं।
दीवाली नेपाल, भारत,[9] श्रीलंका, म्यांमार, मारीशस, गुयाना, त्रिनिदाद और टोबैगो, सूरीनाम, मलेशिया, सिंगापुर, फिजी, पाकिस्तान और ऑस्ट्रेलिया की बाहरी सीमा पर क्रिसमस द्वीप पर एक सरकारी अवकाश है।
शब्द उत्पत्ति
दीपावली शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के दो शब्दों 'दीप' अर्थात 'दिया' व 'आवली' अर्थात 'लाइन' या 'श्रृंखला' के मिश्रण से हुई है। इसके उत्सव में घरों के द्वारों, घरों व मंदिरों पर लाखों प्रकाशकों को प्रज्वलित किया जाता है। दीपावली जिसे दिवाली भी कहते हैं उसे अन्य भाषाओं में अलग-अलग नामों से पुकार जाता है जैसे: 'दीपावली' (उड़िया), दीपाबॉली'(बंगाली), 'दीपावली' (असमी, कन्नड़, मलयालम:ദീപാവലി, तमिल:தீபாவளி और तेलुगू), 'दिवाली' (गुजराती:દિવાળી, हिन्दी, दिवाली, मराठी:दिवाळी, कोंकणी:दिवाळी,पंजाबी), 'दियारी' (सिंधी:दियारी), और 'तिहार' (नेपाली) मारवाड़ी में दियाळी.|
इतिहास
भारत में प्राचीन काल से दीवाली को हिंदू कैलेंडर के कार्तिक माह में गर्मी की फसल के बाद के एक त्योहार के रूप में दर्शाया गया। दीवाली का पद्म पुराण और स्कन्द पुराण नामक संस्कृत ग्रंथों में उल्लेख मिलता है जो माना जाता है कि पहली सहस्त्राब्दी के दूसरे भाग में किन्हीं केंद्रीय पाठ को विस्तृत कर लिखे गए थे। दीये (दीपक) को स्कन्द पुराण में सूर्य के हिस्सों का प्रतिनिधित्व करने वाला माना गया है, सूर्य जो जीवन के लिए प्रकाश और ऊर्जा का लौकिक दाता है और जो हिन्दू कैलंडर अनुसार कार्तिक माह में अपनी स्तिथि बदलता है।[10][11] कुछ क्षेत्रों में हिन्दू दीवाली को यम और नचिकेता की कथा के साथ भी जोड़ते हैं।[12] नचिकेता की कथा जो सही बनाम गलत, ज्ञान बनाम अज्ञान, सच्चा धन बनाम क्षणिक धन आदि के बारे में बताती है; पहली सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व उपनिषद में दर्ज़ की गयी है।[13]
7 वीं शताब्दी के संस्कृत नाटक नागनंद में राजा हर्ष ने इसे दीपप्रतिपादुत्सव: कहा है जिसमें दिये जलाये जाते थे और नव दुल्हन और दूल्हे को तोहफे दिए जाते थे।[14][15] 9 वीं शताब्दी में राजशेखर ने काव्यमीमांसा में इसे दीपमालिका कहा है जिसमें घरों की पुताई की जाती थी और तेल के दीयों से रात में घरों, सड़कों और बाजारों सजाया जाता था।[14] फारसी यात्री और इतिहासकार अल बेरुनी, ने भारत पर अपने 11 वीं सदी के संस्मरण में, दीवाली को कार्तिक महीने में नये चंद्रमा के दिन पर हिंदुओं द्वारा मनाया जाने वाला त्यौहार कहा है।[16]
महत्त्व
दीपावली नेपाल और भारत में सबसे सुखद छुट्टियों में से एक है। लोग अपने घरों को साफ कर उन्हें उत्सव के लिए सजाते हैं। नेपालियों के लिए यह त्योहार इसलिए महान है क्योंकि इस दिन से नेपाल संवत में नया वर्ष शुरू होता है।
दीपावली नेपाल और भारत में सबसे बड़े शॉपिंग सीजन में से एक है; इस दौरान लोग कारें और सोने के गहनों के रूप में भी महंगे आइटम तथा स्वयं और अपने परिवारों के लिए कपड़े, उपहार, उपकरणों, रसोई के बर्तन आदि खरीदते हैं।[17] लोगों अपने परिवार के सदस्यों और दोस्तों को उपहार स्वरुप आम तौर पर मिठाइयाँ व सूखे मेवे देते हैं। इस दिन बच्चे अपने माता-पिता और बड़ों से अच्छाई और बुराई या प्रकाश और अंधेरे के बीच लड़ाई के बारे में प्राचीन कहानियों, कथाओं, मिथकों के बारे में सुनते हैं। इस दौरान लड़कियाँ और महिलाऐं खरीदारी के लिए जाती हैं और फर्श, दरवाजे के पास और रास्तों पर रंगोली और अन्य रचनात्मक पैटर्न बनाती हैं। युवा और वयस्क आतिशबाजी और प्रकाश व्यवस्था में एक दूसरे की सहायता करते हैं।[18][19]
क्षेत्रीय आधार पर प्रथाओं और रीति-रिवाजों में बदलाव पाया जाता है। धन और समृद्धि की देवी - लक्ष्मी या एक से अधिक देवताओं की पूजा की जाती है। दीवाली की रात को, आतिशबाजी आसमान को रोशन कर देती है। बाद में, परिवार के सदस्यों और आमंत्रित दोस्त भोजन और मिठायों के साथ रात को मनाते हैं।[18][19]
आध्यात्मिक महत्त्व
दीपावली को विभिन्न ऐतिहासिक घटनाओं, कहानियों या मिथकों को चिह्नित करने के लिए हिंदू, जैन और सिखों द्वारा मनायी जाती है लेकिन वे सब बुराई पर अच्छाई, अंधकार पर प्रकाश, अज्ञान पर ज्ञान और निराशा पर आशा की विजय के दर्शाते हैं।[3][20]
हिंदू दर्शन में योग, वेदांत, और सामख्या विद्यालय सभी में यह विश्वास है कि इस भौतिक शरीर और मन से परे वहां कुछ है जो शुद्ध अनंत, और शाश्वत है जिसे आत्मन् या आत्मा कहा गया है। दीवाली, आध्यात्मिक अंधकार पर आंतरिक प्रकाश, अज्ञान पर ज्ञान, असत्य पर सत्य और बुराई पर अच्छाई का उत्सव है।[21][22][23][24]
हिंदू धर्म
दीपावली का धार्मिक महत्व हिंदू दर्शन, क्षेत्रीय मिथकों, किंवदंतियों, और मान्यताओं पर निर्भर करता है।
प्राचीन हिंदू ग्रन्थ रामायण में बताया गया है कि, कई लोग दीपावली को 14 साल के वनवास पश्चात भगवान राम व पत्नी सीता और उनके भाई लक्ष्मण की वापसी के सम्मान के रूप में मानते हैं।[25] अन्य प्राचीन हिन्दू महाकाव्य महाभारत अनुसार कुछ दीपावली को 12 वर्षों के वनवास व 1 वर्ष के अज्ञातवास के बाद पांडवों की वापसी के प्रतीक रूप में मानते हैं। कई हिंदु दीपावली को भगवान विष्णु की पत्नी तथा उत्सव, धन और समृद्धि की देवी लक्ष्मी से जुड़ा हुआ मानते हैं। दीपावली का पांच दिवसीय महोत्सव देवताओं और राक्षसों द्वारा दूध के लौकिक सागर के मंथन से पैदा हुई लक्ष्मी के जन्म दिवस से शुरू होता है। दीपावली की रात वह दिन है जब लक्ष्मी ने अपने पति के रूप में विष्णु को चुना और फिर उनसे शादी की।[10][26] लक्ष्मी के साथ-साथ भक्त बाधाओं को दूर करने के प्रतीक गणेश; संगीत, साहित्य की प्रतीक सरस्वती; और धन प्रबंधक कुबेर को प्रसाद अर्पित करते हैं[10] कुछ दीपावली को विष्णु की वैकुण्ठ में वापसी के दिन के रूप में मनाते है। मान्यता है कि इस दिन लक्ष्मी प्रसन्न रहती हैं और जो लोग उस दिन उनकी पूजा करते है वे आगे के वर्ष के दौरान मानसिक, शारीरिक दुखों से दूर सुखी रहते हैं।
[27]
भारत के पूर्वी क्षेत्र उड़ीसा और पश्चिम बंगाल में हिन्दू लक्ष्मी की जगह काली की पूजा करते हैं, और इस त्योहार को काली पूजा कहते हैं।[28][29] मथुरा और उत्तर मध्य क्षेत्रों में इसे भगवान कृष्ण से जुड़ा मानते हैं। अन्य क्षेत्रों में, गोवर्धन पूजा (या अन्नकूट) की दावत में कृष्ण के लिए 56 या 108 विभिन्न व्यंजनों का भोग लगाया जाता है और सांझे रूप से स्थानीय समुदाय द्वारा मनाया जाता है।
भारत के कुछ पश्चिम और उत्तरी भागों में दीवाली का त्योहार एक नये हिन्दू वर्ष की शुरुआत का प्रतीक हैं।
दीप जलाने की प्रथा के पीछे अलग-अलग कारण या कहानियाँ हैं। राम भक्तों के अनुसार दीवाली वाले दिन अयोध्या के राजा राम लंका के अत्याचारी राजा रावण का वध करके अयोध्या लौटे थे। उनके लौटने कि खुशी में आज भी लोग यह पर्व मनाते है। कृष्ण भक्तिधारा के लोगों का मत है कि इस दिन भगवान श्री कृष्ण ने अत्याचारी राजा नरकासुर का वध किया था।[30][31][32] इस नृशंस राक्षस के वध से जनता में अपार हर्ष फैल गया और प्रसन्नता से भरे लोगों ने घी के दीए जलाए। एक पौराणिक कथा के अनुसार विंष्णु ने नरसिंह रूप धारणकर हिरण्यकश्यप का वध किया था[32] तथा इसी दिन समुद्रमंथन के पश्चात लक्ष्मी व धन्वंतरि प्रकट हुए।
जैन
जैन मतावलंबियों के अनुसार चौबीसवें तीर्थंकर, महावीर स्वामी को इस दिन मोक्ष की प्राप्ति हुई थी।[32] इसी दिन उनके प्रथम शिष्य, गौतम गणधर को केवल ज्ञान प्राप्त हुआ था।
जैन समाज द्वारा दीपावली, महावीर स्वामी के निर्वाण दिवस के रूप में मनाई जाती है। महावीर स्वामी (वर्तमान अवसर्पिणी काल के अंतिम तीर्थंकर) को इसी दिन (कार्तिक अमावस्या) को मोक्ष की प्राप्ति हुई थी। इसी दिन संध्याकाल में उनके प्रथम शिष्य गौतम गणधर को केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। अतः अन्य सम्प्रदायों से जैन दीपावली की पूजन विधि पूर्णतः भिन्न है।
सिख
सिक्खों के लिए भी दीवाली महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसी दिन ही अमृतसर में 1577 में स्वर्ण मन्दिर का शिलान्यास हुआ था।[32] और इसके अलावा 1619 में दीवाली के दिन सिक्खों के छठे गुरु हरगोबिन्द सिंह जी को जेल से रिहा किया गया था।
ऐतिहासिक महत्व
पंजाब में जन्मे स्वामी रामतीर्थ का जन्म व महाप्रयाण दोनों दीपावली के दिन ही हुआ। इन्होंने दीपावली के दिन गंगातट पर स्नान करते समय 'ओम' कहते हुए समाधि ले ली। महर्षि दयानन्द ने भारतीय संस्कृति के महान जननायक बनकर दीपावली के दिन अजमेर के निकट अवसान लिया। इन्होंने आर्य समाज की स्थापना की। दीन-ए-इलाही के प्रवर्तक मुगल सम्राट अकबर के शासनकाल में दौलतखाने के सामने 40 गज ऊँचे बाँस पर एक बड़ा आकाशदीप दीपावली के दिन लटकाया जाता था। बादशाह जहाँगीर भी दीपावली धूमधाम से मनाते थे। मुगल वंश के अंतिम सम्राट बहादुर शाह जफर दीपावली को त्योहार के रूप में मनाते थे और इस अवसर पर आयोजित कार्यक्रमों में वे भाग लेते थे। शाह आलम द्वितीय के समय में समूचे शाही महल को दीपों से सजाया जाता था एवं लालकिले में आयोजित कार्यक्रमों में हिन्दू-मुसलमान दोनों भाग लेते थे।
आर्थिक महत्त्व
दीवाली का त्यौहार भारत में एक प्रमुख खरीदारी की अवधि का प्रतीक है। उपभोक्ता खरीद और आर्थिक गतिविधियों के संदर्भ में दीवाली, पश्चिम में क्रिसमस के बराबर है। यह पर्व नए कपड़े, घर के सामान, उपहार, सोने और अन्य बड़ी खरीददारी का समय है। इस त्योहार पर खर्च और खरीद को शुभ माना जाता है क्योंकि लक्ष्मी को, धन, समृद्धि, और निवेश की देवी माना जाता है।[33][34] दीवाली भारत में सोने और गहने की खरीद का सबसे बड़ा सीजन है।[35][36] मिठाई, कैंडी और आतिशबाजी की खरीद भी इस दौरान अपने चरम सीमा पर रहती है। प्रत्येक वर्ष दीवाली के दौरान पांच हज़ार करोड़ रुपए के पटाखों अदि की खपत होती है।[37]
संसार के अन्य हिस्सों में
दीपावली को विशेष रूप से हिंदू, जैन और सिख समुदाय के साथ विशेष रूप से दुनिया भर में मनाया जाता है। ये, श्रीलंका, पाकिस्तान, म्यांमार, थाईलैंड, मलेशिया, सिंगापुर, इंडोनेशिया, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, फिजी, मॉरीशस, केन्या, तंजानिया, दक्षिण अफ्रीका, गुयाना, सूरीनाम, त्रिनिदाद और टोबैगो, नीदरलैंड, कनाडा, ब्रिटेन शामिल संयुक्त अरब अमीरात, और संयुक्त राज्य अमेरिका। भारतीय संस्कृति की समझ और भारतीय मूल के लोगों के वैश्विक प्रवास के कारण दीवाली मानाने वाले देशों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है। कुछ देशों में यह भारतीय प्रवासियों द्वारा मुख्य रूप से मनाया जाता है, अन्य दूसरे स्थानों में यह सामान्य स्थानीय संस्कृति का हिस्सा बनता जा रहा है। इन देशों में अधिकांशतः दीवाली को कुछ मामूली बदलाव के साथ इस लेख में वर्णित रूप में उसी तर्ज पर मनाया जाता है पर कुछ महत्वपूर्ण विविधताएँ उल्लेख के लायक हैं।
एशिया
नेपाल
दीपावली को "तिहार" या "स्वन्ति" के रूप में जाना जाता है। यह भारत में दीपावली के साथ ही पांच दिन की अवधि तक मनाया जाता है। परंतु परम्पराओं में भारत से भिन्नता पायी जाती है। पहले दिन काग तिहार पर, कौए को परमात्मा का दूत होने की मान्यता के कारण प्रसाद दिया जाता है। दूसरे दिन कुकुर तिहार पर, कुत्तों को अपनी ईमानदारी के लिए भोजन दिया जाता है। काग और कुकुर तिहार के बाद गाय तिहार और गोरु तिहार में, गाय और बैल को सजाया जाता है। तीसरे दिन को लक्ष्मी पूजा की जाती है। इस नेपाल संवत अनुसार यह साल का आखिरी दिन है, इस दिन व्यापारी अपने सारे खातों को साफ कर उन्हें ख़त्म कर देते हैं। लक्ष्मी पूजा से पहले, मकान साफ किया और सजाया जाता है; लक्ष्मी पूजा के दिन, तेल के दियों को दरवाजे और खिड़कियों के पास जलाया जाता है। चौथे दिन को नए वर्ष के रूप में मनाया जाता है। सांस्कृतिक जुलूस और अन्य समारोहों को भी इसी दिन मनाया जाता है।पांचवे और अंतिम दिन को "भाई टीका" कहा जाता, भाई बहनों से मिलते हैं, एक दूसरे को माला पहनाते व भलाई के लिए प्रार्थना करते हैं। माथे पर टीका लगाया जाता है। भाई अपनी बहनों को उपहार देते हैं और बहने उन्हें भोजन करवाती हैं। [39]
मलेशिया
दीपावली मलेशिया में एक संघीय सार्वजनिक अवकाश है। यहां भी यह काफी हद तक भारतीय उपमहाद्वीप की परंपराओं के साथ ही मनाया जाता है। 'ओपन हाउसेस' मलेशियाई हिन्दू (तमिल,तेलुगू और मलयाली)द्वारा आयोजित किये जाते हैं जिसमें भोजन के लिए अपने घर में अलग अलग जातियों और धर्मों के साथी मलेशियाई लोगों का स्वागत किया जाता है। मलेशिया में दीवाली का त्यौहार धार्मिक सद्भावना और मलेशिया के धार्मिक और जातीय समूहों के बीच मैत्रीपूर्ण संबंधों के लिए एक अवसर बन गया है।
सिंगापुर
दीपावली एक राजपत्रित सार्वजनिक अवकाश है। अल्पसंख्यक भारतीय समुदाय (तमिल) द्वारा इसे मुख्य रूप से मनाया जाता है, यह आम तौर पर छोटे भारतीय जिलों में, भारतीय समुदाय द्वारा लाइट-अप द्वारा चिह्नित किया जाता है। इसके अलावा बाजारों, प्रदर्शनियों, परेड और संगीत के रूप में अन्य गतिविधियों को भी लिटिल इंडिया के इलाके में इस दौरान शामिल किया जाता है। सिंगापुर की सरकार के साथ-साथ सिंगापुर के हिंदू बंदोबस्ती बोर्ड इस उत्सव के दौरान कई सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन करता है।[41]
श्री लंका
यह त्यौहार इस द्वीप देश में एक सार्वजनिक अवकाश के रूप में तमिल समुदाय द्वारा मनाया जाता है। इस दिन पर लोग द्वारा सामान्यतः सुबह के समय तेल से स्नान करा जाता है , नए कपड़े पहने जाते हैं, उपहार दिए जाते है, पुसै (पूजा) के लिए कोइल (हिंदू मंदिर) जाते हैं। त्योहार की शाम को पटाखे जलना एक आम बात है। हिंदुओं द्वारा आशीर्वाद के लिए व घर से सभी बुराइयों को सदा के लिए दूर करने के लिए धन की देवी लक्ष्मी को तेल के दिए जलाकर आमंत्रित किया जाता है। श्रीलंका में जश्न के अलावा खेल, आतिशबाजी, गायन और नृत्य, व भोज आदि का अयोजन किया जाता है।
एशिया के परे
ऑस्ट्रेलिया
ऑस्ट्रेलिया के मेलबॉर्न में, दीपावली को भारतीय मूल के लोगों और स्थानीय लोगों के बीच सार्वजनिक रूप से मनाया जाता है। फेडरेशन स्क्वायर पर दीपावली को विक्टोरियन आबादी और मुख्यधारा द्वारा गर्मजोशी से अपनाया गया है। सेलिब्रेट इंडिया इंकॉर्पोरेशन ने 2006 में मेलबोर्न में प्रतिष्ठित फेडरेशन स्क्वायर पर दीपावली समारोह शुरू किया था। अब यह समारोह मेलबॉर्न के कला कैलेंडर का हिस्सा बन गया है और शहर में इस समारोह को एक सप्ताह से अधिक तक मनाया जाता है।
पिछले वर्ष 56,000 से अधिक लोगों ने समारोह के अंतिम दिन पर फेडरेशन स्क्वायर का दौरा किया था और मनोरंजक लाइव संगीत, पारंपरिक कला, शिल्प और नृत्य और यारा नदी (en:yarra river) पर शानदार आतिशबाज़ीे के साथ ही भारतीय व्यंजनों की विविधता का आनंद लिया।
विक्टोरियन संसद, मेलबोर्न संग्रहालय, फेडरेशन स्क्वायर, मेलबोर्न हवाई अड्डे और भारतीय वाणिज्य दूतावास सहित कई प्रतिष्ठित इमारतों को इस सप्ताह अधिक सजाया जाता है। इसके साथ ही, कई बाहरी नृत्य का प्रदर्शन होता हैं। दीपावली की यह घटना नियमित रूप से राष्ट्रीय संगठनों एएफएल, क्रिकेट ऑस्ट्रेलिया, व्हाइट रिबन, मेलबोर्न हवाई अड्डे जैसे संगठनों और कलाकारों को आकर्षित करती है। स्वयंसेवकों की एक टीम व उनकी भागीदारी और योगदान से यह एक विशाल आयोजन के रूप में भारतीय समुदाय को प्रदर्शित करता है।
अकेले इस त्योहार के दौरान एक सप्ताह की अवधि में भाग लेने आये लोगों की संख्या के कारण फेडरेशन स्क्वायर पर दिवाली को ऑस्ट्रेलिया में सबसे बड़े उत्सव के रूप में पहचाना जाता है।
ऑस्ट्रेलियाई बाहरी राज्य क्षेत्र, क्रिसमस द्वीप पर, दीपावली के अवसर पर ऑस्ट्रेलिया और मलेशिया के कई द्वीपों में आम अन्य स्थानीय समारोहों के साथ, एक सार्वजनिक अवकाश के रूप में मान्यता प्राप्त है।[43][44]
संयुक्त राज्य अमेरिका
2003 में दीवाली को व्हाइट हाउस में पहली बार मनाया गया और पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज वॉकर बुश द्वारा 2007 में संयुक्त राज्य अमेरिका कांग्रेस द्वारा इसे आधिकारिक दर्जा दिया गया।[46][47] 2009 में बराक ओबामा, व्हाइट हाउस में व्यक्तिगत रूप से दीवाली में भाग लेने वाले पहले राष्ट्रपति बने। संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति के रूप में भारत की अपनी पहली यात्रा की पूर्व संध्या पर, ओबामा ने दीवाली की शुभकामनाएं बांटने के लिए एक आधिकारिक बयान जारी किया।[48]
