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्थ हम निकालते हैं वे सभी हमारी नींद से आते हैं और नींद में ले जाने वाले होते हैं। हम कहतेहैं, यह कुछ नहीं है, सिर्फ हवा का झोंका ही है। हम कहते हैं कि वहां कुछनहीं है सिर्फ बादल की गड़गड़ाहट है। तब हम आराम से सो सकते हैं। हमधर्म को मना करते चले जाते हैं, हम उन सभी चीजों को जो कि हमारी नींद तोड़ती है, मना करते चले जाते हैं। हम तर्क करते हैं कि कोई परमात्मा नहींहै, कि कोई धर्म नहीं है कि कुछ भी नहीं है, सिर्फ हवा है, सिर्फ बादल हैतब हम बड़े मजे से सो सकते हैं। यदि परमात्मा है, यदि दिव्यता है, यदि हमसे कुछ भी उच्चतर की संभावना है तो फिर हम आराम से नहींसो सकते। त्तब हमें सजग होना पड़ेगा। जगानापड़ेगा और संघर्ष व श्रम करना पड़ेगा। तब फिर रूपान्तरण हमारी चिंता का कारणबन जाता है। सजगता ही विधि है अपने को केन्दित करने के लिए-आंतरिक अग्नि को उपलब्धि के लिए। वह वहाँ छिपी है, उसे खोजा जा सकता है। और एक जारउसे खोजने के बाद ही हम प्रभु के मन्दिर में प्रवेश कर सकते है-उसके पहलेनहीं। पहले कभी भी नहीं। परन्तु, हम अपने कोप्रतीकों से धोखा दे सकते हैं। प्रतीक हमें गहरी वास्तविकता की और इशारा करने के लिए किन्तु हम चाहें तो उनका प्रवंचनाकी तरह उपयोग कर सकते है। हम बाहरी धूप जला सकते हैं, हम बाहरी चीजोंसे पूजा कर सकते हैं, और तब हम मजे से कह सकते हैं कि हमने कुछ किया है। हम अपने को धार्मिक समझ सकते हैं बिना जरा भी धार्मिक हुए। यही हो रहा है। ऐसी ही तो मानवता हो गई है। प्रत्येक यही समझता है कि वह बड़ा घार्मिक है क्योंकि वे बाहरी प्रतीकों कोमान रहे हैं, बिना किसी आंतरिक अग्नि के। प्रयत्न करते रहें। सफल न हों तब भी । शुरू-शुरू में ऐसा होगा । तुम बार-बार असफल हो जाओगे। परन्तु तुम्हारी असफलता भी मदद करेमी । जब तुम्हेंपता चलेगा कि तुम एक क्षण के लिए भी सजग नहीं हो सकते, तब तुम्हें पहलीबार मालूम पड़ेगा कि तुम कितने मूच्छित हो । सड़क पर चलो और तुम कुछ कदम भी होशपूर्वक नहीं चल सकते। बार-बार तुम अपने को भूल जाते हो। तुम रास्ते पर लगे एक विज्ञापन कोपढ़ने लगतेहोऔर तुम अपने को भूल जाते को। कोई निकट से गुजरेगा और तुम उसे देखनेलगोगे, स्वयं को भूल जाओगे। तुम्हारी असफलताएं भी सहायक होंगी। वे तुम्हें बतलाएंगी कि तुम कितने मूच्छित हो। और यदि तुम इतना भी जान सको कि तुम मूच्छित हो तो भी तुमनेथोड़ी सजगता तोपा ली। यदि कोई पागल इतना भी जान ले कि वह पागल है तो वह ठीक होनेके मार्ग पर चल पड़ा।
श्यामलाल एक क्षण ठिठके, फिर नाले में उतर पड़े। नाले में कीचड़ नहीं था; उसमें सूखी पत्तियाँ, अद्धे, गुम्मे, चीथड़े और एक खास तरह की धूल थी जो मोहल्ले के लोगों ने अपने-अपने घरों से बुहार कर सरकारी नाली में धकेल दी थी। पायँचे चढ़ा कर, दामन समेट कर वह उठकुरवाँ बैठ गए और पुलिया के नीचे झाँकने के लिए अपना सिर नाले की उसी अज्ञात गन्दगी के इतने करीब ले आए कि विनम्रता का एक बिल्कुल नया उनुभव उन्हें हुआ। पुलिया का मोखा जितना चौड़ा नगरपालिका ने बनवाया था उतना नहीं रह गया था - कचरे ने स्वाभाविक रूप से उसमें घर कर लिया था और सिर्फ एक छोटा-सा छेद रह गया था जिसके भीतर श्यामलालजी को अँधेरा ही दिखाई दिया, क्योंकि पुलिया का दूसरा छोर तो कचरे से बिल्कुल ही ताया हुआ था। वह अपनी बिल्ली को खोज रहे थे। इतवार का दिन था। जरा देर में पटरी पर चार-छह लड़के जमा हो गए। श्यामलाल के दो लड़के जो अपने बाप को देखते खड़े थे, इसी भीड़ में मिल गए था। गए थे। एक-एक कर कई चकित सम्भ्रान्त अधेड़ लोग तरकारी का झोला लिए चकित-से उनके पास से गुजर गए : एक नौजवान, जिसका स्वास्थ्य आतंककारी और चेहरा विज्ञापनों जैसा था, अधिकारपूर्वक पास आ कर खड़ा हो गया। श्यामलाल को रँगे हाथों पकड़ने की नीयत जैसा कुछ दिखा कर उसने पूछा, क्या है? श्यामलालजी ने कहा, "बिल्ली है।" "आप की बिल्ली है?" नौजवान ने पूछा। उत्तर प्रदेश के निवासी श्यामलाल को पंजाबी लहजे में सवाल सुन कर लगा कि 'आपकी' पर इतना जोर दिया गया है कि जैसे बिल्ली का किसी-न-किसी का होना तय हो और सवाल इतना ही रह गया हो कि वाकई आप की है या किसी और की? सच पूछिए तो सवाल का इतना बारीक अर्थ न था। पंजाब में पूछा ही ऐसे जाता है और उसमें भ्रम भी ऐसा ही होता है। जैसे पूछा जाए कि "सात बजे हैं?" तो सुनाई पड़ेगा कि क्या कहते हो। अभी सात कहाँ से बज गए? श्यामलाल ने कहा, "जी हाँ, मेरी बिल्ली है।" "पुलिया के नीचे चली गई है?" श्यामलाल ने कोई जवाब न दिया। वह पंजाब के धाकड़पन से ही नहीं, विज्ञापनी चेहरेवाली कुल नई पीढ़ी के ठसपने से भी एक साथ जूझने की हिम्मत न कर सके। उन्होंने और भी झुक कर मानो नाक रगड़ते हुए कोशिश की कि पुलिया के भीतर अँधेरे में बिल्ली की चमकती आँखें दिख जाएँ और आवाज दी, "मुनमुन, मुनमुन !" नौजवान ने सोचा होगा, मुझे यकीन दिलाने के लिए बिल्ली का नाम ले कर पुकार रहे हैं। परन्तु यह सोचना भी एक निर्दय व्यंग्य होता। मुनमुन श्यामलाल से ऐसे डरती थी जैसे कुत्ते से भी न डरती होगी। वह उन्हें देखते ही भागती। मगर इस वक्त श्यामलाल ने न जाने क्यों मान लिया था कि यह रिश्ता टूट गया है। वह एक संकट में थे और उन्हें विश्वास था कि बिल्ली भी एक संकट में है। नौजवान ने एक दोस्त और बुला लिया था। अबकी उसने पूछा, "यह बाहर क्यों नहीं निकल रही?" श्यामलाल को अचानक दो चमकती हरी बिंदियाँ दिखाई दे गईं। मुनमुन की आँखों के अलावा वे और क्या हो सकती थीं? मुनमुन ऐसे देखती थी जैसे कोई बहुत गम्भीर व्यक्ति
हो जबकि थी वह अपनी उम्र के हिसाब से भी अधिक गावदू। वही उजबक आँखें थीं। जरा देर में उसका सफेद थूथन भी नजर आने लगा। पर उस चेहरे पर इस वक्त वह भय न था जिसे देखने के श्यामलाल आदी थे। उस पर भरोसा था कि मैं जब तक यहाँ से न निकलूँ, सुरक्षित हूँ। जानवर इससे आगे सोच नहीं पा रहा था - कि जब कभी निकलेगी तो क्या होगा! एकाएक श्यामलाल को इतना गुस्सा आया कि उन्होंने जवाब दिया, "जब बाहर निकलेगी तो पूछ कर आपको बताऊँगा।" यह कहते ही उन्हें चेत हुआ कि उन्होंने अपने आपको उस लड़के के बराबर गिरा लिया है। इस बेवकूफ अमीर का तिरस्कार करने के लिए मुझे यह भी मंजूर है, उन्होंने सोचा। लड़के का दोस्त मामूली हैसियत का आदमी था। खुशामदाना तौर पर अपने दोस्त की आड़ करते हुए उसने पूछा, "बताती है?" श्यामलाल इतने उम्दा आदमी थे कि उन्हें तुर्की-बतुर्की नागवार न गुजरी। मगर वह इतने उथले न थे कि हर ऐसे मजाक को पसन्द करें जिसमें कोई हमदर्दी न हो। ज्यादातर मजाक आजकल इसी किस्म के होते हैं, उन्होंने अपने मन में कहा, और यह भी मेरे जैसे आदमियों के लिए आसान नहीं रह गया है कि मैं हँस सकूँ। यह खयाल आते ही वह चौकन्ने हो गए। वह अपने पर तरस खा रहे थे जो कि उन्होंने जवानी से ले कर अब तक सचेत रह कर अपने को नहीं करने दिया था। कुछ दिनों से वह देखते आ रहे थे कि वह बदल रहे हैं; चालीस पार करते-करते आदमी का गैर-मामूलीपन खत्म होने लगता है, यह उन्होंने सुन रखा था। वह अपने अन्दर ऐसा न होने देंगे। यह उनका दृढ़ निश्चय था। मगर कुछ ऐसा तो हो ही रहा था। जैसे उन्हें जानवर से प्यार हो चला था जो इस उम्र में बहुतों को अक्सर होता है। वह जानते थे कि यह उनके और उनकी पत्नी के जिन्दगी से थक चले होने का एक नतीजा है। मगर वह यह सोच कर खुश होते थे कि उनके बच्
चे जो कि वास्तव में जानवर को पालने के लिए घर लाए थे, औरों से अच्छे इंसान बनेंगे। सिर्फ उस वक्त जब उन्हें खबरों से राजनीति की निर्दयता का क्षणिक अनुभव होता वह यह सोच कर सहम जाते कि उनके बच्चे अपने प्यार-भरे दिल से, जो उन्हें जानवर की बदौलत मिलेगा, कैसे आनेवाले हकिमों का सामना करेंगे? स्वार्थ के कारण जवानी के प्रेम-व्यापारों में उन्होंने गच्चा खाया था। वही स्वार्थभाव वह अब अपने जानवर पर थोप रहे हों तो क्या अजब है! पर उनके मन को तो इसका पता भी न था - और जानवर को पता चला भी हो तो वह कर ही क्या सकता था। हाँ, बिल्ली की बात थोड़ी-सी और थी। वह आदमी को उतने ही पास आने देती है जितनी उसे जरूरत हो और कुत्ते की तरह आदमी की खुदगर्जी का शिकार बनने के लिए अपने को समर्पित नहीं करती। मुनमुन की माँ ने जब छह महीने हुए तीन बच्चे दिए थे तो घर के मानवों को एक नई परिस्थिति का अनुभव हुआ था। टीना अपने बच्चों की सुरक्षा का अपना जंगली तरीका अपनाना चाहती थी जिसे सात घर दिखाने का नाम मनुष्यों ने दिया है, मगर वह भी इतनी आश्रित हो चुकी थी कि उसके लिए सात घर का मतलब हो गया था श्यामलाल के ही घर में सात जगह। और इसका मतलब था कि बच्चों को बिलौटे से बचाने में हर आदमी को बिल्ली की मदद करनी थी। श्यामलाल के बच्चे और उनकी माँ बिल्ली के बच्चों को अलमारी में, बंद कमरे में, गोद में, बिस्तर में रह कर अपनी समझ से बिल्ली के पक्ष में अपना काम करते रहे, मगर बिल्ली के तरीकों और उनके तरीकों में लगातार एक मतभेद चलता रहा। जिसे वे सुरक्षित समझते, टीना उसे सूँघ कर नामंजूर कर देती और जिस जगह को वे बिलौटे के लिए सबसे अधिक सुगम समझते टीना उसे पसन्द करके, खँखोड़ कर उसकी शक्ल इस तरह बदलने की जिद पकड़ लेती कि जिससे वह उसे काफी प्राकृतिक मालूम हो सके। यह किस्सा चलता रहा। गर्मियों की रात में जब सारा घर बाहर सो रहा था, बिलौटे ने रोशनदान से घुस कर एक बच्चे को खत्म कर दिया। टीना की हिंसक फुँफकार से जग कर जब सारा घर भीतर आया तो लाश जमीन पर पड़ी थी और कमरा टीना और बिलौटे के पेशाब की बदबू से भरा हुआ था जो क्रोध के क्षणों में हो गया था। कुछ दिन बाद एक और बच्चे को बिलौटे ने गुसलखाने की ठंड में आराम करती माँ को लड़ने का मौका दिए बिना बिल्कुल उसके सामने खत्म किया। इस बार बच्चे को वे लोग उठा कर लाए तो उसमें जान थी। श्यामलाल की बड़ी लड़की उसे अस्पताल ले गई। शरीर पर कहीं खून न था। मगर उसकी नट्टी बिलौटे ने भीतर-ही-भीतर कुरमुरा दी थी। अस्पताल में उसने वह सब दूध और ब्रांडी उगल दी जो घर पर बच्चों ने उसे बचाने की कोशिश में पिलाई थी और मर गया। तब सारी गर्मियाँ श्यामलाल मुनमुन को बन्द टोकरी में सिरहाने रख कर सोए और सारा घर टीना से एक नई किस्म का संवाद सीखने में लगा रहा, क्योंकि टीना जब उसकी अक्ल में आता मुनमुन की टोकरी में घुस जाना चाहती और जब मन होता उसमें से निकल आना चाहती - उसको चुपचाप बैठने का हुक्म देना बेकार था - रात में कई बार उसके
लिए जागना हर एक को बिलौटे के खिलाफ कार्रवाई की खातिर इतना जरूरी मालूम होने लगा कि जैसे वे सब बिल्लियाँ हों। श्यामलाल ने छेद में हाथ डाल कर मुनमुन को पकड़ने का इरादा किया। भीतर कोई कनखजूरा या बिच्छू हो सकता था, उन्होंने डर और इंसानियत के विरोधी भावों का यह अजब मिला-जुला अनुभव किया। फिर उन्होंने ऊपर देखा। वह ठस दिमाग आदमी मय अपने खुशामदी साहब के जा चुका था - छोकरे भी। सिर्फ उनके अपने दो लड़के थे। उनका तनाव जाता रहा। यदि उन पर कुछ बुरी गुजरे तो वह तमाशा तो न बनेंगे। उन्होंने निर्मल मन से हाथ भीतर कर दिया। भीतर की ठंडी नम जमीन, जो छूने से ही साफ मालूम होती थी, उनकी हथेली से लगी। तत्काल उस मिट्टी की खुशबू उन्हें आने लगी। "मुनमुन, मुनमुन," उन्होंने आवाज दी। वह अब इस तरह बैठे थे कि भीतर झाँक नहीं सकते थे, मगर समझ सकते थे कि मुनमुन उनके हाथ की पहुँच से काफी दूर है। एकाएक उन्हें गोगी की महीन आवाज सुनाई दी। वह टीना के तीन नए बच्चों में से एक और सबसे दलिद्दर थी। आवाज के सहारे उनके हाथ ने गोगी को दबोच लिया और वह लटके हुए चारों पंजों को फैलाए और उनके नाखून निकाले गर्दन से टँगी हुई बाहर आ गई। लड़कों ने चिन्ता से कुछ कहा, मगर वह आवाज उस सड़क के यातायात की तरह स्वाभाविक थी जो कि श्यामलाल से कुछ दूर थी और ज्यादा चल नहीं रही थी। वह मुड़े और उन्होंने लड़कों से एक वाक्य कहा जो कि न उपदेश था, न आदेश, वह बराबर के लोगों से बोला गया एक वाक्य था : "मुश्तू और टीमा और टीना भी इसी सुरंग में होंगे," जो कि लड़के उनसे पहले ही समझ चुके थे। मुनमुन के होने के पाँच महीने बाद टीना ने तीन बच्चे और पैदा किए थे। इस बार ये तीनों आजादी से पले और बढ़े। बिलौटा कहीं दिखाई न देता था। एक मत यह था कि वह पालतू था और अपने
मालिक के मद्रास तबादले के साथ वहीं चला गया है। टीना बच्चों को बहुत थोड़ी देर के लिए अकेला छोड़ती, जबकि उन्हें इतनी पहरेदारी की जरूरत न रह गई थी। वह सोती भी बहुत, और अपनी पहलौठी की मुनमुन को जो कि कद में लगभग उसके जितनी हो चली थी, अपना दूध बाकी तीनों के साथ पीने देती। मुनमुन टीना की गैरहाजिरी में चुपचाप आ कर बच्चों को इस तरह सूँघती जैसे वे कोई नई और विचित्र चीजें हों। एक दिन उसने उन्हें चाटना भी शुरू कर दिया और जब वह कूदने-फाँदनेवाले हुए तो उन्हें अपनी दुम भी खेलने को देने लगी। ये तीनों माँ की तरह काले और सफेद थे, मुनमुन की तरह भूरेमायल नहीं। वे इतने सुन्दर और मुलायम भी नहीं थे। मुनमुन दिन-ब-दिन खिलौने की तरह खूबसूरत और साथ ही जाहिल बनती जा रही थी। उसने एक मरतबा एक ही दिन में तीन बार घर के तीन कोनों में गंदगी करके रख दी। श्यामलाल ने सोचा, इसे सजा की जरूरत है। उन्होंने कहीं पढ़ रखा था कि बिल्ली कितने ऊँचे से भी क्यों न गिरे जमीन पर आते-आते अपनी मांसपेशियों को इस तरह ढील दे देती है कि पंजों के बल सुरक्षित ही गिरे। उन्होंने अपना गुस्सा तौला और ठंडे दिमाग से मुनमुन को उठा कर उसी के हगे के सामने पटक दिया। वह पंजों के ही बल गिरी : श्यामलाल आश्वस्त हुए कि यह सजा सफल होगी। मुनमुन सीधे घर से बाहर भागी और रात-भर नहीं आई। सवेरे वह लौटी तो पिछली दाहिनी टाँग जमीन पर रख नहीं पा रही थी। श्यामलाल के बच्चे फिर अस्पताल गए। टाँग की हड्डी बच गई थी, मगर वे तन्तु जिनके बारे में श्यामलाल ने पढ़ रखा था टूट गए थे। लम्बे इलाज के बाद वह जिस दिन पहली बार फिर से पेड़ पर चढ़ी, श्यामलाल ने उसे फिर प्यार करना चाहा। वह पकड़ में तो आ गई क्योंकि उसकी टाँग हमेशा के लिए कमजोर हो गई थी, मगर उसने प्यार ऐसे कबूल किया जैसे वह बनी ही इसलिए है और कोई एहसान नहीं मान रही है। इसके बाद वह और भी प्यारपसन्द और आरामतलब हो गई। उसने कभी न कोई चिड़िया पकड़ी, न चूहा। अधिक-से-अधिक तितली को देख कर वह उठ बैठती और कान खड़े करके अपनी नजर से उसका पीछा करती रहती। एक ही और काम था जिसमें वह फुर्ती दिखलाती थी। जैसे ही तीनों बच्चे टीना का दूध पीने जुटते, वह भी दौड़ी हुई आती और ठेलठाल कर अपने मुँह के लिए उनके बीच में जगह बना लेती। उस वक्त घर के सब लोगों को उसकी चाल पर राय देने का मौका मिलता - "मैंने देखा कि टाँग चला रही है," कोई कहता। कोई कहता, "नहीं, अभी थोड़ा-सा-बस थोड़ा सा जमीन पर छुआती है।" न जाने किस तरह वह बहस अपनी शक्ल बदलने लगी और विषय यह हो गया कि आखिर कब तक टीना और उसके बच्चे घर में पलते रहेंगे? कोई साफ-साफ यह नहीं कहता था कि इन्हें हम नहीं रखना चाहते। यह कहना कि इनके खाने पर बहुत खर्च हो रहा है, और भी अप्रिय सत्य था। टीना रहेगी, यह भी बिल्कुल निर्विवाद था। प्रश्न इतना ही था कि इन बच्चों को कोई पालने के लिए माँग क्यों नहीं ले जा रहा है। एक अजब इंसानी तर्क से श्यामलाल सोच रहे थे कि अगर ये इतने बड़े न होने पाएँ कि
टीना के लिए इनसे बिछ़ड़ना बहुत दुखद हो जाए तो इन्हें किसी को दे दिया जा सकता है। इतने बड़े वह किस वक्त तक होंगे, यह जानने का कोई वैज्ञानिक आधार उनके पास न था। बस उन्होंने मान लिया था कि ऐसा कोई वक्त होता होगा। जहाँ तक टीना का सवाल था वह इतना ही जानती थी कि तीनों बच्चे इस बार बिलौटे से बच गए हैं और जिस घर में वह रहती है उसमें ये भी रह रहे हैं। एक दिन श्यामलाल ने अपने बच्चों को समझाया कि जानवर बहुत समय तक अपने बच्चों को आदमियों की तरह माँ पर निर्भर नहीं रखते, वे उन्हें आत्मनिर्भर बनने को छोड़ दिया करते हैं। बच्चों ने पूछा, "मगर मुनमुन क्यों अब तक माँ का दूध पीती है?" और यह प्रसंग वहीं समाप्त हो गया। पिछले तीन दिन से श्यामलाल के दिमाग में कई तर्क उपज रहे थे जैसे यह कि प्रकृति जानवरों की संख्या का नियन्त्रण करती है... वह नवजात शिशुओं की मृत्यु का प्रबन्ध कर देती है नहीं तो दुनिया साँपों और घड़ियालों से भर जाए... जानवर को पल कर उसे पराधीन बना देना कितना निर्दय है... उसे अपनी आजादी का कुछ हिस्सा अपने पास रखने देना चाहिए... इसके पहले कि वह बिल्कुल असहाय हो जाए उसे स्वतन्त्र कर देना चाहिए। अन्त में वह किसी नतीजे पर न आते। किसी ने जब यह सुझाव दिया कि जानवर पालने के तरीकों के अनुसार बिल्ली के फालतू बच्चों को पैदा होते ही बाल्टी में डुबो कर खत्म कर दिया जाता है तो सारे घर ने इसका घोर विरोध किया और श्यामलाल सोचने लगे कि क्या इंसान के दिमाग ने बस इतनी ही तरक्की की है जो इतना सीधा और ठोस तरीका निकाला? उन्हें एकाएक सूझा कि तीनों बच्चों को सिखाना चाहिए कि आदमी से वे सिर्फ एक हद तक रिश्ता रखें। जैसे वे रहें बाहर और घर में जितनी बार चाहें आ जाया करें। क्षण-भर के लिए इस खयाल में छिपी हुई चालाक
ी भी उन्हें दिखाई दे गई। यह प्रमाण था कि वह चालीस पार करने पर भी अपने को ईमानदारी से समझना भूले नहीं हैं। मगर मूलतः यह एक सही विचार है, उन्होंने सोचा और सीधे इस नतीजे पर आ गए कि अगर इससे मेरा जाती फायदा हो भी जाए तो भी मूलतः यह जानवर के हित में होगा। वह दरअसल चालीस के हो चुके थे। उस रात को वह मुनमुन को गोद में ले कर घर से सौ गज दूर गए। इससे ज्यादा उनकी हिम्मत न पड़ी। लँगड़ी बिल्ली को उन्होंने वहीं छोड़ दिया और वह दुम दबा कर सर्र से सबसे नजदीक की झाड़ी में गायब हो गई। आधी रात को काँपती हुई वह खिड़की से घर में दाखिल हुई। उसकी आलसी आदतों को जो जानते थे उन्हें खिड़की के जँगले से गुजरने की उसकी कोशिश देख कर इस मुसीबत में भी हँसी आती। वह घर तो आ गई थी मगर हक्की-बक्की रह गई थी। जैसे यह भाव उसके चेहरे पर छप गया और फिर जब कभी वह सामने आ पड़ती उसका हक्का-बक्कापन ही दिखाई देता। धीरे-धीरे वह अच्छा लगने लगा और घर-भर ने उसे उसकी सुन्दरता की पहचान बना लिया। अपने प्रयोग की प्रौढ़ बुद्धि से संतुष्ट होक दूसरे दिन शाम होने पर श्यामलाल अपने बच्चों से बोले, "इन तीनों को हम ले चलें और घर के सामनेवाले मैदान में छोड़ दें। यह अपने आप वापस आ जाएँगे।" बच्चे उन्हें मैदान में खेलते हुए देखने की कल्पना कर खुश हुए - उन्हें घर में ही देखते-देखते वे ऊबे जा रहे थे। वे बिलौटे को भूल चुके थे। "मगर चिट्टी के घर के सामने मत छोड़िएगा, उससे हमारी बोलचाल बन्द है," उन्होंने कहा। श्यामलालजी ने और रात होने का इंतजार किया। उन्होंने अपने को भरोसा दिलाया कि चाँदनी है, इससे जो वह करने जा रहे हैं उसमें जानवर के लिए खतरा कुछ कम हो जाता है। वह तीनों को उठा कर ले गए और सूने मैदान में उन्हें गोद से उतार दिया। मुनमुन को उन्होंने जहाँ अकेले रहने की शिक्षा दी थी, वहाँ से यह जगह उनके घर के और नजदीक थी। तब वह वहाँ से ले कर अपने घर तक चहलकदमी करने लगे। दो-तीन फेरियों तक तो उन्हें बच्चों की चीं-चीं सुनाई देती रही, उसके बाद आवाजें बन्द हो गईं। वह अगली फेरी में बच्चों के और नजदीक तक गए। दो बच्चे एक घर के बरामदे की सीढ़ियों पर गुमसुम बैठे थे, एक का पता न था। सवेरे आएगा वह भी, उन्होंने कहा और घर लौट आए। हस्बमामूल सब के सो जाने का इंतजार करते रहे, क्योंकि उनको कुछ देर अकेले जाग कर सोने की आदत थी। पर जब नींद के ठीक पहले का शून्य उनको हँस-हँस कर डुबोने लगा तो वह चौंक कर उठ बैठे और उन्होंने बच्चों को एक बार फिर देख आने का निश्चय किया। उन्होंने हर मकान के बरामदे में झाँकना शुरू किया। जाड़ा पड़ने लगा था, लोग अन्दर सो रहे थे। कोई भी जाग पड़ता तो जवाबतलब करता। वह दबे पाँव हर बरामदे में एक कदम रख कर निगाहें चारों और दौड़ाते और वही एक कदम दबे पाँव वापस ला कर अगले मकान को चल देते। आखिरकार एक बरामदे में दो बच्चे मिल गए। दोनों गहरी नींद में सिकुड़े एक-दूसरे से पैबस्त पड़े थे। उन्होंने चार कदम और बढ़ कर उन्हें उठा लिया - चाहे कोई जा
ग ही जाए। लौटते हुए उन्हें कहीं से तीसरे की डरी हुई धीमी-धीमी चीं-चीं सुनाई दी। इस बार सहज भाव से वह दूसरी मंजिल के एक मकान की सीढ़ियाँ चढ़ते चले गए और पहले बरामदे में उन्हें तीसरा बच्चा भी मिल गया। घर वापस आ कर वह लेटे और फौरन सो गए। अगले दिन इतवार था। उठते ही श्यामलाल के बच्चों ने टीना के पास जा कर उसके बच्चों को देखा। जब उन्हें बताया गया कि ये तीनों अपने आप नहीं आए, इन्हें लाया गया था तो उन्होंने कहा तो कुछ नहीं, मगर श्यामलाल को मालूम हो गया कि उन पर सब का विश्वास कुछ कम हो गया है। उनको कुछ बहुत दुख न हुआ। वह जानते थे कि उन्हें अपने स्वभाव की यह कीमत चुकानी ही पड़ती है। वह कोई गलत काम नहीं कर रहे थे, कोई निर्दयता, कोई क्षुद्रता नहीं कर रहे थे - वह सिर्फ एक निर्भीक प्रयोग कर रहे थे जिसमें जोखिम था तो, पर नपा-तुला। वह चाहते थे कि उन्हें बस एक और मौका दिया जाए जैसा जिन्दगी में हर बार वह उनसे माँगते आए थे जिन्होंने उन्हें प्यार दिया था। और फिर सबकी सहमति ले कर जो किसी ने उन्हें खुलेआम नहीं दी, उन्होंने बिल्ली के परिवार को एक-एक करके अपनी खचड़ा मोटरकार में भर लिया। यह निहायत मुश्किल काम था। टीना ने और उसके हर बच्चे ने विरोध किया। श्यामलाल के बच्चे पहले तो सकपकाए खड़े देखते रहे, फिर उन्होंने बिल्लियों की गिरफ्तारी में मदद की जिससे बिल्लियों को तकलीफ न हो और एक ने कहा कि आप वहाँ किसी को पटक मत दीजिएगा। जब कार चली तो टीना घबरा कर इस गद्दी से उस पर टहलने और अपने बच्चों को उसी तरह बुलाने लगी जैसे दूध पिलाने के लिए बुलाती थी। शायद वह कोई और आवाज थी जिसकी ममता में दूध पिलाने को बुलानेवाली पुकार से सूक्ष्म भेद था। श्यामलाल बाजार को मुड़नेवाली सड़क छोड़ कर सीधे बढ़ते गए। इतना घर से बहुत
दूर होगा, उन्होंने सोचा और लौट पड़े। एक जगह और रुके, पर वह भी उन्हें घर से बहुत दूर जान पड़ी। सब निर्णय उन्हीं के थे और उन्हें संतोष न मिल रहा था। आखिर बाजारवाले मोड़ पर आ कर उन्होंने सड़क के एक किनारे एक भलेमानस आदमी को पेड़ के नीचे सुस्ताते देखा। यहीं ठीक है। आदमी ने गाड़ी रुकते और बिल्लियों को दरवाजे से कूद कर बाहर आते देखा और वैसे ही बैठा रहा। मगर श्यामलाल जो कर रहे थे उसमें उसे चुपचाप अपना साझी मान चुके थे। टीना सड़क पर आते ही चारों ओर देख कर चौकन्नी हुई। फिर कान खड़े करके और दुम दबा कर सीधे सड़क के उस पार भागी। मुनमुन उसके पीछे-पीछे दौड़ गई और दोनों सड़क के पार की पटरी पर बैठ कर एक बार इधर और एक बार उधर देखने लगीं। वे सर साथ-साथ घुमातीं। उनके कान खड़े थे और मुँह खिंच कर आगे को निकल आया था। टीना के सफेद पैरों और सफेद सीनेवाला जिस्म तना हुआ था। यह देख कर श्यामलाल को धक्का-सा लगा। "टीना-टीना!" उन्होंने पुकारा। मगर टीना वापस आना नहीं अपने बाकी बच्चों को इस पार ले जाना चाहती थी। श्यामलाल ने उन्हें उठाया और टीना की तरफ ले चले। वह तेजी से आगे बढ़ी और बच्चों को पुकार कर वापस मुड़ कर वहीं जा बैठी जहाँ पहले थी। शायद यह जगह भी घर से ज्यादा दूर है। मगर नहीं। मुझे पूरी उम्मीद है कि इन्हें वह घुमा-फिरा कर यहाँ से घर की तरफ ले जाएगी... और फिर जो होगा वह स्वाभाविक तौर पर होगा। जो भी हो, हो। मैं इन्हें मारने के लिए नहीं छोड़ रहा हूँ। उनकी माँ उनके साथ है। उन्होंने कई बार हल्के से और एक बार जोर से अपने मन में कहा और वापस आ गए। किसी ने उनसे कुछ नहीं पूछा। थोड़ी देर बाद जब घर का काम खत्म हो चुका तो उनकी पत्नी आ कर कमरे में बैठीं। धीरे से बोलीं, "कहाँ छोड़ा है उनको?" श्यामलाल ने बताया कि बाजारवाले मोड़ पर। वह चुप रहीं। श्यामलाल ने कहा, "दूर नहीं है। टीना आ जाएगी।" उन्होंने बच्चों का नाम नहीं लिया। "टीना पिछवाड़े के स्कूल से आगे आज तक नहीं गई है," वह कहकर चुप हो गईं। फिर काफी देर बाद बोलीं, "टीना दो-तीन दिन के पहले नहीं आ सकती।" वह आँखें मूँदें बैठी हुई थीं। उनके चेहरे पर थकान तनी हुई थी। वह बिल्ली के साथ किए गए प्रयोग की बेदर्दी और अपना पुराना सिर-दर्द साथ-साथ सह रही थीं। थोड़ी देर बाद श्यामलाल ने पूछा, "दो-तीन दिन कहाँ रहेगी?" पत्नी ने कहा, "यह तो मैं नहीं कह सकती, परंतु वह बच्चों को अकेला छोड़ेगी नहीं, जहाँ वे रहेंगे वहीं वह रहेगी।" श्यामलाल बोले, "तो क्या यह भी हो सकता है कि वह लौट कर न आए?" पत्नी ने कहा, "यह तो मैं नहीं कह सकती। मगर वह आएगी तो दो-तीन दिन बाद ही आएगी। हफ्ते-भर बाद भी आ सकती है।" श्यामलाल ने कहा, "नहीं, इतने दिन तो बहुत होते हैं।" अपने हाथ से अपना सिर दबाते हुए पत्नी ने कहा, "तुम बाजार से खाना ले आओ। मैंने पकाया नहीं है।" श्यामलाला के साथ बाजार जाने के लिए उनके दो बच्चे फौरन तैयार हो गए। वे घर से निकले तो श्यामलाल ने कहा, "हम गली-गली जाएँगे।" एक बच्चे
ने कहा, "सड़क-सड़क चलिए क्योंकि वह सीधे रास्ते से घर आ रही होगी।" श्यामलाल ने कहा, "नहीं, हो सकता है वे लोग किसी घर में दुबक गए हों, हम गलियों से हो कर जाएँगे और सड़क से हो कर आएँगे।" गलियों में उन्हें कई बिल्लियाँ मिलीं - छोटी, बड़ी, चोरों की तरह दुम दबा कर सरकती हुई और बेखबर घूरे को देख कर कुरेदती हुई। वे सब दूसरी बिल्लियाँ थीं। वे पास आते ही कितनी अजनबी लगती थीं और कितनी पराई भी। गोगी को पकड़ कर खींच निकालने के बाद श्यामलाल को विश्वास हो गया था कि टीना और उसके सब बच्चे इसी सुरंग में हैं। वह इतनी सँकरी और नीची थी कि यह विश्वास सिर्फ वही कर सकता था जो बिल्लियों की सिकुड़ सकने की क्षमता जानता हो। श्यामलाल ने वहीं जा कर पूछताछ की थी जहाँ वह सवेरे उन्हें त्याग गए थे। वह नहीं जानते थे कि जब वह अकेले घर वापस जा रहे थे तो इतवार को छज्जों पर खामख्वाह खड़े बहुत-से लोगों ने उन्हें देखा था। हर छज्जे पर बातचीत हुई थी कि यह आदमी कर क्या रहा है। निश्चय ही कुछ लोग बिल्कुल बोदे रहे होंगे। उनमें से कुछ ने श्यामलाल का बहुत राजदाँ बनते हुए कहा कि उन्होंने समझा था कि श्यामलाल अपनी बिल्लियों को छोड़ने नहीं अपनी बिल्लियों को पकड़ने आए हैं। "क्या अभी तक मिली नहीं?" उन्होंने पूछा। यह पर्दादारी लोग बिना माँगे कर रहे थे जिससे वह श्यामलाल को भय की तरह रहस्यमय लगी। उन लोगों के सामने जो उन्हें इतना गलत समझ रहे थे सच बोलना कितना निराशाजनक होता। "हाँ, मगर आप ने उन्हें जाते किधर देखा था?" उन्होंने जैसे डकैतों के सामने मीठी बोली से काम निकालना चाहा। एक बड़ी सींक-सी औरत बोली, "इधर तो वे आ ही नहीं सकतीं, हाँ। मेरा कुत्ता बिल्लियों को फाड़के रख देता है। डरिए नहीं, मैंने इसलिए उसे बाँध दिया है। वे वहीं नाले म
ें कहीं होंगीं।" सुरंग का दरवाजा उन्होंने एक गुस्से से ढाँक दिया। गोगी को गोद में ले कर वह घर की तरफ दौड़े। वह अपनी बड़ी लड़की को बुलाने जा रहे थे जिसकी आवाज सुन कर मुनमुन बोला करती थी और वह अपनी पत्नी को भी बुलाने जा रहे थे जो रोज उनके घर लौटने पर उन्हें बताया करती थी कि आज टीना ने क्या किया। सब कोई आए। लड़की ने मुनमुन को दो बार बुलकारा तो उसने सिर बाहर किया और पकड़ ली गई। मुश्तू आदतन मुनमुन के पीछे-पीछे निकल आया। मगर टीना अपनी सुरंग के दरवाजे तक आ कर फिर भीतर चली गई। उसके पास अभी शीमा थी। भीड़ लग गई थी। जैसे वे दोनों दर्शकों के लिए संवाद बोल रहे हों, श्यामलाल ने पत्नी से कहा, "तुम बुलाओ।" स्त्री ने आवाज दी, "टीना, टीना!" तब भीड़ में से एक सूखा-सा आदमी जोर से बोला, "इसके बच्चे को दिखाओ तो बाहर आएगी।" कह कर उसने गोगी को श्यामलाल के हाथ से ले लिया। श्यामलाल और उनकी पत्नी दो सिलबिल आदमियों की तरह खड़े देखते रह गए। उसने गोगी को जोर से दबाया। और वह चीख कर रोई। श्यामलाल के बच्चों ने एक स्वर से कहा, "नहीं, नहीं, क्या करते हो !" तभी टीना परेशान बाहर आ गई। बड़ी लड़की ने उसे फौरन उठा कर गोद में दबा लिया। वह भौंचक थी और उसका बदन नम हो रहा था। उसने गरदन उठा कर चारों तरफ देखा और निश्चिंत हो गई। अपने ऊपर थोपी हुई मुसीबत से उसने जो संघर्ष किया था उसका कोई घमंड उसकी आँखों में नहीं था। वह न तो कुरकुराने लगी, न उसने अपनी दुम फुलाई, न उसने ऐसी और कोई हरकत की जिनसे आदमी बिल्लियों को पहचानते हैं। बस, उसने एक बार आँखें मींच कर खोल दीं। श्यामलाल ने उसे गौर से देखा। वह समझ रहे थे कि उन्होंने उसके साथ क्या किया है और यह भी जान रहे थे कि वह नहीं समझ सकती कि खुद उनके साथ क्या हुआ है ! एकाएक वह अपनी असहायता से छटपटा उठे। हालाँकि उनके दिल में प्यार-ही-प्यार था, मगर बिल्ली को किसी तरह यह बताने का तरीका वह नहीं जानते थे। चालीस बरस तक वह हर बार एक मौका और माँग चुके हैं, मगर आज फिर माँग रहे हैं।