2009 में काउबॉय स्टेडियम में, दीवाली मेला में 100,000 लोगों की उपस्थिति का दावा किया था। 2009 में, सैन एन्टोनियो आतिशबाजी प्रदर्शन सहित एक अधिकारिक दीवाली उत्सव को प्रायोजित करने वाला पहला अमेरिकी शहर बन गया; जिसमे 2012 में, 15,000 से अधिक लोगों ने भाग लिया था।[49] वर्ष 2011 में न्यूयॉर्क शहर, पियरे में, जोकि अब टाटा समूह के ताज होटल द्वारा संचालित हैं, ने अपनी पहली दीवाली उत्सव का आयोजन किया।[50] संयुक्त राज्य अमेरिका में लगभग 3 लाख हिंदू हैं।[51]
ब्रिटेन
ब्रिटेन में भारतीय लोग बड़े उत्साह के साथ दिवाली मनाते हैं। लोग अपने घरों को दीपक और मोमबत्तियों के साथ सजाते और स्वच्छ करते हैं। दीया एक प्रकार का प्रसिद्ध मोमबत्ति हैं। लोग लड्डू और बर्फी जैसी मिठाइयो को भी एक दूसरे में बाटते है, और विभिन्न समुदायों के लोग एक धार्मिक समारोह के लिए इकट्ठा होते है और उसमे भाग लेते हैं। भारत में परिवार से संपर्क करने और संभवतः उपहार के आदान प्रदान के लिए भी यह एक बहुत अच्छा अवसर है।
व्यापक ब्रिटिश के अधिक गैर-हिंदु नागरिकों को सराहना चेतना के रूप में दीपावली के त्योहार की स्वीकृति मिलना शुरू हो गया है और इस अवसर पर वो हिंदू धर्म का जश्न मानते है। हिंदुओ के इस त्यौहार को पूरे ब्रिटेन भर में मनाना समुदाय के बाकी लोगों के लिए विभिन्न संस्कृतियों को समझने का अवसर लाता है।[53][54] पिछले दशक के दौरान प्रिंस चार्ल्स (en:Charles, Prince of Wales) जैसे राष्ट्रीय और नागरिक नेताओं ने ब्रिटेन के Neasden में स्थित स्वामीनारायण मंदिर जैसे कुछ प्रमुख हिंदू मंदिरों में दीवाली समारोह में भाग लिया है, और ब्रिटिश जीवन के लिए हिंदू समुदाय के योगदान की प्रशंसा करने के लिए इस अवसर का उपयोग किया।[55][56][57] वर्ष 2013 में प्रधानमंत्री डेविड कैमरन और उनकी पत्नी, दीवाली और हिंदू नववर्ष अंकन Annakut त्योहार मनाने के लिए Neasden में बीएपीएस स्वामीनारायण मंदिर में हजारों भक्तों के साथ शामिल हो गए।[58] 2009 के बाद से, दीवाली हर साल ब्रिटिश प्रधानमंत्री के निवास स्थान, 10 डाउनिंग स्ट्रीट, पर मनाया जा रहा है। [59] वार्षिक उत्सव, गॉर्डन ब्राउन द्वारा शुरू करना और डेविड कैमरन द्वारा जारी रखना, ब्रिटिश प्रधानमंत्री द्वारा की मेजबानी की सबसे प्रत्याशित घटनाओं में से एक है।[60]
लीसेस्टर (en:Leicester) भारत के बाहर कुछ सबसे बड़ी दिवाली समारोह के लिए मेजबान की भूमिका निभाता है।[61]
न्यूज़ीलैंड
न्यूजीलैंड में, दीपावली दक्षिण एशियाई प्रवासी के सांस्कृतिक समूहों में से कई के बीच सार्वजनिक रूप से मनाया जाता है। न्यूजीलैंड में एक बड़े समूह दिवाली मानते हैं जो भारत-फ़ीजी समुदायों के सदस्य हैं जोकि प्रवासित हैं और वहाँ बसे हैं। दिवाली 2003 में, एक अधिकारिक स्वागत के बाद न्यूजीलैंड की संसद पर आयोजित किया गया था।[62] दीवाली हिंदुओं द्वारा मनाया जाता है। त्योहार अंधकार पर प्रकाश, अन्याय पर न्याय, अज्ञान से अधिक बुराई और खुफिया पर अच्छाई, की विजय का प्रतीक हैं। लक्ष्मी माता को पूजा जाता है। लक्ष्मी माता प्रकाश, धन और सौंदर्य की देवी हैं। बर्फी और प्रसाद दिवाली के विशेष खाद्य पदार्थ हैं।
फिजी
फिजी में, दीपावली एक सार्वजनिक अवकाश है और इस धार्मिक त्यौहार को हिंदुओं (जो फिजी की आबादी का करीब एक तिहाई भाग का गठन करते है) द्वारा एक साथ मनाया जाता है, और सांस्कृतिक रूप से फिजी के दौड़ के सदस्यों के बीच हिस्सा लेते है और यह बहुत समय इंतजार करने के बाद साल में एक बार आता है। यह मूल रूप से 19 वीं सदी के दौरान फिजी के तत्कालीन कालोनी में ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीय उपमहाद्वीप से आयातित गिरमिटिया मजदूरों द्वारा मनाया है, सरकार की कामना के रूप में फिजी के तीन सबसे बड़े धर्मों, यानि, ईसाई धर्म, हिंदू धर्म और इस्लाम के प्रत्येक की एक अलग से धार्मिक सार्वजनिक छुट्टी करने की स्थापना के लिए यह 1970 में स्वतंत्रता पर एक छुट्टी के रूप में स्थापित किया गया था।
फिजी में, भारत में दिवाली समारोह से एक बड़े पैमाने पर मनाया जाने के रूप में दीपावली पर अक्सर भारतीय समुदाय के लोगों द्वारा विरोध किया जाता है, आतिशबाजी और दीपावली से संबंधित घटनाओं को वास्तविक दिन से कम से कम एक सप्ताह शुरू पहले किया जाता है। इसकी एक और विशेषता है कि दीपावली का सांस्कृतिक उत्सव (अपने पारंपरिक रूप से धार्मिक उत्सव से अलग), जहां फिजीवासियों भारतीय मूल या भारत-फिजीवासियों, हिंदू, ईसाई, सिख या अन्य सांस्कृतिक समूहों के साथ मुस्लिम भी फिजी में एक समय पर दोस्तों और परिवार के साथ मिलने और फिजी में छुट्टियों के मौसम की शुरुआत का संकेत के रूप में दीपावली का जश्न मनाते है। व्यावसायिक पक्ष पर, दीपावली कई छोटे बिक्री और मुफ्त विज्ञापन वस्तुएँ के लिए एक सही समय है। फिजी में दीपावली समारोह ने, उपमहाद्वीप पर समारोह से स्पष्ट रूप से अलग, अपने खुद के एक स्वभाव पर ले लिया है।
समारोह के लिए कुछ दिन पहले नए और विशेष कपड़े, साथ साड़ी और अन्य भारतीय कपड़ों में ड्रेसिंग के साथ सांस्कृतिक समूहों के बीच खरीदना, और सफाई करना, दीपावली इस समय का प्रतिक होता है। घरों को साफ करते हैं और तेल के लैंप या दीये जलाते हैं। सजावट को रंगीन रोशनी, मोमबत्तियाँ और कागज लालटेन, साथ ही धार्मिक प्रतीकों का उपयोग कर रंग के चावल और चाक से बाहर का एक रंगीन सरणी साथ गठन कर के घर के आसपास बनाते है। परिवार, दोस्तों और पड़ोसियों और घरों के लिए बनाए गये निमंत्रण पत्र खुल जाते है। उपहार बनते हैं और प्रार्थना या पूजा हिन्दुओं द्वारा किया जाता है। मिठाई और सब्जियों के व्यंजन अक्सर इस समय के दौरान खाया जाता है और आतिशबाजी दिवाली से दो दिन पहले और बाद तक में जलाए जाते है।
अफ्रीका
मॉरिशस
अफ्रीकी हिंदू बहुसंख्यक देश मॉरिशस में यह एक अधिकारिक सार्वजनिक अवकाश है।
रीयूनियन
रियूनियन में, कुल जनसंख्या का एक चौथाई भाग भारतीय मूल का है और हिंदुओं द्वारा इसे मनाया जाता है।
पर्वों का समूह दीपावली
दीपावली के दिन भारत में विभिन्न स्थानों पर मेले लगते हैं।[63] दीपावली एक दिन का पर्व नहीं अपितु पर्वों का समूह है। दशहरे के पश्चात ही दीपावली की तैयारियाँ आरंभ हो जाती है। लोग नए-नए वस्त्र सिलवाते हैं। दीपावली से दो दिन पूर्व धनतेरस का त्योहार आता है। इस दिन बाज़ारों में चारों तरफ़ जनसमूह उमड़ पड़ता है। बरतनों की दुकानों पर विशेष साज-सज्जा व भीड़ दिखाई देती है। धनतेरस के दिन बरतन खरीदना शुभ माना जाता है अतैव प्रत्येक परिवार अपनी-अपनी आवश्यकता अनुसार कुछ न कुछ खरीदारी करता है। इस दिन तुलसी या घर के द्वार पर एक दीपक जलाया जाता है। इससे अगले दिन नरक चतुर्दशी या छोटी दीपावली होती है। इस दिन यम पूजा हेतु दीपक जलाए जाते हैं। अगले दिन दीपावली आती है। इस दिन घरों में सुबह से ही तरह-तरह के पकवान बनाए जाते हैं। बाज़ारों में खील-बताशे, मिठाइयाँ, खांड़ के खिलौने, लक्ष्मी-गणेश आदि की मूर्तियाँ बिकने लगती हैं। स्थान-स्थान पर आतिशबाजी और पटाखों की दूकानें सजी होती हैं। सुबह से ही लोग रिश्तेदारों, मित्रों, सगे-संबंधियों के घर मिठाइयाँ व उपहार बाँटने लगते हैं। दीपावली की शाम लक्ष्मी और गणेश जी की पूजा की जाती है। पूजा के बाद लोग अपने-अपने घरों के बाहर दीपक व मोमबत्तियाँ जलाकर रखते हैं। चारों ओर चमकते दीपक अत्यंत सुंदर दिखाई देते हैं। रंग-बिरंगे बिजली के बल्बों से बाज़ार व गलियाँ जगमगा उठते हैं। बच्चे तरह-तरह के पटाखों व आतिशबाज़ियों का आनंद लेते हैं। रंग-बिरंगी फुलझड़ियाँ, आतिशबाज़ियाँ व अनारों के जलने का आनंद प्रत्येक आयु के लोग लेते हैं। देर रात तक कार्तिक की अँधेरी रात पूर्णिमा से भी से भी अधिक प्रकाशयुक्त दिखाई पड़ती है। दीपावली से अगले दिन गोवर्धन पर्वत अपनी अँगुली पर उठाकर इंद्र के कोप से डूबते ब्रजवासियों को बनाया था। इसी दिन लोग अपने गाय-बैलों को सजाते हैं तथा गोबर का पर्वत बनाकर पूजा करते हैं। अगले दिन भाई दूज का पर्व होता है।भाई दूज या भैया द्वीज को यम द्वितीय भी कहते हैं। इस दिन भाई और बहिन गांठ जोड़ कर यमुना नदी में स्नान करने की परंपरा है। इस दिन बहिन अपने भाई के मस्तक पर तिलक लगा कर उसके मंगल की कामना करती है और भाई भी प्रत्युत्तर में उसे भेंट देता है। दीपावली के दूसरे दिन व्यापारी अपने पुराने बहीखाते बदल देते हैं। वे दूकानों पर लक्ष्मी पूजन करते हैं। उनका मानना है कि ऐसा करने से धन की देवी लक्ष्मी की उन पर विशेष अनुकंपा रहेगी। कृषक वर्ग के लिये इस पर्व का विशेष महत्त्व है। खरीफ़ की फसल पक कर तैयार हो जाने से कृषकों के खलिहान समृद्ध हो जाते हैं। कृषक समाज अपनी समृद्धि का यह पर्व उल्लासपूर्वक मनाता हैं।
परंपरा
अंधकार पर प्रकाश की विजय का यह पर्व समाज में उल्लास, भाई-चारे व प्रेम का संदेश फैलाता है। यह पर्व सामूहिक व व्यक्तिगत दोनों तरह से मनाए जाने वाला ऐसा विशिष्ट पर्व है जो धार्मिक, सांस्कृतिक व सामाजिक विशिष्टता रखता है। हर प्रांत या क्षेत्र में दीवाली मनाने के कारण एवं तरीके अलग हैं पर सभी जगह कई पीढ़ियों से यह त्योहार चला आ रहा है। लोगों में दीवाली की बहुत उमंग होती है। लोग अपने घरों का कोना-कोना साफ़ करते हैं, नये कपड़े पहनते हैं। मिठाइयों के उपहार एक दूसरे को बाँटते हैं, एक दूसरे से मिलते हैं। घर-घर में सुन्दर रंगोली बनायी जाती है, दिये जलाए जाते हैं और आतिशबाजी की जाती है। बड़े छोटे सभी इस त्योहार में भाग लेते हैं। अंधकार पर प्रकाश की विजय का यह पर्व समाज में उल्लास, भाई-चारे व प्रेम का संदेश फैलाता है। हर प्रांत या क्षेत्र में दीवाली मनाने के कारण एवं तरीके अलग हैं पर सभी जगह कई पीढ़ियों से यह त्योहार चला आ रहा है। लोगों में दीवाली की बहुत उमंग होती है।
विवादस्पद तथ्य
दुनिया के अन्य प्रमुख त्योहारों के साथ ही दीवाली का पर्यावरण और स्वास्थ्य पर प्रभाव चिंता योग्य है।
वायु प्रदूषण
विद्वानों के अनुसार आतिशबाजी के दौरान इतना वायु प्रदूषण नहीं होता जितना आतिशबाजी के बाद। जो प्रत्येक बार पूर्व दीवाली के स्तर से करीब चार गुना बदतर और सामान्य दिनों के औसत स्तर से दो गुना बुरा पाया जाता है। इस अध्ययन की वजह से पता चलता है कि आतिशबाज़ी के बाद हवा में धूल के महीन कण (en:PM2.5) हवा में उपस्थित रहते हैं। यह प्रदूषण स्तर एक दिन के लिए रहता है, और प्रदूषक सांद्रता 24 घंटे के बाद वास्तविक स्तर पर लौटने लगती है।[64] अत्री एट अल की रिपोर्ट अनुसार नए साल की पूर्व संध्या या संबंधित राष्ट्रीय के स्वतंत्रता दिवस पर दुनिया भर आतिशबाजी समारोह होते हैं जो ओजोन परत में छेद के कारक हैं। [65]
जलने की घटनाएं
दीवाली की आतिशबाजी के दौरान भारत में जलने की चोटों में वृद्धि पायी गयी है। अनार नामक एक आतशबाज़ी को 65% चोटों का कारण पाया गया है। अधिकांशतः वयस्क इसका शिकार होते हैं। समाचार पत्र, घाव पर समुचित नर्सिंग के साथ प्रभावों को कम करने में मदद करने के लिए जले हुए हिस्से पर तुरंत ठंडे पानी को छिड़कने की सलाह देते हैं अधिकांश चोटें छोटी ही होती हैं जो प्राथमिक उपचार के बाद भर जाती हैं।[66][67]
दीवाली की प्रार्थनाएं
प्रार्थनाएं
क्षेत्र अनुसार प्रार्थनाएं अगला-अलग होती हैं। उदाहरण के लिए बृहदारण्यक उपनिषद की ये प्रार्थना जिसमें प्रकाश उत्सव चित्रित है:[68][69][70][71]
असतो मा सद्गमय।
तमसो मा ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्मा अमृतं गमय।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
अनुवाद:[72][73]
चित्र
मेलबर्न में दिवाली मनानेपर भारतीय तिरंगा लहराया जाता है
दीपावली के दिन सांस्कृतिक कार्यकर्मों का आयोजन किया जाता है
मेलबोर्न में दीवाली आतिशबाजी
लीसेस्टर, यूनाइटेड किंगडम में दीवाली की सजावट।
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
श्रेणी:हिन्दू त्यौहार
श्रेणी:संस्कृति
श्रेणी:भारतीय पर्व
श्रेणी:हिन्दी विकि डीवीडी परियोजना
श्रेणी:भारत में त्यौहार | हिन्दू धर्म के किस त्यौहार में दीपक जलाये जाते है? | दीपावली | 0 | hindi |
e6215a423 | चीनी साहित्य अपनी प्राचीनता, विविधता और ऐतिहासिक उललेखों के लिये प्रख्यात है। चीन का प्राचीन साहित्य "पाँच क्लासिकल" के रूप में उपलब्ध होता है जिसके प्राचीनतम भाग का ईसा के पूर्व लगभग 15वीं शताब्दी माना जाता है। इसमें इतिहास (शू चिंग), प्रशस्तिगीत (शिह छिंग), परिवर्तन (ई चिंग), विधि विधान (लि चि) तथा कनफ्यूशियस (552-479 ई.पू.) द्वारा संग्रहित वसंत और शरद-विवरण (छुन छिउ) नामक तत्कालीन इतिहास शामिल हैं जो छिन राजवंशों के पूर्व का एकमात्र ऐतिहासिक संग्रह है। पूर्वकाल में शासनव्यवस्था चलाने के लिये राज्य के पदाधिकारियों को कनफ्यूशिअस धर्म में पारंगत होना आवश्यक था, इससे सरकारी परीक्षाओं के लिये इन ग्रंथों का अध्ययन अनिवार्य कर दिया गया था।
कनफ्यूशिअस के अतिरिक्त चीन में लाओत्स, चुआंगत्स और मेन्शियस आदि अनेक दार्शनिक हो गए हैं जिनके साहित्य ने चीनी जनजीवन को प्रभावित किया है।
जनकवि चू य्वान
चू य्वान् (340-278 ई.पू.) चीन के सर्वप्रथम जनकवि माने जाते हैं। वे चू राज्य के निवासी देशभक्त मंत्री थे। राज्यकर्मचारियों के षड्यंत्र के कारण दुश्चरित्रता का दोषारोपण कर उन्हें राज्य से निर्वासित कर दिया गया। कवि का निर्वासित जीवन अत्यंत कष्ट में बीता। इस समय अपनी आंतरिक वेदना को व्यक्त करने के लिये उन्होंने उपमा और रूपकों से अलंकृत "शोक" (लि साव) नाम के गीतात्मक काव्य की रचना की। आखिर जब उनके कोमल हृदय को दुनिया की क्रूरता सहन न हुई तो एक बड़े पत्थर को छाती से बाँध वे मिली (हूनान प्रांत में) नदी में कूद पड़े। अपने इस महान कवि की स्मृति में चीन में नागराज-नाव नाम का त्यौहार हर साल मनाया जाता है। इसका अर्थ है कि नावें आज भी कवि के शरीर की खोज में नदियों के चक्कर लगा रही हैं।
थांग कालीन कविता
थांग राजाओं का काल (600-900 ई.) चीन का स्वर्णयुग कहा जाता है। इस युग में काव्य, कथा, नाटक और चित्रकला आदि में उन्नति हुई। वास्तव में चीनी काव्यकला "प्रशस्ति गीत" से आरंभ हुई, चू युवान् की कविताओं से उसे बल मिला और थांगयुग में उसने पूर्णता प्राप्त की। इस युग की 48,900 कविताओं का संग्रह सन् 1907 में 30 भागों में प्रकाशित हुआ है। इस कविताओं में प्राकृतिक सौंदर्य, प्रेम, विरह, राजप्रंशसा तथा बौद्ध और ताओ धर्म के वर्णनों की मुख्यता है। संक्षिप्तता चीनी काव्य का गुण माना जाता है, इसलिये लंबे ऐतिहासिक काव्य चीन में प्राय: नहीं लिखे गए। चित्रकला की भाँति सांकेतिकता इस कविता का दूसरा गुण रहा है। चीनी वाक्यावली में विभक्ति, प्रत्यय, काल और वचनभेद, आदि के अभाव में पूर्वोपर प्रसंग आदि से ही काव्यगत भावों को समझना पड़ता है, इसलिये चीनी कविता को हृदयंगम करने में कुछ अभ्यास की आवश्यकता है।
लि पो (705-762 ई.) इस काल के एक महान कवि हो गए हैं। बहुत दिनों तक वे भ्रमण करते रहे, फिर कुछ कवियों के साथ हिमालय प्रस्थान कर गए। वहाँ से लौटकर राजदरबार में रहने लगे, लेकिन किसी षड्यंत्र के कारण उन्हें शीघ्र ही अपना पद छोड़ना पड़ा। अपनी आंतरिक व्यथा व्यक्त करते हुए कवि ने कहा है:
मेरे सफेद होते हुए वालों से एक लंबा, बहुत लंबा रस्सा बनेगा,
फिर भी उससे मेरे दु:ख की गहराई की थाह नहीं मापी जा सकती।
एक बार रात्रि के समय नौकाविहार करते हुए, खुमारी की हालत में, कवि ने जल में प्रतिबिंबित चंद्रमा को पकड़ना चाहा, लेकिन वे नदी में गिर पड़े ओर डूब कर मर गए।
तू फू (712-770 ई.) इस काल के दूसरे उल्लेखनीय महान कवि हैं। अपनी कविता पर उन्हें बड़ा गर्व था। युद्ध, मारकाट, सैनिक शिक्षा आदि का चित्रण तू फू ने बड़ी सशक्त शैली में किया है। उनके समय में चीन पतन की ओर जा रहा था जिससे सामाजिक जीवन अस्तव्यस्त हो गया था। विदेशी आक्रमण के कारण राजकरों में वृद्धि हो गई थी और सैनिक शिक्षा अनिवार्य कर दी गई थी। तत्कालीन शासकों की दशा का चित्रण करते हुए कवि ने लिखा है:
मैं अपने सम्राट् को याआ और शुन के समान महान बनाना चाहता हूँ और अपने देश के रीतिरिवाज पुन: स्थापित करना चाहता हूँ।
अपने अंतिम दिनों में भयंकर बाढ़ आने पर तू फू दस दिन तक वृक्षों की जड़ें खाकर निर्वाह करते रहे। उसके बाद मांस मदिरा का अत्यधिक सेवन करने के कारण उन्हें अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा।
पो छू यि (772-486 ई.) इस युग के दूसरे श्रेष्ठ कवि हैं। स्वभाव से वे बहुत रसिक थे। लाओत्स के "ताओ ते चिंग" पर व्यंग्य करते हुए कवि ने कहा है: "जो जानता है वह कहता नहीं और जो कहता है वह जानता नहीं।"
ये लाओ त्स के वाक्य हैं। लेकिन इस हालत में स्वयं लाओत्स के "पाँच हजार से अधिक शब्दों का" क्या होगा?