शेखर का जीवन बहुत सूना हो गया था, और इसीलिए जीवन में जो कुछ आता था, वह मानो उसके रस की अन्तिम बूँद तक निचोड़ लेना चाहता था। हँसी की बात होती, तो आवश्यकता से अधिक हँसता था; घूमने निकलता, तो पागल कुत्ते की तरह दौड़ता था; लड़ता, तो लड़ाई का कारण भूल जाने पर भी विरोध बनाये रखता...उसके जीवन में इससे एक झूठी तेजी आ गयी थी, गति का एक भ्रम, जबकि वास्तव में वह निश्चल खड़ा था। खंडहरों से घिरे हुए टीले की एक चोटी पर शेखर खड़ा था, और उसके पैरों के पास उसका कुत्ता। चारों ओर फैले हुए अरहर के खेत थे। कभी हवा का झोंका आता, तो अरहर के पौधों की चोटियाँ कुछ झुक जातीं और फिर सीधी हो जातीं, मानो हरी वर्दी पहने हुए बहुत से सिपाही पहरा देते-देते एक साथ ही ऊँघ गये हों, और फिर जागकर सावधान खड़े हो गये हों। कुत्ते का नाम था तैमूर। शेखर उसे विशेष प्यार नहीं करता था, किन्तु कुत्ता सदा उसके पीछे रहता था, न-जाने क्यों उसने शेखर को अपना स्वामी मान लिया था। हाथों से अरहर के पौधों में रास्ता बनाते हुए शेखर ने देखा कि तैमूर क्यों भागा आया था। बहुत-से बटेर अनेक दिशाओं में आगे जा रहे थे, और तैमूर कभी एक के पीछे, कभी दूसरे के पीछे दौड़ा फिरता था, पर पकड़ किसी को नहीं पाता था। तैमूर ने उकताकर खेल छोड़ दिया-हार मान ली। शेखर भी झख मारकर रह गया। खंडहरों के ऊपर सूर्य स्वर्ण बरसाता हुआ डूब रहा था। घर के पथ पर शेखर खून से लथपथ, थका हुआ, सिर झुकाए चला जा रहा था; और सदा आगे रहनेवाला तैमूर उसके पीछे-पीछे मुँह लटकाए आ रहा था...बटेर कोई हाथ नहीं आया था, लेकिन खेल हो गया था, दिन बीत गया था। फिर अरहर के खेत; फिर आगे-आगे शेखर और पीछे-पीछे शेखर का कुत्ता तैमूर। अब तैमूर ही शेखर का भाई है, गुरु है, साथी है और सेवक है। शेखर की माँ सरस्वती को लेकर अपने पिता के गाँव गयी हुई है, और शेखर पर किसी का नियन्त्रण नहीं है। शेखर निरुद्देश्य भटक रहा है, लेकिन उस उद्देश्यहीनता में एक प्रतीक्षा है। शेखर गनेसी की बाट देख रहा है। गनेसी जात का डोम है। शेखर के पिता की देख-रेख में कुली का काम करता है। छुट्टी के समय वह आतिशबाजी तैयार करता है। इसी नाते वह शेखर का मित्र है, क्योंकि वह बहुधा शेखर को साथ ले जाता है और उसके सामने चीजों की तैयार करता है-बारूद बनाता है, अनारों में भरता है, पटाखे लपेटता है; और साथ-साथ शेखर को बताता भी जाता है कि शोरा, गन्धक, कोयला, अलग-अलग कूटने चाहिए और मिलाते समय लकड़ी की चीजें काम में लानी चाहिए, कि आग न लग जाय; और 'छछूंदर' लपेटने के लिए कागज को शोरे और सिरके के घोल में भिगोकर सुखा लेना चाहिए...कभी वह शेखर के आग्रह करने पर उसे बारूद कूटने भी देता है, और कभी-कभी कुछ पटाखे उसे दे देता है। उनकी दोस्ती इतनी बढ़ गयी है कि कभी-कभी शेखर पिता से कहकर गनेसी को छुट्टी दिला देता है और साथ घूमने ले जाता है। आज उसकी प्रतीक्षा यों हुई कि शेखर ने एक गोह लाने के लिए भेजा था। गनेसी ने ही उसे बताया था कि गोह कैसी भी दी
वार चढ़ सकती है और उससे चिपक जाती है। अगर कोई उसकी दुम पकड़कर लटक जाय तो भी नहीं छोड़ती, बल्कि पुराने जमाने में लोग उसकी दुम में रस्सी बाँधकर उसके सहारे किले की दीवारें फाँदा करते थे। यह सुनकर स्वाभाविक ही था कि शेखर गोह देखना चाहता। जब गनेसी ने बताया कि गोह जिन्दा नहीं आ सकती, क्योंकि उसका काँटा जहरीला होता है, तब शेखर की आज्ञा हुई कि गनेसी उसे मारकर ले आये। शेखर अरहर का खेत पार करके निकला तो देखा, सामने से गनेसी चला आ रहा है-दुबला-पतला, काला भूत, एक हाथ में लाठी लिए और दूसरे में दुम पकड़कर मरा हुआ गिरगिट-सा लटकाये। पास आते ही बोला, बबुआ यह लो गोह। शेखर थोड़ी देर उसकी ओर देखता रहा। उसे कुछ निराशा-सी हुई। यही है गोह! फिर वह बोला, इसकी चमड़ी उतारो, हम रखेंगे। गनेसी ने हँसकर बताया कि गोह की चमड़ी बहुत पतली होती है, खाल नहीं उतर सकती। पर शेखर उसकी बातों में आनेवाला नहीं था। खाल चीते की भी उतर सकती है, वह नित्य एक पर बैठता है, तब गोह की क्या बिसात! बोला, हम जो कहते हैं, उतारो! गनेसी ने देखा, मानना पड़ेगा। उसने एक चाकू निकाला और गोह का पेट चीर डाला। शेखर कुत्ते को पकड़कर खड़ा रहा। आधे घंटे में खाल खिंच गयी। शेखर ने कहा, इसे धूप में सूखने डाल दो; सूख जायगी तब धो लेंगे। गनेसी ने कुछ कहे बिना मुस्कराकर उसे सूखने के लिए फैला दिया। तीन दिन बाद वहाँ जो शेखर ने देखा, वह कहने की जरूरत नहीं है। जब गनेसी ने हँसते हुए पूछा, बबुआ, तुम देख आये, वह गोह की खाल सूख गयी है कि नहीं। तब उसने विस्मय दिखाते हुए कहा, कैसी खाल। कौन गोह? बुद्धिमान गनेसी मुस्कराकर चुप हो गया। शेखर ने नोट किया कि चमड़ी सभी की होती है, लेकिन चीता चीता है, और गोह गोह। जिस घर में शेखर रहता था, उसके साथ आमों का एक बगीचा था। आम
देशी थे और घटिया किस्म के; केवल वृक्ष कलमी आमों का था। एक दिन अकेले वृक्ष पर कुछ पके-से आम देखकर शेखर ने माली से कहा, हमें आम दो। लेकिन माली को सर्वथा उचित माँग से सहानुभूति नहीं हुई। बोला, बबुआ कल तोडूँगा वो आम, और डाली लगाकर साहब के पास ले जाऊँगा। साहब के पास! शेखर को यह सरासर अन्याय लगा कि आमों को चाहनेवाले शेखर से छीने जाकर वे आमों की उपेक्षा करनेवाले उसके पिता के पास जायँ। बोला, देते हो कि नहीं? शेखर स्वयं पेड़ पर चढ़ने लगा। माली दूर खड़ा हँसता रहा, क्योंकि वह जानता था कि यह लड़का पेड़ पर क्या चढ़ेगा। लेकिन शेखर के हाथों-पैरों में क्रोध का बल था। वह ऊपर पहुँचा, आराम से एक डाल पर बैठा और चुन-चुनकर पके आम खाने लगा। माली की मुस्कान चिन्ता में बदल गयी। उसे देखकर शेखर का सारे आम खा डालने का निश्चय और भी पक्का हो गया। पर पेट ने साथ नहीं दिया। तब शेखर ने कच्चे, अधकचरे, पके सब प्रकार के आम तोड़-तोड़कर मुँह से जूठे कर-करके इधर-उधर फेंकने आरम्भ किये। प्रत्येक आम फेंकते हुए वह चिल्लाकर माली से कहता जाता, यह लो! और यह लो! और यह लो! माली यह नहीं सह सका, और शेखर को पकड़ने के लिए पेड़ पर चढ़ने लगा। उसे आते देखकर शेखर ने कहा, आओ, आओ, बेशक आओ, और ऊपर चढ़कर एक डाल के बिलकुल सिरे पर ऐसा जा बैठा, कि तनिक और भार पड़ने से वह टूट जाय। माली ने पुकारा, लौट आओ, नहीं तो गिरोगे! नहीं, तुम आओ, पकड़ो, देखूँ मैं भी- और-कुछ-और आगे सरक गया। माली डर गया। बोला, बबुआ, उतर आओ, ईश्वर के वास्ते उतर आओ। तुम उतर जाओ, नहीं तो मैं और आगे जाता हूँ। माली उतर गया। वहाँ से चला गया। शेखर धीरे-धीरे नीचे उतरा। वह अभी भूमि पर पहुँचा नहीं था कि उसने देखा, माली के साथ पिता चले आ रहे हैं। वह दार्शनिक हो गया था। उसने एक बार अपने गिराए हुए आमों की ओर देखा, फिर तैयार होकर खड़ा हो गया। और मन-ही-मन गणित का एक सवाल करने लगा, कि कितने आम फी थप्पड़, या कितने थप्पड़ फी आम पड़ेंगे। पड़ेंगे या नहीं पड़ेंगे, यह सम्भावना विचार में लाने की नहीं थी। यह एक अवसर था जब कि शेखर ने मार की आशा की और हँसी पायी। प्रायः इससे उलटा ही हुआ करता था। फिर भी पिता के लिए शेखर के हृदय में अपार स्नेह था। शेखर के पिता ने नया मकान ले लिया है-पटना शहर में गंगा के किनारे पर। अब शेखर का मुख्य काम है अपने बगीचे में से केले के पेड़ काटना और उनके स्तम्भों पर लेटकर गंगा में बहना (उसे बहना ही कहना चाहिए, क्योंकि तैरना अभी तक सीखा नहीं)। कई बार स्तम्भ पर से फिसलकर उसने गोते खाये हैं, लेकिन सदा ही किसी ने उसे देखकर घसीट निकाला है। पिता के बहुत मना करने पर भी वह यह आदत नहीं छोड़ता, क्योंकि इतनी बड़ी नदी पर अकेले बिना हाथ-पाँव हिलाए बहने के विचार में सामर्थ्य का कुछ ऐसा आकर्षक अनुभव है कि शेखर उसका मोह नहीं छोड़ सकता। पर, शायद राजकन्या उसे नहीं देखेगी-वह बन्धनों के देश के एक मामूली लड़के से क्यों मिलने लगी? वहाँ और भी तो लोग होंगे और भी कन्याएँ होंग
ी, उस बाधाहीनता के देश में कोई भी क्यों राजकन्या से कम होगी? (मन्दगति और विशाल माँ गंगे!) जिस क्षण में शेखर को मालूम हुआ कि कविता पूरी हो गयी है, उसी क्षण में उसने यह भी अनुभव किया कि उसकी पीठ ठंड से अकड़ गयी है, और उसके हाथ सफेद, सुन्न पड़ रहे हैं। उसने जाना कि वह घर से बहुत दूर बह आया है। घबराहट यथार्थता के संसार में है, उस सूर्यास्त के सोने के टापू के पथ पर नहीं। शेखर धीरे-धीरे अनैच्छिक-सी क्रिया से अपने को किनारे की ओर खेने लगा। जब किनारे लगा, तब किसी तरह सूखी भूमि पर आया और धूप में औंधा लेट गया। जब वह नींद से उठा, तब सूर्य ढल गया था। वह उठा और थका-माँदा-सा घर की ओर चल पड़ा। जब घर के पास पहुँचा तब चाँद निकल रहा था, और घर में बिलकुल सन्नाटा था, यद्यपि बत्तियाँ जल रही थीं। घर के भीतर घुसते ही उसने देखा, बरामदे में माता-पिता खड़े हैं, स्थिर दृष्टि से बाहर देखते हुए, और मानो एकाएक बूढ़े हुए-इतनी झुर्रियाँ उनके मुँह पर पड़ी हुई थीं...शेखर को देखते ही वे खिंचे हुए चेहरे कुछ ढीले पड़े, माँ की आँखों में आँसू आ गये और पिता एकदम से लौटकर ऊपर चले गये। उनके पीछे-पीछे शेखर ने जाकर देखा, घर में कोई नहीं है। यह उसे दूसरे दिन मालूम हुआ कि उसे खोजने के लिए लोग लालटेन लेकर नदी के किनारे बहुत दूर तक गये हुए थे...घर पर किसी तरह पता लगा था कि वह अकेला केले की नाव पर बैठकर बह गया है, और घर में खलबली मच गयी थी। यह समाचार सुनकर शेखर अपने को इतना भूल गया कि उसे बहुत चेष्टा करने पर भी वह कविता याद नहीं आ सकी, जो उसने गंगा के वक्ष पर लिखी थी, केवल स्मारक-सी पहली लाइन ही उसके मन में रह गयी : O mother Ganges, vast and slow! जो बहुत दूर है, जिस तक पहुँचने में बहुत दिन लगते हैं, बहुत-से ऐसे दिन, जिनमें
पहले ही दिन में पहले ही कुछ घंटों में पीठ अकड़ जाती है और हाथ सुन्न पड़ जाते हैं; उस सूर्यास्त के सोने के टापू तक कैसे पहुँचा जाय? कैसे देखा जाय उस राजकन्या को, जो उसे सिरिस के फूलों के महल में रखेगी और अपने पास बिठाएगी? वही दशा शेखर की थी। मुक्ति की खोज में पहले वह उन वस्तुओं से उलझा, जो स्थूल थीं, जिन्हें वह देख सकता था, और उनसे हारकर वह कल्पना के क्षेत्र में गया; वहाँ से निराश होकर वह फिर यथार्थता में, स्थूल और प्रत्यक्ष में लौट आया। शेखर के पिता मियादी बुखार से बीमार पड़े थे, और ईश्वरदत्त कभी-कभी टेलीफोन पर डॉक्टर को बुलाया करता था। उसी से शेखर ने टेलीफोन के बारे में कुछ जानकारी हासिल की थी। उसे जान पड़ रहा था कि जो उसे अन्यत्र नहीं मिला, वह टेलीफोन द्वारा शायद मिल जाय-क्योंकि टेलीफोन में नयापन था, रहस्य था। पिता बीमार थे, इसलिए जब दफ्तर बन्द होता था, तब जमादार सब दरवाजे बन्द करके चाभी शेखर को दे देता था कि पिता के पास पहुँचा दे। वह चाभी दफ्तर की नहीं, शेखर के रहस्यलोक की चाभी थी। करीब पाँच बजे थे। दफ्तर बन्द हो गया था, चाभी शेखर के हाथ में थी। जमादार चला गया था। शेखर ने दफ्तर का द्वार खोला, और सीधा पिता के कमरे में गया। टेलीफोन का रिसीवर उठाकर सुनने लगा। उन दिनों वहाँ आटोमेटिक एक्सचेंज नहीं था। एक्सचेंज से स्वर आया-'नम्बर?' शेखर ने एक दवाइयों की दुकान का नम्बर दे दिया। अच्छा, और डाक्टरी दस्ताने कैसे हैं? इस प्रश्न की आशा-आशंका-शेखर को नहीं थी। उसे यह बताया गया था कि जिसे फोन किया जाय, उसे करनेवाले का नम्बर तब तक नहीं ज्ञात होता, जब तक कि स्वयं न बताया जाय, और इसी विश्वास के आधार पर उसने फोन करके का साहस किया था। यह प्रश्न सुनकर वह एकाएक घबरा गया, समझ नहीं पाया कि क्या कहे; बोला 'दफ्तर के पते पर' और रिसीवर लटकाकर भाग गया। दूसरी बार। शेखर ने फिर चाभी प्राप्त करके दफ्तर खोला और टेलीफोन पर जाकर बैठ गया। अबकी उसने फायर स्टेशन को पुकारा। वह यह देखना चाहता था कि उसके भाइयों ने जो उसे बताया था कि टेलीफोन करने के बाद पाँच मिनट के अन्दर फायर इंजन पहुँच जाता है, वह ठीक है या नहीं। एकाएक शेखर को अपनी करतूत के फल का ध्यान आया, वह डर गया। उसने रिसीवर मेज पर रक्खा और जल्दी दफ्तर का दरवाजा बन्द करके चाभी दे आया। दूसरे दिन एक्सचेंज से रिपोर्ट आयी कि फोन का दुरुपयोग किया जा रहा है। पिता ने सबसे पड़ताल की, लेकिन मौन के सिवा कोई उत्तर नहीं पाया। बात वहीं समाप्त हो गयी, उस दिन से जमादार स्वयं चाभी पिता तक पहुँचाने लगा। शेखर पतंग उड़ाने लगा। पतंग उड़ानी उसे आती नहीं थी। लेकिन यह उसके पथ में विघ्न नहीं था इससे तो उसका आकर्षण बढ़ता ही था। और फिर पतंग उड़ाने में एक दूसरा मजा भी था-कि वह शेखर को मना थी। शेखर के पिता कहते थे कि यह खरतनाक खेल है, पतंग उड़ाते-उड़ाते कई लड़के कोठे पर से गिर पड़ते हैं। शेखर का पतंग उड़ाने का ढंग यह था कि वह घर के बगीचे में किसी को बुलाकर कहता कि प
तंग उड़ा दो, जब वह खूब ऊँची उड़ जाती, तब चरखड़ी अपने हाथ में ले लेता और डोर को झटकाकर, नाचती हुई पतंग को देखकर अपने को विश्वास दिला लेता कि वही उड़ा रहा है (अतः उसी ने उड़ायी है)। उसे आज्ञा थी कि पिता के पास बैठे और समय-समय पर दवा पिलाया करे। इसलिए नहीं कि वह इस काम में विशेष दक्ष था, इसलिए कि उसके पिता उसे अपने पास रखना चाहते थे। लेकिन पतंग उड़ाने में वह सब भूला हुआ था। पिता के चपरासी ने आकर विघ्न डाला। "ठहरो, हम जरा पतंग उड़ा लें," कहकर शेखर उसे भूल गया। "चलो शेखर बाबू!" मिनट-भर बाद चपरासी फिर बोला। चपरासी बार-बार कहने लगा। चपरासी चला गया और थोड़ी देर में लौट आया। चपरासी ने एक-दूसरे नौकर को बुलाकर, पतंग की डोर तोड़कर उसके हाथ में दे दी कि वह उतारे, और शेखर को उठाकर ले चला : शेखर की टाँगें ही मुक्त थीं, वह उन्हें पटकने लगा, लेकिन वे हवा से टकराकर रह गयीं। तब उसने सारा जोर लगाकर अपनी पकड़ी हुई बाँह को झटका, वह छूट गयी, और जाकर चपरासी की नाक पर लगी। और चपरासी ने उसे झट से जमीन पर रख दिया, जैसे बर्रे ने काट खाया हो, और चीखता हुआ ऊपर भागा, क्योंकि नाक से खून छूट रहा था। तभी शेखर ने देखा, उसके पिता सीढ़ियों पर उतर रहे हैं। हाथ में एक छड़ी। हाथ काँप रहा है, दीवार पर कुहनी टेककर सम्भल-सम्भलकर पैर बढ़ाते हैं और दुबले कितने हो गये हैं! और उनकी आँखें न इधर देखती हैं, न उधर, न छत की ओर, न सीढ़ी की ओर, केवल शेखर पर स्थिर हैं, और उनके पीछे सीढ़ियों के ऊपर सरस्वती खड़ी है, जिसका मुख ऐसा हो रहा है कि पहचाना नहीं जाता, और उसकी मौन, विस्फारित आँखें शेखर की आँखों पर जमी हुई कुछ कहना चाहती हैं, कुछ कह रही हैं जो, वह मुँह से नहीं निकाल सकती। शेखर ने जान लिया कि उसे वहीं खड़े रहना है, हिलना नहीं
है, सिर नहीं उठाना है, प्रतिवाद नहीं करना है, अपनी रक्षा नहीं करनी है। वह खड़ा रहा। छः बार छड़ी उठी और गिरी, छः बार शेखर के शरीर में एक रोमांच-सा हो आया, पर वह हिला नहीं। छड़ी रुक गयी। पिता ने एक तीखी दृष्टि से शेखर के मुख की ओर देखा। केवल चपरासी वहाँ खड़ा रह गया, जिसे यह घटना समझ नहीं आयी, लेकिन जो न-जाने क्यों लज्जित हो गया। शेखर को अनुमति मिली कि नाटक देख आये। गाँव की एक नाटक-मंडली है, जो साल में दो-बार खेल करती है-होली के दिनों और दशहरे के दिनों। शेखर के पिता बड़े आदमी हैं, उस गाँव के पड़ोस में रहनेवाले सबसे बड़े आदमी, इसीलिए स्वाभाविक है कि उनकी आशीर्वादपूर्ण अनुमति माँगकर खेल किया जाय। वे स्वयं तो नहीं जाते, किन्तु 'सत्य हरिश्चन्द्र' का खेल है, इसलिए लड़कों को जाना मिल गया। तितली फिर चक्कर काटने लगी...लेकिन कहाँ है वह अबाध की खिड़की, कहाँ है वह मुक्ति का मार्ग? उसने विदेशी कपड़े उतारकर रख दिये, जो दो-चार मोटे देशी कपड़े उसके पास थे, वही पहनने लगा। बाहर घूमने-मिलने जाना उसने छोड़ दिया, क्योंकि इतने देशी कपड़े उसके पास नहीं कि बाहर जा सके। प्रायः दुपहर को वह ऊपर की एक खिड़की के पास जाकर खड़ा हो जाता और बाहर देखा करता। कभी दूर से जब बहुत-से कंठों की समवेत पुकार उस तक पहुँचती; माँ के अतिरिक्त सब लोग बाहर गये हुए थे। माँ ऊपर कोठे पर बैठी हुई थी। शेखर ने घर के सब कमरों में से विदेशी कपड़े बटोरे और नीचे एक खुली जगह ढेर लगा दिया। फिर लैम्प लाकर उन पर मिट्टी का तेल उँडेला (तेल का पीपा नौकरों के पास रहता था, वहाँ जाने की हिम्मत नहीं हुई), और आग लगा दी। आग एकदम भभक उठी। शेखर का आह्लाद भी भभक उठा। वह आग के चारों ओर नाचने लगा, और गला खोलकर गाने लगा : लेकिन ढेर राख हो गया था। नाटक पूरा हो गया। शेखर ने सुन्दर देशी स्याही से उसकी प्रतिलिपि तैयार की और उसे अपनी पुस्तकों के नीचे छिपाकर रख दिया। पहले साहित्यिक प्रयत्नों की गति उसे अभी याद थी, इसलिए उसने अपना यह नाटक, यह अमूल्य रत्न किसी को नहीं दिखाया-सरस्वती को भी नही! और हर समय, जब जहाँ वह जाता, उसके मन में एक ध्वनि गूँजा करती, मैं शेखर हूँ, एक अपूर्व नाटक का लेखक चन्द्रशेखर! और मैंने अकेले ही, बिना किसी की सहायता के अपने हाथों से उसका निर्माण किया है, स्वाधीन बाधाहीन भारत के उस चित्र का, मैंने। शेखर के पिता एक दिन के दौरे पर जा रहे थे, और शेखर साथ था। बाँकीपुर स्टेशन पर सामान रखकर, पिता और पुत्र वेटिंग-रूम के बाहर टहल रहे थे-शेखर कुछ आगे, पिता पीछे-पीछे। शेखर ने सिर से पैर तक उसे देखा। लड़का एक अच्छा-सा सूट पहने था, सिर पर अँग्रेजी टोपी। और उसके स्वर में अहंकार था, शायद वह अपने अँग्रेजी-ज्ञान का परिचय देना चाहता था। शेखर को प्रश्न बुरा और अपमानजनक लगा। उसने उत्तर नहीं दिया। कुछ इस लिए भी नहीं दिया कि पीछे पिता थे, और पिता की उपस्थिति में बात करते वह झिझकता था। उस लड़के ने समझा, उसका सामना करनेवाला कोई नहीं है-यह लड
़का शायद अँग्रेजी जानता ही नहीं। उसने तनिक और रोब में कहा, "My name is... Do you go to School?" (मेरा नाम है...तुम स्कूल में पढ़ते हो?) शेखर के पिता वहाँ न होते तो वह प्रश्न का उत्तर चाहे न देता पर (हिन्दी में) कुछ उत्तर अवश्य देता। उसके मन में यह सन्देह उठ भी रहा था कि वह लड़का शायद कोई पाठ ही दुहरा रहा है, अँग्रेजी उतनी जानता नहीं। पर उसने घृणा से उस लड़के की ओर देखा, उत्तर कोई नहीं दिया। तभी ट्रेन आ गयी और शेखर कुछ उत्तर देने से-या उत्तर न देने की गुस्ताखी करने से बच गया। शेखर ने सुन लिया। इसी सामर्थ्य की उपासना का एक रूप यह भी था कि उन्हें यह अनुभव करना अच्छा लगता था कि उनके पास शक्ति है। इसी भावना से वे कई बार अपने बच्चों के खेल में दखल दिया करते थे। वे यह नहीं चाहते थे कि बच्चे न खेलें या न पढ़ें, या ऐसा न करें, वैसा न करें; वे यह चाहते थे कि खेलें तो इसलिए कि उन्होंने कहा, पढ़ें तो इसलिए कि उन्होंने कहा। स्वाभाविकता-किसी बात का केवल इसीलिए होना कि वह उस समय हो रही है, या उसे करनेवाला उसे कर रहा है-के लिए उनके निकट कोई स्थान नहीं था। तभी, जब वे आते, तब बालक आतंक से एकाएक चुप हो जाते, खेल बन्द हो जाता, पुस्तक आगे से हट जाती, पैर सिमट जाते, कुर्सी या बिस्तर छूट जाता...कोई नहीं जानता था, कब किस बात की मनाही हो जाएगी। उनके जाने अच्छी या बुरी, क्योंकि उचित या अनुचित, कोई बात नहीं थी-बातें थीं दो प्रकार की, एक जिनके लिए उनकी अनुमति है, दूसरी जिनके लिए अनुमति नहीं है। बस, इसके आगे न तर्क था, न बुद्धि। माँ और पिता के विरोध का एक स्रोत यह भी था। माँ चाहती थीं कि लड़के फुर्तीले, चालाक, टिट-फिट हों, और पिता को इसमें एक ओछापन दीखता था...माँ को रुचता था कि लड़के इधर-उधर मिलें, हरेक
की बात जानें, पता रखें कि फलाने को कितनी तनखाह मिलती है, फलाने के घर में क्या पका, फलाने की भौजाई का फुफेरा भाई क्या करता है; पिता कहते थे कि तुम किसी के घर मत जाओ, किसी से बात मत करो, और इस सबसे तुमको क्या? कभी-कभी माँ किसी को चोरी से पड़ोसी के घर भेजती थी कि 'अमुक काम तो कर आ' या 'अमुक बात तो पूछ आ'; और कभी पिता को पता लग जाता, तो लम्बी-चौड़ी जिरह करते थे कि क्यों गया था? क्या करने गया था? किससे पूछकर गया था? नौकर नहीं जा सकता था? माँ उदार नहीं थीं। वे क्रोधी नहीं थीं। उन्हें आपे से बाहर किसी ने नहीं देखा, लेकिन किसी अपराध को वे कभी भूलती नहीं थीं। उनके स्वभाव में इतनी विशालता ही न थी कि बड़ा क्रोध कर सकें, इसलिए अनुकम्पा भी उनकी बड़ी नहीं थी। पिता किसी दोषी पर भी क्रुद्ध होकर बाद में 'सुलह' करते थे, माँ स्वयं गलत होने पर भी यह प्रकट नहीं होने देती थीं, और जिसे डाँटा होता था, उस पर अपनी अप्रसन्नता बनाए रखती थीं। माँ के लिए आकारों का महत्त्व बहुत था। कभी लड़कों को सन्ध्या और पूजा-पाठ की शिक्षा दी गयी थी; तब पिता ने धीरे-धीरे यह देखकर कि उस अवस्था में उनके लिए उसमें ध्यान लगाना असम्भव है, अन्त में उन्हें बाध्य करना छोड़ दिया था, बहुत क्रुद्ध होकर कहा था, 'यदि मन से नहीं कर सकते तो क्या फायदा है? मत किया करो?' और लड़कों के इस बात को मानकर पूजा छोड़ देने पर, दुबारा उनसे नहीं कहा था। तब माँ ही थीं जिन्होंने बाध्य किया था कि वे नियम से आसन लगाकर पूजा के स्थान में बैठ जाया करें और पूजा की क्रियाएँ पूरी किया करें। पिता आवेश में आततायी थे, माँ आवेश की कमी के कारण निर्दय। पिता का क्रोध जब बरस जाता था, तब शेखर जानता था, हम फिर सखा हैं; माँ जब कुछ नहीं कहती थीं, तब उसे लगता था कि वह मीठी आँच पर पकाया जा रहा है। और इन दो भिन्न प्रकृतियों के मेल और संघर्ष से उत्पन्न हुई थीं छः सन्तान-सरस्वती, ईश्वरदत्त, प्रभुदत्त, शेखर, रविदत्त और चन्द्र। ये ही उस संघर्ष के फल थे, और ये ही उसके विकास के क्रीड़ास्थल भी। जीवन वैचित्र्य का दूसरा नाम है। जिनके जीवन एकरूपता के बोझ से कुचले जाकर नष्ट हो गये हैं, उनके जीवन में भी इतनी घटनाएँ हुई होंगी कि एक सुन्दर उपन्यास बन सके। यदि प्रत्येक व्यक्ति अपनी जीवनी लिखने लगे, तो संसार में सुन्दर पुस्तकों की कमी न रहे। लेकिन तब, जब हरेक को लिखना आता हो। लेकिन मुझे जान पड़ता है, मेरे जीवन की जो भी घटना मेरे सामने आती है, वह मेरी है, मौलिक है, अपने में सम्पूर्ण एक कहानी है, और मेरा सारा जीवन बढ़िया उपन्यास। शायद मुझ ही को ऐसा जान पड़ता हो, अपने जीवन के प्रति मोह उसे इतना विशिष्ट बनाता हो। लेकिन साथ ही मैं यह देखता हूँ कि वह इतना विशिष्ट, इतना एकान्त मेरा भी नहीं है कि दूसरे उसमें रुचि न रख सकें; मेरे व्यक्तिगत जीवन में मानव के समष्टिगत जीवन का भी इतना अंश है कि समष्टि उसे समझ सके और उसमें अपने जीवन की एक झलक पा सके। मेरे जीवन में भी व्यक्ति और टाइप
का वह अविश्लेषण घोल है, जिसके बिना कला नहीं है, और उसके बिना, फलतः उपन्यास नहीं है। बिलकुल सम्भव है कि ऐसी सामग्री पाकर भी मैं उपन्यास न बना पाऊँ। लेकिन मेरा उद्देश्य उपन्यास लिखना कब है? मैं केवल एक बोझ अपने ऊपर से उतारना चाहता हूँ; मैं अपना जीवन किसी को देना नहीं चाहता, स्वयं पाना चाहता हूँ, क्योंकि मुझे अब उसे वैसे देना है, जैसे देकर वह फिर मुझे मिलेगा नहीं। बिलकुल पूर्णतया नष्ट हो जाएगा-कुछ नहीं रहेगा...यह अब शेखर नहीं है, यह मैं हूँ। कलाकार बनने का इच्छुक, कवियशः प्रार्थी, शेखर समाप्त हो गया है, अब वह बचा है जो मैं हूँ, जो फाँसी चढ़ेगा; जो मैं हूँ, जिसे मैं 'मैं' कहता हूँ और कहकर अर्थ नहीं समझता कि मैं क्या हूँ। लोग प्रायः भूल ही जाते हैं उनके जीवन क्या रहे। तभी समाज अपने लिए यह सम्भव पाता है कि विधान करे, 'योग्य माता-पिता वे हैं, जो बच्चों को वयःप्राप्त लोगों की तरह रहना सिखाएँ।' इस एक भावना ने यौवन का जितना अपघात किया है, उतना शायद ही किसी और कानून या प्रथा या विधान ने किया हो। अपनी सन्तान को वयःप्राप्त लोगों-सा बर्ताव सिखाते समय वे भूल जाते हैं कि उनके अपने जीवन क्या थे, कि वे भी कभी बच्चे थे, उनमें भी बच्चों की निष्पाप शरारत थी; कि बच्चों का कोई दोष है तो यही है कि वे इतने पोले, इतने अछूते, इतने स्वच्छ, निष्पाप हैं कि वे अपने माता-पिता को अपने कपट पर लज्जित कर देते हैं। यदि माता-पिता अपना बचपन याद भर रख सकते तो उनकी सन्तान और वे स्वयं, कितने सुखी होते! माता-पिता प्रायः समझते हैं कि बचपन बड़े सुख का समय है, क्योंकि वह उत्तरदायित्व-शून्य है। और यह विचार उनके हाथों बचपन के प्रति कितने अन्याय करवाता है! इसी विचार के कारण वे बहुधा मनाया करते हैं, "काश कि वे दिन फिर आ जात
े!" यदि कभी कुछ दिन के लिए उनकी इच्छा पूरी की जा सकती, तो वे एक बड़ा उपादेय सबक सीखकर आते! शेखर अपने पिता का उपासक था। अच्छे और बुरे का निर्णायक कौन है? शेखर साधारण नहीं था। और वह अपने पिता का उपासक था। यह नुस्खा शेखर ने कई बार सुना है, और वह जानता है कि इसके पीछे सदा कोई उलझन या असमर्थता छिपी होती है। लेकिन वह यह भी जानता है कि इससे आगे कुछ कहना बेकार है। एक दिन पिता के एक मित्र आये। बैरिस्टर थे, खूब भड़कीले कपड़े पहनते थे, बहुत फूले हुए पहाड़ी चूहे-से-दीखते थे, और भारतीय कला के पारखी होने का दावा करते थे। साथ में उनका लड़का, और ऊँची फ्राक पहने लड़की भी थी। परस्पर सामना होते ही जिस क्षण में दोनों बच्चों ने कहा, 'गुड ईवनिंग', उसी क्षण में शेखर भुन गया। पर कुछ बोला नहीं, उन्हें अपने साथ बगीचे में ले गया और अपने पालतू खरगोश दिखाने लगा। बैरिस्टर साहब पिता के साथ चले गये। लेकिन वे कुछ ही मिनट के लिए आये थे। शेखर और दोनों भाई-बहन खरगोशों से खेलने लगे ही थे कि वे उतर आये। गाँधीवादी शेखर द्वार तक सबको छोड़ने चला। शेखर को गाँधीवाद भूल गया। उस मुस्कराहट में जो अहंमन्यता थी, वह उसे सह्य नहीं हुई। और वह अन्तिम 'डियर'-यह, यह नामहीन जन्तु मुझे डियर कहने का साहस करे! शेखर ने तड़पकर अँग्रेजी में कहा, "You dirty, You sneak" (दम्भी! कमीना!) और ऐसा ही बहुत कुछ, और एक तमाचा उसके मुख पर जड़ दिया। वह डरे हुए पिल्ले की तरह चीखने लगा। थोड़ी देर बाद शेखर भी पिटा और खूब पिटा। लेकिन वह मन-ही-मन कहता रहा, मैं कुत्ते का पिल्ला नहीं हूँ, मैं चूँ-चूँ नहीं करता; और मार खा गया। एक दिन बैरिस्टर साहब फिर आये। अबकी बार वे अकेले थे। उन्होंने शेखर को देखा नहीं, शेखर ने उनको नहीं 'देखा'। ऊपर चले गये। लेकिन थोड़ी देर बाद शेखर की बुलाहट हुई। वह पिता के पास पहुँचकर खड़ा हो गया, बैरिस्टर साहब की ओर उसने देखा भी नहीं। नहीं। इस पहाड़ी चूहे के सामने नहीं। वह जन्तु है, प्रदर्शन के लिए है, लेकिन इसके सामने...नहीं पिता, नहीं। मुझे बाध्य मत करो। उसके स्वर में हिंसा थी, दृष्टि में रोप, मानो वे काल्पनिक दो थप्पड़ वह बैरिस्टर साहब के फूले गालों पर लगा रहा हो, लेकिन बात कहते हो उसने जो लम्बी साँस ली, उसमें कितनी गहरी हताशा, कितना प्रगाढ़ नैराश्य था, वह किसने समझा? शाम हो गयी। शेखर अभी वहीं बैठा था। उसका हिलता हुआ पिंजर शान्त हो गया था। आँसू एक भी नहीं आया था। और उसे पता नहीं था कि वह जीता है या मर गया है। निराशा इतनी बढ़ गयी थी कि वह निराश नहीं रहा था। वह अनुभूति से परे चला गया था। शेखर ने नहीं सुना। उसने फिर भी नहीं सुना। क्रोध होता तो शेखर उसका हाथ झटक देखा। लेकिन उसने मुँह ऊपर उठने न दिया, और शून्य दृष्टि से सरस्वती की ओर देखा किया। उसने सरस्वती को नहीं देखा। सरस्वती ने एक बार फिर अनिश्चित-से स्वर में कहा, "शेखर," और परे हट गयी। कमरे के एक दूसरे कोने में जाकर निश्चल बैठ गयी। बहुत देर तक कमरे के दो ओर दोनो
ं बैठे रहे। वह नहीं बोली। सरस्वती उठी और ऊपर चली गयी। थोड़ी देर बाद शेखर भी उठा, मुँह धोकर चला गया, और रोटी खाने लगा। उस एक छोटी-सी घटना में शेखर के भीतर क्या टूट गया था, और इस एक और भी घटना ने किस चीज से उसे बचा लिया, कौन कहे? लेकिन गाँधी जी गये, और गाँधीवाद भी गया। और श्ेाखर के देवता उसके पिता भी, फिर वही कभी नहीं हुए। मैं अपनी कोठरी के बाहर सूनी दीवार की ओर देख रहा हूँ। रोजेटी की कुछ पंक्तियाँ मेरे भीतर गूँज रही हैं : मृत्यु! एक स्तिमित कर देनेवाली घटना। एक हल न होनेवाली पहेली। लेकिन मैं मरना नहीं चाहता। मैं दीवारों से कहता हूँ, मैं सींखचों से कहता हूँ, मैं हवा से कहता हूँ, मैं सुननेवाली न सुनती हुई हृदयहीन उपेक्षा से कहता हूँ, मैं मरना नहीं चाहता; मैं जीवन को प्यार करता हूँ; मैं मरना नहीं चाहता! मालती-फल...उनका मधुर सौरभ...लेकिन कहाँ है नीम के बराबर सौरभ-वह सौरभ जिसे मैं भूल नहीं सकता, जो मुझ में परिव्याप्त है। ईश्वर को और अपने जीवन को 'नाऽस्ति' कहकर शेखर मानो अपने चारों ओर के जीवन के लिए नंगा हो गया। मानो अपने किसी धोंधे में से बाहर निकल आया, प्रत्येक चोट, प्रत्येक झोंका, प्रत्येक आघात के लिए प्राप्य स्पृश्य...यह मानो संसार का एक दर्शक मात्र हो गया, दर्शक भी नहीं, केवल एक छाप लेनेवाली, अंकित करनेवाली मशीन। स्वयं उसमें कोई शक्ति नहीं रही थी, उसका कोई आवरण, कोई कवच कोई बचाव नहीं था; और मानो उसमें अनुभूति नहीं थी, प्राण ही नहीं थे। वह मानो एक विराट आँख मात्र हो गया था, जो सब कुछ देखती जाती थी, सब कुछ स्वीकार करती जाती थी, और कुछ भी प्रभावित नहीं होती थी। शेखर वैसा हो गया जिसे कि माँ, यदि उन्हें कभी किसी को किसी बात का श्रेय देने की आदत होती, आदर्श सन्तान कहतीं। वह कभी ज्याद
ा बात नहीं करता, कभी प्रश्न नहीं पूछता, भाजी कम हो जाने पर कभी नहीं माँगता। बिना शिकायत किये सर्दी में भी ठंडी पानी से नहा लेता है, यथासमय पढ़ता है, बल्कि पढ़ाई के समय में तनिक भी देर हो जाने पर सरस्वती को बुलाकर कहता है, 'बहिन जी, पढ़ाने का वक्त हो गया', दोनों वक्त यथानियम सन्ध्या करने बैठता है, संक्षेप में ऐसे रहता है कि माँ को ऐसा लगे, उसके पाँच ही सन्तान हैं, शेखर की देख-रेख उसे करनी ही न पड़े। शेखर मानो जीवन के स्लेट पर से, भूल से या गलत लिखे गये अक्षर की तरह अपने को मिटा देना चाहता था। पहले तो यह, कि माँ क्या कभी-कभी सबसे अलग जा बैठती हैं, रसोई में नहीं आतीं, अलग बर्तनों में खाना खाती हैं और कोई उनके पास जाता है-और तो कोई जाता ही नहीं, प्रायः शेखर के छोटे भाई ही जाते हैं-तो कहती हैं, 'मेरे पास मत आओ, जाओ खेलो' सो सब क्यों! पता नहीं किसने शेखर को बताया था कि वे बीमार होती हैं, लेकिन शेखर बीमारी के लक्षण तो देखता नहीं। और फिर, दो-चार दिन बाद एक दिन सवेरे उठकर शेखर देखता है, माँ नहा-धोकर रसोई में बैठी हैं और काम कर रही हैं-यदि कल रात तक बीमार थीं तो सबेरे क्या हो गया? दूसरे यह है कि शेखर को याद आ रहा है, ऐसी बात अब बहुत दिनों से नहीं हुई। लेकिन अब जैसे माँ कुछ बीमार जान पड़ने लगी हैं। उनका मुँह पीला पड़ गया है, और वे काम बहुत वज्र करती हैं, प्रायः ढीली-सी और कुछ उदास रहती हैं। तीसरे यह कि एक दिन उसने सहज ही सरस्वती से कहा, "माँ बीमार हैं क्या?" तो सरस्वती ने ऐसी तीखी दृष्टि से उसकी ओर देखा और बिना कुछ कहे चली गयी। और भी बहुत कुछ जानता चाहता है। जिन कमरे में माँ प्रायः रहती हैं, उसमें एक आलमारी है, जिसमें ताला लगा रहता है। शेखर ने माँ को कभी-कभी उसे खोलते देखा है-उसमें निचले खाने में वे अपने गहने इत्यादि रखा करती हैं, और कभी-कभी बिस्कुट के डिब्बे, गुलकन्द, च्यवनप्राश का डिब्बा, और अन्य ऐसी चीजें जो लड़कों से बचाने की हैं। लेकिन उसके ऊपर दो खानों में किताबें भरी पड़ी हैं, वे क्या हैं, जब घर-भर में किताबें बिखरी पड़ी हैं, अच्छी-से-अच्छी, बहुमूल्य; जब एन्साइक्लोपीडिया तक खुली रहती है, तब वे किताबें क्यों ऐसी सँभालकर रखी जाती हैं? वे अच्छी हैं, तो क्यों नहीं उन्हें पढ़ने को दी जातीं! बुरी हैं तो क्यों रखी गयी हैं? एक कमरा अलग कर दिया, साफ किया गया, गोबर से लीपा गया, खिड़कियाँ बन्द कर दी गयीं, और माँ उसमें चली गयीं। एक दाई आकर उनके पास रहने लगी और सब लोगों को वहाँ आने-जाने की मनाही हो गयी। चन्द्र के जन्म की बात याद करके इन लक्षणों से शेखर ने जान लिया कि दाई, या डाक्टर, या कोई और शक्ति, उनके परिवार पर एक बार फिर कृपादृष्टि करनेवाली है। और वह डाक्टर के आने की प्रतीक्षा करने लगा। वह उठकर बैठ गया, चारों ओर देखने लगा। उसने पाया, उसके साथ वाली चारपाई खाली है, सरस्वती वहाँ नहीं है। वह चारपाई से उतरा और दूसरे कमरे में गया जहाँ पिता सोते थे। पिता वहाँ नहीं थे। निचली म
ंजिल में प्रकाश था। न-जाने क्यों, शेखर को साहस नहीं हुआ कि वह नीचे जाकर देखे। पहले कभी ऐसी बात हुई होती, तो वह अवश्यमेव नीचे जाकर देखता, लेकिन अब नहीं। अब वह बुझ जाना चाहता है, दीखना नहीं चाहता; कोई उससे पूछे कि वह क्या करने आया, इसका उत्तर देना तो क्या, यह प्रश्न सुनने का भी साहस उसमें नहीं रहा है-अपने आप में उसका विश्वास टूट गया है। सीढ़ियों पर सरस्वती के पैर की आहट हुई। सरस्वती से डर नहीं था, फिर भी शेखर का दिल धड़क उठा, वह भागकर चारपाई पर जाकर लेट गया। सरस्वती आयी। चारपाई पर बैठ गयी, पाँव समेटकर, घुटने भुजाओं से घेरकर घुटनों पर ठोड़ी टेककर। शेखर नहीं रह सका। उसने पूछा, "क्या हुआ?" मानो अभी जागा हो। सरस्वती विस्मित-सी होकर, बोली, "क्या है?" शेखर ने कभी उसे नाम लेकर नहीं बुलाया था। सरस्वती ने सहसा कोई उत्तर न दिया। शेखर उठ बैठा। "मुझे नहीं पता!" कहकर मुँह, सिर लपेटकर लेट गयी। फिर शेखर ने बहुत बुलाया, उठकर जाकर हिलाया भी, लेकिन वह नहीं बोली, नहीं बोली। शेखर लेट गया और छत की ओर देखने लगा। और मानो अपने ही व्यक्तित्व के जोर से, अपने को वहाँ छत पर टाँगकर, उससे कहने लगा, शेखर, तू सोच। किसी से पूछ मत, तू सोच। तू बता, तू कहाँ से आया? कैसे आया? सवेरा हो गया, और शेखर तब भी अपनी आँखों से उसे वहाँ स्थापित किये हुए, छत पर टँगे अपने प्रतिरूप से वही प्रश्न पूछ रहा था। सरस्वती ने झूठ नहीं कहा था, नहीं तो वह इतनी लज्जित न होती। इतने दुःख और कष्ट जलन के बाद, एक बात शेखर के हाथ आयी है जो सच है; जो है, और बस है, बदल नहीं सकती। लेकिन इससे आगे? शेखर चोरी करने लगा। अब तक शेखर के लिए यह सम्भव नहीं था कि वह छिपाकर कोई बुरा काम करे। क्योंकि जब वह अकेला होता था, तभी उसके कर्मों पर उसकी अपनी आत्मा का
नियन्त्रण सबसे अधिक होता था। पर अब-वह ऊपर की दृष्टि से शरीफ, संस्कृत और भला-मानस होने लगा-जिसे कहते हैं 'हमारा बेटा तो बेटियों-जैसा है?'-और भीतर-ही-भीतर कहीं गिरने लगा। उसे उत्तरदायित्व के काम मिलने लगे। पहले जहाँ एक छोटा-सा काम पाकर वह इतना प्रसन्न होता था और इतनी लगन से उसे करता था कि वह बहुधा बिगड़ भी जाता था, वहाँ अब वह प्रत्येक अवसर पर यही सोचता था कि मैं कैसे छिपे-छिपे नुकसान कर सकता हूँ। उसे कभी सन्दूकची की चाभी दी जाती, तो कुछ एक पैसे निकाल लेता। इसलिए नहीं कि वे उसे चाहिए, केवल इसलिए कि चाभी उसके पास है और वह उसका दुरुपयोग कर सकता है। रात को उसे कहा जाता था कि ईश्वर और प्रभुदत्त के मास्टर को (वे उन दिनों परीक्षा की तैयारी कर रहे थे) दूध दे आये, तो वह रास्ते में एक-दो घूँट पी लेता था। इसलिए नहीं कि घर में उसे दूध नहीं मिलता, बल्कि इसलिए कि वह बिना किसी के देखे कुछ बुरा काम कर सकता है। यहाँ तक कि वह कभी रसद के कमरे में जाता, तो किसी बक्स के पीछे थोड़ा घी गिरा आता। ऐसी हरएक हरकत में मानो उसका मन कह रहा होता था, 'तुम मुझे अच्छा मत समझो, मैं अब भी बुरा हूँ। तुम बेवकूफ हो, जो मुझे अच्छा कहते हो,' इससे मानो उसके अभिमान की पुष्टि होती थी। उसे उस आलमारी की चाभी दी गयी, जिसमें किताबें बन्द थीं। बादाम या कुछ ऐसी चीज निकालने के लिए उसे कहा गया था। उसने आलमारी खोली, दो-तीन किताबें निकालकर आलमारी के नीचे ढकेल दीं, बादाम निकाले और चाभी दे आया। बाद में मौका पाकर उसने वे किताबें उठायीं और छिपकर पढ़ने लगा। रद्दी गुलाबी या पीले कागज पर, बड़े-बड़े लखनऊ टाइप में छपे हुए उन किस्सों को पढ़कर, शेखर सोचने लगा कि क्या है इनमें, जो ये इतने सुरक्षित रखे जाते हैं? शेखर चुगलखोर हो गया। जब कभी किसी भाई से कोई छोटी-सी गलती हो जाती, तो शेखर भागा हुआ माँ के पास जाता और कहता, "माँ, माँ,-ने यह कर दिया है, देखो-तो!" कभी अकारण भी किसी की शिकायत कर देता और तब उसे फटकार खाते या पिटते देखकर मन-ही-मन कहता, ठीक है। अच्छा, पिटना ही चाहिए। मैं बुरा हूँ, मुझे सब मानते हैं, मेरा आदर होता है। तुम अच्छे क्यों हो? एक सीढ़ी और। अच्छे या बुरे होने का, शेखर के लिए कोई महत्त्व नहीं रह गया था। उसके लिए बड़ी बात यह थी कि वह कुछ हो सही-और वह अनुभव करे कि वह कुछ है। इस विश्वास का सहारा उसके लिए बहुत जरूरी हो गया था। चन्द्र ने कहाँ, "माँ, मैं पहले कह चुका हूँ कि मैंने नहीं तोड़े।" मानो पहले कही जाने के कारण उसकी बात अधिक मान्य हो। शेखर मुड़कर बाहर जाने लगा, कुछ ऐसे भाव से कि मैंने अपना कर्तव्य कर दिया है, मुझे इस बात से कोई मतलब नहीं है। और उसका हाथ पकड़कर घसीटती हुई बाहर चलीं। बच्चे क्रुद्ध माता-पिता से पिटते हैं, तब पिट लेते हैं, उनकी आत्मा पर आघात नहीं पहुँचता। लेकिन बिना क्रोध के, निर्मम, दूरस्थ-भाव से पिटकर उनके मानसिक क्षेत्र में सदा के लिए एक दरार-सी फट जाती है। यह बात तब शेखर भी नहीं जानता था, उसक
ी माँ भी नहीं जानती थी, पर इससे उसकी सच्चाई कम नहीं हो गयी थी। सरस्वती ले आयी। सरस्वती खड़ी थी, यद्यपि उधर नहीं देख रही थी। और अंगारा चन्द्र के इतना पास था कि उसका ताप उसे लग रहा था और उसका सिर ऐसे हिल रहा था, जैसे मिरगी के रोगी का कभी-कभी हिला करता है। माँ उसका जबड़ा दबाए हुए थी, और मुँह खुला था, अंगारे की प्रतीक्षा में था। और उसके मन में हुआ, चन्द्र शाबाश? डूब मर, शेखर? शायद माँ को कुछ हुआ। वह कुछ बोली नहीं, शेखर को भी कुछ नहीं कहा, भीतर चली गयीं। बात खत्म हो गयी। आधे घंटे बाद। सरस्वती पढ़ रही थी। उसने बिना किताब से दृष्टि हटाए ही कहा, शेखर दे दे कलम! पर सरस्वती पढ़ने में लग गयी थी और चन्द्र माँ के पास शिकायत करने चला गया था; उसकी बात किसी ने नहीं सुनी। शेखर को मन-ही-मन लगा कि यह बात उसका पक्ष दृढ़ करती है, लेकिन वहाँ सुनता कौन था? माँ उसकी मुट्ठी खोलने की कोशिश करने लगीं। असफल होकर उन्होंने शेखर कागज मेज पर रखा, और उसे पहले घूँसे से, फिर पट्टी के सिरे से मारने लगीं। वह नहीं बुला। शेखर ने निष्प्राण स्वर में कहा, "हाँ, है।" और आगे चला गया। पिता देखते रह गये। उसके सिरहाने की ओर कहीं से अनिश्चित-सा स्वर आया, 'शेखर?' और सरस्वती उसकी चारपाई के सिरे पर बैठ गयी। शेखर ने उसकी गोद में सिर रख दिया! सरस्वती ने उसका सिर उठाकर बहुत धीरे से तकिये पर रखा। वह सो गया। रात को शेखर ने एक स्वप्न देखा। एक विस्तीर्ण मरुस्थल। दुपहर की कड़कड़ाती हुई धूप। शेखर एक ऊँट पर सवार उस मरुस्थल को चीरता हुआ भागा जा रहा है, भागा जा रहा है...सवेरे से, या कि पिछली रात से, वह वैसे ही भागा जा रहा है। तीसरा पहर। धूप कम नहीं हुई, और भी तीखी हो गयी जान पड़ती है। और शेखर भागता जा रहा है; और पीछे वह 'कुछ' भी बढ़ा आ र
हा है। एकाएक सामने सेब के वृक्षों का बाग, जिसके चारों ओर मिट्टी की ऊँची बाड़ लगी हुई है, जिसमें कहीं-कहीं बिलें हैं, और कहीं-कहीं आयरिस जैसा कोई पौधा है। शेखर ऊँट पर से उतरकर, बाड़ पार करके बाग में घुस जाता है। शेखर उठकर एक ओर को भागता है, बाग में से निकल जाता है। एक चट्टान के ऊपर चढ़कर शेखर आगे देखता है, और एकाएक रुक जाता है। शेखर देखता है, पानी के मध्य में प्रवाह से किसी प्रकार भी प्रभावित न होता हुआ, पतले-से नाल पर एक अकेला फूल खड़ा है। बहुत बड़ा-लिपटी हुई-सी एक ही बड़ी सफेद पत्ती, जिसके बीचोंगीच में एक तपे सोने-से वर्ण की एक डंडी है। वह जाग पड़ा। स्वप्न इतना सजीव, इतना यथार्थ था, कि शेखर ने हाथ बढ़ाया कि सरस्वती का हाथ पकड़े। वह उसने नहीं पाया। तब वह चारपाई पर उठ बैठा। इधर-उधर देखा। उठकर सरस्वती की चारपाई के पास गया। वह सोई हुई थी। शेखर ने उसका मुख देखने की चेष्टा की पर देख नहीं सका। लौट आया, एक सन्तुष्ट-सी साँस लेकर लेट गया, और फौरन निःस्वप्न नींद में अचेत हो गया।
एक बच्चा सुंदर होता है, क्योंकि उसके पास अहंकार नहीं है। एक बूढ़ा व्यक्ति कुरूप होता है, इसलिए नहीं कि वह वृद्ध हो गया है बल्कि इसलिए कि उसके पास बहुत अधिक अतीत होता है, बहुत अधिक अहंकार होता है। एक वृद्ध व्यक्ति फिर से सुंदर हो सकता है, वह एक बच्चे की तुलना में कहीं अधिक सुंदर हो सकता है, यदि वह अपना अहंकार छोड़ सके, तब यह वृद्धावस्था उसका दूसरा बचपन होगी, यह एक पुनर्जन्म होगा। जीसस के पुनर्जीवित होने का यही अर्थ है। यह कोई एक ऐतिहासिक सत्य नहीं है, यह एक नीति-कथा है। जीसस को क्रॉस पर चढ़ाया जाता है और तब वे पुनर्जीवित होते हैं। जो व्यक्ति क्रॉस पर चढ़ाया गया था, वह अब मृत है, वह एक बढ़ई का बेटा था- जीसस, जो अब नहीं रहा। जीसस को सूली दे दी, वह मर चुके। अब उस घटना से एक नए तथ्य का जन्म होता है। उनकी मृत्यु से ही एक नए जीवन का जन्म होता है। अब वे क्राइस्ट हैं, बेथलेहेम के किसी बढ़ई के बेटे नहीं हैं, वे एक यहूदी नहीं हैं, यहां तक कि एक मनुष्य भी नहीं हैं। वे क्राइस्ट हैं, नूतन और अहंकारहीन हैं। तुम्हारे साथ भी ऐसा ही होगा, जब कभी तुम्हारा अहंकार सूली पर होगा। जब कभी तुम्हारे अहंकार को सलीब पर लटकाया जाएगा तब वहां एक पुनर्जीवन अथवा पुनर्जन्म होगा। तुम फिर से जन्म लोगे और यह बचपन शाश्वत है, क्योंकि यह शरीर का नहीं, आत्मा का पुनर्जन्म है। अब तुम कभी भी बूढ़े नहीं होगे। तुम हमेशा-हमेशा के लिए नूतन और युवा बने रहोगे जैसे सुबह की ओंस की एक बूंद होती है, जैसा रात में उदित होने वाला पहला सितारा होता है। तुम हमेशा नूतन, युवा और एक बच्चे जैसे निर्दोष बने रहोगेक्योंकि यह आत्मा का पुनर्जीवन है और यह हमेशा एक क्षण में ही घटित होता है। अहंकार समय में होता है। जितना अधिक समय, उतना अधिक अहंकार। अहंकार को समय की आवश्यकता होती है। यदि तुम गहराई में प्रवेश करते हो तो तुम यह जानने में समर्थ हो सकते हो कि समय का अस्तित्व केवल अहंकार के ही कारण है। समय तुम्हारे चारों ओर के भौतिक संसार का भाग नहीं है। समय तुम्हारे अंदर के मनोमय संसार का एक भाग है : मन का संसार । समय, अहंकार को आगे बढ़ने, फैलने और विकसित होने के लिए भूमि प्रदान करता है। समय, वह स्थान देता है जिसकी अहंकार को जरूरत होती है। यदि तुमसे यह कहा जाए कि यह तुम्हारे जीवन का अंतिम क्षण है और अगले ही क्षण तुम्हारी मृत्यु होने वाली है तो अचानक समय विलुप्त हो जाता है। तुम बहुत बेचैनी का अनुभव करते हो। तुम अभी भी जीवित हो, लेकिन अचानक तुम अनुभव करते हो कि जैसे मानो तुम मर रहे हो और तुम नहीं सोच पाते कि क्या किया जाए? यहां तक कि सोचना भी कठिन हो जाता है, क्योंकि सोचने के लिए भी समय की आवश्यकता होती है, भविष्य आवश्यक है। जब कल ही नहीं बचा, तब कैसे सोचा जाए, कैसे कामना की जाए और कैसे आशा की जाए? वहां कोई भी समय नहीं है। समय समाप्त हो गया है। एक मनुष्य के साथ सबसे बड़ी वेदना तब घटित होती है, जब उसकी मृत्यु नियत हो, उससे बचा न जा सके
, मृत्यु का पल निश्चित ही हो । एक व्यक्ति जिसे उम्रकैद की सजा दी गई है, वह अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा है। मृत्यु तो निश्चित है और वह इस बारे में कुछ भी नहीं कर सकता है। एक निश्चित समय के बाद वह मर जाएगा। उस निश्चित समय के पार उसके लिए कोई भी भविष्य नहीं होता इसलिए उसके आगे अब वह कोई कामना नहीं कर सकता, वह कोई सोच विचार नहीं कर सकता, वह कोई योजना नहीं बना सकता और वह सपने भी नहीं देख सकता। वह अवरोध, वह बाधा हमेशा वहां है। ऐसे में वह अत्याधिक वेदना से गुजरता है। यह वेदना अहंकार के लिए है, क्योंकि समय के बिना अहंकार भी अस्तित्व में नहीं रह सकता। अहंकार समय में ही श्वास लेता है और समय ही अहंकार के प्राण हैं। जितना अधिक समय होता है, अहंकार के लिए उतनी ही अधिक संभावना होती है। पूरब में अहंकार को समझने का बहुत अधिक प्रयास किया गया, बहुत परीक्षण और बहुत गहरी जांच की गई। उनमें से एक निष्कर्ष यह है कि जब तक तुमसे समय नहीं छूटता है, अहंकार नहीं छूटेगा। यदि कल का अर्थात भविष्य का अस्तित्व बना रहता है तो अहंकार भी अस्तित्व में बना रहेगा। यदि कोई कल न हो तो तुम अहंकार को आगे कैसे खींच सकते हो? यह ठीक ऐसा ही होगा जैसे बिना नदी के किसी नाव को खींचने का प्रयास किया जाए। वह एक बोझ बन जाएगा। एक नदी की नितांत आवश्यकता है तभी एक नाव कार्य कर सकती है। अहंकार के लिए समय की एक नदी की आवश्यकता होती है। इसी कारण अहंकार हमेशा धीमी प्रक्रिया और अंशों या घटकों के बाबत सोचता है। अहंकार कहता है :"ठीक है, बुद्धत्व का घटना संभव है, लेकिन इसके लिए समय की आवश्यकता है", क्योंकि इसके लिए तैयारी करनी होगी और तब ही उस दिशा में कार्य हो सकेगा। यह बहुत तर्कपूर्ण बात है क्योंकि यह सच है कि प्रत्येक कार्य के लिए स
मय की आवश्यकता होती है। यदि तुम एक बीज बोते हो तो उसे वृक्ष बनने में समय लगता है। यदि एक बच्चे का जन्म होता है, यदि एक नया शरीर सृजित होता है तो समय लगता है, बच्चे के विकास के लिए गर्भ भी समय लेगा। तुम्हारे चारों ओर प्रत्येक वस्तु विकसित हो रही है, इस विकास के लिए समय की आवश्यकता होती है, इसीलिए यह तर्कपूर्ण प्रतीत होता है कि बाहर के संसार की तरह, भीतर के संसार यानि आत्मिक विकास में भी समय आवश्यक होगा। लेकिन यह बात महत्त्वपूर्ण है और समझ लेने जैसी है कि वास्तव में आत्मिक विकास ऐसा नहीं है जैसा कि एक बीज का विकास है। बीज को वृक्ष बनना है और बीज से लेकर वृक्ष तक की यात्रा में एक अंतराल है। इस अंतराल को पार करना होता है, वह दूरी तय करनी पड़ती है। परंतु आत्मिक तल पर तुम किसी बीज की भांति विकसित नहीं होते हो, बल्कि तुम स्वयं ही "विकास" हो औरसंसार में केवल उसकाप्रकटीकरण है, एक रहस्योद्घाटन है। जो तुम वास्तव में हो, जो तुम्हारा स्वरूप है और जैसे तुम रूपांतरण के बाद बनोगे, इन दोनों के मध्य बिल्कुल भी दूरी नहीं है, वहां लेशमात्र भी फासला नहीं है। वहां सदैव एक पूर्णता बनी हुई है, वह समग्र ही है। इसलिए यह प्रश्न विकसित होने का नहीं है, बल्कि प्रश्न केवल अनावरण का है, एक पर्दा उठाने का है। यह केवल एक खोज है। कुछ जो पर्दे के पीछे छिपा हुआ था, वह वहां पहले से ही था, पर छुपा हुआ था, तुमने उस पर से पर्दा हटा दिया और वह वहां प्रकट हो गया। यह ठीक ऐसा ही है जैसे मानो तुम आंखें बंद करके बैठे हुए हो, सूरज वहां क्षितिज पर है पर तुम्हारी बंद आंखो के कारण तुम अंधकार में हो। अचानक तुम आंखें खोलते हो और उसी क्षण वहां प्रकाश हो जाता है, वहां दिन है ही। आत्मिक विकास वास्तव में एक विकास नहीं होता, यह शब्द ही ठीक नहीं है, यह शब्द-भ्रम है। आत्मिक विकास, वास्तव में एक अनावरण है, कुछ ऐसा जो छिपा हुआ था और प्रकट हो गया। जो वहां पहले से ही था पर अब तुमने उसे अनुभव कर लिया है। "वह" वास्तव में कभी खोया ही नहीं था, केवल विस्मृत हो गया था, तुम उसे भूल गए थे, अबतुम्हें याद आ गया है। यही मुख्य कारण है कि रहस्यदर्शी सदैव ही "याद" शब्द का प्रयोग करते हैं :नानक ने कहा "सिमरन" यानि स्मृति, बुद्ध ने कहा "सम्यक स्मृति", कबीर ने कहा "सुरति".. संत कहते हैं :दिव्य सत्ता कोई उपलब्धि नहीं है, वह तो बस अपने वास्तविक स्वरूप का एक सहज स्मरण है, कोई वस्तु जिसे तुम भूल गए थे, तुम्हें उसका स्मरण आ गया है। अतः वास्तविकता यही है कि समय की कोई आवश्यकता नहीं है, लेकिन मन कहता है, अहंकार कहता है कि प्रत्येक वस्तु के विकास के लिए समय की आवश्यकता होती है। यदि तुम इस तर्कपूर्ण विचार से ग्रस्त हो जाते हो, तुम इस विचार के शिकार हो जाते हो तो तुम कभी भी आत्मिक विकास न कर सकोगे। तुम उसे स्थगित करते चले जाओगे। तुम कहोगे कल, परसों और आगे ही आगे, परंतु वह कल कभी नहीं आएगा, क्योंकि कल कभी नहीं आता है। जो कुछ भी मैं कह रहा हूं, य
दि तुम उसे समझ सकते हो तो अहंकार को ठीक इसी क्षण छोड़ा जा सकता है और यदि यह सत्य है तब प्रश्न उत्पन्न होता है कि यह क्यों नहीं छूट रहा है? तुम क्यों इसे नहीं छोड़ पाते हो? यदि क्रमिक विकास का कोई प्रश्न ही नहीं है, तब तुम उसे क्यों नहीं छोड़ रहे हो? क्योंकि तुम उसे छोड़ना ही नहीं चाहते। इससे तुम्हें आघात लगेगा, क्योंकि तुम यह सोचते हो कि तुम अहंकार छोड़ना चाहते हो। पुनः विचार करो, फिर से सोचो, तुम छोड़ना ही नहीं चाह रहे हो और इसलिए वह लगातार मौजूद रहता है। यह प्रश्न समय का नहीं है, क्योंकि तुम खुद उसे छोड़ना ही नहीं चाहते, इसलिए कुछ भी नहीं किया जा सकता है। मन के ढंग बड़े अजीब हैं, रहस्यमयी हैं, तुम सोचते हो कि तुम उसे छोड़ना चाहते हो और अपनी गहराई में तुम भलीभांति जानते हो कि तुम उसे छोड़ना नहीं चाहते हो। हां, हो सकता है कि तुम अपने मन के इस बर्ताव को थोड़ा रंग-रोगन पोतकर, थोड़ा चमका कर, पॉलिश करना पसंद करोगे, तुम उसे परिष्कृत ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयास करोगे। लेकिन तुम वास्तव में उसे छोड़ना नहीं चाहते हो । यदि तुम उसे छोड़ना चाहते हो तो वहां ऐसा कोई भी नहीं है, जो तुम्हें रोक रहा हो। कोई भी बाधा मौजूद नहीं है। केवल चाहने भर से ही उसे छोड़ा जा सकता है। यदि तुम छोड़ना ही न चाहो तो कुछ भी नहीं किया जा सकता है, यहां तक कि हजार बुद्ध भी तुम पर कार्य कर करें, तुम्हें मार्गदर्शन दें, तो तुम उन्हें भी असफल कर दोगे, क्योंकि बाहर से कुछ भी नहीं किया जा सकता है। क्या सच में तुमने इसके बारे में सोचा है? क्या कभी तुमने इस पर ध्यान दिया है? क्या सचमुच तुम इसे छोड़ना चाहते हो? क्या तुम वास्तव में अस्तित्वहीन और नाकुछ होना चाहते हो? यहां तक कि अपने धार्मिक कृत्यों में भी तुम कुछ विशेष
होना चाहते हो, तुम कुछ प्राप्त करना चाहते हो और तुम कहीं पहुंचना चाहते हो । जब तुम विनम्र होते हो, तब तुम्हारी विनम्रता भी अपने अहंकार को छिपाने का केवल एक गुप्त स्थान मात्र है और कुछ भी नहीं है। तथाकथित विनम्र लोगों की ओर देखो। वे कहते हैं कि वे विनम्र हैं और वे अपने कस्बे में, अपने शहर में और अपने आसपास के स्थानों में यह सिद्ध करने का प्रयास भी करते हैं कि वे सबसे अधिक विनम्र हैं। पर यदि तुम उनसे तर्क करो और कहो-"नहीं, कोई अन्य व्यक्ति आपसे भी अधिक विनम्र है", तो यह सुनकर उन्हें चोट लगेगी। यह चोट लगने का अनुभव किसे हो रहा है? मैं एक ईसाई संत के बारे में पढ़ रहा था। वह रोज़ अपनी प्रार्थना में परमात्मा से कहता था-"मैं इस पृथ्वी पर सबसे बड़ा दुष्ट और पापी हूं।" देखने में, प्रकट रूप में वह बहुत विनम्र मालूम होगा, लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। वह कहता है कि पृथ्वी पर सबसे बड़ा पापी है और यदि इस बात पर परमात्मा विवाद करने लगे तो वह जरूर तर्क-वितर्क करेगा। उसकी गहरी दिलचस्पी, उसकी आंतरिक रूचि पापी बनने में नहीं है बल्कि सबसे बड़ा पापी बनने में है। यदि तुम्हें सबसे बड़ा पापी बनने की अनुमति दी जाती है, तो तुम एक पापी भी बन सकते हो। तुम इसमें प्रसन्नता का अनुभव करोगे- एक महानतम पापी । तब तुम एक शिखर बन जाते हो। सदाचार या पाप दोनों ही महत्त्वहीन है, बस तुम्हें कुछ विशेष बनना है। अतः कारण कोई भी हो, खूंटी कोई भी हो, तुम्हारा अहंकार शीर्ष पर बना रहना चाहिए। जॉर्ज बर्नाड शॉकहते थे-"मैं स्वर्ग में द्वितीय स्थान पर रहने की अपेक्षा नर्क में प्रथम बने रहना पसंद करूंगा।" इसका मतलब यही निकलता है कि नर्क कोई बुरा स्थान नहीं हो सकता, यदि तुम वहां प्रथम हो, यदि तुम सबसे आगे हो तो नर्क भी स्वीकार्य है। स्वर्ग भी तुम्हें उदासीन लगेगा, यदि तुम बहुत भीड़ में कहीं किसी कोने में, एक पंक्ति में अनजान की भांति खड़े हो। और बर्नाड शॉ ठीक कहते हैं। मनुष्य का मन इसी तरह से कार्य करता है। कोई भी व्यक्ति अहंकार को छोड़ना नहीं चाहता अन्यथा कोई समस्या ही नहीं है। तुम बहुत सहजता सेठीक अभी और इसी क्षण उसे छोड़ सकते हो । यदि तुम्हें ऐसा लगता है कि अहंकार छोड़ने के लिए समय की आवश्यकता है, तब यह समय केवल तुम्हारी समझ बढ़ने के लिए चाहिए ताकि तुम जान सको कि तुम ही उसके साथ लिपटे हुए हो, तुम ही उसे पकड़े हुए हो और जिस क्षण तुम यह समझ सको कि यह तुम्हारा ही लगाव है, तुम ही चिपके हो तो बस घटना घट जाएगी। तुम इस सामान्य सच्चाई को समझने में अनेक जन्म लगा सकते हो। तुमने पहले ही से अनेक जन्म ले लिए हैं और तुम अभी तक नहीं समझे हो। यह बहुत ही विचित्रप्रतीत होता हैकि जो तुम पर एक बोझ है, जो तुम्हें निरंतर एक नर्क में धकेलता है... इस सब के बावजूद भी, तुम उस अहंकार को पकड़े रहते हो। इसके पीछे जरूर कोई गहरा कारण होना चाहिए। कोई ऐसा कारण, जिसकी जड़ें बहुत गहराई तक जम गई हैं। मैं इस बारे में थोड़ी सी बात कहना चाहूंग
ा । तुम उससे सचेत हो सकते हो। मनुष्य के मन का स्वभाव ही ऐसा है कि वह अक्रिया की अपेक्षा सदैव ही क्रिया या व्यस्तता का ही चुनाव करता है। यदि क्रिया पीड़ादायक है, यदि क्रिया में दुख है, तब भी वह वस्तुतः अव्यस्त होने की अपेक्षा व्यस्तता ही चुनाव करता है क्योंकि बिना किसी कार्य में व्यस्त हुए तुम स्वयं के मिटने का अनुभव करने लगते हो। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जब लोग अपनी नौकरी, काम-काज और व्यापार आदि से रिटायर होते हैं तो वे बहुत शीघ्र मर जाते हैं। उनकी आयु तुरंत ही लगभग दस वर्ष कम हो जाती है। वे अपनी मृत्यु से पहले ही मरना शुरू हो जाते हैं। उनके पास अब कोई कार्य नहीं है, वे व्यस्त नहीं हैं। जब तुम व्यस्त नहीं हो, जब तुम खाली होते हो तो तुम व्यर्थ और अर्थहीन अनुभव करने लगते हो। तुम यह अनुभव करते हो कि अब तुम्हारी जरूरत नहीं है। अब तुम अन्य लोगों के लिए आवश्यक नहीं हो और तुम्हारे बिना भी संसार सुगमता से चलता रहेगा। जब तक तुम व्यस्त बने रहते हो तो तुम्हें अनुभव होता है कि संसार तुम्हारे बिना एक कदम भी नहीं चल सकता है। तुम इस संसार के एक मुख्य हिस्से हो, महत्त्वपूर्ण भाग हो और तुम्हारे बिना यह दुनिया रूक जाएगी। यदि तुम अव्यस्त हो, खाली हो जाते हो तो अचानक तुम सचेत होते हो कि बिना तुम्हारे भी संसार बहुत सुंदरता से आगे बढ़ रहा है। कुछ भी नहीं बदल रहा है और तुम तिरस्कृत कर दिए गए हो, तुम कहीं कचड़े के ढेर पर फेंक दिए गए हो और तुम्हारी कोई भी आवश्यकता नही है। जिस क्षण भी तुम यह अनुभव करते हो कि तुम्हारी कोई भी आवश्यकता नहीं है तो अहंकार बेचैन हो जाता है, क्योंकि वह केवल तभी अस्तित्व में रह सकता है जब तक तुम्हारी जरूरत होती है। इसलिए चारों तरफ यह अहंकार अपने इसी दृष्टिकोण कोप्रत्येक व्यक्
ति पर थोपता चला जाता है कि तुमको होना ही चाहिए, तुम बहुत आवश्यक हो और बिना तुम्हारे कुछ भी नहीं हो सकता है, तुम्हारे बिना यह संसार मिट जाएगा। खाली होने पर तुम्हें यह अनुभव होता है कि तुम्हारे बिना भी दुनिया का खेल जारी है। तुम इसके महत्त्वपूर्ण भाग नहीं हो, तुम्हें सरलता से फेंका जा सकता है, कोई भी व्यक्ति तुम्हारी फिक्र नहीं करेगा और न ही कोई तुम्हारे बारे में सोचेगा। वस्तुतः ऐसा भी संभव है कि तुम्हारे न होने पर लोग मुक्ति का अनुभव करें। यह व्यवहार अहंकार को खंड-खंड कर देता है। इसलिए लोग व्यस्त बने रहना चाहते हैं, बल्कि उन्हें व्यस्त बने रहना होगा। उन्हें अपनी इस भ्रांति को बनाए रखना होगा कि वे समाज का अति आवश्यक हिस्सा हैं। ध्यान, मन के खाली होने की स्थिति है। बहुत गहराई में यह सभी कार्यों से मुक्त होने जैसा है। यह मुक्ति हिमालय पर भाग जाने जैसी कोई नकली मुक्ति नहीं है। ऐसी मुक्ति किसी भी कीमत पर मुक्ति हो ही नहीं सकती क्योंकि तुम हिमालय पर जाकर भी एक छोटा संसार बसा लोगे, तुम वहां भी व्यस्तता ढूंढ ही लोगे। तुम हिमालय पर भी अपनी नई-नई कल्पनाएं सृजित कर सकते हो कि तुम अपनी तपस्या से संसार को नष्ट होने से बचा रहे हो । हिमालय में बैठकर तुम ध्यान कर रहे हो और इसी कारण संसार तृतीय विश्व युद्ध से बच रहा है। चूंकि तुम विधायक तरंगें फैला रहे हो इसी कारण यह संसार "आदर्श समाज" और "शांति प्रिय" समाजबन रहा है। इन सब तरह की कल्पनाओं से तुम अपने आप को हिमालय में भी व्यस्त कर सकते हो। वहां कोई भी तुमसे तर्क नहीं करेगा क्योंकि तुम वहां अकेले हो। कोई भी तुमसे तुम्हारी कल्पना की सत्यता के संदर्भ में विवाद नहीं करेगा और कोई इसकी चिंता नहीं करेगा कि तुम एक विभ्रम अथवा एक भ्रांतिजनक स्थिति में हो। वहां तुम इन कल्पनाओं में पूरी तरह से डूबे रह सकते हो, और एक बार फिर से तुम्हारा अहंकार एक नए और सूक्ष्म रूप में अपने होने का दावा करेगा। ध्यान एक नकली मुक्ति नहीं है। यह एक गहन, अंतरंग और वास्तविक मिक्त है, यह एक प्रत्याहार है। ऐसा नहीं है कि ध्यान करने के बाद तुम जीवन में कोई काम ही नहीं करोगे, तुम अपने जीवन के क्रियाकलाप पहले जैसे ही जारी रख सकते हो, लेकिन ध्यान के बाद तुम अपने "अहं" को और अपने वर्चस्व कायम करने की प्रवृत्ति को हटा लेते हो। प्रत्येक जगह तुम्हारी जरूरत है, तुम्हारे बिना संसार नहीं चल सकता, ऐसे भ्रमों से तुम मुक्त होने लगते हो। तुम्हें यह अनुभव होने लगता है कि तुम्हारी ऐसी भ्रांतियां केवल तुम्हारी मूर्खता थी। तुम्हारे बिना भी संसार भलीभांति चल सकता है और इसमें निराश होने की कोई भी आवश्यकता नहीं है। बल्कि यह अच्छा है, यहां तक कि बहुत अच्छा है कि संसार तुम्हारे बिना भी चल सकता है। यदि तुम सही ढंग से समझ सको तो यह एक स्वतंत्रता बन सकता है । यदि तुम नहीं समझते हो, तभी तुम टूटने का, मिटने का, बिखरने का और खंड-खंड होने का अनुभव करते हो। इसलिए लोग किसी भी कार्य में व्यस्त
बने रहना चाहते हैं और उनका अहंकार उन्हें महानतम तथा संभव व्यस्तताएं दे भी देता है। चौबीस घंटे अहंकार व्यक्ति को व्यस्त रखता है। वे लगातार सोच रहे हैं कि कैसे संसद सदस्य बना जाए? वे सोच रहे हैं कि कैसे एक मंत्री अथवा उपमंत्री बना जाए? कैसे राष्ट्रपति बना जाए? अहंकार सदैव सोचता ही रहता है और योजनाएं बनाता चला जाता है। वह तुम्हें निरंतर व्यस्त रखता है कि कैसे अधिक समृद्धिप्राप्त की जाए और कैसे अपना साम्राज्य निर्मित किया जाए। अहंकार तुम्हें निरंतर सपने देता है, वह इन सपनों के माध्यम से तुम्हें भीतर भी व्यस्त बनाए रखता है और तुम अनुभव करते हो कि तुम्हारे द्वारा बहुत कुछ हो रहा है और आगे भी होना है। व्यस्तता न मिलने पर अथवा खाली होने पर तुम अचानक अपनी आंतरिक रिक्तता के प्रति सचेत होते हो। तुम्हारे सपनों के कारण वह आंतरिक रिक्तता अनुभव नहीं हो पा रही थी। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि एक व्यक्ति बिना भोजन के भी लगभग नब्बे दिनों तक जीवित रह सकता है, लेकिन नब्बे दिन तक वह बिना सपने देखे नहीं रह सकता। वह पागल हो जाएगा। यदि स्वप्न देखने की अनुमति न हो तो तुम तीन सप्ताह में ही पागल हो जाओगे। बिना भोजन के, तीन सप्ताह तक तुम्हें कोई भी हानि नहीं होगी और यहां तक कि ऐसा करना तुम्हारे स्वास्थ्य के लिए अच्छा हो सकता है। बिना भोजन किए तीन सप्ताह का उपवास तुम्हारी पूरी शारीरिक व्यवस्था को एक नई स्फूर्ति देगा। तुम अधिक जीवंत तथा युवा हो जाओगे, लेकिन तीन सप्ताहों तक बिना सपनों के तुम पागल हो जाओगे। सपने निश्चित ही मन की किसी गहरी जरूरत को पूरा करते हैं। यह गहरी जरूरत है कि बिना किसी व्यस्तता के भी यह सपने तुम्हें व्यस्त बनाए रखते हैं। तुम अपनी इच्छानुसार सपने देख सकते हो, तुम जो चाहो वह कर सकते हो और क