पो छू यि की माँ फूलों का सौंदर्य निरीक्षण करते करते कुएँ में गिर पड़ी थी, इसपर सहृदय कवि की लेखनी द्वारा फूलों की प्रशंसा में और "नया कूप" नाम की कविताएँ लिखी गईं। "चिरस्थायी दोष" नाम की कविता में कवि ने सम्राट् मिंग ह्वांग (685-762 ई.) के अध:पतन का मार्मिक चित्र उपस्थित किया है। "कोयला बेचनेवाला", "राजनीतिज्ञ", "टूटी बाँहवाला बूढ़ा" आदि व्यंग्यप्रधान कविताएँ भी कवि की लेखनी से उद्भूत हुई हैं। भाषा की सरलता के कारण उनकी कविताओं ने जनसाधारण में प्रसिद्ध पाई है।
आधुनिक काव्य
विषय, भाव और आकार प्रकार की दृष्टि से प्राचीन कविता का क्षेत्र बहुत सीमित था। एक कविता में प्राय: 4 या 8 पंक्तियाँ रहती थी जो अलग अलग नहीं लिखी जाती थी, विरामचिह्न भी इसमें नहीं रहते थे जिससे कविता समझने में कठिनाई होती थी। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद भारत की भाँति चीन में भी आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन हुए जिससे साहित्यिक क्षेत्र में जागृति दिखाई देने लगी। 4 मई 1919 के क्रांतिकारी आंदोलन के उपरांत चीनी कविता में जनसाधारण के संघषों के चित्रण का सूत्रपात हुआ।
चीनी कविता को नवीन रूप देनेवालों में को मो-रो का नाम सबसे पहले आता है। उन्होंने प्रकृति, धरती, समुद्र, सूर्य आदि की प्रशंसा में एक से एक सुंदर कविताओं की रचना कर चीनी साहित्य को आगे बढ़ाया है। सन् 1921 में प्रकाशित "देवियाँ" नाम के इनके कवितासंग्रह में विद्रोह के साथ साथ आशावाद स्पष्ट दिखाई देता है। इसी समय च्यांग क्वांग-त्स ने रूस की अक्टूबर क्रांति पर प्रेरणादायक कविताओं की रचना की। इन कविताओं में हाथ में बंदूक लेकर शत्रु से लड़ने के लिये कवि ने अपने देश के नौनिहालों को ललकारा है।
सन् 1930 में चीनी में वामपक्षीय लेखकसंघ की स्थापना हुई। इस समय कोमिंगतांग सरकार ने अनेक तरुण साहित्यिकों को गिरफ्तार करके मौत के घाट उतार दिया। इनमें ह् ये-फिंग (सुप्रसिद्ध लेखिका तिं लिं के पति) और यिन् फू नामक कवियों के नाम उल्लेखनीय हैं। सन् 1931 में चीनी लेखकों का एक संघ बना जिससे प्रेरणा प्राप्त कर यू फेंग, त्सांग के-छिया, वांग या-फिंग और ट्येन छूयेन आदि कवियों ने अकाल, भुखमरी, किसानों और जमींदारों का संघर्ष, विद्रोह, हड़ताल आदि अनेक सामयिक विषयों पर रचनाएँ प्रस्तुत कीं।
आय छिंग वर्तमान युग के लोकप्रिय कवि माने जाते हैं। उन्होंने "वह सोया है", "काली लड़की गाती है", "जहाँ काले आदमी रहते हैं" आदि भावपूर्ण कविताएँ लिखीं। "वह दूसरी बार प्राणों की तिलांजलि देता है" नामक कविता में कवि ने एक घायल किसान सिपाही का मार्मिक चित्र उपस्थित किया है जो नगर की सड़क पर बड़े गर्व से कदम उठाकर चलता है। युद्धोत्तरकालीन कवियों में य्वान् शुइ-पो, लि चि, हो छि-फांग आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। य्वान् शुइ-पो, लि चि, हो छि-फांग आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। य्वान् शुई पो ने लोकगीत की शैली में "बिल्लियाँ" नामकी व्यंग्यात्मक कविता की रचना की। लिचि की "अंग क्वेइ और लि श्यांग श्यांग" नामक कविता चीन में अत्यंत प्रसिद्ध है, यह भी गीत शैली में लिखी गई है। सन् 1954 की भयंकर बाढ़ का सामना करने के लिये वू हान् की जनता को जोश दिलाते हुए हो छि-फांग ने एक भावपूर्ण कविता लिखी। इसी तरह आय छिंग, शिह फांग-यू और लि ट्येन-थिन् आदि प्रगतिशील कवियों ने शांतिरक्षा पर सुंदर रचनाएँ प्रस्तुत की हैं।
प्राचीन कथासाहित्य
सभ्यता के आदिम काल में ह्वांगहो नदी की उपत्यका में जीवनयापन करते हुए चीन के लोगों को प्राकृतिक शक्तियों के विरुद्ध जोरदार संघर्ष करना पड़ा जिससे इस देश के निवासियों का यथार्थवादी विश्वासों की ओर झुकाव हुआ; भारतवर्ष की भाँति आध्यात्मिक तत्वों और पौराणिककथाकहानियों का विकास यहाँ नहीं हो सका। प्राकृतिक देवी देवताआं के प्रति भय अथवा आदर की भावना से प्रेरित होकर आदिम मानव के मुख से जो स्वाभाविक संगीत प्रस्फुटित हुआ वही आदिम कविता कहलाई। शनै: शनै: मनुष्य ने प्राकृतिक शक्तियों पर विजय पाई, उसका संघर्ष कम होता गया और अवकाश मिलने पर कथा कहानियों की आर उसकी रुचि बढ़ती गई।
प्राचीन चीन में क्लासिकल साहित्य का इतना अधिक महत्व था कि उपन्यासों और नाटकों को साहित्य का अंग ही नहीं माना जाता था। चीनी का "श्याओ श्वो" शब्द उपन्यास और कहानी दोनों अर्थो में प्रयुक्त होता है। इससे मालूम होता है कि आधुनिक कथा साहित्य का विकास बाद में हुआ।
थांगकालीन कथा साहित्य
थांगकालीन राजवंशों के पूर्व कहानी साहित्य केवल परियों और भूत प्रेत की कहानियों तक सीमित था उसके बाद "अद्भुत कहानियाँ" (चीनी में छ्वान छि) लिखी जाने लगीं, लेकिन तत्कालीन विद्वानों के निबंधों की तुलना में ये निम्न कोटि की ही समझी जाती थीं। क्रमश: कहानी साहित्य में प्रगति हुई और थांगकाल में चरित्रप्रधान कहानियों की रचना होने लगी। कुछ कहानियाँ क्लासिकल लिखी गई तथा कुछ व्यंग, प्रेम और शौर्यप्रधान। छेन श्वान्-यु ने "भटकती हुई आत्मा", लि छाओ-वेइ ने "नागराज की कन्या" और य्वान् छेंग ने "यिंग यिंग की कहानी" नामक भावपूर्ण प्रेम कहानियों की रचना की। इन दिनों पढ़े लिखे लोग सरकारी परीक्षाएँ पास करके उच्च पद पाने के स्वप्न देखा करते थे और अंत में असफल होने से जीवन से निराश हो बैठते थे- इसका मार्मिक चित्रण पाई शिंग-छ्येन की "वेश्या की कहानी", लि कुंग-त्सो की "दक्षिण के उपराज्य की राज्यपाल", शेंग या छिह की "छिन का स्वप्न" और शेंग छें-त्सि की "तकिए के नीचे" कहानियों में बड़ी कुशलतापूर्वक किया गया है।
मिंग और मंचू काल में भी कहानी साहित्य लिखा गया। ल्याओ छाई छिह इ (अद्भुत कहानियाँ) मंचू काल की प्रसिद्ध कहानियाँ हैं, लेखक का नाम है फू सुंग-लिंग।
उपन्यास
चीनी उपन्यासों का आरंभ मंगोल राजवंशों के काल से होता है। इस समय युद्ध, षड्यंत्र, प्रेम, अंधविश्वास और यात्रा आदि विषयों पर उपन्यासों की रचना हुई। ले क्वान् चिंग का लिख हुआ सान का चिह येन इ (तीन राजधानियों की प्रेमाख्यायिका) युद्ध प्रधान ऐतिहासिक उपन्यास है जिसमें युद्ध के दृश्य, चतुर सेनापतियों के षड्यंत्र ओर रणकौशल आदि का आकर्षक शैली में वर्णन किया गया है। इसी लेखक का दूसरा उपन्यास शुई हू (जल का तट) है। इसमें सुंगच्यांग और उसके साथियों के कृत्यों का वर्णन है। उस काल में प्रचलित कथा कहानियों के आधार पर लेखक ने बड़े परिश्रमपूर्वक यह रचना प्रस्तुत की है। "अनिष्ट की पराजय" इस लेखक की तीसरी रचना है जिसमें पेइचाउ के नागरिक वांग त्स के कृत्यों का वर्णन है। वांग त्स ने किसी जादू के बल से विद्रोह किया था लेकिन वह सफल न हो सका।
मिंग काल में अनेक नए उपन्यासों की रचना हुई। छिन फिंग मेइ (सुवर्ण कमल) मिंग काल का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास है जिसमें सुंगकालीन भ्रष्ट जीवन का प्रभावशाली चित्रण है। इसके लेखक वांग शिह-छेंग हैं जिनकी मृत्यु 1593 में हुई। लेखक की मृत्यु के लगभग 100 वर्ष पश्चात् उपन्यास का प्रकाशन हुआ। मनोवैज्ञानिक और सांस्कृतिक सामग्री का अध्ययन करने के लिये यह उपन्यास बहुत महत्व का है। सुप्रसिद्ध चीनी यात्री युवान् च्वांग की भारत यात्रा पर आधारित शी यू चि (पश्चिम की यात्रा) इस काल की दूसरी रचना है। इसके लेखक वू छेंग-येन माने जाते हैं; इन्होंने लोकप्रचलित कथाओं को बटोरकर 100 अध्यायों में यह सुंदर उपन्यास लिखा। सरल और लोकप्रिय शैली में लिखी गई इस रचना में सुन वू-कुंग नाम का बुद्धभक्त वानरराज, पश्चिम की ओर प्रयाण करते हुए चीनी यात्री की पद पद पर रक्षा करता है। यू छ्या ओ लि इस काल की एक दूसरी बृहत्काय रचना है; अनेक स्थलों पर इसमें पुनरावृत्ति भी हुई है। यह उपन्यास अपने मूल रूप में उपलब्ध नहीं। इसमें एक शिक्षित युवक की प्रेमकहानी है जो सुंदरियों से प्रेम करता है। पुनर्जन्म और कर्मफल को यहाँ मुख्य कहा गया है। लिएह को च्वान् उपन्यास के लेखक का नाम भी अज्ञात है। लेखक का दावा है कि उसकी इस असाधारण कृति की प्रत्येक घटना यथार्थता पर आधारित है और इसे उपन्यास की अपेक्षा इतिहास कहना ही अधिक उपयुक्त है। इस काल का दूसरा प्रसिद्ध उपन्यास छिंग ह्वा य्वान् है। सम्राज्ञी वू के राज्य की घटनाओं का इसमें वर्णन है। यह सम्राज्ञी सन् 684 में राजसिंहासन पर बैठी और 20 वर्ष तक राज्य करती रही। फिंग शान लेंग येन उच्च कोटि की साहित्यिक शैली में लिखा हुआ उपन्यास है। इसमें फिंग और येन नामक दो तरुण विद्यार्थियों की प्रेम कहानी है जो शान और लेंग नाम की कवयित्रियों की साहित्यिक प्रतिभा से आकृश्ट होकर उनसे प्रेम करने लगते हैं। अर तोउ मेइ उपन्यास में पितृभक्ति, मित्रता ओर पड़ोसियों के प्रति कर्तव्य को मुख्य बताया है।
हुंग लौ मंग (लाल भवन का स्वप्न) चीन का अत्यंत लोकप्रिय उपन्यास है जो मंचू काल में ईसवी सन् की 17वीं शताब्दी में लिखा गया था। इसके लेखक का नाम है त्साओ श्यवे छिन (ई. 1724-1764 ई.) इस उपन्यास का पुराना नाम "चट्टान की कहानी" था। लेखक ने अनेक पांडुलिपियों के आधार पर बड़े परिश्रम से इसे लिपिबद्ध किया। उपन्यास की प्रेमकथा बोलचाल की सरल और आकर्षक शैली में लिखी गई है। सामंती समाज का सूक्ष्म चित्रण करते हुए यहाँ शासक वर्ग की बुराइयों का पर्दाफाश किया गया है। बीच बीच में हास्य और करुण रस के आख्यान हें जो उच्च कोटि की कविताओं से गुंफित हैं। यह कृति 24 भागों में और 4000 पृष्ठों में प्रकाशित हुई है; इसमें 9 लाख शब्द हैं और 448 पात्र। मंचू राजाओं ने इसे उच्छृंखलतापूर्ण और अनैतिक बताकर इसे नष्ट कर देने की षोघणा की थी। इस युग का दूसरा सुप्रसिद्ध उपन्यास है "विद्वानों का जीवन"। इसके लेखक वू छिंग-त्स (ई. 1701-1754) हैं। ये दोनों ही उपन्यास पिछलें 200 वर्षो से चीन में बड़े चाव से पढ़े जाते रहे हैं और दोनों ही जनतांत्रिक विचारधारा की प्रतिष्ठा में सहायक हुए हैं। मंचू राजाओं के काल में शासकों का भ्रष्टाचार अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया था और उनमें छोटे छोटे स्वार्थो के लिये युद्ध हुआ करते थे। विद्वान् प्राय: शासकों के नियंत्रण में रहते और सहायता से शासक प्रजा पर मनमाना अत्याचार करते थे। विद्वानों का नैतिक अध:पतन अपनी सीमा को लाँघ गया था। सरकारी परीक्षाएँ पास करके धन और मान प्राप्त करना, बस यही उनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य रह गया था। इन्हीं सब बातों का चित्रण कुशल लेखक ने व्यंग्यपूर्ण शैली में किया है।
आधुनिक कथा साहित्य
आधुनिक चीनी साहित्य का आरंभ प्रथम विश्वयुद्ध के बाद हुआ। युद्ध के कारण आथ्रिक ओर राजनीतिक क्षेत्रों में जो परिवर्तन हुए उनसे नैतिकता के मापदंड ही बदल गए, जीवन की गति तीव्र हो गई और जीवन में अधिक पेचीदगी और जटिलता आ गई। इसी समय से चीनी साहितय में एक प्रगतिशील यथार्थवादी धारा का जन्म हुआ जिससे चीन के तरुण लेखकों को नया साहित्य सर्जन करने की प्रेरणा मिली।
चीन के गोर्की कहे जानेवाले लु शुन (1881-1936) आधुनिक चीनी साहित्य में मौलिक कहानियों के जन्मदाता कहे जाते हैं। अपनी लेखनी द्वारा उन्होंने सामंती समाज पर करारे प्रहार किए हैं। कला और जीवन का वे घनिष्ट संबंध स्वीकार करते हैं। लु शुन समाज के नग्न और वीभत्स चित्रण से ही संतोष नहीं कर लेते बल्कि समाजवादी यथार्थता के ऊपर आधारित जीवन के वास्तविक लेकिन आस्थापूर्ण चिद्ध भी उन्होंने प्रस्तुत किए हैं। "साबुन की टिकिया" कहानी में पितृभक्ति की परंपरागत भावना पर तीव्र प्रहार किया गया है। "आह क्यू की सच्ची कहानी" लु शुन की दूसरी श्रेष्ठ कृति है जिसमें अपनी "लाज" को बचाने की हीन मनोवृत्ति पर करारा व्यंग्य है। "मनुष्यद्वेषी" कहानी में बुद्धिजीवियों के स्वप्नों पर कठोर आघात है। "मेरा पुराना घर" और "नए वर्ष का बलिदान" कहानियों में ग्रामीण किसानों का हृदयद्रावक चित्रण है। अनेक महत्वपूर्ण आलोचनात्मक निबंध भी लु शुन ने लिखे हैं।
आधुनिक चीनी साहित्यिक आंदोलन के नेता माओ तुन (जन्म 1896) अनेक यथार्थवादी उपन्यासों और कहानियों के सफल लेखक हैं। सन् 1926 से लेकर 1932 तक इन्होंने "इंद्रधनुष", "एक पंक्ति में तीन" और "सड़क" आदि उपन्यासों की रचना की है। इनका "मध्यरात्रि" उपन्यास चीनी साहित्य की श्रेष्ठतम कृति मानी जाती है। साम्राज्यवादी शोषण के कारण उद्योग धंधों की कमी से चीन किस संकटापन्न अवस्था से गुजर रहा था, इसका यहाँ मार्मिक चित्रण है। "बसंत के रेशमी कीड़े" और "लिन् परिवार की दूकान" नामक कहानियों से माओ तुन को ख्याति मिली है। लाओ श (जन्म 1897) चीन के दूसरे सुप्रसिद्ध लेखक हैं। इनके "रिक्शावाला" उपन्यास ने अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की है। "लाओ लि के प्रेम की खोज" और "खिलाड़ियों का देश" आदि इनकी प्रसिद्ध रचनाएँ हैं। अभी हाल में लाओ श ने "नामरहित पहाड़ी जिसका नाकरण अब हुआ है" नामक उपन्यास लिखा है। तिं लिं चीन की क्रांतिकारी महिला हैं। सन् 1927 से ही इन्होंने लिखना शुरू कर दिया था। कोमिंगतांग की पुलिस द्वारा अपने पति हू ये-फिंग की निर्मम हत्य कर दिए जाने पर ये कोमिंगतांग सरकार के विरुद्ध जोर से कमा करने लगीं। देशभक्ति के कारण तिं लिं को जल की यातनाएँ भी सहनी पड़ीं। इनकी "जल" नामक कहानी में प्रलयकारी बाढ़ को रोकने के लिये किसानों के संघर्ष का सशक्त शैली में चित्रण किया गया है। "जब मैं लाल आकाश गाँव में थी" नामक कहानी में जापानी सिपाहियों के बलात्कार का शिकार बनी एक नवयुवती का सहानुभूतिपूर्ण चित्र प्रस्तुत है। सन् 1950 में तिं लिं की उत्तर शान्सी पर "वायु और सूर्य" नाम की रचना प्रकाशित हुई। "सांगकान नदी पर सूर्य का प्रकाश" नामक उपन्यास पर इन्हें स्तालिन पुरस्कार दिया गया। इस उपन्यास का विषय भूमिसुधार है जो लेखिका के अनुभव के आधार पर लिखा गया है। पा छिन (जन्म 1904) ने "बसंत", "शरत्" और "दुर्दांत नदी" आदि सफल उपन्यासों की रचना की है। इन रचनाओं में नवयुवकों के विचारों में अंतविंरोधों के सुंदर चित्रण मिलते हैं। यहाँ जगह जगह सामंती व्यवस्था के प्रति घृणा और क्रांतिकारियों के प्रति आदर का भाव व्यक्त किया गया है। पा छिन की सर्वश्रेष्ठ रचना "परिवार" है। यह उनकी बाल्यवस्था अनुभवों पर आधारित है। चाओ शु लि (जन्म 1905) की रचनाओं में किसानों का संघर्ष तथा नए समाज में प्रेम का चित्रण प्रस्तुत है। लेखक ने गाँवों में किसानों की सहकारी संस्थाओं को संगठित करने का अनुभव प्राप्त किया है। चा ओ शु लि की "श्याओ अ हइ का विवाह" और लि यू त्साय् की "तुकांत कविताएँ" नाम की कहानियाँ काफी लोकप्रिय हुई हैं। "लि के गाँव में परिवर्तन" इनका सफल उपन्यास है। अभी हाल में चाओ शु लि का "सानलिवान गाँव" नाम का एक और सुंदर उपन्यास प्रकाशित हुआ है जिससे उन्हें साहित्यिक जगत् में विशेष ख्याति मिली है। चा ओ शु-लि भाषा के धनी हैं, इनकी भाषा सरल और प्रभावोत्पादक है।