म से कम अपने सपनों में तो जो चाहो कर सकते हो। तुम्हारे सपनों में पूरा संसार तुम्हारे अनुसार ही गतिशील होता है। कोई भी वहां समस्या उत्पन्न नहीं करता है। तुम किसी को भी मार सकते हो, तुम किसी की भी हत्या कर सकते हो, तुम जैसा चाहो परिवर्तन कर सकते हो, तुम अपने सपने के मालिक होते हो। सपनों के दौरान अहंकार अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि वहां कोई दूसरा नहीं होता, जो तुम्हारा विरोध कर सके और तुमसे यह कह सके-"नहीं, यह गलत है।" तब तुम सर्वेसर्वा होते हो। तुम जो भी चाहते हो, तुम उसे अपने सपने में निर्मित कर लेते हो। जो तुम नहीं चाहते हो उसे तुम नष्ट कर देते हो। स्वप्न में तुम पूर्ण रूप से शक्तिशाली होते हो। तुम अपने सपनों में सर्वशक्तिमान होते हो। सपने केवल तभी बंद होते हैं जब अहंकार मिट जाता है। इसलिए यह एक संकेत है। वास्तव में ऐसा संकेत पुराने योग शास्त्रों में भी मिलता है कि जो व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया हो, वह स्वप्न नहीं देख सकता। उसका स्वप्न देखना बंद हो जाता है, क्योंकि उसे अब सपनों की कोई आवश्यकता ही नहीं है। वह तो अहंकार की आवश्यकता थी। अहंकार को पोषित करने के लिए ही तुम व्यस्त बने रहना चाहते थे। इसी कारण तुम अहंकार कोछोड़ नहीं सके। जब तक तुम खाली होने को तैयार नहीं हो, जब तक तुम नाकुछ होने को तैयार नहीं हो, जब तक तुम समाज के लिए अनुपयोगी होते हुए भी जीवन में आनंद और उत्सव मनाने के लिए तैयार नहीं हो, तब तक अहंकार को नहीं छोड़ा जा सकता है। समाज में उपयोगी बने रहना, महत्त्वपूर्ण बने रहना ही तुम्हारी गहरी जरूरत है। जब तक कोई तुम्हें महत्त्वपूर्ण समझता है, जब तक तुम किसी के लिए बहुत मूल्यवान होते हो, तब तुम बहुत भराव महसूस करते हो। यदि ज्यादा लोगों के लिए तुम ही एक मात्र केंद्र बन जाओ तो तुम अत्यंत प्रसन्नता का अनुभव करते हो। यही कारण है कि नेतृत्व करने में इतनी प्रसन्नता मिलती है, क्योंकि इतने अधिक लोगों को तुम्हारी आवश्यकता होती है। एक नेता बहुत अधिक विनम्र हो सकता है। उसे अपने अहंकार को स्थापित करने की कोई आवश्यकता ही नहीं होती क्योंकि बहुत अधिक लोगों के लिए वह महत्त्वपूर्ण है, बहुत लोग उस पर निर्भर हैं, इसलिए उसके अहंकार की अत्यंत सहजता और गहनता से प्रतिपूर्ति हो जाती है। वह इतने अधिक लोगों का जीवन-स्रोत बन जाता है कि वह प्रसन्न अनुभव करता है, और विनम्र बना रहता है, बल्कि वह विनम्र बने रहने में समर्थ हो जाता है। तुम्हें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जो लोग अपने अहंकार को बहुत अधिक दृढ़ करते हैं, वे हमेशा ऐसे लोग होते हैं, जो दूसरों कोप्रभावित नहीं कर सकते। तब वे अपने अहंकार को दृढ़तापूर्वक स्थापित करते हैं, क्योंकि उनके पास अपनी बात कहने का केवल यह ही एक रास्ता बचता है। इसी तरह से वे सिद्ध कर पाते हैं कि वे भी कुछ हैं। यदि वे लोगों कोप्रभावित कर पाते, यदि वे लोगों को अपनी बात पर राजी कर ही पाते, तो उन्हें अहंकार के इस दावे की जरूरत ही नहीं पड़त
ी। अतः ऐसे लोग केवल दिखावे के लिए ही सही, परंतु बहुत विनम्र होंगे। वे अहंकार को प्रदर्शित नहीं करेंगे, क्योंकि वे सूक्ष्म रूप से जानते हैं कि बहुत लोग उन पर आश्रित हैं, वे जानते हैं कि अब वे उन लोगों के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हैं और इस महत्त्व के कारण ही उन्हें अपना जीवन उन लोगों के प्रति अर्थपूर्ण प्रतीत होता है। यदि इस तरह से किसी और के लिए अर्थपूर्ण होना ही तुम्हारा लक्ष्य है, यदि तुम्हारे अहंकार को पोषित करना ही तुम्हारे जीवन का अर्थ है, तब तुम उस अहंकार को कैसे छोड़ सकते हो? मुझे सुनते हुए तुम इस अहंकार को छोड़ने के बारे में सोचना शुरू कर देते हो, लेकिन केवल सोचने से ही तुम उसे नहीं छोड़ सकते हो। इस अहंकार को समझने के लिए उसकी जड़ों तक जाना होगा, जहां वह गहरा जमा हुआ है, जहां से उसका वजूद है, और यह भी जानना होगा कि वह वहां क्यों मौजूद है? यह अचेतन शक्तियों का एक प्रवाह है जो तुम्हारी आज्ञा के बिना, तुम्हारी जानकारी के बिना ही तुम पर कार्य करता है। इस प्रवाह को चेतन बनाना होगा। तुम्हें अपने अवचेतन की भूमि से, उस की गहरी पर्तों में जमी अहंकार की सभी जड़ों को उखाड़कर बाहर लाना होगा, जिससे तुम उन्हें देख सको और समझ सको। यदि तुम खाली बने रह सकते हो, यदि तुम संसार के लिए अनावश्यक होते हुए भी संतुष्ट रह सकते हो तो अहंकार इसी क्षण छूट सकता है, लेकिन यह "यदि "... बहुत बड़ा यक्ष- प्रश्न हैं और ध्यान तुम्हें इसी यक्ष- प्रश्न के उत्तर हेतु तैयार करता है। अहंकार के गिरने की घटना एक क्षण में ही घटती है परंतु समझ को गहरा होने में समय लग जाता है । यह लगभग ऐसा है, जैसेजब तुम पानी गर्म करते हो, तो वह धीमे धीमे गर्म होता जाता है, मध्यम गर्म और फिर तेज गर्म हो जाता है तथा सौ डिग्री के विशिष्
ट तापक्रम पर आते ही वह भाप बनना शुरू हो जाता है। यह पानी का भाप बन जाना... एक क्षण में ही घटित होता है, यह धीमे-धीमे नहीं होता बल्कि अचानक एक क्षण में होता है। पानी से भाप बनने की प्रक्रिया एक छलांग है। इस प्रक्रिया में अचानक पानी विलुप्त हो जाता है, परंतु पानी से भाप बनने के लिए समय लगता है, पानी धीरे-धीरे गर्म होते हुए उबाल के बिंदु तक पंहुचता है। भाप अचानक एक क्षण में बनती है पर भाप बनने के लिए सही तापमान तक आने में समय लगता है। समझ का गहरे होना, पानी के गर्म होने की तरह है, वह समय लेती है। अहंकार का छूटना भाप बनने की तरह है, वह अचानक घटित होता है। इसलिए अहंकार को छोड़ने का प्रयास मत करो। वस्तुतः अपनी समझ को गहरा बनाने का प्रयास करो। पानी को भाप में बदलने का प्रयास मत करो। केवल पानी को गर्म करो। एक घटना के घटित होते ही दूसरी वस्तुतः स्वयं ही घटित हो जाएगी, वह अनुसरण करेगी। वह निश्चित रूप से घटित होगी ही। इसलिए समझ को विकसित करो, अपनी समझ को और अधिक सघन करो, इसे केंद्रित करो। अपनी समस्त उर्जा का प्रयोग अपने अहंकार का मूल समझने हेतु करो। अपनी सारी शक्ति अपने अहंकार, अपने मन और अपने अचेतन को समझने में लगा दो। अधिक से अधिक सजग बनो और जो कुछ भी होता है, उसे हर हाल में समझने का प्रत्येक संभव प्रयास करो। कोई व्यक्ति तुम्हारा अपमान करता है और तुम क्रोध से भर जाते हो। इस अवसर से मत चूको, समझने का प्रयास करो कि क्यों? आखिर यह क्रोध क्यों आता है? इस क्रोध को एक दार्शनिक तथ्य मत बनाओ और पुस्तकालयों में जाकर क्रोध के संबंध में छानबीन मत करो। यह क्रोध तुम्हें घट रहा है, यह तुम्हारा अनुभव है, एक जीवंत अनुभव है। अपनी समस्त ऊर्जा, अपना पूरा ध्यान इस पर केंद्रित कर दो और समझने का प्रयास करो कि यह तुम्हें क्यों घट रहा है? यह कोई दार्शनिक अथवा मनोवैज्ञानिक समस्या नहीं है और इसके बारे में फ्रायड जैसे किसी प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक से परामर्श लेने की भी कोई आवश्यकता नहीं है। यह बहुत मूर्खतापूर्ण कृत्य है कि क्रोध तुम्हें घट रहा है और तुम दूसरे लोगों से इसका निदान पूछते हो। यह केवल एक मूढ़ता है। तुम क्रोध के इस अनुभव को महसूस कर सकते हो, तुम क्रोध में छुपे हुए अहंकार का रस ले सकते हो। तुम ही क्रोध के क्षणों के बाद बोझिल और अपमानित भी महसूस करोगे। अतः समझने का प्रयास करो कि यह क्यों हो रहा है? यह क्रोध कहां से आ रहा है? इसकी जड़ें कहां हैं? यह उत्पन्न कैसे होता है? यह कार्य कैसे करता है? यह कैसे तुम पर हावी हो जाता है? और कैसे तुम क्रोध में पागल हो जाते हो? यह क्रोध तुमसे पहले भी हो चुका है और अब भी हो रहा है, लेकिन अब तुम एक नया तत्त्व, एक नया आयाम इसमें जोड़ दो... और वह आयाम है समझ का आयाम, समझ के जुड़ते ही क्रोध के गुण और लक्षण बदल जाएंगे। तब धीरे-धीरे तुम पाओगे कि जितना अधिक तुम क्रोध को समझते हो, उतना ही वह कम होता जाता है और जब तुम उसे पूर्ण रूप से समझ लेते हो तो एक दिन वह व
िलुप्त हो जाता है। समझ को बढ़ाना तापमान को बढ़ाने के समान है। तापमान जैसे ही सौ डिग्री के विशिष्ट बिंदु तक पहुंचता है, तो पानी विलुप्त हो जाता है और भाप बन जाता है। इसी तरह, क्रोध की ही भांति सेक्स है :उसे भी समझने का प्रयास करो। जितनी गहरी समझ होगी, तुम्हारी कामुकता, तुम्हारी वासना उतनी ही क्षीण होती जाएगी। तुम्हारी समझ जैसे ही शिखर पर पंहुचेगी अथवा पूर्णतम होगी वैसे ही उसी क्षण कामुकता पूर्ण रूपेण विलुप्त हो जाएगी। यही मेरी कसौटी है कि आंतरिक ऊर्जा का कोई भी आयाम यदि उथली और बाहरी समझ से दमित होता है और नकारात्मक ढंग से प्रकट होता है, तो वह पाप है, अपराध है। परंतु गहरी समझ के द्वारा यदि वह आयाम रूपांतरित होता है, तो वही सदाचार है। तुम्हारी समझ की मात्रा जितनी गहरी होती जाएगी, उतना ही मात्रा में तुम्हारे भीतर से व्यर्थ विसर्जित हो जाएगा, नकारात्मकता विदा होती जाएगी और सकारात्मकता या सार्थकता सघन होगी। कामुकता और वासना विलुप्त हो जाएगी और प्रेम गहन होगा। क्रोध विलुप्त होगा और करुणा गहनतम होगी। लोभ मिटेगा और बांटने का भाव गहन होगा। इसलिए गहरी समझ के द्वारा जो कुछ भी विसर्जित होने लगे, जान लेना कि वह व्यर्थ है, नकारात्मक है और जो कुछ भी तुम्हारे भीतर गहरी जड़ें जमाने लगे, जान लेना कि वही सार्थक है। मैं इसी तरह से अच्छे और बुरे, सदाचार और व्याभिचार तथा पुण्य और पाप की व्याख्या करता हूं। एक धार्मिक व्यक्ति या पुण्यवान व्यक्ति और कुछ नहीं बल्कि एक गहरी समझ का मालिक होता है। अधार्मिक व्यक्ति या पापी व्यक्ति वही है जिसकी समझ का स्तर बहुत ही उथला है, छिछला है। एक धार्मिक और एक अधार्मिक व्यक्ति में मुख्य अंतर पाप या पुण्य का नहीं होता है अपितु एक गहरे तल की समझ का होता है । यही गहरी स
मझ, पानी को गर्म करने की प्रक्रिया की भांति कार्य करती है। जब वह क्षण आता है, जब तापमान उबलने के बिंदु तक पंहुच जाता है तो अचानक जैसे भाप बनती है वैसे ही अचानक अहंकार छूट जाता है। तुम प्रत्यक्ष रूप से, बिल्कुल सीधे ही अहंकार पर प्रहार नहीं कर सकते, हां! तुम उस स्थिति को अवश्य तैयार कर सकते हो, जिसमें अहंकार स्वतः ही नष्ट हो जाता है। वह स्थिति निर्मित होने में समय लगेगा। इस संदर्भ में सदैव से ही दो विचारधाराएं रहीं हैं पहली यह कि बुद्धत्व अचानक घटित होता है, यह समय के पार है। दूसरी यह है कि बुद्धत्व अचानक नहीं बल्कि धीरे-धीरे क्रमिक रूप से घटित होता है। यह दोनों विचारधाराएं परस्पर विपरीत हैं। एक के अनुसार बुद्धत्व अचानक ही, अनायास ही घटता है और दूसरी के अनुसार बुद्धत्व अचानक नहीं बल्कि धीमी प्रक्रिया में घटता है और दोनों ही सही हैं क्योंकि दोनों ने सिक्के के एक-एक पहलू को `चुन लिया है, धीमी प्रक्रिया वाली विचारधारा ने गहरी समझ को विकसित करने वाला भाग चुन लिया और उनके अनुसार इसमें समय लगेगा, गहरी समझ समय के साथ ही विकसित होगी। और वे सही हैं, उनके अनुसार अचानक होने वाली घटना के बारे में चिंतित नहीं होना चाहिए क्योंकि यह धीमी प्रक्रिया है। वे कहते हैं कि तुम केवल प्रक्रिया का अनुसरण करो और इस प्रक्रिया में जब पानी ठीक बिंदु तक गर्म हो जाएगा तो वह स्वतः ही वाष्प बन जाएगा। तुम्हें वाष्प के बारे में फिक्र करने की आवश्यकता ही नहीं है। तुम वाष्प से संबंधित सभी विचार अपने दिमाग से निकाल दो और तुम अपना पूरा ध्यान केवल और केवल पानी के गर्म करने पर लगा दो। इसके विपरीत, दूसरी विचारधारा जो कहती है कि बुद्धत्व अचानक घटता है, उसने अंत वाला भाग चुन लिया है। वह कहते हैं कि प्रक्रिया इतनी सारभूत नहीं है, मुख्य बात यह है कि बिना किसी समय-अंतराल के ही घटना घट जाती है, बस एक क्षण में ही विस्फोट होता है। पहली जोधीमी प्रक्रिया है, वह केवल परिधि है, परंतु दूसरी तरफ जो अचानक विस्फोट है, वही वास्तविक बिंदु है, वह केंद्र है। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि दोनों ही ठीक हैं। बुद्धत्व अचानक घटता है और हमेशा अचानक ही घटित हुआ है। लेकिन समझ समय लेती है। दोनों ही सही हैं परंतु दोनों की व्याख्या गलत ढंग से की जा सकती है। तुम मन की चाल में फंस सकते हो, तुम स्वयं को ही धोखा दे सकते हो । यदि तुम कुछ भी नहीं करना चाहते हो, कोई भी प्रयास नहीं करना चाहते हो तो अचानक घटने वाले बुद्धत्व पर विश्वास करना एक आकर्षण होगा, क्योंकि तब तुम कहोगे कि यदि यह अचानक ही घटता है तो कुछ करने की आवश्यकता नहीं है, यह अचानक घट ही जाएगा और मैं इसमें कर ही क्या सकता हूं? मैं तो बस उस क्षण की प्रतीक्षा कर सकता हूं। यह स्वयं के प्रति धोखा हो सकता है। इसी कारण, विशेषतः जापान में धर्म पूरी तरह विलुप्त हो गया। जापान में अचानक बुद्धत्व घटने की एक प्राचीन परंपरा है। झेन कहता है कि बुद्धत्व अचानक घटता है। इसी कारण से पूरा देश गैर
-धार्मिक बन गया। लोगों में यह विश्वास प्रचलित हो गया कि अकस्मात बुद्धत्व ही एक मात्र संभावना है। इसके अलावा कुछ भी नहीं किया जा सकता है और वह जब भी घटना होगा... तब ही घटेगा। यदि वह होना है तो होगा ही और यदि नहीं होना है तो नहीं होगा। हम इसके लिए कुछ भी नहीं कर सकते हैं, इसलिए कुछ किया ही क्यों जाए? कुछ करने की चिंता ही क्यों की जाए? पूरब में जापान सबसे अधिक भौतिकवादी देश है। पूरब में जापान, पश्चिम के एक भाग की भांति अस्तित्व में है। यह बड़ी अजीब बात है कि जापान की ध्यान और झाझेन जैसी अत्यंत सुंदर परंपराएं विलुप्त हो गईं? ऐसा क्यों हुआ? इस अचानक बुद्धत्व घटने की धारणा के कारण ऐसा हुआ । इसी धारणा के फलस्वरूप वह सुंदर परंपराएं विलुप्त हुईं। लोगों ने स्वयं को धोखा देना शुरू कर दिया। भारत में एक दूसरी चीज़ घटित हुई... और इसीलिए मैं बार-बार यह कहता रहता हूं कि मनुष्य का मन बहुत अधिक धोखेबाज और चालबाज है। तुम्हें निरंतर सजग बने रहना होगा अन्यथा तुम धोखा खाओगे। भारत में हमारे पास एक अन्य परंपरा है :क्रमिक बुद्धत्व की। भारत का योग-विज्ञान वही धीमी प्रक्रिया है। तुम्हें योग की इस प्रक्रिया के अंतर्गत कार्य करना पड़ता है, यहां तक कि अनेक जन्मों तक कठोर श्रम करना पड़ सकता है। अनुशासन की आवश्यकता होती है, अभ्यास की आवश्यकता होती है। जब तक तुम कठोर श्रम नहीं करते, तब तक तुम योग में कुशलता प्राप्त नहीं करोगे। इसलिए यह एक अत्यंत लंबी प्रक्रिया है, इतनी अधिक लंबी है कि भारत में माना जाता है कि इसके लिए एक जन्म पर्याप्त नहीं है और तुम्हें अनेक जन्मों की आवश्यकता होगी। अत्यंत सूक्ष्म और जटिल योग साधना के संबंध में यह बात गलत भी नहीं है। जहां तक समझ का संबंध है, यह सत्य है, लेकिन तब भारत ने माना
कि यदि यह प्रक्रिया इतनी अधिक लंबी है तो फिर जल्दी क्या है? इतनी शीघ्रता क्यों? तब संसार का भरपूर आनंद लो क्योंकि कोई जल्दबाजी नहीं है और पर्याप्त समय है। यह इतनी अधिक लंबी प्रक्रिया है कि तुरंत ही, आज ही इसका परिणाम मिल पाना संभव नहीं है। यदि परिणाम शीघ्रता से प्राप्त नहीं किया जा सकता है, तब क्रिया के प्रति रूचि ही समाप्त हो जाती है। कोई भी व्यक्ति इतनी गहन अभीप्सा नहींरखता है कि वह कई जन्मों तक प्रतीक्षा कर सके और इसलिए वह बुद्धत्व की बात ही भूल जाता है। अतः क्रमिक बुद्धत्व की धारणा ने भारत को नष्ट किया और अचानक बुद्धत्व की धारणा ने जापान को नष्ट कर दिया। मेरे लिए दोनों ही सत्य हैं, क्योंकि दोनों ही एक संपूर्ण प्रक्रिया के आधे-आधे भाग हैं। तुम्हें निरंतर सजग बने रहना होगा कि तुम स्वयं को धोखा न दे सको। यह विरोधाभासी दिखाई देगा, परंतु मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि यह ऐसा है जोअभी "इसी क्षण" घटित हो सकता है, लेकिन इसी क्षण" को आने में कई जन्म लग सकते हैं। इसलिए कठोर श्रम करो, प्रयास ऐसे करो जैसे यह ठीक इसी क्षण घटित होने जा रहा हो और धैर्य से प्रतीक्षा भी करो, क्योंकि इस संबंध में कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है। यह कोई नहीं बता सकता है कि वह कब घटित होगा? हो सकता है कि वह अनेक जन्मों तक घटित ही न हो। इसलिए धैर्य से प्रतीक्षा करो, ऐसी प्रतीक्षा जैसे कि संपूर्ण प्रक्रिया स्वयं में एक लंबा और धीमा विकास हो और जितना संभव हो सके उतना कठोर श्रम भी करते रहो, जैसे कि बुद्धत्व अभी इसी क्षण घटित हो सकता है। ओशो! काम-ऊर्जा के प्रयोग द्वारा हमारे विकास के संबंध में कुछ कहने की कृपा करें, क्योंकि पश्चिमी देशों की अनेक समस्याओं में से यह भी एक मुख्यचिंता का विषय है। सेक्स या काम, ऊर्जा है। इसलिए मैं इसे काम-ऊर्जा नहीं कहूंगा, क्योंकि कोई दूसरी ऊर्जा है ही नहीं। केवल सेक्स ही वह मूलभूत ऊर्जा है, जो तुम्हें प्राप्त हुई है। ऊर्जा का रूपांतरण किया जा सकता है, यह एक उच्चतम और श्रेष्ठतम ऊर्जा बन सकती है। यह जितनी अधिक ऊंचाई पर गतिशील होती है, उतनी ही कामवासना निम्नतर हो जाती है और अंत में जब यह अपने चरम शिखर पर पंहुचती है तोप्रेम और करुणा में रूपांतरित हो जाती है। यह इसकी सर्वोच्च खिलावट है, हम इसे दिव्य अथवा आलौकिक ऊर्जा भी कह सकते हैं, परंतु इसका आधार, इसका मूल और इसका गढ़ सेक्स ही है। इसलिए सेक्स प्रथम है, सेक्स इस ऊर्जा की सबसे निचली परत है और दिव्यता या भगवत्ता इसकी सबसे ऊंची परत है। इन दोनों परतों के बीच यह एक ही ऊर्जा गतिशील होती है, केवल ध्रुवों पर इसका गुण बदल जाता है। पहली बात जो समझनी होगी, वह यह है कि मैं ऊर्जा को विभाजित नहीं करता हूं। एक बार यदि विभाजन हो जाए तो द्वैत निर्मित हो जाता है, इस विभाजन से तनाव और संघर्ष उत्पन्न होता है। यदि तुम इस ऊर्जा को विभाजित करते हो, तो तुम भी विभाजित हो जाते हो, ऐसे में या तो तुम सेक्स के पक्ष में हो जाओगे या सेक्स के विरोध
में हो जाओगे। मैं न तो पक्ष में हूं और न ही विपक्ष में हूं, क्योंकि मैं उसे विभाजित नहीं करता हूं। मैं कहता हूं कि सेक्स एक ऊर्जा है, सेक्स या काम केवल इस ऊर्जा का एक नाम है। तुम उस ऊर्जा को कोई भी नाम दे सकते हो, तुम इसे "एक्स" या "वाई" या "ए" या "बी" कुछ भी कह सकते हो। जब तुम इस ऊर्जा का उपयोग जैव-वैज्ञानिक ढंग से, एक प्रजनन-शक्ति के रूप में करते हो, तब इस "एक्स" ऊर्जा का, इस अज्ञात ऊर्जा का नाम सेक्स या कामुकता है। यही "एक्स" ऊर्जा जब वह जैव-वैज्ञानिक बंधन से मुक्त होती है तब यह दिव्यता में रूपांतरित हो जाती है। एक बार यदि यह ऊर्जा शारीरिक बंध से, वासना से और उन्माद से मुक्त हो जाए तो यही ऊर्जा जीसस का प्रेम है और बुद्ध की करुणा है। आज ईसाईयत के कारण पूरा पश्चिम एक तरह के सनकीपन से पीड़ित है, मनोग्रसित है। दो हजार वर्षों से ईसाईयत द्वारा दमित की गई काम-ऊर्जा ने पश्चिमी मन को सेक्स के प्रति विक्षिप्त बना दिया है। पहली बातदो हजार वर्षों से यह प्रयास किया जा रहा था कि इस ऊर्जा को कैसे नष्ट किया जाए? तुम इसे नष्ट नहीं कर सकते। कोई भी ऊर्जा नष्ट नहीं की जा सकती, वह केवल रूपांतरित की जा सकती है। ऊर्जा को आमूल रूप से नष्ट करने का कोई उपाय ही नहीं है, इस संसार में किसी भी चीज़ को नष्ट नहीं किया जा सकता है, उसे केवल बदला जा सकता है, रूपांतरित किया जा सकता है और एक नई सत्ता में या एक नूतन आयाम में परिवर्तित किया जा सकता है। ऊर्जा का पूर्ण विनाश असंभव है। तुम एक नई ऊर्जा को निर्मित नहीं कर सकते हो, और न ही तुम किसी पुरानी ऊर्जा को नष्ट कर सकते हो । सृजन और विनाश दोनों ही तुम्हारे हाथ में नहीं है, यह तुम्हारी प्रत्येक संभव सीमा के बाहर की बात है। इसलिए निर्माण और विनाश असंभव है। अब व
ैज्ञानिक भी इस बात से सहमत हैं कि एक छोटे से छोटा अणु भी नष्ट नहीं किया जा सकता है। ईसाईयत दो हजार वर्षों से सेक्स ऊर्जा को नष्ट करने का प्रयास कर रही है। वह धर्म-पूर्ण ढंग से सेक्स के बिना अपना अस्तित्व बनाए रखना चाहती है। इससे एक पागलपन उत्पन्न हो गया। तुम इस सेक्स ऊर्जा से जितना अधिक लड़ते हो, तुम उतना ही अधिक इसका दमन करते हो और इसी दमन के कारण तुम और अधिक कामुक बन जाते हो। तब सेक्स तुम्हारे अवचेतन में गहरे तक प्रवेश कर जाता है और वह तुम्हारे पूरे अस्तित्व को विषैला बना देता है। इसलिए यदि तुम ईसाई संतों के जीवन चरित्र को पढ़ो तो तुम पाओगे कि वे सेक्स के प्रति मनोग्रसित हैं। वे प्रार्थना नहीं कर सकते हैं, वे ध्यान नहीं कर सकते हैं। वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें सेक्स प्रवेश कर जाता है। तब वे सोचते हैं कि कोईशैतान उनके साथ छल-कपट कर रहा है, शैतान उनसे धूर्तता कर रहा है। कोईशैतान नहीं है, कोई छल-कपट नहीं कर रहा है। यदि तुम सेक्स ऊर्जा का दमन कर रहे हो तो तुम ही वह शैतान हो । निरंतर दो हजार वर्षों तक सेक्स का दमन करने के बाद, पश्चिम इससे दुखी हो गया, थककर चूर हो गया। सेक्स की अति हो गई। तब अचानक सबकुछ पलट गया। अब दमन के स्थान पर सेक्स के प्रति आसक्ति पैदा हो गई और इसके भोग का एक नया उन्माद उत्पन्न हुआ। मन एक छोर से दूसरे छोर पर, एक अति से दूसरी अति पर गतिशील हो गया। परंतु बीमारी ज्यों की त्यों बनी रही। एक बार वह दमन के रूप में थी, अब उसी बीमारी ने अतिशय भोग का रूप ले लिया। यह दोनों ही रुग्ण दृष्टिकोण हैं। न तो सेक्स का दमन करना है और न ही विक्षिप्त की तरह उसका भोग करना है, बल्कि सेक्स का तो रूपांतरण करना है। सेक्स को कामुकता से दिव्यता की ओर रूपांतरित करने का एकमात्र संभव उपाय यह है कि काम-क्रीड़ा में गहन ध्यानमयी सजगता के साथ उतरा जाए। यह ठीक वैसे ही है, जैसा मैं क्रोध के बारे में कह रहा था । सेक्स में उतरो परंतु एक जागरूक, होशपूर्ण और सचेतन ढंग से इसका उपभोग करो। इसे एक अचेतन शक्ति के रूप में हावी होने की आज्ञा मत दो। इसके प्रभाव में मत आओ, इसके द्वारा संचालित मत होवो। समग्र जागरूकता के साथ, जानतेसमझते हुए, प्रेमपूर्ण ढंग से इसमें सहभागी बनो। अपने सेक्स के अनुभव को ध्यान का एक गहन अनुभव बनाओ। इसमें ध्यानपूर्ण बने रहो। ध्यानपूर्ण ढंग से और सजगता से सेक्स में उतरने की प्रक्रिया को ही पूरब ने तंत्रयोग कहा है। यदि एक बार सेक्स के अनुभव में तुम ध्यानपूर्ण हो सको तो तुम पाओगे कि उसकी गुणवत्ता ही बदल गई है। वह ऊर्जा जो काम वासना के अनुभव में गतिशील हो रही थी, अब वही ऊर्जा चेतना की ओर गतिशील होना प्रारंभ कर देती है। तुम कामोन्माद के सर्वोच्च शिखर पर पूर्ण जागरूक और पूर्ण सजग रह सकते हो, जो किसी अन्य प्रकार से कभी भी संभव नहीं है, क्योंकि कोई दूसरा अनुभव इतना अधिक गहन, इतना अधिक तल्लीन करने वाला और इतना अधिक समग्र नहीं होता। संभोग के सर्वोच्च शिखर पर तुम पूर्ण रूप
से ऊर्जा द्वारा अवशोषित कर लिए जाते हो, तुम्हारी समस्त जड़ें उस ऊर्जा को पी लेती हैं, तुम्हारा पूरा अस्तित्व इस ऊर्जा से आविष्ट हो जाता है और उस ऊर्जा में तरंगायित होने लगता है। तुम्हारा शरीर और मन दोनों ही तल्लीन हो जाते हैं। इस क्षण में विचार की प्रक्रिया पूर्णतः रुक जाती है। जब तुम संभोग के आनंद-शिखर पर पहुंचते हो तो चाहे एक क्षण के लिए ही सही, तुम्हारी पूरी विचार प्रक्रिया रूक जाती है, क्योंकि इस क्षण में तुम समग्र होते हो, इसलिए तुम विचार कर ही नहीं सकते। संभोग के सर्वोच्च शिखर तुम विशुद्ध चेतन सत्ता के रूप में होते हो। वहां तुम चेतनता के रूप में, ऊर्जा के रूप में होते हो और तुम्हारा अस्तित्व विचार रहित होता है। इस क्षण में यदि तुम सजग और सचेत हो सको, तो यही सेक्स एक द्वार बन सकता है, दिव्यता के जगत में प्रवेश करने के लिए। यदि इस क्षण में तुम सजग बने रह सकते हो तो अन्य क्षणों में भी और जीवन के अन्य अनुभवों में भी वह सजगता आ सकती है। यह सजगता तुम्हारा एक मुख्य अंग बन सकती है। तब भोजन करते हुए, टहलते हुए और कोई भी कार्य करते हुए, तुम सजग बने रह सकते हो। सेक्स के माध्यम से सजगता ने तुम्हारे अंतरतम और गहनतम केंद्र को अथवा आत्मा को स्पर्श किया है। सजगता ने तुम्हारी समस्त परतों को भेदकर, अंदर गहराई तक प्रवेश किया है। अब तुम सजगता ही हो। यदि तुम ध्यानपूर्ण हो जाते हो तो तुम एक नवीन तथ्य को अनुभव करोगेकि सेक्स तुम्हें परम आनंद नहीं देता है, सेक्स तुम्हें परम उन्माद नहीं देता है, वस्तुतः मन की निर्विचार स्थिति और काम-कृत्य में तुम्हारा समग्र रूप से तल्लीन हो जाना ही तुम्हें परमानंद का पूर्ण अनुभव देता है। एक बार यदि तुम इस रहस्य को समझ जाते हो तब सेक्स की आवश्यकता निम्नतम हो जात
ी है, क्योंकि मन की वह निर्विचार स्थिति सेक्स के बिना भी निर्मित की जा सकती है। और ध्यान करने का ठीक यही अर्थ होता है कि निर्विचार स्थिति को उपलब्ध हुआ जा सके। अस्तित्व के साथ समग्र रूपेण एक होने की स्थिति, बिना सेक्स के भी सृजित की जा सकती है। एक बार तुम जान जाते हो कि यह अनुभव सेक्स के बिना भी हो सकता है, तब सेक्स की आवश्यकता कम हो जाएगी। एक क्षण ऐसा आएगा जब सेक्स की आवश्यकता बिल्कुल भी महसूस नहीं होगी। स्मरण रहे, सेक्स हमेशा दूसरे पर आश्रित है, इसलिए सेक्स में एक बंधन और एक गुलामी बनी रहती है। तुम किसी अन्य व्यक्ति पर आश्रित हुए बिना, यदि एक बार भी संभोग के सर्वोच्च शिखर-आनंद को या समग्रता की उस स्थिति को निर्मित कर पाते हो, तो वह ऊर्जा तुम्हारे लिए अंतरस्रोत बन गई। अब तुम स्वतंत्र हो और मुक्त हो। इसी स्वतंत्रता को, इसी मुक्ति को, भीतरी ऊर्जा और ब्रह्माण्डीय उर्जा के इस निराश्रित संयोग को ही भारत में ब्रह्मचर्य कहा गया है। ब्रह्मचर्य अर्थात पूर्ण रूप से कुंवारा... ऐसा व्यक्ति जो मुक्त रह सकता है क्योंकि अब वह किसी अन्य व्यक्ति पर आश्रित नहीं है, उसका परमानंद केवल उसी के भीतर से उपजता है। ध्यान के द्वारा सेक्स विलुप्त हो जाता है, लेकिन यह ऊर्जा का विनाश नहीं है। ऊर्जा कभी भी नष्ट नहीं होती है, केवल ऊर्जा का रूप बदल जाता है। ध्यान के द्वारा, अब वह ऊर्जा काम-वासना नहीं है और जब उसका रूप कामुक नहीं है, वासनामय नहीं है, तब तुम एकदम प्रेमपूर्ण हो जाते हो। वास्तव में, जो व्यक्ति कामुक होता है, वह प्रेमल नहीं हो सकता। उसका प्रेम केवल एक दिखावा हो सकता है, उसका प्रेम केवल एक छल-कपट हो सकता है। उसका प्रेम केवल और केवल सेक्स की ओर जाने का एक साधन है। कामातुर व्यक्तिप्रेम का उपयोग सेक्स के लिए एक तकनीक की भांति करता है। उसके लिए प्रेम एक मार्ग है, सेक्स तक जाने का। एक कामातुर व्यक्ति सचमुच प्रेम कर ही नहीं सकता है। वह केवल दूसरे का शोषण कर सकता है। उसके लिए प्रेम केवल दूसरे तक पंहुचने का और दूसरे को पाने का या दूसरे पर कब्ज़ा करने का एक साधन मात्र है। एक व्यक्ति जो वासना से मुक्त हो गया है और उसकी काम ऊर्जा उसके ही भीतर, उसकी चेतना की ओर गतिशील हो रही है, तो वह स्वतः ही परम आनंद बन जाता है। उसका परमानंद कुंवारा है, निराश्रित है, वह स्वयं से ही जन्मा है। ऐसा व्यक्ति ही वास्तव में प्रेमल होगा। उसका प्रेम निरंतर बरसेगा, उसका प्रेम निरंतर बंटेगा और निरंतर उसका प्रेम दूसरों में वितरित होता रहेगा। लेकिन इस स्थिति कोप्राप्त करने के लिए तुम्हें सेक्स-विरोधी बनने की आवश्यकता नहीं है। इस स्थिति कोप्राप्त करने के लिए तुम्हें सेक्स को जीवन के एक अभिन्न अंग की भांति स्वीकार करना होगा। सेक्स को एक स्वाभाविक और प्राकृतिक जीवन शैली की भांति स्वीकार करना होगा। सेक्स में अत्यंत सहजता और सचेतनता से गतिशील होना होगा। चेतन तत्व एक पुल की तरह है, एक स्वर्ण-सेतु की तरह है जो इस लौकिक संस
ार और उस आलौकिक संसार; स्वर्ग एवं नरक तथा अहंकार एवं दिव्यता के जगत को आपस में जोड़ता है।
तुम्हें क्या मिला? पुरानी भाषा की एक भविष्यवाणी। लैनफियर। फिर हमारी दुनिया में आ गई। लैन पर भरोसा कर सकते हैं? महारत के लिए मशहूर थी। स्वप्न लोक। आख़िरकार। मैं फ़िदाबक्ष से प्यार करने का नाटक करूँ? कि वह क्या चाहता है। मैट को चोट नहीं आने दूँगी। तुम्हारे श्राप से मुक्ति दिलाऊँ? उसे सियारहीन लेकर आओ। जिसे तुमने अगवा किया। काल संघ सच में है। कुछ करो! नहीं कर सकती। इग्वीन कहाँ है? पश्चिमी तट पर हमला हुआ है। मीनार ने बहनों को जाँच के लिए भेजा है। जाँच करने पश्चिम जाना पड़ेगा। तुम कौन हो? रायमा, पीतांबर संघ से। क्या हश्र करते हैं? इसे बाँधो। इसे काबू करना होगा। तुमने कैसे चोट नहीं पहुँचा सकती। उसकी जोगन को दोगुना महसूस होता है। मौत तक। पहली सीख। दूसरी सीख। जंजीर को हटा नहीं सकते। तुम तो कतई नहीं। मैं रेना हूँ। तुम्हारा नाम? कई योगनारी इससे सहमत नहीं होतीं दोस्ती बनाने में यकीन रखती हूँ। तुम्हारा नाम क्या है? तो बेहतर होगा कि मुझे बता दो। इग्वीन। इग्वीन। न रखने देने की कोई वजह नहीं दिखती। यह क्या जगह है? तुम्हारा घर। आराम करो, इग्वीन। जल्द तुम्हारा प्रशिक्षण शुरू होगा। तो? क्या तुम चिल्लाकर अपनी जान की भीख माँगोगे? रिझाने की कोशिश करोगे? तो क्या चाल है? क्या चाहती हो, लैनफियर? अब सेलिन नहीं बुलाओगे? लुईस थेरिन। यकीन नहीं होता तुम पर भरोसा किया। मुझ पर भरोसा क्यों नहीं कर सकते? तुम्हारी हिफ़ाज़त करती आई। इश्माएल को तुम्हारे सपनों से दूर रखा। मुझे विश्वास नहीं होता। तुमने पिछले जन्म में भी यही किया था। तारीफ़ की बात है? मेरे बारे में कुछ नहीं जानती। तुम्हारे दोस्त कहाँ हैं, रैंड? पेरिन, मैट, न्यानेव इग्वीन? उन सबको बताया कि तुम मर गए। क्या इससे उनकी हिफ़ाज़त होगी? और आसान हो जाएगा। ताकि तुम्हें काबू कर सके। वे पक्ष नहीं बदलेंगे। मुझे भी एक समय पर यही लगा था। और तुम्हें किस पर भरोसा है? मोइराने पर? बस तुम्हें छला है और लगाम कसी है? ऐसी एक जगह जहाँ पर आज भी उसकी साख है? यह इत्तेफ़ाक है कि लोगैन वहाँ है? अपने इशारों पर नचा रही थी। पता है क्या? तो उसे कमाना पड़ेगा। मुझे बताओ कि इश्माएल कहाँ है। बताओ कि उसका क्या इरादा है। अरे वाह, ज़रा देखो। अभी तुम्हारे अंदर थोड़ा सा लुईस बचा है। तो मेरी एक शर्त है। उसने क्या कहा? मुझे जाना है। कहाँ? उसने बताया कि कहाँ? नहीं। तुमसे दूर। उसकी यही शर्त थी। तुम्हें मार डालेगी। लोगैन। तुम उसे सियारहीन लाई, है न? ताकि मैं यहाँ आऊँ। हाँ, बेशक। जहाँ वह तुम्हें कभी न सिखा पाता। पहले ही बहुत देर तक रुक गया। वह एक फ़िदाबक्ष है, रैंड। उसकी बात मत सुनो। सियारहीन। अब समझा कि तुम यहाँ क्यों आना चाहती थी। मैट। रुको, मैट। मेरे ख़्याल से यह एक भूल है। हमें जाना चाहिए। किसी और मधुबाला का जादू चल जाएगा। वह तुम्हारे जितनी दिलचस्प नहीं होगी। उससे फ़र्क नहीं पड़ता। चलो। कहाँ जा रहे हो? चलो, मिन। चलो भी! तुम चलना बंद करोगी? वे हमें सुन लेंगे। मैं चल नहीं र