अन्य अनेक उपन्यासकार और कहानी लेखक भी चीन में हुए हैं जिन्होंने जनवादी साहित्य का निर्माण कर मानवता के उत्थान में योग दिया है। चाओ मिंग सन् 1932 से ही वामपक्षीय लेखकसंघ की सदस्या रही हैं। लेखिका का "शक्ति का स्त्रोत" उपन्यास उनके कारखानों में काम करने के अनुभवों पर आधारित है। खुंग छ्वये और य्वान् छिंग पति पत्नी हैं, दोनों ने मिलकर "पुत्रियाँ और पुत्र" नामक एक सशक्त उपन्यास लिखा है जिसमें जापानी सेना के खिलाफ किसान गोरिल्लों के युद्ध का प्रभावशाली वर्णन है। चौ लि-पो (जन्म 1908) ने अपनी रचनाओं में भूमिसुधार के चित्र प्रस्तुत किए हैं। "तूफान" नामक उपन्यास पर इन्हें स्तालिन पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया है। पिघला हुआ इस्पात चौ लि-पो का एक और सुंदर उपन्यास है जो हाल में ही प्रकाशित हुआ है। का ओ यू-पाओ ने सेना में भर्ती होने के बाद अक्षरज्ञान प्राप्त किया था। उनकी आत्मकथा में उपन्यास जैसा आंनद मिलता है। यांग श्य्वो न "पर्वत और नदियों के तीन हजार लि" नामक उपन्यास लिखा है जिसमें रेल मजदूरों का चित्रण है। लेइ छ्या ने "यालू नदी पर वसंत" और आयु बू ने "पर्वत और खेत" नामक उपन्यासों की रचना की है।
उपन्यासों के साथ आधुनिक कहानी साहित्य की भी यथेष्ट श्रीवृद्धि हुई। अभी हाल में चीनी कहानियों के अंग्रेजी अनुवादों के कुछ संग्रह प्रकाशित हुए हैं। "घर की यात्रा तथा अन्य कहानियाँ" नामक संग्रह में आय बू, लि छुन्, छि श्यवे-पेइ, लि उ पाइ-यू, मा फंग, लिउ छेन, छुन् छिग, नान तिंग आदि लेखकों की रचनाएँ संमिलित हैं। "नदी पर उषाकाल तथा अन्य कहानियाँ" और "नवजीवन का निर्माण" नामक संग्रहों में भी चीन के तरुण लेखकों की रचनाएँ संग्रहीत हैं।
चीनी नाटक
चीनी नाटकों का इतिहास काफी पुराना है। भारतवर्ष की भाँति देवी देवता या राजाओं महाराजाओं के समक्ष किए जानेवाले प्राचीन नृत्य ही इन नाटकों के मूलआधार है। थांग राजवंशों के काल में मिंग ह्वांग नामक सम्राट् ने राजदरबारियों के मनोरंजन के लिये लड़के लड़कियों की नाट्यसंस्था खोली। आगे चलकर विलासप्रिय सुंग राजाओं के काल (960-1278 ई.) में नाट्यकला की उन्नति हुई, लेकिन इस कला का पूर्ण विकास हुआ मंगोल राजाओं के समय (1200-1368 ई.)। इस युग में एक से एक सुंदर नाटकों की रचना हुई। छ्वान् छु श्यवान त्स छि के 8 भागों में 100 नाटकों का संग्रह छपा है। वांग शि-फू का लिखा हुआ शि श्यांग चि (पश्चिम भवन की कहानी) इस काल के सर्वश्रेष्ठ नाटकों में गिना जाता है। इसमें वायु, पुष्प, हिम और ज्योत्स्ना आदि संबंधी अनेक संवाद प्रस्तुत हैं जिनसे प्रेम और षड्यंत्र की सूचना मिलती है। नाटक की आख्यायिका अत्यंत साधारण होने पर भी बड़े कलात्मक ढंग से रंगमंच पर उपस्थित की जाती है। पात्रों की बोलचाल, उनका उठना बैठना और चलना फिरना आदि क्रियाएँ बड़ी मंद गति और कोमलता के साथ संपन्न होती हैं। छि छुन् श्यांग (चाओ परिवार का अनाथ) इस काल का दूसरा लोकप्रिय नाटक है जिसमें ईसा के पूर्व छठी शताब्दी के एक मंत्री की कहानी है जो अपने शत्रु की हत्या का षड्यंत्र रचता है।
मिंग काल (1368-1644 ई.) में शिल्प आदि की दृष्टि से नाट्य साहित्य में प्रगति हुई। इस युग की साहित्यिक भाषा में शब्द बहुल सैकड़ों नाटक प्रकाश में आए, कुछ में 48 अंकों तक का समावेश किया गया। का ओत्स छेंग का लिखा हुआ फी या ची (सितार कहानी) इस काल का श्रेष्ठ नाटक माना जाता है। सन् 1704 में यह पहली बार खेला गया था। इसके विभिन्न संस्करणों में 24 से लेकर 42 दृश्य तक प्रकाशित हुए हैं। इसमें राजभक्ति, पितृभक्ति और पतिसेवा का सुंदर चित्रण प्रस्तुत हुआ है।
मंचू राजवंशों के काल (1644-1900 ई.) में चीनी नाट्य साहित्य की लोकप्रियता में वृद्धि हुई। इस समय प्राय: युद्धसंबंधी नाटकों की रचना ही अधिक हुई। "शाश्वत युवावस्था का प्रासाद" इस काल की एक श्रेष्ठ कृति है जिसे हुंग शेंग ने सन् 1688 में प्रस्तुत किया। इस नाटक में सम्राट् मिंग ह्वांग और उसकी प्रेमिका यांग युह्वान् की करुण कहानी का सुंदर चित्रण है।
आधुनिक नाट्य साहित्य
नए चीन में जननाट्यों की लोकप्रियता बहुत बढ़ गई है। वहाँ सैकड़ों तरह के नाटक खेले जाते हैं और नाटकघरों में दर्शकों की भीड़ लगी रहती है। सान छा खौ (तीन सड़कों का बड़ा रास्ता) नामक नाट्य में सुंगकाल की घटना पर आधारित एक षड्यंत्र की कहानी है। सुंग वू कुंग (जादूगर वानर) एक दूसरा लोकप्रिय नाटक है। इसमें रंगमंच पर भीषण युद्ध के साहसपूर्ण दृश्य प्रस्तुत किए गए हैं। अभिनीत होने पर इस नाटक में प्रसिद्ध अभिनेता लिन् शाओ छुन् ने वानर का अभिनय किया था। पीकिंग, उत्तर चीन, शेचुआन, शांसी आदि भिन्न भिन्न प्रांतों के गीतिनाट्य (आपेरा) भी चीन में अत्यंत प्रसिद्ध हैं। पीकिंग के गीतिनाट्य में चीन के सुप्रसिद्ध अभिनेता मे ला फांग ने स्त्रियों का अभिनय किया। इसमें "मछुओं का प्रतिशोध", "स्वर्ग में तूफान" "ग्वाला और गांव की लड़की" आदि नाट्य प्रसिद्ध हैं। चेकियांग गीतिनाट्य शांघाई में बहुत लोकप्रिय है। इसमें स्त्रियाँ ही पुरुष और स्त्री दोनां का अभिनय करती हैं। "ल्यांग शान पो और चू यिंग थाय" इसका सुप्रसिद्ध नाट्य है। कैंटन गीतिनाट्य कैंटन, हांगकांग, मलाया और इंडोनेशिया में लोकप्रिय हुए हैं।
जननाट्यों की माँग बढ़ जाने से आजकल चीन के तरुण लेखक नाटक लिखने में जुट गए हैं। को मो-रो ने महान कवि चुयुवान् के चरित पर आधारित सुंदर नाटक की रचना की है। लाओ श ने "हमारा राष्ट्र सर्वप्रथम है" और माओ तुन ने "छिंगमिंग त्योहार के पूर्व और पश्चात्" नाटक लिखे हैं। त्साओ यू का "गर्जन, वर्षा और सूर्योदय" तथा छेन पो छेन का "लड़कों के लिये काम" नाटक सुप्रसिद्ध हैं। लि छि ह्वा ने "संघर्ष और प्रतिसंघर्ष", तू इन ने "नई वस्तुओं के आमने सामने", आन पो ने "नोमिन नदी में बसंत की बहार", हू ति ने "लाल खुफिया", शा क फू ने "हथियारों से", छेन छि-तुंग ने "दरिया और पहाड़ों के उस पार" तथा श्या येन ने "परीक्षा" नामक सुंदर नाटकों की रचना कर चीनी साहित्य की समृद्ध बनाया है।
बाहरी कड़ियाँ
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श्रेणी:चीनी भाषा
श्रेणी:विश्व की भाषाएँ
श्रेणी:साहित्य | चीन के सर्वप्रथम जनकवि किसे माना जाता हैं? | चू य्वान् | 799 | hindi |
0e08fc0fc | लालू प्रसाद यादव (जन्म: 11 जून 1948) भारत के बिहार राज्य के राजनेता व राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के अध्यक्ष हैं। वे 1990 से 1997 तक बिहार के मुख्यमंत्री रहे। बाद में उन्हें 2004 से 2009 तक केंद्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार में रेल मन्त्री का कार्यभार सौंपा गया। जबकि वे 15वीं लोक सभा में सारण (बिहार) से सांसद थे उन्हें बिहार के बहुचर्चित चारा घोटाला मामले में रांची स्थित केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) की अदालत ने पांच साल कारावास की सजा सुनाई थी। इस सजा के लिए उन्हें बिरसा मुण्डा केन्द्रीय कारागार रांची में रखा गया था।[1] केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो के विशेष
न्यायालय ने अपना फैसला सुरक्षित रखा जबकि उन पर कथित चारा घोटाले में भ्रष्टाचार का गम्भीर आरोप सिद्ध हो चुका था।[2] 3 अक्टूबर 2013 को न्यायालय ने उन्हें पाँच साल की कैद और पच्चीस लाख रुपये के जुर्माने की सजा दी।[3] दो महीने तक जेल में रहने के बाद 13 दिसम्बर को लालू प्रसाद को सुप्रीम कोर्ट से बेल मिली।[4] [5]
यादव और जनता दल यूनाइटेड नेता जगदीश शर्मा को घोटाला मामले में दोषी करार दिये जाने के बाद लोक सभा से अयोग्य ठहराया गया।[6] इसके बाद राँची जेल में सजा भुगत रहे लालू प्रसाद यादव की लोक सभा की सदस्यता समाप्त कर दी गयी। चुनाव के नये नियमों के अनुसार लालू प्रसाद अब 11 साल तक लोक सभा चुनाव नहीं लड़ पायेंगे। लोक सभा के महासचिव ने यादव को सदन की सदस्यता के अयोग्य ठहराये जाने की अधिसूचना जारी कर दी। इस अधिसूचना के बाद संसद की सदस्यता गँवाने वाले लालू प्रसाद यादव भारतीय इतिहास में लोक सभा के पहले सांसद हो गये हैं।[7]
जीवन एवं राजनीतिक सफर
बिहार के गोपालगंज में एक यादव परिवार में जन्मे यादव ने राजनीति की शुरूआत जयप्रकाश नारायण के जेपी आन्दोलन से की जब वे एक छात्र नेता थे और उस समय के[8] राजनेता सत्येन्द्र नारायण सिन्हा के काफी करीबी रहे थे। 1977 में आपातकाल के पश्चात् हुए[9] लोक सभा चुनाव में लालू यादव जीते और पहली बार 29 साल की उम्र में लोकसभा पहुँचे। 1980 से 1989 तक वे दो बार विधानसभा के सदस्य रहे और विपक्ष के नेता पद पर भी रहे।
छात्र राजनीति और प्रारंभिक कैरियर
प्रसाद ने 1970 में पटना यूनिवर्सिटी स्टूडेंट्स यूनियन (पुसू) के महासचिव के रूप में छात्र राजनीति में प्रवेश किया और 1973 में अपने अध्यक्ष बने। 1974 में, उन्होंने बिहार आंदोलन, जयप्रकाश नारायण (जेपी) की अगुवाई वाली छात्र आंदोलन में बढ़ोतरी, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी के खिलाफ शामिल हो गए। पुसू ने बिहार छात्र संघर्ष समिति का गठन किया था, जिसने लालू प्रसाद को राष्ट्रपति के रूप में आंदोलन दिया था। आंदोलन के दौरान प्रसाद जनवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता के करीब आए और 1977 में लोकसभा चुनाव में छपरा से जनता पार्टी के उम्मीदवार के रूप में नामित हुए, बिहार राज्य के तत्कालीन राष्ट्रपति जनता पार्टी और बिहार के नेता सत्येंद्र नारायण सिन्हा ने उनके लिए प्रचार किया।। जनता पार्टी ने भारत गणराज्य के इतिहास में पहली गैर-कांग्रेस सरकार बनाई और 29 साल की उम्र में, वह उस समय भारतीय संसद के सबसे युवा सदस्यों में से एक बन गए।[10][11]
निरंतर लड़ने और वैचारिक मतभेदों के कारण जनता पार्टी सरकार गिर गई और 1980 में संसद को फिर से चुनाव में भंग कर दिया गया। वह जय प्रकाश नारायण की विचारधारा और प्रथाओं और भारत में समाजवादी आंदोलन के एक पिता, राज से प्रेरित था। नारायण। उन्होंने मोरारजी देसाई के साथ अलग-अलग तरीके से हिस्सा लिया और जनता पार्टी-एस के नेतृत्व में लोकभाऊ राज नारायण के नेतृत्व में शामिल हुए जो जनता पार्टी-एस के अध्यक्ष थे और बाद में अध्यक्ष बने। प्रसाद 1980 में फिर से हार गए। हालांकि उन्होंने सफलतापूर्वक 1980 में बिहार विधानसभा चुनाव लड़ा और बिहार विधान सभा के सदस्य बने। इस अवधि के दौरान यादव ने पदानुक्रम में वृद्धि की और उन्हें दूसरे दल के नेताओं में से एक माना जाता था। 1985 में वह बिहार विधानसभा के लिए फिर से निर्वाचित हुए थे। पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर की मृत्यु के बाद, प्रसाद 1989 में विपक्षी बिहार विधानसभा के नेता बन गए। उसी वर्ष, वह वी.पी. सिंह सरकार के तहत लोक सभा के लिए भी चुने गए थे।
1990 तक, प्रसाद ने राज्य की 11.7% आबादी के साथ यादव के सबसे बड़े जातियों का प्रतिनिधित्व किया, जो खुद को निम्न जाति के नेता के रूप में स्थापित करता है। दूसरी तरफ बिहार में मुसलमान परंपरागत रूप से कांग्रेस (आई) वोट बैंक के रूप में कार्यरत थे, लेकिन 1989 के भागलपुर हिंसा के बाद उन्होंने प्रसाद के प्रति अपनी वफादारी बदल दी। 10 वर्षों की अवधि में, वह बिहार राज्य की राजनीति में एक ताकतवर बल बन गया, जो कि मुस्लिम और यादव मतदाताओं में उनकी लोकप्रियता के लिए जाना जाता है।
बिहार के मुख्यमंत्री
1990 में वे बिहार के मुख्यमंत्री बने एवं 1995 में भी भारी बहुमत से विजयी रहे। 23 सितंबर 1990 को, प्रसाद ने राम रथ यात्रा के दौरान समस्तीपुर में लालकृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार किया,[12] और खुद को एक धर्मनिरपेक्ष नेता के रूप में प्रस्तुत किया। 1990 के दशक में आर्थिक मोर्चे पर विश्व बैंक ने अपने कार्य के लिए अपनी पार्टी की सराहना की। 1993 में, प्रसाद ने एक अंग्रेजी भाषा की नीति अपनायी और स्कूल के पाठ्यक्रम में एक भाषा के रूप में अंग्रेजी के पुन: परिचय के लिए प्रेरित किया, इसके विपरीत उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव, एक और यादव और जाति आधारित राजनीतिज्ञ। अंग्रेजों को विरोध करने की नीति एक विरोधी कुलीन नीति माना गया क्योंकि दोनों यादव नेताओं ने इसी सामाजिक घटकों का प्रतिनिधित्व किया, पिछड़ा जातियां, दलितों और अल्पसंख्यक समुदायों।