ही। छानबीन कर रही हूँ। हमें किसी अनजान ने अटारी में बंद किया है। रायमा सेडाई, जो रक्षा कर रही हैं। हमें आइ सेडाई पर भरोसा करना चाहिए? हम इस स्थिति में मेरी वजह से नहीं फँसे। बात तक नहीं की थी। तुम ही थी जिसने कि आइ सेडाई और उसका रक्षक नहीं तुम दोनों की बहस सुन सकता हूँ। कोई बात नहीं, बसन। वे अभी के लिए जा चुके हैं। इसे भाषण देने की आदत है। एल्डरबेरी और अस्ट्रैगैलस। मेरा पसंदीदा शक्तिवर्धक पेय था। वह कमरबंद। तुम एक विदुषी हो। हाँ। तो जानती हो कि यह पेय मन शांत करता है। श्वेत मीनार से क्यों भागीं? मुझ पर भरोसा कर सकती हो। इसका आश्वासन देता है। यह बात लियांड्रिन से कहो। लियांड्रिन सेडाई? वह इसका हिस्सा कैसे है? वह निशाचर की दास है। और उसी ने हमें सैंचन के हवाले किया। उसने तीन वचन तोड़े? हर एक वचन। पर इसका मतलब है काल संघ। यह सच नहीं हो सकता। अगर तुम्हारी बात सच हुई तो हमारी सारी बहनें गंभीर ख़तरे में हैं। माफ़ करना कि इतनी देर छोड़कर गई। पहला वाला जाने दूँगी। तुम्हारे बेटे को खिला दूँगी। तुमने कैसे मैं तुम्हारे सपनों में गई। ज़्यादातर अपने मनोरंजन के लिए। तुम्हारे काफ़ी दिलचस्प शौक हैं। इश्माएल ने बताया आप आज़ाद हैं, पर क्यों काम करती हो? मर्दों से नफ़रत करती हो। हालाँकि, एक मर्द को छोड़कर। रहम करो। इसका नाम क्या है? एलुड्रैन। मर्द हमें चोट पहुँचाते हैं हमें धोखा देते हैं और फिर भी हम उन्हें चाहते हैं। पर यह कोई ज़िंदगी नहीं है। मुझे पता है। यह तुम्हें पीछे रख रहा है। जो तुम हुआ करती थी। ब्याह करने का ज़ोर डाला गया। मुझे पता है। जो तुम नहीं कर पाओगी। दूसरी औरत को दे सकती है। नहीं। नहीं। वचन लिया था, इश्माएल का नहीं। उन्हें वापस नहीं ले सकती। यह नामुमकिन है। कई रास्ते होते हैं। त
ो मेरे पास तुरक से ज़्यादा होगी, है न? तुम लोग मेरे अमानुष ख़ादिम से मिले? हमारे लिए गाना गाओ, माली। इन्हें दिखाओ। तरुगायन ऐसे नहीं गाओ! हमारे लिए। मुझे इसे तोहफ़े में तुरक को देना चाहिए। कल्पना कर सकते हो? चलो फ़ैसला करें। मैं उसे यह तोहफ़े में कैसे दूँ? क्या पता चला? कमरा है। बिगुल वहाँ है। वहाँ बहुत कम पहरा है। कि उन्हें उसके चोरी होने का डर तक नहीं है। पर इग्वीन अल'वेर का क्या? बाहरी इलाके में एक जगह है जहाँ जोगनों को रखा जाता है। वहाँ बिगुल से ज़्यादा पहरेदार तैनात हैं। बिगुल ज़्यादा मायने रखता है, सर्जक। हमें हम उस तक पहुँचने का रास्ता ढूँढ लेंगे। लोयाल वह जगह केनेल्स कहलाती है। अंदर से उतनी ही सख्त है। तो वह। इग्वीन। जिसे वह हथियार समझती है। तब तक नहीं जब तक वह जंजीर पहने रहेगी। चाहे ज़िंदगी कितनी भी लंबी हो। कि तुम बस एक जोगन हो। लड़ नहीं सकती, इग्वीन। अब मुझे प्याले में पानी दो। हम अभ्यास जारी रखेंगे। यह कि मुझे कभी चोट नहीं पहुँचाओगी। तब ही तुम उसे छू पाओगी। तुम मज़बूत हो और हिम्मत वाली हो। जंजीर में तुम्हारी ताक़त महसूस हो रही है। सबसे मुश्किल होता है। मैं कल वापस आऊँगी। अच्छे से आराम कर लो, इग्वीन। तुम्हारे सपनों से भी बेतहाशा अमीर। और पियक्कड़ों के बीच सो रही हो? हुक्म के मुताबिक मैट को यहाँ ले आई। अपना वादा निभा दिया। कि चुटकियों में तुम्हारा श्राप मिटा दूँ? इसी को सौदा कहते हैं। ड्रैगन यहाँ सियारहीन में है। रैंड अल'थॉर। उससे मिल चुकी हो। तो पक्का करो कि मैट उसके साथ यहाँ से जाए। तुम जानते हो मैंने क्या देखा। मैट और रैंड की वह झलकी। तुमने कैसे देखा श्राप से मुक्त कर दूँगा। और अगर मैंने न किया तो? यह भी रुकने के लिए ठीक ही जगह है। चाय की तलब लगी है। यह फ़िदाबक्षों का मंदिर है। दिलचस्प जगह चुनी। आश्रय आश्रय होता है। एमिर्लिन की इजाज़त चाहिए होगी। जब तक वह मीनार अभिलेखों से हटा न दिया जाए। वापस नहीं लौटेंगी। वह केमलिन के दौरे से लौट रही हैं। फ़िदाबक्ष। जो आइ सेडाई ने खो दीं? ऐसे कवच जो यह युग भूल गया? वे निशाचर की सेना के सेनापति हुआ करते थे। जो हमारी आइ सेडाई कभी नहीं करेंगी। पर निर्भर करता है जिनका सामना कर रहे हैं। बस करो। यूँ चिढ़ाना बंद करो। छोड़कर जाना बेअदबी होती है। तो और भी बड़ी बेअदबी है। मैं लड़ना नहीं चाहता। ठुकराए जाना लगभग एक नया अनुभव है। यह पूछने के लिए मुझे माफ़ करना, पर तुम कहाँ जा रहे हो, भाई? वह मेरा ज़ाती मामला है। "लहू से लहू पैदा होता है। लहू लहू को पुकारता है। सवाल का जवाब दो, लैन। रहम करके। तुम्हें वाकई लगता है कुछ यकीन से नहीं कह सकते। क्योंकि तुमने हमें कुछ नहीं बताया है। जान जोखिम में डाल रहे हो, क्यों? तो तुम इस जगह से नहीं जाओगे। मैं निशाचर से लड़ा था। रास्ते से हटो। निष्कासित नहीं किया था। तुम जानते हो। तुम्हें उनका ठिकाना बताऊँ। क्यों? मुझे उन्हें ढूँढ़ना है। तुम्हें सिउआन सांचे से क्या चाहिए? यह मोइराने को लेकर ह
ै। अ'लैन मैनड्रैगोरैन। तो हम तुम्हें यहीं मार देंगे। हमें पुनर्जीवित ड्रैगन मिला। तुम उन सबको मार डालोगे। आगे जाकर तुम्हारा यही हश्र होगा। यह जानते हो, है न? और उन सबको मार देते हैं जिन्हें चाहते हैं। यह नहीं चाहता कि तुम यहाँ रहो, तो जाओ। कि उससे तुम्हारी रक्षा करूँगी। स्वप्न लोक में सावधान रहना, रैंड। यहाँ मर भी सकते हो। उसके असली रूप में। जिसे चाहो उसे देख सकते हो। ऐसे लगेगा मानो कि तुम दोनों जाग रहे हो। मैंने उस बारे में सोचा, और तुम सही थे। मैंने तुम्हें भरोसे की कोई वजह नहीं दी। तो अब शुरुआत करती हूँ। मैं तुम्हें एक सपने का तोहफ़ा देती हूँ। कोई ऐसा है जिससे मिलना चाहोगे? कोई भी? कोई भी। इग्वीन? इग्वीन? इग्वीन। रैंड? तुम्हें क्या हो गया? रैंड? रैंड क्या यह तुम हो? नहीं। उसे क्या हो गया? श्वेत मीनार में होना चाहिए था। मुझे पता है कि वह कहाँ है। मुझे बताओ। रहम करके बताओ, लैनफियर। मेरी परवाह की है, तो बस रहम करके बता दो कि वह कहाँ है। मुझे बताओ! इश्माएल के कब्ज़े में। मैंने कहा था वह उन्हें ढूँढ़ लेगा। मैं कुछ भी करूँगा। रैंड? ख़ुद को संभालो। मैं पागल हो रही हूँ। चलो भी। ख़ुद को संभालो। उसकी जोगन को दोगुना महसूस होता है। मैं तुम्हें सुन नहीं पा रही। कोई है? कोई है? उसकी जोगन को दोगुना महसूस होता है। हे दिव्यज्योति। पता है हम कहाँ हैं? जिसे वह हथियार समझती है। नहीं, हम जोगन नहीं हैं। ज़रा बता सकती हो कि हम कहाँ हैं? तुम्हारा नाम क्या है? मैं इग्वीन हूँ। उसकी जोगन को दोगुना महसूस होता है। जहाज़ के कप्तान से बात की है। वह तुम्हें मीनार ले जाएगा। जोखिम नहीं ले सकते। लियांड्रिन सेडाई के बारे में बताओ। आप बता देना। मैं इग्वीन के बिना नहीं जाऊँगी। बचाने की पूरी कोशिश करेंगे। मैं न
हीं जाऊँगी। और हम दोनों को कम आँका है। न्यानेव या मैं यहाँ से नहीं जाएँगे। उसे यहाँ रखो। तो हमें इसे खोलने का तरीका ढूँढ़ना होगा। मेरे साथ कुछ हुआ है तुम्हें बहुत पहले बता देना चाहिए था मैं तंग तो नहीं कर रहा? सोचा कि आपके लिए कुछ खाने को ले आऊँ। रैंड चला गया? उसके लिए भी बनाया। वह आज शाम बाहर रहेगा और मुझे भूख नहीं है। बस छोटा सा टुकड़ा है। देखिए। एक बेहद ख़ास गाय के मक्खन से बने हैं। ज़ाहिर है, यह सच नहीं था। तो यकीनन अब तक मर चुकी होगी। मैं बस दोनों तरफ़ मक्खन लगाता था। इसे यहीं रख दो। मैं तंग देने के लिए माफ़ी चाहूँगा। आपने सही कहा था। हमेशा की तरह। कोशिश करके देख ली। बहन, मैं सोई नहीं हूँ। कि हम उल्लू कैसे बन गए। मेरा बेटा तुम्हारी पूजा करता है। जैसा मैं करती थी। जैसे पिताजी चुप। उन्होंने तुम्हें याद किया था। पर वह बारबार तुम्हें ही याद करते रहे। और बस तुमसे मिलना चाहते थे। तुम्हें पता था। आख़िरी समय में उनका हाथ नहीं पकड़ पाई? पर उन्हें चाहती थी। हमेशा से उनसे प्यार करती थी। ऐसी क्या आफ़त आ गई थी, मोइराने? इस घर और इस शहर से चली जाओ। उतना ही मेरा है जितना कि तुम्हारा। मेरी कृपा से यहाँ हैं। अच्छा गुण नहीं है, मोइराने। एक भी नहीं। तुम पूरी तरह से माँ पर गई हो। प्यारी सिउआन। मेरे साथ कुछ हुआ है रुको! तुम कौन हो? गति धीमी करो। ठहरो! ठहरो! ठहरो! लैन। एकांत दो। माता। क्या हुआ? क्या बात है? मोइराने को लेकर है। जानता था तुम वापस आओगे। तुम्हें मुझे सिखाना होगा। जिनसे तुम आइ सेडाई से लड़े थे। बारबार अभ्यास किया। क्यों सोचते हो कि मैं यूँ ही बता दूँगा? क्योंकि तुम अपनी छाप छोड़ना चाहते हो। दुनिया को बचाओगे, या उसे बिखेरोगे। अपनी छाप छोड़ सकते हो। स्रोत को गले लगाओ। कम से कम इतना तो कर लेते होगे? उसे जकड़ लो। उसके आगे घुटने मत टेको, लड़के। इसी तरह। उसे अपना बनाओ। अब न दिखावा, न ही छिपनाछिपाना। अगर शक्ति चाहिए, तो उसे लो। हाँ। ज़्यादा ले ली तो संभाल नहीं पाओगे। हाँ। ज़्यादा होने से पहले छोड़ देना। रुक जाओ! रुको! इतना वक़्त नहीं है। किसके लिए? लड़ने के लिए इसका इस्तेमाल सीखने के लिए। इतनी शक्ति के साथ किसी से भी लड़ सकते हो। सब्र रखने के लिए बहुतबहुत शुक्रिया। सारा पैसा देना आसान बात रही होगी। हमें दोनों पासों में चार चाहिए, ठीक? मेज़ के बीचोबीच रख दीजिए। चलिए। पैसे डालिए, हाँ। प्लीज़। अच्छा, बहुत ख़ूब। क्या बात है। कोई और? शुक्रिया। पासे फेंक रहे हैं, हाँ? मैट? जल्दी! तुम सियारहीन में क्या कर रहे हो? और तुम्हारे बाल कहाँ गए? यार, बड़े भद्दे लग रहे हो। बाकी सब कहाँ हैं? क्या वे यहाँ हैं? पेरिन कहाँ है? इग्वीन? मैं मैट, बड़ी लंबी कहानी है। वह तो अच्छी चीज़ है। मेरे पास वक़्त ही वक़्त है। मेरी बाज़ी को बिगाड़ने के लिए। कभी ध्यान मत करना। आगे बढ़ो, पर बस थोड़ी देर। कोई ताला नहीं है। कोई जोड़ नहीं है। मैंने आज तक ऐसा कुछ नहीं देखा। यह एक तिलिस्मी द्वार है? कसौटी की त
रह। एक मिनट के लिए दो। तुमने नहीं बताया कि ये कहाँ से मिले। पहले, केवल अफ़वाहें थीं। गुलाम बनाने की फुसफुसाहट। इन दावों की पुष्टि करने के लिए भेजा। ख़तरे को कितना कम आँका था। हुकूमत में लाना चाहते हैं। दो मारी गईं, अपनेअपने रक्षकों के साथ। एक को क़ैद कर लिया गया। आइ सेडाई को क़ैद कर लिया? मामूली आइ सेडाई नहीं। नील संघ की दूत। तुम बालबाल बची थी। पर हमारी वफ़ादारी पर कोई शक़ नहीं था। एकदूसरे और हमारे मकसद की ओर। अपनी जान से इसकी कीमत चुकाई। तुम उसे उतार नहीं सकती। बिना असहनीय दर्द सहे उसे छू भी नहीं सकती। तुम यह जानती हो। जानना चाहोगी कि जंजीर किसने बनाई? किसी राक्षस ने। वह तुम्हारी श्वेत मीनार की बहन थी। आइ सेडाई के गुलाम नहीं होते। तुम एक शिष्या के तौर पर क्या करती थी? वे तुम्हारी शक्ति पर लगाम लगाना चाहती हैं। करतब करके सबका मनोरंजन करो। जिसके लिए तुम पैदा हुई। कोई औरत शक्तिशाली नहीं हो सकती। अरे, इग्वीन तुम कोई आम औरत नहीं हो। तुम एक जोगन हो, एक बहुत ताक़तवर जोगन। बताया गया होगा कि तुम कितनी ख़ास हो। मेरे साथ चलो। देखा? तो बेहतर महसूस होता है, है न? पेड़ को देखो, इग्वीन। पता है तुम्हें सुकून मिलता है। उसकी ओर हाथ बढ़ाओ। उसकी जड़ें खोजो। तुमने वे ढूँढ़ लीं। शाबाश। उसके तने में जाओ। उसके रस को बहते हुए महसूस करो। उसे अपने मन में और गर्म होने दो। इतना गर्म कर दो कि भाप निकलने लगे। अब उस भाप को आग में बदल दो। ऐसा ही महसूस होना चाहिए। हम ऐसी शक्ति के लिए बने हैं, इग्वीन। महसूस हो रहा है? हमारा नाता? यह लो। अपने लिए पानी डालो। तुम इसकी हक़दार हो। पानी डालो, इग्वीन। तो तुम चली जाना। लियांड्रिन के बारे में बताना होगा। और हम तीनों उन्हें बताएँगे। तुम्हारी कुछ जिम्मेदारियाँ हैं। तुम
ऐनडोर की राजपुत्री हो। तो मैं राजपुत्री बन गई? सब कुछ जोखिम में क्यों डाल रही हो? वह मेरी सहेली है। और आज तक मेरी कोई सहेली नहीं थी। कि बाकी कहाँ हैं, या नहीं? कि मैंने निशाचर को हरा दिया तो मुझे बहुत अजीब लगता है मैं चला गया। उन्हें पीछे छोड़ गया। इग्वीन, पेरिन, न्यानेव, उन सबको। मैट, उन्हें लगता है मैं मर गया। मैंने सोचा इससे वह सलामत रहेंगे। मैंने सोचा पता नहीं, मुझे लगा सब मेरे बिना ही बेहतर रहेंगे। ज़्यादा सुरक्षित भी। नहीं। हम तुम्हारे बिना बेहतर नहीं हैं, रैंड। कसम से। हम तुम्हारे बिना भी अधूरे हैं, मैट। पर अब वह उसके कब्ज़े में है। इश्माएल के। इग्वीन फ़ाल्मे में क़ैद है। मुझे पता है कि वे चाहते हैं मैं वहाँ जाऊँ। पर अगर मैं नहीं गया तो उसके साथ क्या होगा? तो, हम चलते हैं। मुझे उससे पहले बस एक काम करना होगा। दरअसल, एक लड़की का दिल तोड़ना होगा। मैं एक घंटे में तुमसे फाटक पर मिलता हूँ। मैट मेरे साथ जाने की ज़रूरत नहीं है। सच में। हाँ, ज़रूरत है। और कौन तुम्हें घमंडी बनने से रोकेगा? पुनर्जीवित ड्रैगन। एक घंटे में। मैं पहुँच जाऊँगा। मिनी मिन मिन? मिन? तुम्हारे साथ कोई है? क्या मुझे जलना चाहिए? मिल? अंदर आ जाओ। तुम्हें किसने शराब के बदले पानी दे दिया? मैं केवल बढ़िया शराब ही पीती हूँ। और मैं तुम्हें इसी तरह याद रखूँगा। तुम्हें शराब अच्छी चाहिए। पता है मैं किससे टकराया? मेरे दोस्त से। जिसने बारे में तुम्हें बताया था। वह यहाँ है। तुम नहीं जा सकते। बताया भी नहीं कि मैं जा रहा हूँ। मैंने देखा। नहीं। मैं कह चुका हूँ, मुझे नहीं तुम रैंड को मार डालोगे। क्या? नहीं। नहीं। हाँ, उस खंजर से। सुनहरे मूठ पर माणिक वाली? नहीं। फ़ाल्मे। वह तुम्हें वहीं ले जा रहा है? नहीं। तुम रैंड को कैसे जानती हो? तुमने मुझे फँसाया। नहीं। हाँ? इसीलिए हम यहाँ आए। नहीं। उसकी वजह से? वह मेरा वह इरादा नहीं था, मुझे पता न था कब से? जबसे हम बाहर निकले? नहीं। हमारे मिलने से पहले से। मुझे माफ़ कर दो। मुझे मुझे सच में लगा कि तुम मेरी दोस्त हो। मैं हूँ भी। मैं हूँ। तभी यह बता रही हूँ। नहीं जानते इसकी क्या कीमत चुकानी होगी। तुम उसे मार डालोगे, मैट। अगर उसे चाहते हो, तो दूर रहो। नील संघ की अनाया सेडाई तक पहुँचाना है। वह उसे इसकी मंज़िल तक ले जाएँगी। जैसा आप कहें, हुकुम। मोइराने मौसी। बर्थेनेस, मुझे माफ़ करना। और उससे भी बदतर मौसी थी। मुझे याद है। तुम्हारे सैंडविच पहले और अब भी बेहद स्वादिष्ट हैं। तुम एक लाजवाब राजा बनोगे, बर्थेनेस। दरियादिल और दयालु। हमारे राजघराने का गौरव बनोगे। एमिर्लिन सीट यहाँ आई हैं और उन्होंने तुमसे मिलने का आदेश दिया है। नए राजा को बिठाया था। यह सभा तुम्हें थोड़ी तुच्छ लगे, बेटी। हमें इंतज़ार करना होगा। तो अकेले ही जाता हूँ। लैन! मुझे माफ़ कर दो। तुम नहीं जा सकते। न्यानेव, तुम मदद कर सकती हो? ज़्यादा ध्यान किया, वे जान जाएँगी। मैं उसे यूँ काबू में नहीं कर सकती। उस बारे में ज
़्यादा मत सोचो। जैसे जब तुम्हारे पास कोई मरीज़ आता है। सोचती नहीं, मदद कर देती हो। मैं इतना नहीं करना चाहती थी, माफ़ करना। कोई बात नहीं। क्या महसूस कर रही हो? इसे उपचार चाहिए। इसका उपचार हो सकता है। यह उसी तरह पूरा होगा। इसे तोड़ा नहीं जा सकता। कि उनकी जोगनों ने हमें ढूँढ़ किया। माफ़ करना, मैं ऐसा नहीं जो मैं कहूँ, वही करना। अपनी पहचान का खुलासा मत करना। ढूँढ़ने आए हैं, वह मैं हूँ। रायमा सेडाई, नहीं। हमारी बहनों को आज़ाद करना। वादा करोगी, विदुषी? मशाल के पास मेरी मुद्रिका ले जाओगी? तुम ऐसा नहीं कर सकती। तुम पर भरोसा कर सकती हूँ? बहन? हाँ। पानी डालो, इग्वीन। तुम्हें प्यास नहीं लगी? पानी डालो, इग्वीन। पानी डालो। पानी डालो। हमें मदद करनी चाहिए। ऐसे इग्वीन को नहीं बचा पाएँगे। तुम्हारे लिए कुछ नहीं है, इग्वीन। न ही इस दरवाज़े और इन पत्थरों के बाहर। प्याले के अलावा कुछ नहीं। तीरंदाज़ो, तीर खींचो! करो। मैं नहीं कर सकता। उन्हें मुझे ले जाने मत देना। मुझे मारो! बसन! मेरा प्याला। तुम्हारी दुनिया इसी तक सीमित है। बस यहीं तक। नहीं। पानी डालो। तुम्हारी दुनिया इसी तक सीमित है, इग्वीन। मेरा प्याला। पानी डालो, इग्वीन। यह कभी हथियार नहीं बन पाएगा। तुम मुझे कभी चोट नहीं पहुँचा सकती। तुम मुझे कभी छोड़कर नहीं जा सकती। डालो। अच्छी बच्ची। रोओ मत। तुम मुझसे ज़्यादा समय तक अड़ी रही, बेटी। और मैं तो नील संघ की दूत थी। तुम्हें क्या मिला? पुरानी भाषा की एक भविष्यवाणी। लैनफियर। फिर हमारी दुनिया में आ गई। लैन पर भरोसा कर सकते हैं? लैनफियर कल्पनामंडल पर महारत के लिए मशहूर थी। स्वप्न लोक। आख़िरकार। मैं फ़िदाबक्ष से प्यार करने का नाटक करूँ? यह जानने का इकलौता मौका है कि वह क्या चाहता है। मैट को चोट नहीं आने
दूँगी। तुम्हारे श्राप से मुक्ति दिलाऊँ? उसे सियारहीन लेकर आओ। तुम्हारा बेटा मर रहा है, अपनी बहनों को दगा दिया, और उस औरत को सफ़ाई दे रही हो जिसे तुमने अगवा किया। काल संघ सच में है। कुछ करो! नहीं कर सकती। इग्वीन कहाँ है? पश्चिमी तट पर हमला हुआ है। मीनार ने बहनों को जाँच के लिए भेजा है। जहाज़ों के लापता होने की जाँच करने पश्चिम जाना पड़ेगा। तुम कौन हो? रायमा, पीतांबर संघ से। अंदाज़ा भी है कि सैंचन ध्यान लगाने वाली का क्या हश्र करते हैं? इसे बाँधो। इसे काबू करना होगा। तुमने कैसे... चोट नहीं पहुँचा सकती। योगनारी को पहुँचने वाला दर्द उसकी जोगन को दोगुना महसूस होता है। मौत तक। पहली सीख। दूसरी सीख। जंजीर को हटा नहीं सकते। तुम तो कतई नहीं। मैं रेना हूँ। तुम्हारा नाम? पता है, कई योगनारी इससे सहमत नहीं होतीं... पर मैं योगनारी और जोगन के बीच दोस्ती बनाने में यकीन रखती हूँ। तुम्हारा नाम क्या है? जब तक बताती नहीं तब तक तुम्हें दर्द दूँगी, तो बेहतर होगा कि मुझे बता दो। इग्वीन। इग्वीन। ठीकठाक नाम है। मुझे तुम्हें इस नाम को न रखने देने की कोई वजह नहीं दिखती। यह क्या जगह है? तुम्हारा घर। आराम करो, इग्वीन। जल्द तुम्हारा प्रशिक्षण शुरू होगा। द व्हील ऑफ़ टाइम तो? क्या तुम चिल्लाकर अपनी जान की भीख माँगोगे? रिझाने की कोशिश करोगे? तुम जानते थे यह पल आने वाला है, तो क्या चाल है? क्या चाहती हो, लैनफियर? अब सेलिन नहीं बुलाओगे? तुम्हें तो सबसे ज़्यादा चुने गए नाम की अहमियत पता होनी चाहिए, लुईस थेरिन। यकीन नहीं होता तुम पर भरोसा किया। मुझ पर भरोसा क्यों नहीं कर सकते? मैं पिछले कुछ महीनों से तुम्हारी हिफ़ाज़त करती आई। इश्माएल को तुम्हारे सपनों से दूर रखा। मुझे विश्वास नहीं होता। तुमने पिछले जन्म में भी यही किया था। सोचते हो लोगों को दूर रखना तारीफ़ की बात है? "प्रियजनों की रक्षा करना?" मेरे बारे में कुछ नहीं जानती। तुम्हारे दोस्त कहाँ हैं, रैंड? पेरिन, मैट, न्यानेव... इग्वीन? उन सबको बताया कि तुम मर गए। क्या इससे उनकी हिफ़ाज़त होगी? इससे इश्माएल का उन तक पहुँचना और आसान हो जाएगा। अब उन्हें बुराई की ओर कर देगा, ताकि तुम्हें काबू कर सके। वे पक्ष नहीं बदलेंगे। मुझे भी एक समय पर यही लगा था। और तुम्हें किस पर भरोसा है? मोइराने पर? वह आइ सेडाई जिसने तुमसे मिलने के बाद से बस तुम्हें छला है और लगाम कसी है? तुम्हें लगता है यह इत्तेफ़ाक है कि तुम सियारहीन आए, ऐसी एक जगह जहाँ पर आज भी उसकी साख है? यह इत्तेफ़ाक है कि लोगैन वहाँ है? वह तुम्हें शुरुआत से ही अपने इशारों पर नचा रही थी। पता है क्या? अगर चाहती हो कि मैं तुम पर भरोसा करूँ, तो उसे कमाना पड़ेगा। मुझे बताओ कि इश्माएल कहाँ है। बताओ कि उसका क्या इरादा है। अरे वाह, ज़रा देखो। अभी तुम्हारे अंदर थोड़ा सा लुईस बचा है। पर अगर सच में मेरे साथ काम करना चाहते हो, तो मेरी एक शर्त है। उसने क्या कहा? मुझे जाना है। कहाँ? उसने बताया कि कहाँ? नहीं। तुमसे
दूर। उसकी यही शर्त थी। उसने दोबारा हमें साथ देखा, तुम्हें मार डालेगी। लोगैन। तुम उसे सियारहीन लाई, है न? ताकि मैं यहाँ आऊँ। हाँ, बेशक। श्वेत मीनार से दूर, जहाँ तुम उससे कभी न मिल पाते, जहाँ वह तुम्हें कभी न सिखा पाता। पहले ही बहुत देर तक रुक गया। वह एक फ़िदाबक्ष है, रैंड। उसकी बात मत सुनो। सियारहीन। अब समझा कि तुम यहाँ क्यों आना चाहती थी। मैट। रुको, मैट। मेरे ख़्याल से यह एक भूल है। हमें जाना चाहिए। तुम्हें चिंता है कि मुझ पर किसी और मधुबाला का जादू चल जाएगा। वह तुम्हारे जितनी दिलचस्प नहीं होगी। उससे फ़र्क नहीं पड़ता। चलो। कहाँ जा रहे हो? चलो, मिन। चलो भी! तुम चलना बंद करोगी? वे हमें सुन लेंगे। मैं चल नहीं रही। छानबीन कर रही हूँ। हमें किसी अनजान ने अटारी में बंद किया है। रायमा सेडाई, जो रक्षा कर रही हैं। हमें आइ सेडाई पर भरोसा करना चाहिए? हम इस स्थिति में मेरी वजह से नहीं फँसे। मैंने लियांड्रिन सेडाई से बात तक नहीं की थी। तुम ही थी जिसने... मुझे पता है मैंने क्या किया, राजकुमारी, इसीलिए मैं यह पक्का करूँगी कि आइ सेडाई और उसका रक्षक नहीं... फल बाज़ार से तुम दोनों की बहस सुन सकता हूँ। कोई बात नहीं, बसन। वे अभी के लिए जा चुके हैं। इसे भाषण देने की आदत है। एल्डरबेरी और अस्ट्रैगैलस। यह टियर में बहुत उगता है और बचपन में मेरा पसंदीदा शक्तिवर्धक पेय था। वह कमरबंद। तुम एक विदुषी हो। हाँ। तो जानती हो कि यह पेय मन शांत करता है। उम्मीद है कि हम सोचसमझकर बातचीत कर सकते हैं, विदुषी, कि दो नौजवान लडकियाँ श्वेत मीनार से क्यों भागीं? मुझ पर भरोसा कर सकती हो। आइ सेडाई बहन संघ का आश्रय इसका आश्वासन देता है। यह बात लियांड्रिन से कहो। लियांड्रिन सेडाई? वह इसका हिस्सा कैसे है? वह निशाचर की दास है
। वही हमें यहाँ लेकर आई थी और उसी ने हमें सैंचन के हवाले किया। उसने तीन वचन तोड़े? हर एक वचन। पर इसका मतलब है... काल संघ। यह सच नहीं हो सकता। अगर तुम्हारी बात सच हुई... तो हमारी सारी बहनें गंभीर ख़तरे में हैं। माफ़ करना कि इतनी देर छोड़कर गई। पहला वाला जाने दूँगी। यह फिर से किया, तो खाल उधेड़कर तुम्हारे बेटे को खिला दूँगी। तुमने कैसे... मैं तुम्हारे सपनों में गई। ज़्यादातर अपने मनोरंजन के लिए। तुम्हारे काफ़ी दिलचस्प शौक हैं। मोहतरमा लैनफियर, इश्माएल ने बताया आप आज़ाद हैं, पर... बताओ, तुम इश्माएल के लिए क्यों काम करती हो? मर्दों से नफ़रत करती हो। हालाँकि, एक मर्द को छोड़कर। रहम करो। इसका नाम क्या है? एलुड्रैन। मर्द हमें चोट पहुँचाते हैं... हमें धोखा देते हैं... और फिर भी हम उन्हें चाहते हैं। तुम इसे ज़िंदा रखने के लिए वे वचन लिए, पर यह कोई ज़िंदगी नहीं है। मुझे पता है। यह तुम्हें पीछे रख रहा है। उस लड़की से आख़िरी कड़ी, जो तुम हुआ करती थी। जिसे पीटा गया और भूखा रखा गया, जिस पर सयानी होने से पहले ब्याह करने का ज़ोर डाला गया। मुझे पता है। और इसलिए मैं यहाँ वह करने आई जो तुम नहीं कर पाओगी। ऐसी तोहफ़ा जो एक औरत ही दूसरी औरत को दे सकती है। नहीं। नहीं। तुमने निशाचर की सेवक बनने का वचन लिया था, इश्माएल का नहीं। उन्हें वापस नहीं ले सकती। यह नामुमकिन है। पर अंधेरे से गुज़रने के कई रास्ते होते हैं। अगर हम अपनी दौलत को जोगन की संख्या में गिनें, तो मेरे पास तुरक से ज़्यादा होगी, है न? तुम लोग मेरे अमानुष ख़ादिम से मिले? हमारे लिए गाना गाओ, माली। इन्हें दिखाओ। तरुगायन ऐसे नहीं... गाओ! हमारे लिए। मुझे इसे तोहफ़े में तुरक को देना चाहिए। कल्पना कर सकते हो? चलो फ़ैसला करें। मैं उसे यह तोहफ़े में कैसे दूँ? क्या पता चला? तुरक का एक अनोखी वस्तुओं का कमरा है। बिगुल वहाँ है। वहाँ बहुत कम पहरा है। ये सैंचन अपने तथाकथित गौरव से इतने बँधे हुए हैं, कि उन्हें उसके चोरी होने का डर तक नहीं है। पर इग्वीन अल'वेर का क्या? बाहरी इलाके में एक जगह है... महल परिसर की बाहरी सीमा पर एक जगह है जहाँ जोगनों को रखा जाता है। वहाँ बिगुल से ज़्यादा पहरेदार तैनात हैं। बिगुल ज़्यादा मायने रखता है, सर्जक। हमें... हम उस तक पहुँचने का रास्ता ढूँढ लेंगे। लोयाल... वह जगह केनेल्स कहलाती है। वह बाहर से जितनी कोमल दिखती है, अंदर से उतनी ही सख्त है। अगर कोई उस जगह में ज़िंदा बच सकती है, तो वह। इग्वीन। एक जोगन किसी ऐसी चीज़ को छू नहीं पाती जिसे वह हथियार समझती है। तब तक नहीं जब तक वह जंजीर पहने रहेगी। तुम यह जंजीर अपनी पूरी ज़िंदगी पहनोगी, चाहे ज़िंदगी कितनी भी लंबी हो। यह यकीनन मुश्किल होगा, यह सोचकर बड़ा होना कि तुम एक इंसान हो, पर अंत में यह पता चलना कि तुम बस एक जोगन हो। तुम अपनी असली पहचान से लड़ नहीं सकती, इग्वीन। अब... मुझे प्याले में पानी दो। जब तक तुम यह आसान सा काम नहीं कर लेती, हम अभ्यास जारी रखेंगे। त
ुम्हें उस सुराही को देखकर मानना होगा कि वह मुझ पर नहीं मार सकती, यह कि मुझे कभी चोट नहीं पहुँचाओगी। तब ही तुम उसे छू पाओगी। तुम मज़बूत हो... और हिम्मत वाली हो। जंजीर में तुम्हारी ताक़त महसूस हो रही है। सबसे मज़बूत जोगन को तोड़ना सबसे मुश्किल होता है। मैं कल वापस आऊँगी। अच्छे से आराम कर लो, इग्वीन। तुम्हारा हुनर तुम्हें एक पैगंबर बना सकता था, तुम्हारे सपनों से भी बेतहाशा अमीर। उसके बजाय तुम मक्खियों और पियक्कड़ों के बीच सो रही हो? हुक्म के मुताबिक मैट को यहाँ ले आई। अपना वादा निभा दिया। अब चाहती हो कि चुटकियों में तुम्हारा श्राप मिटा दूँ? इसी को सौदा कहते हैं। ड्रैगन यहाँ सियारहीन में है। रैंड अल'थॉर। उससे मिल चुकी हो। अगर आज़ाद होना चाहती हो, तो पक्का करो कि मैट उसके साथ यहाँ से जाए। तुम जानते हो मैंने क्या देखा। मैट और रैंड की वह झलकी। तुमने कैसे देखा... यह आखिरी काम कर दो और मैं वादा करता हूँ, श्राप से मुक्त कर दूँगा। और अगर मैंने न किया तो? यह भी रुकने के लिए ठीक ही जगह है। चाय की तलब लगी है। यह फ़िदाबक्षों का मंदिर है। दिलचस्प जगह चुनी। आश्रय आश्रय होता है। मुझे मीनार लौटने के लिए एमिर्लिन की इजाज़त चाहिए होगी। मोइराने का निष्कासन मुझ पर लागू है, जब तक वह मीनार अभिलेखों से हटा न दिया जाए। एमिर्लिन अभी कुछ और दिनों तक वापस नहीं लौटेंगी। वह केमलिन के दौरे से लौट रही हैं। फ़िदाबक्ष। क्या उनके पास ऐसी शक्तियाँ थीं जो आइ सेडाई ने खो दीं? ऐसे कवच जो यह युग भूल गया? वे निशाचर की सेना के सेनापति हुआ करते थे। उन्होंने ऐसे सितम किए जो हमारी आइ सेडाई कभी नहीं करेंगी। हम जो करने को तैयार हैं, वह उन हालातों पर निर्भर करता है जिनका सामना कर रहे हैं। बस करो। यूँ चिढ़ाना बंद करो। दोस्तों
को सोते हुए छोड़कर जाना बेअदबी होती है। उनके खिलाफ़ अपना हथियार उठाना तो और भी बड़ी बेअदबी है। मैं लड़ना नहीं चाहता। ठुकराए जाना लगभग एक नया अनुभव है। यह पूछने के लिए मुझे माफ़ करना, पर... तुम कहाँ जा रहे हो, भाई? वह मेरा ज़ाती मामला है। "लहू से लहू पैदा होता है। लहू लहू को पुकारता है। लहू है, लहू था और लहू सदा रहेगा।" सवाल का जवाब दो, लैन। रहम करके। तुम्हें वाकई लगता है... कुछ यकीन से नहीं कह सकते। क्योंकि तुमने हमें कुछ नहीं बताया है। तुम हमारी और अलन्ना की जान जोखिम में डाल रहे हो, क्यों? हमने हमेशा तुम्हारा साथ दिया, पर अगर तुम लैनफियर के वफ़ादार निशाचर के दास हो, तो तुम इस जगह से नहीं जाओगे। मैं निशाचर से लड़ा था। रास्ते से हटो। एमिर्लिन ने तुम्हें टार वैलॉन से निष्कासित नहीं किया था। तुम जानते हो। तुम चाहते थे कि मैं तुम्हें उनका ठिकाना बताऊँ। क्यों? मुझे उन्हें ढूँढ़ना है। तुम्हें सिउआन सांचे से क्या चाहिए? यह मोइराने को लेकर है। तुम हमें सच तो बताकर रहोगे, अ'लैन मैनड्रैगोरैन। अगर न बताया तो हम तुम्हें यहीं मार देंगे। हमें पुनर्जीवित ड्रैगन मिला। तुम उन सबको मार डालोगे। आगे जाकर तुम्हारा यही हश्र होगा। यह जानते हो, है न? ध्यान करने वाले पुरुष आख़िरकार पागल हो जाते हैं और उन सबको मार देते हैं जिन्हें चाहते हैं। इशी, जान, यह नहीं चाहता कि तुम यहाँ रहो, तो जाओ। मैंने कहा था कि उससे तुम्हारी रक्षा करूँगी। स्वप्न लोक में सावधान रहना, रैंड। यहाँ मर भी सकते हो। और तुम दुनिया भी देख सकते हो, उसके असली रूप में। जिसे चाहो उसे देख सकते हो। उससे बात भी कर सकते हो, ऐसे लगेगा मानो कि तुम दोनों जाग रहे हो। मेरे झूठ के बारे में जो कहा था, मैंने उस बारे में सोचा, और तुम सही थे। मैंने तुम्हें भरोसे की कोई वजह नहीं दी। तो अब शुरुआत करती हूँ। मैं तुम्हें एक सपने का तोहफ़ा देती हूँ। कोई ऐसा है जिससे मिलना चाहोगे? कोई भी? कोई भी। इग्वीन? इग्वीन? इग्वीन। रैंड? तुम्हें क्या हो गया? रैंड? रैंड... क्या यह तुम हो? नहीं। उसे क्या हो गया? वह कहाँ है? उसे तो श्वेत मीनार में होना चाहिए था। मुझे पता है कि वह कहाँ है। मुझे बताओ। रहम करके बताओ, लैनफियर। सेलिन, अगर तुमने कभी भी मेरी परवाह की है, तो बस... रहम करके बता दो कि वह कहाँ है। मुझे बताओ! इश्माएल के कब्ज़े में। मैंने कहा था वह उन्हें ढूँढ़ लेगा। मैं कुछ भी करूँगा। रैंड? ख़ुद को संभालो। मैं पागल हो रही हूँ। चलो भी। ख़ुद को संभालो। योगनारी को पहुँचने वाला दर्द उसकी जोगन को दोगुना महसूस होता है। मैं तुम्हें सुन नहीं पा रही। कोई है? कोई है? योगनारी को पहुँचने वाला दर्द उसकी जोगन को दोगुना महसूस होता है। हे दिव्यज्योति। पता है हम कहाँ हैं? एक जोगन किसी ऐसी चीज़ को छू नहीं पाती जिसे वह हथियार समझती है। नहीं, हम जोगन नहीं हैं। ज़रा बता सकती हो कि हम कहाँ हैं? तुम्हारा नाम क्या है? मैं इग्वीन हूँ। योगनारी को पहुँचने वाला दर्द उसकी जो