लालू यादव के जनाधार में एमवाई (MY) यानी मुस्लिम और यादव फैक्टर का बड़ा योगदान है और उन्होंने इससे कभी इन्कार भी नहीं किया है।[13]
राष्ट्रीय जनता दल
लालू प्रसाद यादव मुख्यतः राजनीतिक और आर्थिक विषयों पर लेखों के अलावा विभिन्न आन्दोलनकारियों की जीवनियाँ पढ़ने का शौक रखते हैं। वे बिहार क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष भी हैं। लालू यादव ने एक फिल्म में भी काम किया जिसका नाम उनके नाम पर ही है।
जुलाई, 1997 में लालू यादव ने जनता दल से अलग होकर राष्ट्रीय जनता दल के नाम से नयी पार्टी बना ली। गिरफ्तारी तय हो जाने के बाद लालू ने मुख्यमन्त्री पद से इस्तीफा दे दिया और अपनी पत्नी राबड़ी देवी को बिहार का मुख्यमन्त्री बनाने का फैसला किया। जब राबड़ी के विश्वास मत हासिल करने में समस्या आयी तो कांग्रेस और झारखण्ड मुक्ति मोर्चा ने उनको समर्थन दे दिया।
1998 में केन्द्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार बनी। दो साल बाद विधानसभा का चुनाव हुआ तो राजद अल्पमत में आ गई। सात दिनों के लिये नीतीश कुमार की सरकार बनी परन्तु वह चल नहीं पायी। एक बार फ़िर राबड़ी देवी मुख्यमन्त्री बनीं। कांग्रेस के 22 विधायक उनकी सरकार में मन्त्री बने। 2004 के लोकसभा चुनाव में लालू प्रसाद एक बार फिर "किंग मेकर" की भूमिका में आये और रेलमन्त्री बने। यादव के कार्यकाल में ही दशकों से घाटे में चल रही रेल सेवा फिर से फायदे में आई। भारत के सभी प्रमुख प्रबन्धन संस्थानों के साथ-साथ दुनिया भर के बिजनेस स्कूलों में लालू यादव के कुशल प्रबन्धन से हुआ भारतीय रेलवे का कायाकल्प एक शोध का विषय बन गया। लेकिन अगले ही साल 2005 में बिहार विधानसभा चुनाव में राजद सरकार हार गई और 2009 के लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी के केवल चार सांसद ही जीत सके। इसका अंजाम यह हुआ कि लालू को केन्द्र सरकार में जगह नहीं मिली। समय-समय पर लालू को बचाने वाली कांग्रेस भी इस बार उन्हें नहीं बचा नहीं पायी। दागी जन प्रतिनिधियों को बचाने वाला अध्यादेश खटाई में पड़ गया और इस तरह लालू का राजनीतिक भविष्य अधर में लटक गया।[14]
लालू का अन्दाज
अपनी बात कहने का लालू यादव का खास अन्दाज है। बिहार की सड़कों को हेमा मालिनी के गालों की तरह बनाने का वादा हो या रेलवे में कुल्हड़ की शुरुआत, लालू यादव हमेशा ही सुर्खियों में रहे। इन्टरनेट पर लालू यादव के लतीफों का दौर भी खूब चला।[15]
चारा घोटाला
1997 में जब केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) ने उनके खिलाफ चारा घोटाला मामले में आरोप-पत्र दाखिल किया तो यादव को मुख्यमन्त्री पद से हटना पड़ा।[16] अपनी पत्नी राबड़ी देवी को सत्ता सौंपकर वे राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष बन गये और अपरोक्ष रूप से सत्ता की कमान अपने हाथ में रखी। चारा घोटाला मामले में लालू यादव को जेल भी जाना पड़ा और वे कई महीने तक जेल में रहे भी।
लगभग सत्रह साल तक चले इस ऐतिहासिक मुकदमे में सीबीआई की स्पेशल कोर्ट के न्यायाधीश प्रवास कुमार सिंह ने लालू प्रसाद यादव को वीडियो कान्फ्रेन्सिंग के जरिये 3 अक्टूबर 2013 को पाँच साल की कैद व पच्चीस लाख रुपये के जुर्माने की सजा सुनाई।[17]
यादव और जदयू नेता जगदीश शर्मा को घोटाला मामले में दोषी करार दिये जाने के बाद लोक सभा से अयोग्य ठहराया गया।[18] इसके कारण राँची जेल में सजा भुगत रहे लालू प्रसाद यादव को लोक सभा की सदस्यता भी गँवानी पड़ी। भारतीय चुनाव आयोग के नये नियमों के अनुसार लालू प्रसाद अब 11 साल (5 साल जेल और रिहाई के बाद के 6 साल) तक लोक सभा चुनाव नहीं लड़ सकेंगे। भारतीय उच्चतम न्यायालय ने चारा घोटाला में दोषी सांसदों को संसद की सदस्यता से अयोग्य ठहराये जाने से बचाने वाले प्रावधान को भी निरस्त कर दिया था। लोक सभा के महासचिव एस॰ बालशेखर ने यादव और शर्मा को सदन की सदस्यता के अयोग्य ठहराये जाने की अधिसूचना जारी कर दी। लोक सभा द्वारा जारी इस अधिसूचना के बाद संसद की सदस्यता गँवाने वाले लालू प्रसाद यादव भारतीय इतिहास में लोक सभा के पहले सांसद बने जबकि जनता दल यूनाइटेड के एक अन्य नेता जगदीश शर्मा दूसरे, जिन्हें 10 साल के लिये अयोग्य ठहराया गया।[19]
घोटाले की समयरेखा
1990 के दशक में हुए चारा घोटाला मामले में राजद प्रमुख लालू यादव और जगन्नाथ मिश्रा को दोषी करार देने के बाद उनके राजनीतिक कैरियर पर सवालिया निशान लग गया। लालू पर पशुओं के चारे के नाम पर चाईबासा ट्रेज़री से 37.70 करोड़ रुपए निकालने का आरोप था। पूरा घटनाक्रम इस प्रकार है:
27 जनवरी 1996: पशुओं के चारा घोटाले के रूप में सरकारी खजाने से करोड़ों रुपये की लूट सामने आयी। चाईबासा ट्रेजरी से इसके लियेगलत तरीके से 37.6 करोड़ रुपए निकाले गये थे।
11 मार्च 1996: पटना उच्च न्यायालय ने चारा घोटाले की जाँच के लिये सीबीआई को निर्देश दिये।
19 मार्च 1996: उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के आदेश की पुष्टि करते हुए हाईकोर्ट की बैंच को निगरानी करने को कहा।
27 जुलाई 1997: सीबीआई ने मामले में राजद सुप्रीमो पर फंदा कसा।
30 जुलाई 1997: लालू प्रसाद ने सीबीआई अदालत के समक्ष समर्पण किया।
19 अगस्त 1998: लालू प्रसाद और राबड़ी देवी की आय से अधिक की सम्पत्ति का मामला दर्ज कराया गया।
4 अप्रैल 2000: लालू प्रसाद यादव के खिलाफ आरोप पत्र दर्ज हुआ और राबड़ी देवी को सह-आरोपी बनाया गया।
5 अप्रैल 2000: लालू प्रसाद और राबड़ी देवी का समर्पण, राबड़ी देवी को मिली जमानत।
9 जून 2000: अदालत में लालू प्रसाद के खिलाफ आरोप तय किये।
अक्टूबर 2001: सुप्रीम कोर्ट ने झारखण्ड के अलग राज्य बनने के बाद मामले को नये राज्य में ट्रांसफर कर दिया। इसके बाद लालू ने झारखण्ड में आत्मसमर्पण किया।
18 दिसम्बर 2006: लालू प्रसाद और राबड़ी देवी को आय से अधिक सम्पत्ति के मामले में क्लीन चिट दी।
2000 से 2012 तक: मामले में करीब 350 लोगों की गवाही हुई। इस दौरान मामले के कई गवाहों की भी मौत हो गयी।
17 मई 2012: सीबीआई की विशेष अदालत में लालू यादव पर इस मामले में कुछ नये आरोप तय किये। इसमें दिसम्बर 1995 और जनवरी 1996 के बीच दुमका कोषागार से 3.13 करोड़ रुपये की धोखाधड़ी पूर्ण निकासी भी शामिल है।
17 सितम्बर 2013: चारा घोटाला मामले में रांची की विशेष अदालत ने फैसला सुरक्षित रखा।
30 सितम्बर 2013: चारा घोटाला मामले में राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव दोषी करार।
6 जनवरी 2018: को स्पेशल सीबीआई कोर्ट ने लालू प्रसाद को चारा घोटाला मामले में साढ़े तीन साल की सजा और पांच लाख रुपये जुर्माने की सजा सुनाई।
आलोचनाएं और विवाद
भाजपा के खिलाफ आरोप
5 अगस्त 2004 को यादव ने दावा किया कि एल.के. आडवाणी, जो वरिष्ठ भाजपा नेता और विपक्ष के नेता थे, मुहम्मद अली जिन्ना को मारने की साजिश में आरोपी थे और उन्हें एक 'अंतरराष्ट्रीय फरार' कहा।
28 सितंबर 2004 को, यादव ने तत्कालीन केंद्रीय ग्रामीण मंत्री वेंकैया नायडू को आंध्र प्रदेश में सूखा राहत वितरण समूह में 55,000 टन गेहूं बेची थी। उन्होंने कहा, "सीबीआई की जांच सच जानने के लिए की जाएगी।"
ओसामा बिन लादेन का एक जैसा दिखना
2005 में बिहार चुनावों के लिए प्रचार करते हुए, लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान दोनों ने मुस्लिम मतदाताओं को लुभाने के लिए पारंपरिक इस्लामिक पोशाक में एक मुस्लिम मुहासिरी का इस्तेमाल किया। यह मौलवी उनके हेलिकॉप्टर में विभिन्न चुनाव मीटिंगों के साथ साथ उनके साथ मंच साझा करेगा और उन भाषणों को बनायेगा जो कथित विरोधी मुस्लिम गतिविधियों के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका पर हमला करता था। भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता प्रमोद महाजन ने ओसामा बिन लादेन के साथ मौलवी की तुलना करके दोनों नेताओं की आलोचना की थी और यह आरोप लगाया था कि वे "एक ऐसे व्यक्ति के नाम की महिमा कर रहे हैं जो दुनिया में सबसे ज्यादा वांछित आतंकवादी है।"
नकारात्मक छवि
सुप्रीम कोर्ट के फैसले में दोषी विधायकों को उनके पदों पर रोक लगाने के फैसले के अनुसार, लालू प्रसाद यादव, चारा घोटाले में गिरफ्तार होने के मामले में संसदीय सीट हारने वाले पहले विद्वानों में से एक हैं। [11] उनके खिलाफ कई चल रही भ्रष्टाचार के बावजूद, वह और उनकी पत्नी रबड़ी देवी ने बिहार राज्य को 15 साल तक शासन किया, एक ऐसा अवधि जिसके दौरान राज्य के हर आर्थिक और सामाजिक रैंकिंग भारत के अन्य राज्यों की तुलना में निम्न स्तर पर गई। [68] मुख्यमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान, बिहार का कानून और व्यवस्था सबसे कम थी, अपहरण बढ़ रहा था और निजी सेनाओं की गड़बड़ी हुई।
परिवार के सदस्यों के खिलाफ कर चोरी के आरोप
आई-टी विभाग ने 12 जून के बीच सांसद मीसा भारती को बेनामी के जमीन के सौदे के लिए नए समन्स जारी किए हैं। 10 अरब [70] और कर चोरी शुल्क पर वह 6 जून, 2017 को पेश होने वाली थी, लेकिन वह नहीं खुलती। उनके पति शैलेश कुमार को 7 जून 2017 को पेश होना चाहिए।
व्यक्तिगत जीवन
1 जून 1 9 73 को यादव ने राबड़ी देवी से अपने माता-पिता द्वारा व्यवस्थित एक पारंपरिक मैच में शादी की। यादव नौ बच्चों, दो बेटे और सात बेटियों का पिता है:[20]
तेज प्रताप यादव, बड़े बेटे , बिहार राज्य सरकार में पूर्व स्वास्थ्य मंत्री
तेजस्वी यादव, छोटे बेटे, पूर्व क्रिकेटर, बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री
मीसा भारती देवी , सबसे बड़ी बेटी ने एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर शैलेश कुमार से शादी कर ली
रोहिणी आचार्य, दूसरी बेटी, राव समरेश सिंह, एसआरसी दिल्ली से एक अमेरिका स्थित वाणिज्य स्नातक, अरवल-दौडनगर की राव रणविजय सिंह के बेटे के लिए मई 2002 में शादी कर ली
चंदा सिंह, तीसरी बेटी, विक्रम सिंह से शादी कर ली, और 2006 में इंडियन एयरलाइंस के साथ पायलट
रागिनी यादव, चौथी बेटी, राहुल यादव से शादी, जितेंद्र यादव के बेटे, गाजियाबाद से सांसद विधायक, जो अब कांग्रेस पार्टी के सदस्य हैं
हेमा यादव, पांचवीं बेटी, विनीत यादव से शादी की, एक राजनीतिक परिवार के वंशज
Dhannu (उर्फ अनुष्का राव), छठे बेटी, चिरंजीव राव, कांग्रेस के राव अजय सिंह यादव, हरियाणा सरकार में कुछ समय ऊर्जा मंत्री के बेटे से शादी की
राजलक्ष्मी सिंह, सबसे छोटी बेटी, मैनपुरी और मुलायम सिंह यादव के भव्य भतीजे से तेज प्रताप सिंह यादव, सांसद से शादी की
जीवनी
संकर्षण ठाकुर अपने जीवन के आधार पर एक पुस्तक के लेखक हैं, द मेकिंग ऑफ लालू यादव, बिहार की अनमाकिंग; बाद में किताब को अद्यतन और पिकाडोइंडिया द्वारा "सुब्बलर साहिब: बिहार और मेकिंग ऑफ लालू यादव" के तहत पुनर्मुद्रित किया गया
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
की आधिकारिक वेबसाइट
|}
श्रेणी:1948 में जन्मे लोग
श्रेणी:जीवित लोग
श्रेणी:व्यक्तिगत जीवन
श्रेणी:बिहार के मुख्यमंत्री
श्रेणी:सांसद
श्रेणी:भारत के रेल मंत्री | लालू प्रसाद यादव का जन्म कब हुआ था? | 11 जून 1948 | 24 | hindi |
01c9df949 | दिल्ली (IPA: [d̪ɪlːiː]), आधिकारिक तौर पर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली[1] (अंग्रेज़ी: National Capital Territory of Delhi) भारत का एक केंद्र-शासित प्रदेश और महानगर है।[2] इसमें नई दिल्ली सम्मिलित है जो भारत की राजधानी है। दिल्ली राजधानी होने के नाते केंद्र सरकार की तीनों इकाइयों - कार्यपालिका, संसद और न्यायपालिका के मुख्यालय नई दिल्ली और दिल्ली में स्थापित हैं १४८३ वर्ग किलोमीटर में फैला दिल्ली जनसंख्या के तौर पर भारत का दूसरा सबसे बड़ा महानगर है। यहाँ की जनसंख्या लगभग १ करोड़ ७० लाख है। यहाँ बोली जाने वाली मुख्य भाषाएँ हैं: हिन्दी, पंजाबी, उर्दू और अंग्रेज़ी। देशमें दिल्ली का ऐतिहासिक महत्त्व है। इसके दक्षिण पश्चिम में अरावली पहाड़ियां और पूर्व में यमुना नदी है, जिसके किनारे यह बसा है। यह प्राचीन समय में गंगा के मैदान से होकर जाने वाले वाणिज्य पथों के रास्ते में पड़ने वाला मुख्य पड़ाव था।[3]
यमुना नदी के किनारे स्थित इस नगर का गौरवशाली पौराणिक इतिहास है। यह भारत का अति प्राचीन नगर है। इसके इतिहास का प्रारम्भ सिन्धु घाटी सभ्यता से जुड़ा हुआ है। हरियाणा के आसपास के क्षेत्रों में हुई खुदाई से इस बात के प्रमाण मिले हैं। महाभारत काल में इसका नाम इन्द्रप्रस्थ था। दिल्ली सल्तनत के उत्थान के साथ ही दिल्ली एक प्रमुख राजनैतिक, सांस्कृतिक एवं वाणिज्यिक शहर के रूप में उभरी।[4] यहाँ कई प्राचीन एवं मध्यकालीन इमारतों तथा उनके अवशेषों को देखा जा सकता हैं। १६३९ में मुगल बादशाह शाहजहाँ ने दिल्ली में ही एक चारदीवारी से घिरे शहर का निर्माण करवाया जो १६७९ से १८५७ तक मुगल साम्राज्य की राजधानी रही।
१८वीं एवं १९वीं शताब्दी में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने लगभग पूरे भारत को अपने कब्जे में ले लिया। इन लोगों ने कोलकाता को अपनी राजधानी बनाया। १९११ में अंग्रेजी सरकार ने फैसला किया कि राजधानी को वापस दिल्ली लाया जाए। इसके लिए पुरानी दिल्ली के दक्षिण में एक नए नगर नई दिल्ली का निर्माण प्रारम्भ हुआ। अंग्रेजों से १९४७ में स्वतंत्रता प्राप्त कर नई दिल्ली को भारत की राजधानी घोषित किया गया।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् दिल्ली में विभिन्न क्षेत्रों से लोगों का प्रवासन हुआ, इससे दिल्ली के स्वरूप में आमूल परिवर्तन हुआ। विभिन्न प्रान्तो, धर्मों एवं जातियों के लोगों के दिल्ली में बसने के कारण दिल्ली का शहरीकरण तो हुआ ही साथ ही यहाँ एक मिश्रित संस्कृति ने भी जन्म लिया। आज दिल्ली भारत का एक प्रमुख राजनैतिक, सांस्कृतिक एवं वाणिज्यिक केन्द्र है।