गन को दोगुना महसूस होता है। लड़कियो, मैंने एक भरोसेमंद जहाज़ के कप्तान से बात की है। वह तुम्हें मीनार ले जाएगा। ऐसी ख़बर को पत्र द्वारा भेजने का जोखिम नहीं ले सकते। ख़ुद जाकर एमिर्लिन सीट को लियांड्रिन सेडाई के बारे में बताओ। आप बता देना। मैं इग्वीन के बिना नहीं जाऊँगी। बसन और मैं यहाँ रहकर तुम्हारी सहेली को बचाने की पूरी कोशिश करेंगे। मैं नहीं जाऊँगी। रायमा सेडाई, मैं माफ़ी चाहूँगी, पर शायद आपने इस परिस्थिति और हम दोनों को कम आँका है। इग्वीन के हमारे साथ होने तक न्यानेव या मैं यहाँ से नहीं जाएँगे। उसे यहाँ रखो। अगर अपनी सहेली को बचाना है, तो हमें इसे खोलने का तरीका ढूँढ़ना होगा। मेरे साथ कुछ हुआ है... कुछ ऐसा जिसके बारे में मुझे तुम्हें बहुत पहले बता देना चाहिए था... ...मुझे निषेध कर दिया गया है मैं तंग तो नहीं कर रहा? सोचा कि आपके लिए कुछ खाने को ले आऊँ। रैंड चला गया? उसके लिए भी बनाया। वह आज शाम बाहर रहेगा और मुझे भूख नहीं है। बस छोटा सा टुकड़ा है। देखिए। आपको याद नहीं, जब मैं छोटा था तो आप मेरे सैंडविच की कितनी तारीफ़ करती थीं और मैं कहता था कि वे एक बेहद ख़ास गाय के मक्खन से बने हैं। ज़ाहिर है, यह सच नहीं था। किस्मत अच्छी थी, क्योंकि वह गाय तो यकीनन अब तक मर चुकी होगी। मैं बस दोनों तरफ़ मक्खन लगाता था। इसे यहीं रख दो। बेशक, मो मौसी, मैं तंग देने के लिए माफ़ी चाहूँगा। आपने सही कहा था। हमेशा की तरह। कोशिश करके देख ली। बहन, मैं सोई नहीं हूँ। मैं कभीकभी सोचती हूँ कि हम उल्लू कैसे बन गए। मेरा बेटा तुम्हारी पूजा करता है। जैसा मैं करती थी। जैसे पिताजी... चुप। उन्होंने तुम्हें याद किया था। वह मरने की कगार पर थे और मैंने उनका हाथ पकड़ा था, पर वह बारबार तुम्हें ही याद करते रहे। हम
ने श्वेत मीनार में संदेश भेजा और तुम जानती थी वह मरने वाले थे और बस तुमसे मिलना चाहते थे। तुम्हें पता था। ऐसी क्या आफ़त आ गई थी कि तुम घर आकर अपने पिता के आख़िरी समय में उनका हाथ नहीं पकड़ पाई? तुम मेरी परवाह नहीं करती, पर उन्हें चाहती थी। हमेशा से उनसे प्यार करती थी। ऐसी क्या आफ़त आ गई थी, मोइराने? मैं चाहती हूँ कि तुम कल तक इस घर और इस शहर से चली जाओ। मैं बड़ी बहन हूँ, दामोड्रेड घराने की वारिस हूँ और यह घर उतना ही मेरा है जितना कि तुम्हारा। तुम और तुम्हारा बेटा मेरी कृपा से यहाँ हैं। तुम में उनका एक भी अच्छा गुण नहीं है, मोइराने। एक भी नहीं। तुम पूरी तरह से माँ पर गई हो। प्यारी सिउआन। मेरे साथ कुछ हुआ है... रुको! तुम कौन हो? गति धीमी करो। ठहरो! ठहरो! ठहरो! लैन। एकांत दो। माता। क्या हुआ? क्या बात है? मोइराने को लेकर है। जानता था तुम वापस आओगे। तुम्हें मुझे सिखाना होगा। युद्ध के वे सारे कवच जिनसे तुम आइ सेडाई से लड़े थे। मैंने वे कवच बुनने में सालों की मेहनत की, बारबार अभ्यास किया। क्यों सोचते हो कि मैं यूँ ही बता दूँगा? क्योंकि तुम अपनी छाप छोड़ना चाहते हो। तुमने सोचा था कि तुम दुनिया को बचाओगे, या उसे बिखेरोगे। पर फिर आइ सेडाई ने तुम्हें मिटा दिया, और अब तुम केवल मेरे ज़रिए अपनी छाप छोड़ सकते हो। स्रोत को गले लगाओ। कम से कम इतना तो कर लेते होगे? उसे जकड़ लो। उसके आगे घुटने मत टेको, लड़के। इसी तरह। उसे अपना बनाओ। अब न दिखावा, न ही छिपनाछिपाना। अगर शक्ति चाहिए, तो उसे लो। हाँ। ध्यान से, लड़के, ज़्यादा ले ली तो संभाल नहीं पाओगे। हाँ। ज़्यादा होने से पहले छोड़ देना। रुक जाओ! रुको! इतना वक़्त नहीं है। किसके लिए? लड़ने के लिए इसका इस्तेमाल सीखने के लिए। इतनी शक्ति के साथ... तुम कुछ भी कर सकते हो, किसी से भी लड़ सकते हो। देवियो और सज्जनो, सब्र रखने के लिए बहुतबहुत शुक्रिया। मुझे नहीं लगता कि अपना सारा पैसा देना आसान बात रही होगी। तो इस बार, हमें दोनों पासों में चार चाहिए, ठीक? मतलब आठ। तो अगर आपको नहीं लगता कि दोनो में चार आएगा, तो अपने पैसों को मेज़ के बीचोबीच रख दीजिए। चलिए। पैसे डालिए, हाँ। प्लीज़। अच्छा, बहुत ख़ूब। क्या बात है। कोई और? शुक्रिया। तो, हम दो चार के लिए पासे फेंक रहे हैं, हाँ? मैट? जल्दी! तुम सियारहीन में क्या कर रहे हो? और तुम्हारे बाल कहाँ गए? यार, बड़े भद्दे लग रहे हो। बाकी सब कहाँ हैं? क्या वे यहाँ हैं? पेरिन कहाँ है? इग्वीन? मैं... मैट, बड़ी लंबी कहानी है। वह तो अच्छी चीज़ है। मेरे पास वक़्त ही वक़्त है। पहला जाम तुम पिलाओगे, मेरी बाज़ी को बिगाड़ने के लिए। उनकी कुछ जोगन जान जाती हैं जब कोई औरत ध्यान करती है, तो सावधान रहना और उनके करीब रहते कभी ध्यान मत करना। आगे बढ़ो, पर बस थोड़ी देर। कोई ताला नहीं है। कोई जोड़ नहीं है। मैंने आज तक ऐसा कुछ नहीं देखा। यह एक तिलिस्मी द्वार है? कसौटी की तरह। एक मिनट के लिए दो। तुमने नहीं बताया कि ये कहाँ से
मिले। पहले, केवल अफ़वाहें थीं। अजीब जानवरों और ध्यान करने वालों को गुलाम बनाने की फुसफुसाहट। एमिर्लिन सीट ने हमें श्वेत मीनार से इन दावों की पुष्टि करने के लिए भेजा। फ़ाल्मे आने के बाद ही हमें एहसास हुआ कि हमने ख़तरे को कितना कम आँका था। ये लोग पूरी दुनिया को अपनी मल्लिका की हुकूमत में लाना चाहते हैं। दो मारी गईं, अपनेअपने रक्षकों के साथ। एक को क़ैद कर लिया गया। आइ सेडाई को क़ैद कर लिया? मामूली आइ सेडाई नहीं। नील संघ की दूत। तुम बालबाल बची थी। मेरी बहनें और मैं हमेशा सहमत नहीं थे, पर हमारी वफ़ादारी पर कोई शक़ नहीं था। एकदूसरे और हमारे मकसद की ओर। मेरे पास यह इसलिए है क्योंकि मेरी बहनों ने अपनी जान से इसकी कीमत चुकाई। तुम उसे उतार नहीं सकती। बिना असहनीय दर्द सहे उसे छू भी नहीं सकती। तुम यह जानती हो। जानना चाहोगी कि जंजीर किसने बनाई? किसी राक्षस ने। वह तुम्हारी श्वेत मीनार की बहन थी। आइ सेडाई के गुलाम नहीं होते। तुम एक शिष्या के तौर पर क्या करती थी? वे तुम्हारी शक्ति पर लगाम लगाना चाहती हैं। ताकि तुम ज़िंदगी भर करतब करके सबका मनोरंजन करो। हम सैंचन चाहते हैं कि तुम अपनी शक्ति का पूरा इस्तेमाल करो, जिसके लिए तुम पैदा हुई। गले में जंजीर डालकर कोई औरत शक्तिशाली नहीं हो सकती। अरे, इग्वीन... तुम कोई आम औरत नहीं हो। तुम एक जोगन हो, एक बहुत ताक़तवर जोगन। उम्मीद है तुम्हें श्वेत मीनार में बताया गया होगा कि तुम कितनी ख़ास हो। मेरे साथ चलो। देखा? जब हम पूरे होते हैं तो बेहतर महसूस होता है, है न? पेड़ को देखो, इग्वीन। पता है तुम्हें सुकून मिलता है। उसकी ओर हाथ बढ़ाओ। उसकी जड़ें खोजो। तुमने वे ढूँढ़ लीं। शाबाश। अब आगे बढ़ती रहो, जड़ों से होकर उसके तने में जाओ। उसकी शाखाओं से उसके रस को बहते
हुए महसूस करो। उसे अपने मन में और गर्म होने दो। इतना गर्म कर दो कि भाप निकलने लगे। अब उस भाप को आग में बदल दो। ऐसा ही महसूस होना चाहिए। हम ऐसी शक्ति के लिए बने हैं, इग्वीन। महसूस हो रहा है? हमारा नाता? यह लो। अपने लिए पानी डालो। तुम इसकी हक़दार हो। पानी डालो, इग्वीन। जहाज़ के कप्तान के जाने से पहले इग्वीन न मिली, तो तुम चली जाना। रायमा सही थी। एमिर्लिन को लियांड्रिन के बारे में बताना होगा। और हम तीनों उन्हें बताएँगे। तुम्हारी कुछ जिम्मेदारियाँ हैं। तुम ऐनडोर की राजपुत्री हो। पीछा छुड़ाने का मौका मिला, तो मैं राजपुत्री बन गई? एक अजनबी के लिए सब कुछ जोखिम में क्यों डाल रही हो? वह मेरी सहेली है। और आज तक मेरी कोई सहेली नहीं थी। चलो भी, तुम मुझे बताओगे कि बाकी कहाँ हैं, या नहीं? पिछले साल, जब मुझे लगा कि मैंने निशाचर को हरा दिया... माफ़ करना। हाँ, जब तुम ऐसी बातें कहते हो, तो मुझे बहुत अजीब लगता है... मैं चला गया। उन्हें पीछे छोड़ गया। इग्वीन, पेरिन, न्यानेव, उन सबको। मैट, उन्हें लगता है मैं मर गया। मैंने सोचा इससे वह सलामत रहेंगे। मैंने सोचा... पता नहीं, मुझे लगा... सब मेरे बिना ही बेहतर रहेंगे। ज़्यादा सुरक्षित भी। नहीं। हम तुम्हारे बिना बेहतर नहीं हैं, रैंड। कसम से। हम तुम्हारे बिना भी अधूरे हैं, मैट। पर अब वह उसके कब्ज़े में है। इश्माएल के। इग्वीन फ़ाल्मे में क़ैद है। मुझे पता है कि वे चाहते हैं मैं वहाँ जाऊँ। पर अगर मैं नहीं गया... तो उसके साथ क्या होगा? तो, हम चलते हैं। मुझे उससे पहले बस एक काम करना होगा। दरअसल, एक लड़की का दिल तोड़ना होगा। मैं एक घंटे में तुमसे फाटक पर मिलता हूँ। मैट... मेरे साथ जाने की ज़रूरत नहीं है। सच में। हाँ, ज़रूरत है। और कौन तुम्हें घमंडी बनने से रोकेगा? पुनर्जीवित ड्रैगन। एक घंटे में। मैं पहुँच जाऊँगा। मिनी मिन मिन? मिन? तुम्हारे साथ कोई है? क्या मुझे जलना चाहिए? मिल? अंदर आ जाओ। तुम्हें किसने शराब के बदले पानी दे दिया? मैं केवल बढ़िया शराब ही पीती हूँ। और मैं तुम्हें इसी तरह याद रखूँगा। बाकी सब अच्छा हो या न हो, तुम्हें शराब अच्छी चाहिए। पता है मैं किससे टकराया? मेरे दोस्त से। जिसने बारे में तुम्हें बताया था। वह यहाँ है। तुम नहीं जा सकते। बताया भी नहीं कि मैं जा रहा हूँ। मैंने देखा। नहीं। मैं कह चुका हूँ, मुझे नहीं... तुम रैंड को मार डालोगे। क्या? नहीं। नहीं। हाँ, उस खंजर से। सुनहरे मूठ पर माणिक वाली? नहीं। फ़ाल्मे। वह तुम्हें वहीं ले जा रहा है? नहीं। तुम रैंड को कैसे जानती हो? तुमने मुझे फँसाया। नहीं। हाँ? इसीलिए हम यहाँ आए। नहीं। उसकी वजह से? वह... मेरा वह इरादा नहीं था, मुझे पता न था... कब से? जबसे हम बाहर निकले? नहीं। हमारे मिलने से पहले से। मुझे माफ़ कर दो। मुझे... मुझे सच में लगा कि तुम मेरी दोस्त हो। मैं हूँ भी। मैं हूँ। तभी यह बता रही हूँ। नहीं जानते इसकी क्या कीमत चुकानी होगी। तुम उसे मार डालोगे, मैट। अगर उसे चाहते ह
ो, तो दूर रहो। जोनास, इस पत्र को नील संघ की अनाया सेडाई तक पहुँचाना है। वह उसे इसकी मंज़िल तक ले जाएँगी। जैसा आप कहें, हुकुम। मोइराने मौसी। बर्थेनेस, मुझे माफ़ करना। मैं एक बुरी मेहमान और उससे भी बदतर मौसी थी। मुझे याद है। तुम्हारे सैंडविच... पहले और अब भी बेहद स्वादिष्ट हैं। तुम एक लाजवाब राजा बनोगे, बर्थेनेस। दरियादिल और दयालु। हमारे राजघराने का गौरव बनोगे। एमिर्लिन सीट यहाँ आई हैं... सियारहीन में, चौदह आइ सेडाई के साथ और उन्होंने तुमसे मिलने का आदेश दिया है। आख़िरी बार जब एमिर्लिन सीट ने यहाँ सियारहीन में चौदह बहनों को मिलने के लिए बुलाया था, हमने स्वर्ण सिंहासन पर नए राजा को बिठाया था। यह सभा तुम्हें थोड़ी तुच्छ लगे, बेटी। हमें इंतज़ार करना होगा। तो अकेले ही जाता हूँ। लैन! मुझे माफ़ कर दो। तुम नहीं जा सकते। न्यानेव, तुम मदद कर सकती हो? हमें थोड़ी और शक्ति चाहिए, पर हममें से एक ने ज़्यादा ध्यान किया, वे जान जाएँगी। मैं उसे यूँ काबू में नहीं कर सकती। उस बारे में ज़्यादा मत सोचो। जैसे जब तुम्हारे पास कोई मरीज़ आता है। तुम उनकी मदद करने के बारे में सोचती नहीं, मदद कर देती हो। मैं इतना नहीं करना चाहती थी, माफ़ करना। कोई बात नहीं। क्या महसूस कर रही हो? इसे उपचार चाहिए। इसे किसी औरत को पहनाकर ही इसका उपचार हो सकता है। यह उसी तरह पूरा होगा। इसे तोड़ा नहीं जा सकता। सुनो, इसका मतलब है कि उनकी जोगनों ने हमें ढूँढ़ किया। माफ़ करना, मैं ऐसा नहीं... जो मैं कहूँ, वही करना। अपनी पहचान का खुलासा मत करना। वे ध्यान करने वाली को ढूँढ़ने आए हैं, वह मैं हूँ। रायमा सेडाई, नहीं। हमारी बहनों को आज़ाद करना। वादा करोगी, विदुषी? मशाल के पास मेरी मुद्रिका ले जाओगी? तुम ऐसा नहीं कर सकती। तुम पर भरोसा
कर सकती हूँ? बहन? हाँ। पानी डालो, इग्वीन। तुम्हें प्यास नहीं लगी? पानी डालो, इग्वीन। पानी डालो। पानी डालो। हमें मदद करनी चाहिए। ऐसे इग्वीन को नहीं बचा पाएँगे। इस कोठरी के बाहर तुम्हारे लिए कुछ नहीं है, इग्वीन। न ही इस दरवाज़े और इन पत्थरों के बाहर। इस सुराही और मेरे खाली प्याले के अलावा कुछ नहीं। तीरंदाज़ो, तीर खींचो! करो। मैं नहीं कर सकता। उन्हें मुझे ले जाने मत देना। मुझे मारो! बसन! मेरा प्याला। तुम्हारी दुनिया इसी तक सीमित है। बस यहीं तक। नहीं। पानी डालो। तुम्हारी दुनिया इसी तक सीमित है, इग्वीन। मेरा प्याला। पानी डालो, इग्वीन। यह कभी हथियार नहीं बन पाएगा। तुम मुझे कभी चोट नहीं पहुँचा सकती। तुम मुझे कभी छोड़कर नहीं जा सकती। डालो। अच्छी बच्ची। रोओ मत। तुम मुझसे ज़्यादा समय तक अड़ी रही, बेटी। और मैं तो नील संघ की दूत थी। संवाद अनुवादक श्रुति शुक्ला रचनात्मक पर्यवेक्षक अशोक बक्षी
मैं अपनी ज़िंदगी की बैलेंसशीट बना रहा हूँ। मेरी समझ में नहीं आ रहा कि क्लोजिंग बैलेंस पर आकर मैं बार बार क्यों गलती कर जाता हूँ। 'हानि' वाले कॉलम भरते हुए मेरे मन में आता है कि मैं अपने आप को गालियाँ बकूँ। कमीना, घटिया और अन्य अपशब्दों से अपने आप को संबोधित करूँ। मॉर्क्स के चित्र के सामने हाथ जोड़कर सिर निवा कर कहूँ, "सर्वोत्तम पुरुष, मुझे माफ़ कर दो। मुझे किस तरफ जाना था। मेरी मंज़िल क्या थी। मैं किसी तरफ चल पड़ा हूँ। अब तुम ही बताओ, क्या मेरे पास कोई और विकल्प नहीं रहा? क्या यही एकमात्र रास्ता बचा है?" पता नहीं, किस तरफ से बार बार एक आवाज़ आती है, 'आदमी के अंदर से उसकी जात नहीं जाती। संस्कार नहीं मरते।' अब मैं इस आवाज़ को क्या जवाब दूँ। यही कि मैंने तो कभी अपनी जाति के बारे में सोचा ही नहीं था। मेरा इस तरफ कभी ध्यान ही नहीं गया था। मेरे दोस्तों के घेरे में अपरकास्ट वाले भी थे और दलित भाई भी। मेरे लिए सभी साथी थे। मेरे अपने। पचास वर्ष की उम्र तक मैं वर्ग-चेतना, संघर्ष, बुर्जुआ, पैटी बुर्जुआ, सर्वहारा व्यवहार में उलझा रहा हूँ। अब मुझे वर्ण चेतना, दलित चेतना, चिंतन, दलित जातियाँ तंग करने लगी हैं। मैं यह बात मानता हूँ कि अंदरखाते मैं दूसरी जातियों को कुछ कुछ नफ़रत करने लगा हूँ। क्या यह रूप लाल का असर है जो मुझे नित्य समझाता रहता है, "ब्राह्मणों, क्षत्रियों, अरोड़ों, जट्टों ने हमारे साथ बहुत भेदभाव किया। बहुत ही ज्यादा। तू अपना पास्ट देख। भविष्य की ओर झाँक। गाँव में जाकर देख, हमारी वैल्यू कितनी है। हम आज भी उन लोगों के लिए चूहड़े-चमार हैं। मेरा एक कुलीग है। जसवंत। गोहीरां गाँव का। उनके गाँव का एक विलैतिया बीस सालों बाद गाँव आया था। उसने आते ही कोठी बनानी आरंभ कर दी। जसवंत ने उससे कहा, 'तेरे तीनों बेटों में से किसी ने आकर यहाँ नहीं रहना। यूँ ही व्यर्थ में चालीस-पचास लाख खर्च करने की क्या तुक है। कोई अस्पताल या कोई यादगार बना जा।' विलैतिये ने जसवंत की ओर घूर कर देखा और बोला, 'तेरी तो बातें उल्टी ही रहीं। गाँव में तो चूहड़े-चमार कोठियाँ बनाए जा रही हैं, हम गाँव के मालिक हैं। ज़मीन-जायदादों वाले।' देख ले, इन लोगों की नफ़रत की हद...।" मेरा बेटा सतीश मेरा गुरू बन जाता है, "यह कंप्यूटर का युग है जहाँ हर संबंध और हर आदमी की कीमत महज मुनाफ़ा है। जिसने इस बात को समझ लिया, वही कामयाब होगा। अब हमारा फ़ायदा मायावती जी के साथ जुड़ने में है। दूसरी बात, हमें अपनी जाति के बारे में और अपने लोगों के बारे में भी सचेत होने की ज़रूरत है। डैडी जी, बी प्रैक्टीकल। पंजाब में हमारी कितनी आबादी है, बताओ कभी हमारी जाति का सी.एम. बना। आप पहले अपने पास्ट को देखो, फिर भविष्य को जानना। आप अपने डिपार्टमेंट में बैलेंसशीट बनाने में माहिर हो, अब अपनी ज़िंदगी की बैलेंसशीट बनाकर देखो। कामरेडों के साथ जुड़कर क्या कमाया और क्या गँवाया।" सीबो कहती है, "मुझे तो अब समझ में आया है। अपने अपने ही होते हैं
। कल मुझे सैर करते हुए सत्या मिली थी। वह कहती थी कि हम महीने में एक बार किट्टी पार्टी रखा करें जिसमें अपनी बिरादरी की ही औरतें शामिल हों।" भापा जी अपना ज्ञान झाड़ते हैं, "तूने कामरेड बनकर क्या कर लिया। अब बहुजन समाज पार्टी में आ जा। महिंदर मुझे कह रहा था कि प्यारे को मना लो। वह रिटायरमेंट पर बैठा है। हम उसे काउंसलर की सीट पर खड़ा कर देंगे। उसकी जीत निश्चित है। अपनी बिरादरी की वोटें तो लोहे जैसी पक्की है। अब तू सयाना बन। अपने मूल को पहचान। मुझे खुद अब समझ में आया है कि यहाँ आदमी का मूल्य उसकी जाति की बदौलत पड़ता है।" मेरे अंदर अपने मूल को जानने की जिज्ञासा पैदा हुई है। यह कभी बहुत ही तीव्र हो जाती है, कभी मद्धम पड़ जाती है। मैं उस समय परेशान होता हूँ जब मेरे अंदर बैठा कामरेड मेरे होंठों पर अपना खुरदरा हाथ रखकर चीखता है, "ओए मूर्ख, अक्ल कर। तू किस तरफ चल पड़ा। कोई ढंग का काम कर। इतना निराश नहीं होते। कोई भी पार्टी एक या दो व्यक्तियों की मिल्कियत नहीं हुआ करती। चल उठ, शेर बन जा। नहीं तो देख ले, सुरजन संधू जैसे लोग कहेंगे - कर दी न चमारों वाली बात।" इसकी कहे हुए पिछले वाक्य पर मैं परेशान हो जाता हूँ। जी करता है कि अपने अंदर बैठे कामरेड का गला घोंट दूँ। अभी तक मैं इसका गला नहीं घोंट पाया। लेकिन घोंटने की ख्वाहिश बरकरार है। मैं इसे मारकर सुखी हो सकता हूँ। इससे डरता भी हूँ कि कहीं यह ही मुझे न मार दे। अचानक मेरे सामने बाबा हरनाम सिंह कालासंघिया का चेहरा प्रगट होता है। बाबा हरनाम सिंह वल्द सुंदर सिंह, गाँव-कालासंघिया। देशभक्त। वह कहता है, "तू क्यों किसी की परवाह करता है? जो तेरे मन को अच्छा लगता है, वही कर। पार्टी की ज्यादा परवाह नहीं किया करते। मेरी तरफ देख, मुझे भी सोहन सिंह भकना औ
र रूड़ सिंह चूहड़चक ने पार्टी में से निकाल दिया था। इस कारण कि मैंने पार्टी का हुक्म नहीं माना था। मेरी कुर्बानी देख, मैं पिंजरे में डाल दिया गया। मैंने सवा मन अनाज पीसा, चींटियों और सुंडियों वाला आटा खाया, गोरों की अंधी सख्ताई झेली। मैंने अपनी जवानी बर्बाद की। दोनों बेटे मर गए। पर मैंने हार नहीं मानी। तू अच्छे काम कर। समय तेरा साथ देगा। समझा, मेरी बात?" समझता तो मैं सब कुछ हूँ परंतु आत्मा और मन के बीच का द्वंद्व-युद्ध मेरा कोई वश नहीं चलने देता। ज़िंदगी में कुछ पूरी तरह मरता क्यों नहीं? मेरे मन पर ये विचार भारी होने लगे हैं। जब मैं अकेला होता हूँ, उस समय मैं बहुत ज्यादा सोचता हूँ। जैसे अब की मेरी अवस्था है। सतीश ने मुझसे कल पूछा था, "आपकी ज़िंदगी की बैलेंसशीट कहाँ तक पहुँची है?" अब मैंने एक और बैलेंसशीट बनानी आरंभ की है। इसबार एडजस्टमेंट अकाउंट का सहारा लेता हूँ। यहाँ मुझे छूट होती थी कि मैं जैसे चाहूँ, रकमों को इधर-उधर कर सकता था। मुझे पता होता था कि मुझे इसे कैसे फाइनल टच देना था। लेकिन मुझसे अपनी बैलेंसशीट बनाते हुए गड़बड़ हो गई है। 'लाभ' वाले हिस्से पर कामरेड भारी है। मैं अपने फायदे को लेकर कुछ अधिक ही सोच रहा हूँ। मुझे यह बैलेंसशीट भी अधूरी लगती है। मैं कागज दूर फेंक देता हूँ। दिमाग का नाड़ी तंत्र पीछे की ओर दौड़ता है। कभी आगे ही भागता जाता है। एक और बैलेंसशीट बनानी आरंभ करता हूँ। इस बार लिखता हूँ - हानि। कामरेड। लाभ। दलित। 'लाभ' वाले हिस्से में मुझसे बार बार दलित लिखा जाता है। मैं अकाउंटिंग विधि त्यागकर डैरीएटिव विधि का प्रयोग करता हूँ। सोचता हूँ कि मैं अपना ध्यान 'हानि' पर क्यों केंद्रित कर रहा हूँ। हानि पार्टी के संग जुड़ जाती है। क्या मेरे साथ भेदभाव सिर्फ़ मेरी जाति के कारण ही हुआ है। बहुत कुछ और है जिसकी तरफ मेरा ध्यान नहीं जाता। मुझे अपने कुलीग जसविंदर जिससे मैंने बैलेंसशीट बनानी सीखी थी, का कहा याद आतेा है, "बैलेंसशीट में कुछ फिगरें अपनी ओर से भी डालनी पड़ती हैं। इसे एडजस्टमेंट अकाउंट कहते हैं। इसके बग़ैर बैलेंसशीट नहीं बन सकती।" मुझे लगता है कि यही कुछ ज़िंदगी में भी घटित होता है। एक बार फिर मैं एडजस्टमेंट अकाउंट का सहारा लेता हूँ। शायद यहीं मेरे अंदर की नफ़रत विराट रूप धारण करने लगी है। 'वियाना कांड' के कारण पिछले दो दिनों से भिन्न भिन्न चैनलों से दलितों से संबंधित कई विशेष प्रोग्राम दिखाए जा रहे हैं। 'स्टार न्यूज़' ने दलितों के विषय में एक पुरानी रिकार्डिंग दिखाई थी। चंद्रभान प्रसाद ने बताया था, "मायावती द्वारा उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ लेना आज़ादी के बाद भारत के इतिहास की अहम घटना है। यह दलितों के लिखित इतिहास में दर्ज़ तीसरी अहम घटना है जब एक दलित को इतने ऊँचे ओहदे पर पहुँचने और अगुवाई करने का गर्व हासिल हुआ। पहली घटना यह थी कि संत रविदास ने तर्क के आधार पर बनारस के ब्राह्मणों को हरा दिया था। यह बात शास्त्रों में दर्ज़ है
। दूसरी अहम घटना डॉ. अंबेडकर का भारत के संविधान का मसौदा तैयार करने वाली कमेटी का चेयरमैन बनना था। इसी तरह जब मायावती भाजपा की मदद से मुख्यमंत्री बनी तो उसने दिखा दिया कि एक दलित भी लीडर की भूमिका निभा सकता है। इसने भारतीयों की अंतरात्मा को भी झिंझोड़ा। उसने आख़िर यह दर्शा दिया कि एक दलित पर पूरा भरोसा किया जा सकता है और एक दलित, दलितों और ग़ैर-दलितों दोनों की अगुवाई कर सकता है।" फिर टी.वी. स्क्रीन पर के.आर. नारायण की बहन के.आर. गोवरी का चेहरा प्रगट हुआ था। उन्होंने के.आर. नारायण के विषय में बताना आरंभ किया था, "हमारे भाईचारे का कोई व्यक्ति तो यहाँ तक पहुँचने के बारे में सोच भी नहीं सकता। वह बहुत पढ़ाकू था। अंग्रेजी सरकार के समय दलित विद्यार्थियों को वजीफा नहीं मिलता था। हम सख़्त मेहनत करके पढ़े। जब लोग मेरे भाई द्वारा भिन्न भिन्न पदों जैसे कि सफीर, केंद्रीय राज्य मंत्री, उप-राष्ट्रपति और राष्ट्रपति के पद हासिल करने के बारे में बात करते हैं तो ऐसा लगता है कि लोग सोचते हैं कि एक दलित होने के कारण ही शायद उन्हें कोई लाभ मिला और वे इन पदों तक पहुँचे, पर यह सच नहीं है। उन्होंने जो भी पद हासिल किया, वह अपनी योग्यता के बलबूते पर हासिल किया।" ...तभी रमन आया था। अपना होमवर्क करने। वह ज्यादा झुककर लिखता। मैं उसे पकड़कर सीधा बिठाता। वह पुनः पहली वाली स्थिति में बैठ जाता। उसे अंग्रेजी के 'जी' अक्षर को घुमाव देना नहीं आता था। मैं समझाता। वह फिर गलती कर जाता। पाँच-सात बार ऐसा हुआ। फिर उसे घुमाव देना आ गया। करीब आधे घंटे बाद वह मेरी टाँग पर सिर रखकर लेट गया। थक गया होगा। मैंने उसकी ओर से फुर्सत पाकर सामने रैक में पड़ी काशीराम की किताबों, कैसेटों, वीडियों कैसेटों जो कि पिछले महीने सतीश दिल्
ली से खरीदकर लाया था, की ओर ऊपरी नज़र दौड़ाई। लेनिन की मूर्ति की ओर श्रद्धा भाव से देखा। मैं रुक-रुक कर वॉल क्लॉक की ओर देखता हूँ। सीबो अभी तक लौटी नहीं। मैंने उसे बाहर जाने से रोका था। पिछले दो दिनों से हमारी ओर के हिस्से में कर्फ्यू लगा हुआ है। शहर में तनाव है। लूटपाट और आगजनी की अनेक वारदातें हुई हैं। पर उसने मेरी बात नहीं मानी थी। यह कह गई थी, "मुझ बूढ़ी ठेरी को किसी ने क्या कहना है।" क्या मालूम वह वीना की ओर चली गई हो। उसके मूड का भी कोई पता नहीं चलता। मैं 'हानि' वाले पन्ने पर लिखना आरंभ करता हूँ। मेरे पास तेरी पार्टी का कोई कार्ड न सही। मेरे पास तो पार्टी का कार्ड था। मेरा विरोध सुरजन संघू ने किया था। उसने मुझे गाली देकर कहा था, "तुम चमारों को पार्टी की क्या समझ है।" रोकते रोकते मेरे अंदर से गाली निकल जाती है, "..." मैंने तो पार्टी की ख़ातिर ससुराल वालों से भी बिगाड़ ली थी। मेरे ससुर ने जगदीश को दुकान किराए पर दे दी थी। वह खुद इंग्लैंड रहता था। यह दुकान भी मैंने स्वयं जगदीश को लेकर दी थी। करीब दो साल बाद जगदीश ने चौबारे पर एक तरह से कब्ज़ा ही कर लिया था। मेरा जगदीश के पास रोज़ का आना-जाना था। मेरे ससुर का फोन आया तो मैंने जगदीश को इस बारे में बताया था। जगदीश ने मेरी बात को अनसुना कर दिया था। दो वर्ष बाद मेरा ससुर आया तो उसने पाँच-सात प्रतिष्ठित व्यक्तियों को संग लेकर जगदीश को चौबारा खाली करने के लिए कहा था। बात न बनती देख कर वह थाने चला गया था। मैं अपनी पार्टी वालों के संग थाने गया था। मैं ससुराल वालों के संग नहीं, अपनी पार्टी के संग खड़ा था। मुझे ससुराल से अधिक पार्टी प्यारी थी। मेरे ससुर ने कोर्ट में केस कर दिया था। इस केस से जगदीश और पार्टी मेंबर परेशान थे। उनका मेरे प्रति व्यवहार बदल गया था। उन्हें लगा था कि मैं उनके साथ नहीं हूँ। उधर ससुर अलग गुस्से में था कि मैंने उसका साथ नहीं दिया। जगदीश और अन्य पार्टी मेंबरों ने मेरे से मुँह मोड़ लिया था। मैंने जगदीश के सामने अपना गिला जाहिर किया था, "मैं इतनी जल्दी पार्टी नहीं छोड़ने वाला।" जगदीश के पास बैठे सुरजन संधू ने कहा था, "तेरे जैसे वर्करों की पार्टी को ज़रूरत नहीं। तू जानता नहीं यह दुकान पार्टी के लिए कितनी फायदेमंद है। बता, कोई दूसरी दुकान हो सकती है। तू अपने ससुर को समझा नहीं सकता, लोगों को क्या समझाएगा।" लॉबी में से आवाज़ आती है। सतीश और राजविंदर सैर करके लौट आए हैं। अब सतीश भापा जी के पास बैठेगा। राजविंदर रोटी-पानी का प्रबंध करेगी। सतीश भापा जी के पास बैठ कोई एक बात छेड़ लेगा या उन्हें याद करवाएगा। उसने भापा जी को अपने पीछे लगा लिया है। भापा जी ने रविदास भगत की बड़ी-सी फोटो ड्राइंग रूम में लगवाई है। इसे वे बूटा मंडी के मेले में से खरीदकर लाए थे। उन्होंने तो गुरू रविदास जी के जन्म दिवस पर पूरी कोठी में बिजली वाली लड़ियाँ लगवाई थीं। पिछले हफ़्ते सतीश ने भापा जी को बताया था, "हम कुछ दोस्तों ने प्ल
ैनिंग की है कि एक ऐसा चैनल शुरू किया जाए जहाँ चौबीस घंटे गुरु रविदास जी की बाणी का प्रसारण हो। अगर हिंदू या सिक्खों के चैनल शुरू हो सकते हैं तो हमारे गुरु के क्यों नहीं। बस, अब फाइनेंनशियल प्रॉब्लम्स हैं, जिस दिन ये सोल्व हो गईं, फिर देखना हमारी शक्ति।" मुझे इनकी कई बातें अजीब लगती हैं। पर फिर भी मैं उनमें शामिल होना चाहता हूँ। कई बार गया था। आधा घंटा बैठा था। इन्हें मेरी मौजूदगी चुभी थी। मैं उठकर आ गया था। किसी ने मुझे बैठने के लिए नहीं कहा था। अब जब ये दोनों इकट्ठे बैठे हों, मैं उनके पास नहीं जाता। इन्होंने कभी नहीं कहा कि तू भी हमारे पास आकर बैठ जाया कर। अपनी अच्छी-बुरी राय दे दिया कर। मन हल्का हो जाएगा। शाम को मैं लॉन में चटाई बिछाकर बैठा होऊँ तो सतीश मेरे पास आ खड़ा होता है। दो घड़ी के लिए। खड़े-खड़े ही बातें करता है। जैसे इन पलों में मैं उसका बाप होऊँ। आगे-पीछे आँख बचाकर निकल जाता है। सवेरे मैं सबसे पहले उठता हूँ। दो कप चाय के बनाता हूँ। अपने लिए फीकी चाय। भापा जी के लिए तेज़ मीठे वाली। तब तक वह पाठ कर चुके होते हैं। वह बैड से पीठ टिका लेते हैं। लिफाफे में से दो रस निकालते हैं। एक मुझे देते हैं, दूसरा स्वयं चाय में डुबो डुबो कर खाने लगते हैं। वह कहते हैं, "कामरेड, जा लॉन में ही सैर कर आ। दो घड़ी ताज़ी हवा मिल जाएगी। फिर फ्रंट वालों के अख़बार पढ़ लेना। इसके बग़ैर तुझे खुलकर टट्टी नहीं उतरेगी।" वह अभी भी मुझे कामरेड कहकर बुलाते हैं। शायद वह मुझे पसंद नहीं करते। उन्हें मेरा कामरेड वाला रूप कतई पसंद नहीं था। कह देते थे, "कामरेड बनकर तूने क्या खट लिया? हमारी पार्टी में शामिल हो जा। इसी बात में तेरा फायदा है। सतीश की बातें ध्यान से सुना कर।" जब सुरजन संधू ने मुझे इग्नोर करना
शुरू कर दिया तो मुझे बहुत कुछ भूला-बिसरा याद आने लगा था। मैं गाँव जाता तो मुझे कई बातें तंग करती थीं। विशेष कर यह बात... बीबी को ज्वाले के बूढ़े ने मेंढ़ पर से घास खोदने से हटाया था और चाँटा मारकर बोला था, "ले, रामू ने भैंसें तो दो दो रख लीं, अब हमारी मेंढ़ें सफाचट करने के लिए हैं। ज्यादा ही शौक है तो मोल के पट्ठे डाले।" उसने बीबी द्वारा खोदा हुआ घास भी रखवा लिया था। बीबी घर आकर बहुत कलपी थी। मैंने उसे इतनी ऊँची आवाज़ में बोलते हुए पहली बार सुना था। उसके अंदर इतना गुस्सा समाया हुआ था। पता नहीं लग रहा था कि वह ज़ोर-ज़ोर से रोते हुए क्या से क्या बोले जा रही थी। मैंने तो यही समझा था कि अब वह घास खोदने नहीं जाएगी। आगे से भापा जी ने चुप्पी साध रखी थी। वह गर्दन झुका कर ज़मीन पर लकीरें खींचने लगे थे। मैं उन्हें गरीब और असहाय देख रहा था। उस रात मुझे नींद नहीं आई थी। मैंने यह घटना अपने साथी गुरमेल को बताई थी। उसने मुझे समझाने के लिए कहा था, "हमें छोटी-छोटी बातों के पीछे नहीं जाना है। हमारे लिए पार्टी पहले है। व्यक्ति बाद में।" फिर उसने मुझे एक पेपर पढ़ने के लिए दिया था। इसमें गढ़शंकर के निकट गाँव खेड़ा में रहते बाबू राम चंद की आपबीती छपी थी। उसने लिखा था, "एक बार मैं जंगल-पानी गया। वहाँ बाहर कुएँ पर हाथ धोने लगा तो मेरे पीछे से आकर फुम्मण सिंह ने जो जाति से महतो थो, मेरे पाँच-सात थप्पड़ जड़ दिए। गालियाँ बकीं। कहा - साले, हमारा कुआँ भ्रष्ट कर दिया। मैं तब दूसरी कक्षा में पढ़ता था। उस समय इंस्पेक्टर परीक्षा लेने के लिए आए। उन्होंने प्रश्न किया कि एक व्यापारी ने उन्नीस टोपियाँ खरीदीं। सवा-सवा आने की। उसने दुकानदार को डेढ़ रुपया दिया। दुकानदार उसे क्या लौटाये, क्या नहीं। उस वक्त पहाड़े हुआ करते थे - आधा, पौना, सवाया, डेढ़ा। उन दिनों हमारे पास स्लेटें, तख्तियाँ हुआ करती थीं। मैंने सवाल करके स्लेट एक तरफ उल्टी करके रख दी। शेष लड़कों ने भी अपनी अपनी स्लेटें उल्टाकर रख दीं। इंस्पेक्टर ने उनकी स्लेटें देखीं। काटे मारकर वैसे ही ढेर लगा दिया। फिर उसने मेरी स्लेट उठाई। उसने पूछा कि यह किसकी स्लेट है? मैं खड़ा हो गया। उसने मुझे अपने पास बुलाया और शाबाशी दी। उसी समय फुम्मण सिंह जिसने मुझे थप्पड़ मारे थे, वह भी वहीं आ गया। कहने लगा कि हट परे, यह तो चमार है। इंस्पेक्टर ने कहा कि ये जो स्लेटों का ढेर पड़ा है, इसे ईंट मारकर तोड़ दो। जिसे तुम चमार कहते हो, उस चमार की समझ के आगे तुम सब राजपूत बौने हो। उसने मुझे ईनाम के तौर पर पाँच रुपये दिए। फिर मैंने उन्हें बताया कि ये हमें पोखर में अपनी तख्तियाँ भी धोने नहीं देते तो डविडे रिहाणे के एक मुंशी राधेश्याम ने कहा कि इस बारे में रिपोर्ट दो। रिपोर्ट दी। थानेदार आ गया। सारा गाँव एकत्र हुआ। फिर राजपूतों ने हमसे भरी सभा में माफ़ी माँगी। गुरमेल द्वारा समझाने पर मैं पार्टी की मीटिंग में शामिल होने लगा था। मुझे इस बात का नहीं पता कि उन्होंने अपनी
कथा कहाँ से शुरू की थी। जब मैंने उठकर खिड़की से कान लगाए तो भापा जी कह रहे थे, "गाँव के स्कूल में एक मास्टर हुआ करता था। उसका नाम लालचंद था। गुणी ज्ञानी बंदा। दो वक्त रब का नाम लेने वाला। फारसी पढ़ाता था। न शराब पीता, न शराब पीने वाले के करीब बैठता। न मीट को हाथ लगाता। छिपकर चोरी से सिगरेट पीता। एक बार सोहण वलैतिये ने स्कूल में दो कमरे बनवाने शुरू किए। मैं वहाँ दिहाड़ियाँ किया करता था। मेरी लालचंद के साथ सिगरेट पीने की लत पड़ गई। वह बहुत समझदार बातें किया करता। कई गहरी बातें बताता। एक दिन मुझे बताने लगा, "रामू तुम पूशा की औलाद हो।" मुझे उसकी इस नई घुंडी का पता न लगा। यह कौन से पूशे की बात कर रहा है। मैंने यह नाम पहले कभी नहीं सुना था। लेकिन मुझे उस पर इतना यकीन अवश्य था कि वह मेरे आगे कोई झूठी बात नहीं करता। वह बेधड़क किस्म का व्यक्ति था। सच बात कहते समय आगा-पीछा नहीं देखता था। ले, अब जो घुंडी उसने मेरे सामने खोली थी, तुझे उसके बारे में बताता हूँ। पहले ब्रह्म अकेला था। कोई जात पात नहीं थी। कोई वर्ण-अवर्ण नहीं था। कोई ऊँच नहीं था, कोई नीच नहीं था। उस हालत में उस अलौकिक शक्ति ने अपना रूप फैलाया। क्षत्रियपन विकसित किया। इंदर, वरुण, सोम, रुद्र, मेघ, यम, मृत्यु और सूरज आदि आदि क्षत्रीय देवता पैदा किए। अब बहुत कुछ और भी चाहिए था। व्यापार की आवश्यकता था। फिर उसने वैश्य जाति के वशू, आदित्य और मारुत देवताओं की सृजना की। लेकिन इससे भी संपूर्णता नहीं मिली। मेहनतकशों की फौजें भी चाहिए थीं। इनके बग़ैर संसार कैसे चलता। आख़िर में उसने शूद्र वर्ण के देवता पूशे का सृजन किया।..." भापा जी की सारी उम्र तो 'सार जी' 'सार जी' कहते हुए गुजरी थी। अब पिछली उम्र में आकर अपनी जाति का पता लगा है। वह कां
शी राम और मायावती के भाषणों को उसी एकाग्रता से सुनते हैं जैसे कोई गुरबाणी या भजन सुनता है। सतीश ने बताया था, "बाबा जी, ये सब मनगढ़ंत बातें हैं। मिथ हैं। इसमें कोई भी बात सच नहीं। ब्राह्मणों ने कूड़ा फैलाया हुआ है। इन्होंने हमें इतनी बुरी तरह जकड़ रखा है कि इनमें से निकलने के लिए कई दशक लग जाएँगे। पुराने समय में कई शूद्र मंत्री हुए हैं। इतिहासकारों ने कभी उनका जिक्र तक नहीं किया। कभी समानता का दर्जा नहीं दिया। यह बहुत लंबी कथा है। ...हमारे लोगों को सचेत करने के लिए अंबेडकर के बाद कांशीराम और बहन मायावती का बहुत बड़ा रोल है। यह जो परिवर्तन आया है, यह हमारी राजनीतिक शक्ति, वोटों के कारण आया है। जिसने बता दिया है कि दलित वोटों के बग़ैर कोई भी पार्टी कामयाब नहीं हो सकती। ...आपके समय में हमारे लोगों को कमजात, कुत्ती जात, जूठ, कम्मी, कुतीड़ कहा जाता था। अब हमारे वक्त में भी चमार, डी.एस. फोर, कोटे वाले, दलित आदि कई नाम दिए गए हैं। इन दिनों दलित शब्द ज्यादा चल रहा है।" राजविंदर की आवाज़ आई है, "डैडी जी, डैडी जी तुम्हारा फोन है।" करीब आधे मिनट के लिए मैं सुन्न हुआ ज्यों का त्यों बैठा रहा मानो मुझे राजविंदर की आवाज़ सुनाई ही न दी हो। राजविंदर की आवाज़ पुनः आई है, "डैडी जी, तुम कहाँ हो? तुम्हारा फोन है।" मुझे जाना ही होगा। फोन पर दिलबाग पूछता है, "कैसे हो दलित भाई?" मुझे खिझाने के लिए ही वह रहा है। "बता, शैतान की टूटी।" "कहीं सीबो तेरे पास तो नहीं बैठी? तूने सारी उम्र जनानी से डरते हुए गुजार दी। उसने तुझे घुटनों के नीचे से निकलने नहीं दिया। सुन रहा है, मैं क्या कह रहा हूँ?" "चल चल पंडित, कह जो कहना है।" "मेरे बताए नुस्खे का क्या हुआ?" "यह उसी से आकर पूछ लेना।" "देख ले, मैं पूछ भी लूँगा। फिर न चड्डियों में पूँछ दबाकर दौड़ते रहना।" "तूने कुछ और बकना है।" "दलित भाई, गुस्से में क्यों बोलता है। मुझे पता चला कि अब तू भी मायावाती का पक्का चेला बन जाएगा।" इसे कैसे पता चला कि मैं बहुजन समाज पार्टी में शामिल हो रहा हूँ। ज़रूर सतीश ने बताया होगा या भापा जी ने बात की होगी। इसे पूरे घर की हर बात का पता होता है। पर मैंने तो अपने मन की बात किसी से साझा नहीं की। मन की गाँठें नहीं खोलीं। "शहर में इतना इतना नुकसान करवा कर खुश हो?" वह गुस्से से कहता है। मैं टेलीफोन काट देता हूँ। अरे! यह क्या? बुक एडजस्टमेंट वाली सारी जगह पर उस बुज़ुर्ग का चेहरा फैलता जा रहा है। हाँ, यही बुज़ुर्ग है। मेरी नज़रें धोखा नहीं खा सकतीं। मैंने उसे पहचान लिया है। भापा जी को भी अवश्य दर्शन देता होगा। इसलिए उन्होंने कोठी के पिछवाड़े दीवार में एक आला बनवाया था। बिलकुल एक कोने में। मुझसे डरते हुए उनका साहस अंदर बनाने का नहीं हुआ था। वह इतवार वाले दिन इसे धोते, सुच्चे कपड़े से साफ करते। फूल रखते। नतमस्तक होते। चिराग जलाते। काफ़ी पुरानी बात थी। एक दिन वह दिल्ली चले तो मुझे उन्होंने कहा था, "तू चिराग ज़रूर करना।" मुझस
े इनकार न हो सका, पर मेरा मन बिलकुल भी इस तरफ नहीं गया। दूसरे दिन इतवार आ गया। घड़ी ने छह बजाये। मैं तेल की शीशी लेकर आले की तरफ जाता हुआ बहुत परेशानी महसूस कर रहा था। मन बार बार कह रहा था कि दो ईंटें उठाकर इसे बंद कर दूँ। असमंजस की स्थिति में मैंने दीया तेल से भर दिया। तीली जलाने के समय मेरे हाथ काँपे। उसी समय मुझे लगा मानो किसी ने कहा हो, "बड़े कामरेड! दरख़्त भी जड़ों बग़ैर नहीं होते। तू अपने बड़े-बुज़ुर्गों को ही भूल गया। कभी देखना, सोचना। मैं किन हालातों में जीता रहा हूँ।" अर्द्ध-चेतनावस्था की हालत में मैंने चिराग जलाया था। उसी रात वह बुज़ुर्ग पहली बार मुझे सपने में दिखाई दिया था। हाँ, यही बुजुर्ग है। मेरा पूर्वज़। मैं उसके अंश में से हूँ। मेरी नज़रें धोखा नहीं खा सकतीं। मैंने उसे पहचान लिया है। मैं देख रहा हूँ... धुंध तो पहले पहर की पड़नी शुरू हो गई थी। आगे चला जा रहा आदमी दिखाई नहीं देता। चुपचाप। जैसे सारी कायनात सोई पड़ी हो। गाँव की तरफ से कुम्हार की आवाज़ आई, "जवान, दौड़कर गधों के आगे हो जा। कहीं कोई ससुरा कुएँ में ही न गिर पड़े। इतनी ठंड में बाहर कौन निकालेगा।" सुनते ही बुज़ुर्ग खुलकर हँसा। वह मन में सोचने लगा, मैंने अपने होश में कभी गधा कुएँ में गिरता नहीं देखा। न ही सुना। इसके जानवर पेशावर से आए लगते हैं। "ले, अब सो गया सैब बहादुर, ओए करमे, भैण के लक्कड़। सुस्त पड़ गया। ज़रा भरपूर झौका लगा तो।" जोगिंदर ने कड़ाहे में से पौनी से मैल निकालते हुए कहा, "पत्त उठने वाली समझ।" करमे ने शहतूत के पेड़ की गुलेल से गन्ने के छिलके का बड़ा सा ढेर खींचा। आग को तेज कर दिया। लपटें बाहर को आईं। वह राम राम करता मुँह पर हाथ फेरने लगा। दिन बीतते पता ही नहीं चला था। यह आज की पाँचवी और अं
तिम पत्त (शीरा)थी। "अब ऐसा करो। पहले ये टोकरे घर छोड़ आओ। भेलियाँ मैं खुद बना लूँगा।" जोगिंदर ने कहा तो करमे ने लँगोटी का घुटनों के बीच लटकता सिरा खोंसा, उबासी ली, खेस को लपेटा और कीकर पर से बींडी उतारकर टोकरे को आ हाथ डाला। छिंदर करमे से काफ़ी आगे निकल गया था। जोगिंदर ने भारी टोकरा उसे उठवाया था। इस लालच में कि एक चक्कर बच जाएगा। वह चरागाह में पड़ती ईंखों में से निकलने लगा तो उसे भ्रम हुआ जैसे किसी के बोझ से ईंख का पूला टूटा हो। कड़क-सी आवाज़ आई थी। उसके सिर पर इतना भारी टोकरा था कि उसके लिए सिर घुमा कर ईंख की तरफ देखना भी बहुत कठिन था। उसके मन में आया कि उसे कोई टोकरा उतरवाने वाला मिल जाए तो वह देखे कि कौन-सा जानवर है। वह कुछ पल खड़ा रहा। अब आवाज़ नहीं आ रही थी। उसने एक हाथ की ओट करके आगे की ओर देखा, उसे आगे से छिंदर लौटता हुआ दिखाई दिया। दुविधा में ही वह आगे चल पड़ा। उसका साँस उखड़ा-उखड़ा रहा। वह अपने आप को परेशान सा महसूस करने लगा। अगले पल ही उतरती आती रात का ख़याल आते ही उसने अपनी चाल तेज़ कर दी। दूसरे चक्कर पर मुड़ा तो उसे ईंख के कोने से आवाज़ आई। वह खड़ा हो गया। आवाज़ फिर आई, "बापू, मुझे यह गट्ठर उठवाना।" वह आवाज़ की दिशा में चल दिया। बोझ ने उसकी हालत बुरी कर रखी थी। जगीरो ने खोरी का गट्ठर अपने बूते से बाहर बाँध रखा था। "तू थी मरजाणी।" करमे ने शक भरी नज़रों से उसे घूरा। जगीरो की आवाज़ में घबराहट थी। उससे जगीरो की ओर अधिक देर देखा न गया। उसने गट्ठर को हाथ लगवाने की की। बेध्यानी में गट्ठर एक तरफ से खुल गई। जगीरो बोली, "दिन खराब होता जाता था। मैंने सोचा, दो गट्ठर लेती जाऊँ। एक तो मैं घर में फेंक आई हूँ।" करमा आगे से कुछ न बोला, पर उसके मन में यह ज़रूर आया था कि वह जगह देखकर आए जहाँ पूला टूटने की आवाज़ आई थी। उसके पैर उधर जाने की बजाय छिंदर की तीखी आवाज़ के पीछे बढ़े, "ओए बहनचोदे चमार... तूने खुद तो देर करनी ही होती है, मुझे भी संग टाँग लेता है।" वापस आते हुए ईंख के पास आकर उसके पैर मन मन भारी होने लगे। उसके मन में तेज़ी से यह विचार आया, कहीं जगीरो तो नहीं थी? पीछे आते छिंदर की फट फट करती जूती की आवाज़ ने उसके पैरों में भी तेजी ला दी। उसे पता ही नहीं चला कि कब घर का आँगन पार कर आया। जगीरो ने फुर्ती से उसकी ओर बढ़ते हुए मैल के टोकरे को हाथ डाला। उसने उसकी तरफ अजीब नज़रों से देखा। मुँह से कुछ न बोला। वह डर गई। उसने अपनी घबराहट दबाकर कहा, "बापू, तू यूँ ही क्यों परेशान हुआ। मुझे बुला लेता।" प्रत्युत्तर में वह चुप रहा और सीधा दालान पार कर गया। चिंती रजाई में मुँह-सिर छिपाए पड़ी थी। वह उसके पैताने बैठ गया। वह कहना तो यह चाहता था कि सोने से पहले जगीरो से ईंख वाली बात पूछना, पर उसकी हिम्मत न पड़ी। वह पूछने लगा, "कैसी है अब तेरी तबीयत?" चिंती ने रजाई में से मुँह बाहर निकाला। उसे कँपकँपी के साथ ज़ोरों की खाँसी भी छिड़ी। "पड़ी रह, पड़ी रह।" कहते हुए उसने चिंती की
रजाई चारों तरफ से अच्छी प्रकार खोंस दी। पूछने लगा, "मैं केहरू से दोशांदा बनवा लाऊँ? उसी से तुझे आराम आएगा।" "मैं कहीं नहीं मर चली। तू आराम से बैठ।" चिंती ने अपना आप सँभाला। हिम्मत की और दीवार से पीठ टिकाकर बैठ गई। जगीरो अंदर आई और पूछने लगी, "बेबे, मैल का क्या करना है?" चिंती ने कहा, "पड़ी रहने दे।" इन दिनों में चिंती का दमा कुछ अधिक ही बिगड़ गया था। वह खाट से लग गई थी। वैसे वह कहाँ टिककर बैठने वाली थी। तीनों घरों का गोबर-कूड़ा करती। भैंस के चारे के लिए भी बाहर अंदर आती-जाती। "सवेर का कुछ खाया-पिया भी है कि नहीं?" जगीरो के जाने के बाद उसने पूछा। चिंती ने उसकी ओर मोह भरी नज़रों से देखा। बताने लगी, "मुझे दोपहर के समय बेचैनी सी हुई थी। जगीरो तो लंबरदारों के गई थी। मैंने कहा - चल मन उठ। रात की रोटी पड़ी थी। मैंने रोटी को भूरा। लस्सी में नमक-मिर्चें डालीं। मुझे बड़ी स्वाद लगी।" "तूने अब क्या खाना है?" वह कहना तो कुछ और ही चाहती थी पर बोली, "जगीरो ने छोलों की दाल चढ़ा रखी है। उसके साथ दो रोटियाँ खा लो।" उससे चिंती की तरफ देखा न गया। रोटी खाकर उसने चारपाई पर लेटने की की। जगीरो वाली घटना ने कुछ समय तक उसे परेशान किया। फिर उसे अपने बुजुर्गों की नसीहत याद आ गई, "यह हमारी होनी है। पंचायत और पुलिस के पास शिकायत करके कुछ नहीं होगा।" "डैडी जी, डैडी जी, डैडी जी," राजविंदर ने लगातार आवाज़े दीं थी पर मुझे कुछ भी नहीं सुनाई दिया था। "डैडी जी... डैडी जी..." उसने मुझे झकझोरते हुए कहा है, "आप कहाँ खो गए?" "कहीं भी नहीं।" "सो तो नहीं गए थे?" "सॉरी बेटे, आय एम रीयली सॉरी।" "चलो, खाना खा लो।" "मुझे तो अभी भूख ही नहीं।" "जितनी है, उतना खा लो। चलो चलो उठो।" "बेटा, तू मुझे यहीं दो फुलके ला दे।" सीबो अभ
ी तक नहीं लौटी। उसका कोई फोन भी नहीं आया। कहीं पुलिस ने न पकड़ लिया हो। पर पुलिस औरतों को तो कुछ नहीं कहती। लड़के भी नहीं कहते। क्या पता वह वीना के पास ही सो जाए। सवेर को सैर करती हुई लौट आएगी। इतनी जल्दी तो मुझे नींद नहीं आने वाली। क्यों न दिलबाग को छेड़ूँ। पर यदि आगे से उसने कोई और घुंडी खोल दी तो मुझे गोली खाने के बाद भी नींद नहीं आएगी। मैं दीवार से कान लगाकर भापा जी के कमरे का सुराग लेता हूँ। वे सो गए हैं। मैं एक के बाद एक चैनल बदलता हूँ। चवालीस नंबर पर 'आज तक' वाला प्रभु चावला मायावती से पूछ रहा है, "आपके यू.पी. के चुनाव जीतने के क्या कारण हैं?" "मैंने ब्राह्मणों और मुसलमानों को संग लेकर चुनाव लड़ा। एस.सी. मिश्रा की ब्राह्मण वोटों को अपने साथ जोड़ने की जिम्मेदारी सौंपी। नसीमुद्दीन सिद्दीकी को मुस्लिम वोटों की। मैंने छयासी ब्राह्मणों और स्वर्णों को कुल एक सौ चवालीस सीटों पर खड़ा किया था। मेरा नारा था - हाथी नहीं, गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश है। जै भीम, जै गणेश...।" "आपका सपना क्या था?" "मेरा सपना है बहुजन समाज, जिसमें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के अलावा बहुजन समाज से जुड़े सिक्ख, मुसलमान, बौद्ध, पारसी और ईसाई भी शामिल हैं। ऊँची जाति के वे लोग भी शामिल हैं जिनकी सोच मनुवादी नहीं है। मैं आरंभ से मानवता में विश्वास करती हूँ। मैं गरीब, दबे-कुचले और शोषित वर्ग को समर्थ बनाना चाहती हूँ ताकि उनकी सुरक्षित सीटें पूरी तरह भरी जा सकें।" मुझे गुस्सा आने लगा है। मायावती भी कांग्रेस वाली बोली बोलने लग पड़ी है। इसने गरीबों का क्या भला करना है। मैं सिर को ज़ोर देकर झटके देता हूँ। मेरे मुँह से निकलता है - दुनियाभर के मेहनतकशो, एक हो जाओ। मैं अपनी ज़िंदगी की बैलेंसशीट पर मोटे मोट अक्षरों में लिखता हूँ : 'नहीं, मैं दलित नहीं हूँ।' यह कागज थामे सतीश के कमरे की ओर चल पड़ता हूँ, यह जानते हुए भी कि वह अब सो गया होगा।
नहीं। तुम धोखा दे सकते हो, बेईमानी कर सकते हो, सिर्फ इसलिए कि प्रेम का अभाव है। समस्त पाप प्रेम की गैर-मौजूदगी में पैदा होते हैं। जैसे प्रकाश न हो तो अंधेरे घर में सांप, बिच्छू, चोर, बेईमान, लुटेरे सभी का आगमन हो जाता है। मकड़ियां जाले बुन लेती हैं। सांप अपने घर बना लेते हैं। चमगादड़ निवास कर लेते हैं । रोशनी आ जाए, सब धीरे-धीरे विदा होने लगते हैं। प्रेम रोशनी है। और तुम्हारे जीवन में प्रेम का कोई भी दीया नहीं जलता, इसलिए पाप है। पाप के पास कोई विधायक ऊर्जा नहीं है। कोई पाजिटिव एनर्जी नहीं है। पाप सिर्फ नकारात्मक है। वह सिर्फ अभाव है। तुम कर पाते हो, क्योंकि जो तुम्हारे भीतर होना था वह नहीं हो पाया। थोड़ा समझें। तुम क्रोध करते हो, और सारे धर्म-शास्त्र कहते हैं क्रोध मत करो। लेकिन अगर तुम्हारी जीवन-ऊर्जा का बहाव प्रेम की तरफ न हो तो तुम करोगे भी क्या? क्रोध करना ही पड़ेगा। क्योंकि क्रोध, ठीक से समझो तो वही प्रेम है, जो मार्ग नहीं खोज पाया। वही ऊर्जा जो फूल नहीं बन पायी, कांटा बन गयी है। प्रेम है सृजन। और अगर तुम्हारे जीवन में सृजनात्मकता, क्रिएटीविटी न हो पाए, तो तुम पाओगे कि तुम्हारी जीवनऊर्जा विध्वंसात्मक हो गयी, डिस्ट्रक्टिव हो गयी। तुम्हारे संतों में और तुम्हारे शैतानों में जो फर्क है, वह इतना ही है कि एक की जीवन-ऊर्जा विध्वंस बन गयी है और एक की जीवन-ऊर्जा सृजन बन गयी है। तो जो आदमी भी सृजन कर सकता है, वह शैतान नहीं हो सकता। और जो आदमी भी सृजन नहीं करता, वह लाख अपने को समझाए कि संत है, वह संत नहीं हो सकता। क्योंकि ऊर्जा का क्या होगा? जीवन-शक्ति है, उस शक्ति का तुम क्या करोगे? कुछ होना चाहिए। अगर तुम प्रेम करने लगो तो तुमने उसी शक्ति के लिए नयी नहरें खोद दीं। अगर तुम्हारे जीवन में कहीं प्रेम न हो तो तुम्हारी सारी जीवन-शक्ति क्या करेगी? तोड़ेगी, फोड़ेगी, मिटाएगी। अगर तुम बनाने में न लगा सके तो मिटाने में लगोगे। पुण्य जीवन-ऊर्जा की विधायक स्थिति है, पाप नकारात्मक। पाप से सीधा संघर्ष करने की कोई भी जरूरत नहीं है। मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, क्रोध बहुत है, क्या करें? मैं उनसे कहता हूं, क्रोध का तो तुम विचार ही मत करो। क्योंकि तुम जितना विचार करोगे क्रोध का, क्रोध को उतनी ही ऊर्जा मिलेगी। जिस चीज का हम विचार करते हैं, उसी तरफ शक्ति बहने लगती है। शक्ति के बहने का ढंग विचार है । विचार नहर की तरह है। तुम जिस तरफ ध्यान देते हो, उसी तरफ तुम्हारा जीवन बहने लगता है। जैसे हमने एक तालाब के पास एक नहर खोद दी, उस नहर से तालाब का पानी हम खेत में ले जाने लगे। जीवन की जो ऊर्जा है, ध्यान उसके लिए नहर है। तुम जिस तरफ ध्यान देते हो, उसी तरफ जीवन की धारा बहने लगती है। गलत ध्यान हुआ, गलत तरफ बहने लगेगी। ठीक ध्यान हुआ, ठीक तरफ बहने लगेगी। प्रेम, ठीक ध्यान का नाम है। और नानक कहते हैं, जिस दिन तुम्हारा प्रेम परमात्मा के नाम की तरफ बहेगा, रंग गए तुम! फिर धुल जाओगे। और फिर अत
ीत के पाप से ही नहीं धुल जाओगे, भविष्य की संभावना से भी धुल जाओगे। इसके पहले कि गंदे होओ, धुले रहोगे। तुम सद्यस्त्रात हो जाओगे। तुम प्रतिपल नहाए हुए होओगे। इसलिए जब तुम कभी किसी ज्ञानी के पास जाओगे तो एक सद्यस्त्रात प्रतीति तुम्हें होगी। जैसे वह प्रतिपल नहाया हुआ है। जैसे अभी-अभी नहा कर निकला हुआ है । एक वैसी ताजगी, जो सुबह की ओस के पास प्रतीत होती है, तुम्हें संत के पास होगी। और उसका कारण सिर्फ इतना है कि धूल इकट्ठी ही नहीं होती। प्रेम के अभाव में धूल इकट्ठी होती है। और प्रेम से उसे धोया जा सकता है। तो प्रेम के संबंध में पहली बात कि तुम्हारी जीवन-ऊर्जा विध्वंस न बने। क्योंकि विध्वंस ही पाप है। क्या है पाप? जब तुम कुछ तोड़ते हो, भविष्य में कुछ बनाने के ख्याल से नहीं, सिर्फ तोड़ने में ही रस लेने के लिए। क्योंकि तोड़ना दो तरह का हो सकता है। एक आदमी मकान गिराता है, ताकि नया बनाया जा सके। वह तोड़ना नहीं है। वह तो बनाने की प्रक्रिया का अंग है। जब तुम कुछ तोड़ते हो, सिर्फ तोड़ने के लिए, तब पाप हो जाता है। समझो, तुम्हारा छोटा लड़का है। तुम उसे कभी चांटा भी मारते हो, लेकिन वह चांटा पाप नहीं है। अगर वह प्रेम से मारा गया है, तो सृजनात्मक है। वह उस बच्चे को मिटाने के लिए नहीं है, वह उस बच्चे को बनाने के लिए है। तुमने भरपूर प्रेम से मारा है। तुमने मारा ही इसलिए है कि तुम प्रेम करते हो। और अगर प्रेम न होता तो तुम फिक्र ही नहीं करते। भाड़ में जाओ! जो करना हो, करो । एक उपेक्षा होती है कि ठीक है! जहां जाना हो, जाओ। जो करना हो, करो । एक उदासी होती है। लेकिन तुम प्रेमपूर्ण हो, इसलिए तुम बच्चे को हर कहीं नहीं जाने दे सकते। वह आग में गिरना चाहे तो आग में नहीं गिरने दोगे। तुम उसे रोकोगे। तुम उसे
मार भी सकते हो। लेकिन उस मारने में पाप नहीं है, उस मारने में पुण्य है। क्योंकि सृजन हो रहा है। तुम कुछ बनाना चाहते हो। लेकिन तुम एक दुश्मन को मारते हो। चांटा वही है, हाथ वही है, ऊर्जा वही है। लेकिन जब तुम दुश्मन के भाव से मारते हो, तो तुम कुछ बनाने को नहीं मारते, तुम कुछ मिटाने को मारते हो। पाप हो गया! कृत्य पाप नहीं होते। तुम्हारे भीतर की दृष्टि अगर विधायक है, तो कोई कृत्य पाप नहीं है। अगर तुम्हारी दृष्टि विध्वंसात्मक है, तो सभी कृत्य पाप हैं। सूफी कहानी है। एक गांव में एक सूफी आया । उसे किसी यात्रा पर जाना था। पहाड़ों में छिपा हुआ एक छोटा सा मंदिर था, जिसकी वह तलाश कर रहा था। तो उस सूफी फकीर ने गांव के लोगों से पूछा एक चाय घर के सामने जा कर कि इस गांव में सबसे सच्चा आदमी कौन है? और सबसे झूठा आदमी कौन है? गांव के लोगों ने बता दिया। छोटे गांव में सभी को सभी का पता होता है कि सबसे झूठा आदमी कौन है, सबसे सच्चा आदमी कौन है। वह सूफी सबसे सच्चे आदमी के पास गया पहले । और उसने पूछा कि मैं उस छिपे हुए मंदिर की तरफ जाना चाहता हूं, जिसकी चर्चा शास्त्रों में सुनी है। अगर तुम्हें मार्ग पता हो तो सबसे सुगम मार्ग क्या है, वह मुझे बता दो। तो उसने कहा, सबसे सुगम मार्ग पहाड़ों से ही हो कर जाता है। और इस-इस विधि से तुम चलो, लेकिन पहाड़ों से गुजरना होगा। वह आदमी फिर सब से झूठे आदमी के पास गया । और बड़ा हैरान हुआ। क्योंकि उस झूठे आदमी से भी उसने पूछा, तो उसने कहा कि सबसे सुगम मार्ग पहाड़ों से गुजरता है। और यह यह मार्ग है और तुम्हें इस-इस भांति जाना होगा। दोनों के उत्तर समान थे। तब वह बड़ा हैरान हुआ। तब उसने गांव में जा कर तलाश की कि यहां कोई सूफी तो नहीं है! कोई फकीर तो नहीं है! ध्यान रखना, सच्चा आदमी, झूठा आदमी दो छोर हैं। और जब कोई आदमी संतत्व को उपलब्ध होता है तो दोनों के पार होता है। अब यह बड़ी मुश्किल में पड़ गया कि किसकी मानूं? और उसने सोचा था कि झूठा आदमी विपरीत बात कहेगा। लेकिन पापी, पुण्यात्मा दोनों ने एक ही उत्तर दिया, अब कौन सही है? तो वह एक सूफी फकीर का पता लगा कर उसके पास गया। उस फकीर ने कहा, दोनों ने एक सा उत्तर दिया है, लेकिन दोनों की नजर अलग-अलग है। सच्चे आदमी ने इसलिए तुम्हें कहा कि तुम पहाड़ से हो कर जाओ... । एक मार्ग नदी से हो कर भी जाता है, वह उसे पता है। लेकिन न तो तुम्हारे पास नाव है जिससे तुम यात्रा कर सको, और न नाव से यात्रा करने के अन्य साधन और सामग्री तुम्हारे पास है। फिर तुम्हारे पास यह गधा भी है जिस पर तुम सवार हो । यह पहाड़ पर तो सहयोगी होगा, नाव में उपद्रव होगा। इसलिए तुम्हारी पूरी स्थिति को सोच कर उसने कहा कि तुम पहाड़ से जाओ। सुगम मार्ग तो नाव से है। लेकिन तुम्हारी स्थिति देख कर सुगम मार्ग पहाड़ से बताया गया। और झूठे आदमी ने इसलिए पहाड़ से कहा, ताकि तुम मुसीबत में पड़ो। सुगम मार्ग तो नाव से है, नदी से है, और झूठे आदमी ने इसलिए कहा है कि पहाड़ स
े जाओ, ताकि तुम मुसीबत में पड़ो। वह तुम्हें सताना चाहता है। उत्तर एक से हैं, दृष्टि भिन्न है। कृत्य भी एक से हो सकते हैं। इसलिए कृत्यों से कुछ तय नहीं होता। अंतर्भाव से तय होता है। इसलिए तो बेटे को बाप मार देता है, इसका कोई हिसाब नहीं रखा जाता। मां बेटे को मार देती है, इसका कोई हिसाब नहीं रखा जाता। सच तो यह है कि मनस्विद कहते हैं, जिस मां ने अपने बेटे को कभी नहीं मारा, उस मां और बेटे के बीच कभी कोई गहरा संबंध न बन सकेगा। क्योंकि आत्मीयता ही नहीं बन सकी। अगर तुम बेटे को मारने से डरते हो, तो तुम उसे अपना ही नहीं मानते। फासला है। जो बाप बेटे की हर इच्छा पर झुक जाएगा, बेटा उसे कभी माफ नहीं कर सकेगा। क्योंकि जिंदगी में वह पाएगा कि बाप ने उसे बरबाद कर दिया। क्योंकि बेटा तो अनुभवी नहीं है। इसलिए उसकी मांगों का कोई बहुत अर्थ नहीं है। बाप को सोचना ही पड़ेगा कि कौन सी मांग ठीक है और कौन सी गलत। वह ज्यादा अनुभवी है और अगर प्रेम करता है बेटे को तो वह अपने अनुभव से तय करेगा, बेटे की मांग से नहीं। और अगर किसी बाप ने बेटे को पूरी स्वतंत्रता दे दी, तो बेटा कभी क्षमा नहीं कर पाएगा। इसलिए तो पश्चिम में बेटे बाप को क्षमा नहीं कर पा रहे हैं। और पश्चिम में बाप ने जितनी स्वतंत्रता बेटे को दी है, दुनिया में कभी नहीं दी गयी थी। पिछले सौ वर्षों के विचारकों ने यही समझाया कि बेटों को पूरी स्वतंत्रता दो। और उसका परिणाम यह हुआ कि बेटे और बाप के बीच इतनी बड़ी खाई पैदा हो गयी है कि उसे पाटना मुश्किल है। पुराने जमाने में बेटे बाप से डरते थे, पश्चिम में बाप बेटों से डर रहे हैं। और पुराने जमाने में बेटे बाप को अंत तक श्रद्धा देते थे। और नए पश्चिम में रत्तीभर श्रद्धा का भाव नहीं है, प्रेम का भाव नहीं है। और का
रण क्या है? कारण यह है कि बेटा एक न एक दिन पाएगा कि बाप ने मुझे बरबाद किया। उसे रोकना था। अगर मैं गलत कर रहा था तो उसे रोकना था। अगर मैं भटक रहा था तो उसे रोकना था। क्योंकि वह अनुभवी था, मैं गैर-अनुभवी था। मेरी बात क्यों सुनी? उसे झुकना ही नहीं था। यह बेटा अनुभव करेगा। इसे ध्यान रखना। क्योंकि प्रेम चिंता करेगा। दूसरे का जीवन शुभ हो, सुंदर हो, सत्य हो, महिमा को उपलब्ध हो । उपेक्षा का अर्थ ही है कि कोई आत्मीयता नहीं। जो भी होना हो, हो । हमारा कोई प्रयोजन नहीं है। संयोग की बात है कि तुम बेटे हो । संयोग की बात है कि मैं पिता हूं। अन्यथा कुछ लेना-देना नहीं है। तो पश्चिम में अंतःसंबंध गिर गए हैं। प्रेम भी मार सकता है, क्योंकि प्रेम इतना सबल है। और प्रेम इतना आस्थावान है कि विध्वंस से भी सृजन को ला सकता है। लेकिन एक बात ध्यान रखनी जरूरी है। सृजन हमेशा लक्ष्य होगा। विध्वंस अगर जरूरी है, तो हमेशा विधि होगी। गुरु तो शिष्य को बिल्कुल ही मारता है। मार ही डालता है। कोई बाप इतना नहीं मार सकता। क्योंकि बाप की चोटें तो ऊपर-ऊपर होंगी, शरीर पर होंगी। जैसे पानी शरीर का मैल धोता है, वैसे बाप शरीर को, जीवन को ठीक करेगा। उसकी चोट ऊपर-ऊपर होगी। गुरु तो भीतर मारेगा। गहरी चोट करेगा। जहां तक तुम्हें पाएगा, वहां तक छेदेगा। वह तुम्हारे अहंकार को गला कर ही रहेगा। और जब तक तुम ऐसा गुरु न पा लो, तक समझना कि जिसे तुमने पा लिया है, उसे तुम माफ न कर सकोगे। आज नहीं कल तुम पाओगे, उसने तुम्हारा जीवन, तुम्हारा समय नष्ट किया है। प्रेम का लक्ष्य है सृजन - - एक बात । और जब तुम सृजनात्मक होते हो जीवन-संबंधों में, तुम पाप नहीं कर सकते। और जब मैं प्रेम करता हूं तो पाप कैसे संभव है? प्रेम धीरे-धीरे फैलता जाएगा तो तुम पाओगे, मैं ही हूं सभी के भीतर छिपा हुआ। किसकी चोरी करूं? किसको धोखा दूं? किसकी जेब काटूं! क्योंकि जितना तुम्हारा प्रेम बढ़ेगा उतना ही तुम पाओगे कि ये सारी जेबें अपनी ही हैं। और इधर मैं किसी को नुकसान पहुंचाता हूं, वह नुकसान अंततः मुझे ही पहुंच जाता है । जीवन एक प्रतिध्वनि है। प्रेम करने वाले को पता चलता है कि जीवन एक प्रतिध्वनि है। तुम जो करते हो वह तुम पर ही बरस जाता है। जितना तुम्हारा प्रेम बढ़ता है, उतना तुम्हें यह साफ होने लगता है कि यहां पराया कोई भी नहीं है। जिस व्यक्ति से तुम्हारा प्रेम हो जाता है, उससे परायापन मिट जाता है। तुम अपनी पत्नी को दुख न पहुंचाना चाहोगे। क्योंकि उसे पहुंचाया गया दुख अंततः तुम्हें ही पहुंचाया गया दुख सिद्ध होता है। वह दुखी होती है तो तुम दुखी होते हो। तुम चाहोगे, वह सुखी रहे। क्योंकि वह जितनी सुखी होती है उतनी तुम्हारे सुख की संभावना बढ़ जाती है। तब तुम पाओगे कि दूसरे को दिया गया दुख तुम्हें भी दुखी करता है। दूसरे को दिया गया सुख तुम्हें भी सुखी करता है। हालांकि हम बिल्कुल उलटी भाषा में सोचते हैं। हम सोचते हैं, अपने को सुख दो और दूसरे को दुख दो। शायद इससे
हमारा सुख बढ़ेगा। तुम आखिर में पाओगे कि तुम दुख ही दुख से भर गए। क्योंकि जो तुम दूसरे को देते हो वही लौटता है। तुमने अगर सबके लिए कांटे बोए हैं, तो तुम आखिर में पाओगे कि तुम्हारा पूरा जीवन कांटों से भर गया है। और तुमने अगर फिक्र ही नहीं की कि दूसरे क्या कर रहे हैं, तुम फूल बोते गए, तो आखिर में तुम पाओगे कि जो तुमने बोया है वही तुम काटोगे। जो दूसरों ने बोया है, उनकी फसलें उनके लिए। लेकिन हम उलटा चलते हैं। एक महिला मुझसे पूछने आयी थी। वह पति को तलाक देना चाहती है। उसने जो बात पूछी वह मुझे भूलती नहीं। उसने मुझसे पूछा कि क्या तलाक देने की ऐसी भी कोई तरकीब है कि मेरे पति को इससे खुशी न मिले? वह जानती है भलीभांति कि तलाक देने से खुशी मिलेगी। क्योंकि उसने काफी सताया है पति को। अब वह यह भी इंतजाम करना चाहती है कि तलाक भी हो, तो भी इंतजाम ऐसा हो कि पति को खुशी न मिल पाए। हम साथ हो कर भी दुख देना चाहते हैं, दूर हो कर भी दुख देना चाहते हैं। ज. ुडे हों तो भी दुख देना चाहते हैं, अलग हो जाएं तो भी दुख देना चाहते हैं। लेकिन ध्यान रखें, जब तुम इतना दुख देना चाहोगे तो तुम्हारी दुख के प्रति जो इतनी आतुरता है, तुम्हारा दुख पर जो इतना ध्यान है, वह धीरे-धीरे तुम पाओगे कि तुम्हारे भीतर दुख का घाव इसी ध्यान से निर्मित होता जाएगा। इसको ही तो हमने कर्म की जीवन पद्धति कहा है, जीवन का नियम कहा है। कर्म का कुल इतना ही अर्थ है कि तुम जो करते हो, अंततः तुम्हीं को मिल जाता है। देर अबेर हो सकती है। इसलिए तुम वही करना, जो तुम चाहते हो कि तुम्हें मिले। तुम अगर इतने नर्क में खड़े हो तो किसी और के कारण नहीं। जन्मों-जन्मों में जो तुमने किया है, उसका फल है। लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, आशीर्वाद दे दें कि ज