नामकरण
इस नगर का नाम "दिल्ली" कैसे पड़ा इसका कोई निश्चित सन्दर्भ नहीं मिलता, लेकिन व्यापक रूप से यह माना गया है कि यह एक प्राचीन राजा "ढिल्लु" से सम्बन्धित है। कुछ इतिहासकारों का यह मानना है कि यह देहली का एक विकृत रूप है, जिसका हिन्दुस्तानी में अर्थ होता है 'चौखट', जो कि इस नगर के सम्भवतः सिन्धु-गंगा समभूमि के प्रवेश-द्वार होने का सूचक है। एक और अनुमान के अनुसार इस नगर का प्रारम्भिक नाम "ढिलिका" था। हिन्दी/प्राकृत "ढीली" भी इस क्षेत्र के लिये प्रयोग किया जाता था।
इतिहास
दिल्ली का प्राचीनतम उल्लेख महाभारत नामक महापुराण में मिलता है जहाँ इसका उल्लेख प्राचीन इन्द्रप्रस्थ के रूप में किया गया है। इन्द्रप्रस्थ महाभारत काल मे पांडवों की राजधानी थी।[5] पुरातात्विक रूप से जो पहले प्रमाण मिले हैं उससे पता चलता है कि ईसा से दो हजार वर्ष पहले भी दिल्ली तथा उसके आस-पास मानव निवास करते थे।[6] मौर्य-काल (ईसा पूर्व ३००) से यहाँ एक नगर का विकास होना आरंभ हुआ। महाराज पृथ्वीराज चौहान के दरबारी कवि चंद बरदाई की हिंदी रचना पृथ्वीराज रासो में तोमर राजा अनंगपाल को दिल्ली का संस्थापक बताया गया है। ऐसा माना जाता है कि उसने ही 'लाल-कोट' का निर्माण करवाया था और महरौली के गुप्त कालीन लौह-स्तंभ को दिल्ली लाया। दिल्ली में तोमरों का शासनकाल वर्ष ९००-१२०० तक माना जाता है। 'दिल्ली' या 'दिल्लिका' शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम उदयपुर में प्राप्त शिलालेखों पर पाया गया। इस शिलालेख का समय वर्ष ११७० निर्धारित किया गया। महाराज पृथ्वीराज चौहान को दिल्ली का अंतिम हिन्दू सम्राट माना जाता है।
१२०६ ई० के बाद दिल्ली दिल्ली सल्तनत की राजधानी बनी। इस पर खिलज़ी वंश, तुगलक़ वंश, सैयद वंश और लोधी वंश समेत कुछ अन्य वंशों ने शासन किया। ऐसा माना जाता है कि आज की आधुनिक दिल्ली बनने से पहले दिल्ली सात बार उजड़ी और विभिन्न स्थानों पर बसी, जिनके कुछ अवशेष आधुनिक दिल्ली में अब भी देखे जा सकते हैं। दिल्ली के तत्कालीन शासकों ने इसके स्वरूप में कई बार परिवर्तन किया। मुगल बादशाह हुमायूँ ने सरहिंद के निकट युद्ध में अफ़गानों को पराजित किया तथा बिना किसी विरोध के दिल्ली पर अधिकार कर लिया। हुमायूँ की मृत्यु के बाद हेमू विक्रमादित्य के नेतृत्व में अफ़गानों नें मुगल सेना को पराजित कर आगरा व दिल्ली पर पुनः अधिकार कर लिया। मुगल बादशाह अकबर ने अपनी राजधानी को दिल्ली से आगरा स्थान्तरित कर दिया। अकबर के पोते शाहजहाँ (१६२८-१६५८) ने सत्रहवीं सदी के मध्य में इसे सातवीं बार बसाया जिसे शाहजहाँनाबाद के नाम से पुकारा गया। शाहजहाँनाबाद को आम बोल-चाल की भाषा में पुराना शहर या पुरानी दिल्ली कहा जाता है। प्राचीनकाल से पुरानी दिल्ली पर अनेक राजाओं एवं सम्राटों ने राज्य किया है तथा समय-समय पर इसके नाम में भी परिवर्तन किया जाता रहा था। पुरानी दिल्ली १६३८ के बाद मुग़ल सम्राटों की राजधानी रही। दिल्ली का आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफ़र था जिसकी मृत्यू निवार्सन में ही रंगून में हुई।
१८५७ के सिपाही विद्रोह के बाद दिल्ली पर ब्रिटिश शासन के हुकूमत में शासन चलने लगा। १८५७ के इस प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के आंदोलन को पूरी तरह दबाने के बाद अंग्रेजों ने बहादुरशाह ज़फ़र को रंगून भेज दिया तथा भारत पूरी तरह से अंग्रेजो के अधीन हो गया। प्रारंभ में उन्होंने कलकत्ते (आजकल कोलकाता) से शासन संभाला परंतु ब्रिटिश शासन काल के अंतिम दिनों में पीटर महान के नेतृत्व में सोवियत रूस का प्रभाव भारतीय उपमहाद्वीप में तेजी से बढ़ने लगा। जिसके कारण अंग्रेजों को यह लगने लगा कि कलकत्ता जो कि भारत के धुर पूरब मे था वहां से अफगानिस्तान एवं ईरान आदि पर सक्षम तरीके से आसानी से नियंत्रण नही स्थापित किया जा सकता है आगे चल कर के इसी कारण से १९११ में उपनिवेश राजधानी को दिल्ली स्थानांतरित कर दिया गया एवं अनेक आधुनिक निर्माण कार्य करवाए गये। शहर के बड़े हिस्सों को ब्रिटिश आर्किटेक्ट्स सर एडविन लुटियंस और सर हर्बर्ट बेकर द्वारा डिजाइन किया गया था। १९४७ में भारत की आजादी के बाद इसे अधिकारिक रूप से भारत की राजधानी घोषित कर दिया गया। दिल्ली में कई राजाओं के साम्राज्य के उदय तथा पतन के साक्ष्य आज भी विद्यमान हैं। सच्चे मायने में दिल्ली हमारे देश के भविष्य, भूतकाल एवं वर्तमान परिस्थितियों का मेल-मिश्रण हैं। तोमर शासकों में दिल्ली की स्थापना का श्रेय अनंगपाल को जाता है। दिल्ली का इतिहास काफी उतार चढ़ाव भरा रहा है।
जलवायु, भूगोल और जनसांख्यिकी
दिल्ली-एनसीआर
एनसीआर में दिल्ली से सटे सूबे उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान के कई शहर शामिल हैं।[7] एनसीआर में 4 करोड़ 70 से ज्यादा आबादी रहती है। समूचे एनसीआर में दिल्ली का क्षेत्रफल 1,484 स्क्वायर किलोमीटर है। देश की राजधानी एनसीआर का 2.9 फीसदी भाग कवर करती है। एनसीआर के तहत आने वाले क्षेत्र में उत्तर प्रदेश के मेरठ, गाजियाबाद, गौतम बुद्ध नगर (नोएडा), बुलंदशहर,शामली, बागपत, हापुड़ और मुजफ्फरनगर; और हरियाणा के फरीदाबाद, गुड़गांव, मेवात, रोहतक, सोनीपत, रेवाड़ी, झज्जर, पानीपत, पलवल, महेंद्रगढ़, भिवाड़ी, जिंद और करनाल जैसे जिले शामिल हैं। राजस्थान से दो जिले - भरतपुर और अलवर एनसीआर में शामिल किए गए हैं।[8]
भौगोलिक स्थिति
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में विस्तृत है, जिसमें से भाग ग्रामीण और भाग शहरी घोषित है। दिल्ली उत्तर-दक्षिण में अधिकतम 51.9km (32mi) है और पूर्व-पश्चिम में अधिकतम चौड़ाई 48.48km (30mi) है। दिल्ली के अनुरक्षण हेतु तीन संस्थाएं कार्यरत है:-
दिल्ली नगर निगम:विश्व का सबसे बड़ा स्थानीय निकाय है, जो कि अनुमानित १३७.८० लाख नागरिकों (क्षेत्रफल 1,397.3km2 or 540sqmi) को नागरिक सेवाएं प्रदान करती है। यह क्षेत्रफ़ल के हिसाब से भी मात्र टोक्यो से ही पीछे है।"[9]. नगर निगम १३९७ वर्ग कि॰मी॰ का क्षेत्र देखती है। वर्तमान में दिल्ली नगर निगम को तीन हिस्सों में बाट दिया गया है ऊपरी दिल्ली नगर निगम,पूर्वी दिल्ली नगर निगम व दक्षिण दिल्ली नगर निगम।
नई दिल्ली नगरपालिका परिषद: (एन डी एम सी) (क्षेत्रफल 42.7km2 or 16sqmi) नई दिल्ली की नगरपालिका परिषद का नाम है। इसके अधीन आने वाला कार्यक्षेत्र एन डी एम सी क्षेत्र कहलाता है।
दिल्ली छावनी बोर्ड: (क्षेत्रफल (43km2 or 17sqmi)[10] जो दिल्ली के छावनी क्षेत्रों को देखता है।
दिल्ली एक अति-विस्तृत क्षेत्र है। यह अपने चरम पर उत्तर में सरूप नगर से दक्षिण में रजोकरी तक फैला है। पश्चिमतम छोर नजफगढ़ से पूर्व में यमुना नदी तक (तुलनात्मक परंपरागत पूर्वी छोर)। वैसे शाहदरा, भजनपुरा, आदि इसके पूर्वतम छोर होने के साथ ही बड़े बाज़ारों में भी आते हैं। रा.रा.क्षेत्र में उपरोक्त सीमाओं से लगे निकटवर्ती प्रदेशों के नोएडा, गुड़गांव आदि क्षेत्र भी आते हैं। दिल्ली की भू-प्रकृति बहुत बदलती हुई है। यह उत्तर में समतल कृषि मैदानों से लेकर दक्षिण में शुष्क अरावली पर्वत के आरंभ तक बदलती है। दिल्ली के दक्षिण में बड़ी प्राकृतिक झीलें हुआ करती थीं, जो अब अत्यधिक खनन के कारण सूखती चली गईं हैं। इनमें से एक है बड़खल झील। यमुना नदी शहर के पूर्वी क्षेत्रों को अलग करती है। ये क्षेत्र यमुना पार कहलाते हैं, वैसे ये नई दिल्ली से बहुत से पुलों द्वारा भली-भांति जुड़े हुए हैं। दिल्ली मेट्रो भी अभी दो पुलों द्वारा नदी को पार करती है।
दिल्ली पर उत्तरी भारत में बसा हुआ है। यह समुद्रतल से ७०० से १००० फीट की ऊँचाई पर हिमालय से १६० किलोमीटर दक्षिण में यमुना नदी के किनारे पर बसा है। यह उत्तर, पश्चिम एवं दक्षिण तीन तरफं से हरियाणा राज्य तथा पूर्व में उत्तर प्रदेश राज्य द्वारा घिरा हुआ है। दिल्ली लगभग पूर्णतया गांगेय क्षेत्र में स्थित है। दिल्ली के भूगोल के दो प्रधान अंग हैं यमुना सिंचित समतल एवं दिल्ली रिज (पहाड़ी)। अपेक्षाकृत निचले स्तर पर स्थित मैदानी उपत्यकाकृषि हेतु उत्कृष्ट भूमि उपलब्ध कराती है, हालांकि ये बाढ़ संभावित क्षेत्र रहे हैं। ये दिल्ली के पूर्वी ओर हैं। और पश्चिमी ओर रिज क्षेत्र है। इसकी अधिकतम ऊंचाई ३१८ मी.(१०४३ फी.)[11] तक जाती है। यह दक्षिण में अरावली पर्वतमाला से आरंभ होकर शहर के पश्चिमी, उत्तर-पश्चिमी एवं उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों तक फैले हैं। दिल्ली की जीवनरेखा यमुना हिन्दू धर्म में अति पवित्र नदियों में से एक है। एक अन्य छोटी नदी हिंडन नदी पूर्वी दिल्ली को गाजियाबाद से अलग करती है। दिल्ली सीज़्मिक क्षेत्र-IV में आने से इसे बड़े भूकम्पों का संभावी बनाती है।[12]
जल संपदा
भूमिगत जलभृत लाखों वर्षों से प्राकृतिक रूप से नदियों और बरसाती धाराओं से नवजीवन पाते रहे हैं। भारत में गंगा-यमुना का मैदान ऐसा क्षेत्र है, जिसमें सबसे उत्तम जल संसाधन मौजूद हैं। यहाँ अच्छी वर्षा होती है और हिमालय के ग्लेशियरों से निकलने वाली सदानीरा नदियाँ बहती हैं। दिल्ली जैसे कुछ क्षेत्रों में भी कुछ ऐसा ही है। इसके दक्षिणी पठारी क्षेत्र का ढलाव समतल भाग की ओर है, जिसमें पहाड़ी श्रृंखलाओं ने प्राकृतिक झीलें बना दी हैं। पहाड़ियों पर का प्राकृतिक वनाच्छादन कई बारहमासी जलधाराओं का उद्गम स्थल हुआ करता था।[13]
व्यापारिक केन्द्र के रूप में दिल्ली आज जिस स्थिति में है; उसका कारण यहाँ चौड़ी पाट की एक यातायात योग्य नदी यमुना का होना ही है; जिसमें माल ढुलाई भी की जा सकती थी। ५०० ई. पूर्व में भी निश्चित ही यह एक ऐसी ऐश्वर्यशाली नगरी थी, जिसकी संपत्तियों की रक्षा के लिए नगर प्राचीर बनाने की आवश्यकता पड़ी थी। सलीमगढ़ और पुराना किला की खुदाइयों में प्राप्त तथ्यों और पुराना किला से इसके इतने प्राचीन नगर होने के प्रमाण मिलते हैं। १००० ई. के बाद से तो इसके इतिहास, इसके युध्दापदाओं और उनसे बदलने वाले राजवंशों का पर्याप्त विवरण मिलता है।[13]
भौगोलिक दृष्टि से अरावली की श्रंखलाओं से घिरे होने के कारण दिल्ली की शहरी बस्तियों को कुछ विशेष उपहार मिले हैं। अरावली श्रंखला और उसके प्राकृतिक वनों से तीन बारहमासी नदियाँ दिल्ली के मध्य से बहती यमुना में मिलती थीं। दक्षिण एशियाई भूसंरचनात्मक परिवर्तन से अब यमुना अपने पुराने मार्ग से पूर्व की ओर बीस किलोमीटर हट गई है।[14] 3000 ई. पूर्व में ये नदी दिल्ली में वर्तमान 'रिज' के पश्चिम में होकर बहती थी। उसी युग में अरावली की श्रृंखलाओं के दूसरी ओर सरस्वती नदी बहती थी, जो पहले तो पश्चिम की ओर सरकी और बाद में भौगोलिक संरचना में भूमिगत होकर पूर्णत: लुप्त हो गई।
एक अंग्रेज द्वारा १८०७ में किए गए सर्वेक्षण के आधार पर बने उपर्युक्त नक्शे में वह जलधाराएं दिखाई गई हैं, जो दिल्ली की यमुना में मिलती थीं। एक तिलपत की पहाड़ियों में दक्षिण से उत्तर की ओर बहती थी, तो दूसरी हौजखास में अनेक सहायक धाराओं को समेटते हुए पूर्वाभिमुख बहती बारापुला के स्थान पर निजामुद्दीन के ऊपरी यमुना प्रवाह में जाकर मिलती थी। एक तीसरी और इनसे बड़ी धारा जिसे साहिबी नदी (पूर्व नाम रोहिणी) कहते थे। दक्षिण-पश्चिम से निकल कर रिज के उत्तर में यमुना में मिलती थी। ऐसा लगता है कि विवर्तनिक हलचल के कारण इसके बहाव का निचाई वाला भूभाग कुछ ऊँचा हो गया, जिससे इसका यमुना में गिरना रूक गया।[13] पिछले मार्ग से इसका ज्यादा पानी नजफगढ़ झील में जाने लगा। कोई ७० वर्ष पहले तक इस झील का आकार २२० वर्ग किलोमीटर होता था। अंग्रेजों ने साहिबी नदी की गाद निकालकर तल सफ़ाई करके नाला नजफगढ़ का नाम दिया और इसे यमुना में मिला दिया। यही जलधाराएं और यमुना-दिल्ली में अरावली की श्रृंखलाओं के कटोरे में बसने वाली अनेक बस्तियों और राजधानियों को सदा पर्याप्त जल उपलब्ध कराती आईं थीं।
हिमालय के हिमनदों से निकलने के कारण यमुना सदानीरा रही है। परंतु अन्य उपरोक्त उपनदियाँ अब से २०० वर्ष पूर्व तक ही, जब तक कि अरावली की पर्वतमाला प्राकृतिक वन से ढकी रहीं तभी तक बारहमासी रह सकीं। खेद है कि दिल्ली में वनों का कटान खिलजियों के समय से ही शुरू हो गया था। इस्लाम स्वीकार न करने वाले स्थानीय विद्रोहियों और लूटपाट करने वाले मेवों का दमन करने के लिए ऐसा किया गया था। साथ ही बढ़ती शहरी आबादी के भार से भी वन प्रांत सिकुड़ा है। इसके चलते वनांचल में संरक्षित वर्षा जल का अवक्षय हुआ।[13]
ब्रिटिश काल मेंअंग्रेजी शासन के दौरान दिल्ली में सड़कों के निर्माण और बाढ़ अवरोधी बांध बनाने से पर्यावरण परिवर्तन के कारण ये जलधाराएं वर्ष में ग्रीष्म के समय सूख जाने लगीं। स्वतंत्रता के बाद के समय में बरसाती नालों, फुटपाथों और गलियों को सीमेंट से पक्का किया गया, इससे इन धाराओं को जल पहुँचाने वाले स्वाभाविक मार्ग अवरुद्ध हो गये।[13] ऐसी दशा में, जहां इन्हें रास्ता नहीं मिला, वहाँ वे मानसून में बरसाती नालों की तरह उफनने लगीं। विशद रूप में सीमेंट कंक्रीट के निर्माणों के कारण उन्हें भूमिगत जलभृत्तों या नदी में मिलाने का उपाय नहीं रह गया है। आज इन नदियों में नगर का अधिकतर मैला ही गिरता है।
जलवायु