ीवन में सुख हो जाए। अगर आशीर्वादों से सुख होता होता, तो एक आदमी सभी को सुखी कर देता। क्योंकि आशीर्वाद देने में क्या कंजूसी? इतना आसान नहीं है। तुमने दुख बोया है, मेरे आशीर्वाद से कैसे कटेगा ? तुम मुझसे समझ लो । आशीर्वाद मत मांगो। क्योंकि आशीर्वाद तो बेईमानी का ढंग है। दुख तुमने दिया है न मालूम कितने लोगों को। तुमने दुख बोया है सब तरफ । अब तुम उसकी फसल काटने के वक्त आशीर्वाद मांगने आ गए! और तुम्हारे ढंग से ऐसा लगता है कि जैसे अगर तुम्हें दुख मिल रहा है, तो मैं आशीर्वाद नहीं दे रहा हूं इसलिए दुख मिल रहा है। किसी के आशीर्वाद से तुम्हारा दुख न कटेगा। किसी के आशीर्वाद से तुम्हारी समझ बढ़ जाए तो काफी। किसी के आशीर्वाद से तुम में प्रेम का बीज आ जाए तो काफी। पाप तो प्रेम से कटेगा। और दुख तो तुम जब दूसरों के लिए सुख बोने लगोगे तब कटेगा। नानक कहते हैं, बुद्धि पापों से भरी हो तो वह नाम के प्रेम से ही शुद्ध की जा सकती है । और जब एक व्यक्ति से तुम प्रेम करते हो, तो उसे दुख देना मुश्किल हो जाता है। क्योंकि उसका सुख तुम्हारा सुख, उसका दुख तुम्हारा दुख। उसके जीवन और तुम्हारे बीच की सीमा टूट गयी। तुम एक-दूसरे में बहते हो। जब ऐसी ही घटना किसी व्यक्ति के और परमात्मा के बीच घटती है, तो उसका नाम प्रार्थना, आराधना, पूजा, भक्ति। वह प्रेम का अंतिम स्वरूप है। और जब तुम एक व्यक्ति को सुख दे कर इतने सुखी हो जाते हो, और जब तुम एक व्यक्ति को दुख दे कर इतने दुखी हो जाते हो, तो परमात्मा से भी तुम्हारे दो संबंध हो सकते हैं। एक तो प्रेम का, तब तुम स्वर्ग में हो जाओगे। और एक अप्रेम का, तब तुम नर्क में गिर जाओगे। परमात्मा का अर्थ है, समस्त, दि टोटैलिटी। यह जो सारा विस्तार है, इस सारे विस्तार के साथ इस भांति प्रेम, जैसे यह एक व्यक्ति हो। और इस प्रेम में तो तुम्हारे सारे पाप बह जाएंगे। क्योंकि यह प्रेम तो तुम्हें सबके ही प्रेम में गिरा देगा। तुम किसे धोखा दोगे? तुम जहां भी धोखा देने जाओगे, उसी को पाओगे झांकता हुआ। तुम जिस आंख में भी झांकोगे, वहीं परमात्मा को बैठा हुआ पाओगे। भक्ति बड़ी क्रांतिकारी प्रक्रिया है। भक्ति का अर्थ है, अब उसके सिवाय कोई भी नहीं। और तब तुम्हारा जीवन अनायास सरल हो जाएगा। क्योंकि अब पाप करने को न बचा। मिटाना किसको है? धोखा किसे देना है ? छीनना किससे है? तो भक्ति से तुम यह अर्थ मत समझना कि मंदिर में तुम पूजा कर आते हो; कि गुरुद्वारे में जा कर तुम जपुजी का पाठ कर लेते हो; कि तुम यह मत समझना कि रोज उठ कर तुम जोर से जपुजी यांत्रिक रूप से दोहरा लेते हो; कि नमाज पढ़ लेते हो। इन सबसे कुछ भी न होगा। क्योंकि फिर तुमने झूठी चाबी बना ली। असली चाबी का तो अर्थ ही यह है कि अब मैं अनंत के प्रेम में गिर गया। अब इस जगत की रत्ती-रत्ती मेरा प्रेम-पात्र है। इंच-इंच मेरी प्रेयसी है या मेरा प्रेमी है। पत्ते पत्ते पर उसी का नाम है और आंख - आंख में उसी की झलक है। सभी कुछ उसका है। सभी तरफ उसे म
ैं पाता हूं। अब तुम जिस ढंग से जीओगे--अगर परमात्मा सब तरफ तुम पाते हो--उस ढंग का नाम भक्ति है। वह तुम्हारे जीवन की पूरी शैली बदल देगी। तुम उठोगे और ढंग से। तुम बैठोगे और ढंग से। क्योंकि वह सब जगह मौजूद है। तुम बोलोगे और ढंग से, क्योंकि तुम जिससे भी बोलोगे वही वह है। तुम कैसे गाली दे सकोगे? तुम कैसे निंदा कर सकोगे? तुम कैसे किसी का अपमान कर सकोगे? तुम कैसे अपने को दूसरे की सेवा से बचा सकोगे? क्योंकि सभी चरणों में वही छिपा है। और अगर यह बोध तुम में गहरा हो जाए, इसको नानक कहते हैं, नाम का रंग चढ़ जाना। तुम पर एक मस्ती छा जाएगी। तुम्हारे पास कुछ भी न होगा और सब कुछ मालूम पड़ेगा। तुम बिल्कुल अकेले होओगे और सारा जगत तुम्हारे साथ होगा। अस्तित्व और तुम्हारे बीच तालमेल आ गया। अस्तित्व और तुम्हारे बीच तारी लग गयी। अस्तित्व और तुम्हारे बीच संबंध जुड़ गया। नानक कहते हैं, ऐसा प्रेम ही पापों को काट सकता है। अन्यथा तुम कुछ भी करो --पूजा करो, पाठ करो, यज्ञ करो, मंदिर बनाओ, मस्जिद बनाओ - तुम कुछ भी करो, तुम्हारे भीतर मूल-सूत्र नहीं है। एक ट्रेन में मैं सफर कर रहा था। और एक औरत कोई नौ-दस बच्चों को लिए हुए सफर कर रही थी। वे बच्चे बड़ा उपद्रव मचा रहे थे। इधर से उधर दौड़ रहे थे, लोगों का सामान गिरा रहे थे। पूरे कमरे को उन्होंने अराजकता बना रखा था। आखिर एक आदमी से नहीं रहा गया। क्योंकि पहले उन बच्चों ने उसकी पेटी गिरा दी, फिर उसका अखबार फाड़ डाला। तो उसने उससे कहा कि बहन जी, इतने बच्चों को साथ ले कर सफर न किया करें तो अच्छा। आधों को घर छोड़ आया करें। उस स्त्री ने बड़े क्रोध से उस आदमी की तरफ देखा और कहा, क्या समझा है? क्या तुम मुझे बेवकूफ समझते हो? आधों को घर ही छोड़ आयी हूं। समझ का सूत्र न हो, तो
तुम कितने ही घर छोड़ आओ, क्या फर्क पड़ने का है? और जब बीस बच्चों को पैदा करते वक्त समझ काम नहीं आयी, तब छोड़ते वक्त कहां से आ जाएगी? हजार पाप हैं। पुण्य तो एक ही है। हजार पुण्य नहीं हैं, पुण्य तो एक ही है। हजार तरह की बीमारियां हैं, स्वास्थ्य तो एक ही है। स्वास्थ्य थोड़े ही हजार तरह का होता है। कि तुम अपने ढंग से स्वस्थ, मैं अपने ढंग से स्वस्थ। बीमार हम अलग-अलग हो सकते हैं, कि तुम टी.बी. के बीमार, कि कोई कैंसर का बीमार, कि कोई कुछ और का बीमार। बीमारियों में भेद हो सकता है, बीमारियों में मौलिकता हो सकती है, निजीपन हो सकता है। बीमारियों पर तुम्हारे हस्ताक्षर हो सकते हैं। क्योंकि बीमारियां अहंकारों का हिस्सा हैं। अहंकार अलग-अलग, उनकी बीमारियां अलग-अलग। लेकिन पुण्य तो एक है। स्वास्थ्य तो एक है। क्योंकि परमात्मा एक है। उस संबंध में तुम अलग-अलग नहीं हो सकते। वह क्या है स्वास्थ्य, जो एक है? वह है प्रेम का भाव। और धीरे-धीरे उसमें रमते जाना है। उठो ऐसे जैसे प्रेमी मौजूद है। अकेले कमरे में भी तुम ऐसे ही प्रवेश करो जैसे परमात्मा मौजूद है। एक सूफी फकीर हुआ जुन्नैद। वह अपने शिष्यों को कहता था, भीड़ में जाओ तो ऐसे जाना जैसे तुम अकेले हो। और जब अकेले में जाओ तो ऐसे जाना जैसे कि परमात्मा चारों तरफ मौजूद है। ठीक कहता है। क्योंकि भीड़ में अगर तुम अपना अकेलापन याद रख सको तो परमात्मा की याद रहेगी; नहीं तो भीड़ छा जाएगी। तुम भीड़ में भटक जाओगे। और एकांत में अगर तुम परमात्मा की याद न रख सको, तो अपने में भटक जाओगे। दो खतरे हैं। या तो दूसरे में भटक जाओ या अपने में भटक जाओ। या तो भीड़ में, या खुद में। और परमात्मा दोनों के पार है। और अगर तुम यह याद रख सको कि भीड़ में मैं अकेला हूं और अकेले में वह मौजूद है, तो तुम कभी भी न खोओगे। नानक कहते हैं कि नाम के प्रेम में जो रंग गया, वह भीतर से शुद्ध हो गया। उसने अंतरंग स्नान कर लिया। "कहने से न तो कोई पुण्यात्मा होता है न पापी।" तुम कितना ही सोचते रहो और तुम कितना ही विचार करते रहो और तुम कितना ही कहते रहो कि मैं कोशिश कर रहा हूं पुण्यात्मा होने की। कहने से कुछ भी नहीं होता। "जो-जो कर्म हम करते हैं वे लिख लिए जाते हैं। मनुष्य स्वयं ही बोता है और स्वयं ही खाता है । " सिर्फ कहने से कुछ न होगा, सोचने से कुछ न होगा। क्योंकि बड़े मजे की बात है कि पुण्य के संबंध में तुम सदा सोचते हो और पाप के संबंध में तुम क्षणभर नहीं सोचते; करते हो। अगर कोई तुमसे कहे कि जब क्रोध आए, तो आधा घड़ी रुक जाना, फिर करना । तो तुम कहोगे, यह कैसे हो सकता है? जब क्रोध आता है तो रुकने का सवाल ही नहीं रह जाता। रुकने वाले का पता ही नहीं रह जाता, रोकने की बुद्धि खो जाती है। जब क्रोध होता है तब हम होते ही कहां? क्रोध तो उसी वक्त करते हैं हम, कभी पोस्टपोन नहीं करते। लेकिन अगर कोई कहे कि ध्यान । तो तुम कहते हो, आज समय नहीं, कल। फिर अभी जल्दी भी क्या है? जीवन इतना पड़ा है। और ध्य
ान इत्यादि तो जीवन के अंत में करने की बातें हैं, जब मौत करीब आने लगती है। और मौत तुम्हें कभी भी नहीं लगती कि करीब आएगी, मरते हुए आदमी को भी नहीं लगती। एक नेता मर गए। तो मुल्ला नसरुद्दीन व्याख्यान करने गया, उनकी मृत्यु पर, शोक-समारंभ में। उसने बड़ी काम की बात कही। उसने कहा कि देखो, भगवान की कैसी कृपा है! कि हम जब भी मरते हैं, जीवन के अंत में मरते हैं। सोचो, अगर मौत कहीं जीवन के प्रारंभ में या मध्य में आ जाती, तो कैसी मुसीबत होती! सोचो कि मौत अगर जीवन के प्रारंभ में या मध्य में आ जाती, तो कैसा दुख आता! अंत में आती है। बड़ी उसकी कृपा है। और अंत को हम दूर टालते रहते हैं। अंत कभी आता हुआ मालूम नहीं पड़ता--जब तक आ ही न जाए। और जब आ जाता है तब दूसरों को पता चलता है, तुम्हें तो पता ही नहीं चलता। तुम तो गए ! तो अगर ठीक से समझो तो तुम कभी मरते ही नहीं। तुम अपनी धारणा में तो जिंदा ही रहते हो। मरने की घटना भी दूसरों को पता चलती है। तुम तो मरते क्षण में भी योजना बनाते रहते हो जीवन की। और कल पर टालते रहते हो। शुभ को हम टालते हैं। अशुभ को हम तत्क्षण करते हैं। जिस दिन इससे विपरीत हो जाओगे तुम, उसी दिन नाम का रंग लग जाएगा। जिस दिन तुम अशुभ को टालोगे और शुभ को प्रतिक्षण कर लोगे... । जब देने का भाव उठे तो देर मत करना, उसी वक्त दे डालना। क्योंकि तुम अपने पर ज्यादा भरोसा मत करना । क्षण भर बाद तुम्हारा मन हजार तरकीबें खड़ी कर देगा। मार्क ट्वेन ने लिखा है कि एक सभा में मैं गया। और जो पुरोहित बोल रहा था, बड़ा अदभुत बोल रहा था। पांच मिनिट सुन कर मुझे हुआ कि मेरे पास जो सौ डालर हैं, आज दान कर जाऊंगा। दस मिनट के बाद -- मार्क ट्वेन लिखता है कि -- मुझे भीतर विचार उठने लगा कि सौ डालर जरा ज्यादा हैं, पचास
से भी काम चल सकता है। अब सौ के ख्याल करने से सारा संबंध ही टूट गया। क्योंकि अब भीतर एक अंतरंग वार्तालाप चलने लगा, उसके भीतर। आधा घंटा बीतते-बीतते वह पांच डालर पर आ चुका था। और जब करीब-करीब व्याख्यान तीन चौथाई पूरा हो गया था, तब उसने सोचा कि किसी से कहा थोड़े ही है, किसी को पता थोड़े ही है कि मैं सौ देने की सोचा था! और कौन देता है सौ? एक डालर भी लोग नहीं देते हैं, लोग पैसे देते हैं। एक डालर से काम चल जाएगा। और जब थाली उसके पास आयी भेंट मांगने के लिए, तो उसने लिखा है कि वह एक डालर तो मेरे खीसे से न निकला, मैंने एक डालर उठा कर अपने खीसे में डाल लिया... कि कौन देखता है? किसको पता चलेगा? तुम अपने पर ज्यादा भरोसा मत करना ! क्योंकि शुभ कठिन है। कभी-कभी किन्हीं क्षणों में तुम उन चोटियों पर होते हो जब शुभ करने की भावना जगती है। तुमने अगर वह मौका खो दिया तो शायद दुबारा न जगे। शुभ के लिए सोचना ही मत। क्योंकि शुभ का अर्थ ही यह है कि जिसमें सोचने जैसा कुछ भी नहीं है, जैसा है। जब तुम देना चाहो, दे देना। जब बांटना चाहो, तब बांट देना। जब त्यागना चाहो, त्याग देना। जब संन्यस्त होना चाहो, हो जाना। क्षणभर मत खोना । क्योंकि कोई भी नहीं जानता वह क्षण दुबारा तुम्हारे जीवन में कब आएगा। आएगा, न आएगा। और जब बुरा तुम्हारे मन में उठे, तो स्थगित करना । चौबीस घंटे का नियम बना लेना कि किसी को नुकसान पहुंचाना हो, चौबीस घंटे बाद पहुंचाएंगे। जल्दी क्या है? अभी कोई मौत नहीं आयी जा रही है। और आ भी गयी तो कुछ हर्जा नहीं होगा। नुकसान नहीं पहुंचेगा, और क्या होगा? अगर तुम चौबीस घंटे भी रुक जाओ बुरा करने से, तो तुम बुरा न कर पाओगे। क्योंकि बुरा करने की मूर्च्छा भी क्षण में ही आती है। जिस तरह शुभ करने की जागृति क्षण में आती है, वैसे ही बुरा करने की मूर्च्छा भी क्षण में आती है। अगर तुम थोड़ी देर रुक गए, तो तुम खुद ही पाओगे कि क्या हत्या करनी? हत्यारे को अगर दो क्षण रोक लिया जाए, तो हत्या नहीं होगी। नदी में कोई डूब कर मरने जा रहा है, आत्महत्या करने जा रहा है, तुम जरा हाथ पकड़ कर उसको एक मिनिट रोक लो, बात गयी! क्योंकि कृत्य किन्हीं क्षणों में संभव होता है। और तुम्हारे भीतर मूर्च्छा के क्षण होते हैं, सघन मूर्च्छा के, और सघन जागृति के क्षण भी होते हैं। जब सघन जागृति का क्षण होता है, तब तुम प्रेम से भरे होते हो, सृजन से। और जब मूर्च्छा का क्षण होता है, तब तुम बेहोशी से भरे होते हो, विध्वंस से। तब तुम तोड़ डालना चाहोगे, फिर पीछे पछताओगे। पछताने से कोई सार नहीं। अगर पछताना ही हो तो पुण्य करके पछताना। पाप कर के क्या पछताना? लेकिन तुम हमेशा पाप करके पछताते हो। और पुण्य तो तुम करते ही नहीं, इसलिए पछताने का सवाल ही नहीं उठता। नानक कहते हैं कि सोचने से कुछ भी न होगा। कहने से कुछ भी न होगा। शब्दों से पाप और पुण्य का कोई लेना-देना नहीं है। पाप और पुण्य का लेना-देना कृत्यों से है। और परमात्मा के समक्ष तुम्हारा जो
हिसाब है, वह तुम्हारे शब्दों का नहीं, तुम्हारे कृत्यों का है। उसके सामने तुम्हारा जो निर्णय है, वह तुमने क्या किया है, तुम क्या हो, उस पर आधारित होगा। तुमने क्या कहा था, क्या पढ़ा था, क्या सोचा था, उससे कोई संबंध नहीं है । तुम्हारे विचार मूल्यवान नहीं हैं। अंतिम निर्णायक बात तुम्हारे कृत्य तो नानक कहते हैं, "मनुष्य स्वयं ही बोता है और स्वयं ही खाता है।" आपे बीजि आपे ही खा साधारणतः हमारा मन कहता है कि दुख हमें दूसरे दे रहे हैं। साधारणतः हमारा मन कहता है, सफलता तो मैं पाता हूं, असफलता दूसरों की अड़चन की वजह से आती है। शुभ तो मेरे जीवन में मेरी उपलब्धि है और अशुभ दूसरों के द्वारा मेरे जीवन पर आरोपण है। यह बात बिल्कुल ही गलत है। तुम्हारे जीवन में जो भी है, वह तुम्हारे ही कृत्यों कीशृंखला है। शुभ-अशुभ, अच्छा-बुरा, फूल लगें, कांटे लगें, सभी का संपूर्ण दायित्व तुम्हारे ऊपर है। जिस दिन कोई व्यक्ति इसका अनुभव करता है, टोटल रिस्पांसिबिलिटी, समग्र दायित्व मेरा है, उसी दिन से जीवन में क्रांति शुरू हो जाती है। जब तक तुम दूसरों पर टालते हो, तब तक क्रांति न होगी। क्योंकि अगर दूसरे दुख दे रहे हैं तो तुम क्या करोगे? जब तक सभी दूसरे न बदले जाएं तब तक दुख जारी रहेगा। और सभी दूसरे कब बदले जाएंगे? तो फिर दुख को झेलने के सिवा कोई उपाय नहीं है । इसलिए धर्म के अतिरिक्त दुख के रूपांतरण की कोई कीमिया नहीं है। जिस दिन तुम जानोगे, मैं अपने ही बोए हुए बीजों की फसल काटता हूं। और जो दुख मैं पा रहा हूं, वह मैंने ही दिया है, फैलाया है, वही अब लौट रहा है... । निश्चित ही, बीज बोने में और फल आने में वक्त लगता है। वक्त लगने के कारण तुम भूल ही जाते हो कि तुमने ये बीज बोए थे, और अब ये फल आने शुरू हो गए। जब फल आते
हैं तब तुम बीज बोए थे, यह ख्याल विस्मरण हो गया है। उस विस्मरण के कारण तुम सदा सोचते हो, दूसरे कुछ कर रहे हैं। ध्यान रखना, यहां कोई दूसरा तुममें चिंतित नहीं है। दूसरे अपने लिए चिंतित हैं। दूसरे अपने कारण परेशान हैं। तुम अपने कारण परेशान हो। और हर आदमी अपने ही कृत्यों की खोल में रहता है। इस बात को जितना तुम ठीक से पहचान लो, उतनी ही गहरी क्रांति संभव हो जाएगी। क्योंकि जैसे ही यह समझ में आता है कि मैं ही जिम्मेवार हूं, कुछ किया जा सकता है। दो कामः एक कि जो मैंने किया है पीछे, उसे मैं शांति से भोग लूं, उसके भोगने में और नयी अशांति खड़ी न करूं, तो अतीत की निर्जरा हो जाएगी। लेन-देन साफ हो जाएगा। बुद्ध के ऊपर एक आदमी थूक गया, तो बुद्ध ने थूक पोंछ लिया अपनी चादर से। वह आदमी बहुत नाराज था। बुद्ध के ऊपर थूका तो बुद्ध के शिष्य भी बहुत नाराज हो गए। लेकिन जब वह आदमी चला गया, तो आनंद ने पूछा कि यह बहुत सीमा के बाहर हो गयी बात। और सहिष्णुता का यह अर्थ नहीं है। और इस तरह तो लोगों को प्रोत्साहन मिलेगा। और हमारे हृदय में आग जल रही है। आपका अपमान हम बर्दाश्त नहीं कर सकते। बुद्ध ने कहा, तुम व्यर्थ ही उत्तेजित मत होओ। यह तुम्हारा उत्तेजित होना, तुम्हारे कर्म कीशृंखला बन जाएगी। मैंने इसे कभी दुख दिया था, वह निपटारा हो गया। मैंने कभी इसका अपमान किया था, वह लेना-देना चुक गया। इस आदमी के लिए ही मैं इस गांव में आया था। यह न थूकता तो मेरी मुसीबत थी। अब सुलझाव हो गया। इससे मेरा खाता बंद हो गया। अब मैं मुक्त हो गया। यह आदमी मुझे मुक्त कर गया है, मेरे ही किसी कृत्य से। इसलिए मैं धन्यवाद करता हूं उसका। और तुम नाहक उत्तेजित मत हो। क्योंकि तुम्हारा तो कुछ लेना-देना नहीं है इसमें। लेकिन अगर तुम उत्तेजित होते हो और तुम उस आदमी के खिलाफ कुछ करते हो, तो तुम एक नयीशृंखला बना रहे हो। मेरीशृंखला तो टूटी और तुम्हारी व्यर्थ बन गयी। तुम बीच में क्यों आते हो? जिन्हें मैंने दुख दिया है, उनसे मुझे उत्तर लेना ही पड़ेगा। और मेरी परिपूर्ण समाप्ति के पूर्व-- जिसको वे महापरिनिर्वाण कहते हैं--इसके पहले कि मैं अनंत में पूरी तरह लीन हो जाऊं; व्यक्तियों से, वस्तुओं से, संबंधों में, क्रोध में, अपमान में, घृणा में, मोह में, लोभ में, जो भी नाते-रिश्ते बने हैं, उन सबकी निर्जरा हो जानी जरूरी है। उसको ही हम परममुक्त पुरुष कहते हैं, जिसके सारे कर्मों की निर्जरा हो गयी। तो एक तो ध्यान रखना कि अतीत में जो किया है, उसे शांत भाव से, संतोष से, परम तृप्ति से, निपटारा समझ कर, प्रसन्नता से पूरा हो जाने देना। नयीशृंखला खड़ी मत करना । तो अतीत से संबंध धीरे-धीरे शांत हो जाता है। और दूसरी बात है कि नया कुछ मत करना दूसरे को दुख देने के लिए। अन्यथा फिर तुम बंधे हुए चले आओगे। हम अपने ही भीतर अपनी जंजीरों को ढालते हैं। तो पुरानी जंजीरों को तोड़ना है और नयी बनानी नहीं। ये दो बातें ख्याल रखना। महावीर के दो शब्द बड़े प्रिय हैं। एक शब्द
है आस्रव, और एक है निर्जरा। आस्रव का अर्थ है, नए को आने मत देना। और निर्जरा का अर्थ है, पुराने को गिर जाने देना। धीरे-धीरे एक ऐसी घड़ी आएगी कि पुराना कुछ
बहुत ही खुश हुये। पास में बिठाकर बड़े ही प्यार से बातें करते हुये मुझे खूब तरक्की करने को प्रोत्साहित करने लगे। बाद में मुझे मालूम हुआ कि प्रधान शिक्षक से मेरे बारे में वे बहुत सी बातें पूछ रहे थे । हाँ, तो मिडिल फर्स्ट डिविजन में मैंने पास किया। कुछ ही दिनों बाद मेरे हेड मास्टर साहब के यहाँ उनका पत्र थाया कि मुझे अंग्रेजी स्कूल में जरूर ही दाखिल कराया जाय । बस क्या था ? सफलता तो चेरी बनकर मेरे आगे-पीछे घूमने लग गयी। इण्टर तक पूरी फील माफ रही। ट्यूशन करके अपनी पढ़ाई का खर्च निकाल लेता रहा। हाँ, युनिवर्सिटी के जमाने में खर्च चलाने के लिये कुछ नया काम करना पड़ा। बस उपन्यास लिखने लग गया। पैसे मिलते गये। फिर युनिवसिटी में भो 'मेरिट' के कारण मेरी फीस बराबर माफ रही। पढ़ता चला गया । बढ़ता चला गया । हमेशा अव्वल आता रहा लेकिन इससे यह न समझना कि चौबीस घण्टे में किताबी कीड़ा बनकर पढ़ता ही रहता था। पढ़ता भी था, खेलता भी था, सामाजिक जीवन में होने वाले समारोहों, उत्सवों, खेल-तमाशों, आन्दोलनों - सभी में बराबर भाग लेता रहा । किताबों तक ही मेरी दुनियाँ सीमित नहीं रह गयी थी। फिर कोर्स की किताबें कम, बाहरी किताबें ज्यादा पड़ता था । अपने क्लास के लड़कों से कम, बल्कि अपने से ऊँचे क्लास के लड़कों से ज्यादा सम्पर्क रखता था। छात्र जीवन की हलचल, जागृति, जोश से भी दूर नहीं रहता था। कभी-कभी साथियों के सङ्गसाथ के कारण उच्छृङ्खल अवश्य हो जाता था किन्तु सदैव अनुशासनप्रिय होने का अभ्यास करने की चेष्टा में लगा रहता था । वैसे इस दौरान में कोई बहुत खास बात तो नहीं हुयी । बस यही कि बहुत पढ़ा, बहुत देखा, बहुत सुना, बहुत जाना । मेरा निर्माण इसी काल में हुआ और इस काल में सीखी हुथी तत्व की बातों पर फिर कभी विवेचना होगी लेकिन जिस घटना ने मेरे जीवन में महान उपस्थित कर दिया उसका सम्बन्ध है मेरी पैदायश व मेरे माँ बाप से " श्रव सेठजी बोलेइसी हिस्से को सुनने के लिये इतनी देर से बैठा हूँ क्योंकि अभी-अभी मुझे ख्याल आया कि मुझे ज़रूरी कामों से कुछ सरकारी अधिकारियों से आज मिलने जाना था। ठीक है, वह सब होता ही रहेगा लेकिन तुम्हारे जैसा श्रादमी कहाँ रोज़ किसी को मिलता है ।" "बाबूजी ! आपको थादेश देना चाहिये था। शुरू में ही मैं वही पहले सुना दिये होता । अच्छी बात है।" कहकर क्षण भर मौन रहकर मैं पुनः कहने लगा"कहानी के इस हिस्से में भी दो ही बात मेरे समझ से ज्यादा महत्वपूर्ण है। दो क्यों तीन । अपनी माँ के पेट में आने के पहले मेरे पिताजी के जीवन की झाँकी, गर्भावस्था काल में मेरी और मेरी माँ की जिन्दगी, और तीसरी बात यह कि इन बातों की मुझे कैसे जानकारी हुयी और उस जानकारी का मुझपर क्या असर हुआ ? मामा के घर मेरी परवरिश ही नहीं पैदायश भी हुयी क्योंकि मेरी माँ ने अपनी ससुराल छोड़ दी थी, या यह कहिये कि मेरे पिता के जन्मस्थान में उस गाँव वालों ने मेरी गर्भवती माँ को रहने ही नहीं दिया। माँ के सर पर कोई नहीं था । अबला के ल
िये और कौन सा दूसरा रास्ता ही बचा था । मेरी माँ महान है और सचमुच उसी की शालीनता, सुबुद्धि एवं साहस का परिणाम है कि मैं जिन्दगी में निडर होकर छाज भी बढ़ता चला जा रहा हूँ। मेरी माँ क्या है बस लक्ष्मी समझो । समाज के हाथों बुरी तरह सतायी हुयी है । उफू कमी-कमी जी में थाता है कि ऐसे समाज के सीने पर चढ़कर, उसका खून पी डालूँ किन्तु मेरे प्रति अध्ययन ने मुझे शेर से बकरी बना दिया है । मन में जब कोई विचार सिद्धान्त बनकर मन की बुनियाद में जमकर बैठ जाता है तो उसके प्रभाव को मिटाना मुश्किल हो जाता है। मैं नहीं मानता कि इन्सान अपने स्वभाव से जानवर होता है । मिट्टी में मूर्ति बनने की प्रतिभा छिपी हुयी है । शिल्पी जड़ में प्राण डालता अपने कलात्मक स्पर्शो से जड़ को चैतन्थ बनाता है। मिट्टी के लोंदे सुन्दर खिलौने में बदल देता है। इन्सान में तमाम सद्गुण किन्तु उसका दर्शन हमें नहीं हो पाता। सच है, सामाजिक परिस्थितियाँ मानव का निर्माण करती हैं। विद्वान के समाज में रहते-रहते श्रादमी कहाँ कहाँ नहीं पहुँच जाता । सामाजिक परिस्थितियाँ मानव मन में निहित प्रतिभा के अंकुर को सींच कर उसे पौधे की शकल देती हैं। और वही पौधा एक दिन बढ़कर कल्पवृक्ष हो मानव मंगल में करत हो जाता है। भला आदमी भी चोर डाकुओं की सोहबत में पड़कर बुरा बन जाता है। इसलिये मैंने तै कर लिया है कि मुझे उन सभी सामाजिक परिस्थितियों से लड़ना है जो मानवमात्र को आगे बढ़ने से रोकती हैं। और आजकल सारी बुराइयों की बुनियाद में दुबका हुआ मिलेगा आपको यर्थं वैषम्य हो । यही वर्तमान युग की भयकर बुराई है। इसी को दूर करना है। लेकिन कैसे ? बुराई को बुराई से या बुराई को भलाई से ? यही प्रश्न आाज अखिल विश्व के समक्ष है। खैर, छोड़िये इन बातों को । अब जरा आँसुओं स
े भींगी हुयी एक कहानी सुनिये। उसी का श्राशय मैं सुना रहा हूँ । इसे - मुझे मेरी माँ ने सुनाया था । और सीधे-सीधे तो उन्होंने सुनाया नहीं ? " "रूठना पड़ा होगा।" सुधीर ने कहा । "सुनो भी, उपद्रव मचा कर रख दिया न बचपन में मैं माटी का • माधो मात्र नहीं था। काफी शरीर था । कभी-कभी उलाहने सुनते-सुनते माँ रो पड़ती थी लेकिन पढ़ने-लिखने में -भान्जा था ही, सभी लोग मुझे बहुत करीब है साल का था। यही कक्षा एक या दो की बात है। मैं दजें का मानीटर भी था । बात-बात पर बच्चों का आपस में झगड़ जाना कोई नयी बात नहीं है । एक दिन की बात है कि छुट्टी हुयी, हम सभी घर लौट रहे थे कि एक बहुत ही छोटे बच्चे को अनायास ही कोई दूसरा हट्टा-कट्टा श्राट नौ साल का लड़का पीटने लग गया। मैंने उस छोटे बच्चे की मदद की। और भी लड़कों ने मेरी सहायता की। दोनों को अलग किया। लड़ाई बन्द हो गयी किन्तु बड़ा लड़का मुझे घंटमट बकता ही रहा । इसी वक्फ उस शरारती लड़के के पिता जी वहाँ ग्रा पहुँचे। वह रोकर उनसे मेरी मुठ की शिकायतें करने लगा । उसने अपने बाप से इतना तक कह डाला कि मैं उसे माँ-बाप की गालियाँ दे रहा था । बाप ने उससे कहा- जाने दो बेटा, इसके बाप नहीं हैं। फिर यह बाप की क्या कदर जानें, चलो, आपस में झगड़ा नहीं किया जाता । खैर भगढ़ा तो खतम ही हो चुका था लेकिन एक और ही भयङ्कर किस्म के झगड़े की बुनियाद मेरे मन में नहीं पड़ गयी । घर पहुँचते ही माँ से मैं रूठ गया । बोलाजब तक मेरे पिताजी के बारे में सारी बातें बता दोगी तब तक में खाना न खाऊँगा। माँ ने कहा- बेटा, मुझी को अपना सब कुछ समझ । तेरे पिताजी तेरे पैदा होने के पहले ही चल बसे थे। इतना तो मैं कई बार बता चुकी हूँ। मैंने पूछा- लेकिन भाँ तुमने गाँव क्यों छोड़ा ? यह पिताजी का जन्म स्थान था। उसे छोड़ना नहीं चाहिये था।" भेरी इतनी सी बात सुनकर मेरी माँ की आँखों में आँसू उमद आये । मैंने फिर कहा- माँ क्यों रोती हो । जाने दो, वहाँ में थोड़े ही तुमसे चलने को कहता हूँ। यहीं रहो लेकिन रोना बन्द करो। माँ ने कहाबेटा, रो रही हूँ अपने समय पर । मेरे भी घर-द्वार, खेती-बारी, सब कुछ था । तेरे पिता खेती के पूरे परिडत थे। गाँव में सबसे ज्यादा गला पैदा करते थे। वह आज होते तो क्या यहाँ भाई के दरवाजे बैठकर रोटी तोड़नी पड़ती। मैंने कहा- माँ, इसमें क्या है ? मामा अपने घर में तुम्हें सिर्फ एक कोठरी दिये हैं न ? चरखे कर सूच बनाती हो, हाथ से कपड़े सिजती हो, इसी से कपड़े सिजती हो, इसोसे हम दोनों के वास्ते काफी मजूरी मिल जाती है। कोई मामा का थोड़े ही खाते हैं । माँ ने कहा-बेटा सब कुछ सही है लेकिन तेरी मामी को नहीं विश्वास पड़ता । वह समझती है कि तेरे मामा ही चोरी-चोरी हमलोगों की परवरिश करते हैं। यों वह कुछ खुलकर नहीं कहती लेकिन उसके व्यवहार से इसका संकेत तो मिल ही जाता है। मैंने कहा- माँ क हो अपने गाँव ही लौट चलें। बस गाँव का नाम सुनते ही उसकी आँखों के आँसू सूखने लगे। माँ का घेहरा जाल हो आया किन्त
ु व मौन रही। मैंने पुनः पूछा- माँ क्यों नहीं गाँव लौट चलती ? माँ ने कहा- बेटा, वहाँ क्या रक्खा है ? फिर जो कुछ था उसे मैंने तेरे चाचा को तेरे जन्म की खुशी में भेंट कर दिया। "तब मैं अपने चाचा से मिलूँगा तो वह मुझे देखकर बहुत खुश होंगे। क्यों माँ ?" माँ चुप रही। मैंने रूठते हुये कहा- माँ क्या बात है कि तुम कमी रोने लगत हो, कभी हँसने लगती हो, कभी उदास हो जाती हो। और गाँव लौट चढ़ने को क्यों नहीं राजी होती ? क्या हमलोगों ने किसी का कुछ चुराया है ? अच्छा धबड़ाओ नहीं। जरा बड़ा होने दो, और बड़ा क्या, कभी भी मैं पूछते-पूछते वहाँ अपने से चला जाऊँगा तब नाराज न होना माँ । क्यों सुधीर ? सुन रहे हो न ?" "जी हाँ, बखूबी। आपने माँ को धमकी दी ?" " यह भी कह सकते हो पर माँ की ममता तो जानते ही हो । फिर में ही उसका सर्वस्व था । वह चौबीस घण्टा मेरे पीछे पागल गनी रहती थी। बारी-बगीचा, ताल तलैया, नारे-खोरे बस मेरे पीछे-पीछे छाया बनकर घूमती रहती थी। किसी भी पेड़ पर ज्योंही चढ़ने को मैं तैयार होता कि बगल में माँ खड़ी हुग्री मिल जाती। वैसा करने [ गाँधो चबूतरा को मना करती। जब मैं ज़िद करने लगता तो वह आँसुओं के प्रमोघ अस्त्र से मेरी बाल सुलभ चञ्चलता और शैतानी पर विजय प्राप्त कर बेती। पड़ोस में एक पोखरी थी मेरे घर से निकलते ही । बस वह जाकर उसी पोखरी के किनारे बैठ जाती क्योंकि पढ़ी-लिखी समझदार होते हुये भी अपनेपन के मोहवश उसने गाँवों में घूमने-फिरने वाले मँगता टाइप के किसी योगी से कभी यह सुन रक्खा था कि मुझे ग्रह है तथा दस वर्ष की उमर तक पानी से दूर ही रक्खा जाय। इसलिये मेरी माँ, दीवानी मीराँ बनकर मेरी बाट जोहती उस पोखरी के भीटे पर जा बैठती और मुझे वहाँ श्राते देखकर दूर से ही छाती पीटती दौड़ती मेरे पास या जा
ती और मुझे पकड़कर घर लौटा ले जाती । सोचो, ऐसी माँ मेरे जैसे सात साल के बालक को अकेले मला है गाँव से बाहर कैसे जाने देना गवारा कर सकती थी । मेरी बातें सुनकर वह जैसे डर गयी। सोचा होगा, कौन जाने में चला ही जाऊँ. तब बहुत ही बुरा होगा ? गाँव की सीमा के बाहर जो कभी नहीं गया वह कैसे बिना जाने अकेले ही इतनी लम्बी-चौड़ी यात्रा ते कर सकेगा। बस उसकी आँखों में शनैः शनैः आँसू... आवाज भी उसकी भारी हो गयी। उसने कहा- बेटा, मैं दुनियाँ में सबसे बड़ी दुखिया हूँ । तुम्हीं मेरे एक आधार हो । ऐसी बातें कहकर मुझे दुखित न. किया करो । बेटा, गरीब की कमजोरी ही अमीर की ताकत है। इस दुनियाँ में गरीब और कमजोर होने से बढ़कर और कोई भी दूसरी खराब बात नहीं है। मुझे कमजोरी, गरीबी और बहुत सी बातों से इतना लड़ना पड़ा है और आज भी लड़ना पड़ रहा है कि शायद मेरी जगह कोई और दूसरी नारी होती तो उस बेचारी की बुरी गत हो गयी होती । लेकिन तुम्हें इन बातों की फिकर नहीं करनी है। अभी मैं हूँ । खूब खाओ, खेलो और अच्छे लड़कों की तरह जी लगाकर पढ़ी-लिखो और एक दिन इस काबिल बन जाओ कि मैं इतना आँख भर देख सकूँ कि तुम दुनिया के सुयोग्य लोगों में से एक हो । तब मरूँ । बस मैं ऊँ ऊँ करके रोने का बहाने करने लगा। माँ ने कहा - अच्छा मैं नहीं मरूंगी लेकिन वादा करो कि मुझे छोड़कर अकेले कहीं नहीं जाओगे। मैंने कहा- नहीं जाऊँगा । माँ मुझे दुलराने लगी, चूमने लगी, बहुत बहुत तरह से प्यार करने लगी। वह मुझे अब भी गोदी का शिशु ही समझती थी। माँ को बहुत ही खुश देखकर मैंने उससे पूछा- क्या पिता जी ने मेरा मुँह देखा था ? उसने कहा - बेटा, तुम पेट में ही थे, उसी समय उन्हें समाज की बुराइयों से लड़ते-लड़ते शहीद हो जाना पड़ा था। मैंने कहा - माँ, यह शहीद क्या होता है ? माँ ने कहा -- दूसरों के लिये, अपने को मिटा देना, मर जाना, समझता था सब कुछ शहीद आदि लेकिन माँ से मुझे बहुत सारी बातें पूछनी थी । इसीलिये ऐसा सवाल कर बैठा ।" "वही तो मैं सोच रहा था कि मला आप... "हाँ, तो मैंने माँ से फिर कहा- इसीलिये उस दिन मामी पड़ोस की पण्डिताइन से कह रही थी - यह सोच कर कि मैं उन बातों को क्या समझ सकूँगा - कि "जन्मतै खाये, बाप महतारी" और सब मामा मामी की बारी है। माँ ने कहा - बेटा, इन छोटी-छोटी बातों पर ध्यान नहीं दिया जाता। एक दिन तुम देश के बहुत बड़े लोगों में से एक होगे। और जब बड़ा बनना है तो अभी से बड़ों जैसी आदत डालो । बड़े लोग छोटी बातों पर कहाँ ख्याल करते हैं। वैसे उनकी नजरों से कोई भी बात छूट नहीं सकती। छोटी बातों से मतलब यह है कि गन्दी बातें, तुच्छ बातें । मैंने कहा- अच्छा माँ पिता जी के सम्बन्ध में सारी बातें सुना जाओ । वह कैसे थे ? माँ वह होते तो कल बहुत ही खुश हो जाते । दर्ज में अव्वल आया हूँ । इसी से कल डिप्टी साहब ने मुझे तस्वीरों की कई किताबें इनाम में दी हैं। तुम तो उन्हें देख चुकी हो... बस इतना सुनना था कि माँ फुका फाड़कर रोने लग गयीं । घरे माँ रोने