दिल्ली के महाद्वीपीय जलवायु में ग्रीष्म ऋतु एवं शीत ऋतु के तापमान में बहुत अंतर होता है। ग्रीष्म ऋतु लंबी, अत्यधिक गर्म अप्रैल से मध्य-अक्टूबर तक चलती हैं। इस बीच में मानसून सहित वर्षा ऋतु भी आती है। ये गर्मी काफ़ी घातक भी हो सकती है, जिसने भूतकाल में कई जानें ली हैं। मार्च के आरंभ से ही वायु की दिशा में परिवर्तन होने लगता है। ये उत्तर-पश्चिम से हट कर दक्षिण-पश्चिम दिशा में चलने लगती हैं। ये अपने साथ राजस्थान की गर्म लहर और धूल भी लेती चलती हैं। ये गर्मी का मुख्य अंग हैं। इन्हें ही लू कहते हैं। अप्रैल से जून के महीने अत्यधिक गर्म होते हैं, जिनमें उच्च ऑक्सीकरण क्षमता होती है। जून के अंत तक नमी में वृद्धि होती है जो पूर्व मॉनसून वर्षा लाती हैं। इसके बाद जुळाई से यहां मॉनसून की हवाएं चलती हैं, जो अच्छी वर्षा लाती हैं। अक्टूबर-नवंबर में शिशिर काल रहता है, जो हल्की ठंड के संग आनंद दायक होता है। नवंबर से शीत ऋतु का आरंभ होता है, जो फरवरी के आरंभ तक चलता है। शीतकाल में घना कोहरा भी पड़ता है, एवं शीतलहर चलती है, जो कि फिर वही तेज गर्मी की भांति घातक होती है।[15] यहां के तापमान में अत्यधिक अंतर आता है जो −०.६ °से. (३०.९ °फ़ै.) से लेकर तक जाता है।[16] वार्षिक औसत तापमान २५°से. (७७ °फ़ै.); मासिक औसत तापमान १३°से. से लेकर ३२°से (५६°फ़ै. से लेकर ९०°फ़ै.) तक होता है।[17] औसत वार्षिक वर्षा लगभग ७१४मि.मी. (२८.१ इंच) होती है, जिसमें से अधिकतम मानसून द्वारा जुलाई-अगस्त में होती है।[5] दिल्ली में मानसून के आगमन की औसत तिथि २९ जून होती है।[18]
वायु प्रदुषण
दिल्ली की वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) आम तौर पर जनवरी से सितंबर के बीच मध्यम (101-200) स्तर है, और फिर यह तीन महीनों में बहुत खराब (301-400), गंभीर (401-500) या यहां तक कि खतरनाक (500+) के स्तर में भी हो जाती है। अक्टूबर से दिसंबर के बीच, विभिन्न कारकों के कारण, स्टबल जलने, दिवाली में जलने वाले अग्नि पटाखे और ठंड के मौसम ।[19][20][21]
जनसांख्यिकी
१९०१ में ४ लाख की जनसंख्या के साथ दिल्ली एक छोटा नगर था। १९११ में ब्रिटिश भारत की राजधानी बनने के साथ इसकी जनसंख्या बढ़ने लगी। भारत के विभाजन के समय पाकिस्तान से एक बहुत बड़ी संख्या में लोग आकर दिल्ली में बसने लगे। यह प्रवासन विभाजन के बाद भी चलता रहा। वार्षिक ३.८५% की वृद्धि के साथ २००१ में दिल्ली की जनसंख्या १ करोड़ ३८ लाख पहुँच चुकी है।[22] १९९१ से २००१ के दशक में जनसंख्या की वृद्धि की दर ४७.०२% थी। दिल्ली में जनसख्या का घनत्व प्रति किलोमीटर ९,२९४ व्यक्ति तथा लिंग अनुपात ८२१ महिलाओं एवं १००० पुरूषों का है। यहाँ साक्षरता का प्रतिशत ८१.८२% है।
नगर प्रशासन
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली कुल नौ ज़िलों में बँटा हुआ है। हरेक जिले का एक उपायुक्त नियुक्त है और जिले के तीन उपजिले हैं। प्रत्येक उप जिले का एक उप जिलाधीश नियुक्त है। सभी उपायुक्त मंडलीय अधिकारी के अधीन होते हैं। दिल्ली का जिला प्रशासन सभी प्रकार की राज्य एवं केन्द्रीय नीतियों का प्रवर्तन विभाग होता है। यही विभिन्न अन्य सरकारी कार्यकलापों पर आधिकारिक नियंत्रण रखता है। निम्न लिखित दिल्ली के जिलों और उपजिलों की सूची है:-
मध्य दिल्ली जिला
दरिया गंजपहाड़ गंजकरौल बाग
उत्तर दिल्ली जिला
सदर बाजार, दिल्ली कोतवाली, दिल्लीसब्जी मंडी
दक्षिण दिल्ली जिला
कालकाजीडिफेन्स कालोनीहौज खास
पूर्वी दिल्ली जिला
गाँधी नगर, दिल्लीप्रीत विहारविवेक विहारवसुंधरा एंक्लेव
उत्तर पूर्वी दिल्ली जिला
सीलमपुरशाहदरासीमा पुरी
दक्षिण पश्चिम दिल्ली जिला
वसंत विहारनजफगढ़दिल्ली छावनी
नई दिल्ली जिला
कनाट प्लेससंसद मार्गचाणक्य पुरी
उत्तर पश्चिम दिल्ली जिला
सरस्वती विहारनरेलामॉडल टाउन
पश्चिम दिल्ली जिला
पटेल नगरराजौरी गार्डनपंजाबी बाग
दर्शनीय स्थल
दिल्ली केवल भारत की राजधानी ही नहीं अपितु यह एक पर्यटन का मुख्य केंद्र भी है। राजधानी होने के कारण भारत सरकार के अनेक कार्यालय, राष्ट्रपति भवन, संसद भवन, केन्द्रीय सचिवालय आदि अनेक आधुनिक स्थापत्य के नमूने तो यहाँ देखे ही जा सकते हैं; प्राचीन नगर होने के कारण इसका ऐतिहासिक महत्त्व भी है। पुरातात्विक दृष्टि से पुराना किला, सफदरजंग का मकबरा, जंतर मंतर, क़ुतुब मीनार और लौह स्तंभ जैसे अनेक विश्व प्रसिद्ध निर्माण यहाँ पर आकर्षण का केंद्र समझे जाते हैं। एक ओर हुमायूँ का मकबरा, लाल किला जैसे विश्व धरोहर मुगल शैली की तथा पुराना किला, सफदरजंग का मकबरा, लोधी मकबरे परिसर आदि ऐतिहासिक राजसी इमारत यहाँ है तो दूसरी ओर निज़ामुद्दीन औलिया की पारलौकिक दरगाह भी। लगभग सभी धर्मों के प्रसिद्ध धार्मिक स्थल यहाँ हैं जैसे बिरला मंदिर, आद्या कात्यायिनी शक्तिपीठ, बंगला साहब गुरुद्वारा, बहाई मंदिर और जामा मस्जिद
देश के शहीदों का स्मारक इंडिया गेट, राजपथ पर इसी शहर में निर्मित किया गया है। भारत के प्रधान मंत्रियों की समाधियाँ हैं, जंतर मंतर है, लाल किला है साथ ही अनेक प्रकार के संग्रहालय और अनेक बाज़ार हैं, जैसे कनॉट प्लेस, चाँदनी चौक और बहुत से रमणीक उद्यान भी हैं, जैसे मुगल उद्यान, गार्डन ऑफ फाइव सेंसिस, तालकटोरा गार्डन, लोदी गार्डन, चिड़ियाघर, आदि, जो दिल्ली घूमने आने वालों का दिल लुभा लेते हैं।लाल किले के सामने 17 वी शताब्दी में बना उर्दू मन्दिर जिसे श्री दिगम्बर जैन मंदिर और लाल मन्दिर के नाम से मशहूर है भी दर्शनीय है
दिल्ली के शिक्षा संस्थान
दिल्ली भारत में शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र है। दिल्ली के विकास के साथ-साथ यहाँ शिक्षा का भी तेजी से विकास हुआ है। प्राथमिक शिक्षा तो प्रायः सार्वजनिक है। एक बहुत बड़े अनुपात में बच्चे माध्यमिक विद्यालयों में शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। स्त्री शिक्षा का विकास हर स्तर पर पुरुषों से अधिक हुआ है। यहाँ की शिक्षा संस्थाओं में विद्यार्थी भारत के सभी भागों से आते हैं। यहाँ कई सरकारी एवं निजी शिक्षा संस्थान हैं जो कला, वाणिज्य, विज्ञान, प्रोद्योगिकी, आयुर्विज्ञान, विधि और प्रबंधन में उच्च स्तर की शिक्षा देने के लिये विख्यात हैं। उच्च शिक्षा के संस्थानों में सबसे महत्त्वपूर्ण दिल्ली विश्वविद्यालय है जिसके अन्तर्गत कई कॉलेज एवं शोध संस्थान हैं। गुरु गोबिन्द सिंह इन्द्रप्रस्थ विश्वविद्यालय, अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, टेरी - ऊर्जा और संसाधन संस्थान एवं जामिया मिलिया इस्लामिया उच्च शिक्षा के प्रमुख संस्थान हैं।
संस्कृति
दिल्ली शहर में बने स्मारकों से विदित होता है कि यहां की संस्कृति प्राच्य ऐतिहासिक पृष्ट भूमि से प्रभावित है। भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग ने दिल्ली शहर में लगभग १२०० धरोहर स्थल घोषित किए हैं, जो कि विश्व में किसी भी शहर से कहीं अधिक है।[27] और इनमें से १७५ स्थल राष्ट्रीय धरोहर स्थल घोषित किए हैं।[28] पुराना शहर वह स्थान है, जहां मुगलों और तुर्क शासकों ने स्थापत्य के कई नमूने खड़े किए, जैसे जामा मस्जिद (भारत की सबसे बड़ी मस्जिद)[29] और लाल किला। दिल्ली में फिल्हाल तीन विश्व धरोहर स्थल हैं – लाल किला, कुतुब मीनार और हुमायुं का मकबरा।[30] अन्य स्मारकों में इंडिया गेट, जंतर मंतर (१८वीं सदी की खगोलशास्त्रीय वेधशाला), पुराना किला (१६वीं सदी का किला). बिरला मंदिर, अक्षरधाम मंदिर और कमल मंदिर आधुनिक स्थापत्यकला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। राज घाट में राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी तथा निकट ही अन्य बड़े व्यक्तियों की समाधियां हैं। नई दिल्ली में बहुत से सरकारी कार्यालय, सरकारी आवास, तथा ब्रिटिश काल के अवशेष और इमारतें हैं। कुछ अत्यंत महत्त्वपूर्ण इमारतों में राष्ट्रपति भवन, केन्द्रीय सचिवालय, राजपथ, संसद भवन और विजय चौक आते हैं। सफदरजंग का मकबरा और हुमायुं का मकबरा मुगल बागों के चार बाग शैली का उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
दिल्ली के राजधानी नई दिल्ली से जुड़ाव और भूगोलीय निकटता ने यहाँ की राष्ट्रीय घटनाओं और अवसरों के महत्त्व को कई गुणा बढ़ा दिया है। यहाँ कई राष्ट्रीय त्यौहार जैसे गणतंत्र दिवस, स्वतंत्रता दिवस और गाँधी जयंती खूब हर्षोल्लास से मनाए जाते हैं। भारत के स्वतंत्रता दिवस पर यहाँ के प्रधान मंत्री लाल किले से यहाँ की जनता को संबोधित करते हैं। बहुत से दिल्लीवासी इस दिन को पतंगें उड़ाकर मनाते हैं। इस दिन पतंगों को स्वतंत्रता का प्रतीक माना जाता है।[31] गणतंत्र दिवस की परेड एक वृहत जुलूस होता है, जिसमें भारत की सैन्य शक्ति और सांस्कृतिक झांकी का प्रदर्शन होता है।[32][33]
यहाँ के धार्मिक त्यौहारों में दीवाली, होली, दशहरा, दुर्गा पूजा, महावीर जयंती, गुरु परब, क्रिसमस, महाशिवरात्रि, ईद उल फितर, बुद्ध जयंती लोहड़ी पोंगल और ओड़म जैसे पर्व हैं।[33] कुतुब फेस्टिवल में संगीतकारों और नर्तकों का अखिल भारतीय संगम होता है, जो कुछ रातों को जगमगा देता है। यह कुतुब मीनार के पार्श्व में आयोजित होता है।[34] अन्य कई पर्व भी यहाँ होते हैं: जैसे आम महोत्सव, पतंगबाजी महोत्सव, वसंत पंचमी जो वार्षिक होते हैं। एशिया की सबसे बड़ी ऑटो प्रदर्शनी: ऑटो एक्स्पो[35] दिल्ली में द्विवार्षिक आयोजित होती है। प्रगति मैदान में वार्षिक पुस्तक मेला आयोजित होता है। यह विश्व का दूसरा सबसे बड़ा पुस्तक मेला है, जिसमें विश्व के २३ राष्ट्र भाग लेते हैं। दिल्ली को उसकी उच्च पढ़ाकू क्षमता के कारण कभी कभी विश्व की पुस्तक राजधानी भी कहा जाता है।[36]
पंजाबी और मुगलई खान पान जैसे कबाब और बिरयानी दिल्ली के कई भागों में प्रसिद्ध हैं।[37][38] दिल्ली की अत्यधिक मिश्रित जनसंख्या के कारण भारत के विभिन्न भागों के खानपान की झलक मिलती है, जैसे राजस्थानी, महाराष्ट्रियन, बंगाली, हैदराबादी खाना और दक्षिण भारतीय खाने के आइटम जैसे इडली, सांभर, दोसा इत्यादि बहुतायत में मिल जाते हैं। इसके साथ ही स्थानीय खासियत, जैसे चाट इत्यादि भी खूब मिलती है, जिसे लोग चटकारे लगा लगा कर खाते हैं। इनके अलावा यहाँ महाद्वीपीय खाना जैसे इटैलियन और चाइनीज़ खाना भी बहुतायत में उपलब्ध है।
इतिहास में दिल्ली उत्तर भारत का एक महत्त्वपूर्ण व्यापार केन्द्र भी रहा है। पुरानी दिल्ली ने अभी भी अपने गलियों में फैले बाज़ारों और पुरानी मुगल धरोहरों में इन व्यापारिक क्षमताओं का इतिहास छुपा कर रखा है।[39] पुराने शहर के बाजारों में हर एक प्रकार का सामान मिलेगा। तेल में डूबे चटपटे आम, नींबू, आदि के अचारों से लेकर मंहगे हीरे जवाहरात, जेवर तक; दुल्हन के अलंकार, कपड़ों के थान, तैयार कपड़े, मसाले, मिठाइयाँ और क्या नहीं?[39] कई पुरानी हवेलियाँ इस शहर में अभी भी शोभा पा रही हैं और इतिहास को संजोए शान से खड़ी है।[40] चांदनी चौक, जो कि यहाँ का तीन शताब्दियों से भी पुराना बाजार है, दिल्ली के जेवर, ज़री साड़ियों और मसालों के लिए प्रसिद्ध है।[41] दिल्ली की प्रसिद्ध कलाओं में से कुछ हैं यहाँ के ज़रदोज़ी (सोने के तार का काम, जिसे ज़री भी कहा जाता है) और मीनाकारी (जिसमें पीतल के बर्तनों इत्यादि पर नक्काशी के बीच रोगन भरा जाता है। यहाँ की कलाओं के लिए बाजार हैं प्रगति मैदान, दिल्ली, दिल्ली हाट, हौज खास, दिल्ली- जहां विभिन्न प्रकार के हस्तशिल्प के और हठकरघों के कार्य के नमूने मिल सकते हैं। समय के साथ साथ दिल्ली ने देश भर की कलाओं को यहाँ स्थान दिया हैं। इस तरह यहाँ की कोई खास शैली ना होकर एक अद्भुत मिश्रण हो गया है।[42][43]
दिल्ली के निम्न भगिनी शहर हैं:[44]
शिकागो, United States
कुआला लंपूर, Malaysia
लंदन,
मॉस्को,
सिओल,
वॉशिंगटन, United States
लॉस एंजिल्स, United States
सिडनी,
पेरिस,
स्थापत्य
इस ऐतिहासिक नगर में एक ओर प्राचीन, अतिप्राचीन काल के असंख्य खंडहर मिलते हैं, तो दूसरी ओर अवार्चीन काल के योजनानुसार निर्मित उपनगर भी। इसमें विश्व के किसी भी नवीनतम नगर से होड़ लेने की क्षमता है। प्राचीनकाल के कितने ही नगर नष्ट हो गए पर दिल्ली अपनी भौगिलिक स्थिति और समयानुसार परिवर्तनशीलता के कारण आज भी समृद्धशाली नगर ही नही महानगर है। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय के भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने दिल्ली में १२०० इमारतों को ऐतिहासिक महत्त्व का तथा १७५ को राष्ट्रीय सांस्कृतिक स्मारक घोषित किया है।
नई दिल्ली में महरौली में गुप्तकाल में निर्मित लौहस्तंभ है। यह प्रौद्योगिकी का एक अनुठा उदाहरण है। ईसा की चौथी शताब्दी में जब इसका निर्माण हुआ तब से आज तक इस पर जंग नही लगा। दिल्ली में इंडो-इस्लामी स्थापत्य का विकाश विशेष रूप से दृष्टगत होता है। दिल्ली के कुतुब परिसर में सबसे भव्य स्थापत्य कुतुब मिनार है। इस मिनार को स़ूफी संत कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की स्मृति में बनवाया गया था। तुगलक काल में निर्मित गयासुद्दीन का मकबरा स्थापत्य में एक नई प्रवृत्ति का सूचक है। यह अष्टभुजाकार है। दिल्ली में हुमायूँ का मकबरा मुगल स्थापत्य कला का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। शाहजहाँ का शासनकाल स्थापत्य कला के लिए याद किया जाता है।
अर्थ व्यवस्था
मुंबई के बाद दिल्ली भारत के सबसे बड़े व्यापारिक महानगरो में से है। देश में प्रति व्यक्ति औसत आय की दृष्टि से भी यह देश के सबसे संपन्न नगरो में गिना जाता है। १९९० के बाद से दिल्ली विदेशी निवशेकों का पसंदीदा स्थान बना है। हाल में कई बहुराष्ट्रीय कंपनियों जैसे पेप्सी, गैप, इत्यादि ने दिल्ली और उसके आस-पास के क्षेत्रों मे अपना मुख्यालय खोला है। क्रिसमस के दिन वर्ष २००२ में दिल्ली के महानगरी क्षेत्रों में दिल्ली मेट्रो रेल का शुभारम्भ हुआ जिसे वर्ष २०२२ में पूरा किये जाने का अनुमान है।
हवाई यातायात द्वारा दिल्ली इन्दिरा गांधी अन्तरराष्ट्रीय विमानस्थल से पूरे विश्व से जुड़ा है।.
यातायात सुविधाएं
दिल्ली के सार्वजनिक यातायात के साधन मुख्यतः बस, ऑटोरिक्शा और मेट्रो रेल सेवा हैं। दिल्ली की मुख्य यातायात आवश्यकता का ६०% बसें पूरा करती हैं।[50] दिल्ली परिवहन निगम द्वारा संचालित सरकारी बस सेवा दिल्ली की प्रधान बस सेवा है। दिल्ली परिवहन निगम विश्व की सबसे बड़ी पर्यावरण सहयोगी बस-सेवा प्रदान करता है।[51] हाल ही में बी आर टी की सेवा अंबेडकर नगर और दिल्ली गेट के बीच आरंभ हुई है। ऑटो रिक्शा दिल्ली में यातायात का एक प्रभावी माध्यम है। ये ईंधन के रूप में सी एन जी का प्रयोग करते हैं, व इनका रंग ऊपर पीला व नीचे हरा होता है। दिल्ली में वातानुकूलित टैक्सी सेवा भी उपलब्ध है जिनका किराया ७.५० से १५ रु/कि॰मी॰ तक है। दिल्ली की कुल वाहन संख्या का ३०% निजी वाहन हैं।[50] दिल्ली में १९२२.३२कि॰मी॰ की लंबाई प्रति १००कि॰मी॰², के साथ भारत का सर्वाधिक सड़क घनत्व मिलता है।[50] दिल्ली भारत के पांच प्रमुख महानगरों से राष्ट्रीय राजमार्गों द्वारा जुड़ा है। ये राजमार्ग हैं: राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या: १, २, ८, १० और २४। दिल्ली की सड़कों का अनुरक्षण दिल्ली नगर निगम (एम सी डी), दिल्ली छावनी बोर्ड, लोक सेवा आयोग और दिल्ली विकास प्राधिकरण द्वारा किया जाता है।[52] दिल्ली के उच्च जनसंख्या दर और उच्च अर्थ विकास दर ने दिल्ली पर यातायात की वृहत मांग का दबाव यहाँ की अवसंरचना पर बनाए रखा है। २००८ के अनुसार दिल्ली में ५५ लाख वाहन नगर निगम की सीमाओं के अंदर हैं। इस कारण दिल्ली विश्व का सबसे अधिक वाहनों वाला शहर है। साथ ही राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में ११२ लाख वाहन हैं।[53] सन १९८५ में दिल्ली में प्रत्येक १००० व्यक्ति पर ८५ कारें थीं।[54] दिल्ली के यातायात की मांगों को पूरा करने हेतु दिल्ली और केन्द्र सरकार ने एक मास रैपिड ट्रांज़िट सिस्टम का आरंभ किया, जिसे दिल्ली मेट्रो कहते हैं।[50] सन १९९८ में सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली के सभी सार्वजनिक वाहनों को डीज़ल के स्थान पर कंप्रेस्ड नैचुरल गैस का प्रयोग अनिवार्य रूप से करने का आदेश दिया था।[55][56] तब से यहाँ सभी सार्वजनिक वाहन सी एन जी पर ही चालित हैं।
मेट्रो सेवा
दिल्ली मेट्रो रेल कार्पोरेशन द्वारा संचालित दिल्ली मेट्रो रेल एक मास रैपिड ट्रांज़िट (त्वरित पारगमन) प्रणाली है, जो कि दिल्ली के कई क्षेत्रों में सेवा प्रदान करती है। इसकी शुरुआत २४ दिसम्बर २००२ को शहादरा तीस हजारी लाईन से हुई। इस परिवहन व्यवस्था की अधिकतम गति ८०किमी/घंटा (५०मील/घंटा) रखी गयी है और यह हर स्टेशन पर लगभग २० सेकेंड रुकती है। सभी ट्रेनों का निर्माण दक्षिण कोरिया की कंपनी रोटेम (ROTEM) द्वारा किया गया है। दिल्ली की परिवहन व्यवसथा में मेट्रो रेल एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है। इससे पहले परिवहन का ज़्यादातर बोझ सड़क पर था। प्रारंभिक अवस्था में इसकी योजना छह मार्गों पर चलने की है जो दिल्ली के ज्यादातर हिस्से को जोड़ेगी। इसका पहला चरण वर्ष २००६ में पूरा हो चुका है। दुसरे चरण में दिल्ली के महरौली, बदरपुर बॉर्डर, आनंद विहार, जहांगीरपुरी, मुन्द्का और इन्दिरा गाँधी अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा अथवा दिल्ली से सटे नोएडा, गुड़गांव और वैशाली को मेट्रो से जोड़ने का काम जारी है। परियोजना के तीसरे चरण में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के शहरों गाजियाबाद, फरीदाबाद इत्यादि को भी जोड़ने की योजना है। इस रेल व्यवस्था के चरण I में मार्ग की कुल लंबाई लगभग ६५.११ किमी है जिसमे १३ किमी भूमिगत एवं ५२ किलोमीटर एलीवेटेड मार्ग है। चरण II के अंतर्गत पूरे मार्ग की लंबाई १२८ किमी होगी एवं इसमें ७९ स्टेशन होंगे जो अभी निर्माणाधीन हैं, इस चरण के २०१० तक पूरा करने का लक्ष्य रखा गया है।[57][58] चरण III (११२ किमी) एवं IV (१०८.५ किमी) लंबाई की बनाये जाने का प्रस्ताव है जिसे क्रमश: २०१५ एवं २०२० तक पूरा किये जाने की योजना है। इन चारों चरणो का निर्माण कार्य पूरा हो जाने के पश्चात दिल्ली मेट्रो के मार्ग की कुल लंबाई ४१३.८ किलोमीटर की हो जाएगी जो लंदन के मेट्रो रेल (४०८ किमी) से भी बडा बना देगी।[58][59][60][61]
दिल्ली के २०२१ मास्टर प्लान के अनुसार बाद में मेट्रो रेल को दिल्ली के उपनगरों तक ले जाए जाने की भी योजना है।
रेल सेवा
दिल्ली भारतीय रेल के का एक प्रधान जंक्शन है। यहाँ उत्तर रेलवे का मुख्यालय भी है। यहाँ के चार मुख्य रेलवे स्टेशन हैं: नई दिल्ली रेलवे स्टेशन, दिल्ली जंक्शन, सराय रोहिल्ला और हज़रत निज़ामुद्दीन रेलवे स्टेशन।[50] दिल्ली अन्य सभी मुख्य शहरों और महानगरों से कई राजमार्गों और एक्स्प्रेसवे (त्वरित मार्ग) द्वारा जुड़ा हुआ है। यहाँ वर्तमान में तीन एक्स्प्रेसवे हैं और तीन निर्माणाधीन हैं, जो इसे समृद्ध और वाणिज्यिक उपनगरों से जोड़ेंगे। दिल्ली गुड़गांव एक्स्प्रेसवे दिल्ली को गुड़गांव और अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से जोड़ता है। डी एन डी फ्लाइवे और नौयडा-ग्रेटर नौयडा एक्स्प्रेसवे दिल्ली को दो मुख्य उपनगरों से जोड़ते हैं। ग्रेटर नौयडा में एक अलग अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा योजनाबद्ध है और नौयडा में इंडियन ग्रैंड प्रिक्स नियोजित है।
वायु सेवा
इंदिरा गाँधी अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा दिल्ली के दक्षिण-पश्चिम कोण पर स्थित है और यही अन्तर्देशीय और अन्तर्राष्ट्रीय वायु-यात्रियों के लिए शहर का मुख्य द्वार है। वर्ष २००६-०७ में हवाई अड्डे पर २३ मिलियन सवारियां दर्ज की गईं थीं,[62][63] जो इसे दक्षिण एशिया के व्यस्ततम विमानक्षेत्रों में से एक बनाती हैं। US$१९.३ लाख की लागत से एक नया टर्मिनल-३ निर्माणाधीन है, जो ३.४ करोड़ अतिरिक्त यात्री क्षमता का होगा, सन २०१० तक पूर्ण होना निश्चित है।[64] इसके आगे भी विस्तार कार्यक्रम नियोजित हैं, जो यहाँ १०० मिलियन यात्री प्रतिवर्ष से अधिक की क्षमता देंगे।[62] सफदरजंग विमानक्षेत्र दिल्ली का एक अन्य एयरफ़ील्ड है, जो सामान्य विमानन अभ्यासों के लिए और कुछ वीआईपी उड़ानों के लिए प्रयोग होता है।[65]
इन्हें भी देखें
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली के सर्वाधिक जनसंख्या वाले शहरों की सूची
दिल्ली-एनसीआर
सन्दर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
श्रेणी:भारत के केन्द्र शासित प्रदेश
श्रेणी:एशिया के महानगर
श्रेणी:भारत के महानगर
श्रेणी:दिल्ली
श्रेणी:एशिया में राजधानियाँ
श्रेणी:राजधानी ज़िले और क्षेत्र | दिल्ली किस देश की राजधानी है? | भारत | 126 | hindi |
89bb4653b | उपन्यास गद्य लेखन की एक विधा है।|
परिचय
अर्नेस्ट ए. बेकर ने उपन्यास की परिभाषा देते हुए उसे गद्यबद्ध कथानक के माध्यम द्वारा जीवन तथा समाज की व्याख्या का सर्वोत्तम साधन बताया है। यों तो विश्वसाहित्य का प्रारंभ ही संभवत: कहानियों से हुआ और वे महाकाव्यों के युग से आज तक के साहित्य का मेरुदंड रही हैं, फिर भी उपन्यास को आधुनिक युग की देन कहना अधिक समीचीन होगा। साहित्य में गद्य का प्रयोग जीवन के यथार्थ चित्रण का द्योतक है। साधारण बोलचाल की भाषा द्वारा लेखक के लिए अपने पात्रों, उनकी समस्याओं तथा उनके जीवन की व्यापक पृष्ठभूमि से प्रत्यक्ष संबंध स्थापित करना आसान हो गया है। जहाँ महाकाव्यों में कृत्रिमता तथा आदर्शोन्मुख प्रवृत्ति की स्पष्ट झलक देखने को मिलती है, आधुनिक उपन्यासकार जीवन की विशृंखलताओं का नग्न चित्रण प्रस्तुत करने में ही अपनी कला की सार्थकता देखता है।
यथार्थ के प्रति आग्रह का एक अन्य परिणाम यह हुआ कि कथा साहित्य के अपौरुषेय तथा अलौकिक तत्व, जो प्राचीन महाकाव्यों के विशिष्ट अंग थे, पूर्णतया लुप्त हो गए। कथाकार की कल्पना अब सीमाबद्ध हो गई। यथार्थ की परिधि के बाहर जाकर मनचाही उड़ान लेना उसके लिए प्राय: असंभव हो गया। उपन्यास का आविर्भाव और विकास वैज्ञानिक प्रगति के साथ हुआ। एक ओर जहाँ विज्ञान ने व्यक्ति तथा समाज को सामन्य धरातल से देखने तथा चित्रित करने की प्ररेणा दी वहीं दूसरी ओर उसने जीवन की समसयाओं के प्रति एक नए दृष्टिकोण का भी संकेत किया। यह दृष्टिकोण मुख्यत: बौद्धिक था। उपन्यासकार के ऊपर कुछ नए उत्तरदायित्व आ गए थे। अब उसकी साधना कला की समस्याओं तक ही सीमित न रहकर व्यापक सामाजिक जागरूकता की अपेक्षा रखती थी। वस्तुत: आधुनिक उपन्यास सामाजिक चेतना के क्रमिक विकास की कलात्मक अभिव्यक्ति है। जीवन का जितना व्यापक एवं सर्वांगीण चित्र उपन्यास में मिलता है उतना साहित्य के अन्य किसी भी रूप में उपलब्ध नहीं।
सामाजिक जीवन की विशद व्याख्या प्रस्तुत करने के साथ ही साथ आधुनिक उपन्यास वैयक्तिक चरित्र के सूक्ष्म अध्ययन की भी सुविधा प्रदान करता है। वास्तव में उपन्यास की उत्पत्ति की कहानी यूरोपीय पुनरुत्थान (रेनैसाँ) के फलस्वरूप अर्जित व्यक्तिस्वातंत्रय के साथ लगी हुई है। इतिहास के इस महत्वपूर्ण दौर के उपरांत मानव को, जो अब तक समाज की इकाई के रूप में ही देखा जाता था, वैयक्तिक प्रतष्ठा मिली। सामंतवादी युग के सामाजिक बंधन ढीले पड़े और मानव व्यक्तित्व के विकास के लिए उन्मुक्त वातावरण मिला। यथार्थोन्मुख प्रवृत्तियों ने मानव चरित्र के अध्ययन के लिए भी एक नया दृष्टिकोण दिया। अब तक के साहित्य में मानव चरित्र के सरल वर्गीकरण की परंपरा चली आ रही है। पात्र या तो पूर्णतया भले होते थे या एकदम गए गुजरे। अच्छाइयों और त्रुटियों का सम्मिश्रण, जैसा वास्तविक जीवन में सर्वत्र देखने को मिलता है, उस समय के कथाकारों की कल्पना के परे की बात थी। उपन्यास में पहली बार मानव चरित्र के यथार्थ, विशद एवं गहन अध्ययन की संभावना देखने को मिली।
अंग्रेजी के महान् उपन्यासकार हेनरी फ़ील्डिंग ने अपनी रचनाओं को गद्य के लिखे गए व्यंग्यात्मक महाकाव्य की संज्ञा दी। उन्होंने उपन्यास की इतिहास से तुलना करते हुए उसे अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण कहा। जहाँ इतिहास कुछ विशिष्ट व्यक्तियों एवं महत्वपूर्ण घटनाओं तक ही सीमित रहता है, उपन्यास प्रदर्शित जीवन के सत्य, शाश्वत और संर्वदेशीय महत्व रखते हैं। साहित्य में आज उपन्यास का वस्तुत: वही स्थान है जो प्राचीन युग में महाकाव्यों का था। व्यापक सामाजिक चित्रण की दृष्टि से दोनों में पर्याप्त साम्य है। लेकिन जहाँ महाकाव्यों में जीवन तथा व्यक्तियों का आदर्शवादी चित्र मिलता है, उपन्यास, जैसा फ़ील्डिंग की परिभाषा से स्पष्ट है, समाज की आलोचनात्मक व्याख्या प्रस्तुत करता है। उपन्यासकार के लिए कहानी साधन मात्र है, साध्य नहीं। उसका ध्येय पाठकों का मनोरंजन मात्र भी नहीं। वह सच्चे अर्थ में अपने युग का इतिहासकार है जो सत्य और कल्पना दोनों का सहारा लेकर व्यापक सामाजिक जीवन की झाँकी प्रस्तुत करता है।
उपन्यासिका
उपन्यास के समानांतर इधर उपन्यासिका नामक नवीन गद्य विधा का सूत्रपात हुआ है जिसे लघु उपन्यास भी कहा जाता है। उपन्यासिका अपनी संघटना की दृष्टि से उपन्यास के निकट होने पर भी कलवेर तथा आकार के चलते कहानी के अधिक निकट होती है। इसमें न तो कहनी जैसी एकसूत्रता, सघन बुनावट और प्रभावान्विति होती है और न ही उपन्यास जैसा फैलाव तथा निरूपण वैविध्य। देखा जाए तो उपन्यासिका उपन्यास और कहानी के बीच की विधा है।
प्रथम उपन्यास
बाणभट्ट की कादम्बरी को विश्व का प्रथम उपन्यास माना जा सकता है। कुछ लोग जापानी भाषा में 1007 ई. में लिखा गया “जेन्जी की कहानी” नामक उपन्यास को दुनिया का सबसे पहला उपन्यास मानते हैं। इसे मुरासाकी शिकिबु नामक एक महिला ने लिखा था। इसमें 54 अध्याय और करीब 1000 पृष्ठ हैं। इसमें प्रेम और विवेक की खोज में निकले एक राजकुमार की कहानी है।
यूरोप का प्रथम उपन्यास सेर्वैन्टिस का “डोन क्विक्सोट” माना जाता है जो स्पेनी भाषा का उपन्यास है। इसे 1605 में लिखा गया था।
अंग्रेजी का प्रथम उपन्यास होने के दावेदार कई हैं। बहुत से विद्वान 1678 में जोन बुन्यान द्वारा लिखे गए “द पिल्ग्रिम्स प्रोग्रेस” को पहला अंग्रेजी उपन्यास मानते हैं।
भारतीय भाषाओं में उपन्यास
हिन्दी का प्रथम् उपन्यास
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार परीक्षा गुरु हिन्दी का प्रथम उपन्यास है। इसके लेखकलाला श्रीनिवास दास हैं। 'देवरा नी जेठानी की कहानी' (लेखक - पंडित गौरीदत्त ; सन् १८७०)। श्रद्धाराम फिल्लौरी की भाग्यवती को भी हिन्दी के प्रथम उपन्यास होने का श्रेय दिया जाता है।
मलयालम
इंदुलेखा - रचनाकाल, 1889, लेखक चंदु मेनोन
तमिल
प्रताप मुदलियार - रचनाकाल 1879, लेखक, मयूरम वेदनायगम पिल्लै
बंगाली
दुर्गेशनंदिनी - रचनाकाल, 1865, लेखक, बंकिम चंद्र चटर्जी
मराठी
यमुना पर्यटन - रचनाकाल, 1857, लेखक, बाबा पद्मजी।
इसे भारतीय भाषाओं में लिखा गया प्रथम उपन्यास माना जाता है।
इस तरह हम देख सकते हैं कि भारत की लगभग सभी भाषाओं में उपन्यास विधा का उद्भव लगभग एक ही समय दस-बीस वर्षों के अंतराल में हुआ।
संदर्भ ग्रंथ
ई.एम. फ़ोर्स्टर: ऐस्पेक्ट्स ऑव द नावेल;
राल्फ़ फ़ॉक्स: दी नावेल ऐंउ द पीपुल;
पसी कुवतक: द क्रैफ़्ट ऑव फ़िक्शन;
एडविन म्योर: द स्ट्रक्चर ऑव द नावेल
इन्हें भी देखें
हिन्दी के आधुनिक उपन्यास
बाहरी कड़ियाँ
(साहित्यालोचन, हिन्दी चिट्ठा)
(गूगल पुस्तक ; लेखक - इन्द्रनाथ मदन)
(गूग्ल पुस्तक ; लेखक - संतोष गोयल)
(गूगल पुस्तक ; लेखक - नरेन्द्र कोहली)
श्रेणी:उपन्यास | 'डोन क्विक्सोट'' शीर्षक उपन्यास किस भाषा में लिखा गया था? | स्पेनी भाषा | 4,251 | hindi |
764b2bd93 | पाण्डव महाभारत के मुख्य पात्र हैं। पाण्डव पाँच भाई थे - युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल तथा सहदेव।
पाण्डवों के माता पिता
पाण्डवों के पिता का नाम पाण्डु था। वे बड़े ही प्रतापी कुरुवंशिय राजा थे! पाण्डु की दो पत्नियाँ थीं - कुन्ती तथा माद्री। युधिष्ठिर, भीम तथा अर्जुन की माता कुन्ती थी और नकुल एवं सहदेव माद्री के पुत्र थे।
पाण्डवों के जन्म की कथा
एक बार राजा पाण्डु अपनी दोनों पत्नियों - कुन्ती तथा माद्री - के साथ आखेट के लिये वन में गये। वहाँ उन्हें एक मृग का मैथुनरत जोड़ा दृष्टिगत हुआ। पाण्डु ने तत्काल अपने बाण से उस मृग को घायल कर दिया। मरते हुये मृग ने पाण्डु को शाप दिया, "राजन! तुम्हारे समान क्रूर पुरुष इस संसार में कोई भी नहीं होगा। तूने मुझे मैथुन के समय बाण मारा है अतः जब कभी भी तू मैथुनरत होगा तेरी मृत्यु हो जायेगी।"
इस शाप से पाण्डु अत्यन्त दुःखी हुये और अपनी रानियों से बोले, "हे देवियों! अब मैं अपनी समस्त वासनाओं का त्याग कर के इस वन में ही रहूँगा तुम लोग हस्तिनापुर लौट जाओ़" उनके वचनों को सुन कर दोनों रानियों ने दुःखी होकर कहा, "नाथ! हम आपके बिना एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकतीं। आप हमें भी वन में अपने साथ रखने की कृपा कीजिये।" पाण्डु ने उनके अनुरोध को स्वीकार कर के उन्हें वन में अपने साथ रहने की अनुमति दे दी।
इसी दौरान राजा पाण्डु ने अमावस्या के दिन ऋषि-मुनियों को ब्रह्मा जी के दर्शनों के लिये जाते हुये देखा। उन्होंने उन ऋषि-मुनियों से स्वयं को साथ ले जाने का आग्रह किया। उनके इस आग्रह पर ऋषि-मुनियों ने कहा, "राजन्! कोई भी निःसन्तान पुरुष ब्रह्मलोक जाने का अधिकारी नहीं हो सकता अतः हम आपको अपने साथ ले जाने में असमर्थ हैं।"
ऋषि-मुनियों की बात सुन कर पाण्डु अपनी पत्नी से बोले, "हे कुन्ती! मेरा जन्म लेना ही वृथा हो रहा है क्योंकि सन्तानहीन व्यक्ति पितृ-ऋण, ऋषि-ऋण, देव-ऋण तथा मनुष्य-ऋण से मुक्ति नहीं पा सकता क्या तुम पुत्र प्राप्ति के लिये मेरी सहायता कर सकती हो?" कुन्ती बोली, "हे आर्यपुत्र! दुर्वासा ऋषि ने मुझे ऐसा मन्त्र प्रदान किया है जिससे मैं किसी भी देवता का आह्वान करके मनोवांछित वस्तु प्राप्त कर सकती हूँ। आप आज्ञा करें मैं किस देवता को बुलाऊँ।" इस पर पाण्डु ने धर्म को आमन्त्रित करने का आदेश दिया। धर्म ने कुन्ती को पुत्र प्रदान किया जिसका नाम युधिष्ठिर रखा गया। कालान्तर में पाण्डु ने कुन्ती को पुनः दो बार वायुदेव तथा इन्द्रदेव को आमन्त्रित करने की आज्ञा दी। वायुदेव से भीम तथा इन्द्र से अर्जुन की उत्पत्ति हुई। तत्पश्चात् पाण्डु की आज्ञा से कुन्ती ने माद्री को उस मन्त्र की दीक्षा दी। माद्री ने अश्वनीकुमारों को आमन्त्रित किया और नकुल तथा सहदेव का जन्म हुआ।
एक दिन राजा पाण्डु माद्री के साथ वन में सरिता के तट पर भ्रमण कर रहे थे। वातावरण अत्यन्त रमणीक था और शीतल-मन्द-सुगन्धित वायु चल रही थी। सहसा वायु के झोंके से माद्री का वस्त्र उड़ गया। इससे पाण्डु का मन चंचल हो उठा और वे मैथुन मे प्रवृत हुये ही थे कि शापवश उनकी मृत्यु हो गई। माद्री उनके साथ सती हो गई किन्तु पुत्रों के पालन-पोषण के लिये कुन्ती हस्तिनापुर लौट आई।
श्रेणी:महाभारत के पात्र | महाभारत के अर्जुन के असली पिता कौन थे? | इन्द्र | 2,067 | hindi |